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बंधविहाणं
मूलपयडि
विइ-बंधी
(मूलप्रकृति-रितिबन्धः) 'प्रेमप्रभा टीका-समलङ्कत:
.....................aaaaa
शांतिलाल दोश
Kा प्रेरका मार्गदर्शकाः संशोधकाश्च
सिद्धान्तमहोदधि-कर्मशास्त्रनिष्णाताआचाटेवाश्रीमद विजयप्रेमसूरीश्वराःOY
प्रकाशिका-भारतीय-प्राच्य-तत्त्व-प्रकाशन समिति, पिंडवाः
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श्रीशङखेश्वर पारवेनाथाय नमः
सकलागमरहस्य वेदिपरमज्योतित्रिच्छ्रीमद्विजयदानसूरीश्वरमद्गुरुभ्यो नमः । भारतीय प्राच्यतस्त्र- प्रकाशन समिति- पिन्डवाडा संचालिताया
आचार्यदेव श्रीमद् विजय मसुरोश्वर-कर्म साहित्य- जैन ग्रन्थमालाया द्वितीयो (२) ग्रन्थः
बन्धविहाणं
तत्थ
मूलपयडि
ठिड़-बंधो
( मूलप्रकृति- स्थितिबन्धः ) 'प्रेमप्रभा' टीका-समलङ्कृतः
नमा तित्थस्स
नमो नमः श्री गुरुप्रेमयुग्थे
प्रकाशिका:
श्री भारतीय प्राच्यवच्व प्रकाशन समिति
पिंडवाडा स्टे, सिगेडीशेड
(राजस्थान)
प्रेरका मार्गदर्शकाः संशोधकाश्च :-- सिद्धान्तमहोदधि - कर्मशास्त्रनिष्णाता आचार्यदेवाः
श्रीमदूविजयप्रेमसूरीश्वराः
प्रकाशिका - भारतीय प्राच्यतत्त्व - प्रकाशन समितिः, पिन्डवाडा ।
Page #3
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प्रथम- श्रावृत्ति ५०० प्रति
फार्म:
:- २ थी ७, ६ थी १९ अजन्ता प्रिंटर्स, जयपुर, ( राजस्थान )
मूल्य
* प्राप्तिस्थान
१. भारतीय प्राच्यतच्च प्रकाशन समिति,
C/o रमरगलाल लालचन्द,
१३५ / १३७ जवेरी बजार, बम्बई २.
३.
रू०
२. भारतीय प्राच्यतच प्रकाशन समिति,
C/o शा. समरथमल रायचन्दजी, पिंडवाड़ा, स्टे० सिरोही रोड ( राज० ).
•
शा. मनरूपजी प्रचलदास, ९, मस्कती मार्केट, श्रहमदाबाद २.
४. शा. रमरणलाल वजेचन्द, C/o दिलीपकुमार रमणलाल, मस्कती मार्केट, अहमदाबाद.
मुद्रक
@@@
वीर संवत २४९२ विक्रम संवत २०२२
ODLO000
शेषफार्म. - ज्ञानोदय प्रिंटिंग प्रेस, पिन्डवाड़ा, स्टे. सिरोही रोड़ [ राजस्थान ]
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-: पदार्थसंग्रहकाराः :कर्मशास्त्रज्ञधुरीण-गच्छधिपा-ऽऽचार्यदेव-श्रीमद्-विजयप्रेमसूरीश्वर-विनीत विनेय-प्रभावकप्रवचनकार-पंन्यासप्रवर-श्रीभानुविजयगणिवर्य विनेयमुनिवर्यश्री-धर्मघोपविजयान्तिपदो विद्वद्वर्य गीतार्थमुनिश्री जयवोषविजयाः, पंन्यासप्रवरश्री-भानुविजयगणिवर्य
विनया मुनिश्री-धर्मानन्दविजयाः, गच्छाधिपतिविनीतविनयगीतार्थमुर्धन्य-पंन्यासमवर-श्रीहेमन्तविजयगणिवर्य-विनेयमुनिराजश्रीललितशेखरविजय-शिष्यरत्न-मुनिवर्यश्री-राजशेखर--विजय
शिष्याणवो मुनिश्रीवीरशेखरविजयाश्च ।
-: मूलगाथाकाराः :प्राकृतविशारदा मुनिश्रीवीरशेखरविजयाः
-: टीकाकारः :पंन्यासप्रवरश्री-भानुविजयगणिवर्य-विनेयरत्न-स्वर्गत-पंन्यासप्रवरश्री-पद्मविजयगणिवर-विनेय
मुनि जगचन्द्रविजयः।
-: संशोधकाः :फर्मशास्त्रविशारद -गच्छाधिपति-श्रीमद्-विजयप्रेमसूरीश्वरपट्टप्रभावका आगमप्रज्ञा-ऽऽचार्यदेव
श्रीन विजयजम्बूसूरीश्वराः पदार्थसंग्रहकारमुनिप्रवराश्च ।
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Price
First Edition Copies 500
Rs. 201-21
{ A. D. 1966
AVAILABLE FROM:
1. BHARATIYA PRACHYATATTVA PRAKASHANA SAMIT!
C/o Shah Ramnanlal Lalchand,
135/37 Zaveri Bazzar,
Bombay-2.
2. BHARATIYA PRACHYATATTVA PRAKASHAN SAMITI,
C/o Shah Samarathmal Rayachandji, PINDWARA, ( St. Sirohi Road ]
(Rajasthan )
*
3. Shah Manarupji Achaldas,
2, Maskati Market, Ahmedabad-2.
4. Shah Ramanlal Vajechand, C/o Dilipkumar Ramanlal,
Maskati Market, Ahinedabad-2.
Printed by :
Formes-2 to 7 & 9 to 19 Ajanta Printers, Jaipur, (Raj.]
Remaining : Gyanodaya Printing Press
PINDWARA, (St. Sirohi Road ) Raj.
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Acharyadeva-Shrimad-Vijaya--Promasurishwa ra-Karma-Sahitya-Granthamala
GRANTH No. 2
Acharyadeva-Shrimad-Vijaya--Premasurishwa ra-K
BANDHA VIHAN AM
MULA PAYADI THIEEBANDHO
[ Along with “PREMA PRABHA” commentary ]
By GROUP OF DISCIPLES
11
Inspired and Guided by His Holiness Acharya Shrimad Vijaya PREMASURIS WARJI MAHARAJA the leading anthority of the day
on Karma philosophy.
6141 di
JA
AIRBOX LALO
Bharatiya Prachya Tattva Prakashana Samiti, Pindwara.
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सम्पादकीय
अनन्त उपकारी भवोदधितारक दीर्घसंयमी सिद्धांतमहोदधि परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरिश्वरजी महाराजानी कृपामयी आज्ञाथी मूलप्रकृतिस्थितिबन्धग्रंथनी प्रेमप्रभाटीका आलेखन देवगुरु कृपाए मारा हाथ थयाथी धन्यता अनुभवु छु, ते साथै पूज्यश्रीनी कृपाए प्राप्त थयेली ते श्रुतसाहित्यना सम्पादननी आ प्रथम तक पण मारा जीवनने कृतार्थ करी रही छे.
मारा पूज्य परमगुरुदेव तपोनिधि पंन्यासप्रवर श्री भानुविजयजी गणिवर्यना महत्वना सूचनो तेज बीजा अनेक मुनिभगवंतोनी सहायथी सम्पादन संतोषप्रद थइ शक्युं छे. मारा परमउपकारी स्व० गुरुदेव पू० पंन्यासप्रवर श्री पद्मविजयजी गणिवर्य आ टीकाग्रंथना आलेखन वखते विद्यमान हता. अने ओश्रीनी प्रेरणा भने प्रोत्साहननु' पण अपूर्व बल एमां हतु
ग्रन्थनु ं आलेखनकार्य चालु हतु त्यारेज परमपूज्यतारक सिद्धान्तमहोदधि गच्छाधिपति आचार्यदेव वांची शके तेवा मोटा अक्षरोमां प्रेसकॉपी कराववामां आवी, तेनु पूज्यपाद आचार्यभगवंते सूक्ष्मदृष्टिए अवलोकन करी योग्य सुधारा वधारा सूचवी महान उपकार कर्यो.
पूज्य आगमप्रज्ञ आचार्यदेव श्रीमद् विजयजंबूसूरीश्वरजी महाराजे तथा कर्म साहित्यमा प्रखरविद्वान पूज्य मुनिराज श्री जयघोषविजयजी महाराज, पूज्य मुनिराज श्री धर्मानन्दविजयजी महाराज तथा मुनिश्री वीरशेखर विजयजीए पण ग्रन्थनुं वांचन करी अशुद्धिओनु संमार्जन करी आपी उपकृत कर्यो छे.
महेसाणा जैनश्रेयस्करमंडळना प्राध्यापक पंडितवर्य सुश्रावक पुखराजजी तथा वढवाणशहेरनी पाठशाळाना प्राध्यापक सुश्रावक पंडित श्रमुलखभाइ भने अमदावाद श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य जैन पाठशाळाना प्रधानाध्यापक सुश्रावक पंडित धीरुभाईए पण फर्माओ वांची दृष्टिदोष वगेरे कारणे रही गयेली भूलो खूब काळजीथी सुधारी छे. ए पण धन्यवादाई छे.
आ ग्रन्थसर्जनमां पूज्य संयमत्यागतपोमूर्ति आचार्यदेवेशनी पुण्यप्रेरणा, हार्दिकलागणी परमकृपा भने उत्साहदानी हूफ छे पदार्थ संग्रहकार मुनिभगवंतोनो अवर्णनीय सहयोग छे. सर्जन सम्पादनमां आशरे चारवर्षना समयनो भोग छे.
गाथा, गाथाना प्रतिको, अधिकारो भने द्वारोना शिर्षको अने शास्त्रपाठोनी अलगता माटे तेमज वाचकोनी अनुकूलता माटे मोटा नाना टाइपोनी पसंदगी करवामां आवी छे. विषयनो रहस्थार्थ, घटना के विस्तारार्थना संबोधक ‘इदं तु बोध्यम्' 'इदमत्र हृदयम्' 'एतदुक्तं भवति' 'भावार्थः पुनरयम्' ‘तथाहि' ‘तद्यथा' ‘अयमंत्र
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[ ७ विशेषः' वगेरे शब्दो तथा शंका-समाधानना सूचक 'ननु' 'इति चेद्' वगेरे पदो वाचकोने शीघ्र नजरे चढे माटे ते ब्लेकटाईपमा राख्या छे
२७ थी ६७ आसपासना ४० फर्मा पिंडवाडा ज्ञानोदय प्रिंटिंग प्रेसमां त्रणेक मासना टुकसमयमां छपाया हता. तेना छेल्ला प्रूफनु वांचन तथा मूळकोपी साथे मेळववाना कार्यमां पूज्य मुनिराजश्री अशोकविजयजी महाराजे सारी सहाय करी हती. ते सिवायना फर्माओनां प्रूफोमां पदार्थसंग्रहकार मुनिवर्योनी अने शुद्धिपत्रकादिना फर्मा ओमां मारा गुरुबंधु पूज्य मित्रानंदविजय महाराजनी पण सहाय घणी उपकारक निवडी छे.
ग्रथना सम्पादन कार्यथी सतत स्वाध्याययोग, चित्तनी अकामता, दीर्घकाळ सुधी अकज भासने बेसी कार्य करवानी स्थिरता, वारंवार प्रूफवांचनथी ग्रंथना समग्रविषयतु वधुनेत्रधु विशद दर्शन आवा अनेक लाभो थया. उपरांत आगमप्रभाकर उदारमनस्क मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज तरफथी जेसलमेरना भंडारी कर्मप्रकृतिचूर्णी अने तेना टीप्पणनी फोटोग्राफी हस्तप्रतिओनना वांचननी तक मली.
जिज्ञासु मुमुक्षुजन जैनशासनना निधानरूप आ अमूल्यशास्त्रनो स्वाध्यायादिथी अधिकाधिक लाभ उठावे अने श्रेय साधे भेज ओक मंगलकामना.
अन्ते प्रूफ संशोधन अने शुद्धिपत्रक घणी चोकसाईथी करवा छतां दृष्टिदोष, प्रेसदोष, छद्मस्थदोषथी तथा पहेल पहेलो संपादननो प्रसंग होई ते कारणे रही जवा पामेल भूलो वाचकवर्ग सुधारीने वांचे अने मने जगावे एत्री आशा राखु छ .
प्रान्ते पूज्यपाद करुणासिंधु भाचार्यदेवो, मारा पूज्य गुरुदेवो, पदार्थसंग्रहकार पूज्य मुनिवरों, पूज्य भशोकविजय महाराज वडिलगुरुबंधु पूज्य मित्रानंद विजय महाराज, पंडित तथा अन्यसहायक मुनिवरोना धर्मॠणना बदलामा आग्रंथनी प्रशस्ततानो यश तेमने अर्पु छु.
१३, श्रीपालनगर आश्रमरोड
वि० सं० २०२२ पोष वद् १३
अहमदाबाद - १३.
लि०
सिद्धान्तमहोदधि आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्र मसूरीश्वर - अन्तेवासी पंन्यास प्रवर भानुविजयगणिवर्यनो प्रशिष्य, स्वर्गतपंन्यासपद्मविजयगणिवरपादपद्मभ्रमर -मुनि जगच्चन्द्रविजय,
卐
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9 भयुक्रा
६.७
८-१० १२-२४
२५-४६
४७
४८
१ संपादकीय २ प्रकाशक की ओर से ३ प्रस्तावना ४ विषय-परिचय ... ५ गुरुस्तुतिः ... ... ... ६ अर्याञ्जलि ... ७ विषयानुक्रमः... ... ८ यन्त्र-चित्राद्यनुक्रमः ... ... ९ ग्रन्थपठनात्पूर्वमेव संशोधनीया अशुद्धयः १० ग्रन्थः सटीकः ... ११ परिशिष्टानि ... ... ... १२ अशुद्धिप्रमार्जनम्
४९.५८ ५९-६१ ६१-६३ १-६७२
१५ १-११
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[बं० मू० ठिइबंधो. पिण्डवाडा (राजस्थान) ना वीरविक्रमप्रासादना मूळनायक आसन्नउपकारी चरमतीर्थपति
X श्री महावीरस्वामी कर
यत्पादभक्त्या भुवि भव्यलोकाः, सत्कीर्तिकान्त्यादियुता भवन्ति । पुष्णातु शं वो जिनवर्धमानःyval श्रीपिण्डबाडापुरमण्डनः सः ॥१॥
www.jainelibrary:
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पिन्डवाडा (राजस्थान) ना वीरविक्रमप्रासादमां रहेलां केटलांक अतिप्राचीन अनुपम शिल्पयुक्त प्रभावशाली पञ्चधातुमय जिनबिम्बो
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जे पिंडवाडा प्रवे. मू. जैन संघ तरफथी मळेल ज्ञानखातानी उदार सहायथी आ स्थितिबंध' ग्रंथरत्ननु प्रकाशन थयुं छे ते पिंडवाडा [ राजस्थान ] नो बावन जिनालययुक्त गगनचुंबी श्री वीरविक्रमप्रासाद
in Education International
iiiiiiii
ताजेतरमा जेनो जीर्णोद्धार पिंडवाडा श्रीस घे कराव्यो छे. यात्रिको माटे आ एक दर्शनीय अने आराध्य यात्राधाम छे.
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- प्रकाशक की ओर से
ܞ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
तपोगच्छगगनदिनमणि आबालवृद्ध तपस्वी विद्वान् शासनप्रभावक करीबन २५० मुनिगणके माननीय नेता दीर्घसंयमी सिद्धान्तमहोदधि पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी म. सा. ने वि० सं० २०१५ का चातुर्मास ५४ मुनिवरों के साथ सुरेन्द्रनगर में किया । वहाँ आपके शिष्यप्रशिष्यों के आगमादिशास्त्रों के पठनपाठन का अवलोकन कर कोई भी अत्यन्त प्रसन्न हुए बिना व बारबार जिनेश्वरदेव व जिनशासन के ज्ञान व चारित्रमार्ग का मन ही मन अनुमोदन किए बिना नहीं रह सकता था।
इसी अर्से में 'जैन साहित्य विकास मण्डल' अंधेरी-बम्बई के मेनेजिंग ट्रस्टी माननीय महाशय अमृतलाल कालिदास दोशी B. A. जो कि पूज्यश्री के मुनिओं द्वारा कुछ साहित्य का संशोधन करवाने के लिए भाये थे,प्रासंगिक बातचीत से कर्मसाहित्य के विस्तृतसर्जनको जानकर आपकी निश्रा में लिखे गये व भविष्य में लिखे जाने वाले 'खवगसेढी' आदि कर्म साहित्य को प्रकाशित करने का सहर्ष स्वीकार किया । पूज्य आचार्यदेवश्री का वि० सं० २०१६ का चातुर्मास शिवगंज में और वि० सं० २०१७ का चातुर्मास पिण्डवाडा में हुआ । उन दिनों में भी श्रीयुत अमृतलाल कालीदास भाई पिण्डवाडा आए और कर्मसाहित्य के प्रकाशन की पूज्यश्री से अनुमति प्राप्तकर बम्बई गए व अपनी 'जैन साहित्य विकास मण्डल' संस्था की मीटिंग बुलाकर प्रस्तुत साहित्य अपनी संस्था की ओर से प्रकाशित करवाने का निर्णय किया ।
बड़े सौभाग्य की बात है कि पूज्यश्री से कर्मसाहित्यविषयक परामर्श करते ही पिण्डवाडा के धर्मप्रेमी भाईयों को पूर्वकालीन परनारीसहोदर परमाहत् श्रीकुमारपाल महाराजा, श्रीवस्तुपाल, तेजपाल और ३६००० सोनामहोरके न्योछावर से श्रीभगवतीसूत्र का श्रवण करने वाले मांडवगढ के महामात्य श्रीपेथडशाह आदि श्रतभक्त महाश्रावकों का स्मरण हो आया और तभक्ति से प्ररित हो पूज्यश्री से प्रस्तुतकार्य जिसे कि श्रीयुत अमृतलाल कालीदास दोशी ने करवाने का स्वीकार किया था, पिंडवाडा के भाईयों ने करवाने की नम्र प्रार्थना की । प्रथम तो पूज्यश्री ने पिंडवाडा के भाईयों की मांग का स्वीकार न किया क्योंकि अमृतलालभाई से साहित्य के प्रकाशनादि संबंधी बातचीत पहेले हो चूकी थी मगर जब पिंडवाडा के साधर्मिक बंधुओं का अत्यन्त आग्रह व उत्साह देखा तो आपने श्रुतभक्ति का अपूर्व लाभ प्रदान कर उन बन्धुओं को अनुगृहीत किया । इस मंगल कार्य में पिण्डवाडा श्रीसंघ का पूर्ण सहयोग रहा।
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१० ]
प्रकाशक की ओर से प्रस्तुत कर्मसाहित्य के प्रचार-प्रकाशनादि विराट कार्य की जिम्मेवारी को समझकर पिण्डवाडा के उत्साही भाईयों ने
(१) शेठ रमणलाल दलसुखभाई खंभात (५) शा भृरमलजी सरेमलजी पिण्डवाडा (२) शा समरथमल रायचंदजी पिण्डवाडा (६) ,, मन्नालाल रिखबाजी लुणावा (३) शा लालचंद छगनलालजी , (७) ,, हिम्मतमल रुघनाथमलजी बेडा
(४) शा खूबचंद अचलदासजी , इन ७ सदस्यों की वि० सं० २०१८ में 'भारतीय-प्राच्य-तत्व-प्रकाशन-समिति' की स्थापना की । समिति के सदस्यों ने कर्मसाहित्य को जयपुर और ब्यावर में छपवाना शुरु किया करीब तीन साल काम चलता रहा, काम सुन्दर होने पर भी जिस गति से हो रहा था सम्भव है उस गति से आज तक एक ग्रन्थ भी पुरा नहीं छप पाता अतः छपाई शीघ्र व सुन्दर हो इस वास्ते समिति के सदस्यों ने समिति का निजी प्रेस पिण्डवाडा में लगवाया । साहित्य व छपाई आदि का कार्य समिति के सदस्यों के शुभ प्रयत्न से ठीक तरह से चलता था व सदस्यों की उदारता व प्रयत्न से आर्थिक समस्या भी हल हो रही थी। मगर कर्मसाहित्य का प्रकाशन व प्रचार आदि का प्रस्तुत कार्य अति विशाल होने से सदस्यों की संख्या बढाना आवश्यक समझकर सं० २०२१ की साल में शेठ जीवतलाल प्रतापशी आदि महानुभावों को समिति के सदस्य बनाएआज हमारी समिति का ट्रस्टीमण्डल इस प्रकार है१ शेठ रमणलाल दलसुखभाई (प्रमुख)
खंभात २ शेठ माणेकलाल चुनीलाल
बम्बई ३ शेठ जीवतलाल प्रतापशी ४ शा० खूबचंद अचलदासजी
पिण्डवाडा ५ शा० समरथमल रायचंदजी (मंत्री)
पिण्डवाडा ६ शा० शान्तिलाल सोमचन्द ( भाणाभाई ) (मंत्री)
खंभात ७ शा० लालचन्द छगनलालजी (मंत्री)
पिण्डवाडा ८ शेठ रमणलाल वजेचन्द
अहमदाबाद ९ शा० हिम्मतमल रुगनाथमलजी
बेडा १० शेठ जेठाभाई चुनीलाल घीवाले
बम्बई ११ शा० इन्द्रमल हीराचंदजी
पिण्डवाडा १२ शा० मन्नालालजी रिखबाजी
लुणावा ज्ञानपिपासु जनता को जानकर हर्ष होगा कि स्वल्पकाल में 'खवगसेढी' व 'ठिइबंधो' ये दो ग्रन्थरत्न हम पाठकों के करकमल में अर्पित कर रहे हैं 'रसबंधो' तथा 'पएसपंधो' जो दो ग्रन्थ छप रहे हैं वे भी स्वल्पसमय में पाठकों के करकमलों में अर्पित किए जायेंगे।
बम्बई
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प्रकाशक की ओर से
[११ आत्मकल्याण में हेतुभूतस्वाध्याय के लिये प्रस्तुत ग्रन्थराशि अत्यन्त उपयोगी है इसका विशेष खयाल ग्रन्थों की प्रस्तावना व विषयपरिचय पढने पर पाठक पा सकेंगे।
आत्मिक शान्ति देने वाले तात्त्विक आध्यात्मिक ग्रन्थों का आलेखन करके मुनिभगवंतों ने अपना कर्तव्य बजाया है। आलेखित ग्रन्थों को ताडपत्र व ताम्रपत्र आदि पर प्रतिलेखित करवाकर ज्ञानभंडारों में सुरक्षित रखना व यन्त्रालय आदि द्वारा मुद्रित करवाकर मुमुक्षुजनसमाज में उसका प्रचार करना यह हमारा गृहस्थों का फर्ज है। शास्त्रों में सुनते हैं कि सम्यग ज्ञानको पढने पढाने व लिखने लिखाने वालों की भाँति उसका रक्षण व प्रचार करने वाले भी केवलज्ञानादि आत्मरिद्धि के भोक्ता बनते हैं । इसी शास्त्रवचन को स्मरण में रखकर हमने इन शास्त्रग्रन्थों के प्रकाशन का प्रस्तुत कार्य हाथ में लिया है । ग्रन्थों का प्रकाशन व प्रचारादि सुचारु रूप से हो यह हमारी समिति का उद्देश है। हम गच्छाधिपति सिद्धान्तमहोदधि परमपूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज से अत्यन्त उपकृत हैं जिन्होंने जैनशासन के निधानरूप इस भव्यातिभव्य कर्मसाहित्य का सर्जन करवाया व जिनकी असीम कृपा से हमने श्रुतभक्ति का अपूर्व अलभ्य लाभ पाया, उन पुण्यपुरुष के पुनीत. चरणों में वन्दन कर हम अपनी आत्मा को धन्य मानते है ।
पदार्थसंग्रहकार विद्वान मुनिवरों, गाथाकार मुनिराज, टीका-विवेचनकार मुनिराज इन सब महात्माओं को वन्दना करते हैं । जिन्होंने अथाग परिश्रम लेकर कर्मसिद्धांत को विशद रूप दिया है । तथा अपने अमूल्यसमय का व्यय करके इस 'स्थितिवन्ध' ग्रन्थ की सुन्दरविशद प्रस्तावना लिखकर पू० मुनिराज श्री मित्रानन्दविजयजी महाराज ने बडा अनुग्रह किया है इन सब पूज्य पुरुषों के प्रति सवन्दन कृतज्ञता प्रदर्शित करते हैं इस स्थितिबन्ध' ग्रन्थ के प्रकाशन में रू०१००००) जैसे प्रचुर ज्ञानद्रव्य का विनियोग कर श्री पिण्डवाडाश्वे० मू० जैन संघने हमारी समिति को बड़ा सहयोग दिया है। हम इस पूजनीय श्रीसंघ के आभारी हैं । इस प्रकाशन कार्य में जिन्होंने अपने तन मन धन का स्वल्प भी व्यय किया है उन सबको भी वारवार धन्यवाद ।
इस अवसर पर ज्ञानोदय प्रेस के मैनेजर श्रीयुत फतेहचन्दजी जैन व प्रेसकॉपी करने वाले श्री पन्नालालजी सी० जैन बाफना व प्रेस के अन्य कर्मचारी भी स्मृति पथ में आ रहे हैं जिन्होंने इस कार्य में आत्मीयता प्रकट की है।
हस्ताक्षर पिन्उवाडा
१ शा० लालचन्द छगनलालजी (मन्त्री) म्टे. सिरोहीरोड ( राजस्थान ) २ शा० शान्तिलाल सोमचन्द (भाणाभाई) चोकसी (मन्त्री) ब्रांच-१३५/३७ जौहरीबजार
३ शा० समरथमल रायचन्दजी (मन्त्री) बम्बई २
भारतीय-प्राच्य-तत्त्व प्रकाशन समिति.
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प्रस्तावना
लेखक:- पूज्य विद्वान मुनिराजश्री मित्रानंद विजयजी महाराज
*
भारतीय प्राच्यतत्त्व प्रकाशन समिति, पिंडवाडा [ राजस्थान ] द्वारा संचालित आचार्यदेव श्रीमदूविजयप्रेमसूरीश्वर कर्मसाहित्य जैन ग्रंथमाळाना द्वितीय पुष्प तरीके प्रगट थयेलो 'मूलपयडिटिइबंधो' [ मूलप्रकृति- स्थितिबन्ध] ग्रंथ वाचकोना -दर्शकोना करकमलमां आवी रह्यो छे.
भा० प्रा० प्र० समिति, ग्रंथमाला तरफथी हाल मुख्य त्रण ग्रन्थो प्रकाशित करवानी तैयारी कर रही छे. १ खवगसेढी [क्षपकश्रेणि], २ उपशमनाकरण, ३ बंधविहाण [बन्धविधान]. आत्रणमां बंधविहाण अक महाकाय ग्रंथ छे. अना लगभग १४ भाग पडे छे ओटले १४ मोटा पुस्तक [ बोल्युम ] प्रमाण आ ग्रंथ थशे.
बंधविधान महाशास्त्र :
प्रथमखण्ड
द्वितीयखण्ड
तृतीयखण्ड
चतुर्थखण्ड
प्रकृतिबन्ध भा० १ मूलप्रकृतिवन्ध
भा० २ उत्तरप्रकृतिबन्ध
भा० ३,"
भा० ४
भा० ५
"
"
भा० ३
ܕܪ
11
15
"
स्थितिबन्ध भा० १ मूलप्रकृति स्थितिबन्ध
भा० २ उत्तरप्रकृति स्थितिबन्ध
भा० ३
29
17
स्थानप्ररूपणा १
२
रसबन्ध
भा० १ मूलप्रकृति रसबन्ध भा० २ उत्तरप्रकृति रसबन्ध
"
19
भूयस्कारादिवन्ध
99
भृयस्कारादिस्थितिवन्व
भूयस्कारादिरसबन्ध
प्रदेशबन्ध
भा० १ मूलप्रकृति प्रदेशबन्ध भा० २ उत्तरप्रकृति प्रदेशबन्ध भा० ३ "
भूयस्कारादिप्रदेशबन्ध
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[ १३
आम आ ग्रन्थमालानो प्रथम सेट आशरे १६ ग्रंथपुष्पोनो थशे. प्रस्तुत मूलपय डिठिइबंधो [मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध ] ग्रन्थ बंधविधान महाशात्रना बीजा खंडना प्रथमभागरूप छे. अनी विद्वान मुनिराज श्री वोरशेखर विजयजीओ रचेली ८७६ गाथाओ प्राकृतभाषामां छे अने तेना उपर प्रेमप्रभा नाम मुनिराज श्री जगचन्द्रविजयजीओ करेलु २० हजार श्लोकप्रमाण विस्तृत विवेचन-टीका संस्कृतमां छे. बन्धविधानना प्रथमखण्डनो प्रथमभाग 'मूलप्रकृतिबंध' लखाईने तैयार थई गयो छे पण तेना लेखक मुनिराज श्री गुणरत्नविजयजी 'खवगसेढी' ना सम्पादनकार्यमा रोकायला होवाथी ते ग्रंथ हवे पछी प्रगट थशे.
विश्वव्यवस्थानो विचार जैनर्दशने खूवज यथार्थदृष्टिथी कर्यो छे तेथीज जैनदर्शननी ताच्चिकता प्रत्ये विश्वना तच्चचितकोनु मस्तक नमी पड़े छे.
जैन दर्शने समजाव्यु' छे के जगत १ जीव आत्मा २. पुद्गल ३. धर्मास्तिकाय ४. अधर्मास्तिकाय ५. आकाशास्तिकाय अने ६. काळ-आ छ द्रव्यमय छे.
जीवद्रव्य - आत्मद्रव्य बीजाद्रव्योथी, यावत् शरीरथी पण स्वतंत्र अस्तित्व धरावे छे अने अ प्रमाणोथी साबीत छे.आ आत्मानी बाबतमां अनेक दृष्टिबिंदुथी प्रकाश पाथरतो यथार्थ आत्मवादजैन दर्शन मां मले छे.
आत्मद्रव्यना पण वे भेद छे. १. मुक्तात्माओ २. संसारी आत्माओ. मुक्त त्माओ कर्ममलरहित राग, द्वेष, मोह, अज्ञान, देह, मन, वचन तेमज पुद्गलद्रव्यना संगमात्रथी रहित, अनन्तज्ञानादिमय अने स्फटिकरत्नवत् निर्मल आत्मस्वरूपने वरेला छे अने तेओ लोकना मस्तकस्थाने सिद्धशिला उपर लोकान्तने स्पर्शाने रहेला छे, संसारीआत्माओनु मूलभूत असलस्वरूप मुक्तात्माओ जेव' होवा छतां अनादिकाळथी कर्ममलथी मलिन, राग, द्वेष, मोह, अज्ञान तेमज सुखदुःखादि लागणीओने पराधीन, शरीरादि पुद्गलद्रव्यना संगवालु छे. अकेन्द्रियथी मांडी पंचेन्द्रियपणासुवीनी भिन्न भिन्न अवस्थामा अने संसारनी चारगतिओमां तेओ परिभ्रमण करी रह्या छे. संसारी जीवोनी आ विकृत अवस्था कर्माणुओना संबंधने आभारी छ. अनंतशक्तिने वरेलो, अनंतगुणथी भरेलो आत्मा पण कर्मनी पराधीनताने कारणे अज्ञान, रागद्वेषादि अनंतदोषमय अवी भारे दयापात्र दशा अनुभवी रह्यो छे, आत्माना सहजस्वरूपने दवावी देनार कर्मसत्तानी अनंत जटिलताने विवेचतां कर्मवाद-कर्मविज्ञाननी ओक अनोखी देण जगतने अंकमात्र जैनदर्शने ज करी छ.
जीवमात्रना सुखदुःखमां अने संसारपरिभ्रमणमां मुख्यभाग भजवनार कर्म अने तेना ज्ञानविज्ञान नी अर्थरूपे प्रथमप्ररूपणा अनंतउपकारी श्री तीर्थङ्करभगवंतोओ करी अने श्रोगणधरभगवंतोओ अने सूत्ररूपे गुथी. चौदपूर्वमां अनेक स्थले कर्मवादनु विज्ञान संगृहीत कयु. तेमांना बीजा आग्रायणीपूर्वना क्षणलब्धि (वचनलब्धि) नामनी पांचमी वस्तुना कर्मप्रकृति नामना चोथा प्राभृतमां थयेला कर्मवादना उद्धार अंगे जुओ प्राचीनशतकचूर्णिनो शास्त्रपाठः
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१४ ]
'किं, परिकम्म सुत्त - पढमाणुओग-पुच्वगयचुलियामइयातो सव्वाओ दिट्ठिीवायाओ कहेसि ? न इत्युच्यते - पुव्वगयाओ । किं उप्पायपुव्व अग्गेणिय जाव लोगबिंदुसाराओ त्ति एयाओ चोदस विहाओ सव्वाओ पुव्वगयाओ कहेसि ? न इत्युच्यते-अग्गेणियातो बोयाओ पुव्वातो 1......... खणलडीणामपंचमं वत्थु तातो ......... पंचमस्स वत्थुस्स चउत्थं पाहुडं कम्म पगडीनामवेज्जं ततो कहेमि । काळवळे पूर्वशास्त्रोनो विच्छेद थतो गयो तेम बहुश्रुतपूर्वाचार्य भगवंतोओ अनेक विषयोपर 'पूर्व शास्त्र नाझरणारूप ग्रंथो रच्या अना विस्तृत विवेचनो लख्या अने से रोते अगासागरसम पूर्वज्ञानना अंशरूप रहस्योने जीवंत राख्या. परंतु काळनी विकराळ फाळ जगतउपर पडी रही ले तेम ते ते काळना संघोओ घणुं रक्षण करवा छतां आ ज्ञाननो खजानो काळनो भोग बनतो ज रह्यो अने घणा मौलिक शास्त्रग्रंथोनो ह्रास अने नाश थतो रह्यो. छतां आपणा कक सद्भाग्ये कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह, प्राचीनकर्मग्रंथो, नव्यकर्मग्रंथो, शतक, शतकभाष्य, शतकचूर्णी, कर्मप्रकृतिचूर्णीनु टोप्पण, सित्तरिचूण्णी, सप्ततिकाभाष्य, कषायप्राभृत, कषायप्राभृतचूर्णी, षट्खंडागम वगेरे कर्मसाहित्य तेमज ओने अंगे सहायक श्रीभगवतीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र, जीवाजोवाभिगमसूत्र, वगेरे आगमग्रंथो तेमज लोकप्रकाश. जीवसमास आदि प्रकरणग्रंथो उपलब्ध थाय छे.
कर्मविषयक आवाङ्मय आपणने कदाच घणु लागशे अने कर्मविज्ञानने संगीतरी समझवा पुरतु' लागशे पण प्रेम नथी, कालना प्रभावे मतिमान्य पण गति करी रा छे, बुद्धिनिधान पूर्वाचार्य भगवंतोना प्रौढ संस्कृत- प्राकृतभाषामां रचायेला ग्रंथो शब्दसंक्षिप्त अने अर्थगंभीर होय छे. अ महापुरुषो शास्त्रग्रंथोमां जरुरी लागतु विवेचन कर्या पछी दरिया जेवा कर्मविज्ञानी ओक ओक वातने सूक्ष्मताथी तेमज ऊडाणथी विचारवामाटे गत्यादिमार्गणाद्वारोनुं सूचन कयु छे.
१ बीजा श्राग्रायणी पूर्वनी पांचमी क्षरण (वचन- चयन) लब्धि नामनी वस्तुना कर्म प्रकृतिनामना चोथाप्राभृतना चोवीस अनुयोगद्वारोमांना छट्टा बन्धनद्वारना ४ विभाग पडे छे - १ बन्ध २ बन्धक ३ बन्धनीय ४ बन्धविधान. तेमांना ४ था बन्धविधानमां प्रकृतिबन्धादि चारे प्रकारना बन्धनु निरूपण छे ते जेमां उद्धृत थयुं छे ते शतकचूरिंगना पाठनो भावार्थ:
'शु परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत [ चोदपूर्व ] भने चुलिकामय समग्र दृष्टिवादमांथी उद्धृतकरीने शतकप्रकरण निरूपण करशो ? ना, मात्र चोथा पूर्वगतमांथी. शु उत्पाद श्राग्रायणी थी मांडी बिन्दुसार सुधीना चौदे पूर्वमांथी उद्धृत "करशो ? ना, चौदमांना बीजा आग्रायणीपूर्वमांथी. शु भाठ वस्तुप्रमाण समग्र आग्रायणी पूर्वमांथी करशो ? ना, आग्रायणी पूर्वनी पांच मी क्षणलब्धिवस्तुमांथी करीशु . शु पांच मीत्रस्तुना वीसेवीस प्राभृतमांथी करशो ? ना, चोथा कर्मप्रकृति नामना प्राभृतमांथी करीशु शु कर्म प्रकृतिप्राभृतनां चोवीस अनुयोगद्वारो छे ते सर्वमांथी उद्धृत करशो ? ना, चोवीसमांथी छट्ठा बन्धद्वारना चोथा बन्धविधान अनुयोगद्वारमांथी उद्धृत करीने निरूपण करीशु.
आम कर्मविज्ञान पूर्वंशास्त्रोमांथी उद्धृत थयुं छे. ये स्पष्टरीते साबीत थाय छे.
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जुओ-कर्मप्रकृतिनो शास्त्रपाठ -
“करणोदयसंताणं सामित्तोघेहिं सेसगं णेयं ।
गइआइमग्गणासु संभवओ सुट्टु आगमिय ॥ ५३ ॥ "
अर्थ-आठकरण तेमज उदय अने सत्ता स्वामित्व ओघथी कह्यु. बाकीनु ं बधु ं गत्यादिमार्गणाओमां ज्यां जे रीते घटे ते रीते पूर्वापर विचार करी जाणी लेवु.
गत्यादिमार्गणा रोमां विचारयामाटे आज उपलब्ध कर्मसाहित्य आपणने भरपूरसामग्री पूरी पाडे छे. अ रीते कर्मविज्ञान विषयनो विचार थाय तो सामान्यरीते मर्यादित लागतो अ विषय अतिशय विस्तृत प्रतीत थाय छे.
[ १५
अ कर्मसाहित्योद्धारक महाविभूतिः
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परमपूज्य संघकौशल्याधार सिद्धांतमहोदधि सुविशालगच्छाधिपति आचार्यभगवंत श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वर जो महाराजा जेम ओक विशुद्धसंयमना पालक महासंयमी छे, बहुश्रुत महान - ज्ञानी पुण्य पुरुष छे. अनेक आबालवृद्ध, शासनप्रभावक, विद्वान, संयमी अने उग्रतपस्वी शिष्यरत्नोने तैयार करनार तेमज वर्तमानकाले शासननी ओक प्रौढविभूति छे, तेम सूक्ष्मातिसूक्ष्म अने गहन वा कर्मसाहित्यना मर्मज्ञ अद्वितीय महापुरुष छे. तेओओ वर्षो सुधी सखतत्याग साथे कर्म - शास्त्रोना वाचन-मनन- परिशीलन पछी अना अंतस्थ महारसने चाख्यो छे.
श्री ठाणांगसूत्रादि शास्त्रग्रंथोमां धर्मध्यानना चारपाया (प्रकार) मां विपाकविचयने अक पायो (प्रकार) को छे. द्रव्य-क्षेत्र -काल- मात्र अने भवनु निमित्तपामी कर्मो केवी रीते वंधाय छे. कर्माना शुभान के विचित्र फलो मले छे तेनो उंडो विचार आ ध्यानमां समाय छे.
पूजनीय आचार्य भगवंते वर्षोसुधी दिवस रातो आवा ध्यान-चिंतन पाछल पसार करी छे अने अक पात्र आत्मरमणता अने पापोनी मंदता अनुभवी छे.
नागिन कर्मशास्त्रोनी मर्मज्ञतानु जैनशासननी परंपरामां अक विशिष्ट गौरव मनायुं छ. सकलसंवमां मान्य कर्म साहित्यना महान निष्णात तरीकेनो सुप्रसिद्धि तेजश्रीने वले. ते ओश्रीए कर्मशास्त्रोना चिंतन-मननना परिपाकरूपे कर्मसिद्धि, संक्रमकरण भा. १-२, मार्गणाद्वारविवरण नगरे मोलिकग्रंथोनी अनेक शास्त्रोना नवनीतरूपे सुबोधशैलीमां रचना करी. तेम छतां तेओश्रीने संतोष न हतो. तेओश्रीनु अंतर झंखतु' हतु' के 'वर्तमानमां उपलध कर्मसाहित्य, आगमग्रंथो अने प्रकरणग्रंथांना आधारे सत्पदादिद्वारोमां तेमज गत्यादिमार्गणाद्वारोमां विस्तृत सरळ अने सुबोध शैलीमां कर्मशास्त्रोनु नवसर्जन थाय, केटलाक विषम लगता पदार्थों चिंतन मननने अंते सुगम अने निर्णीत थाय तो जैनशासनना कर्मविज्ञाननो मौलिकता, विस्तार जगतने जोवा, जाणवा मले. सेंकडो वर्षोसुधी ग्रंथारूढ नहि थयेलो परंपरागत आ वारसो
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भव्यजीवोने चिंतन-मननादि द्वारा कर्मनिर्जरामाटे लाभदायी निवडे अने आत्मकल्याणर्नु अक अंग बने आ शुभमनोरथने सक्रियरूप आपवा वि० सं० २००४ ना खंभातना चातुर्मासमां तेओश्रीओ 'बंधनकरण' उपर लखवानु शरू कयु पण विशाल साधुसमुदाय,संघ अने शासननी अनेक शुभप्रवृत्तिओमां से लेखनकार्यने वेग आपी शकायो नहि. आ शुभकार्यमा शिष्योनो साथ :
पोताना समग्र जीवनने सुविशुद्ध संयमना रंगे रंगी नाखनार आ चारित्रनिष्ठ महापुरुाने भोगविलासना आ झेरीयुगमां पण भव्यात्माओने कठोरसंयमना मार्गे, अध्यात्मज्ञानना राहे सफल प्रयाण करावधानी जाणे लब्धि न धरी होय ! तेओश्रीनी शांत-प्रशान्त विरागमुद्राना दर्शन, चारित्रप्रभाव अने सत्प्रेरणाथी सेंकडो भव्यात्माओ संयमना पंथे प्रयाण करी चूक्या हता. सं० २००५-२००६ मां मुबई अने पालीताणाखाते तेमज सं०२००७२००८-२००९-२०१०-२०११-२०१२ नी सालमां मुंबई वगेरे क्षेत्रोमां संख्याध युवको तेमज कुटुबोना, कुटुबो पूज्य आचार्यभगवंतनी ज्वलंत वैराग्यप्रेरणाथी अने पूज्य प्रभावकप्रवचनकार गुरुदेव पं० श्रीभानुविजयजी गणिवर्यनी वैराग्यरसतरबोळ धर्मदेशनाना श्रवणथी मुक्तिमार्गना पथिक बन्या. ते सर्वने दीक्षादान पछी ग्रहणशिक्षा अने आसेवनशिक्षा आपवानु महत्चनु कार्य पूज्य आचार्यभगवंते तथा तेओश्रीना शिष्यप्रशिष्यरत्नो पू० पं० श्री हेमंतविजयजी गणिवर्य, पू० पं० श्री भानुविजयजो गणिवर्य तथा पू० पं० श्रीपद्मविजयजी गणिवरे उपाडी लीधु.आदर्शसाधुओ तैयार करवानी पूज्य आवार्यभगवंतनी इच्छाना तेओ रजे रज पारखनारा हता. पूज्यश्रीनी छत्रछायामां त्रणे पंन्यासप्रवरोओ साधुओने ग्रहण-आसेवनशिक्षा आपवान कार्य खूब खंतथी कयु. तेओओ आपेली उपदेशमाळा-पुष्पमाळा, यतिदिनचर्या, यतिशिक्षा, धर्मरत्नप्रकरण, श्री महानिशीथसूत्र प्रथम बे अध्ययन, आचारांगमूत्र, नंदीसूत्र, आवश्यकसूत्र, पाक्षिकमूत्रटीका वगेरेनी वाचनाओओ अपूर्व चेतना जगावी, तेनोज सुंदर प्रभाव छे के आजे आ मुनिवरो संयम, त्याग, तप, समितिगुप्तिना पालननी चीवट, आदर्श गुरुभक्ति, स्वाध्यायरतता आंतरमुखता, आज्ञापालकतादिगुणोथी शोभी रया छे.
संसारथी पराङमुख बनेला आ विरागी मुनिओ संयमसाधना अने श्रतोपासनामां सुलीन बनी गया. थोडो अभ्यासक्रम आगळ वध्या पछी पू० आचार्यभगवंतनी इच्छा मुनिओने न्यायदर्शन नु अध्ययन करायानीथई त्यारे पू० गुरुदेव पंन्यासप्रवरश्री भानुविजयजो महाराजे पूज्य आचार्यभगवंतने विनंति करी के न्यापना अध्ययन माटे तो हुबेठो छु. आप कृपालु कहेशो त्यारे करावीश, हमणां आप कर्मसाहित्यनो अभ्यास करावो तो मुनिओने आफ्नो आ खास विषय संगीन रीते मळी जाय. पूज्यपाद आचार्यदेवने ते ठीक लाग्यु तेथी पूज्य गुरुदेवे मुनिओने अंक अठवाडीयु जैनशासनना आत्मा, कर्म, कर्मबंधना हेतुओ, गुणस्थानक, बंध, उदयादि उपर प्रकाश
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१० पाथरती समजुती आपी. आ सात दिवसनी वाचनाओ कर्मवादनो सारो परिचय मुनिओने आप्यो. आरीते सागर समा कर्मसाहित्यमा प्रवेशमाटे उत्साहित कर्या त्यारवाद पूज्य आचार्यभगवंते कमसाहित्यन अध्ययन कराव्यु.बारमास जेटला समयमां तो छ कर्मग्रंथ, कम्मपयडी, पंचसंग्रहना निष्णात बनावी दीधा.
पूज्यश्री पासे ते विषयनुतलस्पर्शी संगीन ज्ञान हतु. मुनिओनी बुद्धि कुशाग्र हती. विनयनी पात्रता हती. अध्ययननी अपूर्व खंत हती. टुक समयमां मुनिओ विषयना अगाध उडाणमां उतरी गया विषयनी सूक्ष्मता अने गहनताने कारणे घणाओने निरस अने कंटाळा रूप लागता आ कर्मसाहित्यमां तेओए भारे रस चाख्यो. चिंतन-मनन-परस्पर पोलोचन जटिलपूर्वपक्ष अने शास्त्रसिद्ध युक्तिओ भर्या अकाट्य उत्तरपक्ष द्वारा मुनिओए पूज्य आचार्यभगवंतश्रीने आनंद विभोर, आश्चर्यमुग्ध अने परम संतुष्ट कयों. पुनामां २०११ना चोमासामां पू० गुरुदेव पंन्यासजी महाराजे १८-२० साधुओने न्यायदर्शनना प्राथमिक ग्रन्थोनो अभ्यास कराव्यो. पूज्यपाद आचार्यभगवंते अनेक मुनिवरोने आ रोते तैयार थयेला जोया अने पोताना शुभमनोरथने सक्रिय रूप आपवानी सुशक्यता देखाई. तेओश्रीए २०१४मां अमदावादमां पोतानो मनोगत मंगलमनोरथ शिष्यमंडळ आगळ जाहेर कयों, आ मनोरथ जाहेर थतांज परमगुरुभक्त शिष्योए एने अंतरथी वधावी लीधो. ओ मंगल प्रयाण हजो :
सुरेन्द्रनगरना श्रीसकलसंघनी अत्याग्रहभरी विनंतिथी पू० आचार्यदेवादि ठाणा ५४ नुवि० सं०२०१५ नुं चातुर्मास सुरेन्द्रनगरमांथयु,बारमा तीर्थपति श्रीवासुपूज्यस्वामीनी शीतल-मंगल छायामां प्राचीनसाहित्यना आधारे श्रीकर्मसाहित्यना विस्तृतसर्जन नो मंगल प्रारंभ थयो । शरुआतमां मुनिराज श्री जयघोषविजयजी, मुनिराजश्री धर्मानंदविजयजी तथा मुनिराजश्री हेमचन्द्रविजयजी आ त्रण मुनिवरो कार्यनो आरंभ कयों, पाछळथी विद्वान मुनिराजश्रो गुणरत्नविजयजी पण आ कार्यमा जोडाया तेमां सर्वप्रथम क्षपकश्रेणि अने उपशमनाकरणना पदार्थो-विषयो नुव्यवस्थित संकलन कयु, अनेक शास्त्रग्रंथोना आधारे अने गुरुभगवंतोना महानविनयथी परिकर्मित बुद्धिना सहारे करेलु आ विषयोनु पर्यालोचन अटलु तो उंडु अने विस्तृत हतु के अना मोटा बे ग्रंथो तैयार थया ।।
उपशमनाकरण अने क्षपकश्रेणिना विषयनी नोंध मारा लघु गुरुबांधव विद्वान मुनिराज श्री हेमचंद्रविजयजीओ करी हती जे गणितनी प्रक्रियाथी भरपूर हती पाछळथी मुनिराज श्री गुणरत्न विजयजी अक्षपकश्रेणिना समाविषयने प्राकृतगाथाओरची ग्रंथरूपे गुंथ्यो तेमज लगभग १८थी २० हजार श्लोकप्रमाण संस्कृतमा टीका रची. ते खवगसेढी ग्रंथरत्न पण आ साथेज प्रकाशित थई रह्यो छे।
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बंधविधान महाशास्त्रनु सर्जन :
__ खवगसेढी अने उपशमनाकरण आ वे ग्रंथोना पदार्थो संकलन तैयार थया बाद 'बंधविधान' ग्रंथनु कार्य मुनिओप्रारंभ्यु, परमपूज्य आचार्यदेवना शुभाशीर्वाद मेळवी ग्रंथनु मंगल कयु,आ ग्रंथमां बंधनकरण अने शतकादिग्रंथोना विषयनो संग्रह अने विस्तार करवानो हतो. प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध, प्रदेशबंध आ चारे प्रकारना बंधनामूल-उत्तरभेद,भूयस्कार, तेना पदनिक्षेप, वृद्धिआदि तथा स्थानादि प्ररूपणानो सत्पदादिद्वारोमां तथा गत्यादिमार्गणा
ओमां विस्तृत विचार करता आ ग्रंथनुसजेन दोढथी बे लाख श्लोकप्रमाण थाय अवु लाग्यु. अने अना लगभग १४-१५ चोपडा (बोल्युम) तैयार थाय अटलु विराट कार्य हतु, आ कार्य वे. चार व्यक्तिओथी थर्बु शक्य न हतु तेथी कर्मप्रकृत्यादिनो अभ्यास करी तैयार थयेला बीजा ८-१० मुनिवरोने पू० आचार्यभगवंते आ कार्यभारना सहयोगी बनाव्या. पदार्थ संग्राहक मुनिवरो:
पूज्यपाद करुणासिंधु आचार्यभगवतनी परमकृपाना पात्र मुनिराजश्रीजयघोषविजयजी तथा मुनिराजश्री धर्मानंदविजयजो आ वे मुनिवरो कर्मसाहित्यना नवनिर्माणना कार्यमां स्थंभभूत छे, तेमांना प्रथम मुनि, पूज्य पंन्यासप्रवरश्री भानुविजयजी गणिवर्यना शिष्यरत्न मुनिराजश्री धर्मघोष विजयजीना शिष्यरत्न छे. आगमा शास्त्री, प्रकरणग्रंथो अने खासकरीने छेदग्रंथोना तेओ विद्वान छे, बीजा मुनि, पूज्य पंन्यासप्रवरश्री भानुविजयजी गणिवयंना शिष्यरत्न छे, तेओ पग आगमो, प्रकरणोना सारा अभ्यासी छे, कर्मसाहित्यमां गणितानुयोगनो विषय सारा प्रमाणमां आवे छे ते गहन होय छे; तेने आ मुनि सुंदररीते स्पष्ट करे छे.
कर्मसाहित्यना सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषयनी गहनताने भेदवानु सौभाग्य आ वे मुनिओओ प्राप्त कयु छे. तेमनु गंभीर शास्त्रयांचन, अगाध चिंतन अने रातदिवस अनुपरिशीलन छे. विषय ना अकलेक मुद्दाने अनेक ग्रन्थो वांची अनो परस्पर समन्वय करेछे, ज्यां शंकास्पद लागे त्यां वीजा आगमग्रथो, प्रकरणग्रंथोनी सहाय लई पू० आचार्यभगवंत साथे अनी विचारणा थया बाद शांत-स्वस्थचित्ते अनुप्रेक्षा करी समाधान चोक्कस करे छे. अने यथार्थ उकेल लावे छे. ते पछी मुनिओने अनु विवरण समजावे छे त्यारबाद गाथाना आधारे मुनिओ टीकानु आलेखन करे छे. पदार्थसंग्रहकार तथा गाथाकार मुनिराजश्री वीरशेखरविजयजी :
आ मुनिराजश्री मुंबई दादर खाते पूज्यगीतार्थ गच्छ हितचिंतक पंन्यास प्रवर श्रो हेमंत विजयजी गणिवर्यना सं० २००७-२००८ ना चातुर्मासमा १३ वर्पनी वये अट्ठाई तथा
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उपधाता कयों त्यारथी वैराग्यवासित थया . त्यारबाद पूज्यपाद आचार्यभगवंतनी प्रेरणाथी सं० २०११ मा १६वांनी वये चारित्र अंगीकारी पू० पंन्यासजी महाराजना शिष्यरत्न मुनिराजोललितशेखरविज रजोना शिष्यरत्न मुनिराजश्रीराजशेखरविजयजोना शिष्यरत्न थया . आ मुनिवरनो शास्त्र यासंग आदर्श छ नानीवयमां संस्कृत प्राकृतव्याकरण प्रारण थो, न्याय कोरेना अध्ययनमा सारो विकात साध्यो छे . बन्धविधान थना पदार्थसंकलनमां तथा गणिाविभागले सरल बनावानां तेमनो माचनो फाळो छेगाथारूपे गुंथवाना पदार्थानी चिंतनार्वक नोंवकरी उपयुक्त बने पदार्थसंग्रहकार मुनिवरो साथे विचारणा करी तेमनी पासेथी विशेषपदार्थो मेळवी पदार्था-विषयनो निर्णय करीने आर्याछंद अने तेना पेटा भेदोमां गाथाओ बनावे . बन्धविधान ग्रंथनी आशरे १५००० प्राकृत गायाओरचवार्नु महानकार्य पूज्य आवार्य भगवंतनी आज्ञाथी तेओओ कयु छ ग्रंथनो अतिविस्तार न थाय तेनी चीवट राखी शक्य तेटला संक्षेपमां विषयने समाववानी सारी कुशलता अमणे दाखवी छे . विवेचनग्रंथनु शुभनाम 'प्रेमप्रभा :
'बंधविधान' ग्रंथ उपर जुदा जुदा मुनिवरो संस्कृतमा रचेला विवेचननु सान्वर्थनाम 'प्रेमप्रभा टीका राखवामां आयु छे. आ विराट कर्मसाहित्यना सर्जेनमा प्रेरणादाता,प्रकाशदाता अने चेतना जगाउनार होय तो ते पुण्यनामधेय आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजो महाराजा छे.
आजना वाणीस्वातंत्र्य उने विचारस्वातंत्र्यना युगमा यौवनना थनगनाट वखते सहजसु ठन लोकप्रसिद्धि, आदि बाह्यभाषमां न खेंचातां वर्षों सुधी श्रमसाध्यकार्यमां लीन बनी बहु टुकसमयमा मुनियो आ महानकार्य करी शक्या छे ते कोई मात्र अमनी पोतानी शक्तिथी नहि पण सदैव स्मरणीय पू. आचार्य भगवंतनी परमकृपाथी अने दिव्यआशीर्वादथी करी शक्या छे. तेथीज ते परमगुरुदेवना अनंत उपकारोनी चिरस्मृतिमाटे तेओश्रीना प्रेमनी-सम्यग्ज्ञानदानादिवात्सल्यनी प्रभारून सार्थक नामनी पसंदगी करवामां आवी छे.
___ अनेक शास्त्रग्रंथोना दोहनरूपे आग्रंथ तैयार थयो छे. ते ते विषयने स्पर्शतो वातो,विवारो-हेतुओ अनेक शास्त्रग्रंथोनाआधारे चर्चवामां आव्या छे. विषमस्थलो विस्तृत अने स्पष्ट विवेचन पूर्वक सरल सुज्ञेय बनाव्या छे. अनेक ग्रंथोना संकटो साक्षोपाठोयो सड,यंत्रो अने चित्रोथो भरपूर आ ग्रंथ ज कहो आपशे के केटला श्रन अने समरना बलिदानपूर्वक अने तैयार करवामां आव्यो छे, रचना संस्कृत-प्राकृतभाषामांज केम करो ?
अनेक मुनि रोनी वर्षांनी महेनतने अंते तैयार थयेल आ जीवनोपयोगी मननीय साहित्यना
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सर्जनमाटे गुजराती, हीन्दी, अंग्रेजी भाषा पसंद न करता संस्कृत प्राकृत भाषानी पसंदगी शामाटे करी ? आ प्रश्ननुसमाधान ओछे के (१) संस्कृत प्राकृतभाषा सर्वदेशीय अने सर्वकालिक छ. अमां परिवर्तनो भाग्येज आवे छे, आ भाषाओनी हजारो वर्षोथी प्रायः अक सरखी पद्धति चाली आवे छे. (२) आ भाषाओनी खूबी ओ छे के विषयना गमे तेवा विस्तार के अतिविस्तारने जे रीते वधुमां वधु संक्षेपमां आ भाषाओमां रजू करी शकाय छे ते रीते प्रायः बीजी भाषाओमां रज़ करवो अशक्य छे. प्रस्तुत विषयना अगाध विस्तारने सांकेतिक शब्दोने के यंत्रोने धारी रीते बीजी भाषाओमां कोइ रीते न समावी के समझावी शकाय. (३) गुजराती वगेरे भाषाओ प्रत्येक युगमां पलटाती रहे छे. दरेक प्रान्तोमां पण ते अंगे घगी भिन्नता प्रवतें छे तेथी युगपरिवर्तन साथे आ ग्रंथो पण अनुपादेय बनी जाय. आवा अनेक कारणोथी संस्कृत-प्राकृतभावानो आश्रय लेवायो छ छतां ग्रंथमां विषयपरिचय साररूपे गुजरातीभाषामां आप्यो छ. 'स्थितिबंध' ना टोकाकार मुनिवर्य श्री जगच्चंद्रविजयजी:
___ आ प्रस्तुतमां प्रकाशित थइ रहेलो मूलपयडो ठिइबंधो [ मूलप्रकृति स्थितिबन्ध ] ग्रंथनी प्रेमप्रभा' नामनी २० हजार श्लोक प्रमाण टीका [विवेचन] ना रचयिता मारा . लघु गुरुबांधव मुनिराजश्री जगच्चंद्रविजयजो छे. पूज्य परमगुरुदेव पंन्यासप्रवरश्री भानुदिजयजी गणिवरना शिष्यरत्न मारा पूज्य गुरुदेव पंन्यासप्रवरश्री पद्मविजयजो गणिवर्यनातेओ शियरत्न छ. प्रथमथीज आ मुनिवर नी बुद्धि कुशाग्र अने तप्रधान हती. अदम्पउत्साहथी गुरुसेवा अने ज्ञानोपासना साथे तेमणे आजे १४ वर्षेने अंते पण लगभग नित्य अकासगानो तप अजोड त्याग साथे चालुज राख्यो छे. आ टीकाग्रंथनी रचनामां तेमणे अपूर्व बुद्धिकौशल वापर्यु छ. न्याय, व्याकरण, आगम, प्रकरण अने कर्म साहित्यविषयक अमनी विद्वत्ता आ टीकाग्रंथ मां देखाइ आवे छे. आ 'प्रेमप्रभा टीकाग्रंथनी मौलिकता :
(१) मूलगाथाना प्रतीको पद्धतिसर जरूर पड़े त्यां टीकामां उतायो छे. (२) ते प्रतोकोनो स्पष्टशब्दार्थ करवामां आव्यो छ. (३) जरूर पड़े त्यां मे प्रतीकोनो तथा समग्रगाथानो रहस्यार्थ खोलवामां आव्यो छे. (४) पदार्थने सचोट सिद्ध करती प्रबल युक्तिओ आपी छे. (५) प्रसंगोपात ६० उपरांत शास्त्रग्रन्थोना ३०० लगभग साक्षी पाठो आप्या छे. (६) शंका अने तेना समाधानो द्वारा विषयने रसमय अने सुबोध बनाव्यो छे. (७) कोइक स्थले मूलगाथामां न कहेला ते ते विषयना मतांतरो टीकाकार विद्वानमुनिवरे अन्य शास्त्रग्रंथोनु अबलोकन करी पदार्थसंग्रहकार मुनिवरो साथे विचारणा करी संगृहीत कर्या छे. (८) सूक्ष्म बावतोने समजवानी सरळता माटे घणे ठेकाणे दृष्टान्तो आपी विषयनु विशदोकरण कयु छ जुओ
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पृ० १३, १४, १७, २६, २८, ६३५. (९) मूक्ष्म विषयोने दृष्टान्तोथी स्थापना करी यंत्र रूपे पण गोठव्या छे. जुओ-पृ० १४, २०, ३४१, ५१३, ६३६, ६४६, ६५४, ६६३. (१०)आ ग्रंथना छ अ अधिकारोना प्रत्येक द्वारोना समाविषयने १ के २ पृष्ठमां संक्षेपमा बतावी देतां आरिसा जेवा यंत्रो(कोठाओ)आ ग्रंथ महत्व अंग छे, आ मुनिवरे सर्वप्रथम आवा यंत्रोनी कलात्मकशैलीनो चीलो पाडी पछीना बधाज ग्रंथो माटे अंक सुंदर मार्ग चींध्यो छे. पृ० नं० १९४ उपर कायस्थितिप्रदर्शकयंत्रमा तो जबर खूबी वापरी छे, एकज पेजमां १७० मार्गणाओने जुदी जुदी संज्ञाओ-संकेतो आपी नीचे फूटनोटमां तेनी जघन्यकायस्थिति, उत्कृष्टकायस्थिति,मतांतरे मनाती कायस्थिति दर्शावी छे अने ते ते कायस्थितिनो गाथांक पण आप्यो छे. ___यंत्रोमां व्यवस्थित कोठाओ पाडी ते ते द्वारोना संपूर्ण विषयने संक्षेपमा अ रीते रजु को छ के विषयना जाणकारने यंत्र उपरथीज अध्ययन करावयु होय तो करावी शके. अध्ययनकरनार अकवार विस्तारथी यांची गया पछी आ यंत्रो उपरथी विषयनु पुनरावर्तन करी शके, गाथाओमां मार्गणाओ कदाच आगल पाछल गोठवायेली होय तो यंत्रनी सहायथी पदार्थ शोधी शकं. यंत्रोमां आपेठ गायानंबरथी पदार्थनो विस्तार जोवानी खूब सारी अनुकूळता थई छे,विषयने दीवा जेयो स्पष्टकरी आफ्नार आवा ७८ यन्त्रोथी मुनिश्रीओ आ स्थितिबंध ग्रंथने अलंकृत को छे. यंत्रोनी कठा अटले शास्त्र सागरन गागरमा समाववानी कला. यंत्रोमां विषयोनी गोठवण केवी खूबीभरी छ ते नीचे बतावेली यंत्रनोवानी २-३ रीतो परथी ख्यालमां आवशे. यन्त्रमा गुथेला पदार्थाने समजवानो केटलोक रोतो:
A कार्मणकाययोगमार्गणामां आयुष्य सिवायना सातकर्मनी जघन्यस्थितिबंधनु प्रमाण केटलु ? अने केम ? अ जाणवु छे तो १. यंत्रोनी अनुक्रमणिका जोई सातकर्मना जघन्यस्थितिअनु यंत्र काढ, २. अ यंत्रनी उभी कोलममां योगमार्गणाना नीचेना खानामां कार्मणकाययोगमार्गणा जोवी, ३. तेनी सामे आडी कोलममा पहेला खानामांज कामेणकाययोगमार्गणामां थतां सात कर्मना जघन्यस्थितिबंधनु लखेलु प्रमाण मली आवशे. ४. अटलु प्रमाण शामाटे ? अ जागवा यंत्रनी आडी कोलममां छेल्ला खानामां गाथा नंबर जोई ते गाथानी टीकामां करेला पदार्थ ना स्पष्टीकरणमा अनो हेतु मली शकशे,
B पर्याप्तपंचेन्द्रियमार्गणामां आयुष्यकर्मना अजघन्यस्थितिबंधकोनी स्पर्शना केटली ? ते जाणवा माटे १.ते कर्मनी ते स्थितिना बंधकोनी स्पर्शनानुयंत्र अनुक्रमणिकाना आधारे काढणे, २. तेमां पहेली उभी कोलममां इन्द्रियमार्गणाभेद जोवो, ३. तेना वीजा खानामां प्रस्तुत मार्गणाभेद देखाशे. ते खानानी उपरना खानामा स्पर्शनानु ८ राज प्रमाण देखाशे नीचे छेल्ला खानामां गाथानो अंक मलशे. ते गाथानी टीकाना आधारे अनो हेतु पण जाणी शकाय छे.
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२२
C मोहनीयकर्मनी असंख्य-संख्यभागवगेरे स्थितिबन्ध वृद्धिहानीओ अने स्थितिबन्ध अवस्थितआस्तव्यनाबंधकोथी उत्पन्न थतां भांगा केटला थाय ते जागछे तो ते माटे १. यन्त्रानुक्रममाथी सातकर्मना स्थितिबंधवृद्धि आदिना बंधकोना भंगविचयन यंत्र काढQ,२. पूर्वनी जेम लोभापायमार्गणाना खानानां जोतां २१८७ भांगा जागावा मलशे. अनो हेतु जाणवा माटे गाथाना आधारे टीका जोवी.
आम यंत्रोनी जोवानी रीत जाण्या पछी सागर जेवा विशाल ग्रंथमांथी जो ते पदार्थन अन्वेषण सहेलाईथी करी शकाय छे.
(११) बीजा भूयस्काराधिकारना अने पाचमा वृद्धिबंधअधिकारना भंगविचयद्वारमा तेमज छठा अध्यवसायसमुदाहारअधिकारना स्थितिसमुदाहार द्वारमा आवती क्लिष्ट गणितप्रकियाने मुनिश्रीओ सुयोग्य शब्ददेह आपी सुगम बनावी छे.
(१२) कोईक स्थळे अनेक मतो प्रवर्तता होई ते सर्वमतोनो निर्देशरूपे मूलगाथामां संग्रह फावामां आव्यो छे. टीकाकारे ते सर्वमतो ते ते शास्त्रपाठो साथे टीकानां रजू कर्म छे. जुओपृ० ९४, गाथा ७२ नी टोका.
(१३) आ ग्रंथमा आवता जरूरी वियोने तर्क-न्यायशैलीनी एरणपर चढाववानु पण मुनिश्री चूक्या नथी, ओ रीते विषयनी विषमताने अने विषयनी साने संभक्ति दलीलोने भेदीने सत्यार्य साबीत करायो छे. दा० त० जुओ ५ मो वृद्धिअधिकार पृ० ५५५५५६ गाथा ७४७७४८ नो टोका. जुओ. ४ था पदनिक्षेपाधिकार पृ० ५३०.५३१ गाथा ७०६ नो टोका. आ रीते अनेकस्थलो तसिद्ध लेखीनीथी आलेख्या छे.
(१४) केटलेक स्थळे कोई अक चोक्कस अने इष्टविवक्षा-अभिप्रायथी आखा य विषयनु निरूपणकरी ते पदार्थर्नु बीजी विवक्षाथी पण निरूपण थई शके अने कोई तेम करे तो ओ अविरुद्ध छे ओ जणाववा पूर्वक बीजी विवक्षार्नु रहस्य पग विद्वान मुनिराजे व्यक्त कयु छे. जुओ पृ० ४५३.४५६ गा० ५७५. (१५.) टीकाकार विद्वान मुनिराजे पदायोंनु-विषयोनु कयारेक झीगवटभ विवेचन स्वच्छ
प्रतिभाथी कयु छे आ चारेक मुद्दाओ नमुनारूपे अहिं रजू करु छु. (i) मूळ आठप्रकृतिमा उत्कृष्टस्थितिबंधनाछेल्ला निषेक सुधी कर्मदलिकोनी निषेक रचना विशेषहीन
क्रमे थाय छ. आ पदार्थने युक्तिपूर्वक घटापतांलगभग १००श्लोकप्रमाग पूर्वपक्षकों छे, तेमां अनेक वितर्कोकर्या छे अने पछी तेनासचोट समाधानो आप्या छे . जुओ प० ३३-३७. पृट ३६ उपर पूर्वपक्षने अनुसारे दठिकर व नानो ख्याल आस्थापना चित्र पण आप्यु छे.
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(ii) अकेन्द्रियादिमार्गणामां सातकर्मनाअनुत्कृष्टस्थितिबंधनो काळ अंतर्मुहूर्त ज आवे अ पदार्थ
ना समर्थनमां ते अकेन्द्रियादिमार्गणामां भवचरमान्तर्मुहूर्तमांजीवनना छेल्ला अन्तमुहर्तमां)उत्कृष्टस्थितिने बांधतो जीव त्यांथी मृत्यु पामीने पाछो अकेन्द्रियमा ज उत्पन्न थाय,अज रीते बीजी मार्गणाओमां पण तेवीअवस्थामां मरतो जीव चोक्कस स्थानोमां ज उत्पन्न थाय. आ हकीकतना समर्थनमा 'भवचरमअन्तर्मुहूर्तमा सर्वाधिक संक्लेशवाळा जीवोनु मरीने पोताने योग्य सर्वकनिष्ठस्थानमां ज जवानु थाय छे' इत्यादि नियम बतावीने मे नियमनी अनेकरीते घटना करी छ, अहीं वाचकोने पदार्थाविवेचननी मार्मिक सूक्ष्मता
देखाया विना नहि रहे. (iii) छट्टा अधिकारमां स्थितिबंधना अध्यवसायोना द्विगुणवृद्धिस्थानो अने तेवा बे द्विगुणवृद्धिना स्थानो बच्चेना अक अंतरमा रहेला स्थितिबंधस्थानोना अल्पबहुत्वमां द्विगुणवृद्धिनां स्थानो अंगुलना वर्गमूलना छेदनकोना असंख्यातमा भाग जेटला होय छतां अक आंतराना स्थानो करता ओछां कह्यां अबावतमा पूर्वपक्षथी विरोध उठावी अनु समाधान कईक अधिक अर्धराजलोक जेटली लांबी सूचिश्रेणिना छेदनको पण अढी उद्धारसागरोपमना समयोथी थोडांक ज अधिक थाय छ एवात दष्टांतो अने बीजा हेतुओथी सिद्धकरवाद्वारा कयु छ अने ते प्रसंगे जरुरी पल्योपम सागरोपमभेदोना स्वरूप अने प्रयोजन वगेरे पण वताव्या छे. जुओ प० ४२८-४३४.
___ (iv) 'कर्मप्रकृतिसंग्रहणी'नी अनुभागबंधनी चूर्णिमां अनुकृष्टिनु विधान करवा द्वारा उपरनी अधिक अधिक स्थितिना बंध वखते प्राप्तथतां रसबंधना अध्यवसायोने नीचेनी न्यून न्यून स्थितिना बंध वखते बताज्या होई केटलांक नीचेनां स्थितिबंधस्थानोमां चार ठाणीयानी जेम त्रण ठाणीया अने बे ठाणीया रसबन्धना अध्यवसायो पण प्राप्त थाय छ , ज्यारे अहीं स्थितिबंधग्रन्थमां ते ते स्थितिबंधस्थानो मात्र चार ठाणीया के व्रण ठाणीया विगरे अक अंक प्रकारना रसबन्धना अध्यवसायवाळा जीवोने ज बताव्या छ,अम बंने ग्रन्थानी वातोमा पूर्वपक्षथी विरोध बतावी समाधानमा युक्तिपूर्वक बंने ग्रन्थनी वातनो समन्वय करी बताव्यो छे. जुओ- पृ० ६४४-६४९. महत्त्वना परिशिष्टो:
(१) प्रथम परिशिष्टमां 'स्थितिबंध' नी टीकामां जे जे शास्त्रग्रन्थोनी साक्षीओ मकवामां आवी छे ते ग्रंथोनु तथा साक्षीपाठोनी संख्यान लीस्ट छ.
(२) बीजा परिशिष्टमां जेसलमेरना ज्ञानभंडारनो समर्थशास्त्रकार आचार्य भगवान मुनिचंद्रसूरीश्वरजी महाराज विरचित कर्मप्रकृतिचूर्णिना टोप्पणनो अंक उपयोगी अंश आपवामां आव्यो छ, तेमां साकार अनाकार उपयोगनी विचारणा अंक जुदीज शैलीथी करवामां आवी छ तेथी अध्ययनकर्ताओने ते उपयोगी थशे. आ टीप्पण ग्रंथ हजी मुद्रित थयो नथी.
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__ (३) मार्गणाओमां जीवद्रव्योना प्रमाण (संख्या)नु निरूपण स्थूलथी तो आवे छे पण घणा अधिकारोमा प्रत्येक मार्गणामां चोक्कस जीवद्रव्योनी संख्यानु प्रमाण जाणवु अगत्यनु छ तेथी मुनिराजश्री ११ गाथाओमां द्रव्यप्रमाणप्रकरणनी रचना करी जीवद्रव्योर्नु प्रमाण संकलित कयु छ अने तेना उपर सामान्यविवेचनरूप संस्कृतमां पोतेज अवचूरि रची छ,आम आ परिशिष्ट नानकडी ग्रंथरचनारूप अने अगत्यनु छ. __आ गहन विषयोना स्पष्टीकरणनो प्रयत्न जोतां लागे छ के टीकाकार जाणे पत्थारने पल्लवित न करी रह्या होय. पूर्वकाळना श्रुतभक्त श्रमणोपसकोना पगले पिंडवाडानी भारतीय प्राच्यतत्वप्रकाशन समितिअपरमतारक अने प्रकाशक श्रुतने भाविजीवो सुधी पहोंचाडवा अनुरक्षण-प्रकाशन अने प्रचारद्वारा श्रुतनी परंपरा अविच्छिन्न राखवानु सुकृत हाथ धयु छे ।।
अंते, सुखना भ्रमथी पापना अने दुःखना राहे दोडी रहेला जगतने आ ताविक-आध्यात्मिक ग्रन्थो दीवादांडीरूप बनो. मोक्षाभिलाषी भव्यात्माओ आ ग्रंथरत्नना वांचनथी कर्मनी कुटीलताने समजी अप्रमत्त-जागृतिमय जीवन जीवे, आत्मा अने कर्मना अनादि संयोगने भेदनारी समता-सामायिकभाव प्राप्त करे अज अक मंगलकामना ।
शुभस्थल : शा. सकरचंद छोटालाल बं.नं.१३ आश्रमरोड, अमदावाद १३. वी० सं० २४९२ महा सुदर रविवार स्वर्गीय परमगुरुदेव दानसूरीश्वर
स्वर्गारोहण शुभदिन
भवोदधितारक संयमत्यागतपोमूर्ति पूजनीय आचार्य देव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजाना विद्वान-विनीत-शिष्यरत्न पू०पं० भानुविजयजी गणिवर्यनां शिष्यरत्न स्व० पृ० पं० श्री पद्मविजयजी गणिवर्य शिष्याणु मुनि
मित्रानन्दविजय
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सकलागमरहस्यवेदि-मूरिपुरन्दर-बहुश्रुतगीतार्थ-परमज्योतिर्वित्-परमपूज्य-परमगुरुदेव
श्रीमद्-विजयदानसूरीश्वराः
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सचराचर विश्वमां विद्यमान वस्तुमात्रनु पृथक्करण त्रण विभागमां थई शके,
(१) प्रथम विभागमां मात्र जड वस्तुओ, जेवी के सूक्ष्म परमाणु, द्व्यणुक वगेरे 4 औदारिकादि पुद्गलवर्गणाओ, अचेतन काष्ठ वगेरे तथा धर्मास्तिकायादि आवे,
(२) द्वितीय विभागमां केवळ चैतन्यमय अनन्ता सिद्धपरमात्माओ आवे, अनें
(३) तृतीय विभाग के जेमां जड (पुद्गलो) अने चेतन (आत्मा) ए बनेना दूध-पाणी जेवा या लोह अग्नि जेवा बन्धी (संबंधथी) उत्पन्न थयेलां सचेतन पृथ्वी, पाणी, अग्नि, पवन, वनस्पति यावत् स्वेच्छया गमनागमनादि चेष्टा करता दृष्टिगोचर थता मनुष्य, पशु, पक्षी, कीडा आदि आवे.
विषय- परिचय
अनादि काळथी जीवन भिन्न-भिन्न अनिष्ट स्थितिओमां (अवस्थाओमां) गमन अने मनगमती अवस्थाओमां अस्थैर्य ( नहि टकवापणु ) ए रूप संसारपरिभ्रमण जड-चेतनना दूधपाणी जेवा बंधथी उत्पन्न थयेला वीजा विभागमा लागु पड़े छे. अने तेथी ज संसार परिभ्रमण अटकावी शुद्धचैतन्यस्वरूप मोक्ष मेळववामां कारणभूत सर्वज्ञशास्त्रनां कहेल तच्चोनां श्रवणचिन्तन-मनन अने विधि-निषेधनां अनुष्ठान वगेरे आ त्रीजा विभागने उद्देशीने छे.
बन्धना अनेक प्रकार :--
जनो चेतन सानो ते बंध = संबंध जड - पुद्गलोनी तेत्री तेवी विशेषताओने कारणे अनेक प्रकारनो मान्यो छे. जेमके-
(१) औदारिकवन्ध, (२) वैक्रियबन्ध, (३) आहारकबन्ध,
(४) तैजसबन्ध अने (५) कार्मणबन्ध के कर्मबन्ध.
औदारिकवन्ध एटले जड एवा पुगलसमूहमा रहेला चोकसप्रकारना बीजा जडपुद्गलस्कन्धो करतां विलक्षण औदारिकवर्गणा नामना पुगलो सानो आत्मानो संबंध. आ पुलोमाथी
^ विश्वमां रहेलां प्रचेतन द्रव्योमां रूप रस गंध अने स्पर्शवालां प्रत्येक द्रव्योने पुद्गल द्रव्यो कहेवाय छे. श्रा पुद्गलद्रव्यो एक परमाणु, बे परमाणु, रण परमाणु, चार परमाणु एम उत्तरोत्तर एकक परमाणु वधतां यावत् केटलांक असंख्यातपरमाणु श्रीनां बनेला भने केटलांक अनन्तपरमाणु ओनां बनेलां होय छे. आमां परमाणु श्री एटले जेना बे विभाग पण न थई शके तेवां श्रविभाज्य पुद्गलद्रव्यो छे, ज्यारे ने त्ररण वगेरे परमाणु प्रोथी बनेलां द्वय एक घरक वगेरे पुद्गलद्रव्यो विभाज्य पुद्गलद्रव्यो छे. आ परमाणु सिवायनां द्वयक यक वगेरे अनन्तारक सुधीनां दरेक द्रव्योने स्कन्ध कहेवाय छे. आ स्कन्धोमांथी अमुक चोक्कस संख्यानां परमाणु यो वाला स्कन्धोने प्रौदारिकवर्गणा वगेरे वर्गणात्र कहेवाय छे, आ वर्गरणा शास्त्रोमा २६ प्रकारती कही छे. ते उत्तरोत्तर अधिक अधिक परमाणुयोवाला
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२६ ]
विषय- परिचय
पृथ्वी पाणी वगेरेनां अने मनुष्य, पशु, पक्षी, कीडा वगेरेनां नजरे चढतां भौतिक शरीरो बने छे. औदारिकवर्गणानां पुद्गलो करतां विलक्षणकोटीनां पुद्गलस्कन्धोनो समूह के जेमांथी देव नारकोनां शरीरो वगेरे बने छे ते वैक्रियवर्गणा पुद्गलो कहेवाय छे. वैक्रियवर्गणानां पुङ्गलोनो
स्कन्धोनी होय छे. तेमांथी ग्रहीं उपयोगी प्रौदारिकथी कार्मणवर्गणा सुधीनी वर्गणात्र, अने तेमां आवता स्कन्धो नघन्यथी भने उत्कृष्टथी केटला परमाणुयोना बनेला होय छे ते नीचेना कोष्टकभी जाणी शकाशे.
वर्गणा नाम
जघन्यथी केटला परमाणु होय
उत्कृष्टथी केटला परमाणु होय ?
श्रदारिक अग्राह्य* वर्गणा
१ परमाणु
अभव्यथी अनंतगुण एवी सिद्धना अनंतमा भाग वाली संख्या जेटला.
श्रदारिक वर्गरगा ( ग्राह्य ) उपरनीवर्गणाना उत्कृष्ट + १परमाणु
+
क्रम
१
२
३
४
५
६
७
८
ह
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
वैक्रिय ग्राह्य वर्गणा
वैक्रिय वर्गणा ( ग्राह्य )
आहारक ग्राह्य वर्गरणा
श्राहारक वर्गणा ( ग्राह्य )
तेजस अग्राह्य वर्गणा
तेजस वर्गणा ( ग्राह्य )
भाषा अग्राह्य वर्गणा
भाषा वर्गणा ( ग्राह्य )
उच्छवास अग्राह्य वर्गणा उच्छ्वास वर्गणा ( ग्राह्य )
मन अग्राह्य वर्गा
मन वर्गणा ( ग्राह्य )
कारण ग्राह्य वर्गरणा
कार्मण वर्गणा ( ग्राह्य )
ܕܕ
23
11
.7
17
21
"
21
32
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11
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37
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17
39
13
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17
17
17
17
"
33
+ + + +
33
+
+
+
+
+
+
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27
19
13
22
"
13
11
11
31
"
स्वजघन्य - स्वजघन्यतो अनन्तमो भाग.
X अनन्तफ
+ स्वजघन्यनो अनन्तमो भाग
31 31
33 11
۱۱ ۱
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"
"
33
..
""
""
17 ""
""
13 22
27 31
33
17
X अनन्त.
+ स्वजघन्यतो अनंतमो भाग.
X अनन्त.
+ स्वजघन्यनो अनन्तमा भाग
+
१७ मी वगेरे वर्गणानां नाम श्रा प्रमाणे छे - ( १७ ) ध्रुवा चित्तवर्गरणा, (१८) ध्रुवा चित्तवर्गणा, (१९) प्रथम शुन्य वर्गगा, (२०) प्रत्येकशरीरवर्गणा, (२१) द्वितीय शून्य वर्गरणा, (२२) बादरनिगोद वर्गणा, (२३) तृतीय शून्यवर्गणा, (२४) सूक्ष्मनिगोदवणा, (२५) चतुर्थ शून्य वर्गरणा, (२६) प्रचित्तमहास्कन्ध | आ वर्गणाश्रोतु स्वरूप विशेषथी कर्मप्रकृति वगेरे ग्रन्थोथी जाणी लेवु. ग्रहीं 'विषय परिचय' मां श्रदारिक वगेरे वर्गणाने समजवा प्राटलं पर्याप्त छे.
X अनन्त.
+ स्वजघन्यो अनन्तमो भाग.
X अनन्त.
+ स्वजघन्यनो अनन्तमो भाग.
X अनन्त.
+ स्वजघन्यनो अनन्तमो भाग
X अनन्त.
+ स्वजघन्यनो ग्रनन्तमो भाग
* या १६ वर्गणामां बीजी, चोथी, छुट्टी वगेरे वर्गणाग्री के जे वर्गणाश्रोना स्कन्धोमांथी मनुष्य वगेरेनां दारिकशरीरी देव वगेरेनां वैक्रियशरीरो, पूर्वधरमुनिश्रोनां प्रसंगवशात् बनावातां श्राहारकशरीरो वगेरे बनतां होई ते वर्गणा श्रदारिकादिवर्गणायो ( श्रदारिकादि ग्राह्य वर्गणात्र ) कहेवाय छे. ज्यारे प्रौदारिकादि ते ते वर्गणाना पूर्व पूर्वनी पहेली, त्रीजी, पांचमी वगेरे वर्गणात्रोमा रहेला स्कन्धोमांथी श्रदारिकादि शरीर नहि बनी शकतां होवाथी ते पहेली श्रीजी वगेरे प्रौदारिक प्रग्राह्य, वैक्रियग्राह्य वगेरे नामवाली वर्गणाओ कहेवाय छे.
5 हयां गुणक प्रभव्यथी अनन्तगुण एवो सिद्धनो अनन्तमा भाग जेवडो छे. ए प्रमाणे नीचे पण ज्यां- 'प्रनंत' कह्युं छे त्यां गुणक तेटलो अभग्यथी अनन्तगुण अने सिद्धोना अनन्तमा भाग जेवडो समजवो ।
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विषय- परिचय
[ २७
आत्मा साथै संबंध ते वैकियबन्ध कहेवाय छे. एज रीते आहारकवगेरे बन्धो तेत्रां तेवां आहारकवर्गणादि पुद्गलोनी विशेषताओने कारणे भिन्न भिन्न स्वरूपवाळा जाणवा, एमां कार्मणवर्गणाना लोनो आत्मासाथै संबन्ध एने कार्मणबन्ध कहेवाय छे तेम कर्मबन्ध पण कहेवाय छे. अनेकविध बन्धमां कर्मबन्ध मुख्य :
औदारिकादि अनेकविध बन्धो कर्मबन्धने आभारी छे. केमके आत्माना मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग अने सम्यक्त्वादि रूप शुभाशुभ भावोथी उत्पन्नथयेल कर्मबन्धनी विलक्षणताओ शेष औदारिकादि बन्धोना निर्माणमा हेतु छे. एटल ज मात्र नहि, अनन्तज्ञानदर्शनमय अनन्तसुखमय एवा आपणा प्यारा आत्मामां जडता, अल्पज्ञता, मोहमूढता वगेरे कर्मबन्धने कारणे छे. अने तेथी ज ज्ञानी महापुरुपए औदारिकादिवन्धने संसारनु कारण न कहेतां कर्मबन्धने संसारनु कारण कह्यु ं छे. आ कर्मबन्धने शास्त्रकारोए 'बन्ध' शब्दथी पण संबोध्यो छे.
कर्मबन्धना ज्ञाननी आवश्यकता :
यद्यपि कर्मबन्धनां कारणो मिध्यात्व, अज्ञान, असंयम, कषाय, दुर्ध्यान वगेरे छे, अने तेथी विषरीत एवां सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान, संयम, शुभध्यान वगेरे कर्मबन्धनी अल्पता अनं कर्मबन्धना सर्वथा उच्छेदनां कारणो छे तो पण कर्मबन्धनी प्रक्रियानु ज्ञान कर्मबन्धरूप महारोगनी जडने अने भयंकरताने बतावत्रा द्वारा कर्मबन्धना कारणोथी आत्माने दूरने दूर राखवा, तथा कर्मबन्धनां उच्छेदक सम्यक्त्व संयमादिमां आदर करावनारुं छे. एटल ज नहि, कर्मबन्धनी प्रक्रियाने जाणवा माटेनो प्रयास (प्रवृत्ति) द्रव्यानुयोगनुं चिन्तन छे. के जे द्रव्यानुयोगना चिन्तनमां तल्लीन थयेला अनेक संयमी आत्माओ शुक्लध्यान अने क्षपकश्रेणि मांडी अनादिपरंपरावाळा कर्मोना फुरचा उडाडी अनन्त अव्यावाध आत्मिक सुखसंपत्ति ने प्राप्त करनारा बन्या छे. आ रीते कर्मबन्धना स्वरूप ज्ञान आत्महितसाधनानु एक महान अंग होई मुमुक्षुजनोने अति आवश्यक छे.
कर्मबन्धना ज्ञाननी प्राप्तिनु साधन कर्मसाहित्य अने तेमां बन्धविधान :
पूर्वकाळना ज्ञानी महर्षिओए भावी प्रजाना हितने अनुलक्षीने ज्ञानना अखूट खजाना दृष्टिवाद महाशास्त्रमांथी उद्धरी शतक, कर्मप्रकृति, कषायप्राभृत वगेरे कर्मविषयक अनेक प्रकरणशास्त्रो निर्माण तु. जेमांनां शतक कर्मप्रकृति वगेरे अतिप्राचीन शास्त्रो तथा त्वारबाद रचायेला ते ते ग्रन्थोनां महत्वपूर्ण विवरणो अने ते ग्रन्थोने आधारे रचायेला कर्मविपाकादि कर्मग्रन्थो वगेरे कर्मविषयक साहित्य आपणा पुण्य योगे आजे पण मोजूद छे. आ वधा शास्त्रोमां कर्मबन्धना प्रतिपादक बन्धनकरण वगेरे शब्दसंक्षिप्त अने अर्थगंभीर ग्रन्थांशो आवेला छे के जे ग्रन्थांशो अवलम्बीने 'बन्धविधान' ग्रन्थ उद्भव पाम्यो छे. आ बन्धविधानग्रन्थमां अनेक अधि
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२८ ]
विषय-परिचय
कामां सत्पदादि विविध द्वारोने आश्रयी सामान्यथी अने विशेषथी एम वे रीते प्रकृतिबन्ध स्थितिबन्ध वगेरे भेदपूर्वक कर्मबन्धनी विचारणा विस्तारथी करवामां आवी छ . 'बन्धविधान' एवं ' ग्रन्थनाम सार्थक छे :
उक्त कर्मबन्धन प्रक्रियाने बन्धप्रक्रिया, बन्धविधान, बन्धविधि, बन्धनकरण एम समान अर्थक भिन्न भिन्न शब्दोथी पण उल्लेखी शकाय छ े। अने ए रीतेआ महाग्रन्थनु' 'बन्धविधान' एवं ' नाम सार्थक (अर्थानुसारी) छ. अथवा बन्धविधाननो अर्थ बन्धना भेदो एवो पण थई शके. अने आ ग्रन्थमां प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध, प्रदेशबन्ध एम बन्धना अनेक भेदोनु' प्ररूपण आवतु होई आ बीजो अर्थ पण घटी शकवाथी प्रस्तुत ग्रन्थ' 'बन्धविधान' एवं नाम सार्थक कहेवानां कोई जवांधो नथी.
बन्धना मुख्य चार भेदो :
उक्त कर्मबन्ध कहो, बन्धातां कर्म कहो के बन्ध कहो पण ते वखते आत्मा साथे जोडाई रहेलां कार्मणवर्गणानां पुद्गलोमां ते बखतनी आत्मानी कषायादिपरिणतिने अनुसारे अनेकविध विशेषताओं उत्पन्न थाय छे जेमांनी चार मुख्यविशेषताओने आश्रयीने एकज काळे थयेलो ते बन्ध ते ते विशेषताने मुख्य करीने ४ प्रकारनो कहेवाय छ े. ते आ प्रमाणे
(१) प्रकृतिबन्ध, (२) स्थितिबन्ध, (३) रसबन्ध, (४) प्रदेशबन्ध
प्रकृतिबन्ध अने तेना भेद-प्रभेद :
प्रकृति एटले स्वभाव, ते स्वभावनुं उत्पन्न थवु ते प्रकृतिबन्ध; जेम सूंठनो स्वभाव पित्त करवानो, गोळनो स्वभाव कफकरवानो, तेम अमुक चोकस समये योगने अनुसारे आत्मासाथै संबंधां आतां कार्मणवर्गणानां दलिकोसांथी (पुद्गलप्रदेशो मांथी) केटलांक दलिकोमा आत्माना ज्ञानगुणने आववानो स्वभाव उत्पन्न थाय छ. तो वळी ते सिवायनां बीजां केवलांक दलिकोमां आत्माना दर्शनगुणने आवरवानो स्वभाव उत्पन्न थाय छे, ते सिवायना बीजां कटलांक दलिकोमां सुख दुःख आपवानो स्वभाव उत्पन्न थाय छे. एम भिन्न भिन्न जे स्वभाव उत्पन्न थाय छ ेते अनुसारे प्रकृतिबन्धना पण अनेक भेद पड़े छे; जे मुख्यपणे आठ छ. ते आप्रमाणे
(१) ज्ञानावरणीय प्रकृति, (२) दर्शनावरणीय प्रकृति,
(३) वेदनीय प्रकृति,
(४) मोहनीय प्रकृति,
आ ८ प्रकारनी प्रकृति स्वभावमांथी ज्ञानावरणादि ते ते स्वभावने पामेलां एक एक जातनां
(५) आयु प्रकृति, (६) नाम प्रकृति,
(७) गोत्र प्रकृति,
(८) अन्तराय प्रकृति.
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विषय-परिचय
[ २६ कर्मदळियांमां मतिज्ञान श्रुतज्ञान आदि भिन्न भिन्न ज्ञानने, तेम चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन वगैरे भिन्न भिन्न दर्शन वगेरेने आवरवा वगेरेनो स्वभाव उत्पन्न थयेलो होय छे. ते स्वभावभेद प्रमाणे ते ते दलिकोने पुनः जुदा जुदा विभागमां गणवामां आवे त्यारे ज्ञानावरणप्रकृतिना दलिकोना (१) मतिज्ञानावरण, (२) श्रतज्ञानावरण, (३) अवधिज्ञानावरण, (४) मनःपर्यवज्ञानावरण अने (५) केवळ ज्ञानावरण एम पांच भेद पड़े छ. एम एक ज्ञानावरणमूलप्रकृतीना पांच उत्तरप्रकृतिभेद थया. एज रीते दर्शनावरणादि दरेक मूळप्रकृतिना क्रमशः ९, २, २६, ४, ६७, २ अने५ उत्तरप्रकृतिभेदो थाय छ, जो के अतिसूक्ष्मदृष्टिए एना विभाग करतां असंख्याता भेद थई शके, पण मुख्यरूपे कर्मप्रकृति, शतकचूर्णि वगेरे शास्त्रोमां बंधी प्राप्त थता उत्तरप्रकृतिभेदो उपरोक्त ५, ९, २ वगेरे वताव्या छ. अने आ ग्रन्थमां पण तेटला भेदो उपर विचारणा करवामां आवी छ. आ उत्तरप्रकृतिभेदोनां नाम 'कर्मविपाक' ग्रन्थ(कर्मग्रन्थ १ ला) मांथी जाणी लेवां.
प्रश्न:-उपरोक्त ज्ञानावरणादि प्रकृतिओनो ते ते स्वभाव ते ते कर्मदलियां आत्मासाथे जोडाय ते ज वखते उत्पन्न थई जाय छे तेम का, तो शुते ते ज्ञानावरणादि प्रकृति बन्धसमयथी पोतपोताना स्वभाव प्रमाणे ज्ञानादिगुणने आवरबा वगेरे रूप फळने आपनार बने छ ?
उत्तरः-ना, केमके जेम मूठनो स्वभाव पित्त करवानो होवा छतां अने ते खाधा छतां ज्यां सुधी परिणाम पामती नथी(पचती नथी)त्यां सुधी पित्तकरवारूप फळने उत्पन्न करती नथी, अथवा झेरनो स्वभाव प्राणनाशकतानो होगा छतां कोठामां गयेलु एवूपण ते ज्यां सुधी परिणाम पाम्युनथी होतुं त्यां सुधी पोतानो स्वभाव छतां प्राणनाश रूप फळने आपतु नथी, पण तेने परिणाम पामवाने जेटलो समय जरूरी होय तेटलो समय पसार थये ज्यारे परिपाक (परिणाम) पामे छे त्यारे मृत्युरूप फळने निपजावनाएं बने छ, तेम ज्ञानावरणादिस्वभावने पामेला ते ते कर्मदळियां जरूरी काळ (अबाधाकाल) पसार थया पछी के अन्यरीते परिपाक पामे छे (उदयमां आवे छे) त्यारे पोताना स्वभावअनुमारे फळ आपनारां बने छे. स्थितिबन्धः
उपर कही गया ते प्रमाणे समये समये आत्मा साथे संबंधमां आवतां कार्मणवर्गणानां दलिकोमा ते वखते जेम आत्माना ज्ञानादिगुणोने आवरवानो तथा सुख दुःखादि आपवा वगेरेनो स्वभाव उत्पन्न थाय छे तेज रीते तेज वखते ते कर्मदलिकोमा आत्मा उपर (आत्मा साथे) ते स्वभावे केटलो काळ सुधी टकशे ते पण चोकस थाय छ, अर्थात् अमुककाळ सुधी आत्मा साथे जोडाई रहेबानी योग्यता पण तेज वखते ते कर्मपुद्गलोमां उत्पन्न थाय छे. अन ए योग्यताने अनुमारे (जो उदीरणाकरणादिनो व्याघात न आवे तो) तेटलो काळ ते स्वरूपे आत्मा साथे जोडाई रहेछे. अहींयां प्रकृतिपन्यवखते ज ते कर्मपुद्गलोमां आत्मा साथे अमुककाळ सुधी जोडाई रहेवा माटे
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३० ]
विषय-परिचय
जे नक्की थयु ते ज स्थितिबंध, अने ते कर्मदलियां आत्मा साथे जोडाई रहेवा माटे जेटलो काळ नक्की थयो ते काळनु' प्रमाण ते स्थितिबंध प्रमाण कहेवाय छे.
दा० त० अमुक समये आत्मा साथे जोडातां कर्मदलिकोमा जे केटलांक दलिकोमां ज्ञानावरणस्वभाव उत्पन्न थयो ते दलिकोमांथी असंख्यातमा भाग जेटलां अमुक दलिकोमा एकहजार वर्ष सुधी आत्मा साथे जोडाई रहेवानुनक्की थछे. तोते दलिकोना हिसाबे एक हजारवर्षनोस्थितिबंध थयो गणाय. ते सिवायनां बीजांअसंख्यातमा भाग जेटलां दलिको के जेमा एक हजार वर्षने एक समय सुधी आत्मा साथे जोडाई रहेवानुनकी थयु छे ते दलिकोना हिसावे एकहजार वर्ष अने एकसमयप्रमाण स्थितिवन्ध गणाय. एम वळी बीजां केटलांक दलिको के जेमा एक हजार वर्ष अने बे समय सुधी आत्मा साथे जोडाई रहेवानुनक्की थयु छे. ते दलिकोना हिसावे एक हजार वर्षे अने वे समयप्रमाण स्थितिबन्ध गणाय. एज रीते ज्ञानावरणादि एक एक प्रकृति तरीके बनता दलिकोमा जे समय समय हीनाधिक काळ सुधी आत्मा साथे जोडाई रहेवानु नक्की थाय छे, ते काळ प्रमाणे ते ते दलिकोनु स्थितिवन्धप्रमाण गणाय छे.
अहीं आटलु ध्यानमा राखवु जरूरी छे के ते ते समये ज्ञानावरणादि एक एक प्रकृतिरूपे बनी रहेला अनंतानंत कर्मदलिकोमाथी असंख्यातभाग जेटलां जेटलां भिन्न भिन्न दलिकोमां परस्पर समय बेसमयादि बड़े हीनाधिक काळ सुधी आत्मा साथे ते रूपेरहेवानुनक्की थयाना हिसाबे स्थितिबन्धप्रमाणना असंख्याता भेद पडता होवा छतां एक समये बंधाता ज्ञानावरणादि प्रकृतिना स्थितिबन्ध प्रमाण तो जे दलिकोमा शेष ज्ञानावरणादि दलिको करतां बधारे काळ सुधी ते रूये रहेवाने नकी थयेलु होय छे ते दलिकोना स्थितिकाळने अनुसारे ज गणाय छे. नहि के शेष समय बेसमयादि हीनकाल रहेवाने नक्की थयेलां दलिकोना हिसाबे. एजरीते दर्शनावरणादि एक एक प्रकृतिना स्थितिवन्धप्रमाण माटे पण समजवु. आ स्थितिबन्धप्रमाणनी हीनाधिकता ते वखते प्रवर्तमान कषायोदयना परिणामनी तीव्रतामन्दताने आधीन छे. रसबन्धः
ज्ञान वगेरेने आवरवु अने सुख-दुःखने आप वगेरे ते ते स्वभावने पामेला ते ते कर्मदलिको ज्ञान वगेरे स्वआवार्यगुणने एक सरखी रीते आवरवाने शक्तिमान नथी होतां; तेम वेदनीयादि प्रकृतिनां दलिको पण एक सरखी रीते सुख-दुःखादिने उत्पन्न करवाने शक्तिमान नथी होतां किन्तु भिन्न भिन्न दलिकसमूहोमा ओछीवत्ती शक्ति होय छे. अने तेथी ते ते रूपे उदय पामे त्यारे तेनाथी उत्पन्न थयेला कार्यमां पण भेद पड़े छे. दा० त० ज्ञानावरणनो उदय दरेक जीवन होवा छतां एक जीव अत्यन्त जड जेवो होय छे, ज्यारे बीजो जीव एनाथी ओछो जड होय छे. त्रीजानी जडता वळी ते करतां पण ओछी होई तेने बोध शीघ्र अने ऊंडोथाय छे. आ भेद ज्ञानावरण
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विषय-परिचय
[ ३१ कर्मनी शक्तिभेदने कारणे छे. ज्ञानादिना आवरण रूपे एक स्वभावने धारण करतां एवां कर्मदलिकोमा भिन्न भिन्न विपाकने (फळने) उत्पन्न करती ते ते दलिकसमूहमा रहेली शक्ति तेज रस अथवा अनुभाग कहेवाय छे. अने पूर्वे कही गया तेम प्रकृतिवन्ध वखते जे ते ते दलिकोमा आत्माना ते वखतना कषायादिपरिणामने अनुसारे तेवारसनु निर्माण थवु ते रसबन्ध कहेवाय छे. आरसबन्धना पण स्थितिबन्धप्रमाणनी जेम अनेक भेद पड़े छे. जेमांना अतीन्द्रिय एवा पण एकठाणीया बेठाणीया वगेरे स्थूलभेदोने बाळजीवोने समजाववा शास्त्रोमां लींबडा वगेरेना तथा शेरडी वगेरेना रसोनां दृष्टान्तो द्वारा सारो प्रयत्न पूर्वना महापुरुषोए कयों छे. प्रदेशबन्धः
पूर्वे कही गया तेवा स्वरूपवाळी विश्वना रंचे रंचमां पथराईने पड़ेली, गमे तेटला समूहमा पण दृष्टिनो विषय नहि बनती एवी मूक्ष्म कार्मणवर्गणा नामनी वर्गणामांथी जीव प्रत्येक समये पोताना मन-वचन-कायाना योगने अनुमारे अनन्तानन्त छतां ओछीवत्ती संख्यामां प्रदेशोने ग्रहण करे छे (जीव साथे प्रत्येक समये भिन्न भिन्न संख्यामां पुद्गलद्रव्यो जोडाय छे), ते भिन्न भिन्न संख्यामा प्रदेशोनु जीव साथे क्षीर-नीरनी जेम एकमेक थ ते छे प्रदेशबन्ध.
ग्रहण थतां पुद्गलोनी संख्याने अनुसारे प्रदेशबंधना अनेक भेदो पड़े छे. अर्थात् मन-वचनकायानो योग-प्रवृत्ति मंद होय छे तो आत्मा साथे जोडाता ते कर्मप्रदेशो ओछी संख्यामां होय छे. अने योग वधारे प्रमाणमां होय छे तो ते प्रदेशोनी संख्या पण वधारे होय छे. ते प्रत्येक समये आत्मा साथे जोडाता अनन्ता दलिको (प्रदेशो) मांथी अमुक चोकय भागे प्राप्त थतां दलिकोमा ज ज्ञानावरणस्वभाव उत्पन्न थाय छे, ते ज रीते दर्शनावरण वगेरे स्वभाव पण तेटला तेटलां चोकमभागे आवतां दलिकोमा ज उत्पन्न थाय छे. इत्यादि घणी विचारणाओ प्रदेशबन्धना विषयमां पण छे.
प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, रसबंध अने प्रदेशबन्धना स्वरूपना सामूहिक दृष्टांत तरीके शास्त्रोमां मोदकनु दृष्टान्त ग्रहण करवामां आवे छे. जेम के मोदकमां सुठ-गोळ वगेरे होय ते पित्त-कफ वगेरे चोकस प्रकारना फळोने उत्पन्न करनार होई प्रकृतिवन्धस्थानीय गणाय. मोदकर्नु अमुककाळ सुधी ते स्वरूपे रहे ते स्थितिबन्धस्थानीय गणाय. तेमां रहेली तीखाश मीठाश वगेरेनी तरतमताने अनुसारे पित्तादिनी मन्दता तीव्रता आधार राखे छे तेथी तीखाश मीठाश वगेरे रसबन्धस्थानीय गणाय. ज्यारे मोदक नानो मोटो होई तेमां आवेलु ओछु वत्त दळ ते प्रदेशबन्धस्थानीय गणाय. अनुयोगद्वारो अने मार्गणाओ:
अतीन्द्रिय पदार्थोनु पण चिंतन मनन तथा सूक्ष्म अवबोध करवा माटे शास्त्रोमां अनेक
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३२]
विषय-परिचय विध द्वारो ( अनुयोगद्वारो ) अने अनेकविध मार्गणाओ बताववामां आवी छे के जे द्वारो अने मार्गणाओनो आश्रय करी ते ते पदार्थोनु चिन्तन वगेरे करतां अतीन्द्रिय पदार्थो पण इन्द्रियगोचर पदार्थोनी जेम मानसपट उपर भासमान थाय छे. आ बन्धविधानग्रन्थना प्रकृतिबन्ध स्थितिबन्ध वगेरे दरेक विभागमा आवता प्रकृतिवन्ध स्थितिबन्ध वगेरे भिन्न भिन्न बन्धोने पण सत्पद, स्वामित्व, साद्यादि, काळ, अन्तर, संनिकर्ष, भङ्गविचय, भाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शना वगेरे ते ते अनुयोगद्वारोने अबलंबी 'गइ इंदिये य काये'इत्यादि मूलमार्गणास्थानोमां तथा नरकगतिआदि मार्गणाओना भेद-प्रभेदरूप प्रथमपृथ्वीनरकभेद वगेरे उत्तरमार्गणाओमां एम ★ १७४ जेटली मार्गणाओमां तेमज 'एगिदिय-सुहुमियरा' इत्यादि १४ जीवभेद वगेरे आश्रयी यथासंभव विचारणा करवामां आवी छे.
प्रस्तुतग्रन्थ 'मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध' अने एना ६ अधिकारो
कर्मवन्धना प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध अने प्रदेशबन्ध एम चार भेद आगळ कही गया, अने त्यां ज साथे साथे प्रकृतिना ८ मूळभेद अने १२० उत्तरभेद पण वतावी गया. हवे ते ते प्रकृतिने आश्रयी स्थितिबन्ध रसबन्ध, अने प्रदेशबन्धनी विचारणा थती होवाथी स्थितिबन्धादिनी विचारणा पण मूळ उत्तर भेदथी थाय छे. तेमां प्रस्तुत ग्रंथमा मूलस्थितिबन्धनो (मूळप्रकृतिस्थितिवन्धनी) विचारणा ६ अधिकारोने आश्रयी करवामां आधी छे, के जे अधिकारोमां अनुक्रमे ४, १५, १३, ३, १३ अने ३ द्वारो छे. प्रथम अधिकार अने एनां ४ द्वारो:
पूर्वे स्थितिवन्धनो अर्थ कही गया अने साथे साथे एक एक समये थता स्थितिबन्ध प्रमाण ते वखते ज्ञानावरण वगेरे ते ते प्रकृति तरीके बनतांदलिकोमां वधारेमां वधारे स्थितिकाळवाळां दलिकोने हिसावे गणाय छे ते पण कही गया. हवे तेमा जे दलिकोने हिमावे स्थितिवन्धन प्रमाण नक्की थाय छे ते दलिकोनो स्थितिकाळ बे रीते गणी शकाय छे, एक तो-बन्धसमयथी मांडीने अने बीजो-ते वखते ज्ञानावरणादि ते ते प्रकृति तरीके थयेलां दलिकोमांथी कोई पण दलिको उदीरणाकरणआदिनी सहाय वगर स्वाभाविक रीते उदयमां न आवी शके तेवो काळ (अबाधाकाल) बाद करीने. आ बेमा पहेलीरीते गणाता काळने 'कर्मरूपताअवस्थानलक्षण स्थितिकाळ' कहेवाय छे,ज्यारे बीजी रीते गणाता काळने अनुभवयोग्य स्थितिकाळ' कहेवाय छे. अने ते हिसावे स्थितिबन्धप्रमाण के जे सौथी वधारे स्थितिवाळां दलिकने आधीन छे ते पण वे प्रकार कहेवाय छे.
दा० त० अमुकसमये आत्मा साथे जोडातां असत्कल्पनाए १ करोड कमदलिकोमाथी १ लाख जेटलां कर्मदलिकोमांज्ञानने आवरवानो स्वभाव उत्पन्न थाय छे. ते वखते ते लाख जेटलां दलिको
★ जुओ पृष्ठ ९७ उपरनो यन्त्र.
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विषय-परिचय
[ ३३ मांथी १००० जेटलां दलिकोमां बीजां दलिको करतां ओछो काळ ४ समय सुधी ते रूपे रहेवानु नक्की छे ज्या बीजां केटलांक के लांक दलिकोमा ५ समय, ६ समय, ७ समय, ८ समय, एम एक एक समय वधारतां केलांक दलिकोमां सौथी वधारे ३०० समय सुधी रहेवानुं नक्की थयुं छे. हवे जोईये तो ते वखते ज्ञानावरणतरीके बनतां दलिकोमांथी जेमां सौथी वधारे काळ सुधी ते रूपे रहेवानुं नक्की थयुं छे, अर्थात् जे दलिकोना हिसावे ते वखते बंधाती ज्ञानावरणीय प्रकृतिॐ स्थितिबंधप्रमाण गणाय छे ते दलिकोनो स्थितिकाळ बंधसमयथी ३०० समयनो छे. एटले ते समये बंधातां दलिको स्वभावथी (अपवर्तनादि करण न लागे तो) ३०० समय सुधी ज्ञानावरणरूपे मळी शकतां होवाथी ते ३०० समय स्थितिबन्धप्रमाण कर्मरूपतावस्थानलक्षणस्थितिकाळने हिसाथ आ ३०० समय स्थितिबन्धप्रमाणने कर्मरूपतावस्थानलक्षण स्थितिबन्धनु प्रमाण कहेवाय. हवे उपर कह्यु ं ते ज समये बन्धायेलां ते ज दलिकोनो, ते दलिको स्वाभाविकरीते उदयमा आवीने अनुभव करावी शके तेवो काळ विचारीओ तो ते बंधसमयथी जे चोथो समय त्यारथी मांडीने बंध समयथी जे ३०० मो समय त्यां सुधीनो मळे छे, केमके ओछामां ओछी स्थितिवाळां दलिको पण ४ समयनी स्थितिवाळां कयां छे. अने तेथी बन्धसमवधी ३ समय पसार न थाय त्यां सुधी (ते समये बंधायेल ज्ञानावरणदलिकोमांनु') कोईपण दलिक स्वाभाविकरीते उदयमां आवी शके नहि, अर्थात् बन्ध समयथी चोथो समय ते अनुभवनो प्रथम समय, अने बन्ध समयथी ३०० २ ० मो समय, ते अनुभवनो छेल्लो समय एम अनुभवयोग्यस्थितिनी अपेक्षाए स्थितिबन्ध प्रमाण कर्मरूपतास्थितिवन्धप्रमाण करतां (त्रण समय ) ओछु थाय. आ रीते अनुभव योग्य स्थितिबन्धप्रमाण अने कर्मरूपतावस्थानलक्षणस्थितिबन्धप्रमाण बच्चे तफावत छे. प्रस्तुत ग्रन्थमां मुख्यरूपे कर्मरूपतावस्थानलक्षणस्थितिबन्धप्रमाणने आश्रयी सर्व प्ररूपणा करवामां आवी छे.
*
उपरोक्तस्थितिवन्धप्रमाण कोई वखते ओलामा ओछु अन्तर्मुहूर्तादि होय छे. ज्यारे कोई खते तेनाथी कक वधारे, यावत् कोई वखते सौथी वधारे ३० कोटीकोटी सागरोपमादि होय छे पण तेथी वधारे नहि ज. ते मूळ प्रकृतिने आश्रयी आ प्रमाणे छे:
प्रकृति
दर्शनावरण
मोहनीय नाम
वेदनीय जघन्यथी प्रन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त १२ मुहूर्त | प्रन्तर्मुहू ८ मुहर्त उत्कृष्टथी ३० कोटीकोटी ३० कोटीकोटी ३० कोटा कोटी ७० कोटाकोटी २० कोटाकोटी सागरोपम सागरो० सागरो० सागरो सागरो०
*आ त्रण समय काळने अबाधाकाळ कद्देवाय छे, केमके तेटलो काळ त चोक्कस वखते बन्धायेला कोई दालकनी स्थिति पूर्ण नहि थती होवाथी तेनो उदय पण न होई ते निमित्तक कोई बाधा पण जीवने नश्री.
यां कर्मरूपतास्थानलक्षण स्थितिबन्धप्रमाण कहेवानु छे. ते प्रमाण अबाधा सहित होवाथी कोटीपूर्वना त्रीजा भागवडे अधिक ३३ सागरोपम जाणवु
स्थितिबन्धप्रमाण. |
ज्ञानावरण
गोत्र
अन्तराय आयुष
८ मुहूर्त अन्तर्मुहू० अन्तर्मुहू
२० १३० कोटाकोटी ३३ सागरोकोटाकोटी सागरो सागरो० पम०
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३४ ]
विषय- परिचय
आ ते अन्तर्मुहूर्तादथी मांडीने यावत् वधारेमां बधारे ३० कोटीकोटी सागरोपम वगरे भिन्न भिन्न स्थितिओ बन्धाई शकती होई ते एक एक स्थितिदीठ एक एक स्थितिबन्धस्थान गणा. आवां स्थितिबन्धस्थानो एकेन्द्रियादि जीवभेदे जघन्योत्कृष्ट स्थितिबन्धप्रमाणनी तरतमताने कारणे ओछांवतां होय छे. ते एकेन्द्रियादि १४ जीवभेदोमां प्राप्तथतां स्थितिबन्धस्थानोना ओछावत्तपणा, तथा ते ते एकेन्द्रियादि जीवोने बन्धप्रायोग्य स्थितिबन्धस्थानोना कारणभूत अध्यसानु' तथा स्थितिबन्धस्थानोनुं अने अध्यवसायस्थानोनु प्रमाण जेने आधीन छे तेत्रा तेओना जघन्य-उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणनु ज्यां अल्पबहुत्व बताववामां आव्यु छे. ते स्थितिबन्धस्थान (प्ररूपणा) नामनु' पहेला अधिकारनु पहेलु द्वार छे.
उपर का प्रमाणे बंध समये ज्ञानावरणादि एक एक प्रकृतिरूपे बंधातां दलिको मांथी केलांक दलिको अन्तर्मुहूर्तादि जघन्यस्थितिकाळवाळां होय छे अने केलांक दलिको वधारेमां वधारे ३० कोटीकोटी सागरोपमादि स्थितिकाळवाळां होय छे. ज्यारे बाकीनां दलिकोमांथी केरin hain दलिको वचली प्रत्येकस्थितिवाळां होय छे. अहींयां ते ते स्थितिकाळवालां दलिको परस्पर सरखां नथी होतां पण कड़क नियमानुसार हीनाधिक (वत्तां ओछां) होय छे. आ नियत हीनाधिकतानी प्ररूपणा वे रीते करवामां आवे छे. एक तो पासे पासेनां निरन्तर वे स्थाननी अपेक्षार अने बीजी पल्योपमना असंख्यभागने अंतरे अंतरे रहेलां वे वे स्थानोनी अपेक्षारः तेमां पहेला प्रकारने अनन्तरोपनिधा अने वीजा प्रकारने परंपरोपनिधा कहेवाथ छे. अहीं तेटलां तेटलां ओछां वत्तां दलिकोमां तेटला तेटला स्थितिकाळनी व्यवस्था थवी तेने निषेक कहेवान छे. पहेला अधिकारना बीजा निषेकद्रारमां उक्त बने रोते दलिकनिषेकनु प्रतिपादन करवामां आयु है.
आगळ कही गया ते प्रमाणे बंधसमये ज्ञानावरणादि ते ते प्रकृतिरूपे थतां एक एक प्रकारनांदलिकमांथी केलांक दलिकोनो जे ओछामां ओछो स्थितिकाळ होय छे ते काळ पसार न थाय त्यां सुधी मात्र तेटला स्थितिकाळवाळां कोई दलिको न होवाथी कोई ज दलिक स्वाभाविकते उदयमांन आवी शके, अर्थात् तेटलो काळ ते दलिकोना ज्ञानावरणादि स्वभाव निमित्तक जीवने कोई बाधा पण न थती होवाथी तेटलो काळ ते ते प्रकृतिना हिसावे अबाधाकाळ कवाय छे. आ काळ जधन्यथी अन्तमुहूर्त अने उत्कृष्टथी हजारो वर्ष, ऐटले के- ज्ञानावरणादिनो जेटला कोटा कोटी सागरोपमप्रमाण स्थितिबन्ध थाय तेटला सो वर्ष प्रमाण होय छे. दा० त० ज्ञानावरणनो उत्कृष्टस्थितिबन्ध ३० कोटीकोटी सागरोपमप्रमाण थतो होवाथी तेनो अवाधाकाळ ३००० वर्ष प्रमाण होय छे, अर्थात् ते उत्कृष्टस्थितिबन्ध वखते ओछामां ओछा स्थितिकाळवाळां दलिकोना स्थितिकालनु प्रमाण ३००० वर्ष + १ समय होय छे. आ अबाधाकाळ पण स्थितिबन्धप्रमाणनी हीना
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विषय-परिचय
[३५ धिकताने अनुमारे ओछोवत्तो-कोई वखत समयन्यूनउत्कृष्ट, तो कोई वखत बेसमयन्यूनउत्कृष्ट, एम, यावत् कोई वखत समयाधिक जघन्य पण होय छे
अबाधाकाळ स्थितिबन्धप्रमाणना आधारे वधघट थतो होवा छतां ते अनियमित रीते वधघट नथी थतो पण कईक नियमसर वधघटने पामे छे. अर्थात् ज्यारे उत्कृष्टस्थिति बंधाती होय त्यारे जेटलो अबाधाकाळ होय तेटलोज अबाधाकाळ समयन्यून उत्कृष्टस्थिति बंधाती होय त्यारे पण होय छे. ते ज रीते बेसमयन्यूनउत्कृष्ट स्थितिबंध वखते पण तेटलोज अबाधाकाळ होय छे, एम स्थितिबंध ओछो ओछो थतो यावत् पल्पोपमना असंख्यातमा भाग जेटलो घटे (पल्योपमना एक असंख्यातमा भाग बड़े न्यून उत्कृष्टस्थितिबंध जेटलो थाय ) त्यां सुधी अबाधाकाळ तेटलो ज (उत्कृष्ट ज) होय छे; एक समय पण न्युन नहि. पण ज्यारे स्थितिबन्ध तेथी पण वधारे घटे छे त्यारे अबाधाकाळ एक समय घटे छे. ते पण ज्यां सुधी बीजो पल्योपमनो असंख्यातमो भाग जेटलो स्थितिबन्ध घटे त्यां सुधी तेटलो ज ( एकसमयन्यूनउत्कृष्ट ज ) रहे छे. एम आगळ वधतां पल्योपमना बे असंख्यातभाग वड़े न्यून उत्कृष्टस्थितिबंध थतो होय त्यारे अबाधाकाळ. मांथी बीजो एक समय घटे छे. अर्थात् अाधाकाळ बेसमयन्यून उत्कृष्ट होय छे. एम उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणमांथी पल्योपमना असंख्यातमा भाग जेटला जेटला निरन्तर स्थितिबन्धप्रमाणना घटाडे घटाड़े एक एक समय अबाधाघटे छे. ते पण आयुष सिवायना सात कममां ज. इत्यादि प्ररूपणा त्रीजा अबाधाकण्उक द्वारमा आवी छे.
पहेला अधिकारना पहेला त्रण द्वारोमां स्थितिवन्धस्थान,अबाधास्थान वगेरे एक एक विषयने लई तेनु स्वरूप,१४ जीवभेदोमां तेनु अल्पबहुत्व वगेरे प्रासङ्गिक उपयोगी विषय साथे विवेच्या पछी पहेला अधिकारना छेल्ला अल्पबहुत्वद्वारमां-एक एक जीवभेदमां स्थितिबन्धस्थान, अबाधास्थान अबाधाकण्डक, जघन्य उत्कृष्ट अबाधा, जघन्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध वगरे पहेला त्रण द्वारमा बतावेला पदार्थानां परस्पर-परस्थान अल्पबहुत्वो बताववामां आव्यां छे.
आ स्थळे टीकाग्रन्थमां विशेषमा एक एक जीवभेदमां आठे कर्मना स्थितिबन्धस्थान, अबाधास्थान वगेरे पदोनु सामूहिक अल्पबहुत्व तथा चौदे जीवभेद अने आठे कमथी उत्पन्नथतां स्थितिबन्धस्थानादिनां ३०० करतांये वधारे पदोनु एक मोटु अल्पबहुत्व बतावायु छे. जो के आ अल्पबहु त्यो मात्र मिथ्यात्वगुणस्थानके रहेला जीवोने आश्रयी बतावायां छे छतां तेमां बताधायेल प्रासंगिक घटनाओथी अन्य गुणस्थानके रहेला जीवोनीअ पेक्षाए पग अन्पबहुत्वोने काढवानु मार्गदर्शन तेमांथी मळी शके तेम छे.
बीजो अधिकार अने एनां १५ द्वारो बीजा अधिकारमा उपरोक्तस्वरूपवाळा(कमरूपतावस्थानलक्षण) स्थितिवन्ध प्रमाण ओघथीसामान्यथी (जीवसामान्यनी अपेक्षाए) अने आदेशथी विशेषथी अमुक चोक्कस जीवोनी (नरकगति
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विषय-परिचय .. ओघ,प्रथमनरक वगेरे,तेम तियंचओघ वगेरे ते तेमार्गणाओवर्ती जीवोनी)अपेक्षाए जघन्य-ओछामां ओछु अने उत्कृष्ट वधारेमां वधारे केटलुते,तथा ते जघन्य के उत्कृष्ट स्थितिवन्धना स्वामी बन्धक, ते जघन्य अने उत्कृष्ट तथा तेना प्रतिपक्षी अजघन्य अने अनुत्कृष्ट एम चार प्रकारमाथी एक एक प्रकारनो स्थितिबन्ध 'सादि छे, अनादि छ, 'सान्त छे के अनन्त छे ते रूप साद्यादिनी, तथा काळ, अन्तर अने संनिकर्षनी एक जीवाश्रयी स्थितिबन्धप्रमाणादि ते ते द्वारोथी तथा उत्कृष्टादि स्थितिवन्धना नानाजीवाश्रय भंगविचय वगेरेनी भंगविचयादि ते ते द्वारोथी विचारणा करवामां आवी छे. ते द्वारोना नाम आ प्रमाणे छे:
(१) स्थितिबन्धप्रमाण, (२) स्वामित्व, (३) साद्यादि, (४) काळ, (५) अन्तर, (६) संनिकर्ष, (७) भङ्गविचय, (८ ) भाग, (९) परिमाण, (१०) क्षेत्र, (११) स्पर्शना (१२) काळ, ( १३ ) अन्तर, (१४ ) भाव अने (१५) अल्पबहुत्व.
स्थितिबंधप्रमाण द्वारमां-उपर कही गया तेम कर्मरूपतावस्थानलक्षण स्थितिवन्धने आश्रयी ओघथी अने १७० मार्गणास्थानोमांगुणस्थानको,लेश्याओ, एकेन्द्रियादि जातिओ, पर्याप्तअपर्याप्तत्वादि अवस्थाओ, उपशमश्रेणि, क्षपकश्रेणि वगेरेमा वर्तमान जीवोना समावेश असमावेशना आधारे प्राप्तथता उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिवन्धन प्रमाण बतावी टीकाग्रन्थमां शास्त्रान्तरनी साक्षीओ अने युक्तिओ पूर्वक विवेचन करवामां आव्यु छे. अने द्वारने अन्ते मार्गणास्थानोनु यन्त्र बतावी उत्कृष्टादि स्थितिबन्धप्रमाणनां पण यन्त्रो बतावयामां आव्यां छे. आ रीते आगळ पण ते ते द्वारोने अन्ते द्वारमा आवेला पदार्थो यन्त्रोमा संकलित करवामां आव्या छे.
बीजा स्वामित्व द्वारमां-ओपथी अने आदेशथी पहेला स्थितिबन्धप्रमाणद्वारमां कहेला जघन्य उत्कृष्ट स्थितिबन्धने करनारा जीवो कया अने केवा होय एरूप स्वामिओनु (बन्धकोनु) प्रतिपादन करवामां आव्यु छे. दा० त० ओपथी साकारउपयोगमा रहेला निद्रा वगरना जे कोई पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय जीवो कषायोदयजन्य उत्कृष्टसंक्लेशमां के तेथी कईंक मन्दसंक्लेशमां वर्तता होय ते आयुष सिवाय सात कर्मनी उत्कृष्टस्थितिना बन्धक छे.
त्रीजा साद्यादि द्वारमां-ओपथी अने आदेशथी १७० मार्गणास्थानोमां एक एक मूलप्रकृतिना उत्कृष्ट, * अनुत्कृष्ट, जवन्य अने । अजघन्य एम चार प्रकारना स्थितिबन्धमांथी एक एक प्रकारनो स्थितिबंध एकजीवने आश्रयी सादि छे ? अनादि छे ? सान्त छ? के अनन्त छे.? ए विचारवामां आव्यु छे अने ते ते स्थितिबन्ध सादि अनादि वगेरे भांगे छे तो केवी रीते छे ? नथी तो केम नथी ? वगेरे बताववा साथे कुल भांगा बतावी अन्ते एनु यंत्र आलेख्यु छे.
Aकुल १७४ मार्गणाओ अधिकृत होवा छतां अकषाय, केवलज्ञान,केवलदर्शन अने यथाख्यातसंयम मार्गणामां स्थितिबन्ध ज न थतो होवाथी ते ४ मार्गणा सिवायनी १७० मार्गणाओ समजवी.
* अनुत्कृष्ट एटले उत्कृष्ट सिवायनो स्थितिबन्ध. - अजघन्य एटले जघन्य सिवायनो स्थितिबंध .
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विषय-परिचय चोथाएकजीवाश्रय काळद्वारमां-ओपथी अने आदेशथी ते तेमार्गणास्थानोमा रहेल कोई एक जीव ज्ञानावरणादि ते ते मूलकर्मनो उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट वगेरेमांथी एक एक प्रकारनो स्थितिबन्ध निरन्तरपणे ओछामा ओछो केटलो काळ सुधी करे, अने वधारेमां वधारे केटलो काळ सुधी करे ते रूप बन्धकाळनु जघन्य उत्कृष्ट प्रमाण बतावीने ते काळ क्यांक जघन्यथी समयमात्र ज अथवा अन्तमुहूर्तमात्र ज होय के तेथी वधारेज होय, जेमके-नरकगतिओघमार्गणामां ज्ञानावरणादि कर्मनो अजघन्यस्थितिवन्धनो जघन्यकाळ बेसमयन्यून दशहजारवर्ष होय, तो ते तेटलो शा माटे ? तेथी ओछो केम नहि ? इत्यादि विवेचनद्वारा स्पष्टकरी बताव्युछे. एम उत्कृष्टकाळने पण हेतुओ द्वारा सिद्ध करवामां आव्यो छे.
___ आ द्वारमा १४७ मी गाथामां एकेन्द्रियओघ वगरे केटलीक मार्गणाओमां ज्ञानावरणादिना अनुत्कृष्टस्थितिवन्धनो जघन्यकाळ एकसमय नहि बतावतां अन्तमुहूर्त बताव्यो छे, जे सिद्ध करतां टीकाग्रन्थमा भवना छेल्ला अन्तर्मुहूर्तमा उत्कृष्टस्थितिवन्धने करनारा जीवो. पोताने प्रायोग्य हलकामां हलकी गति जाति वगेरेमा जनारा होय छे इत्यादि विस्तृत विवेचन द्वारा समजाववामां आव्यु छे के जे विवेचनमां वर्णवायेला पदार्थो आगळना ग्रन्थने समजवामां बहु उपयोगी छे, ते उपरांत ग्रन्थ-लाघव माटे आगळ अने पाछळ ( उत्तरस्थितिबन्ध रसबन्ध प्रदेशबन्ध)ना ग्रन्थमां ते ते मार्गणाओनी एकजीवाश्रय कायस्थितिनी भलामण करी होवाथी अहीं (१५०थी १८४ सुधीनी गाथाओ बड़े ) १७० मार्गणाओनी एकजीवाश्रयी उत्कृष्ट अने जघन्य कायस्थिति केटलाक मतान्तर पूर्वक बताती छे जे श्रीप्रज्ञापनाआगम वगेरे ग्रन्थान्तरनी साक्षीओ वगेरे बड़े विवेचाई छे, एटलुज मात्र नहि पण कालद्वारनां यन्त्रो दर्शावतां पहेलां लगभग एकज पत्र उपर क्रमशः १७० मार्गगानी जघन्य अने उत्कृष्ट कायस्थितिनो गाथानंबर साथेनो यंत्र अने ते कायस्थितिमां केटलीक मार्गणाओमां भवस्थितिनी भलामण करी होवाथी जघन्य अने उत्कृष्ट भवस्थितिनो यंत्र पण साथे साथे आप्यो छे.
पांचमा एकजीवाश्रयी अन्तरद्वारमां-पूर्वनी जेम ओपथी अने आदेशथी १७० मार्गणास्थानोमां कोई एक जीव मूळप्रकृतिनो उत्कृष्टादि विवक्षित एकप्रकारनो स्थितिबन्ध न करे तो ओछामां आछो केटलो काळ न करे, ए रूप जघन्य अन्तर, अने वधारेमां वधारे केटलो काळ न करे ते रूप उत्कृष्ट अन्तरर्नु प्रमाण बतायवामां आव्युछे (आ काळनी आदिमां अने अन्तमां ते विवक्षित स्थितिबन्ध होय तोजते अन्तर तरीके गण्यो छे,) अने टीकामां ते अन्तरने सिद्ध करी घटनाओ करवामां आवी छे, एमां केटलीक मागेणाओमां ज्यां ते ते अन्तरनु प्रमाण देशोनकायस्थिति बताव्यु छे त्यां 'देशोन' थी अन्तर्मुहूर्त, बे अन्तर्मुहूर्त वगरे केटलो काळ कायस्थितिमांथी वर्जनीय छे एनी एकादमार्गणामां भावना की वाकीनी मार्गणाओ माटे दिगदर्शन कराव्युछे.
ते ते जीवोने चालुभवनो त्रीजो, नवमो, सत्तावीसमो वगेरे भाग जेटलु आयुष बाकी होय
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३८ ]
विषय-परिचय
त्यारे त्यारे अमुक चोक्कस समयथी ज प्राप्त थता आयुषबन्धमाटे योग्य काळे श्रीप्रज्ञापना आगममां कला आयुषवन्धना आकर्षोनी अपेक्षाए आयुषना उत्कृष्टादि स्थितिबन्ध अन्तर अधिकृत होवाथी मुख्यरूपे ते रीते घटना करी होवा छतां एकभवमां एक ज वखत आयुषबन्ध थवानां वचनोने हिसावे आयुषना ते ते स्थितिबन्ध अन्तर केटल अने केवी रीते प्राप्त थाय तेनु पण मार्गदर्शन कराव्य छे.
छट्ठा एकजोवाश्रयी संनिकर्ष द्वारमां - पूर्ववत् ओघ अने आदेशथी कोई एक जीव ज्ञानावरणीयादि ते ते मूळकर्मनो उत्कृष्ट स्थितिबंध करतो होय त्यारे ते जीवने बाकीनी सात प्रकृतिओमांथी केटली प्रकृतिओ बंधाय ? अने ते प्रकृतिओनी उत्कृष्टस्थिति बंधान के अनुत्कृष्ट स्थिति बंधाय ? जो अनुत्कृष्टस्थिति बन्धाय तो ते उत्कृष्टस्थिति करतां केटली ओछी बंधाय, शुं असंख्यात भागहीन बंधाय, संख्यात भागहीन बंधाय के पछी ते करतां पण वधारे संख्यातगुणहीन के असंख्यात गुणहीन बन्धाय ? वगरे वर्णववामां आव्युं छे. एवीज रीते एक प्रकृतिनी जघन्यस्थितिने बांधता जीवने ते सिवायनी प्रकृतिओ अने तेना स्थितिबंधनुं प्रमाण केटल केटल होय छे ते बताव्यु' छे. अने ते सर्वे पदार्थोनु विवेचन करी पूर्वनी जेम ते पदार्थों यन्त्रमां गुंथी वाया छे.. सातमा नानाजीवाश्रय भङ्गविचयद्वारमां - ज्ञानावरणादि ते ते मूळकर्मनी उत्कृष्टादि ते ते स्थितिना बंधकोनी अने (उत्कृष्टादि विवक्षित स्थितिनी प्रतिपक्षभूत जे अनुत्कृष्टादिस्थिति तेना बन्धकरूप) अबन्धकोनी ते ते काळे थती प्राप्ति अप्राप्तिने अनुसारे उपलब्ध थता भांगा तावामां आव्या छे. जेमके — भङ्ग पहेलो - 'एक बंधक'. भंग बीजो - 'एक अवन्धक'. भंग बीजो- 'सर्वे बन्धको '. भंग चोथो - 'सर्वे अबन्धको'. भंग पांचमो- 'एक बन्धक, एक अवन्धक'. भंग छडो - 'एक बन्धक, अनेक अबन्धको'. भंग सातमो- 'अनेक बन्धको एक अवन्धक'. भङ्ग आठमोअनेक बन्धक, अनेक अबन्धको ' . आ आठ भांगामांथी क्यां कोना केटला भंग प्राप्त थान ते बताच्या छे अने टीकाग्रन्थमां ओघथी के विवक्षितमार्गणामां विवक्षित उत्कृष्टादि स्थितिना बन्धकजीवोनी संख्या अतिशय (असंख्य लोकप्रदेशप्रमाण के तेथी अधिक) होवाथी अने तेनी प्रतिपक्षभूतस्थितिना बन्धकोनी संख्या ते करतां पण वधारे होवाथी हंमेशां (कोई पण समये) ते विवक्षित स्थितिनो उपरोक्त आठ भङ्गमांथी मात्र आठमो भंग ज मळे छे. पण बाकीना सात भंग मळता नथी. जरी क्यांक विवक्षित स्थितिना बन्धकोनी संख्या ओछी होवाथी मात्र त्रण भांगा, तो क्यांक मार्गणानी ज अध्रुवता ( मार्गणामां जीवो क्यारेक बीलकुल न होवारूप मार्गणानी अनियमितता) वगेरे कारणे आठे आठ भांगा मळे छे इत्यादि नियमो बताववा साथे सिद्ध करी बतान्यु छे.
आठमा नानाजीवाश्रय भागद्वारमां - ओघथी अने ते ते मार्गणामां ते ते कर्मनी उत्कृटादि स्थितिना बन्धको त्यां रहेला सर्व स्थितिबन्धकोना केटलामा भागे छे ? शुं संख्यातमे भागे छे के असंख्यातमे भागे छे के पछी अनंतमे भागे छे ते बताववामां आव्युं छे.
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विषय-परिचय नवमा नानाजीवाश्रय परिमाण द्वारमां-पूर्ववत् बन्ने रीते ते ते कर्मनी ते ते स्थितिना बन्धकोर्नु परिमाण (संख्याता छे, असंख्याता छे के पछी अनंता छे ते रूप) बताव्यु छ. अर्थात् ते ते बन्धकोनी वधारेमां वधारे संख्या केटली होई शके ते जणाववामां आव्यु छे. अहीं मूळग्रन्थमां के टीकाग्रन्थमां ते परिमाण संख्यात वगेरे त्रणभेदे ज बताव्यु होई तने विशेषरूपे जाणवा माटे, तथा कोई कोई स्थळे ते परिमाण मार्गणागत सर्वजीवसंख्याने अधीन होवाथी, तमज आगळ वीजा वगेरे अधिकारमांतो कोई कोई स्थळे ते परिमाणने मार्गणागत जीवसंख्याने भळाव्यु होवायी के मार्गणागत जीवसंख्या द्वारा साधवान का होवाथी मार्गणागत जीवपरिमाण जाणवु आवश्यक बने छे, अने तेथी परिशिष्ट त्रीजामा १७० मार्गणामां प्राप्त थता जीवोनु परिमाण प्रदर्शित करतु ११ गाथान द्रव्यग्रमाणप्रकरण मूकवामां आव्यु छे. के जे आगळ पाछळना ग्रन्थमां विशेषरूपे बन्धक परिमाणादि जाणवामां आधारभूत छे.
दशमा नानाजीवाश्रय क्षेत्रद्वारमां-टीकाग्रन्थमां सर्वप्रथम समस्त बन्धविधान ग्रन्थमां क्षेत्रवारमां कहेवातु क्षेत्र अने पर्शनाद्वारमा कहेवाती स्पर्शना ए बन्ने बच्चे शु तफावत छे ते जीवसमासग्रन्थानुसारे वर्तमान अने अतीत एम वे प्रकारना काळभेदथो बताव्यो छे. अर्थात क्षेत्र एकसमयवर्ती बन्धको संबंधो, अने स्पर्शना नाना-अनेक समयवर्ती बन्धको संबंधी अहीं अधिकृत छे तेम स्पष्ट करायुं छे. अने त्यार बाद मूळ ग्रन्थमां कहेलु ते ते स्थितिना बन्धकोनु सर्वलोक, लोकअसंख्यभाग वगेरे क्षेत्र मार्गणागत सर्वजीवोनु क्षेत्र बताववा पूर्वक सिद्ध करवामां आव्यु छे. __अगियारमा नानाजीवाश्रय स्पर्शना द्वारमां-उपरोक्त स्वरूपवाळी स्पर्शनानु प्रमाण ओघ आदेश बन्ने रीते पूर्ववत् ते ते स्थितिने आश्रयी बताव्यु छे अने तेने टीकाग्रन्थमां युक्ति वगेरेथी सिद्ध कयु छे. अहींयां मूळ ग्रन्थमां कहेल ते ते वन्धकोनी १३ भाग १२ भाग वगेरे स्पर्शनाना विषय तरीके धनीकृत लोकना १३ भागादि याने तेटला घन राजलोक न लेतां त्रसनाडी अन्तर्गत क्षेत्रना ज १३ भागादि लेवा एज युक्तियुक्त छे ते पण सिद्ध करवामां आव्यु छे.
धारमा नानाजीवाश्रय कालद्वारमां-पूर्ववत् ओघ आदेश बंने रीते ते ते स्थितिना बन्धको निरन्तरपणे जघन्यथी अने उत्कृटथी केटलो काळ मळे ते रूप बे प्रकारनो काळ बतायवामां आव्यो छे.
नानाजीवाश्रयकाळ एटले 'ओघमां के मार्गणाओमां जे कामना प्रत्येक समये नाना अनेक (एक करतां वधारे) जीवो विवक्षितस्थितिना बन्धक तरीके मळता होय ते काळ', एवो अर्थ न करवो पण 'ओपथी के मार्गणागत नाना-समस्त जीवोमांथी निरन्तरपणे एक या अनेक जीवो ते विवक्षित स्थितिना बन्धक तरीके जे काळे मळता होय ते काल नानाजीवाश्रयकाळ कहेवाय,' एवो करवो आवश्यक छे. अन्यथा दोष छे. एम टीकाग्रन्थमा आक्षेप-परिहार साथे सिद्ध करी मूलोक्त काळ ने सिद्ध करवामां आव्यो छे.
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विषय-परिचय तेरमा नानाजीवाश्रय अन्तरद्वारमां-ओघ आदेश बने प्रकारे विवक्षित मूळकर्मनी उत्कृष्टादि विवक्षितस्थितिना बन्धक तरीके नाना=सर्वे जीवो न होय, अर्थात् कोई पण जीवो न होय, तेवो काळ जघन्य उत्कृष्ट भेदथी बताव्यो छे.
चौदमा भावद्वारमां-ओघ-आदेश बंने प्रकारे आठे कर्मना उत्कृष्टादि चारे प्रकारना स्थितिवन्धने औदयिकभावे बताव्यो छे, त्यां ते पदार्थने सिद्ध करतां औदयिकादि भावोनु स्वरूप के जे ग्रन्थान्तरोमां पूर्वना महापुरुषोए विस्तारथी बतावेलुछे ते न बतावतां मात्र प्रस्तुत बन्ध औदयिक भावे ज केम ? ए यथामति शंका-समाधानपूर्वक बताववा प्रयत्न कयों छे.
बीजा अधिकारना छेल्ला अल्पबहुत्व द्वारमां-ओघ आदेश बंने रीते ते ते मूळकर्म संबंधी उत्कृष्टादि ते ते स्थितिबन्ध प्रमाण अने स्थितिवन्धकप्रमाण एम मूल बे प्रकारने आश्रयी सात अल्पबहुत्व बताववामां आव्यां छे. ते आ प्रमाणे
अल्पबहुत्व
स्थितिबन्धकप्रमाण
स्थितिबन्धप्रमाण
(१) उत्कृष्ट,अनुत्कृष्ट स्थितिना बन्धकरूप बे पदोनु.
स्वस्थाने
परस्थाने (२) जघन्य,अजघन्य स्थितिना बन्धकरूप वे पदोनु. (४) उत्कृष् अने जघन्य (५) उत्कृष्ठस्थितिबन्धप्रमाण. (३) उत्कृष्, जघन्य अने अजवन्यानुत्कृष् स्थितिना स्थितिबन्धप्रमाण (६) जवन्यस्थितिबन्धप्रमाण. बन्धकरूप त्रण पदोनु.
रूप बे पदोनु. (७) जघन्य अने उत्कृष्ट स्थिति
बन्धप्रमाणने आश्रयी. त्रीजो 'भूयस्कार' नामक अधिकार अने एनां द्वारो स्थितिवन्धना जघन्य उत्कृष्ट वगेरे भेदोनी जेम भूयस्कार,अल्पतर, अवस्थित अने अवक्तव्य ए रीते पण चार भेद पडी शके छे, तेनां लक्षण पांचमा कर्मग्रन्थमा 'एगादहिगे भूओ' इत्यादि गाथा बड़े वतायेल प्रकृतिवन्धना भूयस्कार अल्पतगदिना लक्षण जेवां छे. ते आ प्रमाणे--
(१) ज्ञानावरणादि ते ते प्रकृतिना अन्तर्मुहर्तादि (समयादिवड़े हीनाधिक नहि तेवा) चोक्कस प्रमाणवाला स्थितिबन्धने करता जीवने ते बन्धना निरन्तर उत्तरसमये प्रवर्ततो समयादिवडे अधिक स्थितिबन्ध प्रथमसमये भूयस्कार स्थितिबन्ध कहेवाय.
(२) भूयस्कारस्थितिबन्ध करतां विपरीत एटले के पूर्वसमये थता कोई एक चोकसप्रमाणवाला स्थितिबन्ध करतां निरन्तरउत्तरसमये थता ते करतां ओछा स्थितिप्रमाणवाला बन्धना पहेला समये अल्पतर स्थितिबन्ध कहेवाय.
(३) पूर्वसमये थयेला कोई एक नियत स्थितिप्रमाणवाला बन्धना निरन्तर उत्तरसमयमां थता तेटला ज स्थितिप्रमाणवाळा बन्धने अवस्थित स्थितिबन्ध कहेवाय, ज्यारे
* परस्थाने एटले आठ मूल प्रकृतिनु भेगु
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विषय-परिचय
[ ४१ (४) ज्ञानावरणादि ते ते प्रकृतिनो स्थितिबन्ध सर्वथा न थतो होय एवा जीवने ते स्थितिधन्ध शरू थतां पहेला समये ते ते प्रकृतिनो अवक्तव्य स्थितिबन्ध कहेवाय.
आ चार प्रकारना स्थितिबन्धमां भूयस्कारवन्धना प्राथम्यना हिसाबे टूकामां अधिकारनु नाम 'भूयस्कार एवं छे. आ अधिकारमा 'सत्पद, स्वामित्व, काल, अन्तर, 'भङ्गविचय,
भाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, १ काल, ११अन्तर, १२भाव अने १अल्पबहुत्व एम पूर्ववत् तेर द्वारोथी भूयस्कारादि स्थितिबन्धोनी सत्पद, स्वामित्वआदि प्ररूपणा करवामां आवी छे.
पहेला सत्पद द्वारमां-पूर्ववत ओपथी अने आदेशथी (१७०) मार्गणास्थानोमां कया मूलकर्मनां भूयस्कारादि कयां स्थितिवन्धपदो सत् (सद्भत) छे. ते बतावी तेने टीकाग्रन्थमां सिद्ध करवामां आव्यां छे. जेमके-ओघथी आयुष सिवाय सात मुलकर्मनां भूयस्कारादि चारे प्रकारनां स्थितिबन्धपदो सत् छे, ज्यारे आयुष कर्मनां अवक्तव्य अने अल्पतर नामनां बे ज स्थितिबन्धपदो सत् छे, बाकीनां बे पदो असत् छे, केमके कोई पण जीवने पोताना जीवित दरमियान आयुष कर्म क्यारेक ज बन्धाय छे, तथास्थितिबन्ध प्रमाण कर्मरूपताअवस्थानलक्षण स्थितिबन्धना हिसाबे अधिकृत होवाथी आयुषकर्मनी बंधाती स्थितिना प्रमाणमां अबाधा अन्तर्गत गणेली छे अने तेम होवाथी आयुषबन्धकालना बीजात्रीजा वगेरे समयोमा अनुभवयोग्यस्थितिरन्ध प्रमाण पहेला समय जेटलुज रहेवा छतां भोगवाता आयुषनी शेषस्थितिने अधीन एवी अबाधा समये समये घटे छे तेथी आयुषवन्ध शरू थतां बीजा समयथी पूर्व पूर्व समय करतां उत्तर उत्तर समयोमा कर्मरूपताअवस्थानलक्षणस्थितिबन्धप्रमाण समय समय ओछु प्राप्त थतु होई पहेलो समय छोडी दरेक समयोमा अल्पतर स्थितिबन्धो ज मळे छे, अने पहेला समये अवक्तव्य स्थितिबन्ध ज मळे छे, पण आयुष्यनां भूयस्कार के अवस्थित स्थितिबन्ध ए बे पदो नहि मलतां होवाथी असत छे.
मनुष्यगतिओघ वगेरे केटलीक मार्गणाओ छोडीने नरकगतिओघ, तेना उत्तरभेद, तिर्यचगतिओघ, तेना उत्तरभेद, देवगतिओघ, तेना उत्तरभेद एकेन्द्रियादि अने पृथ्वीकायादि ओघ. मार्गणाओ तथा तेना उत्तरभेदो वगेरे वगेरे घणी मार्गणाओमां सात कर्मनो अवक्तव्य स्थितिबन्ध पण असत् छे(मलतो नथी). जो के देवगतिओघ वगेरे केटलीक मार्गणाओमां उपशान्तमोह वगेरे गुणस्थानके मरण पामीने देवपणे उत्पन्न थता जीवने पूर्वसमये ज्ञानावरणादिनी स्थितिनो अबन्ध अने ते पछीना देवभवना प्रथम समये ते ते स्थितिनो बन्ध मलतो होई अवक्तव्यबन्ध सत् कही शकाय, पण अहींयां ते ते मार्गणाने अनुरूप देवत्वादि (देवपणु वगेरे) चोक्कस पर्यायमां वर्तता जीवने पूर्वोत्तरसमये थता अधिक-हीनादि स्थितिवन्धने लईने भूयस्कारादि स्थितिवन्धनी अने तेवाज चोक्कसपर्यायवर्ती जीवन प्राप्त थता ते ते कर्मनी स्थितिना अबन्ध-बन्धने लईने
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४२ ]
विषयपरिचय
अवक्तव्यबन्धनी विवक्षा करवामां आवी होई देवगतिओघादि मार्गणाओमां ज्ञानावरणादिकर्मनो अवक्तव्यस्थितिबन्ध सत् नथी गण्यो. आ वातने सत्पदादि पहेलां त्रण द्वारोनी टीकामां अवसरे अत्रसरे स्पष्ट करवामां आवी छे अने त्रीजा एकजीवाश्रय कालद्वारमां ५७५ मी गाथानी टीकामां तो ते गाथामां कहेला अर्थनी घटना ज चालु विवक्षा करतां जुदाप्रकारनी विवक्षाथी करीने ते ते विवक्षार्थी थता लाभालाभने दर्शाव्यो छे.
सत्पदद्वार पछी स्वामित्वादि शेषद्वारोमां- बीजा अधिकारनी जेम पहेला द्वारमां बतावेला ज्ञानावरणादि ते ते कर्मना भूयस्कारादि ते ते स्थितिबन्धसत्पदना स्वामीओ, ते पदोनो एकजीवाश्रय जघन्य उत्कृष्ट काळ, अन्तर, नानाजीवाश्रय भांगा, बन्धकभाग, बन्धकपरिमाण वगेरे बताव्युं छे. जेतु टीकाग्रन्थमां पूर्वनी जेम समर्थन करवामां आव्यु ं छे. अने ते ते द्वारोने अन्ते द्वामां आवेला पदार्थोंने टू कमां संग्रहकरतां यन्त्रोनुं आलेखन करवामां आत्युं छे.
चोथो 'पदनिक्षेप' नामनो अधिकार अने एनां ३ द्वारो
भूयस्कार अधिकार पछी चोथा 'पदनिक्षेप' अधिकारमां सत्पद, स्वामित्व अने अल्पबहुत्व नामनां त्रण द्वारो छे, जेमां 'उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि, उत्कृष्ट अवस्थान, * जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि, 'जघन्य अवस्थान रूप ६ प्रकारना स्थितिबन्धनो विचार करवामां आव्यो छे, आ६ प्रकारना स्थितिबन्धो भूयस्कारादिस्थितिबन्धोना विशेषरूप ज छे. ते आ प्रमाणे
(१) उत्कृष्ट वृद्धि पदः - ज्ञानावरणादि ते ते कर्मनो चोक्कस प्रकारनो भूयस्कार स्थितिबन्ध के जे भूयस्कारस्थितिबन्ध शेष भूयस्कारस्थितिबन्ध करतां अधिकतम ( वधारेमा वधारे) स्थितिsantaratit थतो होय ते उत्कृष्टवृद्धिपद कहेवाय.
(२) उत्कृष्ट हानि पद :- ज्ञानावरणादि ते ते कर्मनो चोक्कस प्रकारनो अल्पतर स्थितिबन्ध के जे अल्पतरस्थितिबन्ध शेष अल्पतरस्थितिबन्ध करतां अधिकतम स्थितिबन्धना घटवाथी थतो होय ते उत्कृष्टहानिपद कहेवाय.
(३) उत्कृष्ट अवस्थान पद :- अवस्थितस्थितिबन्धना पूर्वमां थयेला ते ते भूयस्कार के अल्पतर स्थितिबन्धोमां अधिकतमस्थितिबन्धतारतम्यथी थयेला भूयस्कार के अल्पतर स्थितिबन्धनी उत्तरमां थयेलो अवस्थितस्थितिबन्ध ते उत्कृष्ट अवस्थानपद कहेवाय, आ उत्कृष्ट अवस्थान स्थितिबन्ध कोई मार्गणाओमां उत्कृष्टवृद्धिपदना अनन्तरसमयोमां होय छे. तो वळी कोई मार्गणाओमां उत्कृष्ट हानिपदना अनन्तरसमयोमां होय छे, केमकं तेवी मार्गणाओमां उत्कृष्टवृद्धि पछी अवस्थान ज नथी हो, अथवा उत्कृष्टवृद्धिपद करतां उत्कृष्टहानिपद वधारे स्थितिबन्धतारतम्यथी मळतु होय छे. कोई कोई मार्गणाओमां तो उत्कृष्टवृद्धि के उत्कृष्टहानिना अनन्तर समयोमा उत्कृष्टअवस्थान न मळतां अन्य कोई भूयस्कार के अल्पतरना अनन्तरसमयोमां उत्कृष्ट अवस्थान मळे छे. (४) जघन्य वृद्धि पद, (५) जघन्य हानि पद अने (६) जघन्य अवस्थान पद:- उत्कृष्ट
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विषय-परिचय
[४३
वृद्धि वगेरे उपर कहेला त्रण पदो करतां विपरीत लक्षणवाळां एटले के सर्वस्तोक-समयमात्र स्थितिवन्धना तारतम्यथी प्राप्तथतां स्थितिबन्धभूयस्कारादि ते जघन्यवृद्धि आदि त्रण पद तरीके छे.
सत्पद द्वारमां-ओपथी अने ते ते (१७० ) मार्गणाओमां उपरोक्त स्वरूपवाळां ६ पदोमांथी केटलां अने कयां पदो मले छे ते बतावायु छे, ज्यारे पूर्ववत् स्वामित्व द्वारमांते ते सत्पदोना स्वामी बन्धको केवी अवस्थामां ते ते वृद्धयादिपदना बन्धक बने छे ते दर्शावायुछ. त्रीजा अल्पबहुत्व द्वारमां-त्रण उत्कृष्टपदोनुं एक अल्पबहुत्व बताव्यु छे के जेमा उत्कृष्टपदो जे स्थितिबन्धतारतम्पथी उत्पन्न थायछे ते स्थिति पन्धलार सम्योनी परसरना हीनाधिकता दर्शावाई छे, अने तेज रीते जघन्यपदोनु एक अल्पवहुत्व बताव्यु छे. टीकाग्रन्थमा उक्त त्रणे द्वारमा कहेला पदार्थोने स्पष्ट करी अधिकारना अन्ते त्रगे द्वारना पदार्थोनु संग्राहक यन्त्र पण आलेख्य छे.
पांचमो वृद्धि अधिकार अने एनां १३ द्वारो पदनिक्षेप अधिकार पछी पांवमो वृद्धिअधिकार आवे छे. वृद्धिअधिकारमा मूळआठकर्मना स्थितिवन्धनी वृद्धि, हानि, अवस्थान अने अवक्तव्य एम चार विषयो उपर सत्पद,स्वामित्व आदि बारोमा पूर्वनी जेम जीव सामान्यने आश्रयीने अने (१७०)मार्गणास्थानवति जीव विशेषने आश्रयीने विचारणा करवामां आधी छे. एम छतां भूयस्कारअधिकारनी जेम अधिकारनु नाम वृद्धिअधिकार एवं राख्यु छे.
__ जेम पदनिक्षेप अधिकारमा कही गया तेम जो के अहींयां पण वृद्धि भूयस्कारस्थितिबन्धविशेषरूप ज छे तेमज हानि अल्पतरस्थितिबन्धविशेषरूप ज छे,छतां पदनिक्षेप अधिकारमा वृद्धि अने हानि उत्कृष्टपदमां अने जघन्यपदमा रहेली ज, अर्थात् वधारेमांवधारे स्थितिवन्धतारतम्यथी प्राप्त थती अने ओछामा ओछा स्थितिवन्धतारतम्यथी प्राप्त थती लईने ते उपर विचारणा कराई छ ज्यारे अहींयां वृद्धिअधिकारमा वृद्धि चार प्रकारनी-(१) असंख्यभागस्थितिबन्धवृद्धि,(२) संख्यातभागस्थितिबन्धवृद्धि, (३) संख्यातगुणस्थितिबन्धवृद्धि, अने (४) असंख्यातगुणस्थितिवन्धवृद्धि. तेवीज रीते हानि पण चार प्रकारनी-(५)असंख्यभागस्थितिबन्धहानि,(६)संख्यातभागस्थितिबन्धहानि,(७)संख्यातगुणस्थितिबन्धहानि अने (८) असंख्यातगुणस्थितिबन्धहानि एम आठ प्रकारना स्थितिबन्धविशेषो पर विचारणा कराई छे.
जेमके-ज्ञानावरणादि ते ते मूळकर्मनी असंख्यातभागस्थितिबंधवृद्धि वगरे ते ते वृद्धिमाथी अने असंख्यातभागस्थितिबंधहानि वगेरे ते ते हानिमांथी जीवसामान्यमां अने नरकगतिओघ वगरे मार्गणा ओमां कई कई वृद्धिओ अने कई कई हानिओ सत् छे (मली शके छे). ते ते वृद्धिना अने हानीना स्वामी (बंधक) कोण छ. ते ते वृद्धि के हानिनो एकजीवाश्रय काळ जघन्यथी अने उत्कृष्टथी केटलो छे. एज रीते एकजीवाश्रय अंतर जघन्यथी अने उत्कृष्टथी केटलु छे. ओपथी अने ते ते
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विषय-परिचय
मार्गणास्थानोमां कहेला समस्त सत्पदोना एक-अनेक वन्धकोथी ते ते काळविशेषमा प्राप्त थता नानाजीवाश्रय भांगा केटला छे वगरेनी विचारणा त्रीजा अधिकारनी जेम सत्पदादि ते ते द्वारोमा कराई छे.
अहींयां आठे मूळकर्मनो अवस्थानस्थितिबन्ध अने अवक्तव्यस्थितिवन्ध पण अधिकृत छे पण ते सर्वथा त्रीजा भूयस्कारअधिकारमा कहेवाई गयेला प्रस्थानस्थितिबन्ध अने अबक्तव्य स्थितिबन्ध जेवो छे. अने तेथी ते संबंधी प्ररूपणा अने आयुःकर्मनो अल्पतरस्थितिवन्ध केजे भूयस्कारअधिकारमा कहेवाई गयो छे ते मात्र असंख्यभागहानिलक्षण एकन हानिरूप होवाथी ते विषयक प्ररूपणा भूयस्कारअधिकारमा कहेवाई गयेला अवस्थानस्थितिबन्ध वगेरे ते ते स्थितिवन्धने भळावी दईने ग्रन्थलाघव करवामां आव्यु छे. मात्र छेल्ला अल्पबहुत्वद्वारमा विशेषता होवाथी ए न भळावतां त्यां अल्पबहुत्वोने कहेवामां आव्यां छे. टीकाग्रन्थमां ते ते पदार्थोने व्याप्तिओ वगेरे द्वारा सिद्ध कर्या छे अन अधिकारना अन्ते समग्रवृद्धि अधिकारमा आवेला पदार्थोनो संग्रह करतां यन्त्रो द्वारवार आलेख्यां छे.
छट्टो 'अध्यवसायसमुदाहार' अधिकार अने एनां ३ द्वारो
पांचमा अधिकार पछी छट्ठा अध्यवसायसमुदाहार नामना अधिकारमा पूर्वना पांच अधिकारमा बतावायेला कार्यरूप स्थितिबन्धना कारणभूत एवा कषाय उदयथी उत्पन्न थता आत्माना अध्यवसायोने आश्रयीने 'स्थितिसमुदाहार, प्रकृति समुदाहार, अने जीवसमुदाहार नामनां त्रण मूलद्वारो अने 'प्रगणना' 'अनुकृष्टि' वगेरे अवान्तरद्वारोथी निरूपण करवामां आव्यु छे. तेमां
स्थितिसमुदाहार नामना पहेला द्वारमां-प्रगणना, अनुकृष्टि,अने तीव्रतामन्दता नामना त्रण अवान्तरद्वारो छे. तेमां प्रगणनाद्वारमां-ज्ञानावरणादिमूलकमेनो एक एक स्थितिविशेष (स्थितिबन्धस्थान)केटला भिन्न भिन्न अध्यवसायोथी बन्धाई शके ते, तथा स्थितिवन्धना कारणभूत ते अध्यवसायो दरेक स्थितिविशेषे सरखा (समान संख्यामां) नथी होता पण अधिक अधिक स्थितिवन्धमां वधारे वधारे होय छे ते बताव्यु छे. अने ते अधिक अधिक स्थितिबन्ध माटे समर्थ एवा अध्यवसायोनी पूर्वे कही गया तेम अनन्तरोपनिधा अने परम्परोपनिधा एम बे रीते प्ररूपणा करी छे. त्यार बाद अध्यवसायोनी द्विगुणवृद्धिनां स्थानो, अने निरन्तर अवां बे द्विगुणवृद्धिस्थानो बच्चेना स्थितिबन्धस्थानोर्नु अल्पबहुत्व बताव्यु छे के जेने टीकाग्रन्थमा युक्तिप्रयुक्ति अने असत्कल्पनाओपूर्वक अने पल्योपम-सागरोपमना भेदो, एर्नु स्वरूप, एनो उपयोग विगेरे प्रासंगिक विषयो सहित सविस्तर घटावधामां आव्युछे.
अनुकृष्टिद्वारमां-जेम कोई चोक्कस स्थितिबन्धवखते संभवता रसबन्धना अध्यवसायो* भिन्न भिन्न कषायना उदयथी आत्मामा उत्पन्न यता भिन्न भिन्न परिणामो.
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For Private & person
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विषय-परिचय
[x मांना केटलाक अध्यवसायो अथवा ते बधाज अध्यवसायो ते चोक्कस स्थितिबन्धकरता समयाधिक स्थितिवन्ध करती वखते अथवा समयहीन स्थितिबन्ध करती वखते पण होई शके छे, अर्थात् एकस्थितिबन्धवखते सम्भवता रसबन्धना अध्यवसायो बीजा स्थितिबंधवखते पण होई शके तेरूप रसबन्धअध्यवसायनी अनुकृष्टि (एक स्थितिबन्धस्थानगत रसबन्धअध्यवसायोन बीजा स्थितिवन्धस्थानोमां अनुकर्षण खेंचावु एरूप) होय छे तेम स्थितिबन्धना अध्यवसायोनी अनुकृष्टि नथी होती, अर्थात् एक स्थितिवन्धने योग्य अध्यवसायोथी बीजी स्थिति बन्धाई शकती ज नथी, एम स्थितिवन्धना अध्यवसायोनी अनुकृष्टिनो निषेध करवामां आव्यो छे अने टीका ग्रन्थमां तेने वधारे स्पष्ट करवा असत्कल्पनाओनो अने असत्कल्पनानुसारी यन्त्रोनो आश्रय लेवामां आव्यो छे.
त्यार बाद तीव्रतामन्दतानामक त्रीजा अान्तरद्वारमां-एक एक स्थितिवन्धने अनुरूप भिन्न भिन्न अध्यवसायोमां परस्पर, अने ते अध्यवसायोनी ते सिवायना बीजा स्थितिवन्धने माटे योग्य अध्यवसायोनी साथे उदितकायो यता रसनी अपेक्षाए तीव्रतामन्दता केवी अनन्तगुण होय छे ते व्यक्त करायु छे.
बोजा मूठद्वार प्रकृतिसमुदाहारमां-दरेक मूळप्रकृतिने आश्रयी स्थितिबन्धना अध्यवसायो केटला होय छे ते तथा मूळप्रकृतिओने आश्रयी स्थितिवन्धना अध्यवसायस्थानोनु अल्पबहुत्व प्रदर्शित करायुछे.
त्रीजा मूद्वार जीवसमुदाहारमां-जेनु प्ररूपण मुख्यपणे रसबन्धग्रन्थमां करवामां आवे छे तेवा बे, त्रण अने चार ठाणीआरसने बांधता भिन्न भिन्न अध्यवसायवाला जीवोन ते ते रस. बन्धक तरीके विभाजन करीने ते ते विभागगत जीवोने बन्धप्रायोग्य स्थितिओ अने स्थितिबन्धस्थानोनु प्रमाण बतावता पूर्वक ते ते स्थितिबन्धस्थानोने बांधनार जीवो अधिक अधिक स्थितिए कया क्रमथी अने क्यां सुधी वधती संख्यामां अने घटती संख्यामां होय छे अने ते जीवसमूहने ते ते स्थितिबन्धस्थान उपर स्थापतां केवी यवनी जेम चड-उतर आकारवाळी आकृतिओ बने छे, तथा ए यवाकृतिओना मध्यभागथी (सौथी वधारे जीवो होय तेवा पहोळा भागथी) बे बाजुए उत्तरता जता भागो उपर आवेलां स्थितिबन्धस्थानोमांथी केटलां केटलां अने कयां कयां स्थितिवन्धस्थानो मात्र साकारउपयोगमां वर्तता जीवोने ज बन्धप्रायोग्य होय छे, ते ज रीते केटलां अने कयां स्थानो साकार अने अनाकारमांथी कोईपण उपयोगमा वर्तता जीवोने बन्धप्रायोग्य होय छे. ए बतायवामां आव्युछे, अने त्यारवाद शुभ अशभ प्रकृतिओना बेत्रण अने चार ठाणीआ रसना बन्धकोने बन्धप्रायोग्यतरीके छ भागमा वाचायेला स्थितिबन्धस्थानो, वळी पाछां ते स्थितिबन्धस्थानो ते ते यवाकृतिना उपर-नीवेना ते ते भागमा रहेलां होवारूपे बेबे भागमां वहेंचाईने
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विषय-परिचय १२ भागमां थयेलां स्थितिबन्धस्थानो, अने ते १२ भागमांथी कोई कोई भागमां केटलांक मात्र साकारोपयोगमां बन्धप्रायोग्य, तो वळी केटलांक बन्नेमांथी कोईपण उपयोगमा बन्धप्रायोग्य एम पुनः बे बे विभागमां वाचायेलां स्थितिबन्धस्थानो, आ रीते अनेक विभागमां वहेंचायेला स्थितिवन्धस्थानो परस्पर केटला प्रमाणमा ओछा बत्तां छे अने एज स्थितिबन्धस्थानो शाता अशाता वेदनीयकर्मना जघन्य उत्कृष्ट वगेरे स्थितिबन्धप्रमाणना समयो करतां, तेमज अन्तःकोटीकोटीसागरोपम तरीके बन्धाता वधारेमांवधारे(उत्कृष्ट)स्थितिवन्धना समयो करतांकेटलां वत्तां ओछां छे वगरेनु प्रतिपादन करतुं एक मोटु अल्पबहुत्व बताववा द्वारा स्थितिवन्धमां कारणभूत क्रोधादिकपायथी आत्मामां उत्पन्न थता अध्यवसायो कया जीवोने केवा अने केटला प्रमाणमां होई शके ए वधु स्पष्ट कयु छे. त्यार बाद जीवसमुदाहारनो उपसंहार करतां अन्ते पूर्वे कही गया तेवा वे ठाणीआवगेरे ते ते रसना बन्धकजीवोनु परस्पर अल्पबहुत्व आप्यु छे. आ पदार्थोंने टीकाग्रन्थमां ग्रन्थान्तरनी साक्षीओ, असत्कल्पनाओ, स्थापनाचित्रो अने यन्त्रोना आलेखन तथा शंका समाधान अने सरल विवेचन वड़े सुगम अने स्पष्ट करवामां आव्या छे अने ए रीते मूलप्रकृति स्थितिबन्धग्रन्थ समाप्त करवामां आव्यो छे, ए जिज्ञासु वाचकवर्ग स्वयं जोई शक.शे.
संस्कृतप्राकृत निबद्ध २०,००० श्लोकप्रमाण महाकायग्रन्थनो आ टूको विषय-परिचय कोई महासमुद्रना रेखा-चित्र समो ज छे. समुद्रनी ऊडाई पहोळाई वगेरे रेखाचित्रथी केटली समजावाय ? एना तल मागोमां रहेला रत्न-मौक्तिकवगेरेनी रंगीली प्रभा ए चित्रमा केटली पूराय ? छतां य संस्कृत प्राकृतना अनभिज्ञ जीवोने गुजरातीभाषा निबद्ध आ 'विषय-परिचय' कर्मबन्धविषयक यत्किञ्चित् बोध साथे ग्रन्थनी महात्ताने हृदयस्थ करावा द्वारा जैनशासनना कर्मसाहित्यउपर अने जैन शासन उपर अथाग श्रद्धा-बहुमान करावनारो बनशे,तेमज स्थितिबन्धविषयक सूक्ष्म अवबोधना अभिलाषी कर्मग्रन्थादिना अभ्यासीओने प्रस्तुत मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध ग्रन्थना अध्ययन माटे अवश्य प्रेरशे.
१३, श्रीपालनगर, आश्रमरोड वि० सं० २०२२ पोष वद १३
ता.१९ -१-१९६६ अहमदाबाद-१३.
सिद्धान्तमहोदधि आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वर अन्तेवासी पंन्यासप्रवर भानुविजयगणिवर्य शिष्य स्वर्गत पंन्यास पद्मविजयगणिवर शिष्याणु
-मुनि जगच्चन्द्रविजय
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गुरु-स्तुतयः
आज्ञातीतं कुमतमसकृत् खण्डखण्ड विधाय,
मुर्तेरर्चा समयवचसा येन सिद्धान्तिता हि । आत्मारामेति मधुरगिरा संस्तुतो यस्तु लोके,
स न्यायाम्भोनिधिरिति बुधैर्बोधितः पातु भव्यान् ॥१॥ (मन्दाक्रान्ता)
सद्वीर्यमण्डित-सुधी-मुनिवृन्दसेव्य
___चारित्रवार्धि-शमकृद्धृतनिस्पृहत्वः । सूरीन्द्र इन्द्रवदनः कमलाभिधानः,
श्रेयः सदैव वितनोतु स देहभाजाम् ॥१॥ (वसंततिलका)
कर्मेन्धनौघदहने दहनाः प्रचण्डा,
धर्मद्रुमौषभरणे जलदा अमन्दाः । जैनेन्द्रशासननभोमणयो जयन्तु,
श्री वीरपूर्वविजयोत्तरपाठका हि ।।१।। (वसंत०)
मोक्षार्थिनामसुमतां समजायतोच्चैः,
सच्चूर्णि-भाष्य-विवृतिप्रमुखं प्रमथ्य । । यद्दत्तमूत्तरसमूहनिबद्धमाला,
__ तत्त्वं बुभुत्सुकृतिनां वरपाठमाला ॥१॥ (वसंत०) स श्रेयसेऽस्तु सकलश्रुतहार्दवेदी,
ज्योतिर्विदार्यजनपूजितपादपद्मः । सद्धर्मदानकुशलः कुशलौघकारी,
सूरीन्द्रदानविजयः सुदृशां सदैव ।।२।। (वसंत०)
कर्मग्रन्थविदारणैकसुभटो भव्याञ्जभानुप्रभः,
कर्मग्रन्थविचारणेऽतिचतुरः सिद्धान्तपारङ्गतः । सेव्यः सार्धशतद्वयाधिकमुनिवातेन वात्सल्यभूः,
त्रैलोक्ये जयतात् प्रशस्तचरणः स प्रेमसूरिप्रभुः ॥१॥ (शार्दुलवि०)
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अर्धांजलि Arrest
जे महापुरुषे अनेक जन्मोथी सिद्धज्ञानगर्भित वैराग्यथी यौवनना प्रारम्भमां ज संसारना बंधनोने फगावी अपूर्वगुरुभक्ति, विनय, बहुमान आदि द्वारा रत्नत्रयीनी उज्ज्वल आराधना करी आजे जैनशासनमा अजोड गच्छाधिपतित्व प्राप्त कयु छे,
जं शासनज्योतिर्धरनी परमपावनी निश्राने तथा करुणानिभृतदृष्टिने पामीने मारा जेवा अनेक आत्मानो संयमनी उत्तरोतर विशुद्धिने प्राप्त करवा समर्थ बन्या छ,
ते सेंकडो मुमुक्षुजनोना मुक्तिमार्गमां भोमीया, विषयव्याधिथी पीडाता जीवात्माओना धन्वंतरी, भव-जंगल वटावी रहेला भव्योना सार्थवाह, अज्ञान-अंधकारमा अटवाताओना प्रकाशदाता, दर्शनमात्रथी कुवृत्तिओना प्रशामक, परमनिस्पृह, करुणाभृतहृदय, वात्सल्यवारिधि, सच्चारित्रचूडामणि, सिद्धान्तमहोदधि, कर्मशास्त्रनिष्णात, प्रातःस्मरणीय, परमाराध्यपाद, गच्छाधिपति. प्रगुरुमह, आचार्यभगवंत श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वर महाराजा ना पावन करकमलमां तेओश्रीना ज परम प्रभावथी रचायेल आ ग्रन्थरत्न अर्पण करीने यत्किंचित् कृतज्ञतानो आनंद अनुभवु छु.
-सिद्धान्तमहोदधि आचार्यदेव श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वर
अन्तेवासी पंन्यासप्रवर भानुविजयगणिवर्य शिष्य ___ स्वर्गत पंन्यास पद्मविजयगणिवर शिष्याणु
मुनि जगचन्द्र विजय
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आ ग्रन्थसर्जनना प्रेरक, मार्गदर्शक अने संशोधक
सिद्धान्तमहोदधि सुविशालगच्छाधिपति संघकौशल्याधार कर्म शाखरहस्यवेदी शासनशिरताज परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा
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विषयः
पृष्ठाङ्कः
१-२
टीकाकार- मङ्गलवचनानि द्रव्यानुयोगमाहत्म्य वर्णनं मूलग्रन्थप्रारम्भश्च ३ स्थितिबन्धपदार्थनिरूपणं ग्रन्थप्रतिज्ञाविषये पुनरुक्तिमाशङ्कय तत्परिहरणं ग्रन्थकृन्मङ्गलञ्च ४-५ ग्रन्थस्य तीर्थ कृन्मूलकतादिलक्षणसम्बन्धस्य प्रयोजनादेश्वाभिधानम्
५-६
स्थितिबन्धस्थानादिद्वारनामनिर्देशः स्थितिबन्धस्थान निषेका बाबाकण्डकस्वरूपञ्च
* स्थितिबन्धस्थानद्वारम् *
जीवमेदेषु स्थितिबन्धस्थानाल्पबहुत्वम् तदुपपत्तिः . जीवभेदेषु स्थितिबन्धस्थानानि प्रमाणतः स्थितिबन्धस्थानाल्पबहुत्वेऽसत्कल्पना
असत्कल्पनया स्थापना
जीवभेदेपुविशुद्धिस्थानाल्पबहुत्वम् क्लेशविशुद्धिनिर्वचनम् संक्लेशत्रिशुद्धिस्थानाल्पबहुत्वोपपत्तिः तत्र तन्त्रान्तराभिप्रायेणाऽसत्कल्पना तयाऽसत्कल्पनया स्थापना
१९
चतुर्दशजीत्रभेदेषु स्थितिबन्धस्थान-संक्लेशत्रिशुद्धिस्थानानां प्रमाणाऽल्पबहुत्वयोर्यन्त्रम् जीवभेदेषु जघन्योत्कृषुस्थितिबन्धात्पबहुत्वम् २१ अलाबहुत्वोपपत्तिः जीभेदेवायुः कर्मणः स्थितिबन्धस्थान - संक्लेशविशुद्धिस्थान- जघन्योत्कृषुस्थितिबन्धाल्पबहुत्व
२३
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विषयानुक्रमः
....
....
* प्रथमोऽधिकारः
( पृष्ठ ९ तः ६४ )
....
....
****
त्रयम्
सविशेषच तुर्दशजीवभेदेषु जयन्योत्कृष्टस्थितिबन्धात्पबहुत्वयन्त्रम्
९
१०
११
१२
१३
१४
५५
१५
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१७
२०
२६
२७
पृष्ठाङ्कः मूलप्रकृतिस्थितिबन्धगताऽधिकाराणां नामनिर्देशः, तत्तदधिकारेषु प्ररूपणीयविषयाः, तत्र भूयस्कारादीनां पदनिक्षेपस्य वृद्ध्यादीनां च कथञ्चिद् भूयस्कारादिरूपत्वेऽपि कथञ्चित्पार्थक्य प्रदर्शनं भूयस्कारादीनां स्वरूपलेशश्च तत्तदधिकारगतद्वाराणां नामनिर्देशः
विषयः
* निषेकद्वारम् *
अनन्तरोपनिधया स्थितिस्थानेषु कर्मदलनिषेकः २८ परम्परोपनिधया
३२
त्वम्
11
उभयथा कर्मद निषेकानुपपत्तौ कर्मप्रकृतिप्रदेश
बन्ध चूर्णिग्रन्थमवलम्ब्य पूर्वपक्ष:
तत्र समाधानम्
....
तत्र पूर्वपक्षे स्थापनाचित्रम् .. निषेकद्विगुणहानिस्थान- तदेकान्तरयोरल्पबहु
....
....
د.
....
"
....
३३-३५
३५
३६
* अबाधाकण्डकद्वारम् *
आयुर्वर्ज सप्तमूलप्रकृतीनां समय-समयाऽबाधाद्दानौ हीयमानस्थितिबन्धस्थानसमूहलक्षणस्याऽबाधा
Sus
आयुः कर्मणस्तदप्ररूपणे शङ्का - परिहारौ
....
३७
....
३८
३८
* अल्पबहुत्वद्वारम् *
पर्याप्ताऽपर्याप्त संज्ञिजीवभेदयोः प्रत्येकमायुर्वर्जसप्तमूल कर्मणामेकैकस्य स्थितिबन्धस्थान- जघन्याऽबाधाsatarस्थान सर्वाबाधाकाण्डको -त्कृष्टा बाधा - निषेकद्विगुणहानिस्थान- द्विगुणहानिस्थानैकान्तरै काबाधा
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
५० ]
विषय:
कण्डकप्रमाण- जवन्यस्थितिबन्धो-त्कृष्टस्थितिबन्ध
लक्षणानां दशपदानामला बहुत्वम् एतदेवाहुत्वं शेषद्वादशजीवभेदेषु देवायुःकर्माश्रित्य पर्याता ऽसंज्ञि-संज्ञिजीव
भेदद्वये
तदेवाssयुः कर्माश्रित्य शेषद्वादशजी अभेदेषु असंक्षेपयाऽद्धाविपये कर्म प्रकृतिचूर्णिकारप्रज्ञापनावृत्तिकारयोर्वचनभेदेऽपि न मतान्तरं, किन्तु विक्षाभेद एवेति प्रसङ्गात्प्रदर्शनम् पर्यातसंज्ञितञ्चेन्द्रियजीवभेदेऽकर्मणां परस्परं स्थितिबन्धस्थानादीनां त्रिंशत्पदानामल्पबहुत्वम् ५०
****
स्थितिबन्धग्रन्थस्य
पृष्ठाङ्कः
***.
29
DORA
39
....
****
स्थितिबन्ध प्रमाणादिपञ्चदशद्वाराणां नामनिर्देशो लेशतस्तत्स्वरूपञ्च
६५
* स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम् *
उत्कृष्टादिस्थितिबन्धस्वरूपनिर्धारणम् अनुभवयोग्य कर्मरूपतावस्थान भेदात्स्थितिबन्धद्वैविध्यं
तत्स्त्ररूपञ्च
अबाधा-कर्म दलनिषेकनियमप्रदर्शनम् ओघतो ज्ञानावरणाद्यषु मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धमानम्
मार्गणास्वायुर्वर्ज सप्तमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धमानम्
७३
७९
मार्गणास्त्रायुप उत्कृष्टस्थितिबन्धमानम् भोघतोऽष्टमूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धमानम् ८५
मार्गणास्वायुर्व
८५
मार्गणात्रायुषो
६३
भत्र ग्रन्थेऽधिकृतमार्गणास्थानयन्त्रम्
९७
भोवा ऽऽदेशतः स्थितिबन्धप्रमाणप्रदर्शकयन्त्राणि ९८
३९
४२
४६
४८
* द्वितीयोऽधिकारः
( पृष्ठ ६५ तः ४३२ )
""
४८
"
....
६७
६८
विषय:
७१
एतदेवाऽपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवभेदे तोपर्याताऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीव भेड़े तदेवाऽपर्याप्ताऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवभेदे तदेवपर्याप्त चतुरिन्द्रियजीवभेदे देवपर्यातीन्द्रिय द्वीन्द्रिया-पर्यातच तुरिन्द्रियत्रीन्द्रिय द्वीन्द्रियलक्षणजीवभेदपञ्चकेऽतिदेशेन ५४ तदेव पर्याप्तारै केन्द्रियजीवभेदे तदेवाऽपर्याप्तवादरै केन्द्रियजीवभेदे तदेव शेषै केन्द्रियजीवभेदयोरतिदेशेन चतुर्दशजी व भेदाऽकर्मभेद-निष्पन्नविंशत्उभ्य धिकत्रिशत (३२०) पदाना नल्पबहुत्वम्
....
* स्वामित्वद्वारम् *
ओघत आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः ओघत आयुष उत्कृषुस्थितिबन्धस्वामिनः मार्गणास्वायुर्वर्जसतानाम्
१०५
१०८
११०
मार्गणास्वापः
१२१
realsg प्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनः १२५ मार्गणात्रायुर्वजां
१२७
१३४
१३६
"
99
स्वामित्वप्रदर्शकयन्त्राणि
35
****
पृष्ठाङ्कः
५२
५३
५३
५४
""
""
* साद्यादिद्वारम् * ( एकजीवमाश्रित्य )
ओघतोऽमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टा--ऽनुत्कृष्ट--जघन्या --ऽजघन्यस्थितिबन्धानामेकजीवमाश्रित्य सायनादि वाऽध्रुवत्वप्रदर्शनम् स्वष्टानां मूलप्रकृतीनां तत् साद्यादिप्रदर्शकयन्त्रकम्
५५
५६
५.६
****
१४५
१४७
१४८
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमः
[ ५१. विषयः
विषयः
पृष्ठाङ्कः * कालद्वारम् *
* भङ्गविचयद्वारम् * ( एकजीवमाश्रित्य )
एका-ऽनेकादिबन्धका-ऽबन्धकनिष्पन्ना-ऽष्टविधओघत आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्ट- भङ्गस्वरूपं तत्रोपयोग्यबन्धकस्वरूपञ्च .... २५१ स्थितिबन्धयोर्जघन्योत्कृष्कालः .... १४९ ओघतोऽष्टानामुत्कृष्टाऽनुत्कृष्ठस्थित्योभङ्गविचयः२६० ओघतोमार्गणासु चायुष उत्कृष्पाऽनुत्कृष्ठस्थिति- मार्गणास्त्रायुर्वर्जानाम् , , २६१ बन्धयोः स० .... .... १५१ तत्तद्भगोत्पत्तिमार्गाः ..... .... २६१ मार्गणास्वायुर्वर्जानां स: .... १५३ मार्गणास्वायुष उत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्भङ्गविचयः २६७ मार्गणानामेकजीवाश्रया उत्कृष्टकायस्थितिः .... १६४ ओघतोऽष्टानां जघन्या-जघन्यस्थित्योर्भङ्गविचयः २६८
जघन्यकायस्थितिः .... १७८ मार्गणास्वायुर्वर्जानां ,, , , २६९ ओवतोऽष्टमूलप्रकृतीनां जघन्या-ऽजघन्य
भङ्गविचययन्त्रकम् .... स्थितिबन्धयोर्जघन्योत्कृष्टकाल: १८४ मार्गणास्वायुषो जघन्या-जघन्यस्थित्योर्भङ्गविचयः२७२ मार्गणास्त्रायुषस्तयोः , , १८५ मार्गणास्वायुर्जानां
* भागद्वारम् * , १८६ मार्गणानामेकजीवाश्रयकायस्थितियन्त्रम् .... १९४ ओघतोऽष्टमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टाऽनुत्कृष्टस्थित्योमार्गणासु जवन्योत्कृष्टभवस्थितेयन्त्रम् .... १६५
बन्धकभागाः २७३ कालप्रदर्शकयन्त्रकाणि
मार्गणास्वायुर्वर्जानाम् , , , २७४ __* अन्तरद्वारम् *
मार्गणास्वायुष
, २७५ ( एकजीवमाश्रित्य )
ओघतोऽष्टप्रकृतीनां जघन्याऽ-जघन्यस्थित्योस्ते २७७ ओवतोऽष्टमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्ठस्थिति- मार्गणास्वायुर्वर्जानां , , , २७८
बन्धयोर्जवन्योत्कष्टान्तरम् २०१ मार्गणास्वायुषो , , , २८१ मार्गणास्वायुर्वर्जानाम् , , २०४ भागप्रदर्शकयन्त्रम् मार्गणास्वायुषः , , २११
* परिमाणद्वारम् * ओघतोऽष्टकर्मणां जघन्याऽजघन्यस्थितिबन्धयोस्तत् २२१
ओघतोऽष्टमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टेतरस्थित्योर्बन्धकमार्गणास्वायुर्वर्जानां ,
परिमाणम् २८२ , ,
२२३
मार्गणासु आयुर्वर्जानाम् ,, मार्गणास्वायुषो
, ,
, २८२ , , अन्तरप्रदर्शकयन्त्रकाणि
, आयुष , , , २८५
ओघतोऽष्टानां जघन्या-ऽजघन्यस्थित्योस्तत् २८८ * संनिकर्षद्वारम् *
मार्गणासु आयुर्वर्जानां , , , २८८ ओघतोऽष्टानामुत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थितिबन्ध
, आयुषो , , , २९१
संनिकर्षः २४३ । परिमाणप्रदर्शकयन्त्र० .... .. २९२ मार्गणास्वष्टानाम् , , , २४५ ओघतोऽष्टानां जघन्या-ऽजघन्यस्थिति- , २५०
___* क्षेत्रद्वारम् * मार्गणास्वष्टानां , , , , २५१
ओघतोऽष्टमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थित्योसंनिकर्षप्रदर्शकयन्त्रकाणि .... २५२ । बन्धकक्षेत्रं क्षेत्र-स्पर्शनयोर्विशेषश्च .... २९५
२७९
२३०
२५
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२ ]
पृष्ठाङ्कः
विषयः मार्गणास्वायुर्वर्जानामुत्कृष्टस्थिते बन्धकक्षेत्रम् २९६ मार्गणा आयुर्वर्जानामनुत्कृष्टस्थिते बन्धकक्षेत्रम् २९९ आयुष उत्कृष्टस्थितेः बन्धकक्षेत्रम् ३०१ अनुत्कृष्टस्थितेः
""
३०२
भोघतोऽष्टानां जघन्या - ऽजघन्यस्थित्योः
३०३
३०४
मार्गणावानां मार्गाव क्षेत्र प्रदर्शक यन्त्र०
३०७
३०८
,"
39
""
"
""
"
"
""
"
او
मार्गणा आयुर्वजनामुत्कृष्टस्थितेः अनुत्कृष्टस्थिते:
33
,, आयुष उत्कृष्टस्थिते:
* स्पर्शनाद्वारम् *
ओघत आयुर्वर्ज सप्तमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टा ऽनुत्कृष्टस्थित्यन्धकानां स्पर्शना, स्पर्शनोपपत्तिमार्गाः स्पर्शनाया विषयनिर्धारणं च भघत आयुष उत्कृष्टा ऽनुत्कृष्टस्थित्योः
13
अनुत्कृष्ट स्थितेः
39
""
22
बन्धकस्पर्शना ३१५
३१६
३२२
,
ओघतोऽष्टानां जघन्या-ऽजघन्यस्थित्योः
मार्गणा आयुर्वजना जघन्यस्थितेः
अजघन्य स्थितेः
"
भायुषो जघन्य स्थितेः
"
स्पर्शना प्रदर्शकयन्त्रकाणि मार्गणास्वायुषो जघन्यस्थिते बन्धकस्पर्शना
....
"
22
29
"
"
"
ג,
"
विषयानुक्रमः
"
३१०
* कालद्वारम् *
( नानाजीवानाश्रित्य )
भघत आयुर्वर्ज सप्तमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टा ऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धयोर्जघन्योत्कृष्टकालः अनधिकृतविवक्षाविशेषेणैकजीवाश्रयकालस्य
३३९
३२४
३२६
३२९
३२९
जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तत्वेऽपि नानाजीवाश्रयजघन्यकालस्य समयमात्रत्वोपपादनं तत्र स्थापना च ३४० मोघत आयुष उत्कृष्टाऽनुत्कृष्टस्थित्योः
मार्गणा आयुर्वर्जानामुत्कृष्टस्थितेः
""
३३२
३३३
३३४
३३९
जघन्योत्कृष्टकालः ३४३
३४३
विषयः
मार्गणास्वायुर्वर्जानामनुत्कृष्टस्थितेः
आयुष उत्कृष्टा ऽनुत्कृष्टस्थित्योः ओघतोऽष्टानां जघन्या ऽजघन्य स्थित्योः मार्गणा आयुर्वर्जानाम् जघन्यायाः स्थिते:,, ३५४
३५३
३५८
३५९
३६१
"3
"
अजघन्य स्थितेः
आयुषो जघन्या- जघन्यस्थित्योः,, नानाजीवाश्रयकालप्रदर्शकयन्त्राणि
"
"
मार्गणा आयुर्वर्जसप्तानामुत्कृष्टस्थितेः अनुत्कृष्टस्थितेः उत्कृष्टस्थिते: अनुत्कृष्टस्थिते: ओघतोऽष्टानां जघन्याऽजघन्यस्थित्योः
आज जघन्य स्थितेः अजघन्यस्थितेः
21
"
"
* अन्तरद्वारम्
( नानाजोवानाश्रित्य )
ओघतोऽष्टमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योः
ܙ
33
ور
आयुष
"
आयुषो जघन्या - ऽजघन्यस्थित्योः नानाजीवाश्रयाऽन्तरप्रदर्शकयन्त्राणि
".
www.
"
जघन्योत्कृष्टान्तरम् ३६६
३६६
३६८
पृष्ठाङ्कः
,, ३४६
३५०
"
19
....
""
دو
,
"
"?
"
* भावद्वारम् *
ओघाss देशतोऽष्टानां मूल प्रकृष्टतीनामुत्कृष्टादिचतुर्विधस्थितिबन्धे भात्रः भावप्रदर्शकयन्त्रम्
31
93
* अल्पहुत्वद्वारम् *
ओघतोऽष्टमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टाऽनुत्कृष्टस्थिति"बन्धपदद्वये बन्धकाल्पबहुत्वम् ३८५
३८५
३८७
मार्गणास्वायुर्वेर्जाना, मार्गणास्वायुषः ओघतोऽष्टानां जघन्या- ऽजघन्यस्थितिबन्ध
"
99
77
32
" ३७०
३७१
३७४
३७५
" ३७८
३७८ ३८०
"
"
22
"
मार्गणा आयुर्वजनां,,
37
आयुषः भघतोऽष्टानां जघन्योत्कृष्टाऽजघन्यानुत्कृष्ट
पदद्वये बन्धकाल्पबहुत्वम् ३८९
३८९
३९०
"
३८३
३८४
"
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयः
ges:
स्थितिबन्धलक्षणे पदत्रये बन्धकाल्पबहुत्वम् ३९१
३९२
३९६
मार्गणा आयुर्वजनां
आयुषः
,
"
""
39
99
aasti मूलप्रकृतीनां स्वस्थाने जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणाल्पबहुत्वम् ३९९
४०२
23
आयुषः
"
भघतोऽष्टानां मूलप्रकृतीनां परस्थाने
उत्कृष्ट स्थितिबन्धप्रमाणाल्पबहुत्वम्
,
तो मूलप्रकृतीनां
मार्गणास्वष्टानां स्वामित्वयन्त्रम्
"
د.
99
स्थितिबन्धभूयस्कारादिसत्पदयन्त्रम् स्वामित्वद्वारम्
सत्पदादित्रयोदशद्वाराणां नामनिर्देश:
* सत्पदद्वारम् *
भोघतोऽष्टमूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धभूयस्कारादिसत्पदानि स्थितिबन्धभूयस्कारादयः स्वरूपतश्च ४३४ मार्गणास्त्रायुर्वर्जानां स्थितिबन्धभूयस्कारादिसत्पदानि मार्गणास्त्रायुषः
"
....
"
"
"
39
विषयानुक्रमः
स्थितिबन्धभूयस्कारादिस्वामिन: ४४१
४४२
४४२
* तृतीयो भूयस्काराधिकारः
( पृष्ठ ४३३ तः ५१८ )
४३३
....
४०३
www.
....
* कालद्वारम् ( एकजीवाश्रितम्)
भघतो मार्गणासु चाऽऽयुषोऽल्पतरा ऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोर्जघन्योत्कृष्टकालः
४४३
aa आयुर्वर्जानां भूयस्कारादिचतुर्विधस्थितिबन्धानां जघन्योत्कृष्टकालः मार्गणास्त्रायुर्वर्जानां भूयंस्कारादिचतुर्विधस्थिति
४३६
४३७
४३९
४४५
बन्धस्य जघन्यकालः
मार्गणा आयुर्वनां भूयस्कारस्थितिबन्धोत्कृष्ट
कालः re
४४८
विषयः
मार्गणास्वष्टानां परस्थाने भघतोऽष्टानां परस्थाने
""
जघन्यस्थितिबन्ध प्रमाणाल्पबहुत्त्रम् ४०७
४०८
मार्गणास्वष्टानां परस्थाने भोघतोऽष्टानां परस्थाने जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्ध प्रमाणाल्पबहुत्वम् मार्गणास्त्रष्टानां परस्थाने अल्पबहुत्वयन्त्रकाणि
"
***
अन्तरप्रदर्शकं यन्त्रम्
"
""
""
....
....
13
"
"
33
मार्गणासु अल्पतर स्थितिबन्धोत्कृषुकालः ४५१ अत्रस्थितस्थितिबन्धोत्कृष्टकालः ४५३
"
४५३
४५३
अवक्तव्य स्थितिबन्धोत्कृष्ट कालः विवक्षान्तरेण भूयस्कारादिप्ररूपणे दिक् आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां भूयस्कारादिचतुर्विधस्थितिबन्धस्य कालप्रदर्शकं यन्त्रम्
४५५
भायुषोऽल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोः कालप्रदर्शकं यन्त्रम्
४५६
* अन्तरद्वारम्
....
(एकजीवमाश्रित्य ) ओघतोऽष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धानां जघन्यो-त्कृष्टान्तरम् तत्तदन्तरोपपत्तिमार्गाः " मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारा-ऽल्पतरस्थितिबन्धजघन्योत्कृष्टान्तरम् ४६०
मार्गणा आयुर्वर्जानामवस्थितस्थितिबन्धस्य, ४६१ अवक्तत्र्यस्थितिबन्धस्य ४६३
४६५
४६९
* भङ्गविचयद्वारम्
"
"
आयुष द्विविधस्थितिबन्धस्य
....
"
[ ५३
पृष्ठाङ्कः
४०४
880
....
४१२
४१३
४२४
"
भोघतोऽष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धपदानां भङ्गविचयोपयोगिनो ध्रुवत्वादिकस्य प्रतिपादनम्
४५७
४५७
४७१
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमः विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः
पृष्ठाङ्क मार्गणासु आयुर्वर्जसतानां तत्प्रतिपादनम् , ४७१ । मार्गणास्वायुषोऽल्पतरादिस्थितिबन्धकस्पर्शना ४९६
, आयुषस्तत्प्रतिपादनम् ४७४ स्पर्शनाप्रदर्शकं यन्त्रकम् .... ... ४९८ अध्रुवपदैर्भङ्गोत्पादनाय करणम् ..... ४७५
कालद्वारम् 8 करणयोजनया भङ्गोत्पत्तिः
( नानाजीवानाश्रित्य ) एकसंयोगादिभङ्गानां पृथक्पृथगुत्पत्तौ करणा
ओघतोऽष्टानां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकालः ४९९ न्तरम्
..... ४७८ तदनुसारेणौपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां सप्तकर्मणां
मार्गणास्त्रायुर्वर्जानामवक्तव्यस्थितिबन्धकाल: ४९९ भूयस्कारादिबन्धकानां भङ्गोत्पादनम् .... ४७८ भूयस्कारादिस्थितिबन्धनानाजीवाश्रयकालोपपत्तिः५०० तदनुसारेण भजनीयपदत्रये भङ्गोत्पत्तौ स्थापना४८० मार्गणास्वायुर्वर्जानां शेषभूयस्कारादित्रिविधभङ्गविचयप्रदर्शक यन्त्रम् .... ४८०
स्थितिबन्धजघन्योत्कृष्टकालः .... . ५०१ * भागद्वारम् के
मार्गणास्वायुषोऽवक्तव्या-ऽल्पतरद्विविधस्थितिओघतोऽष्टानां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकभाग०४८१
बन्धजघन्योत्कृष्टकालः
" ५०३ मार्गणास्वायुर्वर्जानां "
कालप्रदर्शकं यन्त्रम् .... .... ५०५ , , , ४८२ मार्गणास्वायुषो , , , , ४८३
* अन्तरद्वारम् 8 भागप्रदर्शकं यन्त्रकम् .... ४८४
(नानाजीवानाश्रित्य ) * परिमाणद्वारम् *
ओघतोऽष्टानां भूयस्कारादिस्थितिबन्धान्तरम् ५०६ ओघतोऽष्टानां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकानां
मार्गणास्वायुर्वर्जानामवक्तव्यस्थितिबन्धान्तरम् ५०६ परिमाणम्
.
. ४८५ ,, ,, शेषत्रिविधस्थितिबन्धान्तरम्... ५०७ मार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानां ,, ,, परिमाणम् ४८५ मार्गणास्वायुषो द्विविधस्थितिबन्धान्तरम् ५०७ मार्गणास्वायुषः , , , ४८६ अन्तरप्रदर्शकं यन्त्रम् .... . ५१० परिमाणप्रदर्शक यन्त्रम् .... ..... ४८७
* भावद्वारम् - * क्षेत्रद्वारम् ॐ
ओघा-ऽऽदेशतोऽष्टमलप्रकृतीनां भूयस्कारादिओघतोऽष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थिति- स्थितिबन्धे भावः
बन्धकानां क्षेत्रम् ४८८ तत्राऽऽक्षेप-परिहाराः .... .... ५११ मार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानां " "
४८९ मार्गणास्वायुषोऽल्पतरादिस्थितिबन्धकक्षेत्रम् ४९०
ॐ अल्पबहुत्वद्वारम् क्षेत्रप्रदर्शकं यन्त्रम्
... ४९१ ओघतोऽष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थिति* स्पर्शनाद्वारम् ॐ
__ बन्धकानामल्पबहुत्वम् ५१२ ओघतोऽष्टप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थिति- मार्गणास्वायुर्वर्जप्रकृतीनां , , . ५१३
__ बन्धकस्पर्शना ४६२ मार्गणास्वायुषः , .... ५१७ मार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानाम् , , ४९३ । अल्पबहुत्वयन्त्रकम् .... ....
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमः ॐ चतुर्थः पदनिक्षेपाधिकारः ॐ
(पृष्ठ ५१९ तः ५४२) विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः
पृष्ठाङ्क: सादादिद्वारनामनिर्देशः
ओघाऽऽदेशतो जघन्यवृद्धयादित्रिविधस्थितिसत्पदद्वारम् ॐ
बन्धस्वामिनः .... ..... .... ५३२ ओघतो माणासु चोत्कृष्टपदे स्थितिबन्धवृद्धि
* अल्पबहुत्वद्वारम् ॐ हान्यऽवस्थानसत्पदप्रदर्शनम् .... ५१९
ओघत उत्कृष्टस्थितिबन्धवृद्धयादिपदेष्वल्पओघतो मार्गणासु च जघन्यपदे स्थितिबन्धवृद्धि
बहुत्वम् ५३५ हान्य-वस्थानसत्पदप्रदर्शनम् .. ५२१ मार्गणासु , , , ५३५
स्वामित्वद्वारम् . ओघतो मार्गणास्थानेषु च जघन्यस्थितिबन्धओवत उत्कृष्टस्थितिबन्धवृद्धिस्वामिनः .... ५२२
वृद्धयादिपदेष्वल्पबहुत्वम् .. ५४० चतु स्थानिकरसबन्धकस्थापनापेक्षया यवचित्रम्५२३ ओघत उत्कृष्टस्थिनिबन्धहानिस्वामिनः .... ५२४
उत्कृष्टस्थितिबन्धवृद्धयादिपदेषु सत्पद-स्वामित्वा
-ऽल्पबहुत्वप्रदर्शकं यन्त्रकम् . ,, उत्कृष्टस्थितिबन्धाऽवस्थानस्वामिनः .... ५२५
५४१ माणासूत्कृष्टस्थितिबन्धद्धयादित्रिविध- । जघन्यस्थितिबन्धवृद्धयादिपदेषु सत्पद-स्वामिस्वामिनः
..... ५२६ । त्वाऽल्पबहुत्वप्रदर्शकं यन्त्रकम् . ५४२ ॐ पञ्चमो वृद्धयधिकारः ॐ
(पृष्ठ ५४३ तः ६२४) सत्पदादित्रयोदशद्वारनामनिर्देशः .... ५४३ . अपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणयोस्तत् ५५० * सत्पदद्वारम् *
शेषमार्गणासु सत्पदप्रदर्शनम् .... ५५१ आयुषोऽसंख्यभागस्थितिबन्धहाम्य-वक्तव्ययोः सत्पद-स्वामित्वादित्रयोदशद्वारविषयकवक्तव्य
के स्वामित्वद्वारम् के ताया अतिदेशद्वारेण कथनम् ..... ... ५४४ । ओवतोऽसंख्यभागस्थितिबन्धवृद्धिहानिस्वामि-. आयबर्जसतम्लाकृतीनां स्थितिबन्धाऽवक्तव्या
संख्येयगुणभागस्थितिबन्धवृद्धिहानिस्वामि० ५५२ ऽवमानयोः सत्सद-स्वामित्वादिद्वादशद्वारविष
आघतोऽसंख्यगुण- ,, , , ५५३ यायाः सर्ववक्तव्यताया अतिदेशेनैव निष्ठापनम् ५४५ ओघतः सप्तकर्मणां संख्येया-ऽसंख्येयभाग-गुणवृद्धि
मार्गणास्वसंख्यगुणवृद्धयादितत्तत्स्वामि० ५५४ हानिसत्पदप्रदर्शनं, तुल्यवक्तव्यत्वान्मनुष्यात्यो
* कालद्वारम् है घादिकतिपयमार्गणावतिदेशेन तत्कथन च....५४६
(एकजीवमाश्रित्य) संख्येयभागप्रभृतिवृद्धयादिसत्पदोपपत्तिः ५४७
ओघतश्चतुर्विधवृद्धिहानीनां द्विविधकालः ५५८ एकेन्द्रियादमार्गणाभेदेष्वेकविधवृद्धिहानिसत्पद० विकलेन्द्रियमार्गणाभेदेषु विविधवृद्धि
चतुर्विधवृद्धिहानिद्विविधकालोपपत्तयः .... ५५९ हानिसत्पद० प्रदर्शनम् .... .... ५४९ । मार्गणा चतुर्विधवृद्धिहानिद्विविधकालः ५६०
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमः विषयः पृष्ठाकः विषयः
पृष्ठाङ्कः * अन्तरद्वारम् *
मार्गणास्वसंख्यभाग वृद्धिहानिद्विविधकाल: ५९१ (एकजीवमाश्रित्य)
, संख्येयगुणभाग- , , ,५९२ भोघतश्चतुर्विधवृद्धिहानीनां जघन्यान्तरम् .... ५६१
___, असंख्यगुण- , , ,, ५९३ " , " उत्कृष्टान्तरम् ५६२
* अन्तरद्वारम् * मार्गणासु ,, , जघन्यान्तरम् ५६४
(नानाजीवानाश्रित्य) ,,, असंख्यगुणवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तरम् ५६५ ,, संख्येय गुणभागवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तरम् ५६८
ओघतस्तत्तवृद्धिहानिजघन्योत्कृष्टान्तरम् .... ५९४ " असंख्यभाग-, , , ५७०
तत्र जघन्यान्तरोपपत्तिः ... ५९५
उत्कृष्टान्तरोपपत्तिः .... .... ५९६ * भङ्गविचयद्वारम् *
मार्गणास्वसंख्यभागवृद्धिहानिजघन्यान्तरम ५९७ ओघतस्तत्तवृद्धिहानीनां भङ्गविचयोपयोगिनो
" " वृद्धिदान्युत्कृष्टान्तरम् ५९८ ध्र वाऽध्र वत्वस्य प्रदर्शनम् ... .... ५७२
मार्गणासु संख्येयगुणभागवृद्धिहानितस्यैव मार्गणास्थानेषु प्रदर्शनम् .... ५.७२
जघन्योत्कृपान्तरम् ५९९ धुवा-ऽध्र वपदैर्भङ्गोत्पादने करणम ५७३
" असंख्यगुणवृद्धिहानि- , ६.१ करणयोजनया लब्धभङ्गविचयः * भागद्वारम् *
* भावद्वारम् *
ओघा-ऽऽदेशतस्सर्वविधस्थितिबन्धवृद्धिहानिषु ओघतस्तत्तद्वृद्धिहानिबन्धकभागाः .... ५७८
भावः ..... .... ...... मागणासु , , , .... ५७९ * परिमाणद्वारम् के
* अल्पबहुत्वद्वारम् * ओवतस्तत्तद्वद्धिहानिबन्धकपरिमाणम् .... ५८१ ओघत आयुर्वर्जसप्तमू प्रकृतीनामसंख्यभा :मार्गणासु , " " .......
५८१ संख्येयभाग-संख्येयगुणाऽसंख्यगुणस्थितिब ध.
वृद्धिहानिस्थितिबन्धावस्थाना ऽवक्तव्यलक्षण* क्षेत्रद्वारम् *
दविधपदान्यधिकृत्य बन्धकाल्पबहुत्वम् ... ६०४ ओघतस्तत्तद्वृद्धिहानिबन्धकक्षेत्रम् ...... एतदेव मार्गणास्थानेषु
६०६ मार्गणासु , , , ....
तत्र नरकगत्योचादिमार्गणास्थानेषु .... * स्पर्शनाद्वारम् *
तिर्यग्गत्योघादि , ओघतस्तत्तद्वृद्धिहानिबन्धकस्पर्शना ....
पञ्चेन्द्रियतिर्यगोधादि , मागेणासु , " " ....
५८७
मनुष्यगत्योघादिमार्गणास्थानेषु .... * कालद्वारम् *
इन्द्रियकायसत्कमार्गणास्थानेषु .... ६११ (नानाजीवानाश्रित्य)
वेद-संयममार्गणास्थानेषु .... ... ६१३ ओघतस्तत्तद्वृद्धिहानिजघन्योत्कृष्टकाल: .... ५८९
औपशभिकसम्यक्त्वे शेषमार्गणासु च तत्तवृद्धिहानिकालोपपत्तयः
वृद्धयधिकारयन्त्रकाणि .... ६१७-६२४
६०३
५८४
६१०
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________________
विषयानुक्रमः ॐ षष्ठोऽध्यवसायसमुदाहारः 8
(पृष्ठ ६२५ तः ६६३) विषयः
पृष्ठाङ्कः विषयः
पृष्ठाङ्कः स्थितिसमुदाहारादिद्वारनामनिर्देशस्तत्स्वरूपश्च ६२५ । तेषां पोढा विभक्तजीवानां बन्धप्रायोग्यस्थिति
| स्थानानां प्रदशेनम् * स्थितिसमुदाहारः ॐ
.... . स्थितिबन्धस्थानेष्वध्यवसायप्रगणना .... ६२५
कर्मप्रकृतिसंग्रहण्यनुभागबन्धचूर्णिग्रन्थेन विरोधाऽऽशङ्का ....
.....
...... अनन्तरोपनिधापरम्परोपनिधाभ्यां तत्प्ररूपणा ६२६
६४४
चूर्णिग्रन्थानुसारेण साता-ऽसातवेदनीवा-ऽऽक्रान्तसमस्ताऽध्यवसायद्विगुणहानिस्थान-तदेकान्तर
स्थितिषु द्विस्थानिकादिरसबन्धाध्यवसायानांप्रमाणे तयोरल्पबहुत्वं च .... ... ६२८
स्थापना .... .... .... ६४६ अल्पबहुत्वे आक्षेप परिहारौ .... ६२९
चूर्णिविरोधाऽऽशङ्काया: परिहारः .... ६४७ तत्रोत्तरपक्षे सूचिश्रेणेः छेदनकोपपादनम् ६३०
साता-ऽसातवेदनीयद्वि-त्रि-चतुःस्थानिकरसानाप्रसङ्गतस्त्रिविधपल्योपमसागरोपमस्वरूप-प्रयो
मेकैकविधरसबन्धप्रायोग्यस्थितिस्थानेषु बन्धकजननिरूपणम् .... .... ६३१
परिमाणमनन्तरोपनिधया .... .... ६४८ अनुकृष्टिद्वारमाश्रित्य स्थितिबन्धाध्यवसाया
एतदेव परम्परोपनिधया ऽनुकृष्टेः प्रतिषेधनम् .... .... ६३४
तत्र बन्धकद्विगुणवृद्धिहानयः प्रमाणतः, द्विगुणतत्राऽसत्कल्पना .... .. ६३५
वृद्विहानिस्थान-तदेकान्तरयोरल्पबहुत्वञ्च ६५२ असत्कल्पनया स्थितिबन्धस्थानेष्वध्यवसायानां
साता-ऽसात-द्विस्थानिकादिरसबन्धप्रायोग्यभेदात् स्थापना .... .... .... ६३६
षोढा विभक्तस्थितिबन्धस्थानानां साकाराघुपयोगस्थितिबन्धाऽध्यवसायाऽनुकृष्टिप्रतिषेधे कर्म
प्रायोग्यत्वभेदात्पुनर्विभाजनम् .... ६५३ प्रकृतिचूर्णि-महाबन्धयोरेकवाक्यताप्रदर्शनम् ६३६
साकारायुपयोग--तत्तद्रसबन्धादिपदार्थान्तरयोगेन षट्खण्डकारवचनस्य अनुकृषिप्रतिषेधार्थकतया
विभक्तानि षोडशविधस्थितिबन्धस्थानानि, साताएव युज्यमानत्वेऽपि तत्र केषाचिदन्यथाव्याख्या
ऽसातवेदनीयजघन्योत्कृष्ट-तद्यस्थितिभेदादष्टविधनेऽरुचिप्रदर्शनम् ..... ..... ६३८
स्थितिबन्धाः, यत उत्कृष्टडायं लभ्यते सा स्थितिः, स्थितिबन्धाध्यवसायानां तीव्रमन्दताप्रदर्शनम् ६३८
उत्कृष्टडायेनोल्लङ्घयस्थितिः, उत्कृष्पदगताऽन्तः * प्रकृतिसमुदाहारः *
कोटीकोटीस्थितिरित्येवं सप्तविंशतिपदानामल्पज्ञानावरणादिप्रकृतीरधिकृत्य स्थितिबन्धाध्यव- बहुत्वम .... सायप्रमाणाऽल्पबहुत्वे .... .... ६३९
तस्यैव सप्तविंशतिपदाल्पबहुत्वस्य यन्त्रम् ....६६१
चित्रम् ....६६१ ___ के जीवसमुदाहारः *
सप्तविंशतिपदाल्पबहुत्वं मतान्तरेण .... ६६२ साता-ऽसातवेदनीयद्वित्रिचतुःस्थानिकरसभेदात् ।
उक्तसाता-ऽसातद्विस्थानिकादिरसबन्धभेदात् स्थितिबन्धकजीवविभाजनम्
षोढाविभक्तानां जीवानामल्पबहुत्वम् .... ६६३ * टीकाकृत्प्रशस्तिः 8
(पृष्ठ ६६५ तः ६७२) घरमतीर्थपतिश्रीवर्धमानस्वामि-गौतमादि- टीकासंशोकप्रशस्तिः ... ... ६६८ गणधर-सुधर्मास्वामि जम्यूम्वाम्यादिपट्टपरम्परया आद्यमुद्रणसहायकप्रशस्तिः .... .... ६६९ टीकाकारगुरुपर्यन्तानां प्रशस्तयः ... ६६५.६६८ | तत्र मरुधरधरामण्डनश्रीपिण्डवाडाऽऽईतटोकानिष्ठापनकाल-स्थलादि ... ... ६६८ | सङ्घशुभकायेवणेनम् .... ६६९-६७२
Page #67
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________________
५८ ]
त्रिषयः पृष्ठाङ्कः ग्रन्थगत जनवच नाती तस्खलितान्यधिकृत्य मिथ्यादुष्कृतप्रदानत्, आशिर्वचनम्, टीकाविरचनोपचित
प्रथमे परिशिष्टे टीकागतानां ग्रन्थान्तरावतरणानां स्थानानि द्वितीये परिशिष्टे - 'उवओगेऽणागारे' इत्यादि(५८५) गाथोक्तसाकारा - ऽनाकारोपयोग पदार्थविषयकशङ्का समाधानप्रतिपादन नरः श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरिपादप्रणीतकर्म प्रकृतिचूर्णिटीप्पनस्य'अणगारप्पाभोगे' त्यादिकर्मप्रकृतिबन्धनकरण
विषयानुक्रमः
* परिशिष्टानि *
विषयः
कुशल कर्मणा भव्यजगतः स्थितिबन्योच्छेद समिच्छनम्, ग्रन्थानं च
१-२
गाथाऽवलम्ब्येकदेशः
120
....
तृतीये परिशिष्टे - परिमाणादितत्तद्द्वारेषु तद्वृत्त्यादौ नरकगत्योघादिसप्तत्युत्तरशतमार्गणास्वविशेषेणाऽभिहितस्य संख्येयाऽसंख्येयादिलक्षणस्य बन्धकपरिमाणस्य विशेषेणाऽवबोधार्थं सावचूरिकं द्रव्यप्रमारणप्रकरणम्
पृष्ठाङ्कः
....
६७२
३५
Page #68
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________________
5555555555555
★ यन्त्र-चित्राद्यनुक्रमः Xes
卐म)
ज
-
.
२०
[ बन्धविधानमूलप्रकृतिस्थितिबन्धप्रेमप्रभाटोकान्तर्गतयन्त्र-चित्रादीनामनुक्रमः ] क्रमाङ्कः यन्त्रादिगतविषयः
पृष्ठाङ्क: १. जीवभेदेष्वसत्कल्पनया कल्पितानां स्थितिबन्धस्थानानां स्थापना . . . . १४ २. चतुर्दशजीवस्थानेषु स्थितिबन्धस्थाना-ऽध्यवसायस्थानाऽल्पबहुत्वादीनां यन्त्रम् . . १९ ३. चतुष्प चाशस्थितिस्थानान्याश्रित्याऽध्यवसायानामसत्कल्पनया स्थापना . ४. सविशेषचतुर्दशजीवभेदेषु जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धाल्पबहुत्वयन्त्रम्. . . ५. मोहनीयस्योत्कष्टस्थितिबन्धसमये बध्यमानं सर्वमोहनीयदलिकमपेक्ष्य निषेकस्य स्थापना . ६. पर्याप्ताऽपर्याप्तसंज्ञिजीवभेदयोःप्रत्येकमायुर्वर्जसप्तमूलकर्मणामेकैकस्यस्थितिबन्धस्थान-जघन्याबाधा
सर्वाऽबाधास्थाना बाधाकण्डको-स्कृष्टाबाधा-निषेकद्विगुणहानिस्थान-द्विगुणहान्येकान्तरै-काबाधाकण्डक-जघन्यस्थितिबन्धोत्कृष्टस्थितिबन्धलक्षणानां दशपदानां सप्रमाणाऽल्पबहुत्वयन्त्रम् . . ४१ ७. सूक्ष्म-बादर-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तैकेन्द्रिय-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिया-ऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय___ लक्षणशेषद्वादशजीवभेदेषु प्रत्येकमायुर्वर्जानामेकैकस्यानन्तरोक्तदशपदानां सप्रमाणाऽल्पबहुत्वयन्त्रम् ४५ ८. पर्याप्तसंझ्यसंज्ञिजीवभेदयोः प्रत्येकमायुषः स्थितिबन्धस्थानाद्यष्टपदानामल्पबहुत्वयन्त्रम् . ४७ २. शेषद्वादशजीवभेदेषु प्रत्येकमायुःकर्मणः स्थितिबन्धस्थानादीनां षट्पदानामल्पबहुत्वयन्त्रम् . ४९ १०. प्रस्तुतग्रन्थेऽधिकृतानां मार्गणास्थानानां यन्त्रम् ११. आयुर्वर्जानां सप्तभूलप्रकृतीनामोघादेशत उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणप्रदर्शकं यन्त्रम् . . १२. , , , , , जघन्य " " " " " १३. आयुःकर्मण ओघत आदेशतश्च जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणप्रदर्शक यन्त्रम् . १४. आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनाम् उत्कृष्टस्थितिबन्धस्य स्वामित्त्रप्रदर्शकं यन्त्रम् . . . १३६ १५. ., , ,, जघन्यस्थितिबन्धस्य " " . .
१३८ १६. आयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्य
१४० १७. आयुषो जघन्यस्थितिबन्धस्य १८. ओघत आदेशतश्चाष्टानामपि मूलप्रकृतीनामेकजीवमाश्रित्योत्कृष्ट-जघन्य-तदितरस्थितिबन्धानां
साद्य-नादि-ध्र वा-ऽध्रु वत्वप्रदर्शकं यन्त्रम् . . . . . १९. अत्र ग्रन्थेऽधिकृतानां (१७०)मार्गणास्थानानामेकजीवाश्रयजघन्योत्कृष्टकायस्थितियन्त्रम् . २०. नरकगत्योधादिमार्गणास्थानेषु जघन्योत्कृष्टभवस्थितिप्रदर्शकं यन्त्रम् . . . १९५ २१. अष्टमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितेरेकजीवाश्रय-जघन्योत्कृष्टद्विविधबन्धकालप्रदर्शकं यन्त्रम् . २२. आयुषोऽनुत्कष्टस्थिते रेकजीवाश्रय- , , , , २३. आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामनुत्कृष्टस्थितेरेकजीवाश्रयजघन्योत्कृष्टद्विविधकालप्रदर्शकं यन्त्रम् . १९७ २४. अष्टमूलप्रकृतीनां जवन्यस्थितेरेकजीवाश्रय-जघन्योत्कृष्टद्विविधकालदर्शकं यन्त्रम् . . १९८ २५. आयुषोऽजघन्यस्थितेरेकजीवाश्रय
९८
१०२
१४२
.
.
.
१४८
कृताना (१७०)मागेणास्थानानामेकली
१९६
१९८
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________________
६० ]
यन्त्र-चित्राद्यनुक्रमः
२३९
२५३
"
३३७
२६. आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामजघन्यस्थितेरेकजीवाश्रयजघन्योत्कृष्टद्विविधकालप्रदर्शकं यन्त्रम् . १९९ २७. आयुर्वर्जसप्तमलप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्स्थितिबन्धयोरेकजीवाश्रयहस्व-दीर्घान्तरप्रदर्शक यन्त्रकम् २३५ २८. आयुःकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैकजीवाश्रयह्रस्व-दीर्घाऽन्तरप्रदर्शक यन्त्रम्
२३६ २९. आयुःकर्मणोऽनुत्कृष्ठस्थितिबन्धस्य , ,,
२३७ ३०. आयुषो जघन्या-ऽजघन्यस्थितिबन्धयोरेकजीवाश्रयह्रस्व-दीर्घाऽन्तर प्रदर्शक यन्त्रम . . २३८ ३१. आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां जघन्यस्थिते-रेकजीवाश्रयहस्य-दीर्घा-न्तरप्रदर्शकं यन्त्रम् . . ३२. , , अजघन्यस्थिते. , , , ,
२४० ३३. आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां प्रत्येक जघन्यस्थितिबन्धे संनिकर्षप्रदर्शकं यन्त्रकम् , , , २५२ ३४. आयुःकर्मणो .... , , , , ३५. अपमूलप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कृष्स्थितिबन्धे , ,,
२५४ ३६. अणुमूलप्रकतीतामुत्कष्टादिस्थितिबन्धकानां भङ्गविचयप्रदर्शकं यन्त्रकम् . . . २७० ३७. अष्टमूठप्रकृतीनाम् उत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थित्योर्बन्धकानां भागप्रदर्शकं यन्त्रकम् .
२७२ ३८. , , जघन्याऽजघन्यस्थित्योः
,
२८० ३९. अष्टमूलप्रकृत्युत्कृषाऽनुत्कृष-जघन्या-उज वन्यस्थितिबन्धकानां परिमाणप्रदर्शक यन्त्रम् . २९२ ४०.
, क्षेत्रप्रदर्शकं यन्त्रम् . . . ३०८ ४१. आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां स्पर्शनाप्रदर्शक यन्त्रम्
३३५ ४२. , , , जघन्या-ऽजघन्या-ऽनुत्कष्टत्रिविधस्थितिबन्धकानां स्पर्शनायन्त्रम् ३३६ ४३, आयुप उत्कृष-जघन्यस्थित्योः प्रत्येकं बन्धकानां स्पर्शनाप्रदर्शकं यन्त्रम् . . . . ४४. आयुपोऽजघन्या-ऽनुत्कृष्ठस्थित्योः प्रत्येक बन्धकानां सर्शनाप्रदर्शकं यन्त्रम् . . . ३३८ ४५. एकजीवाश्रयस्य कालस्य जघन्यतोऽन्तमुहूर्तत्वेऽपि नानाजीवाश्रयस्य तस्य समयमात्रत्वसम्भवे स्थापना .
३४१ ४६. आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कृष्ठस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयहस्व-दीर्घकालप्रदर्शक यन्त्रम् ३६१ ४७. प्रत्येकमनुत्कष्टा-ऽजघन्यस्थितिवन्धयोः ,
, , ३६२ ४८. प्रत्येक जघन्यस्थितिबन्धस्य ,
, , ३६३ ४९. आयुष उत्कृष्ट-जयन्यस्थितिबन्धयो नाजीराश्रयह्रस्व-दीर्घकालप्रदर्शकं यन्त्रम् ५०. आयुषोऽनुत्कृष्टाऽजघन्यस्थितिबन्धयोानाजीवाश्रयह्रस्व-दीर्घकालप्रदर्शकं यन्त्रम् . ५१. आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कृषा-ऽनुकृष्ठस्थितिबन्धयो नाजीवाश्रयह्रस्व-दीर्घाऽन्तरप्रदर्शक यन्त्रम् . . . . . .
३८० ५२. आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयह्रस्व-दीर्घान्तरप्रदर्शक यन्त्रम् ३८१ ५३. आयुप उत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्-जघन्या-ऽजघन्यचतुर्विधस्थितिबन्धस्य , ,
, ३८२ ५४. अष्टमूलप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कष्टादिचतुर्विधस्थितिबन्धे भावप्रदर्शक यन्त्रकम् . . ३८४ ५५. अष्टमूलप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थित्योर्बन्धकानामल्पबहुत्वप्रदर्शक यन्त्रम् . ४२४ ५६. अष्टमूलप्रकृतीनां प्रत्येकं जघन्या-ऽजधन्यस्थित्योर्बन्धकानामल्पबहुत्वप्रदर्शकं यन्त्रम् . . . . ४२५ ५७. , , प्रत्येकमुत्कृष्ट-जघन्य-तदितरस्थितीनां बन्धकाल्पबहुत्वयन्त्रम् . . . ४२६-४२७ ५८. ,, ,, परस्थाने जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धपदानामल्पबहुत्वप्रदर्शकं यन्त्रकम् . ४२८-४२६ ५६. , , , जघन्यपदे उत्कृष्टपदे च स्थितिबन्धप्रमाणा-ऽल्पबहुत्वम् . ४३०-४३१ ६०. "
, प्रत्येकं जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणा-ऽल्पबहुत्वयन्त्रम् . . ४३२
३६५
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________________
पूर्वमेव संशोध्या अशुद्धयः .... ६१ ६१. अष्टमूलप्रकृतीनां प्रत्येकं भूयस्कारादिचतुर्विधस्थितिबन्धस-पदप्रदर्शक यन्त्रम् . . ४३९ ६२. , , , , , स्वामित्वप्रदर्शकं यन्त्रम् . . ४४२ ६३. आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकं भूयस्कारादिस्थितिबन्धानामेकजीवाश्रयह्रस्व-दीर्घकालप्रदर्शकं यन्त्रम४५५ ६४. आयुषोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोरेफजीवाश्रयहस्व-दीर्घकालप्रदर्शकं यन्त्रम् . . ४५६ ६५. आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकं भूयस्कारादिस्थितिबन्धानामेकजीवाश्रयहस्व-दीर्घा-ऽन्तरप्रदर्शक यन्त्रम् . .
. . . . . . . . . ४६९ ६६. आयुपोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोरेकजीवाश्रयह्रस्व-दीर्घा-ऽन्तरकालप्रदर्शक यन्त्रम् . ६७. भूयस्कारादित्रिविधबन्दकपदानामध्रु वत्वे मूलोक्तकरणानुसारिणी स्थापना ६८. अष्टमूलप्रकृतीनां प्रत्येकं भूयस्कारादिस्थितिबन्धे नानाजीवाश्रयभङ्गविचथप्रदर्शकं यन्त्रकम् , भूयस्कारादिस्थितिबन्धकानां भागप्रदर्शकं यन्त्रकम्
४८४ परिमाण
४८७
४८० ४८०
४९१
४९८
५०५
.
.
.
५१८
"
,
५४२
स्पर्शना , . . . ,, नानाजीवाश्रयकालप्रदर्शकं यन्त्रकम् . .
नानाजीवाश्रया-ऽन्तरप्रदर्शकं यन्त्रम् . . ५१०
___ अल्पबहुत्वप्रदर्शकं यन्त्रम् ७६. अशुभप्रकृतिचतुःस्थानिकरसबन्धकप्रायोग्यस्थितिबन्धस्थानेषु तदबन्धकजीवानां स्थापनाऽपेक्षया निष्पन्नाया यवाकृतेश्चित्रम् . .
. ५२३ ७७. आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कृष्टपदगतवृद्धयादीनां सत्पद-स्वामित्वाऽल्पबहुत्वप्रदर्शकं यन्त्रम् ५४१ ७८. , , , प्रत्येकं जघन्यपदगतवृद्धयादीनां , ७९. वृद्धयधिकारे आयुवर्जसप्तप्रकृतीनां सत्पदादोन्यल्पबहुत्वान्तानि यन्त्राणि . . ६१७-६२४ ८०. स्थितिबन्धस्थानेषु तत्कारणीभूतानामध्यवसायानां मन्द-मन्दतरादिक्रमेणाऽसत्कल्पनया स्थापना. ६३६ ८१. कर्मप्रकृत्यनुभागबन्धचूण्युक्तानुभागबन्धाभ्यवसायानुकृष्टयनुसारेण साता-ऽसातवेदनीयाऽऽक्रान्तस्थितिषु द्वि-त्रि-चतुःस्थानिकरसबन्धाध्यवसायानां स्थापना.
. . . ६४६ ८२. साता-ऽसातवेदनीयद्वि--त्रि--चतुःस्थानिकरसबन्धकयवादिनानाविषयभेदभिन्नस्थितिबन्धस्थान-साता
ऽसातवेदनीय-जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धादिपदार्थनिष्पन्नानां सप्तविंशतिपदानामल्पबहुत्वयन्त्रम ६६० ८३. एतस्यैवाल्पबहुत्वस्याऽसत्कल्पनया चित्रम् . . .
• ६६१ ONG
* ग्रन्थपठनात्पूर्वमेव संशोध्या अशुद्धयः* पृ० पं० अशुद्ध० शुद्ध० पृ० पं० अशुद्ध०
शुद्ध० २ ६ ससर्जु० प्रणिन्यु० । ४५ १३ पल्योपमसं० पल्योपमाऽसं० ११ २६ पल्योपमसं० पल्योपमा-ऽसं०
, १४ पल्योपमाऽसं० पल्योपमसं० ३६ ९ विशेषाधिक. संख्येयगुण. ३७ ८ संख्येयगुण. संख्येयभाग०
४७ ७ वर्गमललक्षण. वर्गमूलाऽसंख्य४० १४ स्तुल्यत्वे स्तुल्यप्रायत्वे
भागलक्षण ४१ १० असंख्येयगुणानि संख्येयगुणानि । ४७ १६ अबाहा । जहणिया अबाहा।
Page #71
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________________
६२ ]
पृ०
पं० अशुद्ध० ४८ ३ पुब्वृत्तं ।
शुद्ध०
पुञ्चत्तं । तओ एगगुणहाणिद्वाणंतरं असं खिज्जगुणं, कारणं पुत्रवत्तं ०सागरोपमलक्षणा० • पर्याप्ताऽसंज्ञि•
५२ १० लक्षणा
५४
२४ पर्याप्तसंज्ञि०
८३
२५ देवनरकप्रायोग्य० देवनरप्रायोग्य० १८ हीनकर्म०
८५
ही जघन्यकर्म०
८६ २४ यद्यसंज्ञिनां गति० यद्यसंज्ञिनामागति० १०४ ३ तावान् दशवर्षसह त्राणि,
१०५ १५ अनुदितनिद्रोदय १३४ १९ तथा संख्ये०
१६८ ३
पणवय
१६६ ५
oयादधिका,
१७२ २४ ऽचक्खूण २१६ १४ समयोना० २३५ । सागरोपम०
२४१ २३ यावत्सप्त२४२ २० ऽनुत्कृष्ट० २४९ २४
२८१ ४
व्यन्तीति संख्ये० स्थानात्वासंख्येय
भागरूपदे
२९० १९
०पुरुत्कृष्ट०
२९१ १२/१३ (इदं पंक्तिद्वयमत्र
३०३ २९ ३१२ १६ सम्पद्यते
पद्म-अजघन्याः
३३२ ८ गणानामुत्कृष्ट० ३३६ ७ ० सत्कोत्कृष्ट० ३७१ १२ - पर्याप्त
33
१३ ० यौधा - पर्याप्त० ३७९ ९ कुतोऽजघन्य० -
२२ द्विषष्ट्य -
"
३९१ ४ पच्चमनो०
पूर्वमेव संशोध्या अशुद्धयः
तावान्
अनुदितनिद्र तथाऽसंख्ये०
पणमण-वय
व्यादधिका न लभ्यते तदीयोत्कृष्टकाय
स्थितिः,
चक्खूण समयाधिकाo
१८ सागरोपम०
यावदष्ट
ऽजघन्य०
०यन्तीत्यसंख्येय० स्थानासंख्येयभाग
रूपत्वादे
० पुरनुत्कृषु० नैव वक्तव्यम् )
अजघन्यायाः
सम्पद्यत इति समस्ता नव रग्जवः स्वशेना । गणानामनुत्कृष्ट०
• सत्कानुत्कृष्ट० सर्वै केन्द्रियभेदपर्याप्त०
० यौध पर्याप्त ०
कुतो जघन्य० त्रिषष्ट्य - सर्वकायभेदाः, पञ्चमनो०
पृ० प० अशुद्ध०
३९२ २३ सप्त३६३”
४०० १५ आयुषो
रूप जघन्य०
४०१ १४ संख्येय ४०६ ११ ०मार्गणाद्वये ४१२४ ०द्येकोननवति४१८ २ वैक्रियकाय०
४५७ १७ ०वस्थायां प्रत्या० ४६२ २७ ० योगादिचतुःपञ्चा ४६२ २८ ०दिषोडशोत्तर० ४६३ ४ ०कोनत्रिंशत्ο
७ षोडशाभ्य०
शुद्ध०
षण्
रूपोत्कृष्ट • मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः स्तोकः,
स चान्तर्मुहूर्तमानः, ततस्तस्योत्कृष्टोऽसंख्येयगुणः, सप्ततिकोटाकोटीसागरोपम
प्रमाणत्वात् । आयुष असंख्येय०
०मार्गणासु ०द्येकनवतिवैक्रियमिश्रकाय०
"
४६५ १२ दर्शन
४७३ १८ ०ऽवस्थितo
४७२ २ ० मनुष्य काययोगौध
४८५ १०० सर्व
४६६ २६ - दारिक०
४९७ १४ ०त्येवमेक० ५०० २८ •माणं संख्येयं ५०३ २६ ऽवस्थिता०
५०४ २१ प्रतिषिद्धः,
५०५ ४ ऽवस्थित०
"
११ ० स्तथाऽपर्याप्त • ५०९ ६ निरयगति५१० यन्त्रे २ मुहूर्ता ५१० यन्त्रे
सर्वाद्धा ५१६ १८ अवक्तव्यबन्धकाः
संख्येयगुणाः, तेभ्योऽल्पतरस्य
०वस्थायामप्रत्या० •योगाद्येक पञ्चा०द्येकोनविंशत्युत्तर० oकोनचत्वारिंशत्• एकोनविंशत्यभ्यo
०दर्शना-वधिदर्शन
• वक्तव्य०
मनुष्य०त्रिविधस्थिति-दारिकौ दारिक० ०त्वेवं द्वि० ०माणमसंख्येयं
ऽल्पतरा०
प्रतिपादितः,
ऽल्पतर०
●स्तथा पर्याप्त निरयदेवगति१२ मुहूर्ताः नास्ति
संख्येयगुणाः, तेभ्यो.
saस्थितस्य
५३१ २४ “पणिदिया" ५३६ २३ तिघाईणं
५३७ १४ ० सम्यक्त्वौधो० ० सम्यक्त्वौन-वेदकौ ०
"एगिंदिया"
तिअघाईणं
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तुल्य
पृ० पं० अशुद्ध० ५४१ १८ तुल्य यन्त्रे ९ संख्यातगुण " चतु- प्रथम०
श्वरमा द्वितीय ५४२) पञ्च द्विचर० यन्त्रे ( चरम, 0च्चरम० ५४९ ४ लेश्या-ऽभव्य० ५५० १८ मात्राधिक० ५५७ २८ षट्संयम० ५६२ २१ वन्यः काल: ,, ,, निकालवत् , २६ वृद्धिहान्योराइ ५६८ २४ तदेवं....यन्नाह
पूर्वमेष संशोण्या शुद्धयः
[६३ पृ० पं० अशुद्ध० संख्यातगुण ५७५ १५ ०भेदेषु, अपर्याप्त० ८ भेदेषु, सवेदेवभेदेषु,
सर्वपञ्चेन्द्रियतिर्यद्विचरम०
ग्भेदेषु, अपर्याप्त० ०चरम०
५७५ २८ द्वयोः, ईयोर्मनुजगतिभेदयो०प्रथम०
ईयोः, द्वितीय ५८० १७ अपर्याप्त मनुष्यौघः, अपर्याप्त ०लेश्या-भव्य०
५८० २२ संख्येयभागा-5 संख्येयभाग०मात्रहीन
५८३ २३ ०योगेषु, व्योगेषु, नपुंसकवेदपञ्चसंयम
कषायचतुष्कयोः, जघन्यमन्तरं ५८४ २ त्रिंशदुत्तर० विंशत्युत्तर० न्यन्तरवत
५८५ १२ काययोग प्रत्येकवनस्पतिकायौघगुणवृद्धिहानीनामाह
तदपर्याप्तयोः, काययोग० तदेवं भणितं सप्ता
५८६ २ बादरा- बादरनामसंख्यगुणस्थिति
५९६ ७ मेकजीवा० मनेकजीवा० बन्धवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तरमादेशतः, अधुना
६१२ २० गतपदे० गतवेद० संख्येयभाग-संख्येय- ६१६ ५ तेभ्यो संख्यये. तेभ्योऽसंख्येय० गुणस्थितिबन्धवृद्धि
६१९त्रिचरमा ६० ९१ हान्योस्तदर्शयन्नाह
६४१ १८ 0वृत्तः सन्न० ०वृत्तयोः सतोर० संख्येयभागगुण
६५६८ स्थिति मिश्रोपयोगे बन्धप्रायोभाग निपदद्वयस्यो
ग्याणि स्थिति एकनवति
६७२ ११ याद्भः यावद्भ.
५६९ ९/१० संख्येयगुण ५७१ ४ भागादि० , ४ नीनामु० " ५ द्विनवतिः
मूल प य डि
बन्धविहाणे म ठिहबंधो
(मूलाकृति-स्थितिबन्धः) 'प्रेमप्रभा टीकासमलङ्कृतः
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BAR
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॥ ॐ ही अहं नमः ॥
॥ श्रीशङ्केश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ ।। सकलागमरहस्यवेदिपरमज्योतिर्विच्छ्रीमद्विजयदानसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः ।।
' * प्रवचनकौशल्याधार-सुविहिताग्रणी-गच्छाधिपति-परमशासनप्रभावक-सिद्धान्तमहोदधिकर्मशास्त्रनिष्णाता-ऽऽचार्यदेवश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरपादानां पुण्यतमनिश्रायां तदन्तेवासिवृन्दविनिर्मितं मुनिश्रीजयघोषविजय-धर्मानन्दविजयवीरशेखरविजयसंगृहीतपदार्थकं मुनिश्रीवीरशेखरविजय
विरचितमूलगाथाकं प्रेमप्रभाटीकाविभूषितम्
बंधविहाणं
मुनिश्रीजगच्चन्द्रविजयविरचितप्रेमप्रभाटीकासमलङ्कृतः
___ (मूलपयडि-)
ठिइबंधो
( स्थितिबन्धः)
('प्रेमप्रभाटीका)
मथितमोहमहारिपुमीश्वरं , विशदवस्तुविभासविभावसुम् ।
नतसुनाकिनृनाथनिषेवितं , चरमतीर्थपतिं प्रणमाम्यहम् ॥११॥ ध्येया मोक्षार्थिभिर्ये सकलगुणधरा यानतो भव्यवर्गों,
यैः सृष्टं तीर्थमुच्चैनम उदयकृते येभ्यआताश्च नान्ये । येषां पादे प्रणेमुः सुरनरपतयो येषु भक्तिः सतां ते ,
पान्तूत्तीर्णा जिनेन्द्राः परमकरुणया पद्मपादाश्रितं माम् ॥२॥ 'श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरगुरूणां प्रभया सम्पन्ना इति सान्वर्थनामा । द्रुतविलम्बितम् । स्रग्धरा ।
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ टीकाकारमङ्गलवचनानि 'भव्येभ्यः सुखदां जिनेन्द्र मुखजां वाचं निशम्योन्नतां,
प्रवज्यां प्रतिपद्य वीरविभवे यैरपितं जीवनम् । यन्नामाऽपि निहन्ति पापतिमिरं मार्तण्डरश्म्योपवद् ,
वन्देऽहं शिवकाङ्क्षया गणभृतां वृन्दं हि तेषां मुदा ॥३॥ शतक-कपायप्राभूत-कर्मप्रकृतीः ससर्जु राप्ता ये । तालां चूणि वृत्तिं प्रवितेनुश्चूर्णिटीप्पनकम् ।।४।। कर्मग्रन्थावान्यान् कर्मविपाकादिभेदतो भिन्नान् । कृतवन्तो ये कर्मस्वरूपवेद्युडुविसरचन्द्राः ॥५॥
'विजयन्तां भुवि ते शिवशर्माचार्या-ऽऽर्यमगुगुर्वाद्याः ।
श्रीनागहस्तिपादा नन्दावभिनन्दिताश्च यतिवृषभाः ॥६॥ श्रीमन्मुनिचन्द्राश्च श्रीदेवेन्द्रविजयाच सूरिवराः । मलयगिरिजसमसमरसभाजो मलयगिरिसूरीन्द्राः ॥७॥ मलधारीया हेमाचार्या न्याये विशारदा नव्ये । बुधवर्ययशोविजया यावच्छीप्रेमसूरयो गुरवः ॥८॥
(पश्चभिः कुलकम) *दोषद्रुमौघदाहाय, येन दावानलायितम् । गुणगुल्मप्ररोहाय, मेघधारायितं तथा ॥९।। *ज्ञातागमरहस्याय, + ज्योतिर्विद्गच्छपायिने । सूरये दानपूर्वाय, तस्मायस्तु नमो नमः ॥१०॥
(युग्मम्) यस्य प्रसादवशतो व्रतमध्यगच्छम् , यस्यान्तिके च वसता स्थिरताऽप्यवाप्ता । यस्य ध्रुवं समयशिक्षणतो विबुद्धः, स प्रेमसूरिगुरुराड् जयतात्सदैव ॥११।। "कृत्वा तीव्र तपोऽपि ब्रुवत उपसृतान् मुक्तिमार्ग जनान् ये,
शास्त्राण्यध्यापयन्ति प्रणतमुनिगणं सारयन्ति प्रयासैः । पूज्यास्ते मे गुरूणां गुरव उपगता देशनायां पटुत्वम् ,
पंन्यासा भानुज्ञा ददतु वरमति तर्कशास्त्रे * नदीष्णाः ।।१२।। 'दुस्सह्यमामं सुसमाधिना ये, सोढ्वा विनाश्याऽशुभकर्मचक्रम् ।
स्वर्गं गतास्तान हितदान हितार्थं, पंन्यासपद्माख्यगुरून् नमामि ।।१३।। भवति खलु जडोऽपि प्राज्ञसेव्यः कवीन्द्रः, कलकवनविधायी संततं यत्प्रसादात् ।
सरससरलटीकां कतु कामस्य मे सा, झगिति भवतु देवी भारती भव्यस्फूत्य ।।१४।। *ग्रन्थेऽस्मिन्नतिगूढार्थे, साहाय्यकं व्रतिव्रजम् । नत्वा स्वपरभद्राय, स्थितिवन्धः प्रतन्यते ॥१५॥
१शार्दूलविक्रीडितम् । २प्रार्या । गीतिः । * अनुष्टुप् । “वसंततिलका । स्रग्धरा । इन्द्रवज्रा । मालिनी। Aकर्मस्वरूपस्य वेदिन एव उडूनि तारकाः, तेषां विसरः समूहः, तत्र चन्द्रा इव चन्द्राः, शेषाऽतिशायिभास्वत्त्वादिति । +ज्योतिर्विच्चासौ गच्छपायीति कर्मधारयस्ततश्चतुर्थी। ॐ प्रवीण इत्यर्थः, तदुक्तं शेषनाममालायां कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्ररिपादै:-'अथ प्रवीणे क्षेत्रज्ञो नदीष्णो निष्ण इत्यपि' इति । अर्बुदाभिधम् , केन्सर इति लोके ।
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द्रव्यानुयोगमाहात्म्यम ] अनुबन्धचतुष्टयम्
[३ _ इह खल्वनवरतं सम्परायादिसंतापसमूहसंतप्तासुमत्सम्पूरिते संसारकान्तारे कथमपि सुदुर्लभं मानुध्यं सुकुलोत्पत्यादिमोक्षसामग्री च समुपलभ्य स्वहितेप्सुभिर्भव्यैः केवलालोकलोकितलोकालोकेन सकलसंसृतिसम्भवरागद्वेपादियुग्मवियुक्तेन प्रणताखिलाखण्डलोष्णीपरत्नरोचिविलिप्तपादपीठेन श्रीमता भगवता तीर्थकृता समुपदिष्टः श्रेयोमार्गः समाराधनीयः, स च सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रलक्षणः ।
उक्तं च वाचकमुख्यः
" 'सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः” इति ॥ (तन्वार्थसूत्रम् ॥१॥१॥)
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रत्रयं प्रति द्रव्यानुयोगः परमोपकारी भवति । तथाहि-द्रव्यानुयोगे उत्पत्यायकान्तवादिदुर्नयैः स्वीकृतं प्रथितं च सकलभावानामपारमार्थिकस्वरूपं निराकृत्य सुनयप्रमाणबलेन स्याद्वादाधीनं जीवाजीवादिसर्वभावानामुत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकं तात्त्विकं सत्वं संस्थाप्यते, ईदृग्द्रव्यानुयोगेन तत्वविषयकविप्रतिपत्तेव्यु'दासात् तच्चश्रद्धानलक्षणस्य सम्यग्दर्शनस्य दाढ्य मुपजायते । तथैव द्रव्यानुयोगे स्याद्वादसिद्धानां जीवाजीवादिभावानां तत्त्व-भेद-पर्यायः सत्पद-स्वामित्व-द्रव्यप्रमाणक्षेत्र-स्पर्शन-काला-ऽन्तर-भावादिभिरनुयोगद्वारैश्च चिन्तनस्यापि प्रस्तुतत्वात् सम्यक् तत्वावबोधो भवति । किश्च तत्त्वमेदादिभिर्जीवाजीवादिभावान् विभावयतः शास्त्रविहित-प्रहरपञ्चकीयस्वाध्यायं निर्वहतः संयतवर्गस्य चेतोवृत्ती बाह्यनिमित्ततस्सम्भाव्यमानोत्पत्तिकानां वैषयिक-कापायिकवृत्तीनां निरवकाशीकरणद्वारेण चारित्रं प्रत्यपि द्रव्यानुयोगस्यानुपमोपकारित्वं सुसिद्धमस्ति । इत्थं हि द्रव्यानुयोगस्य रत्नत्रय्युपकारकत्वात् पूर्वाचार्यैर्यथा चरणकरणायन्यानुयोगविषयाणि प्रकरणानि विरचितानि तथा द्रव्यानुयोगमहोदधिदृष्टिवादैकदेशतः शतक-कर्मप्रकृत्यादयोऽनेके ग्रन्था विनिर्मिताः, ते चातिगभीरार्थाः संक्षिप्ताश्चेति कृत्वा पश्चादन्यैराचार्यविवृताः । एतेषु शतक-कर्मप्रकृत्यादिग्रन्थेषु तच्चूणि वृत्ति-टीप्पन्नकादो च कर्मणो बन्धविषयाः साक्षादर्थतश्च पृथक् पृथगभिहिता ये पदार्थास्तान् प्रज्ञापनाद्यागमप्रसिद्धसत्पदाद्यनुयोगद्वार-गत्यादिमागंणास्थानेषु सविस्तरं विचिन्त्य संकलय्य च निर्मिते बन्धविधानाख्ये प्रकृतग्रन्थे प्रवेष्टुकामानां स्वाध्यायपरायणचेतसां साध्वादीनां सुखप्रवेशार्थं तस्य प्रकृतिस्थित्य-नुभाग-प्रदेशबन्धप्रयुक्ताश्चत्वारः खण्डग्रन्थाः प्रकल्पिताः तत्कृता । तत्राये नानाविधैर्भिन्नभिन्नाधिकारद्वारादिभिः प्रकृतिवन्धं निरूप्य क्रमप्राप्तं स्थितिबन्धं निरूपयितुमना मङ्गलादिपूर्वकं प्रारभते
अह जीराउलणाहं वंदिअ णिस्सीमसत्तिसंजुत्तं । सिरिपासपहुं भासिमु ठिइबंधं गुरुपसायाओ ॥ १ ॥
(प्रे०)"अह जीराउलणाहं" इत्यादि, अत्र अथशब्द आनन्तर्ये, ततश्च प्रकृतिबन्धनिरूपणाऽनन्तरम् ,न तु सर्वप्रथममित्यर्थः, अस्य च “भासिमुठिइबंध" इत्यनेन योगः । तत्र स्थानं स्थितिः 'स्त्रियां क्तिः' (५।३.११) इत्यनेन भावे क्तिप्रत्ययः; स्थीयतेऽनया स्थितिः करणे क्तिप्रत्ययो वा । प्रथमतो बध्यमानत्वेनोपस्थितानां कर्मपुद्गलानामात्मप्रदेशेषु क्षीरनीरवदत्यन्तसंयोगेनाऽवस्थानमित्यर्थः । तस्याः स्थितेरियत्तानिर्माणं स्थितिवन्धः ।
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[ अभिधेयनिर्देशः ___ इदमुक्तं भवति-यदा हि मिथ्यात्वादिपरिणत्या परिणत आत्माऽञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकवन्निरन्तरं पुद्गलनिचिते लोके कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलेभ्यः स्वाऽवगाढक्षेत्रगताननन्तान् पुद्गलस्कन्धान् लोहाऽग्निसंयोगवदत्यन्तसम्बन्धकरणद्वारेण कर्मतया परिणमयति तदा तेषु पुद्गलस्कन्धेषु यथा ज्ञानाद्यात्मगुणावरोधस्वभावः समुत्पद्यते, तथा तेष्वेव पुद्गलेषु तदानीमेव तात्कालिककापायिकपरिणत्यनुरूपो योऽन्तमुहूर्तादित्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यादिकालं यावत्तेनैव रूपेणात्मप्रदेशेष्ववस्थानस्वभावोऽपि शक्ति विशेषरूपः संजायते, येन पश्चादुदीरणादिकरणजन्यबाधाया अभावे तानि कर्मपुद्गलानि तेन रूपेण तावन्तमन्तमुहर्तादिकालं यावदात्मप्रदेशेषु तिष्ठन्ति, स स्थितिबन्ध उच्यते ।
उक्तं च शतकवृत्तौ
__“स्थितिः कर्मणोऽवस्थानशक्तिः, तस्या बन्धः स्थितिबन्धः' इति । अन्यत्राप्युक्तम्-"इति कर्मणः प्रकृतयो मूलाश्च तथोत्तराश्च निर्दिष्टाः ।
___तासां यः स्थितिकालनिबन्धः स्थितिबन्ध उक्तः सः ॥” इति । एवंस्वरूपं स्थितिवन्धं "भासिमु" ति भाषामहे, “सत्सामीप्ये सद्वद् वा” (सिद्धहेम० ५।४।१) इत्यनेन वर्तमानकालस्य सामीप्ये भविष्यत्यर्थे वर्तमानप्रत्ययः, ततश्चाविलम्बेन भाषिष्यामहे, प्रकृतिबन्धवन्नानाऽधिकारद्वाराथुपन्यासेन वर्णयिष्याम इति भावः । अनेन वक्ष्यमाणग्रन्थविषयप्रतिज्ञां कृतवान् ।
ननु पूर्वमेव-"भणिमु सपरसेयत्थं बंधविहाणं जहासुत्तं" इति वदता ग्रन्थकृता बन्धविधाने भणनीयतया प्रतिज्ञाते तदेकदेशरूपः स्थितिबन्धोऽपि भणनीयतया प्रतिज्ञात एव, किं पुनरपि प्रतिज्ञाकरणेन ? इति चेद, न, “चिरतः प्रकृतिबन्धं शण्वन्तोऽवधारयन्तश्च विनेयाः ‘साम्प्रतमपि प्रकारान्तरेण प्रस्तुतं प्रकृतिवन्धमेव प्रतिपादयन्ति गुरवः' इत्येवं प्रकृतिबन्धश्रवणोद्देशेन तत्रैव दत्तचित्ताः स्थितिवन्धं सम्यग् नैवावधारयेयुरन्यमनस्कतया वा विपरीतं मा गृह्णोयु"रिति परहितपरायणचेतसा ग्रन्थकृता शिष्यमनसि वक्ष्यमाणस्थितिवन्धविषयकशुश्रपाप्ररोहणाय प्रकरणप्रारम्भे यथोक्तप्रतिज्ञा कृता, अथवा वक्ष्यमाणस्थितिवन्धग्रन्थो बन्धविधानकदेशरूपः सन्नपि स्वस्थान एव नानाऽधिकारादीन संगृह्णन्नतिमहत्कायतया ग्रन्थान्तररूप एव, अत एवात्र 'जीराउलणाह' इत्यादिनाऽऽदिम-मध्यमादीनि मङ्गलान्याचरिष्यति ग्रन्थकारः । इत्थं हि ग्रन्थान्तरवत्प्रकृतग्रन्थप्रारम्भेऽपि मङ्गलाद्यनुबन्धचतुष्टयमभिधातव्यम् , तत्र स्थितिबन्धभणनप्रतिज्ञाकरणद्वारेणानुबन्धचतुष्टयान्तगर्तमभिधेयमेव ग्रन्थकृता ग्रन्थप्रारम्भे कथितमिति न किश्चित्पुनर्वचनमिति ।
___ अथ प्रारिप्सितग्रन्थस्य निर्विघ्नपरिसमाप्तये कृतमिष्टदेवतानमस्कृत्यात्मकं मङ्गलं शिष्टजनानुवृत्ता शिष्यजनानुशास्त्यै च ग्रन्थे निवघ्नन्नाह-"जीराउलणाह” इत्यादि,जीराउलनाथं निस्सीमशक्तिसंयुक्तं श्रीपार्श्वप्रभु वन्दित्वेति क्रियान्वयः, तत्र वन्दित्वेति निर्मलमानसप्रणिधानोपेतेन वचोयोगेन संस्तुत्व काययोगेन प्रणम्य चेत्यर्थः; “वदुङ् स्तुत्यभिवादनयो"रिति वचनात , कं वन्दित्वेत्युक्तं 'श्रीपाश्र्वप्रभु' पार्थाभिधस्य वैयावृत्यकरयक्षविशेषस्य प्रभुः-अर्य इति पार्श्वप्रभुः; अर्यः, प्रभुः,
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मङ्गलम् ]
अनुबन्धचतुष्टयम् स्वामी, पति थ इत्यादीनामनर्थान्तरत्वात् । यदाहुहेमचन्द्रसूरिपादा अभिधानचिन्तामणौ"पतीन्द्रस्वामिनाथार्याः प्रभुतेश्वरो विभुः" इत्यादि । अथवा स्पृशति ज्ञानेन सर्वभावानिति पावः, यदा गर्भस्थे भगवति जनन्या निशि शयनीयस्थयाऽन्धकारे सर्पो दृष्ट इति गर्भानुभावोऽयमिति मत्वा पश्यतीति निरुक्तात् पार्श्वः । 'प्र' इति प्रकर्षार्थोऽव्ययः,ततश्च प्रकर्षण-प्राक् तृतीयभवनिकाचिततीर्थकरनामकर्मोदयाद्भव्यजनगणोद्धरणैककरणशासनस्थापनाय भवति इति प्रभुः “शं-सं-स्वयं-वि-प्राद्भुवो डुः” इति डुप्रत्ययः (५।२।८४। सिद्धहेम०)। पार्श्वश्चासौ प्रभुश्चेति पार्श्वप्रभुः। श्रिया-कालिकनिखिलभावावभासिन्या केवलज्ञानलक्ष्म्याऽष्टप्रातिहार्यलक्षणया शोभया वा समन्वितः पार्थप्रभुरिति श्रीपार्थप्रभुः तम् ।
किं विशिष्टं श्रीपाश्वप्रभुमित्याह- 'निस्सोमशक्तिसंयुक्तम्'निस्सीमा-निर्गतमर्यादा या शक्तिः-वीन्तिरायकर्मणः सर्वथा क्षयात्प्रादुर्भूता आत्मगुणरूपा वीर्यापरपर्याया, तया संयुक्तः-भेदाभेदसम्बन्धेन सम्बद्धस्तम् निस्सीमशक्तिसंयुक्तम् ; अपरिमितबलवैभवसंपन्नमिति यावत् । उक्तं च"जं केसवत्स उ बलं तं दुगुणं होइ चक्कवट्टिस्स । तत्तो बला बलवगा अपरिमियबला जिणवरिंदा ।। इति ।
पुनः किं विशिष्टमित्याह-"जीराउलणाह"ति पूरा जीरापल्ल्याख्यया वर्तमाने तु जीराउला इति नामधेयेन विख्यातं यत्स्थावरं तीर्थं तस्य नाथम् ,पार्श्वप्रभोस्तत्र प्रतिष्ठितत्वेन तत्तीर्थस्य सेवकानां योग-क्षेमभावात् । ननु अश्वसेननृपनन्दनस्य पाचप्रभो रापल्ल्यां प्रतिष्ठानं न कुत्रचित् श्रूयते, तत्कथं पावप्रभोस्तत्रावस्थानमूलकं जीरापल्लीतीर्थावलम्बिनां योगक्षेमत्वप्रतिपादनं संजाघटीति ? इति चेत् , उच्यते, भारतीर्थकरस्य श्रीपाचप्रमोस्तत्रावस्थानाभावेऽपि स्थापनाद्वारेण तु पार्श्वप्रभोरवस्थानं तत्र विद्यत एव । न च तेन प्रभोः किमायातं येन पार्श्वप्रभोस्तत्र प्रतिष्ठानं कथ्यत इति वाच्यम् , स्याद्वादिभिर्नाम-स्थापनादीनां कथञ्चिद्भदस्येव कथञ्चिदभेदस्याप्यभिमतत्वेन तत्स्थापनावस्थानेऽपि तदवस्थानकथनस्याविरोधात् । अत्र प्रार्श्वप्रभोजीराउलानाथत्वं तु जीरापल्लीतीर्थोत्पत्तिव्यतिकरादेवाऽवसेयम् । स च व्यतिकरः पण्डितप्रवरश्रीमत्सोमधर्मगणिविरचितायामुपदेशसप्ततिकायाम्
___ "श्रीजीरिकापल्लिपुरीनितम्बिनी,-कण्ठस्थले हारतुलां दधाति यः ।।
प्रणम्य तं पाश्र्वजिनं प्रकाश्यते, तत्तीर्थसम्बन्धकधा यथाश्रुतम् ।। १ ।। पुरा नन्दाभ्रे श(१५०९) संख्ये, वर्षे ब्रह्माणनामनि । महास्थाने भूरिजैन, शैवप्रासादसुन्दरे ॥१॥" इत्यादिना ग्रन्थेन विस्तरतः प्रदर्शितः, स च जिज्ञासुना तत एव विज्ञेयः ।।
तदेवं 'जिराउलणाहं बंदिअ णिम्सीमसत्तिसंजुत्तं सिरिपासपहुं' इत्यनेन मङ्गलं निबद्धम् , 'भासिमु ठिइबंध' इत्यनेनाभिधेयं च कथितम् । साम्प्रतं सम्बन्धमभिधित्सयाऽऽह-"गुरुपसायाओ" त्ति गृणाति तचमिति गुरुः-सम्यक तत्वोपदेष्टा, स चार्थमधिकृत्य श्रीमत्तीर्थकरभगवान् , सूत्रापेक्षया तु श्रीमद्गौतमगणधराद्याः सूरयः। यतः सूत्रलक्षणमिदम्
"सुत्तं गणहररइयं, तहेव पत्तेयबुद्धरइयं च । सुयकेवलिणा रइयं,अभिन्नदसपब्विणा रइयं ।।” इति । यद्वा सूत्रार्थतो वाचनादिदातृणामपि तत्वोपदेशकत्वमविरुद्धम् , ततश्चास्मदादीनां गुरुपर्यन्ता
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६
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[ अधिकाराऽभिधानम् आचार्यादयोऽपि गुरुपदाभिधेयाः, तेषां 'प्रसादात्'-अनुग्रहात् । विशेषतस्तु-यस्यान्तिके निवसन् सम्यक्त्वादिविशिष्टगुणगौरवशागभवं तस्याविरतिकूपादुद्धत्य संयमसुवर्णगिरावारोहकस्य प्रकृतग्रन्थसङ्कलने प्रकृष्टप्ररणाप्रदातुर्गच्छाधिपतेराचार्यदेवश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरगुरोःप्रसादादिति । अनेन च स्वस्यौद्धत्यं परिहतम् , तथा गुरुकुलवासे निवसता मयाऽयं ग्रन्थो गुम्फित इत्येवं दर्शयता शास्त्रसम्बन्धश्चाभिहितः । तथाहि-यथा मयाऽयं ग्रन्थो गुरुनिश्रया तदाज्ञापुरस्सरं विनिर्मितस्तथा मद्गुरुणा स्वीयगुरोनिश्रयाऽध्ययनादिकं कृतम् , एवं पूर्व पूर्व चरणेन यापत् श्रीमताऽऽर्यजम्बूस्वामिना स्वीयगुरुसुधर्मागणधरेभ्य आगमायनं सम्पादितम् , तैश्च स्वीयगुरुश्रीमतीर्थकरभगवतः सकाशादर्थतः समुपलब्धमिति । इत्थं च प्रकृतग्रन्थस्य स्वेच्छापरिकल्पितत्वाऽऽशङ्काऽनवकाशीकृता, शिष्यैः सर्वकार्याणि गुरुनिश्रयाऽऽचरितव्यानीत्युपदिष्टं चेति । अयं हि सम्बन्धः श्रद्धानुसारिणं प्रति बोद्धव्यः, तर्कानसारिणं प्रति त्वसौ साध्य-साधनभावलक्षणः साक्षादनक्तोऽपि विज्ञेयः ; तथैव प्रयोजनमपि । यतः प्रयोजनमनन्तरपरम्परभेदाद् द्विविधम् , तदपि शास्त्रकृच्छोतृभेदाद् द्विधा भवति । तत्र शास्त्रकर्तुरनन्तरं प्रयोजनं भव्यजनबोधानुग्रहः , श्रोतृणां त्वनन्तरप्रयोजनं शास्त्रतचावबोधः,उभयोरपि परम्परप्रयोजनमपवर्गावाप्तिलक्षणम् , तस्यैव पुरुषार्थप्राधान्यात् सम्यग्दृशामभिप्रेतत्वाच्च । न चैतदनेन शास्त्रेण कथं सेत्स्यतीति वाच्यम् , प्रकृतशास्त्रस्य सम्यग्ज्ञानहेतुत्वेन श्रेयोभूतत्वात् पारम्पर्येण श्रेयोजनकत्वाच्च तत्सिद्धरित्यलं विस्तरेणेति ॥१॥
तदेवं विघ्नविघाताय कृतमङ्गलाचरणादिरधिकृताऽभिधेयाभिधानविषयप्रतिज्ञां निर्वाहयितुमना मन्दबुद्धीनां निर्मोहनहेतवे मूलप्रकृत्युत्तरप्रकृतिभेदभिन्नायां स्थितिबन्धप्ररूपणायामादौ तावन्मूलप्रकृतिस्थितिबन्धाधिकारनामानि तद्गतद्वारसङ्ख्यया सह दर्शयन्नाह
मूलपयडिठिइबंधे छहिगारा पढम-बीअ-भूगारा । पयणिक्खेवो वड्ढी अज्झवसाणसमुदाहारो ॥२॥ तेसु पढमाईसु अहिगारेसु चउरो य पंचदस ।
तेरस तिण्णि य तेरस तिण्णि कमा हुन्ति दाराणि ॥३॥
(०) “मूलपयडिठिइबंधे” इत्यादि, मौलानां शतकचूादिषूक्तनिरुक्तादीनां ज्ञानावरणादीनामष्टप्रकृतीनां "ठिइबंधे" त्ति भणितुमारब्धे स्थितिवन्धग्रन्थे "छहिगारा" त्ति 'षडधिकाराः' - स्थितिवन्धमामान्यमनुपेक्ष्य तत्तस्थितिबन्धस्थानाधधिकृतविशेषविषयप्रतिपादनपराः, सन्तीति शेषः । तानेव नामत आह-"पढमबोअभूगारा" इत्यादि, तत्र "पढम" त्ति द्वितीयाधिकारेष्ववक्ष्यमाणानां स्थितिबन्धस्थानाल्पबहुत्वादीनां नानाऽर्थानां प्रतिपादनपरः स्थितिबन्धस्थानाधधिकारः प्रथमाधिकारतया बोद्धव्य इत्यर्थः। “बीअ"त्ति द्वितीयोऽधिकारः,अयमपि उत्कृष्टादिस्थितिबन्धप्रमाण-तत्स्वामित्वतत्साद्यादि-तत्कालादिद्वाराण्यधिकृत्य भिन्न भिन्न विषयोऽपि स्थितिबन्धसामान्यप्रतिपादनादपरिच्युतः 'दुइए अहिगारे अह' इत्यादिना वक्ष्यमाणाधिकारो द्वितीयाधिकारतया विज्ञेयः । “भूगार" ति भूय
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भूयस्कारादेः पदनिक्षेपादेश्व स्वरूपलेशः ] अधिकारनिरूपणम्
स्कारः, “पूवसमयाउ समये अणंतरे बंधए" इत्यादिना वक्ष्यमाणस्थितिबन्धविशेषप्रतिपादनपरस्तृतीयाधिकारो भवति, अत्र ह्यधिकारेऽल्पतरादयः स्थितिबन्धविशेषा अपि प्ररूपणीयास्तथाऽप्यधिकारनामप्रस्तावे लाघवार्थ' भूयस्कारस्यैव ग्रहणं कृतम्, तेनैवोपलक्षणादन्येऽपि बोद्धव्या इति । "पयणिक्खेवो" त्ति "परमा वड्ढी 'परमा हाणी परमं तहा अवट्ठाणं ( गा० ६९० ) इत्यादिना वक्ष्यमाणः पदनिक्षेपाख्यश्चतुर्थाधिकारो भवति, तत्र पदनिक्षेपो भूयस्कारादिविशेषरूप एव, भूयस्कारादीनां स्थितिबन्धविशेषाणां जघन्योत्कृष्टपदद्वये निक्षेपणात् जघन्योत्कृष्टवृद्धयादिरूपेण चिन्तनादिति भावः । "वड्ढी" त्ति “अत्थि अवत्तव्यत्तं बंधस्स असंखभागहाणी य” ( गा० ७३२ ) इत्यादिना वक्ष्यमाणो वृद्ध्यधिकारः पञ्चमाकिारतयावसाय भवति, अयमपि भूवस्कारादिविशेषरूप एव, केवलं पदनिक्षेपाधिकारे भूयस्कारादितया जायमानस्थितिबन्धवृद्ध्यादयो जघन्योत्कृष्टपदद्वयगता एवं चिन्तयिष्यन्ते, अत्र तु ते संख्येयभाग संख्येrभागप्रभृतिवृद्ध यादिरूपेण वर्णयिष्यन्ते ।
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इदमुक्तं भवति - मुख्यवृत्त्याधिकृतो कर्मरूपतावस्थानलक्षणस्थितिबन्धोऽपि यदा पूर्व समयादुत्तरसमयेऽधिको भवति तदा भूयस्कार इत्युच्यते, यदा तु पूर्वसमयादुत्तरसमये हीनो भवति तदाऽल्पतरोऽभिधीयते, एवं तावन्मात्रस्थितिबन्धभावेऽवस्थितोऽअबन्धात्प्रथमत एव भावे त्ववक्तव्यश्व संगीर्यते, वक्ष्यते च
"पूव्वसमयाउ समये अणंतरे बंधर पहुत्तयरं । बंधो स भूअगारोऽप्पयरं बंधइस अप्पयरो || ५५५ ।। तावइयं चि बंधइ सो णाको अवओि बंधो । होउं अबंधगो उण बंधइ स हवइ अवत्तब्वो" इति ।
एते भूयस्कारादयः सत्पदादिद्वारैरोघत आदेशतश्च यत्र चिन्तयिष्यन्ते स भूयस्काराधिकारः । भूयस्काराधिकारविषयभूतोऽनियतेन समयादिना यथासम्भवं हीनाधिकोऽपि यो भूयस्कारादितत्तत्स्थितिबन्ध तेन तेन नियतेन सर्वाधिकवृद्धिहानिरूपेण यत्र चिन्तविष्यते स पदनिक्षेपाधिकारः । अयम्भावःभूयस्कारचिन्तायां विवक्षितसमयादुत्तरसमये जायमानं समयद्विसमयादिना वृद्धं कमपि स्थितिबन्धमधिकृत्य सामान्येनैव यथा सत्पद-स्वामित्वादिकं प्ररूप्यते, एवं हान्यादिकं च समाश्रित्य सत्पदादयः रूपन्ते न तथा पदनिचेपाविकारेऽपि किन्तु विवक्षितसमयादुत्तरसमये जायमानमधिकतमवृद्धस्थितिबन्धलक्षणं भूयस्कारविशेषरूपमुत्कृष्टवृद्धेः पदम् एवमधिकतम हीनस्थितिबन्धलक्षणमल्पतरविशेषरूपमुत्कृष्टहानेः पदम् तथा उत्कृष्टवृद्धिहान्यन्यतरस्योत्तरसमये प्राप्यमाणमुत्कृष्टावस्थानपदमधिकृत्य, इत्थमेव वैपरीत्येन विवक्षितसमयादनन्तरोत्तरसमये जायमानं स्तोकतमवृद्धस्थितिबन्धलक्षणं भूयस्कारविशेषात्मकं जघन्यवृद्धेः पदम् तथैव वैपरीत्येन जघन्यहानेः पदम् जघन्यावस्थानपदं चाधिकृत्य सत्पदादयश्चिन्तयिष्यन्तेः इत्येवं भूयस्काराधिकारापेक्षयाऽस्य पार्थक्यम् । वृद्धयधिकार इत्यत्र वृद्धिपदमपि हान्यादेरुपलक्षकं, तत्र वृद्धिहनिश्च प्रत्येकं संख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुण-संख्येयभागा-ऽसंख्येयभागभेदाच्चतुर्वैव न पुनरनन्तभागा-ऽनन्तगुणभेदाइत्यविधाऽपि सर्वोत्कृष्टस्याऽपि स्थितिबन्धस्याऽसंख्ये+समय प्रमाणत्वेनाऽन्तगुणवृद्धिहान्योरसम्भवात् । तत्र भूयस्कारोऽधिकवन्धरूपतया वृद्धिरूपः, अल्पतरबन्धस्तु हीनबन्धरूपतया हानिरूपः, अवस्थानावक्तव्यौ तु भूयस्काराधिकारे वक्ष्यमाणाऽवस्थिता
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ तत्तदधिकारगतद्वारनामानि ऽवक्तव्यबन्धापेक्षयाऽविशेषावेव । इत्थं हि भूयस्काराल्पतरविशेषरूपाणां संख्येवगुणादिस्थितिबन्धवृद्धिहानीनां पदनिक्षेपाधिकारविषयभूतजघन्योत्ष्टपदद्वयापेक्षया विलक्षणत्वाद् वृद्ध्यादेभू यस्कारादिरूपत्वेऽपि प्ररूपणीयविषयभेदात्पार्थक्यं वेदितव्यमिति ।
"अज्झवसाणसमुदाहारो" ति समुदाहरणं समुदाहारः, प्ररूपणेत्यर्थः । स्थितिबन्धहेतुभूतान् कपायोदयजन्यान् जीवपरिणामविशेषानधिकृत्य यत्र प्ररूपणा क्रियतेऽसावध्यवसानसमुदाहारोऽध्यवसायसमुदाहारो वा “पइठिइबंधमसंखा लोगा अट्टण्ह अज्झवसणाणं" (गा० ८४५) इत्यादिना वक्ष्यमाणः षष्ठाधिकारतयाऽवसातव्य इति ।
प्रत्येकमधिकारास्तु नानाऽनुयोगद्वारनिष्पन्नाः । तद्यथा-प्रथमाधिकारे चत्वार्यनुयोगद्वाराणि, (१) स्थितिबन्धस्थानानि, (२) निषेकः, (३) अबाधाकण्डकम् (४) अल्पबहुत्वं च एतेषु प्रत्येक चतुर्दशजीवभेदानधिकृत्य स्थितिवन्धस्थानादीनामल्पबहुत्वादिकं प्ररूपयिष्यते । द्वितीयाधिकारे तु पञ्चदशानुयोगद्वाराणिः तत्र प्रथमं (१) स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम् , ततः (२) स्वामित्वद्वारम् , ततः (३) साद्यादिद्वारम् , तदनन्तरं (४) कालद्वारम् , ततो (५) ऽन्तरद्वारम् , ततः (६) संनिकर्षद्वारम् , एतेषु पद्वारेष्वेकजीवं समाश्रित्य प्ररूपणं करिष्यते , ततः प्रभृति भङ्गविचयादिष्वल्पबहुत्वान्तेषु नवद्वारेषु पुनर्नानाजीवान् प्रतीत्य बन्धकभङ्गादयो वक्ष्यन्ते भङ्गविचयादीनि पुनरिमानि-(७) भङ्गविचयद्वारम् ,(८) भागद्वारम् ,(९) परिमाणद्वारम् ,(१०) क्षेत्रद्वारम् ,(११) स्पर्शनाद्वारम् ,(१२) कालद्वारम् , (१३)अन्तरद्वारम् ,(१४)भावद्वारम् ,(१५)अल्पबहुत्वद्वारं चेति । एतेषु प्रत्येकमोघतः स्थितिबन्धकभूतसमस्तजीवराशिमपेक्ष्य, तथाऽऽदेशतो गत्यादिभेदप्रभेदनिष्पन्नाः सप्तत्युत्तरशतमार्गणा अधिकृत्य जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणं तत्स्वामि-जघन्योत्कृष्टतदितरस्थितिबन्धसाद्यादि-कालप्रभृतयश्च चिन्तयिष्यन्ते, तत्राप्यल्पबहुत्वद्वारे तु जघन्यादिस्थितिबन्धप्रमाणमधिकृत्य स्वस्थानपरस्थानाल्पबहुत्वे तथा जघन्यादिस्थितेर्वन्धकानामल्पवहुत्वमित्येवं नानाविधान्यल्पबहुत्वानि प्ररूपयिष्यन्ते। भूयस्काराख्ये तृतीयाधिकारे तु त्रयोदश द्वाराणि, तत्रायं (१) सत्पदद्वारम् , ततः (२) स्वामित्वद्वारम् , तदुत्तरं (३) कालद्वारम् , ततो(४)ऽन्तरद्वारम् , तदनन्तरं तु पूर्वोक्तक्रमेण नानाजीवानधिकृत्य भङ्गविचयादीन्यल्पबहुत्वान्तानि नवानुयोगद्वाराणि सन्ति । एतेष्वपि प्रत्येकं भूयस्कारादिचतुर्विधस्थितिबन्धमधिकृत्य सत्पदादीनि चिन्तयिष्यन्ते । चतुर्थे पदनिक्षेपाधिकारे तु सत्पद-स्वामित्वा-ऽल्पबहुत्वलक्षणानि त्रीण्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति । अत्रापि जघन्योत्कृष्टपदद्वयगतानां भूयस्कारादिविशेषाणां सत्पदादीनि प्ररूपयिष्यन्ते । पञ्चमे वृद्धयधिकारेऽप्युक्तलक्षणा भूयस्कारादिविशेषरूपाः संख्येयगुणप्रभृतिवृद्धयादयः सत्पदाद्यल्पबहुत्वान्तत्रयोदशद्वारेषु भूपस्काराधिकारवदेव प्ररूपयिष्यन्ते । चरमेऽध्यवसानसमुदाहारे तु त्रीप्यनुयोगद्वाराणि, तानि च स्थिति-प्रकृति-जीवानधिकृत्य स्थितिवन्धकारणीभृताध्यवसायचिन्तनरूपाणीति । एतान्येव षडधिकारसत्कानुयोगद्वाराणि संख्यामात्रेण निर्दिशन्नाह-"तेसु” इत्यादि, गतार्थम् । नामपूर्वकं विशेषव्याख्यानं तु प्रत्यधिकारप्रारम्भे दर्शयिष्याम इति ॥२-३॥
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॥ प्रथमाधिकार ॥ साम्प्रतं “यथोद्देशं निर्देश" इति न्यायेन प्रथमाधिकारं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमाधिकारद्वाराणि नामग्राहं गृह्णाति
तह प्राइमअहिगारे चउरो दाराणि हुन्ति जहकमसो।
ठिइठाणाणि णिसेगो अवाहकंडं य अप्पबहू ॥४॥
(प्रे०) “तह प्राइमअहिगारे" इत्यादि, तत्र-अनन्तरोदिष्टषडधिकारेषु “प्राइमअहिगारे" त्ति आदिमे-प्रथमेऽधिकारे चत्वारि द्वाराणि भवन्ति, तान्येव नामतः क्रमतश्च दर्शयन्नाह-"जहकमसो" इत्यादि, तत्र “ठिइठाणाणि" ति बन्धस्य प्रकृतत्वात् स्थितिबन्धस्य स्थानानि स्थितिस्थानानि, मध्ममपदस्य लुप्तत्वात् । बन्धप्रायोग्याः स्थितिविशेषा इत्यर्थः । अयम्भावः-केनचिज्जीवेन या जघन्या स्थितिबध्यते तद् एकं स्थितिबन्धस्थानम् , तेनैव जीवेनाऽन्येन वा जीवेन यो समयाधिकजघन्यस्थितिबन्धः क्रियते तमपेक्ष्य द्वितीयं स्थितिबन्धस्थानम् , इत्थमेव केनाऽपि द्विसमयाधिकजघन्यस्थितिबन्धः क्रियते तमपेक्ष्य तृतीयं स्थितिबन्धस्थानम् , एवं यावदुत्कृष्टस्थितिबन्धस्तावद् वाच्यम्। ततश्च जघन्यस्थितिबन्धमादौ कृत्वोत्कृष्टस्थितिवन्धं यावद् यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि स्थितिबन्धस्थानानि भवन्ति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी
"जहएणगठितिं आदि काऊण जाव उकस्सिता ठिति एसि मज्झे जत्तिया ठितिविगप्पा ते उक्कसियाए ठितिए समं ठितिबन्धठाणा बुच्चति' इति ।
अत्र हि चतुर्दशजीवभेदानधिकृत्य स्थितिबन्धस्थानानां तत्कारणीभूताध्यवसायस्थानानामेतयोः स्थितिबन्धस्थानाध्यवसायस्थानयोः प्रमाणनियामकस्य जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्य चाऽल्पबहुत्वत्रयं प्रतिपादयिष्यते ।
"णिसेगो" ति निषेचनं निषेकः "भावाऽकोंः " (सि. हे. ५-३-१८) इत्यनेन "घन" प्रत्ययः; निषेचनम्-व्यवस्थापनम् , प्रकृतत्वाद् बध्यमानस्थितिषु कर्मदलस्य रचनेत्यर्थः । इदमुक्तं भवति-वेदनार्थं बध्यमानकर्मदलानामवाधावर्जस्थितिस्थानेषु हीन-हीनतर-हीनतमादिक्रमेण रचनंव्यवस्थापन निषेक उच्यते । उक्तं च शतकवृत्तौ
"निषेको नाम प्रथमसमये बहु द्वितीयसमये हीनं तृतीयसमये हीनतरं ततो हीनतमं कर्मदलिक रच्यते यत्र स एवंभूतः कर्मदलिकरचनाविशेषो निषेक उच्यते, अबाधां विहाय तत ऊर्ध्व वेदनार्थं कर्मनिषेको भवतीति भावः ।" इति
"प्रबाहकंड' ति अबाधाकण्डकद्वारम् , यत्रावाधाकण्डकानि प्ररूप्यन्ते । तत्राबाधा तु बन्धकाले निषिच्यमानदलिकानां निषेकायाऽयोग्यः कालः, यस्मिन् काले यथानिषिक्तं कर्मदल
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ स्थितिस्थानाल्पबहु० मुदीरणादिकरणान्तरस्य साहाय्यमन्तरेण स्वभावत एवोदयं नैवाऽऽयाति, जीवस्य बाधां नोत्पादयति स इति भावः। उक्तं च शतकभाष्ये--
__ "होइ अबाहाकालो जो किर कम्मस्स अणुउदयकालो" इति । कण्डकमिति समूहः, तच्च कण्डकं स्थितिवन्धस्थानानां बोद्धव्यम् , न त्वबाधास्थानानाम् । ततश्चैकसमयावाधाहानावुत्कृष्टतो यावती स्थितिहीयते तावत्याः स्थितेः समयप्रमाणानां स्थितिबन्धस्थानानां समूह एकमवाधाकण्डकमुच्यते, एवम्भूतान्यवाधाकण्डकान्यत्र द्वारे चिन्तयिष्यन्त इति । चकारस्तु समुच्चये।
___ "अप्पबहू" त्ति भावप्रधानोऽयं निर्देशस्ततोऽल्पबहुत्वद्वारम् , यत्र गतद्वारत्रयेऽभिहितार्थानां स्थितिबन्धस्थानादीनां परस्परमल्पबहुत्वं हीनाधिक्यलक्षणं प्रदर्शयिष्यत इति ।
तदेवमुद्दिष्टानि प्रथमाधिकारगतद्वाराणि । साम्प्रतं 'यथोदेशं निर्देश' इति न्यायेन प्रथमद्वारे स्थितिबन्धस्थानान्यधिकृत्य प्ररूपणा कर्तव्या; तत्रादौ चतुर्दशजीवभेदेषु प्रत्येकं ज्ञानावरणादीनां सप्तानामपि मूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धस्थानाल्पबहुत्वं तुल्यमिति कृत्वा तत्, तथा तद्वदेव स्थितिबन्धस्थानलारणीभूतानां संक्लेशविशुद्धिस्थानानामल्पबहुत्वस्यापि तुल्यत्वात् तदपि सममेव प्रतिपिपादयिषुर्गाथाद्वयमाह
ठिइबंधट्टाणाइं सुहमियराण असमत्तियरगाणं । असमत्तियराण कमा बितिचउइंदियअसरिणसरणीणं ॥५॥ (गीतिः) संखेज्जगुणाणि परं अपज्जबेइंदियस्स ठाणाणि ।
हुन्ति असंखगुणाई सम्वत्थ विशुद्धिइयराणं ॥६॥ ' (प्रे०) "ठिइबंधठाणाइ"मित्यादि, स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि भवन्तीत्युत्तरगाथायामन्वयः, यथोत्तरमिति शेषः । केषां स्थितिबन्धस्थानानि यथोत्तरं संख्येयगुणानि भवन्तीत्यत्राह'सुहमियराणे"त्यादि, तत्र "सुहमियराण असमत्तियरगाणे"त्यत्र बहुवचनं प्राकृतत्वात् , यतः प्राकृते द्विवचनस्थाने बहुवचनं भवति । यदाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः स्वप्राकृतलक्षणे-"द्विवचनस्य बहुवचनम्” ( सि० है० ८-३-१३० ) इति । ततश्च सूक्ष्मस्य तदितरस्य बादरस्य चेत्यर्थः । एते सूक्ष्मवादराः पर्याप्तापर्याप्तभेदाद् द्विधा भवन्ति, अतस्तत्रापि क्रमनियमार्थमुक्तम् "असमत्तियरगाणं" त्ति असमाप्तस्य,-अपर्याप्तस्येत्यर्थः, अपर्याप्तानामेवासमाप्तपयाप्तिकत्वेनासमाप्तपदवाच्यत्वादिति भावः । ततश्च तदितरस्य पर्याप्तस्येत्यर्थः । अम् द्वे विशेषणे गाथान्यस्तक्रमात प्रत्येकं योज्यते । आदावपर्याप्तविशेषणं प्रत्येकं योज्यं, ततः पर्याप्तविशेषणं प्रत्येकं योज्यमितिभावः । इत्थं चायं क्रमः प्राप्तः-प्रथममपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्य, ततोऽपर्याप्तवादरेकेन्द्रियस्य, ततः पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्य, ततः पर्याप्तयादरैकेन्द्रियस्येति । अग्रेऽपि क्रमव्यवस्थापनार्थमाह-"असमत्तियराणे"त्यादि, प्राग्वत्
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तस्योपपत्तिः ] प्रथमाधिकारे स्थितिबन्धस्थानद्वारम्
[ ११ "बितिचउ" इत्यादिपदानि पर्याप्त-तदितरापर्याप्तयोः प्रत्येकं क्रमेण योज्यन्ते, ततः पर्याप्तबादरैकेन्द्रियानन्तरमपर्याप्तद्वीन्द्रियस्य, ततः पर्याप्तद्वीन्द्रियस्य, ततोऽपर्याप्तत्रीन्द्रियस्य, ततः पर्याप्तत्रीन्द्रियस्य, ततोऽपर्याप्तचतुरिन्द्रियस्य, ततः पर्याप्तचतुरिन्द्रियस्य, ततोऽपर्याप्तस्याऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य, ततः पर्याप्तस्याऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य, ततोऽपर्याप्तस्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य, ततः पर्याप्तस्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्येति । सूत्रलाघवार्थ 'संख्येयगुणाणी' ति पदस्यानुवृत्तौ प्रयुक्तायां सत्यां याऽतिप्रसक्तिजोता तां निराकुर्वन्नाह—“परं अपज्जबेइंदियस्स ठाणाणि" इत्यादि, परम्-नवरम् अपर्याप्तद्वीन्द्रियस्य स्थितिबन्धस्थानानि असंख्येयगुणानि भवन्तीति क्रमप्राप्तबादरैकेन्द्रियस्थितिबन्धस्थानेभ्यस्तान्यसंख्येयगुणानि वक्तव्यानि, न पुनर्द्वितीयादिपदेष्विव संख्येयगुणानीति भावः । उक्तोऽक्षरार्थः ।
घटना पुनरित्थम्-स्थितिबन्धस्थानानि जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धयोरन्तरालाधीनानि, तच्चान्तरालं सूक्ष्मापर्याप्तजीवानां शेषजीवभेदापेक्षयाऽल्पम्, अतोऽपर्याप्तसूक्ष्मजीवस्य स्थितिबन्धस्थानानि सर्वस्तोकानि, तानि च पल्योपमस्यासंख्येयतमभागगतसमयतुल्यानि भवन्ति । तेभ्योऽपर्याप्तबादरैकेन्द्रियस्य स्थितिवन्धस्थानानि संख्येयगुणानि, यतः सूक्ष्मापर्याप्तस्योत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षयाऽस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः, सूक्ष्मापर्याप्तस्य जघन्यस्थितिबन्धापेक्षया चास्य जघन्यस्थितिबन्धो विशेषहीनः, तथा च सत्यस्यापर्याप्तबादरस्य जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धयोरन्तरालं पूर्वोक्तान्तरालापेक्षया बहत् , तच्च पूर्वापेक्षया संख्येयगुणमित्यतोऽपर्याप्तवादरस्य स्थितिस्थानान्यपि संख्येयगुणानि । ननु बादरापर्याप्तस्य जघन्यस्थितिबन्धः सूक्ष्मापर्याप्तस्थितिबन्धापेक्षया विशेषहीनः, उत्कृष्टस्थितिबन्धश्च विशेषाधिकश्चेत्तदा तयोरन्तरालं कथं संख्येयगुणमिति चेद् ? उच्यते, योऽत्र स्थितिवन्धो विशेषहीनो विशेषाधिकश्चोक्तः स सूक्ष्मापर्याप्तस्य जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया, न तु सूक्ष्मापर्याप्तस्य स्थितिबन्धस्थानान्यपेक्ष्य, सूक्ष्मापर्याप्तस्य जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धौ तु ज्ञानावरणादीनामग्रे वक्ष्यमाणौ पल्योपमासंख्येयभागन्यूनसागरोपमत्रिसप्तभागादिप्रमाणौ, तदपेक्षया निरुक्तायां वृद्धौ हानौ च प्राप्यमाणानि स्थितिबन्धस्थानानि प्रत्येकं पल्योपमस्यासंख्येयभागगतसमयप्रमाणानि जायन्ते, न चात्र कश्चिद् विरोधः, सागरोपमादिस्थितिबन्धमपेक्ष्य विशेषाधिकांशे पल्योपमसंख्येयभागस्यापि प्रवेशात् , एवं विशेषहान्यंशेऽपि बोद्धव्यम् । नवरमत्र हानिसत्को यः पल्योपमस्यासंख्यांशः स सूक्ष्मापर्याप्तस्थितिबन्धस्थानापेक्षया संख्येयगुणोऽस्ति यश्चोत्कृष्टस्थितिबन्धाभिमुखं चरणेन पल्योपमस्यासंख्यांशो वर्धतेऽसौ पुन निसत्कांशापेक्षयाऽपि संख्येयगुणोऽस्ति, तथा च सति बादरापर्याप्तैकेन्द्रियाणां जघन्योत्कृष्टस्थितिवन्धयोरन्तरालमपि संख्येयगुणं भवतीति । अपर्याप्तादरस्य स्थितिबन्धस्थानापेक्षया पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्य स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानीत्येतदपि बादरापर्याप्तस्थितिबन्धस्थानवज्जघन्योत्कृष्टस्थित्योरन्तरालस्य संख्येयगुणत्वापेक्षया भावनीयम् , नवरं सूक्ष्मापर्याप्तस्थाने बादरापर्याप्तजीवं गृहीत्वा बादरापर्याप्तस्थाने सूक्ष्मपर्याप्तजीवं च गृहीत्वेति । इत्थमेवानन्तरवर्तिषु बादरपर्याप्तादिजीवभेदेष्वपि भावना द्रष्टव्या, नवरं द्वीन्द्रियापर्याप्तस्य स्थितिबन्ध
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१२]
बंधवहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[ स्थितिस्थानाल्पबहु० स्थानानि यान्यसंख्येयगुणानि कथितानि तानि तस्य जघन्योत्कृष्ट स्थितिबन्धयोरन्तरस्य पल्योपमसंख्येयभागतुल्यत्वात् । इदमुक्तं भवति - एकेन्द्रियाणां जघन्यस्थितिबन्धापेक्षयोत्कृष्टः स्थितिबन्धः पल्योपमासंख्येयभागेनाभ्यधिको जायते, द्वीन्द्रियाद्य संज्ञिपर्यन्तानां तु प्रत्येकं स्वस्वजघन्यस्थितिबन्धापेक्षया पल्योपमसंख्येयभागेनाभ्यधिको जायते, तथा च सति पर्याप्तवादरैकेन्द्रियस्य स्थितिबन्धस्थानानि पल्योपमस्यासंख्येयभागगत समय तुल्यानि, द्वीन्द्रियापर्याप्तस्य स्थितिबन्धस्थाना पल्योपमसंख्येयभागगतसमय तुल्यानि, तो भवन्त्यमूनि पूर्वापेक्षयाऽसंख्येयगुणानि । अत्र गुणकराशिरावलिकाया असंख्येयभागगतसमयतुल्योऽवगन्तव्यः कुतः ! समनियतपल्योपमासंख्यभागप्रमाणस्थितिस्थानैर्निष्पद्यमानानामबाधाकण्डकानामेकेन्द्रियेष्वावलिकाया असंख्येयभागगतसमयतुल्यानां भावात्, द्वीन्द्रियेषु त्वावलिकायाः संख्येयभागप्रमाणानां लाभाच्च । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूण"बेइंद्रियाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं उगवज्जाणं सत्तरहं कम्माणं अबाहाद्वाणारिण अबहाकण्डगाणि य दोषि तुल्लाणि सव्वत्योवारिण । ताणि य आवलियाए संखेज्जत्तिभागमेत्ताणि" इति । तथा"एगिंदियाणं सुहुमाणं बादराणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं श्राउगवज्जाणं सत्तणं कम्माणं श्रावाहाठाणारि वाहाकडगारिण दोषि तुल्लाणि सव्वत्थोवारिण । ताणि श्रवलिया असंखेज्जतिभागमेत्तारिण"
इति ।
प्रकृताल्पबहुत्वं कर्मप्रकृतिचूर्णावित्थमेव । तथा च तद्ग्रन्थः
" सव्वथोवारिंग सुहुमस्स अपज्जत्तगस्स ठितिबंधट्ठाणातिं । बायरअपज्जत्तगस्स ठितिबंधठागाणि संखेज्जगुणाणि । सुहुमस्स पज्जत्तगस्स ठितिबन्धट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । बायरस्स पज्जत्तगस्स ठितिबंधद्वाणि संखेज्जगुणाणि । एवं एतेसिं पलिओ मस्स असंखेज्जइ भागमेत्तारिण ठितिबन्धद्वाणाणि । ततो बिइंदियरस अपज्जत्तगरस ठितिबंधट्ठाणाणि असंखेज्जगुरगाई । कहं ? बेतिंदियादिणं ठितिबन्धद्वाणाति पमिस्स संखेज्जइभागमेत्ताणि त्ति काउं । तस्सेव पज्जत्तगस्स ठितिबन्धद्वाणातिं संखेज्जगुणाति तेइंदियरस अपज्जत्तगस्स ठितिबन्धद्वारणाई संखेज्जगुणाई । तस्सेव पज्जत्तगस्स ठितिबंधद्वाणाई संखेज्जगुणाई । चउरिंदियस्स अपज्जत्तगस्स ठितिबन्धद्वाणातिं संखेज्जगुणाई । तस्सेव पज्जत्तगस्स ठितिबन्धट्ठाति संखेज्जगुणाई | सरपंचेंद्रियस्स अपज्जत्तस्स ठितिबन्धद्वातिं संखेज्जगुणाणि । तस्सेव पज्जत्तगस्स ठितिबन्धहाति संखे जगुणाणि । सरिणपंचिंदिय अपज्जत्तगस्स ठितिबन्धद्वाणातिं संखेज्जगुणारिण । तस्सेव पजत्तगस्स ठितिबन्धद्वाणातिं संखेज्जगुणाई ।" इति ।
प्रमाणमधिकृत्य स्थितिबन्धस्थानान्येकेन्द्रियसत्केषु चतुषु जीवभेदेषु प्रत्येकं पल्योपमासंख्येयभागगत समय तुल्यानि, अपर्याप्तद्वीन्द्रियादिष्वष्टजीवभेदेषु प्रत्येकं पल्योपमस्य संख्येयभागगत - समय तुल्यानि, अपर्याप्तसंज्ञिजीवभेदे तु तान्यन्तःकोटीकोटीसागरोपमाणां समयतुल्यानि, पर्याप्तसंज्ञिजीवभेदे तु पुनस्तानि देशोनत्रिंशत्कोटिकोटी सागरोपमादिसमय तुल्यानि, ज्ञानावरणादीन् समाश्रित्यावसेयानीति । न चाशङ्क्यं यदपर्याप्तद्वीन्द्रियादिष्वष्टषु जीवभेदेषु प्रत्येकं स्थितिबन्धस्थानानां पल्योपमस्य संख्येयभाग प्रमाणत्वेऽपि तेषु यथोत्तरं संख्येयगुणत्वं विरुध्येत ? यतो यथैकेन्द्रियसत्क*जेसलमेरशास्त्रागारस्थकर्मप्रकृतिचूर्णि प्रतिसत्कोऽयं पाठः, मुद्रितप्रतौ तु ''कारो न दृश्यते ।
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तत्राsसत्कल्पना ]
प्रथमाधिकारे स्थितिबन्धस्थानद्वारम्
[ १३
चतुर्भेदेषु प्रत्येकं स्थितिबन्धस्थानानां पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणत्वेऽप्यसंख्येयस्यासंख्येय भेदभिन्नतया न कश्चिद्विरोधस्तथात्रापि विरोधाभाव एवेति ।
अत्र मन्दबुद्धिव्युत्पादनार्थमसत्कल्पनया त्रिगुणप्रभृतेर्यावत्पञ्चदशगुणानि तावत्संख्येयगुणानीति कल्प्यन्ते, विंशतिगुणादीनि त्वसंख्यगुणानीति कल्प्यन्ते, तथाऽसत्कल्पनयाऽपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्य जघन्यस्थितिबन्ध एकाधिकलक्षसमयप्रमाणो (१००००१) जायते, तस्यैवोत्कृष्टस्थितिबन्धः पल्योपमासंख्येयभागेनाभ्यधिक इति पञ्चाधिकलक्षसमयप्रमाणो (१००००५) जायते, अतस्तस्य स्थितिबन्धस्थानानि पञ्च लभ्यन्ते । पतप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्य जघन्यस्थितिबन्धापेक्षयाऽपर्याप्तवादरै केन्द्रियस्य जवन्यस्थितिबन्धो विशेषहीनो भवति, स चात्र पडशीत्यभ्यधिकनवशतयुतनवनवतिसहस्रसमयप्रमाणः (६६६८६ ) कल्प्यते, तस्यैवोत्कृष्ट स्थितिबन्धो योऽपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियोत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया विशेषाधिको जायते सः पञ्चाशदधिकलक्षसमयप्रमाण ( १०००५० ) कल्प्यते, तथा च सत्यपर्याप्तवादरैकेन्द्रियस्य स्थितिबन्धस्थानानि पञ्चषष्टिः (६५) प्राप्यन्ते तानि चापर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्य स्थितिबन्धस्थानापेक्षया त्रयोदशगुणानीति संख्येयगुणान्यभवन्, त्रिगुणादारभ्य पञ्चदशगुणपर्यन्तानामनन्तरमेव संख्येयगुणतया परिकल्पितत्वात् । बादरापर्याप्तस्य जघन्य - स्थितिबन्धापेक्षया पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्य जघन्यस्थितिबन्धो विशेषहीन इत्येकनवत्यभ्यधिकसप्तशतान्वित नवनवतिसहस्रसमयप्रमाणो (६६७६१) जायते, तस्यैवोत्कृष्टस्थितिबन्धः पुनरपर्याप्तबादरापेक्षया विशेषाधिक इति पञ्चत्रिंशदभ्यधिकषट्शतयुतलक्षसमयप्रमाणो (१००६३५) भवति, तथा च सति पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्य स्थितिबन्धस्थानानि (८४५) पञ्चचत्वारिंशदभ्यधिकाष्टशतान्यभवन्, तानि चापर्याप्तबादरस्य स्थितिबन्धस्थानाषेक्षया त्रयोदशगुणानीति संख्येयगुणान्येव । पर्याप्तसूक्ष्मै केन्द्रियजघन्य स्थितिबन्धापेचया पर्याप्तवादरै केन्द्रियस्य जघन्य स्थितिबन्धो विशेषहीन इति षट्पञ्चाशद्भ्यधिकशतद्वयसमन्वितसप्तनवतिसहस्रसमयप्रमाणो (६७२५६) जायते, तस्यैवोत्कृष्ट स्थितिबन्धः पर्याप्तसूक्ष्मोत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया विशेषाधिक इति चत्वारिंशदभ्यधिकशतद्वय युताष्टसहस्रान्वितलक्षसमयप्रमाणो (१०८२४०) भवति, तथा च सत्यस्य पर्याप्तत्रादरस्य स्थितिबन्धस्थानानि (१०९८५) पञ्चाशीत्यभ्यधिकनवशतयुतदशसहस्राण्यलभ्यन्त तानि तूपर्युक्तेभ्यः पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्थितिबन्धस्थानेभ्यस्त्रयोदशगुणानीति संख्येयगुणान्यभवन् । द्वीन्द्रियस्य जघन्यस्थितिबन्ध उत्कृष्टस्थितिबन्धश्वोभावपि पर्याप्तबादरैकेन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया संख्यातगुणौ भवतः, तत्र यो द्वीन्द्रियस्य जघन्यस्थितिबन्धः सोऽत्रासत्कल्पनया षष्ट्यभ्यधिकपञ्चशतान्वितद्विसप्ततिसहस्रयुतनवलक्षसमय प्रमाणो (६७२५६०) गृह्यते, स चैकेन्द्रियस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धापेक्षयाऽऽसन्नदशगुण इति संख्येयगुणोऽभवत्, द्वीन्द्रियस्योत्कृष्ट थितिबन्धस्तु षष्ट्यभ्यधिकशतद्वययुतद्विनवतिसहस्रान्वितैकादशलक्षसमयप्रमाणो
(११६२२६०) जायते, तथा च सति द्वीन्द्रियस्य स्थितिबन्धस्थानानि सप्तशताभ्यधिकैकोनविंशतिसहस्रयुतलक्षद्वयं (२१६७०० ) प्राप्यन्ते तानि च पर्याप्तवाद केन्द्रियस्य स्थितिबन्धस्थानापेक्षया विंशतिगुणानीत्यसंख्येयगुणान्यभवन् इत्थमेवोत्तरवर्तिस्थानेष्वपि यथासम्भवं द्रष्टव्यमिति ॥
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१०६८५
१४ बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[स्थितिस्थानाल्पबहु० अत्राऽसत्कल्पनया कल्पितानां स्थितिबन्धस्थानादीनां स्थापनाजीवभेदाः
जघ०स्थितिबन्धोऽसत्कल्पनया उत्कृष्टस्थितिबन्धोऽसत्कल्पनया | स्थितिबन्धस्थानानि
समयाः । अल्पबहु० समयाः। अल्पबहु० सूक्ष्माऽपर्या १००००१ सर्वाधिकः १००००५ स्तोकः
५ स्तोकानि बादराऽपर्या० ६६६८६ विशेषहीनः । १०००५० विशेषाधि०
६५ संख्येयगुण सूक्ष्मपर्याप्त ६६७६१
८४५ बादरपर्याप्त० ७२५६ , | १०८२४० , द्वीन्द्रियाऽपर्याः | ६७२५६० संख्येयगुणः ११९२२६० संख्येयगुणः | २१६७०० असंख्येयगुण०
अन्यच्च यदुक्तं प्राग "नवरमत्र हानिसत्को यः पल्योपमस्यासंख्यांशः सः सूक्ष्मापर्याप्तस्थितिबन्धस्थानापेक्षया संख्येयगुणोऽस्ति, यश्चोत्कृष्टस्थितिबन्धाभिमुखं चरणेन पल्योपमस्यासंख्यांशो वर्धतेऽसौ पुनर्हानिसत्कांशापेक्षयाऽपि संख्येयगुणोऽस्ति" इत्येतदप्यत्र स्थापनायां दृश्यते तथापि तदेव भाव्यते, अपर्याप्तसूक्ष्मस्य जघन्यस्थितिबन्धो य एकाधिकलक्षसमयत्रमाणः (१००००१) कल्पितस्ततोऽधस्तनमपर्याप्तवादरस्य जघन्यस्थितिबन्धः पड़शीत्यभ्यधिकनवशतयुतनवनवतिसहस्रसमयप्रमाण-(६६६८६) स्तावच्चरणे (१५) पञ्चदशस्थितिबन्धस्थानानि प्राप्यन्ते, तानि च सूक्ष्मापर्याप्तस्य स्थितिबन्धस्थानापेक्षया त्रिगुणानीति संख्येयगुणान्यभवन् , त्रिगुणस्याप्यत्रासत्कल्पनायां संख्येयगुणतया परिकल्पितत्वात् । अपर्याप्तसूक्ष्मस्य (१००००५) पञ्चाभ्यधिकलक्षसमयप्रमाणोस्कृष्टस्थितिबन्धादुपरितनमपर्याप्तवादरस्योत्कृष्टस्थितिबन्धं यावच्चरणेन पुनः पञ्चचत्वारिंश-(४५) स्थितिवन्धस्थानानि प्राप्यन्ते, कुतः ? अपर्याप्तबादरस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः पञ्चाशदभ्यधिकलतसमयप्रमाणः (१०००५०), ततश्चापर्याप्तसूक्ष्मस्योत्कृष्टस्थितिबन्धे पञ्चाभ्यधिकलक्षसमयप्रमाणे (१००००५) विशोधिते सति (४५) पञ्चचत्वारिंशत्स्थितिबन्धस्थानानां प्राप्यमाणत्वात् । तानि च अपर्याप्तबादरस्य पञ्चचत्वारिंशस्थितिबन्धस्थानानि सूक्ष्मापर्याप्तजघन्यस्थितिबन्धादधस्तनचरणेन लब्धपञ्चदशसंख्याकेभ्यः स्वकीयस्थितिबन्धस्थानेभ्यस्त्रिगुणानीति संख्येयगुणान्यभवन् , इत्थं च बादरापर्याप्तस्य सर्वस्थितिबन्धस्थानानि (६५) पञ्चषष्टिरभवन् । कुतः ? बादरापर्याप्तस्याधस्तनस्थितिबन्धस्थानानां पञ्चदशसंख्याकानामुपरितनस्थानानां पञ्चचत्वारिंशत्संख्याकानां, मध्यमानां च पञ्चसंख्याकानां स्थितिबन्धस्थानानामेकत्रसंकलने पञ्चषष्टिस्थितिबन्धस्थानलाभात् । अपर्याप्तबादरस्य जघन्यस्थितिबन्धादधस्तनसूक्ष्मपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधं यावच्चरणे सूक्ष्मपर्याप्तस्य पञ्चनवत्यभ्यधिकशतस्थितिबन्धस्थानानि (१६५) लभ्यन्ते, तानि चापर्याप्तवादरस्य सर्वस्थितिबन्धस्थानेभ्यस्त्रिगुणानीति संख्येयगुणान्यजायन्त, तेभ्यो बादरापर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबन्धादुपरितनचरणेन लभ्यमानान्यस्यैव सूक्ष्मपर्याप्तस्य स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि सन्ति, कुतः ? उपरि चरणेन (५८५) पञ्चाशित्यभ्यधिकपञ्चशतस्थितिबन्धस्थानानां लाभात् , तेषां च पूर्वोक्तपञ्चनवत्यधिकश
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[ १५
संक्लेशस्थानाल्पबहु० ] प्रथमाधिकारे स्थितिबन्धस्थानद्वारम् तस्थितिबन्धस्थानेभ्यस्त्रिगुणत्वात् । इत्थमेवानन्तरवर्तिजीवस्थानेष्वप्यसत्कल्पनया विभावनीयम् । न चात्र परम्परोपनिधया चिन्त्यमाने कल्पितानि सूक्ष्मापर्याप्तस्य पञ्च स्थितिबन्धस्थानान्यपेक्ष्य सूक्ष्मपर्याप्तस्याष्टशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि स्थितिबन्धस्थानानि विंशतिगुणादप्यधिकानीति कृत्वाऽसंख्येयगुणानि भवन्ति, तच्चासङ्गतम् , सूक्ष्माऽपर्याप्तस्य सर्वस्थितिबन्धस्थानेभ्यः सूक्ष्मपर्याप्तस्य सर्वस्थितिवन्धस्थानानामपि संख्येयगुणत्वादिति वाच्यम् । प्रकृतासत्कल्पनायाः परम्परोपनिधामनपेक्ष्यानन्तरोपनिधापेक्षया दर्शितत्वात् , तदपेक्षया सुसङ्गतेश्चेति । तदेवमभिहितं स्थितिबन्धस्थानाल्पबहुत्वम् ।
___ अथ संक्लेशविशुद्धिस्थानाल्पबहुत्वं दर्शयन्नाह- "सव्वत्थ विशुद्धिइयराण” मिति "ठाणाणि हुन्ति असंखगुणाई" इत्येतद् देहलीदीपकन्यायेनात्रापि सम्बध्यते, ततो विशुद्धरितरस्य संक्लेशस्य वा स्थानानि-भेदाः सर्वत्र-सर्वेषु जीवस्थानेष्वसंख्येयगुणानि भवन्ति, क्रमादिति शेषः । तद्यथा-सूक्ष्मस्यापर्याप्तस्य संक्लेशस्थानानि सर्वस्तोकानि, तेभ्योऽपर्याप्तवादरस्याऽसंख्येयगुणानि, तेभ्योऽपि पर्याप्तसूक्ष्मस्याऽसंख्येयगुणानि, तेभ्योऽपि पर्याप्तवादरस्याऽसंख्येयगुणानि, तेभ्योऽपि द्वीन्द्रियस्याऽपर्याप्तस्याऽसंख्येयगुणानि, एवं पर्याप्तद्वीन्द्रियाऽपर्याप्तपर्याप्तत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाऽसंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां यथोत्तरमसंख्येयगुणानि वाच्यानि । एवमेव विशुद्धिस्थानान्यपि यथोत्तरजीवभेदेऽसंख्येयगुणानीत्यपि द्रष्टव्यमिति । अत्र वर्धमानकषायोदयजन्या आत्मपरिणामाः संक्लेशा उच्यन्ते, हीयमानकषायोदयजन्यास्तु त एव विशुद्धयः । तथाहि-कर्मणां स्थितिबन्धे कारणीभूता आत्मनः क्रोधादिकपायजन्या आत्मपरिणामाः सामान्यतोऽध्यवसाया अध्यवसानानि वोच्यन्ते, ते एव मन्दकषायोदयात्तीव्रतीव्रतरादिकषायोदयाभिमुखाश्चरन्तः पूर्वपूर्वापेक्षया संक्लिश्यमानाः सन्तः सक्लेशा अभिधीयन्ते, यदा तु तीव्रकषायोदयान्मन्दमन्दतरकषायोदयाभिमुखं चरन्ति, तदा विशुध्यमानाः सन्तो विशुद्धय इति व्यपदिश्यन्ते इति ।
ननु चतुर्दशजीवभेदेष्वपि स्थितिबन्धकारणीभूतानि संक्लेशस्थानानि यथोत्तरमसंख्येयगुणान्येव कस्माद्भवन्ति ? उच्यते,-यथोत्तरजीवभेदेषु स्थितिबन्धस्थानानामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणस्य चाधिक्यात् , अधिकाधिकतरादिस्थितिबन्धेऽधिकाधिकतरादिसंक्लेशस्थानानां हेतुत्वाच्च । तथाहिप्रत्येकं स्थितिबन्धस्थानं नानाजीवान् समाश्रित्यासंख्यातलोकाकाशप्रदेशप्रमितैः संक्लेशस्थानबध्यते, वक्ष्यते च
“पइठिइबंधमसंखा लोगा अट्टएह अज्झवसणाणं ।” इति ।
तत्रापि सूक्ष्मापर्याप्तस्य यत्सर्वजघन्यस्थितिबन्धात्मकं स्थितिस्थानं तस्य बन्धे हेतुभूतानि संक्लेशस्थानानि स्तोकानि, तेभ्यः समयाधिकस्थितिबन्धस्थाने संक्लेशस्थानानि विशेषाधिकानि, दिसमयाधिकजघन्यस्थितिबन्धस्थाने तु ततोऽपि विशेषाधिकानि संक्लेशस्थानानि, तेभ्यस्त्रिसमयाधिकजघन्यस्थितिबन्धस्थाने संक्लेशस्थानानि विशेषाधिकानि भवन्ति, एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टस्थिति
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१६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [संक्लेशस्थानाल्पबहु० बन्धः । अत्र चाऽपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्य स्थितिबन्धस्थानेषु जघन्यस्थितिबन्धादारभ्य पल्योपमस्याऽसंख्येयभागप्रमाणानि स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्य यस्थितिबन्धस्थानं तत्कारणीभूतसंक्लेशस्थानानि जघन्यस्थितिबन्धस्थानकारणीभूतसंक्लेशस्थानापेक्षया द्विगुणानि भवन्ति, इदं हि संक्लेशस्थानानां द्विगुणवृद्धराद्यं स्थानमुच्यते, पुनरपि ततः प्रभृति तावन्ति पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणानि स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्य यस्थितिबन्धस्थानं तत्कारणीभृतसंक्लेशस्थानानि प्रथमद्विगुणवृद्धिस्थानापेक्षया द्विगुणानि भवन्ति, जघन्यस्थितिबन्धस्थानापेक्षया त्वत्र चतुगुणानि संक्लेशस्थानानि सन्ति, इदं हि स्थितिबन्धस्थानं संक्लेशस्थानान्यधिकृत्य द्वितीयं द्विगुणवृद्धिस्थानमुच्यते, इतो द्वितीय द्विगुणवृद्धिस्थानादारभ्य पूर्ववद् यदा पल्योपमस्याऽसंख्येयभागप्रमाणानि स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्यन्ते तदा तृतीयं द्विगुणवृद्धिस्थानं प्राप्यते, अत्र तृतीये द्विगुणवृद्धिस्थाने संक्लेशस्थानानि द्वितीयद्विगुणवृद्धिस्थानापेक्षया द्विगुणानि सन्ति, जघन्यस्थितिबन्धाऽऽत्मकस्थितिबन्धस्थानापेक्षया त्वष्टगुणानि सन्ति, एवं पुनरपि पल्योपमासंख्यभागप्रमाणस्थितिस्थानान्यतिक्रम्यातिक्रम्य यथोत्तरं द्विगुणवृद्धिस्थानानि भवन्ति वक्ष्यते च
“सत्तण्ह जहरणाओ कमा विसेसाहियाणि श्रा चरमा ।
पलियाऽसंखियभागं गंतुं गंतुं दुगुणवड्ढी ॥” इति । एवंभूतानि द्विगुणवृद्धिस्थानानि सूक्ष्मापर्याप्तस्य जघन्यस्थितिबन्धादारभ्य तस्यैवोत्कृष्टस्थितिबन्धं यावद्गमनेनाऽसंख्येयानि प्राप्यन्ते, कुतः ? द्विगुणवृद्धिनिष्पादकपल्योपमासंख्येयभागस्य सूक्ष्मापर्याप्तसत्कसमग्रस्थितिबन्धस्थानापेक्षयाऽप्यसंख्येयगुणहीनत्वात् । अत एव बादरापर्याप्तादिजीवस्थानेषु यथोत्तरं संक्लेशस्थानान्यसंख्येयगुणानि प्राप्यन्ते, तथाहि-सूक्ष्मापर्याप्तस्योत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया बादरापर्याप्तस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो योऽधिको जायते स सूक्ष्मापर्याप्तस्य स्थितिबन्धस्थानापेक्षया संख्येयगुणेन पल्योपमासंख्येयभागेनाधिको जायते इति प्रागेवोक्तमसत्कल्पनया भावितं च, सूक्ष्मापयोप्तस्य जघन्यस्थितिवन्धे यानि संक्लेशस्थानानि तेभ्यस्तस्यैवोत्कृष्टस्थितिबन्धस्थाने तान्यसंख्येयगुणानि सन्तिः कुतः ? सूक्ष्मापर्याप्तस्य जघन्यस्थितिबन्धादुत्कृष्टस्थितिबन्धं यावद् गमनेनासंख्येयानां संक्लेशसत्कद्विगणवृद्धिस्थानानां लाभात् । यदि च सूक्ष्मापर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबन्धादूचं चरणेन प्राप्तेभ्यो बादरापर्याप्तस्थितिबन्धस्थानेभ्यः संख्येयभागप्रमाणेषु स्थितिवन्धस्थानेप्वतिक्रान्तेषु संक्लेशस्थानान्यसंख्येयगुणानि लभ्यन्ते, तदा तेभ्यः-सूक्ष्मापर्याप्तस्थितिबन्धस्थानेभ्यः संख्येयगणेषु चादरापर्याप्तस्यो+चारप्राप्तेसु स्थितिवन्धस्थानेष्वतिक्रान्तेषु तानि संक्लेशस्थानानि नियमेनासंख्येयगुणानि लभ्येरन् , इत्थमेव शेषजीवभेदेष्वपि भावनीयम् , यथोत्तरजीवभेदे स्थितेदीर्घत्वात् । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी -
“कहं असंखेज्जगुणाणि ? भएणइ-सुहुमअपज्जत्तस्स जहएणगे ठितिबन्धे जाणि संकिलेसट्ठाणाणि ततो वितियार ठितिए विसेसहियाणि, एवं जाब तस्सेवुक्कसियाए ठितीए ठितिबंधझवसाणट्ठाणाणि असंखेज
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मना
असत्कल्पनया भावना] प्रथमाधिकारे स्थितिबन्धस्थानद्वारम्
[ १७ गुणागि लन्भंति त्तिकाउं । ततो बादरस्स अपजत्तगस्स ठितिबन्धट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि, ठितिदीहताय सु संकिलेसट्ठाणा असंखेज्जगुणा लभंति एवं णेयव्यं ।" इति ।
अत्र तन्त्रातरे कैश्चित्कृता भावना इत्थं बोद्धव्या-यजघन्यस्थितिबन्धादारभ्य यावदायं द्विगणवृद्धिस्थानं तावत् प्रतिसमयं संक्लेशस्थानानि विशेषाधिकानि भवन्तीत्युक्तम् , तत्र संक्लेशस्थानानां विशेपवृद्ध यंशः सर्वत्र समानो बोद्धव्यः, तत अाद्यद्विगुणवृद्धिस्थानानन्तरस्थानात पुनर्दितीयद्विगुणवृद्धिग्थानं तावद् विशेषवृद्धयंशः सर्वत्र समान एव बोद्धव्यः, नवरं पूर्वापेक्षया द्विगुणः, ततोऽपि द्वितीयद्विगणवृद्धि स्थानानन्तरस्थानादारभ्य यावत्ततीयं द्विगुणवृद्धिस्थानं तावत्प्रतिस्थितिबन्धस्थानं वृद्धयशोऽनन्तरगतवृद्धयशापेक्षया द्विगुणो भवति, प्रथमगृहीतविशेषवृद्धयंशापेक्षया तु चतुर्गुणो भवति, एवं यावदन्त्यं द्विगवृद्धिस्थानं ताव संक्लेशस्थानानां विशेषवृध्यशो द्विगणवृद्धिस्थानाऽनन्तरस्थानान्प्रारभ्य दिगणो द्विगणो बोद्धव्यः, अन्यथा द्विगणवृद्धिस्थानान्तरालवर्तिपल्योपमासंख्येयभागनैयत्य मङ्गः स्यात् । न च भातु नैयत्यभङ्गः, को दोष इति वाच्यम् । तथा च सति कुतश्चिदपि स्थितिबन्धस्थानात्प्रतिनियतपल्योपमासंख्येयभागातिक्रमणेन संक्लेशस्थानानि द्विगुणानि नैव लभ्येरनिति । अत्रासकल्पनया जघन्यस्थितिवन्धरूपप्रथमस्थितिस्थानस्य बन्धे कारणीभृताः संक्लेशात्मका अध्यवसाया ये समयाधिकस्थितिबन्धप्रायोग्याध्यवसायेभ्यः स्तोका उक्तास्तेऽष्टादश गृह्यन्ते, समयाधिकजयन्यस्थितिवन्धरूपे द्वितीयस्थितिबन्धस्थाने पूर्वापेक्षया तद्वन्धहेतुभृताध्यवसाया विशेषाधिकाः सन्ति, अत्रामत्कल्पनायामसावधिकांशो द्विरूपो गृह्यते, तथा च सत्यस्मिन् द्वितीयस्थितिवन्धस्थाने तद्वन्धहेतुभूताध्यवसाया विंशतिः संजाताः, द्विसमयाधिकजघन्यस्थितिबन्धरूपे तृतीयस्थितिबन्धस्थानेऽध्यवसाया विशेषाधिका इति द्विरूपेणाधिकाः सन्तो द्वाविंशतिर्भवन्ति, एवं यथोत्तरं द्विरूपेण विशेषेणाधिका अधिका भवन्तोऽध्यवसायाः पल्योपमासंख्येयभागेऽतिक्रान्ते प्रथमस्थानापेक्षया द्विगुणा भवन्ति, अत्रासत्कल्पनायामसौ पल्योपमासंख्येयभागो नवसमयप्रमाणः परिकल्प्यते, तथा च मति जघन्यस्थितिवन्धरूपप्रथमस्थितिबन्धस्थानादारभ्य नवस्थितिवन्धस्थानेषु गतेषु सन्सु दशमे स्थितिवन्धस्थाने तद्वन्धहेतुभूताध्यवसायाः प्रथमस्थितिबन्धस्थानापे नया हिंगणा इति षट्त्रिंशत् सम्पद्येरन् , तथाहि-चतुर्थे स्थितिबन्धस्थाने तद्वन्धहेतुभृताध्यवसायास्तृतीयस्थितिबन्धस्थानापेक्षया विशेषाधिका इति पूर्वापेक्षया द्विरूपेणाधिकाश्चतुर्विंशतिः सन्ति, तेनैव प्रकारेण पञ्चमे स्थितिबन्धस्थाने षड्विंशतिरध्यवसाया लभ्यन्ते, षष्टे स्थितिबन्धस्थाने तु तेऽष्टाविंशतिः, सप्तमे तु त्रिंशत् , अष्टमे पुनात्रिंशदध्यवसायाः, नवमे चतुस्त्रिंशत् , दश्मे स्थितिबन्धस्थाने तु तद्वन्धहेतुभृताध्यवसायाः पत्रिंशदभवन् , अत्र हि नवसमयात्मकः कल्पितपल्योपमासंख्येयभागोऽतिलचितः, अत्र चाध्यवसायाः प्रथमस्थानापेक्षया द्विगुणा अभवन् । इत प्रारभ्यानन्तरपल्योपमासंख्यभागतया परिकल्पितेषु नवस्थानेषु विशेषवृद्धौ गृह्यमाणांशः प्रथमनवस्थानानि यावद् गृहीतांशापेक्षया द्विगुणो ग्राह्यः, स च चतूरूपो भवति, अतश्चतूरूपस्य विशेष त्य
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१८]
बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [अध्यवसायस्थानाल्पबहु० वर्धने सत्येकादशे स्थितिबन्धस्थाने तद्वन्धहेतुभूताध्यवसायाश्चत्वारिंशदभवन , द्वादशे स्थितिबन्धस्थाने तु ते चतुश्चत्वारिंशद् भवन्ति, इत्यमेव नवसमयात्मके द्वितीये पल्योपमासंख्येयभागेऽतिक्रान्ते एकोनविंशतितमे च स्थाने प्राप्ते तत्र तद्बन्धहेतुभूताध्यवसाया द्वासप्ततिलभ्यन्ते, इदं हि द्विगणवृद्धेवितीयं स्थानम्, अत्र द्वौ पल्योपमाऽसंख्येयभागावतिक्रान्ती, अत्र पूर्ववतिर्डिंगणवृद्धिस्थानापेक्षया द्विगुणा अध्यवसायाः, जघन्यस्थितिवन्धस्थानापेक्षया तु चतुगुणाः, यतः प्रथमे स्थितिवन्धस्थानेऽष्टादशाध्यवसाया आसन् , अत्र तु द्विसप्ततिः, ते च पूर्वापेक्षया चतुगुणाः सन्ति, इतस्तु तृतीयपल्योपमासंख्यांश प्रारब्धः, तस्माद् यथोत्तरं नवस्थानेषु विशेषवृद्धिरनन्तरगतविशेषवृद्धयपेक्षया द्विगणा भवति, तथा च सति विंशतितमे स्थितिवन्धस्थाने तबन्धहेतुभृताऽध्यवमाया अशीतिरभवन् , एवमेव यथोत्तरं द्रष्टव्यम् । अनेन प्रकारेण संख्यावृद्धि प्राप्नुवन्तोऽध्यवसायाः कुतश्चिदपि स्थानात् पल्योपमासंख्येयभागेऽतिकान्ते द्विगुणा लभ्यन्त इत्येतदप्यत्रामत्कल्पनायां दृश्यते, तद्यथासमयाधिकजघन्यस्थितिबन्धात्मके द्वितीयस्थितिबन्धस्थाने तद्वन्धहेतुभृताध्यवसाया विंशतिः सन्ति, ततो नवम्धितिबन्धस्थानेष्वतिक्रान्तेष्वेकादशे स्थितिबन्धस्थाने तद्वन्धहेतुभृताध्यवसायाश्चत्वारिंशान्ति, तृतीयस्थितिबन्धस्थानात्प्रारभ्य नवस्थितिवन्धस्थानेष्वतिक्रान्तेष्वध्यवसायास्तृतीयस्थितिवन्धस्थानायेलया द्विगुणा लभ्यन्ते, यतस्तृतीय स्थाने द्वाविंशतिरध्यवसायाः, द्वादशे तु चतुश्चत्वारिंशत् , द्वादशस्थानात् पुनरपि नवम्थानात्मके पल्योपमासंख्यांशेऽतिक्रान्ते एकविंशतितमे स्थाने त्वध्यनसाया दिगणा इति अष्टाशीतिलभ्यन्ते, ते तु तृतीयस्थानापेक्षया चतुर्गणाः, अनेनैव प्रकारेणानुक्तस्थानेष्वपिद्रष्टव्यं यावदुत्कृष्टस्थितिबन्धः । अत्र चतुःपञ्चाशस्थितिबन्धस्थानान्याश्रित्य स्थापना-*
इदन्तु बोध्यम्-यदत्र प्रतिस्थितिबन्धस्थानं तद्वन्धहेतुभूताध्यवसाया असंख्यलोकप्रमाणा उक्तास्ते नै जीवमाश्रित्य न वा एकं समयमाश्रित्य किन्तु नानाजीवान् सर्वकालं चाश्रित्य बोद्धव्याः । तथाहि—एका स्थितिः कैश्चिज्जीवैस्तत्प्रायोग्यविवक्षितेनैकैनाध्यवसायेन बध्यते, सैव स्थितिरन्यैः कैश्चिज्जीवनरेव पूर्वोक्तजीवैर्वा कालान्तरेऽध्यवसायान्तरेण निवत्यते, एवं सैव स्थितिरपरैर्जीवेमिन्नाध्यवसायविशेषेण जन्यते, इत्येवं जीवानां कालस्य चानन्त्यान् प्रतिस्थितिबन्धस्थाने तद्वन्धहेतुभूताध्यवसाया असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमिता अवाप्यन्ते । न च जीवानां कालस्य चानन्त्याद् भिन्नभिन्नाध्यवसायैरेकस्य विवक्षितस्थितिबन्धस्य सम्भवाच्चैकस्थितिबन्धे तद्बन्धहेतुभूताध्यवसाया अनन्ता अपि लभ्येरनिति वाच्यम् । यत एका स्थितिः स्वभावतोऽसंख्यलोकाकाशप्रदेशप्रमितैर्नियताध्यबसायरेव बध्यते, जीवानामानन्त्येऽपि समानाध्यवसायेन स्थितिं बध्नतां जीवानामध्यवसायो जात्यपेक्षयेक एवं गण्यते, इत्थमेव कालान्तरेण प्राप्तसदृशाध्यवसायविषयेऽपि बोद्धव्यम् । ततश्च जीवानां कालस्य चानन्त्येऽपि नास्त्यनन्तानामध्यवसायानामेकस्थितिबन्धहेतुत्वावकाशः, किंच
*अत्रालेख्या स्थापना पर्याप्ताब काशाभावाद् विंशतितमे पृष्ठे बालेखिता, सा त्वत्र द्रष्टव्या ।
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अध्यवसायस्थानाल्पबहु०] प्रथमाधिकारे स्थितिबन्धस्थानद्वारम्
[१६ सर्वेऽपि स्थितिबन्धाध्यवसाया असंख्यलोकाकाशप्रदेशराशितुल्या एव, तत्कुत एकस्थितिबन्धे तबन्धहेतुभूता अध्यवसाया अनन्ता लभ्येरन् ? न कुतश्चिदपीत्यलं विस्तरेणेति ।।५।६॥
चतुर्दशजीवस्थानेषु स्थितिबन्धस्थानाऽध्यवसायस्थानाल्पबहुत्वादीनां यन्त्रम्
क्रमः । चतुर्दशजीवस्थानानि
स्थितिबन्धस्थानानाम् अल्पबहुत्वम्
प्रमाणम्
अध्यवसायस्थानाना___ मल्पबहुत्वम्
स्तोक०
पल्योपमस्य असं० भाग०
असंख्येयगुण०
संख्येयगुण
अपर्या० सू० एकेन्द्रिय अप० बादरैकेन्द्रियः पर्याः सूक्ष्मैकेन्द्रिय०
पर्या० बादरैकेन्द्रिय० | अप० द्वीन्द्रियः
असंख्यगुण
संख्येयभाग०
पर्याः द्वीन्द्रिय०
संख्येयगुण
अप० त्रीन्द्रिय० पर्याः त्रीन्द्रिय०
अप० चतुरिन्द्रिय० १० पर्याः चतुरिन्द्रिय ११ अप० असंज्ञिपञ्चे
पर्याप्त० असंज्ञिपञ्चे
१३ अपर्याप्त-संज्ञिपञ्चे
अन्तःकोटाकोटी
सागरोपम० देशोन ३० कोटाकोटिसागरोपमादि०
१४ पर्याप्त-संज्ञिपञ्चे०
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२० ]
बंधविहाणे मुलपयडिठिइयो [जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धाल्यबहु० (अष्टादशे पृष्ठे प्रदर्शनीया पञ्चाशत्स्थितिबन्धस्थानान्याश्रित्याध्यवसायस्थानानामसत्कल्पनया स्थापना)
जघन्यस्थितिबन्धादारभ्य नवस्थानात्मका यथोत्तरपल्पल्योपमाऽसंख्येयभागाः
।
। द्वितीयः। तृतीयः
चतुर्थः
पञ्चमः
पप:
१०
२
प्रायः जघन्यस्थितिबन्धाऽऽत्मकं प्रथमं | स्थानम --------------→
समयोत्तरं द्वितीय स्थानम→
१४४
१६
६४०
3
। ४८
द्विसमयोत्तरं तृतीयं स्थानम्-> एवम् उत्तरत्रापि,
४०
४
.
१६.२
।
३८४
२3
५०
२४
। ४२
अपादश-विंशत्या याः प्रथमादिस्थितिबन्धस्थानहेतुभूताध्यवसायसंख्याः ।
२५
४३५२
१२०
२४० 13५
४४
Y3
प्रतिपल्योगमासंख्येयभागं यावद् जायमानविशेषस्य वृद्धिः -----
द्वाभ्यां चतुर्भिः अभिः पोडपभिः द्वात्रिंशद्भिः चतुःषषिभिः तदेवं दर्शितं चतुर्दशजीवभेदेषु संक्लेशविशुद्धिस्थानानामप्यल्पबहुत्वम् । सम्प्रति चतुर्दशजीव. भेदेष्वेव सविशेषभेदप्रमेदानधिकृत्य जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धाल्पबहुत्वं गाथा पञ्चकेनाह
सबऽप्यो ठिइबंधो जइणो डहगे तो असंखगुणो । वायरपज्जस्स तो समत्तसुहुमस्स अमहियो ॥७॥ एग्राउ विसेसऽहियो कमा अपज्जत्तवायरियराणं । सुहमियराज्जाणं परमो पज्जसुहमियराणं ॥८॥ पज्जत्तस्स कणिट्ठो तो अपज्जस्सऽणू तो परमो । तो पज्जत्तरस परो कमसो बेइंदियस्स भवे ॥६॥
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जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धाल्पबहु०] प्रथमाधिकारे स्थितिबन्धस्थानद्वारम
[२१ तेइंदियचउइंदियश्रमणाण कमा तहेव णायव्यो । णवरि लहू संखगुणो समत्तविदिय-असरणीणं ॥१०॥ संखगुणोऽतो जइणो परमो देसस्स हस्सियरो ।
पज्जाईणुत्तकमसो चउरो सम्मत्तिमिच्छाणं ॥११॥उपगीतिः
(प्रे०) "सम्वऽप्पो' इत्यादि, साल्पः-अनन्तरवक्ष्यमाणशेषसर्वस्थानेभ्यः स्तोक इत्यर्थः । क इत्याह-"ठिइबंधो जइणो डहरो' ति यतेः 'डहरो'-जघन्यः स्थितिबन्धः । यतोऽयं सूक्ष्मसम्परायक्षपकस्य जायते, तस्य सूक्ष्मसम्परायक्षपकस्य लोभसूक्ष्मकिट्टीवेदकस्य कषायोदयवशेषसवेजीवापेक्षया विशुद्धराधिक्याज्जघन्योऽन्तमुहर्तादिमात्रः स्थितिबन्धो भवति । इत उपरिटाद् यद्यपि सातवेदनीयस्य सामयिको बन्धो भवति, तथापि तस्य समवादधिकावस्थानाभावास्थितिवन्ध गणनैव न क्रियते । वस्तुतः कापायिकः स्थितिबन्ध एव प्रकृतेऽधिकृतः, स तूपशान्तमोहादिगुणस्थानेषु नैव भवति, उपशान्तमोहादिषु सूक्ष्मस्थाऽपि कषायोदयस्याभावात् । “तो” त्ति ततः-यतिनो जघन्यस्थितिबन्धात् ' असंखगुणो बायरपज्जस्स" ति बादरपर्याप्तकेन्द्रियस्य जघन्यस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुण इत्यर्थः, डहरोशब्दस्यात्रापि योजनात् । कुतोऽसंख्येयगुणः ? उच्यते, बादरपर्याप्तजघन्यस्थितिबन्धस्यापि देशोनसागरोपमत्रिसप्तमागादिप्रमाणत्वात्, एतच्चाने स्थितिबन्धप्रमाणद्वारे ग्रन्थकारः स्वयमेव दर्शयिष्यति । “तो” ति ततो-चादरपर्याप्तजघन्यस्थितिबन्धापेक्षया “समत्तसुहुमस्स अब्भहियो' ति समाप्तस्य-स्वप्रायोग्यपर्याप्तीरपेक्ष्य पर्याप्तस्य, अर्थात् करणपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्य विशेषाधिकः, जघन्यस्थितिबन्ध इति पूर्वपद्रष्टव्यम्, प्रथमोपात्तस्य 'डहरो' इति शब्दस्याधस्तनस्थानेष्वपि योजनात् । “एग्राउ' त्ति एतस्मात्-पयाप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियजघन्यस्थितिबन्धात् "विसेसऽहियो कमा" इत्यादि, विशेषाधिकः क्रमात् — अपज्जत्तबारिय राण' ति अपर्याप्तबादरैकेन्द्रियस्येतरपदेन चापर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्य, जघन्यस्थितिबन्ध इति तु पूर्ववदिति । 'सुहमियरापज्जाणं परमो' त्ति, सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य परमः-उत्कृष्टस्थितिबन्धः, इतरपदेन बादरैकेन्द्रियापर्याप्तस्योत्कृष्टस्थितिबन्धश्वेत्यर्थः । "पज्जसुहमियराण" मिति, परमशब्दस्य देहलीदीपकन्यायेनाऽत्रापि योजनात्,पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियस्योस्कृष्टस्थितिबन्धः,इतरस्य पर्याप्तवादरैकेन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धश्च । अन्यानपि क्रमगतान् द्वीन्द्रियादीनां जघन्यादिस्थितिवन्धानाह-'पज्जत्तस्स कणिट्ठो' इत्यादिना, अत्र "पज्जत्तस्से" त्यादिषष्टयन्तानां गाथायाः पर्यन्ते "बेइंदियस्स भवे" इत्यनेनान्वयः, तथा च सति 'पज्जत्तस्स कणिट्रो तरो" त्ति ततः पर्याप्तबादरैकेन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धात् पर्याप्तस्य द्वीन्द्रियस्य कनिष्ठः-जघन्यस्थितिबन्धः । "अपज्जस्सणु' त्ति ततोऽपर्याप्तस्य द्वीन्द्रियस्याणुः-जघन्यस्थितिबन्धः, “तप्रो परमो” त्ति ततस्तस्यैवापर्याप्तडीन्द्रियस्य परमः-उत्कृष्टः स्थितिबन्धः । “तो पज्जत्तस्स परो' त्ति ततः पर्याप्तस्य द्वीन्द्रियस्य परः-उत्कृष्टः स्थितिवन्धः "कमसो बेइंदिवस भवे" इति योजितम् । “तेइंदिये"त्यादि.
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बंधा मूलपडिटिइबंधो [ जघन्योत्कृष्ट स्थितिबन्धाल्पबहु०
पर्याप्त हीन्द्रियस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धानन्तरं त्रीन्द्रियस्य चतुरिन्द्रियस्य तथा "अमण" ति श्रमनासंज्ञी असंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्येत्यर्थः "कमा" ति अमीषां त्रयाणां क्रमात् ' तहेव णायव्वों" त्ति तथैवयथा द्वीन्द्रियस्य प्रथमतः पर्याप्तस्य जघन्यस्ततोऽपर्याप्तस्य जघन्यस्ततोऽपर्याप्तस्योत्कृष्टस्ततः पर्याप्तस्योत्कृष्टः स्थितिबन्ध इत्येतेन क्रमेणोक्तस्तेनैव क्रमेण ज्ञातव्य:, श्रयम्भावः - पर्याप्तद्वीन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धात् त्रीन्द्रियस्य पर्याप्तस्य जघन्यस्थितिबन्धः, ततस्तस्यैव त्रीन्द्रियस्यापर्याप्तस्य जघन्यः स्थितिबन्धः, ततस्तस्यैवापर्याप्तस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धः, ततस्तस्यैव त्रीन्द्रियस्य पर्याप्तस्योत्कुष्टस्थितिबन्धः, ततः पुनश्चतुरिन्द्रियस्य पर्याप्तस्य जघन्यः, ततस्तस्यैव चतुरिन्द्रियस्यापर्याप्तस्य जघन्यः, ततस्तस्यैवापर्याप्तस्योत्कृष्टः, ततस्तस्यैव चतुरिन्द्रियस्य पर्याप्तस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धः, ततः पुनरनेनैव क्रमेणासंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य जघन्यः, ततोऽपर्याप्तस्य जघन्यः, ततोऽपर्याप्तस्योत्कृष्टः, ततः पर्याप्तस्यो - त्कृष्ट ; एते एकेन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिया- ऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामुक्तक्रमेण दर्शिता जघन्यादिस्थितिबन्धाः वच्यमाणापवादं विवज्य यथोत्तरं विशेषाधिका द्रष्टव्याः । कुत एवं गम्यते ? “एउ विसेसऽहियो” इति प्रागुक्तस्य "विशेषाधिक" इति पदस्यासंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धं यावदनुकर्षणात् । एवं सामान्यतः सर्वत्र यथोत्तरं विशेषाधिकेऽभिहिते याऽतिप्रसक्तिस्तां निराकतु - मपवदति - "णवरि लहू" इत्यादि, नवरं लघुः - जघन्यः स्थितिबन्धः संख्यगुणः । कस्य कस्येत्याह—“समर्त्ताबंदियप्रसण्णीण" त्ति अत्र "समत्त" इति शब्दस्य प्रत्येकं योजनात् पर्याप्तस्य द्वीन्द्रियस्य, पर्याप्तस्यासंज्ञिनश्चेत्यर्थः । वक्तव्य इति शेषः । इदमुक्तं भवति – पर्याप्तचादरै केन्द्रियस्योकृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिक इति कथनानन्तरं पर्याप्तद्वीन्द्रियस्य जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिको न वक्तव्यः, किन्तु संख्येयगुणो वक्तव्यः, तथैव चतुरिन्द्रियस्य पर्याप्तस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धो विशेषाधिक इत्यभिधानानन्तरमसंज्ञिनः पर्याप्तस्य जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिको न वक्तव्यः, किन्तु संख्येयगुणो वक्तव्यः, तदन्येषु स्थानेषु पुनर्विशेषाधिक एव वक्तव्य इति । पर्याप्त संज्ञिन उत्कृष्टस्थितिबन्धादूर्ध्वमप्याह - "संखगुणोऽतो जइणो" इत्यादि, अत्र लुप्ताकारस्य योजनात् 'संखगुणो तो " ति इत श्रारभ्यानन्तरवच्यमाणस्थानेषु यथोत्तरं जवन्य उत्कृष्टो वा स्थितिबन्धः सर्वत्र संख्यगुणः, द्रष्टव्य इति शेषः, तमेवाह - " जइणो परमो" इत्यादिना, तत्र "जइणो परमो" त्ति यतेः संयतस्य परमः - उत्कृष्टस्थितिबन्धः, जघन्यस्थितिबन्धस्तु तस्य प्रागेव सर्वाल्पस्थितिबन्धतयोक्तः, अयं तूत्कृष्टः । "देसस्स हस्सियरो” ति ततो देशविरतस्य ह्रस्वः स्थितिबन्धस्ततस्तु तस्यैवेतरः- उत्कृष्टः स्थितिबन्धः, “पज्जाईणुत्तकमसो" त्ति ततः पुनः पर्याप्तादीनामुक्तक्रमात्, यो द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तादिसत्कजघन्यादिस्थितिबन्धेषु क्रम उक्तस्तेन क्रमेणेत्यर्थः । तेन क्रमेण किमित्याह - "चउरी" ति चत्वारः स्थितिबन्धाः, केषां पुनः पर्याप्तादिसत्काश्चत्वारः स्थितिबन्धा इत्याह – “सम्मत्तिमिच्छाणं" ति आदावविरतसम्यग्दृशः पर्याप्तादिसत्काश्चत्वारः स्थितिबन्धास्ततो संज्ञिपञ्चेन्द्रियमिध्यादृशः पर्याप्तादिसत्काश्चत्वारः स्थितिबन्धाः प्रागुक्तद्वीन्द्रियसत्कचतुर्विधस्थितिबन्धानां क्रमेण वक्तव्या इत्यर्थः । तद्वक्तव्यता त्वेवं
तस्य,
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अल्पबहुत्वघटना] प्रथमाधिकारे स्थितिबन्धस्थानद्वारम्
[२३ भवति–देशविरतस्योत्कृष्टस्थितिबन्धात् पर्याप्तस्याविरतसम्यग्दृष्टेजघन्यस्थितिबन्धः, ततोऽपर्याप्तस्याविरतसम्यग्दृष्टेर्जघन्यस्थितिबन्धः, ततस्तस्यैवापर्याप्तस्याविरतसम्यग्दृष्टेरुत्कृष्टस्थितिबन्धः, ततस्तु पर्याप्तस्याविरतसम्यग्दृष्टेकत्कृष्ट स्थितिबन्धः, ततः पुनः पर्याप्तस्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियमिथ्यादृष्टेजवन्यस्थितिबन्धः, ततोऽपर्याप्तस्य संक्षिपञ्चेन्द्रियमिथ्यादृष्टेजघन्यस्थितिवन्धः, ततोऽपर्याप्तस्य मंज्ञिपञ्चेन्द्रियमिथ्यादृष्टेरुत्कृष्टस्थितिबन्धः, ततः पर्याप्तस्य संक्षिपञ्चेन्द्रियमिथ्यादृष्टेरुत्कृष्टग्थितिबन्धः, इत्यनेन क्रमेण यथोत्तरं संख्येयगुणा भवन्ति "संखगुणोऽतो” इति वचनात् । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूणा
__ "सव्वत्थोवो संजयस्स जहरणगो ठितीबंधो । एगिदियबादरपज्जत्तगास जहरण उ ठितिबंधो असंखेजगुणो । सुहमस्स पज्जत्तगम्स जहएणगो ठितिबंधो विसेसाहितो । अपज्जत्तास्स बायरम्स जहएणगो विसेमाहिओ । मुहमस्स अपज्जत्तगस्स जहएगागो विसेसाहिशो। तस्सेबुक्कस्सगो टिनिबंधो बिसेसाहिो । बादरम्स अपज्जतगास उकोसो बिसेसाहियो। सुहुसस्स पज्जत्तगस्स उकोसो बिसेसाहियो । बाइरस्स पज्ज़त्तगस्स उक्कोसो विसेसाहित्रो । ततो बेइंदियस्स पज्जत्तगस्स जहएणो संखगुग्गो । तस्सेव अपज्जन्तगस्स जहरण प्रो विसेसाहियो। तस्सेबुकस्सगो मिसेसाहिो। बेइंडियन्स पज्जत्तगम्स उकोसो विसेसाहिो। तो तेइंदियस्स पज्जत्तगस्स जहरणो बिसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तगस्स जहरणो विलेसाहितो। तस्सेबुक्कोसो विसेसाहियो । तेइंदियम्स पज्जत्तगस्स उक्कोसो गिसेसाहिो। चउरिदियपज्जत्तम्स जहएणो विसेसाहिओ। तस्सेब अपज्जत्तगम्स जहएणो विमेसाहियो। तस्लेव उकोसो घिसेसादियो। तस्सेब पज्जनगस्स उकोसो विसेसाहिओ। असरिणपंचिंदियम्स पज्जत्तगस्स जहर गश्रो संखेज्जगुणो। तस्सेव अपज्जत्तगास जहणगो विसेसाहिओ । तस्सेबुक्कम्सगो पिसेसाहिओ। असशिणपंचिदियम्स पज्जत्तगस्स उक्कोसो टितिबंधो बिसेसाहियो। ततो संजतस्स उक्कोसगो टितिबंधो संखेज्जगुणो। “मिरते देसजइदुगे सम्मच उक्के य संखगुणो' त्ति ततो देशविरतस्य जहएणो ठितिबंधो संखेज्जगुणो । तम्सेब उक्कासगो टितिबंधो संवेज्जगुणो । सम्मचउक्के यत्ति असंजयसम्मदिलीपज्जत्तापज्जत्तगाणं जहण्णुकोसगति भणितं होति । देसधिरयस्स उकोसा ठितिनंबातो असंजनसम्मदिट्ठीयम्स पज्जतगम्स जहएणो टितिबंधो संखेज्जगणो । तस्सेव अपज्जत्तगम्स जहरणको टितिबंधो संखेज्जगुणो। तस्सेबुक्कस्सो ट्टितिबंधो संखेज्जगणो। असंजतस्स सम्मदिट्टिस पज्जत्तगरस उकस्सगो ठितिबंधो संखेज्जगणो । असंजयसम्मदिटिम्स पज्जतगम्म उक्कस्सगातो टितिबंधातो सरिणपंचेंदियपज्जत्तगस्स जहएणो ठितिबंधो संखेज्जगणो। तस्सेव अपजत्तगम्स जहएणश्रो ठितिबंधो संखेज्जगुणो । तस्से बुक्कसगो ठितिबंधो संखेज्जगुणो" इत्यादि।
___अत्र संयतस्य जवन्यस्थितिवन्धः रुपक श्रेणिसत्क इति कृत्वा सर्वाल्प इति तु प्रागेवानिहितमा. ततश्च पर्याप्तबादरैकेन्द्रियस्य जघन्यस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुण इत्यत्रापि पर्याप्तवादरैकेन्द्रियभ्य स्थितिबन्धो जघन्यतोऽपि देशोनसागरोपमत्रिसप्तभागादिमानो जायते इति हेतुर्दर्शितः, तत आरभ्य क्रमेणोक्तेष्वेकेन्द्रियसत्केषु सप्तस्वपि स्थानेषु यथोत्तरं विशेषाधिकः स्थितिबन्ध उक्तः, यत एकेन्द्रियभेदेषु जघन्यस्थितिबन्धापेक्षयोत्कृष्टोऽपि स्थितिबन्धः पल्योपमासंख्येयभागेनैवाधिको जायते । नन भक्तूक्तनीत्या विशेषाधिकस्तथापि यथोक्तक्रमे कः प्रयोजकः ? उच्यते, उत्कृष्टादिस्थितिबन्धहेतुभृतायां
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धाल्पबहु० कपायोदयस्य तीव्रतायां मन्दतायां च पर्याप्तत्वाद्यवस्थाविशेषाः सहकारिणो भवन्ति, तथा च सति यादृश्यौ कषायोदयस्य तीव्रतामन्दते बादरस्य सम्भवतस्तादृश्यो तीव्रतामन्दते सूक्ष्मस्य न सम्भवतः । कुतः ? तथाविधतीत्रमन्दकषायोदपसहकारिणो विरहात् , एवं यादृश्यौ कषायोदयस्य तीव्रतामन्दते पर्याप्तस्य सम्पद्यते तादृश्यौ तीव्रतामन्दतेऽपर्याप्तम्य न सम्पर्धते. एवमेव यादृश्यौ तीव्रतामन्दते द्वीन्द्रियादीनां सम्भवतस्तादृश्यो नैकेन्द्रियस्य, इत्थमेवासंयादिष्वपि प्रतिपक्षभेदमादाय द्रष्टव्यम् । एतेन कारणेन पर्याप्तबादरायकेन्द्रियाणां जघन्यादिस्थितिबन्ध उत्त क्रमेणाधिकाधिकतरो लभ्यते, स चोत्तरतरस्थानेषु पल्योपमासंख्येयभागेनाभ्यधिकोऽभ्यधिक इति कृत्वा तथैवोक्त इति । एकेन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया द्वीन्द्रियस्योत्कृष्टः स्थितिवन्धः पञ्चविंशतिगुणो जायते । वक्ष्यते च
“मोहगुरुदिइभत्तो सत्तरह ओहजेठिइबंधो । सो जेठो सव्वेसु गिदियपंचकायभेगसु ।।४२।। स यो पणवीसाप पण्णासाए सयेण सहसेण ।
सत्तण्ह गुरू कमसो समत्थविगलेसु अमणम्मि ॥४३" ॥ इत्यादि ।। स च द्वीन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः पत्न्योपमस्य संख्येयभागेन न्यूनः सन् द्वीन्द्रियस्य जघन्यस्थितिबन्धो भवति, तस्य च बन्धकाः प्रागुक्तनीत्या पर्याप्तहीन्द्रियाः, न पुनरपर्याप्तद्वीन्द्रियाः, अपर्याप्तद्वीन्द्रियाणां तथाविधसामग्रयभावेन पर्याप्तद्वीन्द्रियाणामित्र रतोकस्थितिबन्धहेतुभूतविशुद्धरसम्भवात , अत एव पर्याप्तवादरैकेन्द्रियोत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया पर्याप्तद्वीन्द्रियस्य जघन्यस्थितिवन्धः संख्येयगुण उक्तः।
ननु मा भवत्वपर्याप्तद्वीन्द्रियाणां पर्याप्तहीन्द्रियापेक्षया स्तोकः स्थितिबन्धः, तथाविधसामग्रयभावात् , किन्त्वपर्यास्तकेन्द्रियापेक्षया त्वमीपामपर्याप्तद्वीन्द्रियाणां विशिष्टा सामग्री विद्यते, ततश्चतेषामेकेन्द्रियापेक्षया मन्दकपायोदयोऽपि सम्भवति, इत्थं चापर्याप्तद्वीन्द्रियाणामपर्याप्तैकेन्द्रियापेक्षया स्थितिबन्धः स्तोको भवेत् , ततोऽपि त्रीन्द्रियादीनां मन्द-मन्दतरकपायोदयप्रयोजकसामग्रीसद्भावात् स्तोकस्तोकतरस्थितिबन्धो लभ्येत, तत् कुत एकेन्द्रियापेक्षया द्वीन्द्रियाणां ततोऽपि त्रीन्द्रियाणामित्येवं वैपरीत्येनाल्पवहुत्वमुच्यते ? इति चेद, न, एकेन्द्रियादिषु जातिभेदेन स्वस्थाने पर्याप्तत्वादिसामग्रीप्रयुक्तं यथोक्तं जघन्योत्कृष्टस्थितिवन्धाल्पबहुत्वं प्राप्यते, न पुनः परस्थानापेक्षयाऽपि, यत एकेन्द्रियापेक्षया द्वीन्द्रियाणां, तदपेक्षया त्रीन्द्रियाणामेवं यथोत्तरमुक्तसामग्रीप्रयुक्तरय विशुद्धयाधिक्यस्य सम्भवेऽपि बालमध्यमादिपुरुषाहारवत् तथास्वभावाद् द्वीन्द्रियादीनां यथोत्तरं जघन्यतोऽपि महान् महत्तरः स्थितिबन्धो जायते । उक्तं च शतकवृत्ती
“विकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियेषु तु शुद्धिरधि काऽपि लक्ष्यते । केवलं तेऽपि स्वभाबादेव प्रस्तुतकर्मणां महतीस्थितिमुपरचयन्तीति ।"
ततः पुनींन्द्रियसत्केषु शेषत्रिस्थानेषु यथोत्तरं विशेषाधिक उक्तस्तत्रापि तादृशक्रमे पूर्ववत् पर्याप्तत्वस्य कापायिकतीव्रतामन्दताविषये उपष्टम्भकत्वेन पल्योपमसंख्येयभागेन स्थितिबन्धाधिक्यादिति
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अल्पबहुत्वघटना] प्रथमाधिकारे स्थितिबन्धस्थानद्वारम्
[ २५ हेतुर्बोद्धव्यः । इत्थमेव त्रीन्द्रियायसंक्षिपर्यन्तानां पर्याप्तादिसत्कजघन्यादिस्थितिबन्धानां निरुक्तकमेण विशेषाधिक्ये विभावनीयम् । नन्वेकेन्द्रियोत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया यथा द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुण उक्तस्तथा द्वीन्द्रियोत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया पयोप्ततीन्द्रियस्य जघन्यः स्थितिबन्धः, एवं त्रीन्द्रियोत्कृष्टस्थितिवन्धापेनया चतुरिन्द्रियापर्याप्तस्य जघन्यस्थितिबन्धश्च संख्येयगुणो कथं नोक्तः ? उच्यते, यथैकेन्द्रियाणां स्थितिबन्धापेक्षया द्वीन्द्रियाणां स्थितिबन्धः सामान्यतः पञ्चविंशतिगुणो भवति, तथा त्रीन्द्रियाणां पञ्चाशद्गुणो भवति, चतुरिन्द्रियाणां तु शतगुणः, तथा च सत्यसावेकेन्द्रियस्थितिबन्धापेक्षया पञ्चाशद्गुणोऽपि त्रीन्द्रियाणां स्थितिबन्धो द्वीन्द्रियस्थितिबन्धापेक्षया द्विगुण एव भवति, तत्रापि द्वीन्द्रियोत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया त्वसौ पर्याप्तत्रीन्द्रियाणां जघन्यस्थितिबन्धो द्विगुणोऽपि न भवति, तस्माद्विशेषाधिक उक्तः । इत्थमेवैकेन्द्रियस्थितिबन्धापेक्षया शतगुणोऽपि चतुरिन्द्रियाणां स्थितिबन्धस्त्रीन्द्रियस्थितिबन्धापेक्षया द्विगुण एव, तत्रापि त्रीन्द्रियोत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य जघन्यस्थितिवन्धस्तु द्विगुणादपि हीनः, अतोऽसौ विशेषाधिक उक्तः । यः पुनरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां स्थितिबन्धः स त्वेकेन्द्रियस्थितिबन्धापेक्षया सहस्रगुणः, तथा च सत्यसौ चतुरिन्द्रियस्य स्थितिबन्धापेक्षया दशगुणः, अतोऽसौ जघन्यतः पल्योपमसंख्येयभागेन न्यूनोऽपि सन् चतुरिन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया संख्येयगुण एव जायते, अत एव पर्याप्तस्यासंज्ञिनो जघन्यः स्थितिबन्धश्चतुरिन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया विशेषाधिको न उक्तः, किंतु संख्येयगुण उक्तः। शेषेषसंज्ञिसत्कत्रिस्थानेषु पूर्वोक्तहेतुना विशेषाधिक इति प्रागेवाभिहितम् । असंज्यपेक्षया संज्ञिनां श्रेणिगतबन्धवर्जशेषस्थितिबन्धः संख्येयगुण एव भवति, तत्रापि संयतस्योत्कृष्टस्थितिबन्धोऽसंज्ञिपर्याप्तस्योत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया संख्येयगुणोऽपि सन् शेषसंश्यपेक्षया संख्यातभागप्रमाण एव जायते, तस्मादसो प्रागुपात्तः । ननु शेषसंझ्यपेक्षया कस्मादसौ संयतस्याल्पो भवति ? उच्यते,संयतस्यानन्तानुबन्धिनामिवाप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरणकषायाणामप्यनुदयात् शेषदेशविरताद्यपेक्षया मन्दः संक्लेशः, तथा च सति स्थितिबन्धोऽप्यल्प इति । सर्वविरत्यभिमुखानामपि देशविरतानां प्रत्याख्यानावरणकषायाणामप्युदयात् मिथ्यात्वाभिमुखसर्वविरत्यपेक्षया विशुद्धिरल्पा, तथा च सति तेषां स्थितिबन्धः संयतोत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया संख्येयगुणो भवति, मिथ्यात्वाभिमुखानां देशविरतानां तु संक्लिष्टत्वात् स्वीयजघन्यस्थितिबन्धापेक्षयाऽपि संख्येयगुणः स्थितिबन्धो जायते, तस्मात् तेषु त्रियु स्थानेष्वपि यथोत्तरं संख्येयगुण उक्तः । ननु सर्वविरत्यभिमुखो विशुद्धयमानः, मिथ्यात्वाभिमुखस्तु संक्लिश्यमानः, यद्येवं तर्हि कथमनयोर्विशुद्धिसंक्लेशयोस्तारतम्यं हेतुतया चिन्त्यते. यतः स्वस्थानेष्वेव संक्लेशेन सह संक्लेशस्य, विशुद्धया समं विशुद्धेर्वा हीनाधिक्यचिन्तासम्भवः; न तु परस्परविरुद्धयोः संक्लेश-विशुद्धयोरिति । अत्र प्रतिविधीयते-अभिप्रायापरिज्ञानात् , यदस्माभिः प्रागुक्तमेव यानि संक्लेशस्थानानि तान्येव विशुद्धिस्थानानि इत्यादिः व्यपदेशभेदस्त्वनन्तरप्राप्यावस्थाविशेषमधिकृत्य, यतस्तान्यारोहत्परिणामस्य विशुद्धय इति व्यपदेशभाञ्जि, पतत्परिणामस्य तु
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२६ ]
[ अल्पबहुत्वघटना
संक्लेशा इति, सिद्धाचलाद्यारुह्यमानावरुह्यमानयोरेकस्मिन्नेव सोपानवर्तिनोर्व्यपदेशभेदवत् उक्तं च
,
कर्मप्रकृतिणी
" जाणि चैव संकिलेस माणस्स संकिलेसट्टारणाणि ताणि चैव विसुज्झमाणस्स विसोहिद्वाराणि । सोवाणारोहण रणदितेण गायत्र्वाणी" ति ।
अविरतसम्यग्दृशामप्रत्याख्यानावरणकपायाणामप्युदयो विद्यते, तथा च सति स्थितिबन्धो देशविरतापेक्षयाऽभ्यधिकः, शेषं तु पूर्ववत् । इत्थमेव संज्ञिपञ्चेन्द्रियमिध्यादृष्टिविषयक स्थितिबन्धेऽपि विभावनीयम्, मिथ्यादृशामनन्तानुबन्धिकपायाणामप्युदयात्, तत्रापि पर्याप्तापर्याप्तस्थितिबन्धविषयकयथोक्तक्रमे हेतुद्रीन्द्रियादिवद्रष्टव्य इति । प्रत्रेदं बोध्यम् - श्रसंज्ञिपर्यन्तेषु पदेषु यत्र यावान् स्थितिबन्धो भवति तावान् दर्शितः, संयतोत्कृष्ट स्थितिबन्धपदादारभ्यापर्याप्तसंशिपञ्चेन्द्रियमिथ्यादृष्ट्य त्कृष्टस्थितिबन्धपर्यन्तेषु दशपदेषु यथोत्तरं संख्येयगुणोऽपि स्थितिबन्धः सर्वत्रान्तःकोटीकोटी सागरोपममात्रः, अन्तिमपदे त्वसौ ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतीः समाश्रित्य त्रिंशत्कोटीकोटीसागरोपमादिवच्यमाणप्रमाणो बोद्धव्य इति ।
मूलपइबंधो
इदन्त्ववधारणीयम् - प्रकृतद्वारे ग्ररूपितानि त्रीण्यप्यल्पबहुत्वानि मूलकारेणाऽनिर्दिष्टेऽप्यायुर्वजानां सप्तानां प्रकृतीनां स्थितिबन्धस्थानादिविषयाणि बोद्धव्यानि । आयुषः स्थितिबन्धस्थानादिविषयकाल्पबहुत्वानि तु सुगमत्वात्स्वयमेवोद्यानि । तद्यथा-संज्ञयसंज्ञिपर्याप्तजीवभेद यवनां शेषाणामेकेन्द्रियादीनां प्रत्येकमायुषः स्थितिबन्धस्थानानि स्तोकानि परस्परं च तुल्यानि यतोऽमीपामेकेन्द्रियादीनां प्रत्येकमुत्कृष्टतोऽपि पूर्व कोटीव प्रमाणः पारभविकायुषः स्थितिबन्धो जायते । तेभ्यश्चासंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्यायुषः स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि, कुतः ? अस्योत्कृष्टतः पल्यो - पमासंख्येयभागप्रमाणायुर्वेन्धभावात् । श्रसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्याऽऽयुः सत्कस्थितिबन्धस्थानेभ्यः संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्यायुषः स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि, यतः संज्ञिपञ्चेन्द्रियैरुत्कृष्टमायुस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणं बध्यत इति ।
त्र्यायुषः स्थितिबन्धहेतुभूतानां संक्लेशविशुद्धिस्थानानामल्पबहुत्वमपीत्थमेव बोद्धव्यम् । यत आयुपः स्थितिवृद्धौ नियमेनासंख्येपगुणसंक्लेशविशुद्धिस्थानानां वृद्धिर्भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णौ
“उस जहगिगाए ठितिए टितिबन्धज्जव साट्टाराणि थोवाणि | बितियाए श्रसंखेज्जगुणाणि । ततियार असंखेज्जगुणाणि । एवं जात्र उक्कसिता ठितित्ति ॥ ८७ ॥ इति"
आयो जघन्योत्कृष्टस्थितिवन्धप्रमाणान्यवत्वं पुनरित्थम् — चतुर्दशविधानामपि जीवानां जघन्यस्थितिबन्धः सर्वस्तोकः परस्परं च तुल्यः । कुतः ? प्रत्येकं जीवभेदेषु क्षुल्लकभवप्रमाणजधन्यस्थितिबन्धभावात् । ततः सूक्ष्मवादरै केन्द्रिय द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाणां पर्याप्तानामपर्याप्तानां तथा संज्ञयसंज्ञिपञ्चेन्द्रिययोरपर्याप्तयोरित्येतेषामन्यतमस्याप्यायुष उत्कृष्ट स्थितिबन्धः संख्येयगुणः
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यन्त्रकम् ]
प्रथमाधिकारे स्थितिबन्धस्थानद्वारम्
[२७
सविशेषचतुर्दशजीवभेदेषु जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धाल्पबहुत्वयन्त्रम् क्रमः जीवभेदाः बन्धः अल्पबहु० | क्रमः जीवभेदाः बन्धः अल्पबहु० संयमिनः
जघ० स्तोकः | १६ अपर्याप्तस्य-चतुरिन्द्रियस्य जघ० विशेषाधिक. २ पर्याप्त-बादरैकेन्द्रियस्य । ,, असंख्येयगु० २० अपर्याप्तस्य-चतुरिन्द्रियस्य उत्कृ० ३ पर्याप्त-सूक्ष्मैकेन्द्रियस्य , विशेषाधिक. | २१ पर्याप्तस्य-चतुरिन्द्रियस्य ४ अपर्याप्त-बादरैकेन्द्रियस्य
२२ पर्याप्तस्य-असंज्ञिपञ्चेन्द्रि० | जघ० संख्येयगुण: ५ अपर्याप्त-सूक्ष्मैकेन्द्रियस्य
२३ अपर्याप्तस्य
विशेषाधिक. ६ अपर्याप्त-सूक्ष्मैकेन्द्रियस्य
२४ अपर्याप्तस्य , उत्कृ० ७ अपर्याप्त-बारैकेन्द्रियस्य
२५ पर्याप्तस्य = पर्याप्त-सूक्ष्मैकेन्द्रियस्य
२६ संयतस्य
संख्येयगुणः ६ पर्याप्त-बादरैकेन्द्रियस्य
२७ देशसंयतस्य १० पर्याप्त-द्वीन्द्रियस्य जघ० संख्येयगुणः २८ देशसंयतस्य ११ अपर्याप्त-द्वीन्द्रियस्य विशेषाधिक पर्याप्तस्याविरत
| जघ० अपर्याप्त-द्वीन्द्रियस्य
अपर्याप्त १३ पर्याप्त-द्वीन्द्रियस्य
उत्कृ० १४ पर्याप्त-त्रीन्द्रियस्य
३२ पर्याप्त १५ अपर्याप्त-त्रीन्द्रियस्य
३३ पर्याप्त-संज्ञिमिथ्यादृशः १६ अपर्याप्त-त्रीन्द्रियस्य
३४ अपर्याप्त १७ पर्याप्त-त्रीन्द्रियस्य
३५ अपर्याप्त १८ पर्याप्त-चतुरिन्द्रियस्य
३६ पर्याप्त
सम्यग्दृष्टे:
उत्कृ०
३१ अपर्याप्त
जघ०
जघर
उत्कृ०
उत्कृ०
जघ०
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२८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिटिइबंधो
[ निषेकप्ररूपणम्
परस्परं त्वमीषामसौ तुल्य एव । यतोऽमिभिः प्रत्येकमायुष उत्कृष्टा स्थितिः पूर्वकोटीप्रमाणा निर्वर्त्यते, सा च षट्पञ्चाशदभ्यधिकद्विशतावलिकाप्रमाणक्षुल्लकभत्रापेक्षया संख्येयगुणा भवति । ततः पुनरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः, पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणत्वात्तस्य । ततोऽपि संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्योत्कुष्टोऽसंख्येयगुणः, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणत्वादिति ||७|८| | १०|११|| तदेवमभिहितं जीवभेदेषु मूलप्रकृतिसत्कजघन्योत्कृष्ट स्थितिबन्धात्पबहुत्वमपि इत्थं च गतं " ठिठाणाणि" इत्यनेनोद्दिष्टं प्रथमं द्वारम् ।
अथ क्रमप्राप्ते द्वितीयद्वारे निषेकस्य प्ररूपणा कर्तव्या, तत्र निषेकपदार्थस्तु कर्मदलरचना - विशेष इति प्रागभिहितम्, तस्य च प्ररूपणाऽनन्तरोपनिधा - परम्परोपनिधाभेदेन द्विधा क्रियते, तत्रादावनन्तरोपनिधयाऽऽह—
चउदसविहजीवेसु अट्ठह भवे दलं सगमवाहं । मोत्तूण पढमसमये बहुं कमित्तो विसेसूणं ॥ १२ ॥
(प्रे०) "चउदसविहजीवेसु" मित्यादि, चतुर्दशविधेषु जीवेषु - जीवस्थानेषु ज्ञानावरणीयादीनामष्टानां मूलकर्मणां प्रत्येकं स्वकामबाधां मुक्त्वा प्रथमसमये यद्दलं - कर्म प्रदेशानं तद् बहु भवेत्, इतो द्वितीयादिसमयेषु क्रमाद्विशेषोनं, दलं भवेदिति पूर्वतो योज्यमिति संक्षेपः । विस्तरतस्तु - सूक्ष्मैकेन्द्रियबादरै केन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपञ्चेन्द्रिया इत्येते सप्ताऽपि प्रत्येकं पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदाद्विधेति कृत्वा चतुर्दशजीवस्थानानि, उक्तं च
"एगिंदियसुहुभियरा, सन्नियरपिंदिया य सवितिचउ ।
अपजत्ता पिज्जत्ता, कमेण चउदस जियारा ॥ १ ॥ इति ॥ एतेषु प्रत्येकं ज्ञानावरणीयादेर्घन्धप्रायोग्यामुत्कृष्टां स्थितिमपेच्य याऽऽबाधा दलिकनिषेकायोग्यकालरूपा प्राप्यते तां मुक्त्वा प्रथमसमये बाधाकालानन्तरवर्तिसमये यद्दलिकं निषिध्यते तद् द्वितीयादिसमयेषु प्रत्येकं निषिव्यमानद लिकापेक्षयाऽधिकं भवति इतः प्रथमसमयादूर्ध्वं द्वितीयादिसमयेषु प्रत्येकं यथोत्तरं विशेषहीनं विशेषहीनं दलिकं भवति, प्रथमसमयापेक्षया द्वितीयसमये विशेषहीनम् द्वितीयसमयापेक्षया तु तृतीयसमये विशेषहीनम्, ततोऽपि चतुर्थसमये विशेषहीनं दलिकम् एवं यथोत्तरसमयेषु वाच्यमिति । उक्तं च श्रीमन्मलयगिरिपूज्यैः कर्मप्रकृतिटीकायाम्"तत्र प्रथमायां स्थितौ समयलक्षणायां प्रभूततरं द्रव्यं कर्मदलिकं निषिञ्चति । एत्तो विसेसहीणं" ति- इतः प्रथमस्थितेरू द्वितीयादिषु समयसमय प्रमाणासु विशेषहीनं विशेषहीनं कर्मदलं निषिञ्चति । तथाहि - प्रथमस्थितेः सकाशात् द्वितीयस्थितौ विशेषहीनम्, ततोऽपि तृतीयस्थितौ विशेषहीनं ततोऽपि चतुर्थस्थितौ विशेषहीनमित्यादि । "
1
ननु चतुर्दशजीवभेदेषु प्रत्येकं ज्ञानावरणीयादीनां कियतीमबाधां विवज्ये कर्मदलं निषिञ्चति ? उच्यते, बाधानियमानुसारेण यावत्यबाधा लभ्यते तावतीमवाधां विवर्ज्य । वच्यते चाबाधानियमः -
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अनन्तरोर्पानिधा ]
प्रथमाधिकारे निषेकद्वारम्
“सागरकोडाकोडी बन्धो सत्तरह जत्तियाऽऽबाहा | ताइ च्च सयसमा तदूणि सत्तरह बाहा खलु ठिइबंधा अंतकोडिकोडीए ।
कम्मरणणिसेगो ||३४||
सगलहुठिइबंधं जा सव्वह हवए मुहुत्त्तो ||३५|| इति ।
तथा च सति पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियमिथ्यादृष्टिजीवभेदे सर्वकर्मणामोघोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य भावाद - बाधाऽप्युत्कृष्टा लभ्यते । तथाहि – ज्ञानावरण - दर्शनावरण - वेदनीयाऽन्तरायाणां चतुः कर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्त्रिशत्सागरोपमकोटी कोट्यो भवति, वच्यते च
“ठिइबंधो उक्कोसो पढमदुइतइमाण भवे ।
सागरको डाकोडी तीसा तुरिअस्य खलु सयरी ||३७|| उस गुरु यो ठिइबंधो सागराणि तेत्तीसा ।
वीसा कोडाकोडी जलहीणं रामगोचणं ॥ ३८ ॥ इति ।
[ २६
इत्थं च तथाविधनियमात् तेषां ज्ञानावरणीयादीनां चतुर्णां प्रत्येकं त्रीणि वर्षसहस्राण्यवाधा लभ्यते, अतस्त्रीणि वर्षसहस्राण्यवाधां विवर्ज्य यत्प्रथमसमये कर्मदलं निषिक्तं तत्प्रभूततरम्, यद् द्वितीयसमये कर्मदलं निषिक्तं तत् पूर्वापेक्षया विशेषहीनम् यत्तु तृतीयसमये कर्मदलं निषिक्तं तद् द्वितीयसमयनिषिक्त दलिका पेक्षया विशेषहीनम्, एवं विशेषहीनं विशेषहीनं तावद्वाच्यं यावत् ज्ञानावरणीयादीनां चतुर्णामुत्कृष्ट स्थितिबन्धस्त्रिशत्कोटीकोटीसागरोपमाणि । प्रस्तुते पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवभेदे मोहनीयस्य सप्ततिकोटिकोटीसागरोपमाण्युत्कृष्टः स्थितिबन्धो भवति, बाधानिय मलब्धां तस्य सप्तसहस्रवर्षाण्यबाधां मुक्त्वा यत्प्रथमसमये कर्मदलं निषिक्तं तद् बहुकं भवति, यद् द्वितीयसमये कर्मदलं निषिक्तं तत्ततो विशेषहीनम्, यत् तृतीयसमये कर्मदलं निषिक्तं तत्ततोऽपि विशेषहीनम्, एवं विशेषहीनं विशेषहीनं यावन्मोहनीयस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धः सप्ततिकोटी कोटी सागरोपमा णि । नामगोत्रयोस्तु प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धो विंशतिकोटीकोटीसागरोपमाणि जायते, उक्त नियमलब्धां तयोद्विंवर्षसहस्रप्रमाणावाथां मुक्त्वा यत् प्रथमसमये कर्मदलं निषिक्तं तद् बहुकम्, यद् द्वितीयसमये निषिक्तं तद् विशेषहीनम्, तृतीयसमये निषिक्तं विशेषहीनम् एवं विशेषहीनं विशेषहीनं यावत् नामगोत्रयोरुत्कृष्ट स्थितिबन्धो विंशतिकोटीकोटी सागरोपमाणि, इत्थमेवायुष उत्कृष्टशबाधा पूर्वकोटीत्रिभागप्रमाणा, तां विवर्ज्य यत्प्रथमसमये निषिक्तं दलं तद् बहुकम्, यद् द्वितीयसमये निषिक्तं दलं तद्विशेषहीनम्, यत्तृतीयसमये निषिक्तं दलं तद्विशेषहीनम् एवं विशेषहीनं विशेषहीनं यावदायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीति । उक्तं कर्म प्रकृतिचूण
1
"पंचेंद्रियाणं सगीरां मिच्छदिट्ठियां पज्जत्त गाणं गाणावरणीय दंसणावरणीय - वेयणीयअंतराइयाणं तिन्नि वाससहस्सारिण बाहं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं खिसित्तं तं बहुगं, बितीयसमए त्रिसेसहीणं, ततीयसमये विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाय उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडी उ त्ति । पंचेंद्रियाणं सरणीणं मिच्छदिट्ठीगं पज्जत्तगाणं मोहणिज्जस्स सत्तवाससहस्साणि बाहं मोत्तूर्णं जं
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३० ] बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो .
[निषेकप्ररूपणम् पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, बितियसमये विसेसहीणं, ततीयसमये विसेसहीणं एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाप उक्कोसेण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीउत्ति । पंचिंदियाणं सरणीणं मिच्छदिट्टिणं पजत्तगाणं
आउगस्स पूचकोडितिभागं अबाहं मोत्तण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, वितिए विसेसहीणं, ततिए बिसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमाणीत्ति । पंचिंदियाणं सरणीणं भिच्छादिट्टिणं पज्जत्तगाणं णामगोयाणं वे वाससहस्साणि अबाहं मोत्तूणं जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, वितियसमए विसेसहीणं, ततिए विसेसहीणं, एवं जाव उक्कोसेणं वीससागरोवमकोडाकोडीउत्ति ।"
__इत्थमेव शेषत्रयोदशजीवस्थानेष्वपि वक्तव्यम् , नवरं तत्तज्जीवस्थानेषु ज्ञानावरणादीनां या उत्कृष्टाबाधा भवेत् , तां मुक्त्वा प्रथमसमयाद्यथोत्तरं विशेषहीनं विशेषहीनं कर्मदलं यावत्तेषां ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टः स्थितिबन्धः । तथाहि-संज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तस्यायुर्वर्जसप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धोऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमाणि, तेषां सप्तानामप्यन्तर्मुहूर्तमबाधा । असंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धः सागरोपमसहस्रस्य त्रयः सप्तभागाः प्रतिपूर्णाः, मोहनीयकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धः सागरोपमसहस्रस्य सप्त सप्तभागाः प्रतिपूर्णाः, नामगोत्रकर्मणोरुत्कृष्टस्थितिबन्धः सागरोपमसहस्रस्य द्वौ सप्तभागौ प्रतिपूर्णी, एतेषां सप्तानामप्यन्तर्मुहूर्तमबाधा । असंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्यापर्याप्तस्यापि सप्तकर्मणामित्थमेव, नवरं ज्ञानावरणादेरुस्कृष्टस्थितिबन्धो यः सागरोपमसहस्रस्य त्रिसप्तभागादयः प्रतिपूर्णा इत्युक्तः सोऽत्र पल्योपमस्य संख्येयभागेनोनोऽवगन्तव्यः । चतुरिन्द्रियस्य पर्याप्तस्य ज्ञानावरण-दर्शनावरणवेदनीया-ऽन्तरायकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धः सागरोपमशतस्य त्रयः सप्तभागाः प्रतिपूर्णाः, मोहनीयकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धः सागरोपमशतस्य सप्त सप्तभागाः प्रतिपूर्णाः, नामगोत्रकर्मणोरुत्कृष्टस्थितिबन्धः सागरोपशतस्य द्वौ सप्तभागी प्रतिपूर्णी, अबाधा तु सप्तानामप्यन्तमुहूर्तम् । इत्थमेव चतुरिन्द्रियस्याऽपर्याप्तस्य, नवरं ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धो यः सागरोपमशतस्य त्रिसप्तभागादयः प्रतिपूर्णा इत्युक्तः, सोऽत्र पल्योपमसंख्येयभागेन न्यूनो वक्तव्यः । चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्येव त्रीन्द्रियपर्याप्तस्यापि, नवरं व्यादिसप्तभागाः पंचाशत्सागरोपमसत्का वक्तव्याः । त्रीन्द्रियपर्याप्तवत् त्रीन्द्रियस्याऽपर्याप्तस्यापि, नवरं ते पञ्चाशत्सागरोपमसत्कास्त्र्यादिसप्तभागा अत्र पल्योपमसंख्येयभागेनोना ज्ञानावरणादिसप्तानामुत्कृष्टस्थितिवन्ध इति विशेषः । द्वीन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवस्थानयोरपि चतुरिन्द्रियादिवत् ज्ञानावरणीयादिसप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धाऽबाधे, नवरं ज्ञानावरणीयादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणे ये व्यादिसप्तभागास्तथा पल्योषमसंख्येयभागेनोनास्यादिसप्तभागा उक्तास्तेऽत्र पञ्चविंशतिसागरोपमसत्का अभिधातव्याः । बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकमणामुत्कृष्टस्थितिबन्धः सागरोपमस्य त्रयः सप्तभागाः प्रतिपूर्णाः, मोहनीयस्य कर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धः सागरोपमस्य सप्त सप्तभागाः प्रतिपूर्णाः, सम्पूर्णमेकं सागरोपममिति भावः । नामगोत्रकर्मणोरुत्कृष्टस्थितिबन्धः सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागी
HHATAH
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श्रनन्तरोपनिधा ]
प्रथमाधिकारे निषेकद्वारम्
[ ३१
प्रतिपूर्णो, ज्ञानावणादिसप्तानामप्यन्तमुहूर्तमवाधा च । पर्याप्तवाद र केन्द्रियवद् बादरे केन्द्रियस्याऽपर्याप्तस्य सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तयोश्च जीवभेदयोः प्रत्येकं वक्तव्यम्, नवरं सागरोपमस्य त्र्यादिसप्तभागा न प्रतिपूर्णाः, किन्तु पल्योपमस्याऽसंख्येयतमभागेन न्यूना द्रष्टव्या इति । आयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धाबाधे त्वित्थम् - संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्याऽपर्याप्तस्याऽऽयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धः पूर्वकोटिवर्षाणि आयुष उत्कृष्टाबाधा त्वन्तमुहूर्तम् । इत्थमेवासंज्ञि पञ्चेन्द्रियापर्याप्तचतुरिन्द्रियापर्याप्तत्रीन्द्रियापर्याप्तद्वीन्द्रियापर्याप्तवाद र केन्द्रियापर्याप्तानां सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तयोश्च वक्तव्यम् | असंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्यायुष उत्कृष्ट स्थितिबन्धः पल्योपमस्याऽसंख्येयतमभागप्रमाणः, पूर्वकोटीत्रिभागस्त्वबाधा । चतुरिन्द्रियस्य पर्याप्तस्यायुष उत्कृष्ट स्थितिबन्धः पूर्वकोटीवर्षाणि वाधातु द्व मासौ | त्रीन्द्रियस्य पर्याप्तस्यायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धः पूर्वकोटीवर्षाणि, साधिकषोडषाहोरात्रमबाधा । द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तस्यायुप उत्कृष्ट स्थितिबन्धः पूर्वकोटीवर्षाणि चत्वारि वर्षाण्यबाधा । बादरे केन्द्रियस्य पर्याप्तस्यायुप उत्कृष्टस्थितिबन्धः पूर्वकोटीवर्षाणि सप्तवर्षसहस्राणि सातिरेकाण्यबाधेति । एतेषु सर्वजीवस्थाने पूक्ताबाधां मुक्त्वा यत्प्रथमसमये निषिक्तं कर्मदलं तद्बहुकम्, द्वितीयसमये निषिक्तं कर्मदलं तु प्रथमसमयनिषिक्तकर्मदलापेक्षया विशेषहीनम्, तृतीयसमये निषिक्तं कर्मदलं पुनर्द्वितीयसमयनिषिक्तदलापेक्षया विशेषहीनम्, एवं विशेपहीनं विशेषहीनं तावद्वाच्यं यावत् तत्तज्जीवस्थानेषु निरुक्तस्तत्तत्कर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धः । उक्तं च कर्मप्रकृति चूर्णा
“पंचिंदियाणं सरणीणं अपज्जत्तयाणं उज्जाण सत्तरहं कम्माणं अंतोमुहुत्तं प्रवाह मोत्तूणं जंपदमसमए पदेसग्गं निसिक्त तं बहुयं वितियसमये विसेसहीणं, ततीए विसेसहीणं, एवं बिसेसही विसेसहीणं जात्र उक्कोसे अंटोकोडा कोडिउत्ति । पंचंदियाणं सरणी * सरणीरगं चतुरिंद्रियतिइन्दियबिइन्द्रियवादरए गिन्दियअपज्जत्तगाणं सुहुमएगिंदियपज्जत अपज्जत्तगाणं च उस तोमुत्तं श्रबाह मोत्तूणं जं पढमसमए पदेसग्गं शिसितं तं बहुगं, त्रितियसमण विसेसहीणं, ततिय समये विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जात्र उक्कोसेणं पुव्वकोडित्ति ।
पंचिंदियाणं असण्णीणं पज्जत्तगाएं उग्रवज्जाणं सत्तरहं कम्माणं श्रतो मुहुत्तं श्रबाह मोत्तूर्ण जं पढमसमए पदेसग्गं शिसित्तं त बहुतं वितियसमये विसेसहीणं, ततियसमये विसेसहीणं, एवं बिसेसही विसेसहीणं जाव सागरोवमसहस्सस्स तिरिण सत्तभागा, सत्त सत्तभागा, बिसत्तभागा पडिपुणत्ति । पंचिंदियाणं असण्णीणं पज्जत्तयाग आउअस्स पुव्वकोडितिभागं बाहं मोत्तूगां जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, वितियसमये विसेसहीणं, ततियसमए विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जात्र उक्को से पविमस्स संखिज्जतिभागो ।
पंचिंदियाणं श्रसरणीणं चउरिंदियाणं तेइन्द्रियाणं बेइन्द्रियाणं अपज्जत्तगाणं श्रवज्जाणं सत्तण्हं कम्माणं अंतोमुहुत्तं श्रबाहं मोत्तू जं पढमसमए पदेसग्गं शिसित्तं तं बहुगं, बितियसमए विसेसहीणं, ततियसमए विसेसहीणं, एवं बिसेसही विसेसहीणं, जात्र उक्कोसेण सागरोवमसहस्सस्स सागरोवमसतस्स,
* इतिपदं न दृश्यते ।
पाठो जेसलमेरशास्त्रसंग्रहस्थतालपत्रीयकर्मप्रकृतिवृर्णिसत्कः, मुद्रितप्रतौ तु "सरणी"
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३२ ]
बंधवहाणे मूलपडिटिइबंधो
[ निषेकप्ररूपणम्
सागरोपमपणासार, सागरोवमपरणुविसाए, तिरिण सत्तभागा, सत्त सत्तभागा, वित्तभागा, पलिश्रोत्रमस्स *संखेज्जत्तिभागेण उणयत्ति । चउरिंदियाणं तेइंद्रियाणं बेइंद्रियाणं बादरएनिंदियाणं पज्जत्तगाणं आउगबज्जाण सत्तण्हं कम्मारणं श्रबाहं मोत्तूणं जं पढमसमए पदेसग्गं शिसित्तं तं बहुगं बिति विसेसहीणं, are विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जावुक्को सेण सागरोत्रमसतस्स, सागरोवमपणासाए, सागरोत्रमपणुवीसाए, सागरोवमस्स य तिरिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा, बिसत्तभागा पडिपुराणत्ति |
चरिंदियतेइंद्रियबेइंद्रियबायरए गिंदियपज्जत्तगाणं आउगस्स बे मासा, सोलस राइंदियाणि साइरेगारिण, चतारि वासारिण, सत्तवाससहस्साणि सातिरेगारिण अबाहं मोत्तूरण जं पढमसमए गिसित्तं तं बहुगं, त्रितियसमए विसेसहीणं, ततियसमय विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्को सेण कोडित्ति ।
बादरनिंदियाणं पज्जत्तगाणं सुहुमए गिंदियपज्जत्तगापज्जत्तगाणं उगवज्जाणं सत्तएहं कम्माणं अंतोमुहुत्तं बाह्ं मोत्तूरण जं पढमसमए खिसित्तं तं बहुगं, बितिए विसेसहीणं, ततीए विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जात्र उक्को सेण सागरोत्रमस्स तिरिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा वे सत्तभागा लितोत्रमस्स असंखेज्जतिभागेण ऊणियन्ति । " ॥ इति || १२ ||
तदेवं गताऽनन्तरोपनिधया निषेकप्ररूपणा | साम्प्रतं परम्परोपनिधया चिकीषु राहपल्लाऽसंखियभागं गच्चा गच्चा भवे दुगुलहीणं ।
एवं उक्कोसठिडं जा अप्पप्पस्स पायव्वं ॥ १३ ॥
(प्रे०) “पल्लासंखियभागमित्यादि, अनन्तरोक्तामबाधां मुक्त्वा यत्प्रथमसमये कर्मदलं निषिक्तं तस्मात् समयसमयात्मिकायां स्थितौ प्रोक्त नित्या यथोत्तरं विशेषहीनं विशेषहीनमारच्यमानं इलिकम् 'पल्लाऽसंखियभागं " त्ति भीमो भीमसेन इति न्यायत एकदेशेन समुदायस्यापि गम्यमानत्वात् पल्योपमस्यासंख्येयभागं गत्वा गत्वा द्विगुणहीनं द्विगुणहीनं भवेत् । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूण“परंपरोवरिगहियाए अत्राहं मोत्तूणं जं पढमसमए पदेसग्गं सित्तं ततो पढमसमयाओ पलिवमस्स असंखेज्जत्तिभागमेत्तीओ ठिती गंतॄण जा ठिती तीए पदेसग्गं दुगुरगहीणं भवति । ततो पुणो तत्तियं चे गंतू दुगुणहीणं भवति" इत्यादि ।
एवं पल्योपमासंख्येयभागं गत्वा गत्वा द्विगुणहीनं द्विगुणहीनमपि तावज्ज्ञातव्यं यावद् आत्मन आत्मन उत्कृष्टस्थितिर्भवेत् । इदमुक्तं भवति श्रनन्तरोपनिधायामनन्तरसमये विशेषहीनं दलिकं निषिक्तं भवतीत्येतद् दर्शितम्, अत्र परंपरोपनिधायां तु पारम्पर्येण पल्योपमासंख्येयभागेऽतिक्रान्तेऽन्तराऽन्तरा कियद्धीनं दलिकं निषिक्तं भवतीत्येतद्द्रष्टव्यम्, तत्र चतुर्दशजीवस्थानेष्वपि ज्ञानावरणीयादीनां या प्रागवाधा उक्ता, तां मुक्त्वा दलिकनिषेको भवति, तत्राद्यसमये बहुकं दलिकं तत आरभ्य पल्योपमासंख्येयभागातिक्रमणेन यत्स्थितिस्थानं तत्र यलिकं तत् प्रथमसमयापेक्षया द्विगुणहीनं -अर्थं भवति, इदं ह्याद्यं द्विगुणहानिस्थानम्, ततोऽपि पल्योपमासंख्येयभागं गत्वा
* यमपि पाठो जेसलमेरशास्त्रसंग्रहस्थतालपत्रीय कर्म प्रकृतिचूर्णि सत्कः, मुद्रितप्रतौ त्वकारस्याधिकत्वाद् 'असंखेज्जतिभागेण' इति पाठः ।
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अनन्तरोपनिधा ] प्रथमाधिकारे निषेकद्वारम्
[ ३३ यस्थितिस्थानं तत्र निषिक्तं दलिकं तु प्रथमद्विगुणहानिस्थानापेक्षया पुनरप्यधं भवति, इदं हि द्वितीयं द्विगुणहानिस्थानम् , अत प्रारभ्य पुनरपि पल्योपमासंख्येयभागोऽतिक्रम्यते, तदाऽनन्तरवर्तिसमये तृतीयं द्विगुणहानिस्थानं भवति, अत्र निषिक्तं दलिकं पूर्ववर्तिद्विगुणहानिस्थाने निषिक्तदलिकापेक्षयाऽधमस्ति, एवं तावद्वाच्यं यावत्तत्तज्जीवभेदेषक्तस्तत्तत्कर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धः; केवलं पर्याप्तसंश्यसंज्ञिजीवभेदद्वयं विवयं शेषेषु जीवभेदेष्वायुषः स्थितिवन्धे न वक्तव्यम् , तेषत्कृष्टतोऽपि पूर्वकोटीस्थितिकायुर्वन्धस्य भावात् । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी
___“परंपरोवणिहिताण पंचिंदियाणं सरणीणं असण्णीणं पज्जत्तगाणं अट्ठण्हं कम्माणं पंचिंदियाणं सएणीणं असएणीणं अपज्जत्तगाणं चउरिंदियतेइंदियवेइंदियबायरेगिंदियाणं सुहुमएगिदियाणं पज्जत्तगापज्जत्तगाणं आउगवज्जाणं सत्तण्हं कम्माणं अबाहं मोत्तूणं पढमसमए पएसग्गाओ ततो पलिश्रोवमस्स असंखेज्जइभागं गंतूण दुगुणहीणं पदेसग्गं । ततो पुणो तत्तियं चेव गंतूण दुगुणहीणं पदेसग्गं । ततो पुणो तत्तियं चेव गंतूण दुगुणहीणं पदेसग्गं । एवं दुगुणहीणं दुगुणहीणं जाव अप्पप्पणोक्कस्सिगा ठिती । इति"
अत्र हि उत्कृष्टस्थितेश्वरमनिषेकं यावदनन्तरोपनिधायां विशेषहीन-विशेषहीनक्रमेण दलनिषेको दर्शितस्तत्र यथोत्तरस्थितिषु प्रतिनिषेकं दलिकहानिः स्वपूर्वसमयनिषिक्तदलापेक्षयाऽसंख्येयभागमात्राऽवगन्तव्या, न पुनः संख्येयभागमात्रा, संख्येयेषु स्थितिस्थानेष्वतिक्रान्तेषु निषेकस्य द्विगुणहानिस्थानापत्तेः । न च सेप्यते, पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणेष्वसंख्येयेषु स्थितिस्थानेष्वतिक्रान्तेष्वेव द्विगुणहीनदलनिषेकस्याभिमतत्वात्, अत एवाऽनन्तरोत्तरस्थितिस्थाने जायमानाऽनन्तरोपनिधाविषयीभूता दलिकहानिर्नाऽनन्तभागमात्रेत्यपि विज्ञेयम् ।
___ ननु प्रतिसमयं ज्ञानावरणादितत्तत्प्रकृतितया वध्यमानदलिकेभ्योऽनन्ततमैकभागः सर्वघातिप्रकृतितया परिणमति, शेषानन्तबहुभागद लिकं च सर्वघातिवर्जवध्यमानप्रकृतितया परिणमति, उक्तं च प्रदेशबन्धं विवृण्वद्भिश्चिरन्तनाचार्यैः कर्मप्रकृतिचूणी
'जं सव्वघातिपत्तं' ति जं सव्वघातिजोग्गं 'सगकम्मपएसाणंतिमो भागो' ति अप्पप्पणो कम्मपएसाणंतिमो भागो सव्वघाती भवति । कहं ? भएणइ-सव्यकम्मपएसाणं जे णिद्धयरा पोग्गला ते थोवा सव्वकम्मदव्याणं अणंतिमो भागो, ते च सव्वघातिजोग्गा। अणंतिमे भागे फिट्ट सेसस्स कम्मदलियस्स सेसकम्मेहि भागो। 'आवरणाण चउद्धा तिहा य' त्ति णाणावरणदसणावरणाणं जहकम्मेण चत्तारि तिन्नि य भागा। णाणावरणस्स जं दलितं ततो केवलणाणावरणीयस्स अणंतिमो भागो फेड्डिजति, सेसं चत्तारिभागा कीरति, आभिणिबोहियणाणावरणादीणं चउपहइत्यादि ।
किञ्च ज्ञानावरणस्योत्कृष्टायां स्थितौ बध्यमानायां सर्वासां ज्ञानावरणोत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिरेव बध्यत इति न नियमः, किन्तु कासाञ्चित्समय-द्विसमयप्रभृतेर्यावत्पल्योपमासंख्येयभान न्यनोत्कृष्टस्थितिरपि बध्यते । इत्थं च यदा मूलप्रकृतेज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्तदा यदि केवलज्ञानावरणस्यैव त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटीलक्षणोत्कृष्टस्थितिबन्धः, शेषाणां मतिज्ञानावरणादि प्रकृतीनां तु समयोनोत्कृष्टस्थितिबन्धस्तदा पञ्चानामपि ज्ञानावरणोत्तरप्रकृतीनामका
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३४ ] बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[ निषेकप्ररूपणम वर्षसहस्रत्रयम् , अतो वर्षसहस्रत्रयं मुक्त्वा यत्प्रथमसमयः, प्रथमो ज्ञानावरणसत्कदलनिषेक इत्यर्थः । तत्र निषिक्तं दलं बहुकम् , तदनन्तरवर्तिनि द्वितीयसमये निषिक्तं दलं तु ततोऽसंख्येयभागेन हीनम् , तृतीयसमये ततोऽप्यसंख्येयभागहीनम् , एवं तावल्लभ्यते यावज्ज्ञानावरणस्य द्विचरमसमयः, मतिज्ञानावरणस्य तदानीं बध्यमानस्थितेश्वरमसमय इत्यर्थः । न पुनरेवं ज्ञानावरणस्य चरमसमयेऽपि तत्र देशघातिकानां मतिज्ञानावरणादीनां दलिकनिक्षेपाभावात् , निक्षिप्तस्य सर्वघातिनः केवलज्ञानावरणस्य दलिकानां तु पूर्वसमये निषिक्तदेशघातिदलापेक्षयाऽनन्ततमैकमागमात्रत्वेनाऽनन्तगुणहीनत्वात् । इत्थं हि स्थितेऽवाधां विहायोत्कृष्टस्थितेश्वरमदलनिषेकं यावद्यथोत्तरसमयेऽसंख्येयभागहीनमसंख्येयभागहीनं दलिकम् , तथा पल्योपमसंख्येयभागप्रमाणस्थितीरुल्लङ्घयोल्लङ्घय निषेकस्य द्विगुणहानिस्थानानि चेत्येवमुभयविधप्ररूपणा कथमुपपद्येत । न च यदा सर्वासामपि ज्ञानावरणोत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्तदानीं यो दलिकनिपेकस्तस्य चरमसमयं यावत्पञ्चानामपि ज्ञानावरणोत्तरप्रकृतीनां निषेकस्य प्राप्त्या चरमसमयं यावदुक्ताऽसंख्यभागहीनक्रमेण दलिकनिषेकस्य लभ्यमानत्वात् तदपेक्षया मूलोक्तानन्तरोपनिधा-परम्परोपनिधालक्षणा द्विविधप्ररूपणोपपद्यत इति वाच्यम् । एवंरीत्या ज्ञानावरणस्य दर्शनावरणादीनां वा तदुपपत्तेरपि मोहनीयाख्यमूलप्रकृतिमाश्रित्य तदनुपपत्तेदुर्वारत्वात्, कथम् ? इति चेत्, मोहनीयोत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितेरतुल्यत्वात् । तथाहि-यदा हि मोहनीयस्य सप्ततिसागरोपमकोटिकोटीलक्षणा उत्कृष्टा स्थितिर्निवत्यते तदा न सा सर्वासांबध्यमानानां मोहनीयोत्तरप्रकृतीनां तावत्येव, किन्तु वध्यमानानामनन्तानुबन्ध्यादिषोडषकषायाणां चत्वारिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः, शेषाणां तु शोका-ऽरति-भय-जुगुप्सा-नपुंसकवेदलक्षणानां पञ्चानां नोकषायप्रकृतीनां विंशतिसागरोपमकोटीकोट्यः, अत्र हि मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धकाले बध्यमानासु मिथ्यात्वमोहनीयादिषु द्वाविंशतिप्रकृतिषु मिथ्यात्वमोहनीयं संज्वलनवर्जा द्वादशकषायाश्चेत्येवं त्रयोदशप्रकृतयः सर्वघातिन्यः, किञ्च यथोक्त प्रदेशविभाजननियमाद् बध्यमानमोहनीयदलिकेषु मिथ्यात्वादित्रयोदशप्रकृतितयाऽनन्ततमभागमानं दलिकं परिणमति, शेषसंज्वलनचतुष्क-शोकाऽरत्यादिनोकषायपञ्चकतया त्वनन्तबहुभागं दलिकं परिणमति; इत्थं च स्थिते “सागरकोडाकोडी बन्धो सत्तबह जत्तिाऽवाहा। तावइया च्च सयसमा तदृरिणो कम्मणणिसेगो।" इत्यबाधानियमाद् बध्यमानानां पञ्चानां नोकपायाणां वर्षसहस्रद्वयमबाधां त्यक्त्वा प्रथमसमये प्रभृतदलनिषेकः, ततस्तु समयोत्तरासु द्वितीयादिस्थितिघसंख्येयभागहीनक्रमेण दलिकनिषेको भवति, स च तावद्भवति यावत्संज्वलनचतुष्कस्योत्कृष्टाबाधा चत्वारि वर्षसहस्राणि, तदनन्तरसमये तु पोडपकषाय सत्कप्रथमदलनिषेकस्याऽपि प्राप्तेः समुदितो मोहनीयदलनिषेकः पूर्वसमयापेक्षया संख्येयगुणः प्राप्यते, न पुनर्विशेषहीनः । तदुत्तरसमयात् विंशतिसागरोपमकोटीकाटीलक्षणनोकषायोत्कृष्टस्थितिं यावत्पुनरप्यसंख्येयभागहीनक्रमेणैव, तावत्पर्यन्तेषु सर्वेषु स्थितिस्थानेष्वनन्तरपूर्वसमयवत् चतुष्कषाय-पञ्चनोकषायात्मकानां नवानामपि देशघातिप्रकृतीनां दलनिषेकस्य प्राप्यमाणत्वात्, एतावस्थितिस्थानेष्वेकस्या
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अनन्तरोपनिधा ] - प्रथमाधिकारे निषेकद्वारम् अपि देशघातिमोहनीयप्रकृतेर्बन्धस्याऽवर्धनादविच्छेदाच्चेत्यर्थः । न च यथोक्तावाधानियमान्मिथ्यात्वस्य सप्तवर्षसहस्रप्रमाणोत्कृष्टाबाधोत्तरसमये मिथ्यात्वदलिकस्य वर्धनात्तस्मिन् समये तत्पूर्वसमयापेक्षया विशेषाधिको दलनिषेकः स्यादिति वाच्यम् । यतस्तत्र मिथ्यात्वमोहनीयदलनिषेकसम्बन्धिप्रथमस्थितो मिथ्यात्वदलिकस्य वर्धनेऽपि तन्मिथ्यात्वदलिकं पूर्वसमयनिषिक्तदलिकापेक्षयाऽनन्ततमभागमात्रमस्ति, सर्वघातिप्रकृतेः सर्वदलिकस्य देशघात्यादिदलिकापेक्षयाऽनन्ततमभागमात्रत्वात्, इत्थं च पूर्वसमयापेक्षया मिथ्यात्वमोहनीयप्रथमनिषेके दलवृद्धिरनन्तभागमात्रा, हानिः पुनरसंख्येयभागमात्रा, पूर्वसमयनिषिक्तदेशघातिदलिकापेक्षयाऽत्रनिक्षिप्तदेशघातिदलिकस्याऽसंख्येयभागहीनत्वात एवं हि पूर्वसमयनिपिक्तदलापेक्षयाऽनन्तरोत्तरे मिथ्यात्वमोहनीयप्रथमनिषेकसमये मोहनीयदलनिषेको संख्येयभागहीन एव, न पुनर्विशेषाधिकः। इत्थं कषायमोहनीयद्वितीयस्थितिनिषेकप्रभृतेनॊकपायमोहनीयचरमनिषेकयावन्नियाघातेन यथोत्तरसमयेष्वसंख्येयभागहीनक्रमेणैव दलनिषेकः प्राप्यते । नोकषायमोहनीयचरमनिषेके गते तदुत्तरसमये यनिषेकस्तत्र तु यद् देशवातिदलिकं तत्कषायमोहनीयसत्कमेव, तच्च पूर्वसमयनिषिक्तकषाय-नोकषायमोहनीयसत्कद्विविधदेशघातिदलिकराश्यपेक्षया संख्येयभागहीनं विद्यते, न पुनरसंख्येयभागहीनम् । कुतः ? नोकषायमोहनीयसर्वदलिकापेक्षया संज्वलनचतुष्कसर्वदलिकस्यापि विशेषाधिकतया नोकषायमोहनीय-कपायमोहनीयसमुदितदलिकापेक्षया कषायमोहनीयसर्वदलिकस्य किञ्चिदधिकार्धतया संख्येयभागहीनत्वात् । तदुत्तरसमयात् कषायमोहनीयस्य चत्वारिंशत्सागरोपमप्रमाणोत्कृष्टस्थितिं यावत्तु पुनरपि यथोत्तरसमये प्राग्वदसंख्येयभागहीनक्रमेणैव दलनिषेकः प्राप्यते । कषायमोहनीयचरमनिषेके गते तु तदुत्तरसमयात्केवलस्य मिथ्यात्वमोहनीयसत्कदलिकस्य निषेकोऽवशिष्यते, मिथ्यात्वस्य तु सर्वघातिप्रकृतितया तदीय भागाऽवाप्तदलिकं संज्वलनकषायप्रधानकपायमोहनीयदालिकराश्यपेक्षयाऽनन्ततमभागमात्रम् , अतः कषायमोहनीयचरमस्थितौ निषिक्तमोहनीयदलिकापेक्षयाऽनन्तरोत्तरसमये निषिक्तं दलिकमनन्तगुणहीनं प्राप्यते, न त्वसंखेयभागहीनम् , इत्थं च मोहनीयकर्मणः सर्वासामुत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितौ बध्यमानायामपि तासामुत्कृष्टस्थितेरेवाऽतुल्यत्वादबाधां विहाय कुत्रचित्स्थितिविशेषे संख्ययगुणाधिकदलनिषेकः. यथा-बन्धसमयाच्चत्वारिवर्षसहस्राण्यतिक्रम्य कषायमोहनीयप्रथमस्थितौ। कुत्रचित्तु संख्यातभागहीनदलनिषेकः, यथा-नोकषायमोहनीयचरमनिषकादनन्तरोत्तरसमये । कुत्रचित्पुनरनन्तगुणहीनदलनिषेकः, यथा-कषायमोहनीयचरमस्थितिनिपेकादनन्तरोत्तरसमये । अत्र स्थापना- (३६ तमे पृष्ठे)
___ एवं हि मौलस्य मोहनीयकर्मणो दलनिषेकेऽनन्तरोपनिधायां समयसमयोत्तरासु सर्वासु स्थितिस्वसंख्येयभागहीनक्रमेण दलिकस्यानुपपत्तिरेव, ततश्च परम्परोपनिधायामपि नियतपल्योपमाऽसंख्येयभागातिक्रमणेन दलिकानां द्विगुणहानयो ऽप्यनुपपन्ना एव ? इति चेत्, समाधीयते, यद्भवताऽभिहितं तदेतत्सर्वमेवाधिकृतविवक्षाया अपरिज्ञानात् , यतो नात्र बध्यमानसर्वोत्तरप्रकृतिसत्कदलिकसमुदायमादायानन्तरोपनिधया परम्परोपनिधया वा प्ररूपणा कृता, किन्तु यस्या ज्ञानावरणादिसत्कोत्तरप्रकृते
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३६]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धसमये बध्यमान सर्वदलिकापेक्षया निषेकस्य स्थापना -
. मिथ्यात्वस्याबाधा.
-कषायस्याबाधा.
