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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-४
लोक : शाश्वत-अशाश्वत अनगार जमाली ११.तए णं से जमाली अणगारे.......समणं भगवं अनगार जमाली ने श्रमण भगवान महावीर से
महावीरं एवं वयासी-जहा णं देवाणुप्पियाणं बहवे कहा-भंते! आपके बहुत से शिष्य श्रमण निर्ग्रन्थ अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्थावक्कमणेणं छद्मस्थ अपक्रमण से अपक्रान्त हुए हैं। मैं छद्मस्थ अवक्कंता। नो खलु अहं तहा छमत्थावक्कमणेणं अपक्रमण से अपक्रान्त नहीं हआ हं। मैंने ज्ञान, दर्शन को अवक्कंते। अहं णं उप्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे उपलब्ध होकर अर्हत् जिन और केवली होकर केवली केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कते। अपक्रमण से अपक्रमण किया है। तए णं भगवं गोयमे जमालिं अणगारं एवं अनगार जमाली की यह बात सुन भगवान गौतम ने . वयासी-नो खलु जमाली! केवलिस्स नाणे वा। कहा-जमाली ! केवली का ज्ञान-दर्शन पर्वत, स्तंभ, स्तूप दंसणे वा सेलंसि वा थंभंसि वा थूभंसि वा आदि से आवृत नहीं होता, निवारित नहीं होता। ज़माली! आवरिज्जइ वा निवारिज्जइ वा। जदि णं तुमं यदि तुम ज्ञान-दर्शन को उपलब्ध होकर, अर्हत् जिन और जमाली! उप्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली केवली होकर केवली अपक्रमण से अपक्रान्त हुए हो तो भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कते, तो णं इन दो प्रश्नों का उत्तर दोइमाइं दो वागरणाइं वागरेहि-सासए लोए १. लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? जमाली! असासए लोए जमाली? सासए जीवे २. जीव शाश्वत है या अशाश्वत? जमाली! असासए जीवे जमाली? तए णं से जमाली अणगारे भगवया गोयमेणं एवं गौतम के इस प्रश्न पर जमाली का चित्त शंका, कांक्षा वत्ते समाणे संकिए कंखिए वितिगिच्छिए और विचिकित्सा से भर गया। वह खिन्न चित्तवाला हो भेदसमावण्णे कलुससमावण्णे जाए या वि होत्था। गया। वह टूटा-टूटा-सा और कलुषित हो गया। गौतम के नो संचाएति भगवओ गोयमस्स किंचि वि प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ हो गया। पमोक्खमाइक्खित्तए तुसिणीए संचिठ्ठइ। जमालीति! समणे भगवं महावीरे जमालिं भगवान महावीर ने जमाली को संबोधित करते हुए अणगारं एवं वयासी-अत्थि णं जमाली! ममं बहवे कहा-जमाली ! मेरे बहुत से शिष्य छद्मस्थ होते हुए भी अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्था, जे णं पभू एयं इन प्रश्नों को मेरी तरह समाहित करने में समर्थ हैं। पर वागरणं वागरित्तए, जहा णं अहं। नो चेव णं तुम्हारी तरह मिथ्या आलाप नहीं करते। एतप्पगारं भासं भासित्तए, जहा णं तुम।
सासए लोए जमाली! जं न कयाइ नासि, न जमाली! लोक शाश्वत है-वह कभी नहीं था, नहीं है कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ-भुविं च और नहीं होगा-ऐसा नहीं है। वह अतीत में था, वर्तमान भवइ य, भविस्सइ य-धुवे, नितिए, सासए, में है और भविष्य में रहेगा। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए निच्चे।
है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। असासए लोए जमाली! जं ओसप्पिणी भवित्ता जमाली! लोक अशाश्वत है-अवसर्पिणी के बाद उस्सप्पिणी भवइ, उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी उत्सर्पिणी आती है और उत्सर्पिणी के बाद अंवसर्पिणी भवइ।
आती है। सासए जीवे जमाली! जं न कयाइ नासि, न जमाली ! जीव शाश्वत है-वह कभी नहीं था, नहीं है कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ-भुविं च, और नहीं होगा-ऐसा नहीं है। वह अतीत में था, वर्तमान