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________________ आत्मा का दर्शन ३२८ खण्ड - ३ भवदेव से रहा नहीं गया। उन्होंने कहा- क्या यह है तुम्हारी सामायिक ? क्या सामायिक में यह सब करना है? जिसको कौवे, कुत्ते खाते हैं तुम उसकी प्रशंसा करती हो ?' अवसर देख नागला ने कहा- 'मुनिवर ! आप क्या करने के लिए आये ? क्या कै खाने के लिए नहीं? जिनको त्याग दिया, फिर उस ओर मुंह करना क्या है?" मुनि सचेत हो गए। नागला ने कहा- 'मैं ही नागला हूं। यह आपको सुस्थिर करने के लिए मैंने किया ।' मुनि पुनः संयम पथ पर आरूढ़ हो गए। ३. न पहले श्रद्धालु और न पीछे एकनाथ तीर्थयात्रा के लिए चले अनेक लोग साथ में सम्मिलित हो गए। एक चोर ने भी अपनी इच्छा प्रकट की। एकनाथ ने स्वीकृति दे दी। लोगों ने कहा- यह चोर है। एकनाथ ने समझाया। चोर ने कहा- अब चोरी नहीं करूंगा। सब रवाना हो गए। चोरी की आदत थी। एक-दो दिन तो वह चुप रहा। फिर वह एक-दूसरे की वस्तुओं को इधर-उधर करने लगा। लोगों ने देखा, यह क्या मामला है। चीजों की चोरी नहीं होती किंतु किसी की कहीं मिलती है और किसी की कहीं । एकनाथ से शिकायत की। एक दिन सब सो गए। एकनाथ सोये सोये देख रहे थे। समय हुआ। चोर उठा और अपना शुरू कर दिया। चोरी का नियम था। एकनाथ ने पूछा- कौन है?' उसने कहा- 'मैं'' अरे क्या करता है?' उसने कहा- 'चोरी नहीं करता, चीजें इधर-उधर करने का नियम नहीं है।' जो भीतर से नहीं बदलता उसका बाहर बदलना भी मुश्किल है। ठाकर मंगलदास तीर्थयात्रा पर गए। साथ में बहुत से व्यक्ति थे। एक कवि भी था। आदतवश वहां भी शराब आदि चलने लगा। कवि से रहा नहीं गया। उसने एक दोहा बोल दिया 'मंगलियो तीरथ गयो, करी कपट मन चोर। नौ मन पाप आगे हुतो, सौ मन लायो और॥' ४. पहले भी श्रद्धालु और पीछे भी मुनि गजसुकुमाल श्रीकृष्ण के छोटे भाई थे। भगवान् अरिष्टनेमि द्वारका नगरी में आये भाई के साथ गजसुकुमाल भी गए। प्रवचन सुना और विरक्त हो गए। माता और भाई श्रीकृष्ण ने बहुत समझाया 'तुम सुकुमार हो, यह कांटों का पथ है।' सबको संतुष्ट कर वे भगवान के चरणों में समर्पित होकर बोले-'भंते! आत्मदर्शन का पथ प्रदर्शित करें ।' भगवान् ने कहा- मन और इन्द्रियों को भीतर मोड़कर स्वयं को देखो ध्यान ही इसका सहज-सरल मार्ग है। भगवान् का आदेश लेकर वे श्मशान में रात को ध्यान के लिए अकेले आ पहुंचे और ध्यानस्थ हो गए। सोमिल नामक ब्राह्मण को पता चला कि गजसुकुमाल मुनि हो गए। मेरी लड़की से अब विवाह संबंध नहीं होगा । वह दुःखी हुआ, उद्विग्न हो गया। वह श्मशान में आया, ध्यानस्थ मुनि को देखा और क्रोध में पागल हो गया। उसने गीली मिट्टी से सिर पर पाल बांध कर श्मशान के अंगारे मुनि के सिर पर रख दिये। सिर जलने लगा। मुनि शांत रहे और स्वयं को देखते रहे। न किसी पर राग और न किसी पर द्वेष शांत, मौन, समतायुक्त वे मुनि उसी रात्रि में निर्वाण को उपलब्ध हो गए। पहले और पीछे एक समान भावधारा में विहरण करते हुए वे सदा-सदा के लिए संसार से मुक्त हो गए। १९. सम्यक् स्यादथवाऽसम्यक् सम्यक् श्रद्धावतो भवेत्। सम्यक् चापि न वा सम्यक्, श्रद्धाहीनस्य जायते ॥ कोई विचार सम्यक् हो या असम्यक्, श्रद्धावान् पुरुष में वह सम्यक्रूप से परिणत होता है और अश्रद्धावान् में सम्यक् विचार भी असम्यक्रूप से परिणत होता है। ॥ व्याख्या || विचार अपने आप में न सम्यक् है, न असम्यक् ग्राहक की बुद्धि के अनुसार वे ढल जाते हैं। शब्दों को जिस रूप में हम ओढ़ लेते हैं उसी रूप में वे दिखाई देते हैं। एक आस्थावान् व्यक्ति के लिए असम्यक् विचार भी सम्यक् रूप में परिणत हो जाते हैं और अनास्थावान् के लिए सम्यक् विचार भी असम्यक् रूप में राग-द्वेष और स्वार्थवश सम्यक् विचारों को असम्यक् का रूप देने वाले व्यक्ति कम नहीं हैं, कम हैं प्रतिकूल को अनुकूल में बदलने वाले । भगवान् महावीर के लिए संगम - कृत अनुकूल और प्रतिकूल कष्ट भी कर्म-निर्जरण के लिए बन गए। अनार्य मनुष्यों की त्रासना से वे उद्विग्न नहीं बने।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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