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उद्भव और विकास
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अ. ४ : जीवन प्रसंग तए णं से उसभदत्ते माहणे इमीसे कहाए लढे ऋषभदत्त ने महावीर के आगमन की बात सुनी। उसने . समाणे.....देवाणंदं माहणिं एवं वयासी-एवं खलु देवानंदा से कहा-देवानुप्रिय! सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्रमण
देवाणुप्पिए! समणे भगवं महावीरे.......सव्वण्णू भगवान महावीर पधारे हैं। बहुशालक चैत्य में ठहरे हैं। सव्वदरिसी सुहंसुहेणं विहरमाणे बहुसालए चेहए....विहरइ। तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए! समणं भगवं महावीर देवानुप्रिय! हम उन्हें वंदन-नमस्कार करने तथा वंदामो नमसामो........पज्जुवासामो।
उनकी पर्युपासना करने चलें। तए णं सा देवाणंदा माहणी उसभदत्तेणं माहणेणं देवानंदा ब्राह्मणी ऋषभदत्त का यह कथन सुनकर एवं वुत्ता समाणी हट्ठतुट्ठ......उसभदत्तस्स हृष्ट-तुष्ट हुई। उसने ऋषभदत्त ब्राह्मण के कथन को माहणस्स एयमढं विणएणं पडिसुणइ।
विनय पूर्वक स्वीकार किया। तए णं से उसभदत्ते माहणे देवाणंदाए माहणीए ऋषभदत्त ब्राह्मण देवानंदा ब्राह्मणी के साथ श्रेष्ठ यान सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे समाणे.....जेणेव पर आरूढ़ होकर बहुशालक चैत्य में आया। श्रमण बहुसालए चेइए.....जेणेव समणे भगवं महावीरे भगवान महावीर के पास पहुंचा। दायीं ओर से दायीं ओर तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो तक तीन बार प्रदक्षिणा की। वंदन-नमस्कार किया और आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ-नमंसइ, पर्युपासना करने लगा। बंदित्ता-नमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए
पज्जुवासइ।
. तए गं' सा- देवाणंदा माहणी आगयपण्या
पप्पुयलोयणा संवरियवलयबाहा कंचुय- परिक्खित्तिया धाराहयकलंबगं पिव समूसविय- रोमकूवा समणं भगवं महावीरं अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठ।
भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-किं णं भंते! एसा देवाणंदा माहणी आगयपण्या पप्पुयलोयणा संवरियवलयबाहा कंचुयपरिक्खित्तिया धारा- हयकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा देवाणुप्पियं अणिमिसाए दिठिए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठइ?
श्रमण भगवान महावीर को देखते ही देवानंदा ब्राह्मणी के स्तनों से दूध की धारा फूट पड़ी। आंखों से आनन्द की अश्रुधारा बहने लगी। वह हर्ष के कारण इतनी स्थूल हो गई कि भुजबंध छोटे पड़ गए। कंचुकी के बंधन टूट गए। मेघ की धारा से आहत कदंब पुष्प की तरह उसके रोम-कूप विकस्वर हो गए। वह अनिमेष दृष्टि से भगवान महावीर को देखने लगी।
देवानंदा की यह स्थिति देखकर गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया और बोले-भंते! इस देवानंदा ब्राह्मणी के स्तनों से दूध की धारा क्यों फूट रही है? आंखों से अश्रुधारा क्यों बह रही है? किस हर्ष के कारण यह इतनी स्थूलकाय बन गयी है, जिससे इसके भुजवलय छोटे पड़ रहे हैं ? इसके कंचुकी के बंधन क्यों टूट गए हैं? मेघ धारा से आहत कदंब पुष्प की तरह इसके रोमकूप विकस्वर क्यों हो रहे हैं? यह अनिमेष दृष्टि से प्रभु को क्यों निहार रही है ?
श्रमण भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित करते हुए कहा-गौतम! यह देवानंदा ब्राह्मणी मेरी माता है। मैं देवानंदा ब्राह्मणी का आत्मज हूं। उस पूर्व पुत्र स्नेह के कारण इसकी यह स्थिति बनी है।
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गोयमादि! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! देवाणंदा माहणी ममं अम्मगा, अहण्णं देवाणंदाए माहणीए अत्तए। तण्णं एसा देवाणंदा माहणी तेणं पुव्वपुत्तसिणेहरागेणं