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________________ आत्मा का दर्शन ६३४ खण्ड-४ नोजीवे, खंधे पएसे से पएसे नोखंधे। एवं वयंतं सई संपइ समभिरूढो भणति-जं भणसि धम्मे पएसे से पएसे धम्मे जाव खंधे पएसे से पएसे नोखंधे, तं न भवइ। कम्हा? एत्थ दो समासा भवंति, तं जहा-तप्पुरिसे य कम्मधारए य। तं न नज्जइ कयरेणं समासेणं भणसि? किं तप्पुरिसेणं! किं कम्मधारएणं? जइ तप्पुरिसेणं भणसि तो मा एवं भणाहि. अह कम्मधारएणं भणसि तो विसेसओ भणाहि-धम्मे य से पएसे य सेसे पएसे धम्मे, अधम्मे य से पएसे य सेसे पएसे अधम्मे, आगासे य से पएसे य सेसे पएसे आगासे, जीवे य से पएसे य सेसे पएसे नोजीवे, खंधे य से पएसे य सेसे पएसे नोखंधे। है। जो जीवात्मक प्रदेश है, वह प्रदेश नोजीव है। जो स्कन्धात्मक प्रदेश हे, वह प्रदेश नोस्कन्ध है। शब्द नय के ऐसा कहने पर समभिरूढ़ नय कहता है-तुम जो कहते हो-जो धर्मात्मक प्रदेश है, वह प्रदेश धर्म है यावत् जो स्कन्धात्मक प्रदेश है, वह प्रदेश नोस्कन्ध है, वह उचित नहीं है। किसलिए? यहां धर्म प्रदेश पद में दो समास हैं। जैसे-तत्पुरुष और कर्मधारय। अतः यह नहीं जाना जाता कि किस समास से कहते हो? क्या तत्पुरुष समास से कहते हो? क्या कर्मधारय समास से कहते हो? यदि तत्पुरुष समास से कहते हो तो यह मत कहो। यदि कर्मधारय समास से कहते हो तो विशेषण सहित कहो। प्रदेश जो धर्म (धर्मात्मक) है, वह धर्म प्रदेश है। प्रदेश जो अधर्म (अधर्मात्मक) है, वह अधर्म प्रदेश है। प्रदेश जो आकाश (आकाशात्मक) है, वह आकाश प्रदेश है। प्रदेश जो जीव (जीवात्मक) है, वह नोजीव प्रदेश है। प्रदेश जो स्कन्ध (स्कन्धात्मक) है, वह नोस्कन्ध प्रदेश है। समभिरूद 'नय के ऐसा कहने पर सम्प्रति एवंभूत नय कहता है-जिस धर्मास्तिकाय आदि के संबंध में तुम जो कहते हो, वह सब कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, निरवयव और एक शब्द के द्वारा अभिधेय है। क्योंकि मेरी दृष्टि में देश भी वास्तविक नहीं है और प्रदेश भी वास्तविक नहीं है। वह प्रदेश दृष्टांत है। वह नयप्रमाण है। एवं वयंतं समभिरूढं संपइ एवंभूओ भणति-जं जं भणसि तं तं सव्वं कसिणं पडिपुण्णं निरवसेसं एगग्गहणगहीयं। देसे वि मे अवत्थू, पएसे वि मे । अवत्थू, से तं पएसदिढ़तेणं। से तं नयप्पमाणेणं। २२.णिययवयणिज्जसच्चा सब नय अपने-अपने वक्तव्य में सत्य हैं। यदि एक सव्वनया परवियालणे मोहा।। नय दूसरे नय के वक्तव्य का खंडन करे तो वह अर्थहीन ते उण ण दिट्ठसमओ या असत्य हो जाता है। अनेकांत सिद्धांत की मर्यादा को विभयइ सच्चे व अलिए वा॥ जानने वाला यह नय सत्य है, यह नय असत्य है-ऐसा विभाग नहीं करता। २३.जावइया वयणवहा तावइया चेव होति णयवाया। जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया॥ वचन के जितने मार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं। जितने नयवाद हैं, उतने ही परसमय-अन्यदर्शन हैं। २४. तम्हा सव्वे वि णया मिच्छादिठी सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सिया उण हवंति सम्मत्तसब्भावा।। अपने-अपने पक्ष को निरपेक्ष सत्य मानने वाले सभी नय मिथ्यादृष्टि वाले हैं। यदि वे परस्पर सापेक्ष हों तो सम्यक्दृष्टि वाले हो जाते हैं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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