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संबोधि .
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अ. ३ : आत्मकर्तृत्ववाद
श्रृंखला को तोड़ फेंकता है। इसलिए आचार्य कहते हैं :
विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन, स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम्। हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद् भिन्नधाम्नो,
ननु किमनुपलब्धि ति किञ्चोपलब्धिः॥ वत्स! शांत रह, व्यर्थ के कोलाहल से क्या होगा? तू अपने आप में शांत रहकर छह महीने तक लीन रह और हृदय-रूपी सरोवर में पुद्गल से भिन्न चेतना को देख। तुझे तब ज्ञात होगा कि तुझे क्या उपलब्ध नहीं हुआ है और अभी क्या उपलब्ध है।' ५४. सुखानामपि दुःखानां, क्षयाय प्रयतो भव। मेघ! तू सुख और दुःख को क्षीण करने के लिए प्रयत्न लप्स्यसे तेन निर्द्वन्द्वं, महानन्दमनुत्तरम्॥ कर। तू सब द्वंद्वों से मुक्त, सबसे प्रधान महान् आनंद-मोक्ष को
प्राप्त होगा।
॥ व्याख्या ॥ मोक्ष समस्त द्वंद्वों से रहित है। सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जन्म-मृत्यु, मान-अपमान आदि-आदि द्वंद्व हैं। इनमें मन का संतुलन नहीं रहता। संतुलन के अभाव में आनंद की अनुभूति भी सहज और निर्विकार नहीं रहती।
मोक्ष का अर्थ है-बंधन-मुक्ति। बंधनों का सम्पूर्ण विलय चौदहवें गुणस्थान में होता है, किन्तु उनका आंशिक विलय दूसरे गुणस्थानों में भी होता है। ज्यों-ज्यों विलय होता है, आनंद की अनुभूति स्पष्ट, स्पष्टतर और स्पष्टतम होती जाती है। संपर्ण आनंद की अनुभति को मोक्ष कहा जाता है। वह सिद्धावस्था में तो होती ही है, किन्तु उसका आंशिक अनुभव यहां भी सुलभ है। आचार्य कहते हैं :
निर्जितमदममदनानां, मनोवाक्कायविकाररहितानाम्।
विनिवृत्तपराशानां, इहैव मोक्षः सुविहितानाम्॥ 'जिन्होंने अहंकार और काम पर विजय प्राप्त कर ली है, जिनकी मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियां पवित्र हैं, जो बाह्य पदार्थों की आकांक्षाओं से निवृत्त हो चुके हैं, उन व्यक्तियों के लिए यहां मोक्ष है-अर्थात वे इसी जीवन में अपूर्व आनंद की अनुभूति करने लगते है।' ५५.मननं जल्पनं नास्ति, कर्म किञ्चिन्न विद्यते। मोक्ष में मन, वाणी और कर्म नहीं होते-न मनन किया जाता - विरज्यमानोऽकर्मात्मा, भवितुं प्रयतो भव॥ है, न भाषण किया जाता है और न किंचित् मात्र प्रवृत्ति की जाती
है। वहां आत्मा 'अकर्मा' होती है। मेघ! तू विरक्त होकर 'अकर्मात्मा' बनने का प्रयत्न कर।
इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे
आत्मकर्तृत्ववादनामा तृतीयोऽध्यायः।