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प्रायोगिक दर्शन
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अज्जिया मम आगंतुं एवं वएज्जा तो णं अहं सहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा - अण्णो जीवो अण्णं सरीरं णो तज्जीवो तं सरीरं ।
हा सा अज्जिया ममं आगंतुं णो एवं वयासी, तम्हा सुपइट्ठिया मे पइण्णा जहा - तज्जीवो तं सरीरं, नो अण्णो जीवो अण्णं सरीरं ।
संदर्भ देवमंदिर का
१२. तरणं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासीजति णं तुमं पएसी ! हायं..... देवकुलमणुपविसमाणं केइ पुरिसे वच्चघरंसि ठिच्चा एवं वदेज्जा - एह ताव सामी ! इह मुहुत्तागं आसयह वा चिट्ठह वा निसीयह वा तुट्टह वा । तस्स णं तुमं पएसी ! पुरिसस्स खणमवि एयमठ्ठे पडिणिज्जासि ? णो तिट्ठे संमट्ठे ।
कम्हाणं ?
जम्हाणं भंते! असुई असुइ सामंतो ।
एवामेव पएसी ! तव वि अज्जिया होत्था इहेव सेविया री धम्मिया... इच्छइ माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए ।.....
तं सद्दहाहि णं तुमं पएसी ! जहा - अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं ।
१३. तए णं पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी-अत्थि णं भंते! एस पण्णओ उवमा, इमेणं पुण कारणेणं णो उवागच्छति ।
लोहकुंभी और चोर
१४. एवं खलु भंते! अहं अण्णया कयाइ बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए......विहरामि । तए णं मम जगरगुत्तिया ..... चोरं उवणेंति ।
तए णं अहं तं पुरिसं जीवंतं चेव अओकुंभीए पक्खिवावेमि । अओमएणं पिहाणएणं पिहावेमि । अएण य तउण य कायावेमि, आय- पच्चइएहिं पुरिसेहिं रक्खामि ।
तए णं अहं अण्णया कयाई जेणामेव सा अओकुंभी
अ. १२ : आत्मवाद
भंते! यदि मेरी दादी मुझे आकर कहे तो मैं आपके कथन पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि कर सकता हूं-जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है।
यदि मेरी दादी आकर ऐसा नहीं कहती है तो मेरा पक्ष स्थापित है- जीव और शरीर एक है। वे अलग-अलग नहीं हैं।
प्रदेशी ! तुम नहा-धोकर देव मंदिर में जाने की तैयारी कर रहे हो। उस समय शौचालय में खड़ा हुआ कोई पुरुष कहे-स्वामी! कुछ समय के लिए आप इस शौचालय में आएं, खड़े रहें, बैठें और सोएं तो क्या तुम उस व्यक्ति की इस प्रार्थना को क्षणभर के लिए स्वीकार करोगे ?
भंते! नहीं। क्यों ?
वह स्थान अत्यंत अपवित्र और अशुचिमय है। प्रदेशी ! इसी प्रकार देवलोक में उत्पन्न तुम्हारी दादी तुम्हें चेताने के लिए आना चाहे तो भी नहीं आ सकती।
अतः प्रदेशी ! तुम श्रद्धा करो - जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है।
प्रदेशी ! भंते! यह आपकी प्रज्ञापना है। पर एक कारण है, इसीलिए मैं आपके कथन से सहमत नहीं हूं ।
एक दिन मैं बाहरी उपस्थानशाला में बैठा था । उस समय नगर रक्षक चोर को लेकर मेरे सामने उपस्थित हुए ।
मैंने उस चोर को जीते जी लोह की कुंभी में डलवा दिया। उसे मजबूत लोह ढक्कन से ढकवा दिया। लोह तथा रांगे से सील बंद करवा दिया और अपने विश्वस्त व्यक्तियों को उसकी चौकसी में नियुक्त कर दिया ।
कुछ दिनों के बाद मैं उस लोह कुंभी के पास जाता
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