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________________ आत्मा का दर्शन १४२. जे ममाइय मतिं जहाति से जहाति ममाइयं । से हु विट्ठ- पहे मुणी, जस्स नत्थि ममाइयं ॥ १४३. मिच्छत्त- वेद-रागा, तहेव हासादिया य छद्दोसा । चत्तारि तह कसाया, चउदस अब्भंतरा गंथा ॥ १४४. बाहिर संगा खेतं, वत्थु धण-धन्न - कुप्प भंडाणि । चेव सयणासणे य तहा ॥ दुपय- चउप्पय-जाणाणि, १४५. सव्य-गंध-विमुक्को, जं पावइ मुत्ति-सुहं, ६६८ सीईओ पसंत चित्तो अ न चक्कवट्टी वि तं लहइ ॥ १४६. गंथ - च्चाओ इंदिय- णिवारणे, रस्स खाइया वि, अंकुसो व हत्यिस्स । इंदि-गुत्ती असंगतं ॥ अहिंसा सूत्र १४७. एयं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ कंचणं । अहिंसा-समयं चेव, एयावंतं वियाणिया ॥ १४८. सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउं । तम्हा पाण-वहं घोरं निम्गंथा वज्जयंति णं ॥ १४९. जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणं वा ण हणे णो वि घायए ॥ १५०. जह ते न पिअं दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्व-जीवाणं । सव्वायरमुवउत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ॥ खण्ड ५ जो ममत्व की बुद्धि का त्याग करता है, वही ममत्व को त्याग सकता है। उसी मुनि (ज्ञानी) ने पथ को देखा है, जिसके ममत्व नहीं है। परियह दो प्रकार का है-आभ्यन्तर और बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार का है - ९. मिथ्यात्व, २. स्त्रीवेद, ३. पुरुषवेद, ४. नपुंसकवेद, ५. हास्य, ६. रति, ७. अरति, ८. शोक, ९. भय, १०. जुगुप्सा, ११. क्रोध, १२. मान, १३. माया, १४. लोभ । बाह्य परिग्रह दस प्रकार का है- १. खेत, २. मकान, ३. धन-धान्य, ४. वस्त्र, ५. भांड, (घरेलू उपकरण), ६. नौकर-नौकरानी, ७. पशु, ८. यान, ९. शयन, १०. आसन । जो सब ग्रन्थियों (परिग्रह, इच्छा, मूर्च्छा आदि) से मुक्त है, जिसके कषाय शान्त हैं, चित्त शांति से भरपूर है, वह पुरुष वैसा मुक्ति सुख प्राप्त करता है जैसा सुख चक्रवर्ती भी प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे हाथी को वश में करने के लिए अंकुश होता है और नगर की रक्षा के लिए खाई होती है, वैसे ही इन्द्रियविजय के लिए परिग्रह का त्याग आवश्यक होता है। परिग्रह त्याग से इन्द्रिय गुप्ति और असंगता प्राप्त होती है। अहिंसा सूत्र ज्ञानी के ज्ञान का सार अहिंसा है समता (आत्मतुला या आत्मौपम्य बुद्धि) ही अहिंसा है। यह जानकर किसी की भी हिंसा न करे। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं अतः प्राणवध को भयानक जानकर निर्बंध उसका वर्जन करते हैं। लोक में जितने त्रस और स्थावर प्राणी हैं, निर्बंध जान या अजान में उनका हनन न करे और न कराए। जैसे तुम्हे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है ऐसा जानकर, पूर्ण आदर और सावधानीपूर्वक आत्मौपम्य की दृष्टि से सब पर दया करो।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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