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________________ समणसुत्तं ७४७ अ.४: स्याद्वाद ७१६. सत्तेव हुंति भंगा पमाण-णय-दुणय-भेदजुत्ता वि। • सिय सावेक्खं पमाणं, णएण णय दुणय णिरवेक्खा । (अनेकांतात्मक वस्तु की सापेक्षता के प्रतिपादन में प्रत्येक वाक्य के साथ 'स्यात्' लगाकर कथन करना स्याद्वाद का लक्षण है।) इस न्याय में प्रमाण, नय और दुर्नय के भेद से युक्त सात भंग होते हैं। 'स्यात्'-सापेक्ष भंगों को प्रमाण कहते हैं। नय-युक्त भंगों को नय कहते हैं और निरपेक्ष भंगों को दुर्नय। ७१७. अत्थि त्ति णत्थि दो वि य, अव्वत्तव्वं सिएण संजुत्तं। अव्वत्तव्वा ते तह, पमाणभंगी सुणायव्वा॥ स्यात् अस्ति, स्यात्नास्ति, स्यात् अस्ति-नास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति-अवक्तव्य, स्यात् नास्ति-अवक्तव्य, स्यात् अस्ति नास्ति-अवक्तव्य-इन्हें प्रमाण सप्तभंगी जानना चाहिए। ७१८. अस्थिसहावं दव्वं, सहव्वादीसु गाहिय-णएण। तं पि य णत्थिसहावं, परदव्वादीहि गहिएण॥ स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की अपेक्षा द्रव्य अस्तिस्वरूप है। वही पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षा नास्तिस्वरूप है। ७१९. उहयं उहय-णएण, अव्वत्तव्वं च तेण समुदाए। ते पिय अव्वत्तव्वा, णिय:णिय-णय-अत्थसंजोए॥ स्व-द्रव्यादि चतुष्टय और पर-द्रव्यादि चतुष्टय दोनों की अपेक्षा लगाने पर एक ही वस्तु स्यात्-अस्ति और स्यात्नास्ति स्वरूप होती है। दोनों धर्मों को एक साथ कहने की अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य है। इसी प्रकार अपने-अपने नय के साथ अर्थ की योजना करने पर अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य और अस्ति-नास्ति अवक्तव्य है। ७२०. अत्थि त्ति णत्थि उहयं, . अव्वत्तव्वं तहेव पुण तिदयं। .. तह सिय णय-णिरवेक्खं, जाणसु दव्वे दुणयभंगी॥ स्यात् पद तथा नय-निरपेक्ष होने पर यही सातों भंग दुर्नय-भंगी कहलाते हैं। जैसे वस्तु अस्ति ही है, नास्ति ही है, उभयरूप ही है, अवक्तव्य ही है, अस्ति-अवक्तव्य ही है, नास्ति-अवक्तव्य ही है या अस्ति-नास्ति अवक्तव्य ही है। ७२१. एकणिरुद्धे इयरो, वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करने पर उसके प्रतिपक्षी पडिवक्खो अवरे य सब्भावो। दूसरे धर्म का भी ग्रहण अपने-आप हो जाता है, क्योंकि सव्वेसिं स सहावे, कायव्वा होइ तह भंगा॥ दोनों ही धर्म वस्तु के स्वभाव है। अतः सभी वस्तु-धर्मो के सप्तभंगी की योजना करना चाहिए। समन्वय सूत्र समन्वय सूत्र ७२२. सव्वं पि अणेयंतं, परोक्ख-रूवेण जं पयासेदि। तं सुयणाणं भण्णदि, संसय-पहदीहि परिचत्तं॥ जो परोक्षरूप से समस्त वस्तुओं को अनेकांतरूप दर्शाता है और संशय आदि से रहित है, वह ज्ञान श्रुतज्ञान है। १. किसी एक ही पहलू या दृष्टिकोण पर जोर देना या आग्रह रखना तथा दूसरे की सर्वथा उपेक्षा करना दुर्नय है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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