→→→
←←← विशेषहीन क्रमेण
← विशेष हीन क्रमेण ←←
- नोकषायस्याबाधाकालः ।
1←← विशेष हीन-हीन स्←←
← मोहनी० उत्कृ० स्थि० बन्वस्य समयः । }- केवलस्य नोकपायस्य निषेकः । ← मिध्यात्वमोहनीयस्यप्रमथनिषेकः ।
← कषाय-नोकषाय- मिथ्यात्वानां त्रयाणामपि दलनिषेकः ।
-← कषायमोहनीयस्य प्रथमनिषेकः, अत्र विशेषाधिकदलनिषेकः ।
- नोकषायमोहनीयस्य चरमनिषेकः ।
- तदनन्तरस्थितौ सङ्ख्यात भागहीनो दलिक निषेकः ।
- कषाय-मिथ्यात्व यो दलनिषेकः ।
- केवलस्य मिथ्यात्वमोहनीयस्य निषेकः ।
[ निषेकप्ररूपणम्
← कषायमोहनीयस्य चरमनिषेकः ।
- तदनन्तरस्थितौ पूर्व समयापेक्षयाऽनत्नगुणहोनदलिकनिषेकः ।
J← मिथ्यात्वमोहनीयस्य चरमो निषेकः ।
रुत्कृष्टस्थितिबन्धः शेषोत्तरप्रकृत्यपेक्षयाऽधिको जायते तामुत्तरप्रकृतिं प्रधानीकृत्य तदपेक्षया मौलस्य ज्ञानावरणादेर्निषेकप्ररूपणा कृता विद्यते, अत एव “पंचिंदियाणं सरणीणं मिच्छदिट्ठोणं पज्जत्तगाण मोहणीज्जस्स सत्तवाससद्दस्साणि श्रबाहं मोत्तूणं जं पढमसमए पएसग्गं णिसित्तं तं बहुगं" इत्यादिना
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द्विगुणहानिस्थानाद्यल्पहु० ] प्रथमाधिकारेऽबाधाकण्डकद्वारम्
[ ३७ कर्मप्रकृतिचूर्णी मोहनीयस्य सप्तवर्षसहस्राण्यवाधा वर्जनीयतयाऽभिहिता, अन्यथा-भवदुक्तविवक्षया सा वर्षसहस्रद्वयमेव वक्तव्या स्यात्, तदुत्तरसमयप्रभृतेरेव नोकषायतया परिणतस्य मोहनीयदलनिषेकस्य प्राप्तः । इत्थं मोहनीयस्य मिथ्यात्वमोहनीयलक्षणोत्तरप्रकृतेः शेषकषायाद्युत्तरप्रकृत्यपेक्षयाऽधिकस्थितित्वेन तदीयदलनिषेकप्राधान्यात् मोहनीयकर्मण्यप्यनन्तरोपनिधया परम्परोपनिधया च कृता मूलोक्तप्ररूपणा सूपपन्नैव, सप्तवर्षसहस्राण्यवाधां विहाय प्रथमसमये बहुदलिकस्य ततश्च समयसमयोत्तरासु सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीपर्यन्तासु सर्वस्थितिषु मिथ्यात्वमोहनीयदलिकानामसंख्येयगुणहीनक्रमेणैव प्राप्तेरित्यलं विस्तरेण ॥१३॥ तदेवमुत्कृष्टस्थिति यावत्पल्योपमासंख्येयभागं गत्वा गत्वा निषेकस्य द्विगुणहानिस्थानानि प्राप्यन्ते इत्युक्ते किं खल्वेतानि द्विगुणहान्योरेकान्तरालवर्तीनि पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणानि निषेकस्थानान्युत्कृष्टस्थितौ निष्पद्यमानेभ्यो निषेकस्य द्विगुणहानिस्थानेभ्यस्तोकान्युताधिकानीत्याशङ्कायां सपरिमाणमल्पबहुत्वमाह
णाणंतरठाणाइं असंखिययमोऽत्थि पल्लमलंसो।
तत्तो असंखियगुणं इगंतरमसंखमूलं हि ॥१४॥ (प्रे०) “णाणंतरठाणाइमि"त्यादि, नानाप्रकाराणि यान्यन्तराणि अन्तरालजातानि स्थानानि नानाऽन्तरस्थानानि, निषेकस्य द्विगुणहानिस्थानानीत्यर्थः । तानि "असंखिययमोऽत्थि पल्लमलंसो" त्ति प्रागवत् पल्यस्य-पल्योपमस्य मूलस्य-प्रथमवर्गमूलस्यांशः पल्यमूलांशोऽसंख्येयतमोऽस्ति, पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्यभागगतसमयतुल्यानि भवन्तीत्यर्थः। उक्तं च कर्मप्रकृतिवृत्तौ"नानाप्रकाराणि यान्यन्तराणि-अन्तरा जातानि द्विगुणहानिस्थानानि तान्युत्कृष्ठस्थितिबन्धे पल्योपमस्य सम्बन्धिनः प्रथमवर्गमूलस्यासंख्येयतमे भागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि भवन्ति।" इति । "तत्तो" त्ति तेभ्यो द्विगुणहानिस्थानेभ्यः "असंखियगुणं इगंतर" ति द्विगुणहान्योरेकमन्तरम् ,-द्विगुणहान्योरेकस्मिन्नन्तरे यानि निषेकस्थानानि तान्यसंख्येयगुणानि भवन्तीत्यर्थः । उक्तं च-"एकस्मिन् द्विगुणहान्योरन्तरे निषेकस्थानान्यसंख्येयगुणानि ।” इति ।
___ ननु कस्मादेतद् द्विगुणहान्योरेकमन्तरमसंख्येयगुणमित्याह- "असंखमूलं हि"त्ति हियस्मात् कारणात् तद् द्विगुणहान्योरेकमन्तरम् असंख्येयमूलं-पल्योपमस्यासंख्येयवर्गमूलप्रमाणम् , असंख्येयपल्योपमानां प्रथमवर्गमूलप्रमाणमिति भावः । इति ॥१४॥
तदेवं कृतं परम्परोपनिधयाऽपि निषेकप्ररूपणम् , तथा च कृते गतम् “णिसेगो" इत्यनेनोदिष्टं द्वितीयं द्वारम् । साम्प्रतं क्रमप्राप्ताबाधाकण्डकद्वारेऽवाधाकण्डकप्ररूपणां कुर्वन्नाह--
पल्लासंखियभागं गंतूण खणे खणे अवाहखए । सत्तण्ह परात्र हवइ अवाहकंडं जहण्णा जा ॥१५॥
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३८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ अबाधाकण्डकप्ररूपणम् (प्रे०) “पल्लासंखियभागमि"त्यादि, अबाधायाः क्षये क्षणे क्षणे-समये समये, समयसमयप्रमाणाबाधाक्षये सतीत्यर्थः । आयुर्वजसप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितेः प्रारभ्य पल्योपमासंख्येयभागम् "गंतूण" इति शब्दो द्विराक्तते, ततो गत्वा गत्वाऽवाधाकण्डकमेकमेकं भवति यावज्जघन्या स्थितिरित्यर्थः । इदमुक्तं भवति-आयुर्विवज्ये कस्यचिदपि कर्मण उत्कृष्टस्थितो बध्यमानायामबाधाऽप्युत्कृष्टा भवति, समयमात्राबाधाहानौ पुनरुत्कृष्टा स्थितिनियमेन पल्योपमासंख्येयभागेनोना बध्यते, एवं द्विसमयावाधाहानौ तूत्कृष्टा स्थितिरपि द्वयेन पल्योपमासंख्येयभागेनोना बध्यते, एवमवाधाहानौ प्रतिसमयं स्थितिबन्धोऽपि पल्योपमासंख्येयभागेन न्यूनो न्यूनो जायते इति द्रष्टव्यं यावदेकत्र जघन्यावाधाऽन्यत्र च जघन्यस्थितिबन्धः । अयम्भावः-उत्कृष्टस्थितिबन्धे यथोत्कृष्टाऽवाधा भवति, तथा समयोनोत्कृष्टस्थितिबन्धेऽप्युत्कृष्टावाधैव भवति, एवं द्विसमयोनोत्कृष्टस्थितिबन्धेऽप्यबाधा उत्कृष्टैव भवति, त्रिसमयोनोत्कृष्टस्थितिबन्धेऽपि तावत्येवोत्कृष्टावाधा भवति, न तु समयमात्रेणापि न्यूना, एवं यावत्समयोनपल्योपमासंख्येयभागेन न्यूनोत्कृष्टस्थितिबन्धस्तावबाधा तूत्कृष्टैव । इतस्तु समयद्विसमयादिना हीने स्थितिबन्धेऽबाधा न उत्कृष्टा, किन्तु समयोनोत्कृष्टा भवति, एवं तावद्रष्टव्यं यावत्समयोनद्वितीयपल्योपमासंख्येयभागन्यूनोत्कृष्टस्थितिवन्धः, तावदबाधा तावत्येव समयोनोत्कृष्टा भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी
“आउगाणि मोत्तणं सेसाणं सव्वकम्माणं उक्कस्सिगाए अबाहाए बट्टमाणो उक्कस्सट्ठिति वा समयूणं वा बिसमयूणं वा जाव पलिअोवमस्स असंखेज्जभागूणं वा ठिइं बन्धइ । जइ अबाहा एगेण समएण ऊणा तो णियमादेव पलिओवमस्स असंखेज्जत्तिभागमेत्तेणं कंडगेण उणियं उक्कोसियं ठिति बन्धइ।" इत्यादि।
___ अकसमयावाधाहानौ पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणस्थितीनां हानिर्भवति, तेन पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणस्थितीनां समूह एकसमयाबाधोपलक्षितः सन्नेकमबाधाकण्डकमुच्यते, एवम्भूतान्यबाधाकण्डकान्युत्कृष्टस्थितावबाधास्थानतुल्यानि भवन्ति, अत्र “जहएणा जा" इत्यत्र या जघन्यस्थितिरुक्ता सा श्रेणिसमारूढजीववजशेषजीवापेक्षया बोद्धव्या । इदं हि सामान्यतोऽभिहितमपि पर्याप्ताऽपर्याप्तसूक्ष्म-बादरैकेन्द्रियादिचतुर्दशजीवभेदेषु प्रत्येक विशेषत इत्थमेव बोद्धव्यम् , सर्वत्र तुल्यवक्तव्यत्वात् । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी-“एवं एगिदियाण सव्वेसि समाणं ।” इति ।
___ नन कथमत्रायुषोऽवाधा कण्डकानि नोच्यन्ते ? भण्यते-आयुषोऽबाधा नाऽऽयुषः स्थितिबन्धप्रमाणस्याधीना, एवमायुरपि नाऽबाधाप्रमाणाधीनम् , ततश्च तत्रावाधाकण्डकान्यपि न भवन्ति । इदमुक्तं भवति-ज्ञानावरणादीनामिवाऽऽयुषीऽवाधाविषये न कश्चित्तथाविधो नियमः, यद् "इयदायुष्येतावत्याऽवाधया भवितव्यम्" इति, न चावाधया सममनियते आयुःकर्मण्यवाधाकण्डकसम्भवः, यतः कदाचिदुत्कृष्टायामेवाबाधायां जघन्यतोऽन्तमु हूतमुत्कृष्टतश्च समयादिवृद्धया यावत् त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुध्यते, कदाचित्तु तदेव जघन्यमुत्कृष्टं तदन्तस्थं वाऽऽयः समयोनो
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आयुर्वर्जसप्तकर्मणाम् ] प्रथमाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ३६ स्कृष्टावाधायां बध्यते, कदाचिच्च द्विसमयोनोत्कृष्टावाधायां वध्यते, एवं यथासम्भवं समयादिहान्या यावदन्तमुहूर्तात्मिकायां जघन्याऽवाधायामपि बध्यते, इत्येवं तथाविधनियमाभावादायुष्यनेके भङ्गा भवन्ति । तद्यथा-जघन्यायुजेधन्याबाधा, जघन्यायुरजघन्यावाधा, जघन्यायुरुत्कष्टाबाधा, जघन्यायुरनुत्कृष्टाबाधा, उत्कृष्टायुर्जधन्यावाधा, उत्कृष्टायुरजघन्यावाधा, उत्कष्टायुरुत्कष्टाबाधेत्यादि । अत एवायुःकर्मण्यवाधाकण्डकानि नोक्तानीत्यलं विस्तरेण ॥१॥
तदेवं गतं "अबाहाकडं" इत्यनेनोद्दिष्टं तृतीयं द्वारम् । इत्थं च स्वस्थानाल्पबहुत्वादिभणनद्वारेण कृता स्थितिबन्धस्थानादिद्वारत्रयविषया प्ररूपणा । साम्प्रतं क्रमप्राप्ताऽल्पबहुत्वद्वारे तेषामेव स्थितिबन्धाऽऽबाधास्थानादीनां परस्थानाल्पवहुत्वमभिधित्सुरादौ तावत्संक्षिपञ्चेन्द्रियपर्याप्ताऽपर्याप्तयोर्द्वयोर्जीवस्थानयोरायुर्वर्जशेषसप्तकर्माण्यधिकृत्य तदाह
पज्जेयरसरणीसु सत्तण्हऽप्पा जहरणऽवाहा तो । संखगुणाणि अवाहान ठाणकंडाणि तुल्लाणि ॥१६॥ तत्तो विसेसअहिया जेट्टाऽवाहा हवेज्ज ताहिन्तो । णाणागुणहाणीणं ठाणाणि असंखियगुणाणि ॥१७॥ ताउ असंखगुणाई हवन्ति एगंतरस्स ठाणाणि । ताउ असंखेज्जगुणं अवाहकंडं भवे एगं ॥१८॥ ताउ असंखगुणोऽणू ठिइबंधो ताउ संखियगुणाई । ठिइबंधाणाइं तोऽभहियो परमठिइबंधो। १६॥
(प्रे०) 'पज्जेयरसण्णीसु" इत्यादि, "द्वन्द्वान्ते श्रृयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते" इति न्यायेन संशिशब्दस्य पर्याप्तेतरयोः प्रत्येकं योजनात् पर्याप्तसंशिजीवभेदे, इतरे-अपर्याप्तसंज्ञिजीवभेदे चेत्यर्थः । “सण्णीसु" इत्यत्र बहुवचनं प्राकृतत्वात् । एतस्मिन् जीवभेदद्वये किमित्याह-"सत्तण्ह" इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकं 'प्पा" ति प्राकृतलक्षणेनाऽकारस्य लुप्तत्वात् "अप्पा" ति अल्पा-सर्वस्तोकेत्यर्थः, का इत्याह--"जहण्णऽबाहा" जघन्याऽबाधा । अस्याः संख्येयावलिकारूपत्वेन लघ्वन्तमु हूतप्रमाणत्वात् "तो" त्ति ततः,-जघन्यानाधापेक्षयेत्यर्थः "संखगुणाणि अबाहान ठाणकंडाणि" त्ति संख्ययगुणान्यबाधायाः स्थानकण्डकानि, अवाधास्थानान्यवाधाकण्डकानि च, एते द्वे पदेऽपि प्रत्येकं संख्येयगुण इत्यर्थः । अवाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि परस्परं तु "तुल्लाणि" ति तुल्यानि-समसङ्ख्याकानि, यतः प्रत्यबाधास्थानमवाधाकण्डकं निष्पद्यते, पूर्वापेक्षया संख्येयगुणत्वं तु जघन्यावाधान्यूनोत्कृष्टावाधाया ये समयास्तैरेकरूपाधिकैस्तुल्यत्वादबाधास्थानानामबाधाकण्डकानां चेति । "तत्तो विसेसअहिया जेठ्ठाऽबाहा हवेज्ज" ति तेभ्योऽवाधा
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हा मूलपइबंधो
[ पर्याप्ता-पर्याप्तसंज्ञिभेदयोः
स्थानाऽबाधाकण्डकैकतरेभ्यो विशेषाधिका ज्येष्ठा - उत्कृष्टावाधा भवेद्, बाधास्थान संख्येयभागमात्राया जघन्याबाधाया अत्र प्रवेशात् । " ताहिन्तो" त्ति तस्या ज्येष्ठावाधायाः " णाणागुणहाणीणं ठाणाणि संखियगुणाणि "त्ति नानाऽन्तरनिष्पन्नानि निषेकसत्कद्वि गुणहानिस्थानान्यसंख्येयगुणानीत्यर्थः । कुतः ? पर्याप्तसंज्ञिजीवभेदे प्रकृतसप्तानामुत्कृष्टाबाधा संख्येयशतवर्षमात्रा, अपर्याप्तसंज्ञिजीवभेदे च साऽन्तर्मुहूर्त मात्रा भवति निषेकसत्कद्विगुणहानिस्थानानि पुनः पल्योपमप्रथमवर्गमूलस्यासंख्येयभागतुल्यानि सन्त्यपि असंख्येयवर्षसमय तुल्यानि ततश्चेमान्यसंख्येयगुणानि जायन्त इति । "ताउ प्रसंखगुणाई हवन्ति" त्ति तेभ्यो नानागुणहानिस्थानेभ्योऽसंख्यगुणानि भवन्ति, कानीत्याह - एगतरस्स ठाणाणि" त्ति निषेकसत्कद्विगुणहान्योरेकान्तरस्य स्थानानि, यत इमानि पल्योपमस्यासंख्येयप्रथमवर्गमूलतुल्यानि । उक्तं च प्राग् – “इगंतरमसंखमूलं हि " इति । " ताउ श्रसंखेज्जगुणं अबाह कडं भवे ए ं" ति तेभ्य एकमबाधाकण्डकमसंख्येयगुणं भवेत् । कुतः ? उच्यते, एकस्यान्तरस्य स्थानान्यानयनायाऽबाधाहीनोत्कृष्ट स्थितिः पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्यांशगतसमयैर्विभज्यते, अबाधाकण्डकमानयनाय तु जघन्यस्थित्या न्यूनोत्कृष्टस्थितिर्देशोन त्रिसहस्रादिवर्षसमयतुल्यैरबाधास्थानर्विभज्यते, एवं च भाज्यसंख्यायास्तुल्यत्वे सति भागहारसंख्याया अन्तर्मुहूर्त न्यूनत्रिसहस्रवर्षादिसमयतुल्यायाः पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्यांशगतसमयापेक्षयाऽसंख्येयगुणहीनत्वेन भागफलस्यासंख्येयगुणाधिकलाभात् । भागफलप्रमाणस्थानानां ह्येकं कण्डकमिति तु सुगममिति । " ताउ प्रसंखगुणोऽणू ठिइबधो” त्ति तस्मादेककण्डकस्थानात्, एककण्डकगतस्थितिस्थानेभ्य इत्यर्थः । असंख्यगुणोऽणुःजघन्यः स्थितिबन्धः, सप्तप्रकृतीनामिति सर्वत्राऽनुवर्तते । सुगमं चैतत् यतः संज्ञिनां जघन्योऽपि स्थितिबन्धोऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणो जायते । ननु संयतस्य जघन्यस्थितिबन्धः प्रागन्तमुहूर्तता सर्वस्तोको दर्शितः, संयतानां संज्ञित्वेन स एव संज्ञिनां जघन्यस्थितिबन्धो भवति, तत्कथमत्र संज्ञिनां जघन्योऽपि स्थितिबन्धोऽन्तः कोटीकोटी सागरोपमप्रमाणो जायते इत्युच्यते ? भण्यते- श्रत्र श्रेणिमनारूढानां संज्ञिनां यः सर्वस्तोकः स्थितिबन्धः स जघन्यस्थितिबन्धतया ग्राह्यः, न पुनः श्रेणि समारूढानाम्, कर्म प्रकृतिवृत्तौ मलयगिरिपादैः प्रकृताल्पबहुत्ववृत्तौ तथैव व्याख्यातत्वात्, सङ्गतेश्च । यदुक्तं तै:। तस्माज्जघन्यः स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः, अन्तः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात्, संज्ञिपञ्चेन्द्रिया हि श्रेणिमनारूढा जघन्यतोऽपि स्थितिबन्धमन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणमेव कुर्वन्तीति ।" इति ।
,
४० ]
"
I
"ताउ संखियगुणाई ठिइबंधट्ठाणाई” त्ति तस्माज्जघन्यस्थितिबन्धात् स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । यतो जघन्यस्थितिबन्धोऽन्तः कोटी कोटी सागरोपममात्रो गृहीतः, स्थितिबन्धस्थानानि तु जघन्यस्थितिबन्धादारभ्योत्कृष्ट स्थितिमभिव्याप्य यावन्तः समयास्तावन्ति भवन्तीति । "तोऽब्भहियो परमठिइबंधो” त्ति ततोऽभ्यधिकः - विशेषाधिक उत्कृष्ट स्थितिबन्धः सप्तानामित्यनुवर्तत एव । सुगमं चेदमपि जघन्यस्थित्या अत्र प्रक्षेपादिति । कर्मप्रकृतिचूणां प्रकृताल्पबहुत्वमित्थमेव । तथा च
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आयुर्वर्जसप्तकर्मणाम् ]
प्रथमाधिकारेऽल्पबहुत्यद्वारम्
[ ४१
तद्ग्रन्थः-पंचिंदियाणं सन्नीणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं आउगवज्जाणं सत्तण्हं कम्माणं सव्वत्थोवा जहनिगा अबाहा सा य अंतोमुहुत्तमेत्ता । तत्तो अबाहाठाणाणि अबाहाकंडगाणि य दोवि तुल्लाणि
संखेज्जगणाणि । किं कारणं ? भन्नइ-तिएहं बाससहस्साणं जहन्नाबाहणाणं जत्तिया समया तत्तियाणि अबाहाठाणाणि कंडगाणि य त्ति काउं । तत्तो उक्कोसिया अबाहा विसेसाहिया। जहन्नाबाहासहिअत्तिकाउं|
पर्याप्ताऽपर्याप्तसंज्ञिजीवभेदयोरायुर्वर्जसप्तकर्मणां प्रत्येक
स्थितिबन्धस्थानादिदशपदानामल्पबहुत्वयन्त्रम्
क्रमः
पदानि
अल्पबहुत्वम्
परिमाणम्
जघन्याबाधा सर्वस्तोका अबाधास्थानानि
असंख्येयगुणनि अबाधाकण्डकानि | परस्परतुल्यानि उत्कृष्टाबाधा
विशेषाधिका निषेकस्य द्विगुणहानयः असंख्येयगुण द्विगुणहान्योरन्तरम् अबाधाकण्डकम् जघन्यस्थितिबन्धः स्थितिबन्धस्थानानि | संख्येयगुणानि
अन्तमुहूर्तमात्रा अन्तर्मुहूर्तन्यूनवर्षसहस्रत्रयादिसमयप्रमाणानि जघन्याबाधयाधिका पल्योपमप्रथमवर्गमूलस्याऽसंख्येयभागमानाः असंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलम् पल्योपमस्याऽसंख्येयभागप्रमाणम् अन्तःकोटिकोटिसागरोपमम् पर्याप्तस्य-देशोन ३० कोटिकोटीसागरोपमादीनाम्, अपर्याप्तस्या-ऽन्तःकोटिकोटीसागरोपमादीनां च समयप्रमाणानि, पर्याप्तस्य-३०कोटिकोटिसागरोपमादिः, अपर्याप्तस्या-ऽन्तःकोटिकोटिसागरोपम०
उत्कृष्टस्थितिबन्धः
विशेषाधिक:
ततो नानापएसगुणहाणिठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि । पलिओवमवग्गमूलस्स असंखेज्जतिभागोत्ति काउं । तो एगपएसगुणहाणिठाणंतरं असंखेज्जगुणं, असंखेज्जाणि पलिअोवमवग्गमूलाणि त्ति काउं। तो एगं अबाहाकंडगं असंखेज्जगुणं । किं कारणं ? तिरहं वाससहस्साण जहन्नाबाहूणाणं जत्तिया समया ततिमो भागो जहन्नगठितिऊणाए उवरिल्लीए ठितिए एगं अबाहाकंडगं ति काउं। जहन्नगो ठितिबंधो असंखेज्जगुणो, अंतो
*अयं पाठो जेसलमेरशास्त्रसंग्रहस्थतालपत्रीयकर्मप्रकृतिचूर्णिसत्कः, मुद्रितप्रतौ तु "असंखेज्जगुणाणि" इति पाठः।
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४२
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ संज्ञिवर्जद्वादशजीवभेदेषु सागरोवमकोडाकोडीत्ति काउं । ततो ठितिबंधठाणाणि संखेज्जगुणाणि, जहन्नगठितिऊणा सव्वठितित्तिकाउं । तत्तो उक्कोसिया ठिती विसेसहिया, जहन्नगठितिए अबाहाए. य सहियत्ति काउं॥” इति ॥१६।१७।१८।१६।।
तदेवमुक्तं संज्ञिपर्याप्ता-ऽपर्याप्तजीवभेदद्वये आयुर्वर्जसप्तकर्मणामुत्कृष्ट स्थितिबन्धः, जघन्यस्थितिबन्धः, उत्कृष्टाबाधा, जघन्यावाधा, अबाधाकण्डकानि, अबाधास्थानानि, स्थितिबन्धस्थानानि, निषेकसत्कद्विगुणहान्योरन्तरम्, निषेकसत्कद्विगुणहानिस्थानानि, अबाधाकण्डकपरिमाणमित्येतेषां दशपदानामल्पबहुत्वम् । साम्प्रतमेतदेव शेषद्वादशजीवभेदेषु दिदर्शयिषुराह
वारहसु सेसेसुं जीवसमासेसु हुन्ति सत्तण्हं । थोवाणि अबाहाए तुल्लाइं ठाणकंडाइं ॥२०॥ तो संखगुणाऽवाहा हस्सा तत्तो परा विसेसहिया। ताउ असंखगुणाइं ठाणाई दुगुणहाणीणं ॥२१॥ ताउ असंखगुणाइं हवन्ति एगंतरस्स ठाणाइं । ताउ असंखेज्जगुणं अबाहकंडं भवे एगं ॥२२॥ ताउ असंखगुणाई णायव्वाणि ठिइबंधठाणाणि । तो संखगुणो हस्सो ठिइबंधो तो परोऽभहियो ॥२३॥ णवरि असंखेज्जगुणा चउसुएगिदिसक्कभेएसु।
हस्साऽवाहाऽत्थि तहा लहुठिइबंधो जहाठाणं ॥२४॥ (प्रे०) "बारहसु सेसेसुं' इत्यादि अनन्तरोक्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्ताऽपर्याप्तजीवभेदद्वयवर्जा ये सूक्ष्मवादरैकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिया-ऽसंज्ञिपञ्चेद्रियाणां पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदनिष्पन्ना द्वादश शेषा जीवसमासाः-जीवभेदास्तेषु प्रत्येकम् "हुन्ति' नि भवन्ति, किमित्याह- "सत्तण्हे". त्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां "थोवाणि प्रबाहाए तुल्लाई ठाणकंडाई" ति स्तोकानि, वक्ष्यमाणपदापेक्षयाऽल्पान्यबाधायाः "ठाणकंडाई" ति स्थानानि कण्डकानि च स्थानकण्डकानीति समासः, अबाधायाः स्थानान्यबाधायाः कण्डकानीत्येते द्वेऽपि पदे प्रत्येकमित्यर्थः । 'तल्लाणि" त्ति परस्परं तु तानि तुल्यानीत्यर्थः । सुगमम् । "तो" त्ति तेभ्योऽबाधास्थानाऽबाधाकण्डकैकतरेभ्यः "संखगुणाऽवाहा हस्सा" त्ति ह्रस्वा-जघन्याऽवाधा संख्येयगुणा । ननु संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवभेदयोरनन्तरं जघन्यावाधापेक्षयाऽवाधास्थानान्यवाधाकण्डकानि संख्येयगुणान्यभिहितानि. तत्प्रकते पुनः कथं वैपरित्येनावाधास्थानाऽवाधाकण्डकेभ्यो जघन्यावाधा संख्ययगुणाऽभिधीयते ? उच्यते, प्रकते द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्ताऽपर्याप्तलक्षणेष्वष्टजीवभेदेषु प्रस्तुतानां ज्ञानावरणादीनां सप्तप्रकृतीनां प्रत्येकमबाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि चावलिकायाः संख्येयभागगत
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आयुर्वर्जसप्तकर्मणाम् ] प्रथमाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ४३ समयतुल्यानि भवन्ति । कुतः ? प्रत्येकं स्थितिस्थानानां पन्योपमसंख्येयभागमात्रत्वेन तावन्मात्राणां स्तोकानामेवाबाधास्थानानां निष्पत्तेः । इदमुक्तं भवति-अधिकृतजीवभेदेषु न संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवभेदयोरिव सप्तानां जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धयोरन्तरालं संख्येयसागरोपमादिप्रमाणम्, किन्तु पल्योपमसंख्येयभागमात्रमेव । वक्ष्यते चात्रैव ग्रन्थे स्थितिबन्धप्रमाणं निरूपयता ग्रन्थकृता"सव्वविगलेसु सगगुरुठिइबंधो पलियसंखभागूणो । सत्तरह लहू णेयो'' इत्यनेन, इत्थं हि जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरालाधीनानि स्थितिबन्धस्थानान्यपि प्रकृते स्तोकानि पल्योपमसंख्येयभागमात्राणि प्राप्यन्ते, तानि चैकाबाधास्थाननिष्पादकपल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणेनियतसंख्याकैः स्थितिबन्धस्थानयंदा विभज्यन्ते तदाऽऽवलिकायाः संख्येयभागगतसमयप्रमाणं भागफलं लभ्यते, भागफलतुल्यान्येवाबाधास्थानानीति तु सुगमः। यावन्त्यवाधास्थानानि तावन्त्यवाधाकण्डकानीति तु प्राग् दर्शितमेव, अन्तमुहूर्तमात्राऽपि जघन्यावाधा तु संख्येयावलिकाप्रमाणा, अत एव प्रकृतेऽवाधास्थानाऽवाधाकण्डकेभ्यो जघन्यावाधा संख्येयगुणाऽभिहितेति । इदं हि संख्येयगुणत्वं सूक्ष्मवादरपर्याप्ताऽपर्याप्तात्मकैकेन्द्रियसत्कजीवभेदचतुष्कसम्बधिष्वल्पबहुत्वेषु न सङ्गच्छते, यत एकेन्द्रियाणां जघन्यस्थितिबन्धापेक्षयोत्कृष्टोऽपि स्थितिवन्धः पल्योपमस्याऽसंख्येयभागेनैवाधिको जायते, तथा च सति तेषां स्थितिबन्धस्थानान्यप्यतीवस्तोकानि पल्योपमासंख्येयभागमात्राणि, तानि च पूर्ववदेकाबाधास्थाननिष्पादकपल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणैर्नियतसंख्याकैः स्थितिबन्धस्थानयंदा विभज्यन्ते तदाऽऽवलिकाया असंख्येयभागगतसमयप्रमाणं भागफलं प्राप्यते । जघन्यावाधाऽपि प्रकृतसूक्ष्मबादरपर्याप्ताऽपर्याप्तैकेन्द्रियजीवभेदेषु यद्यपि द्वीन्द्रियाद्यपेक्षया स्तोका, तथाऽपि संख्येयावलिकाप्रमाणैव, कुतः ? द्वीन्द्रियाणां जघन्यस्थितिबन्धापेक्षयैकेन्द्रियाणां जघन्यस्थितिबन्धस्य संख्येयभागगतत्वेनाबाधाया अपि संख्येयभागगतत्वात् । इत्थं टेकेन्द्रियसत्कचतुर्जीवभेदसम्बन्ध्यल्पबहुत्वेष्वावलिकाया असंख्येयभागगतसमयप्रमाणेभ्योऽवाधास्थानेभ्यः संख्येयावलिकाप्रमाणा जघन्याबाधाऽसंख्येयगुणा भवति । न चैतावन्मात्रम् , किं तर्हि ? उत्तरत्र “तो संखगुणो ठिइबंधो” इत्यनेनाधिकृतशेषद्वादशजीवभेदेषु वक्ष्यमाणं स्थितिबन्धस्थानापेक्षया जघन्यस्थितिबन्धस्य संख्येयगुणत्वमपि चतुर्वेकेन्द्रियसत्कजीवभेदेषु न सङ्गच्छते, कुतः ? उक्तहेतोरेव, एकेन्द्रियसत्कचतुर्जीवभेदेषु स्थितिबन्धस्थानानां पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रत्वात्, तत एव पल्योपमासंख्येयभागेनोनसागरोपमत्रिसप्तभागादिप्रमाणस्य ज्ञानावरणादिसत्कजघन्यस्थितिबन्धस्याऽसंख्येयगुणत्वादिति भावः । ननु यद्येवं तर्हि कथमेकेन्द्रियसत्काश्चत्वारो जीवभेदाः शेषद्वादशजीवभेदेषु संगृह्याल्पबहुत्वमभिहितम् ? लाघवार्थम, पदद्वयं विवर्य शेषपदेषु तुल्यवक्तव्यत्वाच्च, न चैवं सत्यतिप्रसक्तिः स्यादिति वाच्यम् । यत एकेन्द्रियसत्कचतुर्जीवभेदापेक्षयाऽघटमानपदद्वये—“णवरि असंखेज्जगुणा” इत्यादिना ग्रन्थकारः स्वयमेवापवदिष्यतीत्यलं प्रसङ्गेन । अथ प्रकृतम्-"तत्तो परा" ति उक्तसप्तकर्मसत्का परा-उत्कृष्टा, अबाधा इत्यनुवर्तते, कियतीत्याह-"विसेसाहिया" ति विशेषाधिकाः, संख्येयभागमात्रेणाधिकेत्यर्थः ।
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४४ ]
बंधवहाणे मूलपडिटिबंधो
"ताउ
[ संज्ञिवर्ज द्वादशजीवभेदेषु कुतः ? रूपोनाबाधास्थानैरधिकत्वादिति । "ताउ श्रसंखणागुई" ति तस्या अनन्तरोक्तोत्कृष्टा बाधाया असंख्येयगुणानि कानीत्याह - "ठाणाई दुगुणहाणीणं" ति असंज्ञिपञ्चेन्द्रियादिप्रायोग्योत्कृष्टस्थितौ निषेकस्य द्विगुणहानीनां स्थानानि, पल्योपमप्रथमवर्गमूलासंख्येय भागप्रमाणत्वा तेषामिति । उक्तं चानन्तरमेव — “गाणंतरठाणाई असंखिययमोऽत्थि पल्लमूलंसो" इति । " ताउ असंखगुणाई हवंति" त्ति तेभ्यो निषेकस्य द्विगुणहानिस्थानेभ्यो ऽसंख्यगुणानि भवन्ति, कानीत्याह - " एगतरस्स ठाणाई" ति निषेकस्य द्विगुणहान्योरेकान्तरस्य स्थानानि, एकान्तरगतनिषेकस्थानानीत्यर्थः । कथम् ? पूर्ववत् पल्योपमस्यासंख्येयानां प्रथमवर्गमूलानां समयप्रमाणत्वादिति । “ताउ असंखेज्जगुणं” ति तेभ्योऽसंख्येयगुणं भवेदिति परेणान्वयः, किं तदित्याह — "अबाहाकडे भवे एगं” ति एकमबाधाकंडक मेकसमयावाधाहानौ हीयमानस्थितिबन्धस्थानसमूहभूतं प्रागुक्तस्वरूपमित्यर्थः, संज्ञिजीवभेदसत्काल्पबहुत्वानुसारेण भावनीयमिदमसंख्येयगुणत्वमिति । संखगुणाई णायव्वाणि" ति तस्मादेकस्मादवाधा कण्डकाद् असंख्यगुणानि ज्ञातव्यानि, कानीत्याह — "ठिइबंधट्टणाणि" त्ति निरुक्तलक्षणानि स्थितिबन्धस्थानानि । सुगमम् । "तो संखगुणो हस्तो oिsबंधो" त्ति तेभ्योऽनन्तरोक्तासंज्ञयादीनां प्रत्येकं स्थितिबन्धस्थानेभ्यस्तेषामेव प्रत्येकं संख्येयगुणो ह्रस्वः स्थितिबन्धः । असंज्ञि - विकलेन्द्रियाणां प्रत्येकं जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरस्य पल्योपमसंख्येयभागप्रमाणत्वेन तेषां जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणो जायते, न पुनरेकेन्द्रियाणाम्, तेषां जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरस्य पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणत्वात्, अत इदं विकलेन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवभेदप्राधान्येन सामान्यतोऽभिहितम्, एकेन्द्रियजीव भेदापेक्षया त्वनन्तरं विशेषतो वक्ष्यतीति । "तो परोऽब्भहियो” त्ति ततः परः - उत्कृष्टः स्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते, कियानित्याह"भहियो" त्ति अभ्यधिकः - विशेषाधिकः, असंज्ञि-विकलेन्द्रियसत्काष्टजीवभेदेषु पल्योपमसंख्येयभागेन, शेषेषु चतुर्ष्वकेन्द्रियसत्कजीवभेदेषु तु पल्योपमासंख्येयभागेनेत्यर्थः । सूक्ष्मबादरपर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्नेष्वेकेन्द्रियसत्कचतुषु जीवभेदेषु सामान्येनाभिहितमतिप्रसक्तमर्थं निराचिकीषु राह"णवरि" इत्यादि, नवरं परमयं विशेषः, कोऽयमित्याह - " असंखेज्जगुणा" इत्यादि, व्याख्यातप्रायम्, नवरं तथाशब्दः सादृश्ये, यथाऽबाधा तथा लघुस्थितिबन्धोऽसंख्यगुण इत्यर्थः, “जहाठाणं" ति यथोक्तस्थान इत्यर्थः । श्रयम्भावः - अनन्तरमवाधास्थानेभ्यो ह्रस्वाऽबाधा संख्येयगुणा उक्ता तथा स्थितिबन्धस्थानेभ्यो जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुण उक्तः, एतद्द्वयमप्येकेन्द्रिय सत्केषु चतुर्ष्वपि जीवस्थानेषु न सङ्गच्छते, अतस्तेषु चतुर्ष्वपि जीवभेदेष्ववाधास्थानेभ्यो हस्वाबाधाऽसंख्येयगुणा वक्तव्या, तथा स्थितिबन्धस्थानेभ्यो लघुस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणोऽभिधातव्य इति । इदमप्यपबहुत्वं कर्म प्रकृति चूर्णावित्यमेवाभिहितम्, केवलमसंशिपञ्चेन्द्रिय विकलेन्द्रिसत्कजीवभेदेषु तथैकेन्द्रियसत्कचतुर्जीवभेदेषु तुल्यमिति कृत्वा निरपवादं पृथक्पृथगभिहितम् । तथा च तद्ग्रन्थः,—
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आयुर्वर्जसप्तकर्मणाम् ]
प्रथमाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ४५
आयुर्वर्जसप्तकर्मसत्कस्थितिबन्धस्थानादीनां दशानां पदानामल्पबहुत्वयन्त्रम् | पर्याप्ता-ऽपर्याप्तद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिया-ऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय- सूक्ष्म-बादर-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तलक्षणेष्वष्टषु जीवभेदेषु
केन्द्रियलक्षणेषु चतुर्यु जीवभेदेषु अबाधास्थानानि । स्तोकानि
| आवलिकायाः संख्येय- || स्तोकानि । आवलिकायाः अबाधाकण्डकानि | तुल्यानि भागप्रमाणानि
असंख्यभागमात्राणि जघन्याबाधा | संख्येयगुणा । संख्येयावलिकामात्रा असंख्येयगुणा संख्येयावालिकामात्रा उत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका
विशेषाधिका निषेकद्विगुण- असंख्येयगुण० एकपल्योपमप्रथमवर्ग असंख्यगुण० एकपल्योपमप्रथमवर्गहानयः मूलस्याऽसंख्यभागमात्राः
मूलस्याऽसंख्येयभागः द्विगुणहान्योरेअसंख्येयपल्योपम
असंख्येयपल्योपमकमन्तरम् प्रथमवर्गमूलम्
प्रथमवर्गमूलम् अबाधाकण्डकम् पल्योपमसंख्येयभाग.
पल्योपमासंख्येयभाग. स्थितिबन्धपल्योपमासंख्येयभागस्य
पल्योपमासंख्येयभागस्य स्थानानि समयप्रमाणानि,
समयप्रमाणानि ६ जघन्यस्थिति- संख्येयगुणः पल्योपमसंख्येयभागोनाः | असंख्यगुण: पल्योपमासंख्येयबन्धः -२५-५०-१००-१०००
भागेनोनाःसागरोपमसागरोपमत्रिसप्तादिभागाः
त्रिसप्तादिभागाः | १० उत्कृष्टस्थितिबन्धः विशेषाधिकः पर्याप्तेषु-२५-५०-१००-१००० विशेषाधिकः बादरपर्याप्ते-सम्पूर्णाः सागरोपमाणां सम्पूर्णास्त्रि
सागरोपमत्रिसप्तादिसप्तादिभागाः अपर्याप्तेषु
भागाः। शेषत्रये-ते ते देशोना
देशोनाःx,
"पंचिंदियाणं असन्नीणं चउरिंदियाणं तेइंदियाणं बेइंदियाणं पज्जत्तगअपज्जत्तगाणं आउगवज्जाणं सत्तण्हं कम्माणं अबाहाहाणाणि अबाहाकंडगाणि य दो वि तुल्लाणि सव्वत्थोवाणि ताणि य आउलियाए +संखेज्जइभागमेत्ताणि । ततो जहनिया अबाहा संखेज्जगुणा। अंतोमुहुत्तमिति काउं। उक्कस्सिया अबाहा विसेसाहिया, अबाहाट्ठाणसहियत्ति काउं । तो नाणापएसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणणि । तओ एगं पएसगुणहाणिहाणंतरं असंखेज्जगुणं । एगं अबाहाकण्डगं असंखेज्जगुणं । तो ठितिबंधट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि, पलिअोवमस्स संखेज्जइभागमितिकाउं । जहन्नगो ठितिबंधो संखेज्जगुणो । उक्कस्सियाठिति विसेसाहिया ॥"
+अयं पाठो जेसलमेरग्रन्थागारस्थतालपत्रीयकर्मप्रकृतिचूर्णिप्रतीसत्कः, मुद्रितप्रतौ तु “असंखेज्जइ भागमेत्ताणि" इति पाठः। *पल्योपमसंख्येयभागेन न्यूनाः। xपल्योपमासंख्येयभागेन न्यूनाः ।
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४६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [पर्याप्तसंस्यसंज्ञिजीवभेदयोः “एगिंदियाणं सुहुमाणं बादराण पज्जत्तअपज्जत्तगाण आऊवज्जाणं अबाहाठाणाणि अबाहाकंडगाणि य दो वि तुल्लाणि सव्वत्थोवाणि, ताणि य आवलियाए असंखेज्जत्तिभागमेत्ताणि । जहन्निया अबाहा असंखेज्जगुणा । अंतोमुत्तमिति काउं। उक्कस्सिया अबाहा विसेसाहिया । *अबाहाठाणसहियत्तिकाउं। नाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि । एगं अंतरं असंखेज्जगुणं । एगं अबाहाकंडगं असंखेज्जगुणं । ठितिबंधढाणाणि असंखेज्जगुणाणि । जहन्नगो ठितिबंधो असंखेज्जगुणो । उकस्सिगो ठितिबन्धो विसेसाहिओ ॥ २०/२१/२२/ २३/२४ ॥
तदेवमभिहितं चतुर्दशष्वपि जीवभेदेष्वायुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धस्थानाबाधास्थानादीनां दशवस्तुनां परस्थानाल्पबहुत्वम् । साम्प्रतमवशेपस्यायुःकर्मणः स्थितिबन्धावाधास्थानादीनां परस्थानाल्पबहुत्वं प्रचिकटयिपुरादौ तावत्पर्याप्तसंश्यसंज्ञिरूपयोईयोर्जीवभेदयोस्तदाह
पज्जामणसएणीणं अाउस्सऽप्पा जहएणगाऽवाहा । तत्तो संखेज्जगुणो जहण्णगो होइ ठिइबंधो ॥ २५ ॥ ताप्रो संखगुणाई अवाहठाणाणि हुन्ति ताहिन्तो । उक्कोसिया अबाहा होएइ विसेसोऽभहिया ॥२६॥ ताउ असंखगुणाई हवन्ति ठाणाणि दुगुणहाणीणं । ताउ असंखगुणाई ठाणाइं अंतरे एगे ॥२७॥ ताउ असंखगुणाई णायव्वाणि ठिइबंधठाणाणि । ताहिन्तो अब्भहियो ठिइबंधो होइ उक्कोसो ॥ २८ ॥
(प्रे०) "पज्जामणसण्णीणं पाउस्सऽप्पा" इत्यादि, पर्याप्तशब्दस्य प्रत्येक योजनात , पर्याप्तामनस्कपर्याप्तसंज्ञिनोः, पर्याप्तासंज्ञिजीवभेदे पर्याप्तसंशिजीवभेदे च प्रत्येकमित्यर्थः । बहुवचनं तु प्राकृतवशात् । तयोः किमित्याह-"पाउस्से"त्यादि, उक्तशेषस्यायुःकर्मणः “प्पा जहण्णगाsबाहा" त्ति लुप्ताकारस्य दर्शनादल्पा-अनन्तरवक्ष्यमाणजघन्यस्थितिबन्धादिपदापेक्षया स्तोका जघन्यकाऽबाधा, “तत्तो संखेज्जगुणो जहएणगो होइ ठिइबंधो" ति तत आयुषो जघन्य एव जघन्यकः स्थितिवन्धः संख्येयगुणो भवति, कुतः ? इति चेत् , क्षुल्लकभवप्रमाणजघन्यस्थितिकाऽऽयुष्मतामपि जीवानां वेद्यमानायुषस्त्रिभागत्रिभागत्रिभागाद्यवशेषप्रकारेण चरमान्तमुहर्तेऽवशेषेऽपि पारभविकायुर्वन्धसम्भवादिति । "तायो" ति तेभ्यो संख्यगुणान्यबाधास्थानानि भवन्ति, आयुष इत्यनुवर्तते, एवमुत्तरत्रापि “आउस्स" इत्यस्य पदस्यानुवृत्तिर्योद्धव्या, कुतोऽवाधास्थानानि संख्येयगुणानि ? इति चेत् , आयुषो जघन्यस्थितिबन्धः क्षुल्लकभवप्रमाणः, अबाधास्थानानि त्वन्तमुहूर्त
अयं पाठोऽपि जेसलमेरग्रन्थागारस्थतालपत्रीयकर्मप्रकृतिचूर्णिप्रतीसत्कः, मुद्रितप्रतौ तु स्थानद्वयेऽपि क्रमेण "जहनियाबाहासहियत्ति काउं।" जहन्निाबाहासहियत्ति काउं।" इति पाठः ।
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आयुःकर्मणः ] प्रथमाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[४७ जघन्याबाधया न्यूनपूर्वकोटीविभागप्रमाणानि, अर्थात्पटपञ्चाशदभ्यधिकद्विशतावलिकाप्रमाणजघन्यायुबन्धापेक्षया संख्येयवर्षप्रमाणान्यबाधास्थानानि सुतरां संख्येयगुणानि भवन्तीति । "ताहिन्तो" त्ति तेभ्योऽवाधास्थानेभ्यः "उक्कोसिया अबाहा होएइ विसेसप्रोऽब्भहिया" ति उत्कृष्टाऽवाधा विशेषतोऽभ्यधिका, विशेषाधिका भवतीत्यर्थः। कुतः ? पूर्वकोटीत्रिभागप्रमाणत्वादिति । "ताउ असंखगुणाई हवन्ति" ति ततोऽसंख्यगुणानि भवन्ति, कानीत्याह-"ठाणाणि दुगुणहाणीण" त्ति निषेकस्य द्विगुणहानीनां स्थानानीत्यर्थः, कुतः ? पल्योपमप्रथमवर्गमूललक्षणयथोक्तप्रमाणत्वात् । ततोऽसंख्यगुणानि "ठाणाइं अंतरे एगे' ति आयुषो निषेकस्य द्विगुणहान्योरेकस्मिन्नन्तरे यानि निषेकस्थानानि तानीत्यर्थः, कुतः ? असंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूललक्षणयथोक्तप्रमाणत्वात् । “ताउअसंखगुणाइं णायव्याणि" ति तेभ्योऽसंख्यगुणानि ज्ञातव्यानि भवन्ति, कानीत्याह-"ठिइबंधठाणाणि" ति श्रायुषः स्थितिबन्धस्थानानि, यत इमानि पर्याप्तसंश्यसंज्ञिजीवभेदयोः क्रमेण समयोनषट्पञ्चाशदधिकशतद्वयावलिकान्यूनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपम - पल्योपमासंख्येयभागसमयतुल्यानीति । “ताहिन्तो” त्ति तेभ्यः-आयुषः स्थितिबन्धस्थानेभ्यः "अब्भहियो ठिइबंधो होइ उक्कोसो" ति आयुष उत्कृष्टः स्थितिबन्धोऽभ्यधिकः'-विशेषाधिको भवति, समयोनक्षुल्लकभवग्रहणस्य तत्र प्रक्षेपादिति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूणी---
“पंचिंदियाणं सन्नीणं असन्नीणं पज्जत्तगाणं आउगम्स सव्वत्थोवा अबाहा । सा य असंखिज्जद्धा। ततो जहन्नगो ठितिबंधो संखेज्जगुणो। सो य खुड्डागभवो त्ति काउं । ततो अबाहाहाणणि संखेज्जगणाणि ।
पर्याप्तसंज्ञि-पर्याप्तासंज्ञिजीवभेदयोरायुःकर्मणः स्थितिबन्धस्थानादी
नामष्टपदानामल्पबहुत्वयन्त्रम्
जघन्याबाधा
सर्वस्तोका असंक्षेप्याद्धा जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः खुल्लकभवः अबाधास्थानानि | संख्येयगुणानि | देशोनपूर्वकोटितृतीयभागसमयतुल्यानि उत्कृष्टाबाधा | विशेषाधिका पूर्वकोटितृतीयभाग० निपेकद्विगुणहानयः । असंख्येयगुणाः | पल्योपमप्रथमवर्गमूलस्याऽसंख्येयभागप्रमाणाः द्विगुणहान्योरन्तरम् | असंख्येयगुणम् | असंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलम् स्थितिबन्धस्थानानि असंख्येयगुणानि | क्षुल्लकभवन्यूनोउत्कृष्टस्थितिबन्धसमयतुल्यानि उत्कृष्टस्थितिबन्धः विशेषाधिकः | ३३ सागरोपमाणि तथा पल्यासंख्यभागः क्रमेण
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४८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [पर्याप्तसंज्यसंज्ञिवर्जजीवभेदेषु पूवकोडितिभागो जहन्नावाहूणो त्ति काउं। उक्कोस्सिा अबाहा विसेसाहिया। जहन्नाबाहासहिय त्ति काउं। ततो नाणापएसगुणहारिणठाणंतराणि असंखिज्जगुणाणि । कारणं पुव्वुत्तं । तो ठितिबंधट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि, जहन्नगठितिहीणा सव्वठितित्ति काउं। तो उक्कोसगो ठितिबंधो विसेसाहिओ जहन्नगठितिसहिओत्ति काउं ॥ इति ।। २५/२६/२७/२८ ॥
अथोक्तशेषद्वादशजीवभेदेषु प्रकृतमायुषः स्थितिबन्धस्थानादीनामल्पबहुत्वं दर्शयन्नाह-- वारहसु सेसेसु जीवसमासेसु अाउगस्सऽप्पा । हस्साऽवाहा तत्तो संखगुणो हस्सठिइबंधो ॥२६॥ ताश्रो संखगुणाई अबाहठाणाणि हुन्ति ताहिंतो । उक्कोसिया प्रवाहा होएइ विसेसोऽभहिया ॥३०॥ तत्तो संखगुणाइं गायब्वाणि ठिइबंधठाणाइं ।
ताहिन्तो अभहियो ठिइबंधो होइ उक्कोसो ॥३१॥
(प्रे०) “बारहसु सेसेसु"मित्यादि, अनन्तरोक्तपर्याप्तसंश्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवभेदद्वयं विहाय सूक्ष्म-बादर-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तैकेन्द्रिय-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया-ऽपर्याप्तसंझ्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणेषु द्वादशः शेषेषु जीवसमासेपु-जीवभेदेषु प्रत्येकमित्यर्थः, एतेषु प्रत्येक किमित्याह"प्राउगस्सऽप्पा" इत्यादि, आयुष्कस्य ह्रस्वा-जघन्याऽबाधाऽल्पा, वक्ष्यमाणपदेभ्योः स्तोकेत्यर्थः । इयं ह्यायुषो बन्धकालेन न्यूनासंक्षेप्याद्धाप्रमाणा सती संख्येयावलिकातुल्या भवति ।।
___ ननु कर्मप्रकृतिचूणौं तु साऽसंक्षेप्याद्धाप्रमाणा दर्शिता, अत्र तु ततोऽपि न्यूनाभिधाने कथं न विरोधः ? इति चेद, न, विवक्षाभेदेनेत्थमभिधानेऽपि न कश्चिद्विरोधः, "जीवाज्जीवाऽऽश्रव-बन्धसंवरनिर्जरा-मोक्षा-स्तत्वम् इत्यनेन सप्तविधतत्त्वप्रतिपादने “जीवाजीवा पुण्णं, पावा-सव-संवरो य निज्जरणा । बंधो मुक्खो य तहा, नव तत्ता हुंति नायव्वा' इत्यनेन नवविधतत्त्वाभिधानेऽप्यविरोध इव । इदमुक्तं भवति,-कुत्रचिद्ग्रन्थे जघन्याबाधाऽसंक्षेप्यद्धामानाऽभिहिता । यथा कर्मप्रकृतिचूर्णी- “पाउगस्स सव्वत्थोवा जहणिया अबाहा, सा य असंखिप्पद्धा' इत्यनेन । ततश्च कर्मप्रकृत्यभिप्रायेण यस्या अर्वाक् पूर्वमबद्धपारभविकायुष्कजीवेन नियमेनायुबन्धो समाप्यते सा वेद्यमानायुरवशेषरूपाऽसंख्येप्याद्धेति ज्ञायते, तस्या एवायुषो जघन्यावाधात्वेन संघटनात् । प्रज्ञापनावृत्यादौ तु "त्रिभागादिना प्रकारेण या संक्षेप्तुं न शक्यते सा असंक्षेप्या सा चासौ अद्धा च असंक्षेप्याद्धा" इत्येवंव्याख्यानाद् यस्या अर्वाक् पूर्वमबद्धपारभविकायुर्जीवो नियमेनायुर्वन्धं प्रारभते सा असंक्षेप्याद्धा, इत्येवमसंक्षेप्याद्धाऽऽयुर्वन्धकालेनाधिकजघन्याबाधाप्रमाणा लक्ष्यते, आयुषोऽबाधा तु यावति वेधमानायुष्यवशेषे परभवायुबन्धः समाप्यते तावन्माना सर्वेषामभिप्रता, प्रकृते च जघन्याबाधा प्रज्ञापनावृत्त्याद्यभिप्रेताऽसंक्षेप्याद्धाव्याख्यानानुसारेण भाविता, कर्मप्रकृत्यभि
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आयुः कर्मणः ]
प्रथमाधिकारेऽल्पबहुत्यद्वारम्
[ ४६
प्रायेण त्वन्यथाऽपि भावनीया । इत्थं ह्युभयापेक्षयाऽपि जघन्यायाधायाः समानत्वात् न कश्चिद्विरोधः,
पदार्थान्तरं वेति ।
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अथ प्रकृतम् -- "तत्तो संखगुणो हस्सठिइबंधो" त्ति ततः संख्येयगुणो ह्रस्वः - जघन्यः स्थितिबन्धः, आयुष इत्यनुवृच्या बोद्धव्यम् । एवमुत्तरत्रापि "प्रागस्स" इत्यस्यानुवृत्तिर्द्रष्टव्या । "ता संखगुणाई प्रबाहठाणाणि हुन्ति" त्ति तस्मादायुषो जयन्यस्थितिबन्धादायुपोऽबाधास्थानानि संख्येयगुणानि भवन्ति । जघन्याबाधोनस्वोत्कृष्टायुस्त्रिभाग समय प्रमाणत्वादिति । "ताहितो " त्ति तेभ्योऽवाधास्थानेभ्यः “उक्कोसिया अबाहा होएइ विसेसोऽब्भहिया" त्ति सुगमम्, जघन्यावाधाया यत्र प्रक्षेपादिति । " तो संखगुणाई णायव्वाणि ठिइबंधठाणाई" ति सुगमम्, स्थितिबन्धस्थानानामन्तर्मुहूर्तोन पूर्वकोटीसमयप्रमाणत्वात् । "ताहिन्तो अब्भहियो ठिइबंधो होइ उक्कोसो" त्ति सुगमम्, समयोन क्षुल्लकभवलक्षणस्यान्तमुहूर्त कालस्यात्र प्रक्षेपादिति । उक्तं च कर्म प्रकृतिचूण
“पंचिंदियाणं सन्नीणं असन्नी अपज्जत्तगाणं चउरिंदियारणं तेइंदियारणं बेइंदियाणं बायर एगिंदियाणं सुहुम एगिंदियाणं पज्जत्तगपज्जत्तगाणं उगस्स सव्वत्थोवा जहरिया अबाहा, साय असंखेद्धा | जहण्णगो ठितिबंधो संखेज्जगुणो, खुड्डागभवग्गणत्ति काउं । अबाहाद्वाराणि संखेज्जगुणाणि । उक्कसिया बाहा विसेसाहिया । ठितिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि, पुव्वकोडीजहन्नगट्ठिति (ऊ) णत्ति काउं । उक्कस्सगो ठितिबंधो विसेसाहिओ" । इति ।
पर्याप्तसंज्ञय संज्ञिवर्जद्वादशजीव भेदेष्वायुपः स्थितिबन्ध स्थानादीनामल्पबहुत्वयन्त्रम्
पदानि
क्रमः
―
१ जघन्याबाधा
२ जघन्यस्थितिबन्धः
३ बाधास्थानानि
४ उत्कृष्टाबाधा
५ स्थितिबन्धस्थानानि
६ | उत्कृष्टस्थितिबन्धः
अल्पबहुत्वम्
सर्वस्तोका
संख्येयगुणः
संख्येयगुणानि
विशेषाधिका
संख्ये
विशेषाधिकः
प्रमाणम्
संक्षेप्याद्धाप्रमाणा
क्षुल्लकभवप्रमाणः
देशोन स्वोत्कृष्टायु स्त्रिभागसमय तुल्यानि
स्वोत्कृष्टायु स्त्रिभागप्रमाणा देशोनपूर्वकोटिसमयप्रमाणानि
एका पूर्वकोटि :
तदेवं व्याख्यातानि चतुर्थद्वारे प्रत्येकं मूलकर्मणां पृथक् पृथक् स्थितिबन्धस्थानादेः परस्थानाल्पबहुत्वानि । अथैतान्येव मूलोत्ताल्पबहुत्वानि बीजपदीकृत्याष्टकर्मणां परस्थानतस्तानि सामस्त्येनोपपादयितु ं युज्यन्ते, एवं गुणस्थानेषु जीवस्थानान्यधिकृत्य पृथक् पृथक् सामस्त्येन च चिन्ता -
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अंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [प्रतिजीवभेदमष्टकर्मणां मिथः विषयीकतव्यानि भवन्ति विदुषां विविदिपाविच्छेदायेति मन्यामहे, तथाऽपि न तानि सर्वाणि ग्रन्थविस्तरभयाद्वितन्मः, किन्तु प्रथमगुणस्थाने भव्याभव्यसाधारणबन्धप्रायोग्यस्थितिबन्धस्थानादीन्यधिकृत्याऽष्टानामपि मूलकर्मणां परस्थानत एकैकजीवभेदेषु पार्थक्येन, चतुर्दशजीवभेदेषु सामस्त्येन चोच्यन्ते । तत्र पृथग्यक्तव्ये श्रादो तावत्पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवभेदे--(१) आयुषो जघन्याबाधा सर्वस्तोका, क्षुल्लकभवत्रिभागादपि सुबहुन्यूनत्वात्तस्याः । (२) तत आयुपो जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, क्षुल्लकभवप्रमाणत्वात् । (३) ततो नामगोत्रयोजघन्याबाधा संख्येयगुणा, अन्तमुहूर्तमात्रत्वेऽपि चुल्लकभवापेक्षया संख्येयगुणवहदन्तमु हूतेप्रमाणत्वात् । (४) ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरणवेदनीया-ऽन्तरायलक्षणस्य ज्ञानावरणादिचतुष्कस्य जघन्यावाधाऽन्तमुहूर्तमात्रा सत्यपि विशेषाधिका, कुतः ? नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धापेक्षयाऽस्य चतुष्कस्य जघन्यस्थितिबन्धस्य विशेषाधिकत्वात, जघन्याबाधाया जघन्यस्थितिबन्धाधीनत्वाच्च । ननु नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धापेक्षयाऽस्य ज्ञानावरणादेजघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिक इति कथं ज्ञायते ? भण्यते-पायुवेजेसप्तमूलकर्मणामेकेन्द्रियादिस्वामिकानां जघन्यस्थितिवन्धानामुत्कृष्टस्थितिबन्धानां च प्रमाणस्योघोत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणानुभारेण भावात् । इदमुक्तं भवति-प्रोघतो नाम-गोत्रयोः प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य विंशतिसागरोपमकोटीकोटीलक्षणस्यापेक्षया ज्ञानावरणादेः प्रत्येकमुत्कृष्टोऽपि स्थितिबन्धो विशेषाधिकः, त्रिंशत्काटाकोटीसागरोपमप्रमाणत्वात्, एवमेवौघतो ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, यतो मोहनीयस्योत्कृष्टा स्थितिरोषतः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा बध्यते, यस्य च नामादेः कर्मण ओघोत्कृत्ष्टस्थितिबन्धो ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया स्तोकस्तस्य जघन्यस्थितिबन्धोऽप्येकेन्द्रियादिजीवैरुत्कृष्टस्थितिबन्धवत् स्तोकः क्रियते, यस्य च ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्ध ओघतो नामादेः कर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया विशेषाधिको मोहनीयस्य संख्येयगुणो वा तस्योत्कृष्टो वा जघन्यो वा स्थितिवन्धोऽप्येकेन्द्रियादिजीवैस्तथाविध अोघोत्कृष्टस्थितिबन्धानुसारी विशेषाधिकः संख्येयगुणो वा क्रियते । यतो यस्या यस्या मतिज्ञानावरणाद्यत्तरप्रकृतेरोधोत्कृष्टस्थितिबन्धो ज्ञानावरणादिमूलप्रकृत्युत्कृष्टस्थितिबन्धतुल्यो जायते, ताः प्रकृतयः प्रथमगुणस्थानके अोघतो वध्यन्ते, तीर्थकरनामा-ऽऽहारकद्विकवजानां सप्तदशाभ्यधिकशतसंख्याकानामुत्तरप्रकृतीनां बन्धस्य मिथ्यात्वगुणस्थानेऽभिधानात् । न चैवं सासादनादिगुणस्थानेष्वपि, मोहनीयाख्यमूलप्रकृतेरुत्कृष्टस्थितिबन्धतुल्योत्कृष्टस्थितिबन्धाया अद्वितीयाया मिथ्यात्वमोहनीयप्रकृतेः सासादनगुणे केषामपि जीवानामबन्धात्, एवमेवोत्तरत्रापि तथाविधप्रकृतीनां विच्छेदात्, इत्थं हि मिथ्यात्वमोहनीयादिप्रकृतीनां बन्धकः पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवो वाऽपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवो वैकेन्द्रियादीनामन्यतमो वा जीवो नामगोत्रयोर्यावतीमुत्कृष्टां स्थिति बध्नाति तदपेक्षया ज्ञानावरणादीनां चतुर्णा तां विशेषाधिका बध्नाति, ज्ञानावरणाद्यपेक्षया मोहनीयस्य तु तां संख्येयगुणां बध्नाति, यथा उत्कृष्टां तथा जघन्यामपि नामगोत्रयोरपेक्षया ज्ञानावरणादेविशेषाधिकां, तदपेक्षया मोहनीयस्य संख्येयगुणां च बध्नाति, अत
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स्थितिबन्धस्थानाद्यल्पबहु० ] प्रथमाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम
[ ५१ एव नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिवन्धापेक्षया ज्ञानावरणादिचतु णां जघन्यस्थितिवन्धो विशेषाधिक उच्यते । इत्थमेव ज्ञानावरणादीनां स्थितिबन्धस्थानाऽवाधास्थान-जघन्योत्कृष्टावाधादीनां निषेकद्विगुणहान्यबाधाकण्डकवर्जानां पदानां जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्ध-तदन्तरालाधीनतया तेषां वक्ष्यमाणसंख्येयगुणत्वादिकस्य जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धानुसारेण भावना कर्तव्येति । अथ प्रस्तुतम्-(५) ज्ञानावरणादिचतुष्कस्य जघन्यावाधापेक्षया मोहनीयस्य जयन्यावाधान्तमुहूर्तमात्रा सत्यपि संख्येयगुणा, अस्य जघन्यस्थितिबन्धस्य संख्येयगुणत्वात् (६) ततो नामगोत्रयोरबाधास्थानानि संख्येयगुणानि, कुतः ? अन्तमुहूर्तोनवर्षसहस्रव्यप्रमाणत्वात् । (७) ततोऽनयोरेवोत्कृष्टावाधा विशेषाधिका, समयोनजघन्यावाधायास्तत्र प्रवेशात् । (८) ततो ज्ञानावरणादिचतुष्कस्यावाधास्थानानि विशेषाधिकानि, नामगोत्रयोरपेक्षया ज्ञानावरणादेर्जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरालस्य विशेषाधिकत्वात्, अबाधास्थानानां तदधीनत्वाच्च । (६) ततोऽस्यैव चतुष्कस्योत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका, समयोनजघन्याबाधायाः प्रक्षेपात् । (१०) ततो मोहनीयस्यावाधास्थानानि संख्येयगुणानि, अस्यौधोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य संख्येयगुणत्वेन जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरस्यापि संख्येयगुणत्वात्, । (११) ततोऽस्यैव मोहनीयस्योत्कृष्टावाधाविशेषाधिका, समयोनजघन्यावाधायुतत्वेन सप्तवर्षसहस्रमितत्वात् । (१२) तत आयुषोऽबाधास्थानानि संख्येयगुणानि, अन्तमुहूर्तोनपूर्वकोटीत्रिभागतुल्यत्वात् । (१३) तत आयुष उत्कृष्टावाधाविशेषाधिका, समयोनजघन्याबाधायास्तत्र प्रवेशेन पूर्वकोटीत्रिभागतुल्यत्वात् । (१४) ततोऽस्यैवायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धे निषेकस्य द्विगुणहानिस्थानान्यसंख्येयगुणानि, पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणत्वात् । (१५) ततो नामगोत्रयोस्तानि संग्व्येयगुणानि, अनयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य संख्येयगुणत्वात् । (१६) ततो ज्ञानावरणादिचतुष्कस्य तानि विशेषाधिकानि, अस्योत्कृष्टस्थितिवन्धस्य विशेषाधिकत्वात् । (१७) ततो मोहनीयस्य तानि निषेकद्विगुणहानिस्थानानि संख्येयगुणानि, अस्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्य संख्येयगुणत्वात् निषेकद्विगुणहानिस्थानानां तदधीनत्वाच्च । (१८) ततोऽष्टानामपि ज्ञानावरणादीनां निपेकद्विगुणहानिस्थानयोरेकमन्तरमसंख्येयगुणम् , द्विगुणहानिस्थानान्तरस्याऽसंख्यपल्योपमप्रथमवर्गमूलतुल्यनियतपरिमाणतया सर्वत्र द्विगुणहानिस्थानापेक्षयाऽसंख्येयगुणत्वादत्रापि तथैव बोद्धव्यम् । एवमेवोत्तरत्रापि द्रष्टव्यम् । विशेषभावना तु मूलोक्ताल्पबहुत्ववृत्त्यनुसारेण स्वमेव कर्तव्या । (१६) अनन्तरोक्तनिषेकद्विगुणहानिस्थानयोरेकान्तरापेक्षयाऽऽयुर्वर्जेसप्तकर्मणामेकमबाधाकण्डकमसंख्येयगुणम्, अस्यापि पल्योपमासंख्येयभागतुल्यत्वेऽपि सर्वत्र निषेकद्विगुणहानिस्थानान्तरापेक्षयाऽसंख्येयगुणत्वेन नियतत्वादेवासंख्येयगुणत्वमवसातव्यम् । इत्थमेवोत्तरत्रापि द्रष्टव्यम् । अत्रापि विशेषभावना प्रागिव कर्तव्या । (२०) अनन्तरोक्तकावाधाकण्डकापेक्षयाऽऽयुषः स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि, देशोनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणत्वात् । (२१) तत आयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः, क्षुल्लकभवग्रहणलक्षणेनाऽन्तमुहूर्तेनाधिकत्वात् । (२२) ततो नामगोत्रयोजघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, अन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमितत्वात् । (२३) ततो ज्ञानावरणादिचतुणां जघन्यस्थितिवन्धो
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५२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [प्रतिजीवभेदमष्टकर्मणां मिथः विशेषाधिकः, तेषामोधोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य नामगोत्रयोरोघोत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया विशेषाधिकत्वात्, भव्याभव्यसाधारणजघन्यस्थितिबन्धस्य तदधीनत्वाच्च । (२४) ततो मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धोऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणः सन्नपि संख्येयगुणः, अोषोत्कृष्ट स्थितिबन्धस्य संख्येयगुणत्वात् । (२५) ततो नामगोत्रयोः स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि, अन्तःकोटीकोटीसागरोपमन्यूनविंशतिसागरोपमकोटीकोटीनां समयतुल्यत्वात् । (२६) ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः, सम्पूर्णविंशतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् । (२७) ततो ज्ञानावरणादिचतुर्णा स्थितिवन्धस्थानानि विशेषाधिकानि, देशोनत्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणतया द्विगुणादपि हीनत्वात् । (२८) ततस्तेषामेव चतुर्णामुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः, समयोनजघन्यस्थित्या अन्तःकोटीकोटीलक्षणायास्तत्र प्रवेशेन परिपूर्णत्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् । (२६) ततो मोहनीयस्य स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि, अन्तःकोटीकोटीसागरोपमन्यूनसप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् । (३०) ततस्तस्यैव मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः, अन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणजघन्यायाः स्थितेस्तत्र प्रवेशादिति ।।
अथाऽपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवभेद आयुष उत्कृष्टस्यापि स्थितिबन्धस्य पूर्वकोटीवर्षप्रमाणत्वेन निषेकद्विगुणहानिस्थान-तदन्तरयोरसम्भवात् पदद्वयवर्जानां शेषाणां ज्ञानावरणादेः स्थितिबन्धस्थानादीनामल्पबहुत्वम् । तत्र-(१) आयुषो जघन्याबाधा सर्वस्तोका, (२) तत आयुषो जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, (३) तत आयुषोऽवाधास्थानानि संख्येयगुणानि, (४) तत आयुष उत्कृष्टावाधा विशेषाधिका, (५) ततो नामगोत्रयोजघन्यावाधा संख्येयगुणा, (६) ततो ज्ञानावरणादिचतुष्कस्य जघन्याबाधा विशेषाधिका, (७) ततो मोहनीयस्य जघन्याबाधा संख्येयगुणा, (८) ततो नामगोत्रयोरवाधास्थानानि संख्येयगुणानि, (6) ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका, (१०) ततो ज्ञानावरणादेरवाधास्थानानि विशेषाधिकानि, (११) ततो ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टावाधा विशेषाधिका, (१२) ततो मोहनीयस्याबाधास्थानानि संख्येयगुणानि, (१३) ततो मोहनीयस्योत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका, (१४) तत आयुषः स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि, (१५) तत आयुष उत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः, पूर्वकोटीवर्षप्रमाणत्वात् । (१६) ततो नामगोत्रयोनिषेकस्य द्विगुणहानिस्थानान्यसंख्येयगुणानि, (१७) ततो ज्ञानावरणादेर्द्विगुणहानिस्थानानि विशेषाधिकानि, (१८) ततो मोहनीयस्य द्विगुणहानिस्थानानि संख्येयगुणानि, (१६) तत आयुर्वजसप्तकर्मणां निषेकस्य द्विगुणहानिस्थानयोरन्तरमसंख्येयगुणम् , अत्र हेतुः पूर्वोक्तसंज्ञिपर्याप्तजीवभेदवज्ज्ञेयः । (२०) ततस्तेषामेवैकमवाधाकण्डकमसंख्येयगुणम् , अत्रापि हेतुः पूर्वोक्तसंज्ञिपर्याप्तजीवभेदवज्ज्ञेयः । (२१) ततो नामगोत्रयोजघन्यस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः । (२२) ततो ज्ञानावरणादिचतुष्कस्य जघन्यस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२३) ततो मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः। (२४) ततो नामगोत्रयोः स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । (२५) ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः ।
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स्थितिबन्धस्थानाद्यल्पबहु० ] प्रथमाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[५३ (२६) ततो ज्ञानावरणादिचतुष्कस्य स्थितिबन्धस्थानानि विशेषाधिकानि। (२७) ततो ज्ञानावरणादिचतुर्णामुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२८) ततो मोहनीयस्य स्थितिवन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । (२६) ततो मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । इति ।
__अथ पर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवभेदे प्रकृताल्पबहुत्वम्-तत्र (१) नामगोत्रयोरबाधास्थानानि अबाधाकण्डकानि स्तोकानि परस्परं तुल्यानि च, स्थितेरल्पत्वेनावलिकाया लघुसंख्यभागगतसमयतुल्यत्वात् (२) ततो ज्ञानावरणादिचतुष्कस्यावाधास्थानानि विशेषाधिकानि, । (३) ततो मोहनीयस्यावाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (४) तत आयुषो जघन्यावाधा संख्येयगुणा । (५) तत आयुषो जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (६) ततो नामगोत्रयोर्जघन्याबाधा संख्येयगुणा । (७) ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (८) ततो ज्ञानावराणादेर्जघन्याबाधा विशेषाधिका । (8) ततो ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१०) ततो मोहनीयस्य जघन्याबाधा संख्येयगुणा । (११) ततो मोहनीयस्योत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१२) तत आयुषोऽवाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (१३) तत आयुष उत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१४) तत आयुषो द्विगुणहानिस्थानान्यसंख्येयगुणानि । (१५) ततो नामगोत्रयोर्द्विगुणहानिस्थानान्यसंख्येयगुणानि । (१६) ततो ज्ञानावरणादेदिगुणहानिस्थानानि विशेषाधिकानि । (१७) ततो मोहनीयस्य द्विगुणहानिस्थानानि संख्येयगुणानि । (१८) ततोऽष्टकर्मणां द्विगुणहान्योरन्तरमसंख्येयगुणम् । (१६) तत आयुर्वर्जसप्तकर्मणामेकमवाधाकण्डकमसंख्येयगुणम् । (२०) तत अायुषः स्थितिवन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि । (२१) तत आयुष उत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२२) ततो नामगोत्रयोः स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि । (२३) ततो ज्ञानावरणादिचतुष्कस्य स्थितिबन्धस्थानानि विशेषाधिकानि । (२४) ततो मोहनीयस्य स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । (२५) ततो नामगोत्रयोजघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (२६) ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२७) ततो ज्ञानावरणादेजघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२८) ततो ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२६) ततो मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः (३०) ततो मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । इति ।
अथाऽपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवभेदे-(१)नामगोत्रयोरबाधास्थानानि स्तोकानि, (२) ततो ज्ञानावरणादेरवाधास्थानानि विशेषाधिकानि, । (३) ततो मोहनीयस्यावाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (४) तत आयुषो जघन्यावाधा संख्येयगुणा, संख्येयावलिकाप्रमाणत्वात् । (५) तत अायुषो जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (६) तत आयुषोऽवाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (७) तत आयुष उत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (८) ततो नामगोत्रयोर्जघन्याबाधा संख्येयगुणा । () ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टबाधा विशेषाधिका । (१०) ततो ज्ञानावरणादेर्जवन्याबाधा विशेषाधिका । (११) ततो ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१२) ततो मोहनीयस्य जघन्यावाधा संख्येयगुणा । (१३) ततो
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [प्रतिजीवभेदमष्टकर्मणां मिथः मोहनीयस्योत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१४) तत आयुषः स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । (१५) तत आयुष उत्कृष्ट स्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (१६) ततो नामगोत्रयोर्द्विगुणहानिस्थानान्यसंख्येयगुणानि । (१७) ततो ज्ञानावरणादेर्डिगुणहानिस्थानानि विशेषाधिकानि । (१८) ततो मोहनीयस्य द्विगुणहानिस्थानानि संख्येयगुणानि । (१६) तत आयुर्वर्जसप्तकर्मणां द्विगुणहानिस्थानयोरन्तरमसंसयेयगुणम् , उक्तनियमात् । (२०) ततस्तेषामेवैकमवाधाकण्डकमसंख्येयगुणम्, अत्रापि पूर्ववत् । (२१) ततो नामगोत्रयोः स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि, पल्योपमसंख्येयभागतुल्यत्वात् । (२२) ततो ज्ञानावरणादिचतुष्कस्य स्थितिबन्धस्थानानि विशेषाधिकानि । (२३) ततो मोहनीयस्य स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । (२४) ततो नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, संख्येयसागरोपमतुल्यत्वात् । (२५) ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२६) ततो ज्ञानावरणादेर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२७) ततो ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२८) ततो मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (२६) ततो मोहनीयस्योस्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । इति ।
अथ पर्याप्तचतुरिन्द्रियजीवभेदे प्रकृताल्पबहुत्वम् , तत्र-(१) नामगोत्रयोरबाधास्थानानि स्तोकानि, पूर्ववदावलिकासंख्येयभागतुल्यत्वात् । (२) ततो ज्ञानावरणादेरबाधास्थानानि विशेषाधिकानि । (३) ततो मोहनीयस्यावाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (४) तत आयुषो जघन्याबाधा संख्येयगुणा । (५) तत आयुपो जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (६) ततो नामगोत्रयोर्जघन्याबाधा संख्येयगुणा । (७) ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (८) ततो ज्ञानावरणादेजघन्याबाधा विशेषाधिका । (8) ततो ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१०) ततो मोहनीयस्य जघन्याबाधा संख्येयगुणा । (११) ततो मोहनीयस्योत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१२) तत आयुषोऽवाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (१३) तत आयुष उत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१४) तत अायुषः स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि, देशोनपूर्वकोटीवर्षसमयमितत्वात् । (१५) तत आयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (१६) ततो नामगोत्रयोचिगुणहानिस्थानान्यसंख्येयगुणानि ।
__ इतस्तु सप्तदशप्रभृतीन्येकोनत्रिंशत्तमपर्यन्तानि शेषपदान्यपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवभेदवदेव द्रष्टव्यानि, तुल्यवक्तव्यत्वादिति । पर्याप्तत्रोन्द्रियजीवभेदे पर्याप्तद्वीन्द्रियजीवभेदे च प्रकृताल्पबहुत्वमविशेषेण चतुरिन्द्रियजीवभेदवदेव द्रष्टव्यम् , स्थितिबन्धस्थानादीनां प्रमाणस्य नानात्वेऽपि तदीयाल्पबहुत्ववक्तव्यतायास्तुल्यत्वात् । इत्थमेवाऽपर्याप्तद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियलक्षणेष त्रिषु जीवभेदेषु प्रकृताल्पबहुत्वान्यपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवभेदवदभिधातव्यानि, प्रत्येकं पूर्ववत्प्रमाणनानात्वेऽप्यल्पबहुत्ववक्तव्यतायाः सदृशत्वात् । तदेवं गतानि पर्याप्ता-ऽपर्याप्त-संश्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय-चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रिय-द्वीन्द्रियलक्षणेषु दशजीवभेदेषु प्रत्येकमष्टकर्मणां परस्परं स्थितिबन्ध स्थानादीनामल्पबहुत्वम् ।
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स्थितिबन्धस्थानाद्यल्पबहु० ]
प्रथमाधिकारे ऽल्पबहुत्वद्वारम
साम्प्रतं पर्याप्तबादरैकेन्द्रियजीवभेदे प्रकृताल्पबहुत्वं प्रदश्यते - ( १ ) नामगोत्रयोरबाधास्थानानि सर्वस्तोकानि, स्थितिस्थानानामल्पत्वेनावलिकाया असंख्यभागतुल्यत्वात् । (२) ततो ज्ञानावरणादेरबाधास्थानानि विशेषाधिकानि । (३) ततो मोहनीयस्यावाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (४) तत आयुषो जघन्याबाधाऽसंख्येयगुणा । (५) तत श्रायुषो जघन्य स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (६) ततो नामगोत्रयोर्जघन्यावाधा संख्येयगुणा । (७) ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका (८) ततो ज्ञानावरणादेर्जघन्यावाधा विशेषाधिका । (६) ततो ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१०) ततो मोहनीयस्य जघन्यावाधा संख्येयगुणा । (११) ततो मोहनीयस्योत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१२) तत श्रायुषोऽबाधास्थानानि संख्येयगुणानि, साधिकसप्तवर्षसहस्र तुल्यत्वात् । (१२) तत श्रायुप उत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१४) तत आयुषः स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि, देशोन पूर्वकोटीवर्षसमयतुल्यत्वात् । (१५) तत श्रायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेपाधिकः । (१६) ततो नामगोत्रयोर्द्वगुणहानिस्थानान्यसंख्येयगुणानि । ( १७ ) ततो ज्ञानावरणादेर्द्विगुणहानिस्थानानि विशेषाधिकानि । (१८) ततो मोहनीयस्य द्विगुणहानिस्थानानि संख्येयगुणानि । (१६) तत श्रायुर्वर्ज - सप्तकर्मणां द्विगुणहान्योरन्तरमसंख्येयगुणम् । ( २० ) तत श्रायुर्वर्ज सप्तकर्मणामेकमवाथाकण्डकमसंख्येयगुणम् । (२१) ततो नामगोत्रयोः स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि । (२२) ततो ज्ञानावरणादेः स्थितिबन्धस्थानानि विशेषाधिकानि । ( २३ ) ततो मोहनीयस्य स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । ( २४ ) ततो नामगोत्रयोर्जघन्य स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः । (२५) ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२६) ततो ज्ञानावरणादेर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२७) ततो ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । ( २८ ) ततो मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुण: । ( २ ) ततो मोहनीयस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धो विशेषाधिकः । इति ।
अथाऽपर्याप्तबादरै केन्द्रियजीवभेदे प्रस्तुताल्पबहुत्वम् तत्र ( १ ) नामगोत्रयोरवाथास्थानानि स्तोकानि । (२) ततो ज्ञानावरणादेरबाधास्थानानि विशेषाधिकानि । (३) ततो मोहनीयस्यावाधास्थानानि संख्येयगुणानि । ( ४ ) तत श्रायुषो जघन्यावाधाऽसंख्येयगुणा । ( ५ ) तत श्रायुषो जघन्य - स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । ( ६ ) तत श्रायुषोऽवाधास्थानानि संख्येयगुणानि । ( ७ ) तत आयुष उत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (८) ततो नामगोत्रयोर्जघन्यावाधा संख्येयगुणा । (६) ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१०) ततो ज्ञानावरणादेर्जघन्यवाधा विशेषाधिका । (११) ततो ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१२) ततो मोहनीयस्य जघन्यावाधा संख्येयगुणा । (१३) ततो मोहनीयस्योत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । ( १४ ) तत श्रायुषः स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । (१५) तत उत्कृष्ट स्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (१६) ततो नामगोत्रयोद्विगुणहानिस्थानान्यसंख्येयगुणानि । (१७) ततो ज्ञानावरणादेर्द्विगुणहानिस्थानानि विशेषाधिकानि । (१८) ततो मोहनीयस्य द्विगुणहानिस्थानानि संख्येयगुणानि । (१६) तत आयुर्वर्जसप्तकर्मणां द्विगुणहान्यो
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५६ ]
___बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ अष्टकर्मसर्वजीवभेदानां मिथः रन्तरमसंख्येयगुणम् । (२०) तत आयुर्वर्जसप्तकर्मणामेकमवाधाकण्डकमसंख्येयगुणम् । (२१) ततो नामगोत्रयोः स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि । (२२) ततो ज्ञानावरणादेः स्थितिबन्धस्थानानि विशेषाधिकानि । (२३) ततो मोहनीयस्य स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । (२४) ततो नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः। (२५) ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२६) ततो ज्ञानावरणादेर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिक । (२७) ततो ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२८) ततो मोहनीयस्य जघन्यस्थितिवन्धः संख्येयगुणः । (२६) ततो मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । इति ।
__ अथ पर्याप्ताऽपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियलक्षणयोर्द्वयोः शेषजीवभेदयोस्तु प्रस्तुताल्पबहुत्वमपर्याप्तवादरैकेन्द्रियजीवभेदवदेव द्रष्टव्यम् , तुल्यवक्तव्यत्वात् । इति । गता चतुर्दशजीवभेदेषु पृथक् पृथक् प्रकृताल्पबहुत्ववक्तव्यता ।
साम्प्रतं चतुर्दशजीवभेदानां समुदितं स्थितिबन्धस्थानाद्यल्पबहुत्वं दर्श्यते-(१) सूक्ष्मकेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरबाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च स्तोकानि परस्परं तुल्यानि च । (२) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादीनां चतुर्णामबाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च विशेषाधिकानि, परस्परं तु तानि तुल्यानि । (३) ततस्तस्यैव मोहनीयस्याबाधास्थानान्यवाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि, परस्परं तु प्राग्वत्तुल्यान्येव । (४) ततो बादरैकेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरवाधास्थानान्यवाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि, परस्परं तु प्राग्वत्तुल्यान्येव । (५) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरवाधा. स्थानान्यबाधाकण्डकानि च विशेषाधिकानि, परस्परं तु प्राग्वत्तल्यान्येव । एवमेवोत्तरत्रापि तुल्यानीति स्वयमेव द्रष्टव्यम् । (६) ततस्तस्यैव मोहनीयस्याबाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (७) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य नामगोत्रयोरबाधास्थानान्यवाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (८) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेवाधास्थानान्यवाधाकण्डकानि च विशेषाधिकानि । (6) ततस्तस्यैव मोहनीयस्यावाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (१०) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरबाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (११) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरबाधास्थानान्यवाधाकण्डकानि च विशेषाधिकानि । (१२) ततस्तस्यैव मोहनीयस्याबाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (१३) ततो द्वीन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरबाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि चाऽसंख्येयगुणानि । (१४) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरवाधास्थानान्यवाधाकण्डकानि च विशेषाधिकानि । (१५) ततस्तस्यैव मोहनीयस्याबाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (१६) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरवाधास्थानान्यवाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (१७) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरबाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च विशेषाधिकानि । (१८) ततस्तस्यैव मोहनीयस्यावाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (१६) ततस्त्रीन्द्रियापर्याप्तस्य
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स्थितिबन्धस्थानाद्यल्पबहु० ]
प्रथमाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
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नामगोत्रयोरचाधास्थानान्यबाधा कण्डकानि च संख्येयगुणानि । ( २० ) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरखाधास्थानान्यबाधाकाण्डकानि च विशेषाधिकानि । (२१) ततस्तस्यैव मोहनीयस्याबाधास्थानान्यवावाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (२२) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरबाधास्थानान्यवाधा कण्डकानि च संख्येयगुणानि । (२३) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरबाधास्थानान्यबाधाकाण्डकानि च विशेषाधिकानि । (२४) ततस्तस्यैव मोहनीयस्यावाधास्थानान्यवाघाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (२५) ततश्च - तुरिन्द्रियाऽपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरवाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (२६) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेवाधास्थानान्यवाधाकाण्डकानि च विशेषाधिकानि । (२७) ततस्तस्यैव मोहनीयस्याबाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (२८) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरबाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (२९) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरवावास्थानान्यबाधाकाण्डकानि च विशेषाधिकानि । (३०) ततस्तस्यैव मोहनीयस्यावाधास्थानान्यवाधाण्डकानि च संख्येवगुणानि । (३१) ततोऽसंज्ञि पञ्चेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरबाधास्थानान्यबाधाकाण्डकानि च संख्येयगुणानि । (३२) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरचाधास्थानान्यवाधाकण्डकानि च विशेषाधिकानि । ( ३३ ) ततस्तस्यैव मोहनीयस्यावाधास्थानान्यवाधाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (३४) ततोऽसंज्ञि पञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरबाधास्थानान्यवाधा कण्डकानि च संख्येयगुणानि (३५) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरवाधास्थानान्यबाधाकण्डकानि च विशेषाधिकानि । ( ३६ ) ततस्तस्यैव मोहनीयस्यावाधास्थानान्यवाघाकण्डकानि च संख्येयगुणानि । (३७) ततश्चतुर्दशजीव भेदानामायुषो जघन्वाबाधा संख्येयगुणा। (३८) ततश्चतुर्दशजोव भेदानामायुषो जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (३९) ततः सप्तानामपर्याप्तानां जीवभेदानामायुषोऽवावास्थानानि संख्येयगुणानि । (४०) ततस्तेषामे सप्तानामुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । ( ४१ ) ततः सूक्ष्मै केन्द्रियस्य पर्याप्तस्यायु वावास्थानानि संख्येयगुणानि । (४२) तास्तस्यैव पर्याप्तस्यायुव उत्कृटावावा विशेषाधिका । (४३) ततो बादरकेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यावाधा संख्येयगुणा । (४४) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्याबाधा विशेषाधिका । (४५) ततो बादरै केन्द्रियस्यापर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्याबाधा विशेषाधिका । (४६) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियस्यापर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यावाधा विशेषाधिका । (४७) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (४८) ततो बादरकेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । ( ४९ ) ततः सूक्ष्मकेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्र पोरुत्कृष्टावधा विशेषाधिका । (५०) ततो बादर केन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (५१) ततो बाहरकेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्याबाधा विशेषाधिका । (५२) ततः सूक्ष्मै केन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्याबाधा विशेषाधिका । (५३) ततो बादरै केन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्यावाधा विशेषाधिका | (५४) ततः सूक्ष्मै केन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरण। देर्जघन्याबाधा विशेषाधिका । (५५) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (५६) ततो बादरै केन्द्रियापर्याप्तस्य
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५८ ]
मूलपचो [ अकर्म सर्व जीवभेदानां मिथः ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (५७) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्यातस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टावधा विशेषाधिका । (५८) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टावाचा विशेषाधिका । (५९) ततो बादरै केन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्याबाधा संख्येयगुणा । (६०) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्याबाधा विशेषाधिका । (६१) ततो बादरै केन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यावाधा विशेषाधिका । (६२) ततः सूक्ष्मै केन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्याबाधा विशेषाधिका । (६३) ततः सूक्ष्मै केन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्योत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । ( ६४ ) ततो बादरे केन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनस्योत्कृष्टायाचा विशेषाधिका । (६५) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्त मोहनीयस्योत्कृष्टशवाघा विशेषाधिका । (६६) ततो बाद केन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्योत्कृष्टाबाधा विशेाधिका । (६७) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यावाधा संख्येयगुणा । (६८) ततो द्वीन्द्रिकापर्याप्तस्य नामगोत्रयोजघन्यावाधा विशेषाधिका । (६९) ततो द्वीन्द्रियापर्यातस्य नामगोत्रयोरुपधा विशेषाधिका | ( ७० ) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टात्रावा विशेषाधिका । (७१) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्यावाधा विशेषाधिका । ( ७२ ) ततो द्वीन्द्रियस्यापर्याप्तस्य ज्ञानावर णादेर्जघन्याचाधा विशेषाधिका । (७३) ततो द्वीन्द्रियस्यापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (७४) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टावाचा विशेषाधिका । (७५) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोधन्याबाधा विशेषाधिका । ( ७६) ततस्त्रीन्द्रियस्यापर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्याबाधा विशेषाधिका । (७७) ततस्त्रीन्द्रियस्यापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । ( ७८) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (७९) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्यावाधा विशेषाधिका । (८०) ततस्त्रीन्द्रियस्यापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्याबाधा विशेषाधिका । (८१) ततस्त्रीन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कुष्टावाधा विशेषाधिका । (८२) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टावाधा | (८३) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य जयन्यावाचा विशेषाधिका । ( ८४ ) ततो द्वीन्द्रियस्वाsपर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यावावा विशेषाधिका । (८५) ततो द्वीन्द्रियस्याsपर्याप्तस्य मोहनtrrrrrrrrrr विशेषाधिका । (८६) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनी पस्योत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (८७) ततचतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यायाधा विशेाधि | (८८) ततचतुरिन्द्रियस्वाsपर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यायाचा विशेपाधिका । (८९) ततचतुरिन्द्रियस्यापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टावाचा विशेषाधिका । (९०) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (९१) ततचतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्यावाचा विशेषाधिका । (९२) ततश्चतुरिन्द्रियस्या - पर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्याबाधा विशेषाधिका । (९३) ततचतुरिन्द्रियस्यापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेreater विशेषाधिका । ( ९४ ) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (९५) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यावाधा विशेषाधिका । (९६) ततस्त्रीन्द्रियस्यापर्याप्तस्य मोहन जघन्यावाधा विशेषाधिका । ( ९७ ) ततस्त्रीन्द्रियस्यापर्याप्तस्य मोहनीयस्योत्कृष्टाबाधा
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स्थितिबन्धस्थानाद्यल्पबहु० ] प्रथमाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ५९ विशेषाधिका। (९८) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्वोत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (९९) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यावाधा विशेषाधिका । (१००) ततश्चतुरिन्द्रियस्थापर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्याबाधा विशेषाधिका । (१०१) ततश्चतुरिन्द्रियस्थापर्याप्तस्य मोहनीयस्योत्कृष्टावाधा विशेषाधिका । (१०२) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्योत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । .(१०३) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जधन्याबाधा संख्येयगुणा । (१०४) ततस्तस्यापर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यायाया विशेषाधिका । (१०५) ततस्तस्यापर्याप्तस्य नामगोत्रोरुस्कृष्टावाधा विशेषाधिका । (१०६) ततस्तस्य पर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेराधिका । (१०७) ततस्तस्य पर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेघापावाधा विशेषाधिका । (१०८) ततस्तस्यापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्याबाधा विशेपाधिका । (१०९) ततस्तस्यापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टावावा विशेषाधिका । (११०) ततस्तस्य पर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टावाधा विशंपाधिका । (१११) ततस्तस्त्र पर्याप्तस्य मोहनी गस्य जघन्यावाधा संख्येयगुणा । (११२) ततस्तस्थापर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यानावा विशाधिका । (११३) ततस्तस्याऽपर्याप्तस्य मोहनीयस्थोत्कृष्टवाधा विशेषाधिका । (११४) ततस्तस्य पर्याप्तस्य मोहनीयस्थोत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (११५) ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जधन्याबाधा संख्येयगुणा । (११६) ततस्तस्य पर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्यागाधा विशेषाधिका । (११७) ततस्तस्य पर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यावाधा संख्येयगुणा । (११८) ततसस्यापर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्याबाधा संख्येयगुणा । (११९) ततस्तस्यैवापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जधन्यावाधा विशेषाधिका । (१२०) ततस्तस्येवापर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यावाधा संख्येयगुणा । (१२१) ततस्तस्यैवापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरबाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (१२२) ततस्तस्यैवापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१२३) ततस्तस्यैवापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरवाधास्थानानि विशेषाधिकानि । (१२४) ततस्तस्यैवापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टावाधा विशेषाधिका । (१२५) ततस्तस्यैवापर्याप्तस्य मोहनीयस्यावाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (१२६) ततस्तस्यैवापर्याप्तस्य मोहनीयस्योत्कृष्टावाधा विशेषाधिका । (१२७) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्यायुषोऽवाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (१२८) ततस्तस्यैवाऽऽयुष उत्कृष्टावा विशेषाधिका । (१२९) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्यायुपोऽयाधास्थानानि संख्येयगुणानि। (१३०) ततस्तस्यैवायुष उत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१३१) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्यायुपोऽवाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (१३२) ततस्तस्यैवायुष उत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१३३) ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरयाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (१३४) ततस्तस्यैव नामगोत्रयोरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१३५) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरवाधास्थानानि विशेषाधिकानि । (१३६) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१३७) ततस्तस्यैव मोहनीयस्यावाधास्थानानि संख्येयगुणानि । (१३८) ततस्तस्यैव मोहनीयस्योत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१३९) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्यायुषोऽवाधास्थानानि विशेषाधिकानि । (१४०) ततस्तस्यैवायुष उत्कृष्टाबाधा
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६० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ अष्टकर्मसर्वजीवभेदानां मिथः विशेषाधिका । (१४१) ततः पर्याप्तसंश्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रिययोरायुषोऽबाधास्थानानि संख्येयगुणानि, परस्परं तु तानि तुल्यानि । (१४२) ततस्तयोरेवायुष उत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका । (१४३) ततः शेषद्वादशजीवभेदानामायुषः स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । ( १४४ ) ततस्तेषामेवायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (१४५) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्यायुषो निषेकद्विगुणहानिस्थानान्यसंख्यगुणानि (१४६) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तान्यसंख्येयगुणानि । (१४७) ततो बादरैकेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि विशेषाधिकानि । (१४८) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि विशेषाधिकानि । (१४९) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि विशेषाधिकानि । (१५०) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१५१) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१५२) ततः मूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१५३) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१५४) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (१५५) ततो बादरैकेन्द्रियस्यापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि विशेषाधिकानि । (१५६) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि विशेषाधिकानि । (१५७) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि विशेषाधिकानि । (१५८) ततो द्वीन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि । (१५९) ततो वीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि विशेषाधिकानि । (१६०) ततो द्वीन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१६१) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१६२) ततस्त्रीन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि विशेषाधि. कानि । (१६३) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि विशेषाधिकानि । (१६४) ततस्त्रीन्द्रियाऽपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१६५) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१६६) ततो द्वीन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि विशेषाधिकानि । (१६७) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि विशेषाधिकानि ।(१६८) ततश्चतुरिन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि विशेषाधिकानि । (१६९) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि विशेषाधिकानि । (१७०) ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्यायुषस्तानि विशेषाधिकानि । (१७१) ततश्चतुरिन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१७२) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१७३) ततस्त्रीन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि विशेषाधिकानि ! (१७४) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि विशेषाधिकानि । (१७५) ततश्चतुरिन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि विशेषाधिकानि । (१७६) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि विशेषाधिकानि । (१७७) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि। (१७८) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रि यपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि विशेषाधिकानि । (१७९) ततोऽसंक्षिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१८०) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि ।
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स्थितिबन्धस्थानाद्यल्पबहु० ]
प्रथमाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[६१
(१८१) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (१८२) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि विशेषाधिकानि । (१८३) ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि । (१८४) ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१८५) ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (१८६) ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि । (१८७) ततः संज्ञिपञ्बेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेग्तानि विशेषाधिकानि । (१८८) ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (१८९) ततश्चतुर्दशजीवभेदानां तत्तत्कर्मणां निषेकद्विगुणहान्योरेकमन्तरमसंख्येयगुणम् । (१९०) तत आयुर्वर्जसप्तकर्मणामे कमवाधाकण्डकमसंख्येयगुणम् । (१९१) ततोऽसंज्ञिपञ्वेन्द्रियपर्याप्तस्यायुपः स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि । (१९२) ततस्तस्यैवोत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (१९३) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोः स्थितिबन्धस्थानानि असंख्येयगुणानि । (१९४) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रि यापयोप्नस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१९५) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (१९६) ततो बादरैकेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि । (१९७) ततो बादरैकेन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (१९८) ततो बादरैकेन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (१९९) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि । (२००) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (२०१) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (२०२) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि । (२०३) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (२०४) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (२०५) ततो द्वीन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तान्यसंख्येयगुणानि । (२०६) ततो द्वीन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (२०७) ततो द्वीन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (२०८) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि । (२०९) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (२१०) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (२११) ततस्त्रीन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि । (२१२) ततस्त्रीन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (२१३) ततस्त्रीन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (२१४) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि । (२१५) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (२१६) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (२१७) ततश्चतुरिन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि । (२१८) ततश्चतुरिन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि विशेषाधिकानि । (२१९) ततश्चतुरिन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (२२०) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयो
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६२]
बंधविहाणे मूलपडिठिइबंधो [ अकर्मसर्वजीवभेदानां मिथः स्तानि संख्येयगुणानि । (२२१) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकाने । (२२२) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (२२३) ततोऽसंज्ञिपञ्बेन्द्रियाऽपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि । (२२४) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्त्र ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (२२५) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (२२६) ततोऽसंक्षिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोस्तानि संख्येयगुणानि । (२२७) ततोऽसजिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेस्तानि विशेषाधिकानि । (२२८) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य तानि संख्येयगुणानि । (२२९) ततो बादरैकेन्द्रियपर्यातस्य नामगोत्रयोर्जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (२३०) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोजघन्यः स्थितिबन्यो विशेषाधिकः । (२३१) ततो बादरैकेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जधन्यस्थितिबन्यो विशेषाधिकः । (२३२) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२३३) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२३४) ततो वादरैकेन्द्रिया. ऽपयोप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२३५) ततः सूक्ष्मेकेन्द्रियपयोप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२३६) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२३७) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादीनां चतुर्णा जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२३८) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तस्व ज्ञानावरणादीनां चतुणा जवन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२३९) ततो बादरैकेन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादीनां चतुर्णा जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२४०) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादीनां चतुर्णा जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२४१) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादीनां चतुर्णानुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२४२) ततो बादरैकेन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादीनां चतुर्गामुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२४३) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादीनां चतुर्णामुन्कृयस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२४४) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानातरणादीनां चतुर्णामुत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२४५) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्थ जघन्धस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (२४६) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियपातस्य मोहनीयस्प जघन्यस्थितिवन्धो विशेषाधिकः (२४७) ततो बादरैकेन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२४८) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२४९) ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियाऽपर्याप्तस्य मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२५०) ततो बादरैकेन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२५१) ततः मूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२५२) ततो बादरैकेन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२५३) ततो दीन्द्रियपातस्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धः संख्येवगुणः । (२५४) ततो द्वीन्द्रियापर्याप्तम्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२५५) ततो
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स्थितिबन्धस्थानाद्यल्पबहु० ] प्रथमाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम
[ ६३ . द्वीन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाविकः । (२५६) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२५७) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जवन्धस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२५८) ततो हीन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्यस्थितिबन्यो विशेषाधिकः । (२५९) ततो द्वीन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेशाविकः । (२६०) ततो हीन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२६१) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२६२) ततस्त्रीन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२६३) ततस्त्रीन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुस्कृष्टस्थितिबन्यो विशेषाधिकः । (२६४) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२६५) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२६६) ततस्त्रीन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्यस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२६७) ततस्त्रीन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२६८) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२६९) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२७०) ततो द्वीन्द्रियाऽपर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२७१) ततो द्वीन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२७२) ततो द्वीन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्थोत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२७३) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२७४) ततश्चतुरिन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२७५) ततश्चतुरिन्द्रियापर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुकृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२७६) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२७७) ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्यायुषः स्थितिबन्धस्थानानि विशेषाधिकानि । (२७८) ततस्तस्यैवायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२७९) ततश्वारिन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२८०) ततश्चतुरिन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्य स्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२८१) ततश्चतुरिन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२८२) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः। (२८३) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२८४) ततस्त्रीन्द्रियस्वाऽपर्याप्तस्य मोहनीयकर्मणो जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२८५) ततम्त्रीन्द्रियापर्याप्तस्व मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२८६) ततस्त्रीन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्थोत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२८७) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२८८) ततश्चतुरिन्द्रियाऽपर्याप्तस्य मोहनीयजघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२८९) ततश्चतुरिन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयोत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२९०) ततश्चतुरिन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयोत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२९१) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (२९२) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रिया
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६४]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [स्थितिबन्धस्थानाद्यल्पबहु० ऽपर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२९३) ततस्तस्यैव नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२९४) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२९५) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२९६) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (२९७) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणाद्युत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (२९८) ततोऽसंज्ञिपञ्चेद्रियपर्याप्तस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेपाधिकः । (२९९) ततस्तस्यैव मोहनीयजघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (३००) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तस्य मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (३०१) ततस्तस्यैव मोहनीयोत्कृष्टस्थितिवन्धो विशेषाधिकः । (३०२) ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (३०३) ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जधन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (३०४) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (३०५) ततस्तस्यैव मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः। (३०६) ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियाऽपर्याप्तस्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (३०७) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेर्जघन्यस्थितिवन्धो विशेषाधिकः (३०८) ततस्तस्यैव मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्ये ग्गुणः । (३०९) ततस्तस्यैव नामगोत्रयोः स्थितिवन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । (३१०) ततस्तस्यैव नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (३११) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेः स्थितिबन्धस्थानानि विशेषाधिकानि । (३१२) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरुत्कृष्ट स्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (३१३) ततस्तस्यैव मोहनीयस्य स्थितिधन्धस्थानानि संख्येयगुणानि (३१४) । ततस्तस्यैव मोहनीयस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धो विशेषाधिकः। (३१५) ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य नामगोत्रयोः स्थितिवन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । (३१६) ततस्तस्यैव नामगोत्रयोरुत्कृष्ट स्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (३१७) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेः स्थितिबन्धस्थानानि विशेषाधिकानि । (३१८) ततस्तस्यैव ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । (३१९) ततस्तस्यैव मोहनीयस्य स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । (३२०) ततस्तस्यैव मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिक इति ॥२९-३०-३१॥
तदेवमभिहितं प्रसङ्गात्प्रथमगुणस्थाने प्रतिजीवभेदं समुदितजीवभेदेषु च मूलप्रकृतिमत्कस्थितिबन्धस्थानादिपदानामल्पबहुत्वम् । तस्मिँश्चाभिहिते समाप्तं प्रथमाविकारचरमद्वारम् । तत्समाप्तौ च समाप्तः प्रथमोऽधिकारः ।।
इत्यमधिकारमाद्यं विवृत्य मयकाप्तसुकृतगुरुदण्डैः।
निहताः कुकर्मचौरा न विशन्तु कदाऽपि भव्यजोवगहे ।। (गीतिः) S इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे प्रथमेऽधिकारे चतुर्थमल्पबहुत्वद्वारं समाप्तम् ॥
॥ इति श्रीबन्धविधाने-मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे प्रथमोऽधिकारः ॥
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॥ द्वितीयाधिकारः ॥
द्वितीयोऽधिकारः, तत्र पञ्चदशानुयोगद्वाराशीति प्राक् संख्यामात्रेणाभिहितम् । साम्प्रतमधिकारप्रारम्भे तानि नामतश्राविचिकीषु हि
"
य ॥३२॥
दुइ हिगारे ग्रह पंचदसदुरगाणि ठिsमाणं । सामित्त - साइयाई कालंतर सरिणयासा भंगविचयो उ भागो परिमाणं खेत्तफोसणा कालो । अंतरभाव ऽप्पबहू इइ ऐयाई जहाकमसो ॥ ३ ॥
',
ततः
(०) "दुइ अहिगारे ग्रह" इत्यादि, अत्र अथशब्दो व्युत्क्रमेणादौ योज्यः, प्रथमाधिकारनिरूपणानन्तरं द्वितीयाधिकारे “पंचदस दुआरगाणि " ति प्राक् संख्यातः कथितानि पञ्चदशानुयोगद्वाराणि, नामत इमानीति वाक्यशेषः । तान्येवाह - "ठिइमाण ' ' मित्यादिना, तत्र " ठिइमाणं " ति बन्धविधानस्य प्रकृतत्वाद् बन्धमधिकृत्य स्थिते::- उक्त स्वरूपाया मानम् - प्रमाणं जघन्योत्कृष्ट भेदभिन्नम् - "ठिइबंधो उक्कोसो पढम - दुइ त अट्टमाण भवे । सागरकोडाकोडी तीस तुरिअस्स खलु सयरी ||" इत्यादिना यत्र प्ररूपयिष्यते तत् स्थितिमानम्, स्थितिबन्धप्रमाणद्वारमित्यर्थः "सामित्त" ति स्वामित्वम् - बनधकत्वेनाधिपत्यम् । स्थितिबन्धप्रमाणद्वारोक्त जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धयोः स्वामिनां - चन्धकानाम् - " सागारो जागासु ओवउत्तो परिदियो सरणी । पज्जत्तो सन्याहिं पज्जत्तीहिं चउगइट्ठो ||" इत्यादिना स्वरूपं यत्र दर्शयिष्यते तत्स्वामित्वद्वारम् |
1
"साइआई" ति साद्यादि, जघन्योत्कृष्टतत्प्रतिपक्षस्थितिबन्धानाम् – “सत्तरहं कम्माणं भंग साई अगाइधुवअधुवा । चउरो अजहराए ठिई बंधे मुणेयंव्त्रा ||" इत्यादिना तदीयैकस्वाम्यपेक्षया साद्यादिभावस्य यत्र चिन्तनं करिष्यते तत्साद्यादिद्वारम् । अत्रादिपदादनादि - ध्रुवा ध्रुवभावानां परिग्रहो बोद्धव्यः । “कालंतरसण्णियासा" त्ति कालद्वारम्, अन्तरद्वारम् संनिकर्षद्वारमित्यर्थः ।
तत्र कालद्वारे -- " सत्तरह गुरू लहू कालो समय गुरू मुहुत्ततो । अगुरू मुहुत्तंतो लहू असंखपरिट्टियरो ||" इत्यादिना उत्कृष्टाऽनुत्कृष्ट- जघन्या-ऽजघन्यादिचतुर्विकल्पानां स्थितिबन्धानामेकजीवाश्रयो निरन्तरप्रवृत्त्यवधिकः कालो जघन्योत्कृष्टभेदतश्चिन्तयिष्यते ।
अन्तरद्वारे तु - " सत्तरहुक्कोसाए ठिई लहुमंतरं मुहुत्तंतो । परममसंखपरट्टा अगुरू लहुं भवे समयो ||" इत्यादिना तेषामेवैकजीवाश्रयोत्कृष्टा दिस्थितिबन्धानां स्वनिमित्तापगमेन विरतानां भाविनि नियमेन प्रवर्तनशीलानां यो विरहकाल उत्कृष्टादिसदृशबन्धद्वयान्तराललक्षणः स एवान्तरम्, तज्जघन्योत्कृष्टभेदतो दर्शयिष्यते ।
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विहाणे मूलपडिटिइबंधो
[ गाथा ३२-३३
संनिकर्षद्वारे पुनः- “पढमस्सुक्कोसठिडं बंधतो बंधगो चित्र हवेज्जा । छ उनकोसाए asोसाई ||" इत्यादिगाथा कदम्बकेन समकालप्रवर्तनेन संनिकृष्टानां - परस्परं सम्बन्धमुपगतानां ज्ञानावरणाद्यष्टप्रकृतिसत्कैकजीवाश्रय स्थितिबन्धानामुत्कृष्टादिस्वरूपं प्रतिपादनीयं भवेत् । किमुक्तं भवति - कस्यचिदेकजीवस्य ज्ञानावरणकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धे प्रवर्तमाने तदन्येषां कर्मणां स्थितिबन्धः प्रवर्तते न वा ? । प्रवर्तते चेद्, उत्कृष्टः प्रवर्तते अनुत्कृष्टो वा ? | अनुत्कृष्टः प्रवर्तते चेतु, संख्येयभागेन हीनः प्रवर्तते, असंख्येयभागेन हीनो वा प्रवर्तते ? इत्यादि, इत्थमेव दर्शनावरणादिप्रकृतीरधिकृत्य जघन्यस्थितिबन्धमधिकृत्य चाऽप्रश्नपूर्वकमेव प्रदर्शयिष्यते ।
६६ ]
"भंगविचयो" इत्यादिगाथा । तत्र तुकारो पूर्वापेक्षया विशेषद्योतनार्थः तेन चानन्तराभिहितसंनिकर्ष द्वारपर्यन्तानि द्वाराण्येकजीवमाश्रित्याभिधास्यन्ते, भङ्गविचयादीनि तु पुनर्नानाजीवानाश्रित्येत्यर्थः । ' भंगविचयो" ति भङ्गविचयद्वारम् । भङ्गाः- विकल्पाः, ते च मूलप्रकृतिसत्कोत्कृष्टादिस्थितेरेकानेकवन्धकाऽयन्धकनिष्पन्नाः कालभेदतो नानारूपेण सम्पद्यमानाः, तेषां भङ्गानां विचय:- समुहचिन्तनं वा भङ्गविचयः, स एव - " अट्टहुक्कोसार सिश्रा तुरिय-छट्ट-अट्टमा भंगा। अट्ठम-सत्तम-तइयाऽरगुक्कोसार ठिईए य ।।" इत्यादिना यत्र प्रदर्शयिष्यते तद्भङ्गविचयद्वारम् ।
"भागो" त्ति भागद्वारम् । यत्र - " उक्कोसा ठिई प्रांतभागोऽत्थि बंधगाऽहं । होति बंधगा खत्तु अणंतभागा अजेट्ठाए |" इत्यादिना ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टादिस्थितेर्वन्धकाः शेषवन्धकानामियतिथे भागे वर्तन्ते, - संख्येयतमेऽसंख्येयतमेऽनन्ततमे संख्येयतमादिवन्दु भागेषु वा वर्तन्ते, इत्यादि प्रदर्शनीयं भवति ।
" परिमाणं" ति परिमाणद्वारम् । यत्र - ' - "उक्कोसाच ठिईए श्रट्टहं बंधा असंखेज्जा | हुन्ति कोसाए ठिई उरण बंधगाडगंता ||" इत्यादिना ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टादिस्थितेर्वन्धकानां संख्येयाSसंख्येयादिरूपेण परिमाणम् - संख्यामानं प्ररूपयिष्यते ।
"खेत्त" ति क्षेत्रद्वारम् । यत्र -- "लोगस्स श्रसंखयमे भागे होअन्ति बंधगाउट्ठएहं । उक्कोसा दिईएऽणुक्कोसाच पुण सव्वजगे ||" इत्यादिना ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टादितत्तत्स्थितेन्धकानां नानाजीवाश्रयं क्षेत्रम् — कस्मिन्नप्येकसमये वर्तमानानामुत्कृष्टपरिमाणवतामाधारभूतं यल्लोकसंख्येयासंख्येयभागादिरूपं तत्प्रतिपादयिष्यते ।
" फोसणा " त्ति स्पर्शेनाद्वारम् । यत्र - "फुसिया तेरह भागा सत्तरह बंधगेहि जेठाए । परिफासि दिईएऽणुक्कोसाए जगं सव्वं ॥" इत्यादिना प्रत्येकं मूलप्रकृतेरुत्कृष्टादितत्तत्स्थितेबन्धकैरनन्तेऽतीतकाले स्वस्थानमारणसमुद्घातादित इयद् रज्जु-द्विरज्जु-विरज्ज्वादिप्रमाणं क्षेत्रं स्पृष्टमित्येतप्रकटयिष्यते ।
"कालो" त्ति कालद्वारम् । यत्र - " सत्तरह बंधगाणं समयो हस्सो ठिई जेट्टाए । पल्ला - संखियभागो परमो श्रृगुरूश्र सव्वद्धा ।।" इत्यादिना पूर्ववत् सर्वासां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टाऽनुत्कृष्टा
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द्वारनिरूपणम् ]
द्वितीयाधिकारः
[ ६७
दितत्तत्स्थितिमधिकृत्य जवन्येतरभेदेन कालः प्ररूपयिष्यते । केवलं पूर्वं कालद्वारे एकजीवाश्रयोसावभिधास्यते, अत्र तु नानाजीवाश्रय इति विशेषः ।
"
"अंतर" त्ति अन्तरद्वारम् । यत्र - "अंतर मट्टएह लहुं जेट्ठा ठिई बंधगाण खणो । अंगुल - असंखभागो परमं अगुरूअ व भवे ॥" इत्यादिगाथा कदम्बकेन ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टाऽनुत्कृष्टादिचतुर्विकल्पानामपि स्थितिबन्धानां प्रत्येकमधिकृत्य नानाजीवाश्रयं स्थितिबन्धद्रयान्तराल लक्षणं बन्धकविरहकालप्रमाणमन्तरं जघन्येतर भेदतः कथयिष्यते । "भाव" त्ति भावद्वारम् । यत्र - ' - "अठराहं कम्मारणं चव्विहारण वि ठिईए भावेरणं । ओदइ ए बंधो ||" इत्यादिनाधिकृतोत्कृष्ट जघन्यादिस्थितिबन्ध औपशमिकादिभावानां मध्ये केन भावेन निर्वत्त इत्येतत्प्ररूपयिष्यते ।
-
"बहु" ति प्राकृतवशेनाऽकारस्य लुप्तत्वात् निर्देशस्य भावप्रधानत्वाच्चापबहुत्वद्वारम् | यत्र - " उक्कोसाथ ठिईए अठ्ठयहं बंधगा मुणेयव्वा । सव्वत्थोवा तत्तोऽगुक्कोसाए अांतगुणा ॥" इत्यादिगाथासमुहेन स्थितेर्वन्धकपरिमाणस्य बन्धप्रमाणस्य चेत्येवं मुख्यतया द्विविधमल्पबहुत्वं प्रतिपादयिष्यते, अवान्तरभेदतस्तु तत्र नानाविधान्यल्पबहुत्वानि दर्शयिष्यन्ते, तद्यथा - (१) उत्कृष्टाऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धरूपपदद्वयापेक्षया, (२) जघन्या -ऽजघन्य स्थितिबन्धरूपपदद्वयापेक्षया, तथा (३) उत्कृष्टजघन्या- ऽजघन्यानुत्कृष्टस्थितिबन्धरूपपदत्रयापेक्षयाऽष्टानामपि कर्मणां प्रत्येकमित्येवं त्रिविधानि बन्धकाल्पबहुत्वानि । स्थितिबन्धप्रमाणस्य तु मूलाष्टकर्मणां स्वस्थान-परस्थान भेदाद्विधाऽल्पबहुत्वचिन्ता, तत्र स्वस्थाने (४) उत्कृष्ट-जघन्यपदद्वयमपेच्यैकमल्पबहुत्वम्, परस्थाने तु त्रीणि, तद्यथा – (५) आद्यं केवलमुत्कृष्टपदमधिकृत्य, (६) द्वितीयं केवलजघन्यपद मपेच्य, (७) तृतीयं पुनर्जघन्योत्कृष्टपदद्वयं प्रतीत्येति । "इइ" त्ति इति, स च द्वितीयाधिकारगतानुयोगद्वारनामप्रदर्शन समाप्तौ । नन्वेतानि द्वाराणि केन क्रमेण प्ररूपणाविषयी करिष्यन्त इत्याशंक्याह - "णेयाई जहाकमसो" त्ति यथाक्रमशःयथोक्तक्रमेण, आदौ स्थितिबन्धप्रमाणम्, ततः स्वामित्वमित्येवं मूलोक्तक्रमेण ज्ञातव्यानीत्यर्थः, मृलोक्तक्रमेणैतेषु द्वारेषु स्थितिबन्धप्रमाणादीनां प्ररूपणं करिष्यत इति भावः । इदन्तु बोध्यम्प्रत्येक द्वारे देशतश्च द्विधा प्ररूपणं करिष्यते, तत्रापि स्थितिबन्धप्रमाण-स्वामित्वादिकतिपयद्वारेषूत्कृष्ट जघन्यस्थितिबन्धरूपपदद्वयमपेच्य, साद्यादि - काला- ऽन्तरादिकतिपयद्वारेषु तुत्कृष्टजघन्य-तदितरस्थितिबन्धात्मकपदचतुष्टयमधिकृत्येति ||३२|३३||
॥ अथ स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम् ॥
प्रथमतः स्थितिबन्धप्रमाणद्वारे स्थितिबन्धप्रमाणमभिधातव्यम् । तच्चोत्कुष्टजघन्यभेदाद्द्द्विविधम् । तत्र कालत्रयेऽपि केनापि जीवेन यतोऽधिका स्थितिर्न बध्यते तस्याः स्थितन्ध उत्कृष्टस्थितिबन्ध उच्यते । एवं कालत्रयेऽपि केनापि जीवेन यतः स्तोका स्थितिर्न बध्यते तस्याः स्थितेर्बन्धो जघन्यस्थितिबन्ध उच्यते, केवलमुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य जघन्यस्थितिबन्धस्य वा प्रमाणं तु तस्या उत्कृष्टाया जघन्याया वा स्थितेवेन्काले येषां बध्यमानकर्मदलिकानां सर्वचरमस्थित निषेको
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
६८ ] [ निषेकाऽबाधानियमः भवति तेषामवस्थान कालेयत्तामपेच्य प्रदश्यते, न तु तदन्येषां द्विचरम- त्रिचरमादिस्थितिषु निषिक्तदलिकानामियत्ता मपेक्ष्य | इदमुक्तं भवति - ज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिबन्धकाले त्रिसहस्र वर्षप्रमाणामबाधां विवर्ज्यानन्तरसमयप्रभृतिषु निरन्तरास्वसंख्येवर्षप्रमाणस्थितिषु प्रत्येकं यथोत्तरं कर्मदलिकानां विशेषहीन-विशेषहीनक्रमेण निषेको भवति । उक्तं च प्राग् निषेकद्वारे – “ चउदसविहजीवेसु अट्ठण्ह् भवे दलं सगमबाहं । मोत्तूण पढमसमये बहु कमित्तो विसेसूर || १२ ||" इति ॥
तत्र यश्वरमनिषेकस्तस्य यावती स्थितिस्तामपेच्योघतो ज्ञानावरणस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धप्रमाणमुच्यते । एवं ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थितिबन्धकालेऽप्यन्तम् हृतात्मिकां जघन्यामबाधां विव तदनन्तरसमयात्प्रारभ्यान्तमुहूर्त प्रमाणस्थितिषु प्रत्येकं यथोत्तरं विशेषहीनक्रमेण कर्मद लिकानां निषेको भवति, तत्र यथरमनिषेकस्तदीयस्थित्यपेक्षया जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणमुच्यते । एवमेव ज्ञानावरणस्य मध्यमस्थितिबन्धप्रमाणविषये, दर्शनावरणादीनामुत्कृष्टादिस्थितिबन्धप्रमाणविषये चावसातव्यम् । इदमपि चरमनिषेकाधीनायाः स्थितेः प्रमाणं बन्धसमयप्रभृतिकं सत् कर्मरूपतावस्थान - लक्षणस्थितिबन्धप्रमाणमुच्यते, यदा तु तद्वाधाऽनन्तरप्रथम निषेकप्रभृतिकं गण्यते तदाऽनुभव योग्यस्थितिवन्धप्रमाणमुच्यते । कुतः ? अबाधाकाले बन्धतः प्राप्तस्थितिकानां दलिकानां करणान्तरस्य साहाय्यमन्तरेणाननुभवात् । कर्मरूपतावस्थानलक्षणस्थितिबन्धस्य प्रमाणं बन्धसमयप्रभृतिकचरमनिषेकपर्यन्तमितिकृत्वा वच्यमाणं ज्ञानावरणादीनां त्रिंशत्सागरोपमकोटीको ट्यादिलक्षणं भवति । अनुभव योग्य स्थितिबन्धस्य तु तदबाधाकालेन हीनं भवति । उक्तं च पञ्चसंग्रहवृत्तौ श्रीमन्मलगिरिसूरिपादै: - " अनुभवयोग्या पुनरबाधाकालहीना" इति । प्रकृते कर्मरूपतावस्थान लक्षण स्थितिबन्धोऽधिकृतः, स चोक्तनीत्याऽयाधानिषेको भयरूपः, बन्धसमयप्रभृति चरमनिषेकपर्यन्तत्वात्तस्य त उत्कृष्टजघन्यभेदभिन्नं प्रमाणमपि तदुभयापेक्षया दिदर्शयिषुरादौ तावदबाधा-कर्मदल निषेकप्रमाणविषयं नियममभिदधाति—
सागरको डाकोडी बंधो सत्तरह जत्तियाऽवाहा ।
तावइया च्च सयसमा तदृणियो कम्मणपिसेगो ॥ ३४ ॥
(प्रे०) “सागरकोडाकोडी" इत्यादि "सत्तण्ह" त्ति आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां " बन्धो" त्ति प्रकृतत्वात् स्थितिबन्धः " जत्ति" ति यावत्यः । का इत्याह- "सागरकोडाकोडी" ति " भीमो भीमसेन" इति न्यायात् 'सागरकोटी कोट्यः' - सागरोपमाणां कोटी कोट्य इत्यर्थः । वच्यत इति शेषः । " बाहा तावइश्राच्च सयसमा " त्ति लुप्ताकारस्य दर्शनादवाधा तावत्यः शतसमा एव । उक्तं च पञ्चसंग्रहमलयगिरीयवृत्तौ - "येषां च कर्मणां यावत्यः सागरोपमकोटीको यस्तेषां तावन्ति वर्षशतान्यबाधाकालः" इति । " तदृणियो कम्मणणिसेगो" ति तयाऽबाधया ऊनः शेषस्थितिबन्धप्रमाणः कर्मनिषेको भवति । कुतः ? श्राधायां कर्मनिषेकाभावदिति । उक्तं चशतकभाष्ये – “होइ बाहाकालो जो किर कम्मरस अदयकालो । कम्मटिइ अबाहूणा कम्मनिसेगो
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निषेका-ऽबाधानियमः ] द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम्
[६६ त्ति कम्माणं" ||४२॥ इति । अयमत्राभिप्रायः-ज्ञानावरणादीनां वक्ष्यमाणस्थितिबन्धप्रमाणे प्रत्येक मियत्यबाधावाधोनस्थितिषु कर्मदलनिषेकश्चेत्येतदने पार्थक्येन न वक्ष्यते, अतस्तत्र प्रकृतनियमानुसारेणेयत्यबाधा, अबाधावर्जस्थितिषु कर्मदलनिषेक इत्येतत् स्वयमेव योजनीयमिति ॥ ३४ ॥
तदेवमुक्तः सागरोपमकोटीकोटीतदधिकस्थितिबन्धेष्यबाधाकर्मदलनिषेविषयो नियमः । साम्प्रतं ततो न्यूनस्थितिबन्धविषयं तं दर्शयन्नाह -
सत्तण्ह अवाहा खलु ठिइबंधा अंतकोडिकोडीए ।
सगलहुठिइबंधं जा सव्वह हवए मुहूत्तंतो ॥ ३५ ॥ (प्रे०) “सत्तण्ह अबाहा" इत्यादि, अत्र खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वाद् व्युत्क्रमेण "मुहूतंतो" इत्यस्योत्तरं योजनाच्चायुर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकमुक्तस्वरूपाऽबाधा मुहूर्तान्तःअन्तमुहूर्तमेव भवतीति परेणान्धयः । सप्तानां कियति स्थितिबन्धे सत्यवाधाऽन्तमुहूतमेव भवतीत्याह-"ठिइबंधा अंतकोडिकोडीए” इत्यादि, सागरोपमाणामन्तःकोटीकोटीप्रमाणास्थितिबन्धादारभ्य यावज्ज्ञानावरणादीनां सप्तानां स्वकीयस्वकीयजघन्यस्थितिबन्धस्तावत्सर्वत्रेत्यर्थः । अन्तःकोटीकोटीसागरोपमगतसर्वस्थितिबन्धविकल्पेष्वन्तम हूर्तप्रमाणस्थितिषु कर्मदलनिपेको न भवत्यतोऽन्तमुहूर्त विना शेषकर्मस्थितिप्रमाणः कर्मदलनिषेको वाच्य इति भावः ॥ ३५ ॥
अथाऽऽयुष उत्कृष्टोऽपि स्थितिबन्धस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाण एव, तर्हि तत्रावाधायाः को नियमः ? इति जिज्ञासायामाह
पाउस्स जाणियब्वो ठिइबंधी चेव कम्मणणिसंगी।
जेट्ठाऽवाहा पुवा कोडितिभागो लहू मुहुत्तंतो ॥३६॥ (प्रे०) "अाउस्स जाणियन्वो' इत्यादि, आयुःकर्मणो यावास्थितिवन्धो वक्ष्यते तावानन्तमुहूर्तादिप्रमाणः कर्मदलनिषेको ज्ञातव्य इत्यर्थः । कुतः ? यत आयुषोऽवाधाऽऽयुदलनिषेकस्याऽनधीना, ततः सा पृथगभिधास्यते । अनधीनाऽपि सा उत्कृष्टतो जघन्यतश्च कियती भवतीत्याह"जेट्टाऽबाहा पुव्वा कोडितिभागो' इत्यादि, उत्कृष्टावाधा एकस्याः कोटेस्त्रिभागः-तृतीयभागः पूर्वाणि, पूर्वकोटीतृतीयभागप्रमाणा भवतीत्यर्थः । इदमुक्तं भवति-पृथक पृथगभववद्धयोयद्वा वेद्यमानाऽवेद्यमानयोरायुषोः परस्परं संक्रमाभावात् सवेदा तयोः पार्थक्यमेव, किञ्चाबाधा वेद्यमानायुरवशेषरूपा, बध्यमानायुस्तूत्तरभवसत्कम् , एवं सत्यायुषो निषेकाऽवाधे शेषकर्मनिषकाबाधापेक्षया विलक्षणेऽनियते च, अनयत्यं तु तत्र उत्कृष्टायामनुन्कृष्टायां वाऽबाधायामुत्कृष्टस्याऽनुत्कृष्टस्य वाऽऽयुर्वन्धस्यापि भावात् । तद्यथा—पारभविकायुर्वन्धो वेद्यमानायुश्चरमे तृतीयभागे नवमभागे सप्ताविंशतितमभागे एवं त्रिभागत्रिभागकरणप्रकारेण चरमैकाशीतितमादिभागे वेदयितुमारब्धे सति क्रियते । किमुक्तं भवति-वेद्यमानायुपश्चरमे तृतीयभागे वेदयितुमनारब्धे न केनाऽपि जीवेन परभवायुर्वन्धः
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ निषेका-ऽबाधानियमः प्रारभ्यते, न च भवचरमतृतीयभागे वेदयितुं प्रारब्धे सवैरपि जीवेरायुबन्धः प्रारभ्यत एव, किन्तु कैश्चिज्जीव रेव प्रारभ्यते, यैस्तु तदाऽऽयुर्वन्धो न प्रारभ्यते तैर्भवनवमभागे वेद्यमाने आयुर्वन्धः प्रारभ्यते, तदापि पारभविकायुर्वन्धो नारब्धश्चेद् भवसप्तविंशतितमे भागे वेदयितुमारब्धे सति पारभविकायुर्वन्धः प्रारभ्यते, एवमवशिष्टायुस्तृतीयतृतीयभागप्रकारेण तावद्वत्तव्यं यावद्भवचरमान्तमुहर्ते आयुर्वन्धे कृते जधन्यावाधाऽवशिष्टा भवति । अनया नीत्योत्कृष्टाऽप्यबाधा भवतृतीयभागप्रमाणा प्राप्यते, सा पूर्वकोटीवर्षायुष्कानां मनुष्याणां तिरश्चां वा वेद्यमानायुस्तृतीयभागमपेक्ष्य प्रकृते पूर्वकोटीतृतीयभागप्रमाणा दशितेति । न चानुत्तरविमानवासिनां सप्तमपृथिवीनरयिकानां वा भवस्थितेः सर्वदीर्घत्वात् तदपेक्षयोत्कृष्टाऽवाधा द्रष्टव्या भवतीति वाच्यम् । असंख्येयवायुपां तियग्मनुष्याणामिव सर्वेषां देवनारकाणामपि निरुपक्रमायुष्कत्वेन पण्मासेऽनवशेषे स्वीयवेधमानायुषि पारभविकायुबन्धो न जायते, इत्थं चोत्कृष्टस्थितिकदेवनारकापेक्षया उत्कृष्टस्थितिकतिर्यग्मनुष्यापेक्षया चोत्कृष्टाऽवाधा पण्मासात्मिका एवं प्राप्यते न पुनरधिका । उक्तं च पञ्चसंग्रहवृत्तौ-"निरुपक्रमायुषाम्-अनपवर्तनीयायुषां देवनारकाणामसंख्येयवर्षायुषां च तिर्यग्मनुष्याणां परभवायुपो बन्धकानां परभवायुषोऽबाधा षण्मासापण्मासप्रमाणा॥” इति । ननु मा भवत्वसंख्येयवर्षायुष्कतिर्यग्मनुष्यापेक्षया देवनारकापेक्षया वा उक्ताधिकाबाधा, पूर्वकोटिवदधिकभवस्थितिकान् संख्येयवर्षायुपान् तियन्मनुष्यान् समाश्रित्य तु सा पूर्वकोटित्रिभागादधिका भवेत् ? इति चेद्, न, तेषामप्यसंख्येयवर्षायुष्केषु प्रविष्टत्वात् । कथम् ? तथैवागमेषु परिभाषणात् । उक्तं च श्रीमदभयदेवसूरिपादैः पञ्चमाङ्गवृत्तौ-"इहासंख्यातवर्पायुर्जघन्यस्थितिकः प्रक्रान्तः, स च सातिरेकपूर्वकोट्यायुर्भवति, तथैवागमे व्यवहृतत्वात" इति । इत्थं च पूर्वकोट्यधिकसंख्येयवर्षायुषामपि पल्योपमासंख्येयभागाद्यसंख्येयवर्षायुषां जीवानामिव षण्मासेऽनवशेषे स्वायुषि पारभविकायुर्वन्धस्याऽसम्भवः, ततश्च तानपेक्ष्योक्ताधिकाबाधाया छाप्यसम्भव एव । यत्पुनः पञ्चसंग्रहे-"पलियासंखेज्जंसं जुगलधम्मीण वयंतन्ने ॥४१॥” इत्यनेन मतान्तरेण युग्मिनां पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणेऽवशेषे स्वायुपि पारभविकायुर्वन्धोऽभिहितः, सत्वत्र नाधिकृत इति । "लह महत्ततो" ति लघुः-जघन्याऽबाधा तु मुहूर्तान्तः-अन्तमुहृतम्, कुतः ? पूर्वमबद्धायुष्कजीवरसंक्षेप्याद्धाप्रवेशप्रथमसमयादेवायुबन्धस्य नियमेन करणात्, असंक्षेप्याद्धाया भवचरमान्तमुहूर्तात्मकस्वाच्च । न च सत्यन्तमुहूर्त यावत्प्रवर्तमान आयुषः स्थितिबन्धोऽन्तमुहर्तात्मिकथा असंक्षेप्याद्धया समं निष्ठां गच्छेत्, इत्थं चोभयोर्भवचरमसमये समाप्तिभावे वेद्यमानायुषोऽवशेषरूपाऽबाधा सर्वथैव न लभ्यतेति वाच्यम् । अन्तमुहूर्तस्यासंख्येयभेदभिन्नत्वेनाऽसंक्षेप्याद्धाप्रमाणान्तमु हर्ते आयुर्वन्धाद्धायास्तदनन्तरभाविजधन्यावाधायाश्चेत्येवमन्तर्मुहूर्तद्वयस्यापि सुखेन समावेशादन्तमुहूर्तशेष वेद्यमानायुषि पारभविकायुर्वन्धसमाप्त्या वेद्यमानायुरवशेषरूपाऽवाधाऽपि सुखेन लभ्येतेति न कश्चिद्दोष इति । इत्येवं प्रागुक्तनीत्या भिन्न-भिन्नभवसम्बन्धिन्यावायुषो निषेकावाधे पृथक्पृथग्भवतः । भण्यमाने स्थितिबन्धप्रमाणे मार्गणास्थानेष्वायुष अबाधा तु भिन्नभिन्नप्रमाणा भवति, सा च कर्मरूपता
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उत्कृष्टपदे श्रोतः ]
द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्ध प्रमाणद्वारम
[ ७१
वस्थानलक्षणस्थितिबन्धस्य प्रमाणाभिधानेन न गम्येतेतिकृत्वाऽवाधावर्जस्थितेरेव प्रमाणं वच्यते, बाधा च पृथग्वच्यते, तथापि कर्मरूपतावस्थानलक्षणस्य स्थितिबन्धस्य वक्तुं प्रक्रान्तत्वात् तद्पेक्षयैव स्वामित्वादिद्वारेषु स्वाम्यादीनां प्ररूपणीयत्वाच्चायुष उत्कृष्टं स्थितिबन्धप्रमाणमुत्कृष्टावाघां प्रक्षेप्य स्वयमेवानेतव्यम् । एवमेवाऽऽयुषो जघन्य स्थितिबन्धप्रमाणमपि जघन्यावाधा प्रक्षेप्यानेतव्यम् | यावच्च लभ्येत तावत्प्रमाणमपेच्य स्वामित्वादिप्ररूपणमुपपादनीयं चेति ||३६||
wwwxxxxxx.
तदेवमुक्तो ग्रन्थलायवार्थं पृथगेवाष्टकर्मणामवाधानिषेकप्रमाण नियमः । साम्प्रतमुत्कृष्टजघन्यभेदन्निं प्रमाणं द्रष्टव्यम्, तदप्योघतः - सामान्येन सर्वं स्थितिबन्धकजीवराशिमाश्रित्य, तथाऽऽदेशतः-प्रकृतिबन्धयन्निरयगत्याद्यनाहारिपर्यन्तासु मूलोत्तरभेदभिन्नासु मार्गणासु मार्गणागतस्थितिबन्धकजीवराशिमपेच्य प्रदश्यते, तत्रादावुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणमभिधित्सुरोघत ग्राहटिबंधो उक्कोसी पढम - दुइ त टुमाण भवे । सागरको डाकोडी तीसा तुरिअस्स खलु सयरी ॥ ३७ ॥ उस गुरू ऐयो ठिइबंधी सागराणि तेत्तीसा | वीसा कोडाकोडो जलहीणं नामगोत्राणं ॥ ३८ ॥
(प्रे०) "ठिइबंधो उक्कोसो" इत्यादि, उक्तस्वरूपः स्थितिबन्धो भवेदिति परेण योगः । कीदृश: ? " उक्कोसो" त्ति उत्कृष्ट:- उत्कृष्टपदपतितः, न पुनर्जघन्यः, तस्याग्रे वच्यमाणत्वादिति । उत्कृष्टस्थितिबन्धः केषां कर्मणां कियां भवेदित्याह - ' पढमदुइ" इत्यादि, अत्र प्रथमद्वितीये - त्यादिना ज्ञानावरण - दर्शनावरण - वेदनीय - मोहनीया - ऽऽयु - नाम - गोत्रा - ऽन्तराय लक्षणानि प्रकृतिबन्धग्रन्थे उक्तनिरुक्तान्यष्टौ मूलकर्माणि क्रमेण गृह्यन्ते । कस्मादेतेन क्रमेण प्रथमादिना ज्ञानावरणादीन्येव गृह्यन्ते ? एतेन क्रमेण तेषां सहेतुकप्रसिद्धेः । उक्तं च चान्यत्रैतेषां दर्शितक्रमोपपत्तिः
;
“इह ज्ञानं दर्शनं च जीवस्य स्वतत्त्वभूतम, तदभावे जीवत्वस्यैवायोगात् चेतनालक्षणो हि जीवः, ततः स कथं ज्ञानदर्शनाभावे भवेत् ? ; ज्ञानदर्शनयोरपि च मध्ये प्रधानं ज्ञानम्, तद्वशादेव सकलशास्त्रादिविचारसन्ततिप्रवृतेः । अपि च--सर्वा अपि लब्धयो जीवस्य साकारोपयोगोपयुक्तस्योपजायन्ते, न दर्शनोपयोगोपयुक्तस्य, “सच्चा लडीओ सागारोवओगोवउत्तरस, जो अणगारो गोत्र उत्तस्स" इति वचनप्रामाण्यात् । अन्यच्च यस्मिन् समये सकलकर्मविनिर्मुक्तो जीवः सज्जायते तस्मिन् समये ज्ञानोपयोगोपयुक्त एव, न दर्शनोपयोगोपयुक्तः, दर्शनोपयोगस्य द्वितीयसमये भावात् ततो ज्ञानम् प्रधानम्, तदावारकं च ज्ञानावरणं कर्म, ततस्तत् प्रथममुक्तम् तदनन्तरं च दर्शनावरणम, ज्ञानोपयोगाच्च्युतस्य दर्शनोपयोगेऽवस्थानात् । एते च ज्ञानदर्शनावरणे स्त्रविपाकमुपदर्शयन्ती यथायोगमवश्यं सुखदुःखरूपवेदनीय कर्मविपाकोदयनिमित्ते भवतः । तथाहि - ज्ञानावरणमुपचयोत्कर्षप्राप्तं विपाकतोऽनुभवन् सूक्ष्मसूक्ष्म तरवस्तुविचारासमर्थमात्मानं जानानः खिद्यते भूरिलोकः, ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमपाटवोपेतश्च सूक्ष्मसूक्ष्मतराणि वस्तूनि निजप्रज्ञयाऽभिजानानो बहुजनातिशायिनमात्मानं पश्यन् सुखं वेदयते, तथाऽतिनिबिडदर्शनावरणविपाकोदये जात्यन्धादिरनुभवति दुःखसन्दोहं वचनगोचरातिक्रान्तम्, दर्शनावरणक्षयोपशमपटिष्ठतापरिकरितश्च स्पष्टचक्षुराद्युपेतो
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७२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [अष्टकर्मणामुत्कृष्टस्थितेः यथावद् वस्तुनिकुरम्बं सम्यगवलोकमानो वेदयतेऽमन्दमानन्दसन्दोहम्, तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थ दर्शनावरणानन्तरं वेदनीयग्रहणम् । वेदनीयं च सुखदुःखे जनयति, अभीष्टानभीष्टविषयसम्बन्धे चावश्यं संसारिणां रागद्वेषौ, तौ च मोहनीयहेतुकौ, तत एतदर्थप्रतिपत्तये वेदनीयानन्तरं मोहनीयग्रहणम् । मोहनीयमूढाश्च जन्तवो बह्वारम्भ-परिग्रहप्रभृतिकर्मादानासक्ता नरकाद्यायष्कमारचयन्ति, ततो मोहनीयानन्तरमायग्रहणम। नरकाद्यायष्कोदये चावश्यं नरकगत्यादीनि नामान्यदयसायान्ति, तत आयरनन्तरं नामग्रहणम। नामकर्मोदये च नियमादुच्चनीचान्यतरगोत्रकर्मविपाकोदयेन भवितव्यम् , अतो नामग्रहणानन्तरं गोत्रग्रहणम्। गोत्रोदये चोच्चैःकुलोत्पन्नस्य प्रायो दानलाभान्तरायादिक्षयो भवति, राजप्रभृतीनां प्राचुर्येण दानलाभादिदर्शनात; नीचैः कुलोत्पन्नस्य तु दानलाभान्तरायाधुदयः, नीचजातीनां तथादर्शनात; तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थं गोत्रानन्तरमन्तरायग्रहणम ॥" इति ।।
इत्थं च व्यवस्थिते क्रमे “पढमदुइअतइअप्रमाण" ति प्रथमस्य ज्ञानावरणस्य, द्वितीयस्य दर्शनावरणस्य, तृतीयस्य वेदनीयकर्मणोऽष्टमस्याऽन्तरायकर्मणश्चेत्येतेषां चतुर्णा प्रत्येकमुत्कृष्टः स्थितिबन्धः "सागरकोडाकोडी तीसा" त्ति प्रागवत् सागरपदात सागरोपमेति गम्यमाने त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्य इत्यर्थः । 'तुरिअस्स खलु सयरी" त्ति तुर्यस्य मोहनीयकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धः सप्ततिः, सागरोपमकोटीकोट्य इत्यनुवर्तते । खलुशब्दस्तु वाक्यालङ्कारे। अथ पञ्चमस्याह-"पाउस्स" इत्यादिना, आयुःकर्मणो गुरुः-उत्कृष्टः स्थितिबन्धः “सागराणि तेत्तीसा' त्ति पूर्ववत्पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् सागरोपमाणि त्रयस्त्रिंशत्, ज्ञेय इति पूर्वेण योगः; अयं ह्यायुषः स्थितिवन्धोऽनुभवयोग्यतामपेक्ष्य योद्धव्यः, कमरूपतावस्थानलक्षणाधिकृतस्थितिबन्धप्रमाणमानयनाय तु तत्रोत्कृष्टाऽवाधाऽधिकतया प्रक्षेप्येति । अथ शेषयोद्वयोमूलकर्मणोराह-वीसा कोडाकोडो' ति नामगोत्रकर्मणोः प्रत्येकमुत्कृष्टः स्थितिबन्धो विंशतिर्जलधीनां-सागरोपमाणां कोटीकोट्य इति । अत्र ह्यनन्तरोक्तनियमानुसारेणाऽवाधानिषेकौ स्वयमेव योज्यौ । तद्यथा-ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्य उक्तोऽतस्तत्र त्रीणि वर्षसहस्राण्यवाधा, अबाधोना कमस्थितिः कर्मनिषेकः । मोहनीयकर्मणस्तूत्कृष्ट स्थितिबन्धः सप्ततिः सागरोपमकोटीकोट्यस्ततस्तत्र सप्तवर्षसहस्राण्यबाधा, अबाधोना कर्मस्थितिः कमदलिकनिपेकः। आयुष उत्कृष्टस्थितिवन्धस्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि तथाऽपि "आउस्स जाणियव्यो ठिइबंधो चेव कम्मणणिसेगो" इति वचनात् त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि य उत्कृष्टस्थितिबन्धस्तत्प्रमाणः कर्मनिषकः । अबाधा तर्हि कियती ? उत्कृष्टा, उत्कृष्टस्थितिवन्धे उत्कृष्टाऽबाधाया ग्राह्यत्वात् , सा तु "जेट्ठाबाहा पुव्वा कोडितिभागो" इति वचनात् पूर्वकोटीत्रिभागप्रमाणा बोद्धव्येति । अयमेवायुष उत्कृष्टः स्थितिबन्धः कर्मरूपतावस्थानापेक्षया पूर्वकोटीतृतीयभागाभ्यधिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, तत्र पूर्वकोटीतृतीयभागोबाधा, अबाधोना कर्मस्थितिः कमनिषेक इति प्रकारान्तरेणाऽपि वक्तुयुज्यते, नवरमत्रोक्तविवक्षयाऽसौ तथा नाभिहित इति । नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो विंशतिसागरोपमकोटीकोटयो दर्शितस्ततस्तत्र द्वे वर्षसहस्रऽबाधा, अबाधोना कर्मस्थितिः कर्मनिपेको भवति । उक्तं च शतकचूणौ -
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मार्गणासु सप्तानामुत्कृष्टस्थितेः ] द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम
[७३
"णाणावरणीयदसणावरणीयवेयणीयअंतराइगाणं एएसिं चउण्हं कम्माणं उक्कोसतो ठिइबंधो तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिन्नि वाससहस्साणि अबाहा, अबाहूणिआ कम्मठिई कम्मणिसेगो। मोहणिज्जस्स कम्मस्सुक्कोसो ठितिबंधो सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ, सत्तवाससहस्साणि अबाधा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो। णामगोत्ताणं उक्कोसश्रो ठिइबंधो वीसं सागरोवमकोडाकोडिओ, बेवाससहस्साणि अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो। आउगस्स उक्कोसओ ठितीबंधो तेत्तीसं सागरोवमाणि पुव्यकोडीतिभागभहियाणि, पुचकोडितिभागो अबाहा, अबाहए विणा कम्मट्टिई कम्मणिसेगो ॥५२॥५३।।'' इति ।
इत्थमेवानन्तरवक्ष्यमाणमार्गणास्थानेषूत्कृष्टजघन्यस्थितिबन्धविषये सप्तानामवाधावर्जशेषस्थितिषु तथाऽऽयुषः सर्वस्थितिषु कर्मदलनिषेकः स्वयमेव द्रष्टव्य इति ॥३७॥३८॥
___ तदेवमुक्तं मौलानामष्टानामपि प्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणमोघतः । साम्प्रतमादेशतो व्याजिहीर्षुरादौ तावदायुर्वर्जानां सप्तानामाह
असमत्तपणिदितिरियमणुसपणिदितस-प्राणताईसु। अाहारदुगम्मि विउवमीस-उरलमोस-कम्मेसु ॥ ३६॥ चउणाण-संयमेसु समइत्र-छेत्र-परिहार-देसेसु।
ओहि-सुइल-सम्मेसु खाइअ-वेग-उवसमेसु॥ ४०॥ सासायण-मीसेसु तहऽणाहारम्मि होइ सत्तण्हं ।
अंतोकोडाकोडी अयरा उक्कोसठिइबंधो॥४१॥ (प्रे०) “असमत्तपणिदि" इत्यादि, तत्राऽपर्याप्ताऽपरपर्यायस्यासमाप्तशब्दस्य सान्तेषु प्रत्येकं योजनादपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदे, अपर्याप्तमनुष्यभेदे, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदे, अपर्याप्तत्रसकायभेदे चेत्यर्थः, तथा “आणताईसु" ति आनतकल्पादिषु सर्वार्थसिद्धविमानपर्यन्तेषु द्वादशषु देवगतिसत्कमार्गणाभेदेषु, तथा "पाहारदुगम्मि" त्ति आहारकाऽऽहारकमिश्रकाययोगयोर्यद् द्विकं तस्मिन्नाहारकद्विके, आहारककाययोगमार्गणायामाहारकमिश्रकाययोगमार्गणायां चेत्यर्थः। तथा 'विउवमीसउरलमीसकम्मेसुं" ति वैक्रियमिश्रकाययोगौ-दारिकमिश्रकाययोग-कार्मणकाययोगरूपासु तिसृषु मार्गणासु, तथा “चउणाणसंयमेसु" ति केवलज्ञानवर्जेषु चतुषु मत्यादिज्ञानमार्गणाभेदेषु संयमौधमार्गणायां चेत्यर्थः । “समइअछे अपरिहारदेसेसुं" ति सामायिकसंयम-छेदोपस्थापनसंयम-परिहारविशुद्धिकसंयम-देशसंयममार्गणासु, तथा “प्रोहिसुइलसम्मेसुं” ति अवधिज्ञानस्यप्राग् मत्यादिज्ञानचतुष्के गृहितत्वाद् "अोहि" इत्यनेनावधिदर्शनमार्गणा गृह्यते, ततोऽवधिदर्शनशुक्ललेश्या-सम्यक्त्वौघमार्गणासु, तथा "खाइप्रवेअगउवसमेसु" ति क्षायिकसम्यक्त्व-वेदकसम्यक्त्वौ-पशमिकसम्यक्त्वमार्गणासु “सासायणमोसेसु" ति सासादन-सम्यग्मिथ्यात्वमार्गणयोः, गाथायां बहुवचननिर्देशस्तु प्राकृतत्वाबोद्धव्यः, यतः प्राकृतलक्षणे द्विवचनेऽपि बहुवचनमेव प्रयुज्यते, यथा “हत्था पाया" इति । "तहणाहारम्मि" ति तथाशब्दः समुच्चये, “णाहारम्मि" इत्यत्राऽकारस्य
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७४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेषु सप्तानाम् दर्शनादनाहारे, अनाहारकमार्गणायामित्यर्थः । एतासु समुदितास्वपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगादिपञ्चचत्वारिंशन्मार्गणासु किमित्याह-'होइ सत्तण्ह"मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणामुत्कृष्टस्थितिवन्धोऽन्तःकोटीकोट्यः "अयरा” ति अतिमहत्त्वादुदधिवत्तरितुमचिरात्पारं नेतु न शक्यन्त इत्यतराः, सागरोपमाणीत्यर्थः । ननु कस्मादेतासु मार्गणासु प्रत्येकं सप्तानामुत्कृष्टोऽपि स्थितिबन्धोऽन्तःकोटिकोटीसागरोपमाण्येव भवति, न पुनरोधोत्कृष्टः ? इति चेद्, उच्यते,-संज्ञिपर्याप्तजीवान विवर्य न केषाञ्चिदपि जीवानामौधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धो जायते, संज्ञिपर्याप्तानामपि मिथ्यावोदयादिसामग्रीसद्भावेऽसौ जायते, नान्यथा । वक्ष्यते चात्रैव ग्रन्थे स्गमित्वद्वारे ओघोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः प्रदर्शयता ग्रन्थकृता यत्
"सागारो जागारो सुअओवउत्तो पणिंदियो सरणी। पज्जत्तो सव्वाहिं पज्जत्तीहिं चउगइट्ठो ।। ७७ ।। मिच्छादिट्ठी उ परमसंकेसेणीसिमझिमेणं वा । परिणामेणं बंधइ सत्तण्ह ठिई उ उक्कोसं ॥ ७८ ॥' इति ।
किञ्च सासादनाद्यपूर्वकरणान्तगुणस्थानगतानां पर्याप्तानामपर्याप्तानां वा जीवानां मूलसप्तप्रकृतिसत्क उत्कृष्टो जघन्यो वा स्थितिवन्धोऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमेभ्योऽधिको हीनो वा नैव जायते । उक्तं च नव्यशतके देवेन्द्रसूरिपादैः- "साणाइअपुव्वंते अयरंतोकोडिकोडीउ नऽहिगो। बन्धो न ह हीणो" इति । ननु सासादनमार्गणायामेकेन्द्रियादीनामपि प्रवेशात् कथं जघन्योऽपि स्थितिबन्धोऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमाण्येव ? इति चेत्, सत्यमेतत्, नवरं स्वल्पकालिनोऽसौ इति कयाचिद्विवक्षयोपेक्षितः सम्भाव्यते । उक्तं च तट्टीकायामपि-"केवलं कादाचित्कोऽसौ न सार्वदिक इति न तस्य विवक्षा कृतेतिसंभावयामि" इति । न चैतावन्मानं, किं तर्हि ? शुक्लेश्याकानामपि जीवानां तथाविधसंक्लेशाभावेन सप्तानामुत्कृष्टोऽपि स्थितिबन्धोऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमेभ्योऽधिको नैव जायते । इत्थं हि प्रकृते कासुचिदपर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियाऽपर्याप्तमनुष्यादिमार्गणासु मिथ्यादृष्टिसंशिजीवानां प्रवेशेऽपि तेषामपर्याप्तत्वात्सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धोऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमाणि लभ्यते, आनतकल्पादिदेवगतिभेदेषु शुक्ललेश्यामार्गणायां च पर्याप्तमिथ्याष्टिसंज्ञिजीवानां प्रवेशेऽपि तेषां शुक्ललेश्यत्वेनोत्कृष्टस्थितिबन्धोऽपि यथोक्त एव लभ्यते, आहारककाययोगादिशेषमार्गणाभेदेषु तु मिथ्यादृष्टिवर्जानां सासादनाद्यप्रमत्तान्तान्यतमगुणस्थानकवर्तिनां जीवानां प्रवेशाद् यथोक्तोऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाण एव स्थितिबन्ध उत्कृष्टतोऽपि प्राप्यत इति ॥ ३६॥४०॥४१॥
अथैकेन्द्रियादिमार्गणासु सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धमानं दर्शयन्नाह
मोहगुरुट्टिइभत्तो सत्तण्हं अोहजेट्टठिइबंधो। सो जेठो सव्वेसु एगिदिय-पंचकायभेएसु॥४२॥ (गीतिः) स यो पणवीसाए पण्णासाए सयेण सहसेणं । सत्तण्ह गुरू कमसो समत्थविगलेसु अमणम्मि ॥४३॥
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उत्कृष्टस्थितिबन्धस्य ] द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम्
[ ७५ (प्रे०) “मोहगुरुट्टिइभत्तो' इत्यादि, मोहनीयकर्मणो 'गुप्'-उत्कृष्टया स्थित्या भक्तः, सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीलक्षणेनौधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धेन विभक्त इत्यर्थः । उक्तमोहनीयोत्कृष्टस्थित्या विभक्तः कः ? इत्याह- "सत्तण्हं पोहजेठठिइबंधो" ति आयुर्वर्जानां सप्तानां यस्त्रिंशत्कोटीकोटीसागरोपमाद्यौधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धः सः इत्यर्थः। सः विभक्तः सन् कः भवेदित्याह – “सो जेठो" इत्यादि, सः विभक्तः सन्नेकेन्द्रियजातिसत्का ये एकेन्द्रियौघ-बादरैकेन्द्रियौघ-बादरपर्याप्तैकेन्द्रियबादरापर्याप्तैकेन्द्रिय-सूक्ष्मैकेन्द्रियोघ सूक्ष्मपर्याप्तैकेन्द्रिय-सूक्ष्मापर्याप्तैकेन्द्रियलक्षणाः सप्तमार्गणाभेदाः, एवं पृथिव्यादिवायुकायान्तानां प्रत्येकं सप्त सप्त, तथा पञ्चमस्य वनस्पतिकायस्यौघ-प्रत्येकौघतत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्त-साधारणोघ-बादरसाधारणौध-तत्पर्याप्ता-ऽपयोप्त-सूक्ष्मसाधारणोघ-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्तलक्षणा ये एकादश भेदा एतेषु सर्वेषु ज्ञानावरणादीनां सप्तानां 'ज्येष्ठः'-उत्कृष्टः स्थितिबन्धो भवेत् । "स हयो” त्ति स एव मोहनीयोत्कृष्टस्थित्या विभक्तो ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धो 'हतःताडितः सन् , “सत्तण्ह गुरू" ति ज्ञानावरणादीनां प्रकृतानां सप्तानां 'गुरु'-उत्कृष्टः, स्थितिबन्ध इति परेणान्वयः, भवेदिति पूर्वतो योज्यम् । केन हतः सन् कासु मागंणासु ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धो भवेदित्याह-"पणवीसाए" इत्यादि, 'कमसो समथविगलेसु” इत्यादि च, उक्तप्रक्रिययाऽऽनीत एकेन्द्रियपृथिव्यादिमागणागतजीवानां यो ज्ञानावरणादिसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धः स पञ्चविंशत्या हतः सन् “कमसो" इति वचनाद् द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-जातिरूपभेदत्रयात्मकस्य विकलेन्द्रियस्य यः प्रथमभेदो द्वीन्द्रियजातिस्वरूपस्तस्य 'समस्तेषु'-अोध-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तलक्षणेसु सर्वेषु भेदेषूत्कृष्टस्थितिबन्धो भवेत् । पञ्चाशता हतः-ताडितस्तु सः क्रमप्राप्तद्वितीयभेदस्य त्रीन्द्रियजातिलक्षणस्य समस्तेषु भेदेषूत्कृष्टस्थितिबन्धो भवेत् । इत्थमेव शतेन ताडितः स चतुरिन्द्रियजातिसत्कसमस्तभेदेष सप्तानामुत्कृष्टस्थितिवन्धो भवेत् । सहस्रण ताडितस्त्वसंज्ञिमार्गणाभेदे प्रकृतोत्कृष्टस्थितिबन्धो भवेदित्यर्थः । इयमत्र भावना-अोघतो ज्ञानावरण-दर्शनावण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाण उक्तः, तस्य सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणेन मोहनीयोत्कृष्टस्थितिबन्धेन भागे ह्रियमाणे "शून्यं शून्येन पातयेत" इति नियमाल्लब्धास्त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः ( सागरोपम० ), एतावानेकेन्द्रियजाति-पृथिव्यादिपञ्चकायसत्कभेदेषु ज्ञानावरणादीनां चतुर्णामुत्कृष्टः स्थितिबन्धो भवति । मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्ध श्रोषतः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणोऽभिहितः, तस्य तावन्मात्रया मोहनीयोत्कृष्टस्थित्या भागे ह्रियमाणे उक्तनियमात् शून्येषु पातितेषु लब्ध एकः सागरोपमः (१ सागरोप०), एतावानकेन्द्रियादिप्रकृतमार्गणासु मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो जायते । इत्थमेवौघतो नामगोत्रयोः प्रत्येक यो विंशतिकोटिकोटिसागरोपमप्रमाण उत्कृष्टस्थितिबन्ध उदितस्तस्मान् मोहनीयोत्कृष्टस्थित्या भागे हते, लब्धौ सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ (3 सागरोप० ), एतावान् प्रकृतमार्गणासु नामगोत्रयोः प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धोऽस्तीति ।
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७६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेषु सप्तानाम् इदमेव ज्ञानावरणादीनामेकेन्द्रियादिमार्गणासत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धप्राणं पञ्चविंशत्या ताडितं सद् द्वीन्द्रियजातिमार्गणाभेदेषु ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणं भवति । तद्यथा-एकेन्द्रियोघादिमार्गणासु ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां प्रत्येकमुत्कृष्ट स्थितिबन्धो यः सागरोपमस्य त्रयः सप्तभागाः प्राप्तास्तस्मिन् पञ्चविंशत्या ताडिते जाताः (३४ २५ = ७५ ) सागरोपमस्य पञ्चसप्ततिः; सप्तभागाः । एतावान् द्वीन्द्रियजातिमार्गणाभेदेषु ज्ञानावरणादीनां चतुर्णामुत्कृष्टस्थितिबन्धो जायते । इत्थमेवैकेन्द्रियसत्कमोहनीयस्थितिबन्धे पञ्चविंशत्या ताडिते (१४२५=२५) पञ्चविंशतिः सागरोपमाणि प्राप्तानि, एतावान् द्वीन्द्रियजातिमार्गणाभेदेषु मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो भवति । एकेन्द्रियसत्कनामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धे पञ्चविंशत्या गुणिते प्राप्ताः (२४२५=५९) सागरोपमस्य पञ्चाशत् सप्तमभागाः, एतावद् द्वीन्द्रियजातिमार्गणाभेदेषु नामगोत्रयोः प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धमानम् ।
____ इत्थमेवैकेन्द्रियमार्गणासत्के ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धे पञ्चाशता हते त्रीन्द्रियजातिसत्कमार्गणाभेदेषु ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणं प्राप्यते । तद्यथा-त्रीन्द्रियजातिसत्कमार्गणाभेदेषु ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धमानं पञ्चाशत् शतं च सागरोपमसप्तभागाः (१५० सागरोप०)। मोहनीयस्य पञ्चाशत् सागरोपमाणि ( ५० सागरोपम० )। नामगोत्रयोः प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणं तु सागरोपमस्य शतसप्तमभागा (१०० सागरोपम० ) इति । चतुरिन्द्रियजातिमार्गणाभेदेषु ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणमानयनायैकेन्द्रियसत्को ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धः शतेन गुणितव्यस्ततो ज्ञानावरणादीनां चतुर्णामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणं सागरोपमस्य त्रिशतानि सप्तमभागा लभ्यते (३७ सागरोप० )। मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः शतसागरोपमप्रमाणः प्राप्यते, (१०० सागरोपम० )। नामगोत्रयोः प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणं तु द्विशतसागरोपमसप्तमभागा अवाप्यते ( २०० सागरोप०)। असंज्ञिमार्गणायां त्वेकेन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धे सहस्रेण ताडिते ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धो लभ्यते. स च ज्ञानावरणादीनां चतुर्णां प्रत्येकं त्रिसहस्राणि सागरोपमसप्तमभागाः ( 30. सागरोप० ) । मोहनीयस्य सम्पूर्णानि सहस्रसागरोपमाणि (१००० सागरोपमाणि)। नामगोत्रयोस्तु प्रत्येक सहस्रद्वयं सागरोपमसप्तमभागा ( २०७० सागरोप० ) इति ॥४२॥४३॥
इत्थं हि लाघवार्थमेकेन्द्रियोघादिसमुदितमार्गणाभेदेषु युगपदुत्कृष्टस्थितिवन्धप्रमाणेऽभिहिते कतिपयमार्गणासु याऽतिप्रसक्तिस्तामुद्दिधीपुरपवदन्नाह
गवरं णेयो बायरअसमत्तेगिदि-सव्वसुहमेसु । बायरअपज्जपुहवाइचउग-पत्तेप्रवण-णिगोएसू॥४४॥ (गीतिः)
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उत्कृष्ट स्थितिबन्धस्य ] द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम्
७७ पलिअोवमस्स हीणो भागेण असंखियेण उक्कोसो।
संखंसेणं हीणो पलियस्स अपज्जविगलेसु॥४५॥ (प्रे०) “णवरं णेयो” इत्यादिगाथाद्वयम्, नवरं-परमेकेन्द्रियाद्युक्तमार्गणाभेदेष्वपि “बायरअसमतेंगिदि" त्ति बादरापर्याप्तैकेन्द्रियमार्गणाभेदे, तथा 'सव्वसुहुमेसुं" ति ओघपर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु सर्वेष्वेकेन्द्रियपृथिव्यादिसत्केषु सूक्ष्मैकेन्द्रियोघाद्यष्टादशमार्गणाभेदेषु, तथा 'बायरअपज्जपुहवाइचउग" ति बादरापर्याप्तपृथिवीकाय-बादरापर्याप्ताप्काय-बादरापर्याप्ततेजस्काय-बादरापर्याप्तवायुकायमार्गणालक्षणा ये बादरापर्याप्तपृथिव्यादिचतुर्भेदास्तेष्वित्यर्थः । तथा “पत्तेप्रवणणिगोएसं" ति "बायरअपज्ज" इत्यस्यात्रापि योजनाद् बादरापर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायमार्गणाभेदे बादरापर्याप्तनिगोदभेदे चेत्यर्थः । अत्र प्रत्येकवनस्पतिकायपक्षे बादरेति विशेषणं स्वरूपदर्शकमेवावसातव्यम् , निगोदेत्यनेन साधारणवनस्पतिकायभेदश्च ग्राह्यः । एवमुत्तरत्रापि प्रकरणवशादविरोधेन समन्वयो द्रष्टव्य इति । एतेषु बादरापर्याप्तैकेन्द्रियादिपञ्चविंशतिमार्गणाभेदेषु "पलिनोवमस्स हीणो भागेण असंखियेण उक्कोसो' ति मोहनीयोत्कृष्टस्थितिभागहरणप्रक्रिययाऽऽनीतो ज्ञानावरणादीनां सागरोपमस्य त्रिसप्तभागादिप्रमाणः स्थितिबन्धोऽपि पल्योपमस्याऽसंख्येयेन भागेन हीनः सन्नुत्कृष्टस्थितिबन्धो ज्ञेय इति पूर्वेण योगः। इयमत्र भावना-एकेन्द्रियादिभिन्न भिन्नजातीयजीवानां प्रायोग्यो य उत्कृष्टस्थितिबन्धः स पर्याप्तवादरजीवैरेव क्रियते, न त्वपर्याप्तः सूक्ष्मैर्वा । इत्थं च बादरापर्याप्तकेन्द्रियादिप्रकृतपञ्चविंशतिमार्गणासु प्रत्येकं बादरपर्याप्तजीवानामसमावेशेन तास्वसावपोद्य पल्योपमाऽसंख्येयभागेन न्यूनोऽभिहितः, तथा च सति प्रकृतपञ्चविंशतिमार्गणासु ज्ञानावरण-दर्शनावरणवेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां प्रत्येकं पल्योपमासंख्येयभागेनोनाः सागरोपमस्य त्रिसप्तभागा उत्कृष्टस्थितिबन्धो ज्ञातव्यः। मोहनीयस्य पल्योपमासंख्येयभागेनोनं सागरोपममुत्कृष्टस्थितिबन्धो बोद्धव्यः । नामगोत्रयोरप्येवमेव सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ पल्योपमासंख्येयभागेनोनो उत्कृष्टतोऽपि द्रष्टव्य इति । एकेन्द्रिय-पृथिव्यादिसत्केघोष-बादरौष-बादरपर्याप्तभेदेषु तूक्तकरणेन यथा प्राप्तस्तथैव सागरोपमस्य त्र्यादिसप्तभागाः सम्पूर्णा एव बोद्धव्य इति । अन्यत्र द्वीन्द्रियादिमार्गणाभेदेषु यत्र पर्याप्तजीवानामप्रवेशस्तत्राऽप्यपवदति-"संखंसेणं हीणो' इत्यादि, "अपज्जविगलेसु" त्ति अपर्याप्तद्वीन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रीन्द्रिया-ऽपर्याप्तचतुरिन्द्रियलक्षणेसु त्रिषु मार्गणाभेदेषु पञ्चविंशत्यादिगुणनप्रकारेणाऽऽनितः स्थितिबन्धः पल्योपमसंख्येयभागेन हीनः सन्नुत्कृष्टो ज्ञेय इति पूर्वतोऽनुवर्तत इति । सुगमम् ॥४४॥४५॥
अथ कयाऽपि मार्गणयाऽसाम्यमितिकृत्वाऽपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणयोः पृथक् पृथग् व्याजिहीर्षुरादावपगतवेदमार्गणायामाह
गयवेए घाईणं संखसहस्सवरिसाऽत्थि संखसमा । मोहस्स अघाईणं असंखिययमो पलियभागो॥४६॥
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेषु सप्तानाम् (प्रे०) “गयवेए घाईण" मित्यादि, अपगतवेदमार्गणायाम् “घाईणं" ति मोहनीयस्य वक्ष्यमाणत्वात्तद्वर्जानां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानां त्रयाणां घातिकर्मणां प्रत्येकं "संखसहस्सवरिसाऽत्थि' ति संख्येयानि वर्षसहस्राण्युत्कृष्टस्थितिबन्धोऽस्ति । “संखसमा” त्ति संख्येयाः समाः-वर्षाणि “मोहस्स"ति मोहनीयकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धो भवतीत्यर्थः । एवमुतरत्रापि । ततः 'अघाईणं" ति सप्तानामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य वक्त प्रक्रान्तत्वाद् वेदनीय-नाम-गोत्रलक्षणानां त्रयाणामघातिकर्मणाम् "असंखिययमो पलियभागो" त्ति असंख्येयतमः पल्योपमभागः, पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाण उत्कृष्टस्थितिबन्ध इत्यर्थः । इति ॥४६॥ अथ सूक्ष्मसम्परायमार्गणायां प्रकृतोत्कृष्टस्थितिबन्धं प्रदर्शयन् लाघवार्थं शेषमार्गणास्वतिदिशंश्चाह--
सुहुमे कमा पुहुत्तं मुहुत्त-मासाण घाइ-इयराणं ।
अहव दिण-समाण कमा पुहत्तमोघव सेसासु ॥४७॥ (प्रे०) “सुहमे कमा पुहुत्त"मित्यादि, सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां क्रमात् "पुहत्तं मुहत्तमासाण"त्ति मुहूर्तानां पृथक्त्वं मासानां पृथक्त्वं चेत्यर्थः, उत्कृष्टस्थितिबन्ध इति गम्यते । केषां कर्मणां क्रमात् मुहूर्तपृथक्त्वं मासपृथक्त्वं चोत्कृष्टस्थितिबन्धः ? इत्याह-"घाइइयराण"मिति सूक्ष्मसम्परायमार्गणायां बन्धप्रायोग्यानां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानां त्रयाणां घातिकर्मणां तदितरेषां वेदनीय-नाम-गोत्र-लक्षणानां त्रयाणामघातिनां च, त्रयाणां घातिनामुत्कृष्टस्थितिबन्धो मुहूर्तपृथक्त्वम् , त्रयाणामघातिनामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्तु मासपृथक्त्वमित्यर्थः । अत्रैव विकल्पान्तरं दयितुमाह- अहव दिणसमाण कमा पुहुत्तं" ति अथवैतेषां त्रयाणां घातिनां त्रयाणामघातिनां च क्रमादिनानां समानां च पृथक्त्वम्, त्रयाणां घातिनां दिवसपृथक्त्वमुत्कृष्टस्थितिबन्धस्त्रयाणामघातिनां तु वर्षपृथक्त्वमुकृष्टस्थितिवन्ध इत्यर्थः । “मोघव्व सेसासु" ति अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगादिवर्जासूक्तशेषासु नरकगत्यादिसप्तषष्टिमार्गणासु प्रत्येकमौधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनां पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियमिथ्यादृष्टिजीवानां प्रवेशात् प्रकृतानामायुर्वर्जानां सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्ध श्रोधवद भवतीत्यर्थः । उक्तशेषमार्गणा नामत इमाः-नरकगत्योघभेदः, धर्मादिपृथिवीभेदेन सप्तोत्तरभेदाः, इत्थं नरकगतिसत्का अष्टौ भेदाः, तिर्यग्गत्योधभेदसहिताः पञ्चेन्द्रियतिर्यगोघ-पर्यातपञ्चेन्द्रियतिर्यक्-तिरश्चीरूपाश्चत्वारो भेदाः, मनुष्यगत्योध-पर्याप्तमनुष्य-मानुपीरूपास्त्रयो भेदाः, देवगत्योघभेदः, भवनपत्यादिसहस्रारकल्पान्ता अन्ये एकादशेति देवगतिसत्का द्वादशभेदाः, पञ्चेन्द्रियौघपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदौ, त्रसकायौव-पर्याप्तत्रसकायभेदौ, मनोयोगसामान्यभेदः, सत्यमनोयोगा-ऽसत्यमनोयोग-सत्यासत्यमनोयोगा-ऽसत्यामृषामनोयोगरूपाश्चत्वार उत्तरभेदाश्व, एवं वचनयोगसामान्यसत्यवचनयोगा-ऽसत्यवचनयोग-सत्यासत्यवचनयोग-व्यवहारवचनयोगभेदात् पञ्च वचनयोगभेदाः, काययोगसामान्यौ-दारिककाययोग-वैक्रियकाययोगरूपास्त्रयः काययोगभेदाः, स्त्री-पुरुष-नपुसकाख्या
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उत्कृष्टस्थितिबन्धस्य ] द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम्
[७६ स्त्रयो वेदमार्गणाभेदाः, तथैव क्रोधादिकषायभेदाचत्वारः कषायमार्गणाभेदाः, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानरूपास्त्रयोऽज्ञानभेदाः, असंयममार्गणाभेदः, चक्षुर्दर्शना-ऽचक्षुदर्शनभेदौ, शुक्ललेश्यावर्जाः कृष्णादिपञ्चलेश्यामार्गणाभेदाः, भव्या-ऽभव्यमार्गणे, मिथ्यात्वमार्गणा, संज्ञिमार्गणा-ऽऽहारिमार्गणा चेति ।
नन प्रस्तुतबन्धविधानग्रन्थप्रारम्भे ग्रन्थकृताऽऽदेशतो नरकगत्यादिचतुःसप्तत्युत्तरशतमार्गणासु प्रकृत्यादिबन्धचतुष्टयं प्ररूपणीयत्वेन प्रतिज्ञातं, तथैव प्रकृतिवन्धे प्ररूपितं च, अत्रापि तयैव नीत्या चतुःसप्तत्युत्तरशतमार्गणातु प्ररूपितव्यं, तथा च सत्यनन्तरं पृथक पृथगभिहिता अपर्याप्ततियेगादिव्युत्तरशतमार्गणाः संत्यज्य शेषा एकसप्ततिमागेणाः शेषमागंणात्वेन द्रष्टव्या भवन्ति, तत्कथमकषाय-केवलज्ञानादिमार्गणा अपि शेषमार्गणासु न सङगृहीताः ? इति चेद, उच्यतेसर्वा प्ररूपणा सत्पदप्ररूपणापूर्विका कर्तव्या भवति, अन्यथा वस्तुनः सत्त्वा-ऽसत्त्वनिर्णयाभावे किमश्वघटादिवत् सतः स्थितिबन्धस्य प्रमाण-स्वामित्वादिकं प्ररूप्यते, उताकाशकेशवदसतः कल्पनाशील्पिविनिर्मितस्येति संदोहदोलादोलायितविद्वज्जनमनसस्तपणं न स्यात् , ततः स्थितिबन्धेऽपि प्रकृतिवन्धवदादौ सामान्येन मार्गणास्थानेषु च सा सत्पदप्ररूपणाऽवश्यं कर्तव्या, किन्तु सुगमत्वात सा ग्रन्थकृता पृथग् न दर्शिता, तथाऽपि यदा प्रकृतिबन्धवत् स्थितिबन्धोऽपि सत्पदप्ररूपणाविषयीक्रियते तदा यथा प्रकृतिबन्धे आयुर्वन्धो वैक्रियमिश्रकाययोगाद्येकादशमार्गणावर्जासु शेषमार्गणास्वेव सन् प्राप्तः, न पुनक्रियमिश्रकाययोगादिमार्गणस्वपि, ततश्च यथा तत्र स्वामित्वादिद्वारेषु वैक्रियमिश्रकाययोगादिमार्गणा अधिकृत्यायुपः स्वाम्यादिचिन्ता न कृता, अर्थात् ता वैक्रियमिश्रकाययोगायेकादशमार्गणा आयुर्वन्धविषयचिन्तायां न परिगणितास्तथा कषायोदयप्रत्ययो मूलाष्टकर्मसत्कस्थितिबन्धोऽपि कषायोदयविरहितास्वकषाय-केवलज्ञान-यथाख्यातसमय-केवलदर्शनरूपासु चतसषमार्गणासु न सल्लभ्यते, इत्थं हि तत्र मार्गणाचतुष्के स्थितिबन्धस्यासचात् स्थितिबन्धप्रमाण-स्वाम्यादीनामप्यसम्भव एव, तत एव ताश्चतस्रो मार्गणा मूलत एव न परिगणिताः, उक्तनीत्यैवायुषः स्थितिबन्धे वैक्रियमिश्रकाययोगायेकादशमार्गणा न गणयिष्यन्ते च, प्रकृतिबन्धाविनाभावित्वात्स्थितिबन्धस्य । वैक्रियमिश्रकाययोगाद्यकादशमार्गणास्वायुर्वन्धाऽसत्वं तु प्राक प्रकृतिबन्धे आवेदितमेवेत्यलं विस्तरेण ॥४७॥
तदेवं दर्शितं सप्तानां मूलकर्मणामुत्कृष्टस्थितिवन्धप्रमाणमादेशतोऽपि । साम्प्रतमुक्तशेषस्याऽऽयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणं मार्गणास्थानेषु प्ररूपयितुकाम आह–
अाउस्स खलु अबाहा सव्वेस णिरय-सुरेसु विउवे य । उक्कोसा छम्मासा उरालमीसे मुहुत्तंतो ॥४८॥ जेट्टभवठिइतिभागो एगिदिय--विगल--पंचकायेसू । सव्वेसु सेसेमु असमत्तेसु मुणेयव्वा ॥४६॥
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८०]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुषः (प्रे०) "पाउस्स खलु” इत्यादि, आयुषो वेद्यमानायुरवशेषरूपाऽबाधा खलु ज्ञातव्या इति द्वितीयगाथाप्रान्तेऽन्वयः । केषु मार्गणाभेदेषु कियतीत्याह-"सव्वेसु णिरयसुरेसु" इत्यादि, सर्वेषु निरयगतिमार्गणाभेदेषु, सर्वेषु देवगतिमार्गणाभेदेषु, “विउवे य” त्ति वैक्रियकाययोगमार्गणाभेदे चेत्येतेष्वेकोनचत्वारिंशन्मार्गणाभेदेषु प्रत्येकम् “उक्कोसा छम्मासा" ति उत्कृष्टा पण्मासाः । कुतः? देवनायिकर्वेद्यमानायुषि षण्मासेऽनवशेषे पारभविकायुर्वन्धस्याऽकरणात् । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूणा
“देवनेरइयअसंखेज्जवासाउयतिरियमणुयाणं आउगस्स अबाहा छम्मासा उक्कोसा भवति ॥” इति।। ___ "उरालमीसे महत्तंतो" ति औदारिकमिश्रकाययोगमार्गणाभेदे 'मुहूर्तान्तः'-अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कष्टाबाधा इत्यनुवर्तते । कुतोऽन्तमुहूर्तम् ? उच्यते, औदारिकमिश्रकाययोग्यवस्थायां ह्यायुषो बन्धका लब्ध्यपर्याप्ता जीवा एव, ते चान्तमुहूर्तस्थितिकाः, तथा च सति प्रागुक्तनीत्या भवतृतीयभागावशेषे आयुबन्धकरणेऽपि तेषामुत्कृष्टाऽबाधाऽन्तमुहूर्तमेवावाप्यते, न पुनस्तदधिका । लब्ध्यपर्याप्तवर्जानां त्वौदारिकमिश्रकाययोग्यवस्थायामायुबन्ध एव न भवति, इत्थं हि प्रकृतमार्गणायामायुष उत्कृष्टाऽप्यबाधाऽन्तमुहूर्तमेवोक्तेति । "जेट्ठभवठिइतिभागो" त्ति मार्गणागतजीवेषु यस्य कस्यापि या ज्येष्ठा-उत्कृष्टा 'भवस्थितिः'-वेद्यमानायुमानम् , तस्या ज्येष्ठभवस्थितेस्त्रिभागः-तृतीयभागः. उत्कृष्टाबाधा इति प्राग्वद् योज्यम् । केषु मार्गणाभेदेष्वित्याह-"एगिदियविगलपंचकायेसु सव्वेसं" इत्यादि. एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-पृथिव्यादिवनस्पतिकायान्तपञ्चकायभेदेषु सर्वेषु, एतेषामेकेन्द्रियादीनामोघ-सूक्ष्म-बादर-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तादिभेदनिष्पन्ना ये पञ्चपञ्चाशद् भेदास्तेषु मूलोत्तरभेदरूपेषु सर्वेष्वित्यर्थः। उक्तं च पञ्चसंग्रहे उत्कृष्टमबाधामानं दर्शयता ग्रन्थकृता--"इगविगलाणं भवट्रिहतंसो" इति । अन्यमार्गणा भेदान् संग्रहीतुमाह- "सेसेसुं असमत्तेसु"ति अनन्तरगृहीतैकेन्द्रियादिभेदेष्वप्रविष्टा ये शेषा अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग-पर्याप्तमनुष्या-ऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रसकायलक्षणाश्चत्वारोऽपर्याप्तभेदास्तेष्वित्यर्थः । इदमुक्तं भवति-देवनिरयवर्जानां संख्येयवर्षायुषां तिर्यङमनष्याणां वेद्यमानायुपश्चरमे तृतीये भागे वेदयितुभनारब्धे पारभविकायुर्वन्धो नैव भवतीत्यादि प्रागस्मिन्नेव प्रकरणे प्रसङ्गाद् व्याख्यातम् , ततश्यमेकेन्द्रियादीनां ज्येष्ठभवस्थितितृतीयभागप्रमाणोत्कृष्टाऽवाधा सुखेन गम्यते, तथाहि-एतास्वेकेन्द्रियोघाघेकोनषष्टिमार्गणासु प्रत्येकमस्ति संख्येयवर्षायुषां तिरश्चां मनुष्याणां वा समावेशः, तत्रापि पृथिवीकायौषभेद-वादरपृथिवीकायौघ-पर्याप्तबादरपृथिवीकायभेदेषु द्वाविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणोत्कृष्टस्थितिकानां पर्याप्तखरबादरपृथिवीकायजीवानां समावेशादुत्कृष्टाऽबाधा द्वाविंशतिवर्षसहस्रतृतीयभागप्रमाणा लभ्यते । अपर्याप्तबादरपृथिवीकायभेदे तु सा तावती न लभ्यते. कुतः ? तस्मिन् तेषामुत्कृष्टस्थितिकानां पर्याप्तखरबादरपृथिवीकायजीवानामप्रवेशात् । तर्हि तस्मिन कियती लभ्यते ? अन्तमुहूर्तमात्रा । कस्माद् ? उच्यते,-अपर्याप्ततयात्र लब्ध्यपर्याप्ता इष्यन्ते, ते चोत्कृष्टतोऽप्यन्तमुहूर्त स्थितिका एव भवन्ति, ततोऽबाधाऽपि तदीयभवतृतीयभागप्रमाणाऽन्तम हतमात्रा भवति । इत्थमेव पृथिव्यादिसत्केषु सर्वाऽपर्याप्तभेदेषु, सर्वसूक्ष्मजीवभेदेषु, सर्वेषु साधारण
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[८१
उत्कृष्टस्थितिबन्धस्य ] द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम वनस्पतिकायभेदेषु च प्रत्येकमायुष उत्कृष्टाऽप्यबाधाऽन्तमुहूर्तमात्रा भावनीया, अन्तमुहर्तस्थितिकत्वात् तेषां सर्वेषाम् । तदन्यभेदेषु तूत्कृष्टस्थितिका कायादिजीवानां प्रवेशात् तदीयोत्कृष्टभवस्थित्यनुसारेण सा बोद्धव्या । पृथिवीकायाप्कायादीनामुत्कृष्टभवस्थितिप्रदर्शिका गाथा त्वियम् ----
__बावीससगतिदसवाससहसगणितिदिण बेइंदियाइसु।
बारसवासुणपणदिणछम्मासतिपलिय ठिई जिवा ॥२५६।। इति । विशेषतस्तु प्रतिमार्गणमुत्कृष्टभवस्थितिः प्राक्प्रकृतिबन्धप्रथमाधिकारान्तद्वारेऽभिहिता इति तत एव द्रष्टव्या इति ॥४८॥४६॥
तदेवं निरयगत्यादिनवनवतिमार्गणास्वायुष उत्कृष्टामवाधामभिधाय तास्वेवाऽऽयुषोऽनुभवयोग्यतालक्षणस्थितिबन्धप्रमाणमाह
एअासु पुव्यकोडी ठिइबंधो अाउगस्स उक्कोसो ।
(प्रे०) “एमासु पुव्वकोडो” इत्यादि, एतास्वनन्तरोक्तासु निरयगत्योघादिनवनवतिमार्गणासु प्रत्येकमायुरेशयुष्कस्तस्याऽऽयुष्कस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धः “पुवकोडी" ति पुर्वकोटीवर्पप्रमाणः, भवतीति शेपः । तत्र पूर्वप्रमाणं त्वन्यजेत्थमभिहितम्– “पुब्बस्स उ परिमाणं सयरिं खलु बासकोडी लक्खाओ । छप्पन्नं च सहस्सा बोद्धव्वा वासकोडीणं ॥२६२।।” इति ॥
अथोक्तशेपासु चतुःषष्टिमार्गणासु प्रस्तुतमायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणं दिदर्शयिपुरादौ तास्ववाधामानं दर्शयति
सेसामु पुवाणं कोडितिभागो गुरुग्रवाहा ॥५०॥
(प्रे०) "सेसासुं पुव्वाण" मित्यादि, अभिहितशेपासु वक्ष्यमाणस्थितिबन्धप्रमाणासु तिर्यग्गत्योपादिमार्गणासु प्रत्येकं 'पुव्वाणं कोडितिभागो गुरुप्रबाहा" त्ति बध्यमानपारभविकायषो वेद्यमानायुरवशेषरूपा दलनिषेकाऽयोग्यकाललक्षणा गुरुरवाधा पूर्वकोटीविभागप्रमाणा भवतीत्यर्थः । अयम्भावः-- एतासु शेषमार्गणासु प्रत्येकं प्रविष्टः पूर्वकोटीवर्षायुष्मद्भिस्तिर्यग्भिर्मनुष्यैर्वा यदा वेद्यमानायुषोर्द्रयोस्त्रिभागयोनिष्क्रान्तयोस्तृतीयभागप्रारम्भे पारभविकायुर्वन्धः क्रियते तदा प्रकृतोत्कृष्टाऽबाधा लभ्यत इति ॥५०॥
एतासु शेपमार्गणासु कर्मदलनिषेकरू पोऽनुभवयोग्यतालक्षणस्थितिबन्धस्तद्युत्कृष्टतः कियान् भवतीत्यत्राह
परिहारे कालगो उप्पज्जइ जेठ्नो सहस्सारे । इइ भगवईत्र भणियं विति परे जलहितेत्तीसा ॥५१॥ ठिइबंधो उक्कोसो अयरा पाउस्म णीलकाऊ। दस तिषिण कमा अरणे भणन्ति सत्तरह सत्त पुणो ॥५२॥
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बंधविहाणे मूलप डिठिइबंधो
ते - पउमासु अयरा दो अट्ठारह कमा मुणेयव्वा । होइ दुवीसा जलही तिरिक्खजोणिमह - देसेसु ॥५३॥ जलही एगतीसा सासाणे जेठगो सरिणम्मि । पलिया संखियभागो जलहितेत्तीसा ||५४ ||
सेसास
(प्रे०) परिहारे" इत्यादिगाथाचतुष्कम्, “परिहारे" त्ति परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायाम् "कालगनी "त्ति कालगत : - मृत्युमितः परिहारविशुद्धिकसंयतः ' उप्पज्जइ जेटुप्रो सहस्सारे "त्ति ज्येष्ठतः - उत्कृष्टतः सहस्राराख्येऽष्टमकल्पे उत्पद्यते, न पुनस्ततः परतः, यतो देवलोके उत्पद्यमानस्य परिहारविशुद्धिकस्योत्कृष्टतः स्थितिर्भगवत्यामष्टादश सागरोपमाण्यभिहिता । तथा च तद्ग्रन्थ:-- "परिहारबिसुद्धियस्स पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं दो पलिवमाइं, उक्को सेणं अट्ठारस सागरोवमाई" इति ।
ततः किम् ? ततो भगवत्यभिप्रायेण परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायामायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धोऽष्टादशसागरोपमाणि सम्भवति, न पुनस्तदधिक इति । अत्र महाबन्धकाराभिप्रायमाह-"बिति परे" इत्यादि, परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायां परे - महाबन्धकारा जलधयः - सागरोपमाणि त्रयस्त्रिंशदुत्कृष्टस्थितिबन्धो भवतीति ब्रुवन्ति इति । "अयरा प्राउस्स"त्ति ठिइबंधो उक्कोसो" इत्येतत्पदद्वयमत्रापि सम्बध्यते, ततः प्रकृतस्याऽऽयुपोऽवाधायाः पृथगभिहितत्वात्तया हीनोऽनुभवयोग्यतालक्षणः स्थितिबन्ध उत्कृष्टतोत्तराः - सागरोपमाणि, भवन्तीति शेषः । कस्यां कस्यां मार्गणायां कियन्ति कियन्ति सागरोपमाणीत्याह - " णीलकाऊ सु" मित्यादि, नील- कापोतलेश्यामार्गयोः ' दस तिणि कमा" ति क्रमाद् दश सागरोपमाणि त्रीणि सागरोपमाणि चेत्यर्थः । एतानि च मूलेऽनुक्तान्यपि साधिकानि बोद्धव्यानि । कस्मात् ? नीललेश्या मार्गणायामायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धः साधिकानि दशसागरोपमाणि जायत इतिकृत्वा । यत्र योऽधिकांशः स पल्योपमासंख्येयभागमात्रो ग्रन्थकृता लाघवार्थं नाभिहितस्तथाऽप्यसौ व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति न्यायेन व्याख्यानाद् बोद्धव्यो भवति । तदुपपत्तिस्त्वेवम् - नीललेश्यायामुत्कृष्ट स्थितिकायुषो बन्धका मनुष्यास्तिर्यञ्चो वा भवन्ति, एतच्चाग्रे स्वामित्वद्वारे वच्यते ग्रन्थकृतैव । ते च नीललेश्याका मनुष्यतिर्यञ्च उत्कृष्टस्थितिकमायुर्निरयसत्कं बध्नन्ति तत्प्रायोग्यमायुर्वघ्नन्त एते तिर्यङ्मनुष्याः पल्योपमासङ्ख्यभागेनाधिकदशसागरोपमेभ्योऽधिकां स्थिति न बध्नन्ति । कुतः ? तदधिकस्थितिकनरकायुर्वन्धस्य कृष्णलेश्यायां भावात् । एतदपि कुतः ? तदधिकायुषां नारकाणां कृष्णलेश्यत्वात् । उक्तं च द्रव्यलोकप्रकाशे पञ्चमपृथिवीवर्णनायाम् – " केषांचिदाद्यप्रतरे नारकाणां भवेदिह । नीललेश्या यदुकृष्टादृत्यस्याः स्थितिराहिता ।। २५८|| पल्योपमासंख्यभागाधिका दशपयोधयः । ततोऽधिकस्थितीनां तु तेषां कृष्णैव केवलम् || २५६ || ” युग्ममिति । इत्थमेव कापोत लेश्यामार्गणायामपि मूलोक्तस्थितिबन्धः साधिको द्रष्टव्यः कुतः ? कापोतलेश्याकनैरयिकाणामुत्कृष्टस्थितेः साधिकत्रिसागरोपमप्रमाणत्वात् । उक्तं चोत्तराध्ययन सूत्रे – “दस वाससहरसाई काऊ ठिई जहनिया होइ। तिररगुदही पलियोत्रमासंखभागं च उक्कोसा || ४१ || ” इति लेश्याध्ययने ।
"
↑
८२ ]
[ मार्गणास्थानेष्वायुषः
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[८३
उत्कृष्टस्थितिबन्धस्य ] द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम्
अत्रैव मार्गणाद्वये मतान्तरेण प्रस्तुतस्थितिवन्धप्रमाणमाह- "अण्णे भणन्ति" इत्यादि, अन्ये केचनाऽऽचार्याः पुनरधिकृतमार्गणाद्वये क्रमात् सप्तदश सप्त च सागरोपमाण्यायुष उत्कृष्टः स्थितिबन्ध इति भणन्तीत्यर्थः । अयम्भावः-पूर्वमतेनाधःपञ्चमपृथिव्याः प्रथमे प्रतरे केषाञ्चिन्नारकाणां नीललेश्याऽभिमता, न पुनस्ततोऽधस्तनप्रस्तटेष्वपि, मतान्तरेण तु पञ्चमपृथिव्याश्चरमे प्रतरेऽपि केषाञ्चिन्नारकाणां नीललेश्याऽङ्गीकृता, तत्र च चरमे प्रतरे नारकाणामुत्कृष्टा स्थितिः सप्तदश सागरोपमाणीतिकृत्वा नीललेश्यामार्गणायामुत्कृष्टस्थितिकनिरयायुषो बन्धकाः सप्तदशसागरोपमप्रमाणां स्थिति निर्वतयन्ति । यथा नीललेश्यायां तथा कापोतलेश्यायामप्यायुष उत्कृष्टः स्थितिवन्धः सप्तसागरोपमाणि तृतीयपृथिव्याश्चरमप्रस्तटेऽपि कापोतलेश्याकनैरयिकाणां सद्भावमङ्गीकर्तुमतेन बोद्धव्यः । तत्त्वं त्वतीन्द्रियार्थवेदिगम्यमिति । "तेउपउमासु"त्ति तेजोलेश्यामार्गणायां पद्मलेश्यामार्गणायां च "अयरा दो अट्ठारह कमा” त्ति प्रागवद् द्वे सागरोपमे, अष्टादश सागरोपमाणि चाऽऽयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धो ज्ञातव्यः । अत्रापि—“दस बाससहस्साई तेउए ठिई जहनिया होइ । दुएणुदुही पलियोवमसंखभागं च उक्कोस्सा ॥५३॥” इत्यादिवचनात् तेजोलेश्यामार्गणायां मूलोक्तमायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणं पल्योपमासंख्यभागेनाधिकं द्रष्टव्यम् । पद्मलेश्यामार्गणायां तु पद्मलेश्याकदेवानामुत्कृष्टायुरष्टादशसागरोपमप्रमाणापेक्षया प्राग्वद्भावनीयम् ।।
ननु “जोइसकप्पदुगे तेऊ कप्पतिय पम्हलेसा लंताइसु सुकलेस हुंति सुरा” इत्यादिवचनात् पञ्चमब्रह्मदेवलोककल्पादृवं न सन्ति पद्मलेश्याकदेवाः, ब्रह्मदेवलोके च देवानामुत्कृष्टमप्यायुर्दशसागरोपमप्रमाणमस्ति, तत्कथं पद्मलेश्याकदेवानामुत्कृष्टायुरष्टादश सागरोपमाणीति सङ्गच्छेत् ? इति चेद, उच्यते, सत्यम् , यदुक्तं भवता “जोइसकप्पदुगे तेऊ कप्पतिय पम्हलेसे" त्यादि, नवरं तस्येवायमपि मतान्तरो दृश्यते यदष्टमकल्पान्तानां पद्मलेश्याऽस्तीति, कथमन्यथा बन्धस्वामित्वोक्तम्-“उज्जोअचउनिरयबार विणु सुक्का विणुनिरयबार पम्हे"त्यादि सङ्गच्छेद् , यतस्तत्र शुक्ललेश्यामार्गणायामुद्योतादिप्रकृतयो बन्धविषयत्वेन प्रतिसिद्धाः, तासां तिर्यङ्नरकप्रायोग्यत्वात्, पद्मलेश्यामार्गणायां तु निरयद्वादशकं बन्धविषयतया निषिद्धम् , न तूद्योतचतुष्कम् , तस्य तिर्यप्रायोग्यत्वात् । उक्तं च तट्रीकायाम-"विंशत्युत्तरशतमध्यादुद्योतादिचतुष्कं नरकादिद्वादशकं च मुक्त्वा शेषं चतुरुत्तरशतमोघतः शुक्ललेश्यायां बध्यते, उद्योतादिप्रकृतीनां तिर्यटनरकप्रयोग्यत्वेन देवनरकप्रयोग्यबन्धकैः शुक्ललेश्यावद्भिरबध्यमानत्वात्" तथा "विंशत्युत्तरशतमध्यान्नरकत्रिकादिप्रकृतिद्वादशकं विना शेषमष्टोत्तरशतं पद्मलेश्यायामोघतो बध्यते, तल्लेश्यावतां सनत्कुमारादिदेवानां तिर्यक्प्रायोग्यबध्नतामुद्योतादिप्रकृतिचतुष्कस्य बन्धसम्भवान्नात्र तबन्धाभावः” इत्यादि । तथा च सत्यानिषिद्धं शुक्ललेश्याकानां तिर्यग्गतिगमनं नरकगतिगमनं च, पद्मलेश्यावतां तु नरकगतिगमनमेव निषिद्धम् , न तु तिर्यग्गतिगमनमपि । इत्थं हि व्यवस्थितः पद्मलेश्यावतां तिर्यग्गतिप्रायोग्यस्य तिर्यगायुषोऽपि बन्धः, शुक्ललेश्यावतां तु नेति । एवं च स्थिते ब्रह्मदेवलोकपर्यन्तानां देवानामेव पद्मलेश्या, न तु तदुपरितनकल्पवासिनामित्येक एव मतस्तदाऽऽनत
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८४ ]
बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ोधत आदेशतश्च प्रभृतिविमानवासिनां मनुष्येष्वेवोत्पादः, सनत्कुमारकल्पादिसहस्रारकल्पान्तानां सुराणां तु तिर्यग्गतावपीति सिद्धान्तः कथं सङ्गच्छेद् ; अभिमतं चैतदपि, यत उक्तमन्यत्र-“जति सुरा संखाउयगम्भवपज्जत्तमणुयतिरिएसु। पज्जत्तेसु य बायर-भू-दग-पत्तेयगवणेसु ॥ तत्थवि सणंकुमारपभिइ एगिदिएसु नो जंति । प्राणयपमुहा चविउं मणुएसु चेव गच्छंति ॥” इति ॥ न च कुत्रचिच्छुक्ललेश्यावतां तियग्गतिप्रायोग्यवन्धनिषेधानुसारेण ब्रह्मकल्पादुपरितनवर्तिविमानवासिनां तियग्गतिगमनप्रतिषेधः कृतो दृश्यते, अत एव ज्ञायते यल्लान्तक-शुक्र-सहस्रारकल्पवासिनां पद्मलेश्या मतान्तरेणाभिमता विद्यते, इत्थं च मतविशेपेणायं ग्रन्थः, नातः पद्मलेश्यायामायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धोऽष्टादशसागरोपमप्रमाण इत्यत्र कश्चिद्विरोधः, उत्तरत्रापि “पउमाअ तहेव णवरि तइबाइगअट्ठमंतसुरो” इत्यनेन वक्ष्यमाणाः पद्म लेश्यामार्गणायां सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः सहस्रारान्ता मिथ्यादृष्टयो देवा इत्यादिषु चेति भावितं यथामति, तत्वं पुनः बहुश्रुतगम्यमिति न केनापि मतिमताऽऽग्रहो विधेय इति । अथ प्रकृतमेवोच्यते-"होइ दुवीसा जलही तिरिक्खजोणिमइ-देसेस" ति आयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्तियग्योनिमतीमार्गणायां देशसंयममार्गणायां च प्रत्येकं द्वाविंशतिर्जलधयः-सागरोपमाणि भवति । सुगमं चैतत् , यतो “जा अच्चुत्रो सड्ढा” इत्यादिवचनाद् देशसंयतानामुत्कृष्टतोऽप्यच्युत्कल्पे उत्पादोऽभिहितः, तत्र चोत्कृष्टा स्थितिद्वाविंशतिः सागरोपमाणि, उत्कृष्टतश्च तामेव देशविरतिबंधनातीति । तिरच्या अप्यधःषष्ठपृथिव्यां नारकतयोत्पादः, न पुनस्ततः परतः सप्तम्यामपि, स्त्रीणामुत्कृष्टतोऽपि षष्ठपृथिवीं यावदुत्पादस्य विहितत्वात् , उक्तं च दुःपमानभावजनितमोहतिमिरतरणिश्रीमदभयदेवसूरिपादैः पञ्चमाङ्गवृत्तौ--“षष्ठयन्तास्वेव पृथिवीपु स्त्रीणामुत्पत्तेः” इति । तिरश्ची तु स्त्रीरेव, इत्थं हि सा उत्कर्षतोऽपि पष्ठपृथिवीसत्कं द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकमेवायुर्वध्नातीति । 'जलहीण एगतीसा सासाणे जेट्टगोति प्रकृतस्याऽऽयुषो ज्येष्ठ एव ज्येष्ठकः, उत्कृष्टस्थितिबन्ध इत्यर्थः । स च 'जलवीनामेकत्रिंशत्'-एकत्रिंशत्सागरोपमाणि सासादनमार्गणायां भवतीत्यर्थः । "असण्णिम्मि" ति असंज्ञिमार्गणायां “पलियासंखियभागो" ति पल्योपमस्यासंख्येयभागः, आयुष उत्कृष्टस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते । सुगमम् ।।
अथोक्तशेषमार्गणासु प्रकृतमाह- ‘सेसासु जलहितेत्तोसा' त्ति उक्तशेषासु पञ्चपञ्चाशन्मागणापु प्रकृत आयुष उत्कृष्टस्थितिवन्यो जलधीनां त्रयस्त्रिंशत्, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि भवतीत्यर्थः। शेषमार्गणास्तु नामत इमाः--तिर्यग्गत्योध-पञ्चेन्द्रियतिर्यगोघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगमनष्योध-पर्याप्तमनुष्य-मानुपी-पञ्चेन्द्रियौष-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्रसकायौध-पर्याप्तत्रसकाय-पञ्चमनोयोगपञ्चवचोयोग-काययोगसामान्यौ-दारिककाययोगा-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोग-स्त्री-पुनपुंसकवेदत्रय-क्रोधादिकायचतुष्क-मत्यादिज्ञानचतुष्क-मत्यज्ञानाद्यज्ञानत्रिक-संयमोघ-सामायिकसंयमच्छेदोपस्थापनसंयमा-ऽसंयम-चक्षुरादिदर्शनत्रिक-कृष्णलेश्या-शक्ललेश्या-भव्या-ऽभव्य-सम्यक्त्वौधक्षायिक-वेदकसम्यक्त्व-मिथ्यात्व-संड्या-ऽऽहारिमार्गणा इति । एतासु शेषमार्गणासु प्रत्येकं पर्याप्तसंज्ञि
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जघन्यस्थितिबन्धस्य ] द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम
[८५ पञ्चेन्द्रियमिथ्यादृष्टि-सर्वसंयतैकतरजीवानां प्रवेशात् तेषां चाऽऽयुष अोघोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वादुत्कृष्स्थितिवन्धमानमोघवत् त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाण्य भिहितमिति ॥५१॥५२॥५३॥५४॥
तदेवमभिहितमष्टानामपि मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणमोघत आदेशतश्च । अथ तासामेव जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं प्रतिपिपादयिषुरादौ तावदोघत आह--
घाईण मुहुत्तंतो हस्सो तइअस्स बारहमुहुत्ता ।
अाउस्स खुड्डगभवो सेसाण भवे मुहुत्ताऽट्ठ ॥५५॥ __(प्रे०) 'घाईण मुहत्तंतो'' इत्यादि, आत्मनो मूलगुणानां ज्ञानादीनां घातनशीलानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीया-ऽन्तरायलक्षणानां चतुर्णां घातिकर्मणां प्रत्येकं 'मुहूर्तान्तः'-अन्तर्मुहूर्तम्। किं तदित्याह-हस्सो"त्ति ह्रस्वः-जघन्यः, स्थितिबन्ध इति प्रक्रमाद्गम्यते । “तइअस्स बारहमुहुत्ता"त्ति तृतीयस्य वेदनीयकर्मणो द्वादशमुहूर्ताः, ह्रस्वः स्थितिन्ध इत्यनुवर्तते । इत्थमेवोत्तरत्राऽप्यनुवृत्तिर्बोद्धव्या । "अाउस्स खुड्डुभवो'त्ति अायुपो ह्रस्वस्थितिबन्धः क्षुल्लकभवः, क्षुल्लकासर्वजघन्यो यः षट्पञ्चाशदभ्यधिकशतद्वयावलिकाप्रमाणोऽपर्याप्तजीवानां जीवनकालस्तत्प्रमाण इत्यर्थः । उक्तं चान्यत्र-“श्रावलियाणं दोसयछप्पन्ना एगखुडुभवे” इति । 'सेसाण"त्ति प्राकृतत्वाद् द्विवचनान्ते बहुवचनान्तनिर्देशस्ततः शेषयोर्नामगोत्रकर्मणोः प्रत्येकम् “भवे मुहुत्ताऽटु" ति ह्रस्वः स्थितिबन्धोऽष्टौ मुहूर्ता भवेदिति । उक्तं च शतकचूर्णावष्टानामपि मूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं दर्शयता चूणिकृता—'बारस अंतमुहुत्ता वेयणिए अट्ठ नामगोयाणं । सेसाणंतमुहुत्तं खुड्डुभवं आउए जाण ॥” इति । अत्र प्रत्येकं जघन्यावाधाऽन्तमुहूर्तमाना, तया हीनकर्मस्थितिप्रमाणः कर्मदलनिषेकश्च प्रागुक्तनीत्या स्वयमेव द्रष्टव्यः, तत्राऽप्यायःकर्मणो निषेकेऽबाधा न्यूना न द्रष्टव्या, तस्या वेद्यमानायुरवशेषरूपत्वात् । तद्यथा-ज्ञानावरण-मोहनीया-ऽन्तरायकर्मणां प्रत्येकमन्तमुहूर्तमबाधा, अबाधाहीनजघन्यकर्म स्थितिः कर्मदलनिषेकः । वेदनीयकर्मणोऽन्तर्मुहूर्तमवाधा, अबाधाहीनजघन्यकर्मस्थितिप्रमाणः कर्मदलनिषेकः । आयुषोऽन्तर्मुहूर्तमवाधा, क्षुल्लकभवप्रमाणः कर्मदलनिषेकः । नामगोत्रयोरन्तमुहूर्तमवाधा, अबाधान्यूनजघन्यकर्मस्थितिप्रमाणः कर्मदलनिषेक इति । इत्थमेव वक्ष्यमाणमार्गणास्थानेष्वपि स्वयमेव योज्यमिति ॥५५॥
अभिहितमोघतोऽष्टानां मूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धमानम् । अथ तदेवाऽऽदेशतो दिदर्शयिषुरादाबायुर्वर्जानां सप्तानामाह
णिरय-पढमणिरयेसुदेव-भवण-वंतरेसु सव्वेसु। पंचिंदियतिरियेसु असमत्तमणुसपणिंदियेसु य ॥५६॥ (गीतिः) मोहगुरुठिइविभत्तो सहस्सगुणिो य अोघगुरुबंधो। स पलियसंखंसूणो सत्तण्ह लहू मुणेय वो ॥५७॥
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८६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेषु सप्तानाम् (प्रे०) “णिरयपढमणिरयेसु"मित्यादि, निरयगत्योध-प्रथमपृथिवीनिरयभेदयोस्तथा "देवभवणवंतरेसु"त्ति देवगत्योघभेदे भवनपतिदेव-व्यन्तरदेवभेदयोः, 'सन्वेसुपंचिदियतिरियेसु" ति सर्वेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यगोध-तत्पर्याप्ताऽपर्याप्त-तिरश्च्यात्मकेषु चतुर्यु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदेषु, "असमत्तमणुसपणिदियेसु यति असमाप्तशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् , अपर्याप्तमनुष्यभेदेऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियजातिभेदे चेत्यर्थः । बहुवचनान्तनिर्देशस्तु प्राकृतलक्षणाबोद्धव्यः । एवमेव पूर्वत्रोत्तरत्र च ज्ञातव्यम् । एतासु निरयगत्योघाद्यपर्याप्तपञ्चेन्द्रियपर्यन्तासु परिगणितमार्गणासु प्रत्येकं किमित्याह-"मोहगुरुठिइविभत्तो' इत्यादि, मोहनीयस्य या औषिकी सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा गुरु:-उत्कृष्टा स्थितिस्तया मोहगुरुस्थित्या विभक्तः, ततः सहस्रण गुणितः-ताडितश्च यः "अोघगरुबंधो" त्ति ज्ञानावरणादीनामायुर्वर्जानामौधिको 'गुरुः'-उत्कृष्टो 'बन्धः'-स्थितिबन्धः, स च प्राक संज्ञिमार्गणायामुत्कृष्टपदे यावान् दर्शितस्तावान् भवति, तद्यथा-ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां प्रत्येक सागरोपमस्य त्रिसहस्राणि सप्तभागाः (३०६० सागरोप०)। मोहनीयस्य सागरोपमसहस्रम् (१००० सागरोप०)। नामगोत्रयोः प्रत्येक सागरोपमस्य द्वे सहस्र सप्तभागाः (२०४० सागरोप०)। "स"त्ति मोहनीयगुरुस्थितिविभक्तः सहस्रगुणितश्च ज्ञानावरणादीनां य ओघगुरुबन्धः सः “पलियस खंसणो सत्तण्ह लह मुणेयव्वो"त्ति पल्योपमस्य संख्येयेन-संख्येयतमैकभागेनोन:-हीनः सन् सप्तानां ज्ञानावरणादीनां लघुः-जघन्यस्थितिबन्धो ज्ञातव्यः, न त्वसंज्ञिनामुत्कृष्टस्थितिबन्धतुल्य एवेति । इदमत्र हृदयम्--एकेन्द्रियजीवाः सप्तानां जघन्यां स्थितीमुत्कृष्टापेक्षया पल्योपमस्याऽसंख्येयभागेन न्यूनां बध्नन्ति, विकलेन्द्रिया-ऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियास्तु स्वस्वोत्कृष्टापेक्षया पल्योपमस्य संख्येयभागेन न्यूनां बध्नन्ति, उक्तं च कर्मप्रकृतिचूणौं-'बेइंदियादीणं अप्पप्पणो उक्कसट्टिती पलिउवमस्स संखेजतिभागेण ऊणा इयरोत्ति-जहएणगठ्ठिति भवति ।।” इति । किञ्चासंज्ञिनश्च्युत्वा संज्ञितयोत्यद्यमाना विग्रहगतौ वर्तमाना जीवाः संज्ञिप्रायोग्यमन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणं स्थितिबन्धं न कुर्वन्ति, किन्त्वसंज्ञिपञ्चेन्द्रियप्रायोग्यमेव स्थितिबन्धं निवर्तयन्ति, ततश्चोत्पत्तिस्थाने प्रथममाहारं गृह्णन्त एते संक्षिप्रायोग्यस्थितिबन्धं कुर्वन्ति । इत्थं हि यासु मार्गणासु संज्ञिन एव जीवाः प्रविष्टाः सन्ति, न पुनरसंज्ञिनोऽपि, तासु मार्गणासु यद्यसंज्ञिनां गतिविद्यते, तदा तैर्विग्रहगतिस्थैरसंज्ञित आगतै वैः क्रियमाणं स्थितिबन्धमपेक्ष्य जघन्यस्थितिवन्धप्रमाणमसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवानामिव यथोक्तं सागरोपमस्य पल्योपमसंख्येयभागन्यूनत्रिसहस्रसप्तमभागादिकं लभ्यते । प्रकृतेऽपि नरकौघ-प्रथमनरकदेवौघ-भवनपतिदेव-व्यन्तरदेवरूपासु पञ्चमार्गणासु तथा शतकचूादिमतेनाऽपर्याप्तमनुष्यमार्गणायां चेत्येतासु षण्मार्गणास्वसंज्ञिजीवानामप्रवेशेऽपि तदीयोत्पादस्य सत्त्वाज्जघन्यः स्थितिबन्धोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां प्रायोग्यो दर्शितः, शेषमार्गणाद्वये तु जघन्यस्थितेर्वन्धका असंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवा विद्यन्ते एव, इति तथैवोक्त इति ॥५६॥५७॥ अथ शेषनिरय-देवभेदेषु सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं दिदर्शयिषुस्तत्साम्याद् वैकियकाययोगादिमार्गणास्वपि सममेव दर्शयन्नाह
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जघन्यस्थितिबन्धस्य ] द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम्
[८७ सेसणिरयदेव-विवाहारयुगल-विभंग-देसेसु। परिहारे तेउ-पउम-वेग-सासाण-मीसेसु ॥५८॥
अंतोकोडाकोडी णेयो सत्तण्ह हस्सठिइबंधो।
(प्रे०) "सेसणिरयदेवविउवे" त्यादि, अनन्तरोक्तनरकौघ-प्रथमनरकभेदद्वयवर्जा ये शेषा द्वितीयादिपृथिवीभेदभिन्नाः षड् निरयगतिभेदाः, तथैवानन्तरोक्तदेवगतिसत्कभेदत्रयवर्जा ज्योति
कादिसर्वार्थसिद्धविमानान्ताः सप्तविंशतिर्देवगतिभेदास्तेषु “विउवाहारयुगल"ति युगलशब्दस्य प्रत्येकं योजनाद्वैक्रिय-क्रियमिश्रकाययोगमार्गणयोर्यद् युगलम्-द्विकं तद्वैक्रिययुगलं तस्मिन् , आहारकाऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणयोर्यदाहारकयुगलं तस्मिन् , तथा विभङ्गज्ञानमार्गणायां देशसंयममार्गणायां चेत्यर्थः । मार्गणान्तरसंग्रहार्थमाह-"परिहारे तेउपउमे"त्यादि, परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायां तेजोलेश्या-पद्मलेश्या-वेदकसम्यक्त्व-सासादन-सम्यग्मिथ्यात्वमार्गणास्वित्यर्थः । एतासु द्वितीयपृथिवीप्रभृतिनिरयभेदादिपञ्चचत्वारिंशन्मार्गणासु किमित्याह-"अंतोकोडाकोडी यो" इत्याद्यत्तरगाथापूर्वार्धम् । आयुर्वर्जानां सप्तकर्मणां ह्रस्वस्थितिबन्धः "अंतोकोडाकोडी" त्ति अन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणो ज्ञातव्य इत्यर्थः । सुगमं चैतत् , यतोऽपूर्वकरणगुणस्थानकान्तानां मिथ्यादृष्टयादिसंज्ञिनां जघन्यतोऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणस्थितिबन्ध एव भवति । यद्यपि सास्वादनमार्गणायां षडशीतिग्रन्थानुसारेण ज्ञानावरणादीनां जघन्यस्थितिबन्ध एकेन्द्रियस्वामिको लभ्यते, कुतः ? षडशीतावेकेन्द्रियाणामपि सास्वादनसम्यक्त्वस्वीकारात् । उक्तं च तत्र जीवस्थानेषु गुणस्थानप्रतिपादनावसरे-"बायरअसंनिविगले अपज्जि पढमबिय'' इति । तथा च तट्टीका
'ततो बादराश्च-बादरैकेन्द्रियाः पृथिव्यम्बुवनस्पतिलक्षणाः, असंज्ञी च विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानविकलः, विकलाश्च विकलेन्द्रिया द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाः (द्वन्द्वे) बादरासंज्ञिविकलं तस्मिन् बादरासंज्ञिविकले । किं विशिष्टे ? "अपज्जि''त्ति अपर्याप्ते, कोऽर्थः ? अपर्याप्तबादरैकेन्द्रियेषु पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु तथाऽपर्याप्तेऽसंज्ञिनि तथा विकलेषु द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रि येष्वपर्याप्तेषु । किमित्याहपढमबिय" त्ति इह “सव्वगुणा'' इति पदाद्गुणशब्दस्याकर्षणं, ततः प्रथमं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं द्वितीयं सासादनगुणस्थानं भवति ।” इत्यादि । (गा० ३)
इत्थं हि षडशीत्यभिप्रायेण सासादनमार्गणायामेकेन्द्रियाणामपि प्रवेशेन सासादनमार्गणायां जघन्यस्थितिबन्ध एकेन्द्रियस्वामिकः प्राप्यते । यद्वा सिद्धान्ते द्वीन्द्रियान्तानामेव सासादनसम्यक्त्वमभ्युपगतम् , एकेन्द्रियाणां तु नाभ्युपगतम् एकेन्द्रियाणां ज्ञानित्वपच्छायां निषिद्धत्वात् । उक्तं च-- "एगिदिया णं भंते किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा ! नो नाणी नियमा अन्नाणी" इति । न चैवं सति षडशीतिकारवचनं सूत्रेण विरुध्येत इति वाच्यम् । यतः षडशीतिकाराः कर्म ग्रन्थाप्रायेणैकेन्द्रियाणां सासादनगुणस्थानकं वदन्ति, उक्तं च तैः-"नेगिंदिसु सासाणो नेहाहिगयं सुयमयंपि" इति । तथा च तट्टीका
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८]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेषु सप्तानाम् ____ "तथा नैकेन्द्रियेषु “सासाणो" ति भावप्रधानोऽयं निर्देशः, सासादनभाव , सूत्रे मतः, अन्यथा द्वीन्द्रि यादीनामिवैकेन्द्रियाणामपि ज्ञानित्वमुच्येत , न चोच्यते, किन्तु विशेषतः प्रतिषिध्यते । तथाहि-“एगिदियाणं भंते ! किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा! नो नाणी नियमा अन्नाणी' इति । स चेत्थं सासादनभावप्रतिषेधः सूत्रे मतोऽपि केनचित्कारणेन कार्मग्रन्थिकै भ्युपगम्यत इतीहापि प्रकरणे नाधिक्रियते, तदभिप्रायस्यैवेह प्रायोऽनुसरणाद् ।'' इति ।
___इत्थं हि षडशीत्यभिप्रायेण सासादनमार्गणायां ज्ञानावरणादीनां जघन्यस्थितिबन्ध एकेन्द्रियस्वामिकः, सिद्धान्ताभिप्रायेण पुनरेकेन्द्रियेषु सासादनमावस्यानभ्युपगमात् सासादनमार्गणायां ज्ञानावरणादीनां जघन्योऽपि बन्धो द्वीन्द्रियस्वामिकः तथाऽपि प्रकृते नव्यशतकवदभिप्रायविशेषेण संज्ञिसत्कसासादनभावापेक्षयाऽसावन्तःकोटोकोटीसागरोपमप्रमाणो दर्शितः । उक्तं च नव्यशतके
“साणाइअपुव्वंते अयरंतो कोडीकोडीउ नऽहिगो बंधो।।
न हु हीणो न य मिच्छे भवियरसंन्निमि ।।४॥” इति । को भावः ? इति चेद, एकेन्द्रियादीनां सासादनभावस्य कादाचित्कत्वेनासावत्र न विवक्षितः, ततश्च सासादने जवन्योऽपि स्थितिबन्धः संज्ञिस्वामिकः प्राप्तः, स चान्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाण एव । षडशीत्यायभिप्रायेण तु मूलोक्तादन्यथाऽप्येकेन्द्रियादिस्वामिको यथासम्भवं बोद्धव्य इति ॥५८॥
साम्प्रतं यासु मार्गणास्वेकेन्द्रियाणां प्रवेशः, न पुनः श्रेण्यारूढानां महात्मनां तासु लाघवाधुगपदाह
तिरियम्मि य सब्वेसु एगिदिय-पंचकायभेएस ॥५६॥ ओरालमीस-कम्मण--दुश्रणाणा--ऽपत--
तिसुहलेसास। अभविय-मिच्छत्तेसु अमणा--ऽणाहारगेसु य॥६०॥ मोहगुरुठिइविभत्तो सत्तरहं अोघजेठिइबंधो । पलियासंखमूणो । सो सत्तण्हं लहू णेयो ॥६१॥
(प्रे०) "तिरयम्मि य सव्वेसु"मित्यादि, तिर्यग्गत्योधमार्गणाभेदे, चः समुच्चये। तथा सर्वेसु षट्चत्वारिंशत्संख्याकेष्वेकेन्द्रियसत्कपृथिव्यादिवनस्पतिकायान्तपञ्चकायसत्कमार्गणाभेदेषु । तत्रैकेन्द्रियपृथिव्यम्बुतेजोवायुकायानां प्रत्येकं सप्त सप्त मार्गणाभेदास्तथा वनस्पतिकायसत्कास्त्वेकादश भेदाः प्राग्वद्वोद्धव्याः । अन्या मार्गणाः संग्रहीतुमेकां गाथामाह--"अोरालमीसे"त्यादि, औदारिकमिश्रकाययोग-कार्मणकाययोग-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयम-कृष्णादित्र्यशुभलेश्यामार्गणासु, अभव्य-मिथ्यात्वमार्गणयोरसंड्य-ऽनाहारिमार्गणयोश्चेत्यर्थः । एतासु तिर्यग्गत्योपाद्यकोनषष्टिमार्गणासु किमित्याह-"मोहगुरुठिइ" इत्यादि, सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीलक्षणया मोहनीयस्य गुरुस्थित्या विभक्तो यः सप्तानामायुर्वर्जानां मूलप्रकृतीनाम् "अोघजेट्ठठिइबंधो" ति त्रिंशत्सागरोपमकोटी
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जघन्यस्थितिबन्धस्य ] द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम्
[८६ कोट्यादिप्रमाण औधिको ज्येष्ठः-उत्कृष्टः स्थितिबन्धः, स च प्रागुक्तैकेन्द्रियाणामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणो भवति, स पुनः किंविशिष्ट इत्याह-"पलियासंखंसूणो सो" ति पल्योपमस्याऽसंख्यांशेनाऽसंख्याततमेनकभागेनोनः-न्यूनः सः “सत्तण्हं लहू णेयो'त्ति यथासंख्यं ज्ञानावरणादीनामायुर्वर्जानां सप्तानां लघुः-जघन्यो ज्ञेयः, स्थितिबन्ध इति गम्यते । इदमुक्तं भवति-मोहनीयोत्कृष्टस्थित्या विभक्तो ज्ञानावरणस्यौधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धः पल्योपमासंख्यभागेन न्यूनः सन् ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थितिबन्धतया ज्ञेयः, एवं दर्शनावरणादीनामपि ज्ञातव्यः । तद्यथा-ज्ञानावरण-दर्शनावरणवेदनीया-ऽन्तरायाणां प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धः सागरोपमस्य त्रयः सप्तभागाः पल्योपमस्या-ऽसंख्येयभागेन न्यूनाः । मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः पल्योपमाऽसंख्येयभागेन न्यून एकः सागरोपमः । नाम-गोत्रयोस्तु प्रत्येकं सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ पल्योपमाऽसंख्यभागेन न्यूनौ जघन्यस्थितिबन्धो भवतीति । सुगमं चैतत् , यतः प्रकृततिर्यग्गत्यादिमार्गणासु प्रत्येकं विद्यते एकेन्द्रियजीवानां प्रवेशः, न पुनः श्रेणिगतानाम् , एकेन्द्रियास्तु जघन्यतोऽपि निरुक्तस्थितिबन्धाद्धीनं स्थितिबन्धं न कुर्वन्ति, तदन्ये श्रेणिमनारूढा जीवास्त्वधिकमेव स्थितिबन्धं कुर्वन्ति; इत्थं टेकेन्द्रियाणां यो जघन्यस्थितिबन्धः स एव प्रकृतसवेमार्गणासु जघन्यस्थितिवन्धतया प्राप्यते । इदन्त्ववधेयम्यदत्र प्रत्येकं मार्गणासु ज्ञानावरणादीनां जघन्यस्थितिबन्धः पल्योपमाऽसंख्येयभागेन न्यूनाः सागरोपमस्य द्वयादिसप्तभागा इत्युक्तः, स तद्वाचकशब्दसाम्यादेव, न पुनस्तिर्यग्गत्योधादिप्रकृतसर्वमार्गणास्वसौ तुल्य एव भवति, किं तर्हि ? स्वामिभेदेन हीनाधिको भवति । इदमुक्तं भवति-यथा प्राग जघन्योत्कृष्टस्थितिवन्धाल्पबहत्वे पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियजघन्यस्थितिबन्धापेक्षयाऽपर्याप्तवादरैकेन्द्रियाणां जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः, ततोऽपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियाणां जघन्यस्थितिवन्धो विशेषाधिक इत्येवं तारतम्येन दर्शितस्तथा प्रकृतेऽप्येकेन्द्रियौघमार्गणा-सूक्ष्मैकेन्द्रियौघमार्गणा-तदपर्याप्तमार्गणादिभेदेषु स्वामिभेदेन भिन्नो भिन्नो बोद्धव्यः। अत्र प्रस्तुतसर्वमार्गणासु युगपदभिधानं तु बन्धस्य हीनाधिक्येऽपि पल्योपमासंख्यभागेन न्यूनाः सागरोपमस्य द्वयादिसप्तभागा इत्येवंरूपेण समानाभिलापेनाभिधेयत्वात् । इत्थमेवान्यत्राऽपि यथासम्भवं विज्ञेयमिति ॥५६।६०।६१॥ अथ विकलेन्द्रियभेदेष्वपर्याप्तत्रसकायमार्गणायां चाह
सबविगलेसु सगगुरुठिइबंधो पलियसंखभागूणो ।
सत्तण्ह लहू णेयो विदियभंगो अपज्जतसे ॥६२॥
(प्रे०) "सव्वविगलेसु"इत्यादि, अोध-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियलक्षणेषु 'सर्वविकलेषु', विकलेन्द्रियसत्केषु सर्वमार्गणाभेदेष्वित्यर्थः । एतेषु किमित्याह-' सगगुरुठिइबंधो” इत्यादि, स्वकः-स्वकीयः, द्वीन्द्रियौघ-पर्याप्तद्वीन्द्रियादितत्तन्मार्गणासम्बन्धीत्यर्थः, एवम्भूतो यः प्रागभिहितः प्रस्तुतानां ज्ञानावरणादीनां गुरु:-उत्कृष्टः स्थितिबन्धः सः स्वकगुरुस्थितिबन्धः, किं विशिष्टः ? "पलियसंखभागूणो" ति पल्योपमस्य संख्येयभागेन न्यूनो ज्ञानावरणादीनां सप्तानां
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६.]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेषु सप्तानाम् 'लघुः'-जघन्यो ज्ञातव्यः, स्थितिवन्ध इति गम्यते । तद्यथा-द्वीन्द्रियभेदत्रये ज्ञानावरणादिचतुर्णा पल्योपमसंख्येयभागेन हीनाः सागरोपमस्य पञ्चसप्ततिः सप्तभागाः । मोहनीयस्य तु पल्योपमसंख्येयभागेन हीनानि पञ्चविंशतिः सागरोपमाणि । नाम-गोत्रयोः पुनः पल्योपमसंख्येयभागेन न्यूनाः पञ्चाशत् सागरोपमसप्तभागाः । त्रीन्द्रियमार्गणाभेदत्रये प्रत्येकं ज्ञानावरणादिचतुर्णा पल्योपमसंख्येयभागेन न्यनाः पञ्चाशदभ्यधिकशतं सागरोपमसप्तभागाः । मोहनीयस्य पुनः पञ्चाशत् सागरोपमाणि पल्योपमसंख्येयभागेन न्यूनानि । नामगोत्रयोस्तु पल्योपमसंख्येयभागेन हीनाः शतं सागरोपमसप्तभागाः । चतुरिन्द्रयमार्गणाभेदत्रये प्रत्येकं ज्ञानावरणादीनां चतुर्णा पल्योपमसंख्येयभागेन हीनानि शतं सागरोपमाणि । नामगोत्रयोस्तु प्रत्येकं पल्योपमसंख्येयभागेन न्यूना द्विशतसागरोपमसप्तभागा इति । "बिंदियभंगो अपज्जतसे"त्ति अपर्याप्तत्रसकायमार्गणायां 'द्वीन्द्रियभङ्ग'-अपर्याप्तद्वीन्द्रियभङ्गः, अपर्याप्तद्वीन्द्रियमार्गणावज्ज्ञानावरणादीनां जघन्यस्थितिबन्धः पल्योपमसंख्येयभागेन न्यूनाः पञ्चसप्तत्यादिसागरोपमसप्तभागा इत्यर्थः ॥६२॥ साम्प्रतं यासु मार्गणासु श्रेणिगतजीवापेक्षया सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धः प्राप्यते, तासु मार्गणासु क्रमशो जघन्यस्थितिबन्धं प्रकटयन्नाह
थी-णपुमेसुसंखियसहस्सवरिसाणि संखसयवासा।
पलियाऽसंखियभागो तिघाइ-मोह-इयराण कमा ॥६३॥
(प्रे०) "थीणपुमेसु"इत्यादि, स्त्रीवेदमार्गणायां नपुंसकवेदमार्गणायां च प्रत्येकमित्यर्थः । किमित्याह-“संखियसहस्से'त्यादि, संख्येयसहस्रवर्षाणि, ‘संखसयवासा"त्ति पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् ततः संख्येयशतवर्षाणि, “पलियासंखियभागो"त्ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पल्यः-पल्योपमस्तस्याऽसंख्येयभागः-असंख्येयतमैकभागः, जघन्यस्थितिबन्धो भवतीति प्रक्रमाद्गम्यते । केषां कर्मणामित्याह-तिघाइ' इत्यादि, त्रयाणां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानां घातिनां "मोह" ति मोहनीयस्य "इयराण' त्ति अायुर्वर्जसप्तानां जघन्यस्थितिबन्धस्य वक्त प्रक्रान्तत्वादनन्तरमेव घातिकर्मणां गृहीतत्वाच्च घातिभ्य इतराणि यानि आयुर्वजानि वेदनीय-नामगोत्रलक्षणानि त्रीणि कर्माणि तेषां "कमा 'त्ति क्रमाद्-यथासंख्यम् । अयम्भावः-उपशमकानामिव क्षपकश्रेणिमारोहतामवेद्यवस्थायाः प्राग यावान् जघन्यस्थितिवन्धः पुरुषवेदिनां जायते, तदपेक्षया स्त्रीवेदिनां नपुंसक्वेदिनां चाधिकतरोऽसौ भवति । कस्माद् ? उच्यते-यत्र स्थाने पुवेदिनां पुवेदोदयस्य विच्छेदो जायते, ततः स्थानात् संख्येयस्थितिबन्धेष्वकृतेषु प्रागेव स्त्री-नपुंसकवेदिनां स्वस्ववेदोदयो विच्छिद्यते, किञ्चोत्तरोत्तरस्थितिबन्धाः श्रेणिमारोहतां हीनहीनतराः प्रवर्तन्ते, तेषु ये स्तोकस्तोकतरस्थितीनां बन्धाः पुवेदिनां सवेद्यवस्थायां प्राप्यन्ते, न ते सर्वे तदन्यवेदिनामपि सवेद्यवस्थायां प्राप्यन्ते, किन्त्वधिकस्थितेन्धा एव जघन्यतोऽपि प्राप्यन्ते, ते च तेषां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणां प्रत्येकं संख्येयानि वर्षसहस्राणि, मोहनीयस्य संख्येयानि वर्षशतानि, वेदनीय-नाम-गोत्राणां त्रयाणामघातिकर्मणां तु पल्योपमस्यासंख्येयतमैकभाग इति ॥६३॥
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जघन्यस्थितिबन्धस्य ] द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम
अथ पुरुषवेदमार्गणायां जघन्यस्थितिवन्धमानमाह--
पुरिसम्मि तिघाईणं संखसयसमा हवेज्ज मोहस्स । सोलस वासा संखियसहस्सवासा अघाईणं ॥६४॥
(प्रे०) “पुरिसम्मि तिघाईणं" इत्यादि, पुरुषवेदमार्गणायां ज्ञानावरण-दर्शनावरणाऽन्तरायलक्षणानां त्रयाणां घातिकर्मणाम् “संखसयसमा हवेज्ज' ति जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयशतसमाः-संख्येयशतवर्षाणि भवेदित्यर्थः। 'मोहस्स"त्ति मोहनीयकर्मणः “सोलसवासा"त्ति पुंस्त्वं प्राकृतत्वात्ततः प्रकृतो जघन्यस्थितिबन्धः पोडश वर्षाणि भवेदित्यर्थः । “संखियसहस्सवासा अघाईणं"ति प्राग्वत् संख्येयसहस्रवर्षाणि त्रयाणामायुर्वर्जानामघातिकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धो भवेदित्यर्थः । इति ॥६४॥ अथ क्रोधमार्गणायामाह
कोहम्मि तिघाईणं संखसयसमा हवेज्ज मोहस्स ।
दो मासा संखेज्जा सहस्सवासा अघाईणं ॥६५॥
(प्रे०) 'कोहम्मि तिघाईण" मित्यादि, क्रोधकषायमार्गणाभेदे त्रयाणां ज्ञानावरणदर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानां घातिकर्मणां प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयाः शतसमाः-शतवर्षाणि भवेत् । मोहनीयस्य त्वसौ “दो मासा"त्ति द्वौ मासौ भवेत् । वेदनीय-नाम-गोत्रलक्षणानां त्रयाणामघातिकमणां प्रत्येकम् "सहस्सवासा''ति सहस्रवर्षाणि जघन्यः स्थितिबन्धो भवेदित्यर्थः । इति ॥६॥ अथ मानकपायमागेणायामाह--
माणे वासपुहुत्तं तिण्हं घाईण एगमासोऽस्थि ।
मोहस्स होइ संखियवासा तिण्हं अघाईणं ॥६६॥
(प्रे०) "माणे वासपुहुत्त"मित्यादि, मानकषायमार्गणायां जघन्यस्थितिबन्धो वर्षपथक्त्वमस्तीति परेणान्वयः । केषामित्याह-"तिण्हं घाईण"ति ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानां त्रयाणां घातिकर्मणाम् । “एगमासो"त्ति एकमासः-त्रिंशदहोरात्रप्रमाणो जघन्यस्थितिबन्धः "मोहस्स"ति मोहनीयलक्षणचतुर्थघातिकर्मणो भवति । तथा संख्येयानि वर्षाणि जघन्यस्थितिबन्धो वेदनीय-नाम-गोत्रलक्षणानां त्रयाणामघातिकर्मणां भवतीत्यर्थः ॥६६॥ अथ मायायां प्रकृतजघन्यस्थितिबन्धं दर्शयन् पुवेदादिचतुर्मार्गणासु मतान्तरेणाऽन्यथाऽपि जघन्यस्थितिबन्धं प्रतिपादयंश्चाह
मायाए णायव्वो मासपुहुत्तं उ तिण्ह घाईणं । णेयो पण्णरस अहोरत्ताई मोहणीयस्स ॥ ६७ ॥ हस्सो वासपुहुत्तं तिण्ह अघाईण अहव णायव्यो । पुरिसाईसुं चउसुं छण्ह य संखियसहस्ससमा ॥ ६८ ॥
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६२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेषु सप्तानाम (प्रे०) “मायाए णायव्वो"इत्यादि, मायाकषायमार्गणायां त्रयाणां घातिनां जघन्यस्थितिबन्धो मासपृथक्त्वं ज्ञातव्य इत्यर्थः। तुकारस्तु पादपूत्यै । अथ चतुर्थस्य घातिन आह-'यो पण्णरस'' इत्यादि, मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः पञ्चदशाहोरात्राणि ज्ञेयः। "हस्सो' त्ति प्रस्तुतो ह्रस्वः स्थितिबन्धस्त्रयाणामायूर्जानामघातिनां वर्षपथक्त्वं ज्ञेय इत्यर्थः। अनन्तरोक्तपुरुषवेदादिचतसृषु मार्गणासु प्रकृतजघन्यस्थितिबन्धोऽन्यथाऽपि दृश्यते, इति तमपि संग्रहीतुमाह"अहवे"त्यादि, अथवाऽनन्तराभिहितेषु “पुरिसाईसु"ति पुरुषादिषु चतुर्यु मार्गणाभेदेषु प्रत्येकम् "छण्ह य" ति सूचनात् सूत्रमितिकृत्वाऽऽयुर्मोहनीयवर्जानां पण्णां मूलप्रकृतिनाम् "सखियसहस्ससमा” ति संख्येयसहस्रसमाः, जघन्यस्थितिबन्ध इति गम्यते । इति ॥६७।६८॥
अथ सामायिकसंयमादिशेषमार्गणासु प्रस्तुतसप्तप्रकृतिसत्कजघन्यस्थितिबन्धमाहसमइअ-छेएसु लहू मुहूत्तगाण व दिणाण व पुहुत्तं । तिण्हं घाईण भवे मोहस्स भवे मुहुत्तंतो ॥६६॥ मासपहुत्त ऐयो तिण्ह अघाईण उवसमे दुगुणो।
सत्तरहं अोपत्तो यो अोषव्व सेसासु ॥७॥
(प्रे०) “समइअछेएसु लहू” इत्यादि, सामायिकसंयम-छेदोपस्थापनसंयममार्गणयोलघुःजघन्यः स्थितिबन्धः "मुहुत्तगाण व दिणाण व पुहुत्तं 'ति मुहूर्ता एव मुहूर्तकास्तेषां वा दिनानाम्दिवसानां वा पृथक्त्वम् , मुहूर्तपृथक्त्वं दिनपृथक्त्वं वेत्यर्थः । केषामित्याह-"तिण्हं घाईण भवे"त्ति मोहनीयवर्जानां त्रयाणां घातिनां प्रत्येकं भवेत् । मोहनीयस्य तर्हि कियान् भवेदित्याह-'मोहस्स भवे महत्तंतो"ति मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धो मुहूर्तान्तः-अन्तमु हूतं भवेत् । “मास पुहत्तं यो तिण्ह अघाईण"त्ति आयुर्वर्जानां त्रयाणामघातिकर्मणां प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धो मासपृथक्त्वं ज्ञातव्य इति । अथौपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायामाह - "उवसमे दुगुणो' इत्यादि, औपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां प्रकृतो जघन्यस्थितिबन्धः "अोपत्तो"ति अोघतः,-अोघापेक्षयेत्यर्थः । यावत् स्थितिवन्धप्रमाणमोघप्ररूपणायां जघन्यतोऽभिहितं तत्प्रमाणापेक्षयेति यावत् । ओघापेक्षया किमित्याह"दगणो" ति द्विगुणो ज्ञातव्य इति परेणान्वयः । केषां कर्मणामित्याह-"सत्तण्ह" ति प्रस्तुतानामायुर्वर्जानां सप्तकर्मणाम् । अयम्भावः-अोघे ज्ञानावरणादीनां सप्तानां यो जघन्यस्थितिबन्ध उक्तः सक्षपकश्रेणिमारूढानां सूक्ष्मसम्परायचरमस्थितिबन्धमपेक्ष्य, उपशमश्रेणिमारूढास्तु क्षपकाणामिव न विशुद्धास्ततः सूक्ष्मसम्परायचरमस्थितिबन्धे वर्तमाना अपि क्षपकाणामिव जघन्यस्थितिबन्धं नैव कुर्वन्ति, किन्तु ततो द्विगुणमेव कुर्वन्ति । यदुक्तं कर्मप्रकृतिचूर्णी-“जमि समते खवगस्स ट्ठितिबंधो आदि मज्झे अवसाणे वा दिटठो तंमि चेव ठाणे उवसामगाणं दुगुणो द्वितिबंधो आदि मज्झे अवसाणे वा दिट्ठो” इति ।
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जघन्यस्थितिबन्धस्य ]
द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम्
इत्थं हि क्षपकापेक्षयोपशामकानां जघन्यस्थितिबन्धो द्विगुणः सन् ज्ञानावरण-दर्शनावरणमोहनीया-ऽन्तरायकर्मणामन्तर्मुहूर्तम् ; यद्यपि क्षपकाणामप्यमीषां चतुर्णां जघन्यस्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्तमात्रो भवति, तथाऽपि तदपेक्षयाऽत्रोपशमकानां द्विगुणमन्तर्मुहूर्तं बोद्धव्यम् | वेदनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धस्तु चतुर्विंशतिमुहूर्ता भवति । नामगोत्रयोः प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धः पुनः पोडश मुहूर्ता जायते । यदुक्तं कषायप्राभृतचूण
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"चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स गाणावरण- दंसरणावरण- अंतराइयाणमंतोमुहुत्तिओ ट्ठदिबंधो । णामागोदाणं ठिदिबंधो सोलस मुहुत्ता । वेदरणीयस्स ट्ठिदिबंधो चडवीस मुहुत्ता । से काले सव्वं मोहणीयमुवसंतं ।” इति ।
अथ शेषमार्गणासु सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं दिदर्शयिषुरतिदेशद्वारेणाह – “श्रोघव्व सेसासुं" ति अनन्तरोक्ता निरयगत्योघाद्योपशमिकसम्यक्त्वपर्यन्ताश्चतुस्त्रिंशद्भ्यधिकशतमार्गणा विवर्त्य शेषासु मनुष्यगत्यादिषटत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकं सप्तकर्मसत्को जघन्यः स्थितिबन्ध वज्ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीया - ऽन्तरायकर्मणामन्तर्मुहूर्तम्, वेदनीयस्य द्वादशमुहूर्ताः, नाम - गोत्रयोस्तु प्रत्येकमष्टौ मुहूर्ताः, ज्ञेय इत्यत्रापि युज्यत इति । अत्र शेषमार्गणास्तु नामत इमाः - अपर्याप्त - भेदवर्जास्त्रयो मनुष्यगतिमार्गणाभेदाः, तथैव द्वौ पञ्चेन्द्रियजातिमार्गणाभेदौ द्वौ च त्रसकायमार्गणाभेदौ, पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, काययोगसामान्यौ-दारिककाययोगभेदी, अपगतवेद - लोभकपाय-मत्यादिचतुर्ज्ञान - संयमौष - सूक्ष्मसम्परायसंयम-चक्षुरादित्रिदर्शन-शुक्ल लेश्याभव्य-सम्यक्त्वौघ-क्षायिकसम्यक्त्व-संज्ञयाऽऽहारिमार्गणाभेदाचेति । एतासु प्रत्येकमनिवृत्तिबादरक्षपकाणां सूक्ष्मसम्परायक्षपकाणां च प्रवेशात् तेषामेवाधिकजघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वाच्चा-ऽऽयुर्वर्ज - बन्धप्रायोग्यज्ञानावरणादिमूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणमोघवदतिदिष्टमिति || ६६ | ७० ॥ तदेवमभिहितं सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणमादेशतो मार्गणास्थानेष्वपि । साम्प्रतमुक्तशेषस्यायुःकर्मणस्तदादेशतः प्रकटयन्नाह -
सव्वणिरयभेसु देवे वेउव्व - सासणेसु य ।
उस मुहत्त तो जहरणगो होइ ठिइबंधी ॥ ७१ ॥
[ ६३
(प्रे० ) " सव्वणिरये "त्यादि, निरयौघ- प्रथम पृथिव्यादिभेदलक्षणेषु सर्वेषु निरयगतिमार्गणाभेदेषु तथा ‘देवे”त्ति देवौघमार्गणायां तथा वैक्रियकाययोगमार्गणायां सासादनमार्गणायां च प्रत्येकमायुषो जघन्यस्थितिबन्धो 'मुहूर्तान्तः ' - अन्तर्मुहूर्तप्रमाणो भवतीत्यर्थः । अत्र मुहूर्तान्त इत्यनेन क्षुल्लकभवप्रमाणो जघन्यस्थितिबन्धो नैव ग्राह्यः । कस्माद् ? उच्यते, क्षुल्लकभवप्रमाणजघन्यस्थितिका पर्याप्तमनुष्यादय एव सन्ति, न पुनः पर्याप्तमनुष्यादयोऽपि किञ्च प्रकृतमार्गणागतानां नारकादिजीवानामपर्याप्ततयोत्पादः प्रतिषिद्ध इत्येतेऽपर्याप्तप्रायोग्यमायुरपि न बध्नन्ति इत्थं तेषां क्षुल्लकभवप्रमाणजघन्यस्थितिकायुर्वन्धस्यानवकाशादयं क्षुल्लकभवप्रमाणो न गृह्यते । यदुक्तं
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६४ ]
बंधविहाणे मूलपथडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुषः विशेषावश्यकभाष्यवृत्तौ-“यदाऽप्युत्कृष्ठसंक्लेशौ नारक-देवावुत्कृष्टस्थितिकं मोहनीयं बद्ध्वा तिर्यचूत्पद्यते, तदाप्यायुषो जघन्यस्थितिर्न सम्भवति, क्षुल्लकभवग्रहणलक्षणजघन्यस्थितिषु जीवेषु नारकदेवानामनुत्पादात् ।" इति ॥७१॥
अथ मार्गणान्तरेषु प्रकृतायुःसत्कजघन्यस्थितिबन्धमानमाह
भवणेसाइसुरेसु जहारिहं अागमाणुसाराप्रो ।
भिन्नमुहुत्तपभोई जा णेयो हायणपुहुत्तं ॥७२॥ _(प्रे०) "भवणेसाइसुरेसु"मित्यादि, भवनेशादयः-भवनपत्यादयो ये सुरास्तेषु, भवनपत्याद्यनुत्तरान्तदेवगतिमार्गणाभेदेष्वित्यर्थः। तेषु किमित्याह-"जहारिह"मित्यादि, यथार्हम्यथासम्भवमागमानुसारात्-व्याख्याप्रज्ञप्ति-पञ्चसंग्रहादिश्रुतानुसाराज्ज्ञेय इत्युत्तरार्धेऽन्वयः। आयुषो जघन्यस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते । कियान् ज्ञेयः ? इत्याह-'भिन्नमहत्त"त्यादि, अयम्भावःव्याख्याप्रज्ञप्त्यां चतुर्विशतितमे शते संवेधं दर्शयता सुधर्मागणधरेण भगवताऽसुरकुमारादीनां सहस्रारकल्पपर्यन्तानां देवानां मनुष्यतया जघन्यतो मासपृथक्त्वायुष्युत्पादोऽभिहितः, तिर्यक्त्वेन त्वन्तमुहूर्तायुष्यसावभिहितः । उक्तं च तत्र
"असुरकुमारे णं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति० ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तहितीएसु।" इति ।
शेषाणां तु सहस्रारकल्पपर्यन्तानां तथैवातिदिष्टः। यदुक्तम्- "एवं जाव ईसाणदेवस्स" इति । तथा “एवं एएणं कमेणं अवसेसावि जाव सहस्सारदेवेसु उववाएयव्या” इति ।।
__ अानतप्रभृतयो देवास्तु मनुष्यतयैवोत्पद्यन्ते, अतस्ते जघन्यतोऽपि वर्षपृथक्त्वायुषि संजायन्ते, उक्तं च--"प्राणयदेवे णं भंते ? जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति० ? गोयमा ! जहन्नेणं वासपुहुत्तद्वितिएसु उववज्जित्तए" इति ।
शेषाणां त्वतिदेशादिनाऽभिहितः । यदुक्तम्--“एवं जाव अच्चुयदेवो” तथा “गेवेज्जदेवे णं भंते ! जे भविए मगुस्सेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिका० ?, गोयमा ! जह. वासपुहत्तठितिएम" तथैव "विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवति ?, एवं जहेव गेवेज्जदेवाण" इति । “सव्वट्ठसिद्धगदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए सा चेव विजयादिदेववत्तव्वया भाणियव्वा ।” इति च ।।
इत्थं च श्रीभगवत्यभिप्रायेण भवनपत्यादिसहस्रारपर्यन्तेषु देवगतिमार्गणाभेदेषु तिर्यगायुषो जघन्यस्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्तप्रमाणो जायते, तत उपरितनदेवभेदेषु बन्धप्रायोग्यस्य मनुष्यायुषो जघन्योऽपि स्थितिबन्धो वर्षपृथक्त्वं भवति । स एव प्रकृते मूलप्रकृत्यपेक्षया प्राप्यत इति मूले भिन्नमुहूर्तप्रभृत्या यावद् वर्षपृथक्त्वमभिहितः। यत् पुनर्यावत्पदग्रहणं तत्तु पञ्चसंग्रहादौ स्वदेवालयाच्च्युत्वा पुनरपि तत्रैवोत्पद्यमानस्य देवस्य जघन्यान्तरस्य पृथक् पृथगभिहितत्वात् ।
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जघन्यस्थितिबन्धस्य ]
द्वितीयाधिकारे स्थितिबन्धप्रमाणद्वारम
तथा चोक्तं पञ्चसंग्रहे
"आइसा श्रमरस्स अंतरं होणयं मुहुत्ततो । सहसारे अच्चुयगुत्तरे दिमास वास नव ॥” इति ।
जीवसमासेऽप्येवमेवोक्तम् । तथा च तद्ग्रन्थः"जावीसाणं तोमुहुत्तमपरं सरणं सहसारो | नव दी मासा वासा अगुत्तरोकोस उयहिदुगं || २५४ ||" इति ।
,
भावना तु स्वयमेव कर्तव्येति । महाबन्धकारास्तु-भवनपत्यादीशान कल्पान्तदेवभेदेषु प्रकृतमायुषो जघन्यस्थितिबन्धमानमन्तर्मुहूर्तम्, सनत्कुमार- माहेन्द्रयोस्तु तद् मुहूर्तपृथक्त्वम् बह्मलान्तकयोर्दिनपृथक्त्वम्, शुक्र- सहस्रारकन्पयोः पचपृथक्त्वम् श्रानतकल्पादिचतुष्के मासपृथक्त्वम्, ग्रैवेयकानुत्तरविमानभेदेषु तु वर्षपृथक्त्वमिति वदन्तीति ॥ ७२ ॥
,
-S
अथाऽऽहारक- तन्मिश्रमार्गणयोः प्रकृतं दिदर्शयिषुराहश्राहारदुगे मरिडं जहण्णगो लंतकम्मि उपाओ । संघयणीए उत्तो पल्लपुहुत्तं परे विंति ॥ ७३ ॥
[ ६५
(टी०) “आहारदुगे” इत्यादि, आहारककाययोगमार्गणा-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणयोर्यद्द्विकं तदेवाहारकद्विकं तस्मिन्, आहारका ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणयोः प्रत्येकमित्यर्थः । तयोः प्रत्येकं किमित्याह--‘“मरिउ "मित्यादि, प्रकृतमार्गणाइये जघन्यत उत्पाद: - गत्यान्तरे उत्पत्तिरूपः "लंतगम्मि"त्ति लान्तकाख्ये षष्टकल्पे उक्त इत्युतरार्धेऽन्वयः, कुत्रोक्त इत्याह-' संघयणीए "त्ति श्रीमज्जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यप्रणीते बृहत्संग्रहण्याख्ये ग्रन्थे इत्यर्थः । तथा चोक्तं तत्र— "लंतंभि चउदपुत्रिस्स” इति । चतुर्दश पूर्वधराणामेवाहारकशरीरित्वेनाऽऽहारक- तन्मिश्र काय योगिनां जघन्यतो लान्तककल्प उत्पादो बृहत्संग्रहण्यामर्थादभिहितो बोद्धव्य इति भावः । इदमुक्तं भवतिबृहत्संग्रहण्यामाऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्र काययोगिनां जघन्योत्पादस्यार्थतो लान्तककल्पेऽभिहितत्वात्, लान्तककल्पदेवानां जघन्यतो दशसागरोपमस्थितिकत्वाच्च तत्रोत्पित्सून प्रकृतमार्गणागतजीवान् प्रतीत्य दशसागरोपमेभ्यो हीनः स्थितिबन्धो न सम्भवति । 'पल्लपुहुत्त परे बिति" त्ति 'परे' - महाबन्धकाराः प्रकृतमार्गणाद्वये पल्योपमपृथक्त्वं ब्रुवन्ति, आयुषो जघन्यस्थितिबन्धमिति प्रक्रमागम्यत इति || ७३ || अथ मतिज्ञानादिमार्गणासु प्रकृतमायुषो जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणमाह
मइ-सु- वहिणासु हिदरिसम्म सम्म खइएस । वेगसम्मत्तम्मिय वियो हायहुतं ॥ ७४ ॥
(प्रे० ) " मइसुप्रज्वहिणाणे सु" मित्यादि, मतिज्ञान - श्रुतज्ञाना - ऽवधिज्ञानमार्गणासु तथाऽवधिदर्शनमार्गणायां, सम्यक्त्वौघ क्षायिकसम्यक्त्वमार्गण योर्वेदकसम्यक्त्वमार्गणायां चेत्येतासु सप्त
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६६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुषः मार्गणासु प्रत्येकम् “विण्णेयो हायणपुहुत्त"ति प्रकृत आयुषो जघन्यस्थितिबन्धो 'हायनपृथक्त्वम्'वर्षपृथक्त्वं विज्ञेय इत्यर्थः । सुगमम्, प्रत्येकं सम्यग्दृष्टिदेव-नारकजीवानां प्रवेशात् , तेषां जघन्यतो यथोक्तस्थितिकमनुष्यायुष एव बन्धभावाच्च ॥७४॥ अथ यासु केवलानां सर्वसंयतानां देशसंयतानां वैव प्रवेशस्तासु मार्गणासु युगपत्प्रकृतमायुषो जघन्यस्थितिवन्धमानमेकयाऽऽर्ययाऽऽह
मणपज्जवणाणे तह संयम-सामइअ-छेअ-देसेसु ।
परिहारविसुद्धीए यो पलिश्रोवमपुहुत्तं ॥७५॥
(प्रे०) “मणपज्जवणाणे'' इत्यादि, मनःपर्यवज्ञान-संयमौघ-सामायिकसंयम-छेदोपस्थापनसंयम-परिहारविशुद्धिकसंयम-देशसंयममार्गणास्वित्येतासु षण्मार्गणास प्रत्येकम् “पलिग्रोवमपुहुत्तं"त्ति पल्योपमानां पृथक्त्वं-पल्योपमपृथक्त्वं ज्ञेयः, आयुषो जघन्यः स्थितिबन्ध इति गम्यते । कुतः ? सामायिकादिसंयमोपेतानां जघन्यतोऽपि सौधर्मकल्पे उत्पादस्योक्तत्वात् । उक्तं च पञ्चसंयतप्रकरणे-"पंचण्हं वि देवगई तिरहं पढमयाण थोव सोहम्मे” इति । अत्राक्षरगमनिका"पंचण्ह" ति सामायिक-छेदोपस्थान-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्पराय-यथाख्यातसंयमोपेतानां पञ्चविधानामपि संयतानां "देवगई" ति गमनम्-गतिः एकभवाच्च्युत्वाऽन्यत्र भवे उत्पत्तिलक्षणा, सा देवेष्वेव भवतीत्यर्थः । तत्रापि “तिएह पढमयाण"त्ति सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिकाख्यसंयमोपेतानां प्रथमत्रयाणां संयतानां “थोव"त्ति जघन्या, गतिरिति गम्यते, कुत्र ? इत्याह-"सोहम्मे" त्ति सौधर्मकल्पाख्ये प्रथमे कल्प इत्यर्थः । सौधर्मे कल्पे उत्पद्यमाना अप्येते जघन्यायुष्कदेवतया नोत्पद्यन्ते किन्तु जघन्यतोऽपि पल्योपमद्वयाऽऽयुष्कदेवतयोत्पद्यन्ते । उक्तं च पञ्चसंयतप्रकरणे तदपि-“पलिया दुरिण जहएणा देवठिई तिण्ह पढमयाणं तु” । “पल्ये द्वे जघन्या देवस्थितिस्त्रयाणां प्रथमकानां तु" इति । इत्थं हि प्रकृतमार्गणागतजीवानामायुषो जघन्यस्थितिबन्धः पल्योपमपथक्त्वमभिहित इति ॥७॥ अथैकयाऽऽर्यया शेषमार्गणासु प्रकृतायुर्जघन्यस्थितिबन्धमानमाह
सुहलेसासूणेयो सुराणुसारेण जं हवेज्ज सुरो ।
से लहुठिई सामी सेसासु होइ खुड्डभवो ॥७६॥ (प्रे०) “सुहलेसासु"मित्यादि, 'शुभलेश्यासु' तेजः पद्म-शुक्लाख्यासु तिसृषु प्रशस्तलेश्यामार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । तासु किमित्याह-"णेयो' इत्यादि, आयुषो जघन्यस्थितिबन्धः "सराणसारेण"ति सुरगतिमार्गणानुसारेण ज्ञेयः। कस्मात्सुरानुसारेण ज्ञातव्य इत्यत्राह-"ज हवेज्ज" इत्यादि, 'यद्'-यस्मात् प्रकृततिसृषु मार्गणासु 'सुरः'-देवः “से''ति तस्याऽऽयुषो जघन्यस्थितिबन्धस्य स्वामी भवति। इदमुक्तं भवति–शुभलेश्यापरिणता मनुष्यास्तिर्यञ्चो वा देवायुरेव बध्नन्ति, देवायुर्बध्नतां तेषामायुषो मार्गणाप्रायोग्यजघन्यस्थितिबन्धो न प्राप्यते, अतोऽन्तमुहूर्तादिस्थितिक तिर्यगाद्यायुर्वघ्नन्तो देवाः शुभलेश्यात्रये आयुषो मार्गणाप्रायोग्यजघन्यस्थितिबन्धस्वामिनो भवन्ति;
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अत्र ग्रन्थेऽधिकृतमार्गणास्थानयन्त्रम्
[६७ 'गइ इंदिये य काये जोए 'वेए 'कसाय नाणे य ।
"संजम 'दसण लेसा ''भव १२सम्मे संन्नि १४ाहारे ॥१॥ | संख्यया मार्गणास्थानानि संख्यया मार्गणास्थानानि संख्यया मार्गणास्थानानि संख्यया मार्गणास्थानानि
K
गतिः (४७)
कायः (४२) १ नरकगत्योषः,
*७ पृथिवीकाये, ७ रत्नप्रभादिपृथिवीभेदात्, *७ अप्काये, १ तिर्यग्गत्योध:, *७ तेजस्काये, १ पञ्चेन्द्रियतिर्यगोघः, *७ वायुकाये, १ पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग, १ वनस्पतिकायौघः, १ अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग, +३ प्रत्येकवनस्पतिकाये, १ तिरश्ची,
*७ साधारणवनस्पतिकाये, १ मनुष्यगत्योधः,
+३ त्रसकाये, १ पर्याप्तमनुष्यः,
योगः (१८) १ अपर्याप्तमनुष्यः, :५ मनोयोगे, १ मानुषी,
५ वचोयोगे, १ देवगत्योघः,
१ काययोगौघः, ३ भवन-व्यन्तर-ज्योतिष्काः, १ औदारिकः, १२ सौधर्मादिकल्पोपन्नभेदात्, औदारिकमिश्रः, | नवग्रैवेयकभेदात्, १ वैक्रियः, ५ पञ्चानुत्तरभेदात्,
वैक्रियमिश्रः, इन्द्रियम् (१६)
। १ प्राहारकः, ७ एकेन्द्रिये,
| १ पाहारकमिश्रः, +३ द्वीन्द्रिये,
X१ कार्मणः, +३ त्रीन्द्रिये,
वेदः (४) +-३ चतुरिन्द्रिये, | ३ स्त्री, पु, नपुंसकाः, +३ पञ्चेन्द्रिये,
X१ अपगतवेदः,
कषायः (४)
भव्यः (२) ४ क्रोध-मान-माया-लोभाः२ भव्यः, अभव्यः, अकषायः,
सम्यक्त्वम् (७) ज्ञानम् (७) १ सम्यक्त्वोधः, ४ (मति-श्रुता-ऽवधि- १ क्षायिकम्,
मनः पर्यवानि, १ क्षायोपशमिक, ३ (मत्यज्ञानं, श्रुताज्ञानं, ४१ औपशमिक,
विभङ्गज्ञानम्, १ सासादनम्, . केवलज्ञानम्,
४१ मित्रम्, संयमः (७)
१ मिथ्यात्वम्, १ संयमोघः,
संज्ञी (२) १ सामायिकः,
२ संज्ञी, असंज्ञी, १ छेदोपस्थापनः,
आहारी (२) १ परिहारविशुद्धिकः,
आहारकः, X१ सूक्ष्मसम्परायः, X१ अनाहारकः,
यथाख्यातः, २ देशसंयमः, असंयमः,
दर्शनम् (३) ३ चक्षुः,प्रचक्षुः,प्रवधि०, • केवलदर्शनम्,
लेश्या (६) ३ कृष्ण-नील-कापोत० ३ तेजः-पद्म-शुक्ल
* 'प्रोघ-सूक्ष्मौघ- सूक्ष्मपर्याप्त- सूक्ष्मापर्याप्त-'बादरौघ-बादरपर्याप्त-"बादरापर्याप्तभेदात् सप्त । +'प्रोघ-२पर्याप्ता-35पर्याप्तभेदात् त्रीणि । - 'प्रोघ-२सत्या-3ऽसत्य-४मिश्र-५व्यवहारभेदात् पञ्च । • एतेषु चतुर्यु मार्गणास्थानेषु कस्याऽपि कर्मणः स्थितिबन्धो न भवत्यतस्तानि मूलत एवात्र स्थितिबन्धग्रन्ये न गण्यन्ते,
ततश्च (१७०) सप्तत्युत्तरशतमार्गणास्थानानि । x एतेषु सप्तमार्गणास्थानेष्वायुर्बन्धो न भवत्यतस्तानि सप्ताऽऽयुषः स्थितिबन्धे वय॑न्ते, तत आयुषः स्थितिबन्धे (१६३) त्रिषष्ट्य त्तरशतमार्गणास्थानान्येबाऽधिक्रियन्ते ।
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________________
६८ ]
आयुर्वर्जानां सप्तमूलप्रकृतीनामोघादेशतः
सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धमानम्
गतिः
इन्द्रियम्
कायः
त्रसकायौध-तत्पर्याप्तभेदी,
ओघवत्
८ सर्वे.नरकभेदाः पञ्चेन्द्रियौघ
१२ सहस्रारान्तदेवभेदाः पर्याप्तपञ्चेन्द्रियज्ञाना० दर्शना० । ३० कोटीकोटीसागरो- | वेदनी• अन्तरा० )पमारिण,
अपर्याप्तवर्जाः भेदी, मोहनीयस्य-
४ तिर्यग्भेदाः ७० कोटीकोटिसागरो० नामगोत्रयोः- २०
३ मनुष्यभेदाः , ,
२७
अपर्याप्तत्रस०
आयुर्वर्जानां सप्तानामपि प्रत्येकम् - अन्तःकोटिकोटिसागरोपमम्
अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय- अपर्याप्ततिर्यग्मनुष्यौ, पान- | पञ्चेन्द्रियभेदः तादि १८ देवभेदाश्च
२०
झानावरण-दर्शनाव० । 3 सागरोपमम् वेदनी० अन्तराय मोहनीयस्य
१ सागरोपमम् नाम-गोत्रयोः
सागरोपमम्
एकेन्द्रियौघ० बादरौघ० बादरपर्याप्त
प्रोघ-बादर-तत्पर्याप्तभेदभिन्नाः पृथ्वी-जला-ऽग्निवायु-साधारणवनसत्काः १५॥ वनौष० प्रोघ-पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिभेदौ च.
१८
बादरापर्याप्त-सर्वसूक्ष्मै केन्द्रियभेदा:
ज्ञाना० दर्शना० । पल्योपमाऽसंख्यभागोन० वेदनी० अन्तरा०) सागरोपम० , मोहनीयस्यनामगोत्रयोः
सर्वसूक्ष्म-बादरापर्याप्तभेदभिन्नाः पृथ्वी-जलाऽग्नि-वायु-साधारणवनसत्काः २० । अपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिभेदश्व.
640
२१
ज्ञाना० दर्शना०
। ७५ सागरोपमम्
वेदनी० अन्तरा० मोहनीयस्यनाम-गोत्रयोः
द्वीन्द्रियसत्को प्रोघ-पर्याप्ती, तदपर्याप्तश्च* श्रीन्द्रिसत्को प्रोघ-पर्याप्तभेदौ, तदपर्याप्तश्च*
.
ज्ञाना० दर्शना० वेदनो० अन्तरा० मोहनीयस्यनामगोत्रयोः
C
ज्ञाना० दर्शना०
चतुरिन्द्रियसत्को वेदनी० अन्तरा०
प्रोघ-पर्याप्तभेदौ, मोहनीयस्य
तदपर्याप्तश्च नामगोत्रयोः
* एतेष्वपर्याप्तभेदेषु पल्योपमसंख्येयभागेन न्यून उत्कृष्टतोऽपि विज्ञेयः (गाथा-४५) ।
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________________
-उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणप्रदर्शकं यन्त्रम्
[EE
वेदः कषा० ज्ञानम्। संयमः दर्शनं लेश्या भव्यः सम्यक्त्वम्
यक्तवम् संज्ञी
मागणाः
गाथा
काः
पाहारी आहारी
मनस: सर्वे ५, स्त्री० क्रोधः, मत्यज्ञानं, असंयमः वचसः सर्वे ५, पु० मानः, श्रुताज्ञानं, काययोगौघः १, नपुं० माया, विभङ्गप्रौदारिकः १, लोभः, ज्ञानं च.
चनः कृष्णा- भव्यः| मिथ्यात्वम् | संज्ञी प्रचक्षुः नील
कापोत.
अभव्यः
वैक्रियः १,
| पद्माः
१३ पाहारकद्विकम्, औदारिकमिश्रः, वै क्रियमिश्रा, कामणश्च ।
मति, श्रुत, सामा० छेद
अवधि शुक्ला अवधि, परिहा. देशमनःपर्य० संयमश्च
सम्यक्त्वौघः, क्षायि० वेदक० प्रौप० सासा मिश्र०
अनाहारी
उत्कृष्टस्थितिबन्धमानम्
| वेदः
ज्ञाना० दर्शना० 13००० सागरोप०
प्रसंज्ञी
वेदनी० अन्तरा० मोहनीयस्य- १००० , नामगोत्रयोः- २००० ।
१४३
घातित्रिकम दिनपृथक्त्वं
घातित्रिकम् । मुहर्त पृथक्त्वं
सूक्ष्मसंपरायसंयमः
प्रधातित्रयं । वर्षपृथक्त्वं
मासपृथक्त्वं का
४४
ज्ञाना०दर्शना० अन्त०-संख्येयवर्षसहस्र० मोहनीयस्य-संख्येयवर्षाणि वेदनी० नाम० गोत्राणाम्-पल्याऽसंख्यभाग०
प्रपगतवेद०
३
४:
१७०
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________________
१०० ]
सप्तकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धमानम्
घातिचतुष्कस्य वेदनीय कर्मणः नाम - गोत्रकर्मणोः
ज्ञाना० दर्शनाव०
वेदनी० अन्तराय ० मोहनीयस्य नाम - गोत्रयोः
ज्ञाना० दर्शनाव०
वेदनी० अन्तराय०
मोहनीयस्य
नाम-गोत्रयोः
सप्तानां प्रत्येकम्
ज्ञाना० दर्शनाव०
वेदनी० प्रन्तराय ० मोहनीयस्य नाम - गोत्रयोः
घातित्रयस्य
संख्येयवर्षसहस्र०
संख्येयवर्षशत०
वर्ष पृथक्त्वम्
( मासानां पृथक्त्वम्
दिनानां मुहूर्तानां वा
*
ओघवत्
21
१००० २०००
3000 सागरोपम०
ত
१
७
सागरोपम०
"
सप्तानां प्रत्येकं पल्य संख्यांशेन न्यूनः स्वस्वोत्कृष्ट:--
}
आयुर्वजानां सप्तानां मूलकर्मणामोघाऽऽदेशतो
गतिः
इन्द्रियम्
मनुष्यतत्पर्याप्तभेदौ | पञ्चेन्द्रियोधमानुषी च तत्पर्याप्तभेदौ, भेदौ,
"2
२५
22
4
33
अन्तःकोटी कोटी सागरोपमाणि,
७५ सागरोपम०
"1
अन्तर्मुहूर्तम्
१२ मुहूर्ताः,
5
मोहनीयस्य संख्येय वर्षशत०
१६ वर्षाणि
द्वौ मासौ
न्यून०
पल्या संख्येयभागेन | पत्यसंख्येयभागेन
न्यून०
एको मास:
१५ दिनानि
अन्तर्मुहूर्तम्
सप्तानामपि प्रोघापेक्षया द्विगुरणो बन्धः
पल्यसंख्येयभागेन न्यून०
अघातित्रयस्य पल्या संख्यभाग०
सख्येयवर्षसहस्र ०
संख्येयवर्षशत०
वर्ष पृथक्त्वम्
मासपृथक्त्वम्
३
नरकौधः, प्रथमा च,
देवौघः, भवन- व्यंन्तरौ,
पर्याप्त मनुष्यः सर्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाश्च.
१०
तिर्यगोघभेदः,
१
शेष निरयदेवभेद०
३३
४७
मोहनीयवर्णानां परणां संख्येयवर्षसहस्राणि वा (गाथा - ६८ ) ।
२
अपर्याप्तपञ्चे न्द्रियभेदः,
१
सर्वे एकेन्द्रिय भेदाः,
विकले ०
१६
ε
कायः
सौवतत्पर्याप्त
२
पृथिव्यादिपञ्चकाय सत्काः सर्वे भेदाः,
३६
अपर्याप्तत्रसकायभेदः,
१
४२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
-जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणप्रदर्शकं यन्त्रकम्
[ १०१
संज्ञी
| आहारी
योगः वेदः कषा० ज्ञानं संयमः दर्शनं लेश्याः भव्यः सम्यक्त्वम्
सर्वा गाथा-1
मार्गणा काः मनसः सर्वे, वचसः लोभः मत्या- संयमौघ० सर्व० शुक्ल० भव्यः सम्यक्त्वौघ०, संज्ञी , सर्वे, काययोगदि (४) सूक्ष्मसंप०
क्षायिकं च, सामान्यः, प्रौदा०
गतवेदः,
ज्ञान
१२
१
।
मत्य० असंयमः
मिथ्यात्वम् प्रसं०
औदारिकमिश्रः, कार्मरणयोगश्च ।
कृष्ण नील० कपो०
प्रभव्यः
श्रुताऽ
अनाहारी
१
वैक्रि० तन्मिश्र० पाहा० तन्मिश्र०
विभङ परिहार
तेज:० पद्म०
वेदक.मिश्र. सासादन०
देश
२
४५
पुरुष०
क्रोधः
मानः
१
६६
माया
६७
सामा० छेद०
६६
प्रौपशमिकं
७
७
३
६
।
२
१७०
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________________
१०२ ]
आयुःकर्मण अोघत आदेशतश्च
स्थितिबन्धः अबाधा
गतिः
इन्द्रिय०
कायः
योगः
ओघवत्
३३ सागरो
पमाणि
३ तिर्यग्गतिभेद० पञ्चेन्द्रियौघ० सौध० सर्वे मनोवचोयोगभेदाः पोती. ३ मनुष्यगतिभेद० तत्पर्याप्तभेद० | तत्पर्याप्तश्च० | कायौ गोत्र
कायौध० प्रौदा० पाहा. त्रिभाग०
आहारकमिश्रयोगश्च ।
पूर्वकोटि०
वैक्रियकाययोग.
औदारिकमिश्र०
- उत्कृष्टपदे →
६ मासा सर्वनिरयदेवाः अन्तर्मुहूर्त, स्वीयोत्कृष्ट- अपर्याप्तमनुष्य, ७ सवैकेन्द्रिय० वनस्पत्यान्तानां भवस्थिते- , पञ्चेन्द्रिय सर्वविकलेन्द्रि० सर्वे भेदाः, अपस्तृतीयभाग
तिर्यग, १ अप-पञ्चेन्द्रि० र्याप्तवसश्च० माना,
पूर्वकोटित्रिभागः तिरश्ची ...
२२ सागरो० ___,,साधिक
पल्यासंख्यभाग० सहस्रारसत्कः
स्थितिबन्धः | सर्वे नरकभेदाः, देवौषः, अन्तर्मुहूर्त, | ईशान्ता देवभेदाश्च, १४
वैक्रियकाययोगः
3
ry.
:
सनत्कुमार-माहेन्द्रौ, .... ब्रह्म-लान्तको शुक्र-सहस्रारौ मानतादयचश्चतुर्भेदाः .... ६ ग्रैवेयक; ५ अनुत्तर;....
.
यावत्
:
- जघन्यपदे →
अन्तमुहूर्तम् अबाधा
वर्ष पृथक्त्वं ।
लान्तकसत्क:
• आहारक-तन्मिश्री,
पल्यपृथक्त्वम्
ओघवत् । सर्वे तिर्यग्भेदाः, ५ सर्वे भेदाः । सर्वे भेदाः ५ मनसः, ५ वचसः,
क्षुल्लकभव० सर्वे मनुष्यभेदाः, ४ १६ ४२ कायौघः, प्रौदा०, तन्मिश्र; * तिर्यगौघः, पञ्चेन्द्रियतिर्यगोघः, पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यक्, तथा मनुष्योघः, तत्पर्याप्तः, मानुषी चेति षड्भेदाः । • मतान्तरे-पल्योपमपृथक्त्वम् ।
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________________
-जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणप्रदर्शकं यन्त्रम्
[ १०३
वेदः कषाय ज्ञानम्
संयमः
दर्शनं लेश्याः भव्यः सम्यक्त्वं
संज्ञी
आहा०
मार्गणाः
गाथाङ्काः
सर्वे | सर्वे ३ अज्ञान० संयमोघ० सामा०
४ ज्ञान - छेद प्रसंयमश्च
| चक्षु- कृष्णा० भव्य. सम्यक्त्वोध० | संज्ञी पाहाशुक्ला० अभव्य. क्षायि० वेदक०
मिथ्यात्व०
*
देशसंयमः
....
.
नीला+ कापोती तैजसी
पद्मा
" : *
सासादनम्
प्रसंज्ञी
परिहारविशुद्धिकःx ...
-
तैजसी,
सासादनम्,
पमा
यावत्
शुक्ला
मति, श्रुत, अवधि,
अवधि
सम्यक्त्वौघ, क्षायिक, वेदक.३
||
मनःपर्यव. संयमौष; सामायिक
छेद; परिहार; देश; वेद- सर्वे । अज्ञान- असंयमः, त्रयी, ४ अयं, ३ .
मतान्तरे- +सप्तदशसागरोप०,
चक्षुः तिस्रो- सर्वे | मिथ्यात्वम् । सर्वे पाहा प्रचक्षुः ऽशुभाः २ सप्तसागरोप०, xत्रयस्त्रिशत्सागरोपमारिण ।
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________________
१०४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुषः अतस्तेजोलेश्यामार्गणाप्रविष्टेषु भवनपत्यादिदेवेषु यावानन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुषो जघन्यस्थितिबन्धो भवति, तावान् दशवर्षसहस्राणि तेजोलेश्यामार्गणायामायुषो जघन्यस्थितिबन्धो ज्ञातव्यः, इत्थमेव पद्मलेश्याकादीनां सनत्कुमारादिदेवानामायुषो जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणानुसारेण पद्मलेश्यादिमार्गणाद्वये आयुषो जघन्यस्थितिबन्धो यथासम्भवं बोद्धव्य इति ।
अथोक्तशेषमार्गणास्वाह-"सेसासु खुड्डुभवो"त्ति अनन्तराभिहिता नरकगत्यादिशुभलेश्यात्रयान्ता अष्टपञ्चाशन्गार्गणा विहाय शेषासु तियग्गत्यादिपञ्चोत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकम् “खड्भवो" त्ति ओघवत्क्षुल्लकभवः-षट्पञ्चाशदभ्यधिकशतद्वयावलिका इत्यर्थः । आयुषो लघुः स्थितिवन्धो ज्ञेय इत्यनुवर्तते । शेषमार्गणा नामत इमाः-पञ्च तिर्यग्गतिमार्गणाभेदाः, चत्वारो मनुष्यगतिमार्गणाभेदाः, एकानविंशतिरेकेन्द्रियादिजातिमार्गणाभेदाः, द्विचत्वारिंशत्पृथिव्यादिकायमार्गणासत्कभेदाः, पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, काययोगसामान्यौ-दारिकौ-दारिकमिश्रकाययोगभेदाः, त्रयः स्त्र्यादिवेदभेदाः, चत्वारः क्रोधादिकषायभेदाः, मत्यज्ञानादिरूपारत्रयोऽज्ञानभेदाः, असंयम-चक्षुदर्शना-ऽचक्षुर्दर्शन-कृष्ण-नील-कापोतलेश्या-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्व-संज्य-ऽसंज्या-ऽऽहारिमार्गणाभेदाथेति । एतासु प्रत्येकं संख्येयवर्षायुषां मिथ्यादृष्टितिर्यग्मनुष्यान्यतराणां प्रवेशात् तैः क्षुल्लकभवप्रमाणजघन्यस्थितिकायुर्वन्धस्य निर्वर्तनाच्चायुषो जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं तथैव दर्शितमिति ॥७६॥
तदेवं प्रतिपादितं शेषस्यायुःकर्मणो जघन्यस्थितिबन्धमानमादेशतोऽपि, तस्मिंश्च प्रतिपादिते गतं स्थितिबन्धप्रमाणाख्यं प्रथमं द्वारम् ॥
॥ इति बन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे प्रथमं स्थितिबन्धप्रमाणद्वारं समाप्तम् ।।
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________________
॥ अथ द्वितीयं स्वामित्रद्वारम् ॥
साम्प्रतं द्वितीयस्वामित्वद्वारस्यावसरः, तत्र सप्तानां मूलप्रकृतीनामनन्तरोक्तप्रमाणायाः कर्मरूपतावस्थानलक्षणायाः स्थितेर्वन्धस्वामिनः प्ररूपणीयाः, ते चोत्कृष-जघन्य भेदभिन्नायाः स्थितेः स्वामिनः स्थितिबन्धप्रमाणवदोषत अादेशतश्च द्विधा प्राप्यन्ते, तबादावुत्कृष्टस्थितिवन्धस्वामिन श्रोघतः प्ररूपयितुकाम आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीरधिकृत्याह
सागारो जागारो सुअोवउत्तो पणिंदियो सरणी । पज्जत्तो सम्बाहिं पज्जत्तीहिं चउगइट्ठो ॥७७॥ मिच्छादिट्ठी उ परमसंकेसेणीसिमझिमेणं वा ।
परिणामेणं बंधइ सत्तण्ह ठिई उ उक्कोसं ॥७॥ (प्रे०) "सागारो"इत्यादि, "सागारो" इत्यादिनाऽभिहितविशेषणविशिष्टो जीवः परमसंक्लेशेनेषन्मध्यमेन वा परिणामेन, सप्तानामुत्कृष्टां स्थिति बनातीति द्वितीयगाथायां सम्बन्धः । तत्र "सागारु"त्ति विशेषावबोधलक्षणेन साकारेणोपयोगेनोपयुक्तः, स एव ज्ञानज्ञानिनोरभेदनयेन साकार इत्युक्तः । अत्र साकारोपयोगयुक्त इति विशेषणात् सामान्यावबोधलक्षणेन दर्शनोपयोगेनोपयुक्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वं प्रतिषिद्धमिति बोद्धव्यम् । पुनः किं विशिष्ट इत्याह-'जागारो'ति 'जाग्रत्'-अनुदितनिद्रोदय इत्यर्थः, एतेन हि येषां साकारोपयोगसत्वेऽपि निद्रानुभवो विद्यते तेषामुत्कृष्टस्थितिबन्धो न भवतीति ज्ञापितम् । पुनः किंविशिष्ट इत्याह- सोवउत्तो"नि थनोपयुतः, नन साकारोपयुक्त इति ग्रहणादेव श्रतोपयुक्तो गृहीतो भवति, सामान्ये तद्विशेषाणां गमावेशाद् ? इति चेद्, न, साकारोपयुक्ता हि मत्याधुपयुक्ता अपि भवन्ति, न च तेपामुत्कृष्टस्थितिबन्धः सम्भवति, अतस्तेषामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वप्रतिषेधार्थ श्रुतोपयुक्त इत्यस्य ग्रहणं कृतम् ।
___नन्वेवमपि प्रकृतविशेषणम् "मिच्छादिट्ठी" इत्यनेन वक्ष्यमाणविशेषणेन कथं न विरुध्येत, मिथ्यादृशामज्ञानस्यैवागमेऽङ्गीकारेणाऽऽवश्यकाऽऽचाराङ्गादिलक्षणश्रुतोपयोगस्यासम्भवात् । न चात्र वक्ष्यमाणस्य विकल्पार्थकस्य वाशब्दस्य प्रत्येक योजनात साकारो वा जाग्रता श्रतोपयुक्तो वा पञ्चेन्द्रियो वा, एवं यावन्मिथ्यादृष्टिर्वेत्युत्कृष्टस्थितिबन्धकानां विकल्पाः प्रदर्श्यन्ते, ततश्च श्रुतोपयुक्तःमिथ्यादृष्ट्योर्विशेषणविशेष्यभावानङ्गीकारेण न स्यात्कश्चिद्विरोध इत्यपि वक्तुं युज्यतेः तथा सति "चउगइट्ठो” इत्येतावन्मात्रमपि पर्याप्तं स्यात्, तत एव निःशेषस्य प्राणिसमुदायस्थ ग्रहणेन साकारोपयुक्तादीनामपि ग्रहणात् । न च तथैवास्त्वित्यपि वाच्यम् । एकेन्द्रियादिपुिलसत्चसमाजेषस्कृष्टतोऽपि सप्तमूलकर्मणामौघिकोत्कृष्टस्थितिवन्धस्य त्रिंशत्कोटीकोटीसागरोपमादिलक्षणस्यान
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________________
१०६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ोघत आयुर्वर्जानाम् भिधानादित्यसङ्गतमिव लक्ष्यत एतद् ? इति चेद, न, वस्तुतचापरिज्ञानात् । यतः "श्रुतोपयुक्त" इत्यस्य मिथ्यादृष्टिविशेषणतयाऽङ्गीकारात् श्रुतपदेन श्रुताज्ञानं गृह्यते, न पुनः श्रुतज्ञानम् , येनोक्तविरोधः स्यात् । इदमुक्तं भवति-अविशेषितं श्रुतं श्रुतज्ञानं श्रुताज्ञानं च भवति, विशेषितं पुनस्तत् सम्यग्दृष्टेः श्रतज्ञानं भवति, मिथ्यादृष्टेस्तु ताज्ञानं भवति, उक्तं च श्रीनन्द्यध्ययनागमे-"अविसेसियं सुयं सुयनाणं सुयअन्नाणं य, विसेसियं सुयं सम्मदिट्ठिस्स सुयं सुयनाणं, मिच्छदिट्ठिस्स सुयं सुयअन्नाणं' इति । प्रकृते च "साकार" इत्यादिविशेषणानि मिथ्यादृष्टिजीवस्य विशेषणतयोपात्तानि, ततश्च श्रतोपयुक्त इतिविशेषणमपि मिथ्यादृष्टिजीवस्य, तेन श्रतपदेन श्रुताज्ञानं गृह्यते, तथा च सतिश्रुताज्ञानोपयुक्तो मिथ्यादृष्टिरिति न कश्चिद्विरोध इति । यद्वा यथाश्रुतं श्रुतोपयुक्त इत्यनेन साभिलापज्ञानोपयुक्तता तत्स्वामिनो गृह्यते, सा च मिथ्यादृष्टेरप्युत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनो न कुत्रचिद्विरुध्यते, श्रतज्ञान-श्रताज्ञानयोयोरपि साभिलापज्ञानरूपत्वाऽविशेषात् , अत एव शास्त्रार्थविवरणचञ्चुभिः श्रीमन्मलयगिरिपादैः श्रीप्रज्ञापनासूत्रवृत्तौ नरकगतिभेदे उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनां श्रतोपयुक्ततेति साभिलापज्ञानोपयुक्तता प्रज्ञापयाञ्चक्रे । तथा च तद्ग्रन्थः___“सुत्तोवउत्ते" त्ति साभिलापज्ञानोपयुक्त इति भावः' इति ।
उक्तविशेषणविशिष्ट एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियाणामन्यतमोऽपि स्यादिति तेषां व्यवच्छेदायाह"पणिदियो" ति पञ्चेन्द्रियः, पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्मोदयवानित्यर्थः । एवम्भूता असंज्ञिनोऽपि भवेयुः, न च तेषामौघिकोत्कृष्टस्थितिबन्धो जायत इति तेषामपि व्यवच्छेदार्थमाह-"सण्णी" त्ति विशिष्टस्मरणशक्तिरूपा या दीर्घकालिकीसंज्ञा तयोपेत इत्यर्थः, न पुनराहारादिसंज्ञया संज्ञी, तदपेक्षया संज्ञीतिव्यवहारस्यागमेष्वपरिभाषणात् । निरुक्तसर्वविशेषणविशिष्टः संज्ञी जीवोऽप्यपर्याप्तावस्थायां तथाविधमानससामथ्यापेतत्वादौधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धं निवतयितु नालं भवति, अतस्तादृशस्याऽपर्याप्तावस्थस्य संज्ञिनोऽपि व्यवच्छेदार्थमाह-"पज्जत्तो सव्वाहि पज्जत्तीहि" ति संज्ञिनः प्रायोग्याभिः सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्त इत्यर्थः । उक्तं च शतकचूणा
“सब्यासिं पगईणं उक्कोसठिई मिच्छदिट्ठी सव्याहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्तो सव्वसंकिलिट्टो बंधइ" इति ।
अत्र संज्ञिनः प्रायोग्याः पर्याप्तयस्त्वाहारप्रभृतयः पड् । उक्तं चान्यत्र- “अाहार-सरीरिं-दिय पज्जत्ती प्राणपाण-भास-मणे । चउ-पंच-पंच-छप्पिय इग-विगला-ऽसन्नि-सन्नीणं” इति ।
ननु निरुक्तविशेषणविशिष्टो नैरयिकजीव एव भवति उतान्योऽपीत्याह-"चउगइट्रो" इत्यादि, 'चतुर्गतिस्थः'-नरक-तियेर-मनुष्य-देवलक्षणचतुर्गतीनामन्यतमगतिस्थः, अन्यतमगतौ वर्तमानो नारकादिमिथ्यादृष्टिजीवो भवति, न केवलो मिथ्यादृष्टिनरयिकजीव एवेत्यर्थः। तुशब्दोऽवधारणे । मिथ्यादृष्टेरुपादानं पुनः सम्यग्दृशां व्यवच्छेदार्थम् , सम्यग्दृशां सप्तकर्मणामन्तःकोटीकोटीसागरोपमेभ्योऽधिकस्थितिबन्धप्रायोग्यः संक्लेश एव न भवतीति भावः । इत्थं सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धेऽप्रधानहेतून वन्धकविशेषणतयाऽभिधाय मुख्यहेतुरयमिति दिदर्शयिपुरुत्कृष्टस्थितिबन्धमुख्यहेतु स्वातन्त्र्येणाभि
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उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः ]
द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ १०७
दधाति - " परमसंकेसेणी सिमज्झिमेणं वा परिणामेण " मिति, स्थितिबन्धस्य प्रकृतत्वात् "परमसंकेसेण "त्ति 'परमेण' - उत्कृष्टेन स्थितिबन्ध संक्लेशेन, समस्तेऽपि भवचक्रे कस्यापि जीवस्य यस्मादधिकः संक्लेशो न प्राप्यते सः 'परमः ' - सर्वोत्कृष्टः कपायोदयजन्यः परिणामविशेषः संक्लेशस्तेनेत्यर्थः । उत्कृष्टस्थितिबन्धो यथा सर्वसंक्लेशेन जायते, तथा तदन्यसंक्लेशैरपि जायते । कुतः ? प्रतिस्थितिबन्धमसंख्य लोकाकाशप्रदेशराशिप्रमितानां स्थितिबन्धसंक्लेशानां हेतुतया भणितत्वात् । वक्ष्यते चात्रैव ग्रन्थेऽग्रे षष्ठाधिकारे – “पइठिइबंधमसंखा लोगा अट्ठएह अमवसरणारा " मित्यनेन प्रतिस्थितिबन्धस्थानं नानाजीवानाश्रित्य तत्कारणीभूता असंख्य लोकाकाशप्रदेशराशितुल्या अध्यवसायाः सन्तीति । अत्रोत्कृष्टसंक्लेशेन तेष्वसंख्य लोकाकाशप्रदेशप्रमितेषूत्कृष्ट स्थितिबन्धप्रायोग्याध्यवसायेष्वेकः सर्वतीवर सोदयजन्यः काषायिकः संक्लेशो गृहीतः, न पुनः शेषाः, यतस्तेपामपि संग्रहायोक्तम्" ईसिमज्झिमेणं वा परिणामेणं" ति उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्येषु संक्लेशेषु योऽनन्तरमुत्कृष्टसंक्लेशो गृहीतस्तस्मादुत्कृष्टसंक्लेशादीनहीनतरा ये शेषाः स्थितिबन्धसंक्लेशास्ते प्रत्येकमीपन्मध्यमसंक्लिष्टपरिणामतया गृह्यन्ते तेष्वेकैकेने पन्मध्यमपरिणामेनेत्यर्थः । अथवा सर्वसंक्लेशापेक्षया ये मध्यमादयः संक्लेशास्त एवेषन्मध्यमपरिणामेन गृह्यन्ते, अथवा ईवदिति सर्वलघुः सर्वजघन्यसंक्लेशः, मध्यमेति जघन्यसंक्लेशोत्कृष्टसंक्लेशयोर्मध्ये वर्तमाना मध्यमपरिणामाः । एते सर्वेऽप्युत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्याध्यवसायानपेच्य बोद्धव्याः, तेषूत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्य संक्लेशेषु य उत्कृष्टः संक्लेशः सोऽनन्तरम् "परमसंकेसेण" इत्यनेन गृहीतः, ईपत्पदेन जघन्यो गृह्यते, मध्यमपदेन तु शेषा उत्कृष्टजघन्ययोर्मध्यवर्तिनः परिणामाः- संक्लेशा गृह्यन्ते, इत्थं हि निरुक्तविशेषणविशिष्टो मिथ्यादृष्टिजव उत्कृष्टसंक्लेशेनोत्कृष्टस्थितिं बध्नाति, उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्येन जघन्यसंक्लेशेन मध्यमपरिणामेन वा सप्तकर्मणामुत्कृष्टां स्थितिं बध्नातीत्यर्थः । उक्तं च शतकचूर्णी -
"उको संकिले से जाणि संकिलेसठाणाणि उक्कोसटिई रिव्यत्तेन्ति, तेसु सव्वंतिमो उक्कोससंकिलेसो वच्चइ, तेरा उक्कोसियं टिइं णिवत्तेन्ति, "ईसिमहमज्झिमेणावि" त्ति त उक्कोससंकिलेसाओ उरण उणतराणि य ठिंइबंधज्भव सारण ठाराणि तेहिं पि तमेव उक्कसियं ठिडं वित्तन्ति, ते ईसिमज्झिमा वुच्चंति, हवा सव्वसंकिले से पडुच्च मज्झिमाइया ते चेव ईसिमज्झिमा बुच्चंति, श्रहवा उक्कोसियं ठिझं वित्तन्ति, जाणि अज्झत्रसारणठाणाणि तेसु सव्वखुड्डगं ईषत् तेवि तमेव उक्कोसियं ठिदं पित्र्यत्तेन्ति, जहन्नुको सा मझे जारि भवसारणठाणाणि तारिख मज्झिमाणि तेहिंतो वि तमेव उक्कोसियं ठिई रिव्यत्तेन्ति" इति ।
हेतुतयोपात्ताऽपि प्रकृतपदद्वय्युत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिविशेषणतया योजनीया । कुतः ? स्वामित्वप्ररूपणायाः प्रस्तुतत्वात् । तथा च योजने साकारो जाग्रत् साभिलापज्ञानोपयुक्तः सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्तोऽन्यतमगतिस्थः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी सर्वसंक्लेशे वर्तमानः सन्नीवन्मध्यमसंक्लेशे वा वर्तमानः सन् मिथ्यादृष्टिर्जीवः “सत्तण्ह" ति आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलकर्मणां “ठिडं उ उक्कोस" मिति उत्कृष्टां प्राग्दर्शितां त्रिंशत्कोटी कोटी सागरोपमादिलक्षणां स्थिति बध्नातीत्युत्तरेण योगः, स च प्राग्दर्शित एवेति । इदन्तु बोध्यम् - अत्र सर्वसंक्लेशे वर्तमान ईषन्मध्यमसंक्लेशे वर्तमानो वा
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१०८ ] बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[ोघत आयुषः सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामी भवतीत्येतावदपि पर्याप्तं स्यात् । कुतः ? साकारायुक्तविशेषणविरहितानां सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्यस्योत्कृष्टसंक्लेशस्येपन्मध्यमसंक्वेशस्य चानवाप्तेः । तथाऽप्येतादृश उत्कृष्टसंक्लेश ईवन्मध्यमो वा संक्लेशः केषां जीवानां किटगवस्थायां प्राप्यत इत्यनवगते उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिविषयकः स्पष्टावबोधो न जायतेति सविशेषमभिहितम् । “सागारो" इत्यादिपदेष्वेकवचनान्तो निर्देशस्तु जातिमधिकृत्य, ततस्तादृशा ये केचनाऽपि मिथ्यादृष्टिजीवास्ते सर्वेऽपि सप्तानामौधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिन इत्यपि बोद्धव्यमिति ॥७७।७८॥
तदेवं दर्शिता मूलसप्तकर्मणामौधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः। साम्प्रतमायुपस्तान् दर्शयन्नाहसागाराइविसिट्ठो वट्टेमाणो उ गुरुप्रवाहाए। सगणी खलु सबाहिं पज्जत्तीहिं य पज्जत्तो ॥७॥ तयणुरुवसंकिलिट्ठो मिच्छादिट्ठी पणिदितिरियाणरो।
तदरिहसद्धपमत्तो वाऽऽउस्स उ बंधइ गुरुठिइं ॥८॥
(प्रे०) "सागाराइविसिट्ठो' इत्यादिगाथाद्वयम् , तत्र “सागाराई"त्यादि प्राग्वद् व्याख्येयम् , तुकारस्त्ववधारणार्थः "गुरुप्रबाहाए" इत्यस्योत्तरं योज्यः, ततः "गुरुप्रबहाए उ वढेमाणो' ति पूर्वकोटीतृतीयभागप्रमाणायां वेद्यमानायुरवशेषलक्षणायां “गुाम्' उत्कृष्टायामबाथायामेव वर्तमान इत्यर्थः । इदमुक्तं भवति-कर्मरूपतावस्थानलक्षणस्थितिबन्धस्याऽधिकृतत्वाद् बन्धसमयप्रभृतिकचरमनिषेकपर्यन्तप्रमाणायाः स्थितेबन्धका द्रष्टव्याः; सा च स्थितिरोघतः पूर्वकोटीत्रिभागेनाभ्अधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणा उत्कृष्टतो भवति, तत्र पूर्वकोटीत्रिभागस्त्वबाधा । त्रयस्त्रिंशत्लागरोपभन्थितिकं नरकायुर्बध्नतां देवायुर्वा बध्नतां सर्वेषां न सा उत्कृष्टाबाधा सम्पद्यते, किन्तु बहनां समादिना हीनाहीनतराद्यैव, केषाञ्चिदेवोत्कृष्टा पूर्वकोटीविभागलक्षणा । तत्र येषां त्रयस्त्रिंशसागरोपमस्थितिकं नरकायुर्देवायुवा बध्नतामुत्कृष्टा पूर्वकोटीविभागलक्षणाऽबाधा न संपद्यते, किन्तु समयादिना होना सम्पद्यते, तेषां प्रस्तुतकर्मरूपतावस्थानलक्षणोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वं न भवति । अत उत्कृष्टया पायामेर वर्तमान इत्यनेन तेषां व्यावर्तनं कृतमिति । उत्कृष्टाबाधा पूर्वकोटिस्थितिकाऽसंजिनामपि लभ्यते, न चैते उत्कृष्टस्थितिवन्धस्वामिनो भवन्ति, सप्तमपृथिवीनारकतयाऽनुत्तरवासिदेवतया वा तपामनुत्पतेः । इत्यं तेषां व्यावृत्तये उक्तम्- "सरणी खलु" इति । 'तयणुवसंकिलिट्रो"त्ति तान्योत्कृष्टस्थितिकायुपो'ऽनुरूपः'-अनुकूलः, अस्य चान्वयः संक्लिष्टपदार्थकदेशे संक्लेशे, तत उत्कृष्टायुरनुकू नो यः संक्लेशस्तेन यक्तस्तदनुरूपसंक्लिष्टः । ननु 'ज्ञानावरणादीनां सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्वन्धका अपि तस्या ज्ञानावरणादिसत्कोत्कृष्टस्थितेरनुरूपसंक्लेशेनोपेता एव सन्ति, अन्यथा तेषां ज्ञानावरणादेशकास्थितिवन्धस्यैवाऽसम्भवात् , तत्कथं तत्र “परमसंकेसेणीसिमझिमेणं वा" इत्याद्यभिहितम, अत्र पुनः “तयणुरुषसंकिलिट्ठो” इत्युच्यते ?' इति चेत्, सत्यमेतत् , सर्वेषां स्थितिबन्धानां स्वानुरूप
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उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः ] द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम
[ १०६ संक्लेशैरेव निर्वय॑मानत्वात् , तथाप्यायुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्येषु संक्लेशेषु सर्वोत्कृष्टसंक्लेशोऽपि प्रविष्टः, प्रायुप उत्कृष्टस्थितिवन्धानुरूपसंक्लेशेषु त्वसौ सर्वोत्कृष्टसंक्लेशो न प्रविष्टः, अत्यन्तसंक्लिष्टरायबन्धस्यैवाकरणात् । उक्तं च पञ्चसंग्रहवृत्ती --- “अत्यन्तसंक्लिष्टानामायुबन्धासम्भवात्” इति । इत्थं यत्कृष्टसंक्निष्टानाभायष उत्कृष्टस्थितिवन्धवामित्वव्यवच्छेदार्थमत्र "तयणुरुवसंकिलिहो" इत्युपात्तम् , पूर्व तूत्कृष्ठसंक्लेशेनापि सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य भावाद् 'परमसंकेसेणीसिमझिमेणं वा" इति व्यस्तमभिहितमिति । 'मिच्छादिद्वी पणिदितिरियणरो" त्ति मिथ्यादृष्टिरिति प्राग्वत्सम्यग्दृशां व्यवच्छेदार्थम् , आयप उत्कृष्टास्थितिवन्यप्रायोग्यस्य संक्लेशस्य सम्यग्दृष्टिष्वघटनात् । कुतः ? सम्यग्दृष्टिभिर्नरकायुयोऽबन्धाद् , देवायुपस्तु विशुद्धिप्रत्ययत्वाच्च । उक्तं च शतकग्रन्थे
___ "साठिईणं उक्कोसश्रो उ उकोससंकिले सेणं । विवरीप य जहन्नो, आउातिगवज्जसे साणं" ।।५८|| इति । संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिरश्चो नरस्य च ग्रहणं तु देवनारकाणामायुग उत्कृष्टस्थितिवन्धस्वामित्वव्यबच्छेदार्थम् । इत्थं हि साकारोपयोगादिविशिष्ट प्रारुप उत्कृष्टावाधायां वर्तमानः सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्त आयुष उत्कृष्टस्थितिवन्धानुरूपसंक्लेशोपेतो यो मिथ्याष्टिः संक्षिपञ्चेन्द्रियतिर्यग मनुष्यो वा सः, आयुषो गुरुस्थितिं वध्नातीति प्रान्तेऽन्वयः । इदं हि संक्लेशश्रत्ययं सप्तमनरकसत्कोत्कृष्टस्थितिकायुरधिकृत्याभिहितम् । उत्कृष्टस्थितिकायस्त्वनुत्तरदेवसत्कमपि बध्यते, विशुद्धया बध्यमानस्य तस्य बन्धकानामप्युत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वं भवतीति तानपि सङ्गलबाह-"तदरिहसुद्धपमत्तो वा” इति, अत्र साकारोपयोगादिविशेषणानां यथायोगमनन्तरगाथातोऽनुवृत्तिर्दष्टव्या, भावना तु प्राग्वदेव, "तदरिह'त्ति-तस्योत्कृष्टस्थितिकायुपोऽर्हा-प्रायोग्या, अस्याश्चान्वयः प्राग्वत् शुद्धैकदेशे शुद्धौ द्रष्टव्यः, ततस्तस्योत्कृष्टायुषो बन्धेऽर्हा या शुद्धिस्तयाऽम्बितो यस्तदहशुद्धः प्रमत इत्यर्थः । तत्र तत्प्रायोग्यविशुद्धस्य ग्रहणमत्यन्तसंक्लेश इवात्यन्त विशुद्धावप्यापुर्बन्धस्याऽभावात् । उक्तं च पञ्चसंग्रहवृत्तौ – “अत्यन्तविशुद्धानामायुर्बन्धाभावाद्” इति । प्रमत्तग्रहणं त्वप्रमतानामायुप उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वप्रतिषेधार्थम् । ननु कस्मादप्रमतानामायुप उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वं प्रतिषिध्यते, तैरपि देवायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलक्षणः क्रियत एव ? इति चेत्, सत्यम् , तथापि न ते आयुबन्धस्य प्रारम्भकाः, किन्तु केवलं प्रमत्तावस्थायां प्रारब्धस्यैव निवाहकाः। उक्तं च—“अपमत्तो बन्धिउं नाढवेइ, पमत्तेनाढत्तमप्पमत्तो बंधेइ” इति । ततः किं ? ततो वेद्यमानपूर्वकोटीलक्षणायुषो भागद्येऽतिक्रान्ते तृतीयभागस्याडसमये प्रमत्तावस्थायामारन्यस्योत्कृष्टस्थितिकायुषोऽवाधायाः प्रतिसमयं परिगलनादप्रमत्तावस्थायां वध्यमानमपि तत् मध्यमावाधोपेतं सन्मध्यमस्थितिकमेव भवति, न तूत्कृष्टस्थितिकम् । उक्तं च नव्यशतकवृत्ती देवेन्द्र सूरिपादैः-"पूर्वकोटीत्रिभागस्य द्वितीयादिसमयेषु बनतो नोत्कृष्ट लभ्यते, अबाधाया परिगलितत्वेन मध्यमत्वप्राप्ते' रिति । इत्थं हि साकारोपयोगादिविशेषणविशिष्टास्तदनुरूपसंक्लिष्टमिथ्यादृष्टितिर्यग्-मनुभ्या इव साकारोपयोगादि
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११० ]
बंधविहाणे मूलपयडिटिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुर्वर्जानाम् विशेषणविशिष्टास्तदनुरूपविशुद्धाः प्रमतसंयता अप्यौधिकोत्कृष्टस्थितिकायुपो बन्धस्वामिनो भवन्तीति ॥७६८०॥
तदेवमभिहिता अष्टानामपि मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिन ओघतः । साम्प्रतमादेशतो व्याजिहीपुलविवार्थ यासु मार्गणास्वोधवत्तास्वतिदिशति
सत्तण्ह खलु पणिंदिय-तस-वयदुग-कायचउकसायेसु।
अयत-णयणेयरेसुभविया-ऽऽहारेसु अोघव्व ॥८१॥ . (प्रे०) “सत्तण्ह' इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानामोघवदिति गाथाप्रान्तेऽन्वयः, उत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामिन इति प्रक्रमाद्गम्यते । केषु मार्गणाभेदेवित्याह-"खलु पणिदिये"त्यादि, खलुशब्दो पादपूत्यै । द्विकशब्दस्य पञ्चेन्द्रिय-बस-बचस्सु प्रत्येक योजनात् पञ्चेन्द्रियविके, त्रसकायद्विके, बचोयोगहिक चेत्यर्थः, तत्रापि व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति न्यायादपर्याप्तवर्जितौ पञ्चेन्द्रियौषतत्पर्याप्तभेदो, सकायोध-तत्पर्याप्तभेदौ, बचोयोगसामान्या-ऽसत्यामृषावचोयोगी चैकैकद्विकात् क्रमेण ज्ञातव्याविति । तथा काययोगसामान्य-क्रोधादिचतुःकषायमागणाभेदेपु, "प्रयत-णयणेयरेसुं" इति 'अयते' असंयमे 'नयने'-चक्षुर्दर्शनमार्गणाभेदे तथेतरपदादचक्षुदर्शनमार्गणाभेदे चेत्यर्थः, तथा भव्यमार्गणाऽऽहारिमार्गणाभेदयोरित्येतासु पोडशमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । एतासु प्रत्येकं भावनाऽप्योघवदेव द्रष्टव्या इति ॥१॥
अथ भणितशेपमार्गणासु प्रतिपिपादयिषुलावार्थं बहुमार्गणाविषयकसमानव्यक्तव्यतामादावेवाभिदधाति
सेसासु मग्गणासु उक्कोसठिई बंधगो णेयो। सागाराइविसिट्ठो सतण्हं अाउवज्जाणं ॥२॥ पज्जत्तापज्जत्ता दुहा वि जीवाऽत्थि जत्थ तत्थ भवे । पज्जत्तो सव्वाहिं पज्जत्तीहिं त्ति वत्तव्वं ॥३॥ उक्कोससंकिलिट्टो वुच्चइ सतह बंधगो जत्थ ।
तत्थ खलु ईसिमझिमसंकिट्ठो अवि मुणेयब्वो ॥८४॥ (प्रे०) "सेसासु" इत्यादि, अनन्तरमेव ‘सत्तरह खलु पणिदियेत्यादिना कथिताः षोडपमार्गणाः परिहत्य शेपासु निरयगत्योपादिमागेणासु प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितेवन्धको ज्ञेयः, क इत्याह"सागाराई"त्याधत्तरार्धम् , सुगमं गतार्थं च । एपो हि सामान्यतो बन्धकोऽवसेयः । कुत एवं ज्ञायते ? इति चेद, विशेषतोऽग्रे वक्ष्यमाणत्वादिति । अन्यामपि सामान्यवक्तव्यतामाह-"पज्जत्ता-पज्जत्ता" इत्यादि, 'पर्याप्ताः' स्थस्वप्रायोग्याभिः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्ताः करणपर्याप्ता इत्यर्थः । अपर्याप्ताः
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उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः ] द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ १११ पर्याप्तेतराः, यैः स्वप्रायोग्याः पर्याप्तयो न समाप्तास्ते लब्ध्यपर्याप्ताः करणापर्याप्ताश्चेत्यर्थः । यदुक्तं लोकप्रकाशतृतीयसर्गे
"असमाप्य स्वपर्याप्ती,-म्रियन्ते येऽल्पजीविताः । लब्ध्या ते स्युरपर्याप्ता, यथा निःस्वमनोरथाः ॥ निर्वतितानि नाद्यापि, प्राणिभिः करणानि यैः । देहाक्षादीनि करणा, ऽपर्याप्तास्ते प्रकीर्तिता." इति।।
एवम्भूताः पर्याप्तापर्याप्तभेदाद् द्विविधा अपि जीवाः “त्थि जत्थ"त्ति अकारस्य दर्शनात् 'सन्ति' विद्यन्ते 'यत्र' यस्यां यस्यां मार्गणायां—तत्थ भवे" ति 'तत्र' तस्यां तस्यां मार्गणायां भवेत् , किं भवेदित्याह- "पज्जत्तो" इत्यादि, सर्वाभिः स्वप्रायोग्याभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्त इति वक्तव्यं भवेदित्यर्थः । सप्तकर्मणामुत्कृष्टायाः स्थितेबन्धकविशेषणतयेत्यनुवर्तते । अयम्भावः--सजातीयेषु पर्याप्ताऽपर्याप्तजीवेषु पर्याप्तजीवानामेव करणादिविशिष्टसामग्रीसद्भाबादुत्कृष्टसंक्लेशादेः सम्भवः, न पुनर्लब्ध्यपर्याप्तानां करणापर्याप्तानां वा । तथा च सति तेषामुत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामित्वप्रतिषेधाय निरयगत्योपादिमार्गणासु यासु करणपर्याप्ताः करणापर्याप्ताश्च जीवा प्रविष्टाः; यासु च तिर्यग्गत्योघादिमार्गणासु करणपर्याप्ता लब्ध्यपर्याप्ताः करणापर्याप्ताश्च जीवाः प्रविष्टास्तासु "सर्वाभिः स्वप्रायोग्याभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्त" इति सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिविशेषणतया वक्तव्यम् , न पुनर्यास्वपर्याप्तपञ्चेन्द्रितिर्यगादिमार्गणासु केवला अपर्याप्तजीवा एव प्रविष्टास्तासु, केवला वा पर्याप्तजीवाः प्रविष्टास्तासु मनोयोगादिमार्गणास्विति । अथान्यदर्थापत्तिगम्यं मन्दबुद्धय पकृतये स्फुटमाह"उक्कोससंकिलिट्ठो"इत्यादि, "जत्थ"त्ति 'यत्र' यासु मार्गणासु “सत्तण्ह बन्धगो"त्ति आयुर्वर्जानां सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकः "उक्कोस संकिलिट्ठो” ति उत्कृष्टः संक्लिष्टः, अर्थतः सर्वसंक्लिष्टः "वुच्चइ" त्ति “सत्सामिप्ये सट्टा" इत्यनेन सूत्रेण वर्तमानस्य सामिध्ये भविष्यति वर्तमानप्रत्ययस्य प्रयुक्तत्वाद् वक्ष्यत इत्यर्थः। तत्र किमित्याह—'तत्थ खलु" इत्यादि, खलुशब्दोऽवधारणे, स च प्रान्ते योज्यः, ततस्तत्र-तासु मार्गणासु स:-सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धक अोषवदीपमध्यमसंलिप्टोऽपि ज्ञातव्य एवेत्यर्थः । सुगम चैतत, प्रत्येकं स्थितीनामसंख्यलोकाकाशप्रदेशराशितुल्याध्यवसायबन्धप्रायोग्यतयोत्कृष्टसंक्लेशप्रायोग्यस्थितेरीपन्मध्यमसंक्लेशैरपि बध्यमानत्वादिति ॥८२।८३८४॥
तदेवं लाघवार्थं सामान्यवक्तव्यत्वादिकमार्यात्रयेण समाप्य साम्प्रतमतिदिष्टमार्गणा वर्जेयित्वा शेषमार्गणास्वपि प्रथमं सप्तप्रकृतीनामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनो विशेषतः प्रकटयन्नाह---
सव्वणिरय-णरतिग-सुर-सहसारंत-पणमण-तिवयणेखें। सरिणम्मि बंधगो खलु उक्कोसठिईअ सत्तरहं ॥५॥ उक्कोससंकिलिट्ठो मिच्छो तिरिये पणिदितिरियतिगे। उक्कोससंकिलिट्ठो मिच्छादिट्ठी भवे सरणी ॥८६॥
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११२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[ मार्गणास्थानेष्वायुर्वज नाम्
(प्रे० ) " सव्वणिरय" इत्यादि, निरयौघ- प्रथमादिनिरयभेदलक्षणेसु सर्वेषु निरयगतिभेदेषु " णरतिग" त्ति सूत्रस्य सूचकत्वादपर्याप्तवर्णानां त्रयाणां नरगतिमार्गणाभेदानां त्रिके, मनुष्यौघपर्याप्तमनुष्य मानुपीरूपमार्गणात्रय इत्यर्थः । तथा " सुर" सि देवगत्योघे, “सहसारंत" त्ति भवनपत्यादिसहस्रार कल्पान्ता ये देवगतिमार्गणाभेदास्तेष्वेकादशभेदेषु पञ्चमनोयोगभेदेषु अनन्तरोक्त भेदद्वयवर्जेषु सत्यवचना-ऽसत्यवचन- मिश्रवचनलक्षणेषु त्रिषु वचनयोगभेदेषु, तथा संज्ञिमार्गणायामित्येतासु द्वात्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकं "सत्तण्ह" त्ति आयुर्वजनां सप्तकर्मणामुत्कृष्टायाः स्थितेन्धकः खलु “उक्कोससंकि लिट्टो मिच्छो" त्ति "सागाराई" त्याद्यनन्तरोक्तवचनात्साकारादिविशेषणविशिष्ट उत्कृष्ट संविष्टः “ईसिमज्झिमसंकि लिट्टो अवि मुणेयव्यो" इति वचनादीषन्मध्यमसंक्लिष्टच "मिच्छो" ति मिध्यादृष्टिः, भवेदिति परेण योगः । अत्र पञ्चमनोयोगभेद-त्रिवचनयोग भेदवर्जा सु शेषमार्गेणानु “पज्जत्तापज्जत्ता" इत्याद्यनन्तरोक्त सामान्यवचनात्सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्त इत्यपि स्वामिविशेषणतया द्रष्टव्यम् एवमेवोत्तरत्रापि सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्त इति यथासम्भवं द्रष्टव्यम्, साकारादीनि विशेषणानि च स्वयमेव योज्यानि । एतासु सर्वमार्गणासु भावना त्वोघानुसारेण द्रष्टव्येति । तदेवं दर्शिता निरयगतिभेदेषु प्रकृतस्वामिनः, तत्साम्याद् देवगत्योघादिभेदेषु च । साम्प्रतं क्रमप्राप्तेषु तिर्यग्गतिभेदेषु दर्शयन्नाह - " तिरिये " इत्यादि, तिर्यग्गत्योघे, अपर्याप्तभेदवर्जे पञ्चेन्द्रियतिर्यत्रिके, पञ्चेन्द्रियतिर्यगोध-तत्पर्याप्त-तिर श्रीमार्गणाभेदत्रय इत्यर्थः एतासु चतसृषु मार्गणासु प्रत्येकं सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकः "सागाराई "त्यादि, तथा “पज्जत्ता" (गाथा ०८२-८३) इत्यादिवचनात् साकारादिविशेषणविशिष्टः सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्तः "उक्कोससंकिट्टो' ति उत्कृष्टसंक्लिष्ट : “ ईसिमज्झिमअसंकिट्टो वि" ( गाथा० ८४ ) इत्यादिवचनादी पन्मध्यम संक्लिष्टच "मिच्छादिट्ठी भवे सण्णी" ति निरुक्त विशेषणविशिष्टः संज्ञी मिध्यादृष्टिजीवी भवेदिति । एकवचनान्तनिर्देशस्तु प्राग्वज्जातिमधिकृत्य, एवं पूर्वोत्तरत्र च बोद्धव्यमिति || ८५ ८६ ॥ अथ क्रमप्राप्तायामपर्याप्ततिर्यक् पञ्चेन्द्रियमार्गणायां प्रस्तुतस्यामिनी दिदर्शयिपुस्तत्साम्यादन्यत्रापि सममेवाह
होड पज्जत्तेसु पणिदिय तिरिय-पणिंदिय-तसेसु । तथ्यग्गकिलिट्टो गायव्वो बंधगो सरणी ॥८७॥
(०) "होइ थपज्जतेसु मित्यादि, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग पर्याप्तपञ्चेन्द्रियाऽर्याप्तत्रसलक्षणे त्रिपर्याप्तभेदेषु "बंधगो "त्ति प्रस्तुतत्वात्सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकः - स्वामी " तप्पा उग्गकिलिट्टो" ति पूर्वोक्तन्यायेन साकारादिविशेषणविशिष्टस्तस्या- पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगादिमार्गणासु बन्धप्रायोग्यस्यान्तःकोटीकोटी सागरोपम प्रमाणायुत्कृष्ट स्थितिबन्धस्य प्रायोग्य : ' - अनुरूप : 'क्लिष्ट:' -संक्रिटस्तत्प्रायोग्यष्टिः, तत्प्रायोग्योत्कृष्टसंकट इति भावः, एवम्भूतः संज्ञी ज्ञातव्यो भवतीति पूर्वेण योगः । यत्रापर्यातपञ्चेन्द्रियाऽपर्याप्तत्र समायोस्तिर्यग्मनुष्यो वेत्यादि स्वयमेव द्रष्टव्यम्, सुगमत्वादिति ॥८७॥ अथ क्रमप्राप्ताऽपर्याप्तमनुष्यमार्गणया तुल्यवक्तव्यत्वादन्यत्रापि सममेवाह
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उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः ] द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ ११३ होइ अपज्जत्तणरे अणुत्तरेसु य पंचसु सुरेसु। एगिदिय-विगलिंदिय-कायपणगसव्वभेएसु ॥८॥ तप्पाउग्गकिलिट्ठो णवरि भवे बायरो त्ति वत्तव्यं ।
एगिदिये णिगोए पुहवाइगपंचकायेसु ॥६॥ (प्रे०) "होइ अपज्जत्तणरे" इत्यादि, अपर्याप्तमनुष्यभेदे “अणुत्तरेसुं य पंचसु सुरेसुं" ति विजय-जयन्त-जयन्ता-ऽपराजित-सर्वार्थसिद्धनामधेयेषु पञ्चस्वनुत्तरेषु सुरेषु, अनुत्तरसुरदेवगतिभेदेष्वित्यर्थः । चः समुच्चये । तथा “एगिदिये" त्यादि, अत्र सर्वभेदेष्वित्यस्यैकेन्द्रियादिषु प्रत्येक योजनादेकेन्द्रियसत्कसर्वभेदेषु,द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियलक्षणविकलेन्द्रियसत्केष्वोध-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु सर्वभेदेषु, पृथिव्यादिवनस्पतिकायान्तकायपञ्चकसत्कसर्वभेदेष्वित्येतास्वेकषष्टिमार्गणासु प्रत्येकम् “तप्पाउग्गकिलिट्रो" ति पूर्ववत्साकारादिविशेषणविशिष्टस्तत्प्रायोग्योत्कृष्टसंक्लिष्टः, भवतीति पूर्वेण योगः, सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामीति प्रक्रमाद्गम्यते, अनुवृत्या वा द्रष्टव्यम् । अत्रैवैकेन्द्रियौघादिकतिपयमार्गणासु सूक्ष्मा बादराश्च द्विविधा जीवाः, अतस्तासु के उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनो भवन्ति, के पुनर्नेत्येतत्स्फुटीकर्तु माह—“णवरि भवे” इत्यादि, नवरं-परं बादर इत्यपि विशेषणं वक्तव्यं भवेत् । कासु मार्गणासु बादर इति वक्तव्यं भवेदित्याह-"एगिदिय" इत्यादि, एकेन्द्रियोघमार्गणायां “णिगोए"त्ति निगोदवनस्पती, साधारणवनस्पतिकायौघमार्गणाभेद इत्यर्थः । “पुहवाइगपंचकायेसु' ति पृथिव्यादिकेषु पञ्चसु कायमार्गणासत्कौघमार्गणाभेदेषु, पृथिवीकायौधे, अप्कायौधे, तेजस्कायौघे, वायुकायौघे वनस्पतिकायौघे चेत्यर्थः। एतासु सप्तमार्गणास्वेव वक्तव्यम्, न शेषासु । ननु एकेन्द्रियौघादिमार्गणावद्वादरैकेन्द्रियौघादिमार्गणास्वपि बादरजीवा एवोत्कृष्टस्थितिवन्धस्वामिनो भवन्ति, तथा चैकेन्द्रियौपादिमार्गणावद्वादरैकेन्द्रियौघादिमागणास्वपि उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामितया 'बादर' इति विशेषणकथने न किञ्चिद्दोषः सँल्लक्ष्यते, तत्कथमेकेन्द्रियौघादिमार्गणास्वेव प्रस्तुतस्वामिविशेषणतया 'बादर' इति विशेषणं वक्तव्यम् , न पुनः शेषमार्गणावपीति कथ्यते ? इति चेत्, सत्यम्, यदि यथासम्भवं स्वरूपदर्शनविशेषणतयाऽपि तन्निवेशाभिप्रायः स्यात् , न चात्रैवम् , व्यवच्छेदकविशेषणाभिप्रायेण मूलकृता तन्निवेशात्, तथा च व्याख्यातमपि तथैव । इदमुक्तं भवति-विशेषणं हि कुत्रचिद्धेतूपदर्शनाभिप्रायेण निवेश्यते, तत्र च तद्धेतुद्वारेण व्याख्यायते, यथा"अक्खस्स पोग्गलकया जं दग्विन्दियमणा" इत्यत्र द्रव्येन्द्रियमनस्साम् "पुद्गलकृतानी"ति विशेषणम् । उक्तं च तद्वृत्तौ-"पुद्गलकृतानि-पुद्गलस्कन्धनिचयनिष्पन्नानि, हेतुद्वारेण चेदं विशेषणं द्रष्टव्यम् , पुद्गलकृतत्वाद्' इत्यर्थः" इति (विशेषावश्यकभाष्यवृत्तौ)। कुत्रचित्तु तदतिप्रसङ्गवारणार्थमितरार्थव्यवच्छेदकपरतया वण्यते, यथा-"इंदिय-मणोनिमित्तं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं" (वि.प्रा.भा.गाथा-१००) इत्यत्र "श्रुतानुसारेणे"ति विज्ञानविशेषणम् । उक्तं च तद्व्याख्यायाम्—“इन्द्रियमनोनिमित्तं च मति
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११४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुर्वर्जानाम ज्ञानमपि भवति, अतस्तद्वयवच्छेदार्थमाह-'श्रुतानुसारेणेति' । कुत्रचित्त्वतिप्रसङ्गाद्यभावे स्वरूपप्रदर्शनपरतया तदुपन्यस्यते, यथा—'निययत्थुत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं' (वि०या०भा० गाथा—१००) इत्यत्र 'निजकार्थोक्तिसमर्थमिति भावश्रुतविशेषणम् । उक्तं च तट्टीकायाम्-‘स्वरूपविशेषणं चैतत् , शब्दानुसारेणोत्पन्नज्ञानस्य निजकार्थोक्तिसामर्थ्याऽव्यभिचाराद्” इति । प्रस्तुते च 'बायरो ति वत्तव्य'मित्यभिदधता ग्रन्थकृता 'बादर' इति विशेषणमेकेन्द्रियौघादिमार्गणासु यथोक्तोत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्यसंक्लेशो मार्गणाप्रविष्टसूक्ष्मजीवानां न प्राप्यते, ततश्च ते प्रस्तुतमार्गणायां बन्धप्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनोऽपि नैव भवन्ति, अतस्तेषां व्यवछेदार्थमुपन्यस्तम् , तथैव च व्याख्यातम् । यदि चैकेन्द्रियौघादिमार्गणावद् बादरैकेन्द्रियौधादिमार्गणासु तद्वक्तव्यतया मूलकृताऽभिहितं स्यात् , तदा तत्र बादरैकेन्द्रियौघादिमार्गणास्थानेषु सूक्ष्मजीवानामप्रवेशेनाऽतिप्रसङ्गाभावात् स्वरूपविशेषणतयैव व्याख्येयं स्यात् । इत्थमेव प्रागुक्ते ‘पज्जत्ताऽपज्जत्ता दुहा वि जीवाऽत्थि' इत्यादावपि 'सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्त, इत्यादि विशेषणोपादानाभिसन्धिरवगन्तव्यः। एवं यत्र कुत्रचिदतिप्रसङ्गाभावेऽपि विशेषणं दृश्येत तत्र तु तत्स्वरूपविशेषणतयैव द्रष्टव्यमित्यलं विस्तरेण ॥८८।८६॥ शेषदेवगतिभेदेषु प्राह
तेरहसु आणताइग-गेविज्जऽवसाणदेवभेएसु ।
तप्पाउग्गकिलिट्ठो णायव्यो मिच्छदिट्ठीयो ॥१०॥ (प्रे०) "तेरहसु आणताइग' इत्यादि, त्रयोदशबानतकल्पादिकेषु सर्वोपरितनोवेयकावसानेषु देवगतिसत्कमार्गणाभेदेषु प्रत्येकं सप्तप्रकृतिसत्कोत्कृष्टस्थितेवन्धकः “तप्पाउग्गकिलिट्रो' त्ति साकारादि विशेषणविशिष्टः सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्तस्तत्प्रायोग्यसंक्लिष्टो मिथ्यादृष्टिातव्यः । अानतादिदेवानां शुक्ललेश्यत्वेन सर्वदेव सर्वोत्कृष्टसंक्लेशाभाव इत्यर्थः ॥ इति ॥१०॥ गता गतीन्द्रियकायभेदाः । साम्प्रतमवशेषेषु योगमार्गणाभेदेषूत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः प्रतिपादयन्नाह
उरले मिच्छो सरणी दुगइट्ठो होइ सब्बसंकिट्ठो ।
एमेव उरलमीसे गवरं तयणुरुवसंकिट्टो ॥११॥ _(प्रे०) "उरले मिच्छो" इत्यादि, “उरले' त्ति औदारिककाययोगमार्गणायां साकारादिविशेषणविशिष्टः सर्वसंक्लिष्टः "दुगइट्ठो"त्ति द्विगतिस्थः, मनुष्यस्तिर्यग्वेत्यर्थः। एवम्भतः संजी मिथ्यादृष्टिः “होइ" ति भवति, सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितेः स्वामीति गम्यते । अत्रेपन्मध्यमसंक्लिष्ट इत्यपि वक्तव्यम् “ईसिमज्झिमसंकिट्ठो अवि मुणेयव्यो"इति वचनात् । “दुगइट्ठो' इत्येतच्च स्वरूपदर्शनमात्रपरं बोद्धव्यम् , मनुष्यतिर्यग्वर्जानां प्रस्तुतमार्गणाया एव बहिस्त्वेनाऽतिप्रसंगाभावाद् व्यवच्छेदकपरत्वानुपपत्तेरिति । स्वल्पविशेषादौदारिकमिश्रकाययोगमार्गणायां सापवादमतिदिशन्नाह- "एमेव उरलमीसे" इत्यादि, औदारिकमिश्रकाययोगमार्गणायामपि "एमेव"त्ति 'एवमेव,'-ौदारिककाययोगमार्गणावदित्यर्थः । “णवरं" ति नवरमयं विशेषः, तमेवाह-'तयणुरुवसंकिट्ठो' ति तदनु
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उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः ]
द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ ११५
रूपोत्कृष्टसंक्रिट इत्यर्थः । सुगमं चैतत् अपर्याप्तावस्थाभाविन्यदारिकमिश्र काययोगे सर्वसंक्लेशानुत्प
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तेरिति ॥६९॥
उक्कोससंकि लिट्टो मिच्छो रियोऽमंतदेवो वा । वेउव्वदुगे वरं मीसे तज्जोगसंकिडो ॥ ६२ ॥
(०) “उक्कोस संकि लिट्ठो मिच्छो" इत्यादि, "वेउव्वदुगे" त्ति 'वैक्रियद्विके' वैक्रियवैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणा द्रयरूपे साकारायुक्त विशेषणविशिष्ट उत्कृष्टसंक्लिष्टो मिथ्यादृष्टिर्निरयोSष्टमसहस्रारकल्पान्तभवो देवो वेत्यर्थः । सप्तकर्म सत्कोत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामीति गम्यते । अत्राष्टम कल्पान्तदेवग्रहणमानतादिकल्पनिवासिशुक्ललेश्याकदेवानां व्यवच्छेदार्थमिति । अपर्याप्तावस्थायां कस्याप्योघोत्कृष्टस्थितिबन्धो न भवतीति कृत्वा वैक्रियमिश्र काययोगमार्गणायामनुपपद्यमानं स्वामिविशेषणमपोदितुमाह - "णवरं मीसे" इत्यादि, नवरं "मीसे" त्ति वैक्रियमिश्रकाययोग मार्गणाभेदे " तज्जोगसंकिट्टो "त्ति तत्प्रायोग्यसंक्लिष्टोऽन्यतमो मिथ्याष्टिर्निरयो देवो वा उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामी भवति, न पुनरुत्कृष्टसंक्लिष्टः, अपर्याप्तानामुत्कृष्टसंक्लेशस्यासम्भवादिति भावः ॥ ६२॥ तप्पा उग्गकिलि श्राहारदुगे भवे पमत्त जई ।
से काले पज्जत्तिं निट्ठवउ स व मुण मीसजोगेसु ं ॥ ६३॥ (गीतिः)
(प्रे० ) ' तप्पा उग्गे "त्यादि, आहारका ऽऽहारक मिश्रकाययोगद्वयरूपे श्राहारकद्विके निरुक्तसाकारादिविशेषणविशिष्टस्तत्प्रायोग्य क्लिष्टः 'प्रमत्तयतिः' - प्रमत्तसंयतो भवेत्, सप्तकर्म सत्कोत्कृष्टस्थितिबन्वस्वामीति गम्यत इति । ननु मिथ्यात्वाभिमुखः प्रमत्तयतिरिति कथं नोच्यते, ग्रमत्तसंयतेसु तस्यैवाविकतमसंक्लिष्टत्वेनाधिकतमस्थितेर्वन्धकत्वात् ? इति चेद्, न, चतुर्दशपूर्वराणां श्रुतकेवलिनामेत्र प्रकृताऽऽहारका दियोगद्वयसम्भवात् । उक्तं च द्रव्यलोके -
"आकाशस्फटिकस्वच्छं, श्रुतकेवलिना कृतम् । अनुत्तरामरेभ्योऽपि कान्तमाहारकं भवेत् " ॥ इति । तदानीं च तावत्तत्वे तेषां मिथ्यात्वाभिमुखत्वासम्भव एव इति । श्रदारिकमिश्रकाययोगादिमिश्रयोगत्रये मतान्तरेणान्यथैव प्रकृतस्वामित्वमाह - " से काले" इत्यादि, "मीसजोगेसु" ति अनन्तरोक्तौ-दारिकमिश्र - वै क्रियमिश्रा ऽऽहारकमिश्रकाययोगलक्षणेषु त्रिषु मिश्रयोगमार्गणाभेदेषु "सेकाले पज्जति निट्ठवउ स व मुण" ति तत्र शब्दो देश्यः, स चानन्तर्ये, ततोऽनन्तरकाले - यस्य समयस्यानन्तरोत्तरसमये 'पर्याप्ति' - शरीरपर्याप्ति 'निष्ठापयेत्' - समापयेत् स मिश्रयोगचरमसमये वर्तमानो वा 'जानिहि, ' - सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामीति मतान्तरेण त्वमवगच्छेत्यर्थः । इदमुक्तं भवति - औदारिकमिश्रयोगमार्गणायां करणापर्याप्ताः संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवा एवोत्कृस्थितेबन्धका भवन्ति, न तु लब्ध्यपर्याप्ताः, श्रदारिक मिश्र काययोगगतानामपि तेषां तथाविधसंक्लेशानुत्पत्तेः । करणापर्याप्तास्तु शरीरपर्याप्तेः समाप्तौं सत्यां प्रकृतमार्गणाया बहिर्भवन्ति । कुतः १
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११६ ]
__ बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुर्वर्जानाम् शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तानां तेषां शुद्धौदारिकयोगप्रवर्तनात् । यत आ शरीरनिष्पत्तेर्मिश्रकाययोगो भवति, न परतः । तथा चोक्तम्_ "तेएण कम्मएणं, आहारेई अणंतरं जीवो। तेण परं मिस्सेणं, जाव सरीरस्स निप्फत्ती” ॥ इति । यथौदारिकमिश्रकाययोगमार्गणायां तथा वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणादावपि ज्ञेयम् । इत्थं चानन्तरोक्ताभिप्रायेण मिश्रयोगगताः केचन जीवा अपर्याप्तावस्थाया मध्ये वर्तमानाः सन्तस्तत्प्रायोग्योत्कृष्टसंक्लेशमवाप्य तदानीमपि सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धं कुर्वन्ति । “से काले" इत्यादिना भण्यमानाभिप्रायेण तु शरीरपर्याप्त्या निष्पत्तेराग मिश्रयोगस्य चरमसमय एवोत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्यसंक्लेशसम्भवः, न पुनस्ततः पूर्वमपि । अत उत्कृष्टस्थितिबन्धोऽपि मिश्रयोगद्विचरमादिसमयेषु न भवति, किन्तु चरमसमय एव भवतीति ॥६३॥ अथ शेषे कार्मणकाययोगभेदे दिदर्शयिषुस्तत्साम्यादनाहारकमार्गणायामपि सममाह
कम्मा-ऽणाहारसुसरणी खलु बंधगो चउगइटो ।
तप्पाउग्गकिलिट्ठो णायव्यो मिच्छदिट्ठीयो ॥६४॥ (प्रे०) “कम्माणाहारेसु"मित्यादि, कार्मणकाययोगमार्गणाऽनाहारकमार्गणयोः प्रत्येकम् "खलु बंधगो" ति सप्तप्रकृतिसत्कोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकः खलु ज्ञातव्य इति परेणान्वयः । क इत्याह"सण्णी" इत्यादि, साकारायुक्तविशेषणविशिष्टस्तत्प्रायोग्योत्कृष्टसंक्लिष्टो नरकगत्यायन्यतमगतिस्थः संज्ञी मिथ्यादृष्टिर्जीवः। स च संज्ञिभ्यश्व्युत्वा संज्ञितयोत्पद्यमानो ज्ञेयः, असंज्ञिभ्य आगतस्य प्रकृतमार्गणाद्वये वर्तमानजीवस्य तत्प्रायोग्योत्कृष्टसंक्लेशासम्भवादिति ॥१४॥ गता योगमार्गणाभेदाः । साम्प्रतं वेदमार्गणाभेदेषु प्रकृतस्वामिनो दिदर्शयिषुस्तत्साम्यात्कृष्णलेश्यायामपि सममेव दर्शयन्नाह
इत्थी-पुरिसेसु तहा णपुंस-किण्हासु बंधगो सरणी।
उक्कोससंकिलिट्ठो मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो ॥६५॥ (प्रे०) 'इत्थीपुरिसेसु” इत्यादि, स्त्रीवेद-पुरुषवेदमार्गणयोस्तथा नपुसकवेद-कृष्णलेश्यामार्गणयोरिति प्रत्येकं द्विके 'बंधगो'त्ति सप्तप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकः-स्वामी भवति । क इत्याह"सण्णी" इत्यादि, निरुक्तसाकारादिविशेषणयुक्त उत्कृष्टसंक्लिष्टः, तथा “ईसिमज्झिमसंकिट्ठो अवि मुणेयव्यो” (गाथा-८४) इति प्रागुक्तवचनादीपन्मध्यमसंक्लिष्टश्च संज्ञी मिथ्यादृष्टिजीवो ज्ञातव्य इति । सुगमम् ॥६५॥ अथापगतवेदमार्गणायां प्रकृतस्वामिन आह
गयवेए स भवे यो अपुरिसवेएणुवट्ठिो य तो। परिणिवडंतोऽणंतरसमयम्मि हवेहिइ सवेश्रो ॥६॥
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उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः ] द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ ११७ (प्रे०) “गयवेए स भवे" इत्यादि, गतवेदमार्गणायामायुर्वर्जानां सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामी स भवेत् । कोऽसावित्याह-“यो अपुरिसवेएणुवट्टिो' इत्यादि, पर्युदासाश्रयणात् पुरुषवेदभिन्नवेदेन स्त्रीवेदेन नपुंसकवेदेन वा य 'उपस्थितः'-समारूढः, उपशमश्रेणिमिति गम्यते । कुतः ? वक्ष्यमाणस्य प्रतिनिपतन्निति विशेषणस्योपशमश्रेणिं समारूढस्यैवोपपत्तेः । ततः किमित्याह“य तो" इत्यादि, चशब्दो व्युत्क्रमेण 'तो' इत्यस्योत्तरं योज्यस्ततश्चोपशान्ताद्धाक्षयात्प्रतिनिपतन् “णंतरसमयम्मि हवेहिइ सवेनो' ति यस्मात्स्थितिबन्धादनन्तरसमये 'सवेदः'-वेदोदयवान भविष्यतीत्यर्थः । नपुसकवेदोदयेन स्त्रीवेदोदयेन वोपशमश्रेणिमारुह्योपशान्ताद्धाक्षयात् क्रमेण पतन् वेदोदयात्प्रागनन्तरभाविनि स्थितिवन्धे वर्तमानो महात्माऽपगतवेदमार्गणायां सप्तानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामी भवतीति भावः । ननु 'कस्मात् पुवेदेन श्रेणिं समारुह्य प्रतिपतन्तो वय॑न्ते, तदन्यवेदेन समारुह्य प्रतिपतन्तस्तु गृह्यन्ते ?' इदि चेद्, उच्यते-उपशमश्रेणिमारोहतां यत्र यत्र स्थाने यस्य यस्य वेद-क्रोधादेर्येन क्रमेणोदयविच्छेदो जायते, उपशान्ताद्धाक्षयेण प्रतिपततामपि तेषामानुलोम्येन तत्तत्स्थानप्राप्तौ तस्य तस्य वेदकषायादेख्दयः प्रवर्तते । उक्तं च सप्ततिकाचूणौं
"अद्घाखो उवसंतद्धाए पुण्णाए परिवडति सो जहा आरुढो तहा परिवडति, जहिं उदओदीरणबंधादो ठिया तहिं तहिं परिवडतस्स ते श्राढविज्जंति, एवं जाव पमत्तसंजो ताव परिवडति'' इति ।।
किञ्च श्रेणिमारोहतां विशुद्धयमानतया यथोत्तरस्थितिबन्धा हीनहीनतराः प्रवर्तन्ते, प्रतिपततां तु तेषां संक्लिश्यमानतया यथोत्तरस्थितिबन्धा अधिकाधिकतराः प्रवर्तन्त इति तु सुगमम् । प्रकृते च ये उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनो द्रष्टव्याः, ते च श्रेणिमारुह्योपशान्ताद्धाक्षयानन्तरं बहुन् स्थितिबन्धानतिक्रम्यावेद्यवस्थायां चरमस्थितिबन्धं ये कुर्वन्ति, ते प्राप्यन्ते । एवम्भूता हि स्त्रीवेदेन नपुंसकवेदेन वा श्रेणिं समारुह्य प्रतिपतन्त उपशमका भवन्ति, न पुनः पुवेदेन समारुह्य प्रतिपतन्तोऽपि । कुतः ? स्त्रीवेदेन नपुंसकवेदेन वा श्रेणिं समारूढा यस्मिन् स्थानेऽवेदिनो भवन्ति तत्स्थानात संख्येयसहस्रषु स्थितिबन्धेष्वतिक्रान्तेषु पश्चात्पु वेदेन श्रेणिं समारूढा अवेदिनो जायन्ते, न त्वर्वाक् । तथा च सति प्रतिपातकालेऽप्यानुलोम्येन पुवेदेनोपस्थितानां यत्र पुवेद उदेति तत्स्थानात्संख्येयसहस्रेषु स्थितिबन्धेष्वतिक्रान्तेषु सत्सु पश्चात् पुवेदान्यवेदेनारुह्य प्रतिपततां स्वस्ववेदोदयो जायते, प्रतिपततां संक्लिश्यमानतयोत्तरोत्तरस्थितिबन्धा अधिकाधिकतरास्तु सर्वेषामेव प्रवर्तन्ते । ततः पुवेदेन श्रेणिं समारुह्य पततां पुवेदोदयादागवेद्यवस्थायां यावान् स्थितिबन्धो जायते, तदपेक्षया संख्येयस्थितिबन्धानन्तरं स्त्रीवेदेन नपुंसकवेदेन वोपस्थाय प्रतिपततां स्वस्ववेदोदयादागवेद्यवस्थायाश्चरमस्थितिवन्धोऽत्यधिको जायते । इत्थं हि न पुवेदेनोपस्थाय प्रतिपततामवेद्यवस्थायां प्रकृतोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वम्, किन्तु तदन्यवेदेनोपस्थाय प्रतिपततामितिकृत्वाऽपगतवेदमार्गणायां पुवेदेनोपस्थाय प्रतिपतन्तो वर्जिताः, तदन्यवेदेन श्रेणिं समारुह्य प्रतिपतन्तस्तूत्कृष्टस्थितिवन्धस्वामितया गृहीता इत्यलं विस्तरेण । विशेषार्थिना तु कर्मप्रकृतिकषायप्राभृतादिग्रन्था अवलोकनीया इति ॥६६॥
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११८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुर्वर्जानाम् गतं वेदमार्गणाभेदेषु प्रस्तुतस्वामित्वम् । कपायमार्गणाभेदेषु तु प्रागोघवदतिदिष्टमतः साम्प्रतं ज्ञानमार्गणाभेदेषु दिदर्शयिषुः समानवक्तव्योपेता अन्या अपि मार्गणाः सममेव संगृह्याह
अण्णाणतिगे अभविय-मिच्छत्तेसुय बंधगो सरणी । उक्कोससंकिलिट्ठो मिच्छो णेयो चउगइट्ठो ॥१७॥
(प्रे०) 'अण्णाणतिगे' इत्यादि, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विमङ्गज्ञानमार्गणात्रयरूपेऽज्ञानत्रिकेऽभव्य-मिथ्यात्वमार्गणयोश्चेत्येतासु पञ्चसु प्रत्येकं “बंधगो" ति सप्तप्रकृतिसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामी साकारादिविशेषणविशिष्टः 'उक्कोससंकिलिट्ठो” त्ति सर्वोत्कृष्टसंक्लिष्टः, प्रागुक्तन्यायादीपन्मध्यमसंक्लिष्टो वा 'चउगइट्ठो'' त्ति निरयादिचतुर्गत्यन्यतमगतिस्थः, नारक-तिर्यग्-मनुष्य-देवान्यतमः संज्ञी मिथ्यादृष्टिीव इति । अत्राज्ञानमार्गणात्रये मिथ्यादृष्टिरिति विशेषणं तत्रगतानामुत्कृष्टस्थितेरबन्धकानां सास्वादनिनां व्यवच्छेदार्थं योज्यम् , शेषमार्गणाद्वये तु स्वरूपदर्शनमात्रपरं बोद्धव्यमिति । इत्थमेवोत्तोरत्रापि यथासम्भवं योजना कर्तव्येति ॥१७॥
णाणतिगे श्रोहिम्मि य सम्मु-बसम-वेअगेसु चउगइयो ।
तप्पाउग्गकिलिट्ठो सम्मो मिच्छहिमुहो अंते ॥८॥ (प्रे०) “णाणतिगे" इत्यादि, मनःपर्यवज्ञानमार्गणायामनन्तरं वक्ष्यमाणतया तद्वर्जशेषमत्यादिज्ञानत्रिकेऽवधिदर्शने सम्यक्त्वौघ-वेदकौ-पशमिकसम्यक्त्वमार्गणाभेदेष्वित्येतासु सप्तमार्गणासु प्रत्येकं साकारादिविशेषणयुक्तः "चउगइयो' ति पूर्ववञ्चतुर्गतिकः,-नैरयिकाद्यन्यतमजीव इत्यर्थः । एवम्भूतो हि तत्प्रायोग्यः क्लिष्टः-संक्लिष्टो मिथ्यात्वाभिमुखः “सम्मो' त्ति अविरतसम्यग्दृष्टिः, "अंते" ति चरमे चरमस्थितिवन्धे, यस्य स्थितिबन्धस्यानन्तरसमये मिथ्यादृष्टिर्भविष्यति तस्मिन् सम्यक्त्वावस्थायाश्चरमस्थितिबन्धे, वर्तमान इति शेषः । सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामीति प्रक्रमाद्गम्यत इति ॥१८॥ अवशिष्ट ज्ञानभेदे क्रमप्राप्तसंयममार्गणाभेदेषु चाह
मणणाणम्मि पमत्तो अयताभिमुहो य तयणुरुवकिट्ठो । अंतिमबंधे संयम-समइअ-छेएसु मिच्छहुत्तो सो ॥६६॥ (गीतिः)
(प्रे०) "मणणाणम्मि" इत्यादि, मनःपर्यवज्ञानमार्गणायां सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्ध स्वामी "पमत्तो" त्ति प्रमत्त मुनिरित्यर्थः । कथम्भूतः स इत्याह-"अयताभिमुहो ये" त्यादि, यमनम्-यतम् , न यतम् अयतम् , असंयम इत्यर्थः तस्याभिमुखः । चशब्दोऽवधारणे, ततोऽयताभिमुख एव, न पुनर्मिथ्यात्वाभिमुख इत्यर्थः । इदमुक्तं भवति-मनःपर्यवज्ञानिनः संयता संयमात्सम्यक्त्वाच्च युगपद्धृष्ट्वा मिथ्यात्वं नैव व्रजन्ति, किन्तु प्रथमतः संयम परिहत्यान्तर्मुहूर्तं विश्रम्य ततो मिथ्यात्वमधिगच्छन्ति । इत्थं हि तेषां मिथ्यात्वाभिमुखतैव न घटत इतिकृत्वा मिथ्यात्वाभिमुख इति विशेषणं विहायाऽयताभिमुख इति विशेषणमुपात्तमिति । पुनः किंविशिष्ट इत्याह-"तयणुरुवकिट्ठो अंतिम
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उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः ] द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ ११६ बंधे"त्ति प्राग्वत्तदनुरूपक्लिष्टः संयमावस्थाया अन्तिमस्थितिबन्धे वर्तमान इत्यर्थः। अथ संयममार्गणाभेदेष्वाह- "संयमे"त्यादिना, संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापनसंयमरूपमार्गणात्रये तु प्रकृतस्थितिबन्धस्वामी “मिच्छत्तहत्तो सो" ति सोऽनन्तरोक्तः संयतावस्थायाश्चरमरिस्थतिबन्धे वर्तमानस्तदनुरूपसंक्लिष्टः प्रमत्तयतिरेव, नवरं मिथ्यात्वाभिमुखः, न पुनः प्राग्वदयताभिमुख इत्यर्थः । अत्र प्रत्येकं मार्गणासु साकारेत्यादिविशेषणानि प्राग्वत्स्वयमेव द्रष्टव्यानि । एवमुत्तरत्रापीति ॥६६॥
परिहारम्मि पमत्तो छेत्राहिमुहो तदरिहसंकिट्ठो।
देसे मिच्छाहिमुहो दुगइट्ठो तयणुरुवकिट्ठो ॥१०॥ (प्रे०) “परिहारम्मि पमत्तो' इत्यादि, परिहारसंयममार्गणायां छेदोपस्थापनसंयमाऽभिमुखस्तदहसंक्लिष्टः, तत्प्रायोग्यसंक्लिष्ट इत्यर्थः । एवम्भूतः “पमत्तो"त्ति प्रमत्तो मुनिः, सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामीति गम्यत इति । अथ देशसंयममार्गणायामाह-' देसे मिच्छाहिमहो" इत्यादि, देशसंयममार्गणायां साकारायुक्त विशेषणविशिष्टो मिथ्यात्वाभिमुखस्तदनुरूपक्लिष्टो मनुष्यस्तिर्यग्वा सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिवन्धस्य स्वामी भवतीत्यर्थः । अत्र देशसंयमावस्थायाश्चरमस्थितिबन्धे वर्तमान इति विशेषणमनुक्तमप्युपलक्षणाद् बोद्धव्यम्, देशसंयतेषु तस्यैव संक्लिष्टतमत्वात् । इत्येवं परिहारविशुद्धिकमार्गणायामपि विज्ञेयमिति ॥१०॥
अथ सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां प्रस्तुतस्वामिनो दर्शयितुमाह
सुहुमेऽणंतरबंधे अणियट्टि यो हि पाविहिइ सोऽत्थि ।
(प्रे०) "सुहमे" इत्यादि, सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायाम् ‘णतरबंधे' त्ति लुप्ताकारस्य दर्शनादनन्तरबन्धे-अनन्तरस्थितिवन्धे, यस्य स्थितिबन्धस्यानन्तरोत्तरस्थितिवन्ध इति भावः । "अणियट्रि'ति 'अनिवृत्तिम्'-बादरानिवृत्त्याख्यं गुणस्थानकम् “यो हि पाविहिइ सो"त्ति यः प्राप्स्यति हि स अनिवृत्ति बादरगुणस्थानकाप्तेरास्थितिबन्धे वर्तमानः प्रपतन सूक्ष्मसम्परायोपशमकः "ऽत्थि" त्ति तत्र वध्यमानानां मोहनीयायुर्वर्जानां पण्णां कर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य स्वाम्यस्तीत्यर्थः ।।
गतं संयममार्गणाभेदेषु प्रस्तुतस्वामित्वम् । चक्षुरचक्षुर्दर्शनमार्गणाभेदद्वये प्रागोघवत्तथाऽवधिदर्शनमार्गणायां मतिज्ञानादिना समं दर्शितमतः क्रमप्राप्तेषु लेश्यामार्गणाभेदेषु दिदर्शयिषुः कृष्णलेश्यामार्गणायां वेदमार्गणया समं दर्शितत्वाच्छेपलेश्यामार्गणाभेदेषु क्रमेण दर्शयति
मिच्छो अइसंकिट्ठो थिरलेसो पील-काऊसु ॥१०१॥ तेऊन सुरो मिच्छो ईसाणंतोऽथि सव्वसंकिट्ठो । पउमात्र तहेव णवरि तइअाइगअट्ठमंतसुरो ॥१०२॥ सुइला प्राणतसुरो मिच्छो वा तयणुरूवसंकिट्ठो ।
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१२० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुर्वर्जानाम् (प्रे०) "मिच्छो" इत्यादि, नील-कापोतलेश्ययोः प्रत्येकं सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य स्वामी "मिच्छो"त्ति मिथ्यादृष्टिः “अइसंकिट्ठो त्ति 'अतिसंक्लिष्ट:'-उत्कृष्टसंक्लिष्ट इत्यर्थः । “उक्कोससंकिलिट्ठो बुच्चइ सत्तएह बंधगो जत्थ। तत्थ खलु ईसिमज्झिमसंकिट्ठो अवि मुणेयव्यो” ॥८४॥ इति वचनादीषन्मध्यमसंक्लिष्टश्चाऽपि विज्ञेयः । एवम्भूतः क इत्याह—“थिरलेसो"त्ति स्थिरा-बहुकालावस्थायिनी, न पुनरन्तमुहूर्तमात्रावास्थायिनीत्यर्थः । एवम्भूता लेश्या प्रस्तुतत्वान्नीला कापोती वा विद्यते यस्य स स्थिरलेश्यः । स च "लेसाण ठिई उ देवाणं ॥४७॥ दस वाससहस्साई किण्हाए ठिई जहरिणा होइ, पलिअमसंखिज्जइमो उक्कोसा होइ किण्हाए ॥४८॥ जा किरहाइ ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहन्नेणं णीलाए, पलिअमसंखेज्ज उक्कोसा ॥४६॥ इत्याद्यागमान्नारकाणामिव भवनपत्यादिदेवानामप्यशुभलेश्याया दीपस्थितिकत्वेन स्थिरलेश्यत्वात् नीललेश्यामार्गणायां तृतीयचतुर्थपञ्चमपृथिवीनरयिक-भवनपति-व्यन्तरदेवानामन्यतमो भवति, कापोतलेश्यामार्गणायां तु प्रथम-द्वितीयतृतीयपृथिवीनरयिक भवनपति-व्यन्तरदेवानामन्यतमो लभ्यते, न तूक्तान्यो देवो नारकस्तिर्यग्मनुष्यो वा प्रस्तुतमार्गणाद्वये उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामी, उक्तान्यदेवनारकाणां नील-कापोतवर्जान्यतमलेश्याकत्वेन प्रस्तुतमार्गणाद्वय एवाऽप्रवेशात् , तिर्यग्मनुष्याणां प्रस्तुतमार्गणाप्रविष्टत्वेऽपि तदीयलेश्यानामन्तर्मुहूर्तस्थितिकत्वेना-ऽनवस्थितत्वात् । उक्तंच-“अन्तमुहुत्तठिईओ तिरियनराण हुन्ति लेसाओ"इति । नन यद्येवमेव तदा “देवो वा नारको वा” इत्येतावदपि पर्याप्तं स्यात् , तत्कस्मात् “थिरलेसो' इत्यमिहितम् ? इति चेद्, उच्यते, महाबन्धकारमतसंग्रहार्थम् । इदमुक्तं भवति-प्रस्तुतमार्गणाद्वये बन्धप्रायोग्यः त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटयायुक्तप्रमाण ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिवन्धो येषां जायते तेषां पर्याप्तावस्थायामेवासौ भवति, किञ्च महाबन्धकारा नारकवर्जसर्वछमस्थजीवानां कृष्णाद्यन्यतमाशुभलेश्यामान्तमुहर्तिकी मन्यन्ते, तत्र देवानां तु साऽपर्याप्तावस्थायामेव भवति, न तु पर्याप्तावस्थायाम् , पर्याप्तावस्थायां तेषां शुभलेश्याया एव प्रवर्तनात् , इत्थं हि तेषां मतेन भवनपत्यादिदेवानां जायमानोऽपि यथोक्त प्रमाण उत्कृष्टस्थितिबन्धः शुभलेश्यायामेव लभ्यते, न पुनः प्रस्तुतमार्गणादये कृष्णलेश्यामार्गणायां वा । ततश्च नैते भवनपत्यादिदेवाः प्रस्तुतमार्गणाद्वये उत्कृष्टस्थितबन्धस्वामिनः, किन्तु यथोक्तनारका एव । “थिरलेसो" इत्यनेन तेषां मते प्रस्तुतमार्गणाद्वये देवा ग्रहीतुन युज्यन्ते, तेषां कृष्णाद्यशुभलेश्याया अन्तर्मुहूर्तस्थितिकत्वेनाऽस्थिरत्वात् । इत्येवं महाबन्धकारमतेन प्रस्तुतमार्गणाद्वये देवानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वाभावात् तन्मतसंग्रहार्थम् ‘देवो वा नारको वा' इत्यनभिधाय “थिरलेसो" इत्यभिहितमित्यलं पल्लवितेन । “तेऊअत्ति तेजोलेश्यामार्गणायां सप्तकर्मोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामी सर्वसंक्लिष्टः, उक्तवचनादीपन्मध्यमसंक्लिष्टो वा भवनपत्यादीशानकल्पान्तोद्भवो मिथ्यादृष्टिः सुरो भवति । "पउमा तहेव' ति पद्मलेश्यामार्गणायां तथैव'-तेजोलेश्यावदेव, 'नवरं'-परम् “तइआइगअट्ठमंतसुरो" ति सर्वसंक्लिष्ट ईपन्मध्यमसंक्लिष्टो वा तृतीयसनत्कुमारकल्पाद्यष्टमसहस्रारकल्पान्तोद्भवो मिथ्यादृष्टिः 'सुरः'-देवः सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामी भवति, न पुनस्तेजोलेश्यामार्गणावदीशानकल्पान्तोद्भवः
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उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः ] द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ १२१ सुर इत्यर्थः । “सुइलाम' त्ति शुक्ललेश्यामार्गणायां सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामी नवमा-ऽऽनतकल्पोद्भवः सुरः । कथंभूत इत्याह-"मिच्छो वा" इत्यादि, सुगमम् , नवरं वाकारोऽनुक्तसमुच्चये, तदनुरूपसंक्लिष्टस्य ग्रहणं त्वानतादिकल्पोद्भवदेवानां शुक्ललेश्यत्वेनोत्कृष्टसंक्लेशानुत्पत्तेः । साकारादिविशेषणविशिष्टः सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्त इत्यादि तु प्राग्वत्स्वयमेव द्रष्टव्यमिति । ननु वाकारेण किमनुक्तं समुच्चीयते ? आनतकल्पवासिनामिव तदुपरितनविमानवासिनामपि मतान्तरेणोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वसद्भावात्तेऽपि प्रकृतोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामितया समुच्चीयन्त इति ॥१०१।१०२॥
भणिता लेश्यामार्गणाभेदेषु प्रकृतस्वामिनः । भव्यमार्गणायामोघवदतिदिष्टाः, अभव्यमार्गणायां त्वज्ञानमार्गणया सममभिहिताः । साम्प्रतं सम्यक्त्वमार्गणाभेदेष्वभिधातव्याः । तत्रापि सम्यक्तौघक्षायोपशमिको-पशमिकसम्यक्त्वभेदेषु मतिज्ञानादिमार्गणावत् , मिथ्यात्वमार्गणायां त्वज्ञानमार्गणावच्च दर्शिता एवेति शेषभेदेषु तानाह
तप्पाउग्गकिलिट्ठो खइए णेयो चउगइट्ठो ॥१०॥ मीसे मिच्छाभिमुहो सासाणे वा तयणुरुवकिलिट्ठो।
(प्रे०) "तप्पाउग्गे" त्यादि, "खइए"त्ति क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणायां साकारायुक्तविशेषणविशिष्टः 'चउगइट्ठो"ति प्राग्वत् नरक-तिर्य-मनुष्य-देवान्यतमगतिस्थः, नारकस्तिर्यग्मनुष्यो देवो वेत्यर्थः । कथम्भूत इत्याह-"तप्पाउग्नें"त्यादि, सुगममिति । मिश्र-सासादनमार्गणयोराह"मीसे" इत्यादि, मिश्रमार्गणायां मिथ्यात्वाभिमुखः । सासादनमार्गणायां "व"त्ति मिथ्यात्वाभिमुखो वा, एकमतेन मिथ्यात्वाभिमुखः सासादनी, अन्यमतेन तु स्वस्थानसासादनी प्रकृतसप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्ध स्वामी भवतीत्यर्थः । स च मार्गणाद्वयेऽपि मतद्वयेऽपि च "तयणुरुवसंकिट्ठो"त्ति तदनुरूपसंक्लिष्टो बोद्धव्य इति ॥१०३॥ संज्ञिमार्गणायां प्राग नरकगतिवद्दर्शिताः सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः, अतोऽवशिष्टायामसंज्ञिमार्गणायामाह
अमणे पणिदियो खलु णेयो तज्जोग्गसंकिट्ठो ॥१०॥
(०) "प्रमणे" इत्यादि, अमनसोऽसंझिनः तत्सम्बन्धिमार्गणायाम् , असंज्ञिमार्गणायामित्यर्थः । तत्र तत्प्रायोग्यसंक्लिष्टः पञ्चेन्द्रियः प्रकृतसप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामी ज्ञेयः, साकारो जाग्रदित्यादीनि विशेषणानि तु स्वयमेव भणितव्यानीति । आहारिमार्गणायां प्रागोघवदतिदिष्टाः, अनाहारिमार्गणायां तु कार्मणकाययोगमार्गणया समं कथिताः सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः । इत्थं हि समाप्तं मार्गणास्थानेष्वप्याऽऽयुर्वर्जानां सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धस्वामित्वप्ररूपणम् ॥१०४॥
अथ शेषस्याऽऽयुष उत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामिनो मार्गणास्थानेषु दिदर्शयिषुः पूर्ववत्सर्वमार्गणाविषयां सामान्यवक्तव्यतां लाघवार्थमादावेवाह
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१२२]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुषः सागाराइविसिट्ठो वट्ट माणो य गुरुप्रवाहाए । सवासु बंधगो खलु आउस्स ठिईअ जेट्टाए ॥१०॥ पज्जत्ताऽपज्जत्ता दुहा वि जीवाऽस्थि जत्थ तत्थ भवे । पज्जत्तो सव्वाहिं पज्जत्तीहिं त्ति वत्तव्यं ॥१०६॥ (प्रे०) “सागाराइविसिट्ठो' इत्यादिगाथाद्वयं गतार्थमिति ॥१०५।१०६॥
तदेवं सर्वमार्गणाविषयकसामान्यवक्तव्यतां लाघवार्थ पृथगभिधाय साम्प्रतं निरयगत्यादिमार्गणास्थानेषु क्रमश आयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनो विशेषेण प्रदर्शयन्नाह
णिरय-पढमाइछणिरय-सुर-गेविज्जंतदेव-विउवेसु। अाउस्स गुरुठिईए सम्मो मिच्छो व तयणुरुवसुद्धो ॥१०७॥ (गीतिः)
(प्रे०) "णिरयपढमाइछणिरये" त्यादि, निरयगत्योध-धर्मादिपृथिवीभेदभिन्नप्रथमादिषड्निरयभेद-सुरोघ-भवनपत्यादिनवमग्रैवेयकान्तचतुर्विंशतिदेवभेद-वैक्रियकाययोगमार्गणास्वित्येतासु त्रयस्त्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमायुषो 'गुरुस्थितेः'-उत्कृष्टस्थितिबन्धस्य “सम्मो मिच्छो व”ति उक्तसाकारादिविशेषणविशिष्टः परमासात्मिकायामुत्कृष्टाबाधायां वर्तमानः सम्यग्दृष्टिर्वा मिथ्यादृष्टिर्वेत्यर्थः । सोऽपि “तयणुरुवसुद्धो" ति तेषां प्रायोग्यपूर्वकोटीस्थितिकोत्कृष्टायु बन्धस्यानुरूपा या विशुद्धिस्तद्युक्त इत्यर्थः । अत्र विशुद्धग्रहणेन संक्लिष्टानां व्यवच्छेदः कृतः, यत एतासु मार्गणासु प्रत्येक देवा नारका वैव समाविष्टास्ते च स्वभावत एव मनुष्येषु तिर्यक्षुर्वोत्पद्यन्ते, न पुनर्नारकतया । उक्तं च श्रीप्रज्ञापनायां षष्ठपदे
“नेरइया णं भंते ! अणंतरं उव्यट्टित्ता कहिं उववज्जंति, किं नेरइएसु उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जंति, किं मणुसेसु उववज्जंति, देवेसु उववज्जंति ? गोयमा ! नो नेरइएसु उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति” इत्यादि । (सूत्रम् १३८)
इत्थमेव देवानामपि नारकतयोत्पादप्रतिषेधः कृतः । ततः किम् ? तत एते देवनारका नारकायुर्न बध्नन्ति, उत्कृष्टस्थितिकमनुष्यतिर्यगायुपी वध्नतां तु तेषां विशुद्धिरेव भवति, नरकायुर्वर्जानां त्रयाणामायुषामुत्कृष्टस्थितेः विशुद्धिप्रत्ययत्वात् । उक्तं च शतकचूर्णी--
“तिएहंपि आउगाणं उक्कोसं जहन्नगं विवरीयं । कहं ? तब्बन्धकेसु जो जो सव्वविशुद्धो सो सो सब्बुक्कसियं ठिइं बंधइ, तेसु चेव जो जो सव्वसंकिलिट्ठो सो सो सव्वजहन्नियं सव्वासिं ठिइं बंधइ" इति । इत्थमेवोत्तरत्रापि विशुद्धग्रहणे नरकान्यायुर्वन्धकत्वादिति द्रष्टव्यमिति ॥१०७॥ अथान्यत्राह
चरमणिरयुरलमीसे तदरिहसुद्धोऽस्थि बंधगो मिच्छो। तिरिय-तिपणिदितिरिये मिच्छो तज्जोगसंकिट्ठो ॥१०॥
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उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः ]
द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ १२३
(प्रे० ) " चरमणिरयुरलमीसे" इत्यादि, 'चरमे' सप्तम पृथिवीभेदरूपे निरयभेदे औदारिकमिश्रकाययोगे च प्रत्येकं नरकायुषोऽबन्धात्तदन्यायुषामुत्कृष्टस्थितेर्विशुद्धि प्रत्ययत्वाच्च " तदरिहसुद्धो " त्ति साकाराद्युक्तविशेषणविशिष्ट उत्कृष्टावाधायां वर्तमानस्तदहः- तत्प्रायोग्यः शुद्धः "मिच्छो” त्ति मिथ्यादृष्टिर्वन्धकः-स्वाम्यस्ति । अत्र मिथ्यादृष्टिरिति स्वामिविशेषणं स्वरूपदर्शकमेव बोद्धव्यम्, यतः सप्तमनिरये मिथ्यात्वगुणस्थानकगतानामेवायुर्वन्धो जायते, नान्येषाम् । यदुक्तं सप्तमनरकमार्गणाभेदे गुणस्थानेषु बन्धस्वामित्वं प्रतिपादयद्भिर्देवेन्द्रसूरिपादैः - "सत्तमिए नरदुगुच्च विणु मिच्छे, इगनबई सासाणे तिरिआउ नपुंसचउवज्ज" मित्यादि । श्रदारिकमिश्र काय योगमार्गणायां पुनर्मिश्रयोगावस्थायां लब्ध्यपर्याप्तजीवैरेवायुर्बन्धस्य करणात् तेषां नियमतो मिथ्यादृष्टित्वाच्चेति । " तिरियतिपणिदितिरिये” त्ति तिर्यग्गत्योघे त्रिष्वपर्याप्तभेदवर्जेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदेषु च प्रत्येकम् “मिच्छो तज्जोगसंकट्ठी 'त्ति साकारादिविशेषणयुक्त उत्कृष्टाबाधायां वर्तमानस्तत्प्रायोग्य संक्लिष्टो मिथ्यादृष्टियुष उत्कृष्टस्थितेर्बन्धक इत्यर्थः । अत्र संक्लिष्टमिथ्यादृष्टेग्रहणं प्रकृतमार्गणागतजीवैरुत्कृष्टस्थितिकमायुर्नरकसत्कं बध्यत इतिकृत्वा । नरकायुर्मिथ्यात्वे सत्येव वध्यते इति तु सुगमः । तस्य चोत्कृष्ट स्थितिरशुभा इतिकृत्वा संक्लेशेन बध्यत इति तु दर्शितमेवेति ।
9
ननु तिरश्चीमार्गणायां न त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणोत्कृष्टस्थितिकनिरयायुषो बन्धः, किन्तु द्वाविंशतिसागरोपम स्थितिकायुप एव । उक्तं च स्थितिबन्धप्रमाणद्वारे - 'होइ दुबीसा जलही तिरिक्खजोणिमई' त्यनेन, इत्थं भवतु तिर्यगत्योघादिमार्गणात्रये उत्कृष्टस्थितिकनिरयायुषो बन्धभावेन तत्स्वामिनां संक्लिष्टत्वम्, कथं पुनस्तिरश्चीमार्गणायामपि ? इति चेद्, न, ओघवन्मार्गणास्थानेsaपि, यावत्तत्तज्जीवानामपि स्ववन्धप्रायोग्योत्कृष्टस्थितिकमप्यायुर्यदि निरयसत्कं तदा संक्लेशेनैव वध्यते, तिर्यम् - मनुष्य- देवायुषामन्यतमत्तु स्वप्रायोग्योत्कृष्टस्थितिकं सदपि विशुद्धचैव निर्वर्त्यते, न पुनरोघोत्कृष्ट स्थितिकायुरेव । अत एवानन्तरं निरयगत्यो घादि मार्गणास्थानेषूत्कृष्टतः पूर्वकोटिस्थितिकमनुष्य-तिर्यगायुर्वघ्नतामपि तद्बन्धो विशुद्धया दर्शितः, नीललेश्यादिमार्गणायामुत्कृष्टतो दशसागरोपमादिस्थितिकं निरयायुर्वघ्नतां तद्बन्धः 'ति सुइलेसा - अभधिय-मिच्छेसं । तप्पा उग्गकिलिट्ठो' इत्यादिना संक्लेशप्रत्ययोऽभिधास्यते चेति ॥ १०८ ॥
तप्पा उग्ग विसुद्ध सरणी वा बंधगो असरणी वा । असमत्तपणिदि तिरिय-पणिंदिय- तसेसु पायव्व ॥ १०६ ॥
(प्रे०) ' तप्पा उग्गे "त्यादि, साकारायुक्त विशेषणविशिष्ट उत्कृष्टावाधायां वर्तमानस्तत्प्रायोग्यविशुद्धः संज्ञी वाऽसंज्ञी वा "बंधगो" त्ति श्रायुप उत्कृष्टस्थितेर्वन्धकः, ज्ञातव्य इति परेणान्वयः । कासु मार्गणास्त्रित्याह — " असमत्तर्पाणदि" इत्यादि, तत्रापर्याप्तापरपर्यायस्यासमाप्तशब्दस्य त्रसान्तेषु प्रत्येकं योजनादपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदे, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदे, अपर्याप्तत्रसकायभेदे चेत्येवं
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१२४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिबंधो
[ मार्गणास्थानेष्वायुषः
मार्गणात्रये इत्यर्थः । सुगमं चेदम्, अपर्याप्तमार्गणाप्रविष्टानां लब्ध्यपर्याप्ततया मनुष्य सत्कस्य तिर्यग्सत्कस्यैव वाऽऽयुषो बन्धभावात्, तयोरुत्कृष्टस्थितेर्विशुद्धि प्रत्ययत्वाच्चेति ॥ १०६ ॥ अथ मनुष्यगतिमार्गणाभेदेष्वाह
तप्पा उग्गविसुद्ध मणुसदुगे बंधगो पमत्तजई । तह खलु मिच्छादिट्ठी यो तज्जोग्गसंकिठो ॥ ११०॥
(प्रे०) " तप्पा उग्ग” इत्यादि, सुगमा, नवरं "मणुस दुगे "त्ति मनुष्यौध - पर्याप्तमनुष्यमार्गणोर्द्विके इत्यर्थः । भावना त्वायुष अघिकोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनो भावनानुसारेण द्रष्टव्येति ॥ ११० ॥ श्रथ क्रमप्राप्तशेषमनुष्यगति- देवगतिभेदेषु दिदर्शयिषुस्तत्साम्यादन्यासु मार्गणास्वपि सममेव दर्शयन्नाह -
तप्पा उग्गविसुद्ध समत्तर- पत्तरसुसु ।
आहार दुगे य सयलए गिंदिय - विगल-पंचकायेसु ॥ १११ ॥ (गीतिः)
(प्रे०) "तप्पा उग्गविसुद्धो" इत्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः, नवरमाहारकद्विकेनाऽऽहारकाssertaमिश्रकाययोगौ गृह्येते, “सयल एगिदियविगल पंचकायेसु" इत्यत्र सकलशब्दः प्रत्येकं संबध्यते, ततश्च सकलैकेन्द्रियभेदानां, सकलविकलेन्द्रियभेदानां, सकलानां पृथिव्यादिपञ्चकायसत्कभेदानां च ग्रहणात्समस्तास्त्रिषष्टिर्मार्गणा गृहीता भवन्ति । भावना पुनरेतासु प्रत्येकमपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगाद्यपर्याप्तमार्गणात्रयवत्कर्तव्या । कुतः ? प्रस्तुतत्रिषष्टिमार्गणागतानामपि जीवानां तद्वन्नरकायुर्बन्धस्य प्रतिषेधात् । कुत एतासु प्रत्येकं नरकायुर्वन्धप्रतिषेधो ज्ञायते ? अनन्तरभवे नारकतयोत्पाद - प्रतिषेधात् । उक्तं च श्रीप्रज्ञापनावृत्तौ मलयगिरिपूज्यै:
“देवनारकपृथिव्यादिपञ्चकविकलेन्द्रियत्रिकारणां तथाऽसंख्येयवर्षायुश्चतुष्पदखचराणां शेषाणामपि चापर्याप्तकानां तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां तथा मनुष्याणां संमुर्च्छिमानां गर्भव्युत्क्रान्तिका नामप्यकर्मभूमिजानाम् अन्तरद्वीपजानां कर्मभूमिजानामप्यसंख्येयवर्षायुषां संख्येयवर्षायुषामपि अपर्याप्तकानां प्रतिषेधः" इति । पाठे आहारकऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणागतानां प्रतिषेधोऽनुक्तस्तत्तु तत्र तस्याप्रस्तुतत्वात्, तथाप्यसौ सुगम एव, आहारकाऽऽहारकमिश्र काययोगिनां संयततया देवायुष एव बन्धादिति ॥ १११ ॥ अथान्यत्राह -
अण्णातिगे यतेति सुहलेसा अभवियमिच्छेसु ।
तप्पाउग्गकिलिट्ठो रो व तिरियो व मिच्छत्ती ॥ ११२ ॥
(प्रे०) ' अण्णाणतिगे” इत्यादि, मत्यज्ञान - श्रुताज्ञान- विभङ्गज्ञान मार्गणात्रयरूपेऽज्ञानत्रिके Siयममार्गणायां तथा त्रिस्रोऽशुभाः प्रशस्ताः कृष्णादिलेश्यामार्गणा अभव्यामिथ्यात्वमार्गणे तासु च प्रत्येकं निरुक्त साकारादिविशेषणविशिष्ट उत्कृष्टाबाधायां वर्तमानस्तत्प्रायोग्य क्लिष्टो मिथ्यात्वी
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उत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामिनः ]
द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ १२५
'नरः ' - मनुष्यो वा " तिरियो वा "त्ति पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्वेत्यर्थः । अत्र मिध्यात्वीति विशेषणमभन्यमिथ्यात्वमार्गणयोः स्वरूपदर्शकतयैव बोद्धव्यम् । शेषमार्गणासु तु सासादनसम्यक्त्वभाजामायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वप्रतिषेधार्थं द्रष्टव्यम् । कुतः सासादनिनामुत्कृष्टस्थितिकायुषो बन्धस्वामितया प्रतिषेधः क्रियते ? तेषां सासादनिनां नारकतयोत्कृष्टस्थितिकदेवतया वाऽनुत्पादादिति ॥ ११२ ॥ अथ गाथाद्वयेन शेषमार्गणास्वायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वप्ररूपणं समापयन्नाह - मणुसित्थी - पाणचउग-विरइ समय- परिहार-छेएसु । हि-तिमुहलेसासु सम्म खइ वेगे भवे ॥ ११३ ॥ तदरिहसुद्ध मत्तो सासदेसे तदरिहसुद्धपरो । तप्पा उग्गकिलिट्ठो अमोघ सेसा ॥ ११४ ॥
(प्रे०) “मणुसित्थीणाणचउग" इत्यादि, मानुषीमार्गणायाम्, स्त्रीवेदमार्गणायाम्, मतिज्ञानादिज्ञानमार्गणाचतुष्के "विरइ" त्ति संयममार्गणायाम्, तथा सामायिक परिहारविशुद्धिकछेदोपस्थापन संयममार्गणासु " श्रोहि "त्ति अवधिदर्शनमार्गणायाम् "तिसुहलेसासुं" ति तिसृषु तेज:पद्म-शुक्लाख्यासु शुभलेश्यासु तथा सम्यक्त्वौघ - क्षायिक - वेदकसम्यक्त्वमार्गणासु " भवेत्ति एतासु सप्तदशमार्गणासु प्रत्येकं प्रकृतस्याऽऽयुष उत्कृष्ट स्थितिबन्धस्य स्वामी भवेदित्यर्थः । क इत्याह" तदरिहसुद्धपमत्तो' त्ति तदर्हशुद्धः प्रमत्तः संयतः । साकारेत्यादि स्वयमेव योज्यम् । तदर्हशुद्धग्रहणमेतासु प्रत्येकमुत्कृष्टायुर्देवगतिसत्कमेव बध्यत इतिकृत्वेति । अथ सासादन- देशसंयममार्गयो. राह-- "सासणदेसे तदरिहसुद्धणरो" इति सुगमम् । श्रसंज्ञिमार्गणायामाह - " तप्पा उग किलिट्टो श्रमणे” इति, एतदपि सुगमम्, नवरमसंज्ञिनो यावत्स्थितिकं देवायुर्यध्नन्ति तदपेक्षया नरकायुरधिकस्थितिकं बध्नन्तीतिकृत्वा तत्प्रायोग्य क्लिष्ट इत्यभिहितम्, न पुनस्तत्प्रायोग्य विशुद्ध इत्यपीति । अथ शेषमार्गणास्वतिदिशति – “ ओघव्व सेसासु" मिति, अनन्तरोक्त निरयगत्याद्यसंज्ञिपर्यन्ताः पट्त्रिंशदस्यधिकशतमार्गणास्त्यक्त्वा शेषासु पञ्चेन्द्रियौघादिसप्तविंशतिमार्गणासु प्रत्येकमायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्य स्वामिन वत्साकारादिविशेषणविशिष्टा उत्कृष्टाबाधायां वर्तमानास्तत्प्रायोग्यसंक्लिष्ट मिथ्यादृष्टितिर्यग्मनुष्यास्तत्प्रायोग्यविशुद्धाः प्रमत्तसंयाताश्च भवन्तीत्यर्थः । सुगमम् । शेषमार्गणास्तुनामत इमाः – पञ्चेन्द्रियौध-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्रसकायौघ-पर्याप्तत्रसकाय - पञ्चमनोयोगभेद - पञ्चवचोयोगभेदकाययोगसामान्यौ-दारिककाययोग-पु' वेद-नपुंसकवेद-क्रोधादिकपायचतुष्क-चक्षुर्दर्शनाऽचतुर्दर्शन-भव्यसंज्ञा - SSहारिमार्गणा भेदा इति ।। ११३ | ११४ |
तदेवं दर्शिता अष्टानामपि मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिन श्रोत आदेशतचोभयथाऽपि । साम्प्रतं तासामेव जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनो दिदर्शयिषुरादौ तावदोघत आह—
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ोघतोऽष्टमूलप्रकृतीनाम् सब्यविसद्धो खवगो हस्सा ठिई बंधगो सहुमे ।
छण्ह चरमठिइबंधे अणियट्टीए उ मोहस्स ।।११५।। (प्रे०) “सविसुद्धो' इत्यादि, सकपायवन्धकेषु सर्वविशुद्धः'-सर्वाधिकविशुद्धः क्षपकः "सहमे ति सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानके 'ह्रस्वायाः'-जघन्याः स्थितेर्बन्धकः-स्वामी भवतीत्यर्थः । कतिपयप्रकृतीनामित्याह- 'छह ति मोहनीयाऽऽयुर्वर्जानां पराणां मूलप्रकृतीनाम् , न पुनर्मोहनीयायुषोरपि । तत्र सूक्ष्मसम्परायचरमस्थितिवन्धे तयोईयोः प्रकृत्योरेवाबन्धात् प्रकृतिबन्धाविनाभावी स्थतिबन्धोऽपि तदानीं न जायते इति भावः । तर्हि तयोर्जघन्यस्थितिबन्धस्वामी को भवतीत्याह-"चरमठिइबंधे अणियट्टीए उ मोहस्स" ति तत्र मोहनीयस्य क्षपक एवानिवृत्तिबादराख्ये नवमगुणस्थानके चरमे स्थितिबन्धे, वर्तमान इति शेषः । ह्रस्वायाः स्थितेर्वन्धको भवतीति गम्यते । तुकारस्तु पूर्वापेक्षया विशेषद्योतकः, तेन चायं तत्प्रायोग्यविशुद्ध इत्यवसेयमिति ॥११५॥
यायुपो जघन्यस्थितिबन्धस्वामी यो भवति तमाह
पाउस्स भवे मिच्छो णरो व तिरियो व लहुप्रवाहगयो । मागाराइविसिहो विष्णेयो तदरिहकिलिहो ॥११६॥
(प्रे०) 'आउस्से" त्यादि, 'हस्सा ठिइअ बंधगो' इति पूर्वगाथातोऽनुवर्तते, तत आयुषो 'हस्वायाः'-जघन्यायाः स्थितेन्धको भवेत् , क इत्याह-'मिच्छो” इत्यादि, मिथ्यादृष्टिस्तिर्यग मनुष्यो वा । सायम्भूत इत्याह-"लहुअबाहगो" इत्यादि, लध्वीम्'-जघन्यामसंक्षेप्याद्धालक्षणामबाधां गतः प्राप्त इतार्थः । शेषादरार्थ स्तुप्राग्वत् । अत्र साकारादिविशेषणानि प्राग्वद्भावनीयानि, यत्पुनरायुषो जघन्यस्थितिवन्धस्वामितया नरतिरश्चामेव ग्रहणं, तदेवनारकाणामायुषो जघन्यस्थितिबन्धस्वामितया प्रतिपेधार्थम् ; यत ओघतो जघन्यायुलब्ध्यपर्याप्तभवसत्कं बध्यते । यदुक्तं श्रीप्रज्ञापनात्रयोविंशतितमपदे
___ "बाउस्स एवं भंते ! कम्मरस जहएणठितिबंधते के ? गोयमा ! जे णं जीवे असंखेपद्धापविठे सम्बनिरूद्धे से पाउते, सेसे सध्यमहतीए आउयबंधध्धाए, तीसे णं अाउयबंधद्धाए चरिमकालसमयंसि सव्वजहरिण ठिई अपजत्तापज्जत्तियं निवत्तेति, एस णं गोयमा ! आउयकम्मस्स जहण्णठितीबंधते” इति ।
देवा नारकाश्चानन्तरभवे लब्ध्यपर्याप्ततया नोत्पद्यन्ते, अतो लब्ध्यपर्याप्तभवसत्कायुरबध्नन्त एते अायुपो जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनोऽपि न भवन्ति । जघन्यायाधायां वर्तमानस्योपादानं पुनरायुष उत्कृष्टस्थितिवन्धे उत्कृष्टावाधायां वर्तमानस्य ग्रहण द्रष्टव्यम् । अन्तमु हूतप्रमाणजघन्यस्थितिकमायमनुष्यसत्कं तिर्यक्सत्कं च बध्यते, देवायुर्वदेतयोः शुभतया उत्कृष्टस्थितिर्विशुद्ध या निर्वय॑ते, जघन्या तु संक्लेशेन । तत्राऽपि सर्वसंक्लेशेनाऽऽयुर्वन्ध एव न भवतीतिकृत्वेषन्मन्दसंक्लिष्टा आयुपो जघन्यस्थिति बन्धस्वामिनो भवन्तीत्येतत्प्रदर्शयितुम् “तदरिहकिलिट्ठो” इति विशेषणमुपात्तम् । अत एव “मिच्छो" इत्यस्यापि ग्रहणं ज्ञातव्यमिति ॥११६॥
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जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनः ] द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[१२७ तदेवमुक्ता ओघतो जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनः । अथादेशतो मार्गणास्थानेषु प्रतिपिपादयिपुरादौ यासु मार्गणासु सप्तमूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धस्वामिन ओघवत्तास्वतिदिशति
अाउगवज्जाण भवे ओघव मणुसतिगे पणिदिदुगे। तसदुग-पंचमणवयण-कायोराल-गयवेएसु॥११७॥ लोहे चउणाणेसु संयम-सुहमेसु दंसणतिगे य ।
सुइल-भविय-सम्मेसु खइए सरिणम्मि आहारे ॥११८॥ (प्रे०) 'आउगवज्जाण भवे" इत्यादि, आयुष्कवर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनामोघवद्भवेत् , जघन्यस्थितिबन्धस्वामीति गम्यते । केषु मार्गणाभेदेष्वित्याह - "मणुसतिगे' इत्यादि, अत्र "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति"रिति न्यायात् मनुष्यत्रिकेनाऽपर्याप्तभेदवर्जाः शेपा मनुष्योधपर्याप्तमनुष्य-मानुषीलक्षणास्त्रयो भेदा ग्राह्याः, इत्थमेव पञ्चेन्द्रियधिकेन त्रसद्विकेनाऽप्यपर्याप्तभेदवों द्वौ द्वौ भेदौ ग्राह्यौ । शेषं तु सुगमम् । भावना तु प्रत्येकमोघवत्कर्तव्येति ॥११७११८॥
तदेवं मनुष्यगत्यादिपट्त्रिंशन्मार्गणासु सप्तानां जघन्यस्थितिवन्धस्वामिनोऽतिदिश्य शेषमार्गणाविषयकसमानवक्तव्यतामादावभिदधाति
सेसासु मग्गणासु सत्तण्हं बंधगो लहुठिईए। सागाराइविसिट्ठो विणणेयो तदरिहविसद्धो ॥११॥ पज्जत्ता-ऽपज्जत्ता दुहावि जीवाऽथि जत्थ तत्थ भवे ।
पज्जत्तो सव्वाहिं पज्जत्तीहिं ति वत्तव्वं ॥१२०॥ (प्रे०) “सेसासु" इत्यादिगाथाद्वयी गतार्था, केवलं यथाऽऽयुस्त्रिकवर्जानां सर्वोत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिः संक्लेशाधिक्ये सति निर्वत्यते, तथा तासां जघन्या स्थितिर्विशुद्धयाधिक्ये सति निर्वयते । उक्तं च पञ्चसंग्रहे“सव्याण ठिई असुभा, उक्कोमुक्कोससंकिलेसेणं । इयरा उ विसोहीए सुरनरतिरिग्राउए मोत्तं" ॥ इति ॥
तत्रापि यासु मार्गणास्वोषिकजघन्यस्थितिर्न बध्यते, तासु सा न सर्वविशुद्धिप्रत्यया, किन्तु तत्प्रायोग्योत्कृष्टविशुद्धिहेतुका । यासु मार्गणासु सर्वविशुद्धिप्रत्यया जघन्या स्थितिबंध्यते, तास्वनन्तरमेव तत्स्वामिन अोषवत्सर्वविशुद्धा अतिदेशेनाभिहिताः, शेषमार्गणासु बोधवज्जघन्यस्थितिबन्धाभावात्तद्वन्धका न सर्वविशुद्धाः, किन्तु तत्प्रायोग्यविशुद्धा इत्येतदर्शनार्थं शेषमार्गणासु सप्तकर्मणां जघन्यस्थितिवन्धस्वामिविशेषणतया 'तदरिहविसुद्धो” इत्यभिहितम् । वस्तुतस्तु सप्तानां सर्वजघन्यस्थितेरप्यसंख्येपैरध्यवसायबध्यमानत्वात् तेषां चाध्यवसायानां विशुद्धेः परस्परं तारतम्येन वर्तनात सर्वविशद्धा इव तत्प्रायोग्यविशुद्धा अप्यौधिकजघन्यस्थितेर्बन्धका भवन्ति, तथाऽपि सर्वजघन्यस्थितिबन्धप्रायोग्य
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१२८]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणस्थानेष्वायुर्वज॑नाम् सर्वाध्यवसायानां सर्वजघन्यस्थितिबन्धहेतुकत्वादेव सर्वविशुद्धत्वं विवक्षित्वा पूर्वमोघतो यासु चौधिकजघन्यस्थितिबन्धस्तासु मार्गणासु तद्वन्धकानां सर्वविशुद्धत्वं दर्शितम् । अत्र शेषमार्गणासु त्वौधिकजघन्यस्थितिबन्धाभावाज्जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनस्तत्प्रायोग्यविशुद्धा इत्युक्तमिति ॥११६।१२०॥ तदेवं दर्शिता शेषमार्गणाविषया सामान्यवक्तव्यता । साम्प्रतं यो विशेषस्तं प्रचिकटयिषुराह
अत्थ विसेसो वुच्चइ सत्तण्हं बंधगो लहुठिईए। पढमदुइअसमये खलु असलियो आगो णेयो ॥१२१॥
णिरय-पढमणिरयेसु अपज्जणर-देव-भवणजुगलेसु।
(प्रे०) “अत्थ विसेसो वुच्चइ” इत्यादि “अत्थ"त्ति यास्वनन्तरं सप्तानां कर्मणां जघन्यस्थितिवन्धस्वामी सामान्यतस्तद्योग्यसर्वशुद्ध इति वक्तव्यतया दर्शितस्तासु शेषमार्गणास्वित्यर्थः । तासु शेपमार्गणासु किमित्याह--''विसेसो वुच्चइ"त्ति तासु साम्प्रतं विशेष उच्यत इति प्रतिज्ञा । तामेव निर्वाहयन तत्तन्मार्गणासु विशेषमाह- "सत्तण्ह"मित्यादिना, आयुर्वजेसप्तानां कर्मणां 'लघुस्थितेः'जघन्यस्थितेबन्धकः, ज्ञेय इति गाथाप्रान्तेऽन्वयः । को ज्ञेय इत्याह--"पढमे'त्यादि, मार्गणायाः प्रथमसमये द्वितीयसमये च वर्तमानोऽसंज्ञित आगतः, असंज्ञिपञ्चेन्द्रियेभ्यश्च्युत्वाविग्रहगतौ नारकादितया भवप्रथमद्वितीयसमययोवर्तमानो जीव इत्यर्थः । केषु मार्गणाभेदेष्वित्याह-"णिरय" इत्यादि, निरयगत्योध-प्रथमपृथिवीनिरयभेदयोः, अपर्याप्तनर-देवौघ-भवनपति-व्यन्तरदेवेष्वित्येतेषु पएमार्गणाभेदेबित्यर्थः । इदमुक्तं भवति–एकेन्द्रियाद्यसंज्ञिभ्यश्च्युत्वासंज्ञित्वेनोत्पद्यमाना जीवा विग्रहगतौ वर्तमानाः सन्तोऽसंज्ञिप्रायोग्यं स्थितिबन्धं कुर्वन्ति, यदा तूत्पत्तिस्थानं प्राप्नुवन्ति तदाऽऽहारं गुर्वन्तः संक्षिप्रायोग्यमन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणं स्थितिबन्धं निर्वर्तयन्ति, इत्थं हि येषु देवेषु नारकेषु चैते उत्पद्यन्ते तेषु सर्वजघन्यस्थितिबन्धस्तेषां विग्रहगतौ वर्तमानानामसंज्ञिभ्य आगतानां जीवानां भवति, असंज्ञिभ्यश्च्युत्वा तु ते प्रथमनरके भवनपतिदेवेषु व्यन्तरेषु चोत्पद्यन्ते, न पुनः शेषनरकेषु देवेषु वा। अतः शेपदेवनरकभेदान् विहाय यासु मार्गणासु प्रथमपृथिवीनरकजीवा भवनपतिव्यन्तरदेवा वा समाविष्टास्ता एव संगृहीताः। अपर्याप्तमनुष्यमार्गणायामिव पर्याप्तमनुष्यमार्गणायामप्यसंज्ञिन उत्पद्यन्ते, तथापि पर्याप्तमनुष्येषु सर्वजघन्यस्थितिवन्धं कुर्वन्तः क्षपका एव प्राप्यन्त इति पर्याप्तमनुष्यमार्गणां त्यक्त्वाऽपर्याप्तमनुष्यमार्गणा संगृहीता । ननु भवतूक्तदेवनरकगतिभेदपञ्चकस्य संग्रहः, न पुनरपर्याप्तमनुष्यमार्गणाभेदस्यापि संग्रहो युज्यते, अपर्याप्तमनुष्यमार्गणायामसंज्ञिजीवानामेव समावेशेन भवप्रथमसमयद्वयादन्यत्रवर्तमानानामपि जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वसम्भवाद् ? इति चेद्, सत्यम्, तथाऽपि शतक-ग्रन्थादिवदत्राप्यभिप्रायविशेषेण मनुष्यापर्याप्तमार्गणायां संध्यपर्याप्तजीवा एव गृहीता बोद्धव्याः । उक्तं च शतके-“सेसासु जाण दो दो" इति । अत्र "दो दो', इत्यनेन संज्ञिपर्याप्ता-र्याप्तौ द्वौ द्वौ जीवभेदावभिमतौ विज्ञेयौ । उक्तं च तच्चूा --"सेसासु जाण दोदो उ" त्ति
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जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनः ] द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम् णिरयगइमणुयगइदेवगइसु दो दो जीवट्ठाणाणि, सन्निपज्जत्तगा अपज्जत्तगा य” इत्यादि । इत्थं ह्यपर्याप्तमनुष्यमार्गणायां केवलान् संज्ञिजीवानधिकृत्य जघन्यस्थितिबन्धे चिन्त्यमाने भवप्रथमद्वितीयसमययोवर्तमाना एव जघन्यस्थितिबन्धस्वामितया प्राप्येरनिति न कञ्चिदोषमुत्पश्याम इति ॥१२१॥
अथ शेषनिरयदेवभेदेषु प्रस्तुतसप्तकर्मसत्कजघन्यस्थितिवन्धस्वामिविषयकविशेषं दिदयिषुः प्रसङ्गादन्यत्राऽपि सममेव दर्शयति
सेसणिरयदेवेसु विउवदुगे होइ सम्मत्ती ॥१२२॥ (प्रे०) “सेसणिरय"इत्यादि, उक्तशेषेसु द्वितीयादिसप्तमपृथ्वीभेदभिन्नेषु षट्षु निरयभेदेषु ज्योतिष्कादिसर्वार्थसिद्धविमानान्तेषु सप्तविंशतिदेवगतिभेदेषु "विउवदुर्ग"त्ति वैक्रिय-क्रियमिश्रकाययोगमार्गणाद्वयरूपे वैक्रियद्विके इत्येतासु पञ्चत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकं "होइसम्मत्ती"ति सप्तकर्मजघन्यस्थितिबन्धस्वामी 'सम्यक्त्वी'-अविरतसम्यग्दृष्टिर्भवतीत्यर्थः । कुतः ? एतास्वसंज्ञिनामनुत्पादाद् देशविरत्यादीनामेकेन्द्रियविकलेन्द्रियादीनामप्रवेशाच्च । प्रविष्टमिथ्यादृष्टयाद्यपेक्षयाऽविरतसम्यग्दृष्टीनां स्थितिबन्धो जघन्यतः स्तोको भवतीति तु सुगमः । इति ॥१२२॥ अथान्यत्राह
तिरिये कम्मणजोगे दुअणाणाऽन्यत-तिअसुहलेसासुं । अभविय-मिच्छत्तेसुं श्रमणा-ऽणाहारगेसु य ॥१२३॥ होएज्ज बंधगो खलु बायरएगिदियो, असरणी उ । पंचिंदियतिरियच उग-असमत्तपणिदियेसु भवे ॥१२४॥
(प्रे०) 'तिरिये' इत्यादि, तिर्यग्गत्योधभेदे, कार्मणकाययोगे, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञानरूपयोईयोरज्ञानमार्गणयोः, असंयमे, तिसृषु कृष्णाद्यशुभलेश्यामार्गणासु, अभव्य-मिथ्यात्वमार्गणयोः, "अमणाणाहारगेसु यत्ति असंड्यनाहारकमार्गणयोश्च । एतासु तियग्गत्याधनाहारिमार्गणापर्यन्तास द्वादशमार्गणासु सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धस्वामिविषयः को विशेष इत्याह-'होएज्ज बंधगो खलु बायरएगिदियो" इति, बादरैकेन्द्रियो 'बन्धकः' -सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धस्वामी भवेदित्यर्थः । सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्त इति तु प्रागुक्तसामान्योक्त्यैव यथासम्भवं योज्यम् । खलुशब्दः पादपू पैं । सुगमं चेदम् , एतासु प्रत्येक क्षपकाणामुपशमकानां वाऽप्रवेशात् , शेषबन्धकेषु बादरैकेन्द्रियैरेव स्तोकस्थितिबन्धस्य करणाच्चेति । 'असण्णी उ"त्ति असंज्ञी तु, भवेदिति गाथाप्रान्तेऽन्वयः। सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धस्य स्वामीति गम्यते । कुत्रेत्याह-"पंचिदिये''त्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यगोध-पर्याप्ताऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यक्-तिरचीलक्षणे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मार्गणाभेदचतुष्केऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियमार्गणाभेदे चेत्यर्थः । एतासु प्रत्येकं पञ्चेन्द्रियजीवा एव समाविष्टाः, पञ्चेन्द्रियेषु तु सर्वह्रस्वस्थितिबन्धः संयतानां भवति, ततश्चाधिकोऽसंज्ञिनाम् , तेभ्यः पुनरधिकः शेषपञ्चेन्द्रियाणामिति प्रागुक्ताल्पबहुत्वा
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१३० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुर्व जनाम्
इम्यत एव । अधिकृतमार्गणासु संयतानामप्रवेशादुक्तनीत्याऽसंज्ञिनो जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनो भवन्तीति तथैवाभिहिता इति । तिरश्चीमार्गणायामसंज्ञिजीवसचं तु "थीनरपगिदि चरमा चउ" इत्यादिनाऽन्यत्र षडशीत्यादौ स्त्रीपु वेदमार्गणादावभिहितनीत्याऽत्रापि बोद्धव्यमिति ॥ १२३ ॥ १२४ ॥ एगिंदिये गए पहवाईसु बायरो यो । इंदियो भवे बंधो अपज्जत्ततसकाये ॥ १२५ ॥
(प्रे०) "एगिदिये" इत्यादि, एकेन्द्रियौघे, “णिगोए "ति साधारण वनस्पतिकायौघभेदे, "पणपुहवाईसु"त्ति पृथिवीकायादिवनस्पतिकायान्तेषु पञ्चसु पृथिव्याद्योघमार्गणाभेदेष्वित्येतासु सप्तमागंणासु प्रत्येकम् "बायरो यो "त्ति बादरैकेन्द्रियपृथिवी का यादिजीवः सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धस्वामी ज्ञेयः । अत्रापि पर्याप्त इति तु प्रागुक्त सामान्योक्त्यावगन्तव्यम् । एवमेवोत्तरत्रापि विज्ञेयम् । कुतो बादर एव स्वामी ? उच्यते, सजातीयपर्याप्ताऽपर्याप्तजीव राशिषु पर्याप्तानामिव सूक्ष्म- बादरजीवराशिषु वादरजीवानामेवाधिकविशुद्धिसम्भवेन जघन्यस्थितिबन्धसंभवात् । उक्तं च शकचूर्णे – “एनिंदियेसु सव्वविसुद्ध बायर एनिंदियपज्जत्तगोत्ति तंमि सव्त्रजहन्ना ठिई भवइ" इति । "बेइंदियो भवे"त्ति द्वीन्द्रियजीवः सप्तकर्म सत्कजघन्य स्थितेर्बन्धकः - स्वामी भवेदित्यर्थः । कस्यां मार्गणायामित्याह—“अपज्जत्तत सकाये "त्ति अपर्याप्तत्र स काय मार्गेणाभेद इत्यर्थः । सुगमम्,
संयतानामेकेन्द्रियाणां वाऽप्रवेशादिति ॥ १२५॥
तदेवम् “गइ-इंदिय-काये”इत्यत्र गतिमार्गण सत्कसप्तचत्वारिंशद्भेदेषु “प्रोघव्व मणुस तिगे " इत्यादिना पृथक् पृथक् सप्तकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वं दर्शितम् । इन्द्रियमार्गणा सत्कोन्नविंशतिभेदेभ्यः काय मार्गणा सत्कद्विचत्वारिंशद्भेदेभ्यश्च पञ्चेन्द्रियौध-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदयोस्त्र सकायौघपर्याप्तत्र कायभेदद्वये च प्रागोघवत् ( गाथा ११७) प्रस्तुतस्वामिनो दर्शिताः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियमार्गणायामनन्तर-(गाथा १२४) गाथायां तथैकेन्द्रियौघाद्यष्टमार्गणासु प्रकृत - ( गाथा १२५ ) गाथायां विशेषोऽभिहितः । इत्थं चावशिष्टा इन्द्रियकाय मार्गणाभेदेभ्योऽष्टचत्वारिंशद्भेदाः । तेष्वष्टचत्वारिंशद्भेदेष्वपि “सेसासु मग्गरणासु" इत्यादि ० गाथा - (११६-२०) द्वयोक्तसामान्यवक्तव्यत्वेनैव प्रस्तुतस्वामित्व प्ररूपणस्य पर्याप्तत्वेन विशेषवक्तव्यताया अभावात्ता अष्टचत्वारिंशन्मार्गणा विहाय साम्प्रतं क्रमप्राप्त योगमार्गणा सत्कशेषभेदेषु जघन्यस्थितिबन्धस्वामिवियकविशेषं दिदर्शयिपुराह— तिरियव्व उरलमीसेऽयंतरकाले सरीरपज्जत्तिं ।
यो ट्वेि सो वा यो तिसु मीसजोगेसु ॥ १२६॥
(प्रे०) "तिरियव्व" इत्यादि, तिर्यग्गत्योघमार्गणाभेदवत् सप्तप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धस्वामी बादरैकेन्द्रियजीवो भवतीत्यर्थः । कस्यां मार्गणायामित्याह – “ उरलमी से "त्ति प्रदारिक
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जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनः ]
द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ १३१
मिश्रकाययोगमार्गणायाम् । सुगमम् | केवलमसौ करणापर्याप्तो बोद्धव्यः । कुतः ? लब्ध्यपर्याप्तबादरैकेन्द्रियापेक्षया करणाऽपर्याप्तस्य बादरैकेन्द्रियस्याधिकविशुद्धेः सम्भवादिति । अथ योगमार्गणासत्काऽऽहारकाऽऽहारकमिश्रकाययोगभेदद्वये न कश्चिद्विशेोऽभिहितः, अतस्तत्र वक्तव्योऽसौ, नवरमाहारककाययोगे “सेसासु" (गाथा - ११६ ) इत्यादिनाऽभिहित सामान्यवक्तव्यतयैव पर्याप्तत्वेन नास्ति कश्चिद्विशेषोऽभिधानीयः, अर्थात्तत्र सामान्यवक्तव्यतयाऽभिहिताः साकारादिविशेषणविशिष्टास्तत्प्रायोग्यविशुद्धा जीवाः सप्तमूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनः । इत्थमेवैकेन मतेनाऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणाभेदेऽपि, नवरं मिश्रयोगमार्गणात्रये "सेकाले पज्जत्तिं निट्टवउ स व मुण मीसजोगेसुं ॥६३॥” इतिवचनाद् यथा मतान्तरेण शरीरपर्याप्तिनिष्ठापनादर्वागनन्तरसमय एवोत्कृष्ट स्थितिबन्धभावात्तत्र मिश्रयोगचरमसमये वर्तमाना जीवा एवोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनो भवन्ति, तथा तेन मतेन मिश्रयोग्यवस्थायामुत्कृष्टसंक्लेशस्येवोत्कृष्टविशुद्धेरपि तदानीं मिश्रयोगचरमसमये एव सम्भवाज्जघन्यस्थितिबन्धोऽपि तदानीं भवति, तो मतान्तरेण मिश्रयोगचरमसमये वर्तमाना एवं जघन्य स्थितिबन्धस्वामिनो भवन्तीत्येतावद्विशेषस्य सद्भावात्तं दर्शयति- " नंतरकाले सरीरपज्जत्ति' मित्यादि, गतार्थम् । केवलमाद्यमते उक्तविशेषणानामप्यत्रानुवर्तनादौदारिक मिश्र काययोगे शरीरपर्याप्तिनिष्पत्तेरर्वाक्समये वर्तमाना बादरैकेन्द्रियास्तथा वैक्रियमिश्रकाययोगे शरीरपर्याप्तिनिष्पत्तेरर्वाक्समये वर्तमानाः सम्यग्दृष्टिदेवनारकाः सप्तानां जघन्यस्थितियन्वस्वामिन इति बोद्धव्यमिति ।। १२६ ।। गता योगमार्गणाभेदध्वपि प्रस्तुतस्वामित्ववक्तव्यता । अथ वेदकषायादिमार्गणा सत्कशेषभेदेषु दर्शयन्नाह - वे कसायतिगेस समय बेएस वंगो खरगो
होइ चरमठिइबंधे विभंग-देसेसु संयमाभिमु हो ॥१२७॥ ( गीतिः)
(प्रे०) ' वे कसायतिगे सु" मित्यादि, त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं योजनाद् वेदत्रिक-कपायत्रिकयोः । अत्र कषायत्रिकेन लोभमार्गणावर्जाः शेषाः क्रोधादिमार्गणा गृह्यन्ते, लोभमार्गणायां प्रागेौघवदतिदिष्टत्वादिति । तथा "समय" इत्यादि, सामायिकसंयम-छेदोपस्थापनसंयममार्गणयोः प्रत्येकम् " बंधगो खवगो "त्ति सप्तप्रकृतिसत्कजघन्य स्थितेर्वन्धकः - स्वामी 'क्षपक:' - चारित्र मोहनीय क्षपकः, भवतीत्युत्तरार्धेऽन्वयः । ननु कथं चारित्रमोहनीयक्षपक इति गम्यते । उच्यते, "चरमठिइबन्धे " इत्यनन्तरवच्यमाणत्रचनेन, यतः प्रकृतमार्गणास्वपि निरुक्तक्षपको जघन्यस्थितिबन्धस्वामी तदा भवति यदाऽसौ चरमस्थितिबन्धे वर्तन्ते । अत्र चरमस्थितिबन्धः सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थानकसत्को ग्रहीतु न युज्यते, अतोऽसौ प्रस्तुतस्त्रीवेदादितत्तन्मार्गणाऽपेक्षया ग्राह्यः । स्त्रीवेदादिना क्षपकश्रेणिमारुह्य स्त्रीवेदादेरुदयविच्छेदादर्वाग्भाविनं तत्तन्मार्गणासत्कं चरमस्थितिबन्धं कुर्वन् जीवः प्रकृतस्थितिबन्धस्वामी भवतीति भावः । “विभंगदेसेसु" त्ति त्रिभङ्गज्ञान- देशसंयममार्गणयोः प्रत्येकं "संयमाभिमु हो"त्ति “चरमठिइबंधे” इत्येतद्देहलीदीपकन्यायेनात्रापि संबध्यते, ततः प्रस्तुतमार्गणयोश्वरम स्थितिबन्ध
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१३२ ]
विहाणे मूल डिइिबंधो
[ मार्गणास्थानेष्वायुर्वर्जानाम् निर्वर्तकः यः संयमाभिमुखः स इत्यर्थः, यस्मिन् स्थितिबन्धे समाप्ते सति संयतो भविष्यति तस्मिन् स्थितिबन्धे वर्तमान इतियावत् । इति ॥१२७॥
अथ मिश्रयोगमार्गणात्रयवद् यासु मार्गणासु विकल्पद्वयं ताः संगृह्य तत्राहअपमतो हवा से बंधम्मि कयकरणी हवेहिइ जो ।
सो णेयो परिहारे तेउ-पउम वेगेसु ं य ॥ १२८ ॥
(प्रे० ) "अपमत्तो" इत्यादि, वच्यमाणमार्गणासु सप्तकर्मसत्कजघन्यस्थितिबन्धकोऽप्रमत्तसंयतः, ज्ञेय इति परेणान्वयः । तास्वेव मार्गणासु मतान्तरेण पुनरन्यं विशेषमाह – ' अहवा " इत्यादिना, अथवा मतान्तरे " से बंधम्मि कयकरणो हवेहिइ जो सो णेयो" त्ति सेशब्दस्यानन्तर्यार्थकत्वेनाऽनन्तरे ‘बन्धे’- स्थितिबन्धे कृतकरणो भविष्यति यः स ज्ञेयः, एवम्भूतोऽप्रमत्तसंयत ज्ञातव्य इत्यर्थः । स्वस्थानाप्रमत्तसंयतापेक्षया क्षायिकसम्यक्त्वाभिमुखस्यास्य विशुद्धेराधिक्यादित्यभिप्रायः । कामु मार्गणास्त्रित्याह - परिहारे ते उपउमवेगे सुं यत्ति परिहारसंयमे तेजोलेश्या- पद्मलेश्या-वेदकसम्यक्त्वमार्गणाभेदेषु च एतासु चतसृषु मार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । इयमत्र भावना - क्षपकश्रेणि प्रतिपत्ता यदाऽनन्तानुबन्धिचतुष्कं मिथ्यात्वमोहनीयं मिश्रमोहनीयं च यथाविधि सर्वथा क्षपयित्वा क्रमशः सम्यक्त्वमोहनीयस्यापि चरमखण्डं क्षपयति तदा कृतकरण उच्यते । उक्तं च कषायप्राभृतचूणौं - "चरिमे ट्रिट्ठदिखंडए गिट्टिदे कदकर णिज्जो त्ति भरणदे !” इति । एवम्भूतो हि कृतकरणोsविरत सम्यग्दृष्ट्यादीनामन्यतमो भवति, तत्राप्रमत्तसंयतस्य शेषाविरत सम्यग्दृष्ट्याद्यपेक्षया विशुद्धत्वादसावेव प्रकृते गृह्यते, अयं प्रमत्तकृतकरणः कृतकरणाद्धायाः प्राक् सम्यक्त्वमोहनीयस्य चरमस्थितिखण्डमुत्कीरयन् सम्यक्त्वपुद्गलाश्च वेदयन् यं चरमस्थितिबन्धं करोति सः स्थितिबन्धः प्रस्तुतमार्गणाभावमवस्थितिबन्धापेक्षया स्तोकः भवति, तदानीं क्षायिकसम्यक्त्वाभिमुखस्य तस्य शेषाप्रमत्तसंयतापेक्षया विशुद्धत्वादिति द्वितीयमताभिप्रायः । प्रथममताभिप्रायेण तु क्षायिकसम्यक्त्वाभिमुखानां कृतकरणाद्धायाः प्रागनन्तरस्थितिबन्धं कुर्वतां यथा जघन्यस्थितिबन्धप्रायोग्य विशुद्धिरवाप्यते, तथा स्वस्थानगतानामपि निमित्तान्तरेण तादृशी विशुद्धिरवाप्यते । इत्थं न केवलं कृतकरणाद्धायाः प्रागनन्तर स्थितिबन्धं कुर्वतामेत्र जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वम्, किन्तु तदन्याऽप्रमत्तसंयतानामपि । ततः प्रथममतेऽप्रमत्त इत्येतावन्मात्रममिहितम् तेनैवोक्तोभयविधबन्धकानां ग्रहणात् । द्वितीयमते तु केवलानां कृतकरणाद्वायाः प्रागनन्तरस्थितिबन्धं कुर्वतां जघन्यस्थितिबन्धस्वामितया -"से कालम्मि" इत्यादिविशेषाभिधानपूर्वकं स्वस्थानसंयतानां जघन्यस्थितिबन्धस्वामितया प्रतिषेधः कृत इति । ननु एतन्मतद्वयमपि परिहारविशुद्धिकसंयम मार्गणायां वेदकसम्यक्त्वमार्गणायां च कृतकरणाद्धायाः प्रागनन्तरस्थितिबन्धं कुर्वतां जीवानां प्रवेशात् तयोर्द्वयोर्मार्गणयोः सङ्गच्छते, न पुनः शेषयोस्तेजः
-
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जघन्यस्थितिबन्धस्वामिन: ]
द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ १३३
पद्मलेश्यामार्गणयोरपि, अन्यत्र कृतकरणाद्धायाः प्रागनन्तरस्थितिबन्धं कुर्वतां शुक्रलेश्याया एव सद्भावप्रतिपादनात् । उक्तं च
" सम्यक्त्वस्य च चरमस्थितिनडे उत्कीर्णे सति असौ क्षपकः कृतकरण उच्यते । अस्यां च कृतकरणाद्धायां वर्तमानः कश्चित् कालमपि कृत्वा चतसृणां गतीनामन्यतमस्यां गतावुत्पद्यते । लेश्यायामपि च पूर्वं शुक्ललेश्यायामासीत्, सम्प्रत्यन्यतमस्यां गच्छति” इति ।
इत्थं कृतकरणाद्धायाः प्राक्शुक्लेश्यायाः प्रतिपादनात् कृतकरणाद्वायाः प्रागनन्तर भावि - जघन्यस्थितिबन्धस्तेजोलेश्या मार्गणायां पद्मलेश्यामार्गणायां वा नावाप्यते, तथा च सत्युभयमतेऽपि तयोर्द्वयोर्मार्गणयोर्जघन्यस्थितेबंन्धकाः स्वस्थानाऽप्रमत्त संयता एव । इत्थं न सङ्गच्छते लेश्यामार्गणाद्वये " से कालम्मि" इत्यादिना द्वितीयमताभिधानम् ? इति चेद्, न कषायप्राभृतचूर्णी दर्शनमोहक्षपणायाः प्रारम्भतः प्रवृत्ताया अन्यतमशुभलेश्याया यथोत्तरं परिणामविशुद्धया विशुद्धयमानायाः कृतकरणाद्धायामप्यन्तमुहूर्त प्रवृत्य तत्पश्चात्कापोताद्यन्यतमलेश्यारूपेण परिणतिरभिहिता । उक्तं च कषायप्राभृतचूण
"जइ तेउ-पम्ह-सुक्के व अंतमुहुत्तकदकर णिज्जो" इति ।
प्रर्थाद्-य: तेजः-पद्म- शुक्लान्यतमस्यां यस्यां लेश्यायां दर्शन मोहनीयक्षपणां प्रारभते, स तस्यां लेश्यायामेवान्तमुहूर्तं कृतकरणो भवति, स एव कृतकरणाद्वाया अवग्भाविनं चरमं जघन्यस्थितिबन्धं कुर्वन् शुक्रलेश्यायामिव तेजः - पद्मलेश्ययोरपि जघन्यस्थितिबन्धस्वामी भवतीत्येतस्यापि मतान्तरस्य सच्चात् तेजः- पद्मलेश्यामार्गणयोरपि विकल्पाभिधानं नासङ्गतमित्यलं विस्तरेण ||१२८||
अथान्यत्राह -
उवसामगो उसमे वट्टतो होइ चरम बिंधे ।
सासाणे चगइयो निवडतो संयमा व भवे ॥ २६ ॥
(प्रे०) ' उवसामगो" इत्यादि, " उवसमे" त्ति औपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायामुपश्रेणिमारोहन् चरमे स्थितिबन्धे वर्तमान उपशामकः सप्तकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धस्वामी भवति । निवृत्तिकरणगुणस्थानचरमस्थितिबन्धे मोहनीयस्य, सूक्ष्म सम्परायगुणस्थानकचरम स्थितिबन्धे मोहनीयायुर्जानां पराणामिति विवेकः । इति । "सासाणे" त्ति सासादनसम्यक्त्वमार्गणायां "चउगइयो" ति चतुर्गतिकः, नारकाद्यन्यतम इत्यर्थः । अत्रैव विकल्पान्तरमाह — "निवडतो संयमा व भवे" त्ति " व "त्ति वा अथवा, स च प्रकृतमार्गणायां प्रकृतजघन्यस्थितिबन्धस्वामि विषयकविकल्पप्रदर्शनपरः । ततोऽन्यविकल्पेन संयमात् निपतन् यः सासादन्यभूत्, स तत्र प्रथमं स्थितिबन्धं कुर्वन् जघन्यस्थितिबन्धस्वामी भवेदित्यर्थः ॥ १२६ ॥
मीसे यो पडिवज्जइ अतरम्मि समयम्मि सम्मत्तं । सो बंधगो हवेज्जा सत्तरह ठिई हस्साए ॥१३०॥
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१३४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुषः (प्रे०) “मोसे यो" इत्यादि, मिश्रदृष्टिमार्गणायां योऽनन्तरे समये सम्यक्त्वं प्रतिपत्स्यते, स बन्धको भवति । कस्या इत्याह- "सत्तण्हे"त्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तकर्मणां ह्रस्वाया:-जघन्यायाः स्थितेः । अत्र सम्यक्त्वाभिमुखस्य ग्रहणं मिश्रदृष्टीनां सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थानादनन्तरमेव देससंयमादिगुणस्थानेषु गमनाभावेन देशसंयमाद्यभिमुखत्वस्याऽसम्भवात् , न पुनर्देशसंपमाद्यभिमुखानां व्यावृत्यर्थम् । उक्तं च कर्मप्रकृत्युदोरणाकरणवृत्तौ
“सम्यग्मिध्यादृष्टियुगपत् सम्यक्त्वं संयमं च न प्रतिपद्यते, तथाविशुद्धेरभावात्, किन्तु केवलं सम्यक्त्वमेव" इति । शेषनिश्रष्टिजीवापेक्या सम्यक्त्वाभिमुखानां विशुद्धतरत्वेन जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वमिति तु सुगम इति ॥१३०॥
तदेवं प्रदर्शिता सप्तकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनः। साम्प्रतमुक्तशेयस्यायुःकर्मणो जघन्यस्थितिवन्धस्य स्वामिनः प्रदिदर्शयिषुः. प्रागुक्तनीत्या सर्वमार्गणाविषयकसामान्यवक्तव्यतामादावेव दर्शयति
तप्पाउग्गकिलिट्ठो सम्वत्थाऽऽउस्स लहुठिईअ भवे ।
सागाराविसिट्ठो वट्टतो लहुअबाहाए ॥१३१॥
(प्र. ) "तप्पाउग्गे"त्यादि, सुगमम् , नवरं तत्प्रायोग्यसंक्लिष्टस्य ग्रहणमौधिकजघन्यस्थितिकायुर्वन्धवत् प्रत्येकं मार्गणास्थानेषु तिर्यग्-मनुष्य-देवायुषामन्यतमस्य जघन्यस्थितिकायुपो बन्धभावात्, तस्य च जघन्यस्थितेः संक्लेशप्रत्ययत्वात् । इदमुक्तं भवति-यदि कस्यामपि मार्गणायां जघन्यस्थितिकमायुर्निरयगतिसत्कं बध्नीयात्तदा तस्य निरयायुषोऽशुभत्वेन तस्य जघन्यस्थितेवन्धकस्तत्प्रायोग्यविशुद्धः स्यात् । न चैतद्भवति, सप्तमपृथिवीनरयिक-तेजो-वायुकायिकानां तिर्यगायुवस्तथा संख्येयवर्षायुपी युग्गिनां सम्यग्दृष्टिमनुजतिरश्वां च देवाषुष एव जघन्यस्थितेबन्धात् , एवमेवाऽऽनतकल्पादिदेवानां मनुष्यसत्कस्यैवाऽऽयुषो बन्धात् , शेषाणां च नैरयिकादीनां मनुष्यसत्कस्य तिर्यक्सत्कस्य वा जघन्यस्थितिकायुपो बन्धभावात् । इत्थं हि सर्वमार्गणास्वायुषो जघन्यस्थितेवन्धकाः संक्लिष्टाः प्राप्यन्ते । संक्लेशे तत्यायोग्यत्वविशेषणं तु प्राग्वदेव बोद्धव्यमिति ॥१३१॥ तदेवं सर्वमार्गणाविषयकसामान्यवक्तव्यतां प्रदर्येदानीं विशेषवक्तव्यतां प्रदर्शयितुमाह
इह यो होइ विसेसो सो वुच्चइ बंधगो लहुठिईए ।
आउस्स जाणियव्वो सब्वेसुणिरयभेएसु ॥१३२॥ तिरिय-पणिंदितिरिय-णरतिग-सुर-गेविज्जतदेवेसुं। उरले उरालमीसे विउवम्मि य मिच्छदिट्ठीयो ॥१३३॥
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जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनः ] द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ १३५ ___ (प्रे० ) "इह यो होइ" इत्यादि, 'इह'-मार्गणास्थानेषु भण्यमाने आयुषो जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वविषये यो भवति विशेषः स उच्यते इति प्रतिज्ञा, तामेव निर्वाहयन्नाह-"बंधगो"इत्यादि, आयुषो 'लघोः'-जघन्याः स्थिते-बन्धकः'-स्वामी ज्ञातव्यः, अस्य चान्वयो द्वितीयगाथाप्रान्ते "मिच्छदिट्ठीयो" इत्यनेन, तेन मिथ्यादृष्टिातव्य इत्यर्थः । एतेन सम्यग्दृशामायुषो जघन्यस्थितिवन्धस्वामितया व्यवच्छेदः कृतः । कासु मार्गणास्वायुषो जघन्यस्थितेः स्वामी मिथ्यादृष्टितिव्यः ? इत्याह-"सव्वेसु णिरयभेएसु"मित्यादि, अष्टष्वपि निरयगतिमार्गणाभेदेषु, “तिरिय"त्ति तियग्गत्योघे, “पणिदितिरियनरतिग" इत्यत्र त्रिकशब्दस्योभयत्र योजनात् पञ्चेन्द्रियतियत्रिक नरत्रिकं च, अत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेः प्रत्येकत्रिरेनापर्याप्तभेदवर्जाः शेपास्त्रयस्त्रयो भेदा ग्राह्यास्तेषु षट्भेदेष्वित्यर्थः । “सुर"त्ति देवगत्योषभेदे “गेविज्जअंतदेवेसु"ति भवनपत्यादिषु नवमग्रेवेयकान्तेष्वन्येषु चतुर्विंशतिदेवगतिमार्गणाभेदेषु चेत्यर्थः । “उरले"त्ति औदारिककाययोगे "उराल मोसे"त्ति औदारिकमिश्रकाययोगभेदे, तथैव "विउवम्मि य"त्ति वैक्रियकाययोगभेदे, चः समुच्चये, एतासु समुच्चितासु त्रिचत्वारिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । इति ॥१३२।१३३॥
अथान्यत्राह
तिरियो णरो व मिच्छो होइ पणिंदियदुगे तसदुगे य। पणमणवयेसु काये वेअतिगे चउकसायेसु॥१३४॥ अण्णाणतिगे अयते चक्खु-अचक्खूसु असुहलेसासु ।
भविया-ऽभवियेस तहा मिच्छे सरिणम्मि अाहारे ॥१३५॥ (प्रे०) “तिरियो णरो व" इत्यादि, पञ्चेन्द्रियद्विकाद्याहारिपर्यन्तेषु षट्त्रिंशन्मार्गणाभेदेषु प्रत्येकं “मिच्छो"त्ति मिथ्यादृष्टिस्तिर्यग् मनुष्यो वाऽऽयुषो जघन्यस्थितिबन्धस्वामी भवति, न पुनर्देवो नारको वा; देवनारकाणामनन्तरभवे लब्ध्यपर्याप्ततयोत्पादाभावेन प्रकृतमार्गणासु बन्धप्रायोग्यस्य जघन्यस्थितिकस्य लब्ध्यपर्याप्तसत्कायुषो बन्धस्याकरणात् , न वा सम्यग्दृष्टितिय-मनुष्याः, तेषां देवायुष एव बन्धभावादिति भावः । अक्षरार्थस्तु सुगमः, केवलम् “पणिदियदुर्गे" इत्यनेनापर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदव/ पञ्चेन्द्रियोघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदो ग्राह्यौ, तथैव "तसदुगे" इत्यनेनाऽप्यपर्याप्तवसकायभेदवौं शेषौ त्रसकायभेदौ ग्राह्याविति ॥१३४।१३।। अथ मार्गणान्तरेष्वाह
मिच्छादिट्ठी देवो सुहलेसामुसुरो व णिरयो वा।
णाणतिगे अोहिम्म य सम्म-खइअ-वेअगेसु भवे ॥१३६॥ (प्रे० ) "मिच्छादिट्ठी देवो" इत्यादि, शुभासु-प्रशस्तासु तेजः-पद्म-शुक्ललेश्यागु प्रत्येक मिथ्यादृष्टिदेवः, आयुषो जघन्यस्थितिबन्धस्वामीति गम्यते । सुगमम् । मनुष्यतिरश्चां वर्जनं तेषामन्य
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"1
आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामुत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामिप्रदर्शकं यन्त्रकम्
तादृगीषन्मध्यम
ओघतः - साकार - जाग्रत्-श्रु तोपयुक्त संज्ञि सर्वपर्याप्तिपर्याप्ता ऽन्यतमगतिक मिथ्याहक-सर्वसंक्लिष्टा जीवाः संक्लिष्टा जीवा वा ( गाथा - ७/७८ ) | देशतः - सर्व मागखासु सामान्यतः साकारादिविशेषणविशिष्टा जीवाः, ते च मार्गणाप्रविष्टपर्याप्ताऽपर्याप्तजीवानां मध्ये पर्याप्ता एव, विशेषतस्तु निम्नलिखितयन्त्रोक्तस्वरूपा ज्ञेयाः (गाथा - ८२ । ८३ । ८४) ।
तत्प्रायोग्य संक्लिष्टाः संज्ञिनः
स्वामिनः
श्रोघवत्
"
"
"
संज्ञिमिथ्यादृष्टयः-
सर्व संक्लि० सहस्रारान्तदेवनारकाः
तत्प्रा० संक्लि० मिथ्यादृग्देवनारकाः
प्रमत्तसंयताः
सर्व संक्लि० X मिथ्याहतिर्यग्मनुष्याः
गतिः
सर्व निरयभेद०, अपर्याप्तवर्ज तिर्यग्मनुष्य भेद०, देवौघ०, भवनपत्यादिसहस्रारा२७
न्ताश्च ।
अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेद०
१
अपर्याप्तमनुष्य पञ्चानुत्तरदेव भेद० ६
श्रनितादिनवम ग्रैवेयकान्त त्रयोदशदेव भेद० १३
+ बादर-सूक्ष्मयोर्मध्ये बादरा एव ।
इन्द्रियः
पञ्चेन्द्रियौध
तत्पर्याप्तौ,
२
अपर्याप्त
पञ्चेन्द्रिय ० १
शेष सर्वभेद० १६÷
कायः
त्रसोध
तत्पर्याप्तो,
२
अपर्याप्त
यस ० १
शेष सर्व ०
३६÷
योगः
सर्वमनोवचो० काययोगौघ०
११
औदारिकमिश्र०* कार्मण
२
वैक्रिय० १
वैक्रियमिश्र० १
आहारकद्विकं, २४
श्रदारिक० १
* मिश्रयोगत्रये मतान्तरे शरीरपर्याप्तिनिष्ठापन प्राक्समयवर्तिनो जीवा एव ।
समस्ता
मागेणा
४२
३
६१
१५
१
१
२
१
गाथाङ्काः
८१-८५
८६
८७
55-58
६०-६७
६४
६२
६२
६३
६१
१३ः ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[ सप्तानामुत्कृष्टस्थिते:
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स्वामिनः
+ सर्व संक्लि. X संज्ञिमिथ्यादृष्टयः
Xमिय्यादृग्देवनारकाः
X ईषानान्तदेवाः
X सनत्कुमारादिसहस्रारान्ताः
तत्प्रा० संक्लिष्ट-मिथ्यात्वाभिमुखाः
19
11
"1
"
"1
"
"
"
"
इतरे वा
प्रविरतसम्यग्दृशः
असंयमाभिमुख प्रमत्ताः
वेदः कषायः
,, मिथ्यात्वाऽभिमुख
,, छेदाभिमुखाः
मानतादिमिथ्यादृग्देवाः - चतुर्गतिकान्यतमाःपञ्चेन्द्रिया:--
तन्नुपशमकोऽनिवृत्तिप्राक् स्थितिबन्धे, वेद्यवस्था वरमबन्धे,
श्रववत्
"
त्रिक०
वेद०
****
www.
