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आत्मा का दर्शन ७५८
परिशिष्ट अपरिच्छममारणंतिय : यावज्जीवन के लिए किए जाने आउजीव : जिन जीवों का शरीर जल है। संलेहणा वाले अनशन से पूर्ण स्वीकार की आगम (ववहार) : केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, जानेवाली तपस्या। .
अवधिज्ञानी, चतुर्दश पूर्वधर एवं अप्पमत्तसंजय : संयमी साधक की प्रमाद रहित
दशपूर्वधर-इन आगम पुरुषों के अवस्था।
निर्देशानुसार व्यवहार करना। अप्पसागारिय : एकांत, निर्जन प्रदेश।
आगमबलिया : शास्त्रों के ज्ञाता श्रमण।. अफासुग सजीव।
आगासत्थिकाय : सब पदार्थों को आश्रय देनेवाला अब्भुट्ठाण : आचार्य आदि गुरुजनों के आने पर
द्रव्य। खड़ा होना, सम्मान करना। आणपाणवग्गणा : श्वासोच्छवास के रूप में प्रयुक्त अब्भोवगमिया : अपने आप उत्पन्न वेदना।
होनेवाले सजातीय पुद्गल द्रव्य। अभवसिद्धिक : अभव्य।
आणा (ववहार) : एक आचार्य द्वारा दूसरे आचार्य से अभिगम : गुरु के उपपात में जाने की विधि।
गूढ़ पदों में आलोच्य विषय की ' अभिगम सम्मत्त : गुरु के उपदेश से प्राप्त सम्यक्त्व।
जानकारी प्राप्त करना। अभिग्गह : संकल्प।
आपुच्छणा (सामायारी) : कार्य करने से पूर्व गुरु की अमुत्त : अमूर्त-जिसमें वर्ण, गंध, रस,
अनुमति लेना। स्पर्श न हो।
आभिणिबोहिय : मतिज्ञान इन्द्रिय एवं मन के द्वारा अमूढदिठि : दृष्टि की मूढता न होना।
___ होनेवाला भावबोध। अरतिरति : संयम में अरति, असंयम में रति। आयंबिल नमक, मिर्च, घी, तेल आदि से : अरिहंत : जिसके ज्ञान और दर्शन के आवरण
• रहित कोई एक अन्न एक ही बार तथा मोह और अंतराय क्षीण हो
खाकर किया आने वाला तप। चुके हैं।
आयारसंपया : संयम की समृद्धि। अरूविकाय : अमूर्त द्रव्य, जिसमें वर्ण, गंध, रस आयावणभूमि : आतापनभूमि। और स्पर्श न हो।
आराधय : स्वीकृत नियमों की सम्यक् अलोय : जिसमें धर्म, अधर्म आदि पांच द्रव्य
आराधना करने वाला। न हो, केवल एक आकाश हो। आवस्सगः पूर्वरात्रि और पश्चिम रात्रि के समय अववट्टणा : कर्मों की स्थिति और अनुभाग में
अवश्यकरणीय आलोचना सूत्र। हानि।
आवस्सिया (सामायारी) : मुनि द्वारा उपाश्रय से बाहर अवाय : निर्णयात्मक ज्ञान।
जाते समय आवश्यकी-आवश्यक अविरयसम्मदिट्ठि : तत्त्व में श्रद्धा होने पर भी संयम
कार्य के लिए जा रहा हूं, ऐसा कहना। साधना से विरत जीव की अवस्था।
आसव
: कर्म पुद्गलों को आकृष्ट करनेवाले असंसट्ठ : सजातीय प्रासुक आहार से अलिप्त
आत्म-परिणाम। हाथ, पात्र, आदि।
आसास : विश्राम-स्थल। - अहाराइणिय : दीक्षाक्रम।
आहारवग्गणा : आहारक शरीर के रूप में प्रयुक्त अहिंसा : समता, संयम।
होने वाले सजातीय पुद्गल द्रव्य अह : अधोलोक।
इच्छाकार (सामायारी) : कार्य करने की इच्छा जताना, अहोऽविहिय : सर्व अवधि से पूर्व होनेवाला ज्ञान।
जैसे-आप चाहें तो मैं अमुक कार्य आउ : जिस कर्म से जीव भवस्थिति को
करूं। प्राप्त होता है।
इरियावहियाकिरिया : वीतराग के कर्मबंधन की क्रिया।