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आत्मा का दर्शन
आत्म सूत्र
१७७. उत्तमगुणाण धामं सव्वदव्वाण उत्तमं दब्बं । तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो ॥
१७८. जीवा हवंति तिविहा, बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । परमप्पा वि यदुविहा, अरहंता तह य सिद्धा य ॥
१७९. अक्खाणि बहिरप्पा, अंतरप्पा हु अप्प-संकप्पो । कम्म-कलंक - विमुक्को, परमप्पा भण्णए देवो ॥
१८०. ससरीरा अरहंता, केवलणाणेण मुणिय-सयलत्था । णाणसरीरा सिद्धा, सव्युत्तम सुक्ख संपत्ता ।
१८१. आरुहवि अंतरप्पा,
झाइज्जइ परमप्पा,
१८२. चउगइ भवसंघमणं,
६७२
बहिरप्पो छंडिऊण तिविहेण ।
उवहट्ठं जिणवरिदेहिं ॥
जाइ जरा मरण-रोय सोका थ कुल जोणि जीव मग्गण-ठाणा,
जीवस्स णो संति ॥
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१८३. वण्ण-रस-गंध-फासा,
संठाणा संहणणा,
थी-पुंस वंसयादि पज्जाया ।
सब्वे जीवस्स णो संति।
१. जैन दर्शन में जीव और आत्मा एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
खण्ड-५.
होते हैं। वे स्वयं प्रकाशवान् रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।
आत्म सूत्र
तुम यह जानो कि वास्तव में जीव उत्तम गुणों का आश्रय, सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य और सब तत्त्वों में परमतत्त्व है।
जीव (आत्मा) तीन प्रकार का है-बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । परमात्मा के भी दो प्रकार हैं - अर्हत् और सिद्ध
इन्द्रिय समूह को आत्मा मानने वाला बहिरात्मा है। आत्मा में आत्मा का संकल्प करने वाला अंतरात्मा है। कर्म-कलंक से विमुक्त आत्मा परमात्मा या देव कहलाता है।
केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को जानने वाला सशरीरी जीव (मनुष्य) अर्हत् है सर्वोत्तम सुख (मोक्ष) को संप्राप्त ज्ञान- शरीरी जीव सिद्ध होते हैं।
तीर्थंकरों ने यह पथ दिखलाया है तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करो।
जीव' में चतुर्गतिरूप भव-भ्रमण, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक तथा कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान नहीं होते।
जीव में वर्ण, रस, गंध, स्पर्श तथा स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि पर्याय तथा संस्थान और संहनन नहीं होते हैं।