सर्व ० ४
ज्ञानम्
प्रज्ञान ० ३
मति श्रुत० प्रवधि० ३
मनः पर्यव०
....
....
....
संयमः दर्शनं लेश्या भव्यः
कृष्ण० १ प्रभ० १
*नी. का.
तेजो०
पद्म० १
देश ० १
संयमोघ० सामायिक.
छेद० ३
परिहार
....
सूक्ष्म०
प्रवधि० १
चक्षु. प्रच० प्रसं० १
२
शुक्त० १
+ नवरमनाहारके तत्प्रायोग्यसंक्लिष्टा एव ।
4
नील- कापोतले श्यामार्गणाद्वये मतान्तरेण केवला नारकजीवा एव, न पुनर्देवाः ।
....
....
भव्य ० १
सम्यक्त्वं संज्ञी आहारी
मिथ्या० १
****
।।।
मिश्र० १
सास्वा० १
सम्यक्त्वोघ० वेद० प्रोप०३
क्षायिक०
X सर्वसंक्लिष्टवदीशन्मध्यमसंक्लिष्टा अपि ।
प्रसंज्ञी
मना० ११० ६५-६७
२
१०१
१०२
१०२
१००-१०४
.....
संज्ञी प्राहारी०
2
5
१
२
१
७
?
४
१
१
१
१
↑
ܘ ܐ
१०४
६८
६६
६६
१००
१०३
१०३
१०४
१०१
६६
८१-८५
स्वामिदर्शक यन्त्रम् ]
द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम
[१३७
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१३८ ]
आयुर्वर्जानां सप्तमूलप्रकृतीनाम्प्रोघतः–मोहनीयाऽऽयुर्वर्जानां षण्णां प्रकृतीनां सूक्ष्मसम्परायचरमस्थितिबन्धे वर्तमानाः क्षपकाः । मोहनीयस्याऽनिवृत्तिवादरचरमस्थितिबन्धे वर्तमानाः क्षपकाः ।
(गाथा-११५)
स्वामिनः
गतिः
इन्द्रियः
कायः
सौघ-तत्पर्याप्ती,
अपर्याप्तवस्त्रियो मनुष्यगतिभेदाः,
पञ्चेन्द्रियौघ- तत्पर्याप्तभेदो,
ओघवत
तत्प्रायोग्यविशुद्धाः विग्रहगतिस्था असंज्ञिभ्य मागताः
संज्ञिन:
निरयौघ०, प्रथमनिरय०, अपर्याप्तमनु०, देवौघ०, भवन० व्यन्तर० ६ द्वितीया द्या: ६ निरयभेदाः, ज्योतिष्काद्या: २७ देवभेदाश्च, तिर्यग्गत्योघः १
सम्यग्दृष्टयः
बादरैकेन्द्रियाः
असंज्ञिनः
सर्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, ४
अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियः १ एकेन्द्रियौघ,
बादरजीवाः
५ पृथिव्याद्योघभेदाः साधारणवनौषश्च
अपर्याप्तत्रस:,
द्वीन्द्रियाः, बादरैकेन्द्रियाःमार्गणाविच्छेदादाक् चरमस्थितिबन्धे क्षपकाःतत्प्रायोग्यविशुद्धसंयमाभिमुखाःस्वस्थानाऽप्रमत्तसंयताः, अथवाऽनन्तरस्थितिबन्धे ये कृतकरणा भविष्यन्ति तादृशोऽप्रमत्तसंयता:सुक्ष्मसम्परायचरमस्थितिबन्धे वर्तमाना उपशमका:अन्यतमगतिस्याः, अथवा संयमादागता मनुष्या:तत्प्रा०विशु० सम्यक्त्वाभिमुखाश्चरमे स्थितिबन्धेसामान्यवक्तव्यतयोक्ताः साकारादिविशेषणविशिष्टास्तत्प्रायोग्य विशुद्धा एकेन्द्रियादिजीवाः
शेषाः
शेषाः
३३X
* प्रोघवर्जा बादर-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्त-सूक्ष्म-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नाः षड् एकेन्द्रियभेदाः, प्रोघ
पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदात् नव विकलेन्द्रियभेदाश्च । x प्रोघवर्जा बादर-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्त-सूक्ष्म-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नाः प्रथिव्यप्तेजोवायुसाधारणवनस्पति कायसत्काः प्रत्येक षड षड्, त्रयः प्रत्येकवनस्पतिकायभेदाश्च ।
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-जघन्यस्थितिबन्धस्वामिप्रदर्शकं यन्त्रम्
[ १३६ आदेशतः-सर्वमार्गणासु साकारोपयोगादिविशेषणविशिष्टा जीवाः, तेऽपि मार्गणायां पर्याप्ता-ऽपर्याप्तजीवसत्वे पर्याप्ता एव, तेऽपि विशेषतो निम्नाऽऽलिखितयन्त्रोक्तस्वरूपाः ।
(गाथा-११६।१२०)
योगः । वेदः कपा। ज्ञानम् संवमः दर्शन लेश्या भव्यः सम्यः संजी
सर्वे मनोवचो| अपगतवेदः, लोभः | मत्यासंयमोघ० चक्षुः शुक्ला भव्यः सम्य
व्यः सम्य- संज्ञी प्राहारी भेदाः, प्रौदारि०
दीनि सूक्ष्मसं० रादि । क्वौष काययोगौघ०१२ १ १ ४ २ ३ १ १ क्षायि० १ १
३६ | ११८
वैक्रिय-तन्मिश्रयोगौ*२
मत्य श्रुता असंय०१
कार्मणः,१
असंय० १
प्रभा अभ मिय
प्रशुभा प्रभ०
मिथ्या०१
औ-मिश्र:* १
स्त्री-पु-नपु'. शेषाः
सामा.छेद..
.... विभङ्ग०
देश०।
परिहार
तेज:
क्षायोप०
प्रौप०
सासाद मिश्र०
पाहारकः, तन्मिश्रश्च २*
* मिश्रयोगमार्गणास्थानत्रये मतान्तरेण शरीरपर्याप्तिनिष्ठापनादर्वाग् मिश्रयोगचरमसमये वर्तमाना जीवा एव प्रस्तुतस्वामिनो भवन्ति, न पुनर्गिणाद्विचरमसमयादिषु वर्तमाना इति (गाथा १२६) ।
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१४. ]
आयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिप्रदर्शक यन्त्रम् प्रोघतः--उत्कृष्टाबाधायां वर्तमानाः साकारादिविशेषणविशिष्ट-सर्वपर्याप्तिपर्याप्त-तत्प्रायोग्यसंक्लिष्ट-संज्ञि-मिथ्यादृष्टयः पञ्चेन्द्रियतिर्यर-मनुष्याः, साकारादिविशेषणविशिष्ट-तत्प्रायोग्यविशुद्धप्रमत्तसंयताश्च ( गाथा-७६।८०)।
आदेशतः—सामान्येन साकारादिविशेषणविशिष्टा एव, विशेषतस्तु निम्नाऽऽलिखितयन्त्रोक्तस्वरूपाः ।
स्वामिनः
गति०
इन्द्रियः
कायः
योग०
गाथाङ्काः
वैक्रिया
निरयौघा प्रथमादिषष्ठपृथि- । तत्प्रायोग्य- । सम्यग्दृष्टि
व्यान्ताश्च, देवीघ. वेय., विशुद्ध० मिथ्यादृष्टिश्च ।
कान्ताश्च । ३२
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
,,,
मिथ्यादृष्टि
सप्तमपृथिवीनिरयभेद० १
| प्रौदारिकमिश्र० १
२
१०८
|.. संक्लिष्ट संशिमिथ्यादृष्टि अपर्याप्तवर्जतिर्यम्गतिभेद०४
,, विशुद्ध० संजी, प्रसंज्ञी, प्राप्तिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्० १ अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय०१ अपर्याप्तत्रस० १
-
प्रमत्तसंयत० मनुष्योध-तत्पर्याप्तभेदो। संक्लिष्टमिथ्यादृष्टिश्च ।
[आयुष उत्कृष्टस्थिते:
अपर्याप्तमनु० पञ्चानुत्तरदेव० सर्वे एकेन्द्रिय
, बिकले० १६
पृथिव्यादिवनस्प- । माहारक० तन्मिश्रयोगश्च । त्यान्तसर्व० ३६
,विशुद्ध
-
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पञ्चेन्द्रियौघ. तत्पर्याप्तभेद
सौघ-तत्पर्याप्ती, | सर्वे मनोवचो० प्रौदारिक०
काययोगौघ०
बन्धस्वामिदर्शक यन्त्रम् ]
| वेदः कषायः ज्ञान० संयम
दर्शन० लेश्या० भव्य०
सम्यक्त्व० .
संज्ञी०
आहारी
सर्वथा प्रोघवत्
११४
पुनपु० सर्व
भव्य०
संज्ञी० पाहा
चक्षु० प्रचक्षु०
प्रज्ञान० असंयम
अशुभ
प्रभव्य० मिथ्यात्व०
तत्प्रायोग्य, संक्लिष्ट तिर्यग्मनुष्य
६
११२
. द्वितीयाधिकारे स्वामित्वद्वारम
देश०
सास्वादन
, विशुद्ध० मनुष्य
| स्त्री०
अवधि० शुभ०
ज्ञान० : संयमौष०
सामा० छेद । परिहार
सम्यक्त्वौघ० क्षायिक० क्षायोपशमिक
"
"
संयत०
मानुषी०
संक्लिष्ट० पञ्चेन्द्रिय
११४
[ १४१
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________________
१४२ ]
आयुषो जघन्यस्थितिप्रोघतः-जघन्यावाधायां वर्तमानाः साकारादिविशेषणविशिष्ट-तत्प्रायोग्यसंक्लिष्टास्तिर्यग्मनुष्याः (गाथा-११६)
स्वामिनः
गति०
इन्द्रिय
काय०
योग०
वेद० कषा०
तत्प्रायोग्यसंक्लिष्टमिथ्यादृष्टितिर्यग्मनुष्य
पञ्चेन्द्रियौघ- सौघ-सर्वमनोवचो० वेद- सर्व० तत्पर्याप्तभेदौ तत्पर्याप्ती, कायौघ० त्रय०
मिथ्याग्देव०
,
नारक-देव०
प्रमत्तसंयत०
सर्वकेन्द्रिय पृथिव्यादिदन- आहारक० अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग ०अपय स- सर्वविकलस्पत्यान्ताः तन्मिश्र० तत्प्रायोग्यसंक्लिष्ट० मनुष्य. पञ्चानुत्तरदेव० अपर्याप्त- सबभेदाः३६५
पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तत्रस०
Yo
सर्वे निरयभेद०, तिर्यग्गत्योघ० पञ्चेन्द्रियतिर्यगोघ० तत्पर्याप्त तिरश्ची, मनुष्योघ० तत्पर्याप्त. मानुषी, देवोधनवमवेयकान्ताश्च.
४०
प्रौदारिक० तन्मिश्र० वैक्रिय०
तत्प्रायोग्यसंक्लिष्टमिथ्यादृष्टि
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—बन्धस्वामिप्रदर्शकं यन्त्रम्
[ १४३
विशेष
श्रादेशतः - सामान्येन जघन्याबाधायां वर्तमानाः साकारादिविशेषणविशिष्टा एव, तस्तु निम्नाऽऽलिखितयन्त्रोक्तस्वरूपाः ( गाथा - १३१ ) ।
ज्ञान०
प्रज्ञान ० असंयम०
३
मति०
श्रुत० अवधि० ३
संयम० दर्शन० लेश्या० भव्य० सम्यक्त्व०
७
मन:
संयमौघ०सामा०
पर्यव० छेद० परिहार०
१
४
१
देश संयम ०
१
६
चक्षु० अशुभ०
प्रचक्षु०
२
प्रवधि०
१
३
३
शुभ० ३
६
सर्व ० मिथ्यात्व०
२
२
१
सम्यक्त्वौघ०
| क्षायिक० वेदक ० ३
सास्वादन ०
५
संज्ञी आहारी
संज्ञी ० श्राहा०
१
प्रसंज्ञी,
२
१
१
सर्वा मार्गणाः
१३४
३६ १३५
AW
३
७
५
६६
४३
गाथाङ्काः
१६३
१३६
१३६
१३७
शेष ०
१३२ १३३
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१४४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुषः तमशुभलेश्यायां सत्यां देवायुष एव बन्धसम्भवादिति । “सुरो व णिरयो वा"त्ति 'सुरः'-देवो वा नैरयिको वा, देवनारकान्यतर इत्यर्थः, आयुषो जघन्यस्थितिबन्धस्वामी भवेदिति गाथाप्रान्तेऽन्वयः । केषु मार्गणाभेदेष्वित्याह-"णाणतिगे" इत्यादि, मनःपर्यवज्ञानवर्जे ज्ञानत्रिके. मतिज्ञानादिमार्गणाभेदत्रय इत्यर्थः । अवधिदर्शनमार्गणायां, चः समुच्चये, स च व्युत्क्रमेणोत्तरत्र योज्यः । “सम्मखइअवे प्रसुति सम्यक्त्वौघ-नायिकपम्यक्त्व-वेदकसम्यक्त्वमार्गणासु चेत्यर्थः । एतासु सप्तमार्गणासु प्रत्येकं सम्यग्दृष्टयो जीवा एव समाविष्टाः, तेभ्योऽनन्तरभवे मनुष्यतयोत्पत्स्यमानानां देवनारकाणामेव जघन्यस्थितिबन्धः सम्भवति, न पुनर्देवतयोत्पत्स्यमानानां मनुष्यतिरश्चामितिकृत्वा देवनारका एव जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनोऽभिहिता इति ॥१३६॥ अथ यासु मार्गणासु प्रमत्तादिसंयतानां सद्भावेऽपि केवलानां प्रमत्तानामेव जघन्यस्थितिबन्धस्तासु मार्गणासु तथैव दर्शयन्नाह
अाउस्स लहुठिईए णायब्बो बंधगो पमत्तजई ।
मणणाण-संयमेसु समइन छेत्र-परिहारेसु॥१३७॥ (प्रे०) "प्राउस्से"त्यादि, प्रकृतस्याऽऽयुषो लघुस्थितेर्बन्धकः 'प्रमत्तयतिः'-प्रमत्तसंयतो ज्ञातव्यः, अप्रमत्ताद्यपेक्षया तस्यैव संक्लेशाधिक्येन लघुस्थितिबन्धभावात् । केषु मार्गणाभेदेष्वित्याह"मणणाणे"त्यादि, मनःपर्यवज्ञान-संयमोघमार्गणाभेदयोः, सामायिकसंयम-छेदोपस्थापनसंयमपरिहारविशुद्धिकसंयममार्गणाभेदेषु चेत्यर्थः । सुगमम् । इदन्तु बोद्धव्यम्—यास्वपर्याप्तपञ्चेन्द्रियनिर्यगायकोन सप्ततिमार्गणामु कश्चिदपि विशेषो नाभिहितस्तामु सामान्यवक्तव्यतायां दर्शितविशेषणान्येवापर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगादितत्तन्मार्गणागतजीवापेक्ष्या विशेषतया बोद्धव्यानि, ततश्च तासु मार्गणासु साकारादिविशेषणविशिष्टा जघन्यायामबाधायां वर्तमानास्तत्प्रायोग्यसंक्लिष्टा जीवा आयुषो जघन्यस्थितिवन्धस्वामिनः । ताश्च मार्गणा इमाः-अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदः, अपर्याप्तमनुष्यभेदः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियजातिभेदः, अपर्याप्तत्रसकायभेदः, पञ्चानुत्तरविमानसत्का देवगतिभेदाः, सप्तैकेन्द्रियमार्गणाभेदाः. नव द्वीन्द्रियादिविकलेन्द्रियमार्गणाभेदाः, पृथिव्यादिपञ्चकायमार्गणासत्का एकोनचत्वारिंशद्भेदाः, आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगभेदो, देशसंयत-सासादना- संज्ञिमार्गणाभेदाश्चेति । नचाऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियवसमार्गणयो रकदेवानां व्यावृत्तये प्रस्तुतस्वामिविशेषणतया तिर्यग्मनुष्या इति विशेषणं कथं नाख्यातेति वाच्यम् । नारकदेवानां प्रकृतिवन्धस्वामित्वाभावेन तत एव व्यावृत्तत्वादिनि ॥१३७॥
तदेवमभहिता मार्गणास्थानेष्वपि शेपम्यायुःकमणो जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनः, इत्थं च गतं द्वितीयं स्वामित्वद्वारम् ॥
॥ इति बन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे द्वितीयं स्वामित्वद्वारं समाप्तम् ।।
|
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॥ अथ तृतीयं साद्यादिद्वारम् ॥ साम्प्रतं "साइपाई" त्यनेनोद्दिष्टं तृतीयं साद्यादिद्वारम् । तत्र चोत्कृष्ट-जवन्य-जदितर भेदाच्चतुर्धा विभक्तानां स्थितीनां प्राग्वदोघत आदेशतश्च साधादिवन्धप्रकाराश्चिन्तनीयाः । तत्रादौ तावदोघतश्चिचिन्तयिषुर्गाथाद्वयमाह
सत्तरहं कम्माणं भंगा साई प्रणाइ-धुव-अधुवा । चउरो अजहण्णाए ठिई बंधे मुणेशव्या ॥१३८॥ सत्तण्हुक्कोसे यर-जहण्णगाणऽत्थि साइ-अधुवा दो ।
पाउस्स चउविहाणं ठिईण बंधे वि ते णेया ॥१३॥ (प्रे० ) "सत्तण्ह"मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलकर्मणाम् "साई अणाइधुपपुवा" त्ति सादिरनादिध्रुवाऽध्रुवाश्च चत्वारो भङ्गा:-प्रकाराः, ज्ञातव्या इति गाथाप्रान्तेऽन्वयः। अत्रैकजीवमधिकृत्य य उत्कृष्टादिस्थितिवन्धः पूर्वव्यवच्छिन्नोऽभूतपूर्वो वा प्रारब्धः, स सादिरुच्यते, सह आदिना वर्तते इतिकृत्वा । यस्त्वनादिकालात्सन्ततिभावेन प्रवृत्तोऽन्तराले कदाचिदपि न व्यवच्छिन्नः सोऽनादिविज्ञेयः । यस्त्वनागतकालेऽपि न कदाचिद् व्यवच्छेदं प्राप्स्यति, स ध्रुवः । यः पुनरायत्यां नियमेन व्यवच्छेदं यास्यति, सोऽध्रुवश्वावसातव्यः । किं सप्तानामुत्कृष्टादिचतुर्विधस्थितिबन्धे एते चत्वारो भङ्गा ज्ञातव्या उत कस्मिंश्चिदेवेत्याह-"अजहण्णाए"इत्यादि, सवजघन्यस्थितिबन्धस्थानलक्षणमेकं स्थानं त्यक्त्वा शेषसवस्थितिबन्धस्थानसमुदायलक्षणाया अजघन्यायाः स्थितेर्वन्धे इत्यर्थः, न पुनः समयाधिकजघन्यायाः, हिसमयाधिकजघन्यायाः, इत्येवं प्रत्येकस्थानरूपाया अजघन्यायाः; प्रत्येकस्थानरूपाऽजघन्यस्थितेबन्धस्य सादिसान्तभङ्गपतितत्वादिति । सप्तानामुत्कृष्टादिस्थितेवन्धे तर्हि किमित्याह–“सत्तण्हुक्कोसेयरजहण्णगाणे"त्यादि, प्रस्तुतानामायुवेर्जानां सप्तानामु-कृष्टायाः, इतरपदादनुत्कृष्टायाः, जघन्यायाश्वेत्येवं शेषत्रिविधायाः स्थितेवन्धे "अस्थि साइअधुवा दो"त्ति उक्तस्वरूपौ साद्यध्वौ द्वौ भङ्गौ स्त इत्यर्थः । अत्रापि सर्वोत्कृष्टस्थितिबन्धलक्षणमेकं स्थितिबन्धस्थानं विवर्य शेषसर्वस्थितिबन्धस्थानानां समुदायोऽनुत्कृष्टस्थितिवन्वतया बोद्धव्यः, न पुनः शेषसर्वस्थितिबन्धस्थानानि प्रत्येकरूपेण । इत्थं हि जघन्याऽजघन्यस्थितिबन्धात्मकेन स्थितिबन्धद्वयेन सर्वाण्यपि स्थितिबन्धस्थानानि संगृहीतानि भवन्ति, उत्कृष्टाऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धात्मकेन च स्थितिबन्धहयेनापि सर्वाण्यपि स्थितिबन्धस्थानानि संगृहीतानि भवन्तीति । अथ शेषस्यायुःकर्मणश्चतुर्विधस्थितिबन्धे
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१४६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ उत्कृष्ट-जघन्य-तदितरस्थितीनाम् साद्यादिभङ्गकान् दर्शयन्नाह- "अाउस्स चउविहाण"मित्यादि, आयुःकर्मणो जघन्याऽजघन्योत्कृष्टाऽनुत्कृष्टलक्षणानां चतुर्विधानां स्थितीनां बन्धेऽपि "ते"त्ति तो अनन्तरमभिहिती साद्यध्रवौ द्वौ भङ्गौ शेयौ।
इयमत्र भावना-मोहनीयायुर्वर्जानां परणां मूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धः क्षपकस्य सूक्ष्मसम्परायचरमस्थितिबन्धे जायते, मोहनीयस्य त्वसौ क्षपकानिवृत्तिवादरचरमस्थितिवन्धे भवति । अयं हि सप्तानामपि मूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धोऽजातपूर्वो यस्य कस्याऽपि जीवस्याऽजघन्यस्थितिबन्धादुत्तीर्य तत्प्रथमतया तस्मिन्नेव समये जायत इति सादिः, ततः परं क्षीणमोहाद्यवस्थायां सर्वथा न भवतीत्यवः सप्तानां जघन्यस्थितिवन्ध इति द्वावेव भङ्गो सम्भवतः, न शेषौ । एतस्मादायुर्वर्जशेष. सप्तप्रकृतिसत्कजघन्यस्थितिबन्धादन्य उपशमश्रेण्यादौ जायमानोऽपि सर्वोऽजघन्यस्थितिबन्धः । उपशमकस्याऽपि क्षपकाद् द्विगुणवन्धकत्वादितिभावः । ततश्चोपशान्तमोहावस्थायां सप्तानामजघन्यस्थितिवन्धस्याऽबन्धको भूत्वा यदा तत्स्वामी प्रतिपत्य पुनरपि तासामजघन्यस्थितिबन्धं प्रारभते, तदाऽजघन्यस्थितिबन्धः सादिभवति; बन्धव्यवच्छेदानन्तरं तत्प्रथमतयाऽजघन्यस्थितेबध्यमानत्वात् । उपशान्तमोहगुणस्थानकं चाप्राप्तपूर्वाणामजघन्यस्थितिबन्धस्य व्यवच्छेदाभावेना-नादिकालान्निरन्तर जायमानत्वाइजघन्यस्थितिबन्धोऽनादिः । अभव्यानां ध्रुवः, ध्रुवमिथ्यात्योदयानां तेपामजघन्यस्थितिबन्धस्य कदाप्यनिवर्तनात् । भव्यानामध्रुवः, क्षपकश्रेण्यवाप्तौ नियमेन विरमणादित्येवं मप्तानामजघन्यस्थितिवन्धश्चतुर्थोक्तः । एतासामेव सप्तप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यादिमानः, स च सर्व संनियमिथ्याष्टिपर्याप्तसंक्षिपञ्चेन्द्रियजीवेनानुत्कृष्टस्थितिबन्धादवतीर्य कदाचिदेव क्रियते, नानादित इति सादिः, जघन्येन समयादुत्कृष्टतस्त्वन्तमुहूर्ताच्च परतोऽध्यवसायपरावृत्त्याऽनुत्कृष्ट स्थितिन्धे क्रियमाणे उत्कृष्टः स्थितिरन्धो नियमेन निवर्तत इत्यध्रुवः । उत्कृष्ट प्रतिपत्यानुत्कृष्टं वध्नातीत्यनुत्कृष्टस्थितिबन्धोऽपि सादिः, ततो जघन्यतोऽन्तमुहूर्तेनोत्कृष्टतवानन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्वतिक्रान्तासु पुनरप्युत्कृष्टं स्थितिबन्धं कुर्वतोऽनुत्कृष्टो निवर्तत इत्यध्रुवः । इत्येवमुत्कृष्टाऽनुत्कृष्टेषु स्थितिवन्धेषु जीवाः परिभ्रमन्तीति द्वयोरप्यनादिध्रुवत्वासम्भवः, अतः सप्तानां प्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थितिबन्धौ तिविधौ कथिताविति । आयुष उत्कृष्टादिस्थितिबन्धस्तु वेधभानायुपस्त्रिभागाद्यवशेषे प्रतिनियतकाल एव जायत इति सादिः, समयादन्तमुहूर्ताच्च परतोऽवश्यं निवर्तत इत्यधुवः । इत्येवमायुप उत्कृष्टादिचतुवि|ऽपि स्थितियन्धः सादिरश्च दर्शित इति । एते ह्यष्टानामपि जघन्यादिचतुर्विधस्थितिबन्धसत्का भङ्गाः समस्ताः सन्तोऽष्टसप्तति-(७८)भवन्ति । तद्यथा-आयुर्वर्जानां सप्तानां प्रकृतीनामजघन्यवन्धः सायादिचतुर्वेति कृत्वा सप्तानां चतुर्निगुणनेष्टाविंशतिर्भङ्गा लभ्यते, तासामेव सप्तानां जघन्यादित्रयो बन्धाः प्रत्येकं साद्यवभेदाद् द्विधा प्राप्यन्त इति सप्तसु द्वाभ्यां हतेषु सन्सु जाताश्चतुर्दश, ते च जघन्यादित्रयेण पुनरपि गुण्यन्ते, ततो द्विचत्वारिंशद् भङ्गाः सम्पद्यन्ते । आयुषो जघन्वादिचतुर्विधोऽपि बन्धः प्रत्येकं सायध्रुवद्विप्रकार इति चत्वारो द्वाभ्यां ताडिताः सन्तोऽष्टौ
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साद्यादिबन्धभङ्गप्ररूपणम् ]
द्वितीयाधिकारे साद्यादिद्वारम्
[ १४७
भङ्गका भवन्ति । ततचाष्टाविंशतिर्द्विचत्वारिंशदष्टौ चेत्येतेषां त्रयाणां राशीनां सङ्कलने सर्वे भङ्गा यथोक्ता सप्ततिः संजाता इति ||१३८ । १३६॥
तदेवं दर्शिता श्रोतः साद्यादयो बन्धप्रकाराः । साम्प्रतमादेशतो दिदर्शयिषुरेकामार्यामाह - एवं चक्खु भवियेनु वरि भविये धुवो ण सेसासु ।
ग्रह विहाणं ठिईए साइ अधुवा दोरि ॥ १४० ॥
(०) "एवं चक्खुभवियेसु " इत्यादि, एवंशब्दः सादृश्ये, ततो यथाऽनन्तरमोवतोऽभिहितास्तथैव "वक्खुभवियेसु "त्ति चतुर्दर्शन मार्गणायां भव्य मार्गणायां च प्रत्येकमित्यर्थः । उक्तातिदेशेनातिदिष्टार्थेऽघटमानमर्थमपवदति - "णवरि" इत्यादिना, नवरं “भविये "त्ति भव्यमार्गगायां "धुवोण"त्तिय ओघत आयुर्वर्जसप्तानामजघन्यस्थितिबन्धे 'ध्रुवः वभङ्ग उक्तः, सोऽत्र न भवती यर्थः । कुतः ? भव्यमार्गणागतानां भव्यानां सिद्धिगमनयोग्यत्वस्वलक्षणात् । ततः किम् ? ततः arrafores चरमे जघन्यस्थितिबन्धे प्रारब्धेऽनादिमतोऽप्यजघन्य स्थितिबन्धस्य व्यवच्छेदाद् ध्रुवत्वाभावः । योपशमश्रेणिमारुह्य सप्तानामवन्धप्राप्ता जघन्यस्थितिबन्धस्य विच्छेदाद् ध्रुवत्वाभाव इति । ननु यद्येवं तर्ह्यचतुदर्शन मार्गणायामपि ध्रुवभङ्गोऽपोद्यताम्, अचक्षुर्दर्शनिनामपि क्षपकश्रेणिमारूढानां जघन्यस्थितिबन्धस्य नियमेन भावात् एवमुपशमश्रेणिमारूढानां सप्तानामबन्धप्राप्तेरपि सम्भवाद् ? इति चेद् न तत्राऽचचुर्दर्शनमार्गणायां भव्याऽभव्यद्विविधजीवानां प्रवेशेन भव्यानामुक्तजघन्यस्थितिबन्धस्याऽबन्धस्य च सम्भवेऽप्यभव्यानां तस्याऽऽकालमसम्भवात्, तदपेक्षया सप्तानां वभङ्गस्यापि प्राप्तर्नापयते ध्रुवभङ्ग इति । शेषभङ्गभावना तूभयत्र सुगमा, भव्या-भव्यजीवस्वामिकोत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धयोर्भव्यजीवस्वामिकजघन्यस्थितिबन्धस्य च स्वान्यस्थितिबन्ध - तयाऽवन्धतया वा नियमेन परावर्तनादिति ।
,
उक्तशेषमार्गणास्वाह— सेसासु" मित्यादिना, अनन्तरोक्तेऽचक्षुर्दर्शन- भव्यमार्ग विवर्ण्य शेषासु सर्वासु मार्गणा "दृण्ह "त्ति तत्तन्मार्गणायां ज्ञानावरणाद्यष्टानामन्यतमवन्वप्रायोग्यप्रकृतीनासु·कृष्टाऽनुत्कृष्टजघन्याऽजघन्यलक्षणानां चतुर्विधानामपि स्थितीनां, बन्ध इति पूर्वमाथातोऽनुवर्तते, "साइधुवा दोणि "त्ति सावध वौ द्वावेव भङ्गाविति । तत्राऽष्टानामपि प्रकृतीनामजघन्यवर्जनां त्रिविधस्थितीनां त्वोघतोऽपि साय वौ द्वौ द्वावेव भङ्गौ, ततो मार्गणास्थानेध्वपि तदन्यभङ्गयोरसम्भवात् तावेवोक्तौ । श्रथवा मत्यज्ञान - श्रुताज्ञाना- संयमा भव्य - मिथ्यात्वमार्गणावर्जातु मार्गणा प्रत्येकजीवानामवस्थानस्यैव साधु वभङ्गदयगतत्वात् मार्गणाप्रविष्टकालमपेच्य चिन्त्यमानाया एकजीवाश्रयायाः स्थितेरपि साय वौ द्वावेव भङ्गौ प्राप्येते । इदमुक्तं भवति - नानाजीवानाश्रित्य बहूनां मार्गणानामनाद्यनन्तत्वेऽप्येकैकं जीवमपेक्ष्या चतुदर्शनभव्यमार्गणे तथा मत्यज्ञानादिपञ्चर्मार्गणा विहाय सर्वा मार्गेणाः साद्यध्रुवा एव, न पुनरनादिधवाः; तासां चैकजीवमाश्रित्यानादिश्रु वत्वाभावे
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१४८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ आदेशतश्चतुर्विधस्थितीनां साद्यादि० कुतस्तत्र जायमानानामेकजीवाश्रयाणामुत्कृष्टादिस्थितिबन्धानामनादिध्र वत्वसम्भवः, न कुतश्चिदित्यर्थः । इत्थं चाऽचक्षुर्दर्शनादिसप्तमार्गणावर्जासु शेषमार्गणास्वेकजीवाश्रयमार्गणावस्थानस्यैव सायध्र वत्वातत्प्रयुक्तावष्टकर्मसत्कचतुर्विधस्थितीनां प्रत्येकं द्वौ द्वावेव भङ्गावभिहितौ । अचक्षुदर्शन-भव्यमार्गणयोस्त्वनन्तरं भाविताः साद्यादिभङ्गाः । मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयमा-ऽभव्य-मिथ्यात्वमार्गणानामभव्यजीवमपेक्ष्यौघवदनादिध्र वत्वेऽपि तासु सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धो न अोषवद्भव्यस्वामिक एव, किन्त्वभव्यस्वामिकोऽपि । कुतः ? मत्यज्ञानादिमार्गणासत्कजघन्यस्थितिबन्धस्यैकेन्द्रियस्वामिकत्वात् । इत्थं च प्रस्तुतपञ्चमार्गणागतसर्वजीवानां सप्तकर्मसत्कजघन्यस्थितिबन्धस्य सम्भवात् , तस्योत्कृष्टान्तरस्याप्यसंख्येयकालचक्रप्रमाणत्वाच्चाऽभव्यजीवा अपि नियमेन प्रस्तुतपञ्चमार्गणाप्रायोग्ययोः सप्तकर्मणां जघन्या-ऽजघन्यस्थितिबन्धयोः परिभ्रमन्ति, ततश्च सप्तानां जघन्याऽजघन्यस्थितिवन्धयोः सायध्र वो द्वावेव भङ्गो लभ्येते । सप्तानामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थितिबन्धयोरायुषश्चतुर्विधस्थितिवन्धयोश्च प्रकृतभङ्गो बोघवदेव विज्ञेयाविति ॥१४०॥
तदेवं समाप्ताऽष्टानामपि मूलप्रकृतीनामुत्कृष्ट-जघन्य-तदितरस्थितिबन्धानामेकजीवाश्रिता मायादिप्ररूपणा, तत्समाप्तौ च गतं 'साइआई"त्यनेनोद्दिष्टं तृतीयं साधादिद्वारम् ॥
ओघत आदेशतश्चाऽष्टानामपि मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टादिस्थितीनाम्
साद्यादिबन्धभङ्गप्रदर्शकयन्त्रम् मार्गणाआयुर्वजैसप्तानां प्रत्येकम्
आयुषः स्थानानि कस्याः स्थितेः । भङ्गकाः । कस्याः स्थितेः । भङ्गकाः प्रोधवत अजघन्यायाः स्थिते:--सादि, अनादि, ध्र ब, उत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्ट-1
अत्रव. अचक्षुर्दर्शने उत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्ट-जघन्य
प्रत्येकम् भव्य
जघन्या-उजघन्य- । सादि,
२ चतुर्विधस्थितीनां
त्रिविधस्थितीनां प्रत्येकम् / सादि, अध्रुव.
___ अजघन्यायाः स्थिते:-सादि, अनादि, अध्रु ब. ३ | चतुर्विधानामपि प्रत्येकम्-सादि, अध्रुव. २
शेपसर्वेषु
।। इति बन्धविधान मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे तृतीयं साद्यादिद्वारं समाप्तम् ।।
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॥ अथ चतुर्थ कालद्वारम् ॥ सम्प्रति क्रमप्राप्तं चतुर्थमेकजीवाश्रयं कालद्वारम् । तत्र चैकजीवाश्रयं कालं प्रचिकटयिपुरादौ तावदोघतोऽष्टानां मूलप्रकृतीनां यथोक्तोत्कृष्टेतरस्थितिबन्धयोः कालं जघन्योत्कृष्टभेदतो दर्शयन्नाह
सत्तण्ह गुरू लहू कालो समयो गुरू मुहुत्तंतो ।
अगुरूत्र मुहुत्तंतो, लहू असंखपरिअटियरो ॥१४१॥ (प्रे०) “सत्तण्ह गुरूप” इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनाम् “गुरूप्रति 'गुरोः'उत्कृष्टायाः स्थितेः "लहू कालो त्ति एकजीवाश्रयो 'लघुः'-जघन्यः कालः'-बन्धकालः “समयो' त्ति एकः समयो भवतीत्यर्थः । इदमुक्तं भवति-कालद्वारे जघन्याजघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टभेदाच्चतुर्धा विभिन्नानां स्थितीनां प्रत्येकं जघन्यत उत्कृष्टतश्च द्विधा बन्धकालस्य प्रमाणं चिन्त्यते, तत्र ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतिसत्काया उत्कृष्टादिस्थितेवन्धो यावत्कालमविच्छिन्नतया प्रवर्तते, तावान् कालस्तस्या उत्कृष्टादेः स्थितेर्बन्धकाल उच्यते, सोऽपि विवक्षाभेदेन द्विधा-एकजीवमाश्रित्य नानाजीवान् समाश्रित्य च । तत्र एकेना विवक्षितजीवेनारब्ध उत्कृष्टायन्यतमस्थितेवेन्धोऽविच्छिन्नतयोत्कर्षतो यावन्तं कालं प्रवर्तते, परतश्च नियमेन व्युपरमते, तावान् सर्वकाल एकजीवमाश्रित्य तस्याः पूर्वारब्धाया उत्कृष्टाद्यन्यतमस्थितेरुत्कृष्टो बन्धकालो गीयते । तस्या उत्कृष्टाद्यन्यतमस्थितेवितितकजीवारब्धो बन्धो यावन्तं समय-द्विसमय-त्रिसमया-ऽन्तमुहर्तकालमनतिक्रम्य नैव विरमति, तावान् समयादिकालस्तु तस्या उत्कृष्टादिस्थितेरेकजीवाश्रयो जघन्यो बन्धकालो भएयते । इत्थमेव नानाजीवानाश्रित्याप्युत्कृष्टादिस्थितिबन्धकालनिर्वचनं बोद्धव्यम् । अनुत्कृष्टस्थितिबन्धेनोत्कृष्टस्थितिबन्धर्जसर्वस्थितिबन्धस्थानसमुदायस्तथैवाजघन्यस्थितिवन्धेन जघन्यस्थितिबन्धवर्जसर्वस्थितिबन्धविकल्पसमुदायश्च प्राग्वद्ग्राह्यः । “सत्तण्ह गुरू लहू कालो' इत्यादिग्रन्थेन भण्यमानः कालस्त्वेकजीवाश्रय एव, संनिकर्षप्ररूपणापर्यन्तानां द्वाराणामेकजीवमपेक्ष्य प्ररूपणीयत्वात् । इत्थं हि सप्तकर्मणामुत्कृधायाः स्थितेरेकजीवाश्रयो जघन्यो बन्धकाल एकसमयोऽर्थात् केनचिदेकेन जीवेनारब्धो ज्ञानावरणादीनामायुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामन्यतमप्रकृतेरुत्कृष्टस्थितिवन्धस्तदारम्भद्वितीयसमयेऽपि व्युपरमति । तथाहि-प्रत्येकं प्रकृतीनामुत्कृष्टा जघन्या वा स्थितिः साकारोपयोगोपयुक्तेन जन्तुना निर्वयते, न पुनरनाकारोपयोगोपयुक्तनः एतच्च स्वामित्वद्वारेऽर्थतोऽभिहितमेव । अत्र साकारोपयोगे सत्युत्कृष्टा स्थितिरेव बध्यत इति न नियमः, किन्तु साकारोपयोगे सत्येवोत्कृष्टा स्थितिबध्यते, नान्यथेति । तथा च सति साकारोपयोगे सति केषाञ्चिदुत्कृष्टा स्थितिबंध्यते, केषाञ्चिचनुत्कृष्टाऽपि, अनाकारोपयोगे सति तु नियमतोऽनुस्कृष्टैव बध्यते । साकारानाकारोपयोगी तु प्रत्यन्तर्मुहूर्त नियमेन परावर्तेते, ततश्च केनापि पूर्वप्रवृत्त
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१५०]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ओघतोऽष्टानामुत्कृष्टेतरस्थित्योः साकारोपयोगोपयुक्तेन पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियमिथ्यादृष्टिजीवेन साकारोपयोगाद्धायाश्चरमसमये सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धः प्रारब्धः, स च द्वितीयसमये साकारोपयोगे व्युपरते साकारोपयोगेन सममेव व्युपरतः, इत्थं हि साकारोपयोगक्षयप्रयुक्तः सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैकजीवाश्रयो जघन्यकाल एकसमयः प्राप्यते । अनान्यथाऽपि भावना क्रियते । तद्यथा-एकेन्द्रियादितयोपिसुर्भवचरमसमये वर्तमानः कश्चिद्भवनपत्यादिदेवस्तदानीमुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्यसंवलेशावाप्त्या उत्कृष्टं स्थितिवन्धं प्रारभते, ततश्च द्वितीयसमये कालं कृत्वैकेन्द्रियादीनां बन्धप्रायोग्यं स्थितिवन्धं कुवननुत्कृष्ट स्थितिवन्धमेव करोति, इत्येवं तादृशजीवविशेषमाश्रित्योत्कृष्ट स्थितिबन्धस्य जघन्यकालः समयमात्रो लभ्यते । इत्थमेव नारकतयोस्पित्मन् मनुष्यादीनपेक्ष्य तथा केषाञ्चिज्जीवानां तु तद्भवे स्वभावत एव द्वितीयसमयेऽध्यवसायपरावृत्त्योत्कृष्टस्थितिबन्धव्युपरमात्प्रकृतजघन्यबन्धकालो द्रष्टव्य इति ।
__ अथ सप्तानामुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टं बन्धकालमाह- 'गुरू महत्तंतो"त्ति प्रकृतत्वात्सप्तप्रकृतीनां गुरुस्थितेगुरु:-उत्कृष्टो बन्धकालो 'मुहूर्तान्तः'-अन्तमुहूर्तमित्यर्थः । कुतोऽन्तमुहूर्तम् ? उत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैकस्थितिबन्धस्थानात्मकत्वात् । इदमुक्तं भवति-जघन्यस्थितिवन्ध उत्कृष्टस्थितिवन्धश्च प्रत्येकमेकैफस्थितिबन्धस्थाना मकः, समयादिहीनाधिकस्थितिवन्धस्थानानां तत्राऽप्रवेशात् । अजघन्यानुत्कृष्टस्थितिवन्धी तु प्रत्येकं नानास्थितिबन्धस्थाना-मकौ, जघन्योत्कृष्टैकैकस्थितिबन्धस्थानं विवर्य शेषसर्वस्थितिवन्धस्थानानां तत्र प्रवेशात् । किंचकैकस्थितिबन्धस्थानात्मकानि प्रत्येकस्थितिबन्धस्थानान्युत्कर्पतोऽन्तमु हूत बध्यन्ते, न परतः, अन्तर्मुहूर्ताचं नियमेन समयादिना हीनाधिकस्थितिबन्धभावात् । ननु 'कस्मादन्तमुहूर्तात् परतो नियमेन समयादिहीनः समयाद्यधिको वा स्थितिबन्धः प्रवर्तते ?' एकस्थितिवन्धप्रायोग्यानामध्यवसायानामन्तमु हूर्तादूर्ध्व नियमेन परावर्तनात् । उक्तं च शतकचा- 'ठितिं निवत्तेति जाणि अज्झवसा गठाणाणि ताणि ठितिबंधझवसाणाणि कसायोदयावि बच्चंति, ताणि अंतोमुहत्तमेत्तकालपरिणामाणि" इति । प्रकृतोत्कृएस्थितिबन्ध एकस्थितिवन्धस्थानात्मकस्ततोऽन्तमु हताय नियमेन परिवर्तत इति तम्योत्कृष्टोऽपि कालोऽन्तमुहृत मेघ लभ्यत इति । ___अथौघत एवायुर्वर्जसप्तप्रकृतीनामनुत्कृष्टस्थितेवन्धकालं दिदर्शयिपुरादौ जघन्यत आह--'अगुरूप महत्तंतो लह"त्ति सप्तानामगुरोः-अनुत्कृष्टायाः स्थितेः "लहुत्ति, लघुः-जघन्यो बन्धकालो मुहर्तान्तः-अन्तमुहर्तम् । 'असंखपरियट्टियरों ति उक्तजघन्यादितर:-उत्कृष्टो बन्धकालोऽसंख्येयाः प्रदलपरावर्ताः । अयम्भावः-उत्कृष्टस्थितिवन्यप्रायोग्याध्यवसाय उत्कर्पतोऽन्तमुहर्ता नियमेन प्रतिपतति, स च जघन्यतो यथाऽन्तर्मुहूर्तेऽतिक्रान्तेऽपि कैश्चिज्जीरवाप्यते, तथा कैश्चिज्जीवैरतिबहकालातिक्रमणेनाप्यवाप्यते, स च काल उत्कृष्टतोऽसंख्येयपुगलपरावर्तप्रमाणो भवति, अत एवोक्तं शतकचा--'समयाअो अाढत्तो अंतोमुहुत्तायो णियमा फिट्टइ त्ति । तश्रो परिवडतस्स अणुक्कोसस्स साइयो, पुणो जहन्नेणं अंतोमुहुत्तेणं उक्कोसेणं गणंताहिं ओसप्पिणि उस्सप्पिरिणहिं उक्कोसं ठिई बंधमाणस्स अणुक्कोसस्स अधुवो,' इति । कुतः ? इति चेत् , तावत्कालमपि केषांचिज्जीवानां पूर्वानुभूतोत्कृष्टस्थिति
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जघन्योत्कृष्ठबन्धकालः ] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १५१ बन्धप्रायोग्याध्यवसायानवाप्तेः । कस्मादेतावत्कालं पुनरपि तादृशाध्यवसायो नाऽवाप्यते ? असंश्यवस्थायां तथाविधसामग्रीविरहेण तादृशाध्यवसायस्यानुत्पत्तेः । असंश्यवस्था तूत्कृष्टतोऽसंख्येयपुद्गलपरावर्तान् यावदवतिष्ठते, तदीयोत्कृष्टकायस्थितेरसंख्येयपुद्गलपरावर्तप्रमाणत्वात् । वक्ष्यते च -“णेया असंखिया खलु, परिअट्टा पोग्गलाण तिरियस्स । एगिदिय-हरियाणं, काय णपुंसग-असरणीणं" ॥१५४॥ इति।।
इत्थं चासंख्येयपुद्गलपरावान् यावदुत्कृष्टस्थितिबन्धाभावे केषांचिदसंज्यवस्थायां तावत्कालमनुत्कृष्टस्थितिबन्ध एव प्रवर्तते, ततश्चानुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टो बन्धकालोऽसंख्येयपुद्गलपरावर्तप्रमाणोऽभिहित इति ॥१४१॥
उक्त अोधतः सप्तानामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्जघन्योत्कृष्टद्विविधोऽपि बन्धकालः । साम्प्रतं शेपस्याऽऽयुपस्तं द्विविधं कालमोघतः प्रतिपादयन्नल्पवक्तव्यत्वादादावायुष एव तमादेशतः प्रदर्शयश्चाह
आउस्सुक्कोसाए ठिईश्र समयो हवेज्ज हस्सियरो।
अगुरूअ मुहुरंतो, अाउस्सेमेव सव्वासु ॥१४२॥ (प्रे) “अाउस्सुक्कोसाए' इत्यादि, आयुप उत्कृष्टायाः स्थितेः समयो भवेत् । क इत्याह"हस्सियरो" तिहस्वः'-जघन्यकालः, 'इतरः'–उत्कृष्टका लश्च, अोधत एकजीवाश्रयो जघन्यो बन्धकालः, उत्कृष्टवन्धकालश्च प्रत्येकमेकसमय एव भवति, नाधिक इत्यर्थः । कुतः ? आयुष उत्कृष्टस्थितिवन्धस्योत्कृष्टावाधासापेत्रत्वाद्, वेद्यमानायुपोऽवशेषरूपायास्तस्या अबाधायाः प्रतिसमयं परिगलनाञ्चेति । इदमुक्तं भवति-त्रयस्त्रिंशसागरोपमस्थितिकस्य वध्यमानायुष उत्कृयावाधायां सत्याम कृयास्थितिवन्धो गण्यते, कर्मरूपतापस्थानलक्षणस्य स्थितिबन्धस्याधिकृतत्वात् । उत्कृष्टावाधा तु वेद्यमान पूर्वकोटीस्थितिकायुपो भागद्रयेऽतिगते सति तृतीयभागस्यायसमये अायुध्नतः प्राप्यते, न पुनहितीयादिसमयेषु, वेद्यमानायुपः प्रतिसमयं परिगलनेन शेषवेद्यमानायुरूपाया अबाधाया द्वितीयादिसमयेपु समय-दिसमयादिभिहीन-हीनतर-हीनतमभाषात् । इत्थमुत्कृष्टावाधाया एकं समयं प्राप्तेस्तदधीन आयुष उत्कृष्टस्थितेवन्धकालोऽपि जघन्यत उत्कृष्टतो वा समयमात्रः प्राप्यते, नाधिक इति ।
अथायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेबन्धकालमाह- "अगुरूअ मुहत्तंतो ति 'अगुरोः'-अनुत्कृष्टस्थितेमुहर्तान्तः-अन्तमु हृतम् । कः ? एकजीवाश्रयो ह्रस्वकालः, तदितर उत्कृष्टकालश्च, गाथापूर्वाधस्य प्रान्तेऽभिहितस्य "हस्सियरो" इत्यस्य घण्टालालान्यायनात्रापि योजनात् । कस्मादुभयथाप्यन्तमुहूर्तमेव प्राप्यते ? आयुष एकजीवाश्रित प्रकृतिवन्धकालस्य जघन्योत्कृष्टतोऽन्तर्मुहूर्तत्वात्, आयुषः प्रकृतिवन्धे सति कुत्रचित्समयमेकं विहायानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य नियमेन भाराच्चेति ।
उक्त ओघत आयुयोऽप्युत्कृष्टानुन्कृष्टस्थित्योः प्रत्येक द्विविधो बन्धकालः। साम्प्रतमल्पवक्तव्यत्वात् लावाच्च सप्तकर्माणि विहायादावायुप एवेकजीवाश्रितं बन्धकालमादेशतो
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१५२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुष उत्कृष्टेतरस्थित्योः मार्गणास्थानेषु दिदर्शयिपुरतिदिशन्नाह- 'पाउस्सेमेव सव्वासु" ति आयुःकर्मण 'एवमेव' यथौघतोऽभिहितस्तथैव 'सर्वासु'-निरयगत्योघादिसर्वमार्गणासु, उत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्जघन्योत्कृष्टद्विविधोऽपि बन्धकाल इति गम्यते । इति ॥१४२॥
अनन्तरगाथायामायुष उत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्जघन्योत्कृष्टद्विविधबन्धकालस्यौधेन सह तुल्यप्रायत्वात् सर्वमार्गणापु लाघवार्थं सामस्त्येन कृतेऽतिदेशे या काचिदतिप्रसक्तिस्तामुतु काम आह
णवरि अणुक्कोसाए, लहू खणो होइ पणमणवयेसु।
काये उरले विउवे, अाहारदुगे कसायेसु ॥१४३॥
(प्रे) —णवरि" इत्यादि, 'नवरम्'-परम् 'अणुक्कोसाए' त्ति आयुषोऽनुत्कृष्टायाः स्थितेलघुः-जघन्यो बन्धकालः क्षण:-समयो भवति, न पुनयथातिदेशमन्तमुहूर्तम् । कासु मार्गणास्वित्याह- "पणमणवयेसु' इत्यादि, पञ्चशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् पञ्चमनोयोगभेदेषु पञ्चवचोयोगभेदेषु तथा “काये' त्ति काययोगसामान्यभेदे, "उरले" ति औदारिककाययोगे, "विउवे" ति वैक्रियकाययोगे, "अाहारदुगे" ति आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगयोके, आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणाद्वय इत्यर्थः । ' कसायेसु"ति चतुषु क्रोधादिकपायमार्गणाभेदेष्वित्येतास्वेकोनविंशतिमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । कुत एतास्वायुपोऽनुत्कृष्टस्थितेजेधन्यबन्धकालोऽपोद्य समयमात्रोऽभिधीयते ? उच्यते, आयुर्वन्धप्रारम्भद्वितीयतृतीयसमयेष्वपि प्रवर्तमानस्य मनोयोगादियोगविशेषस्य योगान्तरतया तथा क्रोधादिकषायस्य कषायान्तरतया परावृत्ती सत्यां मार्गणाविच्छेदप्रयुक्तस्य समयमात्रकालस्याऽपि लाभात् । अयम्भावः-प्रवृत्तमनोयोगेन केनाऽपि संक्षिपञ्चेन्द्रियजन्तुना यथाकालमनुत्कृष्टस्थितिकायुषो बन्धः प्रारब्धः, बन्धप्रारम्भद्वितीयसमये तस्य मनोयोगो वाग्योगतया काययोगतया वा परावृत्तः, अर्थान्मनोयोगमार्गणा व्यवच्छिन्ना। इत्थं हि तस्य मनोयोगमार्गणायामेकं समयमनुत्कृष्टस्थितिवन्धस्य प्रवृत्तिर्लब्धा, समयोनान्तमुहृतं तु मनोयोगोत्तरप्रवृत्तवचोयोगादिमागणान्तरे प्राप्ता, ततश्च मनोयोगमागणायामायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकाल एकसमय एष प्राप्तः । अयमेवेकसमयप्रमाणो बन्धकालोऽन्यथाऽपि भाव्यते । तद्यथा-निरुक्तस्वरूपस्य कस्यचिजन्तोर्यदाऽऽयुर्वन्धस्य चरमे समये पूर्वप्रवृत्त मनोयोगादिभ्योऽन्यः कश्चिद्योगः प्रवर्तते तदा तस्मिन्नुत्तरस्मिन् प्रवृत्तयोगे आयुषः प्रकृतवन्धकालः समयमात्रो लभ्यते । यद्वा काययोगं विवयं शेषप्रकृतयोगानां जघन्यावस्थानं समयमानं भवति । कुतः ? मनोयोगादीनां जघन्यकायस्थितेः समयमात्रत्वात् । वक्ष्यते च
“पणमणवयजोगाणं ओरालाहारविश्यकम्माणं . . . . . . . 'समयोऽत्थि जइएणकायठिई।" इति । जघन्यकायस्थितिप्रतिपादनावसरे। ततश्च कस्यचिज्जन्तोरायुर्वन्धे प्रवर्तमाने मध्य एव समयमेक मनोयोगादिः प्रवर्तते, तदा विवक्षितमनोयागादिमार्गणायां प्रस्तुतबन्धकाल एकसमयः प्राप्यते,
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जघन्योत्कृष्टबन्धकालः ]
द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १५३
काययोगमार्गणायां पूर्वोक्तरीत्यैव एकसमयो भावनीयः, न पुनरनन्तरोक्तरीत्या, तस्याः कार्यस्थितेर्जघन्यतोऽप्यन्तमुहूर्तत्वात् । वक्ष्यते च - " भिन्नमुहुत्तं उ सयलपज्जत्तगजोणिणीण कायस्स ।” इति । कपायमार्गणाभेदेषु तु मनोयोगादिमार्गणावत् प्रस्तुतबन्धकालो भावनीयः । एतासु मार्गणासु शेषबन्धकालस्य तथा नरकगत्योघादिमार्गणासु चतुर्विधस्यापि बन्धकालस्य च भावना तु सर्वथैवौघचद् द्रष्टव्येति ॥१४३॥
तदेवं दर्शित आयुष उत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्जघन्योत्कृष्टद्विविधबन्धकाल आदेशतोऽपि । साम्प्रतं शेपकर्मणां तमादेशतो दिदर्शयिपुरादाबुकृष्टस्थितेर्जघन्यं बन्धकालं साधयिया दर्शयतिचरणाण - संयमेसु, समइअ - छेअ - परिहार देसेसु । ओहिम्मि सम्म वेअग, उवसम-मीसेसु णायव्वो ॥ १४४ ॥ सत्तरह गुरुअ लहू, भिन्नमुहुत्तं खणो उसेसासु ।
(प्रे०) “चरणाणे" त्यादि, मत्यादिचतुर्ज्ञान-संयमौघमार्गणासु, सामायिक-छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिक- देशसंयममार्गणासु, अवधिदर्शन- सम्यक्त्वौघ - वेदकसम्यक्त्वौ - पशमिकसम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वमार्गणास्त्रित्येतासु चतुर्दशमार्गणासु प्रत्येकं ज्ञातव्य इत्यर्थः । को ज्ञातव्यः, कियांच ज्ञातव्य इत्याह-“सत्तण्ह गुरुअ" इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां 'गुरोः ' -उत्कृष्टायाः स्थितेर्लघुः-जघन्यो बन्धकालः । स च “भिन्नमुहुत्तं" ति भिन्नमुहूर्तम्, अन्तर्मुहूर्तमात्र इत्यर्थः । " खणो उ सेसासु" ति 'क्षण:' समयः शेषासु मतिज्ञानाद्यनन्तरोक्तचतुर्दशमार्गणावर्जासु निरयगत्योघ। दिषट्पञ्चाशदभ्यधिकशतमार्गणास्त्रित्यक्षरार्थः । भावार्थस्स्वयम् - मिथ्यात्वाद्यभिमुवावस्थां गता जीवा मिध्यात्वादिकमप्राप्य मध्य एव कालं न कुर्वन्ति, किन्तु मिथ्यात्वादिकं यमभिमुखीभृतास्तं प्राप्यैव कालं कुर्वन्ति । किञ्चाभिमुखावस्थायामुपशमश्रेण्यादिवदुत्तरोत्तरसमयेष्वनन्तगुणानन्तगुण विशुद्धेरनन्तगुणानन्तगुणसंक्लेशस्य वा वर्धनाद् यथोत्तरस्थितिबन्धा अप्युपशमश्रेण्यादिवद्यथास्थानमन्तमुहूर्तमन्तमुहूर्त प्रवर्तन्ते । अत्र यथोत्तरमनन्तगुणविशुद्धिः संयम- देशसंयमाद्यभिमुखानां मिथ्यादृष्ट्यादीनां बोद्धव्या, यथोत्तरमनन्तगुणसंक्लेशस्तु वैपरित्येन देशसंयमाSसंयमाद्यभिमुखानां संयतादीनां ज्ञातव्यः । किञ्च तदानीमभिमुखावस्थायां साकारोपयोगक्षयासम्भवात् कश्चित्स्थितिबन्धः समयं प्रवृत्य विच्छेदमपि न याति । ननु कुतस्तदानीं साकारोपयोगक्षयाऽसम्भवः ? उच्यते - संक्लिश्यमानजीवानां साकारक्षये सति विशुद्धयवाप्तेः प्रसङ्गात्, एवं विशुध्यमानानां साकारक्षये सति संक्लेशावाप्तेः प्रसङ्गाच्च । न च प्राप्नुवन्तु मिथ्यात्वाद्यभिमुखाः संक्लिश्यमाना विशुद्धिम्, एवं सम्यक्त्वाद्यभिमुखा विशुध्यमानाः संक्लेशमिति वाच्यम् । प्रकृताभिमुखावस्थायाः स्वरूपहानिप्रसङ्गात् । यतोऽभिमुखावस्थायां नास्ति पञ्चालनम्, अन्यथा तदानीमपि स्थितिबन्धानां वृद्धिहानिप्रवर्तनाद् अभिमुखावस्थाया अनियमः स्यात्, न च भवत्वनियमः
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१५४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुर्वर्जानाम् को दोषः ? इत्यपि वाच्यम् , अभव्यानामपि सम्यक्त्वाभिमुखताप्रसङ्गादित्यलं विस्तरेण । एतेनेदं ज्ञापितं भवति, यत्
“णाणतिगे ओहिम्मि य सम्मुवसमवेअगेसु चउगइयो । तप्पाउग्गकिलिट्ठो सम्मो मिच्छाहिमुहो अंते ॥९८॥ मणणाणम्मि पमत्तो अयताभिमुहो य तयणुरुवकिट्ठो । अंतिमबंधे संयमसमइअछेएसु मिच्छहुत्तो स ॥९९।। परिहारम्मि पमत्तो छेआहिमुहो तदरिहसंकिट्ठो।। देसे मिच्छाहिमुहो दुगइट्ठो तयणुरुवकिट्ठो ॥१००।"
"मीसे मिच्छाहिमुहो सासाणे व तयणुरुवसंकिट्ठो।....।।१०४॥" इत्यादिवचनेन ज्ञानत्रिका-ऽवधिदर्शन-सम्यक्त्वौष-वेदको-पशमिकसम्यक्त्वमार्गणासु मिथ्यात्वाभिमुखानां तथैव संयमोघ-सामायिक-च्छेदोपस्थापनसंयम-देशसंयममार्गणासु मिश्रमार्गणायां च मिथ्या
वाभिमुखानामुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकत्वात् , मनःपर्यवज्ञानमार्गणायामसंयमाभिमुखानां परिहारविशुशिकसंयममार्गणायां छेदोपस्थापनसंयमाभिभुखानामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धभावाच्च माज्ञानादिप्रस्तुतचतुर्दशमार्गणाभावी विवक्षितैकजीवकृतसप्तप्रकृतिसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धो मरणव्याघातसाकारक्षयादिना समयमानं प्रवृत्त्य नैव विच्छेदं याति, किन्तु निराबाबतया जघन्यतोऽप्यन्तमुहूर्त प्रवृत्यैव विरमति, ततश्चाधिकृतमार्गणासु सप्तकर्मणामुत्कृष्टायाः स्थितेर्जघन्योऽपि बन्धकालोऽन्तर्गत प्राप्यते । शेषनरकगत्यादिमार्गणासु तूत्कृष्टस्थितिबन्धप्रारम्भद्रितीयसमये मरणव्याघाताद्यन्यतमनिमित्तसमुद्भवे स्वभावतो वाऽसौ समयमा प्रवृत्त्याऽपि विरमति, ततश्च नरकगत्यादिशेपमाणासु सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यो बन्धकालः समयमात्रः प्राप्यत इति । अत्र मृले सासादनमार्गणाया निरयगत्योधादिशेषमार्गणाऽन्तर्गतत्वात् तत्र प्रकृतजघन्यवन्धकालो यः समयमात्रोऽभिहितः,स तु स्वस्थानगतानां सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वापेक्षया बोद्धव्यः । मिथ्यात्वाभिमुखानां तत्स्वामित्वापेक्षया त्वसावुक्तनीत्या जघन्यतोप्यन्तमुहूर्तमेव लभ्यत इति तथैव ज्ञातव्य इति ॥१४४॥
अथ सप्तानामत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टं बन्धकालमपि सार्धाऽऽर्यया व्याकरोतिकम्मा-ऽणाहारसुणेयो परमो दुवे समया॥१४५॥ भिन्नमुहुत्त समयो वा उक्कोसो तिमिस्सजोगेसु। सेसासु मग्गणासुभिन्नमुहत्तौं मुणेयवो ॥१४६॥ (प्रे०) “कम्माणाहारेसु"मित्यादि, कार्मणकाययोगमार्गणायामनाहारकमार्गणायां च ज्ञेयः, क इत्याह-“परमो” त्ति सप्तानामुत्कृष्टायाः स्थितेः 'परमः'-उत्कृष्टो बन्धकाल इत्यर्थः । कियानित्याह-“दुवे समया" ति द्वौ समयाविति । कुतः ? उत्कृष्टस्थितेन्धिकस्य कस्यचिदपि जीवस्य प्रस्तुतमार्गणाद्वये समयद्वयादधिकमनवस्थानात् । अयम्भावः-कार्मणकाय
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उत्कृष्टस्थितेर्जधन्यबन्धकाल: ] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १५५ योगा-ऽनाहारकमार्गणयोः सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका ये संज्ञिभ्यश्च्युत्वा वक्रगत्या संज्ञितयोत्पद्यमाना उत्पत्तिस्थानमप्राप्ता विग्रहगतौ वर्तमाना जीवास्ते भवन्ति, न पुनरेकेन्द्रियाद्यसंज्ञिभ्य आगताः संज्ञिनः, असंज्ञिभ्य आगतानां तदानीमनाहारकावस्थायामसंज्ञिप्रायोग्यस्थितिवन्धभावेन प्रस्तुतमार्गणाभाव्यन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वासम्भवात् । संज्ञिभ्यश्च्युत्वा संज्ञितयोत्पद्यमानानां त्रसनाडावेवोत्पत्तेरुत्कृष्टतोऽपि त्रिसामयिकी द्विवक्रा गतिर्भवति, न पुनस्त्रिवक्राऽपि, तस्याः स्थावराणामेव सम्भवात् । उक्तं च श्रीस्थानाङ्गत्रिस्थानकाध्ययनस्य चतुर्थोद्देशकवृत्ती
'उक्कोसेणं' ति सानां हि त्रसनाड्यन्तरुत्पादाद्वक्रद्वयं भवति, तत्र च त्रय एव समयाः, तथाहि-आग्नेयदिशो नैऋतदिशमेकेन गच्छति, ततो द्वितीयेन समश्रेण्याऽधस्ततस्तृतीयेन वायव्यदिशि समश्रेण्यैवेति, त्रसानामेव त्रसोत्पत्तावेवंविध उत्कर्षेण विग्रह इत्याह-एyदिये' त्यादि, एकेन्द्रियास्त्वेकेन्द्रियेषु पञ्चसामयिकेनाप्युत्पद्यन्ते, यतस्ते बहिस्तात् त्रसनाडीतो बहिरप्युत्पद्यन्ते, तथाहि-विदिसाउ दिस पढमे बीए पइसरइ लोयनाडीए । तइए उप्पिं धावइ, चउत्थए नीइ बाहिं तु ॥१॥ पंचमए विदिसीए गंतं उप्पज्जए उ एगिदि' त्ति सम्भव एवायम, भवति तु चतुःसामयिक एव, भगवत्यां तथोकत्वादिति, तथाहि-'अपज्जत्तगसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! अहे लोगखेत्तनालीट बाहिरिल्ल खेत्ते समोहए समोहणित्ता जे भविए उड्ढलो यखेत्तनालिए बाहिरिल्ल खेत्ते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोपमा ? तिसमइएण वा चउसमइण वा विग्गहेण उबबज्जेज्जा' इत्यादि" इति ।
किञ्चैकवक्रादिगतिषु द्वितीयादिसमयेषु जीव आहारं करोति, न पुनः प्रथमादिसमयेषु । इत्थं द्विसामयिक्यामेकवक्रायां प्रथमसमयेऽनाहारकः, त्रिसामयिक्यां द्विवक्रायां तु प्रथमद्वितयसमययोरनाहारकः, तृतीयसमय उत्पत्तिस्थानप्राप्ती पुनराहारकः । एवमुत्तरत्रापि चरमसमये आहारमादत्ते, शेषसमयेषु त्वनाहारकः । उक्तश्च श्रोप्रज्ञापनाकायस्थितिपदवृत्तौ श्रीमन्मलयगिरिसूरिपादैः-“तत्रोत्कर्पतस्त्रिसामयिक्यां विग्रहगतौ दावाद्यो समयावनाहारक” इत्यादि ।
___ इत्थं हि कार्मणकाययोगा-ऽनाहारकमार्गणाद्वये सप्तप्रकृतिसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनां संज्ञिभ्यश्च्युत्वा संज्ञितयोत्पद्यमानानां जीवानामुत्कृष्टतस्त्रिसामयिक्या द्विवक्रगत्योत्पत्तेरनाहारकावस्था तत्सहचारिणी कामणकाययोग्यवस्था चोत्कृष्टतो द्वौ समयौ प्राप्येते, ततश्चोत्कृष्ट स्थितिवन्धकालोऽपि तदधिको न सम्भवतीति तथैवोक्तः । कार्मणकाययोगा-ऽनाहारकमार्गणाद्वयं विहाय शेषमार्गणासु प्रस्तुतबन्धकालोऽन्तर्मुहूर्तं भवति, तथापि मिश्रयोगमार्गणात्रये शरीरपर्याप्तिनिष्ठापनादर्वागनन्तरसमये एवोत्कृष्टस्थितिबन्धो जघन्यस्थितिवन्धो वाजायत इति प्राक-“से काले पज्जत्ति निवउ स व मुण मीसजोगेसुं॥” इत्यादिना स्वामित्वप्ररूपणायां मतान्तरेण दर्शितस्वामित्वानुसारेणोत्कृष्टस्थितिबन्धस्योत्कृष्टः कालः समय एव प्राप्यत इति तत्र मार्गणात्रये उभयथापि दर्शयति"भिन्नमुहुत्तं समयो वा" इत्यादिना, सप्तानामुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टो बन्धकालः पर्याप्तिनिष्ठापनात्प्राक्समय एवोत्कृष्टो जघन्यो वा स्थितिबन्धो भवतीति मतेन "तिमिस्सजोगेसु” ति
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वाणे मूलपइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुर्वर्जानाम् औदारिकमिश्र-वैक्रियमिश्रा -ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणासु प्रत्येकं समयो भवति, तदन्यमतेन त्वसौ भिन्नमुहूर्तं भवतीत्यर्थः । उक्तपञ्चमार्गणा विवर्ज्य शेषमार्गणास्वाह - "सेसासु" इत्यादि, निरयगत्योधादिषु शेषासु पञ्चषष्ट्यभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त ज्ञातव्यः सप्तानामुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टो बन्धकाल इति गम्यते । सुगमं चेदम्, औधिकवन्वकालापेक्षयाऽधिककालस्य मार्गणास्थानेष्वसम्भवादिति ॥१४५-१४६॥
तदेवं प्रतिपादितो मार्गणास्थानेषु सप्तानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितेर्जघन्योत्कृष्टद्विविधोऽपिबन्धकाः । साम्प्रतं तासामेव सप्तानामनुत्कृष्टायाः स्थितेस्तं प्रचिकटयिपुरादौ गाथात्रयेण
जघन्यकालमाह
१५६ ]
एगिंदि - णिगोपसु तेसिं सुहुमेसु सिं अपज्जेसु । वण-अण्णादुगेसु णाणदुगे देसविरइम्मि || १४७ || अयता- चक्खसुतहा अमुहतिलेसा अभविय-भवियेसु । सम्मत्त - खइअ - बेअग-उवसम-मीसेसु मिच्छते ॥ १४८ ॥ मत्तण्ह मुहत्त तो अगुरुठिईए लहू खणो व भवे । मिस्सतिजोगा-ऽवहिदुग-परिहासु समयोऽत्थि सेसा ॥ १४९॥
(प्रे०) “एगिंदिणिगोएसु" मित्यादि, एकेन्द्रियजात्योचमार्गगायां “णिगोए” ति निगोदवनस्पतिमार्गणायां, साधारण वनस्पति कार्यो धमार्गणाभेद इत्यर्थः । "तेसिं सुहुमेसु " ति बहुवचनान्तर्निदेशः प्राकृतवशात्ततस्तयोरनन्तरोकयोरे केन्द्रियनिगोदयोर्यो 'सूक्ष्मो' सूक्ष्मैकेन्द्रियौय मार्गणाभेद सूक्ष्मसाधारणवनस्पतिकाघमार्गणाभेदौ तयोरित्यर्थः । एवमेवोत्तराऽपि, ततः “सिं अपज्जेसु” ति अनन्तरोक्तवो योः सूक्ष्मकेन्द्रिय-सूक्ष्मनिगोदोरपर्याप्तयोः, अपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियभेदे, अपर्याप्तसूक्ष्म साधारण वनस्पतिकायभेदे चेत्यर्थः । इत्येवं गाथार्थेन पण्मार्गणाः संगृहीताः । अथान्यमार्गणा संग्रहायाह- "वणअण्णाणदुगे सु” मित्यादि, वनस्पतिकायचे, अज्ञानत्रिके मत्यज्ञान - श्रुताज्ञानमार्गणात्रयलक्षणे, मतिश्रुतज्ञानयोर्द्विके, देशविरनी, देशसंयममार्गणायामित्यर्थः 1 "अयताचक्खूसु तह" ति असंयमाचक्षुर्दर्शनमार्गगयोः, तथाशब्दः समुच्चये । " असुहतिलेस" ति 'अशुभासु' - अप्रशस्तासु कृष्णादित्रिलेश्यासु, अभव्य- भव्यमार्गणयो:, तथा सम्यक्त्वौधक्षायिकसम्यक्त्व-वेदकसम्यक्त्वौ-पशमिकसम्यक्त्व-मिश्रदृष्टिमार्गणासु मिथ्यात्वमार्गगायामित्येतासु पञ्चविशतिमार्गणा प्रत्येकमित्यर्थः । एतासु प्रत्येकं किमित्याह - "सत्तण्हे" त्यादि, आयुर्वजनां सप्तप्रकृतीना मगुरो:- अनुत्कृष्टायाः स्थितेः 'लघुः' - जघन्यो वन्धकाल : "मुहुत्ततो" ति अन्तर्मुहूर्तमित्यर्थः । इयमत्र भावना - अनुत्कृष्टस्थितिबन्ध उत्कृष्टस्थितिबन्धवत् न केवलायां साकारोप
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[१५७
अनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यबन्धकालः ] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम् योगावस्थायामेव प्रवर्तते, किन्तु साकाराऽनाकारान्यतरोपयोगावस्थायामपि प्रवर्तते, इत्येवं नासौ साकारोपयोगक्षये उत्कृष्टस्थितिबन्धवत् क्षयं याति, येन साकारोपयोगचरमसमयप्रवृत्तानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य साकारोपयोगक्षयप्रयुक्तो जघन्यबन्धकाल उत्कृष्ट स्थितिबन्धजयन्यकालवत् समय मात्रः सम्पद्यत । तर्हि कथं लभ्यते ? अनुत्कृष्टस्थितिवन्धप्रारम्भद्वितीयसमये कालकरणेनाऽन्यथा वा प्रस्तुतमार्गणाया मार्गणान्तरतया परावर्तनात्, प्रस्तुतमार्गणाया विच्छेदादिति भावः । अत्रैकजीवाश्रयगतिजातीन्द्रियादिमार्गगाभेदानां विच्छेदस्ततद्गत्यादौ वर्तमानस्य जीवस्य कालकरणेनैव लभ्यते, नान्यथा । मनोयोगादिमार्गणानां तु कालकरणेन, कालकरणाभावे तु मार्गणान्तरगमनेन वाऽन्यतरप्रकारेणाऽपि विच्छेदः प्राप्यते, काययोगोध-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-मतिज्ञानादिकतिपयमागेणानां तु मागेणापरावत्यैव विच्छेदः प्राप्यते, न पुनर्मरणव्याघातेन । यद्यप्येवं तथाप्यधिकृतमार्गणाभ्यः केवलेन मरणव्याघातेन विच्छेदयोग्यास्वेकेन्द्रियादिषु प्रथमोपात्तसप्तमार्गणासु ये जीवा भवद्धिचरमसमये उत्कृष्टस्थितिवन्धं समाप्य भवचरमसमयेऽनुत्कृष्ट स्थितिजन्यं प्रारभन्ते, ते तदनन्तरं मृत्वा प्रकृतमार्गणायामेवोत्पद्यन्ते, अत एतासु सप्तमार्गणासु भवचरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्यस्य प्रारम्भकानां कालकरणेऽपि मार्गणाविच्छेदस्याऽभावात् , मार्गणाविच्छेदप्रयुक्तोऽनुत्कृष्टस्थितेजघन्यो बन्धकाल एकसमयो न प्राप्यते, किन्तु जयन्यतोऽप्यन्तमुहूर्तमेव लभ्यते ।
ननु कुत एते भवचरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिवन्धस्य प्रारम्भकाः प्रस्तुतैकेन्द्रियादिसप्तमार्गणागतजीवा अनन्तरसमये मत्वैकेन्द्रियादिप्रस्तुतमार्गणायामेवोत्पद्यन्ते, न पुनर्मार्गणान्तरेऽपि ? इति चेद, उच्यते, भवचरमसमयेऽनुत्कष्टस्थितिबन्धस्यारम्भका हि नियमतो भवद्विचरमसमय उत्कष्टास्थितिवन्धस्य निष्ठापकाः सन्ति, विहायोपशान्तमोहगुणस्थानकगतजीवान् । स च भवदिचरमसमये नियापितः स्वप्रायोग्योत्कृष्ट स्थितिबन्धस्तत्प्रायोग्योत्कष्ट संक्रशं विना न जायते, एवं हि ते नियमेन भवचरमान्तमहर्ते मरणाभिमखावस्थायां स्वप्रायोग्योत्कटस्थितिबन्धानुकूलसंक्ले शोपेताः सन्ति, भवचरमान्तमुहूर्ते स्वप्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धानुरूपसंत शवतां जीवानां तु वर्तमानमनुष्यपञ्चेन्द्रियादिभवेभ्यश्व्युत्वा स्वप्रायोग्य सर्वनिकृष्टेषु नरकतिर्यगेकेन्द्रियादिस्थानेपुत्पत्तिर्जायते । तथाहि-नारकाणामुत्पत्तिप्रायोग्यं सर्वनिकृष्टं स्थानं तिर्यग्गतिः पञ्चन्द्रियजात्यादयश्च । कुतः ? तेषां बन्धप्रायोग्यमनुष्यगत्यपेक्षया तिर्यग्गतेरधमत्वात् । पञ्चन्द्रियजात्यपेक्षया यद्यपि चतुरिन्द्रियाद्यधमजातयः सन्ति, तथापि ता न नारकाणां बन्धप्रायोग्याः, अतः पञ्चन्द्रियजातिरेयोपादीयते, न त्वेकेन्द्रियादयः । तिर्यग्गतावेकेन्द्रियाणां ततश्च्युत्वोत्पत्ति प्रायोग्यं सर्वनिकृष्टं स्थानं तिर्यग्गतिरेकेन्द्रियजात्यादिकं च, न तु नरकगतिरपि, एकेन्द्रियाणां तत्रानुत्पादात् , शेषाणां मनुष्यगति-धीन्द्रियजात्यादिस्थानानां तिर्यग्गत्येकेन्द्रियजात्यादिस्थानापेक्षयोत्कृष्टत्वाच्च । द्वीन्द्रियादिलक्षणानां विकलाक्षाणामुत्पत्तिप्रायोग्यं सर्वापकृष्टं स्थानं तिर्यग्गतिरेकेन्द्रियजातिसूक्ष्मस्वादयश्च । अत्रादिपदादपर्याप्तत्व-नपुंसकवेदित्वादिकमवमतमस्थानतया यथासम्भवं ग्राह्यम् । इत्थ
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१५८ ]
'धविहाणे मूलपडिटिबंधो
[ मार्गणास्थानेष्वायुर्वर्जानाम् मेव पूर्वत्रोत्तरत्र चावसातव्यम् । पञ्च ेन्द्रियतिरथां पुनर्नरकगतावप्युत्पादात् तेषां पञ्च न्द्रियाणामुत्पत्तिप्रायोग्यं सर्वनिकृष्टं स्थानं नरकगतिः पञ्चेन्द्रियजात्यादयश्च ।
ननु अत्र पञ्चेन्द्रियत्वस्य सर्वापकृष्टस्थानतया ग्रहणं नैव युज्यते, पञ्चेन्द्रियतिरश्चामेकेन्द्रियजातावप्युत्पादात् तस्याश्च पञ्चेन्द्रियजात्यपेक्षयाऽपकृष्टत्वात् ? इति चेद्, न, जातिष्वपि गतिरेवप्रधाना, अपकृष्टगत्यनुवर्तिनी सामान्यतोऽनिकृष्टजातिरपि निकृष्टतया गृह्यते, कुतः ? पञ्च न्द्रियजातेरपि नरकगत्या समं बध्यमानतया सर्वसंक्लेशेन निर्वर्तनात् । वस्तुतः स्वप्रायोग्योत्कृष्टसंक्लेशनिर्वर्तनीयानां गति -जात्यादीनां स्वप्रायोग्य सर्वापकृष्टस्थानरूपत्वेनाभिमतत्वादिति । यथा तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां तथा मनुष्याणामपि बोध्यम् । देवगतिभेदेषु त्वीशानकल्पान्तानां देवानां तिर्यग्गतिरेकेन्द्रियजात्यादिकं च सर्वनिकृष्टमुत्पत्तिप्रायोग्यं स्थानम्, न पुनः सनत्कुमारादिसहस्रारकल्पान्तानापि तत् । कुतः ? तेषां सनत्कुमारादीनामेकेन्द्रियेष्वनुत्पादाद्, अत एव तेषां सर्वनिकृष्टमुत्पत्ति प्रायोग्यं स्थानं तिर्यक्पञ्चेन्द्रियरूपमेव । आनतकल्पादिवासिनां तु मनुष्यरूपमेव सामान्यतोऽनिकृष्टानुत्कृष्टं स्थानम् । स्वप्रायोग्योत्कृटस्थितिबन्धानुकूलसंक्ले शवद्भिरपि तैर्मनुष्यगतेरेव निर्वर्तनात् । अन्यच्च भवचरमान्तमुहूर्ते ये जीवा यादृक्स्थानाभिमुखास्तादृशस्थानानुरूपपरिणाम भाजः प्रायशो भवन्ति, अतो नरकाभिमुखमनुष्याणामिवैकेन्द्रि यतयोत्पित्सूनां भवचरमातमुहूर्तं निर्वहतामीशानकल्पान्तदेवानां तादृशानां विकलेन्द्रियाणां भवचरमान्तर्मुहूर्ते उत्कृष्टसंक्क - शसम्भवः, न पुनस्तदन्येषां भवचरमान्तमुहूर्त निर्वहतामीशान कल्पान्तदेवानां विकलेन्द्रियाणां वा, एवमेव तिर्यक्पञ्चेन्द्रियतयोत्पसूनां सनत्कुमारादीनां सहस्रारान्तदेवानामेकेन्द्रियतयोत्पत्सूनामेकेन्द्रियाणां च भवचरमान्तमुहूर्ते उत्कृष्टसंक्के शसम्भवः, न तु तदन्येषां मनुष्यतयोत्पित्सूनां सनत्कुमारादिसहस्रारान्त देवानां द्वीन्द्रियादितया वोत्पित्सूनामेकेन्द्रियाणाम् एवं सति प्रकृते एकेन्द्रिय तयोत्पित्सूनामेकेन्द्रियाणां भवचरमान्तमुहूर्ते उत्कृष्टस्थितिबन्धसम्भवः । भवचरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य प्रारम्भकानां तेषां च्यवनानन्तरं स्वगतिष्वेवोत्पच्या न च मार्गणाविच्छेदः, न वा तेषां तत्रापर्याप्तावस्थायामुत्पत्तिसमयप्रभृत्याऽन्तमुहूर्तं यावदुत्कृष्टस्थितिबन्धोऽपि सम्भवति; तथा सति पूर्वभवचरमसमयप्रारब्धानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य प्रकृतमार्गणायामेव जघन्यतोऽप्यन्तमुहूर्त यावन्नैरन्तर्येण प्रवर्तनादेकेन्द्रियादिसप्तमार्गणासु सप्तकर्मणामनुत्कृष्टस्थिते बन्धकालो जघन्यतोऽप्यन्तमुहूर्तमुक्तः । ननु यद्येवं तर्हि बादरपर्याप्तै केन्द्रियादिमार्गणास्वपि कथमसावनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यबन्धकालोऽन्तर्मुहूर्तं नोक्तः ? उच्यते, यथा द्वीन्द्रियादीनामेकेन्द्रियमार्गणारूपं स्वप्रायोग्यं सर्वनिकृष्टं स्थानं स्वस्थानाद्भिन्नमस्ति, ततश्च तत्रोत्पित्सूनां भवचरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य प्रारम्भकानामपि द्वीन्द्रियादीनामनन्तरसमय एकेन्द्रियतयोत्पच्या द्वीन्द्रियादिमार्ग - णायामनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकाल एकसमयो लभ्यते, तथा बादरपर्याप्तै केन्द्रियादिमार्गणागतजीवानामप्युत्पत्तिप्रायोग्यं सूक्ष्मापर्याप्तै केन्द्रियादिरूपं सर्वनिकृष्टं स्वस्थानाद्भिन्न मार्गणान्तररूपं स्थानं
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अनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यबन्धकालः ] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १५९ विद्यते । भवचरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य प्रारम्भका बादरपर्याप्त केन्द्रियाद्या नियमतो भवचरमान्तमुहर्ते उत्कृष्टस्थितिबन्धस्य कर्तारः, तथा च सति तेषां ततश्च्युत्वा सूक्ष्मापर्याप्तकेन्द्रियतया मार्गणान्तरे उत्पत्या प्रकृतमार्गणाया विच्छेद एव, एवं च सति भवचरमसमयारब्धस्यानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य प्रस्तुतबादरपर्याप्तकेन्द्रियादिमार्गणायां समयमात्रप्रवृत्तेादरपर्याप्तकेन्द्रियादिमार्गणास्वनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यबन्धकालोऽन्तमुहूर्तं नोक्तः, किन्तु समय एव वक्ष्यतीति । एकेन्द्रियोध-सूक्ष्मैकेन्द्रिया-ऽपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रिय-बनस्पतिकायसामान्य-साधारणवनस्पतिकाय-साधारणसूक्ष्मवनस्पति-- काया-ऽपर्याप्तसाधारणसूक्ष्मवनस्पतिकायरूपप्रस्तुतसप्तमार्गणागतजीवानां नास्ति किश्चित्स्योत्पत्तिप्रायोग्यं स्वस्थानाद्भिन्न मार्गणान्तररूपं सर्वनिकृष्टं स्थानम् । कुतः ? प्रस्तुतैकेन्द्रियादितत्तन्मागणाया एव तेषां सर्वनिकृष्टस्थानरूपत्वात्, अन्यासामनिकृष्टत्वाच्च । भवचरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्यारम्भकाः प्रकृतैकेन्द्रियादितत्तन्मार्गणागतजीवा मृत्वाऽनन्तरं सूक्ष्मापयर्याप्तवनस्पतितयोत्पद्यमानाः स्वस्वमार्गणायामेवोत्पद्यन्ते, न तु मार्गणान्तरे; अतः कालकरणेऽपि न तेषां प्रकृतमार्गणाविच्छेदप्रयुक्तोऽनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्य एकसमयो बन्धकालः । मार्गणान्तरे उत्पित्सूनां तु प्रस्तुतसप्तमार्गणागतजीवानां भवचरमान्तमुहर्ते उत्कृष्टस्थितिबन्ध एव न भवति, कुतः ? एकेन्द्रियोघादिस्वस्वमार्गणाभ्यो या अन्याः प्रस्तुतमार्गणागतजीवानामुत्पत्तिप्रायोग्या मार्गणास्तास्तेषां न सनिकृष्टस्थानरूपाः, अतस्तत्रोत्पित्सूनां तत्तद्वीन्द्रियादिमार्गणान्तराभिमुखानां तेषां भवचरमान्तमुहूर्ते न परम उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्यः संक्लेशः, तथा च सति तेषां भवचरमान्तमुहर्तेऽनुत्कृष्टस्थितिवन्ध एव, तस्य च कालकरणेनाधिकृतमार्गणाविग्छित्याऽपि सप्तानामनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य प्रकृतमार्गणायां जघन्यतोऽप्यन्तमहूर्तमेव प्रवर्तनं लभ्यते, भवचरमान्तमहूर्तात् पूर्वत एव प्रवृत्तस्यानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य मरणं यावत् प्रस्तुतमार्गणायां नियमतः प्रवर्तनात् । कालकरणाभावे तु प्रस्तुतमार्गणानां परावृत्तेरसम्भवादिति । ननु सूक्ष्मापर्याप्तपृथिवीकायिकादिमार्गणाभेदेषु कथं प्रस्तुतकालोऽन्तम हूत नोक्तः ? उच्यते, सूक्ष्मापर्याप्तपृथिवीकायिकादिमार्गणाभेदेषु प्रत्येकशरीरिण एव जीवाः प्रविष्टाः । तेषां चास्ति स्वप्रायोग्यं सर्वेनिकृष्टं स्वस्थानादिन्नं साधारणवनस्पतिकायमार्गणारूपं स्थानान्तरम्, अतस्तत्रोत्पित्सूनां तेषां भवचरमसमयारब्धानुत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षयाऽपि सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्जधन्यबन्धकालो नान्तमुहूर्तम् , किन्तु समय एव ।
अयमत्र परमार्थ:-येषां हि स्वप्रायोग्यं सर्वनिकृष्टं पारभविकोत्पत्तिस्थानं मार्गणान्तररूपं नैव वर्तते, ते हि यदि भवचरमान्तमुहर्ते स्वप्रायोग्यमुत्कृष्टं स्थितिबन्धं कुर्वन्ति, तदा स्वकीयवर्तमानमार्गणायामेवोत्पद्यन्ते, तेषां च भवचरमसमयप्रारब्धानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य कालोऽन्तमुहूर्तमेव, न पुनरेकसमयः, भवचरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिवन्धं प्रारभ्य मार्गणान्तरे उत्पित्सुजीवापेक्षया तल्लाभात् । प्रस्तुतैकेन्द्रियादिसप्तमार्गणागतजीवानां स्वीयस्वीयमार्गणाभ्यो भिन्नाः स्वप्रायोग्यसर्वनिकृष्टस्थानरूपा अन्यमार्गणा न सन्ति, अत उक्तनीत्या तास्वनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्य
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१६० ]
वाणे मूलपइबंधो
[ मार्गणास्थानेष्वायुर्वर्णानाम् बन्धकालोऽन्तर्मुहूर्तमेव लभ्यते, न पुनः समयमात्रः । न च त्रसकायिकानां सर्वनिकृष्टं स्थानं नरकगतिः, सा च तेषां स्वभिन्नस्थानरूपा नास्ति, नारकाणां त्रसकायान्तर्गतत्वात्, यद्यप्येवं तथाऽपि सकायान्तर्गता देवा भवचरमान्तर्मुहूर्ते उत्कृष्टस्थितिबन्धं कृत्वा मार्गणान्तरे एकेन्द्रियतयोत्पद्यन्ते, अतो निरुक्तनियमो ऽतिव्याप्नोतीति वाच्यम् । यतस्त्रसकायिकानां स्वप्रायोग्य सर्वनिकृष्ट गमनस्थानं न केवलं नरकगतिरूपम्, तदनुवर्तिपञ्चेन्द्रियजातिरूपं च, किन्तु तिर्यग्गत्ये केन्द्रियजातिरूपमपि, कुतः ? नरकगतिवत् स्वप्रायोग्य सर्वसंक्लेशनिर्वर्तनीयत्वलक्षणस्य स्वप्रायोग्य सर्वनिकृष्टस्थानत्वस्य तत्रानपायात्, बध्नन्ति च त्रसकायान्तर्गता ईशानदेवलोकपर्यन्ता देवाः सर्वसंक्कशे सति तिर्यग्गतिमेकेन्द्रियजात्यादिकं च, तथा च सति नरकगत्यादिकमाश्रित्य सकायानां स्वप्रायोग्य सर्वनिकृष्टस्वभिन्नस्थानाभावेऽपि तिर्यग्गत्ये केन्द्रियजात्यादिकं समाश्रित्य स्वप्रायोग्यं सर्वनिकृष्टस्वभिन्नस्थानं विद्यत एव, अतो भवचरमान्तमुहूर्ते उत्कृष्टस्थितिबन्धं कृत्वा देवरूपाणां सकायिकानामेकेन्द्रियरूपायां त्रसान्यमार्गणायामुत्पत्याऽपि यथोक्तनियमो निराबाध एव । इत्थमेव पञ्चेन्द्रियमार्गणागतजीवानामप्युत्पत्तिप्रायोग्यसर्वनिकृष्टस्थानस्य द्विविधत्वेन स्वभिन्नस्थानाऽविरहादोषानापत्तेरित्यलं विस्तरेण । इदमत्र बोध्यम्-यदुक्तं पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणां नरकरूपम्, नारकाणां तिर्यक्पञ्चेन्द्रियरूपम्, देवविकलेन्द्रियाणामेकेन्द्रियादिरूपम्, तथैव पर्याप्तानामपर्यातरूपं, बादराणां सूक्ष्मरूपं, त्रसानां स्थावररूपं यथासम्भवं सर्वनिकृष्टं स्थानं वेदितव्यम्, तत्रापि मनुष्यतिर्यगादीनां नरकादिषु पञ्चम- पष्ठ- सप्तमनरकादिरूपं स्वप्रायोग्यं सर्वनिकृष्टस्थानमित्यादिकं समयाविरोधेन भावनीयमिति । अथ प्रस्तुतमेवोच्यते-मत्यज्ञान - श्रुतज्ञानमार्गणाद्वये त्वौधिकानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य जघन्यकालवद् भावना कर्तव्या, तथैवाऽचक्षुर्दर्शना-संयम-भव्या-भव्यमिथ्यात्वमार्गणास्वपि प्रत्येकं भावनीयम् । मतिज्ञान - श्रुतज्ञानमार्गणयोः सम्यक्त्वकालस्य जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तत्वात् तदपेक्षया प्रस्तुतान्तमुहूर्त कालो भावनीयः । इत्थमेव देशसंयम-सम्यक्त्वसामान्यौ-पशमिकसम्यक्त्व-वेदकसम्यक्त्व- क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणासु मिश्रदृष्टिमार्गेणायां च प्रत्येकं भावना कर्तव्या । ननु सम्यक्त्वौघादिमार्गणासु मार्गणापरावर्तनप्रयुक्त एकसमयजघन्यबन्धकालः कथं न लभ्यते ? उच्यते, सम्यक्त्वौघादिमार्गणासु मिथ्यात्वाद्यभिमुखानामुत्कृष्टस्थितिबन्धभावान्नासावुत्कृष्टस्थितिबन्धो मार्गणाविच्छेदादर्वाग् विचरमसमये व्युपरमते, किन्तु चरमसमयं यावत्प्रवर्तते ततश्च चरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैवाऽभावात्कुतस्तस्य मार्गणापरावृत्तिप्रयुक्तो व्याघातः स्यात्, तदभावे च कुत एकसमयः प्रस्तुतजघन्यबन्धकालः, न कुतश्चिदित्यर्थः । न च देशसंयममार्गणायां मरणव्याघातेन मार्गणाविच्छेदादवग्भावी चरमस्थितिबन्धोऽनुत्कृष्ट एव, स कदाचिदेकसमयो लभ्येतेति वाच्यम् । यतो देससंयमप्रत्तिपत्तेरारभ्य प्रवृत्तानुत्कृष्टस्थितिबन्धोऽपि जघन्यतोऽन्तमुहूर्तं प्रवर्तत एव कुतः ? भङ्गबहुलदेशविरतिप्रतिपत्तौ जघन्येनाऽप्यन्तर्मुहूर्तकालस्य गमनात् । उक्तं चश्रीमन्मलयगिरिपादैः श्रीप्रज्ञापनावृत्तौ — “देशविरतिर्हि द्विविधत्रिविधादि
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अनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यबन्धकाल: ] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[१६१ भङ्गबहुला। तत्प्रतिपत्तौ जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्त लगति" इति । कृष्णाद्यशुभलेश्यामार्गणात्रये तु सुगमः, भवचरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धं प्रारभ्य भवान्तर उत्पत्याऽपि कृष्णलेश्यादिमार्गगानां तत्राऽनुवर्तनादिति । ___ अथ यासु मार्गणासु प्रस्तुतः सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्जवन्यवन्धकालो मत येन पृथक्पृथप्राप्यते तासु तथैव दर्शयन्नाइ-"खणो व भवे मिसतिजोगा-ऽवहिदुग-परिहारे” त्ति औदारिकमिश्र-वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारकमिश्रकाययोगत्रयलक्षणेषु त्रियु मिश्रयोगेषु, अविज्ञाना-5वधिदर्शनलक्षणेऽवधिक परिहारविशद्धिकसंयमे च "खणी व भवे" त्ति 'मुहत्तंतो अगुरुठिईए लहु" इति पदानां देहलीदीयकन्यायेनात्राऽपि योजनात् सप्तानामनुत्कृष्टायाः स्थितेर्जघन्यो बन्धकालो मुहूर्तान्तः क्षणो वा भवेदित्यर्थः । तत्र मिश्रयोगत्रये शरीरपर्याप्तिनिष्ठापनप्रासमये वर्तमानानामेव जघन्योत्कृयस्थितिबन्धस्वामित्वमतेनाऽन्तमुहूर्तम् । कुतः ? मार्गणाप्रथमसमयादारभ्य प्रवृत्तानुस्कृष्टस्थितिवन्धस्य मिश्रयो चरमसमयं यावत् नैरन्तर्येण प्रवर्तनात्, मिश्रयोगजघन्यकालस्याप्यन्तर्मुहूर्तत्वाच । तदन्यमतेन त्वसौ 'क्षणः'-समयो ज्ञातव्यः, तन्मते मिश्रयोगचरमसमय इव तचिरमादि समयेत्कृष्टस्थितिवन्धस्य सम्भवात् । ततः किम् ? ततो ये केचनौदारिकादिमिश्रयोगिनः संज्ञिपञ्चेन्द्रियकरणापर्याप्ता मिथ्यादृष्टिजीवा मिश्रयोगचिरमसमय उत्कृष्टस्थितिवन्धं समाप्य चरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिवन्धं प्रारभन्ते, तेवामनुत्कृटस्थितिरन्धस्य मिश्रयोगमार्गणानां समयमात्रप्रवर्तनात् जवन्यबन्धकाल एक समयः प्राप्यत इति । शेषमार्गगात्रये त्वसौ मतद्वयेन वक्ष्यमाणमार्गणाजवन्यकायस्थित्यनुसारेण विविध उक्तः, तत्रान्तमुहूर्तकालस्तु मतिज्ञानादिमार्गणापतिज्ञेयः, समयस्तु वक्ष्यमाणमनोयोगादिमार्गणावदिति ।
__"समयोऽत्थि सेसासु" ति उक्तशेषासु निरयगत्योघादिष्वेकोनचत्वारिंशदभ्यधिकशतमार्गणामु प्रत्येकं समयो भवति, सतप्रकृतिसत्कानुकृस्थिते वन्यो बन्धकाल इति गम्यते । उक्तशेषमागणास्तु नामत इमाः-सर्वे निरयगतिमार्गणाभेदाः, सर्वे तिर्यग्गतिमार्गगाभेदाः, सबै मनुष्यगतिमार्गणाभेदाः, सर्वे च देवगतिमार्गगाभेदास्तथा बादरैकेन्द्रियोध-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तबादरेकैन्द्रिय-पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियरूपाश्चत्वार एकेन्द्रियमार्गणाभेदाः, द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियमार्गणासत्कास्तु सर्वे भेदाः, तथैव पृथिव्यप्तेजोवायुकायप्रत्येकवनस्पतिकायमार्गणासत्का अपि सर्वे भेदाः, बादरसाधारणवनस्पतिकायोध-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तरूपास्त्रयस्तथा पर्याप्तसूक्ष्मसाधारणवनरपतिकाय भेदश्च, त्रसकायमानणासत्कास्तु सर्वेऽपि, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-काययोगतामान्यौ-दारिक क्रिया-ऽऽहारक-कार्मणकाययोगभेदाः, स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेदाः, अपगतवेदः, क्रोधादिचतुःकषायाः, मनःपर्यवज्ञान-विभङ्गज्ञान-संयमोघ-सामायिक-छेदोपस्थापन-सूक्ष्मसम्परायसंयमचक्षुर्दर्शन-तेजः-पद्म-शुक्ललेश्या-सासादन-संश्य-असंड्या ऽऽहारिमार्गणाभेदाश्चेति । एतासु प्रत्येकं सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यवन्धकालः प्रागुक्तनीत्या मार्गणाद्विचरमसमये उत्कृष्टस्थितिबन्धं समाप्य
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१६२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानेष्वायुर्वर्जानाम् मार्गणाचरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धं प्रारभ्य च मार्गणान्तरगमनेन तत्तन्मार्गणाविच्छेदप्रयुक्तो बोद्धव्यः, कासुचिन्मनोयोगादिमार्गणासु तु मार्गणाया वक्ष्यमाणसमयमात्रजघन्यकायस्थितिमपेक्ष्य प्रकारान्तरेणाप्यसौ लभ्यते, केवलं नपुंसकवेदमार्गणायां प्रस्तुतजघन्यबन्धकालः मार्गणाया जघन्यकायस्थितिमपेक्ष्यैव, न पुनरुत्कृष्टस्थितिबन्धादुत्तीर्य भवचरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रारम्भापेक्षयाऽपि । कस्माद् ? उत्कृष्टस्थितिबन्धादुत्तीर्य भवचरमसमयेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य प्रारम्भकानां नपुंसकवेदिजीवानां भवचरमान्तमुहूर्ते उत्कृष्टस्थितिबन्धभावेन प्रागुक्तनीत्या भवान्तरे नपुंसकवेदितयैवोत्पत्तेर्नपुंसकवेदमार्गणाया विच्छेदाभावात् तद्विच्छेदाधीनः प्रकृतैकसमयबन्धकालो न लभ्यते, किन्तु जघन्यतोऽप्यन्तमुहूर्तमेव लभ्यते, अतः समयमात्रस्तु जघन्यकायस्थित्यनुसारेणोन्नेय इति । अत्र शेषमार्गणासु विस्तरभावना तूक्तदीशा कर्तव्या। तद्यथा-केनचिन्नारकजीवेन भवचरमसमये पूर्वप्रवृत्तं सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धं समाप्यानुत्कृष्टस्थितिवन्धः समारब्धः, अनन्तरसमये त्वसौ तत उद्धृत्य तिर्यक्तयोत्पन्नः, तत्र यद्यपि तस्य सप्तानामनुत्कृष्टस्थितिबन्ध एव प्रवर्तते, तथाऽपि नासौ निरगत्योधमार्गणायाम् , तदानीं तस्य निरयगतिवहिस्त्वात् , इत्येवं तस्य निरयगत्योधमार्गणामपेक्ष्य सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्जधन्यबन्धकालः समयमात्रः प्राप्त इति । इत्थमेव शेषनिरयगतिभेदादी स्वयमेव भावनीय इति ॥१४७-१४८-१४९॥
तदेवं प्ररूपितः सर्वमार्गणासु सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यो बन्धकालः । साम्प्रतं तस्या एवाऽनुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टं बन्धकालं दिदर्शयिपुर्गाथाद्वयमाह -
जेट्टो असंखलोगा एगिदि-णिगोअ-पंचकायेसु।। अंगुलअसंखभागो होइ छसुहमोघभेएसु॥१५०॥ ओघव्व अणाणदुगे अयता-ऽचक्खु-भवि-अभिवि-मिच्छेसु।
सेसासु उक्कोसा सगसगकायट्टिई यो ॥१५१॥ (प्रे०) “जेट्ठो असंखलोगा" इत्यादि, ज्येष्ठः-सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टो बन्धकालः पुनः "असंखलोग" त्ति क्षेत्रतोऽसंख्यलोकाः, असंख्येयेषु लोकाकाशप्रमितेष्वाकाशखण्डेश्वसत्कल्पनया प्रतिसमय मेकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽपहीयमाणे यावता कालेन ते सर्व आकाशप्रदेशा अपहीयन्ते तावान् काल इत्यर्थः। कालतस्त्वसावसंख्योत्सर्पिण्यवसपिण्यो भवति। कासु मार्गणास्वित्याह-"एगिदिणिगोअपंचकायेसु" ति एकेन्द्रियसाधारणवनौघमार्गणयोस्तथा पञ्चसु पृथिव्यादिवनस्पतिकायान्तास्वोधमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । अन्यत्राह-"अंगुलअसंखभागो होइ" त्ति अगुलासंख्येयतमैकभागप्रमाणक्षेत्रगताकाशप्रदेशेषु प्रतिसमयमेकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽपह्रीयमाणे यावान् कालोऽपगच्छति, तावान् कालो भवति । स च कालतोऽसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिण्य एव ।
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अनुरकृष्टस्थितेरुत्कष्टबन्धकालः ] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १६३ कुत्रेत्याह-"छसुहुमोघभेएसु” त्ति सूक्ष्मैकेन्द्रियादिषु पटषु सूक्ष्मजीवौषभेदेषु, ते च सूक्ष्मैकेन्द्रियोध-सूक्ष्मपृथ्वी कायौघ-सूक्ष्मा कायाध-सूक्ष्मतेजस्कायौघ-सूक्ष्मवायुकायौघ-सूक्ष्मसाधारणवनस्पतिकायौघमार्गणालक्षणा बोद्धव्याः। ननु "असंखलोगा" इत्यनेन कालतोऽसंख्योत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाणकालो व्याख्यातः, प्रकृते च "अंगुलअसंखभागो” इत्यनेनापि कालतोऽसंख्योत्सर्पिण्यवसपिण्य एवं व्याख्यातास्तत्कथं नाऽसङ्गतिः, असंख्यलोका-ऽङगुलासंख्यभागयोरतिमहदन्तरत्वात् ? इति चेद न, “सुहुमो य होइ कालो, तत्तो सुहुमयरयं हवइ खित्त"मिति वचनात् कालापेक्षया क्षेत्रस्यातिवहुसक्ष्मतयोक्तनीत्याऽङ्गुलासंख्यभागमात्रक्षेत्रगताऽऽकाशप्रदेशापहरणेऽप्यसंख्योत्सर्पिण्यषसर्पिण्य एवापकाम्यन्ति, केवलं ता असंख्यलोकप्रमाणक्षेत्रप्रदेशापहारेऽपगच्छदुत्सपिण्यवसर्पिण्यपेक्षयाऽसंख्येयभागमात्रा इति न काचिदसङ्गतिरिति । अथ मार्गणान्तरेप्वाह-- "ओघव्व" इत्यादिना, सप्तानामनत्कृष्टायाः स्थितेरुत्कृष्टो बन्धकाल ओघवदसंख्येयपुद्गलपरावर्तप्रमाणो भवति । कासु मार्गणास्थित्याह-"अणाणदुगे” इत्यादि, मन्यज्ञान-श्रुताज्ञानमार्गणाहयरूपेऽज्ञानदिले, असंयममार्गणायां तथाऽचक्षदर्शनमार्शणायां भव्यमार्गणायामभव्यमागंणायां मिथ्यात्वमार्गणायामित्येतासु सप्तमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । सुगमवायम् , ऑविककालापक्षराऽधिककालस्य कुत्राप्यमम्भवादिति । ___ अथ शेपमार्गणासु लाघवात्तत्तन्मार्गणायाः स्वम्वोकृष्टकायस्थितिप्रमाणः प्रकृतोत्कृष्टवन्धकाल इति दर्शयन्नाह-'सेसामु” इत्यादि, अनन्तरोता एकन्द्रियादिविंशतिमार्गणा विहाय शेपासु निरयगत्यादिपञ्चाशदुत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकम् “उक्कोसा सगसगकायटिई" ति एकजीवस्य नैरन्तर्येण विवक्षितनारकादितत्तत्पर्याये उत्कृष्टावस्थानलक्षणैकजीवाश्रया निरयादितत्तन्मार्गणानां स्वकीया स्वकीयोत्कृष्टा कायस्थितिरित्यर्थः । अत्राऽपि व्याख्यानतः शेषमार्गणाऽन्तःप्रविटायामपगतवेदमार्गणायां 'सेसासु उस्कोसा सगसगकाढिईत्यनेनोत्कृष्टकायस्थितिरन्तमुहूर्तप्रमाणः प्राप्तोऽपि प्रस्तुतकालोऽन्तमुहूर्ततु ज्ञातव्यः, न तूत्कृष्टकायस्थितिः; उत्कृष्टकायस्थितेरन्तम हर्तप्रमाणत्वेऽपि तन्मये उपशान्ताद्धादिकालस्य प्रविष्टत्वात् , तदानीं च प्रकृतिबन्धसत्वेऽपि स्थितिबन्धस्याऽप्रवर्तनेन परिपूर्णोत्कृष्टकायस्थिति कालस्याऽसम्भवात् । कायस्थितिस्तु सर्वेमार्गणानां प्रक प्रकृतिबन्धेऽभिहिताऽपीह स्थितिबन्धमधिकृत्य किञ्चिद्विशेषतोऽनुपदमेव वक्ष्यमाणस्वरूपाऽवसातव्या । ननु कुत एतासु नरकगत्योधादिमार्गणासु प्रस्तुतबन्धकाल एकजीवविषयायाः मार्गणासत्कोस्कृष्टकायस्थितेस्तुल्यो भवति ? उच्यते, निरयगत्योपादिमार्गणासत्कोत्कृष्टकायस्थिति निर्गमयद्भिः कैश्चिजीवैः सकृदप्युत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्यसंक्लेशमनवाप्योत्कृष्टां मार्गणाकायस्थिति यावदुत्कृष्टस्थितिवन्धो न क्रियते, उत्कृष्टस्थितिवन्धाभावेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्तु तेयां मार्गणाप्रथमसमयादारभ्य मार्गणाचरमसमयं यावन्नरन्तर्येण प्रवर्तते, ततश्च सप्तकर्मणामनुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्ट बन्धकाल उत्कृष्टकायस्थितिप्रमाणो लभ्यत इति । ननु यद्येवं तडॅकेन्द्रियादिविंशतिमार्गणास्वप्यसौ
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१६४ ]
विहाणे मूलप डिइिबंधो [ मार्गणास्थानानामेकजीवाश्रया कथं कायस्थितिप्रमाणो नाभिहित: ? उच्यते एतासु विंशतिमार्गणासु कासुचिद्भव्या-ऽभव्यजीवविशेषमधिकृत्यैकत उभयतो वा निरवधिकासु भव्यादिमार्गणासु, कासुचिच्चै केन्द्रियादिष्व संख्येयलोकादि प्रमाणाऽतिब हुदीर्घकाय स्थितिकासु मार्गणासूत्कृष्ट कार्यस्थितिकालं निर्गमयद्भिर्जीवैरन्तराऽन्तरेत्कृष्ट स्थितिबन्धप्रायोग्यं संक्केशमवाप्य नियमेनोत्कृष्टस्थितिबन्धः क्रियते, ततच तासु मार्गणासु कस्यापि जीवस्यानुत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्टकायस्थितिं यावन्नैरन्तर्येण नैव प्रवर्तते, अत एतासु मार्गणास्वनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्योत्कृष्टः कालो न उत्कृष्टकायस्थितिप्रमाणः, किन्तु ततोऽप्यत्यन्तहीनः सावधिकश्चेति तास्वसौ निरयगत्यौघादिमार्गणावदुत्कृष्टकाय स्थितिप्रमाणो नाभिहितः, किन्तु विशेषत एवाऽभिहित इति । । १५०।१५१॥
तदेवमुक्त एकेन्द्रियौघादिषु विंशतिमार्गणासु 'जेहो असंखलोगा' इत्यादिना विशेषेण, शेषासु निरयगत्योघादिपञ्चाशदुत्तरशतमार्गणासु तु 'उक्कोसा सगसगकायट्टिई' इत्यनेन सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टो बन्कालः स्वीयस्वीयोत्कृष्टकाय स्थितिरिति । तत्र कार्यस्थितिर्यद्यपि प्रकृतिबन्धे प्रदर्शिता, तथापि सा तत्र सामान्यतच्छद्मस्था छद्मस्थोभयावस्थामपेक्ष्यैवोक्ता, तत्र तस्या युज्यमानत्वात् । इह तु स्थितिबन्धस्य प्रस्तुतत्वेन तदुपयोगिनीम्, उत्तरत्रत्रक्ष्यमाणानुभागबन्धादिग्रन्थोपयोगिनीं चेति मत्वा के लछन स्थावस्थाधीनां पूर्वापेक्षया किञ्चिद्विशेषसमन्वितां तामाचष्टेकायटिई उकोसा णिरय-मराणं विभंगणाणस्स ।
किण्ड सहल - खडआणं तेत्तीसा सागरा णेया ॥ १५२ ॥
(०) "काय उक्कोसा" इत्यादि, निरुक्तस्वरूपा एकजीवाश्रयोत्कृष्टा कायस्थतिज्ञेयेति गाथाप्रान्तेऽन्वयः । केषां मार्गणास्थानानां कियती ज्ञेयेत्याह - " णिरयसुराण" मित्यादि, निरयगतिसामान्यस्य देवगतिसामान्यस्य विभङ्गज्ञानस्य कृष्ण-शुक्रलेश्या - क्षायिक सम्यक्त्वानामित्येतेषां पण्णां मार्गणास्थानानां प्रत्येकम् "तेत्तोसा सागरा" त्ति 'भीमो भीमसेन' इति न्यायेन पदेऽपि पदसमुदायोपचारात् त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीत्यर्थः । तत्र नैरथि - काणामुत्कृष्टभवस्थितिप्रमाणैवोत्कृष्टकायस्थितिरपि, नैरविकाणामनन्तरभवे नैरविकतयाऽनुत्पादात्, उत्कृष्टभवस्थिते स्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणत्वाच्च । उक्तं चागमे -
नेरइए णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साइ उनको सेणं तेत्ती सं सागरोवमाइ " इति ।
इत्थमेव देवगतिसत्काऽपि वेदितव्या, देवानामप्यनन्तरभवे देवतयाऽनुत्पादात्, तदीयोत्कृष्टभवस्थितेस्त्रयस्त्रिशत्सागरोपमप्रमाणत्वाच्च । विभङ्गज्ञानस्योत्कृष्टा कार्यस्थितिरपि नैरथि - कस्योत्कृष्टभवस्थितिप्राधान्याल्लभ्यत इति सामान्यतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणा दर्शिताऽपि तत्तन्मतानुसारेण सोपस्कारं व्याख्येया । तद्यथा - श्रीप्रज्ञापनासूत्राऽभिप्रायेण देशोनपूर्वकोट्यभ्यधिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । उक्तं च
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उत्कृष्ट कार्यस्थितिः ]
द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १६५
"विभंगणाणी णं भंते ! विभंगणाणि त्ति कालओ केवञ्चिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं. उक्को सेणं तेन्तीसं सागरोत्रमाइ देसृणाते पुव्वकोडीते अव्भहिताई" इति । (कायस्थितिपदे सूत्र - २४१)
इत्थमेव कृष्णलेश्यादिके शेषमार्गणात्रयेऽपि सामान्यतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यभिहिताऽपि प्रकृतकाय स्थितिरन्तमुहूर्तादिनाऽभ्यधिका द्रष्टव्या । कस्माद् ? उत्कृष्टस्थितिकस्य कृष्णलेश्याकनारकस्य कृष्णलेश्यायाः पूर्वोत्तरभवद्वयेऽन्तमुहूर्त सम्बन्धात् । इदमुक्तं भवति - सप्तमनरक उत्कृष्टस्थितिकतयोत्पित्सोः कस्यापि जीवस्य मनुष्यादिवर्तमानभवचरमान्तमुहूर्ते नियमेन कृष्णलेश्या समुद्भवति । सा च तदा निवर्तते, यदा तत्स्वामी नारकतयोत्पद्योत्कृष्टकायस्थितिं चातिवाद्य ततच्युत्वा पुनरपि तिर्यग्भवे भवप्रथमान्तमुहूर्तमतिगच्छति । एवं च तादृशमेकजीवमपेक्ष्य कृष्णया उत्कृष्ट कार्यस्थितिरन्तमु हर्तद्वयेनाधिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि भवति । उक्तं च श्रीप्रज्ञापनायाम् - " कण्हले से णं भंते ! कण्हलेसेत्ति कालतो केवञ्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाइ अंतोमुहुत्तमम्भहियाई” इति ।
T
इत्थमेव शुक्लेश्याया अपि मूलो काय स्थितिरन्तर्मुहुर्तेनाभ्यधिका द्रष्टव्या । यदुक्तं प्रज्ञापनासूत्रे कायस्थितिपदे- “सुक्कले से णं भंते ! सुक्कले से त्ति कालओ केवश्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को सेणं तेत्तीस सागरोत्रमाई अंतोमुहुत्तमम्भहियाइ" इति । भावनाप्यत्र कृष्ण
यावदेव द्रष्टव्या नवरं मनुष्पभवायुत्वाऽनुत्तरविमाने उत्कृष्टस्थितिकदेवतयोत्पद्य पुनरपि मनुष्यभवे उत्पद्यमानजीवमपेक्ष्येति । क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणायां तु न केवलेनाऽन्तमुहूर्तेनाभ्यधिका, न वा सूत्रो का साद्यनन्तभङ्गपतिता, किन्तु यावत् क्षपकश्रेणिमवाप्य स्थितेरवन्धको न भवति, तावत्पयन्ता बोद्धव्या । स्थितिबन्धाद्युपयोगिनीं कायस्थितिं प्रदर्शयितुं प्रवृत्तत्वादिति । महाबन्धकारैस्तु विभङ्गज्ञाने एकं पर्याप्तसंज्ञि पञ्चेन्द्रियजीवभेदमङ्गीकृत्याऽपर्याप्तावस्थायां विभङ्गज्ञानस्याभावेन भवद्रसत्कविभङ्गज्ञान कालस्य सान्तरत्वादन्तमुहूर्तोनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कृष्टा कार्यस्थितिरभ्युपगम्यत इति ॥ १५२ ॥
अथ शेषनिरयगतिभेदानां प्रकृतकार्यस्थितिमाह
पढमा गणिरयाणं कमसो एगो य तिष्णि सत्त दस । सत्तरह य बावीसा तेत्तीसा सागरा णेया ॥ १५३॥
(प्रे० ) “पढमाइ गणिरयाण" मित्यादि, 'प्रथमादिकनिरयाणां' - प्रथमादिपृथिवीभेदैर्भिनानां प्रथमादिसप्तमान्तानां निरयगतिमार्गणाभेदानां क्रमशः 'ज्ञेया' इति गाथाप्रान्ते सम्बन्धः | उत्कृष्टकायस्थितिरिति गम्यते । क्रमशः कियती ज्ञेयेत्याह - "एगो ये" त्यादि, एतेषामेकत्र्यादीनां त्रयस्त्रिंशत्पर्यन्तनां संख्यापदानां प्रत्येकं "सागरा" इति परेणान्वयः । तत्र “सागरा" इति सागरोपमाणि, ततश्चायमर्थः - अर्थवशादूवचन विपरिणतेः प्रथमनिरयस्यैकजीवाश्रयोत्कृष्टा कायस्थितिरेकं सागरोपम र द्वितीयनिरयस्य तु सा त्रीणि सागरोपमाणि, एवं तृतीयस्य सप्त
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१६६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानानामेकजीवाश्रया सागरोपमाणि, चतुर्थस्य दश सागरोपमाणि, पञ्चमस्य सप्तदश सागरोपमाणि, षष्ठस्य द्वाविंशतिः सागरोपमाणि, सप्तमपथिवीनरकभेदस्य तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीति । सुगमं चैतत् , तत्तन्नरकगतनैरयिकानामुत्कृष्टस्थितेयथोक्तैकत्र्यादिसागरोपमप्रमाणत्वात् , अनन्तरभवे नारकतयाऽनुत्पादाचेति । उक्तं च पृथिवीभेदेन नारकाणां भवस्थिति दर्शयता जीवसमासकृताएगं च तिण्णि सत्त य दस सत्तरसेव हुंति बावीसा। तेत्तीसाउयहिनासा पुढवीसु ठिई कमुक्कोसा।।" इति ।
तदेवं दर्शिता निरयगतिभेदानामेकजीवाश्रया दीर्घकायस्थितिः । साम्प्रतं क्रमप्राप्ततियेगगतिमार्गणाभेदानां तां प्रचिकटयिपुः सदृशकायस्थितिकानामन्येषामपि भेदानां सममेवाह
णेया असंखिया खलु परिअट्टा पोग्गलाण तिरियस्म । एगिदिय-हरिआणं काय-णपुसग-असण्णीणं ॥१५४॥
(प्रे) "णेया असंखिये"त्यादिः "य" ति प्रकृतोत्कृष्टकायस्थिति था, कि रत्प्रमाणा कस्य कम्येत्याह-"असंखिये"त्यादि, "तिरियस्से"त्यादि, तिर्यग्गयोघभेदस्य, "एगिंदियहरिआणं" ति बहुवचनान्तनिर्देशः प्राकृतत्वात, तत एकेन्द्रिय-हरितयोः, एकोन्द्रियोघमार्गणाभेदस्य वनस्पतिकायोधमार्गणाभेदस्य चेत्यर्थः । तथा काययोगसामान्यस्य, नपुंसकवेदम, असंजिमार्गणाभेदस्येत्येतेषां पण्णां मार्गणाभेदानां प्रत्येकम् “असंखिया खल" ति खदुशब्दस्यावधारणार्थकत्वेनैकस्या आवलिकाया असंख्येयतमभागगतसमवग्रमाणा एवाऽसंख्येयाः "परिअट्टा पोग्गलाणं" ति पुद्गलानां परावर्ताः । उक्तं च कायस्थितिपदे
“तिरिक्खजोणिए णं भंते ! तिरिक्खजोणिपत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गो पसा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणिओ कालतो, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेज्जपोग्गलपरिपट्टा, ते एवं पुग्गलपरियट्टा प्रावलियाए असंखिज्जइ भागे” इति तथा "वरणस्सइकाइया णं पुच्छागोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उ को सेणं अणंतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणिअबसपिणिओ कालओ,खेतओ अणंता लोगा, असंखेज्जा पुग्गलपरियट्टा ते रणं पुग्गलपरियट्टा प्रावलियाए असंखेज्जइभागो "तथा" एगिदिए णं भंते ! पणिदिरा त्ति कालतो के वनिचरं होई? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतंकालं वरणस्सइकालो"। नथा “कायजोगी णं भंते ! कायजोनी त्ति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहूत्तं, उक्कोसेणं वणफइकालो" तथा "नपुंसकवेप त्ति पुन्छा०,गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो।" तथा असण्णी णं पुच्छा०, गो. ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को० वणस्सइकालो” इति ॥१४॥ अथान्येषु तिर्यग्गतिभेदेषु व्याजिहिर्ष स्तत्सास्यान्मनुष्यगतिभेदेष्वपि सममेवाह--
तिपणिदियतिरियाणं तिणराणं य पलिओवमा तिण्णि।
अब्भहिया पुव्वाणं कोडिपुहुत्तेण णायव्वा ॥१५५॥ (प्रे०) “तिपणिंदिये"त्यादि, अपर्याप्तभेदसत्ककायस्थितेः “सव्वाऽपज्जत्ताण"मित्यादिनाऽनन्तरं वक्ष्यमाणत्वात् तेनाऽपर्याप्तभेदेन रहितानां पञ्चेन्द्रियतिर्यगोध- पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय
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[१६७
उत्कृष्टाकायस्थितिः ]
द्वितीयाधिकारे कालद्वारम् तिर्यक्-तिरश्चीलक्षणानां त्रयाणां पञ्वेन्द्रियतिर्यग्भेदानां तथैवापर्याप्तमेदवर्जानां त्रयाणां नरगतिभेदानां च प्रत्येकं ज्ञातव्येति गाथाप्रान्तेऽन्वयः, प्रकृतोत्कृष्टकायस्थितिरिति गम्यते । कतिप्रमाणा ज्ञातव्येत्याह-“पलिओवमा तिण्णि” इत्यादि, पुव्यस्स उ परिमाणं सयरिं खलु वास कोडिलक्खाओ। छप्पन्न च सहस्सा बोधव्या वासकोडीणं ॥” इत्यादिनाऽन्यत्राऽभिहितपरिमाणानां पूर्वाणां कोटिपथक्त्वेनाभ्यधिकानि त्रीणिपल्योपमानीत्यर्थः । उक्तं च-“तिरिक्खजोणिणी णंभंते ! तिरिक्खजोणिणि त्ति कालओ केवञ्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओ माई पुवकोडिपुहुत्तमभहियाई । एवं मणुस्से वि, मणुस्सी वि एवं चेव" इति। -
इत्थमेव शेषभेदेष्वपि बोद्धव्यम्, “पंचिंदियतिरिनराणं सत्तट्ठभवा उ उक्कोसा" इति वचनादिति । न च श्रीप्रज्ञापनायाम्-“तिरिक्खजोणियपज्जत्तए णं भंते ! तिरिक्खजोणियपज्जत्तपत्तिकालतो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओबमाई अंतोमुहुत्तूणाई" इति ग्रन्थेन पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतियग्भेदस्योत्कृष्टकायस्थितेरन्तमुहर्मोनत्रिपल्योपमाभिहितत्वात्, कथमेतत् सङ्गच्छेदिति वाच्यम् । यतः प्रज्ञापनासूत्र-प्रकृतग्रन्थयोः पर्याप्तमार्गणाविश्यकविवक्षाभेदादुभयत्र वचनभेदमात्रः, न पुनः काचिदसङ्गतिः । इदमुक्तं भवति-श्रीप्रज्ञापनायां पर्याप्त जीवतया करणपर्याप्ता एव गृहीताः, लब्ध्यपर्याप्ताः करणापर्याप्ताश्च वर्जिताः । ततस्तत्र “सत्तट्ठः भवा उ उक्कोसा" इति वचनोक्तसप्ताष्टभवप्रमाणकायस्थितिरुपादातुं न शक्यते, द्वितीयभवप्रथमसमयादेव करणापर्याप्तावस्थायाः प्राप्तः । इत्थं च तत्र द्वितीयभवप्रारम्भमाग पर्याप्तसत्का कायस्थितिनिष्ठां याति, तत्कुतः सप्ताप्टभवस्थितीनामनुसंधानसम्भवः । अत एव तत्रैकं त्रिपल्योपमस्थितिकं युग्मिभवमादाय तस्यापि प्रथममपर्याप्तावस्थासत्कमन्तमुहूर्त विवयं शेषाः स्थितिरुत्कृष्टकायस्थितितया दर्शिता । उक्त च तवृत्तौ मलयगिरिसूरिपादैः
“तिर्यसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तभावना प्रागिव, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमान्यन्तर्मुहूर्तोनानि, एतच्चोत्कृष्टायुषो देवकुर्वादिभाविनरतिरश्चोऽधिकृत्य वेदनीयम्, अन्येषामेतावत्कालप्रमाणायाः पर्याप्तावस्थाया अविच्छेदेनाप्राप्यमाणत्वात् , अत्राप्यन्तर्मुहूर्तोनत्वमन्तर्मुहूर्तस्याद्यस्याऽपर्याप्तावस्थायां गतत्वात्" इति ।
__ अत्र तु पर्याप्तनामकर्मोदयजन्यसर्वावस्थामपेक्ष्य कायस्थितिरभिहिता, पर्याप्तनामकर्मोदयस्तु करणापर्याप्तानामपि तदानीमपर्याप्तावस्थायां भवत्येव, ततश्चापर्याप्तावस्थासत्कमन्तमुहूर्त न वज्यंते, तथाचोत्कृष्टस्थितिकयुग्भिभवसम्बन्धिन्या त्रिपल्योपमस्थित्या सममनन्तरगतानां संख्येयवस्थितिकानां पर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियभवानां स्थितेरनुसन्धानमपि भवतीत्येवमत्र विवक्षाभेदादीर्घा कायस्थितिः प्रतिपादिता, न पुनः कश्चिन्मतान्तरोऽसङ्गतिर्वेत्यलं विस्तरेणेति ॥१५५।।
अथ क्रमप्राप्ताऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मार्गणास्थानस्य प्रस्तुतकायस्थितिं व्याजिहीर्ष स्तुल्यवक्तव्योपेता अन्या अपि मार्गणाः संगृह्य सममेवाह
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१६८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानानामेकजीवाश्रया सव्वापजत्ताणं समत्तवायरणिगोअकायस्स । पज्जतगसुहुमाणं पणवय-उरलमीसाणं ॥१५६॥ विउवा-ऽऽहारदुगाणं अवगयवेअस्स चउकसायाणं ।
सुहुमु-बसम-मीसाणं भिन्नमुहुरा मुणेयब्बा ॥१५७॥ (प्रे०) “सव्वापज्जत्ताण"मित्यादि, सर्वेषामपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगपर्याप्तमनुष्या-ऽपर्यासवादरैकेन्द्रिया--ऽपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रिया-ऽपर्याप्ततीन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रीन्द्रिया-ऽपर्याप्तचतुरिन्द्रिया-ऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रिया-ऽपर्याप्तवादरपृथिवीकायाप्कायतेजस्कायवायुकायसाधारणवनस्पतिकाया-ऽपर्याप्तसूक्ष्मपथिवीकायाप्कायतेजस्कायवायुकाया-ऽपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकाया--ऽपर्याप्त साधारणवनस्पतिकाया-ऽपर्याप्तत्रसकाय लक्षणानां विंशतिसंख्याकानामप्यपर्याप्तमार्गणाभेदानां “समत्तबायरणिगोअकायस्स" त्ति समाप्तस्य-पर्याप्तस्य बादरनिगोदाख्यसाधारणवनस्पतिकायभेदस्येत्यर्थः । तथा "पज्जत्तगसुहमाणं" ति पर्याप्तकसूक्ष्मजीवभेदानाम्, ते च पर्याप्तकसूक्ष्मभेदाः पट, एकेन्द्रिय-पथिवीकाया-ऽ'काय-तेजस्काय-वायुकाय-साधारणवनस्पतिकायभेदात् । तथा "पणमणे'त्यादि, तत्र पञ्चशब्दस्य मनोवचसोः प्रत्येकं योजना होघोत्तरभेदभिन्नानां पञ्चानां मनोयोगभेदानां पञ्चानां वचोयोगभेदानामौ-दारिकमिश्रकाययोगभेदस्य चेत्यर्थः । अथान्यानप्यन्तमुहर्वोत्कृष्टकायस्थितिकान् मार्गणाभेदान् संगृह्याह-"विउवे"त्यादि,तत्र दुग' शब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद्वैक्रिय-क्रियमिश्रकाययोगयोढिकस्या-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगयोकस्य चेत्यर्थः । तथाऽपगतवेदमार्गणाभेदस्व क्रोधादीनां चतुर्णा कायागां "सुहुमुवसममोसाणं" ति सूक्ष्मसम्परायसंयमस्योपशमिकसम्यक्त्वमिश्रदृष्ट्योरित्येतेषां पञ्चाशन्मार्गगाभेदानां प्रत्येकं "भिन्नमुहुत्तं मुणेयव्या" ति भिन्नमुहूर्त्तम्-, अन्तमुहूर्त ज्ञातव्या, एकजीवाश्रयोत्कृष्टकायस्थितिरिति गम्यते । लब्ध्ययर्याप्ततया नानाभवकरणेनाप्यन्तमुहूर्तादधिककालो नात्येति, तथा चाऽपर्याप्तावस्थाया उत्कृष्टमप्यवस्थानमन्तमुहूर्तमेवेति सर्वाऽपर्याप्तभेदानामुत्कृष्टकास्थितिरन्तमुहूत दर्शिता । यदुक्तं श्रीप्रज्ञापनासूत्रे
"अपज्जत्तए णं भंते ! अपज्जत्तए त्ति कालओ केवञ्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेण वि अंदोमुडुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं,” इति ।
इत्थमेव पर्याप्तसूक्ष्मजीवभेदानां पर्यातमादरसाधारणवनस्पतिकायस्य च प्रत्येकं जघन्यत इवोत्कृष्टतोऽप्यन्तमुहूर्तमेव कास्थितिर्भवति, तत ऊर्ध्वं नियमान्मार्गणान्तरोत्पत्तेः । उक्तश्च
___"सुडुमे णं भंते ! अपज्जत्तए सुटुमअपज्जत्तर त्ति कालओ के अच्चिर होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्फोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पुढधिकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-बाउकाइय-वणस्सइकाइयाण वि एवं चेव, पज्जत्तयाण वि एवं, बायरनिगोयपज्जत्तए य बायरनिगोयअपज्जत्तए य पुच्छा, गोयमा ! दुन्नि वि जहन्नेण उक्कोसेणं वि अंतोमुहुत्तं ।" इति ।
मनोयोग-वचोयोगभेदानामुत्कृष्टतोऽन्तमुहूर्तादृषं स्वभावादेव योगान्तरतया परावर्तना
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उत्कृष्ट कार्यस्थितिः ]
द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १६९
दुत्कृष्टाऽपि कार्यस्थिरन्तर्मुहूर्तादधिका न लभ्यते, एवमेवौदारिककाययोग - कार्मणकाययोगवर्जेषु काययोगभेदेष्वऽपि बोद्धव्यम् । ननु कस्मादौदारिककार्मणकाययोगौ वज्येते ? उच्यते, - प्रस्तुतग्रन्थविवक्षया विग्रहगतौ सम्भविनः कार्मणकाययोगस्य त्रिसमयादधिकाव स्थानाऽसम्भवात् त्रिसमयादधिका, तथा मनोवचो रोगरहितानामेकेन्द्रियाणां पर्याप्तावस्थायामौदारिककाययोगादन्ययोगानामसम्भवेना-ऽऽमरणमौदारिककायकोगस्यावस्थानाद् दीर्घा काय स्थितिरौदारिककाययोगस्य लभ्यत इत्येतौ द्वौ योग वर्ज्येत इति । प्रस्तुतग्रन्थविवक्षां तु यथावसरं दर्शयिष्याम इति । अपगतवेदस्य काय स्थितिरछद्मस्थजीवापेक्षया साद्यपर्यवसितभङ्गपतिता भवति, तथाऽपि छद्मस्थजीवापेक्षया सादिसपर्यवसितभङ्गपतिता दर्शिता । कस्मात् ? स्थितिबन्धादिनिरूपणोपयोगि काय स्थितेर्भण्यमानत्वात् । सा चोपशमश्रेणावन्तमुहूर्तमात्रोत्कृष्टतोऽपि लभ्यते, नाविकेति । कस्यापि जीवस्य क्रोधादिकषायोदयानामप्युत्कृष्टतः प्रत्यन्तमुहूर्तमन्यान्यकषायोदयतया नियमतः परावर्तनादेकजीवाश्रया क्रोधादिकषायमार्गणासत्कोत्कृष्टकायस्थितिरप्यन्तमुहूर्तादधिका न लभ्यते । यदुक्तम् -
“को हकसाई णं भंते ! कोइकसाइ त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं उक्कोसेणं अंनो मुहुत्तं, एवं जात्र माणमायाकसाती | लोभकसाई णं भंते ! लोभ०पुच्छा, गोयमा ! जह० एक्कं समयं, उक्को०अंतोमुहुत्तं ।" इति ।
शेषस्तु सुगमः, सूक्ष्मसम्परायादिगुणानामन्तर्मुहूर्त मात्रावस्थानात् । उक्त च पञ्चस ंग्रहे“समयाओ अंतमु अनुकरणाउ जाव उसंतो ।” तथा “मी सुत्रसम अंतमुहू" इति ।। १५६- १५७ ॥ तदेवं दर्शिता तिर्यग्गतिभेदानामेकजीवाश्रयोत्कृष्टकायस्थितिः, तत्तुल्यवक्तव्यत्वादन्येपामपि बहुमार्गणाभेदानाम् । साम्प्रतं देवगतिसत्कशेषभेदानां दिदर्शयिपुराह
भवणस्स साहिदी पल्ल वंतरसुरस्स विष्णेया । पलिओमम भहियं जोइसदेवस्स णायव्वा ॥ १५८॥ सोहम्माईण कमा अयरा दो साहिया दुवे सत्त । अमहिया सत्त य दस चउदस सत्तरह णायव्वा ॥ १५९ ॥ एत्तो एगेगऽहिया णायव्वा जाव एगतीसुदही । उवरिमगेविज्जस्स उ तेत्तीसाऽणुत्तराण भवे ॥ १६०॥
( प्रे० ) “भवणस्स साहियुदही" त्यादिगाथात्रयम्, “भीमो भीमसेन" इति । न्यायेन 'भवनस्य ' - भवनपतिदेवभेदस्य साधिकेोदधिः, -साधिकसागरोपममुत्कृष्टकायस्थितिरित्यर्थः, नरकभव इव देवभवो निरन्तरमेक एव भवति, नाधिकः, मनुष्यतिरश्चामेवानन्तरभवे देवतयोत्पादात्, ततश्च देवानामपि या भवस्थितिः सैव कायस्थितिर्भवति । भवनपतिदेवेषूत्कृष्टा भवस्थितिरूत्तरदिग्वर्तिना मसुर कुमारनिकायदेवानाम् । सा च साधिकसागरोपममाना । यदुक्त' जीवसमासे
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१७० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानानामेकजीवाश्रया "असुरेसु सारमहिय” इति । ततश्चोत्कृष्टा कायस्थितिरपि तावत्यभिहिता । एवमेवोत्तरत्रापि तत्तद्देवानामुत्कृष्टभवस्थित्यनुसारेणोत्कृष्टकायस्थिति पनीया। व्यन्तरादिदेवगतिभेदानामुत्कृष्टकायस्थिति दर्शयति-“पल्लं वंतरसुरस्स विमेया" ति एकदेशेन समुदायस्यावगमात् “पल्ल" ति पल्योपमंव्यंतरसुरभेदस्य विज्ञेया प्रकृतकायस्थितिः । तथा "पलिओवममभहियं" ति अभ्यधिकं पल्योपमं ज्योतिष्कदेवभेदस्य विज्ञेया । अत्र वर्षलक्षणाभ्यधिकमिति सोपस्कारं व्याख्येयम् । यदुक्तम्-“वंतर पल्ल, जोइस वरिसलक्खाहियं पलियं” इति ।
___ अथ वैमानिकदेवभेदानामाह-“सोहम्माईणे"त्यादिना, सौधर्मादीनां क्रमाज्ज्ञातव्येति गाथाप्रान्तेऽन्वयः । कियतीत्याह-"अयरा दो" इत्यादि, सौधर्मकल्पाख्यप्रथमदेवगतिभेदस्य 'द्वावतरौ'-द्वौ सागरोपमावित्यर्थः । “साहिया दुवे" ति क्रमप्राप्तस्येशानकल्पदेवगतिभेदस्य साधिको द्वौ सागरोपमावुत्कृष्टकायस्थितिः। “सत्त" ति क्रमप्राप्तस्य सनत्कुमारकल्पदेवगतिभेदस्य सप्त सागरोपमाणि, तथैव "अब्भहिया सत्त य” त्ति अभ्यधिकानि सप्त सागरोपमाणि माहेन्द्रकल्पभेदस्येत्यर्थः । चः पादपूत्यें । एवं यथोत्तरं वाच्यम्, ततो ब्रह्मकल्पदेवभेदस्य “दश" त्ति दश सागरोपमाणि, लान्तककल्पदेव भेदस्य चतुदेश सागरोपमाणि, शुक्रकल्पस्य सप्तदश सागरोपमाणि, इत उपरितनदेवमेदानामाह-"एत्तो एगेगऽहिया" इत्यादिना, 'इतः' -शुक्रकल्पदेवगतिभेदादुत्तरम् “गेगहिया" ति एकैकाधिका 'अतराः'-सागरोपमाणि “णायव्या" ति एकजीवाश्रयोत्कृष्टा कायस्थितिर्जातव्या, "जाव एगतीसुदही” त्ति यावदेकत्रिंशदुदधयः-सागरोपमाणि । कस्येत्याह-"उवरिमविज्जस्स" त्ति नवम वेयकस्येत्यर्थः ।।
अयम्भावः-महस्राराख्यस्याऽष्टमकल्पस्योत्कृष्टा कायस्थितिः शुक्रकल्पापेक्षयैकेन सागरोपमेणाधिकाऽष्टादश सागरोपमाणि ज्ञातव्या, साऽप्येकेन सागरोपमेणाधिककोनविंशतिः सागरोपमाण्यानताख्यनवमकल्पदेवभेदस्य ज्ञातव्या, अनया नीत्या प्राणतकल्पस्य विंशतिः सागरोपमाणि, आरणकल्पस्यैकविंशतिः सागरोपमाणि, अच्युतकल्पस्य द्वाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कृष्टकायस्थितिः, प्रथमग्रे वेयकस्य सात्रयोविंशतिः सागरोपमाणि, द्वितीय वेयकस्य चतुर्विशतिः सागरोपमाणि, तृतीयग्रे वेयकभेदस्य पञ्चविंशतिः सागरोपमाणि, चतुर्थ वेयकभेदस्य पविंशतिः सागरोपमाणि, पञ्चमवेयकभेदस्य सप्तविंशतिः सागरोपमाणि, षष्ठवेयकभेदस्याऽष्टाविंशतिः सागरोपमाणि, सप्तम वेयकभेदस्यैकोनत्रिंशत्सागरोपमाणि, अष्टम वेयकभेदस्य त्रिंशत्सागरोपमाणि, नवमस्य सर्वोपरितन वेयकस्यकत्रिंशत्सागरोपमाणि प्रकृतोत्कृष्टकायस्थितिख़तव्येति । पञ्चानुत्तरदेवगतिभेदानां तर्हि कियतीत्याह-"तेत्तीसाऽणुत्तराण भवे" त्रयस्त्रित्सागरोपमाणि पञ्चानामनुत्तरविमानदेवगतिभेदानां भवेत्प्रकृता कायस्थितिः, सुगमा चैषा , एतेषु देवगतिभेदेधूत्कृष्टभवस्थितेरेतावत्प्रमाणत्वात् । उक्तञ्च-"दो साहि सत्त साहिय, दस चउदस सत्तर अयर जा सुक्को । इक्किक्कमहिय-मित्तो,जा इगतीसुवरि गेविज्जे ॥८॥ तित्तीसऽणुत्तरेसु" इति ।
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उत्कृष्टा कायस्थितिः ]
द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १७१
तत्वार्थ भाष्ये तु — सर्वार्थसिद्धवर्जेषु चतुर्ष्वनुत्तरविमानभेदेषु केनाप्यभिप्रायेणोत्कृष्टा भवस्थितिद्वत्रिंशत्सागरोपमाण्येवाभिहिता । तथा चोक्तं तत्र - “सा विजयादिषु चतुर्ष्वप्येकेनाधिका द्वात्रिंशन् ।” इति ।। १५८-१५९-१६० ।। गता देवगतिभेदानामुत्कृष्टा कार्यस्थितिः । साम्प्रतमेकेन्द्रियादिजातिसत्कभणितशेषमार्गणाभेदानां तामाह
अंगुलअसंखभागो बायर एगिंदियस्स हुमाणं ।
तह पुहवाइ उन्हं या लोगा असंखेज्जा ॥१६१॥
(प्रे०) "अंगुलअसंख भागो" इत्यादि, अड्गुलस्यासंख्पभागः, -अङ्गुलस्याऽसंख्येयतमै भागमात्र क्षेत्रगताकाशप्रदेशेषु प्रतिसमय मे कैक प्रदेशापहारे यावान् कालोऽतिगच्छति, तावत्य असंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य इत्यर्थः । एतावान् कालो बादरै केन्द्रियमार्गणाभेदस्यैकजीवाश्रयो - त्कृष्टकाय स्थितिर्ज्ञेयाः । “मुहुमाणं" ति सर्वेषां 'सूक्ष्माणां' सूक्ष्मैकेन्द्रियादीनां पण्णामोघभेदानाम्, तथा समुच्चये, “पुहवाइचउण्हं” ति सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्तविशेषणविरहितानां सामान्यपृथिव्यादिवायुकायान्तानां चतुर्णामोघभेदानाम् " या " त्ति प्रकृतकाय स्थितिज्ञेया । कियत्प्रमाणेत्याह- "लोगा असंखेज्जा" त्ति क्षेत्रतोऽसंख्येया लोकाः, लोकाकाशप्रमाणेष्वसंख्येयेवाकाशखण्डेषु प्रतिसमय मकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽपहृीयमाणे यावता कालेन ते सर्वे प्रदेशा हीयन्ते, तावानसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाणः काल इत्यर्थः । उक्तञ्च काय स्थितिपदे
"सुहमे णं भने ! सुहुमे त्ति कालतो केवच्चिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को सेणं असंखेज्जं काउं असंखेज्जाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीतो कालतो, खेत्ततो असंखेज्जा लोगा, सुहुमपुढत्रिकाइते हुमाते हुम काइते सुहुमवाउकाइते सुहमनिगोदे विज० अंतोमुहुत्तं, उक्को० असंखेज्जं कालं असंखिज्जाओ उस्सप्पिणिओस्सप्पिणितो कालतो, खेत्ततो असंखेज्जा लोगा" इति ॥ १६९ ॥
वायरपज्जेगिंदिय-भू-दग - पत्ते - वाउ - विगलाणं ।
"
संखेज्जसहस्ससमा समत्तवेइंदियस्स संखसमा ॥ १६२ ॥ ( गीतिः ) (प्रे) "बायरपज्जेगिंदिये "त्यादि, बादरपर्याप्त शब्दस्य वायुकायान्तेषु प्रत्येकं योजनाद् बादरपर्याप्तैकेन्द्रियभेदस्य "भू" ति बादरपर्याप्तस्य 'भूकायिकस्य' - पृथिवीकायभेदस्य, तथा बादरपर्याप्तस्य "दग" त्ति दककायिकस्य, वादरपर्याप्ताष्काय भेदस्येत्यर्थः । तथा "पत्तेअ" ति बादरपर्याप्तप्रत्येक वनस्पतिकायभेदस्य अत्र बादरेति विशेषणं स्वरूपदर्शनपरं विज्ञेयम् । तथा “वाउ" ति बादरपर्याप्तवाउकाय भेदस्य, "विगलाणं” त्ति पर्याप्त पर्याप्त विशेषणविरहितानां द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियलक्षणानां विकलेन्द्रियौधभेदानामित्येवमष्टमार्गणाभेदानां प्रत्येकम् "संखेज्जसहस्ससमा " त्ति एकजीवाश्रयकाय स्थितिः संख्येयसहस्राणि 'समाः' - वर्षाणीत्यर्थः । उक्तं च“बायरेगिंदियपज्जत्तए णं भंते ! बायरेगिंदियपज्जत्तम त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइ वाससहस्साइ" इति । तथा "बादरपुढविकाइयपज्जत्तए णं
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१७२]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानानामेकजीवाश्रया भंते ! बादरपुढविकाइयपज्जत्तए त्ति कालओ केवच्चिरं होति ? गोयमा ! जहन्नणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखिज्जाइ वाससहस्साइ', एवं आउकाइए वि,"इति । “वाउकाइअ-वणस्सइकाइअ-पत्तेअसरीरबादरवणप्फइकाइते पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाई वाससहस्साई" इति।
- इत्थमेव द्वीन्द्रियादीनां त्रयाणामोघमार्गणास्थानानां कायस्थितिविषयेऽपि द्रष्टव्यम् , “विगलिदियाणं वाससहस्सा संखेज्जा” इति वचनादिति ।
__ अथ पर्याप्तद्वीन्द्रियस्याह-"समत्तबेइंदियस्स संखसमा” त्ति पर्याप्तद्वीन्द्रियमार्गणाभेदस्यैकजीवाश्रया प्रकृतोत्कृष्टकायस्थितिः संख्येयसमाः-संख्येयानि वर्षाणीत्यर्थः । उक्त च
'बेइदियपज्जत्तए णं भंते ! बेइदियपज्जत्तए त्ति कालतो केबच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइ वासाइ, "इति ।।१६२॥
पज्जत्तगतेइंदिय-बायरतेऊण होइ संखेज्जा।
दिवसा संखियमासा समत्तचउइंदियस्स भवे ॥१६३॥ (प्रे०) “पज्जत्तगे"त्यादि, पर्याप्तकशब्दस्य त्रीन्द्रिय-बादरतेजसोः प्रत्येकं योजनात् पर्याप्त एव पर्याप्तकः स चासो त्रीन्द्रियस्तस्य पर्याप्तकत्रीन्द्रियस्य, पर्याप्तत्रीन्द्रियमार्गणाभेदस्येत्यर्थः। तथैव पर्याप्तवादरतेजस्कायमार्गणाभेदस्य च प्रत्येकं "होइ" ति उत्कृष्टकायस्थितिर्भवति । कतिपयेत्याह-"सेखेज्जे"त्यादि, संख्येया दिवसाः । उक्त च
__ “तेइ दियपज्जत्तए णं भंते ! तेइ दियपज्जत्तए त्ति कालतो केवञ्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणंअंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइराइ दियाई," इति । तथा-"तेउकाइए पज्जत्तए णं भंते ! तेउकाइअपज्जत्तए त्ति कालतो केच्चिरं होइ ? गोयमा !जह० अंतोमुहुत्तं, उक्को संखेज्जाइराइ दियाइ," इति ।
___"संखियमासा" ति संख्येया मासा उत्कृष्टकायस्थितिः, भवेदितिगाथाप्रान्तेऽन्वयः। कस्येत्याह-"समत्तचउइंदियस्स" त्ति स्वप्रायोग्यपर्याप्तीरपेक्ष्य समाप्तस्य 'चतुरिन्द्रियस्य'-चतुरिन्द्रियमार्गणाभेदस्येत्यर्थः । तथा चोक्त-“चउरिंदियपज्जत्तए णं भंते ? चउरिंदियपज्जत्तए त्ति कालतो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ? जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जा मासा,” इति ॥१६३।।
पंचिंदिय-ऽचक्खूण-ऽहियुदहिसहस्सं तसस्स तं दुगुणं ।
पज्जपणिदि-तस-पुरिस-सण्णीणायरसयपुहुत्तं ॥१६४॥ (प्रे०) “पंचिंदिये” त्यादि, पञ्चेन्द्रियोध-चक्षुर्दर्शनमार्गणयोः प्रत्येकमधिकोदधिसहस्रम्,-सातिरेकं सागरोपमसहस्र प्रकृता कायस्थितिरित्यर्थः । उक्तं च कायस्थितिपदे
"चक्खुदंसणी णं भंते ! चक्खुदंसणि त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोधमसहस्सं सातिरेक'' तथा-"पंचिंदिए णं भंते ! पंचिंदिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं साइरेगं" इति ।
"तसस्स त दुगुणं" ति त्रसकायौघमार्गणायाः "तं” त्ति 'तत्'–पञ्चन्द्रियाद्यनन्त
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उत्कृष्ट कार्यस्थितिः ]
द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १७३
रोक्तमार्गणयोर्यत्काय स्थितिप्रमाणं दर्शितं तद् “दुगुण” द्विगुणं द्रष्टव्यमर्थात् – सकायो धमार्ग - गाया उत्कृष्टकास्थितिः सातिरेकं सागरोपमसहस्रद्वयं भवति । यदुक्तम् —
"तसकाइए णं भंते ! तसकाइए त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दोसागरोत्रमसहस्साइ संखेज्जवासऽव्भहियाई," इति ।
"पज्जपणिदि” इत्यादि, तत्र पर्याप्तशब्दस्य पञ्चेन्द्रिय-सोभयत्र योजनात् पर्याप्तपञ्चेन्द्रियमार्गणाभेदस्य पर्याप्तत्रसकायमार्गणाभेदस्य पुरुषवेदमार्गणाया: संज्ञिमार्गणायाथ प्रत्येकमतरशतपूथक्त्वम् - सागरोपमाणां शतपृथक्त्वं प्रकृतोत्कृष्टकायस्थितिरित्यर्थः । उक्तञ्च कार्यस्थितिपदे
“पंचिंदियपज्जत्तए णं भंते ! पंचिदियपज्जत्तए त्ति कालतो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं," तथा "तसकाइयपज्जत्तए णं भंते ! तसकाइयपज्जत्तए त्ति कालतो केवचिचर होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को सेणं सागरोत्रमसयपुहुत्तं सातिरेगं,” तथा “पुरिसवेदे णं भंते ! पुरिसवेदेत्ति कालतो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं सागरोत्रमय हुत्तं सातिरेगं,” तथा “सण्णी णं भंते ! सण्णी त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोत्रमसयपुहुत्तं सातिरेगं," इति ।
अत्र मूले पर्याप्तत्र सकायादिमार्गणानां कायस्थितौ सातिरेकता न दर्शिता, तथाऽपि साऽऽगमानुसारेण स्वयमेव द्रष्टव्येति ॥ १६४ ॥ तदेवमिन्द्रियमार्गणासत्कशेषभेदानां प्रसङ्गादन्यमार्गणाभेदानां चोत्कृष्टकायस्थितिदर्शिता | साम्प्रतं काय मार्गणासत्कशेपभेदानां दर्शयन्नाह -
अद्भुत अपरिअट्टा भवे णिगोअस्स होइ मोहठिई । बायरपुहवाइचउग- णिगोअ - पत्तेअहरिआणं ॥ १६५ ॥
(प्रे०) "अडतइअ" इत्यादि, 'अर्धतृतीयपरावर्ताः' - सार्थौ द्वौ पुद्गलपरार्वर्तावित्यर्थः । एतावती प्रकृतैकजीवाश्रया कायस्थितिरुत्कृष्टतो भवेत् । कस्येत्याह - "णि गोअस्स" त्ति निगोदाख्यवनस्पतिविशेषस्य, साधारणवनस्पतिकायौघमार्गणाया इति यावत् । यदुक्तं
“निगोदे णं भंते! निगोए त्ति केवञ्चिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंताओ उस्सप्पिणिओसपिणीओ कालतो, खेत्ततो अड्ढाइज्जा पोग्गलपरियट्टा," इति ।
"होइ मोहठिई" ति प्रकृतैकजीवाश्रयोत्कृष्टकाय स्थिति मोह स्थितिर्भवति, मोहनीयकर्मणो यावत्युत्कृष्टा स्थितिस्तावती सप्ततिकोटी कोटी सागरोपमप्रमाणा भवतीत्यर्थः । कस्याः कस्या मार्गणाया भवतीत्याह - "बायरपुहवाइच उगे” त्यादि, बादरशब्दस्य निगोदपर्यन्तेषु प्रत्येकं योजनाद् बादरपृथिविकाय बादरा काय चादरतेजस्काय-चादरवायुकायौघभेदचतुष्क बादरनिगोदौघभेदयोः " पत्ते अहरिआणं" ति प्रत्येकहरितकायस्य, प्रत्येक वनस्पतिकायौघमार्गणाभेदस्येत्यर्थः । एतासां षण्णां मार्गणानां प्रत्येकम्, न पुनः समुदितानामिति । उक्तं च
"बायर पुढत्रिकाइए णं भंते ! बायरपुढत्रिकाइए त्ति कालओ केवञ्चिरं होइ ? गोयना ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को सेणं सत्तरिं सागरोत्र मकोडा कोडिओ । एवं बायरआउकाइए वि, एवं जाव बायरवाउकाइए
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१७४ ]
वाणे मूलvasaइबंधो
[ मार्गणास्थानानामेकजीवाश्रया वि । पत्तेयबायरवणस्सइकाइए णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्तरिं सागरोमकोडाकोडीओ ।" तथा "बायरनिगोए णं भंते ! बायरनिगोए त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को सेणं सत्तरिं सागरोत्रमको डाकोडीओ, ” इति ॥ १६५ ॥
देसूणसहस्ससमा बावीसुरलस्स तिसमया या । कम्मा-ऽणाहाराणं पल्लसयपुहत्तमित्थी ॥ १६६ ॥
1
(प्रे०) “देसूणसहस्से” त्यादि, देशोनसहस्रसमा द्वाविंशतिः, देशोनानि द्वाविंशतिवर्षसहस्राणीत्यर्थः । कस्येत्याह " - उरलस्स” त्ति औदारिककाययोगमार्गणायाः, उत्कृष्टकाय स्थितिरिति गम्यते । इयं हि खरबादरपृथिवीकायिकस्योत्कृष्टभवस्थित्यपेक्षया बोद्धव्या, केवलं तस्याऽपर्याप्तावस्थायामौदारिकमिश्रकाययोगसद्भावाद् भवप्रथमान्तमुहूर्त शुद्धोदारिककाययोगे न गृह्यते तस्योत्कृष्टभवस्थितिस्तु द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि “बावीसा पुढवीए" इति वचनात् ततोऽन्तमुहूर्ते व्यपनी प्रकृतकाय स्थितिरवाप्यत इति । न च त्रिपल्योपमायुषां तिर्यग्मनुष्याणामौदारिककाययोगसद्भावेन साऽधिकाऽपि सम्पद्येतेति वाच्यम् । तेषां पर्याप्तावस्थायामौदारिकयोगादन्येषां मनोयोगादीनामप्यन्तरान्तरा सम्भवेन तदानीं मनोयोगादिप्रवर्तमानयोगप्राधान्यादौदारिककाययोग आमरणं नैरन्तर्येण न लभ्यते, किन्तूत्कृष्टतोऽप्यन्तमुहूर्तमेव, अतो न तदपेक्षयोक्ताfarara स्थितिसम्भव इति । “ति समया णेया" त्ति त्रिसमयाः प्रकृतोत्कृष्टकाय स्थितिर्ज्ञातव्या । कस्याः कस्या इत्याह- "कम्मा -ऽणाहाराणं” ति कार्मणकाययोगमार्गणाया अनाहारकमार्गणायाः प्रत्येकमित्यर्थः । यद्यप्यनाहारकमार्गणाया उत्कृष्टकायस्थितिरछद्मस्थजीवमपेक्ष्य साद्यनन्तभङ्गपतिताऽपि लभ्यते; तथापि स्थितिबन्धाद्युपयोगित्वात् प्राग्वत्तद्बन्धकछद्मस्थजीवापेक्षपा सा प्रकृतेऽभिहितेति । ननु छद्मस्थजीवापेक्षयाऽपि सा प्रज्ञापनासूत्रे उत्कृष्टतो द्वौ समयावेवाभिहिता । तथा च तद्ग्रन्थ:- "छउमत्थअणाहारण णं भंते ! छउमत्थअणाहारण ति कालओ के होइ ? गोमा ! जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं दो समया,” इति । तत्कथमत्र त्रिसमया उत्कृष्टकायस्थितिरभिधीयते ? इति चेद्, उच्यते, त्रित्रक्रायाश्चतुःसामयिक्या विग्रहगतेरपि प्रकृते विवक्षितत्वात् । इदमुक्तं भवति - एकद्वयादिपञ्चसमयान्ता विग्रहगतयो भवन्ति । उक्तञ्च "उजुया य एवंका दुहतोयंका गती विणिदिट्ठा । जुज्जर तिचरयंका वि नाम चउपंचसमयाओ ||" इति । ताभ्य एकद्वित्रिसामयिक्यो विग्रहगतयः प्रज्ञापनायां विवक्षिताः, न पुनश्चतुःसामयिकी पञ्चसामविकी वा । उक्त च तट्टीकायाम् — “ दोसमया" इति त्रिसामयिकी विग्रहगतिमधिकृत्य, चतुःसामयिकी पञ्चसामयिकी च विग्रहगतिनं विवक्षिता," इत्यादि ।
प्रकृतग्रन्थे तु पञ्चसामयिक्या विग्रहगत्या प्रायेण जन्तूनामनुत्पत्तेस्तां विहाय जीवसमासवच्चतुःसामयिकी विग्रहगतिरपि विवक्षिता, ततश्च तदपेक्षया कार्मणानाहारकमार्गणयोरेकजीवाश्रिता प्रस्तुतोत्कृष्टकाय स्थितिरपि श्रीप्रज्ञापनोक्तकाय स्थित्यपेक्षया समयाधिकाऽभिहिता । उक्त
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उत्कृष्टा कायस्थितिः ]
द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १७५
च जोवसमासेऽपि–“समयतिगं कम्मइगो" इति । “पल्लसयपुहुत्तमित्थीए " ति पल्यशतपृथस्त्रीवेदस्य, इत्यक्षरार्थः । इयं हि स्त्रीवेदमार्गणायाः कार्यस्थितिर्द्विधा व्याख्याता दृश्यते । तद्यथा“द्रव्प्रस्त्रीवेदोऽयः पल्योपमशत पृथक्त्वं यावदुत्कृष्टतो भवति ।" इति पञ्चसंग्रहमूलवृत्तौ । मलयगिरिवृत्त्यादौ पुनः "श्री पलियसयपुहुतं" ति स्त्रीदेदो जघन्यत एकं समयं, उत्कर्षतः पल्पमशतं पूर्वको टिपृथक्त्वं च । इत्यादि व्याख्यातम् । श्रोप्रज्ञापनायां तु पूर्वपूर्वतन सूरिमतभेदमुपदर्शयता भगवता आर्यश्यामेन पञ्चादेशाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा
31
" इत्थवे णं भंते ! इत्थीवेए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोत्रमा ! एगेणं आए सेणं जहन्नेणं एगं समयं, उक्को सेणं दसोत्तरं पलिओत्रमस्यं पुत्रको डिपुहत्तमव्भहियं १ । एगेणं आएसेणं जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं अट्ठारस पलिओ माइ पुव्वको डिपुहुत्तमम्भहियाई २ । एगेणं आएसेणं जहन्नेणं एवं सयमं, उक्को नेणं चोदसपलिओ माई पुत्र्वकोडी पुहुत्तममहियाई ३ । एगेणं आए सेणं जहर नेणं एवं समयं उक्को सेणं पलिओ मसयं पुत्रको डिपुहुत्तमब्भहियं ४ । एणं आए सेणं जहन्नेणं एवं समयं उक्को - सेणं पलिओत्रमहुतं पुत्रको डिपुहुत्तमव्भहियं ति ५ । इति ।
,
तदत्र मूलोक्तप्रकृतकाय स्थितिरपि मतिमता - ऽविरोधेन व्याख्येयेति ॥ १६६ ॥ माण- संयमाणं समइअ - छेअ - परिहार-देसाणं ।
देसूणा पुव्वाणं कोडी एगा मुणेयव्वा ॥ १६७ ॥
(प्रे०) "मणणाणे"त्यादि, मनः पर्यवज्ञान- संयमौघमार्गणयोः सामायिक-छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिक- देशसंयमानामित्येते पण्णां मार्गणाभेदानां प्रत्येकमुत्कृष्टा कायस्थितिः "देसूणा" ति वर्षाष्टकादिरूपैकदेशे नोना पूर्व्वाणामेका कोटिर्ज्ञातव्या । तत्र परिहारविशुद्धिकमार्गणावर्जानां शेषमनः पर्यवज्ञानादिमार्गणाभेदानामष्टवर्ष लक्षणेनैकदेशेनोना पूर्वकोटी बोद्धव्या, परिहारविशुद्धिकसंयमस्य त्वेकोनत्रिंशद्वर्षलक्षणेनैकदेशेनोना सा विज्ञेया, जघन्यतो विंशतिवर्षयतिपर्यायाणां तदङ्गीकरणस्य विहितत्वात् । उक्तं च-“गिहिपज्जाओ जहन्निगुणतीसा | जइपज्जाओ बीसा” इति । अत्र कोनत्रिंशद्वर्षाणि भवप्रथमसमयादारभ्य बोद्धव्यानीति ॥ १६७ ॥
दुअणाणा-यत-मिच्छाण अणाइधुवा अणाइ अधुवा य । साइ अधुवाय तिविहा तइआ हीणद्धपरिअट्टो ॥ १६८ ॥
(प्रे० ) " दुअणाणायते "त्यादि, विभङ्गज्ञानवर्जयो योरज्ञानमार्गणाभेदयोरसंयमस्य मिथ्यात्वस्य चेत्येतासां चतसृणां मार्गणानां प्रत्येकं प्रकृतोत्कृष्टकायस्थितिः “तिविहा" इति परेणान्वयः । अर्थात् स्वामिभेदात् त्रिविधा- त्रिप्रकारा भवति । तद्यथा - "अणाइधुवा" त्ति प्रथमाऽनादिधुवा, अनाद्यनन्ताऽभव्यजीवमपेक्ष्य ज्ञातव्या, तस्या - ssकालं मिथ्यात्वपरित्यागाभावात् । “अणाइअधुवा य" त्ति अनाद्यध्रुवा, अनादिसान्तेत्यर्थः, एषा भिन्नग्रन्थिकमन्यजीवापेक्षया ज्ञातव्या । कुतः ? अभिन्नग्रन्थिकत्वात्तदीयमिध्यात्वस्यानादित्वम्, भव्यत्वे नागामिकाले
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१७६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानानामेकजीवाश्रया सम्यक्त्वादिप्राप्तौ विच्छेदं यास्यतीति तस्याध्वत्वं चेतिकृत्वा । चः समुच्चये। तृतीया पुनः "साइअधुवा य" त्ति साद्यध्रुवा,-सादिसान्तेत्यर्थः । इमा तु भिन्नग्रन्थिकजीवापेक्षया बोद्धव्येति । चः प्राग्वद् । इत्थं त्रिविधा मत्यज्ञानादीनां कास्थितिः। अत्र प्रथमयो योर्विधयोराछन्त्यान्यतराबधिरहितत्वेन सावधिकप्रमाणप्रदर्शनाऽसम्भवात् तृतीयायास्तावदुत्कृष्टं प्रमाणं दर्शयन्नाह"तइआ होणद्धपरिअटो" ति तृतीया साधध्रवलक्षणा कायस्थितिरुत्कर्षतो हीनार्धपरावर्तः, क्षेत्रतो देशोनार्धपुद्गलपरावर्तप्रमाणेत्यर्थः । उक्तंच कायस्थितिपदे--
__“अण्णाणी मतिअण्णाणी सुतअण्णाणी णं भंते ! अण्णाणी मतिअण्णाणी सुतअण्णाणि त्ति कालओ केवच्चिरं होति? गोयमा ! अण्णाणी मइअण्णाणी सुयअण्णाणी तिविधे पपणत्ते, तं जहा--अणाइए वा अपजवसिते, अणाइए वा सपज्जवसिते, सादीए वा गपज्जवसिते ! तत्थ णं जे सादीए सपजवसिते से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो, खेत्तओ अवहपोग्गलपरियट्ट देसूर्ण,” इति । इत्थमेव मिथ्यात्वकायस्थितिविषयेऽपि सूत्रसंवादो द्रष्टव्य इति ॥१६८॥
साहियछसटिजलही तिणाण-सम्मत्त- वेअगो-हीसु।
दुविहाऽत्थि अणाइधुवा अणाइअधुवा अचक्खुस्स ॥१६९॥ (प्रे०) “साहियछसहिजलहो" त्यादि, 'साधिका'-मनुष्यभवसत्ककियत्कालेनाभ्यधिकाः षट्षष्टिर्जलधयः-सागरोपमाणि प्रकृतोत्कृष्टा कायस्थितिर्भवतीत्यर्थः । केषां मार्गणाभेदानामित्याह-"तिणाण” इत्यादि, मनःपर्यवज्ञानवर्जानां त्रयाणां मत्यादीनां ज्ञानमार्गणाभेदानां सम्यक्त्वोध-वेदकसम्यक्त्वा-ऽवविदर्शनमार्गणाभेदानां चेत्येतेषां पण्णां प्रत्येकमित्यर्थः । अत्र हि सम्यक्त्वौघमार्गणायाः उत्कृष्टकायस्थितिः प्राग्वच्छद्मस्थजीवापेक्षयैव बोद्धव्या । अथाचक्षुदर्शनमार्गणाभेदस्याह-"दुविहात्थि” इत्यादि, सुगमा, नवरमनादिध्रुवा प्रागवदभव्यजीवापेक्षया, अनायध्वा तु भव्यजीवापेक्षया बोद्धव्या, "नट्ठम्मि उ छाउमथिए नाणे” इति वचनात् केवलोत्पत्तौ क्षायोपशमिकभावानां मत्यादिज्ञानानां विलय इब क्षायोपशमिकभावस्याऽचक्षुर्दर्शनस्याऽपि विलयभावात् । अत एवोक्तं प्रवचने
__ "अचक्खुदंसणी णं भंते ! अचकवुदंसणि त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! अचक्खुदंसणी दुविहे पन्नते. तं जहा--अणादीए वा अपज्जवसिते, अनादीए वा सपज्जवसिते," इति, ॥१६६॥
णीलाइचउण्ह कमा अयरा दस तिण्णि दोण्णि अट्ठार ।
भवियस्सऽणाइअधुवा तहा अभवियस्सऽणाइधुवा ॥१७०॥ (प्रे०) “णीलाइचउण्हे" त्यादि, नीलादीनां चतुर्णा लेश्यामार्गणाभेदानां “कमा" क्रमाद् 'अतराः'-सागरोपमाणि दश त्रीणि द्वेऽष्टादशेति । सुगमा, नवरं नीलकापोततेजोलेश्याभेदानां प्रत्येकं मूलोक्ताः कायस्थितयः पूर्ववत्पल्योपमासंख्येयभागेनाभ्यधिका द्रष्टव्याः, मूलेऽधिकांशस्य
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उत्कृष्टा कायस्थितिः ] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[१७७ ऽविवक्षितत्वात् । न च ब्रह्मकल्पान्तानां देवानामेव पालेश्याया अभिहितत्वात् , तेषां चोत्कृष्टतोऽपि दशसागरोपमस्थितिकत्वात्पद्मलेश्यामार्गणायाः प्रकृतोत्कृष्टकायस्थितिरष्टादशसागरोपमाणीति कथं नु सङ्गच्छेदिति शङ्कनीयम् । तस्य स्वामित्वप्ररूपणायां प्रागेव समाहितत्वात् , अष्टादशसागरोपमविषयकस्याभिप्रायस्य व्युत्पादितत्वाच्चेति । श्रीप्रज्ञापनासूत्रापेक्षया तु सा पद्मलेश्याया उत्कृष्टकायस्थितिर्दशसागरोपमाग्येव द्रष्टव्या । उक्तश्च तत्र___ “पम्ह लेसे णं भंते ! पम्हलेसे त्ति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस सागरोगमाई अंतोमुहुत्तमभहियाइ,' इति ।
"भवियस्सऽणाइअधुवा” त्ति भव्यस्य --सव्यमार्गणाभेदस्यानावधवा, 'अभव्यस्यअभव्यमार्गणास्थानस्य "णाइधुवा" ति अकारस्य दर्शनादनादिववा, अनाद्यनन्ता प्रकृतकायस्थितिरित्यर्थः । उक्तं च कायस्थितिपदे
___"भवसिद्धिए णं भंते ! भवसिद्धिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! अणादीप सपज्जबसिते । अभवसिद्धिए णं भंते ! अभवसिद्धिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! अणादी र अपज्जवसिते," इति । ॥१७०॥
सासाणस्सा-5ऽवलिआ छ भवे आहारगस्स णायव्वा ।
अंगुलअसंखभागो त्ति भवे उकोसकायठिई ॥१७१॥ __ (पं) “सासाणस्सावलिआ” इत्यादि, सासादनमार्गणाया एकजीवाश्रयोत्कृष्टकायस्थितिः पडावलिका भवेत् । उक्तं च पञ्चसङ्ग्रहे-“आपलियाणं छक्कं समयादारब्भ सासणो होइ" इति । “आहारगस्स णायव्वा” त्ति आहारिमार्गणाभेदस्थोत्कृष्टकायस्थितिख़तव्या, कतिपयेत्याह-"अंगुलअसंखभागो" ति अङगुलाऽसंख्यभागप्रमाणाकाशप्रदेशेषु प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे यावान् कालो नियति, तावानसंख्योत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाणः काल उत्कृष्टकायस्थितिभवतीत्यर्थः । इयमपि छद्मस्थजीवापेक्षयैव उक्ता, तस्या एव प्रकृतोपयोगित्वात् । उक्त च
___ "छ उमत्थआहारए णं भंते ! छउमत्थाहारए त्ति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं दुसमयऊणं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं असंखेज्जाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीतो कालतो, खेत्तत्तो अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं," इति ॥१७१॥ अथ पर्याप्ततीन्द्रियादिकतिपयमार्गणानां प्रस्तुतकायस्थिति मतान्तरेण दर्शयन्नार्याद्वयमाह
अण्णे उ भणन्ति भवे संखसहस्सवरिसा समत्ताणं । बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदिय-बायरग्गीणं ॥१७२॥ दो सागरा सहस्सा समत्ततस-चक्खुदंसणाण भवे ।
सत्तरह सत्त अयरा होइ कमा णीलकाऊसु॥१७३॥ (प्रे०) "अण्णे उ भणन्ति" इत्यादि, अन्ये केचनाचार्यास्तु-पुनर्भणन्ति, किं भणन्ती
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१७८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानानामेकजीवाश्रया त्याह-"भवे" इत्यादि, पर्याप्तवादरपृथिवीकायादीनामिव समाप्तानां-पर्याप्तानां द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिय-बादराग्निकायलक्षणानां चतुर्णा मार्गणाभेदानां प्रत्येकं प्रकृतैकजीवाश्रयोत्कृष्टकायस्थितिः संख्येयानि वर्षसहस्राणि भवेदित्यर्थः । उक्तञ्च पञ्चसङ्ग्रहमूलटीकाकारैः__ "बादराणां पर्याप्तकनामविशेषितानां संख्येया वर्षसाहस्यः, प्रत्येकं पृथिवीजलाग्निवायुवनस्पतिप्रत्येकैकेन्द्रियाणां वर्षसाहस्यः कायस्थितिः, विकलानामपि द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं संख्येयवर्षसाहस्यः कायस्थितिः,” इति। ___अथान्येषामाह-"दो सागरा” इत्यादि, समाप्तस्य त्रसकायिकस्य चक्षुर्दर्शनस्य च प्रत्येक प्रकृतकायस्थितिद्वै सागरोपमसहस्र भवेदित्यर्थः । उक्तश्च जीवसमासे- “चक्खुस्सुदहीण बे सहस्साइ।” इति । “सत्तरह सत्त अयरा होइ कमा णीलकाऊसु” ति नीललेश्यायाः कापोतलेश्यायाश्च प्रत्येकमुत्कृष्टकायस्थितिः क्रमात् सप्तदश सप्त चातरा:-सागरोपमाणि भवति । इदमुक्तं भवति-महाबन्धकाराः पञ्चमपथिव्याः सर्वाधस्तनप्रतरे कृष्णलेश्याकनारकाणामिव नीललेश्याकनारकाणां सचं प्रतिपद्य, तथा तृतीयपथिव्याः सर्वाधस्तनप्रतरे नीललेश्याकनारकाणामिव कापोतलेश्याकनारकाणामपि समुद्भतिमपेक्ष्य मार्गणाद्वयस्यापि कायस्थितिं यथोक्तामभिदधतीति ॥१७२-१७३॥
तदेवमभिहितैकजीवाश्रया प्रस्तुतोपयोगिनी सर्वमार्गणानामुत्कृष्टा कायस्थितिः। साम्प्रतं प्रसङ्गात् प्रकृतोपयोगित्वाच्च प्राग दूरेणोक्तेति विस्मरणशीलानां जीवानामनग्रहार्थं तासामेव सर्वमार्गणानामेकजीवाश्रयां जघन्यां कायस्थितिं संस्मारयन्नाह
कायठिई णायव्वा जहण्णगा दससहस्सवासाणि। णिरय-पढमणिरयाणं देव-भवण-वंतराणं च ॥१७४॥
दुइआइगणिरयाणं सा पढमाइणिरयाण जा जेट्टा। (प्रे०) "कायठिई णायव्वा” इत्यादि, अनन्तरं वक्ष्यमाणा "कायठिई” त्ति एकजीवाश्रिता कायस्थितिर्विवक्षितनरकाद्यवस्थाया अविच्छिन्नमवस्थानलक्षणा“णायव्वा जहण्णगा" त्ति जघन्या एव जघन्यका-सर्वलध्वी ज्ञातव्येत्यर्थः । तामेव क्रमत आह-"दससहस्से"त्यादिना, दशवर्षसहस्राणि जघन्या कायस्थितिनिरयोघ-प्रथमपृथिवीनिरयभेदयोः, देवोघ-भवनपति-व्यन्तरदेवगतिभेदानां च प्रत्येकं ज्ञातव्येत्यर्थः । सुगमा चैपा, देवनैरयिकयोरनन्तरभवे देवनैरयिकतयानुत्पादात् , प्रथमनरकनैरयिक-भवनपत्यादीनां जघन्यभवस्थितेर्दशसहस्रवर्षप्रमाणत्वाच । उक्तंच-“दससहसवरिसठिइआ, भवणाहिव-निरय-बंतरिआ” ॥२७॥ इति ।
अथ नरकगतिशेषमार्गणाभेदानां प्राह-"दुइआइगे"त्यादिना, द्वितीयादिपृथिवीभेदभिन्नानां षण्णां निरयभेदानां जघन्यकायस्थितिः सा, भवतीति शेषः । का पुनः सेत्याह-“पढमाइणिरयाणे"त्यादि, प्रथमादिनिरयभेदानां 'जा' ति या प्राक-“पढमाइगणिरयाणं कमसो एगो
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जघन्या कायस्थितिः ] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १७९ य तिण्णि सत्त दस । सत्तरह य बाबीसा तेत्तीसा सागरा णेया ।।१५३।। इत्यनया गाथया' ज्येष्ठा'-उत्कृष्टा कायस्थितिरभिहितेत्यर्थः । तद्यथा-द्वितीयपृथिवीनिरयभेदस्य जघन्या कायस्थितिरेकं सागरोपमम् , तृतीयपृथिवीनिरयभेदस्य सा त्रीणि सागरोपमाणि, चतुर्थपृथिवीनिरयभेदस्य सप्त सागरोपमाणि, एवं पञ्चमपथिवीनिरयभेदस्य दश, षष्ठपथिवीनिरयभेदस्य सप्तदश, सप्तमपथिवीनिरयभेदस्य तु सा जघन्यैकजीवाश्रयकायस्थितिद्वाविंशतिः सागरोपमाणीति । उक्तश्चान्यत्राऽपि___“सत्त य पुढवीसु ठिइ, जिट्ठो-बरिमाइ हिट्ठपुडवीए। होइ कमेण कणिहा दसवाससहस्स पढमाय ॥” इति ॥१७४॥
अथ क्रमप्राप्ततिर्यग्गत्योधमार्गणाभेदस्य जयन्यकायस्थितिं विवक्षुस्तत्साम्यादन्यासामपि यासां मार्गणानां जघन्यकायस्थितिः क्षुल्लकभवग्रहणलक्षणास्ता अपि सममेव सगृह्याह
खुड्डभवो तिरिय-पणिंदितिरिय-मणुस-तदपज्जाणं ॥१७५॥ पज्जत्तभेअवज्जिअसेसिंदिय-कायभेअ-सण्णीणं ।
अमणस्स तिसमयूणो आहारि-उरालमीसाणं ॥१७६॥ (प्रे०) "खुड्डुभवो तिरिये"त्यादि, 'क्षुल्लकः'-सर्वभवापेक्षया लघीयान् ‘भवः'-जन्म सः क्षुल्लकभनोऽनन्तरवक्ष्यमाणतिर्यग्गत्यादिमार्गणाभेदानांजघन्यकायस्थितिवेदित्यर्थः । क्षुल्लकभवमानं वित्थं प्रतिपाद्यते,-आवलिआणं दोसयछप्पन्ना एग वुड्डभवे,” इति । तत्रावलिका त्वसंख्येयानां समयानां समुदायो ज्ञातव्यः । यदुक्तमनुयोगदारसूत्रे-“असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसभिइ समागमेण सा एगा आबलिय त्ति वुच्चइ।" इति । तिर्यग्गत्योघादिमार्गणाभेदानेवाह-"तिरिये"त्यादिना, तिर्यग्गत्योघस्य तिर्यक्पञ्चेन्द्रियौष-मनुष्यौषभेदयोस्तथा तयोरेवापर्याप्तभेदयोः, अपर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियाऽपर्याप्तमनुष्यभेदयोश्चेत्यर्थः । तथा “पज्जत्ते"त्यादि, पर्याप्तवादरैकेन्द्रिय-पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रिय-पर्याप्तद्वीन्द्रियादिलक्षणपर्याप्तभेदैवर्जिता ये शेषा एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियलक्षणेन्द्रियमार्गणासत्कोघा-ऽपर्याप्तभेदभिन्नास्तथा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायलक्षणकायमार्गणासत्कौघा-ऽपर्याप्तभेदभिन्ना भेदास्ते पर्याप्तभेदवर्जितशेपेन्द्रियकायभेदाः, ते च समस्तास्त्रिचत्वारिंशद्भवन्ति । तद्यथा-एकेन्द्रियसत्काः सूक्ष्मपर्याप्तबादरपर्याप्तभेदवर्जा ओघ-सूक्ष्मौष-बादरौघसूचनाऽपर्याप्त-चादराऽपर्याप्तभेदभिन्नाः पञ्च भेदाः, तथैव पृथिव्यप्तेजोवायुसाधारणवनस्पतिकायानां पञ्चानां प्रत्येकं पञ्च पञ्च भेदाः, द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियाणां प्रत्येकं पर्याप्तभेदवर्जावोघा-ऽपर्याप्तभेदभिन्नी द्वो द्वौ भेदो, इत्थमेव प्रत्येकवनस्पतिकायसत्को द्वौ त्रसकायसत्कौ द्वौ वनस्पतिकार्याघभेदश्चेति । तेषां, तथा "सण्णोणं" ति संज्ञिमार्गणाभेदस्य "अमणस्स" त्ति असंज्ञिमार्गगाभेदस्येत्येतेषां समुदितानां तिर्यग्गत्योघाद्यकोनपश्चापन्मार्गणाभेदानां प्रत्येकमित्यर्थः। सुगमा । अथानन्तरोक्तकास्थित्यपेक्षया स्वल्पतारतम्यात् क्रममुल्लङ्थ्यादावौदारिकमिश्रकाय
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१८० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानानामेकजीवाश्रया योगाहारिमार्गणयोराह-तिसमयूगो आहारिउरालमीसाणं" ति आहारिमार्गणाया औदारिकमिश्रकाययोगमार्गणायाश्च प्रत्येकमेकजीवाश्रया जघन्यकायस्थितिस्त्रिसमयोनः, कः ? क्षुल्लकभव इत्यनुवृत्त्या बोद्धव्यम् । कथं पृथिव्यादिभ्यश्च्युत्वा चतुःसामयिक्या विग्रहगत्या जघन्यस्थितिकपथिव्यादितयोत्पद्य, ततोऽपि मृत्वा विग्रहगत्यैव यो भवान्तरं गच्छति,तस्य क्षुल्लकभवचतुर्थसमयात्प्रारभ्य क्षुल्लकभवान्त्यसमयं यावदाहारकत्वादौदारिकमिश्रकाययोगित्वाच तदपेक्षया प्रकृतकायस्थितिर्बोद्धव्या । उक्त च जीवसमासत्तौ श्रीमन्मलधारीयहेमचन्द्रसूरिपादैः
___“कश्चिदेकेन्द्रियादिर्जीवो मृतः, पूर्वाभिहितप्रकारेण च विग्रहे समयत्रयमनाहारको भूत्वा क्षुल्लकभवग्रहणायुष्केषु पृथिव्यादिषूत्पन्नः, तत्र च तावन्तं कालं निरन्तरमाहारको भूत्वा मृतः, पुनरपि विग्रहेऽनाहारको जात इत्येवं जघन्यतस्त्रिसमयोनं क्षुल्लकभवग्रहणमाहारकत्वम्' इति ॥१७५-१७६॥
अथ क्रमप्राप्तस्य पर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदस्य जघन्यकायस्थितिं दिदर्शयिषुलाघवार्थमक्रमगतानपि तुल्यवक्तव्यान मार्गणाभेदान् सगृह्याह
भिन्नमुहत्तं उ सयलपज्जत्तगजोणिणीण कायस्स । मीसदुजोग-पुमाणं कसायतिग-णाणजुगलाणं ॥१७७॥ अण्णाणदुगस्स तहा देसा-ऽयत-चक्खु-सब्बलेसाणं ।
सम्मत्त-खइअ-वेअग-उवसम-मीसाण मिच्छस्स ॥१७८॥ (प्रे०) "भिन्नमुहुत्तं उ” इत्यादि, भिन्नमुहूर्तम्-अन्तर्मुहूर्त जघन्यकायस्थितिर्भवतीति शेषः । तुशब्दः पूर्वापेक्षया विशेषद्योतनार्थं प्रकृतान्तमुहूर्तकायस्थितेः । को विशेषो द्योत्यते ? उच्यते, पूर्व तिर्यग्गत्याधेकोनपञ्चाशन्मार्गणानां परस्परं तुल्यैव जघन्यकायस्थितिरासीद्, न पुनः समयमात्रेणापि न्यूनाधिका । प्रकृते तु सा कुत्रचिल्लेश्यादिमार्गणासत्का लध्वन्तमुहूर्तमात्रा, कुत्रचित्पर्याप्तादिभेदानां क्षुल्लकभवाद् दीर्घान्तमुहूर्तप्रमाणा, इत्येवं विशेषेण यथासम्भवं बोद्धव्येति । केषां मार्गणाभेदानां जघन्यकायस्थितिरन्तमुहूर्तमात्रेत्याह-"सयलपजत्तगे"त्यादि, सकलशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् सकलपर्याप्तभेद-सकलयोनिमतिमार्गणाभेदानामित्यर्थः । तत्र पर्याप्तभेदा विंशतिः, द्वो पुनर्योनिमद्भदौ । तद्यथा-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यक्-पर्याप्तमनुष्यभेदो, पर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियभेदो, तथा पर्याप्तद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियभेदाः, पर्याप्तसूक्ष्मबादरपथिव्यप्तेजोवायु-साधारणवनस्पतिकाय-पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकाय-पर्याप्तत्रसकायभेदाश्चेति पर्याप्तभेदाः । तिरश्ची मानुषी चेति द्वौ योनिमद्भेदाविति । “कायस्स" ति काययोगमार्गणाभेदस्य तथा “मीसदुजोगपुमाणं" ति औदारिकमिश्रयोगस्याऽनन्तरगाथायामेवाभिहितत्वादौदारिकमिश्रयोगवर्जयोः शेषयोक्रियमिश्रा-ऽऽहारकमिश्रकाययोगभेदयोः पुंवेदमार्गणाभेदस्य चेत्यर्थः । "कसायतिगणाणजुगलाणं" ति "लोहविभंगोहिजुगलाण" (गाथा-१८३) मित्यादिना लोभ
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जघन्या काय स्थितिः ]
द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १८१
मार्गणाया अवधिज्ञान- मनः पर्यवज्ञानमार्गणोश्च जघन्यकायस्थितेरुत्तरत्र वक्ष्यमाणतया ता मार्गणा विहाय क्रोध - मान-माया लक्षणानां कपायमार्गणानां त्रिकस्य मतिज्ञान - श्रुतज्ञानरूपयोर्ज्ञानमार्गयो युगलस्य चेत्यर्थः । तथैव विभङ्गज्ञानमार्गणायाः प्रकृतकायस्थितेरप्युत्तरत्र वक्ष्यमाणतया "अण्णाणदुगस्स "त्ति मत्यज्ञान - श्रुताज्ञानलक्षणयो' योरज्ञानमार्गगयोस्तथा देशसंयमाSसंयम-चक्षुर्दर्शन मार्गणाभेदानां "सव्वलेसाणं" ति सर्वासां पट्संख्याकानामपि कृष्णादिलेश्यामार्गणाभेदानामित्यर्थः । तथा सम्यक्त्वौघ - क्षायिक-वेदकौ पशमिक-मिश्रमार्गणाभेदानां मिथ्या त्वस्येत्येतेषां समुदितानामष्टचत्वारिंशन्मार्गणाभेदानां प्रत्येकमित्यर्थः । उक्तं च कार्यस्थितिपदे – “पजत्तए णं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं" इति । इत्थमेव शेषमार्गणानां जघन्यकायस्थितिविषयेऽपि समयसंवादो द्रष्टव्य इति ॥ १७७-१७८ ॥
अधुना क्रमप्राप्तानां शेषदेवगत्यादिभेदानां जघन्यकायस्थितिमाह — पलियम्स अभागो जोइसिअस्स पलिओवमं णेया । सोहम्मरस्स भवे ईसाणस्स भहियपल्लं ॥ १७९ ॥ दोणि हवेज्जा जलही सणकुमारस्स दोण्णि अव्भहिया । माहें दस्स हवेज्जा सत्त भवे बम्हदेवस्स ॥ १८०॥ लंतकदेवाईणं सा बम्हसुराइगाण जा जेट्टा |
(प्रे० ) "पलियस्से" त्यादि, पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् "पलियस्स” त्ति पल्योपमस्याष्टमो भागो ज्योतिष्कदेव मार्गणाभेदस्यैकजीवाश्रया जघन्यकायस्थितिरिति गम्यते । एवमुत्तरत्रापि बोद्धव्यम् । “पलिओवमं णेय" त्ति एकं पल्योपमं ज्ञेया प्रकृतकायस्थितिः, कस्येत्याह–“सोहम्मसुरस्स" ति सौधर्माख्यस्य वैमानिकप्रथमदेवभेदस्येत्यर्थः । "भवे ईसाणस्स भहियं पल्लं "ति वैमानिकद्वितीयदेवभेदस्येशानकल्पाख्यस्य साऽभ्यधिकं पल्योपमं भवेदित्यर्थः । " दोणि हवेज्जा जलहो" त्ति द्वौ 'जलधी' सागरोपमौ भवेत् सनत्कुमाराख्यदेवगतिभेदस्य, "दोण्णि अन्भहियो” त्ति "जलही" इत्यस्यात्राप्यनुवर्तनाद् द्वौ 'जलधी'-सागरोपमेऽभ्यधिके माहेन्द्राख्यचतुर्थ कल्पदेवगतिभेदस्य भवेत्, “सत्त भवे" त्ति पूर्ववत् “जलही” इत्यस्यानुवृच्या सप्त जलघयः - सागरोपमाणि प्रकृतकाय स्थितिर्भवेद् ब्रह्मलोकाख्यपञ्चमकल्पस्य । लाघवार्थमित उपरितनदेवगतिभेदानां प्रकृतकायस्थिति मतिदेशद्वारेणाह - "लंतक - देवाईण" मित्यादिना, लान्तककल्यादिदेवगतिभेदानां सा जघन्यकायस्थितिर्मन्तव्येति वाक्यशेषः । का पुनः सा इत्याह - " बम्हे" त्यादि । इदमुक्त' भवति - "सोहम्माईण कमा अयरा दो साहिया दुवे सत्त | अब्भहिया सत्त य दस चउदस सत्तरह णायव्वा ।। १५९ ।। एत्तो एगेगऽहिया णायव्वा जाब एगती सुदही । उवरिमगेविज्जस्स उ त्तेत्तीसाऽणुत्तराण भवे || १६०||" इति गाथाद्वयेन ब्रह्मकल्प
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१८२]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्थानानामेकजीवाश्रया सुरादिकानां या ज्येष्ठा कायस्थितिः प्रागभिहिता, सा द्रष्टव्येत्यर्थ । तद्यथा-लान्तककल्पदेवगतिभेदस्य दशसागरोपमाणि जघन्यकायस्थितिः, शुक्रकल्पस्य तु सा चतुर्दश सागरोपमाणि, सहस्रारकल्पस्य सप्तदशसागरोपमाणि, इतस्तूत्तरोत्तरदेवभेदानामेकैकसागरोपमेणाधिका कायस्थितिद्रष्टव्या यावच्चतुर्णामनुत्तरविमानदेवगतिमार्गणाभेदानां प्रत्येकमेकजीवाश्रयजघन्यकायस्थितिरेकत्रिंशत्सागरोपमाणीति । सर्वार्थसिद्धविमानदेवगतिभेदस्य तु सा एकत्रिंशत्सागरोपमप्रमाणा जघन्यकायस्थितिर्न भवति, तस्या अनन्तरं प्रतिषेध्यत्वादिति । एपा हि कायस्थितिस्तत्तद्देवगतिभेदानां जघन्यभवस्थित्यनुसारेण भावनीया । जघन्या भवस्थितिस्तु तेषामित्थं पठ्यते -
“सोहम्मे ई साणे जहन्नठिइ पलियमहियं च ॥९॥ दोसाहि सत्त दस च उदस सत्तर अयराइ जा सहस्सारो। तप्परओ इक्किक्कं, अहियं जाऽणुत्तरच उक्के ॥१०॥” इति । (श्रीचान्द्रसंग्रहणी)
श्रीसमवायाङ्गसत्रे तु-सर्वार्थसिद्धवर्जेषु विजयादिषु चतुर्खनुत्तरभेदेषु जघन्या भवस्थितिात्रिंशत्सागरोपमाण्यभिहिता । तथा च तद्ग्रन्थः-"विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियाणं देवाणं केवइय कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं बत्तीसं सागरोवमाई" इति ॥१७६-१८०॥
अथ सर्वार्थसिद्धविमानदेवगतिभेदे प्रागुक्तोत्कृष्टकायस्थितिरेवाऽजघन्यानुन्कृष्टा इति तत्रोक्तोस्कृष्टकायस्थितितोऽन्या नास्ति काचिज्जघन्या कायस्थितिरित्येतत्प्रतिपिपादयिपुस्तत्साम्पादन्यत्राऽपि सममेव जघन्यां कायस्थितिं प्रतिषेधयन्नाह
सव्वत्था-ऽचक्खूणं भविया-ऽभवियाण णत्थि लहू ॥१८१॥
(प्रे०)"सव्वत्थाचवखूण''मित्यादि, 'भीमो भीमसेन' इति न्यायेन “सव्वत्थ" त्ति सर्वार्थसिद्धविमानदेवगतिभेदा-ऽचक्षुर्दर्शनमार्गणयोस्तथा भव्या-ऽभव्यमार्गणयोरित्येतासां चतसृणां "णत्थि लहु" त्ति एकजीवाश्रया 'लघुः'-जघन्या कायस्थिति स्ति-न विद्यते । कुतः ? सर्वार्थसिद्धविमानदेवगतिभेदवर्जानां त्रयाणामचक्षुर्दर्शनादिमार्गणास्थानानां कायस्थितेराधन्तान्यतरेयत्ताविरहितत्वेनोभयतः सावधिकाया जघन्यकायस्थितेरसम्भवात् , सर्वार्थसिद्धविमानदेवभेदस्य त्वागमेऽजवन्यानुत्कृष्टत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणस्थितेः प्रतिपादनात् । तथा चोक्तं श्रीप्रज्ञापनायाम्- “सव्यदृसिद्धदेवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! अजहण्णुक्कोसेणं तित्तीसं सागरोबमाइ ठिई पन्नत्ता” इति ॥१८१॥
साम्प्रतं शेषमार्गणानां प्रकृतैकजीवाश्रयां जघन्यां कायस्थितिमार्याद्वयेन प्रदर्शयन्नाहपणमणवयजोगाणं ओराला-ऽऽहार-विउव-कम्माणं । थी-णपुमा-ऽवेआणं लोह-विभंगो-हिजुगलाणं ॥१८२॥ मणणाण-संयमाणं समइअ-छेअ-परिहार-सुहुमाणं । सासण-ऽणाहाराणं समयोऽत्थि जहण्णकायठिई॥१८३॥
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जघन्या कायस्थिति: ]
द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १८३
(प्रे० ) " पणमणे" त्यादि, पञ्चशब्दस्य योगशब्दस्य च मनोवचसो: प्रत्येकं सम्बन्धात् पञ्चानां मनोयोगभेदानां पञ्चानां वचोयोगभेदानां चेत्यर्थः । तथा " ओरालाहारविवकम्माणं" ति औदारिका - SSहारक - वैक्रिय कार्मणाख्यानां चतुर्णां काययोगमार्गणोत्तरभेदानाम् | "थोणपुमाSami" ति स्त्रीवेद-नपुंसकवेदयोरपगतवेदस्य चेत्यर्थः । तथा लोभकषाय- विभङ्गज्ञानयोरवधिज्ञाना- ऽवधिदर्शन मार्गणाद्वयलक्षणस्या- ऽवधियुगलस्य, अन्यमार्गणा सङ्ग्रहाय प्राह - "मणणाणसंयमाण”मित्यादि, मनः पर्यवज्ञान- संयमौघमार्गणयोः सामायिक - छेदोपस्थापन - परिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराय संयमभेदानां सासादना - ऽनाहारक मार्गणयोरित्येतेषामेकोनत्रिंशन्मार्गणाभेदानां प्रत्येकम् - "समयोऽत्थि जहण्णकायठिई "त्ति एकजीवाश्रया जघन्यकायस्थितिः 'समय:' - समयमा - त्राऽस्ति । उक्तं च जीवसमासे
“मण-इ- उरल - विउत्रिय आहारय-कम्मजोग - अणरित्थी । संजमविभाग- विब्भंग-सासाणे एगसमयं तु ॥ " इत्थमेवापगतवेदादि मार्गगाजघन्यकायस्थितिविषये सूत्रसंवादो द्रष्टव्यः । तद्यथा
"अवेदए णं भंते! अवेदए ति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! अवेदे दुविधे पं० तं जहा - सादीए वा अजबसिए, साइए वा सपज्जवसिते, तत्थ णं जे साइए सपज्जवसिते से जहणेणं एवं समयं " इति । इत्थमेवावधिदर्शनादिजघन्यकायस्थितिविषयेऽपि द्रष्टव्यमिति ।। १८२ - १८३ ॥
अथ मतान्तरतः क्रोधादिकतिपयमार्गणानां प्रकृतजघन्यकायस्थितिं दर्शयन्नाह
अण्णे कोहाई समयो मणणाण - ओहिजुगलाणं ।
संयम- परिहाराणं भिन्नमुत्तं पडुच्च छउमत्थं ॥ १८४ ॥ ( गीतिः )
(प्रे० ) " अण्णे को हाईण" मित्यादि, अन्ये- महाबन्धकारादयः क्रोधादीनां क्रोध- मान-मायाकषायलक्षणानां तिसृणां मार्गणानां प्रकृतकायस्थितिः “समय” त्ति लोभकषायमार्गणावज्जघन्यत एकसमयस्तथा “मणणाणओहिजुगलाणं संयमपरिहाराणं" ति मनः पर्यवज्ञानस्याऽवधिज्ञाना- ऽवधिदर्शन मार्गणयोर्यु 'गलस्य संयमौघ- परिहारविशुद्धिकसंयमयोरित्येतासां सप्तमार्गणानाम् “भिन्नमुहत्तं" ति अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकायस्थितिरिति वदन्तीति शेषः । संयमौघस्य जघन्यतोतमुहूर्त कार्यस्थितिस्तु कषायप्राभृतचूर्णिकाराद्यभिप्रायेणापि दृश्यते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णौ मिथ्यात्वादीनां जघन्यादिकालविषयकाल्पबहुत्वे
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.. अपुव्वकरणद्धा संखेज्जगुणा । जहणिया संजमासंजमद्धा समत्तद्धा मिच्छत्तद्धा संजमद्धा असंजमद्धा सम्मामिच्छतद्धा च एदाओ छप्पि अद्धाओ तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ ।" इत्यादि, बृहत्कल्पेऽपि “पज्जाए मुहुत्तो जहन्नमुक्कोसिया उ देसृणा" (गाथा - १६३८ ) इत्याद्युक्तम् ।
इयं ह्युत्कृष्टजघन्यभेदभिन्ना द्विविधाऽपि मार्गणानां कायस्थितिः प्रकृतग्रन्थोपयोगित्वेन छद्मस्थजीवापेक्षा दर्शितेत्येतत्सूचयन्नाह - " पडुच्च छउमत्थं" ति छद्मस्थानामेव स्थितिबन्धकत्वादेषाऽनन्तरोक्ता द्विविधकाय स्थितिः छद्मस्थजीवं प्रतीत्योक्ता । इदमत्र हृदयम् -स्थिति
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१८४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ ओघतः सप्तानां जघन्येतरस्थित्योः बन्धः सकपायजीवानामेव जायते, एवमनुभागबन्धोऽपि । प्रदेशबन्धो योगप्रत्ययत्वाद्यद्यपि सकपायाणामिवाऽकपायाणामपि जीवानां भवति, तथाप्यसावत्र विवक्षाविशेषेण सकपायजीवानाश्रित्याऽधिकरिष्यति । एवं सति भण्यमानवक्ष्यमाणस्थितिबन्धादित्रिविधवन्धस्याऽपि सकषायजीवविषयत्वात् सकषायजीव-छद्मस्थजीवसव्यपेक्षैकजीवाश्रयकायस्थित्योर्मतिज्ञानादिकतिपयमार्गणा अधिकृत्याऽन्तमुहूर्तमात्रेण न्यूनाधिकत्वेऽप्युभयकायस्थितिवक्तव्यतायास्तुल्यत्वाच्च छद्मस्थजीवान् प्रतीत्य पूर्वापेक्षया किञ्चिद्विलक्षणैवात्र कायस्थितिरभिहिता । ततश्चेमामेव कायस्थितिमुपादायानन्तरोक्तोत्तरत्रवक्ष्यमाणस्थितिबन्धादिकाला-ऽन्तरादय उपपादनीयाः, न पुनः प्रकृतिबन्धग्रन्थोक्तकायस्थितिमादायेति । तदेवं समाप्तं प्रासङ्गिकं कायस्थितिनिरूपण, तत्समाप्तौ च निष्टिताऽष्टानामपि मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योद्धिविधवन्धकालप्ररूपणा ॥१८४॥ अथ जघन्याऽजघन्यस्थितिबन्धयोर्जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नकालं ओघत दर्शयन्नाह
आउगवजाण भवे जहण्णगाए ठिईअ हस्सियरो ।
कालो भिन्नमुहुत्तं तिविहो होइ अजहण्णाए ॥१८५॥ (प्रे०) “आउगवज्जाणभवे" इत्यादि, आयुष्फवर्जानां ज्ञानावरणादीनां सप्तानां मूलकर्मणां भवेत् , क इत्याह-“कालो" ति परेणान्वयः। प्रकृतत्वादेकजीवाश्रयबन्धकालो भवेदित्यर्थः । यस्याः कियानित्याह-"जहण्णगाए" इत्यादि, जघन्या एव जघन्यका,तस्या जघन्यकायः स्थितेः "हरिसयरो" त्ति ह्रस्वस्तदितरदीर्घश्च प्रत्येकम् “भिन्नमुहुत्तं" ति अन्तमुहूर्तमित्यर्थः । कुत उभयथाप्यन्तमुहूर्तमेव ? सप्तकर्मसत्कजघन्यस्थितिबन्धस्य चारित्रमोहनीयक्षपकस्वामिकत्वात् । उत्त.श्च स्वामित्वद्वारे-“सव्य विसुद्धो खवगो हस्साअ ठिईअ बंधगो" इत्यादि.(गाथा-११५) क्षपकस्य यथोत्तरमनन्तगुणविशुद्धत्वात् मरणव्याघातस्याभावाच्च प्रत्येकं स्थितिबन्धा नियमेनान्तमुहूर्त प्रवर्तन्ते, अतः सप्तानां जघन्यस्थितेरुकृष्टबन्धकाल इव जघन्योऽपि बन्धकालोऽन्तमुहूर्तमेव लभ्यत इति । अथ सप्तकर्मणामजघन्यस्थितेः प्राह-"तिविहो होइ अजहण्णाए"त्ति सामान्यतः स्वामिभेदादजघन्याः स्थितेर्बन्धकालस्त्रिविधः-पक्ष्यमाणत्रिप्रकारो भवतीत्यर्थ इति॥१८५॥ तानेव त्रीन् प्रकारान् सप्रभेदमुपदर्शयन्नाह
स य एवमणाइधुवो अणाइअधुवो य साइअधुवो य ।
तइओंऽतमुहुत्तमणू देसूणद्धपरियट्टोऽण्णो ॥१८६॥ (प्रे०) “स य एवमि"त्यादि, स चानन्तरगाथोदिष्ट आयुर्वर्जानां सप्तकर्मणां प्रत्येकमजवन्याः स्थितेस्त्रिवधो बन्धकालः ‘एवं'-वक्ष्यमाणस्वरूपो ज्ञातव्य इत्यर्थः । तमेवाह-"णाइधुवो" इत्यादि, विश्ले शप्राप्तस्याकारस्य दर्शनाइनादिध्रुवः, अनाद्यनन्त इत्यर्थः । अयं ह्यभव्यजीवापेक्षया बोद्धव्यः, अभव्यानां मिथ्यात्वपरित्यागाभावेन क्षपकश्रेणिभाविजघन्यस्थितिबन्धस्योपशमश्रेणि
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जघन्योत्कृष्टबन्धकालः ]
द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १८५
भाविनः स्थितेरबन्धस्य वाऽऽकालमनवाप्तेरनादिकालप्रवृत्तौधिकाऽजघन्यस्थितिबन्धस्य कदापि विच्छेदासम्भवादिति । अथ द्वितीयविधामाह - " अणाइअधुवो य" त्ति, चः समुच्चये, अनाद्यध्रुवः, अनादिसान्त इत्यर्थः । अयं ह्यप्राप्तोपशान्तमोहगुणस्थानान् भव्यजीवान् प्रतीत्य ज्ञातव्यः, अप्राप्तोपशान्तमोहगुणस्थानानां भव्यजीवानां ह्यभव्यजीववत् प्रकृताजघन्यस्थितिबन्धो नियमतोऽनादिः स चागामिकाले उपशान्तमोहगुणस्थानप्राप्तौ जघन्यस्थितिबन्धे वा प्रारब्धे नियमेन व्यवच्छेदमेष्यति, ततच सान्त इति । तृतीयविधामाह - "साइअधुवो य" त्ति चः प्राग्वत्, 'साद्यध्रुव : ' -सादिसान्त इत्यर्थः । अयं पुनरुपशान्तमोहगुणस्थानात् निपतितान् जीवान् समाश्रित्याऽवसातव्यः, उपशान्तमोहगुणस्थानान्निपतने तेषामजघन्यस्थितिबन्धस्य सादित्वात्, सान्तत्वं तु प्राग्वदिति । जघन्यस्थितिबन्धवदस्यापि कालो जघन्योत्कृष्टभेदाद्विधा द्रष्टव्यः स च प्रथमे प्रकारद्वये न सम्भवति, १ तयोराद्यन्तान्यतरेयत्ताऽपतत्वात् । अतस्तृतीयस्य द्विविधकालमानं दर्शयन्नाह - " तइओ" इत्यादिना, तृतीयः साद्यवभङ्गगतः "अंतमुहुत्तमणु" ति अन्तर्मुहूर्तमणुः - जघन्यो बन्धकालः | "देसूणडपरिअहोऽण्णो त्ति देशोनापुद्गलपरावर्त : 'अन्य:' - जघन्यादन्यः उत्कृष्टवन्धकालो भवतीत्यर्थः । तत्रोपोशान्ताद्वाक्षयेण प्रतिपत्यान्तमुहूर्तं विश्रम्य पुनरपि श्रेणिमारुह्या ऽजघन्यस्थितिबन्धं निष्ठापयति तस्य जघन्यबन्धकालः प्राप्यते, उत्कृष्टबन्धकालस्तु श्रेणियोत्कृष्टान्तरस्य देशोनार्थपुद्गलपरावर्तप्रमाणत्वात् तदपेक्षया ज्ञातव्यः । कुतः ? श्रेणिं विहायान्यत्रौधिकाजघन्यस्थितिबन्धविच्छेदस्यासम्भवादिति ॥। १८६ ।।
तदेवमुक्त ओघत आयुर्वर्जानां सप्तानां जघन्याजघन्यद्विविधस्थित्योर्जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नद्विविधोऽपि बन्धकालः । साम्प्रतमवशेषस्याऽऽयुषोऽपि तमोघतो दिदर्शयिषुरल्पवक्तव्यत्वादादेशतोऽपि सममेव दर्शयन्नाह
आउस जहण्णाए ठिईअ समयो भवे जहण्णियरो | अलहूअ मुहुत्तंतो आउस्सेमेव सव्वासु ॥ १८७॥
(प्रे० ) " आउस जहण्णाए" इत्यादि, आयुषो जघन्यायाः स्थितेः समयो भवेत् । क इत्याह- " जहण्णियरो" ति जघन्यस्तदितर उत्कृष्टव, द्विविधोऽपि बन्यकाल इत्यर्थः । कुतः ? उत्कृष्टाबाधाया इव जघन्याबाधाया अप्य संक्षेप्याद्धायामायुर्वघ्नत आयुर्वन्धकालचरमसमय एव प्राप्तेः । अयम्भावः-असंक्षेप्याद्धा तु जघन्यतो यावत्यायुष्यवशेषेऽवद्धायुर्जीवो नियमेनायुर्वन्धं प्रारभत इत्येवमवशेषवेद्यमानायुरूपा प्रथमाधिकाराल्पबहुत्वद्वारे व्याख्याता । सा च वेद्यमानायुषश्वरमखण्डप्रमाणा । तत्र प्रविश्य क्षुल्लकभवप्रमाणजघन्यायुर्बन्धं प्रारभमाणस्य जीवस्य न जघन्याबाधा, किन्तु क्रमेण निष्ठापयत आयुर्वन्धाद्धायाश्वरमसमयवर्तिनः । इत्येवं जघन्यावाधाया एकस्मिन् समय एव प्राप्ते - रुत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धकाल इव जघन्य स्थितिकायुर्वन्धकालोऽपि समयमात्र आसाद्यते, न पुनर
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१८६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो मार्गणासु जघन्यस्थितेः धिक इतिकृत्वा जघन्यत उत्कृष्टतश्चोभयथा पि समयमात्रो दर्शित इति । अथाजघन्यायाः स्थितेः प्रकृतकालमानमाह-"अलहूअ मुहुत्तंतो" ति अनन्तरोक्त “जहण्णियरो" इति पदं काकाक्षिगोलकन्यायेनात्रापि सम्बध्यते, ततः प्रकृतस्यायुषोऽलघोः-अजघन्यस्थितेजघन्येतरवन्धकालो प्रत्येकं मुहूर्तान्तः-अन्तर्मुहूर्तमित्यर्थः । इमावप्यायुपोऽनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्योत्कृष्टवन्धकालवद्भावनीयाविति । दर्शित ओघत आयुषो जघन्याजघन्यस्थित्योः प्रत्येकं द्विविधोऽपि कालः । साम्प्रतमादेशतः प्रदर्शनावसरः, तत्राल्पवक्तव्यत्वाद् बहुषु मार्गणास्त्रोघसाम्याच्चाऽऽयुषः प्रकृतबन्धकालमेवादावतिदेशेनाह-"आउस्सेमेव सव्वासु" ति आयुषः, न पुनः शेषसप्तकर्मणामपीत्यर्थः । 'एवमेव,-यथौघतो दर्शितस्तथैव 'सर्वासु'-निरयगत्यादिसर्वमार्गणासु जघन्याऽजघन्यस्थित्योर्जघन्योत्कृष्टद्विविधोऽपि बन्धकाल इति प्रकरणाद्गम्यत इति।।१८७।। तदेवं साम्यतावादल्येन लाघवार्थं कृतेऽतिदेशे या काचिदतिप्रसक्तिस्तां निराचिकी' विशेषं दर्शयन्नाह
णवरं अजहण्णाए हस्सो समयोऽत्थि पणमणवयेसु। काये उरले विउवे आहारदुगे कसायेसु॥१८८॥
(प्रे०) "णवर" मित्यादि, नवरं-परमयं विशेषो ज्ञातव्यः । कोऽसावित्याह-"अजहप्रणाए” इत्यादि, अजघन्याः स्थितेह स्वः-जघन्यो बन्धकालः समयोऽस्ति । कासु मार्गणास्वित्याह"पणमणवयेसु"मित्यादि, पञ्चशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् पञ्चषु मनोयोगमार्गणाभेदेषु पञ्चषु च वचोयोगमार्गणाभेदेषु, काययोगे, औदारिककाययोगे, वैक्रियकाययोगे, आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणाद्वयरूपे आहारकद्विके क्रोधादिषु चतुषु 'कायेसु'-करायमार्गणाभेदेष्वित्येतासु षोडषमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । एतासु षोडषमार्गणास्वपवदने हेतवस्त्वायुपोऽनुत्कृष्टस्थितेजघन्योत्कृष्टबन्धकालवदेव द्रष्टव्याः । भावनाऽपि च तथैव कार्या, केवलमनुत्कृष्टस्थितिस्थाने जघन्यस्थितिरभिधातव्येति ॥१८८॥
कृतं सप्तानामोघत आयुष ओधत आदेशतश्च जघन्याऽजघन्यस्थित्योजघन्योत्कृष्टबन्धकालप्ररूपणम् । साम्प्रतमवशिष्टौ सप्तानां जघन्याजघन्यस्थित्योर्जघन्योत्कृष्टबन्धकालाबादेशतः प्ररूपयन्नाह
णरतिग-पणिंदितसदुग-तिवेअ-गयवेअ-चउकसायेसु। चउणाण-विभंगेसुसंयम-सामइअ-छेअ-हुमेसु॥१८९॥ (गीतिः) देसम्मि दंसणतिगे सुइल-भविय-सम्म-खइअ-मीसेसु। सण्णिम्मि य आहारे सत्तण्ह लहूअऽणू मुहुत्तंतो ॥१९०॥ (गीतिः) (प्रे०) “णरतिगे"त्यादि, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेरपर्याप्तभेदं विहाय मनुष्यगत्योघ
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जघन्यो बन्धकालः ]
द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १८७
पर्याप्त मनुष्य मानुषीमार्गणारूपे नरत्रिके, द्विकशब्दस्य पञ्चेन्द्रियत्रसयोः प्रत्येकं योजनात् पञ्चेन्द्रियौ- पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय मार्गगयोजिके सकायौघ- पर्याप्तत्र सका यमार्गणोश्च द्विके इत्यर्थो विज्ञेयस्तथा त्रिषु स्त्री-पुरुष नपुंसकवेद मार्गणाभेदेषु, गतवेदमार्गणायाम्, क्रोधादिकषायचतुष्के | अन्या मार्गणाः संचिन्वन्नाह - "चउणा, ”त्यादि, मत्यादिचतुर्ज्ञान-विभङ्गज्ञान-संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापळा-सूक्ष्मसम्परायसंयामार्गणासु देशसंयमार्गणायां चक्षुरादिदर्शनमार्गणानां त्रिके शुक्ललेश्याभव्य सम्यक्त्व - क्षायिक सम्यक्त्व- मिश्र दृष्टिमार्गणासु संज्ञिमार्गणायामाहारिमार्गणायां चेत्येतासु पञ्चत्रिंशन्मार्गणा प्रत्येकम् “सत्तण्ह लहूअणू मुहुत्तंतु" ति शेषाणामायुर्वर्जानां सप्तानां मूलकर्मणां 'लघोः'- जघन्याया: "णू” त्ति अकारस्य दर्शनात् 'अणुः' - जघन्यो बन्धकालो मुहूर्तान्तः - अन्तर्मुहूर्तमित्यर्थः । अत्र विभङ्ग देशसंयम मिश्रदृष्टिमार्गणात्रये जघन्यस्थितिबन्धः संयमाद्यभिमुखावस्थायां भवति, संयमाद्यभिमुखानां तत्स्वामित्वात् । यदुक्तं स्वामित्वप्ररूपणायाम् -“विभंगदेसेसु संयमाभिमुहो” तथा 'मीसे वो पडिवज्जइ अणंतरम्मि समयम्मि सम्मत्तं" इत्यादि । ततश्व मिथ्यात्वाद्यभिमुखावस्थाभान्युत्कृष्:स्थितिबन्धवज्जघन्यस्थितिबन्धोऽपि न मरणव्याघातादिना व्याहन्यते, अत उत्कृष्टबन्धकाल इस तस्य जघन्यबन्धकालोऽप्यन्तमुहूर्तमेव प्राप्यते । शेषासु द्वात्रिंशन्मार्गणासु तु जघन्यस्थितियन्त्रस्व.मी क्षपकश्रेणिगतो जीवः, तस्यापि मरणव्याघाताऽसम्भवात् प्रतिसमयमनन्तगुणविशुध्यमानत्वाच्चोक्तरीत्या प्रत्येकं स्थितिबन्धा जघन्यतोऽप्यन्मुहूर्त प्रवृत्यैव विरनन्ति, अतस्तत्स्वामिकजघन्यस्थितेर्जघन्यवन्धकालोऽप्यन्तर्मुहूर्तमेव लभ्यत इति ॥ १८९-१९०॥ अथ परिहारविशुद्धिकसंयमादिमार्गणासु जघन्यस्थिते: स्वामित्वविषयकमतभेदात् प्रस्तुतबन्धकालमपि भेदेन दर्शयन् शेषमार्गणासु प्रस्तुतबन्धकालं प्रतिपादयश्वाह
परिहारे तेऊए पउमाए वेअगे य समयो वा ।
भिन्नमुहुत्त व भवे हस्सो समयोऽथ सेसासु ॥१९१॥
(प्रें०) “परिहारे तेऊए” इत्यादि, परिहारविशुद्धिकसंयम मार्गणायां तेजोलेश्यामार्गणायां पद्मलेश्यामार्गणायां “वेअगे य" त्ति वेदके, क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायामित्यर्थः । चः समुच्चये । एतासु चतसृषु मार्गणासु प्रत्येकं सप्तानां जघन्यस्थितेर्जघन्यो बन्धकालः "समयो वा " त्ति स्वस्थानाप्रमत्तसंयतस्यापि जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वं स्वीकुर्वतां मते 'समयः' एकसमयः, भवेदिति परेणान्वयः । वाकारस्तु मतान्तरद्योतकः । “भिन्नमुहुत्तं व भवे" त्ति "अहवा से बंधम्म कयकरणो हवेहिइ जो । सो यो परिहारे तेउपमवेअगेसु य ॥” (गाथा - १२८) इत्यनेन कृतकरणाद्धायाः प्राक् चरमस्थितिबन्धं कुर्वतोऽप्रमत्तस्यैव जघन्य स्थितिबन्धस्वामित्वमिति दर्शितमतान्तरेण 'भिन्नमुहूर्तम्' - अन्तर्मुहूर्त वा भवेदित्यर्थः ।
1
• अथ शेषमार्गणासु प्रकृतकालमानमाह - "समयोऽत्थि सेसासु" ति उक्तशेषासु निरय
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१८८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानाम् गत्योघाद्य कत्रिंशदुत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकं समयोऽस्ति, जघन्यस्थितेजघन्यबन्धकाल इति गम्यते । तत्र शेषमार्गणा नामत इमाः-अष्टौ निरयगतिभेदाः, पञ्चापि तिर्यग्गतिभेदाः, अपर्याप्तमनुष्यभेदः, सर्वेऽपि देवगतिभेदाः,सप्तैकेन्द्रियभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तपञ्चन्द्रियभेदः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायसत्काः सर्वे भेदाः, ते चैकोनचत्वारिंशत् । अपर्याप्तत्रसकायभेदः, सर्वे योगभेदास्ते चाष्टादशः । मत्यज्ञान-श्रताज्ञाना-ऽसंयम-कृष्ण-नील-कापोतलेश्या-ऽभव्यो-पशमिकसम्यक्त्व-सासादन-मिथ्यात्वा- संजय-ऽनाहारिमार्गणाभेदाश्चेति । तत्र नरकगत्योध-प्रथमपृथिवीनिरयभेदयोर्देवगत्योघ-भवनपति-व्यन्तरभेदेष्वपर्याप्तमनुष्यमार्गणायां च प्रत्येकमेकवक्रया द्विसामयिक्या विग्रहगत्याऽसंज्ञिभ्य आगच्छतो जीवस्य भवप्रथमसमयापेक्षया विज्ञेयः। पञ्चसु मनोयोगमार्गणाभेदेषु,पञ्चसु वचोयोगमार्गणाभेदेषु, काययोगसामान्य औदारिककाययोगमार्गणाभेदे च क्षपकश्रेणौ चरमस्थितिबन्धप्रारम्भद्वितीयसमये पूर्वप्रवृत्तमनोयोगादीनां योगान्तरतया परावर्तने तत्प्रयुक्त एकसमयकालोऽवसातव्यः । शेषासु द्वितीयपृथिवीनिरयभेदादिमार्गणासु तु न प्रकृतजघन्यस्थितिबन्धः क्षपकणिसत्कः सम्यक्त्वायभिमुखावस्थाभावी वा, ततश्च तत्प्रारम्भद्वितीयसमये कालकरणेन मार्गणापरावर्तनादुपयोगक्षयात् तथास्वाभाव्याद्वाऽजघन्यस्थितिबन्धं कुर्वतो जीवस्य प्राप्यते । केवलमुपशमसम्यक्त्वमार्गणायामसौ जघन्यस्थितिवन्धप्रारम्भद्वितीयसमये कालकरणापेक्षयैव प्राप्यत इति तदपेक्षयैव भावनीय इति॥१९१॥
___ तदेवमभिहितः सप्तानां जघन्याः स्थितेजघन्यो बन्धकालः । साम्प्रतं तस्या एवोत्कृष्टबन्धकालं व्याजिहीर्ष रार्याद्वयमाह
होइ गुरू दोसमया णिरये पढमणिरये अपज्जणरे । सुर-भवण-वंतरेसूकम्मा-ऽणाहारगेसु च ॥१९२॥ भिन्नमुहुत्तं समयो वा उक्कोसो तिमिस्सजोगेसु।
सेसासु मग्गणासु भिन्नमुहुत्त मुणेयव्वो ॥१९३॥ (प्रे०) “होइ गुरू” इत्यादि, सप्तानां जयन्याः स्थितेगुरु:-उत्कृष्टो बन्धकालो द्वौ समयो भवति । कस्यां मार्गणायामित्याह-"णिरये" इत्यादि, निरयगत्योघे, प्रथमपृथिवीनिरयभेदे, अपर्याप्तनरभेदे, सुरगत्योघ-भवनपतिदेवभेद-व्यन्तरदेवभेदेषु कार्मणानाहारकमार्गणयोश्चेत्येतास्वष्टमार्गणास्वित्यर्थः । कुतः ? विग्रहगतावनाहारकावस्थायां वर्तमानानां बादरजीवानामेव प्रस्तुततत्तन्मार्गणासत्कजघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वादिति । अयमत्राभिप्रायः-अधिकृताष्टमागेणासु जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनो बादरेभ्यश्च्युत्वा बादरतयोत्पद्यमाना जीवा एव सम्भवन्ति, तेषां त्रिसामयिक्यां द्विवक्रायां विग्रहगतौ जायमानं जघन्यस्थितिबन्धमपेक्ष्य प्रकृतबन्धकाल उत्कर्षतः समयद्वयमेवावाप्यते, अनाहारकावस्थायां तद्भावात् , त्रिसामयिक्यां विग्रहगतो समयद्वयमेवानाहार
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जघन्यस्थितेरुत्कृष्टबन्धकालः ] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १८९ कत्वाच्चेति । अथ मिश्रयोगत्रये स्वामित्वविषयकमतभेदापन्नौ विकल्पावाह-"भिन्नमुहुत्तं समयो वा" इत्यादि, औदारिकमिश्र-वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारकमिश्रयोगाख्यासु त्रिसृषु मिश्रयोगमार्गणासु प्रत्येकम् “उकोसो” त्ति प्रकृतत्वात्सप्तानां जघन्यायाः स्थितेरुत्कृष्टो बन्धकालः"............ णंतरकाले सरीरपज्जत्ति । यो णिहवेउ सो वा णेयो तिसु मीसजोगेसु ॥१२६।।" इत्यनेन दर्शितजघन्यस्थितिबन्धस्वामिविषयकमतान्तरेण समयः, तदन्यमतेन तु ‘भिन्नमुहूर्तम्'-अन्तमुहूर्त ज्ञातव्य इति गाथाप्रान्तेऽन्वयः । गतार्थः । अथोक्तशेषमार्गणासु प्रस्तुतमाह-"सेसास" इत्याद्यत्तराधैन, अनन्तरोक्ता निरयगत्योघाद्यकादशमार्गणा विहाय शेषासु द्वितीयपथिवीनिरयभेदादिष्वेकोनपष्टयु त्तरशतमार्गणासु प्रत्येकं भिन्नमुहूर्तं ज्ञातव्यः, सप्तानां जघन्यायाः स्थितेरुत्कृष्टो बन्धकाल इति प्रक्रमाद्गम्यत इति । अयमपि कस्याप्येकस्थितिबन्धस्थानात्मकस्य जघन्यस्योत्कृष्टस्य वा स्थितिवन्धस्यान्तमुहूर्तादधिकमप्रवर्तनादित्यादि प्राग्वद्भावनीय इति ॥१९२-१९३॥
तदेवं सर्वमार्गणासु दर्शितः सप्तानां जघन्यस्थितेरुत्कृष्टबन्धकालोऽपि । साम्प्रतं तासामेव सप्तानामजघन्यायाः स्थितेर्द्विविधबन्धकालं प्रचिकटयिषुरादौ जघन्यं बन्धकालं दर्शयन्नाह
णिरय-पढमणिरयेसुअपज्जणर-देव-भवणजुगलेसु।
अजहण्णाए हस्सो दुखणूणजहण्णकायठिई ॥१९४॥ (प्रे०) "णिरयपढमे"त्यादि, निरयगत्योध-प्रथमपृथिवीनिरयभेदरूपयो योर्मार्गणयोस्तथा-ऽपर्याप्तनरभेद-देवौघ-भवनपति-व्यन्तरयुगलेष्वित्येतासु षण्मार्गणासु प्रत्येकम् “अजहण्णाए हस्सो” ति आयुर्वर्जानां सप्तकर्मणामजघन्यायाः-जघन्यभिन्नायाः स्थितेर्हस्वः-जघन्यो बन्धकालः “दुखणणजहण्णकायठिई" ति 'द्विक्षणौ'-द्वौ समयौ ताभ्यामृनाः-न्यूना द्विक्षणोना “कायठिई णायव्या जहण्णगा दससहस्स वासाणि । णिश्यपढमणिरयाणं देवभवणवंतराणं च ॥१७॥" इत्यादिनाऽभिहिता निरयगत्योपादिमार्गणानां स्वीया स्वीया जघन्या कायस्थितिभवतीत्यर्थः । इयमत्र भावना-प्रकृतसप्तमार्गणासु प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धो विग्रहगतो वर्तमानस्य जीवस्य भवप्रथमसमयद्वय एव सम्भवति,नान्यदा। उक्तं च स्वामित्वद्वारे-“पढमदुइअसमये खलु असण्णिओ आगओ णेओ ॥१२१।। णिरयपढमणिरयेसु अपज्जणरदेवभवणजुगलेसु।" इति । ततश्च भवप्रथमसमयद्वयं संत्यज्यान्यदाऽजघन्यस्थितिबन्ध एव प्रवर्तते । नैरयिकदेवानां भवस्थितिकायस्थिती तु परस्परं तुल्य एव, कस्यापि जीवेनैकस्यैव भवस्य नैरयिकतया देवतमा वा निरन्तरकरणादिति तु प्रागभिहितमेव । इत्येवमजयन्यस्थितेर्जवन्यबन्धकालोऽपि यथोक्त एव प्राप्यत इति ॥१९४॥ अथ सप्तमपृथिवीनिरयभेदे प्रकृतकालं दिदर्शयिषुः समानवक्तव्यत्वादन्यमार्गणास्वपि सममेवाह
भिन्नमुहुत्तं सत्तमणिरये दुपणिंदि-तस-पुमेसु तहा। मइ-सुअणाणियरेसुदेसा-ऽयत-चक्खुइयरेसु॥१९५॥
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१९० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानाम् अपसत्थतिलेसासु सुकिल-भवि-अभवि-सम्मेसु।।
खाइअ-वेअग-उवसम-मीसेसुमिच्छ-सण्णीसु॥१९६॥ (उपगोतिः) (०) "भिन्नमुहुत्तं” इत्यादि, सप्तानामजघन्यस्थितेर्जघन्यबन्धकालो भिन्नमुहूर्त भवति । केषु मार्गणाभेदेष्वित्याह-"सत्तमणिरये" इत्यादि. सप्तमपृथिवीनिरयभेदे. "दपणिंदितसपुमेसु” त्ति द्विशब्दस्य पञ्चेन्द्रियवसयोः प्रत्येकं योजनाद् द्वयोः पञ्चेन्द्रियभेदयो
योस्त्रसकायभेदयोः पुवेदमार्गणाभेदे चेत्यर्थः । अत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्त्या पञ्चेन्द्रियत्रसकायसत्को निरुक्तौ द्वौ द्वौ भेदावपर्याप्तभेदवौं बोद्धव्याविति । तथाशब्दोऽनुक्तसमुच्च ये, अनुक्तमार्गणाभेदानेव सार्धया गाथया संगृह्णन्नाह-"मइसुअ"इत्यादिना, मतिज्ञान-श्रुतज्ञानमार्गणयोः, मत्यज्ञान-श्रताज्ञानलक्षण यो योरज्ञानमार्गणाभेदः , देशसंयमे, असंयमे, चक्षरचक्षुदर्शनमार्गणयोः, 'अप्रशस्तासु' अशुभासु त्रिसृषु कृष्णादिलेश्यामार्गणासु, शुक्ललेश्या-भव्या-ऽभव्यसम्यक्त्वौघमार्गणाभेदेषु, क्षायिक-वेदको-पशमिकसम्यक्त्व-मिश्रदृष्टिमार्गणाभेदेषु मिथ्यात्वमार्गणासंज्ञिमार्गणयोरित्येतेषु सप्तविंशतिमार्गणाभेदेषु प्रत्येकमित्यर्थः ।
इयमत्र भावना-अजघन्या स्थितिरनुत्कृष्टस्थितिवत् साकाराऽनाकारोभयोपयोगेन बध्यते, अतस्तद्वन्धे साकारोपयोगोऽनाकारोपयोगो वा न व्याघातकः, किन्तु प्रकृतमार्गणाया मार्गणान्तरतया परावृत्तिर्जघन्यस्थितिबन्धोऽबन्ध इत्येतेषां त्रयाणामन्यतमो व्याघातको भवति । इत्थं हि तेभ्यस्त्रिभ्योऽवतीर्याजघन्यस्थितिबन्धप्रारम्भद्वितीयसमये यदि पुनरपि तेषां त्रयाणामन्यतमः समुद्भवति, तदाऽजघन्यस्थितेजेधन्यवन्धकाल एकसमयः प्राप्यते । एतच प्रस्तुतसप्तमपृथिवीनिरयभेदादिमागणासु न सम्भवति । तथाहि-प्रथमपथिवीनिरयभेदं संत्यज्य शेषेषु द्वितीयादिसप्तमान्तेषु षट्षु निरयभेदेषु सप्तकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनः सम्यग्दृष्टयो जीवा एव । उक्तं च स्वामित्वप्ररूपणायाम्- "सेसणिरयदेवेसु विउवदुगे होइ सम्मत्ती' ||१२२।। इति ।
तत्रापि तिर्यक्त्वेनैवोत्पित्सवः सप्तमनरकजीवाः पूर्वलब्धसम्यक्त्वमुत्सृज्य मिथ्यात्वं चाऽवाप्याऽन्तर्मुहूतं विश्रम्यैव कालं कुर्वन्ति, न पुनरतदयंगपि । इत्थं हि द्वितीयादिनिरयभेदगतजीवानामिवामीषां सप्तमनरकजीवानामजघन्यस्थितेजघन्यबन्धकालः समयो नावाप्यते, अजघन्यस्थितिबन्धप्रारम्भादन्तमुहूर्तेऽतिक्रान्ते एव तेषां मरणसम्भवात् । द्वितीयादिपञ्चनिरयभेदगतजीवास्तु ससम्यक्त्वा अपि भवान्तरं गच्छन्ति, न पुनः सप्तमपृथिवीनैरयिकाणामिवान्तमुहूर्त मिथ्यात्वं गत्वैव । इत्थं तेभ्यो ये केचन सम्यक्त्ववन्तो भवद्विचरमसमये जघन्यस्थितिबन्धं समाप्य भवचरमसमयेऽजघन्यस्थितिबन्धं च प्रारभ्य कालं कुर्वन्ति, तेषामजघन्यस्थितेर्जघन्यवन्धकालः समयमात्रोऽपि प्राप्यत इतिकृत्वा प्रकृते द्वितीयादिनिरयभेदानपहाय सप्तमपृथिवीनिरयभेद एव गृहीतः। निरयभेदेषु मरणव्याघातं विना तु समयमात्रजघन्यबन्धकालस्य सम्भव एव नास्ति । पञ्चेन्द्रियौघ
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जघन्यस्थितेर्जघन्यबन्धकालः ] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १९१ पर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदयोस्तु जघन्यस्थितिबन्धादवतीर्णानां स्थितिबन्ध एव न प्रवर्तते, जघन्यस्थितिबन्धस्य क्षपकश्रेणावेव भावात् । श्रेणावुपशान्ताद्धाक्षयेणाऽबन्धादुत्तीर्याऽजघन्यस्थितिबन्धप्रारम्भद्वितीयसमये मरणस्य सम्भवेऽपि तथाप्रकारेण कालं कुर्वतां देवगतावुत्पत्त्या प्रकृतपञ्चेन्द्रियौघादिमार्गणाविच्छेदस्याभावात् प्रकृतवन्धकालोऽन्तमुहूर्तात्स्तोको न प्राप्यते । इत्थमेव त्रसकायभेदद्वये, पुवेदे, ज्ञानद्रिके, दर्शनहिके, शुक्ललेश्यायां, भव्ये, सम्यक्त्वौघ-क्षायिक-वेदको-पशमिकसम्यक्त्वेषु संज्ञिमार्गणाभेदेषु च यथासम्भवं भावनीयम् । एतेषु भेदेष्वन्तमुहर्तमात्राजघन्यस्थितिबन्धकालस्य प्राप्तिस्त्वोचवज्जघन्यकायस्थित्यनुसारेण वा यथासम्भवं द्रष्टव्या। केवलं पञ्चेन्द्रियौघभेदे त्रसकायौधभेदे संज्ञिभेदे च मार्गणान्तरादागतस्य षट्पञ्चाशदधिकद्विशतावलिकामात्रजघन्यायुपस्ततश्च्युत्वैकेन्द्रियतयोपित्सोर्जीवस्य प्रकृतमार्गणायां संजाताऽजघन्यस्थितिवन्धमपेक्ष्याजघन्यस्थितेः पटपञ्चाशदधिकद्विशतावलिकाप्रमाणो बन्धकालः सर्वजघन्यो द्रष्टव्यः । शेषमत्यज्ञानादिमागंणास्वप्यनया रीत्यैव सप्तकर्मसत्काऽजघन्यस्थितेरन्तमुहूर्तकालो भावनीयः।
ननु शेपासु मत्यज्ञानादिमार्गणासु प्रस्तुतकालः कथं समयमात्रो न प्राप्यते ? उच्यते, मार्गणाया जघन्यकायस्थितेरन्तमुहूर्तमात्रत्वे सति मरणव्याघाते समुपजातेऽपि प्रस्तुतमार्गणानां मार्गणान्तरतयाऽपरावर्तनात् । इदमुक्तं भवति-एतासु सप्तानामजघन्यस्थितेर्जघन्यवन्धकालः समयमात्रस्तदा प्राप्येत, यदि मनोयोगादिमार्गणावत्तत्तन्मार्गणाया जघन्यकायस्थितिः समयमात्रा स्याद् , अजघन्यस्थितिबन्धप्रारम्भक्तिीयसमये मरणव्याघाते समुपजाते प्रस्तुतमार्गणाया मार्गणान्तरतया परावृत्तिर्वा स्याद् । न चै देशसंयममार्गणां विहाय शेषासु मत्यज्ञान-श्रुताज्ञानाऽसंयम-कृष्णलेश्या-नीललेश्या-कापोतलेश्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वमार्गणानामन्यतमस्या अपि भवति, प्रत्येकं मार्गणानां जघन्यकायस्थितेरन्तर्मुहूर्तप्रमाणत्वात् , मरणव्याघातेन मार्गणान्तरतयाऽपरावर्तनाच । जवन्यतोऽन्तमुहूर्तस्थितिकायां देशसंयममार्गगायां तु कालकरणे मार्गणापरावृत्तेः सम्भवेऽपि तत्र सप्तानामवन्धस्याऽभावात् , जवन्यस्थितिबन्धादुत्तीर्णानामन्यस्थितिबन्धस्यैवाभावाच न लभ्यते प्रस्तुतकालः समयमात्रः। किमुक्तं भवति-जघन्यस्थितिबन्धादुत्तरं यद्यन्यस्थितिवन्धः स्यात्तदाऽसावजघन्य एव स्यात् , तद्वितीयसमये कालकरणे च मार्गणापरावृत्तिप्रयुक्तः प्रस्तुतकालः समयमात्रः सम्पद्येत । न चैवं भवति । देशसंयममार्गणायां संयमाभिमुखानां जघन्य स्थितिबन्धस्वामित्वेन जयन्यस्थितिबन्धसमाप्त्या सममेव देशसंयममार्गणाविच्छेदादिति ॥१९५-१९६॥
अथैकयाऽऽर्यया शेषमार्गणासु सतानामजघन्यस्थितेर्जघन्यबन्धकालं प्राहमिस्सतिजोग-कसायतिगा-ऽवहिजुगल-परिहार-तेऊस। पम्हाअ मुहुत्ततो समयो वाऽण्णासु समयोऽत्थि ॥१९७॥
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१९२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिहबंधो [मार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानाम् (प्रे० ) "मिस्सतिजोगे"त्यादि, औदारिकमिश्र-वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारकमिश्रकाययोगलक्षणे मिश्रयोगत्रये, “कसायतिग" ति व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेर्लोभवर्जकषायत्रिके, क्रोधमान-मायालक्षणमार्गणात्रये इत्यर्थः । तथाऽवधियुगलेऽवधिज्ञाना-ऽवधिदर्शनमार्गणाद्वयात्मके,परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायां,तेजोलेश्या-पद्मलेश्यामार्गणयोश्चेत्येवं समुदितास्वेकादशमार्गणासु प्रत्येकम् “मुहत्तंतो समयो व" ति प्रस्तुतबन्धकालो मुहूर्तान्तः समयो वा भवति । तत्र मिश्रयोगतेजोलेश्या-पद्मलेश्यामार्गणासु .....ऽणंतरकाले सरीरपज्जत्तिं । यो णिट्ठवेउ सो वा णेयो तिसु मीसजोगेसु ॥१२६॥' तथा 'अपमत्तो अहवा से बंधम्मि कयकरणे हवेहिइ जो। सो यो परिहारे 'तेउ-पउमवेअगेसु य ॥१२८॥ इत्यादिनोक्तस्वामित्वविषयकमतान्तरप्रयुक्तोऽसौ यथासम्भवमन्तमुहूर्त समयो वा प्रागिव योज्यः । तत्र मिश्रयोगत्रये त्वनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यबन्धकालवत्सुगमाऽन्तमुहूर्त-समयकालयोजना । तेजः-पालेश्यामार्गणयोस्तु स्वस्थानाऽप्रमत्तस्य जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वमते जघन्यस्थितिबन्धादवतीर्याऽजघन्यस्थितिबन्धप्रारम्भद्वितीयसमये मार्गणापरावृत्तिप्रयुक्तः समयमात्रः प्रकृतकालो लभ्यते । कृतकरणत्वाक्सिमयस्थस्य जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वमते तु जघन्यस्थितिबन्धकालिनलेश्याया उत्तरत्राऽन्तमुहत यावत्प्रवर्तनात्तदानीमजघन्यस्थितिबन्धस्यैव प्रवर्तनाच्चाऽजघन्यस्थितिबन्धस्य जघन्योऽपि कालोऽन्तमुहूर्तं प्राप्यते । शेषकपायत्रिकादिमार्गणापटके तु यथोक्तजघन्यकायस्थितिविषयकमतद्वयानुसारेण प्रस्तुता-ऽन्तमुहूर्तसमयकालो योज्यः । तद्यथा-श्रोप्रज्ञापनासूत्रानुसारेण क्रोधादिकषायमार्गणात्रयस्यैकजीवाश्रयजघन्यकायस्थितेरन्तमुहूर्तत्वात् , अवधिद्विक-परिहारसंयमयोरेकाजीवाश्रयर्जघन्यकायस्थितेः समयमात्रत्वाच्च प्रस्तुतकालोऽपि क्रोधादिमार्गणास्ववधिज्ञानादिमार्गणासु च यथासङ्ख्यमन्तमुहूर्त समयश्च लभ्यते ।
ननु भवत्ववधिज्ञानादिमार्गणाजघन्यकायस्थितेः समयमात्रत्वात्तत्र कालोऽयं समयमात्रः, न पुनः क्रोधादिकपायमार्गणास्वपि तेनाऽन्तमुहूर्तप्रमाणेन भवितव्यमेव, जघन्यतोऽन्तमुहूर्तकायस्थितिकमार्गणास्वपि प्रस्तुतकालस्य समयमात्रत्वसम्भवाद् ? इति चेद्, एवमपि नात्रासौ तावान् सम्भवति, जघन्यस्थितिबन्धादित उत्तीर्णस्य पुनरपि समयान्तरेण जघन्यस्थितिबन्धाऽबन्धादीनां समुद्भवे तल्लाभात्, प्रस्तुतमार्गणात्रये तु जघन्यस्थितिबन्धादुत्तीर्णानां सर्वथैव स्थितिबन्धस्याऽप्रवर्तनात्, अबन्धादुत्तीर्णानां वाऽन्तमुहूर्तादर्वागवन्धस्य जघन्यस्थितिबन्धस्य मार्गणापरावृत्तेर्वाऽसम्भवादिति । एतासु मार्गणासु वैपरीत्येन क्रोधादिषु समयमात्रः, अवधिज्ञानादिषु त्वन्तमुहते च महाबन्धकाराभिमततज्जघन्यकायस्थितेस्तथात्वात् तथा बोद्धव्यः । अत्र तु परिहारविशद्धिकमार्गणायां तन्मतेऽपि कृतकरणाद्धाया अक्सिमये जघन्यस्थितिवन्धस्वामित्वाभ्युपगमापेक्षया प्रस्तुतकालोऽन्तमुहूर्तमपि द्रष्टव्य इति ।
__ "अण्णासु समयोऽत्थि" ति उक्तान्यासु द्वितीयपथिवीनिरयभेदादिषडविंशत्यभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकं प्रकृतः सप्तकर्मणामजघन्याः स्थितेर्जघन्यो बन्धकालः 'समयः' समयमात्रो
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अजघन्यस्थितेर्जघन्यबन्धकालः ] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ १९३ भवतीत्यर्थः । तत्र शेषमर्गणाभेदा नामतोऽमो-द्वितीयादिषष्ठपथिव्यन्ताः एचनिरयगतिभेदाः, ज्योतिष्कादिपञ्चानुत्तरविमानभेदपर्यन्ताः सप्तविंशतिर्देवगतिमार्गणाभेदाः, मनुष्यौघ-पर्याप्तमनुष्यमानुपीलक्षणास्त्रयो मनुष्य गतिभेदाः,सर्वे तिर्यग्गतिभेदाः, सर्व एकेन्द्रियभेदाः,सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय भेदः, सर्वे पृथिवीकाया-ऽकाय-तेज काय-वाघुकाय-बनस्पतिकायसत्का भेदाः, अपर्याप्तत्रसकायभेदः, पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, काय योगसामान्यो-दारिक-क्रियाऽऽहारक-कार्मणकाययोगमार्गणाभेदाः, स्त्री-नपुसकवेदभेदावपगतवेदभेदश्च, तथा लोभकषाय-मन:पर्यवज्ञान-विभङ्गज्ञान-संयमोघ-सामायिक-च्छेदोपस्थापन-सूक्ष्मसम्परायसंयम-सासादना-ऽसंड्या-ऽऽहा यं-ऽनाहारिमार्गणाभेदाश्चति ।।
तत्र द्वितीयपृथिव्यादिनिरयभेदेष्वनन्तरगाथायां प्रसङ्गाद्भावितः प्रकृतबन्धकालः, तथैव सप्तविंशतिदेवमार्गणाभेदेषु भावनीयः । मनुष्यगतिभेदत्रये तूपशान्ताद्धाक्षयेऽजघन्यस्थितिवन्धं प्रारभ्य द्वितीयसमये कालकरणेन देवगतावुत्पच्या प्रस्तुतमार्गणाविच्छेदादेकसमयः । तिर्यग्गत्योघे जघन्यस्थितिवन्धस्वामी यः कश्चिदेकेन्द्रियजीवो भवद्विचरमसमये जघन्यस्थितिबन्धं समाप्य भवचरमसमयेऽजघन्यस्थितिबन्धं प्रारभ्यानन्तरसमये कालं कृत्वा मनुष्यतयोत्पद्यते, तमपेक्ष्य प्रकृतबन्धकालः प्राप्यते । इत्थमेव शेषेसु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदेष्वपि द्रष्टव्यम, नवरमपर्याप्तमार्गणाभेदेऽसंशिजीवस्य भववरमसमयेऽजघन्यस्थितिबन्धप्रारम्भादनन्तरं मनुष्यतयोत्पादो द्रष्टव्यः, शेषभेदत्रये तु देवतयेति । इन्द्रियमार्गणाभेदेषु कायमार्गणाभेदेषु च तिर्यग्गत्योधमार्गणाभेदवद् यथासम्भवं भावनीयः। काययोगवर्जेषु शेषयोगमार्गणाभेदेषु तु प्रत्येकं स्वस्त्रजघन्यकायस्थित्यनुसारेण प्रस्तुतोऽजघन्यस्थितेर्जघन्यबन्धकालो भावनीयः । इत्थं वेदादिशेषमार्गणाभेदेष्वपि स्वीयस्वीयजघन्यकायस्थितिभावनाबद्भावना द्रष्टव्या, केवलं काययोगसामान्य-संयमौघ-मनःपर्यवज्ञान-आहारिमार्गणासु प्रत्येकमबन्धादुत्तीर्याऽजघन्यस्थितिबन्धप्रारम्भद्वितीयसमये योगपराबत्त्या कालकरणेन च यथासम्भवं प्रकृतमार्गणाविच्छेदाज्जघन्यकालो द्रष्टव्य इति॥१९७॥
तदेवमभिहितः सप्तानां मूलप्रकृतीनामजघन्यस्थितेरेकजीवाश्रयो जघन्यो बन्धकाल आदेशतः । साम्प्रतं तस्या एवोत्कृष्टबन्धकालं विभणिषुर्गाथाद्वयमाह
जेट्ठो असंखलोगा तिरिये-गिदिय-णिगोअभेएसु। पणकाय-अणाणजुगल-अयता-ऽभवि-मिच्छ-अमणेसु॥१९८॥ अंगुलअसंखभागो सुहमेसु भवे अचक्खु भवियेसु।
ओघव्व जाणियब्बो सेसासु सगुरुकायठिई ॥१९९ ॥ (प्रे०) “जेट्ठो असंखलोगा" इत्यादि, प्रकृतसप्तप्रकृतिसत्काया अजघन्यस्थितेज्येष्ठःउत्कृष्टो बन्धकालोऽसंख्यलोकाः क्षेत्रतः, कालतस्तु प्रागवदसंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः ।
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T अवधिदर्शनम ,
५८Y ४
+W क्षायिकम ,
२+४८
+
१९४] मार्गणास्थानानामेकजीवाश्रयजघन्यो-त्कृष्टकायस्थितिप्रदर्शकयन्त्रम् [ यन्त्रम् * A निरयगत्योघः, G...'त्रीन्द्रियौघः, - P त्रसकायौघः, ।::. W विभङ्गज्ञानम, [*.A इत्या- 1 * B प्रथमनिरयभेदः, + J पर्याप्ततीन्द्रियः,* + M पर्याप्तत्रसकायः* :.U२,संयमाघ-परि-दिना संज्ञित ★ B ६, द्वितीयाद्याः, | E अपर्याप्त ,, E १२,शेषाऽपर्याप्त- +U देश० [हार० मार्गणाः
C तिर्यग्गत्योवः :-G चतुरिन्द्रियोघः | । सूक्ष्मबादरपृथिव्या- .:. U२,सामा० छेद०| संख्यया:D पञ्चेन्द्रियतिर्य- + Kपर्याप्तचतुरिन्द्रय द्यपर्याप्तत्रसान्ताः, .:. E सूक्ष्मसम्परायः, A PU ६ गोघः,
E अपर्याप्त ,, .:. E१०,मनोवचो- | + V असंयमः, B३६/V / +D तत्पर्याप्त०, :- L....पञ्चेन्द्रियौघः भेद. | + L चक्षुर्दर्शनम् ,* C ६W ४ :- E तदपर्याप्त०, + Mपर्याप्तपञ्चेन्द्रियः + C काययोगौघः, .X अचक्षुर्दर्शनम् , D६x १ + D तिरश्ची, :- E अपर्याप्त ,, .Q औदारिकः, : D मनुष्यौघः, H४,पृथिव्यातेजो- AE " मिश्रः,
| +W कृष्णलेश्या,
]
IFEZ २ -+- D पर्याप्तमनुष्य,
वायुकायौघाः, .:. E वैक्रियः, + Y ४,नील-कापोत:E अपयोतमनुष्यः, वनस्पतिकायौघः + E " मिश्रः,
तेजः पद्मलेश्या |G | + D मानुषी,
साधारण ,, ,, . E आहारकः, | + IV शुक्लालेश्या, १० १७० * A देवगत्यौघः, 0 प्रत्येक ,, ,, ,, | + E " मिश्रः, OZ२, भव्या ऽभव्यो। १ ५ * B२,भवन-व्यतर० : () ५,बादरपृथिव्य- ... R कार्मणः, + T सम्यक्त्वाघः, २३२ OB सर्वार्थसिद्धः, | *प्तेजोवायुसाधार- .:. S स्त्रीवेदः, + T क्षायोपशमिक, k :-५० * B२६,ज्योतिष्काद्याः णवनौषभेदाः, - + M पुरुषवेदः, : C ..एकेन्द्रियौघः, -- H५,सूक्ष्मपृथिव्या- .:. C नपुसकवेदः, E औपशमिक, :- F बादर ,, ,, दिपञ्चसूक्ष्मौघाः, .:. E अपगतवेदः,
+ E AFILIACIRI M8 + G तत्पर्याप्तभेदः, + G ३, पर्याप्तबादर- + E३,क्रोध-मान-* .:. & सासादनम् , N :- E तदपर्याप्न., पृथिव्यब्वायु० माया, *
+ V मिथ्यात्वम् , 0 . H सूक्ष्मैकेन्द्रियौघ, +J पर्याप्तबादरतेज- ... E लोभः,
:M संज्ञी, + E तत्पर्याप्तभेदः, ___ स्कायः, + T२,मति-श्रतज्ञाने.
: C असंज्ञी. :- E तदपर्याप्त ,, + E ,, ,, साधारणवन .:. T अवधिज्ञानम् ,*
AF आहारी, -:G द्वीन्द्रियौघः, + G ,, प्रत्येकवन० .:. Uमनःपर्यवज्ञानम् *
.. R अनाहारी, + I पर्याप्तद्वीन्द्रियः,* + E ५,पर्याप्तसूक्ष्म- + V २, मतिश्रुता+ E अपर्याप्त , । पृथिव्याद्याः, ऽज्ञाने,
जघन्यकायस्थिति:-* १० वर्षसहस्र० (गाथा-१७४),★ स्वजघन्यभवस्थिति: (गा-१७५-१७६-१८० - १८१), : क्षुल्लकभव:= २५६ प्रावलिकाः (गा-१७५-१७६), Aत्रिसमयोनक्षुल्लकभव: (गा-१७६), + अन्तर्मुहूतम् (गा-१७७-१७८), ... १ समयः (गा-१८२-१८३),.या उत्कृष्टा सैव जघन्या (गाथा-१८१)।
उत्कृष्टकायस्थितिः- A ३३ सागरोपम० (गाथा-१५२), B स्वोत्कृष्टभवस्थिति: (गा-१५३-१५८-१५६१६०), C असंख्यपुद्गलपरावर्त० (गा-१५४), D पूर्वकोटिपृथक्त्वा -ऽभ्यधिकपल्योपमत्रयम् (गा-१५५), E अन्तर्मुहू० (१५६-१५७), F अङ्गुलाऽसंख्यभाग० (गा-१६१), G संख्येयवर्षसहस्र० (१६२), H असंख्येया लोका: (गा१६१), I संख्येयवर्ष ० (गा-१६२), J संख्येयदिवस० (गा-१६३), K संख्येयमास० (गा-१६३), L साधिकसहस्रसागरोप० (गा-१६४), M सागरोपमशतपृथक्त्वं (गा-१६४), सार्धद्वयपुद्गलपराव० (गा-१६५), 0 ७०कोटिकोटिसागरोप० (गा-१६५), P साधिकसागरोपमसहस्रद्वयम् (गा-१६४), Q देशोनद्वाविंशतिवर्षसहस्र० (गा-१६६), R त्रिसमय० (गा-१६६-१७१), Sपल्योपमशतपृथक्त्व० (गा-१६६), T६६ सागरोपमसाधिक० (गा-१६६),
1
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,
२१
दि.
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३१ "
यन्त्रम् ] मार्गणास्थानेषु जघन्योत्कृष्टभवस्थितिप्रदर्शकयन्त्रम् । भवस्थितिः उत्कृष्टतः जघन्यतः भवस्थितिः उत्कृष्टतः जघन्यतः । भवस्थितिः उत्कृष्टतः जघन्यतः । निरयौघ. ३३ सागरोप. १०००० वर्ष. सहस्रार. १८ सागरोप०१७ सागरोपम० चतुरिन्द्रियौघ. ६ मास० क्षुल्लकभव० प्रथमा० अानत० १६ ,
तत्पर्याप्त० ६ मामः अन्तर्मुहू० द्वितीया ३ १ सागरोप. प्राणत २० ।
तदपर्याप्त० अन्तर्मुहू० क्षुल्लकभव: तृतीया आरण० २१
पञ्चेन्द्रियौघ. ३३ सागरोप० " चतुर्थी १० , ७ ,, अच्युत०२२
तत्पर्याप्त० ३३ सागरोप०अन्तर्मु० पञ्चमी १७ , १० , प्र.वे० २३
तदपर्याप्त० अन्तर्मुहू० क्षुल्लकभव० षष्ठी २२ ,,
पृथिवीकायौघादिसप्तमार्गणासप्तमी ३३ ,
स्थानेषूत्कृष्टतो जघन्यतश्च सर्वथोक्ततिर्यगौघ० ३ पल्योपम० क्षुल्लकभव०
केन्द्रियौघादिसप्तमार्गणावज्ज्ञ या। पञ्चेन्द्रिय
अप्काय-तेजस्काय-वायुकायतिर्यगोच० ३ ,
साधारणवनस्पतिकायसत्कसप्तसप्तमातत्पर्याप्त० ,, , अन्तर्मुहू०
गरणास्थानेष्वप्येकेन्द्रियौवादिसप्तमार्गतदपर्याप्त० अन्तर्मुहू० क्षुल्लकभव०
गावदेव । केवलम् उत्कृष्पदेतीरश्ची ३ पल्योपम० अन्तमुह० न० " ३१ "
अप्कायौघ-बादराप्कायौघ-तत्पर्यामनुष्यौघ. ३ पल्योपम० क्षुल्लकभव. | ४ अनुत्त० ३२”
प्तभेदेषु-७००० वर्ष। तत्पर्याप्त० ,, , अन्तर्मुहू० | सर्वार्थसिद्ध ३३" ३३ "
तेजस्कायौघ-बादरतेजस्कायौघतदपर्याप्त० अन्तर्मुहू० क्षुल्लकभव० एकेन्द्रियौघ,२२सहस्रवर्ष. क्षुल्लकभव.
तत्पर्याप्तभेदत्रये-३ दिवस० । मानुषी० ३ पल्योपम० अन्तर्मुहू० | बादर " २२००० वर्ष.
वायुकायौघ-बादरवायुकायौघदेवीच० ३३ सागरोप० १००००वर्ष० तत्पर्याप्त० २२००० वर्ष. अन्तमु हू०
तत्पर्याप्तभेदेषु-३००० वर्षः । भवनपति. साधिकसागरो. १००००, तदपर्याप्त० अन्तर्मुहू० क्षुल्लकभव० __ साधारणवनस्पतिकायौघ-बादरव्यन्तर० १पल्योपम० १००००,, सूक्ष्मैकेन्द्रियौघ० "
साधारणवनस्पतिकायौघ-तत्पर्याप्तभेदेषुज्योतिष्क. साधिकपल्यो० १ पल्योप० तत्पर्याप्त० " अन्तर्मुहू०
अन्तमुहूर्तम् । सौधर्म० २ सागरोप० १ , तदपर्याप्त० " क्षुल्लकभव.
वनस्पत्योघ० १०००० वर्ष.क्षुल्लकभव: ईशान०२ , साधिक० १,,साधि द्वीन्द्रियौघ० १२ वर्ष० "
प्रत्येक ,, १०००० वर्ष० " सनत्कुमार. ७ सागरोप० २ सागरो० | तत्पर्याप्त. १२ वर्ष० अन्तर्मुहू
तत्पर्याप्त० १०००० वर्ष. अन्तर्मुहूर्त. माहेन्द्र० ७.. साधिक० ..साधि० तदपर्याप्त० अन्तमु० क्षुल्लकभव० तदपर्याप्त० अन्तर्मुहूर्त० क्षुल्लकभव० बह्म०१० सागरोप० ७ सागरोप. . त्रीन्द्रियौघ० ४६ दिवस. "
त्रसकायभेदत्रये सर्वथा पञ्चेन्द्रियलान्तक०१४ , १० , तत्पर्याप्त० ४६ दिवस. अन्तमुहू० भेदत्रयवत् । इति ॥ शुक्र० १७ , १४ , तदपर्याप्त० अन्तर्मुहू० क्षुल्लकभव०
देशोनपूर्वकोटि:(गा-१६७), V भङ्गत्रयं, तृतीयभङ्गे देशोनाऽ-र्घपुद्गलपरावर्त० (गा-१६८), W३३ सागरोपम० यथासम्भवं साधिक० (गा-१५२), X अनादिध्रुव० अनाद्यध्रुव० (गा-१६६), Y क्रमेण साधिक १०-३-२-१८ सागरोप० (गा-१७०), Z क्रमेणा-ऽनाद्यध्रुवा-ऽनादिध्रुवभङ्गो (गा-१७०), & ६ प्रावलिकाः (गाथा-१७१)।
*मतान्तरे कायस्थितिः-उत्कृष्टपदे पर्याप्तद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-बादराग्निकायलक्षणमार्गरणाचतुष्टये संख्येयवर्षसहस्राणि । पर्याप्तत्रस-चक्षुर्दर्शनमार्गणयोः सागरोपमसहस्रद्वयम् । नीललेश्यायांसाधिकसप्तदशसागरोपम०। कापोतलेश्यायां साधिकसप्तसागरोपमाणि। जघन्यपदे-क्रोध-मान-मायामार्गणासु समयः। अवधि-मनःपर्यवज्ञाना-ऽवधिदर्शनसंयमोघ-परिहारविशुद्धिकसंयमेष्वन्तर्मुहूर्तम् । (गाथा-१७२-१०३-१८४)
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१९६ ]
......बंधविहाणे मूलपयडिठिबंधो
[ यन्त्रकम
उत्कृष्टस्थितेरेकजीवाश्रयवन्धकालप्रदर्शकयन्त्रम्
आयुपोऽनुत्कृष्टस्थितेः बन्धकालदर्शकान्त्रम्
आयुर्वजसप्तानाम
आयपः उभमथा
उत्कृष्टतः
जघन्यतः
समय- मोषवद ।
प्रोघवद् एकसमयः
काल:
ME अन्तर्मुहूर्तम्
एक- अन्त.
द्वयम्
एकसमयः सर्व.४
प्रोघवद् जघ० उत्कृ० काल:-- उभयथा
| अन्तमह. ममय मह० गति. सर्व. ४७
गति.
सर्व. ४७
सर्व.४७
इन्द्रिय.
सर्व. १६
सर्व. १६
सर्व.१६] इन्द्रिय
काय.
सर्व.४२
सर्व. ४२
"सर्व.४२ काय.
कार्मण. शेष. १७
योग.
मर्व. १८
सर्व.१६ योग
औदारिकमिश्र
शप. १५
वेद.
सर्व.
सर्व.३ | वेद.
। सर्व.३
कषाय.
सर्व.४ सर्व.४ मत्यादि.४
सर्व.४
सर्व.४ |
कषाय
सर्व. ४
ज्ञान.
मत्यादि. ४
अज्ञानत्रयं. ३सर्व.७ ज्ञान.
मजान.३
संयमोघ. सामा. सर्व ७/-छेद, परिहार.
देश. ५
अमंयम. सुक्ष्ममपराम० सव.
संयम
संयम.
दर्शन.
सर्व.३ | अवधि. १
चक्षु. अचा०२
|मर्व.३
दर्शन.
लेश्या .
सर्व.६
सर्व.६ । लेश्या.
सर्व. ६ मर्य. २
--
--
भव्य.
सर्व.२
सर्व..
भा .
सम्य
सर्व. ७
सम्यक्त्वौघ. क्षायोप. प्रौप० मिश्र. ४
क्षायिक. मामादन मिथ्यात्व.३
| सर्व. ५
क्त्व
.
संजी.
सर्व. २
सर्व.२
सर्व.२
संजी.
आहारी. अना. १ पाहा.१
| सर्व.२
सर्व.१ ।
सर्वागणा २१६८
१५६
| सर्वमार्गरगा
१९
गाथाङ्काः-१४५
१४६ ।
१४४-१४५
१४५
१४२ | गाथाहा:-
१४२
१४३
*मिश्रयोगत्रये मतान्तरे एकसमय: प्रस्तुतकालः। A सासादने मतान्तरेऽन्तमूहर्तम् ।
|
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यन्त्रकम ]
काल:
गति
इन्द्रिय
काय०
योग० ।
वेद०
कपाय० ।
ज्ञान०
संप्रम०
दर्श०
लश्वा०
भ०५०
सम्यक्त्व
प्रोघवद्
असंख्यपुद्- लोकाः उपरावर्त
द्वितीयाधि द्वारे काल्हारन
आयुर्वलकृतीनामनुत्कृष्टस्थितेरेकजीवाश्रवन्धकालप्रदर्शकयन्त्रकम्
मन्यज्ञान०
श्रुताज्ञान. २
श्रसंयम०
१
अचक्षु० १
सर्व० २
मिथ्यात्व ०
१
संज्ञी०
आहारी
समागे गाः
67
उत्कृष्टतः
असंख्य- 'अङ्गुला
एकेन्द्रियौष.
१
sसंख्यभागः
6)
सूक्ष्म केन्द्रि यौ०
१
६
१५०
मार्गणानान प्रोधवद्अन्तर्मुहूर्तम्
उत्कृष्टकायस्थितिः
सर्व० ४७
बादरौघ तत्पर्याता केन्द्रियौध. सूक्ष्मैके
न्द्रयोष० तदपर्याप्त
| पर्याप्त सूक्ष्मपर्याप्ता पर्याप्त मेदात्पञ्चके (न्द्रि. सर्वविकल पञ्चे न्द्रियभेदा: १०
३
४
जघन्यतः
१६
वसूक्ष्मसाधारण
पृथिव्यादि - | पृथिव्यादिप- बादरौध-तत्पर्याप्ता- नौघ साधारण वनौ- पर्वपृथिव्यप्तेजोवायु प्रत्येकपचौव० चसूक्ष्मौध० यतिसूक्ष्मपर्याप्ता-पर्या वनभेद, बादरोध-तत्पर्याप्तानिगोदौच० साधारण वनभेद सर्व- वनौष० तदपर्याप्त० पर्याप्त सूक्ष्मपर्याप्त सावाप्रत्येक वन स०३१ रणवनभेद सर्वत्रस० ३८ त्रिमिश्रयोग ३★ त्रिमिश्रयोगवर्जा: शेषा:- १५
सपृथिव्यप्तेजोवायु५.
४
सर्व ० १८
सर्व०
४
सर्व ०
ज्ञानचतुष्कं . विभङ्ग०
५ संयमौघ. सामायिक०)
छेद० परिहार० सूक्ष्म० देश० ६
चक्षु० अवधि० २
सर्व० ६
सम्यक्त्वौघ. क्षायिक आयोप. प. सासा दन मिश्र०
६
सर्व
सर्व ०
२
२
मति श्रुताऽवधि ★ मत्यज्ञाo श्रुताज्ञा० ५
एक: नमयः
सर्व ० ४७
बाद रौवतन्त्रता- पर्याप्त सूक्ष्मपर्याप्त केन्द्रियभेद० सर्वत्रिकल - पञ्चेन्द्रियभेदा
३१
१४७-४८-४९
सर्व.
सर्व०
मनः पर्यव० विभङ्ग०
★ परिहार देश० असंयम ० ३
प्रचक्षु०प्रवधि०२★ चक्षु०
अशुभाः-३
सर्व ० २
सम्यक्त्वौव. क्षायिक क्षायोप श्रौप. मिश्र. मिथ्यात्व० ६ ।
१५०
गाथाङ्काः- १५१
१५०
१५१
अवगतवेद उत्कृष्टकायस्थितिवदन्तर्मुहूर्तम्, न तुत्कृष्टकायस्थिति: । मिश्रयोगत्रयेऽवधिज्ञाना-ऽवधिदर्शन परिहारविशुद्धिकसंयमेषु च मतान्तरेण प्रस्तुतकालः समयः ।
शुभाः
[ १९७
सासादन ०
संयमौघ० सामायिक० छेदोपस्थापन सूक्ष्म० ४
१
३
सर्व०
सर्व०
४
४
२
१३६
१४६
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________________
मोघवद्
सर्व
काय०
. १९८] बंधविहाणे मूलपयडिठिइबधो
यन्त्रकम् जघन्यस्थितेरेकजीवाश्रयबन्धकालप्रदर्शकयन्त्रम्
[आयुषोऽजघन्यस्थितेर्बन्ध आयुर्वर्जसप्तानाम्
आयुषः | कालदर्शकयन्त्रम् उत्कृष्टतः
जघन्यतः
उभयथा
उभयथा प्रोघवद्
जघ० उत्कृ० काल- | समय- प्रोषवद् | प्रोघवद्
एकः समयः एक
एक-अन्तमानम्- द्वयम् अन्तर्मह. | अन्तमुहूर्तम्
। समयः । अन्तमहू. समय निरयोध.प्रथ- द्वितीयपृथिव्या- मनुष्योध०
पर्वनिरयभेद० -दिनिरयभेद.सर्व-| तत्पर्याप्त | गति० मा च.अपर्याप्त
सर्वतिर्यग्गतिभेद. 'तिर्यग्भेद. मनुष्यो। मानुषी०
सर्व०४७ | सर्व०४७ मनुष्य.देवीघ. घ. तत्पर्याप्त. मा
अपर्याप्तमनुष्य भवन.व्यन्तर०नुषी.ज्योतिष्कादि
सर्वदेवभेदाश्च० ६ शेषदेवभेदाश्च ४१ ३
पञ्चेन्द्रियौघ० सर्वेकेन्द्रिय-विकइन्द्रिय० .
तत्पर्याप्त०लेन्द्रिय. अपर्याप्त- सर्व०१६ | सर्व०१९
पञ्चेन्द्रि०१७ त्रसौध-तत्पर्या- सर्वप्रथिव्यादिसर्व० प्तभेदौ० पञ्चकायभेद.अप- सर्व० ४२ | सर्व० ४२
र्याप्तत्रसश्व० ४० | कार्मण० कार्मणवर्जा:
सर्व०
| सर्व०१६ । औदारिक- | शेष १५ योग०
मिश्र०१ वेद० सर्व०४ सर्व०४
सर्व० ३ । सर्व० ३ कषाय० सर्व०४ सर्व०४
सर्व०४
सर्व०४ सर्व०७ मत्यादि०४ - मत्यज्ञान० सर्व०७ ज्ञान
विभङ्ग० १ श्रताज्ञान८२ संयम०
सर्व०७ असंयमवर्ज. ६ असंयम० १ सर्व०६ दशन०
सर्व०३
सर्व०३ । लेश्या० सर्व०६ शुभा० ३. अशुभा०३
| सर्व०६ भव्य०
सर्व० २ भव्य. १ अभव्य०१ सर्व०२ सम्य
सर्व०
सम्यक्त्वौघ. क्षा- औपशमिक. सा
यिक. क्षायौपश. सादन. मिथ्यात्व. सर्व०५ क्व०
मिश्र०४ संज्ञी० सर्व०२
असंज्ञी.१ । सर्व०२ आहारी०अनाहारी० १ आहारक० १ । पाहारक० १ | अनाहार० १
आहारी०१ सर्वमार्गणाः- ८ | १६२
___ १६३ । १४४ - १९ गाथाङ्का:- १६२ । १६३ १८६-६०-६१ १६१ १८७ १८७ । १८८
१८
सर्व०३
३
★ मिश्रयोगत्रये मतान्तरे समयः । . परिहारविशुद्धिक-तेजः-पद्म-क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणासु मतान्तरे समयः।
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यन्त्रकम ]
[ १९९
द्वितीयाधिकारे कालद्वारम आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामजघन्यस्थितेरेकजीवाश्रयबन्धकालप्रदर्शकयन्त्रकम्
१न्द्रियो
काल:उत्कृष्टतः
जघन्यतः ५ असख्य-अगला- उत्कृष्टकाय- | प्रोघवद- द्विसमयन्यूदेशोना लोकाःसंख्यभागः
स्थितिः
अन्तमहूते० ना जघन्य- एकः समय: धपरावर्त
कायस्थितिः
सर्वनिरय-पञ्चे- | सप्तमभूमि- | निरयौप.प्रथ- द्वितीयपृथिव्यादिपञ्चनिरगति०
न्द्रियतिर्यग्-मनुष्य- निरयभेद० मा.अपर्याप्त- | यभेद. ज्योतिष्कादि-२७ तिर्यग्गत्योघ० देवभेदाः
मनुष्य.देवौघ. देवभेद. मनुष्यौघ. तत्पर्याभवन.व्यन्तर. प्त. मानुषी.सर्वतिर्यग्भेद.
४० सूक्ष्मकेन्द्रि- एकेन्द्रियौघ-सूक्ष्मैके- पञ्चान्द्रया
सर्वकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय इन्द्रिय०| एकेन्द्रियौघ. यौघ०
घ-तत्पर्याप्त
अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय०१७ न्द्रियौघद्वयवर्जा:१७ ] २ पृथिव्यादि- | सूक्ष्मप्रथिव्या बादरौघ-तत्पर्याप्ता-पत्रसोध-त्रस
पृथिव्यादिपञ्चकायसत्कसकाय० पञ्चौघ० दिपञ्चौध० प्तिसूक्ष्मपर्याप्ता-पर्या पर्याप्त
र्वभेद० अपर्याप्तत्रसश्च पृथिव्यप्तेजोवायुनिगोदौघ०६५
साधारणवनभेद.सर्व
प्रत्येकवन-त्रस०३१ योग० सर्व० १८
सर्व०★ १८ सर्व० ४ | पुरुष० १
स्त्री० नपुं० गतवेद० ३ कषाय० सर्व० ४
सर्व० *
४ मत्यज्ञान०
अवधि मनःपर्यव० मतिज्ञानादि. ४ मति-श्रुतज्ञाने ज्ञान०
विभङ्ग. श्रुताज्ञान०
विभङ्ग० १ मत्य.श्रुताज्ञा४) संयम० प्रसंयम०१ असंयमवर्ज देशसंयम
संयमौघ० सामा० छेद० असंयम०२
* परिहार० सूक्ष्म०५ दर्शन प्रचक्षु०१ चक्षु० अवधि० २ चक्षु.अचक्षु.२
अवधि० लेश्या०
सर्व० ६ अशुभाः ३
तेजः-पद्म०* २
शुक्ला० १ भव्य०भव्य०१ प्रभव्य० १
सर्व० २ सम्यक्त्वं मिथ्यात्व०
मिथ्यात्वसासादन
सासादन० वर्जा: शेष०६ वर्जा:-६ संज्ञी० असंज्ञी० १
संजी०१ संज्ञी०१ आहारी सर्व० २
सर्व० सर्वमार्गणाः- २ १४
१३७
वेद०
असंज्ञी०
१४८
गाथाङ्का:- १६९ १६८ १६६
१६१
१६७ गतवद कायस्थितिवदन्तमुहर्तम्, न तु कायस्थितिः । *त्रिमिश्रयोग-क्रोध-मान-माया-ऽवधिज्ञानाऽवधिदर्शन-परिहारविशुद्धिकसंयम-तेजः-पद्मलेश्यामार्गणासु मतान्तरेऽन्तर्मुहूर्तम् । * सादिसान्तभने। 3ain Education International
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२०० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ अजघन्यस्थित्युत्कृष्टबन्धकालः कासु मार्गणास्वित्याह-"तिरियगिनिये” त्यादि, तिर्यग्गत्योधै-केन्द्रियौघ-साधारणवनस्पत्योघभेदेषु तथा पृथिव्यादिवनस्पकि.यान्तपञ्चकायौघमार्गणासु, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञानयोयुगले, असंयमाऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंज्ञिमार्गणास्वित्येतासु चतुर्दशमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । कथमेतावानेव, न पुनन्यूनः ? इति चेत् , सूक्ष्मपथिव्यादीनामुत्कृष्टकायस्थितेरसंख्येयलोकप्रमाणत्वात् , तेषां च प्रकृतमार्गणासत्कज बन्यस्थितिबन्धस्वामित्वाभावेनोत्कृष्टकायस्थितिं यावदजघन्यस्थितिवन्धस्यैव निर्वतनादिति । अथान्यत्राह-"अगुलअसंखभागो सुहुमेसु भवे" त्ति प्रस्तुतोत्कृष्टबन्धकालः पष्वेकेन्द्रिय-पृथिव्यादि-वनस्पतिकायान्तेषु पर्याप्ताऽपर्याप्तविशेषणविरहितेषु सूक्ष्मोघभेदेषु प्रत्येकमगुलस्याऽसंख्यभागः क्षेत्रतो भवेत् । कालतस्तु प्राग्वदवसातव्यः । “अचक्खुभवियेसु" ति अचक्षुर्दर्शनमार्गणायां भव्यमार्गणायां च प्रत्येकम् “ओघव्व” त्ति प्रकृतबन्धकाल ओघवत् त्रिधा ज्ञातव्यः । तद्यथा-अनादिध्रुवः,अनाद्यध्रुवः, साद्यध्रुवश्च । तत्र साद्यध्रुव उत्कृष्टतो देशोनार्थपुद्गलपरावर्तः । उक्तश्च प्राक“स य एवमणाइधुवो अणाइअधुवो य साइअधुवो य। तइओंऽतमुहुत्तमणू देसूणद्धपरियट्टोऽण्णो"।। इति ।
अथ शेषमार्गणासु प्रकृतकालमाह-"सेसासुसगुरुकायठिई" ति उक्तविंशतिमार्गणा विहाय शेषास्वष्टचत्वारिंशदुत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकं प्रकृतसप्तकर्मणामजघन्यस्थितेरुत्कृष्टो बन्धकालस्तत्तन्मार्गणाया स्वीया स्वीया प्रागुक्तोत्कृष्टकायस्थितिबर्बोद्धव्य इत्यर्थः । सगमः, नैरयिकादिजीवेषु केपाञ्चिज्जीवानामुत्कृष्टकायस्थिति यावज्जघन्यस्थितिबन्धस्याप्रवर्तनेनाजघन्यस्थितिवन्धस्याऽविरततया प्रवर्तनसम्भवात् । अत्राऽपि शेषमार्गणाऽन्तःप्रविष्टायामपगतवेदमार्गणायां 'सगुरुकायठिई' इत्यनेन प्रस्तुतकालयुकृष्टकायस्थितिप्रमाणे प्राप्तेऽप्यसौ व्याख्यानतोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धोत्कृष्टकालवदन्तमुहूर्तमेवावसातव्यः, न तूत्कृष्टकायस्थितिरिति ॥१९८-१९९॥
तदेवमभिहितः शेषसप्तकर्मसत्काजघन्यस्थितेरपि द्विविधो बन्धकालः, तस्मिँश्चाभिहिते समाप्ता चतुर्थद्वारविषयभूतै कजीवाश्रयकालप्ररूपणेति ।।
॥ इति बन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे चतुर्थमेकजीवाश्रयकालद्वारं समाप्तम् ।।
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________________
॥ अथ पञ्चममन्तरद्वारम् ॥ इदानीं पञ्चमस्यैकजीवाश्रयान्तरद्वारस्यावसरः । तत्रैकजीवाश्रयामन्तरप्ररूपणां चिकीर्षुरादौ तावदुत्कृष्टाऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धविषयां तामोघतः कुर्वन्नाह
सत्तण्हुक्कोसाए ठिईअ लहुमंतरं मुहुत्तंतो। परममसंखपरट्टा अगुरूअ लहु भवे समयो ॥२०॥ भिन्नमुहुत्तं परमं आउस्स गुरूअ अंतरं हस्सं । समयूणपुवकोडी होइ दससहस्सवासऽहिया ॥२०१॥ परममसंखपरट्टाऽणुकोसाए जहण्णगं णेयं । भिन्नमुहुत्तं परमं तेत्तीसा सागराऽभहिया ॥२०२॥
(प्रे०) “सत्तण्डुकोसाए ठिईअ" इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कृष्टायाः स्थितेः “लहुमंतरं" ति बन्धस्य प्रकृतत्वात् 'लघु'-जघन्यं बन्धान्तरं 'मुहूर्तान्तः' - अन्तमुहूतं भवेदिति परेणान्वयः । इदमुक्तं भवति-अनन्तरोक्तकालप्ररूपणावदन्तरप्ररूपणायामप्युत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्ट-जघन्या-ऽजघन्यभेदाचतुर्धा विभक्तानां स्थितीनां प्रत्येक बन्धस्य जघन्यत उत्कृष्टतश्च द्विधाऽन्तरं चिन्त्यते, तत्रैकजीवाश्रयेऽनन्तरद्वारोक्त ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टादिस्थितिसत्के बन्धकाले समाप्त व्युपरतस्योत्कृष्टादिस्थितिबन्धस्य यावन्तं कालमतिक्रम्य नियमेन पुनः प्रारम्भो जायते, तावान् प्रातिष्ठितस्य पुनरारब्धस्य तत्तदुत्कृष्टादिस्थितिबन्धस्यान्तरालवर्ती सर्वोऽपि कालस्तत्तदुत्कृष्टादिस्थितिबन्धस्योत्कृष्टमन्तरमभिधीयते । पूर्वनिष्ठितस्तत्तदुत्कृष्टादिस्थितेबन्यो यावन्तं समयादिकालमनतिक्रम्य पुनर्नैव प्रारभ्यते, तावान् सर्वः कालस्तु तस्यास्तस्या उत्कृष्टादिस्थितेर्जवन्यं बन्धान्तरं संगीर्यते । ओघत आयुर्वर्जमूलसप्तप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य जघन्यमन्तरं भिन्नमुहूर्तमभिहितम्, तच्चानुत्कृष्टस्थितेजेधन्यवन्धकालापेक्षया भावनीयम् । तथाहि-कस्यापि पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियमिथ्यादृष्टेर्जीवस्योत्कृष्टस्थितिवन्धे समाप्ते नियमेनानुत्कृष्टस्थितिबन्धः प्रवर्तते । स चानुत्कृष्टस्थितिवन्धः स्वकीयजघन्यबन्धकालमन्तमुहूर्तं यावदविरततया प्रवर्तत एव । तस्मिँश्च प्रवर्तमाने सति न विद्यते तावत्कालमुत्कृष्टस्थितेन्धप्रारम्भावकाशः, विवक्षितैककर्मण उत्कृष्टानुत्कृष्टस्थितिबन्धयोः सममेव प्रवृत्तेविरोधात् । ततश्चानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धप्रायोग्ये जघन्यबन्धकालेऽतिक्रान्ते कस्यापि तादृशजीवस्य पुनरप्युत्कृष्टस्थितिवन्धप्रायोग्याध्यवसायप्राप्तेरनुत्कृष्टस्थितिबन्धविरामेन पुनरप्युत्कृष्टस्थितिबन्धः प्रवर्तयितु लगति । एवमेतादृशजीवस्वामिकोस्कृष्टस्थितिबन्धयोर्जघन्यमन्तरमन्तमुहूर्त प्राप्यत इति । “परममसंखपरहा" ति एकजीवाश्रयं सप्तकर्मणां प्रत्येकमुत्कृष्टायाः स्थितेः 'परमम्'-उत्कृष्टं बन्धान्तरमसंख्यपुद्गलपरावर्ता भवेदित्यर्थः ।
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________________
२०२ ]
• बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[ ओघतोऽष्टानामुत्कृष्टेतर स्थित्योः इदमप्यनन्तरद्वारोक्त सप्तप्रकृतीनामनुत्कृष्टायाः स्थितेरुत्कृष्टवन्धकालापेक्षया स्वयमेव भावनीयम्, केषाञ्चिज्जीवानामनुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टवन्धकालं यावदुत्कृष्टस्थितिबन्धस्याऽप्रवर्तनात्, तदुत्तरं नियमेन प्रवर्तनाच्चेति ।
,
अथानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्याह - "अगुरूअ" त्ति सप्तप्रकृतीनामगुरोः - अनुत्कृष्टायाः स्थितेः "लहु भवे समयो" त्ति 'लघु' - जवन्यं बन्धान्तरं 'समयः' - समयमात्रं भवेत् । सुगमम् प्रतिपक्षस्थितिबन्धजघन्यबन्धाद्धायाः समयमात्रत्वात् । उक्तं चानन्तरं कालप्ररूपणायाम् -'सत्तण्ह गुरूअ लहू कालो समयो' इति । यद्वैतदन्यथाऽपि स्थितेर्जघन्यमवन्धकालमाश्रित्य भावनीयम् । तथाहि - उपशमश्रेणौ सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकचरमसमये वेद्यमानायुषो द्विचरमसमयं वेदयन् यः कश्चिन् महात्मा ज्ञानावरणस्यानुत्कृष्टं स्थितिबन्धं करोति, न तु भवचरमसमये, तदानीं भवचरमसमय उपशान्तमोहगुणस्थानवर्तिनस्तस्य कस्याऽपि कर्मणः स्थितिबन्धस्याभावात् । तदुत्तरसमये पुनः स कालं कृत्वाऽन्तः कोटाकोटीसागरोपम प्रमाणां स्थिति बनन् पूर्वनिष्ठितमनुत्कृष्टस्थितिबन्धं पुनरपि करोति । तदेवं तस्य ज्ञानावरणस्यानुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यं बन्धान्तरं प्राप्यत इति । इत्थमेव दर्शनावरणादिविषयेऽपि यथासम्भवं भावनीयमिति । अथाऽनुत्कृष्टस्थितेरेवोत्कृष्टं बन्धान्तरं दर्शयति- " भिन्नमुहुत्तं परमं" ति सप्तानामनुत्कृष्टायाः स्थितेः परममुत्कृष्टं बन्धान्तरं भिन्नमुहूर्तमित्यर्थः । इदं हि बन्धान्तरमुपशमश्रेणावबन्धको भूत्वा य उपशान्ताद्धाक्षयेण प्रतिपतति, तस्य महात्मनस्तत्तत्कर्मसत्कस्थितिबन्धानामवन्धकालापेक्षया भावनीयम्, न तुत्कृष्टस्थितिबन्धोत्कृष्टकालापेक्षया, तदपेक्षयाऽबन्धाद्धायाः संख्येयस्थितिबन्धाद्धाप्रमाणत्वेन दीर्घत्वादिति ।
अथायुरधिकृत्याह—“आउस्से "त्यादिना, उक्तशेषस्याऽऽयुःकर्मणो 'गुरोः ' - उत्कृष्टायाः स्थितेरन्तरम् - बन्धान्तरं 'ह्रस्वम्' - जघन्यम् “समयूणपुव्व कोडी होइ दससहस्सवासऽहिया" त्ति समयोना एका 'पूर्वकोटी' - उक्तस्वरूपाणां पूर्वाणां कोटी दशसहस्रवर्षाधिका भवतीत्यर्थः । इयमत्र भावना - आयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धो वेद्यमानपूर्वकोटिस्थितिकायुषो भागद्वयेऽतिक्रान्ते तृतीयभागस्य प्रथमसमये वेद्यमाने त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकं देवायुर्नरकायुर्वा बनतो जीवस्यैकस्मिन् समय एव लभ्यते, न पुनर्द्वितीयादिसमये, तदानीमबाधायाः परिगलितत्वेनोत्कृष्टाबाधासंगतस्योत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धस्यालाभाद् । एतच्च प्राक् प्रपञ्चितमेव । इत्थमुत्कृष्टाचाधायामुत्कृष्टस्थितिकमायुर्वद्ध्वा पुनरप्युत्कृष्टावाधायामुत्कृष्टस्थितिकायुर्बन्धो जघन्यतोऽपि समयोनदशसहस्रवर्षाभ्यधिकपूर्व कोटी कालेऽतिक्रान्त एव सम्भवति, न पुनस्तदर्वाक् ओघोत्कृष्टस्थितिकायुषो बन्ध-वेदन योर्भिन्नभिन्नगतावेव भावात् । किमुक्तं भवति-ओघोत्कृष्टस्थितिकायुषो बन्धकस्तिग् मनुष्यो वा भवति, तच्चायुर्नारिकतया देवतया वोत्पद्य वेदयति, ततश्च निरन्तरे भवद्वये द्वन्धौ न प्राप्येते, किन्तु सान्तरभवद्वय एव, इत्यतो जघन्यमप्यन्तरमुक्तप्रमाणं जायत इति । अत्र नोदक:ननु सान्तरभवद्वये तद्बन्धेऽपि कथमेतावत्सङ्गच्छेत्, यत उत्कृष्टस्थितिकमायुर्बद्ध्वा तत्र नारकतया
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जबन्योत्कृष्टबन्धान्तरम् ] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[२०३ देवतया वोत्पद्य तावदायुर्वेदयित्वा ततस्त्वा पुनरपि प्राग्वदुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य प्रारम्भात्पूर्व जघन्यतोऽपि समयानपूर्वकोटयभ्यधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमकालस्यापसरणाद् ? इति चेत् उच्यो , सत्यमेतत् , यदि सर्वैरपि जीवेर्यथाबद्धस्थितिकमायुर्वेद्येत । न चैतदेवम् , यत उत्कृष्टस्थितिकं बद्धमपि तत् पश्चादपवर्तितं सत् कृष्णवासुदेवदृष्टान्तेन कश्चिन्न्यनमपि वेद्यते । उक्त च श्रीपञ्चमाङ्गप्रथमशतके
"जीणं भंते ! सगंका आउयं वेएड ? गोयमा ! अत्यगइयं वेण्ड, अत्थेगइयं तो वेएइ, जहा दुक्खेणं दो दण्डगा तहा आउए वि दो दण्ड ना पगत्तपुहुत्तीभा, एगोणं जाच वेमाणिआ, हुत्तेण वि तहेब'। इति ।
___ अयम्भावः--एकजीवमाश्रित्य नानाजीवानाश्रित्य च वैमानिकपर्यन्तेषु चतुर्विशतिदण्डकेषु 'दुःखं'-कर्म तवेदनवत्स्वबद्धमायुः कश्चिद् वेदयति कश्चिन्न वेदयति । किमुक्तं भवति-कश्चिद्यथाबदमुत्कृष्टादिस्थितिकं वेदयति, अपवर्तनाकरणतोऽनपवर्तितत्वेन यथावद्ध मुदितत्वात् । कश्चित्पनरुकृष्टादिस्थितिक बद्ध्वा पवादपयतनाकरणेनापवर्तितं-हस्वीकृतस्थितिकं वेदयति, न तु यथाबद्धमुकृयादिस्थितिका , यथावद्वोत्कृष्टादिस्थितिकत्वेन तस्यानुदीर्णत्वात् । तथा च तट्टीका
अथायुःप्रधालल्याचारकादिव्यपदेशस्थानराश्रित्य दण्डकद्रयम, एतस्य चेषं वृद्धोकभावना-यदा सप्तमक्षिताबायुन, पुनश्च अन्दर परिणामधिशेगतृतीयधरणीप्रायोग्य निर्वर्तितं वासुदेवेनेव, तत्तादशमङ्गीकृत्योच्यते पूर्वबद्धं कचिन्न वेदयति, अनुदीर्णत्वात्तस्य । यदा पुनर्यत्रैव बद्धं तत्रैवोत्पद्यते, तदा वेदयतीत्युच्यते, तथैव तम्बोदितत्यादिति ।।' इति ।
इत्थं हि यः कश्चित्तिर्यग मनष्यो बोत्कृष्टावाधायां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकं निरयायुबद्ध्वा पश्चात् कालान्तरे विशद्धाध्यवसायमवाप्य तं ह्रस्वं दशसहस्रवस्थितिकं करोति, ततश्चानक्रमेण वेगानायुःक्षये दशसहस्रवस्थितिकनारकतयोत्पद्य यथाकालं पूर्वकोटिव स्थितिकं तिर्यगायुमन बायुर्या बद्ध्वा क्रमेण तत्रोत्पद्य च तस्य पूर्वकोटिस्थितिकस्य वेद्यमानायुयो भागद्वयेऽतिक्रान्ते तृतीयभागे च वेदयितुमारब्धे तत्प्रथमसमये उत्कृष्टाबाधायां पुनरपि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमोत्कृष्टस्थितिकमायुर्वजाति, एमादृशसान्तरमवयकृतयोरायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धयोरन्तरं समयोनदशसहस्वाभ्यधिकपूर्वकोटिप्रमाणं प्राप्यते , समयोनपूर्वकोटितृतीयभागः प्रथमभवसत्कः , दशवसहस्राणि मध्यवर्तिनिरभवसत्कानि , पूर्वकोटीतृतीयभागद्वयं तु तृतीयभवसम्बन्धि , एतेषां सङ्कलने निरुक्तप्रमाणलाभात् । इदं ह्यन्तरमुत्कृष्टस्थितिकदेवायुर्वन्धद्वारेण तु स्वयं भावनीयमिति । एतचाऽऽयर्वन्धोत्तरं वेद्यमानायपोऽपवर्तनामनभ्यपगम्योक्तम् । तदभ्युपगमापेक्षया तु मूलोक्तान्तरात्किञ्चिदुनपूर्वकोटितृतीयभागेन हीनं स्वयमभ्यूह्यमिति ।।
अथायुपो उत्कृष्टस्थितिवन्धस्योत्कृष्टमन्तरमाह-"परममसंखपरहा" ति आयुषो गुरुस्थितेः 'परमम्' उत्कृष्टं उन्धान्तरमसंख्येयपुग़लपरावर्ता भवतीत्यर्थः । इदं हि सप्तकर्मणामुत्कृष्टायाः स्थितेरुत्कृष्टवन्धान्तरवद् भावनीयमिति । आयुष एवानुत्कृष्टायाः स्थितेर्द्विविधं बन्धान्तरमाह"णुकोसाए” इत्यादिना, “णुकोसाए" इत्यत्र लुप्ताकारस्य दर्शनाद् अनुत्कृष्टायाः प्रकृतस्यायुपः स्थितेः “जहण्णगं यं” ति जघन्यमेव जघन्यक-हस्वं बन्धान्तरं ज्ञेयमित्यर्थः ।
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२०४ ]
___ बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानाम् कियज्ज्ञेयमित्याह-"भिन्नमुहुत्तं” ति भिन्नमुहूर्तम्-अन्तर्मुहूर्तम् । इदं हि पारभविकायुर्वन्धप्रायोग्यायां द्विचरमाद्धायां चरमाद्धायां च वारद्वयमायुर्बन्धप्रायोग्याध्यवसायानवाप्य द्विरायुर्वन्धं कुर्वतां जीवानां तस्यायुर्वन्धद्वयस्यान्तरालप्रमाणं बोद्धव्यम्, न पुनर्देशोनक्षुल्लकभवप्रमाणम्, क्षलकभवापेक्षया यथोक्तान्तरस्यैव लघुत्वात् । कुतः ? इति चेद् , अपर्याप्तैकेन्द्रियादिमार्गणास्वपि नानाऽऽकरेंरायुर्वन्धस्याभिमतत्वेन जघन्यस्थितिकापर्याप्तकभवत्रिभागादपि न्यूनत्वादिति। “परमं” ति आयुषो. ऽनुत्कृष्टस्थितेः 'परमम्'-उत्कृष्टं बन्धान्तरं “तेत्तीसासागराऽभहिया" ति अभ्यधिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीत्यर्थः । इदं हि यः कश्चिन्मनुष्यस्तिर्यग्जीयो वा स्वीयवेद्यमानपूर्वकोटियायुषो भागद्वयेऽतिक्रान्ते तृतीयभागद्वितीयसमयादन्तमुहूर्त यावदनुत्कृष्टस्थितिकं देवाथुर्निरयायुर्वा बद्ध्वा कालान्तरे निरयादित्वेनोत्पद्य च पूर्ववद्धं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकं निरयाद्यायुर्वेदयन् क्रमेणाऽवाप्तायामायुर्वन्धप्रायोग्यायां चरमायामसंक्षप्याद्धायां प्रविशन्नेव यदा पारभविकायुर्वन्धं करोति, न तु तदर्वाक, तदा तेन जीवेन पूर्वकोटीमनुष्यादिभवतृतीयभागावशेषे कृतस्याऽऽयुर्वन्धस्य तथाऽनन्तर उत्कृष्टस्थितिकनिरयादिभवे आयुर्वन्धप्रायोग्यायां चरमबन्धाद्धायां कृतस्यायुर्वन्धस्य यदन्तरालमन्तमुहूर्तद्वयोनपूर्वकोटितृतीयभागाभ्यधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणं तदरेक्षया विजे. यमिति ॥२००-२०१-२०२॥
तदेवमभिहितं मौलानामष्टानां कर्मणामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योः प्रत्येकं जघन्योत्कृष्टद्विविधं बन्धान्तरमोधतः । साम्प्रतं तदेवादेशतो व्याजिही' रादौ तावदायुर्वर्जसप्तकर्मणां दर्शयन्नाइ
सव्वेसु जोगेसुगयवेए चउकसाय-णाणेसु। संयम-सामइएसु छेए परिहार-देसेसु ॥२०३॥ सुहुमो-हि-सम्म-बेअग-उवसम-सासाण-मीस-ऽणाहारे।
सत्तण्ह अंतरं णो उकोसाए ठिईअ भवे ॥२०४॥ (प्रे०) “सव्वेसु” इत्यादि, सर्वेषु 'योगेयु' मनोयोग-बचोयोग-काययोगसत्केष्वष्टादशवपि मूलोत्तरयोगभेदेष्वित्यर्थः । तथा 'गतवेदे'-उपगतवेदमार्गगाभेदे "चउकसायणाणेसु" ति चतुःशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् क्रोधादिषु चतुर्यु कपायभेदेषु मत्यादिषु चतुर्यु ज्ञानमार्गणाभेदेषु चेत्यर्थः । तथा संयमौघ-सामायिकसंयममार्गणयोः "छेए" ति छेदोपस्थापनसंयमे, तथैव परिहारविशुद्धिकसंयम-देशसंयममार्गणयोरित्यर्थः । अन्या मार्गणाः संगृहितुं प्राह-"सुहुमोहि" इत्यादि, मूक्ष्मसम्परायसंयमा-ऽवधिदर्शन-सम्यक्त्वोघ-वेदकसम्यक्त्वौ-पशमिकसम्यक्त्व-सासादनमिश्रदृष्टय-नाहारकमार्गणाभेदेष्वित्येतासु चत्वारिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । एतासु प्रत्येकं किमित्याह-"सत्तण्ह अंतरं णो"इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलकर्मणामुत्कृष्टायाः स्थितेः 'अंतरं'
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उत्कृष्टस्थितेह स्वेतरबन्धान्तरम् ]
द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ २०५
तिबन्धान्तरं न भवेदित्यर्थः । इदमुक्तं भवति - यस्यां मार्गणायामुत्कृष्टादिस्थितिबन्धः स्वप्रतिपक्षेणानुत्कृष्टादिस्थितिबन्धेन स्थितेरबन्धेन वाऽन्तरितः सन् जघन्यतोऽपि द्विः प्राप्यते, तस्यां मार्गणायां तस्या उत्कृष्टादिस्थितेर्वन्धान्तरं लभ्यते । प्रकृते च योगभेदकषायभेदान् विवर्ण्य शेषेष्वपगतवेद- मतिज्ञानादि मार्गणासु वेदोदय- मिथ्यात्वाद्यभिमुखजीवानामेव मार्गणाचरम स्थितिबन्धे उत्कृटस्थितिबन्धो जायते, तेषामेव स्वस्वमार्गणागतशेषजीवापेक्षयाऽधिकसंक्लिष्टत्वात् । ते चोत्कृष्टस्थितिबन्धं कृत्वाऽनन्तरमेव प्राग् यस्याभिमुखा आसन्, तं वेदोदय - मिध्यात्वादिकं प्राप्नुवन्ति तथा च सति तेषां प्रकृतमार्गणाया एव विच्छेदो जायते । इत्येवमपगत वेद- मतिज्ञानादिषु योग कषायवर्जमार्गणाभेदेषु मार्गणाविच्छेदादवग्भाविचरमस्थितेबन्धे सकृदेवोत्कृष्ट स्थितिबन्धभावाद् उत्कृष्ट स्थितिबन्धद्वित्वनिबन्धनमुत्कृष्टस्थिते बन्धान्तरं न लभ्यते । मनोयोगादियोगमार्गणाभेदेषु तूत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामिनः संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवा एव । तेषां च मनोयोगादीनां प्रत्यन्तमुहूर्तं परावृत्तिर्जायते । तथा च सति संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवानामुत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामिनां मनोयोगादितत्तन्मार्गणासु निरन्तरमवस्थानं स्वल्पमेव भवति । तावति च ह्रस्वकाले तत्स्वामिभिः संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवैर्द्विरुत्कृष्टस्थितिबन्धः कतु नत्र पार्यते, ततः स्वल्पावस्थानप्रयुक्तः प्रकृतान्तरस्याऽभाव एव तासु भवतीति ॥ २०३ -२०४।। तदेवं यामु मार्गणासु सप्तकर्मणामुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धान्तरस्याऽसम्भवस्तासु तत्प्रतिषिध्य साम्प्रतं यासु तत्सम्भवस्तासु तज्जघन्यादिभेदेन दर्शयन्नाह -
सासु मुहुत्तो लहु गुरु तिपणिंदितिरियमणुसेसु ं । कोडित पुव्वा अयद्वार सुर-सुकासु ॥२०५॥
(प्रे०) "सेसासु मुहुत्तंतो” इत्यादि, अनन्तरं “ सव्वेसु जागेसु इत्यादिगाथाद्वयेऽभिहितमार्गणा विवर्ज्यं शेषासु निरयगत्योघादित्रिंशदुत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकं “मुहत्ततो लहु" ति सप्तकर्मसत्कोत्कृष्ट स्थिते 'लघु' - जघन्यं बन्धान्तरं ' मुहूर्तान्त:':- अन्तर्मुहूर्त, भवतीति शेषः । तत्रै केन्द्रियौघादिमार्गणास्वनुत्कृष्टस्थितेर्जवन्यबन्धकालस्यान्तर्मुहूर्तत्वात् प्रकृतान्तरमप्योघवदन्तर्मुहूर्तमेव प्राप्यते । निरयगत्योघादिमार्गणासु यद्यपि सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यबन्धकालः समयस्तथाप्यसौ कालकरणेनान्यथा वा मार्गणापरावृत्तेरर्वाग् मार्गणाचरमसमयप्रारब्धानुत्कृष्टस्थितिबन्धमपेक्ष्य प्राप्यते, स च मार्गणाचरमसमयरुपोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य जघन्यः समयमात्रकालः प्रस्तुतान्तरप्रयोजको भवितुं नार्हति तस्य मार्गणाकालभाव्युत्कृष्टस्थितिबन्धद्वयमध्यवर्तित्वाभावात् । यतो यः कचिदनुत्कृष्टस्थितियन्धो मार्गणाकालभाव्युत्कृष्टस्थितिबन्धद्वयमध्ये प्रवर्तते स स्वकीयप्रवृत्तिकालमपेक्ष्योत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरस्य प्रयोजको भवति । निरयगत्योघादिमार्गणासु तादृशः स्थितिबन्धो जघन्यतोऽप्यन्तमुहूर्तकालिनः, अतो निरयगत्योघादिषु सप्तानामनुत्कृष्टस्थितिबन्धजघन्यकालस्य समयमात्रत्वेऽप्युत्कृष्टस्थितिबन्धस्य जघन्यमन्तरं तु समयं नैव प्राप्यते किन्त्वन्तमुहूर्तमेव प्राप्यत इति
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२०६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानाम् तथैवाभिहितमिति । एतास्वेव शेषमार्गणासु प्रकृतान्तरमुत्कृष्टतः कियद्भवतीत्येतद्दिदर्शयिषुः क्रमेणाह-"शुरु तिपणि”ित्यादिना, सप्तानामुत्कृष्टायाः स्थितेगुरु-उत्कृष्टं बन्धान्तरम् “तिपणिदितिरियमणुसेसु” ति त्रिशब्दस्य पञ्चेन्द्रियतिर्यग्-मनुष्ययोः प्रत्येकं योजनाद् व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेवापर्याप्तभेदवर्जास्त्रयः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, अपर्याप्तभेदवर्जास्त्रयो मनुष्यभेदाश्चैतेषु षट्पु मार्गणाभेदेषु “कोडिपुहुत्तं पुव्वा" ति कोटिपृथक्त्वं पूर्वाणि,पूर्वकोटिपृथक्त्वमित्यर्थः । "पुव्वा" इत्यत्र पस्त्वं प्राकृतत्वात् । प्राकृते हि लिङ्गमतन्त्रं भवति । याहुः कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः स्वप्राकृतलक्षणे “लिङ्गमतन्त्रम् (सि०हे० ८।४।४४५) इति । _ इयमत्र भावना-पण्णां उक्त मार्गणाभेदानां प्रत्येकमेकजीवाश्रयोत्कृष्टकायस्थितिः पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकपल्योपमत्रयमाना भवति । उक्तं चानन्तरमेव कालद्वारे-“तिपणिदियतिरियाणं तिणराणं य पलिओत्रमा तिपिण । अब्भहिया पुव्वाणं कोडिपुहुत्तेण णायव्वा ।।" १५५।। इति । तत्रैषा कायस्थितिः “पचिंदियतिरिनराणं सत्तट्ठभवा उ उक्कोसा" इति, वचनात् नानाभवग्रहणैः प्राप्यते, न पुनर्निरयगत्योपादिमार्गणावदेकेनैव भवेन । तत्राप्युत्कृष्टकायस्थितिमतिवाहयन्तो जीवाः संख्येयवर्षस्थितिकान् नानाभवान् प्रागेव कृत्वा पश्चाद् एकं त्रिवल्योपमस्थितिकं भवं कुर्वन्ति, न पुनः पूर्वमेव मध्ये वा । कुतः ? पूर्व मध्ये वाऽनंख्येयवस्थितिकमव करणे तेषामुत्कष्टकायस्थितेरेवाऽनवाप्तः । ननु पश्चात्संख्येयवर्षस्थितिकान् नानाभवान् कुर्वन्त एते प्रकामार्गगाथा उत्कष्टां कायस्थितिं करमाद् न पूरयन्ति ? उच्यते, नरतिरि असंखजीवि सञ्चे नियमेण जंति देवेसु" इति नियमादसंख्येयवर्षस्थितिकभवादुत्तरं तेषां देवगतावोत्पत्त्या तिर्यक्पञ्चेन्द्रियादिमार्गगातो बहिनि एव जायते. ततश्च नास्ति प्रस्तुतमार्गणास्व निरन्तरं पश्चात्संख्येयवस्थितिकनानाभवकरणावकाशः । किञ्च प्रकृततत्तन्मार्गणालको कष्टकायस्थितिनिर्वाहकानामपि जीवानां चरमे त्रिपन्योपमप्रमाणेऽसंख्यवस्थितिके भव उत्कन्टा त्यतिवन्धो न जायते । कुतः ? तेषां युग्मित्वेन स्वभावत एव मन्दकपायित्वात् । उक्त च लोकप्रकाशे युग्मिस्वरूपप्रदर्शनावसरे श्रीमन्महोपाध्यायविनयविजयगणिपादः-'तनुको वमान नाबालोनोपाः स्वभावत ।।७।। इति । इत्थं चीत्कृष्टस्थितिबन्धस्योत्कृष्टमप्यन्तरं पूर्वकोटीपृथक्त्वमेव लभ्यते, न पुनर्निरयगत्योषादिवत्स्त्रीयस्त्रीयदेशोनकायस्थितिप्रमाणम्, प्रथमोत्कृष्टस्थितिवन्धस्य कायस्थितेः प्रारम्भावस्थायां भावेऽपि द्वितीयवारभाव्युत्कृष्टस्थितिरन्धस्य त्रिपल्योपमकायस्थित्यवशेषात्यूवमेव सम्भवादिति ।
___ "अयराऽहार सुरसुक्कासु" ति 'अतराः --गागरोपमाण्यष्टादश सप्तप्रकृतिसत्कोत्कृष्टायाः स्थितेरुत्कृष्टबन्धान्तरं भवतीति प्रक्रमागम्यते । कस्यामित्याह-“सुरे"त्यादि, तत्र “सुर" ति देवगत्योधमार्गणायां तथा शुक्ललेश्यामार्गणायामित्येतयोः प्रत्येकमित्यर्थः । अयम्भावः-यद्यपि सामान्यत उत्कृष्टस्थितिवन्धस्योत्कृष्टमन्तरं तत्स्वामिनस्तत्तन्मार्गणायामुत्कृष्टावस्थानलक्षणोत्कृष्टकायस्थित्यधीनम्, ततश्च बहुषु मार्गणासु तद्देशोनकायस्थितिप्रमाणं प्राप्यते, तथापि कतिपय
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उत्कृधस्थितेर्जघन्येतरबन्धान्तरम् ] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[२०७ मार्गणास्वनन्तरोक्तनीत्या तद्धीनमपि लभ्यते, प्रकृतेऽपि द्वयोर्मार्गणयोरुत्कृष्टकायस्थितियद्यपि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, तथापि तयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनो न उत्कृष्टकायस्थितिका जीवाः, देवगत्योधमार्गणायामष्टमकल्पान्तानामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वात्, शुक्ललेश्यामार्गणायामपि नवमकन्पान्तानामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वाच्च । तत्राप्यधिकस्थितिका-ऽधिकतरस्थितिकानां शुक्ललेश्याकदेवानां प्रशस्ततर-प्रशस्ततमशुक्ललेश्यत्वेन प्राणतकल्पादिदेवानामिव कदाप्युत्कृष्टस्थितिबन्धो न जापते, किन्तु ये नवमकल्पगता ह्रस्वस्थितिका देवा त एवोत्कृष्टस्थितिबन्धं निर्वर्तयन्ति, ते च यदाऽन्तमुहूर्त त्यक्त्वा भवप्रारम्भे प्रान्ते च वारद्वयमेवोत्कृष्टस्थितिबन्धं कुर्वन्ति, तदा मूलोक्तमष्टादशसागरोपमप्रमाणमन्तरं प्राप्यते, तच्चान्तमुहूर्तलक्षणेनैकदेशेन स्तोकमेव हीनमिति मूलेऽनुक्तमपि स्वयमेव हीनं द्रष्टव्यम्, देशेन हीनाधिक्यस्य लाघवार्थ मूलेऽदर्शितत्वात् । तच्चेत्थं भाव्यते-यथासंख्यमुत्कृष्टजघन्यस्थितिकानां सहस्रारा-ऽऽनतकल्पदेवानामपर्याप्तावस्थायां भवप्रथमान्तमुहूर्ते उत्कृपस्थितिवन्धस्याऽसम्भवात् तदुत्तरजातप्रथमोत्कृष्टस्थितिबन्ध-भवचरमसमयकृतोत्कृष्टस्थितिबन्धयोरन्तरमेव प्रकृतोत्कृष्टान्तरं भवति, तच्चान्तमुहूर्तलक्षणेनैकदेशेनोनान्यष्टादशसागरोपमाणि । यद्वाशक्ल लेश्यायां स्वामित्वद्वारे उत्कटस्थितिबन्धस्वामिनः 'सुइला आणतसुरो मिच्छो वा' इत्यादिगायोक्तवाकारेणानतादिकल्पवासिनोऽपि दर्शिताः,अतस्तानपेक्ष्य प्रकतान्तरमुक्तनीत्या तत्र मूलोक्तादविकमपि द्रष्टव्यमिति । इत्थमेवान्यत्रापि मूले सामान्यतोऽभिहितान्यन्तराण्यन्तर्मुहूर्तादिलक्षणैकदेशेनोनान्यधिकानि वा यथासम्भवं स्वयमेव द्रष्टव्यानिति ।।२०५।। अथान्यत्र प्रकृतान्तरमाह
णेयं असंखलोगा एगिंदि-णिगोअ-पंचकायेसु। अंगुलअसंखभागो होइ छसुहुमोघभेएसु॥२०६॥
ओघव अणाणदुगे अयता-ऽचक्खु-भवि-अभवि-मिच्छेसु । (प्रे०) “णेयं असंखलोगा" इत्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः, केवलम् "असंखलोग" ति क्षेत्रतोऽसंख्येयलोकप्रमाणम् , कालतस्त्वसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः। एवम् “अंगुलअसंखभागो" इत्यत्रापि क्षेत्रतोऽङ्गुलस्यासंख्यभागप्रमाणम् , कालतस्तु प्राग्वदसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिग्य एव बोद्धव्याः, नवरं पूर्वापेक्षयाऽमूरसंख्यभागगता इति । क्षेत्रतस्तु प्रतिसमयप्रदेशापहार लक्षणा भावना प्राग्वद् द्रष्टव्या । अत्रैकेन्द्रियोघ-निगोदौघ-पृथिव्यादिवनस्पतिकायान्तौघापासु सप्तमार्गणास्वसंख्यलोकप्रमाणमन्तरं तथा षट्स्वेकेन्द्रियपृथिव्यादिसाधारणवनस्पतिकायान्तेष्वौषिकेषु सूक्ष्ममार्गणाभेदेषु प्रत्येकमङगुलासंख्यभागप्रमाणं मत्यज्ञानादिसप्तमार्गणाभेदेष्वोघवदसंख्यपुद्गलपरावर्तप्रमाणं च प्रकृतायाः सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धान्तरम्- 'जेट्ठो असंखलोगा एगिदि-णिगोअ-पंचकायेसु । अंगुलअसंखभागो होइ छसुहुमोवभेरसु॥१५०।। ओघव्व अणाणदुगे अयता-ऽचक्खु-भवि-अभवि-निच्छे सु। इति ग्रन्थेनोक्तमनुत्कृष्टस्थितेरुत्वष्टबन्धकालमपेक्ष्य भावनीयमिति ॥२०६॥
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२०८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानाम् अथोक्तशेषमार्गणासु प्रकृतान्तरमार्याधुनाह
सेसासु देसूणा सगसगकायट्टिई परमा ॥२०७॥ (प्रे०) “सेसासु” इत्यादि, सुगमम् । नवरं "सेसासु" ति “सव्वेसु जोगेसु” इत्यादिगाथाद्वये प्राक्प्रतिपिद्धप्रकतान्तराश्चत्वारिंशन्मार्गणास्तथा “गुरु तिपणिदितिरियमणुसेसु"मित्यादिनाऽनन्तरमभिहितप्रकृतान्तरा अष्टाविंशतिमार्गणा विहाय शेषासु द्वयधिकशतमार्गणासु प्रत्येकं सप्तानामनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्योत्कृष्टान्तरं स्त्रीयस्वीयोत्कृष्टकायस्थितिरित्यर्थः । तत्र शेषमार्गणा नामत इमा:-सर्वे निरयगतिभेदाः, देवगत्योघमेदवर्जा एकोनत्रिंशद्भवनपत्यादिदेवगतिभेदाः, तिर्यग्गत्योघा-ऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदौ, अपर्याप्तमनुष्यमेदः, बादरैकेन्द्रियौघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तवादरैकेन्द्रिय-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियरूपाः पञ्चैकेन्द्रियभेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः, सर्वे पञ्चे. न्द्रियभेदाः, ओघ-सूक्ष्मौषभेदद्वयवर्जा बादरोघ-बादरपर्याप्ता-ऽपर्याप्त-मूक्ष्मपर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नाः पञ्च पथिवीकायभेदाः, तथैव पञ्चाकायभेदाः,पञ्च तेजस्कायभेदाः,पञ्च वायुकायभेदास्तथा पञ्च साधारणवनस्पतिकायभेदाः, ओघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नास्त्रयः प्रत्येकवनस्पतिकायभेदास्तथैव त्रयस्त्रसकायभेदाः, स्त्र्यादयस्त्रयो वेदमार्गणाभेदाः, विभङ्गज्ञान-चक्षुर्दर्शन-कृष्णादिपञ्चलेश्या-क्षायिकसम्यक्त्व-संड्य-ऽसंख्या-ऽऽहारिमार्गणाभेदाश्चेति । भावना तु पूर्ववत्, नवरं सर्वमार्गणासूत्कृष्टकायस्थितिरन्तम हर्तलक्षणेनेकदेशमोना द्रष्टव्या। तत्राप्यन्तमुहूर्तमुत्कृष्ट स्थितिबन्धकालादिसत्कं काय स्थितेः, प्रारम्भमागसम्बन्धि चरमभागसम्बन्धि च समुदितं सद् दीर्घ ह्रस्वं च यथासम्भवं वय॑म् , न पुनः सर्वमार्गणा तुल्यमेव । तथाहि-निरयगत्योधमार्गणाभेदे कश्चिदुत्कष्टस्थितिकः सप्तमपृथिवीनैरयिकजीवस्तत्रोत्पद्याऽपर्याप्तावस्थाया ऊर्ध्वमुत्कृष्टस्थितिबन्धं प्रारभ्य तं समापयति, ततः प्रभृतेरुत्कृष्टस्थितिबन्धस्योत्कष्टमन्तरं प्रवर्तते,तच्च तावत्प्रवर्तते,यावदसौ पुनरपि भवचरमसमय उत्कष्टस्थितिबन्धं प्रारभते । एवंतस्य मार्गणायाश्चरमभागसम्बन्ध्येकसमयस्तथास्प्रारम्भमागसम्बन्ध्यत्कष्टस्थितिबन्धसमाप्तिं यावद् निरयभवसत्को यावान् कालो लवितस्तावदन्तमुहूर्तं च वर्जनीये , ताभ्यां हीनं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणं निरयौधे उत्कृष्टस्थितिवन्धयोरुत्कृष्टान्तरं भवति । एवमेवान्यनिरयगत्यादिमार्गणाभेदेष्वपि बोद्धव्यम् । अपर्याप्तसूक्ष्मैकेद्रियमार्गणाभेदे तु मार्गणायाः प्रारम्भमागसत्कान्तमुहतमिव मार्गणायाः प्रान्तभागसम्बन्ध्यप्यन्तमुहर्तकालो वर्जनीयः, न पुनर्निरयगत्योघादिवत्समयमात्रः, मार्गणान्तराभिमुखानामपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियजीवानां भवचरमान्तमुहर्ते उत्कृष्टस्थितिबन्धस्याऽप्रवर्तनात् , प्रागेवोत्कृष्टस्थितिबन्धभावे तूत्कृष्टस्थितिबन्धकालस्य तदुत्तरवर्तिकालस्य चान्तरकालबहिर्भावाच्चेति । इत्थमेवाऽपर्याप्तसूक्ष्मसाधारणवनस्पतिकायमागेणादावपि यथासम्भवं कायस्थितिसत्कं चरमान्तमुहूर्तमपि वज्यामिति ॥२०७॥
तदेवं दर्शितमायुर्वर्जसप्तप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितेर्जघन्योत्कृष्टद्विविधमपि बन्धान्तरमादेशतः ।
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- अनुत्कृष्ट स्थिते जघन्येतरबन्धान्तरम् ] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ २०९
साम्प्रतं तासामेव सप्तानामनुत्कृष्टायाः स्थितेस्तत्प्रचिकटयिषुरादौ यासु मार्गणासु तन्न सम्भवति, तासु प्रतिषेधयन् यासु सम्भवति, तासु पूर्ववदर्शयचाह गाथात्रयम् - कम्मण - सामइएस छेए परिहार- देस -सुहुमेसु । वेअग-सासाणेसु ं मीसा-Sणाहारगेसु च ॥२०८॥ णो अंतरं ठिईएऽणुक्कोसार तिमिस्सजोगेसु । णत्थि अहवा जहणं समयो परमं मुहुत्तो ॥ २०९ ॥ अवगयवेअम्मि तहा मणपज्जव - संयमेसु लहुमियरं ।
यं भिन्नमुहुत्त सेसासु होइ ओघव्व ॥ २१० ॥
( ग्रे० ) “कम्मणसामइए सुमित्यादि, कार्मणकाययोग-सामायिकसंयमयोः, छेदोपस्थापनसंयमे, परिहारविशुद्धिकसंयम- देशसंयम-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणासु, वेदकसम्यक्त्व - सासादनयोर्मिश्रा - ऽनाहारकमार्गण योश्चेत्येतासु दशमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । एतासु किमित्याह"णो अंतरं ठिईएऽणुकोसाए" ति सप्तमूलप्रकृतीनामनुत्कृष्टायाः स्थिते: “अंतरं" ति बन्धान्तरम् "णो "त्ति न भवतीत्यर्थः । सुगमम् । भावना तूत्कृष्टस्थितेर्वन्धान्तरप्रतिषेधवत्कार्या, प्रकृतमार्गणासूत्कृष्टस्थितिबन्धवदनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्याऽप्येकं जीवमपेक्ष्यैकदैव भावात् । इदमुक्त भवति - एतासु प्रत्येकमुत्कृष्ट स्थितिबन्धसमाप्त्या सममेव सामायिकसंयमादितत्तन्मार्गणाऽपि मार्गणान्तरतया परावर्तते, ततश्चोत्कृष्ट स्थितिबन्धेनान्तरितोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धोऽपि द्विर्न प्राप्यते, तदभावे च कुतोऽन्तरं लभ्येत, न कुतश्चिदपि, अन्तरस्य प्रतिपक्षस्थितिबन्धादिद्वयाधीनत्वादिति । ननु अपगतवेदादिमार्गणास्वप्युत्कष्टस्थितिबन्धादनन्तरमेव मार्गणाविच्छेदादनुत्कष्टस्थितिबन्ध उत्क ष्टस्थितिबन्धेनान्तरितो न भवति, तत्कुतस्तास्वपि प्रकृतान्तरं न प्रतिषिद्धम् । इति चेद्, उच्यते, अपगतवेद- मतिज्ञानादिमार्गणासु मार्गणाप्रान्त एवोत्कृष्ट स्थितिबन्धभावेनाऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्तदन्तरितो न भवति, तथाप्यसावुपशान्तमोहगुणस्थानकसत्केनाऽबन्धकालेनान्तरितो भवति, तथा च सत्यन्तरं लभ्यते, अभिहितं च प्राग् यस्यां मार्गणायां स्वप्रतिपक्षस्थितिबन्धेन स्थितेरबन्धेन वाऽन्तरितः सन्नुत्कृष्टादिस्थितिबन्धो द्विः प्राप्यते तस्योत्कृष्टादिस्थितिबन्धस्यान्तरं लभ्यत इत्यतोऽपगतवेदादिमार्गणास्वेकतरप्रकारेणापि तल्लाभादुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरवन्न निषिद्धं प्रस्तुतान्तरमिति । कार्मणकाययोगाऽनाहारकमार्गणयोस्तूत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामिनां संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामुत्कृष्टतोऽपि समयद्वयमात्रमवस्थानाज्जघन्यतः समयत्रयाधीनमन्तरमपि न सम्भवतीति । अथ यासु मार्गणासु मतद्वयमभिप्रेत्य प्रस्तुतान्तरस्य भावाभावौ तासु तथैव दर्शयन्नाह - “तिमिस्सजोगेसु" इत्यादिना, औरादिकमिश्र-वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारकमिश्रकाययोगलक्षणासु तिसृषु मिश्रयोगमार्गणासु
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२१० ]
बंधविहःणे चूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुःकर्मणः प्रत्येकं ".लि.” त्ति शरीरपर्याप्तिनिष्ठापनाइक्सिमय एव सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धं स्वीकुर्वता नास्ति बन्धान्तरम्,उत्कृष्टस्थितिबन्धस्य सामायिकादिमार्गणावन्मार्गणाप्रान्ते सकदेवभावेन स्थितेरबन्धस्यासम्भवेन चानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैकदैव लाभात् । “अहवा जहण्णं पर परमं मुहुतंतो” त्ति अथवा प्रोक्तान्यमतेन सप्तानामनुत्कृष्टायाः स्थितेवन्धान्तरं जघन्यं 'समयः'-समयप्रमाणं भवति, परमम्'-उत्कृष्टं तु तद् 'मुहूर्तान्तः'-अन्तमुहूर्तं भवतीत्यर्थः । सुगमम् । तत्तन्मार्गणाया द्विचरमादिसमयेषु समयमेकमुत्कृष्टस्थितिवन्धं कुर्वतां प्रकृतान्तरं समयप्रमाणं लभ्यते, अन्तमुहूत यावदुत्कृष्टस्थितिबन्धं कुर्वतां त्वन्तमुहर्तमानं तत्प्राप्यत इति । अथ यत्र स्थितेरवन्धकालेनान्तरितः सन्ननुत्कृष्टस्थितिबन्धो द्विः प्राप्यते, तत्र तदपेक्षा लभ्यमानमन्तरं दर्शयन्नाह-"अवगयवेअम्मि" इत्यादिना, अपगतवेदमार्गणायां तथा मनःपर्यवज्ञान-संयमोघमार्गणयोरित्येताम् तिसयु मार्गणासु प्रत्येकं सप्तानामनुत्कृष्टायाः स्थितेः "लहुमियरं" त्ति 'लघु' जघन्यं 'इतरम्'-उत्कृष्टं चोभयविधमपि बन्धान्तरं "यं भिन्नमुहत्त" ति भिन्नमुहूर्तम्-अन्तमुहूर्त ज्ञेयमित्यर्थः । इदं छुपशान्तमोहगुणस्थानककालप्रमाणं लभ्यते, तत्रापि मोहनीयानुत्कृष्टस्थितेस्तु तत् सविशेषम् , सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानके मोहनीयस्य बन्धाभावेन सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकालयस्याऽपि प्रकृतान्तरे प्रविष्टत्वात् । विस्तरतस्तु स्वयमेव भावनीयम् । ननु जघन्यतोऽपि कथमन्तमुहर्तमेवोच्यते ? भण्यते-उपशान्ताद्धाक्षयेण प्रतिपततामेव तल्लाभा । नचो शान्तमोहगुणस्थाने समयमात्रमवस्थाय कालं कुर्वतां तत्समयमात्रमपि लभ्यतेति शङ्कयम्, तादृशजीवानां देवगतावुत्पच्या प्रकृतमार्गणाया एवं बहिर्भावेन समयमात्रस्याप्यन्तरस्याऽलाभादिति ।
अथशेषमार्गणास प्रकृतान्तरमतिदिशन्नाह-"सेसासु होइ ओघव्व" त्ति “कम्मणसामइएसुमित्यादिना निषिद्धाधिकृतान्तरा दशमार्गणास्तथौदारिकादिमित्रयोगमार्गणात्रयमनन्तरोक्ताऽपगतवेदादिमार्गणात्रयश्च विवज्यं शेषासु निरयगत्योपादिचतुःपञ्चाशदुत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकं सप्तप्रकृतिसत्कानुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरम् “होइ ओघव्व" ति ओघवज्ज पन्त एकसमय उत्कृष्टतश्चान्तमुहर्त भवतीत्यर्थः । तत्र निरयगत्योघमार्गणाभेदे सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यवन्धकालेनैकसमयेनान्तरितयोरनुत्कृष्टस्थितिवन्धयोरन्तरंजघन्यतो लभ्यते, आन्तमु ह्रतिकेनोत्कृष्टस्थितिबन्धेनान्तरितयोरनुत्कृष्टस्थितिबन्धयोरन्तरं तूत्कृष्टपदे प्राप्यते । इत्थमेव मनुष्यगत्योध-पर्याप्तमनुष्यमानुषी-पञ्चेन्द्रियोंघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्रसकायोघ-पर्याप्तत्रसकाय-काययोगसामान्यभेद-मति-श्रता-ऽवधिज्ञान-चक्षुरादित्रिदर्शन-शुक्ललेश्या-भव्य-सम्यक्त्वौघ-क्षायिको-पशमिकसम्यक्त्व-संड्या-ऽऽहारिमार्गणा विहाय शेषसर्वमार्गणास्वपि भावनीयम् । मति-श्रुता-ऽवधिज्ञाना-ऽवधिदर्शन-सम्यक्त्वौधौ-पशमिकसम्यक्त्वमार्गणास तु जघन्यमुत्कष्टं द्विविधमप्यन्तरं स्थितेरबन्धकालान्तरितयोरनुत्कृष्टस्थितिबन्धयोरन्तरालमपेक्ष्यौधिकभावनावद्भावनीयम् , न पुनरुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकालमपेक्ष्य, तदपेक्षया जघन्योस्कृष्टैकतरान्तरस्याऽप्यनुत्पत्तेः। कुतोऽनुत्पत्तिरिति चेत् ? मतिज्ञानादिमार्गणासु मिथ्यात्वाद्यभिमुखा
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उत्कृवस्थिते बन्धान्तरम् ]
द्वितीयाधिकारे ऽन्तरद्वारम्
[ २११
नामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धभावेनोत्कृष्टस्थितिबन्धेन सममेव मतिज्ञानादिमार्गणानामपि विच्छेदादिति । मनुष्यगत्वोध-पर्याप्तमनुष्य-मानुषी पञ्चेन्द्रियध-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्र सकायौध-पर्याप्तत्र सकाय-काययोगसामान्य-चक्षु दर्शना - ऽचक्षुर्दर्शन- शुक्ललेश्या भव्य क्षायिकसम्यक्त्व-संज्ञयाऽऽहारिमार्गणास तु सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यबन्धान्तरं निरयगत्योघादिवदुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यबन्धकालापेक्षया, मतिज्ञानादिमार्गणावत्समय मात्रा ऽवन्धकालापेक्षया वा भावनीयम्, केवलं मनुष्यगत्योघादिमार्गणात्रय उत्कृष्टस्थितिबन्धजघन्यकालापेक्षयैव । एतासु मनुष्यगत्योघादिमार्गणायुत्कृष्टान्तरं त्वोघवत् स्थितेरबन्धकालमपेक्ष्यैव भाव्यम्, न पुनर्निरयगत्योघादिवदुत्कृष्टस्थितिबन्धोत्कृष्ट कालापेक्षया, उत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टबन्धकालस्यान्तर्मुहूर्तत्वेऽप्युपशान्ताद्वापेक्षया लघुत्वादिति ॥२०८-२०९-२१०॥
तदेवमभिहितमादेशतोऽपि सप्तानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टयोर्द्विविधयोः स्थित्योः प्रत्येकं जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नं द्विविधमपि वन्वान्तरम् । साम्प्रतमवशेषस्यायुपस्तदिदर्शयि पुरुत्कृष्टस्थितिविनय दर्शयन्नाह -
सव्वणिरय देवे तिरिये तिपणिंदितिरियमणुसेसु । पण मणवय कायेसु ओराल - विउब्वजोगेसु ॥२११॥ आहारदुगम्मि तहा कसायचउग-मणपज्जवेसु तहा । विभंग-संयमेसु समइअ -छेअ- परिहारेसु ॥ २१२ ॥ देसम्म छलेसास खइए सासायणे असण्णम्म | आउस्स अंतरं णो गुरूअ
(०) "सव्वणिरयदेवेसु" मित्यादि, प्राग्वत् सर्वेषु निरयगतिभेदेषु सर्वेषु देवगतिभेदेषु, तिर्यगोघे, अपर्याप्तभेदवर्जेषु त्रिषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदेषु त्रिषु च मनुष्य भेदेषु पञ्चमनोयोगभेदेषु, पञ्चवचोयोगभेदेष्वौ-दारिक-वैकियकाय योगयोराहारका ऽऽहारकमिश्र काययोगयोर्द्विके तथा क्रोधादिकपाय चतुष्क-मनः पर्यवज्ञानयोः, विभङ्गज्ञान-संयमौघभेदयोः, सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिकसंयमभेदेषु, देशसंयमे, कृष्णादिषु षट्षु लेश्याभेदेषु क्षायिकसम्यक्त्वे, सासादनेऽसंज्ञिमार्गणाभेदे चेत्येताम् साधयगाथासंगृहीतास्वशीतिमार्गणास प्रत्येकम् " आउस्स अंतरं णो गुरूअ” त्ति मौलस्यायुःकर्मणो 'गुरोः - उत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धान्तरं " णो” त्ति न भवतीत्यक्षरार्थः । भावार्थस्वयम् - आयुप उत्कृष्टस्थितेर्वन्धान्तरं सप्तकर्मणामन्तरमिवोत्कृष्टस्थितिकायुर्बन्धद्वयस्यान्तरालापेक्षया प्राप्यते, उत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धद्वयं तु कस्मिंश्चिदप्येकस्मिन् भवे न प्राप्यते । कुत: ? उत्कृष्टस्थितिकायुर्बन्धस्योत्कृष्टाबाधाऽधीनत्वात् उत्कृष्टावाधाया एकस्मिन् भवे सकदेव लाभाच्च । इत्थं च यां मार्गणां भवद्व्यभाव्युत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धद्वयं यावत्तद्बन्धकजीवो न परि
"
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२१२]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणास्वायुःकर्मणः त्यति, तस्यां मार्गणायामायुष उत्कृष्टस्थितेरेकजीवाश्रयं प्रकृतबन्धान्तरं प्राप्यते,नान्यासु । प्रकृते च निरयगतिदेवगत्यादिमार्गणाभेदेषु जीव एकभवमेव तिष्ठति, परतस्तु नियमेन तत्तन्निरयगत्यादिमार्गणां परित्यजति, ततो भवद्वयाधीनं प्रकतान्तरमपि तत्तन्निरयगत्योघादिमार्गणासु न लभ्यते । तिर्यग्गत्योधादिसप्तमार्गणागतजीवास्तथाऽसंज्ञिमार्गणागता जीवा यद्यपि स्वस्वमार्गणायामेव नानाभवान् कर्तुं शक्नुवन्ति,तथापि यस्मिन् भव एतेऽष्टमार्गणागतजीवा उत्कृष्टस्थितिकमायुर्वन्धं कुर्वन्ति, तद्भवादनन्तरे भव उत्कृष्टस्थितिकायुरुदयादेतेऽपि तिर्यग्गत्योपादितत्तन्मार्गणाया बहिर्भवन्ति । कुतः ? वर्तमानतिर्यगादिगतेरन्या या निरयादिगतिस्तत्सत्कोत्कृष्टायुपस्तैर्निवर्तितत्वात् । इदमुक्त भवतिअपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मार्गणागता जीवा उत्कृष्टस्थितिकमायुस्तिर्यग्गतिसत्कमपि बध्नन्ति, तिर्यग्गतिकाच जीवा अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मार्गणायां समाविष्टाः सन्ति, ततश्च यः कश्चिदपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मार्गणागतो जीवस्तिर्यग्गतिसत्कोत्कृष्टायुर्वद्ध्वा पश्चात्तत् पूर्वबळं पारभविकायुरपवर्त्य हस्वमपर्याप्तजीव पायोग्यं करोति, क्रमेण कालं कृत्वा प्रकृतापर्याप्तमार्गणायामेव चोत्पद्यते । एवं च सति पारभविका पुष उत्कृष्टस्थितिबन्धे कृतेऽपि तादृशो जीवोऽनन्तरे भवे न प्रकृतमार्गणाया वहिर्भवत्येव, किन्तु प्रकतमार्गणायामेवावतिष्ठते,तेन वेद्यमानतिर्यग्गतिसत्कस्यैवोत्कृष्टस्थितिकपारभविकायुषो बन्धकरणात् । तिर्यग्गत्योपाधष्टमार्गणागता जीवास्तु निरयगत्यादिसत्कमवोत्कृष्टायुर्वघ्नन्ति,ततश्वाऽध्यवसायवशात् पश्चात्तमपवाऽपि तासु निरयगत्यादिष्वेवोत्पद्यन्ते, आयुषः स्थितावपवर्तितायामपि प्रकृतिपरावर्तनस्याशक्यत्वात् । किमुक्त भवति-आयुर्वन्धानन्तरं तस्यायुष उत्कृष्टादिस्थितिः कृष्णवास देवद्रष्टान्तेन कैश्चित्पश्चादपवर्त्य हस्वीक्रियते, प्रकृतिस्तु सा पूर्ववद्धा निरयतिर्यग-मनष्य-देवायुरन्यतमरूपैव तिष्ठति, भृलप्रकृतिवदायुःप्रकृतीनां परस्परसंक्रमस्यानभिमतत्वात् । इत्थं च तिर्यग्गत्योपाद्यष्टमार्गणास्वायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरस्यासम्भव एवेति । विभङ्गज्ञानमार्गणायां तूत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनो मनुष्यास्तिर्यञ्चो वा, ते चोत्कृष्टस्थितिकं निरयायुर्वद्ध्या नैरयिकतयोत्पद्य पुनरपि तिर्यक्तया मनुष्यतया वा यावदुत्पद्यन्ते तावद्विभङ्गज्ञानमार्गणायामेव नावतिष्ठन्ति । कुतः ? नैरयिकाणां विभङ्गज्ञानेन सहितानां गत्यन्तरेऽनुत्पत्तेः । इदमुक्तं भवतियथाऽवधिज्ञानेन सहितास्तीर्थकरादिजीवा नारकेभ्य उद्वर्त्य मनुष्यतया गत्यन्तरे उत्पद्यन्ते, न तथा विभङ्गज्ञानोपेता जीवा अपि, किन्त्वेते प्रतिपतित एव विभङ्ग मनुष्यादितयोत्पद्यन्ते । उक्तं च नवाङ्गीटीकाकृद्भिः श्रीमदभयदेवसूरिपादैः पञ्चमाङ्गवृत्तौ___“मनुष्यगतौ हि गच्छन्तः केचिज्ज्ञानिनोऽवधिना सहैव गच्छन्ति तीर्थङ्करवत् , केचिच्च तद्विमुच्य, तेषां त्रीणि वा द्वे वा ज्ञाने स्यातामिति, ये पुनरज्ञानिनो मनुष्यगतावुत्पत्तुकामास्तेषां प्रतिपतिते एव विभङ्गे तत्रोत्पत्तिः” इत्यादि।
इत्थं च तिर्यग्गतौ मनुष्यगतौ वा सकृदुत्कृष्टस्थितिकायुर्बद्ध्वा पुनरपि तत्रोत्पत्तेरबांगेन तत्स्वामिनां विभङ्गज्ञानमार्गणातो बहिर्भावान्मार्गणाकालभाव्युत्कृष्टस्थितिबन्धद्वयाधीन
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उत्कस्थितेजघन्यबन्धान्तरम् ] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
{ २१३ मायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्याऽन्तरं विभङ्गज्ञानमार्गणायामपि न प्राप्यते । महावन्धकारैस्तु निरयगतित आगच्छतामिव निरयगतौ गच्छतामपि विभङ्गज्ञानेन सह गमनं नाभ्युपगतम् , इत्थं तेषां मतेनाऽपि प्रस्तुतान्तरं नैव प्राप्यते, उत्कृष्टस्थितिकायुर्निवयं तदुदये नारकतयोत्पत्तिमात्रेणैव तत्स्वामिनां प्रस्तुतमार्गणाया बहिर्भवनादिति । योगादिमार्गणासु तूत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्या अन्तर्मुहूर्तादधिकं तत्तन्मार्गणायां नावतिष्ठन्ति, तत्कुतो भवद्वयावस्थानाधीनस्य प्रकृतान्तरस्य सम्भवः, न कुतश्चिदित्यर्थः । मनःपर्यवज्ञान-संयमौघादिमार्गणासु निरयगत्यादिवदेव भावनीयम् । तासु प्रत्येकं वेद्यमानगतेरन्यगतिसत्कस्योत्कृष्टस्थितिकायुपो बन्धादिति ॥२११-२१२॥ अथ यासु मार्गणास्वायुष उत्कृष्टस्थितेर्बन्धान्तरस्याऽसम्भवस्तासु तत्प्रतिषिध्य यासु तत्सम्भवति तासु जघन्यादिभेदतः प्रचिकटयिषुरादौ तावज्जघन्यत आह
ओघब्ब होइ लहुं ॥२१३॥ दुपणिदितसेसु तहा तिवेअ-दुअणाण-अयत-चक्खूसु।
अणयण-भवि-यियरेसुमिच्छे सण्णिम्मि आहारे ॥२१४॥ (प्रे०) “ओघव्व होइ लहु"मित्यादि, आयुष उत्कृष्टस्थितेलघु-जघन्यं बन्धान्तरमोघवत् समयोनदशसहस्रवर्षाभ्यधिका एका पूर्वकोटी भवतीत्यर्थः । कासु मार्गणास्वित्याह-"दुपणिंदिये"त्यादि, प्राग्वदपर्याप्तभेदवर्जयोदयोः पञ्चेन्द्रियजातिभेदयोः, द्वयोश्च त्रसकायभेदयोस्तथा स्वादिषु त्रिषु वेदभेदेषु, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञानरूपयोयोरज्ञानभेदयोरसंयम-चक्षुर्दर्शनमार्गणयोः, अचक्षुर्दर्शन-भव्य-तदितराऽभव्यमार्गणाभेदेषु, मिथ्यात्वे, संज्ञिन्या-ऽऽहारिमार्गणायाञ्चेत्येतासु सप्तदशमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । भावनाऽप्येतासु प्रत्येकमोघवदेव द्रष्टव्या, केवलं नपुंसकवेदा-ऽज्ञानद्वयाऽसंयमा-ऽभव्य-मिथ्यात्वमार्गणासूत्कृष्टस्थितिकनिरयायुषोऽपवर्तनया भावनीयम् । स्त्री-पुवेदमार्गणयोस्तूत्कृष्टस्थितिकदेवायुषोऽपवर्तनया भावनीयम्, न पनरोघवदुभयथाऽपीति ॥२१३-२१४॥ अथाऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगादिमार्गणाः संगृह्य तत्र प्रकृतान्तरमाह
समयूणगुरुभवठिई असमत्तपणिदितिरिय-मणुसेसु।
दुपणिदियतसवज्जिअसेसिदियकायभेएसु॥२१५॥
(प्रे०) “समयूणे"त्यादि, समयोना 'गुरु'-उत्कृष्टा 'भवस्थितिः' तत्तन्मार्गणागतजीवानां वेद्यमानाऽऽयष उत्कृष्टस्थितिरित्यर्थः । आयुष उत्कृष्टस्थितेर्जधन्यं बन्धान्तरमिति प्रकरणाद्गम्यते, भवतीति शेषः । कासु मार्गणासु समयोनोत्कृष्टभवस्थितिः प्रकृतं जघन्यं बन्धान्तरं भवतीत्याह"असमत्ते"त्यादि, अपर्याप्तापरपर्यायस्यासमाप्तशब्दस्योभयत्र योजनादपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदा-ऽपर्याप्तमनुष्यभेदयोरित्यर्थः, द्विशब्दस्य पञ्चेन्द्रियत्रसयोः प्रत्येकं योजनाद् व्याख्यानतो विशेष
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[ मार्गणास्वायुः कर्मणः
२१४ ] प्रतिपत्त्या चौघपर्याप्त मेदभिन्नौ द्वौ पञ्चेन्द्रियभेदौ द्वौ च सकाभेदौ, एते चत्वारो भेदा 'वर्जिता' - स्त्यक्ता येभ्य एवम्भूता ये शेषा 'इन्द्रियकाय भेदाः' एकेन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियान्तेन्द्रियमार्गणासत्काः सप्तदशभेदाः, पृथिव्यादिवसकायान्तकायमार्गणासत्काञ्चत्वारिंशद्भेदाच ते द्विपञ्चेन्द्रियत्रवर्जितशेषेन्द्रियकाय भेदास्तेष्वेकोनषष्टिमार्गणाभेदेषु प्रत्येकमित्यर्थः । अयम्भावः -- एतेषु प्रत्येकं जीवैद्य मान तिर्यगाद्यायुः सदृशं पारभविकं तिर्यगाद्यायुः प्रकृतमार्गणायां बन्धयाग्योत्कृष्टस्थितिकं निर्वर्तयितुं शक्यते, ततश्च ये केचन जीवा उत्कृष्टावाधायां तद्बद्ध्वा पश्चात्कालान्तरेण संक्लिष्टाध्यवसायेन तदपवर्त्य ह्रस्वं वेद्यमानोत्कृष्टभवस्थितितुल्यस्थितिकं कुर्वन्ति, पचाञ्च कालं कृत्वोत्कृष्टस्थितिकापर्याप्तितिर्यक्पञ्चेन्द्रियादितया प्रकृतमार्गणानामेवोत्पद्यन्ते तत्र च वेद्यमानायुपो भागद्वयेऽतिक्रान्ते तृतीयभागप्रारम्भे उत्कृष्टाबाधायां पुनरपि प्रादुत्कृष्टं पूर्व कोटीस्थितिकमायुर्वध्नन्ति, तदा तेषामायुष उत्कृष्टस्थितेर्जघन्यं बन्धान्तरं प्राप्यते तच्च यथोक्तं समयोनस्वीय गुरुभवस्थितिप्रमाण, उत्कृष्टस्थितिकपूर्वभवसत्कसमयोनतृतीयभागस्य तथोत्तरभवसत्कतृतीयभागद्वयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धद्वयान्तराले पतितत्वात् । प्रस्तुतमार्गणासूत्कृष्टभवस्थितिप्रतिपादिका गाथा: पुनरिमा:'तिरियस पर्णिदितिरियणरतप्पज्जत्तजोणिणीणं च । तिष्णि पलिओ माइ उक्कोसा भवठिई णेया ॥ एगिंदिपुत्रीणं होइ दुवीसा सहस्सवासाणि । एमेव होइ तेसिं बायर-बायरसमत्ताणं ॥ दुगवाऊणं कमसो सहस्सवासाणि सत्त तिष्णि भवे । तिदिणाऽग्निस्सेवं सिं बायर वायरसमत्ताणं ॥ as दिया गाणं कमसो बारह समा अउणवण्णा । दिवसा तह छम्मासा एवं तेसिं समत्ताणं ॥ वासास्थि सहस्सा दस वण पत्तेअवणतस्समत्ताणं । मिन्नमुहुत्तं णेया सेसाणं पंचतीसाए ।'
इति ।। १२५ ।।
अथ शेषमार्गणास्वायुष उत्कृष्टस्थिते जेवन्यं बन्धान्तरमेकयाऽऽर्ययाऽऽहसमयूर्णतमुहुत्तं उरालमी सम्मि साहियं पल्लं । णातिगे ओहम्म य सम्मत्ते वेअगे य भवे ॥ २१६ ॥
(०) "समयूणंत मुहुत्त "मित्यादि, औदारिकमिश्रकाययोगमार्गणायां प्रकृतं जघन्यान्तरं समयोनान्तमुहूर्तं भवेदित्यर्थः । इदं हि लब्ध्यपर्याप्तस्य समयोनोत्कृष्टभवस्थितिप्रमाणमवगन्तव्यम् । एतत्सूचनार्थमेव मूलेऽन्तमुहूर्तस्य समयोनविशेषणमुपात्तम्, अन्यथाऽन्तर्मुहूर्तस्य नानाविधत्वेन समयोनविशेषणं व्यर्थं स्यादिति । "साहियं पल्ल" ति प्रकृतजघन्यान्तरं साविक 'पल्यं' - पल्योपमं भवेदिति गाथाप्रान्तेऽन्वयः । कासु मार्गणास्त्रित्याह--"णाणतिगे” इत्यादि, मति श्रुताऽऽवधिज्ञानानां त्रिकेऽवधिदर्शन मार्गणायाम्, चः पादपूयै । सम्यक्त्वाघमार्गणायां वेदकसम्यक्त्वमार्गणायां चेत्येतासु पण्मार्गणासु प्रत्येकमित्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम्एतासु प्रत्येकं सम्यग्दृष्टय एव जीवाः सन्ति, तेभ्यो यः कचिज्जीवः पूर्वकोटी त्रिभागरूपायामुत्कृष्टायामबाधायां प्रथमवारमुत्कृष्टस्थितिकं देवायुर्वद्ध्वा पश्चात्तदपत्र सम्यग्दशां बन्धप्रायोग्यं हवं-
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उत्कृष्टस्थिते रुत्कृष्टबन्धान्तरम् ]
द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ २१५
साविकपम्योपमस्थितिकं करोति, पुनस्ततोऽपि हीनं दशवर्षसहस्रस्थितिकम् जघन्यस्थितिकायुषो मिथ्यादृशां बन्धप्रायोग्यत्यात् । यच्च साधिकपल्योपमस्थितिकवैमानिकदेवतयोत्पद्य क्रमेण मृत्वा पुनरपि पूर्वकोटिवर्षायुष्कमनुष्यत्वे त्पद्य वेद्यमानायुपो भागद्वयेऽतिक्रान्ते तृतीयभागप्रथमसमय उत्कृष्टावाधायामुत्कृष्टस्थितिकं देवायुर्वघ्नाति, एवं तस्य समयोनपूर्वको व्यभ्यधिकं साधिक पल्योपममायुष उत्कृष्टायाः स्थितेर्जघन्यं बन्धान्तरं प्राप्यते, तत्र समयोनपूर्व कोट्यंशस्याधिकांशेन गम्यत्वान्मूले समय पूर्व कोट्यंशं पृथगनुपादाय साधिकं पल्योपममेवोक्तं, तथाऽपि साधिकपदेन यथोक्तमेव प्रकृतान्तरं बोद्धव्यमिति ॥ २१६ ॥
तदेवमभिहितं निषिद्धप्रकृतान्तरा निरयगत्यादिमार्गणाः संत्यज्य शेषपञ्चेन्द्रियौघादिमार्गणासु जघन्यत आयुष उत्कुष्टस्थितेर्बन्धान्तरम् । अथ तास्वेव शेषासु पञ्चेन्द्रियोयादिमार्गणासूत्कृष्टतस्तं दर्शयन्नाह - परमं सव्वत्थ वरि ओघव्व ।
taara अण्णादुगे अयते अचक्खु-भवि अभवि-मिच्छेषु ॥ २१७॥
(प्रे० ) " होणसगुरुकायठिई परममित्यादि, अन्तर्मुहूर्ती दिलक्षणेनैकदेशेन हीना पञ्चेन्द्रियौघादितत्तन्मार्गणाया याऽनन्तरं कालद्वारेऽभिहिता स्वीया स्वीया 'गुर्वी' - उत्कृष्टा कामस्थितिः सा हीनस्वगुरुकावस्थिति: “परमं” ति आया उत्कृष्टस्थिते: 'परमम्' - उत्कृष्टं बन्धान्तरं भवतीत्यर्थः । कामु मार्गणास्थित्याह--" सव्वत्थ" ति सामान्यतः सर्वत्र, पञ्चेन्द्रियौघादिशेषसर्वमागणावित्यर्थः र्थः । वक्ष्यमाणापवादं विहाय बहुषु मार्गणासु हीनस्वगुरुकायस्थितिप्रमाणस्य प्रस्तुतान्तरस्य लाभाल्लाघवकृत औत्सर्गिकोऽयं निर्देशः, अतस्तत्रापवादमाह - " णवरि" इत्यादिना, 'नवरम्'-परम् “ओघव्व” त्ति आयुष उत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टं बन्धान्तरमोघवदसंख्यपुङ्गलपरावर्तप्रमाणम्, भवतीति शेषः । कासु मार्गणास्वोववदसंख्यपुद्गलपरावर्ता भवतीत्याह- "अण्णाणदुगे” इत्यादि, मत्यज्ञान-श्रु ज्ञानाऽसंयमाऽचक्षुर्दर्शन- भव्या-भव्य- मिथ्यात्वरूपासु सप्तमार्गणास प्रत्येकमित्यर्थः । एतासु सप्तमार्गणासु प्रकृतान्तरभावनाप्योघवदेव द्रष्टव्या । शेषाऽपर्याप्तमनुष्यादिषटसप्ततिमार्गणास तु मार्गणाप्रारम्भावस्थासत्केऽन्तमुहूर्तादिप्रमाणे वेद्यमानोत्कृष्ट स्थितिकायुषो भागद्वयेऽनतिक्रान्ते तृतीयभागे चानारब्धे पारभविकायुर्वन्धस्य प्रथमाऽऽकर्षस्याप्यसम्भवात् तमन्तर्मुहूर्तादिकालं विहाय ये जीवा उत्कृष्ट स्थितिकायुर्वन्धं कुर्वन्ति, तदनन्तरं चानुत्कृष्ट स्थितिकायुर्वन्धद्वारेणैव नानाभवैरुत्कृष्टां कार्यस्थिति निर्गमयन्तो यदा मार्गणाया उत्कृष्टकायस्थितिसमाप्तेरर्वागन्तमुहूर्ताद्यशेषायामुत्कृष्टकास्थितौ पुनरप्युत्कृष्टस्थितिकमायुर्वन्धं कुर्वन्ति तदा तेषानात उत्कृ ष्टस्थितेरुत्कृष्टं बन्धान्तरं प्राप्यते । इत्थं हि मार्गणाया उत्कृष्टकायस्थितिसत्कस्य प्रारम्भप्रान्तयोः कतिपयकालस्य वर्जनीयतया देशोना स्वीयस्वीयकायस्थितिरेवाऽऽयुष उत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टबन्धान्तरमभिहितम् । तत्र देशोनता तु तत्तन्मार्गणायां यथासम्भवं द्रष्टव्या ।
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. २१६ ]
... बंधविहाणो मूलपयडिठिबंधो [ मार्गणास्वायुःकर्मणः तथाहि-अपर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियमार्गणायां कश्चिद् मार्गणान्तरादागत उत्कृष्टस्थितिको लब्ध्यपर्याप्तपञ्वेन्द्रियतिर्यग्जीवो वेद्यमानायुषो भागद्वयेऽतिक्रान्ते तृतीयभागप्रथमसमय उत्कृष्टाबाधायां वर्तमानः सन् पूर्वकोटीस्थितिकं तिर्यगायुर्वध्नाति, पश्चाच्च तत् प्रागुक्तनीत्याऽपवर्त्य ह्रस्वमपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यप्रायोग्यं करोति, मृत्वा चापर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रिय एव भवति, ततश्चाऽनुत्कृष्टस्थितिकतिर्यगायुर्वन्धद्वारेण संख्येयवारानपर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियतयोत्पद्योत्पद्य विपद्य विपद्य च तत्रैवापर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियसत्कामुत्कृष्टां कायस्थितिं गमयति, तत्र चोत्कृष्टकायस्थिति गमयन्नपर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियसत्के चरमे भव उत्कृष्टस्थितिकाऽपर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियतयोत्पद्य प्राग्वदुत्कृष्टावाधायां वर्तमानः सन् पूर्वकोटीस्थितिकमुत्कृष्टमायुर्वध्नाति, पश्चाच्च वर्तमानभवोत्कृष्टकायस्थित्योः सममेव समाप्त्या पूर्वकोटीस्थितिकतिर्यगादितयोत्पद्यते, इत्येवं प्रकृतमार्गणातो बहिर्भावस्तस्य जायते; एतादृशजीवेन कृतयोर्यथोक्तोत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धयोरन्तरालमपेक्ष्याऽपर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियमार्गणायामायुप उत्कृष्टस्थितिबन्धस्योत्कृष्टान्तरं समयाधिकाऽपर्याप्तोत्कृष्टभवस्थित्या न्यूनाऽपर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियमार्गणाया उत्कृष्टकायस्थितिः प्राप्यते । इत्येवमपर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रिय मार्गणायां हीनपदेन समयोनापर्याप्तोत्कृष्टभवस्थित्या हीना स्वोत्कृष्टकास्थितिबोंद्धव्येति दिग् । अनया दीशा शेषगतिजात्यादिमार्गणाभेदेष्वपि देशोनकायस्थितिर्भावनीयेति ॥२१७॥
तदेवं दर्शितमायुप उत्कृष्टस्थितेरेकजीवाश्रयं द्विविधं बन्धान्तरमादेशतः । साम्प्रतं तस्यैवाऽऽयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेस्तद्दिदर्शयिषुराह
पणमणवयेसु विउवे आहारदुगे कसायचउगे य ।
सासाणे आउस्स उ अगुरुठिईएऽतरं णत्थि ॥२१८॥ (प्रे०) “पणमणे" त्यादि, प्राग्वत्पञ्चशब्दस्योभयत्र योजनात् पञ्चमनोयोगभेदेषु, पञ्चवचोयोगभेदेषु, वैनियकाययोगे, आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणयोढिके, क्रोधादिकषायचतुष्के, चः समुच्चयार्थ उत्तरत्र योज्यस्ततः सासादने चेत्येतास्वष्टादशमार्गणासु प्रत्येकमायुपोऽगुरुस्थितेः-अनुत्कृष्टायाः स्थितेः प्रकृतमेकजीवाश्रयं बन्धान्तरं 'नास्ति' न विद्यते इत्यर्थः । सुगमम् , उत्कृष्टतोऽप्यन्तमुहूर्तावस्थायिनीषु प्रकृतमार्गणासु प्रत्येकं कस्यापि जीवस्यायुर्वन्धद्वयं यावदनवस्थानात् , आयुर्वन्धद्वयाभावेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरस्याप्यसम्भवाचेति ॥२१८॥
तदेवं कतिपयमार्गणास्वसम्भवात् निषिद्धमायुषोऽनुत्कष्टस्थिते.न्धान्तरम् । साम्प्रतं यासु तत्सम्भवति तासु जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नं तत्क्रमशो दर्शयन्नाह
सेसासु मुहत्तंतो लहुं गुरु होइ ऊणछम्मासा । सव्वणिरयदेवेसु पसत्थअपसत्थलेसासु ॥२१९॥
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अनुत्कृष्टस्थितेह स्वेतरबन्धान्तरम् ] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[२१७ (प्रे०) "सेसासु" इत्यादि, अनन्तरोक्तमनोयोगाद्यष्टादशमार्गणा विवर्य शेषासु निरयगत्योधादिपञ्चचत्वारिंशदभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकम् “मुहुत्तंतो लहु” ति आयुषोऽनुत्कृष्टस्थिते'लघु-'जघन्यं बन्धान्तरं 'मुहूर्तान्तः'-अन्तमुहूतं भवतीत्यर्थः । कुतः ? वेद्यमानायुपस्तृतीयनवम-सप्तविंशतितमादिभागावशेषप्रकारेणाऽऽयुर्वन्धप्रायोग्यां द्विचरमाद्धायां चरमाद्धायां चायुर्वन्धाकोयोः प्रकृतसर्वमार्ग गागतजन्तूनां सम्भवात् , तयोरनरस्थान्तमुहूर्तत्वाच्चेति । इदमुक्तं भवतिनिरयगत्योघाद्यन्यतममार्गणागतो यः कश्चिजन्तुरन्तमुहूर्तावशेषे स्ववेद्यमानायुपि पारभविकायुबन्धप्रायोग्यां द्विचरमाद्धायां वर्तमानः सन्नायुर्वन्धप्रायोग्याध्यवसायानवाप्य तत्कालबध्यमानकर्मदलेषु म्बीपभागावाप्तकर्मदलान्यन्नमुहूतं यावदायुकतया परिणमयति, परतस्तु व्युपरमते, यावदायुर्वन्धप्रायोग्या चरमाद्धा, ततश्चाऽऽयुर्वन्धमा योग्यां चरमाद्धां प्रविशन् पुनरप्यायुर्वन्धाध्यव पायैस्तत्कालबध्यमानकर्मदलिकेषु स्वभागावातदलान्यायुःकर्म नया परिणमयितुं प्रारभते, ततश्च तमन्तम हतं यावद् बद्ध्वा विरम्य वेद्यमानायुरवशेषरूपमन्तमुहूर्तरमाणाबाधाकालं च तस्मिन् भत्र एव निर्गमय्य कालं करोति; एवं तेन हिचान-घरमपोरायुविधायोग्पाद्धयोः कृतस्यायुर्वन्धद्वयस्य यदन्तरालं तत्प्रकृतजघन्यान्तरतया बोद्धव्यमिति ।
___"गुरु होइ ऊणछम्मास" ति आयुषः प्रकृतानुत्कृष्टायाः स्थिते 'गुरु'-उत्कृष्टं बन्धान्तरं भवत्यूनषण्मामाः । कासु मार्गणास्वित्याह-"सव्वणिरये"त्यादि, सर्वशब्दस्य प्रत्येकं योजनात्सर्वेषु निरयगतिमार्गणाभेदेषु सर्वेषु च देवगतिमार्गणाभेदेषु तथा “पसत्थअपसत्थलेसासु" ति कृष्णादिव्यशुमलेश्या-तैजस्यादित्रिशुभलेश्यामार्गणास्वित्येतासु चतुश्चत्वारिंशन्मार्गणास प्रत्येकमित्यर्थः । इयमत्र भावना-कश्चिन्नारकजीवो वेद्यमानायुषः षण्मासावशेषायां स्थिती उत्कृष्टाबाधायां वर्तमानः सन् प्रथमवारं प्रथमेनाकर्षेण पार भविकायुर्वन्धं करोति, ततश्च स एवान्तमुहर्ने शेषे स्वायुषि चरमायामायुर्वन्धप्रायोग्यायामद्धायां प्रविशन् द्वितीयवारं द्वितीयेनाकर्षण पुनरपि तत्कालबध्यमानकर्मदलेभ्यः स्वभागावाप्तकर्मदलान्यायुष्कतया परिणमयन्नायुर्वन्धं करोति, एवं तेन प्रथमद्वितीयवारकृतयोर्यथोक्ताऽऽयुर्वन्धयोर्यदन्तरं तदन्तमुहर्तेनोनषण्मासप्रमाणं भवति, पण्मासेभ्य आयुर्वन्धद्वयकालस्य जघन्यावाधाकालस्य च वर्जनीयत्वात् । एतदेव प्रस्तुत उत्कृष्टान्तरतया ज्ञेयम् , केवलं देवगतिमार्गणाभेदेषु शुभलेश्यावये च देवजीवापेक्षया यथासम्भवं भावनीयमिति ।।२१९।। उक्त निरय-देवगतिमार्गणाभेदेषु तत्साम्याल्लेश्यामार्गणापटके च प्रकृतबन्धान्तरम् । इदानी तिर्यग्गन्यादिमार्गणाभेदेषु तदर्शयन्नाह
मवेसु तिरिय-मणुस-एगिदिय-विगल-पंचकायेसू।
असमत्तपणिंदि-तसेसु साहिया भवठिई जेट्टा ॥२२०॥ _ (प्रे०) “सव्वेसु" इत्यादि, सर्वेसु तिर्यग्गति-मनुष्यगत्येकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-पृथिव्यादि
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२१८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबधो [ मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेः वनस्पतिकायान्तपञ्चकायेषु, एतेषां तिर्यग्गत्यादिमार्गणानां सर्वभेदेष्वित्यर्थः । ते च समस्ताश्चतुःषष्टिमार्गणाभेदाः प्राग्वदोष-पर्याप्ता-ऽपर्याप्त-योनिमत्-सूक्ष्म-बादर-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदाद्यथायथमत्र ग्रन्थेऽधिकृता बोद्धव्याः; अन्यभेदसंग्रहायाह-"असमत्ते'त्यादि,तत्रापर्याप्तापरपर्यायस्यासमाशब्दस्य प्रत्येकं योजनादसमाप्तपञ्वेन्द्रिया-ऽसमाप्तत्रसकायभेदयोरित्येतासु पक्षष्टिमार्गणासु प्रत्येकं "साहिया भवठिई जेहा" ति साधिका स्वीया भवस्थितिज्येष्ठा-उत्कृष्टा, साधिकस्वीयभवस्थितिप्रमाणमित्यर्थः। आयुषोऽनुत्कृष्टायाः स्थितेरुत्कृष्टं बन्धान्तरमिति प्रक्रमाद्गम्यते । अयम्भावःचरमभवं विहाय शेषभवेषु प्रतिभवं सर्वैर्जीः सकृत् नियमेनायुर्वन्धः क्रियत एवेति सप्रतीतम् । तत्रापि स बन्धो यद्युत्कृष्टावाधायामुत्कृष्टस्थितिकायुषः प्रारम्यते, तदाऽपि प्रारम्भरितीयादिसमयेष्वसावनुत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्ध एव भवति, प्रतिसमयमवाधायाः परिगलनात् । इत्थं हि प्रतिभवमनुत्कृष्टस्थितिवन्धो नियमेन प्राप्यते । ततः किम् ? ततो प्रकृततत्तन्मार्गणागतो यः कश्चिजीवो मार्गणाप्रायोग्यवेद्यमानोत्कृष्टायुषस्त्रिभागाऽवशेषरूपायामुत्कृष्टागामबाधायां वेद्यमानायुःसदृशं तिर्यग्गत्यादेरुत्कृष्टस्थितिकमायुर्वद्ध्वा क्रमेण च तत्रोत्पद्य वेद्यमानायुःप्रान्ते यथाकालमायुर्वन्धं करोति, तदा तेन तादृशजीवन निरन्तरभययकृतायुवेन्धयस्यान्तरालं प्रकृतान्तरतया लभ्यते । तथाहि-तिर्यग्गत्योधमार्गणायां कश्चित्पूर्वकोटीवायुस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियजीवो वेद्यमानायुपश्चरमे तृतीये भागे वेदयितुमारब्धे प्रकृतमार्गणाप्रायोग्यायां पूर्वकोटीविभागरूपायामुत्कृष्टावाधायां वेद्यमानायुःसदृशं त्रिपल्योपमोत्कृष्टस्थितिकं तिर्यगायुर्वध्नाति, ततश्च क्रमेण कालं कृत्वा पूर्ववद्धायुरुदये त्रिपल्योपमस्थितिकस्तिर्यग्भवति, तस्मिन् भवे त्यसौ प्रान्ते आयुर्वन्धप्रायोग्यायां चरमाद्धायां सकृदेवायुर्वन्धं करोति; इत्येवं तेन निरन्तरभवद्वयकृतस्याऽऽयुर्वन्धद्वयस्यान्तरं देशोनपूर्वकोटीतृतीयभागेनाभ्यधिकत्रिपल्योपमप्रमाणं भवति, तदेव तिर्यग्गत्योधमार्गणायामायुपोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्योत्कृष्टान्तरतया बोद्धव्यम् । अनया रीत्या शेषमार्गणासु भावना स्वयमेव कार्येति ।।२२०।। दर्शितं गत्यादिभेदेसु प्रकृतान्तरम् । साम्प्रतं क्रमप्राप्तयोगमार्गणाशेषभेदेषु दर्शयन्नाह -
कायम्मि भूभवठिई देसूणतिभागसंजुया जेट्ठा।
उरलेऽभहियाणि भवे सत्त सहस्साणि वासाणि ॥२२१॥ (प्रे०) “कायम्मि” इत्यादि, काययोगमार्गणायां "भूभवठिइ" ति भुवः-पथिवीकायिकस्य भवस्थिति ज्येष्ठा'-हाविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणोत्कृष्टेति परेणान्वयः। किं तावन्मात्रोतोनाधिका वेत्याह-“देसूणतिभागसंजुया" ति अन्तमुहर्तलक्षणेनैकदेशेनोनो यः 'त्रिभागः' तस्या एव पथिवीकायोत्कटभवस्थितेस्तृतीयभागस्तेन संयुता' समेता,देशोनत्रिभागसंयुता, आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टबन्धान्तरमिति गम्यते । इदं हि खरवादरपर्याप्तपृथिवीकायस्योत्कृष्टस्थितिकयोर्निरन्तरभवयोः क्रमेणोत्कृष्टायामबाधायामसंक्षेप्यादायां च केनचिञ्जीवेन प्रारब्धस्यानुभवयोग्यतालक्षण द्वाविं
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उत्कृष्टं बन्धान्तरम् ]
| २१९
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शतिवर्षसहस्रस्थितिकाऽऽयुर्वन्धद्वयस्यान्तरालापेक्षया बोद्धव्यम् । कुतः ? मनोवाग्येोगरहितेषु केवलकापयोगोपेतजीवेषु पर्याप्तखरबादरपृथिवी कायिकानामेवोत्कृष्टस्थितिकत्वात् । इदमुक्तं भवतियेषां द्वीन्द्रियादिजीवानां काययोगादन्ययोगस्याऽपि सम्भवोऽस्ति तेषां काययोगस्याऽन्ययोगेन सह परावृत्य परावृत्य प्रवर्तनात्कायकोगोऽन्तर्मुहूर्तादधिकं नावतिष्ठते, तदभावे कुतः प्रकृतोत्कृष्टान्तरस्य सम्भवः, न कुतश्चिदपीत्यर्थः । अतो यः कश्चिद् द्वाविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणोत्कुष्टस्थितिको निरन्तरकाययोगी खरबादरपृथिवीकायि को जीवः स वेद्यमानायुषो भागद्वयेऽतिक्रान्ते तृतीयभागप्रारम्भे वेद्यमानायुःसदृशं पारभविकमायुर्ब्रध्नाति तच्चान्तर्मुहूर्तं बद्ध्वा विरमति, इत प्रकृ नान्तरस्य प्रारम्भः पश्चादसावनन्तरभवे पूर्ववद्धायुरुदयेन द्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिको खरबादरपृथिवीकाथिको भवति, तस्मिन् भवे तु जघन्यायानन्तर्मुहूर्तात्मिकायाम बाधायां सत्यामेयुधं करोति नत्वर्वाक, इत्येवं तेन निरन्तरयोरुत्कृष्टस्थितिकपूर्वोत्तरभवयोः कृतस्यायुर्वन्धद्वयस्यान्तरालमायुर्वन्वाद्धाद्वयेन जघन्यायाधालक्षणेन चान्तमुहूर्त कालेनोन तृतीयभागोपेत पृथिवीकायो कूट भवस्थितिप्रमाणं काययोगमार्गणायामुत्कुष्टतो लभ्यते, न पुनस्तदधिकमिति तथैव दर्शितमिति ।
“उरले” त्ति औदारिककाययोगमार्गणायां प्रकृतान्तरं “ “भहियागि भवे सत्तसहासवासाणि" त्ति लुप्ताकारस्य दर्शनादभ्यधिकानि सप्तसहस्रवर्षाणि भवेदित्यर्थः । इदमप्यनन्तरोतोत्कृष्ट कार्यस्थितिकपर्याप्तखरवादपृथिवी काय भवापेक्षयैव भावनीयम्; केवलमुत्कृष्टाबाधायां प्रथमाकर्षेणायुर्वन्धादनन्तरं द्वितीय आयुर्वन्धोऽनन्तरभवेऽसंक्षेप्याद्धायां न द्रष्टव्यः, किन्तु तस्मिन्नेव भवेऽसंक्षेप्याद्धायां द्वितीयाकर्षेणायुर्वन्धापेक्षया द्रष्टव्यः । कुतोऽनन्तरोत्तरभवे न द्रष्टव्यः ? उच्यते, भवान्तरगमनेऽपर्याप्तावस्थाया मौदारिकमिश्रकाययोगस्य नियमतः प्रवर्तनेन प्रकृतमार्गणाया विच्छेदभयात् । इत्येवं तेन द्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकेन खरवादरपर्याप्तवृथिवी काय जीवेन प्रथमचरमायुर्वन्धाद्धाद्वय आकर्षयेन द्विर्वद्धस्य पारभविकायु बन्धद्वयस्यान्तरं साधिकानि सप्तसहस्र वर्षायेवाप्यते; आयुर्बन्धाद्धासत्केनाऽसंक्षेप्याद्धासत्केन चान्तमुहूर्तयेनोनस्य द्वाविंशतिवर्षसहस्राणां तृतीयभागस्यान्तमुहूर्तोनमासचतुष्केनाधिकत्रयस्त्रिंशद्वर्षोत्तरत्रि सप्त तेश त वर्षप्रमाणत्वादिति || २२१ || अथान्यत्र प्रकृतमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टवन्धान्तरमाह - ओरालियमीसम्म उ भिन्नमुहुत्तं हवेज्ज इत्थीए । जाणेयव्वं पंचावण्णा पलिओवमाऽभहिया ॥२२२॥
द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
(प्रे०) " ओरलियमीसम्म उ" इत्यादि, औदारिक मिश्रकाययोगमार्गणायां तु-पुनर्भिन्नमुहूर्तमन्तमुहूर्तं भवेत्, प्रकृतान्तरमिति गम्यते । सुगमं चैतत् । भावनात्वपर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियमार्गणावद् द्रष्टव्येति । " इत्थीए " त्ति स्त्रीवेदमार्गणायां ज्ञातव्यमित्युत्तरार्धेऽन्वयः प्रकृतान्तर
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२२० ।
बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेः मिति प्राग्वद्गम्यते । कियज्ज्ञातव्यं स्त्रीवेदमार्गणायां प्रकृतान्तरमित्याह-"पंचावणे"त्यादि, अभ्यधिकानि पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानीत्यर्थः । इदं हि पूर्वकोटीस्थितिकमानुष्या वेद्यमानायुपस्ततीयभागावशेष उत्कृष्टाबाधायां पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमस्थितिकं देवायुर्वद्धशानकल्पे उत्कृष्टस्थितिकाऽपरिगृहीतदेवीतयोत्पद्य तत्र जघन्यावाधायां पुनरप्यापुर्वन्धे कृते सति प्राप्यते,अतः पूर्ववदन्तम हूतद्वयेन हीनपूर्वकोटीत्रिभागाभ्यधिकानि पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानीति बोद्धव्यमिति ॥२२२।।
मणणाण-संयमेसुसमइअ-छेअ-परिहार-देसेसु । देसूणो पुवाणं कोडितिभागो मुणेयव्वं ॥२२३॥
(प्रे०) "मणणाणे” त्यादि, मनःपर्यवज्ञान-संयमौधमार्गणयोः, सामायिक-छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिक-देशसंयममार्गणास्वित्येताषु पामार्गसु प्रत्येकं ज्ञातव्यमिति गाथावान्तेऽन्वयः । आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टं वन्धान्तरमिति प्रक्रमाद्गम्यते । कियज्ज्ञातव्यमित्याह-“देसूणो पुव्वाण"मित्यादि, सुगमम् । भावना त्वौदारिककाययोगमार्गणावत् पूर्वकोटीभवस्थितिकमन:पर्यवज्ञान्यादिजी पापेक्षया द्रष्टव्येति ॥२२३॥
विभंगे देसूणा जेट्ठा कायट्टिई मुणेयव्वं ।
देसूणा छम्मासा हवइ त्ति भणन्ति अण्णे उ ॥२२४॥ (प्रे०) "विन्भंगे" इत्यादि, विभङ्गज्ञानमार्गणायाम् “देसूणा जेट्ठा कायट्टिई” त्ति "कायटिई उक्कोसा णिरयसुराणं विभङ्गणाणस्स" इत्यादिना पूर्व कालद्वारेऽभिहितमाना देशोनपूर्वकोट्यभ्यधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि ज्येष्ठा'-उत्कृष्टा “कायहिई" ति विभङ्गज्ञानस्य कायस्थितिः “देसूणा" ति किञ्चिदनपूर्वकोटीतृतीयभागद्वयलक्षणेनैकदेशेनोना सती, आयुपोऽनुत्कृष्टस्थितेरुकृष्टवन्धान्तरं भवतीति गम्यते । कथम् ? इति चेत्, पूर्वकोटीस्थितिकमनुष्यभवे वेद्यभानायुपश्वरमतृतीयभागादारब्धे उत्कृष्टस्थितिकनिरयायुपो बन्धेऽन्तमुहूर्तेन समाप्तेऽनुपदं प्रवृत्तान्तरम्योत्कर्षत उत्कृष्टस्थितिकनिरयभवेऽसंक्षेप्याद्धायामायुर्वन्धं यावत्प्रवर्तनात् ,तावत्कालस्य किश्चिदूनपूर्वकोटीततीयभागेनाधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणत्वादिति । अत्रैव महाबन्धकारमतमाह"देसूणा" इत्यादि, प्रस्तुतान्तरं देशोनाः पण्मासा भवतीति “भणन्ति अण्णे उ” त्ति अन्येमहायन्धकारास्तु-पुनर्भणन्ति, तै रकाणामपर्याप्तावस्थायां विभङ्गज्ञानस्याऽनभ्युपगमात् , तिर्यगनरेषकोतोऽन्तमुहूर्तमेव निरन्तरविभङ्गज्ञानस्थाभ्युपगमाच यथा निरयगत्योधादिमार्गणायां प्रस्तुतान्तरं देशोनपण्मासाः प्राप्यते, तथा प्रस्तुतमार्गणायामपि, उभयत्राविशेषादिति ।।२२४॥
पुवाणेगाकोडी अब्भहिया होअए असण्णिम्मि । सेसासु णायव्वं तेत्तीसा सागराऽभहिया ॥२२५॥
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ओघतः सप्तानां जघन्येतरस्थित्योः] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
{ २२१ (प्रे०)"पुव्वाणेगा कोडो"त्यादि,आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेरुत्दृष्टं बन्धान्तरं पूर्वाणामेका कोटिः "अभहिआ" ति प्राग्वदन्तमुहूर्तद्वयोनपूर्वकोटितृतीयभागेनाभ्यधिका “होअए असणिम्मि" ति असंज्ञिमार्गणायां भवति । सगमम् , असंज्ञिनामुत्कृष्टाया भवस्थितेः पूर्वकोटिवर्षप्रमाणत्वात् । भावना तु काययोगमार्गणावद् द्रष्टव्या, नवरं निरन्तरे पूर्वकोटीस्थितिकासंज्ञिभवद्वये क्रमेणोत्कृष्टावावा-ऽसंक्षेप्याद्धयोर्जाताऽऽयुर्वन्धद्वयापेक्षयेति । "सेसासु" ति मनोयोगादिनिषिद्धप्रकृतान्तरा अष्टादशमार्गणास्तथा निरयगत्योधादिदर्शितप्रकतान्तरा द्वाविंशत्यभ्यधिकशतमार्गणाश्च संत्यज्य शेषास पञ्चेन्द्रियोघादित्रयोविंशतिमार्गणासु प्रत्येकं "णायव्वं" ति आयुपोऽनुत्कष्टस्थितेरुत्कृष्टं बन्धान्तरं ज्ञातव्यम् । कियदित्याह-“तेत्तीसा सागराऽभहिया"ति ओघवत् त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यभ्यधिकानीत्यर्थः । पुस्त्वं तु प्राकृतवशात्प्राग्वदत्रापि बोद्धव्यम् । शेषमार्गणा नामतस्त्वमू:-पञ्चेन्द्रियोघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदो, तथैवौघ-पर्याप्तभेदभिन्नौ द्वौ त्रसकायभेदो, पुवेद-नपुंसकवेदो, मतिज्ञान-श्रुतज्ञाना-ऽवधिज्ञानानि, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाने, असंयममार्गणा, चक्षुरादित्रिदर्शनभेदाः, भव्या-ऽभव्य-सम्यक्त्वोध-क्षायिक-वेदकसम्यक्त्वानि, मिथ्यात्वं, संध्या-ऽऽहारिमार्गणाभेदी चेति । एतास प्रत्येकं प्रकृतान्तरमौधिकभावनानुसारेण भावनीयम् , केवलं गत्यन्तरोत्पादेऽपि प्रकृतमार्गणाविच्छेदो न स्यादिति निरयत्वेन देवत्वेन वा यथासम्भवमुत्पादो द्रष्टव्य इति ।।२२५।।
तदेवं प्ररूपितमादेशतोऽप्यायुःकर्मण उत्कृष्टा-नुत्कृष्टस्थित्योर्जघन्योत्कष्टभेदभिन्नं द्विविधमप्येकजीवाश्रयमन्तरम् । साम्प्रतं जघन्याजघन्यस्थित्योस्तद्दिदर्शि यिपुरादौ तावदोघत आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां प्राह
सत्तण्ह जहण्णाए ठिईअ णत्थि अजहण्णगाए उ। हस्सं समयो दीहं भिन्नमुहुत्तं मुणेयव्वं ॥२२६॥
(प्रे०) “सत्तण्ह जहण्णाए” इत्यादि, सामान्यतो मार्गणामनधिकृत्य सप्तानामायुर्वर्जमूलाकतीनां प्रत्येकं जघन्यायाः स्थितेः “णत्थि" त्ति प्रकतमेकजीवाश्रयं बन्धान्तरं 'नास्ति'-न विद्यते । कुतः ? सप्तानां जघन्यस्थितिवन्धस्य क्षपकश्रेणौ भावादिति । इदमुक्तं भवति-ओघत मार्गणास्थानेषु वा सप्तानां जघन्यस्थितिवन्धस्यान्तरं न लभ्यते, क्षपकश्रेणिभाविनस्तस्य सकदेव भावाद् , अन्तरस्य तु तद्व्यसापेक्षत्वादिति । “अजहण्णगाए उ" त्ति “सत्तण्ह" इत्यनवर्तते, ततः सप्तानामजघन्यायाः स्थितेस्तु-पुनर्बन्धान्तरं प्राप्यते, तच्च "हस्सं समयो” त्ति 'ह्रस्वं'-लघु 'समयः-'समयप्रमाणं, ज्ञातव्यमिति प्रान्तेऽन्वयः। “दीह" ति सप्तानामजघन्यस्थितेरेकजीवाश्रयं 'दीर्घ' गुरु बन्धान्तरं पुनः “भिन्नमुहत्तं मुणेयच्वं" ति भिन्नमुहूर्त ज्ञातव्यमिति । इदं हि द्विविधमप्यजघन्यस्थितेन्धान्तरं क्रमश उपशमश्रेणिसत्कजघन्योत्कृष्टाऽबन्धाद्धाऽपेक्षयैव बोद्धव्यम् , न
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२२२ ]
___ बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ओयत आयुषो जघन्येतरस्थित्योः पुनरनुत्कृष्टस्थितेन्धिान्तरवत्प्रतिपक्षभूतापा जघन्यस्थितेर्बन्धकालमपेक्ष्य । कुतः ? औधिकजघन्यस्थितिबन्धस्या-ऽजान्य स्थितिवन्धद्वयमध्येऽजायमानत्वादिति ।।२२६।। अथायुषो जघन्यस्थितिबन्धस्य प्रस्तुतहिविधमन्तरमोघतः प्राह
आउस्स जहण्णाए हस्सं खुड्डगभवो समयहीणो।
परमं जेट्ठाऽभहिया पज्जत्ततसस्स कायठिई ॥२२७॥ (प्रे०) “आउस्स जहण्णाए” इत्यादि, आयुपो जघन्यायाः स्थितेः 'ह्रस्वं'-जघन्यं बन्धान्तरं "खुडगभवो समयहोणो” ति 'शुन्छ'-पर्वलघुर्भवः समपहीनो क्षेपम्. समोनषट्पञ्चाशदभ्यधिकदिशतावल्यो त्रोद्धव्यमित्यर्थः । कुतः ? उच्यते, आयुा उत्कृपस्थितिवन्धवदायुषो जघन्यस्थितिवन्धस्याऽपि जघन्यावाधासंगतत्वात्, तस्या एकस्मिन् भवे सकृदेव लाभाचोत्कृष्टस्थितिवन्धान्तरवज्जधन्यस्थितिवन्धान्तरमपि भवद्वये जघन्यावाधायां कृतस्य जघन्यस्थितिकायर्वन्धद्वयस्यान्तरालापेक्षया प्राप्यते, तथा च सति यः कश्चित्संख्येययिष्कस्तियंग मनुष्यो वा जघन्यावाधायां प्रथमं जब-यं पटपञ्चाशदभ्यधिकशत द्यावलिकाप्रमाणमायुर्व नाति, ततश्च क्रमेण तत्रोत्पद्य तत्रापि जवन्यावाधायां पुनरपि प्राग्यज्जधन्यस्थितिकमायुर्वध्नाति, तेन पूर्वोपरभवयोर्जघन्यावाधायां कृतस्याऽऽयुर्वन्धयस्यान्तरालं समयोनपटपञ्चाशदभ्यविकद्विशतापलिकाप्रमाणं भवति, तदेव मूले “खुड्डगभवो समयहीणो” इत्यनेनानिहितमिति । “परमं” ति आयपो जघन्याः स्थितेः 'परमम्'-उत्कृष्टं उन्धान्तरं 'ज्येष्ठा-उत्कृष्टा कापस्थितिरिति प्रान्तेऽन्धयः । कस्येत्याह--"पज्जत्ततसस्स” त्ति अधिकृतद्वितीयाधिकारे एकजीवाश्रयकालद्वारे उक्ता पर्याप्तत्रसकायमार्गणायाः कायस्थितिरित्यर्थः । किं तावन्मात्रोतोनाऽधिका वेत्याह-"भहिया" नि अकारस्य दर्शनादभ्यधिका-पन्योपमासंख्येयभागेनाधिका, न पुनस्तावन्मात्रा । कुतः ? पर्यातकाकायस्योत्कृष्टकायस्थिति निर्वाह्ये केन्द्रियादितया कालं गमयतो जीवस्योत्कृष्टतः पल्योपमासंख्येयभागेऽतिक्रान्ते जवन्यावाधायां जघन्यस्थितिवन्धस्य नियमेन भावादिति ॥२२७॥ आयोऽजघन्यायाः स्थितेः प्रस्तुतान्तरमोघत आह
भिन्नमुहुत्तं हस्सं अजहण्णाए ठिईअ णायव्वं ।
अब्भहिया तेत्तीसा जलही विण्णेयमुक्कोसं ॥२२८॥ (प्रे०) "भिन्नमुहत्त" मित्यादि, प्रकृतत्वादायपोऽजघन्यायाः स्थितेः 'हवं' जयन्यवन्धान्तरं "भिन्नमुहत्तं" ति अन्तर्मुहूर्त ज्ञातव्यम् । “अम्भहिया" ति अन्तम होनपूर्वकोटीत्रि नागेनाऽभ्यधिकाम्बयस्त्रिंशत् 'जलवयः'-सागरोपमाणि "विण्णेयमुक्कोसं' ति आयपोजा यायाः स्थितेरुस्कृष्टं-दीर्घमन्तरं विज्ञेवमित्वक्षरार्थः । भावार्थ सुगमः । भावना त्वस्य जघन्योत्कृष्टद्विविधस्याप्यन्तरस्यायुपोऽनत्कृष्टायाः स्थितेरोधिकजवन्योत्कृष्टान्तरवत्सर्वथैव द्रष्टव्येति ।।२२८।।
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[ २२३
मार्गणास्वायुर्जानां जघन्यस्थितेः ] द्वितीयादिकारेऽन्तरद्वारम्
तदेवं दर्शितमष्टानामपि मूलप्रकृतीनामेकजीवाश्रयं जघन्याऽजघन्यस्थित्योदिविधमपि बन्धान्तरमोधतः । साम्प्रतं नदेवादेशतः प्रचिकटयियुरादौ तावदायवर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां जघन्याः स्थितेर्दर्शयन्नाह
णिरय-पढमणिरयेसु सव्वणरेसु च देव-भवणेसु। वंतर-दुपणिंदीसुदुतसेसुसब्बजोगेसु॥२२९॥ वेअतिगा-ऽवेएसु कसायचउगम्मि णाणचउगम्मि । विभंग-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहारेसु॥२३०॥ देसम्मि तहा सुहुमे तिदरिसण-छलेस-भविय-सम्मेसु। खाइअ-बेअग-उवसम-सासायण-मील-सण्णीसु॥२३१॥
आहारेऽणाहारे सत्तण्ह लहूअ अंतरं णत्थि । (प्रे०)"णिरयपढमणिरयेसु” इत्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः । भावार्थः पुनरयम्निरयोध-प्रथमनिरयभेदा-ऽपर्याप्तमनुष्यभेद-देवौघ-भवनपति-व्यन्तरदेवभेदरूपासु पण्मार्गणासु वक्रगत्याऽसंज्ञिभ्य आगच्छतामन्तरालगती भवप्रथमसमयये वर्तमानानामेव जघन्यस्थितिबन्धः सम्भवति, तेयामेव जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वात् । उक्तं च स्वामित्वद्वारे—“सत्तण्हं बंधगो लहुठिईए : पढमदुइअसमये खलु असण्णिओ आगओ णेयो ॥१२१।। णिरयपढमणिरयेसु अपजणरदेव भवणयुगलेसुं ।" इति । ततः किम् ? ततस्तासु पण्मार्गणासु केनापि जीवेन जघन्यस्थितिबन्धः सकृदेव क्रियते, मनुष्यौघ-पर्याप्तमनुष्य-मानुषीमार्गणाभेदेषु पञ्चेन्द्रियोध-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेद-त्रमकायौघ-पर्याप्तत्रसकायभेदेषु, पञ्चसु मनोयोगभेदेषु, पञ्चसु वचोयोगभेदेषु, काययोगसामान्यौदारिककाययोगभेदयोः, स्त्री-पु-नपुंसकवेदेष्वपगतवेदमार्गणायां, चतुर्यु क्रोधादिकपायभेदेषु मत्यादिषु चतुर्यु ज्ञानभेदेषु, संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापन-सूक्ष्मसम्परायसंयमभेदेषु, चक्षुरादिषु त्रिषु दर्शनभेदेषु, शुक्ललेश्यायां, भव्यमार्गणायां तथा सम्यक्त्वौध-क्षायिकसम्यक्वयोः,संड्या-ऽऽहारिमार्गणयोश्चेत्येतासु चतुश्चत्वारिंशन्मार्गणासु प्रत्येकं जघन्यस्थितिवन्धः क्षपकश्रेणिभावीतिकृत्वासो सकदेव प्राप्यते, औदारिकमिश्र-वैक्रिय-क्रियमिश्रा-ऽऽहारका-ऽऽहरकमिश्रकामणकाययोगभेदेषु, कृष्णादिपञ्चलेश्याभेदेपु, सासादना-ऽनाहारकमार्गणयोरित्येतासु त्रयोदशमार्गणासु प्रत्येकंजघन्यस्थितिबन्धस्वामिनां स्वल्पतरावस्थानेन सकृज्जघन्यस्थितिबन्धाऽनन्तरं पुनर्जघन्यस्थितिबन्धभावात्पूर्वमेव प्रस्तुतमार्गणाया विच्छेदात् , तथा पञ्चसु विभङ्गज्ञान-परिहारविशुद्धिकसंयम-देशसंयम-वेदकसम्यक्त्व-मिश्रमार्गणाभेदेषु संयमाद्यभिमुखानां जघन्यस्थितिबन्धभावेन सकदेव जघन्यस्थितिबन्धो लभ्यते, औपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायामपि मार्गणास्थस्य कस्यापि जीवस्य
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२२४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानां जघन्यस्थितेः मार्गणाव्यवच्छित्तरर्वाक् सकदेवोपशमश्रेणेः सम्भवात् सूक्ष्मसम्पराग्चरमस्थितिबन्धभावी ज्ञानावरणादीनां पण्णां जघन्यस्थितिबन्धस्तथाऽनिवृत्तिकरणगुणस्थानचरमस्थितिबन्धभावी मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः सकदेव लभ्यते, इत्थं च निरयगत्योघादिषण्मार्गणासु भवप्रारम्भे, मनुष्यौघादिचतुश्चत्वारिंशन्मार्गणास क्षपकश्रेणी, औदारिकमिश्रकाययोगादित्रयोदशमार्गणाम् जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनां स्वल्पतरावस्थानेन, विभङ्गज्ञानादिपञ्चमार्गणासु संयमाद्यभिमुखानां जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वेन तथा निरन्तरे औपशमिकसम्यक्त्वकाले कस्याऽपि जीवस्य सकदेवोपशमश्रेगेः सम्भवेन निरयगत्योघाद्यकोनसप्ततिसंख्याकास सर्वासु मार्गणामु जघन्यस्थितिवन्धस्य सकदेव भावात् जघन्यस्थितिबन्धायाधीनं प्रकृतान्तरं न लभ्यत इति ।।२२९-२३०-२३१।।
तदेवमेकोनसप्ततिमार्गणासु जघन्यस्थितिबन्धान्तरं निषिद्धमप्येकोनसप्तत्यन्तःप्रविष्टयोः परिहारविशुद्धिकसंयम-क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणयोः स्वस्थानाप्रमत्तसंपतानामपि जयन्यस्थितिबन्धस्वामित्वमभ्युपगच्छतां तत्सम्भवतीतिकन्या तत्र प्रतिपादयितुकाम आह
अहवा भिन्नमुहत्तं परिहारे वेअगे य लहुं ॥२३२॥
उक्कोसं देसूणा सगगुरुकायट्टिई मुणेयव्वं । प्रे०) "अहवा भिन्नमुहुत्त"मित्यादि, अथवाशब्दो मतान्तरद्योतनार्थम् , ततः अपमत्तो अहवा से बंधंम्मि कयकरणो हवेहिइ जो। सो णेयो परिहारे तेउपउमवेअगसु च ॥१२८॥ इत्यनेन स्वामित्वद्वारे संगृहीतमतान्तरेण "भिन्नमुहत्तं परिहारे वेअगे य लह" ति परिहारविशद्धिकसंयममार्गणायां वेदकसम्यक्त्वमार्गणायां च प्रकृतान्तरं 'लघु-जघन्यमन्तमु हृतम् । तेनैव मतान्तरेणोत्कृष्टमन्तरं तु “देसूणा सगगुरुकायट्टिई मुणेयव्वं" ति देशोना स्वीया स्वीयोत्कृष्टा कायस्थितिज्ञातव्यम् । इदमुक्तं भवति-कृतकरणावस्थाया अर्वाकस्थितिबन्धे जापमानस्थितिबन्धस्य जघन्यस्थितिवन्धत्वे प्रकृतान्तरं न लभ्यते । कुतः १ तथाविधजघन्यस्थितिबन्धस्य सकदेव भावात् । अतस्तदपेक्षयाऽनन्तरं मागंणाद्वयेऽपि प्रस्तुतान्तरं प्रतिषिद्धम् । स्वस्थानसंयतस्वामिकत्वे तु जघन्यस्थितिवन्धस्य द्विरपि सम्भवात् प्रकतान्तरं लभ्यते, अतः "अहवा" इत्यादिना दर्शितम् । तत्र जघन्यतोऽन्तमुहूर्तमजघन्यस्थितिबन्धस्य जघन्यकालापेक्षया, तथा उत्कष्टतः स्वीया म्बीया देशोनोत्कष्टकायस्थितिस्तु तत्तन्मार्गणाप्रारम्भप्रान्तयोर्यथासम्भवमन्तमुहतं त्यक्त्वा शेषोत्कृष्टकायस्थित्यपेक्षया प्राग्वद्भावनीयमिति ।।२३२।।। अथ शेपमार्गणासु प्रस्तुतान्तरं दिदर्शयिषुरादौ जघन्यत आह
सेसासु च जहण्णं जाणेयां महत्तंतो ॥२३३॥ (प्रे०) “सेसासुच" इत्यादि, अनन्तरं “णिरयपढमणिरये"त्यादिनाऽभिहिता एकोनसप्ततिमार्गणा विहाय शेषासु द्वितीयपृथिवीनिरयभेदादिप्वकोत्तरशतमार्गणासु 'च'-पुनः सप्तानां
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उत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टं बन्धान्तरम] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ २२५ जय पायाः स्थितेर्जवन्यं बन्धान्त 'हर्तान्तः'-अन्तमुहूर्त ज्ञातव्यमित्यर्थः । सुगमम् । प्रत्येकमजब-नस्थितिवन्धकालापेक्षयैव तल्लाभात्, उजः स्थिबिन्धस्य तु अवक्षयादिव्याघाताभावे जघन्यतोऽप्यन्तमुहर्त प्रवर्तनाचेति ॥२३३।।। अर्थतासु शेपमार्गणारखेवोत्कृष्टतः प्रस्तुतबन्धान्तरं दर्शयन्नार्याद्वयमाह
लोगाऽसंखा तिरिये एगिदि-णिगोअ-पंचकायेसु। अण्णाणदुगे अयते अभविय-मिच्छा-ऽमणेसु गुरु ॥२३४॥ कोडिपुहुरा पुब्बा पणिंदियतिरियतिगे उ सुहुमेसु।
अंगुलअसंखभागो सेसा णगुरुकायटिई ॥२३५॥ (प्रे०) “लोगाऽसंखा” इत्यादि, क्षेत्र गोऽसंख्यलोकाः, असंख्येयेभ्यो लोकाकाशप्रमितक्षेत्रखण्डेभ्यः प्रतिसमयमेकैकाकाशप्रदेशापहारे यावान् कालोऽपगच्छति, तावानसंख्योत्सर्पिण्यवाणिप्रमाणः काल इति भावः । अस्य च "गुरु" इत्यनेन गाथाप्रान्ते योगः, ततोऽसंख्यलोकाः 'गुरु' उत्कृष्टं बन्धान्तरं भवतीत्यर्थः, तस्यैव नत्वात् । कासु मार्गणासु क्षेत्रतोऽसंख्यलोकाः सप्तानामुत्कृष्टान्तरमित्याह-"तिरिये” इत्यादि, तिर्यग्गत्योधभेद-केन्द्रियोघमेद-निगोहाख्यसाधारणवनस्पन्योधभेदेषु “पंचकायेसु” ति पृथिवीकायादिवनस्पतिकायान्तेषु पञ्चसु कायमार्गणामत्कौषभेदेपु, तथा मत्यज्ञान-श्रुताज्ञानरुपेऽज्ञानद्विके, असंयमे, अभव्य-मिथ्यात्वमार्गणयोः “अमणे” त्ति 'अमनसि'-असंज्ञिमार्गणायामित्येता समुदितासु चतुर्दशमार्गगासु प्रत्येकम् । सुगमम् । एतानु प्रत्येकमजघन्यस्थितेरुत्कृष्टबन्धकालस्य तावत्प्रमाणत्वात् । उक्तं च प्रागजवन्याः स्थितेरुत्कृष्टं बन्धकालं प्रतिपादयता ग्रन्थकृता--
जेट्ठो असंखलोना तिरि-यगिदिय-णिकाजभेगसु । पणकाय-अणाणजुगल-अयता-भवि-निच्छ अमणेसु।। ११८ ।। अंगुलअसंखभागो मुहुमेसु भवे अचक्यु-भवियेगु ।।
ओवन्य जाणियव्यो सेसासु सगुस्कायटिई ॥१११।। इति । "कोडिपुहुत्तं पुव्वा पणिंदियतिरियतिगे उ” ति व्याख्यानतो विशेषप्रतिपचेरपयप्तिभेदवर्जानां पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदानां त्रिके. ओघ-पर्याप्त-योपिद्भेदभिन्नपञ्चेन्द्रियतियन्मार्गजासत्कभेदत्रय इत्यर्थः । तुः प्राग्वत्, ततः पञ्चेन्द्रियतियक्त्रिक पुनः “कोडिपुहत्तं पुव्वा" त्ति प्राकतत्वात्पुस्त्वम् , ततः कोटीपृथक्त्वं पूर्वाणि “पुवस्स उ परिमाण मित्यादिनान्यत्राभिहितमानानि, सप्तानां जघन्यस्थितेरुत्कृष्टं बन्धान्तरमित्यनुवृच्या बोद्धव्यम् , । "सुहुमेसु” ति एकेन्द्रिय-पृथिव्यप्तेजोवायुसाधारणवनस्पतिकायमार्गणासत्का ये पर्याप्ता-ऽपर्याप्त विशेषणरहिताः सूक्ष्मीघमार्गणाभेदास्तेषु पट्यु सूक्ष्ममार्गणाभेदेषु प्रत्येकम् “अंगुलअसंखभागो" ति सप्तानां
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जसप्तकर्मणाम् जघन्यस्थितेरुत्कृष्टं बन्धान्तरं क्षेत्रतोऽगुलासंख्यभागः, कालतस्त्वसंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य इत्यर्थः । इदमपि पूर्ववदजघन्यस्थितेरुत्कृष्टबन्धकालापेक्षया भावनीयमिति । “सेसासूणगुरुकायठिई"त्ति द्वितीयपृथिवीनिरयभेदायेकोत्तरशतमार्गणाभ्योऽनन्तराभिहितास्तिर्यग्गत्योघादित्रयोविंशतिमार्गणा अपहाय शेषास्वष्टसप्ततिमार्गणास प्रत्येकं "ऊणगुरुकायठिई" ति तत्तन्मार्गणायाः स्वीया स्वीया कालद्वारोक्तोत्कृष्टा कायस्थितिरन्तमुहूर्तादिनैकदेशेनोना सती प्रकृतं सप्तानां जघन्यस्थितरुत्कृष्टं बन्धान्तरं भवतीत्यर्थः । तत्राष्टसप्ततिः शेषमार्गणा नामतस्त्वमू:-द्वितीयादिपृथिवीभेदभिन्नाः षड्निरयगतिभेदाः, एको ज्योतिष्कदेवभेदः, द्वादश कल्पोपन्नवैमानिकदेवभेदाः, चतुर्दश कल्पातीतवैमानिकदेवभेदास्तथाऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदः, बादरोघ-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्तसूक्ष्मपर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नाः पञ्चैकेन्द्रियभेदाः, तथैव पञ्च पृथिवीकायभेदाः, पञ्चाकायभेदाः, पञ्च तेजस्कायभेदाः, पञ्च वायुकायभेदाः, पञ्च साधारणवनस्पतिकायभेदाः, ओघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नास्त्रयो द्वीन्द्रियभेदास्तथैव त्रयस्त्रीन्द्रियभेदास्त्रयश्चतुरिन्द्रियभेदास्त्रयः प्रत्येकवनस्पतिकायभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रसकायभेदौ चेति । एतासु प्रत्येकमुक्तदेशोनस्वस्वकायस्थितिस्तूत्कृष्टस्थितिबन्धस्योत्कृष्टान्तरभावनायामभिहितरीत्याऽपर्याप्तावस्थादिरूपं मार्गणाप्रारम्भादन्तर्मुहूर्त, तथैव देशोनकायस्थितिरुल्लङ्घय मार्गणाप्रान्ते द्वितीयपृथिवीनिरयभेदादिपु समयः, सप्तमपृथिवीनिरयभेदादिपु पुनरन्तमुहूर्तमित्येवं यथासम्भवं नानान्तमुहूर्तनिष्पन्नैकान्तमुहूर्तेनोना स्वयमेव भावनीयेति । ननु अपर्याप्त भेदवर्जेतिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदत्रये कथं प्रकृतान्तरं देशोनकायस्थिति भिहितम् , किन्तु पूर्वकोटीपृथक्त्वमेव दर्शितम् ? उच्यते, मार्गणात्रयेऽपि जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनोऽसंज्ञिजीवाः सन्ति । उक्तं च प्राग जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वाभिधानावसरे"असण्णी उ । पंचिंदितिरियचउगअसमत्तपणिदियेसु भवे ॥१२४।।" इति । ततश्च “पंचिंदितिरिनरेसु सत्तट्ठभवा उ उक्कोस्सा" इत्येवंरूपा या संख्येया-ऽसंख्येयवर्षस्थितिकै नाभवैर्निष्पन्ना पूर्वकोटीपृथक्त्वेनाभ्यधिकपल्योपमत्रयप्रमाणोत्कृष्टकायस्थितिः साऽन्तमुहूर्तेन त्रिपल्योपस्थितिकेन चरमेन यग्मिभवेन च न्यूना सती प्रकृतान्तरतया लभ्यते । कुतः ? यग्मिनामसंज्ञित्वाभावेन प्रस्तुतमार्गणासत्कजघन्यस्थितिबन्धस्याकरणाच्चरमं युग्भिभवं विवर्य शेपभवनिष्पन्नकायस्थितितोऽप्यन्यमार्गणावत् प्रारम्भप्रान्तकालसत्कान्तमुहूतकालस्य वर्जनीयत्वात् । इत्येवमन्तमुहर्ताभ्यधिकत्रिपल्योपमेन न्यूना पञ्चेन्द्रियतिर्यगोधादिमार्गणात्रयसत्कोत्कृष्टा कायस्थितिः मार्गणात्रये जघन्यस्थितिबन्धस्योत्कष्टान्तरं भवति । एतच्चाधिकतमार्गणात्रये उत्कृष्टस्थितिबन्धस्योत्कृष्टमन्तरं देशोनकायस्थितिप्रमाणमभिधातुं न युज्यते, बहुभागहीनकायस्थितिप्रमाणत्वात् । ततश्वस्तथाऽदर्शयित्वा, पूर्वकोटीस्थितिकनानाभवप्रमाणत्वात् पूर्वकोटीपृथक्त्वं दर्शितमिति ॥२३४-२३५।।।
तदेवमभिहितं मार्गणास्थानेष्वपि सप्तानां जघन्यस्थितेर्बन्धान्तरम् । सम्प्रति तासामंत्र सप्तानामजघन्या स्थितेस्तद् दिदर्शयिषुरादौ तावद्यासु न सम्भवति, तासु प्रतिषेधयन्नाह
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अजघन्यस्थिते बन्धान्तरम् ]
द्वितीयाधिकारेऽन अन्तरद्वारम्
णिरय-पढमणिरयेसु अपज्जणर-देव-भवणजुगलेसु । पणमणवयजोगेसु ओरालिय- कम्मजोगेसु ं ॥२३६॥ dra सासु विभंग - सामाइए छेअम्मि । सुहमम्म तहा देसे मीसा - Sणाहार गेसु च ॥ २३७॥ सत्तण्ह अहस्साए ठिईअ णो चैव अंतर णवरं ।
लोहे मोहस्स लहु समयो परमं मुहुत्तो ॥ २३८ ॥
?
