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________________ आत्मा का दर्शन ६४० खण्ड-४ अवस्थाओं का धारक भी हूं। सोमिला! दव्वट्ठयाए एगे अहं। नाणदंसणठ्ठयाए सोमिल! द्रव्य की अपेक्षा मैं एक हूं। ज्ञान, दर्शन की दुविहे अहं। पएसट्ठयाए अक्खए वि अहं, अव्वए अपेक्षा दो हूं। प्रदेश की अपेक्षा मैं अक्षय भी हूं, अव्यय वि अहं, अवट्ठिए वि अहं। उवयोगट्ट्याए भी हूं, अवस्थित भी हूं। उपयोग की अपेक्षा मैं भूत, अणेगभूय-भाव-भविए वि अहं। से तेणठेणं जाव वर्तमान एवं भविष्य संबंधी अनेक अवस्थाओं का धारक अणेगभूय-भाव-भविए वि अहं। भी हूं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-मैं एक भी हूं यावत् भूत, वर्तमान और भविष्य संबंधी अनेक अवस्थाओं का धारक भी हूं। अस्ति-नास्ति ५. से नूणं भंते! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ? नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ? हंता गोयमा! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ। जं णं भंते! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तं किं पयोगसा? वीससा? भंते! क्या अस्तित्व (उत्पाद-पर्याय) अस्तित्व में परिणत होता है? क्या नास्तित्व (व्ययपर्याय) नास्तित्व में परिणत होता है? हां गौतम! अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है। नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है। ___ भंते! जो अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, वह किसी प्रयोग से होता है अथवा विस्रसा-स्वभाव से? गौतम! वह प्रयोग से भी होता है और स्वभाव से भी होता है। गोयमा! पयोगसा वि तं, वीससा वि तं। ६. जहा ते भंते! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, तहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ? जहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तहा ते अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ? हंता गोयमा! जहा मे अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, तहा मे नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ। जहा मे नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तहा मे अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ। भंते! जैसे आपका अस्तित्व अस्तित्व रूप में परिणत होता है, वैसे ही नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है? जैसे आपका नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, वैसे ही अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है? हां, गौतम! मेरा अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है, वैसे ही मेरा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है। जैसे मेरा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, वैसे ही अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है। कालोदाई आदि का संदेह ७. तए णं ते अण्णउत्थिया भगवं गोयमं अदूरसामतेणं वीईवयमाणं पासंति, पासित्ता अण्णमण्णं सहावेंति, सहावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमा कहा अविप्पकडा, अयं च णं गोयमे अदूरसामंतेणं वीईवयइ। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं गोयमं एयमझें पुच्छित्तए त्ति कटु कुछ अन्यतीर्थिक राजगृह नगर में वार्तालाप कर रहे थे। उन्होंने अपने पास से जाते हुए भगवान गौतम को देखा। वे परस्पर एक दूसरे को कहने लगे-देबानुप्रिय! पंचास्तिकाय के सबंध में हमारी अवधारणा अस्पष्ट है। गौतम हमारे पास से होकर जा रहे हैं। हमारे लिए यह उचित होगा कि हम इस संबंध में गौतम को पछे। परस्पर
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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