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आत्मा का दर्शन
खण्ड-४
४५.न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ
न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा। एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं
कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं॥
ज्ञाति, मित्र, पुत्र और बांधव व्यक्ति का दुःख नहीं बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है, क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है।
४६. तेणे जहा संधिमुहे गहीए
सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए
कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि॥
जैसे सेंध लगाते हुए पकड़ा गया पापी चोर अपने कर्म से ही छेदा जाता है, उसी प्रकार इसलोक और परलोक में प्राणी अपने कृत कर्मों से ही छेदा जाता है। कृत कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता।
४७.संसारमावन्न परस्स अट्ठा
साहारणं जं च करेइ कम्म। कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले
न बंधवा बंधवयं उति॥
- संसारी प्राणी अपने बन्धुजनों के लिए जो सामुदायिक कर्म (इसका फल मुझे भी मिले और उनको भी-ऐसा कर्म) करता है, उस कर्म के फल-भोग के समय वे बन्धुजन बन्धुता नहीं दिखाते, उनका भाग नहीं बंटाते।
मृगापुत्र ४८.तए णं से भगवं गोयमे.......जेणेव समणे भगवं
महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं......वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता.... एवं वयासी-अत्थि णं भंते! केइ पुरिसे जाइअंधे जायअंधारूवे? हंता अत्थि। कह णं भंते! से पुरिसे जाइअंधे जायअंधारूवे?
भगवान गौतम श्रमण भगवान महावीर के पास आए। वंदन-नमस्कार किया। अंजलि को सिर पर टिका कर बोले-भंते! क्या कोई पुरुष जन्म से अन्धा और अन्धरूप है?
हां, है। भंते! वह जन्म से अन्धा और अन्धरूप पुरुष कैसा
गौतम! इसी मृगाग्राम नगर में विजय क्षत्रिय का पुत्र और मृगादेवी का आत्मज मृगापुत्र नाम का बालक है। वह जन्म से अन्धा और अंधरूप है। उस बालक के हाथ, पांव, कान, आंख और नाक नहीं हैं। उसके अंगोपांगों की रचना आकति मात्र है।
एवं खलु गोयमा! इहेव मियग्गामे नयरे विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते नाम दारए जाइअंधे जायअंधारूवे। नत्थि णं तस्स दार- गस्स हत्था वा पाया वा कण्णा वा अच्छी वा नासा वा। केवलं से तेसिं अंगोवंगाणं आगिती आगितिमेत्ते। तए णं सा मियादेवी तं मियापुत्तं दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी-पडिजागरमाणी विहरइ।। तए णं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते! अहं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मियापुत्तं दारगं पासित्तए।
मृगादेवी उस मृगापुत्र बालक को प्रच्छन्न भूमिगृह में रखती है। प्रच्छन्न रूप से ही भोजन, पानी आदि के द्वारा उसका पोषण करती है।
भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वंदननमस्कार किया और बोले-भंते! आपकी अनुमति हो तो मैं बालक मृगापुत्र को देखना चाहता हूं।