(प्रे० ) “णिरयपढमणिरयेसु "मित्यादि, अत्र “णिरये" त्यादिगाथाद्वये संग्रहीतासु निरयगत्योघादिद्वात्रिंशन्मार्गणासु तृतीयगाथा पूर्वार्धे “सत्तण्ह अहस्साए ठिईअ णो चेव अंतर" मित्यनेनायुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनामहस्वायाः स्थितेर्वन्धान्तरं प्रतिषिद्धम् । कस्मात्प्रतिषिद्धम् इति चेद्, द्वात्रिंशन्मार्गणास्वपि प्रत्येकमजघन्यस्थितिबन्धस्य सकृदेव लाभात् । अजघन्यस्थितिबन्धस्य सकृदेव प्राप्तिस्तु प्रकृतान्यतममार्गणागतस्योत्कृष्ट मार्गणाकायस्थिति निर्वाहयतः कस्यापि जीवस्य मार्गणाकालमध्ये जघन्यस्थितिबन्धस्य स्थितेरवन्धस्य चाऽप्राप्तेः, तदप्राप्तिः पुनर्जघन्यस्थितिबन्धस्य मार्गणायाः प्रारम्भे प्रान्ते वा सकृदेव लाभात्, मार्गणायाः प्रारम्भे प्रान्ते वैकवारमेव जघन्यस्थितिवन्ध लाभस्तु प्राक् सप्तप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धान्तरप्रतिषेधभावनायां व्युत्पादितस्तथैव ज्ञातव्य इति । तदेवं प्रतिषिद्धेऽपि प्रकृतान्तरे या काचिदतिप्रसक्तिस्तां निराकुर्वन्नाह - "णवर ''मित्यादि, 'नवरं'- परम् "लोहे" ति लोभमार्गणायां मोहनीय कर्मणोऽजघन्य स्थितेर्यन्थान्तरं भवति, तच्च जघन्यत एकसमयः सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान के एकसमयमबन्धको भूत्वा कालं कुर्वतो देवगतावत्पच्या लोभमार्गणायामेव मोहनीयस्याजघन्यस्थितिबन्धभावात् स्थितेः समयमात्राऽबन्धकालप्रयुक्तं ज्ञेयम् । 'परमम्' - उत्कृष्टमन्तमुहूर्तम्, एतच सूक्ष्मसम्पराय - चरमसमये कालं कुर्वतः समयोन सूक्ष्मसम्परायाद्वाप्रमाणं प्राप्यत इति ।। २३६-२३७-२३८।। अथ मार्गणान्तरेषु भिन्नभिन्नमतापेक्षया प्रकृतान्तरस्य सच्चासच्चे प्रतिपादयन्नाह - मीसतिजोगेसु तहा सासाणम्मि य ण अंतरं हवए ।
अहवा समयो हस्तं णेयं परमं मुहुत्तो ॥ २३९ ॥
(प्रे०) "मोसतिजोगेसु तहा" इत्यादि, औदारिकमिश्र-वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारकमिश्रकाययोगलक्षणेषु त्रिषु मिश्रयोगेषु तथा सास्वादनमार्गणाभेदे च प्रत्येकं "ण अंतरं हवए" ति प्रकृतं सप्तानामजघन्याः स्थितेर्वन्धान्तरं न भवति । तत्र मिश्रयोगमार्गगात्रये स्वामिन शरीरपर्याप्तिनिष्ठापना मिश्रयोगवरमसमये एव जघन्यमुत्कृष्टं वा स्थितिबन्धमुररीकतु - तेन प्रकृतान्तरं नास्ति । सासादनमार्गणायां तु संयमादागतानामेव जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वा
,
[ २२७
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२२८ ]
बंधवहाणे मूलप डिठिबंधो [ मार्गणास्वायुर्वज नामजघन्यस्थितेः
पेक्षया प्रकृतान्तरं निषिद्धम् । तदन्यमतापेक्षया तु प्रकृतान्तरं प्राप्यत इति तञ्जघन्यादिभेदेन दर्शयन्नाह-"अहवा समयो हस्स" मित्यादि, सुगमम् । अन्यमते स्वस्थानेऽपि जघन्यस्थितिबन्धस्याङ्गीकृतत्वादिति भावः । विशेषतस्तु प्रागिव स्वयं भावनीयमिति || २३९ ||
अथ शेपमार्गणासु सप्तकर्मणामजघन्यस्थितिबन्धान्तरं जघन्यतो दर्शयन्नाह - भिन्नमुहुत्त तिमणुस - अवेअ-मणणाण- संयमेसु भवे । हस्सं पुण परिहारे तंउ-पउम वेअगेसु ं च ॥ २४० ॥ समयो भिन्नमुहुत्त व होइ सेसा होए समयो ।
(प्रे०) “भिन्नमुहुत्त "मित्यादि, अपर्याप्तभेदवर्जेषु त्रिषु मनुष्यगतिमार्गणाभेदेष्वपगतवेद-मनः पर्यवज्ञान- संयमौघमार्गणाभेदेषु च प्रत्येकं भिन्नमुहूर्तं भवेत् । किं तद् यद्भिन्नमुहूर्तं भवेदित्याह--"हस्सं" ति सप्तकर्मणामजघन्यायाः स्थिते: ' ह्रस्व' - जघन्यं बन्धान्तरमित्यर्थः । अयम्भावः- प्रकृत षण्मार्गणासु जघन्यस्थितिबन्धस्त्वोधिक एव ततथ न तत्प्रयुक्तं प्रकृतान्तरं लभ्यते, किन्तूपशमश्रेणिसत्केन स्थितेरवन्धकालेन प्रयुक्त तल्लभ्यते, एतच्चाऽवन्धकालप्रयुक्तमन्तरं यासु मार्गणासु मरणव्याघाते सत्यपि सम्भवति, तासु पञ्चेन्द्रिय जाति-त्र सकायादिमार्गणासु तज्जघन्यत एकसमयः प्राप्यते । प्रकृतमार्गणागतजीवस्य तु स्थितेरवन्धकाले मरणव्याघाते समुत्पन्ने नियमतः प्रकृतमार्गणानां विच्छेदो जायते, अतस्तदुपशान्ताद्वाक्षयेण क्रमशः प्रतिपततो जीवस्याबन्धकालापेक्षया सम्पद्यमानं सज्जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तमेव प्राप्यत इति । अथान्यमार्गणासु भिन्नभिन्नमतापेक्षया प्रस्तुतं जघन्यं वन्धान्तरमपि भिन्न भिन्न प्राप्यत इति तथैव दर्शयति- "पुण परिहारे” इत्यादि, परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायां तेजः- पद्मलेश्या वेदकसम्यक्त्वमार्गणासु च प्रत्येकं पुनः “समयो भिन्नमुहुत्तं व होइ "त्ति “हस्सं" इत्यस्य काकाक्षिगोलकन्यायेनात्रापि योजनात् सप्तानामजघन्यस्थितेह स्वं बन्धान्तरं समयो भिन्नमुहूर्तं वा भवति । तत्रान्तमुहूर्तम्"अपमत्तो अहवा से कालम कयकरणी हवेइि जो । सो यो परिहारे ते अउमवे अगेसुं य ||' (गाथा-१२८) इत्यत्राऽथवेत्यादिनाभिहितस्य कृतकरणद्धायाः प्रागनन्तरस्थितिबन्धं कुर्वत एव जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वमङ्गीकतु मतेन । समयस्तु “अप्रमत्तो" इत्यनेनोक्तस्य स्वस्थानप्रमत्तसंयतस्यापि जघन्यस्थितिबन्धमङ्गीकतुर्मतेनावसातव्यम्, स्वस्थानप्रमत्तयतेरेकसमयमपि जघन्यस्थितिबन्धस्य सम्भवात् तेनान्तरितयोरजघन्यस्थितिबन्धयोर्जघन्यान्तरं समयः प्राप्यत इति भावः । “सेसासु” ति निषिद्धप्रकृतान्तरा निरयगत्योघ भेदादिद्वात्रिंशन्मार्गणास्तथा दर्शितप्रकृतान्तरा अनन्तरोक्ता औदारिकमिश्रयोगादिवेदकसम्यक्त्वान्ताश्चतुर्दशमार्गणा विहाय शेषासु चतुर्विंशत्यभ्यधिकशतमार्गणासु "होअए समयो" ति सप्तानामजघन्यस्थितेर्जघन्यं बन्धान्तरं समयो भवेदित्यर्थः । अत्र शेषमार्गणास्तु नामत इमाः द्वितीयादिसप्तमान्तपृथिवीभेदभिन्नाः षड् निरयगतिमार्गणाभेदाः,
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जघन्योत्कृष्ट बन्धान्तरम् ]
द्वितीयाधिकारे ऽन्तरद्वारम्
पञ्चापि तिर्यग्गतिमार्गणाभेदाः, ज्योतिष्कादिसर्वार्थसिद्धविमानान्ताः सप्ताविंशतिर्देवगतिमार्गणाभेदाः, सर्वेऽपीन्द्रियमार्गणाभेदास्ते चैकोनविंशतिः, सर्वेकायमार्गणाभेदास्ते च द्विचत्वारिंशत्, काययोगसामान्य-वैक्रियकाययोगा-ऽऽहारककाययोगभेदाः, मत्याइयत्रो ज्ञानभेदाः, मत्यज्ञान- श्रुताज्ञानभेदौ, तथाऽसंयम-चक्षुरादित्रिदर्शन- कृष्ण - नील- कापोत-- शुक्ललेश्या - भव्या-भव्य- सम्यक्त्वौघ-क्षायिकसम्यक्त्वौ-पशमिकसम्यक्त्व- मिथ्यात्व-संज्ञय ऽसंज्ञयाऽऽहारिमार्गणाभेदाश्चेति । एतासु कासुचित् तृतीयपृथिवीनिरयभेदादिमार्गणासु स्वस्थानसम्यग्दृष्ट्यादीनां समयमात्रभाविज त्रन्यस्थितिबन्धान्तरितयोरजघन्यस्थितिबन्धयोरन्तरालापेक्षया प्रकृतं सामयिकान्तरं भावनीयम् । कासुचित् तिर्यगोध-पञ्चेन्द्रियतिर्यगादि मार्गणास्वे केन्द्रिया- ऽसंज्ञयादि जीवानामेकसमयप्रवृत्तजघन्य स्थितिबन्धापेक्षया योजनीयम् । कासुचित्पुनः पञ्चेन्द्रिय-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-बसकायौध-पर्याप्तत्रसकाय-काययोगसामान्य - मतिज्ञानादिमार्गणासु जघन्यस्थितेर्जवन्यबन्धकालस्याप्यन्तमुहूर्तप्रमाणत्वेन तदपेक्षया न सम्भवति प्रकृतसामयिकान्तरम्, अत ओघवत् स्थितेरवन्धकालमपेक्ष्य तद्द्रष्टव्यमिति ॥ २४०॥ अर्थतास्वेव मनुष्यगत्योघादिचतुस्त्रिंशदभ्यधिकशतमार्गणासु सप्तप्रकृतिसत्काऽजघन्यस्थितेन्धान्तरमुत्कर्षतः प्रदर्शयन्नाह -
होइ तिमणुसाईसु आसु गुरु मुहुत्तो ॥ २४१||
(प्रे० ) " होइ तिमणुसाईसु" मित्यादि, “भिन्नमुहुत्तं तिमणुस अवेअ" इत्यादिनाऽनन्तरमेवाभिहिताः पर्याप्तमनुष्यादिषणमार्गणाः, परिहारविशद्धिकसंयमादिचतुर्मार्गणास्तथा “सेसासु" इत्यनेन सङ्गृहीताश्चतुर्विंशत्यभ्यधिकशतमार्गणा इत्येतासु चतुस्त्रिंशदभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकं "गुरु" ति सप्तानामजघन्यायाः स्थितेः 'गुरु' - उत्कृष्टं बन्धान्तरं " मुहुत्ततो" ति अन्तर्मुहूर्त भवतीति पूर्वेण योगः । कुतः ? इति चेद्, उत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टबन्धाद्धावज्जघन्यस्थितेरुत्कृष्टवन्धाद्धाया उत्कृष्टोपशान्ताद्धायाश्चान्तर्मुहूर्तत्वेन तदन्तरितयोरजघन्यस्थितिबन्धयोः कालस्याप्यन्तमु हूर्ताधिकत्वासम्भवादिति । अत्र भावना तु यासु मनुष्यगत्योघादिमार्गणासुपशान्तमोहानां जीवानां प्रवेशादुपशान्ताद्धा प्राप्यते, तासु तदपेक्षया कर्तव्या यासु पुनर्निरयदेवगत्यादिभेदेषु सा न लभ्यते, तासु जघन्यस्थितिबन्धकालापेक्षया कर्तव्या । तथाहि - मनुष्यगत्योघ मार्गणायां केनचिच्चारित्र मोहोपशामकेन महात्मना बादरानिवृत्तिकरणगुणस्थानकचरमसमयेमोहनीयस्याजघन्यस्थितिबन्धो निष्ठापितस्तथासूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकचरमसमये मोहनीयायुर्वजनां षण्णां प्रकृतीनामजघन्यस्थितिबन्धो निष्ठापितः, ततः प्रभृति तत्तत्कर्मणामजघन्यस्थितिबन्धस्यान्तरं प्रवृत्तम्, तच्च यावदसावपशामक उपशान्तमोहगुणस्थानके गत्वोपशान्ताद्धाक्षयेण क्रमात्प्रतिपत्य तत्तत्कर्मणां स्थितिबन्धं न प्रारभते, तावत्प्रवर्तते, तथा च सति मोहनीयवर्जानां पण्णाम जघन्यस्थितिबन्धोत्कृष्टान्तरमुपशान्तमोहगुणस्थानकाप्रमाणं प्राप्यते, मोहनीयाजघन्यस्थितिबन्धोत्कृष्टान्तरं तु ततोप्यधिकं प्राप्यते, सूक्ष्म
[ २२९
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२३० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [.मार्गणास्वायुःकर्मणः सम्परायाद्धाद्वयस्यापि तदन्तरे प्रवेशात् । इत्थमेव पर्याप्तमनुष्यादिमार्गणास्वपि द्रष्टव्यम् । द्वितीयपथिवीनिरयभेदादिषु तु प्राग्दर्शितानुत्कृष्ट स्थितिवन्धान्तरवदेवभावनीयमिति ॥२४१।।
___ तदेवं प्रतिपादितमादेशत आयुर्वजानां सप्तानां जघन्याऽजघन्यस्थितिबन्धयोर्जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नं बन्धान्तरम् । सम्प्रति शेपस्या-ऽऽयुःकर्मणस्तदिदर्शयिषुरादौ तावज्जघन्यस्थितेराह
सब्वेसु खलु णारग-समत्त-जोणिमइ-देवभेएसु। पणमणवय-उरलेसु आहारदुगम्मि वेउव्वे ॥२४२॥ थी-पुरिस-कसायेसु विभंग-मणणाण-संयमेसु तहा । सामाइअ-छेएसुपरिहारे देस-चक्खूसु॥२४३॥ असुहेयरलेसासुखड़ए सासायणम्मि य हवेजा।
आउस्स जहण्णाए ठिईअ णो अंतरं चेव ॥२४४॥ (०) “सव्वेसु खलु णारगे” त्यादि, 'द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणः शब्दः प्रत्येकं सम्बध्यत' इति नियमेन भेदशब्दस्य निरयादिना प्रत्येकं योजनात् सर्वेस्वित्यष्टसु निरयगतिभेदेषु, "समत्त" त्ति 'समाप्ताः' -पर्याप्ताभेदास्ते च सर्वे पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगाद्या अत्र ग्रन्थेऽधिकृता विंशतिः, तेषु सर्वेषु भेदेषु, तथा "जोणिमह"त्ति योनिविद्यते यस्याः सा योनिमती । स्त्रीत्यर्थः । तदीय सर्वभेदे, तिरथीमानुपीभेदद्वय इति माय । सर्वस्त्रीभेदानां ग्राह्यत्वेऽपि देव्यो न पृथग्गृह्यन्ते, देवीमार्गणायाः प्रकृतग्रन्थे पृथगनुपादानादिति । तथा सर्वेषु देवगां नेभेदेपु, अन्यमार्गणाभेदान संग्रहितमाह-"पणमणे" त्यादि गाथाद्वयम्. तस्याक्षरगमनिका तु गाग्वत्सुगमा । इन्येवं सार्धगाथाद्वयेन संगृहीतासु निरयगत्योधादिपण्णवतिमार्गणासु प्रत्येकम् “आउस्स जहण्णाए ठिइअ णो अंतरं" इत्यादिना तृतीयगाथोत्तरार्धनायुपो जघन्यायाः स्थितन्धान्तरस्याभावः कथितः । कस्माद् ? आयुषो जवन्यस्थितिवन्धान्तरस्य जघन्यस्थितिबन्धद्वयाधीनत्वात्, एकस्मिन् भवे सकृदेव जघन्यस्थितिवन्धम्य भावाच्च । इदमुक्तं भवति-उत्कृष्टाबाधायां सत्यामायुप उत्कृष्टस्थितिबन्धवदायुपो जघन्यस्थितिबन्धो जघन्यानाधायामभिमतः, नान्यथा । जवन्यावाधा त्वेकस्मिन् भवे सकृदेव प्राप्यते, अन्तरं तु बन्धयाधीनम् ,ततश्च एकस्मिन् भवे जघन्यावाधायां प्रथमवारं जघन्यस्थितिकमायुद्ध्या यावत्क्रमेणायुःक्षये भवान्तर उत्पद्य जघन्यायाधायां द्वितीयवारं जघन्यस्थितिकमायुर्वनाति, तावद्यदि प्रकृतमार्गणायामेव तद्वन्धकजीवस्तिष्ठति, तदोघवज्जघन्यस्थितिबन्धान्तरं प्राप्यते । तच्च प्रकृते न सम्भवति, द्वितीयं जघन्यायुर्वन्धं यावत् प्रकृतनिरयादिमार्गणास्वेव तद्वन्धकजीवस्याऽनवस्थानात् । तथाहि-सर्वेषु निरयगतिभेदेषु, सर्वेषु देवगतिभेदेषु, वैक्रियकाययोग-तेजः-पद्मशक्ललेश्यामार्गणाभेदेषु च प्रत्येकं जघन्यायुर्वन्धका नारका देवा वा, ते च जघन्यस्थितिकमायु
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जघन्य स्थितेर्बन्धान्तरम् ]
द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ २३१
I
स्तु मनुष्यसत्कं तिर्यक्सत्कं वा बध्नन्ति ततश्च क्रमेण तत्रोत्पच्या प्रकृतमार्गणाया वहिर्भावाद् द्वितीयवेलायां जघन्यायुर्बन्धं यावत् नावतिष्ठन्ति प्रकृतनिरयौघादिमार्गणायाम्, ततश्च प्रकृतान्तरमपि न प्राप्यते | आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोग-मनः पर्यवज्ञान-संयमौघ-सामायिक-च्छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक- देशसंयमरूपास्वष्टमर्गंणासु जघन्यायुर्वद्ध्वा देवगतावत्पच्या प्रकृतमार्गणाविच्छेदान्न लभ्यते प्रकृतान्तरम् | क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणायां तु सकदेव जघन्यायुर्वन्धसम्भवात्प्रकृतान्तरस्याऽभावः । मनोयोगमार्गणायां तु जीवस्य स्वल्पात्रस्थानात् नास्ति द्विरायुर्वन्धस्तत्कुतो भवद्वयाधीनजघन्य स्थितिबन्धान्तरसम्भवः, न कुतश्चिदपि । एवमेव शेषमनोयोगभेदेषु वचोयोगभेदेषु, चतुर्षु कषायमार्गणाभेदेषु त्रिषु कृष्णादिलेश्यामार्गणाभेदेषु, सासादनमार्गणायां च बोद्धव्यम् । ननु कृष्णादिलेश्यामार्गणात्रयस्यैकजीवाश्रयकाय स्थितिदीर्घाऽभिहिता, तत्तासु कथं जीवस्य स्वल्पावस्थानमन्तराभावप्रयोजकतया दर्श्यते ? इति चेदू, न, अभिप्रायाऽपरिज्ञानाद्, यत आयुषो जघन्यस्थितेर्बन्धकाऽपेक्षया तदभिधानम्, कृष्णलेश्यादिमार्गणात्रये आयुषो जघन्यस्थितेर्वन्धका मनुष्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो वा, तेषां च प्रत्यन्तमुहूर्तं लेश्यापरावृत्तिर्भवति, उक्तञ्च – “अंतमुहुत्तठईओ तिरियनराण हुन्ति लेसाओ” इति । या तूत्कृष्टकायस्थितिरुक्ता सा तु सामान्यतो निरयजीवापेक्षयेति न कश्चिद्दोषः । औदारिककाययोगेऽप्यायुर्वद्ध्वा भवान्तर उत्पत्तिमात्रेणौदारिकमिश्रयोगप्रवर्तनात्प्रकृतमार्गणाविच्छेदो भवति । विंशतिपर्याप्तमार्गणा-तिरची मानुषी-स्त्रीवेद-पु' वेद-विभङ्गज्ञान चक्षुर्दर्शनरूपासु शेषमार्गणासु पुनः प्रत्येकं जघन्यायुर्वद्ध्वा लब्ध्यपर्याप्ततयोत्पत्तिमात्रेण प्रकृतमार्गणानां विच्छेदाजघन्यस्थितिकायुर्वन्धद्वयाधीनं प्रकृतान्तरं नैव लभ्यते । न च पर्याप्तपञ्चेन्द्रियाद्यवस्थायां जघन्यस्थितिकमायुर्वद्ध्वा लब्ध्यपर्याप्तचतुरिन्द्रियत्वेवोत्पद्य तत्र जघन्यायुर्वन्धकरणे चक्षुर्दर्शनमार्गणायां प्रकृतान्तरं लभ्येतेति वाच्यम् । लब्ध्यपर्याप्तानां चतुरिन्द्रियमार्गणायां प्रविष्टत्वेऽपि चक्षुदर्शनमार्गणायामप्रवेशात्, । कुतः ? तेषां चक्षुर्दर्शनस्यानङ्गीकारात् । उक्तञ्च पञ्चसङ्ग्रहे— ‘मइसुयअन्नाणभचख्खुदंसणेक्कारसेस ठाणेसु' इति ।
जीवस्थानेषु
पर्याप्त चतुरिन्द्रिया -ऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय-संज्ञिपञ्चेन्द्रिय-लक्षणजीवस्थानत्रयवर्जेष्वेकादशसु मत्यज्ञान- श्रुताज्ञानाऽचक्षुर्दर्शनलक्षणास्त्रय एवोपयोगा भवन्तीति भावः । उक्तञ्च तद्वृत्तौ - एकेन्द्रियसूक्ष्मबादरहीन्द्रियत्रीन्द्रियपर्याप्तापर्यातकैः सह चतुरिन्द्रियासंज्ञिसंश्यपर्याप्तकेष्वेकादशसु जीवस्थानेषु मत्यज्ञान श्रुताज्ञानाचक्षुर्दर्शनाख्यास्त्रयः प्रत्येकं भवन्ति, एते च लब्ध्यपर्याप्तकाः, यतः करणाऽपर्याप्तकेष्विन्द्रियपर्याप्तौ सत्यां तेषां चक्षुर्दर्शनं भवति' इति ।। २४२-२४३-२४४।। अथ शेषमार्गणास्वायुषो जघन्यस्थितिबन्धान्तरस्य सम्भवात्तासु जघन्यादिभेदभिन्नं तत्क्रमेण दर्शयन्नाह -
णातिगे ओहिम्मिय सम्मत्ते वेअगम्मि य जहणं । साहियपल्लं णेयं सेसासु खणूणखुड्डभवो ॥२४५॥
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२३२ ]
बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषो जघन्यस्थितेः _ (०) "गाणलिगे” इत्यादि, मनःपर्यवज्ञानमार्गणायां प्रकृतान्तरस्यानन्तरमेव प्रतिपिद्धत्वात् तां विहाय मतिज्ञान-श्रुतज्ञाना-ऽवधिज्ञानमार्गणानां त्रिके, तथाऽवधिदर्शनमार्गणानां समयक्त्वोधमार्गणायां वेदकसम्यक्त्वमाणगायां च "जहणणं” ति आयुषो जघन्यायाः स्थिते'जघन्यं -हस्वं बन्धान्तरं “साहियपल्लं णेयं' ति साधिकं पल्योपमं ज्ञेयमिति । इयमत्र भावना-मतिज्ञानादिप्रकृतषण्मार्गणास्वायमोजघन्यस्थितिबन्धो वर्षपथक्त्वं भवति । उक्तश्च प्राक'मइ-सुअ-ऽवहिणाणेसु ओहिदरिसणम्मि सम्म-खइएसुं । बेअगसम्मत्तम्मि य विष्णेयो हायणाहुत्तं
७४। इति । तच्च वर्षवथक्त्वस्थितिकं जघन्यमायुर्जघन्यायामबाधायां केनापि सम्यग्दृष्टिदेवेन बद्धम् , तत्पश्चादसौ भवक्षये ततश्च्युत्वा मनुष्य तयोत्पन्नः । नास्ति च तत्र सम्यग्दृष्टिमनुष्यत्वे तस्य प्रकृतान्तरप्रयोजकस्य द्वितीयवारं जायमानस्य जघन्यस्थितिकायुर्वन्धस्य सम्भवः, सम्यग्दृष्टिमनुष्याणां जघन्यतोऽपि साधिकपल्योपस्थितिकदेवायुप एव वन्धभावात् । अतस्तेन तत्र जघन्यस्थितिकं देवायुद्धम् , पश्चान्मृत्वा देवतयो यद्य प्राग्वदवशेपेऽन्तमुहूर्तायुषि जघन्याबाधायां जघन्यस्थितिकं मनुष्यायुर्वद्धम् ; इत्थं हि तेन प्रथमवैमानिकमवे कृतस्य जघन्यस्थितिकायर्वन्धस्य सान्तरे च द्वितीये वैमानिकभवे कृतस्य धन्यस्थितिकायुर्वन्धस्य यदन्तरं तदेव प्रकृते पटवपि मार्गणास्वायुपो जघन्यस्थितेर्जघन्यं बन्धान्तरं प्राप्तम् , ततो हीनान्तरस्याऽसम्भवादिति ।
"सेसास खणणखुडभवो' नि शेषमनुष्यगत्योपायकपष्टिमार्गणासु प्रत्येकं प्रकृतमायषो जघन्यस्थितेर्जधन्यं बन्धान्तरं 'क्षणोनः'-समयोनः 'क्षल्लकभवः'--पटपश्चाशदभ्यधिकशतद्वयाऽऽवलिकाप्रमाणः सर्वलघुर्भव इत्यर्थः । अत्र शेषमार्गणा नामत इमाः-मनुष्यौघा-ऽपर्याप्तमनुष्य-तिर्यग्गत्योध-पञ्चेन्द्रियतिर्यगोघा-ऽप्तिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, ओघ-बादरोध-पूक्ष्माघ-बादरापर्याप्त-सूक्ष्मापर्याप्तभेदभिन्नाः पञ्चैकेन्द्रिय भेदाः, ओघा-ऽपर्याप्तभेदभिन्नौ द्वौ द्वीन्द्रियभेदी, तथैव द्वौ त्रीन्द्रियभेदौ, द्वौ चतुरिन्द्रियभेदी, ई च पञ्चेन्द्रियभेदौ, एकेन्द्रियवत् पृथिव्यप्तेजोवायुसाधारणवनस्पतिकायसत्का प्रत्येकं पञ्च पञ्चेति पञ्चविंशतिर्भेदाः, वनस्पतिकायौधभेदः, तथीघा-ऽपर्याप्तभेदभिन्नौ द्वौ प्रत्येकवनस्पतिकाय भेदों द्वौ च त्रसकायभेदौ, तथा काययोगसामान्योदारिकमिश्रकाययोग-नपुंसकवेद--मत्यज्ञान-ताज्ञाना-ऽसंयमा-ऽचक्षुदर्शन-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वसंड्य-ऽसंड्या-ऽऽहारिमार्गणाभेदाश्चेति । एताब्वेकपष्टिमार्गणासु प्रत्येक भावना त्योघवदेव द्रष्टव्या , केवलं तत्तन्मार्गणागतमनुष्यादिजीवापेक्षयेति ॥२४६॥ अथ निरयगत्योषादिनिषिद्धान्तरावांतु शेषमार्गणाम्वेवायुपो जघन्यायाः स्थितेरुत्कृष्टं बन्धान्तरं त्रिभणिपुराह
परमं तिरि-यगिदिय-पुहवाइचउग-णिगोअ-हरिएसू। बायरसुहुमेगिंदिय-चउपुहबाइग-णिगोएसु॥२४६॥ पत्तेअवणे काये अमणे पलियस्स खलु असंखंसो।
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उत्कृष्ट बन्धान्तरम् ]
द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
| २३३
(प्रे० ) "परमं तिरियेगिंदये" त्यादि, आयुषो जघन्यस्थिते: 'परमम्' - उत्कृष्टं बन्धान्तरं “पलियम्स खलु असंखं सो" इत्युत्तरगाथापूर्वार्धेऽन्वयः । पल्योपमस्यासंख्येयतमैकभाग इति तदर्थः । कासु मार्गणास्त्रित्याह -“तिरियेगिंदिये” त्यादि, तिर्यग्योधभेदै केन्द्रियौधभेद--पृथिव्यादिवायुकायान्तचतुरोघभेद - निगोदध-वनस्पतिकायौघमेदेष्वित्यर्थः । अन्यमार्गणाभेदान् संचिन्वन्नाह - "बायरसुहुमेगिंदिये "त्यादि, तत्र बादरसूक्ष्मशब्दयोः प्रत्येकं योजनाद् बादरैकेन्द्रियौघभेद-सूक्ष्मैकेन्द्रियौघ भेदयोस्तथा "चउपुहवाइग" ति चत्वारः पृथिव्यादिकाः बादराः सूक्ष्माश्रौषभेदाः । बादरपृथिव्यप्तेजोवायुकायौघलक्षणाचत्वारो भेदाः सूक्ष्मपृथिव्यप्तेजोवायुकायौघलक्षणाश्चत्वारोभेदाश्चेत्यर्थः । “णिगोएसु" ति 'निगोद: ' साधारण वनस्पतिकायस्तस्य सूक्ष्मवादरभेदभिन्नावभेदावित्यर्थः । प्रत्येक वनस्पतिकायौघ भेदे, काययोगौघभेदेऽसंज्ञिमार्गणायां चेत्येतासु त्रयोविंशतिमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । कुतः ? इति चेद्, प्रकृतसर्वमार्गणासु केवलानां तिर्यग्गतिकानां जीवानामेव प्रवेशेन भिन्नभिन्नगतिक भवसंवेधप्रधानायाः पर्याप्तकाय स्थितेः स्तोकमात्रप्राप्तेः पर्याप्त काय स्थितिसव्यपेक्षमायुप जघन्यस्थितिबन्धान्तरमपि स्तोकमेव प्राप्यते । एतच्चानन्तरवक्ष्यमाणनीत्या विशेषतस्तु प्रतिमार्गणं स्वयमेवोद्यमिति ॥ २४६ ||
अथान्यत्र प्रकृतान्तरमाह -
कोडिपुहुत्त पुव्वा पर्णिदियतिरिक्ख-मणुसेसु ॥२४७॥ पु होइ पुहुत् अयरसयाण दुअणाण - अयतेसु । अणयण- भवि-यियरेसु मिच्छा - SSहारेसु ओघव्व ॥ २४८ ॥
(प्रे०) “कोडिपुहुत्त” मित्यादि, कोटीपृथक्त्वं "पुव्वा" त्ति पूर्वाणि “पणिंदियतिरिक्खमणुसेसु” त्ति पञ्चेन्द्रियतिर्यगोघमार्गणाभेद - मनुष्यौघमार्गणाभेदयोः प्रत्येकम् आयुषो जघन्य स्थितेरुत्कृष्टबन्धान्तरमिति प्रक्रमाद्गम्यते । अत्र भावना तु सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टबन्धान्तरवत्कर्तव्या, सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धवदायुपो जघन्यस्थितिबन्धस्यापि युग्मिनामभावादिति । "णपुमे" त्ति नपुंसक वेदमार्गणायां " होइ पुहुत्तं अयरसयाण" त्ति ' अतरशतानां'- सागरोपमशतानां पृथक्त्वं भवति, आयुषो जघन्यस्थितेरुत्कृष्ट' बन्धान्तरमिति गम्यत इति ।
ननु अनन्तरं "परमं तिरिये "त्यादिनाऽसंख्यपुङ्गलपरावर्तकायस्थितिक तिर्यग्गत्योचमार्गणायां प्रकृतान्तरं पल्योपमासंख्येयभागमात्रमभिहितम्, अत्र तु "णपुमे होइ पुहुत्तं अयरस याणे" त्यनेनाऽसंख्यपुद्गलपरावर्तकायस्थितिकायां नपुंसक वेदमार्गणायां तदतिबहुदीर्घं सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाणमभिहितमित्यत्र किं तत्वम् ? इति चेद्, उच्यते - आयुषो जघन्यस्थितेदीर्घं बन्धान्तरं दीर्घायाः पर्याप्तकाय स्थितेरधीनम्, पर्याप्तस्य दीर्घा काय स्थितिस्तु निरय- देवभवैः समं मनुष्यादिभवसंवेधप्रधाना, न पुनर्मनुष्यतिर्यग्भवानां परस्परं संवेधप्रधाना, एकेन्द्रियविकलेन्द्रियादितिर्यग्भ
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२३४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो . [ ओघत आयुषो जघन्येतरस्थित्योः वानां वा परस्परं संवेधप्रधाना, इत्थं च तिर्यग्गतिमार्गणायामेकेन्द्रियविकलेन्द्रियादिभवसंवेधनिष्पन्ना सा पर्याप्तकायस्थितिः स्तोका प्राप्यते, अतस्तदधीनं प्रकृतान्तरमपि स्तोकं प्राप्यते, नपुंसकवेदमार्गणायां तु निरयभवैः समं तिर्यमनुष्यभवाणां संवेधनिष्पन्ना पर्याप्तनपुंसकवेदकायस्थितिरतिबदीर्घा प्राप्यते, पर्याप्तमत्कदीर्घकायस्थितिप्रयोजकैर्निरयभवैः सममपि संवेधप्राप्तेः । ततश्च नपुंसकवेदमार्गणायां प्रकृतान्तरमपि दीर्घ प्राप्यते । अत एव तियेग्गत्योघ-नपुसकवेदाधसंख्येयपुद्गलपरावर्तकायस्थितिकमार्गणाभ्योऽपि स्तोकासंख्योत्सर्पिण्यसपिणिमात्रकायस्थितिकायामप्याहारिमार्गणायां पर्याप्तदीर्घका- स्थितिप्रयोजकैर्निरयदेवभवैः समं मनुष्यादिभवानां संवेधनिष्पन्ना सा पर्याप्तकायस्थितिरतिबहुदीपतरा ततस्तदधीनमायुपो जघन्यस्थितिबन्धान्तरमपि नपुं. सकवेदमार्गणायामुक्तप्रकृतान्तरापेक्षयाऽपि दीर्घमनुपदमेव वक्ष्यते ग्रन्थकृतेत्यलं विस्तरेण । ___ कतिपयमार्गणास्वतिदेशद्वारेणाह-"दुअणाणे"त्यादि, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयमा-ऽचक्षुदर्शनभव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽऽहारिरूपास्वष्टमार्गणासु प्रत्येकम् “ओघव्व” ति प्रकृतान्तरमोघवदनन्तरं कालद्वारेऽभिहितपर्याप्तत्रसकायकायस्थितितोऽभ्यधिकं भवतीत्यर्थः । इदमप्यनन्तरोक्तनित्यैव विभावनीयमिति ।।२४७-२४८।। अथ शेपमार्गणासु प्रकृतान्तरं दर्शयन्नाह
सेसासू देसूणासगसगकायट्टिई भवे जेट्टा ।
(प्रे०) "सेसासु देसूणा" इत्यादि, 'सव्वेसु खलु णारग' (गाथा-२४२) इत्यादिनाऽभिहिताः निषिद्धप्रकृतान्तराः षण्णवतिमार्गणास्तथा 'परमं तिरियेगिदिये' (२४६)इत्यादिनाऽभिहितप्रकृतान्तराश्चतुस्त्रिंशन्मार्गणा विहाय शेपास्वपर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियादित्रयस्त्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येक "देसूणासगसगकायठिई भवे जेट्ठा" ति 'देशोना'-अन्तमुहर्तादलिक्षणेनैकदेशेनोना-ऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगादितत्तन्मार्गणानां स्वीया स्वीयोत्कृष्टा कायस्थितिर्भवेत्, आयुषो जघन्यस्थितिबन्धस्योत्कृष्टमन्तरमिति गम्यत इति । सुगमम् । भावाना तु प्रागुक्तदिशा स्वयमेव कर्तव्या, केवलं शेषमार्गणा नामत इमाः--विंशतिरपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगाद्यपर्याप्तमार्गणास्थानानि, जीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रि-पञ्चेन्द्रिय-यत्रसकायरूपाः पञ्चौघमार्गणाः, औदारिकमिश्रकाययोगः, मतिश्रुता ऽवधिज्ञानानि, अवधिदर्शनं, सम्यक्चौघ-वेदकसम्यक्त्वमार्गणेऽसंज्ञिमार्गणा चेति ।। __तदेवमभिहितमायुषो जघन्यस्थितेद्विविधमपि बन्धान्तरं मार्गणास्थानेषु । साम्प्रतमजघन्यस्थितेस्तन्मार्गणास्थानेषु दिदर्शयिपुर्लाघवार्थमतिदेशेनाह
सव्वासु अहस्साएऽणुकोसठिइब्ब णायब्बं ॥२४९॥ (). "सव्वासु अहस्साए” इत्यादि, निरयगत्योधादिसर्वमार्गणासु प्रत्येकम् "अहस्साए" ति 'अह्रस्वायाः' प्रकृतस्याधुषोऽजघन्यायाः स्थितेः “णुकोसठिइव्व णायव्वं" ति जघन्यादिभेदभिन्न बन्धान्तरमनुत्कृष्टस्थितिवज्ज्ञातव्यम् , प्राक
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यन्त्रम् ] आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैकजीवाश्रिताऽन्तरप्रदर्शकयन्त्रम् [ २१५ __उत्कृष्टस्थितिबन्धस्य
अनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य
जघन्यतः
प्रोघवद
(गाथा--२०५)
नास्ति | अन्तर्मुः प्रोधवत्
अन्तरले पर्षकोटि- असंख्येय- अङ्गलाऽसं- प्रोघवद् | माणाउकृष्टतः-जाति
अन्तर्मु- अन्तर्मुनास्ति पत्र लोक० खपभागः असंख्येयपु(क्षेत्रतः) (क्षेत्रत ) द्लप गवर्त०
| नास्ति हायस्थित
| हूर्तम. हूर्तम् अपर्याप्तवर्ज
शेष पञ्चेन्द्रियगति०
देवौघ.
सर्व० तिर्यग्मनुष्यअदा० ६ एकेन्टियौन सूक्ष्मकेन्द्रि
सर्व
एकेन्द्रियवि.१ यौघ० १
शप०
१७
शेष०
वनस्पत्यान्त- सूक्ष्मपृथिव्यापञ्चौधभेद दिसूक्ष्मसाधासाधारण-रणवनस्पत्यावनौष ६ तपञ्चौव०५
मवं०
काय
४२
कार्मरण०१
योग० | सर्व १८ वेद० | वेद. १ कपायक मत्र. ४
शेष०
* १७ अवेद०१ शेष०३
शेष० ३
सर्व०४
विभङ्गा
मनःपर्यव० शेष०६॥
ज्ञान० मत्यादि.४
मत्यज्ञान श्रुताज्ञान०.२
संयम
प्रसंयमवर्ज०६
असंयम. १
सामा.छेद परि.सूक्ष्म.
संयमौघ देश०५
असंय०
श
दर्शनकाधि०१
अवक्षः
सर्व०३
चक्षु० १ शुक्ल० शेष० ५
लेश्या
सर्व०६
भव्यक
सर्व०
। सर्व०।२
मिथ्यात्व०
क्षायिक०क्षायोप
शेष
सम्यक्त्वोसन्य
व.क्षायोप. क्व० प्रौप.सास।
मिश्र०.५ संज्ञी०
१ सासादन
मिश्र०३
सर्व०२
। सर्व०२
आहा० अनाहा०१
आहा०शमनाहा०१
आहा०१
समस्ता:- ४०
७
२
१०२ । १०
३
१५७;
२१०
गाथा:-- २०५५ २०५ २०६ । २०६ २०७ २०५। २०७ | २०८-६
★ मिश्रयोगत्रये मतान्तरेऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरं नास्ति (गाथा-२०६) ।
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उत्कृष्टतः
एकजीवाश्रया देशोना स्वीयस्वीयोत्कृष्ट काय स्थितिः
श्रोघवत् - समयोनदश- समयोन दशसहस्र - समयोनस्वीय- समयोना- साधिकं जघन्यतः --- - सहस्रवर्षाभ्य- वर्षाभ्यधिकपूर्व- स्त्रीयोत्कृष्टभवऽन्तर्मुहूर्त पल्योपमम्,
धिकपूर्वकोटि०
कोट०
स्थितिः,
गति०
इन्द्रिय०
काय०
योग०
वेद०
कषाय०
ज्ञान०
आयुः कर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैकजीवाश्रिताऽन्तरप्रदर्शकं यन्त्रकम्
असंख्येयपुद्गल
परावते०
मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाने,
संयम० असंयम: १
दर्शन०
प्रचक्षु०
सम्यक्त्व | मिथ्यात्वम्
संज्ञी०
आहार०
लेश्या० |
भव्य० | भव्या-Sभन्यौ, २
२
2
७
पञ्चेन्द्रियोध- तत्प
र्याप्तभेदो,
२
१
सौघ तत्पर्याप्त
भेदौ,
१ चक्षु०
स्त्री- पु - नपुंसक०३
संज्ञी,
ग्राहारक०
२
१०
१
सर्वमार्गणाः
गाथाङ्काः २१३-१४-१७ २१३ २१४-२१७
१
१
अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्० अपर्याप्त
मनुष्य ०
२
सर्वे केन्द्रिय० सर्व
विकलेन्द्रिय० अप
र्याप्तपञ्चेन्द्रि० १७
पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायसत्क
सर्वभेदाः, पर्यात
असश्व,
४०
५६
२१५-२१७
श्रदारिक
मिश्र० १
१२१६-१७.
मति श्रुता Sवधि
ज्ञानानि,
३
अवधि
१
६
अन्तरमेव
२१६-२१७
नास्ति
शेष०
शेष ०
सर्व ०
सम्यक्त्वोघ०
क्षायिक०
क्षायोपशमिक० २ सास्वादन० २
असंज्ञी०
४५
सर्व०
मनः पर्यवज्ञान०
विभङ्ग० २
शेष०
το
१
१५
२११-२१२
४
५
६
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आयुःकर्मणोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैकजीवाश्रयान्तरप्रदर्शकं यन्त्रकम्
जघन्यतः--अन्तर्मुहू० अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहू० अन्तर्मुहू,
अन्तर्मुहूः अन्तर्मुहू० अन्तर्मुहू
अन्तमु हू०
उत्कृ- देशोना: २९ वर्षसह ७ वर्ष सहस्रा अन्तर्मुहूर्तम देशोनो- ५५पल्योपमा देशो नपूर्वष्टतः -- षण्मासाः स्राणि साधि- णि साधि
साधिकपूर्वको टि
कानि कानि
गति०
इन्द्रिय०
काय०
योग०
वेद०
कषाय०
सर्वनरकदेव ३८
कायौघ० १ प्रदारिक० १ मिश्रदारिक
६
१
कायस्थिति नि साधि- कोटितृतीय- | कानि
*
भागः
१
२२२
विभङ्ग * १
स्त्रीवेद० १
ज्ञान०
संयम ०
दर्शन ०
लेश्या० सर्व०
भव्य०
सम्यक्त्व.
संज्ञी०
भाहारी ०
१
६
सर्वमार्गणाः - ४४ गाथाङ्का:- २१६
२२१
२२१
२२४
२२३
२२५
२१८
* केचित्तु — देशोनषण्मासा इति । ★ सर्वमार्गणानामुत्कृष्टादिकायस्थितिप्रदर्शकयन्त्र ं तु १६४ तमे पृष्ठे विलिखित इति ।
१
१
मनः पर्यव०१
असंयमवर्ज ० ५
२२२
प्रसंज्ञी,
१
नास्ति
१
"
अन्तर्मुहू० अन्तर्मुहू
श्रोधवत् साधिकोत्कृ३३ सागरोपम भवस्थितिः साधिक०
पञ्चेन्द्रियौध तत्पर्याप्तः २
सौध-तत्पर्या
शेष०१३ |
सर्व० ४ शेषवेद०
१८
प्ती०
शेष०
असंयम०
सर्व०
सर्व०
सास्वा० १ शेष०
२
२
५.
२
४
संज्ञी० १
आहारक० १
२३
२२५
शेष० ९
शेष० १७
शेष० ४०
६६
२२०
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________________
-
शेष०
तिर्यगपर्याप्तमनुष्यो. मनुष्योध
२ भेदौ. २
२३८] आयुषो जघन्या-ऽजघन्यस्थितिबन्धस्यैकजीवाश्रयान्तरप्रदर्शकयन्त्रम् [यन्त्रकम्
जघन्यस्थितिबन्धस्यान्तरम् जयन्यान्ताम् ।
उत्कृष्टान्तरम् ओघवत्साधिक- अन्तरं | पन्योपमा- देशोना स्वीयस्थी-कोटि-सागरो प्रोवत्
मशत प्राधिक समयोनक्षुल्लकभव० पन्योप० भवति | संख्यभायोत्कृष्कायस्थितिः | थक्त्वम पृथक्त्व २००८सा तिर्यगौघ. तिर्यक्प
तिर्यगत्योघ अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय- पड़ चेन्द्रियौघ. तदपर्या.
तिम तिर्यग्गति० मनुष्यौघ.तदपर्याप्त
४२ अोघ-बादरौघ-तदप
प्रोप-बादरौघ- अोघा-ऽपर्याप्तद्वि-त्रिर्याप्त-सुक्ष्मौघ-तदपइन्द्रिय र्याप्तैकेन्द्रियभेदाः,
सूत्रमौषभेदादे- चतुः-पञ्चेन्द्रियभेदा:
शेष०६ प्रौघा-पर्याप्तद्वि-त्रि
किन्द्रियभेदत्रयम्, अपर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेचतु:-पञ्चेन्द्रिय
न्द्रियभेदौ च. १० भेदाश्च १३ अोव-बादरोव-तदप
| प्रोण-पूक्ष्मौघ- सौघ तदपर्याप्तः । यप्ति-सूक्ष्मौघ-तदप
बादरीवभेदभिन्न-अपर्याप्तसूक्ष्मबादरर्याप्तभेदभिन्नपृथिव्यकाय० |प्तेजोवायुसाधारण
शेषः पथिक प्तेजोवायु- पृथिव्यप्तेजोवायुसा वनभेद. वनौघ. प्रत्ये
साधा वनभेदाधारणवनभेदाः, अपकवनौघाऽपर्याप्तौ, त्र
१२ वनौषः प्रत्येकसौघा-ऽपर्याप्तौच ३०
प्तिप्रत्येक वनश्च.१३
विपश्च १७] कायौघ० औदारिक
औदारिकमिश्र० योग०
शेष० | काय गौघ० मिश्रश्च०२ | वेद० नपु सक०१
शेष०२ कषाय
सर्व०४ ज्ञान० मत्यज्ञा०श्रुताज्ञा० मत्यादि० मन:पर्यव.
मत्यादिज्ञानत्रिक. ३
मत्यज्ञा. विभङ्ग.२
श्रताज्ञा | संयम असंयम:--१ शेष० ५
असयम.१॥ दशन० अवक्ष०१अवधि०१ चक्षु० श
अवधि
अचक्षु०१ लेश्या०
| सर्व०६ भव्य० सर्व० २
सद० २ मिथ्यात्व० सम्यक्त्वौ. शेष०२॥
सम्यक्त्वौघ० सम्यक्त्वं
मित्या त्वक १ क्षायोप.२
क्षायोपशमिक०२ संज्ञी० संज्ञी, असंजी० २।
असंही १ आहारी. आहारी० १
पाहा०१॥ सर्वमार्गणाः- ६१ । गाथाङ्काः- २४५ । २४५ २४४ | २४६-२४७ २४६ ।२४७ २४८ २४८ ।
अजघन्यस्थितिवन्यस्यान्तरमोवत आदेशतथ सर्वथाऽनु कृष्टस्थितिबन्ध :न्त्रोक्तमेव (गाथा-२४९)
१
५
२३
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________________
यन्त्रकम् ] आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां जघन्यस्थितेरेकजीवाश्रयबन्धान्तरप्रदर्शकयन्त्रम् [२३९
- ६९ मार्गणासु । शेषासु १०१ मार्गणासु जघन्यमन्तर्मुहूर्तम् , उत्कृष्ट तुअन्तरम्- अन्तरं न भवति असंख्यलोकाः । पूर्वकाटिपृथ- अङ्गलाऽसंख्य- देशोनोत्कृष्ट
___ क्त्वम् । भागः | कायस्थितिः निरयौघ० प्रथमा च० सर्वमनुष्यभद० तिर्यग्गोघ०१
| पञ्चेन्द्रियतिर्यगति० दैवोघ० भवन० व्यन्तरदेवभेद०
शेष० ३४* गोघ० तत्पर्याप्त ६
तिरश्ची० ३
सूक्ष्मैकेन्द्रियौघ. इन्द्रिय० पञ्चेन्द्रियौघ० तत्पर्याप्त | एकेन्द्रियौघ.१
शेष०१५+ पृथिव्यप्तेजोवा
सूक्ष्मपृथिव्यप्तेकाय० त्रसकायौघ० तत्पर्याप्त युवनस्पत्यौघ०
शेष २६ .:.
जोवायुसाधारणसाधारणवनौष.
वनौषभेदा: ५
योन० स०
सर्ग
वेद० । कषायः सर्ग
ज्ञान | मत्यादिज्ञानचतुष्क० विभङ्ग
५
मत्यज्ञान० श्रुताऽज्ञान० २
संयम संयमौघ० सामायिक० छेद.
| असंयम० १ A परिहारविशुद्धिक० सूक्ष्म०देश०६ , दर्शन०] सर्व० लेश्या० स०
भव्य० भव्य०
अभव्य० सम्य- | सम्यक्त्वौघ० क्षायिक० प्रौपशमिक०
मिथ्यात्व० १ क्व० Aक्षायोपशमिक० सासदन०
मिश्र० संज्ञी० | संजी०
असंज्ञी० आहारी० स०
७८ सर्वमार्गणाःगाथाङ्काः- २२६२३२
२३४ २३५ । २३५ २३५ Aपरिहारविद्धिशुकसंयम-क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमार्गरणयोर्मतान्तरेण जघन्यमन्तमुहर्तम , उत्कृष्ट स्वदेशोनोत्कृष्ट
कायस्थिति: । (गाथा-२३२-२३३) * द्वितीयपृथिव्याद्या: ६ निरयभेदाः, ज्योतिष्काद्याः २७ देवभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग-१,%D३४ । +बादरौघ-तत्पर्याप्ता-पर्याप्त-सूक्ष्मपर्याप्ता-पर्याप्तैकेन्द्रियभेदाः५,सर्गविकलेन्द्रियभेदा:,अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेद:१५। ::. बादरोध-तत्पर्याप्ता-Sपर्याप्त-सूक्ष्मपर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेद भिन्नप्रथिव्यप्तेजोवायूसाधारणवनभेदा:-२५, सर्गप्रत्येकवनस्पतिकायभेदा:-३, अपर्याप्तत्रसभेद:-१%D२६ ।
१४
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२४०] आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनामजघन्यस्थितेरेकजीवाश्रयवन्धान्तरप्रदर्शकयन्त्रम् [यन्त्रकम् उत्कृष्टम्मोघवदन्तमुहूर्तम्
शेषासु (मार्गणाः-१३८)
अन्तरमेव नास्ति जघन्यम्प्रोघवत् समयः
अन्तमुहूर्तम् । द्वितीयपृथिव्यादिसप्तमपृथिव्यन्ता: ६ निरयभेदा:, ज्योति- मनुष्यौघ०
निरयौघ-प्रथमनिरया-उपपनि कादिसर्वार्थसिद्धविमानान्ताः २७ देवभेदाः,५ सर्वतिर्यग्भेदाश्च तत्पर्याप्त
र्याप्तमनुष्य-देवौघ-भवन___३८ । मानुषी० ३ | पति-व्यन्तरदेवभेदाश्च ६
इन्द्रिय सर्व०
काय० | सर्व
काययोगौघ० वैक्रिय आहारक०
+मिश्रयोगत्रयम्।
सर्वमनोवचोभेद० औदारिक० कार्मण० १२
वेद०
अवेद०
१
वेदत्रयी०
कषाय०
सर्व०*
ज्ञान० | मति-श्रु ता-ऽवधिज्ञानानि, मत्यज्ञान-श्रु ताज्ञाने च
५
मन:पर्यव० १
विभङ्गज्ञान
संयम
असंयम० परिहार० .:.
सयमोघ० १
सामायिक० छेद० सूक्ष्मसम्प० देश०
४
दर्श...|चक्ष प्रचक्षु० अवधि० लेश्या० सर्व ::
भव्य० भव्य० अभव्य०
सम्यक्त्वं
सम्यक्त्वौघ० क्षायिक० प्रौपशमिक० क्षायोपशमिक० .:. ... सासदन मिथ्यात्व.
संज्ञी० संज्ञी० असंज्ञी०
सम्यग्मिथ्यात्व० आहारी. पाहारी०
अनाहारी० मर्वमार्गणाः
३२ गाथाङ्काः२३८
२४०
२३६-३७-३८ + मिश्रयोगत्रये सासदनमार्गणायां च मतान्तरेऽन्तरमेव न भवति (गाथा-२३६) । * अपवाद:-लोभमार्गणायां मोहनीयस्य जघन्यं समयः, उत्कृष्टमन्तर्मुहूर्तम् (गाथा-२३८) । .:. परिहारविशुद्धिकसंयम-तेजोलेश्या- पद्मलेश्या-क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणासु मतान्तरे प्रस्तुतान्तरं जघन्यतोऽप्यन्तमुहूर्तम् (गाथा-२४०)।
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आयुषो जघन्यस्थितिबन्धोत्कृष्टान्तर ] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ २४१ 'पणमणवयेसु विउवे आहारदुगे कसायचउगे य । सासाणे आउस्स उ अगुरुठिईएंऽतरं णस्थि ॥२१८॥ सेसासु मुहुत्तंतो लहुं गुरु होइ ऊणछम्मासा । सव्वणिरयदेवेसुं पसत्थअपसत्थलेसासुं ।।२१९॥' सव्वेसु तिरिय-मणुस-एगिदिय-विगल-पंचकायेसु । असमत्तपणिदि-तसेसु साहिया भवठिई जेट्ठा ।।२२०।। कायम्मि भूभवठिई देसूणतिभागसंजुया जेट्ठा । उरलेऽभहियाणि भवे सत्तसहस्साणि वासाणि ॥२२॥ ओरालिय मीसम्मि उ भिन्नमुहुत्तं हवेज्ज इत्थीए । जाणेयव्वं पंचावण्णा पलिओवमाऽन्भहिया ॥२२२॥ मणणाण-संयमेसु समइअ छेअ-परिहार-देसेसु । देसूणो पुवाणं कोडितिभागो मुणेयव्यं ॥२२३।। विभंगे देसूणा जेट्ठा कायट्ठिई मुणेयव्यं । देसूणा छम्मासा हवइ त्ति भणन्ति अण्णे उ ।।२२४।। पुवाणेगा कोडी अभहिया होअए असण्णिम्मि । सेसासु णायव्यं तेत्तीसा सागराऽब्भहिया ॥२२५।। इति गाथाऽटकेनाभिहिताऽऽयुरनुत्कृष्टस्थितिवन्धसत्कान्तरवत् प्रकृतान्तरं पञ्चमनोयोगभेदाद्यष्टादशमार्गणासु नास्ति । शेषनिरयगत्योघादिपञ्चचत्वारिंशदभ्यधिकशतमार्गणासु तु जघन्यतोऽन्तमुहूर्तम्, उत्कृष्टतस्तु निरयगत्योघादिचतुश्चत्वारिंशन्मार्गणासु देशोनपण्मासाः । तिर्यग्गत्योधादिषट्पष्टिमार्गणामु प्रत्येकं साधिका भवस्थितिः । काययोगमार्गणायां साधिकान्येकोनत्रिंशद्वर्षसहस्राणि । औदारिककाययोगमार्गणायां साधिकानि सप्तवर्षसहस्राणि । औदारिकमिश्रकाययोगमार्गणायामन्तमुहूर्तम् । स्त्रीवेदमार्गणायां साधिकानि पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि । मनःपर्यवज्ञान-संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक-देशसंयममार्गणास प्रत्येकं देशोनः पूर्वकोटीतृतीयभागः। विभङ्गज्ञानमार्ग णायां किश्चिदुनपूर्वकोटीतृतीयभागद्वयोना स्वीयोत्कृष्टकायस्थितिः । असंज्ञिमार्गणायां साधिका पूर्वकोटिः । उक्तशेपासु पञ्चेन्द्रियोघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियादित्रयोविंशतिमार्गणासु पुनः प्रत्येकं साधिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषोऽजघन्यस्थितेरुत्कृष्टं बन्धान्तरं बोद्धव्यमित्यर्थः । भावनाप्येतासु प्रत्येकमनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धान्तरवदेव कार्येति ।। __इदन्तु बोध्यम्-यथा संयमादसंयमे गमनाऽगमनापेक्षया एकस्मिन् भवे नानासंयमाकर्षाः, एवं सम्यक्त्वाद्याकांश्व निर्विवादमभ्युपगम्यन्ते, तथा श्रीपज्ञापनायागमोक्ता आयुर्वन्धाकर्षा आयुर्वन्धात्तदवन्धे गमनाऽगमनापेक्षयाऽभ्युपगम्य एकस्मिन् भव एकट्यादिवारं यावत्सप्तकृत्व आयुर्वन्धापेक्षयाऽत्र ग्रन्थे एकजीवाश्रयमायुर्वन्धान्तरं प्रतिपादितं भवति । कथं गम्यते ? निरयगत्योघाघेकविकमार्गणास्थानेष्वप्यनुत्कृष्टादिस्थितेवेन्धान्तरस्य प्रतिपादितत्वात् । अत एव तत्र तत्राऽनुत्कृष्टादिस्थितेर्जधन्यवन्धान्तरमेकस्मिन् भवे चरमद्विचरमायुर्वन्धाद्धयोढिरायुबन्धापेक्षयाऽन्तमुहूर्तप्रमाणमुपपादितमस्माभिः ।
यदि च * ग्रन्थान्तरवचनेनैकस्मिन् भवे सकृदेवायुर्वन्धमभ्युपगम्याऽऽयुबन्धाकर्षास्तथा नाभ्युपगम्यन्ते, मतान्तरं वाऽभ्युपगम्यते, तदा तु निरयगत्योपादिमार्गणासु यास्वेकभवादधिककालं जीवो न तिष्ठति, तासूत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरप्रतिषेधवदनुत्कृष्टादिस्थितिबन्धान्तरमपि प्रतिषेधनीयम् । यत्र पुनरोधादिप्ररूपणायां नानाभवसम्भवस्तत्राऽनुत्कृष्टादिस्थितेर्जघन्यमन्तमुहर्तप्रमाणं बन्धान्तरं भवद्वयेनैव साधनीयम्,न त्वेकेन भवेन । तथाहि-यः कश्चिन्मनुष्यादिजीवोऽसंक्षेप्याद्धाया
* महोपाध्यायविरचितयोगविंशिकावृत्त्यादिव वनादित्यर्थः ।
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२४२ ]
विहाणे मूलप डिठिइबंधो [ आयुषो जघन्यस्थितिबन्धोत्कृष्टान्तरं मर्याप्तमनुष्यादिसत्कमा धुर्निर्वर्त्य तत्पापवर्त्य क्षुल्लकभव प्रमाणबद्धत्वाद्वा भवान्तरे षट्पञ्चाशदभ्यधिकशतद्वयावलिस्थितिकतयोत्पद्य तत्र वेद्यमानायुस्तृतीयभागरूपायामबाधायामायुर्वन्धं प्रारभते, तस्य तथाविधायुर्वन्धकस्य तथाविधायुर्वन्धद्वयस्य किञ्चिदभ्यधिकक्षुल्लकभवतृतीय भागद्वयप्रमाणमन्तरमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यं बन्धान्तरं लभ्यते, जघन्यावाधायाः क्षुल्लकभवतृतीयभागद्वयस्य च तादृशायुर्बन्धद्वयान्तराले पतितत्वात् । एतदेवैौघतस्तिर्यग्गत्योघादिमार्गणासु चाऽऽयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यं बन्धान्तरं ज्ञेयम् । अनुत्कृष्टस्थितिबन्धोत्कृष्टान्तरमप्योघतस्तिर्यग्गत्योघादिमार्गणास्वेव च प्रथमत उत्कृष्टाबाधायां पञ्चाच्चनन्तरे सम्भवत्पूर्वको व्याद्युत्कृष्टस्थितिकभवे जघन्यावाधायामायुबन्धापेक्षया लभ्येतेत्येवं प्रतिमार्गणं यथासम्भवं स्वयमेवोयम् । एवमेवाऽजघन्य - जघन्यस्थितिबन्धान्तरमप्युपपादनीयम् । एवमेवाग्रे भूयस्काराधिकारादावप्येकजीवाश्रयान्तरे यथासम्भवं विशेषः स्वयमभ्यूः । न चैकस्मिन् भवे वेद्यमानास्तृतीयभागाद्यवशेष आयुबन्धाद्धायां सक्रुदायुर्वघ्नतां तदानीमेव नानाऽऽकर्षानभ्युपगम्य तदपेक्षयाऽऽयुषः सम्भवदुत्कृष्टादिस्थितिबन्धान्तरस्य प्रतिपादनमेव साधीयस् तथाभ्युपगम आगमो काऽयुर्वन्धाकर्षा एकस्मिन् भवे सकदेवायुर्वन्ध इत्यस्य वचनद्वयस्योपपत्तेरिति वाच्यम् । तथा सति वेद्यमानायुषस्तृतीय-नवमादिभागावशेषादन्तर्मुहूर्तमध्ये द्वितीयाद्याकर्षरूपाणामायुर्घन्धानां वेद्यमानायुपोऽवशेषतृतीय-नवमादिभागादन्यत्रा - ऽन्तमुहूर्तद्वयन्तमुहूर्ताद्योनतृतीय भागाद्यवशेषे पुनः पुनः प्रारम्भस्याऽऽवश्यकतया 'तृतीय- नवम भागाद्यवशेवे स्वयवेद्यमानायुषि जीवः पारभविकायुर्वन्धं प्रारभते, नान्यथा' इत्यर्थक सिद्धान्तो विरुध्येत । इत्येवं यथामतिविवृतमायुर्वन्धान्तरम्, तच्वं पुनः सर्वविदवेद्यमिति नात्रैकस्मिन्नपि पक्षेऽस्माकमाग्रह इति ॥ २४९ ॥
,
तदेवमभिहितमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेद्विविधं बन्धान्तरमतिदेशद्वारेण सर्वमार्गणासु । तस्मिँश्वाभिहिते गतं पञ्चममेकजीवाश्रितमन्तरद्वारम् ॥
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे पञ्चममन्तरद्वारं समाप्तम् ॥
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॥ अथ षष्ठं संनिकर्षद्वारम् ॥
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अथ क्रमप्राप्तं संनिकर्षद्वारम् । तत्र चोत्कृष्ट - जघन्यस्थितिबन्धभेदाद् द्विविधः संनिकर्षः प्रतिपादनीयः, तत्रादावुत्कृष्टस्थितिबन्ध संनिकर्षं प्रतिपिपादयिषुरोधतः प्ररूपयन्नाह - पढमस्सुको सठि बंधतो बंधगो चित्र हवेज्जा । aur कोसा वाऽणुक्कोसाअ व ठिईए ॥ २५० ॥
(प्रे०) “पढमस्से "त्यादि, इह हि संनिकर्षः सम्बन्धः स च मूलप्रकृतिसत्कोत्कृष्टादिस्थितिबन्धानां समकाले जायमानानां रस्परं गृह्यते, तेषामेव प्रस्तुतत्वात् । इदमुक्तं भवतियदा हि ज्ञानावरणीयादिविवक्षित प्रकृतेर्विवक्षितो य उत्कृष्टादिस्थितिबन्धः प्रवर्तते, तेन सह भावी, अर्थात् तदानीमेव जायमानो यस्तदन्यप्रकृतीनामुत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धः, सोऽत्र प्ररूपणीयः, संनिकृष्टानां समकालादौ वर्तमानत्वाज्जायमानत्वाद्वा परस्परं सम्बन्धितानामर्थानां तेनरूपेण प्ररूपणायाः सन्निकर्ष प्ररूपणाशब्दनिर्वचनात् । तत्र "पढमस्स” त्ति निरुक्तयुक्त्या व्युत्पन्नक्रमेण 'प्रथमस्य ' ज्ञानावरणीयकर्मण 'उत्कृष्टां' त्रिंशत्कोटिकोटिसागरोपमप्रमाणां स्थितिं वध्नन् यः कचिज्जीवः सः "बंधगो चिअ हवेज्जा" त्ति बन्धक एव भवति । कस्या इत्याह - "छण्ह " मित्यादि, ज्ञानावरणमायुश्च विहाय शेषाणां दर्शनावरणीयादीनां षण्णां कर्मणामुत्कृष्टाया वाऽनुत्कृया वा स्थितेरित्यर्थः || २५० || तदेवं ज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिबन्धकाले दर्शनावरणीयादीनां पण्णां कर्मणामनुत्कृष्टा स्थितिरपि बध्यत इति विकल्पिते सति साऽनुत्कृष्टा स्थितिः किं समयोनोत्कृष्टा द्विसमयोनोत्कृष्टा वा, कियत्प्रमाणा बध्यते ? इत्याह
साय अणुक्कोसटिई उक्कोसाउ समयाइणा हीणा । जाव असंख सेणं हीणा पलिओ मस्स भवे ॥२५१॥
(प्रे०) साय अणुकोसठिई" त्यादि, सा च ज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिबन्धकाले तत्स्वामिना निर्वर्त्यमाना दर्शनावरणीयादीनां प्रत्येकमनुत्कृष्टा स्थितिः “उक्कोसाउ" त्ति “ठिइबंधो उक्कोसो पढम-दुइअ-तइअ-अट्टमाण भवे । सागरको डाकोडी " । ( गा०-३७) इत्यादिना प्रागुक्तत्रिंशत्कोटिकोट्यादिप्रमाणदर्शनावरणीयादिसत्कौघोत्कृष्टस्थितेः, दर्शनावरणादिसत्कमौघिकमुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणमपेक्ष्येत्यर्थः । समयादिना हीना यावत्पल्योपमस्यासंख्यांशेन हीना भवेत् । इदमुक्तं भवति - यदाज्ञानावरणीयस्योत्कृष्टस्थितिर्वध्यते, तदा दर्शनावरणीयादीनां पण्णां कर्मणां नियमतो बन्धो भवति, स्थितिस्तु तदानीमुत्कृष्टा त्रिंशत्कोटी कोट्यादिप्रमाणा बध्यते, अनुत्कृष्टा वा दर्शनावरणीयस्य समयोनास्त्रिंशत्कोटीकोटयः, द्विसमयोनास्त्रिंशत्कोटीको ट्यः, त्रिसमयोनास्त्रिंशत्कोटीकोट्यः, एवं यावत्पल्योपमस्यासंख्याततमेन भागेनोनास्त्रिंशत्कोटी कोट्योऽपि बध्यते, न पुनस्ततो* द्वितीयाधिकारे प्रथमद्वारे सप्तत्रिंशत्तमगाथावृत्तौ दर्शितयुक्त्येत्यर्थः ।
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२४४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ ओघत उत्कृष्टस्थितिबन्धसंनि० ऽप्यूना । इत्थमेव वेदनीयकर्मणोऽन्तरायकर्मणोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धविषयेऽपि द्रष्टव्यम् , मोहनीयस्य त्वनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्तदीयौधिकसप्ततिकोटीकोटीप्रमाणोत्कृष्टस्थितिबन्धमपेक्ष्य समयादिना हीनो यावत्पल्योपमस्यासंख्यभागेन हीनसप्ततिकोटीकोटीप्रमाणो जायत इति द्रष्टव्यम् । एवमेव नामगोत्रयोरपि स्वकीयौधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणमपेक्ष्याभिधातव्यमिति ।।२५१॥ तदेवं ज्ञानावरणीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धे जायमाने नियमेन बध्यमानानां दर्शनावरणादीनां षण्णां स्थितिबन्धविषयकविकल्पान् प्रतिपाद्य सम्प्रत्युत्तशेषस्यायुःकर्मणस्तान् दर्शयन्नाह
आउस्स बन्धगो वा अवन्धगो वाऽस्थि गुरुठिईए च्च ।
भयणिज्जा उणऽवाहा होज्जेवं छण्ह कम्माणं ॥२५२॥ (प्रे०) “आउस्स" इत्यादि, ज्ञानावरणस्योत्कृष्टी स्थितिं बध्नन्नसौ पुनरायुःकर्मणो बन्धको वाऽबन्धको वा भवति, पारभविकायुपो वेद्यमानायुस्त्रिभागाद्यवशेषे नियतकाल एव बन्धसम्भवात् । यदा च ज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिबन्धकालेऽसाघायुषो बन्धकस्तदा “गुरुठिईए च्च" ति निषेकमात्रमधिकृत्यावाधानिरपेक्षा याऽऽयुषो 'गुरुः'-उत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणा स्थितिस्तस्याः "च्च" ति एव बन्धको भवतित्यर्थः । इत्येवमवधारणादनुत्कष्टायाः समयादिहीनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणाया अनुभवयोग्यस्थितेर्वन्धको नैव भवतीति भावः । अबाधायुतनिषेकरूपायाः कर्मरूपतावस्थानलक्षणायास्तु तस्या अनुत्कृष्टस्थितेरपि बन्धको भवतीत्येतदर्शयितुकाम आह-"भयणिज्जा उण बाहा" ति तस्या उत्कृष्टस्थितेरवाधा पुनर्भजनीया-भाज्या, निषेकमात्रमधिकत्य बन्धप्रायोग्याया आयुषो बध्यमानानुभवयोग्योत्कष्टस्थितेबाधा पुनरुत्कष्टाऽनुत्कृष्टा वा स्यादित्यर्थः । अयम्भावः-पूर्वकोटीवर्षायुपश्चरमे तृतीये भागे वेदयितु प्रारब्धे कश्चिज्जीवो ज्ञानावरणीयस्योत्कष्टां स्थिति बनन् दर्शनावरणीयादीनामुत्कष्टामनुत्कष्टां वा स्थिति निवर्तयति, स च तदानीमेवाऽऽयषो बन्धं निवर्तयति चेत्तदा सप्तमनरकसत्कत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणोत्कृष्टस्थितिकायुष एव,न तु समयादिहीनस्थितिकस्य,अस्य ह्यायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धे प्रारब्धे प्रथमसमय उत्कृष्टाऽवाधा भवति, प्रारम्भद्वितीयसमयात्पुनस्तस्योत्कष्टनिषेकस्याप्यायषः स्थितिबन्धेबाधा समयादिना हीना हीनतराद्याऽनुत्कृष्टा भवति, इत्येवं वेद्यमानायुषो नवमादिभागेष्ववशेषेषु ज्ञाना वरणीयस्योत्कृष्टांस्थितिंबध्नन्तो येऽष्टानां मूलप्रकतीनां बन्धकास्तेषामप्यायुषो निषेकस्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट एव द्रष्टव्यः, अबाधापुनरनुत्कष्टावेति । तदेवं ज्ञानावरणस्योत्कष्टस्थितिबन्धकाले शेषसप्तकर्मणां जायमानं स्थितिवन्धं प्रदय सम्प्रति दर्शनावरणीयादीनां पण्णां प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धकाले तदन्यप्रकृतीनां जायमानस्थितिबन्धं प्ररूपयितुकामोऽतिदिशन्नाह-"होज्जेवं छण्ह कम्माणं" ति एवंशब्दस्य सादृश्यार्थकतया यथा ज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिं बनन् जीवः शेषाणां दर्शनावरणादीनां षण्णां नियमेनायुपश्च भजनया यथोक्तप्रमाणोत्कृष्टादि
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मार्गणास्वष्टानामुस्कृष्टस्थितिबन्धे ] - द्वितीयाधिकारे संनिकर्षद्वारम्
[ २४५ स्थितेर्बन्धको वाऽबन्धको वा भवति, तथैव "छण्ह कम्माण" ति ज्ञानावरणीयायुर्वर्जानां षण्णां दर्शनावरणीयादिकर्मणां प्रत्येकमुत्कृष्टस्थिति बनन् जीयोऽपि शेषाणां ज्ञानावरणीयादीनां पण्णामायुषश्च यथोक्तप्रमाणोत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धकोऽबन्धको वा भवतीति भावः । विशेषतस्तु प्रतिकर्म स्वयमेव योजनीयमिति ।।२५२।। सम्प्रत्यायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धे शेषकर्मणां स्थितिबन्धसंनिकर्षमाह
आउस्सुकोसठिइं बंधतो बंधगो च होएजा।
उक्कोसाअ ठिईएऽणुक्कोसाअ व सत्तण्ह।२५३॥ (प्रे०) “आउस्सुक्कोसठिइ"मित्यादि, आयुप उत्कृष्टां स्थितिं बध्नन् जीवस्तु “बंधगोच होएज्जा" त्ति अस्य 'सत्ताह' इति परेणान्वयस्ततः शेषसप्तकर्मणां बन्धक एव भवेत् , न पुनरवन्धकः । स्थितेस्तु तेषां शेषसप्तकर्मणामुत्कृष्टाया अनुत्कृष्टाया वा बन्धक एव भवेत् , उत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योरन्यतरस्याः स्थितेत्रन्धको भवतीति भावः; सकषायजीवानां प्रकृतिबन्धभावे स्थितिबन्धस्य नियमतो भावादिति ।।२५३।। अनन्तरगाथायामायुष उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकः शेषाणामुत्कृष्टामनुत्कृष्टां वा स्थिति बध्नातीति विकल्पितम् , अतस्तत्रानुत्कृष्टा स्थितिः किमुत्कृष्टापेक्षयाऽसंख्यभागहीना उत संख्येयभागहीनाऽसंख्येयादिबद्भागै; हीना बध्यत इति जिज्ञासायामाह
सा य अणुक्कोसठिई तिविहा णेया असंखभागूणा ।
संखेजभागहीणा तहा य संखेज्जगुणहीणा ॥२५४॥ (प्रे०) “सा य अणुक्कोसठिई" त्यादि, सा चापुष उत्कृष्टस्थितिबन्धकाले निर्व~माना ज्ञानावरणादीनामनुत्कृष्टस्थितिः "तिविहा"त्रिविधा'-अनुपदं वक्ष्यमाणत्रिस्थानपतिता ज्ञेया। त्रैविध्यमेवाह-"असंखभागे"त्यादिना, स्वीयस्वीयोघोत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षयाऽसंख्येयतमभागेनोना, संख्येयतमभागेन हीना, संख्येयगुणहीना,-संख्येयैर्बहुभिर्भागैहींना वेत्यर्थः । इयं हि त्रिविधाऽपि स्थितिर्निरयायुर्वनन्तो जीवानपेक्ष्य विज्ञेया, न पुनर्देवायुर्वघ्नन्तः, देवायुर्वघ्नतां जीवानां विशुद्धाध्यवसायतया ज्ञानावरणादेः संख्येयगुणहीनोत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैव भावादिति ॥२५४॥
तदेवमोघतोऽष्टानामपि मूलकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धसन्निकर्षमभिधाय सम्प्रति तेषामेवाऽऽदेशतो निरयगत्योधादिमार्गणास्थानेषु तमभिधित्सुराह
एवं सब्वासु णवरि बंधो आउस्स णो विउवमीसे ।
कम्मण-गयवेअ-सुहुम-उवसम-मीसेसु णाहारे ॥२५५॥ (प्रे०) "एवं सव्वासु" इत्याद, एवंशब्दस्य सादृश्यार्थकत्वेन सर्वासु मार्गणासु ज्ञाना
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२४६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वष्टमूलप्रकृतीनाम् वरणादिमूलकर्मसत्कोत्कृष्टानुत्कृष्टस्थितिबन्धसंनिकर्पोऽनन्तरोक्तौधिकसनिकविज्ज्ञातव्य इत्यर्थः । अयं ह्यतिदेशः सामान्यतो बहुदेशसादृश्यमाश्रित्य वेदितव्यः । कुतः ? अनुपदमेव तत्रातिदिष्टार्थे कतिपयमार्गणास्त्रपवादस्थानानां दर्शनीयत्वात् । अपवादस्थानान्येव दर्शयन्नाह-"णपरि' इत्यादि, तत्राद्यम्-'बन्धो आउस्स णो विउवमोसे" इत्यादि, वैक्रियमिश्र-कामणकाययोगा-ऽपगतवेदसूक्ष्मसम्परायसंयमौ-पशमिकसम्यक्त्व-मिश्रदृष्टय-ऽनाहारकरूपासु सप्तमार्गणास्वायुःकर्मणो बन्यो न भवत्यतस्तासु सप्तकर्मणां प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिं बध्नन् जीव आयुषोऽवन्धक एवेति विशेषतो द्रष्टव्यम् , न पुनरोघवदायुषो बन्धकोऽबन्धको वेत्यादि । तथाऽऽयुष उत्कृष्टस्थितिं वध्नन् जीवः शेषसप्तकर्मणां बन्धक एवेत्यादि यदोघोक्तं तदपि न वक्तव्यम् , एतासु मार्गणास्वायुष एवाबन्धात् ।
अत्रेदमवधेयम्--मार्गणास्थानेष्वोधवत्कृतेऽतिदेशे वचनसाम्यमेव, न पुनः पदार्थसाम्यम् , अत उत्कृष्टस्थितिबन्धस्थाने सर्वत्रौधिकोत्कृष्टस्थितिवन्धो न धर्तव्यः, किन्तु तत्तन्मार्गणापेक्षया यावानुत्कृष्टस्थितिबन्ध उक्तस्तावानेव ग्राह्यः तदपेक्षया चानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्याऽसंख्यभागादिहीनत्वादिकं द्रष्टव्यम् । इत्थं हि वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणायामायुबन्धस्य निषेधात् तद्वर्जशेषमोघवद । अर्थात्-प्रथमस्य ज्ञानावरणस्योत्कृटां स्थिति वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणायां बन्धप्रायोग्यामन्त:कोटीकोटीसागरोपमप्रमाणां वध्नन् तत्स्वामी दर्शनावरणादीनामायुर्वर्जशेषाणां षण्णां कर्मणामुत्कृटाया वाऽनुत्कृष्टाया वा स्थितेनियमेन पन्धको भवति । तत्र दर्शनावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिः प्रकृतमार्गणापेक्षया याऽन्तःकोटिकोटिसागरोपमप्रमाणा तां बध्नाति, अनुत्कृष्टां त्वन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणोत्कृष्टरिथत्यपेक्षया समयादिना हीनां यावत्पल्योपमासंख्यभागेन हीनां बध्नाति । यथा ज्ञानावरणोत्कृष्टस्थितिं बध्नन् शेषकर्मणामुत्कृष्टं स्थितिबन्धं करोति, तथा दर्शनावरणोत्कृष्टस्थिति बन्धन् ज्ञानावरणादिशेषषट्कर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धं करोति; इत्येवं वेदनीयादिकर्मादाय प्रत्येकं संनिकर्षो द्रष्टव्यः, इत्थमेव शेषामु कार्मणकाययोगादिमार्गणामूत्तरत्र च मार्गणाप्रायोग्यं तत्तत्कर्मसत्कोत्कृष्टादिस्थितिबन्धमाश्रित्य तत्तन्मार्गणासु भावनीयमिति ।। २५५ ।। अथापगतवेद-मूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणयोरन्यदप्यपवादस्थानमाह
पढमस्मुक्कोसठिई बंधंतोऽवगयवेअसुहुमेसु।
जेट्टाअ बंधगो चिअ सेसाणेमेव सेसाणं ॥२५६॥ (प्रे०) “पढमस्से"त्यादि गतार्थम् , नवरमपगतवेदमार्गणायां सूक्ष्मसम्परायमार्गणायां चोभयत्रोत्कृष्टस्थितिबन्ध उपशमश्रेणी लभ्यते, स चापगतवेदमार्गणायां बध्यमानानामायुर्वर्जानां प्रतिनियतैरध्यवसायविशेषैरेव भवति । कुतः ? अनिवृत्तिकरणादारभ्यो प्रतिनियतैरध्यवसायविशेषः प्रतिनियतस्थितिबन्धविशेषाणां निवृत्तेः । अतो यदा एकस्य ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्ध प्रायोग्याध्यवसायो वर्तते, तदा तदन्येषां दर्शनावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्या ये प्रति
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उत्कृष्टस्थितिबन्धसंनिकर्षः] - द्वितीयाधिकारे संनिकर्पद्वारम्
[ २४७ नियताध्यवसायास्तेषामेव सद्भावः; तथा च सत्येकस्योत्कृष्टस्थितिवन्धे तच्छेषाणामपि कर्मणामुत्कृष्ट एव स्थितिबन्धो जायते, अत उक्तम्-"जेठाअ बंधगो चिअ सेसाण"मिति, तत्र चिअशब्दो एक्कारार्थकोऽनुत्कृष्टस्थितिवन्धव्यवच्छेदार्थमुपात्त इति । इत्थमेव सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायामपि द्रष्टव्यम् , नवरं तत्र बध्यमानषकर्मविषय एव, न तु मोहनीयविषयेऽपि, ‘एमेव सेसाणे' त्यनेन बध्यमानशेषाणां विवक्षितत्वादिति ।।२५६। अथ मार्गणान्तरेष्वपवदन्नाह--
सत्तण्हुक्कोसठिइं बंधतो बंधए ण चेवाउं । सव्वणिरय-सुरि-गिदिय-विगलिंदिय-पंचकायेसु॥२५७॥ असमत्तपणिदितिरिय-मणुस-पणिदि-तस-उरलमीसेसु। विउवे आहारदुगे णाणचउग-संयमेसु च ॥२५८॥ सामाइअ-छेएसुपरिहारविसुद्धि-देस-ओहीसु।
णीलाईसुपंचसु सम्म-खइअ-बेअगेसु सासाणे ॥२५९॥ (गोतिः)
(प्रे०) “सत्तण्हुक्कोसठिइ"मित्यादि, अनुपदम् “सव्वणिरय” इत्यादिसार्धगाथाद्वयेन वक्ष्यमाणनिरयगत्यादिविंशत्यभ्यधिकशतमार्गणाभेदेष्वायुर्वानां सप्तानां कर्मणामुत्कृष्टस्थितिं बध्नन् जीवः "बंधए ण चेवाउँ" ति आयुःकर्म नैव बध्नीयात् । अयम्भावः-ज्ञानावरणस्योत्कृष्टां स्थितिं बध्नन् दर्शनावरणादीनां षण्णां मूलप्रकृतीनामेव बन्धं करोति, न पुनरोघवदायुषोऽपि, अतो ज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिबन्धकाले तदन्येपामायुर्वर्जानां षण्णामेवाघवदुत्कृष्टाया वाऽनुत्कृटाया वा स्थितेर्बन्धक इति विशेषेण द्रष्टव्यम् । एवं दर्शनावरणस्योत्कृष्टस्थिति बनन् ज्ञानावरणादीनामायुर्वर्जानां षण्णामुत्कृष्टाया वाऽनुत्कृष्टाया वा स्थितेर्बन्धको भवतीति विशेषेण द्रष्टव्यम् । एवमेव वेदनीयादीन्यधिकृत्याऽपि विशेषतो द्रष्टव्यम् । आयुष उत्कृष्टस्थिति बध्नन् शेषाणां सप्तानामुत्कृष्टामनुत्कृष्टां वा यादृशी स्थितिं बध्नाति तादृशीं तु ग्रन्थकारः स्वयमेव “एआसुक्कोसठि बंधतो आउगस्स होएज्जा" इत्यादिनाऽनन्तरं दर्शयिष्यतीत्यत्र न द्रष्टव्यमिति । ___निरयगत्यादिमार्गणाभेदानेवाह-"सव्वणिरये" त्यादिना, तत्राद्यस्य सर्वशब्दस्य प्रत्येक योजनात् सर्वेषु निरयगतिमार्गणाभेदेषु, सर्वेषु सुरगतिभेदेषु, सर्वेष्वेकेन्द्रियभेदेषु, सर्वेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियजातिलक्षणविकलेन्द्रियभेदेषु सर्वेषु पृथिव्यादिवनस्पतिकायान्तपञ्चकायमार्गणासत्कभेदेष्वित्यर्थः । तथा "असमत्ते"त्यादि, अत्राप्यपर्याप्ताऽपरपर्यायस्याऽसमाप्तशब्दस्य त्रसान्तेषु प्रत्येकं योजनादपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदे, अपर्याप्तमनुष्यभेदे, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदे, अपर्याप्तत्रसभेदे चेत्यर्थः । तथौदारिकमिश्रकाययोगे, वैक्रियकाययोगे, आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगयोदिके, मत्यादिषु चतुर्षु ज्ञानेषु, संयमौघ-सामयिकसंयमयोः, छेदोपस्थापन
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२४८
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुःकर्मणः संयमे, परिहारविशुद्धिकसंयन-देशसंयमा-ऽवधिदर्शनमार्गणासु, कृष्णलेशावर्जासु नीलादिषु पञ्चसु लेश्यामार्गणासु, सम्यक्त्वौघ-क्षायिकसम्यक्त्व-वेदकसम्यक्त्वेषु सासादने चेत्यर्थः । ननु कस्मादेतासु निरगत्योघादिमार्गणासु सप्तानामुत्कृष्टस्थितिं बध्नन् जीव आयु¥वबध्नाति ? उच्यतेनीलकापोतलेश्यामार्गणे विहायैतासु प्रत्येकं शुभस्य नरकभिन्नायुष एव बन्धभावात् , तस्य च शुभत्वेन विशुद्धिप्रत्ययत्वात्सप्तानामुत्कृष्ट स्थितिवन्धकैः संक्लिष्टाध्यक्षायै वैस्तद्वन्धो न क्रियते, नीलकापोतलेश्ययोरपि सप्तानामुत्कृष्टस्थितिवन्धस्वामिनो मनुष्यास्तिरवो वा न भवन्ति, कृष्णलेश्यायां सत्यामेव तैः सप्तानामुत्कृष्टस्थितिवन्धस्य निर्वर्तनात् । शेष जीवानां तु निरयायुर्वन्धप्रायोग्यमेव नास्ति, निरयायुर्वर्णानि शेषायुपि तु शुभानीतिकृत्वोत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्यसंक्लेशगतेस्तैस्तदानीं न निर्वय॑न्ते । इत्थं हि नील-कापोतलेश्यामागंणयोरपि सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धकैरायुर्वन्धो न क्रियत एवेति ॥२५७-२५८-२५९।। प्रकृतमार्गणास्वेवोत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धे शेषकर्मणां स्थितिबन्धसंनिकपमाह
एआसुक्कोसठिइं बंधतो आउगस्स होएज्जा।
सत्तण्ह बंधगो चिअऽणुक्कोसाए चिअ ठिईए ॥२६०॥ (प्रे०) "एआसुकोसठिइमि"त्यादि, अनन्तरोक्तनरकगत्योघादिविंशत्युत्तरशतमार्गणास्वायुष उत्कृष्टस्थितिं बध्नन् जीवः शेषसप्तकर्मणामनुत्कृष्टस्थितेरेव बन्धक एव, न पुनरुत्कटस्थितेर्बन्धकः सप्तकर्मणामबन्धको वेत्यभिप्रायकमेवकारद्वयोपादानम् । गतार्थ चैतत् , प्रकृतमार्गणास्वनन्तरमेव सप्तकर्मणामुत्कृष्ट स्थितिवन्धं कुर्वतामायुर्वन्धस्य निषेधेनायुर्वन्धकाले सप्तकर्मणामुत्कष्टस्थितिबन्धस्याऽप्यान्निषिद्धत्वात् । सप्तकर्मणामुत्कष्टास्थितिवन्धाभावेऽनुत्कृष्ट स्थितिबन्धस्तु तस्य भवत्येवेति तु सुखेन गम्यते, सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानं यावत्प्रकृतिवन्धभावे स्थितिबन्धस्यापि नियमेन भावात् , आयुर्वन्धकानामष्ट मूलप्रकृतिबन्धस्वामित्वस्याभिहितत्वाच्चेति ।।२६०॥ ___ तदेवमायुषो उत्कृष्टस्थितिं बध्नन् जीवः शेषकर्मणामनुत्कृष्टस्थितिमेव बध्नातीत्युक्ते साऽनुत्कृष्टा स्थितिः कीवती ? उत्कृष्टापेक्षया संख्येयभागेन हीनोतान्यथा वेति जिज्ञासां निरसितुमाह
मा खलु सव्वेगिंदियपणकायेसु असंखभागूणा ।
सव्वविगलेसु संखंसुणा, सेसासु संखगुणहीणा ॥२६१॥ (प्रे०) “सा खलु सव्वेगिंदिये" त्यादि, साऽनन्तरोक्तसप्तकर्मणामनुत्कृष्टा स्थितिः खलु सर्वेष्वेकेन्द्रिय-पृथिव्यादिपञ्चकायसत्केषु षट्चत्वारिंशदपि मार्गणाभेदेषु प्रत्येकं बन्धप्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षयाऽसंख्यभागोनैव वध्यते, न पुनः संख्येयभागादिहीना । कुतः ? प्रकृतमार्गणागतजीवानामेकेन्द्रियतयोत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया जघन्यस्यापि स्थितिबन्धस्य पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रेण हीनत्वादिति । “सव्वविगलेसु संखंसूणा" ति विकलेन्द्रियसत्केषु नव
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उत्कृष्टस्थितिबन्धसंनिकर्ष: ]
द्वितीयाधिकारे संनिकर्ष द्वारम्
[ २४९
मार्गणाभेदेषु प्रत्येकं सा सप्तकर्मणामनुत्कृष्ट स्थितिरुत्कृष्टस्थित्यपेक्षया संख्येयांशोना बध्यते, विकलेन्द्रियेषूत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया जघन्यस्थितिबन्धस्यापि पल्योपमसंख्येयभागमात्र न्यून भावात् । ननु तथा सति विकलेन्द्रियाणां प्रकृतबन्धः संख्येयगुणहीनायाः स्थितेर्मा भवतु, असंख्येयभागहीनायास्तु स्थितेर्भवेदसौ ? इति चेद्र, न, शुभायुष उत्कृष्ट स्थितिबन्धकाले विशुद्धतरा एते विकलेन्द्रियाः ज्ञानावरणादीनां स्ववन्धप्रायोग्योत्कृष्टस्थित्यपेक्षया संख्येयभागहीनामेव स्थितिं बध्नन्ति न पुनस्ततोऽधिकामसंख्येयभागमात्रहीनामिति ।
"सेसासु" त्ति 'सव्वणिरये' त्यादिनाऽनन्तरोक्तविंशत्युत्तरशतमार्गणाभ्यः 'सव्वेगिदिये ' त्यादिनोक्तषट्चत्वारिंशन्मार्गणास्तथा 'सव्वविगले' त्यादिनाऽनुपदमुक्ताः नवमार्गणा विहाय शेषासु सर्वनरक- सर्वदेवा-पर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रिया-पर्याप्त मनुष्याऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रिया-पर्याप्तत्र सौदारिक मिश्र - वैक्रियमिश्रा ऽऽहारकमिश्रकाययोग-मत्यादिचतुर्ज्ञान-संयमौघ-सामयिक - छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिक- देशसंयमाऽवधिदर्शन- नीलादिपञ्चलेश्या सम्यक्त्वसामान्य क्षायोपशमिकसम्यक्त्वक्षायिकसम्यक्त्व - सासादनरूपासु पञ्चषष्टिमार्गणासु "संखगुणहोणा" ति उत्कृष्टस्थितिकायुबन्धका बध्यमाना सप्तकर्मणामनुत्कृष्टा स्थितिः संख्येयगुणहीना एव बध्यते । अत्रापि हेतु: पूर्ववद् द्रष्टव्य इति ॥२६१॥ तदेवमुक्तो नरकगत्योघादिमार्गणास्त्रौधिकसंनिकर्षापेक्षया विशेषः । साम्प्रतमसंज्ञिमार्गणायां तं दर्शयन्नाह -
अमणे उक्कोसटिडं बंधतो आउगस्स सत्तण्हं ।
बंध दुहिजे संसूणं असंखभागूणं ॥ २६२ ॥ (गोतिः)
(प्रे०) "अमणे" इत्यादि, प्राग्वदसंज्ञिमार्गणायामायुष उत्कृष्टां स्थितिं बध्नन् जीवः शेषसप्तकर्मणां 'द्विविधाम्' -द्विविधान्यतरां, संख्येयांशोनाम संख्यभागोनां वाऽनुत्कृष्टस्थितिं बध्नातीति भावः । अत्र यद्यप्यसंज्ञिनामुत्कष्टस्थितिबन्धापेक्षया जघन्यस्थितिबन्धी विकलेन्द्रियवत्संख्येयभागन्यूनोऽतस्तथैव वक्तव्यो भवति, तथाऽप्यसंज्ञिनो नारकायुरपि बध्नन्ति तच्चाशुभम् अतस्तस्योत्कृष्टां स्थितिं बध्नन्तस्तत्स्वामिनः संक्लिष्टाः तथा च तदानीं शेषज्ञानावरणादीनामसंख्येय भागमात्र हीनामेव स्थिति निर्वर्तयन्तीति संख्येयांशोनामित्यप्यभिहितमिति । इत्थं ह्यतिदिष्टार्थविषयकापवादपदेषु परिसमातेषु केवलं त्रिचत्वारिंशन्मार्गणास्वेव सर्वथोघवदवशिष्टम् । ताथ त्रिचत्वारिंशन्मार्गणा इमाः - - अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदवर्जाश्चत्वारस्तिर्यग्गतिभेदाः तथैवापर्याप्तभेदवर्जास्त्रयो मनुष्यगतिभेदाः, द्वौ पञ्चेन्द्रियभेदौ, द्वौ कायभेदौ, तथा पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग- काययोगसामान्यौ-दारिककाययोग स्त्रीवेद-पु' वेद- नपुंसक वेद-क्रोधादिचतुः कषाय-मत्यज्ञानादित्र्यज्ञाना-संयम-चक्षुदर्शना-ऽचक्षुर्दर्शन- कृष्णलेश्या-भव्या-भव्य- मिथ्यात्व-संज्ञ्य ऽसंज्ञयाऽऽहारिमार्गणाभेदाश्चेति । अत्राप्यसंज्ञिमार्गणाभेद आयुष उत्कृष्ट स्थितिबन्धसंनिकर्षे विशेस्याऽभिहितत्वात् तत्र सर्वथौघवत्तु सप्तकर्मणामुत्कृष्ट स्थितिबन्धसंनिकर्षविषय एवेति ॥ २६२ ॥
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२५० ]
बंधाणे मूलपय डिठिइबंधो [ ओघादेशतो मूलाष्टकर्मणाम् तदेवमुक्त ओवत आदेशतश्वोभयथाऽपि सर्वासां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धसंनिकर्ष: । साम्प्रतं जघन्यस्थितिबन्धविषयं तं प्रचिकटयिपुरादौ तावदोघत आहपढमस्स जहण्णठिडं बंधतो बंध च्च पंचण्हं ।
तं चित्र, अगंधगो खलु दोन्हं, एमेव पंचन्हं ॥ २६३॥
(प्रे० ) " पढमस्स जहण्णठि "मित्यादि, प्रथमस्य ज्ञानावरणाख्यस्य मूलकर्मणो जघन्यां स्थितिं बघ्नन् कचिदपि जीवः “बंब चव पंचप" ति मोहनीयायुर्वजनां पञ्चानां बध्नात्येव । कामित्याह-"तं चिअ" तामेव, जघन्यां स्थितिमेवेत्यर्थः । मोहनीयायुषोस्तर्हि किमि - त्याह- "अबंधगो खलु दोपह" ति शेोमहनीयायुषो योरवन्धक एवेत्यर्थः । सुगमं चैतत्, ज्ञानावरणस्यौधिकजघन्यस्थितिबन्धस्य सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने भावात् तत्र च मोहनीयायुर्वजनां षण्णां मूलप्रकृतीनामेव बन्धस्य प्रवर्तनाच्चेति । अथ दर्शनावरणादीन्यधिकृत्याह - "एमेव पंचहं” ति सुगमम् । नवरं शेषेभ्यो मोहनीयायुर्वजानां पञ्चानां मूलप्रकृतीनामित्यर्थं इति || २६३।। अथ मोहनीयस्य जयन्यस्थितिबन्धसंनिकर्षमोघत आह
मोहस्स जहण्णठिइं बंधतो बंधगो च्च छह भवे । संखगुणान्भहियाए अजहण्णाए चिअ ठिईए || २६४॥
(प्रे०) "मोहस्स जहण्णठिइ" मित्यादि, मोहनीयस्याधिकजघन्यस्थितिं बध्नन् जीव आयुर्वजानां शेषाणां षण्णां वन्धको भवेदेव | मोहनीवबन्धविच्छेदात् पचादेव ज्ञानावरणादीनां बन्धविच्छेदादिति भावः । स्थितेस्तु तेषां पण्णामपि स्वीयस्वीयजघन्यस्थित्यपेक्षया "संखगुणाभहियाए अजहण्णाए चिऊ” त्ति संख्येयगुणाभ्यधिकाया अजघन्याया एव, बन्धक इत्यनुवर्तते । सुगमं चैतत् ६पकसूक्ष्मसम्परायचरमस्थितिबन्धापेक्षया रूपकानिवृत्तिवादरस्य विशुद्धेः स्तोकतया संख्येयगुणाभ्यधिकस्थितिबन्ध भावादिति ॥ २६४॥ |
अथ शेषस्याssयुः कर्मणः प्रकृतसंनिकर्षमोघतः प्राह
आउस्स जहण्णठिडं बंधतो बंधगो च्च सत्तण्हं । अजहष्णठिईए चित्र होज असंखगुणअहियाए ॥२६५॥
(प्रे० ) " आउस्से "त्यादि, सुगमम्, नवरमायुप औधिकजघन्यस्थितिर्मिथ्यात्वावस्थायामेव वध्यते, मिथ्यात्व गुणस्थाने च ज्ञानावरणादीनां जघन्योऽपि स्थितिबन्ध एकेन्द्रियस्वामिकः सन् सागरोपमत्रिसप्तभागादिप्रमाण एव स च ज्ञानावरणादीनामौधिकजघन्यस्थितिबन्धापेक्षयाऽसंख्यगुणाभ्यधिक एवेति कृत्वा "असंखगुणअहियाए" इत्यभिहितमिति ॥ २६५ ॥
तदेवमभिहितोऽष्टानामपि मूलकर्मणां प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धसंनिकर्ष ओघतः । इदानीमादेशतोऽभिधित्सुर्लाघवार्थं कतिपय मार्गणास्वतिदेशद्वारेणाह
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जघन्यस्थितिबन्धसंनिकर्षः ] द्वितीयाधिकारे संनिकर्षद्वारम् .
[ २५१ तिणर-दुपणिंदितस-पणमणवय-काय-उरलेसु गयवेए। लोहे चउणाणेसु संयम-सुहुम-तिदरिसणेसु ॥२६६॥ सुइल-भवियसम्मेसु तहा खइअ-उवसमेमु सण्णिम्मि ।
आहारम्मि य णेयं आउगवज्जाण ओघव ॥२६७॥ (प्रे०) "तिणरदुपणिंदितसे"त्यादि गाथा यम् , व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेः "तिणर” इत्यनेनापर्याप्तभेदवर्जा मनुष्योध-पर्याप्तमनु -मानुपीलक्षणास्त्रयो नरभेदा प्राधास्तेषु, तथवाऽपर्याप्तभेदवर्जाबोधपर्याप्तभेदभिन्नी द्वौ पञ्चेन्द्रियादी, "तस" ति द्विशब्दस्यात्रापि योजनात तथैवाघ-पर्याप्तभेदभिन्नो हो सकाय भेदो, इत्येते चतुर्यु मागेणाभेदेषु, तथा “पणमण" ति पञ्चसु मनोशेषभेदेपु. “वय” ति पञ्चशब्दस्यागापि योजनात् पञ्चसु वचोयोगभेदेयु, तथा कावयोगी-दारिककाययोगभेदयोः, गतवेदे, अन्यमार्गमाभेदान् सङ्ग्रहीतुमाह-"लोहे" इत्यादि, लोभे, मतिज्ञानादिपु चतुषु ज्ञानभेदेषु, संयमोघ-सूक्ष्मसम्परायसंयम--चक्षुरादित्रिदर्शनमागंणासु, शालेश्या-भव्य-सम्यक्त्वोधभेदेषु, क्षायिको-पशमिकसम्यक्त्वयोः, संज्ञिभदे, आरिमार्गणाभेदे चे येताच सप्तत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकं “णेयं" ति कम्'-अवसातव्यम् । किमित्याह "आउग वजाण ओघव्व" ति आयुष्काजानां सप्लानां मूलमणां जघन्यस्थितिबन्धसंनिकर्म चवत‘प हमस्स जहण्णठिइ इत्यादिगाथाद्वयेन यथाऽनन्तरम भहितस्तथैवेत्यर्थः।
इदमुक्तं भवति-एतासु प्रत्येकमोघवत् सूनसम्परायगुणस्थाने जायमानचरमस्थितिबन्यो जघन्यस्थितिवन्धतया प्राप्यते, तदानीं चैकस्य ज्ञानावरणादेः स्थितिवन्धकाले तदितरेषां दर्शनावरणादीनामपि नियता एवं स्थितिबन्धा जायन्ते, ततश्च ज्ञानावरणस्य जघन्यां स्थिति अनन् शेषाणां पञ्चानामपि जयन्यामेव स्थिति वनाति तान्धक इत्यादिरूप ओघोक्तः संनिकर्ष एवं प्रकृतसर्वमार्गणास्वपि घटामुपैति, ततश्च लाघवार्थं तथैवातिदिष्ट इति ॥२६६-२६७।।
अथ क्षपकश्रेणावनिवृत्तिकरणगुणस्थाने जायमानस्थितिवन्धो यास जयन्यस्थितिवन्धतया प्राप्यते तामु मोहनीयस्य जघन्यां स्थिति बनतोऽपि जीवस्य शेपकर्मणां जघन्यस्थितिबन्ध एव प्राप्यते, अतस्ता मार्गणाः सङगृह्य तत्र तथैव दर्शर नाह
पढमस्स जहण्णठिइं वेअकसायतिग-सामइअ-छेए ।
बंधंतो हस्सठिई बंधइ छण्हा-ऽऽउर्ग ण, छण्हेवं ॥२६८॥ (गीतिः) (प्रे०) “पढमस्से” त्यादि, तत्र “पढमस्स जहण्णठिइ"मित्यस्य “बंधंतो हस्सठिई बंधइ छपह" इत्यादिना परेणान्वयः, ततः प्रथमस्य ज्ञानावरणकर्मणो जघन्यस्थिति बध्नन् “हस्सठिई बंधइ छपह" ति पण्णां ज्ञानावरणाऽऽयुर्वर्जानां मूलकर्मणां 'ह्रस्वां' --जघन्यां
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आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां जघन्य स्थितिबन्धे संनिकर्षप्रदर्शक यन्त्रकम्
प्रोघतः - मोहनीयाऽऽयुर्वर्जानां षण्णां प्रकृतीनामन्यतमस्याः प्रकृतेर्जघन्यस्थितिं बध्नन् जीवो मोहनीयाssure एव, शेषपञ्चप्रकृतीनां बन्धक एव, स्थितिमपि तेषां जयन्यामेव बध्नाति ( गा० २६३) । मोहनीयजघन्यस्थितिं बध्नन् जीव आयुषोऽबन्धक एव, शेषाणां पण्णां बन्धक एव, स्थितिं तु तासां षण्णामजन्यामेव बध्नाति ( गाथा - २६४) ।
प्रदेशतः-- श्रायुर्वर्जानां सप्तानां ज्ञानावरणादीनां प्रकृतीनामन्यतमस्याः प्रकृतेर्जघन्यां स्थितिबध्नन् जीवः शेषप्रकृतीनां सर्वथैव
आयुषवन्धक एव शेषाणां जघन्यस्थितेरेव
बन्धकः
आयुषोsन्धक एव, शेषाणां जघन्याया अजघन्याया वा स्थिते बन्धकः, तत्राSजघन्या जघन्य स्थित्यपेक्षया समयादिना यावत्पल्योपमासंख्येयभागेनाऽभ्यधिका बध्यते ।
गति०
इन्द्रियः
काय०
योग०
वेद०
सम्यक्त्व.
मनुष्यौध- तत्पर्यात मानुषीभेदाः,
श्रोघवद
बन्धकः
पञ्चेन्द्रियौध-तत्पर्याप्तभेदौ,
सकायौध-तत्पर्याप्तभेदौ.
सर्वमनोवचोभेद काययोगौघ०
औदारिककाययोगश्च,
अपगतवेद०
लोभ०
मति श्रुताऽवधि मनः पर्यवज्ञान०
कषाय०
ज्ञान० संयम संयमीघ० सूक्ष्मसम्परायः दशन० चक्षु प्रचक्षुः श्रवधि० लेश्या० | शुक्ल०
भव्य ०
भव्य०
संज्ञी० संज्ञी,
आहारी प्रहारक० सर्वमार्गणाः
गाथाङ्काः-
३
३७
२६६-२६७
२
३
सम्यक्त्वौघ० क्षायिकः प्रपशमिकट
१२
१
१
४
३
१
वेदत्रयी,
क्रोध मान-माया०
१
८
3
अज्ञानत्रयम्
२ सामायिक छेदोपस्थापन०२ परिहार० देशसंयम० असंयम०
३
१
२६८
३
सर्व नरक- तिर्यग् देवभेदाः, अपर्याप्तमनुष्यभेदश्व,
सर्वे केन्द्रिय विकलेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदश्व, १७
पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिका सत्काः सर्व भेदाः, अपर्याप्तत्र सकायभेदव, ४०
८८
त्रिमियोग आहारक-वैक्रिय कार्मरणकाययोगाश्र०
६
कृष्णाया: शेषाः पञ्च,
ग्रभव्यः
क्षायोपशमिक सम्यग्मिथ्यात्वः
सास्वादन: मिथ्यात्व०
असंज्ञी,
आहारक०
१२५
२६६-२७०
३
५
१
४
१
१
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आयुषो जघन्यस्थितिबन्धे संनिकर्षप्रदर्शकं यन्त्रकम् प्रोघतः-आयुषो जघन्यां स्थितिं बध्नन् जीवः शेषसप्तप्रकृतीनामजघन्याया जघन्यस्थित्यपेक्षयाऽसंख्येय
गुणाभ्यधिकायाः स्थितेवन्धक एव भवति (गाथा-२६५) । आदेशतः-आयुषो जघन्यांस्थितिं बध्नन जीवः शेष सप्तप्रकृतीनां बन्धक एव भवति, स्थितिं तु तासां सतप्रकृ
तीनामजघन्यामेव बध्नाति, सा त्वजन्यास्थितिघन्यस्थित्यपेक्षयामोघवदसंख्य
या संख्यगुणा- संख्यभागाधि- | असंख्यभागा- असंख्यभागेन,सं
धिका,संख्य- कैच, धिव, ख्यभागेन संख्यगुणाभ्यधिकैव, | ऽभ्यधिकैव, भागाधिका०
गुणेनाऽधिका वा मनुष्यौघ-तत्पर्याप्त- सर्वनरक-सर्वदेवा- सर्वपञ्चेद्रिय
तिर्यग्गत्यौघमानुषीभेदाः, ३ पर्याप्तमनुष्य, ३६ तिर्यरभेदाः ४ पञ्चेन्द्रियौघ तत्प
अपर्याप्तपञ्चे- सर्वविकलेन्द्रिय-| सर्वेकेन्द्रियभेदाः इन्द्रिय र्याप्तभेदौ, २
न्द्रियभेदः,१ भेदाः, त्रसौघ-तत्पर्याप्त
अपर्याप्तत्रस
पृथिवीकायादिसत्ककाय भेदौ,
भेदः, १
शेषसर्वभेदाः,३६ मव मनोवचोभेदा, आहारकद्रिका
प्रौदारिकमिश्र योग. काययोगौघः, औदा- क्रियः ३
रिकः, १२ ।
वेदत्रयम् ३ कषायः सर्व० ४ मति श्रुता-ऽवधि
मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाने, ज्ञान०
विभङ्ग- १ मन:पर्यवज्ञान० ४
असंयम
संयमौव. सामायिक परिहारविशुद्धिक. संयम० छेद
३. देशसंयम०२ दर्शन चक्षु,प्रचक्षु,अवधि. ३ लेश्या० ||शुक्ल
तेज:-पद्मः २
अप्रशस्ताः ,
३
भव्य० भव्य
अभव्य
सम्यक्त्वौघ० सम्यक्त्व
क्षायिक
क्षायोपशमिक० सास्वादन० २
मिथ्यात्व०
संज्ञी० ।
संजी०
असंजी०
आहार०] आहारक० सर्वमार्गणाः- ४२
४६
| गाथाङ्काः- २७६
२७३-२७४ ।
२७५
।
२७६
।
२७६
२७२-२७३
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२५४ ] अष्टमूलप्रकृत्युत्कृष्टस्थितिबन्धे संनिकर्षप्रदर्शकयन्त्रम् [ यन्त्रकम् ओघतः-पायुर्वर्जसप्लान्यतमकर्मरण उत्कृष्टस्थित बघ्नन् जीव आयुर्वर्जानां बन्धक एवं, स्थितिस्तु तेषामुत्कृष्टा
टां वा बध्नाति । तत्राऽनुत्कृष्टा उत्कृष्टापेक्षया समय-द्विसमयादिना यावत्पल्योपमासंख्येयभागेन हीना वा स्यात् न तु ततोऽपि न्यूना। आयुषो बन्धकोऽबन्धको वा, बन्धकश्चेत्कृष्टस्थितिकस्यैव, अबाधा उत्कृष्टा वाऽनत्कृष्टा वा स्यात् ।। आयुष उत्कृष्टस्थिति बनन् जीवः शेषाणाम कृष्टाया अनुत्कृष्टाया वा स्थितेबन्धक एव । तत्रानुत्कृष्टा उत्कृष्टापेक्षया संख्येयभागेना-संख्येयभागेन संख्येयगोन हीन वा स्यादिति (गाथा-२५०........२५४)।
सर्वथा
संख्येयभागहीना- भागहीना भागही भागहीना...
भसंख्य-गुणहीना
४०
आयुर्वर्जसप्तान्यनमकर्मण उत्कृष्टस्थिति बन्धन जीत्र आयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धकः शेपाणां बन्धक एव, प्रायुषोऽबन्धक एव० शेपकणा
स्थितेस्तु तेषां सप्तानाम् शेषपडन्यतमस्य
उत्कृष्टाया अनु- अनुकृपाया एव बन्धकः, शेषान्य- मन्यनलस्य,
त्ष्टायावा बन्धकः सा तूत्कृपस्थित्यपेक्षया | तमस्यो- सर्व
तत्रानुत्कृष्टा असंख्य- संख्येय-ख्ये य- (संख्ये यदोघवद
स्कृष्ट- प्रोवद् । प्रोघवत् भागवीला भागाभाग बन्धकः स्थितेरेव बन्धकः ।
दित्रिविधा एव- एक.
भागहीला बन्धक: स्यात
पा स्यान, सर्वनिरदेव अपर्याप्त
अपर्याप्तभेदद्वयवर्जगति० शेष
शेष० पञ्चेन्द्रियतिर्यग० अपर्याप्त
| तिर्यग्-मनुष्यगतिमनुष्य
भेदा:- ७ सर्व एकेन्द्रिय-विकले.अप- पञ्चेनियौष पञ्चेन्द्रियौध०सव कान्द्रय सर्ववि
अपयाप्तइन्द्रिय यप्तिपञ्चेन्द्रिय० १७ तत्यान.२ तत्पर्याप्त० २ भेद०७ कलेह
प.प.१ वनस्पतिकायान्तसवभेद० सौ.तत्प- त्रसौष० तत्पर्याप्त. वनान्ता:
सापर्याकाय० अपर्याप्त वसश्च ४०
प्ति । २ २ सर्व.३४
प्त०१ प्रौदारिकमिथ वैक्रिय-तसर्वमनोवचोभद०
त्रिाम योग न्मियो, आहारक-तन्मियो, शेष०१२ काययोगौघ. प्रौदा
पाहारकर कामग
रिक १२ वेद०
। अवेद० वेदत्रिक०३/ वेदत्रिक० ३ कपाय०
सर्व० ४ सर्व ज्ञान० । मयादिजान०४ अज्ञान०३ अज्ञान०
त्यादि.४ संचनौब० सामा० छेद०
असंयन. असंयम संयम०
शेष ५ | परिहार । देश
सूक्ष्मसं०
५ दशेन० अवधि:
चक्षु. अनु.२ चक्षु० अचक्षु० २
अवधि. लेश्या० कगाव: कृपण हागार १
शेष.५ भव्य०
सर्व० २ मा सम्य- मिथ्याविना, ६ मिथ्या व.श मिथ्यात्व० १
शेष. ४ सर्व० २ संज्ञी
असंज्ञी आहारी अनाहार
आहाग १. आहारक० १ सर्वमार्गणाः- १२५
४३ गाथाङ्का:- २५५-५७-५९-६० । २५६ २५५
२५१ । २५५........ | २६० - २६१ । ' २६१
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मार्गणास्त्रायुषोजघन्यस्थितिबन्धसंनि० ] द्वितीयाधिकारे संनिकर्षद्वारम्
[ २५५ स्थितिमेव बध्नाति, न पुनरजघन्यामिति भावः । “उगं ण" ति विश्लेशप्राप्तस्याऽऽकारस्य दर्शनादायुपः-आयुःकर्मणो न । तदानी क्षपकश्रेणावायुर्बन्धस्याऽसम्भवादायुःकर्म नैव वध्नातीति भावः । “छण्हेवं" ति ‘एवं'- यथा ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थितिबन्धसंनिकर्षस्तथा षण्णां दर्शनावरणादीनामपि जघन्यस्थितिबन्धसंनिकर्षः, वक्तव्य इति शेषः । कासु मार्गणास्वित्याह-"वेअकसायतिगे"त्यादि, त्रिकशब्दस्य वेदकषाययोः प्रत्येकं योजनाद् वेदत्रिके-स्ठ्यादिषु त्रिसृषु वेदमार्गणास, कपायत्रिके-क्रोधादिषु तिसृषु कपायमार्गणास्वित्यर्थः । तथा “सामइअछेए” त्ति सामायिकसंयम-छेदोपस्थापनसंयममार्गणयोरित्येतास्वष्टमार्गणास प्रत्येकभित्यर्थः । अत्र युक्तिस्तु पातनयव दर्शितेति ॥२६८॥ अथ शेषमार्गणास्वायुर्वर्जानां सप्तानामेव जघन्यस्थितिबन्धसंनिकर्षमाह
सेसासु जहण्णठिणाणावरणस्स बंधमाणो उ। बंधइ चिअ छण्ह ठिइं जहण्णगं व अजहण्णं वा ॥२६९॥ हस्साउ सा अहस्सा समयाउ पलियअसंखभागेणं ।
अब्भहिया-55 णो चिअ बंधइ एमेव छण्ह भवे ॥२७०॥ (प्रे०) “सेसासु जहण्णठिई” इत्यादि, अनन्तरं “तिणरे" त्यादिनाऽभिहिताः सप्तत्रिंशन्मार्गणास्तथा "वेअकसाय" इत्यादिनोक्ता अष्ट मार्गणाश्च विहाय शेषासु पञ्चविंशत्यभ्यधिकशतमार्गणास प्रत्येकं ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थिति बनन् 'तु'-पुनः “बंधइ चिअ छह ठिई" ति षण्णां दर्शनावरणादीनां ज्ञानावरणायुर्वर्जानां स्थिति बध्नात्येव, न पुनरायुष इव न बध्नात्यपीति भावः । “जहण्णगं व अजहणणं वा" ति तां च षण्णां दर्शनावरणादीनां स्थिति जघन्यकां वाऽजघन्यां वाऽन्यतरप्रकारां, बध्नातीत्यनुवर्तते। अत्राजघन्याः स्थितेवहुभेदमिन्नत्वात् सा कियन्मानेत्याशङ्कायामाह-"हस्साउ सा अहस्सः” इत्यादि, सा प्रकृतमागंणासु ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थितिवन्धकाले तदबन्धकेन निर्वय॑मानाऽहस्वा-ऽजधन्याः स्थितिः "हस्साउ” त्ति 'हस्वायाः' -जघन्यायाः स्थितेः “समाउ पलियअसंखभागेणं" ति समयादारभ्य पल्योपमस्थाऽसंख्येयतमैक मागेन, अभ्यधिकेति गाथोतरार्धेऽन्वयः । भवतीतिशेषः । गतार्थम् । “उ णो चिअ बंधइ" ति प्राग्वद् विश्लेषप्राप्तस्याऽऽकारस्य दर्शनादायुः-आयुःकर्म नैव बध्नाति, स ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थितिबन्धक इति गम्यते । “एमेव" त्ति एवमेव'- यथैतासु ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थितिबन्धसंनिकर्षोऽभिहि स्तिथैव "छण्ह भवे" ति आयुर्वर्जानां शेषषण्णां दर्शनावरणादीनां जयन्यस्थितिबन्धसंनिकर्षों 'भवे ।'- कव्यो भवेत् । प्राग्वद् दर्शनावरणादि प्रत्येकं कर्मादाय स्वयमेव वक्तव्य इति भावः ।
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२५६ ]
बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुःकर्मणः ___अत्र शेषमार्गणा नामत इमाः सर्वे निरयगतिभेदाः, सर्वेतिर्यग्गतिभेदाः, अपर्याप्तमनुष्यभेदः, सर्वे देवगतिमार्गणाभेदाः, सर्वे एकेन्द्रियभेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदः, सर्वे पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायसत्कभेदाः, अपर्याप्तत्रसकायभेदः, औदारिकमिश्र-वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारकमिश्र-वैक्रिया-ऽऽहारक-कार्मणकाययोगभेदाः, तथाऽज्ञानत्रय-परिहारविशुद्धिकसंयम-देशसंयमा-ऽसंयम-कृष्णादिपश्चलेश्या-ऽभव्य-क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-सासादन-सम्यग्मिथ्यात्व-मिथ्यात्वा-संश्य-ऽनाहारिमार्गणाभेदाश्चेति ॥२६९-२७०॥ अथ शेषस्यायुःकर्मणो जघन्यस्थितिबन्धसंनिकर्ष मार्गणास्थानेषु दर्शयन्नाह
सव्वासु जहण्णठिइं बंधतो आउगस्स णायब्बो।
सत्तण्ह बंधगो चिअ अजहण्णाए चिअ ठिईए ॥२७१॥ (प्रे०) “सव्वासु” इत्यादि, सर्वास्वायुर्वन्धप्रायोग्यासु त्रिपष्ट्युत्तरशतमार्गणासु प्रत्येक "आउगस्स" ति उक्तशेषस्यायुष्कस्य-आयुःकर्मणः “जहण्णठिई" ति प्रागुक्तमार्गणाप्रायोग्यजघन्यस्थितिं वध्नन् ज्ञातव्य इति परेणान्वयः । कथंभूतो ज्ञातव्य इत्याह-"सत्तण्ह बंधगो चिअ" ति शेषाणां सप्तानां ज्ञानावरणादीनां बन्धक एव ज्ञातव्य इत्यर्थः । किं तेषां सप्तानां जघन्यस्थितेर्बन्धको ज्ञातव्य उताऽजघन्यायाः स्थितेरित्याह-"अजहण्णाए चिअ ठिईए" ति ओघवदजघन्याया एव स्थितेः, न पुनर्जघन्यायाः स्थितेरपीत्यर्थः । कुत ? उच्यते, एतासु सर्वमार्गणास्वायुषो जघन्या स्थितिर्निरयायुर्वर्जशेषायुःसत्कैव बध्यते । सात्वशभा इतिकृत्वा संक्लेशेन निर्वयते, आयुर्वर्जानां सप्तानां जघन्यस्थितिस्तु शभा इतिकृत्वा विशद्धया निर्वय॑ते । उक्तञ्च'सव्यठिईणं उक्कोसो उ उक्कोससंकिलेसेण। विवरीप उ जहन्नो आउातिगवजसेसाणं ।' इति ।
अत आयुषो जघन्यस्थितेर्बन्धकः संक्निष्टः सन् शेषाणां जघन्यस्थितिं न बध्नाति, किन्त्वजघन्यामेव बनातीति ।।२७१।। अथायुषो जघन्यस्थितिबन्धकैः सा ज्ञानावरणादीनामजघन्या स्थितिर्जघन्यस्थित्यपेक्षया कियत्यभ्यधिका वध्यत इत्येतद् दिदर्शयिपुराह
सा खलु अजहण्णठिई णायव्वा तिरि-युरालमीसेसु। दुअणाणा-ऽयत-तिअसुहलेसा-ऽभवि-मिच्छ-अमणेसु॥२७२॥
तिविहा-ऽसंखंसहिया संखंसहिया य संखगुणअहिया ॥ (प्रे०) “सा खलु" इत्यादि, तत्र खलु शब्दो वाक्यालङ्कारे, ततः सा खल्वायुषो जघन्यस्थितिबन्धकाले तद्वन्धकेन निर्वत्यमाना सप्तानाम् "अजहण्णठिई णायव्वा” त्ति अजघन्या स्थितिख़तव्या। कासु मार्गणासु कीयतीत्याह-"तिरियुराले" त्यादि, “तिविहा" इत्यादि च, तिर्यग्गत्योधौ-दारिकमिश्रकाययोग-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना--ऽसंयम-कृष्णादिव्यशुभलेश्या-ऽभव्य
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मार्गणास्वायुषो जघन्यस्थितेः ] द्वितीयाधिकारे संनिकर्षद्वारम् मिथ्यात्वा-ऽसंत्रिमार्गणासु प्रत्येकं 'त्रिविधा'-त्रिस्थानगता भवति । तामेव दर्शयति-"संखंसहिये" त्यादिना, तत्र "संखंसहिया" इत्यत्रा-कारस्य दर्शनादसंख्यांशाधिका, तत्तन्मार्गणासत्कजघन्यस्थितिबन्धापेक्षयेति प्राग्वदनुक्तमपि द्रष्टव्यम् । इयं हि जघन्यायुर्वन्धकैकेन्द्रियजीवापेक्षया बोद्धव्या । "संखंसहिया य" ति जघन्यस्थितिबन्धापेक्षया संख्यांशाधिका । चकारस्समुच्चयार्थो व्युत्क्रमेण प्रान्ते योज्यः। इयं संख्यांशाधिका तु जघन्यायुर्वन्धकहीन्द्रियादिजीवापेक्षया विभावनीया । “संखगुणअहीया" त्ति जघन्यस्थितिबन्धापेक्षया संख्यगुणाधिका चेत्यर्थः । अत्र तु संख्यगुणाधिक्यं जघन्यायुर्वन्धकसंज्ञिजीवापेक्षया विभावनीयम् , केवलमसंज्ञिमार्गणायां संज्ञिजीवानामप्रवेशात् संख्यगुणाधिक्यं द्वीन्द्रियादिजीवापेक्षया द्रष्टव्यम् । न च द्वीन्द्रियादीनां जघन्यस्थितिवन्धापेक्षयोत्कृष्टः स्थितिबन्धः पल्योपमसंख्येयभागेनाधिको भवति तत्कथं संख्येयगुणत्वं सङ्गच्छेदिति वाच्यम् । प्रकृतमार्गणासत्कजघन्यस्थितिबन्धापेक्षया द्वीन्द्रियादीनां स्थितिबन्धस्य संख्येयगुणत्वाभिधानात् न काचिदसंगतिः, तथैवोपपत्तेः। तथाहि-प्रकृताऽसंज्ञिमार्गणायामेकेन्द्रियजीवानामपि प्रवेशाज्ज्ञानावरणादीनां जघन्यः स्थितिवन्धः सागरोपमस्य पल्योपमासंख्यभागोनत्रिसप्तभागादियः पूर्वमुक्तः, तं प्रकृतमार्गणासत्कजघन्यस्थितिबन्धमपेक्ष्य द्वीन्द्रियादीनामायुर्वन्धकाले जायमानः पञ्चविंशत्यादिसागरोपमाणां पल्योपमसंख्येयभागेन न्यूनस्त्रिसप्तभागादिः स्थितिवन्धः पञ्चविंशत्यादिगुणाधिकः सन् संख्येयगुण एव भवतीति ।।२७२॥
___ अथ यास मार्गणास्वनन्तरोद्दिष्टाऽजघन्यस्थिति धन्यस्थित्यपेक्षया संख्यगुणाधिकैव बध्यते, तासु तथैव दर्शयन्नाह
सव्वणिरयदेवेसु अपज्जमणुसम्मि वेउव्वे ॥२७३॥
आहारदुग-विभंगेसुदेस-परिहार-तेउ-पउमासु।
वेअग-सासाणेसुसंखेज्जगुणेण अमहिया ॥२७४॥ (प्रे०) “सव्वणिरये" इत्यादि, सर्वशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् सर्वे निरयगतिमार्गणाभेदाः सर्वे च देवगतिमार्गणाभेदास्तेषु, तथाऽपर्याप्तमनुष्यभेदे, वैक्रियकाययोगभेदे, अन्यभेदान् संग्रहीतुमाह-"आहारे"त्यादि, आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणयोईिके, विभङ्गज्ञाने, देशसंयमपरिहारविशुद्धिकसंयम-तेजोलेश्या-पद्मलेश्यामार्गणासु तथा क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-सासादनयोरित्येतास्वेकोनपञ्चाशन्मार्गणासु प्रत्येकमायुषो जघन्यस्थितिबन्धकाले बध्यमाना शेषाणामजघन्या स्थितिः निरयगत्यादिस्वस्वमार्गणायां बन्धप्रायोग्यजघन्यस्थित्यपेक्षया "संखेज्जगुणेण अब्भहिया" ति संख्येयगुणाभ्यधिका भवतीत्यर्थः। इति ।।२७३-२७४॥ अथान्यत्र प्रकृतमाह
संखेज्जभागअहिया संखेज्जगुणाहिया य णायब्वा । पंचिंदियतिरियचउग-असमत्तपणिदियतसेसु॥२७५॥
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२५८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ आयुषो जघन्यस्थितिबन्धसंनि० ___(प्रे०) "संखेज्जभागअहिया" इत्यादि, अनन्तरवक्ष्यमाणमार्गणासु प्रकृताऽजघन्यस्थितिर्जघन्यस्थितितः संख्येयभागाधिका मार्गणाप्रविष्टाऽसंज्ञिजीवापेक्षया, तथा संख्येयगुणाधिका मार्गणाप्रविष्टसंज्ञिजीवापेक्षया ज्ञातव्या । कास्वित्याह-"पंचिदिये" त्यादि,पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मार्गणाभेदचतुष्केऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदेऽपर्याप्तत्रसकायभेदे चेत्यर्थः ।।२७५।। अथ शेषमार्गणासु प्रकृतं दिदर्शयिपुरेकामार्यामाह
णेया सव्वेगिंदियपणकायेसुअसंखभाग-ऽहिया ।
सव्वविगलेसु संखंसहिया सेसासु ओघव्व ॥२७६॥ (प्रे०) “णेया” इत्यादि, प्रकृताऽऽयुषो जघन्यस्थितिबन्धकाले बध्यमाना शेषाणामजघन्या स्थितिज्ञेया । कासु कियतीत्याह-"सव्वेगिंदिये"त्यादि, सर्वशब्दस्य प्रत्येकं योजनात्सर्वेष्वेकेन्द्रियभेदेषु सर्वेषु च पृथिव्यादिवनस्पतिकायान्तपञ्चकायमार्गणासत्कभेदेष्वित्येवं षट्चत्वारिंशन्मार्गणाभेदेषु प्रत्येकम् “असंखभागहिया" त्ति सुगमम् । सव्वविगलेसु संखंसहिया" ति ओघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु सर्वेषु द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियलक्षणविकलेन्द्रियभेदेषु संख्यांशाधिका । एतदपि सुगमम् । “सेसासु ओघव्व" ति उक्तशेषासु मनुष्यगत्योघादिद्विचत्वारिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमोघवदसंख्यगुणाधिका ज्ञेयेत्यर्थः। ____ अत्र शेषमार्गणा नामत इमाः-मनुष्यगत्योध-पर्याप्तमनुष्य-मानुषी-पञ्चेन्द्रियौघपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्रसकायौघ-पर्याप्तत्रसकाय--पञ्चमनोयोग--पञ्चवचोयोग-काययोगसामान्यौ-दारिककाययोग-स्त्यादिवेदत्रय-क्रोधादिचतुःकषाय-मत्यादिचतुर्ज्ञान-सामायिक छेदोपस्थापनसंयम-चक्षुरादित्रिदर्शन-शुक्ललेश्या-भव्य-सम्यक्त्वौघ-क्षायिकसम्यक्त्व-संश्या-ऽऽहारिमार्गणा इति । एतासु प्रत्येकमायुर्वर्जानां जघन्यस्थितिबन्धस्य क्षपकश्रेणी जायमानतयाऽतिस्तोकत्वेन तदपेक्षयैकेन्द्रियादिजीवैरायुर्वन्धकाले निर्वय॑मानशेषकर्मणां जघन्यस्थितिवन्धस्याऽप्यसंख्येयगुणत्वात्प्रकृतसंनिकर्षोऽपि तथैव दर्शित इति ॥२७६॥
तदेवमभिहितः सर्वासां मूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धसंनिकर्ष आदेशतोऽपि । तस्मिँथाभिहिते गतं "सण्णियासा" इत्यनेनोद्दिष्टं षष्ठं द्वारम् ।।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धेद्वितीयाधिकारे षष्ठं संनिकर्षद्वारं समाप्तम् ।।
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॥ अथ सप्तमं भङ्गविचयद्वारम् ॥
साम्प्रतं‘भंगविचय’इत्यनेनोद्दिष्टस्य भङ्गविचयद्वारस्यावसरः, तत्रादौ तावन्नानाजीवानाश्रित्योत्कृष्टादिस्थितेर्भङ्गादिस्वरूपं निर्धारयितुकाम आह—
गंगा गंधगो खल पढमो विइओ अबंधगो तहओ । सव्वे व बंधगा तह सव्वे वि अगंधगा चोत्थो ॥ २७७॥ एगेण बंधगेणं एगेऽणेगे अबंधगा कमसो ।
गेहि बंधगेहिं सह एवं पंचमाइचऊ || २७८ ॥ जे बंधगुकसाए ठिईअ ते चिअ अबंधगियराए । जेणुक्कोसा टिई बंधगा ते अबंधगिअरार ॥ २७९ ॥ जे बन्धगा लहूए ते चैव अबंधगा अहस्साए । जे बन्धगाऽणणू ते चैव अगंधगा जहण्णा ॥ २८०॥
(प्रे०) "भंगाऽट्ठे "त्यादि, भङ्गाः -विकल्पाः, ते चैकद्रयादिसंयोगनिष्पन्ना वस्तुविकल्पैरनेकधा ग्रन्थान्तरेषु दृश्यन्ते तथाऽवसेयाः । अत्र तु स्थितिबन्धस्य प्रस्तुतत्वादुत्कृष्टादिस्थितीनामेकाकादिवन्धाद्यपेक्षया चिन्त्यमाना अष्टावभिप्रेता इत्युक्तम् - "भंगाऽड" इति । तानेव क्रमतः स्वरूपतश्चाह-"बंधगो खलु पढमो" इत्यादि, 'बंधगो खलु पढमो' त्ति बन्धक इत्यत्रैकवचनस्योपादानात् खलुशब्दस्याऽवधारणार्थत्वाच्च 'एको बन्धक' एवेति प्रथमो भङ्गः । यदा हि ज्ञानाचरणादेरुकृष्टादिस्थितेः कश्विदेकवन्धक एव विद्यते, न पुनरन्यस्तद्वन्धकस्तद्बन्धको वा 'जे बंधगुक्कसाए' इत्यादिना वक्ष्यमाणस्वरूपः । एतादृशः कालविशेपसव्यपेक्षः प्रथमभङ्गः, न पुनरन्येषां बन्धकानामबन्धकानां वा सद्भावकालिकैकवन्धकसत्ताप्रयुक्तः, तदानीमन्येषां बन्धकानामबन्धकानां वा सद्भावेन विभिन्नकालीनतया 'एको बन्धक एव' इति सावधारणभङ्गस्याऽयुज्यमानत्वात् । ननु 'मा युज्यतां सावधारणः प्रथमभङ्गस्तदानीमन्येषां बन्धकाऽबन्धकानामपि सद्भावकाले, अनवधारणस्त्वसौ युज्येत' ? इति चेत्, न, 'अट्ठण्हुकोसाए सिआ तुरिय-छट्ट-अट्टमा भंगा' इत्यादिनौघादिप्ररूपणायां तत्र तत्र चतुर्थषष्ठादिभङ्गानां वक्ष्यमाणत्वेऽपि प्रथमादिभङ्गानामवक्ष्यमाणत्वेनानिटत्वादिति । इत्थमेवोत्तरत्र द्वितीयादिभङ्गेष्वपि यथासम्भवं विभावनीयं स्वधिया ।
"बिइओ अबंधगो" त्ति 'एकोऽवन्धक एवेति द्वितीयो भङ्गः । तत्रोत्कृष्टादिस्थितिबन्धापेक्षयाऽबन्धकस्वरूपं तु 'जे बंधगुक्कसाए' इत्यादिनाऽनन्तरमेव गाथाद्वयेन ग्रन्थकृता वक्ष्यमाणं प्रतिपक्षस्थितेर्बन्धकलक्षणमेव विज्ञातव्यम् न पुनः सर्वथाऽबन्धकलक्षणमिति । " सव्वे वि बंधगा
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२६० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ ओघतोऽष्टमूलप्रकृतीनाम् तह” त्ति तथाशब्दः समुच्चये । 'सर्वेऽपि बन्धका एवेति तृतीयभङ्गः, न पुनः केचनाऽबन्धका इत्यवन्धकव्यवच्छेदार्थोऽपिशब्दः । एवमुत्तरत्रापि, ततः "सव्वे वि अबंधगा चोत्थो” त्ति 'सर्वेऽबन्धका एवेति चतुर्थो भङ्ग इत्यर्थः । पञ्चमादिभङ्गकानाह-“एगेण बन्धगेण" मित्यादि, एकेन बन्धकेन सह क्रमेण एकोऽबन्धकः, अनेकेऽबन्धकाः । अनेकैर्वन्धकैः सह एकोऽबन्धकः, अनेकेऽबन्धका एवंरूपाः पञ्चमात्योऽष्टमान्ताश्चत्वारो भङ्गाः । तद्यथा-'एको बन्धक एकोऽबन्धक एवेति पञ्चमभङ्गः । 'एको अन्धकोऽनेकेऽवन्धका एवेति षष्ठभङ्गः । 'अनेके बन्धका एकोऽबन्धक एवे ति सप्तमभङ्गः । अनेके बन्धका अनेकेऽवन्धका' इत्यष्टमो भङ्ग इति ।
द्वितीयादिभङगोक्ताबन्धकानामुत्कृष्टादिस्थितिभेदेन स्वरूपं निर्धारयन्नाह-"जे बंधगुक्कसाए" इत्यादि,ये उत्कृष्टायाः स्थितेर्वन्धकास्त एवेतरस्याः-अनुत्कृष्टायाः स्थितेरवन्धका अनुत्कृष्टस्थितिबन्धविषयकाङ्गविचयेऽयन्धकाया गृद्यन्ते, न पुनर्ये स्थितेः सर्वथाऽवन्धकास्तेऽपीति सर्वथाऽनन्धकव्यवच्छेदार्थकमेवकारोपादानम् । तथैव “जेऽणुक्कोसाअ” त्ति चिअशब्दोऽनुवर्तते, ततो येऽनुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकास्त एवेतरस्या उत्कृष्टस्थितेरवन्धकाः । अत्रापि पूर्ववद्भावार्थो द्रष्टव्यः । जघन्याजघन्यस्थितिवन्धविषयेऽवन्धकस्वरूपमधारयन्नाह-"जे बंधगा लहुएइत्यादि पूर्ववत्, नवरं "लहुए" ति जघन्याः स्थितेः, "णणए" ति अकारस्य दर्शनाद् अनणव्या: अजघन्याः स्थितेरित्यर्थः ॥२७७-२७८-२०९-२८०॥
___ तदेवं भङ्गलस्वरूपं तत्रोपयोग्यवन्धकस्वरूपं चावधार्य साम्प्रतं ज्ञानावरणादीनामु-कृष्टादिस्थितिवन्धमधिकृत्य सम्भवद्भङ्गान् च्याचिकीर्षु रादौ तावदोघतः प्रतिपादयति
अट्टण्हुक्कोसाए सिआ तुरिय-छट्ट-अट्ठमा भंगा।
अट्ठम-सत्तम-तइआ ऽणुक्कोसाए ठिईए य ॥२८१॥ (प्रे०) “अट्ठण्हुक्कोसाए” इत्यादि, ज्ञानवरणादीनामष्टानामपि मूलप्रकृतीनां प्रत्येकसुत्कृष्टायाः स्थितेः “सिआ तुरिय-छ?-अट्ठमा भंग" ति स्याचतुर्थभङ्गः 'सर्वेऽवन्धका एवे'ति । स्यात्वष्ठभङ्गः ‘एको बन्धकोऽनेके बन्धका एवे' ति । स्यादष्टमभङ्गः 'अनेके बन्धका अनेकेडबन्धका एवेत्येवमोघत उत्कृष्टस्थितेभिन्नभिन्नकालापेक्षया नानाभङ्गानां सम्भवादेकभङ्ग उत्तेोऽप्यन्यभङ्गावकाशायानेकान्तद्योतकं स्यात्पदं प्रत्येकं योज्यमिति भावः । एवमेवोत्तरत्रापि नानाभङ्गसम्भवेऽनुक्तेऽपि स्यात्पदे तद् द्रष्टव्यमिति । ननु ओघतो ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितेः कथमेते त्रय एव भङ्गाः, न पुनरन्ये पञ्च ? इति चेत् , बन्धकपरिमाणादितथाविवनियमवशाद् , एतदर्थे तथाविधव्याप्तय एव द्रष्टव्याः, तास्त्वनन्तरं मार्गणास्थानेषु भङ्गप्रपञ्चनावसरे दर्शयिश्यामः, तत्र तासां सुज्ञेयत्वादिति । अथाऽष्टानामनुत्कृष्टस्थितेः सम्भवद्भङ्गानाह-"अट्ठमे" त्यादि, 'अट्टण्ह' इत्यनुवर्तते, ततोऽपानामपि ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतीनामनुत्कृष्टायाः स्थितेः
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उत्कृष्टा ऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धे ]
द्वितीयाधिकारे भङ्गविचयद्वारम्
[ २६१
स्वादष्टमो भङ्गः 'अनेके बन्धगा अनेकेऽवन्धका एवे 'ति । स्यात्सप्तमभङ्गः 'अनेके बन्धका एकोवन्धक एवे 'ति । स्यात्तृतीयभङ्गः 'सर्वे बन्धका एवे 'ति त्रयो भङ्गाः, न पुनरन्ये पञ्चेति ॥ २८९ ॥ देवमिति घटानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्नानाजीवाश्रयो वन्धकाबन्धकनिष्पन्नो भङ्गविचयः । इदानीमादेशतविकथयिषुरादौ तावदायुर्वजनां सप्तानां तमाहअसमत्तणरे विकियभीसे आहार दुग-अवेएस |
सुहुम-उवसमेसु तहा सासण-मीसेसु भङ्गाऽट्ट ||२८२ ॥ जेडियराण टिई आउगवज्जाण अट्टमो भंगो । सव्वे एगिंदि - णिगोअभेएस सेससहुमेसु ॥ २८३ ॥ ( गीतिः) वायर अपज्जपुहवाइचउग- पत्ते अहरिअ-हरिए । सयमुज्झं परिहारे छेए ओघव्व सेसा ॥ २८४ ॥
(प्रे०) “असमत्तणरे” इत्यादि, 'अपर्याप्त नरे' - अपर्याप्तमनुष्यमार्गणास्थाने, तथा वैक्रियमिश्र काययोगमार्गणास्थाने, आहारक- तन्मिश्रकाययोगमार्गणाज्यलक्षण आहारकरिके, 'अवेअ' ति अग वेदमार्गणास्थाने, तथा सूक्ष्मसंपरायसंयमे, अपशमिकसम्यक्त्वे, सासादन-सम्यग्मिथ्यात्वमार्गणास्थानयोश्चेत्येवं समुदितासु नवमार्गणास्थानेषु "भङ्गा" ति उक्तस्वरूपा अष्टावपि भङ्गाः सम्पद्यन्ते । केषां कर्मणां कथम्भूतायाः स्थितेरित्याह - "जेडियराणे "त्यादि, आयुर्वजर्जानां सप्तकर्मणां 'ज्येष्ठायाः ' - उत्कृष्टायाः 'इतरायाः ' - अनुत्कृष्टायाच स्थित्योः । कथम् ? प्रत्येकं मार्गणास्थानानां नानाजीवानाश्रित्य सान्तरत्वात् । उक्तञ्च जीवसमासे मार्गणास्थानेषु जीवानां कादाचित्कसर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं प्रदर्शयता ग्रन्थकृता
'पल्लाऽसंखियभागं सासणमिस्सासमत्तमगुएसु । वालपुहुत्तं उवसामएस खत्रगेसु छम्मासा ॥ आहार मिस्साजोगे वासपुहुत्तं विजयमिसेसु । बारस हुति मुहुत्ता सव्वेसु जहणओ समओ' ॥ इति ।
अत्र पाठे क्षपकाणामुपशमकानां चान्तरस्य प्रदर्शितत्वेन स्थितेर्वन्धकानामपगतवेदानां सूक्ष्मसंपरायसंयतानां चान्तरमर्थतो गम्यत एव क्षपकोपशमकान् विद्यायान्येषां स्थितिबन्धकावेदितया सूक्ष्मसम्परायसंयततया वाऽप्राप्तेः । ननु तथाऽपि प्रस्तुताऽपर्याप्तमनुष्यादि मार्गणास्थानेष्वष्टानामपि भङ्गानां सम्भवे, अन्यत्रौघादौ तु तृतीयादीनां सम्भवे, तदन्येषां भङ्गकानां त्वसम्भवे को नाम गमकः ? इति चेद्, तथाविधव्याप्त एव ।
इहोत आदेशच ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टादिस्थितौ तत्तद्भङ्गसम्भवाऽसम्भवे इमा व्याप्तय:-- सर्वाः स्थितयो द्विविधस्थितिबन्धेऽन्तर्भवन्ति, तत्रैका सर्वाधिका स्थितिरुत्कृष्टस्थितिबन्धे, एकवर्जाः शेषाः समय- द्विसमय - त्रिसमयादिन्यूनोत्कृष्टा यावज्जघन्याः सर्वा अप्यनुत्कृष्ट स्थितिबन्धे ।
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२६२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ ओघतो मार्गणासु चोत्कृष्टादिस्थितेः इत्येवमुत्कृष्टानुत्कृष्टद्विविधस्थितिबन्धे सर्वा बन्धप्रायोग्यस्थितयोऽन्तर्भूताः । एवं जघन्याऽजघन्यद्विविधस्थितिबन्धेऽपि सर्वा बन्धप्रायोग्यस्थितयोऽन्तर्भवन्ति, जघन्यस्थितिबन्धतया एकर बन्धप्रायोग्यसर्वस्तोकस्थितिबन्धस्थानस्य, अजघन्यस्थितिबन्धतया तु शेषसर्वबन्धप्रायोग्यस्थितिबन्धस्थानानां च ग्रहणात् । एतच्च सर्व प्राग्दर्शितमेव । द्विविधस्थितिबन्धे नानास्थितिबन्धस्थानात्मकानुत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धकानां कादाचित्कसर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं यत्र मार्गणादौ लभ्यते तत्र तस्यास्तत्प्रतिपक्षभूताया उत्कृष्टादिस्थितेः प्रत्येकमष्टावपि भङ्गाः सम्पद्यन्ते । यथा प्रस्तुताऽपयाप्तमनुष्यादिमार्गणास्वष्टकर्मणाम् , निरयगत्योपादिमार्गणास्वायुःकर्मणश्चेत्येका व्याप्तिः ।।
यत्र पुनरोघे मार्गणासु वा ज्ञानावरणादेरेकस्थितिबन्धस्थानात्मकोत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धकपरिमाणमसंख्यलोकप्रमाणं तदधिकं वा भवति, तत्र तु तस्यास्तत्प्रतिपक्षभूताया नानास्थितिबन्धस्थानात्मिकायाश्च स्थितेः प्रत्येकमेकोऽष्टमभङ्ग एव प्राप्यते, न पुनरन्ये सप्त; यथोघत आयुषः, आदेशतस्तिर्यग्गत्योपादिमार्गणासु ज्ञानावरणादेर्जघन्याऽजघन्यस्थित्योः, एकेन्द्रियोषादिमार्गणासु ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टाऽनुत्कृष्टस्थित्योश्चेति दितीया व्याप्तिः ।
यत्र मार्गणादौ तु नानास्थितिवन्धस्थानात्मकस्थितेर्बन्धकानां कादाचित्कसर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं न भवति, न वा तत्प्रतिपक्षभूतैकस्थितिबन्धस्थानलक्षणायाः स्थितेर्वन्धका असंख्यलोकाकाशप्रदेशप्रमितास्तदधिका अनन्ता वा, तत्र तु द्विविधस्थित्योस्त्रयस्त्रयो भङ्गा एव सम्पद्यन्ते । तेऽपि एकस्थितिबन्धस्थानात्मकस्थितेश्चतुर्थ-षष्ठा-ऽष्टमभङ्गलक्षणाः, तत्प्रतिपक्षभूतनानास्थितिबन्धस्थानात्मकस्थितेस्तूक्तविपरीतास्तृतीय-सप्तमा--ऽष्टमभङ्गालक्षणास्त्रयः, यथौघतोऽष्टानामपि मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टाऽनुत्कृष्ट स्थित्योः क्रमेणेति तृतीया व्याप्तिः।
कुतः एवम् ? इति चेद, उच्यते-यत्र नानास्थितिबन्धस्थानात्मकस्थितेर्बन्धकानां सर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं सम्पद्यते, तत्रैकस्थितिवन्धस्थानात्मकस्थितेर्वन्धकानां तु तत् सुतरां सम्पद्यते; नानास्थितिवन्धस्थानात्मकस्थित्यपेक्षयैकस्थितिवन्धस्थानात्मकस्थितेवन्धकानां संख्येयादिभागगतत्वेनस्तोकत्वात् । इत्येवं तत्र मार्गणादौ बन्धकाऽवन्धकपदद्वयस्याऽप्यधवत्वेन तत्तद्वन्धकादीनां सद्भावाऽसद्भावेऽष्टावपि भङ्गाः समुत्पद्यन्ते, आयुर्वर्जसप्तानां नानास्थितिबन्धस्थानात्मका-ऽनुत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धकानां कादाचित्कसर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं तु प्रस्तुताऽपर्याप्तमनुष्यादिसान्तरमागंणास्वेव लभ्यते, न पुनः शेषमार्गणास्थानेश्वोघे वा, तथा च तास्वेव सप्तानामुत्कृष्टादिस्थितेरष्टावपि भङ्गाः समुत्पद्यन्ते ।
तथाहि-अपर्याप्तमनुष्यमार्गणायां जीवानां सर्वथाऽभावलक्षणान्तरकालस्याक्सिमये द्वावेव जीवावपर्याप्तमनुष्यतया विद्यते, नान्ये । तयोरप्येकेन तदानीं बध्यमानाऽऽयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिनिर्वय॑ते, नान्येन, इत्येवं तत्कालमपेक्ष्योत्कृष्टस्थितिबन्धविषये पञ्चमभङ्गः
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तत्तद्भङ्गानामुपपत्तिमार्गः ] - - द्वितीयाधिकारे भङ्गविषयद्वारम्
[ २६३ प्राप्यत ‘एको बन्धक एकोऽबन्धक एवे' ति । तदनन्तरसमये तु तौ विपि जीवौ ततश्ब्युन्वाऽपयाप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियादिमार्गणान्तरं प्राप्तौ । न च तदानीं समस्तेऽपि जगति कश्चि-जीवोऽपर्याप्तमनुष्यतया विद्यते । तच्चाऽपर्याप्तमनुष्यमार्गणाया अन्नरम् । अन्तरकालादूचं पुनरपि मार्गणान्नराज्च्युत्वा जीवानामपर्याप्तमनुष्यतयोत्पत्तिः प्रारब्धा, तत्र प्रथमसमये कश्चिदेक एव जीयोऽपर्याप्तमनुष्यतयोत्पन्नः । स च तदानीं भवप्रथमसमयस्थः सन् सप्तकर्मणामनुत्कष्टस्थितिबन्धमेव करोतीति प्राप्तो द्वितीयभङ्गः ‘एकोऽबन्धक एवेति, अनुत्कृष्टस्थितिबन्धकानामुत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षयाऽवन्धकतयाऽभिमतत्वात् । कियत्कालेन च तेन जीवेन सप्तानामुत्कृष्टस्थितिवन्धः प्रारब्धः, यावता नाऽऽगतः कश्चिज्जीवो मार्गणान्तरादपर्याप्तमनुष्यतया, एवं व लब्धः प्रथमो भङ्गः ‘एको बन्धक एवे' ति, तदानीमपर्याप्तमनुष्यमार्गणायां तदन्यजीवस्याविद्यमानत्वात् , विद्यमानेन तु तेनोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य निर्वर्तनाच्च । आरब्धे च तेनोत्कृष्टस्थितिबन्धे द्वितियसमये कश्चिदन्यो जीवो मार्गणान्तरादागत्याऽपर्याप्तमनुष्यतया समुत्पन्नः, स च तदानीं सप्तानामनुत्कष्टस्थितेरेव वन्धक इति लब्धः पुनरपि पश्चमभङ्गः। समयान्तरेऽन्ये त्रिचतुरा जीवा अपर्याप्तमनुष्यतया समजायन्त । ते च तदानीमनुत्कृष्टस्थितेरेव बन्धकाः, इत्थं तदानीमेकस्य सर्वप्रथममागतस्य जीवस्यैवोत्कृष्टस्थितेर्वन्धकत्वात् , तदन्येषां पञ्चानामपि जीवानामनुत्कृष्टस्थितेरेव निवर्तकत्वाच्च जात 'एको बन्धकोऽनेकेऽबन्धका एवेति षष्ठभङ्गः। समयान्तरे च प्रथमागतेनाऽप्युत्कृष्टस्थितिबन्धं समाप्याऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धः प्रारब्धः, तदानीं च मार्गणागतानां षण्णामपि जीवानामनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैव प्रवर्तनात् प्राप्तश्चतुर्थभङ्गः 'सर्वेऽवन्धका एवेति । अन्तमुहर्तेऽतिगते तैः सर्वैरुत्कृष्टस्थितिबन्धः प्रारब्धः, नाऽगतश्चाऽद्यापि तदन्यः कश्चिज्जीवः । इत्थं तदानीं मार्गणावर्तिनां सर्वेपामपि जीवानां सप्तकर्मोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य प्रवर्तनाल्लब्धस्तृतीयो भङ्गः 'सर्वे बन्धका एवेति । तदनन्तरसमये च कश्चिदेक एव जीवोऽपर्याप्तमनुष्यतया संजातः, तस्याऽभिनवोत्पन्नस्याऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धः, शेषाणां तूत्कृष्टस्थितिबन्धः प्रवर्तत इति सम्प्राप्तः सप्तमो भगो'ऽनेके बन्धका एकोऽबन्धक एवेति । समयान्तरेऽन्येऽपि केचनाऽपर्याप्तमनुष्यतया समुत्पन्नाः । न चाद्याऽपि पूर्वोक्तैरुत्कृष्टस्थितिबन्धः समाप्तः । इत्थं प्राप्तोऽष्टमभङ्गोऽनेके बन्धका अनेकेऽबन्धका एवेति ।
इदन्तु दिङ्मात्रम् । अनया दिशा प्रकारान्तरेण तु स्वयमेव भावनीयाः । अनुत्कृष्टस्थितेरष्टौ भङ्गास्तूक्तव्यत्यासेन भावनीयाः, यतो 'जे बंधगुक्कसाए' इत्यादि-(२७९-२८०) गाथाद्वये य उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकास्तेऽनत्कृष्टस्थितेरवन्धकाः, ये चानुत्कृष्टस्थितेवन्धकास्त उत्कृष्टस्थितेरवन्धका उक्ताः । एवञ्चोत्कृष्टस्थितेः प्रथमभङ्गोऽनुत्कृष्टस्थितेर्द्वितीयो भङ्गो भवति । उत्कृष्टस्थितेर्द्वितीयस्त्वनुत्कृष्टस्थितेः प्रथमः । एवं तृतीय-चतुर्थावपि भङ्गौ व्यत्यासेन प्राप्यते । एवमेव षष्ठसप्तम-भङ्गावपि व्यत्यासेन वाच्यौ, य उत्कृष्टस्थितेः षष्ठभङ्गः, सोऽनुत्कृष्टस्थितेः सप्तमभङ्गो भवति, उत्कृष्टस्थितेः सप्तमस्त्वनुत्कृष्टस्थितेः षष्ठ इति भावः । पञ्चमा-ऽष्टमौ तु स्वस्थाने
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२६४]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइवधो [ औवतो मार्गणासु चीत्कृष्टादिस्थितः बन्धकाऽबन्धकव्यपदेशभेदेनोत्कृष्टस्थितेरनुत्कृष्टस्थितेश्च पञ्चमाऽष्टमभङ्गा व भवतः, न पुनर्भङ्गव्यत्यासेन । इत्थं च यत्रैकस्थितिवन्धस्थानात्मकोत्कृष्टादिस्थितेः पञ्चमोऽष्टमो वा भङ्गो लभ्यते, तत्र नानास्थितिबन्धस्थानात्मकप्रतिपक्षभृतानुत्कटादिस्थितेरपि स पञ्चमोऽटमो वा भङ्गः प्राप्यते, यत्र तूत्कृष्टस्थितेः प्रथमो वा द्वितीयो वा तृतीयो वा चतुर्थो वा षष्ठो वा सप्तमो वा भङ्गस्तत्र तु क्रमेणानुत्कृष्टस्थितेर्द्वितीयो वा प्रथमो वा चतुर्थो वा तृतीयो वा सप्तमो वा षष्ठो वा भङ्गः सम्पद्यते । अत एवौघतो ज्ञानावरणाद्युत्कृष्टस्थिते धतुर्थषष्ठाऽष्टमभङ्गाः, तदनुत्कृष्टस्थितेस्तु तृतीय-सप्तमा-ऽष्टमभङ्गाश्चाभिहिताः, निरयगत्योघादिमागंणास्थानेषु वक्ष्यते च ।
ओघतो निरयगत्योघादिमार्गणास्थानेषु च ज्ञानावरणादीनामुत्कष्टादिस्थितेस्त्रिभङ्गप्राप्तिस्तु तेषु नानास्थितिवन्धस्थानात्मकस्याऽनुत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धकानां कादाचित्कसर्वथाऽभावलक्षणान्तरस्याऽभावेनैकपदस्य ध्रुवत्वात् , एकस्थितिबन्धस्थानात्मकोत्कष्टादिस्थितेर्बन्धकानामसंख्यलोकपरिमाणापेक्षया स्तोकत्वेनान्यपदस्याऽध्रुवत्वात् । एकस्थितिबन्धस्थानात्मकस्योत्कृष्टादिस्थितेबन्धकानां कदाचित्सर्वथाभावलक्षणस्यान्तरस्याऽपि सम्भवेन तत्पदस्याऽत्रुवत्वादिति भावः । एकस्य पदस्य ध्रुवत्वे तदबन्धकाः सर्वदाऽनेके लभ्यन्ते । अध्रुवपदस्य तु कदाचिदेको लभ्यते, कदाचिचनेके लभ्यन्ते, कदाचित्तु न इत्येवं भङ्गत्रयी समुत्पद्यते ।।
तद्यथा-एकस्थितिबन्धस्थानात्मकस्थितेर्यदा एकोऽपि बन्धको न लभ्यते, तथा 'सर्वेऽबन्धका एवेति चतुर्थभङ्गः; तदानी बहूनां नानास्थितिबन्धस्थानात्मकस्थितेर्बन्धकानां विद्यमानत्वात् । अत एव यदाऽध्रवपदे एको बन्धकः प्राप्यते, तदा षष्ठभङ्ग ‘एको बन्धकोऽनेकेऽबन्धका एवेति । यदा पुनरनेके बन्धकाः प्राप्यन्ते, तदा त्वष्टमो भङ्गोऽनेके बन्धका अनेकेऽबन्धका एवेति । नानास्थितिवन्धस्थानात्मकानुत्कृष्टस्थितेस्तु बन्धकस्थानेऽवन्धकाः, अबन्धकस्थाने बन्धका इति व्यत्यासेन तृतीय-सप्तमा-ऽष्टममगाः स्वयमेव योज्याः ।
यत्र तु मार्गणादावेकस्थितिबन्धस्थानात्मकस्थितेर्बन्धका असंख्यलोकप्रदेशराशिपरिमितास्तदधिका वा सन्ति, तत्र तु पदद्वयमपि ध्रवमेव भवति । कुतः ? असंख्यलोकप्रदेशपरिमितजीवराशेबन्धप्रायोग्यस्थितेर्बन्धकानां नैरन्तरर्येण बहूनां लाभात् ।
ननु तथा सति भवत्वेकस्थितिबन्धस्थानात्मकस्थितेबहूनां बन्धकानां नैरन्तर्येण लाभस्ततश्च तत्पदं ध्रुवम् , अनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां त्वध्रुवं भविष्यति ? इति चेद्, मैवम्,सर्वत्रैकस्थितिबन्धस्थानात्मकस्थितेवन्धकपरिमाणापेक्षया. तत्प्रतिपक्षभूतनानास्थितिवन्धस्थानात्मकस्थितेर्बन्धकानामनेकगुणानां भावाद् यत्रैकस्थितिबन्धस्थानात्मकस्थितेर्बन्धकानां बहुत्वेन तत्पदं ध्रवं भवति, तत्र नानास्थितिबन्धस्थानात्मकस्थितेर्बन्धकपदमपि ध्रुवमेव लभ्यते, इत्येवं तादृशमार्गणादौ पदद्वयस्यापि ध्रुवतया सार्वदिकनानावन्धकाऽवन्धकलाभलक्षणोऽनेके बन्धका अनेकेऽबन्धका एवे त्यप्टमभकम एव सम्पद्यते ।
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तत्तद्भङ्गानामुपपत्तिमार्गः ] द्वितीयाधिकारे भङ्गविचयद्वारम्
[ २६५ एवं होदं प्रतिष्ठितम्-यत्रोत्कृष्ट-जघन्यान्यतरस्थितेस्तत्प्रतिपक्षस्थितेश्च बन्धकानां कादाचित्कसर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं प्राप्यते, तत्र बन्धकाऽबन्धकलक्षणपदद्वयस्याऽध्रुवत्वेनाऽष्टावपि भङ्गाः प्राप्यन्ते । यत्र त्वनुत्कृष्टाऽजघन्यस्थितेर्बन्धकानां कादाचित्कसर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं नैव लभ्यते, किन्तु तत्प्रतिपक्षभूतोत्कृष्टादिस्थितेस्तल्लभ्यते, तत्रैकस्य पदस्य ध्रुवत्वाद् एकस्य त्वध्रुवत्वाच्चोत्कृष्टादिस्थितेर्यथासम्भवं चतुर्थादयस्त्रयस्त्रयो भङ्गाः प्राप्यन्ते । यत्र तु बन्धकपरिमाणस्यासंख्येयलोकाकाशादिलक्षणबहुत्वेनैकस्थितिबन्धस्थानात्मकोत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धकानामपि कादाचित्कसर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं न भवति, तत्र तु पदयस्य ध्रवत्वेनाष्टमभङ्ग एवाऽऽप्यत इति ।
नन्वेवं तर्हि छेदोपस्थापनसंयम-परिहारविशुद्धि कसंयममार्गणयोरुत्कृष्ट-जघन्य-तत्प्रतिपक्षस्थितीनां प्रत्येकं बन्धकानां कादाचित्कसर्वथाऽभाव रक्षणान्तरस्य सम्भवेऽपि तत्र कथमटौ भङ्गा नाभिहिताः ? इति चेद, उच्यते, छेदोपस्थापन-परिहारपिशुद्धिकसंयममार्गग योरपर्याप्तमनुष्यमार्गणादिवत्सान्तरत्वेऽपि तत्र मार्गणाइये यदि जघन्यपद रको नीगे उभ्येत, तदोक्कनीत्या स्याग
गाष्टकम् , नवरं श्रीपञ्चमाङ्ग "छेदोवट्ठावणिया पुछानो यमा! पडियामाणा : पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि, जइ अस्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उकको वेणं सत्तं, याविना सघ अस्थि सिय नत्थि, जइ अस्थि जहन्नेणं कोडिसयपुहुत्तं, उक्कोसेणवि कोडिसयपुहुत्तं " इत्यनेन जघ- पदेऽपि छेदोपस्थापनसंयतानां कोटिशतपथक्त्वमनिहितम् । तटोकायां पुनः श्रुतिबलाजघन्यतस्तेषां विंशतिरेव सम्भाविता । तथा च टोकाक्षराणि-“दुष्षमान्ते भरतादिषु दशपु क्षेत्रेषु प्रत्येकं तद्वयस्य भावाविंशतिरेव तेषां श्रूयते,' इति । एवं परिहारविशद्विपतमार्गणास्थाने "परिहारविसुद्धिया जहा पुलागा" इत्यनेनातिदेशतः श्रीमत्यां भगवत्यां जघन्यपद एकोऽभिहितः, पञ्चवस्तुकप्रकरणे तु 'उक्कोस-जहण्णेणं सयसो च्चिय पुब्बपडिवण्णा ।।गाथा १५३४॥” इत्यनेन जघन्यतोऽपि ते शतशः प्रतिपादिताः।
न चैवं सति तत्तन्मतेन यथासम्भवं भङ्गका द्रष्टव्या भवन्तीति वाच्यम् । यत एतेषामतुल्यप्रतिपादनानां भिन्नभिन्नमतावलम्बित्वमेव, न पुनरभिप्रायविशेषावलम्बित्वमिति न केनाऽपि निश्चितम् । यत उक्तमभयदेवसूरिपादैः-"इहोत्कृष्टं छेदोपस्थापनी यसंयतपरिमाणमादितीर्थकातीर्थान्याश्रित्य सम्भवति । जघन्यं तु तत्सम्यग् नावगम्यते' इति । पञ्चवस्तुके च प्रक्षेपपक्षापेक्षया जघन्यपद एक एव परिहारविशद्धिको भवतीत्युक्तम् । तथा च तद्ग्रन्थ:
'पडिवज्जमाण भइया इक्कोऽवि हु होज्ज ऊणपक्खेवे ।
पुवपडियन्नयावि हु भइया एगो पुहुत्तं वा ।।१५३६।।' इति । केचित्पुनरेवमाहः-*छेदोपस्थापनीयं तु प्रथ चतुर्विशतितमजिनतीर्थे तु नियमत आदर्तव्यं, पूर्वगृहीतचारित्रस्य विशेषोद्योतार्थमथवा मूलगुणभङ्गे पुनर्महात्रतारोपणन् , एतत्तु सर्वजिनतीर्थेषु प्राप्यते' इति ।
* खरतरगच्छीयपाठकरामविजयकृतगुणमालावृत्ती,
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२६६ ]
बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणांस्वायुःकर्मणः इत्यतोऽत्र ग्रन्थे छेदोपस्थापनसंयम-परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणेऽष्टभङ्गप्रस्तावेऽपि न संगृहीते, एवं न ते भङ्गत्रयप्रस्तावेऽपि संगृहीष्यतः, किन्तु 'सयमुझं परिहारे छेए' इत्यनेन तत्र मार्गणाद्वये समयाऽविरोधेन प्रस्तुतभङ्गाः स्वयमेवोह्या इत्यभिधास्यते, अतस्तत्र पूर्वदर्शितन्यायेन तत्तद्वचनान्यवलम्ब्य सम्भवद्भङ्गकाः स्वयमभ्युह्या इति ।
अथ यासु मार्गणासु सप्तानामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थितिविषये केवलोऽष्टमभङ्ग एव, न पुनः शेषाः सप्ताऽपि, ता मार्गणाः संगृह्य तत्रैकोऽष्टमभङ्ग एवेति दर्शयन्नाह-"अहमभङ्गो" इत्यादि, 'अनेके बन्धका अनेकेऽवन्धका इत्येवंरूपोऽष्टमभङ्ग एव भवति, न पुनरन्ये सप्त । कासु मार्गणास्वित्याह-"सव्वेसु एगिदिये"त्यादि, सर्वेष्वेकेन्द्रियभेदेषु, “णिगोअभेएसु” त्ति सर्वेषु साधारणवनस्पतिकायभेदेषु, तथा “सेससुहुमेसु' ति ओष-पर्याप्ताऽ-पर्याप्तभेदभिन्नानेकेन्द्रियसत्कान् साधारणवनस्पतिकायसत्काँश्चानन्तरं “सञ्बेसुं एगिदियणिगोअभेएसु" इत्यनेन संगृहीतान् पट सूक्ष्मभेदान् त्यक्त्वा शेषेषु पृथिव्यप्तेजोवायुकायसत्केष्वोध-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु द्वादशसु मूक्ष्मभेदेष्वित्यर्थः । अन्यभेदान् संग्रहीतुमाह-"बायरअपज्जे"त्यादि, तत्र बादरापयाप्तशब्दस्य प्रत्येकहरितान्तेषु प्रत्येकं योजना बादराऽपर्याप्तपृथिवीकाय-बादराऽपर्याप्ताप्काय-धादराऽपर्याप्ततेजस्काय-बादराऽपर्याप्तवायुकाय लक्षणे बादराऽपर्याप्तपृथिव्यादिभेदचतुष्के "पत्तेअहरिअहरि" त्ति बादराऽपर्याप्त प्रत्येकवनस्पतिभेदे, तथा 'हरिते'-बनस्पत्योधमार्गणायां चेत्येतेषु द्वात्रिंशन्मार्गणाभेदेषु प्रत्येकमित्यर्थः । एतेष्षष्टमभङ्गोपपत्तिस्तु प्रत्येकमेकस्थितिबन्धस्थानात्मकोत्कृष्टस्थितेबन्धकानामप्यसंख्येयलोक-तदधिकपरिमाणतया प्रागिन द्रष्टव्येति ।
अथ छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसंयमयोराह-"सयमुज " मित्यादि, गतार्थमिति ।
अथ शेषमार्गणास्वाह-"ओघव्व सेसासु” ति उक्तशेषासु सप्तविंशत्यभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकमोघवद्भवन्ति, सप्तानामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्यो नाजीवाश्रया भङ्गा इति प्रक्रमादम्यते । अत्र शेषमार्गणा नामत इमाः-सर्वे निरयगतिभेदाः, सर्वे तिर्यग्गतिभेदाः, मनुष्योध-पर्याप्तमनुष्य-मानुषीलक्षणास्त्रयो मनुष्यगतिभेदाः,सर्वे देवगतिभेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः,सर्वे पञ्चेन्द्रियभेदाः, चत्वारः पृथिव्यप्तेजोवायुकायोधभेदाः, बादरपथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिकायलक्षणाः पञ्च भेदाः, पर्याप्तवादरपथिव्यतेजोवायु-पर्याप्तत्रत्येकवनस्पतिकायलक्षणाः पञ्च भेदाः, त्रयस्त्रसकायभेदाः, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-काययोगसामान्यो-दारिको-दारिकमिश्र-क्रिय-कार्मणकाययोगाः, स्त्रीवेदादित्रिवेद-क्रोधादिचतुःकपाय-मत्यादि चतुर्ज्ञान-मत्यज्ञानादिव्यज्ञान-संयमौघ-सामायिकसंयम-देशसंयमा-ऽसंयम-चक्षुरादित्रिदर्शन-कृष्ण-नील-कापोत-तेजः-पद्म-शुक्ललेश्या-भव्या-ऽभव्य--सम्यक्त्वौघक्षायिक-वेदक-मिथ्यात्व-संश्य-ऽसंड्या-ऽऽहार्य-ऽनाहारिमार्गणाभेदाश्चेति । एतासु प्रत्येकं न भवति ज्ञानावरणादे नास्थितिबन्धस्थानात्मकानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां कादाचित्कसर्वथाऽभावलक्षणमन्तरम् , तस्याऽपर्याप्तमनुष्यादिसान्तरमार्गणास्वेवाभिहितत्वात् । एवं च न भवत्येकस्थितिबन्धस्था
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उत्कृष्टानुत्कृस्थितबन्धे ] द्वितीयाधिकारे भङ्गविचयद्वारम्
[ २६७ नात्मकोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकपरिमाणमसंख्यलोकं तदधिकं वा, अन्यतममार्गणायामपि सूक्ष्माणां साधारणानामपर्याप्तवादरैकेन्द्रियाणां वोत्कृष्टस्थितिवन्धस्वामित्वाभावात् । इत्थं चैकस्य पदस्य ध्रुवत्वादेकस्य त्वध्रुवत्वाद् भगा अप्योघवदुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्यथासंख्यं चतुर्थ षष्ठा-ऽष्टमास्तृतीयसप्तमा-ऽष्टमाश्च लभ्यन्ते, ते च सर्वथौघवदेव भावनीया इति ॥२८२-२८३-२८४॥
तदेवमभिहिता आयुर्वर्जानामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्वन्धकावन्धकभङ्गाः सर्वमार्गणास्थानेषु । साम्प्रतं तास्वेवायुपस्तान् प्रकटयन्नाह
सब्वेसु खलु णारग-पणिदितिरिय-णर-देवभेएसु। सव्वेसु विगलिंदिय-पणिंदि-तसकायभेएसु॥२८५॥ बायरसमत्तपुहवाइचउग-पत्तेअ-पणमणवयेसु।। विउवाहारदुग-पुरिस-थी-चउणाणेसु विभंगे ॥२८६॥ संयम-समइअ-छेअ-परिहार-देसो-हि-णयण-तेऊसू। पम्ह-सुइल-सम्म-खइअचेअग-सासाण-सण्णीसू ।।२८७॥ आउस्स अट्ट भंगा उक्कोसाए ठिईअ णायव्वा । एवमणुकोसाए णेया ओघव्व सेसासु॥२८८॥ (प्रे०) “सव्वेसु खलु” इत्यादि गाथाचतुष्टयम् । तत्राद्यगाथात्रयेण संगृहीतास्वेकोत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकं चतुर्थगाथापूर्वानायुष उत्कृष्टस्थितेर्भङ्गा अभिहिताः; चतुर्थगाथोत्तरार्धन तु तास्वेव गाथात्रयोक्तास्वेकोत्तरशतमार्गणास्त्रायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्भङ्गकानतिदिश्य शेषासु द्विपष्टिमार्गणामूत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्भङ्गा ओघवदभिहिताः । एतासां चतसृणामपि गाथानामक्षरार्थस्तु सुगमः, नवरं द्वितीयगाथापूर्वार्धे "बायरसमत्तपुहवाइचउगपत्तेअ" इत्यत्र बादरपर्याप्तवाचको बादरसमाप्तशब्दः प्रत्येकान्तेषु प्रत्येकं युज्यते, ततश्च तेन बादरपर्याप्तपृथिव्यप्तेजोवायुपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायरूपाः पञ्चमार्गणाः संगृहीता बोद्धव्याः।
भावार्थः पुनरयम्-निरयगत्योधादिष्वेकोत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकं साधारणवनस्पतिकायजीवानां सूक्ष्मैकेन्द्रियजीवानां बादरापर्याप्तकेन्द्रियाणां वा जीवानामप्रवेशाज्जीवपरिमाणं मूलत एवाऽसंख्यलोकप्रदेशराशितुल्यं न विद्यते, किन्तु ततः स्तोकं स्तोकतरं स्तोकतमं वा विद्यते, इत्थं च न भवत्येतासामन्यतमस्यामप्यायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकपरिमाणमसंख्यलोकप्रदेशराशितुल्यम् ,ततश्च प्रत्येकमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां कादाचित्कसर्वथाऽभावलक्षणस्याऽन्तरस्य सद्भावात्तत्पदमध्रुवम् , तस्याऽध्रुवत्वे तत्प्रतिपक्षभूतमुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकपदं सुतरामध्रुवं, द्वयोरध्रुवत्वे तु प्रागुक्तनीत्याऽष्टौ भङगाः समुत्पद्यन्त इति तथैवोक्ताः ।
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२६८ ]
बंधहाणो मूलपयडिठिबंधो
[ ओघादेशतोऽष्टमूलक णाम्
शेषासु तिर्यग्गत्योघादिद्विषष्टिमार्गणासु तु प्रत्येकं साधारणानां सूक्ष्माणां बादराऽपर्याप्तानां वाऽन्यतमजीवानां प्रवेशेन, तैः सर्वैरायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकरणेन चायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकपरिमाणस्य बहुत्वात्तदुबन्धकानां सार्वदिकप्राप्तिलक्षणं तत्पदस्य ध्रुवत्वं भवति, न पुनरायुष उत्कृष्टस्थितेरपि । कुतः ? तद्वन्धकानामसंख्ये यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकत्वात् ।
,
1
ननु मा भवतु तिर्यग्गत्योघ - काययोगसामान्यादिमार्गणासु संज्ञिपञ्चेन्द्रियादीनामेवाऽऽयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वात्तेषां चासंख्य लोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकत्वादुत्कृष्टस्थितेः पदं ध्रुवम्, अपर्याप्तत्रादरै केन्द्रियादिमार्गणाभेदेषु तु तद् ध्रुवं स्यात्, तत्र साकारादिविशेषणविशिष्टानां सामान्यजीवानामेवायुष उत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामित्वकथनेन बन्धप्रायोग्यस्य पूर्वकोटीस्थितिकस्या ssयुषो मार्गणाप्रविष्टानामसंख्य लोकप्रदेशराशितुल्यानां तदधिकानां वा सर्वेषां जीवानां बन्धप्रायोग्यत्वात् ? इति चेद्, उच्यते, सत्यमेतत् तथाऽपि तादृशोत्कृष्टस्थितेर्वेद कानामेव लोके स्तोकतथा तादृशस्थितेर्वन्धका अपि लोके कस्मिन्नपि समये तदधिका नैवाऽवाप्यन्ते । इत्थं चाऽसंख्यलोकजीवराशिकेष्वपि तेषु पूर्वकोटीप्रमाणोत्कृष्टस्थितेर्वन्वास्तु स्तोका एव प्राप्यन्ते, ततश्चाऽपर्याप्तवाद केन्द्रियादिमार्गणास्थानेष्वप्युत्कृष्टस्थितेः पदमनुवं प्राप्यते, एवं चैकस्य पदस्य traint agaत्वादोघवदायुषो उत्कृष्टस्थितेः 'सर्वेऽबन्धका एव' इति चतुर्थभङ्गः, 'एको बन्धकोsansaat एव' इति षष्ठो भङ्गस्तथाऽनेके बन्धका अनेकेऽवन्धका एव' इत्यष्टमभगव प्राप्यते । अनुत्कृष्टस्थितेस्तु वैपरित्येन 'सर्वे बन्धका एव' इति तृतीयः 'अनेके बन्धका एकोऽन्धक एव' इति सप्तमस्तथा 'अनेके न्वका अनेकेऽबन्धका एवं' इत्यष्टम इत्येवं त्रयस्त्रयो भङ्गाः प्राप्यन्त इति । अत्र शेषमार्गणाभिधानानि त्विमानि - तिर्यग्गत्योघः, सबैकेन्द्रियभेदास्तथा पर्याप्तवाद र भेदवर्जाः पट् पृथिवी काय भेदाः, एवं पडकाय भेदाः, पट् तेजस्कायभेदाः, पड् वायुकायभेदाः, पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय भेदवर्जी दश वनस्पतिकाय भेदाः, काययोगसामान्यौ-दारिकौ-दारिकमिश्रकाययोग-नपुं’सकवेद-क्रोधादिचतुः कपाय-मत्यज्ञान - श्रुताज्ञाना-ऽसंयमाऽचक्षुर्दर्शन- कृष्ण-नील- कोपोतलेश्या-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा ऽसंज्ञयाऽऽहारिमार्गणाभेदाश्चेति ॥ २८५-२८६-२८७-२८८।।
तदेवमभिहित आदेश आयुषोऽयुत्कृष्टा ऽनुत्कृष्टस्थित्योर्मानाजीवाश्रयो भङ्गविवयः । साम्प्रतं जघन्याजघन्यस्थित्योस्तं दिदर्शविषुरादौ तावदोषत आह
भंगाऽऽउगवज्जाणं ठिईण हस्सेयराण णायव्वा । जेटियरठिन्य कमा आउस्स उ अट्टमो भंगो ॥ २८९॥
(प्रे०) “भंगाउगवज्जाण” मित्यादि आयुवर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनाम् “ठिईण हस्सेयराण" ति 'ह्रस्वायाः' - जघन्यास्तदितरात अजघन्यायाव स्थित्योर्भङ्गा ज्ञातव्या इति योगः । कथं ज्ञातव्या इत्याह- "जेटियर ठिइव्वकमा" त्ति ज्येष्ठेतरस्थितिवत् क्रमात्,
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जयन्या-ऽजघन्यस्थितिबन्धे ] द्वितीयाधिकारे भङ्गविचयद्वारम्
[ २६९ प्रागोघतो यथा ज्येष्ठायाः स्थितेः ‘अट्ठाहुकोसाए सिआ तुरियछट्टअट्ठमा भंगा' इत्यनेन ये चतुर्थषष्ठा-ऽष्टमास्त्रयो भंगा दर्शितास्त एव त्रयो भङ्गाः समानां जघन्यायाः स्थितेर्बोद्धव्याः। ये च तत्र 'अट्ठमसत्तमतइआऽणुकोसाए ठिईए य' इत्यनेनानुकृपायाः स्थितेस्त्रयो भङ्गा अभिहितास्ते सप्तानामजघन्यायाः स्थितेातव्या इति भावः । तत्र राप्तानामजघन्यस्थितेबन्धकास्तु ध्रुवं लम्यन्ते, एकेन्द्रियादिजीवैर्निरन्तरमौधिकाजघन्यस्थितिवन्धस्य निवेतनात् , इत्येवमेकं पदं ध्रुवम्, अन्यत्तु जघन्यस्थितिबन्धकलक्षणमध्रुवम् , क्षपकानां तत्स्वामित्वात् । तथा चोत्कृष्टानुत्कृष्टस्थितिवत् त्रयस्त्रयो भङ्गा एवोत्पद्यन्त इति । अथाऽऽयुषो जघन्याऽजघन्यस्थित्योरोघतो भङ्गविचयमाह“आउस्स उ अट्ठमो भङ्गो" त्ति 'हरसेवराणे त्यवर्तते, तत आयुषो 'ह्रस्वेतरयोः'-जघन्याऽजघन्यस्थित्योः प्रत्येकमष्टमोऽनेके बन्धका अनेकेऽवन्धका एव' इत्येको भङ्गो भवति । तुकारस्तु पुनरर्थे द्रष्टव्य इति । कुत एकः ? इति चेद्, निगोदपर्यन्तानामनन्तानां जीवानामायुषो जघन्याऽजघन्यस्थितिबन्धकत्वेन पदद्वयस्यापि ध्रुवत्वात्, पद यस्य ध्रु वत्वे त्वेक एव भङ्ग प्राप्यत इति प्राग व्युत्पादितमिति ॥२८९॥ उक्त ओघतोऽष्टानां जघन्याजघन्यस्थित्योर्भगविचयः । साम्प्रतमादेशतो विभणिपुरादौ तावदायुर्वर्जानां सप्तानां तमाह
तिरियु-रलपीस-कम्मण-दुअणाणा-ऽयत-तिअसुहलेसासु। अभविय-मिच्छत्तेसु अमणा-ऽणाहारगेसु च ॥२९०॥ भंगोऽट्टमो चिअ भवे हस्सियरठिईण आउवज्जाणं ।
सेसासु जाणियव्वा उक्कोसेयरठिइव्व कमा ॥२९१॥ (प्रे०) “तिरियुरलमीसे"त्यादि, तिर्यग्गयोधौ-दारिकमिश्रकाययोग-कार्मणकाययोगमत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयम कृष्णादिव्यशुभलेश्यामार्गणा तथा-ऽभव्य-मिथ्यात्वयोरसंश्य-ऽनाहारकमार्गणयोरित्येतासु त्रयोदशमार्गणासु प्रत्येकमायुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां "हस्सियरठिईण" त्ति 'ह्रस्वेतरयोः'-जघन्याऽजघन्ययोः स्थित्योः प्रत्येकं "भंगोऽहमो' त्ति अष्टमो भङ्गो'ऽनेके बन्धका अनेकेऽबन्धका एवेति । कुतः ? एतासु प्रत्येकं प्रविष्टानां साधारणवनस्पतिकायादिजीवानां प्रस्तुतद्विविधस्थितिबन्धस्वामित्वेन पदयस्यापि ध्रुवत्वादिति ।
सेसमार्गणास्वाह-"सेसासु जाणियव्वा" इत्यादिना, अक्षरार्थस्तु सुगमः । भावार्थः पुनरयम्--अपर्याप्तमनुष्यादिष्वेकादशसान्तरमार्गणासु तु मार्गणानामेव सान्तरत्वेनोत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योरिव जघन्याऽजघन्यस्थितिलक्षणपदयस्वाध्रवत्वादष्टौ भङगाः प्राप्यन्ते । सर्वेष्वेकेन्द्रियभेदेषु, बादरापर्याप्तपृथिव्यप्तेजोवायुकायरूपेषु चतुर्यु भेदेवपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकाये, ओघ-पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु त्रिषु सूक्ष्मपृथिवीकायभेदेषु, तथैव मूक्ष्माकाय-तेजस्काय-वायुकायसत्केषु त्रिषु त्रिषु भेदेषु, सर्वेषु साधारणवनस्पतिकायभेदेषु, वनस्पतिकायोधमार्गणायां चेत्येतासु प्रत्येकमुत्कृष्ट
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२७० ] बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[ भङ्गविचय
मूलाष्टप्रकृत्युत्कृष्टादिस्थितीनां ओ आयुर्वर्जसप्तानाम्--उत्कृष्ट-जघन्यस्थित्योः प्रत्येकम्-चतुर्थ-षष्ठा-ऽष्टमाः भङ्गाः।
" अनुत्कृष्टा-ऽजघन्यस्थित्योः प्रत्येकम्-तृतीय-सप्तमा-ऽष्टमाः भङ्गाः। (गाथाःआयुषः--उत्कृष्टस्थितेः-चतुर्थ-षष्ठा-ऽष्टमाः, भङ्गाः जघन्याऽजघन्यस्थित्योः-- २८२.
,, अनुत्कृष्टस्थितेः-तृतीय-सप्तमा-ऽष्टमाः भङ्गाः केवलोऽष्टमो भङ्ग एनोति। २८९) प्रादेशतः गति इन्द्रिय
योग०
काय०
आहरकतन्मिश्रयोगौ गत
अपर्याप्तमनुष्य
वैक्रियमिश्रश्च,
वेद०
३
। ७ सर्वे साधारणवनस्पति. सर्वे एकेन्द्रिय- १६ सर्वसूक्ष्मा-ऽपर्याप्तभेदाःबादरपृथिव्यप्ते-जो-वायु
कायभेदाः, अपर्याप्तप्रत्येकवनस्पति० वनस्पत्योघभेदश्च०
२५
उत्कृष्ा-ऽनुत्कृष्ट-जघन्या-ऽजघन्य
स्थितीनां प्रत्येकम्
- अप्रमभङ्ग एव | अष्टौ भङ्गाः
आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनाम् चतुर्विध-| चतुर्विधस्थितीनां उत्कृष्टायाः-चतुर्थ-षष्ठा-ऽटमा भङ्गाः,
जघन्याया:-उत्कृष्टवत्त्रयः।
तत्रयो भङ्गाः स्थितीनांम प्रत्येकमष्टौ | अनुत्कृष्टायाः-तृतीय-सप्तमा ऽष्टमाः,
अजघन्यायाः-अनुत्कृष्टवभङ्गाः आयुषः
जघन्या-5 | तिर्यग्गत्योघ
प्रौदारिकमिश्रः जघन्ययोः
भेद०१ स्थित्योः ।
कामरण अष्टम एव
सर्वे देव-निरय-प्रोघ-पर्याप्ता-उप- प्रोघ-बादरौघ-बादरपर्याप्त- सर्व मनोवचो० भेद० सर्वपञ्चे-र्याप्तभेदभिन्ना:सर्व भेदभिन्नाः पृथिव्यप्तेजो-| काययोगौघ० न्द्रियतिर्यगभेद विकलेन्द्रिय-पञ्चे वायुकायभेदा द्वादश,प्रत्ये- औदारिक० मनुष्यौघतत्पर्याप्त न्द्रियभेदाः, कवनौघ-तत्पर्याप्तभेदौ, त्रय- वैक्रियश्च० मानुषीभेदाश्च० १२ स्त्रसकायभेदाश्च०
स्त्री०
नपुं०
१७
१३ ३ नरक-पञ्चेन्द्रि- सर्वे विकलेन्द्रिय- सर्वे त्रसकायभेदाः पर्याप्त- सर्वे मनोवचो० भेद . यतिर्यग्-मनुष्य' पञ्चेन्द्रियभेद० बादरपृथिव्यप्तेजौवायु०
स्त्री०
वैक्रिय० देवसत्काःसर्वपर्याप्तप्रत्येकवनस्पति
आहारकभेदाः ४६ भेदश्च ८
तन्मिश्र
शेष तिर्यगोघ०
सर्वएकेन्द्रिय उपर्युक्ताष्टवर्जाः पृथिवीका- काययोगौघ० - यौधादिभेद.
औदारिकतन्मिश्री,
श्रोघवत
A प्रतिपन्नछेदोपस्थापनीयसंयतादीनां जधन्यादिपरिमारणानुसारेण सम्मवद्भङ्गा, स्वयमूह्याः ।
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- यन्त्रकम् ]
भङ्गविचयप्रदर्शकं यन्त्रकम्
भङ्गक्रम :- ( प्रथम ) एको बन्धकः, (द्वितीयः) ★ एकोऽबन्धकः, (तृतीय) सर्वे बन्धकाः, (चतुर्थः) सर्वेऽबन्धकाः,
संयम०
कषाय. ज्ञान०
सर्व०
४
सर्वo
४
मत्यज्ञान०
श्रुताज्ञान०
२
मत्यादिज्ञान
चतुष्कं
विभङ्गज्ञान ०
५
मत्यादि
ज्ञानचतुष्क
विभङ्ग०
५
मत्य ज्ञान०
श्रुताज्ञान०
२
सूक्ष्मम्सपराय०
| छेद० परिहार०
असंयम०
१
संयमौघo
सामायिक
देशसंयमश्व
३
१
असंयमः
द्वितीयाधिकारे भङ्गविचयद्वारम्
१
(पञ्चमः ) एको बन्धक एकोऽबन्धकः, (षष्ठः) एको बन्धकोsने केऽबन्धकाः, (सप्तमः) अनेके बन्धका एकोऽबन्धकः (अष्टमः) अनेके बन्धका अनेकेऽबन्धका इति ।
दर्शन लेश्या भव्य ०
अशु० श्रभ०
३ १
चक्षु० शुभ० भव्य ०
अचक्षु.
अवधि
३
संयमौधo सामा० अवधि- शुभ०
छेद० परिहार० चक्षु०
देशसंयमश्व,
५
३
२ ३
१
सम्यक्त्व ०
श्रपश० सासाद० मिश्र०
मिथ्यात्व०
१
अचक्षु प्रशुभ. भव्य.
अभ.
१
३
२
१
प्रबन्धका नाम ये प्रतिपक्ष स्थितेबंन्धकास्ते, न तु सर्वथाऽबन्धका इति ।
सम्यक्त्वौघo
क्षायिकo
क्षायोपशमिकo
३
मिथ्यात्वo
३
सम्यक्त्वto क्षायिकo क्षायोप० ।
सासादन०
असं० अना०
१
१
संज्ञी० आहा सत्रः गाथाङ्काः
संज्ञी०
१
संज्ञी०
४ १
आहारी
१
१
(गाथा
२७७
२७८)
प्रसंज्ञी आहा०
१
Ĉ
३२
२
१३
११४
१०१
[ २७१
६२
२८२
२६.१
२८३
२८४
२६१
२८४
२८४
२६०
२६१
२८५
२८६
२८७
२८८
२६२
२८८
२९२
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२७२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषो जघन्येतरस्थितिबन्धे स्थितेवन्धकपरिमाणमिव जघन्यस्थितेर्वन्धकपरिमाणमप्यसंख्येवलोकाकाशादि लक्षगमेव, ततश्च पदद्वयस्य ध्रुवत्वादेकोऽष्टमभङग एव प्राप्यते । एता द्वात्रिंशन्मार्गणा एकादशाऽपर्याप्तमनुष्यादिसान्तरमार्गणास्तथा 'तिरिये'त्यादिनाऽनन्तरोक्तास्तिर्यग्गत्योघादित्रयोदशमार्गणाश्च विहाय शेषासु निरयगत्योपादिचतुर्दशोत्तरशतमार्गणासु तूत्कृष्टस्थितिबन्धकानामिव जघन्यस्थितेन्धकानामप्यसंख्यलोकाकाशप्रदेशापेक्षया स्तोकत्वान्मार्गणानां निरन्तरत्वाच्चैकं पदं ध्रुवमेकं त्वध्रुवमित्येवमोघवत्त्रयस्त्रयो भङगा एव प्राप्यन्त इति ॥२९०-२९१॥
तदेवमभिहिता आयुर्वर्जसप्तानां जघन्याऽजधन्यस्थित्यो नाजीवाश्रया भङ्गा मार्गणास्थानेष्वपि । साम्प्रतं शेषस्याऽऽयुःकर्मणस्तानादेशतो दर्शयन्नाह
जासु जेट्ठियराणं ठिईण भंगाऽऽउगस्स अट्ठऽस्थि । तासु जहणियराणं ते चिअ ओघव्व सेसासु ॥२९२॥
(प्रे०) "जासु जेट्ठियराण"मित्यादि, यासु मार्गणास्वायुषो 'ज्येष्ठेतरयोः'-उत्कृष्टानुत्कृष्टयोः स्थित्योरेकानेकादिबन्धकावन्धकनिष्पन्ना भङ्गाः “अहऽथि" त्ति अनन्तरम्'सव्वेसु खलु णारगपणिदितिरियणरदेवभेएसु। सव्वेसु विगलिंदियपणिदितसकायभेएसु॥ बायरसमत्तपुहवाइचउगपत्तेअपणमणवयेसु । विवाहारदुगपुरिसथीवउणाणेसु विभंगे ।। संयससमइअछेअपरिहारदेसोहिणयणतेऊसु । पम्हमुइलसम्मखइअवेअगसासाणसण्णीसु॥
आउस्स अट्ठभंगा उक्कोसाए ठिईअ णायया ।। एवमणुक्कोसाए........ || (गाथा-२८५....२८८ ) इत्यनेनाष्टावभिहिताः सन्तीत्यर्थः । “तासु जहणियराण ते चिअ" ति तासु निरयगत्योधादिष्वेकोत्तरशतमार्गणासु 'जघन्येतरयोः'-जघन्याजघन्ययोः स्थित्योस्त एवाष्टो भङ्गा भवन्तीत्यर्थः । कुतः ? एतास प्रत्येकं मूलत एष जीवानामसंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकत्वेनायुष उत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धलक्षणपदद्वयस्येव जघन्या-ऽजघन्यस्थितिवन्धलक्षणपदद्वयस्याप्यध्रुवत्वात् ।
अथ शेपमार्गणास्वाह-"ओघव्व सेसासु" ति शेषासु तिर्यग्गत्योधादिषु द्विपष्टिमागंणास प्रत्येकमायुषो जघन्याऽजघन्यस्थित्योः प्रत्येकमोघवदेकोऽष्टमभङ्ग एवेत्यर्थः । नन्वेतासु कथमुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योभङ्गवत्त्रयस्त्रयो भङ्गा नाभिधीयन्ते ? उच्यते, तत्राऽनन्तजीवराशिकेष्वसंख्यलोकजीवराशिकेषु वा मार्गणासूत्कृष्टस्थितेन्धकानां स्तोकानामेव प्राप्तः पदस्यकस्याध्रुवत्वेन बन्धकामावस्यैकादिवन्धकानां च कालभेदेन लाभात्त्रयो भङ्गाः प्राप्यन्ते । अत्र तु जघन्यस्थितेवन्धका अप्यजघन्यस्थितेवेन्धकानामिव बहवः प्रान्यन्ते, ततश्चाजघन्यस्थितेर्वन्धकानामिव जघन्यस्थितेर्बन्धकानामपि सदैव प्राप्तेः पदद्वयस्य ध्रुवत्वादेकोऽष्ट नभङ्ग एव लभ्यत इति । तत्रोत्कृष्टस्थितिवन्धकानां स्तोकत्वं तूत्कृष्टस्थितिकायुषो वेदकानां जीवानां लोके स्तोकत्वात् , प्रकृते जघन्यस्थितेर्वन्धकानां बहुप्राप्तिस्तु लोके क्षुल्लकभवरूपजघन्यायुर्वेदकानां जीवानामनन्तत्वाद बोद्धव्या।
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ओघत उत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योः ] द्वितीयाधिकारे भागद्वारम्
[ २७३ __ अयम्भावः-यस्थितिकजीवानां लोक उत्कृष्टतो यावत्परिमाणं भवति, तत्परिमाणादधिकजीवा एकस्मिन् समये तत्स्थितिकमायुर्न बध्नन्ति; क्षुल्लकभवग्रहणस्थितिका जीवा लोकेऽनन्ता भवन्त्यतः क्षुल्लकभवप्रमाणजधन्यस्थितेर्बन्धका अप्येकसमये लोकेऽनन्ताः प्राप्यन्ते, पूर्वकोटयादिस्थितिकजीवास्तु लोके स्तोका भवन्त्यतः पूर्वकोटयादिस्थितिकायुषो बन्धका अपि लोके स्तोकाः प्राप्यन्ते, इत्येवमुभयत्र बन्धकपरिमाणवैषम्याद्भगवैषम्यं योद्धव्यमिति ॥२९२।।
___ तदेवं प्रतिपादितः शेषस्याऽऽयुकर्मणो जघन्याऽजवन्यस्थित्यो नाजीवाश्रयो भङ्गविचय आदेशतोऽपि । एवञ्च गतं सप्तमं नानाजीवाश्रितं भङ्गविचयद्वारम् ।।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे सप्तमं नानाजीवाश्रय
भङ्गविचयद्वारं समाप्रम् ।।
॥ अथाऽष्टमं भागद्वारम् ॥ सम्प्रति क्रमप्राप्ते “भागो” इत्यनेनोद्दिष्टे भागद्वारे भागप्ररूपणां चिकीर्षुरादौ तावदुत्कृष्टा- .. नुत्कृष्टस्थित्योबन्धकजीवानां भागान् दर्शयन्नाह
उक्कोसाअ ठिईए अणंतभागोऽत्थि बंधगाऽट्ठण्हं ।
होअंति बंधगा खलु अणंतभागा अजेट्टाए ॥२९३॥ (प्रे०) “उक्कोसाअ ठिईए"इत्यादि, तत्र "डण्ह"मित्यत्राऽकारस्य दर्शनादष्टानां ज्ञानावरणादीनां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकाः "अभंतमागोऽत्वि" ति ओघतो भण्यमानत्वात् सर्वेषां स्थितिबन्धकजीवानामनन्तभागः,-अनन्ततमैकभागप्रमाणाः सन्तीत्यर्थः । कुत एक एव भाग इति गम्यते ? 'अणंतभागो' इत्यत्रैकवचनस्योपादानादिति । कथमनन्तैकभागः ? इति चेत्, पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वात्तेषां च सर्वस्थितिबन्धकानन्तभागगतत्वात् । अत एव शेषा अनन्तबहुभागजीवा ज्ञानावरणादीनां तत्तत्प्रकृतीनामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकतया प्राप्ता इति तान् तथैव दर्शयन्नाह-"होअन्ति बंधगा खलु” इत्यादि, अत्र "अण्ड" मित्यनुवर्ततेऽतोऽष्टानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकम् “अजेहाए" ति 'अज्येष्ठायाः' -अनुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकाः खल्वनन्तभागाः-सर्वस्थितिबन्धकजीवानामनन्तबहुभागगता भवन्तीत्यर्थः । अत्रापि पूर्वव बहुवचनप्रयोजनाद् बहुभागग्रहणं विज्ञेयम् । एवमेवोत्तरत्रापि द्रष्टव्यमिति ॥२९३॥
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२७४ ]
बंधाणे मूलप डिठबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्ज प्रकृतीनाम्
तदेवं दर्शिता अष्टानामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्वन्वकभागा ओघतः । इदानीं तानेवादेशतः प्रचिकटविरादी तावदायुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनामाह
सत्तण्डुक्कोसाए अनंतभागोऽत्थि तिरियकायेसु । उरलदुग-कम्मणे णपु सगे चउकसायेसु ॥ २९४ ॥ अण्णाणदुगे अयते अचक्खुदंसण-तिअसुहलेसासु । भविये-यर-मिच्छेसु असण्णि-आहार- गियरेसु ॥ २९५॥
(प्रे०) "सत्तण्हुक्कोसाए” इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कृष्टायाः स्थिते: “अनंतभागोऽत्थि "त्ति मार्गणागतानां सप्तकर्मसत्कसर्वस्थितिबन्धकजीवानामनन्ततमैकभागप्रमाणाः सन्तीत्यर्थः । चन्धका इति गम्यते । कामु मार्गणास्वित्याह – “तिरियकायेसु”मित्यादि, तिर्यग्गत्योघ-काययोगयोः “उरलदुगकम्मणेसु” ति औदारिकौ दारिकमिश्रकाययोगमार्गणयोर्द्विके, कार्मणकाययोगे, तथा नपुंसकवेदे, क्रोधादिचतुः कषायमार्गणासु । अन्यमार्गणाः संग्रहीतुमेकामार्यामाह - "अणाणदुगे" इत्यादि मत्यज्ञान - श्रुताज्ञानमार्गणयोर्द्विके, असंयमे, अचक्षुर्दर्शने, कृष्णादित्र्यशुभलेश्यासु, भव्ये, तदितरेऽभव्ये, मिथ्यात्वे, असंज्ञयाऽऽहारकमार्गणयोः, आहारकेतराऽनाहारक मार्गणायामित्येतासु त्रयोविंशतिमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । कुतः ? ओघवदेतासु प्रत्येकं प्रविष्टैरनन्तबहुभागगतैः साधारणवनस्पतिकायादिजीवैः सर्वदानुत्कृष्टस्थितिबन्ध एव निर्वर्त्यते, इत्थञ्च शेषाणां संज्ञिपञ्चेन्द्रियादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धकानामसंख्येयत्वेन ते तिर्यग्गत्यादितत्तन्मार्गणागतसप्तकर्मसत्कस्थितिबन्धक जीवानामनन्तत मैकभागगता एव भवन्ति ॥ २९४-२९५॥ अथ सार्धाऽऽर्यया शेषमार्गणासु सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितेर्वन्धकभागान् प्ररूपयन्नाह - पज्जमणुस-मणुसीसु सव्वत्था - SSहारदुग-अवेसु । मणणाण-संयमेसु समइ अ-छेअ - परिहारसुहुमेसु ॥२९६॥ हो अन्ति संभागो असंखभागो हवन्ति सेसासु ।
(प्रे०) "पज्जमणुसे” त्यादि, पर्याप्तमनुष्य- मानुषीमार्गणयोः, सर्वार्थसिद्धविमानदेवगतिभेदा-ऽऽहारक-ऽऽहारकमिश्र काययोगमार्गणाभेदद्वयाऽपगतवेदमार्गणासु तथा मनः पर्यवज्ञानसंयममार्गणयोः, सामायिक-छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणास्वित्येतासु संख्येयजीवराशिकासु द्वादशमार्गणासु प्रत्येकं " होअन्ति संभागो" त्ति 'सत्तण्हुक्को - साए' इत्यस्यानुवृत्तेः सप्तानामायुर्वजन्यतमानां पर्याप्तमनुष्यादितत्तन्मार्गणासु बन्धप्रायोग्यानां ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टायाः स्थितेः संख्येयभागो भवन्ति, बन्धका इति प्रकरणाद्गम्यते । कुतः १ एतासु मार्गणासु प्रत्येकं जीवानां संख्येयत्वादुत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैकस्थितिबन्धस्थानात्म
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उत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थित्योः ] द्वितीयाधिकारे भागद्वारम्
[ २७५ कन्धाच्चेति । अथ शेषमार्गणास प्रकृतमाह-"असंखभागो हवन्ति सेसासु"मिति, अनन्तरोकमार्गणाः परित्यज्य शेपास निरयगत्योपादिपञ्चत्रिंशदुत्तरशतमार्गणास प्रत्येकम् “असंखभागो हवन्ति" त्ति मार्गणागत सर्वबन्धकानामसंख्यभागः-असंख्येयतमैकभागप्रमाणा भवन्ति, सप्तानामुत्कष्टायाः स्थितेर्बन्धका इति प्राग्वद्योज्यमिति ।।
शेषमार्गणा नामत इमाः-सर्वे निरयभेदाः, चत्वारः पञ्चेन्द्रियतियग्भेदाः, मनुप्यौवा-ऽपर्याप्त मनुष्यभेदो, सर्वार्थसिद्धविमान भेदवर्जा एकोनत्रिंशद्देवगतिभेदाः, एकोनविंशतिरीन्द्रियमार्गणाभेदाः, द्विचत्वारिंशदपि पृथिव्यादिकायमार्गणाभेदाः, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-वैक्रियवैक्रियमिश्रकाययोग-स्त्रीवेद-पुवेद-मत्यादित्रिज्ञान-विभङगज्ञान-देशसंयम-चक्षदर्शना-ऽवधिदर्शनतेजः-पद्मशुक्ललेश्या-सम्यक्त्वाघ-क्षाथिक-क्षायोपशमिको-पशमिक-मिश्र-सासादन-संज्ञिमार्गणाभेदाश्चेति । अत्र निरयगत्योघादिभेदेषु प्रत्येकं स्थितिबन्धकजीवानामसंख्येयत्वादेकस्थितिवन्धस्थानत्मकोत्कृटस्थितेन्विता अप्पसंख्येयकमागगा एवं प्राप्यन्ते, सप्तस्वेकेन्द्रियमार्गणाभेदेषु, सर्वेषु साधारणवनस्पतिकाय भेदेषु वनस्पतिकायोघमार्गणाभेदे च यद्यपि प्रत्येकमनन्ता जीवाः सन्ति, तथापि तेषु बादरसाधारणवनस्पतिकायाद्यनन्तकायिकजीवानामपि तत्तन्मार्गणासत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वादुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका असंख्येषभागगता एव प्राप्यन्त इति तथैवाभिहिता इति ॥२९६।। अथ सर्वमार्गगास्वनुत्कृष्टस्थितेन्धिकभागानाह
सब्बासु सेसभागाऽणुक्कोसठिईअ णायव्वा ॥२९७॥ (प्रे०) “सव्वासु” इत्यादि सुगमम् । नवरं “सेसभागा" त्ति यास्वेकोऽनन्तभागः सप्तानामुत्कृष्टस्थितेबन्धका उक्ताः, तासु तिर्यग्गत्योघादिमागंणास शेशा अनन्तबहुभागाः सप्तानामनुकृपस्थितेन्धकाः । एवमेव शेषमार्गणास्वपि शेषाः संख्येपबहुभागाः, असंख्येयवहुभागाश्च यथासम्भवं ज्ञातावरणादीनामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकतया द्रष्टव्या इति ॥२९७।।
तदेवं प्रतिपादिता आयुर्वर्जसप्तानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योबन्धकभागा मार्गणास्थानेवपि । साम्प्रतं शेषस्याऽऽयुःकर्मणस्तान् मार्गणासु दर्शयन्नाह
तिरिये सव्वेगिंदिय-णिगोअ-वणका-युरालियदुगेसु। णपुम-चउकषायेसुदुअणाणा-ऽयत-अवक्खूसु॥२९८॥ अपसत्थतिलेसासु भवि-यर-मिच्छा-ऽमणेसु आहारे।
आउस्स बंधगा खलु अणंतभागोऽथि जेट्टाए ॥२९९॥ (प्रे०) "तिरिये सव्वेगिदिये"त्यादि, तिर्यग्गत्योघे, तथा “सव्वे” इत्यादौ सर्वशब्दस्यैकेन्द्रिय-निगोदयोः प्रत्येकं योजनात् सर्व एकेन्द्रियभेदाः, सर्वे च निगोदभेदास्तथा वनस्पति
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२७६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुष्कोत्कृष्टेतरस्थित्योः कायौघ-काययोगसामान्यौ-दारिकौ-दारिकमिश्रकाययोगेषु, तथा नपुंसकवेद-चतुःकपायेषु, मत्यज्ञान-श्रताज्ञाना-ऽसंयमा-ऽचक्षुर्दर्शनमार्गमास, मार्गणान्तराणि सङ्ग्रहायाह-"अपसत्थे"त्यादि, 'अप्रशस्ताः' -अशुभाः कृष्णादित्रिलेश्यास्तान, भव्ये, तदितरेऽभव्ये, मिथ्यात्वा-ऽसंज्ञिमार्गगयोराहारकमार्गणायामित्येतासु षट्त्रिंशन्मागंणासु प्रत्येकम् “आउस्स" ति आधुः कर्मगः “जेठाए” ति 'ज्येष्ठायाः'-उत्कृष्टायाः स्थितेः "बंधगा खलु अणंतभागोऽस्थि" त्ति सगमम् । इत्यक्षार्थः । भावार्थस्त्वयम्-पूर्वकोटयाद्युत्कृष्टस्थितिकजीवानां लोके स्तोकत्वात्तस्य पूर्व कोटयागुत्कृष्टस्थितिकायुषो बन्धका अपि लोके स्तोका असंख्येया एव प्राप्यन्ते । किञ्च प्रकृततर्वमार्गणासु प्रतिसमयं सर्वजीवानामायुर्वन्धाभावेऽपि मार्गणागत तीवेभ्यः संख्येपैकभागगता अनन्ता जीवाः प्रतिसमयमायुर्बन्धकतया प्राप्यन्ते । तेभ्यश्चोक्तनीत्या पूर्वकोटयावत्कृष्टस्थितेवेन्यका असंख्येया एव सम्भवन्ति, न पुनस्तदधिकाः । ते च मार्गणागतानां सर्वेषामायुबन्धकजीवानामनन्ततमैकभागगता एवेतिकृत्वा “बंधगा खलु अणंतभागोऽस्थि" इत्यभिहितमिति ।।२९८-२९९।। अथ शेषमार्गगासु सार्धयाऽऽर्ययाऽयुष उत्कृटस्थितेर्बन्धकमागान्निरूपयन्नाह
पज्जमणुस-मणुसीसुआहारदुगा-ऽऽणताइदेवेसु। मणणाण-संयम-समइअछेअपरिहारसुइलखइएसु॥३०॥
होअन्ति संखभागो असंखभागो हवन्ति सेसासु। (प्रे०) “पज्जमणुसे"त्यादि, पर्याप्तमनुष्य-मानुपीमार्गणयोस्तथाऽऽहारकठिक आहारकाऽऽहारकमिश्रकाययोगलक्षणे, आनतकल्पादिसर्वार्थसिद्धविमानान्ताष्टादशदेवमार्गणासु, मनःपर्यवज्ञान-संयमोघ-सामायिक-छेदोपस्थापन- परिहारविशद्धिकसंयम-शकलेसा-क्षायिकसम्मकत्वरूपास सप्तमार्गणास्वित्येवमेकोनत्रिंशन्मार्गणातुत्येकं “होअन्ति संखभागो ति मार्गणागतायुन्धकजीवानां संख्येयतमैकथागो भवन्ति, अयुपो ज्येष्ठायाः स्थितेर्बन्धका इति प्रकरणाद्न्या इति । अत्र सर्वार्थसिद्धविमानभेदबर्जासु शेषासानतादिषु देवगतिकातदशमार्गगामु ययप्पसंख्येया जीवाः सन्ति, तथापि तासु विवक्षित एकास्मिन् समये संख्येयादविका जीपा आयुवकामा न प्राप्यन्ते । कुतः ? तैः पर्याप्तमनष्यसत्कार्बन्धात पर्याप्तमनष्याणामुत्कृष्टपदेऽपि संख्ये त्याच्च ।
इदमुक्तं भवति-यत्प्रागुक्तं लोके यस्थितिकजीवानामु-कृष्टतो यावत्परिमाणं तनाति, तत्परिमाणादधिकजीवा एकस्मिन् समये तत्स्थितिकायुन्धकतमा न प्राप्यन्ते, किन्तु ततो हीना एव प्राप्यन्त, इति नियमेन पर्याप्तमनुष्य सत्कायुन्धका एकस्मिन् समये संख्या एवं प्राप्यन्ते; तेभ्योऽपि केवलदेवगतिमार्गणासत्कप्रकृतै कभेदेषु ते स्तोकाराः संप यन्ते । शेषपर्याप्तमनुष्यादिमार्गणासु तु सर्वेऽपि जीवाः संख्येया इतिकृत्वाऽऽयुर्वन्धकजीवानामपि संख्येवाविकानामसम्भव एव । एवं च स्थिते एकस्थितिबन्धस्थानात्मकोत्कृष्टस्थितिकायुयो बन्धकजीवा मार्गणागतसर्वायु
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ओघओऽष्टानां जघन्येतरस्थित्योः] द्वितीयाधिकारे भागद्वारम्
[ २७७ बन्धकजीवानां संख्येयैकभागगताः, नानास्थितिबन्धात्मकानुत्कृष्टस्थितिकायुषो बन्धकास्तु संख्येयबहुभागगता इतिकृत्वा 'होअन्ति संखभागो' इत्युक्तमिति । ___अथोक्तशेषसर्वमार्गणासु प्रस्तुतमाह-"असंखभागो हवन्ति" ति अनन्तरोक्ततिर्यग्गत्यादिपञ्चरष्टिमार्गगा विवयं शेषासु निरयगत्योधायटनवतिमार्गगास प्रत्येकम् “असंखभागो हवन्ति” ति आतुर उत्कृष्टस्थितन्धकास्तत्तन्निरयात्योघादिमार्गणागतसर्वायुर्वन्धकजीवानामसंख्यभागगता भवन्तीत्यर्थः । तत्र शेषमार्गणाऽभिधानानि त्विमानि-अष्टौ निरयगतिभेदाः, चत्वारस्तिर्यपञ्चेन्द्रियभेदाः, मनुष्यौघा-ऽपर्यारमनष्यभेदौ, देवौषभेदः, एकादश भवनपत्यादिसहस्रारान्ता देवभेदाच, सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियभेदाः, तथैव सर्वे पृथिवीकाया-ऽष्काय-तेजस्काय-वायुकाय प्रत्येकवनस्पतिकाय-नसकायभेदाः, सर्वे मनोयोगभेदाः, सर्वे वचनयोगभेदाः, वैक्रिय काययोगभेदः, स्त्रीवेद-पुवेद-मत्यादित्रिज्ञान-विभङ्गज्ञान-देशसंयम-चक्षुर्दशना-ऽवधिदर्शन-तेजोलेश्या-पद्मलेश्या-सम्यक्त्वोघ--क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-सास्वादन-संज्ञिमार्गणाभेदाश्वेति । एतास प्रत्येकमसंख्येया जीवाः, उत्कृष्टायुश्च तियेग-देवाद्यसंख्येयजीवराशिसत्कं बध्यते, ततश्चोतनीत्योत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धका अप्यसंख्यकभागगताः प्राप्यन्त इति ॥३०॥ अथ प्रागिव सर्वमार्गणास्वायुषोऽनत्कृष्टस्थितेर्बन्धकभागान् दर्शयन्नाह
सवासु सेसभागाऽणुक्कोसठिईअ णायव्वा॥३०१॥ (प्रे०) “सव्वासु” इत्यादि गतार्थम् । नवरं सर्वास्वित्यनेन वैक्रियमिश्रकाययोगादिसप्तमार्गणावर्जास्त्रिषष्ट्युत्तरशतमार्गणा ग्राह्याः । इति ॥३०१॥
तदेवमभिहिता आदेशतोऽपि मृलाटकर्मणामुत्कटानत्कृष्टस्थित्योबन्धकभागाः । साम्प्रतं तेषामेवा जयन्याऽजघन्यस्थित्योन्धकभागान् व्या चिकीर्षुरादौ तावदोघत आह--
सत्तण्ह लहुठिईए अणंतभागो असंखभागोऽस्थि ।
आउस्स सेसभागा अजहण्णठिईअ अट्टण्हं ॥३०२॥ (प्रे०) “सत्तण्ह लहुठिईए” इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां 'लघुस्थितेः'जघन्यस्थितेः "अणंतभागो' ति सर्वस्थितिबन्धकजीवानामनन्ततमैकभागः, सन्तीति परेणान्वयः, बन्धका इति गम्यते । कुतः ? सप्तानामौधिकजघन्यस्थिोः क्षपकस्तानित्वात् तेषां चातिस्तोकत्वादिति । अथायुगो जवन्यस्थितेराह-"असंखभागोऽस्थि" ति सर्वायुर्वन्धकानामसंख्यतमैकभागो भवन्ति, 'लहुठिईए' इत्यस्यानुवृत्या लघुस्थितेः, बन्धका इति गम्यते । एवमुत्तरत्राप्यनुवृत्त्या योगो द्रष्टव्यः । कस्य कर्मण इत्याह-"आउस्स" ति आयुःकर्मण इति । कुतः ? जघन्यस्थितिकायुषः साधारणवनस्पतिकायजीवैरपि निर्वर्तनादिति । अथाजघन्यस्थितेर्बन्धकभागानाह-"सेसभागा" इत्यादि, ससानां जवन्यस्थितेवन्धकलक्षणमनन्तैकभागं विहाय शेषा अनन्तबहुभागाः
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२७८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानां जघन्यादिस्थिते. सप्तानामजघन्यस्थितेर्बन्धकाः, आयुषो जघन्यस्थितेर्बन्धकलक्षणमसंख्यैक भागं विवर्य शेषा असंख्यबहुभागा आयुषोऽजघन्यस्थितेन्धकाः, सन्तीत्यनुवर्तते । गतार्थमिति ॥३०२॥
उक्ता ओघतोऽष्टानां जघन्याजघन्यस्थित्योर्बन्धकभागाः। अथादेशतो दिदर्शयिपुस्तावदादावायुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामाह
सत्तण्ह जहण्णाए अणंतभागोऽस्थि कायुरालेसु।
णपुम-चउकसायेसु अचक्खु-भवियेसु आहारे ॥३०३॥ (प्रे०) “सत्तण्ह जगाए” इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां जघन्यायाः स्थितेन्धकाः "अणंतभागोऽस्थि" त्ति काययोगौघो-दारिककाययोगादितत्तन्मार्गणागतसर्वबन्धकानामनन्तभागः-अनन्ततमैकभागगताः सन्ति । कासु मार्गणास्वित्याह-"कायुरालेसु"मित्यादि, काययोगसामान्यौ-दारिककाययोगयोः, नपुंसकवेद-क्रोधादिचतुःकषायेषु, तथाऽचक्षुर्दर्शन-भव्यमार्गणयोराहारिमार्गणायामित्येतासु दशमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । कुतः ? इति चेत्, प्रतिमार्गणं साधारणवनस्पतिकायजीवानां समावेशे सति क्षपकाणां जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वात् ।
इदमुक्तं भवति-साधारणवनस्पतिकायजीवानां समावेशेन प्रतिमार्गगमनन्तं बन्धकपरिमाणम् , क्षपकाणां जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वेन संख्येया एव सप्तानां जघन्यस्थितेर्वन्धकाः, ते च मार्गणागतसर्वबन्धकजीवानामनन्तैकभागमात्रा एवेति ॥३०३॥
अथ सार्धगाथया शेषमार्गणासु प्रकृतमाहपज्जमणुस-मणुसीसुसव्वत्था-ऽऽहारदुग-अवेएसु। मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहार-सुहुमेसु ॥३०४॥ होअन्ति संखभागो असंखभागो हवन्ति सेसासु।
(प्रे०) “पज्जमणु से"त्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः । भावार्थः पुनरयम्-एकयाऽऽयं या संगृहीतासु पर्याप्तमनुष्यादिद्वादशमार्गणास प्रत्येकं संख्येयानां जीवानामेव सद्भावेन “होअन्ति संखभागो” इत्यनेन प्रकृताः सप्तान्यतमानां बन्धप्रायोग्यप्रकृती । जघन्यस्थितेर्बन्धकाः संख्येयकभागगता अभिहिताः । “असंखभागो हवन्ति सेसासु"मित्यत्र शेषमार्गणास्तु इमा अष्टचत्वारिंशदभ्यधिकशतम्-सर्वे निरयगतिभेदाः, सर्वे तिर्यग्गतिभेदाः, मनुष्यौघा-उपप्तिमनुष्यभेदो, सर्वार्थसिद्धविमानभेदवर्जा एकोनत्रिंशद्देवगतिमार्गणाभेदाः, सर्वे इन्द्रियमार्गणाभेदास्तथैव सर्वे कायमार्गणाभेदाः, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोगौ-दारिमिश्र-वैक्रिय-वैक्रियमिश्रकार्मणकाययोग--स्त्रीवेद-पुवेद-मत्यादित्रिज्ञान-मत्यज्ञानादिव्यज्ञाना--ऽसंयम-देशसंयम--चक्षुर्दर्शनाऽवधिदर्शन-कृष्णादिषल्लेश्या-ऽभव्य-सम्यक्त्वौघ-सायिक-वेदकौ-पशमिक-सासादन-मिश्र-मिथ्यात्व
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संख्यातकभाग असंख्यातैक-
प्रोघवद् ।
यन्त्रम् ] अष्टमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धकानां भागप्रदर्शकयन्त्रम् [२७९ आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनाम्
प्रायुषः उत्कृष्ट प्रोघवद्
असंख्यातै
संख्यातेकभाग० स्थितेः-| अनन्तैकभाग० । भाग० | अनन्तैकभाग० ।
कभाग० अनुत्कृष्ट प्रोषवद असंख्यातब प्रोघवद्
| असंख्यातसंख्यातबहुभाग०
संख्यातबहुभाग० बहुभाग० स्थितेः- | अनन्तबहुभाग०
- भाग० | अनन्तबहुभाग० पर्याप्तमनुष्य.मानु
पर्याप्तमनुष्य. मानुतिर्यग्गत्योघ० शेष०
| शेष० गति० षी.सर्वार्थसिद्धदेव०
तिर्यग्गत्योघ० षी.आनतादिसर्वार्थ
१ | सिद्धान्तदेव० २० इन्द्रियः
सर्वकेन्द्रियभेद०७ वनौघ० सर्वसाधा
शेष० काय०
रणवनभेदाश्च० ८ काययोगौघ०
आहारक-तन्मिश्र० शेष० काययोगौघ० प्रौदा- आहारक-तन्मिथ- शेष० योग० औदारिक-तन्मिश्र० कार्मण ४
रिक-तन्मिश्र०३ / योगौ० २
स्त्री० पु | नपुंसक० १ अपगतवेद० १
नपुंसक १
४३
सर्व
शेष
शेष०.
वेद०
कपाय
सर्व
सर्व
शेष०
ज्ञान० मत्यज्ञा. श्रुताज्ञा.२ मनःपर्यव० १
मनःपर्यव०
४ मत्यज्ञा.श्रुताज्ञा. २ संयमौघ.सामा.छेद. देशसंयमः
संयमौष० सामा० देशसंयम० संयम असंयम०१
। असंयम परिहार. सूक्ष्म ५
| छेदपरिहार०४ चक्षु०
चक्षु० दर्शन अचक्षु० १. अवधि | अचक्षु०
अवधि०२ लेश्या०
शुक्ला०
शेष० | अशुभकृष्णाद्या०३
अशुभा० ३
शुभा०
भव्य
भव्य०अभव्य०२
भव्य०अभव्य०२
शेष०
क्षायिक०
शष०
सम्यक्त्वं मिथ्यात्व० १
मिथ्यात्व० १
संजी०
संज्ञी० असंज्ञी
असंज्ञी
आहारी. सर्व०
२
आहारक०
सर्वमार्गणाः--
२३
। १३५
२६
गाथाङ्काः-२६४-२६५-३०१ / २६६-३०१
२९७-३०१ / २६-२६६-३०१
३००-३०१
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२८० ]
[ यन्त्रम्
____ अष्टमूलप्रकृतीनां जघन्या-ऽजघन्यस्थित्योर्बन्धकानां भागदर्शकयन्त्रम्
आयुर्वर्जसप्तकर्मणाम् । प्रायुःकर्मणः जघन्य- प्रोघवद | संख्यातैक- ... | संख्यातैक- अोघवद् अनन्तैक
असं० स्थितेः
भाग०
| भाग० । ख्यैकभाग| भाग०
एकभा० अजघन्यप्रोघवद् संख्यात- | असंख्य
ग्रोघवद् अनन्तबहु
असंख्य स्थितेःभाग०
बहुभाग० बहुभाग. भाग० बहुभा० पर्याप्तमनुष्य०
पर्याप्तमनुष्य गति०
शेष०
शेष० मानुषी०सर्वार्थ- मानुषी० आनसिद्धदेवभेद०३ तादिदेव. २०
सर्व०
इन्द्रिय०
सव०
१६ सर्व०
सर्व०
काय
४२
४२
काययोगौघ० | आहारक
शिष० औदारिक तन्मिश्रयोगौ,
योग
प्राहारक० | शेष तन्मिश्र० २ १४
वेद०
| नपुसक
अपगतवेद०.
स्त्री०
वेदत्रिक
| पु. २
सव०
कषाय० सर्व०
मनःपर्यव०
शेष
। मनःपर्यव०
ज्ञान
संयमौघ०सामा० छेद० परिहार
शेष
नयमौष ०
Jशेष० सामा. छेद. परि| हार. सूक्ष्म..५
संयम
शष०
सर्व
दर्शन० | अचक्षु० १
सव०
॥
शुक्का
शेष
लेश्या०
भव्य० भव्य
अभव्य०
सर्व
क्षायिक०
शेष
सम्य
संज्ञी०
सर्व०
सर्व
अनाहार०
आहार०
आहारक आहारक० १ सर्वमार्गणाः-- १०
१४८
|
२६
गाथाङ्का:-- ३०३
३०४
३ ०५ ।
३०६--
| ३०७
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मार्गणास्वायुपो जबन्येतरस्थित्योः] - द्वितीयाधिकारे भागद्वारम्
[ २८१ संश्य-संश्य-ऽनाहारिमार्गणाभेदाश्चेति । एताभ्योऽष्टच वारिंशदभ्यधिकशतमार्गणाभ्य एकेन्द्रियादिकतिपयमार्गणा विहाय शेपासु स्थितिबन्धकजीवानामसंख्येयत्वात् , तथैकेन्द्रियादिमार्गणाभेदेषु स्थितिवन्धकजीवानामानन्न्येऽपि तेषां बन्धनायोग सस्थितिबन्धस्थानात्वासंख्येयभागरूपदेकस्थितिवन्धस्थानात्मकस्य जघन्यस्थितिबन्धस्य निर्वतका मार्गणागतशेषजीवानामसंख्यकभागमात्रा एव सम्पयन्ते, न त्वनन्तेकभागप्रमाणा इति ॥३०४॥ अथऽऽयुर्वर्जसप्तानामजघन्यस्थितेवन्धकभागान् प्रावदाह
सब्बासु सेसभागा अजहण्णठिईअ णायबा ॥३०५॥ (प्रे०) “सव्वासु" इत्यादि गतार्थमिति॥३०५ ।
तदेवमभिहिता आयुर्वर्जसप्तानां जघन्याजघन्यरित्योर्वन्धकभागा आदेशतोऽपि । साम्प्रतं शेपस्यायुपस्तान दर्शयन्नाह
पज्जमणुसमणुसीसुआहारदुगाणताइदेवेसु। मणणाण-संयम-समइअ-छेअ-परिहार-सुइल-खइएसु॥३०६॥(गोतिः) आउस्स जहण्णाए संखंसो बंधगा भुणेयब्वा । सेसासु असंखंसो सव्वत्थ अलहुटि ईअ सेसंसा ॥३०७॥ (गीतिः) (प्रे०) "पज्जमणुसे"इत्यादि, अक्षरार्थस्तु प्राग्वत् । भावार्थः पुनरयम्-पर्याप्तमनुष्यायकोनत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमायुष उत्कृष्टस्थितेरिव जघन्यस्थितेर्बन्धका अपि संख्येया एव सन्ति, ततश्च जघन्यस्थितिवन्धस्यैकस्थितिबन्धस्थानरूपतया प्रागुक्तनीत्या जघन्यस्थितेन्धका अपि मार्गणागतसर्वायुर्वन्धकानां संख्येयेकभागगता एवं प्राप्यन्ते, शेषमार्गणास्वपि निरयगत्यादिषु बहुपु मार्गणास्वायुर्वन्धकजीवानामसंख्येयत्वात् , तथैकेन्द्रियादिस्तोकमार्गणास्वायुबॅन्धकजीवानामनन्तत्वेऽपि तेषां सर्वेषां जघन्यायुर्वन्धार्हत्वादैकस्थितिबन्धस्मानात्मकजघन्यस्थितेर्वन्धकाः प्रागुक्तनीत्याऽसंख्याततमैकभागगताः प्राप्यन्त इति ॥३०६-३.७॥
समाप्ता सर्वासां मूलप्रकृतीनां जघन्याजघन्यस्थित्योर्वन्धकानामपि भागप्ररूपणा, तत्समाप्ती च गतं "भागा" इत्यनेनोदिष्टमष्टमं भागद्वारम् ।।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारेऽष्टमं नानाजीवाश्रयभागद्वारं समाप्तम् ।।
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॥ अथ नवमं परिमाणद्वारम् ||
अथ क्रमप्राप्ते नवमे द्वारे परिमाणग्ररूपणां चिकीर्षुरादावुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्वन्धकपरिमा णमोघतः प्ररूपयन्नाह -
उक्साए ठिईए अहं बंधगा असंखेजा । हुन्ति अणुक्कोसाए टिई उण बंधगाणंता ॥ ३०८ ॥
(प्रे० ) " उक्कोसाअ ठिईए अट्टह" इत्यादि, ओघतः समस्तजीवराश्यपेक्षया ज्ञानावरणादीनामष्टानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धका एकस्मिन् समय उत्कृष्टतोऽसंख्येया भवन्ति, प्रतिविशिष्टपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेवाष्टकर्म सत्कोत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामित्वात् । "अणुकोसाए ठिई उप" ति अत्र 'अड्डण्ह' मित्यनुवर्तते, ततो ज्ञानावरणादीनामष्टानामप्यनुत्कृष्टायाः स्थितेः पुनः "बंधगाणंता" त्ति 'बन्धकाः' - एकस्मिन् समय उत्कृष्टतो लभ्यमाना निर्वर्तका अनन्ता भवन्तीत्यर्थः । सुगमम् ||३०८ ||
अथादेशतो विभणिपुरादौ सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकपरिमाणं दर्शयन्नाह— सत्तण्ड तिमणुसेसु सव्वत्थाऽऽहारदुग-अवेसु । मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ - परिहार - सुहुमेसु ॥३०९॥ (गीतिः) जेट्टाए संखेजा सव्वेगिंदियणिगोअमेएस |
काय अनंता सेसासु असंखिया या ||३१०॥
(प्रे० ) " सत्तण्ह तिमणुसेसु" मित्यादि, तत्र “सत्तण्ह" इत्यस्य " जेट्ठाए संखेज्जा" इत्यनेनोत्तरगाथायामन्वयस्तव आयुर्वजानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां 'ज्येष्ठाया:'- उत्कृष्टायाः स्थिते: संख्येयाः, बन्धका इति गम्यते । कासु मार्गणास्त्रित्याह- “तिमणुसेसु" मित्यादि, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेस्त्रिमनुष्येष्वित्यनेनाऽपर्याप्तभेदवर्जा ओध-पर्याप्त मानुषीभेदभिन्नास्त्रयो भेदा ग्राह्यास्तेषु, तथा सर्वार्थसिद्धादेवगतिमार्गणाभेदे, आहारका ऽऽहारकमिश्र काययोगयोजिके, अपगतवेदे, मनः पर्यवज्ञाने, संयमौधे, सामायिक छेदोपस्थापन- परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणाभेदेषु चेत्येतासु त्रयोदशमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । तत्र मनुष्यौघमार्गणां विना शेषासु प्रत्येकं संख्येयानामेव जीवानां सद्भावेन तदधिकस्याऽसंख्येयस्याऽनन्तस्य वा परिमाणस्याऽसम्भवः । मनुष्यौघमार्गणायामपि पर्याप्तमनुष्याणामेवोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकत्वात् तेषां चोत्कृष्टपरिमाणस्याऽपि संख्येयत्वादुक्ताधिकपरिमाणासम्भव इति । अथ यासु प्रकृतबन्धकानां परिमाणमनन्तं ता मार्गणाः संगृह्याह - " सव्वेगिंदिये" त्यादि, सर्वशब्दस्योभयत्र योजनात्सर्व एकेन्द्रियजाति
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ओघादेशत उत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थित्योः] द्वितीयाधिकारे परिमाणद्वारम्
[ २८३ भेदाः सर्वे च निगोदभेदास्तेषु, वनस्पतिकायौधे च प्रत्येकम् “अणंता" ति आयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका अनन्ता इत्यर्थः । कुतः ? साधारणवनस्पतिकायिकानामपि सप्तानां ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वादिति । ____ अथ शेषमार्गणासु प्रकृतमाह-"सेसासु" इत्यादि, उक्तशेषासु द्विचत्वारिंशदभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकम् “असंखिया णेया" ति सप्तकर्मणामुत्कष्टस्थितेर्बन्धका असंख्येया ज्ञेयाः । कुतः ? इति चेद्, निरयगत्योधादिषु बहुषु मार्गणास्वसंख्येयानां जीवानां सद्भावात्, कतिपयासु च तिर्यग्गत्योपादिमागंणासु साधारणवनस्पतिकायजीवानां प्रवेशेनानन्तजीवानां सद्भावेऽपि तिर्यक्संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तादीनामसंख्येयजीवराशिकानामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वादिति । अत्र प्रतिमार्गणं सप्तानामुत्कष्टस्थितेर्बन्धकजीवानामसंख्येयत्वेऽपि न ते परस्परं तुल्या एव, किन्तु हीनाऽधिका भवन्ति, तत्र च कतिपयमार्गणास्वतिबहवोऽसंख्यलोकप्रदेशराशितुल्याः, कतिपयमार्गणास ततो हीना हीनतराद्याः सन्ति, न पुनरसंख्यलोकप्रदेशराशितुल्या इति ॥३०९-३१०॥
___ अर्थतास्वेव शेषमार्गणासु यासु पृथिवीकायौघादिमार्गणासु प्रकृतबन्धका असंख्यलोकप्रदेशराशितुल्यास्तासु तद्राशेः पूर्वोक्तभङ्गविचयादिप्रयोजकत्वादुत्तरत्र वक्ष्यमाणस्पर्शनादिप्रयोजकत्वाच्च तत्र विशेषतः प्रतिपादयन्नाह
तत्थ वि असंखलोगा पुहवाइचउण्ह सव्वसुहुमेसु।
वायरअसमत्तेसु य अपजपत्तेअवणकाये ॥३११॥ (प्रे०) "तत्थ वि असंखलोगा" इत्यादि, यासु मार्गणास्वनन्तरम् 'असंखिया णेया' इत्यनेन सामान्यतः सप्तानां ज्येष्ठस्थितेर्बन्धका असंख्येया ज्ञापितास्तत्रापि वक्ष्यमाणमार्गणासु विशेपतस्ते "असंखलोगा" त्ति 'असंख्यलोकाः' -- असंख्येयेषु लोकाकाशप्रमाणेषु क्षेत्रखण्डेषु यावन्त आकाशप्रदेशाः सन्ति तावत्प्रमाणाः, ज्ञेया इति शेषः । कासु मार्गणास्वित्याह-"पुहवाइचउण्ह" इत्यादि, पृथिव्यादीनां चतुर्णा मूलकायभेदानां य ओघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्ना द्वादश सूक्ष्मभेदास्तेषु सर्वेषु सूक्ष्मपृथिवीकायौघादिभेदेषु, तथा "बायरअसमत्तेसु य" ति तेषामेव पृथिव्यादिवायुकायान्तानां चतुर्णा कायानां ये चत्वारो बादरापर्याप्तपृथिव्यादिलक्षणा उत्तरभेदास्तेषु बादरापर्याप्तपृथिवीकायादिभेदेषु , "अपजे"त्यादि, अपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेदे चेत्यर्थः । एतासु सप्तदशमार्गणासु प्रत्येकं प्रविष्टजीवराशीनामप्यसंख्यलोकाकाशप्रदेशराशितुल्यत्वात् , तत्रासंख्येयतमैकभागगता भागद्वारेऽभिहिताः प्रकृतबन्धका असंख्यलोकप्रदेशराशितुल्या एव भवन्ति, असंख्यलोकानामप्यसंख्यभेदभिन्नत्वादिति ॥३११॥
अथ सप्तमूलकर्मणामेवानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकपरिमाणं मार्गणास्थानेषु दर्शयन्नाह
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२८४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणासु सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेः तिरिये सब्वेगिंदिय-णिगोअभेअ-वण-कायजोगेसु। उरलदुग-कम्मणेसूणपुंसगे चउकसायेसु॥३१२॥ अण्णाणदुगे अयते अचक्खुदंसण-तिअहलेसासु। भवि-येयर मिच्छेसु असण्णि-आहार-गियरेसु ॥३१३॥
हुन्ति अणुक्कोसाए ठिईअ सत्तण्ह बंधगाऽणंता। (प्रे०) “तिरिये सव्वेगिदिये"त्यादि, तिर्यग्गत्योघे, “सव्वेगिदियणिगोअभे" त्ति सर्वशब्दस्योभयत्र योजनात् सर्व एकेन्द्रियजातिभेदाः, सर्वे च निगोदभेदास्तेपु, तथा वनस्पतिकायौघ-काययोगसामान्ययोः, तथौदारिकौ-दारिकमिश्रकाययोगयोढिके, कार्मणकाययोगे, नपुंसकवेदे, क्रोधादिचतुःकपायभेदेषु, अन्यमार्गणासंग्रहायाह-"अण्णाणदुगे' इत्यादि, मत्यज्ञानश्रुताज्ञानमार्गणयोर्द्विके, असंयमे, अचक्षदर्शन-कृष्णादिव्यशुभलेश्यासु, भव्ये, तदितरेऽभव्ये, मिथ्यात्वे, असंड्या-ऽऽहारिमार्गणयोस्तथाऽऽहारीतरस्यामनाहारकमार्गणायामित्येतास्वष्टत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । एतासु प्रत्येकं :किमित्याह--"हुन्ति अणुक्कोसाए” इत्यादि, प्रकृतानामायुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनामनुत्कृष्टायाः-उत्कृष्टेतरस्याः स्थितेर्बन्धका अनन्ता भवन्तीत्यर्थः । कुतः ? यत एतासु प्रत्येकं सूक्ष्मवादरपर्याप्ताऽपर्याप्तान्यतमसाधारणवनस्पतिकायजीवराशीनां प्रवेशोऽस्ति, ते च प्रत्येकं प्रकृतमार्गणाबन्धप्रायोग्यसप्तकर्मसत्कानुत्कृष्टस्थितिवन्धं कर्तुं समर्थाः, तेषां च प्रत्येकं परिमाणमनन्तम् । उक्तं च जीवसमासे-‘साहारणा उ चउसु वि विसुं लोया भवेऽणंता' इति। तथा च सति तेषां सूक्ष्मादिसाधारणवनस्पतिकायजीवानां परिमाणप्राधान्याद् एतासु सर्वमार्गणासु प्रस्तुतबन्धका अनन्ताः प्राप्यन्ते ।।३१२-३१३।।
अथ शेषमार्गणासु सार्धगाथाद्वयेन प्रकृतपरिमाणमाहपज्जमणुस-मणुसीसु सव्वत्था-ऽऽहारदुग अवेएसु ॥३१४॥ (गीतिः) मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहार-सुहुमेसु।। णायव्वा संखेज्जा सेसासु असंखिया तत्थ ॥३१५॥ बायरसमत्तवज्जिअपुहवाइगचउगसेसभेएसु। पत्तेअवणम्मि तहा तदपज्जत्ते असंखलोगसमा ॥३१६॥ (गोतिः)
(प्रे०) "पज्जमणुसे"त्यादि, पर्याप्तमनुष्य-मानुषीमार्गणयोः, सर्वार्थसिद्धाख्यदेवगतिभेदे, आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणयोः, अपगतवेदमार्गणायां, तथा "मणणाणे” त्यादि, मनःपर्यवज्ञान-संयमोघमार्गणयोः, सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयम
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मार्गणास्वायुष उत्कृष्टस्थिते: ] द्वितीयाधिकारे परिमाणद्वारम्
[ २८५
"
मार्गणास्वित्येतासु द्वादशमार्गणासु प्रत्येकं " णायव्वा संखेज्ज" त्ति सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेबन्धकाः संख्येया ज्ञातव्याः । कुतः ? प्रत्येकं बन्धकजीवानां संख्येयत्वादिति । “सेसासु" ति उक्तशेषासु विंशत्युत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकम् “असंखिया" ति सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धका असंख्येया भवन्तीत्यर्थः । कुतः ? इति चेत्, प्रत्येकं जीवानामसंख्येयत्वात् तैः सर्वैरनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य निर्वर्तनाच्चेति । अत्राऽपि सामान्यतो दर्शिता असंख्येया बन्धकाः प्राग्वद् विशेपतो दर्शयन्नाह - "तत्थे " त्यादि, तत्र 'तत्थ' इत्यस्यान्वय उत्तरत्र "असंखलोगसमा " इत्यनेन, ततश्चानन्तरोक्ता असंख्येया अपि विशेषतोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशितुल्या ज्ञेयाः । कासु मार्गणास्वित्याह - "बायरसमत्तवज्जिअ" इत्यादि, 'बादरसमाप्ताः' - बादरपर्याप्ता ये भेदास्ते वर्जिता येभ्यस्ते बादरसमाप्तवर्जिताः, ते च ते पृथिवीकायादिकवायुकायान्तचतुष्कसत्काः शेषभेदाः, बादरसमाप्तवर्जितपृथिव्यादिकचतुष्कशेषभेदाः । ते चौघ- बादरौघ - बादरापर्याप्त सूक्ष्मघ-सूक्ष्मपर्याप्तसूक्ष्मापर्याप्तभेदभिन्नाः पद् पृथिवीकायभेदास्तथैव पडकायभेदाः, पट् तेजस्कायभेदाः, वायुकायाश्चेत्येवं चतुर्विंशतिः । तेषु तथा प्रत्येकवनस्पतिकायद्यभेदे, तस्य प्रत्येक वनस्पतिकायस्था-पर्याप्तभेदे चेत्येतासु षड्विंशतिमार्गणासु प्रत्येकम् “ असंखलोगसमा" इति योजितमिति । ननु शेषामु निरयगत्योघादिमार्गणाभेदेषु तर्हि कियन्तः ? इति चेत्, असंख्यलोकापेक्षयाऽत्यन्तस्तोकाः, लोकाभ्यन्तरवर्तिप्रतर श्रेण्यादे र संख्यादिभागमात्रगतनभः प्रदेशराशितुल्यत्वात् । ते च विशेो जिज्ञासुना श्रीप्रज्ञापनासूत्रादितोऽवसेया इति ।। ३१४-३१५-३१६।। तदेवमभिहितमायुर्वर्ज सप्तानामुत्कष्टानुत्कृष्टस्थित्यन्धकानामुत्कृष्टपदगतपरिमाणमादेशतः । साम्प्रतमाऽऽयुपस्तद्दिदर्शयिषुरादी तावदुत्कृष्टस्थितेराह
पड
संखेज्जा हुन्ति तिर आहारदुगा-ऽऽणताइदेवेसु । चरणाण संयमेसु समइअ - छेअ- परिहारेसु ॥३१७॥ देसो-हि-तिसुलेसा सम्म खइअ - वेअगेस सासाणे |
आउस्स गुरुठिईए सेसासु असंखिया या ||३१८ ||
(प्रे० ) "संखेजा हुन्ति" इत्यादि, संख्येया भवन्ति, बन्धका इति गम्यते । कस्याः ? इति चेद्, आयुषो 'गुरुस्थिते:'- उत्कृष्टायाः स्थितेरिति द्वितीयगाथोत्तरार्धेऽन्वय इति । कासु मार्ग - णास्वित्वाह-"तिणरआहारदुगे" त्यादि प्राग्वन्मनुष्यौघ- पर्याप्तमनुष्य मानुषीलक्षणेषु त्रिषु मनुष्यगतिभेदेषु, तथा ssहारक - ऽऽहारकमिश्र काययोगयोर्द्विके, आनतकल्पादिसर्वार्थसिद्ध विमानान्तेष्वष्टादशसु देवगतिभेदेषु मत्यादिचतुर्ज्ञान -संयमौघेषु, सामायिक-छेदोपस्थापन- परिहारविशुद्धिकसंयमेषु तथा देशसंयमा- ऽवधिदर्शन - तेजस्यादित्रिशुभलेश्या-सम्यक्त्वौघ - क्षायिक - वेदकसम्यक्त्वेषु सासा - दने चेत्येतासु चत्वारिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । तत्र मनुष्यौघादिबहुमार्गणासु पर्याप्तमनुष्या
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२८६ ]
बंधविहाणे मूलपडिटिइबंधो [ मार्गणास्वायुषोऽनुकृष्ट थते: णामेवायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वात् तेषां च संख्येयत्वात् प्रस्तुतबन्धकपरिमाणमपि तथैवोक्तम् । आनतकल्पादिदेवगतिमार्गणासु त्वसंख्येयानां देवानां सद्भावेऽपि तेषु कस्मिन्नपि समय आयुर्वन्धकाः पर्याप्त मनुष्यपरिमाणादधिका न सम्भवन्ति, पर्याप्तमनुष्यास्तूत्कृष्टतोऽपि संख्येया एव सन्ति । अत आनतकल्पादि मार्गणास्वेकसमय सव्यपेक्षमायुष उत्कृष्टस्थितेर्वन्धकपरिमाणमप्युत्कृष्टपदे संख्येयमेवाभिहितमिति । "सेसासु असंखिया णेया" ति अनन्तरोक्तस्य 'आउस गुरुठिईए' इत्यस्य काकाक्षिगोलकन्यायेनात्रापि योजनाद् उक्तशेषासु त्रयोविंशत्युत्तरशतमार्गणास्वायुषो गुरुस्थितेरसंख्येया ज्ञेयाः, बन्धका इति गम्यत इति । सुगमम् ; नवरमनन्तजीवराशिका स्वकेन्द्रियादि मार्गणास्वप्युत्कृष्टस्थितिकमायुः पर्याप्तमनुष्यसत्कं पर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियसत्कं वा निर्वर्त्यते, पर्याप्तमनुष्य- पर्याप्ततिर्यक् पञ्चेन्द्रियाश्च समुदिता अप्यसंख्येया इतिकृत्वा प्रागुक्तनीत्या तदायुषो बन्धका अपि समस्ते जगति कस्मिन्नपि समयविशेषेऽनन्ता न प्राप्यन्ते, किन्त्वसंख्येया एव प्राप्यन्त इति तथैवाभिहिता इति ।। ३२७-३१८।।
अथायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकपरिमाणमादेशतः प्ररूपयन्नाह - पज्जमणुसमणुसीसु आहारदुगा-ऽऽणताइदेवे ं । मणणाण-संयम समइअ - छेअ - परिहार- सुइल- खइएस ॥३१९॥ ( गीतिः) संखेज्जा अगुरूए ठिईअ आउस्स हुन्ति सेसासु । सत्तण्ह जत्तिआ खलु अगुरुटिईएऽत्थि तत्तिआ णेया ॥ ३२० ॥ ( गो०)
(प्रे०) "पज्जमणु से "त्यादि, अक्षरार्थस्तु प्राग्वत् । भावार्थ: पुनरयम्--पर्याप्तमनुष्यादिमार्गणासु प्रत्येकमायुषो बन्धका एकस्मिन् समय उत्कृष्टतः संख्येया एव प्राप्यन्ते, ततथायुपोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका अपि तदधिका न सम्भवन्ति । कुत आयुषो बन्धकाः संख्येया एव प्राप्यन्ते इति चेद्, पर्याप्तमनुष्यादिकतिपयमार्गणासु जीवानामेव संख्येयत्वात् कतिपयासु पुनरानतकल्पादिमार्गणासु जीवानामसंख्येयत्वेऽपि पर्याप्तमनुष्यसत्कस्यैवाऽऽयुप बन्धभावात् प्रागुक्तनीत्याssयुप न्यकाः संख्येया एव प्राप्यन्ते । शुक्ललेश्यायामप्येवमेव, तस्यां तिर्यग्भिरायुर्बन्धस्यैवाकरणात् । क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणायां तु युग्मितिर्यग्भिरायुर्वन्धकरणेऽपि श्रोभगवतीसूत्राभिप्रायेण सूपपत्तिकं प्रस्तुतपरिमाणम्, तदभिप्रायेण युग्मितिरश्वामप्यसंख्येयानामभावात् । उक्तञ्चसंख्येयवर्षायुष्कसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भ्यश्च्युतानां संख्येयानामेवासुरकुमारदेवतयोत्पाद व्युत्पादयद्भिर्वादिगजघटा केसरिभिः श्रीमदभयदेवसूरिपादैश्चतुर्विंशतितमशतक द्वितीयोदेशवृत्तौ'संखेज्जा उत्रवज्जंति' त्ति असंख्यातवर्षायुस्तिरश्चामसंख्यातानां कदाचिद्यभावात्' इति । (सूत्रं ६९८ ) तेषां च संख्येयत्वे क्षायिकसम्यक्त्वभाजां तिरश्चामपि संख्येयानामेव सद्भावेन देवायुबघ्नन्तः प्रकृतमार्गणागतास्तिर्यग्युग्मिन: संख्येया एव, युग्मिवर्जतिरथां तु क्षायिकसम्यक्त्व
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मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्स्थितेः ] द्वितीयाधिकारे परिमाणद्वारम्
[ २८७ मार्गणायां प्रवेश एव नास्ति; किश्च प्रकृतमार्गणागतदेवनारकाः सम्यक्त्वभाक्तया संख्येयराशिकस्य पर्याप्त मनुष्यस्याऽऽयुर्बध्नन्त एकस्मिन् समय आनतकल्पादिभेदवत् संख्येया एव सम्पद्यन्ते, एतेषां समस्तानामपि संख्येयत्व आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेवन्धका अपि संख्येयाधिका न सम्भवन्ति । ____ कषायप्राभृते तु'संखेज्जा च मणुस्सेसु खीणमोहा सहस्ससो णियमा । सेसासु खीणमोहा गदीसु णियमा असंखेज्जा ॥'
___ इत्यनेन क्षीणदर्शनमोहाः क्षायिकसम्यक्त्वभाजस्तियञ्चोऽसंख्येया अभिहिताः, अतस्तन्मते तु प्रकृतपरिमाणमायव्ययतौल्यनियमाद्भावनीयम् । तथाहि-निरयगत्यादिसर्वजीवराशिषु प्रत्येकमेकस्मिन् समये संख्येया असंख्येया अनन्ता वा यावन्तो जीवा उत्कृष्टतो मार्गणान्तरेभ्य आयान्ति, तावन्त एव संख्याता असंख्याता अनन्ता वा जीवा एकस्मिन् समये उत्कृष्टतो वियन्ति, तावतां जीवानां गत्यन्तागमनरूपो व्ययो भवतीति भावः । कुतो ज्ञायत एतद् ? इति चेद्, श्रीप्रज्ञापनादावुपपातोद्वर्तनाधिकारे तु ल्यानां संख्येयानामसंख्येयानामनन्तानां वा जीवानामुपपातोद्वर्तनयो रभिहित्वात् । उक्तश्च श्रीमत्यां प्रज्ञापनायाम्-'नेरइया णं भंते ! एगसमयेणं केवइया उवट्टति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेजा वा उबट्टति, एवं जहा उबवाओ भणिओ तहा घट्टणा वि भाणियव्या' । इत्यादि । प्रकृतेऽपि चाऽसंख्येयपरिमाणे क्षायिकसम्यग्दृष्टितिर्यग्जीवराशावेकस्मिन् समय उत्कृष्टतः संख्येया एव जीवा आयान्ति, न पुनरसंख्येयाः, पर्याप्तमनुष्याणामेव तत्रोत्पत्तेः । इत्थं क्षायिकसम्यग्दृष्टितिर्यग्जीवसङ्घाते उत्कृष्ट पदे संख्येयानामेवायः, यावतामायस्तावतामेव व्ययोऽपीति नियमात् क्षायिकसम्यग्दृष्टिजीवनिचयादेकस्मिन् समय उत्कृष्टतोऽपि संख्येया एव वियन्ति; किञ्च कस्यामपि मार्गणायामुत्कृष्टतो यावतामेकस्मिन् समये मरणं सम्भवति, तदधिकानामायुर्वन्धो न भवति। ततश्च क्षायिकसम्यग्दृशां तिरश्चामसंख्येयानां सद्भावेऽप्यायुर्वन्धकास्तु संख्येया एवोत्कृष्टत एकसमये प्राप्यन्ते, तथा च सति श्रीभगवत्यभिप्रायवत् करायप्राभृताभिप्रायेणाऽपि प्रकृतमार्गणायामायुपोऽनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकास्त्वेकसमये संख्येयाधिका नैव प्राप्यन्ते, ततश्च पर्याप्तमनुष्यादिक्षायिकसम्यक्त्वान्तास्वेकोनत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका अपि संख्येया एवोक्ता इति ।
अथ शेषमार्गणास्वाह-"सेसासु” इत्यादिना ‘अगुरूए ठिईअ आउस्स हुन्ति' इत्यस्य डमरूकमणिन्यायेनाऽत्रापि योजनात् शेषासु निरयगत्योघादिपत्रिंशदभ्यधिकशतमार्गणासु "तत्ती
आ णेया" ति तावन्तो ज्ञेया इति गाथाप्रान्तेऽन्वयः,यत्तदोनित्यसम्बन्धात्तत्पदवाच्यान् तान् यत्पदेनाभिदधाति-"सत्तण्ह जत्तिआ खलु” इत्यादिना, आयुर्वर्जानां सप्तानामगुरुस्थितेः-अनुत्कृटायाः स्थितेः निरयगत्योघादिमार्गणासु प्राग यावन्तो बन्धका अभिहिताः सन्तीत्यर्थः । इदमुक्त भवति-पर्याप्तमनुष्याद्यनन्तरोक्तैकोनत्रिंशन्मार्गणावर्जासु शेषासु चतुस्त्रिंशदभ्यधिकशतसंख्याकासु निरयगत्योधादिमार्गणासु प्रत्येकमसंख्येयोऽनन्तो वा यो जीवराशिस्तदनुसारेण यथासम्भवमसंख्येया
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२८८ ]
बंधवि राणे मूलपयडिठिइबंधो [ ओघादेशतो जघन्याजघन्यस्थित्योः अनन्ता वा सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकाः प्रागभिहितास्तथैव तासु निरयगत्योधादिशेषमार्गणासु प्रत्येकमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका अप्याख्येया अनन्ता वा बोद्धव्याः। यास्वसंख्येयो जीवराशिस्तास्वसंख्ययाः, यास्वनन्तो जीवराशिस्तास्वनन्ता इति भावः । न चैवं सति निरयगत्यादिमार्गमागताः सर्व एव जीवा आयुधोऽत्कृष्टस्थितेन्विका इत्याशय, बहुनामबन्धकानामपि सद्भावात् , केषाश्चिदुत्कृष्टस्थितिबन्धशादी सद्भावाच्च । अत एव 'यावन्तस्तावन्तः' इत्यनेनासंख्येया अनन्ता इत्येवंरूपवचनसाम्यकृतोऽतिदेशो मन्तव्य इति ॥३१९-३२०॥
तदेवमभिहितमष्टानामपि मूस कृतीनामुत्कृष्टाऽनुत्कृष्टस्थित्योर्वन्धकपरिमाणम् । साम्प्रतं तासाभवाप्टानां जघन्याजन्यस्थित्योर्मन् कपरिमाणं विमणिपुरादौ तावदोघत आह
संखेज्जा सत्तण्हं जहण्णगाए ठिईअ अलहूए।
हुन्त अणंताऽणंत आउस्स ठिईण दोण्हं वि ॥३२१॥ (ो०) "संग्वेज्जा सन्त राह” मैत्पादि, आयुर्वजानां सप्तानां “जहण्णगाए टिईए" त्ति जपन्या एव जघन्यका तस्या जघन्यायाः-हस्वायाः स्थितेः संख्येयाः, बन्धका इति गम्यते । सगमं चैतत् , सप्तानामौधिकजघन्यरि तिबन्धस्य क्षकश्रेणौ भावादिति । "अलहूए” त्ति 'सत्ताह मित्यनुवर्तते 'ठिईन' इत्यत्रापि योज्यते च, ततः सप्तानामजयन्याः स्थितेः "हुन्ति अणंता" ति बन्धका अनन्ता भवन्ति, निगोदपर्यन्तानां जीवानां प्रकृताऽजघन्यस्थितिबन्धस्य भावात् , तेषां चानन्तत्वादिति । अथ शे स्यायुप आह-"Sणता आउस ठिईण दोण्हं वि" त्ति मोलल्यायुःकर्मणो योरपि जघन्याः धन्ययोः स्थित्योः प्रत्येकं बन्धका अनन्ताः, भवन्तीत्यनुवर्तत हसत । एतदपि सुगमम् , साधः गवनस्पतिकायिकानामपि प्रकृतद्विविधस्थितिबन्धभावादिति ॥३२१॥ उक्तमोघतोष्टानां जन्याजवन्यतिविधस्थित्योर्वन्धकपरिमाणम् । अथ तदेवादेशतो दिदर्शयिषुरादौ तावज्जवन्यस्थितेरह
तिरिये सव्वेगिंदिय- गोदभेअ-षण-उरलमीसेसु। कम्मण-दुअणाणेसु अयते अपसत्थलेसासु ॥३२२॥ अभविय-मिच्छत्तेसु अगणा-ऽणाहारगेसु य अणंता।
सत्तण्ह बंधगा खलु हुन्ति ठिईए जहण्णाए ॥३२३॥ (प्रे०) "तिरिये सव्वेगिंदिये' त्यादि, तिर्यग्गत्योघे, तथा सर्वशब्दस्यैकेन्द्रियनिगोदयोः प्रत्येकं योजनात् सर्वेष्वेकेन्द्रियभेले तु सर्वेषु च निगोदभेदेषु, तथा वनस्पतिकायौघौ-दारिकमिश्रकाययोगयोः, कार्मणकाययोग-मत्य बान-श्रुताज्ञानेषु,असंयमे, अप्रशस्तासु कृष्णादित्रिलेश्यासु, तथाऽभव्यमिथ्यात्वयोरमनस्का-ऽनाहारकश्चेित्येतास्वष्टाविंशतिमार्गणासु प्रत्येकम् “अणंता"
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मार्गणास्वायुवर्जानां जघन्यस्थितेः ] द्वितीयाधिकारे परिमाणद्वारम्
[२८९ त्ति अनन्ताः । क इत्याह-"सत्तण्हे"त्यादि सुगमम् । भावार्थोऽपि सुगमः, यतः प्रत्येक जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनो विशिष्टाः साधारणवनस्पतिकायिकाः, तेषां चानन्तत्वात्प्रकृतबन्धकपरिमाणमप्यनन्तं भवतीति ॥३२२-३२३।।
तिमणुस-सव्वत्थेसुदुपणिंदितसेसु पणमणवयेसु । कायो-रालेसु तह आहारदुगे तिवेएसु॥३२४॥ गयवेअ-कसायचउग-चउणाण-विभंग-संयमेसु च । सामाइअ-छेएसुपरिहारे देस-सुहुमेसु॥३२५॥ णयणा-ऽणयणो-हीसुपसत्थलेसासु भविय-सम्मेसु। खइअम्मि वेअगम्मि य उवसम-सण्णीसु आहारे ॥३२६॥
णायव्वा संखेज्जा अवसेसासु हविरे असंखेज्जा। (प्रे०) “तिमणुसे"त्यादि, अक्षरार्थस्तु प्राग्वत् , नवरम् “तिमणुस” इत्यनेनापर्याप्तमनुष्यभेदवर्जाः शेषा मनुष्यौघ-पर्याप्तमनुष्य-मानुपीलक्षणास्तिस्रो मार्गणा ग्राह्याः, तथा "दुपणिंदितसेसु' इत्यत्रापि द्विशब्दस्य प्रत्येकं योजनादपर्याप्तमेदवर्जावोध-पर्याप्तभेदभिन्नौ द्वौ पञ्चेन्द्रियजातिभेदौ द्वौ च त्रसकायभेदी विवक्षितौ बोद्धव्यौ, तथा “पसत्थलेसासु" इत्यनेन पद्माद्यास्तिस्रः शुभलेश्याश्च सङ्ग्रहीता विज्ञेयाः । इत्येवमाद्यगाथात्रयेण सगृहीतासु मनुष्यगत्योघादिचतुःपञ्चाशन्मार्गणासु प्रत्येकं "णायव्वा संखेज्जा" ति प्रकृतत्वादायुर्वर्जानां सप्तान्यतमानां तत्तन्मनुष्यगत्योधादिमार्गणायां बन्धप्रायोग्यप्रकृतीनांजघन्यस्थितेर्बन्धकाः संख्येया ज्ञातव्याः। कुतः ? उच्यते, मनुष्योधमार्गणायां सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धस्य क्षपकश्रेणावनिवृत्तिवादरगुणस्थाने सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने वा यथासम्भवं भावात् , तत्र कस्मिन्नप्येकस्मिन् समय उत्कृष्टतः संख्येयानामेव जीवानां सद्भावाच्चेति । इत्थमेव पर्याप्तमनुष्य-मानुषी-पञ्चेन्द्रियौध-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियत्रसकायौघ--पर्याप्तत्रसकाय-पञ्चमनोयोगभेद-पञ्चवचोयोगभेद--काययोगसामान्यौ-दारिककाययोगस्व्यादित्रिवेदा-ऽपगतवेद-क्रोधादिचतुःकवाय-मत्यादिचतुर्ज्ञान-संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापनसूक्ष्मसम्परायसंयम--चक्षुर्दर्शना-ऽचक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन-शक्ललेश्या-भव्य-सम्यक्त्वौघ-क्षायिकसम्यक्त्व-संड्या-ऽऽहारिमार्गणासु प्रत्येकं बोद्धव्यम् । औपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां जघन्यस्थितिबन्धस्योपशमश्रेणौ लाभात् , तथा सर्वार्थसिद्धविमानदेवगतिभेद आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणयोः परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायां च प्रत्येकं जीवानामेव संख्येयत्वात् तदधिकपरिमाणाऽसम्भवः । विभङ्गज्ञान-देशसंयममार्गणयोस्तु जघन्यस्थितेर्बन्धकाः संयमाभिमुखा मनुष्या एव, ततः संख्येया एव सम्भवन्ति । तेजः-पालेश्या-वेदकसम्यक्त्वमार्गणासु तु जघन्यस्थितेर्बन्धका
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२९० ]
बंधविहाणे मूलपअडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जनामजघन्यस्थितेः अप्रमतसंयता इति कृत्वा संख्येया एव । इत्येवमुक्तसर्वमार्मणासु भिन्नभिन्नहेतोः संख्येया एव बन्धका लभ्यन्ते, न पुनरसंख्येया अनन्ता वेति ।
अथ शेषमार्गणासु प्रकृतबन्धकपरिमाणमाह-“अवसेसासु हविरे असंखेज्जा" त्ति 'तिरिये सव्वेगिदिये'त्यादिना प्रागुक्ता अष्टाविंशतिमार्गणास्तथा 'तिमणुसे' त्यादिनाऽनन्तरोक्ताचतुःपञ्चाशन्मार्गणाश्च संत्यज्य शेपास निरयगत्योधादिष्वष्टाशीतिमार्गमासु प्रत्येकमसंख्येया भवन्तीत्यर्थः । शेषमार्गणा नामतस्त्विमा:-अष्टौ निरयगतिमार्गणाभेदाः,चत्वारः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, अपर्याप्तमनुष्यभेदः, सर्वार्थसिद्धविमानभेदवर्जा देवौघभवनपत्यादय एकोनत्रिंशदेवगतिभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदः, पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिकायसत्काः सर्व इत्येकत्रिंशद्भेदाः, अपर्याप्तत्रसकायभेदः, वैक्रिय-वैक्रियमिश्रकाययोगभेदौ सम्यग्मिथ्यात्वसासादनभेदौ चेति । एतास प्रत्येकमसंख्येया जीवास्ते च स्वस्थानविशद्धाः सन्तः सप्तानां जघन्यस्थितेर्वन्धका भवन्ति, न पुनर्विभङ्गज्ञानादिमार्गणावत् संयमाद्यभिमुखाः सन्त एव, ततश्चैकस्मिन् समय उत्कृष्टतोऽसंख्येया प्राप्यन्त इति तथैवाभिहिता इति । इदन्तु बोडयम्सासादनमार्गणायां 'सासाणे चाइयो निवडतो संयमा व भवे" (गाथा-१२९) इति जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वप्ररूपणोक्तेन चतुर्गतिकानां स्वस्थानविशुद्धानां सासादनसम्यग्दृशां जघन्यस्थिति-- बन्धस्वामित्वाभिप्रायेण प्रकृतबन्धका असंख्येया अभिहिताः । तदन्यमतेन तु ते संख्येया एव भवन्ति, संयमान्सासादनप्राप्तानां संख्येयानामेव सम्भवादिति ।।३२४-३२५-३२६॥
तदेवमभिहितं सप्तानां जघन्यायाः स्थितेर्बन्धकपरिमाणमादेशतः । अथ तेषामेवाऽजघन्यायाः स्थितेभिणिपुरुत्कृष्टस्थितिवन्धकपरिमाणेन सर्वसाम्याल्लाघवार्थमतिदिशन्नाह
सव्वासु अहस्साए ऽणुकोसठिइब्व णायया ॥३२७॥ (प्रे०) “सव्वासु अहस्साए” इत्यादि, निरयगत्योपाद्यनाहारकपर्यन्तासु सप्तत्यधिकशतसंख्याकासु सर्वास्वधिकृतमलोत्तरमार्गणासु “अहस्साए” त्ति प्रकृतत्वादायुर्वर्जसप्तान्यतमानां निरयगत्योपादितत्तन्मार्गणायां बन्धप्रायोग्यानां मूलप्रकृतीनामहस्वायाः-अजघन्यायाः स्थितेबन्धकाः "डणुक्कोसठिइव्व णायव्वा" ति अत्रैव द्वारे प्राक'तिरिये सवेगिदियणिगोअभेस-वणकाय-योगेसु । उरलदुग-कम्मणेसु णपुसगे चउकसायेसु॥ अण्णाणदुगे अयते अचक्खुदंसण-तिअसुइलेसासु । भविये-यर-मिच्छेसु असपिण-आहार-गियरेसु॥ हुन्ति अणुक्कोसाए ईअ सत्तण्ह बंधगाऽणंता । पज्जमणुस-मणुसीसुसव्वत्था-ऽऽहारदुग-अवेएसु॥ मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहार-सुहुमेसु । णायवा संखेज्जा सेसासु असंखिया तत्थ ॥ बायरसमत्तवज्जिअपुहवाइगचउगसेसभेएसु । पत्तेश्रवणम्मि तहा तदपज्जत्ते असंखलोगसमा।।' इतिगाथापञ्चकेन निरगत्यादितत्तन्मार्गणायामभिहितानामायुर्वर्जानां सप्ताना-'मनुत्कृष्टस्थितिवत्'अनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामिव ज्ञातव्याः । यथा मार्गणास्थानेषु प्राक् सप्तानामनुत्कृष्टस्थिते
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मार्गणास्वायुषो जघन्येतरस्थित्योः] द्वितीयाधिकारे परिमाणद्वारम्
[ २९१ बन्धकपरिमाणमभिहितं तथा प्रकृतेऽपि सप्तानामजघन्यस्थितेर्बन्धकानां परिमाणमविशेषेण ज्ञातव्यम् । मार्गणागतानां सर्वजीवानामनुत्कृष्टस्थितिबन्धवदजघन्यस्थितिवन्धार्हत्वादितिभावः । विशेषतस्तु प्रतिमार्गणं सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेबन्धकपरिमाणवत् स्वयमेव भावनीयमिति ।।३२७।।
___ तदेवमुक्तं सप्तानां जयन्याजवन्यस्थित्योबन्धकपरिमाणमादेशतः साम्प्रतमवशेषस्यायुषस्तत्तन्मार्गणास्थानेषु प्रतिपिपादयिषुलाघवार्थमेकयाऽऽर्यया । सापवादमतिदिशति
हस्सियराण ठिईणं आउस्स अगुरुठिइब्ब हुन्ति परं । हस्साए संखेज्जा तिणाण-ऽवहि-सम्म-वेअगेसु भवे ॥३२८॥ (गीतिः)
(प्रे०) "हस्सियराणे" त्यादि, शेषस्याऽऽयुषः-मौलायुःकर्मणो 'ह्रस्वेतरयोः'-जघन्याऽजधन्ययोः स्थित्योः “अगुरुठिइव्व हुन्ति” त्ति 'आउस्स' इत्यस्यात्रापि योजनादायुषोऽगुरुस्थितिवद् भवन्ति । आयुषोऽनुत्कृणायाः स्थितेरत्रैव द्वारे प्राक'संखेज्जा हुन्ति तिणर-आहारदुग-आणताइदेवेसुं । चरणाण-संयमेसं समइअ-छेअ-परिहारेसुं ।।। देसो-हि-तिसुइलेसा सम्म-वइअ-वेअगेसु सासाणे । आउस्त गुरुठिईए सेसासु असंखिया णेया ॥ पज्जमगुस-मणु सीसुं आहारदुगा-ऽऽणताइदेवेसुं । मणणा-संघम-समइअ-छेअ-परिहार-सुइल-खइएसु।। संखेना अगुरूए ठिईअ आउन्स हुन्ति सेसासुं। सत्तण्ह जत्तिआ खलु अगुरुठिईएऽस्थि तत्तिआ णेया॥' इतिगाथाचतुष्टयेन यावन्तो बन्धकाः प्रतिपादितास्तावन्तो भवन्तीत्यर्थः । अयं हि बहुसाम्यकृतोऽतिदेशः, न पुनः सर्वसाम्यकृतः, अतस्तत्र स्तोकमात्रवैपम्यप्रयुक्ता याऽतिव्याप्तिस्तामुद्ध काम आह“पर” मित्यादि, परमयमत्र विशेषः कोऽसावित्याह-"हस्साए” इत्यादि, प्रकृतस्यायुपो 'ह्रस्वाया:'-जघन्यायाः स्थितेः संख्येयाः, बन्धका इति गम्यते । कासु मार्गणास्वित्याह-"तिणाणे" त्यादि, मत्यादिषु तिसृषु ज्ञानमार्गणासु, तथाऽविदर्शन सम्यक्त्वौघ-वेदकसम्यक्त्वमार्गणास्वित्येतासु पण्मार्गणास्ववेत्यर्थः, न पुनरन्यमार्गणास्वजधन्यस्थितेर्वन्धकपरिमाणविषये वा ।
इदमुक्तं भवति-मतिज्ञानादिषण्मार्गणास्त्रायुगो जघन्यस्थितेर्बन्धकपरिमाणविषयकमपवादं विहाय शेषमार्गणास्वायुषो जघन्यस्थितेर्बन्धकाः, सर्वमार्गणास्वायुषोऽजघन्यस्थितेर्बन्धकाश्च प्रत्येकमौत्सर्गिकवाक्यानुसारेण संख्येया असंख्येया अनन्ताश्च यथासम्भवं बोद्धव्या इति ।
इदमत्र हृदयम्-उत्कृष्टानुत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धकानां परिमाणमिव जघन्याऽजघन्यस्थितिकायुर्वन्धकानां परिमाणमपि तादृशायुनिवर्तनानां जीवानां यदुत्कृष्टं परिमाणं तथा तादृशायुर्वेदकानां जीवानां यदुत्कृष्टं परिमाणं तयो योर्यत्स्तोकं संख्येयमसंख्येयमनन्तं वा तदनुसारेण तादृशस्थितिकायुर्वन्धका अपि संख्येया असंख्येया अनन्ता वोत्कृष्टतः सम्पद्यन्ते । किञ्च येऽनुत्कृष्टस्थितेबन्धकास्ते सर्वेऽजघन्यस्थितेर्बन्धका अपि, तच्छेपास्तु स्तोका एव, अतो निरयगत्योधादितत्तन्मार्गणासु यावन्त आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकास्तावन्तोऽजघन्यस्थितेर्बन्धका अपि भणिताः । एते चाऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका अजघन्यस्थितेर्बन्धकाश्च संख्येयत्वादिरूपेण तुल्या अप्यनुत्कृष्टस्थितेर्बन्ध
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२९२ ]
श्रोत: श्रायुर्वज -
सप्तानाम्
कियन्तो बन्धकाः
उत्कृष्टस्थितेः
प्रजघन्यानुत्कृष्टस्थित्योः आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनाम्
जघन्य स्थितेः
उत्कृष्ट स्थिते
★ आयुषः अनुत्कृष्टस्थितेः
संख्येयाः
अनंताः
प्रोघवत् असंख्या:
श्रीवत्
अनंताः
संख्येयाः
असख्या:
असंख्याः
संख्येयाः
असंख्याः
संख्येयाः
अनंताः
असंख्या:
उत्कृष्टस्थिते:- असंख्याः बन्धकाः । शेषद्विविधस्थितेः -- अनन्ताः । जघन्यस्थिते:- संख्येयाः बन्धकाः ।
गतिः
इन्द्रियः
मनुष्योध, तत्पर्याप्तमानुषी सर्वार्थसिद्ध.४
शेष०
तिर्यग्गत्योघः
१
शेष०
अनंताः
श्रोधवत् मनुष्योध तत्पर्याप्त० संख्येयाः मानुषी, सर्वार्थसिद्ध.
विहाणे मूलपबंधो
पर्याप्तमनु. मानुषी, सर्वार्थसिद्ध०
३
४३
तिर्यग्गत्योषः
शेष०
४३
शेष०
१
४२ ।
मनुष्यौध० तत्पर्या
मानुषी, आनतादि
१८ देवभेदाश्व, २१
शेष०
२६
पर्याप्तमनु० मानुषी,
प्रानतादिदेवाश्च २०
तिर्यग्गत्योः १
[ परिमाण
अष्टमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टाऽनुत्कृष्ट- जघन्या
सर्व केन्द्रियभेद० वनौघसर्वसाध
रणवनभेदा: 5
शेषo
शेष० १२
शेष
67
सर्व केन्द्रियभेदाः वनौघ- सर्वसाधारण
૩
वनभेदा:
शेष०
पञ्चेन्द्रियौध
तत्पर्याप्तभेदौ ०
२
सर्वे ०
७
शेष०
१२
सर्व केन्द्रियभेदाः वनौघ- सर्वसाधा रणवनभेदा: सौध-पर्याप्त
त्रसभेदौ.
१०
कायः
१६
67
शेषo
१२
३४|
शेष
सर्व०
5
३४
८
२
३२
४२
(गाथा - ३०८-३२१)
योगः
आहारकतन्मिश्र०
३४
शेप०
१६
कार्याघ. श्रदारिक
तन्मिश्र० कार्मण० ४
आहारकतन्मिश्र०
२
शेष
२
१२
श्रदारिकमिश्र ०
कार्मण
२
सर्वमनोवचोऽकायौघ श्रदारिकतन्मिश्र.
१४
शेष.
शेष ०
२
श्राहारकतन्मिश्र०
२
सर्वे केन्द्रियभेदाः वनौघसर्वसाधारण- कार्योौघ० प्रदारिक
वनभेदाः ८
तन्मिश्र० ३
शेष०
१४
आहारकतन्मिश्र०
२
वेदः
प्रवेद०
१
त्रिवेद० ३
नपुं. ०
प्रवेद०
१
स्त्री० पुं०
सर्व ०
४
त्रिवेद०
१
३
२६
११
★ प्रायुषो जघन्याऽजघन्यस्थित्योर्बन्धकपरिमाणमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धकपरिमाणवदेव, केवलं मति श्रताऽवधिज्ञाना-S
नपुंसक
१
शेष० स्त्री-पुरु
२
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-यन्त्रकम् ] द्वितीयाधिकारे परिमाणद्वारम्
[ २९३ -ऽजघन्यस्थितिबन्धकपरिमाणप्रदर्शकं यन्त्रकम् प्रोत:
उत्कृष्टायाः स्थिते:-असंख्येया बन्धकाः । प्रायुषः
शेषत्रिविधायाः स्थितेः--अनन्ता । (गाथा-३०८-३२१) ज्ञान० संयम दर्शनं लेश्या भव्य० सम्यक्त्व० संज्ञी० श्राहा सर्वाः गाथाङ्काः मनःपर्यव० संयमोघ.सामा.छेद..
३०६
कषाय.
१ परिहार० सुक्ष्म०५
शेष०
६ असंयम देश०सर्व० सर्वे सर्वे
मत्यज्ञान०
असंयम:
अचक्ष अशुभ. सर्वे
। मिथ्यात्व० सं०
३१२ ३१३
श्रताज्ञान०२
१
मन:पर्यव०
संयमोधसामाछद.
परिहार० सूक्ष्म०
३१४
३१५
शेष
शुभ०
शेष०-संजी०
देशसंयम:
२०
३१५
मिथ्यात्व० सं० अन० २८
३२२
३२३
सम्यक्त्वौघ. मंजी० पाहा०
३२४
तः
३२७
मत्यज्ञानअसंयम:
अशुभा अभ० श्रुताज्ञान०
२ १ मति-श्रता-ऽवधि- संयमौघ०सामा० मन:पर्यव० छेदपरिहार देश सर्व० शुभ० भव्य.
क्षायिक-वेदक० विभङ्ग० ५ सूक्ष्मसंपराय०६
औपश० ४ सासा. मिश्र
८८
२ मति-श्रुता-ऽवधि संयमौघ-सामा.छेद.
| सम्यवत्वौघ० मनःपर्यव० परिहार० ४ अवधि
क्षायिक वेदक० ४ देश० ५
सास्वादन०४ अज्ञानत्रयं ३
असंयमः | शेष० अशुभ सर्वे. मिथ्यात्व० सर्व पाहा,
३२७
३१८
मिथ्यात्व० सं० पाहा० ३६ ३२०
मनःपर्यव० संयमौध० सामा०
क्षायिक छेद० परिहार०४ सर्वे मत्यज्ञान
असंयमः श्रुताज्ञान० २ शेष० देशसंयमः अवधि तेजः
शेष०संज्ञी १ चक्षु. पद्म२
६८ | ३२० वधिदर्शन-सम्यक्त्वौघ-क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणासु जघन्यस्थिते: संख्येया बन्धकाः, न त्वसंख्येयाः (गाथा-३२८)।
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२९४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषो जघन्येतरस्थित्योः कापेक्षयाऽजघन्यस्थितेर्बन्धकाः स्तोका एव । एवं स्तोकाधिक्यभावेऽप्यतिदेशप्रयोगस्त्वभिलापसाम्यादेवावसातव्यः । एवमेवान्यत्राऽप्यतिदेशेऽभिलापसाम्यमेवादाय सर्वमुपपादनीयम् । इत्थं य आयुषो जघन्यस्थितेर्बन्धका अप्यतिदेशेन दर्शितास्तेऽपि अभिलापसाम्यादेव, तदुपपत्तिस्तूऽक्तनीत्यैव कार्या । तथाहि-निरयगत्योघे जघन्यस्थितिकायुर्वन्धार्हानां परिमाणमिव तादृशजघन्यस्थितिकायुर्वेदकजीवपरिमाणमपि लोकेऽसंख्येयं विद्यते, अतस्तत्रानत्कृष्टस्थितेर्बन्धकपरिमाणवजघन्यस्थितेर्बन्धकपरिमाणमप्युत्कृष्टपदेऽसंख्येयं भवति । इत्थमेव शेषनिरयगतिभेदेषु, चतुर्यु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदेषु, मनष्यौघा-ऽपर्याप्तमनुष्यभेदयोः, देवोधे, सहस्त्रारान्ते स्वेकादशदेवभेदेषु, तथा नवस्वपि विकलेन्द्रियभेदेषु, त्रिषु पञ्चेन्द्रियभेदेषु, सर्वेषु पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिकायसत्केष्वेकत्रिंशद्भदेषु, त्रिषु त्रसकायभेदेषु, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-वैक्रियकाययोग-स्त्रीवेदपुवेद-विभङ्गज्ञान-चक्षुर्दर्शन--देशसंयम--तेजः-पबलेश्या--सास्वादन-संज्ञिमार्गणास्वपि बोद्धव्यम् । तिर्यग्गत्योधमार्गणायां त्वायुषोऽनत्कृष्टस्थितिबन्धं निर्वर्तयितुं यथाऽनन्ताः साधारणवनस्पतिकायजीवा अप्यहन्ति, तथा एते जघन्यस्थितिकायुर्वन्धं कमप्यर्हन्ति, तथा तादृशजघन्याऽऽयुर्वेदका अपि लोकेऽनन्ता विद्यन्ते, ततश्च तिर्यग्गत्योधमार्गणायामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामिव जघन्यस्थितेबन्धका अप्यनन्ताः प्राप्यन्ते । एवमेव अनन्तजीवराशिकासु सर्वमार्गणासु विज्ञेयम् ।
___ताश्च मार्गणा इमाः-तिर्यग्गत्योघः, सर्व एकेन्द्रियभेदाः, वनस्पतिकायौघः, सर्वे साधारणवनस्पतिकायभेदाः, ते च सप्त. काययोगोधौ-दारिकौ-दारिकमिश्र-नपुसकवेद-कषायचतुष्क-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयमा-ऽचक्षुर्दर्शन-कृष्ण-नील-कापोतलेश्या-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंड्या-हारिमार्गणा इति । शेषमार्गणाभ्य आनतादिदेवभेदेषु पर्याप्तमनुष्यादिमार्गणासु च समग्रा अप्यायुबन्धकाः प्रागुक्तनीत्योत्कृष्टतोऽपि संख्येया एव सम्भवन्ति, अतोऽनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकानामिव जघन्यस्थितिबन्धका अपि संख्येया एव प्राप्यन्ते, अतस्तत्राऽप्यतिदेशेनाभिहिताः । मतिज्ञानादिष्वपवादविषयभृतासु षण्मार्गणासु तु जघन्यस्थितिकमायुः पर्याप्तमनुष्यसत्कमेव बध्यते, देवनारकाणां तत्स्वामित्वात्; अनुत्कृष्टस्थितिकायुस्तु देवसत्कमपि बध्यते, मनुष्यतिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामपि तत्स्वामित्वात्, इत्थं च जयन्यस्थितेर्बन्धकाः संख्येया एवं प्राप्यन्ते, देवानामसंख्येयत्वेऽपि तादृशायुर्वेदकानां पर्याप्तमनुष्याणां संख्येयत्वात्, । अनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकास्त्वसंख्येयाः प्राप्यन्ते, तद्वन्धाहजीवराशेरिव बन्धप्रायोग्यदेवायुपो वेदकानामपि लोकेऽसंख्येयानां सद्भावात् । ततश्चोभयत्र वैषम्यात् तासु षण्मार्गणास्वपोदितमिति ॥३२८॥
तदेवं दर्शितमायुषो जघन्याजघन्यस्थित्योबन्धकपरिमाणमादेशतोऽपि, इत्थं च गतं नवमं परिमाणद्वारम् ।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे नवमं द्रव्यपरिमाणद्वारं समाप्तम् ।।
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॥ अथ दशमं क्षेत्रद्वारम् ॥ अथ "खेत्त” इत्यनेनोद्दिष्टस्य दशमस्य क्षेत्रद्वारस्यावसरः, तत्र मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टाऽनुत्कृष्टस्थित्यो नाजीवाश्रयं क्षेत्रं प्रतिपिपादयिषुरादौ तावदोघत आह
लोगस्स असंखयमे भागे होअन्ति बंधगाऽ?ण्हं ।
उक्कोसाअ ठिईएऽणुक्कोसाअ पुण सव्वजगे ॥३२९॥ (प्रे०) "लोगस्से" त्यादि, अष्टानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका लोकस्य चतुर्दशरजवात्मकस्यासंख्यतमे "भागे" ति एकस्मिन् भागे भवन्ति । इह "होअन्ति" इत्यत्र वर्तमानत्वोपादानेन भण्यमानं क्षेत्रं समयमात्रापेक्षमवगन्तव्यम् । किमुक्तं भवति ? भण्यमानक्षेत्रप्ररूपणायां वक्ष्यमाणस्पर्शनाप्ररूपणायां च लोकासंख्येयभागादिलक्षणं तत्तत्स्थितेवन्धकानामुत्कृष्टपदगतं क्षेत्रपरिमाणमेव प्ररूपणीयम् , यद्यप्येवं तथाऽपि क्षेत्रप्ररूपणायां भण्यमानस्य स्पर्शनाद्वारे वक्ष्यमाणस्य च क्षेत्रपरिमाणस्याऽस्ति विशेषः, स चेह कालकृत एव विज्ञेयः । उत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धकानामुत्पाद-समुद्घातादिविषयभूतसमस्तक्षेत्रस्य तत्तत्कालापेक्षया हिनाधिकता भवति,समयमात्रकालापेक्षं तद् विलक्षणं प्राप्यते, नानासमयसव्यपेक्षं पुनस्ततोऽपि विलक्षणं लभ्यत इति भावः ।।
तथाहि-एकसमयमपेक्ष्य, अर्थात् एकस्मिन् समय उत्कर्षतो यावति क्षेत्रे विवक्षितोत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धकजीवानां सम्भवस्तावत् 'लोगस्स असंखयमे' इत्यादिना भण्यमानं लोकासंख्येयभागादि क्षेत्रपरिमाणं क्षेत्रप्ररूपणाविषयभूतम् । नानासमयापेक्षयोत्कर्षतो यावति क्षेत्रे तादृशबन्धकजीवानां सम्भवस्तावत् 'फुसिआ तेरह भागा' इत्यादिना स्पर्शनाद्वारे वक्ष्यमाणं वसनाड्यास्त्रयोदशादिभागलक्षणं क्षेत्रपरिमाणं पुनः स्पर्शनाप्ररूपणाविषयभूतम् । न चायमसाम्प्रदायिकः कुतो विवक्षितः क्षेत्रस्पर्शनयोर्विशेष इति वाच्यम् । जीवसमासे इत्थमेव विवक्षितत्वात् । उक्तं च तत्र
सट्ठाण-समुग्याएणुववाएणं च जेजहिं भावा ।संपइकाले खेत्तं तु फासणा होइ समईए॥१८०॥इति।
न च तत्र साम्प्रतकालिकं क्षेत्रम् , अतीतकालिकी तु स्पर्शनोक्ता, न तु सामयिक क्षेत्रमित्यादीति वाच्यम् । वर्तमानकालस्य समयमात्रत्वेनातीतकालस्य त्वनन्तसमयात्मकत्वेन च विवक्षाभेदाभावात् । उक्तश्च तत्वार्थभाष्ये वर्तमानादीनां समयाद्यात्मकत्वम्
"तत्रैक एव वर्तमानसमयः, अतीता-ऽनागतयोस्त्वानन्त्यम्” इति ॥५॥३९।।
इत्थं च कदाचित् 'लोगस्स असंखयमे भागे होअन्ति बंधगाऽट्टण्ह'मित्यादिभणनावसरे प्रज्ञापकापेक्षया तत्तत्समयायात्मके वर्तमानकाले सर्वस्मिन् जगति न स्यादेकोऽपि मूलकर्मणामुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकस्तदभावे तत्संबन्धिलोकाऽसंख्यभागमात्र क्षेत्रं तथाऽपि न काचित्क्षतिः, अतीतसमयमात्रकालमपेक्ष्याऽपि प्रस्तुतक्षेत्रोपपत्तेः । अत एवाधिकृतबन्धविधानग्रन्थे मूलप्रकृतिबन्धप्रथमाधिकारे क्षेत्र-स्पर्शनयोर्विशेषप्रतिपादनपरायाम्
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२९६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ओघादेशत उत्कृष्टेतरस्थित्योः 'कालं उ वट्टमाणं पडुच्च खेत्ते परूवणा णेया। आसिज अईअद्धं परूवणा उण फरिसणाए ।' इति गाथायां वर्तमानकालादेग्रहणं समयादिकाले पर्यवसितं बोद्धव्यमिति ।
तथा "असंखयमे भागे" इत्यत्राऽऽधारार्थायाः सप्तम्याया विभक्तरुपादानं क्षेत्राभिधानाय, यतः सर्वाधारमाकाशम् , तच्च क्षेत्रमप्युच्यते, जीवादिपदार्थानां तत्र निवसनात् । तदुक्तं श्रीतत्वार्थवृत्तौ-क्षियन्ति-निवसन्ति यत्र जीवादिद्रव्याणि तत्क्षेत्रम्-आकाशम्' इति । ततश्चाष्टानामुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धका एकस्मिन् समये लोकाकाशस्याऽसंख्येयभागे भवन्ति,तेषां क्षेत्रलोकस्याऽसंख्येयभागमात्रं भवतीत्यर्थः । इत्थमेवोत्तरत्रापि बोद्धव्यम् ।
____ अथानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां क्षेत्रमाह-"णुकोसाअ पुण सव्वजगे” त्ति लुप्ताकारस्यदर्शनात् प्रकृतत्वाचाष्टानामनत्कृष्टायाः स्थितेः 'सर्वजगति'-सर्वस्मिन्नपि लोके बन्धकाः, भवन्तीत्यनुवर्तते । सुगमं चेदं निविधमपि क्षेत्रम्, पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेवाष्टप्रकृतिसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वात् , तेषां च स्तोक यादुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकक्षेत्रं स्तोकं प्राप्यते । अनुत्कृष्टस्थितेबन्धकास्तु सूक्ष्मापर्याप्तकेन्द्रियपर्यन्ताः सर्वे जीवा भवन्ति, ते चातिबहुकाः सर्वलोकव्यापिन इति कृत्वाऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां क्षेत्रं सर्वलोकप्रमाणं प्राप्यत इति ।।३२९।।।
___ तदेवमभिहितमोघतोऽष्टानामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योबन्धकक्षेत्रम् । साम्प्रतं तदेवादेशतो व्याजिहिरादौ तावदायुर्वर्जानां सप्तानामाह
उक्कोसाअ ठिईए आउगवज्जाण सव्वलोगम्मि। होअन्ति बंधगा खलु एगिदियसव्वभेएसु॥३३०॥ पुहवाईण चउण्हं सव्वसुहुमवायरासमत्तेसु।
वण-सव्वणिगोएसु अपज्जपत्तेअवणकाये ॥३३१॥ (प्रे०) "उक्कोसाअ ठिईए” इत्यादि, आयुष्कवर्जानां सप्तानां ज्ञानावरणादीनां प्रत्येकमुत्कृष्टायाः स्थितेः "होअन्ति बंधगा खलु” त्ति 'बन्धकाः' -स्वामिनो 'खलु'-निश्चयेन भवन्ति । कुत्र ? "सव्वलोगम्मि” त्ति सर्वस्मिन्नपि लोके । कासु मार्गणास्वित्याह-"एगिदिये" त्यादि, ओघ-सूक्ष्म-तत्पर्याप्ता--ऽपर्याप्त-बादर-तत्पर्याप्ता--ऽपर्याप्तभेदभिन्नेष्वेकेन्द्रियजातिसत्केषु सर्वभेदेषु, अन्यमार्गणाः संग्रहीतुमाह-"पुहवाइणे" त्यादि, पृथिव्यप्तेजोवायुकायलक्षणानां पृथिव्यादीनां चतुर्णा "सव्वसुहुमबायरासमत्तेसु” ति ये 'सर्वे-'ओघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिनास्त्रयस्त्रयः सूक्ष्मभेदा ये च चादराऽपर्याप्तभेदास्तेषु षोडशमार्गणाभेदेषु तथा “वणसव्वणिगोएसु” ति वनस्पतिकायोघे, सर्वेषु निगोदभेदेषु तथाऽपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेदे चेत्येतासु द्वात्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । कुतः १ एतासु प्रत्येकं सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धकपरिमाणस्यासंख्येयलोक
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मार्गणास्वायुर्वर्जानामुत्कृष्ठस्थितेः ] द्वितीयाधिकारे क्षेत्रद्वारम्
[२९७ प्रदेशराशिप्रमितत्वात् तदधिकत्वाद् वा । अयम्भावः-भङ्गविचयादिवत् क्षेत्रादिकमपि बन्धकजीवपरिमाणाधीनम् , जीवानां बाहुल्यात् प्रतिसमयं मुमूर्ष जीवानामाधिक्येन मारणान्तिकसमुद्घातादिनिरुद्धक्षेत्रस्याधिकतरलाभात् ।
तथाहि-पर्याप्तापर्याप्तपृथिव्यादिकाः सर्वेऽपि सूक्ष्मजीवराशयः प्रत्येकमतिबहुपरिमाणाः सन्तः समस्तलोकव्यापिनः सन्ति । उक्तं च श्रीप्रज्ञापनासूत्रे द्वितीये स्थानपदे___'कहि णं भंते ! सुहुमपुढवीकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं य ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! सुहुमपुढवीकाइया जे पज्जत्तगा जे अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावन्नगा पन्नत्ता समणाउसो !' इत्यादि । (सू०३९) । ___अपर्याप्तवादरपृथिवीकायाप्कायतेजस्कायप्रत्येकवनस्पतिकायरूपाश्चत्वारो जीवनिचयाः, पर्यातापर्याप्तवादरसाधारणवनस्पतिकायरूपौ च द्वौ जीवनिचयावित्येते पटजीवनिचया यद्यपि स्वस्थानमपेक्ष्य लोकासंख्येयभागमात्रव्यापिनस्तथापि तत्रापर्याप्तवादरपथिव्यादिजीवनिचयानां प्रत्येकमसंख्यलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमितत्वेन द्वयोश्च बादरसाधारणवनस्पतिकायजीवनिचययोरनन्तजीवराशितया प्रतिसमयमुत्पद्यमानानां मुमृषूणां च जीवानां बहुत्वात् तैः प्रतिसमयं मारणान्तिकसमुद्घातादिना सर्यो लोको व्याप्यते । उक्तं च स्थानपदे
'कहि णं भंते ! बादरपुढवीकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? जत्थेव बादरपुढवोकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता तत्थेव बादरपुढवीकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उबवाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे।' इति ।
___तथा-'कहि णं भंते ! बादरआउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बादरआउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता तत्थेव बादरआउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नता, उयवाएण सबलोए, समुग्घाएणं सबलोए, सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे।' इति ।
___ इत्थमेव शेषाणामपर्याप्ततेजस्काया-ऽपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकाय-पर्याप्तापर्याप्तबादरसाधारणवनस्पतिकायानां प्रत्येकं स्थानविषये सूत्रसंवादो द्रष्टव्यः । अपर्याप्तवादरवायुकायिका अपि स्वस्थानमपेक्ष्य न सर्वलोकव्यापिनः, किन्तु लोकस्याऽसंख्यबहुभागेष्वेव; यद्यप्येवं तथाप्यसंख्यलोकाकाशराशितुल्यैस्तैः प्रतिसमयं मारणान्तिकसमुद्घातादिना सर्वोऽपि लोकः पूर्यते । उक्तश्च
_ “कहि णं भंते ! अपज्जबादरवाउकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! जत्थेत्र बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बादरवाउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उबवाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु ।" इति।।
पर्याप्तवादरवायुकायिकास्तु स्वस्थानापेक्षया लोकबहुभागान् पूरयन्तो ऽपि नाऽसंख्यलोकाकाशप्रदेशराशितुल्याः, किन्तु लोकसंख्येयभागमात्रगतनभःप्रदेशराशितुल्या एव, तथा च सत्यल्पतया एकस्मिन् समये मारणान्तिकसमुद्घातादिनापि समग्रलोकं नैव व्याप्नुवन्ति । उक्तञ्च स्थानपदे
'कहि णं भंते ! बादरवाउकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! सट्ठाणेणं सत्तसु घणवाएसु, सत्तसु घणवायवलएसं, सत्तसु तणुवाएसु, सत्तसु तणुवायवलयेसु, अहोलोए-पायालेसु, भवणेसु, भवणपत्थडेसु, भवणछिद्दसु, भवणनिक्खुडेसु, निरएसु, निरयावलियासु, निरयपत्थडेसु, निरयछिद्देसु, निरयनिक्खुडेसु,
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२९८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वजीनामुत्कृष्टस्थितेः उड्ढलोए--कप्पेसु, विमाणेसु, विमाणावलियासु, विमाणपत्थडेसु, विमाणछिद्दे सु, विमाणनिक्खुडेसु, तिरियलोए-पाईण-पईण-दाहिण-उदीण(राईण)सव्वेसु चेव लोगागासछिद्दे सु, लोगनिक्खुडेसु य, एत्थ णं बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता;उववाएणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु,समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेस. सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जेस भागेसा' इति।
पर्याप्तवादरपृथिवीकायादिजीवनिचयाः, नारक-देव-मनुष्यादिजीवनिचयाश्च प्रत्येकं स्वल्पस्वल्पतराद्याः स्वस्थानसमुद्घातादिनाऽपि लोकाऽसंख्येयभागमात्रव्यापिनः; यतो जघन्यतोऽप्यसंख्यलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमितजीवानां निचयेनैव समुद्घातादिना एकस्मिन् समये समग्रो लोको व्याप्यते, न पुनस्तदल्पजीवानां निचयेनाऽऽपि । न च केवलिसमुद्घातत एकेनाऽपि जीवेन स्वात्मप्रदेशेरेकस्मिन् समये समग्रलोकः व्याप्यत एव, तद्दष्टमेतदिति वाच्यम् । यतोऽत्र प्रकृतस्थितिबन्धमुद्दिश्य तद्वन्धकजीवाऽपेक्षयैतत् कथितमिति निर्दुष्टमेव, केवलिसमुद्घातमपेक्ष्यैकजीवेन समग्रलोकपूरणसम्भवेऽपि स्थितिबन्धकजीवानपेक्ष्य सम्भवन्मारणान्तिकसमुद्धातादिनाऽसंख्यलोकाकाशप्रदेशराशितो हीनसंख्याकैर्जीव रेकस्मिन् समये लोकपूरणस्यासम्भवादिति ।।
इत्थं हि यस्यां यस्यां मार्गणायामेतेषां सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्त पृथिव्यादितत्तज्जीवनिचयानां समावेशोऽसमावेशो वा तदपेक्षया सर्वलोक-लोकाऽसंख्येयबहुभाग-कमागादिक्षेत्रं लभ्यते ।
तथाहि-तिर्यग्गत्योधै-केन्द्रियोघ-सूक्ष्मैकेन्द्रिय-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्ता इति चत्वारो मार्गगाभेदास्तथैव पथिवीकायौघ-सूक्ष्मपथिवीकाय-तत्पर्याप्तापर्याप्ता इति चत्वारो मार्गणाभेदास्तथैवाकायसत्काश्चत्वारः, तेजस्कायसत्काश्चत्वारः, वायुकायसत्काश्चत्वारः, साधारणवनस्पतिकायसत्काश्चत्वारश्च; तथा वनस्पतिकायोघः, काययोगसामान्यो-दारिककाययोगो-दारिकमिश्रकाययोग-कामेणकाययोगनपुंसकवेद-क्रोधादिचतुःकपाय--मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयमा-ऽचक्षुर्दर्शन-कृष्ण--नील-कापोतलेश्याभव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंड्या-ऽऽहार्य-ऽनाहारिमार्गणाभेदाश्चेत्येतेषु प्रत्येकं सूक्ष्मजीवनिचयस्य प्रवेशात् तदपेक्षया स्वस्थानतः समुद्घातादिना च क्षेत्रं सर्वलोकः । बादरैकेन्द्रिय-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्तबादरवायुकाय-तदपर्याप्ता इत्येतेषु पञ्चमार्गणास्थानेषु सूक्ष्मजीवनिचयस्याप्रवेशेन पूर्ववदुभयथा न सर्वलोकः, किन्तु स्वस्थानतो लोकासंख्येयवहुभागाः, समुद्घातादितश्च सर्वलोकः । कुतः ? प्रत्येकमपर्याप्तवादरैकेन्द्रिय-साधारणवनस्पत्यन्यतरजीवनिचयस्य समावेशात्, बादरौघ-बादरापर्याप्तपृथिवीकाया-ऽप्काय-तेजस्काया इति षट् , तथा प्रत्येकवनस्पतिकाय-तदपर्याप्त-बादरसाधारणवनस्पतिकायतत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्ता इति पञ्चेत्येतेष्वेकादशमार्गणाभेदेषु पुनः प्रत्येकं स्वस्थानतो लोकस्याऽसंख्येयभागः, समुद्घातादितश्च सर्वलोकः । यत एतेषु नास्ति सूक्ष्मजीवनिचयस्य प्रवेशः, न वा विद्यते बादरपर्याप्ता-ऽपर्याप्तन्यतरवायुकायजीवनिचयस्य प्रवेशः, किन्त्वपर्याप्तबादरपथिव्याधन्यतमजीवनिचयस्य प्रवेशात् तदपेक्षया क्षेत्रमपि तथैव प्राप्यते । शेषेषु पुनः पञ्चनवतिमार्गणाभेदेषु तु समुद्घातादिना सर्वलोकव्यापिनोऽपर्याप्तबादरपृथिवीकायाद्यन्यतमस्यापि जीवनिचयस्याप्रविष्टतया शेषाणां पर्याप्तबादरपृथिवीकायादिजीवनिचयानां तु स्वस्थान-समुद्घातादिनाऽपि
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मार्गणास्त्रायुर्वर्जानामुत्कृष्स्थितेः] द्वितीयाधिकारे क्षेत्रद्वारम्
[ २९९ लोकासंख्येयभागमात्रव्यापित्वेन च स्वस्थानात् समुद्घातादितश्च लोकासंख्येयभाग एव बोद्धव्यम् ।
उक्तं च जोवसमासे-'सेसा उ असंखभागम्मि' ॥ इत्यादि । __ इत्थं च स्थिते एकेन्द्रियादिषु प्रकृतद्वात्रिंशन्मार्गणासु कासुचिदसंख्यलोकप्रदेशराशितुल्यजीवानां सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य स्वामित्वात्, कासु चिचनन्तानां जीवानां तत्स्वामित्वाच प्रस्तुतबन्धकक्षेत्रमपि सर्वलोकः प्राप्यत इति ॥३३०-३३१।। अथ शेपमार्गणासु प्रकृतक्षेत्रं दिदर्शयिपुरेकामामाह
होअन्ति वाउकाये वायरखाउम्मि तस्स पज्जत्ते ।
हीणजगे सेसासु लोगस्स असंखभागम्मि ॥३३२।। (प्रे०) “होअन्ति वाउकाये” इत्यादि, वायुकायौघे, बादरवायुकाये, तथा "तस्सपज्जत्ते” ति तस्य बादरवायुकायस्य पर्याप्तभेद इत्येतासु तिसृषु मार्गणासु प्रत्येकं “होणजगे" त्ति सप्तानामुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धका 'हीनजगति'-असंख्यैयतमैकभागेन हीने 'जगति'-लोके भवन्तीति पूर्वेण योग इति । कुतः १ त्रिसृषु प्रत्येकं स्वस्थानतो लोकाऽसंख्येयबहुभागव्यापिनां पर्याप्तबादरवायुकायिकानां सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वात् । न चैते प्रकृतोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः प्रकृतमार्गणात्रयगताः पर्याप्तबादरवायुकायिका मारणान्तिकसमुद्घातं प्राप्ताः सन्तः किश्चित्शेष क्षेत्रमप्यवगाह्य समग्रमपि लोकं व्याप्नुयुरिति वाच्यम् । असंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकानां तेषां कस्मिन्नप्येकसमये मारणान्तिकसमुद्घातेन समग्रलोकं व्याप्तमसमर्थत्वात् । कुतोऽसामथ्र्यम् ? स्तोकपरिमाणत्वादिति प्रागभिहितमेवेति । "सेसासु” ति प्रागुक्तकेन्द्रियादिद्वात्रिंशन्मार्गणास्तथाऽनन्तरमभिहिता वायुकायौघाद्यास्तिस्रो मार्गणा विवर्य शेषासु पञ्चत्रिंशदभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकं "लोगस्स असंखभागम्मि" ति सप्तकमसत्कोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकाः कस्मिन्नप्येकसमये उत्कर्षतो लोकस्याऽसंख्येयतमैकभागे, भवन्तीत्यत्रापि युज्यत इति । कुतस्तावन्मात्रम् ? प्रत्येकं सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनोऽसंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकाः सन्ति, स्वस्थानक्षेत्रमपि च तेषां लोकासंख्येयभागमात्रं भवति, इत्येवमुक्ताधिकक्षेत्रस्यासम्भवादिति । शेषमार्गणानामानि त्वेवम्-सप्तचत्वारिंशदपि निरयादिगतिचतुष्कसत्कमूलोत्तरभेदाः, सर्वे द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियजातिसत्कभेदाः, ते च द्वादश । ओष-बादरौघपर्याप्तबादरभेदभिन्नाः पृथिव्यप्तेजस्कायानां प्रत्येकं त्रयस्त्रयो भेदाः, ओघ-पर्याप्तभेदभिन्नौ प्रत्येकवनस्पतिकायभेदौ, त्रयस्त्रसकायभेदाः, योगादिमार्गणासत्कास्तु सर्वेऽपि भेदास्ते च द्विषष्टिरित्येवं समुदिताः पञ्चत्रिंशदभ्यधिकं शतमिति ।।३३२॥
तदेवमभिहितं सप्तानामुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकक्षेत्रमादेशतः । अथ तेषामेव सप्तानामनुत्कृष्टायाः स्थितेस्तदादेशतो दर्शयन्नाह
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३०० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानामनुत्कृष्टस्थितेः तिरिये सव्वेगिंदि-णिगोअ-वण-सेससुहमभेएस् । पुहवाइचउसु तेसिं वायर-बायरअपज्जेसु ॥३३३॥ पत्तेअवणम्मि तहा तदपजत्तम्मि कायजोगे य। उरलदुग-कम्मणेसुणपुंसगे चउकसायेसु॥३३४॥ अण्णाणदुगे अयते अचक्खु-अपसत्थलेस-भवियेसु। अभविय-मिच्छत्ते सुअसण्णि-आहारगियरेसु॥३३५॥ होअन्ति बन्धगा खलु ठिईअ अगुरूअ सबलोगम्मि।
देसेणणे लोगे बायरपजत्तवाउम्मि ॥३३६॥ (प्रे०) "तिरिये सव्वेगिंदिये" त्यदि, तिर्यग्गत्योघे, सर्वशब्दस्यकेन्द्रिय-निगोदयोः प्रत्येकं योजनात सर्वेष्वेकेन्द्रियभेदेषु सर्वेषु निगोदभेदेष्वित्यर्थः । तथा वनस्पतिकायोघे "सेससुहुमभेएसु” ति 'सव्वेगिदियणिगोत्र' इत्यनेन गृहीतान् पट सूक्ष्मैकेन्द्रियादिभेदान् विवर्य शेषेषु पृथिव्यप्तेजोवायुकायसत्केषु सूक्ष्मोघ-सूक्ष्मपर्याप्त-सूक्ष्मापर्याप्तभेदभिन्नेषु द्वादशसु सूक्ष्मपृथिवीकायादिभेदेषु, तथा “पुहवाइचउसु"त्ति पृथिव्यादिषु वास्वन्तेषु चतुष्योंघभेदेषु, तथा "तेसिं" ति तेषां पथिव्यादिचतुणों "बायरबायरापजेस" ति चतुर्ष बादरोधभेदेषु, चतुर्ष बादरापर्याप्तभेदेषु चेत्यर्थः । अन्यमार्गगाः संग्रहीतुमार्याद्वयमाह-"पत्तेअवणम्मि" इत्यादि, प्रत्येकवनस्पतिकायोघे तथा “तदपज्जत्तम्मि" ति तस्य प्रत्येकवनस्पतिकायस्या-ऽपर्याप्ते, अपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेद इत्यर्थः । काययोग पामान्ये । चः समुच्चये । “उरलदुगे" त्यादि, औदारिकौ-दारिकमिश्रकाययोगमार्गणा इयरूप औदारिकद्रिके कार्मणकाययोगे, नपुसकवेदे, क्रोधादिचतुःकरायेषु, मत्यज्ञान-श्रताज्ञान यरूपेऽज्ञानद्रिके, असंयमे, अचक्षुर्दर्शना-ऽप्रशस्तकृष्णादित्रिलेश्या-भव्यमार्गणास, तथाऽभव्य-मिथ्यात्वयोरसंख्या-ऽऽहारिमार्गणयोः, इतरपदेनाऽनाहारकमार्गणायामित्येतास चतु:पष्टिमार्गणास प्रत्येकमित्यर्थः । एतासु प्रत्येक किमित्याह-"होअन्ति बन्धगा खलु” इत्यादि, प्रकृतत्वादायुवेर्जानां सप्तानां मूलकर्मणां "ठिईअ अगुरूअ" ति 'अगुरोः'-अनुत्कृष्टायाः स्थितेर्वन्धकाः खलु “सव्वलोगम्मि” त्ति सर्वलोके भवन्ति, एतेषामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां क्षेत्रं सर्वलोक इति भावः । कुतः ? कासचित् स्वस्थानतः सर्वलोकव्यापिनां सूक्ष्मपथिवीकायादीनां प्रवेशात्, कामचित्पुनस्तेषामप्रवेशेऽपि मारणसमुद्घातेन सर्वलोकव्यापिनां बादरसाधारणवनस्पतिकायानामपर्याप्तवादरपथिवीकायाद्यन्यतमजीवराशेर्वा प्रवेशात , तैः सर्वैः सप्तानामनत्कृष्टस्थितिबन्धस्य निर्वर्तनाच्चेति । अथ वादरपर्याप्तवायुकायमार्गणायां प्रकृतक्षेत्रमाह-“देसेणणे” इत्यादि, देशेनाऽसंख्येयतमैकभागलक्षणेनोने-न्यूने लोके, सप्तकर्मसत्कानुत्कृष्टस्थितेर्वन्धका भवन्तीति प्रक्रमागम्यते । कुत्रेत्याह-"बायरपज्जत्तवाउम्मि" ति सुगमम् , असंख्यलोकप्रदेशराशिमपेक्ष्य स्तोका
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मार्गणास्त्रायुष उत्कृष्टस्थितेः ] द्वितीयाधिकारे क्षेत्रद्वारम्
[ ३०१ नामपि चादरपर्याप्तवायुकायजीवानां स्वस्थानक्षेत्रस्यैव देशोनलोकप्रमाणत्वादिति ॥३३३ तः ३३६॥ ___अथैकयाऽऽर्यया शेषमार्गणासु प्रस्तुतमायुर्वर्जसप्तकर्मणामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकक्षेत्रं सर्वमार्गणास्वायुष उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकक्षेत्रं च प्रदर्शयन्नाह
लोगासंखियभागे सेसासु बंधगाऽत्थि सव्वार।
आउस्स गुरुठिईए लोगस्स असंखभागम्मि ॥३३७॥ (प्रे०) “लोगासंखियभागे'इत्यादि,लोकस्यासंख्येयतमैकभागे “बंधगाऽत्थि" ति प्रकृतत्वात्सप्तकर्मसत्कानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकाः सन्ति । कासु मार्गणास्वित्याह-"सेसासु" ति तिरिये सव्येगिदिये त्यादिगाथात्रयेणाभिहिताश्चतुःपष्टिमार्गगास्तथाऽनन्तरमेवोक्तां बादरपर्याप्तवायुकायमागणां विहाय शेषासु निरयगत्योधादिपञ्चोत्तरशतमार्गणास प्रत्येकमित्यर्थः । ___ताश्च शेषमार्गणा नामत इमा:-अष्ट निरयगतिभेदाः, चत्वारः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, चत्वारो मनुष्यगतिभेदाः, त्रिंशदेवगतिभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः, त्रयः पञ्चेन्द्रियभेदाः, बादरपर्याप्तपथिव्यप्तेजः-पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेदाः त्रयस्त्रसकायभेदाः, पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, क्रिय-वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगभेदाः, स्त्रीवेद-पुवेदाऽपगतवेद-मति-श्रता-ऽवधि-मनःपर्यवज्ञान-विभङ्गज्ञान-संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक सूक्ष्म सम्पराय-देशसंयम-चक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन-तेजः-पद्म-शुक्ललेश्या--सम्यक्त्वोध-क्षायिक-क्षायोपशमिको-पशमिक-मिश्र-सासादन-संज्ञिमार्गणाश्चेति । एतास्वन्यतमस्यामपि स्वस्थानेन समुद्धातादितश्चसर्वलोकव्यापिनः सूक्ष्मैकेन्द्रियजीवराशेरनन्तकाथिकजीवराशेर्वादराऽपर्याप्तजीवराशेाऽप्रवेशादधिकृतक्षेत्रमपि सर्वलोकप्रमाणं न प्राप्यते, न वैतास्वन्यतमस्यां बादरपर्याप्तवायुकायजीवानामपि प्रवेशोऽस्ति, येन देशोनलोकमपि प्रस्तुतक्षेत्रं स्यात् । इत्थं हि लोकासंख्येयभागमात्रमेवोक्तम् , उक्तसूक्ष्मैकेन्द्रियाऽनन्तकायिक-वादरपर्याप्ता-ऽपर्याप्तवायुकायजीवराशिवर्जानां शेषाणां सर्वजीवाना. मेकस्मिन् समये स्वस्थानतो मारणसमुद्घातेन वा लोकासंख्यभाग एवावगाहनादिति ।
तदेवं सप्तानामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्वन्धकक्षेत्रमभिधायावशेषस्यायुष उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकक्षेत्रमार्याशेषेणाह-"सव्वासु"मित्यादि, निरगत्योधादिषु यत्रायुर्वन्धो भवति तासु सर्वमार्गणास्वायुषः "गुरुठिईए" ति उत्कृष्टायाः स्थितेलॊकस्याऽसंख्यभागे, बन्धकाः सन्तीत्यत्रापि युज्यत इत्यक्षरार्थः । भावार्थ पुनरयम्-आयुष उत्कृष्टस्थितेर्बन्धका यास मार्गणास्वसंख्येयाः प्राप्यन्ते तास्वपि ते नाऽसंख्यलोकप्रदेशराशितुल्याः किन्त्वतीव स्तोका एव । कथम् ? उच्यते, चतुर्गतिष्वपि पूर्वकोटयाद्युत्कृष्टस्थितिकजीवानां स्तोकतया यथा पूर्वकोटयाद्युत्कृष्टस्थितिकत्वेनोत्पद्यमाना जीवाः स्तोका एव प्राप्यन्ते, तथा पूर्वकोटयाद्युत्कृष्टस्थितिकत्वेनोत्पित्सवो जीवाः पूर्वकोट्याद्युत्कृष्टस्थितिकायुषो बन्धकजीवाश्च स्तोका एव प्राप्यन्ते । ते च पूर्वकोटयादिस्थितिकजीवराश्यपेक्षयाऽधिका
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३०२ ]
बंधविहाणो मूलपयडिठिबंधो [ मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेः असन्तः कुतः सर्वलोकं व्याप्नुयुः ? न कुतश्चिद् , असंख्यलोकप्रदेशराशितः स्तोकजीवानामेकस्मिन् समये सर्वलोकव्याप्तेरदर्शनात् । न च ते लोकबहुभागानपि व्याप्नुवन्ति, असंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकजीवराशिकेष्वपि पर्याप्तवादरवायुकायानामेव लोकबहुभागव्याप्तेर्दर्शनादिति ।।३३७|| अथाऽऽयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकक्षेत्रमादेशत आह
एगिदिय-पुहवाइ गचउग-णिगोएसु सब्बसुहुमेसु। वण-तिरिय-कायुरलदुग-णपुमेसु चउकसायेसु ॥३३८॥ दुअणाणा-ऽयत-अणयण-असुहतिलेस-भवि-यियर-मिच्छेसु।
अमणे तह आहारे ठिईअ अगुरूअ सबजगे ॥३३९॥ (प्रे०) "एगिदियपुहवाइगे” इत्यादि, एकेन्द्रियोध-पृथिवीकायादिकचतुष्कोष-निगोदौघरूपासु षण्मार्गणासु, तथौघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नासु सूक्ष्मैकेन्द्रिय-सूक्ष्मपृथिव्यप्तेजोवायुसाधारणवनस्पतिकायरूपासु सर्वासु सूक्ष्मजीवमार्गणास, वनस्पतिकायौघ-तिर्यग्गत्योध-काययोगौघौ-दारिकोदारिकमिश्रकाययोगद्वय-नपुसकवेदेषु, चतुर्यु क्रोधादिकपायमार्गणासु तथा "दुअणाणायते" त्यादि, द्वयोमत्यज्ञान-श्रुताज्ञानयोरसंयमा-ऽनयन-कृष्णाद्यशुभत्रिलेश्यामार्गणासु, भव्य-तदितरयोमिथ्यात्वमार्गणायां चेत्यर्थः । तथा "अमणे तह आहारे” ति असंड्या-ऽऽहारिमार्गणयोश्चेत्येतास षट्चत्वारिंशन्मार्गणास प्रत्येकं "ठिईअ अगुरूअ सव्वजगे” त्ति आयुःकर्मणः 'अगुरोः'-अनुत्कृटायाः स्थितेः 'सर्वजगति'-सर्वस्मिँल्लोके, बन्धका इति गम्यते । कुतः ? इति चेत्, प्रत्येकं स्वस्थानतः सर्वलोकव्यापिनां सूक्ष्मैकेन्द्रियादीनां प्रवेशात् । न च वादरैकेन्द्रियादिमार्गणासु सूक्ष्मैकेन्द्रियादीनामप्रवेशेऽप्यनन्तानां बादरसाधारणवनस्पतिकायजीवानां प्रवेशसद्भावेन प्रस्तुतबन्धकानां बाहुल्यात् सप्तकर्मणामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकक्षेत्रवत् प्रकृतवन्धकक्षेत्रमपि सर्वलोकः प्राप्यतेति वाच्यम् । यतो भवचरमान्तमुहर्ते मारणसमुद्घातप्रयुक्तलोकव्याप्तिमपेक्ष्य हि तालु बादरैकेन्द्रियादिमार्गणास सप्तकर्मणामनुत्कृष्टस्थितेवन्धकक्षेत्रं सर्वलोकः प्राप्यते, तदानीं मारणसमुद्घातकालेऽपि तेषांजीवानां सप्तकर्मसत्कानुत्कृष्टस्थितिबन्धसम्भवात् । न चैतदायुःकर्मण्यपि घटामटाट्यते, तदानीं मारणसमुद्घातकाले आयुर्वन्धस्यैवाभावात् । इदमुक्तं भवति-आयुःकर्मणः स्थितेर्बन्धकक्षेत्रं तबन्धकजीवानां स्वस्थानक्षेत्रमपेक्ष्यैव युज्यते, न पुनरिणसमुद्घातादिप्रयुक्तक्षेत्रमपेक्ष्य, पारभविकायुबन्धं निष्ठाप्य पश्चाद् भवान्तराभिमुखीभूतजीवानामेव मारणसमुद्घातस्य सम्भवात् , तदानीं चायुर्वन्धस्यैवाभावादिति ॥ ३३८-३३९ ।। अथ शेष मार्गणास्वेकयाऽऽर्यया प्रस्तुतक्षेत्रं प्रतिपादयन्नाह
देसूणजगे बायरएगिदियवाउसबभेएसु। लोगस्स असंखयमे भागे सेसासु णायव्वा ॥३४०॥
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ओघतोऽधानां जघन्येतरस्थित्योः ] द्वितीयाधिकारे क्षेत्रद्वारम्
[ ३०३ (प्रे०) "देसूणजगे” ति असंख्येयतमैकभागलक्षणेन देशेनोने 'जगति'-लोके, आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका भवन्तीति प्रक्रमाद्गम्यते । कासुमार्गणास्वित्याह-"बायरे"त्यादि, तत्र बादरशब्दस्यकेन्द्रिय-वायोः प्रत्येकं योजनाद् बादरैकेन्द्रिय-बादरवायुकायसत्केष्वोध-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु सर्वभेदेष्वित्यर्थः । कुतः ? एतासु षण्मार्गणासु प्रत्येकं सर्वलोकव्यापिनां सूक्ष्मजीवानामप्रवेशेऽपि स्वस्थानतो देशोनलोकव्यापिनां पर्याप्ताऽपर्याप्तान्यतरबादरवायुकायजीवानां प्रवेशात् . स्वस्थानगतानामायुर्वन्धस्याऽविरुद्धत्वाचेति । “लोगस्स असंखयमे भागे" त्ति आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका लोकस्याऽसंख्येयतम एकभागे ज्ञातव्या इति परेणान्वयः । कासु मार्गणास्त्रित्याह-"सेसासु" ति 'एगिदियपुहवाइगे'त्यादिनाऽनन्तरमभिहिताः षट्चत्वारिंशन्मागेणास्तथा 'बायरएगिदियवाउसब्बभेएसुमित्यनेनानुपदमेवाभिहिताः पण्मार्गणाश्च संत्यज्य शेपासु निरयगत्योधादिष्वेकादशाभ्यधिकशतमार्गणास्वित्यर्थः । ताश्च शेषमार्गणा नामत इमा:-अष्टौ निरयगतिभेदाः, चत्वारस्तिर्यपञ्चेन्द्रियभेदाः, चत्वारो मनुष्यगतिभेदाः, त्रिंशद् देवगतिभेदाः, ओघपयोप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नास्त्रयो द्वीन्द्रियभेदास्तथैव त्रयस्त्रीन्द्रियभेदास्त्रयश्चतुरिन्द्रियभेदास्त्रयः पञ्चेन्द्रियभेदास्त्रयो बादरपथिवीकायभेदास्त्रयो बादराकायभेदास्त्रयो बादरतेजस्कायभेदास्त्रयः प्रत्येकवनस्पतिकायभेदास्त्रयो बादरसाधारणवनस्पतिकायभेदास्त्रयस्त्रसकायभेदाः, पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, वैक्रियकाययोगा-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोग-स्त्रीवेद-पुरुषवेद-मत्यादिचतुर्ज्ञान--विभङ्गज्ञान-संयमाघ--सामायिक-छेदोपस्थापन--परिहारविशुद्धिक-देशसंयम-चक्षुर्दर्शना-ऽवविदर्शन-तेजः-पद्म-शुक्ललेश्या-सम्यक्त्वौघ-क्षायिक-क्षायोपशमिक-सास्वादन-संज्ञिमार्गणा मेदाश्वेति । कुतो लोकाऽसंख्येयभागमात्रमेव ? इति चेद् , प्रत्येकं स्वस्थानतो लोकासंख्येयभागमात्रव्यापिनां जीवराशीनामेव प्रवेशादिति ॥३४०॥ .
तदेवमभिहितमादेशतोऽपि भूलाष्टकर्मणामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्वन्धकक्षेत्रम् । साम्प्रतं तेषांमेवाष्टानां जघन्याजघन्यस्थित्योर्वन्धकक्षेत्रमभिधित्सुरादौ तावदौघत आह
लोगासंखियभागे सत्तण्ह बंधगा लहठिईए। अलहूअ सव्वलोगे आउस्स ठिईण दोण्हं वि ॥३४१॥
(प्रे०) "लोगासंखियभागे" इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां ज्ञानावरणादीनां 'लघुस्थितेः' - जघन्याः स्थितेर्बन्धकाः-स्वामिनः “लोगासंखियभागे" ति लोकस्यासंख्येयतम एकस्मिन् भागे सन्ति, लोकासंख्येयभागमानं तेषां क्षेत्रमिति भावः । कुतः ? अनिवृत्तिबादरक्षपकाणां सूक्ष्मसम्परायक्षपकाणां च तिर्यग्लोकासंख्यभागमात्रव्यापित्वादिति । "अलहूअ" त्ति प्रकृतत्वात्सप्तानामलघोः-पद्म-अजघन्याः स्थितेर्बन्धकाः “सव्वलोगे"त्ति अनूने लोके, सर्वलोकस्तेषां क्षेत्रमित्यर्थः । सुगमं चैतदपि, सूक्ष्मनिगोदपर्यन्तानां जीवानामजघन्यस्थितेनिवर्तकत्वात् , तेषां च सर्वलोकव्यापित्वादिति । “आउस्स ठिईण दोण्हं वि" ति अनन्तरोक्त 'सव्वलोगे" इत्येतत्पदं 'घण्टा
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३०४ ]
बंध विहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानां जघन्यस्थिते: लाला न्यायेना' त्रापि सम्बध्यते, ततः शेषस्याऽऽयुःकर्मणो जघन्याऽजघन्यात्मिकयोर्द्विविधस्थित्योः प्रत्येकं सर्वलोके, बन्धका इति गम्यते । स्वस्थानत एव सर्वलोकव्यापिनां सूक्ष्म निगोदपर्यन्तानां जीवराशीनां सप्तकर्मणामजघन्यस्थितिबन्धवदायुषो जघन्याऽजघन्यस्थितिबन्धाऽर्हत्वादिति ||३४१॥ अथाऽऽदेशतोऽभिधित्सरादौ तावदायुर्वर्जानां सप्तानां जघन्यस्थितेर्वन्धकक्षेत्रमाहदेसूणे लोगे लहुठिईअ सत्तण्ह बंधगा तिरिये । एगिंदिय-वाऊसु सिं वायरसव्वभेसु ॥ ३४२ ॥ ओरालमीस-कम्मण-दुअणाणा-यत-तिअमुहलेसासु । अभविय-मिच्छत्तेसु अमणा-माहागेसु च ॥ ३४२ ॥ होअन्ति सव्वलोगे अट्ठारह सव्वसुहुम भए । सेसासु असंखयमे भागे लोगस्स णायव्वा ॥ ३४४॥
(प्रे०) देणे लोगे" इत्यादि, आयुर्वेर्जानां सप्तानां 'लघुस्थिते:' जघन्याः स्थितेर्बन्धका देशोने लोके, भवन्तीति शेषः । कासु मार्गणास्त्रित्याह - " तिरिये " इत्यादि, तिर्यग्गत्योघे, एकेन्द्रियवायुकायौ भेदयोस्तथा “सिं" त्ति तयोरेकेन्द्रियवायुकाययोः "बायरसव्वभेएसु” ति ओघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु बादरेषु सर्वभेदेषु । बादर केन्द्रियौध-पर्याप्तवाद र केन्द्रिया-पर्यासादर केन्द्रियभेदेषु वादरवायुकायौध-पर्याप्तवादरवायुकाया पर्याप्तवादरवायुकायभेदेषु चेत्यर्थः । अन्यमार्गणाः संगृह्णन्नाह-" ओरालमोसे" त्यादि, औदारिकमिश्र काययोग - कार्मण काययोग-मत्यज्ञान- श्रुताज्ञाना- संयम-कृष्णादिपशुभलेश्यास्वभव्य - मिथ्यात्वयोरसंज्ञय - ऽनाहारिमार्गण पोर वेत्येतास्वेकविंशतिमार्गणासु । एतच्च प्रत्येकं प्रविष्टस्य बादरपर्याप्तत्रायुकाय बादरापर्याप्तत्रायुकायान्यतरजीवनिचयस्प स्वस्थानक्षेत्र प्राधान्याज्ज्ञेयम् । नन्वेकेन्द्रियौघ चादरपर्याप्ताऽपर्या मै केन्द्रियादिमागंणासु संक्लेशविशुद्धिरूपं विशेषं विहाय सूक्ष्मवादरपर्याप्तत्वादिकमपेक्ष्योत्कृष्टस्थितेर्बन्धका जघन्यस्थितेबन्धकाचाविशिष्टा एवाभिहिताः, यदि चैत्रं तथापि सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकक्षेत्रवत् सप्तानां जघन्यस्थितेर्बन्धकक्षेत्रं कथं सर्वलोको नाभिधीयते ? इति चेद्, उच्यते, सत्यमेतत्, यदेकेन्द्रियादिकतिपय मार्गणासु संक्लेशविशुद्धिरूपं विशेषमपहाय पर्याप्तत्वादिकमपेक्ष्य जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनामनन्यत्वम्, ततश्चैकेन्द्रियादिमार्गणासु यथा पर्याप्तवादसाधारण वनस्पतिकायिकाः सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकाः सन्ति, तथा ते जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनोऽपि भवन्ति, तथैव यथा पर्याप्तवादवायुकायिकाः सप्तानामुत्कृष्टस्थितियन्वस्वामिनः सन्ति तथा ते सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनोऽपि भवितुमर्हन्ति, यद्यप्येवं तथाऽपि प्राप्तकर्मसत्कोत्कृष्ट स्थितिबन्धकानां क्षेत्रं यत्सर्वलोकमभिहितं तत् पर्याप्तवादरसाधारणवनस्पतिकायिकजीवानां मारण
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मार्गणास्वायुर्वर्जानां जघन्यस्थितेः ] द्वितीयाधिकारे क्षेत्रद्वारम्
[३०५ समुद्घातप्रयुक्तसर्वलोकव्याप्तिप्राधान्याद् । मारणान्तिकसमुद्घातो हि भवान्तराभिमुखानां जीवानामेव सम्भवति, तथा च सत्यसौ भवचरमान्तमुहूर्ते जायते, इत्थं हि यथा “भवचरमान्तमुहूर्ते मारणान्तिकसमुद्घातगतानामनन्तानां बादरपर्याप्तनिगोदजीवानामुत्कृष्टस्थितिबन्धसम्भवात् सम्पू
लोकप्रमाणं क्षेत्रं लभ्यते तथा जघन्यस्थितिबन्धकानां बादरपर्याप्तनिगोदानां तन्न प्राप्यते । कुतः ? भवचरमान्तमुहूर्ते भवान्तराभिमुखेषु तेषु संख्येयानामेव जघन्यस्थितिवन्धस्य सम्भवात् । कुतः ? इति चेद् , भवचरमान्तमुहूर्तवर्तिमुमृषु जीवेषु स्वप्रायोग्यसनिकृष्टस्थानाभिमुखानामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्यसंक्लेशस्येव जघन्यस्थितिबन्धप्रायोग्यविशुद्धरपि स्वप्रायोग्यसर्वोत्कृष्टपारभविकोत्पत्तिस्थानाभिमुखानां स्तोकजीवानामेव सम्भवात् ।
इदमुक्तं भवति-प्रागेकजीवाश्रये कालद्वारे-एगिदियणिगोएसुं तेसिं सुहुमेसु सिं अपज्जेसु'मित्यादि-(१४७)-गाथावृत्तौ सप्तस्वेकेन्द्रियादिमार्गणास्वनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यबन्धकालस्यैकसमयमात्रत्वव्युत्पादनावसरे मुमूर्षु जीवेषु स्वप्रायोग्यसर्वनिकृष्टस्थान उत्पित्सूनां जीवानामेव स्वप्रायोग्यसर्वसंक्लेशस्य सम्भवात्त एव तदानीं सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिं निर्वर्तयन्ति, नान्यः इत्येवं रूपं नियमं प्रतिपाद्य तदुपपत्तौ स्वप्रायोग्यसर्वसंक्लेशनिवतेनीयानां गति-जात्यादीनां स्वप्रायोग्यसर्वापकृष्टपारभविकोत्पत्तिस्थानत्वमभिहितम् । तेनैव न्यायेनाऽत्रापि स्वप्रायोग्यसर्वविशुद्धया निवर्तनीयानां गतिजात्यादीनां स्वप्रायोग्यसर्वोत्कृष्टपारभविकोत्पत्तिस्थानरूपता बोद्धव्या, भावनाऽपि तत्रोक्तरीत्यैव कर्तव्या; केवलं तत्रोत्कृष्ट स्थितिबन्धमपेक्ष्य व्युत्पादितम् , अत्र तु जघन्यस्थितिबन्धमपेक्ष्य वैपरित्येन स्वयं व्युत्पादनीयम् । अस्माभिस्तु प्रकृतोपयोग्येवोच्यते, तद्यथा-पर्याप्तवादरनिगोदजीवैः स्वप्रायोग्यसर्वोत्कृष्टविशुद्धौ सत्यां मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजाति-पर्याप्तनामकर्मादिकं निर्वर्त्यते। वक्ष्यते चोत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धसंनिकर्षद्वार एकेन्द्रियादिमागणासु ज्ञानावरणादीनां जघन्यस्थिति बनतो जीवस्य मनुष्यगति-पर्याप्तत्वादिकशभप्रकृतिबन्धनियमः । इत्थं हि तेषां सर्वोत्कृष्टस्थानं पर्याप्तमनुष्यरूपमिति सिद्धम् । पर्याप्तमनुष्या हि लोक उत्कृष्टतोऽपि संख्येया एव लभ्यन्ते,अतः पर्याप्तमनुप्यसत्कायुपो बन्धकानामिव पर्याप्तमनुष्यत्वाभिमुखा मुमूर्षवो जीवा अप्येकस्मिन् समये लोक उत्कृष्टतः संख्येया एव प्राप्यन्ते । तथा च सति पर्याप्तमनुष्यत्वाभिमुखा मारणान्तिकसमुद्घातं प्राप्ता जघन्यस्थितेर्बन्धकाः पर्याप्तवादरनिगोदजीवा अप्येकस्मिन् समय उत्कृष्टतः संख्येया एव लभ्येरन्; तैश्च मारणान्तिकसमुद्घातगतैर्मनुष्यलोकं यावनिक्षिप्तस्वात्मप्रदेशदण्डैरप्यत्यल्पतया समग्रो लोकोऽशितु नैव शक्यते; स्वस्थानक्षेत्रं तु तेषां बादरनिगोदादीनां लोकासंख्येयभागमात्रमुक्तम् , अतस्तदपेक्षयोत्कृष्टतः सर्वलोकक्षेत्रस्यासम्भवाज्जघन्यस्थितिबन्धकानां बादरपर्याप्तवायुकायानां स्वस्थानक्षेत्रमाश्रित्य प्रकृतैकेन्द्रियादिमार्गणासु जघन्यस्थितिवन्धकानां क्षेत्रं देशोनलोक इत्यभिहितम् ।
__ ननूक्तनियमात् पर्याप्तबादरवायुकायानां सर्वोत्कृष्टमुत्पत्तिप्रायोग्यस्थानं तिर्यग्गत्यादिरूपम् , पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चश्वासंख्येयाः सन्ति, अतस्तत्स्थानाभिमुखाः भवचरमान्तमुहूर्ते समुद्घातं
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३०६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणास्वायुर्वर्जानां जघन्यस्थितेः गता जपन्यस्थितेर्बन्धकाः पर्याप्तवादरवायुकायिका असंख्येया लभ्येरन् , तैश्च समुद्घातगतैरितस्ततो निक्षिप्तस्वात्मप्रदेशदण्डैः समग्रोऽपि लोकः पूर्येत ? इति चेद, न, यतः स्थितिबन्धस्य निर्वतकैर्जघन्यतोऽप्यसंख्यलोकाकाशप्रदेशप्रमितैरेव जीवैः समग्रो लोक एकस्मिन् समये पूरयितु पार्यते, न पुनस्तदूनः. एतच्च प्रागेवोक्तं कथं विस्मार्यते । पर्याप्तवादरवायुकायिकास्तु समुद्घातं प्राप्ता अप्राप्ताश्च समुदिता अपि लोकसंख्येयभागगतनभःप्रदेशराशितुल्याः सन्तः समस्तं लोकं नैव व्याव्नुवन्ति, किं पुनः समुद्घातगतास्तदसंख्येयभागमात्रा जघन्यस्थितेर्वन्धकाः, अतः स्वस्थानगतानां जघन्यस्थितिबन्धकानां पर्याप्तवादरवायुकायानां क्षेत्रमपेक्ष्यैकविंशतिमार्गणास्वपि देशोनलोकक्षेत्रं मन्तव्यमित्यलं प्रसङ्गेन ।
अथ प्रकृतं प्रस्तुमः "होअन्ति सव्वलोगे" त्ति प्रकृतायाः सप्तकर्मणां जघन्यस्थितेबन्धकाः सर्वलोके भवन्ति, सर्वलोकन्तेषां क्षेत्रमित्यर्थः । कासु मार्गणास्वित्याह-"अट्ठारहसध्वसुहुमभेएसु” ति ओघ-पर्याशा-ऽपर्याप्तभेदादष्टादशधा भिन्नेष्वेकेन्द्रियपृथिव्यप्तेजोवायुसाधारणवनस्पतिकायसत्केषु सर्वेषु सूक्ष्ममार्गणाभेदेष्वित्यर्थः । कुतः ? स्वस्थानतोऽप्येकेन्द्रियपृथिव्यादि-सर्वसूक्ष्मजीवौधानां सर्वलोकव्यापित्वात् । उक्तश्च पञ्चसंग्रहमलयगिरियवृत्तौ
'सूक्ष्मा एकेन्द्रियाः पथिव्यम्बुतेजोवायुवनस्पतयः प्रत्येकं सर्वेऽपि सर्वस्मिन्नपि जगति भवन्ति' इति ।
अथ शेषमार्गणासु प्रकृतक्षेत्रमाह-"सेसासु" इत्यादिना, उक्तशेपास्वेकत्रिंशदभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकम् “असंखयमे भागे लोगस्स णायव्व” त्ति सप्तकर्मणां जघन्यस्थितेर्बन्धका लोकस्यासंख्येयतमैकमागे ज्ञातव्या इत्यर्थः । तत्र शेषमार्गणा नामत इमाः-सवें निरयगतिभेदाः, सर्वे तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदाः, सर्वे मनुष्यगतिभेदाः, सर्वे देवगतिभेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रिगमेदाः, पथिव्यप्तेजोवनस्पत्योपभेदास्तथोव-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदाभिन्ना बादरपथिव्यप्तेजःप्रत्येकवनस्पतिकाय-वादरसाधारणवनस्पतिकाय-वसकायानां प्रत्येकं त्रयस्त्रयो भेदाः, पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, काययोगसामान्यौ-दारिककाययोग-बैक्रियकाययोग-क्रियमिश्रकाययोगाऽऽहारसकाययोगा--ऽऽहारकमिश्रकाययोग--स्त्री-पुरुष--नपुंसकवेदा-ऽपगतवेद --क्रोधादिचतुःकषायमत्यादिचतुर्ज्ञान--विभङ्गज्ञान-संयमोघ-सानायिक--छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्पराय-देशसंयम--चक्षरादित्रिदर्शन-तेजः--पम-शक्ल लेश्या-भव्य-सम्यक्त्वाघ-क्षायिक-क्षायोपशमिकी--पशमिकसासादन-मिश्र-संख्या-ऽऽहारिमार्गणाभेदाश्चेति । कुत एतासु सर्वासु प्रकृतवन्धकानां क्षेत्रं लोकासंख्यभागमात्रम् ? उच्यते, निरयगत्यादिषु कासुचिन्मार्गणासु स्वस्थानतः सर्वलोकव्यापिनां सूक्ष्मजीवनिचधानां देशोनलोकव्यापिनां वायुकायजीवानां च प्रवेशाभावेन, शेषप्रविष्टजीवनिचयानां स्वस्थानतः लोकासंख्येयभागमात्रव्यापि चात् सप्तकर्मणां जघन्यस्थितेर्बन्धकानां क्षेत्रमपि लोकासंख्येयभागप्रमाणमेव प्राप्यते, पृथिव्याद्योधमार्गणासु काययोगादिमार्गणासु च सूक्ष्मजीवनिचयानां वायुकायिकजीवानां वा प्रवेशेऽपि तेषां जघन्यस्थितिवन्धस्वामित्वाभावादेव सप्तकर्मसत्कजघन्य
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जघन्येतस्थित्योः ] द्वितीयाधिकारे क्षेत्रद्वारम्
[ ३०७
स्थितेर्वन्धकक्षेत्रं सर्वलोक लोकसंख्य भागमात्रं वा नैव प्राप्यते, किन्तु सप्तकर्मसत्कजघन्यस्थितिबन्धस्वामिनां पर्याप्तबादरपृथिवीकायिकादीनां मनुष्याणां वा क्षेत्र प्राधान्याल्लोकासंख्येयभागवत इति ।। ३४२-३४३-३४४||
तदेवमभिहितमायुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितेर्बन्धकक्षेत्रमादेशतो मार्गणास्थानेषु । अथैकयार्ययाऽवशिष्टं तासामेवाऽजघन्यस्थितेर्वन्धकक्षेत्रमायुषो जघन्याजघन्य स्थित्योर्वन्धकक्षेत्रं चातिदेशद्वारेणाह -
अजहण्णाअ ठिईए सत्तण्ड अगुरुठिइव्व सव्वासु । हस्सियराण ठिईणं आउस्स अगुरुठिइव्व सव्वासुं ॥ ३४५॥
(प्रे० ) " अजहण्णाअ ठिईए" इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानामजघन्यायाः स्थितेः प्रकृतत्वात् बन्धकक्षेत्रम् "अगुरुठिइव्व" त्ति 'सत्ता' इति देहलीदीपकन्यायेनापि युज्यते, ततः प्राक् —
‘तिरिये सव्वेगिंदिय- णिगोअ-वण- सेस सुहुमभेएसुं । पुवा इचउसु तेसिं बायर - बायरअपज्जेसुं ॥ पत्तेअत्रणम्मि तहा तदपज्जत्तम्मि कायजोगे य । उरलदुग-कम्मणेसं णपुंसगे चउकसायेसुं । अणाणदुगे अयते अचक्खु - अपसत्थलेस भवियेसं । अभविय मिच्छत्तेसुं असण्णि आहारगियरेसुं ॥ बंधा खलु ठिअ अगुरूअ सव्वलोमि । देसेणूणे लोगे बायरपज्जत्तवामि ॥ लोगासंखियभागे से सासुं बंबगाइत्थि । ||' (गाथा-३३३-३३४-३३५-३३६-३३८)
इत्यनेनाभिहितस्य सप्तानामगुरुस्थितिवत्, अनुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकक्षेत्रवदित्यर्थः । कासु मार्गणास्त्रित्याह- "सव्वासु" ति निरयगत्योघाद्यनाहारक मार्गणापर्यन्तासु सप्तत्युत्तरशतसंख्याकासु सर्वास्वपि मार्गणास्वित्यर्थः । “हस्सियराण टिई आउस्स" ति आयुपो 'हस्वेतरयोः’-जघन्याऽजघन्यस्थित्योः प्रत्येकम् “अगुरुठिइव्व" त्ति 'आउस्स' इत्यस्यानन्तरोक्तन्यायेनाऽत्रापि योजनादायुषो ऽनुत्कृष्टस्थितिवत्
'एनिंदिय-पुहवाइगचउग-णिगोपसु सव्वमुहुमेसुं । वण- तिरिय-फायुरलदुगणपुमेसुं चउकसायेसुं ॥३३८॥ दुअणाणा-यत-अणयण असुतिलेस भवि - यियर-मिच्छेसुं । अमणाऽणाहारेसु य टिईअ अगुरूअ सव्वजगे ॥ देसूण जगे बायर एनिंदिया सभेस | लोगस्स असंखयमे भागे सेसासु णायव्त्रा ।। ३४०।।'
1
इतिगाथात्रयेण प्रागुक्तानुत्कृष्टस्थितिसत्कवन्धकक्षेत्रवदित्यर्थः । किमिति चेत् ? प्रक्रमाद्बन्धक - क्षेत्रम् | कासु मार्गणास्त्रित्याह - " सव्वासु" ति गतार्थम्, केवलमायुषः प्रकृतत्वादायुर्वन्धप्रायोग्यासु वैक्रियमिश्र - कार्मणकाययोगाऽयगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयमौ --पशमिकसम्यक्त्व-सम्यग्मिथ्यात्वा-नाहारक मार्गणावर्जासु निरयगत्योघाग्राहारिपर्यन्तासु त्रिषष्टयु तरशतमार्गगास्त्रि- त्यर्थः ॥ ३४५॥ तदेवं दर्शितं शेषं सप्तानामजघन्यस्थितेर्वन्धकक्षेत्रम्, आयुषो जघन्याऽजघन्यस्थित्योर्बन्धकक्षेत्रं च मार्गणास्थानेष्वतिदेशद्वारेण, तस्मिँश्च दर्शिते गतं दशमं क्षेत्रद्वारम् ।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे दशमं क्षेत्रद्वारं समाप्तम् ॥
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३०८ ] बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[क्षेत्रअष्टमूलप्रकृतीनामुत्कृष्ट-जघन्य-तदितरओ आयुर्वर्जसप्तानाम्-उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकक्षेत्रम्-लोकाऽसंख्यभागः ।
अनुत्कृष्ट ,, ,, ,, सर्वलोकः । आयुषः
उत्कृष्ट ,, ,, अनुत्कृष् ,, ,, ,,
लोकाऽसंख्यभागः । सर्वलोकः ।
(गाथा-३२९)
आदेशतः । कुत्र
| गति
इन्द्रियः
काय०
सवैकेन्द्रिय ०७
पृथिव्यप्तेजोवायुकायसत्का: सर्वसूक्ष्मा-पर्याप्तबादरभेदाः. वनौघ-सर्वसाधारणवनभेदाः, अपर्याप्तप्रत्येकवनभेदश्च २५
सर्वलोके देशोने
वायुकायौघ-बादरवायुकायौध-तत्पर्याप्तभेदा:
लोकासं
सर्व
शेष०
१२
प्रौघ-बादरौघ-तत्पर्याप्तभेदभिन्नाः पृथिव्यप्तेजसां नवभेदाः, वनौष-प्रत्येकवनौघ-तदपर्याप्त-सर्वसाधारणवनभेदाश्च १४
ख्यभागे
आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनाम् | अनुत्कृष्टायाः स्थितेः । उत्कृष्टस्थितेः अजघन्यायाः स्थितेः
तिर्यगोघः,
सर्वेकेन्द्रिद०७
पृथिव्यप्तेजोवायुनामौघ-सर्वसूक्ष्म-बादरोघ-तदपर्याप्तभेदाः, वनौव-प्रत्येकवनौघ-तदप्रर्याप्त-सर्वसाधारणवनभेदाश्च ३४
देशोने
पर्याप्तवादरवायुकाय:
कास
शेष० ४६
शेष० १२ | पर्याप्तबादरपृथिव्यप्तेजःप्रत्येकवनभेदा:,सर्वे त्रस भेदाश्च ७
ख्यभागे
देशोन
|तिर्यगोघः,
प्रौघ-सर्वबादरैकेन्द्रिय० ४
प्रोघ-सर्वबादरभेदभिन्ना वायुकायभेदाः
लोके
जघन्यस्थिते.
सर्वलोके
सर्वसवान्टिय सूक्ष्मीघतत्पर्याता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नाः पृथिव्य-प्तेजोवायूसाधा
रणवनस्पतिकायभेदाः
शेष० ४६ / शेष० १२
शेश
लोकासंख्यभागे लोकासं
स्थितेः
सर्व० ४७ सर्व०
१९
व्यभागे
सर्व०
आयुषः जघन्या-ऽजघस्थित्योः अनुत्कृष्टस्थितेश्च.
औघ-सर्वसूक्ष्मैके- प्रौघ-सर्व सूक्ष्मभेदभिन्नाः पृथिव्यप्तेजोवायुसाधारणवनभेदाः, के तिर्यगोघः१
न्द्रिय ४ वनस्पतिकायौघभेदश्च० सर्वबादरैकेन्द्रिय.
बादरोध-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नवायुकायिकभेदाः ३
शेनोने
लोकासं
ख्यभागे
शेष० ४६ |
शेष० १२
शेष०
१८
-
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-यन्त्रकम् ] द्वितीयाधिकारे क्षेत्रद्वारम
[ ३०९ -स्थितिवन्धकानां क्षेत्रप्रदर्शकयन्त्रम् ओ प्रायुनर्जसप्तानाम्-जघन्यस्थितेर्बन्धकक्षेत्रम्-लोकाऽसंख्यभागः । ___, अजघन्य , ,, ,, सालोकः प्रायुषः
जघन्य , " " अजघन्य;, , ,
(गाथा--३४२) वेदः कषाय. ज्ञान०संघम दर्शन टेश्या भव्य सम्य संज्ञी० आहा० सर्वाः थाङ्काः
३
३३२
सर्व
सर्व
सर्व सर्व० सर्व सर्व सर्व० सर्व० सर्व० १६५
सर्व०
१३२
काययोगौघ. प्रौदारिक-नन्मि प्रौ,
नपुं० सर्व० काग ४
मत्यजान० श्रुताज्ञान
असंय० अनक्ष. प्रशुभा सर्व मिथ्या असं०
तः
शेष
विभङ्ग०१ शेष शेष शेष
शेष संज्ञी
१०५ ३३७
शेष
मत्यादि०४
प्रोदारिकमिश्र कार्मरण
मत्यज्ञान० श्रुताज्ञान
असंयः
३४२
अशुभ. अभ० मिथ्या. असं० पाहा.
२
३४३
शेष०
सर्व० सर्व०
शेष०
शेषः सर्व० शेष० भव्य. | शेष० संज्ञी
सर्व०
सर्व० स०
सर्ग
सर्व० सर्व० म० सर्व. सर्व० स०पाहा०१६३
३३७
अशुभ. सर्व० मिथ्या असं0 पाहा. ४६
काययोगौघ० औदारिकतत्मिश्रो.
३
१
४
श्रुताज्ञान० २.१
३४०
शेष.
