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________________ आत्मा का दर्शन मच्छियाए कुच्छिंसि उववन्नाओ। एगे देवलोगेसु उववन्ने। एगे सुकुले पच्चायाए। अवसेसा उस्सण्णं नरग - तिरिक्खजोणिएसु उववन्ना । राजर्षि नमि और इन्द्र का संवाद १४. जे केइ पत्थिवा तुब्भं नानमंति नराहिवा ! वसे ते ठावइत्ताणं तओ गच्छसि खत्तिया ! १५. जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ ॥ १६. अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ । अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुमेह ॥ १७. पंचिंदियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वं अप्पे जिए जियं ॥ आत्मयुद्ध १८. पागारं कारइत्ताणं गोपुरट्टालगाणि च । उस्सूलगसयग्घीओ तओ गच्छसि खत्तिया ! १९. सद्धं खंति नगरं किच्चा निउणपागारं तिगुत्तं ५७४ २१. तवनारायजुत् भेत्तूर्ण मुणी विगयसंगामो भवाओ तवसंवरमग्गलं । दुप्पधंसयं ॥ २०. धणुं परक्कमं किच्चा जीवं च इरियं सया । धिनं च केयणं किच्चा सच्चेण पलिमंथए । कम्मर्कचयं । परिमुच्चए ॥ खण्ड - ४ हजार मनुष्य एक मछली की कुक्षि में उत्पन्न हुए । एक व्यक्ति देवलोक में उत्पन्न हुआ। एक व्यक्ति मनुष्य योनि प्राप्त कर अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ और शेष व्यक्ति प्रायः नरक और तिर्यंच योनि में पैदा हुए। हे नराधिप क्षत्रिय ! जो राजा तुम्हारे सामने नहीं झुकते, उन्हें वश में करो, फिर मुनि बन जाना। नमि- दुर्जेय संग्राम में कोई दस लाख योद्धाओं को जीतता है। कोई व्यक्ति अपने आपको जीतता है। इन दोनों की तुलना की जाए तो परम विजय वह है, जिसमें अपने आपको जीता जाता है। आत्मा के साथ युद्ध करना ही श्रेयस्कर है। बाहरी युद्ध से क्या लाभ? आत्मा को आत्मा के द्वारा जीतने वाला व्यक्ति ही सुख को उपलब्ध होता है । पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया, लोभ और मन ये दुर्जेय हैं। जो व्यक्ति अपनी एक आत्मा को जीत लेता है उसके द्वारा सब अपने आप जीत लिए जाते हैं। इन्द्र-हे क्षत्रिय ! तुम अपने राज्य की सुरक्षा के लिए परकोटा, बुर्जवाला नगर द्वार, खाई और शतघ्नी-(एक बार मे सौ व्यक्तियों का संहार करने वाला यंत्र ) बनवाओ। फिर मुनि बन जाना। नमि-आत्मा की सुरक्षा के लिए मैंने श्रद्धा का नगर बनाया है, तप और संयम उसकी अर्गला है। क्षमा बुर्ज, खाई और शतघ्नी स्थानीय है। मन, वचन और काय गुप्ति रूप सुरक्षा में निपुण और दुर्जेय परकोटा बनाया है। पराक्रम मेरा धनुष है। ईर्या उसकी डोर है । धृति उसकी मूठ है जो सत्य से बंधी हुई है। तपरुपी लोह-बाण मेरे पास है। मैं इससे कर्म रूपी कवच को भेद डालूंगा। ऐसा सोचने वाला ज्ञानी व्यक्ति संग्राम को समाप्त कर युद्ध की समस्या से मुक्त हो जाता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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