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आत्मा का दर्शन ६३२
खण्ड-४ देवदत्तस्स घरे अणेगा कोट्ठगा, तेसु सव्वेसु भवं देवदत्त के घर में अनेक कोठे हैं, क्या आप उन सब वससि?
में रहते हैं? विसुद्धतराओ नेगमो भणति-गब्भघरे वसामि। विशुद्धतर नैगम नय कहता है-गर्भगृह में रहता हूं। एवं विसुद्धतरागस्स नेगमस्स वसमाणो वसइ। इस प्रकार विशुद्धतर नैगम नय जो व्यक्ति, जहां जब
निवास करता है, उसे उसमें रहने वाला मानता है। .. एवमेव ववहारस्स वि।
व्यवहार नय की भी यही वक्तव्यता है। संगहस्स संथारसमारूढो वसइ।
संग्रह नय बिछौने पर बैठे हुए व्यक्ति को ही वहां वास
करने वाला मानता है। उज्जुसुयस्स जेसु आगासपएसेसु ओगाढो तेसु ऋजुसूत्र नय व्यक्ति जितने आकाश प्रदेशों में वसइ।
अवगाहन करता हुआ रहता है, केवल उसी वास को
मानता है। तिण्हं सहनयाणं आयभावे वसइ।
तीन शब्द नयों की दृष्टि से व्यक्ति आत्मभाव-आत्मस्वरूप में अवस्थित रहता है।
प्रदेश दृष्टांत २१.से किं तं पएसदिळेंतेणं?
पएसदिठंतेणं नेगमो भणति-छण्हं पएसो, तं जहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो देसपएसो। एवं वयंतं नेगम संगहो भणति-जं भणसि छण्हं पएसो तं न भवइ। कम्हा? जम्हा जो देसपएसो सो तस्सेव दव्वस्स।
जहा को दिळंतो? दासेण मे खरो कीओ। दासा वि मे खरो वि मे। तं मा भणाहि-छहं पएसो। भणाहि पंचण्हं पएसो, तं जहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो।
प्रदेश दृष्टांत के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाण क्या है?
प्रदेश दृष्टांत-नैगम नय कहता है-छहों का प्रदेश, जैसे-धर्म का प्रदेश, अधर्म का प्रदेश, आकाश का प्रदेश, जीव का प्रदेश, स्कन्ध का प्रदेश और देश का प्रदेश।
नैगम नय के ऐसा कहने पर संग्रह नय कहता है-तुम कहते हो छहों का प्रदेश-वह उचित नहीं है।
किसलिए?
इसलिए कि जो छटठा देश का प्रदेश है. वह उसी द्रव्य का है।
जैसे यहां कोई दृष्टांत है?
मेरे दास ने गधा खरीदा। दास भी मेरा है और गधा भी मेरा है। इसलिए यह मत कहो-छहों का प्रदेश। यह कहो-पांचों का प्रदेश। जैसे-धर्म का प्रदेश, अधर्म का प्रदेश, आकाश का प्रदेश, जीव का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश।
संग्रह नय के ऐसा कहने पर व्यवहार नय कहता है-तुम जो पांचों का प्रदेश कहते हो, वह उचित नहीं है। किसलिए?
यदि पांचों मित्रों का कोई सामान्य (एक) द्रव्य समूह है, जैसे-हिरण्य, सुवर्ण, धन या धान्य। वैसे ही यदि पांचों का प्रदेश सामान्य है तो यह कहना उचित हो सकता है, जैसे-पांचों का प्रदेश। इसलिए मत कहो पांचों
एवं वयंतं संगहं ववहारो भणसि-जं भणति पंचण्हं पएसो तं न भवइ। कम्हा? जइ पंचण्हं गोठ्ठियाणं केइ दव्वजाए सामण्णे, तं जहा-हिरण्णे वा सुवण्णे वा धणे वा धण्णे वा तो जुत्तं वत्तुं जहा पंचण्ह पएसो तं मा भणाहि-पंचण्हं पएसो, भणाहि-पंचविहो पएसो, तं जहा-धम्म-