स्त्री-पु
शेषशेष० शेषशेष
शेष असंज्ञी
३४०
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॥ अथैकादशं स्पर्शनाद्वारम् ॥ अथाऽऽयातं क्रमप्राप्तं "फोसणा" इत्यनेनोद्दिष्टमेकादशं स्पर्शनाद्वारम् । तत्र प्रागुक्तस्वरूपां क्षेत्रद्वारोक्तक्षेत्रापेक्षया विलक्षणां स्पर्शनां व्याचिकीर्षुरादौ तावदुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थितिबन्धविषयां तामोघत आह
फुसिआ तेरह भागा सत्तण्हं बंधगेहि जेट्टाए। परिफासिअं ठिईए ऽणुकोसाए जगं सव्वं ॥३४६॥ फुसणाअ वुच्चिरे इह जे भागा भाजिआअ चउदसहिं ।
तसनाडीअ लहिजउ जं तावइअप्पमाणा ते ॥३४७॥ (प्रे०) "फुसिआ तेरहभागा" इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां प्रकृतीनां 'ज्येष्ठायाः'उत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकैस्त्रयोदशभागाः स्पृष्टाः । तासामेव सप्तप्रकृतीनामनुत्कृष्टायाः स्थितेः सर्वजगत् परिस्पृष्टम् , बन्धकैरित्यनुवर्तते । एवमुत्तरत्रापि बन्धकैरित्यस्यानुवृत्तिद्रष्टव्या । नन्वेते त्रयोदश भागाः प्रत्येकं कियन्माना इत्याशङ्कायां भणित-वक्ष्यमाणभागानां परिमाणं व्यवस्थापयन्नाह"फुसणाअ बुच्चिरे” इत्यादि, 'इह'-प्रकृतग्रन्थे "फुसणाअ" त्ति 'स्पर्शनायां'--स्पर्शनाद्वारे ये भागाः “वुचिरे" त्ति 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा' ( पा० ३-३-१३१ ) इत्यनेन वर्तमानम्य समीपे भृते भविष्यति च वर्तमानप्रत्ययः । ततोऽनन्तरोतास्त्रयोदशभागावक्ष्यमाणाः षडादिभागाश्चेत्येवं समस्तस्पर्शनाद्वारे ये भागा उच्यन्ते ते सर्वेऽपीत्यर्थः । ते च प्रत्येकं “भाजिआअ चउदसहिं तसनाडोअ" ति चतुर्दशरज्जूच्चैकरज्जुवृत्तविस्तृतायां वसनाडयां चतुर्दशसंख्याभिर्भाजितायां सत्यां “लहिजउ जं" ति 'यद्'-यावद् भागफलं लभ्येत, “तावइअप्पमाणा" त्ति तावत्प्रमाणास्ते त्रयोदशादिभागा ज्ञया इति गाथाद्वयसंक्षेपार्थः ।
विस्तरार्थस्त्वयम्-भङ्गविचयादीनि नानाजीवान् समाश्रित्योच्यन्ते, तत्र क्षेत्रमेकसमयमाश्रित्य स्पर्शना तु नानासमयानाश्रित प्ररूप्यन्त इत्येतत् प्राक क्षेत्रद्वारप्रारम्भ एवाभिहितम् । तथा च सति नानाजीनानासमयानाश्रित्य यावत् क्षेत्रं स्पृश्यते तावत्क्षेत्रं प्रस्तुतस्पशेनाद्वारप्ररूपणाविषयं भवतीति संस्थितम् । इत्थं हि प्रकृत ओघचिन्तायामादेशचिन्तायां च स्पर्शना क्षेत्रप्ररूपणावत् न जीवपरिमाण सव्यपेक्षा । कुतः ? स्पर्शनाया नानासमयसापेक्षतया पर्याप्तमनुष्यगत्यादिसंख्येयजीवराशिकादिमार्गणास्थानेषु वर्तमानसंख्येयादिजीवैरिव भूतकालेऽतिगतैरनन्तैः पर्याप्तमनुष्यादिभिरवगाढक्षेत्रस्याऽपि स्पर्शनाप्रकपणाविषयत्वात् । इत्थं हि स्पर्शनानानात्वं न परिमाणाधीनम् । कस्यावीनं तर्हि ? इति चेद् , उच्यते, तत्तजीवराशीनां पारभविकोत्पत्तिस्थान-स्वस्थानक्षेत्रयोस्तयोरन्तरालक्षेत्रस्य गमनागमनक्षेत्रस्य चाधीनम् , यतो यस्य हि जीवराशेः स्वस्थान
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तत्तन्मार्गणासु स्पर्शनोपपत्तिमार्गः ] द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[ ३११
पारभविकोत्पत्तिक्षेत्र-तदन्तरालवर्तिक्षेत्र - गमनागमनादिक्षेत्राणि समुदितानि यावन्ति जायन्ते तात्रप्रमाणा तस्य जीवराशेः स्पर्शना भवति ।
ननु स्वस्थानक्षेत्र - पारभविकोत्पत्तिक्षेत्रयोरन्तरालवर्तिक्षेत्रमपि कथं गृह्यते ? इति चेत्, कालस्यानन्त्येन भिन्नभिन्नकालेषु मारणान्तिकसमुद्घातादिगतैर्नानाजीचैस्तस्य सर्वस्याप्यन्तरालस्य स्पृष्टत्वात् । किमुक्तं भवति - स्वस्थानादितः स्वप्राग्योच्यत्तिस्थानेषु गच्छतां जीवानामृजुत्रक्रगतिभ्यां यावद्विकल्पैर्गन्तु ं शक्यते, तत्सर्वविकल्पगतं क्षेत्रं कालस्यानन्त्यात् मारणसमुद्घातगतैर्नानाजीवैर्नियमतः स्पृष्टमस्ति । कुतः ? मारणान्तिकसमुद्घातेऽप्युत्पत्तिस्थानं स्पृशद्भिजवैः स्वस्थानादुत्पत्तिस्थानं यावत् स्वशरीरप्रमाणविष्कम्भवाहल्यस्य स्वात्मप्रदेशदण्डस्य प्रसारणात् । यदुक्तं लोकप्रकाशतृतीयसर्गे
अन्तर्मुहूर्तशेषायुर्मरणान्तकरालितः । मुखादिरन्त्राण्यापूर्य शरीरी स्वप्रदेशकैः ||२४|| स्वाङ्गविष्कम्मबाहुल्यं, स्त्रशरीरातिरेकतः । जघन्यतोऽङ गुलासंख्येयांशमुत्कर्षतः पुनः ||२५|| असंख्येययोजनान्येकदिर पुत्पत्तिस्थलावधि । आयमतोऽभिव्याप्यान्तमुहूर्तान्प्रियते ततः ||२६|| इत्यादि । इत्थं हि स्तोकजीवराशिसत्काऽपि सा क्षेत्रापेक्षयाऽधिका लभ्यते । तथाहि सप्तमपृथिव्याः प्रारम्योपर्युपरि यथोत्तरं षष्ठादिपृथिवीषु नारकाः क्रमेणाधिकाऽधिकतराअधिकतमाः सन्ति । उक्तं च महादण्डके - 'आणतकप्पे देवा संखेज्जगुणा, अहे सत्तमाए पुढबीए नेरइया असंखेज्जगुणा, छट्टाए तमाए पुढबीए नेरइया असंखेज्जगुणा' इत्यादि । स्पर्शना पुनस्तेषां विपरिता प्राप्यते । कुतः ? उच्यते, नारकाणां पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यक्तया पर्याप्तमनुष्यतया वा उत्पादात् पारभविकोत्पत्तिस्थानानि निर्यग्लोक एव विद्यन्ते । तिर्यग् लोकच सप्तमपृथिवीनारकागां दुरतरोऽतस्तयोरन्तरालसहितं स्वस्थानपारभविकोत्पत्तिस्थानक्षेत्रमप्यधिकम् तथा च स्पर्शनाऽपि शेषपटादिनरकमार्गणास्थानापेक्षया सप्तमनरकमार्गणास्थानेऽधिका भवति । पष्टादिपृथिवीनां तु क्रमेण तिर्यग्लोकस्यान्तिकान्तिकतरत्वादन्तिकतमत्वादितोस्तत्र पुनः स्पर्शनाऽल्पल्पतराद्या भवति ।
तथाहि - 'सर्वास्त लोकान्तादारभ्योपरिगं तलम् । यावत्सप्तममेदिन्या एकारज्जुरियं भवेत् ||१९|| प्रत्येकमेवं सप्तानां भुवामुपरिवर्तिषु तलेषु रज्जुरेकैका, स्युरेवं सप्तरज्जवः ॥१०॥' इत्यादिवचनाल्लोकसर्वाधस्तनभागादारभ्योर्ध्वं यत्र प्रथमा रज्जुः समाप्यते, तत्र सप्तमपृथिवीनारकाणां स्वस्थानानि सन्ति, तिर्यग्लोकस्तु लोकाधस्तनभागादारभ्य यत्राष्टमी रज्जुः प्रारभ्यतेतत्र विद्यते । तथाच सति तयोरन्तराले पड्रज्जवः क्षेत्रम्, तच्चैकरज्जुप्रमाणतिर्यग्वृत्तविस्तृतं षड्ज्जुप्रमाणोच्चं सर्वक्षेत्रं सप्तमनरकतस्तिर्यग्लोके दिशायां विदिशायां वा चक्रगत्यादिनोत्पद्यमानैः पूर्वोत्पन्नैश्च जीर्वैर्नैरन्तर्येण स्पृष्टमस्ति, तथैव मारणसमुद्घातगतैस्तत्र त्यैर्नारिकैरपि स्पृष्टमस्ति । इत्थं हि सप्तमनरकमार्गणायां स्पर्शना षड्ज्जुप्रमाणा । तथैवोपरितनैः पष्ठादिपृथिवीसत्कवर्तमानातीतनैरयिकैरपि मारणान्तिकसमुद्घातादितः स्वस्थानतिर्यग्लोकयोरन्तरालस्य नैरन्तर्येण
स्पष्ट
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३१२ ]
विहाणो मूलपडिटिबंधो [ तत्तन्मार्गणासु स्पर्शनोपपत्तिमार्गः त्वात् षष्ठादिपञ्चनरकमार्गणाभेदेषु जीवानां यथोत्तरमेकरज्जुवृत्तविस्तृता पञ्च चतुस्त्रि-द्वये करज्जुप्रमाणा स्पर्शना प्राप्यते । प्रथमनरकस्य सप्तमरज्ज्वोरुपरितनभागवर्तित्वात् तिर्यग्लोकस्याष्टमरज्ज्वोः प्रारम्भभागवर्तित्वाच्च तयोरन्तरं नैकरज्जुप्रमाणमपि, किन्त्वेकस्या रज्ज्योरसंख्येयतम भागमात्रम् ।
मनुष्याणां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां च स्वस्थानक्षेत्रं यद्यपि लोकासंख्येयभागमात्रं तथापि तेषां सूक्ष्मैकेन्द्रियतयाऽप्युत्पत्तेः स्वस्थानक्षेत्रं पारभविकोत्पत्तिक्षेत्रं च समुदितं सत् सर्वलोकस्पर्शना भवति, अतीतकाले मारणसमुद्घातादिना पारभविकोत्पत्तिस्थानानि प्राप्तैर्मनुष्यैः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मिश्च प्रत्येकं समग्रलोकस्य स्पृष्टत्वात् । तिर्यक्सामान्यैस्तु स्वस्थानतोऽपि सर्वलोकः स्पृष्टोऽस्तीति सुप्रतीतमेव ।
देवानां स्पर्शनाविषये तु बहवो विकल्पाः सन्ति । तद्यथा - ईशानान्तदेवभेदेषु नव रज्जव: स्पर्शना । कुतः ? उच्यते, भवनपत्यादिसहस्रारकल्पान्तानां देवानां तथास्वभावतोऽधोलोके पृथिवीकायादितयोत्पादाभावेऽपि नरकगतानां पूर्वभवस्वजनानां स्नेहवशात्तृतीयां पथिवीं यावद् गमनागमने स्तः । उक्तञ्च पञ्चसंग्रहे
'सहसारंतियदेवा नारयनेहेण जंति तइयभुवं' इति ।
तथा च सति तेषां तिर्यग्लोकादधो रज्जुद्वयं स्पर्शना भवति, ऊर्ध्वं त्वपत्प्राग्भारापृथिव्यां पृथिवीकायतयोत्पद्यमानान् पूर्वोत्पन्नांश्चेशानकल्पान्तदेवान् समाश्रित्य पूर्ववत् सप्तरञ्जयः स्पर्शना सम्पद्यते । 'तत्थ वि सणकुमारं पभिइ एगिंदियेसु नो जंति' इत्यादिवचनेन सनत्कुमारादिसहस्रार - कल्पान्तानां देवानां त्वेकेन्द्रियतयोत्पत्तिरेव प्रतिषिद्धा, अतस्तेषामूर्ध्वमीपत्प्राग्भारापृथिव्यामुत्पादाभावेन तिर्यग्लोकादूर्ध्वं सप्तरज्जुस्पर्शना न लभ्यते, किन्तु स्वशक्त्या गन्तुमसमर्था अप्यधस्तनदेवा अच्युतकल्पसुरैः स्नेहादिनोर्ध्वं स्वस्थानेषु नीयन्ते । उक्तं च पञ्चसङ्गहे - “निज्जंति अच्चुयं जा अच्चुयदेवेण इयरसुरा ||३१||" इति । तथा च नीयमानैः पूर्वनीतैश्च सनत्कुमारादिकल्पानां प्रत्येकमनन्तैः सुरैरच्युतकल्पान्तं तिर्यगेकरज्जुवृत्तविस्तृतं सर्वं क्षेत्रं स्पृष्टं भवति, अतस्तेषां प्रत्येकं तिर्यग्लोकादूर्ध्वं षड्ज्जुस्पर्शनालाभात् समस्ता स्पर्शनाऽष्टरज्जुप्रमाणा जायते ।
ननु सनत्कुमारादिदेवा अपि प्रत्येकमसंख्येया एव श्रूयन्ते तत्कथं प्रत्येकमनन्तैर्देवैरच्युतकल्पान्तमेकरज्जुवृत्तविस्तृतं सर्वक्षेत्रं स्पृष्टं भवतीति कथ्यते ? भण्यतेऽत्रोत्तरम् - न केवलं वर्तमानाकालापेक्षयैतत्कथनम्, कित्वनन्तमतीतकालमपेक्ष्याऽपि, स्पर्शनाया नानासमयविषयत्वेनाdinate विनष्टानामपि देवानां तदन्तर्गतत्वादित्यादिप्रागभिहितमेव । अनयाऽपेक्षया यदि सूक्ष्मसम्परायादि मार्गणाविशेषेषु गतकालमधिकृत्यानन्तानां जीवानां समावेशो भवति, तदा सनत्कुमारादिमार्गणा तु का वार्ता । तदेवं नानासमयानाश्रित्य नास्ति कश्विदोषः ।
न च "पणऽच्युए” इति लोकनालिस्तववचनात् तिर्यग्लोकादूर्ध्वमच्युतकल्पं यावत् पञ्च रज्जव एव क्षेत्रं भवति, तथा च सति सनत्कुमारादिकल्पवासिनां समस्ताऽपि सप्त रज्जव एव स्पर्शना भवेदतोऽसङ्गतमेतदिति वाच्यम् । जीवसमासे
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मार्गणासु स्पर्शनोपपत्तिमार्गः ]
द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[ ३१३
'इसाणम्मि दिवड्ढा अड्ढाइजा य रज्जु माहिंदे | पंचेव सहस्सारे छ अच्चुए सत्त लोगंते ॥१९१॥' इत्यनेनाऽन्यथाऽपि रज्जुव्यवस्थादर्शनात् । न च तत्र पाठभ्रमः, तद्वृत्तौ तथैवाभिहितत्वात् । बृहत्संग्रहणीवृत्तौ मलयगिरिरिपादैरपि—
'सोहन्मि दिवड्ढा अड्ढाइज्जा य रज्जु माहिदे | पंचेव सहस्सारे छ अच्युए सत्त लोगंते ॥' इत्यनेन तिर्यग्लोकाद् यावत् सोधर्मेशान देवलोक तावत्सार्धरज्जुप्रमाणम्, यावत्सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पौ तावत् सार्धरज्जुद्वयम् यावच्च सहस्रारकल्पस्तावत्पञ्च रज्जवः, यावच्चाच्युतकल्पस्तावत् षड्रज्जवो लोकान्तं यावत्सप्त रज्जवश्व क्षेत्रमभिहितम् । एतदनुसारेण तु सुसङ्गतमेवेदम् । लोकनालिकास्तवाभिप्रायेण त्वन्यथा स्वयमेवोह्यमिति ।
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आनतादीनां चतुर्णां कल्पानां देवास्त्ववस्तिर्यग्लोकं यावद्गच्छन्ति, न पुनर्नरकपृथिवीष्वपि । तथा च सति तेषां प्रत्येकं पड़ज्जव एव स्पर्शना भवति । 'गमणागमणं णत्थि अच्युअपरओ सुराणं पि' इत्यादिवचनेनोपरितनानां ग्रैवेयकादिदेवानां तु गमनागमनाभावात् लोकासंख्येयभागमात्रै स्पर्शना लभ्यते । ननु ग्रैवेयकादिदेवानां गमनागमनाभावेऽपि नारकाणामिव मारणसमुद्घातेन स्वोत्पत्तिस्थानं तिर्यग्लोकं यावत्स्पर्शना युज्यते, तत्कथं लोकासंख्येयभागमात्रा स्पर्शना कथ्यते ? इति चेद्, उच्यते, ग्रैवेकदेवानामूर्ध्वलोके तिर्यगेकरज्जुवृत्तविस्तृतप्रतराणामसंख्येयभागमात्रे देशे स्वस्थानानि सन्ति । न केवलं स्वस्थानानि, किं तर्हि ? गमनागमनविरहितानां तेषामवस्थानमपि तत्र त्रसनाडीगतवृत्तविस्तृततिर्यक्प्रतरासंख्येयतमे भाग एव । अन्यच्च तेषां पारभविकोत्पत्तिस्थानान्यपि मनुष्यलोके एव, स च मनुष्यलोकोऽपि तिर्यग्लोकवर्तितिर्यक्प्रतराऽसंख्येयभागमात्रावगाढः । तथा च सति ग्रैवेयकविमानेभ्यो मनुष्यलोकपर्यन्तानां समुद्घातगत देवात्मप्रदेशदण्डानामूर्ध्वाधः सप्तरज्जुप्रमाणदीर्घत्वेऽपि तिर्यक्क्षेत्रस्य स्वल्पतयैते आत्मप्रदेशदण्डाः समस्ता अपि सन्तस्तिर्यगेकरज्जुवृत्त विस्तृतप्रतरासंख्येयभागमात्रमवगाहन्ते । इत्थं चोर्ध्वाधः सप्तरज्जूच्चाऽपि ग्रैवेयकदेवानां स्पर्शना तिर्यगेकरज्जोरसंख्येयभागमात्रेति कृत्वा लोकस्यासंख्येयभागमात्रैव भवति ।
इदमत्र हृदयम् - येषां स्वस्थान- गमनागमनस्थान- पारभविकोत्पत्तिस्थानरूपाणि त्रिवि - धान्यपि स्थानानि प्रत्येकं त्रसनाडीगत तिर्यग्वृत्तविस्तृतप्रतराऽसंख्येय भाग मात्र मवगाहन्ते तेषामूर्ध्वाधःक्षेत्र योरन्तरालस्य बाहुल्येऽपि तिर्यक्क्षेत्रस्य स्वल्पतया मारणान्तिकसमुद्घातमपेक्ष्यापि लोकासङ्घयभागमात्रस्पर्शना सम्पद्यते । येषां पुनस्तेभ्यस्त्रिविधस्थानेभ्य एकविधान्यपि स्थानानि तिर्यक्प्रतराऽसंख्येयभागमात्रावगाढानि न सन्ति, किन्तु ततोऽधिकाधिकतरादिभागगतानि सन्ति, तेषां तूर्ध्वाध:क्षेत्रान्तरस्य बाहुल्ये स्पर्शनाऽपि तदनुसारेणा धिकाधिकतराद्या लभ्यते । अत एव द्वितीयादिनरकभेदेषु स्पर्शना न लोकासंख्येयभागमात्रा, एवमानता दिदेवानामपि । तथाहि1 है - स्वस्थान- गमनाssगमनस्थानान्यपेक्ष्य तिर्यक्प्रतरासंख्येय भागमात्रावस्थायिनामपि द्वितीयादि पृथिवीनैरयिकाणां ततश्च्युत्वा तिर्यग्लोके स्वयम्भूरमणसमुद्रजगत्यादिदेशान् विहाय तिर्यक्प्रतरस्य बहुभागेषूत्पादे -
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३१४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो | ओघत आयुर्जानामुत्कृष्टेतरस्थिति० नोत्पत्तिस्थानानां किञ्चिदून तिर्यक्प्रतरव्यापित्वात् मारणसमुद्घातप्राप्ता स्पर्शना न लोकासंख्येयभागमात्रा । एवमानतादिदेवानां स्वस्थानोत्पत्तिस्थानयोः प्रत्येकं तिर्यक्प्रतराऽसंख्येय भागमात्रगतत्वेऽपि गमनागमनक्षेत्रस्य तिर्यग्वृत्तविस्तृतरज्जुप्रमाणत्वात् स्पर्शना न लोकसंख्येय भागमात्रा, किन्तु षड् रज्जनः प्राप्यते ।
न च प्रथमपृथिवीनैरयिकाणां पारभविकोत्पत्तिस्थानानि तिर्यक्प्रतरस्यासंख्येपबहु भागेषु वर्तन्ते, तत्कथमेतेषां मारणसमुद्घातेनापि लोकासंख्येयभागमात्रा स्पर्शनोच्यत इत्याऽऽशक्यम् । यतो यथा तिर्यक्प्रतरासंख्येयभागादौ स्वस्थानादीनामवगाढतया तदनुसारेण स्पर्शनालाभस्तथैवोर्ध्वाधोवर्तिनां तेषां स्वस्थानपारभविकोत्पत्तिस्थानानां यद् रज्ज्वसंख्येयभागादिप्रमाणमन्तरं तदप्यूर्ध्वाधः स्पर्शनायामपेक्ष्यत एव; अतो यत्रोर्ध्वाधः प्रतरवर्तिनां स्वस्थान - पारभविकोत्पत्तिस्थानानामन्तरं रज्ज्वसंख्येयभागमात्रं तत्र तेषां स्थानानां तिर्यक्प्रतरबहुभागव्यापित्वेऽपि स्पर्शना लोकाऽसंख्येयभागमात्रै लभ्यते । यत्र तु तदूर्ध्वाधः प्रतरगत स्वस्थानादीनामन्तरं रज्जुद्विरज्ज्यादिप्रमाणं तत्र तु तेषां स्थानानां तिर्यक्प्रतरबहुभागगतत्वे साऽप्येकद्वयादिरज्जुप्रमाणा प्राप्यते । तथा च सति प्रथमपृथिवीनारकाणां पारभविकोत्पत्तिस्थानानां तिर्यग्लोकगत तिर्यक्प्रतरबहु भागव्यापित्वेऽप्यूर्ध्वाधोवर्तिनां तेषां स्वस्थान -पारभविकोत्पत्तिस्थानानामन्तरालस्य रज्ज्वसंख्येयभागमात्रतया स्पर्शनाऽपि लोकासंख्येयभागमात्रोच्यत इत्यलं विस्तरेण । इदं हि तत्तन्मार्गणानामुत्कृष्टस्पर्शनोपपत्ती दिङ्मात्रम् अनया दिशा शेषमार्गणास्थानेषु तु स्पर्शना स्वयमेवोद्या ।
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अथ प्रस्तुतेऽस्याऽनन्तरोक्तस्य घटना प्रदर्श्यते - आयुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः संशिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तजीवा यद्यपि लोकस्यासंख्येयभाग एव वर्तन्ते, तथापि तेषु ये भवनपत्यादीशानान्ता देवास्तैर्मारणसमुद्घातेनेवत्प्राग्भारापृथिवीं प्राप्तैरूर्ध्वलोकसत्काः सप्त रज्जयः स्पृश्यन्ते । न च तदानीं मारणसमुद्घातगतानां तेषामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्यासम्भवः । यत ते मारणसमुद्घातगता देवास्तदानीमेकेन्द्रियत्वाभिमुखाः सन्ति, एकेन्द्रियत्वं च तेषां पारभविकं सर्वनिकृष्टमुत्पत्तिप्रायोग्यं स्थानम्, तथा च सति तदानीं तेषां स्वप्रायोग्यसर्वनिकृष्टोत्पत्तिस्थानाभिमुखतयोत्कृष्टस्थितिबन्धोऽविरुद्धः । कुतः ? उच्यते, ये हि स्वप्रायोग्य सर्वनिकृष्टोत्पत्तिस्थानाभिमुखा न सन्ति तेषां मारणसमुद्घातादिगतानामुत्कृष्ट स्थितिबन्धप्रायोग्यसंक्लेशस्यानुत्पत्तेः सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धो न भवति, स्वप्रायोग्य सर्वापकृष्टोत्पत्तिस्थानाभिखानां तु तदानीमुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्य संक्लेशस्य सम्भवादुत्कृष्टस्थितिबन्धस्यापि सम्भव एव । इत्थं हि भवनपत्यादि - देवापेक्षयोर्ध्वलोकसम्बन्धिनी सप्तरज्जुस्पर्शनोपपन्ना । शेषा तिर्यग्लोकादारभ्याधोलोकसत्का षडज्जुस्पर्शना त्वनया नीत्यैव मारणान्तिकसमुद्घातेन सप्तमपृथिवीं यावनिक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डैस्तिकृता दृष्टव्या । एताथ रज्जवः समस्ताः सत्यस्त्रयोदश भवन्ति, ता एवाधिकृत्य प्रकृत ओघत उत्कृष्टस्थितिबन्धकैस्त्रयोदश भागाः स्पृष्टा इत्युक्तम् ।
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ओघत आयुष उत्कृष्टेतरस्थिति०] द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[ ३१५ ननु तिर्यग्मनुष्याणामनन्तरभवे सूक्ष्मैकेन्द्रियतयाप्युत्पत्तेः सम्भवेन तेषां पारभविकोत्पत्तिस्थानानि लोकसर्वाधस्तनप्रतरं यावद्विद्यन्ते, ततश्चोक्तनीत्याऽधोलोकसम्बन्धिनी सप्तरज्जुस्पर्शनाऽपि प्राप्यते, तत्कथं षडज्जव एव गृहीता ? इति चेद , उच्यते, सत्यमेतत् , तथाऽपि साम्प्रतमुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिस्पर्शना प्रस्तूयते, औधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनस्तु संज्ञिपञ्चेन्द्रियतियंगमनुष्याः, न पुनः सूक्ष्मैकेन्द्रियादयः । संज्ञिपञ्चेन्द्रितिर्यग्मनुष्याणां तु सा सप्तरज्जुस्पर्शना मारणान्तिकसमुद्धातादिना प्राप्येत, न तु स्वस्थानतो गमनागमनतो वा । सूक्ष्मैकेन्द्रियादितयोत्सिवो मारणान्तिकसमुद्घातं प्राप्ताश्चैत उत्कृष्टस्थितिबन्धमेव न कुर्वन्ति, भवान्तराभिमुखेषु जीवेषु स्वप्रायोग्यसनिकृष्टपारभविकोत्पत्तिस्थानाभिमुखानां पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणामेव तस्य सम्भवात् । पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां स्वप्रायोग्यसर्वनिकृष्टं पारभविकोत्पत्तिस्थानं तु निरयगतिः, उत्कृष्टसंक्लेशोपेतैस्तैस्तस्या एव निवर्तनात् , इत्येवं सर्व एकजीवाश्रयकालद्वारे 'एनिदियणिगोएसुं तेसिं सुहुमेसु' इत्यादिगाथा(१४७)वृत्तौ दर्शितनीत्या विभावनीयम् । इत्थञ्चैकेन्द्रियत्वाभिमुखमुमूर्ष जीवानां तदानीं सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैवाऽसम्भवाद्यथोक्तसप्तरज्जुस्पर्शनां विहाय सप्तमनरकाभिमुखजीवानपेक्ष्य षड़ज्जवः स्पर्शनैव गृहीता ।
अमुमेव पदार्थ प्रतिपादयितु प्राक-'फुसणाअ बुफिचरे इह जे भागा भाजिआअ च उदसहिं । तसनाडी लहिज्जउ जं तावइअप्पमाणा ते ॥३४७॥' इत्यत्र चतुर्दशभिस्त्रसनाड्य व विभक्तुमभिहिता, न तु लोकनाडी; यतस्त्रसनाडी चतुर्दशरज्जुप्रमाणोच्चा, एकरज्जुप्रमाणा तु वृत्तविस्तृता, तस्यां चतुर्दशभिर्भाजितायां सत्यामेकरज्जुप्रमाणोच्चमेकरज्जुप्रमाणं वृत्तविस्तृतमित्येतावत्क्षेत्रं भागफलतया लभ्यते, तावत्प्रमाणास्त्रयोदशभागाः प्रकृतेऽपि सङ्गच्छन्ते । तथाहि-मारणान्तिकसमुद्घातकाल ईषत्प्राग्भारापथिव्यां निक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डैरीशानान्तदेवैर्ये ऊर्चलोकसत्काः सप्त रज्जवः स्पश्यन्ते, तास्त्रसनाड्यन्तर्गता एव सन्ति; सनाड्या एकरज्जुवृत्तविस्तृतत्वात् ताः सप्तरज्जवोऽप्येकरज्जुवृत्तविस्तृता एव प्राप्यन्ते । इत्थमेव मारणान्तिकसमुद्घातेन सप्तमपृथिवीं प्राप्तानां तिर्यग्मनुष्याणामपि षड़ज्जवः स्पर्श करज्जुप्रमाणवृत्तविस्तृतक्षेत्रसम्बन्धिन्यवगन्तव्या ।
अत्रेदमवधेयम्-स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य जगत्याः परभागवर्तिषु स्तोकमात्रदेशेषु पञ्चेन्द्रियतिरश्चामभावादुक्तषडज्जुस्पर्शना यद्यप्येकदेशेनोना भति, तथापि तस्यैकदेशस्य स्वल्पत्वादविवक्षया सामान्यत एकरज्जुवृत्तविस्तृताः षडज्जवोऽभिहिताः । एवमन्यत्रापि यथासम्भवं द्रष्टव्यमिति । सप्तकर्मणामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां सर्वलोकस्पर्शना तु सुगमेति ॥३४६-३४७॥
तदेवमोघतः सप्तकर्मणामुत्कृष्टानुत्कृष्टद्विविधाया अपि स्थितेर्बन्धकानां स्पर्शनाऽभिहिता । साम्प्रतमुक्तशेरस्यायुषस्तामोघतः प्राह
आउस्स असंखयमो भागो लोगस्स फोसिओ होज्जा। उक्कोसाअ ठिईएऽणुकोसाए जगं सव्वं ॥३८४॥
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानामुत्कृष्टस्थिति० _ (प्रे०) “आउस्स” इत्यादि, आयुष उत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकैलॊकस्यासंख्यतम एको भागः स्पृष्टो भवति । तस्यैवानुत्कृष्टायाः स्थितेः सर्वं जगत् स्पृष्टं भवति, बन्धकैरिति तु प्रथमगाथातोत्राप्यनुवर्तते, यद्वा स्पृष्टमिति प्रयुक्तेऽनुक्तमपि प्रकरणाद्गम्यत इत्यक्षरार्थः । भावार्थः नरयम्-आयुर्बन्धो हि मारणसमुद्घातं गतानामन्तरालगतौ वर्तमानानां वा न भवति, तथा च सत्यायुर्बन्धकानां स्पर्शनाऽपि स्वस्थानक्षेत्रमपेक्ष्य गमनागमनक्षेत्रं वाऽपेक्ष्य प्राप्यते, स्वस्थानाद्विशिष्टं गमनागमनक्षेत्रं तु भवनपत्यादिदेवानामेव । आयुष औधिकोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकास्तु संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याः। तेषां च नास्ति किञ्चित्स्वस्थानाद्विशिष्टं गमनागमनक्षेत्रमतस्तेषां स्वस्थानक्षेत्राक्षिप्ता स्पर्शना एवं प्रकृते प्राप्यते,सा तु लोकासंख्यभागमात्राऽतस्तथैवोक्ता । आयुप औधिकानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकास्तु सूक्ष्मैकेन्द्रियादयोऽपि, अतस्तेषां स्वस्थानापेक्षयापि सर्वलोकस्पर्शनैव भवतीत्योपत आयुषोऽनुत्कृष्ट स्थितेर्बन्धकस्पर्शना सर्वलोक उक्ता इति । ॥३४८॥
तदेवमभिहितौघतोऽष्टानामपि प्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योन्धकस्पर्शना । साम्प्रतं तामेवादेशतो व्याजिहीर्षुरादौ तावदायुर्वर्जसप्तानामुत्कृष्टस्थितेराह
णिरये सत्तमणिरये तिरयम्मि तहा पणिदितिरियदुगे। चउआणताइगेसु ओराल-णपुस-सुकासु॥३४९॥
सत्तण्हुक्कोसाए ठिईअ भागा छ फोसिआ होज्जा। (प्रे०) "णिरये सत्तमणिरये” इत्यादि, निरयगत्योघे, सप्तमपथिवीनिरयभेदे, तिर्यकसामान्ये तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यकपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगात्मके पञ्चेन्द्रियतिर्यग्द्विके, आनत-प्राणताऽऽरणा-ऽच्युतकल्पभेदभिन्नेषु चतुर्यु देवगतिमार्गणाभेदेषु । तथा औदारिककाययोग-नपुसकवेदशुक्ललेश्यासु, इत्येवं द्वादशमार्गणासु “सत्तण्हुक्कोसाए" इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टायाः स्थितेः 'षड्भागाः'-सनाड्याश्चतुदर्शभागरूपाः षडजवः स्पृष्टा भवन्ति, बन्धकैरित्यनुवर्तते । कथं पड़ज्जवः ? इति चेद् ,उच्यते,नरकगत्योधमार्गणायां सप्तमनरकमार्गणायां च मारणान्तिकसमुद्घातेन तिर्यग्लोकं स्पष्टैः स्वस्थानगतै रकैरपि तदानीमुत्कृष्टस्थितिबन्धो निर्वतयितुं शक्यते, ततश्च सप्तमनिरयनैरयिकाणामुत्कृष्टस्पर्शनायाः . प्रकृतमार्गणाद्वय उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिस्पर्शनातया युज्यमानत्वात् पडज्जुस्पर्शनोत्ता । एतेषां सप्तमपथिवीनारकाणामुत्कटस्पर्शनापेक्षयैव, यद्वा पञ्चेन्द्रियतिरश्चां वक्ष्यमाणोत्कृष्टस्पर्शनापेक्षया नपुसकवेदमार्गणायां प्रस्तुतस्पर्शना विज्ञेया । आनतादिदेवानां त्वधस्तिर्यग्लोकं यावदूर्ध्व चाच्युतकल्पं यावद्गमनागमनस्याऽप्यभिमतत्वाद्गमनागमनकृतस्पर्शनापेक्षयापि पडरज्जुस्पर्शना प्राप्यत इति तदनुसारेण सा भावनीया । शुक्ललेश्यामार्गणायामपि तथैवानतादिदेवानां स्पर्शनाप्राधान्यात्सा बोद्धव्या । तिर्यग्गत्योध-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगौ-दारिककाययोगमार्गणासु पुनरिणान्तिक
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मार्गणास्वायुर्जानामुत्कृष्टस्थिति० ] द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[३१७ समुद्घातेन पारभविकस्वोत्पत्तिस्थानसप्तमनिरयभूमिप्राप्तानां संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां तदानीं स्वप्रायोग्यसर्व निकृष्टोत्पत्तिस्थानाभिमुखतयोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य सम्भवात् तदपेक्षया प्रस्तुतस्पर्शनाऽपिषड रज्जवो लभ्यत इति ॥३४९।। द्वितीयपथिव्यादिषु पञ्चसु निरयगतिमार्गणास्थानेषु प्रकृतस्पर्शनामाह
एगाइणा कमूणा ते छट्ठाइपणणिरयेसु ॥३५०॥ (प्रे०) “एगाइणा कमूणा" इत्यादि, एकादिना भागेन क्रमादूनाः "ते" तिऽनन्तरोक्ताः षड् भागाः, सप्तानां प्रकृतीनामुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकैः स्पृष्टा भवन्तीत्यनुवर्तते । इत्थमेवोत्तरत्राऽप्यनुवृत्तिद्रष्टव्या । केषु मार्गणाभेदेवित्याह-"छट्ठाइपणणिरयेसु" ति आनुपूर्व्याऽसम्भवादनन्तरमेव सप्तमपथिवीनिरयभेदे प्रतुतस्पर्शनाया अभिहितत्वाच्च पश्चादानपूर्व्या षष्ठादिषु षष्ठ-पञ्चम-चतुर्थ-तृतीय-द्वितीय-पृथिवीनिरयभेदरूपेषु पञ्चसु निरयमार्गणास्थानेष्वित्यर्थः । इदमुक्तं भवति-पष्टपञ्चमादिनरकपथिवीनां यथोत्तरं तिर्यग्लोकादभ्यर्णा-ऽभ्यर्णतरा-भ्यर्णतमवर्तित्वान्मारणसमुद्धातेन तत्रत्यनारकैः कृता स्पर्शनाऽप्यल्पा-ऽल्पतराद्या प्राप्यते,किश्च तिर्यग्गतेस्तेषां स्वप्रायोग्यसर्वनिकृष्टपारभविकोत्पत्तिस्थानरूपत्वात् तदानीं मारणसमुद्घातगतानां तेषां सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धोऽपि सम्भवति । इत्थं हि अतीतकालसम्बन्धिभिमारणसमुद्घातगतैः सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धक रकैः कृता स्पर्शनाऽपि षष्ठपथिवीनिरयभेदेऽनन्तरोक्तपडरज्जव एकया रज्ज्या न्यूनाः पञ्च रज्जवः, पञ्चमपथिवीनिरयभेदे रज्जुद्वयेन न्यूनाश्चतूरज्जवः, चतुर्थपथिवीनिरयभेदे रज्जुत्रयेण न्यूनास्त्रिस्रो रज्जवः, एवमेवोत्तरत्राऽपि, ततस्तृतीयपृथिवीनिरयभेदे रज्जुद्रयम् द्वितीयपथिवीनिरयभेदे त्वेका रज्जुः स्पर्शना भवतीति ॥३५०।। अथ मार्गणान्तरेष्वाह
होइ पण तिरिच्छीए सुर-इसाणंतदेव-तेऊसु। ___णव बारह कम्मण-थी सासण-ऽणाहारगेसु य ॥३५॥
(प्रे.) "होइ पण तिरिच्छीए” ति तिरश्चीमार्गणायां सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकैः कृता स्पर्शना “होइ पण" ति त्रसनाड्याः पञ्च चतुर्दशभागा भवति, एकरज्जुवृत्तविस्तृतपञ्चरज्जुप्रमाणोच्चा भवतीति भावः । इत्थमेवोत्तरत्रापि भागपदेन सनाडीगतका रज्जुर्वेदितव्येति । कुतः पश्चरज्जुस्पर्शना ? इति चेद् , उत्कृष्टस्थितिवन्धं कुर्वतीभिस्तिरचीभिर्मारणसमुद्घातेनाधः पष्ठपृथिवीं यावत्स्पृष्टत्वात् । “सुरईसाणंतदेवतेऊसु” ति सुरगन्योधमार्गणाभेदे, भवनपतिव्यन्तर-ज्योतिष्क-सौधर्मे-शानकल्परूपेष्वीशानान्तदेवभेदेषु, तेजोलेश्यामागंणाभेदे चेत्येतेषु सप्तस प्रत्येकं "नव" ति त्रसनाड्या नव चतुर्दशभागाः, सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितेवन्धकैः स्पष्टा इत्यनुवर्वते । कथम् ? इति चेत् , मारणसमुद्घातेनेपत्प्राग्भाराभूमौ स्वप्रायोग्यसर्वनिकृष्टपारभविकोत्पत्तिस्थान एकेन्द्रियत्वेनोत्पद्यमानः पूर्वोत्पन्नश्चोर्ध्व सप्तरज्जुक्षेत्रमापूरणात् , तृतीयनरकपृथिवीं यावद्गमनागमनं कुर्वद्भिरधो रज्जुद्वयस्पर्शनाच्च समस्ता नव रज्जवो भवन्ति ।
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३१८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वीनामुत्कृष्टस्थिति० "बारह कम्मणथी” त्यादि, कार्मणकाययोग-स्त्रीवेद-सासादना--ऽनाहारकमार्गणासु प्रत्येकं सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकैस्त्रसनाडया द्वादश चतुर्दशभागाः स्पृष्टा भवन्तीत्यर्थः । तत्र कार्मणकाययोगमार्गणायां मूलसप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकाः पर्याप्तसंक्षिपञ्चेन्द्रियतश्च्युत्वा पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमाना विग्रहगतिवर्तिनो जीवा इति प्रागभिहितमेव, तेऽप्यष्टमकल्पान्ता देवाः, अन्ये वा गतित्रयसम्बन्धिन एव भवन्ति, न त्वानतादिकल्पवासिनः, शुक्ललेश्याकैरतैः कार्मणकाययोगमार्गणाबन्धप्रायोग्यत्कृष्टस्थितिबन्धस्याकरणात् । इत्थं च यदाऽच्युतकल्पसुरैः स्वस्थानं नीता सहस्रारकल्पान्ता देवास्तवस्था एवायुःक्षयात् कालं कृत्वा विग्रहगत्या तिर्यग्लोके तिर्यक्त्वेनोत्पद्यन्ते तदोव॑लोकसत्काः षड़ रज्जवः स्पर्शना लभ्यते, अधोलोकसत्काः पड़ रज्जवस्तु सप्तमभूमौ नैरयिकतयोत्पद्यमानैर्विग्रहगतिस्थैस्तिर्यग्भिर्मनुष्यैर्वा स्पृष्टाः सन्ति, एताः समस्ताः सत्यो द्वादश रज्जवो भवन्ति । ता एव द्वादश रज्जवः प्रकृते सप्तानां प्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धकानामुत्कृष्टस्पर्शना दर्शितेति । अनाहारकमार्गणायामप्ययमेव प्रकारो द्रष्टव्यः । स्त्रीवेदमार्गणायां त्वी. पत्याग्भारापथिवीं प्राप्तानां मारणान्तिकसमुद्घातगतानां भवनपत्यादिदेवीनामवलोकसत्का सप्तरज्जुस्पर्शना, तथा तिरश्चीनां षष्ठपृथिवीं यावदुत्पादादधोलोकसत्का पञ्चरज्जुस्पर्शना च समुदिता सती द्वादशरज्जुस्पर्शना भवतीति तथैव दर्शिता । उत्कृष्टस्थितिबन्धस्तु तदानीं तासां देवीनां मानुषीणां च स्वप्रायोग्यसर्वनिकृष्टपारभविकोत्पत्तिस्थानाभिमुखतया सम्भवतीति प्राग्वद् बोद्धव्यम् । सासादनमार्गणायां पुनस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियतयोपिसूनां पष्ठपृथिवीनरयिकाणां मारणसमुद्घातेन प्राप्ताऽधोलोकसत्का पञ्चरज्जुस्पर्शना, शेषसप्तरज्जुस्पर्शना तूर्वलोके लोकान्तं यावदुत्सित्सूनां पञ्चेन्द्रियतिरश्वां मनुष्याणां वा मारणान्तिकसमुद्घातनिष्पन्ना, एवं नानाजीव-नानासमयसमाश्रयणादेकरज्जुतिर्यग्वत्तविस्तृतद्वादशरज्जूच्चा स्पर्शनोक्तेति ।
ननु तिर्यग्लोक उत्पित्सूनां सप्तमपृथिवीनरयिकाणां पज्जुस्पर्शनां विहाय कथमत्राधोलोकसत्का पञ्चरज्जुस्पर्शनैव गृहीता ? इति चेद् , उच्यते,भवचरमान्तमुहूर्तवर्तिनां मुमूर्तृणां सप्तपृथिवीनैरयिकाणां नियमतो मिथ्यादृष्टित्वेन प्रकृतमार्गणावहिस्त्वात् तत्संबन्धिषडज्जुस्पर्शनां विहाय षष्ठपथिवीनैरयिकसम्बन्धिनी सा पञ्चरज्जुमानैव गृहीता, षष्ठपथिवीनरयिकाणां सासादनगुणयुतानामपि तिर्यग्मनुष्यतयोत्पत्तः । उक्तं च पञ्चसङ्ग्रहे-“छट्ठाए नेरइओ सासणभावेण एइ तिरिमणुए" इति ॥३५१॥ सम्प्रति यासु मार्गणासु प्रकृतस्पर्शना समग्रलोकप्रमाणा ता मार्गणाः सङ्ग्रह्याह
सव्वजगं सव्वेस एगिदिय-विगल-पंचकायेस।
असमत्तपणिदितिरिय-मणुस-पणिंदिय-तसेसुय ॥३५२॥ (प्रे०) “सव्वजग" मित्यादि, सर्वं जगत् , सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकैः स्पृष्टं भवतीति
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मार्गणास्वायुर्वजार्नामुत्कृष्स्थिति०] द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[ ३१९ प्राग्वद्योगः । केषु मार्गणाभेदेष्वित्याह-"सव्वेसु एगिदिये" त्यादि, 'सर्वेषु' सप्तसंख्याकेष्वप्यकेन्द्रियजातिसत्कभेदेषु, तथैव सर्वेषु नवस्वपि विकलेन्द्रियसत्कभेदेषु, सर्वेषु पथिव्यादिपञ्चकायसत्केष्वेकोनचत्वारिंशन्मार्गणाभेदेषु । मार्गणान्तरसङ्ग्रहायाह-"असमत्ते" त्यादि, तत्राऽपर्याप्तभेदवाचकोऽसमाप्तशब्दः पञ्चेन्द्रियतिर्यगादिषु प्रत्येकं युज्यते, तथा च सत्यपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग-पर्याप्तमनुष्या-ऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रसकायरूपेषु चतुर्यु भेदेषु चेति ।
__ इयमत्र भावना-प्रकृतकोनषष्टिमार्गणासु याः सूक्ष्मौघतत्पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्ना अष्टादशमार्गणास्तासु सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनां स्वस्थानत एव सर्वलोके सद्भावात्प्रकृतस्पर्शना तदनुसारेण सर्वलोकः प्राप्यते, यद्वा प्रकृतसर्वमार्गणगतानां जीवानां सर्व निकृष्टं स्वप्रायोग्यं पारभषिकोत्पत्तिस्थानमपर्याप्तसूक्ष्मनिगोदात्मकम्, अपर्याप्तसूक्ष्मनिगोदजीवास्त्वन्यूने लोके व्याप्ताः, आस्तत्रोत्पित्सवः प्रकृतप्रत्येकमार्गणासम्बन्धिजीवा मारणसमुद्घातावस्थायां सप्तानामुस्कृष्टस्थितिबन्धं कुर्वन्तः सर्व लोकं स्वात्मप्रदेशैः पूरयितुं शक्नुवन्ति, ततो नानासमयसव्यपेक्षा प्रकृतस्पर्शनाऽपि सर्वलोकप्रमाणा प्राप्यत इति ॥३५२॥ इदानीं यासु प्रस्तुतस्पर्शनाऽष्टौ रज्जवस्ता मार्गणाः संगृह्याह
भागाऽट्ट होज्ज तइआइसहस्सारंतसुर-तिणाणेसु।
ओहि-पउम-सम्म-खइअ-वेअगु-वसमेसु मीसे य ॥३५३॥ (प्रे०)"भागाऽह होज्जे” त्यादि, सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकैस्त्रसनाडया अष्टौ भागाः स्पृष्टा भवन्तीत्यर्थः । केष्वित्याह-"तइआइसहस्सारते" त्यादि, तृतीयसनत्कुमारकल्पमादौ कृत्वा सहस्त्रारकल्पान्तेषु षटषु सुरगतिभेदेषु, मनःपर्यवज्ञानवर्जेषु त्रिषु मतिश्रुतावधिरूपज्ञानभेदेषु, तथा “ओहिपउमे" त्यादि, अवधिदर्शन-पद्मलेश्या-सम्यक्रौघ-क्षायिकसम्यक्त्व-वेदकसम्यक्त्वौपशमिकसम्यक्त्व-मिश्रदृष्टिमार्गणाभेदेषु चेत्येषु षोडशमार्गणाभेदेषु प्रत्येकमित्यर्थः । तत्र सनकुमारादिसहस्रारान्तानां पूर्वसाङ्गतिकैरच्युतकल्पे नीतानां देवानां तत्रैव भवचरमान्तमुहूर्ते प्राप्ते मारणसमुद्घातेन तिर्यग्लोकं यावत् स्पर्शनादूर्ध्वलोके षड् रज्जवः स्पर्शना, तृतीयनरकं यावदधोरज्जुद्वयमपि तत्रगतानां समुद्घातकरणेनेति समस्ताऽष्टौ भागाः स्पर्शना । यद्वाऽष्टावपि रज्जवः स्पर्शना तेषां गमनागमनक्षेत्रापेक्षयैव बोद्धव्या । पद्मलेश्यामार्गणायामपीत्थमेव विभावनीयम् । शेषनवमार्गणास्वपि तथैव,नवरं ज्ञानत्रया-ऽवधिदर्शनौ-पशमिकसम्यक्त्व-मिश्रदृष्टिमार्गणासु गमनागमनं कुर्वतां मिथ्यात्वाभिमुखानामुत्कृष्टस्थितिबन्धं विदधतां देवानां स्पर्शनाऽपेक्षया प्रकृतस्पर्शना बोद्धव्या, न पुनः समुद्घातापेक्षयाऽपि । किं कारणम् ? अभिमुखावस्थाथां मरणस्येव मारणसमुद्घातस्याप्यसम्भवादिति ॥३५३॥ यासु मार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकैस्त्रसनाडयास्त्रयोदश भागाः स्पृष्टास्ताः सङ्ग्रह्याह
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३२० ]
बंधाणे मूलपडिटिबंधो [मार्गणास्वायुर्वजनामुत्कृष्ट स्थिति०
पंचिंदियदुग-तसदुग-पणमणवय काय - विउवेसु ं । पुरिस - चउकसायेसु तिअणाणा - संयमेसु च ॥३५४॥ यणा - Sणयणेस तहा भविये यर - मिच्छ-सण्णि आहारे । तेरभागा छिहि उकोसाएऽत्थि सत्ताहं ॥ ३५५॥
(प्रे०) "पंचिंदियदुगतसदुग" इत्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः, नवरमपर्याप्तपञ्चेन्द्रियाऽपर्याप्तत्र सकायभेदयोः प्राग् गृहीतत्वात् “पंचिंदियदुग" इत्यनेन शेषौ पञ्चेन्द्रियौध-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियमार्गणाभेदौ तथा "तसदुग" इत्यनेन त्रसकायौध- पर्याप्तत्रसकायभेदौ समुच्चितौ । तथा च सति पञ्चेन्द्रियौघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियाद्याहारिपर्यन्तेषु द्वात्रिंशन्मार्गणास्थानेषु सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकैस्त्रयोदश भागाः स्पृष्टा भवन्तीत्यर्थः । एतेषु द्वात्रिंशन्मार्गणाभेदेषु प्रत्येकमोघवदूर्ध्वलोके सप्तरज्जुस्पर्शना ईशानान्तदेवकृता, अधोलोके षड्ज्जुस्पर्शना तु सप्तमनरकनैर विककृता, सप्तमपृथिव्यां नैरयिकतयोत्पित्सुभिः पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भिः कृता वा बोद्धव्या, केवलं नैरयेिकाणां नियमतो नपुंसकवेदितया पुवेदमार्गणायां तिर्यक्कृतैवाथः षड्ज्जुस्पर्शना लभ्यते, तथा वैक्रियकाययोगमार्गणायां वैपरित्येन सप्तमपृथिवीनैरयिककृतैव सा षड्ज्जुस्पर्शना लभ्यते, न पुनस्तिर्यक्कृताऽपीति तत्र मार्गणाद्वये तथा द्रष्टव्येति ।। ३५४-३५५।।
शेषमार्गणासु प्रस्तुतस्पर्शनामेकगाथयाऽऽह
किण्हाईसु कमसो तेरेगार णव फोसिया भागा।
विंति छ चउरो दो ऽण्णे सेसासु जगअसंखंसो ||३५६ ॥
(प्रे०) “किण्हाईसु” मित्यादि, कृष्णादिषु कृष्ण-नील-कापोतलक्षणासु तिसृषु लेश्यामार्गणासु 'क्रमशः ' - यथाक्रमं त्रयोदश, एकादश, नव "फोसिया भागा "त्ति आयुर्वर्जानां सप्तानामुत्क्रुष्टस्थितेर्बन्धकैर्यथोक्तलक्षणास्त्रसनाडीसत्का भागाः स्पृष्टाः । तत्र कृष्णादिषु क्रमेण पड्, चत्वारो द्वौ च तिर्यक्तयोत्पित्सुभिः समुद्घातगतैस्तत्तल्लेश्या कनैरयिकजीवैः कृताऽधोलोकस्पर्शनापेक्षयाऽवसातव्याः, तत्तल्लेश्याकनैरयिकाणामुत्कृष्टतस्तिर्यग् लोकात्पड्रज्ज्याद्यन्तरे सप्तमादिपृथिवीषु वर्तमानत्वात् । यत उक्तम्- 'दुसु काऊ, तइआए काऊनीला य, नील पंकाअ । धूमाअ नीलकिण्हा, दुसु किन्हा हुन्ति लेसाओ' इति । शेषसप्तभागास्तूर्ध्वमीषत्प्राग्भाराभूमौ मारणसमुद्घातेन निक्षिप्तात्मप्रदेशैः स्वस्थानगतैभवनपत्यादिभिर्निर्वर्तितोर्ध्वलोकस्पर्शनापेक्षयाऽवसातव्याः, तदानीं स्वप्रायोग्य सर्वनिकृष्टपारभविकोत्पत्तिस्थानाभिमुखानां तेषां नैरधिकदेवानां सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य सम्भवात् ।
अथ प्रस्तुतमार्गणात्रये महाबन्धकारमते देवा उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनो न भवन्ति । कथम् ? तैरपर्याप्तावस्थाया अन्यत्र देवानामशुभलेश्याया अनङ्गीकारात्, अपर्याप्तावस्थायां सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्या
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मार्गणास्वायुर्वर्जानामुत्कृषस्थिति०] द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[ ३२१ भावाच्च । एवं सति महावन्धकारमते देवकृता ऊलोकसत्का सप्तरज्जुस्पर्शना प्रस्तुतमार्गणारये न प्राप्यते, किन्तु केवला नैरयिककृता षडादिरज्जव एव प्राप्यत इत्यतस्तन्मते प्रस्तुतस्पर्शनां तथैव दर्शयन्नाह-"बिंति छ चउरो” इत्यादि, गतार्थम् । ___अथोक्तशेषमार्गणास्वाह-“सेसासुजगअसंखंसो" त्ति अनन्तरोक्तनिरयगत्योपाद्यकोनचत्वारिंशदधिकशतमार्गणा विहाय शेषास्वेकत्रिंशन्मार्गणासु 'जगतः'-लोकस्यैकोऽसंख्येयतमोशः प्रस्तुतबन्धकः स्पष्टो भवतीत्यर्थः । तत्र शेषमार्गणानामानि त्वेवम्-प्रथमपथिवीनरकभेदः, नव
वेयकदेवभेदास्तथैव पश्चानुत्तरदेवभेदाः, अपर्याप्तभेदवर्जास्त्रयो मनुष्यगतिभेदाः, औदारिकमिश्रवैक्रियमिश्रा-ऽऽहारक-ऽऽहारकमिश्रकाययोगरूपाश्चत्वारो योगमार्गणाभेदाः, अपगतवेद-मनःपर्यवज्ञानभेदौ, असंयमवर्जाः पट संयममार्गणाभेदा असंज्ञिमार्गणाभेदश्चेति ।
___ तत्र मनुष्यत्रिकौ-दारिकमिश्रकाययोग-वैक्रियमिश्रकाययोग-देशसंयम-ऽसंज्ञिमार्गणावजेशेषचतुर्विंशतिमार्गणासु प्रत्येकं जीवानां स्वस्थान-गमनागमनस्थानानि तथा पारभविकोत्पत्तिस्थानानि च प्रत्येकं तियप्रतरस्यासंख्येयभागमात्रवर्तीनि सन्ति, तथा सति मूलतोऽपि तेषामुत्कृष्टस्पर्शना लोकासंख्येयभागमात्रा प्राप्यते, तत्पुनरुत्कृष्टस्थितिबन्धकानां स्पर्शनायास्तु का वार्ता, अर्थाल्लोकाऽसंख्येयभागादधिकस्पर्शनाया असम्भव एव । न च संयमसामान्यमार्गणागतानां केवलिभगवतां केवलिसमुद्घातमपेक्ष्य सर्वलोकस्पर्शना लभ्यतेति वक्त युज्यते, स्थितिबन्धस्य प्रकृतत्वेन स्थितिबन्धस्वामिनां सम्भवन्मारणसमुद्घाताद्यपेक्षया लभ्यमानायाः स्पर्शनाया एवात्रोपयोगित्वात्, तस्यास्तु यथोक्तप्रमाणत्वाच्चेति । एवं प्रथमनरकभेदेऽप्युक्ताधिकस्पर्शना नाशङ्कया, तस्या अपि प्राङ् निराकृतत्वादिति । मनुष्यौघमार्गणायां तु मारणसमुद्घातकाले नारकतयोपित्सुनामेव मार्गणायां बन्धप्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्य सम्भवाल्लोकासंख्येयभागस्पर्शनोक्ता । एवं पर्याप्तमनुष्य-मानुपीमार्गणयोर्योज्यम्, नवरं मानुषीमार्गणायां षष्टनरकाभिमुखीनां मारणसमुद्घातमपेक्ष्य ज्ञेयम् ।
ननु पर्याप्तमनुष्याणां सप्तमनरकमेव स्वप्रायोग्यं सर्वनिकृष्टं पारभविकमुत्पत्तिस्थानम् , तथा च सति भवचरमान्तमुहर्ते तदभिमुखानामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धसम्भवः, नान्येषाम् । इत्थं हि षष्ठपृथिव्यभिमुखीनां स्त्रीणां पर्याप्तमनुष्यत्वेनोत्कृष्टस्थितिबन्धः कथं भवेद् ? इति चेद् , उच्यते, षष्ठनरकेऽपि सप्तमनरकवत् कृष्णलेश्याया एव सद्भावात् पष्ठसप्तमपृथिव्यभिमुखजीवानां स्थितिबन्धस्वामित्वविषये न कश्चिद्विशेषः, षष्ठपथिव्यभिमुखानां नरकप्रायोग्यं बध्नतामपि कृष्णलेश्यत्वेनोत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्यसंक्लेशस्य सम्भवादिति भावः । एवं पञ्चमपथिव्यभिमुखानां स्थितिबन्धस्वामित्वविषयेऽपि विज्ञेयम् , न पुनरन्येषु नरकभेदष्वेवं सम्भवति, तदभिमुखानां कृष्णेतरलेश्यत्वात्। अत एव नरकगति-नरकानुपूर्वीप्रकृतिद्वयस्योत्कृष्टा स्थित्युदीरणाऽधस्तनपथिवीत्रय एव प्रत्यग्रोत्पन्नानां नारकाणां दर्शिता, न त्वन्यपृथिवीगतानां नारकाणाम् । उक्तश्च कर्मप्रकृतिचूर्णी
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३२२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वीनामनुत्कृष्टस्थिति० 'णिरयगतिणिरयाणुपुव्वीणं तिरियो वा मणुयो वा उक्कोसं ठितिं बंधित्ता हेट्ठिल्लाणं तिण्डं पुढवीणं अण्णयराए उवत्रपणो तस्स पढमसमयाउ आढत्तं जाव आवलिया ताव उकोसा ठितीउदीरणा णिरयगतीए भवति । एवं णिरयाणुपुवीए वि । णवरि तिण्णि समया उक्कोसा ठितीउदीरणा होति ।' इत्यादि।
औदारिकमिश्रकाययोगमार्गणायां तु स्वस्थानगतानां करणापर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेवोस्कृष्टस्थिति रन्धो जायते, न पुनर्लब्ध्यपर्याप्तानामपीतिकृत्वा लोकाऽसंख्येयभागमात्रा स्पर्शना प्राप्यते, न पुनरधिका । कुतः ? करणापर्याप्तानां स्वप्रायोग्यपर्याप्तीनां समाप्तेरर्वागायुर्वन्धस्याऽसम्भवेन मारणसमुद्घातादेरप्यसम्भवादिति । असंज्ञिमार्गणायां तु प्रथमनरकभेददिभावनीयम् , केवलं स्वस्थानोत्पत्तिस्थानानां वैपरीत्येनेति । वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणायां हि देवानां वर्तमानभवसत्कोत्पत्तिस्थानप्रमाणैव स्पर्शना प्राप्यते । कुतः ? तदानीमपर्याप्तावस्थायां गमनागमनस्याऽभावात् , उत्पत्तिस्थानानि तु तेषां व्यन्तरदेवज्योतिष्कदेवानधिकृत्यापि प्रतरसंख्येयभागमात्रगतानि, शेषाणां तु ततः स्वल्पस्वल्पतराण्येव, अतः स्पर्शनाऽपि तेषां लोकासंख्यभागमात्रोक्ता । देशसंयममार्गणायामपि मिथ्यात्वाभिमुखानां सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धकानां देशविरतानां तदानीं मिथ्यात्वाभिमुखावस्थायां मरणस्येव मारणसमुद्घातस्याप्यसम्भवात् प्रकृतस्पर्शना स्वस्थानक्षेत्रमपेक्ष्य लोकस्याऽसंख्येयभागप्रमाणैव दर्शितेति ।।३५६।।
___ तदेवयुक्ताऽऽयुर्वर्जससकर्मणामुत्कृष्टस्थितेबन्धकानां स्पर्शना विभागतोऽपि । इदानीं तेषामेव सप्तानामनुत्कृष्टरिथतेर्बन्धकानां स्पर्शनौघतः प्रागुक्तेतिकृत्वाऽऽदेशतो व्याचिकीपुलाघवार्थ कतिपयमार्गणास्वतिदेशद्वारेणैवाह
सव्वणिरय-सुर-विउवा-ऽहारदुग-अवेअ-णाणचउगेसु। जइ-समइअ-छेएसुपरिहारम्मि सुहुमोहीसु॥३५७॥ सुहलेस-सम्म-वेअग-खइ-उवसम-मीस-सासणेसु य ।
सत्तण्ह होज फुसणा अगुरुठिईए गुरुठिइब्व ॥३५८॥ (प्रे०) “सव्वणिरयसुरे"त्यादि, नरकगत्योध-प्रथमनरकादिषु सासादनान्तासु साधंगाथया सङ्ग्रहीतासु द्विपष्ठिमार्गणासु प्रत्येकमायुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां स्पर्शना तत्तन्मार्गणासु प्राग्दर्शितसप्तप्रकृतिसत्कोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकनां स्पर्शनावदेव भवतीति संक्षेपार्थः । विस्तरार्थस्त्वेवम्-नरकगत्योधभेदे, सप्तमनरकभेदे,आनत-प्राणता-ऽऽरणा-ऽच्युतकल्परूपेषु चतुर्यु देवगतिभेदेषु, शुक्ललेश्यामार्गणाभेदे च प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धकादिजीवविशेषाननपेक्ष्य सामान्यतः सर्वनारकादिजीवैः कृता स्पर्शनाऽप्युत्कृष्टतस्त्रतनाडीसत्काः षट् चतुर्दशभागा एव भवति । प्रथमनरकभेदे,नवसु | वेयकविमानभेदेषु, पञ्चष्वनुत्तरविमानभेदेपु, वैक्रियमिश्रकाययोगा-ऽऽहारककाययोगा-ऽऽहारकमिश्रकाययोगेषु, तथाऽपगतवेद-मनःपर्यवज्ञान-संयमोघ-सामायिकसंयम-छेदोप
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मार्गणास्वायुर्वर्जानामनुत्कृष्टस्थिति० ] द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[३२३ स्थापनसंयम--परिहारविशुद्धिकसंयम-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणासु च प्रत्येकं सा उत्कृष्टस्पर्शना लोकासंख्येयभागमात्रा सम्पद्यते । द्वितीयनरकभेदे तु सा उत्कृष्टतोऽपि सनाडीसत्क एकश्चतुदेशभागः, तृतीयपथिवीभेदे द्वौ चतुर्दशभागौ, चतुर्थपृथिवीभेदे त्रयश्चतुर्दशभागाः, पञ्चमपथिवीभेदे चत्वारश्चतुर्दशभागाः, षष्ठपृथिवीभेदे पश्च चतुर्दशभागा उत्कृष्टा स्पर्शना प्राप्यते । देवगत्योधमार्गणायामीशानान्तेषु पञ्चसु देवगत्युत्तरभेदेषु तेजोलेश्यामार्गणायां च प्रत्येकमुत्कृष्टा स्पर्शना त्रसनाडया नव चतुर्दशभागा अवाप्यते । सनत्कुमारादिसहस्रारान्तेषु षट्षु देवगतिभेदेषु मति-श्रुताऽवधिज्ञाना-ऽवधिदर्शन-पनलेश्या-सम्यक्त्वौघ-क्षायिक-क्षायोपशमिकौ-पशमिक-मिश्रदृष्टि रूपेषु दशमार्गणाभेदेषु च प्रत्येकं सा उत्कृष्टतोऽपि सनाडीसत्का अष्ट चतुर्दशभागाः प्राप्यते । वैक्रियकाययोगमार्गणायां त्रयोदश चतुर्दशभागाः, एकरज्जुवृत्तविस्तृतत्रयोदशरज्जूचक्षेत्रसम्बन्धिनी स्प शनेत्यर्थः । सासादनमार्गणायां तु तादृश्यो द्वादश रज्जवः स्पर्शनोत्कृष्टतोऽपि लभ्यते । एषा तत्तन्मार्गणासु सामान्यतो लभ्यमानोत्कृष्टस्पर्शनेव द्विषष्टिमार्गणाभेदेष्वपि प्रत्येकं सप्तकर्मणामनुत्कृष्टस्थितेवन्धकानामप्युत्कृष्टतः प्राप्यते । कुतः ? सप्तकर्मणामनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य तत्तन्मार्गणागतैः सवजीवनिवर्तनात् , प्रायशः सर्वावस्थायां भावाच्चेति ।
ननु न केवलमेतेपु मार्गणामेदेष्वेष प्रकारः, किन्तु सर्वेषु मार्गणाभेदेषु मार्गणागतजीवैाहुल्येन सर्वावस्थायां सप्तानामनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध एव निर्वय॑ते, अतः सर्वमार्गणाभेदेषु यावत्युत्कृष्टस्पर्शना लभ्यते तावती सप्तकर्मणामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां द्रष्टव्या भवति, तत्कथमेतावत्सु मार्गणाभेदेष्वेव तथोच्यते ? इति चेत् , सत्यम् , यतोऽन्यमार्गणाभेदेष्वपि तथैव दर्शयिष्यते; नवरं लाघवार्थमेतेषूत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां स्पर्शनायास्तुल्यवक्तव्यत्वात् तथैवातिदिष्टेति ॥३५७-३५८।। उक्तशेपमार्गणाभेदप्वेकगाथया प्रकृतस्पशेनामाह
देसम्मि पंच भागाऽणुक्कोसाए ठिईअ सत्तण्हं ।
छिहिओ हवेज्ज सव्वो सेसासुफोसिओ लोगो ॥३५९॥ (प्रे०) "देसम्मि” इत्यादि, देशसंयममार्गणायां सप्तकर्मणामनुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकैस्वसनाडीसत्का पञ्च चतुर्दशभागाः स्पृष्टा भवन्ति । उक्तशेषासु तु सप्तोत्तरशतमार्गणासु सर्वो लोकः स्पष्टः, सप्तकर्मणामनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकैरित्यनुवर्तते । इत्यक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयम्-देशसंयममार्गणायांमा रणसमुद्घातेन तिर्यग्भिः सहस्रारकल्पं यावत् स्पर्शनात् तिर्यग्लोकादारभ्य सहस्रारकल्पपर्यन्ता या सनाडथन्तर्वर्तिपञ्चरज्जुक्षेत्रप्रमाणा स्पर्शना सैवदेशविरतिमार्गणायामुत्कृष्टस्पर्शना, सैव प्राग्वदनुत्कृष्टस्थितिबन्धकानामपीति पञ्च भागा उक्ताः । उक्तशेषमार्गणासु पुनः प्रत्येकं सूक्ष्मसाधारणवनस्पतिकायतयोत्पित्सुभिजीवैारणसमुद्घातेन सर्वो लोकः स्पश्यते, तथा च सति तासु प्रत्येकमुत्कृष्टस्पर्शनाऽपि सम्पूर्णलोकोऽवाप्यते, सैव पूर्ववदनुत्कृष्टस्थितिबन्धकानामपीति ।
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बंधविहाणे मूलप डिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुष उत्कृष्टस्थिति०
शेषमार्गणास्त्विमाः– पञ्चापि तिर्यग्गतिभेदाः, तथैव चत्वारोऽपि मनुष्यगतिमार्गेणाभेदाः, एकोनविंशतिरपीन्द्रियमार्गणाभेदाः, द्विचत्वारिंशदपि कायमार्गणासत्कभेदाः, पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, काययोग सामान्यौ-दारिककाययोगौ-दारिकमिश्रकाययोग-कार्मणकाययोग - स्त्रीवेद-वेद-नपुंसकवेद-क्रोधादिचतुः कषाय--मत्यज्ञानादित्र्यज्ञाना-- ऽसंयम-चक्षु-रचक्षुर्दर्शनकृष्ण-नील- कापोतलेश्या-भव्याऽभव्य मिध्यात्व-संज्ञेय - ऽसंज्ञयाऽऽहार्य ऽनाहारिमार्गणाश्चेति । ३५९ | तदेवमुक्ता सप्तकर्मणामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकस्पर्शनाऽप्यादेशतो मार्गणास्थानेषु । साम्प्रतं प्रागोघत उक्तेतिकृत्वाऽऽयुर्विषयामपि तामादेशतो चिकथयिपुरादावुत्कृष्ट स्थितेर्बन्धकानामाहआस्स बंगेहिं देव सहस्सारअंत-विवेसु । उक्कोसाअ टिईए भागा आलु खिआ अड्ड || ३६०॥
३२४ ]
(प्रे० ) " आउस बंधगेहिं" इत्यादि, देवगत्योघ - भवनपत्यादिषु सहस्रारकल्पान्तेषु द्वादशदेवगतिभेदेषु वैक्रियकाययोगे च प्रत्येकमायुष उत्कृष्टायाः स्थितेर्यन्धकैरष्टौ चतुर्दशभागाः "आलु खिआ" ति 'स्पृशः फास- फंव-फरिस - छिव- छिहा- ऽऽलुङ्खाऽऽलिहाः' ( सिद्धम० ८ | ४ | १८२ ) इत्यनेन सूत्रेण स्पृशः 'आउङ्ख' इत्यादेशः, ततः स्पृष्टा इत्यर्थः । इयमत्रोपपत्तिःक्षेत्रप्ररूपणावत् स्पर्शनाप्ररूपणायामध्यायुषः स्थितिबन्धकानां मारणसमुद्घातप्राप्ता स्पर्शना नैव युज्यत इति प्रागेवभिहितम्, तथा सति मारणसमुद्घातप्राप्यस्पर्शनां विहाय या स्वस्थानगमनागमनक्षेत्रापेक्षया स्पर्शना प्राप्यते, तदपेक्षया चिन्त्यमाना प्रकृतत्रयोदशमार्गेणासु प्रत्येकमष्टौ रज्जव उत्कृष्टस्पर्शना प्राप्यते । कथम् ? भवनपत्यादिदेवानामधस्तृतीयां पृथिवीं यावदुपरि चाच्युतकल्पं यावद्गमनागमनयोरभिमतत्वात् तदानीमुत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धस्यापि सम्भवाच्चेति || ३६० || प्रकृतस्पर्शनामेवान्यत्राह -
छिविआ होज्ज छ भागा चउसु देवेसु आणताईसु । देसूणजगं पुटुं बायरअसमत्तवाउम्मि || ३६१ ||
(१०) "छिविआ होज्ज” इत्यादि, प्रकृतैरायुप उत्कृष्टस्थितेर्वन्कैस्त्रसनाड्या पट् चतुदर्शभागाः स्पृष्टा भवन्ति । कियन्मार्गणाभेदष्वित्याह - "चउसु" इत्यादि, आनत - प्राणता-ऽऽरणाऽच्युतकल्परूपेषु चतुर्ष्यानतादिषु देवगतिसत्कमार्गणाभेदेष्वित्यर्थः । सुगमं चैतद्, यत आनतकल्पादिसुराणामूर्ध्वमच्युतकल्पं यावद्गमनेऽप्यवस्तिर्यग्लोकात् परतोऽगमनात् सहस्त्रारान्तदेवचन्नाष्ट रज्जुस्पर्शना, किन्तु षड्ज्जव एव । शेषं त्वनन्तरोक्त सहस्त्रारान्तदेवमार्गणास्थानवदेव भावनीयमिति । "देसूणजगं पु" मिति, प्राग्वदायुष उत्कृष्ट स्थितेर्बन्धकै ' दे' शोनम्' - असंख्येयतमेनैकभागेनोनं जगत् स्पृष्टं भवतीत्यर्थः, । कस्यां मार्गणायामित्याह - "बायर असमत्तवाउम्मि" त्ति अपर्याप्त
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मार्गणास्वायुष उत्कृष्टस्थिति०] द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[ ३२५ बादरवायुकायमार्गणायामित्यर्थः । कुतः ? स्वस्थानमपेक्ष्योत्कृष्टस्पर्शनायास्तावन्मात्रत्वादिति ॥३६१॥ शेपमार्गणास्वेकया गाथयाऽधिकृतस्पर्शनामाह
सब्वेसु सुहुमेसु लोगो सब्बो वि फासिओ होज्जा।
सेसास होइ छिविओ असंखभागो उ लोगस्स ॥३६२॥ (प्रे०) “सव्वेसु” इत्यादि, औध-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नेष्वेकेन्द्रियपृथिव्यादिसम्बन्धिघष्टादशसंख्याकेषु सर्वेष्वपि सूक्ष्मजीवभेदेषु, प्रकृतत्वादायुष उत्कृष्टस्थितेर्वन्धकैलोकः सर्वोऽपि स्पष्टः, न पुनरपर्याप्तबादरवायुकायवदेकदेशेनोन इत्यपिशब्दार्थः । कुतः ? सूक्ष्मजीव दानां प्रत्येकं स्वस्थानापेक्षयाऽपि सर्वलोकव्यापित्वादिति । ___ "सेसासु" ति अनन्तरोक्तदेवगत्योधमार्गणाया आरभ्य सर्वसूक्ष्मपर्यन्ताः षट्त्रिंशन्मार्गणास्त्यक्त्वा शेषासु यास्वायुर्वन्धो भवति तासु सप्तविंशत्यभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । शेषमार्गणा नामत इमाः-अष्टावपि नरकगतिभेदाः, पश्चापि तिर्यग्गतिभेदाः, चत्वारोऽपि मनुष्यगतिभेदाः, नव ग्रैवयकविमानभेदाः, पञ्चानुत्तरविमानभेदाः, इत्येवमेकत्रिंशद्गतिमार्गणासत्कभेदाः। एकेन्द्रियोघ-बादरैकेन्द्रियोघ-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदाः, विकलेन्द्रियसत्का नव भेदाः, पञ्चेन्द्रियसत्कास्त्रयो भेदाः, इत्येवमिन्द्रियमार्गणासत्काः षोडश भेदाः । पृथिवीकायसत्का ओघ-बादरौघ-तत्पर्याप्ताऽपर्याप्ता इत्येवं चत्वारोभेदाः, एवमेवाप्कायसत्कचतुर्भेदाः, तेजस्कायसत्कचतुर्भेदाः, वायुकायसत्कास्तु बादरापर्याप्तवर्जास्त्रयो भेदाः,साधारणवनस्पतिकायसत्कास्तु चत्वारोऽपि,वनस्पतिकायौघमागंणाभेदः, प्रत्येकवनस्पतिकायसत्कास्त्वोव-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नास्त्रयः, एवं त्रसकायसत्का अपि त्रयो भेदा इत्येवं षडविंशतिः कायमार्गणासत्कभेदाः । पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, काययोगसामान्यो-दारिकौ-दारिकमिश्रा-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगा इत्येवं पञ्चदशयोगमार्गणासत्कभेदाः, तथा त्रिवेद-चतुःकषाय--चतुज्ञान-व्यज्ञान--सूक्ष्मसम्परायवर्जपटसंयमभेद-त्रिदर्शन--पल्लेश्या-भव्याऽभव्य-सम्यक्त्वोध-क्षायिक-क्षायोपशमिक-सासादन-मिथ्यात्व-संध्य-ऽसंड्या-ऽऽहारिमार्गणाश्चेति ।
एतासु सप्तविंशत्युत्तरशतशेषमार्गणासु किमित्याह-"होइ छिविओ" इत्यादि, एतासु प्रत्येकमायुष उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां तत्प्रायोग्योत्कृष्टसंक्लिष्टानां जीवानां स्वस्थानक्षेत्र लोकाऽसंख्येयभागमात्रमत उक्तनीत्या स्पर्शनापि तावन्मात्रा लोकासंख्येयभागमानवेत्यर्थः । न चैकेन्द्रियादिकतिपयमार्गणासु आयुष उत्कृष्ट स्थितिवन्धः पूर्वकोटिवर्षप्रमाणः, स च तत्तन्मार्गणागतैः सूक्ष्मैकेन्द्रियैरपि निर्वतयितुं शक्यते, ते च सूक्ष्मैकेन्द्रियाः स्वस्थानक्षेत्रमपेक्ष्यापि सर्वलोकव्यापिनस्तत्कथं तास्वेकेन्द्रियादिमार्गणास्वपि प्रकृतस्पर्शना लोकासंख्येयभागमात्रोच्यत इत्याशङ्कयम् । यतोत्र कर्मरूपतावस्थानलक्षणः स्थितिवन्धोऽधिकृतः, स चोत्कृष्टाऽवाधासमेतोत्कृष्टनिषेककालप्रमाणः सन्नुस्कृष्टस्थितिकैरेकेन्द्रियादिजीवैरेव निवर्तयितुं शक्यते, देव-निरयभेदवर्जासु मार्गणामत्कृष्टाबाधाया
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३२६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्टस्थिति० उत्कृष्टभवस्थितिसव्यपेक्षत्वात् । एकेन्द्रियादिमार्गणासूत्कृष्टायुष्कजीवा न सूक्ष्मा अपर्याप्ता वा, किन्तु खरवादरपृथिवीकायादिरूपाः; तेषां चोत्कृष्टमपि स्वस्थानक्षेत्रं लोकासंख्येयभागमात्रमतः स्पर्शनाऽपि तावन्मात्रेतिकृत्वा तथैवोच्यते ।
अत्र हि वादरापर्याप्तैकेन्द्रियमार्गणायामौदारिकमिश्रकाययोगमार्गणायां च प्रत्येकमायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धकानां देशोनलोकव्यापिनामपर्याप्तवादरवायुकायजीवानां समावेशादुत्कृष्टस्पर्शना स्वस्थानक्षेत्रापेक्षयाऽपि देशोनलोकप्रमाणा सम्भवति । अन्यच्च पर्याप्तवादरवायुकायमार्गणायामप्यनया युक्त्या देशोनलोकमिता स्पर्शना वक्तव्या भवति । यद्यप्येवं तथापि उक्ता तु लोकाऽसंख्यभागमात्रा, सा तु पर्याप्तबादरपथिवीकायमार्गणायां यथोत्कृष्टायुष्कजीवाः खरबादरपृथिवीकायिका एव सन्ति, नान्ये, तथैव पर्याप्तवादरवायुकायमार्गणायामप्युत्कृष्टायुष्कजीवाः केचन् धनवातवलयादिगता एव स्युरिति सम्भावनया बोद्धव्या; अन्यथा सर्वत्रगतानां तेषां पर्याप्तबादरवायुकायिकजीवानामप्युत्कृष्टायुष्मत्त्वे तेवामप्युत्कृष्टायाधया लाभाद् उत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धस्य विहितत्वाच्च बादरवायुकायानामुत्कृष्टस्वस्थानप्रमाणोत्कृष्टस्पर्शनाऽपि देशोनलोकः सम्पयेत । तदत्र तन्त्रज्ञैरागमेक्षिकयाऽवलोक्याऽवधारणीयेयमिति ॥३६२।। ___अथाऽऽयुपोऽनुत्कृष्टस्थितेवन्धकानां स्पर्शनां मार्गणास्थानेषु दिदर्शयिपुरादौ तावद्यासु मार्गणासु सा स्पर्शना सर्वलोकप्रमाणा ता मार्गणाः सङ्ग्रह्याह
तिरिये एगिदिय-पणकाय-णिगोएसु सव्वसुहुमेसु। कायु-रलदुग-णपुम-चउकसाय-दुअण्णाण-अयतेसु॥३६३॥ अणयण-असुहतिलेसा-भवि-यियर-ऽऽहार-मिच्छ-अमणेसु ।
सब्बो लोगो छुविओ आउस्स ठिईअ अगुरूए ॥३६४॥ (प्रे०) “तिरिये एगिदिये"त्यादि,तिर्यग्गत्योघभेदे, पृथिवीकायादिवनस्पतिकायान्तेषु पञ्चकायसत्केष्वोषभेदेषु, “निगोएसु” त्ति साधारणवनस्पतिकायोधभेदे, सर्वेष्वष्टादशस्वपि सूक्ष्मैकेन्द्रियादिषु सूक्ष्मभेदेपु तथा "काये” त्यादि, काययोगसामान्यो-दारिको-दारिकमिश्रकाययोगनपुंसकवेद-चतुःकषाय--मत्यज्ञान--श्रुताज्ञाना-ऽसंयममार्गणाभेदेषु, तथा "अणयणे” त्यादि, अचक्षुदर्शना--ऽशुभकृष्णादिलेश्यात्रय--भव्य-तदितराभव्या-ऽऽहारि--मिथ्यात्वा-ऽसंज्ञिमार्गणाभेदेषु चेत्येतेषु पटचत्वारिंशन्मार्गणाभेदेष्वित्यर्थः । एतेषु किमित्याह-"सव्वो"इत्यादि, एतेषु प्रत्येकमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धकानां सूक्ष्मपथिवीकायायन्यतमानां सूक्ष्मजीवानां समावेशात् तेषां स्वस्थानक्षेत्रापेक्षयाऽपि सर्वलोकव्यापित्वाच्चाऽऽयुषोऽनुत्कृष्टायाः स्थितेन्धकैः सर्वो लोकः "छुप्त"स्पृष्ट इत्युक्तमिति गाथाद्वयार्थः ।।३६३--३६४॥
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द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
साम्प्रतं यासु मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्यन्धकैरष्टौ रज्जवः स्पृष्टास्ताः सङ्गृह्याहदेव-मंतर दुपणिंदितस-पणमणवयण- विउवेसु ं । थीम - तिणाण विभंगो-हि- यण- तेउ-पम्हासु ॥ ३६५॥ सम्मत्त-खइअ-वेअग-सासण-सणीसु अट्ट हिप्पीअ ।
मार्गणास्वायुषो ऽनुत्कृष्ट स्थिति० ]
(प्रे०) "देवट्टमंते" त्यादि, देवगत्योघः, सहस्रारकल्पान्ता अन्ये एकादश सुरगतिभेदाः, ओघ-पर्याप्तनेदभिन्नौ द्वौ पञ्चेन्द्रियमार्गणाभेदौ द्वौ सकायमार्गणाभेदौ च पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, वैक्रियकाययोग भेदश्चेत्येतेषु तथा “थोपुमे "त्यादि, स्त्रीवेदपुरुषवेद- मतिज्ञान - श्रुतज्ञाना ऽवधिज्ञान- विभङ्गज्ञानाऽवधिदर्शन--चक्षुर्दर्शन- तेजोलेश्या-पद्मलेश्यामार्गणासु, तथा“सम्मत्ते”त्यादि, सम्यक्त्वौघ - क्षायिक- क्षायोपशमिक-सासादन-संज्ञिमार्गणासु चेत्येतासु द्विचत्वारिंशन्मार्गणासु प्रत्येकम्, “अड छिप्पीअ" त्ति अष्टौ रजवोऽस्पृश्यन्त, आयुषो - ऽनुत्कृष्टस्थितेर्यन्धकैरिति प्रकरणागम्यते । अत्र हि भवनपत्यादिदेवानामच्युतकल्पादारभ्याधस्तुतीयभूमिं यावद् यद् गमनागमनक्षेत्रं तदपेक्षयाऽष्टौ रज्जव: स्पर्शना प्राग्वदवसातव्या ।
[ ३२७
न च पञ्चेन्द्रियत्वादिभावानां तृतीयभूमेः परतोऽधस्तननारकेष्वपि सत्त्वादधिकस्पर्शनाऽपि लभ्येतेति वाच्यम् । आयुर्वन्धकानां स्पर्शनायाः स्वस्थानक्षेत्रापेक्षया गमनागमनक्षेत्रापेक्षया वा लाभात् नारकाणां स्वस्थानक्षेत्र गमनागमन क्षेत्रयोर्लोकासंख्येयभागमात्रत्वाच्च साऽष्टौ रज्जयः स्पर्शना न कयाचिदेकादिरज्ज्वाऽधिका लभ्यते, लोकासंख्येयभागस्पर्शना तु यत्र केवलं तावन्मात्रा तत्र प्रदश्यते, नान्यत्र, अन्यथा एषा देवानामष्टरज्जुस्पर्शनाऽपि देशेनोनैव वक्तव्या भवेत् । कुतः ? तिर्यक् स्वयम्भूरमणसमुद्रवेदिकायाः परभागेषु भवनपत्यादिदेवानामनुत्पादात् । उक्तं च लोकप्रकाशतृतोयसर्गे भवनपत्यादीनां तैजस शरीरस्योत्कृष्टावगाहनां भावयद्भिः श्रीमद्विनयविजयविवुधवरैः
I
'तिर्यक् स्वयम्भूरमणापरान्तवेदिकावधि । ऊर्ध्वं तथेषत्प्राग्भारापृथिव्यूर्ध्वतलावधि ||५८|| एतावदन्तं पृथिवीकायत्वेन समुद्भवात् । ततः परं च पृथिवीकायादीनामसम्भवात् ||५९||' इति । इत्थं हि लोकासंख्येयभागरूपेणैकदेशेन न्यूनताऽधिकता वाsत्र ग्रन्थे विस्तरभयात्स्फुटं नोक्ता, सा स्तननरकाद्यपेक्षया लभ्यमानाऽलभ्यमाना वा यथासम्भवं स्वयमेव योज्या ।
भवतु स्त्रीवेदवर्जा देवगत्योघाद्येकचत्वारिंशन्मार्गणासु प्रस्तुतस्पर्शनाऽष्टौ रज्जवः, न पुनः स्त्रीवेदमार्गणायां सा सङ्गतिमङ्गति, 'उबवाओ देवीणं कप्पदुगं जा परओ सहस्सारा । गमणागमणं नत्थी अच्चुअपरओ सुराणं पि' इति वचनेन भवनपत्यादिदेवानामूर्ध्वमच्युतकल्पं यावद् गमना - ssगमनस्य विहितत्वेऽपि देवीनां तस्य सहस्रारकल्पात् परतः प्रतिषिद्धत्वाद् ? इति चेत्, सत्यम्, किन्तु न एवमेव, यतोऽन्यत्र देवीनां गमनमूर्ध्वमच्युतकल्पं यावदभिमतम्, तथा
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३२८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषोऽनुःकृष्टस्थिति चाभाणि कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिङ्गवैयेंगशास्त्रस्वोपज्ञवृत्तौ
'उत्पत्तिर्देवीनामा ईशानात्, गमनं च आ अच्चुतात् ।" __एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रेऽपि कथितम् , यत्
"भा ऐशानात् समुत्पत्तिर्देवीनां गतिराच्युतात्” इति । इत्थं स्त्रीवेदमार्गणायामुक्ताष्टरज्जुस्पर्शना ना सङ्गतेति ॥३६५॥ अथान्यत्र प्रस्तुतस्पर्शनामाह
परिफोसिआ छ भागा चउआणतआइसुइलासु॥३६६।। (प्रे०) “परिफ सिया" इत्यादि, परिस्पृष्टाः पड भागाः'-रज्जवः । केषु मार्गणाभेदेष्वित्याह-“वउआण." त्यादि, चतुर्बानतकल्पादिदेवगतिभेदेषु शुक्कलेश्यामार्गणायां चेत्यर्थः । सुगमं चैतत् , आनतादिदेवानां तिर्यग्लोकादधो नारकनिवासेष्वगमनात् , शुक्कलेश्यायामप्यानतादिदेवापेक्षयवोत्कृष्टस्पर्शनाया लाभाच्चेति ॥ शेषमार्गणास्वेकयाऽऽर्ययाऽऽयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेबन्धकस्पर्शनामाह
देसूणजगं वायरएगिदियवाउसव्वभेएस्।
सेसासु असंखयमो भागो लोगस्स छुहिओऽथि ॥३६७॥ (प्रे०) “देसूणजगं" इत्यादि, ओघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु सर्वेषु बादरैकेन्द्रियभेदेषु, सर्वेषु बादरवायुकायभेदेषु च प्रत्येकं बादरपर्याप्त-वादरापर्याप्तान्यतरवायुकायजीवानां समावेशात् तेषां स्वस्थानतोऽपि देशोनलोकव्यापित्वाच्च प्रस्तुतस्पर्शनाऽपि "देसूणजगं" ति देशोनं जगल्लभ्यत इति । “सेसासु" त्ति तिर्यग्गत्योघाद्या अनन्तरोक्ता नवनवतिमार्गणा विहाय शेषासु चतुःषष्टिमार्गणासु प्रत्येकम् "असंखयमो” त्ति लोकस्याऽसंख्यतमो भागः स्पृष्टोऽस्ति, आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेवन्धकैरिति गम्यते । चतुःषष्टिशेषमार्गणास्तु नामत इमाः-नरकौघ-सप्तनरकपृथिवीभेदाः, चत्वारस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदाः, चत्वारो मनुष्यगतिभेदाः, नव ग्रेवयकभेदाः, पञ्चानुत्तरभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियमार्गणाभेदः, ओघपर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नास्त्रयो बादरपथिवीकायभेदास्तथैव त्रयो बादराप्कायभेदास्त्रयो बादरतेजस्कायभेदास्त्रयः प्रत्येकवनस्पतिकायभेदास्त्रयो बादरसाधारणवनस्पतिकायभेदास्तथाऽपर्याप्तत्रसकायमार्गणाभेदः, आहारककाययोगा-ऽऽहारकमिश्रकाययोग--मनःपर्यवज्ञान-संयमौघ-सामायिकछेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक-देशसंयममार्गणाभेदा श्चेति । एतेषु चतुःषष्टिमार्गणाभेदेष्वन्यतममार्गणाभेदेऽपि स्वस्थानक्षेत्रापेक्षया गमनागमनक्षेत्रापेक्षया वा लोकासंख्येयभागादधिकस्पर्शनाऽऽक्षेपकानां सूक्ष्मैकेन्द्रियाणां पर्याप्तापर्याप्तवादरवायुकायिकानामच्युतकल्पान्तानां देवानां वा प्रवेशाभावात् स्पर्शनाऽपि लोकासंख्येयाभागादधिका नैव सम्पद्यते, अतोऽन्यविकल्पानुपेक्ष्य मार्गणाप्रविष्टजीवानां स्वस्थानक्षेत्रापेक्षया लोकासंख्येयभागमात्रा स्पर्शना दर्शितेति ।।३६७॥
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मार्गणास्वायुर्वर्जानां जघन्यस्थिति०] द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[३२९ तदेवमुक्ताऽष्टानामपि मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्बन्धकानां स्पर्शनौधत आदेशतश्च । साम्प्रतं जघन्याजघन्यस्थित्योर्वन्धकस्पर्शनाप्रदर्शनावसरः, तत्रादौ तावदोघतो व्याजिहीर्ष राह
सत्तण्ह असंखंसो जगस्स हस्साअ फोसिओ सम्बो।
लोगो अजहण्णाए आउस्स ठिईण दोण्हमवि ॥३६८॥ (प्रे०) “सत्तण्हे" त्यादि, पदानां यथायथं योजनात् सप्तानामायुर्वानां ज्ञानावरणादिप्रकृतीनां ‘ह्रस्वायाः' -जघन्यायाः स्थितेर्बन्धकै जगतः' - लोकस्य 'असंख्याशः'-असंख्यतमैकभागः स्पष्ट इत्यर्थः । कथम् ? क्षपकश्रेणिगतैर्महर्षिभिरेव ज्ञानावरणादिसत्कौधिकजघन्यस्थिकिवन्धस्य निर्वर्तनात् तेषां मारणसमुद्घातादेरसम्भवाच्चेति । “सव्वो लोगो” इत्यादि, सप्तप्रकृतीनामजघन्यायाः स्थितेरायुषो “दोण्हमवि" ति जघन्याऽजघन्यो योरपि स्थित्योर्बन्धकैः प्रत्येक सर्वो लोकः स्पष्ट इत्यर्थः । तत्र सप्तकर्मणामजघन्यस्थितेर्बन्धकानां सर्वलोकस्पर्शना सुगमा । आयुषो जघन्याजघन्यन्यस्थित्योर्वन्धकाः सूक्ष्मैकेन्द्रिया अपि भवन्तीति तत्रापि सर्वलोकस्पर्शनैव लभ्यते, सूक्ष्मैकेन्द्रियाणां स्वस्थानक्षेत्रतोऽपि सर्वलोकव्यापित्वादिति ॥३६८॥ अथादेशतो विभणिपुरादावायुर्वर्जसप्तकर्मणां जघन्यस्थितेर्बन्धकानां स्पर्शनामाह
एगिदिय-वाऊसुतेसिं सव्वेसु बायरेसु च । तिरि-युरलमीस-कम्मण-दुअणाण-ऽयत-कुलेसासु॥३६९॥ अभविय-अमणेसुतहा मिच्छा-ऽणाहारगेसुदेसूणो।
लोगो जहण्णगाए ठिईअ सत्तण्ह छिप्पीअ ॥३७०॥ (प्रे०) “एगिदिये"त्यादि, एकेन्द्रियौघ-वायुकायौघभेदो तयोस्तथा "तेसिं सव्वेसु बायरेसु” ति तयोरेकेन्द्रियवायुकाययोर्ये बादरौघ-तत्पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्नाः सर्वे बादरभेदास्तेषु, बादरैकेन्द्रियौघ-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदेषु बादरवायुकायौघ-तत्पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदेषु चेत्यर्थः । चकार उक्तानुक्तमार्गणाभेदानां समुच्चये । तत्रानुक्तमार्गणाभेदानाह-"तिरियुरले 'त्यादिना, तिर्यग्गत्योघौ-दारिकमिश्रकाययोग-कार्मणकाययोग-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयममार्गणाभेदेषु "कुलेसासु" ति दुर्गतिनिवन्धनत्वात् कुत्सितासु-अप्रशस्तासु कृष्ण-नील-कापोताख्यासु तिसृषु कुलेश्यामागंणास तथा "अभविये" त्यादि, अभव्यमार्गणायामसंज्ञिमागेणायां मिथ्यात्वमार्गणायामनाहारिमार्गणायां चेत्यर्थः । एतेष्वेकविंशतिमार्गणाभेदेषु किमित्याह-"देसूणो लोगो" इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां जघन्यायाः स्थितेर्देशोनो लोकोऽस्पृश्यत, बन्धकै- . रिति शेषः । एषा हि देशोनलोकस्पर्शना येषु मार्गणास्थानेषु पर्याप्तवादरवायुकायजीवाः प्रविष्टास्तेष्वपर्यातबादरैकेन्द्रियाऽपर्याप्तवादरवायुकायमार्गणाभेदवर्जेष्वेकानविंशतिमार्गणास्थानेषु पर्याप्तसंज्ञि
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३३० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानां जघन्यस्थिति० पञ्चेन्द्रियतयोपित्सूनां मारणान्तिकसमुद्घातेन तिर्यग्लोकं यावन्निक्षिप्तस्वात्मप्रदेशदण्डानां स्वस्थानस्थितानां वा पर्याप्तवादरवायुकायानामु-कृष्टस्पर्शनापेक्षया भावनीया । अपर्याप्तबादरैकेन्द्रियाऽपर्याप्तबादरवायुकायमार्गणाद्वयेऽपि तथैव, नवरं तथाविधानामेवापर्याप्तवादरवायुकायिकानामुत्कृष्टस्पर्शनापेक्षयेति विशेष इति ॥३६९-३७०॥ यत्र प्रस्तुतस्पर्शनाऽटौ रज्जवस्तत्र तथैवाह
अट्ट परिसिआ भागा जोइसपहुडीसु अट्ठमंतेसु।
देवेसु विउव-सासण-मीसेसु हुन्ति णायव्वं ॥३७१॥ (प्रे०) “अट्ठ परिसिआ” इत्यादि, ज्योतिष्कप्रभृतिष्वष्टमसहस्रारकल्पान्तेषु "देवेसु" देवगतिमार्गणाभेदेषु, वैक्रियकाययोग-सासाइन-मिश्रदृष्टिमार्गणाभेदेषु चाप्टौ भागाः स्पृष्टा भवन्तीति ज्ञातव्यम् । सप्तकर्मणां जघन्यस्थिनेन्धकैरिति त्वनुवृत्या द्रष्टव्यम् । भावना तु प्राग्वत् सहस्रारकल्पान्तानां देवानां गमनागमनप्राप्त पर्शनापेक्षयैव कर्तव्या, न त्वीपत्प्राग्भारापृथिव्यामेकेन्द्रियतयोपित्मनां समुद्घातकृतस्पर्शनापेक्षया, तदानीं स्वप्रायोग्यसर्वनिकृष्ट स्थानाभिमुखतया तेपामीशानान्तदेवानां जघन्यस्थितिबन्धाभावादिति ।।३७१॥ अन्यत्राधिकृतस्पर्शनामाह
छ फरिसिआ खलु भागा चउसु देवेसु आणताई।
सब्बेसुसुहमेमु सव्वो होज्ज फुसिओ लोगो ॥३७२॥ (प्रे०) "छफरिसिआ” इत्यादि, “सव्वेसु सुहमेसु” इत्यादि, च सुगमम् । केवलं षडभागास्तिर्यग्लोकादारभ्याच्युतकल्पपर्यन्ता ऊलोकसम्बन्धिन इति ॥३७२॥ उक्तशेपमार्गणास्वार्याधैनाह
सेसासु जहण्णाए असंखभागो जगस्स उ फरिसिओ। (प्रे०) “सेसासु जहण्णाए” इत्यादि, अनन्तरमेव “एगिदियवाउसु" मित्यादिगाथाचतुष्कोक्तग्रस्तुतस्पर्शनाः पञ्चपञ्चाशन्मार्गणा विवर्य शेषासु नरकगत्योघादिषु पञ्चदशोत्तरशतमार्गणासु "जहण्णाए" ति सप्तप्रकृतीनांजघन्याः स्थितेः, बन्धकैरिति गम्यते। तैः किमित्याह-"असंखभागो” इत्यादि, सुगमम् । नामतस्तु शेषमार्गणा अमू:--अष्टौ नरकगतिभेदाः, चत्वारः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, चत्वारोपि मनुष्यगतिभेदाः, देवगत्योघ-भवनपति-व्यन्तर-नवग्र वेयक-पश्चाऽनुत्तररूपाः सप्तदश देवगतिमार्गणाभेदाः, विकलेन्द्रियसत्का नव भेदाः, पञ्चेन्द्रियसत्कास्त्रयः, पृथिवीकाया-ऽकाय-तेजस्काय-वनस्पतिकायरूपाचत्वार औघमार्गणाभेदाः, तथा बादरपृथिव्यप्तेजःप्रत्येकवनस्पति-बादरसाधारणवनस्पतिसत्का ओघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नाः प्रत्येकं त्रयस्त्रयो भेदाः,
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मार्गणास्वायुर्जानां जघन्यस्थिति० ] द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
साधारणवनस्पतिकायौघमार्गणाभेदस्तथा त्रयस्त्रसकायभेदाः, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचनयोग-काययोगसामान्यौ-दारिक- वैक्रियमिश्रा ऽऽहारका ऽऽहारकमिश्रकाययोगाः, त्रयो वेदाः, अपगतवेदः, क्रोधादिचतुः कषायाः, मति श्रुताऽवधिज्ञानानि विभङ्गज्ञानम्, संयमौघ- सामायिक च्छेदोपस्थापन- परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्पराय देशसंयमरूपाः षट् संयममार्गणभेदाः, चक्षु-रचक्षु-रवधिदर्शनानि, शुभलेश्यात्रयम्, भव्य-सम्यक्त्वौघ-क्षायिक क्षायोपशमिकौ पशमिकसम्यक्त्व-संज्ञयाऽऽहारिमार्गणाभेदाश्चेति ।
तत्र प्रथमभूमि नरकभेदे सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेभ्यश्च्युत्वा नारकतयोत्पद्यमाना अन्तरालगतिस्थाः भवप्रथमद्वितीयसमये वर्तमाना जीवा एव, तैश्व तिर्यग्लोकादष्ट मरज्जुप्रारम्भभागात् सप्तमरज्जुप्रान्तभागेऽऽगच्छद्भिर्लोकासं ख्यभाग एव स्पृश्यते । एवमेव नरकौघमार्गणाभेदेऽपि द्रष्टव्यम्, देवौघ- भवनपति - व्यन्तरदेवभेदेष्वपर्याप्तमनुष्यभेदे चैवमेव, नवरं तत्तन्मार्गणाग तदेवादि - जीवापेक्षया । शेषद्वितीय पृथिव्यादिनरकभेदेषु तु मरणसमुद्घातकाले सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धस्य सम्भवेऽपि लोकासंख्येयभागमात्रैव स्पर्शना लभ्यते । कुतः ? मनुष्यतयोत्पित्सूनामेव जघन्यस्थितिबन्धसम्भवात् । कस्मादेवम् ? उच्यते, यथा मुमूषु जीवेषु स्वप्रायोग्य सर्वनिकृष्ट पारभविकोत्पत्तिस्थानांभिमुखानामेवोत्कृष्ट स्थितिबन्धः सम्भवति, तथा जघन्यस्थितिबन्धोऽपि स्वप्रायोग्य सर्वोत्कृष्टपार भविकोत्पत्तिस्थानाभिमुखानामेव भवति । नारकाणां तु स्वप्रायोग्य सर्वोत्कृष्टं पारभविकमुत्पत्तिस्थानं मनुष्यगतिरेव, अतो मारणसमुद्घातेऽपि तदभिमुखानामेव जघन्यस्थितिबन्धसम्भव इति ।
[ ३३१
न च सप्तमभूमिनारकाणां स्वप्रायोग्यं सर्वोत्कृष्टमपि पारभविकोत्पत्तिस्थानं पञ्चेन्द्रियतिर्यक्त्वम्, पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्तया तु स्वयम्भूरमणसमुद्रं यावदुत्पत्तिः सम्भवति, तथा च तदभिमुखानां जघन्यस्थितिबन्धसम्भवात्तेषां प्रकृतस्पर्शना षड्ज्जवोऽवाप्येतेति वाच्यम् । यतस्तदानीं तिर्यक्त्वाभिमुखानां तेषां सम्यक्त्वाभावात् न जघन्यस्थितिबन्धः किन्तु स्वस्थानगतानां सम्यग्दृष्टिनैरयिकाणामेव, अतः स्पर्शनाऽपि स्वस्थानक्षेत्रापेक्षया लोकसंख्येयभागमात्राऽवाप्यत इति । अपर्याप्तभेदवर्जेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यक्सत्केषु त्रिषु भेदेषु स्वस्थानस्थितानां भवनपतितया व्यन्तरतया वोत्पित्सुना मारणसमुद्घात गतानामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेव जघन्यस्थितिबन्धभावाल्लोकासंख्यभागमात्रोक्तैति ।
/
शेषमार्गणाभेदेषु कासुचित्पर्याप्तमनुष्यादि मार्गणासु स्वस्थानस्थितानामेव कासुचित्पुनरपर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियादिषु लोकासंख्येयभागमात्रे स्वस्थानक्षेत्रे स्थितानां मारणसमुद्घाते मनुष्यगत्यभिमुखानामेव वा सप्तकर्मसत्कजघन्यस्थितिबन्धस्य सम्भवात् स्पर्शनापि तदनुसारेण लोकाऽसंख्येयभागमात्रोक्ता ।
ननु 'सत्तमिमहिनेरइए तेऊ बाऊ असंखनरतिरिए । मुत्तूण सेसजीवा उष्पज्जेति नरभवम्मि ।' इत्यादिवचनात् तेजस्कायिकानां मनुष्यतयोत्पादाभावेन् मनुष्यत्वाभिमुखताऽपि न सम्भवति, न च तावन्मात्रम्, किन्तु तथा सति तेषां स्वप्रायोग्यसर्वोत्कृष्ट मुत्पत्तिस्थानं पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्त्वम्, अतस्तदभिमुखानां मारणसमुद्घातकाले जघन्यस्थितिबन्धसम्भवे तेजस्कायौघमार्गणादावधिकाऽपि
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३३२ ]
बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानामजघन्यस्थिति० स्पर्शना स्याद् ? इति चेद्, न, तेजस्कायौघादिषु चतुर्मार्गणासु सप्तकर्मणां जघन्यस्थितेर्बन्धका बादरतेजस्कायिका एव, ते च स्वस्थानक्षेत्रमपेक्ष्य मनुष्यलोके एव वर्तन्ते, ततश्च मनष्यलोकात्तिर्यग्लोक एव पञ्चेन्द्रियतिर्यक्तयोपित्सनां तेषां मारणसमुद्घातापेक्षयाऽपि लोकासंख्येयभागमात्रस्पर्शनैव लभ्यत इति ॥
तदेवमोघतः सप्तकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धकविषया स्पर्शनोक्ता । तेषामेवाऽजघन्यस्थितिबन्धस्तु सामान्यतः सर्वेषां जीवानां सर्वावस्थाभावीतिकृत्वा तद्वन्धकानां स्पर्शनाऽपि तत्तन्मार्गणानामुत्कृष्टस्थितिबन्धकस्पर्शनावल्लभ्यते, अतो तथैवानिधित्सुरतिदेशेनैवाह
सव्वासु अहस्साएऽणुकोसठिईव्व णायव्वा ॥३७३॥ (प्रे०) “सव्वासु" इत्यादि, निरगत्योघाद्यनाहारिपर्यन्तासु सोत्तरभेदासु प्रस्तुतग्रन्थेऽधिकृतासु सप्तत्यभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकं सप्तानामजवन्यायाः स्थितेर्वन्धकानां स्पर्शना'णुक्कोसठिइव्व णायव्व" ति तासामेव सप्तानां प्राक'सव्वणिरयसुर-विउवा-ऽऽहारदुग-अवेअ-णाणच उगेसुं । जइ-समइअ-छेएसुं परिहारम्मि सुहुमो-हिसु ॥३५७।। सुहलेस-सम्म-वेअग-खइ-उवसम-मीस-सासणेसुं य । सत्तण्ह होज्ज अगुरुठिईए गुरुठिइव्य ॥३५८॥ देसम्मि पंचभागाऽणुककोसाए ठिईअ सत्तण्हं । छिहिओ हवेज्ज सव्वो सेसासु फासिओ लोगो ॥३५९।।' इतिगाथात्रयेणाभिहिताऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां स्पर्शनावज्ज्ञातव्या ।
तद्यथा-निरयगत्योघे, सप्तमभूमिनिरयभेदे, आनत-प्राणता-ऽऽरणा-ऽच्युतकल्पेषु शुक्ल लेश्यायामित्येतासु सप्तमार्गणासु त्रसनाडिसत्काः षट् चतुर्दशभागाः । प्रथमपृथिवीनिरयभेदे, नवसु
वेयकभेदेषु, पञ्चस्वनुत्तरविमानभेदेषु, वैक्रियमिश्रकाययोगा-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगेषु .. तथाऽपगतवेद-मनःपर्यवज्ञान-संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक-पूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणास चेत्येतास पञ्चविंशतिमार्गणास प्रत्येकं लोकाऽसंख्येयभागमात्रा स्पर्शना । द्वितीयपृथिवीनिरयभेदे तु बसनाड्या एकश्चतुर्दशभागः, तृतीयपृथिवीनिरयभेदे द्वौ चतुर्दशभागौ, चतुर्थपृथिवीनिरयभेदे त्रयश्चतुर्दशभागाः, पञ्चमपृथिवीनिरयभेदे तु श्चत्वारश्चतुर्दशभागाः, षष्ठपृथिवीनरकभेदे पुनः पञ्च चतुदर्शभागा उत्कृष्टा स्पर्शना प्राप्यते । देवगत्योधभेदे,ईशानान्तेषु भवनपत्यादिषु पञ्चभेदेषु, तेजोलेश्यायां च प्रत्येकं तादृशा नव भागाः । सनत्कुमारादिसहस्रारान्तेषु षट्षु देवगतिभेदेषु तथा मति-श्रता-ऽवधिज्ञानाऽवधिदर्शन-पालेश्या-सम्यक्त्वोध-क्षायिक-क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-मिश्रदृष्टिरूपेषु दशमार्गणाभेदेषु प्रत्येकं त्रसनाडीसत्का अष्टौ चतुर्दशभागाः स्पर्शना भवति । वैक्रियकाययोगे तु तादृशास्त्रयोदशभागाः स्पर्शना, देशसंयममार्गणायां पञ्च भागाः, सासादनमार्गणायां पुनस्तादृशा द्वादश भागाः । सर्वेषु तिर्यग्गतिभेदेषु, सर्वषु मनुष्यगतिभेदेषु, सर्वष्वेकेन्द्रियभेदेषु, तथैव सर्वेषु विकलेन्द्रियभेदेषु, सर्वषु पञ्चेन्द्रियभेदेषु, तथैव सर्वेषु पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायसत्केषु भेदेषु, त्रसकायसत्केषु सर्वभेदेषु , एवमेव पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-काय
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मार्गणास्वायुषो जघन्यस्थिति०] द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[ ३३३ योगसामान्यौदारिककाययोगौ-दारिकमिश्रकाययोग-कार्मणकाययोग-स्त्रीवेद-पुवेद-नपुसकवेदक्रोधादिचतुःकषाय-मत्यज्ञानादिव्यज्ञाना-ऽसंयम-चक्षुर्दर्शना-ऽचक्षुर्दर्शन-कृष्ण-नील-कापोतलेश्या-भव्याऽभव्य-मिथ्यात्व-संज्य-ऽसंड्या-ऽऽहार्य-ऽनाहारिमार्गणास्वित्येतासु सप्ताभ्यधिकशतमार्गणासु तु सर्वलोकस्पर्शनेति । अत्र प्रत्येक मार्गणासु प्रस्तुतस्पर्शनोपपत्तिरप्यनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां स्पर्शनावत् तत्तन्निरयगत्योघादिमार्गणानां नानाजीवाश्रितायाः स्पर्शनायास्तथात्वात्तथा द्रष्टव्या, सप्तानामनुत्कृष्टस्थितिबन्धवत् सप्तानामजघन्यस्थितिबन्धस्यापि प्रायशः सर्वावस्थायां सर्वजीवानां च सम्भवादिति ।
तदेवं मार्गणास्थानेष्वपि दर्शिता सप्तकर्मणां जघन्याजघन्यस्थितिबन्धकानां स्पर्शना; केवलमायुकर्मणः साऽवशिष्टाऽतस्तामेव दिदर्शयिषुरादौ जघन्यस्थितिबन्धकविषयामाह
तिरिये एगिदिय-पणकाय-णिगोएसु सव्वसुहमेसु। कायु-रलदुग-णपुम-चउकसाय-दुअणाण-अयतेसु ॥३७४॥ अणयण-असुहतिलेसा-भवि-यियरा-ऽऽहार-मिच्छ-अमणेसु
आउस्स जहण्णाए ठिईअ छुहिअं जगं सव्वं ॥३७५॥ (प्रे०) “तिरिये एगिदिये" त्यादि, तिर्यग्गत्योपाद्यसंक्षिपर्यन्तासु सार्धगाथया सङ्ग्रहीतासु षट्चत्वारिंशन्मार्गणास्वायुषो जघन्याः स्थितेबन्धकैः सर्व जगत् स्पृष्टमिति गाथाद्वयपिण्डार्थः । अक्षरगमनिकास्तु प्राग्वत्सगमा, केवलं "दुअणाण" ति मत्यज्ञान-श्रताज्ञानमागणयोः “भवियियर" त्ति भव्यमार्गणा तथा भव्येतरा-ऽभव्यमार्गणा तयोरित्यर्थः । सर्वलोकस्पर्शनाया भावना त्वेतासु प्रत्येकं विद्यमानानां सूक्ष्मैकेन्द्रियाणामप्यायुषोः जघन्यस्थितिबन्धसम्भवात् तेषां सूक्ष्मैकेन्द्रियाणां स्वस्थानतः सर्वलोकव्यापित्वाच्चेति ॥३७४-३७५।। अन्यमार्गणासु प्रस्तुतस्पर्शनामाह
छिविआऽट देव-अट्ठमअंतसुर-विउव-तिणाण-ओहीसु।
तेउ-पउम-सम्म-खइअवेअग-सासायणेसु च ॥३७६॥ (प्रे) “छिविआह देवे” त्यादि,देवगत्योघा-ऽष्टमसहस्रारकल्पान्तकादशसुरगतिभेद-वैक्रियकाययोग-मति-श्रुता-ऽवधिज्ञाना-ऽवधिदर्शनमार्गणासु,तेजोलेश्या-पद्मलेश्या-सम्यक्त्वोध-क्षायिक-वेदकसासादनेषु चेत्येतासु द्वात्रिंशन्मार्गणासु “छिविआह" ति बसनाड्यन्तर्गता अष्टौ रज्जवः स्पृष्टा इत्यर्थः । आयुषो जघन्यस्थितेर्बन्धकैरिति प्रक्रमाद्गम्यते । मारणसमुद्घाते आयुषोऽबन्धादेषाऽष्टरज्जुस्पर्शना भवनपत्यादिदेवानां गमनागमनक्षेत्रापेक्षया यथायथं भावनीयेति ॥३७६॥
अन्यमार्गणासु प्रस्तुतस्पर्शनामाह
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३३४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषोऽजघन्यस्थिति० होज्ज छिविआ छ भागा आणतपहुडिचउदेव-सुइलासु।
देसूणजगं सब्वेसु बायरेगिंदिवाऊसु॥३७७॥ ... (प्रे०) “होज्ज छिविआ” इत्यादि, आनतकल्पप्रभृतिष्वच्युतकल्पान्तेषु चतुर्यु देवगतिमार्गणाभेदेषु शुक्ललेश्यामार्गणाभेदे चाऽऽयुषो जघन्यस्थितेर्बन्धकैस्त्रसनाडीसत्काः ‘षड् भागाः'षड़ रज्जवः स्पृष्टा भवन्तीत्यर्थः । इयं हि स्पर्शना तेषां देवानां गमनागमनक्षेत्रप्राधान्याद्विज्ञेयेति। "देसूणजगमि' ति तत्र “सव्वेसु” त्ति ओघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदेभिन्नेषु सर्वेषु बादरैकेन्द्रियभेदेषु सर्वेषु बादरवायुकायभेदेषु चेत्येतेषु पषु माणिाभेदेषु प्रस्तुतबन्धकैर्देशोनं जगत् स्पृष्टमित्यर्थः । असावपि स्पर्शना तत्तन्मार्गणागतानां पर्याप्तवादरवायुकायानामपर्याप्तवादरवायुकायानां वा स्वस्थानक्षेत्रप्राधान्यादवसातव्या । इति ॥३७७॥ शेष मार्गणासु प्रस्तुतस्पर्शनामाह
सेसासु जहण्णाए जगस्स होज्ज छिहिओ असंखंसो। (प्रे०) “सेसासु"त्ति अनन्तरमेव गाथाचतुष्के "तिरिये एगिदिये पणकार्य"त्यादिनाभिहिता अशीतिमार्गणाः संत्यज्य शेषास नरकगत्योधादिव्यशीतिमार्गणास प्रत्येकं "जहण्णाए" त्ति आयुषो जघन्यायाः स्थितेः, बन्धकैरितिशेषः । तैः किमित्याह-"जगस्स" इत्यादि, 'जगतः'लोकस्याऽसंख्यांशः'-असंख्याततमैकभागः स्पष्टो भवति । ताश्च शेषमार्गणा इमा:-अष्टौ नरकभेदाः, चत्वारस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदाः, चत्वारो मनुष्यगतिमार्गणाभेदा, नव वेयकदेवभेदाः, पञ्चानुत्तरविमानभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः, त्रयः पञ्चेन्द्रियभेदाः, ओघ-पर्याप्ताऽपयाप्तभेदभिन्नास्त्रयो बादरपथिवीकायमेदास्तथैव त्रयो बादराप्कायभेदास्त्रयस्तेजस्कायभेदास्त्रयः प्रत्येकवनस्पतिकायभेदास्त्रयो बादरसाधारणवनस्पतिकायभेदास्त्रयस्त्रसकायभेदास्तथा पञ्च मनोयोगभेदाः पञ्च वचोयोगभेदाः, आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगभेदौ, स्त्रीवेद-पुवेद-मनःपर्यवज्ञान-विभङ्गज्ञान-संयमोघसामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक-देशसंयम-चक्षुदर्शन-संज्ञिमार्गणाश्चेति ।
उपपत्तिस्त्वेवम्-आयुर्वन्धस्य मरणसमुद्घातात्प्रागेव भावादायुर्वन्धकानां स्पर्शना स्वस्थानक्षेत्रापेक्षया गमनागमनकृतस्पर्शनापेक्षया वा प्राप्यते, न तु मारणसमुद्घातापेक्षयेति प्राग्दर्शितमेव । अत्र शेषमार्गणास्वन्यतमस्यामपि मार्गणायां स्वस्थानक्षेत्रादधिका नास्ति काचिद् गमनागमनकृता विशिष्टस्पर्शना, अच्युतान्तानां देवानामेव गमनागमनकृतविशिष्टस्पर्शनाया अभिहितत्वात् । ते च प्रकृतशेषनिरयगत्योघाद्यन्यतमस्यामपि मार्गणायां बन्धप्रायोग्यजघन्यस्थितिकायुषः स्वामिनो न सन्ति । तदभावे त्ववशिष्टा स्वस्थानक्षेत्राक्षिप्ला स्पर्शना, सा त्वेतासु प्रत्येक लोकासंख्येयभागमात्रा, अत आयुषो जघन्यस्थितिबन्धकानां स्पर्शनाऽपि तथैवोक्तति ।।
तदेवमायुषो जघन्यस्थितिबन्धविषयाऽपि स्पर्शना सर्वासु मार्गणास्वभिहिता । साम्प्रतमत्रशिष्टामायुषोऽजघन्यस्थितिबन्धविषयां तां व्याजिहीर्षुर्गाथार्थेनातिदिशति
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स्पर्शनाः
गतिο
काय०
पवेन्द्रियध
इन्द्रिय तत्पर्याप्त० २
योग०
बेदर
कपाक
आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकानां स्पर्शनाप्रर्शक यन्त्रम्
श्रीवजन्
१३ रज्जनः
सम्य०
निदौर २
सर्वमनोवनो०
काययोगी ०
वैक्रिय० १२
पुरुष ० १
सर्व ४
ज्ञान० अज्ञानत्रिक ३
संघम० असंयम०
१
दर्शन० वक्षुव्यचक्षु० २
लेवा
कृष्णा० १
भव्य० सर्व
सोष-तत्पर्याप्त- शेष
मिथ्यात्व० १
सज्ञी संज्ञी० १
आहा० आहारक० १
सर्वाणाः- ३३
गाथाङ्काः- ३५६
२
सर्वलोकः
अपयातपञ्चेन्द्रि
सयिंगमनुष्धी,
२
शप
१७
४०
रज्जु० रज्जु रज्जु० रज्जु० रज्जु रज्जु रज्जु रज्जु रज्जु रज्जु०
लोका संख्य
१२ ११ ९
८ १६ ५ ४ ३ २ १ भागः
पशु- पञ्चमवतुर्थ-तीय- द्वितीय।
नरक० नरक० क० नरक० नरक०
१ १ १ १
तिरश्वी २
५६
| कार्मण
१
स्त्री० १
सास्वा.
१
देवौध० सनत्कुमाईषानान्त- शदिसहस्रा देवनेदाश्च. रान्तदेव० ६. ६
अना.
१
४ १
नील. कापोत० A १ तेजो. ९२
मत्यादि. ३
८
अवधि १
३५१ ३५६
शेष० ५
*
१६
w
पद्म. १ शुक्र.
१
३५३
दीदा
रिक०
१
पुं०
१
१२ २ १ १
३४६
३५० ३५० ३५०
३५०
१
१
३५२ ३५१३५६
३५० | ३५० ३५६
★ निरयौध-सप्तमनिरय- तिरयगौघ-पञ्च न्द्रियतिर्यगोध-तत्पर्याप्ताऽऽनतादिदेवभेदचतुष्टयरूपा नव भेदाः । + प्रथमनिरय-ग्रैवेयकनवका - ऽनुत्तरपञ्चक-मनुष्यौव-तत्पर्याप्त मानुषी भेदादष्टादश भेदा: । A मतान्तरे कृष्णादित्रिलेश्यासु यथाक्रमं षट् चतस्र:, द्व े रज्जु० । ( गाथा - ३५६ )
+
१८
शेष०
४
श्रवेद०
१
मनःप. १
शेष० ६
असं ० १
३१
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आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां जघन्या-उजघन्या-ऽनुत्कृष्टत्रिविधस्थितिबन्धकानां स्पर्शनाप्रदर्शकयन्त्रम् । जघन्यस्थितेर्बन्धकानाम्
अजघन्या-ऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानाम्
स्रोधवत् उत्कृष्ठस्थिति स्पर्शना- देशोनलोकः अष्टौर ज्जवः षड्जयः | सर्वलोकः ।
लोकाऽसं-| बन्धकानां पश्चरज्जु. सर्वलोकः
ख्यभागः | स्पर्शनावद् ज्योतिषकादि- प्रानताद्याश्चतु
सनतिर्यग्तिर्यगोघ०
शेष सर्गनिरयदेवसहस्रारान्त- देवभेद०
मनुष्यभेद०
३३ | भेदाः ३८ देवभेद०१ औघ-सर्व
सर्वसूक्ष्मैकेशेष०
सर्व इन्द्रिय० बादरभेद०
न्द्रियभेद०
गति.
१२
पृथिव्यादि
शेष०
सर्वसूक्ष्म०
प्रोघ-सर्वकाय० बादरवायु
कायभेद०४
औदारिकयोग० मिश्र-कार्मण० वैक्रिय०१
शेष०
क्रियाऽऽहा| रकहिके, ४
शेष०
१४
सन०
अवेद०
त्रिवेद०
वेद०
सन०
कषाय०
मत्यज्ञान
शेष०
मत्यादिज्ञान
ज्ञान०
अज्ञान० ३
श्रुताज्ञान०२
असयम०
संयम
प्रस०
१
देश०
दशम०
शेष० असंयम देश
६ संयमवर्ज. ५ सन० ३ | अवधि०१ । शुभ० ३ | शुभ० ३
शेष०
२
लेश्या० अशुभ० ३
अशुभ० ३ सर्व० २
भव्य० अभ० १
भव्य० १
मिथ्यात्व०
पम्यक्त्व.
सासादन) मिश्र० २
शेष० ४
मिथ्यात्ववर्जशेषभेद. ६
मिथ्यात्व.१
संजी०१
स०
संज्ञो० | असं० १ आहारी० अना० १
प्राहा० १
सर्व०
२
सर्वमार्गरणा:
गाथाङ्का:- ३६९-३७०
३७१
३७३
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आयुष उत्कृष्ट-जघन्यस्थित्योबन्धकानां स्पर्शनाप्रदर्शकयन्त्रकम्
प्रोघतः-उत्कृष्टस्थितेबन्धकानां लोकाऽसंख्यभागः । जघन्यस्थितेर्बन्धकाना सर्वलोकः ।
प्रादेशतःउत्कृष्ट स्थितेर्वधकानाम्
। जघन्य स्थितेबन्धकानाम्
लोकस्याऽसं-| लोकाऽसं- अनुत्कृषस्थितिस्पर्शनाः- अष्टौ रज्जवः | पडज्जयः । देशोनलोकः । सर्वलोकः ।
ख्यभाग० | ख्यभान० बन्धकस्पर्शनावत् देवौध० भवन- प्रानत-प्राणता
उक्तषोडशवर्जा निरयौ
सर्व० गति०
४७ । पत्यादि सहस्रा- ऽरणा-ऽच्युत
घादिभेदाः रान्ताश्च १२ देवभेदा: ४
सर्वसूक्ष्मैके- सूक्ष्मैकेन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियौघइन्द्रिय
न्द्रिय भेदत्रयवर्जा:
शेष० १७
शेषाः १६ | तत्पर्याप्त.२
काय
अपर्याप्तबादर- सवसूक्ष्मपृथि
व्यादिभेद० वायूकाय०१
शेष
योग
पैकिय:,
त्रसोध-तत्पशेष०. २६
यप्ति० २ शेष० १५
सर्वमनोवचो० शेष०
१० । सर्व० ३
१
स्त्री०पू०
सर्व
कपाय
सर्व०
४
ज्ञान
शेषक
सर्व०
विभङ्ग।
७
संयम
सर्व०
सर्व०
६
दर्शन
| अचक्षु०अवधि
सर्व०
३ | चक्षु०
सवं०
लेश्या०
सर्व०
६
सर्व०
भव्य०
सर्व० सर्व०
२ ५
सर्व०
सम्यक
संजी०
असंज्ञी०
संज्ञी०
सर्व० २
आहारी
आहारी० सर्वमार्गणाः- १६
१
आहारी० १ । १८ । १२७ | १६ । ३६२ । ३६२ । ३७८ ।।
१४४
गाथाङ्काः- ३६०
३६१
३६१
३७४....३७८
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आयुषोऽजघन्याऽनुत्कृष्टस्थित्योर्बन्धकानां स्पर्शनाप्रदर्शकयन्त्रकम्
अजघन्याऽनुत्कृष्स्थित्योर्बन्धकानां प्रत्येकम् (गाथा--३७८) प्रोघवत्
अष्टौ रज्जवः षडरज्जवः देशोनलोकः सर्वलोकः
स्पर्शना:
लोका-ऽसंख्य_भागः शेषनिरयगत्योघादि० ३०
गति०
| तिर्यग्गत्योघ०
मानत-प्राणतादेवौध० भवनपत्यादिसहस्रारान्ताच
ऽऽरणा-ऽच्युतदेव१२
भेदाः ,
इन्द्रिय०
अोघ-सर्वसूक्ष्मैकेन्द्रिय- | पञ्चेन्द्रियौघ-तत्पर्याप्ती, भेद०
सर्वविकलाऽपसर्वबादरैकेन्द्रियभेद० ३ ।
प्तिपञ्चेन्द्रियः
१० अोघ-पर्याप्ताऽप- उक्तशेषाः प्तिभेदात्त्रयो बादरवायुकाय
प्रोध सर्वसूक्ष्मभेदाद्विशतिः पृथिव्यप्तेजोवायुसाधारण- त्रसकायौघ-तत्पर्याप्तभेदी, वनभेदा: वनौषश्च.
काय०
योग
काययोगौच० औदारिक- सर्वमनोवचो० वैक्रियश्च तन्मिश्री च०
आहारकतन्मिश्री;
११
वेद०
नसक०
| स्त्री-पुरुषवेदी,
कषाय० सर्व०
मत्याज्ञान-श्रुताज्ञाने,
मन:पर्यव०
ज्ञान०
मति-श्रुता-ऽवधिज्ञानानि
विभङ्ग० ४
शेषभेद.
चक्षु० अवधि
संयम असंयम० दर्शन | अचक्षु० लेश्या० अशुभकृष्णादि० भव्य | सर्व०
३
तेजः-पक्ष
शुक्ल०
१
सभ्य० मिथ्यात्व०
सम्यक्त्वौच.क्षायिक.क्षायोपशमिक० सासादन० ४
संज्ञी० | असंज्ञी आहारी ग्राहारक० सर्वमार्गणा:--
४२
| गाथाङ्का:-- ३६२-३६३-३६४
३६६
३६७
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[ ३३९
ओघत आयुर्वर्जानामुत्कृष्टेतरस्थिति०] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
सव्वासु अहस्साए फुसणा होज्ज अगुरुठिइव्व ॥३७८॥ (प्रे०) “सव्वासु"त्ति त्रिषष्टयधिकशतसंख्याकासु सर्वास्वपि मार्गणासु प्रकृतस्याऽऽयुषो "अहस्साए"त्ति अह्रस्वायाः'-अजघन्यायाः स्थितेर्वन्धकस्पर्शना अगुरुठिइव्व"ति तत्तन्मार्गणायामायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां तिरिये एगगिदिय-पणकाय-णिगोभेसु सव्वसुहुमेसु। कायु-रलदुग-णपुमचउकसाय-दुअण्णाण-अय तेसु ॥३६३।।'इत्यादिना प्रागभिहिता या स्पर्शना तद्वद् भवेदिति । एषा हि समुद्घातमनपेक्ष्य स्वस्थानक्षेत्र-गमनागमनक्षेत्रमात्रापेक्षया लभ्यमानया तत्तन्मार्गणासत्कोत्कृष्टस्पर्शनया तुल्या भवति,आयुषोऽजघन्यस्थितेर्बन्धस्याप्यनत्कृष्टस्थितिबन्धवत्सर्वजीवानां भावादिति ।३७८।
तदेवं प्ररूपिताऽऽयुषोऽजघन्यस्थितेर्बन्धकानामपि स्पर्शना । तस्यां च प्ररूपितायां गतमेकादशं स्पर्शनाद्वारम् ।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे एकादशं नानाजीवा
ऽऽश्रयस्पर्शनाद्वारं समाप्तम् ।।
॥ अथ द्वादशं कालद्वारम् ॥ साम्प्रतं क्रमप्राप्ते नानाजीवाश्रये कालद्वारे मूलकर्मणामुत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धकानां जघन्योकृष्टभेदभिन्न कालं प्रतिपिपादयिषुरादौ तावदष्टानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्त्यिोन्धकानां तमोघतः प्रतिपादयति
सत्तण्ह बंधगाणं समयो हस्सो ठिईअ जेट्टाए ।
पल्लाऽसंखियभागो परमो अगुरूअ सव्वद्धा ॥३७९॥ (प्रे०) “सत्तण्ह बंधगाण" मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकं बन्धकानां समयो ‘ह्रस्वः'-जघन्यः, काल इति गम्यते । सप्तानां कस्याः स्थितेर्बन्धकानामित्याह-"ठिईअ जेहाए" ति सप्तानां 'ज्येष्ठायाः'-उत्कृष्टायाः स्थितेरित्यर्थः । “पल्लाऽसंखियभागो परमो" ति तस्या एवानन्तरोक्तायाः सप्तानां ज्येष्ठस्थितेर्बन्धकानां 'परमः'-उत्कृष्टः कालः “पल्लाऽसंखिय. भागो" ति पदैकदेशेनापि पदसमुदायस्य गम्यमानत्वात् पल्योपमासंख्येयभाग इत्यर्थः । तत्र
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३४० ]
बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ एकजीव-नानाजीवाश्रयकलयोर्विशेष० सप्तानामुत्कुष्टस्थितेर्बन्धकानां समयमात्रो जघन्यकालस्तु प्रागुक्तैकजीवाश्रयोत्कृष्टस्थितिबन्धकालवदेवावगन्तव्यः । अयम्भावः-ओघत आदेशतो मार्गणास्थानेषु वा यत्र तत्तदुत्कृष्टादिस्थितिबन्धारे जीवा असंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकाः सन्ति तत्र मार्गणादावुत्कृष्टाया जघन्यायाश्च स्थितेबन्धकानां जघन्यकालः क्रमेणोत्कृष्टजघन्यस्थित्योरेकजीवाश्रयवन्धकालतुल्यः प्राप्यते, न पुनरधिकः । कुतः ? एकजीवाश्रयस्य तत्तत्स्थितिबन्धजघन्यकालस्यपि तत्तदुत्कृष्टाया जघन्याया वा स्थितेबन्धकीभूतनानाजीवाश्रयजघन्यकालतया प्राप्तः सम्भवात् ।
ननु एकजीवाश्रयस्य, अर्थादेकेन जीवेन समयमा निर्वर्तितस्योत्कृष्टादितत्तत्स्थितिबन्धस्य जघन्यकालो यदि नानाजीवाश्रितोत्कृष्टादितत्तत्स्थितिबन्धजधन्यबन्धकालतया प्राप्येत, तदा को नाम विशेषो येन पूर्वोक्त एकजीवाश्रयः कालः, प्रस्तुतस्तु नानाजीवाश्रयकालः ? इति चेद्, अस्ति विशेषः, यतो नानाजीवाश्रयः काल एकजीवाश्रयकालात् स्तोको नैव भवति । न च मा भवतु स्तोकः, तुल्यप्राप्तावपि कथं नामैकजीवाश्रय-नानाजीवाश्रयवन्धकालयोः पार्थक्यमिति वाच्यम् । यतो जघन्यपदे तुल्योऽप्यसौ नानाजीवाश्रयः काल उत्कृष्टपदे एकजीवाश्रयकालापे. क्षया दीघातिदीर्घः प्राप्यते । इत्थं चोत्कृष्टपदे एकजीवमाश्रित्य प्राप्यमाणकालापेक्षया नानाजीवाश्रितकालस्याऽधिकप्रमाणप्राप्तेर्विद्यते एकजीवाश्रय-नानाजीवाश्रयकालयोर्विशेषः ।
न च नानाजीवाश्रयो जघन्यकालो युगपदनेकबन्धकसम्बन्धी गृह्यताम् , न त्वेकजीवसम्बन्धी, तेनोत्कृष्टपदवज्जघन्यपदेऽप्यसावेकजीवाश्रयकालापेक्षयाऽधिकः सम्पयेत, ततश्चोत्कृष्टपद इब जघन्यपदेऽप्यधिककालप्राप्तिरूपो विशेषोऽवाप्येतेति वाच्यम् । जघन्यपदे युगपदनेकबन्धकसम्बन्धिकालग्रहणद्वारेणाधिककालप्राप्तिरूपविशेषाधानप्रयासस्याऽज्ञानमूलकतयाऽऽयासमात्रत्वात् । कथम् ? इति चेत्, युगपद्नानावन्धकसम्बन्धिकालस्यैव नानाबन्धकाश्रयकालतया ग्रहणे प्रत्युतकजीवाश्रयकालापेक्षयाऽपि तस्य युगपद्नानावन्धकसम्बन्धिकालस्य जघन्यपदे स्तोकमात्रस्य प्राप्तेः । तथाहिनिरयगत्योघे आयुर्वन्धकाः कदाचित् प्राप्यन्ते, कदाचित्त न, प्राग भङ्गविचयेऽष्टभङ्गानां कथितत्वादुत्तरत्र नानाजीवाश्रयान्तरस्य वक्ष्यमाणत्वाच्च । अतो यदा नासन के प्यायुर्वन्धकास्तादृशकालावं केनाऽप्येकेन नारकजीवेनानुत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धः प्रारब्धः, न पुनरन्येन, स चानुत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धस्तस्यान्तमुहूर्त यान्नियमतः प्रवर्तते, नवरमसावन्तमुहूर्तकालो भवनिर्दिष्टविवक्षया नानावन्धकाश्रयकालतयाऽङ्गीकर्तुं न युज्यते, तस्य एकवन्धकसम्बन्धित्वात् । यदा चासौ नारकजीवस्तस्या आयुर्वन्धाद्धायाश्चरमे समये वर्तते तदा केनाप्यन्येन नारकजीवेनानुत्कृष्टस्थितिकायुबन्धः प्रारब्धः, अतस्तदानीमनुत्कृष्टस्थिते नावन्धकसद्भावात् स समयमात्रः कालो भवदुक्तविवक्षया नानावन्धकाश्रयकालतयाऽङ्गीकतु युज्यते, न तु तदुत्तरवर्तिसमया अपि, तदानीमुत्तरसमयेषु पूर्वप्रारब्धायुर्वन्धेन . जीवेनायुबन्धस्य निष्ठापितत्वेन, अन्येन केनाऽप्यनुत्कृष्ट
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ओघत आयुर्वर्जानामुत्कृष्टेतरस्थिति०] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ ३४१ स्थितिकायुर्वन्धस्यानारब्धत्वेन चैकायुर्वन्धकसम्बन्धित्वात् , तस्य चैकबन्धकसम्बन्धिकालस्य तु . भवदुक्तविवक्षया नानाजीवाश्रयकालतयाऽयुज्यमानत्वात् । इत्थं हि नानावन्धककाल इत्यत्र नानापदवाच्य तया युगपत्स्थितिवन्धनिर्वतकानामनेकानामेव ग्रहणविवक्षया निरयगत्योधादिमार्गमासु पूर्वोतरसमये एकैकस्य,मध्ये एकस्मिन् समये तु निष्ठापक-प्रारम्भकयोयुगपत्प्राप्तः सम्भवाद् व्यत्यासेनकजीवाश्रितकालापेक्षया स्तोकः समयमात्रोऽपि नानाजीवाश्रयकालः प्राप्यते । अत्र स्थापना
| एकजीवाश्रयकालस्य जघन्यनोऽन्तमुहूर्तत्वेऽपि नानाजीवाश्रयस्य समयमात्रसम्भव इयं स्थापना ।
(१) आयुर्बन्धकानां सर्वथाऽभावकालः, (२) अत्रैकेन जीवेनाऽनुत्कृष्टस्थितिकायुबन्धः प्रारब्धः, (३) तस्याऽऽयुर्वन्धस्य निष्ठासमयः, (५) तस्य निष्ठासमयं
एवाऽन्येनाऽनुत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धः प्रारब्धः, (५) तस्याऽऽयुर्बन्धनिष्टासमयः,(६) -(३) (४) अत्र बन्धकद्वयसद्भावादयमेकः समयो नानावन्धकसम्बन्ध्यायुरनुत्कृष्टस्थितिबन्धकाल
तया प्राप्तः, तस्मात्पूर्वोत्तराः (७-८) सभया एकैकबन्धकसम्बन्धिन एव इति । इत्थमेव मार्गणान्तरेस्वपि ज्ञेयम् । न च युगपद्नानाजीवसम्बन्धिकालविवक्षया मा भवतु जघन्यपदे एकजीवाश्रयजघन्यकालान्नानाजीवाश्रयकालोऽधिकः, स्तोकप्राप्तावपि उत्कुष्टपद इव जवन्यपदेऽप्येकजीवाश्रयकालापेक्षया नानाजीवाश्रयकाले विशेषस्तुलभ्यतेति वाच्यम् । निरयगत्योघादिमार्गणासु 'अगुरूअ मुहुत्तंतो आउस्सेमेव सव्वासु' (गाथा-१४२) इत्यनेन प्रागुक्तैकजीवाश्रयस्याऽऽयुष्काऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य जघन्यकालवन्नानाजीवाश्रयस्याऽपि तस्याऽऽयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्जघन्यकालस्य ‘सेसासु भिन्नमुहुत्तं मुणेयव्यो' (गाथा-३९८) इत्यनेनाऽन्तर्मुहूर्तमात्रस्यैव वक्ष्यमाणतया तादृशविवक्षायाऽनधिकृतत्वात् ।
इत्थश्च नानाजीवाश्रयकालोऽत्र न युगपल्लभ्यमाननानाजीवसम्बन्ध्येव, किन्तु मार्गणागतविवक्षितस्थितिबन्धकसर्वजीवराशिमपेक्ष्य नैरन्तर्येण विवक्षितस्थितिबन्धं कुर्वन्तो जीवा यावन्तो लभ्यन्ते, विवक्षितस्थितिबन्धकतावत्सर्वजीवसम्बन्ध्येव, स्याद्यदि विवक्षितस्थितेः निरन्तरसर्वबन्धकतया एको जीवः, अनेके वा । तत्र विवक्षितस्थितिबन्धस्तु कुत्रचिदेकजीवस्योत्कृष्टतोऽन्तमुहूर्तं यावद्वन्धप्रायोग्योऽप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमितजीवानां बन्धप्रायोग्यतयाऽन्यान्यजीवैनैरन्तर्येण प्रवर्तमानः सन्नाकालमवाप्यते । कुत्रचिन्मार्गणादौ पुनरुत्कृष्टतोऽन्तमुहूत यावद्धन्धप्रायोग्योऽप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकानामसंख्येयानां संख्येयानां वा जीवानां बन्धप्रायोग्यतया नैरन्तर्येण पल्योपमाऽसंख्येयभागादिप्रमाणकालं यावदुत्कृष्टतः प्रवर्तमानो लभ्यते, न तु सर्वदा, अतस्तत्र मार्गणादौ तावानेव कालस्तस्य विवक्षित स्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयोत्कृष्टकालः । जघन्यतोऽप्योघतो मार्गणास्थानेषु वा तत्र तत्र प्रविष्टसर्वजीवराशी एकादिना जीवेन तस्य विवक्षितस्थिति
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३४२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्स्थिति० बन्धस्यैकजीवाश्रयं समया-ऽन्तमुहूर्तादिजघन्यबन्धकालं यावत् तस्मिन् विवक्षितस्थितिबन्धे कृते तदनु निरन्तरं तत्र प्रविष्टसर्वजीवेभ्यस्तदन्येन जीवेन तदन्यैर्वा जीवैस्तादृशः स्थितिबन्धो न क्रियते तदा तत्र मार्गणादौ स विवक्षितस्थितिबन्धो तत्रस्थसर्वजीवापेक्षया चिन्त्यमानोऽपि जघन्यत एकजीवाश्रयतदीयजवन्यबन्धकालं यावदेव प्रवर्तमानो लभ्यते, अतस्तावानेकजीवाश्रयजघन्यबन्धकालेन तुल्य एकजीवकृतस्थितिबन्धसम्बध्यपि समयादिकाल एव विवक्षाभेदान्नानाजीवाश्रयो जघन्यकालो बोद्धव्यः। अत एवात्र द्वारे नानाजीवाश्रयस्थितिबन्धकालमनुक्त्वा तत्तद्विवक्षितस्थितेर्बन्धककालप्ररूपणे.. ऽपि न कश्चिद्दोषः,अधिकृतविवक्षया विवक्षितस्थिते नाजीवाश्रयबन्धकालस्य तदीयनानावन्धककालस्य च सर्वथैव तुल्यत्वात् । इत्येवमेकजीवाश्रयकालप्ररूपणायामन्यान्यजीवान् विहाय विवक्षितैकजीवनिचर्तितविवक्षितस्थितिबन्धस्य निरन्तरकालस्याधिकृतत्वात् , नानाजीवाश्रयकालप्ररूपणायां तत्तन्मार्गणादौ वर्तमानकादिसर्वबन्धकैनैरन्तर्येण निर्वर्तितस्य तस्य विवक्षितस्थितिबन्धस्य निरन्तरबन्धकालस्य विवक्षितत्वात् कुत्रचिज्जघन्यपदे विवक्षितस्थितिवन्धस्यैकजीवकृतत्वेऽपि तदानीं तत्र मार्गणादौ तदन्यस्य तादृशबन्धकतयाऽविद्यमानत्वेन तस्यैवैकजीवस्य सर्वबन्धकतया लाभात् तस्य नानाजीवाश्रयजवन्यादिकालरूपो विवक्षाकृत एकजीवाश्रयकालापेक्षया भेद एवेत्यलं पल्लवितेनेति ।
__ अथ प्रस्तुतम्-तत्र सप्तानामुत्कृष्टस्थितेः समयमात्रो जघन्यवन्धककालो यथोक्तनीत्या एकजीवाश्रयजघन्यवन्धकालवद्विभावनीयः । ननु सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामुत्कृष्ट कालस्तर्हि कुतः पल्योपमासंख्येयभागमात्र उच्यते,न पुनः सर्वाद्धा ? इति चेद् ,भण्यते-असावुत्कृष्ट स्थितिबन्धः केनाप्येकजीवेन निरन्तरमुत्कृष्टतोऽन्तमुहूर्तकालादधिककालं न निर्वयते,अन्यच्च तद्वन्धारे जीवा असंख्येयाः सन्तोऽपि नाऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशितुल्याः, किन्तु ततो हीनाः स्वल्पतरा एव । पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेव सप्तकर्मसत्कौधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वात् । तथा च सति तस्याः सप्तानामुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकानामुत्कृष्टकालः पल्योपमासंख्येयभागमात्रः प्राप्यते । इदमुक्तं भवति-यस्या एकस्थितिबन्धस्थानरूपाया उत्कृष्टाया जघन्याया वा स्थितेरेकजीवाश्रयो बन्धकाल उत्कृष्टतोऽप्यन्तमुहूर्त बन्धकपरिमाणं चासंख्येयं सदप्यसंख्यलोकाकाशप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकं भवति, तस्या उत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धका नैरन्तर्येणोत्कृष्टतः पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणकालं यावल्लभ्यन्ते, तवं तु नियमतस्तद्वन्धकानां सर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं भवति । यस्याः स्थितेर्बन्धकाः पुनरसंख्येयाः सन्तोऽप्यसंख्यलोकाकाशप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकाः सन्ति तस्याः स्थितेरकजीवाश्रयबन्धकालो यद्युत्कृष्टतः संख्येयसमयमात्रस्तदा तद्वन्धका नैरन्तर्येणोत्कृष्टत आवलिकाया असंख्यभागमात्रकालं यावत्प्राप्यन्ते,न पुनः परतः,परतस्तु नियमेन तेषामन्तरस्य प्रवर्तनात् । मूलसप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैकजीवाश्रयोत्कृष्टकालस्यान्तमुहूर्तत्वात्तद्वन्धकपरिमाणस्योत्कृष्टतोऽसंख्येयत्वेप्यसंख्यलोकापेक्षया स्तोकत्वाच्च तद्वन्धकानामुत्कृष्टः कालः पल्योपमासंख्येयभागमात्रः प्राप्यते,
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ओघत आयुष उत्कृष्टेतरस्थिति०] द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[ ३४३ न पुनस्तदधिक इति तथैवोक्तः । इत्थमेव मागणास्थानेष्वपि वक्ष्यमाणपल्योपमासंख्यभागादिकाल उत्कृष्टपदगतबन्धकपरिमाणै-कजीवाश्रयोत्कृष्टस्थितिबन्धाकालानुसारेणाभ्युह्य इति ।
__अथ यस्यास्तूत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धका असंख्यलोकाकाशप्रदेशराशितुल्यास्तदधिका वा तस्या स्थितेरेकजीवाश्रयकालोऽन्तमुहर्तमात्रो भवतु, समयो वा भवतु, तथाऽपि तद्वन्धकाः सर्वदेव लभ्यन्ते, न पुनस्तद्वन्धकानां कदाप्यन्तरं भवति । तथा च सप्तानामौधिकानुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकानामनन्तत्वात् तदीयैकजीवाश्रयबन्धकालस्य च दीर्घत्वात् तद्वन्धकास्तु सर्वदैव प्राप्यन्त इत्येतद् दर्शयन्नाह-"अगुरूअ सव्वद्वा"त्ति सप्तानामगुरोः-अनुत्कृष्टाया स्थितेर्बन्धकानां 'सर्वाद्धा', सर्वकाल इत्यर्थः । गतार्थमिति ॥३७९।। अथोक्तशेपस्यायुप उत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्वन्धकानां कालमोघतो दर्शयन्नाह
आउस्स लहू समयो उकोसाए ठिईअ उक्कोसो।
आवलिआऽसंखंसोऽणुकोसाए उ सव्वद्धा ॥३८०॥ (प्रे०) "आउस्स लहू समयो" इत्यादि, आयुष उत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकानां 'लघुः'जघन्यकाल: समयः, भवतीति शेषः । “उकोसो” त्ति तेषामेवायुष उत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकानामुत्कृष्टः कालः "आवलिआऽसंखंसो” ति आवलिकाऽसंख्यभागः, आवलिकाया असंख्येयभागगतसमपप्रमाण इत्यर्थः । “णुकोसाए उ सव्वहा” त्ति प्राग्वत्, नवरमायुषः प्रकृतत्वात्तस्यानुत्कृष्टस्थितेबन्धकानां कालः सर्वाद्धति बोद्धव्यम् । अत्रैकसमयः सर्वाद्धा च सप्तकर्मणामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्वन्धकानामनन्तरदर्शितैकसमयसर्वाद्धावद्भावनीयः। आवलिकाया असंख्येयभागप्रमाणकालस्त्वायुष औधिकोत्कृष्टस्थितेरेकजीवाश्रयस्योत्कृष्टबन्धकालस्य समयमात्रत्वात् , तादृशबन्धकाना. मुत्कृष्टपरिमाणस्यासंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकत्वेऽप्यसंख्येयत्वाच्चोक्तव्याप्त्योह्यः ॥३८०॥
तदेवमभिहितोऽयानामपि मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थितिबन्धकानां काल ओघतः । अथ तमेवादेशतो व्याजिहीपुरादौ तावदायुर्वर्जानां सप्तानां प्रकृतीनामाह
सत्तण्ह बंधगाणं उक्कोसाए ठिईअ सव्वद्धा। सव्वेसुएगिदियणिगोअभेएसु वणकाये ॥३८१॥ असमत्तबायरेसु पत्तेअवण-पुहवाइचउसु च ।
तह पुहवाइचउण्हं सव्वेसुसुहुमभेएसु॥३८२॥ (प्रे०) “सत्तण्हे" त्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तान्यतमानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टायाः स्थितेः "सव्वद्धा" ति नानाजीवाश्रयः कालः सर्वाद्धा भवति । कासु मार्गणास्त्रित्याह-"सव्वेसु" मित्यादि, सर्वेष्वेकेन्द्रियभेदेषु, सर्वेषु निगोदभेदेषु, वनस्पतिकायोघे, तथाऽपर्याप्तवादरेषु प्रत्येक
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३४४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानामुत्कृष्स्थिति वनस्पतिपृथिव्यप्तेजोवायुकायिक भेदेषु च । अत्र प्रत्येकवनस्पतिकाये वादरेति विशेषणं स्वरूपदर्शकपरमेव बोद्धव्यम्, 'पत्तेअवण' इत्यस्य पूर्वनिपातोऽपि छन्दानुलोम्यादेवेति । "तह पुहवाइचउण्हं" ति तथा पृथिव्यादीनां वायुकायान्तानां चतुर्णा"सव्वेस सहमभेएस"त्ति सूक्ष्मौघ-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदनिष्पन्नेषु 'सर्वेषु'-द्वादशष्वपि भेदेष्वित्यर्थः । एतासु द्वात्रिंशत्स्वपि मार्गणासु प्रत्येकमौधिकानुत्कृष्टस्थितिबन्धकवत् सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामसंख्यलोकप्रदेशराशितुल्यत्वात्तदधिकत्वाद्वा प्रकृतकालः सर्वाद्धाऽभिहित इति ।।३८१-३८२।।
अथ शेषमार्गणासु प्रकृतकालमाह
चउणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहार-देसेसु। सम्मो-हि-वेअगु-वसम-मीसेसु लहू मुहुत्तंतो ॥३८३॥
यो भिन्नमुहत्तं अहवा समयो तिमिस्सजोगेसु। सेमासु भवे समयो
(प्रे०) "चउणाणसंयमेसु"मित्यादि, मत्यादिचतुर्ज्ञानमार्गणा-संयमोघमार्गणामु सापायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक-देशसंयममार्गणास्ववधिदर्शने, सम्यक्त्वौष-वेदकसम्यक्त्वौ-- पशमिकसम्यक्त्व-सम्यग्मिथ्यात्वमार्गणास्वित्येतासु चतुर्दर्शमार्गणासु प्रत्येकं "लहू मुहुत्तंतो" त्ति आयुर्वर्जगप्तान्यतमकर्मसत्कोत्कृष्टस्थिते नावन्धकाश्रयो 'लघुः’-जघन्यः कालो ‘मुहूर्तान्तः'अन्तमु हृत ज्ञेय इत्यर्थः । कस्मादन्तमुहूर्तमेव ? चतुर्दशमार्गणासु प्रत्येकं मिथ्यात्वाद्यभिमुखानामेव प्रकृतस्थितिबन्धस्वामित्वात् तद्वन्धकानामसंख्यलोकापेक्षया स्तोकत्वान्चेति । अयं हि सप्तानामौषिकोत्कृष्टस्थितेर्बन्धककालवदेकजीवाश्रयप्रागुक्तकालानुसारी ज्ञेयः । मिश्रयोगत्रये स्वामित्वविषयकमतद्वयेन प्रस्तुतनानाजीवाश्रयकालं यथासम्भवमाह-"भिन्नमुहत्तं अहवा" इत्यादि, गतार्थम्, भावना त्वेकजीवाश्रयवन्धकालवदेव द्रष्टव्या । अथ शेषमार्गगास्वाह-सेसासु भवे समयो ति उक्तशेषा निरयगत्योघाद्यकविंशत्युत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकं सप्तकर्मसत्कोत्कष्टस्थितेर्वन्धकानां जघन्यः काल एकसमयो भवेत् ।
शेषमार्गणा नामत इमा:-सर्वे निरयगतिभेदाः, सर्वे तिर्यग्गतिभेदाः, सर्वे मनुष्यगतिभेदाः, सर्वे देवगतिभेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियभेदाः, पृथिवीकाया- काय-तेजस्कायवायुकायसत्काश्चत्वार ओघमार्गणाभेदाश्चत्वारश्च बादरोधभेदास्तथा चत्वारः पर्याप्तवादरपथिव्यादिभेदाः, प्रत्येकवनस्पतिकायौघ-पर्याप्तभेदो, सर्वे त्रसकायभेदाः, सर्वे मनोवचोयोगभेदाः, काययोगसामान्यौ-दारिक-वैक्रिया-ऽऽहारक-कार्मणकाययोगाः, स्त्री-पु-नपुंसकवेदा--ऽपगतवेद-क्रोधादिचतुःकषाय-मत्यज्ञानादिव्यज्ञान-मूक्ष्मसम्परायसंयमा- संयम-चक्षुदर्शना-ऽचक्षुर्दर्शन-कृष्णादिषल्ल श्या-भव्याऽभव्य-क्षायिकसम्यक्त्व-सासादन-मिथ्यात्व-संश्य-ऽसंख्या-ऽऽहार्य-ऽनाहारिमार्गणाभेदाचति । एतासु
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मार्गणास्वायुर्वजनामुत्कृष्ट स्थिति० ] · द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ ३४५
प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धकपरिमाणस्याऽसंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकत्वात् तथैकजीवाश्रयस्य प्रकृतोत्कृष्टस्थितेर्वन्धकालस्य जघन्यतः समयमात्रत्वादौ धिकोत्कृष्टस्थितेर्वन्धकानां जघन्यकालयत् प्रकृतजघन्यबन्धकालसमयमात्रोऽभिहित इति ॥ ३८३ ||
अथ सतानामुत्कुष्टायाः स्थितेर्वन्धकानामुत्कृष्टकालं मार्गगास्थानेषु दिदर्शयिपुराह— अह कोसो मुहुत्तो ॥ ३८४ ॥ तिमणुस - सव्वत्थेसु आहारदुगे अवेअ-सुमेसु । मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहासु ॥३८५॥
(ग्रे०) “अह उक्कोसो” इत्यादि, 'अथ' सप्तानामुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकानां ह्रस्वकालनिरूपणानन्तरम् “उक्कोसो” तितेामेवोत्कृष्टः कालो निरूप्यते, स च "मुहुत्ततो” ति भिन्नमुहूर्त ज्ञातव्यः । कासु मार्गणास्त्रित्याह - "तिमणुसे" त्यादि, अपर्याप्तभेदवर्जा स्वोघ-पर्याप्त मानुषी भेदभिनासु त्रिसृषु मनुष्यमार्गणासु, सर्वार्थसिद्धाख्यदेवगतिभेदे, आहरका -ऽऽहारकमिश्र काययोगयोकि, अपगतवेदसूक्ष्म पम्परा संयम मार्गजयोस्तथा मनःपर्यवज्ञान-संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणा स्वित्येतासु त्रयोदशमार्गगास्त्रित्यर्थः । कुत एतासु प्रत्येकमन्तमुहूर्तमेव ? इति चेत्, जीवानां संख्येयत्वादेकजी नाश्र योत्कृष्टबन्धकालस्यान्तर्मुहूर्तत्वाच्च । इदन्तु बोद्धयम्सप्तानामेकजीवापेक्षान्तमुहूर्तोत्कृष्टबन्धकालान्नानाजीवाश्रयः प्रकृतोऽन्तमुहूर्तकाल: संख्येयगुणाविको भवति, संख्येयानां वन्धकानामविरततया लाभसम्भवादिति ।। ३८४-३८५।।
अथ शेषमार्गणास्वेकयाऽऽर्यया प्रकृतोत्कृष्टकालमाह
S.
कम्मा - SSणाहारेसु आवलिआए भवे असंखंसो । सेसास असंयमो भागो पलिओ मस्स भवे ॥ ३८६॥
(प्रे०) “कम्माणाहारेसु" मित्यादि, कार्मणकाययोगाऽनाहारकमार्गणयोः “आवलिआए भवे असंखंसो" ति सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकानामुत्कृष्टः काल आवलिकाया असंख्येयभागः, असंख्येयभागगतसमयप्रमाणो भवेदित्यर्थः । कुतः ? इति चेद्, उच्यते, एतयोः प्रत्येकं प्रकृतस्थितेरेकजीवाश्रयो बन्धकाल उत्कृष्टतोऽपि द्विसमयमात्रोऽभिहितः, बन्धकपरिमाणं चासंख्येयं सदस्यसंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकमभिहितम् इत्थञ्च मार्गणाद्वयेऽपि प्रकृतकाल उत्कृष्टपदे आवलिकाऽसंख्येयभागमात्रः प्राप्यते, नत्वधिकः । अथ यासु मार्गणासु सप्तानामुत्कृष्टस्थितेरेकजीवाश्रयवन्धकाल उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त प्रमाणः, तद्बन्धका चौधिकोत्कृष्टस्थितेर्वन्धकवदसंख्येयाः सन्तोऽप्यसंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकास्तासु तासामुत्कृष्टस्थितेर्नानाबन्धकाश्रयं कालं तथैव पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणं दर्शयन्नाह - "सेसासु" इत्यादिना, गतार्थम् ।
,
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३४६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानामनुत्कृष्टस्थिति० शेषमार्गणा नामतस्त्विमाः सर्वे निरयगतिभेदाः, सर्वे तिर्यग्गतिभेदाः, अपर्याप्तमनुष्यभेदः, सर्वार्थसिद्धविमानभेदवर्जाः शेषा एकोनत्रिंशदेवगतिभेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः सर्वे पञ्चेन्द्रियभेदाः, पृथिव्यप्तेजोवायुकायसत्काश्चत्वार ओषभेदाश्चत्वारो बादरौषभेदाश्चत्वारश्च पर्याप्तबादरभेदाः, प्रत्येकवनस्पतिकायौघ-पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेदौ, सर्वे त्रसकायभेदाः, पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, काययोगसामान्यौदारिककाययोगौ-दारिकमिश्रकाययोग-वैक्रियकाययोग-वैक्रियमिश्रकाययोग-स्त्री-पु-नपुंसकवेद-क्रोधादिचतुःकपाय-मतिज्ञान-श्रतज्ञाना-ऽवधिज्ञानमत्यज्ञान-श्रुताज्ञान--विभङ्गज्ञान-देशसंयमा-ऽसंयम-चक्ष-रचक्षु- रवधिदर्शन--कृष्णादिपल्लेश्या-भव्या-- ऽभव्य-सम्यक्त्वोध-क्षायिक-वेदको--पशमिकसम्यक्त्व--सामादन-मिश्र-मिथ्यात्व-संड्य-सिंड्या-ऽऽहारिमार्गणाभेदाश्चेति । इदन्तु बोडव्यम्-एतासु प्रत्येकं पल्योपमासंख्येयभागमात्रोऽपि प्रकृतकालो बन्धकपरिमाणादिकस्य हीनाधिकताऽपेक्षया स्तोकोऽधिको वा भवति, केवलं स्तोकोऽपि पल्योपमासंग्ख्येयभागप्रमाणः, अधिकोऽपि पल्योपमासंख्येयभागप्रमाण एव; पल्योपमासंख्येयभागस्याख्येयभेदभिन्नत्वादिति तुल्य एवेति नानधारणीय इति ॥३८६॥
तदेवमभिहितः सप्तानामुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकानां द्विविधोऽपि कालः । साम्प्रतं तेषामेव सप्तानामनुत्कृष्टस्थितिमधिकृत्य तमाह
होइ अणुकोसाए ठिईअ सत्तण्ह मीसु-बसमेसु।
हस्सो भिन्नमुहुत्तं मिम्सदुजोगेमु समयो वा ॥३८७॥ (प्रे०) “होइ अणुक्कोसाए”इत्यादि,मिश्रदृष्ट्यौपशमिकसम्यक्त्वमार्गणयोरायुर्वजानां सप्तानामनुत्कृष्टायाः स्थितेः “हस्सो भिन्नमुहुत्तं" ति प्रकृतत्वाद् बन्धकानां 'ह्रस्वः -जघन्यः कालो भिन्नमुहूतं भवति । कुतः ? इति चेत् , नानाजीवानाश्रित्य मार्गणा यस्य सान्तरत्वादेकजीवमाश्रित्य. प्रकृतानुत्कृष्टस्थितिबन्धकालस्य जघन्यतोऽन्तमुहूर्तत्वाच्च । इदमुक्तं भवति-अपर्याप्तमनुष्यभेद-बैक्रियमिश्रकाययोगा--ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाश्योग-छेदोपस्थापन--परिहारविशुद्धिकमूक्ष्मसम्परायसंयमौ-पमिकसभ्यक्त्व-सासादन-मिश्रदृष्टिरूपा दश मार्गणाः स्वभावत एव सान्तराः, तासु मार्गणामु कदाचिजीवा भवन्ति, कदाचित्त्वपर्याप्त मनुष्यादितया कस्याऽपि जीवस्यासद्भावेन सर्वथाजीवाभावरूपमन्तरमपि प्रवर्तते, अपगतवेदमार्गणाया अपि सर्वजीवापेक्षया निरन्तरत्वेऽपि स्थितिवन्धकजीवापेक्षया तु सान्तरत्वमेव । कुतः ? श्रेणिगतजीवानामेव तत्र प्रवेशात् , श्रेणिद्वयस्य सान्तस्त्वाच्च । अत एवोक्तं जीवसमासे'पल्लाउसंखियभाग सासणमिस्सासमत्तमणुएसं । वासपुहुत्तं उवसामएसु खबगेसु छम्मासा ।। आहारभिस्सजोगे वासपुहुत्तं विउवमिसेसुं । बारस हुंति मुहुत्ता सम्वेसु जहण्णओ समओ ॥' इति।।
ततः किं ? ततस्तास्वेकादशमार्गणास्वेवानुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकानामजघन्यस्थितेर्बन्धकानां
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मार्गणास्वायुर्वर्जानामनुत्कृष्स्थिति०] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ ३४७ चाऽन्तरं प्राप्यते । शेषमार्गणासु तु सर्वदा जीवानां सद्भावात् तैर्जीवितबहुभागेषु सप्तानां नानास्थितिबन्धात्मकस्यानुत्कृष्टाऽजघन्यस्थितिवन्धस्यैव निर्वर्तनाच्चानुत्कृष्टाऽजघन्य स्थितेर्बन्धकाः सर्वदा प्राप्यन्ते, ततश्चैकादशमार्गणावर्जासु शेषमार्गणासु प्रस्तुतानुत्कृष्टस्थितेबन्धकानां ह्रस्वेतरभेदभिन्न सावधिकं कालमप्रदर्य सर्वाद्वैव प्रस्तुतकाल उत्तरत्र दर्शयिष्यते । अपर्याप्तमनुष्यायेकादशमार्गणातु त्वसावनुत्कृष्टस्थितेवन्धकानां कालो द्विधा दर्शयितु युज्यते, सादिसान्तत्वात्ताताम् । तत्राऽनुत्कृष्टस्थितेबन्धकानां जघन्यकालः प्रायेणैकजीवाश्रयजघन्यवन्धकालतुल्यः प्राप्यते,अनुत्कृष्टस्थितेबन्धकानामुत्कृष्टकालस्तु मार्गगाया नानाजीवाश्रयोत्कृष्टकालतुल्यः प्राप्यते । अजघन्यस्थितेन्धकानां कालोऽप्यनया नीत्यैव प्राप्यते, अत एव वक्ष्यतेऽग्रे यद्-“अजहण्णाअ ठिईए सत्तण्ह अगुरुठिइव्व" इत्यादि,अत्र नियमे प्रायोग्रहणं छेदोपस्थापनीयसंयमादिमार्गणान्तरे दीर्घकालं यावन्नियमतोऽनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकानां लाभेनातिप्रसङ्गनिवारणार्थम् । औपशशमिकसम्यक्त्व-मिश्रदृष्टिमार्गणाद्वये सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेजघन्यबन्धकालस्तु प्रागेकजीवमाश्रित्यान्तमुहूर्तमभिहितस्ततो नानाजीवानाश्रित्याऽप्यसो तथैवान्तमुहूर्त बोद्धव्यः । वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणयोस्तु प्रागेकजीवमाश्रित्य सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्जधन्यबन्धकालो मतद्वयेन यथासम्भवं समयोऽन्तमुहूर्त चोक्तः, स एव प्रकृतेऽपि लभ्यत इति तथैव दर्शयन्नाह-"मिस्सदुजोगेसु समयो वा" ति ऽनन्तरोक्तस्य 'भिन्नमुहुत्त'मित्यस्य काकाक्षिगोलकन्यायेनात्रापि योजनाद् वैक्रियमिश्रकाययोगा-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणाइये सप्तकर्मसत्कानुत्कष्टस्थितेर्वन्धकानां ह्रस्वः कालो भिन्नमुहूर्त समयो वा भवतीत्यर्थः । अत्र भावनात्वेकजीवाश्रयवन्धकालवत्तत्तन्मतानुसारेण कर्तव्येति ॥३८७॥
समयो असमत्तणरे आहारम्मि गयवेअ-सुहमेसु।
सासायणे य णेयो छेए अद्धतइअसयसमा ॥३८८॥ (प्रे०) “समयो असमत्तणरे” इत्यादि, प्रकृतो ह्रस्वकालः समयो झेप इति गाथोत्तराधेऽन्वयः । कासु मार्गणास्वित्याह-"असमत्तणरे” इत्यादि, अपर्याप्तमनुष्या-ऽऽहारककाययोगगतवेद-मूक्ष्मसम्परायसंयम-सासादनरूपासु पञ्चमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । सुगमं चैतत् , सूक्ष्मसम्पराये पग्णां तथा शेषासु प्रत्येक सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेरेकजीवाश्रयजघन्यबन्धकालस्य समयमात्रत्वादिति । “छेए” त्ति 'भीमो भीमसेने तिन्यायाच्छेदोपस्थापनसंयममार्गणायाम् "अहतइअसयसम" ति । प्रकृतो ह्रस्वकालोऽर्धतृतीयशतानि 'समाः' -वर्षाणि, पञ्चाशदभ्यधिकशतद्वयवर्षाणि भवतीत्यर्थः । कुतः ? उत्सर्पिण्यां प्रथमतीर्थकरतीर्थस्य तावत्कालं प्रवर्तनात् , तत्तीर्थान्तं यावच्छेदोपस्थापनसंयतानां वर्तनाच्च । इदमुक्तं भवति-छेदोपस्थापनसंयता जघन्यतः सार्धशतद्वयवर्षाणि यावन्नरन्तर्येण प्राप्यन्ते । उक्तं च श्रीपञ्चमा पञ्चविंशतितमशतकसप्तमोद्देशे
_ "छेदोवट्ठावणिएसु पुच्छा० गोयमा ! जहन्नेणं अड्ढाइज्जाइ वाससयाई, उक्कोसेणं पन्नासं सागरोवमकोडिसयसहस्साइ” इति ।
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३४८ ]
बंधविहाणो मूलपयडिठिबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानामनुत्कृष्ठस्थिति० तत्र जघन्यकाल उत्सर्पिण्यामादितीर्थकरतीर्थकालापेक्षया, उत्कृष्टकालस्त्ववसर्पिण्यां प्रथमतीर्थकरशासनकालापेक्षया प्राप्यते । उक्तश्च तद्वत्तौ श्रीमदभयदेवसूरिपादः
“पृथक्त्वेन कालचिन्तायां "छेनोवट्ठावरिणए" इत्यादि, तत्रोत्सपिण्यामादितीर्थकरस्य तीर्थ यावच्छेदोपस्थापनीयं भवतीति, तीर्थ च तस्य साढ़े द्वे वर्षशते भवतीत्यत उक्तम् - "सड्ढाइन्जाइ" इत्यादि, तथाऽवसर्पिपयामादितीर्थकरस्य तीर्थ यावच्छेदोपस्थापनीयं प्रवर्तते, तच्च पञ्चाशत्सागरोपमकोटीलक्षा इत्यतः "उकोसेरणं पन्नास"मित्याद्युक्तम्' इति ।
इत्थं च तीर्थजघन्यकालस्य प्रान्तं यावत् केचन सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका नियमेन लभ्येरन् । न च तीर्थकालमध्य एव कदाचित् सर्वेषां च्छेदोपस्थापनीयसंयतानामुत्कृष्ट स्थितिबन्धसम्भवः, यतस्तथाभावेऽन्तमुहर्तादचं तेषां सर्वेषां मिथ्यात्वगमनेन तीर्थकालेऽवशेष एव च्छेदोपस्थापनसंयताभावः स्यात् । स च नेष्यते, आदितीर्थकरस्य तीर्थ यावच्छेदोपस्थापनीयं भवतीत्यभिवानात् । इत्थं हि च्छेदोपस्थापनसंयममार्गणायां सप्तानामनुत्कृष्ट स्थितेर्बन्धकानां कालो नाऽपर्याप्तमनुष्यादिमार्गणावदेकजीवाश्रयजघन्यवन्धकालानुसार्थेकसमयः, किन्तु नानाजीवाश्रयजघन्यमार्गणाकालतुल्यः सार्धे द्वे वर्षशत इति तथैवाभिहित इति ।।३८८।।
अथ परिहारविशद्धिकसंयममार्गणायामपि प्रकृतबन्धकानां कालोऽनन्तरोक्तनीत्या नान्तमुहर्तमात्रः, किन्तु देशोनशतवर्षद्वयं प्राप्यते, परिहारविशुद्धिकसंयमस्य नानाजीवाश्रयजघन्यकालस्य तावन्मात्रत्वात् । उक्तं च श्रीमत्यां भगवत्याम्
___ परिहारविसुद्वीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं देसूणाई दो वाससयाई, उक्कोसेणं देसूणाओ दो पूयकोडीओ' इति ।
अतः परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायां प्रकृतबन्धकालं तावन्मानं तथा शेषमार्गणासु बन्धकानां सर्वथाऽभावलक्षणस्याऽन्तरस्यैवाऽभावात् तासु सर्वाद्धां च दर्शयन्नेकां गाथामाह
परिहारे वासाणं वीसपुहुत्तं हवेज सेसासु।
सव्वद्धा णायबोऽणुक्कोसाए खलु ठिईए ॥३८९॥ (प्रे०) “परिहारे वासाण"मित्यादि, परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायां “वासाणं वीसपुहुत्तं हवेज"त्ति सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेन्वकानां निरन्तरो जघन्यकालो वर्षाणां विंशतिपृथक्त्वानि भवेत् । एप तूतनीत्या नानाजीवाश्रयप्रकृतमार्गगासत्कदेशोनशतवर्ष यात्मकजघन्यकालाक्षिप्तो बोद्धव्यः, प्रकृतमार्गणायामपि छेदोपस्थापनसंयममार्गणावन मार्गणान्तराभिमुखानामेव सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वात् । मार्गणाजघन्यकालस्त्वित्थं भाव्यते-वर्षशतायुपा केनाऽपि नवकेन गणेन स्वायुष एकोनत्रिंशद्वर्षेषु गतेपूत्सर्पिण्यामाद्यतीर्थकरस्य समीपे परिहारविशुद्धिकं चारित्रं प्रतिपयैकसप्ततिवर्याणि निरन्तरं निव्यूढम् , तदायुःपर्यन्ते च तत्समीपे वर्षशतायुषवाऽन्येन नवकगणेन स्वायुष एकोनत्रिंशद्वर्षेषु व्यतीतेषु परिहारविशुद्धिकचारित्रमङ्गीकृतं, तच्च स्वायुपोऽन्तं
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मार्गणास्वायुर्वर्जानामनुत्कृष्टस्थिति०] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ ३४९ यावन्नैर्यन्तर्येण तेनाप्यनुपालितम् ,अतः परं न कोऽपीदं प्रतिपद्यते,तीर्थकरं तत्समीपे प्रतिपन्नप्रकृतचारित्रं वा विहायान्यसमीपे तत्प्रतिपत्तेनिषेधात् । एवं च सति जघन्यतो द्विचत्वारिंशदभ्यधिकवर्षशतं निरन्तरं प्रकृतचारित्रिणां प्राप्तिर्भवति, एपैव श्रीमद्भगवत्यां देशोनशतवर्षद्वयेनाभिहिता, प्रकृते च वर्षाणां विंशतिपृथक्त्वैरपि तावन्मात्रः काल एवाभिहित इति ।
___"सेसासु" ति अनन्तरोक्ताः सम्यग्मिथ्यात्वाद्यकादशमार्गणाः संत्यज्य शेपास्कोनषष्ट्यत्तरशतमार्गणामु प्रत्येकं "सव्वडा णायव्वो" इत्याद्यत्तरार्धम् , आयुर्वर्जानां सप्तानामनुत्कृष्टायाः स्थितेत्रन्धकानां कालः सर्वाद्धा ज्ञातव्यः । किं जघन्य उत्कृष्टो वा ? इति चेत् , न जघन्यो न वोत्कृष्टः, सर्वाद्धाया निरवधिकत्वेन जघन्योत्कृष्ट भेदभिन्नत्वाभावात् । एष ह्यनन्तरं"होइ अणुकोसाए" इत्यस्या गाथाया वृत्तौ भावित इति ।।३८९।।
__तदेवमुक्तोऽपर्याप्तमनुष्यायेकादशमार्गणानां सान्तरत्वात्तासु सप्तानामनुत्कृष्टायाः स्थितेबन्धकानां जघन्यकालो यथासम्भवम् , शेषासु तु सर्वाद्धा । साम्प्रतं यासु जघन्यकाल उक्तस्तास्वेव नानाजीवाश्रयमाणोत्कृष्टावस्थानकालाऽऽक्षिप्तमुत्कृष्टकालं दर्शयन्नाह
असमत्तमणुस-विक्कियमीसु-वसम-मीस-सासणेसु गुरू । पलिअअसंखियभागो आहारदुगे अवेअ-सुहुमेसु ॥३९०॥ (गीतिः) भिन्नमुहुत्तं छेए अयरा पण्णासलक्खकोडीओ।
परिहारे विण्णेयो देसूणा पुबकोडी दो ॥३९१॥
(प्रे०) “असमत्तमणुसे"त्यादि, अपर्याप्तमनुष्य-वैक्रियमिश्रकाययोगौ--पशमिकसम्यक्त्व-मिश्र-सासादनमार्गणासु प्रत्येकं “गुरू" त्ति प्रकृतत्वात् सप्तकर्मसत्कानुत्कृष्ट स्थितेर्वन्धकानां 'गुरुः'-उत्कृष्टः कालः “पलिअअसंखियभागो" ति पल्योपमाऽसंख्यभागो भवति, तत्तन्मार्गणानां नानाजीवाश्रयोत्कृष्टकालस्य तावन्मात्रत्वात् । उक्तं च पञ्चसंग्रहवृत्ती
'नानाप्रकारा अपर्याप्तकानेकमनुष्यकायस्य तत्सन्ततेरव्यवच्छिन्नाया उत्कृष्टतः पल्योपमासंख्येयभागमात्रा स्थितिः' इति।
तथैव 'पल्लासंखियभागो वेउब्वियमिस्सगाण अणुसारो' तथा 'पल्लासंखियभागो सासणमिस्सा य हुंति उकोसं ।' इत्यादिभिः श्रीजीवसमासादिग्रन्थवचनैः प्रकृतमार्गणानां नानाजीवाश्रयोत्कृष्ट कालस्य तथात्वात् प्रकृतबन्धककालोऽपि तथोपपादनीय इति । __"आहारदुगे अवेअसुहुमेसु” ति आहारककाययोगा-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणयोविके, अपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममागणयोरित्येतासु चतसृषु मार्गणासु प्रत्येकं 'भिन्नमुहूर्त' मित्युत्तरगाथायामन्वयः, सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामुत्कृष्टः काल इति प्रक्रमाद् बोद्धव्यम् । अत्रापि “भिन्नमुहुत्तं आहारमिस्से"त्यादिना ग्रन्थान्तरोक्ता प्रकृतमार्गणासत्का नानाजीवाश्रययोत्कृष्ट
* अत्र काचिदशुद्धिः सम्भाव्यते, उद्धरणीया विबुधैः सम्यगालोच्य सेति ।
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३५० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुष उत्कृष्ठस्थिति० कायस्थितिरेवानुसतव्या । यद्वा सान्तरासु प्रकृतचतुर्मार्गणासु प्रत्येकं संख्येया एव जीवाः, एकजीवाश्रयोत्कृष्टकायस्थितिश्च प्रत्येकमन्तमुहूर्तमात्राऽभिहिता, एवं च सति मनुष्यगत्योवादिमार्गणासु सप्तानामुत्कृष्टस्थितेवन्धकानां संख्येयत्वादुत्कृष्टस्थितेरेकजीवाश्रयस्य गुरुबन्धकालस्यान्तमुहूर्तत्वाच्च यथा नानाजीवाश्रयः सप्तानामुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टवन्धकालोऽन्तमुहूर्त प्राप्यते तथा प्रकृतचतुर्मार्गणानां नानाजीवाश्रयः कालोऽप्यन्तमुहर्तमेव प्राप्यतेति सामर्थ्याद्गम्यते, तथा च सति प्रकृतानुत्कृष्टस्थितेबन्धकानामुत्कृष्ट कालोऽपि तावन्मात्रोऽन्तमुहूर्तमेव प्राप्यत इति ।
"छेए” त्ति प्राग्यच्छेदोपस्थापनसंयममार्गणायाम् “अतरा पण्णासलक्खकोडिओ" त्ति अतिमहत्वादुदधिवत् तरितुम्-अचिरात् पारं नेतुन शक्यन्त इत्पतराः-सागरोपमाणि पञ्चाशलक्षकोटय इत्यर्थः । कुतः ? छेदोपस्थापनसंयममार्गणाया नानाजीवाश्रयोत्कृष्टकालस्य तावत्प्रमाणत्वात् । छेदोपस्थापनसंयममार्गणाया नानाजीवाश्रयोत्कृष्ट कालस्तु प्राग-“उको सेणं पन्नासं सागरोवमकोडिसयसहस्साइ” इति श्रीभगवतीग्रन्थेन दर्शित एवेति । परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायामपि “परिहारविसुद्धिा पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं देसूणाई दो वाससयाई, उक्कोसेणं देसूणाओ दो पूवकोडिओ" इत्यनेन श्रीभगवत्यां परिहारविशुद्धिकसंयमस्य नानाजीवाश्रयोत्कृष्ट कालस्य देशोनपूर्वकोटीद्वयप्रमाणस्याभिहितत्वात् प्रकृतकालोऽपि तावन्मात्र एव प्राप्यत इति तं तथैव दर्शयन्नाह-“परिहारे विण्णेयो" इत्यादि, गतार्थम् ॥३९०-३९१।।
तदेवमभिहित आयुर्वर्जानां सप्तानामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्वन्धकानां कालो मार्गणास्थानेष्वपि । साम्प्रतमवशेषस्यायुःकर्मण उत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योर्बन्धकानां कालं दिदर्शयितुरादौ तावदुत्कृष्टां स्थितिमधिकृत्याह
आउस्सुक्कोसाए ठिईअ कालो हवेज्ज सव्वासु। हस्सो समयो परमो आवलियाए असंखंसो ॥३९२॥ णवरं परमो समया संखेज्जा होअए-तिमणुसेसु। आणतपहुडिसुरेसु आहारदुग-चउणाणेसु ॥३९३॥ संयम-सामइएसु छेए परिहार-देस-ओहिसु ।
सुहलेस-सम्म-खाइअ-वेअग-सासायणेसुचः॥६९४॥ (प्रे०) “आउस्सुक्कोसाए ठिईअ'' इत्यादि, आयुष उत्कृष्टायाः स्थितेः “कालो” त्ति नानावन्धकाश्रयः कालः "हवेज्ज सव्वासु” ति त्रिपष्ट्यभ्यधिकशतसंख्याकासु सर्वमार्गणासु भवेत । कीदृशः कियाँश्चेत्याह-"हस्सो समयो” इत्यादि,'ह्रस्वः'-लघुः कालः समयः, 'परमः'दीर्घः काल आलिकाया असंख्यांशः, आवलिकाऽसंख्येयतमैकभागगताऽसंख्येयसमया इत्यर्थः ।
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मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्ट स्थिति०] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ ३५१ किं सर्वास्वित्थमेवोतास्ति कासुचित्कश्चिद्विशेष इत्यत आह-"णवरं परमो” इत्यादिगाथाद्वयम्, 'नवरं'-परमयमत्र विशेषः, कोऽसावित्याह-“परमो” इत्यादि, 'परमः'-उत्कृष्टः कालः संख्येयाः समया भवति । कासु मार्गणास्वित्याह-"तिमणुसेसु"मित्यादि, मनुष्योध-पर्याप्तमनुष्य-मानुपीरूपेषु त्रिषु मनुष्यगतिमार्गणाभेदेषु तथाऽऽनतकल्पादिषु पञ्चानुत्तरविमानपर्यन्तेष्वष्टादशषु देवगतिमार्गणाभेदेष्वाहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणाद्विक-मत्यादिचतुर्ज्ञानमार्गगासु, संयमौव-सामायिकसंयममार्गणयोः, छेदोपस्थापनसंयममार्गणायां परिहारविशुद्धिकसंयम-देशसंयमा-ऽवधिदर्शनमार्गणासु, तेजः-पम-शुक्ललेश्या-सम्यक्त्वोध--क्षायिकसम्यक्त्व-वेदकसम्यक्त्व--सासादनमार्गणासु चेत्येतासु चत्वारिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः।।
तत्र जघन्यकालः सर्वमार्गणास्बोधवदेकसमयस्तृत्कृष्टाबाधाऽधीनस्यायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैकस्मिन भवे सकृत् समयमेव प्रवर्तनात्, तद्वन्धकपरिमाणस्य च प्रत्येकं मार्गणास्वसंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकत्वाच्च । स चैकजीवाश्रितजघन्यकालवद्विद्भावनीयः । मूक्ष्मापयोप्तेकेन्द्रियादिमार्गणासूत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धकानामसंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षयास्तोकत्वं तूत्कृष्टस्थितिकजीवानां लोके स्तोकत्वेन हेतुना परिमाणद्वारे भावितमिति तत एवावसेयम् । प्रतिमार्गणमुत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धकपरिमाणस्तोकत्वादेवायुप उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामुत्कृष्टकालोऽपि यासु मार्गणासु बन्धकपरिमाणमसंख्येयं तासु मार्गणास्वसंख्येयाः समयाः प्राप्यते, यासु पुनर्मागणासूत्कृष्टस्थितेवन्धकजीवपरिमाणं संख्येयं तासु मनुष्यगत्योघादिमार्गणासु संख्येयसमयमात्रः प्राप्यते, अत सः “परमो आवलिआए असंखंसो” इत्योत्सर्गिकवचनेन सर्वमार्गणासु लाघवार्थमावलिकाऽसंख्यभागमात्रोऽभिहितोऽपि सन् “नवरं परमो समया संखेज्जा” इत्यादिना मनुष्यगत्योघादिमार्गणासु पश्चादपोदित इति ।।३९२-३९४॥ अथायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां कालमभिधित्सुराह
सव्वद्धा-ऽऽउस्स भवे अगुरुठिईअ तिरियम्मि सब्वेसु। एगिदि-णिगोएसुपुहवाइपणसु य सेससुहुमेसु॥३९५॥ बायरपुहवाइचउसु पत्तेअवणे य सिं अपज्जेसु। काये उरालियदुगे णपुंसग-कसायचउगेसु॥३९६॥ अण्णाणदुगम्मि तहा असंयमा-ऽचक्खु-असुहलेसासु।
भवि-येयर-मिच्छेसू असण्णि-आहारगेसु च ॥३९७॥ (प्रे०) “सव्वद्धाउस्स भवे" इत्यादि,अनन्तरं वक्ष्यमाणतिर्यग्गत्योघादिद्विषष्टिमार्गणास्वायुषः "अगुरुठिईअ" ति 'अगुरुस्थितेः'-अनुत्कृष्टायाः स्थितेः “सव्वद्धा” त्ति प्रकृतो नानाबन्धकाश्रयः कालः सर्वाद्धा भवेदित्यर्थः । तिर्यग्गत्योधादिमार्गणा एवाह-"तिरियम्मि”इत्यादिना,
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३५२ ]
विहाणे मूलपडिठइबंधो [ मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्टस्थिति० तिर्यग्गत्योघ-सर्वै केन्द्रियभेद-सर्वनिगोदभेद-पृथिव्यादिपञ्चकायद्यभेदेषु तथा सूक्ष्मपृथिव्यप्तेजोवायुकायौ तत्पर्याप्ताऽपर्याप्तरूपासु द्वादशसु शेषसूक्ष्मभेदेषु, बादरपृथिव्यप्तेजोवायुकायरूपासु चतुर्षु बादरपृथिव्याद्योघभेदेषु प्रत्येक वनस्पतिकायौघभेदे च, तथा “सिं अपज्जेसु" ति तेषां बादरपृथिव्यादिचतुःप्रत्येक वनस्पतिकायपञ्चमानामपर्याप्तभेदेषु अपर्याप्तवादरपृथिवीकायाद्यपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायान्तेषु पञ्चष्वपर्याप्तभेदेष्वित्यर्थः । “काये उरालिय" इत्यादि, सार्धगाथा तु सुगमाः । एतासु तिर्यग्गत्यो घाद्याहारिपर्यन्तासु द्विषष्टिमार्गणासु प्रत्येकमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धका असंख्यलोकमदेशराशितुल्यास्तदधिका वाऽनन्ताः सन्तिः, ततश्च निरन्तरमनेकानां प्रस्तुतबन्धकानां लाभात् प्रस्तुतकालः सर्वाद्धा प्राप्यत इति तथैवोक्त इति ।।३९५-३९६-३९७॥
अथानन्तरोक्तद्वापष्टिमार्गणावर्जासु शेपमार्गणासु प्रकृतकाल: सावधिक इति तं जघन्यादिभेदेन दिदर्शयिरादौ ताजघन्यत आह
पण मणक्य - विवेषु आहारदुगे जहण्णगो समयो । णायव्वो सेसासु भिन्नमुहुत्तं मुणेव्व ॥ ३९८ ॥
"
(प्रे० ) “पण मणवये" त्यादि, पञ्चशब्दस्य मनोवचसो: प्रत्येकं योजनात् पञ्चमनोयोगपञ्चवचोयोग-वैक्रियकाययोगेषु तथाऽऽहारककाययोगा-ऽऽहारकमिश्र काययोग मार्गणाद्वय इत्येतासु त्रयोदशमार्गणासु प्रत्येकं जहण्णगो"त्ति आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकानां जघन्य एव जघन्यकः कालः "समयो" त्ति समयमात्रो ज्ञातव्य इत्युत्तरार्धेऽन्वयः । कुतः ? असंख्य लोक प्रदेश राश्यपेक्षया स्तोकवन्धक परिमाणासु मार्गणास्वेक जीवाश्रयजघन्यवन्धकालानुसारेण प्रकृतकालस्य लाभात्, एकजीवाश्रयजघन्यबन्धकालस्य त्वधिकृतमार्गणायां समयमात्रत्वाञ्च । उक्तञ्च प्राग्
......अणुक्कोसार लहू खणो होइ पणम गवयेसु । काये उरले बिउवे आहारदुगे कसायेसु ं ||१४३||' इति ।
अत्र काययोगौ-दारिककाययोग- कपायमार्गणानां वर्जनं तासु प्रत्येकं बन्धकपरिमाणस्यानन्तत्वादिति बोद्धव्यमिति । "सेसासु" ति तिर्यग्गत्योघाद्यनन्तरोक्तद्विषष्टिमार्गणाः, प्रकृतगाथोक्ता मनोयोगादित्रयोदशमार्गणाश्च विहाय शेवास्वायुर्वन्धप्रायोग्यासु निरयगत्योघाद्याशीतिमार्गणासु "भिन्नमुत्तं मुणेयव्वो" त्ति आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां नानाजीवाश्रयो जघन्यकालो 'भिन्नमुहूर्तम्' - अन्तर्मुहूर्तं ज्ञातव्य इत्यर्थः । अयमपि कालः शेषमार्गणासु बन्धकपरिमाणस्योक्ताऽपेक्षया स्तोकत्वे सत्यप्येकजीवाश्रयस्य जघन्यवन्धकालस्यान्तर्मुहूर्तस्वात् प्रागुक्तनीत्या बोद्धन्य इति । शेषा अष्टाशीतिमार्गणाः पुनर्नामत इमाः सर्वे निरयगतिभेदाः सर्वे देवगतिभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः सर्वे मनुष्यगतिभेदाः सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः सर्वे पञ्चेन्द्रियभेदाः, बादरपर्याप्ताः पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकाः, पर्याप्तप्रत्येक वनस्पतिकायः सर्वे सकायभेदाः, स्त्रीवेद-पुरं वेदमत्यादिचतुर्ज्ञान - विज्ञ-संयमौघ- सामायिक-छेदोपस्थापनीय- परिहारविशुद्धिकसंयम- देशसंयम-चक्षु
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[ ३५३
मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्टस्थिति०] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम् दर्शना-ऽवधिदर्शन-तेजः-पद्म-शुक्ललेश्या-सम्यक्त्वोध-क्षायिक-क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-पासादनसंज्ञिमार्गणाश्वेति ॥३९८॥ अथ प्रकृतमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धककालमुत्कृष्टत आह
परमो अंतमुहत्तं णेयो पज्जत्तणर-मणुस्सीसु। आणतपहुडिसुरेसुआहारदुगम्मि मणणाणे ॥३९९॥ संयम-सामइएसुछेए परिहार-सुइल-खइएसु।
सेसासु असंखयमो भागो पलिओवमस्स भवे ॥४००॥ (प्रे०) “परमो अंतमुहुत्तं यो" इत्यादि, 'परमः'-उत्कृष्टः कालोऽन्तमुहूर्त ज्ञेयः, आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामिति प्रक्रमाद्गम्यते । कासु मार्गणास्वित्याह-"पज्जत्तणरे" त्यादि, पर्याप्तमनुष्य--मानुषीमार्गणयोरानतकल्पप्रभृतिषु पञ्चानुत्तरविमानान्तेषु देवगतिमार्गणाभेदेवाहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगद्विके, मनःपर्यवज्ञाने, संयमौघ-सामायिकसंयमयोः, छेदोपस्थापनसंयमे, परिहारविशुद्धिकसंयम-शुक्ललेश्या-क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणास्वित्येतास्वेकोनत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । कुतः? प्रत्येकमायुर्वन्धकानां संख्येयत्वादेकजीवाश्रयबन्धकालस्यान्तमुहूर्तत्वाच्चेति । “सेसासु" ति उक्तशेषासु निरयगत्योघादिद्विसप्ततिमार्गणासु "असंखयमो भागो पलिओवमस्स भवे" ति प्रकृतकालः पल्योपमस्यासंख्येयतमैकभागप्रमाणो भवेदित्यर्थः । कुतः ? प्रत्येकं बन्धकपरिमाणस्यासंख्येयत्वेऽप्यसंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षयास्तोकत्वादेकजीवाश्रयवन्धकालस्यान्तमुहूर्तत्वाच्चेति ।
शेषमार्गणा नामतस्त्विमा:-सर्वे निरयगतिभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, मनुष्यौघाऽपर्याप्तमनुष्यभेदौ, देवोधः,-भवनपत्यादिसहस्रारकल्पान्ता अन्य एकादशदेवभेदाश्च,सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियभेदाः, बादरपर्याप्ताः पृथिव्यादिवायुकायान्ताश्चत्वारो भेदाः, पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेदः, सर्वे त्रसकायभेदाः,पञ्चमनोयोगभेद-पञ्चवचोयोगभेद-वैक्रियकाययोग-स्त्रीवेद-पु. वेद-मत्यादित्रिज्ञान-विभङ्ग-देशसंयम-चक्षु-वधिदर्शन-तेजः-पद्मलेश्या-सम्यक्त्वौघ-क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-सासादन-संज्ञिमार्गणाभेदाश्चेति ॥३९९-४००॥
तदेवमभिहित आदेशतोऽप्यष्टानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्योः प्रत्येकं बन्धकानां जघन्योत्कृष्टमेदभिन्नो द्विविधोऽपि निरन्तरकालः । साम्प्रतं जघन्याऽजघन्यस्थितिविषयं तं दिदशयिषुरादौ तावदोघत आह
सत्तण्ह बंधगाणं भिन्नमुहुत्तं ठिईअ हस्सासु। हस्सियरो अलहूए सव्वद्धा-ऽऽउस्स दोण्हं वि ॥४०१॥
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३५४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानां जघन्यस्थिति (प्रे०) “सत्तण्ह बंधगाण"मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येक "ठिईअ हस्साए” ति 'ह्रस्वायाः'-जघन्यायाः स्थितेः “बंधगाणं" ति 'वन्धकानां'-निर्वत कानां 'भिन्नमुहम्'-अन्तमुहूर्त, कालो भवतीति प्रक्रमानगम्यते । किं जघन्य उत्कृष्टो वैष भिन्नमुहूर्त काल इत्याह-"हस्सियरो" ति हस्यः-जघन्यः, 'इतरः'-दीर्घः, जघन्योत्कृष्टद्विविधकालः प्रत्येकमप्यन्तमुहूर्तमेवेत्यर्थः । अत्र ह्रस्वापेक्षया दीर्घकालः संख्यातगुणाधिको बोद्धव्यः, संख्येयानां जीवानां निरन्तरं क्रमशो जघन्यास्थतिबन्धसम्भवादिति । “अलहए” ति सप्तानामलघोः-अजघन्यायाः स्थितेर्वन्धकानां कालस्तु “सव्वद्धा" ति सर्वाद्धा भवतीति । अथाऽऽयुपस्तमाह-"उस्स दोण्हं वि" ति अकारस्य पूर्व दर्शनात् 'सबद्धा' इतिपदस्य देहलीदीपकन्यायेनात्राऽपि योजनाच्चायुषो 'द्वयोरपि'-जघन्याऽजघन्य पोः स्थित्योः कालः सर्वाद्धा,-अनाद्यनन्त इत्यर्थः । असंख्यलोकादिपरिमाणेषु जीवराशिवायुमो जवन्याऽजवन्यस्थित्योन्धकानां नरन्तर्येणाऽऽकालं लाभात् , प्रकृते च जीवपरिमाणस्य तथात्वादिति ।।४०१॥
अथ प्रकृतकालमेव मार्गणास्थानेषु दिदर्शयिपुरादौ तावदायुर्वर्जानां सप्तानां जघन्यस्थितेबन्धकानां कालमाह
यो सवेगिंदियणिगोअ-सेसमुहमेसु वणकाये । असमत्तवायरसु चउसुपुहवाइभेएसु॥४०२॥ पत्तेअवणापज्जे तिरिय-उरलमीस-कम्मणेसु च । अण्णाणदुगे अयते तीसुअपसत्थलेसासु ॥४०३॥ अभविय-मिच्छत्तेसुअमणा-ऽणाहारगेसु सव्वद्धा।
सत्तण्हं कम्माणं जहण्णगाए खलु ठिईए॥४०४॥ (प्रे०) “णेयो सव्वेगिंदिये” त्यादि, सर्वशब्दस्यैकेन्द्रिय-निगोदयोः प्रत्येक योजनात् सर्वेष्वेकेन्द्रियजातिमार्गणाभेदेयु, सर्वेषु निगोदभेदेषु तथा "सव्वेगिंदियणिगो" इत्यनेन संगृहीतास्त्रयः सूक्ष्मैकेन्द्रियभेदास्त्रयश्चमू मनिगोदभेदा इत्येतान् पड्भेदान् विहाय शेपेषु सर्वेषु पथिव्यप्तेजोवायुकायसत्केषु द्वादशपु मूक्ष्मपृथिवीकायादिभेदेपु, वनस्पतिकार्याघभेदे, तथा पथिव्यादिसत्केष्वपर्याप्तवादरपथिव्यादिरूपेषु चतुपु मार्गणाभेदेषु । अन्यमार्गणाः संग्रहीतुमाह-"पत्तेअ. वणापज्जे" इत्यादि, अपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेदे, तिर्यग्गत्योघी-दारिकमिश्रकाययोग-कार्मणकाययोगेषु, । चः समुच्चये । मत्यज्ञान-श्रताज्ञानरूपेऽज्ञानदिके, असंयममार्गणायां त्रिसृष्वप्रशस्तकृष्णादिलेश्यामार्गणासु, तथाऽभव्य-मिथ्यात्वमार्गणयोरसंड्य-ऽनाहारकमार्गगयोश्चेत्येतासु पञ्चचत्वारिंशन्मार्गणासु प्रत्येकं "सव्वडा"त्ति प्रस्तुतनानावन्धकाश्रयो कालः सर्वाद्धा, ज्ञेय इति पूर्वे
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मार्गणास्वायुर्वर्जानां जघन्यस्थिति०] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[ ३५५ णान्वयः । कस्याः स्थितेः प्रकृतकालः सर्वाद्धत्याह-"सत्तण्ह" मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलकर्मणां जघन्याः स्थितेरित्यर्थः । सुगमं चेदं, तिर्यग्गत्योघाद्यष्टाविंशतिमार्गणासु प्रत्येकं जघन्यस्थितेवन्धकारिमाणस्यानन्त्यात् । उक्तश्च प्राक परिमाद्वारे यत्'तिरिये सव्वेलिदिय-णिगोदभेअ-बण-उरलमीसेसुं । कम्मण-दुअणाणेसुं अयते अपसत्थलेसासुं ॥३२२।। अभविय-मिच्छत्तेसुं अमणा-णाहारगेसु य अणंता । सत्ताह बंधगा खलु हुन्ति ठिईए जहण्णाय ।।३२३ इति
शेपास्वपर्याप्तवादरपृथिव्यादिमार्गणास्वपि प्रत्येकं बन्धकजीवा असंख्यलोकप्रदेशराशितुल्यास्ततः प्रकृतबन्धका निरन्तरं प्राप्यन्त इति सर्वाद्धाऽभिहित इति ॥४०२-४०४॥
अथ शेषमार्गणासु सप्तकर्मणां जघन्यस्थितेवन्धककालोऽसर्वावेत्यर्थाद्गम्यते । स च सावधिक इतिकृत्वा जघन्योत्कृष्टभेदेन दिदर्शयिपुरादौ जघन्यपद आह--
सव्वणिरय-पंचिंदियतिरियेसु तहा अपज्जमणुसम्मि । सव्वामर-विगलेसु असमत्तपणिदिय-तसेसु ॥४०५॥ पुहवाइचउसु तेसिं बायर-बायरसमत्तभेएसु। पत्तेअवणम्मि तहा समत्तपत्तेअवणकाये ॥४०६॥ पणमण-वय-कायेसु आहार-विउव्वदुग-उरालेसु। .
उवसम-सासाणेसुहस्सो समयो मुणेयव्वो ॥४०७॥
(प्रे०) “सव्वणिरये"त्यादि, अक्षरार्थस्तु प्राग्वत्, ततः सर्वेषु निरयभेदेषु, सर्वेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदेषु, तथाऽपर्याप्तमनुष्यभेदे, सर्वेष्वमरभेदेषु,सर्वेषु देवगतिभेदेष्वित्यर्थः । तथाऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदे, अपर्याप्तत्रसकायभेदे, पृथिव्यादिषु चतुर्योधभेदेषु, तेषामेव पृथिव्यादीनां चतुर्यु बादरोषभेदेषु, तेषामेव पृथिव्यादीनां चतुर्यु पर्याप्तवादरभेदेषु, तथा प्रत्येकवनस्पतिकायौधभेदे, पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेदे, पञ्चषु मनोयोगभेदेषु, पञ्चषु वचोयोगभेदेषु, काययोगसामान्ये, आहारक-तन्मिश्रकाययोगयोर्दिके, वैक्रिय-तन्मिश्रकाययोगयोढिके, औदारिककाययोगे, औपशामक-सास्वादनमार्गणयोश्चेत्येतासु षडशीतिमार्गणासु प्रत्येकं प्रकृतायाः सप्तानां जघन्याः स्थिते
र्नानाजीवाश्रयो 'हस्वः' -जघन्यः कालः समयो ज्ञातव्यः । एष हि प्रकृतस्थितेरेकजीवाश्रयजघन्यकालवद् बोद्धव्यः, असंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकबन्धकपरिमाणासु मार्गणासु नानावन्धकाश्रयजघन्यकालोऽप्येकजीवाश्रयजघन्यबन्धकालवल्लभ्यत इति तु प्रागुपपादितमेव, प्रकृतमार्गणासुप्रत्येकमेकजीवाश्रयः सप्तकर्मणां जघन्यस्थितेर्जघन्यबन्धकालस्तु प्रागेकजीवाश्रयबन्धकालप्ररूपणायामेकसमयो दर्शितो भावितश्च, अत्राप्ययं तथैव भावनीय इति ॥ ४०५-४०७॥
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३५६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणास्त्रायुर्वर्जानां जघन्यस्थिति परिहारे तेऊए पउमाए वेअगे य समयो वा।
भिन्न मुहुत्त व भवे सेसासु भवे मुहुत्तत्तो ॥४०८॥ (प्रे०) “परिहारे” इत्यादि, परिहारविशुद्धिकसंयमे, तेत्रोलेश्यायां, पद्मलेश्यायां, वेदकसम्यक्त्वे चेत्येतायु चतसृषु मार्गणासु प्रत्येकं सप्तानां जघन्यस्थितेनानावन्धकाश्रयो ह्रस्वः कालः “समयो वा भिन्नमुहत्तं व भवे" ति स्वस्थानाऽप्रमत्तसंयतस्यापि जघन्यस्थितिवन्धस्वामित्वमिच्छतां समयो भवेत् । वाकारस्य मतान्तरद्योतकत्वात् कृतकरणाद्धाया अनन्तरप्राग्भाविस्थितिवन्धं कुर्वतोऽप्रमत्तस्यैव जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वमिच्छतोक्तान्यमतेन तु भिन्नमुहूर्त प्रकृतबन्धकाल - इत्यर्थः। एष हि मतद्वयापेक्षयाऽप्येकजीवाश्रयस्य सप्तानां जघन्यस्थितेर्जघन्यवन्धकालस्य तथात्वात्तथा बोद्धव्यः । उक्तं चैकजीवाश्रयकालद्वारेऽपि
___ "परिहारे ते ऊए पउमाए वेअगे य समयो वा । भिन्नमुहुत्तं व भवे" ॥१९१॥ इति ।
"सेसासु" ति उक्तशेषासु मनुष्यगत्योधादिपञ्चत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकं सप्तानां जघन्यस्थिते नावन्धकाश्रयो ह्रस्वकालोऽन्तमुहूतं भवेत् । तत्र शेषमार्गणा नामत इमाः-मनुष्यौघपर्याप्तमनुष्य-मानुपी-पञ्चेन्द्रियोघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-वसकायौघ-पर्याप्तस्त्रसकाय--वेदत्रया-ऽपगतवेदकषायचतुष्क-मत्यादिज्ञानचतुष्क-विभङ्गज्ञान-संयमोघ-सामायिक-छेदोपस्थापन-मूक्ष्मसम्पराय-देशसंयम-चक्षुरादिदर्शनत्रिक--शुक्ललेश्या-भव्य-सम्यक्त्वौघ--क्षायिकसम्यक्त्व--मिश्रदृष्टि-संड्या--ऽऽहारिमार्गणा इति । अत्रापि पूर्ववदेकजीवाश्रयजघन्यवन्धकालानुसारेणैव प्रकृतकालो भावनीय इति ।।४०८।। अथ प्रकृतसप्तानां जघन्यस्थिते नाजीवाश्रयकालमुत्कर्षतो व्याजिहीर्घ राह
णिरय-पढमणिरयेसु देव-भवणदुग-अपज्जमणुसेसु।
उक्कोसो णायब्बो आवलिआए असंखंसो ॥४०९॥ (प्रे०) "णिरयपढमणिरयेसु"मित्यादि, निरयगत्योध-प्रथमपृथिवीनिरयभेदयोस्तथा देवगत्योघ-भवनपति-व्यन्तरद्विका-ऽपर्याप्तमनुष्यमार्गणासु च प्रत्येकं "उक्कोसो णायव्वो” ति आयुर्वर्जसप्तानां मूलप्रकृतीनां जघन्यायाः स्थितेर्वन्धकानामुत्कृष्टः-दीर्घः कालो ज्ञातव्यः । कियानित्याह-"आवलियाए असंख्सो " ति आवलिकाया 'असंख्यांशः' - असंख्येयतमैकभागगतसमयप्रमाण इत्यर्थः । कुतः ? एतासु प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धस्य विग्रहगतौ भावेनैकजीवमाश्रित्याऽपि द्वौ समयावेब सम्भवात् , तद्वन्धकपरिमाणस्यासंख्येयलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकत्वाच्च । इदमुक्तं भवति-यथा कार्मणा-ऽनाहारकमार्गणयोरुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकानामुत्कृष्टकाल आवलिकाया असंख्यभागमात्रस्तथा एतासु मार्गणास्वपि जघन्यस्थितेर्बन्धकानामसौ बोद्धव्यः, कार्मणकाययोगादिमार्गणावन्निरयगत्योघादिमार्गणास्वप्येकजीवाश्रितस्य सप्तानां जघन्यस्थितेर्वन्धकालस्य तद्
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मार्गणास्वायुर्वर्जानां जघन्यस्थिति०] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम्
[३५७ बन्धकानां च तुल्यत्वात् । ननु कार्मणाऽनाहारकमार्गणयोः प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकाश्चतु
र्गतिकाः सन्ति, एतासु निरयगत्योयादिमार्गणासु तु जघन्यस्थितेरपि त एकैकगतिसत्कास्तदुभयत्र बन्धकानां तुल्यत्वकथने कथं न दोषः ? इति चेद् , न, असंख्यलोकप्रदेशराशितः स्तोकत्वमपेक्ष्यैव तुल्यत्वस्याऽभिहितत्वादिति ॥४०९।।
अथाऽऽर्यात्रयेण शेषमार्गणासु प्रकृतकालमाहसेसेसुणिरयेसुसव्वेसु पणिंदितिरिय-विगलेसु। सव्वत्थवज्जसेससुरा-ऽपज्जपणिंदियतसेसु ॥४१०॥ पुहवाइचउसु तेसिं बायर-बायरसमत्तभेएसु। पत्तेअवणम्मि तहा समत्तपत्तेअवणकाये ॥४११॥ वेउवदुगे मीसे सासाणम्मि य भवे असंखयमो।
पलिओवमस्स भागो सेसासु भवे मुहुत्ततो ॥४१२॥ (प्रे०) “सेसेसुणिरयेसु" मित्यादि, निरयगत्योध-प्रथमपृथिवीनिरयभेदयोरनन्तरमेव गृहीतत्वात्ताभ्यां विना द्वितीयादिसप्तमान्तपथिवीभेदभिन्नेषु शेषनिरयगतिभेदेष, तथा सर्वेषु पञ्चे. न्द्रियतिर्यग्भेदेष, सर्वे विकलेन्द्रियभेदेषु, तथा "सव्वत्थवज्जसेससुर" ति देवगत्योघ-भवनपति-व्यन्तरदेवभेदानामनन्तरमेव गृहीतत्वात् तैस्त्रिभिः सहितं सवार्थसिद्धविमानदेवगतिभेदं विहाय शेषेषु ज्योतिष्कादिषु चतुरनुत्तरविमानपर्यन्तासु पड्विंशतिदेवगतिमार्गणाभेदेष्वित्यर्थः । तथाऽपर्याप्तशब्दस्य पञ्चेन्द्रियत्रसयोः प्रत्येकं योजनादपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदेऽपर्याप्तत्रसकायभेदे च । अन्यभेदानपि संग्रहीतुमाह- "पुहवाइचउसु”इत्यादि, "वेउव्वदुर्ग'इत्यादि च, पृथिव्यादिवायुकायान्तेषु चतुष्वाघमार्गणास्थानेषु, तेषामेव चतुर्णा चतुर्यु बादरौघेषु चतुर्यु पर्याप्तवादरेष्वित्येवमष्टत्तरभेदेषु, तथा प्रत्येकवनस्पतिकायौघभेदे, पर्याप्तप्रत्येकवनम्पतिकाये, वैक्रियकाययोगवैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणाद्विके, सम्यग्मिथ्यात्वे सासादने चेत्येतासु समस्तासु पञ्चषष्टिमार्गणासु प्रत्येकं प्रकृतः सप्तमूलप्रकृतीनां जघन्यस्थिते नाबन्धकाश्रयो दीर्घः कालः पल्योपमस्याऽसंख्यतमैकभागो भवेदित्यर्थः । अयं हि सप्तानामौधिकोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामुत्कृष्टकालवबोद्धव्यः, तद्वदत्रापि प्रकृतस्थितेर्बन्धकपरिमाणस्यासंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकत्वेऽप्यसंख्येयत्वादेकजीवाश्रयोत्कृष्टबन्धकालस्यान्तमुहूर्तत्वाच्च ।
ननु एतासु मार्गणासु प्रत्येकं जघन्यस्थितेर्बन्धकजीवा असंख्येयाः सन्तोऽपि कासुचिन्मागणास्वौधिकोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकपरिमाणापेक्षयाऽसंख्येयगुणा अपि भवन्ति,तत्तास्वप्यसौ कथं स्तोकबन्धकपरिमाणप्रयुक्तोषिकोत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टबन्धककालवत्पल्योपमासंख्येयभागप्रमाण एवोच्यते ?
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३५८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानामजघन्यस्थिति इति चेद्, भण्यते-यथौधिकोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकपरिमाणं प्रकृतैकैकमार्गणासत्कपरिमाणं च न तुल्यम् , किन्तु हीनाधिकमपि सद् असंख्येयस्याऽसंख्येयभेदभिन्नतयाऽसंख्येयमिति तुल्यव्यपदेशं भजते, तथा पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणोधिकोत्कृष्टस्थितिवन्धकालविषये प्रकृततत्तन्मार्गणासत्ककालविषये च 'पल्योपमासंख्येयभाग' इत्येवंरूपव्यपदेशसाम्यमेव, न पुनः कालसाम्यमपि, कालस्य तु बन्धकपरिमाणाद्यनुसारेण हीनाऽधिकस्य सम्भवादिति ।
_ "सेसासु” त्ति उक्तशेषासु मनुष्यगत्योधादिचतुःपञ्चाशन्मार्गणासु प्रत्येकमेकजीवाश्रयस्य सप्तानां जघन्यस्थितेर्बन्धकालस्योत्कृष्टतोऽन्तमुहूर्तत्वेऽपि बन्धकपरिमाणस्य संख्येयत्वात नानाजीवाश्रितो जघन्यस्थितेरुत्कृष्ट कालोऽप्यौधिकजघन्यस्थितेरुत्कृष्ट कालवदन्तमुहूर्तमेव प्राप्यते, न पुनस्तदधिक अतस्तथैव दर्शयन्नाह-"भवे मुहुत्तो” ति सप्तानां जघन्यस्थिते नान्धकाश्रय उत्कृष्ट कालो 'मुहूर्तान्तः'-मुहूर्ताभ्यन्तर्वती भवेत् , अन्तम हृतमिति यावदिति । शेषमार्गणाऽभिधानानि त्वेवम्-अपर्याप्तभेदवर्जास्त्रयो मनष्यगतिभेदाः,सर्वार्थसिद्धाभिधदेवगतिभेदः, ओघपर्या भेदभिन्नौ द्वौ पञ्चेन्द्रियजातिभेदो, तथैव द्वौ बसकायभेदौ, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोगकाययोगसामान्या-दारिककाययोगा-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोग-वेदत्रया-ऽपगतवेद-कपायचतुष्कमत्यादिज्ञानचतुष्क-विभङ्गज्ञान-संयमोघ-सामायिक-छेदोपस्थापनीय-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयम-देशसंयम-चक्षुरादित्रिदर्शन-तेजः-पम-शुक्ललेश्या-भव्य-सम्यक्त्वौघ-क्षायिक-क्षायोपशमिकौ-- पशमिकसम्यक्त्व-संश्या-ऽऽहारकमार्गणाश्वेति ॥४१०-४११-४१२।।
तदेवं दर्शितः सप्तानां जघन्यस्थिते नाबन्धकाश्रयो द्विविधोऽपि कालः । साम्प्रतं तासामेव सप्तानामजघन्यस्थितेस्तं दिदर्शयिपुः सप्तानामनुत्कृष्टस्थिते नावन्धकाश्रयकालेन बहुसाम्यमितिकृत्वैकयाऽऽर्यया सापवादमतिदिशति
अजहण्णाअ ठिईए सत्तण्ह अगुरुठिइव्व सव्वासु।
णवरि लढू खुड्डभवो दुसमयहीणो अपज्जणरे ॥४१३॥ (प्रे०) "अजहण्णाअठिईए” इत्यादि, सप्तानामायुर्जानां मूलप्रकृतीनां नानावन्धकाश्रयः कालः "अगुरुठिइव्व सव्वासु” ति निरयगत्योघादिसप्तत्युत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकं सामान्यतोऽगुरुस्थितिवत् ,-सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेः प्रागुक्तनानावन्धकाश्रयजघन्योत्कृष्टद्विविधकालवदित्यर्थः । इदमुक्तं भवति'होइ अणुकोसाए ठिईए सत्तण्ह मीसु-वसमेसु । हस्सो भिन्नमुहुत्तं मिस्सदुजोगेसु समयो वा ॥३८७।। समयो असमत्तणरे आहारम्मि गयवेअ-सुहमेसु सासायणे य णेयो छेए अद्धतइअसयसमा॥३८८॥ परिहारे वासाणं वीसपुहुत्तं हवेज्ज सेसासु । सत्रद्धा णायव्योऽणुकोसाए खलु ठिईए ॥३८९।। असमत्तामणुस-विक्कियमीसु-बसम-मीस-सासणेसु गुरू । पलिआऽसंखियभागो आहारदुगे अवेअ-सुहुमेसु॥ भिन्नमुहुत्तं छेए अयरा पण्णासलक्खकोडीओ। परिहारे विण्णेयो देसूणा पुवकोडी दो ॥३९१।।
.
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[ ३५९
मार्गणास्वायुषो जघन्येतर स्थिति० ] द्वितीयाधिकारे कालद्वारम् इति गाथापञ्चकेना-ऽऽयुर्वर्जसप्तकर्मणामनु-कृष्टायाः स्थिते नाजीवाश्रितकाल एकादशमार्गणासु सावधिकतया जघन्यत उत्कृष्टश्च यावानभिहितस्तावान् सप्तानामजघन्यस्थितेरपि बोद्धव्यः । शेषमागंणास त्वसो निरवधिकतया सर्वाद्धैव बोद्धव्यः । इत्थं हतिदेशे कृते याऽतिप्रसक्तिस्तां निराकुर्वनाह-"णवरि” इत्यादि, नवरं तत्रापर्याप्सनरमार्गणायां सप्तानामनुत्कृटस्थितेर्जघन्यः कालः 'समयो असमत्तणरे'इत्यनेन समयमात्रः कथितः सोऽत्र तथा न वक्तव्यः, किन्तु “खुड्डुभवो दुसमय होणो” त्ति, दिसमयोनक्षल्लकभवः सप्तानामजघन्यस्थितेर्जघन्यकालतयाऽभिधातव्य इत्यर्थः । कुतः ? इति चेद् , अपर्याप्तमनुष्यमार्गणायां सप्तानां जघन्यस्थितेर्बन्धकालस्य विग्रहगतो भवप्रथमद्विसमययोरेव सम्भवेनाऽजघन्यस्थितेवेन्धकालो भवतृतीयसमयादारभ्या जीवनं नैरन्तर्येण प्राप्यते, स चाजघन्यस्थितिसत्कैकजीवाश्रयजघन्यवन्धकालानुसारेण बोद्धव्यः । शेषसर्वमार्गणासु त्वतिदिष्टद्विविधकालोऽपर्याप्तमनुष्यमार्गणायामुत्कृष्टकालश्च सर्वथैवानुत्कृष्टस्थितेः प्राग्भावितकालानुसारेण भावनीय इति ॥४१३।।
तदेवं दर्शितः सप्तानां जघन्याऽजघन्यस्थित्यो नाबन्धकाश्रयो द्विविधोऽपि कालो यथायथमतिदेशादिना । साम्प्रतमवशेषस्याऽऽयुःकर्मणस्तं प्रतिपिपादयिषुरतिदेशादिनैव प्राह
जासु अणुक्कोसाए ठिईअ आउस्स होइ सव्वद्धा। तासु तह से लहूए उक्कोसठिइब्ब सेसासु ॥४९४॥ णवरा-ऽऽवलिआऽसंखियभागो णर-देस-सासणेसु गुरू ।
णेयो अजहण्णाए ऽणुक्कोसठिइब सब्बासु॥४१५॥ (प्रे०) “जासु अणुक्कोसाए” इत्यादि, यासु मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्टायाः स्थितेर्नानाजीवाश्रितकालः "होइ सत्वहा” ति प्राक “सव्यद्धाउस्स भवे अगुरुठिईअ तिरियम्मि” इत्यादिगाथात्रयेण सर्वाद्धाऽभिहितो भवति “तासु तह से लहूए” त्ति तासु तिर्यग्गत्योघादिद्विषष्टिमागंणासु "से" ति तस्यायुपो 'लयोः'-जघन्यायाः स्थितेः'तथा' -तइत्, सर्वाद्धा इति यावत् । नानाबन्धकाश्रयकाल इति तु गम्यते । इदमुक्तं भवति-तिर्यग्गत्योघे, सर्वेबैकेन्द्रियभेदेषु, सर्वेषु साधारणवनस्पतिकायभेदेषु, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायौघभेदेषु, सूक्ष्मपृथिव्यप्तेजोवायुकायोघतत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदेषु, बादरपृथिव्यप्तेजोवायुकायौघ-तदपर्याप्त भेदेषु, प्रत्येकवनस्पतिकायौघ-तदपर्याप्तभेदयोः, काययोगसामान्यौ-दारिककाययोगौ-दारिकमिश्रकाययोग--नपुसकवेद-कषायचतुष्काऽज्ञानद्विका-संयमा-ऽचक्षुर्दर्शन-कृष्ण-नील-कापोतलेश्या--भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंख्या-ऽऽहारिमार्गणासु प्रत्येकमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकपरिमाणबदायुषो जघन्यस्थितेर्बन्धकपरिमाणस्याऽप्यसंख्येयलोकादिप्रदेशराशितुल्यत्वान्नानाबन्धकाश्रयः कालोऽपि सर्वद्धैव प्राप्यत इति ।
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३६० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषो जघन्यस्थिति० "उक्कोसठिइव्व सेसासु" ति उक्तशेषमार्गणासु प्रत्येक मुत्कृष्टस्थितिवद्'-उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां ह्रस्वेतरकालवज्जघन्यस्थितेर्बन्धकानां ह्रस्वेतरकाल इत्यर्थः । अत्रैवापवदन्नाह"णवरावलि" इत्यादि, 'नवरं'-परं 'णरदेससासणेसु' ति शेषमार्गणागतास नरगत्योध-देशसंयम-सासादनरूपास तिसृषु मार्गणास प्रत्येकमायुषो जघन्यस्थितेवन्धकानां 'गुरु'-दीर्घः काल 'आवल्यसंख्येयभागः' आवलिकाया असंख्येयतमैकभागगतसमयप्रमाणः । अयम्भाव:-असंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकबन्धकपरिमाणासु निरयगत्योघाद्यकोत्तरशतशेषमार्गणास्वेकजीवाश्रयोस्कृष्टस्थितिबन्धका उमज्जघन्यस्थितेर्वन्धकालस्य समयमात्रत्वेन तुल्यत्वेऽप्यायुष उत्कृष्टजघन्यस्थित्योर्बन्धकपरिमाणं तु मनुष्यगत्योध-देशसंयम-सासादनवर्जासु शेषनिरयगत्योघादिमार्गणास्वेव तुल्यम् , न पुनर्मनुष्यगत्योघादिमार्गणात्रयेऽपि, तत्र मार्गणात्रये आयुष उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकपरिमाणस्य संख्येयत्वात् तदीयजघन्यस्थितेर्बन्धकपरिमाणस्य त्वसंख्येयत्वात , इत्यतः 'उकोसहिइव्व सेसा' इत्यनेन शेषसर्वमार्गणासु सामान्यतोऽतिदिष्टोऽपि प्रस्तुतकालो मनुष्यगत्योधादिमार्गणाचतुष्के पश्चादपोद्याऽऽवल्यसंख्यभागप्रमाणो दर्शितः ।
इत्थं च शेषमार्गणास्वायुषो जघन्यस्थितेः प्रस्तुतकाल इयान प्राप्यते-पर्याप्तमनुष्य-योनिमन्मनुष्यभेदौ,आनतकल्पाद्या अष्टादशदेवगतिभेदाः, आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमति-श्र ता--ऽवधि--मनःपर्यवज्ञान--संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थान-परिहारविशुद्धिकसंयमा-ऽवधि - दर्शन-शुभलेश्यात्रिक-सम्यक्त्वोध-क्षायिक-क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणाश्चेत्येतासु सप्तत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमायुषो जघन्यस्थिते नाबन्धकाश्रयो दीर्घः कालः संख्येया समयाः। सर्वे निरयगतिभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदा;मनुष्यौघा-ऽपर्याप्तमनुष्यभेदौ, देवगत्योघ-सहस्रारान्तदेवगतिभेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियभेदाः, पर्याप्तवादरपृथिव्यप्तेजोपायुकायभेदाः, पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेदः, सर्वे त्रसकायभेदाः, पञ्चमनोयोगभेद-पञ्चवचोयोगभेद-बैक्रियकाययोग-स्त्रीवेदपुवेद-विभङ्गज्ञान-देशसंयम-चक्षदर्शन-सासादन-संज्ञिमार्गणाश्चेत्येतासु चतुःषष्टिमार्गणासु तु प्रकृतकाल उत्कर्षत आवलिकाया असंख्येयभागः । एताश्चतुःषष्टिमार्गणास्तथाऽनन्तराभिहिताः सप्तत्रिंशन्मार्गणा इत्येवमेकोत्तरशतमार्गणासु त्वायुषो जघन्यस्थितेः प्रकृतकालो जघन्यत एकसमय इति । ___अथाऽऽयुषोऽजघन्यस्थितेः प्रकृतकालमतिदिशति-“णेयो अजहण्णाए” इत्यादिना, सुगमम् । अत्रापि भावनाऽनुत्कृष्टस्थिते नाबन्धकाश्रयकालवदेव द्रष्टव्येति ।।४१४-४१५॥
तदेवं प्ररूपितः शेषस्याऽऽयुषोऽपि जघन्याऽजघन्यस्थित्योर्वन्धकानां सम्भवजघन्योत्कृष्टद्विविधकालः, तस्मॅिश्व प्ररूपिते गतं नानाजीवाश्रितं कालद्वारम् ॥
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे द्वादशं नानाजीवाश्रयकालद्वारं समाप्तम् ।।
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प्रोघवद्
आवलिका-
ओघवत
आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयकालप्रदर्शकयन्त्रम् जघन्यकालः
उत्कृष्टकालः
सर्वाद्धा अन्तर्मुहूर्तम्
अन्तर्मुहूर्तम्
पल्याऽसंख्यएकसमयः
संख्यभागः भागः मनुष्यौव-तत्पर्याप्त
निरयौघादि-I सर्वभेद
शेषभेदाः
मानुषी०सर्वार्थगति०
सिद्धश्च०४
इन्द्रिय
सर्वविकलपञ्चेन्द्रिय.
१२
सर्वविकलपञ्चेन्द्रियभेदाः, १२ औघबादरौघतत्पर्याप्तभेदात् पृथिव्यप्तेजोवायुभेदाः प्रत्येकवनौष-तत्पप्तिौ, सर्वत्रसभेदाश्च. १७
सर्व केन्द्रिय सर्वसूक्ष्मा-ऽपर्याप्तबादरभेदभिन्नाः पृथिव्यप्तेजोवायुकायभेदाः,वनौघ० अपर्याप्त प्रत्येकवन० सर्वसाधारणवनभेदाश्च०
काय०
यान
★ सर्व भद० १८ अाहारकद्विक०२ कार्मण०१ शेष०१५
वेद०
सर्वभेद
४
गतवेद०
वेदत्रिक०३
सर्वक
सर्व० ४
शेष०
६
कपाय ज्ञान | मत्यादि० ४ | अज्ञान०३ | मनःपयव०१ संयमोघ०सामा० सुक्ष्मसम्पराय०
सयमांध० सामा० संयम छेद० परिहार
छेद० परिहार देश०५
असंयमश्च. २ । सूक्ष्म० ५ दर्शन अवधि० १ चक्षु. अचक्षु०२ लेश्या०
देशसंयम० असंयम०२
सर्व० सर्व०
३ ६
सर्व
२
सर्व०
२
भव्य०
सर्व० सम्यक्त्वौध० क्षायिक० सास्वासम्यक्त्व. क्षायोप० औप० दन० मिथ्यात्व०
मिश्र० ४ संज्ञी
सर्व०
सर्व
mm
सर्व० २ अनाहा०१| पाहारी०१
१२३
आहारी
सर्व० सर्वमार्गणाः- १४ १२४ गाथाङ्काः-- ३८३
३८४
३८४-३८५ ★ मनान्तरे मिश्रयोगत्रये जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् ।
।
३८६
३८६
।।
३८१-३८२
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________________
प्रोघवत्
आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनामनुत्कृष्टा-ऽजघन्यस्थितिबन्धयो नाजीवाश्रयकालप्रदर्शकयन्त्रम् जघन्यतः- एकसमयः | एकसमयः | २५० वर्षाणि विंशतिपृथक्त्ववर्ष. | अन्तर्मुहूर्त
| पल्योपमाऽसं- पञ्चाशल्लक्षकोटि देशोनपूर्वकोटि- पल्योपमाऽसंख्यउत्कृष्टतः-अन्तर्मुहूर्त
ख्यतमैकभागः सागरोपमाणि द्वयम् भागः
अपर्याप्तमनुष्य० गति०
शेष०
४६
*
१
इन्द्रिय०
सर्व०
१६
काय०
सर्व०
४२
वैक्रियमिश्र०
योग
शेष०
१५
आहारकतन्मिश्र००२ अपगतवेद०१
वेद०
त्रिवेद० सर्व०
३ ४
कषाय०
ज्ञान
सर्व०७
संयम
| सूक्ष्मसंपराय
छेदोपस्थापनःश परिहार० १
शेष०४
दर्शन०
सर्व०
३
लेश्या०
सर्व०६
भव्य
सर्व०
२
प्रौपशमिक
सम्यक्त्व.
सास्वादन०१
शेष
मिश्र०
संज्ञी०
सर्व०
२
सर्व०२
आहारी सर्वमार्गणाः--
३८७-३८८
३८७-३८८ गाथाङ्काः
३६०-३६१
३८८-३६१ ।
३८६-३६१
३८७-३६०
३८६
A मतान्तरे मिश्रयोगद्वये जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् । ★ अपवादः-अजघन्यस्थितेः प्रस्तुतकालो जघन्यतो द्विसमयन्यूनक्षुल्लकभवः ।
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गति०
___ आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयकालप्रदर्शकयन्त्रम् जघन्यतः
उत्कृष्टतः ओघवद् प्रोघवद् । आवलिका- पल्योपमा
| सर्वाद्धा अन्तमुहूर्तम् । समयः । अन्तर्मुहूर्तम् । ऽसंख्यभाग० ऽसंख्यभागः मनुष्यौघ-तत्पर्या- सर्वे निरयतिर्यक्प- | मनुष्यौघ-तत्पर्याप्त-निरयौघ० प्रथम-द्वितीयपृथिव्यादिषड्-तिर्यग्गत्योघ० प्त-मानुषी० ञ्चेन्द्रिय-देवभेदा:, मानुषी० सर्वार्थ- | नरक० देवौध० निरयभेद० सर्वपञ्चे३ अपर्याप्तनरश्व. सिद्ध ४ भवनपरिक व्य-न्द्रियतिर्यग्भेद: ज्यो४३
न्तर० अपर्याप्त-तिष्कादिचतुरनुत्तरा
मनुष्य ६ न्त२६देवभेदाच. ३६ पञ्चेन्द्रियौघ- | सर्वविकल. पञ्चेन्द्रियौघ-तत्प
सर्वविकला-ऽपर्याप्त-सर्व एकेन्द्रियइन्द्रिय० तत्पर्याप्त०२
. अपयात्तपञ्चान्द्रपर्याप्त० | अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय
२
पञ्चेन्द्रिय० १० भेदा: ७ त्रसौध-तत्पर्याप्त- अोघ-बादरोघ- |त्रसौघ-तत्पर्याप्त
प्रोध-बादरौघ-तत्पर्या उक्तसप्तदशभेदी, २ तत्पर्याप्तपृथिव्यप्ते- भेदौ,
|प्त-पृथिव्यप्तेजोवा- भेदवर्जा: काय० जोवायुभेदाः, अोघ
यु०घयो-पर्याप्तप्रत्येक शेषाः पर्याप्तप्रत्येकवन
वनभेदौ० अपर्याप्तभेदौ,अपर्याप्तत्रसश्च
त्रसश्च०१५
योग
औदारिकमिश्र- कार्मणवर्जाः शेषा:
सर्वमनोवचोभेद काययोगौघ० आहारक-तन्मिश्र० औदारिक० १४ सर्व०
वैक्रिय-तन्मिश्री, | औदारिक
२ मिश्र०
कार्मण०२
| वेद०
सर्व0
४
कपाय० सर्व० ४
मत्यादिज्ञान०४ ज्ञान०
विभङ्ग १
असंयमवजा: संयम०
शेषाः , ६ दर्शन सर्व० ३
सर्व० । मत्यादि० विभङ्ग असंयमवर्जाःशेषाः,
मत्यज्ञान० श्रताज्ञान०२
असयमः
सर्व०
३
लेश्या०
शुभ० ३ शुभ०* ३
अशुभ०३ भव्य० | भव्य० १ भव्य०१
अभव्य सम्यक्त्वौध० । औपशमिकसम्यक्त्वौघ० क्षायिक
सास्वादन० मिथ्यात्व० सम्यक क्षायि० क्षायो० सास्वादन० ★क्षायो० प्रौप
मिश्र मिश्र० ४
२ | शमिक० ४ संज्ञी०संजी० १ संज्ञी
असंज्ञी०१ आहारी० आहारी०, १ प्राहारी,
अनाहा०१ सर्वमार्गणाः- ३६
५४ गाथाङ्काः- ४०८ । ४०४-५-६-७ ४१२
४१०-४११-४१२ | ४०२-३-४ ★ मतान्तरे-परिहारविशुद्धिकसमय-तेज:-पद्मलेश्या-क्षायोपशमिकसम्यक्त्वेषूत्कृष्टतोऽपि समय: (गाथा-४०८)
६५
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जघन्यतः समयः
उत्कृष्टतः - संख्येयाः समयाः
मनुष्यौघ तत्पर्याप्तौ मानुषी, आनतादि १८ देवभेदाच. २१
गति०
इन्द्रिय०
आयुष उत्कृष्ट-जघन्यस्थितिबन्धयोर्नानाजीवाश्रयकाल प्रदर्शकयन्त्रकम्
उत्कृष्ट स्थिति
जघन्यस्थिति
काय०
योग०
वेद०
कषाय०
ज्ञान०
आहारक- तन्मिश्र०
मत्यादिज्ञान० ४
संयमौ सामा संयम० छेद० परिहार०
देश
दर्शन० अवधि
लेश्या० शुभ०
भव्य०
सम्यक्त्वौच
सम्यक्त्व. क्षायि० क्षायो०
सास्वादन० ४
संज्ञी ०
आहारी
सर्वमार्गणाः- ४०
गाथाङ्का:- ३६२-३६३
५
१
३
श्रोधवत्
समयः
आलिकाऽसंख्य संख्येयाः समयाः आवलिकाऽसंख्यभागः
भागः
उक्तमनुष्यौधाद्येकविंशतिभेदवर्जशेष
सर्व ०
सर्व ०
शेष०
वेदत्रयं,
सर्व
प्रज्ञान०
असंयम ०
मिथ्यात्व ०
सर्व०
२६
आहारक०
१६
४२
१२३
३६२-३६३
१४
३
चक्षु० प्रचक्षु० २
अशुभ०
/ भव्या-भव्यौ,
४
३
१
३
२
१
२
१
समयः
पर्याप्तमनुष्य मानुषी भेदी, प्रानतादि
१८ देवभेदाच. २०
श्राहारक- तन्मिश्री,
२
शुभ०
सम्यक्त्वौघ०
क्षायिकo क्षायोपशमिक० ३
३७
१
३
४१४
मत्यादिज्ञान० ४ विभङ्ग
संयमौघ० सामा०
देशसंयम०
छेद० परिहार० ४
अवधिo
सरंकायक्पञ्चेन्द्रिय० मनुष्यौ तदपर्याप्ती. tata-भवनपत्यादि
सहस्रारान्ताश्व
२६
सर्वत्रिकल पञ्चेन्द्रिय मेदाः,
१२
समयः
वादरपर्याप्तपृथिव्यप्तेजो
वायुभेद० पर्याप्तप्रत्येकवन- सर्वत्रसभेदाश्च०
सर्वमनोवचो० वैक्रिय
स्त्री-पुरुषवेदी.
चक्षु०
सास्वादन०
संज्ञी०
६४
४१४-४१५
८
११
२
१
१
१
१
१
ओघवत्
सर्वाद्धा
तिर्यग्गत्यौघ०
सर्वे. न्द्रिय ७
उक्ताष्टभेदवजी०
काय योगीषव्यौदारिक-तमिश्र० ३
नपुंसक १
सर्व०
४
शेष०
असयम०
श्रचक्षु०
शुभट
सर्व०
मिथ्यात्व०
असंज्ञी०
आहारी०
३४
६२
४१४
२
१
१
३
१
१
१
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जघन्यतः -- अन्तर्मुहूर्तम्
उत्कृष्टतः -- अन्तर्मुहूर्तम्
गति
इन्द्रियः
काय०
योग
aro
आनुषोऽनुत्कृष्टाऽजघन्य स्थितिबन्धयोः प्रत्येकं नानाजी का प्रदर्शकयन्त्रम्
अन्तर्मुहूर्तम्
ओघवत्
पत्योस्यासंख्यभागः
कपाय०
पर्याप्तमनुष्य० मानुषी० धानतादिसर्वार्थ सिद्धान्त
देवभेटव
आहारक- तन्मिश्रयोगी,
ज्ञान० । मनः पर्यव०
संयमः
दर्शन
लेश्या० शुक्ल
भव्य०
संयमध० सामायिक०
छेद० परिहार
सम्यक्त्व. क्षायिक
संजी०
आहारी
सर्व मार्गणाः
गाथाङ्गाः-
२०
२६
२
३६८-३६६
४
सर्वनरकभेद सर्वपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेद० मनुष्य-तत्पर्याप्तौ देवौघ० भवनपत्यादिसहस्रारान्ता देवभेदाश्च०
२६
सर्वविकल सर्व पञ्चेन्द्रियभेद०
पर्याप्तबादर पृथिव्यप्तेजोवायुभेदाः, पर्याप्त प्रत्येक वन - सर्वत्रसभेदाश्च०
१ मति श्रुना - sवधि० विभङ्ग०
१
सर्वमनोवचोभेदाः, वैक्रिय० ११
स्त्री-पुरुषवेदी,
देशसंयम०
चक्षुः प्रवधि०
१ तेज:- पद्मलेश्या०
१२
संज्ञी०
८
७२
२
४
१
सम्यक्त्वौघः क्षायोपशमिक० सास्वादन०
३
२
तिर्यग्गत्योध०
सर्व केन्द्रियभेद ०
उक्ताष्टभेदवर्णाः शेषाः पृथिवीकायो
घाद्याः,
नपुसक०
सर्वाद्धा
सव०
काययोगौव श्रदारिक-तन्मिश्रयोगौ च
३
मत्यज्ञान श्रुताज्ञाने०
श्रसंयम०
प्रचक्षु०
कृष्णाद्यशुभ०
भव्या-ऽभव्यौ,
मिथ्यात्व०
१ असंज्ञी,
ग्राहारी,
१
६२
૭
३४
१
४
२
१
१
३
२
३६८-४००
३६५-३६६-३६७
अपवादः प्राहारक- तन्मिश्र - सर्व मनोवचोभेद- वैक्रियकाययोगेषु प्रत्येकं जघन्यतः समयमात्रः, न पुनरन्तमुहूर्तम् (गाथा - ३६८ ) ।
१
१
१
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________________
॥ अथ त्रयोदशमन्तरद्वारम् ॥
साम्प्रतं क्रमप्राप्ते नानाजीवाश्रयेऽन्तरद्वारे मूलाष्टकर्मसत्कोत्कृष्टादिस्थितेर्वन्धकानामन्तरं व्या चिकीषुरादौ तावदुत्कृष्टानुत्कृष्टस्थित्यधिकृत्यौघत आह
अंतरमट्टन्ह लहूं जेडाअ ठिईअ बंधगाण खणो । अंगुलअसंखभागो परमं अगुरूअ णेव भवे ॥ ४१६॥
(प्रे०) "अंतरमहे" त्यादि, अष्टानां ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतीनां 'ज्येष्ठायाः ' -उत्कृष्टायाः स्थितेर्वन्धकानां 'लघु' - जघन्यमन्तरं सर्वथाऽभावलक्षणं " खणो" ति समयः, समयमात्रं भवेदिति गाथाप्रान्तेऽन्वयः । "अंगुल असंख भागो परमं" ति तेषामेवाऽष्टप्रकृतिसत्कोत्कृष्टस्थितेर्वन्धकानां 'परमं' -दीर्घ मन्तरमगुलाऽसंख्य भागः, अङ्कुलासंख्य भागप्रमाणक्षेत्रगताकाशप्रदेशेषु प्रतिसमयं नैरन्तर्येणै कैका काशप्रदेशेऽपहीयमाणे यावान् कालोऽपगच्छति, तावानसंख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीप्रमाणकालो भवेदित्यर्थः । “अगुरूअ णेव भवे” त्ति अष्टानामपिमूलप्रकृतीनामगुरो:- अनुत्कृष्टायाः स्थितेर्वन्धकानां नैव भवेत् प्रकृतत्वादन्तरमिति गम्यत इति । अत्र समयप्रमाणाद्युक्तान्तरस्य भावना त्वनन्तरमेव मार्गणास्थानेषु वक्ष्यमाणसमयाद्यन्तराणामुपपच्यनुसारेण द्रष्टव्या, तत एव प्रकृतसमयाद्यन्तराणां सुखावसेयत्वादिति ॥४१६ ॥
9
अथ मार्गणास्थानेषु प्रकृतान्तरं दिदर्शयिषुरादौ तावदायुर्वर्ज सप्तप्रकृतीरधिकृत्याह - जासु' जेडटिईए कालो सत्तण्ह होइ सव्वद्धा । तासु जेडटिईए सत्तण्हं अंतरं णत्थि ||४१७||
(प्रे०) "जासु जेठिईए" इत्यादि, यास्वेकेन्द्रियौघादिद्वात्रिंशन्मार्गणा स्वायुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणां 'ज्येष्ठायाः' - उत्कृष्टायाः स्थितेः "कालो" ति नानावन्धकाथ यकालः सर्वाद्धा प्रारंभणितो भवति, तासु मार्गणासु सप्तानां ज्येष्ठस्थिते: “अंतरं" ति प्रकृतं नानावन्धकाश्रयमन्तरं 'नास्ति' न विद्यत इत्यर्थः । कुतः १ इति चेद्, बन्धककालस्य सर्वाद्धात्वादेव । इदमुक्तं भवति - पत्र मार्गणादौ यस्याः उत्कृष्टाया अनुत्कृष्टाया जघन्याया अजघन्याया वा स्थितेर्वन्धकानां परिमाणमसंख्येयलोकादिप्रमाणं तस्याः स्थितेर्वन्धकास्तत्र मार्गणादौ निरन्तरं प्राप्यन्ते, ततस्तत्रं तद्बन्धकानां कालः प्राक् सर्वाद्धाऽभिहितः । यतो बन्धकानां कालः सर्वाद्धाः, अर्थाद् बन्धकप्राप्तिर्निरन्तराः, तत एव बन्धकानामन्तरं न भवतीति तु सुगमः, निरन्तरस्यैवान्तराभावाऽर्थकत्वात्, इत्येवमन्योन्यगमकत्वात् सर्वाद्धा - निरन्तरयोरिति । इत्थमेवानन्तरमोघतोऽष्टकर्मणामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामन्तरप्रतिषेधे मार्गेणास्थानेषु वक्ष्यमाणान्तरप्रतिषेधे च विभावनीयमिति ॥ ४१७||
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मार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानामुत्कृष्टस्थिति०] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ ३६७ एकेन्द्रियौघादिद्वात्रिंशन्मार्गणास्थानेष्वायुर्वर्जसप्तकर्मणां ज्येष्ठस्थिते नाबन्धकाश्रयसद्धिाप्रतिपादिके गाथे पुनरिमे'सत्तण्ह बंधगाणं उक्कोसार ठिईअ सव्वद्धा । सव्वेसं एगिदिय-णिगोअमेएसु वणकाये ॥३८१।।। असमत्तबायरेसुं पत्तेअवण-पुहवाइचउसुं च । तह पुहवाइचऊण्हं सव्वेसुं सुहुमभेएसुं ॥३८२।।" इति ।
अथ शेषमार्गणासु प्रकृतं सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिसत्कनानावन्धकाऽऽश्रयमन्तरं जघन्योत्कृष्टभेदतः प्रतिपादयन्नेकामार्यामाह
सेसासु लहुं समयो वासपुहुत्तं अवेअ-सुहुमेसु।
उक्कोसं सेसासुअंगुलभागो असंखयमो ॥४१८॥ (प्रे०) “सेसासु लहु"मित्यादि, एकेन्द्रियौवादिद्वात्रिंशन्मार्गणावर्जासु शेषासु निरयगत्योघायष्टत्रिंशदुत्तरशतमार्गणास प्रत्येकं "लहुं" ति प्रकृतत्वात् सप्तानामुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकानां 'लघु'-जघन्यमन्तरं 'समयः'-समयमात्रं,भवतीति शेषः । कथम् ? एकेन समाप्त उत्कृष्टस्थितिबन्धे समयान्तरेण तस्यैव तत्प्रवृत्तरशक्यत्वेऽपि तदन्यस्य तत्प्रवृत्तेः शक्यत्वादिति ।
___ अथ प्रकृतमेवोत्कृष्टत आह-“वासपुहुत्तं अवेअसुहुमेसु" ति अपगतवेदमार्गणायां सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां च सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां वर्षपृथक्त्वमन्तरम् "उक्कोस" ति 'उत्कृष्टम्' उत्कृष्टपदे ज्ञेयम् । सप्तकर्मसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनां प्रतिपतच्चारित्रमोहोपशमकानां वर्षपृथक्त्वं यावत् सर्वथाऽभावस्यापि सम्भवात् । कुतः सम्भवः ? नानाजीवानाश्रित्योपशमश्रेणेरुत्कृष्टान्तरस्य तावत्प्रमाणत्वात् । उक्तं चान्यत्र-“वासपुहुत्तं उवसामएसु" इति । ___अथोक्तशेषास्वाह-"सेसासु अंगुलभागो असंखयमो" ति एकेन्द्रियौघादिद्वात्रिंशन्मार्गणा अपगतवेदसूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणे च विहाय याः शेषा निरयगत्योघादिषट्त्रिंशदभ्यधिकशतमार्गणास्तासु शेषसर्वमार्गणासु प्रकृतोत्कृष्टान्तरमगुलस्य भागोऽसंख्यतमः, ओघवदमुलासंख्यभागप्रमाणक्षेत्रगताऽऽकाशप्रदेशापहारलक्षणाऽसंख्योत्सर्पिण्यवसर्पिण्य भवतीत्यर्थः ।
इदमत्र हृदयम्-यासु मार्गणासु सप्तकर्मणां तत्तत्स्थितेर्बन्धकानामसंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकत्वाद्वन्धकान्तरसम्भवस्तासु प्रत्येकमेकस्थितिबन्धस्थानात्मिकाया उत्कृष्टाया जघन्याया वा स्थितेर्बन्धका यदि श्रेणिबहिस्थास्तदा तस्या उत्कृष्टाया जघन्याया वा स्थिते नाबन्धकाश्रयमुत्कृष्टमन्तरमगुलाऽसंख्यभागप्रमाणं यथोक्तमेव प्राप्यते, यदि च तयोरेकस्थितिबन्धस्थानात्मिकयोः स्थित्योबन्धकाः श्रेणिगतास्तदा त्वपगतवेदादिमार्गणावत् श्रेण्यन्तरकालानुसारेणोत्कृष्टान्तरं स्तोकं प्राप्यते, जघन्यान्तरं तु तयोस्सर्वत्र समयमात्रमासाद्यते । कुतः ? विवक्षितजीवैनिष्ठापिते जघन्यादिस्थितिबन्धेऽन्यै वैः समयान्तरेणैव तस्थितिबन्धस्य निर्वर्तयितुं शक्यत्वात् । सप्तानां नानास्थितिवन्धस्थानात्मकयोरनुत्कृष्टाऽजघन्यस्थितिबन्धयोः प्रकृतं नानाबन्धकाश्रयमन्तरं
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३६८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानामनुत्कृष्टस्थिति० तु या अपर्याप्तमनुष्यायेकादशसान्तरमार्गणास्तास्वेव प्राप्यते, नान्यासु । कुतः ? नानास्थितिबन्धस्थानात्मकानुत्कृष्टादिस्थितिवन्धस्य जीवनबहुकालभावितया सर्वदा तद्वन्धकानां लाभेनाऽनन्तरं कालद्वारे सर्वाद्धाया अभिहितत्वात् । सान्तरमार्गणासु तु तयोरुत्कृष्टमन्तरं मार्गणाया नानाजीवाश्रयोत्कृष्टान्तरप्रमाणं प्राप्यते, जघन्यं तु यथासम्भवं समयादिकम् ।
इत्यतोऽपगतवेदमार्गणायां सूक्ष्मसम्परायमार्गणायां च प्रकृतोत्कृष्टान्तरं स्तोकमभिहितम् ,तत्रोपशमश्रेणिगतानामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वात् । शेपमार्गणासु तु श्रेणिबहिःस्थानामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वात्तदुत्कृष्टतोऽङगुलाऽसंख्यभागप्रमाणमभिहितम् , जघन्यं च शेषसर्वमार्गणास समयमानं दर्शितमिति ॥४१८॥
तदेवमुक्तं सप्तानामुत्कृष्टस्थिते नाान्धकाश्रयमन्तरम् । साम्प्रतं तासामेवाऽऽयुर्वर्जसप्तानामनुत्कृष्टायाः स्थितेस्तं दर्शयन्नाह
सत्तण्ण अपजणरे आहारदुगे विउब्वमीसे य । गयवेए सुहमम्मि य उवसम-सासाण-मीसेसु॥४१९॥ समयोऽणुक्कोसाए ठिईअ हस्सं सहस्सवासाणि ।
तेवट्ठी चुलसीई कमसो छेअ-परिहारेसु॥४२०॥ (प्रे०) “सत्तण्हे"त्यादि, तत्र 'सत्तण्ड' इत्यस्य 'समयोऽणुकोसाए ठिईअ हस्स' मिति परेणान्वयः, तत आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकतीनामनुत्कष्टायाः स्थितेः 'हस्वं' जघन्यमन्तरं समयः, अस्तीति शेषः । कास मार्गणास्वित्याह-"अपजणरे” इत्यादि, अपर्याप्तमनुष्यमार्गणायामाहारक -- ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणाइये वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गगावामपगतवेदमार्गणायां सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायामापशमिकसम्यक्त्व-सासादन-मिश्रदृष्टिमार्गणासु च प्रत्येकमित्यर्थः । "सहस्सवासाणि तेवट्ठी चुलसीई कमसो” ति ‘णुकोसाए ठिई हम्म मिति काकाक्षिगोलकन्यायेनाऽत्रापि सम्बध्यते, ततः सप्तप्रकृतीनामनुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकानां ह्रस्वमन्तरं वर्षसहस्राणि त्रिषष्टिश्चतुरशीतिश्च क्रमशः, भवतीति शेषः । कुत्रेत्याह-"छेअपरिहारेसु” ति छेदोपस्थापनसंयमे परिहारविशुद्धिकसंयमे चेत्यर्थः । इदमुक्तं भवति-अपर्याप्तमनुष्याद्यनन्तरोक्तनवमार्गणावपर्याप्तमनुष्यादितया जीवानां सर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं जघन्यतः समयमानं सम्पद्यते, ततश्च तासु मार्गणासु सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेवन्धकानां सर्वथाऽभावलक्षणं जघन्यमन्तरमपि समयमानं प्राप्यते, न चैवं च्छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणयोरपि । कस्मात् ? तयो नाजीवाश्रयजघन्यान्तरस्याऽप्युक्तप्रमाणत्वात् । उक्तं च श्रीपञ्चमागे
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मागणास्वायुर्वर्जानामनुत्कृष्टस्थिति०] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ ३६९ 'छेदोवट्ठावणियं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं तेसहिँ वाससहस्साई', उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोपमकोडाकोडिओ, परिहारविसुद्धियस्स पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं चउरासीई वाससहस्साई', उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ' इति ।
न च जीवानां सर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं मा भवतु समयमात्रं, सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामन्तरं तु तावत्स्यात् , को दोपः ? इति वाच्यम् । यतः प्रकृतमार्गणागतसर्वजीवानां सममेवोत्कृष्टस्थितिबन्धसद्भावे तावदन्तरस्य सम्भवः, सममेव सर्वेषामुत्कृष्टस्थितिबन्धसद्भावे त्वन्तमुहूर्तादुवं तेषां सर्वजीवानां मिथ्यात्वादौ गमने प्रकृतमार्गणाया एवान्तरं प्रवर्तेत, तत्तु नेष्यते, यदा तु सर्वे जीवामार्गणान्तरं गच्छन्ति, तदा तु यथोक्तान्तरमेव प्राप्यते, न पुनः सामयिकम् । इत्थं न कुतश्चिदपि प्रकृतानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामन्तरं जघन्यतः समयादिमानं भवितुमर्हतीतिकृत्वा शेषमार्गणापेक्षया दीर्घ . यथासम्भवमुक्तमिति ॥४१९-४२०॥ अथोक्तशेषमार्गणानां निरन्तरत्वात्तत्र प्रकृतान्तरं निषेधयन् तथा-ऽनन्तरोक्तसान्तरमार्गणासु प्रकृतान्तरमुत्कर्षतः प्रतिपादयन्नाह
सेसासु अंतरं णो अपज्जणर-मीस-सासणेसु गुरु। पल्लाऽसंखियभागो बारमुहुत्ता विउवमीसे ॥४२१॥ परमं आहारदुगे वासपुहुत्तं अवेअ-सुहुमेसु । णायव्वं छम्मासा होइ उवसमम्मि सत्तदिणा ॥४२२॥ छेए परिहारम्मि य अयरा अट्ठार कोडिकोडिओ।
उक्कोसमंतरं खलु होइ ठिईए अजेट्टाए ॥४२३॥ (प्रे०) “सेसासु अंतरं णो” इत्यादि, उक्तशेषासु निरयगत्योधादिमार्गणासु सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामन्तरं “णो" ति न यतीत्यर्थः। कुतः ? प्रत्येकं मार्गणानां निरन्तरत्वादिति । अथाऽपर्याप्तमनुष्यादिमार्गणानां सान्तरत्वेन तत्राऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां जघन्यमन्तरमभिहितम्, न पुनरुत्कृष्टमिति तदेव दर्शयन्नाह-"अपज्जणरमोसे"त्यादि, अपर्याप्तनरभेदे सम्यग्मिथ्यात्वे सासादने च "गुरु" ति सप्तानामनुत्कष्टस्थिते नाबन्धकाश्रयं 'गुरु' उत्कृष्टमन्तरं “पल्लाऽसंखियभागो" ति पल्योपमाऽसंख्यभागप्रमाणं भवतीत्यर्थः । कुतः ? मार्गणात्रयस्योत्कृष्टान्तरस्य तावत्प्रमाणत्वात् । यदुक्तं जीवसमासे
'पल्लाऽसंखियभानं सासण-मिस्सा-ऽसमत्तमणुएसु' इति । "बारमुहुत्ता विउवमीसे" त्ति प्रकतान्तरं वैक्रियकाययोगमार्गणायां द्वादश मुहूर्ता भवतीत्यर्थः । अत्राऽपि मार्गणोत्कृष्टान्तरस्य तथात्वादेवेति हेतुर्वोद्धव्यः । उक्तं चैतदपि जीवसमासे-विउव्विमिस्सेसु । बारस हुति मुहुत्ता' इति ।
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३७० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानामनुत्कृष्टस्थिति. “परमं आहारदुगे वासपुहुने" ति आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणाद्विके 'परमम्'-उत्कृष्ट मन्तरं वर्षपृथक्त्वम् । एतदपि नानाजीवाश्रयमार्गणान्तरस्य वर्षपृथक्त्वात्पूर्ववदवसातव्यम् । अभिहितं च जीवसमासे-“आहारभिस्सजोगे वासपुहुत्तं” इति । “आहारमाइ लोए छम्मासं जा न होति उ कयाई"त्यादिवचनात्पुनरन्यथा प्रकृतान्तरं षण्मासमात्रमपि ज्ञायते, नवरं तन्नात्राधिकृतम् , अतो श्रीप्रज्ञापनायभिप्रायेण तु तद्विशेषतः स्वयमेव द्रष्टव्यमत्रोत्तरत्र चेति । ____ "अवेअसुहुमेसु णायव्वं छम्मासा" त्ति अपगतवेदमार्गणायां सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां च प्रत्येकमुपशमकानामिवानुत्कटस्थितिवन्धकानां क्षपकाणामपि प्रवेशात् तेषामुत्कष्टान्तरस्य “खवगेसु छम्मासा" इति वचनेन पण्मासप्रमाणत्वाच्च प्रकृतोत्कृष्टान्तरमपि षण्मासप्रमाणं ज्ञातव्यमिति भावः।
"होइ उवसमम्मि सत्त दिणा" त्ति उपशमसम्यक्त्वमार्गणायां प्रकतान्तरं सप्त दिनानि, सप्ताहोरात्राणीत्यर्थः । उपशमकानां सर्वथाऽभावलक्षणोत्कृष्टान्तरस्य वर्षपृथक्त्वप्रमाणत्वेऽपि प्रस्तुतमार्गणायां न त एवानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनः, किन्तु प्रथमोपशमसम्यक्त्वभाजोऽपि, तेषां चान्तरं सप्त दिनान्येवोत्कृष्टतोऽप्यवसातव्यमिति भावः। ___अथ छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकतंयममार्गगयोः प्रकृतमाह-'छेए परिहारम्मि ये" त्यादिना, अक्षरार्थस्तु सुगमः । भावनाऽपि तयोईयोर्मार्गणोत्कष्टान्तरापेक्षयैव कर्तव्या । उत्कष्टान्तरं पुनस्तयोरेवमुक्तम्-'छेदोवट्ठावणियस्स पुच्छा, गोयमा ! जहन्नणं तेवढिइ वाससहस्साइ, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ । परिहारविसुद्धियस्स पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं चउरासीइ वाससहस्साई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ' इति व्याख्याप्रज्ञप्तिपञ्चविंशतितमशतकसप्तमोदेशके सामायिकसंयतादीनामन्तराधिकारे । इति गाथात्रयार्थः ॥४२१-४२२-४२३॥
तदेवमभिहितं सप्तानां मूलप्रकतीनामुत्कष्टानुत्कष्ट स्थित्योबन्धकानां यथासम्भवमन्तरम् । सम्प्रति शेयस्याऽऽयुःकर्मणस्तदादेशतो दिदर्शयिषुरादावुत्कष्टस्थितिमधिकृत्याह
आउस्मुक्कोसाए ठिईअ सव्वासु अंतरं णेयं ।
हस्सं समयो जेट्ट अंगुलभागो असंखयमो ॥४२४॥ .. (प्रे०) “आउस्सुक्कोसाए" इत्यादि, निरयगत्योघायाहारिपर्यन्तास्वायुर्वन्धप्रायोग्यासु सर्वासु मार्गणास्वायुप उत्कष्टायाः स्थितेः “अंतरं यं" ति नानाजीवाश्रयं बन्धकानां सर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं ज्ञेयम् । कियदित्याह-"हस्सं समयो" त्ति 'ह्रस्वं' लघु 'समयः' समयमात्रम्, “जे अंगुलभागो असंखयमो"त्ति 'ज्येष्ठ' दीर्घ पुनस्तत्क्षेत्रतोऽङ्गुलस्याऽसंख्यतमो भागः, अगुलासंख्यभागप्रमाणक्षेत्रप्रदेशानां प्रतिसमयाऽपहारलक्षणा असंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य इत्यर्थः । एतच्च ह्रस्वेतरं द्विविधमप्यन्तरं "सेसासु लहु समयो वासपुहुत्तं अवेअसुहमेसु
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मार्गणास्वायुष उतकृष्टेतरस्थिति०] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ ३७१ उक्कोसं सेसासु अंगुलभागो असंखयमो" ||४१८।। इत्यस्या गाथाया वृत्तावुक्त व्याप्त्यनुसारेणोपपादनीयमिति ॥४२४॥ अथायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानामन्तरं प्रतिपिपादयिषयाऽऽर्याद्वयमाह
जहि सब्बद्धा कालोऽणुक्कोसठिईअ आउगस्स भवे । तहि तीअ अंतरं णो सेसासु भवे लहु समयो ॥४२५॥ पंचिंदियतिरिय-विगल-पणिंदिय-तसेसु-सिं अपज्जेसु।
भिन्नमुहुत्तं जेट्ट अण्णह णाऊण णेयव्वं ॥४२६॥ (प्रे०) "जहि" इत्यादि, "जहि" त्ति 'यत्र' यासु मार्गणासु “सव्वडा कालोऽणुकोसठिईअ आउगस्स भवे" ति ‘सबद्धाउस्स भवे अगुरुठिईअ तिरियम्मि' इत्यादि, गाथा(३९५-३९६-३९७) त्रयेणायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकानां कालोऽनन्तरगते कालद्वारे सर्वाद्धा भणितः "तहि" ति तासु तिर्यग्गत्योध-पर्याप्तबादरभेदवर्जषट्पृथिविकाय-पडप्काय-षटतेजस्कायषडवायुकाय-बनस्पतिकायौघा-ऽपर्याप्तभेदवर्जप्रत्येकवनस्पतिकायभेदद्वय-सर्वसाधारणवनस्पतिकायभेदकाययोगोधौ-दारिककाययोगौ-दारिकमिश्रकाययोग-नपुंसकवेद-क्रोधादिकषायचतुष्क-मत्यज्ञान-- श्रुताज्ञाना--संयमा-ऽचक्षुदर्शना-ऽशुभलेश्यात्रिक-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्व-संश्य-ऽऽहारकलक्षणासु द्विषष्टिमार्गणासु "तो" ति तस्या आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेः "अंतरं णो" त्ति प्रस्तुतत्वाद्वन्धकानामन्तरं न भवति । सुगमः, बन्धककालस्यैव सर्वाद्धात्वात् । बन्धककालः सर्वाद्धा तु कालद्वारे बन्धकपरिमाणबाहुल्यादुपपादित इति तत एवावसेयः ।।
शेषमार्गणासु प्रस्तुतान्तरस्य सम्भवात्तदादौ जघन्यत आह-"सेसासु" इत्यादि, अनन्तरोक्ततिर्यग्गत्योघादिद्विषष्टिमार्गणा अपहाय शेषासु यास्वायुर्वन्धो भवति, तासु निरयगत्योपाद्यकोत्तरशतमार्गणासु प्रस्तुतमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां सर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं "लहुं समयो" त्ति 'लघु' जघन्यं 'समयः' समयमात्रं भवेदित्यर्थः । सुगमम् , शेषमार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेबन्धकपरिमाणस्योत्कृष्टपदेऽपि स्वल्पत्वात् , असंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकत्वादिति भावः । ततः किम् ? ततो भवति कदाचित् सर्वथा प्रस्तुतबन्धकाभावः, तथा च तादृशसर्वजघन्यसमयमात्रान्तरकालात्पूर्वोत्तरसमयेष्वायुषोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धकानां सम्भवे प्रस्तुतान्तरं जघन्यतः समयमात्रं प्राप्यते। भावना त्वन्यान्यजीवापेक्षया प्रागिव द्रष्टव्या, न त्वेकजीवापेक्षया विवक्षितैकजीवेनाऽऽयुर्वन्धे निष्ठापिते पुनरप्यन्तमुहूर्तादिकालादर्वाक् तस्यैवायुर्वन्धाऽप्रवर्तनात् , अत एवैकजीवाश्रयान्तरप्रस्ताव आयुषोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धजघन्यान्तरमन्तमुहूर्त प्रदाऽप्यत्र नानाजीवापेक्षया तत् समयमानं प्रदर्शितमिति ।
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बंधाणे मूलप डिठबंधो [ मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्टस्थिति ० प्रस्तुतान्तरमुत्कर्षतो दर्शयितुमाह-“पंचिदिये "त्यादि पञ्चेन्द्रियतिर्यगोघादिमार्गणासु प्रत्येकं नानाजी पायच्यवनान्तस्य सद्भावे सत्यन्तमुहूर्तभवस्थितिकजीवानां सर्वदा लाभादायुषो - ऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां 'ज्येष्ठम् ' उत्कृष्टमन्तरमायुषः प्रकृतिवन्धान्तरवदन्तर्मुहूर्तमेव भवेत्, नाधिकमित्यर्थः ।
३७२ ]
एतदुक्तं भवति यदाऽऽयुषः प्रकृतिबन्धो जायते, तदा कुत्रचित् समयमेकं विहाया - नुत्कृष्टस्थितिबन्धस्तस्य नियमेन प्रवर्तते एवञ्चाऽऽयुषो नानाजीवाश्रयप्रकृतिबन्धानुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरयोर्नास्ति किञ्चिद्विशेषः । प्रकृतिवन्धान्तरसाधनेनैवाऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरं साधितं भवतीति भावः । आयुपः प्रकृतिबन्धान्तरं तु यत्र मार्गणायां नानाजीवाश्रयच्यवनान्तरसद्भावे सत्यन्तमुहूर्तभवस्थितिकजीवाः सर्वदा प्राप्यन्ते तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यगोवादि मार्गणा सूत्कर्षतोऽन्तमुहूर्तमेव प्राप्यते नाधिकमिति तादृशमार्गणास्वायुपोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयोत्कृष्टान्तरमप्यन्तमुहूर्तं लभ्यते, नाधिकम् । न चान्तर्मुहूर्त भवस्थितिकजीवानां सार्वदिकप्राप्त्यैव प्रस्तुतान्तमुहूर्तान्तरं प्रसाध्यताम्, किं नानाजीवाश्रयच्यवनान्तरस्य साधनैकदेशतया प्रवेशेनेति वाच्यम् । यत आयुर्वन्धकान्तरे सिद्धे सति तदन्तर्मुहूर्त भवस्थितिकजीवानां सार्वदिकप्राप्त्योत्कतोऽन्तर्मुहूर्तमात्रायां पर्यवस्यति, न त्वायुर्वन्यकान्तरेऽसिद्ध एव । आयुर्वन्धकान्तरं तु नानाजीवाश्रयच्यवनान्तराधीनम् । को भावः ? यत्र मार्गणायां नानाजीवाश्रयच्यवनान्तरं लभ्यते, तत्रैव मार्गणायामायुर्वन्धकान्तरमभ्युपगतम्, नान्यत्र । इत्थं हि नानाजीवा यच्यवनान्तरस्य साथनैकदेशता प्रवेश आवश्यकः । अन्यथा तदप्रवेशे केवलेनान्तमुहूर्तभवस्थितिकजीवानां सार्वदिकलाभमात्रेणैव प्रस्तुतान्तरस्याऽन्तमुहूर्तमात्रत्वसिद्धौ तिर्यग्गत्योघादिमार्गणास्थानेषु नानाssयुर्वन्धकाश्रयमन्तरमन्तर्मुहूर्त मापद्येत तत्रान्तमुहूर्त भवस्थितिकजीवानां नैरन्तर्येण लाभात् । न चेष्टापत्तिः, तिर्यग्गत्योघादिमार्गणास्थानेष्वायुर्वन्धकान्तरस्य सर्वथा प्रतिषिद्धत्वात् । न च तर्हि नानाजीवाश्रयच्यवनान्तरेणैव प्रस्तुतान्तर्मुहूर्तमायुर्वन्धकान्तरं साध्यताम्, किं पुनरन्तर्मुहूर्तभवस्थितिकजीवानां सार्वदिकसद्भावस्य हेत्वंशतया निविशेन, तिर्यग्गत्योघादिमार्गणास्थानेषु नानाजीवाश्रयच्यवनान्तरस्यैवाभावेन तावतैवोक्तापत्तेरिणसम्भवादित्यपि वाच्यम् । तथा सति निरयगत्योघादिमार्गणास्थानेषु नानाजीवाश्रवच्यवनान्तरस्याऽभिमतत्वेन तत्राऽपि प्रस्तुतान्तरमन्तमुहूर्तप्रमाणमेव वक्तव्यं स्यात् । न च तत्तथा वक्तुं युक्तम् । तत्र तस्य द्वादशमुहूर्तादिच्यवनान्तरमत्राधित्वा दीर्घस्य किञ्चिदून द्वादशमुहूर्ताभ्यधिकपण्मासादिप्रमाणस्य सम्भवात् । तथाहिनिरयगत्यो मार्गणास्थाने 'ओहे बारसमुहत्त गुरु' इति च्यवनान्तरप्रतिपादकग्रन्थान्तरवचनेन नानाजीवाश्रयं च्यवनान्तरं द्वादशमुहूर्तप्रमाणमस्ति, तथा च तत्र यदा कदाचिदुत्कृष्टायां षण्मासात्मिकायामवाधायां यावज्जघन्यायामन्तर्मुहूर्तावाधायां बद्धायुष्का नारका वर्तन्ते, ततः प्रभृति यद्यन्त★ नानाजीवाश्रय च्यवनान्तरेणैवेति तावतैवेत्यस्य भावः ।
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मार्गणास्वायुषोऽनुत्कृष्ठस्थिति०] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम् .
[३७३ मुहूर्तानान् द्वादशमुहूर्ताभ्यधिकषण्मासान् यावत्कैश्चिन्नारकैरायुबन्धो न क्रियेत, तदा द्वादशमुहूर्ताश्व्यवनान्तरमन्तमुहूर्तोना द्वादशमुहूर्ताभ्यधिकषण्मासा उत्कृष्टमायुर्वन्धकान्तरं च सुखेनोत्पद्यताम् , षण्मासान् यावत् पूर्वोक्तानामन्तमुहर्तायवाधायां बद्धायुष्कानां च्यवमानानां लाभात् , षण्मासाचं द्वादशमुहूर्तान् यावच्च्यवनान्तरस्य प्रवर्तनेन कस्यापि च्यवनस्याऽनपेक्षणात् , तदुत्तरं द्वादशमुहूतेच्चवनान्तरस्यान्तप्रभृत्या तु तस्य च्यवनान्तरस्य समाप्तरर्वागन्तमुहूर्तादिमात्रायां जघन्याद्यबाधायां बद्धायुष्कानां यथोत्तरं च्यवनभावात् । अत एव द्वादशमुहूर्ताभ्यधिकषण्मासप्रमाणमायुर्वन्धान्तरमसम्भाव्यान्तमुहूतानमेवोत्कृष्टतः सम्भावितमिति ।
इत्थं हि सावधारणान्तमुहूर्तमात्राऽऽयुर्वन्धकान्तरसिद्धय न केवलं च्यवनान्तरमलम् , न वा केवलाऽन्तमुहूर्तभवस्थितिकजीवानां सार्वदिकप्राप्तिरलम् , किन्तु च्यवनान्तरसद्भावे सत्यऽन्तमुहूर्तभवस्थितिकजीवानां सार्वदिकप्राप्तिरित्येतावदेव । अत एव यत्र मार्गणासु नानाजीवापेक्षया च्यवनान्तरसद्भावे सत्यन्तमुहूर्तभवस्थितिकजीवानां सादिकसद्भावः सिद्धस्तत्र मार्गगास्वेव प्रस्तुतान्तरमन्तमुहूर्तमभिहितम् , न पुनर्निरयगत्योपादिमार्गणान्तरेषु । ननु मोच्यतां निरयगत्योधादिमार्गणान्तरेऽन्तर्मुहूर्तभवस्थितिकजीवानां सार्वदिकप्राप्तेरभावेन तत्र प्रस्तुतान्तरमन्तमुहूर्तम् , उक्तनीत्या तत्तत्र यथोक्तं किञ्चिदभ्यधिकषामासादिप्रमाणं तु वक्ष्यते ? इति चेद, न, यत उक्तयुक्त्या तस्य तावन्मात्रस्य सम्भवेऽपि, ततोऽपि प्रबलेन युक्त्यन्तरेण तत्ततः स्तोकमपि सम्भवति ।
तथाहि-बद्धायुष्कानामश्यं च्यवनभावात् , च्यवमानानां नियमतो बद्धायुष्कत्वाच्च च्यवनाऽऽयुर्वन्धौ परस्परं नियमितौ । इत्थं चौघतो मार्गणास्थानेषु वोत्कृष्टपदे च्यवनपरिमाणवदायुर्वन्धकपरिमाणं संख्येयमसंख्येयमनन्तं वा सदृशं लभ्यते, तथैव प्राक् परिमाणद्वारे प्रतिपादितं च, तेनैव न्यायेनाऽऽयुर्वन्धकान्तरमपि तत्तन्मार्गणासु ग्रन्थान्तरदर्शितनानाजीवाश्रयच्यवनान्तरेण तुल्यमेव साधनीयमुचितं प्रतिभाति, न पुनः पूर्वोक्तमभ्यधिकषण्मासादिमानम् । यद्यप्येवं तथाऽप्येकजीवापेक्षया च्यवनस्य सामयिकत्वेनाऽऽयुबन्धस्यान्तमुहूर्तिकत्वेन च बाधकसम्भावनया नाऽयमपि पक्ष उपादास्यते, किन्तु 'णाऊण णेयव्य'मित्यनेन तत्प्रतिपादकग्रन्थान्तरलाभे तेन, तदभावे तथाविधाप्तपुरुषविशेषात् , तदभावे तु प्रबलोपपत्त्यन्तरतस्तत्स्वयमुन्नेयमित्येवमेव वक्ष्यते, उक्तसाधनाभावे तस्य स्पष्टं वक्तुमयुक्तत्वात् । स्याद्यदि तत्प्रतिपादकवचनादीनामन्यतमत् , तदा तु तस्य स्पष्टं कथनेऽपि न बाधा । न चैकजीवाश्रयाऽऽयुर्बन्धकाल-च्यवनकालयोरन्तमुहूर्त-समयमात्रतया भवतूत्कृष्टपदे नानाजीवाश्रया-ऽऽयुर्वन्धकाल-च्यवनकालयोरतुल्यत्वम् , न पुनस्तयोरन्तरस्य किश्चिदापयेत, अन्तरोपपत्तावेकजीवाश्रयच्यवनकाला-ऽऽयुर्वन्धकालवैषम्यस्य बाधकत्वसम्भावनाया एवाऽनवकाशादिति वाच्यम् । नानाजीवानाश्रित्याऽऽयुर्वन्धे समाप्ते तदन्तरस्य, तदन्तरे समाप्ते पुनरपि तद्वन्धस्य प्रवृत्तेरिव नानाजीवानाश्रित्य च्यवनसमाप्तौ तदन्तस्य, तत्समाप्तौ
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३७४ ]
विहाणो मूलपडिटिबंधो [ ओघतोऽष्टानां जघन्येतर स्थिति० पुनरपि तच्च्यवनप्रवृत्ते रावश्यकत्वादुत्कृष्टपदे तयोः कालस्य तारतम्ये उत्कृष्टपदेऽन्तरपरिमाणतारतम्यमपि कथं न स्यात् ।
यदि चैकजीवाश्रयच्यवनकालस्य समयमात्रत्वेनैकजीवश्रयाऽऽयुर्वन्धकालस्यान्तमुहूर्तप्रमाणत्वेन च तयोर्मध्येऽसंख्येयगुणहीनाधिकत्वेऽपि उत्कृष्टपदगतैकजीवाश्रयाऽऽयुर्वन्धान्तर -च्यवनान्तरयोर्मध्येऽसंख्येभागमात्रेण हीनाधिक्यान्नानाजीवाश्रययोस्तयोर्मध्ये स्यात्तल्पप्रायत्वं तुल्यत्वं वा तर्हि तु न कञ्चिदोषमुत्पश्यामः, नवरं तयोस्तुल्यत्वमेव तुल्यप्रायत्वमेव वेति तु प्रबलसाधनाभावे निश्चेतु' न युक्तम्, इत्यतोऽपि 'णाउण णेयव्त्र' मित्येत्र मे वेदानीं सम्यग् । निश्वयतस्तु तस्य सूक्ष्मार्थवेदिवेद्यत्वादित्येवं विचारितं यथामति प्रसङ्गवशान्निरयगत्यो घादिमार्गणास्थानेष्वाऽऽयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्नानाजीवाश्रयोत्कृष्टान्तरम् । एतर्हि तदेव विभणिषुराह मूलकृत् - 'अण्णह णाउण णेयव्व' मिति, गतार्थम् । केवलमन्यत्रेति 'जहि सव्वद्धा' इत्यादिना प्रतिषिद्धप्रकृतान्तरास्तिर्यग्गत्योघादिद्विषष्टिमार्गणास्तथा 'पंचिदियतिरिय-विगले' त्यादिनाऽभिहितप्रकृतान्तरा द्वादशमार्गणा इत्येवं चतुःसप्ततिमार्गणाभ्यो ऽन्यत्र' - निरयगत्योघादिनवनवतिशेषमार्गणास्त्रित्यर्थः । ताच शेषमार्गणा इमाः सर्वे निरयगतिभेदाः, पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यक्, तिरश्री, सर्वे मनुष्यगतिभेदाः, सर्वे देवगतिभेदाः, पर्याप्तद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय- पञ्चेन्द्रियाः, पर्याप्तवादरपृथिव्यप्तेजोवायु-पर्याप्त प्रत्येकवनस्पतिपर्याप्तत्र सकायभेदाः, सर्वे मनोवचोयोगभेदाः, वैक्रियाऽऽहारका ऽऽहारकमिश्रकाययोगाः, स्त्रीवेदपुवेदी, मत्यादिज्ञानचतुष्कम्, विभङ्गज्ञानम्, संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापन- परिहारविशुद्धिकसंयम- देशसंयमाः, चक्षु-रवधिदर्शने, शुभलेश्यात्रिकम्, सम्यक्त्वौघ क्षायिक क्षायोपशमिकसम्यक्त्वानि, सासादनं संज्ञिमार्गणास्थानञ्चेति ।
अत्रेदमवधेयम् - यत्र मार्गणादावायुष उत्कृष्टादिस्थितेर्बन्धकपरिमाणमुत्कृष्टपदेऽसंख्यलोकान्न्यूनं तत्र मार्गणादौ तद्वन्धकानां यथोक्तविवक्षया स्तोकत्वेन कादाचित्कान्तरमभ्युपगम्य पूर्वं भङ्गविचयद्वारे पर्याप्तत्रादर पृथिवीकायादि मार्गणास्थानेष्वायुषोऽनुत्कृष्टस्थितावष्टौ भङ्गा अभिहिता । यदि तत्र पञ्चसङ्ग्रहानुसारेण निरन्तरोत्पत्तिवच्च्यवनान्तरमपि नाभ्युपगम्यते, तदा तत्राऽष्टमो भङ्गस्तथा नानाजीवाश्रयकालद्वारे सर्वाद्धा, प्रस्तुतद्वारेऽन्तरप्रतिषेधश्च द्रष्टव्यो भवति । एवमन्य
पि यथासंभवं ज्ञेयमिति ॥४२५-४२६॥
तदेवमभिहितमष्टानामपि प्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टद्विविधस्थित्योर्बन्धकानां लोके सर्वथाऽभावलक्षणमन्तरमोघत आदेशतश्च यथासम्भवम् । साम्प्रतं तासामेवाष्टानां जघन्या-ऽजघन्य स्थित्योस्तद्विभणिषुरादौ तावदोघत आह
सतह लहू समयो हस्साअ ठिईअ बंधगाण गुरु । छम्मासा अलहूए णंतरमाउस्स दोन्हं वि ॥ ४२७॥
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मार्गणास्वायुर्वर्जानां जघन्यस्थिति०] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ ३७५ . (प्रे०) “सत्तण्ह” इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां 'हस्वायाः' जघन्यायाः स्थितेबन्धकानां “लहु समयो" ति 'लघु-जघन्यमन्तरं 'समय' समयमानं भवति । सुगमम् । उत्कृष्ट माह-"गुरु" मित्यादि, सप्तानां जघन्यस्थितेर्बन्धकानां 'गुरु'-उत्कृष्ट मन्तरं पुनः षण्मासा भवति, क्षपकाणामेव जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वात् तेषां च सर्वथाऽभावलक्षणस्यान्तरस्योत्कर्षतः षण्मासप्रमाणत्वात् । उक्तश्च जोवसमासप्रकरणे-खबगेसु छम्मासा' इति । अजधन्यस्थितिबन्धकानामाह-"अलहुए णंतर"मिति, सप्तानामलघुस्थितेर्बन्धकानां "णंतर" ति अन्तरं न भवति । सुगमम् , एकेन्द्रियादिसर्वजीवराशिभिः सप्तानामजघन्यस्थितिबन्धस्य नैरन्तर्येण करणात, तेषां बहूनां राशीनामविच्छेदेन प्राप्यमाणतया बन्धककालस्यैव सर्वाद्धात्वादिति । अथाऽयुष आह"आउस्स दोण्हं वि" ति ‘णंतर' मित्यत्राऽपि सम्बध्यते, तत आयुःकर्मणो 'द्वयोरपि'-जघन्या याः स्थितेबन्धकानामजघन्यायाः स्थितेबेन्धकानां चान्तरं न भवति, न पुनः केवलानामजघन्यस्थितेर्बन्धकानामित्यपिशब्दार्थः । सुगम चेदमपि, प्रतिसमयं द्विविधस्थित्योरनन्तानां बन्धकानां लाभेन बन्धकाद्धाया एवानाद्यनन्तत्वात्, येषां च निरवधिको बन्धकाद्धा तेषां त्वन्तरं न लभ्यत इत्यनेकशः प्रतिपादितमिति ॥४२७॥ __अथादेशतो व्याजिहीपुरादौ यासु सप्तानां जघन्यस्थितेर्बन्धकानामन्तरमुक्तनीत्या न सम्भवति, तासु प्रतिषेधयन्नाह
जासु जहण्णठिईए कालो सत्ताह होइ सम्बद्धा।
तासु जहण्णठिईए सत्तण्हं अंतरं णत्थि ॥४२८॥ (प्रे०) "जासु” इत्यादि, यासु तिर्यग्गत्योपादिपञ्चचत्वारिंशन्मार्गणासु सप्तानां जघन्यस्थितेर्वन्धकानां कालः सर्वाद्धा "होइ” त्ति उक्तो भवति, तासु मार्गणासु सप्तानां जघन्यस्थितेबन्धकानामन्तरं न भवतीत्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु प्राग्वत् । यासु सप्तानां जघन्यस्थितेर्वन्धककालः सर्वाद्धा,ता मार्गणाः पुनरिमाः-तिर्यग्गत्योघ-सवैकेन्द्रियभेदाः, सूक्ष्मौघ-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्त-बादरापर्याप्तभेदभिन्नाश्चत्वारः पृथिवीकायभेदास्तथैवाप्काय-तेजस्काय-वायुकायसत्काः प्रत्येकं चत्वारश्वत्वारो भेदाः, वनस्पतिकायौघा-ऽपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेदो, सर्वे साधारणवनस्पतिकायभेदाः, औदारिकमिश्र-कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयमा-ऽशुभलेश्यात्रिका-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंज्यऽनाहारकमार्गणाश्चेति ॥४२८॥ उक्तशेषमार्गणासु प्रस्तुतान्तरस्य सम्भवात्तज्जघन्येतरभेदेन दर्शयन्नाह
सेसासु लहु समयो गुरुमत्थि दुणर-पणिदिय-तसेसु । पणमणवय-कायेसु उरालिय-अवेअ-लोहेसु ॥४२९॥
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३७६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जाना जघन्यस्थिति० मइ-सुअ-संयम-समइअ-सुहुमेसु अचक्खु-चक्खु-सुक्कासु। सम्म-खइअ-सण्णीसु भविया-ऽऽहारेसु छम्मासा ॥४३०॥ वासपुहुत्तं मणुसी-णपुंसगि-त्थि-मणणाणु-वसमेसु। साहियवासो हवए पुम-तिकसायो-हिजुगलेसु॥४३१॥ अहवा तिकसायेसु छम्मासो-हिजुगलम्मि बिंति परे । वासपुहुत्तं छेए अट्ठारस जलहिकोडिकोडिओ॥४३२॥ (गोतिः)
सेसासु मग्गणासुअंगुलभागो भवे असंखयमो। (प्रे०) “सेसासु” इत्यादि, उक्ततिर्यग्गत्योघादिपञ्चचत्वारिंशन्मार्गणा उत्सृज्य शेषासु निरयगत्योधादिपञ्चविंशत्यभ्यधिकशतमार्गणासु पुनः सप्तानां जघन्यायाः स्थितेर्बन्धकानामन्तरं प्राप्यते, तच्च "लहु समयो' त्ति जघन्यं समयमात्रं भवति । उत्कृष्टं तर्हि कियद्भवतीत्याह"गुरुमत्थि” इत्यादि, अपर्याप्तमनुष्यमानुषीभेदवर्जितयोरोघ-पर्याप्तभेदभिन्नयोर्द्वयोर्नरगतिभेदयोस्तथैवौघ--पर्याप्तभेदभिन्नयोयोः पञ्चेन्द्रियजातिभेदयोईयोश्च त्रसकायभेदयोः, पञ्चमनोयोगभेदेषु, पञ्चवचोयोगभेदेषु, काययोगौधे, औदारिककाययोगे, अपगतवेदे, लोभकषाये, मतिज्ञानश्रुतज्ञान-संयमौघ-सामायिकसंयम-सूक्ष्मसम्परायसंयम-चक्षुर्दर्शना-ऽचक्षुर्दर्शन-शुक्ललेश्या-सम्यक्त्वौघ-क्षायिकसम्यक्त्व-संज्ञि-भव्या-ऽऽहारकेष्वित्येवं समुदितासु त्रयस्त्रिंशन्मार्गणासु "छम्मासा" त्ति षण्मासा भवति । कुतः ? एतासु प्रत्येकं सप्तानां जघन्यस्थितिवन्धस्य क्षपकस्वामिकतया क्षपकाणां सर्वथाऽभावलक्षणोत्कृष्टान्तरापेक्षया तल्लाभात् , क्षपकाणामुत्कृष्टान्तरस्य षण्मासत्वाच्चेति । अन्यत्राह-“वासपुहुत्त"मित्यादि, मानुषी-नपुंसकवेद-स्त्रीवेद-मनःपर्यवज्ञानौ-पशमिकसम्यक्त्वलक्षणासु पश्चमार्गणासु प्रस्तुतान्तरं वर्षपथक्त्वं भवति ।
ननु भवत्वौपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां जघन्यस्थितेर्बन्धकानामुत्कृष्टान्तरं वर्षपृथक्त्वम् , उपशमकानां नानाजीवाश्रितोत्कृष्टान्तरस्य जीवसमासे “वासपुहुत्तमुवसामएसु" इत्यनेन वर्षपृथक्त्वाभिधानात् । न पुनः शेषमानुष्यादिमार्गणास्वपि तद्युज्यते, तासु क्षपकाणामेव जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वेन मनुष्यगन्योधादिमार्गणावत्पण्मासप्रमाणस्यैव तस्य युज्यमानत्वात् ? इति चेद्, उच्यते, -तत्तद्वेदतत्तज्ज्ञानादिनाऽविशिष्टानां सामान्यजीवानां सिद्धयगमनलक्षणमन्तरमुत्कृष्टतः षण्मासादधिकमभवदपि तत्तद्वेदतत्तज्ज्ञानादिना विशिष्टानां स्व्यादितत्तल्लिङ्गिनामवध्यादितत्तज्ज्ञानिनां विशेषतो यथा-स्त्रीवेदनपुंसकवेदसिद्धानामुत्कृष्टतः संख्येयानि वर्षसहस्राणि, पुवेदसिद्धानां साधिकवर्षमानम्, यथा चाऽऽभिनिवोधिक-श्रुता-ऽवधिज्ञानपश्चात्कृतानां साधिकवर्षमानम् , आभि
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मार्गणास्वायुर्वर्जाना जघन्यस्थिति०] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम् ।
[ ३७७ निबोधिक-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्यवज्ञानचतुष्कपश्चात्कृतानां जीवविशेषाणां तु संख्येयानि वर्षसहस्राण्युस्कृष्टान्तरं भवति । उक्तं च सिडप्राभृतवृत्ती
_ 'पुरिससिद्धाणं पुरिसाणंतरसिद्धाणं य दोण्हं वि भंगाणं अंतरं वासं अहियं । सेसपुरिसे इत्थि-णपुंसगभंगेसु संखेज्जाणि वाससहस्साणि अंतरं' त्ति गाथार्थः ॥६८॥' इति । तथा 'सेसाणं विगप्पाणं वासं अहियं, तं जहा-"आभिणिबोहियसुयओहिनाणपच्छाकडाणं एयं 'मणपज्जणाणरहे' त्ति मणपज्जवणाणरहियाणं । सहियाणं पुण सेसभंगाणं आभिणिबोहियसुयमणपज्जवणाणपच्छाकडाणं वा 'संखसम' त्ति संखेजाणि वाससहस्साणि त्ति गाथार्थः ।।७३॥' इति ।
तथैव तत्तद्वेद-तत्तज्ज्ञानेनाऽविशिष्य सामान्यतः क्षपकजीवानामुत्कृष्टान्तरस्य षण्मासप्रमाणत्वेऽपि तत्तद्वेदादिना विशिष्टानां तदूत्कृष्टान्तरमधिकं प्राप्यते, तच्च स्त्रीवेदविशिष्टानां वर्षपृथक्त्वम् , तत एव मानुषीणामपि वर्षपृथक्त्वम् , नपुंसकवेदिजीवानां मनःपर्यवज्ञानिनां च वर्षपृथक्त्वं विज्ञेयम्, पुवेदेन क्षपकश्रेणिं समारूढानां तु तत्साधिकवर्षप्रमाणमेवोत्कृष्टतोऽपि भवति । इत्थमेवावधिज्ञानिनामवधिदर्शनिनामपि क्षपकाणां प्रत्येकमुत्कष्टान्तरं साधिकवर्षप्रमाणं भवति, अत एवानुपदं पुवेदादिमार्गणासु सप्तानां जघन्यस्थिते नाजीवाश्रयमुत्कष्टमन्तरं साधिकवर्षप्रमाणं वक्ष्यते ।
ननु 'पुरिसे वासं अहियं' इति सिद्धप्राभृतवचनात् तदनुसारेण भवतु पुवेदिक्षपकान्तराधीनं प्रस्तुतान्तरमुत्कृष्टतः साधिकवर्षप्रमाणम्, एवं ‘सेसाणं वासहिये' इति तद्वचनात् तदनुसारेणावधिज्ञानादिमार्गणासु साधिकवर्षमानं च, न पुनर्मानुषी-स्त्रीवेद-नपुसकवेद-मनःपर्यवज्ञानमार्गणासु तद्वर्षपृथक्त्वं भण्यमानमुपपत्तिपथमामृशति, स्त्रीवेदादिसिद्धानामुत्कृष्टान्तरस्य संख्येयवर्षसहस्रप्रमाणकथनाद् ? इति चेद, न, बहुवाचित्वेऽपि पथक्त्वशब्दस्य दृश्यमाणत्वात् । उक्तं चोपशमनाकरणचूर्णी-“पुहुत्तसहो बहुवाची" इति । इत्थं च वर्षपृथक्त्वमित्यनेन सम्भवदहुवर्षप्रमाणान्तरस्याऽपि ग्रहीतुं शक्यत्वादित्यलं विस्तरेण । पुवेदादिमार्गणास्वेवाह-“साहियवासो” इत्यादि, पुरुषवेदे "तिकसायोहिजुगलेसु" ति लोभकषाये भणितत्वात्तद्वर्जेषु त्रिषु क्रोधादिकषायेषु, अवधिज्ञानेऽवधिदर्शने चेत्येवं समुदितासु षण्मार्गणासु सप्तानां जघन्यस्थितेर्बन्धकानामुत्कृष्टमन्तरं साधिकवर्षमानं भवति । कषायत्रिके मतान्तरेणाह-"अहवा" इत्यादि, लोभवर्जक्रोधादिकषायत्रिके 'ऽथवा'-मतान्तरेण प्रस्तुतान्तरं षण्मासा भवति । अवधिज्ञाना-ऽवधिदर्शनमार्गणाद्वयेऽनन्तरं साधिकवर्षमानं दर्शितम्. साम्प्रतं महाबन्धकारमतेन तत्पूर्वापेक्षयाविलक्षणमेवेति कथयति-"ओहिजुगलम्मि"इत्यादि, अवधिज्ञाना-ऽवधिदर्शनमार्गणाद्वयलक्षणेऽवधियुगले प्रस्तुतान्तरं "बिंति परे" ति परे-महाबन्धकारा बुवन्ति-प्रतिपादयन्ति । कियदित्याह-"वासपुहुत्तं" त्ति वर्षपृथक्त्वमिति ।
"छेए अट्ठारस जलहिकोडिओडीओ" ति छेदोपस्थापनसंयममार्गणायां सप्तानां जवन्यस्थितेर्बन्धकानामुत्कृष्टान्तरमष्टादश 'जलधिकोटिकोटयः' - सागरोपमकोटिकोटयो भवति । अथोक्तशेषमार्गणासु प्रस्तुतान्तरमाह-"सेसासु" इत्यादि, अष्टौ निरयभेदाः, चत्वार
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३७८ ] बंधवहाणे मूलपडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वज नामजघन्यस्थिति० स्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तमनुष्यः, त्रिंशद्देवगतिमार्गणाभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियः, ओघ - बादरौघ - बादरपर्याप्तभेदभिन्नाः पृथिव्यादीनां प्रत्येकं त्रयस्त्रय इति द्वादश भेदाः, प्रत्येकवनस्पतिकायौध- तत्पर्याप्तभेद, अपर्याप्तत्रसकायः, वैक्रिय-तन्मिश्र काययोगी, आहारक-तन्मिश्र काययोग, विभङ्गज्ञानम्, परिहारविशुद्धिकसंयम- देशसंयमौ, तेजः - पद्मलेश्ये, क्षायोपशमिकसम्यक्त्वम्, सम्यग्मिथ्यात्वं सासादनं चेत्येवंरूपासूक्तशेषास्त्रशीतिमार्गणासु सप्तप्रकृतीनां जघन्य स्थितेर्वन्धकानामुत्कृष्टान्तरं क्षेत्रतोऽङ्गुला संख्यभागप्रमाणं भवति, कालतस्त्वसंख्येयोत्सपिण्यवसर्पिण्य इति प्राग्वज्ज्ञेयमिति ॥ ४२९-४३०-४३१-४३२॥
अथ मार्गणास्थानेष्वेव सप्तानामजघन्यस्थितेर्नानावन्धकाश्रयमन्तरमाहअजहण्णाअ ठिईएऽणुक्कोसठिइव्व सव्वासु ॥४३३॥
(प्रे०) "अजहण्णाअ" इत्यादि, सर्वासु निरयगत्योघाद्यनाहारक मार्गणापर्यन्तासु सप्तत्युतरशतमार्गणासु प्रस्तुतत्वान्मूलप्रकृतीनामजघन्यायाः स्थितेर्यन्धकानां जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नं द्विविधमप्यन्तरम् "णुक्कोसठिइव्व" त्ति सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकान्तरवत् 'सत्तण्ह अपज्जणारे आहार - दुगे विउत्र्वमिसे य' । इत्यादि (४१९...४२३) गाथापञ्चकेनोक्तमानं बोध्यम् । तद्यथा - अपर्याप्तमनुष्या-ssहारककाययोग- वैक्रियमिश्रकाययोगाऽपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयमौ - पशमिकसम्यक्त्वमिश्र - सास्वादन लक्षणेषु नवमार्गणास्थानेषु जघन्यतः समयः, छेदोपस्थापन संयमे तु तजघन्यतस्त्रिषष्टिवर्षसहस्राणि परिहारविशुद्धिकसंयमे पुनश्रतुरशीतिवर्षसहस्राणि, एता एकादशमार्गणा विहाय सेसासु निरयगत्योघादिमार्गणासु त्वजघन्यस्थितिबन्धकानामन्तरमेव न भवति । प्रस्तुतान्तरमुत्कृष्टतः पुनरपर्याप्तमनुष्य- मिश्रदृष्टि-सास्वादन मार्गणात्रये पल्योपमस्याऽसंख्येयभागमात्रम्, वैक्रियमिश्रकाययोगे द्वादश मुहूर्ता:, आहारक- तन्मिश्र काययोगमार्गणाइये वर्षपृथक्त्वम्, अपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणयोः षण्मासाः औपशमिकसम्यक्त्वे तु सप्त दिनानि, छेदोपस्थापन संयम-परिहारविशुद्धिकसंयम मार्गणयोः पुनरिदमुत्कृष्टमन्तरमष्टादश सागरोपमकोटिकोटयो भवति । एतच्च जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नं द्विविधमपि सप्तकर्मणामजघन्यस्थितिबन्धकानामन्तरं सर्वथैव सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकानामन्तरवद्विभावनीयमिति ॥ ४३३ |
उक्तमायुर्वर्ज सप्तानां जघन्या- ऽजघन्यस्थित्योर्नानाजीवाश्रयं जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नमन्तरं मार्गणास्थानेष्वपि । अथ शेषस्यायुः कर्मणस्तद्विभणिपुर विदेशेने वाह
जासु अणुक्कोसाए ठिअ आउस्स अंतरं णत्थि । तासु जहणठिअ वि अंतरमाउस्स णेव भवे ॥४३४॥ सेसासु लहुटिईए उक्कोसठिइव्व अंतरं यं । अजहण्णाअ ठिईएणुक्कोसठिइव्व सव्वासु ॥ ४३५॥
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मार्गणास्वायुषो जघन्येतरस्थिति०] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ ३७९ ___(प्रे०) “जासु' इत्यादि, यासु मार्गणा आयुषोऽनुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकानामन्तरं "णत्थि" त्ति 'आउस्स ' अंतरं णोऽणुक्कोसार ठिईअ' इत्यादिना प्राक प्रतिषिद्धं तासु तिर्यग्गत्योध-सर्वैकेन्द्रिय-सर्वसाधारणवनस्पतिकायौ-ध-सूक्ष्मौघ--तत्पर्याप्ता--ऽपर्याप्त-बादरोघा--ऽपर्याप्तबादरभेदभिन्न-पथिव्यप्तेजोपायुकाय-वनस्पतिकायौघ-प्रत्येकवनस्पतिकायौघ-तदपर्याप्त-काययोगोधौ-दारिकोदारिकमिश्रकाययोग--नपुंसकवेद-कषायचतुष्क--मत्यज्ञान-श्रताज्ञाना--ऽसंयमा-ऽचक्षुर्दर्शना--ऽशुभलेश्यात्रिक-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंश्य-ऽनाहारकलक्षणासु द्विषष्टिमार्गणासु “जहण्णठिईअ वि” ति आयुषो जघन्यायाः स्थितेर्बन्धकानामप्यन्तरं नैव भवेत् । न केवलमजघन्यस्थितेबेन्धकानामन्तरं न भवति, किन्तु जघन्यस्थितेर्बन्धकानामन्तरमपि नैव भवतीत्यपिशब्दार्थः । कुतोऽजघन्यस्थितेर्बन्धकानामिव न भवति ? असंख्येयलोकादिना रूपेण बन्धकपरिमाणस्य साम्यादिति ।
"सेसासु" त्ति अनन्तरोक्ताः द्विषष्टिमार्गणाः परिहत्य निरयगत्योपाद्यकोत्तरशतमार्गणासु सप्तानां लघुस्थितेर्बन्धकानाम् “उक्कोसठिइव्व अंतरं णेय"मिति जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नं द्विविधमन्तरमुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानाम् ‘आउस्सुक्कोसाए ठिईअ सव्यासु अंतरं णेयं । हस्सं समयो जेट अंगुलभागो असंखयमो।'४२४।। इत्यनेन प्रतिपादितान्तरवजघन्यतः समयः, उत्कृष्टतस्त्वगुलासंख्यभागप्रमाणं ज्ञेयम् । निरयगत्योघाद्याः शेषमार्गणाः पुनरिमा:-सर्वे निरयगतिभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, सर्वे मनुष्यगतिभेदाः, सर्वे देवगतिभेदाः, सर्वे द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रियजातिभेदाः, पर्याप्तवादराः पृथिव्यप्तेजोवायुकायाः, पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायः, सर्वे त्रसकायिकाः, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-वैक्रिया-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोग-स्त्रीवेद-पुवेद-मति-श्रता-ऽवधिमनःपर्यवज्ञान-विभङ्गज्ञान-संयमौघ-सामायिक- छेदोपस्थापन-परिहारविशद्धिकसंयम-देशसंयम-चक्षदर्शना-ऽवधिदर्शन-तेजः-पद्म-शकलेश्या-सम्यक्त्वौघ-क्षायिक-क्षायोपशमिक-सास्वादन-संज्ञिमार्गणाश्चेति । आयुषोऽजघन्यस्थितेन्धकानामाह-"अजहण्णाअ" इत्यादि, अजघन्यस्थितेर्बन्धकानां जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नं द्विविधमन्तरं पुनः “अणुक्कोसटिइव्व सव्वासु" ति सर्वासु द्विषष्टयु - त्तरशतमागणास्वप्यायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानां प्रागस्मिन्नेवाऽन्तरद्वारे'जहि सव्वद्धा कालोऽणुकोसठिईअ आउगस्स भवे । तहि तीअ अंतरं णो सेसासु भवे लह समयो॥४२५।। पंचिंदियतिरिय-विगल-पणिदिय-तसेसु सिं अपज्जेसु । भिन्नमुहुत्तं जेढ अण्णह गाउण णेयव्वं' ॥४२६।। इत्यनेनोक्तानुत्कृष्टस्थितिबन्धकान्तरवज्ज्ञातव्यमिति ॥४३४-४३५।।
प्रदर्शितमायुषोऽपि जघन्या-ऽजघन्यद्विविधस्थितिबन्धयो नाजीवाश्रयं जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नद्विविधमन्तरम् । तस्मिँश्च प्रदर्शिते निष्ठितं नानाजीवाश्रयमन्तरद्वारमिति ।। ॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे त्रयोदशं नानाजीवाश्रयमन्तरद्वारं समाप्तम् ॥
|
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जघन्यतः नास्ति
उत्कृष्टतः - नास्ति
गति०
इन्द्रियः
काय
योग
वेद०
कपाय०
आयुर्वर्जसप्त मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टा ऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धयोर्नानाजीवाश्रयान्तरप्रदर्शकं यन्त्रम्
उत्कृष्टस्थितेः
अजघन्याऽनुत्कृष्टस्थित्योः प्रत्येकम्
-ज्ञान०
संयम०
दर्शन०
लेश्या०
भव्य०
सर्व एकेन्द्रिय
भेदा
सम्यक्त्व.
संज्ञी०
आहारी
सर्वमार्गेणा
गाथाङ्काः
ओघवत् समयः
७
३२
अङ्गलाऽसंख्यभागः
(क्षेत्रतः)
सर्व०
१२
सर्व सूक्ष्मा पर्याप्त | श्रोध-बादरोध- तत्पवादरभेदभिन्नपृथि र्याप्तिभेदभिन्नपृथिव्य व्यप्तेजोवायुभेदाः, प्तेजोवायुभेदाः, वनौधा ऽपय प्रित्येक प्रत्येक वनौघतत्पर्यावन० सर्वसाधारण प्तभेदौ, सर्वत्रसवनभेदाश्च० २५ भेदाश्वर १७
सर्व०
श्री सर्व
सर्व०
सर्व०
सर्वविकलपञ्चेन्द्रि०
★ सर्व
सर्व ०
सर्व०
सर्व०
सर्व ०
सर्व०
सर्व०
४७
१३८
४१५
१८
४
४
७
७
3
६
२
२
समयः समयः समयः समयः समय
ल्योपसा द्वादश वर्ष संख्या मुहूर्ता क्त्वम्
अपर्याप्त
मनुष्य० १
सास्वादन, मिश्र० २
पपमा सप्त दिना
साः
वैक्रिय-ग्राहार मिश्र. १ कि.
प्रद १
सूक्ष्मसपररा
१
६३ सहस्र- ८४सहस्र
श्रोघ
वर्षाणि | वर्षाणि वत् १८कोटि-१८कोटि- शेषमार्गकोटिसा - कोटिसा | णासु
नि नरोनम गरोपम नास्ति
शेष०
वेदोपस्था- परिहार• विशुद्धिक० १
पन० १
प्रश मिक. १
१
४२०
४२३
४६
१
४२०
४२३
सर्व०
१६
सर्व०
४२
३
१ २
२ १ ४१६ ४१६ ४१६ ४१६ | ४१६ ४२१ ४२१ | ४२२ ४२२ ४२२ 'अपवाद:- अपगतवेद-सूक्ष्मसम्परासंयमयोरुत्कृष्टतो वर्ष पृथक्त्वम्, न त्वगुलासंख्य भाग: ( गा०-४१८) ।
४१७
४२१
Morary.org
शप०
१५
शेप० ३
सर्व= ४
सर्व० ७
शेप०
४
सर्व० ३
सर्व० ६
सर्व० २
शेप०
५
सर्व २
सर्व० २
१५६
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________________
जघन्यतः
उत्कृष्टतः
काय०
गति० तिर्यग्गत्यौघ
इन्द्रिय सर्व एकेन्द्रियभेदाः,
योग
वेद०
कपाय०
ज्ञान०
आयुर्वर्जस मूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयान्तरप्रदर्शकयन्त्रम्
नास्ति
नास्ति
सम्यक्त्व
चौदारिकमिश्र
कार्मगा०
वनौघा ऽपर्याप्तप्रत्येकवनभेदौ, सर्वसाधारणवन
भेदाश्च,
संयम संयमः,
| सर्वसूक्ष्मा पर्याप्तवाद र भेद भिन्नपृथिव्यप्तेजोवायुभेदाः, यति
दर्शन०
लेश्या० अशुभ०
भव्य० श्रभव्य०
मिथ्यात्व०
गाथाङ्काः
मत्यज्ञान० श्रुताज्ञान० २
संज्ञी संज्ञी,
आहारी अनाहारक० सर्व मार्गणाः
७
४५
१ मनुष्योध- तत्पर्याप्त. २
पञ्चन्द्रियोध
तत्पर्याप्त०
४२८
२५
१
श्रोघवत्
समयः
सर्वमनोवचोभेद० २ काययोगौघ०
ग्रैौदारिक० २
अपगतवेद०
३
१
पण्मासा:
१
१
१
सकाौघ तत्प
लोभ०
मतिज्ञान०
श्रुतज्ञान०
२
संयमी० सामा
विकर सूक्ष्म० ३.
संज्ञी, ०
आहारी,
चक्षुः प्रचक्षु० २
शुक्ला,
१
भव्य ०
१
सम्यक्त्वौघ०
क्षायिक •
३३
४२६-४३०
१ पुरुष० १
शेष० ३
१
२
समयः
१
१
नाधिकवः वर्षपृथक्त्वं,
मानुषी, १
प्रवृधि० १
श्रवधि० १
समय:
६
स्त्री०
मनः पर्यव०
२
प्रौपशमिक०
४३१
२
५
४३१
१
समयः
१८ कोटिकोटि अङ्गलाऽसंख्यसागरोपमः
१
समयः
४३२
१
भागः (क्षेत्रतः )
राष०
शेष
शेपः
o
विभङ्गः
१
छेदोपस्थापन परिहार० देश०
२
४३
१०
१५
८०
तेजः पद्म० २
क्षायोपशमिक० सासादन०
मिश्र =
३
४३३ www.ainelibrary.org
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आयुष उत्कृष्टादिचतुर्विधस्थितिवन्धस्य नानाजीवाश्रयान्तरप्रदर्शकन्त्रकम् उत्कृष्टस्थितेः जघन्यस्थितेः
अजघन्या-ऽनुत्कृष्टस्थित्योः जघ०-प्रोघवत्समयः | प्रोघवत् नास्ति समयः अोघवत् नास्ति
समयः अङ्गलाऽसंख्य
| अन्यतो भागः
अन्तर्मुहूर्त ख्यभागः
| ज्ञयम्
समयः
उत्कृष्टतः- अङ्गलाऽसं
गतिः । सर्व०
४७
सर्व
१९
तिर्घग्गत्योधक
पञ्चेन्द्रितिर्य- शेष ४६ ] तिर्यगत्योघ०
गोध-तदपर्या- ४४
प्तभेदौ, २ सर्वविकलपञ्चे
द्वि-त्रि-चतु:सर्व एकेन्द्रियभेदाः
पञ्चेन्द्रियौघ- शेष०४|| न्द्रियभेदा: १२ | सर्व एकेन्द्रियभेदाः ७
तदपर्याप्त
| भेदाः ८ औष-बादरौव-तदपर्याप्त- पर्याप्तबादरपृथि- औघ-बादरौघ-तदपर्याप्त
सकायौष- सक्ष्मौघ-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्त- व्यप्तेजोवायु- | सूक्ष्मौघ-तत्पर्याप्ता-ऽपर्या
शेष भेदभिन्नपृथिव्यप्तेजोवायु- भेदाः, पर्याप्त | प्तभेदभिन्नपृथिव्यप्तेजोभेदाः, प्रत्येकवनौष-तद- प्रत्येकवन० सर्व- वायुभेदाः,प्रत्येकवनौघपर्याप्तभेदौ, वनोघ-सर्व- त्रसभेदाश्च.
तदपर्याप्तभेदो, वनौष०
सर्वसाधारणवनभेदाश्च, साधारणभेदाश्च. ३४ ।।
सर्व
काय
४२
शेष०
योग० । सर्व० १६
काययोगौघ० औदारिक- शेष० तन्मिश्रयोगौ च, ३
काययोगोष० औदारिक१३ तन्मिश्रयोगौ च, ३
१३
वेद०
|त्रयेऽपि, ३ नसक०
शेष०
२
नपुसकवेद.
शेष०
२
कषाय० सर्व० ४ सर्ग
सर्व०
ज्ञान०
सर्व०
७ | मत्यज्ञान-श्रताज्ञाने,
२,
शेष०५
। | मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाने,
२
शिष०
संयमा सर्व०
६
असंयम०
१ शेष०५
असंयम
शेष०५ शेष०२
दर्शन
| सर्व०
१
शेष०
२।
अचक्षु०
लेश्या०
| सर्व०
३
अवक्षु० ६. कृष्णाद्यशुभ
भव्या-ऽभव्यौ,
| शुभ०
३
कृष्णाद्यशुभ०
शूभक
भव्य० सर्व० २
भव्या-ऽभव्यौ,
सम्यक्त्व. सर्व० ५-मिथ्यात्वम् ,
१
शेष
४
।
मिथ्यात्वम् , असंजी,
शेष० ४ संज्ञी०१
संजी०सर्व० २ असंज्ञी.
१ संज्ञी,
१
| पाहारी,
आहारी| आहा०१| आहारी, सर्वमार्गणाः- १६३
१०१
६२
१२
गाथाङ्का:- ४२४
४३४
४३५
।
४२५-४३४-४३५
४२६-४३५४२६-३५॥
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॥ अथ चतुर्दशं भावद्वारम् ॥
एतर्हि चतुर्दशस्य भावद्वारस्यावसरः, तत्र प्रस्तुतोऽष्टमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टादिस्थितिबन्ध ओघत आदेशपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिकौ-दयिक परिणामिकभावानां मध्ये केन भावेन जायत इत्येतद्दर्शयन्नेकामार्यामाह -
अहं कम्माणं चव्विाण वि ठिईण भावेणं । ओदइएणं बंधी एमेव हवेज सव्वासु ॥४३६ ॥
(प्रे० ) " अट्ठण्ह" मित्यादि, ज्ञानावरणादीनामष्टानां मूलकर्मणां "चउव्विहाण वि ठिईण" त्ति उत्कृष्टा ऽनुत्कृष्ट- जघन्या-ऽजघन्यभेदाच्चतुर्विधानामपि 'स्थितीनां' स्थितिविशेषाणाम्, अस्य च 'बंधो' इति परेणान्वयः, ततस्तासां बन्धः, भवतीति शेषः । केन भावेनेत्याह"भावेणं ओदइएणं" ति औदयिकेन भावेन । कुतः ? इति चेत्, स्थितिबन्धस्य कषायप्रत्ययत्वात् । उक्तं च-'ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ” इति । कषायस्त्वौदयिकभाव एव यतः कर्मणां विपाकोद्भवलक्षण उदयस्तेन निर्वृत्तः, तत्प्रयोजनो वा यो भावः स औदयिकभाव उच्यते । उक्तं च तत्वार्थवृत्तौ - 'कर्मविपाकाविर्भाव उदयः, तत्प्रयोजनस्तनिवृत्तो वा औदयिको भावः' इति ।
1
इदमुक्तं भवति - जीवस्य नैरयिकत्वादिपरिणामाः निरयगत्यादिकर्मणां विपाकोदयजन्यत्वाद् यथा औदयिकभावास्तथाऽनन्तानुबन्ध्यादि कषायोदयजन्यत्वात्स्थितिबन्धहेतुभूताः काषायिकात्मपरिणामा अप्यौदयिकभावा एव । उक्तञ्च तत्रैव - 'नरकगतिनामकर्मोदयान्नरकगतिरौदयिकोऽभिधीयते भात्रः, कषायमोहनीयोदयाच्च क्रोधी मानीत्याद्यौयिकः' इत्यादि । इत्यतः सुष्ठुक्तम् 'भावेण ओदइण बंध' इति ।
अथ मार्गणास्थानेष्वपि चतुर्विधायाः स्थितेर्वन्ध औदायिकभावेनैव, अतस्तास्वपि तथैव त्रिभणिषुरतिदेशेनाह - "एमेव हवेज्ज सव्वासु" त्ति एवमेव यथा ओघतो ज्ञानावरणादेरन्यतमस्या अपि प्रकृतेरुत्कृष्टाद्यन्यतम स्थितिबन्ध औदयिकभावेनोक्तस्तथा निरयगत्योघादिष्वनाहारकपर्यन्तासु सर्वासु मार्गणास्वप्यसावौदयिकभावेनाऽवसातव्य इत्यर्थः ।
एतेन हि स्थितिबन्धे काषायिक औदयिकभाव एवाऽसाधारणो हेतुरन्वयव्यतिरेकव्यभिचाराभावात्, न पुनरन्ये गत्याद्योदयिकभावा औपशमिकादय भावा वा, उपशान्तमोहादिगुणस्थाने तेषां सद्भावेऽपि स्थितिबन्धस्याभावेनाऽन्वयव्यभिचारादित्यपि विज्ञेयम् । अत्र तु द्वितीयादिषु तृतीयादिषु वा समयेष्ववस्थानं स्थितिरित्येव निरुक्तिराश्रयणीया, न पुनः स्थानं स्थितिरिति, उपशान्तमोहादिगुणस्थाने बध्यमानदलिकानां समय-द्विसमयाऽवस्थानस्याऽभिमतत्वात् ।
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३८४ ]
हा मूलपइबंधो [ ओघादेशतश्चतुर्विधस्थितिबन्धे भाव० यदवाचि शतकचूर्णिटीप्पनकेऽकलितकृत्याऽकृत्य कर्मकर्दमकलापकलङ्कितकुतार्किकतर्किततर्कतिमिरतरणिभिमु निमनः कुमुदचन्द्रैः श्रीमन्मुनिचन्द्रैः सूरितल्लजै:
-
'अल्पं’- स्तोकं कषायाभावेन तत्प्रत्ययस्थित्यनुभागापोढतया अल्पस्थित्यनुभागत्वात् । तथाहि तत्कर्म प्रथमसमये बद्धं द्वितीयसमये वेदितं तृतीयसमये निर्जीर्यत' इति ।
ननु 'एवमपि दशमगुणस्थाने लोभसूक्ष्म किट्ट्युदयसद्भावेऽपि मोहनीयस्य स्थितिबन्धो नैव जायते, इत्थं च विद्यते तत्र कारणसचे कार्याभावलक्षणोऽन्वयव्यभिचारः । न च तत्र सूक्ष्मकषायस्यैवोदयः, स चाधिकृतौयिकभावान्तर्गततया न गृह्यते, बादरकषायोदयस्यैवाऽधिकृतत्वादित्यपि वक्तु ं शक्यते । एवं सति दशमगुणस्थाने ज्ञानावरणादीनां स्थितिबन्धस्याभिमतत्वेन व्यतिरेकव्यभिचारस्य दुर्वारत्वात् ?' इति चेद्, न सति प्रकृतित्रन्धे एवं स्थितिबन्धसद्भावा- सद्भावचिन्तनस्य प्रस्तुतत्वात् । न हि दशमगुणस्थाने मोहनीयप्रकृतिवन्धे प्रवर्तमानेऽपि तत्स्थितिबन्धाभावः प्रवर्तते, येन सूक्ष्मलोभकिट्ट्युदयसद्भावेऽपि मोहनीयस्थितिबन्धाभावलक्षणोऽन्वव्ययभिचारस्स्यात् । यासां तु ज्ञानावरणादिप्रकृतीनां तत्र बन्धः प्रवर्तते, तासां तु स्थितिबन्धोऽपि जायत एव । इत्थं बादरकषायोदयमेव प्रस्तुतौदधिक भावतयाऽभ्युपगम्य व्यतिरेकव्यभिचारप्रसङ्गापादनं निरवकाशमेव । अत एवाऽधस्तनगुणस्थानेषु कापायिकौदयिकभावस्य संततं प्रवर्तमानेऽपि तत्राऽऽयुषः स्थितिबन्धस्याऽसार्वदिकत्वेऽपि न काचित्क्षतिः, आयुर्वन्धस्यैव कादाचित्कत्वात् प्रकृतिबन्धसद्भावे तु तदीयस्थितिबन्धस्य नियमतः प्रवर्तनाच्चेत्यलं पल्लवितेनेति ||४३६||
तदेवमोघत आदेशताऽष्टानामपि मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टादिचतुर्विवस्थितिबन्धे कृता भावप्ररूपणा, तस्यां च कृतायां गतं चतुर्दशं भावद्वारम् ।
अष्टानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टादिचतुर्विधस्थितिबन्धे भावप्रदर्शकयन्त्रम्
कुत्र
ओघतः सर्वमार्गणास्थानेषु च.
केषाम्
अटुकर्मसत्कोत्कृष्टादिचतुर्विधस्थितीनां प्रत्येकम्
।। इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे चतुर्दशं भावद्वारं समाप्तम् ॥
केन भावेन बन्धः
औदयिकेन भावेन
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॥ अथ पञ्चदशमल्पबहुत्वद्वारम् ॥ अथ प्राप्तम् "अप्पबहु" इत्यनेनोद्दिष्ट चरममल्पबहुत्वद्वारम् । अत्र हि मूलकर्मणामुत्कृटादिस्थितेर्बन्ध-बन्धकपरिमाणभेदान्मुख्यतया सोत्तरभेदं द्विविधमल्पबहुत्वं वक्तव्यं भवेत् ।
___ तत्र बन्धकपरिमाणाल्पबहुत्वं त्रिधा । तद्यथा- (१) उत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धकपदद्वयापेक्षम् , (२) जघन्या-जघन्यस्थितिवन्धकपदद्वयाश्रयम् , (३) उत्कृष्ट-जघन्या-ऽजघन्यानुत्कृष्टस्थितिबन्धकरूपपदत्रयसमाश्रितं च । एतानि चैकैकमपि प्रत्येकं मूलकाण्याश्रित्य वक्तव्यानि ।
स्थितिबन्धप्रमाणाल्पबहुत्वन्तु स्वस्थान-परस्थानभेदतो द्विधा, तत्र स्वस्थान उत्कृष्ट-जघन्यपदद्वयमपेक्ष्यकविधमेवाल्पबहुत्वम् , परस्थाने तु त्रीणि । तद्यथा-आद्यं केवलमुत्कृष्टपदापेक्षम्, द्वितीयं केवलं जघन्यपदमधिकृत्य, तृतीयं तु जघन्योत्कृष्टपदद्वयं प्रतीत्येति ।
तत्र हि आदौ तावदन्धकपरिमाणाल्पबहुत्वं बिभणिपुरुत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थित्यधिकृत्याहउक्कोसाअ ठिईए अट्ठण्हं बंधगा मुणेयवा।
सव्वत्थोवा तत्तोऽणुक्कोसाए अणंतगुणा ॥४३७॥ (प्रे०) “उक्कोसाअ ठिईए” इत्यादि, ज्ञानावरणादीनामष्टानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्छटायाः स्थितेबन्धका ज्ञातव्या इति संटङ्कः । कियन्त इत्याह-"सव्वत्थोवा" त्ति सर्वस्तोकाः, अनन्तरवक्ष्यमाणद्वितीयपदापेक्षया स्तोका इत्यर्थः । तर्हि द्वितीयपदे कियन्त इत्याह-"तत्तोणुक्कोसाए” इत्यादि, पूर्वोक्तपदानामनुवर्तनाद् द्वितीये चरमे वा पदे ज्ञानावरणादीनां प्रत्येकमनुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकाः “तत्तो” त्ति तेभ्य उत्कृष्टस्थितिबन्धकेभ्यः "अणंतगुणा” ति अनन्तगुणा इति । इयमत्र भावना-ज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितेर्बन्धकाः पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रिया एव सम्भवन्ति, ते चासङ्खयेयाः । ज्ञानावरणस्यानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकास्तु सूक्ष्मनिगोदपर्यन्ताः सर्वे, ते चानन्ताः, तथा सत्युत्कृष्टस्थितेर्बन्धका अनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकापेक्षया स्तोका भवन्ति, उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकापेक्षयाऽनस्कृष्ट स्थितेर्बन्धकास्त्वनन्तगुणा एव । इत्थमेव दर्शनावरणादिष्वपि प्रत्येकं द्रष्टव्यमिति ॥४३७॥
अथादेशतो व्याजिहीर्षरादौ तावदायुर्वर्जसप्तप्रकृतीरधिकृत्याहतिरिये काय-उरलदुग-कम्म-णपुम-चउकसाय-अयतेसु। दुअणाण-अणयणेसु तिअसुहलेसासु मिच्छे य ॥४३८॥ भवि-यियरा-ऽसण्णीसुआहारि-यरेसु हुन्ति सव्वऽप्पा। सत्तण्हुक्कोसाए तो इयराए अणंतगुणा ॥४३९॥
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३८६ ] बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानामुत्कृष्ठेतरस्थितिबन्धकानां
(प्रे०) "तिरिये कायउरले”त्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः, नवरम् “उरलदुगे" त्यनेनौदारिकौ-दारिकमिश्रकाययोगौ, “णपुमे"त्यनेन नपुसकवेदस्तथा "तिअसुहलेसासु" इत्यनेन कृष्ण-नील-कापोतलेश्याश्च ग्राह्या । इत्येवं सार्धगाथया संगृहीतासु तिर्यग्गत्योघाद्यनाहारिपर्यन्तासु त्रयोविंशतिमार्गणासु "हुन्ति" ति भवन्ति । बन्धका इत्यनुवर्तते, कस्याः स्थितेन्धकाः कियन्तश्चेत्याह-"सव्वप्पा" इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां प्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कृष्टायाः स्थितेः सर्वाल्पाः । “तो इयराए” ति 'तत:'-उत्कृष्टस्थितिबन्धकेभ्यः 'इतरायाः'-उत्कृष्टेतरायाः अनुत्कृष्टाया अनन्तगुणाः, बन्धका इति गम्यते । अत्रापि सर्वमोघबद्भावनीयम् , नवरमसंज्ञिमार्गणायामुत्कृष्टस्थितेबन्धकाः पर्याप्ता असंज्ञिपञ्चेन्द्रिया इति वक्तव्यमिति ॥४३८-४३९।।
अथ गाथाद्वयेन शेषमार्गणासु प्रकृताल्पबहुत्वमाहपज्जमणुस-मणुसीसु सव्वत्था-ऽऽहारदुग-अवेएसु। मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहारेसु॥४४०॥ सुहुम्मि य सत्तण्हं उक्कोसाए ठिईअ थोवा तो।
अपराए संखगुणा असंखियगुणा उ सेसासु ॥४४१॥ (प्रे०) “पज्जमणुसे”त्यादि, पर्याप्तमनुष्य-मानुषीमार्गणयोः, सर्वार्थसिद्ध विमानदेवगतिभेदाऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगा-ऽपगतवेदमार्गणासु, मनःपर्यवज्ञान-संयमोघमार्गणयोः, सामायिकछेदोपस्थापन--परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणासु सूक्ष्मसम्परायमार्गणायां चेत्येतासु समुदितासु पर्याप्तमनुष्यादिसूक्ष्मसम्परायान्तासु द्वादशमार्गणास प्रत्येकं “सत्तण्ह" मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनामुत्कृष्टायाः स्थितेः स्तोकाः, बन्धका इति गम्यते, । "तो" ति 'ततः'-उत्कृष्टस्थितिबन्धकेभ्यः “अपराए संखगुणा" त्ति 'अपराया'-अनुत्कृष्टायाः स्थितेः संख्येयगुणा इति । सगमं चैतद् , एतासु प्रत्येकमुत्कृष्टतोऽपि संख्येयानां जीवानां लाभाद् , एकस्थितिबन्धस्थानात्मिकाया उत्कृष्टस्थितेः केपाश्चित् कदाचिद्वन्धप्रायोग्यत्वाच्चेति ।
उक्तशेषासु पश्चत्रिंशदुत्तरशतमार्गणास्वाह-"असंखियगुणा उ सेसासु" ति उक्तशेषमार्गणासु तु प्रत्येकं सप्तानां मूलप्रकृतीनामनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका उत्कृष्टस्थितिबन्धकेभ्योऽसंख्येयगुणाः, उत्कृष्टस्थितेबन्धकास्तु स्तोका इत्यर्थः । कुतः ? एवं ज्ञायत इति चेत् , “अपराए" इत्यस्य पूर्वतोऽनुवर्तनात् , सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रस्तुतत्वात् शेषस्यार्थाद्गम्यत्वाच्च 'असंखियगुणा उ सेसासु' इत्येतावन्मात्रोक्त्याऽपि व्याख्यातार्थोऽवबुध्यत इति । शेषाः पञ्चत्रिंशदभ्यधिकशतमार्गणास्त्विमाः-अष्टौ नरकगतिमार्गणाभेदाः, चत्वारोऽपि तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदाः, मनुप्यौघा--ऽपर्याप्तमनुष्यभेदौ, सर्वार्थसिद्धविमानभेदवर्जाः शेषा एकोनत्रिंशदेवगतिमार्गणाभेदाः,
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मार्गणास्वायुष उत्कृष्ठेतरस्थितिबन्धकानां ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम् [३८७ एकोनविंशतिरपीन्द्रियमार्गणाभेदाः, द्विचत्वारिंशदपि कायमार्गणाभेदाः, पश्च मनोयोगभेदाः, पश्च वचोयोगभेदाः, वैक्रिय-वैक्रियमिश्रकाययोगभेदो, स्त्रीवेद-पुवेद-मतिज्ञान-श्रुतज्ञाना-ऽवधिज्ञानविभङ्गज्ञान-देशसंयम-चक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन--तेजः-पद्म-शुक्ललेश्या--सम्यक्त्वौघ-क्षायिक-क्षायोपशमिकौ-पशमिकसम्यक्त्व-सम्यग्मिथ्यात्व-सासादन-संज्ञिमार्गणाभेदाश्चेति ।
ननु अनन्तरं पर्याप्तमनुष्यादिद्वादशमार्गणासु जीवानां संख्येयत्वादनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका यथा संख्येयगुणाः, तथा नरकगत्योधादिमार्गणासु जीवानामसंख्येयत्वादुत्कृष्टस्थितिबन्धकेभ्योऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका असंख्येयगुणा इति सुष्टूक्तम् , न पुनरनन्तराशिकास्वेकेन्द्रियादिमार्गणास्वप्यसंख्येयगुणा इति वाच्यम् । यतोत्र न केवलं तत्तन्मार्गणासु प्रागुक्तं परिमाणमेव यथोक्ताल्पबहुत्वे प्रयोजकं किन्तु बन्धप्रायोग्यस्थितिबन्धस्थानपरिमाणमपि, ततश्वोत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टयोढिविधस्थितिबन्धयोर्बन्धकपरिमाणस्य संख्येयत्वेन रूपेण, एवमसंख्येयत्वेनाऽनन्तत्वेन वा रूपेण तुल्यत्वे सति योकसभये नानाजीवापेक्षया बन्धप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयानि तदोत्कृष्टस्थितिबन्धकेभ्योऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकाः संख्येयगुणाः प्राप्यन्ते, यदि चैकसमये नानाजीवानाश्रित्य बन्धप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयानि तदा तु तेऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकाऽसंख्येयगुणाः संपद्यन्ते । एकेन्द्रि यादिमार्गणास्वपि प्रत्येकं निरयगत्योपादिमार्गणावद् द्विविधस्थितेर्बन्धकानां तुल्यमनन्तपरिमाणमेवोक्तम् , एकसमये नानाजीवानां बन्धप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि त्वसंख्येयानि, ततश्चैकस्थितिबन्धस्थानात्मकोत्कृष्टस्थितेर्वन्धकेभ्योऽसंख्ययस्थितिबन्धस्थानात्मकानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका असंख्येयगुणा एव लभ्यन्त इति न कश्चिदोष इति ॥४४०-४४१॥
___ तदेवमुक्तं सप्तानां प्रकृतीनामुत्कृष्टा-नुत्कृष्टस्थित्योर्बन्धकानामल्पबहुत्वमादेशतोऽपि । इदानीमुक्तशेषस्याऽऽयुषः स्थितिबन्धकविषयं तदाह--
तिरिये वणप्फईए सव्वेगिंदिय-णिगोअभेएसु। काय-उरालदुगेसुणपुंसग-कसायचउगेसु॥४४२॥ दुअणाणा-ऽयत-अणयण-किण्हासुणील काउ-भवियेसु। अभविय-मिच्छत्तेसु य असण्णि-आहारगेसु च ॥४४३॥ आउस्सुक्कोसाए ठिईअ होअन्ति बंधगा थोवा । तत्तोऽणुक्कोसाए ठिईअ णेया अणंतगुणा ॥४४४॥
(प्र०) "तिरिये वणप्फईए” इत्यादि, तत्राधगाथाद्वयेन तिर्यग्गत्योघादिषट्त्रिंशन्मार्गणाः संगृहीताः, तृतीयगाथया च तासु मार्गणास्वायुष उत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थित्योर्बन्धकानामल्पबहुत्वमभि
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३८८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुष उत्कृष्टेतरस्थितिबन्धकानां हितम् । अक्षरार्थस्तु प्राग्वत् ततस्तिर्यग्गत्योधमार्गणायां, वनस्पतिकायौघमार्गणायां, सर्वेषु निगोदभेदेषु,सर्वेष्वेएकेन्द्रियभेदेषु,काययोगौ-दारिको दारिकमिश्रकाययोगमार्गणासु, नपुसकवेद-क्रोधादिकषायचतुष्कयोः, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयमा-ऽचक्षुर्दर्शन-कृष्णलेश्यामार्गणासु, नीललेश्या-कापोतलेश्या-भव्यमार्गणासु, अभव्य-मिथ्यात्वमार्गणयोः, असंख्या-ऽऽहारकमार्गणयोश्चेत्येतासु पट्त्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमायुष उत्कृष्टायाः स्थितेन्धकाः स्तोका भवन्ति, “तत्तो" त्ति तेभ्यः "णुक्कोसाए” ति आयुषोऽनुत्कृष्टायाः स्थितेरनन्तगुणा ज्ञेयाः, बन्धका इत्यनुवर्तत इति । एतासु प्रत्येकं साधारणवनस्पतिकायिकानामपि समावेशेनायुषो बन्धकानामनन्तत्वेऽप्यायुष उत्कृष्टस्थितेबन्धकास्त्वसंख्येया एव । कस्मात् ? प्रकृतमार्गणासु बन्धप्रायोग्योत्कृष्टस्थितेर्वेदकानां जीवानां लोकेऽसंख्येयत्वेन तदधिकानामुत्कृष्टस्थितिकायुबन्धकानामप्यसम्भवात् , इत्थं च यथोक्तमेवाल्पबहुत्वमुपपद्यत इति ।।४४२-४४३-४४४॥
अथ गाथाद्वयेन शेषमार्गणासु प्रकृताल्पबहुत्वमाहपज्जमणुस-मणुसीसु आहारदुगा-ऽऽणताइदेवेसुं। मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहारसु ॥४४५॥ सुइल-खइएसु थोवा उक्कसाए ठिईअ आउस्स ।
अगुरूए संखगुणा असंखियगुणा उ सेसासु ॥४४६॥ (प्रे०) “पज्जमणुसे'त्यादि, पर्याप्तमनुष्य-मानुषीमार्गणास्थानयोः, आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगात्मके आहारकद्विके, अष्टादशस्वानतादिसर्वार्थसिद्धपर्यन्तेषु देवगतिभेदेषु, मनःपर्यवज्ञान-संयमौधमार्गणयोः, सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिकसंयमेषु, शुक्ललेश्या-क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणयोरित्येतास्वेकोनत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकं स्तोकाः । के इत्याह- "जेट्ठाअ" इत्यादि, आयुषो 'ज्येष्ठायाः'-उत्कृष्टायाः स्थितः, बन्धका इति प्राग्वदनुवर्तते । “तओ" ति 'ततः'-आयुष उत्कृष्टस्थितेवन्धकेभ्यः "अगुरूए संखगुणा" त्ति आयुपः अगुरोः'-अनुत्कृष्टायाः स्थितेः संख्येयगुणाः, बन्धका इति पूर्ववत् । सुगमम्, प्रत्येकमायुर्वन्धकजीवानामेव संख्येयत्वादिति ।
उक्तशेषावष्टनवतिमार्गणास्वाह-"असंखियगुणाउ सेसासु"ति शेषमार्गणासु तु प्रत्येकमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका असंख्येयगुणाः । केभ्यः ? इति चेत् , स्तोकेभ्य आयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धकेभ्य इति प्राग्वदोदवसीयत इति । शेषमार्गणास्त्विमाः-अष्टौ नरकगतिभेदाः, चत्वारस्तियेक्पञ्चेन्द्रियभेदाः, मनुष्योघा-ऽपयोप्तमनुष्यभेदी, देवगत्योघभेदः, भवनपत्यादिसहस्रारकल्पान्ता एकादश देवगत्युत्तरभेदाः, नवविकलेन्द्रियभेदाः, त्रयः पञ्चेन्द्रियभेदाः, पथिवीकायसत्काः सर्वे, अप्कायसत्काः सर्वे, तेजस्कायसत्काः सर्वे, वायुकायसत्काः सर्वे भेदाः, त्रयः प्रत्येकवनस्पतिकाय
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ओघतो जघन्येतरस्थित्योर्बन्धकानाम् ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ३८९ भेदाः, त्रयस्त्रसकायभेदाः, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-वैक्रियकाययोग-स्त्रीवेद-वेद-मतिश्रुता-ऽवधिज्ञान-विभङ्गज्ञान-देशसंयम-चक्षुदर्शना-ऽवधिदर्शन-तेजः पद्मलेश्या-सम्यक्त्वौघ-क्षायोपशमिक-सासादन-संज्ञिमार्गणाभेदाश्चेति ॥४४५-४४६॥
तदेवमुक्तमोधत आदेशतश्चाष्टानामपि प्रकृतीनामुत्कृष्टा-ऽनुत्कृष्टस्थित्योर्वन्धकानामल्पबहुत्वम् । साम्प्रतं जघन्या-ऽजघन्यस्थित्योवन्धकानामल्पबहुत्वं व्याजिहीषु रादौ तावदोघत आह
सत्तण्ह बंधगाऽप्पा लहूअ ताउ अलहूअऽणंतगुणा।
आउस्स लहूए ऽप्पा असंखियगुणा अहस्साए ॥४४७॥ (प्रे०) “सत्तण्ह बंधगाऽप्पा" इत्यादि, आयुर्वर्जानां मूलप्रकृतीनां बन्धकाः 'अल्पाः'स्तोकाः । कस्याः स्थितरित्याह-"लहू" ति 'लघोः'-जघन्यायाः स्थितेः । तेभ्यः “अलह" त्ति अजघन्यायाः स्थितेरनन्तगुणाः, बन्धका इत्यनुवर्तते । सुगमम् , क्षपकाणामेव जघन्यस्थितिबन्धकतया निगोदपर्यन्तानां जीवानामजघन्यस्थितिवन्धकतया च लाभादिति। आयुष आह-"आउस्से" त्यादिना, आयुषः 'लघोः'-जघन्यायाः स्थितेरल्पा:-स्तोकाः। “अहस्साए"ति तेभ्यो जघन्यस्थितिअन्धकेभ्य आयुषः 'अह्रस्वायाः' -अजधन्यायाः स्थितेरसंख्येयगुणा। उभयत्र बन्धका इति प्राग्वद्योज्यम्। अत्र जघन्यस्थितिकमायुःसूक्ष्मनिगोदादिसत्कमपि बध्यते, अतस्तद्वन्धका अप्यनन्ताः सम्पद्यन्ते । ते च शेषायुर्वन्धकेभ्योऽसंख्यभागगता इति भागद्वारे उक्तमेव, तथा चाजघन्यस्थितिकायुषो बन्धका असंख्यगुणा एव भवन्ति, न पुनरनन्तगुणाः । विशेषतस्तु तुल्यपरिमाणत्वेऽप्येकस्मिन् समयेऽसंख्येयानामेवस्थितिविशेषागां बन्धप्रायोग्यत्वादित्येवमत्रैवाल्पबहुत्वे प्रागुक्तहेतुनोह्यम् ।।४४७।।
अथाऽऽदेशतः प्रकृताऽल्पबहुत्वं विभणिषुरादौ तावदायुर्वजानामाह
पज्जमणुस-मणुसीसुसव्वत्था-ऽऽहारदुग-अवेएसु। मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहारसु॥४४८॥ सुहमम्मि य सव्वऽप्पा जहण्णगाए ठिईअ सत्तण्हं ।
तत्तो संखेज्जगुणा हुन्ति ठिईअ अजहण्णाए ॥४४९॥ (प्रे०) “पज्जमणुस” इत्यादि, प्राग्वत् पर्याप्तमनुष्य-मानुपी-सर्वार्थसिद्धविमानदेवगतिभेदा-ऽऽहारक-ऽऽहारकमिश्रकाययोगा-ऽपगतवेद--मनःपर्यवज्ञान--संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयमरूपासु द्वादशमार्गणासु प्रत्येकं “सव्वाप्पा" ति आयुर्वर्जानां सप्तानां प्रकृतीनां जघन्याया एव जघन्यकायाः स्थितेः सर्वाल्पाः, बन्धका इत्यनुवर्तते । “तत्तोसंखेज्जगुणा हुन्ति" ति तेभ्यो जघन्यस्थितिबन्धकेभ्यः संख्येयगुणाः भवन्ति । के ? "ठिहअ अजहण्णाए” त्ति अजघन्याः स्थितेर्बन्धका इत्यर्थः । सुगममिति ॥४४८-४४९॥
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३९० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषो जघन्येतरस्थितिबन्धकानां शेषमार्गणास्वेकया गाथया प्रकृताल्पबहुत्वमाहकायु-रल-णपुसेसुकसायचउगे अचक्खु-भवियेसु।
आहारेऽणंतगुणा अवसेसासुअसंखगुणा ॥४५०॥ (प्रे०) “कायुरले” त्यादि, काययोगसामान्यौ-दारिककाययोग-नपुसकवेद-क्रोधादिकषायचतुष्का-ऽचक्षुर्दर्शन-भव्या-ऽऽहारिमार्गणासु प्रत्येकमनन्तगुणाः, सप्तानामजघन्यस्थितेवन्धका इत्यनुवर्तते, सप्तानां जघन्यस्थितेर्बन्धकाः स्तोकास्तेभ्यश्चेमेऽनन्तगुणा इत्यर्थाद्गम्यते । एवमुत्तरत्रापि बोद्धव्यम् । उक्तशेषमार्गणास्वाह-"अवसेसासु असंखगुणा” त्ति प्राग्वदवशेषासु मार्गणासु सप्तानां जघन्यस्थितेर्बन्धकाः स्तोकास्तेभ्योऽजघन्यस्थितेवन्धका असंख्येयगुणा इत्यर्थः । अवशेषमार्गणास्त्विमा अष्टचत्वारिंशदधिकशतम्-सर्वे नरकगतिभेदाः, सर्वे तिर्यग्गतिभेदाः मनुप्यौघा-ऽपर्याप्तमनुष्यभेदौ, सर्वार्थसिद्धविमानभेदवर्जाः शेषा एकोनत्रिंशद् देवगतिभेदाः, सर्व इन्द्रियमार्गणाभेदाः, तथैव सर्वे कायमार्गणाभेदाः, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोगौ-दारिकमिश्र-वैक्रियवैक्रियमिश्र-कार्मणकाययोग-स्त्री-पुवेद-मति-श्रुता-ऽवधिज्ञान-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभंगज्ञान-देशसंयमाऽ-संयम--चक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन-कृष्णादिषल्लेश्या-ऽभव्य--सम्यक्त्वौघ-क्षायिक-क्षायोपशमिकोपशमिक-सम्यग्मिथ्यात्व-सासादन-मिथ्यात्व-संज्य-ऽसंश्य-ऽनाहारकमार्गणाश्च । सुगममिति ॥४५०॥
तदेवमुक्तं सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकं जधन्याजघन्यस्थितिबन्धकपदद्वयाश्रयमल्पबहुत्वमादेशतः। अथाऽऽयुषस्तदादेशतः प्राह
पज्जमणुस-मणुसीसुआहारदुगा-ऽऽणताइदेवेसु। मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहारेसु ॥४५१॥ सुइल-खइएसु थोवा जहण्णगाए ठिईअ आउस्स ।
अलहूए संखगुणा असंखियगुणा उ सेसासु॥४५२॥ (प्रे०) “पज्जमणुसे” त्यादि, पर्याप्तमनुष्य--मानुष्या-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगा. ऽऽनतकल्पादिसर्वार्थसिद्धविमानान्ताष्टादशदेवगतिभेद--मनःपर्यवज्ञान--संयमोघ--सामयिक-छेदोप-- स्थापन-परिहारविशुद्धिकसंयम-शुक्ललेश्या-क्षायिकसम्यक्त्वरूपास्वेकोनत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमायुषो जघन्या एव जघन्यकास्तस्या जघन्यकायाः स्थितेः 'स्तोकाः' -अल्पाः, बन्धका इति प्रकरणाद्गम्यते, "अलहुए संखगुणा" ति अनन्तरोक्तभ्यो जघन्यस्थितिबन्धकेभ्यः अलघोः' -अजघन्यस्थितेर्बन्धकाः संख्येयगुणाः । अत्र हि प्रत्येकं सामयिकोत्कृष्टबन्धकपरिमाणस्यैव संख्येयत्वात्प्राग्वत्संख्येयगुणत्वं भावनीयमिति । उक्त शेषमार्गणास्वाह-"असंखियगुणा उ सेसासु" ति प्राग्वत्शेषासु चतुस्त्रिंशदुत्तरशतमार्गणारवायुषो जघन्यस्थितेर्बन्धकाः स्तोकास्तेभ्यस्तस्यैवाऽजघन्यस्थितेर्बन्धका
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ओघतो जघन्योत्कृष्ठतदितरस्थितिबन्धकानाम् ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम् [ ३९१ असंख्येयगुणा इत्यर्थः । शेषमार्गणा इमाः-सर्वे नरकगतिभेदाः, सर्वे तिर्यग्गतिभेदाः, मनुष्योघा-ऽपर्याप्तमनुष्यभेदौ, देवौधः, भवनपत्यादिसहस्रारकल्पान्तैकादशभेदाच, सर्व इन्द्रियमार्गणाभेदाः, पश्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-काययोगसामान्यौ-दारिकौ-दारिकमिश्र-वैक्रियकाययोग-स्त्री-पु-नपुंसकवेद-क्रोधादिकषायचतुष्क-मति-श्रुता-ऽवधिज्ञान-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभंगज्ञाना--ऽसंयम-देशसंयमचारचक्षुरवधिदर्शन-शुक्लवर्जलेश्यापश्चक-भव्या-ऽभव्य-सम्यक्त्वौघ-क्षायोपशमिक-सासादन-मिथ्यात्व-संश्य-ऽसंख्या-ऽऽहारिमार्गणाभेदाश्चेति ॥४५१-४५२।।
तदेवमुक्तं पदद्वयमपेक्ष्य बन्धकाल्पबहुत्वम् । साम्प्रतं जघन्यस्थितिरुत्कृष्टस्थितिरजघन्यानुत्कृष्टस्थितिरिति पदत्रयमपेक्ष्य तद्वन्धकानामल्पबहुत्वं प्रतिपादयितुमना आदावोधत आह
सत्तण्ह बंधगाऽप्पा हस्साअ ठिईअ तो असंखगुणा। जेट्टाअ तो ठिईए अलहुगुरूए अणंतगुणा ॥४५३॥ आउस्सुकोसाए थोवाऽणंतगुणिया जहण्णाए। अजहण्णुकोसाए ठिईअ णेया असंखगुणा ॥४५४॥
(प्रे०) “सत्तण्ह बंधगाऽप्पा” इत्यादि, आयुर्वर्जानां 'ह्रस्वायाः'-जघन्यायाः स्थितेर्बन्धकाः 'अल्पाः'-स्तोकाः “तो” त्ति 'ततः'-अनन्तरोक्तेभ्यो जघन्यस्थितिबन्धकेभ्योऽसंख्यगुणा बन्धकाः । कस्या इत्याह-"जेहाअ" ति 'ज्येष्ठायाः'-उत्कृष्टायाः स्थितेः । “तो अलहुगुरूए" ति ततः 'अलघुगुरोः' -लघुगुरुभिन्नायाः स्थितेरित्यर्थः । “अणंतगुणा” ति अनन्तगुणाः बन्धका इत्यर्थः ।
तत्र मूलसप्तप्रकृतीनां जघन्यस्थितेर्बन्धकाः क्षपकश्रेणिगताः संख्याता एवेतिकृत्वा स्तोका उक्ताः, उत्कृष्टस्थितेबन्धकास्तु पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः, ते चोत्कृष्टतोऽसंख्येयाः प्राप्यन्त इत्यतः पूर्वोक्तेभ्योऽसंख्येयगुणा दर्शिताः, अजघन्यानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकास्तु सूक्ष्मनिगोदपर्यन्ताः सर्वेऽपि, ते चानन्ता इतिकृत्वा चरमपदे तेऽनन्तगुणा अभिहिता इति । .
अथ भणितशेषस्याऽऽयुकर्मणः प्रस्तुताल्पबहुत्वमाह-"आउस्सुक्कोसाए” इत्यादिना, आयुष उत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धकाः पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्या एव, जघन्यस्थितेर्बन्धकास्तु निगोदादिजीवा अपीत्यत उक्तम्:-"बंन्धगाऽप्पा उक्साए ठिईअ"त्ति उत्कृष्टायाः स्थितेः 'अल्पाः' -स्तोकाः । “ऽणंतगुणिया जहण्णाअ" ति तेभ्योऽनन्तरोक्तभ्यो बन्धकेभ्यो जघन्याया स्थितेरनन्तगुणाः, बन्धका इति गम्यते । तेभ्योऽप्यजघन्यानुत्कृष्टायाः स्थितेवन्धका असंख्यगुणा ज्ञेयाः, यतो निगोदजीवानां जघन्याऽजघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वेऽपि जघन्यस्थितिरेकस्थितिबन्धस्थानात्मिका, अजघन्या त्वसंखयेयस्थितिबन्धस्थानात्मिका, ततश्च कस्मिन्नपि समये जघन्यस्थितिबन्धकापेक्षयाऽजघन्यानुत्कृष्टस्थितिबन्धकसञ्चयोऽसंख्येयगुणो लभ्यत इति ॥४५३-४५४॥
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३९२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[ मार्गणास्वायुर्वर्ज सप्तकर्मणाम् तदेवमुक्तमोघतः । अथादेशतो दिदर्शयिषुरादौ तावदायुर्वर्जानां सप्तानामाहतिरि-युरल -मीस-कम्मण-दुअणाणा-यत-तिअसुहलेसासु । अभविय - मिण्छत्सु अमणा - Sणाहारगेसु च ॥४५५॥ सत्तण्डुकोसाए थोवाऽणंतगुणिया जहण्णाए ।
अजहण्णुकोसाए ठिईअ या असंखगुणा ||४५६ ॥
(प्रे०) “तिरियुरलमोसे” त्यादि, तिर्यग्गत्यो धौ-दारिकमिश्रकाययोग-कार्मणकाययोगमत्यज्ञान - श्रुताज्ञाना-संयम कृष्णादित्र्यशुभलेश्यास्वभव्य- मिथ्यात्वयोरसंज्ञ्य ऽनाहारकमार्गणयोश्चेत्यर्थः । एतासु त्रयोदशमार्गणासु किमित्याह - "सत्तण्हुक्कोसाए" इत्यादि, एतासु त्रयोदशमार्गणासु प्रत्येकमायुर्वजनां सप्तप्रकृतीनामुत्कृष्टायाः स्थिते: “थोवा" तिबन्धकाः स्तोकाः, "अणंतगुणिया जहण्णाए" त्ति सप्तानां जघन्यस्थितेर्बन्धकास्तु तेभ्योऽनन्तगुणिताः । कुतः ? प्रकृतमार्गणासत्कजघन्यस्थितिबन्धस्य बादरसाधारणवनस्पतिकायजीवानामपि भावात्, ते चानन्ताः, उत्कृष्टस्थितेर्वन्धकास्तु संज्ञिनोऽसंख्याता एवेति कृत्वा जघन्यस्थितेर्बन्धका अनन्तगुणा भवन्ति । "अजहण्णुक्कोसाए" इत्यादि, अजघन्यानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकास्तु जघन्यस्थितिबन्धकेभ्योऽसंख्यगुणा ज्ञातव्या इत्यर्थः । अत्राप्यसंख्मेयगुणत्वं श्रग्वद्भावनीयमिति ।। ४५५-४५६॥
अथान्यमार्गणास्वाह—
जेट्टाअ जहण्णाए अलहुगुरूअ कमसो असंखगुणा । पंचिदियतिरियचउग-असमत्तपणंदियतसे ॥४५७॥
(प्रे०) " जेट्ठाअ" इत्यादि, प्रकृतसप्तप्रकृतीनां 'ज्येष्ठाया: ' - उत्कृष्टायाः, जघन्यायाः, अलघुगुरुस्थितेश्च क्रमशः "असंखगुणा" त्ति बन्धका असंख्यगुणाः । उत्कृष्टस्थितेः स्तोकाः, ततो जघन्यस्थितेरसंख्येयगुणाः, ततोऽजघन्यानुत्कृष्टायाः स्थितेरसंख्यगुणा इत्यर्थः । कासु मार्गणास्वित्याह-'पणिंदिये”त्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यक्सत्केषु चतुर्षु भेदेषु, अपर्याप्त वाचकस्यासमाप्त शब्दस्य प्रत्येकं योजनादपर्याप्तपञ्चेन्द्रियमार्गणाभेदाऽपर्याप्तत्र सकायमार्गणाभेदयोरित्येवं समुदितासु सप्तमार्गणाविति ||४५७ ॥ अथाऽपरमार्गणास्वाह—
णर-चउअणुत्तरेसु ं सव्वेगिंदि - पण काय-विगलेसु ं । सत्तरह जहण्णाए ठिईअ खलु बंधगा थोवा ||४५८ ॥ तत्तो संखेज्जगुणा उक्कोसाए ठिई ताहिन्तो । अजहण्णुक्कोसाए ठिईअ या असंखगुणा ॥ ४५९॥
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जघन्योत्कृष्टतदितरस्थितिबन्धकाल्पबहु० ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ३९३ ___(प्रे०) "णरे"त्यादि, नरगत्योघभेदे, सर्वार्थसिद्धवर्जाश्चत्वारोऽनुत्तरविमानभेदास्तेषु, तथा सर्वशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् सर्व एकेन्द्रियभेदाः, सर्वे पृथिव्यादिवनस्पतिकायान्तपञ्चकायमार्गणासत्कभेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियभेदा इत्येतासु पष्टिमार्गणास्वित्यर्थः । एतासु किमित्याह-“सत्तण्ह जहण्णाए” इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां प्रकृतीनां प्रत्येकं जघन्यायाः स्थितेवन्धकाः स्तोकाः "तत्तो" ति तेभ्यः “संखेजगुणा उक्कोसाए ठिए” ति तासामेवोत्कृष्टायाः स्थितेन्धकाः संख्येयगुणाः । कुतः ? इति चेद् , उच्यते, जघन्योत्कृष्टस्थितिवन्धयोः स्वामिनां विशुद्धिसंक्लेशापेक्षया पार्थक्येऽपि मिथ्यादृष्टित्वादिकमपेक्ष्य कालुचिन्मार्गणास सादृश्यं विद्यते । यास च मार्गणासु तेषां मिथ्यादृष्टित्वादिरूपेण साम्यं विद्यते, तासु तद्वन्धकानामनन्तत्वेन रूपेणाऽसंख्येयत्वादिरूपेण वातुल्यत्वेऽपि जघन्यस्थितेर्बन्धकापेक्षयोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकाः संख्येयगुणा एव लभ्यन्ते । कुतः सम्यग्दृष्टयादिरूपेण सजातीयजीवसमुदाये जघन्यसंक्लेशयुतजीवापेक्षयोत्कृष्टसंक्लेशपरिणतजीवानामुत्कृष्टतः संख्येयगुणानामेव लाभात् । प्रकृते च सर्वार्थसिद्धवर्जेऽनुत्तरविमानचतुष्के सर्वेषां जीवानां सम्यग्दृष्टितया जघन्याया उत्कृष्टायाश्च स्थितेर्बन्धका अपि सम्यग्दृष्टय एव, तथा च सत्युक्तनीत्या जघन्यसंक्लिष्टाध्यवसनानां जीवानामपेक्षयोत्कृष्टसंक्लिष्टाध्यवसायानां जीवानां संख्येयगुणत्वेनोत्कृष्टसंक्लेशनिर्वर्तनीयाया उत्कृष्टस्थितेर्बन्धका अपि संख्येयगुणा लभ्यन्ते । इत्थमेवैकेन्द्रियादिपञ्चपञ्चाशन्मार्गणास्वपि केवलानां मिथ्यादृष्टि जीवानामेव सद्भावेन जघन्यस्थितेर्बन्धकापेक्षयोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकाः संख्येयगुणा लभ्यन्ते । मनुष्यगत्योघमार्गणायां यद्यपि जघन्यस्थितेर्बन्धका उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकाश्च भिन्ना भिन्नाः सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयश्व,तथाऽपि ते पर्याप्ता एव, न पुनरपर्याप्ता अपि, पर्याप्तमनुष्यास्तूत्कृष्टतोऽपि संख्यया भवन्ति, अतस्तयोर्वन्धकेष्वपि संख्येयगुणतारतम्यमेव प्राप्यते, न पुनस्तदधिकम् , संख्येयजीवेषु तदधिकस्याऽसंख्येयगुणादितारतम्यस्याऽसम्भवादिति । “ताहिन्तो" इत्यादि, तेभ्योऽनन्तरोक्तोत्कृष्टस्थितिबन्धकेभ्यः शेषा अजधन्यानुत्कृष्टस्थितेर्वन्धका असंख्येयगुणा ज्ञेयाः, अप्राप्यजधन्यानुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तःप्रविष्टानां स्थितिबन्धविकल्पानामेकविकल्परूपजघन्यस्थितिवन्धापेक्षयाऽसंख्येयगुणत्वादिति हेतुर्द्रष्टव्य इति ॥४५८-४५९॥ अथान्यत्राह
पज्जमणुस-मणुसीसुआहारदुगे तहा य सव्वत्थे। मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहारेसु॥४६०॥ सत्तण्ह जहण्णाए थोवा तत्तो गुरूअ संखगुणा।
अजहण्णुक्कोसाए ठिईअ होअन्ति संखगुणा ॥४६१॥ (प्रे०) "पज्जमणुसे"त्यादि, पर्याप्त मनुष्य-मानुषीमार्गणयोराहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगरूप आहारकद्विके। तथाकारचकारी समुच्चये । 'सर्वार्थ'-सर्वार्थसिद्धविमानमार्गणाभेदे, मनःपर्यवज्ञान-संयमोघमार्गणयोः, सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणासु चेत्यर्थः ।
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३९४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणास्त्रायुर्वर्जसप्तप्रकृतीनाम् एतासु दशमार्गणासु किमित्याह-"सत्तण्ह जहण्णाए" इत्यादि, आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां जघन्यायाः स्थितेः स्तोकाः, ततः 'गुरोः'-उत्कृष्टायाः स्थितेः संख्येयगुणाः, तेभ्यश्चाजघन्यानुत्कृष्टायाः स्थितेः संख्येयगुणा भवन्ति । बन्धका इति सर्वत्र गम्यते, तद्विषयकाल्पबहुत्वस्यैव प्रस्तुतत्वात् । सुगमं चैतदल्पबहुत्वम् । न च जघन्यस्थितिबन्धस्थानापेक्षयाऽजघन्यानुत्कृष्टस्थितिबन्धस्थानानामत्राप्यसंख्येयगुणत्वात्तद्वन्धकाः कथमसंख्येयगुणा नोच्यन्त इत्यपि वक्त युज्यते । यत एतासु प्रत्येकमुत्कृष्टतोऽपि संख्येयानां जीवानामेव लाभादेकस्मिन् समये बन्धप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयान्येव सन्ति, न त्वसंख्येयानि, ततश्च प्रागुक्तनीत्या संख्येयगुणत्वमेवोपपद्यतेऽजघन्यानुत्कृष्ट स्थितिबन्धकानामिति ॥४६०-४६१॥ आनतादिशेषदेवगतिभेदेष्वाह
सत्तण्हुकोसाए थोवा संखगुणिया जहण्णाए। इयराअ असंखगुणा सेसाणतआइदेवेसु॥४६२॥
(प्रे०) “सत्तण्हुक्कोसाए” इत्यादि, प्राग्वत्सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कृष्टायाः स्थितेबन्धकाः स्तोकाः, तेभ्यो जघन्यायाः स्थितेर्बन्धकाः संख्येयगुणिताः, तेभ्यः “इयराअ" त्ति अनन्तरोक्ते ये जघन्योत्कृष्ट स्थिती ताभ्यामितरा याऽजघन्यानुत्कृष्टा स्थितिः सा इतरा स्थितिस्तस्या इतरस्याः स्थितेः “असंखगुणा" ति सुगमम् , बन्धका इति गम्यते । कासु मार्गणास्वित्याह-"सेसाणतआइदेषेसु” ति अनन्तरोक्ताश्चत्वार एकश्चेति पश्चाऽनुत्तरविमानसत्कान् देवगतिभेदान् विहाय ये शेषाः 'आनतादयः' -आनत-प्राणता-ऽऽरणा-ऽच्युत-वेयकनवकरूपास्त्रयोदश'देवाः-'देवगतिमार्गणाभेदास्तेष्वित्यर्थः । इयमत्र भावना-सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टिद्विविधबन्थकेषु सत्सु सप्तानामुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका मिथ्यादृष्टयो जघन्यस्थितेर्बन्धकास्तु सम्यग्दृशः, प्रकृतासु च त्रयोदशदेवगतिसत्कमार्गणासु प्रत्येकं मिथ्यादृष्टिदेवापेक्षया सम्यग्दृशो देवाः संख्येयगुणाः सन्ति, ततश्चोत्कृष्टस्थितिबन्धकापेक्षया जघन्यस्थितेर्बन्धका अपि संख्येयगुणा लभ्यन्ते । चरमपदेऽसंख्येयगुणत्वं तु प्राग्वदिति ॥४६२॥ काययोगादिदशमार्गणास्वाह
कायु-रल-णपुसेसु कसायचउगे अचक्खु-भवियेसु। आहारे सतण्हं सव्वत्थोवा जहण्णाए ॥४६३॥ तत्तो उक्कोसाए ठिईअ खलु बंधगा असंखगुणा ।
अजहण्णुक्कोसाए ठिईअ णेया अणंतगुणा ॥४६४॥ (प्रे०) “कायुरल" इत्यादि, काययोगसामान्यो-दारिककाययोग-नपुसकवेदेषु, क्रोधादिकषायचतुष्के, अचक्षुर्दर्शन-भव्यमार्गणयोराहारिमार्गणायां च प्रत्येकं सप्तानां 'जहण्णाए" त्ति जघन्यायाः स्थितेवन्धकाः सर्वस्तोकाः, तेभ्य उत्कृष्टायाः स्थितेवेन्धकाः खल्वसंख्यगुणाः, तेभ्यो
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जघन्योत्कृष्टतदितरस्थितिबन्धकाल्पबहु० ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ३९५
Sजघन्यानुत्कृष्टायाः स्थितेर्बन्धका अनन्तगुणा ज्ञेयाः । सुगमं चैतद्, यतो जघन्यस्थितेर्वन्धकाः क्षपकश्रेणिगता इति कृत्वा संख्येया एव, उत्कृष्टस्थितेर्यन्धकास्तुः पर्याप्ताः संज्ञिनस्तिर श्वोऽपि, ततश्चासंख्येयाः, शेषास्त्वजघन्यानुत्कृष्टस्थितेबन्धका एकेन्द्रियादयोऽपि ते चानन्ताः, इत्येवमल्पबहुत्वमपि तदपेक्षया यथोक्तमेव प्राप्यत इति ॥ ४६३-४६४।। अपगतवेदसम्परायसंयममार्गणयोराह—
गयवेए सत्तण्हं सुहुमे छण्हं कमेण संखगुणा । जेडाअ जहण्णाए अलहुगुरूए मुणेयव्वा ॥ ४६५ ॥
(प्रे०) “गयवेए सत्तण्हं” इत्यादि, सुगमम्, नवरं "सत्तण्हं" ति आयुर्वर्जानाम्, “छण्हं” ति मोहनीयायुर्वर्जानाम्, “कमेण" त्ति यथाक्रमम्, तेन च ज्येष्ठायाः स्थितेर्वन्धकापेक्षया क्रमोक्ताया जघन्यायाः स्थितेर्वन्धकाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि क्रमप्राप्ताया अजघन्योत्कृष्टायाः स्थितेर्वन्धकाः संख्येयगुणा इति ||४६५ ||
अथ शेषमार्गणासु प्रकृतपदत्रयसत्कबन्ध काल्पबहुत्वमाह
सेसासु सत्तण्हं जहण्णगाए ठिईअ सव्वऽप्पा | कमसो असंखियगुणा उक्कोसाए तदियरा ॥ ४६६ ॥
(प्रे०) “सेसासु” इत्यादिना, उक्तशेषासु षट्पञ्चाशन्मार्गणासु सप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकं जघन्यकायाः स्थितेः सर्व्वाल्पा: “कमसो असंखियगुणा" त्ति 'क्रमशः ' -गाथान्यस्तक्रमादसंख्येrगुणाः । कयोरित्याह - " उक्कोसाए तदियराए" ति तासामेवोत्कृष्टायाः स्थितेस्तथा ताभ्यामनन्तरोक्ताभ्यां जघन्योत्कृष्ट स्थितिभ्यामितरस्याः - तदितरस्याः, अजघन्यानुत्कृष्टायाः स्थितेरित्यर्थः । तत्र शेषमार्गणास्त्विमा:- अष्टौ नरकगतिभेदाः, अपर्याप्तमनुष्यभेदः, देवौघ- भवनपत्यादिसहस्रारकल्पान्ता द्वादश देवगतिभेदाः, पञ्चेन्द्रियौघ-तत्पर्याप्त-त्रसौघ-तत्पर्याप्त-पञ्चमनोयोगभेद - पञ्चवचोयोगभेद - वैक्रिय - वैक्रियमिश्रकाययोग - स्त्रीवेद - पु' वेद-मति श्रुताऽवधिज्ञान-विभङ्गज्ञान- देशसंयम-चक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन तेजः-पद्म-शुक्लेश्या-सम्यक्त्वौघ- क्षायिक क्षायोपशमिकौ-पशमिकसम्यक्त्व- सम्यग्मिथ्यात्व - सास्वादन - संज्ञिमार्गणाश्चेति । तत्र नरकगत्योघ- प्रथम पृथिवीनरकभेद- देवौघ- भवनपति - व्यन्तरभेदरूपासु पञ्चमार्गणासु जघन्यस्थितिबन्धस्य विग्रहगतौ द्विसमयमात्रं सम्भवात् तद्भन्धकतया द्विसमयसञ्चिता जीवा लभ्यन्ते, उत्कृष्टस्थितेर्वन्धकास्त्वन्तमुहूर्तसञ्चिताः, तथा च सत्युत्कृष्टस्थितेर्वन्धका जघन्यस्थितिबन्धकापेक्षयाऽसंख्येयगुणा भवन्ति ।
अयम्भावः - प्रतिसमयं नव्यानां नव्यानां स्थितिबन्धारम्भकाणां तत्तज्जघन्यादिस्थितेबन्धकतया तावदवस्थानं सम्भवति यावत्तदीयोत्कृष्टबन्धाद्धायाश्चरमसमयः, जघन्यस्थितेरुत्कृष्टबन्ध
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३९६ ]
बंधाणे मूलपडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषो जघन्यो -त्कृष्टा
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कालस्तु निरयगत्योघादिप्रस्तुतपञ्चमार्गणासु समयद्वयमात्रः, तथा च सति प्रथमसमयजघन्यस्थितिबन्धप्रारम्भकाः, अनन्तरद्वितीयसमये जघन्यस्थितिबन्धस्य प्रारम्भकाश्चेत्येत एव कस्मिँश्रिदेकस्मिन् समये युगपज्जघन्यस्थितिबन्धकतयाऽऽप्यन्ते, न पुनस्तृतीयादिसमयजघन्यस्थितिबन्धप्रारम्भकैः समं प्रथमसमयप्रारम्भकाः । कुतः ? प्रथमसमये जघन्यस्थितिबन्धस्य प्रारम्भकाणां जघन्यस्थितिबन्धस्य तृतीयसमयं यावदप्रवर्तनात् तृतीयसमये तेषामजघन्यस्थितिबन्धस्यैव प्रवर्तनादितिभावः । उत्कृष्टस्थितिबन्धकतया त्वसंख्येय समयेषूत्कृष्ट स्थितिबन्धप्रारम्भकाणामप्येकसमये सञ्चयो लभ्यते । कुतः ? विवक्षिते प्रथमसमये, एवं द्वितीयादिसमयेषु चोत्कृष्टस्थितिबन्धप्रारम्भकाणामुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टबन्धकालान्तर्मुहूर्तं यावदुत्कृष्टस्थितेर्वन्धकतयाऽवस्थानस्य सम्भवात्, तेच विवक्षितप्रथमसमयारब्धोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य चरमेऽसंख्याततमे समये बहवः सम्पद्यन्ते, यतः प्रथमादिसमयेषु तैस्तैरारब्ध उत्कृष्टस्थितिबन्धोऽद्यापि चरम समयं यावत्तेषां प्रवर्तते । इत्येवमसंख्यसमयेषूत्कृष्टस्थितिबन्धस्य प्रारम्भका एकस्मिन् समय उत्कृष्ट स्थितेन्धकतया प्राप्यन्ते, जघन्यस्थितिबन्धस्य प्रारम्भकास्तु द्विसामयिका एव । न च तावन्मात्रम्, किन्तु यत उत्कृष्टः स्थितिबन्धः सर्वेषां नारकाणां सम्भवति, जघन्यस्त्वसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेभ्य आगतानां भवप्रथमसमयद्वयवर्तिनां केषाञ्चिदेव, ततोऽपि सुतरां प्रकृतपञ्चमार्गणायां जघन्यस्थितेर्वन्धकाः सर्वस्तोकाः प्राप्यन्ते, उत्कृष्ट स्थितेर्वन्धकास्तु तेभ्योऽसंख्येयगुणा इति ।
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शेषसहस्रारान्तदेवगतिभेदेषु, षट्षूक्तशेषनरकगतिभेदेषु, वैक्रिय-तन्मिश्रकाययोगमार्गणयोश्च प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धकाः सम्यग्दृष्टयो जीवाः, उत्कृष्टस्थितेर्वन्धकास्तु मिथ्यादृष्टयः, एतासु मार्गणासु सम्यग्दृष्टिभ्यो मिथ्यादृष्टयो जीवा असंख्यगुणाः सन्ति समग्राणामपि सम्यग्शां पल्योपमाऽसंख्यभागगतसमयराशिप्रमाणत्वात् प्रकृतदेवनारकाणां तु केषाञ्चन श्रेण्यसंख्यभागगतनभःप्रदेशराशितुल्यत्वात् केषाञ्चित्तु तदधिकत्वाच्च । इत्थञ्च प्रकृताल्पबहुत्वमपि यथोक्तं सम्पद्यत इति । मिश्रदृष्टिमार्गणायामपि सम्यक्त्वाभिमुखजीवापेक्षयाऽसंख्येयगुणानां मिथ्यात्वाभिमुखानां सद्भावमपेक्ष्य जघन्यस्थितेर्वन्धकपरिमाणादुत्कृष्ट स्थितेर्वन्धकपरिमाणमुत्कृष्टपदेऽसंख्येयगुणं ज्ञेयम् कथम् ? ततद्गुणस्थानाभिमुखानामेव तत्तज्जघन्योत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामित्वात् । शेषमार्गणासु तु प्रत्येकं स्थितिबन्धकजीवानामसंख्येयानां सद्भावेऽपि सप्तकर्म सत्कजघन्यस्थितेर्वन्धकास्तु पर्याप्तमनुष्या एव, ते च संख्येयाः, उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकास्तु तिर्यगादयोऽपि ते चासंख्येयाः, एवं च स्फुटमुत्कृष्ट स्थितेर्बन्धकानामसंख्येयगुणत्वम् | अजघन्यानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धकानाम संख्येयगुणत्वं तु सर्वासु मार्गणासु प्राग्वद्भावनीयमिति ॥ ४६६॥
तदेवमभिहितमायुर्वर्जानां जघन्यो-त्कृष्ट तदितरस्थितिबन्धपत्रयापेक्षया बन्धकाल्पबहुत्वमादेशतः । साम्प्रतमवशेषस्याऽऽयुषस्तदभिधातुकाम आह—
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-ऽजघन्यानुत्कृष्टस्थितिबन्धकाल्पबहु० ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
तिरिये सव्वेगिंदिय- णिगोअ-वणकायु-रालियदुगेसु । णपुम- चउकसायेसु दुअणाणा - ऽयत अचक्खुसु ॥४६७॥ असुहतिलेसासु तहा भवि यियरा - SSहार-मिच्छ- अमणेसु ं । उस्क्कोसाए ठिई होअन्ति सव्वऽप्पा ||४६८ ॥ तत्तो जहण्णगाए ठिईअऽणंतगुणिया मुणेयव्वा । ताहिन्तो अण्णाए ठिईअ या असंखगुणा ||४६९ ॥
(प्रे०) “तिरिये सव्वेगिंदिये" त्यादि, तिर्यग्गत्योघमार्गणायां तथा सर्वशब्दस्यैकेन्द्रियनिगोदयोः प्रत्येकं योजनात् सर्वैकेन्द्रिय- सर्वनिगोद-वनस्पत्योघभेद -- काययोगसामान्यभेदौ-दारिकौदारिकमिश्रकाययोगमार्गणासु, नपुंसकवेद- चतुः क्रोधादिकषायमार्गणासु, मत्यज्ञान - श्रुताज्ञान-ऽसंयमाऽचक्षुर्दर्शनमार्गणासु, कृष्णाद्यशुभत्रिलेश्यामार्गेणासु, तथाशब्द उक्तानुक्तसमुच्चये, तत्रानुक्तमार्गणा आह-“भवियियराहारे" इत्यादिना, भव्यमार्गणायां, तदितरस्यामभव्य मार्गणायामाहारिमार्गणायां मिथ्यात्वा-ऽसंज्ञिमार्गण योश्चेत्यर्थः । एतासु षट्त्रिंशन्मार्गणासु किमित्याह - "आउस्सुकोसाए" इत्यादि, आयुप उत्कृष्टायाः स्थितेः " सव्वप्पा" त्ति सर्वाल्पा भवन्ति, बन्धका इति शेषः।‘“तत्तो” त्ति तेभ्योऽनन्तरोक्तोत्कृष्ट स्थितिबन्धकेभ्यः "जहण्णगाए ठिईअ" त्ति आयुषो जघन्यैव जघन्यका तस्या जघन्यकायाः स्थिते: 'णंतगुणिया मुणेयव्व' त्ति अनन्तगुणिता ज्ञातव्याः, बन्धका इत्यत्रापि वाक्यशेषः । “ताहिन्तो” त्ति तेभ्यो जघन्यस्थितिबन्धकेभ्यः "अण्णाए ठिईअ” त्ति उक्तान्यस्याः स्थितेः, तत्रोक्त स्थितिर्जघन्या उत्कृष्टा च, अतस्तदन्या याऽजघन्यानुत्कृष्टस्थितिस्तस्या अजघन्यानुत्कृष्टस्थितेरित्यर्थः । तस्याः कियन्त इत्याह- “ णेया असंखगुणा" तिबन्धका असंख्यगुणा ज्ञेयाः ।
[ ३९७
तत्रैकेन्द्रियसत्काः सप्त, निगोदवनस्पतिकायसत्काः सप्तेति चतुर्दशभेदाः वनस्पतिकायौधभेदश्चेत्येतान् पञ्चदश भेदान् मुक्त्वा शेषमार्गणाभेदेष्वायुष उत्कृष्टस्थितेर्बन्धकाः कतिपयपञ्चेन्द्रिया एव, ते चाऽसंख्या इतिकृत्वा स्तोकतयाऽऽदौ गृहीताः । जघन्य स्थितेर्बन्धकास्त्वेकेन्द्रिया अपि भवन्ति, ते चानन्ता इतिकृत्वा पूर्वोक्तेभ्योऽनन्तगुणा उक्ताः । अजघन्यानुत्कृष्टस्थितेर्बन्धका स्त्वनन्ता अपि पूर्ववदसंख्यातानां नानास्थितिबन्धस्थानानां निर्वर्तका गृह्यन्ते, ते चासंख्यातेषु भिन्नभिन्नसमये - वायुर्वन्धप्रारम्भका अप्येकसमये बन्धकतया प्राप्यन्ते, जघन्यस्थितेर्बन्धकास्त्वेकसामायिका एव प्राप्यन्त, तथा च सति जघन्यस्थितिबन्धकेभ्योऽजघन्याऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धका असंख्यगुणा एव सम्पद्यन्त इति तथैवोक्ताः । एवमुत्तरत्राप्यजघन्यानुत्कृष्टस्थितिबन्धकविषयेऽसंख्येयगुणत्वं विभावनीयमिति । एकेन्द्रियादिषु पञ्चदशमार्गणास्वप्येवमेव, नवरमायुष उत्कृष्टस्थितेर्बन्धका एकेन्द्रियाः
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३९८ ]
Mirror मूलपइबंधो
[ मार्गणास्वायुषो जघन्योत्कृष्टासन्तोऽपि पञ्चेन्द्रियसत्कमायुर्ब्रघ्नन्तस्तेऽसंख्येया एव लभ्यन्ते, न पुनः पञ्चेन्द्रियपरिमाणादधिका, तथा चाल्पत्वमपि तिर्यग्गत्योघादिमार्गणावदेवोपपद्यत इति ।।४६७-४६८-४६९॥ अथ मार्गणान्तरेषु प्रकृताल्पबहुत्वमाह
पज्जमणुस-मणुसीसु आहारदुगा-ऽऽणताइदेवेसु । मणणाण-संयमेसु समइअ - छेअ - परिहारेसु ॥४७०॥ सुइल - खइएस थोवा उक्कोसाए ठिईअ हस्साए । संखेज्जगुणा तत्तो इयराअ ठिईअ संखगुणा ||४७१ ॥
(प्रे०) “ रज्जमणुसे”त्यादि, पर्याप्तमनुष्य मानुषीमार्गणयोराहारका ऽऽहारकमिश्रकाययोगा-ऽऽनतकल्पादि सर्वार्थ सिद्ध विमानान्तदेवगतिभेदेषु, मनः पर्यवज्ञान- संयमौघमार्गणयोः, सामायिकछेदोपस्थापन - परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणासु शुक्ललेया--क्षाधिकसम्यक्त्वमार्गणयोः प्रत्येकं "थोवा" ति स्तोका बन्धकाः । करयाः स्थितेरित्याह - "उक्कोसाए ठिईअ" त्ति प्रकृतत्वादायुष उत्कृष्टायाः स्थितेरित्यर्थः । “हस्साए संखेज्जगुणा तत्तो" त्ति तत आयुपः 'ह्रस्वायाः' - जघन्यायाः स्थिते: संख्येयगुणाः, बन्धका इति गम्यते । "इयराअ ठिईअ संखगुणा" त्ति अनन्तरोक्तजघन्योत्कृष्टस्थित्यपेक्षयेतरा याऽजघन्यानुत्कृष्ट स्थितिस्तस्या: संख्येयगुणा बन्धका इत्यर्थः । न च भवतु पर्याप्तमनुष्यादिसंख्येयजीवराशिकासु मार्गणात्कृष्टादिस्थितिबन्धकानां यथोत्तरं संख्येयगुणत्वम्, कथं पुनरसंख्येयजीवराशिकेष्वानतप्रभृतिदेवभेदष्वपि तेषां यथोत्तरं संख्येयगुणत्वमेवेति वाच्यम् । यत आनत कल्पादिष्वसंख्येयजीव राशिकेष्वप्यायुबन्धका एकस्मिन् समये संख्येया एव लभ्यन्ते, एतच्च प्रागनेकश उक्तं भावितं च ततश्च यथोत्तरं संख्येयगुणत्वमेव युज्यते, न त्वसंख्येयगुणत्वमिति ॥ ४७०-४७१ ।।
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णातिगे ओहिम्मिय सम्मत्ते वेअगे य आउस्स ।
पज्जमणुसव्व णेया वरियराए असंखगुणा ||४७२ ॥
(प्रे० ) " णाणतिगे" इत्यादि, मति श्रुता - ऽवधिज्ञानमार्गणारूपे ज्ञानत्रिके, अवधिदर्शनमार्गणायाम् । च: पादपूयै । "समत्ते वेअगे य" त्ति, सम्यक्त्वौघमार्गणायां वेदकसम्यक्त्वमार्गणायां चेत्यर्थः । एतासु किमित्याह - “आउस्से "त्यादि, आयुकर्मणः पर्याप्तमनुष्यमार्गणावज्ज्ञातव्याः, जघन्यादिस्थितीनां बन्धका इति शेषः । किं सर्वथा तथैव ज्ञातव्या, अस्ति वा कश्चिद्विशेषः ? इत्यतो विशेषं दर्शयन्नाह - "णवरियराए असंखगुणा" ति द्वितीयपदे जघन्यस्थितेर्वन्धकाः संख्येrगुणा इत्युक्त्वा तृतीयपदे इतरस्या अजघन्यानुत्कृष्टस्थितेर्वन्धका असंख्यगुणा वक्तव्याः, न पुनस्तद्वत्संख्येयगुणा इत्यर्थः । सुगमं चेदम् मतिज्ञानादिप्रस्तुतमार्गणासु तु प्रत्येकमेकस्मिन् समय उत्कृष्टतोऽसंख्येयानामायुर्वन्धकानां लाभादिति ॥४७२ ||
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Sजघन्यानुत्कृष्टस्थितिबन्धकाल्पबहु० ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
अथ शेषमार्गणास प्रस्तुतपदत्रयविषयमायुर्वन्धकाल्पबहुत्वमाह-साक्कोसाए आउस्सऽप्पा तओ जहण्णाए । ताहिन्तो सेसाए ठिअ कमसो असंखगुणा ||४७३ ॥
I
(प्रे०) “सेसारुक्कोसाए" इत्यादि, उक्तशेषासु निरयगत्योघादिद्विनवतिमार्गणासु प्रत्येकमायुष उत्कृष्टायाः स्थिते: "पा" त्ति अकारस्य दर्शनाद् "अप्पा" त्ति सर्वापाः बन्धका इति शेषः । ततो जघन्यायाः स्थितेर्वन्धकास्ततश्च शेषाया अजघन्यानुत्कृष्टायाः स्थितेः क्रमशोऽसंख्यगुणा इति । शेषमार्गणास्त्विमा:- अष्टौ नरकगतिभेदाः, चत्वारः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, मनुयौघा पर्याप्तमनुष्य भेदौ, देवगत्योघ - सहस्रारकल्पान्ता देवगतिसत्का द्वादश भेदाः, नव विकले - न्द्रियभेदाः, त्रयः पञ्चेन्द्रियभेदाः पृथिव्यप्तेजोवायुकायानां प्रत्येकं सप्त सप्त भेदा इतिकृत्वाऽष्टाविंशतिर्भेदाः, त्रयः प्रत्येकानभेदाः, त्रयस्त्रसकायभेदाः, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-वैक्रियकाययोग - स्त्री वेद-पुरं वेद-विभङ्गज्ञान- देशसंयम-चक्षुर्दर्शन- तेजः पद्मलेश्या-सासादन-संज्ञि-मार्गणाश्चेति ।
एतासु प्रत्येकमुत्कष्टपदेऽसंख्येया आयुर्वन्धकास्तत्राप्यसंख्येयबन्धकराशिर्यथाऽजघन्यानुत्कृष्टस्थितिकान्धार्ह स्तथोत्कृष्ट स्थितिकायुर्वन्धा जघन्यस्थितिकायुर्वन्धाश्च जीवा असंख्येया एव, विहाय मनुष्यौध- देशसंयम- तेजः - पद्मलेश्या सासादनमार्गणाः । एतत्तु परिमाणद्वारणैव गतार्थम्, केवलं तस्यां तस्यां निरयगत्योघादिमार्गणायां त्रिविधबन्धकानां प्रत्येकमसंख्येयत्वेऽप्युत्कृष्टस्थितिकायुर्वन्धकानां स्तोकत्वं तु सर्वसुलभजघन्याबाधानान्तरियकजघन्यस्थितिकायुर्वन्धापेक्षया उत्कृष्टाबाधाऽविनाभान्युत्कृष्ट स्थिति कायुर्वन्धस्य सुदुर्लभत्वात् । इत्थञ्चोत्कृष्ट स्थितेर्वन्धका जघन्य स्थितिकायुबन्धकेभ्योऽसंख्येयगुणहीनाः प्राप्यन्ते, किञ्च पञ्चेन्द्रियतिर्यगोघादिमार्गणासु यावदापूर्जघन्यस्थितिकायुस्त्वेन वध्यते तावदायुषां जीवानां बहुत्वात्ताहगायुर्वन्धका अपि लोके बहवो लभ्यन्ते, एवं यावदायुरुत्कृष्टस्थितिकायुष्त्वेन बध्यते तावदायुषां जीवानां स्तोकत्वात् तादृशायुषो बन्धका अपि प्रकृतमार्गणासु स्तोका असंख्येयगुणहीनाः सम्पद्यन्ते । तृतीयपदे तु बन्धप्रायोग्यस्थितिबन्धस्थानानामेवासंख्येयगुणत्वादजघन्यानुत्कृष्टस्थितेर्वन्धका जघन्यस्थितिकायुर्वन्धकेभ्योऽसंख्येयगुणा इति सुगममसंख्येयगुणत्वमिति ॥ ४७३ ||
तदेवं समाप्तमायुष उत्कृष्टस्थित्यादिपदत्रयमपेक्ष्य बन्धकाल्पबहुत्वमादेशतोऽपि तत्समाप्तौ च समाप्तमुत्कृष्टादिस्थितिबन्धपदत्रयापेक्षं बन्धकाल्पबहुत्वम् तस्मिंश्च समाप्ते गतं बन्धकपरमाणाल्पबहुत्वम् ।
अथ स्वस्थान- परस्थानभेदभिन्नस्थितिबन्धपरिमाणाऽल्पबहुत्वभणनावसरः । तत्र ज्ञानावरणादीनां स्वस्थानाल्पबहुत्वे प्रथमं तावज्जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धपदद्वयमधिकृत्याभिधित्सुरोघत आहअहं oिsबंधो हस्सो थोवो हवेज्ज ताहिन्तो ।
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[ ३९९
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४०० ]
हाणे मूलपइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्ज सप्तप्रकृतीनां स्वस्थाने
उक्कोसो ठिsबंधो असंखियगुणो मुणेयव्व ॥ ४७४ ॥
(०) "अट्ठण्ह "मित्यादि, ज्ञानावरणादिलक्षणानामन्तरायपर्यन्तानामष्टानामपि मूलप्रकृतीनां प्रत्येकं ‘ह्रस्वः’-जघन्यः स्थितिबन्धः "थोवो हवेज्ज" त्ति स्तोको भवेत् । " ताहिन्तो” तितेभ्यो ज्ञानावरणादीनां स्वकस्वकजघन्यस्थितिबन्धेभ्यः “उक्कोसो ठिइबंधो" त्ति ज्ञानावरणादीनां स्वीयस्वीयोत्कृष्टस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणो ज्ञातव्यः । अयम्भावः -ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्तमात्रः, तस्यैवोत्कृष्टस्थितिबन्धस्त्वोघतस्त्रिंशत्कोटी कोटी सागरोपमप्रमाणः, इत्थं च भवति ज्ञानावरणस्य जवन्यस्थितिबन्धापेक्षया तस्यैवोत्कृष्टस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः, अन्तर्मुहूर्तकालापेक्षया पल्योपमासंख्येय भागमात्रकालस्याऽप्यसंख्येयगुणत्वे त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटिकालस्य तु का कथा, सुतरामसंख्येयगुणत्वमिति भावः । इत्थमेव दर्शनावरणादीनां जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धपदद्वयस्याप्यबहुत्वं पृथक् पृथग् द्रष्टव्यम्, स्वस्थानाल्पबहुत्वस्य प्रस्तुतत्वात् ।
तथा - ज्ञानावरणस्येव दर्शनावरणा-ऽन्तरायकर्मणोः प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धः स्तोकः, स चान्तर्मुहूर्तप्रमाणः, ततः पुनस्तयोरेवोत्कृष्टस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः, त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् । वेदनीयस्य जघन्यः स्तोकः, स च द्वादशमुहूर्तप्रमाणः, ततस्तस्यैवोत्कृष्टः स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः पूर्ववत् त्रिंशत्कोटीकोटी सागरोपमप्रमाणत्वात् । आयुषो जघन्यः स्तोकः, स चान्तर्मुहूर्त प्रमाणः, ततस्तस्यैवोत्कृष्टोऽसंख्येयगुणः, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणत्वात् । नामगोत्रयोः प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धः स्तोकः, स चाष्टमुहूर्तमानः, ततस्तयोरेवोत्कृष्टोऽसंख्येयगुणः, विंशतिकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणत्वादिति । इत्थमेव मार्गणास्थानेष्वपि प्रत्येकं तत्तत्कर्मणोऽल्पबहुत्वं पृथक् पृथग्द्रष्टव्यम्, तत्र जघन्यस्थितिबन्धस्य स्तोकत्वं तु स्थितिबन्धस्य जघन्यपदगतत्वादेव विज्ञेयम्, उत्कृष्टस्थितिबन्धस्यासंख्येयगुणत्वादिकं तु प्राक् स्थितिबन्धप्रमाणद्वारोक्तजघन्योत्कृष्ट स्थितिबन्धप्रमाणद्वारेणोपपादनीयमिति ॥४७४ ॥
तदेवं प्रतिकर्म जघन्योत्कृष्टस्थित्योः स्वस्थानाल्पबहुत्वमोघतोऽभिधाय साम्प्रतमादेशतोऽभिधित्सुरादौ तावत्सप्तप्रकृतिविषयं तदाहपरतिग-दुपणिंदियतस-पणमणवयणेसु काय उरलेसु । वेअतिग- कसायचउग-गाणचउग-संयमेसु च ॥४७५ ॥ समइअ - छेअ-तिदरिसण-सुइल-भविय सम्म खड़-उवसमेसु । सणिम्मि तहाऽऽहारे सत्तरह गुरू असंखगुणो ||४७६ ॥
(प्रे०) “णरतिगे” इत्यादि, सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा 'णरतिग' इत्यनेनाऽपर्याप्तभेदवर्जास्त्रयो मनुष्यगतिमार्गणाभेदा गृह्यन्ते । कुतः ? स्थितिबन्धप्रमाणद्वारोक्तार्थानुसारेणानन्तरं वक्ष्यमाणस्य
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जघन्योत्कृष्ठस्थितिबन्धाल्पब० ] द्वितीयाधिकारे ऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ४०१ "सत्तग्ह गुरू असंखगुणो" इत्यस्याऽपर्याप्तवर्जभेदत्रय एघोपपतेः । अत एव “दुपणिंदियतसे'त्यत्र पञ्चेन्द्रियत्रसोभयत्रयोजनीयद्विशब्देनाऽपर्याप्तमेदवौँ पञ्चेन्द्रियौघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियरूपौ द्वौ भेदो, तथैवापर्याप्तभेदवों द्वौ त्रसकायभेदो गृह्यते । “पणमणव यणे" त्यादि, प्राग्वत् पश्चमनोयोग-पञ्चव वन योगास्तेषु, काययोगसामान्यौ-दारिककाययोगयोः, स्त्री-पुरुष-नपुंसकरूपवेदत्रिक-क्रोधादिकषायचतुष्क-मत्यादिज्ञानचतुष्क-संयमोघमार्गणासु । च उक्तानुक्तसमुच्चये। अनुक्तमार्गणा आह-"समइअ" इत्यादिना, सामायिक-छेदोपस्थापनसंयम-चक्षुरादित्रिदर्शन-शुक्ललेश्याभव्य-सम्यक्त्योध-क्षायिको-पशमिकसम्यक्त्वेषु संज्ञिमार्गणायां तथाऽऽहारिमार्गणायामित्येतासु त्रिचत्वारिंशन्मार्गणासु प्रत्येकं-"सत्तण्ह गुरू असंखगुणो" ति आयुर्वर्जानां सप्तानां 'गुरु:'उत्कृष्टः स्थितिवन्धोऽसंख्यगुणो भवतीत्यर्थः । कस्माद् ? इति चेत् , स्तोकाज्जघन्यस्थितिबन्धात् । पदद्वयस्याल्पबहत्व एकपदस्याऽसंख्येयगुणत्वादिकेऽभिहितेऽन्यपदस्य स्तोकत्वं सुतरां गम्यते । ततश्च ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थितिबन्धः स्तोकस्ततो ज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिबन्धोऽसंख्यगुणः, एवमायुर्वर्जदर्शनावरणादीनामपि ज्ञेयम् । यद्वा “जहण्णाओ" इति पूर्वतोऽनुवर्तते, अतस्तदपेक्षया संख्येयगुणत्वं योजनीयम् । एवमेवाग्रेऽपि ज्ञेयम् । भावना त्वत्रौधवद् द्रष्टव्या, यद्वा तत्तन्मार्गणायां स्थितिबन्धप्रमाणद्वारोक्तजघन्योत्कृष्टस्थितिवन्धप्रमाणमपेक्ष्य द्रष्टव्येति ॥४७५-४७६।।
गयवेए उक्कोसो संखेज्जगुणो चउण्ह घाईणं ।
यो असंखियगुणो तिण्ह अघाईण उक्कोसो ॥४७७॥ (प्रे०) “गयवेए” इत्यादि, अपगतवेदमार्गणायां "चउण्ह घाईणं" ति ज्ञानावरणदर्शनावरण-मोहनीया-ऽन्तरायलक्षणानां चतुर्णा घातिप्रकृतीनां “उक्कोसो" ति उत्कृष्टस्थितिबन्धः “संखेजगुणो” त्ति प्राग्वज्जघन्यस्थितिवन्धापेक्षया संख्येयगुणः । “तिण्ह अघाईण उक्कोसो” त्ति अधिकृतमार्गणायामायुर्वन्धस्याऽभावादायुर्वर्जानां वेदनीय-नाम--गोत्रलक्षणानां त्रयाणामघातिप्रकृतीनामुत्कृष्टः स्थितिबन्धः “यो असंखियगुणो” त्ति असंख्यगुणो ज्ञेयः । स्वस्थानाल्पबहुत्वस्य प्रकृतत्वादत्रापि ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थितिबन्धापेक्षया ज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिवन्धः संख्येयगुण इत्यादिकं प्रतिकर्म प्राग्वत् स्वयमेव योज्यमिति ॥४७७॥
अथोक्तशेषमार्गणास्वेकयाऽऽययाऽऽहसत्तण्हं सव्वेसुएगिदियविगलपंचकायेसु।
जेट्ठो विसेसअहियो यो सेसासु संखगुणो ॥४७८॥
(प्रे०) “सत्तण्ह" इत्यादि, सर्वेकेन्द्रियभेदेषु, सर्वेषु विकलेन्द्रियभेदेषु, सर्वेषु पृथिव्यादिवनस्पत्यन्तपञ्चकायसत्कभेदेष्वित्येवं पञ्चपञ्चाशन्मार्गणासु प्रत्येकं “सत्तण्ह" ति आयुवर्जानां सप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकं 'ज्येष्ठः'-उत्कृष्टः स्थितिवन्धः "विसेसअहियो” ति स्तोक
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४०२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषः स्वस्थाने जघन्योत्कृष्टस्थिति० प्रमाणाज्जघन्यस्थितिबन्धाद्विशेषाधिकः । “णेयो सेसासु संखगुणो" ति नरत्रिकेत्यादिनाऽनन्तरोक्ता नवनवतिमार्गणास्त्यक्त्वा शेपास्वेकसप्ततिमार्गणासु प्रत्येकं संख्येयगुणो ज्ञातव्यः, सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्ध इत्युनुवर्तते, जघन्यस्थितिबन्धापेक्षयेति गम्यत इति ।
शेषमार्गणास्त्विमा:-अष्टौ नरकमेदाः, त्रिंशदपि देवगतिभेदाः, पञ्च तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तमनुष्या-ऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रसकायभेदाः, औदारिकमिश्र-वैक्रिय-वैक्रियमिश्राऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्र-कार्मणकाययोगाः, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभङ्गज्ञान-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्पराय-देशसंयमा-ऽसंयम-कृष्णादिपञ्चलेश्या-ऽभव्य-क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-सासादन-सम्यग्मिथ्यात्व-मिथ्यात्वा- संज्य-ऽनाहारिमार्गणाभेदाश्चेति ॥४७८॥ तदेवमुक्तमायुर्वर्जसप्तप्रकृतीनामादेशतोऽपि प्रकृताल्पबहुत्वम् । साम्प्रतमायुपस्तदादेशत आहसव्वेसुणिरया-ऽमर-एगिदिय-विगल-पंचकायेसु। असमत्तपणिदितिरिय-मणुस-पणिदिय-तसेसु च ॥४७९॥ आहारदुगे विउवे उरालमीस-मणपज्जवसुच। संयम-सामाइएसु छेए परिहार-देसेसु ॥४८०॥ आउस्म जहण्णाओ ठिइबंधाओ हवेज्ज संखगुणो। ठिइबंधो उक्कोसो असंखियगुणो उ सेसासु ॥४८१॥
(प्रे०) “सव्वेसु”इत्यादि,सर्वासु निरयगतिमार्गणासु, सर्वासु देवगतिमार्गणासु, तथैव सर्वैकेन्द्रिय-सर्वपथिव्यादिवनस्पतिकायान्तपञ्चकायसत्कमार्गणास्वित्यर्थः । “असमत्ते" त्यादि, अत्राप्यसमत्तशब्दस्य प्रत्येकं योजनादपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिथंग-पर्याप्तमनुष्या-ऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रसकायमार्गणास्वित्यर्थः। चकारस्तु समुच्चये । तेनान्यमार्गणाः समुच्चिन्वन्नाह-"आहारदुगे” इत्यादि, आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणाद्वयरूप आहारकद्विके वैक्रियकाययोगमार्गणायामौदाकिमिश्रकाययोग-मनःपर्यवज्ञानमार्गणयोः । चः पादपूत्यें । “संयमे" त्यादि, संयमोघ-सामायिकसंयममार्गणयोः, छेदोपस्थापनसंयममार्गणायां परिहारविशुद्धिकसंयम-देशसंयममार्गणयोरित्येतासु सप्तोत्तरशतमार्गणासु । एतासु किमित्याह-"आउस्स जहण्णाओ” इत्यादि, आयुःकर्मणः स्तोकाजघन्यस्थितिबन्धात्तस्यैवोत्कृष्टः स्थितिबन्धः संख्ययगुणो भवेदित्यर्थः । कुतः ? इति चेत् , कासुचिन्निरयगत्योघादिमार्गणासूत्कृष्टस्थितिबन्ध औधिकजघन्यस्थितिबन्धापेक्षयाऽपि संख्येयगुण एव । कथम् ? पूर्वकोटिवर्षप्रमाणत्वात् । ततः किम् ? ततो निरयगत्यादिमागंणासत्कजघन्यस्थितिबन्धापेक्षया त्वसौ सुतरां संख्येयगुणो भवेत् । कासुचिन्मनःपर्यवज्ञानादिमार्गणासु त्वायुषो जघन्यः स्थितिबन्ध एव पल्योपमपृथक्त्वं तदधिको वा जायते, तदपेक्षया त्वौधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धोऽपि संख्येयगुणः,
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aasti परस्थाने उत्कृष्टस्थिति०] द्वितीयाधिकारे ऽल्पबहुत्व द्वारम्
[ ४०३
किं पुनस्तत्तन्मार्गणाभाव्युत्कुष्टस्थितिबन्धः । इत्यतो निरयगत्योघादिसर्वमार्गणासु जघन्यस्थितिबन्त्रापेक्षयोत्कृष्ट स्थितिबन्धः संख्ये गुण एवोक्त इति ।
अथ शेषमार्गणास्वाह - "असंखियगुणो उ सेसासु" इति सुगमम्, नवरम् 'आउस्स जहणाओ ठिधाओ हवेज्ज' इत्यस्यानुवृत्तिर्द्रष्टव्याः । शेषमार्गणास्त्विमा:- तिर्यग्गत्योधपञ्चेन्द्रिय तिर्यगोध--पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिमत्तिर्यग्-मनुष्यगत्योय-पर्याप्तमनुष्य-मानुषी- पञ्चेन्द्रियौध-पर्यातपञ्चेन्द्रिय-सकायौध-पर्याप्तत्र सकाय पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-काययोगसामान्यौदारिककाययोग-स्त्री-पु--नपुंसकवे:- क्रोधादिचतुः कषाय--मति श्रुताऽवधिज्ञान-मत्यज्ञान - श्रुताज्ञानविभङ्गज्ञाना-ऽसंयम--चक्षुरादित्रिदर्शन- कृष्णादिषल्लेश्या-भव्या-भव्य-सम्यक्त्वौघ- क्षायिक- क्षायोपशमिक-सासादन- मिथ्यात्व-संय- संज्ञयाऽऽ हारिमार्गगा इति ।।४७९-४८०-४८१॥
तदेवमुक्तं जघन्योत्कृष्ट स्थितिबन्धावधिकृत्य ज्ञानावरणादीनां प्रत्येकं स्वस्थानाल्पबहुत्वम् । साम्प्रतमुत्कृष्टादिस्थितिबन्धमाश्रित्य समुदितानामष्टानामपि ज्ञानावरणादीनां यत्परस्थानाल्पबहुत्वं, तणावसरः । तत्रादौ तावदुत्कृष्ट स्थितिबन्धमधिकृत्य व्याजिहीपु रोघत आह— ताहिन्तो वीसगाण संखगुणो ।
आउकोसो तो ती गाण अहियो तत्तो मोहस्स संखगुणो ॥ ४८२ ॥
(प्रे०) “आउस्सुक्को सोऽप्पो" इत्यादि, आयुः कर्मण उत्कृष्टः स्थितिबन्धः 'अल्पः ' -सर्वस्तोकः । तस्मात् " वीस गाण" त्ति ओघोत्कृष्ट स्थितिबन्धप्रमाणमधिकृत्य 'विंशतिकयोः ' -विंशतिसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकयोर्नाम - गोत्रकर्मणोः प्रत्येकं संख्येयगुणः परस्परं तु तयोस्तुल्य इति गम्यते । कथम् ? युगपदभिधानात् । अयम्भावः कर्मरूपतावस्थानलक्षणस्थितिबन्धस्याधिकृतत्वादायुप औधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धः पूर्वकोटी त्रिभागेनाभ्यधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणः सन्नपि शेषसप्तप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितित्रन्वापेक्षया स्तोक एव भवति । नामकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धो विंशतिसागरोपमकोटीकोटयः, स चायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया संख्येयगुणो भवति । तथैव गोत्रकर्मणोऽप्युत्कृष्टस्थितिबन्धो विंशतिसागरोपमकोटी कोट्य इतिकृत्वा नामकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धेन सह तुल्यः सन्नायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया संख्येयगुण एव भवति, ततश्च नामकर्मणा समं तुल्यत्वख्यापनार्थमायुषा समं संख्येयगुणत्वप्रदर्शनाय च नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य युगपत्संख्येयगुणता कथिता । यत्पुनः “वीसगाणे" त्यत्र बहुवचनं तत्तु प्राकृतवशात् । एवमुत्तरत्रापि युगपदभिहितानां स्थितिबन्धविषये परस्परं तुल्यताऽपि विभावनीयेति । " तो तीसगाण अहिओ" त्ति 'ततः' - विंशतिकयोर्नामगोत्रकर्मणोरुत्कृष्ट स्थितिबन्धात् 'त्रिंशत्काना' - त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोटयोघोत्कृष्टस्थितिकानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां प्रत्येकमधिकः विशेषाधिकः, उत्कृष्टस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते । अत्रापि ज्ञानावरणादीनां चतुर्णामुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य परस्परं तुल्यत्वमेकैकस्य
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४०४
___ बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वष्टमूलप्रकृतीनां परस्थाने चानन्तरोक्तस्थितिबन्धापेक्षया विशेषाधिकत्वमिति स्वयमेव द्रष्टव्यमिति । “तत्तो मोहस्त संखगुणो" त्ति ततः'-त्रिंशत्कानां ज्ञानावरणादीनां चतुर्णा प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धात् 'मोहस्य'मोहनीयकर्मणः संख्येयगुणः । अत्राऽप्युत्कृष्टस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तत इति । भावना तु सुगमा; प्रागुक्तोस्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणानुसारेण स्वयमेव कर्तव्येति ॥४८२।।
. उक्तमोघत उत्कृष्टपदमधिकृत्य मूलकर्मणां परस्थानस्थितिबन्धाल्पबहुत्वम् । अथ तदेवादेशतो दर्शयमाह
सब्वेसुणिरया-ऽमर-एगिदिय-विगल-पंचकायेसु। असमत्तपणिदितिरिय-मणुस-पणिंदिय-तसेच्च ॥४८३॥ विउवे उरालमीसे अमणे आउस्स होइ सबऽप्पो। एआउ वीसगाणं असंखियगुणो मुणेयव्वो ॥४८४॥ तो तीसगाण अहियो ताओ मोहस्स होइ संखगुणो।
णवरि पणणुत्तरेसु मोहस्स भवे विसेसहियो ॥४८५॥ (प्रे०) “सव्वेसु" इत्यादि, अक्षरार्थस्तु प्राग्वत्सुगमः । गाथात्रयपिण्डार्थस्त्वेवम्सर्वनिरयगतिभेद-सर्वदेवगतिभेद-सर्वैकेन्द्रियभेद-सर्वविकलेन्द्रियभेद-सर्वपृथिव्यादिवनस्पत्यन्तपञ्चकायसत्कभेदा-ऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग-ऽपर्याप्तमनुष्या-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रसकाय--वैक्रियकाययोगौ-दारिकमिश्रकाययोगा-ऽसंज्ञिमार्गणाभेदरूपेषु शतमार्गणासु प्रत्येकमायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धः सर्वाल्पः, तस्माद्विंशतिकोटीकोटीसागरोपमस्थितिकयो मगोत्रकर्मणोरसंख्यातगुणः, ततरित्रशत्कोटीकोटीसागरोपमस्थितिकानां ज्ञानावरण--दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां विशेषाधिकः, ततो मोहनीयस्योत्कष्टस्थितिबन्धः संख्यातगुणो भवति, नवरमयमत्रापवादः-देवगतिसत्केषु पञ्चानुत्तरविमानभेदेषु चरमपदे मोहनीयोत्कष्टस्थितिबन्धः संख्यातगुणो न भवति, किन्तु विशेषाधिक एव भवति, अतस्तथैव वाच्यः । कुतः संख्यातगुणो न भवति ? तत्र मिथ्यात्वमोहनीयप्रकृतेरबन्धात् ।
इदमुक्तं भवति-मूलप्रकृत्युत्कृष्टादिस्थितिबन्धमानमधिकतमस्थितिकतया बन्धप्रायोग्योत्तरप्रकृतिबन्धाधीनम् । अत एव मोहनीयस्यौधिकोत्कृष्टस्थितिबन्धमान सप्ततिसागरोपमकोटीकोटयः । एवं ज्ञानावरणादीनां मूलकर्मणां त्रिंशत्कोटीकोटीसागरोपमादिकं च । तत्र मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो यः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटयः स ओघतो बन्धप्रायोग्यमिथ्यात्वमोहनीयापेक्षया, एवमेव ज्ञानावरणादीनामपि यथासम्भवं मतिज्ञानावरणाद्यपेक्षया । अत एवौघवदेकेन्द्रियादिमार्गणाभेदेष्वपि ज्ञानावरणाद्यपेक्षया मोहनीयोत्कृष्टस्थितिवन्धः संख्येयगुण उक्तः, तथैव तेषां ज्ञानावरणस्य जघन्य. स्थितिबन्धापेक्षया मोहनीयजघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुण उक्तः, न पुनरनुत्तरविमानभेदादौ, तत्र मिथ्यात्वमोहनीयस्य बन्धाभावेन बन्धप्रायोग्याऽप्रत्याख्यानावरणकषायाद्यपेक्षया मूलप्रकृत्य
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उत्कृष्टस्थितिबन्धाल्पबहु० ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ४०५ ल्पबहुत्वस्यापि लानात् । अयम्भावः-यथाऽसत्कल्पनया यदि मिथ्यात्वमोहनीयाख्यप्रकृतिरेव न स्यात्तदाऽनन्तानुबन्ध्याधुत्तरप्रकृत्यपेक्षया मोहनीयस्योत्कृष्टोऽप्यौधिकस्थितिबन्धश्चत्वारिंशत्सागरोपमकोटिकोट्य एव स्यात् , ज्ञानावरणादेस्तु त्रिंशत्सागरोपमकाटीकोट्यादिरेव, तथा चोरत एव ज्ञानावरणापेक्षया मोहनीयोत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः, स चोपरितनगुणस्थानेषु संक्लेशहान्या हीयमानोऽपि श्रेणिं विहाय यथोतं विशेषाधिकत्वरूपं मिथस्तारतम्यं नातिक्रमेत । कुतः ? सास्वादनादिगुणस्थानेषु चत्वारिंशत्सागरोपमकोटिकोटयौधिकोत्कृष्टस्थितिकानामप्रत्याख्यानावरणादिकषायाणां मतिज्ञानावरणादेश्च बन्धभावात् , मिथ्यात्वस्य त्वबन्धात् । एवमेव सास्वादनादिगुणस्थानेषु स्वरूपतो एव मिथ्यात्वमोहनीयबन्धाभावेन ज्ञानावरणाद्यपेक्षया मोहनीयोत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः प्राप्यते, नत्वसत्कल्पनया, मिथ्यात्वगुणस्थाने तु यथोक्तासत्कल्पनयैव विशेषाधिकः, स्वरूपतस्तु संख्येयगुण एव । प्रकृते त्वनुत्तरविमानवासिनां मिथ्यात्वाख्यमोहनीयोत्तरप्रकृतेबन्धाभावेन चत्वारिंशत्सागरोपमकोटोकोटयोघोत्कृष्टस्थितिकबध्यमानाऽप्रत्याख्यानावरणाद्युत्तरप्रकृत्यपेक्षया मोहनीयस्याऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणोऽपि स्थितिवन्धो ज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया विशेषाधिक एवं प्राप्यते, ज्ञानावरणस्यैकैकोत्तरप्रकृतेरुत्कृष्टस्थितिबन्धस्य त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तासां प्रत्येकमनुत्तरविमानवासिनां बन्धभावाच्च ।
यदि च स्यादेवम्-मूलज्ञानावरणकर्मणः पञ्चसूत्तरप्रकृतिषु केवलज्ञानवरणस्योघोत्कृष्टस्थितिबन्धस्त्रिंशत्कोटीकोटीसागरोपमाणि, मिथ्यात्वगुणस्थान एव तद्वन्धश्च, शेषाणां मतिज्ञानावरणादीनां तूत्कृष्टाऽप्यौधिकीस्थितिर्विशतिसागरोपमकोटीकोट्यः, तासां तूपरितनगुणस्थानेष्वपि बन्धस्तदाऽनुत्तरवासिनां देवानां सम्यग्दृष्टितया मिथ्यात्वस्येव केवलज्ञानावरणस्याऽपि बन्धाभावात् शेषाणां तु ज्ञानावरणोत्तरप्रकृतीनां विंशतिसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकत्वात् कषायमोहनीयाऽपेक्षया जायमानोऽपि मोहनीयोत्कृष्टस्थितिबन्धः सम्यग्दृष्टिगुणस्थाने वध्यमानज्ञानावरणानां जायमानोस्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया द्विगुणः स्यात् , न पुनः विशेषाधिकः । किन्तु नास्त्येवम् , यतो ज्ञानावरणस्य पश्चानामप्युत्तरप्रकृतीनामोधोत्कृष्टस्थितिबन्धस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्य एव भवति, ताश्च प्रकृतयो ध्रुवबन्धिन्यः सत्य उपरितनगुणस्थानेष्वपि बध्यन्ते, इत्थं मूलोक्तमेवाल्पबहुत्वं प्राप्यत इति दिक् । अनया दिशा पूर्वोत्तरत्र च विभावनीयमल्पबहुत्वं स्वधिया । विशेषार्थिना तूत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धविधानग्रन्थोऽवलोकनीय इति ॥४८३-४८४-४८५॥
आहारदुगम्मि तहा चउणाण-जईसु समइए छेए । परिहारे देस-अवहि-सम्म-खइअ-वेअगेसु च ॥४८६॥ सासायणे य आउस्सऽप्पो तो वीसगाण संखगुणो। तो तीसगाण तत्तो मोहस्स कमा विसेसहियो ॥४८७॥
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१०६]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइत्बंधी [ मार्गणास्वष्टमूलप्रकृतीनां परस्थाने (प्रे०) "आहारदुगम्मि तहा" इत्यादि, आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणादिके, तथा मत्यादिचतुर्ज्ञान-संयमोघमार्गणासु, सामायिकसंयममार्गणायां, छेदोपस्थापनसंयममार्गणायां, परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायां, देशसंयमा-ऽवधिदर्शन-सम्यक्त्वौघ-क्षायिक-वेदकसम्यक्त्वमार्गणासु । चकारः पादपूत्यै । सासादनमार्गणायां चेत्येतासु पोडशमार्गणासु प्रत्येकमायुषः अल्पः'-सर्वस्तोकः, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते, एवमुत्तरत्रापि । ततो विंशतिकयो मगोत्रकर्मणोरुस्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । ततस्त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां, ततो मोहनीयकर्मणः “कमा" त्ति 'क्रमाद्'-यथासंख्यं विशेषाधिकः । नामगोत्रयोरपेक्षया ज्ञानावरणादीनां चतुणां विशेषाधिकस्ततो मोहनीयकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिक इत्यर्थः । अत्रापि ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिवन्धापेक्षया मोहनीयोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य विशेषाधिक्यमनन्तरोक्तनीत्या प्रस्तुतमार्गणाद्वये मिथ्यात्वस्याऽबन्धादवसातव्यम् ॥४८६-४८७।।
विकियमीसे कम्मेऽणाहारे वीसगाण सबप्पो।
तो तीसगाण अहियो ततो मोहस्स संखगुणो ॥४८८॥ (प्रे०) “विक्कियमीसे" इत्यादि, वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणायां "कम्मे" ति कार्मणकाययोगमार्गणायां “णाहारे" त्ति लुप्ताकारस्य दर्शनादनाहारकमार्गणायामित्येतासु तिसृषु प्रत्येकं विंशतिकयो मगोत्रकर्मणोरुत्कृष्टस्थितिबन्धः सर्वाल्पः । ततस्त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया ऽन्तरायकर्मणां प्रत्येकम् “अहिओ" ति विशेषाधिकः । ततो मोहनीयकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्यातगुणः । आयुःकर्मणः प्रकृतमार्गणात्रयेऽवन्ध एवेति नोक्त इति ॥४८८॥
मीसु-वसमेसु णेयो सव्वप्पो वीसगाण ताहिन्तो।
होएज्ज तीसगाणं तत्तो मोहस्स अब्भहिओ॥४८९॥
(प्रे०) “मीसुवसमेसु” इत्यादि, मिश्रदृष्टिमार्गणायामोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां च प्रत्येकं विंशतिकयो मगोत्रकर्मणोरुत्कृष्टस्थितिबन्धः सर्वाल्पो ज्ञातव्यः । तस्मात् त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां, ततो मोहनीयकर्मणः 'अभ्यधिकः'-विशेषाधिको भवेद् , उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते, क्रमादितिशेषः । ततश्च नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया ज्ञानावरणादीनां चतुर्णामुत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया मोहनीयस्योत्कृष्ट स्थितिवन्धो विशेषाधिक इति । चरमपदे विशेषाधिक्यं मिथ्यात्वस्याऽबन्धात्प्राग्यद्विज्ञेयमिति ।।४८९॥
गयवेए सव्वऽप्पो मोहस्स तिघाइगाण संखगुणो। तो दोण्ह असंखगुणो ततो तइअस्स अब्भहियो ॥४९०॥
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[ ४०७
उत्कृष्स्थितिबन्धाल्पबहु० ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
(प्रे०) "गयवेए" इत्यादि, ‘गयवेए' ति अपगतवेदमार्गणायां "मोहस्स" ति मोहनीयकर्मणः “सव्वप्पो" ति उत्कृष्टस्थितिबन्धः सर्वाल्पः। "तिघाइगाण" ति मोहनीयस्यानन्तरमेव कथितत्वात् तच्छेषाणां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानांत्रयाणां 'घातिकानां'-धातिकर्मणां "संखगुणो" ति उत्कृष्टस्थितिवन्धः संख्येयगुणः । "तो दोण्ह असंखगुणो" ति ततो द्वयोर्नामगोत्रकर्मणोरूत्कृष्टस्थितिबन्धोऽसंख्यगुणः। "ततो तइअस्स अब्भहिओ" त्ति ततस्तृतीयस्य वेदनीयकर्मण उत्कृष्टस्थितिवन्धोऽभ्यधिक इति ॥४९०॥
सुहुमम्मि तिघाईणं सव्वप्पो ताउ णामगोआणं । संखेज्जगुणो तत्तो तइअस्स भवे विसेसहियो॥४९१॥
(प्रे०) "सुहुमम्मि" ति सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां "तिघाईणं" ति मोहनीयस्याऽबन्धाद् बन्धप्रायोग्यानांत्रयाणां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानांघातिकर्मणां “सव्वप्पो" त्ति प्रकृतोत्कृष्टस्थितिबन्धः सर्वाल्पः । “ताउ णामगोआणं संखेज्जगणो" त्ति ततो नामगोत्रकर्मणोरुत्कृष्टस्थितिबन्धो संख्येयगुणः । “तत्तो तइअस्से" इत्यादि, सुगमम् , नवरं "तइअस्स" ति वेदनीयकर्मण इति ।।४९१।। अथ शेषसप्तचत्वारिंशन्मागंणासु प्रकृताल्पबहुत्ववक्तव्यता तुल्येतिकृत्वा तासु युगपदाहसेसासु आउस्स उ सव्वप्पो वीसगाण संखगुणो।
तो तीसगाण अहिओ तत्तो मोहस्स संखगुणो ॥४९२॥ (प्रे०) “सेसासु आउस्स" इत्यादि,उक्तशेषमार्गणासु पुनः “आउस्स उ सव्वप्पो' आयुष उत्कृष्टस्थितिवन्धः सर्वाल्पः । तुकारः पुनरर्थे भिन्नक्रमश्च, सच प्राग्योजितः । “वोसगाण संखगुणो तो" ति ततो विंशतिकयोर्नामगोत्रकर्मणोः प्रकृतोत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, "तीसगाण अहिओ" त्ति, अनन्तरोक्तस्य "तो" शब्दस्य काकाक्षिगोलकन्यायेनात्रापि योजनात् ततस्त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण--दर्शनावरण-वेदनीया-ऽऽन्तरायकर्मणामुत्कष्टस्थितिवन्धः 'अधिकः'विशेषाधिकः । ततश्च मोहनीयकर्मण उत्कृष्ट स्थितिबन्धः संख्येयगुण इति । शेषमार्गणास्त्विमाःतिर्यग्गत्योध-पञ्चेन्द्रियतिर्यगोध-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यक्-तिरश्ची-मनुष्यगत्योध-पर्याप्तमनुष्य-मानुपीपञ्चेन्द्रियोघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्रसकायौघ--पर्याप्तत्रसकाय--पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-काययोगौदारिककाययोग-स्त्री-पु-नपुंसकवेद-क्रोधादिचतुःकषाया-ऽज्ञानत्रया-ऽसंयम-चक्षुर्दर्शना-ऽचक्षुर्दर्शनपल्लेश्या-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्व-संश्या-ऽऽहारिमार्गणा इति ॥४९२॥
तदेवमुक्तमादेशतोऽप्युत्कृष्टस्थितिबन्धमधिकृत्याप्टानां प्रकृतीनां परस्थानाल्पबहुत्वम् । अथ जघन्यस्थितिबन्धमधिकृत्य प्रचिकटयिपुरादौ तावदोघत आह
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४०८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ ओघतोऽष्टानां परस्थाने जघन्यस्थिति० सव्वऽप्पो ठिइबंधी आउस जहण्णगो मुणेयव्वो । ताहिन्तो णायव्वो संखेज्जगुणो उ मोहस्स ॥४९३॥ तत्तो उतिघाणं संखगुणो तो य नामगोआणं । संखेज्जगुणो तत्तो त अस्स विसेसओहिओ ॥४९४ ॥
(प्रे० ) " सव्वऽप्पो" इत्यादि, आयुष जघन्य एव जघन्यकः स्थितिबन्धः सर्वाल्पो ज्ञातव्यः । तस्मादायुषो जघन्यस्थितिबन्धात् मोहनीयकर्मण: संख्येयगुणो ज्ञातव्यः, जघन्यस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते । एवमुत्तरत्रापि जघन्य स्थितिबन्ध इत्यस्यानुवृत्तिर्द्रष्टव्या । " तत्तो उ" सि ततस्तु मोहनीयवर्णानां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तराय लक्षणानां त्रयाणां वातिकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । ततश्च नाम - गोत्रयोर्जघन्यः स्थितिबन्ध: संख्येयगुणः, ततस्तृतीयस्य वेदनीयकर्मणो जघन्यस्थितिबन्धो 'विशेषतोऽभ्यधिकः', विशेषाधिक इत्यर्थ: ।। ४९३-४९४।। उक्तमोघतः । अथाऽऽदेशतो नरकगत्योघादिमार्गणास्थानेष्वभिधित्सुराह— दुइआइणिरय - जोइस पहुडिसुर - विउब्व- तेउ-पउमासु । अग-सासासु आउस्स लहू भवे थोवो || ४९५॥ ताहिन्तो णायव्वो असंखियगुणो उ णाम- गोआणं । तो तीसियाण तत्तो मोहस्स कमा विसेसहियो ||४९६॥
(प्रे०) "दुइआइणिरये” त्यादि, द्वितीयादिसप्तमपृथिव्यन्तेषु पट्षु निरयगतिभेदेषु, ज्योतिष्कप्रभृतिसर्वार्थसिद्धविमानपर्यन्तेषु सप्तविंशतिसुरगतिभेदेषु, वैक्रियकाययोग-तेजोलेश्या- पद्मलेश्यामार्गणासु, वेदकसम्यक्त्व - सासादनमार्गणयोश्च प्रत्येकमायुषो 'लघुः’जघन्यः स्थितिबन्धः स्तोको भवेत् । ततो नाम- गोत्रयोस्तु लघुस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणो ज्ञातव्यः । ततस्त्रिशत्कानां ज्ञानावरणदर्शनावरण- वेदनीयाऽन्तरायकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धः, ततो मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः क्रमाद्विशेषाधिकः, ज्ञातव्य इत्यनुवर्तते । अत्र त्रिंशत्कानां जघन्यस्थितिबन्धापेक्षया मोहनीयजघन्यस्थितिarat विशेपाधिक्यकथनं तत्स्वामिनां सम्यग्दृष्टित्वेन प्रागुक्तनीत्या मिथ्यात्वमोहनीयस्याsबन्धात्, कायमोहनीयापेक्षया तु मूलप्रकृत्यल्पबहुत्वे विशेषाधिक्यस्य लाभाच्चेति । एवमुत्तरत्रापि श्रेणिबहिर्वर्तिनां सम्यग्दृशां मिथ्यात्वमोहनीयस्य बन्धाभावेन बध्यमानमोहनीयोत्तरप्रकृतिसत्कजघन्यस्थितिबन्धापेक्षया विशेषाधिक्यमुपपादनीयमिति ।। ४९५-४९६ ।।
णरतिग-दुपणिंदिय-तस-पणमणवणे कायु-रासु । पुरिस- चउकसाय भविय-णयणियरा - SSहार- सण्णीसु ॥४९७॥
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[ ४०९
मार्गणास्वष्टकर्मणां परस्थाने जघन्यस्थिति० ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
आउस्स जहण्णोऽप्पो कमसो मोहस्स तो तिघाईणं । तो वीसगाण संखियगुणो तओ साहिओ उ तइअस्स ॥४९८॥ (प्रे०) “णरतिगदुपणिंदिये" त्यादि, तत्र "णरतिगे' इत्यनेना-ऽपर्याप्तभेदवर्जास्त्रयो मनुष्यगतिमार्गणाभेदा गृह्यन्ते, एवं पञ्चेन्द्रियत्रसयोः प्रत्येकं योज्यद्विशब्देनाऽप्यपर्याप्तभेदवों द्वौ पञ्चेन्द्रियजातिभेदो, अपर्याप्तभेदवौं द्वौ त्रसकायभेदौ च ग्राह्यौ, तासु सप्तमार्गणासु तथा पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-काययोगसामान्यौ-दारिककाययोग-पुरुषवेद-क्रोधादिचतुःकषाय-भव्य-चक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शना-ऽऽहारि-संज्ञिमार्गणास्वित्येतासु समुदितास्वेकोनत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । एतासु किमित्याह-“आउस्से” इत्यादि, ओघवदायुषो जघन्यस्थितिबन्धः 'अल्प:-'सर्वाल्पः, क्रमशो मोहनीयस्य, ततस्त्रिघातिकर्मणां, ततो विंशतिकयोः संख्येयगुणः स्थितिबन्धः । ततः “साहिओ उ” ति 'साधिकः'-विशेषाधिकस्तु तृतीयस्य । अयम्भावः-आयुषो जघन्यस्थितिबन्धापेक्षया मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततश्च शेषाणां ज्ञानावरण-दर्शनावरणाऽन्तरायलक्षणानां त्रयाणां घातिकर्मणां प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततो विंशतिकयोर्नामगोत्रकर्मणोर्जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततश्च तृतीयस्य वेदनीयकर्मणो जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिक इत्येवं मनुष्यगत्योघादिमार्गणासु प्रस्तुताल्पबहुत्वं सर्वथौघवदेवेति ॥४९७-४९८॥
विकियमीसे मीसे सव्वऽप्पो वीसगाण णायव्यो।
तो तीसियाण तत्तो मोहस्स कमा विसेसहियो ॥४९९॥ (प्रे०) "विक्कियमोसे" इत्यादि, वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणायां मिश्रदृष्टिमार्गणाभेदे चायुषोऽबन्धात्तच्छेषेषु सर्वाल्पो जघन्यस्थितिबन्धो विंशतिकयो म-गोत्रकर्मणोतिव्यः । ततस्त्रिशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां ततो मोहनीयकर्मणः क्रमाद्विशेषाधिकः, जघन्यस्थितिबन्ध इति गम्यते । कुतो विशेषाधिकः ? इति चेद् , मार्गणाद्वयेऽपि जघन्यस्थितिवन्धकानां मिथ्यात्वमोहनीयस्याऽबन्धादिति ॥४९९||
कम्मा-ऽणाहारसुसब्बप्पो वीसगाण णायब्वो। तो तीसियाण अहियो तत्तो मोहस्स संखगुणो ॥५००॥ (प्रे०) “कम्माणाहारेसु" ति कार्मणकाययोगमार्गणायामनाहारकमार्गणायां चोभयत्राप्यायुषोऽबन्धात्सर्वाल्पो जघन्यस्थितिबन्धो विंशतिकयो मगोत्रकर्मणोतिव्यः । ततस्त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणाम् “अहियो" ति विशेषाधिकः । ततो मोहनीयकर्मणः संख्येयगुणः, जघन्यस्थितिबन्ध इत्यात्रापि प्राग्वद्गम्यत एवेति । हेतुस्तु मार्गणाद्वयेऽपि जघन्यस्थितिबन्धस्यैकेन्द्रियस्वामिकत्वेन तद्वन्धकाले मिथ्यात्वस्य नियमेन बन्धादिति ॥५००॥
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४१० ]
• बंध विहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्टमूलप्रकृतीनां परस्थाने आहारदुगे देसे परिहारे आउगस्स सब्वप्पो । तो वीस गाण यो संखगुणो तीसगाणऽहियो ॥५०१ ॥ तत्तो मोहस्स व विसेसअहियो भवे णपुम-थीसु । आउस्स उ सव्वऽप्पो तत्तो मोहस्स संखगुणो ॥ ५०२ ॥ तो तिहं घाईणं संखगुणो ताउ णामगोआणं ।
यो असंखियगुणो तत्तो त अस्स अमहियो ||५०३॥
(प्रे० ) " आहारदुगे" इत्यादि, आहारककाययोगा - ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणाद्वय रूप आहारकद्विके “देसे” त्ति देशसंयममार्गणायां तथा " परिहारे" ति परिहारविशुद्धिक संयम मार्गणायाम् । एतासु प्रत्येकमित्यर्थः । किमित्याह - " आउगस्" इत्यादि, आयुष्कस्य जघन्यस्थितिबन्धः सर्वाल्पः, ततो विंशतिकयोर्नामगोत्रकर्मणोर्जघन्य स्थितिबन्धः संख्येयगुणो ज्ञातव्यः, "तीसगाणऽहियो” त्ति ततस्त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां जघन्यस्थितिबन्ध विशेषाधिकः, ततो मोहनीयकर्मणो जघन्यस्थितिबन्ध विशेपाधिको भवति ।
अथाऽन्यत्राह - "भवे णपुमथीसु" इत्यादि, नपुंसकवेदमार्गणायां स्त्रीवेदमार्गणायां च भवेत् । किं भवेदित्याह - " आउस्स उ" इत्यादि, प्राग्वदायुषो जघन्यस्थितिबन्धस्तु सर्वाल्यः, ततो मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततो मोहनी वर्जानां त्रयाणां घातिनां प्रत्येकं संख्येयगुणः, तस्मान्नामगोत्रयोः प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः, ततः पुनस्तृतीयस्य वेदनीयकर्मणो जघन्यस्थितिबन्धः 'अभ्यधिकः' - विशेनाधिको ज्ञातव्य इत्यर्थः ।। ५०१-५०३ ।।
arar - उसमे मोहस्सऽप्पो तओ तिघाईणं ।
तो वीसगाण संखगुणो तत्तो तहअस्स अन्भहिओ ॥ ५०४ ॥
(प्रे०) "गयवेअ” इत्यादि, अपगतवेद मार्गणायामौपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां च मोहनीयकर्मणः "पो” त्ति अकारस्य दर्शनाद् 'अल्पः' - सर्वस्तोकः, जघन्यस्थितिबन्ध इति गम्यते । ततः शेषाणां ज्ञानावरण- दर्शनावरणा - ऽन्तरायलक्षणानां त्रयाणां घातिकर्मणां ततो विंशतिकयोर्नामगोत्रकर्मणोः संख्येयगुणः, क्रमादिति शेषः । ततस्तृतीयस्य वेदनीयकर्मणोऽभ्यधिकः, जघन्यस्थितिबन्ध इति सर्वत्र प्राग्वयोज्यमिति ॥ ५०४ ॥
णाणतिगे ओहिम्मिय सुइला सम्म - खइएस णायव्वो । मोहस्स सव्वथोवो तओ तिघाईण संखगुणो ॥ ५०५ ॥
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जघन्यस्थितिबन्धाल्पबहु० ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ४११ तो वीसियाण यो संखगुणो तो विसेसओऽभहियो। तइअस्स हवइ तत्तो आउस्स हवेज संखगुणो ॥५०६॥ (प्रे०) “णाणतिगे” इत्यादि, “गाणतिगे" ति मनःपर्यवज्ञानमार्गणायामनन्तरं वक्ष्यमाणत्वात् तां विहाय शेषाणां मति-श्रुता-ऽवधिज्ञानमार्गणानां त्रिक-ज्ञानत्रिके, “ओहिम्मि" ति अवघिदर्शनमार्गणायां, चकारस्समुच्चयार्थो भिन्नक्रमश्च “सम्मखइएसु' इत्यस्योत्तरं योज्यस्ततः "सुइल" त्ति शुक्ललेश्यामार्गणायां "सम्मखइएसु" ति सम्यक्त्वोधमार्गणायां क्षायिकसम्यक्वमागेणायां चेत्येतासु सप्तमार्गणासु प्रत्येकं ज्ञातव्य इत्यर्थः । कः कियानित्याह-"मोहस्स सव्वथोवो” इत्यादि, मोहनीयकर्मणो जघन्यस्थितिवन्धः सर्वस्तोकः । ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानां त्रयाणां घातिकर्मणां प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । ततो विंशतिकयोर्नामगोत्रकर्मणोः प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । ततो 'विशेषतोऽभ्यधिक:'-विशेषाधिको जघन्यस्थितिबन्धः "तइअस्स हवई" ति तृतीयस्य वेदनीयकर्मणो भवति, तत आयु:कर्मणो जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणो भवेदिति ॥५०५-५०६।।
मणणाण संयमेसु समइअछेएसु होइ सव्वप्पो। मोहस्स तओ णेयो तिण्डं घाईण संखगुणो ॥५०७॥ तो वीसगाण णेयो संखगुणो तो विसेसओऽभहियो । तइअस्स हवइ तत्तो आउस्स भवे असंखगुणो ॥५०८॥
(प्रे०) "मणणाण” इत्यादि, मनःपर्यवज्ञानमार्गणायां संयमोघमार्गणायां तथा सामायिकछेदोपस्थापनसंयममार्गणयोः प्रत्येकं मोहनीयकर्मणो जघन्यस्थितिबन्धः सल्पिो भवति। ततस्त्रयाणां-ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानां घातिकर्मणां प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणो ज्ञेयः । ततो विंशतिकयो मगोत्रकर्मणोः प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणो ज्ञेयः । ततो विशेषतोऽभ्यधिकस्तृतीयस्य वेदनीयकर्मणो जघन्यस्थितिवन्धो भवति । ततः पुनरायुषो जघन्यस्थितिबन्धोऽसंख्यगुणो भवेदिति ॥५०७-५०८।।
सुहुमम्मि तिघाईणं सव्वप्पो ताउ णामगोआणं । संखेजगुणो तत्तो तइअस्स विसेसओअहिओ॥५०९॥
(प्रे०) "सुहुमम्मि तिघाईणमि"त्यादि, सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां मोहनीयस्याऽबन्धाच्छेषाणां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानां त्रयाणां घातिकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धः सर्वाल्पः । तस्मात् नामगोत्रयोः प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततस्तृतीयस्य वेदनीयकर्मणो जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिको भवतीत्यर्थः ॥५०९॥ उक्तशेषमार्गणास्वाह
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४१२]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ओघतोऽष्टप्रकृतीनां परस्थाने सेसासु आउस्स उ थोवो दोण्हं तओ असंखगुणो।
तो तीसगाण अहियो तत्तो मोहस्स संखगुणो ॥५१०॥
(प्रे०) "सेसासु” इत्यादि, अनन्तरं पृथक् पृथगुक्ता द्वितीयपृथिवीनरकभेदायकोननवतिमार्गणा विवज्य शेषासु नरकगत्योघभेदायकोनाशीतिमार्गणःसु प्रत्येकमायुषो जघन्यः स्थितिबन्धः “थोवो” त्ति सर्वस्तोकः । “दोण्हं तओ"त्ति ततो द्वयोर्नामगोत्रकर्मणोरसंख्यगुणः, जघन्यस्थितिबन्ध इति प्राग्वद्गम्यते । “तो” त्ति ततो नामगोत्रयोजघन्यस्थितिबन्धात् त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायकर्मणामधिकः-विशेषाधिकः । ततो मोहनीयकर्मणो जघन्यस्थितिवन्धः संख्येयगुण इति । शेषमार्गणा नामत इमाः-नरकगत्योध-प्रथमपृथिवीनरकभेदो, पञ्चापि तिर्यग्गतिभेदाः, अपर्याप्तमनुष्यभेदः, देवगत्योध-भवनपति-व्यन्तरदेवभेदाः, सर्व एकेन्द्रियभेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदः, पृथिवीकाया-ऽप्काय-तेजस्काय-वायुकाय-वनस्पतिकायसत्काः सर्वे भेदाः, अपर्याप्तत्रसकायभेदः, औदारिकमिश्रकाययोग-मत्यज्ञान-श्रताज्ञान-विभङ्गज्ञाना-ऽसंयम-कृष्ण-नील-कापोतलेश्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंज्ञिमार्गणाभेदाश्वेति ॥५१०॥ .
