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________________ आत्मा का दर्शन ७० खण्ड-२ तेयलेस्से भवतित्ति। संक्षिप्त-विपुल तेजोलेश्या प्राप्त होती है। वनस्पति का पोट्ट-परिहार ७७. अन्नदा सामी कुंमग्गामओ सिद्धत्थपुरं संपत्थितो। पणरवि तिलथंभस्स अदरसामंतेण जाव वतिवयति ताहे पुच्छइ-भगवं! जहा न निष्फण्णो। भगवता कहितं-जहा निप्फण्णो। तं एवं वणप्फईण पउट्टपरिहारो।' सो असहहतो गंतूणं तिलसेंगलियं हत्थे पप्फोडेत्ता ते तिले गणेमाणो भणति-एवं सव्वजीवावि पयोट्टपरिहारंति। महावीर ने कूर्मग्राम से सिद्धार्थपुर की ओर प्रस्थान किया। तिल के पौधे के ज्योंही पास से गुजरे कि गोशालक ने पूछा-भगवन्! तिल का पौधा निष्पन्न नहीं हुआ है। महावीर ने कहा-तिल का पौधा निष्पन्न हो गया है। इस प्रकार वनस्पति का पोट्ट-परिहार होता है। ___ महावीर के वचन पर श्रद्धा न करते हुए उसने तिल की फली को अपने हाथ में लिया और फोडा। उसके तिलों को गिनता हुआ बोला-इस प्रकार सभी जीवों का पोट्ट-परिहार होता है। नियतिवाद का उसने और अधिक अवलंबन ले लिया। महावीर ने संक्षिप्त विपुल-तेजोलेश्या के विषय में जो बताया, वह जान लिया। वह महावीर से अलग हो गया। णितितवादं धणितमवलंबित्ता तं करेति जं भगवता उवदिळं। जहा संखित्तविपुलतेयलेस्सो भवति। ताहे सो सामिस्स मूलाओ ओप्फिट्ठो। ७८.भगवंपि वेसालिं णगरि संपत्तो। तत्थ संखो णाम गणराया। सिद्धत्थरन्नो मितो सो तं पूजेति। महावीर वैशाली गए। वहां शंख नाम का गणराजा था। वह राजा सिद्धार्थ का मित्र था। उसने महावीर की स्तवना की। ७९.पच्छा वाणियग्गामं पधावितो। तत्थंतरा गंडइता णदी। तं सामी णावाए उत्तिन्नो। ते णाविया सामि भणंति-देहि मोल्लं। एवं वाहति। महावीर ने वाणिज्यग्राम की ओर प्रस्थान किया। वैशाली और वाणिज्यग्राम के मध्य गंडकी नदी बहती थी। महावीर ने उसे नौका से पार किया। नाविकों ने महावीर से कहा-हमारा मूल्य चुकाओ। महावीर मौन थे। नाविकों ने उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया। उसी समय राजा शंख का भानेज चित्र दूतकार्य से कहीं गया हुआ था। वह नौका द्वारा आया। उसने महावीर को छुड़ाया और उनकी महिमा की। ___महावीर वाणिज्यग्राम में पहुंचे और गांव के बाहर प्रतिमा में स्थित हो गए। तत्थ संखरन्नो भाइणेज्जो चित्तो णाम दुइक्काए गएल्लओ णावाकडएण एति। ताहे तेण मोइतो महितो य। ताहे वाणियग्गामं गतो। तस्स बाहिं पडिमं ठितो। ८०.पच्छा सामी सावत्थिं गतो तत्थ दसमं वासारत्तं महावीर श्रावस्ती गए। वहां दसवां वर्षावास किया। विचित्तं तवोकम्मं ठाणादीहिं। विविध तप किए। कायोत्सर्ग और आसन की साधना की। १. पोट्टपरिहार--पुनः-पुनः उसी शरीर में उत्पन्न होना। आवश्यक चूर्णि १, पृ. २९९
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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