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________________ आत्मा का दर्शन ५८४ खण्ड-४ हूं। उस कुंभी की सील को तोड़ता हूं और देखता हूं- चोर मरा हुआ है। उस कुंभी में कोई ऐसा छिद्र, विवर, अंतर और रेखा नहीं थी जिससे जीव बाहर निकला हो। तेणामेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता तं अओकुंभिं उम्गलच्छावेमि, उग्गलच्छावित्ता तं पुरिसं सयमेव पासामि। णो चेव णं तीसे अओकुंभीए केइ छिड्डे इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा राई वा, जओ णं से जीवे अंतोहिंतो बहिया णिग्गए। जइ णं भंते! तीसे अओकुंभीए होज्ज केई छिड्डे इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा राई वा, जओ णं से जीवे अंतोहिंतो बहिया णिग्गए तो णं अहं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा-अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तज्जीवो तं सरीरं। जम्हा णं भंते! तीसे अओकुंभीए णत्थि केई छिड्डे इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा, राई वा, जओ णं से जीवे अंतोहिंतो बहिया निग्गए, तम्हा सुपतिट्ठिया मे पइण्णा जहा-तज्जीवो तं सरीरं, णो अण्णो जी- वो अण्णं सरीरं। भंते! उस कुंभी में यदि कोई छिद्र, विवर, अंतर और . रेखा होती, जिसके माध्यम से जीव भीतर से बाहर आता. तो मैं यह श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता-जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं हैं। भंते! उस जीव के बाहर निकलने पर भी कोई छिद्र, विवर, अन्तर और रेखा नहीं हुई। इससे मेरा पक्ष स्थापित है-जीव और शरीर एक है। वे अलग-अलग नहीं हैं। कूटागारशाला और भेरीवादक १५.तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी- प्रदेशी! एक कूदागारशाला है। वह दोनों ओर से. पएसी! से जहाणामए कूडागारसाला सिया-दुहओ लिपी हुई है। उसका द्वार ढका हुआ है। हवा के प्रवेश के लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा। लिए कहीं कोई अवकाश नहीं है। वह बहुत गहरी है। अह णं केइ पुरिसे भेरिं च दंडं च गहाय उस कूटागारशाला में कोई भेरीवादक अपनी भेरी कूडागारसालाए अंतो-अंतो अणुप्पविसति।..... (ढोलक) और दंड को लेकर प्रविष्ट होता है। वह उसके दुवारखयणाई पिहेइ। तीसे कूडागारसालाए द्वार को बंद कर मध्य भाग में जा बैठता है और जोर-जोर बहुमज्झदेसभाए ठिच्चा तं भेरिं दंडएणं महया- से भेरी को बजाता है। प्रदेशी! क्या उस भेरी का स्वर , महया सद्देणं तालेज्जा। से णूणं पएसी! से सद्देणं बाहर आता है? अंतोहितो बहिया णिग्गच्छइ ? हंता णिग्गच्छइ। हां, आता है। अत्थि णं पएसी! तीसे कूडागारसालाए केइ छिड्डे प्रदेशी! क्या उस कूटागारशाला में कोई छिद्र, विवर, इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा राई वा , जओ णं से अंतर और रेखा है, जिससे होकर भेरी का शब्द बाहर सद्दे अंतोहिंतो बहिया णिग्गए? आता हो? नो तिणढे समठे। एवामेव पएसी! जीवे वि अप्पडिहयगई पुढविं प्रदेशी ! इसी प्रकार जीव की गति भी अप्रतिहत होती भिच्चा सिलं भिच्चा पव्वयं भिच्चा अंतोहितो है। वह पृथ्वी, शिला और पर्वत के भीतर से ही चला बहिया णिग्गच्छइ। तं सइहाहि णं तुमं पएसी! आता है। अतः प्रदेशी! तुम इस बात पर श्रद्धा करो-जीव अण्णो जीवो अण्णं सरीरं। णो तज्जीवो तं सरीरं। अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है। नहीं। १६.तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं प्रदेशी-भंते! यह आपकी प्रज्ञापना है। पर एक कारण
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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