तदेवं जघन्यस्थितिबन्धमधिकृत्याप्युक्तमष्टानां मूलप्रकृतीनां परस्थानाल्पबहुत्वमादेशतोऽपि । साम्प्रतं पुनस्तदेव जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धद्वयमधिकृत्य व्याजिही रादौ तावदोघत आह
सबऽप्पो ठिइबंधो आउस्स जहण्णगो मुणेयव्यो। ताहिन्तो णायव्वो संखेज्जगुणो उ मोहस्स ॥५११॥ तो तिण्हं घाईणं संखगुणो ताउ णामगोआणं।। संखेज्जगुणो तत्तो तइअस्स विसेसओऽभहियो ॥५११॥ ताऽऽउस्स असंखगुणो जेट्टो तो वीसगाण संखगुणो। तो तीसगाण अहिओ तत्तो मोहस्स संखगुणो ॥५१३॥
(प्रे०) “सव्वाप्पो” इत्यादि, सर्वाल्पः स्थितिबन्धो 'ज्ञातव्य' इति परेणान्वयः । कथम्भूतः ? इत्याह-"आउस्स जहण्णगो” ति साधिकक्षुल्लकभवप्रमाणो य आयुकर्मणो जघन्यः स्थितिबन्धः स इत्यर्थः । “ताहिन्तो" ति तस्मात् मोहनीयकर्मणः संख्यातगुणो ज्ञातव्यः, जघन्यस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते । “तो तिण्ह"मित्यादि, ततस्त्रयाणां घातिकर्मणां संख्येयगुणः, जघन्यस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते । एवमुत्तरत्रापि तदनुवृत्तेः “त्ताउ नामगोआण” ति ततो नामगोत्रकर्मणोर्जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । ततस्तृतीयस्य वेदनीयकर्मणो जघन्यस्थितिबन्धः 'विशेषतोऽभ्यधिकः'-विशेषाधिक इत्यर्थः । “ताऽऽउस्स” त्ति तत आयुःकर्मणो 'ज्येष्ठः'-उत्कृष्टः स्थितिबन्धोऽसंख्यगुणः । "तो वीसगाणं" ति ततो विंशतिकयो मगोत्रकर्मणोः “संखगुणो” त्ति
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जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धाल्पबहु० ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[४१३ संख्येयगुणः, ज्येष्ठस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते, क्रमादिति शेषः। “तो तिसगाण" ति ततस्त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणाम् “अहियो" त्ति विशेषाधिकः । “तत्तो मोहस्स संखगुणो” त्ति ततो मोहनीयस्य संख्येयगुणः, उत्कृष्टस्थितिबन्ध इत्युभयत्राप्यनुवृत्या बोद्धव्यम् । इदमप्यल्पबहुत्वं स्थितिबन्धप्रमाणानुसारेण प्राग्वत्स्वयमेव भावनीयम्, वक्ष्यमाणादेशप्ररूपणायामप्येवं तत्तन्मार्गणोक्त स्थितिबन्धप्रमाणानुसारेण प्रागिवाभ्युह्यमिति ।।५११-५१२-५१३।।
उक्तमोघतो जघन्योत्कृष्टपदद्वयसम्बन्धि परस्थानाल्पबहुत्वम् । अथ तदेवादेशत आहणिरय-पढमणिरयेसु सुर-भवण-दुगेसु उरलमीसे य । असमत्तपणिदितिरिय-मणुस-पणिदिय-तसेसुय ॥५१४॥ आउस्स लहू थोवो तत्तो परमो हवेज्ज संखगुणो। तो वीसगाण हस्सो असंखियगुणो मुणेयवो ॥५१५॥ तो तीसगाण अहिओ तत्तो मोहस्स होइ संखगुणो। तो वीसगाण जेट्ठो संखेज्जगुणो मुणेयव्वो ॥५१६॥
तो तीसगाण अहिओ तत्तो मोहस्स होइ संखगुणो। (प्रे०) "णिरयपढमणिरयेसु” इत्यादि, नरकौघ-प्रथमपृथिवीनरकभेदयोः, “सुर” त्ति सुरगत्योधे,भवनपति-व्यन्तरदेवभेदयोः,औदारिकमिश्रकाययोगेच । अन्यमार्गणासङ्ग्रहायाह-''असमत्ते" त्यादि, तत्र “असमत्त" शब्दस्य प्रत्येकं योजनादपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग-पर्याप्तमनुष्याऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रसकायमार्गणास्वित्यर्थः । चकार उक्त समुच्चये । तत एतासु समुच्चितासु दशमार्गणासु प्रत्येकम् “आउस्स लहु थोवो” ति आयुषः 'लघुः'-जघन्यः स्थितिवन्धः स्तोकः । “ततो परमु" ति ततस्तस्यैवाऽऽयुषः 'परमः'-उत्कृष्टः स्थितिबन्धः "हवेज्ज संखगुणो" ति संख्येयगुणो भवेत् । “तो वीसगाणे"त्यादि, ततो विंशतिकयो मगोत्रकर्मणोः 'ह्रस्वः'-जघन्यस्थितिबन्धोऽसंख्यातगुणो ज्ञातव्यः। "तो तीसगाण" ति ततस्त्रिंशत्कानांज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां प्रत्येकम् “अहिओ" त्ति विशेषाधिकः, जघन्यस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते । “ततो मोहस्स" ति ततो मोहनीयकर्मणः "होइ संखगुणो" ति संख्येयगुणो भवति, जघन्यस्थितिबन्ध इत्यावर्तते । “तो वीसगाणे"त्यादि, ततो विंशतिकयोर्नामगोत्रयोज्येष्ठः'-उत्कृष्टः स्थितिबन्धः संख्येयगुणो ज्ञातव्यः । "तो तीसगाण अहिओ" त्ति ततस्त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां प्रत्येकं विशेषाधिकः, ज्येष्ठस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते । “तत्तो मोहस्स” ति ततो मोहनीयकर्मणः "होइ संखगुणो" त्ति प्राग्वत् "जेहो" इत्यस्याऽत्राप्यनुवर्तनादुत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुणो भवतीति ॥५१४-५१५-५१६।।
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४१४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वष्टप्रकृतीनां परस्थाने भणितार्थेन सादृश्यबाहुल्याल्लाघवार्थी कतिपयमार्गणासु सापवादमतिदिशति-- एमेव जाणियव्वं सेसणिरयदेव-विउवेसु॥५१७॥ णवरं मोहस्स लहू विसेसअहिओ हवेज्ज एएसु। पणऽणुत्तरेसु णेयो मोहस्स गुरू वि अब्भहियो ॥५१८॥ (प्रे०) “एमेवे" त्यादि, प्राकृतत्वेन वकारस्य लुप्तत्वाद् “एमेव" ति एवमेव, तत्रैवंशब्दस्य सादृश्यार्थित्वेन यथाऽव्यवधानेन मार्गणादशकेऽल्पबहुत्वमभिहितं तथैव "जाणियव्वं" ति वक्ष्यमाणमार्गणास्वल्पबहुत्वं ज्ञातव्यमित्यर्थः । कासु मार्गणास्वित्याह-"सेसणिरयदेवविउवेसु" ति अनन्तरोक्ता निरयगत्योघ-प्रथमनरक-देवगत्योध-भवनपति-व्यन्तरभेदरूपा याः पञ्च निरयगतिदेवगतिसत्का मार्गणास्तास्त्यक्त्वा शेषासु षट्षु निरयगतिमार्गणासु, शेषासु सप्तविंशतिदेवगतिमार्गणासु तथा वैक्रियकाययोगमार्गणायां चेत्यर्थः । किमतासु चतुस्त्रिंशन्मार्गणासु सर्वथैव नरकौघप्रथमनरकमार्गणादिवदुतास्ति कश्चिद्विशेषोऽपीत्याह-"णवरमि" ति नवरं-परमयमत्र विशेषः । कोऽसावित्याह-"मोहस्स" इत्यादि "पणणुत्तरेसु" इत्यादि च । तस्यायमर्थ:-चतुस्त्रिंशन्मार्गणाभ्योऽनुत्तरविमानवर्जास्वेकोनत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमतिदेशानुसारेण पूर्वोक्तक्रमतोऽल्पबहुत्वेऽभिधीयमाने ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धो यथोक्तस्थाने पूर्वपदापेक्षया विशेषाधिक इत्युक्त्वा तदनन्तरं मोहनीयकर्मणो 'लघुः' -जघन्यः स्थितिबन्धः प्राग्वत् संख्येयगुणो न वक्तव्यः, किन्तु विशेषाधिको वक्तव्यः, एतासु जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनां मिथ्यात्वस्याबन्धात् । ततस्तु पूर्ववद् यथाक्रमं तथैव । पञ्चानुत्तरविमानसत्कमार्गणाभेदेषु वित्थमेव मोहनीयकर्मणो जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिक इति वक्तव्यम् , अन्यच्च चरमपदे मोहनीयस्य गुरुः स्थितिबन्धः पूर्ववर्तिपदापेक्षया विशेषाधिक इत्यपि वक्तव्यम् । कुतः ? तत्र सर्वेषां सम्यग्दृष्टितयोत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनामपि मिथ्यात्वस्यावन्धेन “वि अन्भहियो' इत्यत्रापिशब्दस्यानन्तरापोदितार्थसमुच्चायकतयोपादानादिति । इत्थं हि द्वितीयपृथिवीनिरयभेदायकोनत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमायुषो जघन्यस्थितिबन्धः सर्वस्तोकः, ततस्तस्यैवोत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततो नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धःसंख्येयगुणः,ततो ज्ञानावरणादीनां चतुणों विशेषाधिकः, ततो मोहनीयस्य विशेषाधिकः, ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततो ज्ञानावरणादीनां चतुर्णामुत्कृष्टो विशेषाधिकः, ततो मोहनीयस्योत्कृष्टः संख्येयगुण इत्येवमल्पबहुत्वं भवति । पश्चानुत्तरविमानेषु तु चरमपदेऽपि मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिक इत्यभिधातव्यमिति ॥५१७५१८।।
तिरिय-अणाणदुगा-ऽयत-तिअसुहलेसा-अभविय-मिच्छेसु। आउस्स लहू थोवो तत्तो दोण्हं असंखगुणो ॥५१९॥
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जघन्योत्कृष्टस्थितिधबन्धाल्पबहु० ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
तो तीसगाण अहियो तत्तो मोहस्स होइ संखगुणो । तत्तो आउस गुरू संखेज्जगुणा मुणेयव्व ॥ ५२० ॥ तो वीसगाण यो संखेज्जगुणो तओ विसेसहिओ ।
होएज्ज तीसगाणं तत्तो मोहस्स संखगुणो ॥ ५२१ ॥
(प्रे०) “तिरियअणाणे "त्यादि, तिर्यग्गत्योघ-सत्यज्ञान - श्रुताज्ञाना- ऽसंयम कृष्णादित्र्यशुभलेश्या - ऽभन्य- मिथ्यात्वमार्गणासु प्रत्येकमायुषो 'लघुः' - जघन्य स्थितिबन्धः स्तोकः, ततो द्वयोर्नामगोत्रकर्मणोरसंख्येयगुणः, जघन्यस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते । एवमुत्तरत्राप्यनुवृत्तिबलान्नामगोत्रयोरेकैकस्य जघन्यस्थितिबन्धापेक्षया त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीयाऽन्तरायकर्मणां प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धः "अहिओ” त्ति विशेषाधिकः, ततो मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्येrगुणो भवति, तत आयुषो 'गुरुः' - उत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुणो ज्ञातव्यः । इत उत्तरत्रापि 'गुरू' इति शब्दस्यानुवृत्तेस्ततो विंशतिकयोर्नामगोत्रकर्मणोरुत्कृष्ट स्थितिबन्धः संख्येयगुणो ज्ञेयः, ततस्त्रिरत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां “विसेसहिओ होज्ज" त्ति उत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिको भवेत्, ततो मोहनीयकर्मणः उत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुण इति
।।५१९-५२०-५२१ ॥
[ ४१५
पंचिंदियतिरियतिगे विभंग-ते- पउमासु णायव्वो । आउस्स लहू अप्पो तत्तो परमो असंखगुणो ॥ ५२२॥ तो वीस गाण हस्सो संखगुणो ताउ तीसगाणऽहियो । तो यकमा संखगुणो मोहस्स तओऽत्थि वीसगाण गुरु ॥ ५२३ ॥ तो तीसगाण अहियो तत्तो मोहस्स होइ संखगुणो ।
णवरं मोहस्स लहू अब्भहिओ ते - उमासु ॥ ५२४॥
(प्रे० ) " पंचिंदिय" इत्यादि, 'असमत्तपणि दितिरिये त्यादिना प्रागपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदेऽल्पबहुत्वस्याभिहितत्वात् तेन विना ये पञ्चेन्द्रियतिर्यगोघ-पर्याप्त पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिमत्पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदास्तेषां त्रिकं पञ्चेन्द्रियतिर्यक्त्रिकं तस्मिन्, तथा विभङ्गज्ञान-तेजोलेश्या-पद्मलेश्यामार्गणासु च ज्ञातव्यः । कः कियान्नित्याह - "आउस्स लहू" इत्यादि, आयुः कर्मणो 'लघु'जघन्यस्थितिबन्धः ‘अल्पः' - सर्वस्तोकः, ततः "परमो" त्ति 'परमः ' - तस्यैवायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धः "असंखगुणो" ति सुगमम् । ततो विंशतिकयोर्नामगोत्रकर्मणोः 'ह्रस्वः' - जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । तस्मात् त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण- दर्शनावरण- वेदनीया- ऽन्तरायकर्मणां "हिओ"
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४१६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वष्टप्रकृतीनां परस्थाने त्ति अकारस्य दर्शनादनन्तरोक्तस्य "हस्सो ” इत्यस्याऽनुवर्तनाच्च जघन्यस्थितिबन्धः 'अधिक'विशेषाधिकः, ततः क्रमात्संख्येयगुणः, केपामित्याह - " मोहस्स तओऽत्थि " ति मोहनीयकर्मणः, अस्यापि जघन्यस्थितिबन्धो बोद्धव्यः । कुतः ? पूर्ववद् “हस्सो ” इतिपदस्यानुवृत्तेः, ततो विंशतिकयोर्नामगोत्रकर्मणोः । अनयोः को जघन्य उत्कृष्टो वेत्याह- "गुरु" त्ति उत्कृष्टः स्थितिबन्धः । अयम्भावः - ज्ञानावरणादीनां चतुर्णां जघन्यस्थितिबन्धान्मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततश्च नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततस्त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणामविकः विशेषाधिकः, स च गुरुशब्दानुवृत्तेरुत्कृप्टस्थितिबन्धोऽवसातव्यः । एवमग्रे ऽपि ततो मोहनीयस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धः संख्येयगुणो भवतीति । तदेवं सामान्यतोऽभिहिते याऽतिप्रसक्तिस्तां निराचिकीर्षु राह - "णवरं" इत्यादि, परमयमत्र विशेषः, कोऽसावित्याह - "मोहस्से "त्यादि । अयम्भावः - तेजोलेश्यामार्गणायां पद्मलेश्यामार्गणायांच प्रत्येकमनन्तरोक्ताल्पबहुत्वं न सर्वथाऽनन्तरोक्तं तथैव, किन्तु ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थितिबन्धादूर्ध्वं मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिको द्रष्टव्यः, अन्यपदेषु तु यथोक्त एव तदन्यमार्गणासु तु निरपवादं यथोक्त एवेति ।।५२२-५२३-५२४।। अपर्याप्तमनुष्यमार्गणायां प्रागभिहितत्वेन क्रमप्राप्तासु शेषमनुष्य मार्गणास्वतिदिदिक्षुः प्रसंगादन्यमार्गणास्वपि सममेवातिदिशन्नाह - णरतिग-दुपणिंदिय-तस-पणमणवणे कारासु । वेअतिग- कसायचउग-चक्खु अचक्खु भवियेसु च ॥५२५॥ सणिम्मि तहा - SSहारे ओघव्व हवइ परं णपुम-थीसु ।
यो असंखियगुणो जहण्णगो णामगोआणं ॥ ५२६॥
(प्रे० ) " णरतिगदुपणिदिये" त्यादि, अपर्याप्तमनुष्य भेदवर्जेषु त्रिषु नरगतिभेदेषु तथैवाऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदवर्जयोर्द्वयो पञ्चेन्द्रियजातिभेदयोस्तथैव द्वयोस्त्रसकायौध-पर्याप्तत्र सकायभेदयोः, पञ्चमनोयोगभेदेषु पञ्चषु वचोयोगभेदेषु, काययोगसामान्यौ -हारिक काययोगमार्गणयोः, स्त्री-पु-नपुंसक वेदरूपे वेदत्रिके, क्रोधादिकपायचतुष्के, चक्षुदर्शनाऽचक्षुर्दर्शन- भव्यमार्गणासु, चः समुच्चये, व्युत्क्रमेण योज्यः, ततश्वसंज्ञिमार्गणायां तथाऽऽहारिमार्गणायां चेत्येतास्वे कत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकम् “ओघव्व हवइ" त्ति प्रकृताल्पबहुत्वमोघवद्भवति । अतिदिष्टार्थेऽघटमानार्थमपत्रदनाह - " पर "मित्यादि, परमयमत्र विशेषः, स च "णपुमथोसु णेयो" ति नपुंसकवेदमार्गणायां स्त्रीवेदमार्गणायां च ज्ञातव्यः । कोऽसावित्याह- "असंखियगुणो" इत्यादि । अयम्भावःत्रयाणां घातिकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धं मोहनीयजघन्यस्थितिबन्धापेक्षया संख्येयगुणमुक्त्वाऽनन्तरं नामगोत्रकर्मणो जघन्यस्थितिबन्ध औविकाल्पबहुत्वे यः संख्येयगुण उक्तः सोऽत्राऽसंख्येयगुणो ज्ञेयः । तद्यथा - नपुंसकवेद - स्त्रीवेदमार्गणयोरायुषो जघन्यः स्थितिबन्धः स्तोकः, ततो मोहनी
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जघन्योत्कृष्ठस्थितिबन्धाल्पबहु० द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्त्रद्वारम्
[ ४१७ यस्य जघन्यः संख्येयगुणः, ततः शेषत्रिघातिनां प्रत्येकं जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततो नामगोत्रयोर्जघन्योऽसंख्यगुणः, ततो वेदनीयस्य जघन्यो विशेषाधिकः, तत आयुष उत्कृष्टः स्थितिबन्धोऽसंख्यगुणः, ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टः संख्येयगुणः, ततो ज्ञानावरणादीनां चतुर्णामुत्कृष्टो विशेषाधिकः, ततो मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुण इति ॥५२५-५२६॥
ठिइबंधो सव्वेसु एगिदिय-विगल-पंचकायेसु। आउस्सऽप्पो हस्सो तत्तो परमो उ संखगुणो ॥५२७॥ तो वीसगाण हस्सो असंखियगुणो तओ भवे तेसिं । जेट्ठोऽभहियो तत्तो अव्भहियो तीसगाण लहू ॥५२८॥ तेसिं चिअ उक्कोसो विसेसअहिओ तओ य संखगुणो । मोहस्स लहू तत्तो तस्सुकोसो विसेसहियो ॥५२९॥
(प्रे०) "ठिइबंधो सव्वेसु” इत्यादि, "ठिइबंधो" इत्यस्य “आउस्सप्पो हस्सो" इत्यादिना परेणान्वयस्तत आयुषो ह्रस्वः स्थितिबन्धः स्तोको भवति । कासुमार्गणास्वित्याह"सव्वेसु” इत्यादि, सर्वेष्वेकेन्द्रियभेदेषु, सर्वेषु विकलेन्द्रियभेदेषु, सर्वेषु पृथिव्यादिपञ्चकायसत्कभेदेषु, इत्येवमेतासु पञ्चपञ्चाशन्मार्गणास्वित्यर्थः । ततः पुनः किमित्याह-"तत्तो परमो" इत्यादि, "तत्तो” ति तस्मादायुषो जघन्यस्थितिबन्धात् “परमो” ति “आउस्स” इत्यस्यानुवत्तेरायुष एव 'परमः' -उत्कृष्टः स्थितिवन्धः “उ संखगुणो" ति संख्येयगुणः । तुः पादपूत्यें । ततो विंशतिकयोर्नाम-गोत्रयोः 'ह्रस्वः' जघन्यः स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः, ततः "तेसिं" ति "दुवयणे बहुवयणं" इति प्राकृतलक्षणात् 'तयोः'-अनन्तरोक्तयोर्नामगोत्रकर्मणोः 'ज्येष्ठः'-उत्कृष्टस्थितिबन्धोऽभ्यधिकः-विशेषाधिक इत्यर्थः । ततस्त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीयाऽन्तरायकर्मणां "लहू" ति जघन्यः स्थितिबन्धोऽभ्यधिक इति पूर्वेणान्वयः । “तेसिं चि" त्ति तेषामनन्तरोक्तानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणामेवोत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः, ततश्च संख्येयगुणः । क इत्याह-"मोहस्स लहू" ति मोहनीयकर्मणो जघन्यस्थितिबन्धः । ततः "तस्सुक्कोसो" त्ति तस्यैव मोहनीयकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषतोऽभ्यधिकः, विशेषाधिक इत्यर्थ इति ॥५२७-५२८-५२९॥
विकियमीसे मीसे जहण्णगो वीसगाण सव्वऽप्पो। तो तीसगाण अहियो तत्तो मोहस्स अब्भहियो॥५३०॥ तो वीसगाण जेट्ठो संखगुणो ताउ तीसगाणऽहियो। मोहस्स उ संखगुणो णवरं मीसे विसेसहियो ॥५३१॥
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४१८ ]
बंधाणे मूलपडिबिंधो [ मार्गणास्वष्टमूलप्रकृतीनां परस्थाने
(प्रे०) "विक्कियमीसे मीसे" इत्यादि, वैक्रियकाययोगमार्गणायां मिश्रदृष्टिमार्गणायां च प्रत्येकं "वोसगाण" त्तिविंशतिकयोर्नामगोत्रकर्मणोर्जघन्य एव जघन्यकः स्थितिबन्धः सर्वा - ल्पः, ततस्त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीयान्तरायकर्मणाम् " अहियो" ति विशेषाधिकः, जघन्यस्थितियन्त्र इत्यनुवर्तते । ततो मोहनीयस्य स्थितिबन्धोऽभ्यधिकः, स च प्रागुक्तस्य " जहण्णगो" इत्यस्याsत्राप्यनुवर्तनाज्जन्य इति गम्यते । ततो विंशतिकयोर्नामगोत्र कर्मणोः ‘ज्येष्ठः’-उत्कृष्टः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । तस्मात् त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीया--- न्तरायकर्मणां प्रत्येकम् 'अधिकः' - विशेषाधिकः "जेडो" इत्यस्यानुवृत्तेरुत्कृष्टस्थितिबन्ध इत्यवसीयते । एवमुत्तरत्रापि तदनुवृत्तेः "मोहस्स उ संखगुणो" ति मोहनीयस्य 'ज्येष्ठः ' -उत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । इदमेव चरमपदमाश्रित्य मिश्रदृष्टिमार्गणायां याऽतिप्रसक्तिस्तामपसिपारयिषुराह"णवरं मोसे विसेसहियो" ति 'नवरं" - परमयं चरमपदोक्तो मोहनीयस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धो मिश्र दृष्टिमार्गणायां तु विशेषाधिक एव मन्तव्यः, न पुन: संख्येयगुणः, वैक्रियमिश्रमार्गणायां मिथ्यात्वस्य बन्धेऽपि मिश्रदृष्टिमार्गणायां तद्वत्वाभावादिति भाव इति ।। ५३० ५३१ ॥
आहारदुगे देसे तह परिहारम्मि आउगस्स लहू | सव्वत्थोवो तत्तो उकोसो होइ संखगुणो ॥ ५३२॥ तो वीतगाण हस्सो संखगुणो ताउ तीसगाण भवे । अमहियो ताहिन्तो मोहस्स भवे विसेसहियो ॥५३३॥ तो वीस गाण जेहो संखगुणा ताउ तीसगाण भवे । अमहियो तो यो मोहस्स विसेसओ अहियो ॥ ५३४ ||
(प्रे०) “आहारदुगे देखें" इत्यादि, आहारका ऽऽहारक मिश्रकाययोगमार्गणयोर्द्वि है, देशसंयमे, परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायां चायुष्कस्य 'लघुः' - जवन्यः स्थितिबन्धः सर्वलोकः । ततः “उक्कोसो” त्ति “आउगस्स" इत्यस्यानुवर्तनादायुन उत्कृष्टः स्थितिबन्धः संख्ये गुणो भवति । ततो विंशतिकयोर्नामगोत्रकर्मणोः 'ह्रस्व:'- जघन्यः स्थितियन्त्रः संख्येयगुणः । तस्मात् त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया - ऽन्तरायाणां प्रत्येकं "हस्सो" इत्यस्यानुवृत्तेः 'ह्रस्वः'- जघन्यस्थितिबन्धः 'अभ्यधिकः'- विशेषाधिको भवेदित्यर्थः । " ताहिन्तो" ति तस्मात् "मोहस्स भवे विसेसहियो' ति 'ह्रस्वे' तिपदस्यात्रापि योजनान्मोहनीयस्य जघन्यः स्थितिको भवेदित्यर्थः । ततो विंशतिकयोर्नामगोत्रकर्मणोः 'ज्येष्ठ: - उत्कृष्टः स्थितिबन्धः संख्ये वगुणः । तस्मात् त्रिंशत्कानामभ्यविको भवेत्, ततो मोहनीयस्य विशेषतोऽभ्यधिको ज्ञातव्यः । अत्रापि चिरमपदे चरमपदे च ज्येष्ठशब्दानुवृच्या ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धो बोद्धव्य इति ॥ ५३२-५३४।।
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जघन्योत्कृष्ठस्थितिबन्धाल्पबहुः । द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ४१९ कम्मा-ऽणाहारसु जहण्णगो वीसगाण सव्वप्पो। तो तीसगाण अहियो तत्तो मोहस्स संखगुणो॥५३५॥ तो वीसगाण जेट्टो संखेज्जगुणो तओ विसेसहियो। हवइ खलु तीसगाणं तत्तो मोहस्स संखगुणो ॥५३६॥
(प्रे०) “कम्माणाहारेसु" इत्यादि, कार्मणकाययोगमार्गणायामनाहारकमार्गणायां च विंशतिकयो मगोत्रयोर्जघन्यकः स्थितिबन्धः सर्वाल्पः । ततस्त्रिंशत्कानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां प्रत्येकमधिकः-विशेषाधिकः, जघन्यस्थितिबन्ध इत्यावर्तते । ततो मोहनीयस्य संख्येयगुणः, जघन्यस्थितिबन्ध इति प्राग्वदत्रापि युज्यते । ततो विंशतिकयो मगोत्रकर्मणोः 'ज्येष्ठः'-उत्कृष्टः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । कुतः ? इति चेद् , ज्ञानावरणादीनां जघन्यस्थितिबन्धस्यैकेन्द्रियस्वामिकतया पल्योपमासंख्यभागन्यूनसागरोपमत्रिसप्तभागादिप्रमाणत्वाद् , तेषामेवोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य तु संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्वामिकतयाऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणत्वाच्च भवति संख्येयगुणत्वम् । ततो विशेगाधिको भवति, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते । कस्येत्याह"खल तीसगाणं" ति त्रिंशत्कानां ज्ञानावरणादीनां चतुणां प्रत्येकम् । खलुशब्दः पादपूरणे । ततो मोहनीयकर्मणः संख्येयगुणः, उत्कृष्टस्थितिबन्ध इति पूर्ववदनुवृत्त्या बोद्भव्यमिति ॥५३५-५३६॥
गयवेए सव्व ऽप्पो मोहस्स लहू तओ तिघाईणं । तो वीसगाण कमसो संखेज्जगुणो मुणेयब्वो ॥५३७॥ तो तइयस्सऽभहियो तो जेट्टो तेण चिअ कमेण कमा। संखगुणो संखगुणों असंखियगुणो विसेसहियो ॥५३८॥
(प्रे०) "गयवेए सव्वाप्पो" इत्यादि, अपगतवेदमार्गणायां सर्वाल्पः । कः ? इत्याह"मोहस्स लहू"त्ति मोहनीयकर्मणो जघन्यस्थितिबन्धः । “तओ तिघाईणं"ति'लहू' इति पदानुवचा ततस्त्रयाणां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानांघातिकमगां'लघुः-जघन्यःस्थितिबन्धः, ततो विंशतिकयो मगोत्रकर्मणोर्जघन्यस्थितिबन्धः क्रमशः संख्येयगुणो ज्ञातव्यः । ततस्तृतीयस्य वेदनीयकर्मणोऽभ्यधिकः; जघन्यस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते । “तो जेहो" त्ति तत एतेषामेव ज्ञानावरणादिकर्मणां'ज्येष्ठः'-उत्कृष्टः स्थितिबन्धः । केन क्रमेण कियाँश्चेत्याह-"तेण चिअ कमेणे" त्यादि, तेनानन्तरोक्तंन क्रमेणादो मोहनीयकर्मणस्ततस्त्रिघातिनां ततो विंशतिकयोस्ततस्तृतीयस्य वेदनीयस्य क्रमात्संख्येयगुणः संख्येयगुणोऽसंख्येयगुणो विशेषाधिकश्च । अयम्भाव:वेदनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिक उक्तस्ततो मोहनीयस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततः शेषाणां त्रयाणां घातिनां प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततो नामगोत्रयोः प्रत्येक
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४२० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वष्टमूलप्रकृतीनां परस्थाने
मसंख्येयगुणः, ततो वेदनीयकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिक इति ।। ५३७-५३८ ।। चरणाण - संयमेसु समइअ - छे - ओहि सम्म खइए । मोहस्स लहू थोवो तओ तिघाईण संखगुणो ॥५३९॥ तो वीरगाण यो संखगुणो तो विसेसओहियो । तइअस्स हवइ तत्तो आउस्स हवेज्ज संखगुणो ॥ ५४० ॥ आउस असंखगुणो कोसो ताउ वीसगाण भवे । संखगुणो तो कमसो चउण्ह मोहस्स चन्भहियो ॥५४१ ॥ णवरं आउस्स लहू असंखियगुणो तओ भवे जेट्टो | संखगुणो मणपज्जव - संयम- सामइअ- छेएस ॥ ५४२॥
(प्रे०) “चउणाण संयमेसु" इत्यादि, मत्यादिचतुर्ज्ञानमार्गणासु, संयमौघमार्गणावां, तथा सामायिक छेदोपस्थापनसंयमाऽवधिदर्शन- सम्यक्त्वौघ क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणासु प्रत्येकं मोहनीयस्य 'लघु' - जघन्यः स्थितिबन्धः स्तोकः । इतः प्रभृति जघन्यस्थितिबन्धाभिधायकस्य "लहू" इत्यस्योत्तरत्राप्यनुवृत्तेः “तत्तो तिघाईणं" ति ततस्त्रयाणां घातिकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । ततो विंशतिकयोर्नामगोत्रयोर्जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणो ज्ञातव्यः । ततो विशेपाधिकस्तृतीयस्य जघन्य स्थितिबन्धो भवति । तत आयुषो जघन्यस्थितिबन्धः संख्ये गुणो भवेत् । "आउस्स असंखगुणो उक्कोसो" त्ति तस्मादायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धोऽसंख्यगुणः । इतस्तूत्कृष्टस्थितिबन्धाभिधायकस्य “उक्कोसो" इति शब्दस्यानुवृत्तेः "वीसगाण भवे संखगुणो” ति विंशतिकयोर्नामगोत्रयोरुत्कृष्ट स्थितिबन्धः संख्येयगुणः, “तो कमसो चउण्ह मोहस्स कभहियो” त्ति ततः क्रमश चतुर्णां ज्ञानावरणादीनां मोहनीयस्य च प्रत्येकमभ्यधिक उत्कृष्टस्थितिबन्धः ।
अयम्भावः-- नामगोत्रयोरुत्कृष्ट स्थितिबन्धापेक्षया ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां प्रत्येकमुत्कृष्ट स्थितिबन्धो विशेषाधिकः । ज्ञानावरणादीनां चतुर्णामुत्कृष्ट स्थितिबन्धः परस्परं तु तुल्यः । ज्ञानावरणादीनामेकैकस्योत्कृष्टस्थितिबन्धापेक्षया मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिक इति । अनन्तरोक्तैकदेशमपवदन्नाह - "णवरं" इत्यादि नवरं परमयमत्र विशेषः, कोऽसावित्याह"आउस्स लहू" इत्यादि, यत्र स्थाने आयुपोजघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुण इत्युक्तस्तत्रैवाऽसौ तथाऽनुक्त्वाऽसंख्यगुण इति वक्तव्यः, तदपेक्षया च "जेडो" त्ति आयुषो 'ज्येष्ठ' :-उत्कृष्टस्थितिबन्ध: संख्येयगुण इति द्रष्टव्यम्, न पुनः शेषस्थानेषु, अर्थाच्छेषेषु मोहनीयादीनां जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धरूपेषु स्थानेषु तत्तज्जघन्यादिस्थितिबन्धो यथोक्तः स्तोकादिक एव द्रष्टव्य इति ।
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जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धाल्पबहु० ]
द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ४२१
किमेतदपवादपदमुक्तमतिज्ञानादिसर्व मार्गणासु बोद्धव्यमुत कासुचिदेवेत्याह- "मणपज्जवे" इत्यादि, मनः पर्यवज्ञान-संयमौघ- सामायिक संयम-छेदोपस्थापन संयममार्गणासु न पुनस्तदन्यमार्गणासु, अन्यमार्गणासु देवानामायुषो जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वेन वर्षपृथक्त्वस्थितिकस्य मनुष्यायुपो बन्धसम्भवात् तदपेक्षया साधित्रयत्रिंशत्सागरोपमप्रमाणस्यायुष उत्कृष्ट स्थितिबन्धस्यासंख्येयगुणत्वाच्च । मनः पर्यवज्ञानादि मार्गणासु त्वायुष उत्कृष्ट स्थितिबन्धस्वामिनामिव जघन्यस्थितिबन्धस्वामिनां मनुष्याणां जघन्यतोऽपि पल्योपमपृथक्त्वस्थितिकदेवायुप एव बन्धभावात् तद्पेक्षया साधित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकस्यायुष उत्कृष्ट स्थितिबन्धस्य संख्येयगुणत्वाच्च विशेपतो वक्तव्यम् । तद्यथा - मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः सर्वस्तोकः । ततः शेषत्रिघातिनामस संख्येयगुणः । ततो नामगोत्रयोर्जघन्यः संख्येयगुणः । ततो वेदनीयस्य जघन्यो विशेषाधिकः । तत आयुषो जघन्योऽसंख्येयगुणः । ततस्तस्यैवायुप उत्कृष्ट : संख्येयगुणः । ततो नामगोत्रयोरत्क्रुष्टः संख्येयगुणः । ततो ज्ञानावरण- दर्शनावरण- वेदनीया -ऽन्तरायाणां चतुर्णां विशेषाधिकः । ततो मोहनीयस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धो विशेषाधिक इति ।।५३९-५४०-५४१-५४२॥
1
सुमम्मि तिघाणं हस्सोऽप्पो ताउ णामगोआणं । संखेज्जगुणो तत्तो त अस्स विसेसओ अहियो ॥ ५४३ ॥ तो तीसगाण जेहो संखगुणो ताउ णामगोआणं । संखेज्जगुणो तत्तो त अस्स भवे विसेसहिओ ॥ ५४४ ॥
(प्रे०) "सुहमम्मि” इत्यादि, सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां मोहनीयस्याबन्धात् तच्छेपाणां ज्ञानावरणादीनां त्रयाणां घातिकर्मणां "हस्सोप्पो" ति 'ह्रस्वः' - जघन्यः स्थितिबन्धः 'अल्पः 'स्तोकः । तस्मान्नामगोत्रयोः संख्येयगुणः । ततस्तृतीयस्य वेदनीयकर्मणो विशेषतोऽधिकः । उभयत्राऽपि "हस्सो" इत्यस्यानुवृत्तेर्जघन्य स्थितिबन्ध इति ज्ञातव्यम् । ततस्त्रिंशत्कानां ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायलक्षणानां त्रयाणां 'ज्येष्ठः ' - उत्कृष्ट स्थितिबन्धः संख्येयगुणः, ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्ट स्थितिबन्ध: संख्येयगुणः । ततस्तृतीयस्य वेदनीयकर्मण उत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिको भवेदित्यर्थः । अत्रापि पदद्वये पूर्ववद् "जेट्ठो” इतिपदानुवृच्योत्कृष्टस्थितिबन्ध इति बोद्धव्यमिति ।
I
ओहिव्व उ सुइलाए णवरं मोहस्स होइ उक्कोसी । संखगुणो अहुवसमे मोहस्स लड्डू भवे थोवो || ५४५ ॥ तो तीसगाण यो संखगुणो ताउ णामगोआणं । संखेज्जगुणां तत्तो त अस्स विसेसओ महिओ ॥ ५४६ ॥
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४२२]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वष्टमूलप्रकृतीनां परस्थाने ताउ असंखेज्जगुणो उक्कोसो होइ णामगोआणं ।
तो तीसगाण तत्तो मोहस्स कमा विसेसहियो ॥५४७॥ (प्रे०) "ओहिव्वे" इत्यादि,अवधिज्ञानमार्गणावदवधिदर्शनमार्गणावद्वा, अल्पबहुत्वमितिशेषः । तुः पादपूरणे । तद्वत्कस्यामित्याह-"सुइलाए" ति शुक्ललेश्यामार्गणायाम् । किं सर्वथा तद्वदुत किञ्चिदन्यथाऽप्यस्तीत्याह-"णवरं मोहस्स" इत्यादि। अयम्भाव:-सामान्यतः सर्वथा तथैव, परं मोहनीयस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धोऽवधिज्ञानमार्गणायां विशेषाधिक उक्तः, सोऽत्र शुक्ललेश्यामार्गणायां संख्येयगुणो भवति । कुतः ? सप्तप्रकृतिसत्कोत्कृष्टस्थितिबन्धकशकलेश्याकजीवानां मिथ्यात्वस्य बन्धसद्भावात् । अतस्तथैव द्रष्टव्यः । तद्यथा-मोहनीयस्य जघन्यः स्थितिबन्धः सर्वस्तोकः । ततः शेषत्रिघातिनामसौ संख्येयगुणः । ततो नामगोत्रयोरसौ जघन्यः संख्येयगणः । ततो वेदनीयस्य तु स विशेषाधिकः । तत आयुषो जघन्यः संख्येयगुणः । ततस्तु तस्यैवोत्कृष्टोऽसंख्येयगणः । ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टः संख्येयगणः । ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां चतुर्णा विशेषाधिकः । ततस्तु मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्येयगुण इति ।
"अहुवसमें' त्ति अथशब्दस्यानन्तर्यार्थकत्वेन शुक्ललेश्यामार्गणाऽनन्तरमौपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायाम् । तत्र किमित्याह-"मोहस्स लहू" इत्यादि, मोहनीयकर्मणो 'लघुः'-जघन्यः स्थितिबन्धः "भवे थोवो" ति स्तोको भवेत्, वक्ष्यमाणस्थानापेक्षयेति गम्यत एव । ततः "तीसगाण" त्ति वेदनीयस्योत्तरत्र वक्ष्यमाणत्वावदनीयवर्जानां 'त्रिशत्कानां'-ज्ञानावरणादीनां त्रयाणाम् "णेयो संखगुणो" त्ति संख्येयगणो ज्ञातव्यः, जघन्यस्थितिबन्ध इत्यनुवृत्त्या बोद्धव्यम् । तस्मात् नामगोत्रयोः संख्येयगणो जघन्यस्थितिबन्ध इति पूर्ववत् । ततस्तृतीयस्य वेदनीयकर्मणो विशेषतोऽभ्यधिकः । अत्रापि जघन्यस्थितिबन्ध इति पूर्ववदनवत्तेष्टव्यम् । ततोऽसंख्येयगुण उत्कृष्टस्थितिबन्धो भवति । कस्येत्याह-“णामगोआणं"ति नामगोत्रकर्मणोः "तो तोसगाण' त्ति ततस्त्रिशत्कानां चतुणां ज्ञानावरणादीनाम्, उत्कृष्टस्थितिबन्ध इति प्राग्वत । "तत्तो मोहस्स" ति ततो मोहनीयकर्मणः, उत्कृष्टस्थितिबन्ध इति पूर्ववत् । कियानित्याह-“कमा विसेसहियो" ति उक्तक्रमेण यथोत्तरं विशेषाधिक इत्यर्थ इति ॥५४५-५४६-५४७॥
वेअग-सासाणेसु आउस्स भवे जहण्णगो थोवो । ताहिन्तो उक्कोसो असंखियगुणो मुणेयब्बो ॥५४८॥ तत्तो संखेज्जगुणो जहण्णगो होइ णामगोआणं । तो तीसगाण तत्तो मोहस्स कमा विसेसऽहियो ॥५४९॥ तत्तो संखेज्जगुणो उक्कोसों होइ णामगोआणं । तो तीसगाण तत्तो मोहस्स कमा विसेसऽहियो ॥५५०॥
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जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धाल्पबहु० ] द्वितीयाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम
[ ४२३ . (प्रे०) "वेअगसासाणेसु" इत्यादि, वेदकसम्यक्त्व-सासादनसम्यक्त्वमार्गणयोः प्रत्येकमायुषो जघन्य एव जघन्यकः स्थितिबन्धः स्तोकः । तस्माद् “उक्कोसो" त्ति 'आउस्से त्यस्यानुवृत्तेरायुष उत्कृष्टस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणो ज्ञातव्यः । ततः संख्येयगुणो जघन्य एव जघन्यकः स च स्थितिबन्ध इति गम्यते । कस्य कस्येत्याह-'णामगोआणं" ति नामगोत्रकर्मणोः । ततस्त्रिंशत्कानां चतुर्णा ज्ञानावरणादीनां रातो मोहनीयकर्मणः क्रमाद् विशेषाधिकः; जघन्यस्थितिबन्ध इत्यनुवर्तते । ततः संख्येयगुण उत्कृष्टः स्थितिवन्धो भवति नामगोत्रकर्मणोः । ततस्त्रि शत्कानां चतुर्णा ज्ञानावरणादीनां ततो मोहनीयकर्मणः क्रमाद् विशेषाधिकः, उत्कृष्टस्थितिबन्ध इत्यनवर्तत इति ॥५४८-५४९-५५०।।।
पंचिदियतिरियब उ होइ असण्णिम्मि णवरि ठिइबंधो।
हवइ असंखेज्जगुणो जहण्णगो णामगोआणं ॥५५१॥
(प्रे०) “पंचिंदियतिरियव्वे' त्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः, नवरमसंज्ञिमार्गणायामिस्थमल्पबहुत्वम्-आयुषो जघन्यस्थितिबन्धः स्तोकः । तत आयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धोऽसंख्यगुणः । ततो नामगोत्रयोर्जघन्योऽसंख्येयगुणः । ततश्चतुर्णा ज्ञानावरणादीनां जघन्यो विशेषाधिकः । ततो मोहनीयस्य जघन्यः संख्येयगुणः । ततो नामगोत्रयोरुत्कृष्टः संख्येयगुणः । ततश्चतुर्णा ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टो विशेषाधिकः । ततो मोहनीयस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धः संख्येयगुण इति ।।५५१॥
___ तदेवं प्ररूपितं पदयसम्बन्धि तृतीयं परस्थानस्थितिबन्धाल्पबहुत्वमपि । साम्प्रतं मन्दमेधसां लध्धबधारणकृते प्राग्वदत्रापि प्रस्तुतद्वारोक्तर्थसंग्रहपराण्यल्पबहुत्वयन्त्रकाण्यालिखनीयानि । तानि त्वेवम्-* ।
तदेवमालिखितान्यल्पबहुत्वप्रदर्शकयन्त्रकाण्यपि, तेषु चाऽऽलिखितेषु गतं पश्चदशमल्पबहुत्वद्वारम् । तस्मिँश्च गते निष्ठतः पञ्चदशद्वारात्मको द्वितीयाधिकारः ।।
एनमपराधिकारं विवृण्वता यन्मया सुकृतमाप्तम् ।
तेन हि विश्वं विश्वं विश्वग्विश्वसतु जिनवचने । (पथ्यार्या) ।। इति श्री बन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीयाधिकारे पञ्चदशमल्पबहुत्वद्वारं समाप्तम् ।।
॥ इति श्रीबन्धविधान-मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे द्वितीया धिकारः ॥
NARAYARIYAR
ॐ अल्पबहुत्वयन्त्राणि दिद्रुक्षवः पाठकाः पश्यन्तु ४२४ तमादीनि पृष्ठानि ।
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३२४] अष्टमलाकृतीनामुत्कृष्टा ऽनुत्कृष्टस्थित्योर्यन्धकानामल्पबहुत्वप्रदर्शकं यन्त्रकम्
उत्कृष्टस्थितेर्बन्धका पेक्षयाऽनुत्कृष्टस्थिते बंन्धकाः
गति०
इन्द्रिय०
काय०
योग०
ज्ञान०
अनन्तगुणाः
संयम०
तिर्यग्गत्योघ० १
वेद०
कषाय० सर्व०
नपुंसक
आयुर्वर्ज सप्तान्यतमकर्मणः
काययोगध० प्रौदा - आहरक-तमिश्री,
रिद्रिक० कार्मरण०
४
मतिश्रुताऽज्ञाने,
असंयम०
दर्शन
अचक्षु०
लेश्या० अशुभ० भव्य० सर्व 2
१
४ :
२
१
सम्यक्त्व. मिथ्यात्व ०
संज्ञी० प्रसंज्ञी०
आहारी सर्व ०
सर्वमार्गणाः - २३
गाथाङ्काः- ४३७-४३८-४३६
संख्येयगुणाः असंख्यगुणाः अनन्तगुणाः
पर्याप्तमनुष्य-मानुषी० सर्वार्थसिद्धदेवः, शेष०
तिर्यग्गत्गोत्र०
१
३
२
१
१
२
अपगतवेद०
मनः पर्यव०
३
१२
४४०-४४१
२
१
यसंमौघ० सामायिक०
छेद० परिहार०
सूक्ष्म०
१
५
शेष०
सर्व
शष०
शेष०
शेष०
४३
१६
४२
१२
२
देशसंयम० १
४
शेष० २
शुभ०
३
१३५
४४१
शेष० ६
संजी० १
सर्व केन्द्रियभेदाः
वनौघ० सर्वसाधा
रणवनभेदाः
काययोगौघ०
श्रदारिकद्विक०
नपुंसक०
सर्व ०
मतिश्रुताऽज्ञाने
असंयम०
असंज्ञी ०
आहारी०
३६
३३७-३४२ ३४३-३४४
८
आयुः कर्मणः
३
१
४
प्रचक्षु०
अशुभ०
भव्याभव्यो० २
मिथ्यात्व०
१
१
२
१
१
३
१
संख्येयगुणाः असंख्यगुणाः
पर्याप्त मनुष्य
मानुषी० श्रानतादिसर्वार्थसिद्धान्तदेवाश्व० २०
अहारकद्विक०
मनः पर्यव०
१
संयमौघ० सामाकि०छेद० परि
हार
४
शुक्ल :
२
क्षायिकo
१
१
२६
४४५-४४६
शेषo
शेष०
शेष०
शेप०
शेष०
शेष०
२६
१२
स्त्री-पुरुष०
२
३४
हद
११
४
शेष
शेष० २
१
४४६
शेष० ३
संज्ञी० १
२
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
बन्धकाल्पबहुत्व यन्त्रम् ]
द्वितीयाधिकारेऽल्यबहुत्वद्वारम्
[४२५
* अष्टमूलप्रकृतीनां जघन्या-ऽजघन्यस्थित्योर्बन्धकानामल्पबहुत्वप्रदर्शकं यन्त्रकम् *
...---: जघन्यस्थितेर्बन्धकापेक्षयाऽजघन्यस्थितेजन्धका:-- आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनाम्
आयुःकर्मणः कियद्
पोचवद् गुणा:- संख्येयगुणाः
असंख्येयगुणाः
ग्रोघवद
संख्येथगुणाः अनन्तगुणाः
अख्येयगुणाः
शेषमार्गणा:
गति
पर्याप्तमनुष्य० मानुषी० सीर्थसिद्धदेवभेदश्च, ३
पर्याप्तमनुष्य मानुषी०मानतादिसर्वार्थ सिद्धान्तदेवभेदाश्च २०
शेषनार्गणा० २७
४४
इन्द्रिय
सर्व० १६
सर्व०१६
काय
सर्व० ४२
सर्व०
४२
यो०
पाहारक-तन्मिश्रयोगौ, २.
काययोगौघ औदारिकश्च. २
शेषः १४
पाहारक-तन्मिश्रयोगौ, २
शेष०
१४
वेद०
गतवेद०
१
नपुसक० १ - स्त्री-पुरुष० २
वेदत्रिक०
३
कषाय.
क्रोधादि० ४
सर्व०
ज्ञान
मनःपर्यव० १
मत्यादिज्ञान० ३ अज्ञानत्रिक० ३
मनःपर्यव०१
मत्यादिज्ञान० ३ अज्ञान० ३
सामोध०सामायिक०
छेद० परिहार | सूक्ष्ममम्पराय० ५
संयमौघ० देशसंयमा
सामायिक० ऽसंयमी, २ | छेदपरिहार.४
देशसंयम० असंयम०२
संयम
प्रचक्षु० १
चक्षु० अवधि० ०
• सर्व
दशन
लेश्या
सर्व
शुक्ल०
शेष
भव्य
भव्य०१
अभव्य० १
सर्व
म्य
सर्वभेद०
७
।
क्षायिक० १
शेष०
मंज्ञि०
संज्ञिक असंजि०२
सर्व०
ग्राहारक०१
अनाहारक०१
प्रहारक०
आहारिन समवेमागणा:-
१२
१४८
२६
गाथाङ्का:-
४४८-४४६
|
४४७-४५०
४५०
४५१-४५२
४४७-४५२
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२६ ]
अष्टभूलप्रकृतीनां प्रत्येकमुत्कृष्टजघन्य
आयुर्वर्जज्ञानावरणादिसप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकम् स्थिति बन्धकाः
| प्रोघवत् | उत्कृष्ठस्थितेः- | स्थितेःजघन्याया:- स्तोका: -सर्वस्तोकाः । -सर्वस्तोकाः
| -सवस्तोकाः । सर्वस्तोकाः स्तोक.जघन्यायाः उत्कृ०स्ताकाः उत्कृष्टाया:-असंख्यगुणाः
-संख्येयगुणाः । -संख्येयगुणा असंख्यगुणाः अनंतगु० अजघ-जघ० असंख्यगु प्रजघन्यानुत्कृ०- ,, -असख्य" , "" अनन्तगणाः न्यान.असं.गण.| प्रज० "
सर्वनरक० देवौघ ० मनुष्यौघ० सर्वार्थ- पर्याप्तमनुष्य० गति० | भवनपत्यादिसहस्रा
सर्वे पञ्चन्द्रियसिद्धवर्जानुत्तर- मानुषी० सर्वार्थ
तिर्यग्गत्योघ० रान्तदेवभेद.अपर्याप्त
तिर्यग्भेदाः, ४ मनुष्य० २१ । भेदचतुष्क० ५ सिद्धदेवभेदश्च. ३ इन्द्रिय० पञ्चेन्द्रियोघ०तत्प- सर्वेकेन्द्रियभेदाः सर्व
अपर्याप्तपञ्चन्द्रि० | र्याप्तभेदौ, २ विकले , १६ काय सौघ-तत्पर्याप्त- प्रथिव्यादिवनस्पति
अपर्याप्तत्रस०१ २ कायान्तसर्वभेद०३६ सर्वमनोवचो०वक्रिय
पाहारक-तन्मि- काययोगौघ० | औदारिकमिश्र० तन्मिश्रौ, १२
श्रयोगो, २ | ग्रौदारिक०२ | कार्मरण० २ स्त्री-पुरुषवेदौ २
नपुसक० १
भेदौ०
योग०
वेद०
कषाय०
सर्व०
ज्ञान
मति-श्रुता-ऽवधि० विभङ्ग० ४
मनःपर्यवज्ञान०१
मत्यज्ञान-श्रुताऽज्ञाने, २
संयम० | देशसंयम० . १
संयमौघ० सामा० छेद०परिहार ४
असंयम०१
दर्शन
चक्षु० अवधि०२
प्रचक्षु०
लेश्या० शुभ
अशुभ०
३
भव्य
भव्य०
सम्य० मिथ्यात्ववर्ज० ६
अभव्य० १ मिथ्यात्व० १ असंज्ञी, १
संज्ञि०
आहारि० सर्वमार्गणाः
आहारक० १ अनाहारक०१
गाथाङ्काः
|
४५८-४५६
। ४६०-४६१ ४५३-४६३-४६४
४५५-४५६ ।
४५७
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
-तदित स्थितीनां बन्धकाल्पबहुत्वप्रदर्शकयन्त्रकम्
गति०
- आयुर्वर्जानाम्
आयुःकर्मणः स्थिते:
ओघवत् उत्कृष्टाया: स्तोकाः स्तोकाः । स्तोकाः ।
स्तोकाः
| स्तोकाः स्तोकाः जघन्याया: संख्येयगुणाः संख्येयगणा| असंख्यगुणाः अनन्तगुणाः । संख्येयगुणाः | संख्येयगुणाः प्रजघन्यानु असंख्यगुणाः , असंख्यगुणाः असंख्यगुणाः
असंख्यगुणाः सर्वे नरक-पञ्चेन्द्रिप्रानतादिदेवभेद
पर्याप्तमनुष्ययतिर्यग्भेदाः, मनुचतुष्कनवग्रैवेयक
यौघ-तदपर्याप्ती, तिर्यग्गत्योध० मानुषी मानताभेदाश्च० १३ देवीघ-भवनपत्यादि
दिसर्वार्थसिद्धान्तसहस्रारान्ताश्च २६
देवभेदाश्च, २० इन्द्रिय०
सर्वे विकलेन्द्रिय- सर्व एकेन्द्रियभेदाः, पञ्चेन्द्रियभेदाः १२
सर्वे पृथिव्यप्तेजो-सर्वे साधारणभेदाः काय०
वायु-प्रत्येकवनस्पति
वनौषश्च० त्रसकायभेदाः ३४
सर्वमनोवचोभेदाः, | काययोगौघ० योग.
वैक्रिययोगश्च, ११
प्रौदारिकद्विक, ३/प्राहारकद्विक० २
वेद०
गतवेद० १ स्त्री-पुरुषवेदौ, २
नपुसक०
कपार०
सर्व०
मनःपर्यव०१
मति-श्रुता-ऽवधिज्ञान०
| संबन० ज्ञान०
विभङ्गज्ञानम्, १ मत्यज्ञान-श्रुताऽ
ज्ञाने, सुक्ष्मसंपराय:
देशसंयमः, १ असंयमः,
संयमौषक सामा: छेद० परिहार० ४
दर्शन०
चक्षुर्दर्शन० १
अचक्षु०
अवधि०
लेश्या०
तेज:-पद्म०२
अशुभ० ३ | शुक्ल० भग्याऽभव्यौ, २
भव्य०
सास्वादन०१
१ | क्षायिक० १
सम्यक्त्वोघ० क्षायोपशमिक०२
मिथ्यात्व० असंज्ञी,
संज्ञी
संज्ञी,
आहारी
आहारक०
१
सवमागेरणा:
६२
गाथाङ्का:-
४६२
४६५
४५४-४५९
| ४७०-४७१ ।
४७२
.
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२८ ]
अष्टमूलप्रकृतीनां परस्थाने जघन्योत्कृष्टघोघवद्- ___ जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धाः क्रमेण कियद्गुरणाः ?
गति० प्रायु० मोह० विघाति नामगोत्र वेद० *प्रायु० नामगोत्र ज्ञानादि०४, मोहः ।
मनुष्यौघ तत्पर्याप्त ततः ततः ततः ततः ततः ततः ततः ततः । मानुषी० स्तोक० सं०गु० सं०गु० सं०गु० विशे० 'प्रसंगु० सं०गु० विशेषा० सं०गुणः,
, असंगु० , , , , प्रायु० आयु. नामगोत्र. ज्ञानादि०४, मोह० नामगोत्र. ज्ञानावि०४, मोह० निरयोघ0प्रथमनिर०देवोघ•
ततः ततः ततः ततः ततः ततः ततः भवनपतिभ्यन्तर अपर्यास्तोक० सं०गुरु प्रसंगु० विशेषा० सं०गु० सं०गुण० विशेषा० सं०गुणः -तपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्मनुष्यौ,७ __" विशेषा० ,
विशेषा.- ___ अनुत्तरदेवभेदाः ५ संगुण:- | उपर्युक्तशेषनिरयदेव०२८
पञ्चन्द्रियनियंगोष " असं०गु० सं० गु० , सं० गु०
तत्पर्याप्त तिरश्ची०३ विशेषा०
०
स्तोक०
॥
विशेषा
स्तोक० सं०गु० सं०गु० ॥ ० स्तोक० सं०गुण ,
सगुरण:स्तोक० असंगु० सं०गु० , विशेषा० ,,
विशेषा०-- " " असं०गु० सं०गुरण ,
सं०गुणः-- मोहनी० त्रिघाति नामगोत्र वेदनी० आयु प्रायु० नामगोत्र. ज्ञानादि०४, मोहनी० स्तोक० सं०गु० सं०गु० विशेषा०प्रसं0गु० सं०गु० सं०गु० विशेषा० विशेषाo
, , संoगु० असं गु० , , , , अबन्धः अबन्धः असगु०
॥ - , संगु) असं0गु० सं०गु० , सं०गुणः -- मोहनी० त्रिघाति० नामगोत्र वेदनी० मोहनी० त्रिघाति नामगोत्र वेदनीय० स्तोक० सं०गु0 Hoगु0 विशेषा0 सं0गु0 सं0गु) असंगुण विशेषाधिoo स्तोक० , , अवन्धः , सं0गुण) , - आयु० . नामगोत्र0 ज्ञानादि०४, मोहनी० आयु० नामगोत्र0 ज्ञानादि०४, मोहनी
तिर्यग्गत्योधः स्तोक० असं०गु० विशेषा० मं०गु० सं०गु० सं०गु० विशेषा० सं०गुरण:
पायु० नामगोत्र नामगोत्र ज्ञानादि०४, ज्ञानादि०४, मोहनी0 मोहनी
सं0गु० असं०गु० विशेषा० विशेषा० विशेषा० सं०गुण विशेषाo** पूर्वन्यस्ताऽऽयुरादिपदेन तदीयजघन्यस्थितिबन्ध उत्तरन्यस्तेन तु तेन तदीयोत्कृष्टस्थितिबन्धश्च ज्ञेयः ।
आयुक स्तोको सल्गुण
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
arl
|
क्त्व
-स्थितिबन्धपदानामल्पबहुत्वयन्त्रकम्
[ ६२९ इन्द्रिय० | कायo | योग0 वेद० कषाय ज्ञान० संयम० दर्शन लेश्या भव्य सम्यः संज्ञी आहा था पञ्चन्द्रि- मौघo सर्वमनोव
चक्षु. चोभेदाः पुरुष०. सर्व०
संजी०.पाहा. यौघ-तत्प- पयाप्त कायौघ० १ प्ति० २ २ प्रौदा०१२
स्त्रीन
भव्य
अपर्याप्त-पपर्याप्त- प्रौदारिकपञ्चेन्द्रिय त्रस0 | मिश्र0
फ़िय)
तेजपा
क्रियमित्र
मित्र०
★२
कार्मण
अना०
प्रसo
मन:प- संयमोघo र्यव० सामा०
छेद०३
मत्या
दि.३/
अवधि.
प्रोप०
शूज
गत
५२१
सूक्ष्मसं० असंयम अशुभ. प्रभव्य मिथ्या
। १ त्व.१ सर्वकेन्द्रि- शेषसर्वसर्वविक- पञ्चकायलेन्द्रि०१६ भेदाः ३९
५२६ आहारक-तन्मिश्रयोगौ, ★ परिहारदेश-संयमे, अमत्यज्ञान-श्रुताज्ञाने, x वेदक-सास्वादने, सम्यक्त्वोघ-शायिके ।
५२७
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३० ]
: उत्कृष्टस्थिते:
-: जघन्यस्थितेः :
यथोत्तरं कियद्गुणः ?
श्रायु० । नामगोत्र० । ज्ञानादि० ४ । मोहनीय०
1
ततः
ततः
ततः
स्तोeo | असंख्येयगुण० । विशेषाधिक० | संख्येय गुरण ०
विशेषाधिक:
०
श्रोघवत्
स्तोक० संख्येयगुण ०
o
०
०
स्तोक०
37
संख्येयगुण:
मोहनीय० । ज्ञाना०दर्शना०श्रन्तरा०। नामगोत्र० | वेदनी० संख्येयगुण ० | असंख्यगु० । विशेषा०)
स्तोक० ।
स्तोक० संख्येयगुण ० श्रायु० । नामगोत्र० । ज्ञानादि०४ । मोहनीय०
ततः
ततः
ततः
स्तोकo | असंख्येयग्० । विशेषाधिक० । विशेषाधिक०
स्तोक०
"
"
संख्येयगुण० स्तोक ०
11
"
संख्येयगुण ०
"
""
० स्तोक ०
31
प्रोधवद् स्तोक० संख्यगुण ०
23
"
"1
73
असंख्येयगुण ०
मोहनीय० । शेष त्रिघाति०। नामगो० । वेदनी० । श्रायु०
ततः
ततः
ततः
ततः
स्तोक०
| संख्येयगुण० | संख्येयगु० । विशेषा० । प्रसंगु०
21
11
"
31
19
35
"
"
,"
संख्येयगुण:
विशेषाधिक:
39
17
अष्टमूलप्रकृतीनां परस्थाने जघन्यपदे उत्कृष्टपदे च -
गति०
इन्द्रिय०
सर्व नरक० देवौघ० भवन - सर्वकेन्द्रिय० सर्वविकले पृथिव्यादिवनपत्यादिनवमग्रैवेयकान्त | अपर्याप्त- स्पत्यन्तसर्व० देव० अपर्याप्तमनुष्य० प्रप पञ्चेन्द्रिय० अपर्याप्तत्रस० र्याप्तपचेन्द्रिय तिर्यग्-३५
४०
अनुत्तरदेवपञ्चक० ५
""
संख्येयगुण:विशेषाधिक:
12
-:
-:
संख्येयगुणः
प्रा. मोहनीय० शेषत्रिघाति० नाम० वेदनी० मनुष्यौघ तत्पर्याप्त०
संख्यगुण० संख्यगु० विशेषा० मानुषी०
३
असंख्यगुण०
अपर्याप्तवर्जतिर्यग्गतिभेद पञ्च ेन्द्रियौध० ४। मनुष्यौष ० तत्पर्यात ० तत्पर्याप्त० २ |मानुषी०=
७
६ द्वितीयादिन रकभेद ० २७ज्योतिष्कादिदेवभेद०
निरयौष ० प्रथमा च, सर्व सर्वे केन्द्रिय सर्वे प्रथिव्यादिवन संख्येयगुण:- तिर्यग ० अपर्याप्तमनुष्य ० विकले० प्रपर्याप्त स्पत्यन्तसर्व० देवौघ०भवन. व्यन्तर. ११ पञ्चेन्द्रिय० १७ त्रसापर्या०४०
13
३३
१७
काय०
सौघ० तत्पर्याप्तo २
पञ्चेन्द्रियोघo सौeo तत्पर्याप्त० २ तत्पर्याप्त०२
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थितिबन्धप्रमाणाऽल्पबहुत्वयन्त्रकम् __ योग०वेद० कषाय| ज्ञान० संयम० दर्शन लेश्या भव्य
[ ४३१ संज्ञी आहा०मार्गणा :
४८३
प्रौदारिवभिश्र० बैंक्रिया २
४८४
४८५
मन्यांदि- संय.सामा.छेद अवधि ज्ञान०४ परि.देश. ५ १
१६
बगहारका तन्मिश्र0 २ क्रियमिश्र.काम.
४८६ ४८७
अना० ३
४८८
४८६
प्रोप.मिश्र.
पर्वमनोवचोभेदाः कायौघo प्रौदा- | वेदरिक० १२ त्रिक०
अज्ञान
चक्षु०
४८२
| असंयम
विक०
सर्व / सर्व
मिथ्या- संजी. पाहा० स्व०१
। ४७
४९२
प्रवेद
४९१
सूक्ष्मसम्प०
तज:
वैक्रिय०१
पद्म०
क्षायोपश०/ सासाद०२
४६५ ४६६
वैक्रियमिश्र०१
मिश्र०१
४९९
कार्मण०१
५००
आहा तन्मिश्र०
परिहार.देश
५०१
प्रौदारिकमिश्र०
अज्ञान
प्रसंयम० १ त्रिक०३
अशुभा प्रभ० मिथ्यात्व. अस
५१०
५०७
मनःपर्यव. संयममोघo
सामा०छेद०३
५०८
अवेद०
औपश०
५०४।
मत्यादि.३
*
अव०१/गुल,
५०५
२
५०९
भव्य.१
४९३
सूक्ष्मसम्प० सर्वमनोवचो.काय
चक्षु० योग० प्रौदा०१२
प्रच०२ स्त्री.न.
२ A सम्यक्त्वोध-क्षायिक-क्षायोपशमिक-सास्वादनानि:४|*सम्यक्त्वौष-क्षायिकसम्यक्त्वे २।
४६७
५०२
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३२
बन्धविहाणे मूलपडिठिइबंधो
[बन्धाल्पबहुत्वयन्त्रम
* अष्टमूलप्रकृतीनां प्रत्येकं जघन्योत्कृष्टस्थितिवन्धयोरल्पबहत्वदर्शकं यन्त्रकम् * प्रायुर्वर्जसप्तानां प्रत्येकं जघन्यस्थितिबन्धाऽपेक्षया । प्रायुषो जघन्यस्थितिबन्धाऽपेक्षया उत्कृष्ठस्थितिबन्धः
उत्कृस्थतिबन्धः
प्रोघवद्
- विशेषाधिकः
गति०
काय० इन्द्रिय
रगाः | असंख्यगुणः
मंख्येयगुणः | मंख्ये यगुणः । असंख्य प्रगुणा: मनुष्योध० तत्प
सर्वनरक तिर्यग-| सर्वनरक-देवभेद० तिर्यगोघ-पञ्चे द्रयतिर्य
अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय- | गोध-तत्पर्याप्त तिरश्ची. र्याप्त मानुषी
देव अपर्याप्त
तिर्यग अपर्याप्त- मनुष्यौघ० तत्पर्याप्त० मनुष्यश्च, ४४ मनुष्य
| मानुषीच, पञ्चन्द्रियौघ०
सवकान्द्रय० सर्वेकेन्द्रिय० अपर्याप्तपञ्चे
पञ्चन्द्रियौघ तत्पर्याप्त०२
सर्वविकलेन्द्रिय सर्वविकले०१६ न्द्रिय० १
अपर्याप्तपत्रे १७
तत्पर्याप्त पृथिव्यादिवनस्प
पृथिव्यादिवनत्रसौषक तत्प
त्रसौष तिकायान्ताः अपर्याप्तत्रस०१/ स्पतिकायान्तसर्व० र्याप्त० २
तत्पर्याप्त सर्वभेद० ३६
अपर्याप्तत्रसश्च ४० सर्वमनोवचोभेद
औदारिकमिश्र पाहारक-तन्मिश्र० वैकि तन्मिश्र०
प्रौदारिकमिश्रा कायौध औदा
सर्वमनोवचोभेद० कायग्राहा० तन्मिश्री
योगौघ० औदारिकश्च १२ रिकयोग० १२
| वैक्रिय०४
कार्मण०६ वेद० वेदत्रिक० ३ | अवेद०
वेदत्रिक० ३ कषाय० क्रोधादि० ४
क्रोधादि०४ मत्यज्ञा०श्रुताज्ञा०
मतिश्रुताऽवधिज्ञानानि मत्यादिज्ञान०४
मनःपर्यव०१ विभङ्ग ३
अज्ञानत्रिकं च, ६ संयमौघ०
परिहार०सुक्ष्म सयमोघल्सामा
असंयम देश- छद० परिहार असंयम० सामा० छेद ३
संयमश्च० ४
Ho देशसंयम० ५ दर्शन० चक्षुरादित्रय
चक्षुरादित्रय० ३ कृष्णादि० ५
| शुक्ला
सर्व.......... ६ भव्य भव्य०१
अभव्य०१
सर्व
२ सम्यक्त्वौघ०
क्षायोप०मिश्र
सम्यक्त्वौघ० क्षायिक० रक्षायिौपशमि
सास्वाद
क्षायोपशपिक० सासादनः मिथ्यात्व०४
मिथ्यात्व० संज्ञी संज्ञी० १
असंज्ञी०१
सर्व आहार० आहारी०१
अनाहारी०१
आहारी० ..... १
संपमक ज्ञान
सर्वमागेणा:-
४३ ।।
४ ७६-८०-८१
४८१
गाथाङ्कः-४७५-४७६ ४७७
४७८ * घातिनां संख्येयगुणः, अघातित्रयस्याऽसंख्येयगुणः ।
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ यस्काधका ॥ एतर्हि क्रमप्राप्तस्य "भूगारा" इत्यनेन प्रस्तुतस्थितिवन्धग्रन्थप्रारम्भ उद्दिष्टस्य तृतीयस्य भूयस्काराधिकारस्यावसरः । अत्र ह्यधिकारे मूलप्रकृतीनां भूयस्कारस्तदुपलक्षणादल्पतरः, अवस्थितः, अवक्तव्य इत्येवं चतुःप्रकाराः स्थितिबन्धविशेषाः सत्पदस्वामित्वादिद्वारेषु प्राग्वच्चिन्तनीयाः, अतो ऽधिकारप्रारम्भ आहौ तावत्प्राक् ‘तेसु पढमाइसु अहिगारेसु' इत्यादितृतीयगाथायां संख्यामात्रेण कीर्तितानां त्रयोदशद्वाराणां नामधेयान्याविष्कुर्वन्नाह गाथायुग्मम्
तइए भुओगारे अहिगारम्मि हविरे दुआराइं। तेरस संतपयं तह सामी कालंतराइं च ॥५५२॥ भंगविचयो य भागो परिमाणं खेत्तफोसणाउ तहा।
कालो अंतरभावा अप्पाबहुगं जहाकमसो ॥५५३॥
(प्रे०) "तइए भुओगारे” इत्यादि, मूलप्रकृतिस्थितिबन्धमधिकृत्योद्दिष्टषडधिकारान्तगते तृतीये भूयस्काराभिधेऽधिकारे त्रयोदश द्वाराणि यथाक्रमशः भवन्तीति क्रियायोगः । तत्र द्वारनामानि तु "संतपय"मित्यादिनाऽभिहितानि । तद्यथा-(१) आद्यं सत्पदद्वारम् ,(२) तदनु द्वितीयं स्वामित्वद्वारम् , (३) ततस्तृतीयं कालद्वारम् , (४) ततोऽन्तरद्वारम् , (५) तत्पश्चाद् भङ्गविचयद्वारम् , (६) ततो भागद्वारम् , (७) ततः परिमाणद्वारम् , (८) ततः क्षेत्रद्वारम् , (९) ततः स्पर्शनाद्वारम् , (१०) ततस्तु कालद्वारम् , (११) ततोऽन्तरद्वारम् , (१२) ततो भावद्वारम् , (१३) ततस्त्रयोदशमल्पबहुत्वद्वारम् । अत्राऽपि गताधिकारवद्भङ्गविचयादीनि पञ्चमादीनि द्वाराणि नानाजीवानाश्रित्य प्ररूपयिष्यन्त इति विज्ञेयम् । सत्पदवर्जशेषद्वारव्याख्यानमपि पूर्ववदेव द्रष्टव्यम् । सत्पदद्वारस्य त्वेवम्-सन्ति-विद्यमानानि पदानि भूयस्कारादिस्थितिबन्धलक्षणानीति सत्पदानि, तानि यत्र द्वारे चिन्त्यन्ते तत् सत्पदद्वारम् । ओघतः सर्वजीवराशौ, विशेषतो मार्गणास्थानेषु च मूलाष्टकर्मणां भूयस्कारादिचतुर्विधस्थितिबन्धेभ्यः कियन्ति पदानि सद्भूतानीत्यस्य प्ररूपणमिति भाव इति ॥५५२-५५३॥
॥प्रथमं सत्पदद्वारम् ॥ तदेवमुक्तानि सक्रमं पारिप्सिताधिकारगतानां द्वाराणां नामानि । साम्प्रतमुद्दिष्टक्रमेणैव तेषु भूयस्कारादिस्थितिबन्धं चिचिन्तयिषुरादौ तावत् प्रथमे सत्पदद्वार ओघतः सत्पदानि दर्शयन्नाह
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३४ ]
मूल डिठबंधो
सत्तण्ह भूअगारो अप्पयरोऽवट्टियो अवत्तव्वो । बन्धो उहाऽऽउस दुविहो ऽप्पयरो अवत्तव्वो ॥५५४ ॥
[ ओघतो भूयस्कारादिसत्पद०
(प्रे०) "सत्तण्ह भूअगारो" इत्यादि, तत्र "सत्तण्ह" त्ति आयुर्वर्जानां ज्ञानावरणदर्शनावरण- वेदनीय- मोहनीय-नाम- गोत्रा - ऽन्तरायलक्षणानां सप्तानां मूलप्रकृतीनामित्यर्थः । अस्य चान्वयः 'बन्धो च : ह " इति परेण, ततस्तासां सप्तानां प्रकारान्तरेण चिन्त्यमानो "बंधो" त्ति प्रकृतत्वात् स्थितिबन्धः 'चउह' " ति चतुर्वा, अस्तीति शेषः । चातुर्विध्यमेव दर्शयन्नाह"भूअगारो" इत्यादि, वक्ष्यमाणस्वरूपो भूयस्कारवन्धोऽल्पतरबन्धोऽवस्थितबन्धोऽवक्तव्यवन्धश्चेत्यर्थः । अथ शेषस्यायुःकर्मण आह- “उस्स उ दुविहो" इत्यादि, पूर्वमाकारस्य दर्शनादायुषस्तु 'द्विविधो' अल्पतरोऽवक्तव्यश्च स्थितिबन्धोऽस्तीति ॥ ५५४ ||
ननु किमेतेषां स्वरूपमित्याशङ्कायां तेषां स्वरूपं दर्शयन्नाह - पूव्वसमयाउ समये अणंतरे बंधए पहुत्तरं । बंधो स भूअगारोऽप्यरं बंधइ स अप्पयरो ||५५६॥ तावइयं चिअ बंधड़ सो णायव्वो अवडिओ बंधो । होउं अवधगो उण बंधड़ से हवइ अवत्तव्वो ॥५५७॥
(प्रे०) "पूच्वसमयाउ" इत्यादि, पूर्वसमये स्तोकस्थितिं बध्नन् कचिज्जीवः पूर्वसमयादनन्तरे समये यदा " पत्तयरं" त्ति 'प्रभूततराम्' समयादिनाऽधिकां स्थितिं बध्नीयात् तदा तबन्धः प्रकृते भूयस्कारनामा "बंध" त्ति स्थितिबन्धो भवतीति परेणान्वयः । एवमुत्तरत्रापि बोद्धव्यम् । अल्पतरबन्धस्वरूपमाह - "प्पयरं बंबई" इत्यादि, अत्र लुप्ताऽकारस्य दर्शनात् "पून्द समयाउ समये अणन्तरे" इत्यस्यानुवर्तनाच्च पूर्वसमये प्रभूतस्थितिं नत्थ ज्जीव: पूर्व समयादनन्तरे समये यदा "ऽप्यरां बंधइ" ति अल्पतरां समयसिमादिवाहनां स्थितिं नाति तदा तस्य सोऽल्पतरनामा स्थितिबन्यो भवतीत्यर्थः । अवस्थितन्वस्वरूपाद"तावइयां चिअ बंधइ" इत्यादि, पूर्व । पूर्वसमये स्तोकस्थितिं प्रभूतस्थितिं वा बध्नन् : कचिज्जीव: पूर्वसमयादनन्तरे समये "तावइयां चिअ" त्ति 'तावतीमेव' - पूर्व समयबद्धस्थित्या तुल्यामेव स्थितिं बध्नाति न पुनः समयादिना हीनामधिकां वेत्यर्थः । तस्य किमित्याह - "सो णायव्वो" इत्यादि, तस्य स बन्धोऽवस्थितनामा स्थितिबन्धो ज्ञातव्य इत्यर्थः । अवक्तव्यवन्वस्वरूपमाह - ' होउं अबंधगो उण" इत्यादि, पुनः शब्दोऽनन्तरोक्तवन्धत्रयस्वरूपापेक्षयाऽवक्तव्यबन्धस्वरूपस्य वैलक्षण्यद्योतकः, यतः पूर्वं तत्तद्भयरकारादिस्थितिबन्धानां निर्वर्तको जीवस्तत्तद्बन्धसमयादनन्तरप्राक्समये प्रभूत- स्तोकतुल्यानामन्यतमस्याः स्थितेर्बन्धक आसीद्, अत्र चरमप्रकारे त्वसावन्यतमस्या अपि स्थितेर्बन्धको न भवति, किन्तु सर्वथाऽबन्धक एव भवति । एतदेव दर्शयन्नाह - " होउं
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भूयस्कारादयः स्वरूपतः ] भूयस्काराधिकारेसत्पदद्वारम्
[४३५ अबन्धगो" ति कश्चिज्जीपः पूर्वसमये “अबन्धगो" त्ति तत्तज्ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतेः स्थितिबन्धमपेक्ष्यावन्धको भूत्वाऽनगरे समये 'बंधइ" तिबन्धप्रायोग्यस्थितीनामन्यतमां स्थिति बध्नाति “स हवइ अवत्तव्वो" ति स तस्यावन्धादनन्तरजायमानोऽन्यतमस्थितेबन्धो प्रथमसमयेऽवक्तव्यनामा स्थितिबन्धो भवति ।
इदमुक्तं भवति-भृयस्कारादिस्थितिबन्धाः पूर्वसमये स्तोकादि-स्थितिबन्धसद्भावेन तदपेक्षया उत्तरसमयबधमानस्थितेभ्यस्त्वादितया भूयस्कारादिपदवाच्या भवन्ति । अबन्धादुत्तरसमये जायमानस्थितिबन्धस्तु पूर्वसमये स्थितिबन्धाभावाद्भयस्कागदिवन्नाधिकः स्तोकस्तुल्यो वेत्यतो भूयस्कारादिपदत्रयेण वक्तमशक्य इतिकृत्वाऽवक्तव्यपदेनैव व्यपदिश्यते । उक्तं च महोपाध्यायः श्रीमद्ययशोविजयपूज्यैः कर्मप्रकृतिटीकायाम्
यदा तु सर्वथैवाऽवन्धकादिभूत्वा सोरपि बन्धादिकमारभते तदा स बन्धादेश्चतुर्थो भेदोऽवक्तव्यनामा, भूयस्कारादिशब्देन वक्तुमशक्यत्वात् ।। इति ।
भूयस्कारादीनां लक्षणानि कर्मप्रकृत्यादिष्वपीत्थमेवाभिहितानि । यदुक्तं कर्मप्रकृतौ क्रमेण तल्लक्षणानि प्रतिपादयद्भिः शिवशर्मसूरिपुङ्गवैः'ग्गादहिगे पढमो एगाईऊणगम्मि बिइओ उ । तत्तियमेत्तो तइओ पढमे समये अवत्तव्यो' ।।५२।। इति ।
इत्थं हि भूयस्कारादिलक्षणानां स्थितिबन्धविशेषाणां स्वरूपे व्यवस्थिते प्रथमगाथोक्तौधिकसत्पदभावनात्वेवं कार्या--क्षपकश्रेणिबहिःस्थस्य ज्ञानावरणादीनां सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धादन्यं स्थितिवन्धं विदधतः कस्याऽपि जीवस्य वर्तमानगुणस्थानादपकृष्टगुणस्थानकान्तरप्राप्तौ स्थितिबन्धवृद्धिर्भवति । एवमेकेन्द्रियादिभ्यश्च्युत्वा द्वीन्द्रियादित्वेनोत्पत्तावपि नियमेन स्थितिबन्धवृद्धिर्भवति। एवं वैपरित्येन वर्तमानगुणस्थानकाद् विशुद्धगुणस्थानकान्तरप्राप्ती संज्ञिभ्यश्च्युत्वाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय-चतुरिन्द्रि याद्यन्यतमतयोत्पद्यमानस्य वा स्थितिबन्धहानिर्जायते । एवंविधकारणाभावेऽपि प्रत्यन्तमुहूर्त जघन्यतः समयमुत्कृष्टतः समयद्वयं वा सर्वजीवानां स्थितिवन्धस्य वृद्धिहानयस्तथास्वाभाव्येन प्रवर्तन्त एव । तत्र यः पूर्वसमयादुत्तरसमये जायमानः समय-द्विसमयादिना वृद्धस्थितिवन्धः, स एव प्रथमसमये भूयस्कारः, इत्येवं भूयस्कारपदं सदेव । अनेनैव प्रकारेणाधिकस्थितिबन्धस्याऽपि जघन्यतः प्रत्यन्तर्मुहूर्त नियमेन हीनस्थितिवन्धतया परावृत्तेर्भावादल्पतरस्थितिबन्धपदमपि सदेव । यदा तूपयुक्तान्यतमकारणं न विद्यते,तदातु यावान् स्थितिबन्धः पूर्वसमय आसीत्तावानेवोत्तरसमये प्रवर्तत इति त्ववस्थितः, इत्येवमवस्थितस्थितिवन्धसत्ताऽपि प्रसिद्धा । अवक्तव्यस्थितिबन्धस्तूपशमश्रेणो व्युपरतस्थितिबन्धस्य जीवस्योपशान्ताद्धाक्षयात्प्रतिपाते, कालकरणेन देवगतावुत्पत्त्या वा पुनरपि स्थितिवन्धप्रारम्भसद्भावात् प्रारम्भप्रथमसमयजातस्थितिबन्धापेक्षया प्राप्यत एव; एतच्चानन्तरं स्वामित्वद्वारे ग्रन्थकारः स्वयमेव व्यक्तीकरिष्यति । आयुषोऽल्पतरा-ऽव कव्यरूपद्विविधस्थितिबन्धस्य सचं तु सुसिद्धम् , कादाचित्कत्वादायुर्बन्धस्य । तद्यथा- यदायुर्वन्धः प्रारभ्यते,
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४३६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारादिसत्पद० तदा प्रथमसमयेऽवक्तव्यस्थितिबन्धः । कुतः ? तत्पूर्वसमये सर्वथैवाबन्धात् । द्वितीयादिसमयेषु पुनरायुष्कस्थितिबन्धान्तर्गताया अबाधायाः प्रतिसमयं हानेः प्रवर्तनादायुर्वन्धविच्छेदं यावत्प्रतिसमयमल्पतरस्थितिबन्धा एव प्राप्यन्ते । अत एवायुषो भूयस्कारा-ऽवस्थितस्थितिबन्धौ सन्तो नाभिहितावित्यपि विज्ञेयमिति ।।५५५-५५६॥ ___ तदेवमभिहितान्योघतोऽष्टकर्मणां स्थितिबन्धभूयस्कारादिसत्पदानि । अथादेशतो मार्गणास्थानेषु भूयस्कारादिसत्पदानि चिचिन्तयिषुरादौ तावदायुर्वर्जसप्तकर्माण्यधिकृत्य प्राह
णरतिग-दुपणिदियतस-पणमणवयणेसु काय-उरलेसु। गयवेए णाणचउग-संयम-तिदरिसण-सुइलासु॥५५७॥ भविए सम्मे खइए उवसम-सण्णीपु य तह आहारे ।
भूगाराई होअइ सत्तण्हं चउविहो बंगो ॥५५८॥ (प्रे०) "णरतिगदुपणिंदिये"त्यादि, अत्र ‘णरतिगे"त्यादिनाऽपर्याप्तभेदवर्जाः शेषभेदा गृह्यन्ते; ततोऽपर्याप्तभेदवर्जेषु त्रिषु मनुष्यगतिमार्गणाभेदेपु; तथैवाऽपर्याप्तभेदवर्जयोयोः पञ्चेन्द्रियजातिभेदयोः, द्विशब्दस्य त्रसेत्यत्रापि योजनादपर्याप्तभेदवर्जयोईयोस्त्रसकायभेदयोः, पञ्चमनोयोगभेदाः पञ्चवचोयोगभेदास्तेषु, तथा काययोगसामान्यो-दारिककाययोगमार्गणयोः, “गयवेए" ति अपगतवेदमार्गणायाम् , तथैव मत्यादिज्ञान वतुष्के, संयमोघ-चक्षुरादित्रिदर्शन-शुक्ललेश्यामार्गणासु, भव्यमार्गणायां सम्यक्त्वाघमागणायां, क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणायामोपशमिकसम्यक्त्व-संज्ञिमार्गणयोः "आहारे" ति आहारिमार्गणायां चेत्यर्थः । एतास प्रत्येकमायुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीना भयस्कारादिश्चतुर्विधो बन्धो भवति । चतुर्विधवन्धः सन्नित्यर्थः, सत्पदप्ररूपणायाः प्रस्तुतत्वाद् , भूधातोः सत्तार्थकत्वाच्चेत्यक्षरार्थः ।
भावार्थः पुनरयम्-क्षपकश्रेणिवहिःस्थानां नरकगत्योघाद्यनाहारकमार्गणापर्यन्ततत्तत्सर्वमार्गणागतजीवानां कषायोदयजन्या विशुद्धिः संक्लेशो बोत्कृष्टतः प्रत्यन्तर्मुहूर्त तथाम्वाभाव्येन नियमतोऽन्यान्यस्थितिबन्धप्रायोग्यसंक्लेशतया विशुद्धितया वा विपरिवर्तते । तथा च सति तैर्जीः प्रारब्धाः स्थितिबन्धा अप्युत्कृष्टतोऽन्तमुहर्तमवस्थाय संक्लेशविशुद्धयनुसारेण विपरावर्तन्त इत्यनन्तरमुक्तमेव । ततः किम् ? ततः प्रतिमार्गणं सप्तकर्मणां तावन्मात्रस्थितिबन्धप्रवर्तनरूपोऽवस्थितस्थितिबन्धः, समयद्विसमयादेरू मधिकस्थितिबन्धे प्रारब्धे भूयस्कारस्थितिबन्धः, हीनस्थितिबन्धे प्रारब्धे त्वल्पतरस्थितिबन्धश्चेत्येवं त्रिविधवन्धस्तु सुतरां लभ्यते । अवक्तव्यस्थितिबन्धः पुनर्यासु मार्गणासु ज्ञानावरणादिकर्मसत्कस्थितेरबन्धः प्राप्यते तासु मार्गणास्वेव सम्भवति । आयुर्वर्जानां सप्तमूलकर्मणां स्थितेरबन्धस्तु समग्रायामपि भवभ्रान्तौ न कुत्रचिदवाप्यते, विहायोपशमश्रेणिं । तत्रापि मोहनीयस्थितेरबन्धोऽनिवृत्तिवादरगुणस्थानावं तथाऽऽयुमोहनीयवर्जानां षण्णां
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मार्गणास्वायुषो भूयस्कारादिसत्पद०] भूयस्काराधिकारे सत्पदद्वारम्
[ ४३७ स्थितेरवन्धस्तु सुक्ष्मसम्परायगुणस्थानादूर्ध्वमुपरितनगुणस्थानेष्वेवावाप्यते, तथा च सति यासु अनिवृत्तिवादरगुण स्थाः सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाश्च जीवा लभ्यन्ते तासु मोहनीयसत्कः, यासु च मार्गणास सूक्ष्मसम्परायगुणस्था उपशान्तमोहगुणस्थाश्च जीवाः प्राप्यन्ते तास षट्कर्मसत्कोऽवक्तव्यस्थितिबन्धोऽपि सम्पद्यते, अबन्धोत्तरबन्धरूपत्वात्तस्य । लभ्यन्ते च प्रकृतपश्चत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येक तादृशा जीवाः, तेषां चोपशमश्रेणितः प्रतिपत्य पुनरपि स्थितिबन्धप्रारम्भेऽवक्तव्यबन्धभावात् पञ्चत्रिंशन्मार्गणासु सप्तकर्मणां चतुर्थोऽवक्तव्यबन्धोऽपि सन्नभिहित इति ।
__ननूपशमश्रेणावुपशान्तमोहगुणस्थाने पञ्चत्वं प्राप्य ये केचन जीवा देवगतावुत्पद्य तत्राभिनवमबन्धोत्तरस्थितिवन्वं प्रारभन्ते,तादृशजीवानपेक्ष्य देवगत्योघादिमार्गणास्वपि सप्तानां मूलप्रकृतीनामवक्तव्यलक्षणः स्थितिवन्धः सत्पदविषयीकर्तव्यो भवति, तत्कथमेता देवगत्योवादिमार्गणा न संगृहीताः ? इति चेद, उच्यते, सत्यमेतद्, यद् उपशान्ताद्धायामायुःक्षयाद्देवतयोप्तद्यमानानां जीवानामवन्धोत्तरबन्धप्रारम्भः, न पुनस्तदपेक्षया देवगतिमार्गणायां सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्ध इत्यपि, यतो देवगतिमार्गणायां हि ये देवगतिनामकर्मोदयाद् देवपर्यायमापन्ना जीवास्त एव प्रविष्टाः,नान्ये उपशान्तमोहगुणस्था भवचरमसमयवर्तिनो मनुष्यपर्यायापन्ना अपि, इत्थं च न विद्यते तादृशो देवपर्यायापन्नो जीवः यस्य देवपर्यायापन्नस्य सप्तानामबन्धोऽनन्तरोत्तरसमये त्वभिनवबन्धप्रारम्भश्च, अर्थात् पूर्वमबन्धकत्वे सत्यव्यवहितोत्तरमभिनवस्थितिबन्धप्रारम्भकत्वं यथा मनुष्य-पञ्चेन्द्रियादिपर्यायापन्नजीवस्य सम्पद्यते, तथा देवपर्यायापन्नस्य कस्यापि जीवस्य नोपपद्यते,तदभावे च कुतो देवगत्योधादिमार्गणास्ववक्तव्यस्थितिवन्धसम्भवः, न कुतश्चित् । इत्येवं विवक्षितपर्यायस्य जीवस्यैवाऽबन्धकत्वादित्वेऽवक्तव्यबन्धस्य स्वीकृतत्वेन देवगत्योघादिमार्गणासत्कजीवानां सप्तकर्मसत्कावक्तव्यस्थितिबन्धस्याऽसम्भवाद् देवगत्योपादिमार्गणा न सगृहीता इत्यलं प्रसङ्गेन ॥५५७-५५८॥
तदेवं यासु मार्गणासु सप्तकर्मणां भूयस्कारादिश्चतुर्विधोऽपि स्थितिबन्धः सम्भवति, तासु तत्सत्वं प्रतिपादितम् । साम्प्रतमुक्तशेषमार्गणासु सप्तानां सर्वमार्गणास्वायुषश्चतद्दिदर्शयिषुराह
सेसासु भूअगारो अप्पयरोऽवट्ठिओ तिहा बंधों। मोहस्स अवत्तव्बो लोहे सबह दुहाउस्स ॥५५९॥ (प्रे०) 'सेसासु” इत्यादि, अभिहितशेपासु निरयगत्योघादिपञ्चत्रिंशदुत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकं भूयस्कारः, अल्पतरः, अवस्थितश्चेत्येवं 'त्रिधा'-त्रिप्रकारः स्थितिबन्धः सन् वर्तते, त्रिणि पदान्येव सन्ति, न पुनरवक्तव्यस्थितिबन्धपदमपि । किं सर्वासु शेषमार्गणासु सप्तानामप्यवक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणं चतुर्थपदमसदुतास्ति कासुचित्कस्यचित्सदपीत्याह-“मोहस्स अवत्तव्वो लोहे" त्ति शेषमार्गणान्तःप्रविष्टायां लोभकषायमार्गणायां मोहनीयकर्मणोऽवक्तव्यस्थितिबन्धश्च सनित्येवं लोभमार्गणायां मोहनीयस्य चत्वार्यपि पदानि सन्ति, मोहनीयाऽऽयुर्वर्जानां पण्णां शेषकर्मणां तु शेषनिरयगत्योपादिमार्गणावत् त्रीण्येवेति भावः।
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४३८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [भूयस्कारादिसत्पदोपपत्ति० ___तत्र शेषमार्गणास्त्विमा:-अष्टौ नरकगतिभेदाः,पश्चापि तिर्यग्गतिभेदाः, अपर्याप्तमनुष्यमार्गणाभेदः सर्वेऽपि देवगतिमार्गणाभेदाः, सर्व एकेन्द्रियजातिभेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय प्रेदः, तथा पृथिवीकाथा-ऽप्काय-तेजस्काय-वायुकाय-प्रत्येकवनस्पतिकाय-साधारणवनस्पतिकायसत्काः सर्वे भेदाः, अपर्याप्तत्रसकायभेदः, औदारिकमिश्रा-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्र-वैक्रिय-वैक्रियमिश्र-कार्मण काययोगभेदाः, स्त्री-पु-नसकवेद-क्रोधादिचतुःकपाय-मत्वज्ञान-श्रुताज्ञान-विभङ्गज्ञानसामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक-मूक्ष्मसम्परायसंयम-देशसंघमा-ऽसंयम-कृष्ण-नी:-कापोततेजः-पद्मलेश्या-ऽभव्य-क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-सम्यग्मिथ्यात्व-सासादन-मिथ्यात्वा-संड्य-ऽनाहारिमार्गणाभेदाश्चेति ।
एतासु प्रत्येकं भयस्कारादिवन्धनयलावस्तु पूर्ववत्सुगमः । अवक्तव्यवन्धाभावस्तु सूक्ष्मसम्परायसंयम-लोभमार्गणावर्जास शेपमार्गणास काश्चिदपि जीयानां सप्तकर्मणां स्थितियन्धाभावस्यालाभात्प्रागुक्तनीत्या भावनीयः । सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणानां तु मोहनीयकर्मसत्कस्थितेरवन्धस्य लाभेऽप्यबन्धाः स्थितिवन्धप्रारम्भस्याऽलाभात् विशेषणाभावप्रयुक्तायास्तल्लक्षणाप्राप्तेरवक्तव्यबन्धो न प्राप्यते । किमुक्तं भवति? यथोक्तं विशिष्टबन्धकाधीनावक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणमंशद्वयापन्नम् , एको विशेष्यांशोऽन्यो विशेषणांशः । पूर्वमवन्धे सति बन्धप्रारम्भोऽवक्तव्यबन्धस्तत्र पूर्वमबन्धे सतीत्येतावान् विशेषणांशः, बन्धप्रारम्भ इत्येतावान् विशेष्यांशः । मार्गणास्थानेषु प्रकृतबन्धचिन्तायामेतल्लक्षणं विवक्षितनारकत्वादिपर्यायापन्नतत्तन्मार्गणास्थजीवमपेक्ष्य चिन्तनीयम् , तच्च प्रागुक्तमनुष्यत्रिकादिमागंणास्ववोपपद्यते, न पुनः शेषासु नरकगत्योधादिमार्गणाम् । कथम् ? कासुचिन्नरकगत्योघादिमार्गणास विशेषणविशेष्योभयाभावात् , कासुचिदेवगत्योधादिमार्गणासु विशेषणाभावात् , सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां मोहनीयकर्मस्थितिबन्धविषये तु विशेष्यांशविरहाच्च ।
तथाहि-नरकगत्गोधादिषु नास्ति कस्यापि नारकत्वादिपर्यायापन्नस्य जीवस्य ज्ञानावरणादीनां सप्तानां स्थितेरवन्धः, एवमुपशमश्रेणावबन्धकावस्थायां कालं कृत्वा नारक-तिर्यगादितयोत्पादाभावेन देवगत्योपादिमार्गणावत्सप्तानामभिनववन्धप्रारम्भोऽपि नास्ति । देवगत्योधादिकतिपयमार्गणासु तादृशबन्धप्रारम्भसम्भवेऽपि देवत्वादिपर्यायविशेषे वर्तमान एवं नास्ति कस्यापि देवजीवस्य सप्तकर्मणां स्थितेरवन्धः, एवं सति विशेषणाभावप्रयुक्तप्रकृतलक्षणाप्राप्तेरवक्तव्यबन्धसत्वं न प्रतिपादितम् । इत्थमेव सामायिक-छेदोपस्थापनसंयममार्गणयोर्मोहनीयकर्मस्थितिबन्धविषये तथा सूक्ष्मसम्परायसंयम-लोभकषायमार्गणयोर्मोहनीयवर्जपटकर्मस्थितिबन्धविषये बोद्धव्यम् । कथम् ? उपशमश्रेणितः प्रतिपतज्जीवापेक्षयाऽपि मोहनीयादिकर्मणां स्थितेरबन्धस्य सामायिकादिमार्गणातो बहिर्भावात् । सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां मोहनीयकर्मस्थितिबन्धविषये तु विशेषणांशस्य स्थितेरवन्धलक्षणस्य सद्भावेऽपि सूक्ष्मसम्परायमार्गणायामेव मोहनीयस्थितिबन्धप्रारम्भलक्षणस्य विशेष्यांशस्याऽसद्भावाद्विशेष्याभावप्रयुक्ता प्रकृतावक्तव्यबन्धलक्षणाप्राप्तिः, अतस्तत्र मोहनीयस्थितेरवक्तव्यबन्धो नोक्तः।
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अष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धसत्पदप्रदशकं यन्त्रम् भूयक.र.दयः (१) पूर्वसमयादुत्तरसमये समयाद्यधिकस्थितिबन्धे भूयस्कारस्थितिबन्धः। स्वरूपतः
(२) पूर्वसमयादुत्तरसमये समयादिहीनस्थितिबन्धेऽल्पतरस्थितिबन्धः । (३) पूर्वसमयदुत्तरसमये तावन्मात्रस्थितिबन्धेऽवस्थितस्थितिबन्धः । (४) स्थितिबन्धाभावास्थितिबन्धेऽवक्तव्यस्थितिबन्धः। (गाथा-५५५-५५६) ___ आयुवर्जसप्तप्रकृतीनाम्
आयुपः प्रोचवद
अोघवद् त्व । भूयस्फारा-ऽल्पतराभूषस्कारा-ऽलयतरा-ऽवस्थितलक्षणानि त्रीणि पदानि
अल्पतरा-ऽवक्तव्य-अस्थितायतव्यलक्ष
लक्षणे द्वे नि मानि चत्वारि सत्पदानि सद्भ तानि, अवक्तव्यपदं त्वसत् ।
सत्पदे, मनुष्यौघ० तत्पर्याप्त० । सर्वनिरय० सर्वतिर्यग्० सर्वदेव० अपर्याप्तमनुष्य० गति०
४४ | सर्व०
मानुषी,
पञ्चेन्द्रियौघ० तत्पर्याप्त सर्वेकेन्द्रिय० सर्वविकलेन्द्रिय० अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय०१७ | सर्व
इन्द्रियः
काय० | त्रसौष । पर्याप्तत्रस० पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायसत्कासर्वभेदाः, अपर्याप्तत्रसकायभेदश्व,
४० सर्वे मनोवचो० प्रौदारिक० औदारिकमिश्र वैक्रिय-तन्मिश्र० पाहारक-तन्मिश्र यो०
काययोगौध०१२ | कार्मणकाययोगश्च,
सर्व
६
वेद०
अपगतवेद० स्त्री, पुरुष नपुंसक
३ | सर्व उपा लोभ० * १ क्रोध० मान० माया०
३] सर्व ज्ञान० मति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्य ४ मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभङ्गज्ञान ०
३ | सर्व संयम संयमौष सामायिक-छेद-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्परा संयम-देश
| सर्व संयमा-ऽसंयमा:दशन चक्षु० अचक्ष०अवधि०३
सर्व० लेश्या० शुक्ला १ कृष्ण नील० कापोत० तेज:० पद्म०
५] सर्व भव्य भव्य० १ अभव्य
१ सर्व धित्व
सम्यक्त्वौध०क्षायिक | क्षायोपशमिक० मिथ० सासादन० मिथ्यात्व० ४] सर्व
प्रौपशमिक० सज्ञी | संजी. १ असंज्ञी,
सर्व नाहारी आहारी, १ | अनाहारी,
१. सर्व सर्वमार्गणाः- ३६
१३४
गाथाङ्काः- ५५७-५५८
५५६
५५६ *लोभमार्गणायां मोहनीयस्यवा-ऽवत्त व्यस्थितिबन्धः सन्, अतो मोहनीयस्यैव चत्वारि पदानि सन्ति, शेषज्ञानावरणादीनां त्ववक्तव्यवर्जाणि त्रीण्येव सत्पदानि (गाथा-५५६)।
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४४० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषो भूयस्कारादिसल्पद लोभमार्गणायां तु मोहनीयकर्मणोऽबन्धादुत्तरं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानके कालं कृत्वा देवगतावुत्पद्य मोहनीय स्थितिबन्धप्रारम्भं यावत् तत्स्वामी लोभमार्गणायामेव वर्तते, तथा सति लोभपर्यायापन्नस्यैव जीवस्य पूर्वोत्तरसमययोर्मोहनीयकर्मस्थितेरबन्ध-बन्धयोर्लाभाद् , यद्वा क्रमेण प्रपततोऽनिवत्तिबादरसम्परायगुणस्थाने पूर्वप्रवतलोभमार्गणायामबन्धोत्तरं मोहनीयबन्धप्रारम्मादवक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणसङ्गतेर्मोहनीयकर्मणोऽधत व्यस्थितिबन्धः प्राप्यतेऽतस्तत्रासौ विशेषेण सन्नभिहित इति दिक । अनया दिशा प्रतिमार्गणं भावना तु स्वयमेव कर्तव्येति । तदेवं शेषमार्गणास्वपि सप्तप्रकृतीनां भयस्कारादिस्थितिबन्धसत्पदानि दर्शितानि ।
अथावशेषस्यायुषस्तानि गाथाशेषेणाह-“सव्वह दुहाउस्स” त्ति 'सर्वत्र'-त्रिपष्टयभ्यधिकशतसंख्याकास्वायुबन्धप्रायोग्यासु सर्वमार्गणासु “दुहाउस्स” त्ति ओघवदायुपोऽल्पतरावक्तव्यभेदाद् 'द्विधा'-द्विविधोऽपि स्थितिबन्धः सन् भवतीत्यर्थः । सुगमं चैतद् , आयुर्वन्धस्य कादाचित्कतया सर्वमार्गणासु तद्वन्धप्रारम्भेऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य,प्रारम्भद्वितीयादिसमयेषु त्वल्पतरस्थितिबन्धस्य च प्रभवनात् । न च अप्पमत्तो आउां बंधिणाढप्पइ, पमत्तेणाढत्तं अप्पम्म तो बंधइ' इति शतकचर्णिवचनादप्रमत्तसंयतानामायुर्वन्धप्रारम्भस्याभावेनाऽवक्तव्यस्थितिबन्धासम्भवानिरपवाई सासु मार्गणास्वायुषो द्विवियोऽपि बन्धः सन्नित्यभिधानं कथं संगच्छेदिति वाच्यम् । यतो देशसंयतादिवन्नात्र काचिदप्रमत्तसंयतमार्गणा पृथगधिकृता येनोक्ताऽसङ्गतिः स्यात् ,संयमोघमार्गणायांत्वप्रमत्तजीवापेक्षया केवलस्यायुषोऽल्पतरस्थितिबन्धस्यैव सद्भावेऽपि प्रमत्तसंयतापेक्षया यथोक्तद्विविधोऽप्यसौ प्राप्यते, प्रमत्तसंयतेन आयुर्वन्धप्रारम्भस्यापि करणादिति ॥५५९॥
तदेवमभिहितान्यष्टानां प्रकृतीनां भूयस्कारादीनि सत्पदान्यादेशतोऽपि तस्मिंश्चाभिहिते गतमाद्यं सत्पदद्वारम् ॥
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीये भूयस्काराधिकारे प्रथमं सत्पद्वार समाप्तम् ।।
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॥ अथ द्वितीयं स्वामित्वद्वारम् ॥ अथ “यथोद्देशं निर्देश” इति न्यायेन क्रमप्राप्ते स्वामित्वद्वार आदी तावदोघतोऽष्टमूलप्रकृतीनां भयस्कारादिस्थितिबन्धस्वामिनः प्ररूपयन्नाह
भूओगाराईणं सत्तण्हं बंधगो उ अण्णयमो । तिण्ह पयाणं दोण्ह वि आउस्स पयाण णायब्बो ॥५६०॥ उवसामगो पडतो सेढीए बंधगो णरो अहवा ।
पडमखणसुरो णेयोऽवत्तव्वस्स खलु सत्तण्हं ॥५६१॥
(प्रे०) 'भूओगाराईणं” इत्यादि, तत्र “भूओगाराईण” मित्यस्य "तिण्ह पयाण" मिति परेणान्चयः, ततश्च “सत्तण्ह" ति आयुर्वानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां भूयस्कारादीनां भयस्कारा-ऽल्पतरा-ऽवस्थितलक्षणानांत्राणां पदानां'-स्थितिबन्धविशेषाणां "बंधगो उ अण्णयमा" त्ति 'बन्धकः'-स्वामी त्वन्यतमः,नारक-तिर्यग्-मनुष्य-देवानामिति शेषः । यथासम्भवमिति गम्यम् । कथम् ? श्रेण्यारोहा-ऽवरोह-मिथ्यात्वाभिमुखाद्यवस्थाविशेषेषु क्षपकोपशमकादिजीवानां भवस्कारा-5ल्पतरस्थितिबन्धाभावेन तेषां वर्जनार्थमिति । कुतोऽन्यतमः ? एकस्थितिबन्धस्थानप्रायोग्याध्यवसायानामन्तमुहर्तादधिकमनवस्थानेनोत्कृष्टतोऽपि प्रत्यन्तमुहत स्थितिबन्धवृद्धिहान्योः सर्वजीवानां भावात् । अथायुःकर्मण आह-"दोण्ह वि" इत्यादि, 'बंधगो उ अण्णयमो' इत्यत्रापि संबध्यते, अत आयुषोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यस्थितिवन्धरूपयोद्वयोरपि पदयोर्बन्धकः-स्वाम्यन्यतमगतिको जीवो ज्ञातव्य इति । सुगमं चैतत् सत्पदविवरणागतार्थ चेति । अथ सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धस्य स्वामिनो दर्शयन्नाह-"उवसामगो” इत्यादि, सप्तानां प्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धस्य 'बन्धकः'-स्वामी "सेढीए” त्ति उपशमश्रेणितः पतन्नुपशामको 'नरः'-मनुष्योऽथवा “पढमखणसुरो" ति उपशमश्रेणाववन्धकावस्थायां मृत्वा यो देवगतौ देवतयोत्पन्नः स प्रत्यग्रो-पन्नः 'प्रथमक्षणसुरः'देवायुःप्रथमसमयवेदको देवः । अत्राऽथवा शब्दो समुच्चये, न पुनर्मतान्तरे; एवं खलुशब्दोऽवधारणार्थो जातावेकवचनं च । ततोऽयमर्थः-ओघत उपशान्ताद्धाक्षयात्पतन्त उपशमकाः, उपशान्ताद्धायां कालकरणेन देवतयोत्पन्ना देवाश्च सप्तकर्मणाम् , तथा सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने भवक्षयेण देवत्योत्पन्ना मोहनीयकर्मणोऽवक्तव्यस्थितिवन्धस्वामिनः; नान्ये इति । एतदपि सत्पदचिन्तायां भावितप्रायम् , न पुनर्भाव्यत इति ॥५६०-५६१।।
तदेवं दर्शिता ओघतोऽष्टानामपि मूलकर्मणां भूयस्कारादिस्थितिबन्धस्वामिनः । अथाऽऽदेशतो व्याचिकीर्षुलाघवार्थमतिदेशपूर्वकमाह
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४४२]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वष्टानां भूयस्कारादिस्वामि० एवं सब्बासु णवरि पढमखणसुरोत्ति णेव वत्तव्यं ।
णरतिग-पणमणवयुरल-अवेअ-मणणाण-संयमेसु च ॥५६२॥ (प्रे०) “एवं सव्वासु” इत्यादि, तत्रैवंशब्दस्य सादृश्यार्थकत्वेनानन्तरं प्रथमे सत्पदद्वार ओघतः सत्तया प्रतिपादितानां सप्तकर्मणां उपस्कारादिचतुर्विधस्थितिबन्धानामायुपोऽल्पतराऽवक्तव्यद्विविधस्थितिवन्धयोध स्वामिनो यथौघचिन्तायां दर्शितास्तथा “सव्वासु" ति निरयगत्योधादिषु सर्वासु मार्गणासु, वक्तव्या इति शेषः । यासु मार्गणासु येषां कर्मणां भूयस्कारादयो यावन्तः स्थितिबन्धाः सन्तः प्रतिपादितास्तासु मार्गणासु तेषां कर्मणां तत्तद्भयस्कारादिसत्पदानां स्वामिन ओघवद्वक्तव्या इतिभावः । इत्येवं सामान्यतोऽतिदिष्टे या काचिदतिप्रसक्तिस्तां निराचिकीपुराह"णवरि" इत्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः । भावार्थः पुनरयम्-अनन्तरोक्तात् ‘एवं सव्वासु' इत्यौत्सर्गिकवचनात् मनुष्यगत्योधादिपञ्चत्रिंशन्मार्गणासु ज्ञानावरणादीनामवक्तव्यबन्धसद्भावेन श्रेणितः पतन्त उपशमकाः प्रथमसमयदेवाश्चेति वक्तव्यं भवति, नवरं मनुष्यगत्योध-पर्याप्तमनुष्य-योनिमन्मनुष्य-पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोगौ-दारिककाययोगा-ऽपगतवेद--मनःपर्यवज्ञान-संयमोघमार्गणानां पञ्चेन्द्रियादिमार्गणावद् देवगतिमनुष्यगतिद्वयव्यापित्वाभावात्तासु भवप्रथमसमयदेवा अवक्तव्यबन्धस्वामितया नैव वक्तव्याः । कुतः ? देवगतिमनुष्यगतिद्वयव्यापिनीषु पञ्चेन्द्रियोघादिमार्गणास्वेव मार्गणानुरूपपञ्चेन्द्रियत्वादिविवक्षितकपर्यायापन्नानां जीवानां तत्तत्कर्मणामवक्तव्यबन्धप्रयोजकयोः स्थितेरबन्ध-बन्धयोर्लाभेन तास्वेव तेषामवक्तव्यस्थितिबन्धस्वामित्वादिति । तदेवमपोदिते मनुष्यगत्यादिसप्तदशमार्गणास्वायुर्वर्जानां सप्तकर्मणामवक्तव्यस्थितिबन्धस्वामिनः श्रेणितः पतन्त उप
___ अष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिवन्धस्वामित्वप्रदर्शकं यन्त्रम् ओघतः-आयुर्वर्जसप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धस्वा- ) श्रेणितः पतन्त उपशमकाः स्थितिबन्धप्रथमसमये, मिन:
अबन्धकाले च्युत्वा देवतयोत्पन्ना भवप्रथमसमये
वर्तमाना जीवाश्च, आयूर्वर्जसप्तानां शेषत्रिविस्थितिधिबन्ध
यथासम्भवं भूयस्कारा-ऽल्पतरबन्धकतया क्षपकोस्वामिनः--
पशमक-सम्यक्त्वाभिमुखादिजीवान् विहाय संसार
स्था अन्यतमजीवाः, पायूषोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यद्विविधस्थिति
आयुर्बन्धकाः संसारस्था अन्यतमजीवाः, .
-
बन्धस्वामिनः--
प्रादेशतः- सर्वासु मार्गणासु ज्ञानावरणादिसर्वमूलप्रकृतीनां सर्वेषां भूयस्कारादिस्थितिबन्धसत्पदानां स्वामिनः
ओघवत् , केवलम् .... मनुष्योध-तत्पर्याप्त-मानुषी-सर्वमनोवचोयोगभेदो-दारिककाययोगा-ऽपगतवेद-मनःपर्ययज्ञान-संयमौघलक्षणासु सप्तदशमार्गरणास्वायुर्वर्जसप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धस्वामिनः श्रेणितः पतन्त उपशमका एव, न पुनर्देवा इति ।
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ओघादेशत आयुषोऽल्पतरावक्तव्य० ] भूयस्काराधिकारे कालद्वारम्
[ ४४३ शमका एव, पञ्चेन्द्रियोघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्रसौघ-पर्याप्तत्रसकाय-काययोगसामान्य-मत्यादित्रिज्ञान-चक्षुरादित्रिदर्शन-शुक्ललेश्या-भव्य--सम्यक्त्वौघ-क्षायिको--पशमिकसम्यक्त्व--संख्या-ऽऽहारिरूपास्वष्टादशमार्गणासु तु भवप्रथमसमयवर्तिनो देवा अपि । इत्थमेव लोभमार्गणायामपि, नवरं मोहनीयकर्मणोऽवक्तव्यस्थितिवन्धस्वामिनः, न पुनः शेषकर्मणामपि, लोभमार्गणायां शेषकर्मणामवक्तव्यस्थितिवन्धस्यैवासचात् । सप्तकर्मणां भूयस्कारादिशेषत्रिविधस्थितिवन्धस्वामिनस्तु तत्तन्मार्गणागता अन्यतमजीवा भवन्ति । अत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेरल्पतरस्थितिबन्धस्वामितया प्रतिपतन्त उपशमका वर्जनीयाः, एवं भूयस्कारस्थितिवन्धस्वामितया श्रेणिं समारोहन्तः क्षपका उपशमकाश्च वर्जनीयाः। आयुषोऽल्पतराऽवत्तव्यास्थतिबन्धस्वामिनस्तु त्रिपष्टयभ्यधिकशतमार्गणास्वोघवदन्यतमा जीवा ये केचनायुःप्रकृतिवन्धस्वामिनो भवन्ति ते सर्वयिति विज्ञेयमिति ॥५६१-५६२॥
तदेवमभिहिता आदेशतोऽपि मूलाष्टकर्मणां भूयस्कारादिलक्षणस्थितिबन्धस्वामिनः, तस्मिँ. वाभिहिते गतं द्वितीयं स्वामित्वद्वारम् ।। ॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीये भूयस्काराधिकारे द्वितीयं स्वामित्वद्वारं समाप्तम् ।।
॥ अथ तृतीयं कालद्वारम् ॥ साम्प्रतं “काल' इत्यनेनोद्दिष्ट एकजीवाश्रिते कालद्वारे मूलकर्मणां भूयरकादिस्थितिबन्धानामेकजीवाश्रयं कालं विभणिपुरल्पवक्तव्यत्वादादौ तावदायुपो भूयस्कारादिस्थितिबन्धस्य जघन्योत्कृष्टभेदभिन्न कालमोघत आदेशतवाह
आउस्स जहणियरो अप्पयरस्स हवए मुहुत्तंतो। कालोऽवत्तव्यस्स उ समयो एमेव सव्वासु॥५६३॥ णवरि जहण्णो समयो अप्पयरस्सऽत्थि पणमणवयेसु।
कायु-रल-विउव्वेसुआहारदुगे कसायेसु॥५६४॥
(प्रे०) "आउस्स जहणियरो" इत्यादि, आयुःकर्मणः "अप्पयरस्स” त्ति अल्पतरस्थितिबन्धस्य जयन्यः 'इतरः'-उत्कृष्टश्च कालो "हवए मुहत्तंतो” ति अन्तमुहूतं भवति, एकजीवाश्रयौ जघन्योत्कृष्टकालौ प्रत्येकमन्तमुहूर्त भवत इत्यर्थः । “ऽवत्तव्वस्स उ” त्ति अनन्तरोक्तस्य 'कालो' इति शब्दस्य तत आरभ्य कालद्वारप्रान्तं यावदनुवनिादवक्तव्यस्थितिबन्धस्य कालस्तु "समयो" त्ति अजघन्यानुत्कृष्ट एकः समय एव भवति, तुशब्दस्यात्रावधारणार्थत्वात् ।
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४४४ ]
बंधाणे मूलपडि ठिइबंधो [ आयुषोऽल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्ध०
अयम्भावः- आयुर्बन्धः कादाचित्कस्तथा प्रारब्धः सन्नन्तमुहूर्त प्रवृत्यैव विरमति । उक्तञ्चावश्यकचूर्णावुपोद्घातनिर्युक्तौ - 'सव्त्रजीवाणं आउयंधो अणाभोगभिनिव्वित्तिओ, तेण सो अंगेमुहुत्तिओ' इति । इत्थं च तत्यारम्भेऽवक्तव्य स्थितिबन्धो लभ्यते, द्वितीयसमयात्तु समयसमयहीयमानावात्रापेक्षयान्तमुहूर्तं यावत्प्रतिसमयं हीन-हीनतरादिस्थितिबन्धलाभान्निरन्तर मल्पतरबन्धाः प्राप्यन्ते, अतोऽल्पतरस्थितिवन्वस्य जघन्य उत्कृष्टो वा कालोऽन्तर्मुहूर्त प्रमाणस्तथाऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य त्वजघन्यानुत्कृष्टः समयप्रमाण एव कालो लभ्यत इति ।
ननु सर्वे रामपि जीवानां समयमात्रप्रवर्तनाद् यथाऽऽयुषोऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य कार: सर्वार्थसिद्धदेवानां भवस्थितिवदजघन्यानुत्कृष्टकालतया दर्शितस्तथैवाऽऽयुपोऽल्पतरस्थितिबन्धोऽपि सर्व मुहूर्तमेव प्रवर्तते, तत्कथमसावप्यजघन्यानुकृष्टान्तमुहूर्तं नाभिधीयते ? इति चेद्, अन्तर्मुहूर्तात्रस्यापि तस्य जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नत्वात्, यत आयुर्वन्धाद्वाऽन्तमुहूर्तमात्राऽपि कदाचिद्धस्वा भवति कदाचित्तु दीर्घा, अत एव श्रीप्रज्ञापना गमायुषो जघन्यस्थितिबन्धस्वामित्वं प्रदर्शनावसरे श्रीमताऽऽर्यश्यामपादेनाऽऽयुर्वन्धाद्वायाः सर्वमहच्चविशेषणमुपात्तम् । तथा चोक्तम्- 'सव्वसहती आउयधद्वार इति । इत्येामायुर्वन्धाद्धायाः सर्वत्रान्तर्मुहूर्तमात्रत्वेऽपि कुचिस्वत्वात् कुवितु दीर्घत्वादायुरोऽल्पतरस्थितिबन्धकालोऽन्तमुहूर्तमात्रोऽपि कुत्रचित्स्तोकः, कुत्रचिवधिको भवति इत्यतोऽसाववक्तव्य स्थितिबन्धकालवद जघन्यानुत्कृष्टो वक्तुमनुचितः, ततश्च जघन्योत्कृष्टभेदेनैव प्रतिपादित इति ।
अथ मार्गणास्थानेषु प्रस्तुतस्यानु भूयस्कारादेः कालं दिदर्शयिषुर्लाघवार्थं सापवादमतिदिशति - "एमेव सव्वासु" मित्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः ।
भावार्थस्त्वयम् - पञ्चमनोयोग भेदेष्वेक जीवाश्रयमार्गणाजघन्यकायस्थितेः समयप्रमाणत्वात्तदपेक्षया प्रकृतकालोऽपि समयमात्रः प्राप्यते, एवं वचोयोगभेदेष्वऽपि । यद्वा पञ्चमनोयोगपञ्चवचोयोग-काययोगसामान्याऽऽहारका ऽऽहारकमिश्र-वैक्रियौ-दारिककाययोग-क्रोधादिचतुःकपायलक्षणास्वपवादविषयभृतास्वेकोनविंशतिमार्गणासु प्रत्येकं पूर्वप्रवृत्तमनोयोगादिना जीवेनाऽपि यदा मार्गणादिचरमसमय आयुर्वन्धः प्रारभ्यते तदा तस्य प्रस्तुतमार्गणायां समयद्वयमायुर्वन्धः प्रवर्तते, तत्र प्रथमे समयेऽबन्धादुत्तरमायुर्वघ्नतोऽवक्तव्यः, द्वितीयसमये तु वेद्यमानायुरवशेपलक्षणाया अवाधाया समयमात्र परिक्षयात् तदधीनावा आयुषोऽवस्थानयोग्यतालक्षणबध्यमानस्थितेरपि हीनभावादल्पतरबन्धः । तदनन्तरसमयेषु यद्यपि तस्य जीवस्याऽल्पतरस्थितिबन्धो विद्यते एव, तथाऽपि ना प्रकृतमार्गणाविषयः, तदानीं मनोयोगादिविवक्षितमार्गणातो बहिर्भावात्तस्य । इत्थं हि तारौ - जर्मनोयोगादिमार्गणाद्विचरमसमयारब्धायुर्वन्धमपेक्ष्य मनोयोगाद्यकोनविंशतिमार्गणास्वपि प्रकृतबन्धकालः समयमात्रः प्राप्यते, न शेषासु । अयमेत्र समयमात्रोऽल्पतरबन्धकाल आयुर्वन्धाद्धा
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ओघत आयुर्वर्जानां भूयस्कारादि० ] भूयस्काराधिकारे कालद्वारम्
[ ४४५ द्विचरमसमये प्रवृत्तमनोयोगादेवितीयसमयापेक्षयाऽपि प्राप्यते, तृतीयसमये मार्गणाविच्छेदात् । इत्येवमन्यथाऽपि भावनीय इति ।
ननु मनोयोगादिमार्गणास्थानानामिव स्त्रीवेदादिमार्गणास्थानानामप्यैकजीवाश्रिता जघन्यकायस्थितिः समयमात्रा भवति । उक्तं च जीवसमासे-'मण-वइ-उरल-विउब्बिय-आहारय-कम्मजोग-अणरि-त्थी। संजमविभाग-विन्भंग-सासाणे एगसमयं तु' ।।२३६।। इति । तत्कथमेतासु स्त्रीवेदादिमार्गणास्वप्यायुयोऽल्पतरस्थितिबन्धकालो जघन्यपदे समयमात्रो नोक्तः ? इति चेद, उच्यते, स्त्रीवेदादीनामेकजीवाश्रया जघन्यकायस्थितिस्तूपशान्ताद्धाक्षयेण प्रपततां जीवानां स्त्रीवेदोदयादनन्तरसमये मरणव्याघाते समुपजात एवं प्राप्यते, न च तदानीं तेषामायुन्धसम्भवः, आयुषो जघन्यावावाया अप्यन्तमुहूर्तत्वेन तावदायुष्यवशेषे पूर्वमेवाऽऽयुर्वन्धसमाप्तः । मनोयोगादिमार्गणास्तु मरणव्याघाताभावेऽपि स्वीयाद्धाक्षयादुत्कृष्टतोऽप्यन्तमुहर्तेऽतिक्रान्ते नियमेन योगान्तरतया परावर्तन्ते, अतो मनोयोगादिवर्जासु समयमात्रजवन्यकास्थितिकास्वपि स्त्रीवेदादिषु मार्गणास्वायुषोऽल्पतरस्थितिबन्धस्य जघन्यकालः समयो नोक्तः, मनोयोगादिषु तूक्तः ।
इदन्तु बोध्यम्-सासादनस्य जघन्यकायस्थितियद्यपि मरणव्याघातं विनाऽपि समयमात्रा प्राप्यते, तथापि सासादनमार्गणायां प्रारब्धायुर्वन्धस्य सास्वादनमार्गणायामेव समाप्तेरल्पतरस्थितिबन्धकालः समयो न प्राप्यते, किन्त्वन्तमुहूर्तमेव प्राप्यते । ननु सासादनमार्गणायां प्रारब्धायुबन्धः कस्मात्सास्वादनमार्गणायामेव समाप्यते, न पुनर्मनोयोगादिवन्मार्गणान्तरं प्राप्याऽपि ? इति चे, आयुवैन्धस्य घोलनापरिणामप्रायोग्यतया निरन्तरमनन्तगुणक्रमेण संक्लिश्यमानायां मिथ्यावाभिमुखावस्थायां तद्वन्धस्य विरुद्धतया पूर्वमेव तत्समाप्तरावश्यकत्वादिति ॥५६३-५६४॥
तदेवमुक्त आयुपो भूयस्कारादिस्थितिबन्धकाल ओघत आदेशतश्चोभयथापि । साम्प्रतं शेषसप्तकर्मणां तं व्याजिहीपु रादौ तावदोघत आह
भूओगाराईणं चउण्ह सत्तण्ह होअइ जहण्णो। समयो परमो समया भूओगारस्स चत्तारि ॥५६५॥ अप्पयरस्सुक्कोसों समया तिणि उ अवट्ठिअस्स भवे । भिन्नमुहुत्तं परमोऽवत्तब्वस्स समयो णेयो ॥५६६॥
(प्रे०) "भूओगाराईणं” इत्यादि, “सत्तण्ह" ति आयुर्विषयेऽनन्तरमेवोक्तत्वादायुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां "भूओगाराईणं चउण्ह" ति भूयस्कारा-ऽल्पतरा-ऽवस्थिता-ऽवक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणानां चतुर्णां प्रत्येकम् "होअइ जहण्णो समयो" त्ति जघन्यः-'ह्रस्वः' कालः समयो भवति । “परमो” त्ति 'परम:'-दीर्घः कालः “समया" ति अस्य परेण
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४४६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ओघत आयुर्वर्जानां भूयस्कारादिकाल० "चत्तारि" इत्यनेनान्वयस्ततश्चत्वारः समयाः । कस्येत्याह-"भूओगारस्स" त्ति भयस्कारलक्षणस्थितिवन्धस्य, सप्तप्रकृतीनामित्यनवर्तते । भूयस्कारादिस्थितिबन्धानां ह्रस्वकालस्तु सुगमः ।
__ भूयस्कारस्थितिबन्धस्योत्कृष्टकालस्त्वित्थं भावनीयः-कश्चिदेकेन्द्रियो विकलेन्द्रियो वा जीवो भवद्विचरमसमये पूर्वप्रवृत्तजघन्यादिस्थितिबन्धप्रायोग्यविशुद्धः क्षयात्तं जघन्यादिस्थितिबन्धं समाप्य नव्यं पूर्वापेक्षयाधिकं स्थितिबन्धं प्रारभते तदा तस्य प्रथमसमयभूषस्कारः, तदनन्तरसमये पुनरपि तथास्वाभाव्येन संक्लेशवृद्धेः पूर्वसमयापेक्षयाऽधिकस्थितिवन्धं कुर्वतस्तस्य निरन्तरो द्वितीयसमयभूयस्कारो लभ्यते,ततश्चानन्तरसमये मृत्वा स जीवः संज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमान एकसामयिक्यां विग्रहगतौ वर्तमानोऽद्याप्युत्पत्तिस्थानमप्राप्तः सन्नसंज्ञिपञ्बेन्द्रियप्रायोग्यं स्थितिबन्धं विदधाति, तदा तस्य निरन्तरस्तृतीयसमयभयस्कारो भवति, तदनन्तरसमये तूत्पत्तिस्थानं प्राप्य संक्षिपञ्चेन्द्रियप्रायोग्यमन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणं स्थितिवन्धं कुर्वतस्तस्य निरन्तरचतुर्थसमयभूयस्कारबन्धः प्राप्यते; न पुनस्ततोऽप्यूर्ध्वम् । कुतः ? जात्यन्तरपरावृत्यादेरसम्भवात् ।
इदमुक्तं भवति-एकेन्द्रियाद्यन्यतमजातीयस्य कस्यापि जीवस्य जात्यन्तरपरावृत्त्यादिकारणान्तरादृतेऽपि तथास्वाभाव्येनैवोत्कृष्टतो निरन्तरं समयद्वयमन्यान्यस्थितिबन्धप्रायोग्याध्यवसायपरावर्तनात् निरन्तरौ भूयस्कारावल्पतरौ वा प्राप्येते, तदूर्ध्वं तु जात्यन्तरपरावृत्यादिना निरन्तरं भूयस्कारादिप्राप्तिर्भवति, न पुनर्जात्यन्तरपरावृत्याद्यभावेऽपि । प्रकृतेऽपि दृष्टान्तीकृतजीवस्यैकेन्द्रियाद्यवस्थायां तथास्वाभाव्येन भूयस्कारद्वयभवनादनन्तरं जात्यन्तरप्राप्तौ विग्रहगतौ पूर्यापेक्षयाऽधिकस्थितिबन्धकरणात्ततीयो निरन्तरोभयस्कारोलब्धः, तत ऊर्ध्वमपि संज्ञितयोत्पत्तिस्थानरूपकारणान्तरप्राप्त्याऽधिकस्थितिबन्धभावान्निरन्तरश्चतुथों भयस्कारः प्राप्तः; इत ऊर्ध्वन्तु निरन्तरे पञ्चमे समये न सम्भवति जात्यन्तरप्राप्त्यादिकारणान्तरम् , तदभावे तु संज्ञिभवद्वितीयसमयप्रवृत्तस्याधिकतरस्थितिबन्धस्यैव तृतीयादिसमयेषु प्रवर्तनादवस्थितबन्धः प्रवर्तते, न पुनर्निरन्तरः पञ्चमादिभूयस्कारोऽपि । इत्येवं निरन्तर चतुर्थभ्यस्कारस्थितिबन्धादूर्ध्वमनन्तरसमये जात्यन्तरपरावृत्त्याद्यधिकस्थितिबन्धप्रयोजकानामन्यतरस्याऽप्यसद्भावादौधिकमयस्कारस्थितिबन्धस्योत्कृष्टो पि कालश्चत्वारः समया एवाभिहित इति । अनया नीत्योत्तरत्राऽपि भयस्काराल्पतरयोः समयद्वयकालसद्भावे तौ द्वौ समयो तत्स्वाभाव्येन संक्लेशपरावृत्त्या भावनीयौ, समयद्वयादधिककालसद्भाचे तु तत्र तृतीयादिसमयभूयस्कारादौ जात्यन्तरपरावृत्त्यादेः प्रयोजकता द्रष्टव्येति ।।
___अथाल्पतरस्थितिबन्धस्योत्कृष्टकालमानमाह-"अप्पयरस्से" त्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनामल्पतरस्थितिबन्धस्योत्कृष्टकालस्त्रयः समयाः । अयमपि यथोक्तनीत्या प्राप्यते, नवरं वैपरित्येन भावनीयः । तथाहि-चतुरिन्द्रियादितयोपित्योः कस्यचित्संज्ञिपञ्वेन्द्रियजीवस्य भवद्विचरमसमयेऽन्तमुहूर्तात्प्रवृत्तस्थितिबन्धः स्वप्रायोग्यसंक्लेशाद्धाक्षयाद्विरतः सन् पूर्वापेक्षया हीनः प्रवर्तयितु लग्नः । कस्मात् ? पूर्वापेक्षया विशुद्धस्याभिनवाध्यवसायस्य प्राप्तेः । असौ हीनस्थितिबन्धो
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ओधत आयुर्वर्जानां भूयस्कारादिकाल० ] भूयस्काराधिकारे कालद्वारम
[ ४४७ ऽप्यनन्तरे भवचरमसमये तथास्वाभाव्येनाधिकतरविशुद्धाध्यवसायप्राप्त्या व्यवच्छिन्नः, हीनतरस्थितिबन्धश्च प्रवृत्तः; इत्येवं निरन्तरौ द्वावल्पतरौ तु जात्यन्तरपरावृत्यादिकारणान्तरं विनेव प्राप्तौ, तदनन्तरसमये तु मृत्वाऽन्तरालगतौ वर्तमानस्योत्पत्तिस्थानं वा प्राप्तस्य तस्य चतुरिन्द्रियादिभवप्रथमसमयादेव चतुरिन्द्रियादिवन्धप्रायोग्यः स्थितिबन्धो भवति, न पुनः पूर्ववद्विग्रहगतावसंज्ञिपञ्चेन्द्रियप्रायोग्योऽपि; इत्थं त्रय एव निरन्तरा अल्पतरस्थितिबन्धाः प्राप्यन्ते । यदि चासौ प्रागसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोपित्सुरासीत् , मृत्वा चासंज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पन्नस्तहिं तस्य विग्रहगतावसंज्ञिपञ्चेन्द्रियप्रायोग्यस्थितिबन्धो जायते,तथापि तत ऊर्ध्वमुत्पत्तिस्थानप्राप्तस्याऽपि तस्यासंक्षिपञ्चेन्द्रियप्रायोग्यपूर्वप्रवृत्तस्थितिबन्धस्यैव प्रवर्तनात् निरन्तरचतुर्थाल्पतरवन्धस्यासम्भव एव । इत्थं ह्येकेन्द्रियाद्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां भवप्रथमसमयप्रारब्धस्यैव स्थितिबन्धस्य द्वितीयादिसमयेषु प्रवर्तनात् निरन्तरास्त्रय एवाल्पतरवन्धाः प्राप्यन्ते, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां तु केषाश्चिदेकेन्द्रियविकलेन्द्रियेभ्य आगतानामन्तरालगतो भवप्रथमसमयेऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियप्रायोग्याधिकस्थितिबन्धस्य भावादुत्पत्तिस्थानप्राप्तौ भवद्वितीयसमये संक्षिपञ्चेन्द्रियप्राग्योग्याधिकतरस्थितिबन्धस्य च भावादल्पतरबन्धस्योत्कृष्टकालापेक्षया भूयस्कारस्योत्कृष्टबन्धकालः समयाधिकः प्राप्यत इति । इदं हि दिङ्मात्रम् , यतो यथा संज्ञिपञ्वेन्द्रियाणां तत्र तत्रोत्पच्या हीनतरस्थितिबन्धभावात् पूर्ववत् त्रिसमया अल्पतरस्थितिबन्धस्य निरन्तरबन्धकालो लभ्यते, तथैकेन्द्रियतया वा द्वीन्द्रियतया वा त्रीन्द्रियतया वोत्पित्सुचतुरिन्द्रियापेक्षयाऽप्यसौ निरन्तरत्रिसमयाल्पतरबन्धकालोऽवाप्यते । एवमेव त्रीन्द्रियादीनपेक्ष्यापि बोद्धव्यम् । भूयस्कारसत्कचतुःसमयोत्कृष्टबन्धकालस्तु तथा नोत्पद्यते । कुतः ? तृतीयसमयभाव्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियप्रायोग्यबन्धप्रयुक्तात् निरन्तरप्राप्ततृतीयसमयभूयस्कारादुर्ध्वमप्यव्यवहितोत्तरसमय उत्पत्तिस्थानप्राप्तो यस्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियबन्धप्रायोग्यान्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणस्थितिबन्धस्य सम्भवात निरन्तरश्चतुर्थसमयबन्धकालो लभ्यते, असोऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमस्थितिबन्धो द्वीन्द्रियादितयोत्पित्सूनामेकेन्द्रियाणां न भवति, ततश्च तदपेक्षस्य निरन्तरचतुर्थभूयस्कारस्थितिबन्धस्याप्यलाभादुस्कृष्टकालस्त्रयः समया एव सम्भवति, न पुनश्चत्वारः समया इत्यलं विस्तरेण ।।
अथाऽवस्थितस्थितिबन्धस्योत्कृष्टकालमाह-"अवट्ठियस्स भवे" इत्यादि, सप्तानामवस्थितस्थितिबन्धस्य 'परम:'-उत्कृष्टः कालो 'भिन्नमुहूर्तम्'-अन्तमुहूतं भवेदित्यर्थः । कुतः ? इति चेत् , एकस्य नियतस्थितिबन्धस्योत्कृष्टतोऽप्यन्तर्मुहूर्तादूचं नियमतः स्थितिवन्धान्तरतया परावर्तनात् ।
. इदमुक्तं भवति-एकैकस्थितिबन्धप्रायोग्यानामध्यवसायानां नियमतः प्रत्यन्तमुहूर्त परावत्तिर्भवति, अतस्तन्निबन्धनाः स्थितिबन्धा अप्युत्कृष्टतोऽन्तमुहूर्तमवस्थाय परावृत्त्य पूर्वापेक्षया हीना अधिका वा नियमन जायन्ते, तथा च सति समयमेकं भूयस्कारस्याल्पतरस्य वा स्थितिबन्धस्य भावादवस्थितस्थितिवन्धो व्युपरमते, इत्येवं प्रागुक्तनीत्याऽवस्थितस्थितिवन्धस्योत्कृष्टो बन्धकालोऽन्तर्मुहूर्तमेव सम्पद्यते, नाधिक इति । अथावक्तव्यस्य प्रकृतबन्धकालमाह-"वत्तव्वस्स" इत्यादि,
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४४८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानो भूयस्कारादिकाल पूर्वमकारस्य दर्शनात् परमशब्दस्य घण्टालालान्यायेनात्रापि पोजनाच्चाऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य 'परमः'-उत्कृष्टः कालः 'समयः'-एकसमयो ज्ञेयः । न तु अवक्तव्यस्योत्कृष्टबन्धकालोऽतो जघन्यचन्धकालबत् कथं समयमात्रः, न पुनद्वयादिसमयप्रमाणः ? इति चे, तत्स्वरूपस्यैव तथात्वात् ।
अयम्भाव:-प्रकृतकालोऽनन्तरं प्ररूपणीयमन्तरं चैकजीवमपेक्ष्य प्ररूपणीये, किश्चावन्धादुत्तरं जाममानस्थितिबन्धः प्रथमसमय एवाताव्य उत्तः,तथाभूतोऽवक्तव्यबन्धः का.श्चदेकां प्रकृतिमपेक्ष्य कस्याप्येक जीवस्य निरन्तरे समय येऽपि न प्राप्यते, अबन्धापेक्षत्वात्तस्य । अवक्तव्यबन्धादृवं द्वितीयसमरे यद्यपि स्थितिवन्धो भवति, तद्यपि नासाववक्तव्यः, तत्पूर्वसमयेऽवन्धस्यानावात् , यदि चासत्कल्पनया कस्यचिज्जन्तोः प्रथम समयेऽवक्तव्यः, द्वितीयसमयेऽवन्धस्तवं तृतीयसमये पुनर्बन्धभावेनावक्तव्यबन्धलाभस्तदाप्यसो न निरन्तरः, अवक्तव्यबन्ध यस्य मध्य एकसामयिकस्यान्तरालस्य भावात् । इत्येवमेकजीवमाश्रित्यैकां च प्रकृतीमाश्रित्य नैरन्तर्येण समयद्वयमवक्तव्यवन्धस्यालान एव, तदा तदधिकका उस्य तु का कथा । इत्येवमवक्तव्यवन्धलक्षणकृत एवकजीवाश्रय एकप्रकृत्याश्रयोऽवक्तव्यस्थितिबन्धकालोऽजघन्यानुत्कृष्टः समयमात्रो भवति । प्रकृतेऽप्येकैकप्रकृतेरेकजीवाश्रितावक्तव्यस्थितिबन्एकालोऽभिधानीयः, अतोऽसो समयमात्रोऽभिडित इति ॥५६५-५६६।। तदेवमुक्तः सप्तप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकाल ओघतः । अथाऽऽदेशत आह
भूओगाराईणं चउण्ह सत्तण्हऽणू वे समयो । सवासु, अह परमो भूओगारस्स चउ समया ॥५६७॥ तिरिय-तित स-काय-णम-कसायचउग-दुअणाण-अयतेसु।
णयणेयर-अपसत्थतिलेसा-भवियियर-मिच्छेमु॥५६८॥ (प्रे०) “भूओगराईण” इत्यादि, आर्वांनां सप्तानां यूप्रकृतीनां "भूओगाराईणं चउण्ह" ति भयस्कारादीनां चतुणा स्थितिवन्धविशेषाणां "ण अवे समयो" ति पूर्वमकारस्य दर्शनाद् 'अणुः'-जघन्यकालः समयो भवेत् । कासु मार्गणास्वित्याह-"सव्वासु" ति या तु मार्गणासु प्रथमे सत्पदद्वारे सप्तप्रकृतीनां भूयस्कारादितत्तस्थितिबन्धाः सन्तोऽभिहितास्तातु सर्वासु मार्गणास्वित्यर्थः । अथैतेषामेव भयस्कारादिस्थितियाना पुत्कृष्ट कालं दिदर्शविठाही तावत्सप्तानां भयस्कारस्थितिबन्धविषयं तं दर्शयन्नाह-"अह परमो” इत्यादिना, तत्राथशब्द आनन्तर्ये, ततः सप्तप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धानां जघन्यकालाभिधानानन्तरं प्ररूपयितव्ये तेषामुत्कृष्टकाल आदौ सप्तानां भयस्कारस्थितिबन्धस्य 'परमः'-उत्कृष्टकाठः "चउसमय" ति चत्वारः समयाः । किं सर्वासु मार्गणास्त कासुचिदेवेत्याह-"तिरिये" त्यादि, तिर्यग्गत्योधमार्गणायां, त्रिषु वस
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मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारकाल० ] भूयस्काराधिकारे कालद्वारम्
[ ४४९ कायमार्गणाभेदेषु, काययोग-नपुंसकवेद-कषायचतुष्क-मन्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयम-चक्षु-रचक्षुदर्शनाऽप्रशस्तकृष्णादित्रिलेश्या-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वमार्गणास्वित्येवमेतास्वेकविंशतिमार्गणासु ।
अयम्भावः-एतासु तिर्यग्गत्योपाद्यकविंशतिमार्गणासु प्रत्येकमेकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाद्यन्यतमजातीयजीवानां पञ्चेन्द्रियजातीयजीवानां च समावेशेनैकेन्द्रियादितश्च्युत्वा पञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमानानामपि न प्रकृतमार्गणातः प्रच्युतिर्भवति, तथा च सत्योघवदेकेन्द्रियादिभवसत्कचरमविचरमसमययोः पञ्चेन्द्रियभवसत्कयोरन्तरालगत्युत्पत्तिस्थानप्राप्तिसमययोश्चेत्येव चतुषु समयेषु निरन्तरं भूयस्कारबन्धानां लाभसम्भवात् सप्तानां भूयस्कारवन्धस्योत्कृष्टकाल ओघवच्चतुःसमयप्रमाणोऽभिहितः । विशेषभावनात्वोधवत्स्वयमेव द्रष्टव्येति ।।५६७-५६८||
भूगारस्स तिसमया पणिदितिरियचउगे पणिदितिगे।
ओरालियमीसम्मि य थी-पुम-अमणेसु आहारे ॥५६९॥ (प्रे०) "भूगारस्से" त्यादि, प्रकृतानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकं "भूगारस्स" त्ति भवस्कारलक्षणम्य स्थितिबन्धस्य “तिसमय" ति उत्कृष्ट एकजीवाश्रयः कालस्त्रयः समया इत्यर्थः, । कासु मार्गणास्वित्याह--"पणिंदितिरियचउगे” इत्यादि, पञ्वेन्द्रियतिर्यग्चतुष्के, पञ्चेन्द्रियजातिभेदत्रिके, औदाकिमिश्रकाययोगे। चः समुच्चये । स्त्रीवेद-पुवेदा-ऽसंशिष्वाहारिमार्गणायां चेत्यर्थः । तत्र-चतुर्यु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदेषु, त्रिषु पञ्चेन्द्रियजातिभेदेषु स्त्रीवेदपुरुषवेदमार्गणयोश्च प्रत्येकं संज्ञिनामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां च जीवानां समावेशादसंज्ञिभ्यः संज्ञितयोप्यमानानां प्रथमद्विसमयभूयस्कारावसंज्ञिभवचरमसमय द्वयसत्को, तृतीयसमयभूयस्कारस्तु संज्ञिभवप्रथमसमयमत्कः, इत्येवमुत्कृष्टतस्त्रिसमयाः सप्तानां निरन्तरभ्यस्कारवन्धकालः प्राप्यते । असंज्ञिमार्गणायां तु संज्ञिनामसमावेशेऽप्यन्यान्यजातीयानां जीवानां समावेशेनैकेन्द्रियादिभ्यो द्वीन्द्रियादितयोत्पद्यमानजीवैर्निरन्तरतृतीयसमयकृतभ्यस्कारमपेक्ष्यासो बोद्धव्यः । औदारिकमिश्रकाययोगमार्गणायां तूभयथाऽप्युपपद्यत इति यथेच्छं भावनीय इति ।।५६९।।
णाणतिगे ओहिम्मि य सुहलेसा-सम्म-खइ-उवसमेसु।
वेअगसण्णीसु गुरू भूओगारस्स समया दो ॥५७०॥ (प्रे०) “णाणतिगे” इत्यादि, मतिज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽवधिज्ञानमार्गणारूपे ज्ञानमार्गणात्रिके, अवधिदर्शनमार्गणायाम् । चः समुच्चये । तेजः-पद्म-शुक्लायत्रिशभलेश्या-सम्यक्त्वौघ-क्षायिकसम्यक्वी-पशमिकसम्यक्त्वमार्गणासु क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-संज्ञिमार्गणयोश्चेत्येतासु द्वादशमार्गणासु प्रत्येकं “गुरू भूओगारस्स समया दो"त्ति सप्तप्रकृतीनां भूयस्कारस्थितिबन्धस्य 'गुरु'-उत्कृष्टः कालो द्वौ समयौ । एतासु प्रत्येकं संश्यसंज्ञिनां भिन्नभिन्नजातीयानां या जीवानामसमावेशेन
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४५० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारबन्धकाल • जात्यन्तरपरावृत्यादिकारणान्तरसव्यपेक्षस्तृतीयसमयभूयस्कारो न लभ्यत इत्यतस्तथास्वाभाव्येन संक्लेशक्षयप्रयुक्त द्विसमयभूयस्कारमपेक्ष्य प्रकृतकालो भावनीयः । यद्वा मतिज्ञानादिमार्गणागतानां देशसंयतादिजीवानां देवगतावुत्पत्त्या तत्र प्रथमसमये भूयस्कारबन्धसम्भवेऽपि तथाविधानां प्राग्भवे भवचरमसमय एकस्यैव भूयस्कारस्य सम्भवात् तदपेक्षया प्रकृतबन्धकालो भावनीयः, केवलं संज्ञिमार्गणायां मार्गणान्तरादागच्छतामन्तरालगतावेकं समयमुत्पत्तिस्थानप्राप्तौ च द्वितीयसमयमित्येवं समयद्वयं नैरन्तर्येण भूयस्कारबन्धसम्भवात् प्रकारान्तरेणाऽपि द्वौ समयौ प्रकृतबन्धकालो द्रष्टव्यः। केचित्तु स्वस्थाने देशसंयमाद्यवस्थायां कालं कृत्वा देवगतावुत्पद्यमानानामपि मनुष्यादिभवद्विचरम-चरमसमययोस्तथास्वाभाव्येन भूयस्कारद्वयस्याविरोधात्प्रकृतसर्वमार्गणासु निरन्तरत्रिसमयभूयस्कारमपीच्छन्तीति ॥५७०॥
अथ शेषमार्गणासु सप्तप्रकृतीनां भूयस्कारस्थितिबन्धस्योत्कृष्टकालं दर्शयन्नेकामार्यामाह
कम्मण-गयवेएसुसुहुमा-ऽणाहारगेसु खलु समयो। भूओंगारस्स गुरू सेसासु भवे दुवे समया ॥५७१॥
(प्रे०) "कम्मणगयवेएसु” इत्यादि, कार्मणकाययोगा-ऽपगतवेदमार्गणयोः सूक्ष्मसम्परायसंयमा-ऽनाहारकमार्गणयोश्च प्रत्येकं मूलसप्तप्रकृतीनां भयस्कारस्थितिबन्धस्य "गुरु" त्ति एकजीवाश्रयो 'गुरु'-उत्कृष्टः कालः “खलु समयो” त्ति खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , एकः समय एत्र भवतीत्यर्थः । तत्र-कार्मणकाययोगानाहारकमार्गणयोरेकेन्द्रियादिभ्यश्च्युत्वा द्वीन्द्रियादितयोत्पद्यमानानां विग्रहगतौ प्रथमसमयजायमानबन्धमपेक्ष्य यदा द्वितीये समयेऽधिकबन्धकरणे भूयस्कारस्थितिबन्धो भवति, तदा एकसमयभयस्कारः प्राप्यते । अपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायमार्गणयोरपि प्रत्येकं स्थितिबन्धानां मरणव्याघाताभावेऽन्तमुहूतं यावदविरततया प्रवर्तनात् श्रेणितोऽद्धाक्षयेण क्रमशः प्रतिपतन्तं जीवमपेक्ष्य स्थितिबन्धप्रारम्भप्रथमसमयसत्क एकसामायिको भूयस्कारस्थितिबन्धः प्राप्यते, तवं द्वितीयादिसमयेषु त्ववस्थितस्थितिबन्ध एव । मरणव्याघातेन निरन्तरं सम्भवन् हितीय समयभूयस्कारस्तु नापगतवेद-सूक्ष्मसम्परायमार्गणयोः, किन्तु पुरुषवेदा-ऽसंयममार्गणयोरित्येवमेकसमयादधिककालस्यासम्भव एव इति । उक्तशेषमार्गणास्वाह-"सेसास” इत्यादिना 'भओगारस्स गुरू' इत्यस्य देहलीदीपकन्यायेनात्रापि योजनाच्छेपासु नरकगत्योघाद्यकविंशत्यभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकं सप्तप्रकृतीनां भयस्कारस्थितिबन्धस्य 'गुरुः'-उत्कृष्टः कालो द्वौ समयो भवेदित्यर्थः।
तत्र शेषमार्गणा इमाः--अष्टौ नरकगतिभेदाः, चत्वारो मनुष्यगतिभेदाः, त्रिंशद्देवगतिभेदाः, सप्तैकेन्द्रियभेदाः, नव विकलेन्द्रियजातिभेदाः, पृथिवीकायादिवायुकायान्तानां प्रत्येकं सप्त सप्तेत्यष्टाविंशतिभेदाः,वनस्पतिकायमार्गणासत्का एकादश भेदाः, दश मनोयोगवचोयोगमार्गणाभेदाः,
औदारिक-चैक्रिय-वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोग--मनःपर्यवज्ञान-विभङ्गज्ञान-संयमोघसामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिकसंयम-देशसंयम-सासादन-मिश्रदृष्टिमार्गणाभेदाश्चेति ।
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मार्गणास्वायुर्वर्जानामल्पतरबन्धकाल० ] भूयस्काराधिकारे कालद्वारम
[ ४५१ नन्वेतासु निरयगत्योघादिशेषमार्गणासु कस्मात्सप्तानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टो भूयस्कारस्थितिबन्धकालो द्वौ समयावेव, न पुनस्तदधिकस्त्रयः समयाश्चत्वारः समया वा ? इति चेद् , उच्यते, निरन्तरतृतीयसमयभूयस्कारो हि प्राग्दर्शितनीन्या य एकेन्द्रियादयो जीवा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियादितया जात्यन्तरे समुत्पद्यन्ते तेषां जायते, जात्यन्तरपरावृत्यादेविहाय तथास्वाभाव्येन निरन्तरं तृतीयादेभ यस्कारबन्धस्याऽल्पतरबन्धस्य वाऽसम्भवात् । जात्यन्तरपरावृत्तिर्हि भवक्षयमविना भाविनी । इत्थञ्च निरयगत्योघादिषु यासु मार्गणासु भवक्षयेण सममेव मार्गणाक्षयोऽपि नियमेन जायते तासु न सम्भवति निरन्तरस्तृतीयसमयभयस्कारस्थितिबन्धः, अतस्तासु सर्वनिरयभेद-सर्वदेवभेद-पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोगी-दारिक-वैक्रिया-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोग-मनःपयेवज्ञानविभङ्गज्ञान-संयमोघ-सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिकसंयम-देशसंयममार्गणासु द्वौ समयावेव निरन्तरभूयस्कारकालो दर्शितः, न पुनस्त्रयः समयाः चत्वारः समया वा, तृतीयसमनिरन्तरभूयस्कारासम्भवे चतुर्थसमयनिरन्तरभूयस्कारस्यापि सुतरामसम्भवात् । न च मा भवतु निरयगत्योघादौ मरणव्याघातेन मार्गणाविच्छेदान्निरन्तरस्तृतीयसमयभयस्कारः, किन्तु ये सम्यग्दृशो नारकादयो जीवास्तथास्वाभाव्येन निरन्तरसमयद्वयं भूयस्कारो निर्वापकृष्टतरं गुणस्थानकान्तरं स्पृशन्ति, तेषां तत्र नियमतोऽधिकस्थितिवन्धभावात्प्राप्स्यति निरन्तरस्तृतीयसमयभूयस्कार इत्यारेकणीयम् । यतो मिथ्यात्वादितथाविधगुणान्तरपरावृत्तेरनन्तरपूर्वसमयेषु तादृशजीवानां तथाविधहीनतरगुणान्तराभिमुखतयाऽऽन्तमु हर्तिकस्थितिबन्धा एव प्रवर्तन्ते, न पुनः सामयिकस्थितिबन्धाः । इत्थं च तादृशां जीवानां निरन्तरद्विसमयभयस्कारावेव न प्राप्यते । येषां पुनस्तथास्वाभाव्येन द्विसामयिकः सामयिको वा भयस्कारो जायते ते तु तदनन्तरसमये तथाविधहीनतरगुणान्तरमेव न गच्छन्ति,तत्कुतो निरयगत्योधादिमार्गणासु तादृशसम्यग्दृष्टयादिजीवानपेक्ष्यापि निरन्तरतृतीयसमयभूयस्कारस्थितिबन्धसम्भवः, न कुतश्चिदपि । अत एव सम्यग्मिथ्यात्व-सासादन-मार्गणयोरपि प्रकृतकालो समयद्वयमेवोक्तः । वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणायां प्रकृतग्रन्थाधिकृतविवक्षया भवप्रत्ययवैक्रियकाययोगोपेतजीवानामेव प्रवेशात्तेषां च मरणासम्भवेन जात्यन्तरपरावृत्तेरप्यसम्भवान्न प्राप्यत उक्ताऽधिको भूयस्कारस्थितिबन्धकालः । शेषेषु मनुष्यगतिभेदचतुष्क-सबैकेन्द्रिय-सर्वविकलेन्द्रियसर्वपृथिव्यादिवनस्पतिकायान्तभेदेषु यद्यपि भवक्षयेण समं मार्गणाक्षयो नाऽपि भवति, तथापि यदा भवक्षयेण समं जात्यन्तरपरावत्तिर्जायते तदा तु नियमेन मार्गणाक्षयोऽपि जायते, ततश्च न लभ्यते, निरयगत्योधादिमार्गणावन्निरन्तरतृतीयसमयभूयस्कारः, तदभावे चतुर्थसमयभूयस्कारश्चेति ॥५७१॥
तदेवमुक्तो मूलसप्तप्रकृतिसत्कभूयस्कारस्थितिबन्धस्योत्कृष्ट काल आदेशतः । साम्प्रतं सप्तानामल्पतरस्थितिबन्धस्योत्कृष्ट कालं दिदर्शयिषुराह
तिरियपणिदि-तसेसु सव्वेसुकाय-उरलमीसेसु। थी-पुरिस-णपुसेसुकसायचउग-दुअणाणेसु ॥५७२॥
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४५२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिटिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानामल्पतरबन्धकाल ०
अयत-णयणियर-असुहतिलेसा-भवियियर-मिच्छ-अमणेसु । आहारगे य जेट्टो तिखणाऽप्पयरस्स सत्तण्हं ॥ ५७३ ॥
(प्रे) "तिरियपणिदितसेसु" इत्यादि, सर्वेषु तिर्यग्गतिभेदेषु सर्वेषु पञ्चेन्द्रियजातिभेदेषु, सर्वेषु सकायभेदेषु, काययोगसामान्यौ-दारिकमिश्रकाययोगयोः, स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसक वेदेषु, कषायचतुष्क-मत्यज्ञान- श्रुताज्ञानेष्वसंयम-चक्षुर्दर्शना--ऽचक्षुर्दर्शन- कृष्णाद्यशुभत्रिलेश्या भव्या-भव्यमिथ्यात्वा ऽसंज्ञिष्वाहारके चेत्येवं समुदितासु त्रयस्त्रिंशन्मार्गणास्थानेषु प्रत्येकमायुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकमल्पतरस्थितिबन्धस्य 'ज्येष्ठः ' -उत्कृष्टः कालः “तिखणा" ति त्रयः समयाः, भवतीति शेषः । तत्र प्रथम द्वौ समय त्वोघवत्तथास्वाभाव्यप्रयुक्तावेव, तृतीयसमयाल्पतरबन्धोऽपि तथैव, नवरं यथासम्भवं संज्ञिपञ्चेन्द्रियादिभ्यश्च्युत्वाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियादितयोत्पद्यमानानां तत्तन्मार्गणागतानां जीवानां भवप्रथमसमयस्थितिबन्धमपेक्ष्य विज्ञेयः । ननु भवतु तिर्यग्गत्योघादिमार्गणासु नानाजातीयजीवानां प्रवेशेन जात्यन्तर उत्पन्यापि तिर्यग्गत्योघादिमार्गणास्वेवोत्पत्तेः सम्भवाज्जात्यन्तरोत्पत्तिप्रयुक्तस्तृतीयसमयाऽल्पतरः; ततश्चाल्पतरस्योत्कृष्टो बन्धकालस्त्रयः समयाः, कथं पुनः सर्वेषु पञ्चेन्द्रियजातिभेदेषु स्त्रीवेदमार्गणायां पुवेदमार्गणायामपि प्रकृतकालस्त्रिसमयः सम्पद्यते ? इति चेद्, उच्यते, पञ्चेन्द्रियजातिमार्गणायां संज्ञिनामिवाऽ-संज्ञिजीवानामपि प्रवेशो विद्यते, ते चासंज्ञिनो यद्यपि पञ्चेन्द्रियजातीया एव, तथाऽपि तेषामेकेन्द्रियादिवद् विवक्षाधीना पृथग्जातिरेवाङ्गीकर्तव्या, एकेन्द्रियादिवन्मरणं विना संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणा मध्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रित्वेनाभवनात् विजातीयस्य सहस्रसागरोपमत्रिसप्तभागादिप्रमाणस्य नियतस्थितिबन्ध विशेषस्यैव भावाच्च । इत्थं च भवचरमसमयद्व येऽल्पतरस्थितिबन्धद्वयं कृत्वाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतया ये संज्ञिपवेन्द्रियजीवा उत्पद्यन्ते तेषां तत्र भवप्रथम समयेऽल्पतरबन्धः प्राप्यते, स च प्रकृतपञ्चेन्द्रियमार्गणागतजीवमपेक्ष्य निरन्तरस्तृतीयाऽल्पतरबन्ध एव । एवमेव पर्याप्तपञ्चेन्द्रिया- पर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदयोः स्त्रीवेद- पुवेदमार्गणाद्वये च विज्ञेयम्, स्त्रीवेदमार्गणादावपि पञ्चसङ्ग्रहाद्यभिप्रायेणासंज्ञिनामपि प्रवेशात् । उक्तं च पञ्चसङ्ग्रहमूलटीकाकारैः
,
1
'यद्यपि चासंज्ञिपर्याता पर्याप्तौ नपुंसकौ तथाऽपि स्त्री-पुं' सलिङ्गाकारमात्रमङ्गीकृत्य स्त्री सावुक्तौ' इति । सप्ततिकाचूर्णिकारस्तु - "असन्निपज्जत्तगस्स तिहिं वि वेएहि " इति वचनादसंज्ञिन्यपि लब्धिपर्याप्तके यथायोगं वेदत्रयस्याप्युदयमिच्छति' इत्यादि सप्ततिकाभाष्यवृत्तौ ।
यदि चाभिप्रायान्तरेणासंज्ञिनां केवलं नपुंसक वेदमधिकृत्य प्रकृताल्पतरबन्धकालचिन्तनीयस्तदा त्वसौ मार्गणाद्वये समयद्वयमेव प्राप्येतेत्येवं विवक्षाभेदेनाऽभिप्रायभेदेन वा स्वयमेव यथासम्भवं विभावनीयः प्रस्तुतकाल इति ।। ५७२-५७२॥
अथ शेषमार्गणासु सप्तप्रकृतिसत्काल्पतरस्थितिबन्धस्योत्कृष्टकालमाह
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वायुर्वनां अवस्थितावक्तव्यकाल० ] भूयस्काराधिकारे कालद्वारम्
कम्मण-गयवेएस सुहुमा - Sणाहारसु होइ खणो । अप्पयरस्सुकोसो सेसासु गुरू दुवे समया ॥ ५७४॥
(प्र०) "कम्मणगय वेएसु" इत्यादि, कार्मणकापयोगाऽपगतवेदमार्गणयोः सूक्ष्मसम्परायसंयमानाहारकमार्गणयोः प्रत्येकं सप्तप्रकृतीनामल्पतरस्थितिबन्धस्योत्कृष्टकालः 'क्षणः' - समयो भवति । अयं हि प्रकृतमार्गणास्वेव प्राग्दर्शितभयस्कारस्थितिबन्धस्यैकसमयकालवद्भावनीयः । उक्तशेषमार्गणास्वाह-"सेसासु गुरू दुवे समयो" त्ति अनन्तरोक्ततिर्यग्गत्योघादिसप्तत्रिंशन्मार्गणावर्षासु शेषासु त्रयस्त्रिंशदभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकं सप्तप्रकृतीनामल्पतरस्थितिबन्धस्य 'गुरुः' - उत्कृष्टः कालो द्वौ समयौ भवतीत्यर्थः । तत्र शेषमार्गणा नामत एता::- अष्टौ नरकगतिभेदाः, चत्वारो मनुष्यगतिभेदाः, त्रिंशद् देवगतिभेदाः, सप्तैकेन्द्रियजातिभेदाः, नव विकलेन्द्रियजातिभेदाः, पृथिव्यादिवनस्पतिकायान्तपञ्चकाय मार्गणासत्का एकोनचत्वारिंशद्भेदाः, पञ्चमनोयोगभेदाः, पञ्चवचोयोगभेदाः, औदारिक-वैक्रिय-वैक्रियमिश्रा -ऽऽहारका ऽऽहारकमिश्रकाययोगभेदाः, मत्यादिचतुज्ञान - विभङ्गज्ञान-संयमौघ - सामायिक - छेदोपस्थापन - परिहारविशुद्धिक- देशसंयमा-ऽवधिदर्शन तेजःपद्म--शुक्ललेश्या-सम्यक्त्वौघ - क्षायिक क्षायोपशमिको-- पशमिकसम्यक्त्व - सम्यग्मिथ्यात्व - सासादनसंज्ञिमार्गणाभेदाश्चेति । एतासु कुतो द्वौ समयावेत्र ? उच्यते, निरन्तरतृतीयसमयाल्पतरस्थितिबन्धो जात्यन्तर उत्पत्त्यैव लभ्यत इति प्रागसद्भावितम् । स च प्रकृते न सम्भवति, जात्यन्तर उत्पादे प्रकृतनरकगत्योघादिमार्गणानामेव विच्छेदाद् इत्थं हि द्विसामयिकभूयस्कारस्थितिबन्धकालबदविकृतशेष मार्गणासु द्विसामयिकाल्प नरबन्धकालोऽपि भावनीय इति ॥ ५७४ ||
अथ सप्तप्रकृतीनामेवावस्थिताऽवक्तव्य स्थितिबन्धयोरुत्कृष्टकालं मार्गणास्थानेषु दर्शयन्नाह - कम्माहारे अस्सि तिखणा गुरू यो । सेसासु मुहुत्ततो जहवत्तव्वो तह खणो से || ५७५ ||
1
(प्रे०) “कम्मणाहारेसु उ" इत्यादि, तत्र तुकारो विवक्षाविशेषद्योतनार्थः । ततो विवक्षाविशेषेण कार्मणका योगा- नाहारकमार्गणयोर्ज्ञानावरणादीनामवस्थितस्थितिबन्धस्य 'त्रिक्षणाः' - त्रयस्समयाः “गुरू” त्ति उत्कृष्टबन्धकालो ज्ञेयः । विवक्षाविशेषस्त्वत्र मार्गगाप्रथमसमयभाविस्थितिबन्धस्याऽप्यनन्तरपूर्वसमये मार्गणान्तरभाविस्थितिबन्धेन तुल्यत्वेऽवस्थितस्थितिबन्धत्वविवक्षणलक्षणः ।
[ ४५३
एतदुक्तं भवति-मार्गणास्थानेषु भूयस्कारादिस्थितिबन्धसत्पदत्वं विवक्षितमार्गणायामेव पूर्वसमयजातेन स्थितिबन्धादिना सहाधिक्यतुल्यत्वादिना तदुत्तरसमयभा विस्थितिबन्धस्येदानीं यावद् विवक्षितम्, तदपेक्षया स्वामित्वादिप्ररूपणं कृतम्, उत्तरत्र कालादिप्ररूपणमपि तदपेक्षयैव करिष्यते च । अनया विवक्षया देवगत्योघादिमार्गणास्थानेषु ज्ञानावरणादीनामवक्तव्य स्थितिबन्धाभाववन्न लभ्यते कार्मणकाययोगादिमार्गणाद्वयेऽपि मार्गणाप्रथमसमयभाविस्थितिबन्धो भूयस्कारादितया,
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४५४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ विवक्षान्तरेण भूयस्कारादिप्ररूपणे दिक् अवस्थितस्थितिवन्धतया वा, तदभावेऽवस्थितस्थितिवन्धस्योत्कृष्टतस्त्रिसमयकालश्च । कथम् ? एकजीवाश्रयमार्गणोत्कृष्टावस्थानस्यैव त्रिसमयमात्रत्वात् । एवमपि “कम्माणाहारेसु उ अवहिअस्स तिखणा गुरू णेयो” इत्यभिधानान पूर्वोत्तरग्रन्थविरोधः । कथम् ? इति चेद् , पूर्वोत्तरग्रन्थाऽधिकृतविवक्षया कार्मणकाययोगादिमार्गणाद्वये ज्ञानावरणादीनामवस्थितस्थितिबन्धोत्कृष्टकालस्य द्विसमयमात्रस्य स्पष्टत्वेऽपि समयत्रयस्य प्रतिपदानं तु विवक्षाविशेषेणैव । विवक्षाविशेषेण समयत्रयप्रतिपादनस्य बीजन्तु विवक्षाविशेषेणाऽपि भूयस्कारादिस्थितिबन्धप्ररूपणसम्भवप्रदर्शनम् , मार्गणान्तरचरमसमयभाविस्तोकादिस्थितिबन्धमपेक्ष्य तदुत्तरं विवक्षितमार्गणाप्रथमसमये नैरन्तर्येण जातस्य समयादिनाऽधिकादिस्थितिबन्धस्यापि भूयस्कारादिस्थितिबन्धत्वं विवक्ष्य भूयस्कारादिस्थितिबन्धप्ररूपणा सम्भवतीति भावः । केवलं नायं प्रकारोऽत्र मुख्यवच्याऽधिकृतः । कार्मणकाययोगादिमार्गणाद्वये ज्ञानावरणादीनामवस्थितस्थितिवन्धं विहायान्यत्र तस्यानधिकृतत्वेन गौणत्वात् ।
एवं हि द्विविधविवक्षया भयस्कारादिस्थितिवन्धप्ररूपणस्य सम्भवेऽप्येकविधविवक्षा मुख्यतयाऽऽहता, अन्यविधविवक्षा तु गौणभावेनैव दर्शिता, कार्मणकाययोगादिमार्गणाद्वये ज्ञानावरणादीनामवस्थितस्थितिवन्धलक्षणे स्थानविशेष एव तस्याधिकृतत्वात् ।
वस्तुतस्तु-कार्मणकाययोगादाववस्थितस्थितिबन्धलक्षणे स्थानविशेषे गौणभावनाभ्युपगता विवक्षैव मुख्यवच्या मार्गणान्तरेष्वादरणीयोचिता प्रतिभाति, न पुनर्या मुख्यतया निरयगत्योघादिसर्वमार्गणास्वधिकृता सा, तया विवक्षया प्रतिमार्गणं मार्गणाप्रथमसमयभाविस्थितिबन्धस्य भयस्कारादिचतुर्विवस्थितिमन्धानामन्यतमतयाऽप्राप्तेः तदप्ररूपणरूपन्यूनताभावात् ।
ननु अयमेव प्रकारो गौणः, यः पुनः कार्मणकाययोगादिमार्गणाहुये समयत्रयावस्थितस्थितिबन्धकालस्योत्पादको भवता गौणतयोच्यते, स एव मुख्य इत्यवधार्यताम् , तथाऽप्युक्तसर्वग्रन्थोपपत्तेः, विहाय देवगत्योघादौ ज्ञानावरणादीनामवक्तव्यस्थितिवन्धप्रतिषेधम् । स तु 'विवक्षितमार्गणायां तत्रैव भाविनं स्तोकादिस्थितिबन्धमपेक्ष्य तदनन्तरभाविस्थितिबन्धानां भूयस्कारादिस्थितिबन्धत्वम् , न पुनर्मार्गणान्तरभाविस्तोकादिस्थितिबन्धाद्यपेक्षया' इत्येवंलक्षणेन गौणीभूतेन विवक्षाविशेषेणैवोपपद्येत, न च स्यादुक्तन्यूनता ? इति चेत्, सत्यम्, निरयगत्योधादिसर्वमार्गणामुक्तसर्वसत्पदादिग्ररूपणस्य, एवं कार्मणा-ऽनाहारकमार्गणयोरवस्थितस्थितिवन्धविषयकप्ररूपणस्य देवगत्योधादिमागंणादाववक्तव्यस्थितिबन्धप्रतिषेधस्य च भवदुक्तनीत्योपपत्तेरपि कार्मणा-ऽनाहारकमार्गणाहये 'कम्मा-ऽणाहारेसुण होअप अंतर चेव' इत्यनेन वक्ष्यमाणस्यैकजीवाश्रयभूयस्कारादिस्थितिबन्धान्तरप्रतिषेधस्यानुपपत्तिरेव, अतस्तदर्थमपि देवगत्योधायुक्ताऽवक्तव्यस्थितिबन्धप्रतिषेधोपपत्तिवद् विवक्षान्तरानुसरणमावश्यकं स्याद्, न चैतद्युक्तम् , विवक्षान्तरेणाऽपि भूयस्कारादिस्थितिबन्धप्ररूपणं सम्भवतीत्येतावन्मात्रप्रदर्शनार्थं कुत्रचिद्देवगत्योघादौ केवलेऽक्तव्यस्थितिबन्धप्रतिषेधे तदनुसरणस्य पर्याप्तत्वेन पनः कामणाऽनाहारकमार्गणयोः भूयस्काराद्यन्तरप्रतिषेधे तदनुसरणस्य व्यर्थत्वात् । इत्यतः
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यन्त्रकम् ]
काल:
भूयस्कारस्थितिबन्धस्य
ओघवत्
समयः
उत्कृष्टतः- ३ समयाः । ४ समयाः
गति०
सर्व पञ्चेन्द्रिय तिर्यगोव० तिर्यग्० ४
१
इन्द्रिय● सर्वपञ्चेन्द्रिय.
३
जघन्यतः- समयः
काय०
भूयस्काराधिकारे कालद्वारम्
आयुर्वर्जसमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धसत्पदानामेकजीवाश्रयकालप्रदर्शकयन्त्रम्
योग
वेद०
कषाय०
ज्ञान०
दारिक
मिश्र० १
स्त्री० पु० २ नपुं० १
सर्व० ४
संयम०
दर्शन
लेश्या०
भव्य०
सम्य०
संज्ञी०
प्रसंज्ञी० १
आहारी० | ग्राहारक० १
सर्वमार्गणाः- १२
सर्वत्रस० ३
काययोगौघ० कार्मणः
१
मत्यज्ञान०
श्रुताज्ञान०
असंयम०
२
१
चक्षु प्रचक्षु. २
• समयः
अशुभ० ३
सर्व ० २
मिथात्व० १
१ समय :
१
अवेद० १
सूक्ष्मसम्पराय ० १
अनाहा० १
४
समयः
4 अल्पतरस्थितिबन्धस्य
२ समयौ
शेष०
४२
शेष० १६
ओघवत्ः
समयः
प्रोघवत्
समयः
३ समयाः १ समयः २ समयौ ३ समय अन्तर्मुहू
शेष० ४२
सर्व० ४७)
सर्वतिर्यग्गति
भेद० ५
सर्वपचेन्द्रि
३
शेष० ३६ सर्वत्रस० ३
शेष०
शेष० १६
शेष०३६
काययोग कार्मण० शेष०१५ प्रौदारिक१५ मिश्र०
१
२
त्रिवेद० ३ वेद० १
सर्व० ४
मत्यादि. ४ मत्यज्ञान० विभङ्ग- १
श्रुताज्ञान०
शेष० ५ असंयम०
१३३
२
अवधि० ★ १ चक्षु प्रचक्षु. २
शुभ० ★ ३ प्रशुभा० ३
सर्व २
१
शेष० ★६ मिथ्यात्व० १
संज्ञी० ★१ असंज्ञी. १
३३
समयः समयः समयः
ग्राहारी० १ अनाहा. १
४
शेष० ५
सूक्ष्मस० शेष० ५
१
[ ४५५
अवधि०१
शुभ० ३
अवस्थितस्य
शेष० ६
संज्ञी० १
कार्मरण०
१
सर्व ० १९
सर्व० ४२
शेष०
अना० १ ग्राहा० १
२३ १६८
२१ १३३ गाथाङ्काः - ५६७-५६६- ५६७-५६८ ५६७-५७१ ५६७-७०-७१५६७-७२-७३ ५६७-७४ ५६७-७४ ५६७-७५ ५६७-७५ 4 प्रवक्तव्य स्थितिबन्धो यत्र सन् तत्र सर्वत्र - प्रोघतो मनुष्यगत्योघादिषट्त्रिंशन्मार्गणास्थानेषु च तस्य प्रस्तुतकालोऽजघन्यानुत्कृष्ट: समयमात्रः ( गाथा - ५६७--५७५) ।
★ केचित्तु -मति श्रुताऽवधिज्ञाना-ऽवधिदर्शन--शुभलेश्यात्रिक-- सम्यक्त्वौघ क्षायिकौ -- पशमिक क्षायोपशमिकसंज्ञिलक्षणा द्वादशमार्ग़रासूत्कृष्टकालस्त्रयः समया: ( ७५ गाथावृत्तौ ) ।
सर्व०
27
23
13
33
१७
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४५६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानामवक्तव्यकाल०
आयुषोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोरेकजीवाश्रयकालप्रदर्शकयन्त्रकम्
प्रवक्तव्यस्य प्रोघत: सर्वमार्गणास्थानेषु च जघन्योत्कृष्टोभयथा समयमात्रः ।
गाथा
५६३
सर्वमनोवचोयोगभेद-काययोगौघा-ऽऽहारक-तन्मिश्री-दारिक-वैक्रियकाययोग-क्रोधादिकषायअल्पतरस्य | चतुष्कलक्षणासु १६ मार्गणासु जघन्यतः समयः, उत्कृष्टतोऽन्तमुहूर्तम् ।
अोघतः शेषमार्गणासु च जघन्योत्कृष्टोभयथाऽन्तर्मुहूर्तम् । कार्मणाऽनाहारकमार्गणाइयेऽवस्थितस्थितिबन्धविषयकप्रतिपादन एव मार्गणान्तरचरमसमयभाविस्तोकस्थितिबन्धेन तुल्यत्वादिना तदुत्तरप्रवृत्तमार्गणाप्रथमसमयभाविस्थितिबन्धस्याऽपि भूयस्कारादित्वमित्येवंरूपा विवक्षा तादृग्विवक्षया प्ररूपणम्य सम्भवमात्रप्रदर्शनार्थ गोणतयाऽऽदृता, अन्यत्र तु सर्वत्र देवगत्योघादववक्तव्यस्थितिबन्धप्रतिषेधिका विवर्तवाङ्गीकृता, इति सैव मुख्यरूपेण विज्ञेया, तयैव पूर्वोत्तरग्रन्थो सङ्गमनीयः, विहाय कार्मणा-ऽनाहारकमार्गणाद्वयेऽवस्थितस्थितिवन्धविषयकारूपणमित्यलं पल्लवितेनेति ।
___ अनन्तरोक्तमार्गणाद्वयवर्जशेषमार्गणास्वाह-“सेसासु मुहुत्तंतो” त्ति सप्तमूलप्रकृतीनामत्रस्थितस्थितिबन्धस्योत्कृष्टकालः शेषास्वष्टषष्ट्युत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकमन्तमुहूर्तम् । अयमन्तर्मुहूर्तबन्धकालस्त्वोधवत्सुगमः । अथावक्तव्यस्थितिवन्धस्याह-"जहऽवत्तव्वो” इत्यादिना,तत्र "जह" त्ति 'यत्र'-यासु मार्गणासु “वत्तव्वो" त्ति अकारस्य दर्शनात्प्रकृतानामायुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धः प्राक् प्रथमे सत्पदद्वारे सत्तयाऽभिहित इत्यर्थः । “तह" त्ति 'तत्र'-तासु मनुष्यगत्योपादिपटत्रिंशन्मार्गणासु "खणो से" ति तस्यावक्तव्यस्थितिबन्धस्योत्कृष्टकालः 'क्षणः' - एकसमयो ज्ञेयः । अयम्भाव:-अपर्याप्तमेदवर्जेषु त्रिषु मनुष्यगतिभेदेषु तथैव पञ्चेन्द्रियौघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-सौघ-पर्याप्तत्रस-पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-काययोगसामान्यौ--दारिककाययोगा-ऽपगतवेद-मत्यादिचतुर्ज्ञान-संयमोघ--चक्षुरादित्रिदर्शन-शुक्ललेश्या-भव्य-सम्यक्त्वोध-क्षायिकसम्यक्त्वा-पशमिकसम्यक्त्व-संड्या-ऽऽहारिमार्गणाभेदेषु च सप्तानामपि प्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धस्योत्कृष्टकाल एकः समयः, लोभमार्गणायां मोहनीयकर्मणोऽवक्तव्यस्थितिवन्धस्योत्कृष्टकाल एकसमयश्च । शेषमार्गणासु शेषकर्मणां चावक्तव्यस्थितिबन्धस्यैवाभावादमी नोच्यत इति । वस्तुतोऽवक्तव्यस्याऽजघन्यानुत्कृष्टकाल एव समयः, यद्यप्येवं तथापि प्राग लाघवार्थं भूयस्कारादिचतुर्विधस्थितिबन्धानां प्रत्येकं जघन्यकालं समयमात्रमभिधाय तदनन्तरं भूयस्कारादिवन्धानामुत्कृष्टकालस्य भेदेनाभिधाने स्यादाशङ्का-'अवक्तव्यस्थितिबन्धस्योत्कृष्टः कालः कियान्' इत्यतोऽयो प्राग जधन्यव्यपदेशेनाभिहितोऽप्यत्रोत्कृष्टव्यपदेशेन पुनरप्यभिहित इति ॥५७५।।
तदेवं प्रतिपादित आयुर्वर्जशेषसप्तकर्मणां भूयस्कारादिस्थितिबन्धस्यैकजीवाश्रयोत्कृष्ट कालोऽपि मार्गणास्थानेषु । तस्मिंश्च प्रतिपादिते गतं तृतीयमेकजीवाश्रय कालद्वारम् । ॥ इति श्रीवन्धविधाने मलप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीये भूयस्काराधिकारे तृतीयमेकजीवाश्रयकालद्वारं समाप्तम् ॥
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॥ अथ चतुर्थमन्तरद्वारम् ॥ साम्प्रतं क्रमप्राप्तेऽन्तरद्वारे मूलप्रकृतिसत्कभूयस्कारादिस्थितिबन्धानामेकजीवाश्रितमन्तरं प्रहरूपयिषुरादौ तावदोघत आह
सत्तण्ह अंतरं खलु भूगार-प्पयर-ऽवडिआण भवे । समयो हस्सं परमं भिन्नमुहुत्तं मुणेयव्वं ॥५७६॥ सत्तण्ह मुहुत्तंतोऽवत्तव्वस्संतरं लहुणेयं । जेट्ठ अद्धपरट्टो देसूणो पोग्गलाण भवे ॥५७७॥ आउस्स अंतरं खलु पयाण दोण्ह वि लहुमुहुत्तंतो।
उक्कोस्सं विण्णेयं तेत्तीसा सागराऽभहिया ॥५७८॥ (प्रे०) “सत्तण्हं अंतरं' इत्यादि, आयुर्वेर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां भूयस्कारा-ल्पतराऽवस्थितलक्षणानां स्थितिबन्धानां प्रत्येकमेकजीवाश्रयमन्तरं खलु भवेत् । किदित्याह-"समयो हस्सं" ति 'हवं'-जघन्यं 'समयः' -एकसमयो भवेत्, “परमं भिन्नमुहत्तं मुणेयवं" ति तेषामेव भूयस्कादिस्थितिबन्धानां 'परमम्'-उत्कृष्टमन्तरं 'भिन्नमुहूर्तम्'-अन्तर्मुहूतं ज्ञातव्यमित्यर्थः ।
इमेऽत्रोपपत्तिपन्थानः--कस्यचिद्देशसंयतादेर्भवद्विचरमसमये पूर्वस्थितिबन्धापेक्षयाऽधिकस्थितिबन्धो जातस्ततस्तस्य भयस्कारस्थितिबन्धोऽभूत् , ततस्तु भवचरमसमये तावन्मात्रः स एव स्थितिबन्धः प्रवृत इत्येवं भवचरमसमये तस्याऽवस्थितो नाम स्थितिबन्धोऽभूत् , तदूर्ध्वं तु कालकरणेन देवगतावुत्पन्नस्य तस्य तत्राऽसंयमावस्थायां प्रत्याख्यानावरणकषायोदयात् पूर्वभवचरमसमयापेक्षया संख्येयगुणाधिकस्थितिबन्धः प्रवृत्तः, अतस्तदानीं तस्य जन्तोः पुनरपि भूयस्कारस्थितिबन्धः प्राप्तः । एवं तस्य पूर्वभवद्विचरमसमयजातोतरभवप्रथमसमयजातो भयस्कारबन्धावेकसामायिकेनावस्थितस्थितिबन्धेनान्तरितावभताम् । एतादृशजीवन कतस्यैकसामयिकावस्थितस्थितिबन्धान्तरितभूयस्कारस्थितिवन्धद्वयस्य जघन्यमन्तरमेकसमयं प्राप्यते; अन्यथा वैकेन्द्रियादिभ्यो द्वीन्द्रियादितयोत्पायेदं भावनीयम् । प्रकारान्तरेण वा तथास्वाभाव्यात् स्वस्थान एव समयान्तरजातयोभूयस्कारयोर्मध्यवर्त्यवस्थितस्थितिबन्धस्य समयमात्रजघन्यकालापेक्षयाऽपि भूयस्कारस्य जघन्यमन्तरं भवतीति यथासम्भवं द्रष्टव्यमिति । ___अल्पतरस्थितिबन्धस्य जघन्यान्तरमप्यनया रीत्या भाव्यते, नवरं भवद्विचरमसमये हीनस्थितिबन्धम्, ततश्चरमसमये तावन्मात्रस्थितिबन्धं कृत्वाऽनन्तरं संक्षिपञ्चेन्द्रियादितश्च्युत्वाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियादितयोत्पत्तौ नियमतो न्यूनस्थितिबन्धभावात् तादृशजीवविशेषापेक्षया भावनीयम् । अन्यथा वा स्वस्थाने संक्लेशाद्धाक्षयादल्पतरबन्धः, ततः समयमेकमवस्थितबन्धः, तत पुनरपि स्व
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४५८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिटिइबंधो [ ओघत आयुर्वर्जानां भूयस्कारादि० भावतः संक्लेशहानौ पुनरप्यल्पतरस्थितिबन्धो भवति तदाप्येकसमयमन्तरं प्राप्यते, इत्येवं प्रकारान्तरैरपि यथासम्भवं भावनीयमिति ।
अवस्थितस्थितिबन्धजघन्यान्तरं तु सुलभम्, सामान्यतोऽवस्थितस्थितिबन्यादूर्ध्वमेकसामयिके भूयस्कारबन्धेऽल्पतरबन्धे वा जाते प्रायेण पुनरप्यवस्थितस्थितिबन्धस्य प्रवर्तनादिति ।
सप्तानां भूयस्कारस्थितिबन्धस्योत्कृष्टान्तरं पुनः प्रमत्तगुणस्थाने चरमं भूयस्कारबन्धं समाप्योपशमश्रेणिमारुह्य ततः प्रतिपततो जीवस्य लभ्यते । कुतः ? श्रेणिमारोहतो जीवस्यावस्थितबन्धानामल्पतरबन्धानां चैव भावेन तैः संख्येयैरल्पतरवन्धैरवस्थितबन्धैश्चान्तरितयोभूयस्कारस्थितिबन्धयोरन्तरं सर्वदीर्घं भवतीति कृत्वा ।
अल्पतरस्थितिबन्धस्योत्कृष्टान्तरमपीत्थमेव लभ्यते, नवरमनिवृत्तिवादरगुणस्थानके मोहनीयस्य, सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने शेषाणां षण्णां चरमस्थितिबन्धप्रारम्भेऽल्पतरबन्धं कृत्वा क्रमेणोपशान्तमोहगुणस्थानकं प्राप्य तत उपशान्ताद्वाक्षयेण प्रतिपत्य प्रमत्तगुणस्थाने पुनरप्यल्पतरस्थितिबन्धं कुतो जीवस्य प्राप्यते ।
अवस्थितस्थितिबन्धस्योत्कृष्टान्तरं तु भूयस्का रादीनामुत्कृष्टकालापेक्षया न लभ्यते, किन्त्यबन्धकालापेक्षया प्राप्यते । तथाहि - उपशमश्रेणौ सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकचरमसमयेऽवस्थित स्थितिबन्धं समाप्योपशान्तमोहगुणस्थानं प्राप्तः यः कचिज्जीव उपशान्तमोहगुणस्थानकालं तत्रैव निर्गमय्य ततः प्रतिपत्य सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानेऽवक्तव्यबन्धादूर्ध्वं मृत्वा देवगतावुत्पद्य देवभवद्वितीयसमये भूयस्कारबन्धादनन्तरं मोहनीयायुर्वर्जानां षण्णामवस्थितस्थितिबन्धं पुनरपि प्रारभते, तस्य षण्णामत्रस्थितस्थितिबन्धस्योत्कृष्टान्तरं द्विसमयाधिकोपशान्तमोहगुणस्थानकालप्रमाणं प्राप्यते, तदेव प्रकृते उत्कृष्टान्तरतया विज्ञेयम् । मोहनीयकर्मणोऽवस्थित स्थितिबन्धस्य तु तद् वृहदन्तर्मुहूर्तप्रमाणं बोद्धव्यम्, मोहनीयाऽबन्धस्य सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानेऽपि लाभात् । भावना तु प्रागिव कर्तव्येति ।
"
अथाऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य जघन्योत्कृष्टान्तरे दर्शयन्नाह - "सत्तण्ह मुहुत्ततोऽवत्तव्वस्से” त्यादि, सप्तानां प्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धस्य 'लघु' - जघन्यमन्तरं 'मुहूर्तान्तः ' - अन्तर्मुहूर्तं ज्ञेयम् । “जेट्ठ" त्ति तस्यैवावक्तव्य स्थितिबन्धस्य 'ज्येष्टम् ' - उत्कृष्टमन्तरम् "अडपरहो देसूणो पोग्गलाण भवे” त्ति 'देशोनः' - एकदेशेनोनः पुद्गलानामर्धः परावर्ती भवेत्, उपशश्रेण्युत्कृष्टान्तरवद् देशोनार्धपुद्गलपरावर्तप्रमाणं भवेदित्यर्थः । तत्रोपशान्तमोहगुणस्थानात् पततस्तत्तत्प्रकृतीनां स्थितिबन्धप्रारम्भसमयादूर्ध्वं प्रवृत्तमवक्तव्य स्थितिबन्धान्तरमधस्तादन्तर्मुहूर्तं विश्रम्य पुनरप्युपशमश्रेणिमारुह्याबन्धद्वितीयसमये कालकरणेन देवगतौ पुनरप्यवक्तव्यबन्धे जाते यदा निष्ठामेति तदा सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धस्य जघन्यमन्तरं लभ्यते तच्चान्तमुहूर्तमेव भवति । कुतः ? उपशमश्रेण्यारोहणावरोहणकालस्याधो जघन्यावस्थानकालस्य च समुदितस्याप्यन्तमुहूर्तमात्रत्वादिति ।
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ओघत आयुषोऽल्पतरावक्तव्य० ] भूयस्काराधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ ४५९ एवमेवोत्कृष्टान्तरमप्युशमश्रेणैर्देशोनार्धपुद्गलपरावर्तप्रमाणैरेकजीवाश्रयोत्कृष्टान्तरवद् भावनीयम् , केवलमन्तरप्रारम्भात् पूर्वमुपशमश्रेणित उपशान्ताद्धाक्षयेण प्रतिपातादवक्तव्यस्थितिबन्धो द्रष्टव्यः, तदूचं तु देशोनार्धपुद्गलपरावर्तकालं संसारपर्यटनादनन्तरमन्तमुहूर्तेऽवशेषे संसारे पुनरप्युपशमश्रेणित उपशान्ताद्धाक्षयेण पातादवक्तव्यस्थितिबन्धो द्रष्टव्यः, न पुनरेकदाऽप्युशमश्रेणी का लकरणेन देवगतावुत्पत्या । कस्मात् ? अन्तरपारम्भ उपशमश्रेणी कालं कृत्वा देवगतावुत्पद्यमानस्योत्कृष्टतोऽपि संख्येयभवप्रमाणाल्पसंसारत्वेनोत्कृष्टान्तरस्यानुत्पत्तेः, अन्तरप्रान्ते तु तथात्वे शेषसंसारकालस्य जघन्यतोऽपि संख्येयसागरोपमप्रमाणतयोत्कृष्टान्तरानुत्पत्तश्चेति ।
अथायुषो द्विविधबन्धस्य द्विविधान्तरमाह-"आउस्स अंतरं खलु” इत्यादिना, आयु:कर्मणः “पयाण दोण्ह वि" त्ति अल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणयोईयोरपि पदयोः प्रत्येक 'लघु'-जघन्यमन्तरं खलु 'मुहूर्तान्तः' -अन्तमुहूर्तम् । तथा “उक्कोसं" ति तयोरेक द्वयोः पदयोरुस्कृष्टं-दीर्घमन्तरमभ्यधिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि विज्ञेयमित्यर्थः।।
इयमत्र भावना-यदाऽऽयुर्वन्धो जायते तदा प्रथमसमयेऽवक्तव्यस्थितिबन्धो द्वितीयसमयादन्तमुहूर्त याबदल्पतरस्थितिबन्धाश्च नियमेन भवन्तीत्यसकृदभिहितम् ,तथा च सत्यायुःप्रकृतिबन्धस्य जघन्योत्कृष्टान्तरानुसारेण तदीयाल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोरपि द्विविधान्तरं प्राप्यते । तथाहिवेद्यमानायुषस्त्रि-नव-सप्तविंशतितमभागाद्यवशेषप्रकारेणायुबन्धप्रायोग्यां विचरमाद्धां प्राप्य कश्चिज्जन्तुः प्रथमाकर्षणायुर्वन्धं प्रारभते तदा प्रथमसमयेऽवक्तव्यस्थितिबन्धं करोति, तदूर्ध्व त्ववक्तव्यबन्धस्यान्तरं प्रारब्धम् , द्वितीयसमयात्प्रवृत्ताल्पतरस्थितिबन्धस्त्वन्तमुहूर्त यावन्नरन्तर्येण प्रवच्याऽऽयुर्बन्धनिष्ठया समं निष्ठां याति, तदृवं त्वल्पतरस्थितिबन्धस्यान्तरं प्रवृत्तं, ते च द्वेऽप्यन्तरेऽन्तमुहूर्तेऽतिक्रान्ते यदाऽसौ जीव आयुर्वन्धप्रायोग्यां चरमामद्धां प्राप्य द्वितीयाकर्षेण पुनरप्यायुर्बन्धं प्रारमते, तदा क्रमेण निस्तिष्ठतः । इत्थमल्पतरा-ऽवक्तव्ययोः द्वयोरपि स्थितिबन्धयोः प्रत्येकं जयन्यमन्तरमन्तमु हतप्रमाणं लभ्यते । उभयत्र यो विशेषः स तु भावनातो गम्यतेऽतः पृथङ्नोच्यत इति ।
__द्विविधवन्धयोरुत्कृष्टान्तरमपीत्थमेव भावनीयम् , नवरं प्रथमायुर्वन्धो वेद्यमानपूर्वकोटीवर्षायुषस्तृतीये भागेऽवशेषे द्रष्टव्यः, तदनन्तरं द्वितीयायुर्वन्धस्तु मृत्वा नरकगतौ देवगतौ वोत्कृष्टस्थितिकतयोत्पद्य तत्र वेद्यमानोत्कृष्टायुषश्वरमान्तमुहूर्तेऽसंक्षेप्याद्धायां वर्तमानस्य द्रष्टव्यः, नत्व
कि । एवं सति प्रकृतोत्कृष्टान्तरमन्समुहूर्तानपूर्वकोटीतृतीयभागाभ्यधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणं लभ्येत, तदेवाऽऽयुषोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यस्थितिबन्धोत्कृष्टान्तरतया बोद्धव्यमिति ॥५७७-५७८॥
__ तदेवमुक्तमष्टानां प्रकृतीनां भूयस्कारादिचतुर्विधानामपि स्थितिवन्धानां द्विविधमेकजीवाश्रयमन्तरमोघतः । अथ तदेवादेशतो व्याजिहीर्षुरादावायुर्जानां सप्तप्रकृतीनामाह
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४६०]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयकारा-ऽल्पतर० सव्वासु सत्तण्हं लहु खणो अंतरं मुणेयव्वं । भूगारप्पयराणं भिन्नमुहुत्तं उ उक्कोसं ॥५७९॥ णवरि हवेज्ज कणिटुं भिन्नमुहुत्तं अवेअ-सुहुमेसु। कम्मा-ऽणाहारसुण होअए अंतरं चेव ॥५८०॥ (प्रे०) “सवासु सत्तण्ह" मित्यादि, नरकगत्योघादिषु सर्वमार्गणास्वायुर्वर्जानां सप्तमूलप्रकृतीनां 'लघु'-जघन्यमन्तरं "खणो” त्ति समयो ज्ञातव्यम् । कस्य कस्येत्याह-"भूगारप्पयराण” ति भूयस्काराऽल्पतरस्थितिबन्धयोः प्रत्येकमित्यर्थः । तयोरेवोत्कृष्टान्तरमाह-"भिन्नमुहत्तं" इत्यादि, तयोः सप्तमूलप्रकृतीसत्कभूयस्काराऽल्पतरस्थितिबन्धयोः प्रत्येकमुत्कृष्टमन्तरं तु 'भिन्नमुहूर्तम्, अन्तमुहूर्त मित्यर्थः । अयं हि लाघवकृतः सामान्यो निर्देशः, तथा च निर्दिष्टे याऽतिप्रसक्तिस्तां निराचिकीषुराह-"णवरि" इत्यादि, परमयमत्र विशेषः । कोऽसावित्याह"हवेज्ज कणिट्ठ” इत्यादि, अपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणयोः प्रत्येकं “कणि?" ति प्रकृतबन्धद्वयसत्कं 'कनिष्ठं -जघन्यमन्तरं 'भिन्नमुहूतं भवेत् , न पुनः समय इत्यर्थः ।
“कम्माणाहारेसु” इत्यादि, कार्मणकाययोगा-ऽनाहारकमार्गणयोश्चप्रत्येकं भूयस्काराऽल्पतरलक्षणस्थितिबन्धद्वयसत्कमन्तरमेव न भवतीत्यर्थः । अत्रापगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणयोः प्रकृतान्तरस्य जघन्यतोऽप्यन्तमुहूर्तप्रमाणस्य कथनं तयोर्मागणयोर्जायमानाः स्थितिबन्धाः प्रत्येकमन्तमु हतं प्रवच्य परावर्तन्ते, न त्वर्वाक , तथा च श्रेणितः प्रपततां तत्तत्स्थितिबन्धप्रथमसमये जायमानाद्भयस्कारादनन्तरप्रवृत्तोऽवस्थितबन्धोऽन्तमुहूर्तमवतिष्ठत एव, तदूर्ध्वमन्यविधेऽधिकस्थितिबन्धे प्रारब्ध एव पुनर्भूयस्कारबन्धसम्भवः, न तु ततोगिपि,इत्येवमवस्थितस्थितिबन्धस्य जघन्यकालतुल्यं जघन्यतोऽप्यन्तरं प्राप्यते, अवस्थितबन्धस्य जघन्यकालस्तु प्रकृतमागेणयोरन्तमुहूर्तम् , अतो भूयस्कारबन्धस्य जघन्यान्तरमपि तावदुक्तम् । इत्थमेवाल्पतरस्थितिबन्धस्य जघन्यान्तरविषयेऽपि विभावनीयम् । यस्तु कार्मणकाययोगानाहारकमार्गणयोः प्रकृतान्तराभावः सोऽपि मुख्यतयाऽधिकृतेन विवक्षाविशेषेण त्रिसामधिक्यामपि कार्मगकाययोग्यवस्थायां प्रथमसमयबन्धस्य मार्गणान्तरजातपूर्वसमयबन्धेन तुल्यत्वादावपि भूयस्कारतयाऽल्पतरतया वाऽलाभात् , शेषसमयद्वयमपेक्ष्य त्वन्तरस्यैवाऽसम्भवादिति । एताश्चतस्रो मार्गणा विवयं शेषासु तु प्रस्तुतबन्धयोर्जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरमौधिकभावनानुसारेण स्वयमेव योज्यमिति ।।५७९.५८०॥
अथ सप्तप्रकृतीनामवस्थितस्थितिबन्धस्यान्तरं दिदर्शयिपुराह
सब्बासु सत्तण्हं समयो हस्सं अवट्ठिअस्स भवे । परमं वि भवे समयो कम्मे सुहुमे अणाहारे ॥५८१॥
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मार्गणास्वायुर्वेर्जानामवस्थित०] द्वितीयाधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ ४६१ (प्रे०) “सव्वासु" ति नरकगत्योघाद्यनाहारकपर्यन्तासु सर्वासु मार्गणास्वायुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनामवस्थितस्य स्थितिबन्धस्य 'ह्रस्वं'-जघन्यमन्तरं "समयो” त्ति एकसमयप्रमाणं भवेदित्यर्थः । सुगमम् । भावनात्वोघवद् द्रष्टव्येति । अथैतस्यैवावस्थितस्थितिबन्धस्योत्कृष्टमन्तरं दर्शयन्नाह-"परमं वि भवे समयो” इत्यादि, कार्मणकाययोग-सूक्ष्मसम्परायसंयमा-ऽनाहारकमार्गणासु प्रत्येकं सप्तप्रकृतिसत्कावस्थितस्थितिबन्धस्य 'परमम्'-उत्कृष्टमन्तरमपि समय एव भवेत् , किं पुनर्जघन्यान्तरमित्यपिशब्दार्थः ।।
तत्र कार्मणा-ऽनाहारकमार्गणयोरेकजीवापेक्षयोत्कृष्टतोऽपि समयत्रयाऽवस्थानेन मध्यसमये भूयस्काराल्पतरान्यतरबन्धभावे कालद्वारे 'कम्माणाहारेसु उ' इत्यादि (५७५) गाथायां गौणभावेन दर्शितविवक्षान्तरमधिकृत्य प्रथमचरमसमयजायमानाऽवस्थितस्थितिबन्धयोरन्तरंसमयमानं विज्ञेयम् , न तु मुख्यवृत्याऽधिकृतविवक्षया, तया विवक्षया मागणाप्रथमसमयजातस्थितिबन्धस्याऽवस्थितस्थितिबन्धतयाऽप्यप्राप्तेः,शेषसमयद्वयापेक्षया तु भयस्कारादिवदवस्थितस्थितिबन्धान्तरस्याप्यसम्भव एवेति । सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां तु भूयस्काराल्पतरद्विविधस्थितिबन्धयोरुत्कृष्टस्यापि कालस्य समयमात्रत्वात्तेनान्तरितयोरवस्थितस्थितिबन्धयोरन्तरमपि समयादधिकं नैव भवतीति समयमात्र मभिहितमिति ।।५८१।।
यासु मार्गणास्ववस्थितस्थितिबन्धस्योत्कृष्टान्तरं चत्वारः समयास्ताः संगृह्याहतिरिय-अपज्जतस-णपुम-कसायचउग-दुअणाण-अयतेसु।
असुहतिलेसा-अभविय-मिच्छेसु होइ चउसमया॥५८२॥
(प्रे०) "तिरियअपज्जतसे" त्यादि, तिर्यग्गत्योघा-ऽपर्याप्तत्रसकाय-नपुसकवेद-क्रोधादिकपायचतुष्क--मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयममार्गणासु तथाऽशुभकृष्णादित्रिलेश्या-ऽभव्य--मिथ्यात्वमार्गणामु प्रत्येकं सप्तप्रकृतिसत्कावस्थितस्थितिबन्धस्यान्तरं चत्वारः समया भवतीत्यर्थः । कुतः ? उच्यते, एतासु प्रत्येकमवस्थितबन्धादन्ये ये भूयस्कारादिबन्धास्तेषु भूयस्कारस्थितिबन्धस्योत्कृष्टः कालश्चत्वारः समयाः प्राप्यते, तेन समयचतुष्कप्रमाणभूयस्कारवन्धकालेनान्तरितयोवस्थितस्थितिबन्धयोरन्तरं चत्वारः समया भवति ।
___ ननु प्रस्तुततिर्यग्गत्योघादिपञ्चदशमार्गणावत् त्रसकायौघ-पर्याप्तत्रसकाय-काययोगसामान्यचक्षुर्दर्शना-ऽचक्षुर्दर्शन-भव्यमार्गणास्वपि प्रत्येकमवस्थितेतरस्य भूयस्कारवन्धस्योत्कृष्टकालश्चत्वारः समया एवोक्तः, तर्हि त्रसकायौघादिमार्गणाः कथमत्र न संगृहीताः ? इति चेद्, उच्यते, तासु वसकायोघादिमार्गणासूपशमश्रेणिगतानामपि जीवानां प्रवेशेन तदीयस्थितेरवन्धकालमाश्रित्यावस्थितस्थितिबन्धस्यान्तरमन्तमुहूर्तमपि लभ्यते, न पुनरधिकृततिर्यग्गत्योधादिमार्गणास्वपि, श्रेणिगतानामुपशमकानामत्राप्रवेशात् । इत्येवं चतुःसमयान्तरकथनप्रस्तावात्तिर्यग्गत्योपादिमार्गणाः संगृह्याऽपि त्रसकायौघादिमार्गणा उपेक्षिता इति ॥५८२॥
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४६२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणास्वायुर्वर्जानामवस्थित० अथ यासु मार्गणासु सप्तानामवस्थितबन्धस्यान्तरं त्रिसमयास्ताः पिण्डीकृत्याहपंचिंदियतिरियचउग-असमत्तपणिंदि-उरलमीसेसु ।
थी-पुरिस-असण्णीसुअवट्ठिअस्स तिखणा परमं ॥५८३॥ (प्रे०) "पंचिदियतिरियचउगे” त्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्चतुष्का-ऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियौदारिकमिश्रकाययोगमार्गणासु स्त्रीवेद-पुरुषवेदा-ऽसंज्ञिमार्गणास् च प्रत्येकं सप्तप्रकृतिसत्कावस्थितस्थितिबन्धस्योत्कृष्टमन्तरं त्रिसमयप्रमाणं लभ्यत इत्यर्थः । अत्राप्यन्यतमस्यां मार्गणायामुपशान्तचारित्रमोहानां जीवानामप्रवेशेन स्थितेरवन्धकालप्रयुक्तं प्रस्तुतान्तरं न प्राप्यते, किश्च पञ्चेन्द्रियतिर्यगोपादिद्वादशमार्गणासूत्कृष्टोऽपि भूयस्कारस्थितिबन्धकालस्त्रिसमया एव लभ्यते, अतः त्रिसामयिकभूयस्कारबन्धेनान्तरितयोरवस्थितस्थितिबन्धयोरन्तरालमपेक्ष्यावस्थितबन्धस्योत्कृष्टान्तरमपि त्रयस्समया एव सम्पद्यते, न पुनस्तदधिकमिति । यद्वाऽल्पतरस्थितिबन्धकालप्रयुक्ताऽन्तरालमपेक्षयाऽपि तल्लामः सम्भवतीति प्रकारान्तरेणाप्युपपादनीयमिति ।।५८३।।
अथशेषमार्गणासु प्रकृतान्तरं दर्शयन्नाह
णरतिग-दुपणिंदियतस-काय-ऽवगयवेअ-णाणचउगेसु । संयम-णयणियर-अवहि-सुइल-भविय-सम्म-खइएसु ॥५८४॥ उवसम-सण्णीसु तहा आहारम्मि हवए मुहुत्तंतो।
सेसासु दोण्णि समया अवट्ठिअस्स हवए परमं ॥५८५॥ (प्रे०) “णरतिगदुपणिंदिये"त्यादि, अत्र 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति" रितिन्यायेन नरत्रिकेत्यनेनापर्याप्तमनुष्यभेदवर्जाः शेषा मनुष्यगतिमार्गणासत्कास्त्रयो भेदा ग्राह्याः, अतस्तेषु मनुष्योध-पर्याप्तमनुष्य-मानुषीमार्गणासु, तथा तेनैव न्यायेनापर्याप्तवर्जितयोयोः पञ्चेन्द्रियजातिभेदयोः, द्विशब्दस्य त्रसेत्यनेनापि योजनादपर्याप्तभेदवर्जयोईयोस्त्रसकायभेदयोः, काययोगसामान्या-उपगतवेद-मत्यादिज्ञानचतुष्केषु, संयमौघ--चक्षुर्दर्शना-ऽचक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन-शुक्ललेश्याभव्य-सम्यक्त्वौध-क्षायिको-पशमिकसम्यक्त्व--संज्ञिमार्गणासु, तथाऽऽहारिमार्गगायां प्रत्येक "हवए मुहुत्तंतो" त्ति प्रकृतं सप्तप्रकृतीसत्कावस्थितस्थितिबन्धस्योत्कृष्टमन्तरं 'मुहूर्तान्तः' -अन्तमुहूर्तं भवतीत्यर्थः । सुगमं चैतत् , प्रत्येकमुपशान्तमोहगुणस्थानादिगतानां जीवानां प्रवेशात् । भावनात्वबन्धकालमधिकृत्य द्रष्टव्येति ।।
___"सेसासु" ति 'कम्मे सुहुमे अणाहारे' इत्यादिनाभिहिताः कार्मगकाययोगादिचतुःपश्चाशन्मार्गणा विहाय शेषासु नरकगत्योघादिपोडशोत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकम् “अवडिअस्स" ति सप्तप्रकृतीनामवस्थितस्थितिबन्धस्य 'परमम्'-उत्कृष्टमन्तरं "दोणि समया" ति द्वौ समयौ
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मार्गणास्वायुर्जानामवक्तव्य० ] भूयस्काराधिकारे ऽन्तरद्वारम्
[ ४६३
भवतीत्यर्थः । तत्र शेषमार्गणा नामत इमाः - अष्टौ नरकगतिभेदाः, एकोऽपर्याप्तमनुष्यभेदः, त्रिंशदेवगतिभेदाः, सप्तैकेन्द्रियभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः पृथिव्यादिवनस्पतिकायान्ता मूलोत्तराः सर्व इत्येकोनत्रिंशत्कायमार्गणाभेदाः, पञ्चमनोयोग- पञ्चवचोयोगौ-दारिक--वैक्रियवैकिय मिश्रा ऽऽहारका ऽऽहारकमिश्र काययोग-विभङ्गज्ञान-सामायिक छेदोपस्थापन- परिहारविशुद्धिकदेश संयम-तेजोलेश्या-पद्मलेश्या - क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-सम्यग्मिथ्यात्व-सास्वादनमार्गणाभेदाश्चेति । एतासु षोडशाभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकमवस्थितबन्धस्य द्विसमयादधिकान्तरनिष्पादकश्रतुः सामfeat भूयस्कारबन्धस्त्रिसामयिको भूपस्काराल्पतरान्यतरबन्धो वा नास्ति, किञ्च स्थितेरवन्धकालोऽपि प्रकृतान्तरप्रयोजको भवितुं नार्हति किन्तु द्विसामयिको भूयस्कारबन्धोऽल्पतरो वा बन्ध एव लभ्यते, अतस्तदन्तरितयोरवस्थित स्थितिबन्धयोरन्तरमप्युत्कृष्टतो द्विसमयप्रमाणमेव प्राप्यते, न पुनस्तदधिकमिति ॥ ५८४-५८५।।
तदेवं मार्गणास्थानेषूक्तं सप्तानामवस्थितस्थितिबन्धस्यान्तरम् । अथ यासु मार्गणासु सप्तप्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धस्य सद्भावः प्राक् सत्पदद्वारे प्रतिपादितस्तास्वक्तव्यबन्धान्तरसम्भवासम्भवाशङ्कायां यासु तदसम्भवस्तासु प्रतिषेधयन्नाह
पणमणवय-काय उरल अवेअ - सुइल-वसमेसु सत्तण्हं । मोहस्स तहा लोहेऽवत्तव्वस्संतरं णत्थि ॥ ५८६ ॥
(प्रे०) "पणमणवये" त्यादि, पञ्चमनोयोग पञ्चवचोयोग-काययोगसामान्यौ-दारिककाययोगा-ऽपगतवेद-शुक्ललेश्यौ-पशमिकसम्यक्त्वमार्गणासु प्रत्येकमायुर्वर्ज सप्तप्रकृतीनां तथा लोभमार्गणायां मोहनीय कर्मणोऽवक्तव्यस्थितिबन्धसद्भावेऽपि तस्यावक्तव्य स्थितिबन्धस्याऽन्तरं 'नास्ति' न विद्यत इत्यर्थः । कुतः ? द्वितीयावक्तव्यवन्धात्पूर्वमेव प्रकृतमार्गणानां व्यवच्छेदात् ।
इदमुक्तं भवति - आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां प्रत्येकमेकजीवाश्रयस्यावक्तव्य स्थितिबन्धस्यैकस्यामुपशमश्रेण सकृदेव सम्भवः, अवक्तव्यबन्धस्यान्तरं त्ववक्तव्यवन्धे वारद्वयं जाते तदन्तरालमपेक्ष्य लभ्यते, प्रकृते च कस्यचिज्जीवस्योपशमश्रेणौ प्रथमावक्तन्यबन्धादूर्ध्वं द्वितीयवारमवक्तव्यबन्धोऽधः प्रतिपत्य पुनरपि श्रेण्यारोहणे क्रमेण सम्भवति, न पुनस्तदर्वागपि पुनः श्रेण्यारोहणं तदा सम्भवति, यदाऽसात्रधोऽप्रमत्तादिगुणस्थाने क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं स्पृशेत् । कस्मात् ? नैरन्तर्येण प्रवर्तमान औपशमिकसम्यक्त्वे सकृदेवोपशमश्रेण्यारोहणस्य सम्भवात् । इत्थं हि प्रोक्तमनोयोगादितत्तन्मार्गणायां कचिज्जीवः प्रथमवारमवक्तव्य स्थितिबन्धं कृत्वा यावत्क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं स्पृशति तावत्तु तस्य मनोयोगादिसर्वमार्गणातो बहिर्भावो जायते, तत्र योगादीनां प्रत्यन्तमुहूर्तं परावर्तनात्तद्रहिर्भावः, वेदोदयात् क्षायोपशमिकसम्यक्त्वस्पर्शनाच्चापगतवेद मार्गणीपशमिकसम्यक्त्वमार्गणावहिस्त्वं विज्ञेयम् । इत्येवं प्रकृतमार्गणास्त्रविच्छेदेन प्रवर्तमानासु सतीसु वारद्वयमवक्तव्यबन्धस्याऽसम्भवा तदन्तरस्याऽभाव एवाऽवाप्यत इति ॥ ५८६ ॥
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४६४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणास्थायुर्वर्जानामवक्तव्य० तदेवं मनोयोगादिमार्गणासु सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धान्तरे निपद्धे तदन्यमार्गणासु तद्विद्यत इत्यर्थाद्गम्यते, नपुनस्तत्त्रमाणमपि, अतः शेषासु तत्कियत्प्रमाणमिति जिज्ञासायामादौ तावजघन्यत आह
सेसासु मुहुत्तंतोऽवत्तव्वस्स हवए कणि उ । - (०) “सेसासु” इत्यादि, यासु सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धो सन् , ताभ्यः षट्त्रिंशन्मार्गणाभ्योऽनन्तरोता मनोयोगादिषोडशमार्गणास्त्वक्त्वा शेगास विंशतिमार्गणास प्रत्येकं सप्तप्रकृतिनामवक्तव्यस्थितिबन्धस्य 'कनिष्ठं-जघन्यमन्तरं तु 'मुहुत्तंतो' त्ति अन्तर्मुहूर्त भवति । तच्चैवम्उपशमश्रेणौ सप्तानामववक्तव्यस्थितिबन्धं कृत्वा पश्चात् प्रमत्ताप्रमत्तभावं स्पृष्टवा पुनरप्युपशमश्रेणिनारुह्य यावद्वितीयवारं सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धस्तावदपि प्रस्तुतशेषसर्वमार्गणा अविच्छेदेन प्रवर्तन्ते, एवं सत्यवक्तव्यस्थितिबन्धस्यान्तरालमपि प्रकृतमार्गणास्वेव सम्पद्यते, तच्चान्तमुहूमिति तथैवोक्तम्, अत्र विस्तरभावना तु सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धस्यौधिकजघन्यान्तरानुसारेण द्रष्टव्येति ।। अथैतास्वेव शेषमार्गणासु सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धान्तरमुत्कृष्टत आह
तिणरेसु उक्कोसं कोडिपुहुत्तं उ पुब्वाणं ॥५८७॥ (प्रे०) "तिणरेसु” ति अपर्याप्तमनुष्यमार्गणायां सप्तप्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धस्यैवामावातदन्तरस्यापि नास्ति चिन्ता, अतस्तामपर्याप्तमनुष्यमार्गणां विहाय शेषासु त्रिसृषु ‘णरेसु' त्ति मनुष्यगत्योध-पर्याप्तमनुष्य-मानुषीलक्षणासु नरमार्गणासु “उक्कोसं” त्ति सप्तप्रकृतीसत्कावक्तव्यबन्धस्योत्कृष्टमन्तरं “कोडिपुहुत्तं उ पुव्वाण' ति पूर्वकोटिपृथक्त्ववर्षप्रमाणमित्यर्थः ।
अयम्भावः-एतासां त्रिसृणां मार्गणानां प्रत्येकमेकजीवाश्रितोत्कृष्टा कायस्थितिः'तिपणिंदियरियाणं तिणराणं य पलिओवमा तिण्णि । अब्भहिया पुवाणं कोडिपुहुत्तेण णायव्या' ॥१५५।। इत्यनेन प्राक् पूर्वकोटीपृथक्त्वाधिकत्रिपल्योपमप्रमाणाऽभिहिता, तत्रापि त्रीणि पल्योपमानि तु मार्गणाविच्छेदादर्वाग्भाविचरमयुग्मिभवमपेक्ष्य प्राप्यन्ते, अतस्तान्यत्र वय॑न्ते । कुतः ? तस्मिन् युग्मिभव उपशमश्रेणेरसम्भवात्,तदनन्तरभवे तु जीवानां प्रकृतमार्गणातो बहिर्भावात् तथा च त्रिपल्योपमकालेनोना शेषा कायस्थितिरत्र गृहीता । कस्मात् ? तस्यां संख्येयवर्षायुष्कनानाभवनिष्पनायां शेषायां कायस्थितो प्रारम्भे प्रान्ते चाऽष्टवादिकालं त्यक्त्वोपशमश्रेणेः सम्भवात् । तत्रोपशमश्रेणाववक्तव्यबन्धौ तु प्रागवद् द्रष्टव्यौ,तयोरन्तरालमपेक्ष्यान्तरमपि च प्राग्वद्भावनीयम् । एवमग्रऽपि द्रष्टव्यमिति ।।५८७।। अथ शेषमार्गणास प्रकृतोत्कृष्टान्तरं दर्शयति
देसूणऽद्धपरट्टोऽवत्तव्वस्स हवए उ सत्तण्हं । अणयण-भवियेसु गुरु, अण्णह ऊणगुरुकायठिई ॥५८८॥
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मार्गणास्वायुषोऽल्पतराऽवक्तव्य० ] भूयस्काराधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ ४६५ ___(प्रे०) "देसूणऽडपरटो” इत्यादि, सप्तानां प्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धस्य, उत्कृष्टान्तरमिति गम्यते । कियदित्याह-“देसूणऽडपरटो” ति ओघवद् देशोनार्धपुद्गलपरावर्त इत्यर्थः । कस्यां कस्यां मार्गणायामित्याह-"अणयणभवियेसु” त्ति अचक्षुर्दर्शनमार्गणायां भव्यमार्गणायां चेत्यर्थः । भावनाप्यत्र सप्तप्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धस्यौधिकोत्कृष्टान्तरवद् द्रष्टव्येति । अथ शेषमार्गणास्वाह-"गुरु अण्णहे" त्यादि, उक्तमनोयोगोदिमार्गणाभ्योऽन्यत्र, पञ्चेन्द्रियोघादिशेषपञ्चदशमार्गणास्वित्यर्थः । "गुरु" ति आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामेकजीवाश्रयं 'गुरु'उत्कृष्टमन्तरम् "ऊणगुरुकायठिई" ति ऊनाऽन्तमुहूर्तादिलक्षणेनैकदेशेन 'गुरुः' उत्कृष्टा, एकजीवाश्रयान्तरस्य प्रकृतत्वादेकाजीवाश्रया तत्तन्मार्गणानां कायस्थितिर्भवति । तत्र कायस्थितौ न्यूनत्वविशेषणोपादानं प्रागिव कायस्थितिप्रारम्भप्रान्तयोरवक्तव्यस्थितिवन्धादिसत्ककियत्कालस्य प्रस्तुतान्तरवाह्यत्वात्तावत्कालस्य प्रस्तुतान्तरतया प्रतिषेधार्थम् । शेषमार्गणा नामत इमा:-पञ्चेन्द्रियोघपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्रसकायोध-पर्याप्तत्रसकाय-मत्यादिज्ञानचतुष्क--चक्षुर्दर्शन-संयमौघ-सम्यक्त्वोधक्षायिकसम्यक्त्व-संश्या-ऽऽहारिमार्गणा इति । कायस्थितयस्तु तासां द्वितीयाधिकार एकजीवाअयकालद्वारे 'कायठिई उकोसा' इत्यादि-(१५२) गाथाकदम्बकेनाभिहिता अतस्तत एव द्रष्टव्याः, भावनाऽप्येतासु कायस्थितेः प्रारम्भप्रान्तसमासन्नभाव्युपशमश्रेणिद्वयानुसारेण प्राग्वत्कार्येति ॥५८८॥
तदेवमुक्तं सप्तप्रकृतीनां भूयस्कारादिचतुर्विधवन्धस्यान्तरमादेशतोऽपि । साम्प्रतमायुषोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यद्विविधस्थितिवन्धयोरन्तरमादेशतो विभणिपुराह
पणमणवयेसुविउवे आहारदुगे कसायचउगे य । सासाणे य पयाणं दोण्हा-ऽऽउस्संतरं णत्थि ॥५८९॥ (प्रे०) “पणमणवयेमु” इत्यादि, पञ्चशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् पञ्चमनोयोगमार्गणाभेदेषु, पश्चवचोयोगमार्गणाभेदेषु, वैक्रियकाययोगे, आहारककाययोगा--ऽऽहारकमिश्रकाययोगमार्गणाद्वयरूप आहारकद्विके, क्रोधादिकषायचतुष्के, चः समुच्चये, सासादनसम्यक्त्वमार्गणायाम् ,
चः प्राग्वत् । एतास्वष्टादशमार्गणासु प्रत्येकम् 'आयुषः'-शेषस्यायुःकर्मणः “पयाण दोण्ह" त्ति । अल्पतरावक्तव्यस्थितिबन्धरूपयोर्द्वयोः पदयोः प्रत्येकमन्तरं नास्ति, अन्तरं न विद्यत इत्यर्थः । कुतः ? अल्पकालावस्थायिनीष्वेतासु प्रत्येकं वारद्वयमायुर्वन्धाभावात् । इदमुक्तं भवति-आयुषोऽल्पतरादिस्थितिबन्धस्यान्तरं द्विरायुर्वन्धे सति लभ्यते, एतच्चौधिकभावनायां दर्शितमेव, एता मार्गणास्तु प्रत्येकं स्वल्पकालावस्थायिन्य; अतस्ता द्वितीयायुबन्धादांगेव विच्छेदमियर्ति, तत्कुतस्त द्वन्धद्वयाधीनमन्तरमपि लभ्येत, न कुतश्चिदित्यर्थः ।।५८९॥ शेषमार्गणास्वायुषोऽल्पतरावक्तव्यद्विविधस्थितिबन्धान्तरं दिदर्शयिषुर्जधन्यादिक्रमेणाह
सेसासु मुहुत्तंतो हस्सं परमं हवेज्ज छम्मासं ।
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४६६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणास्वायुषोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यः सव्वणिरयदेवेसु पसत्थअपसत्थलेसासु॥५९०॥ (प्रे०) "सेसासु मुहुरांतो” इत्यादि, अनन्तरोक्तमनोयोगाद्यष्टादशमार्गणा विहाय शेषासु यास्वायुर्वन्धो भवति, तासु निरयगत्योघादिपञ्चचत्वारिंशदभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकं "मुहुत्तंतो हस्सं" ति आयुषोऽल्पतरस्थितिबन्धस्याऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य च प्रत्येकं 'ह्रस्वं' जघन्यमन्तरं 'मुहूर्तान्त:'-अन्तर्मुहूर्तं भवतीत्यर्थः । सुगमम् । भावना तु सर्वथैवोघवद् द्रष्टव्येति । एतास्वेव पञ्चचत्वारिंशदभ्यधिकशतसंख्याकासु शेषमार्गणामूत्कृष्टान्तरं दर्शयन्नाह-“परमं हवेज्जे" त्यादि, आयुषोऽधिकृतद्विविधस्थितिबन्धस्य प्रत्येकं 'परमम्'-उत्कृष्टमन्तरं षण्मासा भवेत् । कास मार्गणास्वित्याह-"सव्वणिरये" त्यादि, सर्वशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् सर्वेषु नरकगतिमार्गणाभेदेषु, सर्वेषु देवगतिमार्गणाभेदेषु, षटषु प्रशस्ता-ऽप्रशस्तलेश्यामार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । कुतः ? उच्यते, निरयदेवानां वेद्यमानायुषो मासपटकेऽनवशेषे परभवायुर्वन्धो न भवति, तथा च सति प्रथमाकर्षण षण्मासात्मिकायामुत्कृष्टाबाधायां प्रथमवारमायुर्वन्धं कृत्वा द्वितीयाकर्षण जघन्याबाधायां भवचरमान्तमुहर्ते पुनरप्यायुर्बन्धभाव उत्कृष्टान्तरं लभ्यते, यद्यप्येवं प्रकृतान्तरं देशोनषण्मासप्रमाणं भवति, मूले च पण्मासा इत्यभिहितम् , तथाऽपि सूत्रस्य सूचकत्वाददोषायेति । शेषकृष्णलेश्यादिषण्मार्गणास्वपि प्रस्तुतान्तरं देवनिरयसत्कप्रस्तुतान्तरानुसारेणैव भावनीयमिति ॥५९०॥
अथ मार्गणान्तरेषु प्रस्तुतान्तरमाहपरमं सव्व-तिरिय-णर-एगिदिय-विगल-पंचकाये।
असमत्तपणिदितसेसु साहिया भवठिई णेयं ॥५९१॥ (प्रे०) “परमं सव्वतिरिय” इत्यादि, आयुपोऽल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोः 'परमम्'उत्कृष्टमन्तरं, साधिका भवस्थितियमिति गाथा प्रान्तेऽन्वयः । कास मार्गणास्वित्याह-"सव्वतिरिये" त्यादि, सर्वशब्दस्य प्रत्येकं योजनात सर्वे तिर्यग्गतिभेदाः, सर्वे "णर" त्ति मनुष्यगतिभेदाः, सर्व एकेन्द्रियजातिभेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियजातिभेदाः, सर्वे पृथिव्यादिवनस्पतिकायान्तपञ्चकायमार्गणासत्का भेदास्तेषु चतुःषष्टिमार्गणाभेदेषु, तथा "असमत्त” इत्यादि, अत्राप्यसमाप्तशब्दस्य प्रत्येक योजनादपर्याप्तपञ्चेन्द्रियमार्गणायामपर्याप्तत्रसकायमार्गणायां च प्रत्येकमित्यर्थः । कुत आसु साधिकभवस्थितिः प्रस्तुतान्तरम् ? आसां मार्गणानां प्रत्येकं नानाभवावस्थायित्वात् ।
किमुक्तं भवति ? पूर्वोक्तमार्गणाः प्रत्येकं भववयेऽवस्थायिन्यो नासन् ,अतस्तास्वेकस्मिन् भव एवाकर्षद्वयेन वारद्वयमायुपन्धं कुर्वन्तं जीवमपेक्ष्याऽन्तरमानीतम् , प्रकृतमार्गणास्तु नानाभवावस्थायिन्यः, प्रतिभवमेकवारं तु नियमेनायुबन्धो जायते, स चोत्कृष्टस्थितिक एकस्मिन् भवे यदा उत्कृष्टाबाधायां, तादृशे च तदनन्तरभवे जघन्यावाधायामित्येवं द्विः क्रियते तदाऽऽयुर्वन्धस्योत्कृष्टान्तरं लभ्यते, तच्च प्रथमभवसत्कतृतीयभागाभ्यधिकान्तमुहूतोनद्वितीयभवप्रमाणं, तदेव
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[ ४६७
मार्गणास्वायुपोऽल्पतरा ऽवक्तव्य० ] भूयस्काराधिकारेऽन्तरद्वारम् मूले साधिकभवस्थितिप्रमाणप्रस्तुतान्तरतयाभिहितम् । कथम् ? आयुबन्धेन सममेव तयोरवक्तव्याल्पतरस्थितिबन्धयोरपि नियमतो भावात् । अत्र हि भवस्थितिरुत्कृष्टा ज्ञेया, उत्कृष्टान्तरस्य प्रस्तुतत्वादिति ।।५९१।। अथाऽन्यत्राह
कायम्मि भूभवठिई देमूणतिभागसंजुया जेट्ठा।। उरलेऽभहियाणि गुरु सत्तसहस्साणि वासाणि ॥५९२॥
(प्रे०) “कायम्मि” इत्यादि, काययोगौघमार्गणायामायुपोऽल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोः प्रत्येकमुत्कृष्ट मन्तरं "भूभवठिई" ति भूवः-पथिवीकायिकस्य भवस्थिति भवस्थितिः, अस्य चान्वयः परेण “जेठा" इत्यनेन; ततश्च पृथिवीकायस्योत्कृष्टा भवस्थितिरित्यर्थः । प्रस्तुतान्तरस्य पृथिवीकायोत्कृष्टभवस्थितितोऽप्यधिकसम्भवात्पृथिवीकायोत्कृष्टभवस्थितिं विशिनष्टि-"देसूणतिभागसंजुया' ति देशोनेन स्वीयतृतीयभागेन 'संयुता'-अभ्यधिका इत्यर्थः ।
इदमुक्तं भवति-निरन्तरकाययोगिन उत्कृष्ट भवस्थितिका जीवाः पृथिवीकायिका एव सन्ति, अतः पूर्वोक्तन्यायेनोत्कृष्टस्थितिकयोनिरन्तयोर्द्वयोर्भवयोः, क्रमेणोत्कृष्टाबाधायां जघन्याबाधायां च जायमानायुर्वन्धयस्यान्तरालमपेक्ष्य काययोगमार्गणायामायुपोऽल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोः प्रत्येकमुत्कृष्टान्तरमन्तमुहूर्तलक्षणेनैकदेशेनोनस्वतृतीयभागेनाभ्यधिका पृथिवीकायस्योत्कृष्टभवस्थितिः सम्पद्यते, अतस्तथैवोक्तमिति ।
__ "उरले" त्ति औदारिककाययोगमार्गणायामायुपः प्रस्तुतस्थितिबन्धद्वयस्य प्रत्येकं 'गुरु'उत्कृष्टमन्तरमभ्यधिकानि-साधिकानि सप्तसहस्रवर्षाणि भवतीत्यर्थः । इदमप्यनन्तरोक्तपथिवीकायोत्कृष्टभवस्थितिमपेक्ष्यैव भावनीयम् ,नवरं द्वितीयवारमायुर्वन्धोऽपि प्रथमभव एव जघन्यावाधायां द्वितीयाऽऽकर्षण द्रष्टव्यः न पुनस्तदनन्तरभवे । कुतः ? तत्रोत्पच्याऽपर्याप्तावस्थायां प्रस्तुतौदारिककाययोगमार्गणाया विच्छेदप्रसंगात् । इत्थं हि पथिवीकायस्योत्कृष्टभवस्थितिाविंशतिवर्षसहस्राणि, तस्यास्तृतीयभागेऽवशेषयुत्कृष्टाबाधायां प्रथमवारमायुबन्धादृवं द्वितीयवारं भवचरमान्तमुहूर्त आयुर्वन्धकरणेऽधिकृतान्तरं लभ्यते, आयुर्वन्धेन सममेव तदीयावक्तव्याल्पतरस्थितिवन्धयोरपि नियमेन भावादिति ॥५९२।। औदारिकमिश्रकाययोग-स्त्रीवेदयोः प्रस्तुतान्तरमाह
ओरालियमीसम्मि उ भिन्नमुहत्तं हवेज्ज उक्कोसं । अब्भहिया पणपण्णा पलिया थीए गुरु णेयं ॥५९३॥ (प्रे०) "ओरालियमीसम्मि उ” इत्यादि, औदारिकमिश्रकाययोगमार्गणायां तु 'भिन्नमुहूर्तम्'-अन्तमुहूर्त भवेत् । किमित्याह-“उक्कोस" ति आयुषो द्विविधस्थितिबन्धयोः प्रत्येकमुत्कृष्टान्तरम् । सुगमं चैतत् , अपर्याप्तजीवानां निरन्तरे भवद्वये जायमानायुर्वन्धद्वयमपेक्ष्य तल्लामा
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४६८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यः दिति । भावना काययोगसामान्यवदपर्याप्तोत्कृष्टभवद्रयापेक्षया द्रष्टव्येति । अथ स्त्रीवेदमार्गणायामाह-"अब्भहिया" इत्यादि, स्त्रीवेदमार्गणायामधिकृतं 'गुरु'-उत्कृष्टमन्तरम'भ्यधिकानि'-पूर्वकोटीत्रिभागेनाभ्यधिकानि पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि ज्ञेयम् । “पलिया" इत्यत्र पुंस्त्वं प्राकृतवशात् । प्राकृते हि लिङ्गमतन्त्रम् । यदाहुः श्रोहेमचन्द्रसूरिपादाः स्वप्राकृतलक्षणे 'लिङ्गमतन्त्रम्' (सिद्धहेम० ८।४।४४५) इति । अत्र पूर्वकोटीतृतीयभागः पूर्वकोट्यायुष्कमनुष्यावस्थायामु-कृष्टाबाधायां प्रथमवारमायुर्वन्धकरणाच्छेपमनुष्यभवसत्कः, पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि तूत्कृष्टस्थितिकदेवीतयोत्पय तत्रान्तमुहूर्तात्मिकायामसंक्षेप्याद्धायां द्वितीयवारमायुर्घन्धकरणादायुबन्धात्यागतीतदेवभवसत्कानि, शेषं तु प्राग्वद्योज्यमिति ॥५९३॥
मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहार-देसेसु । उक्कोसं पुवाणं कोडितिभागो उ देसूणो ॥५९४॥
(प्रे०) "मणणाणे” त्यादि, मनःपर्यवज्ञान-संयमोघमार्गणयोः सामायिक-छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिक-देशसंयममार्गणासु च प्रत्येकम् “उक्कोस” ति आयुषोऽल्पतरावक्तव्यस्थितिबन्धयोः प्रत्येकमुत्कृष्टं दीर्घमन्तरं "पुव्वाणं कोडितिभागो उ देसूणो” त्ति पूर्वाणां 'पुत्र्यस्स उ परिमाणं' इत्यादिनाऽन्यत्रोक्तस्वरूपाणां या कोटिस्तस्याः "तिभागो" ति तृतीयभाग इति पूर्वकोटित्रिभागः स च "देसूणो” ति अन्तर्मुहूर्त लक्षणेनैकदेशेनोनः, अन्तमुहूर्तन्यूनपूर्व कोटितृतीयभाग इति भावः । तद्यथा-संयमिनो देशसंयमिनश्चोत्कृष्टतः पूर्वकोटीवायुका एव सन्ति, तेषु केनाप्युत्कृष्ठावाधायां प्रथमाकर्षेण, ततोऽसंक्षेप्यावायां द्वितीयाकणेत्येवं द्विरायुर्वन्धे कृते प्रकृतान्तरं यथोक्तप्रमाणमवाप्यत इति ॥५९४॥ अथ विभङ्गज्ञानमार्गणापामाह
विभंगे देसूणा जेट्टा कायट्टिई मुणेयव् ।
देसूणा छम्मासा हवइ ति भणन्ति अण्णे उ ॥५९५॥
(प्रे०) "वि-भंगे” इत्यादि, विभङ्गज्ञानमाणिायां 'ज्येष्ठा'-उत्कृष्टा "कायष्ठिई" ति 'कायठिई उक्कोसा णिरयसुराणं विभङ्गणाणस्स' इत्यादिना पूर्व कालद्वारेऽभिहितमाना देशोनपूर्वकोट्यभ्यधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि विभङ्गज्ञानमार्गगाया एकजीवाश्रया कायस्थितिः 'देसूणा' त्ति किश्चिद्नपूर्वकोटितृतीयभागयलक्षणेनेकदेशेनोना सती प्रकृतयोरायुपोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यलक्षणस्थितिबन्धयोः प्रत्येकमुत्कृष्टमन्तरं ज्ञातव्यम् । अत्रैव महावन्धकाराभिमतमाह-“देसूणा छम्मासा" इत्यादि, सुगमम् , तन्मते नारकेष्वपर्याप्तावस्थायां विभङ्गज्ञानस्यानभ्युपगमात् , तिर्यग्नरेत्कृष्टतो निरन्तरमन्तमुहूतमेव विभङ्गज्ञानस्य स्वीकृतत्वाच्च । विशेषतस्तु प्रस्तुतमार्गणायां द्वितीयाधि कारकजीवाश्रयकालद्वारदर्शिताऽऽयुरनुत्कृष्स्थितिबन्धोत्कृष्टान्तरवद्विभावनीयमिति ॥५९५॥
अथ शेषमार्गणासु प्रकृतान्तरं दिदर्शयिपुरेकामा माह
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आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिचतुर्विधस्थितिवन्स्यैकजीवाश्रयान्तरप्रदर्शकयन्त्रम् अवस्थितस्थितिबन्धस्य
अवक्तव्यस्थितिबन्धस्य
जघन्यतः-समयः
१ समयः
उत्कृष्टत:-, ४समयाः
प्रोधवत्
प्रोघतः A १ समयः
। १ समयः | नास्ति । १समयः
अन्तमुहूर्तम् ३ समयः अन्तर्मुहूर्तम् २ समयः
देशोनकायस्थितिः सर्वपञ्चेन्द्रिय- मनुष्योंघ-तत्पर्या- शेष०
मनुष्यौघ-तत्पर्याप्त-मानषी ३६
मानुषी० * ३
तिर्यग्गत्योघ.
गतिक
तिर्यग्भेद० ४ प्त-मानुषी:
इन्द्रिय
अपर्याप्तपञ्चेन्द्रि. पञ्बेन्द्रियौघय १ तत्पर्याप्तभेदौ, २"
अपर्याप्तत्रस०
त्रसौष-तत्पर्याप्तौ
काय०
। पञ्चेन्द्रियौघ-तत्प
प्तिौ, २ त्रसौध-तत्पर्याप्त
भेदौ० २. सर्वमनोवचोकाययोगोष० औदारि०१२ गतवेद०१
औदारिकमिश्र० काययोगौघ०
योग०
कार्म.१
"
१५
वेद०
नपुसक० १ स्त्री०पुवेद० २ अपगतवेद०१
कपाय०
सर्व०
लोभ०
ज्ञान०
मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाने,
मत्यादिज्ञान-विभङ्ग चतुष्क० ४
मत्यादिज्ञानचतुष्क०
४.
-4.-
WARE
संयमौघ० १
शेष०
४
संयमौघ०
संयम सूक्ष्म.१ असंयम० दर्शन लेश्या० अशुभ०
चक्षुरादि. ३
चक्षुरादि०३
शुक्ल०
१
,
२ | शुक्ल०
भव्य०
अभव्य०
भव्य०१
मिथ्यात्व० १
भव्य० १ सम्यक्त्वोघ० क्षायि० औप०३
सम्यक्त्वौघ० क्षायि. औप०३"
सम्यक्त्व.
३ प्रौपशमिक०
संज्ञी०
असंज्ञी०
१
संज्ञी,
१
संज्ञी०
प्राहारी, १
पाहारी,
आहारी- ना.१ सर्वमार्गणाः-३
२४
११६
२०
गाथाङ्काः-५८१ ५८१-५८२ | ५८१-५८३ । ५८४-५८५ ५८५ । ५८६ । ५८७-५८८
★भूयस्कारा-ऽल्पतरयोः प्रत्येकमोघतो निरयगत्योघादिसर्वमार्गणासु च जघन्यतः समयः ,उत्कृष्टतोऽन्तमुहूर्तम्, केवलम्-कार्मणाऽनाहारकयोरन्तरमेव नास्ति,अवगतवेद-सूक्ष्मसम्पराययोर्जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तम् । (गा-५७६-७६-८०)
* मनुष्योध-तत्पर्याप्त-मानुषीमार्गत्रय उत्कृष्टान्तरं पूर्वकोटिपृथक्त्वम्, न तु देशोनकायस्थितिः । (गाथा-५८७)
प्रोघतोऽचक्षुर्दर्शने भव्यमार्गणास्थाने चोत्कृष्टतो देशोनार्धपुद्गलपरावर्तः । (गाथा-५८८)
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४७० ]
प्रोघतः सर्वमार्गणासु च
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषोऽल्पतरा ऽवक्तव्यः
आयुषोऽल्पतरा ऽवक्तव्य स्थितिबन्धयो रेक जीवाश्रयान्तरप्रदर्शक यन्त्रम्
श्रवक्तव्या-ऽल्पतरस्थितिबन्धयोः
प्रत्येकम्
सर्वथा - ऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरवत्
अन्भहियपुव्व कोंडी गुरु असण्णम्मि होइ सेसासु ं । साहियतेत्ती सुदही उक्कोसं अंतरं यं ॥ ५९६ ॥
1
(प्रे०) "अभहियपुव्व कोडी" इत्यादि, असंज्ञिमार्गणायां "गुरु" ति प्रकृतमायुपोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यस्थितिबन्धयो प्रत्येकं 'गुरु' - उत्कृष्टमन्तरमभ्यधिकपूर्वकोटिः, देशोनपूर्वकोटितीयभागेनाभ्यधिकपूर्व कोटी वर्ष प्रमाणं भवतीत्यर्थः । एतच्च प्रागुक्तकाययोगसामान्यमार्गणावद्भावनीयम्, नवरमुत्कृष्टस्थितिकासंज्ञिनो भवद्रयमपेक्ष्येति । "सेसासु" त्ति यास्त्रायुर्वन्धो भवति ताभ्योऽनन्तरोक्ता मनोयोगाद्यसंज्ञिपर्यन्ता मार्गणा विविच्य शेषासु पञ्चेन्द्रियौघादि त्रयोविंशतिमार्गणा प्रत्येकमायुषो द्विविधस्थितिबन्धस्योत्कृष्टमन्तरं साधित्रयस्त्रिंशदुदधयो ज्ञातव्यमि - त्यर्थः । शेषमार्गणा नामत इमाः - पञ्चेन्द्रियौघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्रसकायौघ-पर्याप्तत्र सकायवेद - पु . सकवेद-मत्यादित्रिज्ञान- मत्यज्ञान - श्रुताज्ञाना-संयम-चक्षुरादित्रिदर्शन भव्या-भव्य- सम्यक्त्वौघ-क्षायिक-क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-मिथ्यात्व-संज्ञयाऽऽहारिमार्गणा इति । एतासु प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिकायुर्वद्ध्वा सप्तमभूमौ नारकतयोत्पादे ऽनुत्तरविमाने देवतयोत्पादे वा तत्राऽपि प्रकृतपञ्चेन्द्रियौघादिमार्गणा अनुवर्तन्ते, ततश्च प्रथमे पूर्वकोटीस्थितिकमनुष्यादिभव उत्कृष्टावाधायां प्रथमवारं तदनन्तरं तूत्कृष्टस्थितिके निरयभवे देवभवे वा जघन्यावाधायां द्वितीयवारमायुर्वन्वं कुर्वन्तं जीवमपेक्ष्य प्रकृतान्तरं प्राप्यते, अतस्तदधिकपदेन पूर्वकोटीतृतीयभागेनाभ्यधिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपाणि वेदितव्यमिति ॥ ५९६ ॥
तदेवमभिहितमायुषोऽल्पतरा ऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोः प्रकृतमेकजीवाश्रयमन्तरं शेषमार्गस्वपि, तस्मिँश्चाभिहिते गतं चतुर्थमेकजीवाश्रितमन्तरद्वारम् ||
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीये भूयस्काराधिकारे चतुर्थं नानाजीवाश्रयमन्तरद्वारं समाप्तम् ॥
★ श्रायुषोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरप्रदर्शकं यन्त्रं तु २३६ तमे पृष्ठ प्रालिखितम् ।
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॥ अथ पञ्चमं भङ्गविचयद्वारम् ॥ साम्प्रतं नानाजीवाश्रितेषु भङ्गविचयादिद्वारेषु क्रमप्राप्ते "भङ्गविचयो" इत्यनेनोदिष्टे भङ्गविचयाभिधे पश्चमे द्वारे नानाजीवाश्रयां भङ्गविचयप्ररूपणां चिकीपुर्वक्ष्यमाणकरणेन भङ्गविचयोत्पत्तो बीजभूतं तत्तद्भूयस्कारादिवन्धकपदानां ध्रुवत्वादिकमादौ तावदोघत आह
सत्तण्ह बंधगा खलु भूगाराईण तिण्ह णियमात्थि।
भयणीआऽवत्तव्वस्साउस्स पयाण दोण्ह धुवा ॥५९७॥ (प्रे०) “सत्तण्ह बंधगा” इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां “भूगाराईण" त्ति 'भूयस्कारादीनां'-भूयस्काराऽल्पतरावऽवस्थितलक्षणानां त्रयाणां स्थितिबन्धविशेषाणां प्रत्येक 'बन्धकाः'-निर्वर्तकाः "णियमाथि" त्ति नियमात् सन्ति,नियमस्य त्रिकालापेक्षया कृतत्वादोघचिन्तायां तद्वन्धकानां न कदाचिदभावो लभ्यत इत्यर्थः । ध्रुवपदान्येतानीति यावत् । “भयणीआऽवत्तव्वस्स" त्ति तेषामेव सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धस्य 'भजनीयाः' -भाज्याः, कदाचिलभ्यन्ते कदाचित्तु नेत्यर्थः । अध्रुषपदमेतदिति यावत् । “उस्स पयाण दोण्ह” त्ति विश्लेशप्राप्तस्याऽऽकारस्य पूर्व दर्शनादायुषोऽल्पतरावक्तव्यस्थितिवन्धलक्षणयोर्द्वयोरपि पदयोः “धुवाः' ति बन्धका ध्रुवाः, सर्वदा लभ्यन्त इत्यर्थः। अत्र भंगविचयप्रस्तावेऽपि भयस्कारादिस्थितिबन्धकपदानां ध्रुवाध्रुवत्वप्रदर्शनं ध्रुवाध्रुवपदैरेव वक्ष्यमाणकरणेन भङ्गविचयोत्पत्तेरितिज्ञेयम् । तत्तत्पदानां ध्रुवा-ऽध्रुवत्वोपपत्तिस्तु मार्गणास्थानेषु तत्तत्पदानां वक्ष्यमाणध्रुवाऽध्रुवत्वोपत्तिवत्कार्येति ॥५९७।।
तदेवं दर्शितान्योघतो भङ्गविचयप्रयोजकानि ध्रुवाध्रुवपदानि । साम्प्रतमादेशतो दिदर्शविषुः सप्तप्रकृतिसत्कभूयस्कारादिस्थितिबन्धकपदानां ध्रुवत्वादिकं दर्शयति
तिरिये सवेगिंदियणिगोअ-सेससुहमेसु वणकाये । पुहवाइ चउसु तेसिं बायर-बायरअपज्जेसु ॥५९८॥ पत्तेअवणे तस्स य असमत्ते कायुरालियदुगेसु। कम्मण-णपुंसगेसु कसायचउगे अणाणदुगे ॥५९९॥ अयताऽचक्खूसु तहा अपसत्थतिलेस-भवियेसु। अभविय-मिच्छत्तेसु असण्णि-आहारगियरसु॥६००॥ (उपगीतिः) सत्तण्ह बंधगा खलु भूगाराईण तिण्ह णियमाऽत्थि । एआसु अवत्तबो जहि तहि से अस्थि भयणीया ॥६०१॥
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४७२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइवंधो [ मर्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारादि० (प्रे०) “तिरिये” इत्यादि, तिर्यग्गत्योघे, सर्वशब्दस्यैकेन्द्रियनिगोदयोः प्रत्येकं योजनात् सर्वैकेन्द्रियभेदाः, सर्वनिगोदभेदाः, सूक्ष्मपृथिवीकायादिद्वादशसूक्ष्मजीवभेदास्तेषु, वनस्पतिकायोघे तथा “पुहवाइचउसु" ति पृथिवीकायादिवायुकायान्तेषु चतुर्यु पृथिव्याद्योघभेदेषु, "तेसिं" ति तेषां पृथिव्यादिचतुर्णा "बायरबायरअपज्जेसु” ति वादरभेदेष्वपर्याप्तवादरभेदेषु च, बादरपृथिव्यप्तेजोवायुकायेष्वपर्याप्तवादरपृथिव्यप्तेजोवायुकायेषु चेत्यर्थः । प्रत्येकवनस्पतिकायस्यौघे, तस्य च प्रत्येकवनस्पतिकायस्याऽपर्याप्तभेदे, “कायुरालियदुगेसु” ति काययोगसामान्यौदारिकोदारिकमिश्रकाययोगेषु चेत्यर्थः । तथा कार्मणकाययोग-नपंसकवेदयोः, क्रोधादिकषायचतुष्के, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञानरूपेऽज्ञानद्रिके, असंयमा-ऽचक्षुर्दर्शनयोस्तथाऽप्रशस्तकृष्णादित्रिलेखा-भव्यमार्गणाभेदेषु, अभव्य-मिथ्यात्वमार्गणयोः, असंज्ञिमार्गणायां, आहारकमार्गणायां तथेतरपदादनाहारकमार्गणायां चेत्येवं चतुःषष्टिमार्गणासु प्रत्येकमायुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनां "भूगाराईण तिण्ह" त्ति 'भूयस्कारादीनां'-भूयस्काराल्पतरावस्थितस्थितिबन्धलक्षणानां त्रयाणां "बंधगा” ति बन्धकाःनिर्वतकाः, खलु पादपूत्यें, "णियमाऽत्थि" त्ति प्राग्वत् नियमात्सन्ति-सर्वदा प्राप्यन्ते, एतानि त्रीण्यपि ध्रुवपदानीति भावः ।
__एतास तिर्यग्गत्योधादिचतुःषष्टिमार्गणासु सर्वासु न सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धसद्भावः, किन्तु कासुचित्काययोगसामान्यादिमार्गणास्वेव, अतस्तास्ववक्तव्यवन्धकपदं ध्रुवमध्रुवं वेत्येतदर्शयन्नाह-"एआस" इत्यादि, एतासु तिर्यग्गन्योघादिचतुःषष्टिमार्गणासु सप्तानां प्रकृतीनामवक्तव्यस्य बन्धकास्तु "अवत्तव्यो जहि” त्ति 'यत्र'-यासु मार्गणास्ववक्तव्यस्थितिवन्धः समभिहितः “तहि" त्ति तासु काययोगौ-दारिककाययोगा-ऽचक्षुर्दर्शन-भव्या-ऽऽहारिमार्गणासु सप्तप्रकृतीनां लोभमार्गणायां मोहनीयकर्मणश्च "से" त्ति तस्यावक्तव्यस्थितिबन्धस्य "अत्थि भयणोआ” त्ति बन्धका भजनीया सन्ति, अवक्तव्यबन्धकानापदमध्र वमित्यर्थः ।।
तत्तत्पदानां ध्रुवत्वाद्युपपत्तिमार्गास्त्विमे-विहायाऽवक्तव्यस्थितिबन्धसत्पदं सप्तानां भूयस्कारादित्रिविधस्थितिवन्धसत्पदान्योधत आदेशतश्च सर्वजीवानां बन्धप्रायोग्यानि, अन्यच्च कुत्रचिन्मार्गणास्वसंख्यलोकप्रदेशराशिपरिमाणास्तदधिका अनन्ता वा जीवाः सन्ति, यथौघतस्तिर्यग्गत्योघादिमार्गणास्थानेषु च । कुत्रचित्तु ततः स्तोकाः स्तोकतराः स्तोकतमाः संख्येया एवोत्कृष्टतोऽपि भवन्ति । तेऽपि कासुच्चिन्नरकगत्योपादिमार्गणास्थानेषु निरन्तरं प्राप्यन्ते, कासुचिदपर्याप्तमनुष्यादिसान्तरमार्गणासु तु कदाचित्प्राप्यन्ते, कदाचित्त नाऽपि प्राप्यन्ते । इत्थं च यत्र कदाचिन्नाऽपि प्राप्यन्ते तस्यास्तु मार्गणाया एवाऽध्रुवत्वात्तत्र मार्गणायां सर्वविधभूयस्कारादीस्थितिबन्धकपदान्यध्रुवाण्येव भवन्तीति तु सुगमः । यत्र तु जीवपरिमाणमेवाऽसंख्यलोकप्रदेशराशितुल्यं तदधिकं वा तत्र तु भूयस्कारादीनि त्रिविधान्यपि पदानि ध्रुवाण्येव भवन्ति, बन्धकानामतिबहुतयाऽन्याऽन्यजीवानां नैरन्तेर्येण भूयस्कारादिबन्धकतया परिणतेः । अत एवौषतस्तिर्यग्ग
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तत्तत्पदानां ध्रुवत्वाद्योपपत्ति० ] भूयस्काराधिकारे भङ्गविचयद्वारम्
[ ४७३
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त्योघादिचतुःषष्टिमार्गणास्थानेषु चायुर्वर्जससमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिविविध स्थितिबन्धकपदानां त्वमभिहितम् । यत्र पुनर्निरयगत्योघादिमार्गणास्थानेषु नास्ति जीवपरिमाणं तावदसंख्येयलोकादिलक्षणम्, न वा भवति जीवानामेव नारकादितया सर्वथाऽभावस्तत्र त्ववस्थितस्थितिबन्धकलक्षण पदं भवति, भूयस्काराऽल्पतरस्थितिवन्वास्त्वध्रुवं प्राप्यन्ते । कस्मात् ? प्रत्यन्तमुहूर्त भाविनामपि भूयस्कारा- ऽल्पतरा ऽवस्थितस्थितिबन्धानां मध्ये भूयस्काराऽल्पतरस्थितिबन्धयोरुत्कृष्टस्याऽप्येकजीवाश्रयकालस्यैकन्यादिसंख्येयसमयमात्रत्वेन तदीयैकजीवाश्रयान्तरस्योत्कृटतोऽसंख्येयसमयप्रमाणत्वेन च प्रत्येकं जीवानां जीवितासंख्येयबहु भागेष्वस्थितस्थितिबन्धकतया परिणतेः, भूयस्कारा- ऽल्पतरस्थितिबन्धकतया तु जीवितासंख्येयैकभागमात्रकालं परिणतेथ । जीवितासंख्येयबहुभागकालेष्ववस्थित स्थितिबन्धस्य प्रवर्तनात् जीवितासंख्यैकभागकाल एव भूयस्कारादिस्थितिबन्धानां प्रवर्तनाच्चेति भाव: । अत एवानन्तरमपर्याप्तमनुष्यादिसान्तरमार्गणासु सर्वपदानामध्रुवत्वं प्रतिपाद्याऽपि निरयगत्योघादिमार्गणासु त्ववस्थितस्थितिबन्धकानां ध्रुवत्वमेव वक्ष्यते । सप्तानामवक्तव्य स्थितिबन्धस्वामिनस्तूपशमश्रेण समारुह्य निपतन्तः केचनैव जीवाः, ते च नानाजीवानाश्रित्योपशमश्रेणेरेव सान्तरत्वात्कदाचित्प्राप्यन्ते, कदाचित्तु नेत्योघतो मार्गणास्थानेषु वा सर्वत्र यत्र कुत्रचित्सप्तानामवक्तव्य स्थितिबन्धपदं सदभिहितं तत्र तदध्रुवमेव लभ्यते | आयुषो ऽल्पतरा ऽवक्तव्यद्विविवस्थितिबन्ध सत्पदयोस्तु प्रस्तुतधुवान्धवत्वमोघतो मार्गणास्थानेषु वा सर्वत्र सर्वथैवायुषः प्रकृतिबन्धकानां ध्रुवान् वत्ववदेव लभ्यते । कथम् ? कादाचित्कमप्यायुःप्रकृतिवन्धं कुर्वतां जीवानां तदीयाऽल्पतरा ऽवस्थितस्थितिबन्धयोर्नियमतो भावात्, बन्धक परिमाणस्याऽसंख्येयलोक-तदधिक-तद्धीनत्वादिरूपेण तुल्यत्वाच्च । अत एवौघत आयुषो द्विविधपदे ध्रुवेभिहिते, तिर्यग्गत्योगादिमार्गणास्थानेष्वपि ते ध्रुवेऽभिधास्यते, अन्यत्र त्वध्रुव इति ।।५९८-६०१।। अथ शेषमार्गणासु प्रकृतमायुर्वर्जानां भूयस्कारादितत्तद्वन्धकानां वत्वादिकमाहअसमत्तणरा-ऽऽहारगजुगल-विउवमीसगेसु गयवेए । छेए परिहार- सुहम-उवसम-सासाण-मीसेसु ॥ ६०२॥ सत्तण्ह सगपयाणं भयणी बंधगाऽथ सासु । णियमा अवअिस्स हि सेससगपयाण भयणी | ६०३ ॥
(प्रे०) “असमत्तणरे”त्यादि, अयर्पाप्तमनुष्यमार्गणायां, तथाऽऽहारकाऽऽहारकमिश्रकाययोगयोयु गले, वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणायां, गतवेद मार्गणायां, छेदोपस्थापनसंयमे, परिहारविशुद्धिकसंयम-सूक्ष्मसम्परायसंयमौ-पशमिकसम्यक्त्व-सास्वादन मिश्र दृष्टिमार्गणासु चेत्यर्थः । एतासु प्रत्येकं किमित्याह -“सत्तण्ह" इत्यादि आयुर्वजनां सप्तानां प्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धलक्षणानां 'स्वकपदानां’-स्वकीयपदानाम्, भूयस्कारादीनि यावन्ति पदानि यस्यां मार्गणायां सद्भूतानि तावन्ति
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४७४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषोऽल्पतरा-ऽवक्तव्य० तस्यां स्वकपदानि, तानि चाऽपर्याप्तमनुष्य-काययोगौघ-वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोग-छेदोपस्थापन--परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयम-सम्यग्मिथ्यात्व--सासादनरूपनवमार्गगासु ज्ञानावरणादीनां सप्तप्रकृतीनां प्रत्येकं भूयस्काराऽल्पतराऽवस्थितस्थितिबन्धलक्षणानि त्रीणि, औपशमिकसम्यक्त्वा-ऽपगतवेदमार्गणयोस्तु प्रत्येकं सप्तानां भूयस्काराल्पतरावस्थितावक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणानि चत्वारि । तेषां स्वकपदानां "भयणोआ बन्धगा” ति 'बन्धकाः'-निर्वतका भजनीयाः । कुत एतासु सतपदानि भाज्यानि ? इति चेद् , नानाजीवानाश्रित्यैता सां मार्गणानामेव सान्तरत्वादिति । "सेसासु” ति उक्तशेषास पञ्चनवतिमार्गणास प्रत्येक सप्त प्रकृतीनां "णियमा अवट्ठिअस्स हि" त्ति अवस्थितस्यैव बन्धका नियमात , सन्तीति शेषः । “सेससगपयाण” त्ति प्राग्वत् , नवरमवस्थितस्थितिबन्धस्य निवर्तकानां कथितत्वातेन वर्मानां शेषाणां स्वकपदानामित्यर्थः । तेषां किमित्याह-"भयणोआ"त्ति सुगमम् ।
तत्र शेषमार्गणा इमाः पञ्चनवतिः-अष्टौ नरकगतिभेदाः, चत्वारः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, त्रिंशदेवगतिभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियः, पर्याप्तवादरपृथिव्यप्तेजोवायुकायाः, पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायः, अपर्याप्तत्रसकायः, वैक्रियकाययोगः, पुरुषवेद-स्त्रीवेदविभङगज्ञान-सामयिकसंयम-देशसंयम-तेजोलेश्या-पद्मलेश्या-क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणा इति सप्तषष्टिस्तथाऽपर्याप्तमनुष्यभेदवर्जास्त्रयो मनुष्यगतिभेदाः, पञ्चेन्द्रियौघ--पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय--प्रसोधपर्याप्तत्रसकायभेदाः,पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-मत्यादिज्ञानचतुष्क-संयमाघ-चक्षुर्दर्शनाऽवधिदर्शनशुक्ललेश्या-सम्यक्त्वौघ-क्षायिकसम्यक्त्व-संज्ञिरूपा अष्टाविंशतिश्चेति ।
तत्र प्रथमोदितासु नरकगत्योपादिसप्तपष्टिमार्गणासु प्रत्येकं सप्तानां भूयस्काराल्पतरद्विविधस्थितिवन्धयोनिर्वतका एव भजनीयाः । कुतः ? तास्ववक्तव्यबन्धस्याभावात् , शेषपदेष्ववस्थितस्थितिस्थितिवन्धकपदस्य तु ध्र वत्वेन द्वे एव शेपस्वपदेऽध्र व इतिकृत्वा । तदनन्तरोदितासु मनुष्यगत्योघाघष्टाविंशतिमार्गणासु पुनः सप्तप्रकृतीनां भूयस्काराल्पतरावक्तव्यत्रिविधस्थितिबन्धानां निवर्तका भजनीया इति । एतासु पञ्चनवतिमार्गणासु भूयस्कारादेवन्धकानां सजनीयाभजनीयत्वं तु 'तिरिये' इत्यादि(५९८......)गाथाचतुष्टयवत्तौ तत्तयस्कारादेवन्धकपरिमाणस्यासंख्येयलोकप्रदेशराश्यपेक्षयाऽतिस्तोकवादिना प्रकारेण साधितमेवेति ॥६०२-६०३॥
अथ गाथात्रयेण मार्गणास्थानेष्वेव शेषस्याऽऽयुपोऽल्पतरावक्तव्यस्थितिबन्धयोनिवर्तकानां ध्रुवाऽध्र वत्वं दर्शयन्नाह
तिरिये सव्वेगिंदियणिगोअ-सेससुहमेसु वणकाये । पुहवाइचउसु तेसिं बायर-बायरअपज्जेसु॥६०४॥
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अध्र वपदैर्भङ्गो पादने करण० ] भूयस्काराधिकारे भङ्गविचयद्वारम्
[ ४७५ पत्तेअवणे तस्स य अलमत्ते कायुरालियदुगेसु। णपुम-चउकसायेसुदुअणाणा-ऽयत-अचक्खूसु॥६०५॥ असुहतिलेस-भवियियर-मिच्छाऽसण्णीसु य तह आहारे । दुपयाण बंधगाऽऽउस्स धुवा सेसासु भयणीआ॥६०६॥ (प्रे०) “तिरिये” इत्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः सप्तकर्मभूयस्कारादिस्थितिबन्धकानां ध्रुवत्वादिप्रतिपादकगाथाव्याख्यानेनोक्तप्रायश्च । भावार्थस्त्वयम्-सार्धगाथाद्वये"तिरिये” इत्यादिना नामत उपातासु तिर्यग्गत्योघादिद्विषष्टिमार्गणासु प्रत्येकमायुपः सत्पदद्वयस्य बन्धका जघन्यतोऽप्यसंख्यलोकाकाशप्रदेशराशितुल्याः सन्ति, तथा च सति बन्धकबाहुल्यायागुतनीत्याऽल्पतरावक्तव्यस्थितिवन्धयोः प्रत्येकं निर्वते कानामन्तरं कदाचिदपि न लभ्यत इति तेषां ध्रौव्यं प्रतिपादितम् , शेवासु पुनर्यास्वायुर्वन्धो भवति तासु नरकगत्योघाद्यकोत्तरशतमार्गणासु तूक्तबन्धकबाहुल्यस्थाभावादेवाऽऽयुषोऽल्पतराऽवक्तव्यस्थितिवन्धयोः प्रत्येक निर्वर्तकानां कदाचिदन्तरस्यापि लाभात्तेषां भजनीयता दर्शितेति ॥६०४-६०६॥
अथाष्टानामपि प्रकृतीनां भूयस्कारादेवन्धकानां भङ्गविचयोपयोगिनं ध्रु वत्वादिकं प्रतिपाद्य भङ्गविचयमानयनाय करणं व्याचिकीषु ध्रुवपदानां नानात्वेऽपि तत्सत्क एक एव भङ्गो भवतीति तत्र वक्तव्यताऽभावात्सुगमत्वाद्वा ध्रवपदान्युपेक्ष्याध्र वपदप्रयुक्तभङ्गोत्पादने करणगाथामाह--
भयणीअपयस्स दुवे भंगेगाणेगबंधगाहिन्तो। ते चिअ तिगुणा दुजुआ पयपयवुट्ठीअ कायव्वा ॥६०७॥ (प्रे०) "भयणीअपयस्स" इत्यादि, भजनीयपदस्येत्यत्रैकवचनस्योपादानादेकस्य भजनीयपदस्य “दुवे भंग" ति द्वौ भङ्गो । अव भङगद्वैविध्ये हेतुमाह-"गाणेगबंधगाहिन्तो" त्ति विश्लेशप्राप्तस्यैकारस्य दर्शनादेकाऽनेकबन्धकेभ्यः, कदाचिदेकवन्धकलाभात् , कदाचिदनेकबन्धकलाभादित्यर्थः । अयम्भावः-भजनीयपदे कादाचित्कबन्धकाभाव इव कदाचिदेको बन्धकः कदाचिच्चानेके बन्धका इत्येवं द्वौ भङ्गो प्राप्येते, अत ओघत आदेशतो मार्गणास्थानेषु वा यत्र कुत्रचिदेकमध्र वपदं तत्र तत्सत्को द्वौ भङ्गो धर्तव्यो । यत्रैकस्मादधिकानि द्वयादीन्यध्र वपदानि तत्र पुनः किं कर्तव्यमित्याह-"ते चिअ तिगुणे" त्यादि, तत्र “पयपयवुढी" ति ततः 'पदपदवद्धौ'-प्रतिभजनीयपदवद्धावित्यर्थः। "ते चिअ" ति तावनन्तरपदप्राप्तौ द्वौ भङ्गो "तिगुणा दुजुआ" ति बहुवचनं प्राकृतत्वादतस्त्रिगुणौ द्वियुतौ, कर्तव्याविति परेणान्वयः । अत्र "ते" इत्यनेनान्तरोक्तौ द्वौ भङ्गौ परामश्येते, तथापि तौ न द्विभङ्गरूपेण परामृश्यौ किन्तु पूर्वपदप्राप्तभङ्गरूपतया परामृश्यौ । कुतः ? “पयपयवढीअ” इत्यनेन प्रतिपदवृद्धौ तथैव करणीयतयाऽत्र
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४७६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [करणयोजनया भङ्गोत्पत्तिः व्याप्तेरेव दर्शितत्वात् । तथा च सति यत्र द्वे पदे भजनीये तत्र पदवृद्धिरितिकृत्वा तौ पूर्वपदप्राप्तौ द्वौ भगावेव त्रिगुणौ द्वियुतौ कर्तव्यो, ततो(२४३+२=८)ऽष्टौ भङ्गा प्राप्यन्ते । यत्र पुनरपि पदवृद्धिरर्थात् त्रीणि पदानि भजनीयानि तत्र "ते" इत्यनेन पूर्वपदप्राप्तावष्टौ भङ्गास्त्रिगुणा द्वियुताः क्रियन्ते, ततश्च (८४३+२=२६) षडविंशतिभङ्गाः सम्पद्यन्ते, एवमुत्तरत्रापि पदवद्धया द्रष्टव्यम् । तद्यथा-यत्र चत्वारि पदानि भजनीयानि तत्र पुनरपि पदवृद्धिरितिकृत्वा पूर्वप्राप्ताः षड्विंशतिर्भङ्गास्त्रिगुणा द्वियुताः क्रियन्ते । तथा च सति (२६४३+२=८०) अशीतिर्भङ्गकाः प्राप्यन्ते, इत्थमेव प्रतिपदवद्धौ भङ्गवद्धिः स्वयमेव द्रष्टव्या । एते द्वि-अष्ट-पड्विंशत्यादिभङ्गा अध्र वपदनिष्पन्ना एव, प्रकृतकरणस्याघ्र वपदनिष्पन्नभङ्गानयनार्थमभिहितत्वात् । अतो यत्रैकद्वयादीनि ध्रुवपदानि तत्र तु तत्सत्क एको भङ्गोऽधिकः प्राप्यत इति द्वयादिभङ्गेष्वसौ प्रक्षेप्य इति । __अस्य प्रकृते योजना त्वेवम्-ओघत आयुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनां प्रत्येकमवक्तव्यस्थितिबन्धका अध्र वा भणिताः, शेषभूयस्कारादित्रयाणां तु ध्र वा उक्ता, तथा च सत्यध्र वपदमेकमितिकृत्वा द्वौ भङ्गो प्राप्तौ, ध्रुवपदत्रयनिष्पन्नस्त्वेको भङ्गः प्राप्त इत्येवमोघतो ज्ञानावरणादीनां प्रत्येक त्रयो भङ्गा जाताः । तद्यथा-ज्ञानावरणादिसप्तान्यतमस्य स्यादनेके भयस्कारस्थितिबन्धकाः,अनेकेऽल्पतरस्थितिबन्धकाः, अनेकेऽवस्थितस्थितिबन्धका इति प्रथमः । अवक्तव्यबन्धकानामभावकाल एवायं प्राप्यते, । द्वितीयभङगस्त स्यादनेके भयस्कारस्थितिबन्धकाः, अनेकेऽल्पतरस्थितिबन्धकाः, अनेकेऽवस्थितस्थितिवन्धकाःएकोऽवक्तव्यस्थितिबन्धक इति । तृतीयभङ्गः पुनस्स्यादनेके भूयस्कारस्थितिबन्धकाः, अनेकेऽल्पतरस्थितिबन्धकाः, अनेकेऽवस्थितस्थितिबन्धकाः, अनेकेऽवक्तव्यस्थितिबन्धका इति । आयुर्विषये त्वोधचिन्तायामेक एव भङ्गः, पदद्वयस्यापि ध्र वत्वात् । नानापदानां ध्र वत्वेऽप्येकभङ्गप्राप्तिस्त सुगमा । तदुच्चारणा त्वेवं भवति-अनेकेऽल्पतरस्थितिबन्धका अनेकेऽवक्तव्यस्थितिबन्धका इति । ___अथ मार्गणास्थानेषु प्रकृतकरणे योजिते प्राप्तभङ्गविचयः प्रदर्यते-नरकगत्योधमार्गणायामायुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां भूयस्काराल्पतरस्थितिबन्धकानां प्रत्येकं भजनीयतोक्ता, अबस्थितस्थितिबन्धकानां तु ध्रुवत्वमभिहितमित्येवं द्वे पदेऽध्रुवे,एकं ध्रुवम् ,ततश्चाष्टौ भङ्गा अध्रुवाः, अध्रुवपदनिष्पन्ना इत्यर्थः । एकोभङ्गो ध्रुवश्च प्राप्यते, एको भङ्गो ध्रुवपदनिष्पन्नः प्राप्यत इत्यर्थः । एवमुत्तरत्राऽपि विज्ञेयम् । तदुच्चारणं त्वेवम्-ज्ञानावरणादीनां सप्तानामन्यतमस्याः स्यादनेकेऽवस्थितस्थितिबन्धका इति प्रथमो भङ्ग एकसंयोगी। संयोगस्य प्राधान्यादेकत्वेऽप्येकसंयोगीत्युच्यत इति बोद्धव्यम् । स्यादनेकेऽवस्थितस्थितिबन्धकाः, एको भूयस्कारस्थितिबन्धक इति द्वितीयो भङ्गः। 'स्यादनेकेऽवस्थितस्थितिबन्धकाः, अनेके भूयस्कारस्थितिबन्धका इति तृतीयो भङ्गः। "स्यादनेकेऽवस्थितस्थितिबन्धकाः,एकोऽल्पतरस्थितिबन्धक इति चतुर्थो भङ्गः । "स्यादनेके
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करणयोजनया भङ्गोत्पत्तिः] द्वितीयाधिकारे भङ्गविचयद्वारम्
[ ৪৬৩ ऽवस्थितस्थितिबन्धकाः, अनेकेऽल्पतरस्थितिबन्धका इति पञ्चमभङ्गः । एते चत्वारो द्विसंयोगिनो भङ्गा जाताः। त्रिसंयोगिनोऽपि चत्वारोभङ्गाभवन्ति । तद्यथा- 'स्यादनेकेऽवस्थितस्थितिबन्धकाः, एको भूयस्कारस्थितिबन्धकः, एकोऽल्पतरस्थितिबन्धकश्चेति षष्ठभङ्गः । स्यादनेकेऽवस्थितस्थितिबन्धकाः, एको भूयस्कारस्थितबन्धकोऽनेकेऽल्पतरस्थितिबन्धका इति सप्तमो भङ्गः । स्यादनकेऽवस्थितस्थितिबन्धकाः, अनेके भूयस्कारस्थितिबन्धकाः, एकोऽल्पतरस्थितिबन्धक इत्यष्टमभङ्गः ।
स्यादनेकेऽवस्थितस्थितिबन्धकाः,अनेके भूयस्कारस्थितिबन्धकाः,अनेकेऽल्पतरस्थितिबन्धकाश्चेति नवमभङ्ग इति । इत्थमेव शेषनिरयगतिभेदेषु, चतुषु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदेषु, देवगतिसत्कत्रिंशद्भेदेषु, विकलेन्द्रियसत्कनवभेदेषु, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियमार्गणाभेदे,बादरपृथिव्यादिसत्केषु चतुर्यु पर्याप्तभेदेषु, पर्याप्त प्रत्येकवनस्पतिकायमार्गणाभेदे, अपर्याप्तत्रसकायभेदे तथा वैक्रियकाययोग-स्त्रीवेद-पुरुषवेद--विभङ्गज्ञान--सामायिकसंयम--देशसंयम-तेजोलेश्या-पद्मलेश्या-क्षायोपशमिकसम्यक्त्वेवित्येवं षट्पष्टिमार्गणास्वपि प्रत्येकमायुवर्जसप्तप्रकृतीनामेकैकस्या नव नव भङ्गका द्रष्टव्याः ।
मनुष्यौघ-पर्याप्तमनुष्य-मानुषी--पञ्चेन्द्रियोघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-बसौघ-पर्याप्तत्रसकाय-पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-मत्यादिचतुर्ज्ञान--संयमोघ-चक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन-शुक्ललेश्या-सम्यक्त्वौघक्षायिकसम्यक्त्व-संज्ञिमार्गणारूपास्वष्टाविंशतिमार्गणासु तु प्रत्येकं सप्तप्रकृतीनां भूयस्कारा-ऽल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्धकानां भजनीयतोक्ताऽतस्त्रीणि पदान्यध्र वाणि, अवस्थितबन्धकास्तु ध्र वा उक्ताः, तथा च षड्विंशतिरध्रु वभङ्गा प्राप्ताः, एको भङ्गस्तु ध्रुवः प्राप्तः । इत्येवमेतासु प्रत्येकं सप्तविंशतिर्भङगा बोद्धव्याः । भगोच्चारणं तु पूर्ववत्स्वयमेव कर्तव्यमिति ।
अपर्याप्तमनुष्य-वैक्रियमिश्रकाययोगा-ऽऽहारककाययोगा-ऽऽहारकमिश्रकाययोग-छेदोपस्थापन-रिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयम-सम्यग्मिथ्यात्व-सासादनरूपासु नवमार्गणासु पुनः प्रत्येकं सप्तप्रकृतीनां भयस्कारा-ऽल्पतरा-ऽवस्थितस्थितिबन्धका अध्र वा दर्शिताः, अतस्त्रीणि पदान्यध्रवाणि, नास्त्येकमपि ध्रवपदम् । कुतः ? नानाजीवानाश्रित्यापि प्रकृतमार्गणानां सान्तरत्वात् । इत्थं ह्यध्र वपदत्रयीनिष्पन्नाः षड्विंशतिर्भङ्गा लभ्यन्त इति ।
काययोगौ-दारिककाययोगा-ऽचक्षुर्दर्शन-भव्या-ऽऽहारकरूपासु पञ्चमार्गणासु प्रत्येकं सप्तप्रकृतीनामवक्तव्यबन्धका अध्र वाः, शेषभूयस्कारादित्रयाणां ध्र वाश्च दर्शिताः; इत्थं ह्यध्रुवपदस्यैकत्वाद् द्वौ भङ्गो, एकच ध्रुवभङ्ग इत्येवमोघवत् त्रयो भङ्गका भवन्ति ।
___औपशमिकसम्यक्त्वाऽ-पगतवेदमार्गणयोश्चतुर्णामपि पदानामध्रुवत्वात् ध्रुवपदस्य चाभावादशीतिर्भङ्गाः प्राप्यन्ते; वारत्रयं पदवृद्धावशीतिभङ्गोत्पत्तिस्तु प्राक्करणगाथाव्याख्याने दर्शिता ।
तिर्यग्गत्योध-सर्वैकेन्द्रिय-सर्वनिगोद-शेषसूक्ष्मपृथिव्यादिभेद-वनस्पतिकायौघ-पृथिव्यप्तेजोवायुकायौषभेद-चादरपृथिव्यादिचतुर्भेदा-ऽपर्याप्तवादरपृथिव्यादिचतुर्भेद-प्रत्येकवनस्पतिकायौघा-ऽपर्याप्त
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बंधवाणे मूलपडिटिइबंधो
[ एकसं योग्यादिभङ्गानाम्प्रत्येकवनस्पतिकायौ-दारिकमिश्रकाययोग-कार्मण काययोग नपुंसकवेद-क्रोधादिचतुः कषाय-मत्यज्ञानश्रुताज्ञान- संयम - कृष्ण - नील-कापोतलेश्या-भव्य- मिथ्यात्वाऽसंज्ञ्य ऽनाहारिरूपास्त्रकोनषष्टिमार्गणासु सप्तप्रकृतीनामवक्तव्य स्थितिबन्ध एव नास्ति, शेषभूयस्कारादिस्थितिबन्धकानां तु निरन्तरं प्राप्तेस्त्रीणि पदानि ध्रुवाणीत्येवमेक एव भङ्गः प्राप्यते, केवलं लोभमार्गणायां मोहनीयकर्मणोऽवक्तव्यबन्धस्य निर्वर्तका भजनीया इतिकृत्वा लोभमार्गणायां मोहनीयकर्मणः प्रकृतभङ्गास्त्रयो द्रष्टव्याः, शेषषण्णां तु यथोक्त एक एवेति ।
अथायुषो द्विविधबन्धकास्त्वनुपदमुक्त तिर्यग्गत्योघाद्येकोनषष्टिमार्गणाभ्यः कार्मणकाययोगाSनाहारिमार्गणाद्वयं विहाय शेषासु सप्तपञ्चाशन्मार्गणासु काययोगसामान्यौ-दारिककाययोगाऽचक्षुदर्शन भव्याऽऽहारिमार्गणासु च प्रत्येकं ध्रुवं लभ्यन्त इतिकृत्वा तास्वोघवदेको भङ्गो द्रष्टव्यः । शेषमार्गणास्वायुर्वन्धकानां प्राप्तिर वा उक्ता अतः शेषमार्गणासु द्वेऽपि पदे भजनीये, तथा च सत्युक्तकरणानुसारेणाष्टौ भङ्गाः प्राप्यन्त इति । अत्र सर्वत्रापि भङ्गोच्चारणं तु स्वयमेव कर्तव्यमिति ||६०७|| अथैकसंयोग्यादिभङ्गान् पृथग्जिज्ञासतां कृते करणान्तरमाहभयणीअपया कमा संखा ठप्पा विपज्जयेणाहो । सुवरिल्लाए पढमा हेट्टिल्ला खलु विभत्तव्वा ॥ ६०८ ॥ बीआ पुव्वत्ताए लडीए हेट्टिमा गुणिअ पच्छा | भइ अवरिमगाए एमेव जहुत्तरं कज्जं ॥ ६०९ ॥ जाओ पढमाईओ पत्ता लगीउ ताउ णायव्वा । कमसो गाईणं संयोगाणं खलु विगप्पा ॥ ६१०॥
४७८ ]
गाई संयोगी भंगा कमसो दुगेण ताउ कमा । दुगुणद्गुणगुणि ते एगाणेगजीवाणं ॥ ६११ ॥
(प्रे० ) " भयणीअपयाण कमा" इत्यादि, "भयणीअपयाणकमा" त्ति भजनीयपदानां क्रमात् "संख" त्ति "संख्या: " - संख्यादर्शक चिह्नानि, एक-द्वि-व्यायङ्का इति यावत् । ताः "ठप्प " त्ति 'स्थाप्याः ' न्यसनीयाः, एक-द्वयादिभजनीयपदेषु सत्स्वेतावतामेकादीनामेकोत्तरानामङ्कानां न्यासः कर्तव्य इति भावः । एवमेवोत्तरत्राऽपि विज्ञेयम् । अत्र यस्यां सर्वाधिकानि भजatrपदानि तस्यामोपशमिकसम्यक्त्वमार्गगायां सममेव भाव्यते, तत्रोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां भजनीयपदानि चत्वारि, अतस्तत्संख्याका एकोतरा एकायङ्काः क्रमेण स्थाप्याः, [१२३४ ] एककः, द्विकः, त्रिकः, चतुष्क इति । ततः किं कर्तव्यमित्याह - "विपज्जयेणाहो" त्ति' भयणी अपयाण संखा ठप्पा' इत्यनुवर्तते, अतो भजनीयपदानां संख्याः क्रमेण स्थापयित्वाऽनन्तरम् "अहो ” ति
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-पृथक् पृथगुत्पादने करणान्तरम् ] भूयस्काराधिकारे भङ्गविचयद्वारम्
[ ४७९ तासां स्थापितसंख्यानामधो भजनीयपदानां संख्या विपर्ययेण'-व्यत्यासेन स्थाप्या इत्यर्थः । तथा च सति प्रकृते [१३३६] पूर्वस्थापितैकसंख्याया अधश्चतुःसंख्या, द्विसंख्याया अधस्त्रिसंख्या, त्रिसंख्याया अधो द्विसंख्या, चतुःसंख्याया अध एकसंख्येति । ततः किं कर्तव्यमित्याह-"सुवरिल्लाए" इत्यादि, “पढमा हेडिला खलु विभत्तव्व" त्ति प्रथमाऽधस्तनी संख्या खलु विभक्तव्या । कयेत्याह-"सुवरिल्लाए"त्ति 'स्वोपरितनया'-स्वोपरितनवर्तिन्या संख्यया,स्वमस्तकस्थेनाङ्कनेत्यर्थः । तथा च सति प्रकृते [२) ४ (४ लब्धिः ] प्रथमाया अधस्तन्याश्चतुःसंख्यायास्तदुपरितन्यैकसंख्यया भागे हृते लब्धं चत्वार इति भागफलम् ,इदं हि लब्धिरप्युच्यते ।
___ अथ व्यायङ्कषु यत्करणीयं तदाह-"बोआ पुव्वत्ताए” इत्यादि, द्वितीया "हेहिमा" त्ति अधस्तनी संख्या “पुव्वत्ताए लडीए" त्ति पूर्वाऽऽप्तया लब्धया,-पूर्वप्राप्तेन भागफलेनेत्यर्थः । "गुणि" ति गुणयित्वा, गुणनीयेति भावः, तथा च सति प्रकृते [३४४=१२] द्वादशसंख्या प्राप्ता । अतः पश्चात् किं कर्तव्यमित्याह-"पच्छा भइअव्वुवरिमगाए" ततः पश्चात् सा प्राप्तसंख्या स्वोपरितनवर्तिन्या संख्यया भक्तव्येत्यर्थः । तथा च कृते प्रकृते [२) १३(६ लब्धिः ] षट्संख्या प्राप्ता । “एमेव जहुत्तरं कज्ज' तत्र “एमेव" ति यथाऽनन्तरमुक्तं तथैव, पूर्वप्राप्तलन्थ्योत्तरवर्त्यवस्तनसंख्याया गुणनम् , तत उपरितनसंख्यया प्राप्तगुणनफलस्य भागहरणं 'यथोत्तरं कार्य' ययोतरस्थापिताङ्केषु कार्यमित्यर्थः । ततश्च प्रकृते तृतीयस्थाने [६४२=१२, ३) १३(४लब्धिः ] चतुःसंख्या भागफलतया प्राप्ता, पुनरपि तथैव कृते [४४१=४, ४)(१ लब्धिः] चतुर्थस्थाने लब्धावेकसंख्या प्राप्तेति ।
या एता लब्धयः प्राप्तास्ता एवैकादिसंयोगिनो भङ्गा बोद्धव्या इति ज्ञापयन्नाह-"जाओ पढामाईओ” इत्यादि, या अनन्तरोक्तप्रक्रियया प्रथमादयो 'लब्धयः'-चतुष्कादिनि प्रथमादिभागफलानित्यर्थः । प्राप्तास्ता खलु' निश्चयेन क्रमेणे'कादीनां -एक-द्वि-व्यादीनां संयोगानां विकल्पाः' -भङ्गा ज्ञातव्याः । तथा च सति प्रकृते चत्वार एकसंयोगिनो भङ्गाः, पड़ द्विसंयोगिनो भङ्गाः, चत्वारस्त्रिसंयोगिनो भङ्गाः, एकश्चतुःसंयोगी भङ्गश्च प्राप्तः ।
किमेतावन्त एव प्रकृते भङगा बोद्धव्याः ? न, यत एते बन्धकसामान्यापेक्षया सन्ति, प्रकृते भजनीयपदेषु कालभेदेनैकानेकबन्धकानां सम्भवात् तदपेक्षया द्रष्टव्याः । नन्वेकानेकबन्धकापेक्षया तर्हि कियन्तो भङ्गा इत्याह-"एगाई संयोगी" त्यादि, अनन्तरप्राप्ता एकादिसंयोगिनो भङ्गाः 'क्रमशः' यथाक्रम, संस्थाप्येति शेषः । “गुणिआ ते एगाणेगजीवाणं" इति, गुणिताः सन्तस्ते 'एकानेकजीवानाम् ' -एकानेकबन्धकजीवानां, भङ्गका भवन्तीति शेषः ।
नन्वेत एकादिसंयोगिनो भङगाः क्रमेण संस्थाप्य केन गुणिताः सन्त एकानेकवन्धकानां भङ्गा भवन्तीत्याह-"दुगेण ताउ कमा दुगुणदुगुणेण" ति प्रथमा द्विकेन, ततः क्रमात्
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४८० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ एकसंयोग्यादिभङ्गोत्पत्ती करणान्तरं द्विगुणद्विगुणेन,-पूर्वपूर्वापेक्षयोत्तरोत्तरं द्विगुणेन द्विगुणेन गुणकेनेत्यर्थः । तथा च प्रकृते एते पूर्वोक्ता एकसंयोग्यादिभङगाः स्थाप्यन्ते-(४,६,४,१), ततः प्रथमाश्चत्वारो द्विकेन ताड्यन्ते, (४४२=८) तदा जाता अष्टावकसंयोगिनो भङ्गाः । ततो द्वितियाः षट् पूर्वापेक्षया द्विगुणेन चतुरात्मकेन गुणकेन ताड्यन्ते (६x४-२४), तदा जाताश्चतुर्विशतिदिसंयोगिनो भङ्गाः । ततम्तृतीयाश्चत्वारः पूर्वापेक्षया द्विगुणेनाऽष्टात्मकेन गुणकेन गुणिताः सन्तो (४४८-३२) जाता द्वात्रिंशत् त्रिसंयोगिनो भगाः । एवमन्त्य एकः पूर्वापेक्षया द्विगुणेन षोडशात्मकेन गुणकेन हन्यते (१x१६=१६), तदा जाताः षोडश भङ्गाश्चतुःसंयोगिनः । एतेषां सर्वेषां सङ्कलने (८+२४+३२+१६८०) जाता अशीतिर्भङगाः ।
इत्थमोपमिकसम्यक्त्वमार्गणायां प्राग्दर्शितकरणेनेव प्रकृतकरणेनाप्यशीतिर्भङगाः प्राप्ताः, केवलमत्रैकद्वयादिसंयोगिनो व्यक्ता इति । अथ यत्र त्रीणि पदानि भाज्यानि तत्र भङ्गानयनाथ प्रकृतकरणानुसारेण केवला स्थापना प्रदाते। १)३(३ प्रथमा ३ /२)६(३ द्वितीया ३, ३)३(१ तृतीया प्र० लब्धिः द्वि०लब्धिः तृलब्धि भङ्ग१ २ ३ ३ लब्धिः |x २ ६ लब्धि:- १] ३ लब्धिः ३ ३
विचय
३२१०
३
६ - १२ ८ = २६) यत्रैकमपि पदं ध्रुवं तत्रैको भङ्गोऽन्यः प्रक्षेप्तव्यः, इत्थं हि मनुष्यगत्योघादिमार्गणासु प्राग्वत्सप्तविंशतिर्भङ्गाः स्युः । यत्र पुनरेकमपि ध्रुवपदं नास्ति तास्वपर्याप्तमनुष्यादिमार्गणासु प्राग्वत् षड्विंशतिर्भगा लभ्येरनिति । इत्थमेवान्यत्रापि यथायथं द्रष्टव्यमिति ॥६०८...६११।। ___ अष्टमलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धे भङ्गविचयप्रदर्शकयन्त्रकम् __ आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकम
आयुषः भूयस्काराकुत्र ?
अवक्तव्य- अवक्तव्य- अवक्तव्याऽल्पतरपद० पदे सति पदेऽसति |ऽल्पतरपद०
भङ्गाः अपर्याप्तमनुष्यादिषु सान्तरमार्गरणासु अध्रुव० | अध्रुव०
अध्रुव० असंख्यलोक-तदधिकजीवपरिमा
प्रोघवत व० ध्रुव० रणासु निरन्तरमार्गणा--"-
| १ | ध्रुव० शेषनिरन्तरमार्गणासु अध्रुव० ध्रुव० २७
अध्रुव०८ तदेवं पृथक्पृथगेकसंयोग्यादिभङ्गकान जिज्ञासूनां कृते दर्शितं तथाविधं करणान्तरम् । तस्मिँश्च दर्शिते गतं पञ्चमं भङ्गविचयद्वारमिति ॥ ॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीये भूयस्काराधिकारे पञ्चमं भङ्गविचयद्वारं समाप्तम् ।।
| अवस्थित
it.
भङ्गाः
भङ्गाः
प्रोचवत्
१
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॥ अथ षष्ठं भागद्वारम् ॥ अथ "भागो” इत्यनेनोद्दिष्टे षष्ठे भागद्वारे मूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकभागान् प्रकटयन्नाह
भूगारप्पयराणं सत्तण्हं बंधगा असंखंसों। भागा अवट्ठिअस्स उ असंखियाऽण्णस्सऽणतंसो॥६१२॥ (प्रे०) "भूगारप्पयराण" मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां भूयस्काराल्पतरयोः स्थितिवन्धयोः प्रत्येकं 'बन्धकाः'-निर्वर्तकाः “असंखंसो” ति असंख्यांशः, भूयस्कारादिसर्ववन्धकानामसंख्येयतमैकभागवर्तिन इत्यर्थः । एवमुत्तरत्रापि स्थितिबन्धकजीवानपेक्ष्यासंख्यैकभागबहुभागादयस्तत्तद्वन्धका ज्ञेयाः, न पुनः सर्वजीवापेक्षयेति । “भागा अवडिअस्स उ असंखिय" त्ति प्रकृतत्वात् सप्तप्रकृतीनां प्रत्येकमवस्थितस्थितिबन्धस्य निर्वर्तकास्त्वसंख्येयाः “भाग" त्ति बहुभागाः । अत्र बहुभागा इत्येतद् बहुवचनान्तनिर्देशाद् विज्ञेयम् । यत्रैकवचनान्तो निर्देशस्तत्रैको भागो बोद्धव्यो यत्र तु बहुवचनान्तो निर्देशस्तत्र बहुभागा इति भावः । “पणस्स" त्ति पूर्वमकारस्य दर्शनाद् 'अन्यस्य'-दर्शितान्यस्य, सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धस्येति भावः । तस्य किमित्याह"णतंसो" त्ति अत्रापि पूर्वमकारस्य दर्शनादनन्तांशः-अनन्ततमैकभागः, बन्धका इति गम्यते । तत्रैकजीवमाश्रित्य शेषवन्धत्रयस्योत्कृष्टप्रवर्तनकालापेक्षयाऽवस्थितस्थितिबन्धस्योत्कृष्टप्रवर्तनकालस्याऽसंख्येयगुणत्वात्तद्वन्धकानां शेषवन्धकापेक्षयाऽसंख्येयगुणः सञ्चयः प्राप्यत इति तेऽसंख्येयबहुभागाः कथिताः । तत एव शेषा असंख्येयैकभागप्रमाणाः प्राप्यन्त इति तु सुगमम् । तत्रापि सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धकास्तु भूयरकारादिवन्धकवदेकेन्द्रियादयो न भवन्ति, किन्तु केचन मनुष्या देवाश्चैवेति ते पुनरनन्तैकभागप्रमाणा अभिहिता इति ।।६१२॥
उक्ताः सप्तप्रकृतीनां भृयस्कारादिस्थितिवन्धकभागाः । अथायुपो द्विविधवन्धकभागानाह
आउस्स असंखेजा भागाऽप्पयरस्स बंधगा हुन्ति । भागोऽवत्तव्वस्स उ जाणेयवो असंखयमो ॥६१३॥
(प्रे०) "आउस्स” इत्यादि, आयुःकर्मणः "प्पयरस्स बन्धगा हुन्ति” त्ति अल्पतरस्थितिबन्धस्य निर्वर्तका भवन्ति । कियन्त इत्याह-"असंखेज्जा भाग' त्ति असंख्येया बहुभागा इत्यर्थः । कुतः ? इति चेद् , एकजीवाश्रयावक्तव्यबन्धकालापेक्षयाऽल्पतरबन्धकालस्योत्कृष्टपदेऽसंख्येयगुणत्वात् तदीयबन्धकपरिमाणस्य संख्यातीतत्वाच्च तद्वन्धकसञ्चयोऽप्यवक्तव्यबन्धकसञ्चयापेक्षयाऽसंख्यगुणः प्राप्यते, तथा च भागचिन्तायामपि यथोक्ता एव भवन्तीति ॥६१३॥
उक्ता ओघतः । अथादेशतो दिदर्शयिषुरादौ सप्तप्रकृतिविषयान् प्राह
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्त्रायुर्वर्ज सप्तकर्मणाम् पज्जमणुस - मणुसीसु सव्वत्थाऽऽहारदुग-अवेएस | मणणाण-संयम-समइअ-छेअ - परिहार - सुहमेसु ॥६१४॥ सतह संखभागो भूगाराईण बंधगा दोन्हं ।
संखेजा खल भागा अवडिअस्स य मुणेयव्वा ||६१५॥
1
(प्रे० ) " पज्जमणुसे” इत्यादि, पर्याप्तमनुष्य-मानुपीमार्गणयोः " सव्वत्थ" त्ति देवगतिसत्के सर्वार्थसिद्धविमानभेदे, तथाऽऽहारका -ऽऽहारकमिश्रकाययोगात्मकयाहारकद्विकेऽपगतवेदमार्गणायां चेत्यर्थः । तथा "मणणाणे" त्यादि, मनः पर्यवज्ञान - संयमौघ- सामायिक-छेदोपस्थापन- परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयम मार्गणास्वित्येतासु द्वादशमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । एतासु किमित्याह-“सत्तण्ह” इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनां "भूगाराईण" त्ति भूयस्काराऽल्पतरलक्षणयोभूयस्कारादयोः “"दोपह" त्ति द्वयोः स्थितिबन्धयोः प्रत्येकं बन्धकाः "संखभागो” ति मार्गणागतबन्धकजीवानां संख्येयत मैकभागप्रमाणा इत्यर्थः । "संखेज्जा खलु” इत्यादि, तत्र खलशब्दो वाक्यालङ्कारे, चकारस्तु पादपूयै ततः सप्तप्रकृतीनामवस्थितस्थितिबन्धस्य निर्वर्तकाः खल संख्या बहुभागा ज्ञातव्या इत्यर्थः । एतासु प्रत्येकं बन्धकजीवा एव संख्येया इति कृत्वा संख्येयैकभागबहुभागा अभिहिताः । भावनास्त्वोघवद् द्रष्टव्या ।।६१४-६१५।।
अथ शेषमार्गणासु सप्तानां भूयस्कारादिस्थितिबन्धत्रयस्य बन्धकभागान् दर्शयतिसासु असंखयमो भागो सत्तण्ह बंधगा या । भूगारप्पयराणं असंखियावद्विअस्संसा || ६१६॥
"
(प्रे० ) "सेसासु" इत्यादि उक्तशेषास्वष्टपञ्चाशदुत्तरशतमार्गणासु पुनः प्रत्येकं संख्यातीतजीवानां सद्भावात्तेषां प्रत्येकं भूयस्कारादिस्थितिबन्धस्वामित्वाच्च "सत्तण्ह" ति सप्तप्रकृतीनां "भूगारप्पयराणं" ति भूयस्काराऽल्पतरस्थितिबन्धयोः प्रत्येकं 'बन्धकाः' - निर्वर्तका: “असंखयमो भागो" त्ति असंख्यतम एको भागो ज्ञेयाः । "असंखियाऽवट्ठिअस्संसा" ति सप्तानामवस्थितस्थितिबन्धस्य निर्वर्तका असंख्यबहुभागप्रमाणा इत्यर्थः । गतार्थः ||६१६||
अथ यासु ज्ञानावरणादिसप्तान्यतभानामवक्तव्यस्थितिबन्धो भवति तासु तस्य बन्धका शेषबन्धकानां कतितमे भागे वर्तन्त इत्येतद् दिदर्शयिपुलघवार्थं व्याप्यवाह
४८२ ]
जासु खल अवत्तव्वो तासु जावइअ संखिया जीवा । हुन् तत्तियभागो णायव्वा बंधगा तस्स ॥६१७॥
(प्रे०) "जासु खलु” इत्यादि, यासु खलु सप्तप्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धसद्भावः प्रागभिहितस्तासु मनुष्यगत्योघादिमार्गणासु " जावइअसंखिया जीवा हुन्ति” ति यावत्संख्येया
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मार्गणावायुः कर्मणः ]
भूयस्काराधिकारे भागद्वारम्
[ ४८३
जीवा भवन्ति, संख्येयाः, असंख्येया, अनन्ता वा यात्रन्तः स्थितिबन्धकजीवाः सन्तीत्यर्थः । " तत्तिअभागो णायव्वा बंधगा तस्स" त्ति 'तावद्भागो' तावत्संख्येयतमाद्येकभागस्तस्य ज्ञानावरणादेरवक्तव्य स्थितिबन्धस्य 'बन्धकाः' - निर्वर्त का ज्ञातव्याः ।
अयम्भावः - यासु मार्गणासु सप्तानामवक्तव्य स्थितेर्वन्वकाः सन्ति तासु ते कस्मिन्नप्येकसमय उत्कृष्टतोऽपि संख्येया एव, न पुनरधिकाः, प्रपतदुपशमकादीनामेव सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धसम्भवात् । यद्यप्येत्रं तथाऽपि तदन्येषामपि तत्तन्मनुष्पगत्योघादिमार्गगागतानां भूस्काराद्यन्यतमस्थितिबन्धस्य नियमेन प्रवृत्तस्तेऽपि बन्धकास्तु सन्त्येव, ते च कासुचिन्मार्गणासु संख्येयाः, अन्यासु कासुचिच्च संख्येयाः, अपरासु कासुचिच्चनन्ताः सन्ति, तेभ्योऽवक्तव्यवन्धकसंख्यया भागे हृते यासु संख्येयाः जीवास्तासु संख्येयैकभागः प्रस्तुतावक्तव्यबन्धकाः प्राप्यन्ते, शेषास्तु संख्येयबहुभागा भूयस्कारादिस्थितिबन्धकतया प्राप्यन्ते, एवं यास्वसंख्येया जीवास्तास्वेतेऽवक्तव्यबन्धकजीवा असंख्य मैकभागप्रमाणा आप्यन्ते, भूयस्कारादिवन्धकतया त्वसंख्येयबहुभागप्रमाणाः सम्पद्यन्ते । इत्थमेवानन्तजीव राशिविषयेऽपि बोद्धव्यम् । तथा च सति मनुष्यगत्यौघ- पञ्चेन्द्रियौध-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्रसकायौध-पर्याप्तत्रसकाय-पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-मतिज्ञान - श्रुतज्ञानाऽवधिज्ञान चक्षुर्दर्शनाsवधिदर्शन- शुक्ललेश्या सम्यक्त्वघ-१ - क्षायिकसम्यक्त्वौ- पशमिकसम्यक्त्व-संज्ञिरूपास्वसंख्येयजीवराशिकमार्गेणासु प्रत्येकं सप्तानामप्यवक्तव्य स्थितिबन्धका असंख्येयैकभागगता भवन्ति । पर्याप्तमनुष्य-मानुषी-गतवेद-मनःपर्यवज्ञान- संयमौघमार्गणास्तु प्रत्येकं संख्येयजीवराशिका इतिकृत्वा तासु प्रत्येकं सप्तप्रकृतीसत्कावक्तव्यस्थितिबन्धकाः संख्येयैकभागप्रमाणा बोद्धव्याः । तदन्यासु पुनः काययोगसामान्यौ-दारिककाययोगाऽचक्षुर्दर्शन- भव्या-ऽऽहारिमार्गणासु लोभमार्गणायां च जीवानामानन्त्यादवक्तव्यबन्धका अध्यनन्ततमैकभागप्रमाणा अवसातव्याः केवलं लोभमार्गणायां मोहनीयकर्मण एवावकव्यस्थितित्रन्यस्य सम्भवात् तस्यैव विज्ञेयाः, न पुनः शेषषण्णामपीति ||६१७|| तदेवमुक्ताः सप्तानामादेशतोऽपि भूयस्कारादिस्थितिबन्धकभागाः । अथ शेषस्याऽऽयुपस्ताaissदेशतो व्याचिकीषु राह—
•
पज्जमणुस - मणुसीसु आहारदुगा-ऽऽणताइदेवेसु । मणणाण-संयमेसु समइअ -छेअ - परिहारेसु ॥ ६१८॥ सुइल- खइए भागा संखेज्जाऽऽउस बंधगा णेया । अप्पयरस्स उ भागोऽवत्तव्वस्त खलु संखयमो ॥६१९ ॥
(प्रे०) “पज्जमणुसमणुसीसु" इत्यादि, प्राग्वत् पर्याप्तमनुष्य मानुष्या - हारका-SSहारकमिश्र काययोगा-ssनतकल्पादिसर्वार्थसिद्धविमानान्तदेवगतिमार्गणाभेदेषु मनः पर्यवज्ञान-संयमौध--सामायिक--छेदोपस्थापन - परिहारविशुद्धिकमार्गणासु शुक्रलेश्या - क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणयोश्चे
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४८४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ भूयस्कारादिबन्धकानां भागदर्शकयन्त्र० त्येवमेकोनत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकम् "SSउस्स बंधगाणेया अप्पयरस्स उ"त्ति आयुषोऽल्पतरस्थितिबन्धस्य 'बन्धकाः' निर्वर्तकास्तु ज्ञेया इत्यर्थः । कियन्तो भागा इत्याह-"भागा संखेज्ज" त्ति मार्गणागतायुर्वन्धकजीवानपेक्ष्य संख्येया बहुभागा इत्यर्थः। “भागोऽवत्तव्वस्स खलु संखयनं." ति तस्यैवायुषोऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य निर्वतका खलु संख्येयतमो भागः, आयुर्वन्धकानां संख्येयतमैकभागगता इत्यर्थः । अत्रोपपत्तिस्त्वोधवत्कर्तव्या, नवरं प्रकृतसर्वमार्गणास्वायुषो बन्धकानां सामयिक परिमाणं संख्येयो, तच्च पर्याप्त मनुष्याणामेवायुन्धकतया लाभात् पयोप्तमनुष्यसत्का पुष एव बन्धभावाद्वा । अन्यतरस्माद्धेतोरिति ज्ञेयम् । विशेषार्थिना तु द्वितीयाधिकारभोगद्वारवृत्तिविलोक्येति ॥६१८-६१९।। अथ शेषमार्गणास्वाह
सेसासुबंधगा खलु अप्पयरस्साऽऽउगस्स णायव्वा ।
भागा उ असंखेज्जाऽवत्तबस्स य असंखंसो ॥६२०॥ (प्रे०) “सेसासु बंधगा” इत्यादि, उक्तशेषास्वायुर्बन्धप्रायोग्यासु चतुस्त्रिंशदभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकमायुषोऽल्पतरस्थितिबन्धस्य बन्धका खलु ज्ञातव्याः। कियन्त इत्याह-"भागा उ असंखेज्जा" ति असंख्येया बहुभागा एवेत्यर्थः । "वत्तव्वस्स य असंखंसो" त्ति आयुषोऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य निर्वर्तकास्त्वसंख्यांशः,असंख्येयतमैकभागवर्तिन तुइत्यर्थः। एते भागाः प्रत्येकं तत्तन्मार्गणोक्तैकजीवाश्रयबन्धकालतारतम्यमपेक्ष्य सर्वथौघवद्भावनीया इति ।।६२०।।
तदेवमभिहिता आदेशतोऽपि शेषस्या उपोऽल्पतरादेः स्थितिवन्धस्य बन्धकभागाः, तेषु चाऽभिहितेषु गतं षष्ठं भागद्वारम् ।
अष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकानां भागप्रदर्शकयन्त्रकम् आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकम्
आयुषः भूयस्कारा अवस्थित अवक्तव्य
___ कुत्र ? ऽल्पतर० बन्धकाः) बन्धकाः
बन्धकाः बन्धकाः प्रोधवद् असंख्यक- असंख्य
पर्याप्तमनुष्य० मानुषी० संख्येयबहु- संख्येय अनन्तजीवराशिकमार्ग
अनन्तैकभागः
आहारकद्विक० आनतादि- भागा: रगासु
बहभागा:
१८ देवभेदा:,मनःपर्यवज्ञान असंख्यजीवराशिकमार्ग
असंख्यकभाग संयमौघ० सामायिक० पासु
| छेद० परिहार० शुक्ल संख्येयजीवराशिकमार्ग-संख्येयक- संख्येय-संख्येयकभागः
क्षायिक० २९ पासु
प्रोघवत् भागः बहुभागा:
असंख्यबहु- असंख्यक
शेषमार्गणासू- | भागाः भाग: ॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीये भूयस्काराधिकारे षष्ठं भागद्वारं समाप्तम् ।।
अल्पतर अवक्तव्य
कुत्र?
एको
भाग:
भाग०
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॥ अथ सप्तमं परिमाणद्वारम् ॥ अथ क्रमप्राप्ते "परिमाण" इत्यनेन प्रागुद्दिष्टे परिमाणद्वार आदौ तावदोघतो मूलप्रकृतिसत्कभूयस्कारादिस्थितिबन्धकानामुत्कृष्टपदगतं परिमाणं दर्शयन्नाह
सत्तण्ह हुन्ति तिण्हं भूगाराईण बंधगाऽणंता। संखेज्जाऽवत्तबस्साऽणंताऽऽउस्स दुपयाणं ॥६२१॥
(प्रे०) “सत्तण्ह हुन्ति तिण्ह"मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां भूयस्काराऽल्पतरा-ऽवस्थितस्थितिबन्धात्मकानां त्रयाणां भयस्कारादीनां प्रत्येकं बन्धकाः “णंता" ति विश्लेषप्राप्तस्याऽकारस्य दर्शनाद् अनन्ता भवन्ति । “संखेज्जाऽवत्तव्वस्स" ति तासामेव सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धस्य संख्येयाः, बन्धका भवन्तीत्यनुवर्तते । सुगमं चैतत्, यतः सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धस्वामिनः केचन देवा उपशमश्रेणिगता मनुष्या वा भवन्ति, शेषभूयस्कारादिसर्ववन्धकारत्वेकेन्द्रिया अपीति । "ऽणताउस्स दुपयाणं" ति शेषस्याऽऽयुःकर्मणोऽल्पतरावक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणयोर्द्वयोः पदयोः प्रत्येकमनन्ताः, बन्धका इत्यत्राप्यनुवर्तते । एतदपि सुगमम् , सर्वेषामायुर्वन्धकानां नियमेन द्विविधबन्धस्य भावात् साधारणवनस्पतिकायजीवेषु प्रतिसमयमनन्तानामायुर्वन्धकानां लाभाच्चेति ॥६२१॥
अथ मार्गणास्थानेषु प्रकृतबन्धकपरिमाणं प्रचिकटयिषुरादौ तावत्सप्तप्रकृतीरधिकृत्याह
एगिदिणिगोएसुसव्वेसु तह तिरियम्मि वणकाये। काय-उरालदुगेसु कम्म-णपुम-चउकसायेसु ॥६२२॥ दुअणाणा-ऽयत-अणयण-असुहतिलेस-भवियियर-मिच्छेसु।
अमणा-ऽऽहारियरेसु सत्तण्होघव तिपयाणं ॥६२३॥ (प्रे०) “एगिदिणिगोएसु" इत्यादि,प्राग्वत् सर्वेस्वेकेन्द्रियभेदेषु,सर्वेषु निगोदवनस्पतिभेदेषु, तथा तिर्यग्गत्योघे, वनस्पतिकायौधे, काययोगसामान्यौ--दारिको--दारिकमिश्रकाययोगेषु कार्मणकाययोग--नपुंसकवेद-क्रोधादिचतुःकषायेषु । अन्या मार्गणाः संगृह्णन्नाह-“दुअणाणायते"त्यादि, मत्यज्ञान--श्रुताज्ञाना-ऽसंयमा-ऽचक्षुर्दर्शना-ऽशुभकृष्णादित्रिलेश्या-भव्या-ऽभव्यमिथ्यात्वा-ऽसंख्या-ऽऽहार्य-ऽनाहारिरूपास्वष्टत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येक "सत्तण्होघव्व तिपयाणं" ति आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां भूयस्काराल्पतरावस्थितस्थितिबन्धलक्षणानां त्रयाणां पदानां प्रत्येकं बन्धका ओघवदनन्ता इत्यर्थः । हेतुरप्यत्रौघवदेव द्रष्टव्य इति ॥६२२-६२३॥
अथ प्रस्तुतसप्तप्रकृतिविषयमुक्तशेषमार्याद्वयेनाह
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४८६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो मार्गणास्वायुःकर्मणः पज्जमणुस-मणुसीसुसव्वत्था-ऽऽहारदुग-अवेएसु। मणणाण-संयम-समइअ-छेअ-परिहार-सुहुमेसु॥६२४॥ सत्तण्हं संखेज्जा तिपयाण असंखिया उ सेसासु।
जासु पुण अवत्तव्यो तासुखलु तस्स संखेज्जा॥६२५॥ (प्रे०) "पज्जमणुसे"त्यादि, प्राग्वत् पर्याप्तमनुष्य-मानुषी-सर्वार्थसिद्धविमानदेववगतिभेदाऽऽहारकातन्मिश्रकाययोगा-ऽपगतवेद--मनःपर्यवज्ञान--संयमोघ--सामायिक--छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणासु प्रत्येकं सप्तानां मूलप्रकृतीनां "संखेज्जा तिपयाणं" ति प्राग्वद् भूयस्काराल्पतरावस्थितस्थितिवन्धलक्षणानां त्रयाणां पदानां प्रत्येकं संख्येयाः, बन्धका इति गम्यते । “असंविया उ सेसासु" त्ति अनन्तरोक्तस्य 'सत्तण्ह' 'तिपयाणं' चेत्यस्य पदवयम्स्यात्राप्यनुवर्तनादुक्तशेपासु नरकगत्योषादिविंशत्युत्तरशतमार्गणासु सप्तानां प्रकृतीनां भूयस्कारादीनां त्रिपदानां प्रत्येकमसंख्येयाः,बन्धका इति प्राग्वत् । कुतः ? तत्तन्मार्गणागतैः प्रत्येकजीवैभू यस्कारादिस्थितिबन्धत्रयस्य प्रत्यन्तमुहूर्त करणात, मार्गणागतजीवराशिवदसंख्येवादिकमेव प्रकृतबन्धकपरिमाणमप्याप्यते, तच्च यथोक्तमेवेति । अथावक्तव्यस्थितिवन्धस्य बन्धकपरिमागमादेशतो दर्शयति-"जासु खलु" इत्यादिना, एतदपि प्राग्वद्भावनीयमिति ।६२४-६२५।।
उक्तमादेशतोऽपि प्रकृतबन्धकपरिमाणं सप्तप्रकृतीरधिकृत्य । अथायुष्कमधिकृत्याहतिरिये सवेगिंदिय-णिगोअ-वणकायु-रालियदुगेसु। णपुम-चउकसायेसुदुअणाणा-ऽयत-अचक्खूमु॥६२६॥ अपसत्थतिलेसासु भवियर-मिच्छा-ऽमणेसु आहारे ।
आउस्स हुन्ति दोण्ह वि पयाण खलु बन्धगाऽणंता ॥६२७॥ (प्रे०) “तिरिये” इत्यादि, तियग्गत्योघे, सर्वशब्दस्यैकेन्द्रियनिगोइयोः प्रत्येक योजनात् सवैकेन्द्रियभेद-सर्वनिगोदभेद-वनस्पतिकायोघ-काययोगसामान्यौ-दारिकौ-दारिकमिश्रकाययोगेषु, नपुसकवेद-क्रोधादिचतुःकपायमार्गणासु, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना.ऽसंयमा-ऽचक्षुर्दर्शनमार्गणासु तथा "अपसत्थे” त्यादि, कृष्णायप्रशस्तत्रिलेश्यामागंणासु, भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंज्ञिमार्गणास्थाहारिमार्गणायां चेत्येवं पत्रिंशन्मार्गणास प्रत्येकमायुषः “दोण्ह वि पयाण" त्ति अल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणयोईयोरपि पदयोबन्धका खल्वनन्ता भवन्ति, सुगमं गतार्थं चेति ॥६२७॥
अथ शेषमार्गणास्वार्याद्वयेनाहपज्जमणुस-मणुसीसुआहारदुगा-ऽऽणताइदेवेसु।
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भूयस्कारादिबन्धकपरिमाणयन्त्र० ] द्वितीयाधिकारे परिमाणद्वारम
[ ४८७ मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहारसु॥६२८॥ सुइल-खइएसु णेया दोण्हं वि पयाण बंधगाऽऽउस्स । संखेज्जा, सेसासु असंखिया हुन्ति विण्णेया ॥६२९॥
(प्रे०) “पज्जमणुसमणुसीसु” इत्यादि, प्राग्वत् पर्याप्तमनुष्य-मानुष्या-ऽऽहारककाययोगा-ऽऽहारकमिश्रकाययोगा--ऽऽनतकल्पादिसर्वार्थसिद्धविमानान्तदेवगतिभेद--मनःपर्यवज्ञान-संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापन--परिहारविशुद्धिकसंयम-शुक्ललेश्या-क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणासु प्रत्येकमायुषोऽल्पतरावक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणयोयोरपि सत्पदयोन्धकाः संख्येया ज्ञेयाः । “सेसासु" ति उक्तशेषासु नरकगत्योघाद्यष्टनवतिमार्गणासु प्रत्येकमसंख्येया विज्ञेया भवन्ति, आयुषोऽल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणयो योरपि पदयोर्बन्धका इत्यनुवर्तते । कुतोऽसंख्येयाः ? एतासु प्रत्येकम संख्यजीवानां सद्भाबादसंख्येयजीवराशिसत्कायुषो बन्धप्रायोग्यत्वाच्च । विशेषतस्तु प्राग्वद्भाव्यमिति ।
शेषमार्गणाभिधानानि त्वेवम्-अष्टौ नरकगतिभेदाः, चत्वारः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, मनुष्योघा-ऽपर्याप्तमनुष्यभेदो, देवोध-भवनपत्यादिसहस्रारकल्पान्ता देवगतिभेदाः, नवविकलेन्द्रियभेदाः, त्रयः पञ्चेन्द्रियभेदाः, पृथिव्यप्तेजोवायुकायसत्काः प्रत्येकं सप्त सप्तेतिकृत्वाऽष्टाविंशतिर्भेदाः, त्रयः प्रत्येकवनस्पतिकायभेदाः, त्रयस्त्रसकायभेदाः, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-वैक्रियकाययोग-स्त्रीवेद-पुवेद-मति-श्रुता-ऽवधिज्ञान--विभङ्गज्ञान--देशसंयम-चक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन-तेजोलेश्यापद्मलेश्या-सम्यक्त्वौघ-वेदकसम्यक्त्व-सासादन-संज्ञिमार्गणाश्चेति ॥६२८-६२९॥
अष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकानां परिमाणप्रदर्शकयन्त्रकम् आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकम्
आयुषः भृयत्कारा-ऽल्पतरा- | अवक्तव्य
अल्पतरा-ऽवकुत्र ?
कुत्र ? | ऽवस्थितस्थितिबन्धकाः | बन्धकाः
तव्यबन्धकाः प्रोघवद
पर्याप्तमनुष्य० मानुषी० अनन्त जीवराशिकमार्ग
संख्येयाः
पाहारकद्विक० आनतादिसर्वार्थसिद्धविमानान्तदेव- संख्येख्या;
भेद० मनःपर्यवज्ञान असंख्येयाः
|संयमौघ० सामायिक०छेद० परिहार० शुक्ल० क्षायिक०
__.२६.
उक्तशेषासंख्यजीवराशिकसंख्येयजीवराशिकमार्ग
असंख्येयाः संख्येयाः
मार्गणारणासु
प्रोधवद : | अनन्तजीवराशिकासु
अनन्ताः
रगासू
असंख्येयजीवराशिकमार्गगासु
को
अनन्ताः
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४८८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ ओघतो भूयस्कारादिबन्धकक्षेत्र० तदेवमभिहितमोघादेशोभयथा सर्वासां मूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकानामुत्कृष्टपदगतं परिमाणम् । तथा च सति गतं सप्तमं परिमाणद्वारम् ।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे
तृतीये भूयस्काराधिकारे सप्तमं परिमाणद्वारं समाप्तम् ।।
॥ अथाऽष्टमं क्षेत्रद्वारम् ॥ अथ क्रमप्राप्ते क्षेत्रद्वारे मूलप्रकृतिसत्कभूयस्कारदिस्थितिवन्धकानां क्षेत्रं प्रतिपिपादयिपुरादौ तावदायुर्वर्जसप्तप्रकृतिसत्कभूयस्कारादिस्थितिबन्धकानां तदोघतः प्रतिपादयन्नाह
सत्तण्ह बंधगा खलु भूओगाराइतिण्ह सबजगे।
हुन्ति अवत्तव्वस्स उ लोगस्स असंखिये भागे॥६३०॥ (प्रे०) “सत्तण्ह बंधगा” इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां "भूओगाराइतिण्ह" ति अवत्त व्यस्थितिबन्धवर्जानां शेषाणां भूयस्कारादित्रिविधस्थितिबन्धानां प्रत्येकं बन्धकाः खलु "सव्वजगे" ति 'सर्वजगति' सर्वलोके, भवन्तीति क्रियाऽन्वयः । सुगम चैतत् , सूक्ष्मैकेन्द्रियादिभिरपि प्रस्तुतभयस्कारादिस्थितिबन्धत्रयस्य निर्वर्तनाचेषां च सर्वलोकव्यापित्वादिति । "अव्वत्तव्वस्स उ" त्ति तासामेव सप्तानामवक्तव्यस्थितिवन्धस्य निर्वतकास्तु लोकस्य 'असंख्येयभागे'-असंख्येयतम एकभागे, भवन्तीति पूर्वेणान्धयः । एतदपि सुगममेव, उपशमश्रेणितोऽद्धाक्षयेण भवक्षयेण वा निपततामेव तत्स्वामित्वादिति ॥६३०॥
अथाऽऽयुषोऽल्पतरादिस्थितिबन्धकानां क्षेत्रमोघतः प्राह
आउस्स सव्वलोए दोण्हं वि पयाण बंधगा णेया। (प्रे०) “आउस्से"त्यादि, ओघत आयुःकर्मणः "दोण्हं वि पयाण” त्ति अल्पतरा ऽवक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणयोर्द्वयोः पदयोः बन्धकाः'-निर्वर्तका: “सव्वलोए"त्ति सर्वस्मिन्नपि लोके ज्ञातव्याः । कथम् ? स्वस्थानतोऽपि समग्रलोकव्यापिनां सूक्ष्मैकेन्द्रियाणामपि तत्स्वामित्वादिति ।।
उक्तमोघतः । अथाऽऽदेशतः भूट स्कारादिस्थितिबन्धकानां क्षेत्रं दिदर्शयिषुरादौ सप्तप्रकतीरधिकृत्याह--
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मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारादि० ] भूयस्काराधिकारे क्षेत्रद्वारम्
[ ४८९ सत्तण्ह बंधगा खलु भूगाराईण तिण्ह सव्वजगे॥६३१॥ (गीतिः) तिरिये सब्वेगिंदिय-निगोद-सेससुहुमेसु वणकाये । पुहवाइचउसु तेसिं वायर-बायरअपज्जेसु॥६३२॥ पत्तेअवणे तस्स अपज्जत्ते कायु-रालियदुगेसु। कम्मण-णपुंसगेसु कसायचउगे अणाणदुगे॥६३३॥ अयता-ऽचक्खूसु तहा अपसत्थतिलेस-भवियेसु।
अभविय-मिच्छत्तेसु असण्णि-आहारगियरेसु॥६३४॥ (उपगोतिः) (प्रे०) “सत्तण्ह बंधगा खलु” इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तमूलप्रकृतीनां "भूगाराईण तिण्ह" त्ति अवक्तव्यस्थितिबन्धवर्जानां भूयस्कारादीनां त्रयाणां बन्धकाः खलु सर्वजगति'-सम्पूर्णलोके, भवन्तीति शेषः । कासु मार्गणास्वित्याह-"तिरिये" इत्यादि, सावत्रयगाथा अपि सुगमशब्दार्थाः । तासां पिण्डार्थः पुनरयम्-तिर्यग्गत्योध-सर्वेकेन्द्रिय-सर्वनिगोद-शेषद्वादशसूक्ष्मपृथिवीकायादिभेद-वनस्पतिकायौघ--पृथिवीकायादिवायुकायान्तचतुरोधभेद-बादरपृथिव्यादिचतुर्भेदाऽपर्याप्तबादरपथिव्यादिचतुर्भेद-प्रत्येकवनस्पतिकायौघा-ऽपर्याप्त प्रत्येकवनस्पतिकाय-काययोगसामान्यौदारिको दारिकमिश्र-कार्मणकाययोग-नपुंसकवेद-क्रोधादिकपायचतुष्क-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयमाऽचक्षुर्दर्शन-कृष्ण-नील-कापोतलेश्या-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंख्या-ऽऽहार्य-ऽनाहारिरूपासु चतुःपष्टिमार्गणासु प्रत्येकमसंख्येयलोकप्रदेशराशिप्रमाणानां सूक्ष्मपथिव्याद्यन्यतमजीवानां प्रवेशात तेषां स्वस्थानतो मारणान्तिकसमुद्घातेन वा सर्वलोकव्यापित्वाच्च क्षेत्रमपि तदनुसारेण सर्वलोकः प्राप्यत इति ॥६३१-६३२-६३३-६३४॥ अथान्यत्राह
भूओगाराईणं तिण्हं बायरसमत्तवाउम्मि ।
सत्ताह बंधगा खलु लोगम्मि हवन्ति देसूणे ॥६३५॥ (प्रे०) "भूओगाराईणं” इत्यादिना, बादरपर्याप्तवायुकायमार्गणायां सप्तप्रकृतीनां भयस्कारादीनां त्रयाणां बन्धकाः खलु देशोने लोके भवन्ति । कुतः ? असंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकत्वेन तेषां बादरपर्याप्तवायुकायिकानां सर्वलोकाव्याप्तेः, स्वस्थानस्तु तेषां देशोनलोकावस्थायित्वाच्चेति । एतच्च विस्तरतो जिज्ञासुना मूलप्रकृतिस्थितिबन्धद्वितीयाधिकारक्षेत्रद्वारवृत्तिविलोकनीया, तत्र तस्य सुप्रपश्चितत्वादिति ॥६३५।। शेषमार्गणास्वाह
सेसासु सत्तण्हं भूगाराईण बंधगा तिण्हं । लोगाऽसंखियभागे जहऽवत्तब्बो तहेवं से ॥६३६॥
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४९० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइवंधो [ मर्गणस्वायुषोऽल्पतरादि० (प्रे०)"सेसासु"इत्यादि,उक्तशेषासु नरकगत्योधादिपश्चाधिकशतमार्गणासु प्रत्येकं मार्गणागतनारकादिजीवानामसंख्येवलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकतया न मारणान्तिकसमुद्घातादिनाऽपि सर्वलोकव्याप्तिर्लोकबहुभागव्याप्तिर्वा तेषां, स्वस्थानक्षेत्रमपेक्ष्य त्वेते लोकासंख्येयभागमात्रव्यापिनः, तथा च सप्तानां मूलप्रकृतीनां भूयस्कारादीनां त्रयाणां बन्धका लोकाऽसंख्येयभागे प्राप्यन्ते । अत्रापि प्रत्येकं मार्गणागतानां जीवानां व्याप्यक्षेत्रस्योपपत्तिर्विस्तरतस्तु द्वितीयाधिकारक्षेत्रद्वारप्रेमप्रभातो द्रष्टव्या, तत्तन्मार्गणाविषयकक्षेत्रस्य तत्र विस्तरतो व्युत्पादितत्वात् । ___शेषमार्गणाभिधेयानि स्विमानि-अष्टौ नरकगतिभेदाः,चत्वारः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, चत्वारो मनुष्यगतिभेदाः, त्रिंशद्देवगतिभेदाः, नव विकलेन्द्रिय भेदाः, त्रयः पञ्चेन्द्रियभेदाः, पृथिव्यप्तेजस्कायसत्कास्त्रयो बादरपर्याप्तमार्गणाभेदाः, पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेदः, त्रयस्त्रसकायभेदाः, तथा पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-वैक्रिय-वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोग-स्त्रीवेदपुवेदा-ऽपगतवेद-मत्यादिचतुर्ज्ञान-विभङगज्ञान-संयमोघ-सामायिक-छेदोपस्थापन--परिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्परायसंयम-देशसंयम-चक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन-तेजः-पद्म-शुक्ललेश्या-पम्यक्त्वौघ-क्षायिकक्षायोपशमिको-पशमिकसम्यक्त्व-सम्यग्मिथ्यात्व-सास्वादन-संज्ञिमार्गणाभेदाश्चेति ।।
अथ सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धकानां क्षेत्रं मार्गणासु नाभिहितमिति तत्रातिदेशेनाह-"जहऽवत्तव्वो तहेवं से" ति सप्तप्रकृतीनामन्यतमस्या अपि प्रकृतेरवक्तव्यस्थितिबन्धः "जह" त्ति 'यत्र'-यास मार्गणास भवति "तह" ति तत्र तास मनुष्यगत्योघादिषटत्रिंशन्मार्गणास "से" त्ति तस्यावक्तव्यस्थितिबन्धस्य निर्वतकाः “एवं' ति यथाऽनन्तरमुक्तास्तथैव लोकासंख्येयभागे, भवन्तीति शेषः ॥६३६॥
अथोक्त शेषस्यायुषोऽल्पतरादिस्थितिबन्धकानां क्षेत्रमाहतिरिये-गिदियगेसुपणकाय-णिगोअ-सव्वसुहुमेस्। कायु-रलदुग-णपुम-चउकसाय-दुअणाण-अयतेसु॥६३७॥ अणयण-असुहतिलेसा-भवियर-मिच्छा-ऽमणेसु आहारे ।
आउस्स बंधगा खलु दोण्हं वि पयाण सब्बजगे ॥६३८॥ (प्रे०) “तिरियेगिंदियगेसु” इत्यादि, प्राग्वत् तिर्यग्गत्योधै-केन्द्रियौघभेदयोः, पृथिव्यादिपञ्चकायसत्कौवभेद-निगोदौष-मूक्ष्मैकेन्द्रियोषादि--सर्वसूक्ष्मभेदेषु, काययोगसामान्यौ-दारिकोदारिकमिश्रकाययोग-नपुसकवेद-क्रोधादिचतुःकषाय-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयममार्गणाभेदेषु, तथाऽचक्षुर्दर्शना- शुभत्रिलेश्या-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंज्ञिष्वाहारिमार्गणायां चेत्यर्थः । एतासु तिर्यग्गत्योघादिषट्चत्वारिंशन्मार्गणासु किंमित्याह-"आउस्से” त्यादि, आयुःकर्मणः 'दोण्हं वि पयाण" त्ति अल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणयोर्द्वयोरपि पदयोः प्रत्येकं बन्धकाः खलु
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[ ४९१
भूयस्कारादिबन्धकक्षेत्रयन्त्र० ] भूयस्काराधिकारे क्षेत्रद्वारम् 'सर्वजगति'-सर्वस्मिँल्लोके, सन्तीति शेषः । कुतः १ एतासु प्रत्येकमार्गणासु स्वस्थानतः सर्वलोकव्यापिनां सूक्ष्मैकेन्द्रियजीवानां प्रवेशादिति ॥६३७-६३८॥
अथ शेषमार्गणासु प्रकृतद्विविधबन्धकक्षेत्रमाहहीणजगे सव्वेसुबायरएगिदिवाउकायेसू
सेसासु बंधगा खलु लोगस्स असंखभागम्मि ॥६३९॥
(प्रे०) "हीणजगे" इत्यादि, 'आउस्स बंधगा खलु दोण्हं वि पयाण' इत्येतावत्पूर्वगाथातोऽनुवर्तते, तत आयुषोऽल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोः प्रत्येकं बन्धकाः "हीणजगे" त्ति 'हीने जगति' देशोने लोके प्राप्यन्त इत्यर्थः । कासु मार्गणास्त्रित्याह-"सव्वेसु" इत्यादि,सर्वेषु बादरैकेन्द्रियभेदेषु सर्वेषु बादरवायुकायभेदेषु चेत्यर्थः । कुतः ? इति चेत्, अधिकृतमार्गणाषट्के सूक्ष्मजीवानामप्रवेशात् प्रविष्टजीवेभ्यो बादरपर्याप्ता-ऽपर्याप्तवायुकायजीवानां स्वस्थानक्षेत्रप्राधान्याद् देशोनलोकक्षेत्रस्यैव प्राप्तेश्च । को भावः ? आयुर्वन्धो जीवानां स्वस्थान एव जायते, न तु मारणसमुद्घातादौ । ततश्चायुषो द्विविधस्थितिबन्धकानामपि क्षेत्रं मार्गणागतजीवानां स्वस्थानक्षेत्रप्राधान्यात्प्राप्यते । तच्च प्रस्तुतमार्गणापट के प्रत्येकं बादरपर्याप्ता-ऽपर्याप्तान्यतरजीवराश्यपेक्षयाऽसंख्येयैकभागलक्षणेनैकदेशेनोनः सर्वलोकः प्राप्यत इतिकृत्वा प्रस्तुतद्विविधबन्धकक्षेत्रमपि देशोनलोकप्रमाणमभिहितमिति । "सेसासु" ति उक्तशेषासु नरकगत्योघाघेकादशाभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येक "बंधग" ति आयुषोऽल्पतराऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोनिवर्तकाः खलु लोकस्यासंख्यैकभागे भवन्तीत्यर्थः । अत्रापि प्रत्येकं स्वस्थानक्षेत्रस्य लोकासंख्येयभागमात्रप्राप्तेः प्रस्तुतक्षेत्रमपि तथैवाभिहितमिति । विशेषभावना द्वितीयाधिकारक्षेत्रद्वारप्रेमप्रभादर्शितनीत्या स्वयमेव कर्तव्या ।
शेषनरकगत्योघादिमार्गणास्त्विमाः-अष्टौ नरकगतिभेदाः, चत्वारः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, चत्वारो मनुष्यगतिभेदाः, त्रिंशद्देवगतिभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः,त्रयः पञ्चेन्द्रियभेदाः, बादरपृथिव्यप्तेजःप्रत्येकवनस्पतिकाय-बादरसाधारणवनस्पतिकाय-त्रसकायानां प्रत्येकमोघपर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदात् त्रयस्त्रयो भेदाः, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-वैक्रिया-ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्र
अष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकानां क्षेत्रप्रदर्शकं यन्त्रकम् कस्याः प्रकृतेः । भूयस्कारादेः कस्य बन्धकानाम् | कुत्र? | कियत्क्षेत्रम् आयुर्वजसप्त भूयस्कारा-ऽल्पतरा-ऽवस्थितानां प्रत्येकम्
अोघतः, यत्र सन् | सर्वथाऽनुत्कृष्टस्थितिबन्ध
तत्र सर्वमार्गणासु च. कानां क्षेत्रवत् प्रकृतीनाम् अवक्तव्यस्थितिबन्धस्य
लोकाऽसंख्यभागः
आयुषः
अल्पतरा-ऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोः प्रत्येकम् |
ऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धकवत्
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४९२ ]
विहाणे मूलपडिइिबंधो [ ओघतो भूयस्कारादिबन्धकस्पर्शना० काययोग-स्त्रीवेद-पुरं वेद-मत्यादिज्ञानचतुष्क- विभङ्गज्ञान-संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापन - परिहारविशुद्धिक- देशसंयम-चक्षु दर्शना ऽवधिदर्शन तेज:- पद्म-शुक्ललेश्या-सम्यक्त्वौघ- क्षायिक क्षायोपशमिक - सासादन - संज्ञिमार्गणाभेदाश्चेति ॥ ६३९ ||
प्रतिपादितं शेषमार्गणास्त्रप्यायुषो द्विविवस्थितिबन्धकानां क्षेत्रम् । तस्मिंश्च प्रतिपादिते गतं “खेत्त" इत्यनेनोद्दिष्टमष्टमं क्षेत्रद्वारम् ॥
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूळप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीये भूयस्काराधिकारेऽमं क्षेत्रद्वारं समाप्तम् ॥
॥ अथ नवमं स्पर्शनाद्वारम् ||
साम्प्रतं “फोसणा” इत्येनोद्दिष्टे नानाजीवाश्रये स्पर्शनाद्वारे मूलप्रकृतिसत्कभूपस्कारादिस्थितिबन्धकानां स्पर्शनां प्ररुरूपयिषुरादौ तावदोघत आह
सत्तण्ह बंधगेहिं भूगाराईण तिन्ह आउस्स |
दोह वियपयाण भवे सव्वो वि य फोसिओ लोगो ॥ ६४० ॥
(प्रे०) "सत्तण्ह बंधगेहिं" इत्यादि, आयुर्वजनां मूलसप्तप्रकृतीनां "भूगाराईण तिन्ह" ति अवक्तव्यस्थितिबन्धवजनां त्रयाणां भूयस्कारादीनां प्रत्येकं "बन्धगेहिं" ति 'बन्धकैः' निर्वर्तकैः “आउस्स दोण्ह वि य पयाण" ति आयुषोऽल्पतराऽवक्तव्य स्थितिबन्धलक्षणयोर्द्वयोरपि पदयो, बन्धकैरित्यनुवर्तते । तैः किमित्याह - " भवे सव्वो वि ये” त्यादि, स्वस्थानतः सर्वलोकगतैस्तैः प्रत्येकं 'सर्वः' - सम्पूर्णो लोकः स्पृष्टो भवेदित्यर्थः । अत्राधिकृतः स्पर्शनाविशेषस्तु समयमात्र सव्यपेक्षक्षेत्रापेक्षया विलक्षणोऽनन्ताऽतीताद्धासव्यपेक्षो द्वितीयाधिकारक्षेत्रद्वारे 'लोगस्स असंखयमे' इत्यस्या (३२९) गाथाया वृत्तौ व्याख्यातस्वरूपस्तत एव विज्ञेयः, नात्र पुनः प्रपञ्च्यते, ग्रन्थविस्तरभयादिति ॥ ६४०॥
सप्तप्रकृतीनामवक्तव्य स्थितिबन्धकैस्तर्हि कियान् स्पष्ट इत्याहसत्तरह असंखंसो जगस्सऽवत्तव्वबंधगेहि भवे ।
छिहीओ जहि हविरे ते तासु ओघव्व फुसणा सिं ॥ ६४१ ॥
(प्रे०) "सत्तण्ह" इत्यादि, ओघत आयुर्वजानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां "वत्तव्वबंधगेहि" ति पूर्वमकारस्य दर्शनात् स्थितिबन्धस्य प्रस्तुतत्वाच्चावक्तव्यस्थितिबन्धकैः “असंखंसो जगस्स" त्ति 'जगतः ' - लोकस्य 'असंख्यांश:' असंख्यैकभागः “छिहिओ” त्ति स्पृष्टो भवेद्,
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मार्गणास्वायुर्वजानां भूयस्कारादि० ] भूयस्काराधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[ ४९३
एतेषां लोकासंख्पभागप्रमाणस्पर्शनेत्यर्थः । कुतः ? इति चेद्, उपशमश्रेणिगतानाम्, तादृशानां वा भक्षण देवता भवप्रथम समयवर्तिनां देवानामेव सप्तकर्मसत्काऽवक्तव्य स्थितिबन्धस्वामित्वात् तेषां च मनुष्यलोकैकदेशे वर्तमानानां ततो वाऽनुत्तरसुरतयोत्पद्यमानानां लोकाऽसंख्येयभागादधिकस्पर्शनाया असम्भवात् । असम्भवस्तु सनाडीगत तिर्यक्प्रतरासंख्येयतम भागमात्रवर्तित्वात् मनुष्पलोकस्यानुत्तरविमानानां चेत्यादिना द्वितीयाधिकारस्पर्शनाद्वारप्रेमप्रभादर्शितनियमानुसारेण स्वयमेव विभावनीय इति ।
अथ सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धकस्वामिनामौधिकस्पर्शनापेक्षया न सम्भवति कासुचिन्मार्गणासु सप्तानामवक्तव्य स्थितिबन्धकानां स्पर्शनाऽधिकतरा, अत लाघवार्थं मार्गणास्थानेष्वतिदिशन्नाह - “जहि हविरे” इत्यादि, “जहि" ति 'यत्र' यासु मार्गणासु "ते" ति तेऽनन्तरोक्ताः सप्तानामवक्तव्यस्थितेर्बन्धका भवन्ति, "तासु ओघव्व फुसणा सिं" ति तासु मार्गणासु "सिं" ति तेषां सप्तानामवक्तव्य स्थितेर्वन्धकानां स्पर्शनौघवत् ज्ञातव्या इति शेषः । तादृश्यो मार्गणास्तु या सप्तानामवक्तव्य स्थितिबन्धः सत्पद्वारे सन्नभिहितस्ता विज्ञेया इति || ६४१ || अथ सप्तप्रकृतीनां भूयस्कारादिवन्धककृतां स्पर्शनां मार्गणास्थानेष्वाहणिरये सत्तमणिरये आणतपहुडिचउदेव सुइलासु । भूगारा गतिण्हं सत्तण्ह छ फासिआ भागा ॥ ६४२॥
,
(प्रे० ) “णिरये सत्तमणिरये" इत्यादि, निरयगत्योघमार्गणायाम्, सप्तम भूमिनिरयमार्गणाभेदे, आनतकल्पप्रभृतिचतुर्देवगतिसत्कभेदेषु, शुक्रलेश्यामार्गणायां चेत्यर्थः । एतासु सप्तमार्गणासु किमित्याह - "भूगाराइगतिन्ह "मित्यादि, बन्धकैरित्यनुवर्तते, तत आयुर्वर्जानां सप्तानां भूयस्कारादिकानां त्रयाणां बन्धकैः पड् भागाः स्पृष्टाः । एते भागाः प्रत्येकं चतुर्दशरज्जूच्चाया एकरज्जुवृत्तविस्तृतायास्त्रसनाड्याचतुर्दशभागप्रमाणा बोद्धव्याः । कस्मात् ? प्रकृतग्रन्थाभिप्रायस्य तथात्यात् । उक्तं च अत्रैव मूलप्रकृतिस्थितिबन्धग्रन्थे द्वितीयाधिकार स्पर्शनाद्वारे'सआण बुच्चिरे इह जे भागा भाजिआअ चउदसहिं । तसनाडीअ लहिज्जउ जं णेया तावइ अप्पमाणा ते ।।' इति एवं च सति प्रकृते सनायाः षट् चतुर्दशभागाः स्पर्शना प्राप्तेति । तद्भावना तु संक्षेपत उच्यते — प्रत्यन्तमुहूर्तं संक्लेशविशुद्धयोः परावर्तमानत्वात् प्रकृतबन्धत्रयं प्रत्यन्तमुहूर्त भाव्यस्ति । किञ्चाधिकृतबन्धत्रयस्य स्वामिनोऽपि तत्तन्मार्गणा गताः सर्वे जीवाः सन्ति, न पुनरवक्तव्यस्थितिबन्धकवत्केचनैव । तथा च सति प्रकृतबन्धत्रयं कुर्वद्भिर्नानाजी वैरनन्तकालमपेक्ष्य स्वप्रायोग्यं सर्वमुत्पादक्षेत्रं सर्वं मारणसमुद्घातक्षेत्रं गमनागमनक्षेत्रं स्वस्थानक्षेत्रं च स्पृष्टं भवति, अतस्तेषां स्पर्शनाऽपि यासु मार्गणात्कृष्टतो यावती भवति तावती सर्वाऽप्यवाप्यते, ताश्च नरकगतिसत्कभेदद्वये मारणान्तिकसमुद्घातकृतस्पर्शना प्राधान्येन षड्ज्जवः प्राप्यत इति तथैवोक्ता, आनतदेवादि -
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४९४]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारादि० शेषमार्गणासु त्वानतकल्पादिदेवानां गमनागमनकृतस्पर्शनाप्राधान्यात् सा षड्भागप्रमाणाभिहिता । एतेषां तत्तन्मार्गणाभेदगतजीवानां मारणसमुद्घातादिप्रयुक्ता यथोक्तस्पर्शना तु द्वितीयाधिकारस्पर्शनादारवृत्तौ विस्तरतो व्युत्पादिताऽस्माभिः, जिज्ञासुना तत एव ज्ञातव्या । एवं वक्ष्यमाणमार्गणाविषयकस्पर्शनाविस्तरोऽपि तत एव द्रष्टव्यः, नात्र पुनर्वक्ष्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति ॥६४२॥
यासु मार्गणासु प्रस्तुतबन्धकानां स्पर्शना लोकासंख्यभागमात्रा ताः संगृह्याहघम्मा-गेविज्जाइ-विउवमीसा-5ऽहारदुग-अवेएसु। मणणाण-संयम-समइअ-छेअ-परिहार-सुहमेसु॥६४३॥ लोगासंखियभागो होइ, बिआइणिरयेसु हुन्ति कमा।
एगं दुवे य तिण्णि य चउरो पण फासिआ भागा ॥६४४॥ (प्रे०) “धम्मागविज्जाइ” इत्यादि, तत्र “धम्मा” त्ति धर्माख्यप्रथमपृथिवीनिरयभेदे, "गेविज्जाइ" ति वेयकादिसर्वार्थसिद्धविमानपर्यन्तेषु चतुर्दशदेवगतिभेदेषु, वैक्रियमिश्रकाययोगा-ऽऽहारककाययोगा--ऽऽहारकमिश्रकाययोगा-ऽपगतवेदमार्गणाभेदेषु,तथा "मणणाणे"त्यादि, मनःपर्यवज्ञान-संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणास्वित्येवं पञ्चविंशतिमार्गणासु प्रत्येकं “लोगासंखियभागो" त्ति लोकस्यासंख्येयभागः “होइ" त्ति, स्पृष्टो भवति, सप्तानां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकैरित्यनुवर्तते । एतासु प्रत्येकं स्वस्थानमारणसमुद्घातादिना प्रकारेणाप्युत्कृष्टस्पर्शना लोकासंख्येयभागमात्रैव लभ्यते, तस्याश्च प्रकृतेऽपि युज्यमानत्वात्तथैवोक्तेति ।
अथ मार्गणान्तरेष्वाह-"बिआइणिरयेसु" इत्यादिना, द्वितीयादिशेषपञ्चनरकभेदेषु क्रमादेको द्वौ त्रयश्चत्वारः पञ्च भागाः स्पष्टा भवन्ति । चकारः पादपूत्यै द्रष्टव्यः, प्राग्वत्सप्तानां भूयस्कारादिबन्धकैरित्यस्यानुवृत्तिश्च द्रष्टव्या । तथा सति द्वितीयपृथिवीनिरयभेदे सप्तानां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकैस्त्रसनाडीसत्क एकश्चतुर्दशभागः स्पृष्टः, तृतीयपृथिवीनिरयभेदे प्रस्तुतबन्धकैद्वौ चतुर्दशभागौ स्पृष्टी, चतुर्थपृथिवीनिरयभेदे पुनस्तैस्त्रयश्चतुर्दशभागाः स्पृष्टाः, पञ्चमपृथिवीनिरयभेदे तु चत्वारश्चतुर्दशभागाः स्पृष्टाः, षष्ठपथिवीनिरयभेदे पुनः प्रस्तुतबन्धकैः पञ्च चतुर्दशभागाः स्पृष्टा भवन्तीति । इयमेकरज्ज्वादिस्पर्शना प्रत्येकं मारणान्तिकसमुद्घातप्राधान्या बोद्धव्येति ॥६४३-६४४॥ अथान्यत्राह
भागाऽत्थि फासिआ णव सुर-ईसाणंतदेव-तेऊसु। विउवे तेरह, देसे पण, बारह सासणे णेया ॥६४५॥
(प्रे०) "भागाऽत्थि फासिआ” इत्यादि, सप्तप्रकृतीसत्कभूयस्कारादिप्रत्येकस्थितिबन्धानां निर्वतकैः "भागाऽत्थि फासिआ"त्ति त्रसनाडयाश्चतुर्दशांशात्मका भागाः स्पष्टा भवन्ति ।
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मार्गणास्वायुर्वर्जाना भूयस्कारादि० ] भूयस्काराधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[ ४९५ कस्यां कस्यां मार्गणायां कियन्तः कियन्तो भागा इत्याह-"णव सुरईसाणंतदेवतेऊसु" ति नव भागाः 'सुरे'-देवगत्योधमार्गणायामिशानकल्पान्तेषु भवनपत्यादिषु पञ्चष्वन्यदेवगतिभेदेषु तेजोलेश्यामार्गणायां चेत्यर्थः । भवनपत्यादिदेवानामधस्तृतीयपृथिवीं यावद्गमनागमनमपेक्ष्योर्ध्वमीषन्प्रारभारापथिवीं यावन्मारणसमुद्घातेन स्पर्शनाच्च प्रकृतस्पर्शनाऽपि रज्जुद्वयमधोलोकसत्कं रज्जुसप्तकं चोर्ध्वलोकसत्कमितिकृत्वा नव रज्जब उक्ता । तेजोलेश्यायामपि सा भवनपत्यादिदेवानपेक्ष्यैव बोद्धव्येति । "विउवे तेरह" ति वैक्रियकाययोगमार्गणायां सप्तानां भूयस्काराल्पतरावस्थितस्थितिबन्धकैस्त्रसनाडयास्त्रयोदश भागाः स्पृष्टा भवन्तीत्यर्थः । कथम् ? प्रकृतत्रिविधवन्धस्य सर्वावस्थायां सम्भवेन मारणान्तिकसमुद्घातगतान् नैरयिकानपेक्ष्याथोलोकसत्कषज्जुस्पर्शनालाभाद् , ईत्पाग्भारापथिवीं प्राप्तान् मारणसमुद्घातगतभवनपत्यादिदेवानपेक्ष्यो लोकसत्कसप्तरज्जुस्पर्शनालाभाच्च समुदितास्त्रयोदशरज्जुस्पर्शनाऽभिहितेति । “देसे पण" ति देशसंयममार्गणायां प्रकृतत्रिविधवन्धकैः प्रत्येकं त्रसनाड्याः पञ्च चतुर्दशभागाः स्पृष्टा भवन्तीत्यर्थः । कुतः ? तिर्यग्लोकादष्टमकल्पप्राप्तानां मारणान्तिकसमुद्घातगतानां देशविरततिरश्चां स्पर्शनामपेक्ष्याधिकृतस्पर्शनाया लाभादिति । “बारह सासणे णेय" ति सासादनमार्गणायां तु प्रकृतबन्धकैस्त्रसनाडयाः स्पष्टा भागा द्वादश ज्ञेया इत्यर्थः । तत्रोप्रलोकसत्काः सप्तरज्जुस्पर्शनेशानान्तदेवैः समुद्घातकृता, अधोलोकसत्का पञ्चरज्जुस्पर्शना तु मारणसमुद्घातेन तिर्यग्लोकप्राप्तैः षष्ठपृथिवीनारकैः कृता, एते समुदिते सत्यौ द्वादशरज्जुस्पर्शना भवतीति ॥६४५॥
अट्ठ फरिसिआ भागा सेसऽहमअंतसुर-तिणाणेसु।
ओहि-पउम-सम्म-खइअ-खयोवस-मुवसम-मीसेसु॥६४६॥ (प्रे०) "अट्ठफरिसिआ” इत्यादि, प्रकृतसप्तप्रकृतिसत्कभूयस्काराल्पतरावस्थितस्थितीनां प्रत्येकं बन्धकैस्त्रसनाच्या अष्टौ भागाः स्पृष्टा इत्यर्थः । कासु मार्गणास्वष्टौ भागाः स्पष्टा इत्याह"सेसऽहमअंतसुरे” त्यादि, ईशानकल्पान्तदेवगतिभेदेषु प्रस्तुतबन्धकस्पर्शनायाः कथितत्वात् तैर्विना ये शेषा अष्टमकल्पान्ताः सनत्कुमारादिषडदेवगतिमार्गणाभेदास्तेषु, मति-श्रता-ऽवधिरूपेषु त्रिज्ञानभेदेषु तथाऽवधिदर्शन-पद्मलेश्या-सम्यक्त्वोध-क्षायिक-क्षायोपशमिको पशमिकसम्यक्त्व-मिश्रदृष्टिमार्गणास्वित्येवं पोडशमार्गणास्वित्यर्थः । तत्र सनत्कुमारादिसहस्रारकल्पान्तदेवानां गमनागमनकृतस्पर्शनापेक्षयाधिकृतस्पर्शना लभ्यते । तद्यथा-सनत्कुमारादिदेवानामधस्तृतीयां पृथिवीं यावद्गमनाद् द्वे रज्जू स्पर्शनाऽधोलोकसत्का, ऊर्ध्वमच्युतकल्पं यावद्गमनाच्च पडज्जव ऊर्ध्वलोकसत्का स्पर्शना प्राप्यते, तदानीं च भूयस्कारादिप्रस्तुतत्रिविधबन्धानां सम्भवात् सैवाऽष्टभागकथनद्वारेण समुदिताऽभिहिता । एनामेव देवानां गमनागमनकृताष्टरज्जुस्पर्शनामपेक्ष्य मतिज्ञानादिमिश्रदृष्टिमार्गणापर्यन्तासु शेषमार्गणास्वपि प्रस्तुतस्पर्शना भावनीयेति ॥६४६॥
अथ शेषमार्गणासु प्रकृतबन्धकस्पर्शनामाह
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४९६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणास्वायुषोऽल्पतरा-ऽवक्तव्य० सेसासु बंधगेहिं सव्वो होएज्ज फोसिओ लोगो। भूओगाराईणं तिण्हं सत्तण्ह कम्माणं ॥६४७॥
(प्रे०) “सेसासु' इत्यादि, उक्तशेषासु तिर्यग्गत्योधादिसप्तोत्तरशतमार्गणासु बन्धकैः सर्वो लोकः स्पष्टो भवति । केषां बन्धकैरित्याह-"भूओगाराईण"मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणां भयरकाराल्पतरावस्थितस्थितिबन्धलक्षणानां भयस्कारादीनां त्रयाणां प्रत्येकमित्यर्थः । तत्र शेषमार्गणानामधेयान्येवम्-पञ्च तिर्यग्गतिभेदाः, चत्वारो मनुष्यगतिभेदाः, एकानविंशतिरिन्द्रियमार्गणाभेदाः, द्विचत्वारिंशत् पथिव्यादिकायमार्गणाभेदाः, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-काययोगसामान्यौ-दारिको-दारिकमिश्र-कार्मणकाययोग-स्त्री-पु-नपुंसकवेद-क्रोधादिचतुःकपायमत्यज्ञानाद्यज्ञानत्रया-ऽसंयम-चक्षुदर्शना-ऽचक्षुदर्शन-कृष्ण-नील-कापोतलेश्या-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वसंश्य-ऽसंख्या-ऽऽहारक-ऽनाहारकमार्गणाभेदाश्चेति ।
तत्र तिर्यग्गत्याद्यौधिकमार्गणासु स्वस्थानजीवानपेक्ष्यापि सर्वलोकस्पर्शना लभ्यते । कुतः ? तिर्यग्गत्योघादिमार्गणागतानां सूक्ष्मैकेन्द्रियादीनां स्वस्थानतोऽपि सर्वलोकव्याप्तेः । अन्यासु यासु पञ्चेन्द्रियतियंगादिभेदरूपासु नास्ति सूक्ष्मैकेन्द्रियादीनां प्रवेशस्तासु पुनरिणान्तिकसमुद्घातेनाऽधिकृतसर्वलोकस्पर्शना लभ्यते । कुतः ? सूक्ष्मेतरेषामपि तेषां सूक्ष्मैकेन्द्रियादितयोत्पत्तरप्रतिषेधात् । ततः किम् ? ततो मारणसमुद्घातेन स्वोत्पत्तिप्रायोग्यानि सूक्ष्मैकेन्द्रियसत्कोत्पादस्थानानि प्राप्तः पञ्चेन्द्रियतिर्यगादिभिः नानाकालमाश्रित्य सर्वलोकः स्पृष्टो भवतीति प्रकृतेऽपि सर्व ठोफस्पर्शन। लभ्यते मारणसमुद्घाताद्यवस्थायामपि भूयस्कारादिवन्धत्रयप्रवृत्तेरविरोधादिति ॥६४७॥
तदेवं दर्शिताऽऽदेशतोऽपि सप्तानां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकानां स्पर्शना । अथावशेषाणामायुषोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यस्थितिबन्धकानां स्पर्शनां दिदर्शयिपुराह
तिरिये एगिदिय-पणकाय-णिगोएसु सव्वसुहुमेसु। कायु-रलदुग-णपुम-चउकसाय-दुअणाण-अयतेसु ॥६४८॥ अणयण-असुहतिलेसा-भवियर-मिच्छा-ऽमणेसु आहारे । सव्वो लोगो छिहिओ दोण्हं वि पयाण आउस्स ॥६४९॥
(प्रे०) “तिरिये” इत्यादि, प्राग्वत् तिर्यग्गत्योघे तथैकेन्द्रियौघ-पथिव्यादिपञ्चकायसत्कौघभेद-निगोदौघभेदेपु, सर्वेषु सूक्ष्मैकेन्द्रियाद्यष्टादशसूक्ष्मजीवभेदेषु, काययोगौधौ-दारिकमिश्रकाययोग-नपुसकवेद-चतु:कपाय-मत्यज्ञान-श्रताज्ञाना-संयमेष्वचक्षुर्दर्शना-ऽशुभकृष्णादित्रिलेश्याभव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंज्ञिष्वाहारिमार्गणायां चेत्येवं षट्चत्वारिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । एतासु किमित्याह-“सव्वो लोगो” इत्यादि, आयुषः “दोण्ह वि पयाण" ति प्राग्वदल्पतरा
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मार्गणास्वायुषोऽल्पतरस्थितिबन्धादि०] द्वितीयाधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
[ ४९७ ऽवक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणयोर्द्वयोरपि पदयोः “सव्वो लोगो छिहिओ" ति बन्धकैः सर्वो लोकः स्पृष्टो भवतीत्यर्थः । एतासु प्रत्येकमोघवत् सूक्ष्मैकेन्द्रियादीनामपि प्रवेशात् , तेषां च स्वस्थानतोऽपि सर्वलोकव्यापित्वात् प्रस्तुतस्पर्शनाऽपि सर्वलोकः प्राप्यत इति ॥६४८-६४९।।
अथ मार्गणान्तरेष्वाह-- देव-ऽटुमंतसुर-दुपणिदितस-पणमणवयण-विउवेसु। थी-पुम-तिणाण-विभंगो-हि-णयण-तेउ-पम्हासु॥६५०॥ सम्मत्त-खइअ-वेअग-सासण-सण्णीसु अट्ठ छिप्पीअ। (प्रे०) "देवमंतसरे"त्यादि, देवगत्योधमार्गणाभेदे, भवनपत्याद्यष्टमसहस्रारकल्पान्तेष्वेकादशस्वन्यदेवगतिभेदेषु, तथा विशब्दस्य पञ्चेन्द्रियवसयोः प्रत्येकं योजनाद्वयाख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेश्च "दुपणिंदितसे"त्यनेन पञ्चेन्द्रियौघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-वसकायोघ-पर्याप्तत्रसकायलक्षणाश्चत्वारोभेदा गृह्यन्ते तेषु,तथा पञ्चमनोयोग-पञ्चवचनयोग-वैक्रियकाययोगेषु,स्त्रीवेद-पुरुषवेद-मत्यादिविज्ञान-विभङ्गज्ञाना-ऽवधिदर्शन-चक्षुर्दर्शन-तेजोलेश्या-पद्मलेश्यासु, सम्यक्त्वौघ--क्षायिक-क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-सासादन-संज्ञिमार्गणाभेदेष्वित्येवमेकचत्वारिंशन्मार्गणासु प्रत्येकम् 'अह छिप्पीअ' त्ति प्रकृतैरायुषोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यस्थितिबन्धकैः प्रत्येकं त्रसनाडया अष्टौ भागा अस्पृश्यन्त । एतासु प्रत्येकं प्रकृतस्पर्शना सहस्रारान्तदेवानां गमनागमनकृता बोद्धव्या । सा च प्राग द्वितीयाधिकारस्पर्शनाद्वारवृत्तौ भाविताऽपि लेशतः प्रदयते,तद्यथा-सहस्रारकल्पान्तदेवाः पूर्वस्वजनस्नेहेनाधस्तृतीयनरकपथिवीं यावद् गच्छन्ति, ऊर्ध्वमच्युतकल्पं यावत्स्वसामर्थ्यादगच्छन्तोऽपि तेऽच्युतकल्पवासिभिर्देवैः स्वस्थानेषु नियन्ते । उक्तं च पञ्चसंग्रहे'सहसारंतियदेवा नारयने हेण जंति तइयभुवं । निज्जति अच्चुयं जा अच्चुअदेवेण इयरसुरा ।।३१॥' इति ।
एवं च सत्यनन्तमतीतकालमाश्रित्य भिन्न भिन्नमागैर्धाधो गमनागमनं कुर्वद्भिरनन्तैः सहस्रारान्तदेवैरष्टरज्जुप्रमाणमुच्चमेकरज्जुप्रमाणवृत्तविस्तृतं त्रसनाडिगतं क्षेत्रं स्पृष्टं भवति, तदानीं च तेवामायुर्वन्धस्य सम्भवेनानन्तैदेर्वैरायुवन्धस्य कृतत्वादधिकृतस्पर्शनाऽपि तावत्यभिहिता । अत्र तिर्यग्लोकात् तृतीयां पृथिवीं यावद् रज्जुद्वयम् , ऊर्ध्वं चाच्युतकल्पं यावद् रज्जुषट्कमित्याद्यतत् सर्व प्राक् स्पर्शनाद्वारवृत्तावभिहितमिति तत एव द्रष्टव्यम् , न पुनरुच्यते, । एवं मारणसमुद्घातेनाऽऽयुर्वन्धकस्पर्शना नोपपद्यते,तदानीं भवचरमान्तमुहूर्ते भवान्तराभिमुखैरायुर्वन्धस्यानिर्वर्तनादित्याद्यपि तत एवावगन्तव्यं विस्तरार्थिनेति ॥ अथान्यत्राह--
आणतपहुडिसुरेसु चउसुसुकाअ य छ भागा ॥६५१॥ (०) "आणतपहुतिसुरेसु' इत्यादि, आनत--प्राणता-ऽऽरणा-ऽच्युतकल्परूपेप्वानतप्रभृतिषु चतुर्यु देवगतिभेदेषु शुक्ललेश्यामार्गणायां च "छ भाग" त्ति प्राग्वत् प्रकृतैरायुषो द्विविध
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४९८ ]
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बंध विहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ भूयस्कारादिबन्धकस्पर्श नायन्त्र० स्थितिबन्धकैरपि प्रत्येकं त्रसनायाश्चतुर्दशभागरूपाः षट्भागाः स्पृष्टाः सन्तीति गम्यते, यद्वाऽस्पृश्यन्तेत्यनुवर्तत इति । प्रावदेव भावनीयैषा, नवरं सहस्रारकल्पान्तदेवानामेत्राधस्तृतीयपृथिवीं यावद्गमनमभिहितम्, न पुनस्तदुपरिवर्तिनामपि तेषामानतादिकल्पचतुष्कजानां सुराणां जिनजन्ममहोत्सवादिनिमित्तानधिकृत्याऽपि तिर्यग्लोकं यावदेव गमनात् । तथाच सत्यधोलोकसत्करज्जुद्वयस्पर्शनाया असम्भवः, अतस्तावतीं स्पर्शनां विवर्ज्य षड्जवः स्पर्शना द्रष्टव्येति ॥ ६५१ ॥ अथैकयाssया शेषमार्गणासु प्रस्तुतस्पर्शनां व्याकुर्वन्नाहदेणजगं बायरए गिंदियवाउसव्वभेएस |
सेसासु असंखयमो भागो लोगस्स छुहिओ तिथ ॥६५२॥
(प्रे०) देसुणजगमित्यादि, ओघ - पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु सर्वेषु बादरैकेन्द्रियभेदेषु, सर्वेषु बादरवायुकायभेदेष्वित्येवं पण्मार्गणासु प्रत्येकं प्रविष्टवादरपर्याप्त चादरापर्याप्तान्यतरवायुकायिकानां देशोन लोकप्रमाणस्वस्थानक्षेत्रापेक्षया प्रस्तुताऽयुषोऽवक्तव्याऽल्पतरस्थितिबन्धकानां स्पर्शनाSपि "देसूणजगं" त्ति देशोनं जगल्लभ्यत इति । "सेसासु असंखयमो भागो" त्ति उक्तशेषासु नरकगत्योघादिचतुःषष्टिमार्गणासु तु प्रस्तुतद्विविधबन्धकैर्लोकस्याऽसंख्येयतम एको भागः स्पृष्टोऽस्ति, लोकाऽसंख्यभागप्रमाणा तेषां स्पर्शनेति भावः । कथम् ? इति चेद्, एतास्वन्यतमस्यामपि स्वस्थानतो गमनागमनतो वा लोकाऽसंख्यभागादधिकक्षेत्र व्यापिनः सूक्ष्मैकेन्द्रियादिजीवराशेरप्रवेशादिति ।। ६५२ ।।
तदेवं प्रदर्शिता शेषमार्गणास्थानेष्वप्यायुषोऽल्पतरा ऽवक्तव्य द्विविध स्थितिबन्धकानां स्पर्शना । तथा च गतं नवमं स्पर्शनाद्वारम् ||
कस्याः प्रकृतेः
आयुर्वर्जससमूलप्रकृतीनाम्
आयुषः
अष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकानां स्पर्शनाप्रदर्शकं यन्त्रकम्
भूयस्कारादेः कस्य बन्धकानाम्
कुत्र ?
कियती स्पर्शना
श्रोघतः, यत्र सन् | सर्वथाऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धतत्र सर्वमार्गणासु च कानां स्पर्शनावन्
लोकाऽसंख्यभागः
भूयस्कारा-ऽल्पतरा-ऽवस्थितानां प्रत्येकम्
अवक्तव्यस्थितिबन्धस्य
अल्पतरा ऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोः प्रत्येकम् |
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीये भूयस्काराधिकारे नवमं स्पर्शनाद्वारं समाप्तम् ॥
22
"1
सर्वथाऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धकवत् |
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॥ अथ दशमं कालद्वारम् ॥ एतर्हि क्रमप्राप्तनानाजीवाश्रयकालद्वारावसरः । तत्रौधत आदेशतश्च मूलकर्मसत्कभूयस्कारादिस्थितिबन्धसत्पदानां जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नं नानाजीवाश्रयं कालं प्रतिपिपादयिषुरादौ तावदोषतः प्रतिपादयन्नाह
सब्बद्धा तिपयाणं भगाराईण सत्तकम्माणं ।
तह आउस्स पयाणं दोण्हं कालो मुणेयब्वो ॥६५३॥ (प्रे०) “सव्वडा" इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तमूलकर्मणां "तिपयाणं भूगाराईण" त्ति अवक्तव्यस्थितिबन्धकालस्यानन्तरं वक्ष्यमाणतया तहर्जानां 'भूयस्कारादीनां' भूयस्कारा-ऽल्पतरा-ऽवस्थितस्थितिबन्धलक्षणानां त्रयाणां पदानां तह आउस्स पयाणं दोण्ह" ति तथाऽऽयु:कर्मणोऽल्पतरा-ऽवक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणयोर्द्वयोरपि सत्पदयोः “कालो" त्ति नानावन्धकाश्रयकालः, निरन्तरो बन्धकसचकाल इति यावत् । “मुणेयव्वो" अस्य च “सव्वडा" इति पूर्वेणान्वयस्ततः सोद्धा ज्ञातव्य इत्यर्थः । सुगमश्चायम् , एतेषां पदानामेकेन्द्रियाद्यनन्तजीवस्वामिकत्वादिति । यद्वा भङ्गविचयद्वारे ध्रुवत्वसाधनादेव गतार्थ इति ।।६५३।।
उक्तशेषस्य सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयकालमोघतः प्रतिपिपादयिषुरविशेषाल्लाघवार्थं मार्गणास्थानेष्वपि सममेव प्राह
सत्तण्ह लहू समयोऽवत्तव्बस्स परमोऽत्थि संखखणा ।
जहि अत्थि तस्स बंधो तहि तस्सेमेव विण्णेयो ॥६५४॥ (प्रे०) “सत्तण्ह' इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धस्य "लहू समयो” त्ति प्रक्रमान्नानाजीवाश्रयो 'लघुः'-जघन्यः कालः समयो भवति । “परमोऽत्थि संखखणा" ति स एव सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धकालः 'परमः'-उत्कृष्टः 'संख्यक्षणाः' - संख्येयाः समया भवति ।
____ अथ लाघवार्थ मार्गणास्थानेष्वतिदेशद्वारेणाह-"जहि अत्थि” इत्यादि, "जहि"त्ति 'यत्र' यासु मनुष्यगत्योघादिमार्गणासु "अत्थि तस्स बंधो" ति तस्य सप्तान्यतमकर्मणोऽवक्तव्यस्य बन्धः ‘णरतिगदुपणिंदियतस-पणमणवयणे'त्यादिना सत्पदद्वारे सन्नभिहितः "तहि" ति 'तत्र'-तासु मनुष्यौघादिमार्गणासु "तस्सेमेव विष्णेयो" ति तस्याऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य प्रस्तुतत्वान्नानाजीवाश्रयो बन्धकाल: 'एवमेव'-ओघवदेव, जघन्यत एकसमयः, उत्कृष्टतः संख्येयाः समयाच विज्ञेयः । कथम् ? इति चेद् , एकजीवाश्रितस्योत्कृष्टस्यापि कालस्य समयमात्रत्वात् , बन्धकपरिमाणस्याऽप्युत्कृष्टतः संख्येयत्वाच्च ।
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५०० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ भूयस्कारादेर्नानाजीवाश्रयकालोपपत्ति इदमुक्तं भवति-ओघतो मार्गणास्थानेषु वा यत्र कुत्रचिद् यस्याः कस्या अपि प्रकृतेर्यस्य कम्यापि भूयस्कारादिस्थितिबन्धस्य निर्वतका भङ्गविचयद्वारे 'तिरिये सव्वेगिदिये' इत्यादि(५९८...)गाथावृत्तौ दर्शितनीत्या ध्रुवं प्राप्यन्ते, तत्र मार्गणादौ तस्याः प्रकृतेस्तस्य भयस्कारादिस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयः प्रस्तुतकालः सर्वाद्धा प्राप्यत इति तु सुगमः, अत एवाऽनन्तरमोघतः सप्तप्रकृतीनां भूयस्कारादित्रिविधस्थितिबन्धस्याऽऽयुषो द्विविधसत्पदयोश्चासौ सर्वाद्धा कथितस्तियंग्गत्योधादिमार्गणास्थानेषु तथा वक्ष्यते च । स च तत्तयस्कारादिबन्धकानां ध्रुवत्वसाधनयैव गतार्थो बोद्धव्यः । यत्र पुनस्ते भयस्कारादिबन्धका भङ्गविचयद्वारोक्तनीत्या ध्रुवं न लभ्यन्ते,कदाचित्प्राप्यन्ते कदाचित्तु नापि प्राप्यन्त इत्यर्थः । एतेषां कादाचित्कसर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं भवतीति यावत् । तत्र तु तस्य भूयस्कारादे नाजीवाश्रयः कालो न सर्वाद्धा, किन्तु सावधिक एव । स च तस्य भूयस्कारादेबन्धकपरिमाणमुत्कृष्टपदे संख्येयं भवत्वसंख्येयं वा तदापि जघन्यतस्तस्य भूयस्कारादेरेकजीवाश्रयजघन्यवन्धकालेन तुल्य एवं प्राप्यते, उत्कृष्टतस्त्वसौ बन्धकपरिमाणाधनुसारेण पूर्वोक्तनीत्या यथासम्भव संख्येयसमया-ऽऽवलिकाऽसंख्येयभागादिप्रमाणः सम्पद्यते ।
तद्यथा-यस्य भयस्कारादेजीवितासंख्येयभागमात्रसम्भविनः स्थितिबन्धस्यैकजीवाश्रय उत्कृष्टोऽपि काल एक यादिसंख्येयाः समया एव, तदीयबन्धकपरिमाणमपि संख्येयमेव च, तस्य नानाजीवाश्रयः प्रस्तुतबन्धकालोऽप्युत्कृष्टतः संख्येयाः समया एवं प्राप्यते, केवलमयमेकजीवाश्रयोत्कृष्टवन्धकालापेक्षया संख्येयगुणो भवति । यदि च तस्य बन्धकपरिमाणमसंख्येयं भवति तदा त्वसौ नानाजीवाश्रय उत्कृष्टकालः कामणकाययोगमागेणोक्तसप्तकमसत्कोकृष्टस्थितिवन्धनानाजीवाश्रयोत्कृष्ट कालवदावलिकाऽसंख्यभागप्रमाणः प्राप्यते, अत एवौघतो मार्गणास्थानेषु चाऽऽयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धस्यासावुत्कृष्टकालः संख्येयाः समया अभिहितः, अनन्तरम्'जासं हवेज्ज संखा तासुं संखसमया भवे जेहो। जासु असंखा तासु आवलिश्राए असंखंसो' ।।६५६।। इत्यनेन पर्याप्तमनुष्यादिसंख्येयवन्धकपरिमाणासु मार्गणासु आयुर्वज सप्तानां भूयस्कारादेः प्रस्तुतकाल उत्कृष्टतः संख्येया समयाः, नरकगत्योघाद्यसंख्यवन्धकपरिमाणासु वालिकाऽसंख्येयभागप्रमाणोऽभिधास्यते च । यस्य पुनस्तादृशस्य जीवितासंख्येयभागमात्रसम्भविनः स्थितिवन्धविशेषस्यैकजीवाश्रयोत्कृष्टकालोऽन्तमुहूर्तप्रमाणत्वादसंख्येयाः समयास्तस्य तु बन्धकपरिमाणस्य संख्येयत्वे तदीयनानाजीवाश्रयोत्कृष्टकालोऽन्तमुहूर्तमेव लभ्यते, केवलमन्तमुहूर्तमिदमेकजीवाश्रयवन्धकालाऽपेक्षया संख्येयगुणं भवति । यदि च तादृशस्यैकजीवमाश्रित्योत्कृष्टतोऽसंख्येवसामयिकस्य स्थितिबन्धविशेषस्य बन्धकपरिमाणं संख्येयं तदा तु तदीपनानाजीपाश्रय उत्कृष्टः कालः पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणः सम्पद्यते, अत एव 'जहि बंधगा अस्थि संखा तहि तस्स भवे गुरू मुहुत्तंतो । सेसासु असंखयमो भागो पलिओवमस्स भवे' ॥६६३।। इत्यनेनायुषोऽल्पतरस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयमुत्कृष्टं कालं पर्याप्तमनुष्यादिसंख्येयबन्धकपरिमाणास्वन्तमुहूर्तमभिधाय नरकगत्योघाद्यसंख्येय
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मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारादि०] भूयस्काराधिकारे कालद्वारम्
[ ५०१ बन्धकपरिमाणासु त्यसौ पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणोऽभिधास्यते । जीवनबहुकालसम्भविनः सप्तानामवस्थितस्थितिबन्धस्य प्रस्तुतकालस्तूत्कृष्टतो यत्र तद्धन्धकनामध्रुवत्वं प्रतिपादितं तत्राऽपर्याप्तमनुष्यादिसान्तरमार्गणास्वनुत्कृष्टस्थितिबन्धकाना उत्कृष्टकालवन्नानाजीवाश्रयमार्गणोत्कृष्टावस्थानकालप्रमाणः प्राप्यते । एतच्च सर्वमर्थतो द्वितीयाधिकारनानाजीवाश्रयकालद्वारे उत्कृष्टादिस्थितिबन्धानां नानाजीवाश्रयकालस्योपपादनेन गतार्थमेव, एवमप्यल्पमेधसां सुखोपपत्तये लेशतः प्रदर्शितम्, एवमेवोत्तरत्राऽपि यथायथं विभावनीयमिति ॥६५४॥
तदेवमभिहित ओघतस्सर्वकर्मणां भूयस्कारादिसर्वस्थितिबन्धसत्पदानां तथाऽऽदेशतो मार्गणास्थानेषु सप्तानामवक्तव्यस्थितिवन्धसत्पदस्य च नानावन्धकाश्रयः कालो जघन्यत उत्कृष्टतश्च । एतर्हि सप्तकर्मणां शेषभूयस्कारादिस्थितिबन्धसत्पदानां तं प्रदिदर्शयिपुर्गाथापञ्चकमाह--
भूगार-ऽप्पयराणं जासुणियमाऽत्थि बंधगा तासु। सव्वद्धा कालो सिं सेसासु भवे लहू समयो ॥६५५॥ जासुहवेज्ज संखा तासु संखसमया भवे जेहो। जासु असंखा तासुआवलिआए असंखंसो॥६५६॥ असमत्तणरे विकियमीस-उवसमेसु सासणे मीसे। पल्लासंखियभागो अवट्ठिअस्स हवए जेट्ठो॥६५७॥ णेयो भिन्नमुहुत्तं आहारदुगे अवेअ-सुहुमेसु। छए हवेज्ज अयरा पण्णासा लक्खकोडीओ॥६५८॥ परिहारविसुद्धीए देसूणा दोण्णि पुब्बकोडीओ।
एआसु लहू समयो हवेज्ज सेसासु सव्वद्धा ॥६५९॥ (प्रे०) "भूगारप्पयराण” मित्यादि, "सत्तण्ह" त्ति अनन्तरगाथातोऽनुवर्तते, तत आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां "भूगारप्पयराण" ति भयस्काराऽल्पतरलक्षणयोर्द्वयोः स्थितिबन्धसत्पदयोः "जासुणियमाऽस्थि बंधगा" त्ति भङ्गविचयद्वारे 'तिरिये सव्वेगिदिये' इत्यादिगाथा-(५९८-६०१) पञ्चके यासु तिर्यग्गत्योघादिचतुःषष्टिमार्गणासु प्रस्तुतबन्धका नियमा उक्ताः, प्रस्तुतस्थितिबन्धकपदं ध्रुवं दर्शितमिति भावः । “तासु सव्वडा कालो सिं" ति तासु तिर्यग्गत्योध-सर्वैकेन्द्रियभेद-वनस्पतिकायौघ-सर्वसाधारणवनस्पतिकायभेद-पृथिव्यायोघ-तत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नशेषद्वादशसूक्ष्मभेद-पृथिव्यप्तेजोवायुकायौघ-बादरपृथिव्यप्तेजोवायुकाया--ऽपर्याप्तवादरपृथिव्यप्तेजो. काय--प्रत्येकवनस्पतिकायौघ--तदपर्याप्त-काययोगौघौ-दारिक-तन्मिश्र-कार्मणकाय
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बंधवहाणे मूलप डिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारादि ० योग-नपुंसकवेद-क्रोधादिकषाय चतुष्क-मत्यज्ञान - श्रुताज्ञाना-संयमाऽचक्षुर्दर्शन- कृष्ण-नील- कापोतलेश्या-भव्या-भव्य-मिथ्यात्वाऽसंज्ञयाऽऽहारका ऽनाहारकरूपासु चतुःषष्टिमार्गणासु 'सिं' ति तयोभूयस्कारा - ऽल्पतरलक्षणयोर्द्वयोः स्थितिबन्धसत्पदयोर्नानाबन्धकाश्रयः कालः सर्वाद्धा भवति । अयं हि सर्वाद्धकालोऽनन्तरोक्तनीत्या ध्रुवदभावनयैव व्याख्यातार्थो न पुनर्व्याख्यायत इति ।
५०२ ]
"सेसासु भवे लहू समयो" ति तिर्यग्गत्योघादिचतुःषष्टिमार्गणा अपहाय शेषासु नरकगत्योघादिषडभ्यधिकशतमार्गणासु प्रस्तुतसप्तकर्मसत्कभूयस्कारा- ऽन्यतरस्थितिबन्धसत्पदयोर्नानाबन्धकाश्रयो 'लघु:'- जघन्यः कालः समयो भवेत् । सुगमः, शेषनिरयगत्योघादिमार्गणासु प्रस्तुत पदद्वयस्याध्रुवत्वेन सावधिकस्तन्नानाजीवाश्रयो जघन्यः कालोऽप्युक्तनीत्यैकजीवाश्रयजघन्यबन्धकालवत्समयमात्रो लभ्यत इति ।
अथोत्कृष्टत आह-‘“जासु ं हवेज्ज" इत्यादि, यासु मार्गणासु तासां सप्तमूलप्रकृतीनां भूयस्कारस्याऽल्पतरस्य वा स्थितिबन्धस्य निर्वर्तकपरिमाणं संख्येवमुक्तं तासु पर्याप्तमनुष्य मानुष्यादिद्वादशमार्गणासु तस्य भूयस्कारादिस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयः " जेडो” त्ति उत्कृष्टकालः संख्येथाः समया भवेदिति । यासु पुनर्निरयगत्योघादिचतुर्नवतिमार्गणासु तद्बन्धकपरिमाणमसंख्येयं तामु तस्य भूयस्कारादिस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रय उत्कृष्टकालोऽसंख्येयाः समया भवेदित्येतदेव दर्शयन्नाह - "जासु असंखा तासु आवलिआए असंखंसो" इति, गतार्थम् ।
पर्याप्तमनुष्यादिद्वादशमार्गणास्त्विमाः - पर्याप्तमनुष्य - मानुषी सवार्थसिद्ध विमानदेवगतिभेदाऽऽहारक-तन्मिश्रकाययोगा- ऽपगतवेद-मनः पर्यवज्ञान-संयमौघ- सामायिक-छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्पराय संयमाः ।
निरयगत्योघादयस्त्विमा: - अष्टौ निरयगतिभेदाः, चत्वारः पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्भेदाः, मनुष्यौध-तदपर्याप्तभेदौ, सर्वार्थसिद्धविमान भेदवर्जा एकोनत्रिंशदेवगतिभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः, त्रयः पञ्चेन्द्रियभेदाः, बादरपर्याप्तपृथिव्यप्तेजोत्रायु-पर्याप्तप्रत्येक वनस्पतिकायलक्षणाः पञ्च भेदाः, त्रयस्त्रमकायभेदाः सर्वे मनोवचोयोगभेदाः, ते च दश, वैक्रिय-वैक्रियमिश्रकाययोगी, स्त्री-पुवेदी, मति-श्र -श्रुताऽवधिज्ञानानि, विभङ्गज्ञानम्, देशसंयमः, चक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शने, शुभलेश्यात्रयम्, सम्यक्त्वौघ- क्षायिक- क्षायोपशमिकौ-पशमिक-सासादन सम्यग्मिथ्यात्वानि संज्ञिमार्गणाभेदश्चेति ।
अथाऽवस्थितस्थितिबन्धस्य प्रस्तुतकालमाह - " असमत्तणरे" इत्यादि, अपर्याप्तमनुष्यवैक्रियमिश्रौ-पशमिकसम्यक्त्व - सासादन सम्यग्मिथ्यात्वलक्षणास पञ्चमार्गणास्वाऽऽयुर्वर्ज सप्तप्रकृतीनामवस्थितस्थितिबन्धस्य प्रस्तुतो नानाजीवाश्रयः कालः “जेडो" त्ति उत्कृष्टः पल्योपमस्याऽसंख्येयभागप्रमाणोः भवेत् । आहारक- तन्मिश्रकाययोगयोरपगतवेद-सूक्ष्मसम्पराय संयमयोश्चेत्येवं चतसृषु मार्गणा त्वसावुत्कृष्टकाल: 'भिन्नमुहूर्तम्' अन्तर्मुहूर्त ज्ञेयः । “ए” त्ति छेदोपस्थापन
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मार्गणास्वायुःकर्मणोऽल्पतरादि० ]
भूयस्काराधिकारे कालद्वारम्
[ ५०३
संयममार्गणास्थाने पुनरसौ पञ्चाशल्लक्षकोट्य: 'अतराः' - सागरोपमाणि भवेत् । परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणास्थाने तु "देसूणा दोणि पुव्वकोडीओ" त्ति देशोनपूर्वकोटिद्वयं भवति । तदेवमपर्याप्तमनुष्याद्येकादशसान्तरमार्गणासु तत्तन्मार्गणाया नानाजीवाश्रयोत्कृष्टावस्थानकालाधीनः सप्तानामवस्थितस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयोत्कृष्टकालः पल्योपमासंख्येयभागादिप्रमाणो दर्शितः । स च सप्तानामनुत्कृष्टस्थितेर्नानावन्धकाश्र योत्कृष्ट कालवदेव साधनीयः सप्तानामनुत्कृष्ट स्थितिबन्धवदवस्थित स्थितिबन्धस्याऽपि जीवितबहुकालभावित्वादिति । "एआसु लहू समयो" ति एतास्वनन्तराभिहिताऽपर्याप्त मनुष्याद्येकादशमार्गणासु प्रत्येकं सप्तानामवस्थितस्थितिबन्धस्य नानाजीवा - श्रयो 'लहू' त्ति जघन्यकालः समयो भवेत्, अयं त्वेक जीवाश्रयजघन्यकालस्य तथात्वात्प्राग्वत्साध्यः । “हव्वेज्ज सेसासु सव्वडा" ति उक्तैकादशमार्गणा अपहाय शेषासु निरयगत्योधाद्ये कोनषष्टयभ्यधिकशतमार्गणासु तु प्रस्तुतः सप्तानामवस्थितस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयः कालः सर्वाद्धा भवेत् । अयमप्यनुत्कृष्टस्थितिबन्धनानाजीवाश्रयकालवदेव साध्यः, यद्वा भङ्गविचयद्वारे तद्बन्धकानां ध्रुवत्वसाधनादेव साधितो बोद्धव्य इति ॥ ६५५-६५९।।
तदेवं प्रतिपादितः सप्तकर्मणां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकालोऽपि सर्वमार्गणास्थानेषु । इदानीमुक्तशेषस्याऽऽयुःकर्मणोऽल्पतरा - ऽवक्तव्यस्थितिबन्धकानां तं व्याचिकीषु रार्याचतुष्टयमाह - जहि बंधगाऽत्थि णियमा बासडीअ दुपयाणऽऽउस्स तहिं । सव्वद्धा सेसासु समयोऽवत्तव्वगस्स लहू ॥ ६६०॥ जहि बंधगाऽपि संखा तहि से संखसमया गुरू यो । सेसासु विष्णेयो आवलिआए असंखंसो ॥६६१ ॥ पण मणवयेसु विवे आहारदुगे जहण्णगो यो । अप्पयरस्स खणोऽण्णह भिन्नमुहुत्तं मुणेयव्व ॥ ६६२॥ जहि बंधगाऽत्थि संखा तहि तस्स भवे गुरू मुहुत्त्तो । सेसासु असंखयमो भागो पलिओवमस्स भवे ॥ ६६३॥
(प्रे० ) " जहि बंधगा" इत्यादि, तत्र “जहि" इत्यस्याऽन्वयः 'बासडीअ' इत्यनेन, ततो यत्र द्विषष्टिमार्गणासु "बंधगाऽत्थि नियम" ति अस्य च 'दुपयाणऽऽउस्स' इति परेणावयस्तत आयुषोऽवस्थिता ऽवक्तव्यस्थितिबन्धलक्षणयोर्द्वयोः 'पदयोः' सत्पदयोर्बन्धकाः' - निर्वर्तका नियमात्सन्ति-सर्वदा लभ्यन्ते, पदद्वयमपि पूर्वं भङ्गविचयद्वारे 'तिरये सव्वेगिंदिये 'त्यादि-(६०४६०५ -६०६) गाथात्रये ध्रुवमभिहितमिति भावः । " तहिं सव्वडा" ति तत्र तिर्यग्गत्योघादिद्विषष्टिमार्गणासु तयोर्द्वयोः पदयोर्बन्धकानां कालः सर्वाद्धा भवतीत्यर्थः । गतार्थः । उक्तद्विषष्टि
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५०४ ]
- बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुषोऽल्पतरस्थितिबन्धादि० मार्गणावर्जासु शेषनिरयगत्योधादिमार्गणासु प्रस्तुतकालोऽसर्वाद्धेत्यतस्तं जघन्यादिभेदेनाह"सेसासु" इत्यादिना, उक्तशेषास्वेकोत्तरशतमार्गणासु “अवत्तव्वस्स समयो हस्सो" त्ति आयुषोऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य निर्वर्तकानां 'ह्रस्वः'-निरन्तरजघन्यकालः 'समयः'-समयमात्रो भवति । अयमपि सुगमः, एकजीवाश्रयस्य तस्य जघन्यतः समयमात्रत्वेनाऽत्रापि तथैव सम्भवात्। अथोत्कृष्टकालप्रतिपादनाय लाघवार्थं व्याप्तिरेवाह-"जहि" इत्यादि, यत्र मार्गणास्थानेषु प्रस्तुताऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य "बंधगाऽस्थि संखा" ति 'बन्धकाः'-निर्वर्तकाः प्राक परिमाणद्वारे 'पज्जमणुस-मणुसीसु'इत्यादिना (६२८-६२९)गाथाद्वये संख्येयाः प्रतिपादिताः सन्ति, "तहि" त्ति 'तत्र'-पर्याप्तमनुष्य---मानुष्या-नतकल्पादिसर्वार्थसिद्धविमानान्ताष्टादशदेवगतिभेदा-ऽऽहारकतन्मिश्रकाययोग-मनःपर्यवज्ञान-संयमोघ-सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिकसंयम-शुक्ललेश्याक्षायिकसम्यक्त्वलक्षणास्वेकोनत्रिंशन्मार्गणासु “से संखसमया गुरू णेयो" ति तस्याऽऽयुपोऽवक्तव्यस्य प्रस्तुतत्वान्निरन्तरो बन्धकसत्त्वकालो नानाजीवाश्रयवन्धकालो वा 'गुरु:'-उत्कृष्टः संख्येयाः समया ज्ञेयः। सुगमः, बन्धकपरिमाणस्योत्कृष्टतः संख्येयत्वादेकजीवाश्रयोत्कृष्टकालस्याऽपि समयतया संख्येयसमयमात्रत्वाच्चेत्येवंप्रकारेणोपपादनीयेति ।।
"सेसासु" ति तिर्यग्गत्योघाद्या द्विषष्टिमार्गणाः पर्याप्तमनुष्याचा एकोनत्रिंशन्मार्गणाश्च विहाय या शेषाः, यासु प्रस्तुतपदं सद्भूतं ता वैक्रियमिश्रकाययोगादिवर्जा निरयगत्योघादिद्विसप्ततिमार्गणास्तासु शेषमार्गणासु प्रस्तुत आयुषोऽवक्तव्यस्थितिबन्धकानामुत्कृष्टो निरन्तरकाल: "विण्णेयो आवलिआए असंखंसो" त्ति एकस्या आवलिकाया असंख्येयतमे भागे यावन्तस्समयास्तावान् विज्ञेयः । अयमपि प्रागिवैकजीवाश्रयोत्कृष्टकालस्य संख्येयसमयमात्रत्वादित्यादिना साध्य इति ।
___ अथाऽऽयुषोऽल्पतरस्थितिबन्धकानां द्विविधोऽपि कालस्तिर्यग्गत्योघादिद्विपष्टिमार्गणासु प्रतिषिद्धः, अतस्तच्छेपास्वसौ जघन्योत्कृष्टभेदेनाह- "पणमणे" त्यादि, पञ्चमनोयोगभेद-पञ्चवचोयोगभेद-वैक्रियकाययोगा-ऽऽहारक-तन्मिश्रकाययोगलक्षणासु त्रयोदशमार्गणासु "जहण्णगो
यो अप्पयरस्स खणो" त्ति आयुषोऽल्पतरस्थितिबन्धस्य जघन्य एव जघन्यकः स च प्रस्तुतत्वान्नानाजीवाश्रयकालः 'क्षणः'-समयो भवेत् । सुगमः, आयुर्वन्धे प्रवर्तमानेऽपि प्रस्तुतमार्गणानां मार्गणान्तरतया परावर्तनस्य शक्यत्वेनैकजीवाश्रयकालवन्नानाजीवाश्रयोऽप्ययं समयमात्रः सम्पद्यते । न चैवं तर्हि क्रोधकषायादिमार्गणानामपि तथात्वेन ताः क्रोधकषायादिमार्गणा अप्यत्र कथं न संगृहीता इत्यारेकणीयम् । क्रोधकपायादिमार्गणासु तथैव काययोगादिमार्गणासु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियादिजीवराश्यपेक्षया समयमात्रस्य प्रस्तुतकालस्य सम्भवेऽपि तत्राऽनन्तानामेकेन्द्रियजीवानामपि प्रवेशेन तेषु चान्यान्यजीवानां प्रस्तुतबन्धकतया नैरन्तर्येण लाभेन प्रस्तुतबन्धकानां ध्रुवत्वस्य प्रतिपादितत्वादिति । "पणह"त्ति प्रस्तुतस्यायुषोऽल्पतरस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयोजघन्यकालः
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नानाजीवाश्रयक लयन्त्र० ] भूयस्काराधिटारे कालद्वारम्
[ ५०५ 'अन्यत्र'-उक्तान्यत्र,तिर्यग्गत्योघादिद्विषष्टिमार्गणास्तथा मनोयोगादित्रयोदशमार्गणा विहाय शेषासु निरयगत्योघाद्यष्टाशीतिमार्गणास्वित्यर्थः। “भिन्नमुहुन्नं मुणेयव्वो"त्ति 'भिन्नमुहूर्त'-अन्तर्मुहूर्त ज्ञातव्यः । सुगमः, एतासु शेषमार्गणास्वेकजीपाश्रयस्याऽपि प्रस्तुतस्यायुषोऽवस्थितस्थितिबन्धजघन्यकालस्यान्तमुहूर्तत्वादिति ।
अथोत्कृष्टकालं प्रदिदर्शयिषुः प्रागिव व्याप्त्याऽऽह-"जहि" इत्यादि, यत्र पर्याप्तमनुष्यादिमार्गणास्वायुषोऽल्पतरस्थितिबन्धस्य "बंधगाऽस्थि संखा" त्ति बन्धकपरिमाणं प्राक्परिमाणद्वारे पज्जमणुस-मणुसीसु' मित्यादिना संख्येयं प्रतिपादितं "तहि" ति 'तत्र'-तासु पर्याप्तमनुष्याघेकोनत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकम् “तस्स भघे गुरू मुहुत्तंतो" ति तस्याऽल्पतरस्थितिबन्धस्य 'गुरु'-उत्कृष्टः कालः 'मुहूर्तान्तः' -अन्तमुहूर्त भवेत् । गतार्थः । “सेसासु" त्ति तिर्यग्गत्थोघादिद्विषष्टिमार्गणास्तथाऽपर्याप्तमनुष्यायकोनत्रिंशन्मार्गणा अपहाय शेषास निरयगत्थोघादिद्विसप्ततिमार्गणासु 'असंखयमो भागो पलिओवमस्स भवे" ति सगमः, एकजीवाश्रयस्योत्कृष्टकालस्याऽन्तमुहूर्तत्वादिना प्रकारेण प्रागियोपपादनीय इति ॥६६०-६६३।।
तदेवं भणित आयुःकर्मणोऽल्पतराऽवक्तव्यद्विविधस्थितिवन्धयोरपि जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नो नानाजीवाश्रयः कालः सर्वमार्गणास्थानेषु । तस्मिँश्च भणिते गतं नानाजीवाश्रयं कालद्वारमिति । अष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकानां नानाजीवाश्रकालप्रदर्शकयन्त्रकम्
श्रायुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनाम् । कुत्र ? भूयस्कारा-ऽल्पतर० अवस्थित० | अबक्तव्य०| अवक्तव्य असंख्यजीवराशिकासु सान्तरमार्गरणासु
कालवत् संख्येयाःसमया संख्येयजीवराशिकासु सान्तरमार्गणासु अोघतोऽसंख्यलोक-तदधिकजीव
सर्वाद्धा राशिकासु मार्गणासु च उपर्युक्तवर्जास्वसंख्यजीवराशि- जघ० समयः । उत्कृ.
प्रावलिकाऽसंख्यकासु निरन्तरमार्गरणासु संख्येयजीवराशिकासू निरन्तर- |
मायुषः
अल्पतर०
जघसमयः । उत्कृ० अनुत्कृष्ट जघ- समयः।। पावलिकाऽसंख्य- स्थितिबन्धक- उत्कृष्ट० भागः । जघ० समयः । उत्कृ० संख्ययाः समयाः ।
सर्वाद्धा
सर्वथा नानाजीवाश्रयजघन्यस्थितिबन्धकालवत् , केवलं-मत्यादित्रिज्ञाना-ऽवधिदर्शन-सम्यक्त्वौघक्षायोपशामिकसम्यक्त्वेष्वावलिकाऽसंख्यभागः।
सर्वथा नानांजीवाश्रयाऽजघन्यस्थितिबन्धकालवत् ।
भागः। जघ० समयः । उत्कृ० संख्येयाः
समयाः।
मार्गरणासु
॥ इति श्रीवन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीये भूयस्काराधिकारे दशमं नानाजीवाश्रयं कालद्वारं समाप्तम्।
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॥ अथैकादशमन्तरद्वारम् ॥
प्राप्तं नानाजीवाश्रयमेकादशमन्तरद्वारम् । अत्र तु मूलकर्मणां भूयस्कारादिस्थितिबन्धसत्पदानां नानाजीवाश्रितं जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नमन्तरं प्ररूपणीयम् । तत्रौघतस्तावद्येषां तन्न भवति तेषां तत्प्रतिषेधयन्नाह -
भूओगाराईणं तिन्हं सत्तण्ह अंतरं णत्थि ।
एमेव जाणिव्वं दोहं वि पयाण आउस्स ||६६४॥
,
(प्रे०) “भूओगाराईण” मित्यादि, “सत्तण्ह" त्ति आयुर्वर्जानां सप्तमूलप्रकृतीनां "भूओगाराईणं तिहं" ति अवक्तव्यस्थितिबन्धान्तरस्याऽनन्तरगाथायां प्रतिपादनीयत्वादवक्तव्यस्थितिबन्धवर्जानां‘भूयस्कारादीनां'- भूयस्कारा- ऽल्पतरा -ऽवस्थितस्थितिबन्धलक्षणानां त्रयाणां "अंतरं णत्थि " ति नानाजीवाश्रयमन्तरं 'नास्ति' न भवति । इदं हि भङ्गविचयद्वारे प्रस्तुतभूयस्कारादिबन्धकानां ध्रुवत्वप्रतिपादनात् कालद्वारे नानाजीवाश्रयकालस्य सर्वाद्वायाः प्रतिपादनाद्वा गतार्थमेवेति नात्र पुनः प्रपञ्च्यत इति । इत्थमुत्तरत्राऽपि भूस्कारादिवन्धकानामन्तर प्रतिषेधस्तत्तद्बन्धकानां ध्रुवत्वादिसाधनेनैव साधितो द्रष्टव्य इति । अथाऽयुषोऽवक्तव्या-ऽल्पतरस्थितिबन्धपदद्वयस्य बन्धकानां वत्वस्य सर्वाद्धाया वा प्रतिपादितत्वेन तस्याऽपि प्रस्तुतान्तरं नैव भवतीति तदपि प्रतिसिषेधयिषुरतिदेशेनाह - "एमेव इत्यादि, यथा सप्तानां भूयस्कारादिस्थितिबन्धात्रयस्य प्रस्तुतान्तरं न भवति तथाऽऽयुषोऽवक्तव्याऽवस्थितस्थितिबन्धलक्षणयोर्द्वयोरपि सत्पदयोस्तन्न भवतीत्यक्षरार्थः । भावार्थोऽपि कथित एवेति || ६६४ ||
उक्तशेषस्य सप्तानामवक्तव्य स्थितिवन्वस्य नानाजीवाश्रयान्तरस्य सद्भावात्तज्जघन्योत्कृष्टभेदतो दर्शयन् लाघवार्थं मागणास्थानेष्वतिदिशश्वाह
सत्तण्हं कम्माणं लहू' अवत्तव्वगस्स समयोऽत्थि ।
वासपुहुत्तं जे जहि स भवे तस्स तहि एवं ॥ ६६५ ॥
(प्रे०) “सन्तण्ह' मित्यादि, आयुर्वेर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां "लहु अवत्तव्वगस्स समयोऽत्थि" त्ति अवक्तव्य एव अवक्तव्यकस्तस्याऽवक्तव्यकस्थितिबन्धस्य 'लघु' - जघन्यं नानाजीवाश्रयमन्तरं समयोऽस्ति । "वासपुहुत्तं जेट्ठ" ति तस्यैवावक्तव्यस्थितिबन्धस्य 'ज्येष्ठम् ' - उत्कृष्टमन्तरं वर्षपृथक्त्वं भवति । कथम् ? इति चेद्, अवक्तव्यस्थितिबन्धस्वामिनामुपशमाद्धा भवक्षयेण वा प्रतिपततामन्यान्योपशमकानां समयान्तरेणाऽवक्तव्य स्थितिबन्धकतया लाभसम्भवात्, उपशमकानामुत्कृष्टान्तरस्य वर्षपृथक्त्वतया तदधीनस्योत्कृष्टान्तरस्य तथा लाभाच्चेति ।
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मागणास्त्रायुर्वजानां भूयस्कारादि० ]
भूयस्काराधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ ५०७
“जहि स भवे तस्स तहि एवं" ति आदेशतः 'यत्र' यासु मनुष्यगत्योघादिमार्गणासु स सप्तानामवक्तव्य स्थितिबन्धो 'भवेत् ' -पत्पदद्वारे सन् प्रतिपादितः " तहि" त्ति 'तत्र' वासु मनुष्यौध-पर्याप्तमनुष्य-मानुषी-पञ्चेन्द्रियौध-तत्पर्याप्त-सौध-तत्पर्याप्त-सर्वमनोवचोयोग-काययोगौघौ-दारिककाययोगा-ऽपगतवेद-मति श्रुताऽवधि-मनः पर्यवज्ञान-संयमौघ-चक्षु-रचक्षु-रवधिदर्शन-शुक्ललेश्याभव्य-सम्यक्त्वौष-क्षायिका-पशमिकसम्यक्त्व-संश्याऽऽहारकमार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानां लोभमार्गणायां मोहनीयकर्मणश्च “एवं” ति ओघवद्, अवक्तव्यस्थितिबन्धस्य जघन्यमन्तरं समयः, उत्कृष्टं वर्ष पृथक्त्वं चेत्यर्थः । जघन्योत्कृष्टद्विविधमपि प्रस्तुतान्तरं सुगमम् मनुष्यौघादिमार्गणास्थानेष्वप्योघवदुपशान्ताद्वाक्षयादिना प्रतिपततामेवाऽवक्तव्य स्थितिबन्धस्वामित्वादिति || ६६५।।
तदेवमोघतः सप्तप्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धस्यैव नानाजीवाश्रयान्तरस्य सम्भवाद्दर्शितं तत्, लाघवार्थमतिदेशेनादेशतोऽपि च । साम्प्रतमुक्तशेषपदानां तदादेशतो दिदर्शयिपुरार्यापञ्चकमाहसतह जासु कालो भूगाराईण तिन्ह सव्वद्धा । णो तासु अंतरं सिं सेसासु भवे लहूं समयो ॥ ६६६॥ पल्लासंखियभागो अपज्जणर - मीस सासणेसु गुरु । araमीसजोगे बोद्धव्वं बारह मुहुत्ता ||६६७॥ आहारदुगे णेयं वासपुहुतं अवेअ- सुहुमेसु । भूओगारस्स वरिसपुहुत्तमियराण छम्मासा ॥६६८ ॥ भूगाराईणं तिहं जलहीण कोडिकोडीओ । अट्ठारस विष्णेयं परिहारविसुद्धि-छेएस ॥६६९॥ सत्त दिवसा उवसमे तिपयाणऽत्थि दुपयाण सेसासु । भिन्नमुहुत्तं सव्वह आउस्स अगुरुठिइव्व दुपयाणं ||६७०॥
(प्रे०) "सत्तण्हे" त्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां यासु तिर्यग्गत्योघादिमार्गणा " कालो भूगाराईण तिन्ह सव्वाडा" त्ति शेषाणां भूयस्कारा - ऽल्पतरा - ऽवस्थितस्थितिबन्धलक्षणानां त्रयाणां पदानां "कालो" नानाजीवाश्रयः कालोऽनन्तरद्वारे सर्वाद्धा प्रतिपादित इत्यर्थः। "णो तासु अंतरं सिं" ति तासु तिर्यग्गत्योघादिचतुःषष्टिमार्गणासु “सिं” ति भूयस्कारा - ऽल्पतरलक्षणयोर्द्वयोः स्थितिबन्धयोः, तथाऽपर्याप्तमनुष्यादिसान्तरमार्गणावर्जासु निरयगत्योघाद्येकोनषष्ट्यभ्यधिकशतमार्गणास्ववस्थितस्थितिबन्धस्य नानाजीवाश्रयमन्तरं न भवतीत्यर्थः । नानाजीवाश्रयकालद्वारेऽमीषां पदानां सर्वाद्धोपपादनेनैव गतार्थमिदमिति । उक्तशेषमार्गणासु पदत्रयस्याऽपि प्रस्तुतान्तरस्य सम्भवात्तज्जघन्यादिभेदेनाह - "सेसासु" इत्यादि, “सि” मितिपदमत्राऽपि
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५०८]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारादिस्थिति० सम्बध्यते, तत उक्तशेषासु निरयगत्योघादिषडुत्तरशतमार्गणासु "सिं” ति सप्तानां भूयस्काराऽल्पतरस्थितिबन्धलक्षणयोर्दयोः पदयोस्तथाऽपर्याप्तमनुष्यायेकादशमार्गणास्ववस्थितबन्धस्य"भवे लहु समयो” ति 'लघु-जघन्यं नानाजीवाश्रयमन्तरं समयो भवेत् । सगमम् ।
एतदेवोत्कृष्टतः प्राह--"पल्लासंखियभागो" इत्यादि, 'भगाराईण तिण्ह' इत्येतावत्पूर्वगाथातोऽनुवर्तते, ततो भूयस्कारादित्रिविवस्थितिबन्धस्य प्रत्येकमपर्याप्तमनुष्य-सम्यग्मिथ्यात्व-सास्वादनलक्षणमार्गणात्रये "गुरु" ति नानाजीवाश्रयमुत्कृष्टमन्तरं पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणं भवति । वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणास्थाने तु तत् 'बोडव्वं बारस मुहुत्ता" ति द्वादशमुहूर्ता बोद्धव्यम् । "आहार दुगे" त्ति आहारक-तन्मिश्रकागयोगमार्गणाद्वयलक्षण आहारकद्विक पुनस्तद्भयस्कारादित्रिविधस्थितिबन्धानां नानाजीवाश्रयमुत्कृष्टमन्तरं “णेयं वासपुहत्तं" ति वर्षपृथक्त्वं ज्ञेयं भवति । अपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणयोस्तु "भूओगारस्स वरिसपुहुतं" ति सप्तानां प्रकृतीनां भयस्कारलक्षणस्यैकविधस्थितिबन्धस्य प्रस्तुतोत्कृष्टान्तरं वर्षपथक्त्वं ज्ञेयम् , न वल्पतरा-ऽवस्थितलक्षणयोः स्थितिबन्धयोरपीति भावः । तर्हि तयोः कियद्भवतीत्याह--"इयराण छम्मासा" ति अवक्तव्यान्तरस्य पूर्वमतिदिष्टत्वाद् , भयस्कारान्तरस्यानुपदमेवाऽभिहितत्वाच्चाऽवक्तव्य-भूयस्कारेतरयोरल्पतरा-ऽवस्थितस्थितिबन्धयो प्रत्येकं पण्मासा भवति, न पुनभू यस्कारान्तरवद्वर्षपृथक्त्वम् , मार्गणाद्वयेऽप्युपशमकानामेव भूपस्कारस्थितिबन्धस्वामित्वात् , तेषां चारित्रमोहोपशमकानामुत्कृष्टान्तरस्य वर्षपथक्त्वाच्च । उक्तश्च जीवसमासे-'वासपुहुत्तमुवसामएसु' इति ।
शेषपदद्वयस्य तु न केवला उपशमका एव स्वामिनः, किन्तु क्षपका अपि, क्षपकाणां तूत्कृप्टान्तरं पण्मासा एव । उक्तञ्चैतदपि जीवसमासे-खबगेसु छम्मासा' इति । इत्थं च तदधीनं प्रस्तुतान्तरमपि पण्मासा एव भवतीति तथैव दर्शयन्नाह-"इयराण छम्मासा" इति । गतार्थम् , केवलम् "इयराण" ति उक्ततरथोरल्पतरा-ऽवस्थितस्थितिबन्धलक्षगयोयोः पदयोरिति । "भूओगाराइण"मित्यादि,परिहारविशुद्धिकसंयमे छेदोपस्थापनसंयमे चेत्येवं मार्गणाद्वयेऽवक्तव्यस्याऽसत्पदत्वाच्छेषाणां भूयस्कारादीनां त्रयाणामपि स्थितिबन्धसत्पदानां प्रस्तुतनानाजीवाश्रयोत्कृष्टान्तरं “जलहीण कोडिकोडीओ" ति 'जलधीनां -सागरोपमाणां कोटिकोटयोऽष्टादश विज्ञेयमिति। "सत्त दिवसा उवसमें" ति सप्त 'दिवसाः'-वासरा औपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां "तिपयाण" त्ति अबक्तव्यस्थितिबन्धप्रस्तुतान्तरस्य 'जहि स भवे तस्स तहिं एवं' (गाथा-६६५) इत्यनेनातिदियत्वाच्छेषाणां भूयस्कारादीनां त्रिविधस्थितिवन्धपदानामित्यर्थः । एतास्वपर्याप्तमनुष्यायेकादशसान्तरमार्गणामु प्रस्तुतान्तरं सर्वथा द्वितीयाधिकारनानाजीवाश्रयान्तरद्वारोक्तज्ञानावरणाद्यनुत्कृष्टस्थितिवन्धोत्कृष्टान्तरवत् तत्तदपर्याप्तमनुष्यादिमार्गणानामुत्कृष्टान्तरस्य पल्योपमाऽसंख्येयभागादिप्रमाणत्वात्साध्यम् । यः पुनरपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणयो यस्कारोत्कृष्टान्तरविषये विशेषः, स तूपशमकानामेव तद्वन्धकत्वात्साधित एवेति ।
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मार्गणास्त्रायुषोऽल्पतरस्थितिबन्धादि० ] भूयस्काराधिकारेऽन्तरद्वारम्
1
“दुपयाण सेसासु भिन्नमुहुत्तं" ति भूयस्काराऽल्पतरलक्षणद्विविधस्थितिबन्धसत्पदयोः प्रस्तुतान्तरस्यासंख्यलोक-तदधिकवन्धकपरिमाणासु तिर्यग्गत्योघादिचतुःषष्टिमार्गणासु प्रतिषिद्धत्वात् तास्तिर्यग्गत्योघादिचतुःषष्टिमार्गणास्तथाऽपर्याप्तमनुष्याद्येकादशसान्तरमार्गणासु प्रस्तु तान्तरस्याभिहितत्वाता एकादशमार्गणा विहाय शेषासु निरयगत्योघादिपञ्चनवतिमार्गणासु प्रस्तुतान्तरं 'भिन्नमुहूर्तम्' अन्तर्मुहूर्त भवति । गतार्थम् । केवलं शेषमार्गणा इमाः - सर्वे निरयगतिभेदाः सर्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, मनुष्यौघ तत्पर्याप्त मानुषीमार्गणाः सर्वे विकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदाः, पर्याप्तवादरपृथिव्यप्तेजोवायु-पर्याप्तप्रत्येक वनस्पति सर्वत्र काय भेदाः सर्वे मनोवचोयोगभेदाः, वैक्रियकाययोगः, स्त्री-पुरुषवेदौ, मत्यादिज्ञान चतुष्कम्, विभङ्गवानम्, संयमीव-सामायिकसंयम- देशसंयमाः, चक्षुर्दर्शना-यधिदर्शने, शुभलेश्यात्रयम्, सम्यक्त्वाघ - क्षायिक सम्यक्त्व- क्षायोपशमिकसम्यक्त्वानि संज्ञिमार्गणास्थानञ्चेति ।
"
,
तदेवं प्रतिपादितं सर्वमार्गणासु भूयस्कारादित्रिविवस्थितिबन्धस्याऽपि नानाजीवाश्रयमन्तरं द्विधा । साम्प्रतमायुषोऽल्पतरा ऽवक्तव्यस्थितिबन्ध सत्पदयोस्तद्विभणिपुरतिदेशेनाह - " सव्वह आउस्से" त्यादि, अत्रैव स्थितिबन्धग्रन्थे द्वितीयाधिकारनानाजीवाश्रितान्तरद्वारे'जहि सम्बद्धा कालोऽणुकोसटिई आउगस्स भवे । तहि तीअ अंतरं णो सेसामु भवे लहुं समयो ॥ पचिदियतिरिय-विंगल-पििदय-तसेसु सिं अपज्जेसु । भिन्नमुहुत्तं जेट्ठ' अण्णह णाउण णेयव्वं ॥४२६ ||' इति गाथायेनाऽयुषोऽनुत्कृष्टस्थितेर्यन्धकानां जघन्यत उत्कृष्टतश्च यावत्समयादिकमन्तरं प्रतिपादितं तावत् "दुपयाणं" ति आयुषोऽवक्तव्याऽल्पतरस्थितिबन्धलक्षणोद्वयोः सत्पदयोः प्रत्येकमपि जघन्यत उत्कृष्टतश्च विज्ञेयम् ।
[ ५०९
,
"
कथमनुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरवदतिदिष्टम् ? इति चेद् उच्यते, यथाऽयुषः प्रकृतिवन्धाभावे न भवति तस्याऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धः, प्रकृतिबन्धसद्भावे तु प्रतिप्रकृतिबन्धमसावायुपोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धो भवत्येव ततश्च प्रागायुषोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरं तदीयप्रकृतिबन्धान्तरवत्तत्र तत्र सर्वाद्धासमया-ऽन्तर्मुहूर्तादिप्रमाणं प्रतिपादितं तथैवाऽऽयुषः प्रकृतिवन्धाभावे न भवति प्रस्तुतद्विविधस्थितिबन्धोऽपि प्रकृतिबन्धसद्भावे तु प्रतिप्रकृतिबन्धमसौ द्विविधोऽपि स्थितिबन्धः प्रवर्तत एवेत्येवमायुषोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरयदायुषोऽल्पतरा --ऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोरपि नानाजीवाश्रयं प्रस्तुतान्तरं प्रकृतिबन्धवदुत्पद्यते, ततचतत्प्रकृतिबन्धान्तरवक्तव्यं भवति, यद्यप्येवं तथाऽपि प्रकृतिबन्धनानाजीवाश्रयान्तरस्य दूरेण प्ररूपितत्वात् तदुपेक्ष्यानुत्कृष्टस्थितिबन्धनानाजीवाश्रयान्तरस्यात्रैव मूलप्रकृतिस्थितिबन्धेऽनन्तरे द्वितीयाधिकारे प्रतिपादितत्वेन संनिकृष्टत्वादायुषोऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धनानाजीवाश्रयान्तरवदति दिष्टमिति । विशेषोपपच्यर्थं त्वनुत्कृष्टस्थितिबन्धनानाजीवाश्रयान्तरविवृतिविलोकनीयेति ।। ६६६-...६७०।।
तदेवं प्ररूपितमायुषोऽल्पतरा ऽवक्तव्य द्विविधस्थितिबन्धसत्पदयोरपि नानाजीवाश्रयमन्तरमतिदेशद्वारेणैव । तस्मिँश्च प्ररूपिते समाप्तमेकादशं नानाजीवाश्रयमन्तरद्वारम् ||
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५१० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ ओघादेशतो भूयस्कारादिस्थितिबन्धे भावः । अष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकानां नानाजीवाश्रया-ऽन्तरप्रदर्शक यन्त्रकम् आयुर्व नसतमूलप्रकृतीनां प्रत्येकम्
प्रायुषः । भूयस्कारस्थिति- | अल्पतरस्थिति- | अवस्थितस्थिति-|
अवक्तव्यबन्धस्य बन्धस्य
बन्धस्य
स्थितिजघन्यं। उत्कृष्टम् | जघन्य। उत्कृष्टम् जघन्य। उत्कृष्टम् बन्धस्य अपर्याप्तमनुष्य-सास्वादन- पल्योपमस्या- पल्योपमस्या- पल्योपमस्यामिश्रदृष्टिरूपमार्गणात्रये--
समय: संख्यभागः संख्यभागः
समय:
संख्यभाग:
कुत्र?
