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________________ आत्मा का दर्शन ७२४ ५८५. मोक्खपहे अप्पाणं, ठवेहि तं चेव झाहि तं चेव। तत्थेव विहर णिच्चं, मा विहरसु अन्न-दव्वेसु॥ भो भव्य! तू मोक्षमार्ग में ही आत्मा को स्थापित कर। उसी का ध्यान कर। उसी का अनुभव कर तथा उसी में विहार कर। अन्य द्रव्यों में विहार मत कर। ५८६. इहपरलोगासंस-प्पओग, तह जीयमरणभोगेसु। वज्जिज्जा भाविज्ज य, असुहं संसार-परिणामं॥ संलेखना-रत साधक को मरण-काल में इस लोक और परलोक में सुखादि के प्राप्त करने की इच्छा का तथा जीने और मरने की इच्छा का त्याग करके अन्तिम सांस तक संसार के अशुभ परिणाम का चिंतन करना चाहिए। ५८७. परदव्वादो दुग्गइ, सहव्वादो हु सुग्गई होई। इय णाऊ सदव्वे, कुणह रइं विरई इयरम्मि॥ पर-द्रव्य अर्थात् धन-धान्य, परिवार व देहादि में अनुरक्त होने से दुर्गति होती है और स्व-द्रव्य अर्थात् अपनी आत्मा में लीन होने से सुगति होती है। ऐसा जानकर स्व-द्रव्य में रत रहो और पर-द्रव्य से विरत।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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