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मत्तं
५६०. सकदक-फल-जलं वा,
सयलोवसंतमोहो,
५६१. णिस्सेस- खीणमोहो,
सरए सरवाणियं व णिम्मलयं ।
उवसंत - कसायओ होदि ॥
फलहाल - भायणुदय - समचित्तो ।
णिग्गंथो वीयराएहिं ॥
खीणकसाओ भण्णइ,
५६२-५६३. केवलणाण-दिवायर
णव- केवल-लडुग्गम
असहाय णाणदंसण
किरणकलाव -प्पणासि - अण्णाणो ।
पाविय परमप्प ववएसो ॥
सहिओ वि हि केवली हि जोएण ।
अणाइणिहणारिसे वृत्तो ॥
जुत्तो त्ति सजोइजिणो,
५६४. सेलेसिं संपत्तो,
णिरुद्ध - णिस्सेस-आसओ जीवो।
गयजोगो केवली होइ ॥
कम्मरयविप्पमुक्को,
५६५. सा तम्मि चेव समये,
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लोगे उड्ढ-गमण - सब्भाओ ।
पवरट्ठगुणप्पओ णिच्चं ॥
संचिट्ठइ असरीरो,
५६६. अट्ठविह-कम्म-वियडा,
सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा । अट्ठगुणा कयकिच्चा, लोयग्ग- णिवासिणो सिद्धो ॥
१. फिर भी जैसे जल के हिल जाने से बैठी हुई मिट्टी ऊपर आ जाती है, वैसे ही मोह के उदय से यह उपशांत कषाय 'श्रमण स्थानच्युत होकर सूक्ष्म-सराग दशा में पहुंच जाता है। २. नौ केवललब्धियां सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन,
अ. २ : मोक्षमार्ग
या सूक्ष्म कषाय (सूक्ष्म- संपराय) जानना चाहिए ।
जैसे निर्मली - फल से युक्त जल अथवा शरदकालीन सरोवर का जल (मिट्टी के बैठ जाने से) निर्मल होता है, वैसे ही जिनका संपूर्ण मोह उपशांत हो गया है, वे निर्मल परिणामी उपशांत-कषाय कहलाते हैं। "
सम्पूर्ण मोह पूरी तरह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाता है, उन्हें वीतराग देव ने क्षीण- कषाय निर्ग्रथ कहा है।
केवलज्ञानरूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान अंधकार सर्वथा नष्ट हो जाता है तथा नौ केवललब्धियों के प्रकट होने से जिन्हें परमात्मा की संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वे इन्द्रियादि की सहायता की अपेक्षा न रखनेवाले ज्ञान-दर्शन से युक्त होने के कारण केवली और काय योग से युक्त होने से सयोगी केवली ( तथा घाति - कर्मों के विजेता होने से ) जिन कहलाते हैं। ऐसा अनादिनिधन जिनागम में कहा गया है।
जो जीव शैलेषी अवस्था को प्राप्त हो गये हैं। पांच आस्रवों का सम्पूर्ण निरोध कर लिया हैं। ( देहधारी होते हुए भी) कर्म - रज (बंधन) से मुक्त हो गये हैं और जो योग-प्रवृत्ति से रहित हैं वे अयोगी केवली होते हैं।
इस (चौदहवें) गुणस्थान को प्राप्त कर लेने के उपरांत ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला वह अयोगीकेवली अशरीरी तथा प्रवर आठ गुण सहित होकर एक समय में लोक के अग्रभाग पर चला जाता है। सदा के लिए वहां स्थित हो जाता है।
लोकाग्र में रहने वाले सिद्ध जीव अष्टकर्मों से रहित, सुखमय, निरंजन, नित्य, अष्टगुण- सहित तथा कृतकृत्य होते हैं।
अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, दान, लाभ, भोग व उपभोग । ३. आठ गुण - केवलज्ञान, केवलदर्शन, असंवेदन, आत्मिक सुख, अटल अवगाहन, अमूर्ति, अगुरुलघु और निरन्तराय ।