समय
वैक्रियमिश्रकाययोगे
ना
'
१२ मुहूर्ताः
आहारक-तन्मिश्रकाययोगयो:
| वर्षपृथक्त्वम् | , वर्षपृथक्त्वम् | , | वर्षपृथक्त्वम्
गतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयमयो:
प्रोतः सर्वमार्गणास्थानेषु चाऽल्पतरा-ऽवक्तव्यद्विविधस पदयो: सर्वथा नानाजीवाश्रिता ऽनुत्कृष्टस्थितिबन्धान्तरवत् ।
षण्मासाः
.षण्मासाः
प्रोघतो यत्र सन् तत्र सर्वमार्गणास्थानेषु च जघन्यं समयः, उत्कृष्टमन्तमुहूर्तम् ।
औपशमिकसम्यक्त्वे
सप्त दिनानि
, सप्त दिनानि |, सप्त दिनानि
छेदोपस्थापन-परिहार-. १८ कोटाकोटी १८ कोटाकोटी १८ कोटाकोटि विशुद्धिकयो:
|"सागरोपमाणि " सागरोपमाणि " सागरोपमाणि प्रोघतोऽसंख्यलोक-तदधिकबन्धकपरिमाणासु
सर्वाद्धा सर्वाद्धा
सर्वाद्धा मार्गरणासु चउपर्युक्तशेषासु मार्गणासुन , अन्तर्मुहूर्तम् | , अन्तर्मुहूर्तम् | ,, । अन्तर्मुहूर्तम् |
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीये भूयस्काराधिकार एकादशं नानाजीवाश्रयमन्तरद्वारं समातम् ।।
॥ अथ द्वादशं भावद्वारम् ॥ एतर्हि भावद्वारस्यावसरः । तत्रोत्कृष्टादिस्थितिबन्धवन्मूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धोऽप्यौपशमिकादिभावानां मध्ये केन भावेन जायत इत्येतत्प्रदिदर्शयिषुरेकामार्यामाह
भावेणोदइएणं भूगाराईण अट्ठकम्माणं । बंधो एवं सव्वह सकम्माण सपयाणं ॥६७१॥
.
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ओघादेशतो भूयस्कारादिस्थितिबन्धे भावः ] भूयस्काराधिकारे भावद्वारम्
[ ५११ (प्रे०) "भावेणे" त्यादि, ओघतः सर्वमार्गणास्थानेषु च बन्धप्रायोग्यानां ज्ञानावरणादीनामष्टानामपि मूलप्रकृतीनामन्यतमस्याः प्रकृतेभूयस्कारादीनां सर्वेषां स्थितिवन्धसत्पदानां बन्ध उत्कृष्टादिस्थितिवन्धवदौदयिकेन भावेन भवतीति गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु द्वितीयाधिकारभावद्वार उत्कृष्टादिस्थितिबन्धविशेषाणां कषायोदयलक्षणोदयिकभावप्रत्ययत्वसाधनेनैव गतार्थः ।
न च भूयस्कारस्थितिबन्धस्य समयाद्यधिकस्थितिबन्धरूपत्वाद्भवतु तत्र कपायोदयरूप औदयिकभावो हेतुः, अल्पतरस्थितिवन्धेऽपि कथमसौ युज्येत, तस्य समयादिहीनस्थितिबन्धरूपत्वेन तत्र तावत्कायोदयहानेरेव हेतुतया युज्यमानत्वात्, तस्याश्च तावत्कपायोदयाभावलक्षणायाः कषायोदयप्रतिपक्षत्वेन कपायोदयरूपोदयिकभाववहिस्त्वात् ? इति चेद , न, अल्पतरस्थितिबन्धे पूर्वसमयापेक्षया हीनस्थितिबन्धभावेऽपि नासौ स्थितिबन्धहानलक्षणस्थितिबन्धाभावरूपः, किन्तु समयादिस्थितिवन्धहान्योत्तरसमयजायमानस्थितिवन्धरूप एव, अन्यथा सूक्ष्म सम्परायचरमस्थितिवन्धे ज्ञानावरणादीनामन्तमुहर्तादिस्थितिबन्धात्तदुत्तरसमय उपशान्तमोहगुणस्थाने स्थितेरबन्धं कुर्वतां स्थितिबन्धाभावप्रवृत्या स्थितिबन्धहानेः सम्पद्यमानत्वात्तेपामप्यल्पतरस्थितिबन्धस्वामित्वं स्यात् , न च तद्भवति, तेषामुपशान्तमोहगुणस्थानप्रथमसमयवर्तिनां तत्र पूर्वसमयजायमानान्तमुहर्तादिस्थितिबन्धस्य सर्वथा हानेरपि स्थितिबन्धस्यैव सर्वथाऽप्रवर्तनेनाऽसंख्येयानां स्थितिबन्धस्थानानां मध्ये स्थितिबन्धहान्याऽन्यतमस्थितिबन्धस्थाननिर्वर्तनलक्षणस्याऽल्पतरस्थितिबन्धस्याऽयुज्यमानत्वात् । न च सूक्ष्मसम्परायचरमस्थितिबन्धादबन्धं कुर्वतां पूर्वसमयबध्यमानस्थितेर्हानिसम्भवेऽपि तत्र तेपां ज्ञानावरणादिप्रकृतीनामेव बन्धाभावेन न विद्यते तेषां ज्ञानावरणादेरल्पतरस्थितिबन्धस्तदभावेऽल्पतरस्थितिबन्धस्वामित्वञ्च, सति प्रकृतिवन्धं तस्याभिमतत्वादित्यपि वाच्यम् । यतस्तथात्वेऽपि उपशान्तमोहगुणस्थाने वेदनीयवन्धस्य सर्वसम्मतत्वेन वेदनीयस्य तु तदापयेतैव । इत्येवमल्पतरस्थितिबन्धो न स्थितिबन्धहानिरूप एव, किन्तु पूर्वसमयादनन्तरोत्तरसमये स्थितिबन्धहान्या बध्यमानान्यतमस्थितिबन्धस्थानरूपः । स च कषायोदयाभावे न लभ्यत इत्यतो भूयस्कारादिस्थितिबन्धवदल्पतरस्थितिवन्धेऽप्योदयिकभावहेतुर्भवत्येव । इत्येवमल्पतरस्थितिबन्धेऽपि कषायोदयलक्षणोदयिकभाव एव हेतुतया युज्यत इत्यलं प्रपञ्चितेनेति ॥६७१।।
तदेवं दर्शितमोघत आदेशतश्चाष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धा अप्युत्कृष्टादिस्थितिबन्धवदोपशमिकादिभावानां मध्ये औदयिकेन भावेन जायन्त इति । तस्मिँश्च दर्शिते गतं भावद्वारम् ।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीये भूयस्काराधिकारे द्वादशं भावद्वारं समाप्तम् ।।
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॥ अथ त्रयोदशमल्पबहुत्वद्वारम् ॥ साम्प्रतं "अप्पबहुग"मित्यनेनोद्दिष्टे चरमेऽल्पवहुत्वद्वारे मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टपदगतानां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकानामल्पवहुत्वं जिज्ञापयिपुरादौ तावदोघत आह
सत्ताह बंधगाऽप्पाऽवत्तबस्स उ तओ अणंतगुणा। अप्पयरगस्स ताओ भूओगारस्म अब्भहिआ ॥६७२॥ तोऽवडिअस्स णेया अमंखियगुणाऽऽउगस्स णायव्वा ।
थोवाऽवत्तव्वस्स उ अप्पयरस्स य तओ असंखगुणा ॥६७३॥ (गतिः) (प्रे०) "सत्ताह बंधगा" इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकं "बंधगाऽप्पाऽवत्तव्वस्स" त्ति अवक्तव्यलक्षणस्थितिबन्धस्य 'बन्धका:'-निर्वतका 'अल्पाः'-स्तोका इत्यर्थः । अनन्तरवक्ष्यमाणपदापेक्षयेति तु गम्यत एव । कुतः स्तोकाः ? उपशान्तमोहगुणस्थानादिभाव्यवन्धादुत्तीय वन्धप्रारम्भकानां स्तोकानामेव लाभात् । एवमेव वक्ष्यमाणमार्गगास्थानेष्यप्यवक्तव्यबन्धकानां स्तोकत्वं भावनीयमिति । तुः पादपूरणे । “तओ अणंतगुणा" ति 'ततः'-अनन्तरोक्तेभ्यो ज्ञानावरणादेवर, न्यस्थितिबन्धकेभ्योऽनन्तगुणाः । करय बन्धका इत्याह-"अप्पयरस्स" त्ति अल्पतरस्थितिबन्धस्ये यर्थः । सप्तप्रकृतीनामिति त्वनुवर्तते । कुतोऽनन्तगुणाः ? अल्पतरस्थितेबन्धकतयैकेन्द्रियादीनामपि लाभात् , तेषां च सर्वमनुष्यापेक्षयाऽप्यनन्तगुणत्वादिति । “ताओ भूओगारस्स अभहिआ" त्ति तेभ्योऽनन्तरोक्ताल्पतरस्थितिवन्धकेभ्यः सप्तानामेव भूयस्कारस्थितिबन्धस्य बन्धका 'अभ्यधिकाः'-विशेषात इत्यर्थः । कुतः ? उच्यते, पूर्वापेक्षया समयाधिकसञ्चितानां बन्धकानामेकसमये भूयस्कारबन्धकतया लाभात् । इदमुक्तं भवति-प्रागुक्ता अल्पतरस्थितिबन्धका उत्कृष्टतोऽपि त्रिसमयसञ्चिता एव लभ्यन्ते । कुतः ? ओघत एकजीवस्योत्कृष्टतो निरन्तरं त्रिसमयान यावदल्पतरवन्धस्य सन्मवात् । सप्तानामेकजीवाश्रयस्य भूयरकारस्थितिवन्धस्योघिकोत्कृष्टकालस्य चतुःसमग्रमाणत्वेन भूपस्कारवन्धकास्तु चतुःसमयसञ्चिता अपि प्राप्यन्ते । एवं हि सदृशानां तुल्यपरिमाणानां सूक्ष्मैकेन्द्रियादीनां भूयस्काराऽल्पतरवन्धद्वयाहेत्वेऽप्यल्पतरस्थितिवन्धकेभ्यः सप्तानां भूयस्कारस्थितिवन्धकाः समयाधिकसश्चिता इतिकृत्वा विशेषाधिका भवन्तीति । "तोऽवटिअस्स या असंखियगुणा” त्ति तेभ्यः सप्तानां भूयस्कारस्थितिबन्धकेभ्योऽवस्थितस्थितिववस्वाऽसंख्येवगुणा ज्ञेयाः, बन्धका इत्यनुवर्तत इति । अत्रापि पूर्ववत्प्रस्तुतबन्धस्य सदृशस्वामिकत्वे सत्येकजीवाश्रयतद्वन्धकालभ्योत्कृष्टतो भूयस्कारबन्धकालादसंख्यगुणाधिकभावाद् बन्धकसञ्चयोऽप्यसंख्यगुणः सम्पद्यत इति ज्ञेयम् । उक्तमायुर्वर्जसप्तानां प्रत्येकं भूयस्कारादेवन्ध
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मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारादिस्थिति० ] भूयस्काराधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ५१३ कानामल्पबहुत्वम् । साम्प्रतमुक्तशेषस्याऽऽयुषो द्विविधबन्धकानां तदर्शयन्नाह-"उग्गस्स णायव्वा" इत्यादि, तत्र विश्लेशप्राप्तस्याऽऽकारस्य दर्शनादायुषः "थोवाऽवत्तव्वस्स उ” त्ति अवक्तव्यस्थितिबन्धस्य स्तोका ज्ञातव्याः, बन्धका इत्यनुवर्तते, अनन्तरवक्ष्यमाणाल्पतरस्थितिबन्धकेभ्य इति गम्यत एव । "अप्पयरस्स य तओ असंखगुणा" ति तेभ्य आयुषोऽवक्तव्यस्थितिबन्धकम्य आयुष एवाल्पतरस्थितिबन्धस्य निर्वतका असंख्यगुणाः, ज्ञातव्या इत्यनुवर्तते । सुगमम् , यत आयुषोऽवक्तव्या-ऽल्पतरस्थितिबन्धयोः सदृशस्वामिकत्वेऽप्युत्कृष्टपदेऽल्पतरस्थितिबन्धसत्कैकजीवाश्रयकाल एकजीवाश्रयाऽवक्तव्यस्थितिबन्धोत्कृष्टकालापेक्षयाऽसंख्येयगुणो भवति, तथा च सनि बन्धकसञ्चयोऽप्यसंख्यगुणः प्राप्यत इति ॥६७२-६७३॥ ___तदेवमुक्तमष्टानामपि मूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिबन्धकानामल्पबहुत्वमोघतः । साम्प्रतं तदेवादेशतो मार्गणास्थानेष्वभिधित्सुरादौ तावत्सप्तप्रकृतीनामाह
तिरिय-अपज्जतसेसुणसगम्मि य कसायचउगम्मि । अण्णाणदुगे अयते तिअसुहलेस-भवि-मिच्छेसु ॥६७४॥ सव्वप्पाऽप्पयरस्स उ सत्तण्ह तओ विसेसओऽभहिआ। भूओगारस्स तओ अवडिअस्स उ असंखगुणा ॥६७५॥ णवरं लोहे थोवाऽवत्तव्वस्स उ हवन्ति मोहस्स ।
तत्तो अणंतगुणिआऽप्पयरस्स तओ उ पुबब्व ॥६७६॥ (प्रे०) "तिरियअपज्जतसेंसु” इत्यादि, तिर्यग्गत्योघा-ऽपर्याप्तत्रसमार्गणयोर्नपुंसकवेदमार्गणायाम् । चः पादपूत्यै । क्रोधादिकषायमार्गणाचतुष्के । चः प्राग्वत् । मत्यज्ञानश्रुताज्ञानात्मकयोईयोरज्ञानमार्गणयोः, असंयमे, त्रिकृष्णाघशुभलेश्या--ऽभव्य-मिथ्यात्वमार्गणास्वित्येवमेतासु पञ्चदशमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । एतासु प्रत्येकं किमित्याह-"सव्वप्पा” इत्यादि, "सत्तण्ह" त्ति आयुर्वानां सप्तानां प्रत्येकं "सव्वप्पाऽप्पयरस्स" त्ति अल्पतरस्थितिबन्धस्य 'सर्वाल्पाः'सर्वस्तोकाः, बन्धका इति गम्यते । “तओ"त्ति तेभ्यः "विशेषओऽभहिया भूओगारस्स" ति सप्तानां प्रत्येकं भूयस्कारस्थितिबन्धस्य 'विशेषतोऽभ्यधिकाः'-विशेषाधिका इत्यर्थः । बन्धका इति पूर्ववत् । एवमुत्तरत्रापि बोध्यम् । “तओ अवडिअस्स उ असंखगुणा" ति तेभ्योऽनन्तरोक्तभ्योऽवस्थितस्थितिबन्धस्याऽसंख्यगुणा बन्धका इति । एतासु प्रत्येकं प्रस्तुताल्पबहुत्वमोघवदेव भावनीयम्, केवलं तौधिकाल्पबहुत्वे सप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धोऽप्यासीत्, न चासावत्र सामान्यतः कासुचिदपि मार्गणासु लभ्यते, अतः प्रथमं स्थानं विहाय शेषभावना कर्तव्या । विशेपतस्तु लोभमार्गणायां मोहनीयकर्मणोऽवक्तव्यस्थितिबन्धसद्भावात्तस्यां सर्वथैवौघवद् द्रष्टव्यम्,
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५१४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइवो [ मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारादिस्थिति०
एतदेव दर्शयितुमपवादपदमाह - "णवर" मित्यादिना, तदर्थस्त्वयम् - परं लोभमार्गणायां मोहनीयस्यावक्तव्यवन्धसद्भावात् सर्वस्तोका मोहनीयस्याऽवक्तव्यस्थितिबन्धका भवन्ति, तेभ्योऽनन्तगुणा अल्पतरस्य बन्धकाः, तेभ्यो भूयस्कारस्य विशेषाधिका बन्धकाः, तेभ्यश्वावस्थितस्य बन्धका असंख्यगुणा इति । उपपत्तिस्त्वत्र सर्वथैवौघवद् द्रष्टव्येति ॥ ६७४-६७५-६७६॥
अथान्यत्राह -
मणुस-दुपणिंदियेसु पंचमणवयण- तिणाण-ओहीसु । सुइलाए सम्मत्ते खड्अ - उवसमेसु सम्मि ||६७७॥ थोवाऽवत्तव्वस्स उ तत्तो दोन्ह हविरे असंखगुणा । भूगाराईण तओ अवट्टिअस्स य असंखगुणा ||६७८॥
(प्रे०) “मणुसे" त्यादि, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपच्त्याऽत्र 'दुपणिंदियेसु" इत्यनेनापर्याप्तभेदव द्वौ पञ्चेन्द्रियभेदौ ग्राह्यौ, ततो मनुष्यगत्योघ-पञ्चेन्द्रियौध-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियमार्गणासु, तथा पञ्चमनोयोग-पञ्चवचनयोग-मत्यादिविज्ञाना ऽवधिदर्शनमार्गणासु शुक्ललेश्या मार्गणायां, सम्यक्त्वौघमार्गणायां, क्षायिक सम्यक्त्वौ- पशमिकसम्यक्त्वमार्गणयोः संज्ञिमार्गणायां चेत्येतासु द्वाविंशतिमार्गणासु प्रत्येकं "थोवाऽवत्तव्वस्स उ” इत्यादि, सप्तप्रकृतीनां प्रत्येकमवक्तव्यस्थितिबन्धकाः स्तोकाः, तेभ्यो भूयस्कारा ऽल्पतरस्थितिबन्धलक्षणयोर्द्वयोः प्रत्येकं बन्धकाः “हविरे असंखगुणा" ति असंख्येयगुणा भवन्ति, परस्परं तु तुल्या इति । कथं तुल्याः ? इति चेत्, प्रत्येक मार्गणात्कृष्टपदे तुल्यसमयसञ्चितानां प्रस्तुतद्विविधबन्धकानां लाभात्, येषामेव भूयस्कारबन्धार्हत्वं तेषामेवाल्पतरबन्धार्हत्वाच्च । एवमुत्तरत्राऽपि तत्तद्वन्धकानां परस्परं तुल्यत्वेऽवसातव्यम् । अत एव पदद्वये युगपदसंख्येयगुणत्वाभिधानमपि प्राग्वद् विज्ञेयम् । तेभ्योऽनन्तरोक्तेभ्यो भूयस्काराल्पतरान्यतरबन्धकेभ्योऽवस्थितस्थितिबन्धस्याऽसंख्येयगुणाः, बन्धका इति गम्यते । सुगमम्, अवस्थितस्यैकजीवाश्रयोत्कृष्टबन्धकालस्य पूर्वापेक्षयाऽसंख्येयगुणत्वादिति ॥ ६७७-६७८।।
मार्गणान्तरेष्वाह
पज्जमणुस - मणुसीस मणपज्जवणाण- संयमेसु च । सत्तण्हं सव्वऽप्पाऽवत्तव्वस्स उ मुणेयव्वा ॥ ६७९॥ तत्तो संखेज्जगुणा भूगाराईण दोण्ह णायव्वा । ताहिन्तो संखगुणा अवट्टिअस्स उ मुणेयव्वा ॥ ६८०॥
(प्रे०) "पज्जमणु से "त्यादि, पर्याप्तमनुष्य मानुषी मार्गणयोः, मनः पर्यवज्ञान-संयमौघमार्गणयोश्च प्रत्येकं सप्तानां मूलप्रकृतीनामेकैकस्या अवक्तव्य स्थितिबन्धस्य निर्वर्तकाः । सर्वाल्पा
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मार्गणास्वायुर्वर्जानां भूयस्कारादिस्थिति०] भूयस्काराधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ५१५ ज्ञातव्याः। तेभ्यः संख्येयगुणाः "भूगाराईण दोण्ह णायव्वा" ति भूयस्काराऽल्पतरयोयोः स्थितिबन्धयोः प्रत्येकं ज्ञातव्याः, परस्परन्तु प्रागिव तुल्याः । इयमत्रोपपत्तिः-अधिकृतमार्गणाचतुष्के सप्तानां भूयस्कारा-ऽल्पतरस्थितिबन्धयोरेकजीवाश्रय उत्कृष्टकालो द्वौ द्वौ समयावेव, अन्यच्च सदृशजीवा द्विविधान्धसमर्थाः । तथा च सत्युभयत्र तुल्यसमयनिचितानां तुल्यानामेव बन्धकानां लाभः, ते चोत्कृष्टपदे परस्परं तुल्यपरिमाणाः सन्तोऽपि प्रत्येकं पूर्वोक्तभ्योऽवक्तव्यबन्धकेभ्यः संख्येयगुणा भवन्ति, अवक्तव्यबन्धस्य केषांचित्स्तोकजीवानां कदाचित्समयमेव भावात् । "ताहिन्तो" ति तेभ्यो भूयस्कारा-ऽल्पतरेकविधवन्धकेभ्यः “संखगुणा अवडिअस्स उ मुणेयव्वा" त्ति सप्तानामवस्थितस्थितिबन्धस्य बन्धकाः संख्येयगुणाः ज्ञातव्या इत्यर्थः । अस्यैकजीवाश्रयोत्कृष्टबन्धकालस्य पूर्वापेक्षयाऽसंख्यगुणत्वेऽपि मार्गणागतजीवराशीनामेव संख्येयत्वात् संख्येयगुणत्वस्यैव सम्भवः, न पुनरसंख्येयगुणत्वस्येति भावः ॥६७९-६८०॥
तसद्ग-काय-णयणियर-भविया-ऽऽहारेसु हुन्ति ओघव्व ।
वरि दुतस-चक्खूसुअप्पयरस्स उ असंखगुणा ॥६८१॥ (०) "तसदुगकाये"त्यादि, अपर्याप्तत्रसकायमार्गणायां प्रागभिहितत्वेन तद्वर्जी शेषौ त्रसकायौघ-पर्याप्तत्रसकायरूपौ द्वौ भेदौ, काययोगसामान्य-चक्षुर्दर्शना-चक्षुर्दर्शन-भव्या-ऽऽहारिमार्गणाभेदाश्च तेषु प्रत्येकं “हुन्ति ओघव्व" ति प्रकृताल्पबहुत्वमोघवद्भवति । तद्यथा-सप्तानां प्रत्येकमवक्तव्यस्थितिबन्धकाः सर्वस्तोकाः,ततोऽल्पतरस्थितिबन्धका अनन्तगुणाः,तेभ्यो भयस्कारस्थितिबन्धका विशेषाधिकाः,ततोऽवस्थितस्थितिबन्धका असंख्यगुणा भवन्तीत्यर्थः । इत्थमतिदिष्टे याऽतिप्रसक्तिस्तामुदिधीर्षुराह-"णवरि" इत्यादिना, 'नवरं'-परमयमत्र विशेषः । क इत्याह-“दुतस" इत्यादि। अयम्भावः-त्रसकायोध-पर्याप्तत्रसकायलक्षणयोईयोस्त्रसकायभेदयोश्चक्षुर्दर्शनमार्गणायां च प्रत्येकं जीवा असंख्येया एव सन्ति, न पुनः शेषकाययोगादिमार्गणावदनन्ताः, तथा च सति द्वितीयपदेऽल्पतरबन्धकानामोघवदनन्तगुणत्वस्याऽसम्भव एव, अतस्तत्स्थानेऽल्पतरस्थितिबन्धका अवक्तव्यस्थितिबन्धकेभ्योऽसंख्यगुणा वक्तव्याः, तवं त्वतिदेशानुसारेणीघवदेवेति ॥६८१॥
उरले अवत्तव्वस्स उ थोवा तत्तो य दोण्हऽणंतगुणा।
भूगाराईण तओ अवडिअस्स उ असंखगुणा ॥६८२॥ (प्रे०) "उरलेऽवत्तव्वस्से'इत्यादि, तत्र तुः पुनरर्थे 'उरले' इत्यस्योत्तरं योज्यः, ततः "उरले” त्ति औदारिककाययोगमार्गणायां पुनः सप्तप्रकृतीनां प्रत्येकमवक्तव्यस्थितिबन्धस्य 'स्तोकाः'-सर्वाल्पाः, बन्धका इति गम्यते । ततश्च "भूओगाराईण” ति बहुवचनं प्राकृतलक्षणादादिपदाच्चाल्पतरस्थितिबन्धो गृह्यते, अतो भूयस्काराऽल्पतरस्थितिबन्धलक्षणयोर्द्वयोरनन्तगुणाः, बन्धका इति प्राग्वत् , सममेवानन्तगुणत्वाभिधानात्तयोः परस्परं तुल्यत्वमपि प्राग्वद् बोद्धव्यम् ।
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५१६ ]
बंधविहाणे मूलपडि बिंधो [ मार्गणास्वायुर्वजानां भूयस्कारादिस्थिति०
तच्च भूयस्काराऽल्पतरस्थितिबन्धयोरे कजीवाश्र योत्कृष्टकालस्य तुल्यत्वादिना प्राग्वदुपपादनीयम् । "तओ अवट्ठिअस्स उ" ति तेभ्योऽवस्थितस्य पुनरसंख्यगुणाः, बन्धका इति तु प्राग्वत् । असंख्यगुणत्वमपि प्राग्वत् सदृशस्वामिकत्वें सत्येकजीवाश्रयस्योत्कृष्टबन्धकारस्यासंख्येयगुणत्वादिति हेतोर्विज्ञेयमिति ॥ ६८२ ॥
भूगाराईणऽप्पा दोहं तोऽवअिस्स संखगुणा । सव्वत्थाऽऽहारदुग- समइअ - छेअ - परिहारेसु ॥ ६८३ ॥
(प्रे० ) " भूगाराईणे "त्यादि, सप्तप्रकृतीनां प्रत्येकं 'भूयस्कारादयोः ' -भूयस्काराऽल्पतरलक्षणयोर्द्वयोरल्या बन्धकाः, परस्परन्तु तुल्या इति प्राग्वगम्यते । "तो" त्ति ततोऽवस्थितस्थितिबन्धस्य संख्येयगुणा बन्धका इत्यर्थः । कासु मार्गणास्त्रित्याह - " सव्वस्था हारदुगे "त्यादि, सर्वार्थसिद्धविमानदेवगतिभेदे, आहारका ऽऽहारक मिश्र काययोगद्विके, सामयिक - छेदोपस्थापन- परिहारविशुद्धिकसंयमेष्वित्येवं षण्मार्गणास्वित्यर्थः । तत्र तुल्यत्वं सदृशस्वामिकत्वे सत्येकजी पराश्रयबन्धकालस्य तुल्यत्वात् संख्येयगुणत्वं च जीवानां संख्येयत्वात्प्राग्वद्योज्यमिति ||६८३|| गयवेऽवत्तव्वस्सऽप्पा तत्तो कमेण संखगुणा । भूओगारस्स तओsप्पयरस्सा- अस्स तओ || ६८४ ॥
(प्रे०) "गयवेए” इत्यादि, अपगतवेदमार्गणायां सप्तप्रकृतीनां प्रत्येकमवक्तव्य स्थितिबन्धस्य बन्धका 'अल्पाः' - स्तोकाः । तेभ्यः क्रमेण संख्येयगुणा भूयस्कारस्य, ततोऽल्पतरस्य । अवक्तव्यबन्धकाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽल्पतरस्थ बन्धकाः संख्येयगुणा इत्यर्थः । ननु गतवेदमाणायामपि प्राग्वद्भूयस्काराऽल्पतरस्थितिबन्धयोरेकजीवाश्रयः कालस्तुल्य एकसमयोऽस्ति, तत्कथं भूयस्कारबन्धकापेक्षयाऽल्पतरस्य बन्धकाः संख्येयगुणा उच्यन्ते ! भण्यते - चन्धकालस्य तुल्यत्वेऽपि तयोः स्वामिनो न सदृशाः, किन्तु विसदृशाः, यतो भूयस्कारस्थितिबन्ध उपशमश्रेणितः पततामेव लभ्यते, नान्येषाम् ; अल्पतरबन्धस्तूपशमश्रेणिमारोहतां क्षपकश्रेणिमारोहतां च । इत्थं हि भूयस्कारबन्धका एकविधाः, अल्पतरबन्धकास्तु द्विविधा भवन्ति, ततश्चैकजीवाश्रयोत्कृष्टबन्धकालस्य तुल्यत्वेऽपि बन्धकास्त्वल्पतरस्थितबन्धस्य संख्येयगुणाः सम्पद्यन्त इति || ६८४||
सुमे सव्वत्थोवा भूओगारस्स ताउ संखगुणा ।
अप्पयरस्स तओ खलु अवट्ठिअस्सऽत्थि संखगुणा ॥ ६८५ ॥
(प्रे०) "सुहमे" ति सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां सर्वस्तोका भूयस्कारस्थितिबन्धस्य, बन्धका इति गम्यते । तेभ्यः संख्येयगुणा अल्पतरस्य बन्धकास्तेभ्यः खल्ववस्थितस्य संख्येयगुणा
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मार्गणात्रायुषोऽल्पतरादिस्थिति० ] भूयस्काराधिकारे ऽल्पबहुत्वद्वारम्
[.५१७.
बन्धकाः सन्ति । प्रकृतिबन्धाविनाभावित्वात्स्थितिबन्धस्य बन्धप्रायोग्यानां षण्णां प्रकृतीनामिति गम्यते । भावनात्त्रपगतवेदमार्गणावदेव द्रष्टव्येति || ६८५ || अथ शेषमार्गणास्वाहसेसासु सत्तण्हं भूगाराईण दोण्ह सव्वऽप्पा ।
ताहिन्तो णायव्वा अवट्ठिअस्स उ असंखगुणा || ६८६॥
(प्रे०) “सेसासु” त्ति अनन्तरोक्तास्तिर्यग्गत्योघा दिसूक्ष्म सम्परायसंयमपर्यन्ताः सप्तपञ्चा - शन्मार्गणा अपहाय शेषासु नरकगत्योघादित्रयोदशाभ्यधिकशतमार्गणासु प्रत्येकं "सत्तण्ह" ति आयुर्वर्जानां मूलसप्तप्रकृतीनां प्रत्येकं “भूगाराईण दोण्ह सव्वऽप्पा" त्ति भूयस्काराऽल्पतरस्थितिबन्धलक्षणयोर्द्वयोः प्रत्येकं बन्धकास्तुल्याः स्तोकाश्चेत्यर्थः । " ताहिन्तो" ति तेभ्यो ऽनन्तरोक्तेभ्यो भूयस्कारा-ऽल्पतरैकवि बन्धकेभ्योः "णायव्वा अवट्ठिअस्स उ असंखगुणा "त्ति अवस्थितस्य बन्त्रका असंख्यगुणा ज्ञातव्या इत्यर्थः । सुगमं भावितप्रायं चेति । शेषमार्गणाः पुनर्नामत इमा:- अष्टौ नरकगतिभेदाः, चत्वारस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तमनुष्य भेदः, सर्वार्थसिद्धविमान मेदवर्जा एकोनविंशदेवगतिभेदाः, सप्तै केन्द्रियभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदः, पृथिव्यादिवनस्पतिकायान्तपञ्चकाय सत्का एकोनचत्वारिंशद्भेदाः, औदारिकमिश्र-वैक्रिय-वैक्रियमिश्र - कार्मणकाययोग-स्त्रीवेद-पुरं वेद - विभङ्गज्ञान- देशसंयम-तेजोलेश्या-पद्मलेश्या क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-सम्यग्मिथ्यात्व - सासाइना-ऽसंज्ञेय - ऽनाहारकमार्गणाश्चेति ॥ ६८६ ॥
तदेवमुक्तमायुर्वजनां सप्तमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकाल्पबहुत्वमादेशतोऽपि । साम्प्रतमवशेषस्यायुःकर्मणोऽवस्थिताऽवक्तव्यबन्धकाल्पबहुत्वमादेशतो दिदर्शयिषुर्गाथाद्वयमाह - पंज्जमणुस - मणुसीसु आहार दुगा-ऽऽणताइदेवेसु । मणणाण-संयमेसु समईअ-छेअ - परिहारेसु ॥ ६८७।। सुइल - खइएस थोवाऽवत्तव्वस्साऽऽउगस्स ताहिन्तो । संखगुणाऽप्यरस्स उ असंखियगुणाऽत्थि सेसासु ॥ ६८८ ॥
(प्रे० ) " पज्जमणुसमणुसीसु" इत्यादि, पर्याप्तमनुष्य मानुषी मार्गणयोस्तथाऽऽहारकाऽऽहारकमिश्रका प्रयोगयोर्द्विकमानत कल्पादि सर्वार्थसिद्धविमानान्ताष्टादशदेवभेदास्तेषु, मनः पर्यवज्ञान-संयमौघमार्गणयोः,सामायिक-छेदोपस्थान- परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणासु, शुक्ललेश्या - क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणयोरित्येतास्वेकोनत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमायुर्वन्धकानां संख्येयत्वादवक्तव्यस्थितिबन्धकेभ्योऽल्पतरस्थितिबन्धकाः संख्येयगुणा एव भवन्तीत्यत उक्तम् "थोवाऽवत्तव्वस्साउगस्स ताहिन्तो संखगुणाऽप्पयरस्स उ" इति । असंखियगुणाऽत्थि सेसासु" ति 'थोवाऽवत्तव्वस्साऽऽउग्गस्स' इत्यस्यात्राप्यनुवर्तनादुक्तशेषास्वायुर्वन्धप्रायोग्यासु चतुस्त्रिंशदभ्यधिक
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५१८ ]
अष्टमूलप्रकृतीनां भूयस्कारादिस्थितिबन्धकानामल्पबहुत्वप्रदर्शकं यन्त्रकम्
श्रायुर्वर्ज सप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकम्
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ भूयस्कारादिस्थितिबन्धकाल्पबहुत्वयन्त्र ०
कुत्र ?
तिर्यगोघा-पर्याप्तत्रस नपुंसक - कषायचतुष्क★ - मत्यज्ञान - श्रुताज्ञाना-संयमाप्रशस्तलेश्यात्रिक भव्य - मिध्यात्वेषु १५ मनुष्यो- पञ्चन्द्रियौध-तत्पर्याप्त सर्वमनोवचोयोग भेद --मति श्रुताऽवधिज्ञानाsaधिदर्शन- शुक्ललेश्या सम्यक्त्वौघ-क्षाfaat-- परामकिस यक्त्व-संज्ञिषु- २२ पर्याप्त मनुष्य- मानुषी - मनः पर्यवज्ञान-संयमोघमार्गणासुश्रोतः काययोगीघा-चक्षुर्दर्शन-भव्याSSहारकेषु च सौध-तत्पर्याप्त चक्षुर्दर्शनमार्गणासु- ३ सर्वार्थसिद्धदेवा - SSहारकद्विक-सामायिक - छेदोपस्थापन - परिहारविशुद्धि० श्रदारिककाययोगमार्गणायामअपगतवेदमार्गणायाम्सूक्ष्मसम्पराय मार्गरणायाम्उपर्युक्तमा विहाय शेषसर्व मार्गरगासु
४
१
१
११३
४
६
१
अवक्तव्य- । अल्पतर ! भूयस्कार- 1 अवास्थतबन्धकाः बन्धकाः बन्धकाः बन्धकाः
ततः
ततः
ततः 1
I
I
०
स्तोका:
93
23
11
21
०
स्तोका:
०
असंख्य गुणा:
| विशेषाधिकाः असंख्यगुणाः
तुल्याः
संख्येयगुणाः
तुल्याः
संख्यगुणा:
अनन्तगुणाः | विशेषाधिकाः असंख्यगुणाः
13
असंख्य"
स्तोकाः
संख्यगुणाः
अनन्तगुरणाः
असख्य गुरगाः
संख्यगुणाः संख्यगुणाः संख्यगुणाः
"
स्तोका:
"
तुल्याः
"
तुल्याः
असंख्यगुणाः
अपवाद:- लोभकषाये मोहनीयकर्मरण:
स्तोका: अनन्तगुणाः विशेषाधिकाः असंख्यगुणाः
शतमाणासु प्रत्येकमायुषोऽवक्तव्यस्थितिबन्धकाः स्तोकाः, तेभ्योऽल्पतरस्थितिबन्धका स्यत्व संख्येयगुणा इत्यर्थः । उपपत्तिस्तु सर्वथैवौववदवगन्तव्येति ॥ ६८७-६८८।।
तदेवमभिहितं मार्गस्थानेषु शेषस्पायुःकर्मणोऽवक्तव्यादिस्थितिबन्धकाल्पबहुत्वम् । तथा च समाप्तं त्रयोदशमल्पबहुत्वद्वारम् । तत्समाप्तौ च समाप्त स्त्रयोदशद्वारात्मकस्तृतीयोऽधिकारः || भूयस्काराख्यमिमं प्रपञ्च्य मयकाऽऽप्तसुकृतसोपानैः ।
लघु यन्तु सिडिसौधं, भव्याः सन्मति - चरणयुक्ताः ॥ ( पयार्या) ॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीये भूयस्काराधिकारे त्रयोदशमल्पबहुत्वद्वारं समाप्तम् ।।
॥ इति श्रीबन्धविधान - मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे तृतीयभूयस्काराधिकारः ॥
श्रायुषः
सर्वत्राऽवक्तव्यबन्धका - स्तोकाः तेभ्योऽल्पतरवन्धका यत्र संख्येयं वन्ध
पर्याप्तमनुष्यादि (२९) मार्गणासु संख्येयगुणाः, शेषमार्ग
रणास्वोघतश्चाऽसंख्येयगुणाः । कपरिमाणं तत्र
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॥ पदानका इदानीमधिकृतस्थितिबन्धग्रन्थारम्भे पयणिक्खेवो"इत्यनेन संज्ञामात्रतः कीर्तितस्य चतुर्थस्य पदनिक्षेपाधिकारस्यावसरः । तत्र च त्रीण्यनुयोगद्वाराणि; तान्येवाधिकारारम्भे नामतः क्रमतश्चाह
तुरिये पयणिक्खेवे अहिगारे तिण्णि हुन्ति दाराई।
संतपयं सामित्तं अप्पाबहुगं त्ति जहकमसो ॥६८९॥ (प्रे०) "तुरिये” इत्यादि, 'तुर्ये'-अधिकारक्रमापेक्षया चतुर्थे “पयणिक्खेवे” त्ति प्राग्व्याख्यातस्वरूप भूयस्कारादिविशेषचिन्तनात्मके पदनिक्षेपाभिधेऽधिकारे त्रीणि द्वाराणि भवन्ति । कोऽर्थः १ वृद्धिहान्यवस्थानलक्षणानां भूयस्कारादिस्थितिबन्धविशेषाणां त्रयाणां जघन्योत्कृष्टलक्षणे पदद्वये निक्षेपणात् चिन्तनात् प्रकृताधिकारोऽपि पदनिक्षेप इत्यभिधीयते ।
इदमभिहितं भवति-"पूचसमयाउ समये अणंतरे” इत्यादिना भयस्काराधिकारप्रारम्भेऽनन्तरपूर्वसमयादनन्तरोत्तरसमये अभूततरां स्थिति बनतो या स्थितिबन्धवद्धिस्तामपेक्ष्य भूयस्कारवन्ध इत्यभिहितम् । एवमल्मतरां स्थिति बनतो या स्थितिबन्धहानिः सैवाल्पतरवन्धतया प्रतिपादिता । इत्थमेवानन्तरसमये तावन्मात्रामवस्थितां वध्यमानस्थितिमवस्थितबन्धतया प्ररूपितवान् ग्रन्थकारः । नवरं तत्र भूयस्कारादिबन्धतयाऽभिहितवृद्धयादीनि सामान्यतो जघन्यादिभेदमनधिकृत्यैव दर्शितानि । तानि पुनरुत्कृष्टादिपदे विशेषरूपेण यत्र चिन्त्यन्ते स प्रकृताधिकारः पदनिक्षेप उच्यते । तत्र त्रीणि द्वाराणि सन्ति, (१) सत्पदम् , (२) स्वामित्वम् , (३) अल्पबहुत्वं च । तान्येवाह-"संतपय" मित्यादि, गतार्थम् , केवलं पदनिक्षेपस्य प्रारब्धत्वात् तत्तद्द्वारे उत्कृष्टादिपदगतभ्यस्कारादिरूपवृद्धयादेः सत्पदादिकं चिन्तयिष्यत इति ।।६८९।।
॥ प्रथमं सत्पदद्वारम् ॥ तदेवं कृतमधिकारप्रारम्भेऽधिकारगतानां द्वाराणां नामोत्कीर्तनं सक्रमम् । साम्प्रतं तेषु सत्पदादिद्वारेषु मूलप्रकृतिस्थितिबन्धमधिकृत्य पदनिक्षेपं चिकीर्षुः प्रथमे सत्पदद्वारे सत्पदानि प्रतिपादयन्नाह
परमा वड्ढी परमा हाणी परमं तहा अवडाणं ।
अस्थि य सत्तण्हेवं सब्बासु मग्गणासु भवे ॥६९०॥ (प्रे०) “परमा वढी” इत्यादि, सामान्यतोऽनन्तराधिकारे त्रयोदशद्वारेषु चिन्तिता भूयस्कारलक्षणा स्थितिबन्धवृद्धिः 'परमा'-उत्कृष्टा,अस्य च "अत्थि य सत्तण्ह"इति परेणान्वयः, ततश्च सप्तानामायुर्वर्जानां मूलप्रकृतीनामस्ति-विद्यते, उत्कृष्टस्थितिबन्धवृद्धिपदं सदिति भावः ।
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५२० ]
Sitaणे मूलपइबंधो [ ओघादेशत उत्कृष्टस्थितिवृद्वयादिसत्पद० कुतः ? इति चेत्, समयाद्यधिकस्थितिबन्धरूपानुत्कृष्ट वृद्धिभ्यो भिन्नस्य सर्वाधिक स्थितिबन्धवृद्धिरूपस्य भूयस्कारस्याऽत्रोत्कृष्टवृद्धितयाऽधिकृतत्वात् ।
किमुक्तं भवति-यदि ज्ञानावरणादीनामन्तर्मुहूर्तादिलक्षणाज्जघन्यस्थितिबन्धादुत्प्लुत्याऽनन्तरसमये त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोट्यादिमानामुत्कृष्टां स्थिति ब्रघ्नत उत्कृष्टा वृद्धिरभिप्रेता स्यात्, एवं यदि वैपरीत्येन त्रिंशत्सागरोपम कोटीको च्यादिलक्षणोत्कृष्ट स्थितिबन्धादुत्तीर्यानन्तरसमय एवातमुहूर्तादिमानं जघन्य स्थितिबन्धं कुर्वत उत्कृष्टा हानिरभिमता स्यात्तथैवैतादृशोत्कृष्ट वृद्धि - हान्योमध्येऽधिकतरस्या उत्कृष्टवृद्धेरुत्कृष्टहानेवऽनन्तरसमयात्प्रवर्तमानस्य तावन्मात्रस्थितिबन्धलक्षणस्यावस्थानस्य यद्युत्कृष्टावस्थानतया ग्रहणमभिमतं स्यात्तदा तथाविधवृद्ध्यादीनामाकालमनुपलब्धेस्तेषां सत्त्वप्रतिपादनं व्योमकुसुमादिसच्चप्रतिपादन व द्विरुध्येत् । न चात्रैवम्, किन्तु याः काश्चित्समयद्विसमयादिवृद्धिलक्षणा वृद्धयस्तासु सर्वाधिकवृद्धिलक्षणायाः शेषानुत्कृष्टबुद्धिभिन्नाया वृद्धेरेवोत्कृष्टवृद्धित्वमभिप्रेतम्, ततश्च सा सामान्यतो मार्गणास्थानेषु च सर्वत्र सम्भवति; अत ओघतो मार्गणास्थानेषु च सर्वत्र ज्ञानावरणस्योत्कृष्टबुद्धिपदं सत्पदतयोक्तम् एवमेव शेषाणामाऽऽयुर्वर्ज - दर्शनावरणादीनामुत्कृष्ट स्थितिबन्धवृद्धिपदस्य सामान्यतो विशेषतश्च सच्चमवसातव्यम् एवमेव वक्ष्यमाणोत्कृष्टहान्यादिविषयेऽपि विज्ञेयम् ।
,
अथ स्थितिबन्धवृद्ध्यादीनां यथोक्तलक्षणानामभिप्रेतत्वाज्ज्ञानावरण। देरुत्कृष्टवृद्धिवदुत्कृष्टहान्यादेरपि सत्त्वं प्रतिपादयन्नाह - "परमा हाणी" इत्यादि, अस्यापि प्रत्येकम् “अस्थि य सत्तण्ह” इति परेणान्त्रयस्तत आयुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनामुत्कृष्टहानिपदं तथैव तासामुत्कृष्टावस्थानपदं च प्रत्येकं सत् । अत्र सप्तानां प्रकृतीनां सर्वेष्वल्पतरस्थितिबन्धेषु यस्मिन्नल्पतरस्थितिबन्धे सर्वाधिक स्थितिबन्धहानिः स परमहानिरूपो बोद्धव्यः भूयस्काराल्पतरस्थितिबन्धेषु यत्र पूर्वसमयापेक्षयाऽधिकं स्थितिबन्धतारतम्यं तादृशस्य भूयस्कारस्याऽल्पतरस्य वाऽनन्तरसमयेष्ववस्थितस्थितिबन्धस्तदा स उत्कृष्टावस्थानलक्षणं पदमवसेयम् ।
लाघवार्थं मार्गणास्थानेष्वतिदेशद्वारेणाह - "एवं सव्वासु" इत्यादि, सुगमं गतार्थं च । अतो मार्गणास्थानेषु चोक्तसत्पदानां भावना तु लाघवार्थं स्वामित्वद्वारे करिष्यत इति ।
इदं तु बोद्धयम् - अनन्तरोक्ते 'अत्थि य सत्तण्ह' इत्यत्र चकारस्स्वल्पाभिधेयत्वाद् भूयस्कारप्ररूपणयैव गतार्थत्वाद्वाऽनुक्तस्याऽवक्ष्यमाणस्य चायुषः समयमात्रतयाऽजघन्यानुत्कृष्टलक्षणस्य हानिपदस्य सत्पदादेः संग्रहार्थमनुक्तसमुच्चये व्याख्येयः । इदमुक्तं भवति - आयुः कर्मणो भूयस्कारस्थितिबन्धलक्षणस्य सामान्यस्याभावान्न विद्यते त िशेषलक्षणमुत्कृष्टवृद्धिपदमपि, सामान्यस्य निवृत्तौ तत्सकलविशेष निवृत्तेरनिवार्यत्वात्, दुःखसामान्यनिवृत्तौ मौल्युदरवेदनादितत्प्रत्येक विशेषनिवृत्तिवत्, एवमायुषोऽवस्थित स्थितिबन्धस्थाभावात्तद्विशेषलक्षणमुत्कृष्टावस्थानपदमप्यसदेव । अवशिष्टं हानिपदं तु वेद्यमानायूरूपाया बध्यमानायुषोऽयावायाः प्रतिसमयं परिगलनात् समय-समय
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ओघादेशतो जघन्यस्थितिवृद्धयादिसत्पद० ] पदनिक्षेपाधिकारे सत्पदद्वारम्
[५२१ हानिलक्षणाया एकविधाया हानेरेव प्राप्तेर्यदजघन्यानुत्कृष्टहानिलक्षणं पदं तदेव सत् , नान्यत् । तस्य चौघतो मार्गणास्थानेषु च सर्व आयुर्वन्धकाः स्वामिनः, सर्वेषां वेद्यमानायुर्हान्या अबाधाहानेस्तत्प्राप्तेः । तथा च तदीयस्वामित्वप्ररूपणायां न काचिद्विशेषवक्तव्यता, अल्पबहुत्वस्य त्वसम्भव एव, जघन्यतोऽपि पदद्वय सद्भावे तत्सम्भवात् । अत ओघतोऽनुक्तं मार्गणास्थानेष्ववक्ष्यमाणमप्यायुषो हानिपदं चकारेण समुच्चितमवगन्तव्यम् ।। __यद्वा चकार उक्तसमुच्चय एव, आयुषो हानेः समयमात्रत्वेनोत्कृष्टहानिपदस्य जघन्यहानिपदस्य वाऽसम्भवेनानुक्तसमुच्चेयस्यैवाभावात् । किमुक्तं भवति-उत्कृष्ट-जघन्यलक्षणपदद्वये निक्षेपः प्रवृत्तः, न पुनरनुत्कृष्टाजघन्यलक्षणे पदेऽपि, उक्तपदद्वयं तु विजातीयहीनाधिकस्थितिवन्धद्वयसद्भावे एव सम्भवति, नान्यथा, उत्कृष्टजघन्यपदयोः परस्परं सापेक्षत्वात् , आयुषस्तु समयमात्रस्थितिबन्धहानिप्रयुक्तमेकमेव हानिपदं, ततश्चापेक्ष्यमाणस्य पदान्तरस्याभावादजघन्यानुत्कृष्टपदात्मकं सत् तत्प्रकृतोत्कृष्टादिपदनिक्षेपविषयभूतमेव न भवति । इत्थं च तस्योत्कृष्टजघन्यलक्षणपदद्वयानन्तर्गतत्वेन समुच्चेयस्याऽनुक्तस्याभावाच्चकारोऽपि तत्समुच्चायकतया न भवत्येवातोऽसावुक्त समुच्चये व्याख्येय इति ॥६९०।।
अथोत्कृष्टपदे मूलकर्मणां स्थितिवन्धवृद्धयादिसत्पदानि प्रतिपाद्य साम्प्रतं तान्येव जघन्यपदे दर्शयन्नाह
हस्सा वड्ढी हस्सा हाणी हस्सं तहा अवट्ठाणं ।
अस्थि उ सत्तण्हेवं सव्वासु मग्गणासु भवे ॥६९१॥ (प्रे०) "हस्सा वड्ढो” इत्यादि, ‘ह्रस्वा' -जघन्या, द्विसमयाद्यजघन्यवृद्धिभिन्ना समयलक्षणेत्यर्थः । अस्य चान्वयः "अस्थि उ सत्तण्ह" इति परेण, तत आयुर्वर्जानां सप्तानां जघन्यवद्धिपदं सदित्यर्थः । एवमुत्तरत्रापि योजना कार्या । तथैव 'ह्रस्वा'-जघन्या हानिः, “हस्सं तहा अवठ्ठाणं" ति तथा वृद्धि-हान्योरनन्तरं प्रवर्तमानावस्थितस्थितिबन्धलक्षणेष्ववस्थानेषु यद् 'हस्त्र'- जघन्यवृद्धयाधुत्तरप्रवृत्तत्वाजघन्यमवस्थानं तदपि सप्तप्रकृतीनां सदेव ।
इदमुक्तं भवति-ज्ञानावरणादेः कश्चिद्भयस्कारः समयमात्राधिकस्थितिबन्धलक्षणः, कश्चित्पुनर्टिसमयाधिकस्थितिबन्धलक्षणः, एवं कश्चित् त्रिसमयाधिकस्थितिबन्धलक्षणः,एवमुत्तात्रापि वाच्यम् ; इत्थमेव समय-द्विसमय-त्रिसमयादिहीनस्थितिबन्धलक्षणा अल्पतरबन्धा अपि जायन्ते । तत्र भूयस्कारबन्धाः स्थितिबन्धवृद्धयाऽल्पतरबन्धास्तु स्थितिबन्धहान्या च प्राप्यन्ते, तत्रोभयत्राऽपि ह्रस्वपदे समयमात्रा वृद्धिानिश्च लभ्यते, ततश्च पदद्वयमपि सद्भूते । अथ कुत्रचित्सूक्ष्मसम्परायसंयमादिलक्षणेषु मार्गणास्थानेषु समयमात्राधिकस्थितिबन्धलक्षणा वृद्धिर्न भवति, किन्त्वन्तमुहूर्त
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५२२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ओघत उत्कृष्टस्थितिवृद्धयादिस्वामी० मात्राधिकस्थितिबन्धलक्षणा भवति,तत्राऽप्यन्यवृद्धयपेक्षया या लध्वन्तमुहूर्तमात्राधिकस्थितिबन्धरूपा वृद्धिः सैव जघन्या वृद्धिर्भवति, एवं च जघन्यहानिविषयेऽपि विज्ञेयम् ।
जघन्यावस्थानं तु यस्यावस्थानस्य प्रागनन्तरसमये जाता या स्तोका वृद्धिर्हानिश्च तयोर्यदि वृद्धिः स्तोका, हानिरधिका, तदा वृद्धयु त्तरमवस्थानं सर्वजघन्यम् । यदि हि हानिः स्तोका, वद्धिस्तु ततोऽधिका । तदा हान्युत्तरमवस्थानं सर्वजघन्यम् यत्र पुनवृद्धिहानी परस्परं तुल्ये समयमात्र, तत्र त्वन्यतमस्या उत्तरमवस्थानं सर्वजघन्यमिति ।
तद्यथा-ओघतो जघन्या रद्धिर्जघन्या हानिश्च तुल्ये समयमात्रे । कुतः ? सर्वेषां जीवानां पूर्वसमयादुत्तरसमये ममयमात्रेणाधिकस्थितिबन्धस्य हीनस्थितिबन्धस्य च प्रवर्तनसम्भवात् । ततचौघतो जघन्यवृद्धिहान्यन्यतरस्या अनन्तरोत्तरं प्रवृत्तमवस्थानं जघन्यावस्थानतया प्राप्यते । आदेशतः सर्वमार्गणासु प्रायः प्रत्येकं जघन्यवृद्धि-हान्योरोघवन्मिथस्तुल्यभावाज्जघन्यवृद्धि-हान्यन्यतरोतरजायमानमवस्थानं जघन्यावस्थानतया प्राप्यते । कुत्रचिदपगतवेदादिमार्गणादौ पुनर्जघन्यवृद्धयपेक्षया जघन्या हानिः स्तोका प्राप्यते। कुतः? तत्र जघन्यहानेःश्रेणिमारोहतांक्षपकाणां भावात् , जघन्यवृद्धेस्तु प्रपततामुपशमकानां प्रवर्तनात् । ततश्च तत्रावेदादिमार्गणादौ तु केवलं जघन्यहान्युत्तरं प्रवृत्तमवस्थानं जघन्यावस्थानतया प्राप्यते, अर्थादोधत आदेशतश्च सप्तानामपि मूलप्रकृतीनां जघन्यवृद्धि-जघन्यहानि-जघन्यावस्थानलक्षणं पदत्रयमपि सदेव, एतच्च स्वामित्वप्ररूपणेनाल्पबहुत्वप्ररूपणेन च सूपपन्नं भवेदिति नात्र प्रपञ्च्यते । इत्थमोघवदादेशतोऽपि ह्रस्ववृद्धयादीनां त्रयाणामपि सद्भूतपदत्वात् सर्वमार्गणास्वतिदेशेनाह-"एवं सव्वासु"इत्यादि, गतार्थमिति ॥६९१।।
तदेवं दर्शितमोघत आदेशतश्च मूलप्रकृतिस्थितिबन्धविषयकोत्कृष्टजघन्यवृद्धयादिपदानां सत्त्वम् , इत्थं च गतमाद्यं सत्पदद्वारम् ।
॥इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे चतुर्थे पदनिक्षेपाधिकारे प्रथमं सत्पदद्वारं समाप्तम् ।।
॥ अथ द्वितीयं स्वामित्वद्वारम् ॥ माम्प्रतं स्वामित्वद्वारावसरः । तत्रादावुत्कृष्टवृद्ध्यादेः स्वामिन ओघतः प्रतिपादयन्नाहमज्झाहिन्तो उवरिं यवस्स चउठाणियस्स वद्रतो । अंतोकोडाकोडिं ठिइबंधं यो कुणेमाणो ॥६९२॥ लहिऊणं उकोसं डायं उक्कोससंकिलेसेणं । जेठिइ बंधंतो वडिंढ सो कुणइ उकोसं ॥६९३॥ (युग्मम्)
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ओघत उत्कृष्टस्थितिबन्धवृद्धिस्वामि०] पदनिक्षेपाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ ५२३
(प्रे० ) " मज्झाहिन्तो" इत्यादि, चतुःस्थानिकस्य यवस्य मध्यादुपरि वर्तमानोऽन्तः कोटीकोटिस्थितिबन्धं कुर्वन् यो वर्तते स तत उत्कृष्टसंक्लेशेन उत्कृष्टं डायं लब्ध्वा ज्येष्ठस्थितिं बध्नन् उत्कृष्टां वृद्धिं करोतीति सान्वयः पदसंस्कारः ।
अथ पदार्थोऽभिधीयते - मूलप्रकृतिरसबन्धविधानग्रन्थे विस्तरेणाभिधास्यमानस्वरूपस्य निपातकीप्रभृतीनां कटुकद्रव्याणां सहजो भागचतुष्टयप्रमाणो भाजनान्तरे क्वथितचतुर्थभागाशिष्टोऽतिकटुकतमो यो रसस्तत्कल्पोऽशुभप्रकृतीनां यचतुः स्थानिको 'रस:' - अनुभागस्तस्य चतुःस्थानिकरस्य यो 'व: ' - चतुःस्थानि करसवन्धकानां प्रायोग्यायाः जवन्यायाः स्थितेरारभ्य सागरोपमशतपृथक्त्वाधिकस्थितिबन्धं यावद्यथोत्तरं प्रतिस्थितिबन्धस्थानेषु विशेषाधिकविशेषाधिकक्रमेण वर्धमानसंख्याकानां बन्धकजीवराशीनां ततः पुनः समय- समयादिस्थितिबन्धवृद्धया निष्पन्नेषूपरितनस्थितिबन्धस्थानेषु ज्ञानावरणादीनां स्वीयस्वीयोत्कृष्ट स्थितिबन्धं यावद् विशेषहीनविशेनक्रमेण हीयमान संख्याकानां बन्धकजीवराशीनां स्थापनामपेक्ष्य या यवाकृतिः
9
(३)
(४)
(१)
(2)
(1) →
(१) चतुःस्थानिकरसबन्धकानां बन्धप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि । (२) तत्र सर्वजघन्यस्थितिबन्धस्थानम् अत्र स्तोका बन्धकाः ।
,
(३) जघन्यस्थितेरारभ्य सागरोपमशतप्रक्त्यप्रमाणानि स्थितिबन्धस्थानानि अत्र समयसमयोत्तरेषु स्थितिस्थानेषु विशेषाधिका विशेषाधिका बन्धकाः, इमानि यवमध्यादधस्तनानि स्थितिबन्धस्थानानि । (४) यवमध्यलक्षणं स्थितिबन्धस्थानम्, अत्र सर्वाधिकबन्धकाः ।
(५) इमानि यवमध्यादुपरितनानि स्थितिबन्धस्थानानि अत्र समय- समयस्थितिवृद्धौ विशेषहीनविशेषहीनबन्धका यावत् त्रिंशत्कोटिकोट्यादिमाना ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टा स्थितिः ।
(६) यत्र स्थितिबन्धस्थाने वर्तमानो जीव उत्कृष्टडायेनोत्कृष्टस्थितिबन्धं कर्तुं शक्नोति तत्स्थानम् । (७) उत्कृष्टपदगतान्तः कोटिकोटीसागरोपमलक्षणं स्थितिबन्धस्थानम् ।
(८) यावज्ज्ञानावरणादिमूलप्रकृत्युत्कृष्ट स्थितिबन्धः ।
★ एकलया उत्कृष्टस्थितिं गच्छन्नुत्कृष्टस्थितिबन्धवृद्धेः स्वामी । ।।।।।। स्थितिबन्धस्थान प्रदर्शकानि चिह्नानि ।
तदपेक्षया यो यवः स चतुःस्थानिको यवस्तस्य चतुःस्थानिकस्य यवस्य यन् 'मध्यम्' - यत्र स्थितिबन्धस्थाने सर्वाधिकबन्धकाः सन्ति, तज्जघन्यस्थितिबन्धात्सागरोपमशतपृथक्त्वस्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्यानन्तरवर्तमानस्थितिबन्धस्थानलक्षणम्, तस्माद्यवमध्यलक्षणस्थितिबन्धस्थानाद्' उपरि' - उप
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५२४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ ओघत उत्कृष्ठस्थितिबन्धहानि० तनस्थितिवन्धस्थाने वर्तमानः । एवम्भूतो ह्यन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रभतेः सर्वोत्कृष्टस्थितेर्बन्धकोऽपि स्यात् ,मध्यमस्थानादनन्तरस्थितिबन्धस्थानप्रभृत्या उत्कृष्टस्थितिबन्धपर्यन्तानां सर्वस्थानानामुपरितनस्थानरूपत्वाद्, अत उक्तम्-अन्तःकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणां स्थितिं बध्ननिति ।
ननु यद्येवं तीन्तःकोटिकोटिसागरोपमप्रमाणां स्थितिं बघ्नन्नित्येतावतैव सागरोपमकोटिकोटयादि-तदधिकस्थितेर्बन्धकानां व्यवच्छेदभावात्तावदेव पर्याप्तं स्यात्, किं पुनर्यवमध्यादुपरि वर्तमानस्येत्यनेनाऽपि ? इति चेद, न, चतुःस्थानिकयवमध्यादधस्तादप्यन्तःकोटिकोटिसागरोपमस्थितिकानां बन्धस्थानानां सद्भावेन तद्व्यवच्छेदस्यावश्यकत्वात् । इदमुक्तं भवति-अन्तःसागरोपमकोटिकोटिप्रमाणस्थितेरसंख्येयभेदभिन्नतया यथा यवध्यादुपरितनस्थानेषु वध्यमानेष्वन्त:सागरोपमकोटिकोटिप्रमाणा स्थितिबध्यते,तथा यवमध्ये यवमध्यादधस्तनस्थितिबन्धस्थानेष्वपि चतु:स्थानिकरसवन्धं कुर्वद्भिर्जीवः सा निर्वत्यते, इत्थञ्च यवमध्यादुपरीत्यनुक्ते यवमध्यादधस्तनवतिन्या अन्तःकोटिकोटिसागरोपमप्रमाणायाः स्थितेर्बन्धकस्याऽपि ग्रहणं सम्भवेत्। न च तदिष्टम्, तद्वन्धकस्य तत उत्प्लुत्यैकया हेलयोत्कृष्टस्थितिबन्धस्याऽसम्भवेनोत्कृष्टवृद्धिस्वामित्वाऽसम्भवात्, अतो यस्मात स्थितिबन्धस्थानादनन्तरसमय एकया हेलयोघोत्कृष्टस्थितिवन्धसम्भवस्तादृशमोघोस्कृष्टस्थितिबन्धस्थानात् सर्वदीर्घान्तरेण वर्तमानं यदन्तःकोटिकोटिसागरोपमस्थितिकं बन्धस्थानं तन्निर्वाऽनन्तरसमये तत उत्प्लुत्योत्कृष्टस्थितिबन्धं कुर्वतः प्रकृतोत्कृष्टवद्धिस्वामित्वं भवतीत्येतदर्शनार्थमन्तःकोटिकोटिसागरोपमस्थिति निर्वतयन्नित्यस्येव चतुःस्थानिकयवमाध्यादुपरिवर्तमान इत्यस्याऽपि ग्रहणमावश्यकमिति । ___ इत्थं च चतुःस्थानिकरसयवमध्यादुपरि वर्तमानस्तत्यायोग्यजघन्यपदगताऽन्तःकोटिकोटिसागरोपमलक्षणां स्थिति बध्नन् यः स 'उत्कृष्टेन'-उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्येन संक्लेशेन 'उत्कृष्टां'दीर्घाम् , उत्कृष्टस्थितिबन्धस्पृशामित्यर्थः । एवम्भतां 'डायां'-फाला 'लब्ध्वा'-प्राप्य, अनन्तरोतान्तःकोटिकोटिसागरोपमलक्षणस्थितिबन्धादूर्ध्वमेकमपि स्थितिवन्धमकृत्वेति भावः । तर्हि किं कुर्वन्नित्याह-"जेठिइं बंधतो" त्ति मूलप्रकृतिसत्कौघोत्कृष्टां ज्ञानावरणादीनां प्रागुक्तत्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटयादिलक्षणां स्थिति बध्नन् “वलिंढ सकुणइ उक्कोसं' ति स उत्कृष्टां वृद्धिं करोति,उत्कृष्टस्थितिवन्धवृद्धेः स्वामी भवतीत्यर्थः । सप्तप्रकृतीनामिति शेषः । अत्र जातावेकवचनम्, ततस्तादृशा ये केचन ते सर्वेऽप्युत्कृष्टवृद्धिस्वामिन इति ।।६१२-६१३।।
अथौघत एवोत्कृष्टस्थितिबन्धहानः स्वामिनो दर्शयन्नाहपरमठिहं बंधंतो यो मरियेगिदिये समुप्पण्णो।
तप्पाउग्गजहण्णं गओ स कुणइ परमं हाणिं ॥६९४॥ (प्रे०) “परमठिई"मित्यादि, भवचरमसमये ज्ञानावरणादेस्त्रिंशत्कोटिकोटिसागरोपमादिलक्षणामौधिकी 'परमस्थिति'-उत्कृष्टस्थितिं वध्नन् यो जीवः “मरियेगिंदिये समुप्पण्णो"
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भघत् उत्कृष्टस्थितिबन्धावस्थान० ] पदनिक्षेपाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ ५२५
त्ति अनन्तरसमये मृत्यै केन्द्रियजाता ने केन्द्रियतया समुत्पन्नः । एतादृशो हीशान कल्पान्तवासी देव एव भवति, नान्यः, भवचरमसमय उत्कृष्टस्थितिबन्धं कुर्वतां संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणामनन्तरसमये नरकगत|वेवोत्पादात्, शेषदेवनारकाणां तु स्वभावत एवैकेन्द्रियतयाऽनुत्पादाच्चेति । अथैकेन्द्रियतया समुत्पन्नः सन्नसौ किं करोतीत्याह--' तप्पा उग्गे 'त्यादि, तत्र चैकेन्द्रियभवप्रथमसमय एव " तप्पा उग्गजहण्णंगओ”त्ति‘तस्य’-ओघोत्कृष्टस्थितिबन्धादुत्तीर्यै केन्द्रियभवप्रथमसमये वर्तमानस्य बन्धप्रायोग्यो यः पल्पोपमासंख्यभागेन न्यूनः सागरोपमत्रिसप्तभागादिप्रमाणो ज्ञानावरणादेर्जघन्यः स्थितिबन्धः स तत्प्रायोग्यजघन्यस्तं 'गतः ' - प्राप्तः, तावत्स्थितिबन्धं कुर्वन्नित्यर्थः । “स कुणइ परमं हाणि " त्ति सः तथा कुर्वन् जीवः ‘परमां - उत्कृष्टां हानिं करोति । आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धहाः स्वामी भवतीत्यर्थः ।
ननु यथा ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टां स्थितिं बध्नन् मृत्वैकेन्द्रियेषूत्पद्य तत्र पल्योपमासंख्यभागन्यूनसागरोपमत्रि सप्तभागादिप्रमाणां स्थितिं बध्नन् जीव उत्कृष्टहानेः स्वामी भवति, तथा वैपरीत्येनै केन्द्रियतया तत्प्रायोग्यजघन्यां स्थितिं बध्नन् मृत्वा संज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्योत्कृष्टां स्थिति वध्नन् जीवः कथमुत्कृष्टवृद्धेः स्वामी नोच्यते ? इति चेद्, न, तथाऽसम्भवात्, यत एकेन्द्रियतश्च्युत्वा यः संशिपञ्चेन्द्रियत्वे प्रथमं स्थितिबन्धं करोति, तस्यासौ प्रथमस्थितिबन्ध उत्कृष्टतोऽप्यन्तः कोटि कोटि सागरोपमप्रमाण एव जायते, तदानीं तत्स्वामिनोऽपर्याप्तत्वात् । इत्थमेकेन्द्रियतश्च्युत्वा संज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्य नैकहेलयोघोत्कृष्टस्थितिबन्धसम्भवः, तत्कुत उत्कृष्ट वृद्धेरप्यवकाशः; संज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यान्तर्मुहूर्तादूर्ध्वमुत्कृष्टस्थितिबन्धभावे तूत्कृष्टतोऽपि यथोक्ता चतु:स्थानिकरसबन्धककृता वृद्धिरुत्कृष्टवृद्धितया सम्पद्यते इति नास्त्युत्कृष्टहानिवद् वैपरीत्येनैकेन्द्रियतश्च्युत्वा पञ्चेन्द्रितयोत्पद्यमानानां भवप्रथम समयवर्तिनामुत्कृष्टवृद्धयवकाश:, अतो न उत्कृष्टवृद्धिस्वामित्वमपि तेषामिति ॥ १४ ॥
अथोत्कृष्टावस्थानस्य स्वामिनः प्रकटयन्नाह
सागारखयेण गओ जेट्टा तज्जोगहस्सठिइबंधं ।
सकुड़ अनंतरखणे उक्कोसं खलु अवट्टाणं ॥ ६९५ ॥
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(प्रे० ) " सागारखयेणे" त्यादि, “जेट्ठा" त्ति 'ज्येष्ठाद्'- उत्कृष्टस्थितिबन्धात्, सप्तानामौधिक मुकृष्टं स्थितिबन्धं कृत्वेत्यर्थः । " सागारखयेण" ति उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रयोजकीभूतस्य साकारोपयोगस्य 'क्षयेण भ्र' शनाद्, अनाकारोपयोगतया परावृच्येत्यर्थः । " तज्जोग्गहस्सठिइबंधं”ति तस्योत्कृष्टस्थितिबन्धं कुर्वतो मिथ्यादृष्टिपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवस्यानाऽकारोयोगप्राप्तौ यः प्रायोग्यः 'ह्रस्वः' - सर्वस्तोकः स्थितिबन्धः स तत्प्रायोग्यह्रस्वस्थितिबन्धस्तं "गओ" त्ति 'गतः' - प्राप्तः, अनाकारोपयोगप्राप्त्या तावान् जघन्यस्थितिबन्धो येन कर्तुं मारब्ध इत्यर्थः । "स कुणइ" तिस करोति । किमित्याह - उक्कोसं खलु अवद्वाणं” ति उत्कृष्टमवस्थानम्,
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५२६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मानणासूत्कृष्टस्थितिबन्धवृद्धयादिस्वामि० खल्ववधारणे । किं तदानीमेवाऽन्यदा वेत्याह-"अणंतरखणे" ति उक्तजधन्यस्थितिबन्धप्रारम्भद्वितीयसमये, उपलक्षणत्वात्तृतीयादिसमयेषु, यावदसौ जघन्यस्थितिवन्धः प्रवर्तते तावदित्यर्थः । साकारोपयोगक्षयेणोत्कृष्टस्थितिबन्धादुत्तीर्याऽनन्तरं स्वप्रायोग्यं जघन्यस्थितिबन्धं प्रारभ्य तद्वन्धस्य द्वितीयादिसमयेषु वर्तमानो जीव एवोत्कृष्टावस्थानस्य स्वामी भवतीति पिण्डार्थः॥६९५॥ तदेवमुक्ता ओघतः सप्तानामुत्कृष्टवृद्ध्यादेः स्वामिनः । अथ तानेवादेशतो विभणिपुराहसव्वणिरयेसु तिरिये पणिदियतिरियतिगे णरतिगे य । देव-सहस्सारावहिसुर-दुपणिदियतसेसुय ॥६९६॥ पणमणवय-उरल-विउव-थी-पुरिस-णपुम-विभंग-चक्खुसु। तेउ-पम्हा-सण्णीसु हवेज वड्ढीअ ओघव्व ॥६९७॥ सागारखयेण गओ जेट्ठा तजोग्गहस्सठिइबंधं । स कुणइ हाणिं परमं अणंतरखणे अवट्ठाणं ॥६९८॥
(प्रे०) “सव्वे" त्यादि,सर्वेषु नरकगतिभेदेषु,तिर्यग्गत्योघभेदे,पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मार्गणाभेदत्रिके,नरमार्गणाभेदत्रिके, एते द्वेऽपि त्रिकेऽपर्याप्तभेदवर्जिते बोद्धव्ये । चः समुच्चये, देवगत्योघभेदे, सहस्रारकल्पावधिकान्यदेवगत्युत्तरभेदेषु, तथा प्राग्वदपर्याप्तभेदवर्जितयोईयोः पञ्चेन्द्रियभेदयोः, द्विशब्दस्य त्रसेत्यनेनाऽपि योजनात् तथैव द्वयोस्त्रसकायभेदयोः, पञ्चशब्दस्य मनोवचसोः प्रत्येकं योजनात्पश्चमनोयोग-पञ्चवचोयोगौ-दारिक-वैक्रियकाययोग-स्त्री-पुरुष-नपुसकवेद-विभङ्गज्ञान-चक्षुदर्शनेषु, तेजः-पद्मलेश्या-संज्ञिमार्गणाभेदेष्वित्येवमेकपञ्चाशन्मार्गणासु प्रत्येकं “हवेज वजूढोअ
ओघव्व" ति सप्तप्रकृतिसत्कवद्धेः स्वामिन ओघवद्भवन्ति, एतासु प्रत्येकं ‘चउट्ठाणियस्से' त्यादिनाऽभिहितस्वरूपाः संज्ञिपञ्चेन्द्रिया जीवाः सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धवृद्धेः स्वामिनो भवन्तीति भावः ।
एतास्वेवोत्कृष्टस्थितिबन्धहान्यवस्थानयोः स्वामिन आह-"सागारखयेणे"त्यादि, अस्याऽप्यक्षरार्थो दर्शितप्रायः । भावार्थस्त्वेवम्-अधिकृतमार्गणासु कुत्रचित्पञ्चेन्द्रियतिर्यगादिमार्गणागतजीवानामेकेन्द्रियतयोत्पादे मार्गणाविच्छेदप्रसङ्गात्, कुत्रचिन्नरकगत्योधादिमार्गणागतजीवानां त्वेकेन्द्रियतयोत्पत्तेरेव प्रतिषिद्धत्वादुत्कृष्टहानेः स्वामिन ओघवन्न सम्पद्यन्ते, अतो याः सर्वोत्कृष्टहानिवर्जाः शेषाः हानयस्तासु या संक्षिपञ्चेन्द्रियाणां जात्यन्तरेऽनुत्पच्या स्वस्थान एव जायमानोत्कृष्टहानिरौघिकोत्कृष्टावस्थानप्रयोजकतया गृहीता सैवात्रोत्कृष्टहानितयालभ्यते। सातु साकारोपयोगक्षयेण ज्येष्ठस्थितिबन्धादुत्तीर्य स्वप्रायोग्यसम्भवदन्तःकोटीकोटीसागरोपमलक्षणजघन्यस्थितिबन्धं कुर्वतः संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवस्य जायते, तद्वितीयादिसमयेषु चौघवदुकृष्टावस्थानमपि लम्यते, इत्येत औधिकोत्कृष्टावस्थानस्वामिन एव समयमयंग जघन्यस्थितिबन्धप्रथमसमयमधिकृत्य प्रस्तुतमार्गणा
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मार्गणासूत्कृष्टस्थितिवृद्धयादिस्वामि० ] पदनिक्षेपाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ ५२७ स्थानेषूत्कृष्टहानेः स्वामिनः,द्वितीयादिसमयेषु तावन्मात्रस्थितिबन्धं कुर्वन्तः पुनस्त एवौघवत् प्रकृतेऽप्युत्कृष्टावस्थानस्य स्वामिनो भवन्तीति ॥६९६-६९७-६९८॥ सर्वथा तुल्यत्वादन्यत्रौघवदतिदिशन्नाह
ओघव जाणियव्वा काय-कसाय-दुअणाण-अयतेसु।
अणयण-भवियेसु तहा अभविय-मिच्छेसु आहारे ॥६९९॥ (प्रे०) "ओघव्व" इत्यादि, ओघवज्ज्ञातव्याः, उत्कृष्टवद्धयादित्रयाणामपि पदानां स्वामिन इति तु प्रक्रमाद्गम्यते । कासु मार्गणास्वित्याह-"कायकसाये"त्यादि, काययोगसामान्ये,तथा विशेषतोऽनभिहितत्वात् क्रोधादिकषायमार्गणाचतुष्के, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयममार्गणासु, तथाऽचक्षुदर्शनभव्यमार्गणयोः । तथाशब्दः समुच्चयार्थः, स च भिन्नक्रमेणानन्तरमेव योजितः । अभव्य-मिथ्यात्वमार्गणयोराहारिमार्गणायामिन्येतासु त्रयोदशमार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः। एतासु प्रत्येकं मिथ्याग्देवजीवानामेकेन्द्रियजीवानां च समावेशाद् देवेभ्यश्च्युत्वैकेन्द्रियतयोत्पद्यमानानामौधिकोत्कृष्टहानिस्वामिनामनन्तरोक्तमार्गणानिचयवत् नाधिकृतमार्गणाबहिस्त्वापत्तिः । अर्थात् सर्वथैवौघवदुपपत्तेः प्रस्तुतत्रिविधस्वामिनोऽपि सर्वथैवौघवदतिदिष्टा इति ॥६९९।। कार्मणाऽनाहारकमार्गणयोराह
कम्मा-ऽणाहारसु तज्जोग्गलहूउ संकिलेसेणं । तप्पाउग्गुकोसं गओ स कुणए परमवडिंढ ॥७००॥ तज्जोग्गजेबंधा यो साकारक्खयेण पडिभग्गो। तप्पाउग्गजहण्णे पडिओ स कुणइ परमहाणि ॥७०१॥ तज्जोग्गजेट्टबंधा गुरुहाणि करिअ बायरेगिंदी। कुणइ अणंतरसमये उक्कोसं खलु अवट्ठाणं ॥७०२॥
(प्रे०) "कम्माणाहारेसु” इत्यादि, कार्मणकाययोगा-ऽनाहारकमार्गणास्थानयोः प्रत्येक "तज्जोगलहउ" ति सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा प्रथमसमयक्रियमाणात् मिथ्याडक्संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामनुपदमुत्कृष्टस्थितिबन्धे गमनप्रायोग्याल्लघुस्थितिबन्धात् “संकिलेसेणं" ति अनन्तरसमये कार्मणकाययोगिनामुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्यसंक्लेशेन, तादशसंक्लेशस्योत्पत्तेरिति भावः । “तपाउरगुक्कोसंगओ”त्ति पूर्ववत् कार्मणकाययोगिमिथ्यादृष्टिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियप्रायोग्यसम्भवदुत्कृष्टस्थितिबन्धं 'गतः'-प्राप्तः “स कुणए परमवडिंड" ति स तादृशः संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवस्तथा कुर्वन् सप्तप्रकृतीनामधिकृतामुन्कृष्टां स्थितिबन्धवृद्धिं करोतीत्यर्थः ।
ननु 'तजोगलहूउ' इत्यनेनैकेन्द्रियप्रायोग्यजघन्यस्थितिबन्धः कथं न गृह्यते ? उच्यते, तद्ग्रहणे सत्यनन्तरोक्तेन 'तप्पाउग्गुकोस'मित्यनेनाऽप्येकेन्द्रियबन्धप्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्ध एव
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५२८]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणासूत्कृष्टस्थितिबन्धवृद्धयादिस्वामि० ग्राह्यः स्यात्, तथा चोत्ष्कृटा वृद्धिर्न सम्पद्येत । कुतः ? एकेन्द्रियप्रायोग्यस्थितिबन्धं कुर्वतामुत्कृष्टतोऽपि पल्योपमासंख्यभागमात्रस्थितिबन्धवृद्धेरेव सम्भवात् । न च द्वितियसमये 'तप्पाउग्गुकोस'मित्यनेन संज्ञिपञ्चेन्द्रियप्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्यैव ग्रहणेऽधिकतमा वृद्धिः सम्पद्यतेति वाच्यम् । एकजीवमाश्रित्य विग्रहगतावेकेन्द्रियादिजातिद्वयप्रायोग्यस्थितिबन्धस्यैव विरोधात । इत्थं हि कार्मणाऽनाहारकमार्गणयोर्यथोक्तस्वरूपाणां संज्ञिपञ्चेन्द्रियेभ्यः संज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमानानामेवोत्कृष्टस्थितिवन्धवृद्धिस्वामित्वं बोद्धव्यमिति । __ अधिकृतमार्गणाद्वय एवोत्कृष्टहानिस्वामिनो दर्शयन्नाह-"तज्जोग्गजेबंधा"इत्यादि, पूर्ववदनाहारकावस्थायां प्रथमसमये मिथ्यादृष्टिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियप्रायोग्यसम्भवज्ज्येष्ठस्थितिबन्धात् “यो सागारखयेण पउिभग्गो" ति यःसाकारोपयोगक्षयेण'प्रतिभग्नः'-उक्तोत्कृष्टस्थितिबन्धाच्च्युतः, अत एवानाकारोपयोगं प्राप्त इत्यपि गम्यम् । पुनः कथम्भूतोऽसावित्याह-"तप्पाउग्गजहाणे पतिओ" ति पूर्ववदनाहारकावस्थायां सम्भवन्मिथ्यादृष्टिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियप्रायोग्यजघन्यस्थितिबन्धे पतितः, तादृशं जघन्यस्थितिबन्धं कतु मारब्धवानित्यर्थः । “स कुणइ परमहाणिं" ति अनन्तरोक्तस्वरूपः स तथा कुर्वन् 'परमा'-उत्कृष्टां हानि करोतीत्यर्थः । निरुक्तस्वरूपाः संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवा अधिकृतमार्गणाद्वये सप्तानां प्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धहानेः स्वामिन इति भावः ।
___ अथ प्रस्तुतमार्गणाद्वय एवोत्कृ टावस्थानस्वामिनः प्रदर्शयन्नाह-तज्जोग्गजेट्ठबंधा" इत्यादि, तत्राऽनाहारक-कार्मणकाययोग्यवस्थायां कस्याऽपि त्रिसमयकायस्थितिकजीवस्य बन्धप्रायोग्यात्सम्भवज्येष्ठस्थितिबन्धादवतीर्य "गुरुहाणिं करिअ” त्ति मार्गणाया द्वितीयसमये 'गुरुउत्कृष्टां स्थितिबन्धहानि कृत्वा, तत्प्रायोग्यजघन्यस्थितिबन्धमारभ्येत्यर्थः । कोऽसावित्याह"बायरेगिंदि" ति तादृशोऽसौ बादरैकेन्द्रियजीवः ।
नन्वधिकृतोत्कृष्ट वृद्धि-हानी संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेवाभिहिते, अर्थाच्छेषाणां कार्मणकाययोगिनां प्रतिषिद्धा उत्कृष्टहानिः, तत्कथं पुनर्वादरैकेन्द्रियाणामुत्कृष्टहानिरभिधीयते ? इति चेत् न, यतोऽधुनोत्कृष्टावस्थानस्वामित्वमभिघातव्यम्, तच्चोत्कृष्टहानेरूर्ध्वमवस्थाने सति सम्भवति, न चास्ति संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामुत्कृष्टहानेरूर्वमवस्थानम् । कुतः ? तेषामुत्कृष्टहान्यनन्तरसमये प्रस्तुतमार्गणायामेवानवस्थानात् । ततः किम् ? ततो येषां प्रकृतमार्गणायां समयत्रयमवस्थानं सम्भवति, तेषु यस्योत्कृष्टहानिलाभस्तस्येवोत्कृष्टहान्युत्तरसमयभाव्युत्कृष्टावस्थानसम्भवात् संज्ञिपञ्चेन्द्रियादीन् विहाय बादरैकेन्द्रियजीवस्यैव प्रकृतोत्कृष्टावस्थानप्रयोजिकोत्कृष्टहानिरभिहितेति न कश्चिदोषः । एतादृशः कार्मणकाययोगद्वितीयसमये उत्कृष्टहानिनिर्वतको बादरैकेन्द्रियस्तदनन्तरसमये उत्कृष्टमवस्थानं करोतीत्येतदेव दर्शयन्नाह-"कुणह अणंतरसमये” इत्यादि गतार्थमिति ॥७००७०१-७०२॥
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मार्गणासूत्कृष्टस्थितिवृद्धयादिस्वामि० ] पदनिक्षेपाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ ५२९ अथाऽपगतवेदमार्गणायामुत्कृष्टवृद्धयादेः स्वामिनः प्रतिपादयन्नाहगयवेए से बंधे होज्ज सवेओ त्ति स परमं वडिंढ । उवसामगो कुणइ से काले परमं अवट्ठाणं ॥७०३॥ पढमा ठिइबंधाओ वट्टतो उ दुइअम्मि ठिइबंधे ।
स कुणइ परमं हाणिं तहेव सुहुमे वि णायव्वं ॥७०४॥
(प्रे०) “गयवेए” इत्यादि, अपगतवेदमार्गणायां "से" त्ति अनन्तरे, यस्यानन्तरे स्थितिबन्धे "हवेज्ज सवेओ" ति सवेदो भविष्यति, यः प्रपतन्नुपशमक इति गम्यते । “स परमं वडिंढ उवसामगो कुणइ” ति स सवेद्यवस्थायाः प्रागवेद्यवस्थायां द्विचरमस्थितिबन्धादुत्तीर्य चरमं स्थितिबन्धं कुर्वन्नुपशामकस्तस्य चरमस्थितिवन्यस्य प्रथमे समये 'परमाम्'-उत्कृष्टां वृद्धि करोतीत्यर्थः । “से काले परमं अवट्ठाणं” त्ति "से" त्ति प्राग्वत्तस्यानन्तरे काले, उक्तचरमस्थितिबन्धस्य द्वितीयादिसमयेषु तावन्मात्रस्थितिवन्धं कुर्वन्नित्यर्थः । “परमं"-उत्कृष्टमवस्थानम् , करोतीत्यनुवर्तत इति । उत्कृष्टावस्थानस्वामी भवतीति भावः। ___अपगतवेदमार्गणायामेवोक्तशेषाया उत्कृष्टहानेः स्वामिनः प्रदर्शयन्नाह-“पढमा ठिइबंधाओ" इत्यादि, सोऽनन्तरोक्तोपशामक एव, नवरमुपशमश्रेणिमारोहन्नवेद्यवस्थायाः प्रारम्भ क्रियमाणात् प्रथमात्स्थितिबन्धात् “वटुंतो उ दुइअम्मि ठिईबंधे” ति द्वितिये स्थितिवन्धे, द्वितीयस्थितिबन्धप्रथमममये वर्तमानः सन्नित्यर्थः । “स कुणइ परमं हाणि" ति स उपशमश्रेणिमारोहन् द्वितीयस्थितिवन्धवारम्भक उपशमकः 'परमां'-उत्कृष्टां हानि करोति, सप्तप्रकृतिमत्कस्थितिबन्धविषयामिति गम्यत एवेति । अथ सूक्ष्मसम्परायमार्गणायां बहुसाम्यादतिदिशति"तहेव सुहमे वि णायव्वं" ति सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायामपि तथैव'-अपगतवेदमार्गणावदेव ज्ञातव्यं प्रकृतवृद्धयादिस्वामित्वमित्यर्थः ।।७०३-७०४।।
चउणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहार-देसेसु।
ओहिम्मि सम्म-वेअग-उवसम-सासाण-मीसेसु॥७०५॥ तप्पाउग्गजहण्णा दुचरमबंधा गुरु चरमबंधं । कुणमाणो गुरुवुढि कुणए मिच्छाइगाहिमुहो ॥७०६॥ तयणंतरं गुरुमवट्ठाणं तज्जोग्गजेडठिइवंधा।
तज्जोग्गलहुं पत्तो सागारखयेण गुरुहाणिं ॥७०७॥ (प्रे०) “चउणाणे" त्यादि, केवलज्ञानमार्गणास्थाने स्थितिबन्धस्यैवाभावात्तद्वर्जेषु चतुर्ष
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५३० ।
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणासूत्कृष्टस्थितिवृद्धपादिस्वामि मत्यादिज्ञानेषु, संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापन -परिहारविशुद्धिकसंयमेषु, देशसंयमा-ऽवधिदर्शन--सम्यक्त्वौघ-क्षायोपमिकौ--पशमिकसम्यक्त्व--सासादन-सम्यग्मिथ्यात्वेष्वित्येवं समुदितासु पञ्चदशमार्गणासु प्रत्येकं “तप्पाउग्गजहण्णा दुचरमबंध" त्ति तत्तन्मतिज्ञानादिमार्गणाविच्छेदादर्वाग्भावी यश्चरमः प्रस्तुतत्वाज्ज्ञानावरणादीनामायुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धसदपेक्षया यो 'द्विचरमः'-उपान्त्यः स्थितिबन्धः स चिरमस्थितिवन्धः, स च न सर्वेषां जीवानां तुल्य एव, किन्तु परस्परं हीनाधिकोऽपि भवति, तत्राधिकतरादिस्थितिबन्धं कुर्वतामनन्तरे चरमस्थितिवन्धे तत्र बन्धप्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धसम्भवेऽपि तेषामुन्कृष्टस्थितिवन्धवृद्धेरप्राप्तेस्तत्र जघन्येति विशेषणमुपादत्तम् । ननु विचरमस्थितिबन्धे प्रायोग्यसर्वस्तोकस्थितिबन्धं कृत्वाऽनन्तरे चरमस्थितिबन्धे प्रायोग्यसर्वाधिकस्थितिबन्धं कुर्वतामुत्कृष्टयुद्धेः सम्भवेन तावदेव पर्याप्तं स्यात् , किंपुनस्तत्र तत्प्रायोग्यत्वविशेषणेन ? इति चेत्, तत्राऽपि सर्व स्तोकस्थितिबन्धं कुर्धतामनन्तरे चरमस्थितिबन्धे तत्र बन्धप्रायोग्यसर्वाधिकस्थितिबन्धस्यासम्भवेन "गुरु चरमबंधं कुणमाणो" इत्यस्यानुपपत्तेर्न स्यादुत्कृष्ट वृद्धिस्वामित्वमित्यतो विचरमस्थितिवन्धतया प्रायोग्यस्थितिबन्धेषु सर्वस्तोकस्थितिबन्धप्रतिषेधार्थम् 'जहण्णा' इत्यत्र तत्प्रायोग्यत्वविशेषणमावश्यकमेव, तथा च चरममुत्कृष्टं स्थितिवन्धं कुर्वतामनन्तरपूर्वस्थितिबन्धतया यान्तः स्थितिबन्धविकल्पाः बन्धबायोग्यास्तन्मध्ये यः सर्वजघन्यस्थितिबन्धस्थानं तं बवाऽनन्तरोत्तरे चरमे स्थितिवन्धे बन्धपा कोमाधिकतमस्थितिबन्धं कुर्वन् जीवः "गुरुवुद्धिंढ कुणए” ति उत्कृष्टवृद्धः स्वामी भवतीत्यर्थः ।
__ अत्र मनःपर्यवज्ञानादिमार्गणादौ देवत्वाभिमुखानां मुमूर्तृणां महात्मनामपि चरम-चिरमस्थितिबन्धयोः सम्भवेन तत्र चरमस्थितिबन्धतया प्रायोग्यमधिकतमं स्थितिवन्धं कुर्वतामपि न प्रस्तुतवृद्धिस्वामित्वमिति तेगमुत्कृष्टवृद्धिस्वामित्वनिवृत्तये पुनरपि स्वामिविशेषणमाह-"मिच्छाइ. गाहिमुहो" ति तत्रादिपदात् तथाविधसंयम-छेदोपस्थापनसंयमाभिमुखानां परिग्रहः, यस्तादृशो मिथ्यात्व-तथाविधसंयमाघभिमुखः स एव प्रस्तुतवृद्धिस्वामी भवतीत्यर्थः । ननु मनःपर्यवज्ञानिनो मिथ्यात्वाभिमुखा एव न सन्तीति कथं न विरोधः ? न च मिथ्यात्वाभिमुखत्वविशेषणस्य मतिज्ञानादिमार्गणास्वेव योजनीयत्वान्नास्ति कश्चितिरोध इति वाच्यम् । मार्गणाविच्छेदादर्वाग्भाविचरमस्थितिबन्धं कुर्वतां मतिज्ञानादिमार्गणाप्रविष्टजी गनां सर्वेषामपि मिथ्यात्वाभिमुखतया तत्र तस्य निरर्थकत्वात् ? इति चेद् , सत्यम् , मतिज्ञानादिमार्गणास्थानेषु यथोक्तलक्षणे उत्कृष्टवृद्धिस्वामिनि मिथ्यात्वाभिमुखविशेषणस्य व्यर्थत्वेऽपि समुदितमार्गणास्थानेषु मतिज्ञानादिमार्गणानामेवादौ न्यस्तत्वान्मनःपर्यवज्ञानादेस्तु तत्पश्चान्यस्तत्वाच मनःपर्यवज्ञानादिमार्गणासूपयुज्यमानं विशेषणान्तरमेवादी कृत्वा 'मिच्छाहगाहिमुहो' इत्यनुक्त्वाऽन्यथैवाभिधाने स्याद् भ्रमः, यन्मतिज्ञानमार्गणादौ तथाविधसंपमाभिमुखः प्रस्तुतस्त्रानीत्यतस्तदपोहाय प्रथमतया गृहीतमार्गणायां युज्यमानं विशेषणमादौ कृत्वा 'मिच्छाइगाहिमुहो' इत्येवमेव प्रयोक्तव्यमुचितम् । एवं हि
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"मार्गणामूत्कृष्टस्थितिवृद्धयादिस्वामि० ] पदनिक्षेपाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ १३५ मतिज्ञानादिमार्गणासु मिथ्यात्वाभिमुख इति विशेषणं स्वरूपदर्शकपरम् , अन्यत्र मनःपर्यवज्ञानपरिहारविशुद्धिकसंयमयोस्तु 'मिच्छाइगाहिमुहो' इत्यत्राऽऽदिपदग्राह्यानां तथाविधसंयम-छेदोपस्थापनसंयमाभिमुखाः' इति विशेषणानां व्यवच्छेदकपरत्वं तु व्याख्यानगम्यमिति न कुत्रचित्कस्यचिनिरोधः, प्रत्युताऽसामञ्जस्यपरिहार एवेति ।
अथोत्कृष्टावस्थानस्वामिनः प्राह-"तयणंतरं गुरुमवहाणं" ति तस्या उत्कृष्टवद्धः'अनन्ताम्'-अनन्तर समयेषु तमेव चरमसुत्कृष्टस्थितिवन्धं कुर्वन्नसावुत्कृष्टवृद्धिस्वाम्युत्कृष्टावस्थानस्वामी भवतीति भाषः । सुगमम् , मिथ्यात्यायनिमुवावस्थाभाविनां प्रत्येकस्थितिबन्धानामान्तमुहूर्तिकतमोत्कृष्टस्थितिबन्धवृद्धया जायमानस्य चरमस्थितिबन्धस्याऽपि नियमतोऽन्तमुहर्तमवस्थानादिति । अथोत्कृष्टस्थितिबन्धहानिस्वामिनमाह-"तज्जोग्ग" इत्यादि, सुगमम् , प्राग्वद् व्याख्येयमिति ।।७०५-७०६-७०७।। अथाऽप्रशस्तलेश्यामार्गणात्रये प्रागुक्तमतद्वयेन प्रस्तुतस्वामिनः प्राह
अपसत्थतिलेसासुतिण्ह गुरुपयाण अत्थि ओघन्व । सामी भणंति अण्णे तिण्हं वि पयाण निरयव्व ॥७०८॥ (प्रे०) "अपसत्थे" त्यादि, कृष्ण-नील-कपोताद्वापु तिसृष्प्रशस्तलेश्यामार्गणासु "तिण्ह गुरुपयाण" ति त्रयाणां 'गुरुपदानाम्'-उत्कृष्टपदानाम् , उत्कृष्टवृद्धयु त्कृष्टहान्युत्कृष्टावस्थानलक्षगानां प्रत्येकमित्यर्थः । प्रस्तुतत्वात्स्वामी "अत्थि ओघव्व" त्ति ओघवत् 'मज्झाहिन्तो उप यघस्से'त्यादिगाथा(६९२-६९५)चतुष्टयेनाभिहितस्वरूपो भवति । सुगमः । अथ महाबन्धकाराभिमतमाह-“सामो भगंति" इत्यादि, महावन्धकारैर्देवानां पर्याप्तावस्थायामशुभलेश्याया अरवीकृतत्वेन तन्मते केवलानां नारकाणामेवा जीवनं कृष्णादिलेश्याया अवस्थानादिति भावः ।।७०८।।
असंज्ञिमार्गणायां प्रकृतत्रिविधबन्धस्वामित्वमाह
अमणे कुणइ पणिंदी जाओ एगिदिया गुरु वडिंढ । तविवरीओ हाणि पणिंदियो चिअ अब हाणं ॥७०९॥ (प्रे०) "अमणे” इत्यादि, असंज्ञिमार्गणायां "पणिंदिया” ति एकेन्द्रियाच्च्युत्वा "पणिंदोजाओ"त्ति यः पञ्चेन्द्रियो जातः,असंज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमान इत्यर्थः । स किं करोतीत्याह-"गुरु वडिंढ" ति 'गुर्वीम् --उत्कृष्टां वृद्धिं, करोतीति पूर्वेण योग इति । “तव्विवरोओ हाणि"ति'तद्विपरीतः'-उक्तविपरीतो योऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाच्च्युत्वैकेन्द्रियतयोत्पद्यमानः सः हाणिं' ति सप्तप्रकृतिसत्काप्नुकष्टां स्थितिववहानि करोतीत्यर्थः । “पणिदियो चिअ अवठ्ठाणं" ति पञ्चेन्द्रिय एवोत्कृष्टावस्थानस्वामी भवति । तत्र एव कार एकेन्द्रियादिरूपात्परस्थानात्पञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमानानां व्यवच्छेदार्थः, एकेन्द्रियाच्च्युत्वाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमानो योऽनन्तरमुत्कृष्ट
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५३२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइधंधो [ओघतो जघन्यस्थितिवृद्धयादिस्वामि० घृद्धिस्वामी दर्शितः सोऽसंज्ञिवेन्द्रिय उत्कृटवद्धयनन्तरसमयेषूत्कृष्टावस्थानस्वामी न भवति, किन्तु स्वस्थानगाः पञ्चेन्द्रिय एव साकारोपयोगक्षयेग हान्यनन्तरसमयेवूत्कृष्टावस्थानस्वामी भवतीति भारः । अत्रापि तत्वायोग्यजघन्यस्थितिवन्वारतीय तत्प्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्य प्रारम्भकः, एवं वैपरीत्येन तत्प्रायोग्योत्कृष्ट स्थितिबन्धादुत्तीत्यादि प्राग्वत्स्वयमेव योज्यमिति ॥७०९।।
अथोक्तशेषमार्गणातु प्रकृतोत्कृष्टबद्धथादेः स्वामिनः प्रतिपिपाइविपुराहसेसासु तज्जोग्गा लहुठिइबंधा उ संकिलेसेणं । तज्जोग्गजेट्टबंधं गओ स कुणए परमवडिंढ ॥७१०॥ तज्जोग्गलहुम्मि गओ साकारखयेण जेठिइबंधा । स कुणइ हाणिं परमं अणंतरखणे आहाणं ॥७११॥ .
(प्रे०) “सेसासु" मित्यादि, उक्तशेषास्वपर्याहपञ्वेन्द्रियातर्यग-पर्यातमनुष्याः ऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रसा-ऽऽनतकल्पादिसर्वार्थसिद्धान्तो कशे पाटादशदेवभेद-सर्वैकेन्द्रियभेद-सर्वधिकलेन्द्रियभेद-पथिव्यादिपञ्चकायसत्कमूलोत्तरसर्वभेद-त्रिमिश्रकापयोगाऽहारककाययोग-क्षायिकसम्यक्त्वशुक्ललेश्यारूपासु त्र्यशीतिमागंणासु प्रत्येकम् “तज्जोग्गा लहुठिइबंधा उ” ति 'तत्या रोग्यात् '. तत्तन्मार्गणायां बन्धप्रायोग्याल्लघुस्थितिबन्धात् “संकिलेसेणं तज्जोग्गजेठबन्धं गओ” ति संक्लेशवृद्धघा तत्प्रायोग्यं ज्येष्ठ'-उत्कृष्टं स्थितिवन्धं गतः' -प्राप्तः “स कुणए परमवबिंद" त्ति उक्तस्वरूपः स तदानीं तथा कुर्वन् ‘परमां'-उत्कृष्टां स्थितिबन्धद्धिं करोति । अत्र तत्प्रायोग्यमित्यनेन तत्तदपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगादिमार्गणानायोग्यमिति बोद्धव्यम् । एवमुत्तरत्रापीति । ___अथोत्कृष्टहान्य-वस्थानयोः स्वामिनः प्रदर्शयन्नाह-"तज्जोग्गलहुम्मि” इत्यादि, "जेट्ठठिइबंधा” त्ति तत्प्रायोग्यज्येष्ठस्थितिबन्धादित्यर्थः । ततः किमित्याह-"सागारखयेण” त्ति त्ति साकारोपयोगक्षयेण, साकारोपयोगस्यऽनाकारोपयोगतया परावर्तनादित्यर्थः । “तज्जोग्गलहुम्मि गओ" ति प्राकृतत्वेन द्वितीयाः स्थाने सप्तम्याः विभक्तेः प्रयुक्तत्वाद् यस्तद्योग्यलधुस्थितिपन्धस्तं गतः'-प्राप्तः “स कुणइ हाणिं परमं” ति, सुगमम् । “अणंतरखणे अवहाण” ति स एवानन्तरोक्तउत्कृष्ट हानेः स्वामी हानेरनन्तरसमयेषु तावन्मानं स्थितिबन्धं कुर्वन् सप्तप्रकृतिसत्कोत्कृष्टावस्थानं करोति, अवस्थानस्य स्वामी भवतीत्यर्थः ॥७१०-७११।।
तदेवमभिहिताः सप्तानां मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टवृद्धयादेः स्वामिनः । साम्प्रतं तासामेव जघन्यवृद्धयादेः स्वामिनः प्रतिपिपादयिषुराह गाथात्रितयम्--
उकोसं समयूणं ठिइबंध किरिअ संकिलेसेणं । जेट्ठठिइं बंधतो सो वढि कुव्वइ जहण्णं ॥७१२॥
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मार्गणा जघन्यस्थितिवृद्वयादिस्वामि० ] पदनिक्षेपाधिकारे स्वामित्वद्वारम्
जो कुज्जा ठिइवधाऽण तरपुव्वसमया विसोहीए । समयूर्ण ठिध सो कुणड़ जहण्णगं हाणिं ॥ ७१३ ॥ हस्सा वड्ढी हाणीए वा अणंतरद्धाए । कुणइ लहुडा, पेय एमेव सव्वासु ॥७१४ ||
1
(प्रे०) “उक्कोसं समयूर्ण” इत्यादि, यः कचिज्जीवः समयोनमुत्कृष्टं स्थितिबन्धं कृत्वा “संकिलेसेणं” ति संक्लेशवृद्धया, उत्कृष्ट स्थितिबन्धप्रायोग्य संक्लेशं प्राप्येत्यर्थः । 'ज्येष्ठाम्' उत्कृष्टांपूर्व मनस्थितिबन्धापेक्षया समयेनाधिकां स्थिति "बंधंतो" तिबध्नन्, समाधिकस्थितिबन्धप्रथमसमये वर्तमान इत्यर्थः । "सो वडिंद कुच्चइ जहणं" ति तादृशः स जीवस्तथा कुर्वन् जघन्यां वृद्धं करोति । जघन्यस्थितिबन्धवृद्धेः स्वामी भवतीति भावः । सप्तप्रकृतीनामिति तु गम्यत इति ।
जघन्यहानेः स्वामिन आह - ' -"कुज्जा जो ठिइबंधा" इत्यादि, 'अनन्तरपूर्व समयात्' - अनन्तरपूर्वसमये निर्वर्तितात् स्थितिबन्धाद् "विसोहीए" ति 'विशुद्धया'- विशुद्धेर्वर्धनादिति भावः । समयोनं स्थितिबन्धं “कुज्जा जो" त्ति यः कुर्यात् यः करोतीति भावः । स किमित्याह" सो कुणइ जहण्णगं हाणिं" ति स तथा कुर्वन् सप्तानां जघन्यामेव जघन्यकां-सर्वधीं हानिं करोति, जघन्यस्थितिबन्धहानिस्वामी भवतीत्यर्थः । सुगमम् ।
,
[ ५३३
अथ जघन्याऽवस्थानस्वामिन आह - "हस्साए वड्ढोए" इत्यादि, अनन्तरोक्ताया जघन्याया हानेव द्वेर्वा " अणंतरडाए" ति अनन्तराद्वायां, अनन्तरोत्तरसमयेषु येषु जघन्यवृद्धया जघन्यहान्या वा प्रवृत्तस्थितिबन्ध एव प्रवर्तते तेष्वित्यर्थः । “कुणइ लहुमवद्वाणं" ति, तस्यामनन्तरद्धायां वर्तमानः सन् 'लघु' - जघन्यमवस्थानं करोति, सप्तप्रकृतिसत्कमिति गम्यते । इत्थमेवोत्तरत्रापि सप्तप्रकृतीरविकृत्यैव विज्ञेयमिति । गतमोघतः जघन्यवृद्धयादिस्वामित्वम् ।
,
अथादेशतो दिदर्शयिषुर्वहुसाम्यात् सापवादमतिदिशति - " णेयं एमेव सव्वासु" इत्यादि, सर्वमार्गणास्वपि "एमेव" त्ति एवमेव ' ओघसदृशमेव ज्ञेयं विहाय वक्ष्यमाणापवादपदानीति ।। ७१२-७१३- ७१४ ।। अथ लाघवार्थं सामस्त्येनातिदिष्टे याऽतिप्रसक्तिस्तामुद्दिधीषुरार्याद्वयेनापवादपदान्याह—
णवरं अवगयवे सुहुमे उवसामगो परिवतो ।
ठिबंधे खलु दुइए कुणए उ जहण्णगं वढि ॥७१५॥ तो ठिइबंधे चरमे खवगो जहण्णगं हाणिं । अणंतरसमये जहण्णगं खलु अवट्ठाणं ॥ ७१६ ॥
कुणइ
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ जघन्यपदे वृद्धि हान्य-वस्थानस्वामि० (प्रे०) "गवर"मित्यादि, नवरं-परमपगतवेदमार्गणायां सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां च प्रत्येकम् “उवसामगो परिवडतो" ति प्रतिपतन्नुपशमकः "ठिइबंधे खलु दुइए" त्ति उपशान्तमोहगुणस्थानेऽवन्धप्राप्तानां ज्ञानावरणादिसत्कस्थितिबन्धानां सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानादौ यः प्रथमः स्थितिबन्धस्तत उत्तीर्य तदनन्तरभाविनि द्वितीये स्थितिबन्धे, द्वितीयस्थितिबन्धं कुर्वनित्यर्थः । खलुशब्दोऽवधारणे, ततश्वोक्तद्वितीयस्थितिबन्धस्य प्रारम्भक एव, न पुनस्तदन्ये तृतीयादिस्थितिबन्धस्य प्रारम्भका अपि । कुतः ? अधोऽधो यथोत्तरस्थितिबन्धेष्वधिकाधिकतरस्थितिवृद्धेर्भावेनाऽजघन्यवृद्धरेव भावादिति । तदानीम सावुपरामकः किं करोतीत्याह- "कुणइ उ जहपणगं वुढि" ति र गममिति ।
___ अथ प्रकृतमार्गणाद्वय एव जघन्यहानेर्जघन्यावस्थानस्य च स्वामिनः प्रदर्शयन्नाह-वतो ठिइबंधे" इत्यादि, "चरमे" ति यस्योत्तरं न कदाचिदपि ज्ञानावरगादीनां स्थितिबन्धसम्भवः, तथाविधोधिकजघन्यस्थितिबन्धरूपे 'चरमे'-अपश्चिमे स्थितिबन्धे वर्तमानः, चरमं स्थितिबन्धं कुर्वनित्यर्थः, चरमस्थितिबन्धप्रथमसमये वर्तमान इति यावत् । तादृशो यः क्षपक स जघन्यां स्थितिबन्धहानि करोतीत्युत्तरार्धेऽन्वयः। “अणंतरसमये" ति अनन्तरोक्तहानिसमयादनन्तरो य उत्तरसमयः सोऽनन्तरसमयस्तस्मिन्ननन्तरसमये पूर्वसमयतुल्यस्थितिबन्धं कुर्वन् स एवानन्तरोक्तः क्षपकः "जहण्णगं खलु अवठ्ठाणं" ति जघन्यमेव जघन्यकमवस्थानं करोतीत्यर्थः । खलुशब्दः पादपूत्यै । इत्थं ह्यपोदितेऽपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणाद्वयवर्जशेषसर्वमार्गणासु जघन्यवृद्धयादिस्वामित्वं यद्यपि सर्वथैवौघवत्प्राप्तं, तथापि तद्यातु मार्गणासूत्कृष्टस्थितिवन्ध औधिको न भवति, यासु च जघन्यस्थितिबन्ध एकेन्द्रियायोग्यो न भवति, तास्वन्यथा स्वबन्धप्रायोग्यजघन्योस्कृष्टस्थितिबन्धानुसारेण बोद्धव्यमिति ॥७१५-७१६॥ ___ तदेवं भणितमोघतआदेशतश्च जघन्यस्थितिबन्धवृद्धयादिस्वामित्वमपि । तस्मिंश्च भगिते गतं द्वितीयं स्वामित्वद्वारम् ॥
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे चतुर्थे पदनिक्षेपाधिकारे द्वितीयं
स्वामित्वद्वारं समाप्तम् ॥
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॥ अथ तृतीयमल्पबहुत्वद्वारम् ॥ अथ क्रमप्राप्तेऽल्पबहुत्वद्वारे उत्कृष्टवृद्धयादीनामल्पबहुत्वं प्रतिपिपादयिषुरादौ तावदुत्कृष्टपदे प्रार
सत्तण्हं सव्वप्पा परमा वड्ढी तओ अबहाणं । उक्कोसं अब्भहियं तो गुरुहाणी विसेसहिया ॥७१७॥ (प्रे०) “सत्तण्ह” इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकं "सव्वप्पा परमा वडे."ति अनन्तरवक्ष्यमाणपदद्वयाइल्पा, अत एव 'सल्पिा ' -सर्वस्तोका स्थितिबन्धसत्का 'परमा' -उत्कृष्टपदगता वृद्धिः, “तओ अवठ्ठाणं उक्कोसं अन्भहियं" ति 'ततः'-अनन्तरोक्तवृद्धयपेक्षया तासामेव सप्तानां प्रत्येकमुत्कृष्टमवस्थानमभ्यधिकं, विशेशाधिकमित्यर्थः । कुतः ? उच्यते, ओषचिन्तायां संवलेशवृद्धया जाता उत्कृष्टा वृद्धिरुत्कृष्टडायस्थितिप्रमाणा भवति, उत्कृष्टावस्थानं तूत्कृष्टस्थितिबन्धोत्तरं साकारोपयोगक्षयेण स्वप्रायोग्यान्तःकोटिकोटिसागरोपमप्रमाणजघन्यस्थिति बध्नतां प्राप्यते, सा चान्तःकोटिकोटिसागरोपमस्थितिर्यस्मात् स्थितिबन्धस्थानादुत्कष्टवृद्धिः क्रियते,तत्स्थितिबन्धस्थानापेक्षया बहुसागरोपमशतपृथक्त्वहीना विद्यते । ततः किम् ? ततः पूर्व उत्कृष्टवृद्धिं कुर्वता यावती स्थितिलचिता तदपेक्षयोत्कृष्टावस्थानस्वामी बहुसागरोपमशतपृथक्त्वाधिको स्थितिमुल्लङ्ग्यावस्थानं करोति,ततश्चोत्कृष्टवद्धयपेक्षयोत्कृष्टमवस्थानं विशेषाधिकं भवतीति । "तो गुरुहाणो विसेसहिअ" ति तस्मादुत्कृष्टावस्थानात् सप्तानां 'गुरुहानिः'उत्कृष्टा हानिर्विशेषाधिका भवतीत्यर्थः । कुतः ? उत्कृष्टस्थितिबन्धादूर्ध्वमेकेन्द्रियतयोत्पद्य तत्र तत्प्रायोग्यस्तोकस्थितिवन्धकरणे पल्योपमासंख्यभागन्यूनसागरोपमत्रिसप्तभागादिप्रमाणस्थितिबन्धभावेन पल्पोपमासंख्यभागन्युनसागरोपमत्रिसप्तभागादिना हीनानां त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटयादिस्थितिनामेकहेलया हीनभावात्, तासां चोत्कृष्टावस्थानपूर्वसमयभाविहान्यपेक्षया विशेषाधिकत्वादिति ॥७१७।।
तदेवमभिहितमुत्कृष्टपदगतानां सप्तमूलप्रकृतिसत्कवृद्धयादित्रयाणामल्पबहुत्वमोघतः । अथ तदेवादेशतः प्रदर्शयन्नाह
ओघव अस्थि काये कसायचउग-दुअणाण-अयतेसु।
अणयण-भवियेसु तहा अभविय-मिच्छेसु आहारे ॥७१८॥ (प्रे०) "ओघव्व" इत्यादि, ओघवदस्ति-भवति, उत्कृष्टपदगतवृद्धयादीनामल्पबहुत्वमिति प्रक्रमाद्गम्यते । कासु मार्गणास्त्रित्याह-"काये" इत्यादि, काययोगसामान्ये, क्रोधादिकषायचतुष्कमत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयमेषु तथाऽचक्षुर्दर्शन-भव्ययोरभव्यमिथ्यात्वयोराहारिमार्गणायां चेत्यर्थः ।
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५३६ ]
बंधविहाणे मूलपडिठिइबंधो [ मार्गणासूत्कृष्ठस्थितिवृद्धयाथल्पबहु० कुतः ? प्रत्येकं मिथ्यादृष्टि भवनपत्यादिदेवानामेकेन्द्रियाणां च प्रवेशेनोत्कृष्टवृद्धयादिपदत्रयस्वामिनां सर्वथैवौधतुल्यत्वात् । उक्तं च प्रागेव स्वामिनः प्रदर्शयतामूलकृता यत्-'ओघव्व जणियव्वा कायकसाय-दुअणाण-अयतेसु । अणयण-भवियेसु तहा अभविय-मिच्छेसु आहारे' ॥६९९।। इत्थं चाल्पबहत्वमपि सर्वथौघवदेव लभ्यत इति ॥७१८॥
अथ कार्मणाऽनाहारकमार्गणयोः प्रस्तुताल्पबहुत्वमाहकम्मा-ऽणाहारसु गुरुं अवट्ठाणमप्पमत्थि तओ। वड्ढी असंखियगुणा तत्तो हाणी विसेसहिया ॥७१९॥ (प्रे०) "कम्माणाहारेसु"मित्यादि, कार्मणकाययोगा-ऽनाहारकमार्गणयोः प्रत्येकम् "गुरु अवठ्ठाणमप्पमत्थि" ति प्रस्तुतत्वादायुर्वर्जानां सप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकं 'गुरु' -उत्कृष्टं स्थितिबन्धावस्थानम् 'अल्पं-स्तोकं भवति, एकेन्द्रियस्य तत्स्वामित्वेन पल्योपमासंख्येयभागमात्रत्वात् । “तओ" त्ति 'ततः'-उक्तोत्कृष्टावस्थानात् “वढी असंखियगुणा" त्ति तेषामेव सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धवृद्धिरसंख्येयगुणा भवति । सुगमम् , उत्कृष्टवृद्धेमिथ्यादृष्टिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्वामिकत्वात् ,तेषां पञ्चेन्द्रियाणां तु पल्योपमसंख्येयभागादिवद्धरपि सम्भवाच्च । “तत्तो" त्ति उक्तोत्कृष्टवृद्धेः "हाणी विसेसहिय" ति उत्कृष्टा स्थितिबन्धहानिर्विशेाधिका भवति, अस्या अपि मिथ्यादृष्टिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्वामिकत्वाद्विशेषाधिकता बोद्धव्या । यदि च 'उत्कृष्टवृद्धिहान्योयोरपि मियादृष्टिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्वामिकत्वे कथं विपर्ययेणोत्कृष्टहान्यपेक्षयोत्कृष्टवद्धिविशेषाधिका नोक्ता, द्वेऽपि तुल्ये नोक्ते वा' इत्याशङ्का स्यात् , तदा तु सोत्कृष्टवद्धेः संक्लेशवद्धया लभ्यमानतया हानेस्तुत्कृष्टा गाः साकारोपयोगाच्यवनेन सम्पद्यमानत्वान्निवर्तनीयेति ॥७१९।।
अथ गतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणयोराह
गयवेए सुहमम्मि य सव्वत्थोवा हवेज्ज उक्कोसा। हाणी तत्तो वड्ढी उक्कोसा होइ संखगुणा ॥७२०॥ णवरं अवगयवेए तिघाईणं भवे असंखगुणा।
परमा वड्ढी तत्तो तुल्लं जेड अवठ्ठाणं ॥७२१॥ (प्र०) "गयवेए" इत्यादि, अपगतवेदमार्गणायां यूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां च बन्धप्रायोग्यानां ज्ञानावरणाद्यन्यतमप्रकृतीनां “सव्वत्थोवा हवेज्ज उक्कोसा हाणी" ति, निरुक्तलक्षणा उत्कृष्टपदगता स्थितिबन्धहानिः सर्वस्तोका भवेदित्यर्थः । “तत्तो" ति तस्या उत्कृष्टहानेस्तत्तज्ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टा वृद्धिः संख्येयगुणा भवति । “नवरं"-परमयं विशेषः; कोऽसावित्याह-"अवगयवेए" इत्यादि, अपगतवेदमार्गणायां वेदनीय-नाम-गोत्रलक्षणानां त्रयाणा
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मार्गणासूत्कृष्टस्थितिवृद्धपाद्यल्पबहु० ] पदनिक्षेपाधिकारे ऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ५३०
मघातिनां "भवे असंखगुणा" ति उत्कृष्टहान्यपेक्षयोत्कृष्टवृद्धिरसंख्येयगुणा भवेत्, न तु शेषज्ञानावरणादीनामिव संख्येयगुणेति भावः । मार्गणा येऽपि ज्ञानावरणादीनां प्रत्येकमुत्कृष्टवृद्धयपेक्षयोत्कृष्टमवस्थानं तुल्यमेव, अतस्तत्तथैव दर्शयन्नाह - "तत्तो तुल्लं जेई अवद्वाणं” ति गतार्थम्, हेतुस्तु श्रेणी प्रत्येकं स्थितिबन्धानामन्तर्मुहूर्तमवस्थानस्य सम्भवादिति द्रष्टव्य इति ।।७२०-७२१।।
अथ यात्कृष्टस्थितिबन्धस्वामिनां मिथ्यात्वायभिमुखतया तदपेक्षयोत्कृष्टबुद्धेस्तदनन्तरम्रुत्कृष्टावस्थानस्य च सम्भवस्तासु मतिज्ञानादिमार्गणासु सममेव प्रस्तुतापबहुत्वं प्राहचउणाण-संयमेसु समइअ - छेअ- परिहार- देसेसु ं । ओहिम्म-सम्म - वेअग-उवसम - सासाण-मीसेसु ॥७२२॥ सव्वत्थोवा जेट्टा हाणी तत्तो हवेज्ज संखगुणा । जेा वड्ढी तत्तो तुल्लं जे अवट्टा ॥७२३॥
(प्रे० ) " चडणाणे "त्यादि, मत्यादिचतुर्ज्ञान- संयमौघमार्गणयोः, सामायिक-छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिक संयम - देशसंयमेषु, अवधिदर्शने, सम्यक्त्वौधौ पशमिकसम्यक्त्व- सासादन- मिश्रदृष्टिमार्गणा स्वित्येवं समुदितासु पञ्चदशमार्गणासु प्रत्येकं "सव्वत्थोवा जेट्ठा हाणो” ति आयुर्वर्जसतकर्मणां 'ज्येष्ठा' - उत्कृष्टा 'हानिः' स्थितिबन्धहानिः सर्वस्तोका । "ततो हवेज्ज संखगुणा जेट्ठा वड्ढी" त्ति ' तत: ' - उत्कृष्ट स्थितिबन्धहानेस्तेषामेव सप्तानां 'ज्येष्ठा' - उत्कृष्टा स्थितिबन्धवृद्धिः संख्येयगुणा भवेत् । सुगमम् प्रस्तुतैकैकमार्गणात्कृष्ट वृद्धेर्मिथ्यात्वाभिमुखाद्यवस्थाभावि - । स्वात् । उक्तञ्च प्राक् स्वामित्वद्वारे
'चरणाणसंयमेसुं समइअ छेअ - परिहारेसुं । देसो-हि-सम्म वेअग-उवसम-सासाण-मीसेसुं ॥७०५ | तप्पा उग्गजहण्णा दुचरमबंधा गुरुं चरमबंधं । कुणमाणो गुरुत्रढि कुणए मिच्छागादिमुहो' || इति || "तुझ ं जे अवाणं" ति उत्कृष्टवृद्धिस्वामिनामेवानन्तरोत्तरसमयेषूत्कृष्टाऽवस्थानस्वामित्वादुत्कृष्टमवस्थानमुत्कृष्टवृद्धेस्तुल्यमेव स्यादिति सुगममिति ।। ७२२-७२३।।
अथ सास्वादनमार्गणायामुक्तमप्यल्पबहुत्वं मतविशेषेणाऽन्यथा दर्शयन्नाह— अहवाऽतिथ सासाणेऽप्पा जेट्टा बड्ढी तओ विसेसहिया । हाणी परमा तत्तो तुल्लं पेयं अवद्वाणं ॥ ७२४ ||
(प्रे०) "अहवा" इत्यादि, अथवा द्वितीयाधिकारस्वामित्वद्वारेऽभिहितात् मिथ्यात्वाभिमुखानां सप्तकर्मसत्कोत्कृष्ट स्थितिबन्धं स्वीकुर्वतामभिप्रायाद्विलक्षणेन रसबन्धविधाने वक्ष्यमाणेन स्वस्थानगताना तुत्कुष्टरस बन्धस्वामित्वमङ्गीकुर्वतां मतेन "त्थि सासणेऽप्पा जेट्ठा वड्ढी "ति
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५३८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणासूत्कृष्टस्थितिवृद्धयाद्यल्पबहु० सासादनमार्गणायां सप्तानां ज्येष्ठा'-उत्कृष्टा वृद्धिः 'अल्पा'-सर्वस्तोका भवति । “तओ विसेसहिया हाणी परमा' ति ततः परमा हानिर्विशेषाधिका भवति, साकारोपयोगक्षयेण प्राप्यमाणत्वात् । "तत्तो तुल्लं यं" त्ति ततस्तुल्यं ज्ञेयम् । किम् ? "अवठ्ठाण" ति अवस्थानम् , उत्कृष्टपदगतानां वृद्धयादीनामल्पबहुत्वस्य प्रस्तुतत्वादुत्कष्टमवस्थानमित्यर्थः ।।७२४।।
___ अथाऽप्रशस्तलेश्यामार्गणात्रये मतद्वयेन स्वामित्वस्य प्रदर्शितत्वादल्पबहुत्वमपि तदनुसारेण प्रदिदर्शयिषुरतिदिशन्नाह
अपसत्थतिलेसासुतिण्ह गुरुपयाण अस्थि ओघब्ब ।
अप्पाबहुगं अण्णे भणन्ति निरयव्व विण्णेयं ॥७२५॥ (प्रे०) "अपसत्थे”त्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः । भावार्थस्त्वयम्-अप्रशस्तलेश्यात्रये 'अपसथतिलेसासुतिण्ह गुरुपयाण ओघव्व। सामी भणंति अण्णे तिण्हं वि पगाणं निरयव्व' ||७०८।। इत्यनेन तत्तन्मते प्रस्तुतस्थितिबन्धवद्धयादिस्वामिनामप्योघवन्निरयगतिमार्गणावच्चाभिहितत्वात्तदधीनं प्रस्तुतारू पबहुत्वमपि तेन तेन मतेनौघवन्निरयगतिमार्गणावच्च लभ्यत इति तथैवाऽतिदिष्टम् । तच्च "ओघव्व" इत्यनेन ‘सत्तण्णं सव्वप्पा परमा वड्ढी तओ अवट्ठाणं । उक्कोसं अब्भहियं तो गुरुहाणी विरे.सहिया' ॥७१८॥ इत्यनया गाथया दर्शितस्वरूपं ज्ञेयम् । “निरयव्व" इत्यनेन तु 'सेसासु उक्कोसा वड्ढो थोवा तओ विसेसहिया । परमा हाणी तत्तो णेयं तुल्ल अवट्ठाणं ॥७२७।। इत्यनया गाथया वक्ष्यमाणस्वरूपमवसातव्यमिति ।।७२५||
अमणम्मि अवट्ठाणं गुरुमप्पं ताउ अत्थि संखगुणा ।
जेट्टा वड्ढी तत्तो परमा हाणी विसेसहिआ॥७२६॥ (प्रे०) "अमणम्मि” इत्यादि, न विद्यते मनो येषां तेऽमनसः'-असंज्ञिनः, तत्राऽसंज्ञिमार्गणास्थाने “अवहाणं गुरुमप्पं" ति उत्कृष्टमवस्थानम् 'अल्पं'-वक्ष्यमाणपदद्वयापेक्षया स्तोकं भवति, पञ्चेन्द्रियाणां स्वस्थान एव तत्स्वामितयोत्कृष्टस्याऽपि तस्य पल्योपमसंख्येयभागमात्रत्वसम्भवात् । असंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां वन्धप्रायोग्यजघन्यस्थितिबन्धापेक्षयाऽप्युत्कृष्टस्थितिबन्धस्य पल्योपमसंख्येयभागमात्रेणाधिकत्वादिति भावः । "ताउ अस्थि संखगुणा जेट्ठा वढी"त्ति तस्माज्ज्ञानावरणादीनां सप्तानामुत्कृष्टाऽवस्थानात्तेषामेव ज्ञानावरणादीनां 'ज्येष्ठा' उत्कृष्टा 'वृद्धिः'-स्थितिबन्धवृद्धिः संख्येयगुणा भवति । कुतः ? एकेन्द्रियाच्युत्वाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमानानां परस्थाने तत्स्वामितया सागरोपमस्य किश्चिदूनसहत्रत्रयादिसप्तभागप्रमाणत्वात्तस्याः । तत्र किञ्चिदूनत्वेन पल्योपमसंख्येयभागाभ्यधिकसागरोपमत्रिसप्तादिभागा एव विज्ञेया। तथाहि-यो ह्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोपित्सुरेकेन्द्रियः स न सर्वसंक्लिष्टः, स्वप्रायोग्यसर्वसंक्लेशवतामेकेन्द्रियाणामनन्तरसमये मृत्वा एकेन्द्रियतयैवोत्पत्तेः, अत एव नेषन्मध्यमसंक्लिष्टो मध्यमसंक्लिष्टो वा, तथाविधा
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मार्गणासूत्कृष्टस्थितिवृद्धयाद्यल्पबहु० ] पदनिक्षेपाधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ५३९ नामनन्तरसमये मृत्वा द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियादितयोत्पत्तेः । अयन्त्वसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोपित्सुरिति विशुद्धप्रायः, ततश्चासौ स्वप्रायोग्यजघन्यस्थितिबन्धादभ्यर्णवर्तिनं पल्योपमाऽसंख्येयभागन्यूनसागरोपमत्रिसप्तभागादिमानं स्थितिवन्धं करोति,ततश्च्युत्वाऽनन्तरसमयेऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियत्वे तु सागरोपमस्य पल्योपमसंख्येयभागन्यूनसहस्रत्रयादिसप्तभागप्रमाणं स्थितिवन्धं करोति,न पुनः सागरोपमस्य परिपूर्णसहस्रत्रयादिसप्तभागमानम् , तदानीमपर्याप्तावस्थायामसंज्ञिपञ्चेन्द्रि यबन्धप्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्याऽसम्भवात् । इत्थश्च यथोक्तमाना स्थितिबन्धवृद्धिः प्राप्ता,सा पल्योपमसंख्येयभागप्रमाणोत्कृष्टावस्थानापेक्षया संख्येयगुणैवेति । “तत्तो परमा हाणी विसेसहिया" ति यथोक्तज्ञानावरणाद्युत्कृष्टस्थितिबन्धवृद्धयपेक्षया ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिबन्धहानिर्विशेषाधिका भवति । कथम् ? अस्याः पञ्वेन्द्रियाच्च्युत्वैकेन्द्रियतयोत्पद्यमानस्य परस्थाने भावात् ।
ननु परस्थाने भावादस्या उत्कृष्टहानेरूत्कृष्टवृद्ध्यपेक्षया विशेषाधिकन्वं चेद् व्यत्ययेनोत्कृष्टहान्यपेक्षया उत्कृष्टवृद्धिरेव विशेषाधिका भवतु, तस्या अपि परस्थाने एव लाभाद् , यद्वोभयोरपि परस्थाने भावाद्भपतूभयेऽप्युत्कृष्टावस्थानापेक्षया संख्येयगुणे परस्परं तुल्ये च । न चोभयोः परस्थाने लाभेऽपि विद्यते विशेषो येनोत्कृष्टवृद्धयपेक्षयोत्कृष्टहानिर्विशेषाधिका भवतीति वक्तुयुज्यते, एकेन्द्रियात्पञ्चेन्द्रि यतया, पञ्चेन्द्रियादेकेन्द्रियतया, एवं पर्याप्तत्वादपर्याप्ततपोत्पादे वाणारस्या अयोध्यामयोध्याया वाणारस्यां गच्छतामागञ्छतामिवाऽविशेषेण तुल्यान्तरस्यैव सम्भवात् ,तदपेक्षयवोत्कृष्टवृद्धिहान्योः सम्पद्यमानत्वाञ्च । यदि स्याद् द्वीन्द्रियात्पञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमानानामुत्कृष्टवृद्धिः, पञ्चेन्द्रियादेकेन्द्रियतयोत्पद्यमानानांचोत्कृष्टहानिः, यद्वाऽपर्याप्तैकेन्द्रियादपर्याप्ताऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमानानामुत्कृष्टवृद्धिः,पर्याप्ताऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियादपर्याप्तकेन्द्रियतयोत्पद्यमानानां हानिश्च,तदा परस्थाने लभ्यमानयोरप्युत्कृष्टवृद्धिहान्योः परस्परं विलक्षणत्वाद् यथोक्ताल्पबहुत्वम् किन्तु नास्ति तथा विशेष इत्यनोऽनयोः परस्परं तुल्यत्वमेव वक्तव्यम् ? इति चेद्, न, भवदुक्तविशेषाभावेऽप्येकेन्द्रियतयोत्पित्सूनामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां सर्वसंक्लिष्टप्रायःतया विशेषान्तरस्य सद्भावात् ।
किमुक्तं भवति ? एकेन्द्रियतयोपित्सवोऽसंज्ञिपन्चेन्द्रिया ह्येकेन्द्रियप्रायोग्यप्रकृतीनां बन्धकाः, ते च यद्यपि तदानीं न सर्वसंक्लिष्टाः, तथापि सर्वसंक्लेशात्किश्चिन्न्यूनसंक्लेशभाज एव, यतः सर्वसंक्लिष्टा एते नरकप्रायोग्यप्रकृतीर्वघ्नन्ति, ततः किश्चिन्मात्रविशुद्धा एकेन्द्रियप्रायोग्याः प्रकृतीर्वघ्नन्ति,ततोऽपि विशुद्ध-विशुद्धतराद्वीन्द्रियादिप्रायोग्या बध्नन्ति,यावत्सर्वविशुद्धादेवप्रायोग्या बध्नन्ति । यत उक्त शतक -'अच्चंतसंकिलिट्ठो णिरयपाओगं बंधइ त्ति, तओ विसुद्धो तिरियपाओ, तो विसुद्धो मणुयपाओगं, तओ विसुद्धो देवपाउग्गंति।' इति ।
इत्थं चैकेन्द्रियतयोपित्सवोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सर्वसंक्लिष्टप्रायाः सन्तः स्वप्रायोग्योत्कृष्टस्थितिमवध्नन्तोऽपि पल्योपमस्य लघुतरसंख्येयभागेन न्यूनामुत्कृष्टस्थितिं बघ्नन्ति, सा तु
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५४० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [मार्गणासु जघन्यस्थितिवृद्वय पल्पबहु० भवप्रथमसमयासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां बन्धप्रायोग्यस्थितितः पल्योपमसंख्येयमागेनाभ्यधिकैव; तां बद्ध्वाऽनन्तरसमये एकेन्द्रियतयोत्पद्यैकेन्द्रियबन्धप्रायोग्यस्थितिं बध्नतां तेषां पूर्वोत्तरसमययोर्बद्धस्थित्योरन्तरमुत्कृष्टवृद्धयपेक्षया विशेषाधिकं भवति । इत्येवं प्रकृताल्पबहुत्वमपि यथोत्तमेव लभ्यत इत्यलं विस्तरेण ॥७२६॥ अथ शेषमार्गणासु प्रस्तुतोत्कृष्टपदगतवद्धयादि विषयकाल्पबहुत्वमाचष्टे
सेसासु उक्कोसा वड्ढी थोवा तओ विसेसहिआ।
परमा हाणी तत्तो णेयं तुल्लं अवट्ठाणं ॥७२७॥ (प्रे०) “सेसासु"ति भणितशेषासु मार्गणासु प्रत्येक मुत्कृष्टा वृद्धिः स्तोकाः, । ततः 'परमा'उत्कृष्टा हानिविशेषाधिका,ततस्तूत्कृष्टमवस्थानं तुल्यं ज्ञेयम् । एतासु प्रत्येकमनन्तरं सासादनमार्गणायां मतान्तरेण स्वस्थाने उत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वमपेक्ष्याऽल्पबहुन्वमुक्तं तथैव विज्ञेयम् ,प्रत्येक स्वस्थाने उत्कृष्टस्थितिबन्धस्याभिहितत्वात् ; केवलं मिश्रयोगमार्गणात्रये स्वस्थान इव मतान्तरेण शरीरपर्याप्तिनिष्ठापनादयंगपर्याप्तावस्थायाश्चरमसमयवर्तिनामप्युत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वमभिहितमेव, अतस्तत्र मतद्वयेन विलक्षणं विलक्षणमल्पबहुत्वं भवति, अतस्तास्तिस्रो मार्गणा विहाय शेपमार्गणास्वेवेदं विज्ञेयम् । शेषमार्गणास्त्विमा:-सर्वगतिमार्गणास्थानानि, तानि च सप्तचत्वारिंशत् , सर्वेन्द्रियमार्गणास्थानानि, तानि त्वेकोनविंशतिः, सर्वकायमार्गणास्थानानि. तानि पुनर्द्विचत्वारिंशत् ,पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोगौ-दारिक-तन्मिश्र-वैक्रिय-तन्मिश्रा-ऽऽहारक-तन्मिश्रकाययोग-वेदत्रयी-विभङ्गज्ञान-चक्षुर्दर्शन-प्रशस्तलेश्यात्रिक-क्षायिकसम्यक्त्व-संज्ञिमार्गणास्थानानि चेति ॥७२७।। तदेवमुक्तमुत्कृष्टवृद्धयादीनामल्पबहु त्वम् । साम्प्रतं जघन्यवृद्धयादीनां तदभिधित्सुराह
वड्ढी जहण्णगा खलु हाणी य जहण्णगा अवट्ठाणं । हस्सं तुल्लाई, अह णेयं एमेव सब्बासु॥७२८॥ णवरि अवेए सुहुमे सव्वत्थोवं लहु अवहाणं ।
तो लहुहाणी तुल्ला तो सखगुणा लहू वड्ढी ॥७२९॥ (प्रे०) “वढी जहण्णगा” इत्यादि, खलुशब्दो वाक्यातङ्कतये, स च व्युत्क्रमेण 'हरसं' इत्यस्योत्तरं योज्यः, जघन्यैव जघन्यका स्वार्थे कप्प्रत्ययश्च, ततः प्रकतानां ज्ञानावरणादीनां प्रत्येक जघन्या वृद्धिर्जघन्या हानिः 'हस्वं'-जघन्यमवस्थानं च त्रीणि खलु तुल्यानि, एकैकस्य समयप्रमाणत्वात् । अथादेशतो दिदर्शयिषुः सापवादमतिदिशति-“अह णेयं एमेव सव्वासु"मिति, अथशब्द आनन्तर्ये, तत ओघप्ररूपणानन्तरमादेशप्ररूपणायां "सव्वासु" ति नरकगत्योघाधनाहारकपर्यन्तासु सर्वमार्गणासु "एमेव" ति ओघवदल्पबहुत्वं 'ज्ञेयं-ज्ञातव्यमित्यर्थः ।
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ओघाऽऽदेशत आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनामुत्कृष्टपदे स्थितिबन्धवृद्धयादीनां
सन्पद-स्वामित्वा-ऽल्पबहुत्वप्रदर्शकं यन्त्रम् । कुत्र मार्गणादौ ? | अल्पबहु० । सत्पद०
स्वामिनः
हानि०
धिदर्शन-सम्यक्वोध-क्षायापत सख्यातगुण
ओघतः काययोगौच-कषा- स्तोक०
जन | चतु:स्थानिकयवमध्यादुपरितनस्थितिबन्धस्थानेऽन्तःकोटीकोटिसा
वृद्धि० यचतुष्क-मत्यज्ञान-श्रुना
गरोपमस्थिति बद्ध्वाऽनूपदमूत्कृष्टडायनोत्कृष्टस्थिति बध्नन्तः ।
उत्कृष्टस्थितिबन्धात्साकारोपयोगक्षयेण तत्प्रायोग्यजघन्यस्थितिबन्ध ज्ञाना-ऽसंयमा-ऽचक्षुर्दर्श- | विशेषाधिक० अवस्थान०
कुर्वन्त: पर्याप्तसज्ञिपञ्चेन्द्रियाः । ना-★ऽप्रशस्तलेश्यात्रयभव्या भव्य-मिथ्यात्वा
देवत्वे उत्कृष्टस्थितिबन्धे प्रवर्तमाने सति च्यूत्व केन्द्रियतयोत्पद्य भव(गाथा०ऽऽहारकेषु च, १६ |७१७-७१८)
प्रथमसमये तत्प्रायोग्यजघन्यस्थिति बघ्नन्तो जीवाः । (गाथा-६६६) मति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्य
तत्प्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धात्साकारोपयोगक्षयेग तत्प्रायोग्यजघन्य| स्तोक0 हानि वज्ञान-संयमोघ-सामायिक
स्थितिबन्धं कुर्वन्तो जीवाः । छेद-परिहार.देशसंयमा-ऽव तुल्या वृद्धि०
तत्प्रायोग्यद्विचरमस्थितिबन्धान्मार्गणाप्रान्ते चरममूत्कृष्टं स्थिति
बन्धं कुर्वन्तो मिथ्यात्वाद्यभिमुखा जीवाः । शमिको-पशमिक-मिश्र A-I(गा-७२२
मिथ्यात्वाद्यभिमुखा उत्कृष्टवृद्धिस्वामिन एव तदनन्तरसमयेषु ताव
अवस्थान सास्वादनेषु, १५ | ७२३)
न्मात्रस्थितिब-धं कुर्वन्तः। (गाथा-७०५-७८६-७०७) अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगपर्याप्तमनुष्या-ऽऽनतादि- |
तत्प्रायाजधन्यस्थितिबन्धान संक्लेशेन तत्प्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्ध स्तोक० वृद्धि
कुर्वन्तो जीवा: । सर्वार्थसिद्धान्त-(१८) देव
उत्कृष्टस्थितिबन्धात् साकारोपयोगक्षयेण तत्प्रायोग्यजघन्यस्थिति भेद सर्वकेन्द्रियविकलेन्द्रिया- विशेषाधिक
बघ्नन्तो जीवाः । उपर्याप्तपंचेन्द्रिय-पृथिव्यादिपञ्चकायसर्वभेदा-ऽपयां-] तुल्य
उत्कृष्टहान्यनन्तरसमयेषु तावन्मात्रस्थितिबन्धं कुर्वन्तो जीवाः । तत्रस-त्रिमिश्रयोगा-हारक-( अवस्थान
(गाथा-६१०-९११) योग-क्षायिक-शुक्लासु.८३ | तोक०
उत्कृष्टहान्यनन्तरसमये तावन्मात्रस्थिति बध्नन्त एकेन्द्रियाः।
तत्प्रायोग्यजघन्यात् स्थितिबन्धात्संक्ले शवृद्धया तत्प्रायोग्योत्कृष्टकार्मणकाययोगा-ऽनाहा. असंख्यगुण वृद्धि० ।
स्थितिबन्धं कुर्वन्तः संज्ञिपञ्चेन्द्रिया: । रकमार्गणयोः, २ विशेषाधि० हानि० तत्प्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धात्साकारोपयोगक्षयेण तत्प्रायोग्य(गा-७१९)
जघन्य स्थितिबन्धं कुर्वन्तः संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः । (गा-७००-१-२)
स्तोक०
उपशमश्रेणिमारोहन्तो मार्गरणाप्रथमस्थितिबन्धाद् द्वितीयस्थिति
बन्धं कुर्वन्तस्तत्प्रथमसमये। अपगतवेद-सूक्ष्मसम्पराय
श्रेरिणत: प्रतिपतन्तो परिवारसस्थितिबन्धादरम संयममार्गणयोः, २D संख्यगुण वृद्धि
कुर्वन्तस्तत्प्रथमसमये। तुल्य० अवस्थान० अनन्तरोक्तोत्कृष्टवृद्धिस्वामिन एव वृद्धयनन्तरसमयेषु तावस्थिति (गा-७२०) बध्नन्तः।
(गाथा-७०३-७०४) ★ अप्रशस्तलेश्यात्रये मतान्तरेणा-ऽल्पबहत्वं स्वामित्वं च निरयगत्योघमार्गणावदिति (७०८-७२५)।
सास्वादने मतान्तरेण-उत्कृष्टवृद्धिः स्तोका, तत उत्कृष्टहान्यवस्थाने तुल्ये विशेषाधिके चेति (गाथा-७२६)। अपवाव:-अपगतवेदे तिसृरणामघातिप्रकृतीनामुत्कृष्टवृद्धिरसंख्येयगुणाः,ततस्तुल्यंतदीयावस्थानमिति (गा-७२१)।
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असंज्ञीमार्गायाम्, १ मख्येयगुण ० वृद्धि०
विशेषाधिक० | हानि०
स्तोक० वृद्धि०
विशेषाधि० हानि
निरयगत्योघादिशेषमार्ग
खासु,
५१
कुत्रमार्गणादौ ?
श्रपगतवेद- सूक्ष्म सम्पराय
संयमयोः,
२
स्तोकo प्रवस्थान० तत्प्रायोग्य जघन्यात्तत्प्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धं कुर्वन्तः पञ्चेन्द्रियाः । एकेन्द्रियात्पञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमाना भवप्रथमसमये ।
पञ्चेन्द्रियादेकेन्द्रियतयोत्पद्यमाना भवप्रथमसमये । (गाथा - ७०६)
प्रोघवत् ।
उत्कृष्टात्तत्प्रायोग्यजघन्यस्थितिबन्धं कुर्वन्तः ।
उत्कृष्टहानिस्वामिनस्तमेव स्थितिबन्ध ं कुर्वन्तः । ( ६९६-६७-६८ )
तुल्य ० अवस्था०
ओघाऽऽदेशत आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां जघन्यपदे स्थितिबन्धवृद्ध यादीनां सत्पद-स्वामित्वा-ऽल्पबहुत्वप्रदर्शकं यन्त्रम्
स्वामिनः
प्रौद्यतः शेषसर्वमार्गणासु
च,
१९६८
अल्पबहु० सत्पद०
स्तोक०
हानि०
तुल्य० अवस्था०
संख्यगुण० वृद्धि० - (गा- ७२९)
तुल्य ० (गा- ७२८)
वृद्धि०
हानि०
श्रवस्था०
द्विचरम स्थितिबन्धाच्चरमस्थितिबन्धं कुर्वन्तः क्षपकाः । जघन्यान्यनन्तरसमयेषु तदेवस्थितिबन्धं कुर्वन्तः क्षपकाः । उपशान्ताद्धाक्षयेण पतन्तो मागंगाप्रयमस्थितिबन्धाद्वितीय. स्थितिबन्धं कुर्वन्तो जीवाः । ( गाथा - ७१५- ७१६ )
यथासम्भवं क्षपको - पशमक-मिथ्यात्वाद्यभिमुखजीवान् विहाय अन्यतमा: समयमात्रेण हीनाधिक स्थितिबन्धं कुर्वन्तो जीवाः । ( गाथा - ७१२.... )
अत्रैवापवदन्नाह - 'णवरि' इत्यादिना, नवरम् "अवेए सुहुमे" ति अपगतवेदमार्गणायां सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां च प्रत्येकं “सव्वत्थोवं लहु अवद्वाणं" ति सर्वस्तोकं 'लघु' - जघन्यमवस्थानं । “तो लहुहाणी तुल्ला" तिततो 'लघुहानिः '- जघन्यहानिस्तेन जघन्यावस्थानेन तुल्या । " तो संखगुणा लहू वड्ढो" त्ति ततो 'लघुः - जघन्या वृद्धि: संख्येयगुणा, यत इमा चारित्रमोहोपशमकस्य जायते, प्राक्तने जघन्या स्थानहानी तु क्षपकस्येति ।। ७२८-७२९।।
तदेवमभिहितं जघन्यपदेऽपि वृद्ध्यादीनामल्पबहुत्वमोघादेशतः, तथा च कृते निष्ठितमल्पबहुत्वद्वारम् । तस्मिँश्च निष्ठिते निष्ठामितः “पयणिक्खेवो" इत्यनेनोद्दिष्टश्वतुर्थाधिकारः || आप्तं हि मया कृत्वा पदनिक्षेपाधिकारवृत्तिमिमां । तत्सुकृतात्कर्मरिपोः पदनिक्षेप्यस्तु शिरषि जगत् ॥ (गीतिः)
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे चतुर्थे पदनिक्षेपाधिकारे तृतीयमल्पबहुत्यद्वारं समाप्तम् ।।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे चतुर्थः पदनिक्षेपाधिकारः ॥
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॥ वृदयाघकास ॥ साम्प्रतं “वड्ढी” इत्यनेन स्थितिबन्धग्रन्थप्रारम्भे उद्दिष्टस्य वृद्धयाख्यस्य पञ्चमाधिकारस्यावतरः । अवाप्यधिकारे प्राग द्वितीयगाथावत्तौ भणितस्वरूपायाः पदनिक्षेपद्वारविषयाद्विलक्षणाया भूयस्कारविशेगात्मिकायाः संख्येया-ऽसंख्येयगुण-संख्येया-ऽसंख्येयभागभेदभिन्नायाः मूलाष्टकर्मणां स्थितिबन्धवद्धेस्तथोपलक्षणात तथाविधायाः स्थितिबन्धहानेः स्थितिबन्धावस्थानस्य च सत्पदादिद्वारेषु प्ररूपणा कर्तव्या, अतोऽधिकारप्रारम्भे प्रथमस्तावत्प्राक संख्यामात्रेणाभिहितानि द्वाराणि नामतः क्रमतश्च ज्ञापयन्नाह
णेयाणि वड्ढिबन्धे अहिगार पंचमे दुआराइं । तेरस संतपयं तह सामी कालंतराइं य ॥७३०॥ भंगविचयो य भागो परिमाणं खेत-फोसणाउ तहा।
कालो अंतर-भावा अप्पाबहुगं जहाकमसो ॥७३१॥
(प्रे०) “णेयाणि वढिबंधे” इत्यादि, मूलप्रकृतिस्थितिबन्धमधिकृत्य- मूलपयडिठिइबंधे अहिगारा पढमबीअभूगारा। पयणिक्खेवो वड्ढी अज्झवसाणसमुदाहारो॥२॥ इत्यादिनोद्दिष्टपडधिकारान्तःप्रविष्टे पञ्चमे "वडिढबंधे" त्ति वद्धिवन्धाधिकारे त्रयोदश द्वाराणि यथाक्रमशो ज्ञेयानीति क्रियान्वयः । तान्येव येन क्रमेण ज्ञातव्यानि तेन क्रमेणैवाह-"संतपय"मित्यादि, प्रथमं सत्पदद्वारम् ,ततो द्वितीयं स्वामित्वद्वारम्,ततः पुनस्तृतीयं कालद्वारम्,तदनन्तरं तु चतुर्थनन्तरद्वारम्,इत्थमेव पञ्चमं भङ्गविचयद्वारम्, षष्ठं भागद्वारम् , सप्तमं परिमाणद्वारम्,अष्टमं क्षेत्रद्वारम्,नवमं स्पर्शनाद्वारम्, दशमं कालद्वारम्, एकादशमन्तरद्वारम् , द्वादशं भावद्वारम् , त्रयोदशं पुनरल्पबहुत्वद्वारम् । अत्रापि द्वितीयाधिकारवद् भृयस्काराधिकारवद्वा भङ्गविचय प्रभृतीनि द्वाराणि तु नानाजीवानाश्रित्य विज्ञेयानि, व्याख्याऽप्येतेषां सत्पदद्वारावर्जानां स्वामित्वादिद्वाराणां प्रत्येकं द्वितीयाधिकारप्रारम्भेऽभिहितस्य “दुइए अहिगारे अहे" त्यादिगाथा-(३२-३३) द्वयस्य वृत्त्यनुसारेण द्रष्टव्या, केवलं तत्र सा उत्कृष्टादिस्थितिबन्धमधिकृत्य दर्शिता, अत्र तु संख्येयाऽसंख्येयगुणवृद्धि-हान्यादिकमधिकृत्य वक्तव्या । सत्पदद्वारे तु संख्येयगुणादिवृद्धिहानिषु केषां मूलकर्मणामोघतो मार्गणास्थानेषु च कियन्ति पदानि सद्भूतानीत्येतत्प्ररूपयितव्यमिति ।।७३०-७३१॥
॥ प्रथम सत्पदद्वारम् ॥ तदेवमधिकारप्रारम्भे द्वारनामधेयानि व्याहत्य साम्प्रतं तेषु सत्पदादिद्वारेषु मूलाष्टप्रकृतिविश्यकस्थितिबन्धस्य संख्येयगुणाऽसंख्येयगुणवृद्धयादीनां सत्पद-स्वामित्वादिकं चिचिन्तयिषुरादौ
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५४४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ आयुषोऽसंख्यभागहान्यवक्तव्यसत्पदादि० तावद् भूयस्कारादिप्ररूपणया तुल्यत्वादल्पवक्तव्यत्वाचाऽऽयुषः सत्पदादित्रयोदशद्वारविषयां प्ररूपणामेकयाऽऽर्ययाऽतिदेशादिना समापयन्नाह
अस्थि अवत्तव्वत्तं बंधस्स असंखभागहाणी य । भूगारवाऽऽउस्स उ संतपयाईसु दारेसु॥७३२॥ (प्रे०) "अत्थि अवत्तव्वत्त"मित्यादि, 'अस्ति'-विद्यते,सदित्यर्थः । किमित्याह-"अवसव्वत्त"मित्यादि, 'बन्धस्य'-स्थितिवन्धस्याऽवक्तव्यत्वम् , अवक्तव्यस्थितिबन्धपदमिति भावः । "असंखभागहाणी य" त्ति स्थितिबन्धस्याऽसंख्यभागहानिश्च अस्य, च 'आउस्स' इति परेण योगस्तत आयुःकर्मणोऽवक्तव्यलक्षणस्थितिबन्धोऽसंख्यभागस्थितिबन्धहानिश्च द्वे पदे सती, अन्यपदानि वसन्त्येवेत्यर्थः । इदमुतं भवति-आयुषोऽवक्तव्यवन्धस्तु भूयस्काराधिकारे उक्तस्त थैव,भूयस्कारा-ऽवस्थितस्थितिवन्धौ तु तत्राप्यसन्तावेवाभिहितो,यत् पुनस्तत्राल्पतरस्थितिबन्ध उक्तः सोऽत्र हानितया गृह्यते, आयुश्वावस्थानयोग्यतालक्षणस्थितिकमधिकृतम् , तच्च बध्यमानं जघन्यत उत्कृष्टतो वाऽसंख्येयसमयस्थितिकमेव बध्यते । कुतः ? साधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणांसाधिकषट्पञ्चाशदधिकशतद्वयावलिकानां चाऽसंख्येयसमयमात्रत्वात् । ततश्च तद्वन्धाद्धाया द्वितीयादिसमयेषु समयसमयाऽबाधाहानौजायमानस्थितिबन्धहानिमपेक्ष्याऽल्पतरबन्धरूपा हानयोऽप्येकैकसमयप्रमाणा भवन्ति,ताश्च पूर्वसमयबद्धस्थित्यपेक्षयाऽसंख्यभागमात्रहीनस्थितिबन्धरूपा इत्येकविधा हानिरेव सत्तया प्रतिपादितेति । इत्येवं भूयस्काराधिकारोक्त आयुषोऽल्पतरस्थितिबन्ध एव प्रकृतेऽसंख्यभागहानितया प्राप्यते, तथाच सति तत्रोक्तायुषोऽल्पतरावक्तव्यस्थितिबन्धविषया सर्वा प्ररूपणात्र वृद्धयधिकारे ऽपि निर्विशेषेणोपपद्यत इति कृत्वा लाघवार्थी सर्वा तथैवाऽतिदिशन्नाह-“भूगारव्वाउस्स उ" इत्यादि, तत्रतुशब्दः शेषसप्तकर्मणां प्रकृताधिकारविषयायाः सर्ववक्तव्यताया भूयस्काराधिकारोक्तवक्तव्यतयाऽतुल्यत्वेन तदपेक्षयाऽऽयुषः प्रकृताधिकारविषयायाः सर्ववक्तव्यताया भूयस्काराधिकारोक्तवक्तव्यतया तुल्यत्वरूपविशेषस्य द्योतनाथः । ततो भूयस्काराधिकारण साम्याद् 'आयुषः'-आयुःकर्मणः स्थितिबन्धवृद्धयादिविषये "संतपयाईसु दारेसु" ति सत्पदाद्यल्पबहुत्वान्तेषु त्रयोदशद्वारेषु “भूगारव्व" त्ति भूयस्काराधिकारवद्, वक्तव्यमिति शेषः । अयमत्र विशेषो विज्ञयः-तत्र भृयस्काराधिकारे यत्स्थानेऽल्पतरस्थितिबन्धामिलापेनाऽऽयुषः सत्पदादिवक्तव्यता कृता,अत्र तु तत्स्थाने साऽसंख्यभागहान्यभिलापेन द्रष्टव्या । तद्यथा-सत्पदप्ररूपणायामोघतोऽवक्तव्या-ऽसंख्यभागहान्योः सचं तु मूलकृतैवाभिहितम् । आदेशत:-सर्वासु त्रिषष्टयधिकशतमार्गणास्वपि निर्विशेषेण तथैव बोध्यम् । स्वामित्वद्वारे-ओघत आदेशतश्च सासु मागंणास्वायुषोऽवक्तव्यस्याऽसंख्यभागस्थितिबन्धहानेश्वऽन्यतमोजीवः स्वामी। एकजीवाश्रयकालद्वारे-ओघत आयुषोऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य जघन्य उत्कृष्टश्च कार एक समय एव । असंख्यभागहानेर्जघन्यकाल उत्कृष्टकालश्च प्रत्येकमन्तमुहूर्तम् ।
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आयुर्वर्जानामक्तव्या-ऽवस्थानसत्पदादि० ] वृद्धयधिकारे सत्पदद्वारम्
आदेशतः-सर्वमार्गणास्ववक्तव्यस्थितिबन्धस्य जघन्य उत्कृष्टश्च कालः प्रत्येकमोघवदेकसमय एव । असंख्यभागस्थितिबन्धहानेर्बन्धकालस्तु सप्तचत्वारिंशद्गतिमार्गणामेदेषु, एकोनविंशतिजातिमार्गणाभेदेषु, विचत्वारिंशत्पृथिव्यादिकायमार्गणाभेदेषु, औदारिकमिश्रकाययोग-व्यादिवेदत्रय-मतिज्ञानादिचतुर्ज्ञान-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभङ्गज्ञान--संयमोघ--सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिकदेशसंयमा-ऽसंयम--चक्षुरादित्रिदर्शनमार्गणाभेद-पल्लेश्याभेद-भव्या-ऽभव्य-सम्यक्त्वोध-क्षायिकक्षायोपशमिकसम्यक्त्व-सासादन-मिथ्यात्व-संस--संध्या-ऽऽहारिमार्गणाभेदेष्वित्येतेषु चतुश्चत्वारिंशदभ्यधिकशतमार्गणाभेदेषु प्रत्येकमोघवजघन्यत उत्कृष्टतश्चोभयथाऽप्यन्तमुहूर्तम् , पञ्चमनोयोगपञ्चवचोयोग-काययोगसामान्यौ-दारिक--वैक्रिया--ऽऽहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोग-क्रोधादिकषायचतुष्करूपेष्वेकोनविंशतिमार्गणामेदेषु तु जघन्यत एकसमयः, उत्कृष्टतस्त्वन्तमुहूर्तमिति । इत्थमेव शेषाऽन्तराद्यनुयोगद्वारे धषि दर्शिताभिलापवद् भूयस्काराधिकारवत्त.व्यतानुसारेण स्वयमेवाभिधातव्यमिति ।
तदेवं समाप्ताऽऽयुषः सत्पदादित्रयोदशानुयोगद्वारविषया वक्तव्यता । साम्प्रतमुक्तन्यायेनेवाऽऽयुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनामवक्तव्यावस्थितस्थितिबन्धविषयकवक्तव्यतामप्यतिदिशन्नाह
भूओगारव्व भवेऽवत्तव्वत्तं तहा अवट्ठाणं ।
बंधस्स उ सत्तण्हं संतपयाईसु दारेसु॥७३३॥ (प्रे०) "भूओगारव्व भवेऽवत्तव्वत्त"मित्यादि, भूओगारव्वभवे' त्ति भूयस्काराधिकारोक्तप्ररूपणावद् भवेत् । किं तद् यदप्यायुषोऽल्पतराऽवक्तव्यत्ववन्यस्कारादिप्ररूपणया तुल्यं भवेदित्याह-"वत्तव्वत्त"मित्यादि, तत्रादौ लुप्ताकारदर्शनादवक्तव्यत्वं तथाऽवस्थानमित्येतत्पदद्वयविषयकप्ररूपणा, सा च "बंधस्स उ सत्तण्ह" ति आयुर्विषयकवक्तव्यताया अनन्तरमेव समापितत्वादायुवेर्जानां ज्ञानावरणादीनां मूलप्रकृतीनां 'बन्धस्य'-स्थितिवन्धस्य ज्ञेयेत्यर्थः । तुकारस्तु प्राग्वत्, सप्तानामवस्थाना-वक्तव्यप्ररूपणाया भयस्काराधिकारोक्तावस्थिता-ऽवक्तव्यस्थितिबन्धप्ररूपणया तुल्यत्वेन शेषवृद्धि हानिप्ररूपणापेक्षया विशिष्टत्वादिति । नन्वते आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां स्थितिबन्धाऽवक्तव्यत्वाऽवस्थानयोः प्ररूपणा किं सर्वद्वारेपूत सत्पदद्वार एव भूयस्काराधिकारवज्ज्ञयेत्याह-"संत. पयाईसु दारेसु” ति प्राग्वत्सत्पदादिषु द्वारेषु । अत्र 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति'रिति न्यायेन भावद्वारान्तेषु द्वादशद्वारेष्विति विज्ञेयम्, न पुनः प्राग्वत् त्रयोदशेऽल्पबहुत्वद्वारेऽपि, त्रयोदशेऽल्पषहुत्ववारे भूयस्काराधिकारापेक्षया विशेषवक्तव्यत्वस्य सद्भावेनात्रैवाधिकारेऽभिधास्यमानत्वादिति । इदमत्र हृदयम्-यो हि भूयस्काराधिकारे सप्तप्रकृतीनामवक्तव्यस्थितिबन्धः स एव प्रकृतेऽपि, न च तद्विषये संख्येयाऽसंख्येयगुणत्वादिकं किञ्चिद्विशेषेण चिन्तनीयम्। एवं तत्र भूयस्काराधिकारोक्तसप्तानामवस्थितस्थितिबन्धः स एवात्रानुवर्तते, तद्विषयेऽपि विशेष
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५४६]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [सप्तानामसंख्यसंख्यभाग-गुणवक्तव्यत्वाभावादित्येते उभेऽपि पदे यथा तत्र भूयस्काराधिकारे सत्पदप्ररूपणादिद्वारेष्वोधादेशभेदतः प्रतिपादिते तथैवात्रापि बोद्धव्ये । तद्यथा-अयस्काराधिकारे प्रथमे सत्पदद्वारे ओघतः सप्तानामवस्थिता-ऽवक्तव्यस्थितिबन्धौ सन्तावभिहितौ तथैवात्राऽपि तौ सन्ताववगन्तव्यौ । आदेशतस्तु यथा तत्रावस्थितस्थितिबन्धः सर्वासु सप्तत्युत्तरशतमार्गणास्वपि सन् प्रतिपादितस्तथैवात्रापि सप्तानामवस्थितस्थितिबन्धः स्थितिबन्धस्यावस्थानं वा सर्वमार्गणास्वस्तीति द्रष्टव्यम् । आदेशतोऽवत्तव्यबन्धः पुनर्यथा तत्र मनुष्यगत्योघ-पर्याप्तमनुष्य-मानुपी-पञ्चेन्द्रियोघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्रसकायौघ--पर्याप्तत्रसकाय--पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग--काययोगसामान्यो-दारिककाययोगा-उपगतवेदमतिज्ञान-श्रतज्ञाना--ऽवधिज्ञान-मनःपर्यवज्ञान-संयमोघ-चक्षुर्दर्शना-ऽचक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन-शुक्ललेश्या-भव्य-सम्यक्त्वोध-क्षायिकसम्यक्त्वो-पशमिकसम्यक्त्व-संख्या-ऽऽहारिमार्गणास्वायुर्वर्जसप्तानाम्, लोभमार्गणायां मोहनीयकर्मणश्च सन् प्रतिपादितस्तथाऽत्रापि तास्वेव मनुष्यगत्योघादिषट्त्रिंशन्मागंणासु सन्नित्यभिधातव्यः; न पुनः शेषमार्गणास्वपि, शेषमार्गणासु सत्तयाऽनभिहितत्वादिति ।
स्वामित्व द्वारे-ओघतः सप्तानामवस्थितस्थितिबन्धकस्तत्रोक्तस्वामित्वप्ररूपणागदत्राप्यन्यतमगतिको जीवोऽभिधातव्यः । सप्तानामवक्तव्यबन्धकोऽपि तद्वदेव प्रतिपतन्नुपशमकः,उपशान्तमोहगुणस्थानकादावबन्धकावस्थायां कालं कृत्वा देवतयोत्पन्नो देवभवप्रथमसमयवर्ती जीवो वाऽवगन्तव्यः। अनया दिशा यावद् द्विचरमं भावद्वारं तावत्सर्वं भूयस्कारग्रन्थानुसारेण स्वयमेव द्रष्टव्यम्, चरमेऽल्पबहुत्वद्वारे तु ग्रन्थकृत्स्वयमेव वक्ष्यतीति ।
__ इत्थं हि लाघवार्थ सप्तप्रकृतीनां स्थितिबन्धस्यावस्थानाऽ-वक्तव्येऽप्यतिदिष्टेऽवशिष्टा केवलाऽऽयुर्वर्जानां ज्ञानावरणादीनां सप्तानां संख्येयगुणादिस्थितिवन्धवृद्धिहानिविषया सत्पदादिप्ररूपणा, अतस्तामेव क्रमेणाविचिकीर्षया प्रथमे सत्पदद्वार ओघा-ऽऽदेशक्रमेणाह
वड्ढीओ हाणीओ बन्धस्स चउविहाऽथि सत्तण्हं । एमेव जाणियव्वं णरतिग-दुपणिंदियतसेसु॥७३४॥ पञ्चसु मणवयणेसुकाय-उरालेसु इत्थि-पुरिसेसु। णपुम-चउकसायेसु णाणचउग-संयमेसु य ॥७३५॥ समइअ-छे-ओहीसु चक्खु-अखक्खूसु सुइल-भवियेसु।
सम्मत्तम्मि उवसमे खइए सण्णिम्मि आहारे ॥७३६॥ (प्रे०) "वढिओ हाणीओ” इत्यादि, “सत्तण्ह" ति ओघत आयुर्वर्जानां मौलानां सप्तप्रकृतीनां “बन्धस्य" ति स्थितिबन्धस्य "चउविहा" ति उत्कृष्टस्यापि स्थितिबन्धस्याऽसंख्येयसमयप्रमाणत्वेनाऽनन्तभागाऽनन्तगुणवृद्धयादिरूपप्रकारद्वयस्याऽसम्भवाच्छेषाः चतुर्विधाः' -
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- स्थितिबन्ध वृद्धिहानिसत्पदोपपत्ति०] वृद्धयधिकारे सत्पदद्वारम्
"वड़िओ
संख्येयभागा-ऽसंख्येयभाग-संख्येयगुणा--ऽसंख्येयगुण---भेदनिष्पन्नाचतुः प्रकाराः हाणीओ" ति 'वृद्धयः- पूर्वसमयाऽपेक्षयाऽधिक स्थितिबन्धलक्षणाः, 'हानय:'- पूर्वसमयापेक्षया हीनस्थितिबन्धलक्षणा: “त्थि” त्ति अकारस्य दर्शनात् 'सन्ति' विद्यन्ते । चतुर्विधा वृद्धयश्चतुर्विधा हानयश्च सत्य एव, न पुनरेकेन्द्रियादिकतिपय मार्गणासु यथा संख्येयभागादिवृद्धिहानयो वियदिन्दीवरवदसत्यो वक्ष्यन्ते तथाऽत्रैौघचिन्तायामपीति भाव: । तत्रासंख्यभागस्थितिबन्धवृद्धिहानी प्रत्येकं पदनिक्षेपाधिकारोक्तैकैकसमयात्मकजघन्यवृद्धिहान्यनुसारेणाऽन्यथा वा समर्याद्वसमयादिवृद्धिहानिप्रभृति पल्योपमासंख्येय भागान्त बुद्धिहान्यनुसारेण प्रसिद्धे । संख्येयभागस्थितिबन्धवद्विस्तु पल्योपमसंख्येयभागादिनाऽधिकं स्थितिबन्धं कुर्वतामेकेन्द्रियवर्जजीवानां स्वस्थाने लभ्यते, अत्रैकेन्द्रियाणां वर्जनं तेषां स्ववन्धप्रायोग्यजघन्यस्थितिबन्धात् स्ववन्धप्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धोऽपि पल्योपमासंख्येयभागेनाधिकः सन्नसंख्येयभागाधिकैव वृद्धिः सम्भवति, न पुनस्तदधिकेति । संख्येयभागहानिः पुनश्चतुरिन्द्रियादितश्च्युत्वा त्रीन्द्रियादितयोत्पद्यमानानां जीवानां परस्थाने, स्वस्थाने च पल्योपम संख्येयभागादिना हीनस्थितिबन्धं कुर्वतामेकेन्द्रियवर्जजीवानां प्रसिद्धयति । संख्येयगुणवृद्धिहानिविषयेऽपि तथैव, नवरं चतुरिन्द्रियादिभ्योऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियादितयोत्पद्यमानानां परस्थाने वृद्धिः, संज्ञिपञ्चेन्द्रियादिभ्यो यथोत्तरमसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाद्ये केन्द्रियपर्यन्तेषूत्पद्यमानानां परस्थाने हानि:, स्वस्थाने तु संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेव ते उभेऽपि प्रसिद्ध यतः । सप्तानामसंख्येयगुणस्थितिबन्धवृद्धिहानी तु श्रेणिसत्कस्थितिबन्धानपेक्ष्य प्रसिद्धयतः । तत्राप्यसंख्ययेयगुणवृद्धिः प्रपतत उपशमकस्यानिवृत्तिकरणगुणस्थानकभाविस्थितिबन्धानपेक्ष्य, न पुनः सूक्ष्म सम्परायगुणस्थान भाविस्थितिबन्धानपेक्ष्यापि, तत्र तस्य नव्यनव्यस्थितिबन्धानां पूर्वपूर्वस्थितिबन्धापेक्षया संख्येयभागाधिकानामेव भावात् । एवम संख्ये गुणहानिविषयेऽपि बोद्धव्यं, नवरं श्रेणिमारोहत उपशमकस्य क्षपकस्य वाऽनिवृत्तिकरणगुणस्थान भाविस्थितिबन्धानपेक्ष्यैव न पुनः पूर्ववत् सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान भाविस्थितिबन्धानपेक्ष्य । इदमुक्तं भवति - उपशमश्रेणिमारोहतो यस्य कस्यापि महात्मनो यथोत्तरस्थितिबन्धेषु हीन-हीनतरादिस्थितिर्वध्यते, तत्राप्यनिवृत्तिकरणगुणस्थानके वर्तमानस्य तस्य येषां कर्मणां यस्मिन् स्थितिबन्धे पल्योपमासंख्येयभागमात्रा स्थितिर्बध्यते, तेषां कर्मणां ततः प्रभृति यथोत्तरमसंख्येयगुणहीनक्रमेण स्थितिबन्धाः प्रवर्तन्ते; एवमपि तावद्भवति यावन्नपुंसक वेद - स्त्रीवेदोपशमनादनन्तरं सप्तनोकषायोपशमनाद्वाया मध्ये नामगोत्रयोस्ततो वेदनीयस्यापि प्रथमः संख्ये वार्षिकः स्थितिबन्धो जायते । तदानीं च सर्वेषामेत्र संख्येयवार्षिक एवं स्थितिबन्धः ततः प्रभृति ये तेषामुत्तरोत्तरस्थितिबन्धा भवन्ति, ते न प्राग्वदसंख्येयगुणहीनक्रमेण किन्तु संख्येयगुणहीनक्रमेणैव । उक्त च कर्मप्रकृत्युपशमनाकरणवृत्तौ -
'स्त्रीवेदे उपशान्ते ततः शेषान् सप्तनोकषायान् उपशमयितुमारभते । तेषां चैवं पूर्वोक्तेन प्रकारेणोपशम्यमानानामुपशमनाद्धायाः संख्ये यतमे भागे गते सति “द्वयोः” नामगोत्रयोः संख्ये वार्षिकः स्थितिबन्धो
[ ५४७
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.५४८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणासु सप्तानां चतुर्विधस्थितिवृद्धिहानिः
भवति । वेदनीयस्य पुनरसंख्येयवार्षिक एव । तस्मिंश्च स्थितिबन्धे पूर्णे सति अन्यो द्वितीयस्थितिबन्धो वेदनीयस्यापि संख्येयवार्षिको भवति । तथा च सति सर्वेषामपि कर्मणां ततः प्रभृति संख्येयवार्षिक एव स्थितिबन्धः पूर्वस्माच्च पूर्वस्माच्चान्योऽन्यः स्थितिबन्धः प्रवर्तमानः संख्ये यगुणहीनः प्रवर्तते । ततः स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु सत्सु सप्तापि नोकषाया उपशान्ता भवन्ति ||४६ ||' इति ।
एवमुपशमकस्येतोऽपि यथोत्तरं संख्येयगुणहीनक्रमेण प्रवर्तमानाः स्थितिबन्धा मोहनीयस्य तु वेदोदयं यावत्प्रवर्तन्ते, न पुनस्तदूर्ध्वमवेद्यवस्थायामपि शेषाणां पण्णां तु तदूर्ध्वं क्रमेणाश्वकर्णाद्धामतिक्रम्य किट्टीकरणाद्धाप्रवेशेऽपि निरवच्छिन्नतया तेन संख्येयगुणहीनक्रमेणैव प्रवर्तन्ते, किट्टीकरणाद्धाया ऊर्ध्वं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानाख्यकिट्टीवेदनाद्वाप्रवेशे तु नैकस्यापि कर्मणः प्राग्वत्संख्येयगुणहीनक्रमेण स्थितिबन्धाः प्रवर्तन्ते, किन्तु सर्वे गमपि संख्येय भागहीन क्रमेणैव प्रवर्तन्ते । इत्थं ह्यनिवृत्तिकरणगुणस्थानक एव सप्तानाम संख्येवगुणहानिः प्राप्यते, न पुनः सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने । एवमेवासंख्येयगुणवृद्धिविषयेऽपि भावनीयम्, सामान्यतः प्रतिपतत उपशामकस्याऽपि सूक्ष्मसम्परायाऽनिवृत्तिवादर सम्परायादिगुणस्थानेषु क्तक्रमेणैवाऽनुलोभं स्थितिबन्धादीनां भावादित्यलं विस्तरेण । विस्तरार्थिना तु कर्मप्रकृतिकषायप्राभृतचूर्ण्यादिग्रन्था अवलोकनीया इति । अथयैषा सप्तानामसंख्यगुणस्थितिबन्ध वृद्धिस्त्वन्यथा उपशमश्रेणौ कालं कृत्वा देवतयोत्पद्यमानस्य जीवस्य देवभवप्रथम समयस्थितिबन्धमपेक्ष्यापि प्रसिद्ध्यति । तद्यथा - यः कश्चिदुपशमश्रेणिगतोऽन्तमुहूर्तप्रभृतिपन्योपमासंख्येयभागप्रमाणान्तस्थितिबन्धविकल्पेषु कमपि स्थितिबन्धविशेषं निर्वर्तयन् जीवो भवक्षयादेव गतावुत्पद्यते तदा तस्य तत्रान्तःकोटिकोटिसागरोपमप्रमाणस्थितिबन्धः प्रवर्तते, स च पूर्वसमयजातस्थितिबन्धापेक्षयाऽसंख्यगुणाधिकः, इत्येवं देवभवप्रथमसमय जातस्थितिबन्धमपेक्ष्याऽप्योघतः सप्तानामसंख्येयगुणवृद्धिः सत्रं बिभर्ति । न चेयं प्रतिपतदुपशमकस्य भवक्षयेणासंख्येयगुणहानेः सच्चाविष्करणाय यतनीयम् । प्रतिपतत आरोहतश्च प्रत्येकमपि भवक्षयेऽधिकस्थितिबन्धस्यैव प्रव र्तनेन हानेरेवासम्भवात्कुतोऽसंख्येयगुणहानिसम्भवः, न कुतश्चिदपीति ।
तदेवमभिहितं सप्तानां सम्भत्र द्वयादेर स्तित्वमोघतः | साम्प्रतमादेशतो तदभिधातव्यम्, तत्र यामु मार्गणास्वोचत्वार्यपि संख्येयगुणवृद्धयादिपदानि सद्भूतानि तासु तथैव दिदर्शयिपुर तिदिशति - "एमेव जाणियव्व" इत्यादि, तत्र "एमेव" ति 'एवमेव' - यथौघतः सप्तकर्मस्थितिबन्धविषयकचतुर्विधवृद्धि-चतुर्विधहानीनां सच्चमभिहितं तथैवानुपदं वक्ष्यमाणमनुष्यगत्योघादित्रिचत्वारिंन्मार्गणास्वपि ज्ञातव्यमित्यर्थः । मनुष्यगत्योवादिमार्गणा एव नामत आह- "णरतिगे” त्यादिना, अपर्याप्तभेदवर्जानां मनुष्यगतिमार्गणाभेदानां त्रिके मनुष्यत्रिके, मनुष्यध-पर्याप्तमनुष्यमानुषीमार्गणा स्वित्यर्थः । "दुपणिंदि" ति द्विशब्दस्य प्रत्येकं योजनादपर्याप्त मेदवर्जयोर्द्वयोः पञ्चेन्द्रि यध- पर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदयोः द्वयोस्त्रसौध - पर्याप्तत्र सकाय भेदयोरित्यर्थः । अन्यमार्गणाः संचिन्वन् गाथाद्वयमाह-“पंचसु मणवयणेसु" इत्यादि, पञ्चसु मनोयोगभेदेषु पञ्चसु वचनयोगभेदेषु,
"
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मार्गणासु सप्तानामेक-द्विविधस्थितिवृद्धिहानि० ] वृद्धयधिकारे सत्पदद्वारम्
[५४९ काययोगसामान्यौ-दारिककाययोगयोः, स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद-क्रोधादिचतुःकषायेषु,मत्यादिज्ञानचतुष्क-संयमौषभेदयोः। चः समुच्चये, स चोत्तरगाथाप्रान्ते योज्यः ततः सामायिक-छेदोपस्थापनसंयमा-ऽवधिदर्शनेषु, चक्षुर्दर्शना-ऽचक्षुर्दर्शनयोः, शुक्ललेश्या-ऽभव्यमार्गणयोः, सम्यक्त्वोघे, औपशमिकसम्यक्त्वे,क्षायिकसम्यक्त्वे, संज्ञिमार्गणायामाहारिमार्गणायां चेत्येतासु प्रत्येकं श्रेणिगतजीवानां समावेशादसंख्यगुणवद्धिहान्योः, संज्ञिपञ्चेन्द्रियत्वे सुलभानां शेषाणामसंख्यभाग-संख्यभाग-संख्यगुणवृद्धिहानीनां च यथोक्तनीत्याऽस्तित्वमावेदनीयमिति ॥ ७३४-७३५-७३६ ।।
अथ यासु मार्गणास्वेका वृद्धि रेका च हानिस्तासु तथैव दर्शयन्नाह
सत्तण्हं कम्माणं अत्थि असंखंसवढिहाणीओ। बंधस्म उ सब्वेसु एगिदिय-पंचकायेसु॥७३७॥
(प्रे०) “सत्तण्हं कम्माण"मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलकर्मणां "बंधस्स उ” त्ति प्रस्तुतत्वात् स्थितिबन्धस्य,तुशब्दोऽत्रावधारणार्थों व्युत्क्रमेण गाथापूर्वार्धस्य प्रान्ते योज्यः । “अत्थिअसंखंसवडिढहाणीओ" त्ति अंशो भागश्च वण्टः स्यादि' त्यभिधानचिन्तामणिवचनादंशभागादिशब्दानामेकार्थकतया एकाऽसंख्यभागवद्धिरेका चासंख्यभागहानिस्ते द्वयेव सत्यौ, न पुनरन्या वृद्धि-हानय इत्यर्थः । कासु मार्गणास्वित्याह-"सव्वेसुएगिदियपंचकायेसु” ति एकेन्द्रियसत्कसर्वभेदेषु पथिव्यादिवनस्पतिकायान्तपञ्चकायमार्गणासत्कसर्वभेदेष्वित्येवं षट्चत्वारिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । सुगमं चैतत्, स्थावरभेदेषु सप्तानामुत्कृष्टस्थितिबन्धाज्जघन्यस्थितिबन्धस्य पल्योपमासंख्येवभागमात्राधिकत्वेनोक्तान्यवृद्धयादेरसम्भव एवेति ॥ ७३७ ।।
अथ विकलेन्द्रियभेदेषु द्वे वृद्धी द्वे च हानीति दर्शयन्नाह
सव्वविगलेसु अत्थि उ असंख-संखंसवढिहाणीओ।। (प्रे०) “सव्वविगलेसु" इत्यादि, द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय-लक्षणविकलेन्द्रियसत्केष्वोघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदनिष्पन्नेषु सर्वभेदेषु "अत्थि उ असंखसंखंसवढिहाणीओ" त्ति एवकारार्थकस्य तु शब्दस्य प्राग्वत्प्रान्ते योजनात्प्रस्तुतज्ञानावरणादिसप्तकर्मसत्कस्थितिबन्धस्याऽसंख्यांश-संख्यांशलक्षणे द्वे वृद्धी द्वे च हानीति चत्वारि पदान्येव "अत्थि" ति सन्ति-विद्यन्ते, न पुनरन्यानीत्यर्थः । कुतः ? एतेषु नवभेदेषु प्रत्येकं जघन्योत्कृष्टस्थितिवन्धयोरुत्कृष्टान्तरालस्य पन्योपमसंख्येयभागप्रमाणत्वेनोक्ताधिकवृद्धिहानीनामसम्भव एव । भावना त्वोघवदेव कर्तव्येति ॥
अयान्यविलक्षणत्वात् सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां पृथगाहसंखंसवढिहाणी सुहुमे छण्हऽत्थि बंधस्स ॥७३८॥
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५५० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ सूक्ष्मसम्पराय-गतवेदयोरायुर्वर्जस्थिति० (०) "संखंसवढिहाणी" इत्यादि, "सुहुमे" त्ति सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां "छण्ह" त्ति मोहनीपायुर्वर्जानां शेषाणां ज्ञानावरणादीनां षण्णां मूलकर्मणां प्रत्येकं "बंधस्स" त्ति प्रक्रमात्स्थितिबन्धस्य "संखंसवडिहाणी"त्ति संख्येयांशवृद्धिः संख्येयांशहानिश्च द्व एव "त्थि" त्ति पूर्वमकारस्य दर्शनात् 'अत्थि' ति स्त इत्यर्थः, सद्भूत इति यावत् । अत्र षण्णां संख्येयभागमात्रवृद्धिहान्योरेवास्तित्वं न पुनस्तदन्यासामसंख्यभागादिवद्धिहानीनामित्येतत्सर्वमौघिकासंख्येयगुणवृद्धि-हानिविवरणानुसारेण भावनीयमिति ॥ ७३८ ॥
अथाऽपगतवेदमार्गणायां प्रस्तुतमाह-- गयवेए संखेज्जंस-गुण-असंखगुणवढिहाणीओ।
एगा दो तिण्णि कमा मोह-तिघाइ-इयराण कमा ॥७३९॥ (प्रे०) “गयवेए संखेज्ज"मित्यादि, "गयवेए"त्ति अपगतवेदमार्गणायां "संखेज्जंसगुण-असंखगुणवढिहाणीओ" ति द्वन्द्वान्ते श्रुयमाणं पदं प्रत्येकं सम्बध्यते' इति न्यायेन वृदिहानिपदस्य संख्येयांशादिना प्रत्येक योजनात् संख्येयभागवृद्धिहानी, तथा प्रथमोक्तसंख्येयशब्दस्यांशशब्देनेव गुणशब्देनाऽपि योजनात् संख्येयगुणवृद्धिहानी, असंख्यगुणवृद्धिहानी चेत्यर्थः । ततः किमित्याह-एगा दो तिणि कमा" ति क्रमाद् ‘एका'-संख्येयभागवृद्धिहान्यात्मिका, क्रमाद् ‘द्वे' -संख्येयभागवृद्धिहानि-संख्येयगुणवृद्धिहान्यात्मिके, क्रमात् 'तिस्रः' -संख्येयभाग-संख्येयगुणा-ऽसंख्यगुणात्मकत्रिविधवृद्धिहानयश्चेत्यर्थः । ताश्च 'मोहतिघाइइयराण कमा' त्ति क्रमात 'मोह' ति मोहनीयकर्मणः, "तिघाइ" ति मोहनीयस्यानन्तरमुक्तत्वात्त दर्जानां शेषाणां ज्ञानावरणदर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानां त्रयाणां घातिकर्मणाम् , “इयराण" ति उक्ततरेषां गतवेदमार्गणायां बध्यप्रायोग्यानां वेदनीय-नाम-गोत्रकर्मणां च क्रमाद्विज्ञयाः। ____ इदमुक्तं भवति-पुवेदान्यवेदवतो वेदोदयविच्छेदादुर्घ सप्तनोकायोपशमनाऽद्धायां यथोत्तरं संख्येयभागहीनक्रमेण प्रवर्तमानान् मोहनीयस्थितिबन्धानपेक्ष्य मोहनीयस्यैका संख्येयभागहानिः । तस्यामेव सप्तनोकपायोपशमनाद्धायां यथोचरं संख्येयगुणहीनक्रमेण प्रवर्तमानान् ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायकर्मणां स्थितिबन्धानपेक्ष्य तेषामेा संख्येयगुणहानिः, अन्यास्तु सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानभाविन्यसंख्येयभागहानिश्च । एवमेव शेषवेदनीय-नाम-गोत्रकर्मणामपि द्वे हानी, नवरं तेषां सप्तनोकषायोपशमनाद्धायाः प्रारम्भे कतिपयस्थितिबन्धा यथोत्तरमसंख्येयगुणहीनक्रमेण प्रवर्तन्ते, अतस्तृतीयाऽसंख्येयगुणहानिरपि लभ्यते । एता हि श्रेणिमारोहतो भवन्ति, प्रपततस्तु ततो वैपरीत्येन मोहनीयस्थितिबन्धस्यैका संख्येयभागवृद्धिः, ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणां प्रत्येक स्थितिबन्धस्य संख्येयभागवृद्धिः संख्येयगुणवृद्धिश्चेति द्वे वृद्धी, शेषागां वेदनीय-नाम-गोत्रकर्मणां प्रत्येकं तृतीयाऽसंख्यगुणवृद्धिरपीति तिस्रो वृद्धयो भवन्ति । ननु पुवेदेन श्रेणिमारोहन्तं जीव
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शेष मागणास्वायुर्वर्ज स्थितिवृद्धयादि० ] वृद्धयधिकारे सत्पदद्वारम्
[ ५५१
मादायैतास्तिस्रो हानयो वृद्धयश्च नोपपाद्यन्ते, किन्तु तदन्यवेदिनमधिकृत्योपपाद्यन्ते ? उच्यते,
वेदेन श्रेण समारोहतः सप्तनोकषायोपशमनाद्वायामपि सवेदितयैवावस्थानेन सप्तनोकषायोपशमनाद्भाभाविनी वेदनीय- नाम - गोत्र-कर्मणां स्थितिबन्धविषयाऽसंख्यगुणहानिः, तथा तस्यैव प्रतिपततो यासंख्यगुणवृद्धिश्च साऽपि प्रकृतमार्गणावहिर्भाविनीति कृत्वा लाघवार्थं पुवेदान्यवेदिनमादाय त उपपाद्येते, तस्य पुरुषेतरवेदिनो वेदनीयादीनामसंख्येयगुणस्थितिबन्धवृद्धि-हानिकालेऽपि प्रस्तुतमार्गणायामवस्थानात् । विस्तरार्थिना तु कर्मप्रकृत्युपशमनाकरणग्रन्थोऽनसर्तव्य इति || ७३९ ||
अथोक्तशेषमार्गणासु प्रस्तुतमाह
सत्तण्हं कम्माणं असंखसंखंसवड्ढिहाणीओ । संखगुणवदिहाणी अत्थि उबंधस्स सासु ॥ ७४०॥
(ग्रे०) “सत्तण्हं कम्माण' 'मित्यादि, आयुः कर्माधिकृत्य सर्वविधप्ररूपणायाः प्रागतिदिष्टत्वात्तद्वर्जानां सप्तानां मूलकर्मणां “बंधस्स "त्ति स्थितिबन्धस्य “ असंख - संखं सवदिहाणीओ संगुणsिहाणी अत्थि उ" त्ति अंशवृद्धिहानीति शब्दस्य प्रत्येकं योजनादसंख्यांशवृद्धिहानी संख्येयांशवृद्धिहानी तथा संख्येयगुणवृद्धिहानीति षट्पदान्येव सन्ति, अन्ये द्वे पदे त्वतीत्यर्थः । कासु मार्गणास्वित्याह - " से सासु ति उक्तशेषासु नरकगत्योघादिसप्त तिमार्गणासु । ताश्च मार्गणा इमा:- अष्ट नरकगतिभेदाः, पञ्च तिर्यग्गतिभेदाः, अपर्याप्तमनुष्यभेदः, त्रिंशदेवगतिभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियभेदः, अपर्याप्तत्रसकाय भेदः, औदारिकमिश्र - वैक्रिय-वैक्रियमिश्रा ऽऽहारका -ऽऽहारकमिश्र - कार्मणकाययोग - मत्यज्ञान - श्रुताज्ञान- विभङ्गज्ञान- परिहारविशुद्धिकसंयम- देशसंयमा--ऽसंयमकृष्णादिपञ्च लेश्या भव्य क्षायोपशमिकसम्यक्त्व- सासादन- सम्यग्मिथ्यात्व - मिथ्यात्वा ऽसंज्ञय--नाहारिमार्गणाश्चेति । नन्वेतासु कुतः षण्णां पदानामेवास्तित्वम्, न पुनरन्ययोर्वा द्धिहान्योः ? इति चेद्, उच्यते, एतासु प्रत्येकं श्रेणिगतजीवानामलाभादसंख्यगुणवृद्धिहानिरूपे पदे न प्राप्येते, ताहवृद्धिहान्योः श्रेण्यधीनत्वात्, तदन्यवृद्धिहानीनां सच्चं तु प्रत्येकमन्तः सागरोपमकोटीकोटयादिप्रमाणस्थितिबन्धस्य लाभात्तदपेक्षया प्रसिद्धयति । यद्यप्यसंज्ञिमार्गणायामेवं नास्ति, तथाऽपि तत्रैकेन्द्रि यादिभिन्नभिन्नजातीयानां जीवानामपि प्रवेशात् परस्थानापेक्षया संख्येयगुणवृद्धिहान्यपि प्राप्येते । शेषवृद्धिहानयस्तु द्वीन्द्रियादीनां स्वस्थान भाविस्थितिबन्धापेक्षया ज्ञेया इति ॥ ७४० ॥ तदेवमभिहितानि शेषमार्गणास्वपि ज्ञानावरणादीनां सम्भवत्संख्येयगुणादिस्थितिबन्धवृद्धिहानि सत्पदानि । तेषु चाभिहितेषु गतमाद्यं सत्पदद्वारम् ।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पश्चमे वृद्धयधिकारे प्रथमं सत्पदद्वारं समाप्तम् ॥
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॥ अथ द्वितीयं स्वामित्वद्वारम् ॥ एतर्हि क्रमप्राप्ते स्वामित्वद्वारे ज्ञानावरणादीनां मूलप्रकृतीनां दर्शितसंख्येयगुणादिस्थितिबन्धवृद्धयादिसत्पदानां स्वामिनः प्रचिकटयिषुरादौ तावदोघतः प्रतिपादयन्नाह
सत्तण्हं अण्णयरो अत्थि असंखंसवडिढहाणीणं । तह बंधगो खलु तसोऽण्णयरो संखंसवढिहाणीणं ॥७४१॥ (गीतिः)
(प्रे०) “सत्तण्ह” इत्यादि, आयुःकर्मणः सर्ववक्तव्यताया गतद्वारेऽतिदिष्टत्वादायुर्वर्जानां सप्तानां मूलकर्मणां प्रत्येकम् “असंखंसवढिहाणीणं” ति स्थितिबन्धविषययोरसंख्यांशवृद्धिहान्योः “अण्णयरो अत्थि" ति त्रसः स्थावरो वाऽन्यतरो जीवः “बंधगो” इति गाथोत्तरा
दिवापि योज्यते, ततः 'बन्धकः' -स्वामी भवतीत्यर्थः । अत्रान्यतरग्रहणात् पर्याप्तोऽपर्याप्तो वा कश्चिदपि निर्विशेषेण बोद्धव्यः, एवमुत्तरत्रापि । अथ सप्तानामेव संख्येयभागवृद्धिहान्योः स्वामिनं दर्शयन्नाह-"तह बंधगो” इत्यादि, तथा “संखंसवउिढहाणोण" ति खलशब्दस्यावधारणार्थत्वादन्यतरस्त्रसजीव एव 'बन्धकः' -स्वामी, भवतीति शेषः । इत्थं च संख्येयांशवृद्धिहानिस्वामितया स्थावरजीवानां व्यवच्छेदः कृतो विज्ञेयः । स्थावरजीवेषु संख्येयभागवृद्धिहान्योरसम्भवस्तु सत्पदद्वारे भावित एवेति ।। ७४१ ।।
अथोघत एव सप्तानां संख्येयगुणवृद्धिहान्योः स्वामिनं दर्शयन्नाहसत्तण्हं सत्थाणे सण्णी संखगुणवड्ढिहाणीणं । तह होएइ असण्णी परठाणे बंधगोऽण्णयरो ॥७४२॥ (प्रे०) "स्त्त ग्हं सत्थाणे” इत्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनां “संखगुणवढिहाणोणं” ति स्थितिबन्धविषययोः संख्येयगुणवृद्धि-संख्येयगुणहान्योः प्रत्येकं "सत्थाणे सपण." ति स्वस्थाने वर्तमानः संज्ञी,अस्य च"बंधगोऽण्णयरो” इत्यनेन गाथाप्रान्तेऽन्वयः । अत्र स्वस्थानं जात्यपेक्षया बोद्धव्यम् , ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियत्वे वर्तमानो यः कश्चिज्जीवः स सप्तानां स्थितिबन्धविषययोः संख्येयगुणवृद्धिहान्योः स्वामी भवतीत्यर्थः । अथान्येषामपि प्रकृतद्धिहान्योः स्वामित्वमस्तीति तानपि संगृह्णन्नाह-"तह होएई” इत्यादि. तथाशब्दः समुच्चये । “होएइ असण्णी परठाणे” ति एकेन्द्रियाद्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपोऽन्यतरोऽसंज्ञिजीवः 'परस्थाने' जात्यन्तरे उत्पद्यमानः सन् प्रस्तुतयोद्वयोः संख्येयगुणवद्धिहान्योः स्वामी भवति, तत्रासंज्ञिपञ्चेन्द्रियादितोऽधश्चतुरिन्द्रियादितयोत्पादे संख्येयगुणहानेः स्वामी, एकेन्द्रियादित ऊर्च द्वीन्द्रियादितयोत्पादे स एवासंज्ञी संख्येयगुणवृद्धि स्वामी भवति, न तु संज्ञिपञ्चेन्द्रियवत्स्वस्थानेऽपीति ॥७४२॥
अौघत एवासंख्यगुणवृद्धः स्वामिनं प्रकटयन्नाह
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भोघतोऽसंखगुणवृद्धिहानिस्वामि० ] वृद्धयधिकारे स्वामित्वद्वारम् ।
[ ५५३ ..उवसामगो पडतो सेढीअ सुरो य पढमसमयत्थो।
सत्तण्ह बंधगो खलु होइ असंखगुणवड्ढीए ॥७४३॥ __ (प्रे०) "उवसामगो पडतो" इत्यादि, "सेढोअ" ति उपशमश्रेणेः पतन्नुपशमकः, "सुरो य पढमसमयत्यो” त्ति उपशमश्रेणी सप्तानामुत्कृष्टतः पल्योपमासंख्यभागप्रमाणस्थितिबन्धं कुर्वन्नायुःक्षयात् व्युत्वा यो देवतयोत्पन्नः सः 'प्रथमसमयस्थ' :-भवप्रथमसमयवर्ती सुरजीवश्व तदानीं सप्तानामसंख्येयगुणस्थितिबन्धबद्धः स्वामी भवतीत्यर्थः । ननु देवस्यापि सप्तानामसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिस्वामित्वसम्भवे कथं प्राग देवगत्योपादिमार्गणास्वसंख्येयगुणवृद्धिपदं सन्नाभिहितम् ? उच्यते,प्राग भूयस्काराबधिकारेऽवक्तव्यबन्धलक्षणाप्रवेशेन यथा देवगत्योषादिमार्गणासु सप्तानामवक्तव्यस्थितिवन्धो नाङ्गीकृतः, तेनैव न्यायेन मार्गणाप्रथमक्षणे भूयस्कारादिवन्धोऽपि नाभिमतः । कुतः ? अधिकृतविवक्षया भूयस्कारादेरप्यवक्तव्यबन्धवन्मार्गणाभाविपूर्वक्षणबन्धसव्यपेक्षत्वात् , पूर्वक्षणवर्तिबन्धस्तु न मार्गणाभावी, किन्तु मार्गणान्तरभाव्येवेति सुप्रतीतम् । भूयस्कारादिविशेषा एव पदनिक्षेपवृद्धयादयः, अतस्तेनैव नीत्या प्रकृतेऽप्योघतो लभ्यमानाऽप्यसंख्येयगुणवृद्धिर्देवगत्योघादिमार्गणासु नोक्ता । निपतत उपशमकस्यासंख्यगुणवृद्धिस्वामित्वं तु सत्पदद्वारे विस्तरतो भावितमिति तत एवावसातव्यमिति ॥ ७४३ ॥ अथौघत एव सप्तप्रकृतिस्थितिबन्धविषयाया असंख्यगुणहानेः स्वामिनमाह
वट्टतो गुणठाणे णवमे उवसामगो तहा खवगो।
सत्तण्ह बंधगो खलु अत्थि असंखगुणहाणीए ॥७४४॥ (प्रे०) “वटतो गुणठाणे” इत्यादि, नवमेऽनिवृत्तिवादरसम्परायाख्ये गुणस्थाने "वहतो" त्ति वर्तमानः "उवसामगो" ति चारित्रमोहनीयोपशामकः “तहा खवगो" त्ति तथा तत्रैव नवमे गुणस्थाने वर्तमानः 'क्षपकः'-चारित्रमोहनीयक्षपक आयुर्वर्जानां सप्तमूलप्रकृतीनाम् “असंखगुणहाणीए” ति स्थितिबन्धविषयाया असंख्यगुणहानेर्बन्धकः-स्वामी, भवतीति शेषः । खलुशब्दोऽवधारणे, स च व्युत्क्रमेण 'खवगो' इत्यस्योत्तरं योज्यः; ततस्तावेवाऽसंख्यगुणहानिस्वामिनावित्यर्थः । 'उवसामगो तहा खबगो' इत्यत्रैकवचनं जात्यपेक्षया प्रयुक्तमितिकृत्वा तज्जातीयाः-तत्सदृशा ये केचनापि जीवास्ते सर्वेऽपि स्वामिन इति बोद्धव्यम् । एवमेव पूर्वोत्तरग्रन्थे एकवचनान्तप्रयोगो जातिविवक्षया बोद्धव्य इति । अत्र भावना त्वनन्तरं सत्पदद्वारे ओघचिन्तायामपगतवेदमार्गणायां च दर्शिता तथैव द्रष्टव्येति ॥७४४॥ ___ तदेवमुक्तमोघतः शेषाणां सप्तप्रकृतीनां स्थितिबन्धविषयकासंख्यभागवृद्ध्यादेः स्वामित्वम् । साम्प्रतमादेशतस्तत्प्रदर्शनावसरः । तत्र लाघवार्थ यासु मार्गणासु यस्या वृद्ध्यादेः स्वामिन ओघसदृशास्तासु तस्यास्तथैवातिदिदिक्षुराह
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५५४]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वसंख्यगुणस्थितिवृद्धिहानि. जासु खु मग्गणासु अस्थि असंखगुणवड्ढिहाणीओ। सत्तण्हं कम्माणं तासुखलु ताण ओघव ॥७४५॥ णवरि सुरो णत्थि तिणर-पणमणवय-उरल-थी-णपुसेसु।
गयवेए मणणाणे संयम-सामइअ-छेएसु ॥७४६॥ (प्रे०) “जासुखु” इत्यादि, आदेशचिन्तायां यासु मनुष्यगत्योधादिमार्गणासु 'सत्तण्हं कम्मोणं" ति आयुर्वर्जसप्तान्यतमानां मूलकर्मणाम् "अत्थि असंखगुणवड्ढिहाणीओ" त्ति असंख्यगुणवृद्धिरसंख्यगुणहानिश्च स्तः, असंख्यगुणवृद्धिहान्योः प्राक सत्पदद्वारेऽस्तित्वं प्रतिपादितमिति भावः । “तासु खलु ताण ओघव्य" ति तासु मनुष्यगत्योघादिमार्गणासु "ताण" त्ति बहुवचनान्तनिर्देशः प्राकृतत्वात् , ततस्तयोः सप्तप्रकृतिस्थितिबन्धविषययोरसंख्यगुणवृद्धिहान्योः प्रत्येकम् “ओघव्व" ति ओघवत् , स्वामिन इति गम्यते, स्वामित्वप्ररूपणस्याविकृतत्वात् । इत्थमतिदिष्टे कासुचिन्मार्गगासु याऽतिसक्तिस्तां निराचिकी राह-"णवरि सुरो णत्थि" त्यादि, 'नवरं'-परमयमत्रापवादः । क इत्याह-"सुरो णत्थि" ति ओघनरूपणायां सप्तानामसंख्यगुणवृद्धवन्धकः प्रपतन्नुपशमक इव भवप्रथमवसमयी सुरोऽपि कथितः, किन्तु सः 'सुरः'-देवः प्रकृतेऽसंख्यगुणवृद्धः स्वामी 'नास्ति'-न भवति । किं मनुष्यगत्योधादि चतुश्चत्वारिंशन्मार्गणास्वप्युत कासुचिदेवेत्याह-"तिणरपणमणवये'त्यादि, अपर्याप्तभेदवर्जेषु त्रिषु नरगतिमार्गणाभेदेषु, पञ्चशब्दस्य मनोवचसोः प्रत्येकं योजनात्पञ्चमनोयोग-पञ्चव बोयोगो-दारिककाययोग-स्त्रीवेदनपुंसकवेदमार्गणाभेदेषु, गतवेदमार्गणायां, मनःपर्यवज्ञानमार्गणायां, संयमोघ-सामायिकसंयमछेदोपस्थापनसंयममार्गणास्वित्येतास्वेकविंशतिमार्गणास्वेव, न पुनस्तदन्यातु पञ्चेन्द्रियोष-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्रसौघ-पर्याप्तत्रसकाय-काययोगसामान्य-पुवेद-कषायचतुष्क-मत्यादित्रिशान-चक्षुरादित्रिदर्शन-शुकलेश्या-भव्य-सम्यक्त्वोध-क्षायिकसम्यक्त्वो-पशमिकसम्यक्त्व-संया-ऽऽहारिरूपासु त्रयोविंशतिमार्गणास्वपीत्यर्थः । एतासु त्रयोविंशतिमार्गणासु तु सर्वथैव निरपवादमोघवदिति भावः । कुत एवम् ? उच्यते, उपशमश्रेणौ भवक्षयेण देवगतावुत्पादेऽपि तत्रानन्तरोक्तपञ्चेन्द्रियोषादित्रयोविंशतिमार्गणानामविच्छिन्नतया प्रवर्तनात् , पूर्वोक्तानां मनुष्यगत्योघादिमार्गणानां तु मनुष्यभवसमाप्त्या सममेव विच्छेदाच्चेति ।।७४५-७४६॥
तदेवं यासु मार्गणासु ज्ञानावरणादीनामन्यतमस्यासंख्यगुणवृद्धि हानिपदे सद्भूते तासु तयोः स्वामिनोऽभिहिताः । साम्प्रतमुक्त शेषवृद्धिहानीनां स्वामिनोऽपि यासु मार्गणास्वोघवद्भवन्ति तास्वपि लाघवार्थमतिदेशेनैव तान् दर्शयन्नाह
तिरिये तसम्मि काये णपुंसगम्मि य कसायचउगे य । अण्णाणदुगे अयते अणयण-अपसत्थलेसासु॥७४७॥
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मार्गणास्वसंख्यभागादिशेषवृद्धिहानि० ] वृद्धषधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[५५५ भवियेयर-मिच्छेसु असण्णि-आहारगेसु ओघव्व । तिविहाण वढिहाणीण णवरि अमणम्मि ण उ सण्णी ॥७४८॥
(प्रे०) "तिरिये तसम्मि' इत्यादि, तिर्यग्गत्योघे, त्रसकायौधे, काययोगोघे, नपुसकवेदे । चः समुच्चये । कषायचतुष्के । चः प्राग्वत् । मत्यज्ञान-श्रुताज्ञानयोड़िके, "अयते” त्ति असंयमे, “अणयण" ति अचक्षुर्दशेने, कृष्णादिषु तिसृष्वप्रशस्तलेश्यास, भव्ये, भव्यादितरस्मिन्नभव्ये, मिथ्यात्वे, असंड्या-ऽऽहारकयोरित्येतास विंशतिमार्गणास प्रत्येकम् “ओघव्व" त्ति ओघवदभिधातव्यम् , ओघवत् “सत्तण्हं अण्णयरो" इत्याद्यभिलापः कर्तव्य इति भावः । ननु सर्वोऽप्यभिलाप ओघवत्कर्तव्य उत किञ्चिन्मात्र इत्याह-"तिविहाण वढिहाणीण" त्ति प्रकृतसप्तकर्मणामुक्तशेषाणां स्थितिबन्धसत्कानामसंख्येयभाग-संख्येयभाग-संख्येयगुणलक्षणानां त्रिविधानां वृद्धीनां त्रिविधानां हानीनां च । त्रिविधवृद्धिहानिविषयोय आद्यगाथाद्वयरूप औधिकोऽभिलापः स एव कर्तव्यः, न पुनरशेषोऽपीत्यर्थः ।
एवमभिधानातिदेशेऽपि या किश्चिन्मात्राऽतिव्याप्तिस्तां निराविकीपुराह-"णवरि अमणम्मि ण उ सण्णी" ति 'नवरं -परमसंज्ञिमार्गणायां संज्ञिजीवानामभावात् ‘सत्थाणे सण्णी' इत्येवं यो द्वितीयगाथाऽवयवरूपोऽभिलापः स न कर्तव्य इत्यर्थः ।।
ननु 'ओघव' इत्यस्य कथमभिधानातिदेशपरत्वं व्याख्यायते, न पुनरातिदेशपरकत्वम् ? इति चेद्, उच्यते, तस्य पदार्थातिदेशपरत्वेऽसंज्ञिमार्गणायां ‘णवरि अमणम्मि ण उ सण्णी' इत्यपवादाभिधानेनाऽसामञ्जस्यदोषपरिहारेऽपि त्रसकायौघमार्गणायां स्थावरजीवानामप्रवेशेन तत्र तु तद्दोषतादवस्थ्यमेव स्यात् । न च 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति' रिति न्यायेन तत्र स्थावराणामसंख्यभागवृद्ध्यायस्वामित्वस्य व्याख्याविषयत्वात् , तेषां तत्राऽप्रवेशेन सुज्ञेयत्वाद्वा
* घट-पटादितत्तदर्थाः, तद्वाचकान्यभिधानानि,तज्ज्ञानरूपाः प्रत्ययाश्च घट-पटादिपदेनैवलोके व्यपदिश्यन्त इत्येवमर्था ऽभिधान-प्रत्ययानां लोके तुल्यनामधेयत्वनियमात् 'त्रस-स्थावरणामन्यतरस्यायुर्वर्जसप्तप्रकृत्यसंख्यभागस्थितिबन्धवृद्धयादिस्वामित्व'लक्षणस्यौधिकार्थस्य, तत्प्रतिपादकस्य ‘सत्तण्णं अण्णयरों इत्याद्यभिधानस्य, ताहगर्थविषयकान्तःस्कुरायमानप्रत्ययस्य च तुल्यः ‘ोध' इति व्यपदेशो भवितुमर्हति । तथा च संस्थितौ मूलोक्त-'श्रोधव्व' इत्यत्र 'रोघ' इति नामधेयं यथा 'यः कश्चित् त्रसो या स्थावरो वा जीवः स आयुर्वज सप्तप्रकृत्यसंख्यभागस्थितिबन्धवृद्धयादिस्वामी'त्येवंरूपस्यार्थस्य प्रतिपादकं तथा तादृगाभिधायकस्य 'सत्तणं अण्णयरो' इत्यादिपूर्वलिखितवर्णावलिमात्रस्याऽपि प्रतिपादकं भवत्येव । तन्मध्ये मूलोक्त'-'ओघव' इत्यत्र 'मोघ' इतिनामधेयं ताहग्वर्णावलिमात्रप्रतिपादकं ज्ञेयम् , न पुन स्त्रसादीनां ताहक्स्वामित्वादि'लक्षणस्याऽर्थस्य प्रतिपादकम् । तथा च प्रोघव्व' इत्यनेन भव्यादिमार्गणायामायुर्वर्जसप्तानामसंख्यभागस्थितिबन्धवृद्धयादीनां स्वामित्वस्य प्रतिपादनं 'सत्तण्णं प्रोघव' इत्याद्यात्मकौधिकाभिधानेन सदृशाभिधानेन भवतीत्यर्थके 'मोघव त्ति प्रोघवदभिधातव्यम् ' इति व्याख्याने कृते कश्चिदाशङ्कते'ननु' इत्यादि।
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५५६ ] बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ गतवेद-सूक्ष्मसम्पराययोः संख्येयगुणवृद्धया। न किश्चिदसामञ्जस्यमिति वाच्यम् । तथैवाऽसामञ्जस्यपरिहारेऽसङ्गतत्वाभावे वाभिमते तु तुल्यन्यायेनाऽसंज्ञिमार्गणायामपि तथा सम्भवात्तत्राऽपवादपदमनभिहितं स्यात् । एवमप्यसंज्ञिमार्गणास्थानेऽपवादपदमभिधाय त्रसकायौघमार्गणायां तदनभिधानम् 'ओघव्व' इत्यनेनैव तत्र स्थावराणामसंख्येयभाववृद्धयादिस्वामितया परिहृतत्वेनाऽसामञ्जस्याभावेनापवादाभिधानस्यानावश्यकत्वात् । 'ओघव' इत्यनेनैव स्थावराणामसंख्येयभागवृद्धयादिस्वामितया परिहारस्तु तस्याऽभिधानातिदेशपरकत्वे सत्येव सम्भवति, न त्वर्थातिदेशपरकत्वे, अर्थस्य तु सानां स्थावराणां चासंख्येयभागवृद्धयादिस्वामित्वरूपस्य तत्रौधिकचिन्तायां घटमानत्वेऽपि त्रसकायौघमार्गणायामघटमानतयाऽसामञ्जस्यापत्तेः । 'ओघव्व' इत्यस्य 'सत्तणं अण्णयरो' इत्यादिरूपौधिकाभिधानातिदेशपरकत्वे तु न काचिदसङ्गतिः, त्रसकायौघमार्गणायामन्यतरपदेन मार्गणाप्रविष्टानां त्रसकायिकानामन्यतमस्य त्रसकायिकस्य सप्तानामसंख्यभागवृद्धयादिस्वामित्वस्य बुध्यमानत्वात् ,तस्य तत्राविरोधेनोपपद्यमानत्वाच्च । इत्यतो 'ओघव्व' इत्यस्याभिधानातिदेशपरकत्वं व्याख्यायते। इत्येवमन्यत्रापि कृतेऽतिदेशे यथासम्भवं स्वयमभ्युह्यमिति ।।७४८॥
अथापगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणयोः प्रकृतस्वामित्वमाह
गयवेए सुहमम्मि य हवेइ उवसामगो वड्ढीणं । उवसामगो व खवगो वा हाणीए मुणेयव्वो ॥७४९॥
(प्रे०) "गयए" इत्यादि, अपगतवेदमार्गणायां सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां च प्रत्येक भवति, स्वामीति गम्यते । कः कस्याः कस्याः स्वामी भवतीत्याह-"उवसामगो उ” इत्यादि, प्रपतन्नुपशमक एव “वड्ढीणं" ति ‘जासु खु'इत्यादि(७४६)गाथयाऽसंख्यगुणवृद्धिहानिस्वामिनामपगतवेदमार्गणायामपि प्रागतिदिष्टत्वादसंख्यगुणवृद्धिहानी विहाय ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीयनाम-गोत्रा-ऽन्तरायकर्मणां प्रत्येकं संख्येयभाग-संख्येयगुणवद्धयोर्मोहनीयकर्मणः संख्येयभागवद्धस्तथा सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां मोहनीया-ऽऽयुर्वर्जानां षण्णां संख्येयभागवृद्धश्चेत्यर्थः । तथा "उवसामगो व खवगो व” ति वाकारश्वकारार्थस्ततः श्रेणिमारोहन्नुपशमकश्च क्षपकथोभावपि "हाणोए मुणयव्वा" त्ति पूर्ववदपगतवेदमार्गणायां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीय-नामगोत्रा-ऽन्तरायकर्मणां प्रत्येकं संख्येयभाग-संख्येयगुणहान्योर्मोहनीयकर्मणः संख्येयभागहानेः, सूक्ष्मसम्परायमार्गणायां मोहनीयायुर्वर्जानां षण्णामपि संख्येयभागहानेश्व ज्ञातव्यावित्यर्थः । एनयोस्तत्तत्संख्येयभागवद्धिहान्यादिस्वामित्वं ह्यनन्तरं सत्पदद्वारे सत्पदानां सचव्युत्पादनावसरे दर्शितभावनानुसारेण स्वयमेव भावनीयमिति ।। ७४९ ॥
अथोक्तशेषमार्गणासु सप्तकर्मसत्कवृद्धयादिसत्पदानां स्वामिनं विभणिषुराह
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शेषमार्गणासु सर्वविधवृद्धयादि०] वृद्धयधिकारे स्वामित्वद्वारम्
[ ५५७ सेसासु बंधगोऽत्थि सपयाण तिविहाउ वढिहाणीओ। सत्तण्हं अण्णयरो सविसेसो पुण मुणेयबो ॥ ७५० ॥
प्रे०) “सेसासु बंधगो"इत्यादि, असंख्यगुणवृद्धिहानी परिहत्य शेषाणां त्रिविधानां वृद्धिहानीनां स्वामिनो यास्वनन्तरमभिहितास्तास्तिग्गत्योधादि विंशतिमार्गणा विवयं शेषासु नरकगत्योघाद्यष्टचत्वारिंशदभ्यधिकशतमागणासु प्रत्येकं बन्धको भवति । केषां क इत्याह-"सपयाण तिविहाउ वढिहाणोओ"इत्यादि,आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामसंख्येयभाग-संख्येयभागसंख्येयगुणभेदभिन्नत्रिविधवृद्धित्रिविधहानिभ्यो नरकगत्योधादिशेषमार्गणायां यत्र यावन्त्येक
यादीनि पदानि सत्पदद्वारे सद्भ तानि प्रतिपादितानि,तत्र तेषां सर्वेषामेकद्वयादीनामसंख्येयभागवृद्धयादिसत्पदानां प्रत्येकं मार्गणागतो "अण्णयरो” त्ति अन्यतरो नारकादिजीव इत्यर्थः ।
___ इत्थमप्यपर्याप्तत्रसकायादिमार्गणासु द्वीन्द्रियादिजीधैः संख्येयगुणवृद्धयादेरनिर्वर्तनेन तत्र 'अण्णयरो' इत्यनेन मार्गणागतान्यतरपदवाच्याऽपर्याप्तद्वीन्द्रियादिजीवग्रहणेऽतिप्रसङ्गात्तदोषमुद्धत - मनाऽऽह–“सविसेसो पुण मुणेयव्वो" ति स पुनरन्यतरजीवः 'सविशेषः' - यथासम्भवं विशेषेण सहितो ज्ञातव्यः । तद्यथा-अपर्याप्तत्रसकायमार्गणायां सप्तानां संख्येयगुणवृद्धः स्वामी हीन्द्रिय-त्रीन्द्रियवर्नोऽन्यतमाऽपर्याप्तजीवः । औदारिकमिश्रकाययोगमार्गणायां सप्तानां संख्येयगुणवृद्धः स्वाम्येकेन्द्रियवोऽन्यतम औदारिकमिश्रकाययोगिजीवः । कार्मणकाययोगमार्गणायां पुनरन्यतमः संज्ञिपञ्चेन्द्रियकार्मणकापयोगिजीवः सप्तानां संख्येयगुणवृद्धः संख्येयगुणहानेश्व स्वामी, न पुनरन्यतम एकेन्द्रियादिकार्मणकाययोगिजीवोऽपि । कुतः ? एकेन्द्रियाद्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियान्तानां जीवानां स्वस्थाने संख्ययगणवद्धिहान्योरसम्भवात । अत एवाधिकृतकार्मणकाययोगमार्गणायां सप्तानां संख्ययभागवद्धिहान्योः स्वामितयाऽप्येकेन्द्रियजीवा वर्जनीयाः । असंख्यभागवृद्धिहान्योस्त्वन्यतमस्त्रसः स्थावरोवा जीवः स्वामी भवतीति दिग् । अनया दिशौदारिककाययोगादिमार्गणादौ स्वयमेव विशेषो द्रष्टव्य इति ।
शेषमार्गणास्तु नामत इमाः–अष्टौ नरकगतिभेदाः, चत्वारस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदाः, चत्वारो मनुष्यगतिभेदाः, त्रिंशद्देवगतिभेदाः, सप्तैकेन्द्रियभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः, त्रयः पञ्चेन्द्रियजातिभेदाः, त्रसकायौषभेदवर्जाः पृथिव्यादिषटकायसत्कशेषसर्वभेदाः, पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, औदारिको-दारिकमिश्र-वैक्रिय-वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारक-ऽऽहारकमिश्रकार्मणकाययोगभेदाः, स्त्रीवेद-पुरुषवेदी, मत्यादिचतुर्ज्ञानभेदाः, विभङ्गज्ञानम्, सूक्ष्मसम्परायसंयमाऽसंयमवर्जाः षटसंयमभेदाः, चक्षुदर्शना-ऽवधिदर्शनभेदौ, तेजः-पद्म-शुक्ललेश्याभेदाः, मिथ्यात्ववर्जाः सम्यक्त्वौधादिषड्भेदाः संज्य-ऽनाहारकमेदौ चेति ।। ७५० ।।
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५५८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ ओघतः सप्तानां चतुर्विधवृद्धिहानिकाल० ___ तदेवं प्ररूपिताः शेषमार्गणास्वपि संख्येयगुणादिस्थितिबन्धवृद्धयादिसत्पदानां स्वामिनः । तेषु च प्ररूपितेषु गतं द्वितीयं स्वामित्व द्वारम् ।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पञ्चमे वृद्धयधिकारे द्वितीयं स्वामित्वद्वारं समाप्तम् ।।
॥ अथ तृतीयं कालद्वारम् ॥ अथ क्रमप्राप्ते एकजीवाश्रिते कालद्वारे मूलकर्मणां संख्येयभागादिस्थितिबन्धवृद्धयादीनां जघन्योत्कृष्टभेदभिन्न द्विविधमपि निरन्तरं कालं प्रतिपिपादविषयाऽऽदौ तावदोघत उक्तःशेषाणां सप्तकर्मणामसंख्येयभागादिस्थितिबन्धवृद्ध्यादेस्तमाह
समयो लहू खणा दो गुरू चउविहाण वडि ढहाणीणं ।
सत्तण्ह णवरि समयो गुरू असंखगुणहाणीए ॥ ७५१ ॥
(प्रे०) "समयो लह” इत्यादि, "सत्तण्ह" ति आयुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनां "चउविहाण वढिहाणीण" ति असंख्यभागा-ऽसंख्यगुण-संख्येयभाग-संख्येयगुणलक्षणानां चतुविधानां वृद्धीनां हानीनां च “समयो लहू खणादो गुरू” त्ति 'समयः'-एकसमयो 'लघुः'जघन्यः कालः, द्वौ 'क्षणो'-समयौ 'गरुः'-उत्कृष्ट एकजीवाश्रयो निरन्तरकालश्चत्यर्थः । अयं हि लाघवकृतः सामा यो निर्देशः, तत्र काचिदतिप्रसक्तिरपि, अतस्तां निराकुर्वन्नाह-"णवरि" इत्यादि, नवरं सप्तानामसंख्यगुणस्थितिबन्धहानेः 'गुरुः'-उत्कृष्ट एकजीवाश्रयः कालः समयः, न पुनः सामान्यवचनगम्यौ द्वौ समयाविति भावः । अत्र हि चतुर्विधानां वृद्धीनां हानीनां च जघन्यकालः समयस्तु सुगमः, समयमेकं तत्तदृद्धयादेरनन्तरं प्रायेणावस्थानस्यैव प्रवर्तनात् , यतस्ताथास्वाभाव्येन प्रवर्तमानौ द्विसमनिरन्तरभृयस्कारौ द्विसमयनिरन्तराल्पतरौ च कादाचित्कावेव, अवस्थानस्थितिबन्धा बाहुल्येनान्तमुहूर्तिकाश्चेति ।
असंख्यगुणस्थितिबन्धहानेः समयमात्रोत्कृष्टकालस्तु देवानामतत्स्वामित्वात् । अयम्भाव:उपशमश्रेणी मरणव्याघाताभावे प्रत्येकं स्थितिबन्धा आन्तमुहूर्तिकाः सन्ति,न पुनः शेपजीवानामिव कदाचित्केचन सामयिका अपि । किञ्च ये केवनोपशान्ताद्धाक्षयेग प्रपतन्तः सप्तानामसंख्यगुणवृद्धिस्वामिनो यमसंख्यगुणवृद्धस्थितिवन्धं कुर्वन्ति, ते तं पल्योपमासंख्यभागप्रमाणस्थितिकं कुर्वन्ति, न पुनस्तदधिकस्थितिकम् । ततश्च समयमेकमसंख्यगुणवृद्धिं कृत्वाऽनन्तरसमये भवक्षयेण ये केचन देवतयोत्पद्यन्ते तेऽपि तत्र देवभवप्रथमसमयेऽन्तःकोटीकोटीमागरोपमप्रमाणां स्थितिं बघ्नन्तो निरन्तरद्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणवृद्धिस्वामिन एव भवन्ति, न पुनर्हानिस्वामिनः; इत्येवमसंख्यगुण
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चतुर्विधवृद्धिहानिकालोपपत्ति०] वृद्धयधिकारे कालद्वारम्
[ ५५९ वृद्धेर्मनुष्यदेवो नयस्वामिकत्वायथाऽसंख्यगुणवृद्धिकाल उत्कृष्टतो द्विसमयस्तथा नाऽसंख्यगुणहानेरपि, श्रेणिमारोहतां मनुष्याणां तत्स्वामित्वेऽपि देवानामतत्स्वामित्वेन समयमेकमसंख्यगुणहानेरनन्तरमेव मनुष्यभवक्षयेण देवगतावुत्पादेऽपि तत्र देवभवप्रथमसमये हानेरेवाऽप्रवर्तनात् । कालाऽकरणे तु तावन्मात्रस्थितिबन्धप्रवर्तनरूपमवस्थानमेव प्रवर्तत इत्येवमसंख्येयगुणहानेरुत्कृष्टोऽपि बन्धकालः समयमात्रः प्राप्यत इति ।
असंख्यगुणवृद्धेसिमयोत्कृष्ट कालस्त्वनुपदं प्रसङ्गादर्शितस्तथैव समयमेकमुपशमश्रेणी पतदवस्थायाम् , तदनन्तरसमये कालकरणेन देवावस्थायां समयमेकम् , न पुनस्तदृवं तृतीयसमयेऽपि ।
शेपाणां त्रिविधानामसंख्येयभाग-संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धीनां तथाविधानां त्रिविधहानीनां च द्विसमयोत्कृष्टकालस्तु निरन्तरे समयद्वये ताथास्वाभाव्येनाऽसंख्यभागाधिकस्थितिबन्धं कुर्वतां , तथैव संख्येयभागाधिकस्थितिबन्धं कुर्वतां, संख्येयगुणाधिकस्थितिबन्धं कुर्वतां तत्तत्स्थितिबन्धस्वामिनां निरन्तरप्रवृत्तासंख्येयभागवृद्धयादिस्थितिवन्धद्वयमपेक्ष्य प्राप्यते । - ननु वृद्धिबन्धो भूयस्काररूप एव. हानिबन्धोऽल्पतरवन्धरूप एव, यद्येवं तदा यथौघतः सप्तानां भूयस्कारस्थितिवन्धकालोऽल्पतरस्थितिबन्धकालश्च समयद्वयादधिकोऽभिहितस्तथा श्रेण्यधीनमसंख्येयगुणवृद्धयसंख्येयगुणहानिलक्षणं पदद्वयं विहाय शेषत्रिविधान्यतमवृद्धयादिपदानां न्वसौ समयद्वयादधिकः स्याद् ? इति चेद, उच्यते, एकविधाऽपि वृद्धिर्हानिर्वा जात्यन्तरपरावृत्यादिनिमित्तस्य सद्भावेऽसद्भावे वा निरन्तरसमयद्वयादधिककालं ताथास्वाभाव्येनैव न प्रवर्तते,अतस्तस्योस्कृष्टोऽपि कालो द्वौ समयावेव प्राप्यते । यदा द्विसमयबद्धरनन्तरसमये जात्यन्तरपरावृत्त्यादिनिमित्तं वर्तते, तदा तु पूर्वसमयजातवृद्धयपेक्षया विलक्षणवृद्धिरूपो भूयस्कारस्थितिबन्धोऽल्पतरस्थितिबन्धो वा नियमेन प्रवर्तते,तत्राऽपि यदि तत्स्वाम्येकेन्द्रियादिभ्यश्च्यवनेन द्वीन्द्रियादिरूपजात्यन्तर उत्पद्यते, तदा भूयस्कार एव । इत्थश्च भृयस्कारस्यान्यविधवद्धिरूपतया तद्वन्धकालसमयद्वयादधिको यावच्चतुःसमयोऽपि सम्पद्यते, इत्थमेव वैपरीत्येनाल्पतरस्थितिबन्धकालस्य त्रिसमयप्रमाणत्वे द्रष्टव्यम् , अन्यविधहानेरल्पतरस्थितिबन्धरूपत्वात् । एवं हि न भवति सप्तानां भूयस्कारस्थितिबन्धकालस्योत्कृष्टतश्चतुःसमयत्वेऽप्येकविधवद्धरुत्कृष्टकालः समयद्वयादधिकः, सप्तानामल्पतरस्थितिवन्धकालस्योत्कृष्टतस्त्रिसमयत्वेऽप्येकविधहानेरुत्कृष्टकालः समयद्वयादधिकश्च । इत्थमेव वक्ष्यमाणमार्गणास्थानेष्वप्यसंख्येयगुणवृद्धिहानिवजेत्रिविधान्यतमवृद्धिहानिकालस्य समयद्वयादनधिकत्वमभ्यूह्यम् ; यत्र त्वसौ द्विसमयोऽपि न, तत्र तु यथासम्भवमुपपत्तिमार्ग प्रदर्शयिष्याम इति ॥७५१॥
तदेवमभिहित ओघतः शेषाणामायुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामसंख्यभागवृद्धथादिलक्षणानामष्टविधानामपि स्थितिबन्धविशेषाणामेकजीवाश्रितो जघन्योत्कृष्टद्विविधः कालः । इदानीं तमेवादेशतो विभणिपुरोधप्ररूपणया बहुसाम्यात्सापवादमतिदिशति
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५६० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणासु सर्वविधस्थितिवृद्धिहानि० सब्बासु सत्तण्हं सपयाणोघव्व वढिहाणीणं । (गोतिः) णवरि असण्णिम्मि गुरू समयो संखगुणवढिहाणीणं ॥७५२॥ तिणर-पणमणवयु-रल-णपुम-थी-मणणाण-संयमेसु तहा। समइअ-छेएसु गुरू खणो असंखगुणवड्ढिीए ॥७५३॥ कम्मण-गयवेएसुसुहुमा-ऽणाहारगेसु सत्तण्हं ।
समयो परमो यो सपयाणं वढिहाणीणं ॥७५४॥ (प्रे०) “सव्वासु"मित्यादि, नरकगत्योघाद्यनाहारकपर्यन्तासु सप्तत्युत्तरशतसंख्याकासु सर्वासु मार्गणासु “सत्ताह" ति आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां “सपयाणोघव्व वढिहाणीणं" ति स्थितिबन्धस्याधिकृतत्वादसंख्येयभागादिस्थितिबन्धवृद्धिहानिलक्षणानां 'स्वपदानां'सत्पदद्वारे तत्तन्मार्गणायामभिहितानां सत्पदाना मोघवद्-औधिककालतुल्यः, एकजीवाश्रयो जघन्योत्कृष्टकाल इति प्रक्रमाद्गम्यते । इत्थं चातिदिष्टे याऽतिप्रसक्तिस्तामुद्धरनाह-"णवरि" इत्यादि सार्धगाथाद्वयम् । 'नवरं'-परं तत्रायं विशेषः । कोऽसावित्याह-"असण्णिम्मि" इत्यादि,
ओषतः सप्तानां संख्येयगुणवद्धः संख्येयगुणहानेश्वोत्कृष्टबन्धकालो यः समयद्वयमभिहितः सोऽसंज्ञिमार्गणायां समयमात्रो विज्ञेयः । कुतः ? संख्येयगुणवृद्धेरेकेन्द्रियादिभ्यश्च्युत्वा द्वीन्द्रियादितयोत्पद्यमानानामसंज्ञिजीवानां परस्थानत एव भावात् , जात्यन्तरपरावृत्या परस्थानत एव लभ्यमानायाः संख्येयगुणाद्यन्यतमाया वृद्धः समयादधिककालस्यासम्भवात् । एतदपि कुतः ? इति चेत् , सकृज्जाताया जात्यन्तरपरावृत्तेर्जघन्यतोऽपि क्षुल्लकभवग्रहणादर्वागसम्भवादिति । इत्थमेव संख्येयगुणहानेः समयमात्र उत्कृष्टकालोऽपि व्युत्पादनीयः, केवलं वैपरीत्येनासंज्ञिपञ्चेन्द्रियादिभ्यश्च्युत्वा चतुरिन्द्रियादितयोत्पद्यमानानां परस्थानत एव संख्येयगुणहानेः सम्भवात्तदपेक्षयेति । ___ अथ मार्गणान्तरेष्वसंख्यगुणवृद्धिविषयेऽपवदन्नाह-"तिणरे"त्यादि, 'तिणर' इत्यनेनाऽपर्याप्तभेदवर्जा मनुष्योध-पर्याप्तमनुष्य-मानुषीलक्षणास्त्रयो नरगतिमार्गणाभेदा गृह्यन्ते, तेषु त्रिनरभेदेषु, तथा पञ्चशब्दस्य प्रत्येकं योजनात्पञ्चमनोयोगभेदाः, पञ्चवचोयोगभेदाश्च तेषु,
औदारिककाययोग-नपुंसकवेद-स्त्रीवेद-मनःपर्यवज्ञान-संयमोघमार्गणासु, तथा सामयिकसंयम-छेदोपस्थापनसंयमयोश्चेत्येतासु विंशतिमार्गणासु प्रत्येकं "गुरू खणो असंखगुणवढीए” त्ति ‘सत्तण्ह' इति पूर्वगाथातोऽनुवर्तते, ततः सप्तानां मूलप्रकृतीनामसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धेः 'गुरू:'उत्कृष्ट एकजीवाश्रयकालो नैरन्तर्येण 'क्षणः'-समयः, समयमात्रः प्राप्यते, न पुनर्यथातिदेशमोघवद् द्वौ समयाविति भावः । कुतः ? इति चेत्, सप्तानां निरन्तरद्वितीयसमयभाविन्यसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिरुपशमश्रेणावसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिं कृत्वाऽनन्तरसमये भवक्षयेण देवगतावुत्पत्त्यैव
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भोघतश्चतुर्विधवृद्धिहानिजवन्यान्तर० ] वृद्धपधिकारेऽन्तरद्वारम् जायते, नान्यथा । अतः सा निरन्तर्रा,तीयसमयासंख्यगुणवृद्धिः प्रस्तुतमनुष्यगत्योधादिविंशतिमार्गणासूपादातुन युज्यते, प्रथमसमयासंख्यगुणवृद्धेरनन्तरसमये कालकरणे मनुष्यगत्योघादिप्रत्येकमार्गणानां विच्छेदेन तत्स्वामिनां प्रस्तुतमार्गणातो बहिर्भावादिति । ___अथान्यमार्गणासु सर्वसत्पदविषयकापवादमाह-"कम्मणगयवेएम''मित्यादि, कार्मणकाययोगाऽपगतवेदमार्गणयोः सूक्ष्मसम्परायसंयमाऽनाहारकमार्गणयोश्च प्रत्येकं सप्तानामायुर्वर्जमूलप्रकृतीनां 'परमः'-उत्कृष्ट एकजीवाश्रयकालः 'समयः'-समयमात्रो भवति । असंख्यभागवद्धयादीनां कियतां पदानामित्याह-"सपयाणं वढिहाणी]" ति प्राग्वत्तत्तत्कार्मणकाययोगादिमार्गणासु सत्पदद्वारे सत्तयाऽभिहितत्वात्स्वपदभूतानां संख्येयभागादिस्थितिबन्धवृद्धिहानीनाम् । कुत एक एव समयः, न पुनर्ती समयो ? इति चेत् , प्रत्येकमायुर्वर्जानां बन्धप्रायोग्यप्रकृतीनां भयस्कारस्थितिबन्धकालस्याल्पतरस्थितिबन्धकालस्य चाप्युत्कृष्टतः समयमात्रत्वात् न भवति द्वौ समयौ, सामान्यनिवृत्ती विशेषनिवृत्तेरवश्यम्भावित्वात् । किमुक्तं भवति-सामान्यो हि भयस्कारः स्थितिचन्धः, असंख्यभागवृद्धयादयस्तु तद्विशेषा एव । यदि हि प्रस्तुतमार्गणाचतुष्के निरन्तरद्वितीयसमये भूयस्कार एव न प्राप्यते तत्कुतस्तद्विशेषरूपाया असंख्यभागवृद्धयादेः प्राप्तिः, न कुतश्चिदपि । इत्थं हि मार्गणाचतुष्के सर्वेषां वृद्धयादिसत्पदानामुत्कृष्टोऽपि कालः समयमात्रः प्राप्यते, न तु द्विसमयस्तदधिको वेति ॥७५२-७५३-७५४॥
तदेवं प्रतिपादितो मार्गणास्थानेष्वपि तत्तन्मार्गणोक्तासंख्यभागवृद्धयादिसत्पदानां जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नो द्विविधोऽप्येकजीवाश्रितः कालः । तस्मिँश्च प्रतिपादिते गतं तृतीयं कालद्वारम् । ॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पञ्चमे वृद्धयधिकारे तृतीयमेकजीवाश्रितं कालद्वारं समाप्तम् ।।
॥ अथ चतुर्थमन्तरद्वारम् ॥ अथ चतुर्थमेकजीवाश्रयमन्तरद्वारम् । तत्रायुषः स्थितिबन्धहान्यादिसत्पदविषयकान्तरस्यापि प्रागेवतिदिष्टत्वादायुर्वर्जानां सप्तानां प्रकृतीनां स्थितियन्धवृद्धयादिसत्पदानामन्तरं प्रतिपिपादयिषुरादौ तावदोघतो जघन्यमन्तरमाहः
सत्तण्ह अंतरमणु चउविहवड्ढीण तिविहहाणीणं ।
समयो भिन्नमुहुत्तं लहु असंखगुणहाणीए ॥ ७५५॥ (प्रे०) "सत्तण्ह अंतरमणु"मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनामन्तरमेकजीवाश्रितम् 'अणु'-जघन्यम् , अस्य च गाथोत्तरार्धे "समयो"इत्यनेनान्वयः, ततस्तज्जघन्यमन्तरं समयः, समयमात्रमित्यर्थः । कासां वृद्धिहानीनामित्याह-"चउविहवड्ढोण"त्ति 'चतुर्विधा
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५६२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ भोघतश्चतुर्विधवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तर० नाम्'-असंख्येयभाग-संख्येयभागा-ऽसंख्येयगुण-संख्येयगुणवृद्धिलक्षणानां स्थितिबन्धविशेषाणां तथा "तिविहहाणीण" ति त्रिविधानामसंख्यगुणहानिवर्जानां शेषाणामसंख्येयभाग-संख्येयभागसंख्येयगुणहानिलक्षणानां स्थितिवन्धविशेषाणां च प्रत्येकमित्यर्थः । अवशेषाया असंख्यगुणहानेजघन्यमन्तरमाह-"भिन्नमुहुत्त"मित्यादि, 'भिन्नमुहूर्तम् '-अन्तमुहूर्त 'लघु'-जघन्यमन्तरमसंख्य. गुणहान्या इति ।
तत्रा-संख्यगुणवृद्धिवर्जानां त्रिविधवृद्धीनां श्रेणिबहिर्वर्तिजीवानामपि सम्भवात् सामयिकावस्थानादिनाऽन्तरितत्वे जघन्यमन्तरं प्राप्यते । इदमुक्तं भवति-श्रेणिवाहि विस्थितिवन्धा न नियमतोऽन्तमुहूर्तमेव प्रवर्तन्ते, ततश्च त्रिविधवृद्धीनामन्यतमा वृद्धिं कृत्वा समयमवस्थाय तत्स्वामी पुनरप्यनन्तरसमये समयान्तरकृतसदृशीमेव त्रिविधान्यतमां स्थितिबन्धवृद्धिं करोति तदा एकसमयान्तरं प्राप्यते । इत्थमेव त्रिविधहान्यन्तरविषयेऽपि विज्ञेयम् , तासामपि श्रेणिबहिर्तिजीवानां सद्भावात् । असंख्यगणवद्धिस्तु यद्यपि श्रेणिबहिरपि भवति. तथाऽपि न सा येषां केषा. मपि पञ्चेन्द्रियाणां, किन्तु ये केचिदुपशमश्रेणी भवक्षयाद्देवतयोत्पन्नास्तेषां देवभवप्रथमसमयवर्तिनां केषाश्चिदेव, ततश्च यः कश्चित्प्रपतच्चारित्रमोहोपशमकस्तत्तत्कर्मणामसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धि समयमेकं कृत्वा समयमेकं तावन्मात्रस्थितिं बध्नन् तत्रैवावस्थायाऽनन्तरसमये भवक्षयादेवतयोत्पघते, तस्य श्रेणिभावि-देवभवभाव्यसंख्यगणस्थितिवन्धवद्धयोः समयमाणावस्थितस्थितिबन्धेनान्तरितत्वादोघतो जवन्यमन्तरं समयमात्र प्राप्यते, नान्येन केनापि प्रकारेणेति । असंख्यगुणस्थितिबन्धहानेः स्वामिनस्तु केवलाः श्रेणि समारोहन्त उपशमकाः क्षपका वैव, न पुनर्भवप्रथमसमयवर्तिनो देवा अन्ये वा, किश्च श्रेणी प्रत्येकं स्थितिबन्धा आन्तमु हर्तिकाः, ततश्च लकदमंग्व्यगणहीनस्थितिबन्धं कृत्वा पुनरप्यसंख्यगुणहीनस्थितिवन्धं कुर्वतो जीवस्याऽसंख्यगणहानिद्वयमध्ये जघन्यतोऽप्यन्तमुहर्तकालोऽतिगच्छति, इत्थं चासंख्यगुणस्थितिबन्धहानेर्जघन्यः कालः शेषवृद्धिहानिकालवत् समयमात्रो न प्राप्यते, किन्तु जघन्यतोऽप्यन्तमुहूर्तमेवेति ।। ७५५।।
अर्थतासामेवोत्कृष्टमन्तरमोघतः प्रचिकटयिषुर्गाथा यमाहउकोसमंतरं उ असंखेज्जइभागवढिहाणीणं । सत्तण्डं कम्माणं भिन्नमुहुत्तं मुणेयव्वं ॥७५६ ॥ परममसंखपरट्टा संखियभागगुणवढिहाणीणं । देसूणोऽद्धपरट्टो असंखगुणवड्ढिहाणीणं ॥ ७५७ ॥
(प्रे०) “उक्कोसमंतर"मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तकर्मणामसंख्येयभागवृद्धिहान्योः प्रत्येकमुत्कृष्टमेकजीवाश्रयमन्तरं 'तु'-पुनः भिन्नमुहूर्तम्'-अन्तमुहूर्त ज्ञातव्यम् । संख्येयभागवृद्धिहान्योराह"परममसंख" इत्यादि, सप्तानां संख्येयभागसंख्येयगुणस्थितिवन्धवृद्धिहानीनां प्रत्येकं 'परमम्'
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चतुर्विधवृद्धिहान्यन्तरोपपत्ति० ]
[ ५६३
उत्कृष्टमन्तरमसंख्येयाः “परहा" त्ति पदैकदेशे पदोपचारात्पुद्गलपरावर्ता इत्यर्थः । उक्तशेषयोराह - "देसूणो" इत्यादि, सप्तानामसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिहान्योः प्रत्येकं पुनः प्रकृतमेकजीवाश्रितमुत्कृष्टमन्तरं देशोनाऽपार्श्वपुद्गलपरावर्त इत्यर्थः ।
वृद्धयधिकारेऽन्तरद्वारम्
इयमत्रोपपत्तिः - श्रेणौ बन्धप्रायोग्यं स्थितिबन्धं विहायैकेन्द्रियादिषु प्रमत्तसंयतान्तेषु जीवेषु यस्य यस्य जीवस्यैकांधिका यावत्यः सप्तकर्मतत्कस्थितिबन्धवृद्धयो हानयश्च स्वस्थान एव सम्भवन्ति तस्य तस्य जीवस्य तासु समुदितासु वृद्धिहानिष्वेकैकविधा वृद्धयो हानयो वोत्कृष्टतः संख्येयान् स्थितिबन्धानतिक्रम्यातिक्रम्य जायमाना अपि भिन्नमुहूर्तादधिकव्यवधाना न भवन्ति । न च यद्यैवं तदाऽसंख्येयभागवद्विहान्यन्तरमिव शेषद्विविधवृद्धिहान्यन्तरमपि कथमन्तर्मुहूर्त मात्रं नोक्तमित्याशङ्कयम् । यतः शेषद्विविधवृद्धिहानीनां नैकेन्द्रियविकलेन्द्रियादयोऽपि स्वस्थानतः स्वामिनः, तथा च संज्ञिपञ्चेन्द्रियाद्यवस्थायां शेषद्विविधवृद्धिहान्यन्यतरां निर्वर्त्यानन्तरमेव कालं कृत्वा य एकेन्द्रियादिषु गच्छति, तत्र चोत्कृष्टामेकेन्द्रियादिकाय स्थिति निर्गमयति, तावत्कालं न भवति तस्य तादृशी पूर्वकृतबुद्धयादिसदृशी बुद्धिर्हानिर्वा । इत्थं चान्तर्मुहूर्ताभ्यधिकेन्द्रियादिकायस्थितितुल्यमन्तरमुत्कृष्टतः सम्पद्यते ।
तथाहि - कश्चित् सकाय जीवो भवचरमान्तमुहूर्ते स्वस्य स्वस्थाने प्रायोग्यं संख्येय भागवृद्धस्थितिबन्धं कृत्वा तदनन्तरं चान्तर्मुहूर्त यावत् स्वप्रायोग्याः संख्येया अन्यविधवृद्धिहानीर्निर्वत्यैकेन्द्रियतयोत्पन्नः, न च तत्र तस्य संख्येयभागवृद्धेरवकाशः, अतोऽसौ प्रत्यन्तमुहूर्तं तत्र प्रायोग्यामसंख्येयभागवृद्धिं तादृशीं हानिमवस्थानं च बुर्वन् कुर्वन्ने केन्द्रियस्योत्कृष्टां काय स्थितिम संख्येयपुलपरावर्तप्रमाणां तत्रैव निर्गमयति । समाप्तायां चैकेन्द्रियोत्कृटकापस्थिती पुनरपि श्रसत्वेनोत्पचान्तर्मुहूर्तमतिक्रम्य संख्यभागाविकं स्थितिबन्धं कुर्वन् संख्ये भागवृद्धिं करोति, न त्वक् ॥ इत्थं तादृशजीवेनानन्तैरेकेन्द्रियभवैरन्तरितयोस्त्रसभवयोर्निर्वर्तित संख्येयभागस्थितिबन्ध वृद्धिद्वयस्या - न्तरं यथोक्तमसंख्येयपुद्गलपरावर्तप्रमाणं प्राप्यते तच्चो कनीत्याऽन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकैकेन्द्रियोत्कृष्टकायस्थितिप्रमाणं विज्ञेयम् । इत्थमेव संख्येयभागवृद्धिस्थाने संख्येयभागहानिद्वयं कुर्वन्तं जीवमादायोत्कृष्टं संख्येयभागहान्यन्तरमपि भावनीयम् । एवमेव संख्येयगुणवृद्धिहान्यन्तरेऽपि भावनीये, केवलं पूर्वं विवक्षितवृद्धिहानि उयान्तराल एकेन्द्रियकायस्थितिदर्शिता, अत्र तु संख्येयगुणवृद्धिहान्योर्विकलेन्द्रियाणामपि स्वस्थानेऽसम्भवात्तदपेक्षया लभ्यमानः कियत्कालोऽपि तदन्तरालेऽधिकतया द्रष्टव्यः तथा च सत्यन्तरमपि पूर्वापेक्षया दीर्घतरं प्राप्येतेति ।
असंख्यगुणवृद्धिहान्योरेकैकस्या उत्कृष्टमन्तरं तु श्रेणिद्वयस्योत्कृष्टान्तरालमपेक्ष्य प्राप्यते, श्रेणिद्वयस्योत्कृष्टमन्तरं त्वेकजीवापेक्षया देशोनापार्श्वपुद्गलपरावर्तप्रमाणम् । विशेषतस्तु जीवविशेषं कृत्य स्वयमेव भावनीयमिति ।। ७५६-७५७ ॥
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बंधवा मूलपडिटिबंधो [ मार्गणासु चतुर्विधवृद्धिहानिजघन्यान्तर गतमोधत आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनामसंख्येय भागादि चतुर्विधवद्धि चतुविधहानिलक्षणानां स्थितिबन्धविशेषाणां जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नं द्विविधमप्येकजीवः ॐ यमन्तरम् । इदानीं तदेवादेशतो व्याजिरादौ तावज्जघन्यपदे गाथात्रयेणाह -
सव्वासु लहु अंतरमोघव्व सगसगवहाणीणं । सत्तण्ह णवरि कम्मे ऽणाहारे अंतरं णत्थि ॥७५८॥ हस्सं भिन्नमुहुत्तं णेयं सपयाण वड्ढिहाणीणं । गयवेए सुहमम्मि य तहा असंखगुणवड्ढीए ॥७५९॥ तिणर-पणमणवयेसु ओरालिय-थी- पु सगेसु य । मणणाण-संयमेसु समइअ - छेएस णायव्वं ॥ ७६०॥
,
(प्रे०) “सव्वासु लहु”इत्यादि, निरयगत्योघादिसर्व मार्गणासु 'लघु' - जघन्यमेकजीवाश्रितमन्तरमोघवत् भवतीति शेषः । केषां कर्मणां कस्याः कस्या वृद्ध्यादेरित्याह - " सगसग - वडिढहाणीण "मित्यादि, तत्तन्मार्गणायां सत्पदद्वारेऽभिहितानां सप्तकर्मणामसंख्येयभागवृद्धयादिस्थितिबन्धसत्पदानामित्यर्थः ।
५६४ ]
किं निर्विशेषं सर्वमार्गणास्वोचवतास्ति किञ्चिद्विशेोऽपीत्याह - "णवरि" इत्यादि, 'नवरं' परं " कम्मे " त्ति कार्मणकाययोगे "णाहारे" त्ति लुप्ताऽकारस्य दर्शनादनाहारकमार्गणायां चैकस्या अपि वृद्धेनेर्वाऽन्तरं नास्ति । कुतः ? इति चेद्, उत्कृष्टपदेऽधिकृतायामेकेन्द्रि यजीवसत्कायां त्रिसामयिक्यां कार्मणकायोग्यवस्थायां विवक्षाविशेषेणाऽपि प्रथमसमयेऽवस्थितान्यस्थितिबन्धस्यैवास्वीकृतत्वात्, शेषसमयद्वयमपेक्ष्य तु भूयस्कारस्याज्यतरस्य वाऽन्तरस्यैवासम्भवेनासंख्येयभागवृद्धिहान्यन्तरस्याप्यसम्भव एवेति । यदि च प्रथमसमयेऽवस्थितस्थितिबन्धस्येव विवक्षान्तरेण भूयस्कारादिवन्धोऽपि स्वीक्रियेत तदाऽपि केवलाया असंख्यभागवृद्धे रसंख्य भागहाने श्चान्तरं समयमात्र सम्पद्येत, न शेषवृद्धिहानीनामिति सूक्ष्मधिया स्वयमेवोह्यमिति ।
I
अन्यमपि विशेषमाह - "हरसं भिन्नमुहुत्तं णेय " मित्यादि, सामान्यत ओघवदतिदिष्टमप्येकजीवाश्रयं ह्रस्वं' - जघन्यमन्तरं 'भिन्नमुहूर्तम्' - अन्तहूर्तं ज्ञेयम् । कस्यां कस्यां मार्गणायां कस्या वृद्धेहनियेत्याह - " सपयाणे "त्यादि, गतवेदः सूक्ष्मसम्पराय मार्गणयोः सर्वेषां सत्पदानां तथाऽपर्याप्तभेदवर्जेषु त्रिषु मनुष्यगतिभेदेषु पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोगौ-दारिककाययोग-स्त्रीवेदनपुंसक वेद- मनः पर्यवज्ञान-संयमौघ- सामायिक-- छेदोपस्थापनीयसंयम मार्गणास्वित्येवं विंशतिमार्ग
विवक्षा विशेषविमर्शो हि अत्रैव स्थितिबन्धग्रन्थे भूयस्काराधिकारैव जीवाश्रयकालद्वारे 'कम्मSणाहारे' इत्यस्था (५७५) गाथाया वृत्तौ व्यधायि, जिज्ञासुना तत्रत्या प्रेमप्रभा प्रविलोकनीया ।
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संख्यगुणवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तर० ] वृद्धयधिकारे ऽन्तरद्वारम्
णासु तु प्रत्येकमसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धेरित्यर्थः । तत्रा - ऽपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणयोः केवलानां श्रेणिगतजीवानामेव प्रवेशेन स्वप्रायोग्यानां सर्वविधवृद्धयादिसत्पदानामौधिकासंख्यगुणहानेर्जघन्यान्तरवदन्तमुहूर्त प्रमाणमेव प्रस्तुतान्तरं प्राप्यते, न पुनः समयमात्रम् इत्यत ओघवदतिदिष्ट मध्यपोद्यान्तमुहूर्तमभिहितम् । मनुष्यगत्योघादिविंशतिमार्गणास्वपि देवानामप्रविष्टत्वात्सप्तानामसंख्येयगुणबुद्धेः प्रपतद्पशमकस्यैव जायमानत्वाच्चाधिका संख्येयगुणहानेरन्तरवत्सप्तानामसंख्यगुणवृद्धेरप्यन्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमेव प्राप्यत इत्यपोद्य तथैवाभिहितम् । मनुष्यगत्योघादिमार्गणासु सप्तकर्मणां शेषस्थितिबन्धवृद्धिहानिसत्पदानां तथा मनुष्यगत्योघादिविंशतिमार्गणाः कार्मणकाययोगाऽनाहारकमार्गणेऽपगतवेदसूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणे च परिहृत्य शेषसर्वमार्गणासु सर्वेषां स्थितिबन्धवृद्धिहानिसत्पदानां जघन्यमन्तरं सर्वथैवोघवद्भावनीयमिति ।। ७५८-७५९-७६०॥
तदेवमभिहितं सर्वमार्गणास्थानेषु सप्तानामसंख्येयभागबुद्धयादि स्थितिबन्धसत्पदानां जधन्यमन्तरम् | सम्प्रति तदेवोत्कृष्टतः प्रचिकटयिषुराह -
पुव्वा कोडिपुहुत्तं गुरु असंखगुणवड्ढिहाणीणं । सत्तण्हं तिणरेसु ओघव्व अचक्खु भवियेसु ॥७६१॥
[ ५६५
(प्रे०) “पुव्वा कोडिपुहुत "मित्यादि, आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनामसंख्यगुणवृद्धिहानिलक्षणद्विविधस्थितिबन्धयोः प्रत्येकं 'गुरु' - उत्कृष्ट मे कजीवाश्रितमन्तरं पूर्वकोटिपृथक्त्वम् । कासु मार्गणास्त्रित्याह - " तिणरेसु" ति अपर्याप्तभेदवर्जास तिसृषु मनुष्यगतिमार्गणास्वित्यर्थः । इदं हि भूयस्काराधिकारे प्रकृतमार्गणात्रये उपपादितावत्तथ्यस्थितिबन्धोत्कृष्टान्तरवदुपपादनीयम्, प्रत्येकं मार्गणानामेकजीवाश्रयोत्कृष्टकापस्थितः पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकत्रिपल्योपमप्रमाणत्वेऽपि 'सत्तट्ठभवा उ उक्कोसा' इत्यनेन तावत्या उत्कृष्टायाः काय स्थितेः पूरकभवेषु चरमे युग्मभवे एकविधाया अपि श्रेणेरसम्भवेनाऽसंख्यगुणवृद्धि हानीनामप्यसम्भवानं युग्मिभवं विहाय शेषभवनिष्पन्नोत्कृष्टकायस्थित्यनुसारेण तस्य लाभादिति ।
"ओघव्व अचक्खुभवियेसु" ति ओघवदचक्षुर्दर्शन- भव्यमार्गणयोः, सप्तानामसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिहान्योः प्रत्येकमुत्कृष्टमेक जीवाश्रितमन्तरमित्यनुवृच्या विज्ञेयम् । ततश्च मार्गणाद्वयेऽपि सप्तानामसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिहान्योः प्रत्येकमन्तरं देशोनार्थपुद्गलपरावर्तप्रमाणं प्राप्तम्, तच्चाविशेषेणौघवद्भावनीयम् प्रकृतमार्गणगतानां सप्तप्रकृतिसत्कासंख्यगुणस्थितिबन्धबुद्धिहानिस्वामिनामोघापेक्षयाऽविशेषादोघवन्मार्गणाद्वयस्यैकजीवाश्रितोत्कृष्टकाय स्थितेरनादित्वाच्चेति । ७६१ ।
अथ यासु मार्गणासु प्रस्तुतमायुर्वर्जसप्तप्रकृत्पसंख्यगुणस्थितिबन्धबुद्धिहान्यन्तरमुत्कृष्टतो मार्गणोत्कृष्टकाय स्थितितुल्यं ताः संगृह्य तत्राह
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९६६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गपावसंख्यगुणवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तर: . दुपणिंदितस-पुरिस-चउणाण-णयण-ओहि-संयमेसु तहा। ,
सम्म-खइअ-सण्णीसुआहारे ऊणकायठिई ॥७६२॥ .. (प्रे०) "दुपणिदि" इत्यादि, पञ्चेन्द्रियौघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियलक्षणयोर्द्वयोः पञ्चेन्द्रियभेदयोः 'दु'शब्दस्य 'वस' इत्यत्रापि योजनाद् द्वयोरपर्याप्तभेदवर्जितयोस्त्रसकायभेदयोः, पुरुषवेद-मत्यादिचतुर्ज्ञानेषु, “णयण"त्ति चक्षुर्दर्शनमाणाभेदे, अवविदर्शने, संयमोघे, तथा सम्यक्त्वौघ-क्षायिकसम्यक्त्व-संशिष्वाहारकमार्गणायां चेत्येवं समुदितासु षोडशमार्गणासु प्रत्येकम् “ऊणकायठिई” त्ति अन्तमुहूर्तादिलक्षणेनैकदेशेनोना तत्तत्पञ्चेन्द्रियौवादिमार्गणानामत्रैव स्थितिबन्धग्रन्थे द्वितीयाधिकारगतैकजीवाश्रितकालद्वारेऽभिहितोत्कृष्टा कायस्थितिः, सप्तानामसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिहान्योः प्रत्येकमुत्कृष्टमन्तरमिति प्राग्वदनुवृत्त्या विज्ञेयम् । एवमेवोत्तरत्रापि बोद्धव्यम् ।
अत्र भावना तु प्रत्येकमार्गणामूत्कृष्टकायस्थितिप्रारम्भप्रान्तसमासन्नभाविश्रेणियान्तरानुसारेण कर्तव्या, सप्तकर्मणामसंख्यगुणस्थितिवन्धवृद्धिहानीनां श्रेण्यधीनत्वात् । तद्यथा-पञ्चेन्द्रियोघमागेणाया एकजीवाश्रयोत्कृष्टकायस्थितिः साधिकं सागरोपमसहस्रम् । सा च नानापञ्चेन्द्रियभवैरेव पूरयितुं शक्यते । तत्र ये केचन मार्गणान्तरादागत्य संख्येयवर्षस्थितिकमनुष्यतयोत्पघाऽविलम्बेन यथाकालमुपशमश्रेणिमारुह्य क्रमेणानिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थाने ज्ञानावरणादीनां तत्तत्कर्मणां प्रथमतोऽसंख्येयगुणहीनस्थितिवन्धान् कृत्वा उपशान्तमोहगुणस्थानकं स्पृशन्ति; ततस्तूपशान्ताद्धाक्षयात्क्रमेण पतन्ति, न पुनः भवक्षयेण देवगतावुत्पद्यन्ते; पश्चात्तु नानाभवैः पञ्चेन्द्रियौघमार्गणाया उत्कृष्टकायस्थिति निर्वाह्योत्कृष्टकायस्थितेश्वरमे संख्येयवर्षस्थितिके भवे मनुष्यतया वर्तमानाः सन्तो भवप्रान्तान्तमुहूर्ते क्षपकश्रेणिमारुह्य पुनरपि ज्ञानावरणादीनां तत्तत्कर्मणामसंख्येयगुणस्थितिबन्धहानि कुर्वन्ति, तैर्जीवविशेषैः कायस्थितिप्रारम्भसमासन्नप्रवत्तोपशमश्रेणी निर्वतितासंख्यगुणस्थितिबन्धहानेस्तया कायस्थितिप्रान्तसमासन्नवर्तिक्षपकश्रेणी विहितासंख्यगुणस्थितिवन्धहान्योर्यदन्तरं तदुत्कृष्टान्तरतया प्राप्यते, तच्च देशोनपञ्चेन्द्रियोत्कृष्टकायस्थितिप्रमाणमितिकृत्वा तथैवाभिहितम् । इत्थमेव शेषपर्याप्तपञ्चेन्द्रियादिपञ्चदशमार्गणास्वपि यथासम्भवं देशोना उत्कृष्टकायस्थितिः प्रकृतोत्कृष्टान्तरं विज्ञेयम् । भावनाऽपि तत्र यथोक्तरीत्या स्वयमेव कर्तव्येति । एतासु पञ्चेन्द्रियोधादिमार्गणासु सप्तानामसंख्यगणस्थितिवन्धवृद्वेरुत्कृष्टान्तरमप्युक्तरीत्यैवोपपादनीयम्, केवलं कायस्थितिप्रान्तभागे द्वितीयवारमप्युपशान्ताद्धाक्षयेण प्रपतत एवासंख्यगुणवृद्धिद्रष्टव्या। क्षपकश्रेणौ वृद्धरसम्भवादिति भावः ॥७६२।। अथ यासु मार्गणासु सप्तानामसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्विहान्यन्तरमुत्कृष्टतोऽन्तर्मुहूर्तमानं ता उपचित्याह
पणमणवय-काय-उरल-थी-णपुम-अवेअ-चउकसायेसु। समइअ-छेअ-सुइल-उवसमेसु णेयं मुहत्तंतो ॥७६३॥
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मार्गणास्वसंख्यगुणवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तर० ] वृद्धयधिकारेऽन्तरद्वारम्
(प्रे०) "पणमणवये" त्यादि, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-काययोगसामान्यौदारिककापयोग-स्त्रीवेद-नपुंसकवेदा-ऽपगतवेद-क्रोधादिचतुःकषायेषु, सामायिक छेदोपस्थापनसंयम-शुक्ललेश्यौ-पशमिकसम्यक्त्वेषु चेत्येवं समुदितासु त्रयोविंशतिमार्गणासु प्रत्येकं “णेयं मुहत्तंतो” त्ति प्रकृतत्वादायुर्वर्जसप्तमूलप्रकृत्यसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिहान्योरुत्कृष्टमन्तरमन्तमुहूर्त ज्ञेयम् ।
तत्र पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोगा-उपगतवेद-कषायचतुष्को-पशमिकसम्यक्त्वमार्गणानां प्रत्येकमुत्कृष्टकायस्थितेरेवान्तमुहूर्तत्वात्प्रकृतान्तरं तदधिकं न सम्भवतीति कृत्वाऽन्तमुहूर्तमुक्तम् । एवमंत्र काययोगसामान्यो-दारिककाययोग-शुक्लेश्यामार्गणानां सामान्यतो दीर्घकायस्थितिकत्वेऽपि यैरेकेन्द्रियादिभवैस्तादृशदीर्घकायस्थितिः पूर्यते तासु प्रस्तुतासंख्येयगुणस्थितिबन्धवृद्धिहान्येव सकृद् द्विान भवतः, तदभावे कुतोऽन्तरमपि भवेत , अन्तरस्य तादृशहानिद्वयाद्यधीनत्वात् । एकेन्द्रियादिभ्योऽन्यजीवापेक्षया लभ्यमानं तु तदन्तमुहूर्तमेव भवेत् , तेषामन्तमुहूर्तादधिकं प्रस्तुतमार्गणायामेवानवस्थानात् ।
किमुक्तं भवति-काययोगसामान्यौ-दारिककाययोगयोर्दीर्घकायस्थितिप्रयोजका एकेन्द्रियभवा एव,न त्वन्ये,अन्यभवेषु प्रत्यन्तमुहूर्त योगानां परावर्तनात्,इत्थं हि देवमनुष्यभवसम्भव्यसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धरन्तरं मनुष्यभवसम्भव्यसंख्यगुणस्थितिबन्धहानेरन्तरं च काययोसामान्यौदारिककाययोगमार्गगयोरुक्ताधिकं न प्राप्यते । शुक्लेश्यामार्गणाया उत्कृष्टकायस्थितिप्रयोजके देवभवेऽसंख्येयगुणस्थितिबन्धवृद्धेः सम्भवेऽपि सा देवभवप्रथमसमये सकृदेव सम्भवति । भवप्रथमसमये सकृदेव तद्भावे तु कुतोऽन्तरं भवेत् । स्थितिबन्धकानां मनुष्याणां तु योगानामिव तत्तल्लेश्यानामप्यान्तर्मुहूर्तिकत्वाच्छुक्ललेश्याऽप्यन्तर्मुहूर्तादधिककालं नैरन्तर्येण न प्रवर्तते, अतः प्रकृतवृद्धथन्तरमपि प्रोक्ताधिकं न प्राप्यते ।
'शेषासु स्त्रीवेद-नपुंसकवेद-सामायिकसंयम-छेदोपस्थापनसंयमरूपासु चतसृषु मार्गणासु तु केषामपि जीवानां मार्गणाविच्छेदादक तत्तन्मार्गणाचरमान्तमुहर्ते एवाऽसंख्यगुणहीनस्थितिवन्धानां सम्भवाद् , तथा तत्तन्मार्गणाप्रारम्भान्तमुहूर्ते एवाऽसंख्यगुणवृद्धस्थितिबन्धानां सम्भवान प्राप्यते ऽसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिहान्यन्तरमन्तमुहूर्तादधिकम् । तद्यथा-केनाऽपि स्त्रीवेदिजीवेनोपशमश्रेणी क्षपकश्रेणी वा समारब्धायां क्रमेणैव तस्याऽसंख्यगुणस्थितिबन्धहानयो भवन्ति, नान्यत्र । श्रेणिमारोहन् स यदि मृत्यु न प्राप्नोति तदाऽन्तमुहूर्तेऽतिक्रान्तेऽवेदीभवन् प्रकृतमार्गणातो बहिभवति । यदि च कालं करोति तदा त्वनुपदमेव देवत्वे पुवेदीभवन् प्रकृतमार्गणाया बहिनिर्याति; इत्थं चोभयथाऽपि मार्गणाप्रान्तान्तमुहर्ते एव तस्य नानाऽसंख्यगुणहीनस्थितिबन्धाः सम्भवन्ति, ततश्च न भवति सप्तानामसंख्यगुणस्थितिबन्धहान्यन्तरमन्तमुहूर्तादधिकम् । तच्चान्तरं प्रकृतमार्गणाभाव्यसंख्यगुणहीनस्थितिबन्धद्वयमध्यवयुत्कृष्टावस्थानकालप्रमाणमवसातव्यम् । इत्थमेव
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५६८ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मानणासु संख्यभागगुणवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तर० शेषनपुंसकवेदादिमार्गणात्रयेऽप्युत्कृष्टान्तरं विशेयम् , भवक्षये भवक्षयाभावे वा स्त्रीवेदमार्गणावन्नपुंसकवेदादिमार्गणात्रयस्याऽपि नियमतो विच्छेदात् ।
असंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धयन्तरं तु प्रपतदुपशमकजीवापेक्षया भावनीयम् । तद्यथाकश्चित् स्त्रीवेदी जीव उपशमश्रेणि समारुयोपशान्तमोहगुणस्थानकं प्राप्तः, न च तदानीमसौ स्त्रीवेदमार्गणायाम् , तदानीं तस्य वेदोदयाभावात् । पश्चात्तु स उपशान्ताद्धाक्षयात्प्रपत्य यदा वेदोदयं प्राप्नोति, ततः प्रभृति स्त्रीवेदमार्गणायां वर्तते, ततस्तु प्रपतन निरन्तरवर्धमानसंक्लेशोऽसौ मुहूर्ताभ्यन्तरे एव ज्ञानावरणादीनां यथोत्तराऽसंख्यगुणवृद्धस्थितिबन्धान् करोति, एतच्च तदा भवति यद्यसौ मृत्यु नैति; यदि चासो मृत्युमेति तदा तु प्राग्वनियमतो मार्गणान्तरं प्रतिपद्यते, इत्थं तस्य क्रमेण प्रतिपतत उत्कृष्टावस्थानकालान्तरितयोरसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धयोर्यदन्तरं तदेव स्त्रीवेदमार्गणायां मूलोक्तोत्कृष्टान्तरतया विशेयम् ।
न च यः कश्चिदुपशमश्रेणितः प्रपतन चरमासंख्येयगुणवृद्धस्थितिबन्धं कृत्वा स्त्रीवेदितयैव देशोनपूर्वकोटीकालं श्रेणे हिरेवापतारयति, भवप्रान्ते पुनरप्युपशमश्रेणिं समारुह्य प्राग्वदसंख्येयगुणवृद्ध स्थितिबन्धंच करोति तस्योक्ताविकमन्नरमपि प्राप्येतेति वाच्यम् । यतः क्रमशः प्रतिपाते कालकरणे वा तस्याऽसंख्यगुणवद्धस्थितिबन्धसम्भवः, तत्र कालकरणेन लभ्योऽसंख्यगुणवद्धस्थितिबन्धस्तु प्रकृतान्तरप्रयोजक एवं न भवति, प्रकृतमार्गणाबहिर्भावित्वात्तस्य । क्रमशः प्रपततोऽपि यो देशोनपूर्वकोटिकालमतिक्रम्य द्वितीयवारमसंख्यगुणवृद्धस्थितिबन्धोऽभिहितः, स यद्यपि स्त्रीवेदमार्गणायामेव,तथाऽपि नासौ पूर्वकोटिकालात् पूर्व निर्वर्तितादसंख्यगुणवृद्धस्थितिबन्धादारभ्य निरवच्छिन्नप्रवृत्तायां स्त्रीवेदमार्गणायामेव; किन्तु मध्ये विच्छिद्य पुनः प्रवृत्तायां रत्रीवेदमार्गणायामेव । यतो यः क्रमेण पतितः स उपशान्ताद्धां निर्वावि, स च नियमतो मध्येऽन्तमुहर्तमदेद्यासीत्, तथा च मध्येऽन्तमुहूतं स्त्रीवेदमार्गणाया विच्छेदान्नाद्यापि देशोनपूर्वकोटिकालान्तरितगतप्रतिपातप्रवृत्तैव निरवच्छिन्ना स्त्रीवेदमार्गणा, तदभावे कुत उक्ताधिकान्तरस्य सम्भवः, न कुतश्चिदिति । शेषनसकवेदादिमार्गणास्वपि प्रकृतवद्धथन्तरं सर्वथैव स्त्रीवेदमार्गणावद्भावनीयमिति ॥७६३।।
तदेवं भणितो यासु मार्गणासु सप्तानामसंख्यगुणस्थितिवन्धवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तरस्योघापेक्षया विशेषस्तासु तथैव । अधुना यासु संख्येयभाग-संख्येयगुणस्थितिवन्धवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तरविषय ओघापेक्षया विशेषस्तासु तं दर्शयन्नाह
आहारे कायठिई संखियभागगुणवड्ढिहाणीणं । सत्तण्डं कम्माणं उक्कोसं अंतरं णेयं ॥७६४॥ होइ असंखपरट्टा उक्कोसं तिरिय-काय-णपुमेसु । दुअणाणा-ऽयत-अणयण-भवियेयर-मिच्छ-अमणेसुं ॥७६५॥
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मागणासु संख्येयगुणवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तर० ] वृद्ध्यधिकारे ऽन्तरद्वारम्
होइ तिपणिंदितिरिय-दुपणिंदितस- इत्थि - पुरिस-चक्खूसु । पुव्वा कोडिपुहुत्तं संखियगुणवदिहाणीणं ॥७६६ ॥ (प्रे०)“आहारे कायठिई"त्यादि, आहारिमार्गणायामायुर्वर्जसप्रकर्मणां संख्ययेयभाग-संख्येयगुणवृद्धिहानीनां प्रत्येकमुत्कृष्टमकजीवाश्रितमन्तरं “कायठिई" त्ति आहारिमार्गणाया एकजीवाश्रितोत्कृष्ट कार्यस्थितिज्ञेयम् । यत आहारिमा गंगाया उत्कृष्ट काय स्थितिरङ्कुलाऽसंख्य भागप्रमाणक्षेत्रगताकाशप्रदेशेषु निरन्तरं प्रतिसमय मे कैका काशप्रदेशस्यापहारे यावान् कालोऽतिगच्छति तावत्योSसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, सा च नानैकेन्द्रियभवैरपि पूरयितुं शक्यते, एकेन्द्रियोत्कृष्ट काय स्थितेरसंख्येयपुद्गलपरावर्तप्रमाणत्वात् । किञ्चैकेन्द्रियावस्थायां स्वस्थाने सप्तानां संख्येयगुणस्थितिबन्धवृद्ध े: संख्येयगुणस्थितिबन्धहानेश्चान्तराऽन्तरा नास्ति सम्भवः, द्वीन्द्रियादिभ्य उत्पद्यमानैकैन्द्रियस्य भवप्रथमसमयभावि संख्येयगुणहानिं विहायोत्कृष्टकापस्थितिं यावदसंख्यभागस्थितिबन्धबुद्धिहानीनां तथाऽवस्थितस्थितिबन्वानामेव परावर्त्य परावर्त्य प्रवर्तनात् ।
[ ५६९
भावना त्वेवम्-य: कश्चिद्रक्रगत्याऽनाहारको भूत्वा क्षुल्लकभवग्रहणलक्षणजघन्यस्थितिकलब्ध्यपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पन्नः, उत्पत्तिस्थानं प्राप्याऽऽहारको चाभूत् स चानन्तरभवेऽविग्रहेणै केन्द्रि यतयो त्पित्सुर्भवचरमान्तमुहूर्तेऽवशिष्टे सप्तानां संख्येयगुणबुद्धस्थितिबन्धं करोति, तदनन्तरं तु संख्येयगुणवृद्धस्थितिबन्धान् विहाय शेवायोग्यासंख्ययेभाग-संख्येय भागवृद्धिसंख्येयभागा-ऽसंख्येयभाग-संख्येयगुणहानिभिरवस्थितबन्धैश्च शेषमायुरनुभूयाऽवक्रगत्यैवै केन्द्रियतयोत्पद्यते, तत्र च नानाभवैराहारकस्योत्कृष्टां कार्यस्थिति निर्गमयति, यदा चाऽऽहारककाय स्थितिः क्षुल्लकभवप्रमाणाऽवशिष्यति तदाऽसावायुः क्षयादृजुगत्या द्वीन्द्रियादितयोत्पद्यमानः सन् सप्तानां संख्येयगुणस्थितिबन्धवृद्धिं करोति, इत्थं तादृशजीवेन पूर्वं संज्ञिपञ्चेन्द्रियावस्थायां भवचरमान्तमुहूर्ते कृतायाः संख्येयगुणस्थितिबन्धवद्वे स्तथोत्कृष्टाऽऽहारककायस्थिति निर्गमय्य द्वीन्द्रियादिभवप्रथमसमये निर्मितायाः संख्येयगुणस्थितिबन्धवृद्धेश्व यदन्तरं तदाहारकमार्गणायां सप्तानां संख्येगुणस्थितिधवृद्धेरुत्कृष्टान्तरतया प्राप्तम् तच्च यद्यपि देशोनक्षुल्लकभवद्वयलक्षणेनैकदेशे नोनाऽऽहारकोत्कृष्टकार्यस्थितिप्रमाणम्, तथाऽपि वर्जनीयदेशस्य स्वल्पतया तमविवक्ष्य लाघवार्थमा हारकोत्कृष्टकाय स्थिति प्रमाणमेवाभिहितम् । एवमुत्तरत्रापि यथासम्भवमेकदेशेनोनत्वमधिकत्वं वा स्वयमेव द्रष्टव्यम् ।
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यथा हि सप्तानां संख्येयगुणवृद्धेरुत्कृष्टमन्तरं भावितं तथा संख्येयगुणहानेरन्तरमपि भावनीयम्, केवलं प्रथमा हानिः क्षुल्लकभवस्थितिकसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाद्यन्यतमरूपत्र सभवादनन्तरे एकेन्द्रिभवे भवप्रथमसमये द्रष्टव्या, आहारकोत्कृष्ट कायस्थितिसम्बन्धिचरमभवे द्वीन्द्रियादितयोत्पादो न द्रष्टव्यः, किन्तु तत्स्थाने क्षुल्लकभवस्थितिकलब्ध्यपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतयोत्पादो द्रष्टव्यः, तत्र भवप्रथमान्तमुहूर्ते गते एव संख्येयगुणहानिश्च द्रष्टव्या, न तु तदर्वागिति ।
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५७० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबधो [ संख्येयभागादिवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तर० संख्येयभागवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तरेऽप्यनया दिशैव भावनीये, यत एकेन्द्रियाणां स्वस्थाने संख्येयगुणवृद्धिहानी इव संख्येयभागवृद्धिहानी अपि न भवतः, ततश्च सर्व तहदुपपद्यत इति । ___अथ मार्गणान्तरेषु प्रकृतवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तरमाह--"होइ असंखपरटा" इत्यादि, सप्तानां संख्येयगुण-संख्येयभागस्थितिबन्धवृद्धिहान्यन्तराण्युत्कृष्टतोऽसंख्येयपुद्गलपरावर्तप्रमाणानि भवन्ति । कासु मार्गणास्वित्याह-"तिरिये" त्यादि, तिर्यग्गत्योध-काययोगसामान्य-नपुंसकवेदमत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयमा-ऽचक्षुर्दर्शन-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंज्ञिरूपास्वेकादशमार्गणास्वित्यर्थः । एतास्वपि प्रत्येकमुत्कृष्टान्तरमनन्तरोक्तनीत्यैवाऽसंख्येयपुद्गलपरावर्तप्रमाणं भावनीयम् , केवलमजु-वक्रगत्यादिनोत्पादनिबन्धो न कार्यः, स्वस्थानतः परस्थानतो वा येषु भवेषु संख्येयगुणसंख्येयभागस्थितिबन्धवृद्धिहानयो नियमतो भाविन्यस्तादृशभवेष्वेकेन्द्रियकायस्थित्यसंख्येयपुद्गलपरावर्तान् यावदनुत्पादो द्रष्टव्यश्चेति । ____ मार्गणान्तरेषु संख्यातगुणवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तरमाह-"होइ तिपणिंदि” इत्यादि, अपर्याप्तमेदवर्जेषु त्रिषु पञ्चेन्द्रियतियग्मार्गणाभेदेषु, द्विशब्दस्य पञ्चेन्द्रियवसयोः प्रत्येकं योजनादपर्याप्तभेदवर्जितयोयोः पञ्चेन्द्रियजातिभेदयोयोश्च त्रसकायभेदयोः स्त्रीवेद-पुरुषवेद-चक्षुर्दर्शनमार्गणास्थानेषु चेत्येतासु दशमार्गणासु प्रत्येकं पुनः संख्येयगुणवद्धिहानिलक्षणपदद्वयस्य प्रत्येकमुत्कृष्टमन्तरं पूर्वकोटिपथक्त्वप्रमाणं भवति । कुतस्तावन्मात्रम् , न पुनरधिकम् ? इति चेद् , प्रत्येकं निरन्तरमसंज्ञिपञ्चेन्द्रियादितया निर्वाह्योत्कृष्टकालस्य पूर्वकोटीपथक्त्वप्रमाणत्वात् । इदमुक्तं भवति-पञ्चेन्द्रियतया निरन्तरसम्भवद्भवेषु यो जीवः प्रथमचरमभवद्वयं संज्ञिपञ्चेन्द्रियतयाऽनुभवति, मध्यमभवैस्त्वसंज्ञिपञ्चेन्द्रियोत्कृष्ट कायस्थितिं पूरयति, तादृशजीवमपेक्ष्य प्रकृतोत्कृष्टान्तरमुत्पद्यते । कुतः ? असंज्ञिपञ्चेन्द्रियभवेषु स्वस्थाने संख्येयगुणवृद्धिहानीनामभावात् , उत्कृष्टस्थितिकासंज्ञिपञ्चेन्द्रियभवस्थितेः पूर्वकोटिप्रमाणत्वात् , असंज्ञिपञ्चेन्द्रि यतया निरन्तरं संख्येयवारानेवोत्पत्तेः सम्भवाच्च । एवमेव त्रसकायौघादितत्तन्मार्गणामादायाऽपि वक्तव्यम् , केवलं तत्राऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामिव चतुरिन्द्रियादीनामपि प्रवेशेनाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्थाने चतुरिन्द्रियादयोऽपि वक्तव्याः । विस्तरभावना तु प्रागिव स्वयमेव कर्तव्येति ।।७६४-७६५-७६६।।। ___ अथ शेषमार्गणासु सप्तानां संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धिहानीनां तथा सर्वमार्गणास्वसंख्यभागवद्धिहान्योरुत्कृष्टान्तरं प्रदर्शयन्नाह
सेसासु मुहुरांतो संखियभागगुणवड्ढिहाणीणं । उक्कोसं सव्वासु होइ असंखंसवढिहाणीणं ॥७६७॥ (गीतिः)
(प्रे०) "सेसासु” इत्यादि, उक्तशेषासु यासु संख्येयभाग-संख्येयगुणस्थितिबन्धद्धि, संख्येयभाग-संख्येयगुणस्थितिबन्धहानिलक्षणानि चत्वारि पदानि सद्भूतानि प्रतिपादितानि तासु
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[ ५७१
सर्वमार्गणासु संख्येयभागवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तर० ] वृद्धयधिकारेऽन्तरद्वारम् नरकत्योधादिष्वेकनवतिमार्गणासु तेषां चतुणां पदानां, तथोक्तशेषासु यासु संख्येयभागस्थितिबन्धवृद्धि हानिलक्षणपदद्वयस्यान्तरमद्यापि नाभिहितं तासु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियौघादिविंशतिमार्गणासु प्रत्येक तासां सप्तकर्मसत्कसंख्येयभागादिस्थितिबन्धद्धिहानीनामुत्कृष्टमन्तरं "मुहुरांतो” त्ति सुगमम् ।
तत्र निरयगत्योघाद्या द्विनवतिमार्गणास्तु नामत इमाः-ओघसहितत्वादष्टो निरयभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदः, सर्वे मनुष्यगतिभेदाः, सर्वे देवगतिभेदाः, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रसकायभेदौ,काययोगसामान्यभेदवर्जाः सप्तदश योगभेदाः, अपगतवेद-कषायचतुष्क--मन्यादिज्ञानचतुष्क--विभङ्गज्ञान-संयमोघ--सामायिक--छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिकसंयमदेशसंयमा-ऽवधिदर्शनकृष्णादिषल्लेश्याभेद-सम्यक्त्वोध-क्षायिक--क्षायोपशमिकौ--पशमिकसम्यक्त्वसासादन-सम्यग्मिथ्यान्वसंज्ञिमार्गणाश्चेति । तिर्यक्पञ्चेन्द्रियौघादिविंशतिर्मार्गणाः पुनरिमा:-तिर्यक्पञ्चेन्द्रियोघ-तत्पर्याप्त-तिरश्ची-सर्वविकलेन्द्रियभेद-पञ्चेन्द्रियौघ-तत्पर्याप्त-त्रसकायौघतत्पर्याप्त-स्त्रीवेद-पुवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयम-चक्षुर्दर्शनानीति । एतासु प्रायः प्रत्येकं प्रकृततत्तदृद्धिहानिसत्पदानां मार्गणागतसर्वजीवस्वामिकत्वात् कदाचिदवस्थानस्थितिबन्धाद्धादिलक्षणमन्तमुहूर्त प्रस्तुतवृद्धिहानीनामप्रवर्तनाच्च तादृगन्तमुहूतं विहाय प्रत्यन्तमुहूर्त तत्तदृद्धिहानयः परावृत्त्य परावृत्त्य नियमेन जायन्ते, इत्थं च प्रत्येकमुत्कृष्टान्तरं संख्येयस्थितिबन्धप्रमाणं भवदप्यौधिकाऽसंख्यभागवृद्धिहान्यन्तरवदन्तर्मुहूर्तादधिकं न भवति । अत्र प्रायोग्रहणमपर्याप्तपञ्चेन्द्रियमार्गणादौ कुत्रचित् तत्रप्रविष्टाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणाम् , अपर्याप्तत्रसकायौदारिककाययोगादिमार्गणासु तत्रप्रविष्टद्वीन्द्रियादीनां तत्तत्संख्येयगुणवृद्धयादिस्वामित्वाभावात् । एवमपि तत्र प्रस्तुतान्तरमन्तर्मुहूर्तमात्रं तु तादृशासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाद्यवस्थाया उत्कृष्टत आन्तर्मुहूर्तिकत्वात् , औदारिककाययोगमार्गणायां त्वेकेन्द्रियाद्यवस्थाया दीर्घत्वेऽपि संख्येयगुणवद्धयादिस्थितिबन्धं कृत्वैकेन्द्रियादितयोत्पत्तिमात्रेणौदारिककाययोगमार्गणाया विच्छेदेन तादृशावस्थायाः संख्येयगुणवृद्धयादिस्थितिबन्धद्वयमध्यपतितत्वाभावादिति । ___अथ मार्गणास्थानेष्वेव सप्तानां शेषाऽसंख्यभागस्थितिबन्धवृद्धिहानिलक्षणयोद्वयोः सत्पदयोरूस्कृष्टमन्तरं दर्शयन्नाह-"उक्कोसं सव्वासु" इत्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः,केवलं "सव्वासु" मित्यनेन कार्मणकाययोगा-ऽनाहारका-उपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयमवर्जाः षट्पष्टयधिकशतमार्गणा ग्राह्याः । कुतः ? कार्मणा-ऽनाहारकमार्गणयोः सप्तानामसंख्यभागवृद्धिहानिलक्षणपदद्वयस्य सत्त्वेऽपि तयोः 'कम्मेऽणाहारे अंतरं णस्थि' इत्यनेन सम्भवत्सर्वविधवृद्धिहान्यन्तरस्यैव प्रतिषिद्धत्वात्, अपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयमयोस्तु प्रकृतपदद्वयस्यैवाऽसत्त्वाच्चेति । भावना तु प्रत्येकमोधोक्तरीत्या यथासम्भवं स्वयमेव कर्तव्येति ॥७६७।।
तदेवं भणितमादेशतोऽपि तत्तत्पदानां नानाजीवाश्रयमन्तरम् । तथा च गतमन्तरद्वारम् ।। ।। इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पञ्चमे वृद्धयधिकारे चतुर्थमेकजीवाश्रयमन्तरद्वार समाप्तम् ।।
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॥ अथ पञ्चमं भङ्गविचयद्वारम् ||
अथ क्रमप्राप्ते नानाजीवाश्रिते भङ्गविचयद्वारे भङ्गविचयप्ररूपणां चिकीर्षुरादौ तावद्भङ्गविचयोत्पत्तावुपयोगि तत्तद्वद्ध्यादिबन्धकानां धुवत्वादिकमोघत आह
सत्तण्हं णियमाओ अस्थि असंखंसवहिाणीओ । या भयणीयाओ सेसाओ वड्ढिहाणीओ ॥७६८ ॥
न्धका
(प्रे०) "सत्तण्हं णियमाओ" इत्यादि, आयुर्वजनां सप्तानां मूलप्रकृतीनां "असंखंसवडिढणीओ" त्ति प्रकृतत्वात्स्थितिबन्धविषयेऽसंख्यांशवृद्धय संख्यांशहानी इति द्व े अपि "णियमाओ अस्थि" ति नानाजीवानाश्रित्य 'नियमतः स्तः नियमेन विद्यते, न कदाचित्तयोर्वन्धक नामभाव इतिभावः । सूक्ष्मैकेन्द्रियाणामपि तत्स्वामित्वाद् द्वे अपि पदे ध्रुवे इति यावत् । "णेया भयणीयाओ" इत्यादि, 'सत्तण्ह' मित्यनुवर्तते, ततः सप्तप्रकृतीनां स्थितिबन्धविनया: “सेसाओ वहाणीओ" ति अनन्तरोपाचशेषाः संख्येयगुणवृद्धिहानि संख्येय भागवृद्धिहान्यसंख्यगुण - वृद्धिहानयो “भयणीयाओ" त्ति 'भजनीयाः' - भाज्या विकल्पयितव्या इत्यनर्थान्तरम् । एकेन्द्रियाणामतत्स्वामित्वाद्, एकेन्द्रियवर्जानां चासंख्यलोकाकाशप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकत्वात्प्रागुक्तनीत्यैतानि शेषाणि षट् पदान्यध्रुवाणि कदाचित्तासां प्रत्येकं बन्धकाः सम्पद्यन्ते कदाचित्तु नेति इत्थमेवोत्तरत्रापि सर्वेषां तत्तद्व, द्व्यादिपदानां भजनीयाभजनीयत्वेऽपि तद्बन्धकानामेव तद् द्रष्टव्यम्, एकाऽनेकवन्धकजीवसम्बन्धिभिन्नभिन्नकाललभ्य भङ्गविचयस्याऽधिकृतत्वात् बन्धस्य भजनीया - Sभजनीयत्वप्रदर्शनं पुनर्वन्धस्य बन्धकाविनाभावित्वेन बन्धकमजनीया भजनीत्वस्य तेनैव गम्यमानत्वाल्लाघवार्थमिति ||७६८ ||
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तदेवमुक्तं भङ्गविचयोपयोगि सप्तानां स्थितिबन्धवृद्धा देवत्वादिकमोघतः | साम्प्रतं तदेवादेशतो मार्गणास्थानेषु दर्शयन्नाह -
तिरिये सव्वेगिंदिय-णिगोअ - सेससहुमेसु वणकाये । पुहवाइ उसु तेसिं बाय-बाय अपज्जेसु ॥७६९ ॥ पत्तेअवणे तस्स अपज्जत्ते कायु-रालियदुगे । कम्मण-पु सगेसु कसायचउगे अणाणदुगे ||७७० ॥ अयता- चक्खूसु तहा अपसत्थतिलेस- भवियेसु । अभविय-मिच्छत्तेसु असण्णि आहारगियरेसु ॥ ७७१ ॥ (गोतिः)
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मार्गणासु वृद्धयादितत्तत्पदानां ध्रु वत्वादि० ] वृद्धयधिकारे भङ्गविचयद्वारम्
[ ५७३ सत्तण्हं णायव्वा ओघव्व सगसगवड्ढिहाणीओ।
सेसासु भयणीआ णेया सगढिहाणीओं ॥७७२॥ (प्रे०) “तिरिये सव्वेगिदिये'त्यादि, अक्षरार्थस्तु सुगमः, नवरं “सगसगवड्ढिहाणीओ" इत्यत्र स्वपदेन तिर्यग्गत्योपादितत्तन्मार्गणा बोद्धव्येति । भावार्थः पुनरयम्-आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनामसंख्यभागस्थितिबन्धवद्धिहानिवर्जाः शेषत्रिविधा वद्धयोहानयश्च यद्योधचिन्तायामप्यध्रुवा लभ्यन्ते, तदा मागणास्थानेषु का वार्ता । अर्थात् येषु मार्गणास्थानेष्वसंख्यभागवृद्धिहानिवर्जशेषपविधवद्धिहानिषु यावत्यो वृद्धिहानयः सत्पदद्वारे सत्तया प्ररूपिनास्तेषु मार्गणास्थानेषु तावत्योऽपि ता वृद्धिहानयोऽध्रुवा एव । अत एव "णायव्वा ओघव्व" इत्यनेन तिर्यग्गत्योघादिमार्गणासु, तथा "भयणीआ णया" इत्यनेन तिर्यग्गत्योपादिमार्गणावर्जशेषमार्गणास्वपि तासां षडविधवद्धिहानीनां भजनीयत्वमेवोक्तम् । असंख्यभागद्धि हानिपदे तु यासु मार्गणास्त्रोघवदसंख्यलोकाकाशप्रदेशतुल्या अनन्ता वा जीवास्तास्वोघवद् ध्रवे । तादृश्यो मार्गणास्तु “तिरिये सव्वेगिदिये" त्यादिना नामत उपात्तास्तिर्यग्गत्योघाद्याश्चतुःषष्टिः, न पुनः शेषा नरकगत्योघादिषडुत्तरशतमार्गणाः । अत एव तिर्यग्गत्योपादिमार्गणासु "ओघवे"त्यनेनाऽसंख्यभागवद्धिहान्योध्रुवत्वमतिदिष्टम् , शेषमाणासु तु "भयणीया या सगवढिहाणोओ"इत्यनेन संख्येयभागादिवृद्धिहानीनामिवासंख्यभागवृद्धिहान्योरप्यध्रुवत्वमभिहितमिति ॥७६९-७७२।।
सप्तप्रकृतीनां स्थितिबन्धसत्कयोरवस्थाना-ऽवक्तव्यात्मकयोः द्वयोः सत्पदयोधवत्वादिकमायुषः स्थितिबन्धसत्कयोद्वयोः सत्पदयोधवत्वादिकं च प्रागत्रैवाधिकारे सत्पदद्वारे-'भूगारव्वाउस्स उ संतपयाईसुदारेसु।भूओगारव्य भवेऽवत्तव्यत्तं तहा अवट्ठाणं। बंधस्स उ सत्तण्हं संतपयाईसु दारेसु॥७२३।। इत्यनेन भूयस्काराधिकारोक्तप्ररूपणावदतिदेशद्वारेण कथितम् , ततश्च प्राग्भूयस्काराधिकारोक्तभङ्गविचयोत्पादकान्यतरकरणेनैव प्राग्वत्स्वयमेव भङ्गा उत्पादयितु युज्यन्ते तथाऽपि स्वल्पतरायासेनेव भङ्गोत्पादनायान्यत् किञ्चित् करणमाह
अधुवपयस्स धुवजुआ तिविगप्पा एगऽणेगभेयाओ। पयवड्ढीए तिगुणा एगृणा हुन्ति धुवरहिया ॥७७३॥
(प्र०) "अधुवपयस्स" इत्यादि, संख्येयगुणवृद्ध्यादिरूपस्यैकस्याऽध्रुवपदस्य धुवजुआ' त्ति अन्येषामवस्थानादिध्रुवपदानां य एको 'ध्रुवभङ्गः' ध्रुवपदनिष्पन्नभङ्गस्तेन युताः"तिविगप्पा" त्ति 'त्रिविकल्पाः' -त्रिभङ्गाः,भवन्तीति परेणान्वयः । कुतस्त्रयो भङ्गा इत्याह-“एगणेगभेयाओ" ति तस्यैकस्य संख्येयगुणवृद्ध्यादेरध्रुवत्वेन कदाचिदेकबन्धकस्य कदाचिदनेकबन्धकानां सद्भावात् ।
एकस्मादधिकेष्वध्रुवपदेषु पुनः कियन्तो भङ्गाः स्युरित्याह-“पयवड्ढोए तिगुणा" ति
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५७४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ध्रुवाऽध्रु षपदैर्भङ्गोत्पादने करण० तेऽनन्तरपदप्राप्ता भङ्गाः प्रत्येकाध्रुवपदवृद्धौ त्रिगुणाः, भवन्तीति परेणान्वयः । अर्थाद्-यत्र द्वे पदे अध्रुवे तत्रैकस्याध्रुवपदस्य वर्धनादनन्तरप्राप्तास्त्रयो भङ्गास्त्रिगुणाः सन्तो (३४३=९) नव भङ्गा भवन्ति, तेऽपि प्राग्वदेकेन ध्रुवमङ्गन सहिता एव बोद्धव्याः । यत्र त्रीणि पदान्यध्रुवाणि तत्र तेऽनन्तरप्राप्ता नव भङ्गास्त्रिगुणाः सन्तः (९४३=२७) सप्तविंशतिर्भवन्ति, अमी अपि ध्रवभङ्गसहिता एव ज्ञातव्याः, एवमुत्तरत्रापि । पुनरपि पदवद्धौ यत्र चत्वार्यध्रुवपदानि तत्र तेऽनन्तरप्राप्ताः सप्तविंशतिर्भङ्गास्त्रिगुणाः सन्तः(२७४३=८१) एकाशीतिर्भवन्ति । पुनरपि पदवद्धौ यत्र पश्चाऽध्रवपदानि तत्र तेऽनन्तरप्राप्ता एकाशीतिर्भङ्गास्त्रिगुणाः सन्त-(८१४३=२४३) स्त्रिचत्वारिंशदभ्यधिकशतद्वयं भवन्ति । पुनरपि पदवृद्धथा यत्र षट् पदानि भाज्यानि तत्र पयवढीए तिगुणा'इति वचनात् तेऽनन्तरप्राप्तास्त्रिचत्वारिंशदुत्तरशतद्वयभङ्गास्त्रिगुणाः सन्तः (२४३४३=७२९) एकोनत्रिंशदभ्यधिकसप्तशतानि भवन्ति । यत्र पुनः सप्त पदानि भजनीयानि तत्र पुनरपि पदस्य वर्धनात् तेऽनन्तरप्राप्ता एकोनत्रिंशदभ्यधिकसप्तशतभङ्गास्त्रिगुणाः सन्तः (७२९४३=२१८७) सप्ताशीन्यभ्यधिकशतान्वितसहस्र व्यं भङ्गा भवन्ति । यत्र त्वष्टौ पदानि भजनीयानि तत्र पुनरपि पदस वृद्धेस्तेऽनन्तरप्राप्ता भङ्गास्त्रिगुणाः सन्तः (२१८७४३=६५६१) एकपष्टयभ्यधिकपञ्चशतान्वितपटमहस्राणि । ततः पदवृद्धौ यत्र भाज्यपदानि नव तत्रोक्तनीत्या (६५६१४३=१९६८३) व्यशीतियुतपटशतान्वितेकोनविंशतिसहस्राणि भङ्गा जायन्ते । पुनरपि भाज्यपदवृद्धया यत्र भाज्यपदानि दश तत्र (१९६८३४३= ५९०४९) एकोनपश्चादशधिकेकोनषष्टिसहस्राणि भङ्गाः प्रभवन्ति । इत्थमेवोत्तरत्रापि प्रतिभजनीयपदवृद्धौ यथोत्तरं त्रैगुण्यं द्रष्टव्यम्, अस्माभिस्तु प्रकृतोपयोग्येवाभिहितम् । ___एते सर्वे भङ्गा ध्रुवपदसद्भावापेक्षयाऽभिहिताः, यद्येकमपि ध्रुवपदं न स्यात्तदा ते कियन्तः स्युरित्येतदपि दर्शयन्नाह-“एगणा हुन्ति धुवरहिआ"त्ति 'ध्रुवरहिताः'-ध्रुवपदनिष्पन्नभङगेन रहिताः, ध्रुवपदाभावे केवलाधु वपदनिष्पन्नभङ्गा इति भावः । ‘एकोनाः'-एकभङ्गेनोना भवन्ति । यत्र यावन्तो ध्रु वाध्र वपदनिष्पन्ना भङ्गास्तत्र तेष्वेको ध्रुवपदनिष्पन्नभङ्गः; तेन ध्रुवपदनिष्पन्नभङ्गेनोनाः शेषाः सर्वेऽध्र वपदनिष्पन्नभङ्गा इति भावः । तद्यथा-एकादेऽध्र वे ध्र वाध्र वपदनिष्पन्नास्त्रयो भङ्गा उक्ताः, अतस्तत्रैको ध्र वपदनिष्पन्नो भगः, द्वौ पुनरध्र वपदनिष्पन्नौ भड़ौ । यत्र तु द्व पदे अ६ वे तत्र ध्र वाघ्र वपदनिष्पन्नभङगा नवोक्ताः, तेष्वेको ध्रुवपदनिष्पन्नो भगः, अष्टौ स्वध्र वपदनिष्पन्ना भङ्गाः । अतो यत्र न स्यादेकमपि ध्र वपदं तत्रैकं भङग विधज्य द्वयादयो भङ्गा एव द्रष्टव्या इति भावः । इत्थमेवोत्तरत्रापि त्रि-चतुः-पश्चाद्यभ्र वपदेषु योज्यमिति ।
अथास्य प्रकृते योजना क्रियते-ओघतः सप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकमसंख्यभागवृद्धिहानिलक्षणे द्वे पदे ध्रुवे अभिहिते, शेषाणि संख्येयभागवृद्धिहानिसंख्येयगुणवृद्धिहान्यसंख्यगुणवृद्धिहानिलक्षणानि षट पदानि पुनरध्रुवाणि दर्शितानि; द्वे पदे तु प्राग्विहितातिदेशलब्धे, तत्राऽवस्थानलक्षण
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भोघादेशतः करणयोजनया लब्धभङ्गाः ] वृद्धयधिकारे भङ्गविचयद्वारम्
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मेकं पदं ध्रुवम् अवक्तव्यलक्षणमेकं पदं त्वभ्रुवम् इत्थं घोघप्ररूपणायां त्रीणि पदानि ध्रुवाणि, सप्त पदानि स्ववाणि ततश्वोक्तकरणानुसारेण ध्रुवभङ्गरहिताः षडशीत्यभ्यधिकशतोत्तरसहस्रद्वय भङ्गा जाताः तत्र ध्रुवपदत्रयसत्कयेकभगे प्रक्षिप्ते जाताः सर्वेऽपि (२१८७) सप्ताशीत्यभ्यधिकशतोत्तरसहस्रग्र्यभङ्गा आयुर्वेर्जज्ञानावरणादेः प्रत्येकमेकानेक वृद्ध्यादिबन्धकनिष्पन्ना इति ।
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ओघत आदेशतश्च आयुर्विषये तु सर्वथैव भूयस्काराधिकारोक्तभङ्गविचयप्ररूपणावद्भङ्गा द्रष्टव्याः । तद्यथा - ओघत एक एव भङ्गः । कुतः ? असंख्य भागहान्यवक्तव्य स्थितिबन्धलक्षणस्य पदद्वयस्यापि ध्रुवत्वात् तदन्यपदस्यैवाभावाच्च । आदेशतोऽपि यासु मार्गणास्वसंख्य लोकप्रदेशराशितुल्यास्तदधिका वा जीवाः सन्ति तासु तिर्यग्गत्योघादिद्विषष्टिमार्गणास्त्रोत्रदेक एव भङ्गः । यासु पुनरुक्काऽपेक्षया स्तोकजीवास्तासु नरकगत्योघादिष्वेकोत्तरशतमार्गणासु तु पदद्रयस्याप्यध्धुत्रत्वाद् ध्रुत्रपदस्याभावाच्चोक्तकरणेना-(३४३ - ९ - १ - ८ ) ऽष्टौ भङ्गाः प्राग्वज्ज्ञेयाः ।
1
आदेशतः सप्तप्रकृतीनां तु प्रत्येकं नरकगत्योघमार्गणाभेदे उक्तकरणानुसारेण (७२९) एकोनत्रिंशदभ्यधिकसप्तशतानि भङ्गा निष्पद्यन्ते तत्रैको ध्रुवपदनिष्पन्नः शेपास्त्यध्रुवपदजाः । कुतः ? असंख्येयभाग-संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणानां षट्पदानामध्रुवत्वात्, अवस्थानलक्षणस्यैकपदस्य ध्रुवत्वाच्च । इत्थमेव सप्तसु शेषनरकभेदेषु, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिया-पर्याप्तत्रसकायमाणयोः, वैक्रियकाययोग-विभङ्गज्ञान-देशसंयम-तेजोलेश्या- पद्मलेश्या - क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणाभेदेष्वित्येतासु नरकौघभेदसहितासु पञ्चाशन्मार्गणासु विज्ञेयम् । कुतः ? प्रत्येकमुक्त षड्विधपदानाम चत्वादुक्तैकपदस्य ध्रुवत्वाच्चेति ।
तिर्यग्गत्योघमार्गणायां पुनः संख्ये भाग- संख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणानां चतुर्णां पदानामध्रुवत्वाद्, असंख्य भागवृद्धि हानिलक्षणयोद्रयोः पदयोरवस्थानपदस्य च ध्रुवत्वा - (८१) देकाशीतिर्भङ्गाः प्राप्यन्ते, एतेष्वप्येको ध्रुवः, शेषास्त्वध्रु वाः । यथा तिर्यग्गत्योघमार्गणायां तथैवौदारिकमिश्रकाययोग - कार्मणकाययोग-मत्यज्ञान - श्रुताज्ञाना--ऽसंयम - कृष्णलेश्या-नीललेश्या - कापोतलेश्याऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽसंज्ञ्य-ऽनाहारक भेदात्मकासु द्वादशमार्गणास्वपि बाधुवपदानां तथात्वात् सप्तप्रकृतिस्थितिबन्धस्य वृद्ध्यादेरे कानेकयन्धकनिष्पन्ना एकाशीतिर्भङ्गा बोद्धव्याः ।
मनुष्यगत्योघमार्गणायां त्वसंख्येयभाग - संख्येयगुणा- संख्येयगुणवद्धिहानिलक्षणानामष्टानां पदानामवक्तव्यपदस्य चेत्येवं नवानां पदानामध्ध वत्वम्, अवस्थानलक्षणस्यैकपदस्य ध्रुवत्वं च, तत उक्तकरणानुसारेण (१९६८३) व्यशीत्यभ्यधिकषट्शतान्वितैकोनविंशतिसहस्राणि भङ्गकाः समुस्पद्यन्ते, अत्राप्येको ध्र ुवः, शेषा अभ्र वा इति । इत्थमेवाऽपर्याप्तभेदवर्जयोद्वयोः पञ्चेन्द्रियजातिभेदयोः, द्वयोस्त्रका भेदयोः, पञ्चसु मनोयोगभेदेषु पञ्चसु वचनयोगभेदेषु चतुर्षु मत्यादिज्ञानभेदेषु, संयमौ चक्षुर्दर्शनाऽवधिदर्शन-शुक्ललेश्या - सम्यक्त्वध-- क्षायिकसम्यक्त्व-संज्ञिमार्गणा मेदेष्वित्ये
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५७६ ]
' बंधविहाणे मूलपडिठिइबधो [ आदेशतः करणयोजनया लब्धभङ्गाः तेषु सप्तविंशतिमार्गणाभेदष्वपि व्यशीत्युतरषट्शतान्वितैकोनविंशतिसहस्राणि (१९६८३) भङ्गा बोद्धव्याः । कुतः ? उक्तनवपदानामत्राप्यध्र वत्वाद् , अवस्थितपदस्य ध्रुवत्वाच्चेति । - अपर्याप्तमनुष्यमार्गणायामसंख्येयभाग-संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणानि पट पदान्यवस्थानलक्षणमन्यदेकं पदं चेत्येवं सप्त पदान्यधु वाणि, ततः(२१८६)षडशीतियुतशताभ्यधिकसहस्रद्वयं भगा लभ्यन्ते, ते च सर्वेऽध्र वपदनिष्पन्ना बोद्धव्याः। कुतः १ प्रकृते एकस्यापिध्र वपदस्याऽसवेनैकरूपस्य वियोज्यत्वात् । एकरूपे वियोजिते तु शेषा अध्र वपदनिष्पन्ना भड्गा एव भवन्ति, "एगूणा हुन्ति धुवरहिआ" इति वचनात् । इत्थमेव वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारक-तन्मिश्रकाययोग-परिहारविशुद्धिकसंयम-सासादन-मिश्रदृष्टिरूपास्वन्यासु षण्मार्गणास्वपि विज्ञेयम् । कुतः ? एतासु प्रत्येकमुक्तसप्तपदानामध्रु वत्वाद् , ध्रुवपदस्याभावाच्चेति । । सप्तकेन्द्रियमार्गणाभेदाः, सप्त साधारणवनस्पतिका पमार्गणाभेदाः, शेषद्वादशसूक्ष्मपृथिवीकायादिभेदाः, वनस्पतिकायौषभेदः, पथिव्यादिवायुकायान्ताश्चत्वार ओघभेदाः, तेषामेव चत्वारो बादरोघजीवभेदाः, चत्वारोऽपर्याप्तवादरपृथिव्यादिभेदाः, प्रत्येकवनस्पतिकायौघा-ऽपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेदो चेत्येतास्वेकचत्वारिंशन्मार्गणासु पुनः सप्तप्रकृतीनामसंख्येयभागवद्धिहानिलक्षणे द्वे, अवस्थानलक्षणमेकमिति त्रीणि पदान्येव सन्ति, तानि च त्रीण्यपि ध्रु वाणि, ततो ध्रुवपदनिष्पन्न (१) एको भङ्ग एव प्रत्येकं प्राप्यत इति । ____ विकलेन्द्रियसत्केषु नवमार्गणास्थानेषु प्रत्येकमसंख्येय भाग-संख्येयभागतिहानिलक्षणानि चत्वारि पदान्यध्र वाणि, एकमवस्थितपदं च ध्र वम् , तत उक्तरीत्या सप्तप्रकृतीनां प्रत्येकं स्थितिबन्धवृद्धयादेरेकानेकबन्धकनिष्पन्ना (८१) एकाशीतिर्भगा उत्पद्यन्ते।
बादरपर्याप्तपृथिवीकाया- 'काय-तेजस्काय-वायुकायभेदाः पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकाय भेदश्चेत्येतासु पञ्चमार्गणासु प्रत्येकं पुनः सध्र वा (९) नवैव भङ्गा उक्तरीत्या लभ्यन्ते । कुतः ? असंख्यभागवृद्धिहानिलक्षणयोर्द्वयोः पदयोरध्र वत्वात् , अवस्थानलक्षणस्यैकपदस्य ध्र वत्वाच्च ।
काययोगसामान्यमार्गणाभेदे संख्येयभाग-संख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणानि षट् पदानि, अवक्तव्यपदं चेत्येतानि सप्तपदान्यध्र वाणि, असंख्येयभागवृद्धिहानी लक्षणे द्वे पदे अवस्थितपदं चेति त्रीणि ध्र वाणि, ततो भङ्गका अप्युक्तनीत्या सप्ताशीत्यभ्यधिकशतान्वितसहस्रद्वयं (२१८७) प्राप्यन्ते, तत्रैको ध्रुवः, शेषा अध्र वा इति प्राग्वदवसातव्याः । यथा काययोगसामान्यमार्गणास्थाने तथौदारिककाययोगा-ऽचक्षुदर्शन-भव्या-ऽऽहारिमार्गणास्थानेष्वप्युक्तसप्तपदानां भजनीयत्वादुक्तपदत्रयस्याभाज्यत्वाच्च (२१८७) सप्ताशीत्यभ्यधिकशतोत्तरसहस्रद्वयं भङ्गका ज्ञेयाः ।
स्त्रीवेद-पुरुषवेद-सामायिकसंयमलक्षणासु तिसृषु मार्गणासु तु प्रत्येकमसंख्येयभाग-संख्येयभाग-संख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणान्यष्टौ पदानि भाज्यानि, अवस्थितपदं च ध्रुवमिति
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ध्रु वाध्र वपदैः करणयोजनया लब्धभङ्गाः ] वृद्धयधिकारे भङ्गविचयद्वारम्
[ ५७७ कृत्वा भङ्गा (६५६१) एकषष्टयभ्यधिकपञ्चशतोत्तरपट्सहस्राण्युत्पद्यन्ते, एतेऽपि प्राग्वत्सध्रुवा ज्ञेयाः। ___ नपुसकवेदमार्गणायां चतुर्यु क्रोधादिकषायमार्गणाभेदेषु च प्रत्येकं संख्येयभाग-संख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणानि षट् पदानि भाज्यानि, असंख्येयभागवृद्धिहानी अवस्थितपदं चेति पदत्रयं ध्रुवम् , ततः समस्ता भङगका एकोनत्रिंशदभ्यधिकसप्तशतानि (७२९) प्राप्यन्ते ।
अपगतवेदमार्गणायां पुनर्ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायकर्माण्यधिकृत्याष्टाविंशत्यभ्यधिकसप्तशतानि (७२८) भङ्गाः प्राप्यन्ते । कुतः ? संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणानां चतुर्णामवस्थाना-ऽवक्तव्यलक्षणयोयोरित्येतेषां षण्णां पदानामध्रुवत्वात् , ध्रुवपदस्याभावाच्च । वेदनीयनाम-गोत्रकर्माण्याश्रित्य प्रत्येकं पुनः संख्येयभाग-संख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणवद्धिहानिलक्षणानि षट , पूर्ववदवस्थाना-ऽवक्तव्यलक्षणे व इत्येवमष्टौ पदान्यध्रुवाणि, ध्रुवपदाभावश्च, ततो भङ्गका अपि (६५६०) षष्टयभ्यधिकपञ्चषष्टिशतान्यवाप्यन्ते । प्रकृतमार्गणायामेव मोहनीयकर्माधिकृत्य संख्येयभागवद्धिहानिलक्षणे द्व', अवस्थाना-ऽवक्तव्यलक्षणे द्वं इति चत्वारि पदान्यध्रुवाणि, प्राग्वद् ध्रवपदाभावश्च ततो भङगका (८०) अपि सर्वेऽशीतिर्भवन्ति । अमी गतवेदमार्गणायां दर्शिताः सर्वे भङ्गा अध्रुवपदनिष्पन्ना एव । कुतः ? ध्रवपदस्याभावादिति ।
छेदोपस्थापनसंयममार्गणायामसंख्येयभाग-संख्येयभाग-संख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणवृद्धि-हानिलक्षणान्यष्टौ पदान्यवस्थितपदं चेति नवापि पदान्यध्रुवाणि, ध्रुवपदाभावश्च, ततः सप्तानां कर्मणां प्रत्येकमेकानेक्वन्धकनिष्पन्नभङ्गा (१९६८२) द्वयशीत्यभ्यधिकषट्शतान्वितैकोनविंशतिसहस्राण्युत्पद्यन्ते, ते च ध्रुवरहिता अध्रुवा एव मन्तव्याः, प्रकृत एकस्यापि ध्रुवपदस्याऽसचादिति ।
मूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां संख्येयभागस्थितिबन्धवृद्धिहानी तथाऽवस्थितस्थितिवन्ध इत्येतेषां त्रयाणां सत्पदानामध्रुवत्वात् , ध्रुवपदस्याभावाच्च भङ्गविचयेऽपि ध्रुवभङ्गरहिताः (२६) पड्विंशतिर्भङ्गकाः सम्पद्यन्ते ।
औपमिकसम्यक्त्वमार्गणायां तु सप्तप्रकृतीनां प्रत्येकं स्थितिबन्धवृद्धयादेः कालभेदेन कानेकबन्धकसद्भावप्रयुक्ता भङ्गका दर्शितरीत्याऽष्टचत्वारिंशदभ्यधिकैकोनषष्टिसहस्राणि (५९०४८) जायन्ते, ते च सर्वेऽध्रवा एव मन्तव्याः । कुतः ? असंख्येयभाग-संख्येयभाग-संख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणानामष्टानां पदानामवस्थाना-ऽवक्तव्यलक्षणयो योः पदयोरित्येवं दशानामपि सत्पदानामध्रुवत्वात् , तदन्यपदस्यैवाऽभावाच्चेति ॥७७३॥
तदेवं दर्शितस्तत्तद्वृद्धयादिबन्धकानां ध्रुवा-ध्रुवत्वं प्रदर्श्य भङ्गोत्पादकरणप्रदर्शनद्वारेण भङ्गविचयः, तस्मिश्च दर्शिते गतं पञ्चमं भङ्गविचयद्वारम् ।।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पश्चमे वृद्धयधिकारे पश्चमं भङ्गविचयद्वारं समाप्तम् ॥
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॥ अथ षष्ठं भागद्वारम् ॥ अथ क्रमप्राप्ते नानाजीवाश्रये भागद्वारे सप्तप्रकृतिसत्कत तस्थितिबन्धवृद्धयादिसत्पदानां बन्धकभागान् चिकथयिषुरादौ तावदोघत आह
भागो असंखिययमो अस्थि असंखंसवढिहाणीणं ।
सत्तण्ह बंधगा खलु अणंतभागो उ सेसाणं ॥ ७७४ ॥ (प्रे०) "भागोअसंखिययमो" इत्यादि, आयुर्विषययोः स्थितिबन्धहान्यवक्तव्ययोवन्धकभागानां प्राक प्रकृताधिकार प्रारम्भे सत्पदद्वार एव भूयस्काराधिकारवदतिदिष्टत्वादायुर्व नां शेषाणां "सत्तण्ह" ति मतमलाकृतीनां प्रत्येक "असंखंसवडिढहाणोणं" ति स्थिति बन्धविषययोरसंख्यांशवृद्धिहान्योः प्रत्येम "बंधगा खल"त्ति 'बन्धकाः' -नियत काः । स्व लशन्दो वाक्यालङ्कारे । “भागो असंखिययमो अत्थि" ति सर्वेयन्त्रकानानसंख्येयतमो भागः, असंख्याततमैकमागप्रमागाः सन्ति । कुतः ? उच्यते, सप्तप्रकृतीसत्कावस्थानस्थितिबन्धस्यै फजीश्रियोत्कृष्टकालस्यासंख्येवसमयत्वात् तद्वन्धकाः सर्ववन्धकानामसंख्ये बहुभागप्रमागाः सन्ति । तदन्यासां सर्वविद्धि हानीनां समुदितोऽप्येकजीवाश्रय उत्कृष्टकालः संख्येयसमयमात्रः, स चावस्थानकालापेक्षयाऽसंख्येयभागप्रमाणः, अतः स्वल्पकालसमुचिताः सविधवद्धिहानीनां बन्धकाः समस्ता अपि सर्वबन्धकानामेकमसंख्येयतमं भागं पूरयन्ति । तेषु च शेवन्धकवसंख्यभागवद्धि-हान्योरेव स्वामिन एकेन्द्रियाः, न पुनरन्यानां वृद्धयादीनाम् , अतः शेषवन्धकेष्वनन्ता बन्धका असंख्येवनागवृद्धिहान्योर्भवन्ति, संख्येय मागवृद्ध्यादीनां तु समुदिता अप्यसंख्येया एव । इत्थं ह्यसंख्यभागवृद्धि-- हान्योरेकेन्द्रियस्वामिकत्वात् , तयोरेकजीवाश्रयबन्धकालस्याऽवस्थितवन्येकजीवाश्रयकालापेक्षयाऽसंख्येयकमागमात्रत्वाच्च तयोर्बन्धका अपि सर्वगन्धकानामसंख्यकभागप्रमाणा लम्पन्त इति ।
__ "अणंतभागो उ सेसाणं'ति तुशब्दः पुनरर्थः पूापेक्षया प्रकृते वैलक्षण्यद्योतनपरः । शेषाणां संख्येयभाग-संख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणवद्धि-हानीनां प्रत्येकं पुनरनन्तभागः, सर्वबन्धका नारनन्तनमैकभागवर्तिन इत्यर्थः, बन्धका इति गम्यते । पूर्व त्यसंख्यतमैकभागवर्तिन उक्ताः, अत्र त्वनन्नतनकभागवर्तिन इत्यनयोर्विलक्षणता । वा तुशब्दः शेपाविधवद्विहानीनां प्रत्येक बन्धकानाअनन्ततमैकभागात्वेिऽपि बस्थाने नानान्धयोतनसरः, ओऽननतमेकभागवर्तिनोऽप्येते प्रत्येकं न तुल्या एव, किन्तु परम्परं हीनाधिका वर्तन्त इत्यर्थः । एतच्चाऽल्पबहुत्वाप्रदर्शनेन स्फुटीभविष्यति । अनन्ततमैकभागवर्तित्वं त्ववस्थानाऽसंख्यभागवृद्धिहानीनामेकेन्द्रि यस्वामिकत्वे सात प्रकृत्पड्विधवृद्धिहानीनां तत्स्वामित्वाभावाद् बोद्धव्यमिति ।। ७७४ ॥
कृतीपतः सप्तकर्मणां शेवाष्टविधस्थितिवन्धवृद्धिहानीनां बन्धविषया भागप्ररूपणा । सम्प्रति मार्गणास्थानेषु तां कुर्वन्नाह
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मार्गणासु तत्तत्स्थितिवृद्धिहानिबन्धकभाग० ] वृद्धयधिकारे भागद्वारम्
तिरिये वणप्फइम्मि य सव्वेगिंदियणिगोअगेसु य । काय - उरालदुगेसु कम्म-णपुम - चउकसायेसु ॥ ७७५ ॥ : अण्णाणदुगे अयते अचक्खु-अपसत्थ-लेस भवियेसु ।
अभवियमिच्छत्तेसु असण्णि आहारगियरेसु ॥७७६॥ सत्तण्ड असंखंसो अस्थि असंखंसवडिढहाणीणं । णेयो अणंतभागो सेसाणं वहिणीणं ॥ ७७७॥
1
प्रे०) “तिरिये वणफइम्मि ये" त्यादि, तिर्यग्गत्योघे, वनस्पतिकायौघे । चशब्दः समुच्चये । सर्वशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् सर्वेष्वेकेन्द्रियजातिमार्गणाभेदेषु सर्वेषु निगोदवनस्पतिभेदेषु । “णिगोअगेसु' य" इत्यत्र कः स्वार्थिकः, चस्तु प्राग्वत् । तथा काययोगसामान्यौ-दारिकतन्मिश्रकाययोगमार्गणासु. कार्मणकाययोग नपुंसकवेद-कषाय चतुष्केषु मत्यज्ञान - श्रुताज्ञानमार्गणाद्वयरूपेऽज्ञानद्विके, “अयते" त्ति असंयममार्गणायां, तथाऽचक्षुर्दर्शना-प्रशस्त कृष्णादित्रिलेश्या-भव्यमार्गणासु, अभव्य- मिथ्यात्वमार्गणयोः, असंज्ञ्या -ऽऽहारि-तदितराऽनाहारिमार्गणा स्वित्येतास्वष्टत्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकं “सत्तण्ह" त्ति आयुर्वर्जानां सप्तप्रकृतीनां "असंखंसवदिहाणीणं” ति असंख्यांशवृद्धिहान्योः "असंखंसो अत्थि" त्ति सर्ववन्धकानाम् ' असंख्यांश:'-असंख्यतमैकभागप्रमाणाः सन्ति, बन्धका इति गम्यते । “सेसाणं वडिहाणीोणं" ति प्रकृताष्टत्रिंशन्मार्गणा स्वेवानन्तरोक्ताऽसंख्य भागवृद्धिहानी विवर्ज्य शेषाणां तत्तन्मार्गणोक्तबुद्धयादिसत्पदानामित्यर्थः ।
,
इदमुक्तं भवति-अनन्तरोक्ताऽसंख्य भागवृद्धिहानी परिहृत्य यस्यां मार्गणायां यस्य कर्मणो यावन्ति वृद्धिहानिसत्पदान्यवशिष्यन्ते यथा तिर्यग्गत्योधौ-दारिकमिश्र काययोग-कार्मणकाययोगा-ऽज्ञानद्वया-ऽसंयम - कृष्णादिलेश्यात्रया - ऽभव्य - मिथ्यात्वा ऽनाहारकमार्गणासु संख्येयभाग संख्येयगुणवृद्धिहानिपदानि काययोगौ-दारिककाययोग नपुंसकवेद-कपायचतुष्का-ऽचक्षुर्दर्शनभव्य-संज्ञ्या-ऽऽहारिमार्गणासु प्रत्येकं संख्येयभाग-संख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणवृद्धिहानिपदानि तावतां सर्वेषामवशिष्टवृद्धि हानिपदानाम् । तेषां किम् ? " णेयाऽणंत भागो" त्ति अनन्ततमैकभागप्रमाणा ज्ञेयाः, बन्धका इत्युभयत्रानुवृच्या द्रष्टव्यम् । भावना पुनः सर्वास्वोधिकभावनानुसारेण स्वयमेव द्रष्टव्या | ओघवतास्वपि प्रत्येकमनन्तानां जीवानां सद्भावादिति भाव इति ।।७७५-७७६-७७७।। अथ संख्येयजीवराशिकेषु मार्गणास्थानेष्वाह
,
पज्जमणुस - मणुसीसु सव्वत्था - SSहारदुग-अवेसु । मणपज्जव-जइ-समइअ-छेअग- परिहार - सुहुमेसु ॥७७८॥
[ ५७९
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बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
सत्तण्ह संखभागो सव्वाण सगसगवड्ढिहाणीणं ।
(प्रे०) "पज्जमणुस" इत्यादि, पर्याप्तमनुष्य - मानुषीभेदयोः, सर्वार्थसिद्धविमानभेदाSSहारका -ऽऽहारकमिश्र काययोगा- ऽपगतवेदमार्गगासु, मनः पर्यवज्ञान --संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापन- परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्म सम्पराय संयममार्गणास्त्रित्येव द्वादशमार्गणासु प्रत्येकं "सत्तण्ह" त्ति आयुर्वर्जानां सप्तानां मौलकर्मणाम् " सव्वाण सगसगवड्ढिहाणीणं" ति अत्र स्वपदेन तत्तन्मार्गणाया विवक्षितत्वात् पर्याप्तमनुष्यादितत्तन्मार्गणासम्बन्धिन्यो यावत्यो वृद्धिहान यस्तासां " सव्वाण" त्ति सर्वासाम् । किमित्याह - "संख भागो" त्ति बन्धकास्तत्तन्मार्गणागतसर्वस्थितिबन्धकानां ‘संख्येयभागः’- संख्येयतमैकभागवर्तिन इत्यर्थः । कुतः ? अवस्थानबन्धकानां संख्येयबहुभागगतत्वेन तदन्य एते संख्येयैकभागप्रमाणा एव भवन्तीति || ७७८ ||
५८० ]
अथोक्तशेषमार्गणासु प्रस्तुतचन्धकभागानाह
सासु बंधा खलु या भागो असंखयमो ॥ ७७९॥
(प्रे०) "सेसासु" इत्यादि, उक्तशेषासु विंशत्युत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकम् । खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे । तत्र किमित्याह - "णेया भागो असंखयमो" त्ति 'सव्वाण सगसगवडिदहाणीणं' इत्यस्य उमरूकमणिन्यायेनात्रापि योजनात्, सप्तप्रकृतीनां शेषतत्तन्मार्गणासम्भविस्थितिबन्धवृद्धिहानीनां प्रत्येकं वन्धका असंख्यतमैकभागप्रमाणा ज्ञेया इत्यर्थः । शेषमार्गणा नामत इमा:- अष्टो नरकगतिभेदाः, चत्वारस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदाः, अपर्याप्तमनुष्य भेदः, सर्वार्थसिद्ध विमानभेदवर्जा एकोनत्रिंशद् देवगतिभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः, त्रयः पञ्चेन्द्रियजातिभेदाः, सप्त पृथिवीकाय भेदाः, एवं सप्ताप्काय भेदाः, सप्त तेजस्काय भेदाः, सप्त वायुकायभेदाः, त्रयः प्रत्येकवनस्पतिकायभेदाः, त्रयस्त्रसकायभेदाः, पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, वैक्रियवैक्रियमिश्रकाययोग-स्त्रीवेद-पु' वेद- मतिज्ञान - श्रुतज्ञाना ऽवधिज्ञान-विभङ्गज्ञान- देशसंयम-चक्षुर्दर्शनाऽवधिदर्शन- तेजोलेश्या - पद्मलेश्या-शुक्ललेश्या-सम्यक्त्वौघ- क्षायिक क्षायोपशमिको-पशमिकसम्यक्त्व-मिश्रदृष्टि - सासादन - संज्ञिमार्गणाभेदाश्चेति । एतासु प्रत्येकं बन्धकजीवा असंख्येयाः, तत्राप्यवस्थानलक्षणस्थितिबन्धस्य निर्वर्तकानामसंख्येयबहुभागगतत्वेन सम्भवत्सर्वविधवृद्धिहानीनां प्रत्येकं बन्धकाः प्रागुक्तनीत्याऽसंख्येयैकभागप्रमाणा एव प्राप्यन्त इति तथैवाभिहिता इति ॥ ७७९॥
[ तत्तत्स्थितिवृद्धिहानिबन्धकभाग०
तदेवं कथिता मार्गणास्थानेष्वप्यति दिष्टिशेष सप्त प्रकृत्यसंख्येयभागवृद्ध्यादिसत्पदानां बन्धकभागाः । तथा च सति गतं षष्ठ भागद्वारम् ||
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पञ्चमे वृद्धयधिकारे षष्ठ भागद्वारं समाप्तम् ॥
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॥ अथ सप्तमं परिमाणद्वारम् ॥
अथ परिमाणारे मूलप्रकृतिस्थितिबन्धवृद्ध्यादेर्वन्धकानामुत्कृष्टपदगतं परिमाणं प्रादुfaraiyaौ तावदोघत आह
अह बंधगा अनंता अस्थि असंखंसवडिहाणीणं । सत्तरह असंखेज्जा दुविहाणं वड्ढिहाणीणं ॥ ७८० ॥
(०) "अह बंधगा अणंता" इत्यादि, अथशब्द आनन्तर्ये, भागप्ररूपणाऽनन्तरं परिमाणप्ररूपणायामिति तदर्थः । तत्र किमित्याह - "बंधगा अनंता अत्थि" त्ति मार्गणास्थानान्यनधिकृत्य सामान्यतो बन्धका अनन्ताः सन्ति । कस्याः कस्या इत्याह - "असंखंसवडिहाणीणं सत्तह" त्ति आयु:कर्मणः स्थितिबन्धहान्यवस्थानयोबंन्धकानां परिमाणस्य सत्पदद्वार एवातिदिष्टत्वात्तच्छेषाणां ज्ञानावरणादीनां सप्तानां मूलकर्मणामसंख्यांशवृद्धिहान्योः प्रत्येकम् । साधारणजीवानामपि तत्स्वामित्वादिति भावः । "असंखेज्जा" त्ति असंख्येया बन्धकाः सन्ति । कासामित्याह - "दुविहाणं वडिहाणीण" ति असंख्यगुणवृद्धिहान्योर्वन्धक परिमाणस्यानन्तरं वक्ष्यमाणत्वात् संख्येयगुण-संख्येय भागलक्षणयोः शेषद्विविधवद्धिहान्योरित्यर्थः । आयुर्वर्जसप्तकर्मणामित्यनुवर्तते । सुगमं चैतत् यत आसां संख्येयगुणवृद्धि हानि-संख्येयभाग वृद्धिहानीनां स्वामिन एकेन्द्रियवर्जजीवाः, ते चाऽसंख्येया इति ॥ ७८० ॥
,
अथोक्तशेपयोरसंख्यगुणवृद्धिहान्योर्वन्धकानामुत्कृष्टपद्गतपरिमाणमोघतो
दिदर्शयिषुर्लाघ
वार्थं सममेवादेशतोऽपि प्रतिपादयन्नाह -
सत्तण्हं संखेज्जा अत्थि असंखगुणवदिहाणीणं । जासु खलु बंधगा सिं तासु ते अत्थि संखेज्जा ॥७८१ ॥
(प्रे०) “सत्तण्हं संखेज्जा" इत्यादि, प्रकृतानामायुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणां प्रत्येकम् "असंखगुणवदिहाणीणं” ति असंख्यगुणवृद्धिहान्योः प्रत्येकं "संखेज्जा अत्थि” त्ति संख्येयाः सन्ति, बन्धका इत्यनुवर्तते । सुगमम् श्रेणिगतान् तत्र वाऽऽयुः क्षयाच्च्युत्वा देवभवप्रथमसमयस्य वेदकान् जीवान् विवर्ज्यान्येषां केषाञ्चिदधिकृत वृद्धि हान्योरसम्भवात् श्रेणिगतानां ततश्व्युत्वा देवभवप्रथमसमये वर्तमानानां च कस्मिँचिदपि समये संख्येवानामेव लाभाच्चेति ।
,
अथ लाघवार्थं मार्गणास्थानेष्वपि प्रकृतासंख्य गुणवृद्धिहान्योर्बन्धकपरिमाणमादावेवाह"जासु खलु" इत्यादि, तत्र खलशब्दोऽवधारणे, स च " तासु" इत्यस्योत्तरं योज्य - स्ततो यासु मार्गणासु "बंधगा सिं" ति तयोरनन्तराभिहितयोः सप्तानामसंख्यगुण स्थितिबन्धवृद्धिहान्योर्वन्धकाः “अस्थि ति 'सन्ति' विद्यन्ते, तासु मनुष्यगत्योव-पर्याप्तमनुष्य-मानुषी-पञ्चे
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५८२]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणासु तत्तत्स्थितिवृद्धिहानिबन्धकपरिमा० न्द्रियौघ-तत्पर्याप्त-त्रसकायौघ-तत्पर्यात-पञ्चमनोयोग भेद--पञ्चवचोयोगभेद-काययोगौ-दारिककाययोग-वेदत्रय-कषायचतुष्क-मत्यादिज्ञानचतुष्क-संयमोघ-सामायिक-छेदोपस्थापनसंयम-चक्षुरादित्रिदर्शन-शुक्ललेश्या-भव्य-सम्यक्त्वोध-क्षायिकौ-पशमिकसम्यक्त्व-संड्या-ऽऽहारिमार्गणाम सप्तप्रकृतीनामपगतवेदमार्गणायां च वेदनीय-नाम-गोत्रकर्मणामेव 'ते'-प्रस्तुतवद्धिहानिबन्धकाः “संखेजा" त्ति सुगमम् । ओघतः संख्येयानां लाभे मार्गणासु तदधिकानामसम्भव एवेति भावः ॥७८१॥
अथोक्तशेषवृद्धिहानीनां बन्धकपरिमाणं दिदर्शयिषुराहपज्जमणुस-मणुसीसुसब्वत्था-ऽऽहारदुग-अवेएसु। मणपज्जव-जइ-समइअ-छेअग-परिहार-सुहुमेसु ॥७८२॥ सत्तण्हं संखेज्जा णेया सगसेसवढिहाणीणं ।
सेसासु असंखेज्जा संखियभागगुणवढिहाणीणं ॥७८३॥ (गीतिः) (प्रे०) “पज्जमणुसमणुसोसु' इत्यादि, पर्याप्त मनुष्य-मानुपीमार्गणयोः, सर्वार्थसिद्धविमानदेवगतिभेदा-ऽऽहारकमिश्रकाययोगा-ऽपगतवेदमार्गणासु, मनःपर्यवज्ञान-संयमोघ-सामायिकछेदोपस्थापन-परिहारविशद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणास्वित्येवं द्वादशमार्गणःस प्रत्येकं 'सत्तण्ह' त्ति प्रकृतानामायुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणां “सगसेसवढिहाणीणं संखेजा णेया" त्ति स्वपदेन प्राग्वन्मार्गणाया विवक्षितत्वात् 'स्वकानां'-पर्याप्तमनुष्यादितत्तन्मार्गणासकानां 'शेषवद्धिहानीनाम्'अनन्तरोक्तासंख्यंगुणवृद्धिहानी विवयं यत्र ज्ञानावरणादेयोवन्ति वृद्धिहानिपदानि सत्पदद्वारे बद्भूतानि प्रतिपादितानि तत्र तेषां सर्वेषां वद्धिहानिसत्पदानां संव्येया ज्ञेयाः, बन्धका इति गम्यते ।
अयम्भावः-एतासु पर्याप्तमनुष्यादिद्वादशमार्गणासु प्रत्येकं संख्येयानामेव जीवानां सद्भावादपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयमवर्जशेषमार्गणासु ज्ञानावरणादीनां सप्तानामसंख्येयभाग-संख्येयभागाऽसंख्येयगुणवद्धिहानिलक्षणानां षण्णां सत्पदानां बन्धकाः संख्येयाः, अपगतवेदमार्गणायां ज्ञानावरणदर्शनावरणा-ऽन्तरायकर्मणां संख्येयभाग-संख्येयगुणवद्धिहानिलक्षणानां चतुणों सत्पदानाम् , मोहनीयस्य संख्येयभागवृद्धिहानिलक्षणयोयोः सत्पदयोस्तथा वेदनीय-नाम-गोत्रकर्मणां तु संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणानां चतुणा शेषसत्पदानां संख्येयाः । अत्र वेदनीय-नाम-गोत्रकर्मणामसंख्येयगुणवृद्धि-हानिलक्षणयोयोस्सत्पदयोरपि बन्धकाः संख्येया एव सन्ति, नवरं ते प्रागेर 'सत्तण्हं संखेज्जा अस्थि असंखगुणे' इत्यादिगाथोत्तरार्धेनाभिहिता इत्यतोत्र पुनर्न परिगणिताः, उक्तशे पदानां बन्धकपरिमाणस्यात्र भगनीयत्वात् । सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां मोहनीयायुवर्जानां षण्णामपि बन्धप्रायोग्यप्रकृतीनां संख्येयभागवद्धिहानिलक्षणयोई योः सत्पदयोः प्रत्येकं संख्यया बन्धकाः सन्तीति ।
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मागणासु तत्तस्थितिवृद्धिानिबन्धकपरि० ] वृद्धयधिकारे परिमाणद्वारम्
[ ५८३ "सेसासु” त्ति अनन्तरोक्तद्वादशमार्गणा विवज्यं शेषासु मार्गणासु सप्तकर्मणां “संखियभागगुणवढिहाणीणं" ति संख्येयशब्दस्य भागगुणयोः प्रत्येक योजनात्संख्येयभागसंख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणचतुःपदानां "असंखेज्जा" त्ति बन्धका असंख्येयाः । अयम्भावः-उक्तचतु:पदानां स्वामिन एकेन्द्रियवर्जजीवा एव, ते चासंख्या इतिकत्वाऽसंख्येयजीवराशिकास्वनन्तजीवराशिकासु च मार्गणामु यत्रतेषामन्यतमपदानामस्तित्वं तत्र तेषां बन्धका अप्यसंख्येया एव लभ्यन्ते ।
तद्यथा-नरकगत्योघादिचतुर्विशत्युत्तरशतमार्गणासु यथा सम्भवं ज्ञानावरणादेस्तत्तत्कर्मणः संख्यातभागवृद्धिहानिपदे सद्भते उक्ते । तत्र पर्याप्तमनुष्यादिद्वादशमार्गणासु जीयानामेव संख्येयत्वात्तासु तयोर्वन्धका अप्यनन्तरमेव संख्येया अभिहिताः, अतस्ताः द्वादशमार्गणा विवर्य शेपासु द्वादशोत्तरशतमार्गणास प्रत्येकं संख्यातभागवद्धिहान्योर्बन्धका असंख्येयाः । संख्यातगुणवद्विहानी तु विफलेन्द्रियसत्कनवमार्गणास्वपि न भवतः, अतो द्वादशोत्तरशतमागंणाभ्यस्ता विकलेन्द्रियसत्कनवमार्गणाः परिहत्य शेषासु व्युत्तरशतमार्गणास्वेव तयोर्बन्धका असंख्येया ज्ञेया इति ।७८२-७८३।
अथोतपर्याप्तमनुष्यादिमार्गगा विहाय शेपासु सप्तानामसंख्यभागवृद्विहान्योर्वन्धकानां परिमाणं प्रकटयन्ना:
तिरिये वणकइम्मि य सव्वेगिंदियणिगोअकायेसु। उरलदुग कम्मणेसुणपुंसगे चउकसायेसु॥७८४॥ अण्णाणदुगे अयते अचक्खु-अपसत्थलेस-भवियेसु । अभविय-मिच्छत्तेसुअसण्णि-आहारगियरेसु॥७८५॥ सत्तण्ह खलु अणंता अस्थि असंखंसपड्ढिहाणीणं । सेमासु बंधगा सिं जाणेयवा असंखेज्जा ॥७८६॥
(प्रे०) “तिरिये" इत्यादि, तिर्यग्गत्योघे, वनस्पतिकायौधे, चः समुच्चये, सर्वशब्दस्यैकेन्द्रियनिगोदयोः प्रत्येकं योजनात् सर्वैकेन्द्रियजातिभेद-सर्वनिगोदवनस्पतिभेद-काययोगौघेषु, औदारिको दारिकमिश्र-कार्मणकाययोगे, मत्यज्ञान-श्रताज्ञान इये, असंयममार्गणायाम् , अचक्षुर्दर्शना-ऽप्रस्तकृष्णादित्रिलेश्या-भामार्गगामु, अभव्य-मिथ्यात्वमार्गणयोः, असंड्या-ऽऽहारि-दितरानाहारिमार्गणास्विन्येतास्वष्टत्रिंशन्मार्गणास प्रत्येकमायुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनाम् "असंखंसवडिढहाणीण" ति असंख्यांशवृद्धिहान्योः “खलु अणंता अत्थि" त्ति खल्वधारणे, ततोऽसंख्यांशवृद्धिहान्योरेव बन्धका अनन्ताः सन्ति । कुतः ? साधारणवनस्पतिकायजीवानामप्यसंख्यांशस्थितिबन्धवृद्धि हानिस्वामित्वात् तेषां चैतास्वष्टत्रिंशन्मार्गणामु प्रत्येकं प्रवेशादिति । “सेसासु" त्ति प्रागुक्ताः पर्याप्तमनुष्यादिद्वादशमार्गणा अनुपदमुक्तास्तिर्यग्गत्योघाद्यष्टत्रिंशन्मार्गणाश्च विवर्य
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५८४ ]
वाणे मूलvasosबंधो [ ओघतस्तत्तस्थितिवृद्धिहानिबन्धकक्षेत्र ० शेषासु त्रिंशदुत्तरशतमार्गणासु प्रत्येकं "बंधगा सिं" ति तयोरनन्तराभिहितयोः सप्तकर्मस्थितिबन्धसत्कयोरसंख्यभागवृद्धिहान्योः प्रत्येकं बन्धकाः " जाणेयव्वा असंखेज्जा" त्ति असंख्येया ज्ञातव्याः । गतार्थमिति ।। ७८४-७८६ ।।
तदेवमभिहितं मार्गणास्थानेष्वपि शेषसप्तानामसंख्यभागादिस्थितिबन्धवृद्धिहानि सत्पदानां प्रत्येकमुत्कृष्टपदगतं परिमाणम्, तस्मिँश्राभिहिते गतं सप्तमं परिमाणद्वारम् ||
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पञ्चमे वृद्धयधिकारे सप्तमं परिमाणद्वारं समाप्तम् ॥
॥ अथाऽष्टमं क्षेत्रद्वारम् ॥
अथ क्रमप्राप्तं क्षेत्रद्वारम् । तत्रायुषः स्थितिबन्धविषययोहन्यवक्तव्ययोर्द्वयोरपि सत्पदयोः शेषज्ञानावरणादीनां सप्तानामवस्थानावक्तव्ययोर्द्वयोः सत्पदयोश्च बन्धकक्षेत्रस्य प्रागत्रैव वृद्ध्यधिकारे सत्पदद्वारेऽतिदिष्टत्वात् सप्तकर्मणां शेषवृद्धिहानीनां बन्धकक्षेत्रं दर्शयन्नाह - सत्तण्ह सव्वलोगे अस्थि असंखंसवडहाणीणं । लोगाऽसंखियभागे सेसाणं वडिहाणीणं ॥ ७८७ ||
(प्रे०) “सत्तण्ह”मित्यादि, आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां प्रत्येकम् “असंखंसवडिढहाणीणं” ति प्रकृतत्वादसंख्यांशस्थितिबन्धवृद्धिहान्योः प्रत्येकं “सव्वलोगे अस्थि त्ति 'सर्वलोके - सम्पूर्णे जगति सन्ति, बन्धका इत्यनुवर्तते । सूक्ष्मैकेन्द्रियजी नानामपि प्रकृतवृद्धिहानिद्वयस्वामित्वात् तेषां सर्वलोकव्यापित्वाच्च सुष्ठक्तम् " सव्वलोगे" इति । अत्र क्षेत्रत्ररूपणाविषयभूतं क्षेत्र 'कालं उ बट्टमाणं पडुच्च खेत्ते परूवणा णेया' इति ग्रन्थोक्तसमय मात्रकालसम्बन्धि विज्ञेयम् ।
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अथ शेषवृद्धिहानीनां बन्धकक्षेत्र माह - "लोगासंखियभागे" ति लोकस्यासंख्येयतमैकभागे "सेसाणं वड्ढिहाणीण" ति आयुर्वर्जसप्तकर्मणामुक्त वृद्धिहानिपदद्वयवनां शेणां संख्येयभाग-संख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणस्थितिबन्धवृद्धिहानिरूपाणां पण्णां पदानां प्रत्येकम्, बन्धकाः सन्तीत्यनुवर्तते । कथम् ? उच्यते, प्रस्तुतशेषवृद्धिहानीनां स्वस्थानस्वामिन एकेन्द्रियेतरजीत्रा एव सन्ति, असंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकैस्तैः कस्मिन्नप्येकस्मिन् समये समग्रो लोको लोकबहुभागा वा पूरयितुं न शक्यन्ते, किन्तु समुद्घातादिनापि लोकासंख्येयभाग एव पूर्यते । एतच्च विस्तरतो द्वितीयाधिकारक्षेत्र द्वारप्रेमप्रभायां भावितमेव । इत्थमेवोत्तरत्रापि द्वितीयाधिकारक्षेत्रद्वारप्रेमप्रभादर्शितरीत्या विस्तरतः स्वयमेव भावनीयमिति || ७८७||
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गतमोघतः । अथादेशतः प्रकृतस्थितिबन्धवृद्धयादिवन्धकानां क्षेत्रं व्याचिकीषु राह
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मार्गणासु तत्तस्थितिवृद्धिहानिबन्धकक्षेत्र० ] वृद्धयधिकारे क्षेत्रद्वारम्
[५८५ तिरिये सव्वेगिंदियणिगोअ-सेससुहमेसु वणकाये । पुहवाइचउसु तेसिं बायर-बायरअपज्जेसु॥७८८॥ पत्तेअवणे तस्स अपज्जत्ते कायु-रालियदुगेसु। कम्मण-णपुंसगेसुकसायचउगे अणाणदुगे ॥७८९॥ अयता-ऽचक्खूसु तह अपसत्थतिलेस-भवियेसु। अभविय-मिच्छत्तेसु असण्णि-आहारगियरेसु॥७९०॥ (उपगीतिः)
सत्तण्ह सबलोगे अत्थि असंखंसवढिहाणीणं । (प्रे०) "तिरिये सव्वेगिंदिये"त्यादि, प्राग्वत् तिर्यग्गत्योघे, सर्वेकेन्द्रिय-सर्वनिगोदशेषद्वादशसूक्ष्मपथिव्यादिमार्गणाभेदेषु, वनस्पतिकायोघे, पृथिव्यादिवायुकायान्तेषु चतुर्दोषभेदेषु, "तेसिं" ति तेषां पृथिव्यादीनां चतुर्णाम् "बायरबायरअपज्जेसु" ति ये चत्वारो बादरौघभेदाश्चत्वारश्च बादरापर्याप्तभेदास्तेषु बादरबादरापर्याप्तपृथिव्यादिरूपेष्वष्टभेदेषु, काययोगसामान्योदारिको-दारिकमिश्रकाययोगेषु, कार्मणकाययोग-नपुसकवेदयोः, क्रोधादिकषायचतुष्के, मत्यज्ञानश्रुताज्ञानयरूपेऽज्ञानदिके, असंयमा--ऽचक्षुर्दर्शनयोः । तथाशब्दः समुच्चये । अप्रशस्तकृष्णादित्रिलेश्या-भव्येषु, अभव्य-मिथ्यात्वयोः, असंड्या-ऽऽहारि-तदितरानाहारिमार्गणास्वित्येतासु चतुःषष्टिमार्गणासु कुत्रचित् स्वस्थानतः सर्वलोकव्यापिनां सूक्ष्मैकेन्द्रियजीवानां प्रवेशात्, कुत्रचिद्धादरपृथिव्यायोघभेदेषु तेषामप्रवेशेऽपि मारणसमुद्घातेन सर्वलोकव्यापिनामपर्याप्तवादरपृथिवीकायादीनां प्रवेशात् तेषां सप्तकर्मसत्कासंख्येयभागस्थितिबन्धवृद्धिहान्योः स्वामित्वाच्च तद्वन्धकक्षेत्रं सर्वलोकः प्राप्यत इत्यत उक्तम्-“सत्तण्ह सव्वलोगे” इत्यादि, गतार्थमिति ।।७८८-७९०॥
पादरपर्याप्तवायुकायमार्गणायामधिकृतवृद्धयादिबन्धकक्षेत्रमाह
बायरसमत्तवाउम्मि हुन्ति देसूणलोगम्मि ॥७९१॥ (प्रे०) “वायरसमत्ते"त्यादि, सप्तकर्मणां स्थितिबन्धविषययोरसंख्यभागवृद्धिहान्योः प्रत्येक बन्धका बादरपर्याप्तवायुकायमार्गणायां देशोनलोके भवन्ति । कुतः ? असंख्यलोकाकाशप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकानामपि बादरपर्याप्तवायुकायानां स्वस्थानक्षेत्रस्य देशोनलोकत्वादिति ॥७९१॥
अथोक्तशेषवृद्धिहानिबन्धकक्षेत्रं दिदर्शयिषुरेकां गाथामाहसेसासु असंखंसे लोगस्स हवन्ति जासु सेसाओ। अत्थि खलु वढिहाणी तासु तासिं वि एमेव ॥७९२॥
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५८६ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [तत्तत्स्थितिवृद्धिहानिबन्धकक्षेत्र० ___ (प्रे०) "सेसासु" इत्यादि, अनन्तरोक्तास्तिर्यग्गत्योधादिचतुःषष्टिमार्गणास्तथा बादरापर्याप्तवायुकाया-ऽपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणाः परित्यज्य शेषासु नरकगत्योघादिषु व्युत्तरशतमार्गणासु सप्तानामसंख्यभागस्थितिबन्धवृद्धिहान्योरेकैकस्या बन्धकाः “असंखंसे लोगस्स हवन्ति' ति लोकस्यासंख्येयतम एकस्मिन्नंशे भागे भवन्ति, यत आसु शेषमार्गणास सर्वलोकक्षेत्रप्रयोजकानां सूक्ष्मपथिव्यादिजीवानां देशोनलोकक्षेत्रप्रयोजकानां बादरपर्याप्तवायुकायजीवानां वा प्रवेशो नास्ति, शेषास्तु प्रविष्टजीवा मारणान्तिकसमुद्घातादिनाऽपि लोकासंख्येयभागमात्रव्यापिनः, अतः प्रस्तुतबन्धकक्षेत्रमपि लोकासंख्येयभागादधिकं नैव प्राप्यते । विशेषतस्तु द्वितीयाधिकारक्षेत्रवारप्रेमप्रभानुसारेण स्वयमेव भावनीयम् । सप्तप्रकृतिसत्कोक्तशेषाणां संख्येयभागसंख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणस्थितिबन्धवृद्धि हानीनां प्रत्येकं बन्धकक्षेत्रमोघतो लोकासंख्यभागमात्रं प्राप्यतेऽतो मार्गणास्थानेष्वपि तासां बन्धकक्षेत्र लोकासंख्यभागप्रमाणादधिकप्रमाणं न सम्भवतीत्यतस्तत्तथैव दर्शयन्नाह-"जासु सेसाओ" इत्यादि, नरकगत्योघादिषु यासु यासु मार्गणासु "सेसाओ" ति सप्तानामसंख्यभागवद्विहान्योर्वन्धकक्षेत्रस्यानन्तरमेवाभिहितत्वात् ते असंख्यभागवृद्धिहानी परित्यज्य याः शेषान्यतमा वद्धयो हानयश्च "अत्थि" ति सन्ति, प्राक्सत्पदद्वारे सत्तया प्रतिपादिता इत्यर्थः । खलुशब्दोऽवधारणे, स च "तासु" इत्यस्योत्तरं योज्यस्ततस्तासु नरकगत्योपादिमार्गणास्वेव "तासिं" ति तासां सत्तयाऽभिहितानां शेषान्यतमवद्धिहानीनामपि प्रत्येकम् “एमेव" ति एवमेव, बन्धका लोकस्यासंख्येयतमैकभागे भवन्तीत्यर्थः । ___अत्र शेषमार्गणासु सप्तानां शेषवृद्धिहानिसत्पदानि पुनरित्थमवसेयानिसर्वे निरयगतिभेदाः, सर्वे तिर्यग्गतिभेदाः, अपर्याप्तमनुष्यः, सर्वे देवगतिभेदाः,अपर्याप्ती पञ्चेन्द्रियत्रसकायो, औदारिकमिश्र वैक्रिय-तन्मिश्रा-ऽऽहारक-तन्मिश्र-काणिकाययोगाः, अज्ञानत्रयम् , परिहारविशुद्धिकसंयम-देशसंयमा-ऽसंयममार्गणाभेदाः, कृष्णादिलेश्यापञ्चका-ऽभव्य-क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-सास्वादन-सम्यग्मिथ्यात्व-मिथ्यात्वा-संश्य-ऽनाहारकमार्गणाभेदाश्चेत्येतासु निरयगत्योघादिसप्ततिमार्गणासु प्रत्येकं संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धि-तादृग्हान्यात्मकानि चत्वारि पदानि । ____ मनुष्यगत्योध-पर्याप्तमनुष्य-मानुषी-पञ्चेन्द्रियोघ-तत्पर्याप्तत्र-सौघ-तत्पर्याप्त-पञ्चमनोयोगपञ्चवचोयोग-काययोगसामान्यो-दारिककाययोग-वेदत्रय-कषायचतुष्क-मत्यादिज्ञानचतुष्क-संयमोघसामायिक-छेदोपस्थापनीयसंयम-चक्षुरादित्रिदर्शन-शुक्ललेश्या-भव्य-सम्यक्त्वौघ-क्षायिको-पशमिकसम्यक्त्व-संख्या-ऽऽहारकमार्गणारूपासु मनुष्यगत्योचादित्रिचत्वारिंशन्मार्गणासु तु संख्येयभागसंख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणवृद्धि-तादृग्हानिलक्षणानि षट् पदानि ।
ओघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियलक्षणविकलेन्द्रियसत्कनवमार्गणास्थानेषु पुनः प्रत्येकं संख्येयभागवृद्धिहानिलक्षणे द्वे पदे ।
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त्रिविधस्थितिवृद्धिहानिबन्धकस्पर्शना] वृद्धयधिकारे स्पर्शनाद्वारम्
. [५८७ सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायामपि तथैव व पदे, नवरं षण्णां कर्मणाम् ।
अपगतवेदमार्गणायां पुनर्मोहनीयवर्जानां घातिकर्मणां प्रत्येकं निरयगत्योघादिमार्गणावच्चत्वारि पदानि, मोहनीयकर्मणस्तु संख्येयभागवृद्धिहानिलक्षणे व पदे, त्रयाणामघातिनां तु मनुष्यगत्योघादिवत्लट पदान्यवशिष्टसत्पदतया भवन्तीति ।।७९२।।। ____ तदेवं प्रतिपादितं मार्गणास्थानेष्वपि ज्ञानावरणादेव द्धयादिस्थितिबन्धसत्पदानां बन्धकक्षेत्रम् । तस्मिंश्च प्रतिपादिते गतमष्टमं नानाजीवाश्रितं क्षेत्रद्वारम् ॥
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पञ्चमे वृद्धयधिकारेऽष्टमं क्षेत्रद्वारं समाप्तम् ।।
॥ अथ नवमं स्पर्शनाद्वारम् ॥ अथ क्रमलब्धे स्पर्शनाद्वारे ज्ञानावरणादीनामसंख्यभागादिस्थितिबन्धवृद्धयादिबन्धकानाम् 'आसिज्ज अईअद्धं परूवणा उण फरिसणाए' इत्यनेनात्र ग्रन्थेऽधिकृतां स्पर्शनां प्रतिपिपादयिषुलाघवार्थमादौ तावदसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिहानिवर्जपदानां तामतिदेशेनाह
ओघेणाएसेण वि हवेइ तिविहाण वढिहाणीणं । सत्तण्ह बंधगाणं भूओगारव्व उ फरिसणा ॥७९३॥ (प्रे०) "ओघेणाएसेण वि" इत्यादि, 'ओघेन'-सामान्येन स्पर्शनाचिन्तायाम् । न केवलमोघेन । किं तर्हि ? "आएसेण वि" त्ति 'आदेशेन'-विभागेन, मार्गणास्थानान्यधिकृत्य चिन्ताविषयीकृतेऽपीत्यर्थः । उभयथाऽपि किमित्याह-"हवेह" इत्यादि, "सत्तण्ह" ति शेषाणां ज्ञानावरणादीनां सप्तानां मूलप्रकृतीनाम् “तिविहाण वढिहाणीणं" ति स्थितिबन्धविषयानामसंख्यगुणवृद्धिहानिवर्जानामसंख्येयभाग-संख्येयभाग-संख्येयगुणभेदभिन्नानां त्रिविधानां वद्धीनां त्रिविधानां हानीनां च "बंधगाण” ति 'बन्धकानां -निर्वर्तकानाम् "भूओगारव्व उ फरिसणा" ति ‘कालं उ वट्टमाणं'इत्यादिगाथोत्तरार्धेन प्रागुक्तस्वरूपा प्रस्तुतग्रन्थेऽधिकृता क्षेत्रद्वारोक्तक्षेत्रापेक्षया विलक्षणा नानाजीवनानाकालसव्यपेक्षा स्पर्शना भूयस्कारवदेव, भवतीति पूर्वेण योगः । यथा भूयस्काराधिकारे सप्तानां भूयस्कारस्थितिबन्धकानां स्पर्शनोक्ता तथा प्रकृते सप्तानां त्रिविधवद्धिबन्धकानां, यथा च तत्राल्पतरबन्धकानां स्पर्शनाऽभिहिता तथाऽत्र त्रिविधहानिबन्धकानां प्रत्येकं सा भवतीत्यक्षरार्थः ।
भावार्थस्त्वयम्-आयुर्वर्जसप्तकर्मणां भूयस्काराल्पतरस्थितिबन्धवदोघत आदेशतश्चाधिकृतवृद्धिहानयोऽपि मारणसमुद्घाताद्यवस्थाविशेषेष्वपि जीवानां संभवन्ति,ततश्च मारणान्तिकसमुद्घातादिप्रयुक्ताऽपि स्पर्शना भूयस्काराल्पतरस्थितिबन्धवत् प्रस्तुतवृद्धिहानिबन्धकानां प्राप्यते । तद्यथा
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बंधवहाणे मूल डिठिइबंधो [ असंख्यगुणस्थितिवृद्धिहानिबन्धकस्पर्शना०
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ओघतः प्रस्तुतत्रिविधवद्धिहानिबन्धकैः प्रत्येकं सर्वलोकः स्पृष्टः । आदेशतस्तु नरकगत्योघमार्गणायां तैस्त्रिविधवृद्धिहानिबन्धकैः प्रत्येकं त्रसनायाः षट्चतुर्दर्शभागाः स्पृष्टाः । एवमेव सप्तमपृथिवी नरकभेदे, आनत-प्राणता - ऽऽरणाऽच्युतकल्परूपेषु चतुषु देवगतिमार्गणाभेदेषु शुक्ललेश्यामार्गणायां च बोद्धव्यम् । प्रथम पृथिवीनरकभेदे पुनरधिकृत स्थितिधबन्धकानां स्पर्शना लोकासंख्यभागमात्रा प्राप्यते । यथा प्रथमपृथिवीनरकभेदे तथा नवषु ग्रैवेयकभेदेषु पञ्चष्वनुत्तरविमानभेदेषु, वैकिय मिश्रकाययोगे, आहारका ऽऽहारकमिश्रकाययोगयोः, अपगतवेदमार्गणायाम्, तथा मनःपर्यवज्ञान-संयमौध-सामायिक - छेदोपस्थापन - परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्पराय संयममार्गणास्वपि त्रिविधवृद्धिहान्यन्यतमसत्पदस्य बन्धकैः कृता स्पर्शना लोकासंख्यभागमात्रा बोद्धव्या । द्वितीयपृथिव्यादिषष्ठपृथिव्यन्तेषु पञ्चषु नरकभेदेषु पुनः क्रमेणैका, द्वे, तिस्रः, चतस्रः, पञ्च च रज्जनः स्पर्शना त्रिविधवृद्धिहानिबन्धकानामपि भवति । देवगत्योघे भवनपत्यादीशान कल्पान्तेषु देवगति भेदेषु तेजोलेश्यामार्गणायां च त्रिविधवृद्ध्यादिबन्धकानां प्रत्येकं त्रसनाड्या नव चतुर्दशभागाः स्पर्शना लभ्यते । वैक्रियकाययोगमार्गणायां तु तेषां त्रिविधवृद्धिहान्यन्यतमत्रन्धकानां प्रत्येकं त्रयोदश रज्जवः स्पर्शना सम्पद्यते । देशसंयममार्गणायां पञ्च रज्जवः, सासादनमार्गणायां द्वादश रज्जवः स्पर्शना, सनत्कुमारादिसहस्रारान्तेषु षट्षु देवगतिभेदेषु मति श्रुताऽवधिज्ञाना- ऽवधिदर्शन- पद्मलेश्या-सम्यक्त्वौघक्षायिकसम्यक्त्व-वेदकसम्यक्त्वौपशमिकसम्यक्त्व-मिश्रदृष्टिरूपासु पांडपमार्गणासु प्रत्येकं त्रिविधवृद्धिहान्यन्यतमबन्धकानां स्पर्शना त्रसनाड्या अष्ट चतुर्दशभागाः, अर्थादष्टौ रज्जवः प्राप्यते । उक्तशेषासु तिर्यग्गत्योघादिषु सप्ताभ्यधिकशतमार्गणासु तु प्रस्तुतासंख्यगुणवृद्धिहानिवर्जान्यतमवृद्धिहानिबन्धकानां स्पर्शनौघवत्सर्वलोको भवति । इदं ह्यतिदेशफलं दर्शितम्; भावना तु प्रत्येकं भूयस्काराल्पतरस्थितिबन्धकस्पर्शनावृत्यनुसारेण स्वयमेव द्रष्टव्येति || ७९३ || अथातिदिष्टशेषयोः सप्तानामसंख्यगुणवद्धिहान्योर्वन्धकानां स्पर्शनामाहसत्तण्ह बंधगेहिं होइ असंखगुणवडिहाणीणं । लोगासंखियभागो पुst एमेव जहि ताऽत्थि ॥ ७९४ ॥
(प्रे०) “सत्तण्ह” इत्यादि, आदेशत आयुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां "असंखगुणवड्ढिहाणिणं” ति असंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिहान्योर्यन्धकैः "लोगाऽसंखियभागो पुट्ठो" त्ति लोकस्याऽसंख्येयतमैकभागः स्पृष्टः, भवतीति पूर्वेणान्वयः । अथ मार्गणास्थानेष्वपि प्रस्तुतविन्धकानां स्पर्शनघतुल्यैवाऽतोऽतिदेशेनाह - "एमेव" त्ति 'एवमेव ' ओघवल्लोका संख्यभागः प्रस्तुत वृद्धिहान्योर्बन्धकैः स्पृष्ट इत्यर्थः । कासु मार्गणास्त्रित्याह - “जहि ताऽत्थि" 'यत्र' यासु मनुष्यत्योघादिमार्गणा ते द्वे वृद्धिहानी 'स्तः' वियेते, सत्पदद्वारे तयोरस्तित्वं प्रतिपादितं तासु मनुष्यगत्योघादिचतुश्चत्वारिंशन्मार्गणा स्वित्यर्थः || ७९४।। ।
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ओतश्चतुर्विधस्थितिवृद्धिहानिकाल० ] वृद्धयधिकारे कालद्वारम्
[ ५८९
तदेवं दर्शितौघादेशभेदतो मूलकर्मणां स्थितिबन्धवृद्ध्यादिसत्पदानां स्पर्शना, तथा च कृते गतं नवमं स्पर्शनाद्वारम् ।।
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पञ्चमे वृद्धयधिकारे नत्रमं स्पर्शनाद्वारं समाप्तम् ॥
*
॥ अथ दशमं कालद्वारम् ॥
अधुना नानाजीवाश्रितं कालद्वारम् । तत्रातिदिष्टशेपज्ञानावरणादिमूलप्रकृतिस्थितिबन्धासंख्यभागादिवृद्धिहानीनां नानाजी वाश्रितं कालं जघन्योत्कृष्टभेदतो विभणिषुरादौ तावदोघत आहसत्तण्हं सव्वद्धा अस्थि असंखंसवदिहाणीणं ।
समयो होड़ कणिट्ठो सेसाणं वडिहाणीणं ॥ ७९५॥ आवलिआ संखंसो संखियभागगुणवडिहाणीणं । परमो संखियसमया असंखगुणवडिहाणीणं ॥ ७९६॥
(प्रे० ) "सत्तण्हं सव्वडा" इत्यादि, आयुषो द्विविधयोरपि स्थितिबन्धसत्पदयोर्नानाजीवाश्रयकालस्यात्रैवाऽधिकारे प्रथमे सत्पदद्वारे लाघवार्थमतिदिष्टत्वादायुर्वर्जानां सप्तानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकं" सव्वडा अस्थि असंखं सवड्ढिहाणीणं" ति असंख्यांश स्थितिबन्धवृद्ध्य संख्यांशस्थितिबन्धहानिलक्षणयो द्वयोः पदयोर्नानाजीवाश्रयकाल : 'सर्वाद्धा' - -अनाद्यनन्तो भवति ।
अथ शेषवृद्धिहानीनां कालो न सर्वाद्धा. किन्तु सावधिकः, ततोऽसौ जघन्यादिभेदेनाह“समयो" इत्यादि, प्रस्तुतसप्तप्रकृतीनामेव " से साणं वडिहाणीणं" ति उक्तशेषाणां संख्येयभागसंख्येयगुणाऽसंख्येयगुणभेदभिन्नानां त्रिविधवृद्धीनां त्रिविधहानीनां च प्रत्येकं नानाजीवाश्रयः "कणिट्ठो' त्ति 'कनिष्ठ : ' - जघन्यः कालः 'समय: समयमात्रो भवति । उक्तो जघन्यतः, अथोत्कृष्टत आह- "आवलिआऽसंखंसो संखियभागगुणवड्ढिहाणीणं परमो" त्ति संख्येयभागसंख्येयगुणवृद्धि-संख्येयभाग-संख्येयगुणहानिलक्षणानां चतुर्णां स्थितिबन्धसत्पदानां 'परम:' - उत्कृष्टो नानाजीवाश्रयः काल आवलिकाऽसंख्य भागमाणः, भवतीत्यावर्तते । "संखियसमया असंखगुणवडिहाणोणं” ति उक्तशेषयोः सप्तानामसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिहान्योः प्रत्येकं नानाजीवाश्रय उत्कृष्टः कालः संख्येयाः समया भवतीत्यक्षरार्थः ।
1
भावार्थस्वयम् - ओघतो मार्गणास्थानेषु वा यत्र कुत्रचिज्ज्ञानावरणादिसप्तान्यतमप्रकृतेरन्यतमवृद्धयादिसत्पदस्य बन्धका भङ्गविचयद्वारवृत्तौ दर्शितरीत्या ध्रुवं प्राप्यन्ते तत्र मार्गणादौ तस्याः प्रकृतेस्तस्याऽसंख्येयभागस्थितिबन्धवृद्ध्यादिपदस्य नानाजीवाश्रयः कालः सर्वाद्धा प्राप्यत
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५९० ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [चतुर्विधस्थितिवृद्धिहानिकालोपपत्ति इति तु सुगमः । बन्धकानां ध्रुवत्वस्य सर्वाद्धाया अन्तराभावस्य च कथञ्चिदनतिरेकात् । अत एव ओघतः सप्तानामसंख्यभागवृद्धिहान्यो नाजीवाश्रयकालः सर्वाद्धा प्रतिपादितः । तिर्यग्गत्योघादिचतुःषष्टिमार्गणास्थानेषु भङ्गविचयद्वारे-............सत्तण्णं णायव्या ओघव्व सगसगवड्ढिहाणीओ' इत्यनेन तद्वन्धकानामतिदेशेनौघवदभिधानात् 'तिरिये सव्वेगिंदियणिगोअ-सेसमुहुमेसु वणकाये । पुइवाइचउसु तेसिं बायर-बायरअपज्जेसु ॥७९८|| पत्तेअवणे तस्स अपज्जत्ते कायुरालियदुगेसु। कम्मण-णपुसगेसु कसायचउगे अणाणदुगे ॥७९८।। अयताऽचक्खू सु तहा अपसत्थतिलेस-भवियेसु । अभविय-मिच्छत्तेसु असण्णि-आहारगियरेसु ॥७९९॥ सत्तण्हं सव्वद्धा अत्थि असंखंसवड्ढिहाणीणं'। इत्यनेन तत्रापि सप्तानामसंख्यभागवद्धिहानीनामसौ सर्वाद्धा प्रतिपादयिष्यते च ।
यत्र पुनर्मार्गणादायुक्तान्यतमव द्वयादिपदस्य बन्धका भङ्गविचयद्वारे ध्रवा न कथिताः, किन्तु तदीयबन्धकपरिमाणस्याऽसंख्यलोकप्रदेशपरिमाणात्स्तोकतयाऽध्रवा प्रतिपादिताः, तत्र तु तस्य वृद्धयादिपदस्य नानाजीवाश्रयकालः सावधिकः, सादिसान्तभङ्गगत एवेति भावः । तथा सति स जघन्योत्कृष्टभेदेन लभ्यते, स च तस्य वृद्धयादिपदस्य बन्धकपरिमाणमसंख्येयं भवतु संख्येयं वा तदाऽपि जघन्यतस्तदीयैकजीवाश्रयजवन्यबन्धकालवत्समयमात्र एवं प्राप्यते, न पुनरधिकः । अत एवोघतः सप्तानामसंख्येयभागवृद्धिहानिवर्जशेषवृद्धिहानिसत्पदानामसौ समयमात्रोऽभिहितः, मार्गणास्थानेष्वपि- ‘सेसासु लहु समयो' इत्यादितत्तद्ग्रन्थेनासौ जघन्यकालः समयमात्रोऽभिधास्यते च । स च द्वितीयाधिकारनानाजीवाश्रयकालद्वारे उत्कृष्टस्थितिबन्धस्य जघन्यकालोपपत्तो दर्शितनीत्याऽभ्यूयः । तस्यैवोत्कृष्टकालस्तु तदीयबन्धकपरिमाणावधीनः सन् पूर्वोतरीत्यैव कुत्रचिदावलिकाऽसंख्यभागः, कुत्रचित्संख्येयाः समया इत्येवं यथासम्भवं प्राप्यते ।
एतदुक्तं भवति-यत्र मार्गणादौ तस्याऽसंख्येयभागवृद्धयायध्रुवपदस्यैकजीवाश्रय उत्कृष्टकालः संख्येयसमयमात्रः, तदीयबन्धकपरिमाणमुत्कृष्टपदेऽसंख्येयं च तत्र तदीयनानाजीवाश्रय उत्कृष्टकालः कार्मणकाययोगमार्गणोक्ताऽऽयुवेर्जसप्तकर्मोत्कृष्टस्थितिबन्धनानाजीवाश्रयोत्कृष्टकालज्ञातेनाऽऽवलिकाऽसंख्यभागमात्रः सम्पद्यते । यत्र पुनस्तादृग्वृद्धयाद्यध्रध्रवपदस्यैकजीवाश्रयोस्कृष्टकालस्य संख्येयसमयत्वेऽपि तदीयवन्धकपरिमाणं नाऽसंख्येयम् , किन्तु संख्येयमेव, तत्र तु तदीयनानाजीवाश्रय उत्कृष्टबन्धकालः संख्येयाः समया एवं प्राप्यते, नाधिकः । अत एवौघत आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां संख्येयभागवृद्धिहानि-संख्येवगुणवृद्धिहानिलक्षणचतुर्विधस्थितिबन्धकानां प्रत्येकं नानाजीवाश्रयोत्कृष्टकाल आवलिकाऽसंख्यभागस्तथा तासामेव सप्तानामसंख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणयोर्द्वयोः सन्पदयोः प्रत्येकं नानाजीवाश्रयोत्कृष्टकालः संख्येयाः समया एव कथितः, मार्गणाम्थानेष्वऽपि 'परमो समया उ संखेज्जा पज्जमणुस-मणुसीसु' मित्यादितत्तत्सन्दर्भेण तत्तद्धयादिपदानां नानाजीवाश्रयोत्कृष्टकालः संख्येयसमयादिः प्रतिपादयिष्यते च, सोऽपि द्वितियाधिकारनानाजीवाश्रयकालद्वारप्रेमप्रभादर्शितनीत्या विभायनीयः स्वयमेवेति ॥७९५-७९६॥
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मार्गणास्वसंख्यभागस्थितिवृद्धिहानिकाल० ] वृद्धथधिकारे कालद्वारम्
[ ५११ भणितोऽतिदिष्टशेषः ज्ञानावरणादीनां सप्तानामसंख्येयभागस्थितिबन्धवृद्धयादितत्तत्पदानां नानाजीवाश्रयो बन्धकाल ओघतः । अथ स एवादेशतो व्याजिहीर्ष रादौ यास्वसंख्यभागवद्धिहान्योः स सर्वाद्धा, तास तयोस्तथैव दर्शयन्नाह
तिरिये सव्वेगिंदियणिगोअ-सेससुहमेसु वणकाये। • पुहवाइचउसु तेसिं बायर-बायरअपज्जेसु॥७९७॥
पत्तेअवणे तस्स अपज्जत्ते कायु-रालियदुगेसु। कम्मण-णपुसगेसु कसायचउगे अणाणदुगे ॥७९८॥ अयता-ऽचक्खूसु तहा अपसत्थतिलेस-भवियेसु। अभविय-मिच्छत्तेसु असण्णि-आहारगियरेसु॥७९९॥ (उपगीतिः) सत्तण्हं सव्वद्धा अत्थि असंखंसवढिहाणीणं ।
(प्रे०) "तिरिये सव्वेगिदिये” इत्यादि, तत्राघगाथात्रयेण तिर्यम्गत्योगादिचतुःषष्टिमार्गणाः संगृहीताः, चतुर्थगाथापूर्वार्धेन तु तासु चतुःषष्टिमार्गणास्वायुर्वर्जानां सप्तानां स्थितिबन्धविषययोरसंख्यांशवृद्धि हान्यो नाजीवाश्रितः कालः सर्बाद्धाऽस्तीति प्रतिपादितम् । तत्राधगाथात्रयस्याक्षरार्थस्त्वत्रैवाधिकारे क्षेत्रद्वारोक्तद्वितीय-तृतीय-चतुर्थगाथाक्षरार्थेन तुल्य एव,तस्मात्तत एव द्रष्टव्यः । चतुर्थगाथापूर्वार्धस्य तूक्तः । भावार्थोऽप्योधिकगाथाद्वयविवरणाद्वयाख्यातप्राय इति ॥७९७-७९८-७९९।।
अथ शेषमार्गणासूक्तकालोऽसर्वाद्धेत्यर्थाद्गम्यते, न पुनर्गम्यतेऽसौ जघन्यतः कियान् उत्कृष्टतश्च कियानिति, अतस्तजघन्योत्कृष्टभेदतो दर्शयन्नाह
सेसासु लहू समयो परमो समया उ संखेज्जा ॥८००॥ पज्जमणुस-मणुसीसुसब्बत्था-ऽऽहारजुगलजोगेसु। मणणाण-संयमेसु समइअ-छेअ-परिहारेसु॥८०१॥ सेसासु सत्तण्ह अस्थि असखंसवढिहाणीणं ।
परमो कालो भागो आवलिआए असंखयमो ॥८०२॥ (प्रे०) "सेसासु लहू" इत्यादि, तियग्गत्योधादिचतुःषष्टिमार्गणा विवर्य सेसासु यासु सप्तान्यतमानामसंख्यभागवृद्धिहानिलक्षणपदद्वयं सत्तासु तस्याऽसंख्यभागवृद्धिहानिपदद्वयस्य प्रत्येक 'लघुः' - जघन्यो नानाजीवाश्रितः कालः समयो भवतीत्यर्थः । अयं हि सर्वथैवौषवरोद्धव्यः।
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५९२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ संख्येयगुणभागस्थितिवृद्धिहानिकाल अथोत्कृष्टकालमाह-"परमो समया" इत्यादि, उक्तासंख्यभागवृद्धिहानिलक्षणयोद्वयोः पदयोः प्रत्येकं 'परमः' -उत्कृष्टः कालस्तु संख्येयाः समयाः भवति । कासु मार्गणास्वित्याह“पजमणुस” इत्यादि पर्याप्तमनुष्य-मानुषीमार्गणयोः, सर्वार्थसिद्धविमानदेवगतिभेदाऽऽहारकतन्मिश्रकाययोगमार्गणासु, तथा मनःपर्यवज्ञान-संयमोघ-सामायिक-छेदोपस्थापनीय-परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणासु चेत्येवं समुदितासु दशनार्गणासु प्रत्येकमित्यर्थः । कथम् ? इतिचेद् , पद यस्याध्रुवत्वे सति तदीयैकजीवाश्रयोत्कृष्टकालस्य संख्येयसमयत्वाद्वन्धकपरिमाणस्याऽप्युत्कृष्टतः संख्येयत्वाच्चेति ।
___ अथ शेषमार्गणासु प्रस्तुताऽसंख्यभागवद्धिहानिपदद्वयस्याध्वत्वेऽपि तदीयैकजीवाश्रयोत्कृष्टकालस्य संख्येयसमयमात्रत्वेऽपि च न तद्वन्धकपरिमाणं संख्येयम् , किन्त्वसंख्येयम् , अतस्तदीयनानाजीवाश्रयोत्कृष्टबन्धकाल औधिकसंख्येयभागवद्धिहानिनानाजीवाश्रयोत्कृष्टबन्धकालबदावलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणः प्राप्यत इत्यतस्तथैवाह-"सेसासु सत्तण्ह"मित्यादि, गतार्थम् ।।
शेषमार्गणानामानि त्वेवम्-सर्वे निरयगतिभेदाः, सर्वे तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदाः, मनुष्योघा-ऽपर्याप्तमनुष्यभेदी, सर्वार्थसिद्धविमानभेदवर्जा एकोनत्रिंशदेवगतिभेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियभेदाः, बादरपर्याप्ताः पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकभेदाः, पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायभेदः, त्रयोऽपि त्रसकायभेदाः, पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-वैक्रिय-तन्मिश्रकाययोग पुरुषवेद-स्त्रीवेद--मति-श्रता-ऽवधिज्ञान-विभङ्गज्ञान--देशसंयम--चक्षुर--बधिदर्शन-तेजः--पद्म-शुक्ललेश्यासम्यक्त्वौघ-क्षायिक-क्षायोपशमिको-पशमिकसम्यक्त्व-सासादन-मिश्र-संज्ञिमार्गणाश्वेति ८००-८०२
तदेवमभिहितः सर्वमार्गणास्थानेषु सप्तानामसंख्येयभागवद्धिहानिलक्षणपदद्वयस्य नानाजीवाश्रयजघन्योत्कृष्ट द्विविधकालः । इदानीं संख्येयगुण-संख्येयभागवृद्धिहानि सत्पदानां तमाह
सव्वासु सत्तण्हं संखियभाग-गुणवडिढहाणीणं । समयो होइ जहण्णो परमो समया उ संखेज्जा ॥८०३॥ पज्जमणुस-मणुसीसुसवत्था-ऽऽहारदुग-अवेएसु। मणपज्जव-जइ-समइअ-छेअग-परिहार-सुहुमेसु॥८०४॥ मेसासु सत्तण्हं संखियभागगुणवड्ढिहाणीणं । परमो णेयो भागो आवलिआए असंखयमो ॥८०५॥
(प्रे०) “सव्वासु सत्तण्ह" मित्यादि, यासु निरयगत्योघादिमागंणासु “सत्तण्ह" त्ति आयुवेर्जानां सप्तान्यतमानां बन्धप्रायोग्यमूलप्रकृतीनां संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धिहानीनामन्यतमपदानि सत्पदबारे सद्भतान्यभिहितानि तासु निरयगत्योधादिसर्वमार्गणासु तासां सप्ता
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मार्गणास्यसंख्यगुणस्थितिवृद्धिहानिकाल० ] वृद्धयधिकारे कालद्वारम
[ ५९३ न्यतमानांबन्धप्रायोग्यमूलप्रकृतीनां संख्येयभागवृद्धयादिचतुर्विधान्यतमसत्पदानां प्रत्येकम् “समयो होइ जहण्णो" ति नानाजीवाश्रितो जघन्यो बन्धकालः 'समयः'-समयप्रमाणो भवति । एष समयमात्रो जघन्यकाल ओघोक्तनीत्यैवोपपादनीयः। अत्र "सव्वासु" इत्यनेन सप्तैकेन्द्रियभेदान् , तथैकोनचत्वारिंशत्पृथिवीकायादिवनस्पतिकायान्तमूलोत्तरभेदान् विहाय शेपासु चतुर्विशत्युत्तरशतमार्गणासु संख्येयभागवृद्धिहानिपदयोरसो जघन्यतः समयो बोद्धव्यः, संख्येयगुणवृद्धिहान्योस्त्वसावनन्तरोक्तचतुर्विंशत्युत्तरशतमार्गणाभ्योऽपि नवविकलेन्द्रियमार्गणास्थानानि सूक्ष्मसम्परायसंयमभेदं च विहाय चतुर्दशोत्तरशतमार्गणास्वेव तथा, तत्राप्यपगतवेदमार्गणायां मोहनीयवर्जानां षण्णां प्रकृतीनामेव, न तु मोहनीयस्याऽपि, मोहनीयस्य संख्येयभागवद्धिहानिवर्जपदानाभपगतवेदमार्गणायामसत्त्वादिति । ___ अथ प्रस्तुतानां संख्येयगुणभागवृद्धिहानीनां बन्धकालमुत्कृष्टत आह-“परमो समया उ संखेज्जा” इत्यादि, पर्याप्तमनुष्य-मानुषीमार्गणयोः सर्वार्थसिद्ध विमानदेवगतिभेदा-ऽऽहारका-ऽऽ. हारकमिश्रकाययोगा-ऽपगतवेदमार्गणासु, तथा मनःपर्यवज्ञान-संयमोघ-सामायिक-छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणास्वित्येतास द्वादशमार्गणास प्रत्येकं 'परमः'-उत्कृष्टो नानाजीवाश्रितः कालः संख्येयाः समयाः, ज्ञानावरणादितत्तत्प्रकृतीनां सत्पदद्वारेऽभिहितसंख्येयभागसंख्येयगुणवृद्धिहान्यन्यतमसत्पदानामिति तु प्रक्रमाद्गम्यते । अयमप्यौधिकसप्तकर्मसत्कासंख्यगुणवद्ध्यादेरुत्कृष्टबन्धकालवद्धोद्धव्यः । कुतः ? ओघवदत्रापि पदचतुष्कस्याऽध्रुवत्वाद् , बन्धकपरिमाणादेः संख्येयत्वादिरूपेणाविशेषाच्चेति ।
शेषमार्गणासु प्रस्तुतोत्कृष्टकालमाह- "सेसासु सत्तण्ह"मित्यादि, सुगमम् । अयमपि सप्तानां संख्येयगुण-संख्ययभागवद्धिहानीनामुत्कृष्टबन्धकालः सप्तानामौधिकसंख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धयादेरावलिकाऽसंख्यभागप्रमाणोत्कृष्टबन्धकालवद्विभावनीयः, तद्वदधिकृतनिरयगत्योधादिशेषमार्गणासु बन्धकपरिमाणादेरसंख्येयत्वादिरूपेण समानत्वादिति ।।८०३-८०४-८०५।।
अथोक्तावशिष्टयोः सप्तानामसंख्येयगुणवृद्धिहान्योर्मार्गणास्थानेषु नानाजीवाश्रितं बन्धकालं जघन्यादिभेदत आह
जासु खलु सत्तण्हं अत्थि असंखगुणवड्ढिहाणीओ। तासु लहू सिं समयो परमो समया उ संखेज्जा ॥८०६॥
(प्रे०) “जासु खलु” इत्यादि, यासु मनुष्यगत्योपादिमार्गणासु “सत्तण्ण" ति सप्तान्यतमानां मूलप्रकृतीनामसंख्यगुणवृद्धिहानी "अत्थि" ति स्तः, सत्पदद्वारे सत्तयाऽभिहिते इत्यर्थः । तासु किमित्याह-"तासु लहू सिं समयो" ति तासु मनुष्यगत्योपादिचतुश्चत्वारिंश
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५९४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ ओघतस्तत्तद्वृद्धिहानिजघन्योत्कृष्टान्तर० न्मार्गणासु प्रत्येकम् “सिं" ति तयोः सप्तान्यतमानामसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिहान्योः ‘लघुः'जघन्यो नानाजीवाश्रितकालः 'समय' - ओघवत्समयमात्र इत्यर्थः ।
तयोरेवोत्कृष्टकालमाह-“परमो समया उ संखेज्जा" त्ति 'परमः' -उत्कृष्टः कालस्तु संख्येयाः समयाः । एषोऽप्योघवदेवाविशेषेण विज्ञेय इति ॥८०६॥
तदेवं दर्शितः सप्तानामसंख्येयगुणस्थितिबन्धवद्धिहान्योर्जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नो नानाजीवाश्रयः कालः, तस्मिंश्च दर्शिते गतं नानाजीवाश्रयं कालद्वारम् ॥ ॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पञ्चमे वृद्धयधिकारे दशमं नानाजीवाश्रयं कालद्वारं समाप्तम् ॥
॥अथैकादशमन्तरद्वारम् ॥ अथ क्रमप्राप्ते नानाजीवाश्रितेऽन्तरद्वारे मूलप्रकृतीनामुक्तशेषस्थितिबन्धवृद्धयादिसत्पदानां नानाजीवाश्रयमन्तरं प्ररूपयितुमना आदौ तावदोघत आह
सत्तण्ह अंतरं खलु णत्थि असंखंसवढिहाणीणं । समयों होइ जहण्णं सेसाणं वढिहाणीणं ॥८०७॥ परमं भिन्नमुहुत्तं संखियभाग-गुणवड्ढिहाणीणं । वासपुहुत्तछमासा कमा असंखगुणवड्ढिहाणीणं ॥८०८॥ (गोतिः)
(प्रे०) “सत्तण्ह अंतरं” इत्यादि, पूर्व सत्पदद्वारे “अस्थि अवत्तव्यत्तं बंधस्स असंखभागहाणी य भूगारव्वाउस्स" इत्यादिनाऽऽयुषोऽवक्तव्या-ऽसंख्यभागहानिलक्षणद्विविधपदस्य तथा 'भूओगारव्य भवे' इत्यादिना सप्तानामवक्तव्यावस्थानपदयो नाजीवाश्रितान्तरस्याप्यतिदेशेनैव कथितत्वादायुर्वर्जानां शेषाणां ज्ञानावरणादीनां सप्तानां मूलप्रकृतीनामतिदिष्टशेषेष्वसंख्येयभागादिचतुर्विधवृद्धिहानिलक्षणसत्पदेषु “अंतरं खलु णत्थि असंखंसवढिहाणीणं"ति खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वेनासंख्यांशस्थितिबन्धवद्भिहानिलक्षणयोद्वयोः पदयोरेव नानाजीवानाश्रित्यान्तरं नास्ति, न पुनः शेषत्रिविधवद्धिहानिपदानामन्तरमपीत्यर्थः । सुगमं चैतत् , यतो यस्य यस्य सत्पदस्य नानाजीवाश्रितकालः सर्वाद्धा भवति, तस्य तस्य पदस्य नानाजीवाश्रितमन्तरं न भवति, सप्तानामसंख्यभागवृद्धिहान्यो नाजीवाश्रयः कालस्त्वनन्तरं कालद्वारे ‘सत्तण्हं सव्वद्धा अस्थि असंखंसबढिहाणीण'मित्यनेन सह्यद्धा प्रतिपादितः । इत्थं चौघतः सप्तानामसंख्यभागवृद्धिहानिपदयोरन्तरमपि नैव प्राप्यत इति तथैव दर्शितम् । एवमेवोत्तरत्र मार्गणास्थानेष्वपि यत्र सप्तानामसंख्यभागवृद्धिहान्यन्तरप्रतिषेधस्तत्रासावनेन प्रकारेणैवोपपादनीय इति ।
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ओघतो नानाजीवानाश्रित्य जघन्यान्तरोपपत्ति० ] धृद्धयधिकारेऽन्तरद्वारम्
अथौघतः सप्तानामसंख्यांशवृद्धिहान्यन्तरं प्रतिषिध्य शेषवृद्धिहानीनां तज्जघन्यादिभेदेन प्रदिदर्शयिषुरादौ जघन्यत आह-"समयो होइ"इत्यादि,शेषाणामुक्तवृद्धिहानिद्वयवर्जानां सप्तकर्मणां संख्येयभाग-संख्येयगुणा--ऽसंख्येयगुणस्थितिवन्धवृद्धिहानीलक्षणानां षण्णां सत्पदानां प्रत्येक 'जघन्यम्'-ह्रस्वमन्तरं 'समयः'-समयमात्रं भवतीत्यर्थः ।
ननु भवतु संख्येयभागसंख्येयगुणवृद्धि हान्यसंख्यगुणवृद्धिपदानामेकजीवाश्रितजघन्यान्तरस्य समयमात्रत्वान्नानाजीवानाश्रित्याऽपि तत्तथैव,कथं पुनरसंख्यगुणहानेरपि तत्समयमात्रमुच्यते,तदीयैकजीवाश्रितजघन्यान्तरस्याऽन्तमुहूर्तप्रमाणत्वेन विरोधाद् ? इति चेद्, न, यतो यस्या वृद्धहानेर्वा बन्धकपरिमाणस्यासंख्यलोकप्रदेशराश्यपेक्षया स्तोकतया नानाजीवानाश्रित्य तद्वन्धस्यान्तरं भवति तस्या वृद्ध नेर्वा कदाचिदेकट्यादयो बन्धका अपि सम्भवन्ति, अतो यदा कदाचिदेकव्यादयो यावन्तो बन्धकास्तावन्तो युगपद् विवक्षितां वद्धि हानि वा कृत्वा तावन्मात्रस्थितिवन्धं कुर्वन्तोऽवस्थितस्थितिबन्धका भवन्ति, तदनन्तरसमयेऽन्ये केचन पूर्वतो निर्वय॑मानावस्थितस्थितिवन्धा जीवा अवस्थितस्थितिबन्धं समाप्य विवक्षितां तादृशीमेव वृद्धि हानि वा कुर्वन्ति तदातस्या विवक्षिताया वद्धर्हानेर्वा नानाजीवाश्रयमन्तरं समयमानं प्राप्यते, अत एवासंख्यगुणहीनस्थितिबन्धस्यैकजीवाश्रितान्तरस्य जघन्यतोऽन्तमुहूर्तमात्रत्वेऽपि तस्य नानाजीवाश्रितमन्तरं जघन्यतः समयमात्रमुक्तम् ।
तच्चैवं भावनीयम्-पप्तानामसंख्यगुणस्थितिबन्धहानिर्हि क्षपकश्रेणावुपशमश्रेणी वा जायत इत्यनेकश आवेदितम् , ततो यदा कदाचिन्न वर्तत एकोऽपि जीव उपशमश्रेणी क्षपकश्रेणी वा तादृशकालावं पञ्चभिमुनिप्रवरैयुगपत्क्षपकश्रेणिः समारोढुं समारब्धा, समयस्याऽन्तरेणान्यः पञ्चभिर्यतिमुख्यैर्युगपत्क्षपकश्रेणिमारोढुमारब्धम्, इत्थं तदानीं क्षपकश्रेणौ दशैव महात्मानो वर्तन्ते, अन्तमुहूर्ते गते संख्येयान् स्थितिबन्धानतिक्रम्य तेभ्यः पञ्चभिः पूर्वारब्धश्रेणिभिर्यदा प्रथमोऽसंख्यगुणहीनः स्थितिबन्धः कृतस्तत्समयात्ततीये समयेऽन्यः पश्चादारन्धश्रेणिभिः पञ्चभिर्महात्मभिः प्रथमोऽसंख्यगुणहीनः स्थितिबन्धः कृतः, द्वितीयसमये तु न केनाऽपि, इत्थं हि पूर्वोत्तरसमययोः पञ्चानां पञ्चानामसंख्येयगुणहीनस्थितिबन्धकानां सद्भावात् , मध्ये द्वितीयसमये तु दशानामप्यवस्थितस्थितिबन्धस्यैव भवनाच्च तादृशजीवविशेषान् समाश्रित्य सप्तानां नानाजीवाश्रितमसंख्यगुणहान्यन्तरं जघन्यतः समयमात्रमुत्पद्यते । इदमेबैक दयादिजीवान् समाश्रित्योक्ताधिकजीवान् वा प्रतीत्यान्यथाप्युपपत्तिमृच्छतीति तेन तेन प्रकारेण स्वयमेव योज्यम् ।
यथा समयमात्रमसंख्यगुणहान्यन्तरमुपपादितं तथा समयमात्रमसंख्यगुणवृद्ध्यन्तरमपि स्वयमेवोपपायम् ,केवलमसंख्यगुणवृद्धयन्तरमेकजीवाश्रितासंख्यगुणवद्धयन्तरवदपि भावयितु युज्यते, यदि तदानीं विवक्षितजीवस्य भवतिचरमसमयजातासंख्यगुणवृद्धयनन्तरं देवगतावुत्पत्तेः पूर्वसमये कश्चिदपि जीवोऽसंख्येयगुणवृद्धेर्बन्धको न स्यादित्येवं प्रकारान्तरेणापि भावनीयम् ।
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५९६ ]
बंधाणे मूलपडिटिइबंधो [ ओघतो नानाजीवाश्रयोत्कृष्टान्तरोपपत्ति०
शेषाणां चतुर्विधवृद्धिहानीनां समयमात्रमन्तरमुक्तनीत्यैव भावनीयम्, तत्र च भावनायां विवक्षित जीवानामन्याऽन्यजीवानां धोक्तनीत्या समयस्यान्तरेण जातयोर्विवक्षितवृद्धयोर्विवक्षितहान्योर्वा सामयिकेऽन्तराले सर्वेषामपि जीवानां तादृशवृद्धिहान्यबन्धकत्वं द्रष्टव्यमिति ।
अथैतासामेवोत्कृष्टान्तरं दर्शयन्नाह - "परमं भिन्नमुहुत्त " मित्यादि, सप्तानां संख्येयभागसंख्येयगुण लक्षणयोयो द्वयोस्तादृश्योद्रमोहन्योश्चेत्येवं चतुर्णां पदानां प्रत्येकं 'परमम्' -उत्कृष्टमेकजीवाश्रितमन्तरं 'भिन्नमुहूर्त' - अन्तर्मुहूर्त भवतीत्यर्थः । कुत: ? इति चेत्, चतुर्विधान्यतरवृद्धिहानिबन्धार्हजीवानां सर्वदैव प्राप्तेः, स्वस्थाने बन्धप्रायोग्यानां तत्तद्वृद्ध्यादिपदानां प्रत्यन्तमुहूर्त नियमेन बन्धभावाञ्च । किमुक्तं भवति - ओघन आदेशतो वा तन्मार्गणास्थानेषु सप्तकर्मणां यस्य वृद्धयादिपदस्य बन्धकपरिमाणमसंख्लोकादेशराशितुल्यं तदधिकं वा विद्यते तत्र तु तद्वन्यकानां निरन्तरं प्राप्तेस्तादृशवृद्ध्यादिपदस्य नानाजीवानाश्रित्यान्तरमेव न प्राप्यते, अत एवाघतः सप्तानामसंख्य भागवृद्धि-हान्यन्तरं प्रतिषिद्धम्, उत्तरत्र मार्गणास्थानेषु प्रतिषेत्स्यति च । असंख्येयभागवृद्धिहानिवर्जपदेषु तु केपामपि बन्धकपरिमाणमोघतोऽप्यसंख्य लोकप्रदेशराशितुल्यं तदधिकं वा न विद्यते, अत एव मार्गणास्थानेष्वपि तदसंख्य लोकप्रदेशराशितुल्यं तदधिकं वा न भवति, ओघापेक्षया मार्गणास्थानेष्यधिक परिमाणस्याऽसंभवात् । इत्थं चासंख्येव भागवृद्धिहानि जीनां शेषपदानां नानाजीवाश्रितमन्तरं नियमेन भवति, तच्च तत्तत्पदानामभवत्वसा वनात्साधितमेव । तत्र तज्जघन्यतः समयमात्रमिति कथितमुपपादितं च । शेषवृद्धिहानिष्य संख्येय गुण वृद्धिहानि क्षणे द े पदे तु श्रेणिभावस्थितिबन्धावीने इत्यतस्तदीयोत्कृष्टान्तरमपि नानाजीवाश्रितश्रेण्युत्कृष्टान्तरानुसारेण प्राप्यते, अतस्तत्तदनुसारेण वक्ष्यति । शेषसंख्ये भाग संख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणानां चतुर्णां पदानां त्वोघतो मार्गणास्थानेषु वा यदि तद्बन्धार्ह जीवानामन्तरं पवति तदाऽपर्याप्तमनुष्पादि मार्गणान्मार्गणोत्कृष्टान्तरानुसारेण पल्योपमासंख्येयभागादिप्रमाणं प्राप्यते, यदि च तद्बन्धार्हजीवानां सर्वथाऽभावलक्षणमन्तरं न भवति तदा तु निरन्तरं लभ्यमानैस्तैः स्वस्थाने बन्धप्रायोग्यत्वाच्चतुर्विधान्यतमवृद्ध्यादेर्बन्ध उत्कृष्टतः प्रत्यन्तमुहूर्त नियमेन क्रियते, ततो नानाजीवानाश्रित्य चतु विधान्यतमवृद्ध्यादेरुत्कृष्टमन्तरमन्तर्मुहूर्तादधिकं नैव प्राप्यते । ओघ चिन्तायां हि सप्तानां स्वस्थाने संख्येयगुणवृद्धिहानिबन्धाः जीवाः सर्वे पर्याप्ताऽपर्याप्तमंजिपञ्चेन्द्रियाः, संख्येयभागवृद्धिहानिबन्धास्तु सर्वत्र सजीवाश्च ते च निरन्तरं प्राप्यन्ते, अत ओघत: संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धिहानीनां प्रत्येकं नानाजीवाश्रितमन्तरमप्यन्तमुहूर्तमेव लभ्यत इति ।
सप्तानामसंख्य गुणवृद्धिहान्योर्नानाजीवाश्रितमन्तरं दर्शयन्नाह - "वासपुहुत्तमासेत्यादि, क्रमाद् वर्षथक्त्वं पण्मासाच सप्तानाम संख्यगुणवृद्धेर संख्येयगुणहानेश्वान्तरं भवति । कुत: ? इति चेत्, असंख्येयगुणबुद्धेरुपशमश्रेणितः प्रतिपाते एव सम्भवात् उपशमश्रेणेर्नानाजीवाश्रितोत्कृष्टा
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मार्गणास्त्र सख्यभागवृद्धिहानिजघन्यान्तर० ] वृद्धयधिकारे ऽन्तरद्वारम्
न्तरस्य वर्षपुत्वा । उक्तं च जीवसमासवृत्तौ श्रीमन्मलधारीय हेमचन्द्रसूरिपादै:'मोहनीयं कर्मोपशमयन्तीत्युपशमकाः- उपशमश्रेणिवर्तिनः संयताः, तेव्वपि वर्षत्प्रमाणमन्तरं समवसेयम्, कदाचिद्वर्षपृथक्त्वं यावल्लोके उपशमश्रेणिं न कोऽपि प्रतिपद्यत इत्यर्थः । इति ।
सप्तानामसंख्यगुणहानिस्तु क्षपकश्रेणावपि जायते, क्षपकश्रेणेर्नानाजीवाश्रितमन्तरं तु षण्मासा एव । उक्तं चैतदपि तत्र - 'मोहनीयं कर्म क्षपयन्तीति क्षपकाः क्षपकश्रेणिवर्तिनश्चारित्रिण एव तेषु पुनः घण्मासमानमन्तरं विज्ञातत्र्यम् इति । इत्थं हि सप्तानाम संख्यगुणस्थितिबन्ध हान्यन्तरं नानाजीवनाश्रित्य पण्मासप्रमाणमेव भवति, नाधिकम्ः कस्मिन्नपि महात्मनि क्षपकश्रेणि समारुढे क्रमेण तस्य नियमतोऽसंख्यगुणहानीनां प्रवर्तनादिति ||८०७-८०८।।
तदेवमभिहितमोघतः सप्तप्रकृतीनां शेपसंख्येयभागादिस्थितिबन्धवृद्ध्यादिसत्पदानां नानाजीवाश्रितमन्तरं यथासम्भवं जघन्योत्कृष्टभेदतः । अथ तदेवादेशतो विभणिषयाऽऽहसत्तरहं मन्वद्धा जासु असंखं सवड्ढिहाणीणं । तासु ण अंतरं मिं सेसासु भवे लहुं समयो ॥ ८०९ ॥
(प्रे०) "सत्तण्ह” मिन्वादि, ज्ञानावरणादीनामायुर्वर्जानां सप्तानां "सव्वद्धा जासु असंखंसवड्ढिहाणोणं” ति ‘तिरिये सवेगिंदिये' त्यादिसार्धगाथात्रयेण तिर्यग्गत्योघादिषु यासु मार्गणास्त्रनन्तरं नानाजीवाश्रिते कालद्वारे सप्तानामसंख्यभागस्थितिबन्ध वृद्धिहानिलक्षणयोः सत्पदयोनाजीवाश्रितः कालः सर्वाद्धाऽभिहितः "तासु" ति नासु तिर्यग्गत्योघादिचतुः षष्टिमार्गणासु “ण अंतरं सिं” ति “सिं” तयोः सप्तानामसंख्यभागवृद्धिहान्योरन्तरं नानाजीवानाश्रित्य न भवतीत्यर्थः । सुगमम्, केवलं तिर्यग्गत्योघादिचतुःषष्टिमार्गणानामानो मानि - तिर्यग्गत्योघसर्वैकेन्द्रिय-सर्वनिगोदभेद-शेषद्वादशसूक्ष्मपृथिव्यादिभेद- पृथिव्यप्तेजोवायुका पौष - तद्वादरौघ- बादरापर्याप्तभेद-वनस्पतिका बौध प्रत्येक वनस्पत्योष-तदपर्याप्तभेद काययोगसामान्यौ-दारिकौ-दारिकमिश्रकार्मणकाययोग-नपुंसकवेद क्रोधादिचतुः कपाय-मत्यज्ञान-श्रताज्ञानाऽसंयमाऽचक्षुर्दर्शन- कृष्ण-नीलकापोतलेश्या-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वाऽसंश्या-ऽऽहारका नाहारक मार्गणाभेदा इति ।
[ ५९७
अथ शेषमार्गणास्वसंख्य भागवद्विहान्योर्नानाजीवानाश्रित्याघ्रवत्वाद्भवति तत्रान्तरमतस्तदादौ जघन्यत आह- "सेसासु भवे लहु समयो" ति तिर्यग्गत्योघादिचतुःषष्टिमार्गणावर्जासु नरकगत्योघादिमार्गणा ज्ञानावरणादिसप्तान्यतमस्य कर्मणोऽसंख्य भागवृद्धिहानिमन्यदयो 'लंघु'जघन्यमन्तरं समयो भवेत् । एतच्च सप्तानामौधिकसंख्येयभागादिवृद्ध्यादेः समयमात्रजघन्यान्तदेव भावनीयमिति || ८०९ ||
अथैतासु नरकगत्योघादिशेषमार्गणास्वेव सप्तानामसंख्यभागवृद्धिहान्यन्तरमुत्कृष्टतो दर्शयन् गाथायुग्ममाह
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५५८]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वसंख्यभागधृद्धिहान्युत्कृष्टान्तर० पल्लासंखियभागो अपज्जणर-मीस-सासणेसु गुरु। विक्कियमीसे वारमुहुता-ऽऽहारजुगले सरपुहुत्तं ॥८१०॥ (गोतिः) छेए परिहारम्मि य अट्ठारह अयरकोडिकोडिओ।
सत्तदिवसा उवसमे सेसासु भवे मुहत्तंतो॥८११॥ (प्रे०) “पल्लासंखियभागो” इत्यादि, अपर्याप्तनरमार्गणास्थाने मिश्रदृष्टि-सास्वादनमार्गणास्थानयोश्च प्रत्येकं 'गुरु'-उत्कृष्टमन्तरं पल्योपमस्याऽसंख्यभागप्रमाणम् ,सप्तानामसंख्यभागवृद्धिहान्योरिति प्रक्रमाद्गम्यते। कुतः ? इति चेद्, नानाजीवानाश्रित्य प्रत्येक मार्गणायाः सान्तरत्वात् , तस्या उत्कृष्टान्तरस्य पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणत्वाञ्च । इदमुक्तं भवति-मार्गणायाः सान्तरत्वे सति तदीयेऽन्नरे प्रवर्तमाने तत्र जीवानां सर्वथाऽभावेन तत्तन्मार्गणायां बन्धप्रायोग्यसप्तकर्मसत्कवृद्धयादीनां बन्धोऽपि न प्राप्यते, बन्धस्य बन्धकाऽविनाभावित्वात् , इत्थं चोत्कृष्टतो यावन्तं कालं नानाजीवानाश्रित्य मार्गणान्तरं तावत्कालमवस्थानवद्ध्यायेकविधस्याऽपि बन्धस्याऽभावादवस्थितबन्धोत्कृष्टान्तरवद् वृद्धयादीनामन्तरमप्युत्कृष्टतो नानाजीवाश्रयमाणोत्कृष्टान्तरापेक्षयाऽन्तमुहर्तादिनाऽधिकं प्राप्यते, अपर्याप्तमनुष्य-मिश्रदृष्टि-सासादनरूपाणां तिसृणां मार्गणानां नानाजीवाश्रितमुत्कृष्टान्तरं तु पल्योपमासंख्ययेयभागप्रमाणम् । उक्तं च जीवसमासे
'पल्लाऽसंखियभागं सासणमिस्सासमत्तमणुएसु' । इति । इत्थं च प्रस्तुतान्तरमपि सामान्येनाऽपर्याप्तमनुष्यादिमार्गणात्रये तथैवाभिहितम्, विशेषतस्तु तदन्तर्मुहर्तेनाभ्यधिक स्वयमभ्यामिति ।।
अथ वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणायामाह-"विक्कियमोसे बार"इत्यादि, वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणायां सप्तानामसंख्यभागवृद्धिहान्योः प्रत्येकमुत्कृष्टमन्तरं द्वादश मुहूर्ता भवति । कुतः ? अपहिमनुष्यादिमार्गणावत् वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणाया अपि सान्तरत्वात् , तस्या नानाजीवाश्रितोत्कृधान्तरस्य द्वादशमुहूर्तप्रमाणत्वाच्च । उक्तं चैतदपि जोवसमासे-'विउव्वमिस्सेसु बारस हुति मुहुत्ता' इति । विशेषतस्तु प्राग्वदेव भावनीयम् ।
अथाऽऽहारक-तन्मिश्रकाययोगमार्गणाइये आह-"आहारजुगले सरपुहुत्तं" ति आहारकतन्मिश्रकाययोगद्वयलक्षणे आहारकयुगले सप्तानां प्रस्तुतयोरसंख्येयभागवृद्धिहान्योः प्रत्येकमुत्कृष्ट नानाजीवाश्रयमन्तरं "सरपुहत्तं" ति 'शरत्पृथक्त्वम्'-वर्षपृथक्त्वं भवतीत्यर्थः, शरद्वब्दादिशब्दानामेकार्थकत्वात् । तदुक्तं श्रीहेमचन्द्रसूरीन्द्रैरभिधानचिन्तामणी-वत्सरः, स-सं-पर्य-नूभ्यो वर्षे, हायनोऽब्दं समाः शरत्' (१५९) इति । इदमपि पूर्ववन्मार्गणोत्कृष्टान्तरानुसारेणोपपादनीयम् । मार्गणोत्कृष्टान्तरंतु-'आहारमिस्सजोगे वासपुहुत्तं' इति श्रीजीवसमासवचनाद्वर्षपृथक्त्वं ज्ञायते, श्रीप्रज्ञापनासूत्रवचनेन तु तत्प्राग्वदन्यथाऽपि द्रष्टव्यमिति ।
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मार्गणासु संख्यगुणभागवृद्धिहानिह्रस्वेतरान्तर० ] वृद्धपधिकारेऽन्तरद्वारम्
[ ५९९ ____ अथ छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसंयममार्गणयोः प्रस्तुतपदद्वयस्य नानाजीवाश्रयमुत्कृष्टान्तरमाह--"छेए परिहारम्मि य" इत्यादि, सुगमम् , अन्तरोपपत्तिस्तु प्राग्वत्ततन्मार्गणाया अष्टादशसागरोपमकोटिकोटिप्रमाणनानाजीवाश्रितोत्कृष्टान्तरद्वारेणैव कर्तव्या ।
अथौपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां सप्तानामसंख्यभागवृद्धिहान्योः प्रस्तुतोत्कृष्टान्तरमाह"सत्तदिवसा उवसमे” इति, सुगमम् , केवलमुपपत्तिदितियाधिकारदर्शितसप्तमूलप्रकृत्यनुस्कृष्टस्थितिवन्धनानाजीवाश्रितोत्कृष्टान्तरोपपत्तिवत् प्रतिपद्यमानसम्यक्त्वानां जीवानां सर्वथाऽभावलक्षणोत्कृष्टान्तरानुसारेण द्रष्टव्येति ।
अथोक्तशेषमार्गणासु यद्यप्यपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायमार्गणे स्थितिबन्धकनानाजीवानाश्रित्य सान्तरे तथाऽपि तासु प्रस्तुतासंख्येयभागवृद्धिहानिपदद्वयमेव सन्न भवति, शेषनिरयगत्योघादिमार्गणास्तु नानाजीवानाश्रित्य निरन्तरा एव, तथा च सति तासु शेषमार्गणासु प्रस्तुतान्तरं सप्तानां संख्येयभागवृद्धयादेरौधिकोत्कृष्टान्तरवदन्तमुहूर्तप्रमाणमेव प्राप्यत इति तासु तत्तथैव दर्शयन्नाह-“सेसासु भवे मुहुत्तंतो" ति सेसासु नरकगत्योघादिपञ्चनवतिमार्गणासु सप्तानामसंख्यभागवद्धिहान्योः प्रस्तुतं नानाजीवाश्रितमुत्कृष्टमन्तरं 'मुहूर्तान्तः' -अन्तमुहूर्त भवति । गतार्थम् , केवलं शेषमार्गणाभिधानानि त्वम्-सर्वे निरयभेदाः, मनुष्यौघ-तत्पर्याप्त मानुषीभेदाः, सर्वे देवभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः, सर्वे विकलेन्द्रियभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियभेदाः, बादरपर्याप्तपृथिव्यप्तेजोवायु-पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायरूपाः पञ्च मार्गणाभेदाः, सर्वे त्रसकायभेदाः, पञ्च मनोयोगभेदाः, पञ्च वचोयोगभेदाः, वैक्रियकाययोगः, स्त्रीवेद-पुरुषवेदौ, मत्यादिचतुर्ज्ञान-विभङ्गज्ञान-संयमोघसामायिकसंयम-देशसंयम-चक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन-तेजः-पद्म-शुक्ललेश्या-सम्यक्त्वौघ-क्षायिक-क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-संज्ञिमार्गणाभेदाश्चेति ॥८१०-८११॥
तदेवमभिहितं सप्तानामसंख्येयभागवृद्धिहानिलक्षणपदद्वयस्य प्रस्तुतान्तरमुत्कृष्टतोऽपि सर्वमार्गणास्थानेषु । अथ तासामेव सप्तप्रकृतीनां संख्येयभागसंख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणानां चतुणां सत्पदानां जघन्योत्कृष्टभेदतो तदर्शयन्नाह
सब्बासु लहु समयो संखियभागगुणवढिहाणीणं । पल्लाऽसंखियभागो अपज्जणर-मीस-सासणेसु गुरुं ॥८१२॥(गीतिः) विक्कियमीसे बारमुहुत्ता-ऽऽहारजुगले सरपुहुत्तं । वासपुहुत्त-छमासा अवेअ-सुहुमेसु वढि-हाणीणं ॥८१३॥ छए परिहारम्मि य अट्ठारस जलहिकोडिकोडीओ। सत्त दिवसा उवसमे सेसासु भवे मुहुत्तंतो ॥८१४॥
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६०० ]
विहाणे मूलपडिटिइबंधो [ संख्येगुणभागवृद्धिहान्यन्तरोपपत्तिः
(प्रे) "सव्वासु लहु" मित्यादि, यासु मार्गणासु सत्पदद्वारे आयुर्वर्जसप्तान्यतमप्रकृतीनां संख्येयभाग-संख्येपगुणवृद्धिहान्यन्यतमपदानां सच्चमाविष्कृतं तासु नरकगत्योघादिसर्वमार्गणासु तासां संख्येयभागवृद्ध्यादिचतुरन्यतमसत्पदानां प्रत्येकं नानाजीवाश्रितं बन्धान्तरं 'लघु' - जघन्यं 'समयः' समयमात्रमित्यर्थः । एतच्चौघवदेव विज्ञातव्यम् ।
अथैतेषामेव सत्पदानामुत्कृष्टान्तरं दर्शनीयम्, तत्र या मार्गणा नानाजीवान् समाश्रित्य सान्तरास्तास्वपर्याप्तमनुष्यादि मार्गणास तदसंख्य भागवृद्धिहान्यन्तरवन्मार्गणोत्कृष्टान्तरप्रमाणं लभ्यतऽतेस्तासु तत्तथैव दर्शयन्नाह - "पल्लाऽसंखिय भागो" इत्यादि, प्राग्वदपर्याप्त मनुष्य - मिश्रदृष्टि- सासादनमार्गणानां नानाजीवाश्रितोत्कृष्टान्तरस्य पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणत्वात्तामु सप्तानां संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणानां स्थितिबन्धविशेषाणामेकैकस्य नानाजीवाश्रितं 'गुरु'- उत्कृष्टमन्तरं पल्योपमासंख्येवभागप्रमाणं भवति । इत्थमेव “विक्कियमीसे बारमुहुत्ता" ति वैक्रियमिश्रकाययोगमार्गणाया नानाजीवाश्रितोत्कृष्टान्तरस्य द्वादशमुहूर्तमानत्वात् तस्यां प्रस्तुतानां चतसृणां वृद्धिहानीनामुत्कृष्टान्तरं द्वादश मुहूर्ता भवति । तथैव "SSहारजुगले सरपुष्टुत्तं" ति आहारका-ऽऽहारकमिश्रकाययोगद्वये प्रस्तुतानां चतसृणां वृद्धिहानीनामुत्कृष्टान्तरं 'शरत्पृथक्त्वं' वर्षपृथक्त्वं भवति । “वासपुहुत्त मासा" इत्यादि, अत्र क्रमादिति वाक्यशेषः, ततश्चापगतवेद-सूक्ष्म सम्परायसंयममार्गणयोः प्रत्येकं प्रस्तुतान्यतरवृद्धिमत्पदस्योत्कृष्टान्तरं वर्षपृथक्त्वम्, प्रस्तुतान्यतरहानिसत्पदस्य तु तत्षण्मासाः ।
अयम्भाव:
मार्गणाद्वये वृद्धिपदानां प्रपतदुपशमकस्वामिकत्वात् पतदुपशमकानामुत्कृष्टान्तरस्य वर्षपृथक्त्वाच्च प्रस्तुतान्तरमप्योधवदुत्कृष्टतो वर्षपृथक्त्वं भवति, मार्गणाद्वयेऽपि हानिपदानां तु क्षपकापेक्षयाऽपि संपत्तिर्विद्यते, क्षपकाणामुत्कृष्टान्तरं तु न उपशमकानामिव वर्षपृथक्त्वम्, किन्तु षण्मासा एव । उक्तं च श्रीजीवसमासे - 'वासपुहुत्तं उवसामएसु खबगेसु छम्मासा' इति । इत्थं क्षपकोत्कृष्टान्तराधीनं प्रस्तुतान्तरमप्योघवत्षण्मासा एव भवति । तथा चापगतवेदे मोहनीयवर्णानां षण्णां बन्धप्रायोग्यप्रकृतीनां प्रस्तुतद्विविधवृद्धिपदस्य मोहनीयस्य तु संख्येव भागवृद्धिलक्षणस्यैकविधसत्पदस्य चोत्कृष्टान्तरं वर्षपृथक्त्वम्, सूक्ष्मसंपरायसंयममार्गणायां तु पण्णामपि प्रकृतीनां संख्येयभागवृद्धिपदस्य तद्वर्षपृथक्त्वम्, तत्तद्धानिपदस्य तु मार्गणाद्वये पन्नासा इति विज्ञेयम् ।
“लेए परिहारम्मिय" त्ति छेदोपस्थापन संयममार्गणायां परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायां च प्रस्तुतानां ज्ञानावरणादे: संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणानां चतुर्णां सत्पदानां प्रत्येकमुत्कृष्टान्तरमष्ट । दशकोटीकोटीसागरोपमाणि भवति एतन प्रस्तुतमार्गणादयेऽनन्तरमेव दर्शिता संख्येय भागवृद्धिहान्यन्यतरान्तरवद्विज्ञेयम् । एवमेव " सत्त दिवसा उवसमे" त्ति सुगमम् । केवलं प्रस्तुतत्वाज्ज्ञानावरणादीनां सप्तानां संख्येय भाग-संख्येयगुणवृद्धि हानिलक्षणानां
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मार्गणास्वसंख्यगुणवृद्धिह । न्यन्तर० ] वृद्धयधिकारे ऽन्तरद्वारम्
चतुर्णां पदानामुत्कृष्टान्तरम् । एतदभ्यन्तरमधिकृतमार्गणावां दर्शितासंख्येयभागवृद्धिहान्युत्कृष्टातज्ज्ञेयम् ।
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दर्शितं सान्तरमार्गणासु प्रस्तुतान्तरम् । अथ शेषमार्गणासु तु मार्गणानामेव नानाजीवानाश्रित्य धुत्रत्वेन सर्वदेव प्रस्तुत वृद्धि हानिबन्धानां समुपलब्धेस्तैरुत्कृष्टतः मंप्रत्यन्तमुहूर्तम्ऽन्तरान्तरा स्वप्रायोग्यप्रस्तुतवृद्धिहानीनां निर्वर्तनाच्च नानाजीवानाश्रित्य तदीयो कृष्टवन्धान्तरमोघवदत्रमार्गणास्थानेष्वप्यन्तमुहूर्तमेव प्राप्यते, न पुनस्तदधिकमितिकृत्वा तत्तन्मार्गणासु तत्तथैव दर्शयति - "सेसासु भवे मुहुत्ततो" त्ति गतार्थम्, केवलं शेषमार्गणा इमाः सर्वे निरयगतिभेदाः, तिर्यग्गत्योधः सर्वे तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभेदाः मनुष्योध-पर्याप्तमनुष्य मानुषीभेदाः सर्वे देवगतिभेदाः, नव विकलेन्द्रियभेदाः, त्रयः पञ्चेन्द्रियभेदाः त्रयस्त्रसकायभेदाः, वैक्रियमिश्राSSहारका ऽऽहारकमिश्र काययोगभेदवर्जाः सर्वे योगभेदाः, त्रयो वेदभेदाः, चत्वारः क्रोधादिकषायभेदाः, चत्वारो मत्यादिज्ञानभेदाः, त्रयोऽज्ञानभेदाः, संयम व सामायिकसंयम- देशसंयमाऽसंयममार्गणाः, चक्षु-रचक्षु-रवधिदर्शनानि, कृष्णादिवल्लेश्याः, भव्या- ऽभव्यौ, सम्यक्त्वौघ-क्षायिकक्षायोपशमिकसम्यक्त्वानि, मिध्यात्वम्, तथा संस्थ- ऽसंज्ञिभेदौ, आहारका ऽनाहारकभेदौ चेत्येवं त्रयोदशोत्तरशतम् । तत्राऽपि विकलेन्द्रियमेदनव के सप्तानां संख्येयगुणवृद्धिहानिपदयोरसवात् ते विहाय संख्येयभागबुद्धिहानिलक्षणयोर्द्वयोः पदयोरेव प्रस्तुतोत्कृष्टान्तरमन्तमुहूर्त ज्ञेयमिति । ८१४ ।
तदेवं दर्शितं सप्तानां संख्येयगुण-संख्येयभागवृद्धिहानिलक्षणानां चतुर्णां स्थितिबन्धविशेषाणामपि मार्गणास्थानेषु नानाजीवसमाश्रितमुत्कृष्टान्तरम् । अथ शेषयोरसंख्येयगुणवृद्धिहान्योर्नानाजीवाश्रितमन्तरं मार्गणास्थानेष्वाह
जत्थऽत्थि तत्थ समयो लहु असंखगुणवड्ढिहाणीणं । जे मणुसि-त्थि - णपुम-अवेअ-मणणाणु-वसमेसु ॥ ८१५ ॥ वासपुहत्तं छेए अट्ठारस जलहिकोडिकोडीओ | सेसा वड्ढी विष्णेयं हायणपुहुत्त ॥ ८१६ ॥ पुरिसे साहियवासो णेयं हाणीअ चउकसायेसु । अब्भहियो वासो उअ म्मासा अंतरं होइ ॥ ८१७॥ ओहिदुगे विष्णेयं अहियसमा केह हायणपुहुत्त । अवसेसमग्गणासु छम्मासा अंतरं यं ॥ ८१८ ||
[ ६०१
-
(प्रे०) “ जत्थ स्थि" इत्यादि, 'यत्र' यासु मार्गणासु 'स्तः - सत्यौ, के ? असंख्यगुणवृद्धि - हानी, सप्तकर्मणामसंख्यगुणवृद्धिहानिपदद्वयं सत्पदद्वारे सदभिहितमिति भावः । "तस्थ" चि
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६०२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणास्वसंख्यगुणवृद्धिहान्यन्तर ० 'तत्र'-तासु मार्गणासु “समयो लहु असंखगुणवड्ढिहाणीण" ति तयोरसंख्यगुणवृद्धिहान्योर्नानाजीवाश्रितं 'लघु' - जघन्यं बन्धान्तरं समयः, ओघवत्समयप्रमाणं भवतीत्यर्थः । भावनाप्योघवदेव द्रष्टव्येति । अथाऽनयोरेवोत्कृष्टान्तरमाह-" जेट्ठ" मित्यादि, असंख्यगुणवृद्धिहान्योः प्रत्येकं ‘ज्येष्ठम्’-उत्कृष्टमन्तरं वर्षपृथक्त्वं भवतीति परेणान्वयः । कासु मार्गणास्त्रित्याह - " मणुसित्थो”त्यादि, मानुषी - स्त्रीवेद- नपुंसक वेदाऽपगतवेद-मनः पर्यवज्ञानौ- पशमिकसम्यक्त्वमार्गणास्वित्यर्थः । न च 'वासपुहुत्तमुत्रसामएस' इति वचनादौपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां प्रस्तुतहान्यन्तरस्योत्कृष्टतो वर्षपृथक्त्वप्रमाणत्वेऽपि मानुष्यादिमार्गणासु नैतद्युज्यते, तासु क्षपकाणामपि प्रस्तुतहानेर्भावात्, क्षपकाणामुत्कृष्टान्तरस्य षण्मासप्रमाणत्वाच्चेति वाच्यम् । तत्तद्वेद-तत्तज्ज्ञानादिनाऽविशिष्टानां क्षपकसामान्यानां नानाजीवाश्रयान्तरस्य पण्मासप्रमाणत्वेऽपि तत्तद्वेदज्ञानादिभेदेन विशिष्टानां स्त्र्यादितल्लिङ्गिनामवध्यादितत्तज्ज्ञानीनां सिद्धयन्तरवद्यथा मानुष्यादिमार्गणासु स्त्रीवेदादिविशिष्टक्षपकनानाजीवान्तरापेक्षया सप्तानां जघन्यस्थितिबन्धान्तरं विलक्षणं विलक्षणं प्राप्यते तथैव प्रस्तुत - हान्यन्तरमपि मानुष्यादिमार्गणाप्रविष्टक्षपकजीवाऽन्तरापेक्षया विलक्षणं वर्षपृथक्त्वादिकं प्राप्यते, न तु क्षपकसामान्योत्कृष्टान्तराक्षिप्तं षण्मासप्रमाणमेव, अत एव पु'वेदादिमार्गणास्थानेषु तत् षण्मासमनुक्त्वा साधिकवर्षादिमानमनुपदमेव वक्ष्यते, इत्थं जघन्य स्थितेर्बन्धकान्तरवदिदमप्यन्तरं मानुष्यादिमार्गणासु यथासम्भवं वेदितव्यमिति । अपगतवेद मार्गणायां तु वेदनीय- नामगोत्र लक्षणानां तिसृणां मूलप्रकृतीनामेव तद्वर्षपृथक्त्वम्, न पुनस्तदन्यासाम्, गतवेदमार्गणायां तदन्यासाम संख्येयगुणवृद्धिहान्यो रेवाभावात् ।
अथ छेदोपस्थापन संयममार्गणायां प्रस्तुतवृद्धिहान्योरुत्कृष्टान्तरमाह - "छेए अट्ठारस" इत्यादि, एतदपि सुगमम्, नानाजीवानाश्रित्य प्रस्तुतमार्गणाया एव सान्तरत्वात्, तदीयोत्कृष्टान्तरस्याऽष्टादशसागरोपमकोटिकोटिप्रमाणत्वाच्च । विशेषतस्तु प्रस्तुतमार्गणायां सप्तकर्मणां जघन्यादिस्थितिबन्धस्य प्राग्दर्शितोत्कृष्टान्तरानुसारेण दर्शनीयम् ।
1
इदानीं शेषमार्गणासु तत्रप्रविष्ट नानाजीवाश्रितोपशमश्रेण्युत्कृष्टान्तराधीनम संख्यगुणवृद्धेरुत्कृष्टान्तरं दर्शयति - "सेसासु वड्ढोए" इत्यादि, यासु मार्गणास्त्रसंख्यगुणवृद्धिपदं सत् तास्वनन्तरोक्ता मानुष्यादिषण्मार्गणाः संत्यज्य शेषासु मनुष्यगत्योघादिमार्गणासु प्रत्येकं 'बृद्धेः’असंख्यगुणवृद्धेरुत्कृष्टमन्तरं वर्षपृथक्त्वं भवति । कुतः १ असंख्यगुणवृद्धेरुपशमश्रेणावेव भावादिति ।
अथोक्तशेषासु मार्गणास्वेव क्रमेण प्रस्तुतहानेरुत्कृष्टान्तरं दर्शयति- " पुरिसे साहियवासो यंहाणी" ति पुरुषवेद मार्गणायां सप्तमूलप्रकृतीनामसंख्यगुणस्थितिबन्धहानेर्नाना जीवाश्रितमुत्कृष्टमन्तरं साधिकवर्षप्रमाणम्, तथा क्रोधादिलक्षणासु चतसृषु कषायमार्गणासु प्रत्येकम् "अब्भहियो वासो" त्ति अभ्यधिकवर्षमानं प्रस्तुतान्तरं भवेत्, "उअ छम्मासा अंतरं होई” ति 'उत'-अथवा मतान्तरेण कषायमार्गणाचतुष्के प्रस्तुतान्तरं षण्मासा भवति । "ओहिदुगे” ति
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वत्तस्थितिबन्धवृद्धयादयः केन भावेन] वृद्धयधिकारे भावद्वारम्
[ ६०३ अवधिज्ञानदर्शनलक्षणेऽवधितिक प्रस्तुतं हान्यन्तरम् “अहियसमा" ति साधिकसमा,अभ्यधिकवर्षमानमेवेत्यर्थः । अत्रैव मार्गणाइये महाबन्धकाराभिप्रायेण प्रस्तुतहान्यन्तरं दर्शयन्नाह-"केह हायणपुहुत्त" ति 'केचित्'-महाबन्धकारा अवधिज्ञान-दर्शनलक्षणमार्गणाइये सप्तानामसंख्येयगुणहानिलक्षणस्य स्थितिबन्धविशेषस्य नानाजीवाश्रितमुत्कृष्टमन्तरं 'हायनपृथक्त्वं'-वर्षपृथक्त्वम् , वदन्तीति शेषः । अथ शेषमार्गणासु प्रस्तुतं हान्यन्तरमाह-"अवसेसमग्गणासु"मित्यादि, यास्वन्यतमस्याऽपि कर्मणोऽसंख्यगुणहानिपदं सद्भूतमभिहितं ताभ्यो मार्गणाभ्योऽनन्तराभिहिता मानण्यादिचतुर्दशमार्गणास्त्यक्त्वाऽवशेषासु मनष्यगत्योघादित्रिंशन्मार्गणासु तस्या ज्ञानावरणादेरसंख्यगुणहाने नाजीवाश्रितमुत्कृष्टान्तरं षण्मासा भवति । ताश्च मार्गणा इमाः-मनुष्योघपर्याप्तमनुष्यो, तथैव पञ्वेन्द्रियौघ-तत्पर्याप्तभेदो, त्रसकायौप-तत्पर्याप्तभेदौ, पञ्चमनोयोगपञ्चवचोगेग-काययोगसामान्यौ--दारिककाययोग--मतिज्ञान--श्रुतज्ञान-संयमौघ-सामायिकसंयमचक्षुर्दर्शना-ऽच दर्शन--शुक्ललेश्या--भव्य--सम्यक्त्वौघ--क्षायिकसम्यक्त्व-संख्या-ऽऽहारिमार्गणाश्चेति ॥८१५-८१६-८१७-८१८।। __ तदेवमभिहितं विभागेन मार्गणास्थानेष्वपि सप्तानामसंख्यभागवृद्धयादिसत्पदानां नानाजीवश्रिां जयन्योत्कृष्टभेदभिन्न बन्धान्तरम् , तथा च कृते गतमेकादशमन्तरद्वारम् ।। ।। इति श्रीवन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पञ्चमे वृद्धयधिकारे एकादशं नानाजीवाश्रयमन्तरद्वारं समाप्तम् ।।
।। अथ द्वादशं भावद्वारम् ।। ___ एतर्हि क्रमप्राप्तस्य भावद्वारस्यावसरः, तत्र पूर्ववत् प्रस्तुतस्थितिबन्धवद्धयादिरप्यौदयिकेन भावेन प्रवर्तत इत्येतन्निजिगदिपुरेकामा माह
भावेणोदइएणं बंधो सवाण वढिहाणीणं ।
सत्तण्हेमेव भवे सवढिहाणीण सव्वासु॥ ८१९ ॥ (प्रे०) "भावेणे"त्यादि, सुगमम् , केवलं “सव्वाण वढिहाणोणं सत्तण्ह" ति आयुषोऽसंख्यभागहानेस्तदीयावक्तव्यबन्धस्य तथाऽऽयुर्वर्जानां सप्तमूलप्रकृतीनामवस्थिताऽवक्तव्यस्थितिबन्धयोः सत्पदादिभावद्वारान्तद्वादशद्वारविषयायाः सर्वप्ररूपणायाः प्रस्तुताधिकारप्रारम्भे सत्पदद्वारे 'भत्थि अवत्तव्यत्त'मित्यादिगाथा- (७३२-७३३ )द्वयेनाभिहितत्वादुक्त शेषाणां तत्तदसंख्येयभागप्रभृतिवृद्धयादिसत्पदानां बन्धोऽप्योधत आदेशतश्चोत्कृष्टादिस्थितिबन्धवदोपशमिकादिभावानां मध्ये औदपिकेन भावेन जायते । अत्राऽऽपत्युपपत्तयस्तु भूयस्काराधिकारभावद्वारदर्शितनीत्या स्त्रयमभ्यूह्या इति ।।८१९॥
तदेवं कृतमतिदिष्टशेषस्थितिवन्धवृद्धयादिसत्पदेषु भावप्ररूपणम् , तथा च गतं भावद्वारम् । ॥ इति श्रीवन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पञ्चमे वृद्धयधिकारे द्वादशं भावद्वारं समाप्तम् ।।
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॥ अथ त्रयोदशमल्पबहुत्वद्वारम् ॥ . इदानीं त्रयोदशस्याल्पबहुत्ववारस्यावसरः । तत्रायुषः पदद्वयविषयकाल्पवहुत्वस्यापि सत्पदबारे 'भूगारबाउस्स' इत्यादिनाऽतिदेशेनैव दर्शितत्वादायुर्वर्जानां सप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकमसंख्यभागप्रभृतिवृद्धिहान्यवस्थानादिबन्धकानामल्पबहुत्वं प्रतिपिपादपिपुरादौ तावदोघत आह
सत्तण्हं सव्वप्पाऽवत्तबस्स खलु बंधगा तत्तो। संखेज्जगुणा कममो असंखगुणवढिहाणीणं ॥२०॥ तत्तो वि असंखगुणा हवन्ति संखगुणवढिहाणीणं । ताउ असंखेज्जगुणा णेया संखंसबढिहाणीणं ॥८२१॥ (गोतिः) तान्हितोऽणंतगुणा हुन्ति असंखंसवढिहाणीणं ।
ताहिन्तोऽवट्ठाणस्स असंखगुणा मुणेयव्वा ॥८२२॥ (प्रे०) “सत्तण्हं सव्वप्पा” इत्यादि, आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां प्रत्येकमवतव्यलक्षणस्थितिबन्धस्य 'बन्धकाः' -निवर्तकाः “सवप्पा" त्ति अनुपदं वक्ष्यमाणासंख्यगुणवृद्धयादिशेषसर्वपदानामेकैकस्य बन्धंकापेक्षयाऽल्पत्वात् 'सर्वाल्पाः'-सर्वस्तोका भवन्ति, यत उपशमश्रेणितो निपततां स्थितिबन्धप्रथमसमये एवाऽवक्तव्यबन्धो भवति । "तत्तो" ति तेभ्यो ज्ञानावरणादीनामेकैकस्यावक्तव्यस्थितिबन्धकेभ्यः “संखेजगुणा" त्ति 'बंधगा' इत्यस्यानुवर्तनात्ते गामेव ज्ञानावरणादीनामेकैकस्य बन्धकाः संख्येयगुणा भवन्ति । कस्य कस्य पदस्येत्याह-"कमसो असंखगुणवढिहाणीणं" ति ‘क्रमशः' -यथाक्रममसंख्यगुणवृद्धरसंख्यगुणहानेश्च ।
इदमुक्तं भवति-उत्कृष्टपदे ज्ञानावरणस्यावक्तव्यलक्षणस्थितिबन्धस्य यावन्तो बन्धकाः प्राप्यन्ते, तेभ्यस्तस्यैव ज्ञानावरणस्याऽसंख्येयगुणस्थितिबन्धवृद्धबन्धका उत्कृष्टपदे संख्ये गुणाः प्राप्यन्ते, तेभ्यो ज्ञानावरणस्याऽसंख्ये यगुणवृद्धिवन्धकेभ्यो ज्ञानावरणस्यैवाऽसंख्यगुणहानेर्वन्धका उत्कृष्टपदे संख्येयगुणाः सम्पयन्ते । तत्रावक्तव्यस्थितिबन्धस्याऽसंख्यगुणवृद्धेश्वोपशमश्रेणितः प्रतिपतत एव जायमानत्वेऽप्यवक्तव्यबन्धस्य सकृदेव भावाद् , असंख्यगुणवृद्धः संख्येयशः सम्भवाचान्तमुहूर्त-द्वथन्तमुहूर्तावन्तरेण प्रतिपततामप्यसंख्यगुणवृद्धि३रन्तर्येण सम्भवति, न पुनस्तेषां सर्वेषां नैरन्तर्येणावक्तव्यस्थितिबन्धः, प्रतिपातप्रथमसमये एप तत्सम्भवात् ; इत्थं चावक्तव्यबन्धकेभ्योऽसंख्यगुणवृद्धिबन्धका उत्कृष्टपदे संख्येयगुणाः प्राप्यन्ते । असंख्यगुणहानिस्तूपशमकानामिव क्षपकाणामपि जायते, असंख्यगुणवृद्धिस्तूपशमकानामेव, किश्चोपशमकेभ्यः क्षपकास्तू-कृष्टपदे संख्येयगुणाः प्राप्यन्ते । यदाहुमलधारोयहेमचन्द्रसूरिपादा जोवसमासवृत्तौ
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भोधतस्तत्तदृद्धयादिबन्धकानामरुपबहु० ] वृद्धपधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[६०५ 'इहोपशमकप्रहणेन मोहोपशामका उपशान्तमोहाश्च गृह्यन्ते, क्षपकोपादानेनापि क्षपकाः क्षीणमोहाश्च स्वीक्रियन्ते, उपलक्षणव्याख्यानात् , ततश्च सर्वस्तोका एव उपशामकाः क्षपकास्त्वेतेभ्यः संख्ये यगुणाः, एतेषां चोपशमकक्षपकाणामेत ल्पबहुत्वमुभयेषामप्युत्कृष्ठपदसत्त्वे लभ्यमाने द्रष्टव्यम्' इति ।।
इत्थं च ज्ञानावरणस्यासंख्यगुणवद्धन्धकम्यो ज्ञानावरणस्यासंख्येयगुणहानेर्बन्धकाः संख्ये. यगुणाः प्राप्यन्ते । इत्थमेव दर्शनावरणादीनां प्रत्येकमपि द्रष्टव्यम् ।
"तत्तो वि" ति तेभ्योऽनन्तरपदोक्तज्ञानावरणादिसत्कासंख्यगुणहानिबन्धकेभ्योऽपि "असंखगुणा हवन्ति" ति असंख्यगुणा भवन्ति,बन्धका इत्यनुवर्तते । एवमुत्तरत्राऽपि बन्धका इत्यनुवृत्त्या द्रष्टव्यम् । कस्य कस्य पदस्येत्याह-"संग्वगुणवढिहाणीणं" ति ज्ञानावरणादीनां तत्तत्प्रकृतीनां संख्येयगुणवद्धिहान्योरेकैकपदस्येत्यर्थः,परस्परं तु तयोर्बन्धकास्तुल्या इति विज्ञेयम् , पदद्वयस्य युगपदुपादानात् । कुतोऽसंख्यगुणाः ? इति चेत् , सर्वसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां संख्येयगुणवृद्धिहानिस्वामित्वेन तेषां परिमागतोऽसंख्येवत्वेन च संख्येयेभ्योऽसंख्यगुणहानिबन्धकेभ्यः सुतरामसंख्येयगुणत्वादिति । न च भवन्तु संख्येयगुणवृद्धिस्वामिन उत्कृष्टपदेऽसंख्यगुणाः । कथं पुनः संख्येयगुणहानिस्वामिनोऽप्यसंख्येयगुणा एव, ओघत एकेन्द्रियाणामपि संख्येवगुणहानिस्वामित्वेनाऽनन्तगुणत्वस्यैव युज्यमानत्वादिति वाच्यम् , यत एकेन्द्रिया न स्वस्थाने संख्येयगुणहानिस्वामिनः, किन्तु द्वीन्द्रियादिभ्यश्व्युत्वोत्पद्यमाना भवप्रथमसमयवर्तिन एव,द्वीन्द्रियादयस्त्वसंख्येया एव, अतो द्वीन्द्रियादिभ्यश्च्युत्वैकेन्द्रियतयोत्पद्यमाना भवप्रथमसमयवर्तिन एकेन्द्रिया अप्यसंख्येया एवोत्कृष्टपदे प्राप्यन्ते,तथा चानन्तेष्वप्येकेन्द्रियेषु केचनासंख्येया एव एकस्मिन् समये संख्येयगुणहीनस्थितेर्बन्धकतया प्राप्यन्ते, न पुनस्तदधिकाः, प्रस्तुताल्पबहुत्वं चैकसामायिकोत्कृष्टपदगतबन्धकानाम् , अत एकेन्द्रियाणां संख्येयगुणहानिस्वामित्वेऽपि संख्येयगुणहानिबन्धका एकस्मिन् समये उत्कृष्ट पदे उत्कृष्ट पदगतेभ्योऽसंख्येयगुणहानिवन्धक भ्योऽनन्तगुणा नैव भवन्ति, किन्तु यथोक्ता असंख्येयगुणा एव भवन्ति ।
___ "ताउ" ति तेभ्यः संख्येवगुणद्धिहान्यन्यतरवन्धकेभ्यः "असंखेजगुणा या" त्ति असंख्येयगुणा बन्धकाः “संख्सवडिढहाणोणं" ति ज्ञानावरणादीनां सप्तानामन्यतमकर्मणः संख्येयभागवृद्धिहान्योरेकैकस्या ज्ञेयाः । परस्परं तु तयोः प्राग्वत्तुन्या एव, प्राग्वदत्रापि पदद्वयस्य युगपदुपादानात् , एवमेवोत्तरत्रापि युगपत्संगृहीतेषु पदेषु बन्धकानां तुल्यत्वं स्वयमेव द्रष्टव्यम् । अत्रानन्तरोक्तपदापेक्षयाऽसंख्येयगुणत्वं तु स्वस्थानविकलेन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामपि संख्येयभागवद्धिहानिस्वामित्वाद्विज्ञेयम् । इदमुक्तं भवति-ज्ञानावरणादेः संख्येयगुणद्धिहानिस्वामिनः स्वस्थाने तु संज्ञिपञ्वेन्द्रिया एव, संख्येयभागवद्धिहान्योस्तु संक्षिपञ्वेन्द्रियवद् विकलेन्द्रियाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रिया अपि, संज्ञिपञ्चेन्द्रियेभ्यस्तु ते एकेन्द्रियवर्जा अपि सर्वेऽसंख्येयगुणाः सन्ति, तदेवं विकलेन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामपि संख्येयभागवृद्धिहान्योर्बन्धकत्वादनन्तरपूर्वपदोक्तबन्ध
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२०६ ]
कापेक्षया संख्येयभागवृद्धिहान्योः प्रत्येकं बन्धका असंख्येयगुणाः प्राप्यन्त इति ।
"ता हिन्तो" ति तेभ्यः संख्येयभागवृद्धिहान्यन्यतरबन्धकेभ्यः “ऽणंतगुणा हुन्ति असंखंसवड्ढिहाणीणं” ति असंख्यांशवृद्धिहान्योः प्रत्येकं वन्धका अनन्तगुणा भवन्ति, सस्थानसाधारण वनस्पतिकायिकानामपि तत्स्वामित्वात् ।
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ मार्गणासु तत्तहृद्धयादिबन्धकाल्पबहुत्व●
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“ताहिन्तो” त्ति तेभ्योऽसंख्यांशवृद्धिहान्यन्यतरत्रन्धकेभ्यः "वठाणस्स असंखगुणा मुणेयव्वा" त्ति ज्ञानावरणादेरवस्थानलक्षणस्य स्थितिबन्धस्य बन्धका असंख्यगुणा ज्ञातव्याः । कुतः ? असंख्यभागवृद्धिहान्यवस्थानस्थितिबन्धानां प्रत्येकं सर्वजीवस्वामिकत्वेऽप्यसंख्य भागवृद्धिहानेरे कजीवाश्रितोत्कृष्टकालस्य द्विसमयमात्रत्वात् ततश्वावस्थानबन्धोत्कृष्टकालस्य त्वसंख्येयगुणत्वात्। अयम्भावः-सामान्येन तत्तदृद्धिहानिबन्धार्ह जीवराशीनामेकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय- मनुष्यादिरूपेण विजातीयत्वे तत्तद्राशीनां परस्पराल्पबहुत्वानुसारेण तत्तद्वद्ध्यादिवन्धकानामल्पबहुत्वं सम्पद्यते, अतो द्विचरमत्रिचरमादिपदेषु तथैव दर्शितम्, उत्तरत्र तथा दर्शविष्यते च । तत्तद्वृद्धिहानिबन्धकानां नारक- तिर्यग मनुष्य-देव-पञ्वेन्द्रिय-विकलेन्द्रियै केन्द्रियादिरूपेण तुल्यत्वे तु संख्ये गुणसंख्येयभागादितत्तद्विजातीय वृद्ध्यादेर्वन्धकाः वक्ष्यमाणनीत्या यथोत्तरं संख्येयगुणाः सम्पद्यन्ते, अत एव नरकगत्योघादिमार्गणासु ते यथोत्तरं संख्येयगुणा अभिधास्यन्ते, सजातीयसंख्येयगुणवृद्ध यादेर्बन्धकास्तु तत्तत्सजातीय संख्येय गुणादिवृद्धिहान्पोरेकजीवाश्रयकालानुसारेण तुल्या अतुल्या वा प्राप्यन्ते, एकजीवाश्रयकालस्य तुल्यत्वे तुल्याः प्राप्यन्ते, तस्यातुल्यत्वे त्वतुल्याः संख्येयगुणा लभ्यन्त इति भावः । अत एवौघतस्तत्तत्सजातीय वृद्धिहानिपदयोर्घन्धकास्तुल्या अभिहिताः, मार्गणास्थानेष्वभिधास्यन्ते च । अवस्थानवन्धकास्तु संख्येय-संख्येयातीतलक्षणस्व परिमाणानुसारेण चरमपदे संख्येयगुणा असंख्य गुण वा सम्पद्यन्त इत्यत ओघतश्चरमपदे तेऽसंख्येयगुणा प्रतिपादिताः, नरकगत्योघादिमार्गणास्त्रसंख्येयगुणास्तथा पर्याप्तमनुष्यादिमार्गणासु संख्येयगुणाश्च प्रतिपादयिष्यन्त इति ॥। ८२०-८२१-८२२ ।।
तदेवमभिहितमोवतो ज्ञानावरणादेरसंख्येयभागप्रभृतिवृद्ध्यादिसत्पदानां बन्धकाल्पबहुत्वम् । अधुना तदेवादेशतो द्रष्टव्यम्, तत्र प्रथमं निरयगत्योघभेदे दिदर्शयिषुस्तत्साम्यादन्यमार्गणाभेदानपि संगृह्याह
सव्वेसु णिरयेसु पज्जपणिंदितिरिये तिरिच्छीए । असमत्तणरे सव्वत्थवज्जदेवेसु विवदुगे ||८२३|| विब्भंगम्मि य देसे तेउ - पउम - वेअ गेसु सासाणे | मिस्से सत्तण्ऽप्पा संखियगुणवड्ढिहाणीणं ॥ ८२४ ॥
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वृद्धयादिबन्ध काल्पबहुत्वोपपत्तिमार्गी: ]
वृद्धयधिकारेऽल्पबहुत्व द्वारम्
तत्तो संखेज्जगुणा हवन्ति संखंसवडिढहाणीणं ।
तत्तो संखे जगुणा हुन्ति असंखंसवड्ढिहाणीणं ॥ ८२५ ॥ (गीतिः) ताउ असंखेज्जगुणाऽवट्ठाणस्सेवमेव सव्वत्थे । आहारदुगम्मि तहा परिहारे णवरि संखगुणा || ८२६ ॥
(प्रे० ) " सव्वेसु णिरयेसु " इत्यादि, सर्वेष्वोघोत्तर भेदभिन्नेष्वष्टसंख्याकेषु निरयगतिभेदेषु, तथा पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदे, तिरश्रीभेदे, अपर्याप्तमनुष्ये, “सव्वत्थवज्जदेवेसु" ति सर्वार्थसिद्धविमानभेदवर्जेष्वोघ-भवनपत्यादि भेदभिन्नेष्वेको नत्रिंशद्देवगतिभेदषु, वैक्रिय- वैक्रियमिश्रकाययोगयोः, विभङ्गज्ञाने, देशसंयमे, तेजः - पद्मलेश्या - वेदकसम्यक्त्वेषु, सासादने, मिश्र दृष्टिमार्गणानां चेत्येता स्वेकोनपञ्चाशन्मार्गणासु प्रत्येकं "सत्तण्हप्पा संखियगुणवडिहाणोण”मित्यादि, आयुर्वर्ज सप्तान्यतममूलप्रकृतीनां संख्येयगुणवृद्धिहान्योरेकैकस्याः ' अन्पाः' - सर्वस्तोकाः, बन्धका इत्यनुवर्तते इत्येवमुत्तरत्रापि ततस्तासामेव सप्तानां प्रत्येकं संख्येय भागवृद्धिहान्यन्यतरस्या बन्धका उत्कृष्टपदे संख्येयगुणा भवन्ति ।
ननु नरकगत्यवादिप्रस्तुतमार्गणासु प्रत्येकमेकजीवाश्रितो निरन्तर उत्कृष्टबन्धकालः संख्येयगुणवृद्धिहान्योः संख्ये भागवृद्धिहान्योश्च प्रत्येकं तुल्यो द्विसमयमात्रः, किञ्च नरकगत्योघादिमार्गणागताः प्रत्येकं जीवा उक्त वृद्धयादिचतुर्विधसत्पदबन्धार्हाः, इत्थं च यथा संख्येयगुणवृद्धिहान्योन्धका उत्कृष्टपदे तुल्याः प्राप्यन्ते तथा संख्येयभागवृद्धिहान्योर्बन्धका अपि कथं तैस्तुल्या नोच्यन्ते, किन्तु संख्येयगुणा उच्यन्ते ? इति चेद्, भण्यतेऽत्रोत्तरम्, प्रत्यन्तमुहूर्त जायमानासु स्वस्थाने बन्धप्रायोग्यास्वसंख्येयं गुणवृद्धिहानिवर्जासु संख्येयगुणादिषु त्रिविधवृद्धिषु त्रिविधहानिषु चैकैकस्या एकजीवाश्रितोत्कृष्टान्तरस्यान्तर्मुहूर्त प्रमाणत्वेऽप्युत्कृष्ट तो यावदन्तरमसंख्येयभागबुर्द्धर्भवति तदपेक्षया संख्येयभागवृद्धेस्तत्संख्येयगुणं भवति, ततोऽपि संख्येयगुणवृद्धेस्तत्संख्येयगुणं भवति, इत्थं चान्तर्मुहूर्तान्तरेण जायमानयोः संख्येयगुणवृद्धयोरन्तरालेऽन्तर्मुहूर्तकालान्तरिताः संख्येयाः संख्ये भागवृद्धयस्तादृश्यो हानयश्च जायन्ते, तासामप्यान्तमुहूर्तिके एकैकस्मिन्नन्तराले संख्येया असंख्येयभागवृद्धिहानयः प्राप्यन्ते । इत्थमेव हानिविषयेऽपि विज्ञेयम् । एतच्च बाहुल्येन भवति, न पुनर्नियमतः, निरन्तरं सदृशवृद्धिद्वयमित्र समयद्विसमयाद्यन्तरेणाऽपि संख्येयगुणादिसदृशवृद्धिहानीनां सम्भवात् संख्येयगुणादिवृद्धिहानीनां बाहुल्येनान्तमुहूर्तमन्तरं तु प्रत्येकं वृद्धिहानीनामेकजीवाश्रितनिरन्तरकाल स्योत्कृष्टतोऽपि द्विसमयमात्राऽभिधानात् तदीयोत्कृष्टान्तरस्यान्तमुहूर्त प्रमाणाभिधानाच्च, अत एव निरन्तराः स्तोकान्तरा वा वृद्धिहानयः कादाचित्य एवाssवेदनीयाः ।
[ ६०७
"
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.६०८]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ यथोत्तरं संख्येयगुणत्वे उपपत्ति. नन्वतेन प्रकृते किमायातम् ? उच्यते, इत्थं हि प्रत्येक जीवानां जीवनबहुभागे स्वस्थाने बन्धप्रायोग्यवृद्धिष्वसंख्येयभागवद्धयो यावन्न्यो जायन्ते तदपेक्षया संख्येयभागवृद्धयः संख्येयगुणहीना जायन्ते, ततोऽपि संख्येयगुणाधिकस्थितिबन्धरुपा वृद्धिर्बन्धप्रायोग्यास्तदा सा पुनरपि संख्येयगुणहीनवारान् संजायते,एवं संख्येयगुण-संख्येयभागादिवृद्धीनां प्रत्येकं बन्धार्हजीवानां पञ्चेन्द्रियत्वादिरूपेणाविशिष्टत्वे तासु दीर्घान्तरेण जायमानाया संख्येयगुणवृद्ध‘न्धकतया जीवानां स्तोकवारानेव परिणतेस्तद्वन्धका उत्कृष्टपदेऽपि स्तोकाः प्राप्यन्ते, संख्येयभागवद्धिबन्धकतया तु तेषां जीवानां पूर्वापेक्षया संख्येयगुणाधिकवारान् परिणतेः संख्येयभागवृद्धिबन्धका उत्कृष्टपदे पूर्यापेक्षया संख्येयगुणाः सम्पद्यन्ते, एवमुत्तरत्राऽप्यसंख्यभागवृद्धिबन्धकतया पूर्वापेक्षयाऽपि संख्येयगुणाधिकवारान् परिणतेस्तद्वन्धकास्तूत्कृष्टपदे पूर्वापेक्षयाऽपि संख्येयगुणाः प्राप्यन्ते, एवं हानिपदेष्वपि विज्ञेयम् । प्रस्तुते च नरकगत्योघादिमार्गणासु संख्येयगुण-संख्येषभागा-ऽसंख्येयभागवृद्धिहानिबन्धार्हजीवानां नारकत्वादिना तेन तेन रूपेण समानत्वात् संख्येयगुणवृद्धस्तादृशहानेर्वा बन्धका उत्कृष्टपदे यावन्तः प्राप्यन्ते तदपेक्षया संख्येपभागवृद्धस्तादृशहानेर्वा बन्धकाः संख्येयगुणा अवाप्यन्ते, तदपेक्षया च संख्येयगुणा असंख्येयभागवृद्धिहान्यन्यतरबन्धका वक्ष्यन्ते । न च संख्येयगुणवृद्धयोरन्तर्मुहूर्तप्रमाणे एकस्मिन्नन्तरेऽन्तमुहूर्तान्तरिताः संख्येयाः संख्येयभागवृद्धिहानयोस्तासामपि प्रत्येकमान्तर्महर्तिकेष्वन्तरेषु संख्येया असंख्येयभागवद्धिहानय इत्येतत् कथं सङ्गच्छेदित्यारेकणीयम् । यतोऽन्तम हूर्तकालस्याऽसंख्येयभेदभिन्नतयैकस्मिन् बृहत्यन्तमुहूर्ते संख्येयानां ह्रस्वान्तमुहूर्तानाम् , तेष्वपि प्रत्येकं पुनरपि संख्येयानां ह्रस्वतरानामन्तमुहूर्तानां सुखेन समावेशो जायते, इत्थं न काचिदसङ्गतिः ।
ननु यद्यन्तर्मुहूर्तकालस्यासंख्येयभेदभिन्नतयोत्कृष्टं संख्येयगुणवद्धयन्तरमप्यसंख्येयैर्भेदैभिद्यते तदा तु तादृश्येकस्मिनन्तरेऽसंख्येवानां संख्येयभागवृद्धिहानीनां तथा तानामन्तरेघसंख्येयानामन्तमुहूर्तान्तरितानामप्यसंख्येयभागवद्धिहानीनां सम्भवात् निरयगत्योघादिषु मार्गणास्थानेषु संख्येयगुणवृद्धिहान्यन्यतरबन्धकापेक्षया संख्येयभागवृद्धिहान्यन्यतरबन्धकतया प्रत्येकं जीवानामसंख्येगुणाधिकवारान् परिणमनात् संख्येयभागवृद्धिबन्धका असंख्येयगुणाः सम्पधेरन् , तेभ्यश्च वक्ष्यमाणासंख्येयभागवृद्धिहान्यन्यतरबन्धका असंख्येयगुणा लभ्येरन् ? इति चेद्, न । यतो वद्धयो हानयो वा विवक्षितस्थितिबन्धानामन्यविधाधिकस्थितिबन्धतया न्यूनस्थितिवन्धतया वा परावृत्तौ सत्यां जायन्ते, न पुनरवस्थितस्थितिवन्धानामिव तुल्यस्थितिबन्धे विद्यमान एव; अन्यान्यस्थितिबन्धपरावृत्तिस्त्वन्यूनेऽपि मुहूर्ते संख्येयवारानेव जायते, न पुनस्तदधिकवारान् , इत्थं च बृहत्यन्तर्मुहूर्तेऽपि संख्येयवारान् स्थितिबन्धपरावृत्ते नवेिन तदधीनाः सर्वविधवृद्धिहानयः समुदिता अपि संख्येया एव भवन्ति, तथा च सति न सम्भवति कुतश्चिदपि निरयगत्योपादिजीवराशिषु
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मार्गणासु तत्तद्वृद्धयादिबन्धकाल्पबहु० ] वृद्धयधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ६०९ संख्येगुणवृद्धिहानिबन्धकेभ्यः संख्येयभागवृद्धिहानिबन्धकानामसंख्येयगुणत्वम् , एवं संख्येभागवृद्धिहानिबन्धकापेक्षयाऽसंख्ययभागवृद्धिहानिबन्धका नाऽसंख्येयगुणाः, किन्तु यथोक्ता यथोत्तरं संख्येयगुणा एव सम्भवन्तीत्यलं विस्तरेण ।
अथ प्रस्तुतम् “तत्तो संखेनगुणा हुन्ति” इत्यादि, तेभ्योऽनन्तरोक्तेभ्यो ज्ञानावरणादितत्तत्प्रकृतेः "असंखंसवढिहाणीणं" ति स्थितिबन्धविषयाया असंख्येयभागवृद्धिहान्यन्यतरस्या बन्धकाः संख्येयगुणा भवन्ति । उपपत्तिस्त्वत्राऽनन्तरगतपदस्य संख्येयगुणत्वे या दर्शिता सैव द्रष्टव्या, मार्गणागतसर्वजीवानां संख्येयगुण-संख्ययभागवृद्धिहानीनामिवाऽसंख्येयभागवृद्धिहान्योबन्धेऽपि समर्थत्वात् । इत्थमेवोत्तरत्रापि निरन्तरोक्तपदद्वयस्य मार्गणागतस्वामिनां सदृशत्वेन संख्येयगुणत्वमवसेयमिति ।
"ताउ" तितेभ्योऽसंख्येयभागवृद्धिहान्यन्यतरबन्धकेभ्यः “असंखेजगुणाऽवट्ठाणस्स" त्ति अवस्थानलक्षणस्य स्थितिबन्धस्य निर्वतका असंख्ययगुणा भवन्तीत्यर्थः । अत्र हि प्रत्येक मार्गणासु संख्यातीतानां जीवानां प्रविष्टत्वादसंख्येयगुणत्वमोघवद् द्रष्टव्यम् ।।
तदेवमभिहितं नरकगत्योधादिमार्गणास्थानेष्वायुर्वर्जानां सप्तानां संख्येयगुणवद्धयादिबन्धकानामल्पबहुत्वम् । इदानीं सर्वार्थसिद्धविमानभेदादिकतिपयमार्गणासु चरमपदं विहाय शेषस्थानेष्वनन्तरोक्ताल्पबहुत्वेन साम्यात् तासु सापवादमतिदिशति-"एवमेव सव्वत्थे"त्यादि,अनुपदं नरकगत्योधादायुक्ताल्पबहुत्ववत् सर्वार्थसिद्धविमानभेदा-ऽऽहारक-तन्मिश्रकाययोगमार्गणासु तथा परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायां चेत्येतासु चतसृषु मार्गणासु प्रत्येकं प्रस्तुताल्पबहुत्वं ज्ञातव्यम् , "णवरि" ति नवरमयं विशेषः, स च “संखगुणा” त्ति अनन्तरोक्ताल्पबहुत्वे यत्राऽसंख्येयगुणा बन्धका उत्तास्तत्र चरमपदेऽवस्थानलक्षणस्थितिबन्धस्य बन्धकाः संख्येयगुणा इत्येवंरूपो विज्ञेयः । इत्थं च सर्वार्थसिद्धविमानभेदादिमार्गणाचतुष्के सप्तानां संख्येयगुणवृद्धिहान्यन्यतरस्य बन्धकाः स्तोकाः, तेभ्यः संख्येयभागवृद्धिहान्यन्यतरस्य बन्धकाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽसंख्येयभागवृद्धिहान्यन्यतरस्य बन्धकाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽवस्थानलक्षणस्थितिबन्धस्य निर्वतका अपि संख्येयगुणा एवेत्येवमल्पबहुत्वं प्राप्तम् , अत्र चरमपदे संख्येयगुणत्वाभिधानं तु मार्गणाचतुष्केऽपि जीवानामेव संख्येयत्वाधिज्ञेयम् । अयम्भाव:-कस्यामपि मार्गणायामुत्कृष्टपदेऽसंख्येयानामनन्तानां वा जीवानां सद्भावेऽसंख्यभागवद्धिहान्यन्यतरबन्धकेभ्योऽवस्थितस्थितिबन्धका असंख्येयगुणाः सम्पद्यन्ते, यस्यां तु न सम्भवन्त्युत्कृष्टपदे संख्यातीता जीवाः, किन्तूत्कृष्टतोऽपि संख्येया एव तस्यां पुनरवस्थितस्थितिबन्धकाः संख्येयगुणा एव प्राप्यन्ते,तत्र सर्वबन्धकराशेरेव संख्येयत्वेनाऽन्यविकल्पानुपपत्तेः । शेषपदेषु तु नरकगत्योधवत्संख्येयगुणत्वमुपपाद्यमिति ।।८२३-८२६।।
तदेवमभिहितं नरकगत्योधेन साम्यादन्यमार्गणास्वपि युगपदेव सप्तानामसंख्यभागवृद्धयादि
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६१०)
___ बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ तिर्यग्गत्योचादिमार्गणास्थानेषु वन्धकानामल्पबहुत्वम् । अथ क्रमप्राप्ते तिर्यग्गत्योघे तद् दिदर्शयिपुस्तत्साम्यादन्यमार्गणा अपि सङ्ग्रह्य सममेवाह
तिरि-युरलमीस-कम्मण-दुअणाणा-ऽयत-तिअसुहलेसासु। अभविय-मिच्छत्तेसु अमणा-णाहारगेसु च ॥८२७॥ सत्तण्ह बंधगा खलु थोवा संखगुणवड्ढिहाणीणं । ताउ असंखेज्जगुणा हवन्ति संखंसवढिहाणीणं ॥८२८॥ (गीतिः) तान्हितोऽणंतगुणा अस्थि असंखंसवढिहाणीणं । ताउ असंखेज्जगुणाऽवट्ठाणस्स हु मुणेयव्वा ॥८२९॥ (प्रे०) "तिरियुरले"त्यादि, तिर्यग्गत्योधौ-दारिकमिश्रकाययोग-कार्मणकाययोगमत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयम-कृष्णादिव्यशुभलेश्यासु, अभव्य-मिथ्यात्वयोः, असंड्य-ऽनाहारकयोश्चेत्येतासु समुदितासु त्रयोदशमार्गणासु प्रत्येकमायुर्वर्जानां सप्तानामेकैकस्य "बंधगा खलु थोवा संखगुणवढिहाणीणं" ति संख्येषगुणवृद्धिहानिलक्षणयोर्द्वयोः पदयोः प्रत्येकं बन्धकाः खलु 'स्तोकाः' वक्ष्यमाणपदेभ्यः स्तोकाः, परस्परं तु तुल्या इत्यपि विज्ञेयम् । कुतः स्तोकाः बन्धकाः ? स्वस्थाने तु पर्याप्ताऽपर्याप्तसंश्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियैरेव तयोनिवर्तनात् ,तेषां च मार्गणागतशेषवृद्धिहानिबन्धकेभ्योऽनन्तभागगतत्वात् । “ताउ" ति 'तेभ्यः'-उक्तान्यतरबन्धकेभ्यः संख्येयांशवृद्धिहान्योरेकैकस्यास्तेऽसंख्येयगुणा भवन्ति । कुतः ? पर्याप्ताऽपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामिव पर्याप्ताऽपर्याप्ततीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिया-ऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां स्वस्थाने संख्येयभागवृद्धिहान्योर्जायमानत्वात् । "ताहिन्तो” त्ति तेभ्यः संख्येयांशवद्धिहान्यन्यतरबन्धकेभ्यः सप्तानामसंख्यांशवद्धिहान्योरेकैकस्या बन्धका अनन्तगुणा भवन्ति, स्वस्थानकेन्द्रियाणामपि प्रस्तुतवद्धिहानिद्वयस्वामित्वात् । परस्परन्त्वेते पूर्ववत् तुल्या एव विज्ञेयाः । “ताउ” त्ति तेभ्योऽसंख्येयभागवृद्धिहान्यन्यतरवन्धकेभ्योऽवस्थानलक्षणस्थितिबन्धनिर्वतकाः “असंखेजगुणा” ति ओघवदसंख्येयगुणा ज्ञेया इति ।
अथ क्रमप्राप्तपञ्वेन्द्रियतिर्यगोधमार्गणायां प्रस्तुताल्पबहुत्वं विभगिपुस्तत्साम्यादन्यत्राऽपि सममेव सापवादमतिदिशति
णिरयब पणिदितिरिय-तदपजा-ऽपजतसपणिंदीसु।
णवरि असंखेजगुणा हवन्ति संखंसवढिहाणीणं ॥८३०॥ (गोतिः) (प्रे०) "णिरयव्वे" त्यादि,निरयगत्योघवत् प्रस्तुताल्पबहुत्वं विज्ञेयम् , विहाय "णवरि" इत्यादिनोचरार्धेनाभिहितापवादपदम्, कासु मार्गणास्वित्याह- "पणिंदितिरिये" त्यादि, पञ्चे
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पच न्द्रियतिर्यगोचादिमार्गणासु० ] वृद्धयधिकारे ऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ६११
न्द्रियतिर्यगोध- तदपर्याप्ताऽपर्याप्तत्र सकाया- पर्याप्तपञ्चेन्द्रियलक्षणासु चतसृषु मार्गणास्त्रित्यर्थः । इत्थं च मार्गणाचतुष्के सप्तानां संख्येयगुणवृद्धिहानिबन्धकाः सर्वस्तोकाः, तेभ्यः संख्येयभागवृद्धिहानिबन्धकास्त्वसंख्येयगुणाः, तेभ्योऽसंख्येय भागवृद्धिहानिबन्धकास्तु निरयगत्योघवत् संख्येयगुणा एव, ततः पुनरवस्थान स्थितिबन्धका अपि तथैवाऽसंख्येयगुणा एवेति । अत्रापवादपदं विहाय शेषपदेषु यथोक्ताल्पबहुत्व हेतवोऽपि नरकगत्योघवदेव विज्ञेयाः, अपवादपदे तु निरयगत्योघापेक्षयाऽस्ति विशेषः, ततश्चाल्पबहुत्वमपि विशेषेणाभिहितम्, कः सः ? इति चेद्, निर त्यमार्गणायां तया सहाभिहितमार्गणासु चान्यतमस्यामपि मार्गणायामपर्याप्तसंस्थसंज्ञिपञ्चेन्द्रिलक्षणा द्विविधजीवाः प्रविष्टा नासन्, अत्र तु प्रत्येकं तादृशा द्विविधजीवाः प्रविष्टाः सन्ति, अपर्याप्तेषु तु संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवापेक्षयाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवा असंख्येयगुणा विद्यन्ते, ततश्च संख्येयगुणवृद्धिहानिबन्धकेभ्यः संख्ये भागवृद्धिहानिबन्धका असंख्येयगुणाः प्राप्यन्ते, असंज्ञिभिः स्वस्थाने संख्येयगुणवृद्धिहान्योरनिर्वर्तनादिति ||८३० || अथ पर्याप्तमनुष्यादिचतुर्मागर्णाः सङ्गृह्याहपजमणुस - मणुसीस मणपज्जव-संयमेसु सत्तण्हं
ओघकमा संखगुणा जहुत्तरं बंधगा या ॥ ८३१ ॥
(प्रे० ) "पजमणुसे" त्यादि पर्याप्तमनुष्य मानुषीमार्गणयोः, मनः पर्यवज्ञान-संयममार्गयोश्च प्रत्येकं सप्तनामायुर्वनां प्रकृतीनां "ओघकमा" ति 'ओघक्रमात् ' - येन क्रमेण ओघप्ररूपणायामवक्तव्या संख्येयगुणवद्ध्यादिपदान्यभिहितानि तेन क्रमेणेत्यर्थः । तेन क्रमेण किमित्याह-"संखगुणा जह्नुत्तर" मित्यादि, 'यथोत्तरम्' उत्तरोत्तरस्थानेषु संख्येयगुणा बन्धका ज्ञेयाः । तद्यथा-सर्वस्तोका अवक्तव्यबन्धकाः, तेभ्योऽसंरूपगुण वृद्धेर्वन्धकाः संख्यगुणाः, तेभ्योऽसंख्येयगुणहानेर्बन्धकाः संख्यगुणाः, तेभ्यः संख्येयगुणवृद्धिहान्योरेकैकस्याः संख्येयगुणाः परस्परं तु तयोस्तुल्याः बन्धकाः, तेभ्योऽन्यतरस्या बन्धकेभ्यः संख्य भागवृद्धिहान्योरेकैकस्या बन्धकाः संख्येयगुणाः, परस्परं तुन्याः, तयोरन्यतरस्या बन्धकेभ्योऽसंख्पभागवृद्धिहान्योरेकैकस्या बन्धकाः संख्यगुणाः परस्परन्तु प्राग्वत्तुल्याः, तेभ्यः पुनरवस्थान स्थितिबन्धकाः संख्येयगुणा इति । कुतः प्रतिपदं यथोत्तरं संख्येयगुणा: ? इति चेद्, पर्याप्तमनुष्यादिप्रस्तुत प्रत्येकमार्गणासूत्कृष्ट जीवपरिमाणस्यैव संख्येयवेत्न यथोत्तरं संख्येयगुणादधिकवन्धकानामसम्भवादिति ||८३१॥
अथ स्थावरभेदेषु प्रस्तुताल्पबहुत्वमाह -
सत्तरह वडिहाणीण हुन्ति थोवा तओ असंखगुणा । sara सव्वेगिंदिपणकायेसु ॥ ८३२ ॥
(प्रे०) “सत्तण्हे" त्यादि, ओघ सूक्ष्मौघ तत्पर्याप्ता - पर्याप्त बादरौघ तत्पर्याप्ताऽपर्याप्तलक्षणानि सप्तै केन्द्रियमार्गणास्थानानि, एवमेव पृथ्वीकाया - ऽप्काय - तेजस्काय - वायुकाय - साधारणवन
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Perform मूलvasosबंधो
६१२ ] [ इन्द्रिय- कायमार्गणास्थानेषु स्पतिकायानां प्रत्येकं सप्त सप्त मार्गणास्थानानि, वनस्पतिकायौध-प्रत्येक वनस्पतिका रौध--तत्पर्याप्तापर्याप्तलक्षणानि चत्वारि मार्गणास्थानानीत्येवं समुदितेषु सर्वेषु षट्चत्वारिंशत्संख् येकेन्द्रियपञ्चकायसम्बन्धिषु मार्गणास्थानेषु प्रत्येकं सप्तानामायुर्वजांनां मूलप्रकृतीनामेकैकस्याः " वड्डिहाणीण" ति एतेषु मार्गणास्थानेष्वसंख्येव भागवृद्धिहानिवर्जानां शेषवृद्धिहानीनामेवासम्भवात्, तयोरसंख्येय भागवद्धिहानिलक्षणयोः सत्पदयोरित्यर्थः । तयोः किमित्याह--" हुन्ति धोवा" ति प्रस्तुतत्वाद्बन्धकाः स्तोकाः सन्ति, वक्ष्यमाणावस्थानवन्धकेभ्य इति गम्यते । ततोऽस्थानस्य बन्धकास्त्वसंख्येयगुणा ज्ञेयाः, प्रत्येकं संख्यातीतानां जीवानां सद्भावे सत्यकेजीवाश्रितावस्थानबन्धकालर ये कजीवाश्रयवृद्धिहानिबन्धकालापेक्षयाऽसंख्येयगुणत्वादिति ॥ ८३२ || अथ विकलेन्द्रियसम्बन्धिमार्गणास्थानेध्वाह
सव्वेसु विगलेसु संखेज्जद्भागवडिहाणीणं । सत्तण्ह बंधगा खलु सव्वत्थोवा मुणेयव्वा ॥ ८३३॥ तत्तो संखेज्जगुणा हुन्ति असंखं सवड्ढिहाणीणं । ताउ असंखेज्जगुणा वाणस्स खलु होएज्जा ||८३४॥
(प्र०, "सच्चे सु" इत्यादि, ओघ पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु द्वीन्द्रिय- श्रीन्द्रिय चरिन्द्रियलक्षणेसु सर्वेषु नवसंकेष्वपि "विगलेसु" ति विकलेन्द्रियसत्कमार्गणास्थानेषु सप्तानां संख्येयभागवृद्धिहानिलक्षयोद्वयोः पदयोर्यन्धकाः खलु सर्वस्तोकाः ज्ञातव्याः । तेभ्यः संख्येयगुणा भवन्ति, कस्याः कस्या इत्याह- "असंखं सव डिटहाणीणं" ति तचज्ज्ञानावरणादेरख्श स्थितिबन्धवृद्धिहान्योरेकैकस्याः,“ताउ” ति तेभ्योऽसंख्यांशवृद्धिहानिबन्ध केभ्यः “असंखेज्जगुणाऽवाणस्स खलु होएज्जा" त्ति सुगमं गतार्थवेति || ८३४ ॥ अथाऽपगतपदेमार्गणायामाह - थोवाऽवत्तव्वस्स अवेए एतो कमेण संखगुणा |
वड्ढीणं हाणीणं अट्टिअप्स य मुणेयव्वा ॥ ८३५ ॥
(प्र०) "धोवा" इत्यादि, अपगत वेदमार्गणायामापूर्व सप्तप्रकृतीनामवक्तव्य स्थितिबन्धस्य बन्धकाः स्तोका भवन्ति । " एतो कमेण संखगुणा" त्ति अतः परं वक्ष्यमाणक्रमेण शेषपदेषु तु बन्धका यथोत्तरं संख्येयगुणाः, ज्ञातव्या इति गाथोत्तरार्धेऽन्वयः क्रमेण शेषपदान्याह - " चड्ढीण" मित्यादि, 'वृद्धीनाम् ' - यस्य कर्मणो यावत्यो वृद्धयो भवन्ति तासां समुदिताः, एवं ततो हानी - नामपि समुदिताः, ततोऽवस्थानस्य च । इदमुक्तं भवति - सर्वासां वृद्धीनां वन्धकास्तथा सर्वासां हानीनां बन्धकाः समुदिता एकैकस्मिन् पदे गृह्यन्ते तदा निर्विशेषेण 'गयवेएऽवत्तव्वस्सऽप्पा तत्तो कमेण संखगुणा । भूभोगारस्स तत्रोऽप्पयरस्साऽवडिअस्स तओ' ॥ इत्यनेनोक्त भूयस्कारा
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वेद-संयमादिमार्गणास्थानेषु] . वृद्धयधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ६१३ घल्पबहुत्वमेव सम्पद्यते, तथा च प्रस्तुताल्पबहुत्वमपि निर्विशेषेण भूयस्कारायल्पबहुत्ववद्योज्यम् । तत्तवद्धयादीनां विशेषेण तु तदागमाविरोधेन बुद्धयोपपादनीयं मनीषिभिरिति ।। ८३५।।
अथ सामायिक-छेदोपस्थापनसंयममार्गणयोराहसामाइय-छेएसु सत्तण्ह असंखगुणिअबढीए ।
थोवाऽथि बंधगा तो पज्जत्तणरब विण्णेया॥८३६॥ (प्रे०) “सामाइयछे एसु” इत्यादि, सामायिक-छेदोपस्थापनसंयमलक्षणमार्गणाद्वये प्रत्येकमायुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणामसंख्यगुणवृद्धः स्तोका बन्धकाः सन्ति, वक्ष्यमाणपदेभ्य इति गम्यते । "तो" ति तस्मात्पुनः पर्याप्तनरमार्गणावयथोत्तरं संख्येयगुणा विज्ञेयाः। तद्यथास्तोकेभ्योऽसंख्यगुणवृद्धेर्बन्धकेभ्योऽसंख्यगुणहानेर्बन्धकाः संख्येयगुणाः, तेभ्यः संख्येयगुणवृद्धिहान्योरेकैकस्याः संख्ये वगुणा बन्धकाः, तयोरन्यतरस्या बन्धकेभ्यः संख्येयभागवृद्धिहान्योरेकैकस्याः संख्येयगुणा बन्धकाः, तयोरन्यतरस्या बन्धकेभ्योऽसंख्येषभागवद्धिहान्योरेकैकस्या बन्धकाःसंख्येयगुणाः, तयोरन्यतरबन्धकेभ्योऽवस्थानबन्धकाः संख्येयगुणाः। इदमत्र हृदयम्-पर्याप्तमनुष्यादिमार्गणावत् प्रस्तुतमार्गणाद्वये प्रविष्टजी पराशेः संख्येयत्वेनान्यबहुत्वमप्यसंख्येयगुणवृद्धयादिवन्धकानां सर्वथा पर्याप्तमनुष्यादिमार्गणावत् प्राप्यते, यद्यप्येवं तथाप्यत्र मार्गणाद्वये पृथगभिधानमत्राऽवक्तव्यपदस्यासचेनाद्यपदेऽसंख्येयगुणवृद्धवन्धका स्तोकत्यदर्शनार्थमिति ।। ८३६ ॥
अथ सूक्ष्मसम्पगपसंयममागेणायामाहसुहुमे सव्वत्थोवा वड्ढीए हुन्ति ताउ हाणीए।
णेया संखेज्जगुगा तोऽवट्ठाणस्स संखगुणा ।। ८३७ ॥ (प्रे०) “सुहुमें' इत्यादि, सूक्ष्मसंपरायसंयमे वन्यप्रायोमानां मोहनीपायुर्वर्णानामेकैकस्य "वहोए" त्ति संख्येय नागवद्धि हानिवर्जान्यविधवृद्धि हानीनामसत्त्वेन संख्येयभागवृद्धर्बन्धकाः सर्वस्तोका भवन्तीत्यर्थः । "ताउ” त्ति तेभ्यः "हाणोए'त्ति संख्येवभागलक्षणायाः स्थितिबन्धहानेबन्धकाः संख्येयगुणा ज्ञेयाः । “तोऽवट्ठाणस्स संखगुणा"इति सुगमम् । भावना तु प्रथमपदे प्रपतदुपशमकानाम् , द्वितीयपदे श्रेगिमारोहतामुपशमकानां क्षाकागांच, तथा चरमपदे त्वरस्थानस्यैकजीवाश्रयोत्कृष्टकालस्यान्तमुहूर्तत्वेन दीर्घकाउसञ्चितानांश्रेणि समारोहतां प्रपततांच क्षपकोपशमकजीवानां लाभायथोत्तरं संख्येयगुणत्वोपपादनेन कर्तव्येति ॥ ८३७ ॥
अथौपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायामाहथोवाऽवत्तवस्सुवसमम्मि सत्तण्ह बंधगा णेया। तत्तो संखेज्जगुणा असंखगुणवडि ढहाणीणं ॥८३८॥
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६१४ ]
हा मूलपडिटिइबंधो [ औपशमिकसम्यक्त्वे शेषमार्गणासु च
ताउ असंखेज्जगुणा या संखगुणवड्ढिहाणीणं । तत्तो संखेज्जगुणा संखेज्जइभागवदिहाणीणं ॥ ८३९॥ ( गीतिः) तत्तो संखेज्जगुणा अस्थि असंखंसवडिहाणीणं तत्तो असंखियगुणा अवट्ठिअस्स य मुणेयव्वा || ८४० ॥
1
(प्रे०) "थोवाऽवत्तवस्स” इत्यादि, औपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां सप्तानामायुर्वर्जानामवक्तव्य स्थितिबन्धस्य 'बन्धकाः' - स्वामिनः सर्वस्तोका ज्ञेयाः, सुगमम् । “तत्तो संखेज्जगुणा" ति तेभ्योऽसंख्येयगुणवृद्धिहान्योर्वन्धकाः समुदिता अपि संख्येयगुणाः, एवमुत्तरत्रापि ततश्च "ताउ असंखेज्जगुणा णेया" त्ति अनन्तरोक्तबन्धकेभ्यः संख्येयगुणवृद्धिहान्योर्वन्धकाः समुदिता असंख्येयगुणा ज्ञेयाः । कुतः ? अनन्तरोक्तवद्धिहान्योः श्रेणिमुपगतानामेव प्रभवनात् ते स्तोकाः सन्ति प्रस्तुतवृद्धिहान्योस्तु चतुर्गतिकानामुपशमसम्यग्दृष्टीनामपि भवनादमी बहवो भवन्तीति । तेभ्योऽपि संख्येयभागवद्धिहान्योर्यन्धकाः संख्येयगुणाः । तेभ्योऽपि संख्येयगुणा भवन्त्यसंख्यांशवद्धिहान्योः समुदिता बन्धकाः, तेभ्यः पुनरवस्थितस्य बन्धका असंख्येयगुणा विज्ञेयाः । सुगमानि चैतच्छेषपदानि, विशेषतस्तु मनुष्यगत्यौघादिमार्गणावद्भाव्यानीति ॥ ८३८-८४०।। अथ लाघवार्थमुक्तशेषमार्गणासु सापवादमतिदिशतिसासु सत्तण्हं णेया ओघव्व बंधगा णवरं जहि णत्थि अवत्तव्वो तासु वड्ढीअ सव्वऽप्पा ॥८४१ ॥ णर-पज्जपणिदियतस-पणमणवय- पुरिस-थी- तिणाणेसु ओहि यण-सुकासु सम्मत्ते खइअ - सण्णी ॥८४२॥ संखेज्जगुणा या संखअसंखंसवडिटहाणीणं
हुन्ति पणिदितसेसु तहा असंखंसवड्ढिहाणीणं ॥ ८४३ ॥ (गोतिः) (प्रे०) “सेसासु” इत्यादि, उक्तशेषासु मनुष्यौघादिषट्त्रिंशन्मार्गणासु प्रत्येकमायुर्वर्जानां सप्तानामवक्तव्यासंख्येयगुणवृद्ध्यादिसत्पदेषु "ओघव्व" त्ति 'ओघवत्' - औधिकाल्पबहुत्वक्रमेण,
तः प्रथमे पदे स्तोकाः, ततो द्वितीये संख्येयगुणा इत्येवंरूपेण बन्धका अभिहिता तथाऽत्रापि “बंधगा” त्ति अल्पबहुत्वचिन्ताविषयीकृता बन्धकाः स्तोक-संख्येयगुणादिरूपेण प्राप्यन्त इत्यर्थः ।
तदेवं बहुसाम्यात् लाघवार्थं सामस्त्येन कृतेऽतिदेशेऽतिप्रसङ्गवारणार्थमपवादपदान्याह"णवर" मित्यादि, नवरमिमान्यपवादपदानि, तत्र प्रथमं तावत् 'जहि' इत्यादि, शेषमार्गणासु 'यत्र' - यासु स्त्रीवेदादिमार्गणासु " णत्थि अवत्तव्वो” त्ति सप्तान्यतमानामवक्तव्यलक्षणस्थिति
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शेषमार्गणास्थानेषु ] धृद्धपधिकारेऽल्पबहुत्वद्वारम्
[ ६१५ बन्धो 'नास्ति'-पन्नाभिहितस्तासु “वड्ढीअ" ति पाख्यानतो विशेषप्रतिपः प्रथमपदेऽसंख्येयगुणवृद्धेः "सव्वप्पा" ति बन्धकाः सर्वाल्पा वक्तव्याः ।
द्वितीयमपवादस्थानमाह- "णरपज्जे"त्यादि, मनुष्योध-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-पर्याप्तत्रसकाय-पञ्चमनोयोगभेद-पञ्चवचोयोगभेद-पुरुषवेद-स्त्रीवेद-मत्यादित्रिज्ञानेषु, अवधिदर्शन-चक्षुदर्शन-शुक्ललेश्यापु, सम्यक्त्वौधे, क्षायिकसम्यक्त्व-संज्ञिमार्गणयोश्वेत्येवं समुदितासु चतुर्विंशतिमार्गणासु प्रत्येकं "संखेजगुणा या" त्ति संख्येयगुणा ज्ञेयाः, बन्धका इति गम्यते । केषां पदानामित्याह "संख-असंखंसवढिहाणोणं” ति अंशवृद्धिहानिशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् संख्येयभागवद्विहान्योरसंख्येयभागवद्धिहान्योरित्येवं चतुर्णा पदानाम् । अयम्भाव:-एतेषु चतुर्विंशतिमार्गणास्थानेस्वपर्याप्तासंज्ञिनामप्रवेशेनाऽसंख्येयगुणत्वस्य, तथैकेन्द्रियाणामप्रवेशेनाऽनन्तगुणत्वस्य चाऽसम्भवादोघतो यत्रासंख्येयगुणा अननागुणा वा बन्धका प्राध्यन्ते तेषु पदेष्वपि प्रस्तुतमार्गणासु तु संख्येयगुणा एव बन्धकाः प्राप्यन्ते, अतस्तादृशपदान्यधिकृत्यापोदितमिति ।
अथ तृतीयमपवादपदमाह-"हुन्ति पणिदिये"त्यादि, तत्र तथाशब्दस्य समुच्चायकतया पञ्चेन्द्रियोघमार्गणायां त्रसकायौघमार्गणायां चापि संख्येयगुणा बन्धका वक्तव्याः, कस्य कस्य पदस्येत्याह-"असंखंसवडिढहाणीणं” ति असंख्येयांशवद्धिहान्योर्द्वयोः पदयोः, न पुनर्मनुष्यगत्योघादिचतुर्विंशतिमार्गणावत् संख्येयभागवद्धिहान्योरपि । कुतः ? अत्र मार्गणाद्वये एकेन्द्रियाणामप्रवेशेऽप्यपर्याप्तासंज्ञिजीवानां प्रविष्टत्वात् । ___ इत्थमपवादत्रय्यामुक्तायां शेषमार्गणासु प्रस्तुताल्पबहुत्वमित्थं प्राप्तम्मनुष्योधमार्गणायां सप्तानामवक्तव्यबन्धकाः सर्वस्तोकाः, तेभ्योऽसंख्यातगुणवृद्धर्बन्धकाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽसंख्येयगुणहानर्बन्धका संख्येयगुणाः, तेभ्यः संख्येयगुणवृद्धिहान्योरेकैकस्या बन्धका असंख्ये गुणाः, परस्परन्तु तुल्याः, तेभ्यः संख्येयभा वृद्धि हान्योरन्यतरस्या बन्धकाः संख्येयगुणाः, परस्परन्तु तुल्याः, तेभ्योऽसंख्येयभागवृद्धिहान्यन्यतरस्या बन्धकाः संख्येयगुणाः, परस्परन्तु तुल्याः, तेभ्योऽवस्थानलक्षणस्थितिवन्धस्याऽसंख्येयगणा बन्धका इति । मनुष्योघमार्गणावदेव पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-पर्याप्तत्रसकाय-पश्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-मत्यादित्रिज्ञानाऽवधिदर्शन-चक्षुर्दर्शन--शुक्ललेश्या--सम्यक्त्वोध-क्षायिकसम्यक्त्व-संज्ञिमागंणासु विज्ञेयम् ।
पञ्चेन्द्रियौघ-सौघमार्गणयोस्तु प्रत्येकं सप्तानामवक्तव्यबन्धकाः स्तोकाः, तेभ्योऽसंख्येयगुणवद्धिबन्धकाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽसंख्येयगुणहानिबन्धकाः संख्येयगुणाः, तेभ्यः संख्येयगुणवृद्धिहान्योन्धका असंख्येयगुणाः, तेभ्यः संख्येयभागवृद्धिहान्योन्धका असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽसंख्यभागवृद्धिहान्योन्धकाः संख्येयगुणाः, कुतः, १ मार्गणाद्वयगतसर्वजीवानां संख्येयभागवृद्धि
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६१६ )
बंबविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ शेषमार्गणास्थानेषु हान्योरिवाऽसंख्येयभागवृद्धिहानिबन्धार्हत्वात् । तेभ्यः पुनरवस्थानबन्धका असंख्येयगुणा इति ।
___ स्त्री-पुरुषवेदमार्गणयोस्तु सप्तानामसंख्यगुणवृद्धिबन्धकाः सर्वस्तोकाः, तेभ्योऽसंख्येयगुणहानिबन्धकाः संख्येयगुणाः, तेभ्यः संख्येयगुणवृद्धिहानिबन्धकाः संख्येयगुणाः,तेभ्यः संख्येयभागवृद्धिहान्योर्बन्धकाः संख्येयगुणाः,तेभ्यो संख्येयभागवृद्धि हान्योर्वन्धकाः संख्येयगुणाः,तेभ्योऽवस्थानबन्धका असंख्येयगुणा इति।
नपुंसकवेदमार्गणायां सप्तप्रकृतीनामसंख्येयगुणस्थितिबन्धवृद्धर्बन्धकाः सर्वस्तोकाः, तेभ्योऽसंख्येयगुणहानेर्बन्धकाः संख्येयगुणाः, तेभ्यः संख्येयगुणवृद्धिहान्योर्बन्धका असंख्येयगुणाः, तेभ्यः संख्येयभागवृद्धिहान्योर्बन्धका असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽसंख्यभागवृद्धिहान्योर्बन्धका अनन्तगुणाः, तेभ्योऽवस्थानबन्धका असंख्येयगुणा इति ।
क्रोधादिकषायमार्गणाचतुष्केऽपि नपुंसकवेदमार्गणावदेव विज्ञेयम् , केवलं लोभमार्गणायां मोहनीयकर्मणोऽवक्तव्यबन्धस्य सद्भावात् लोभमार्गणायां मोहनीयकर्मणः सर्वथैवौघवद् द्रष्टव्यम् ।
तद्यथा-सर्वस्तोका मोहनीयस्याऽवक्तव्यस्थितिबन्धकाः. तेभ्यस्तस्यैवासंख्यगणवद्धिवन्धकाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽसंख्यगुणहानिबन्धकाः संख्येयगुणाः; तेभ्यः संख्येयगुणवृद्धिहान्योरेकैकस्या बन्धका असंख्येयगुणाः, परस्परन्त्येते तुल्याः; तेभ्यः संख्येयभागवृद्धिहानिबन्धका असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽसंख्येयभागवृद्धिहानिबन्धका अनन्तगुणाः तेभ्यः पुनस्तस्यैव मोहनीयस्याऽवस्थानस्थितिबन्धका असंख्येयगुणाः । इदं चाल्पबहुत्वं सर्वथैवौधिकाल्पबहुत्वानुसारेण भावनीयम् । एवमेव शेषमार्गणास्वपि ज्ञानावरणादिसप्तमूलकर्मणां प्रस्तुतस्थितिबन्धवद्ध्याद्यल्पबहुत्वं सर्वथैवौघवद्विज्ञेयम् , शेषमार्गणासु प्रत्येकमोघवत् मप्तानामवक्तव्यस्थितिबन्धस्य भावात् , एकेन्द्रियपर्यन्तानामनन्तानां जीवानां तत्र प्रविष्टत्वाच्च । शेषमार्गणानामानि त्वेवम्-काययोगसामान्यौ-दारिककाययोगा-ऽचक्षुदर्शन-भव्या-ऽऽहारिमार्गणा इति ॥ ८४१-८४२-८४३॥
तदेवं प्रतिपादितं शेपमार्गणास्थानेष्वपि शेषाणामायवर्जसप्तमलप्रकृतीनां स्थितिबन्धवद्ध्यादेर्बन्धकानामल्पबहुत्वम् तस्मिँश्च प्रतिपादिते गतं त्रयोदशमल्पबहुत्वद्वारम् , तस्मिँश्च गतेऽवसितस्त्रयोदशद्वारात्मकः 'वदि' इत्यनेन प्रागुद्दिष्टो वृद्धयधिकारः॥
इत्थं वृद्धयधिकारं बितन्य मल्लब्धसुकृतजलराशेः।
क्षालितदुष्कर्मरजा भव्यौघो बजतु सिडिसुखम् ॥ ( पथ्यार्या) ॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पञ्चमे वृद्धयधिकारे त्रयोदशमल्पबहुत्वद्वारं समाप्तम् ।।
॥ इति श्रीबन्धविधानमूलप्रकृतिस्थितिबन्धे पञ्चमो वृद्धयधिकारः ॥
1-नाल
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* वृद्धयधिकारयन्त्रकाणि * आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धवृद्धयादिसत्पदप्रदर्शक यन्त्रकम् ओघवदसंरूपणभाग- असंख्य- सं-असंख्यभाग- संख्येयभाग- ओवबदसंख्य- असंख्यभाग-संख्यसंख्यगुणभागवृद्धय- ख्यभाग वृद्धि वृद्धिहानीति वृद्धिहानी इति संख्येयगुण- भाग-गुण-वृद्धि स्ताहाहानयश्चेति हानय इति २ पदे २ पदे भागवृद्धि हानय हानय इति
८ पदानि . ४ पदानि (अवस्थान- (अवस्थान- इति ८ पदानि ६ पदानि नि (अवस्थानाऽवक्त यपदे च) (अवस्थानंच) पदं च) | पदं च)
(अवस्थानं च) (अवस्थानपदंच) मनुष्योध० तत्पर्याप्त गति०
शेष मानुषी० इन्द्रिय पञ्चेन्द्रियौघ-तत्पर्याप्तौ, २ सर्वविकल०६ केन्द्रिय०७
शेष. १ पृथिव्यादिअसोध-तत्पर्याप्तौ, २ पचकायसर्व
शेष० १ भेद०३६ सर्वमनोवचोभेदा:, योग
शेष०६ काययोगौघ०ौदारिक० १२
प्रवेद०卐१ वेदत्रिक० ३
४४
काय
वेद
कषाय पाय
लोभ *
शेष०
३
ज्ञान०
अज्ञान०
३
मति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्य.४
संयमोघ०
सूक्ष्मसम्प०१
संयम०
सामायिक० छेद० २
शेष०३
दर्शन०
| चक्षु०प्रचक्ष०प्रवधि०३
लेश्या०
शुक्ल०
शेष०
भव्य०
भव्य०
प्रभव्य
शेष०
सम्यक्त्वौघ० सम्यक्त्व०
क्षायिक० औपशमिक०३ । संज्ञी,
|
संज्ञी०
असंज्ञी०
१
M
अनाहा० १
आहारी० पाहारी, सर्वमार्गणाः
|
४६
१+ १
८
गाथाङ्काः -७३४-७३५-७३६-७३३/ ७३८-७३३ ७३७-७३३ ७३८-७३६-७३ ३ ७३४-७३३.... ७४०-७३३
★ लोभमार्गरणायां मोहनीयस्यैवाऽवक्तव्यपदं सत्, न शेषज्ञानावरणादीनामिति । 卐 अपगतवेदमार्गरणायां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायकर्मणां संख्यातगुणवृद्धिहान्यवक्तव्यपदान्यपीति षट पदानि
सद्भूतानि, वेदनीय-नाम-गोत्रकर्मणां तानि तथाऽसंख्यगुणवृद्धिहानिपदे चेति अष्टौ पदानि सद्भूतानि, मोहनीयस्य तु केवलमवक्तव्यपदमेवोक्ताधिकतयेति चत्वारि पदानि सद्भूतानीति ।
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श्रो
घ
तः
मा
गं
गा
स्था
षु
आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनामसंख्य भागादिस्थितिबन्धवृद्ध्यादिस्वामित्वप्रदर्शकं यन्त्रकम्
कस्य पदस्य ?
