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________________ समणसुत्तं. ६६९ अ. १ : ज्योतिर्मुख १५१. जीव-वो अप्प-वहो, जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी जीव-दया अप्पणो दया होइ। ही दया है। अतः आत्महितैषी पुरुषों ने सभी तरह की ता सव्वजीव-हिंसा, जीव-हिंसा का परित्याग किया है। परिचत्ता अत्त-कामेहिं॥ १५२. तुमं सि नाम सच्चेव, जं हंतव्वंति मनसि। तुमं सि नाम सच्चेव, जं अज्जावेयव्वंति मन्नसि॥ जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है। ती १५३. रागादीणं अणुप्पाअ, अहिंसकत्तं त्ति देसियं समए। तीर्थंकरों ने कहा है-राग आदि की उत्पत्ति का न तेसिं चे उप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहि णिहिट्ठा॥ होना अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना हिंसा है। १५४. अज्झवसिएणबंधो, सत्ते मारेज्जमा व मारेज्ज। एसो बंध-समासो, जीवाणं णिच्छय-णयस्स॥ हिंसा करने के अध्यवसाय से ही कर्म का बंध होता है, फिर कोई जीव मरे या न मरे। निश्चयनय के अनुसार जीवों के कर्म-बंध का यही स्वरूप है। १५५. हिंसादो अविरमणं,वह-परिणामो य होइ हिंसा हु। ... तम्हा पमत्तजोगो, पाण-वबरोवओ णिच्चं॥ हिंसा से विरत न होना और हिंसा का परिणाम (अध्यवसाय) होना हिंसा ही है। इसलिए जिसकी प्रवृत्ति प्रमादपूर्ण है वह सदा हिंसक है। १५६. णाणी कम्मस्स खयत्थ ज्ञानी कर्म-क्षय के लिए तत्पर रहता है, हिंसा के मुदिठदो णोदिठदो य हिंसाए। लिए नहीं। वह निश्छलभाव से अहिंसा के लिए प्रयत्न अददि असढं अहिंसत्यं, करता है। इसलिए जो अप्रमत्त होता है, वही अहिंसक - अप्पमत्तो अवधगो सो॥ है। १५७. अत्ता चेव अहिंसा, अत्ता हिंसत्ति णिच्छओ समए। .. जो टेदि अप्पमत्तो, अहिंसगो हिंसगो इदरो॥ आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है-यह निश्चय-नय की दृष्टि से आगम में प्रतिपादित है। जो अप्रमत्त है, वह अहिंसक है और जो प्रमत्त है, वह हिंसक है। १५८. तुंगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि। जैसे मेरु पर्वत से कोई ऊंचा और आकाश से कोई ___जह तह जयंमि जाणसु,धम्ममहिंसासमं नत्थि॥ विशाल नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है। १५९. अभओ पत्थिवा! तुम्भं, अभयदाया भवाहि य। * अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं हिंसाए पसज्जसि॥ (मुनि ने कहा-) पार्थिव! तुझे अभय है और तू भी अभयदाता बन। इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों हिंसा में आसक्त हो रहा है?
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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