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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-५
२३०.न कामभोगा समयं उति,
नयावि भोगा विगई उति। जे तप्पओसी य परिग्गही य,
सो तेसु मोहा विगई उवेइ॥
सम्यग्दर्शन-अंग २३१. निस्संकिय निक्कंखिय,
निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवबूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अठ॥
___कामभोग न समभाव उत्पन्न करते हैं और न विकृति (विषमता)। जो उनके प्रति आसक्त होकर उनका परिग्रहण (भोग) करता है वह तद्विषयक मोह के कारण विकृति को प्राप्त होता है।
सम्यग्दर्शन-अंग
निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं।
२३२. सम्मदिट्ठी जीवा,
णिस्संका होति णिब्भया तेण। सत्तभय-विप्पमुक्का,
जम्हा तम्हा दु णिस्संका॥
सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक होते हैं और इसी कारण निर्भय भी होते हैं। वे सात प्रकार के भयो. (इहलोक; परलोक, अरक्षा, अगुप्ति, मृत्यु, वेदना और अकस्मात् भय) से रहित होते हैं, इसीलिए निःशंक होते हैं।
२३३. जो दु ण करेदि कंखं,
जो ज्ञानी समस्त कर्मफलों में और सम्पूर्ण वस्तु-धर्मों _कम्मफलेसु तह सव्व-धम्मेसु। (पर्यायों) में किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं रखता, सो णिक्कंखो चेदा,
उसी को निष्कांक्ष (निष्काम) सम्यग्दृष्टि समझना सम्मादिट्ठी मणेयव्वो॥ चाहिए।
२३४. नो सक्कियमिच्छई न पूर्य,
नो वि य वन्दणगं कुओ पसंसं? से संजए सुव्वएत वस्सी,
सहिए आय-गवेसए स भिक्ख॥
जो सत्कार, पूजा और वन्दना की इच्छा नहीं करता वह प्रशंसा की इच्छा कैसे करेगा? जो संयत, सुव्रत, तपस्वी, दूसरे भिक्षुओं के साथ रहने वाला और आत्मगवेषक है-वह भिक्षु है।
२३५. खाई-पूया-लाहं, सक्काराई किमिच्छसे जोई।
इच्छसि जइ परलोयं, तेहिं किं तुज्झ परलोए॥
हे योगी ! यदि तू परलोक चाहता है तो ख्याति, पूजा, लाभ और सत्कार आदि क्यों चाहता है? क्या इनसे तुझे परलोक का सुख मिलेगा?
२३६. जो ण करेदि जुगुप्पं,चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं। जो ज्ञानी समस्त धर्मों (वस्तु पर्यायों) के प्रति ग्लानि
सो खलु णिव्विदिगिच्छो,सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो॥ नहीं करता, वही निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि है।
२३७. जो हवइ असम्मूढो,चेदा सहिट्ठी सव्व-भावेसु।
सो खलु अमूढदिट्ठी, सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो॥
जो ज्ञानी समस्त भावों के प्रति जागरूक है, निर्धान्त सम्यग् दृष्टि-सम्पन्न है, वह अमूढदृष्टि सम्यग्दृष्टि है।
२३८. णो छादए णोऽवि य लूसएज्जा,
माणं ण सेवेज्ज पगासणं च। ण यावि पण्णे परिहास कुज्जा,
ण याऽऽसियावाद वियागरेज्जा॥
अमूढदृष्टि न सिद्धांत के अर्थ को छिपाए और न अपसिद्धांत के द्वारा शास्त्र की असम्यक् व्याख्या करे। न मान करे और न अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करे। न किसी प्राज्ञ का परिहास करे और न किसी को आशीर्वाद दे।