असंख्य भागवृद्धिहान्यो:संख्येय भाग वृद्धिहान्यो :संख्येयगुणवृद्धिहान्यो:असंख्यगुणवृद्धेः-
श्रसंख्यगुणहाने:---
असंख्यगुणवद्धिहान्यो:
शेष त्रिविधान्यतमवृद्धिहा निसत्पदयोः
*
के स्वामिनः ?
गिगतजीवान् विहाय संसारस्था अन्यतमजीवाः । संसारस्था अन्यतमत्रसजीवाः, न तु स्थावराः । स्वस्थाने संज्ञिनः परस्थानेऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाद्याश्च ।
मार्गणासु–
श्रसंज्ञिमार्गणायाम् -
उपर्युक्तशेषसर्वमार्गणासु- -
• प्रपतदुपशमकाः, श्रेणी यथास्थानं मृत्वा देवतयोत्पन्ना भवप्रथमसमयदेवाश्च । श्ररिंग समारोहन्त उपशमकाः क्षपकाश्वानिवृत्तिबादरगुणस्थाने ।
यत्र पदद्धयं सत् तत्रौघवत्, केवलम् - मनुष्योघ- तत्पर्याप्त मानुषी सर्वमनभेदी -दारिकयोग-स्त्रीक्लीववेदा ऽपगतवेद-मनः पर्यवज्ञानसंयमौघसामायिक छेदोपस्थापनमार्गणासु भवप्रथमसमयस्था देवा न वक्तव्या: ।
अपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयमयोः प्रपतदुपशमकास्तत्तद्वृद्धिस्वामिनः, रिंग समारोहन्त उपशमका क्षपकाश्च यथास्थाने तत्तद्घानिस्वामिनः । • तिर्यग्गत्योघ - सौघ - काययोगीघ- नपुंसक वेद--कषायचतुष्क--मत्यज्ञानश्रुताज्ञाना-चक्षुर्दर्शना- प्रशस्तलेश्यात्रिक-भव्या-भव्य-- मिथ्यात्वासंज्ञयाऽऽहारकमार्गणासु ( मार्गणाप्रविष्टजीवा ) श्रोधवद्बन्धकाः । दोषनरकगत्योघादिमाग़ रणासु तत्र प्रविष्टान्यतमजीवाः, केवलमपर्यासत्र सकायादिमार्गणासु यथासम्भवं द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियादिवर्जा इति ।
•
आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीन मसंख्य भागादिस्थितिबन्धवृद्ध यादीनामेकजीवाश्रयकालप्रदर्शकं यन्त्रम्
कुत्र मार्गणादौ ?
श्रोत:
मनुष्योध-तत्पर्याप्त मानुषी सर्व मनोव चोभेदो-दारिककाययोग स्त्री-पुंसक वेद - मनः पर्यवज्ञान- संयमीघ-सामायिकछेदोपस्थापन संयमेषु
कार्मरणकाययोगा-ऽपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयमा-नाहारक
२०
४
१
*
कस्य सत्पदस्य ?
असंख्यगुणहाने:शेषवृद्धयादिसतानाम्असंख्य गुणवृद्ध
शेषवृद्धिहानिसत्पदानाम्- ओघवत्
जघन्य कालः
समय:
21
सर्ववृद्धिहानिसत्पदानाम्- समयः
संख्येयगुणवृद्धिहान्यो:शेषवृद्धिहानिसत्पदानाम्
सर्व वृद्धिहानिसत्पदानाम्
ओघवत्
31
उत्कृष्टकालः
समयः २ समयौ
समय:
श्रोघवत्
समय:
श्रोधवत्
"
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* आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धवृद्धयादेरेकजीवाश्रयान्तरप्रदर्शकं यन्त्रम् * कस्य सत्पदस्य ?
जघन्यान्तरम
उत्कृष्टान्तरम् असंख्यगुणहाने -
अन्तमुहूर्तम् देशोनापार्घपुद्गलपरावर्त० असंख्यगुग्गवृद्धः -
एकसमयः असंख्य भागवृद्धिहान्यो:
अन्तर्मुहर्तम् संरव्येयभागगुणवृद्धिहानीनाम् :
असंख्येयपूरलपरावत० मार्गणास्थानानि
पदानि
जघन्यान्तरम्
मनुष्यौव-तत्पयाप्त-मानुषी-सर्वमनोवचोभेदी-दारिककाययोग-स्त्री- असंख्यगुणवृद्धः
अन्तर्मुहूर्तम्, -नपूसंकवेद-मनःपर्यवज्ञान-संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापनीयेषु- शेषवृद्धिहानिसत्पदानाम्
ओघवत्, अपगतवेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणयो:
सर्वे ,
"
अन्तमुहूर्तम् , कार्मणा-ऽनाहारकमार्गणास्थानयो:
अन्तरं नास्ति, शेषसर्वमार्गणास्थानेषु
" " " , अोघवत्, उत्कृष्टान्तरम्
___मार्गणास्थानानि पूर्वकोटिपृथक्त्वम् मनुष्योध-पर्याप्तमनुष्य-मानुषीलक्षणमार्गणास्थानत्रये
३ एकजीवाश्रयदेशोनोत्कृष्ट- पञ्चेन्द्रियौघ-तत्पर्याप्त--त्रसौध-तत्पर्याप्त-पुरुषवेद-मति--श्र ता-ऽवधि-मनःपर्यवकायस्थितिः
ज्ञान-चक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन-संयमोघ-सम्यक्त्वोध-क्षायिक-संज्या-ऽऽहारकेषु १६
पचमनोयोगभेद-पञ्चवचोयोगभेद-काययोगौधौ-दारिककाययोग-स्त्री-नपुसकअन्तर्मुहूर्तम्
वेदा-ऽपगतवेद क्रोधादिकषायचतुष्क-सामायिक-छेदोपस्थापन-शुक्ललेश्यो-पश-- मिकसम्यक्त्वेषु. अचक्षुर्दर्शन-भव्यमार्गरणयो:
ओघवत्
असंख्ययेया: पुलपरावताः
प्रत्येकम् संख्यगुणभागवृद्धिहानिसत्पदानां प्रत्येकम्/ असंख्यगुणवृद्धिहान्योः
तिर्यगत्योघ-काययोगौघ-नए सकवेद-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-संयमा-ऽचक्षुर्दर्शनभव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वा-ऽगंशिमार्गणास
संख्येयगुणवृद्धिहान्योः पूर्वकोटिपृथक्त्वम्, संख्येय भागवृद्विहान्यो स्त्वन्तर्मुहूर्तम् । देशोनोत्कृष्टकायस्थितिः
तिर्यक्पञ्चन्द्रियौघ-तत्पर्याप्त तिरश्ची-पञ्चेन्द्रियौघ-तत्पर्याप्त--त्रसौघ-तत्पर्याप्तस्त्री-पुरुषवेद-चक्षुर्दर्शनमार्गणासु -- पाहारिमार्गरणायाम्
के अन्तर्मुहूर्तम् सर्वविकलेन्द्रिय भेद-सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणासूअन्तरमेव न भवति कार्मणा-ऽनाहारकमार्गणयो: अन्तर्मुहूर्तम्
शेषनरकगत्योघादिनवतिमार्गणास असंख्यभागवृद्धिहान्योः-अन्तर्मुहूर्तम् । अपगतवेद सूक्ष्मसम्परायसंयम-कार्मणा-ऽनाहारकवर्जसर्वमार्गणासु १६६
ॐ संख्येयभागवृद्धिहान्योरेवाऽन्तर्मुहूर्तम्, न तु संख्येयगुणवृद्धिहान्योः, तयोरेतासु दशमार्गणास्वसत्पदत्वादिति ।
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___ * आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धवृद्धयादेरेकानेकबन्धकनिष्पन्नभङ्गविचययन्त्रम् * कुत्र मार्गरणादौ ?
ध्र वा-ऽध्र वपदविभागः भङ्गकाः सर्वनरक-सर्वदेव सर्वपञ्चन्द्रियतिर्यग्भेदा-ऽपर्याप्तत्रस-वैक्रिय- यग्भदा-ऽपयाप्तत्रस-वक्रिय अवस्थानपदं १ ध्र वम्,असंख्यभाग संख्यभाग
वस्था योग-विभङ्गज्ञान-देशसंयम-तेजोलेश्या पद्मलेश्या क्षायोपश
७२६ मिकसम्यक्त्वेषु
संख्यगुणवृद्धिहानय इति ६ पदान्यध्र वारिण च तियंग्गत्योघौ-दारिकमिश्र-कार्मणयोग मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना. असंख्यभागवद्धिहानी अवस्थानपदं च ३ ध्रव० ऽसंयम-कृष्ण नील कापोतलेश्या ऽभव्य-मिथ्यात्वा -संश्यऽनाहारकेषु--
संख्येयभागगुणवृद्धिहानय इति ४ अध्र व० मनुष्यौघ-तत्पर्याप्त-मानुषी पञ्चेन्द्रियौघ तत्पर्याप्त प्रसौघ- असंख्येयभाग-संख्येयभाग संख्येयगुणा-ऽसंख्यगुणतत्पर्याप्त-पञ्चमनोयोग पञ्चवचोयोग मत्यादिचतुर्ज्ञान-संयमौघ- वृद्धिहानयोऽवक्तव्यमिति ६ पदान्यध्र वारिण, १६६८३ चक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन शुक्ललेश्या-सम्यक्त्वौध क्षायिक मंजिषु २८ अवस्थानपदं १ ध्र वम्। अपर्याप्तमनुष्य वैक्रियमिश्रा-ऽऽहारक-तन्मिश्रयोग- परिहार- असंख्येयभाग-संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धिहान्य
२१८६ दिशुद्धिकसंयम मिश्रदृष्टि सास्वादनमार्गणासु- ७ वस्थानलक्षणानि ७ पदान्यध्र वाणि, सवैकेन्द्रियभेद सर्वसाधारण वनभेद पर्याप्तबादरभेदवर्जगृथिव्य- असंख्यभागवृद्धिहानी अवस्थानपदं चेति प्तेजोवायुसर्व भेद-वाघ प्रत्येकवनौष-तदपर्याप्तभेदेषु - ४१ | ३ पदानि ध्र वारिण, विकलेन्द्रियसत्कसर्वमार्गणास्थानेषु -
अवस्थितपद १ ध्र वम, असंख्य भाग संख्यभाग
वृद्धिहानय इति ४ पदान्यध्र वारिण, पर्याप्तबादरेषु पृथिव्यप्से जोवायू भेदेषु पर्याप्तप्रत्येकवने च ५। असंख्यभागवृद्धिहानी - इति
स्थानपदं तु १ध्र वम्, प्रोघतः, काययोगीघो-दारिककाययोगा ऽचक्षुर्दशन भव्या- संख्येयभाग संख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणवृद्धिहानयोऽऽहारकमार्गणासु च
ऽवक्तव्यं च ७अध्र व० असंख्यभागवृद्धिहानी,
२१८७
अवस्थित पदं चेति ३ ध्रव० स्त्रीवेद-पुरुषवेद सामायिकसंयमेष -
अष्टविधवृद्धिहानयोऽध्र व० अवस्थितं ध्रुवम् ६५६१
संख्येयभाग-संख्येयगुणा-ऽसंख्येयगुणवृद्धिहानय नपुसकवेद-क्रोध-मान माया लोभ कषायेषु- | इति ६ अध्र व ० असंख्येयभाग वृद्धिहानी अव
स्थितपदं चेति ३ ध्रुव० ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायकर्मणाम् -- संख्येयभाग गुणवृद्धिहान्यवस्थाना-ऽवक्तव्यपदानि
७२८ अपगतवेद
६ अध्र वा मार्गणा- वेदनीय-नाम-गोत्रकर्मणाम्
संख्येयभागगुणाऽसंख्ये यगुणवृद्धिहान्यवस्थानायाम्
ऽवक्तव्यपदानीति ८ प्रध्रुव०। [अध्र व० ६५६० मोहनीयकर्मणः
संख्येयभागवृद्धि-हानी अवस्थाना-ऽवक्तव्ये च ४ ८० छेदोपस्थापनसंयममार्गणायाम् ----
अष्टविधवृद्धिहानयोऽवस्थित चेति ६ अध्रुव० १९६८२ सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायाम् --
संख्येयभागवृद्धिहानी अवस्थितं चेति ३अध्र व० २६ । औपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायाम् --
अष्टविधवृद्धिहानयोऽवस्थाना-ऽवक्तव्यपदे चेति १० पदान्यध्र वारिण
। ५६०४८ • यद्वा मार्गणाद्वये सयमुझं परिहारे' इत्यादि (गाथा-२८४) ग्रन्थोऽनुसर्तव्यः, एवमेव भूयस्कारेऽपीति । लोभकषाये मोहनीयकर्मणोऽवक्तव्यस्थितिबन्धस्य सद्भावात्तस्याऽध्रुवत्वाच्च भङ्गा प्रोघवत् २१८७ ज्ञेयाः ।
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* आयुर्वर्जसप्तप्रकृतीनां स्थितिबन्धवृद्ध यादिवन्धकानां भागप्रदर्शकं यन्त्रकम् *
कुत्र मार्गणादौ ?
शेष वृद्धिहानि
सत्पदानाम्
प्रोघतः, तिर्यगोध सर्वे केन्द्रियभेद-वनस्पतिकायौध-सर्वसाधारणवनस्पतिकायभेद कायायोगौघौ-दारिक तन्मिश्र - कार्मणकाययोग नपुंसकवेद कषायचतुष्क-मत्यज्ञान - श्रुताज्ञाना- ऽसंयमा ऽचक्षुर्दशना- प्रशस्तलेश्यात्रय - भव्याभव्य - मिथ्यात्वा संज्ञयाऽऽहारकेषु च --
पर्याप्त मनुष्य मानुषी - सर्वार्थ सिद्धदेवा SSहारकद्विक गनवेद मनः पर्यवज्ञानसंगम-मामायिक छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसम्परायसंयमेषु
शेषमार्गणासु
कुत्र मार्गणादौ ?
श्रोघतः, असंख्यलोक - तदधिकजीव राशिक मार्गणासु च
"
* आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धवृद्धयादिवन्धकानां परिमाण प्रदर्शक यन्त्रकम्
संख्येयभाग- | संख्येयगुण
कुत्र मार्गेणादौ ?
वृद्धिहान्योः
वृद्धिहान्यो:
असंख्येया:
असंख्येयाः
तोऽनन्तजीवराशिकमार्गेणासु च - असंख्येयजीवराशिका मार्गणासु
संख्येयजीवराशिका मार्गणासु
संख्येया:
* आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धवृद्धयादिवन्धकानां क्षेत्रप्रदर्शकं यन्त्रकम् *
कुत्र मार्गरणादी ?
| श्रीघतः असंख्यलोक-तदधिकजीवराशिक मार्गणास च पर्याप्तबादरवायुकाय मार्गणायाम
शेष रास्थानेषु
31
असंख्य भागवृद्धिहान्योः
संख्य' ततम एको भागः
| असं एकभाग० 1
31
असंख्यतम एको
भागः
11
"2
संख्येयाः
* आयुर्वर्जस समूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धवृद्ध्यादिवन्यकानां स्पर्शनाप्रदर्शकं यन्त्रकम् *
असंख्यभागवृद्ध्यादिमध्ये कस्य पदस्य ?
कियती स्पर्शना ?
प्रनुत्कृष्टस्थितिबन्धकवत् लोकाऽसंख्य भागमात्रा
अनन्ततम एको
भाग:
कुत्र माणादौ ?
असंख्येयभाग-संख्येयभाग संख्येयगुरण वृद्धिहानीनाम्- प्रोघतः, यत्र च सत् तत्र सर्वत्र
असंख्य गुण वृद्धिहान्योः -
* आयुर्वर्जसप्त मूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धवृद्ध्यादीनां नानाजीवाश्रयकालप्रदर्शकं यन्त्रकम्
23
संख्याततम
एको भाग:
ग्रसं०एकभाग० ।
असंख्यभाग वृद्धिहन्योः
अनन्ताः
असंख्येयाः
संख्येया:
असंख्येयभाग- शेषवृद्धिहानि
वृद्धिहान्योः
सत्पदानाम्ः
लोकाऽसख्यभाग
०
प्रसंख्यगुरण वृद्धिहानि पदे यत्र स ते तत्र तयोर्बन्धका
श्रीघवत् संख्येया एव
सर्वलोक: देशोनलोक:
लोकाऽसंख्य भागः लोकाऽसंख्य भाग:
असंख्य भागवृद्धिहान्यो :- प्रजघन्यानुत्कृष्टः सर्वाद्धा । शेषचतुविधवृद्धिहानीनाम् - जघन्यः समयः, उत्कृष्ट आवल्यसंख्य भागः ।
संख्येयजीव शिकामु मार्गणासु- षण्णामपि पदानां जघन्यः समयः, उत्कृष्ट: संख्येयाः 'समयाः, उपर्युक्तशेष सर्वमार्गणासु-- तपदानां जघन्यः समयः, उत्कृष्ट आवलिकाऽसंख्य भागः,
असंख्येयभाग-संख्येयभाग-संख्येयगुणवृद्धिहानिलक्षणेषु | असंख्यगुणवृद्धिहानि
षट्पदेषु
सत्पदयोः
यत्र सन् तत्र सर्वत्र
जघन्यः -- समयः
उत्कृष्ट :- संख्यसमयाः
37
11
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* आयुर्वर्जसप्तमलप्रकृतीनां स्थितिबन्धवृद्धयादीनां नानाजीवाश्रयान्तरप्रदर्शकर न्त्रम् *
। | असंख्यभागवृद्धिहानि | संख्येयगुरण भागवृद्धि असंख्यगुणवृद्धिकुत्र मार्गरणादौ ?
। हानिसलपदयोः अन्तरम- जघन्यम उत्कृष्टम जघन्यम उत्कृष्टम् जघनम उत्कृष्टम
सत्पदयोः
यतमसत्पदस्थ
प्रोतः असंख्यलोक-तदधिकजीवराशिकमार्गणास
| नास्ति
नास्ति
समयः
अन्तर्मुहूर्तम्
| समय:
अपर्याप्तमनुष्य-मिश्रदृष्टिसास्वादनेषु
समयः, पलपोपमासंख्यभागः, समयः, पल्योपमासंख्य भागः
वैकियमिश्रकाययोगे
द्वादश महूताः,
द्वादश मुहर्ताः,
वर्षपृथक्त्वम,
वर्षपृक्थवम् १८ कोटिकोटिसागरोपमाणि,
१८ कोटिकोटिमाग-1 रोपमाणि,
समय:
१८ कोटिकोटिसागगेपमाणि
प्राहारक-तन्मिश्रयोगयो:
छेदोपस्थापनसंयममार्गणायाम्परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायामप्रोपगमिकसम्यक्त्वमार्ग
सप्ताऽहोरात्र०
सप्ताऽहोरात्र
वर्षपृथक्त्व
णायाम्
सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायाम्
वृद्धः वर्षपृथक्त्वं, हाने:-षण्मासाः,
अपगतवेदमार्गणायाम --
समयः । वर्षपृथक्त्वम
मानुषी स्त्रीवेद मनःपर्यव ज्ञानमार्गणात्रये
समयः
अन्तर्मुहूर्तम् ,
अन्तमुहर्तम,
वर्षपृथक्त्व०
शेषमार्गणासु---
मकाययोगी यौ-दारिककाययोगा-ऽचक्षुर्दर्शन-भव्या-ऽऽहारकमार्गणासु वृद्धः-वर्षपृथक्त्वम् ; हानेः षण्मासाः । नपुसकवेदमार्गणायां वृद्ध हनिश्च वर्षपृथक्त्वम् । क्रोधादिकषायचतुष्के वृद्ध वर्षपृथक्त्वम् , हानेस्तु वर्षपृथक्त्वं षण्मासा वा ।
★पुरुषवेदमार्गणायां वृद्धेः-वर्षपृथक्त्वम् , हाने:-साधिकवर्षम् । अवधिज्ञाना-ऽवधिदर्शनमार्गणयोवृद्धेः-वर्षपृथक्त्वम् , हाने:-साधिकवर्षम् , केचित्तु हानेरपि वर्षपृथक्त्वम् । शेषासु मनुष्यौव-तत्पर्याप्त-पञ्चेन्द्रियौघ-तत्पर्याप्तत्रसौघ-तत्पर्याप्त सर्वमनोरोभेद-मतिज्ञान-श्रतज्ञान संयमौ चक्षदर्शन-शुक्कलेश्या सम्यक्त्वोच-क्षायिकसम्घान्त्र-संजिमार्गणासु वृद्ध:-वर्षपृथक्त्वम् , हाने:-षण्मासा इति ।
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आयुर्वर्जसप्तमूलप्रकृतीनां स्थितिबन्ध वृद्धि-हान्य-वस्थिताऽवक्तव्यबन्धकानामल्पबहुत्वदर्शकं यन्त्रकम्
असंख्यगुणद्वयादेः कस्य पदस्य ? यथोत्तरं कियद्गुणा बन्धकाः ?
कुत्र मार्गणादौ ?
श्रोतः काययोगाचा-दारिकयोगा-चक्षुर्दर्शन- भव्याऽऽहारिमार्गणासु च.
1
प्रिवक्त
५
असंख्येयगुणाया संख्येय गुरणाया: संख्येयभाग- असंख्येयभाग- अवस्थान बिंधकाः । वृद्धेः । हाने: वृद्धेः | हाने) वृद्धेः । हाने वृद्धेः | हाने बन्धकाः
सर्वनरकभेद - पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतियग् - तिरश्वी अपर्याप्तमनुष्य-सर्वार्थ सिद्धवर्ज सर्वदेवभेद वैक्रिय-तन्मि योग-विभङ्गज्ञान देशसंयम तेज:
४६
पद्मलेश्या क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमिश्रदृष्टि - सासादनेषुतिर्यग्गत्योघौ-दारिकमिश्र कार्मण
मत्यज्ञान - श्रुताज्ञाना-संयम - कृष्णनील- कापोतलेश्या ऽभव्य - मिथ्यात्वा- संजय - Sनाहारकेषु- १३ पञ्चेन्द्रियतियंगौघ तदपर्याप्तापर्याप्तत्रसाऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय ०४
मनुष्यौध पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-पर्याप्तत्रस - सर्वमनोव चोभेद-मति श्रुता
व्य
२२
सर्वार्थसिद्धदेवा - SSहारक- तन्मि
श्रयोग परिहारविशुद्धिकसंयमेषु- ४
एकेन्द्रियपृथिव्यादिपञ्चकायसर्वभेदेषु -
विकलेन्द्रियसर्वभेदेषु
पच न्द्रियौध सकायौघभेदयोः -२ स्तोकाः
पर्याप्तमनुष्य मानुषी - मनः पर्यवज्ञान-संयमोघमार्गणासु
४
૪૬
स्तो- संख्येय- संरूपे असंख्येयका: गुणा: यगुणा: गुणाः
&
०
o
संख्येय संख्येय- ग्रसंख्येय
| Sवधिज्ञाना- Sवधिदर्शन चक्षुर्दर्शन- स्तोकाः गुणाः | गुणाः गुणाः
शुक्कलेश्या सम्यक्त्वा क्षायिकसम्यक्त्व-संज्ञिमार्गणासु
37
ु
o
e
33
०
तुल्याः
=
स्तोका तुल्याः संख्येय
गुणाः
तुल्याः
स्तोकाः तुल्याः
असंख्यगुणाः
o
23
श्रसंख्येयगुणाः
संख्येयगुणाः
संख्येय
गुणाः
संख्येय- संख्ये असंख्येय- तुल्याः प्रसंख्ये
गुणाः यगुणाः गणाः
यगुणाः
सख्यय
संख्येय
गुणाः
गुणाः
o
तुल्याः अनंतगुणाः तुल्याः
तुल्याः संख्येय- तुल्याः गुणाः
17
31
तुल्याः
तुल्याः
०
स्तोका:
संख्येयस्तोकाः तुल्याः गुणाः
"1
प्रनंतगुणाः
22
- संख्येयगुणाः
संख्येयगुणाः
संख्येय
गुणाः
"1
"3
11
11
तुल्याः
2
13
तुल्याः
56
33
असंख्यगुणाः
こ
=
31
"
संख्येयगुणा:
प्रसंख्येय
गुणाः
=
11
=
"1
संख्येयगुणाः
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________________
संख्येय
संख्येय
संख्येय
गुणाः तुल्याः
|
॥
प्रवक्त मागा
| प्रसंख्येयगुणायाः संख्येयगुणायाः | संख्येयभाग- | असंख्येयभाग- अवस्थान
बंधका:| वृद्धः । हानेः वृद्धेः । हाने | वृद्धेः । हाने वृद्धः । हाने: बन्धकाः सामायिक छेदोपस्थापनीयसंय
संख्ये- संख्येयमयो:
स्तोका:
तुल्याः यगणा:
तुल्या : गुणाः गुणाः
गुणाः
असख्यनपुसकवेद-*कषायचतुष्कयो:-५
असंख्यअनन्त
असख्यगुणा: गूणाः गुणाः
गुणाः स्त्रीवेद-पुरुषवेदयोः- २
संख्येय- संख्येयगुणा:
गुणाः ★ सूक्ष्मसम्परायसंयमे- १
संख्यस्तोकाः
० गुणाः
० संख्यगुणाः औपशमिकसम्यक्त्वे- १स्तोकाः संख्यय गुणा: असंख्येयगुणा: | संख्येयगुणाः | संख्येयगुणाः असंख्येय
। गुणाः अपगतवेदमार्गणायाम्- १ स्तोकाः। ततः वृद्धिपदानां संख्येयगुणाः ततः-ह निपदानां संख्येयगुणाः, ततः संख्यगुणाः
॥ इति वृद्धयधिकारयन्त्रकाणि समाप्तानि ।।
ले.भमागरणायां मोहनीयस्यावक्तव्यस्थितिबन्धसद्भावादवक्तव्यस्थितिबन्धकाः सर्वस्तोका इत्यादि सर्वथा मोघवज्ज्ञेयमल्पबहुत्वमिति । * मोहनीया-ऽऽयुर्वर्जानां षण्णां प्रकृतीनाम् ।
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॥ अध्यावासायसामुदाहा॥ अधुना "अज्झवसाणसमुदाहारो" इत्यनेनोद्दिष्टस्याऽध्यवसायसमुदाहाराख्यस्य चरमाधिकारस्यावसरः । तत्र त्रीण्यनुयोगद्वाराणि, तानि चाधिकारप्रारम्भे नामत उद्दिशनाह
छ? खलु अज्सवसणसमुदाहारे हवन्ति अहिगारे । तिण्णि कमा दारा ठिइ-पयडी-जीव-समुदाहारा ॥८४४॥ (प्रे०) “छट्टे खलु” इत्यादि, मूलप्रकृतिस्थितिवन्धग्रन्थमनुरुध्यानुपूर्विक्रमेण 'पष्ठे'चरमेऽधिकार इत्यर्थः; मूलप्रकृतिस्थितिबन्धग्रन्थे षण्णामधिकाराणामेवोद्दिष्टत्वादिति भावः । अतश्वरमेऽध्यवसानसमुदाहाररूपेऽधिकारे “तिणि कमा दारा" ति क्रमात् त्रीणि द्वाराणि भवन्ति, तानि च "ठिइपयडीजीवसमुदाहारा" ति समुदाहारशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् स्थितिसमुदा'हार; प्रकृतिसमुदाहारः, जीवसमुदाहारश्चेत्येवंलक्षणानि । तत्र स्थितीरधिकृत्याध्यवसायानां स्थितिबन्धकारणीभूतानां कषायोदयजन्यात्मपरिणामविशेषाणां प्रगणनादिद्वारैः प्ररूपणं स्थितिसमुदाहारः, इत्थमेव प्रकृतिषु ज्ञानावरणादिलक्षणासु स्थितिबन्धाध्यवसायानां समुदाहरणं प्रकृतिसमुदाहारः, जीवसमुदाहारस्तु यत्र स्थितिबन्धस्थानेष्वेव जीवानां बन्धकतया समुदाहरणं भवति स विज्ञेयः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णिविशेषविवृतौ श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरिप्रकाण्डेन____ स्थितिबन्धस्थानेषु स्थितिबन्धाध्यवसायानां वक्ष्यमाणैत्रिभिः प्रगणनादिभिर्दारैः समुदाहरणमाख्यानं स्थितिसमुदाहारः । प्राति कृतिपु ज्ञानावरणादिषु स्थितिबन्धस्थानानामेव समुदाहारः प्रकृतिसमुदाहारः । जीवानां स्थितिबन्धस्थानेष्वेव बन्धकत्वेन समुदाहारो जीवसमुदाहारः' इति गाथार्थः ॥८४४॥
॥ प्रथमः स्थितिसमुदाहारः॥ अथ प्रथमे स्थितिसमुदाहारे त्रीण्यवान्तरद्वाराणि, तद्यथा-प्रगणना, अनुकृष्टिः, तीवमन्दता च । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी-'ठितिसमुदाहारो त्ति-तत्थ इमाणि तिण्णि अणुभोगदाराणि । तं जहापगणना, अनुकड्ढी, तिव्वमंदता' इति । तत्र प्रथमे प्रगणनाद्वारे आदौ तावत् मूलप्रकृतीनां तत्तस्थितीरधिकत्याध्यवसायान् प्रगणयन्नाह
पइठिइबंधमसंखा लोगा अट्ठण्ह अज्झवसणाणं । (प्रे०) “पइटिइबंध"मित्यादि, प्रगणनाप्ररूपणायाम् “अट्ठण्ह" ति ज्ञानावरणादीनामष्टानां मूलप्रकृतीनामेकैकस्याः "पइठिइपंध" ति जघन्यस्थितिबन्धादारभ्य समयद्विसमयादिवृद्धयोत्कृष्ट स्थितिवन्धपर्यन्ता ये स्थितिबन्धाः-स्थितिबन्धविशेषाः, स्थितिबन्धस्थानानीति भावः । तेषु प्रत्येकम्-प्रतिस्थितिवन्धम् । जघन्यस्थितिबन्धे, समयाधिकजघन्यस्थितिबन्धे, द्विसमयाधिक
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________________
६२६ ]
afaणे मूलप डिइिबंधो [ स्थितिबन्धस्थानेष्वव्यवसायप्रगणना जघन्यस्थितिबन्धे, एवं समयसमयवृद्धया यावदुत्कृष्टस्थितिबन्ध इति भावः । प्रतिस्थितिबन्धं किमित्याह - "असंखा लोगा" इत्यादि, नानाजीवानाश्रित्य तेषामेकैकस्य जघन्यादिस्थितिबन्धस्य कारणीभूताः कषायोदयजन्या आत्मनः परिणामविशेषाः 'अध्यवसनानि' - अध्यवसायास्तेषामध्यवसायानामसंख्येया लोकाः, लोकप्रमाणेष्वसंख्येयेषु क्षेत्रखण्डेषु यात्रन्तो नभः प्रदेशाः सन्ति तावत्प्रमाणा अध्यवसाया भवन्तीति भावः । इदमुक्तं भवति - अतीतग्रन्थेऽभिहितानां कार्यरूपाणां जघन्यादिस्थितिबन्धानामसाधारणकारणानि “ठि अनुभागं कसायओ कुणइ" इतिवचनात् कषायोदयजन्या आत्मपरिणामविशेषा अध्यवसाया एव, ते च कषायानुभाववैचित्र्याज्जीवानां विविधाः सन्ति, तेषामसंख्य भागगतेष्वसंख्येयलोकप्रदेशराशितुल्येषु जघन्यस्थितिबन्धप्रायोग्याध्यवसायेष्वन्यतमाध्यसाये वर्तमानो जीवो ज्ञानावरणस्य जघन्यामेव स्थितिं बध्नाति, अतस्तेऽसंख्ये यलोक प्रदेशराशितुल्याः सर्वेऽध्यवसायास्तज्जघन्यस्थितौ हेतुतया प्रतिष्ठिताः । तान् विहाय पुनरसंख्येयभागगतेषु पूर्वापेक्षया विलक्षणेषु वष्टिनियताध्यवसायेष्वन्यतमाध्यवसाये वर्तमानो जीवस्तु समयाधिकजघन्यां स्थितिमेव बनातीति तेऽसंख्येय लोक प्रदेशराशितुल्याः सर्वेऽध्यवसाया द्वितीयायां समयाधिकजघन्यस्थितौ हेतुतया प्रतिष्ठिताः, एवं तृतीयादिषूत्कृष्टस्थितिबन्धपर्यन्तासु सर्वासु स्थितिषु भवतीत्यत उक्तम्- "पइठिइबंधमसंखा लोगा" इत्यादि । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी
'णाणावरणियस्स जहणगाए ठितीए ठितिबंधज्झवसाणाणि असंखेज्जलो गागास पदेसमेत्ताणि | बितिया ठिति [ याव] असंखेज्जलो गागासपदे समेत्ताणि । ततियाए ठितिए असंखेज्जलो गागासपदेसमेत्ताणि । एवं जाव उक्कस्सिया ठितित्ति । एवं सत्तण्ह वि कम्माणं' इति ।
अमी प्रत्येक स्थितिबन्धस्थाने तत्कारणीभूताः कषायोदयरूपाः स्थितिबन्धाध्यवसाया असंख्येयलोका काशप्रदेशराशिप्रमिताः सन्तोऽपि न सर्वत्र स्थितिबन्धस्थानेषु तुल्या एव, किन्तु हीनाधिका इत्यतस्ते समयाधिकस्थितिबन्धलक्षणेऽनन्तरस्थितिबन्धस्थाने कियन्तः, पल्योपमासंख्यभागाधिकस्थितबन्धलक्षणे परम्परस्थितिबन्धस्थाने च कियन्त इत्येतत्प्ररूपणार्थमनन्तरोपनिधया परम्परोपनिधया चाह—
आउस्स असंखगुणा हसाओ जाव उक्कोसा ॥८४५॥ सत्तण्ह जहण्णाओ कमा विसेसाहियाणि आ चरमा । पलियासंखियभागं गंतु गतुं दुगुणवड्ढी ॥८४६॥
(प्रे०) “आउस्स असंखगुणा" इत्यादि, अनन्तरोपनिधया प्ररूपणायामायुः कर्मण: "असंस्वगुणा" त्ति प्रकृतत्वात् स्थितिबन्धाध्यवसाया अनन्तरस्थितिबन्धस्थानेऽसंख्यगुणाः सन्ति । कुत्रेत्याह - "हस्साओ जाव उक्कोसा" ति 'हस्वायाः' - जघन्यायाः स्थितेरारभ्य यावदुत्कृष्टा स्थितिस्तावदित्यर्थः । अयम्भावः - आयुषो जघन्यस्थितिबन्धादिरूपेषु स्थितिबन्धस्थानेषु प्रत्येकं
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अनन्तर - परम्परोपनिधयाऽध्यवसाय० ] चरमेऽधिकारे स्थितिसमुदाहारः
[ ६२७
तत्कारणीभूताः स्थितिबन्धाध्यवसाया येऽसंख्य लोकाकाशप्रदेशराशितुल्या अभिहिता तेऽपि जघन्यस्थितिबन्धात्मके स्थितिबन्धस्थाने 'स्तोकाः' - स्तोकासंख्य लोकाकाशप्रदेशराशितुल्याः सन्ति, अनन्तरे समयाधिकजघन्यस्थितिबन्धरूपे द्वितीयस्थितिबन्धस्थाने जघन्यस्थितिबन्धात्मकप्रथमस्थितिबन्ध स्थानापेक्षयाऽसंख्यगुणा स्थितिबन्धाध्यवसायाः सन्ति, तेभ्यस्तृतीये द्विसमयाधिकजघन्यस्थितिबन्धरूपेऽनन्तरस्थितिबन्धस्थाने तत्कारणीभूताः स्थितिबन्वाध्यवसाया असंख्यगुणाः सन्ति, एवं तावद् वाच्यं यावदुत्कृष्टस्थितिबन्धात्मकं चरमं स्थितिबन्धस्थानम् । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णौ
'आगस्स जहणिगाए ठितिए ठितिबंधज्झवसाणद्वाणाणि थोवाणि | बितियाए असंखेज्जगुणाणि । ततिआए असंखेज्जगुणाणि । एवं जाव उक्कस्सिता ठिति त्ति' ||८|| इति ।
"सत्तण्ह" त्ति आयुर्वजनां शेषाणां ज्ञानावरणादीनां सप्तानां प्रत्येकं "जहण्णाओ" ति पूर्ववजघन्यायाः स्थितेरारभ्य “कमा" त्ति क्रमाद् विशेषाधिकानि यावद् "आ चरमा" सि ज्ञानावरणादीनां प्रत्येकं 'चरमा' - सर्वोत्कृष्टा स्थितिः । स्थितिबन्धाध्यवसनानीति प्रक्रमागम्यते ।
इदमुक्तं भवति - आयु:कर्मणो जघन्यस्थितिबन्धात्मकात्प्रथमस्थितिबन्धस्थानादारभ्य यथोत्तरस्थितिबन्धस्थानेषु यथाऽसंख्यलोकाकाशप्रदेशराशितुल्या अध्यध्यवसाया असंख्यगुणा असंख्यगुणाः प्राप्यन्ते, न तथा शेषकर्मणामपि, किन्तु ज्ञानावरणादीनां शेषकर्मणां जघन्यस्थितेरारभ्य यथोत्तरस्थितिबन्धस्थानेषु तत्कारणीभूता अध्यवसाया विशेषाधिका विशेषाधिका एव प्राप्यन्ते । तद्यथा-ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थितिबन्धरूपे प्रथमे स्थितिबन्धस्थाने तत्कारणीभूताः स्थितिबन्धाध्यवसावाः 'स्तोकाः' - स्तोकासंख्यलोकाकाशप्रदेशराशितुल्याः, तदनन्तरवर्तिनि द्वितीये स्थितिबन्धस्थाने तत्कारणीभूता अध्यवसायाः पूर्वापेक्षया विशेषाधिकाः, ततस्तदनन्तरवर्तिनि तृतीये स्थितिबन्धस्थाने तन्धाध्यवसायाः पुनरपि विशेषाधिकाः, एवं विशेषाधिका विशेषाधिकास्तावद् वाच्या यावज्ज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिबन्धात्मकं चरमं स्थितिबन्धस्थानम् । एवमेव दर्शनावरणादीनामपि प्रत्येकं वक्तव्यम् । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णौ
'णाणावर णिज्जरस जहण्णियाए ठितिए ठितिबंधज्झवसाणाणि थोवाणि | बितियाए ठितिए ठितिबन्धज्झत्र साणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ततियाए ठितिए ठितिबन्धज्झवसाणाणि विसेसाहियाणि, एवं त्रिसहियाणि विसेसहियाणि जाव उक्कस्सगा द्वितित्ति । एवं आउवज्जाणं सत्तण्हं कम्माणं' इति ।
तदेवं कृताऽनन्तरोपनिधया प्ररूपणा । अथ परम्परोपनिधया तां कुर्वन्नाह - "पलियासंखियभाग" मित्यादि, 'सत्तण्ह जहण्णाओं' इत्यस्यानुवर्त्तनादायुर्वर्जानां सप्तानां जघन्यायाः स्थितेरारभ्य यावत्'चरमा'-उत्कृष्टा स्थितिस्तावत् "पलियाऽसंखियभागं" ति 'पल्यस्य' - पल्योपमस्याऽसंख्यभागम्'-तदीयासंख्यप्रथमवर्गमूलमानम्, पल्योपमासंख्येय प्रथमवर्गमूलगतसमयप्रमाणनिरन्तरस्थितिबन्धस्थानसमूहमिति भावः । एतावद् "गंतु' गंतु” ति 'गत्वा गत्वा' - अतिक्रम्याऽतिक्रम्याऽनन्तरे स्थितिबन्धस्थाने "दुगुणवड्ढी" त्ति स्थितिबन्धकारणीभूताध्यवसायानां द्विगुणवृद्धयो
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६२८ ]
विहाणे मूलपडिटिइबंधो [ द्विगुणवृद्धिस्थानै-कान्तराल्पबहु०
भवन्ति । अयम्भावः - ज्ञानावरणस्य जघन्यस्थितिबन्धस्थाने यावन्ति स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि सन्ति तेभ्यः पल्योपमासंख्येयभागमात्राणि स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्य परस्मिन्ननन्तरे स्थितिबन्धस्थाने द्विगुणान्यध्यवसायस्थानानि सन्ति, तत आरभ्य पुनरपि पल्योपमासंख्येयभागमात्राः स्थितीरतिक्रम्यानन्तरे स्थितिबन्धस्थाने पुनरपि द्विगुणान्यध्यवसायस्थानानि सन्ति, एवं द्विगुणवृद्धिस्ताद्वक्तव्या यावदुत्कृष्टा स्थितिः । एवमायुर्वर्जशेषकर्मविषयेऽपि द्रष्टव्यम् । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी
'परंपरावणिहार णाणावरणिजस्स जहण्णियाए ठितिबंधज्झवसाणट्ठाणेहिंतो पलिओवमस्स असंखेज्जइभातृणं गुणवड्ढी । एवं दुगुणवड्ढित्ता दुगुणवड्ढित्ता जात्र उक्कस्सिता ठितित्ति' इति ॥ ८४६ || ननु यथोक्तस्थितिबन्धाध्यवसायद्विगुणवृद्धिस्थानानि ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितिं यावत् कियन्ति, किं तानि द्विगुणवृद्धयोरन्तरालवर्तिस्थितिबन्धस्थानेभ्यो ऽधिकान्यूनानि वेत्यत्राह - अंगुलमूलच्छेयणअसंखभागो उ दुगुणठाणाणि ।
ताणि यथोवाणि तओ होज्जेगंतरमसंखगुणं ॥८४७॥
(प्रे०) "अंगुलमूलच्छेयण” इत्यादि, अङ्गुलवर्गमूलछेदनकासंख्येय भागप्रमाणानि, तुकारोऽवधारणे, तत एतावन्त्येव " दुगुणठाणाणि " त्ति ज्ञानावरणादेरेकैकस्य जघन्य स्थितेरारभ्योत्कृष्टां स्थितिं यावल्लभ्यमानानि स्थितिबन्धाध्यवसायानाम् 'द्विगुणस्थानानि' - द्विगुणवृद्धिस्थानानि यथोक्तस्वरूपाणि सन्ति । एतदुक्तं भवति एकाङ्गुलप्रमाणे क्षेत्रे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावतां यत्प्रथमं वर्गमूलं तदर्धार्थकरणप्रकारेण छेदनकविधिना तावच्छिद्यते यावद् भागं न सहते, तथा च कृते यावन्ति छेदनकानि प्राप्यन्ते तावतां तेषामसंख्येयानां छेदनकानामसंख्यतमभागप्रमाणानि ज्ञानावरणादेः प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिं यावद्गमने स्थितिबन्धाध्यवसायानां द्विगुणवृद्धिस्थानानि भवन्ति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी
1
'णाणागुणट्ठितिबंध ज्झवसाणद्वाणंतराणि अंगुलवग्गमूलच्छेयणगाणं असंखेज्जतिमो भागो । 'अंगुल - मूलच्छेयणग' त्ति अंगुलवग्गमूलं छण्णउतिच्छेदणगविद्दीए ताव छिज्जति जाव भागं ण देति' इति । अनाऽसत्कल्पनया - अङ्गुलप्रमाणक्षेत्रे पट्त्रिंशदभ्यधिकपञ्चशतयुतपञ्चषष्टिसहस्राणि (६५५३६) नभः प्रदेशानि कल्प्यन्ते तेषां प्रथमे वर्गमूले षट्पञ्चाशदभ्यधिकशतद्वयं ( २५६ ) नमः प्रदेशाः प्राप्यन्ते तेषां षट्पञ्चाशदस्यधिकशतद्वयसंख्याकानामर्घाऽर्धकरणप्रक्रिययाछेदनकम् - प्रथमम् द्वितीयम् तृतीयम् चतुर्थम् पञ्चमम् + ↓
[
+
J
२५६÷२=१२८÷२=६४ : २=३२ ÷ २= १६ ÷ २= ८ ÷२=४÷२=२ - २=१
अष्टौ छेदनकानि लभ्यन्ते, असंख्येयानामप्यसत्कल्पनयाऽष्टसंख्याकानां तेषामसंख्येयभागगता
षष्ठम् सप्तमम् - +
अष्टमम् +
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अल्पबहुत्वे भाक्षेपपरिहार०] चरमेऽधिकारे स्थितिसमुदाहारः
[ ६२९ न्यसंख्येयान्यपि छेदनकान्यसत्कल्पनयाव एव, एतावन्ति द्विगुणवृद्धिस्थानानि भवन्ति । "ताणि पथोवाणी" त्ति तानि स्थितिबन्धाध्यवसायानां द्विगुणवृद्धिस्थानान्यनन्तरवक्ष्यमाणद्विगुणवृद्धयोरेकान्तरालवर्तिस्थितिबन्धस्थानापेक्षया स्तोकानि, यत इमानि पल्योपमप्रथमवर्गमूलासंख्यभागप्रमितानि सन्ति, वक्ष्यमाणानि त्वसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणानि । चकारः पादपूत्रौं । "तो" ति तेभ्योऽनन्तरोक्तद्विगुणवृद्धिस्थानेभ्यः “होज्जेगंतरमसंखगुणं" ति द्विगुणवृद्धयोरेकमन्तरमसंख्यगुणं भवेत् , एकान्तरालवर्तिस्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि सन्तीति भावः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी
_ 'णाणागुणहाणिट्ठाणंतराणिथोवाणि, एग द्वितिबंधज्झवसाणगुणहाणिट्ठाणंतरं असखेजगुणं, सत्तण्ह कम्माणं' इति ।
नन् “अंगुलसेढीमित्ते उस्सप्पिणीओ असंखिज्जा" इति वचनप्रामाण्यादङगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशेभ्यः प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारेऽसंख्योत्सर्पिण्यवसर्पिणीनामिव तद्वर्गमूलसंख्यातोऽपि तेनैव नीत्या प्रदेशानामपहरणे पूर्वापेक्षया स्तोका अपि ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य असंख्येया एवापगच्छेयुः, यथा च ताः स्तोका अपि असंख्येयास्तथैव तासां छेदनकानि तदपेक्षया स्तोकतराणि सन्त्यपि स्तोकतरासंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीनां समयप्रमाणानि सम्भवन्ति, किश्च तदसंख्येयभागस्तद्राश्यपेक्षया बह्वसंख्येयसागरोपमप्रमाण एव ग्राह्यः स्याद् , अन्यथा तेषामतिलघुतरभागस्यैव ग्राह्यत्वे मूले आवलिकाया असंख्येयभागः पल्योपमस्याऽसंख्येयभागो वा उक्तः स्यात् , न च तथा उक्तः, मूलोक्तेन 'अगुलमूलच्छेयणअसंखभागो' इत्यनेन बह्वसंख्येयसागरोपमप्रमाणानामध्यवसायद्विगुणवृद्धि स्थानानां ग्राह्यत्वे तु सर्व दुविरुद्धमेव स्यात् , ज्ञानावरणादेरुत्कृष्टस्थितेरपि त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटयादिप्रमाणत्वेन तस्याः प्रतिपल्योपमासंख्येयभागमतिक्रम्यातिक्रम्योत्पद्यमानानामध्यवसायद्विगुणवृद्धिस्थानानां पल्योपमासंख्येयभागगतसमयप्रमाणादधिकानामनुत्पत्तेः । न च सूक्ष्मतरपल्योपमासंख्येयभागप्रमाणस्थितिबन्धस्थानान्यन्तरीकृत्य तेषामध्यवसायस्थानद्विगुणवृद्धिस्थानानामुत्पादने तानि पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणादत्यन्ताधिकानि बहुपल्योपमप्रमाणानि भवितुमर्हन्तीति वाच्यम्, यतो तथाकल्पनेऽप्युपर्युक्तदोषस्य दुर्वारत्वमेव; अन्यच्चाध्यवसायानां द्विगुणवृद्धि स्थानापेक्षयैकान्तरस्यासंख्येयगुणत्वं यन्मूले उक्तं तेनापि महान्विरोधः, अनन्तरोपनिधायां यथोत्तरस्थितिबन्धस्थानेषु या स्थितिबन्धाध्यवसायानामसंख्ययभागप्रमाणसंख्यावद्धिरभिमता तेनापि विरोधश्च ? इति चेत्, न, यतोऽङगलमात्रक्षेत्रगताकाशप्रदेशापहारप्रक्रिययाऽसंख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीनामिवाङ्गलप्रथमवर्गमूलतया प्राप्तसंख्याराशितोऽपि प्रतिसमयमेकैकाकाशप्रदेशापहरणप्रक्रिययाऽसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीनां लाभेऽपि तस्य छेदनकानि त्वतीवस्तोकानि-अद्धापल्योपमासंख्येयभागमात्राण्येव सम्पद्यन्ते, न पुनः स्तोकमात्रोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयप्रमाणानि, सागरोपमसमयप्रमाणानि पल्योपमसमयप्रमाणानि वा । कुतः १ इति चेत्, उच्यते, किञ्चिदधिकारज्जुप्रमाण
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बन्धविहाणे मूलप डिठिइबंधो [ द्विगुणवृद्धिस्थान-कान्तराल्पबहु० सूचिश्रेणिच्छेदनकानामपि साधिक सार्धद्वयोद्धारसागरोपमप्रमाणत्वेनाऽद्धापल्योपमासंख्येयभागमात्रत्वात् अङ्गुलमात्रक्षेत्रगताकाशप्रदेशानां तु तादृशसूचि श्रेणेर संख्येय भागगतत्वाच्च ।
,
"
ननु किञ्चिदधिकार्धरज्ज्वायतायाः सूचिश्रेणेः छेदनकानि साधिकसार्धोद्धारसागरोपमद्वयसमयप्रमाणान्येव भवन्ति, न पुनर्बहूनामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीनां समयप्रमाणानीत्यत्र का युक्तिः ? इति चेत् भवत्यत्र युक्तिः, सा त्वेवंरूपा - जम्बूद्वीप मे रोर्मध्यभागादारभ्य दक्षिणायां दिश्यायता सर्वद्वीपसमुद्रदक्षिणदिग्द्वारस्पर्शिनी दक्षिणायां दिशि तिर्यग्लोकान्तपर्यन्ता याऽर्धरज्जुमाना एकप्रादेशिकी सूचिश्रेणिः साऽपि उत्तरस्यां दिशि लवणसमुद्रस्य मध्यं यावत् सार्धलक्षयोजनेनाऽभ्यधिका दीर्घा गृह्यते, अतः सा किञ्चिदधिकार्धरज्जुप्रमाणैव, तस्यास्तु छेदनकानि लक्षयोजनावशेषं यावत् सार्धद्वयोद्धारसागरोपमस्य समयप्रमाणानि प्राप्यन्ते, तद्यथा - निरुक्तोत्तरलवणमध्यभागात्प्रारब्धा सूचिश्रेणिः ततः प्रभृति दक्षिणस्यां दिशि जम्बूलवणादिना क्रमेण यावत्तमस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा दक्षिण द्वारपर्यन्ता गृहीत्वा तस्या लक्षयोजनावशेषं यावत् छेदनकानि क्रियन्ते तावद्वीपसमुद्र संख्या प्रमाणान्येव तानि प्राप्यन्ते ।
६३० ]
पश्यतामत्रोदाहरणानि - उत्तरलवणमध्यभागादारभ्य तस्यैव लवणसमुद्रस्य दक्षिणद्वारान्ता सूचिश्रेणिगृह्यते तदा सा जाता चतुर्लक्षयोजनायता, तस्याश्चैकलक्षयोजनावशेषं यावद् द्वे छेदन के, (लक्ष. चे० प्रथम लक्ष. चे द्विती. ल.शेष.) द्वीपसमुद्रावपि द्वावेव गृहीतावास्ताम्, छेदनके अपि द्वे इति तौल्यम् । अथ सा जम्बूलवणादिना क्रमेण पञ्चमस्य पुष्करवरद्वीपस्य दक्षिणद्वारपर्यन्ता गृह्यते तदा जाता द्वात्रिंशल्लक्षयोजनदीर्घा, तस्याश्च लक्षयोजनावशेषं यावत् पञ्चैव छेदकानि लक्ष. छेद. लक्ष. छे. लक्ष. छे. लक्ष. छे. लक्ष. छे. लक्ष. शेषः ), इत्येवं द्वीपसमुद्राणां पञ्चत्वे छेद
=
÷२ =१६÷२=८ : २=४ : २ =२÷ २=
१
कान्यपि पञ्चैव प्राप्तानि । इत्थमेव यद्यष्टमस्य वारुणिवरसमुद्रस्य दक्षिणद्वारपर्यन्ता सा यथोक्तक्षेत्र प्रारब्धा श्रेणिगृह्यते तदा सा पट्पञ्चादभ्यधिकद्विशतलक्षयोजनमाना भवति, तस्याश्च छेदकान्यपि लक्षयोजनावशेषं यावदष्टावेव प्राप्यन्ते । स्थापना तु प्रागिव स्वयमेव कार्या 1
इत्येवं तथाविधनियमवशात् तिर्यग्लोकस्य दक्षिणदिग्वर्त्तिप्रान्तभागपर्यन्ता सा गृह्यते तदा छेदनकान्यपि लक्षयोजनावशेषं यावद् द्वीपसमुद्राणां संख्यानुसारेण प्राप्यन्ते, द्वीपसमुद्रास्तु सार्धद्वयोद्धारसागरोपमसमयपरिमिताः । उक्तं च भाष्यसुधाम्भोनिधिभिः
“उद्धारसागर।णं अड्ढाइज्जाण जत्तिया समया । दुगुणाद्गुणपत्रित्थरदिवोदही । हुति एवइया" इति ।
इत्येवं साधिकार्धरज्जुप्रमाणायाः सूचिश्रेणेरपि लक्षयोजनावशेषं यावच्छेदनकान्यपि तावन्ति सार्धद्वयोद्धारसागरोपमस्य समयप्रमाणानीतिकृत्वा भवता सम्भावितप्रमाणापेक्षयाऽतीवस्तोकान्यद्धापल्योपमासंख्येयभागमात्राण्येव समधिगतानि । कुतः ? उद्धार सागरोपमापेक्षयाऽद्धापल्योपमस्याSसंख्येयगुणत्वात् ।
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पल्योपमसागरोपमस्वरूप-प्रयोजने ] चरमेऽधिकारे स्थितिसमुदाहारः
[ ६३१ इदमुक्तं भवति-संख्यातीतानां कालादीनां गणनायामागमोक्तानि पारिभापिकाणि पल्योपमसागरोपमादीनि परिमाणान्याश्रीयन्ते, तत्र-उद्धारा-ऽद्धा-क्षेत्रपल्योपमभेदात् त्रिविधं पल्योपमम् , सूक्ष्म-बादरभेदादेकैकं पुनर्द्धिधा । एवं सागरोपममपि । तत्रा-ऽऽयामविस्ताराभ्यामवगाहेन चोत्सेधागुलनिष्पन्नैकयोजनमानो वृत्ततया परिधिना किश्चिन्यूनषड्भागैरभ्यधिकत्रियोजनमानः पल्यविशेषो मुण्डिते शिरसि एकेनासा द्वाभ्यामहोभ्यां यावदुत्कृष्टतः सप्तभिरहोभिः प्ररूढानि यानि युग्मिवालाग्राणि तैः प्रचविशेषानिबिडतरमाकण्ठं तथा भ्रियते यथा तानि वालाग्राणि वह्निना न दह्यन्ते, न वा वायुनाऽपनेतु शक्यन्ते, न च तावन्मात्रम् , किन्तु जलमपि तानि न कोथयति, इत्येवं निबिडतरभृतात् तस्मात्पल्यात् प्रतिसमयमेकैकवालाग्रापहारे यावता कालेन स पल्यः सर्वात्मना निलेपो जायते तावान् संख्येयसमयप्रमाणकालो बादरोद्धारपल्योपमं प्रोच्यते, बादरोद्धारपल्योपमानां दशकोटिकोटिभिर्वादरोद्धारसागरोपमो जायते । सूक्ष्मोद्धारपल्योपमस्त्वेवंरुपोऽभिहित:-यथोक्ते पल्ये यानि वालाग्राणि भूतान्यासन् तानि प्रत्येकमत्रासंख्येयखण्डानि कृत्वा पूर्ववदेव सुबहुनिविडं पल्ये भ्रियन्ते, एतानि च वालाग्राण्यतीवसूक्ष्माणि, द्रव्यतस्तु निर्मलनेत्रैः छअस्थैः सुबहुप्रयत्नेन यद् द्रव्यविशेषं चाक्षुसप्रत्यक्षविषयीक पार्यते तद्रव्यादप्यसंख्येयभागमात्राणि प्रत्येकं सन्ति, क्षेत्रतस्तु तानि प्रत्येकं सूक्ष्मपनकशरीरस्यावगाहक्षेत्रादसंख्येयगुणं क्षेत्रमवगाहन्ते, एतेषां च पल्यभूतानां वालाग्राणामसंख्येयतया प्रतिसमयमेकैकस्योद्धार संख्यया वर्षकोटिकोटयोऽपगच्छन्तीति कृत्वा संख्येयवर्षकोटिकोटिप्रमाणं मूक्ष्मोद्धारपल्योपमं समवसेयम् । तेषां दशकोटिकोटयः सूक्ष्मोद्धारसागरोपमम् । आभ्यां सूक्ष्मोद्धारपल्योपमसागरोपमाभ्यां द्वीपाः समुद्राश्च मीयन्ते, यथा सर्वेऽपि द्वीपसमुद्राः सार्धद्वयोद्धारसागरोपमसमयप्रमिताः ।
उक्तं चानुयोगद्वारेषु
'एएहिं सुहुमउद्धारपलिओवमसागरोवमेहिं किं पओयणं ? एएहिं दीवसमुदाणं उद्धारे धिप्पइ । केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा उद्धारेणं पन्नत्ता ? गोयमा ! जावइया णं अड्ढाइजाणं उद्धारसागरोवमाणं उद्धारसमया एवइया णं दीवसमुद्दा उद्वारेणं पन्नत्ता ।।' इति ।
ननु बादरोद्धारपल्योपम-सागरोपमयोस्तर्हि किं प्रयोजनम् ? न किञ्चिद् । एवं बादराद्धापल्योपम-सागरोपमयो दरक्षेत्रपल्योपम-सागरोपमयोरपि न किञ्चिद्विशेषप्रयोजनं विद्यते, केवलं सूक्ष्मोद्धारपल्योपमादीनां सुखावसेयार्थमादो वादरोद्धारपल्योपमादीनामपि प्ररूपणं क्रियते । पूर्व येषां वालाग्राणां प्रतिसमयमुद्धारेण बादरोद्धारपल्योपमं दर्शितं तेषामेव वालाग्राणामेकैकस्य वर्षशतान्तरेणोद्धरणे यावता कालेन पयनिर्लेपनं भवति तावान् संख्येयवर्षकोटिमानः कालो बादराद्धापल्योपमम् । तेषां दशकोटिकाटयो बादराद्धासागरोपमम् । सूक्ष्मे त्वेवम् पूर्वोक्तस्वरूपादसंख्येयखण्डानि कृत्वाऽऽकण्ठं निबिडं भृतात् पल्यादेकैकस्य वालाग्रस्य वर्षशतेऽतिक्रान्ते निष्काशने यावान् निर्लेपनकालस्तावानसंख्येयवर्षकोटिमानः सूक्ष्ममद्धापल्योपमम् , तेषां दशकोटिकोटयः सूक्ष्म
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६३२ ]
बंधविहाणे मूलपयडिटिइबंधो [ द्विगुणवृद्धिस्थान-कान्तराल्पबहु०
मद्धासागरोपमम् । एतेषां सूक्ष्माद्धासागरोपमाणां दशकोटिकोटय एका उत्सर्पिणी, तावत्प्रमाणवैकाऽवसर्पिणी, एकोत्सर्पिण्यवसर्पिणीमानं कालचक्रम् । तेषामनन्तैः पुद्गलपरावर्तः । सूक्ष्माद्धापल्योपम-सागरोपमयोः प्रयोजनं तु देव-मनुष्यादीनामायुः कर्मादिस्थितिपरिमाणम् ।
यद्यप्येतावता सूक्ष्मोद्धारा-ऽद्धापल्योपमसागरोपमाणां प्ररूपणेनैव स्वसमिहितं सिद्धं भवति, अधिकृतार्थस्य तेनैव गम्यत्वात् तथाऽपि प्रसङ्गवशाद् द्विविधक्षेत्रपल्योपम - सागरोपममानं संक्षेपतो दर्श्यते-पूर्वोक्तस्वरूपात् पल्याद् वालाग्रस्पष्ट नभः प्रदेशानामेकैकस्य प्रतिसमयमपहरणे यावान् निर्लेपनकालोऽसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीमानस्तावद्धादरक्षेत्रपल्योपमम्, तदशकोटिको यो बादरसागरोपमम् । तथैवासंख्येयखण्डानि कृत्वा भृते यथोक्तपल्ये वालाग्रैः स्पृष्टानामस्पृष्टानां च नभः प्रदेशानां प्रतिसमयमेकैकस्यापहरणे यावान् निर्लेपनकालो बादरपल्योपमादसंख्येयगुणकालमा नस्तात्सूक्ष्मं क्षेत्रपल्योपमम् । तदशकोटिकोटयः सूक्ष्मं क्षेत्रसागरोपममिति ।
,
एवं संख्येयवर्षकोटीकोटीप्रमितसूक्ष्मोद्धारसागरोपमापेक्षयाऽसंख्येयवर्ष कोटीमानस्य सूक्ष्माद्धापल्योपमस्याऽसंख्येयगुणाधिकतया सार्द्धद्वयोद्धारसागरोपम तुल्यान्यपि यथोक्तनीत्या लब्धछेदनकान्यद्धापल्योपमस्य संख्येयतमभागमात्रगतान्येव ।
शेषाया लक्षयोजनमानायाः सूचिश्रेणेर्निर्विभाज्यं प्रदेशं यावच्छेदनकानि तु लब्धछेदनकापेक्षा तीवस्तोकान्येव स्युः, तेषां च पूर्वलब्धछेदनकेषु प्रक्षेपणे साधिकार्धरज्जुप्रमाणसूचिश्रेणिनिष्पन्नानि सर्वछेदनकान्यपि साधिकसार्थोद्धार सागरोपमद्वयस्य समयप्रमाणानीति कृत्वाऽद्धापल्योपमस्यासंख्येय भागमात्राण्येव किं पुनरङ्गुलमात्रक्षेत्रनभःप्रदेशप्रथमवर्गमूलस्य छेदनकानि तानि तेषामप्यसंख्येयभागगतान्येव स्युरिति भावः । कुतः ? अर्धरजुदीर्घसूचिश्रेणेनंभःप्रदेशराश्यपेक्षया घनाङ्गुलक्षेत्रगतनभः प्रदेशरा शेरप्यसंख्येयभागमात्रगतत्वात् ।
ननु यदुक्तं शेषाया लक्षयोजनमिताया: सूचिश्रेणेर्निर्विभाज्यप्रदेशं यावन्निष्पद्यमानानि छेदनकानि तु पूर्वलब्धछेदनकापेक्षयाऽसंख्येयभागमात्राणि स्युरित्येतत्कथमुपपद्येत, यतो पूर्वलब्धछेदनकानि तु सार्धद्वयोद्धारसागरोपम समय प्रमाणानां द्वीपसमुद्राणामेकैकस्य हान्या प्राप्तानि, इतस्तु निर्विभाज्यप्रदेशं यावच्छेदनकान्युत्पादयितव्यानि, तत्र तु ये आकाशप्रदेशास्ते द्वीपसमुद्र संख्यापेक्षयाऽतिबहवः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रेऽसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणी समयप्रमाणानामाकाशप्रदेशानामभिहितत्वात् तेषां च द्वीपसमुद्र संख्यापेक्षया बह्वसंख्येयगुणत्वेन छेदनकानामपि तदनुसारेण पूर्वापेक्षया बह्वसंख्येयगुणानाम्नुत्पत्तेः सम्भवः । इत्येवमर्धरज्जुप्रमाणसूचि श्रेणेर्निर्विभाज्यप्रदेशं यावत् निष्पद्यमान छेदनकानां पल्योमासंख्येयभागमात्राणां स्तोकानामसिद्धेस्तद्द्वारेणाङ्गुलक्षेत्रस्य तेषां स्तोकत्वप्रसाधनम्, तेन च सर्वमुपपादनं मूलाभावे शाखादीनामुपपादनमिवाविमृश्यकार्येव १ इति चेत्, न, यतोऽत्र विद्यते उपपत्तिः, तया च स्फुटं गम्यते यल्लक्षयोजनमानायाः शेषश्रेणेर्निर्विभाज्यप्रदेशं
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१६:२८:२४:२-२२-१)
शेषलक्षयोजनछेदनकप्रसाधनम् ] चरमेऽधिकारे स्थितिसमुदाहारः
[६३३ यावदुत्पद्यमानानि छेदनकानि पूर्वोत्पन्नच्छेदनकापेक्षयाऽसंख्येयभागमात्राण्येव । तथाहि-कस्या अपि विवक्षितरंख्याया गवन्ति छेदनकानि जायन्ते, तदपेक्षया तदीयवर्गस्य तानि द्विगुणानि लभ्यन्ते, घनस्य तु तदीयस्य तानि त्रिगुणानि समुत्पद्यन्ते ।
अत्र उदाह्रियते--विवक्षिता चतुःप्रदेशदीर्घा श्रेणिरतः चतुःप्रदेशसंख्याकायास्तस्या निर्विभाज्यप्रदेशं यावद् ( छे... छे० = २) द्वे छेइनके एवोत्पद्यते, तस्या एव चतुःप्रादेशिक्या वर्ग कृत्वा (४४४=१६) लब्धायाः पोडशप्रादेशिक्याश्छेदनकानि तु(.. छे० छे० . छे० छे०=४) चत्वारि, अर्थात्पूर्वापेक्षया द्विगुणानि सम्पन्नानि, घनकरणेन (४४४४४८६४) लब्धायाश्चतुः
छे० पपिप्रादेशिक्यास्त तानि ( छे० छे० छे० छे छे. " (६४२=३२:२=१६:२=८२८४६२-२:२ = १)
.०=६) षट् समुपजातानि । तथैव मूलत एव पोडशप्रादेशिकी श्रेणिमधिकृत्य यदा छेदनकानि आनीयन्ते तदा तानि चत्वारि लभ्यन्ते, वर्गीकृतायास्तु तस्यास्तानि अष्टो प्राप्यन्ते, घनीकृतायास्तु तस्याः छेदकानि द्वादश समुद्भवन्ति; अत्र हीदं स्फुटं गम्यते यत्-घनीकरणेन प्राप्तप्रदेशसंख्याकायाः श्रेणेः मूलश्रेग्यऽवशेषं यावद् यावन्ति छेदनकानि तदपेक्षया घनकरणेन प्राप्तप्रमाणायाः श्रेणेनिर्विभाज्यप्रदेशं यावत् सर्वछेदनकानि विशेषाधिकान्येव, यथा प्रथमे उदाहरणे चतुःषष्टिसंख्याकायाः श्रेणेश्वतुःप्रदेशावशेषं यावत् चत्वारि छेदनकानि, निर्विभाज्यप्रदेशं यावत्तु तानि षट्, अर्थाद् विशेषाधिकानि, द्वितीयदृष्टान्तेऽप्येवमेव, तत्र घनकरणेन प्राप्तसंख्याकायाः श्रेणेर्यावद् मूलं तावदष्टौ छेदनकानि, अविभाज्यप्रदेशं यावत्तु द्वादशेत्येवं विशेषाधिकछेदनकलाभात् ।
एतेन किम् ? एतेन तथाविधनियमशादवशेषाया लक्षयोजनाऽऽयामायाः सूचिश्रेणेश्छेदनकानि साध्यन्ते । तद्यथा-लक्षयोजनादारभ्यागुलप्रायःप्रमाणश्रेण्यवशेषं यावत् संख्येयान्येव छेदनकानि समुद्भवेयुरिति तु सुगमम् , अवशिष्टाया अगुलप्रायःप्रमाणश्रेणेस्तु छेदनकान्युक्तनियमात् तदीयप्रदेशसंख्यायां घनीकृतायां या संख्या प्राप्येत तत्संख्यायाः प्रारभ्य मौलाऽगुलप्राय:सूचिश्रेणिप्रदेशप्रमाणसंख्यावशेषं यावद् यावन्ति छेदनकानि सम्पधेरन् तदपेक्षया स्तोकान्यर्धभागमात्राण्येव भवेयुः, किश्च प्रागुक्तनीत्या साधिकार्धरजप्रमाणश्रेण्यपेक्षया घनाङगुलस्य प्रदेशानि त्वसंख्येयभागमात्राणि, तेषां तु यथोक्तसूच्यङगुलप्रायःप्रमाणक्षेत्रावशेषं यावत् छंदनकान्यपि सार्धद्वयोद्धारसागरोपमसमयापेक्षया स्तोकान्येव प्राप्येरन् , तदपेक्षयाऽपि प्राग्गृहीततिर्यग्लोकदक्षिणलोकान्तस्पृक्श्रेणितोऽवशेषाया अगुलप्रायःप्रमाणायाः सूचिश्रेणेस्तु तानि स्तोकतराण्येव, तानि च संख्येयैः छेदनकैरभ्यधिकेषु सार्धद्वयोद्धारसागरोपमसमयप्रमाणेषु पूर्वावाप्तछेदनकेषु प्रक्षिप्यन्ते तदाऽपि सर्वाणि पूर्वापेक्षया किश्चिन्मात्रसमधिकान्येव भवन्ति ।
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१३४]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ स्थितिबन्धाध्यवसायानुकृष्टिप्रतिषेध० इत्थं च तथाविधोपपत्तेः सद्भावात् , तया चावशेषसूचिश्रेणेनिर्विभाज्यप्रदेशं यावत् पूर्वलब्धच्छेदनकापेक्षयाऽसंख्येयभागमात्राणां छेदनकानामुपपत्तेः स्तोकछेदनकवृद्धया यथोक्तसाधिकाधरजप्रमाणसूचिश्रेणेः सर्वच्छेदनकानामपि साधिकसार्धयोद्धारसागरोपमसमयतुल्यत्वमेव, ततश्च तदसंख्येयभागमात्रस्य घनामुलक्षेत्रस्य छेदनकान्यतीवस्तोकानीत्यादि यत् प्रतिपादितं तन्न निमूलम् ।
तदेवंसूचिश्रेणेरसंख्येयभागमात्रस्य धनागुलस्य छेदनकानांहरवपल्योपमासंख्येयभागमात्राणामुत्पत्तरङगुलप्रथमवर्गमूलस्य तु तानि ततोऽपि स्तोकानि, तत्पड्भागमात्राण्येव, तेषां प्रथमवर्गमूलच्छेदनकानामप्यसंख्येयभागमात्राणि मृलोक्तानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानां द्विगुणवृद्धिस्थानान्यविरुद्धान्येव, ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्ट स्थितौ प्रतिपन्योपमासंख्येयभागमन्तराऽन्तरा उत्पद्यमानानां तावतां रिणवृद्धिस्थानानां सुखेनोपपत्तः,इत्येवं प्रथमविरोधस्यानवकाश एव । किञ्च विकल्पान्तरं समालम्ब्याऽन्या या विरोधद्वयी उद्भाविता साऽप्यमीषामध्यवसायगुणवृद्धिस्थानानां लघुतरपल्योपमासंख्येयभागमात्रत्वोपपत्ते रेव निरस्ता, गुणवृद्धिस्थानानां स्तोकतया द्विगुणवृद्धिद्वयान्तरस्य महत्तरत्वेनाऽसंख्येयगुणत्वोपपत्तेः, अनन्तरोपनिधायामनन्तरस्थितिबन्धस्थानेऽसंख्येयभागप्रमाणानामध्यवसायस्थानानामभिमतवृद्धरुपपत्तश्च तादृशविकल्पस्यैवानवकाशादिति ॥८४७॥
तदेवं सप्रभेदतो दर्शिताऽध्यवसायानां प्रगणना । साम्प्रतं तेषामेव स्थितिबन्धाध्यवसायानामनुकृष्टिं चिन्तयन्नाह
अट्ठण्ह जहण्णाओ दुइआअ ठिईअ अज्झवसणाणं । ठाणाणि अपुव्वाइं एमेव हवेज्ज जा परमा ॥८४८॥ (प्रे०) "अट्ठण्ह जहण्णाओ" इत्यादि, ज्ञानावरणादीनामन्तरायपर्यन्तानामष्टानामपि मूलकर्मणां प्रत्येकं "जहण्णाओ" त्ति जघन्यायाः स्थितेः “दुइआअ ठिईअ" ति रितीयायां स्थिती, अनन्तरे समयाधिकजघन्यस्थितिवन्धस्थानरूपे द्वितीयस्थितिबन्धस्थान इत्यर्थः । तत्र किमित्याह-"अज्झवसणाणं ठाणाणि" ति तस्या द्वितीयस्थितेर्बन्धप्रायोग्यानामध्यपसायानां स्थानानि-भेदाः "अपुवाई" ति 'अपूर्वाणि' पूर्व-पूर्वस्मिन् जघन्यस्थितिबन्धे यानि नासन् तथाविधानि, जघन्यस्थितिबन्धकारणीभूताध्यवसायेभ्यो विलक्षणानि, न पुनरेकमप्यध्वसायस्थानं तत्सदृशमत्र समयाधिकजघन्यस्थितिबन्धाध्यवसायस्थानेषु विद्यत इति भावः ।
ननु द्वित्रिसमयावधिकजघन्यस्थितिबन्धस्थानेषु तर्हि किमित्याह-"एमेव हवेजे"त्यादि, एवमेव, यथा जघन्यस्थितिवन्धस्थानापेक्षया समयोत्तरे समयाधिकजघन्यस्थितिबन्धस्थाने तथैव समयसमयोत्तरेषु द्विसमय-त्रिसमयावधिकजघन्यस्थितिबन्धरूपेषु स्थितिबन्धस्थानेषु यावच्चरमायां सर्वोत्कृष्टस्थितावित्यर्थः ।
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समयाधिकस्थितिवन्धेऽपूर्वाभ्यवसाय०] चरमेऽधिकारे स्थितिसमुदाहारः
[६३५ इदमुक्तं भवति- जघन्यस्थितिबन्धो यैरसंख्यलोकप्रदेशप्रमितैः स्थितिबन्धाध्यवसायस्था निवर्तयितु शक्यते, तदपेक्षया तीबैर्विलक्षणैरेव स्थितिबन्धाध्यवसायैः समयाधिकजघन्यस्थितिबन्धो निर्वतयितुं शक्यते, इत्यतो जघन्यस्थितिबन्धस्थानापेक्षयाऽपूर्वाण्येव स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि समयाधिकजघन्यस्थितिबन्धेऽभिहितानि । समयाधिकजघन्यस्थितिबन्धो यैः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थाननिवर्तयितुं शक्यते तदपेक्षयाऽधिकतीत्रैरत एवापूर्वैरध्यवसायस्थानईिसमयाधिकजघन्यस्थितिबन्धो निवर्तयितुं शक्यते, एवं यैः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानेबिसमयाधिकजघन्यस्थितिवन्धो जायते तदपेक्षया तीव्रतरैः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानैरेव त्रिसमयाधिकजघन्य स्थतिबन्यो जायते, न पुनः पूर्वैरपीति द्वित्रिसमयाधिकजघन्यस्थितिबन्धेऽप्यपूर्वाण्येव स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि हेतुभूतानि सन्ति, एवं समयसमयवृद्धया यावदुत्कृष्टस्थितिबन्धस्तावदपूर्वाण्यपूर्वाणि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्येव हेतुतया वर्तन्ते ।
अत्राऽसत्कल्पनया-ज्ञानावरणस्य स्थितिबन्धप्रायोग्यानि सर्वाण्यध्यवसायस्थानानि मन्दतीव-तीव्रतरादिक्रमेण प्रथमद्वितीयादितया स्थाप्यन्ते, तानि च समुदितान्यसत्कल्पनया त्रिंशदुत्तरशतम् , स्थितिबन्धस्थानानि चाष्टौ, तत्र च प्रथमस्थितिबन्धाध्यवसायस्थानप्रभृतीनि पश्चाध्यवसायस्थानानि जघन्यस्थितिबन्धे हेतुभूतानि, न पुनः षष्ठप्रभृतीन्यपि, तेषामुक्तपञ्चस्थितिबन्धाध्यवसायस्थानापेक्षया तीव्रतया समयावधिकजघन्यस्थितिबन्ध एव हेतुत्वात् , तत्राऽपि षष्ठप्रभृतीनि द्वादशपर्यन्तान्येव स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि समयाधिकजघन्यस्थितिबन्धे हेतुभूतानि, न पुनस्तदुत्तरवर्तीन्यपि, तेषां तीव्रतर-तीव्रतमादिभावेन समयद्विसमयाद्यधिकजघन्यस्थितिवन्धे हेतुत्वात् । तत्राऽपि द्विसमयाधिकजघन्यस्थितिबन्धस्त्रयोदशप्रभृतिभिर्द्वाविंशतितमपर्यन्तैः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानैरेव निर्वर्तयितुं शक्यते, न पुनादशपर्यन्तेष्वेकेनापि, एवं त्रयोविंशतितममध्यवसायस्थानमपि तत्र न कारणम् , तस्य पूर्वापेक्षया तीव्रतया त्रिसमयाधिकजघन्यस्थितिबन्धहेतुत्वात् , त्रयोविंशतितमप्रभृतीनि पञ्चत्रिंशत्तमपर्यन्तानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि तु त्रिसमयाधिकजघन्यस्थितिबन्ध एव हेतुभूतानि, न तु ततः समयादिहीनस्थितिबन्धे समयावधिकस्थितिवन्धे वा, एवमेवोत्तरत्रापि कल्पनीयम् । अत्रासत्कल्पनया स्थितिबन्धस्थानाष्टके मन्दतर-मन्दतमाद्यध्यवसायानां हेतुत्वे इयं स्थापना
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६३६ ]
मूलपइबंधो [ स्थितिबन्धस्थानेष्वभ्यवसायस्थापना
मन्दतम- मन्दतर- मन्द- तीव्र - तीव्रतरादिक्रमेण स्थापितानि स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानानि
प्रथमम् द्वितीः तृ० च० पञ्चमं जघन्यस्थितिबन्धे हेतुभूताध्यवसाय० ।
०
०
०
०
प्रथमात्पश्चमान्तानि
षष्ठाद् द्वादशान्तानि
त्रयोदशाद् द्वाविंशतितमान्तानि
६
०००००००
उ
श्ङ
००००००००००
उ ६
१२
पू
२ श्
त्रयोविंशतितमात् पञ्चत्रिंशत्तमान्तानि ००००००००००००० त्रिसमयाधिके
७४
०
समयाधिके
जघन्यस्थितिबन्धे
द्विसमयाधिके जघन्यस्थितिबन्धे
१००
त्रिंशत्तमाद् द्विपञ्चाशत्तमान्तानि ००००००००००००००००० चतुःसमयाधिके
उ ५
५२
त्रिपञ्चाशत्तमात् त्रिसप्ततितमान्तानि ००००००००००००००००००००० पश्चसमयाधिके
७३
33
86
चतुःसप्ततितमान्नवनवतितमान्तानि ०००००००००००००००००००००००००० षट्समयाधिके
१३०
शततमात् त्रिंशदुत्तरशततमान्तानि
"
"
31
"
"
در
००००००००००००००००००००००००००००००० सप्त, एवं यावत् उत्कृष्टस्थितिबन्धे ॥
नन्वनुष्टिप्रस्तावे किमनेन समयसमयोत्तरेषु स्थितिबन्धस्थानेष्वपूर्वाऽपूर्वस्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानां प्रतिपादनेन ? इति चेद्, उच्यते - अनुकृष्टिर्हि प्रस्तुतत्वात्स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानामन्यान्यस्थितिबन्धस्थानेष्वनुवर्तनरूपा, उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णिविशेष वृत्तौ श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरितल्लजै:- "अनुकृष्टिः अनुवर्तनाऽनुगम इत्येकोऽर्थः " इति । विवक्षितस्थितिबन्धप्रायोग्याध्यवसायस्थानानि ततः समयाद्यधिके समयादिना हीने वा स्थितिबन्धेऽनुवर्तन्ते न वेत्यनुकृष्टिप्ररूपणाविषयः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि तु तत्तद्बन्धप्रायोग्यमेकं किञ्चित् स्थितिबन्धस्थानं विहाय नान्यत्रानुवर्तन्ते, प्रत्येकं स्थितिबन्धस्थानेष्वपूर्वाणामेव स्थितिबन्धाध्यवसायानां हेतुत्वात् । उक्तं च कर्मप्रकृतिस्थितिबन्धचूर्णै—
"अणुकड्ढीए णाणावरणिजस्स जहणियाठितीए जाणि ठितिबंधज्झवसाणद्वाणाणि तेहितो बितियाए ठितीए अपुव्वाणि, एवं अपुव्त्राणि, अपुव्वाणि जाव उक्कस्सियाए ठितीए अपुव्वाणि ठितिबंधज्झवसाणट्टाणाणि । एवं सव्वकम्माणं । " इति ।
महाबन्धकारैरप्येवमेवोक्तम् । तथा च तद्वचनम् -
"अणुकsढी णाणावरणियस्स जहणियार ठिदीए ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि याणि ताणि बिदियाए द्विदीए ट्ठिदिबंधझवसाणट्टाणाणि अपुत्राणि । बिदियाए द्विदीए हिदिबंधज्झवसाणट्टाणाणि याणि ताणि तदियाए द्विदीए द्विदिबंधज्झत्रसाणद्वाणाणि अपुत्र्त्राणि य । एवं च अपुव्वाणि यात्र उक्कस्सियार द्वितित्ति । एवं सत्तण्ह कम्माणं । " इति ।
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स्थितिबन्धानुकृष्टिप्रतिषेधे ग्रन्थान्तरसंवादः ] चरमेऽधिकारे स्थितिसमुदाहारः
इत्येवं पूर्वपूर्वस्थितिमत्कस्थितिबन्धाध्यवसायस्थानेभ्यः स्तोकानामप्यध्यवसायानामुत्तरोत्तरस्थिताननुवर्तनात् स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानां साऽनुकृष्टिर्न भवति । उक्तं च श्रीमन्मलयगिरिपूज्यैः कर्मप्रकृतिस्थितिबन्धवृत्तौ - 'साम्प्रतमनुकृष्टिश्चिन्त्यते सा च न विद्यते " इति । इत्थमुत्तरोत्तरस्थितावपूर्वाऽपूर्वाध्यवसायानां हेतुत्वप्रदर्शनस्यानुकृष्टिप्रतिषेधपर्यवसानात् प्रस्तुतमेव प्ररूपितम् ।
ननु जघन्यस्थितिबन्धप्रभृतेरुत्कृष्ट स्थितिबन्धपर्यन्तेषु सर्वत्राऽप्रसिद्धसत्ताकाया अध्यवसायानुष्ठे चिन्तनमेवाप्रकृतम् ? इति चेद्, न तत्र स्थितिबन्धाध्यवसायानामनुकृष्टेरसत्वेऽपि तेषु स्थितिस्थानेष्वेव रसवन्धाध्यवसायानां सानुकृष्टिर्विद्यत एव ततश्च तस्या रसबन्धाध्यवसायानुकृष्टेर्ज्ञाता जिज्ञासति यत्- 'स्थतिबन्धाध्यवसायानामनुष्टिर्भवति न वा', एतदर्थमनुष्टिद्वारमाश्रित्य सा प्रतिषिध्यते । एतदुक्तं भवति किमपि स्थितिबन्धस्थानं निर्वर्तयन् जीवो रसबन्धमपि नियमेन बध्नाति इत्थं च यथाऽसौ तादृशस्थितिं बघ्नन् कस्मिन्नपि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थाने वर्तते तथा कस्मिन्नपि रसबन्धाध्यवसायस्थानेऽपि वर्तत एव, तानि च रसवन्धाध्यवसा यस्थानान्यपि प्रतिस्थितिबन्धस्थानम संख्ये यलोकाकाशप्रदेशतुल्यान्येव विद्यन्ते ।
तदुक्तं कर्मप्रकृतिचूण
"जे एक द्विति णिव्वत्तंति द्वितिबंधज्झवसाणा ते असंखेज्जलोगागासपदे समेत्ता, एवं सव्वट्ठितिविगपेसु, भिएक्केक्कमि द्वितिबन्धट्ठामि अणुभागबंधाज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेज्जलोगप देसमेत्ताणि" इति । इत्थं हि प्रत्येकस्थितिबन्धस्थाने वर्तमानानां जीवानामध्यवसायस्थानानि द्विविधानि सन्ति, तद्यथा- स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि रसबन्धाध्यवसाय स्थानानि च तत्र स्थितिबन्धाध्यवसा यस्थानानामुत्तरोत्तरस्थितिबन्धस्थानेष्वपूर्वाणामेव सद्भावेनानुत्कृष्टेरभावेऽपि रसबन्धाध्यवसायानां सा विद्यत एव मतिज्ञानावरणाद्युत्तरप्रकृतीनां जघन्यादितत्तत्स्थितिबन्धस्थानेषु वर्तमानेभ्योऽसंख्यलोकाकाशप्रदेशराशितुल्येभ्योऽनुभागाध्यवसायस्थानेभ्य एकभागप्रमाणानामनुभागाध्यवसायस्थानानां तदन्यस्थितिबन्धस्थानेष्वनुवर्तनात् ; कुतोऽवसीयते ? इति चेत्, मतिज्ञानावरणादेः समयद्विसमयाद्यधिकजघन्यादिस्थितिबन्धस्थानेष्वपूर्वाणामध्यवसायानामिव एकदेशमात्राणां पूर्वाणामध्यवसायस्थानानामप्यभिमतत्वात् । उक्तं च कर्मप्रकृतिरसबन्धचूर्णौ
" एयांसि पगतीणं जणियं द्वितिं बंधमाणस्स ' जाणज्झवसाणाणि तदेगदेसो य अण्णाणि' त्ति जाणि अणुभागअज्झत्राणद्वाणाणि बितियाए द्वितीए तदेकदेसो य अण्णाणि य, तइयाए द्वितीए तदेगदेसो य अण्णाणि" इत्यादि ।
उक्तं च महाबन्धकारैरपि -
"एतो तिव्त्रमंददाए पुत्रं गमणिज्जं अणुकडिंट वत्तइस्सामो । तं जहा - सण्णीहिं पगदं । अन्भवसि - द्वियपाओग्गं जहण्णगे बंधगे मदियावरणस्स जहण्णट्ठिदिं बंधमाणस्स याणि अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि बिदिया द्विदीए तदेगदेसो वा अण्णाणि च । तदियाए द्विदीए तदेगदेसो वा अण्णाणि च " इति ।
[ ६३७
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६३८ ]
मूलपइबंधो [ स्थितिबन्धाध्यवसायानां तीव्रमन्दता षट्खण्डकारैरपि स्थितिबन्धाध्यवसायानुकुष्टिचिन्तनप्रस्तावेऽनुकृष्टिसद्भावप्रतिपादनपरम्'मदियावरणस्स जहण्णाट्ठिदिं वधमाणस्स याणि ठिइबन्धज्झत्राणहाणाणि विदियाए द्विदीए तदेगदेसो वा अण्णाणि य तदीयाए द्विदीए तदेगदेसो' इत्यादिलक्षणं 'तदेगदेसो' इति पदघटितमालापकं विहाय तदघटितस्य 'अणुड्ढी णाणावरणियस्स जहरिणयाए द्विदीए द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि याणि चिदियाए द्विदीए द्विदिबंध ज्वाणाणाणि अपुव्वाणि । विदियाए द्विदीए ट्ठिदिबंधज्यवसाणट्टणाणि याणि ताि तदियाए द्विदीए ट्ठिदिधज्झत्रसाठाणाणि अपुत्र्वाणि य । इत्यादि लक्षणस्यऽऽलापकस्योच्चारणात् तन्मतेऽपि स्थितिबन्धाध्यवसायानामनुष्टिर्नाभिमतेति स्फुटेप्यनुकृष्टिप्रतिषेधे तत्सूत्रं स्थितिबन्धाध्यवसायानुकृष्टि सद्भावप्रतिपादकपरकतया केचन व्याख्यानयन्ति तत्तु चिन्त्यमेवेति ।
अत्र जघन्या स्थितिरभव्यजीवबन्धप्रायोग्या ग्राह्या, न तु भव्यजीवबन्धप्रायोग्या । उक्तं चैतदपि कर्मप्रकृतिचूर्णौ
“एतो तिव्वमंदयाए पुब्बं गमणिज्जा अगुरुड्ढी सष्णिपंचिंदियंमि पगतं अभवसिद्धिपाउ धमामि' इति ।
तदेवं स्थितिबन्धस्थानेषु स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टेरभावेऽपि रसबन्धाध्यवगायस्थानानां तत्सद्भावात्स्थितिबन्धस्थानेष्वध्यवसायानुकृष्टिर्नाऽप्रसिद्धसत्ताका, ततः स्याञ्जि - ज्ञासा- 'स्थितिबन्धस्थानेषु रसबन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टेरिव स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानामनुष्टिर्भवति न वा भवतीत्यतोऽनुकृष्टिद्वारं समाश्रित्य सा प्रतिषिद्धेति न किञ्चिदप्रकृतम् ।
वस्तुतस्तु वक्ष्यमाणस्य स्थितिवन्धाध्यवसायानां तीव्रत्व - मन्दत्वतारतम्यस्य सुखावबोधार्थ - मेव रसनन्धाध्यावसायानामिव स्थितिबन्धाध्यवसायानामनुकुष्टेश्चिन्तनं विज्ञेयम्, अन्यथा तु स्थितिबन्धाध्यवसायानां प्रदर्शयिष्यमाणतीव्र त्व-मन्दत्वतारतम्येनैवानुकृष्टेरभावत्वमत्र भोत्स्यते, केवलं तथाप्ररूपणे दुरात्रबोधं स्यात्सर्वमित्यादावनुष्टिचिन्तनमधिकृतमिति ॥ ८४८ ॥ अथ स्थितिबन्धाध्यवसायानां तीव्रमन्दनां दर्शयन्नाह—
अट्टह लहुठिईए अनंतगुणिअं कमा लहूउ गुरुं । तो विइआइ लहू तो गुरुमेवं जा गुरूअ गुरु ॥८४९॥
(०) "अडण्ह लहुठिईए" इत्यादि, ज्ञानावरणादीनामष्टानां मूलकर्मणां 'लघुस्थिते:'जघन्यायाः स्थिते: “लहून " ति 'लघोः ' जघन्यादध्यवसायस्थानाद् "अनंतगुणिअं कमा" तिक्रमादनन्तगुणितम्, तीव्रमिति गम्यते । किमनन्तगुणितं तीव्रमित्याह -“गुरु” त्ति, तस्या एव लघुस्थिते: 'गुरु'- उत्कृष्ट मध्यवसायस्थानम्, “गुरु बिइआइ लहु" त्ति, तस्मादनन्तरोक्ताजघन्यस्थितिसत्कजघन्याध्यवसायस्थानापेक्षयाऽनन्तगुणतीत्राञ्जघन्यस्थितिबन्धकारणीभूतादुत्कृष्टाध्यवसायस्थानात् 'द्वितीयायाः' - समयाधिकजघन्य स्थितिस्थानरूपायाः स्थितेः 'लघु' - जघन्यमध्यवसा यस्थानम्, अनन्तगुणितं ती मित्यनुवर्तते । इत्येवमुत्तर श्राप्यनुवृत्तिबलात् "तो गुरु" ति
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[ ६३९
प्रकृतिषु स्थितिबन्धाध्यवसायाः] चरमेऽधिकारे प्रकृतिसमुदाहारः तस्मात् समयाधिकजघन्यस्थितियन्वस्थानकारणीभताजघन्याध्यवसायस्थानात् तस्या एव समयाधिकजवन्यस्थितेः 'गुरु'-उत्कृष्टमध्यवसायस्थानम् , अनन्तगुणितं तीवम् , “एवं जा गुरूअ गुरु" ति 'एवम्'-उक्तरीत्या यथोत्तरस्थितिबन्धस्थानानां जघन्योत्कृष्टायध्यवसायस्थानक्रमेण यावत् - 'गुरुस्थितेः'-सर्वोत्कृष्टायाः स्थितेः 'गुरु'-उत्कृष्ट मध्यवसायस्थानं तस्या एवोत्कृष्टायाः स्थितेर्जघन्याव्यवसायस्थानापेक्षयाऽनन्तगुणती भवति । उक्तं च कर्मप्रकतिचूर्णी
"णाणावरणीयस्स जहणियार ठितिए जहण्णयं ठितिबंधझवसागट्ठाणं सव्वमंदाणुभात । तस्सेवुक्कासयं अणंतगुणं । बितियार जहण्णय ठितिबंधज्झरसाणाणं अणं नगुणं । तस्सेवुकस्सयं अणंतगुणं । एवं ततियाए जहण्णयं ठितिबंधझवसायट्ठाणं अणं तगुणं, तस्सेबुकोसं अणं गुणं । एवं अणंतगुणं जाब उक्कस्सिता ठितित्ति ।" इति ॥८४९।।
___ तदेवं दर्शिता स्थितिबन्धाध्यवसायानां तीवमन्दता, तस्यां च दर्शितायां गतः प्रथमः थितिसमुदाहारः॥ ॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे षष्ठेऽध्य सायसगुदाहारे प्रथमः स्थितिसमुदाहारः समाप्तः ।।
॥ अथ द्वितीयः प्रकृतिसमुदाहारः ॥ तदेवमुक्तो नानाऽवान्तरद्वारैः स्थितिसमुदाहारः । साम्प्रतं प्रकृतिसमुदाहारे ज्ञानावरणाद्यकैकां . प्रकृतिमपेक्ष्य समस्तानां स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानां प्रमाणं दर्शयन्नाह
सबठिईणऽट्टण्हं अज्झवसाया असंखिया लोगा। (प्रे०) “सव्वठिईणे" त्यादि, "ढण्ह" ति पूर्वमकारस्य दर्शनाज्ज्ञानावरणादीनामष्टानां मृलकर्मणां प्रत्येकं “सव्वहिईण" ति जघन्यायाः स्थितेरारभ्य यावदुत्कृष्टा स्थितिस्तावद् यात्रन्तः स्थितिवन्धविकल्पास्तावतां 'सर्वस्थितीनाम्'-मस्थितिबन्धविकल्पानाम् "अज्झवसाया असंखिया लोगा" तितत्कारणीभूताः समस्त स्थितिबन्धाध्यवसाया असंख्येया लोकाः, असंख्येयलोकाकाशप्रमाणक्षेत्रखण्डानां प्रदेशराशिप्रमाणा इत्यर्थः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी
___ "पमाणाणुगमेणं णाणापरणीज्जस्स असंखेज्जलोगागासपदेशमेत्ताणि ठितिबंधज्झवसाणठाणाणि सव्वहितीणं । एवं सव्यकभ्माणं" ॥८८॥ इति ।
अत्र हि एकस्थितिबन्धस्थानकारणीभूताध्यवसायप्रगणनायां दर्शितासंख्यलोकाकाशापेक्षया वृहत्तरमसंख्यातं बोद्धव्यमिति ।। ॥
तदेवं ज्ञानावरणादीनां प्रत्येकं सर्वस्थितिवन्धाध्यवसायानामसंख्येययलोकाकाशप्रदेशप्रमितत्वे प्रतिपादिते किं ज्ञानावरणादीनामेकैकस्य परस्परमेते स्थितिबन्धाध्यवसायास्तुल्या हीनाधिका वेत्याशङ्कायां तेषामल्पबहुत्वं दर्शयन्नाह
ठिइदीहत्तेण कमा असंखियगुणा मुणेयवा ॥८५०॥
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६४० ]
बन्धविहाणे मूलपडिटिइबंधो [ प्रकृतिषु स्थितिबन्धाध्यवसायाल्पबहु०
(प्रे०) “टिइदीहतेण कमा" इत्यादि, स्थितिदीर्घत्वेन "कमा" त्ति क्रमाद्यथोत्तरमसंख्येयगुणाः स्थितिबन्धाध्यवसाया ज्ञातव्याः । अयम्भावः- - हस्वस्थितिककर्मणः सर्वस्थितिबन्धाध्यवसायापेक्षया दीर्घस्थितिककर्मणः सर्वस्थितिबन्धाध्यवसाया असंख्येयगुणाः, ततोऽपि दीर्घतरस्थितिकस्य तेऽसंख्येयगुणाः, एवं तावद्वक्तव्यं यावत्सर्वाधिक स्थितिकस्याऽसंख्येयगुणाः ।
तथाहि —शेषकर्मणामुत्कृष्टस्थित्यपेक्षयाऽऽयुप उत्कृष्टा स्थिति स्वाऽतस्सर्वस्तोका आयुषः सर्वस्थितिबन्धाध्यवसायाः, ततो नामगोत्रयोरेकैकस्य सर्वस्थितिबन्धाव्यवसाया असंख्येयगुणाः, परस्परन्तु तुल्याः । नामगोत्रयोरेकैकस्य समस्तस्थितिबन्धाध्यवसायापेक्षया दीर्घस्थितिकानां ज्ञानावरण- दर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तरायकर्मणामेकैकस्य समस्त स्थितिबन्धाध्यवसाया असंख्येयगुणाः सन्ति । कुतः ? उच्यते - प्राक् पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणानां स्थितिबन्धस्थानानामतिक्रमणेनानन्तरस्थितिबन्धस्थानेऽध्यवसायानां द्विगुणवृद्धिरभिहिता, ततश्च पल्योपममात्र स्थिति वृद्धावसंख्ये यानामध्यवसायद्विगुणवृद्धिस्थानानां प्राप्तेश्वर मद्विगुणवृद्धी स्थितियन्वाध्यवसाया अप्यसंख्येयगुणा भवन्ति, तथा च सति नामगोत्रयोरु कृष्टस्थितिबन्धापेक्षा ज्ञानावरणादीनां चतुर्णां दशसागरोपमकोटिकोटीप्रमाणाधिकस्थितिबन्धे तु स्थितियन्वाध्यवसायानामसंख्येयगुणता निर्विवाद सि द्धेति । ज्ञानावरणादेः समस्तस्थितिवन्धाध्यवसायापेक्षया मोहनीयस्य समस्ताः स्थितिबन्धाध्यवसाया असंख्येयगुणाः अत्राप्यसंख्येयगुणताऽनन्तरोक्तनी - यैव ज्ञेया । इति ।
ननु आयुषः स्थितिबन्धस्थानानां स्तोकत्वेऽपि समयद्विममयाद्युत्तरेषु तेषु प्रत्येकं स्थितिबन्धाध्यवसाया असंख्येयगुणाः सन्ति, नामगोत्रयोस्तु यथोत्तरं विशेषाधिकाः, तत्कथमायुरपेक्षया नामगोत्रयोः स्थितिबन्धाध्यवसाया असंख्येयगुणाः स्युः ? इति चेदू, उच्यते, आयुषो जघन्य स्थितिबन्धस्थानेऽपि तत्कारणीभूताः स्थितिबन्धाध्यवसाया अतीवस्तोकतराः सन्ति, नामगोत्रयोर्जघन्य स्थितिबन्धस्थाने पुनरतिप्रभूततराः सन्ति, अन्यच्चायुपः स्थितिबन्धस्थानानि स्तोकानि, नामगोत्रयोस्तु बहूनि ततो यथोत्तरं विशेषाधिका अपि नामगोत्रयोः समस्तस्थितिबन्धाध्यवसाया आयुषः समस्तस्थितिबन्धाध्यवसायापेक्षयाऽसंख्येयगुणा भवन्ति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूण
" सव्वत्थोवाणि आउगस्स ठितिबंध ज्झवसाणट्टाणाणि । णामगोभणं ठितिबंधज्झवसाणाणि असंखेजगुणाणि । आउस ठितिबंधे अज्झवसाणट्टाणाणं वड्ढी असंखेजगुणा दिट्टा, णामगोयाणं विसेस हिगा दिट्ठा, एत्थ कहं असंखेज्जगुणा ? भण्णइ आउगस्स जहणियाए ठितिए अयवसाणद्वाणाणि अतिथोवाणित्ति नामगोभणं जहण्णिगाए ठिईए ठितिबंध ज्झवसाणट्टाणाणि अति बहूगाणित्ति काउं, तेण आउगस्स
* अत्र हि जेसलमेर ग्रन्थागारस्थतालपत्रीय कर्मप्रकृतिचूर्ण्यक्षराणि, मुद्रितप्रती तु "उगस्स जहणियाए ठितीए अज्भवसारण द्वाणारिण प्रतिबहुगारिणत्ति ( थोवारिणत्ति ) काउं, तेरा आउगस्स थोवारिण प्रदिउत्तरं गच्छति, सेसागं वासंखेज्जा" इति पाठः । अनयोः पाठयोर्मध्ये तालपत्रीयपाठ एवं सम्यगिति ।
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द्वि-त्रि- चतुःस्थानरसभेदाज्जीवविभाजन० ] चरमेऽधिकारे जीवसमुदाहारः
[ ६४१
थोवाणि आदिउत्तरं गच्छविसेसेण वा साहेज्जा । णाणावरणदंसणावरणवेयणिज्जअंतराइयाणं असंखेज्जगुाणि । कहूं ? भण्ण-पलिओ मस्स असंखेज्जतिभागं गंतूणं दुगुणवड्ढी दिट्ठा | एवं पलिओवमस्स अंते असंखेज्जगुणाणि लब्भंति । मोहणिज्जस्स ठितिबंधज्झवसाणाणि असंखेज्जगुणाणि ।” इति ।। ८५० ॥ तदेव प्रतिपादितं ज्ञानावरणादि मूलप्रकृतीरधिकृत्य स्थितिबन्धाध्यवसायानामल्पबहुत्वम्, तस्मिँश्च प्रतिपादितेऽवसितो द्वितीयः प्रकृतिसमुदाहारः ॥
॥ इति श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे षष्ठेऽव्यवसायसमुदाहारे द्वितीयः प्रकृतिसमुदाहारः ॥
॥ अथ तृतीयो जीवसमुदाहारः ॥
साम्प्रतं चरमस्य जीवसमुदाहारस्यावसरः । तत्र हि शुभाशुभाद्यध्यवसाय भेदादनेकधा विभक्तानां कियन्तां बन्धकजीवानां कथंभूत स्थितेर्बन्धकत्वमित्येतत् प्रदिदर्शयिषुरादौ शुभाशुभाद्यध्यवसायाध्यवसितान् जीवान् भिन्नभिन्नर सबन्धकतया विभाजयन्नाह -
सायरस युद्धमज्झिमसंकिट्टा बंधि रसं कमसो | चउतिविठाणगयं खलु तव्विवरीअं असायस्स ॥ ८५१ ॥
(प्र०) "सायस्स सुद्धे”त्यादि, सातस्य परावर्तमान शुभप्रकृतिलक्षणस्य, अस्य चान्वयः “बंधिरे रसं कमसो चउतिबिठाणगयं खलु” इति परेण, ततः परावर्तमान शुभप्रकृतिलक्षस्य सात वेदनीयस्य क्रमशः " चउतिबिठाणगयं" ति चतुःस्थानगतं, त्रिस्थानगतं, द्विस्थानगतं च 'रसम्'- अनुभागं बध्नन्ति, इह तावत् सातावेदनीयादिशुभप्रकृतीनां रसः क्षीरादिरसोपमः, तत्रापि स्वाभाविकक्षीरादिरसोपम एकस्थानिकरस उच्यते, द्वयोः कर्षयोरावृत्तः सन्नवशिष्टैक कर्षप्रमाणो यः क्षीरादिरसस्तदुपमस्तु द्विस्थानिकरसो भण्यते, त्रिकर्षप्रमाण आवृत्तः सन्नैककर्षप्रमाणो योऽवशि टस्तदुपमस्तु त्रिस्थानिकः कथ्यते, एवं चतुर्णां कर्षाणामावर्तने कृते य उद्धरित एककर्षप्रमाणः क्षीरादिरसस्तदुपमश्चतुःस्थानिको ऽभिधीयते । यदुक्तं श्रीमन्मलयगिरिपादैः कर्मप्रकृतिवृत्तौ
1
" क्षीरादिरसच स्वाभाविक एकस्थानिक उच्यते । द्वयोस्तु कर्षयोरावर्तने कृते सति योऽवशिष्यते एकः कर्षः स द्विस्थानिकः । त्रयाणां कर्षाणामावर्तने कृते सति य उद्धरित एकः कर्षः स त्रिस्थानगतः । तु कर्षाणामावर्तने कृते सति योऽवशिष्ट एकः कर्षः स चतुःस्थानगतः ।” इति ।
के पुनरेनं सात वेदनीयसत्कं चतुस्त्रिद्विस्थानगतं त्रिविधरसं क्रमशो बघ्नन्तीत्याह - " सुद्धमज्झिम- संकिट्ठा" त्ति मन्दतरकषायोदयत्वाद् ये 'शुद्धाः' - विशुद्धाध्यवसाया जीवाः, तथैव कषायोदयजन्यमध्यम संक्लेशोपेतत्वात् 'मध्यमाः ' - मध्यमपरिणामा जीवाः, ये तु तीव्रकपायोदयात् 'संविष्टा : '- संक्लिष्टतर परिणामा जीवास्ते । इदमुक्तं भवति – विशुद्धपरिणामा जीवाः सातवेदनीयस्य चतुःस्थानगतं रसं बध्नन्ति, मध्यमपरिणामा जीवा पुनस्तस्य त्रिस्थानगतं रसं निर्वर्त -
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६४२]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [षोढाविभक्तजीवानां बन्धप्रायोग्यस्थिति. यन्ति, संक्लिष्टपरिणामास्तु द्विस्थानगतमेवेति । संक्लेशो हि अत्र तत्प्रायोग्यो विज्ञेयः, न तु सर्वसंक्लेशः, सातवेदनीयबन्धकानां सर्वसंक्लेशाऽसम्भवात् । असातवेदनीयस्योत्कृष्टानुभागस्य त्वशुभत्वात् तद्रसं पुनरेते वैपरीत्येन द्वि-त्रि-चतुःस्थानिकक्रमेण बध्नन्ति, एतदेव दर्शयन्नाह-"तविवरीअं असायस्स" ति एतेऽनन्तरोक्ताः शुद्ध-मध्यम-संक्लिप्टजीवा अशुभपरावर्तमानरूपस्याऽसातवेदनीयस्य तद्विपरीतम्'-तं चतु-स्त्रि-द्विस्थानगतं रसं विपरीतक्रमगतम् , द्वि-त्रि-चतुःस्थानक्रमेणेत्यर्थः, बध्नन्तीत्यावर्तते । अयम्भावः-तत्प्रायोग्यविशद्धपरिणामा अशातवेदनीयस्य द्विस्थानगतं रसं बध्नन्ति, मध्यमपरिणामास्तु तस्य त्रिस्थानगतं रसं बध्नन्ति, संक्लिष्टपरिणामाः पुनश्चतुःस्थानिक रसं बध्नन्तीति । अत्राप्यसातवेदनीयस्यैकद्वयादिस्थानगतरसानां परस्परं तारतम्यं पूर्ववद्भावनीयम् , केवलमसातवेदनीयस्याऽशुभप्रकृतित्वाद् इक्षरसादिस्थाने घोषातक्यादिरसमादायोपमा द्रष्टव्या। यत उक्तम्-"घोसाडइनिंबुवमो असुभाण" इति ।
___ इहाऽनन्तरोक्ताः साता-ऽसातवेदनीययोः प्रत्येकं बन्धका ज्ञानावरणादिसप्तचत्वारिंशद्धृवप्रकृतीबध्नन्तो ग्राह्याः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी
"एवं णाणावरणदसणावरणमिच्छत्तं सोलसकषाय भयं दुगंछा तेजोकम्मइगाधण्णगंधरसफासअगुरुलहुय उवघाय णिम्मेण पंचण्हं अंतराइयाणं एयासिं सत्तचत्तालीसाए धुवपगतीणं बंधता" इत्यादि ।।८५१।।
तदेवं परावर्तमानशुभाशुभप्रकृतीनां द्वि-त्रि-चतुःस्थानकरसबन्धकमेदात्स्थितिबन्धकजीवाः षोढा विभक्ताः । साम्प्रतमेते एकैकविधा जीवाः कीदृशं स्थितिबंधं कुर्वन्तीत्येतत्प्रतिपादयन्नाह-
पढमस्स ठिइं कमसो सायस्स चउतिबिठाणिये बंधे ।
बंधति लहु अलहु सट्ठाणम्मि खलु उक्कोसं ॥ ८५२ ॥ (प्रे०) “पढमस्से"त्यादि, 'सातस्य'-सातवेदनीयस्य परावर्तमानोत्तरशुभप्रकृतिलक्षणस्य "घउतिबिठाणिये" ति 'द्वन्द्वान्ते श्रयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यत' इति न्यायाच्चतु:स्थानिके त्रिस्थानिके द्विस्थानिके "बंधे" ति तत्तद्र सबन्धे प्रवर्तमाने तस्य प्रवर्तकाः “पदमस्स ठिई कमसो” ति प्रथमस्य ज्ञानावरणस्याऽपरावर्तमानाऽशुभमूलप्रकृतेर्वक्ष्यमाणां त्रिविधां स्थिति क्रमशो बध्नन्तीति परेणान्धयः । एतां त्रिविधस्थितिमेव क्रमश आह-"लहु अलहु” इत्यादिना।
इदमुक्तं भवति-अनन्तरोक्तात् 'सायस्स सुद्धमज्झिम' इत्यादिवचनात् सातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकरसं वघ्नन्तो जीवा विशुद्धपरिणामा इति कृत्वा "लहु" ति ज्ञानावरणस्य 'लघु'तत्प्रायोग्यजघन्यां स्थिति बध्नन्तीत्यर्थः । न चैते केवलं विवक्षितांजघन्यां स्थितिमेव बध्नन्ति, किन्तु चतुःस्थानिकेऽपि मन्दमन्दतरादिरसे बध्यमाने समयद्विसमयादिनाऽभ्यधिकां यावत् केचनात्यन्तमन्दतमचतुःस्थानिकरसबन्धका उक्तजघन्यस्थित्यपेक्षया प्रभृतसागरोपमशतै
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पोढाविभक्तजीवानां बन्धप्रायोग्यस्थिति० ] चरमेऽधिकारे जीव समुदाहारः
[ ६४३
रधिकमपि जघन्यांस्थितिं बध्नन्ति ततश्च "लहु" इत्यनेनोपलक्षणात् समयादिनाऽधिकां यावत् प्रभूतसागरोपमशतैरधिकामपि स्थि तिमेते प्रस्तुताश्चतुःस्थानिकरसं बध्नन्तो जीवा बध्नन्तीत्यपि विज्ञेयम् एवमेवाग्रेऽपि द्रष्टव्यम् । तद्यथा- सातवेदनीयस्य त्रिस्थानिकरसं बध्नन्तो जीवा मध्यमपरिणामा इति कृत्वोक्तजघन्यां वक्ष्यमाणोत्कृष्टां चस्थितिमपेक्ष्य "अलहु" ति या ज्ञानावरणस्य 'अलघु'अजघन्या, मध्यमा इति यावत् तां मध्यमां स्थिति बध्नन्ति । अत्राप्युपलक्षणाद् विवक्षितां मध्यमस्थितिमपेक्ष्य समयादिनाऽधिका बहुसागरोपमशतप्रमाणा याः स्थितयस्ता अपि बध्नन्तीनि बोद्धव्यम् । एवमेव सातवेदनस्य द्विस्थानिकरसं बघ्नन्तो जीवाः पुनः “ सहाणम्मि खलु उक्कोसं” ति 'स्वस्थाने'- स्वसंक्लेशभूमिकानुसारेणैव ज्ञानावरणस्योत्कृष्टां स्थितिं बध्नन्ति, न पुनरौधिको कृष्टस्थितिमिति खलशब्दार्थः; अत्राप्युत्कृष्टस्थित्युपलक्षणात् समयद्विसमयादिहीनोत्कृष्टां यावत् प्रभूतसागरोपमशतपृथक्त्वहीनामुत्कृष्टां स्थिनिमपि बध्नन्तीति बोद्धव्यम् । यद्वा स्वपदेन सातावेदनीयं ग्राह्यम्, ततश्च मातवेदनीयस्य द्विस्थानिकरसं वध्नन्तो जीवाः सातवेदनीयस्यैवोत्कृष्टां स्थिति बध्नन्ति, अत्र च पक्षे खलुशब्दोऽवधारणार्थे विशेष्यानुगामितया च व्याख्येयः ।
इदमुक्तं भवति - अवधारणार्थो हि एवकारस्त्रिधा, विशेष्यसङ्गतः, विशेषणसंगतः क्रियासङ्गतश्च भवति, अवधारणं च व्यवच्छेदफलम्, तत्र विशेष्य सङ्गतेनैव कारणान्ययोगव्यवच्छेदः क्रियते, यथा - 'चतुर्दशपूर्वविद एवाऽऽहारकशरीरिणः' इत्यत्र चतुर्दशपूर्विभ्योऽन्येषामाहारकशरीरित्वयोगो व्यवच्छिद्यते; अर्थाच्चतुर्दशपूर्विव्यतिरिक्त आहारकशरीरी न भवति । विशेषणानुगामिनैवकारेण त्वयोगव्यवच्छेदो विधीयते, यथा- 'अभव्यो मिध्यादृष्टिरेव ' इत्यत्राऽभव्ये मिथ्यादृष्टित्वाऽयोगो व्यवच्छिद्यते; अर्थादभव्यमात्रेऽवश्यं मिथ्यात्वपरिणामः । क्रियासङ्गतैवकारेण पुनरत्यन्तायोगो व्यवच्छिद्यते; यथा-'भव्यः संयतो भवत्येव' इत्यत्र भव्ये संयतभावस्याऽत्यन्ताऽयोगो व्यवच्छेद्यः, अर्थात् केचन भव्या असंयता अपि विद्यन्ते । प्रस्तुतेऽवधारणार्थखलुशब्दस्य विशेष्य संगततया विधाने सातावेदनीयस्य, तदुपलक्षणात् परावर्तमानशुभप्रकृतीनां चोत्कृष्टां स्थितिं बध्नन्ति, न पुनर्ज्ञानावरणादीनामपरावर्तमानानाम् परावर्तमानाऽशुभप्रकृतीनां वेत्यर्थः ||८५२||
अथ शेषा सातवे दनीपत्रिविधरसबन्धकजीवानधिकृत्याह
पढमस्स ठिहं कमसो असायचउतिगबिठाणिये बंधे । बंधंति गुरु अगुरु सट्टाणे चेव य जहण्णं ॥ ८५३॥
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(प्रे०) “पढमस्स” इत्यादि, प्राग्वदसातवेदनीयस्य चतुःस्थानिके त्रिस्थानिके द्विस्थानिके रसबन्धे प्रवर्तमाने सति तद्बन्धकाः 'प्रथमस्य ' - ज्ञानावरणस्य 'गुरुम् ' - उत्कृष्टाम्, 'अगुरुम् ' - अनुत्कृष्टाम्, मध्यमामित्यर्थः, स्वस्थाने एव जघन्यां च स्थितिं बध्नन्तीत्यर्थः । इयमत्र भावना
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बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ षोढा विभक्तजीवानां बन्धप्रायोग्यस्थिति। 'तविवरीयं असायस्स' इत्यनन्तरोक्तवचनादसातवेदनीयस्य चतुःस्थानिक रसं बघ्नन्तो जीवाः संक्लिष्टाध्यवसायाः, किश्च तिर्यङ्-मनुष्य-देवायुर्वर्जानां शेषसर्वप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिः संक्लेशाधिक्ये निर्वत्यते, तत एतेऽसातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकरसं बघ्नन्तो जीवा ज्ञानावरणस्योत्कृष्टां त्रिंशत्कोटिकोटिसागरोपमप्रमाणां स्थितिं बध्नन्ति, चतुःस्थानिकादिरसानां प्रत्येकं स्वस्थानेऽसंख्येयमेदमिन्नत्वात् मन्दमन्दतरादिचतुःस्थानिकरसं बघ्नन्तो जीवा नातिसंक्लिष्टा इति कृत्वा समयादिना हीनां हीनतराद्यां यावदन्तःकोटिकोटिसागरोपमप्रमाणामपि स्थितिं बध्नन्ति, अत उत्कृष्टस्थित्युपलक्षणादन्या अपि स्थितीरेते बध्नन्तीति प्राग्वदत्रापि द्रष्टव्यम् । नन्वेवं तहिं कस्मादुत्कृष्टैव मूले गृहीता ? उच्यते, त्रिस्थानिक रसं बध्नद्भिदिस्थानिकरसं बध्नद्भिर्जीवैश्चैया त्रिंशत्कोटिकोटिसागरोपमप्रमाणा स्थितिर्न बध्यते इत्येतदर्शनार्थम्, असातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकरसबन्धकैरेव ज्ञानावरणस्योत्कृष्टा स्थितिबध्यते, न पुनस्त्रिस्थानिक-द्विस्थानिकरसबन्धकैरिति भावः ।
असातवेदनीयस्य त्रिस्थानिकरसं बध्नन्तो जीवास्तु ज्ञानावरणस्य तत्प्रायोग्यां अन्त:कोटीकोटीसागरोपमप्रमाणां मध्यमां स्थिति बध्नन्ति,असातवेदनीयस्य विस्थानिक रसंबध्नन्तो जीवाः पुनर्ज्ञानावरणस्य 'स्वस्थाने एव' -स्वविशुद्धिभूमिकानुसारेणैव जघन्यां तदुपलक्षितां समयद्विसमयादिमात्रेणाऽभ्यधिका यावत् प्रभूतसागरोपमशतैरधिकां जघन्यस्थितिमपि बध्नन्ति, इत्थमेवानन्तरोक्तस्थानेऽप्युपलक्षणात् प्रभूतसागरोपमप्रमाणाः स्थितिविकल्पा असातवेदनीयस्य त्रिस्थानिकरसं बध्नतां जीवानां बन्धप्रायोग्यतया द्रष्टव्या इति ।
ननु कर्मप्रकृतिसंग्रहण्यनुभागबन्धचूर्णी रसबन्धाध्यवसायानुकृष्टिप्रतिपादनावसरे'सायस्स ओक्कसियं ठिति बन्धमाणस्स जाणि अणुभागधज्झवसाणट्ठाणाणि समयूणाए उक्कसियाए ठितीए ताणि य अण्णाणि य । बिसमयूणाए उक्कसियाए ठितीए ताणि य अण्णाणि य । एवं जाव असायस्स जहण्णिया ठिती।' इत्यनंन सातवेदनीयोत्कृष्टस्थितिप्रभृतेः यावदसातवेदनीयजघन्यस्थित्या समं सातवेदनीयस्याऽऽक्रान्तस्थितिस्तावत्'तान्यन्यानि' लक्षणाया रसबन्धाध्यवसायानुकृष्टेरभिहितत्वात् पञ्चदशसागरोपमकोटिकोटिलक्षणसातवेदनीयोत्कृष्ट स्थितिप्रभृतेः समयसमयोनायां समयाधिकजघन्याऽऽक्रान्तस्थितिपर्यन्तायामुत्तरोत्तरस्थितौ ये रसबन्धाध्यवसायास्तेषामध्यवसायानामाक्रान्तजघन्यस्थिति यावत्पूर्वपूर्वस्थितावनुवृत्तेस्तत्रापि तादृगध्यवसायनिबन्धनस्सातवेदनीयद्वित्रिस्थानिकरसवन्धोऽपि भवत्येव,अत एव तत्राऽनुभागतीव्रमन्दताप्रतिपादनावसरे-सायस्स उक्कासयाए ठितीए जहएणपदे जहण्णा.
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रसबन्धचूर्णिन्थेन विरोधाशङ्का ]
चरमेsun जीवसमुदाहारः
[ ६४५
भागो थोवो । समाए उक्कसियाए ठितीए जण्णपदे जहण्णाणुभागो तत्तिओ चेत्र । एवं बिसमयूणाए उक्कसियाए ठितीए जहणपए जहण्णाणुभागो तत्ति चेत्र । तिसमयूणाए ठितीए जहण्णपदे जहण्णाणुभागो तत्तिभ चेत्र । एवं उस्सारेयव्वं जात्र जहण्णओ असायबंधो ताव तत्तिओ चेव' । इत्यनेन सातावेदनीयोत्कृष्टस्थितौ यावान् जघन्यानुमागोऽभिहितस्तावान् एव समय तमयोनानां यावदसातवेदनीयेन सहाऽऽक्रान्तां तदीयजघन्यस्थितावपि जघन्यानुभागोऽभिहितः, न च तावन्मात्रम्, किन्तर्हि ? 'असाग्रम्स जणयं द्वितिं बंधमाणस्स जाणि अणुभागबंधज्झवसाणद्वाणाणि तत्तो समयाहियाए ठितीए ताणि य अण्णाणि य । एवं बिसमयाहियाए ताणि य अण्णाणि य । एवं जाव सागरोपमसयपुहुत्तं । सागरोत्रम सयपुहत्तं णाम जाब सायस्स उक्कोसिया ट्टिती ताय ताणि य अण्णाणि य' । इत्यनेन सातवेदनीयेन सममक्रान्ताया असातावेदनीयजघन्यस्थितेरारभ्य यावत् सातावेदनीयोत्कृष्टस्थितिस्तावत् 'तान्यन्यानि' लक्षणाया रसबन्धाध्यवसायानुकृष्टेरमिधानात्, तथा तदीयतीत्रमन्दताभिधानात्र सरेऽपि ' असा यस्स जणिगाए ठितीए जहण्णपदे जहण्णाणुभागो थोत्रो | बितियाए ठितोए जहण्णपदे जहण्णाणुभागो तत्तिओ चेत्र । ततियाए ठितीए जहण्णाणुभागो तत्तिओ चेव । एवं चेत्र सागरोत्रमसतपुहुत्तं तात्र तत्तिओ चैत्र ( जात्र) सातउकोसट्टितीत्ति भणितं होइ ।' इत्यनेनाऽसातावेदनीयस्य जघन्यस्थितिप्रभृतेस्तदीयपञ्चदशसागरोपमकोटिकोटिलक्षणाऽऽक्रान्तोत्कृस्थितिं यात्रजघन्यपदगतानुभागस्य तुल्याभिधानाच्च पूर्वपूर्वस्थितौ बन्धप्रारोग्यस्या-सातवेदनीयद्वि-त्रिस्थानिकरसस्याऽपि उत्तरोत्तर स्थितौ यावत्सातवेदनीयेन सह परावर्च्य बन्धप्रायोग्यायां चरमायामसातवेदनीयाऽऽक्रान्तस्थितावपि समुद्भवसद्भाव एव ।
ततः किम् ? ततः सातवेदनीयचतुःस्थानिकरसबन्धकानामिव तदीयद्वित्रिस्थानिकरसबन्धकानामपि तदीयोत्कृष्टा ऽजघन्यस्थितिवञ्जघन्यस्थित्युपलक्षिता याः सातवेदनीयचतुः स्थानिकरसबन्धकप्रायोग्यतयाऽभिहिता आक्रान्ताः सागरोपमशत पृथक्त्वस्थित यस्ता अपि बन्धप्रायोग्या एव, एवमेवासात वेदनीयचतुः स्थानिकरसबन्धकानां प्रायोग्याः सातवेदनीयेन समं परावर्त्य बन्धप्रायोग्या अत एवाssक्रान्ता याः पञ्चदशकोटिकोटिसागरोपमान्ता असातवेदनीयस्थितयस्ता अपि असातवेदनीयद्वि-त्रिस्थानिकरसबन्धकानां प्रायोग्या एव । तथा च 'पदमस्स ठिहं कमसो सायरस' इत्याद्यनुपदोक्तगाथा- (८५२-८५३)- द्वयेन तत्तज्जघन्याऽजघन्यादिस्थितीनां तथा तदुपलक्षितानां सागरोपमशतपृथक्त्वस्थितीनामेव सातवेदनीयचतुस्त्रिस्थानरसबन्धकप्रायोग्यतयाSसातवेदनीयद्वि- त्रिस्थानरसबन्धकप्रायोग्यतया च प्रतिपादितत्वाच्चूर्णिग्रन्थेन व्यक्तो विरोधः ।
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६४६ ]
विहाणे मूलपडिटिइबंधी [ साता-सातरसबन्धाध्यवसायस्थापना
न च यथोक्तानुभागवन्धाध्यवसायानुकृष्टि
तत्तीत्र मन्दताग्रन्थानुसारेणाऽसात वेदनीयेन सममाक्रान्तसात वेदनीयजघन्यस्थितिं यावदधः सातवेदनीयचतु:स्थानिकरसबन्धाध्यवसायानामिव सातवेदनीय द्वित्रि-स्थानिकरसबन्धाध्यवसायानां प्रादुर्भाव सद्भावस्ततश्च सात वेदनीयचतुः स्थानिकरसबन्धकानामिव तदीयद्वि-त्रि- स्थानिकवन्धकानामपि ता आक्रान्तजघन्यस्थितिपर्यन्ताः सात वेदनीयस्थितयो बन्धप्रायोग्याः, एवं सातवेदनीयेन सहाऽऽक्रान्तामसात वेदनीयस्य पञ्चदशकोटिकोटिसागरोपमप्रमाणामुत्कृष्टस्थितिं यावदूर्ध्वमसात वेदनीयचतुःस्थानिकरसबन्धाध्यवसायानामिवाऽसातवेदनीय- त्रिस्थानिकरसवन्धाध्यवसायानामनुकृष्टेस्सद्भावादसातवेदनीयचतुः स्थानिकरसबन्धकानामिव तदीयद्वित्रस्थानिकरसबन्धकानामपि आक्रा न्तोकृष्ट स्थितिपर्यन्ताः सात वेदनीयस्थितयो बन्धप्रायोग्याः, न पुनर्ज्ञानावरणस्य तावत्स्थितीनामपि तत्तद्रसबन्धकप्रायोग्यतया भवितव्यम्, तत्र ग्रन्थे ज्ञानावरणस्थितिषु साताऽसात वेदनीयाऽनुभागबन्धाध्यवसायानुकृष्टरेवाऽप्रतिपादितत्यात् । तथा च ज्ञानावरणस्य यथोक्तसागरोपम शतपृथक्त्वस्थितीनां सातवे दनी परास्तत्तसबन्धकप्रायोग्यताऽभिधानं न कश्विद्विरोधः, सातवेदनीयादेर्यथोक्तसागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाणस्थितीनां सातावेदनीयादितत्तद्रसबन्धकप्रायोग्य तयाऽभिधाने एवो क्तविरोधसम्भवादिति वाच्यम् । सातावेदनीयासातवेनपयोरिव ज्ञानावरणस्याऽपि जघन्यस्थितेविशुद्धिप्रायोग्यत्वेनोत्कृष्टस्थितेः संक्लेशप्र योग्यत्वेन च संक्लेवृद्ध यथा सातावेदनीयस्याऽसात वेदनीयस्य वा स्थितिबन्धवृद्धिर्भवति, तथा ज्ञानावरणस्याऽपि स्थितिबन्धवृद्धिर्भवति, यथा च विशुद्धिवृद्धौ तयोः स्थितिबन्ध
बन्धाध्यवसायाः स्थानिकरबन्धाध्यवसाया:
असातावेदनीयानुभाग
श्राक्रान्तस्थितयः →
चतुःस्थानिकरसबन्धाध्यवसायाः -→ त्रिस्थानिकाध्यवसायाः
+++++++
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ +++++++ अनाक्रान्तस्थितयः
************************************
०००
XXXXXXXX XXXXXX X X X X
AAAAA← त्रिस्थानिक रसबन्धाध्यवसायाः । ●● चतुःस्थानिकरसबन्धाध्यवसायाः ।
अन्तः कोटिकोटिसागरोपमलक्षणाः स्थितयः रसबन्धाध्यवसायानां स्थापना कर्मप्रकृत्यनुभागबन्ध चूर्वोक्तानु भागबन्धाव्यवसायानुकृष्ट्यनुसारेण साता-सात वेदनीयाऽऽक्रान्तस्थितिपुः द्वि-त्रि- चतु:स्थानिक
बन्धाध्यवसायाः --
सातावेदनीयाऽनुभाग
०००००००००००००००००००००१-२-३ - या वत् १५ यावत्-३० साग०
× × × × × × ← द्विस्थानाध्यव० स्थितिपर्यन्ताः स्थितयः कोटाकोटि सागरोपमादारभ्योत्कृष्ट
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चूर्णिविरोधाऽऽशङ्कापरिहारः ] चरमेऽधिकारे जीवसमुदाहारः
[ ६४७ हानिर्भवति तथा ज्ञानावरणस्यापि स्थितिबन्धहानिर्भवति; तथा च यदा सातवेदनीयाऽऽक्रान्तजघन्यस्थितिबन्धस्तदा ज्ञानावरणस्याऽपि तत्यायोग्यजघन्यस्थितिबन्ध एव, एवं यदा सातवेदनीयाऽऽक्रान्तोत्कृष्टस्थितिबन्धस्तदा ज्ञानावरणस्यापि तत्प्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्य सम्भव एव; एवं च स्थितमिदम् , यत्-सातवेदनीपद्वि-त्रिस्थानिकरसवन्धकानामपि यथा सातवेदनीयाऽऽक्रान्तजघन्यस्थितिपर्यन्ताः स्थितयो बन्धप्रायोग्यास्तथा ज्ञातावरणस्याऽपि तत्प्रायोग्यजघन्यस्थितिपर्यन्ताः स्थितयः सातवेदनीयद्वि-त्रिस्थानिकरसबन्धकानां बन्धप्रायोग्या एव । एवमेवाऽसातवेदनीयद्वि-त्रिस्थानिकरसबन्धकानामपि यथाऽसातवेदनीयाऽऽक्रान्तोत्कृष्टस्थितिपर्यन्ताः स्थितयो बन्धप्रायोग्यास्तथा ज्ञानापरणस्याऽपि तत्प्रायोग्योत्कृष्टस्थितिपर्यन्ताः स्थितयोऽसातवेदनीयद्वि-त्रिस्थानिकरसबन्धकानां बन्धप्रायोग्या एव ।।
तदेवं साता ऽसातवेदनीयाक्रान्तजघन्यो कृष्टस्थितिपर्यन्तानां स्थितीनां साता-ऽसातवेदनीयद्वि-त्रिस्थानिकरसबन्धकमायोग्यत्ववत् ज्ञानावरणस्थाऽपि तत्तदाक्रान्तजघन्योत्कृष्टस्थितिपर्यन्तानां 'पढमस्स ठिई कमसो' इत्यादि(गाथा-८५२-८५३)नाऽभिमतस्थित्यपेक्षयाऽधिकानामकत्राऽऽक्रान्त जघन्यस्थितिपर्यन्तानाम् ,अन्यत्राऽऽक्रान्तोत्कृष्टस्थितिपर्यन्तानां च स्थितीनामपि साता-ऽसातवेदनीयद्वि-त्रिस्थानिकरसवन्धकमायोग्यत्वे संस्थिते तद्दोषतादवस्थ्यमेव ? इति चेद,
भण्यतेऽत्रोत्तरम्-यथोक्तानुभागवन्धचूर्णिवचनात् तत्तत्स्थितिबन्धस्थानेषु तत्तद्रसबन्धाध्यवसायानां पृथक्पृथग्भावेऽपि, तत एव अनुभागतीव्रमन्दताया भेदेनाधिकृतत्वेऽपि च तत्र तत्र स्थितिबन्धस्थानेषु रसबन्धस्य द्वि-त्रिस्थानिकादिभेदेन नियमनं तु स्थितिबन्धप्रमाणनियमनपथा उत्कृष्टपदगतानुभागेनैव कर्तव्यम्। तथा च न दोषलेशोऽपि । एतदुक्तं भवतिज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिबन्धे प्रवर्तमाने स्थितिबन्धमानं यथा तदानीं बध्यमानेषु येषु केषु दलिकेषु शेषबध्यमानदलिकापेक्षयाऽधिकतमकालं यावत्तेन रूपेणाऽवस्थानस्वभाव उत्पद्यते तच्चरमदलिकनिषेकस्याधीनं सत् त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोट्यादिलक्षणमभ्युपगतम् , न पुनर्द्धिचरमादिदलिकनिषेकाधीनं समय-द्विसमयादिन्यूनत्रिंशत्सागरोपमकोटिकोट्यादिरूपम् । यथा उत्कृष्टस्थितिबन्धमानं तथा जघन्यस्थितिबन्धमानमपि तस्मिन् जघन्यस्थितिबन्धे प्रवर्तमाने बध्यमानशेषदलिकापेक्षयाऽधिकतमकालं यावत्तेन रूपेणाऽवस्थानस्वभावो येषु दलिकेषु समुत्पद्यते तस्य चरमदलिकनिषेकस्याधीनं सद् अन्तमुहूर्तादिकं प्रागुक्तम् ; न पुनर्येषु दलिकेषु बध्यमानशेषदलिकापेक्षया स्तोकतमकालं यावत्तेन रूपेणाऽवस्थानस्वभावः समुत्पन्नस्तादृक्प्रथमनिषेकाधीनम् , यतस्तथात्वे वेदनीयादितत्तत्कर्मणामौधिकं जघन्यस्थितिबन्धमानं द्वादशमुहूर्तादिकमनुक्त्वाऽन्तमुहूर्तमेव कथितं स्यात् , कुतः ? तस्य जघन्यस्थितिवन्धेऽन्तमुहूर्तमात्राया एवाबाधायाः सत्त्वेनाऽवाधाऽनन्तरवर्तिनि प्रथमदलिकनिषेकेऽन्तमुहूर्तकालं यावदेव तेन रूपेणाऽवस्थानस्वभावानां दलिकानां जघन्यपदे लाभात् । यथा जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धे तथा मध्यमस्थितिबन्धेऽपि ज्ञेयम् ।
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६४८ ]
बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ तत्तद्वन्धयोग्यस्थितिषु बन्धकमानम् स्थितिवन्धप्रमाणनियमनवद् द्वि-त्रिस्थानिकादिभेदभिन्नरसवन्धप्रमाणमपि तत्र तत्र स्थितिवन्धस्थाने उत्कृष्टपदे बन्धप्रायोग्येनानुभागेन नियम्यते तदा यत्र स्थितिबन्धस्थानेषु चतुस्थानिकरसबन्धाध्यवसायानां सद्भावनोत्कृष्टपदे सातवेदनीयादेश्चतुःस्थानिकरसो बन्धप्रायोग्यस्तानि स्थितिबन्धस्थानानि सातवेदनीयादेश्चतुःस्थानिकरसबन्धकप्रायोग्यानि, एवं येषु स्थितिवन्धस्थानेषु न विद्यते चतुःस्थानिकरसवन्धप्रायोग्या अध्यवसायाः, किन्तूत्कृष्टपदेऽपि त्रिस्थानिकरसबन्धप्रायोग्या एव तानि स्थितिबन्धस्थानानि त्रिस्थानिकरसबन्धकप्रायोग्यानि, शेषस्थितिस्थानेषु तु चतु:स्थानिकरसबन्धाध्यवसायानामिव त्रिस्थानिकरसबन्धाध्यवसायानामप्यभावेन तानि तु परिशेषादपि द्विस्थानिकरसबन्धकमायोग्यानीति तु सुखेन गम्यते । इत्थं हि चूर्णिग्रथाऽविरोधेनोपपद्यते 'पढमस्स ठिई कमसो' इति गाथाद्वयोक्तार्थ इति ।।८५३॥
तदेवं दर्शिताः सातवेदनीयाऽसातवेदनीयादेश्चतुःस्थानिकादित्रिविधत्रिविधरसबन्धकतया षड्धा विभक्तानां जीवानां विशुद्धाविशुद्धाद्यध्यवसायानुसारेण बन्धप्रायोग्या मूलप्रकृतीनां स्थितिविकल्पाः। साम्प्रतं जघन्यादिभेदभिन्नेष्येतेष्वसंख्येयेषु स्थितिविकल्पेषु प्रत्येकं बन्धकतया वर्तमानाः षड्विधा जीवा उत्कृष्टपदे कियन्तः प्राप्यन्त इत्येतदादावनन्तरोपनिधयाऽऽह
पढमस्स जहण्णाए थोवा जीवा तओ कमाऽभहिया। जलहिसयपुहुत्तं जा तत्तो उड्ढं विसेसूणा ॥८५४॥ सायस्स चउतिठाणे तहा असायस्स हुन्ति वितिठाणे।
अयरसयपुहुत्तं जा सेसदुठाणेसु सगुरुठिइं ॥८५५॥ (प्रे०)"पहमस्स जहण्णाए” इत्यादि, तत्र “जीवा" नि अनन्तरोक्ताः सातवेदनीयस्याऽसातवेदनीयस्य च चतुःस्थानिकादितत्तद्रसं बध्नन्तः पविधा जीवा प्रत्येकं प्रथमस्य-ज्ञानावरणस्य "जहण्णाए” त्ति जघन्यायां स्थितौ "थोवा"त्ति 'स्तोकाः'-समयावधिकस्थितेर्बन्धकापेक्षया स्तोकाः, भवन्तीति परणान्वयः । “तओ कमाऽभहिया जलहिसयपुहत्तं जा"त्ति ततः समयद्विसमयावधिकस्थितिस्थानेषु क्रमाद् 'अभ्यधिकाः'-विशेषाधिका जीवा भवन्ति यावत् 'जलधिशतपृथक्त्वं'-मागरोपमशतपृथक्त्वमित्यर्थः,बहूनि सागरोपमशतानीति यावत् । “तत्तो उड्ढे विसेसूणा” ति अस्य चान्वयः "अयरसयपुहुत्तं जा" इति परेण, ततोऽनन्तरोक्ताः प्रभूतसागरोपमशतसमयप्रमाणाः स्थितीरतिक्रम्य तदनन्तरस्थितिस्थानादारभ्यो विशेषोनाः' -उत्तरोत्तरस्थितिस्थानेषु तद्वन्धकतया वर्तमाना जीवा विशेषहीना विशेषहीनाभवन्ति यावत् "अयरसयपुहत्तं" ति अतरशतपृथक्त्वम् , प्रभूतानि सागरोपमशतानीत्यर्थः । किं षड़विधरसस्थाने उत कतिपयरसस्थाने एवेत्याह-"सायस्स चउतिठाणे" इत्यादि, सातवेदनीयस्य चतुस्लिस्थानिकमेदमिन्ने
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तत्राऽनन्तपरोपनिधा ] चरमेऽधिकारे जीवसमुदाहारः
[ ६४९ द्विविधरसस्थानेऽसातवेदनीयस्य द्वित्रिस्थानिकभेदभिन्ने द्विविधरसस्थाने च, न पुनः शेषद्विविधरसस्थानेऽपि । तर्हि तत्र किमित्याह-“सेसदुठाणेसु” इत्यादि, शेषे सातवेदनीयस्य द्विस्थानिकरसबन्धेऽमातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकरसबन्धे च “सगुरुठिई" ति म्वप्रायोग्यां 'गुरुम् - उत्कृष्टां स्थिति यावद्विशेषहीना विशेषहीना बन्धका भवन्तीति गम्यते ।।
इदमुक्तं भवति-सातवेदनीयस्य चतुःस्थानिक रसं बघ्नन्तो ज्ञानावरणीयस्य स्वप्रायोग्यजघन्यस्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवाः स्तोकाः सन्ति, समयाधिकजघन्यस्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवास्ततो विशेषाधिका भवन्ति, एवं विशेषाधिका विशेषाधिकास्तावद्वाच्या यावद् बहूनि सागरोपमशतान्यतियन्ति, अतः परं समयाधिकस्थितेर्बन्धकतया वर्तमानाः सातवेदनीयस्य चतुःस्थानिक रसं बघ्नन्तो जीवा विशेषहीनाः सन्ति, द्विसमयाधिकस्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवास्ततो विशेषहीनाः सन्ति, एवं विशेषहीना विशेषहीनास्तावद्वाच्या यावत्प्रभूतानि सागरोपमशतान्यतिक्रम्य यत्र सातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकरसबन्धकानां प्रायोग्योत्कृष्टा स्थितिरिति । इत्थमेव सातवेदनीयस्य त्रिस्थानिकरसं बनतो ज्ञानावरणस्य तत्प्रायोग्याया जघन्यस्थितेबन्धकतया वर्तमाना जीवाः स्तोकाः, समयाधिकजघन्यायाः स्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवास्ततो विशेषाधिकाः, द्विसमयाधिकजघन्यायाः स्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवास्ततो विशेषाधिकाः, एवं विशेषाधिका विशेषाधिकास्तावद्यावत् प्रभूतानि सागरोपमशतानि, ततः परं समयसमयस्थितिवृद्धौ पूर्ववद् विशेषहीना विशेषहीना वाच्या यावत् प्रभूतानि सागरोपमशतान्यतिक्रम्य सातवेदनीयस्य त्रिस्थानिकरसं बघ्नतां जीवानां प्रायोग्या उत्कृष्टा स्थितिरिति । सातवेदनीयस्य द्विस्थानिक रसं वघ्नन्तो ज्ञानावरणस्य तत्प्रायोग्याया जघन्यायाः स्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवाः स्तोकाः, समयाधिकस्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवास्ततो विशेषाधिकाः, द्विसमयाधिकस्थितेर्बन्धकतया वर्तमानाजीवास्ततो विशेषाधिकाः, एवं विशेषाधिका विशेषाधिका यावत् बहूनि सागरोपमशतान्यतिक्रामन्ति, ततः परं समयाधिकस्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवा पुनर्विशेषहीनाः, एवं समयद्विसमयादिवृद्धौ विशेषहीना विशेषहीनास्तावद्वाच्या यावत् पञ्चदशकोटिकोटिसागरोपमप्रमाणा ज्ञानावरणस्य सातवेदनीयेन समं बन्धप्रायोग्या उत्कृष्टा स्थितिरिति ।
इत्थमेवाऽसातवेदनीयचतु-स्त्रि-द्विस्थानिकतत्तद्रसं बघ्नतां जीवानां विषयेऽप्यनन्तरोपनिधया द्रष्टव्यम् ,नवरं सातवेदनीयचतुःस्थानिकरसबन्धकानां स्थानेऽसातवेदनीयसत्कतिस्थानिकरसबन्धका वक्तव्याः, ततोऽसातवेदनीयस्यापि त्रिस्थानिकरसस्य निर्वतका एव, ततः पुनः सातवेदनीयस्य द्विस्थानिकरसम्य बन्धकानां स्थानेऽसातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकं रसं बघ्नन्तो जीवा द्रष्टव्याः, तत्रापि ते विशेषहीना विशेषहीनास्तु तावद्वक्तव्या यावज्ज्ञानावरणस्योत्कृष्टा स्थितिस्त्रिंशत्कोटिकोटिसागरोपमाणि । तद्यथा-अशातवेदनीयस्य द्विस्थानगतं रसं बघ्नन्तो ज्ञानावरणस्य तत्प्रा
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६५० ]
बंधविहाणे मूलपयडिटिबंधो [ तत्तद्बन्धयोग्यस्थितिषु बन्धकमान म् योग्याया जघन्यायाः स्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवाः स्तोकाः, ततः समयाधिकस्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवा विशेषाधिकाः, पुनरपि समयाधिकस्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवा विशेषाधिकाः, एवं विशेषाधिका विशेषाधिकास्तावाच्या यावत् प्रभूतानि सागरोपमशतानि गच्छन्ति, ततः परं समयाधिकस्थितेर्बन्धकाः पूर्वापेक्षया विशेषहीनाः, इतस्तु पूर्ववद् द्विशेषहा निर्वाच्या यावत् प्रभूतानि सागरोपमशतानि व्यतिक्रमन्ति । असातावेदनीयस्य त्रिस्थानिकं रसं निर्वर्तयन्तो ज्ञानावरणस्य तत्प्रायोग्याया जघन्यायाः स्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवाः स्तोकाः, ततः समयाधिकस्थितेर्बन्धकतया वर्तमान जीवा विशेषाधिकाः, पुनरपि समयाधिकस्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवा ततो विशेषाधिकाः, एवं तावद्वाच्यं यावत् प्रभूतानि सागरोपमशतानि गच्छन्ति, ततः परं बहूनि सागरोपमशतानि यावदुत्तरोचरस्थितौ तु प्राग्वद् विशेषहीना विशेषहीना बन्धका वाच्याः । असातावेदनीयस्य चतुःस्थानगतं रसं बघ्नन्तो ज्ञानावरणस्य तत्प्रायोग्याया जघन्यायाः स्थितेन्धकतया वर्तमाना जीवाः स्तोकाः, ततः समयाधिकस्थितौ विशेषाधिकाः, एवं समयसमय वृद्ध्या विशेषाधिका विशेषाधिकास्तावद् द्रष्टव्या यावद् बहूनि सागरोपमशतान्यतिक्रमन्ति, ततस्तु समयसमय वृद्धया यावज्ज्ञानावरणस्योत्कृष्टा स्थितिस्त्रिंशत्कोटिकोटी सागरोपमाणि तावदुत्तरोत्तरस्थिते बन्धकतथा वर्तमाना जीवा विशेषहीना विशेषहीना अभिधातव्याः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णौ
'अतरोत्रणिहिताए सुभपगतीण परियत्तमाणिगाणं चउट्ठाणबन्धगा णाणावरणीयस्स जणिगाए ट्ठितीए जीवा थोवा | बितियाए ठिईए जीवा विसेसहिया, एवं ततियार विसेसहिया । एवं विसेसहिया जाव सागरोवमसतं ति । 'उदहिसयं' ति बहूणि सागरोत्रमाणि । 'जीवा विसेसहीणा उदहिसयपुहुत्त मो जाव' त्ति तेण परं बिसेसहीणा विसेसहीणा जाव सागरोपमसतपुहुत्तं ति । पुहुत्तसहो बहुत्तवाची । एवं तिट्ठाणबन्यगजीवा भाणियन्त्रा । परियत्तमाणिगाणं सुहाणं बिट्ठाणबन्धगा णाणावरणीयतप्पा उग्गजहणिगाए ठितीए जीवा थोवा । बिइयाए ठितीर जीवा विसेसाहिगा, ततियाए विसेसाहिया, एवं विसे साहिया विसेसाहिया जाव सागरोत्रमसतंति । तेण परं विसेसहीणा विसेसहीणा 'आसुभुक्कोसं' ति जात्र परियत्तमणिगाणं सुभाणं उक्कस्सिगा ठितित्ति । 'असुभाणं बिट्ठाणे तिचउट्ठाणे य उक्कस्स' त्ति परियत्तमाणिगाणं असुभपगतीणं बिट्ठाणिय- तिट्ठाणिय- चउट्ठाणबन्धगा वक्तव्त्रा । णाणावरणीयस्स सठाणजणिगाए ठितीए जीवा थोत्रा, बितियाए जीवा बिसेसाहिया, ततियाए विसेसाहिया, एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव सागरोत्रमसतं ति । तेण परं विसेसहीणा जाव असुभपरियतमः णिगाणं उक्कोसिया ठितित्ति' इति ॥ ८५५।। तदेवं कृताऽनन्तरोपनिधया प्ररूपणा । साम्प्रतं परम्परोपनिधयाऽऽह - अह दुगुणवठिहाणी गंतूणम संखपल्लमूलाणि । ताओ जाणेयव्वा पल्लासंखेजमूलंसो ||८५६॥
(प्रे०) "अह दुगुणचड्टिहाणी" इत्यादि, अथशब्द आनन्तर्ये, ततश्चानन्तरोपनिश्रयाऽभिधानान्तरं परम्परोपनिधायां "गंतूणमसंखपल्लमूलाणि" ति असंख्येयानि पल्योपमसत्कप्रथमवर्गमूलानि 'गत्वा' - अतिक्रम्यानन्तरे स्थितिबन्धस्थाने "दुगुणवड्ठिहाणी" त्ति सातावेदनीयादे चतुः स्थानादितत्तद्रसं बघ्नतां जीवानां द्विगुणवृद्धिर्द्विगुणहानिश्च भवतीति शेषः । इदमुक्तं
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तत्र परम्परोपनिधा ] चरमेऽधिकारे जीवसमुदाहारः
[६५१ भवति-सातवेदनीयादेश्चतुःस्थानिकादितत्तद्रसं बघ्नतां जीवानां प्रायोग्याया जघन्यायाः स्थितेरारभ्य प्रभूतसागरोपमशतपृथक्त्वस्थितिबन्धस्थानेष्वसंख्यपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणानि स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्यातिक्रम्य जीवाः द्विगुणा द्विगुणा भवन्ति, ततः परं तत्तच्चतुःस्थानिकादिरसबन्धकानां प्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धं यावत् पल्योपमासंख्येयप्रथमवर्गमलप्रमाणानि स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्यातिक्रम्य बन्धकजीवविषया द्विगुणहानयः प्राप्यन्ते।
तथाहि-सातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकरसं बघ्नन्तस्तत्प्रायोग्याया ज्ञानावरणस्य जघन्यायाः स्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना ये जीवास्तेभ्यः समयसमयवृद्धया पल्योपमस्यासंख्येयप्रथमवर्गमूलप्रमाणानि स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्यानन्तरस्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना जीवा द्विगुणाः सन्ति, ततः पुनरपि तावन्ति पल्योपमस्यासंख्येयप्रथमवर्गमूलगतसमयप्रमाणानि स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्यानन्तरस्थितेर्बन्धकतया वर्तमानाजीवा अनन्तरोक्तद्विगुणवृद्धजीवापेक्षया द्विगुणाः सन्ति, निरुक्तजघन्यस्थितेर्वन्धकतया वर्तमानजीवापेक्षया तु चतुर्गुणाः सन्ति, ततः परं तावन्ति स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्य पुनरपि द्विगुणा भवन्ति, एवं द्विगुणा द्विगुणास्तावद्वाच्या यावत् चतुःस्थानिकरसबन्धप्रायोग्योक्तजघन्यस्थितिबन्धात्प्रारभ्य प्रभूतानि सागरोपमशतान्यतिक्रमन्ति । इतस्तु यथोत्तरस्थितिबन्धस्थाने तद्वन्धकजीवा विशेषहीना विशेषहीनाः सन्तः पल्योपमस्यासंख्येयप्रथमवर्गमूलप्रमाणानि स्थितिमन्वस्थानान्यतिक्रम्यानन्तरे स्थितिबन्धस्थाने तद्वन्धकतया वर्तमाना जीवा यथोक्तचरमद्विगुणवृद्धिस्थानलक्षणस्थितेर्बन्धकतया वर्तमाना ये जीवा उक्तास्तदपेक्षया द्विगुणहीनाः अर्धा भवन्ति,ततः पुनरपि तावन्ति पल्योपमासंख्येयप्रथमवर्गमूलसमयप्रमाणानि स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्यानन्तरस्थितेर्बन्धकतयां वर्तमाना जीवा अनन्तरोक्तद्विगुणहीनजीवापेक्षयाऽर्धा भवन्ति, एवमुक्तप्रमाणानि स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्यातिक्रम्य द्विगुणहानयोऽपि तावद्भवन्ति यावत् प्रभूतानि सागरोपमशतान्यतिक्रम्य सातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकरसं बघ्नतां जीवानां बन्धप्रायोग्या ज्ञानावरणस्योत्कृष्टा स्थितिरिति । इत्थमेव सातवेदनीयस्य त्रिस्थानिकरसबन्धकानां द्विस्थानिकरसबन्धकानामसातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकरसबन्धकानां त्रिस्थानिकरसबन्धकानां विस्थानिकरसबन्धकानां विषयेऽपि वृद्धिहानयो वाच्याः, नवरं सातवेदनीयस्य द्विस्थानिकरसबन्धं कुर्वत्सु जीवेषु द्विगुणहानयस्तावद्वाच्या यावत्संख्येयकोटिकोटिसागरोपमाणि स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्य सातवेदनीयस्य पञ्चदशकोटिकोटिसागरोपमोत्कृष्टस्थित्या समं ज्ञानावरणस्य तत्प्रायोग्योत्कृष्टस्थितिवन्धो भवति, इत्थमेवासातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकरसं बध्नतां जीवानां द्विगुणहानिविषयेऽपि द्रष्टव्यम् . नवरं तत्र द्विगुणहानयस्तावद् द्रष्टव्या यावज्ज्ञानावरणस्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटिप्रमाणः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी
___ परित्तमाणिगाणं सुभाणं चउट्ठाणबन्धगा णाणावरणीयस्स जहण्णिगाए ठितीए जीवेहितो ततो असंखेजाणि पलिभोवमवग्गमूलाणि गंतूणं दुगुणवढ़िया जीवा । ततो पुणो तत्तियं चेव गंतूणं दुगुण
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६५२ ]
बंधाणे मूलपथडिठिइबंधो
[ वृद्धिहानिस्थान- तदेकान्तराल्पबहु०
या जीवा । एवं गुणवड्ढिता जीवा दुगुणवड्ढिता जीवा जाव सागरोवमसतं ति । तेण परं असंखेज्जाणि पलिओमवग्गमूलाणि गंतूणं दुगुणहीणा दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव सागरोवमसयहुत्तं ति । एवं तिट्ठाणिगा वि जीवा । परियत्तमाणिगाणं सुभाणं बिट्ठाणबन्धगा णाणावरणीयस्स तप्पा उग्गा जहणगाए ठितीए जीवेहिंतो ततो असंखेज्जाणि पलिओयमवग्गमूलाणि गंतूणं दुगुणवड्ढिता जीवा । ततो पुणो तत्तियं चेव तूणं दुगुणवड्ढिता जीवा । एवं दुगुणवड्ढिता जाव सागरोत्रमसतं ति । तेण पर असंखेज्जाणि पलिओमत्रग्गमूलाणि गंतूणं दुगुणहीणा । ततो सत्तियं चेत्र गंतूणं पुणो दुगुणहीणा जीवा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाब परित्तमाणिगाणं सुभाणं उक्कस्सिमा ठिति त्ति' इति । तथा
'परियत्तमाणिगाणं असुभाणं बिट्टाणियतिट्ठाणियभंगो जहां परियत्तमाणिगाणं सुभाणं चउट्ठाणभंगो । असुभगतीणं परियत्तमाणिगाणं चउट्टाणिभंगो जहां परियत्तमाणिगाणं सुभाणं विट्ठाणियभंगो | णवरं परियत्तमाणिगाणं उक्कस्सिमा ठितित्ति ||१५|| ' इति ।
Career वृद्धयो हानयश्चैकैकविधं रसं बघ्नतां जीवानां बन्धप्रायोग्यस्थितिषु कियत्यो भवन्तीत्येतद् दर्शयन्नाह - "ताओ जाणेयव्वा" इत्यादि, अनुपदं परंपरोनिधया दर्शिताः पल्वोपमस्यासंख्येयानि प्रथमवर्गमूलान्यतिक्रम्यातिक्रम्योलयमानाः सातवेदनीयादेवतुः स्थानिकाय के कविरसं बघ्नतां जीवानां द्विगुणवृद्धयो द्विगुणहानयश्च प्रत्येकमेताः “पल्लासंखेज्जमूलं सो” ति पल्योपमस्य प्रथमवर्गमूलस्या संख्याततम भागगत समयप्रमाणा ज्ञातव्या इति ।। ८५६ ॥
अधकद्वि गुणवृद्धिहानिस्थानानां द्विगुणवृद्धिहान्यन्यतरान्तरस्य च परस्परं स्तोकाधिकत्वं दर्शयन्नाह -
ठाणा' थोवाइ' या दुगुणवहिणीणं ।
ताउ असंखेज्जगुणं णायव्वं अंतरं एगं || ८५७॥
(प्रे०) "ठाणाइ थोवाइ" इत्यादि, सातवेदनीयादेश्वतुः स्थानिकादिरसबन्धकानां द्विगुणवृद्धिस्थानयोर्द्विगुणहानिस्थानयोर्वाऽनन्तरवक्ष्यमाणैकान्तरालमपेक्ष्य "दु गुणवडिठहाणीणं" तिसर्वस्थिति भाविनमुक्तद्विगुणवृद्धि - द्विगुणहानीनाम् "ठाणाइ' थोवाइ' णेयाइ" ति स्थानानि स्तोकानि ज्ञेयानि, "ताउ” त्ति तेभ्य: "असंखेज्जगुणं णायचं अंतरं एगं" ति चतुःस्थानिकादितत्तद्रसबन्धकानां द्विगुणवृद्धिस्थानयोर्डिगुणहानिस्थानयोर्वा एकमन्तरमसंख्येयगुणं ज्ञेयम्, उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्तासु सर्वास्वप्यधिकृत स्थितिषु जीवानां द्विगुणवृद्धिस्थानानि द्विगुणहानिस्थानानि वाल्योपस्य सम्बन्धिनः प्रथमवर्गमलस्याऽसंख्येयतमे भागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि सन्ति, एकस्मिन् द्विगुणबुद्धयन्तरे द्विगुणहान्यन्तरे वा यानि स्थितिबन्धस्थानानि तानि तु पल्योपमस्यासंख्येयेषु प्रथमवर्गमूलेषु यावन्तः समयस्तावत्प्रमाणानि सन्ति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी
यत
'एगं जीवगुणहाणिट्ठाणंतरं असंखेजाणि पलितोत्रमवग्गमूलाणि । णाणाजीवगुणहाणिट्राणंतराणि 'णाणतराणि पल्लस्स मूलभागो असंखतमो' त्ति पलिओमवगामूलस्स असंखेज्जतिभागो । णाणाजीवगुणहाणिठाणंतराणि थोवाणि, एगं जीवगुणहाणिद्वाणंतरं असंखेज्जगुणं' इति ।
तदेवं दर्शितमनन्तरोपनिधादिना तत्तद्रसबन्धकतया विभक्तानां कियन्तां जीवानां कीदृक्
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उपयोगभेदात्पुन : स्थितस्थानविभागः ] चरऽ धिकारे जीवसमुदाहारः
[६५३ स्थितेन्धकत्वं बध्यमानस्थितिस्थानेषु तादृशजीवानां द्विगुणवृद्धिहानि-तदेकान्तराम्पबद्त्वं च । साम्प्रतं तु वक्ष्यमाणाल्पबहुत्वविषयकपदान्युत्पादयितु स्थितिबन्धस्थानेषु बन्धकवृद्धिहानिविषयतया द्विधा द्विधा विभक्तानि सातवेदनीयादेबिस्थानिकादिरसबन्धकप्रायोग्यतया दर्शितस्थितिबन्धस्थानानि साकाराद्युपयोगप्रायोग्यत्वभेदात् पुनरपि विभाजयन्नाह
उवओगेऽणागारे बंधंति विठाणियं च्च अणुभागं ।
सागारे उवजोगे बितिचउठाणगयमणुभागं ॥८५८॥ (प्रे०) "एवओगेडणागारे” इत्यादि, अनाकारे उपयोगे वर्तमानाः सन्त एतेऽनन्तरोक्ता जीवाः 'बिठाणियं च अणुभागं"ति सातवेदनीयस्याऽसातवेदनीयस्य च द्विस्थानिकम् 'अनुभागम्'-रसमेव बध्नन्ति, न पुनस्त्रिस्थानिकं चतुस्थानिक वेत्यर्थः । “सागारे उवओगे" ति साकारे उपयोगे वर्तमानाः पुनरेते “बितिचउठाणगयमणुभार्ग" ति 'द्वन्द्वान्ते श्रयमाणं पदं प्रत्येकमषिसम्बध्यते' इति न्यायात् सातवेदनीयाऽसातवेदनीययोद्विस्थानगतं त्रिस्थानगतं चतुःस्थानगतं त्रिविधान्यतममनुभागम् ,बघ्नन्तीत्यनुवर्तते । अनेन ह्यनाकारोपयोगे वर्तमानानां शुभाशुभपरावर्त्तमानप्रकृत्योर्द्विस्थानगतो रस एव बन्धप्रायोग्यः, साकारोपयोगे वर्तमानानां तु जीवानां तयो-ित्रि-चतुःस्थानिकभेदभिन्नास्त्रिविधा अपि रसा बन्धाप्रायोग्या इत्यावेदितमिति ।।८५८॥
___ अथ साकाराद्युपयोग-तत्तद्रसबन्धादिपदार्थान्तरयोगेनानेकधा विभक्तानां स्थितिबन्धस्थानादीनामन्येषां जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धादिपदार्थानां च परस्परमल्पबहुत्वं प्रचिकटयिषुराह
१चउठाणे यवमज्झा हेट्ठाऽप्पाणि ठिइबंधठाणाणि । सायस्स हुन्ति एत्तो संखगुणाणि उवरि हवेज्जा ॥८५९॥ ३तो तिट्ठाणेऽह 'तओ उवरिं 'तत्तो अहो य बिट्ठाणे । सागारे तो मीसे हवन्ति तत्तो उवरिं मीस्से ॥८६०॥ 'ताउ लहू संखगुणो तोऽभहिया जट्ठिई तओऽभहियो । होह असायस्स लहू ११तोऽब्भहिया जट्टिई णेया॥८६१॥ १२तत्तो संखगुणाई हवन्ति बिट्ठाणगेऽह सागारे । १३तो मीसे४ताउ उवरि मीसे १५तो हुन्ति सागारे ॥८६२॥ १६तोऽह तिठाणे १५तो उवरितओ चउठाणगेऽह तो जत्तो। परमं डायं गच्छइ सा उ ठिई होइ संखगुणा ॥८६३॥
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६५४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिटिइबंधो [ विभक्तस्थितिस्थानाथल्पबहु०
२० तो संखगुणा अंतोकोडाकोडी २१ तओ बिठाणम्मि | सायरस हुन्ति उवरिं सागारे संखियगुणाणि ॥ ८६४ ॥ तत्तो विसेसअहियो सायस्स गुरू हवेज्ज ठिइबंधो । तत्तो जाणेयव्वा अग्भहिया जट्टिई तस्स ||८६५॥ २४ तो डायठिई अहिया २५ताउ असायस्स उवरि चउठाणे | अहियाणि २६ तओ परमो अहियो तो जट्टिई अहिया || ८६६ ॥
(प्रे० ) " चउडाणे यवमज्झा" इत्यादि, अनन्तरं सातवेदनीयाऽसातवेदनीययोश्चतुःस्थानादित्रिविधत्रिविधरसबन्धकानां स्वस्वप्रायोग्यजघन्य स्थितिबन्धस्थानादारभ्य प्रभूतसागरोपमप्रमाणस्थितिपर्यन्तमुत्तरोत्तरस्थितिबन्धस्थानेषु तद्बन्धकजीवानां विशेषवृद्धयोऽभिहिताः, ततश्वरमविशेषवृद्धिस्थानात्पुनस्त सद्रसबन्धकानां प्रायोग्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्थानं यावत्तु यथोत्तरं तत्तत्स्थितेर्वन्धकजीवानां विशेषहानयोऽभिहिताः, इत्थं सातवेदनीयाऽसातवेदनीययोश्चतुःस्थानिकाद्येकैकविधरसबन्धं कुर्वतां जीवानां या जघन्यस्थितिर्वन्धप्रायोग्य ततः प्रभूतसागरोपमशतसमयप्रमाणाः स्थितीरुल्लङ्घ्य बन्धकजीवानां विशेषवृद्धिसत्कं यच्चरमं स्थितिबन्धस्थानं यत्र पूर्वोत्तरस्थितिबन्धस्थानवर्तिजीवापेक्षयाऽधिकतमा जीवाः प्राप्यन्ते, तस्मान्मध्यस्थानादुभयपार्श्वयोः समर्याद्विसमयादिना हीनाधिकस्थितिस्थानेषु पुनर्विशेषहीना विशेषहीना जीवाः प्राप्यन्ते, एतेषु च सर्वेषु स्थाप्यमानेषु यव:धान्यविशेषस्तस्याकृतिरुद्भवति, यतो यवस्य मध्यं यथा पृथुलमुभय पार्श्वे च हीने हीनतरे तथा प्रकृतेऽपि मध्यस्थाने बन्धकानां बाहुल्यात् मध्यं स्थाप्यमानं पृथुलम्मुभयपार्श्वयोर्यथोत्तरस्थितिस्थानेषु बन्धकानां हीयमानत्वात् पार्श्वे स्थाप्यमाने हीने हीनतरे; स्थापना- :: इत्येवं चतुःस्थानिकादित्रिविधरसबन्धकानां विशेषवृद्धिहानीनां ववसदृशीं स्थापनामपेक्ष्य ये सातवेदनीयस्य चतु:स्थानिकादित्रिविध रसबन्धकानां यवा इव त्रिविधा यवाः, एवमसादनीयबन्धकानामपि ये त्रयो यवाश्च तेषां मध्ये “सायस्स”त्ति सातवेदनीयस्य "चउडाणे जवमज्जा हेट्ठा "त्ति 'चतुः स्थानिकयवमध्यादधः' यश्वतुः स्थानगतरसबन्धकविषयकयवस्तत्र यत्सर्वाधिकजीवानां बन्धप्रायोग्यं 'मध्यं' - मध्यमस्थितिबन्धस्थानं तस्मात् समयादिना हीनहीनतरादि स्थितिबन्धस्थानरूपेऽधस्तने भागे इत्यर्थः, तत्र किमित्याह"प्पाणि ठिहबंघठाणाणि” त्ति स्थितिबन्धस्थानान्यल्पानि - स्तोकानि । “हुन्ति एतो संखगुणाणि" त्ति एतेभ्योऽनन्तरोक्तस्थितिबन्धस्थानेभ्यः संख्येयगुणानि भवन्ति, स्थितिबन्धस्थानानीत्यनुवर्तते । कुत्र इत्याह - " उवरि" ति "चउठाणे यवमज्झा" इत्यस्यानुवृत्त्याऽधिकृतस्य सातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकर सबन्ध विषय कद र्शितयवमध्यस्य 'उपरि' - समयादिनाऽधिकाधिक
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विभक्तस्थितिस्थानाद्यल्पबहु० ] चरमेऽधिकारे जीवसमुदाहारः
[६५५ स्थितिबन्धलक्षणे उपरितने भागे इत्यर्थः। "तो तिहाणेऽह'त्ति अत्राऽपि 'यवमज्झा'इति पदमनुवर्तते, एवमुत्तरत्रापि यथायोगं तस्यानुवृत्तिद्रष्टव्या,ततः सातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकयवमध्यादुपरितनस्थितिबन्धस्थानेभ्यः त्रिस्थान -तस्यैव सातवेदनीयस्य त्रिस्थानरसबन्धे यवमध्याद् 'अधः'-समयादिना हीन-हीनतरादिस्थितिवन्धस्थानरूपेऽधस्तनभागे, स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानीति पूर्वगाथातोऽनुवर्तते । “तओ उवरिं" ति ततः सातवेदनीयस्य प्रस्तुतत्रिस्थानिकरपयवमध्यस्य उपरि', समयादिनाऽधिकाधिकतरादिस्थितिबन्धस्थानरूपे उपरितने भागे, स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानीत्यत्रापि पूर्ववदनुवृत्या बोद्धव्यम् । एवमुत्तरत्रापि तदनुवृत्तः "तत्तो अहो य बिट्ठाणे सागारे" त्ति प्राग्वत् तेभ्योऽनन्तरोक्तस्थितिबन्धस्थानेभ्यः प्रस्तुतस्य सातवेदनीयस्य विस्थानिकरसबन्धयवमध्याद् 'अधः'-समयादिना हीन-हीनतरादिस्थितिबन्धलक्षणे यवस्याधोभागे 'साकारे'-साकारोपयोगे सति बन्धप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानीत्यर्थः ।
अयम्भाव:-प्राक् साता-ऽसातवेदनीययोस्त्रिविधोऽपि रसः साकारोपयोगोपयुक्तानां बन्धप्रायोग्यो दर्शितः,तथा च त्रिविधान्यतमं रसं बध्नतां प्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानान्यपि साकारोपयोगेन बन्धप्रायोग्यानि प्राप्तानि, तत्रापि विस्थानिकरसस्य साकारोपयोगस्येवाऽनाकारोपयोगस्यापि बन्धप्रायोग्यतया न सर्वाणि स्थितिबन्धस्थानान्येकान्तेन साकारोपयोगप्रायोग्यानि, किन्तु कतिपयान्येव,कतिपयानि तु साकाराऽनाकारोभयप्रायोग्यानि,द्विस्थानिकरसंबध्नद्भिजींवैः कदाचित् साकारोपयोगे सति बध्यन्ते कदाचिचनाकारोपयोगे सति बध्यन्त इति भावः । इत्येवं सातवेदनीयस्यासातवेदनीयस्य च प्रत्येकं विस्थानिकरसं बध्नतां जीवानां प्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि द्विधा द्विधा विभक्तानि, एतेषु द्विविधद्विविधस्थानेषु कतिपयानि विस्थानिकयवमध्यादुपरिवर्तीनि, कतिपयानि त्वधःस्थितानि,तथा च सत्युक्तकेवल साकार-साकारानाकारोभयोपयोगभेदाद्विभक्तानि साता-ऽसातवेदनीययोस्थिानिकरसंबध्नतां बन्धप्रायोग्यानि स्थितिस्थानानि प्रत्येकं पुनरपि द्विधा द्विधा विभतानि,इत्थं हि साता-ऽसातवेदनीययोह्निस्थानिकरसं बध्नतां प्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानान्यष्टविधानि जातानि, तद्यथा-सातवेदनीयविस्थानिकरसयवमध्यादध एकान्तसाकारोपयोगप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि, तथा विस्थानिकरसयवमध्यादध एव साकारा-ऽनाकारोभयप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि । इत्थमेव द्विविधानि विस्थानिकरसयवमध्यस्योपरितनवर्तिस्थितिबन्धस्थानेषु लभ्यन्ते । तदेवं सातवेदनीयद्विस्थानिकरसं बध्नतां जीवानां बन्धप्रायोग्यानि स्थितिस्थानानि चतुविधानि जातानि । यथा सातवेदनीयविस्थानिकरसं बध्नतां तथाऽसातवेदनीयस्यापि विस्थानिकरसं बध्नतां जीवानां बन्धप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानान्यपि चतुर्विधानि बोद्धव्यानि । एतेष्वष्टविधेषु स्थितिस्थानेषु यानि सातवेदनीयद्विस्थानिकरसयवमध्यस्याधस्तनानि साकारोपयोगे एव बन्धप्रायोग्यानि तानि शेषसप्तविधस्थितिबन्धस्थानेभ्यः स्तोकानि सन्त्यपि सातवेदनीय
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६५६ ]
__ बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [विभक्तस्थितिस्थानाद्यल्पबहु० त्रिस्थानिकरसयवमध्यस्योपरितनवर्तिस्थितिबन्धस्थानेभ्यः संख्येयगुणानि सन्ति, एतदेव दर्शनार्थमभिहितम् 'तत्तो अहो य विट्ठाणे सागारे' इति ।
___ "तो मोसे हवन्ति" त्ति अत्रापि पूर्ववत् 'सायस्स जबमज्झा' तथा 'अहो य बिट्ठाणे' 'ठाणाणि संखगुणाणि' चेति पदत्रयस्यानुवृत्त्या ततः' -अनन्तरोक्तस्थितिबन्धस्थानेभ्यः सातवेदनीयस्य द्विस्थानिकरसयवमध्यादधः मिश्रे'-मिश्रोपयोगे, साकाराऽनाकारान्यतरोपयोगे प्रवर्तमाने यानि बन्धप्रायोग्यानि स्थितिस्थानानि तानि संख्येयगुणानीत्यर्थः । ततः "उवरि मीस्से" ति तत्रैव द्विस्थानिकरसे यवमध्यस्योपरि स्थितिवन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । “ताउ लहू संखगुणो" ति तेभ्यः प्रस्तुतस्य सातवेदनीयस्य'लघुः-जघन्यस्थितिवन्धः संख्येयगुणः,स च व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तरत्रैव ग्रन्थे द्वितीयाधिकारवृत्तौ प्रोकस्वरूपोऽवाधारहितोऽनुभवयोग्यो शेषः । ननु सातवेदनीयस्यानुभवयोग्यो जघन्यस्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्तप्रमाणस्स्यात् , स चाऽनन्तरोक्तस्थितिस्थानापेक्षया संख्येयभागमात्रः, अत्र त्वसौ संख्येयगुण उक्त इति कथं न विरोधः ? इति चेद, न, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाभव्यजीवबन्धप्रायोग्यस्थितिबन्धस्थानादीनामिव जघन्यस्थितिबन्धस्याऽपि संज्ञिपञ्चेन्द्रियाभव्य जीवबन्धप्रायोग्यस्याऽधिकृतत्वात्, तस्य चान्तःकोटिकोटिसागरोपमप्रमाणतयाऽनन्तरोक्तस्थितिबन्धस्थानापेक्षया संख्येयगुणत्वाऽविरोधादिति । "तोअब्भहिया' त्ति ततोऽभ्यधिका:-विशेषाधिका अधिकृतस्य सातवेदनीयस्य "जहिई" ति 'लहू' इत्यनुवर्तते, ततो 'लघु-जधन्या 'यस्थितिः'-जघन्यस्थितिबन्धसमये बन्धतः प्राप्तदलिके या स्थितिर्भवति सा, साच कर्मरूपतयाऽवस्थानलक्षणाऽत्रैव ग्रन्थे द्वितीयाधिकारेऽभिहितस्वरूपा ज्ञेयेत्यर्थः ।
१०"तओऽन्भहियो होइ असायस्स" ति 'ततः'-पातवेदनीयजघन्ययस्थितितोऽभ्यधिकः-विशेषाधिको भवत्यसातवेदनीयस्य "लहू"त्ति जघन्यः स्थितिबन्धः, स च व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तरत्रापि प्राग्दर्शितानुभवयोग्य-कर्मरूपतावस्थानलक्षद्विविधस्थितिबन्धयोर्मध्ये योऽनुभवयोग्यः स्थितिबन्धः सोऽवमातव्य इति । "तोऽभहिया जहिई णेया' त्ति प्रागिव "लहू" इत्यस्यानुवृत्तस्ततोऽभ्यधिकाऽसातवेदनीयस्य जघन्या यत्स्थितिः, कर्मरूपतावस्थानलक्षणजघन्यस्थितिवन्ध इति भावः, कुतः ? जघन्यावाधाया अत्र प्रवेशात् । तत्तो संखगुणाई हवन्ति" ति तस्या अनन्तरोक्ताया असातवेदनीयजघन्ययत्स्थित्याः संख्येयगुणानि भवन्ति, कानीत्याह-"बिट्ठाणगेऽह सागारे" ति पूर्ववत् प्रस्तुतस्यासातवेदनीयस्य द्विस्थानकरसबन्धकविषययवमध्यादध एकान्त पाकारोपोयोगे बन्धप्रायोग्यानि स्थितिस्थानानीत्यर्थः । १३"तो मीसे" त्ति पूर्ववदनुवृत्याऽसातवेदनीयस्य द्विस्थानकरसयवमध्यादधो ‘मिश्रे मिश्रोपयोगेसाकारा-ऽनाकारान्यतरोपयोगे सति बन्धप्रायोग्यानि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि । इत्थमेव
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विभक्तस्थितिस्थानाद्यल्पबहु० ]
चरमेऽधिकारे जीवसमुदाहारः
[ ६५७
۹۷
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१४ " ताउ उवरि मीसे” त्ति ततोऽसातवेदनीयस्य द्विस्थानिकर सयव मध्यस्योपरि 'मिश्र' साकाराऽनाकारान्यतरोपयोगे बन्धप्रायोग्यानि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि । तथैव " "तो हुन्ति सागारे " ति तस्यैवाऽसावेदनीयस्य द्विस्थानिकर सयव मध्यादुपर्येकान्तसाकारोपयोगे बन्धप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि भवन्तीत्यर्थः । “तोऽह तिठाणे" ति ततः प्रकृतस्याऽसातवेदनीयस्य त्रिस्थानिकरस विषययवमध्यस्याधः, स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानीति प्राग्वत् । एवं " तो उवरि" त्ति ततोऽसावेदनीयस्य त्रिस्थानिकर सविषयकयव मध्यस्योपरि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । “तओ चउठाणगेऽह" चि ततोऽसातवेदनीयस्य चतु:स्थानिकरसविजययमध्यादधः स्थितिबन्वस्थानानि संख्येयगुणानि । “तो जस्तो परमं डायं गच्छइ साउ ठिई होइ संखगुणा " चि ततो यस्याः स्थितेर्मण्डूक'लुतिन्यायेन 'परमाम्' - उत्कृष्टां 'डाव' - फालां 'गच्छति' - प्राप्नोति तद्बन्धकः सा तु स्थिति: संख्येयगुणा भवति ।
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किमुक्तं भवति - प्रागस्मिन्नेव मूलप्रकृतिस्थितिबन्धग्रन्थे पदनिक्षेपाधिकारे यस्मात् स्थितिबन्धादेकहेलया उत्कृष्टस्थितिबन्धं कुर्वतो जीवस्योत्कृष्टवृद्धिरभिहिता तस्मात्स्थितिबन्धादनुपदमुत्कृष्ट स्थितिबन्धकरणे जीव उत्कृष्टां डायां प्राप्नोति सा उत्कृष्टवृद्धिस्वामिना उत्कृष्ट स्थितिबन्धात्प्रागव्यवधानेन बद्धा स्थितिरसातवेदनीयस्य चतुःस्थानकयवमध्यस्याधोवर्ति स्थितिबन्धस्थानेभ्यः संख्येयगुणा भवतीति ।
एतेन प्राक् पदनिक्षेपाधिकारस्वामित्वद्वारे
'मज्झाहिन्तो उयरिं चउठाणियस्स वट्टंतो। अंतो कोडाकोडिं ठिइबंधं यो कुणेमाणो ।। ६९२ ।। लहिऊणं उक्कोसं डायं उक्कोससंकिलेसेणं । जेट्ठठिइं बंधतो वड्ढि सो कुणइ उक्कोसं ।। ६९३ ।। इत्यत्र यदन्तःकोटिकोटिसागरोपमलक्षण स्थितिस्थानं निर्वर्तयन् जीवोऽनन्तरसमये उत्कृष्टवृद्धि स्वामी भवितुमर्हति तच्चतुःस्थानिकयवमध्यादुपरि वर्तमानमन्तः कोटिकोटिसागरोपमलक्षणं स्थितिस्थानं तस्मादेव चतुःस्थानिकयवमध्यादधो यावन्ति स्थितिबन्धस्थानानि तेभ्यः संख्येयगुणानि स्थितिबन्धस्थानानि यवमध्यादुपरि गत्वा लभ्यते, अर्थतस्तु यथोक्तं चतुःस्थानिकयवमध्यलक्षणस्थितिस्थानं बध्नन् जीवो यावतीं स्थितिं बध्नाति ततः संख्येयगुणाधिकां स्थितिं बध्नन् जीव उत्कृष्टवृद्धिस्वामी भवितुमर्हति न तु ततः स्तोकामिति स्फुटमभवत् । ननु तर्हि एषा एवोत्कृष्टपदगताऽन्तः कोटिकोटिसागरोपमस्थितिः स्याद् ? इति चेद्, न तस्यास्त्वेतत्स्थितेरपि संख्येयगुणाधिकस्थितिवन्धं कुर्वतोभावात् ।
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तदेवाह - " तो संखगुणा अंतोकोडाकोडी” ति तस्या अनन्तरोक्ताया अन्तः कोटाकोटीसागरोपमस्थितेरपि समयपरिभाषया या उत्कृष्टपदे सागरोपमाणामन्तः कोटीको व्यस्ताः संख्येयगुणा इत्यर्थः । " ओ बिठाणम्मि" इत्यादि, ततः सातवेदनीयस्य द्विस्थानकरसयवमध्य
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६५८ ]
विहाणे मूलपडिइिबंधो [ विभक्तस्थितिस्थाना गल्पबहु०
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स्योपरि ' साकारे' - एकान्तसाकारोपयोगे सति बन्धप्रायोग्यानि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि भवन्तीत्यर्थः । ततो विसेसअहियो” इत्यादि, तेभ्योऽनन्तरोक्त स्थितिबन्धस्थानेभ्यः सातवेदनीयस्य 'गुरु' - उत्कृष्टोऽनुभवयोग्यः स्थितिबन्धो विशेषाधिको भवति, कुतः ? उच्यते, अनन्तरोक्तानि सातावेदनीयद्विस्थानिकरसयव मध्यादुपरिवर्तीन्येकान्तसाकारोपयोगेन बन्धप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानान्यन्तः कोटिकोटिसागरोपमन्यूनपञ्चदशकोटिकोटिसागरोपमप्रमाणानि, सातावेदनीयस्याऽनुभव योग्यतालक्षणस्थितिबन्धस्त्वयं पञ्चदशशतवर्षन्यूनपञ्चदशसागरोपमकोटिकोटिप्रमाणः, तथा च भवत्यनन्तरोक्तस्थितिबन्धस्थानापेक्षया विशेषाधिकः । तत्तो जाणेयव्वा" तस्मात् सातवेदनीयस्यानुभवयोग्योत्कृष्ट स्थितिबन्धात् तस्य सातावेदनीयस्यैवोत्कृष्टा कर्मरूपतावस्थानलक्षणा यत्स्थितिर 'भ्यधिका' - विशेषाधिका ज्ञातव्या, कुतः अवाधाया प्रवेशेनाऽस्याः सम्पूर्णपञ्चदशकोटिकोटिसागरोपमप्रमाणत्वात् । २४ “तो डायठिई अहिया" इत्यादि, सातवेंदनीयस्योत्कृष्टयत्स्थितेरुत्कृष्टा डायस्थितिर्विशेषतोऽभ्यधिका ज्ञातव्या, कुतः ? सातवेदनीयस्योत्कृष्टा यत्स्थितिः पञ्चदशकोटिकोटिसागरोपममात्रा, उत्कृष्ट डायस्थितिस्त्वनन्तः कोटिकोटिसागरोपमन्यूनत्रिंशत्कोटिकोटिसागरोपमप्रमाणा, तथा चोत्कृष्टा डायस्थितिर्द्विगुणाऽपि न भवत्यतो विशेषाधिकाऽभिहितेति ।
ननु कुत उत्कृष्टा डायस्थितिरेता प्रत्येव भवति ? उच्चाते, यतः स्थितिबन्धस्थानादुत्कृष्टांफालां दत्वा या स्थितिर्बध्यते ततः प्रभृति तदन्ता तावती स्थितिरुत्कृष्टा डायस्थितिरुच्यते, उत्कृष्टडायविषयत्वात्तस्याः; एषैव कर्मप्रकृतिचूर्णी बद्धडाय स्थितितयाऽभिहिता, एषा ह्युत्कृष्टष्टद्धी यावती - अन्तः कोटिकोटीसागरोपमन्यूनत्रिंशत्कोटीकोटी सागरोपमप्रमाणा प्राक् पदनिक्षेपाधिकारेsasभिहिता तावती एकहेलया उल्लङ्घयस्थितिषूत्कृष्टपद्गता स्थितिर्मन्तव्येति ।
1
२" ताउ असायस्स उवरि" इत्यादि, ततोऽसात वेदनीयस्य चतुःस्थानिके यवे उक्तलक्षणान्मध्यमस्थानादुपरि वर्तमानानि यानि स्थितिबन्धस्थानान्यद्यापि नोक्तानि तानि 'अधिकानि' - विशेषाधिकानि भवन्ति यतोऽनन्तरोकानीमानि च प्रत्येकमुत्कृष्टस्थितिपर्यन्तानि सन्त्यप्यनन्तरोक्तानि चतुःस्थानिकयवमध्यादुपरि बहुसागरोपमशतानि स्थितिबन्धस्थानान्यतिक्रम्यानन्तरस्थितिवन्वस्थानप्रभृतीनि इमानि तु यवमध्यानन्तरस्थितिबन्धस्थानप्रभृतीनि तथा च बहुसागरोपमतप्रमाणानां स्थितिबन्धस्थानानामत्राऽधिकानां प्रवित्वाद्भवतीमान्यनन्तरोक्त स्थितिबन्धस्थानापेक्षया विशेषाधिकानीति ।
" तओ परमो" त्ति 'असायस्स' इत्यनुवर्त्तते, ततोऽसात वेदनीयाख्याया उत्तरप्रकृतेः 'परमः ' उत्कृष्टः स्थितिबन्धः 'अधिकः ' - त्रिसहस्रवर्षोनान्तःकोटिकोटीसागरोपमप्रमाण स्थित्याऽभ्यधिक इत्यर्थः । कुतः १ उच्यते, 'गुरू' इत्यनेनाऽसातवंदनीयस्याऽनुभवयोग्योत्कृष्ट स्थिति
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। ६५९
अल्पबहुत्वे ग्रन्थान्तरसंवादः ] चरमेऽधिकारे जीवसमुदाहारः बन्धो विवक्षितः, स च तथाभूतोऽसातवेदनीयस्योत्कृष्टस्थितिबन्ध उत्कृष्टावावाविषयस्त्रिसहस्रवरूनत्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटीप्रमाणः सन्ननन्तरोत्तयत्स्थित्यपेक्षया त्रिसहस्रवर्षोनान्तःकोटिकोटीसागरोपमैरधिको भवतीति । २७"तो जट्टिई अहिया" ति ततोऽसातवेदनीयस्याऽनुभवयोग्योत्कृष्ट स्थितिबन्धापेक्षया तम्यवाऽसातवेदनीयस्य कर्मरूपतावस्थानलक्षणयस्थितिरुत्कृष्टपदे तिसहस्रवर्षैरधिका भवति । कुतः ? उत्कृष्टावाधाया अत्र प्रवेशादिति ।
इदं हि मुख्यवृत्त्या संज्ञिपञ्चेन्द्रियाऽभव्यजीवबन्धप्रायोग्यस्थितिबन्धस्थानान्यधिकृत्य दर्शितं सप्तविंशतिपदसत्कमल्पबहुत्वं सर्वथा कर्मप्रकृतिचूर्णावभिहितद्वाविंशतिपदसत्काल्पबहुत्वानुसार्येवावगन्तव्यम् , केवलं तत्र साताऽसातवेदनीययोजघन्योत्कृष्टयस्थितिलक्षणानि चत्वारि पदानि तथाऽसातवेदनीयचतुःस्थानिकयवमध्योपरितनस्थानसमूहलक्षणमेकं पदमित्येवं पञ्च पदानि न सङगृहीतानि,अत्र तु तान्यपि सङगृहीतानि । कर्मप्रकृतिचूयोक्ताल्पवहुत्वपाठस्त्वेवम्
___ "इयाणिं सव्वट्ठितिट्ठाणाणं अप्पाबहुगं भण्णइ- 'हेट्ठा थोत्राणि जवमज्झा ठाणाणि चउहाण' त्ति परियत्तमाणिगसुभाणं चउट्ठाणियजवमन्झस्स हेट्टओ ठितिठाणाणि थोवाणि। 'संखेनगुणाणि उवरि' ति चउट्टाणे य जवमज्झस्स उवरिं द्वितिट्ठाणाणि संखेज्जगणाणि 'एमेष तिहाणे सुभाणं' ति परियत्तमाणिगाणं तिहाणियजवमअस्स हेटुओ ठितिठाणाणि संखेजगुणाणि, तस्सेव जवमज्झस्स उवरि ठितिठाणाणि (वि संखेजगुणाणि) । 'बिटाणे सुभाणमेगंत' त्ति परियत्तमाणिगाणं सुभाणं बिट्ठाणे य जवमज्झस्स हेतृतो एगंतसागारपाउग्गाणि ठितिट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । (तओवि बिट्ठाणअणुभागजवमज्झस्स हेट्रओ पवओउवरिं ठिइदाणाणि मिस्साणि संखेजगुणाणि, तओवि बिट्ठाणरसजवमन्झस्स उवरि मिस्साणि ठिइट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि, तओ) परियत्तमाणिगाणं सुहाण जहण्णट्रितिबन्धो संखेज्जगुणो। 'ततो विसे साहितो होइ असुभाणं जहण्णो' त्ति परियत्तमाणिगाणं असुभाणं जहण्णो ठितिबन्धो विसेसाहिगो। 'संखेज्जगुणाणि ठाणाणि बिट्ठाणे जवमज्झा हेट्ठा एगते त्ति परियत्तमाणिगाणं असुभाणं बिट्ठाणियजवमझस्स हिट्रओ एगंतसागारपाउग्गाणि ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । 'मिस्सगाणं ति ततो विट्ठाणिगजवमज्झस्स हेट्ठउ मिस्सगाणि ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । 'उबरि' त्ति परियतमाणिगाणं असुभाणं बिट्ठाणिगजवमज्झस्स उवरिं मिस्सगाणि ठितिट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । तस्सेवुवरि एशंतसागारपाउग्गाणि ठितिठाणाति संखेज्जगुणाणि । 'एवं तिचउट्ठाणे' त्ति तत्तो परियत्तमाणिगाणं असुभाणं तिहाणियजवमज्झस्स उवरि ठितिट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि तभो वि तिट्राणजवमन्झस्स उवरिं ठितिहाणाणि संखेज्जगुणाणि । ततो वि असुभाण परियत्तमाणिगाण चउहाणियजवमज्झस्स हिट्ठओ ठितिठाणाणि संखेज्जगुणाणि । तमओ) 'जवमज्झाभो य डायट्ठिति' त्ति जवमज्झाउ जओ ट्ठाणा उक्कोसं डायं इच्छह सा ठिति संखेज्जगुणा, जो द्वितिओ उक्कोसं टुितिं जातित्ति भणियं भवति । 'अंतोकोडाकोडि' त्ति अन्तोकोडाकोटी संखेज्जगणा । 'सुभविट्ठाणजवमज्झाओ उवरि एगंतिग' त्ति ततो परियत्तमाणिगाणं सुभाण बिहाणियजवमझउपरि एगंतसागारोबउग्गाणि ठितिट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि। 'विसिट्ठा सुभजिट्ठ' त्ति परियत्तमाणिगाणं सुभाणं उक्कोस्सगो ठितिबंधो विसेसाहितो। 'डायट्ठितित्ति परियत्तमाणिगाणं असुभाणं डायं गंतूण जा ठिति बा सा ठिति विसेसाहिगा। 'जेह' त्ति परियत्तमाणिगाणं असुभाणं उक्कोसग्गो ठितिबन्धो विसेसाहितो" इति । ___ अल्पबहुत्वयन्त्रचित्रके त्वेवम्-★। इति गाथाष्टकार्थः ॥ ८५९-८६६ ॥
★ यन्त्र चित्रं चाऽनन्तरोत्तरपृष्ठद्वये लिखिते इति ।
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________________
६६० ].
५.
६.
क्रमाङ्काः
१. सातवेदनीय - चतुःस्थानिक - यत्रमध्याद् अधस्तनवर्तीनि
२. ततः
उपरितनवर्तीनि
३.
४.
७.
८.
"
29
"
"
"
"
९.
१०. " ११ .,,
१२.
"
"
१३. ”
१४. " १५. "
१६.
"
१७.,,
१८ .,,
१९.
""
"
23
22
"
22
"
"
"
"
""
त्रिस्थानिक
द्विस्थानिक
93
सात वेदनीयस्य
""
"
33
असावेदनीयस्य
29
"
"
""
"
"
"
19
"
"
"
19
""
""
39
"
33
"
"
""
"
"
99
17
उपरितनवर्तीनि जघन्यस्थितिबन्धमानम्"
जघन्ययत्स्थितिः जघन्यस्थितिबन्धमानम्
जघन्ययत्स्थितिः
""
"
अल्पबहुत्वयन्त्रकम् पदानि
99
मूलपबंधो
अधस्तनवर्ती नि उपरितनवर्तीनि
ܕܕ
अधस्तनवर्तीनि साकारोपयोगे बन्धप्रायोग्यानि
अन्यतरोपयागे
"
"
स्थानिक मध्याद् अधस्तनवर्तीनि
परिवर्तन
उत्कृष्टडायेनोल्लङ्घयस्थितिः "
"
द्विस्थानिकयवमध्याद् अधस्तनवर्तीनि साकारोपयोगे बन्धप्रायोग्यानि
उपरितनवर्तीनि
स्थितिबन्धस्थानानि
""
साकारोपयोगे
चतुःस्थानिकयवमध्यादधस्तनवर्तीनि
यतः स्थितिबन्धस्थानादुत्कृष्टडायं गम्यते सा स्थितिः'
अन्तःकोटिकोटिलक्षणस्थितिबन्धस्थानेषु सर्वाधिकस्थितिबन्धस्थानम्
उत्कृष्टा अनुभवयोग्या स्थितिः "
यस्थिति:
""
"
33
अन्यतरोपयोगे
""
""
२०. "
२१. सातवेदनीयस्य द्विस्थानिकयवमध्यादुपरितनवर्तीनि साकारोपयोगे बन्धप्रायोग्यानि
स्थितिबन्धस्थानानि
"
""
"
२२. "
२३.
२४.
२५. असातवेदनीयस्य चतुःस्थानयवमध्यादुपरिवर्तीनि साकारोपयोगे बन्धप्रायोग्यस्थानानि
२६.
असातावेदनीयस्य उत्कृष्टा अनुभवयोग्या स्थिति।'
२७.,,
यत्स्थितिः
""
"
[ अल्पबहुत्वयन्त्रम्
"
33
अल्पबहुत्वम्
स्तोकानि संख्येयगुणा
"
""
""
"
स्थितिबन्धस्थानानि संख्ये यगुण ०
"
. विशेषाधिक०
"
33
33
23
""
99
23
39
""
"
"
"
27
विशेषाधिक०
23
33
31
33
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________________
मल्पबहुत्वचित्रम् ]
साता-सातवेदनीयद्वि-त्रि
चतुःस्थानिकरसबन्धकयवादिनानाविषयभेदभिन्नस्थितिबन्धस्थानसाता-सातवेदनीय- जघन्योत्कृष्ट स्थितिबन्धादिपदार्थनिष्पन्नानां सप्तविंशतिपदानाम्
अल्पबहुत्व- चित्रकम्
सात स्थितय असात स्थितय
सातचतुः स्थानयवमध्य. सातप्रिस्थानयवमध्य.
131
(A) (B) (C) (D) (E)
"विशेष अनुसंधान ज्ञापनम् (८) B प्रभृते एतत्पर्यन्ता
13) A
(१०) C (११) A
(१९) A
".
(२४) इतोऽसातोत्कृष्ट स्थिति
पर्यन्ता स्थितय ।
"
"
22.2
असातावेदनीय त्रिस्थानिकययमध्य.
(२०) A प्रभृते एतत्पर्यन्ता.
(२२)D"
(२३) A (२६६
(२०)A
"
चरमेऽधिकारे जीव समुदाहारः
श
..
PI
O
विशेष- संज्ञा - परिचय:
(A) साता-सातवेदनामान्यतमस्थितेर्बन्धसमय (B) सातवेदनीयजद्यन्यस्थितिबन्धप्रथमानेषेकः (c) असान "
"
(D) सातवेदनीयोत्कृष्टस्थितिबन्धप्रथमनिषेक
"
७
(E) असात „
[0]- उर्ध्वाधोमुखाः पक्तयः स्थितिस्थान : सूचकचिह्नस्थानीयाः
सातावेदनीयद्विस्थानिकयवमध्य
23
10
असातावेदनीयद्धिस्थानिकयवमध्य.
२१
एतादृशानि बन्धक परिमाणस्थापना निष्पज्ञयवाद
田
"
सात स्थानयवैमध्य.
[ ६६१
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________________
[ अन्यमते प्रस्तुताल्पत्र हु०
अथाऽन्यमते प्रस्तुतं दिदर्शयिषुर्गाथाष्टकमाह
१.
as उ यवमज्झाऽहो चउठाणेऽप्पाणि उ ठिठाणाणि । सायरस हुन्ति एत्तो संखगुणाणि उवरिं हुन्ति ॥ ८६७ ।। तो तिट्ठाणेऽह तओ उवरिं "तत्तो अहो य बिट्टाणे | सागारे तो मीसे हवन्ति तत्तो उवरि मीसे ॥ ८६८ ॥ 'ता असायस्स अहो बिट्ठाणम्मि य हवन्ति सागारे । तो मीसे ताउ उवरि मीसे तो हन्ति सागारे ॥ ८६९॥ तो तिट्ठाणेऽहतओ उवरिं १४ता चउठाणिये हेट्ठा । १५ तत्तो संखेज्जगुणो सायस्स लहू मुणेयव्वो || ८७०॥ १६ तत्तो विसेस अहिया णायव्वा जट्टिई ओऽभहियो । होइ असायस्स लहू "तोऽब्भहिया जट्टिई गेया ॥ ८७१ ॥ १९ तो संखेज्जगुणा जम्हा गच्छेइ डायमुकोसं । साय ठिई णायव्वा तो अंतोकोडिकोडिटिई ॥ ८७२ ॥ २१ तत्तो संखगुणाई हवन्ति सायस्स उवरि बिट्टाणे । सागारे तोहियो गुरु तओ जट्टिई अहिया ॥ ८७३ ॥ २४तो डायठिई अहिया २५ ताउ असायस्स उवरि चउठाणे । अहियाणि तओ परमो अहियो तो जट्टिई अहिया || ८७४ || (प्रे०) “केइ उ यवमज्झा" इत्यादि, तत्र " केइ उ" त्ति 'केचित् ' महाबन्धकारादयस्तुपुनः, प्रस्तुताल्पबहुत्वमित्थं वदन्तीति वाक्यशेषः । कथं वदन्तीत्याह - " यवमज्झाऽहो चउ" इत्यादि गाथाष्टकम्, अस्याऽक्षरार्थस्त्वनन्तरोक्ताल्पबहुत्वेन तुल्यप्रायोऽतस्तदवत् स्वयमेव योज्यः, भावार्थोऽपि बहुधा तादृश एव, केवलं तत्र यानि सातवेदनीय जघन्यस्थितिबन्ध- जघन्ययत्स्थिन्यसातवेदनीयजघन्यस्थितिबन्ध-जघन्ययत्स्थतिलक्षणानि चत्वारि पदान्यष्टम-नवम- दशमै -कादशपदेषु क्रमेणाभिहितानि तान्यत्र पञ्चदश - षोडश - सप्तदशा - ऽष्टादशपदतया निक्षिप्तानि ।
६६२ ]
घाणे मूलप डिठिइबंधो
इत्थं हि तदभिप्रायेण - 'सर्वस्तोकानि सातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकरसयवमध्यादधस्तनानि स्थितिस्थानानि । ततस्तस्यैव चतुःस्थानिकर सयवमध्यस्योपरितनानि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । ततः सातवेदनीय त्रिस्थानिकरसस्य यवमध्यादधस्तनानि स्थितिबन्धस्थानानि
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________________
अन्यमते प्रस्तुताल्पबहु०] चरनेऽधिकारे जीवममुदाहारः
[६६३ संख्येयगुणानि । ततोऽस्यैव यवमध्यस्योपरितनानि स्तियन्वस्थानानि संख्येयगुणानि । 'ततः सातवेदनीयविस्थानिकरसस्य यवमध्यादध एकान्तसाकारोपयोगप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । 'ततस्तस्मादेव यवमध्यादधः साकाराऽनाकारोभयोपयोगप्रायोग्यानि स्थितिबन्ध स्थानानि संख्येयगुणानि । * ततोऽनन्तरोत्तस्यैव सातवेदनीविस्थानिकरसयवमध्यस्थोपरि साकाराऽनाकारोभयोपयोगप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । ततोऽसाविंदनीयविस्थानिकरमस्य यवमध्यादधः केवलसाकारोपयोगमायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । ' ततस्तस्मादेव यवमध्यादधः साकाराऽनाकारोभयोपयोगप्रायोग्यानि थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । ततस्तस्यैवाऽमातवेदनीविस्थानिकरसस्य यवमध्यस्योपरि साकाराऽनाकारोभयोपयोगप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । ततस्तत्रैव विस्थानिकरसयवमध्यस्योपरि केवल नाकारोपयोगप्रायोग्यानि स्थितिवन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । परततोऽसातवेदनीयस्यैव त्रिस्थानिकरसस्य यवमध्यादधः स्थितिवन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । 'ततस्तस्येव यवमध्यस्योपरि स्थितिवन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । १ ततोऽसातवेदनीस्य चतुःस्थानिकरसयवमध्यादधः स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । ततः पुनः सातवेदनीयस्याऽनुभवयोग्यः स्थितिबन्धो जघन्यः संख्यातगुणः । ततस्तस्यैव सातवेदनीयस्य कर्मरूपतावस्थानलक्षणा यत्स्थितिर्जघन्या विशेषाधिका । 'ततोऽसातवेदनीयस्याऽनुभवयोग्यो जघन्यः स्थितिबन्धो विशेपाधिकः । ततस्तस्यैवाऽसातवेदनीयस्योक्तस्वरूपा यत्स्थिांतर्जघन्याऽभ्यधिका । तितो यस्मात् स्थितिबन्धादुत्कृष्टां डायां जीवो गच्छति स प्रागुक्तस्वरूपः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । २°तत उत्कृष्टपदगताऽन्तःकोटिकोटीसागरोपमस्थितिः संख्येयगुणः । ततः सातवेदनीयस्य द्विस्थानिकरसयवमध्यस्योपर्येकान्त माकारोपयोगप्रायोग्यानि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि । २१ ततः सातवेदनीयस्याऽवाधापेतो योऽनुभवयोग्यः स्थितिबन्धः स उत्कृष्टो विशेषाधिकः। ततस्तस्यैव सातवेदनीयस्य कर्मरूपतावस्थानलक्षणा यत्स्थितिरुत्कृष्टा विशेषाधिका । २४तत उत्कृष्टा डायस्थितिर्विशेषाधिका । २"ततोऽसातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकरसयवमध्यस्योपरि स्थितिबन्धस्थानानि विशेषाधिकानि। ततोऽसातवेदनीयस्याऽनुभवयोग्यस्थितिबन्ध उत्कृष्टपदे विशेषाधिकः । २"ततस्तस्यैवोक्तलक्षणोत्कृष्टा यस्थितिर्विशेषाधिका इति ।।८६७......८७४।।
तदेवमभिहितं सातवेदनीया- सातवेदनीयरि-त्रि-चतुःस्थानिकरसबन्धादिनानावस्तुसम्बन्धादने कधा विभक्तानां विवक्षितानां संज्ञिपञ्चेन्द्रियाभव्यजीवबन्धप्रायोग्यानां स्थितिबन्धस्थानानामन्येषां सातवेदनीयाऽसातवेदनीयजघन्यस्थितिबन्धादिलक्षणानां पदानां चाल्पबहुत्वम् । साम्प्रतं तत्रैव स्थितिस्थानेषु द्वि-त्रि-चतुःस्थानिकरसभेदेन पोढा विभक्तानां बन्धकानामल्पबहुत्वं प्रचिकटयिपुराह
सायस्स हन्ति थोवा जीवा चठाणबंधगा तत्तो। तिदुठाणबंधगा खलु कमसो होअन्ति संखगुणा ॥८७५॥
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६६४ ]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [बन्धकजीवाल्पबहुत्वम् ताउ असायस्स कमा हुन्ति दुचउठाणबंधगा तत्तो। तिट्ठाणबंधगा खलु होअन्ति विसेसओऽभहिया॥८७६॥ (प्रे०)"सायस्स हुन्ति थोवा” इत्यादि, सातवेदनीयस्य चतुःस्थानिकरसबन्धका जीवाः "हुन्ति थोवा” ति अनन्तरवक्ष्यमाणपदगतजीवेभ्यः 'स्तोकाः' -अल्पाः सन्ति । “तत्तो” त्ति तेभ्यः सातवेदनीयचतुःस्थानिकरसवन्धकेभ्यः सातवेदनीयस्यैव "तिदुठाणबंधगा खलु" ति त्रिस्थानकरसबन्धका द्विस्थानकरसवन्धकाश्चैते एकैकविधबन्धकजीवा इत्यर्थः । खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे । कियन्त इत्याह-"कमसो होअन्ति संखगुण" त्ति 'क्रमशः'-यथासंख्यं संख्येयगुणा भवन्ति । “ताउ" त्ति तेभ्योऽनन्तरपदोक्तसातवेदनीयविस्थानिकरसबन्धकेभ्यः "असायस्स कमा हुन्ति” इत्यादि, अनन्तरोक्तस्य 'संखगुणा' इत्यस्य घण्टालालान्यायेनात्रापि योजनाद् असातवेदनीयस्य द्विस्थानकरसबन्धकास्तथाऽसातवेदनीयस्यैव चतुःस्थानकरसबन्धकाः क्रमात् संख्येयगुणा भवन्तीत्यर्थः । "तत्तो" ति तेभ्योऽनन्तरपदोक्तेभ्योऽसातवेदनीयचतुःस्थानकरसबन्धकेभ्यः “तिहाणबंधगा खलु" ति असातवेदनीयस्यैव त्रिस्थानकरसवन्धकाः पुनः "होअन्ति विसेसओऽभहिया" ति 'विशेषतोऽभ्यधिकाः' -विशेषाधिका भवन्तीत्यर्थः । । ननु असातवेदनीयस्य द्विस्थानिकरसबन्धकानां प्रायोग्यस्थितिबन्धस्थानेभ्यः सातवेदनीयस्य द्विस्थानिकरसबन्धकप्रायोग्यस्थितिबन्धस्थानान्यनन्तरोक्ताल्पबहुत्वेऽर्थतोऽनेककृत्वः संख्येयगुणानि दर्शितानि; अत्र तु वैपरीत्येन सातवेदनीयविस्थानिकरसबन्धकापेक्षयाऽसातवेदनीयस्य द्विस्थानिकरसबन्धकाः संख्येयगुणा उक्तास्तत्कथं न विरोधः ? इति चेद, न, एकजीवमाश्रित्य सातवेदनीयस्योस्कृष्टबन्धकालापेक्षयाऽसातवेदनीयस्योत्कृष्टवन्धकालस्य संख्येयगुणत्वेनाऽसातवेदनीयविस्थानिकरसबन्धकसञ्चयस्यापि उत्कृष्टपदगतसातवेदनीयविस्थानिकरसबन्धकापेक्षया संख्येयगुणत्वसम्भवेनाऽविरोधादिति ।।८७५-८७६।।
तदेवमभिहितं चरमे जीवसमुदाहारे जीवाल्पबहुत्वम् , तथा च समाप्तं जीवसमुदाहाराख्यं चरमं द्वारम् , तस्मिंच समाप्ते समाप्तश्चरमोऽध्यवसाय समुदाहारः, तत्समाप्तौ चावसितो मूलप्रकृतिस्थितिबन्धः। क्रियते स्म मयाऽध्यवसन-समुदाहारं विवण्वता यत्पुण्यम् ।
सुविशुद्धाध्यवसाया भवन्तु भव्या विगतभवभयास्तेन ॥ (आर्यागीतिः) ॥ इति श्रीवन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे षष्ठेऽध्यवसायसमुदाहारे तृतीयं जीवसमुदाहाराख्यं द्वारं समाप्तम्
॥ इति श्री बन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धे षष्ठोऽध्यवसायसमुदाहारः ॥
POS
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॥ अथ टीकाकृत्प्रशस्तिः ॥
भव्यानां भवसागरे प्रपततां निस्तारकं यत्कृतं,
तीर्थं सम्प्रति राजते जलनिधौ बोहित्थवद्धैर्यदम् । सिद्धार्थत्रिशलाङ्गजो विभवकृत् कारुण्यरत्नाकरः,
स श्रीमान् शिवदः सदैव भवतु श्रीवर्धमानोऽपि * वः || १ || ( शादुल०) भव्येभ्यः सुखदां जिनेन्द्र मुखजां वाचं निशम्योन्नतां,
प्रव्रज्यां प्रतिपद्य वीरविभवे येनाऽर्पितं जीवनम् । यन्नामाऽपि निहन्ति पापतिमिरं मार्तण्डरश्म्योधवद्,
वन्देऽहं गुरु गौतमादिगणिनां वृन्दं सदा तन्मुदा ||२|| ( शार्दुल०)
सर्वोऽपि संविग्नमुनित्रजोऽयं, येषां प्रविष्टः पृथुसंततौ हि ।
ते पञ्चमाः संयतवृन्दताताः, पान्तु सुधर्माख्यगणाधिपा वः || ३|| (इन्द्रवज्रा० ) येन स्वभार्या - जनकादिना वै, साकं गृहीतं चरणं जिनोक्तम् ।
जम्बू : स कम्बू प्रभशुभ्रकीर्तिः, कैवल्यधामा चरमः पुनातु || ४ || ( इन्द्रा० )
प्रभवविभवो जम्बूहर्म्यं प्रविश्य निशि ध्रुवां,
ध्रुवपदविदां सम्यग्रत्नत्रयीमुपलेभिरे ।
मनकजनकाः श्रीमच्छय्यम्भवाश्च भवच्छिदः,
शशधरसितश्लोका भद्रं दिशन्तु सतां सदा || ५ || ( हरिणी ० ) *तत्पट्टमण्डनो विद्वान्, महिमगुणभाजनम् । भद्रं तनोतु सर्वेषां यशोभद्र गुरुवम् ||६|| *सम्भूतिविजय स्तस्य, विनेयोऽभूच्छिवङ्करः । प्रवाजको हतानङ्ग-स्थूलभद्रस्य पातु वः ॥७।। *सूत्ररत्नाकरे येन, नियुक्तितीर्थमारचि । जयतु भद्रबाहुः स भगवान् श्रुतकेवली ||८|| वेश्यासङ्गेऽभ्यविचलचरणः प्लुष्टकामो हि योऽभूत्,
पूर्वाणां हि प्रकरमविकलं ज्ञातवान् सूत्रतश्च । सिद्धान्ताब्धेरपरतटमितः कामयोधं विहन्तु,
शक्तिस्तोमं स वितरतु सतां श्रीयुतस्थूलभद्रः || ९ || (चित्रलेखा०)
* अपिशब्दोऽन्येषां तीर्थपतीनां समुच्चये । अनुष्टुब्वृत्तम् ।
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६६६]
बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [ श्रीमहागिर्यादि-श्रीकमलसूरीश्वरान्तप्रशस्तिः आद्यशिष्यस्तदीयो यो, जिनकल्पं तुतोल सः । महागिरिः शिवं दद्यात् , सुहस्तिगुरुवान्धवः ॥१०॥ (अनुष्टुब्बृत्तम्) सुस्थित-सुप्रतिबद्धौ, कोटिक-काकन्दिको ततो जातौ। श्रीवीरनवमपट्ट, यत उदितः कोटिकाभिधगणोऽयम् ॥११॥ (गीति०) इन्द्रदिन्नगुरुस्तत्र, श्रीदिन्नगुरवस्तथा ।
श्रीसिंहगिरिनामानो, जाताः क्रमाज्जयन्तु ते ॥१२॥ (अनुष्टुब्बृत्तम् ) जातिस्मृत्या शिशुरपि भृशं संयमार्थ रुरोद,
प्रत्रज्योच्चैदेश भणितवान् सार्थपूर्वाणि यश्च । तीर्थोद्योतं व्यधित च यतो वज्रशाखोत्थितेयं,
वज्रस्वामी स भवतु सतां वज्रिवन्धो विरक्त्यै ॥१३॥(मन्दाक्रान्ता०) श्रीवज्रसेनो जितमोहसेनो, ज्ञाताख्यसूत्रप्रतिवादिजेता ।
सोपारके यश्चतुरो दिदीक्षे, वित्ताठ्यपुत्रान् स ददातु मेधाम् ॥१४॥ (इन्द्रवज्रा०) जातं हि कुलचतुष्कं, तच्छिष्येभ्यः सुविस्तृतं तत्र ।
यस्माच्चान्द्रमिदं निर्गतं स चन्द्रगुरुरवतु सदा ॥१५।। (गीति०)
चन्द्रनाम्नि कुले येऽस्मिन् , जातास्तीर्थधुरंधराः ।
नैके · सामन्तभद्राद्याः, सूरयस्ते पुनन्तु वः ॥१६।। (अनुष्टुब्०) वीरादभूत्तत्र युगाब्धि(४४)संख्ये, पट्ट तपोगच्छसुवृक्षमूलम् ।
स श्रीजगच्चन्द्रगुरुस्तपस्वी, पातु क्रियोद्धारवतां पुरोगः ।।१७।। (इन्द्रवज्रा०) पट्टे गजेषु(५८)प्रमिते हि वीराद् , गच्छेऽत्र जातः प्रभुहीरसूरिः ।
प्राबोधयद्यो यवनाधिराजं , प्रेक्षावदर्ग्यः स तनोतु धाम ।।१८।। (इन्द्रवज्रा०) पट्टपरम्परयैवं, बभूव पावकहय(७३)परिमिते हि पट्टेऽत्र ।
धीरो वीरो विबुधः, श्रीविजयानन्दसूरीन्द्रः ।।१९।। (आर्या०) लुम्पाकाख्यं कुमतमसकृत् खण्डखण्डं विधाय,
____ मृर्त्यर्चा श्रीसमयवचसा येन सिद्धान्तिता च । आत्मारामेति मधुरगिरा संस्तुतो यस्तु लोकैः,
स न्याथाम्भोनिधिरिति बुधैव्याहृतः पातु युष्मान् ॥२०॥ (मन्दाक्रान्ता) तत्पट्टमण्डनसुधी, निवृन्दसेव्य-,चारित्रवार्धिशमकृद्धतनिःस्पृहत्वः ।
सूरीन्द्र इन्द्रवदनः कमलाभिधानः, श्रेयः सदाऽपि वितनोतु स देहभाजाम् ॥२१॥ (वसंत०)
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* श्रीदानसूरीश्वरप्रभृतीनों प्रशस्तिः ] टीकाकृत्प्रशस्तिः वीराच्छरोदधि(७५)मिते श्रुतहार्दवेदी, ज्योनिष्कविच्च कमलाभिधसूरिपट्टे ।
श्रीवीरपूर्वविजयोत्तरपाठकानां, सूरीन्द्रदानविजयो हि बभूव शिष्यः ॥२२॥ (वसंत०) स श्रेयसेऽस्तु सततं समजारतोच्चैः, मच्चूर्णि-भाष्य-विवृतिप्रमुखं प्रमथ्य । यद्दत्तसूत्तरसमूहनिवद्धमाला, तचं बुभृत्सुकृतिनां वरपाठमाला ॥२३॥ (वसंत०)
(युग्मम) तत्पट्टे जयति प्रशस्तचरणः श्रीप्रेमसूरिप्रभुः,
सेव्यः सार्धशतद्वयाधिकमुनित्रातेन वात्सल्यभूः । कर्मवातविदाणैकसुभटः सर्वत्र वै सम्मतः,
कर्मग्रन्थविचारणेऽतिचतुरः सिद्धान्तपारङ्गतः ।।२४।। (शार्दुल०) काणादैरसुमद्गणानतिगतं सांख्यैः प्रधानोद्भवं,
योगाचारमते किमप्यभिमतं यद्वासनासंज्ञकम् । मायाह्वतु मतं कथञ्चिदपि यद् वेदान्तिकैश्चात्मनो,
.. मुक्ता-ऽमुक्तविधेः प्रणायकमसत् तचं हि यस्यां तकत् ।।२५।। (शादुल) हृद्याधुक्तिभरादपाकृतमतिप्रौढप्रतिज्ञायुतात् ,
सूक्त्या पौद्गलिकं जिनेन्द्रवचनाज्ज्ञातं च संस्थापितम् । म्याद्वादप्रतिभाभृता विरचिता सा कर्मसिडिस्तथा, सृष्टं चारु च येन यन्त्रकलितं सत्संक्रमश्रन्थनम् ॥२६।। (शादुल.)
(युग्मम्) दृब्धं च मार्गणाद्वार-विवरणं सुविस्तृतम् । अन्यान्यग्रन्थकुत्प्रोक्त-नियुक्त्यादिसमन्वितम् ।।७२ (अनु०)
किंबहुना भणितेन खलु प्रथितेन हि येन बुधप्रभुणा,
__ स्वीयमनोजमतिश्रमगुम्फ्यमिदं वरबन्धविधानमरम् *। गुम्फयितु मुनिवर्गमिहाऽध्ययनादिश्रुतं सततं प्रणतं,
वीक्ष्य नियुज्य निजे च करे प्रविधाय कुशां रचितं विशदम् ।।२८५ (मदिरा०) गृहस्थितस्वपित्रेऽपि, सद्गतेरनुबन्धिनी । संस्तारकस्य दीक्षा हि, दापिता येन धीमता ॥२९॥ (अनु०) येन व्यधायि जिनबिम्बगृहप्रतिष्ठा, दीक्षाविरोधनियमस्य विरोधनं च ।
अन्यत्कृतं बहुविधं प्रवचःप्रभावि, ब्रूमः कथं यदनलो धिषणोऽपि यत्र ।।३०।। (वसंत०) शिष्यस्तदीयोऽपि हि भानुनामा, पंन्यासमुख्यो जितभानुधामा ।
नक्तंदिवं तचविभासकत्वाद् , भव्योपकारव्यसनीव भाति ॥३१॥ (इन्द्रवज्रा०) ★ झटितीत्यर्थः, उक्त च-"द्राक् स्राग-रं झटित्याशु" इत्यादि । । सूत्रम् , व्यवस्थामिति यावद्
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६६८]
बन्धविहाणे मूलपयडिठिबंधो [टीकापिरपाकालापि येनाऽप्यनेके सरलाः समर्था, वालावयोधा रचिता हि हृयाः ।
श्रीपञ्चसूत्रप्रमुखस्य भाषा,-टीकाश्च भाष्यादि दोहनाद्याः ॥३२॥ * ग्रन्थाः स पातु प्रगुरुयशस्वी, व्याख्याविधाने निपुणस्तपस्वी । त्यक्तप्रमादो गुरुपादवासी, सत्तकैवेदी सततं हि युष्मान् ॥३३।। *
(युग्मम) आसीत्तदीयोऽपि य आधशिष्यो, भ्राता कनीयान् सहदीक्षितश्च ।
सारल्यकृष्टाऽखिलसाधुचित्तो, वैराग्यदीप्त्या सततं च दीप्तः ॥३४॥ * गच्छस्य भक्त्यै कृतसुप्रयासः, संप्राप्तगच्छाधिपचित्तवासः । दोहं निशोथ प्रभृतेर्व्यधाद्यः, पंन्यासपद्माख्यगुरुः स पातु ॥३५॥ *
(युग्मम् ) मुमुक्षुप्रजायाश्चरित्रस्य शुद्ध्यैरनन्यस्य तस्य प्रभोः पद्मनाम्नः ।
जगच्चन्द्र नाम्ना विनेयेन हृद्याऽनवाप्तेऽपि तच्चे गुरूणां प्रभावात् ॥३६॥भुजङ्गप्र० पूज्यानुरोधेन तदीयतुष्टयै, अन्यान्यशास्त्रादुपलब्धतच्चम् । आदाय सम्यग् रचिता मयैषा, प्रेमप्रभाख्या स्थितिवन्धटीका ॥३७॥ *
(युग्मम् ) निष्ठापितेयं खलु वीरवर्षे हस्तीभवेदाक्षि(२४८८)मिते सुरम्ये ।
मासे च शुक्र मरुदेशमध्ये, बेडाख्यपुर्या बसता सुखेन ।।३८|| * संशोधितेयं तु गणाधिपैर्हि, श्रीप्रेमसूरिप्रभुभिश्च तज्ज्ञैः । शिष्यैस्तदीयैः समयार्थविद्भिः, सूरीन्द्रजम्बूविजयैः परैश्च ॥३९।। * आगमकर्मप्रकृतिप्रमुखेषु च तेषु तेषु शास्त्रेषु ।
सूक्ष्मधियां गम्येषु विहितातिशायिप्रयत्नैर्हि ॥४०॥ (पथ्या०) ऐक्षि जयघोष-धर्मानन्दविजय-वीरशेखरप्रमुखैः । ___ सहवर्तिमुनिप्रवरैः कृतयत्नः सोपयोगैश्च ।।४१॥ (पथ्या०)
(त्रिभिर्विशेषकम् ) दृष्टा पुनः सा हि मयोपयोगात् , तीप्यवश्यं स्खलनाः स्युरत्र ।
छामस्थ्यसख्यो मतिमान्यजा वा, ज्ञात्वाऽपनेवाः कृपया बुधैस्ताः ॥४२॥ * यतः"गच्छतस्स्खलनं क्वापि, भवत्येव प्रमादतः। हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जताः ॥११॥" इति ।
2 इन्द्रवज्रावृत्तम् ।
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मुद्रापणादि०]
टीकाकृत्प्रशस्तिः मुद्रापिता मरुधरस्थितपिण्डवाडा
संज्ञे सुरम्यनगरे वसताऽऽहतेन । ज्ञानार्थसश्चितधनात् खलु सङ्घकेन श्रीतीर्थकृत्-सुगुरुपूदितभक्तिकेन ॥४३॥ (वसन्त०)
तथाहियत्पादभक्त्या भुवि भव्यलोकाः, सत्कीर्तिकान्त्यादियुता भवन्ति ।
पुष्णातु शं वो जिनवर्धमानः, श्रीपिण्डवाडापुरमण्डनः सः ॥४४॥ (इन्द्रवज्रा०) विक्रमीयपञ्चदशशतादौ धर्मकर्मव्यसनिना प्रस्फुरदहकान्तिना धनाढय न संघपतिना कुरपालेन तथा सुगुणगणनिभृतेन सुन साप्तवित्तेन सज्जनश्रेणिधुर्येण श्रीमता लीघाभिधानेन व्यव
१“प्राग्वाटवंशे व्यवहारिसांगासूनुः, प्रसूनोज्ज्वलकान्तकीर्तिः । श्री पुण्यपूर्णोऽजनि पूर्णसहस्तस्य प्रिया जाल्हणदेवीनाम्नी ।। १॥ (?) तदूरचंद्रास्ततरुद्गम क्रियाकलापः किल कुंरपालः। जाया च मायादिकदोषमुक्ता तस्याभवत् कामलदेवीनाम्नी ॥२॥ सूदयौ सदयौ वामामृतेः सुहिती लोकहितौ सतां मतौ।
सुनयौ विनयौचितीचणौ विजयेते तनयो तयोरिमौ ॥३॥ तत्राद्यः सुजनश्रे गीरत्नं रत्नाभिधो धनी । वदान्य जनमुन्यो राजमान्यो धियां निधिः ।। ४ ।।
द्वितीयस्तु द्वितीयेंदुकान्तिकान्तगुणावहः । धरणः शरणं श्रीणां प्रवीणः पुण्यकर्मणि ।। ५ ।। रत्नादेवी-धारलदेव्यौ जन्यौ (पत्न्यौ) नयोरनुक्रमतः । समभूतामतिनिर्मलशीलालङ्ककारधारिण्यौ ।।६।। रत्नस्य पुत्रा एते लाषा-सलषा-मनाह्व-सोनाख्याः । शांतस्वभावकलिता गुणतरुमलयाः कलानिलयाः।।७।।
श्रीप्राग्वाटाभिधज्ञातिशृङ्गशङ्गारशेखरः । पूराऽभून्मणानामा व्यवहारी वरस्थितिः ।। ८ ।। तस्य जोलाभिधः सूनस्तत्पुत्रो भावठोऽशठः । तस्यासीज्जाउणादेवी भार्या चार्या स्वभावतः ।।९।।
तदीयपुत्रः सुगुणैः पवित्रः, सौजन्यचित्तः सुनयाप्तवित्तः ।।
___ लोंबाभिधानः सुकृतिप्रधानः, सत्कार्यधूर्यो व्यवहारवर्यः ॥ १० ॥ नयणादेवी नामलदेवीति ख्यातसंज्ञिके तस्य । दयिते दययोपेते शीलाचुदामगुणकलिते ।। ११ ॥ नयणादेवीतनुजो मनुजोचितचारुलक्षणोपेतः । अमरो भ्रमरो गुरुजन-जननी-जनकादिपदकमले ॥१२॥ भीमकान्तगुणख्याते प्रजापालनलालसे । हाजाभिधे धराधीशे प्राज्यराज्यं च कुर्वति ।।१३।।
आभ्यामुभाभ्यां धनिकुरपाल-लींबाभिधाभ्यां सदुपासकाभ्यां ।
ग्रामेऽग्रिमे पिण्डरवाटकाख्ये प्रासादभूमिरुदधारि सारः ॥ १४ ॥ विक्रमाद्वा गत ब्धिभूमिते (१४६५) वत्सरे तथा । फाल्गुनाख्ये शुभे मासे शुक्लायां प्रतिपत्तिथौ ॥१५॥
कल्याणवृद्धयभ्युदयैकदायकः श्रीवर्धमानश्चरमो जिनेश्वरः ।।
श्रीमत्तपःसंयमधारिसूरिभिः प्रतिष्ठितः स्पष्टमहामहादिह ॥ १६ ॥ आरवीं समयादनया श्रीपर्द्धमानजिननायकमूर्त्या । राजमानमभिनंदतु विश्वानंददायकमिदं वरचैत्यम्।१७.श्रीः।।"
इति पिन्डवाडाश्रीमहाविरजिनप्रासादभित्तिगतप्राच्यो लेखः ।।
(अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसंदोहे लेखांकः ३७४)
इतश्व
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६७० ]
बन्धविहाणे मूलपयडिठिइबंधो [श्रीपिंडवाडासङ्घ-सत्कार्याणि हारिवर्येण तथैव संघपतिकुरपालपुत्रेण नलिनीगुल्मविमानानुकारि-जगज्जनचेतोहारि-'त्रैलोक्यदीपकनामप्रासादायनेकनव्यजिनप्रासादविधायका--ऽजाहरीप्रमुखबहुस्थानजीर्णजिनभवनोद्धारणाऽऽचार्यप्रमुखपदवीप्रदापन-विषमसमयसत्रागारप्रवर्तनादिनानाविधसत्कार्यप्रवणेन प्राग्वाटवंशमण्डनेन परमार्हतेन संघपतिमा श्रीधरणाकेन व्यवहारिवय-वदान्यजनमूर्धन्य-राजमान्य-रत्नाभिधस्वज्येष्ठबन्धुसहितेन मरुधरधरणीसीमन्तिनीललाटतिलकायमाने सत्कृत्यसंचितपुण्यप्रचयैर्भव्याशयभूरिभिर्भव्यजनैः संकुलिते पिण्डवाडानामसुग्रामे पूरा जीर्णशीर्णतां गतस्य यस्य विश्वानन्ददायकस्य त्रिभुवनपतिश्रीवर्धमानस्वामिप्रासादस्य उद्धारः कारितः, यत्र च प्रासादे पञ्चषष्टयधिकचतुर्दशशतसंख्याके ( १४६५ ) विक्रमाब्दे फाल्गुन-प्रतिपत्तिथौ शुभे मुहूर्तेऽहंदाज्ञापरिपालनातैर्जिनशासनप्रभावनाप्रवणैस्तपसंयममूर्तिभिगुरुवर्यैः कल्याणवृद्ध्यभ्युदयैककारणस्य चरमतीर्थपतेः प्रभोः श्रीमहावीरदेवस्य मनोहरमर्नेमहता महेन प्रतिष्ठा विहिता, तं तदा तदा स्वात्मकल्याणकामिभिस्तैस्तै व्याङ्गिभिः कारिताभिरनेकाभिर्देवकुलिकाभिर्वेष्टितं कालप्रभावेन पुनरपि जीर्णशीर्णतामुपगतं विश्वानन्ददायकं जिनप्रासादं पिण्डवाडावास्तव्येनेदानीन्तनेन सङ्घनानेन विद्वद्वर्याचार्यदेवश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरविनेयरत्नोपाध्यायश्रीभुवनविजयानां सदुपदेशादनेकलक्षद्रव्यव्ययेन समुद्धार्य नवमिव रमणीयतमदेवभवनमिव निनिमेषं निरीक्षणीयमिव वज्रिवज्रमिव सुदृढमभिनवसमवसरण-द्वारत्रिक त्रिचत्वारिंशदुत्त गशङ्गकलितदेवकुलिकादिविभूषितं कारयित्वा विविधकलाकलापकलितवरमण्डप-ध्वज-पताका-तोरणमाला-शोभाप्रतोलीप्रमुखविधापनम् , निरपायशुभमुहूर्तान्वेपणम् . दुगन्तिकामनगरस्थचतुर्विधसङ्घानां निमन्त्रणहेतोः कंकुमपत्रिकादिप्रेषणम् , उपस्थितानां च तेषां सत्करणम् ,यथायोग्योत्तारकेफ़्तारणम् ,घृतपूरा-ऽपूपादिस्वादुनानाविध-मिष्टान्नपूपिकाशाल्योदनादिप्रमुखभोज्यसामग्रीमुपस्कार्य तया विविधमुखवासद्रव्यैश्च चेतश्चमत्कारिण्या हृदयस्थ
४१.......अजाहरी पिंडरवाटक-सालेरादिबहुस्थाननवीनजैनविहार-जीर्णोद्धार-पदस्थापना-विषमसमयसत्रागार-नानाप्रकारपरोपकार श्रीसंघसत्काराद्यगण्यपुण्यमहार्थक्रयाणकपूर्यमाणभवार्णवतारणक्षममनुष्यजन्मयानपात्रेणप्राग्वाटवंशावतंस सं० सांगणसुत सं० कुरपाल भा० कामलदे पुत्र परमाईत सं० धरणाकेन ज्येष्ठभ्रातृ सं० रत्ना भा० रत्नादे पुत्र सं० लाषा-मजा-सोना-सागिल स्वभा० सं० धारलदे पुत्रजाज्ञा (जा)जावडादिप्रवर्द्धमानसंतानयुतेन राणकपुरनगरे राणाश्रीकुभकर्णनरेन्द्रेण स्वनाम्नानिवेशिते तदीयसुप्रसादादेशतख लोक्यदीपकाभिधानः श्रीचतुर्मुखयुगादीश्वरविहारः कारितः, प्रतिष्ठितः श्रीबृहत्तपागच्छे श्रीजगच्चन्द्र [सू ]रिश्रीदेवेन्द्रसूरिसंताने श्रीमत् श्रीदेवसुन्दर] सूरि [पट्टप्रभा] कर परमगुरु सुविहितपुरंद [रगच्छा] धिराजश्रीसो (म सुदरसूरि [भिः] ॥ ॥[कृत] मिदं च सूत्रधारदेपाकस्य । अयं च श्रीचतुमुखप्रासाद आचन्द्राके ] नंद [ता त् ॥ शुभं भवतु ॥"इति ।।
__ (प्राचीनलेखसंग्रहे राणकपुरलेखाः, लेखाङ्कः ३०७) * धनाशापोरवाड इति लोके प्रसिद्धनाम्ना।
प्रासादस्यास्य मूलनिर्मापकास्तु प्रासादगततथाविधलक्षणप्रवृत्तलोकवचनात् श्रीसम्प्रतिनृपतय ज्ञायन्ते। / इदानीं त्वेते आचार्यविजयभुवनतिलकसूरीति ख्याताः ।
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श्री पिण्डवाडासङ्घ -सत्कार्याणि ।
टीकाकृत्प्रशस्तिः
[ ६५
भक्त्या वेगावेदिन्या पद्धत्या सङ्घाग्रणीभिः स्वहस्तेन साधर्मिक वात्सल्यादिलक्षणानां जेमनवाराणां प्रवर्तनम् भानुकवालमुग्धजन प्रबोधन हेतू नामार्द्रकुमारप्रतिबोध - इलाची कुमारकेवलज्ञान - मेघरथनृपकृतजीवरक्षण - त्रिशलादेवी स्वप्नदर्शन - श्री वीरविभु केवलज्ञान- धरणेन्द्र पद्मावतीकृत श्रीपार्श्वजिनभक्तिप्रमुखानां नानाविधप्रसङ्गानां चलाऽचलपुत्तलिका- चित्रादिना विश्वनम् समग्र जिन प्रतिमादीनां बहुमूल्याङ्गरचनाविस्तारणम्, तदाग्रेऽनेकविधाऽशनद्रव्य-फलादिढौकनपूर्वकं बहुविववाजिन्त्र वररवयुतप्रभुगीतगानादिना सह भावपूजादीनां निर्वर्तनम् दीनानाथ प्रमुखजनानामाहारादिप्रदानेन संतोषणम्, सर्वदिगमारिप्रवर्तनम्, अनेकविधवर्धापनादिना देवद्रव्यादीनां वृद्धिकरणमित्यादिलक्षणेन त्रयोदशाह्निकेन महता महेन वैराग्यवारिधिपूज्याचार्यदेव श्रीमद्विजययशोदेवसू रिवर-पंन्यासप्रवरश्रीमान विजयगणीन्द्र- पंन्यास श्रीकान्तिविजयगणिवर-पंन्यास श्रीभद्रंकर विजयगणिवर पंन्यास श्री चिदानंद विजयगणिवर-पंन्यासश्रीमलयविजयगणिवर-पंन्यासश्रीहेमन्त विजयगणिवर-पंन्यास श्रीमुक्ति विजयगणिवर--पंन्यास श्रीत्रिलोचनविजयगणिवर---पंन्यास श्रीहिमांशुविजयगणिवर --पंन्यासश्रीभानुविजय-गणिवर-पंन्यासश्रीपद्मविजयगणिवर प्रमुखाऽनल्पगुणगरीष्ठस्थविरबालवृद्धशतातीत शिष्य-प्रशिष्यमुनिवृन्दपरिवृतैर्व्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्द सूरीश्वर पट्टप्रभाकर निस्पृहशिरोमणिसुविहिताग्रण्या-चार्यदेव श्रीमद्विजयकमल सुरोश्वर सट्टालङ्कार - वाचकवर श्रीमद्वीरविजय विनेयरत्न-सकलागमरहस्यवेदि - परमज्योतिर्विच्छ्रीमद्विजयदान सूरीश्वरपट्ट विभूषणैः वचनवारिवर्षणाधरीकृत हिमानीशैत्यैविश्व विख्यातनिष्कलङ्क चरणविभवैः सर्वजनसम्मतैः स्वदर्शनेन प्रायो दुष्टानामपि प्रीतिकार करहर्निशमनेकविबुधश्रमणश्राद्धसंसेवितपादपद्यैः कारुण्यनीराऽऽपूरितहृत्सरैः भव्यजनचकोर चेतश्चन्द्रैः कामकथाशितव्यथामथनैकसूरैः सुविशालगच्छाधिपतिभिः श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरैः गुरुत्रयैः श्रीवीरप्रभोः मूलवि षोडशाभ्यधिकसहस्रद्वयाङ्किते (२०१६) विक्रमाब्दे वैशाखमासे शुक्लपक्षस्य षष्ठयां तिथौ शुभे मुहूर्ते प्रतिष्ठापितम् । प्रतिष्ठापितानि च तदानीमेवान्यानि श्रीगोडीपार्श्वनाथ - स्वामिश्री सम्भवनाथस्वामिप्रभृतीनां जिनपतीनां पूरातनानि तथा तैस्तैः श्राद्धवर्यैः कारितानि यथोलक्षणे महामहे प्रवर्तमाने वैशाख शुक्ल तृतीयाया रजन्यां प्रशस्ते मुहूर्ते तैरेव गच्छाधिपगुरुवर्यैः कृतप्राणप्रतिष्ठानि भव्यजननयनानंददायीनि श्रीशान्तिनाथस्वामिप्रमुखानां तीर्थपतीनां पञ्चपञ्चाशदभ्यधिकान्यभिनवानि विम्वान्यपि तत्रैव देवकुलिकादिषु भवजलधिं निस्तरितु कामेन सङ्केनानेन । आरब्धं च तेषामेव गुरुवर्याणामुपदेशाञ्जीर्णप्रायस्य संनिहितवर्त्य जारी ग्रामस्थद्विपञ्चाशजिनप्रासादस्योद्धारकार्यमविलम्बेन । कारितानि च सुबहुमुनिगगपरिकरितानां तेषामाचार्यदेवानामन्येषां मुनिपुङ्गवानां च वर्षावासावस्थानान्यपि कल्याणकामेन, ढाँकितानि च तदानीं स्वगृहाङ्गणे निमन्त्र निमन्त्र्य विपुलवस्त्र -यात्रा -ऽशन - पानौ - पधादीनीव स्वकीयानि लघ्वपत्यानि चरणासेवनसमुत्सुकीनिवचनश्रवणप्रवणेन सङ्घनानेनाचार्यदेवपादमूले, किं बहुना प्रत्राजितान्यपि निजलघुबालरत्नानि तद्वतैः कैचित् श्राद्धसत्तमैः ।
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६७२]
बंधविहाणे मूलपयडिठिइबंधो
[टीकोपसंहार-प्रन्यामादि०
सप्तदशयुतसहस्रद्वयमिते (२०१७) विक्रमाब्दे सङ्घाग्रहातिरेका वर्षावासं स्थितवति बहुशिष्यप्रशिष्यादिसमन्विते गच्छाधिपतौ भगवति आचार्यदेवे श्रीमति प्रेमसूरीश्वरप्रभौ, ज्ञात्वा दृष्ट्वा चामीषां बन्धविधान-तट्टीकाप्रभृतीनां ग्रन्थरत्नानामभिनवाऽऽलेखनादौ प्रवणं मुनिवर्गमालोच्य च तेषां ग्रन्थरत्नानां संरक्षण-प्रसारणताऽऽवश्यकता पूर्वसञ्चिताज्ज्ञानद्रव्यादस्य सटीकमूलप्रकृतिस्थितिषन्धग्रन्थस्य मुद्रणाद्यर्थं विहिता परिपूर्णद्र व्यसहायता निजाऽज्ञानकल्मषप्रक्षालने सुना सङ्घभट्टारकेणेति ।
आदौ मध्येऽन्त्ये वा कुत्राप्यस्यां समस्तटीकायाम् । यज्जिनवचनातीतं किमपि स्याद्भवतु तन्मिथ्या ॥४५॥ (पथ्या०) याद्भूकजकर्णिकात्वममरग्राव्णा समाचर्यते,
__यावद्भकमलाकटी जलधिना काश्चीत्वमारच्यते । यावच्चेन्दुदिवस्करौ विलसतस्तावद्धि नन्दत्वियं,
श्रीमूलस्थितिबन्धवृत्तिरनघा प्रेमप्रभासंज्ञका ॥४६॥ (शार्दुल०) मूलस्थितिबन्धविधेविधाय टोकामिमां मयाऽऽप्तं यत् ।
कुशलं तेनोच्छिन्नस्थितिबन्धं भवतु भव्यजगत् ।। ४७ ।। (पथ्या०) सयन्त्रवृत्तिके ह्यस्मिन् , ग्रन्थे सहस्रविंशतिः । अनुष्टुब्वृत्तमानाद्धि, ग्रन्थाग्रमनुमीयते ॥
। तदेवं श्रीबन्धविधानमूलप्रकृतिस्थितिबन्धटीकायां प्रशस्तिः समाप्ता । ॥ तदेवं श्रीबन्धविधाने मूलप्रकृतिस्थितिबन्धप्रेमप्रभाटीका समाप्ता ॥
तत्समाप्तो च
समाप्तः प्रवचनकौशल्याधार-सुविहिताग्रणी-गच्छाधिपति-परमशासनप्रभावकसिद्धान्तमहोदधि-कर्मशास्त्रनिष्णाता___ऽऽचार्यदेवश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरपादानां पवित्रनिश्रायां तदन्तेवासिवृन्दविनिर्मिते मुनिश्रीMARIA जयघोषविजय-धर्मानन्दविजय-वीरशेखरविजयसंगृहीतपदार्थके मुनिश्रीवीरशेखर- बाबा
विजयविरचितमूलगाथाके प्रेमप्रमाटीकाविभूषिते ।
बन्धविधाने मनिश्रीजगच्चन्द्रविजयविरचितप्रेमप्रभाटीकासमलङकृतः
मूलप्रकृतिस्थितिबन्धः
Sena
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* परिशिष्टिानि * Fxxxixxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
8 प्रथमं परिशिष्टम् - बन्धविधानमूलप्रकृति-स्थितिवन्धप्रेमप्रभाटोकागत-ग्रन्थान्तरावतरणानां स्थानानि । प्रथनाम पत्राङ्क:
प्रन्थनाम
पत्राङ्कः अनुयोगद्वारसूत्रमूलम्-१७९, ६३१.
नवतत्त्वप्रकरणमूलम्-२८, ४८, १०६. अभिधानचिन्तामणिकोशः-५, ५९८.
प्रज्ञापनासूत्रमूलम्-१२२, १२६, १६४, १६५, १६६, आचाराङ्गनियुक्तिः-११६.
१६७, १६८, १६९, १७०, १७१, १७२, १७३, आवश्यकचूरिणः-४४४.
१७४, १७५, १७६, १७७, १८१, १८२, १८३, उत्तराध्य गनसूत्रमूलम्-८२, ८३, १२०.
२८७, २९७, ३११, ३७०, ४४४. उपदेशसप्ततिका-५.
-टीका(मलयगिरीया)-४८, १०६, १२४, कर्मप्रकृतिमूलम्-४३५,
१५५, १६०, १६७, १७४. -चूरिण-९,१२,१६,२३, २६, २९, ३१, ३२, | पश्चसंग्रहमूलम्-८०, ९५, १२७, १६९, २३१, ३३, ३६, ३८, ४, ४५, ४७.४८, ४९, ८०, ३१२, ४९७. ९२, ३२२, ३७७. ६२५, ६२६, ६२७, ६२८, -मूलटीका-१७५, १७८, ३४९, ४५२. ६२९, ६३६, ६३७, ६३८, ६३९, ६४०, ६४२, -टीका(मलयगिरिया)-६८, ७०, १०९, ६४४, ६४५, ६५०, ६५१, ६५२, ६५९.
१७५, २३१, ३०६. -चूरिंगटीप्पनम्-६२५, ६३६.
पञ्चवस्तुकप्रकरणमूलम्-२६५. -टीका (मलयगिरीया )-२८, ३७, ४०, पञ्चसंयतप्रकरणमूलम्-९६. १६४, ६३७, १६४.
बन्धस्वामित्वमूलम् (श्रीदेवेन्द्रसूरिकृत)-८३, १२२. -टीका (उपाध्यायीया)-४३५.
-प्रवचूरिः-८३. कषायप्राभृतमूलम्-२८७.
बृहत्कल्पसूत्रमूलम्-१८३. -चूरिणः-९३, १३२, १३३, १८३. बृहत्संग्रहणीमूलम् (श्रीजिनभद्रगणिकृतं)-९५. कर्मविपाकटीका (श्रीदेवेन्द्रसूरिकृता )-७१.
-टीका(मलयगिरीया)-३१३.। गुणमालावृत्तिः-२६५.
बृहत्संग्रहणीमूलम् (श्रीचन्द्रर्षिगित)-५, ८१, ८३, जीवसमासमूलम्-९५, १६६, १६९, १७५, १८३, ८४, १२०, १६७, १७०, १७८, १७९, २०६,
२६१, २९५, २९९, ३१३, ३४६, ३४९, ३६९, २२६, ३१२, ३१३, ३२०, ३२७, ३३१. ३७०, ४४५, ५०८, ५९८, ६००.
महाबन्धमूलम्-६३६, ६३७. -टोका-१८०, ५९७, ६०४.
योगशास्त्रटीका-३१८. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रमूलम्-३, ४८.
लोकप्रकाशः-८२, १११, ११५, २०६, २३१, ३२१. -भाष्यम्-१७१, २९५.
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रमूलम्-८२, ९४, २०३, २६५, -टीका-४, २९६, ३८३.
३४७, ३४८, ३५०, ३६९, ३७०. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्-३२८.
-टीका (अभयदेवसूरीया)-७०, ८४, २०३, नन्दिसूत्रमूलम्-१०६.
२१२, २६५, २८६, ३४८.
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________________
[२] ग्रन्थनाम पत्राङ्क: प्रन्थनाम
पत्रा विशेषावश्यकभाष्यम्-५, ११३, ११४, १६३, ६२९, । षडशीतिमूलम् (श्रीदेवेन्द्रसूरिकृतं) ८७, १३०. ६३०.
-टीका-८७, ८८. -टीका (मलधारीया)-९४, ११३, ११४.
षट्खण्डागममूलम्-६३८. शतकमूलम् (प्राचीनं)-१०९, १२८.
स्थानाङ्गसूत्रटीका-१५५. -चूरिणः-७३, ८५, १०६, १०७,१०९, १२२,
समवायाङ्गसूत्रमूलम्-१८२. १२८, १३०, १५०,३८३, ४४०,५३९.
सप्ततिकारिणः-११७. -चूरिगटीप्पनम्-३८४, ६२६.
सप्ततिकाभाष्यवृत्तिः-४५२. -भाष्यम्-१०, ६८.
सिद्धप्राभृतमूलम्-३७७. —टीका-४, ९,२४.
-टोका-३७७. शतकमूलम् (नव्यं)-७४, ८५,८८, १७९.
सिद्धहेमशब्दानुशासनम्-३, ४, ५, ९, १०,१११, -टीका-७४, १०९.
३२४,४६८. ॥ इति प्रथमं परिशिष्टम् ।।
* द्वितीयं परिशिष्टम् , 'उवओगेऽणगारे' इत्यादि( ८५८ )गायोक्तसाकारा-ऽनाकारोपयोगपदार्थविषयकशङ्कासमाधानप्रतिपादकः __ श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरिपादप्रणीतकर्मप्रकृतिचूर्णिटीप्पनस्य 'अणगारप्पाओगे'त्यादि
कर्मप्रकृतिबन्धनकरणगाथावलम्ब्येकदेशः । “अथ 'अणगारप्प(प्पा)ओगे'त्यादि प्रकृति- । पृथक् पृथग्वर्तन्ते । अन्ये तु सामान्या(न्य)रूपस्य व्यतिरिक्ता(?) गाथा किश्चिद् भाव्यते,—अत्र विशेषरूपस्य चार्थस्य ग्राहकत्वेन प्रवर्तमाना जीवकश्चिदाह--अनाकारोपयोगे प्रायोग्याणि स्थितिः । चैतन्यविशेषाः प्रतिपाद्यन्ते इति । कषायपरिणतिबन्धस्थानानि शुभास्वशुभासु च प्रकृतिसु द्विस्था- विशेषा एवाऽध्यवसाया गृह्यन्ते, न तु चैतन्या(न्य)निकरसगतान्येवाऽनया गाथया निरूपितानि विशिष्टिवृत्तिरूपाः । साकारानाकारभावश्चानयो सन्ति, अथ च शुभप्रकृतिद्विस्थानिकरमबन्धकाले- रसबन्धविशेषात् , तथाहि-ये आकारेण विशेषेण ऽशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानिकरसविशिष्टानि स्थिति- विशिष्टरसबन्धकत्वरूपेण सह वर्तन्ते ते साकाराः स्थानानि बध्यन्ते, अशुभप्रकृतिद्विस्थानिकरसबन्ध- कषायपरिणामः (माः) । सामान्यस्यात्यन्तमनुत्कटकाले च शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानिकरसविशिष्टा- रूपस्य रसस्य ये बन्धकत्वेन वर्तन्ते तेऽनाकाराः । नीति । साकारानाकारोपयोगयोश्च मध्ये एकस्मिन् उपयोगश्चामीषां स्वकार्यकरणलक्षणो ग्राह्यः । साकाकाले एक एवोपयोगो जीवस्य, तत्कथमनाकार[प]- राणामध्यवसा[या]नामुपयोगस्योक्तलक्षणस्य बन्धयोगेन द्विस्थानिकरसविशिष्टेषु स्थितिस्थानेषु प्रायोग्याणि यानि स्थितिबन्धस्थानानि तानि साकाबध्यमानेषु विपक्षप्रकृतीनां चतुःस्थानिकरसविशि- रोपयोगबन्धप्रायोग्याणीत्युच्यन्ते,तद्विपरीतानि चानाष्टानां बध्यमानत्वेन तदैव साकारोपयोगसम्भव कारोपयोगबंधप्रायोग्याणीति । न चैवलक्षणस्य साकाइति । उच्यते-इह द्विधा व्यवसायाः, एके तावत् रोपयोगस्य अनाकारोपयोगस्य च युगपत् प्रवृत्तावपि कषायपरिणतिविशेषरूपाः, ये ज्ञानावरणादिप्रकृ. कश्चिद्विरोध इति ।" तीनां मूलप्रकृत्यपेक्षयाऽष्टविधतया बध्यमानाना- ॥ इति कर्मप्रकृतिचूर्णिविषमटीप्पनैकदेशः ।। मुत्तरप्रकृत्यपेक्षया तु पञ्चविध-नवविधादितया
॥ इति द्वितीयं परिशिष्टम् ॥ बन्धमागच्छन्तीनां स्थितिभेद-रसभेदविधा(न)यिनः ।
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________________
* तृतीयं परिशिष्टम्
परिमाणादितत्तद्वारेषु तद्द्वृच्त्यादौ निरयगत्योघादिसप्तत्युत्तरशतमार्गणास्वविशेषेणाभिहितस्य संख्येयाऽसंख्येयादिलक्षणस्य बन्धकपरिमाणस्य विशेषेणाऽवबोधार्थ
सावचूरिकं द्रव्यप्रमाणप्रकरणम्
नमिउं अरिहंताई सगुरुपसाया सुयानुसारेणं । गइआट्टासु भणिमो जीवाण परिमाणं ॥ १ ॥ रिये य पढमणिरये भवणवइसुरम्मि आइमदुकप्पे । अंगुलअसंखभागप्पएसमित्ताउ सेढीओ ॥ २ ॥ सेस णिरय तइभइछ कप्प - नरेसु अपज्जमणुसे य । सेढिअसंखंसो सुर-वंतर - जोइससुरेसु य ॥ ३ ॥ सव्वेसु पणिदितिरिय-विगल-पर्णिदि-तसकाय-मण-वयणेसु । बायरसमत्त-भू-द्ग- पत्तेभवणेसु विक्कियदुजोगेसु श्री- पुरिस - विभंग णायण- सुहले सतिगेसु तह य सष्णिम्मि । पयरअसंखंसट्ठिअसेढिगयपएसतुल्लाऽत्थि ||५|| संखेज्जा मणुसी-नरपज्जा - ऽवेअ-मणणाण- सव्त्रत्थे । संयम - छेअ - समाइअ - सुहुमा - SSहारदुग- परिहारे ॥ ६॥ सेसाणताइसुर-मइ-सुय-वहिदुग - देसविरय सम्मेसुं उ । पल्लासंखंसो उवसम वेअग- खइभ-मीस-सासाणेसुं ॥७॥ बायरसमन्तवज्जिअ भू-दग-गणि- बाउकायभेएसु । पत्ते अत्रणम्मि य तदपज्जे लोगा असंखिज्जा ॥ ८ ॥ बायरपज्जा गिम्मि उ देसूणघणावलीअ समयमिआ । बायरपज्जाणीले संखंसो हुन्ति लोगस्स ॥ ९ ॥ सेसातीसठाणऽणंता जीवा इवन्ति इइ रहय । अपात्रहारणट्ठा रज्जे सिरिपेमसुरीणं ॥ १० ॥ ताण पसीसाण पउमविजयगणिदाण सोसलेसेण । त्रपमाणपगरणं नन्दउ जा वीरजिणतित्थं ॥ ११ ॥
( श्रवचूरि: )
चरमं तीर्थपति नत्वा, गच्छेशं स्वगुरू स्तथा । ग्रन्थे द्रव्यमारणाख्ये व्याख्या किञ्चिद्वितन्यते || १ ||
इह लघु अवधारणाय | यथार्थाभिधानस्य द्रव्यप्रमाण प्रकरणस्याऽऽरिप्सया प्रथमं तावन् मङ्गलादिप्रतिपादिका गाथाभिधीयते - 'नमिउं' इत्यादि, इह पूर्वार्धेन मङ्गल-सम्बन्धौ साक्षादुक्तौ, उत्तरा
भयम् प्रयोजनं तु सामर्थ्यगभ्यम् । तत्र भरीणां रागद्वेषाद्यान्तरशत्रूणां हननात्, यद्वा चतुस्त्रिंशतमतिशयान् देवेन्द्रादिकृतां पूजां वाऽर्हन्तीत्य. ईन्तस्ते आदौ येषामर्हत्सिद्धाऽऽचार्योपाध्याय साधूनां
दादयस्तानर्हदादीन् 'नत्वा' कायवाङ्मनोयोगः प्रणय 'गुरू' भवविरागजनक- सम्यग्दर्शनज्ञानादिप्रापकपोषकप्रव्रज्याप्रदायकादीनां गच्छाधिपतिश्रीमत्प्रेमसूरीश्वर तातपादप्रभृतीनां प्रसादात् 'श्रु नानुसारेण' आगमार्थमनतिक्रम्य 'गइश्राइट्ठाखेसु' ति गत्यादीनि गतीन्द्रियकायादिलक्षणानि निरयगत्योघप्रथमद्वितीयपृथिव्यादिनिरयभेदादितदुत्तरभेदलक्ष
णानि च यानि सप्तत्युत्तरशतमार्गणास्थानानि तानि मध्यमपदलोपाद्वत्यादिस्थानानि तेषु' जीवाण'
ति अस्मदादीनां कर्मनिगडनिबद्धानां प्राणिनाम्, अनेन सिद्धानां व्यवच्छेदो बोद्धव्यः । तेषां 'परिमारणं' संख्येयत्वा-ऽसंख्येयत्वादिलक्षणं संख्यामानं 'भरणामि' त्ति 'सत्सामीप्ये' इत्याद्यनुशासनादनुपद भणिष्यामीत्याद्यगाथार्थः ॥ १ ॥
प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयन्नाह - 'रिगरये 'त्यादि, निरयगत्योघे, प्रथमपृथिवीनिरयभेदे, भवनपतिसुरभेदे, सौधर्मे - शान कल्पद्वयलक्षणे आद्यकल्पद्वये चेत्येवं पञ्चमार्गणास्थानेषु प्रत्येकम् ' अंगुले 'त्यादि, अङ्गुलस्याऽसंख्येयतमे भागे यावन्तो प्रदेशास्तावत्संख्याकासु सप्तरज्ज्वायतासु सूचिश्रेणिषु यावन्त भाकाशप्रदेशास्तावन्तो जीवाः सन्तीत्यर्थः ॥ २ ॥
नभः
'सेसरिरये' त्यादि, शेषेषु द्वितीयादिपृथिवीभेदभिन्नेषु षट्षु निरयेषु, तृतीयादिषु सनत्कुमारमाहेन्द्र ब्रह्म - लान्तक - शुक्र - सहस्राराख्येषु षट्षु कल्पेषु, 'नर' त्ति मनुष्यगत्योघे, अपर्याप्तमनुष्ये चेत्येवं चतुर्दशमार्गणास्थानेषु प्रत्येकं 'सेढिप्रसंखं सो'
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________________
[ ४
त्ति सप्तरज्ज्वायताया एक प्रादेशिक्याः श्रेणेः 'असंख्यांश:'- असंख्य भागगताकाशप्रदेशैः परिमिता जीवाः सन्तीत्यर्थः ।
'सुरवंतरे 'त्यादि, देवगत्यो वे, व्यन्तर सुर-ज्योतिष्कसुरयोः, सर्वेष्वोघ-पर्याप्ताऽपर्याप्त तिरश्चीभेदभिन्नेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदेषु सर्वेष्वोघ-पर्याप्तापर्याप्तभेदभिन्नेषु 'विकल' त्ति द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियास्तेषामेकैकस्य त्रिषु त्रिषु भेदेषु तथैव सर्वेषु त्रिसंख्याकेषु पञ्चेन्द्रियजातिभेदेषु सर्वेषु त्रिसंख्याकेषु सकायभेदेषु सर्वेष्वोघोत्तरभेदभिन्नेषु पञ्चसु मनोयोगभेदेषु तथैव पञ्चसु बचो - योगभेदषु तथा 'बायरसमत्तेत्यादि, तत्र समाप्तशब्दः पर्याप्तवाची, तो बादरपर्याप्तपृथिवीकायाScoreयोः, बादरपर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाये, वैक्रियतन्मिश्रयोगलक्षणयोर्द्वयोर्योगयोः, स्त्रीवेद-पुरुषवेदविभङ्गज्ञानेषु 'रायण' त्ति चक्षुर्दर्शने, तेजः-पद्मशुक्लेश्यालक्षणे शुभलेश्यात्रिके तथा संज्ञिनीत्येवं पञ्चचत्वारिंशन्मार्गणास्थानेषु प्रत्येकं 'पयरे' त्यादि, घनीकृतलोकस्य यत्प्रतरं तस्यासंख्यांश स्थितासु श्रेणिषु यावन्तो नभः प्रदेशास्तावद्भिर्नभः प्रदे शैस्तुल्या जीवाः सन्तीत्यर्थः ॥ ५ ॥
'संखेज्जा' इत्यादि, मानुषी, पर्याप्तमनुष्यः, अपगतवेदः, मनः पर्यवज्ञानम्, सर्वार्थसिद्धदेवः, संयमौघः, सामायिकसंयमः, छेदोपस्थापन संयमः, परिहारविशुद्धिकसंयमः, सूक्ष्मसम्परायसंयमः, आहारक-तन्मिश्रयोगलक्षणमाहारकद्विकं चेत्येवं द्वादशमार्गणास्थानेषु प्रत्येकं संख्येया जीवाः सन्ति ||६||
'सेसारण ताईत्यादि, भणितशेषेष्वानतकल्पादिषु चतुरनुत्तर विमानान्तेषु सप्तदशसु सुरभेदेषु, मतिज्ञान - श्रुतज्ञाना --ऽवधिद्विक- देशविरत सम्यक्त्वौघेषु, तथा 'पल्लासंखंसो उवसमेत्यादि, औप शमिकसम्यक्त्वे क्षायिकसम्यक्त्व मिश्रदृष्टि- सासादनदृष्टिष्वित्येवमष्टात्रिंशतिमार्गणास्थानेषु पल्योपमस्याऽसंख्यभागो जीवा ज्ञेयाः । इह हि 'सम्मेसु' उ' इत्यत्र तुकारो विशेषद्योतनार्थः, अर्थात् 'पल्लाSसंखंसो' इति सामान्येनोक्तेऽपि आनतकल्पादि
सप्तदशनिमाणम्नेषु क्षायिकसम्यक्त्वे च 'पल्ल' इत्यनेनाद्वापल्योपमो ग्राह्यः, शेषमतिज्ञानादिदशमाणास्थानेषु तु तेन क्षेत्रपल्योपमो ग्राह्य इति ॥ ७ ॥
'बायरसमत्तेत्यादि, तत्र समत्तशब्दः प्राग्वत्, ततश्च बादरपर्याप्तभेदवर्जितेषु ओघ - बादरौघ तदपर्याप्त सूक्ष्मौध-तत्पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु भूगरिव कामेसु ' ति षषु पृथ्विका यभेदेषु, षट्षु अकायभेदेषु षट्षु अग्निकायभेदेषु, पषु वायु कायभेदेषु, तथा प्रत्येक वनस्पतिकायांघे तदपर्याप्तभेदे चेत्येत्रं षड्वंशतिमाणास्थानेषु प्रत्येकं 'लोगा प्रसंखिज्जा' त्ति असंख्येयेषु लोकप्रमाणेषु क्षेत्रपण्डेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावन्तो जीवाः सन्तीत्यर्थः ॥ ८ ॥
'बायरपज्जा ग्गिम्मि' इत्यादि, बादरपर्याप्तानिकायमाणास्थाने पुनः देसूणे त्यादि, आवलि• कायाः समयेषु घनी कृतेषु यावन्तः समया भवेयुस्ततः स्तोकमात्रेणैकदेशेन न्यूना जीवा भवन्तीत्यर्थः ।
'बायरपज्जारणीले' त्ति बादरपर्याप्त 'नीले' वायुकाये लोकस्य संख्येयतमे भागे यावन्त आकाश - प्रदेशाः सन्ति तावन्तो जीवाः सन्तीत्यर्थः ॥ १० ॥
'सेसाsg' इत्यादि, उपर्युक्तशेषेषु तिर्यग्गत्योघादिष्वत्रिंशन्मार्गणास्थानेषु प्रत्येकं 'रांता' त्ति अनंता जीवाः सन्ति । श्रष्टात्रिंशच्छेषमार्गरणास्थानानि त्विमानि - तिर्यग्गत्योः, ओघ - बादरौघ तत्पर्याप्तापर्यात सूक्ष्मौघ तत्पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्नाः सप्त एकेन्द्रियभेदाः, तथैव सप्त साधारणवनस्पतिकायभेदाः, वनस्पतिकायौधः, काययोगौधः, औदारिकतन्मिश्र - कार्मणकाययोगाः, नपुंसकवेदः, क्रोधादिकपायचतुष्कम्, मत्यज्ञान- श्रुताज्ञाते, असंयमः, अचक्षुदर्शनम्, कृष्णादिशुभलेश्याः, भव्या-भव्यौ, मिथ्यात्वम्, असंज्ञी, आहारका ऽनाहारकौ चेति ।
अथोपसंहरन्नाह - 'इइ रइय' मित्यादि, अस्य चान्वय उत्तरगाथोत्तरार्धे 'दव्वपमाणे त्यादिना, तथा च 'इति' सप्तत्युत्तरशतमार्गणास्थानेषु जीवपरिमाणकथनद्वारेण 'रज्जे सिरिपेमसूरी 'ति चतु
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विधसङ्घकौशल्याधारसुविहितशिरोमणिकर्मशास्त्र । एतदेवाह-'पउमविजये त्यादि, तेषां पद्मविजयपारङ्गसिद्धान्तमहोदधीनां श्रीमतां प्रेमसूरीणां गणीन्द्राणां सीसलेसेरण' त्ति शिष्यलेशेन, समयो'राज्ये'-साम्राज्ये प्रवर्तमाने 'ताण' त्ति तेषां पूज्य- । तशिष्यगुणानां यथावदभाजनतया नामशिष्यपादानां 'पसोसारण' त्ति प्रशिष्याणा-शिष्यशिष्या- | प्रायेण जगच्चन्द्रविजयेन मुनिना 'अप्पावहारगट्ठा" णाम् ,तत्र प्रेमसूरीश्वरपूज्यपादानां स्वशिष्याः सुवि- | त्ति आत्मनोऽवधारणार्थ रचितमिदं द्रव्यप्रमाणख्यातनामधेयाः स्वात्मसाधनाऽविकलभव्यजन्तुहित- प्रकरणं यावच्छीवीरस्वामिनस्तीर्थ तावन्नन्दतु,भव्यकरानेकविधकुशलप्रवृत्तिपरायणा:पं०श्रीमद्भानुविजय- जन-नयन--वदन-मानसादीन्यनवद्यान्याधाराण्यवागणीन्द्राः,तच्छिष्यास्तु स्वभावसरलाः प्रशान्तप्रकृतयः । प्येति शेषः ॥ १०-११ ॥ इति ॥ समाप्ता स्वोपज्ञा सौम्यवदनाः स्वताः श्रीमन्तः पं०पद्मविजयगणीन्द्राः, | द्रव्यप्रमाणप्रकरणावचूरिः । शुभं भूयात्सर्वेषाम् ॥
॥ इति तृतीयं परिशिष्टम् ।। ॥ समाप्तानि परिशिष्टात ॥
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भशुद्धिः
सर्जु
महत्काय० प्राश्र्वप्रभो०
०मभिधित्सया
० सुधर्मा०
• तोऽभबन्धा०
मध्मम०
यो समय० निषिञ्चय०
विशुद्धि ० गुणाणी'ति
पल्योपमसं०
गन्तव्यः कुतः !
अब कण्ड
तत्राडसत्० अपतत०
सः / प्रमाण; स्थानापेक्षया
०थिति०
षडशीत्य
सक्लेशा
बन्घे
सु
तन्त्रात रे
• वृष्यंशो
षष्टे
अशुडिप्रमार्जनम् ।
शुद्धिः
प्रणिन्यु०
महाकाय० पाश्र्वप्रभो० ०स्याभिधित्सया
सुधर्मο •तोऽबन्धा०
मध्यम०
यः समय० निषिच्य०
विसुद्धिo
गुणानी'ति
पल्योपमाऽसं०
गन्तव्यः । कुतः ?
अबाहाकण्ड०
तत्राऽसत्० अपर्याप्त •
स / प्रमाणः स्थानापेक्षया
०स्थिति०
षडशीत्य ०
संक्लेशा
बन्धे
तेसु तन्त्रान्तरे
• वृद्धय शो
षष्ठ
विवक्षितेनैकेना० विवक्षितैका ०
आलेखिता
आलिखिता
पञ्चाशत्० पल्पल्योपमाo षोडषभिः
• प्रमेदान oकमसो
चतुःपञ्चाशत् पल्योपमा ० षोडशभिः
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अशुद्धिः
षष्ट्यन्तानां
अमनाऽसंज्ञी चतुरिन्द्रियस्य
o गुणो अतो" पंचिदियरस चोत्तरत्तर०
महती स्थिति०
पिज्जत्ता
याऽऽबाधा
निषिच्य०
त्ति
तुरियस्य सागरोपशतस्य
ज्ञानावणादि०
षोडषाहोरात्र
पंचदियाणं
वितिय०
अय
चतारि
लितोत्रमस्स
णिसत्तं
अनन्तरोपनिधा
पल्योपम०
पोडप०
कोटी काटी०
त्वसंखेय०
अनन्तरोप०
प्रमथ०
विशेषाधिकo
ऽनत्न०
०द्यल्पहु० संख्ये गुणo स्थानेभ्यस्तो
शुद्धिः षष्ठ्यन्तानां
अमना असंज्ञी चतुरिन्द्रियस्य
o गुणोत्तो"
पंचिदियस्स
चोत्तरोत्तर ०
महतीं स्थितिo
पज्जत्ता
याऽबाधा
निषिच्य०
ति
तुरियस्स सागरोपमशतस्य
ज्ञानावरणादि० षोडशाहोरात्रo
पंचिदियाणं
बितिय०
યં
चत्तारि पलितोत्रमस्स
णिसित्तं
परम्परोपनिधा
पल्योपमा०
षोडश०
कोटी कोटी ०
स्वसंख्येय०
परम्परोप
प्रथम०
संख्येयगुण ०
ऽनन्त०
०द्यल्पबहु० संख्येयभाग०
स्थानेभ्यस्तो०
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तुकारो
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[२] अशुद्धिः शुद्धिः पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धिः शुद्धिः ऽऽयुषी० ऽऽयुषो० ५४ २४ ०पर्याप्तसंज्ञि० पर्याप्ताऽसंज्ञि० तदन्तस्थं तदन्तःस्थं ५५ ९ (१२) (१३) पदेऽपि पदे अपि , २६ जघन्यबाधा जघन्याबाधा संख्येयगुण संख्येयगुणे ५६ २५. बीन्द्रिया० द्वीन्द्रिया० अबाहाकडं अबाहाकंडं ६५ ३ विचिकीर्षुराह- विश्चिकीर्षुराहस्नानान्यानय० स्थानानामानय०
॥ ३३ ॥ ०कण्डकमानय० कण्डकस्यानय०
, १४ बनधक०
बन्धक० •स्तुल्यत्वे स्तुल्यप्रायत्वे
, १५ रोसु ० रो सुओ० ठिइबधो ठिडबंधो
तुकारः असंख्येयगुणनि संख्येयगुणानि
६७ १३
__ •समुहेन समूहेन द्वेऽपि द्वे अपि
६८ ३० भावदिति। ०भावादिति। वैपरित्येना० वैपरीत्येना.
मुहूर्तान्तः
मुहूर्तान्त:असंखणागुई असंखगुणाई
॥ ३६ ॥ ॥३६॥ (गीतिः) पल्पोपमसं० पल्पोपमासं०
युश्चरमे
०युषश्चरमे पल्पोपमासं० पल्पोपमसं०
नैरयिकानां नैरयिकाणां दशवस्तुनां दशवस्तूनां , २२ सत्वत्र
स त्वत्र वर्गमूललक्षण वर्ग पूलासंख्य
, २३ भागलक्षण
बाधा प्रक्षे० 0बाधां प्रक्षि० अबाहा। जहणिया अबाहा। , ८ भेदन्निं भेदभिन्नं जहन्नगो जहण्णगो
उक्त च
उक्ता पुवुत्तं।
पुवुत्तं । तओ एग- । ७२ ८ ०क्षयो ०क्षयो(पशमो) गुणहाणिट्ठाणंतरं
प्रागवत् प्राग्वत् असंखिज्जगुणं,कारणं पुव्वुत्तं ।। , १९ . मानयनाय स्यानयनाय स्तत्वम् स्तत्त्वम्
२०
द्वादशसु ऽसंक्षेप्यद्धा० संक्षेप्याद्धा०
चतुर्यु चतुर्यु ०काटाकोटी- 0कोटाकोटी
गृहितत्वाद् गृहीतत्वाद् ०प्रकृतेरुत्कृष्- प्रकृत्युत्कृष्ट
जेठ
जेढ० ०चतुणां चतुर्णा
सः विभक्तः स विभक्तः ०बाधाविशेषा० 0बाधा विशेषा०
कः भवे०
को भवे० स्वमेव स्वयमेव०
केन्द्रियोघ केन्द्रियौघचतुर्णा चतुर्णा
ओध
ओघलक्षणा सागरोपमलक्षणा०
, ३० कण्डकानि कण्डकानि च ७६ २ बन्धप्राणं बन्धप्रमाणं ज्ञानावराणा० ज्ञानावरणा०
प्राप्तारतस्मिन् प्राप्तस्तस्मिन् रुत्कृष्टबाधा रुत्कृष्टाबाधा
मानयनाय स्यानयनाय ०मसंसयेय० मसंख्येय० | , १९/२३ त्रि
त्रीणि
मुहुत्ततो
मुहुत्तंतो
१६
७
द्वादशषु
, ,
२० २२
२४
२५
, ३१ ५२ १०
ह्रते
, ५४
३० ६
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________________
___ऽऽनित:
|
"
१८
१२
१९
१४
[३] पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धिः शुद्धिः पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धिः शुद्धिः १६ केन्द्रियोघा० केन्द्रियौघा० | १०८ २५ तयणुव० तयणुरुव०
१०९ २२/३३ प्रमता ०प्रमत्ता० २५
ऽऽनीतः ११० २५ षोडष
षोडशसंदोह. संदेह०
। १११ १५
०पञ्चेन्द्रिति० ०पञ्चेन्द्रियति. मार्गणस्वपि मार्गणास्वपि
उत्कृष्टः संक्लिष्टः उत्कृष्ठसंक्लिष्टः देवनिरय. देवनारक०
, २८
पणिदि० पणिदि० केन्द्रियोघा० केन्द्रियौघा.
१२ मिथ्याष्टि० ०मिथ्याष्टि० ०रान्तद्वारे रान्तरद्वारे
२२ श्रतसत्वे श्रतसत्त्वे व्युष्कस्तस्या० युष्कं तस्या०
विमङ्ग विभङ्ग भवन्तीति भवतीति
मेवोत्तोरत्रापि मेवोत्तरत्रापि सङ्गच्छेत् सङ्गच्छेत
सम्यक्तौघ- सम्यक्त्वौघतस्येवायमपि तदिवेदमपि १२४ २३ आहारकऽऽहार० आहारका-ऽऽहार० २० मतान्तरो मतान्तरं .
त्रिस्रो
तिस्रो २५ • प्रयोग्यत्वेन प्रायोग्यत्वेन । | १२६ ५ जघन्याः
जघन्यायाः देवनरकप्रायोग्य. देवनरप्रायोग्य० १२८ १७ ०३च्युत्वासंज्ञि० ०श्च्युत्वा संज्ञिः oप्यच्युत्कल्पे प्यच्युतकल्पे १३० २३ इत्यादि० गाथा- इत्यादिगाथान्मार्गणाषु मार्गणासु .
१३१ १७
oभेदपि भेदेष्वपि ८५ १८ हीनकर्म हीनजघन्यकर्म० १३२ ५ अपमतो अपमत्तो ८६ २४
यद्यसंज्ञिनां गति० यद्यसंज्ञिनामागति. १३३ ७ नन्तर भावि- 0नन्तरभावि८७ २९ कर्मग्रन्थाप्रायेणै० कर्मग्रन्थाभिप्रायेणे० , २२ मुपश्रेणि- मुपशमश्रेणि८८ २ सासादनभाव सासादनभावः
सुगम इति सुगममिति मुहूत्त मुहुत्त०
, १९ तथा संख्ये० तथाऽसंख्ये० मुहूर्त मुहूर्त
, २० देवाषुषः देवायुषः दिटठो दिट्ठो १३५ ७ अष्टष्वपि अष्टस्वपि गत्यान्तरे गत्यन्तरे १४४ २३-२६ नचा--पर्याप्त........ "लंतम्मि चउ- “उववाओ लंतगम्मि
""त्वादिनि॥१३७॥ ॥१३७॥ · दपुट्विस्स" उ चउदसपुट्विस्सउ| १४४ २७ ०मभहिता मभिहिता
जहन्नो" ॥१६९॥ १४६ २० स्थितिन्धे स्थितिबन्धे पुहुत्तं" त्ति पुहुत्तं" ति १४७ २९ चक्षुदर्शन चक्षुर्दर्शन०
प्रथमत्रयाणां प्रथमानां त्रयाणां १५० ५ ०तयोस्पिसु०. ०तयोस्पित्सु० , २१ पथक्त्व० पृथक्त्व .
०णामाणि" oमाणाणि" ,, २७ प्रकृततिसृषु प्रकृतासु तिसृषु १५१ १७ . सापेक्ष० सव्यपेक्षा ९७ ३ संन्नि सन्नि
श्रित प्रकृति० ०श्रितप्रकृति. १०४ ३ तावान् दशवर्षसहस्राणि तावान् १५५ १२ दिस पढमे दिसं पढमे १०५ १४ किं विशिष्ट किंविशिष्ट | १५६ ७ द्विविघोड- द्विविधोs१०८ २० हीनाहीनतरा० हीना हीनतरा० , १८ र्निदेशः निर्देशः
९२ ११
२०
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पृष्ठम् पंक्तिः
१५८ ११
१३
"
==
"
१८
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"
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४
"
३०
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"
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१७९ १०
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२९
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३०
22
१८४ १७
२८
१८५ ११
अशुद्धम् ०न्तानापि
० ग्योत्कृटस्थिति०
oयाणां भव०
● स्पिसूनां
० मुत्पत्याऽपि
देससंयम०
उत्पत्याऽपि
तूक्तदीशा निरगत्योघ०
०पहीय० • मुहूत्तं, व्याजिद्दिषु ●
पणवय
कायस्थro
• यादधिका,
कायको ग० डीय०
"सेखेज्जे " ऽचक्खूण
०प० केचि
इमा तु ०द्वयोर्विधयो०
जलघयः
तंत्तीसा
कायः
of धो
भेदाद्विधा सम्भवति ? चर्तषु षोडष०
૨૮૬ ૨૮
१९ १८७६
१८८ १७ / २३ जघन्याः १६२४ safeo
शुद्धम्
०न्तानामपि
०ग्योत्कृष्ट स्थिति०
oयाणां च भव०
०त्पित्सूनां
मुत्पत्त्यापि
देशसंयम०
उत्पत्त्याऽपि
तूक्तदिशा निरयगत्योघ०
इय तु द्विधियो०
asga
ऽधिकांशस्य
अष्टादशेति ऽधिकांशस्याकाऊण
काऊसु
व्लक्षणास्ता
लक्षणा ता
०कोनपञ्चाष० ० दिपञ्चाश०
जलधयः
तेत्तीसा
काया:
०स्त्रिविधो
० पहिय०
• मुहुत्तं, व्याजिहीर्ष ०
पणमण-वय
काय स्थितिर० यादधिका न
लभ्यते तदीयोत्कृकायस्थितिः,
काययोग०
हिय
"संखेज्जे”
चक्खू ०परावर्ता •
के चिरं
[ ४ ]
भेदाद् द्विधा सम्भवति,
चतुर्ष षोडश०
० संयमार्गणायां ० संयम मार्गणायां
जघन्यायाः
Sवाध०
पृष्ठम् पंक्तिः
१५
१८
22
१९३ २
१९४ १५
१९५ १५
२०० १९
२०१ २६
२०२ १७
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२०५
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२०८ ९
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२१० ११
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२५
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"
"
12
१९
२१४ २१५ ११
२२ २१६ १४
१५
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२१७ ५/८
१२
39
27
19
19
२१८ ९ २१९ ५ २२० १०
13
"3
२२२ १७
२२३ ४
२२५ ११
१८
"
२२६ ८
१५
"B
अशुद्धम् तमुहूर्त
० श्रयर्ज वन्य०
मर्गणा०
देवगत्यौघः,
तिर्यगौध०
०कालयुकृष्ट० प्रवर्तयितु
तुत्कृष्ट संगच्छेत,
संग्रहित
०स्थितेत्रन्धे
जागेसु ०कालिनः
० रुपासु ० मनुष्य मेदः देशनोना
इतरम्
प्रकत०
उद्वर्त्य
।।१२५।।
सूत्कृष्टतस्तं
०पट
समयोना०
दीशा
• प्रायोग्यां
तम०
प्रारम्यते ०कायको गो०
●त्येता
मार्गपु
जघन्याः
शुद्धम्
""
० सर्पिणि
ऽन्तर्मुहूर्त
मनुष्यभेदः
देशेनोना
०तथास्प्रारम्भ०
०तथा प्रारम्भ०
• वदन्तर्मुहूर्तं च • वानन्तर्मुहूर्त कालच
श्रयजघन्य०
०मार्गणा०
देवगत्योघः,
तिर्यगोघ०
जघन्याः
० कल्पोपन०. ० स्थितिरुल्लङ्घ
कालस्योत्कृष्ट •
प्रवर्तितु
तूत्कृष्ट ०
उद्वत्य
।।२१५।।
सूत्कृष्टतस्तद्
०पटू
समयाधिका०
दिशा
o प्रायोग्यायां
तद्० ०प्रमाणावाधा० ० प्रमाणजघन्याबाधा०
हूर्तेनोन
o
• मुहूर्तोन • प्रारभ्यते
गच्छेत,
संग्रहीतु
०स्थितिबन्धे
जोगे ०कालिकः
रूपासु
इतरत्
प्रकृत०
o काययोगोo c येता
मार्गणा
जघन्यायाः
"1
० सर्पिणी
जघन्यायाः ०कल्पोपपन्न० स्थितिमुल्लङ्घय
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________________
पृष्ठम् पंक्तिः
२६
99
२२७ २७
२२८ ८
२२९
२
२३१ १९
२३२
४
२३३ १८
२८
""
२३४ १५
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23
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२३५
"
"
२४३
"
"
aam -
उपान्त्या २०४-५
99
२३७ अन्त्या विलिखित इति
२४१
भन्ति ०कर्षाश्व
यावत्सप्त
ssयुबन्धा०
मर्यात०
"
२४२ २
१९
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२१
२३
२४४ १४
२६
39
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२२
८
२४५ २४६ २०
२४८ ४
२५
२६०
२३
२८
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२४६ २४
४
२५१ २५३ ५ २५७
७
२२
"
२५६ ९
२०
७
२३ / २६ ट्यादिप्रमा०
अशुद्धम् उत्कृष्ट स्थिति०
११
१६
€
०मजघन्याः
सेसासु सप्ताविंशति०
odaya
मार्णणायां
-ssहारेसु
तत्वम्
सेसासू
० दलिक्षणे०
भावाना
चतुरिन्द्रिसागरोपम०
ऽनुत्कृषु० रस्परं
भवतित्यर्थः
०नुत्कृष्टावेति
suraोसा
बन्धन्
निरगत्यो० संखंसुणा
॥२६१॥
• यन्तीति संख्ये०
• सम्मे
त्वजन्या ०गुणअद्दीया"
विभंगे सु
॥२७६॥
॥२८० ॥
बन्धक' एवेति
भङ्गो डाबन्ध०
शुद्धम्
जघन्यस्थिति०
० मजघन्यायाः
सासु सप्तविंशति
ord नोत्पद्य
मार्गणायां
-ssहारेसु
तत्त्वम्
सासु
• दिलक्षणे०
C
भावना
चतुरिन्द्रिय१८ सागरोपम०
२०३-४
विलिखितमिति
भणन्ति
०कर्षाच
यावदष्ट-
ssयुर्बन्धro
मपर्याप्तo
ऽजघन्य०
परस्परं
[x]
यादिसाग
रोपमप्रमा०
भवतीत्यर्थः
०नुत्कृठैवेति
suraare
बध्नन
निरयगत्यो ० संसूणा ||२६|| (गीतिः) ०यन्तीत्यसंख्येय०
० सम्मे त्वजघन्या० ०गुणअहि"
विभंगेसु ।।२७९|| (गीतिः)
||२८० || (गीतिः) बन्धक एवेति भङ्गोक्ताऽबन्ध०
पृष्ठम् पंक्ति:
१५
१६
39
२६१ १७
19
२५
19
२७० अन्त्या
२७४ १३
,"
२१
२७५ २५
२७६
२८
२७८ १९
२७
===
२६४ १०
१६
तथा
तदा
,"
२६८ २९ जघन्यास्तदितराया जघन्यायास्तदितरस्या
२६९
७ क्षपकानां क्षपकाणां
सेसमार्गणा०
• भुङ्गा, अागे
33
२९
२८१ ४
13
"
"
२९४
"
५
"
२९५ ८
२९६ २६
२९७ ११
२९८ २९
२९९ १३
३०० २
१०
१५
"
१६
३०१
४
अशुद्धम्
५
जघन्याः
घन्याः
'इतरायाः '
०नात्मकस्या०
७
"
२८२
४
२८४ ४
२८७ १३
२९०
१९
२६० ३०
२९१
६
० षुरुत्कृष्ट ०घुरनुत्कृष्ट निरगत्यादि० निरयगत्योघादि० Sऽर्यया । ऽऽर्यया १२/१३ ( इदं पतिद्वयमत्र नैव वक्तव्यम् ) इतिगाथाचतुष्टयेन इतिगाथाद्वयेन स्तूक्तoाणां • क्षेत्र०
स्तूऽक्तनां
० क्षैत्र ०
० भिना०
० भिन्ना०
षड्जीव०
||२९६ ||
०कपायेसु आयुः कर्मणः
o प्रकृतैकक०
||३०४||
-दारिमिश्र० पल्लेश्या
स्थानात्वा संख्ये यभागरूपदेभथssयुo उको साअए
तिअहलेसासु रभिद्दित्वात्
पढ़जीत्र ०
शुद्धम्
जवन्यायाः
पर्याप्तन्यतर०
घन्यायाः
'इतरस्याः '
त्रिसृषु
सव्वेगिंदि -
०त्यदि, बापज्जे
सासु
०नात्मका०
शेषमार्गणा०
०द्भङ्गाः
अण्णादुगे
||२९६|| (गीतिः)
• कसाये
आयुः कर्मणः
प्रकृतै
||३०४|| (गीतिः)
-दारिकमिश्र
षड्लेश्यास्थानासंख्येय
भागरूपत्वादे
अथाऽऽयुo
उक्कोसाभ
तिअसुहले सासु रभिहितनत्वात्
पर्याप्तान्यतर०
तिसृषु सव्वैगिदिय
०त्यादि, बायरम पज्जे
सासु
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________________
"
२३
ओघ०
[६] पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम शुद्धम्
| पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् शुद्धम् निरगत्योघ० निरयगत्योघ० ३२० ८ ०नेनत्रसकायोंघ- नेन त्रसकायौघ३०३ २३ सत्तण्ड
सत्तण्हं , २६
सप्तनामु० जघन्याः
सप्तानामु० जघन्यायाः , २९ पद्म-अजघन्याः
अजघन्यायाः
३२१ २८ भेदध्वेवं भेदेष्वेवं ३०४ ९ णाहागेसु णाहारगेसु
३२२ २१ सासणेसु सासणेसु ३०६ ७ व्यान्नुवन्ति ।
द्विषष्ठिः व्याप्नुवन्ति
द्विषष्टि , १४ मलयगिरिय० मलयगिरीय
0बन्धकनां बन्धकानां ३११ ६ स्वप्राग्यो०
३२३ ०यांमा रण २६
यां मारण स्वप्रायोग्यो ,
प्रागेवभि० १३ . आयमतो
| ३२४ १६ आयामतो
प्रागेवाभि०
oबन्कै , २८ सर्वक्षेत्रं सर्वक्षेत्रं यथा
बन्धकै
२४ ३१२ ७ तिर्यग्मिश्च
,
ऽभेदेष्वि०
भेदष्वि० तिर्यग्भिश्च
सहस्त्रारा० सहस्रारा० , ११ पथिवीं पृथिवीं
, २९ स्पष्टं सम्पद्यते सम्पद्यत इति समस्ता ३२५ ६
औघo नव रज्जवः स्पर्शना।
चत्वारोऽपि
पृथिवीकायव, २५ वर्तमानाकाला०
वर्तमानकाला० पणऽच्युए
च्चत्वारोऽपि पणऽच्चुए. ११ अच्युअपरओ अच्चुअपरओ
, २४ संक्लिष्टानां संक्लिष्टादीनां प्रेवेकदेवा० .
प्रैवेयकदेवा० ३२६ १८ -दुअण्णाण- -दुअणाणभिखानां भिमुखानां
" १९ -यियर-ऽऽहार- यियरा-ऽऽहार., ३० दृष्टव्या द्रष्टव्या | ३२८ १२ स्थितेबन्धक स्थितिबन्धक० ३१५ ६ ०पश्चन्द्रितिर्य पञ्चेन्द्रियतिर्य० , १३ ०एगिदिय० एगिदिय० तयोसियो तयोत्पित्सवो
भेदा श्चेति भेदाश्चेति , १६ तसन डीभ तसनाडीभ | ३२९ ७ असंख्याशः असंख्यांशः , ३१ ॥३८४ ॥ ॥ ३४८॥
स्थिकिबन्धस्य स्थितिबन्धस्य ३१६ ४ भावार्थः न- भावार्थः पुन- १२ जधन्यन्यस्थित्यो० ०जघन्यस्थित्यो ,, . १४ तिरयम्मि तिरियम्मि
०णेसु। गेसु ०णेसु / गेसु ३१७ ४ ऽपिषड् । ऽपि षड्
। ३३० २४ जघन्याः जघन्यायाः , १० प्रतुत०
|
आघ० प्रस्तुत , २८
ओघo -इसाणंत० -ईसाणंत
| ३३१ ५ oमार्गणभेदाः मार्गणाभेदाः ३१८ ३ नाडया नाड्या
०भागेऽऽगच्छ० भागे आगच्छ: , ७. प्रायोग्यत्कृष्ट० प्रायोग्योत्कृष्ट
०भावेन भावेन , १७. 0तयोपिसूनां तयोपित्सूनां
| ३३२ ८ गणानामुत्कृष्ट गणानामनुत्कृष् , २३ सप्तपृथिवी० . सप्तमपृथिवी०
, १० निरगत्यो० निरयगत्यो. , २४ षष्ठपथिवी० षष्ठपृथिवी०
|, २४ चतुदर्श० . चतुर्दश०
. ३१९. १२.
सर्षे० प्रदेशैः
२९-३० स० प्रदेशैः
३३३ १६ जघन्या: जघन्यायाः , ११ सहस्त्रार० सहस्रार० ., २१ चेत्येषु . . चेत्येतेषु
॥ १८ सर्वलोकस्पर्शनाया एतासु सर्वलोक
भावना त्वेतासु स्पर्शना तु २८ भभिमुखावस्थाथां मिथ्यात्वाद्यभि- | ३३५ १. प्रक० प्रदशेक.
मुखावस्थायां ३३५ २५. सज्ञी
२०
संज्ञी
wiww.jainelibrary.org
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________________
"
१२
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् शुद्धम् । पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ३३९ ५ एगगिदिय- एगिदिय
णाष्व०
णास्व० ०सत्कोत्कृष्ट० ०सत्कानुत्कृष्ट० | ३७० २० देशके दशके
Oत्कृष्टस्त्यिो० ०त्कृष्टस्थित्यो० | ३७१ १२ -पर्याप्त सवैकेन्द्रियभेद-पर्याप्त ३४० ६ ०कालस्यपि कालस्यापि
, १३
यौघा-ऽपर्याप्र० ०यौघ-पर्याप्त ,, १४ दीघातिदीर्घः दीर्घातिदीर्घः
मिथ्यात्व-संश्य- मिथ्यात्वा-संश्या३४१ ४ वाच्य तया वाच्यतया
०पेक्षया विव० ०पेक्षया, विव० जघन्यनो जघन्यतो
च्यवनान्तस्य च्यवनान्तरस्य निष्ठासमयं निष्ठासमये
बन्धा .
बन्धा० ३४२ २८ मूलसप्त० तथा च मूलसप्त०
•मात्रायां मात्रत्वे छन्दानुलोम्या छन्दोऽनुलोम्या
निविशेन, निवेशेन, ३४४ ५ द्वात्रिंशत्स्वपि द्वात्रिंशत्यपि
चवना० च्यवना उक्तशेषा उक्तशेषासु , १७ ०मश्यं
०मवश्यं ३४५ १ तीयाधिकारे द्वितीयाधिकारे , ३० तदन्तस्य तदन्तरस्य ,, १२ त्रिसषु
जीवश्रया० जीवाश्रया० तिसृषु । आहरका- आहारका
।, ५०धिकत्वेऽपि oधिकत्वलक्षणे तारतम्येऽपि बोद्धयम्- . बोद्धव्यम्
मात्रेण हीना० मात्रहीना० बन्धका चौ० ०बन्धकाश्चौ०
धिक्यान्नाना० धिक्यलक्षणता३४६ २० मिन्न भवति भिन्नमुहूतं भवति
रतम्यसभावान्नाना.
०तल्प०त्तल्यo ३४७ ११ औपशशमिक० औपशभिक० २४९ ३० जीवाश्रययो० जीवाश्रयो०
३७५ २९ -कायेसु -कायेसु ३५० १४ कोडिओ कोडीओ
३७७ २६
पेक्षयाविलक्ष० पेक्षया विलक्षण. -ओहिस -ओहीसु
बुवन्ति अवन्ति ३५१ ५ ०दशषु
०दशसु
३० को डिओडीओ कोडिकोडीओ ०वद्विद्भावनीयः वद्विभावनीयः
३७९ १ कुतोऽजघन्य० कुतो जघन्य० नामिव
नामपि ०पेक्षयास्तोक० पेक्षया स्तोकo
२२ द्विषष्टय - त्रिषष्टय - ३५२ ६ सुगमाः सुगमा ३५३ उपान्त्या हस्सासु
परिणामिक पारिणामिका हस्साए ३५४ अकारस्य
गत्याद्योदयिक० गत्याद्यौदायिक० आकारस्य ३५५ परिमाद्वारे परिमाणद्वारे
ऽन्वव्ययभिचार0 ऽन्वयव्यभिचार० जघन्याः जघन्यायाः
oभावस्य
भावे ३५६ ३ भिन्नं/मुहुत्तंत्तो भिन्न०/मुहुत्तंतो
तरायाः तरस्याः ०पर्याप्तस्त्रस० पर्याप्तत्रस०
सुम्मि सुहुमम्मि नानार्बन्धका० सानाबन्धका०
वाच्यम् । चेद् , न, उत्कृष्टश्च उत्कृष्टतश्च
सर्वेष्बएके० सर्वेष्वेके वायुकायोघ० ०वायुकायौघ०
उक्कसाए उकोसाए सर्वदैव सर्वाद्धैव
०शेषावष्ट० शेषास्वष्ट -छेदोपस्थान- -छेदोपस्थापन- २१ -संयमेसु -सयमेसु oघोओघ
अजघन्याः अजघन्यायाः ३६६ १० ऽपहीय० ऽपहिय०
३९० ३
णपुसेसु णपुसेसु , १२ स्थितेर्वन्धका० स्थितेर्बन्धका० ३९१ ४ पश्चमनो० सर्वकायभेदाः,पश्चमनो० ३६७ २२ सर्पिण्य भव० सर्पिण्यो भव० , २ त्वसंखयेय० स्वसंख्येय० ३६८ १२ सत्तण्ण सत्तण्ड
मिण्ठत्तेसु मिच्छत्तेस
"
१०
,
२३
mr
२४
३६०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
षप
. .
. . .
पृष्ठम् पंक्ति अशुद्धम्
| पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् शुद्धम् सप्त
४३९ ६ आयुक् ज० आयुर्वर्ज. ३९३ १४ ध्यवसनानां व्यवसानानां
देशस यतादि- देशसंयतादिमार्गणारूपजघन्य० रूमो कृषक
॥५६२॥ ॥५६२।। (गीतिः) ३९६ १९ गुणाः, सन्ति गुणाः सन्ति, -अचवुसु -अचम्खू मुं
भूयस्कादि० भूयस्कारादि० द्वारणैव द्वारेणैव
नुकृष्टान्त० ०नुत्कृष्टान्त. ०प्यबहुत प्यल्पबहन ४४७ ३ परावृत्यादि० परावृत्त्यादि आयुषो मोहनीयस्य जयन्यस्थिति- " " विनेव त्रिनैव
बन्धः स्तोकः,स चान्तर्मुहर्त- , २१ असोऽन्तः असावन्तः मानः, ततस्तस्योत्कृष्टोऽसं-४४९ ७ चरमद्विचरम द्विचरमचरम ख्यगुणः, सप्ततिकोटा- ४५१ १७ ऽऽन्तर्मुहूर्तिक० ऽऽन्तर्मोहूतिका कोटीसागरोपमप्रमाणत्वात् । ४५२ ७ समुदितासु समुदितेषु आयुषो
तथाऽपि तथाऽपि प्रस्तुते ४.१ १४ संख्येय० ऽसंख्येय. ४५३ २० कम्म-ऽणाहारेसुकम्माऽणाहारेसुङ चतुर्णा चतसृणां
२२ कम्मणाहा०. कम्माणाहा० ४०२ १४ सामाइएसु सामइएसु
प्रतिपदानं प्रतिपादनं , २१ दाकिमिश्र- दारिकमिश्र
केवलेऽक्तव्य० केवलेऽवक्तव्य ४०६ . पल्लेश्या षडलेश्या. ।। " चरमा
पनः
पुनः ४०५ १२ कोटोकोट्यो० ०कोटाकाट्यो.
०दववक्तव्य० दाववक्तव्य० ४०६ ११ oमार्गणाद्वये मार्मणासु
४५७ १७ . ७वस्थायां प्रत्या० ०वस्थायामप्रत्या. ४०७ २७ पल्लेश्या- षड्लेश्या
४५८ २५ उपशश्रे० उपशमश्रे० ४०८ ४ तिघाइर्ण तिघाईणं
०प्रमाणैरेक० प्रमाणैक० ॥४९८॥ ॥४९८।। (गीतिः) इत्यात्रापि
प्रारभते
प्रारमते इत्यत्रापि ४१० २० तत्तो
४६१ १ द्वितीयाधि० भूयस्काराधि० ४११ १४
०द्वादश० नव० ०छेएसु
छेएसु ४१२ ४ ०कोननवति- चेकनवति
, १२
लमपेक्षया लापेक्षया वैक्रियकाय० ४१८ वैक्रियमिश्रकायक
व्योगादिचतुःपञ्चा- योगाधेकपञ्चा४२१ ५ त्रयत्रिंशत्
दिषोडषोत्तर० ०धेकोनविंशत्युत्तर०
, त्रयस्त्रिंशत्
२८ ४२२ १३ चतुर्णा
कोनत्रिंशत्० कोनचत्वारिंशत्० ४२३ २१ निष्ठतः
षोडशाभ्य० एकोनविंशत्यभ्य० ग्विश्वसत विश्वसितु ४६४ २ निषद्धे निषिद्धे ४३४ १३ ॥५५५।।
बन्धो सन् बन्धः सन् ॥५५७॥ ॥५५६॥
मिति तमिति , २३/२४ तावइयां तावइयं
त्रिमणां तिसणां ४३५ ११ भूयोरपि भूयोऽपि
दियरियाणं दियतिरियाण तथेवा तथैवा.
निष्पनायां निष्पनायां ४५. १४ मनुष्य
योगोदि०. योगादि० मनुष्य त्रीणि
काजीबारेकजीवा १५८ १३ बन्धादू व पन्धादूर्व , २ .र्शन- . ०दर्शना-ऽवधिदर्शन
"
२८
.
५४ : n n : * * * * * . . . . .
२७
चतुर्णा
निष्ठितः
॥५५॥
"
"
१२
देवगतिमुत्पत्स्यमाना ४६५ ६
त्रिणि
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठम् पंक्ति:
अशुद्धम्
-५६९ १ ०बन्स्यैक० द्विचरमा मार्गत्रय
०मार्गस्वपि
• नोदिष्टे
०त्वोपत्ति० •वन्धकानाप० नैरन्तेर्येण नैरन्तर्येण
"
४७० २१
४७१ २
१६
४७२ २१
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४७३ ८
१८
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४७४ २
१५
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४७५ १५
४७६ १२
४७७ १
घरमा
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४७९ १०
२०
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४८० ४
४८२ १५
४८४ १०
१५
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४८५ १० २०
23
४८६ ७
११
४८७ १
४८८ ८
४८९ २४
४९० २०
४९२ ११
४९३ ८
४९५ ३
४९६ २६
४९७ १
१४
23
४९९ ७
५०० १४
लब्धया
पढामाईओ
फलानि ० द्वितिया:
भावनास्त्वो०
सेसासु
तुइत्यर्थः ०सर्व०
सर्वे स्वे०
०कान्मिश्र
पदद्वयस्स्या० द्वितीयाधिकारे
०स्कारदि०
स्वस्थानस्तु अथोक्त शेष०
इत्ये
शुद्धम् •बन्धस्यैक०
मार्गणात्रय
० मार्गणास्वपि
०नोदिष्टे ०त्वोपपत्ति० ०बन्धकपद०
कासुचिन्मा
पचष्व०
-दारिक०
द्वितीयाधिकारे
०त्येवमेक
भूगाराई ०जीर्विता०
०भागेष्वस्थित० ०भागेष्ववस्थित०
०
OSवक्तव्य
ऽवस्थित० ● मनुष्य काययोगौघ - मनुष्य-सामयिक०
- सामायिक०
स्थितिबन्धक० बन्धक० ०मानयनाय
उक्ता,
द्वितीयाधिकारे० भूयरकाराधिकारे० ५०९ ०स्थितबन्धकोo ofस्थितिबन्धको ०
लब्ध्या
●स्यानयनाय
उक्ताः,
पढमाईओ
फलानी०
द्वितीयाः
भावना त्वो०
सेसासु
इत्यर्थः
०त्रिविधस्थिति
सर्वेष्वे
०कतन्मिश्र०
[s]
पदद्वयस्या०
स्वस्थानतस्तु अथोक्तशेष०
पृष्ठम् पंक्तिः
२८
33
५०१
३
५०३ १८
१९
२६
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इत्यनेनोद्दिष्टे
"
२७
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५०४ १४
२१
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५०५
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11
"
५०७ १५
६
५१० यन्त्रे
यन्त्र
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५.११ ३
६
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भूयस्काराधिकारे ५१६ व्स्कारादि०
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१०
१०
१६
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५१३ १९ .
१९
,
५१५ २४
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४
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११
१६
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3
२६
चरमा सव्वह
6 ू
८
१०
१७
१८
मा
पवस्व ०
-दारिकौ दारिक० | ५१७ २० भूयस्काराधिकारे ५१८ २
० त्वेवं द्वि० भूगाराईण
४.
०र्जीविता०
५२० १०
अशुद्धम् ०माणं संख्येयं
तबन्धकना०
ऽत्पि
सासु
Sवस्थिता०
तिरये
०पादनीयेति
प्रतिषिद्धः,
Sवस्थितः
●स्तथाऽपर्याप्त०
बन्धकानां
जीवाश्र०
वेवमीस०
निरयगति
२ मुहूर्ता सर्व्वाद्धा
०भावरूपः प्रकृतिबन्धं
शुद्धम् •माणमसंख्येयं
तदुबन्धकाना०
चः पादपू
। चः प्राग्वत् । अवत्तव्वस्स
इत्यादि
ऽत्थि
सासु
ऽल्पतरा०
तिरिये
सव्ह होइ प्रकृते भूयस्का० प्रकृतेर्भूयस्का०
न च
समईअ
स्यत्वसंख्येय
मार्गस्थानेषु
विरुध्येत्
बोद्धयम्
०पादनीय इति
प्रतिपादितः,
ऽल्पतर०
स्तथा पर्याप्त०
बन्धानां
जीवाश्रय०
Paroaमीस०
निरयदेवगति
१२ मुहूर्ता:
ननु नलक्षणस्थिति० हानिः स्थिति०
०भावरूपाः
प्रकृतिबन्धे
नास्ति
चः समुच्चये
तथा
डवत्तव्वस्स
०त्यादि
हारगदुग
व्हारदुग
'भूयस्कारादयोः' 'भूयस्काराधोः'
व्हारदुगे” हारगदुगे" ततोऽल्पतरस्य । तेभ्योऽल्पतरस्य, अवक्तव्यबन्धकाः संख्येयगुणाः, संख्येयगुणाः, drasaस्थितस्य तेभ्योऽल्पतरस्य
समइअ
स्त्वसंख्येयमार्गणास्थानेषु
ofविरुध्येत
बोद्धव्यम्
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठम् पंक्ति:
५२१ २८
सद्भूते
५२२ अन्त्या जेट्ठठिह
५२३ अन्त्या -उप
५२४
यवध्या०
17
,
"
५२५
"
ܕܪ
२८
५२६ १०
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५३१
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अन्त्या
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५४४
१६
२४
५३९ ११
१६
२०
१६
५ osसामञ्जस्यपरि०
-कपोता०
"पणिंदिया"
त्ति साका०
किरिअ
जो कुज्जा मनन्तरद्वायां
^ ~ ~ 1 x 8xxxx
११
५४१ १०
२३
अशुद्धम्
११
व्यवमाध्या०
स्पृशामि०
सकुणइ
ओघत्
०त्मुकृष्टं
० स्यानाऽकारो
- पहा-सणी
मर्वाग
साकारक्खोण
सम्भवज्येष्ठ० द्वितिये
० मुपादत्तम्
यः / तं/
सत्तण्ह
वड्ढ़ स्थितिनामेक जणिकवा
० णाहारे सु
तिघाईणं ०माणियोः
०मार्गणासु
१४ ०सम्यक्त्वोघो० सम्यक्त्वौघवेदकौ०
हारुत्कृyo वाणारस्यां
०त्त्राद्
शुद्धम्
सद्भूतम्
जेडटिई - उबरि
यत्रमध्या०
व्यवमध्या०
सखगुणा
तुल्य० संख्यातगुण०
हानिच अस्य,
शमि०
स कुणइ
ओघत
० मुत्कृष्टं ०स्याऽनाकारो
- पउम - सण्णीसु |
मर्वाग्
सगारखयेण सम्भवज्ज्येष्ठ०
द्वितीये
मुपात्तम् यत् / तत् /
०ऽसामञ्जस्य परि०
[]
- कापोता० "एनिंदिया"
साका
करिअ
कुज्जा जो
मनन्तराद्वायां
सत्तण्हं
चड्ढी
स्थितीनामेक०
जाणियव्त्रा
०णारे सु
तिअघाईणं
हारुत्कृ वाणारसी
• त्वाद्भवेद्
oमपेक्ष्याऽल्प० ०मपेक्ष्य यथाऽल्प०
संखगुणा
संख्यातगुण ०
तुल्य० हानिश्च अस्य
पृष्ठम् पंक्ति:
५४५ २१
५४६ १८
11
उहा - संयमे सु
"1
५४९४ ०लेश्या - ऽभव्य०
द्वये
५४९ १४
५५०
२०
२०
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५५३ १२
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१५
१६
अशुद्धम्
"
५६८ २४
मूल० S-वक्तव्ये
बयप्रायो०
क्रमाद्विज्ञेयाः
१८ ०का योग्य०
अन्यास्तु
० मात्राधिक०
द्र एव
सद्भूत इति ननु
त उपपाद्येते त्वसती
हान्यपि न मार्गणाभावी, त्यादि, ०वृद्धयादि ०भाववृद्धयादि० उसामगो
मागणासु
मनाऽऽह
पट्संयम
स्याद् ? अतस्तस्यो
शुद्ध म् सप्तानां मूल०
वक्तव्य लक्षणे पदद्वये
'कम्म
चविहा संमे
० लेश्या भव्य० द्वे एव
बन्धप्रायो०
विज्ञेयाः
अन्या तु
० मात्रहीन०
द्वे एव
सद्भूते इति
ननु किमर्थं ते उपपाद्येते त्यसती इहानी अपि नोक्तमार्गणाभावी इत्यादि, ०वृद्धयादि०
० भागवृद्धपादि ० सामगो
उ
०काल समय० ०न्तरमाहःजघन्यः कालः निकालवत्
मात्रो मात्रं वृद्धिहान्योराह गुणवृद्धिहानीनामाह वडिठहाणीणं
मना आहपञ्चसंयम०
किं न स्याद् ?
अतस्तस्या उ
०काल: समय० ०न्तरमाहजघन्यमन्तरं
न्यन्तरवत
० काययोग् प० 'कम्मा
• योगसामान्यौ
० यो सामान्यौशुक्लेश्या० शुक्ललेश्या० तदेवं यन्नाह - तदेवं भणितं 'सप्तानामसंख्यगुणस्थितिबन्धवृद्धिहान्युत्कृष्टान्तरमादेशतः, अधुना संख्येयभाग-संख्येयगुणस्थितिबन्ध
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________________
संख्ययभार्ग- ६१२५ व्यवेन
२६
[११] पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् शुद्धम् पृष्ठम् पंक्तिः । अशुद्धम्
शुद्धम् वृद्धिहान्योस्तदर्शयन्नाह- ६१० ८ तान्हितो ताहिन्तो ५६९ ९/१० संख्येयगुण संख्येयभागगुण । १११ १६ सप्तनामा० सप्तानामा० , १२ परावयं परावर्त्य परावृत्य परावत्य "
यत्वेन ,, १६ संख्ययेभाग- ऽसंख्यो यभाग- | ५१
सत्यके० सत्येक नरकत्यो०
गतपदे० नरकगत्यो०
गतवेद०
तेभ्यो संख्येय. तेभ्योऽसंख्येय. भागादि/नीनामु० भाग/निपदद्वयस्यो
पदद्धयं
पदद्वयं द्विनवति० एकनवति०
०प्रकृतीनम० ०प्रकृतीनाम० ५७२ ७ वडिढणीओ० वढिहाणीओ
त्रिचरमा ६० , २५ ऽचक्खूसु ऽचक्खूसु
उद्दिशनाह- उद्दिशन्नाह५७३ ३ सगढिहाणीओ सगढिहाणीओ
अज्सवसण० अज्झवसण०
०वसनानि ०वसानानि ५७५ १५ भेदेषु,अपर्याप्त० भेदेषु,सर्वदेव
गंतुगतु
गंतु गंतु भेदेषु, सर्वपञ्चेन्द्रिय
षट्पञ्चाद.. षट्पञ्चाशद० तिर्यग्भेदेषु, अपर्याप्त०
नियमशाद० नियमवशाद० ,, २८ र्द्वयोः, योर्मनुजगतिभेदयोर्द्वयोः
'स्थति० 'स्थिति ५७६ २ भेदध्वपि भेदेष्वपि
बधमाणस्स बंधमाणस्स
०मनुकृष्टेरिव मनुकृष्टिरिव अपर्याप्त० मनुष्यौघः,अपर्याप्त
०लक्षस्य
लक्षणस्य ०प्यतिदिष्टि० प्यतिदिष्ट०
०वृत्तः सन्न वृत्तयोः सतोर० ५८२ २० संख्येयभागा-5 -संख्येयभाग
ऽभिधान ऽभिधाने ५८३ २३ योगेषु, योगेषु नपु
०प्रयोग्य प्रायोग्य० सकवेदकपायचतुष्कयोः,
चूर्णिग्रथा० चूर्णिग्रन्था० -प्रस्त०
ऽप्रशस्त ..., २६ खल्वधारणे खल्ववधारणे
०वडिठ० व्यढि० ५८४ २ त्रिंशदुत्तर विंशत्युत्तर
परंपरोनिधया परम्परोपनिधया तहा
द्यकै, १२ काययोगले प्रत्येकवनस्पतिकायौघ
बन्धाप्रायोग्या बन्धप्रायोग्या तदपर्याप्रयोः, काययोग
उरिं मीस्से उार मीसे ५८६ बादराबादर
होइ ५८८
नवषु/पञ्चष्व० नवसु/पञ्चस्व० । २१ सातवदनीय० सातवेदनीय० गत्योगादि० गत्योघादि०
स्थिति० मिश्रोपयोगे बन्धसेसासु शेषासु
प्रायोग्यानि स्थिति ५९२ भागवद्धि० भागवृद्धि०
रोपोयोगे रोपयोगेबन्ध मेकजीवा० मनेकजीवा०
चूर्योक्त. oचूण्यक्त ६०० लभ्यतऽते लभ्यतेऽन0
ता मप्रत्यन्तमुहूर्तम्- प्रत्यन्तमुर्तहूम्- | ६६३
गुणः
०गुणा ०षल्लेश्याः षडलेश्याः । ६६३ ३०. चठाण
चउठाण ६०४ ९ तान्हितो ताहिन्तो ६७० चरमा ०सूरीति
सूरिरिति ६०७ ८ ०भदछु, भेदषु, भेदेषु, ६७२ ७ ने सुना
नेप्सुना ૬૦૮ ०बन्धरुपा बन्धरूपा , ११ याद्भू०
यावद्भ०
५८० १७ " २६
५८५६
तह
१५
2006
५९६
ताउ
६०१
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________________ भारतीयप्रातच्यत्त्वप्रकाशनसमिति-पिंडवाडा. [राजस्थान] तरफथी प्रकाशित थनारुं कर्मसाहित्य (1) खवगसेढी (क्षपकश्रेणि) (छपाई गयो छे.) किंमत रू. 21, (2) उपशमनाकरण (3) बन्धविधान महाशास्त्र -मयमखंडप्रकृतिबन्ध (पडियो) भा. 1 बूलप्रकृतिबन्ध भा. 2 उत्तर भा. 3, स्थानमरूपणा 1 भा..४ " " भा. 5 ) भूयस्कारादिवध द्वितीयखंड स्थितिबंध (ठिइब धो) भा. 1 मूलप्रकृति स्थितिबन्ध (छपाई गयो छे.) रु. 21, भा. 2 उत्तर " " भा. 3, भूयस्कारादिबंध तृतीयखंड रसबन्ध (सबंध) भा. 1 मूलप्रकृति रसबन्ध (प्रेसमा) भा. 2 उत्तर भा. 3 , भूयस्कारादिबन्ध चतुर्य खंड प्रदेशबन्ध (पोसबंधी) भा 1 मूलप्रकृति प्रदेशबन्ध (मेसमां) भा 2 उत्तर, भा. 3 ,, भूयस्कारादिबन्ध જેટ : મનોરથ પ્રિ. અમદાવાદ Jan Edit errantra SForpitwareassanal use onlya