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आत्मा का दर्शन ७४८
खण्ड-५ ७२३. लोयाणं ववहार,धम्म-विवक्खाइ जो पसाहेदि। जो वस्तु के किसी एक धर्म की विवक्षा या अपेक्षा से सुयणाणस्स वियप्पो,सो वि णओ लिंगसंभूदो॥ लोक-व्यवहार को साधता है, वह नय है। नय श्रुतज्ञान
का भेद है और लिंग से उत्पन्न होता है।
७२४. णाणा धम्मजुदं पि य, एयं धम्म पि वुच्चदे अत्थं।
तस्सेय-विवक्खादो णत्थि विवक्खा हु सेसाणं॥
अनेक धर्मों से युक्त वस्तु के किसी एक धर्म को ग्रहण करना नय का लक्षण है। क्योंकि उस समय उसी धर्म की विवक्षा है, शेष धर्मों की विवक्षा नहीं है।
७२५. ते सावेक्खा सुणया,
वे नय (विरोधी होने पर भी) सापेक्ष हों तो सुनय णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होति। कहलाते हैं और निरपेक्ष हों तो दुर्नय। सुनय से ही सयल-ववहार-सिद्धी,सुणयादो होदि णियमेण॥ नियमपूर्वक समस्त व्यवहारों की सिद्धि होती है।
७२६. जावंतो वयणपहा,तावंतो वा नया 'वि' सहाओ।
ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदिया सव्वे॥
(वास्तव में देखा जाय तो लोक में-) जितने वचन के पंथ हैं, उतने ही नय हैं, क्योंकि सभी वचन वक्ता के किसी न किसी अभिप्राय या अर्थ को सूचित करते हैं और ऐसे वचनों में वस्तु के किसी एक धर्म की ही मुख्यता होती है। अतः जितने नय सावधारण (हठग्राही) हैं, वे सब पर-समय हैं, मिथ्या हैं; और अवधारणरहित (सापेक्षसत्यग्राही) तथा स्यात् शब्द से युक्त समुदित सभी नय सम्यक् होते हैं।
७२७. परसमएग-नयमयं,
तप्पडिवक्ख-नयओ निवत्तेज्जा। समए व परिग्गहियं, परेण जं दोसबुद्धीए॥
नय-विधि के ज्ञाता को पर-समयरूप (एकांत या आग्रहपूर्ण) अनित्यत्व आदि के प्रतिपादक ऋजुसूत्र आदि नयों के अनुसार लोक में प्रचलित मतों का निवर्तन या परिहार नित्यादि का कथन करनेवाले द्रव्यार्थिक नय से करना चाहिए। तथा स्वसमयरूप जिन-सिद्धांत में भी अज्ञान या द्वेष आदि दोषों से युक्त किसी व्यक्ति ने दोषबुद्धि से कोई निरपेक्ष पक्ष अपना लिया हो तो उसका भी निवर्तन (निवारण) करना चाहिए।'
७२८.णियय-वयणिज्ज-सच्चा,
सव्वनया पर-वियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठ-समओं,
विभयइ सच्चे व अलिए वा॥
सभी नय अपने अपने वक्तव्य में सच्चे हैं, किन्तु दूसरे नयों के वक्तव्य का निराकरण करते हैं तो मिथ्या हैं। अनेकांत दृष्टि-शास्त्र का ज्ञाता उन नयों का ऐसा विभाजन नहीं करता कि 'ये सच्चे हैं और वे झूठे हैं।
७२९. न समेन्ति न य समेया,
सम्मत्तं नेव वत्थुणो गमगा। वत्थु-विघायाय नया,
विरोहओ वेरिणो चेव॥
निरपेक्ष नय न तो सामुदायिकता को प्राप्त होते हैं और न वे समुदायरूप कर देने पर सम्यक् होते हैं। क्योंकि प्रत्येक नय मिथ्या होने से उनका समुदाय तो महामिथ्यारूप होगा। समुदायरूप होने से भी वे वस्तु के