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विषय-परिचय १२ भागमां थयेलां स्थितिबन्धस्थानो, अने ते १२ भागमांथी कोई कोई भागमां केटलांक मात्र साकारोपयोगमां बन्धप्रायोग्य, तो वळी केटलांक बन्नेमांथी कोईपण उपयोगमा बन्धप्रायोग्य एम पुनः बे बे विभागमां वाचायेलां स्थितिबन्धस्थानो, आ रीते अनेक विभागमां वहेंचायेला स्थितिवन्धस्थानो परस्पर केटला प्रमाणमा ओछा बत्तां छे अने एज स्थितिबन्धस्थानो शाता अशाता वेदनीयकर्मना जघन्य उत्कृष्ट वगेरे स्थितिबन्धप्रमाणना समयो करतां, तेमज अन्तःकोटीकोटीसागरोपम तरीके बन्धाता वधारेमांवधारे(उत्कृष्ट)स्थितिवन्धना समयो करतांकेटलां वत्तां ओछां छे वगरेनु प्रतिपादन करतुं एक मोटु अल्पबहुत्व बताववा द्वारा स्थितिवन्धमां कारणभूत क्रोधादिकपायथी आत्मामां उत्पन्न थता अध्यवसायो कया जीवोने केवा अने केटला प्रमाणमां होई शके ए वधु स्पष्ट कयु छे. त्यार बाद जीवसमुदाहारनो उपसंहार करतां अन्ते पूर्वे कही गया तेवा वे ठाणीआवगेरे ते ते रसना बन्धकजीवोनु परस्पर अल्पबहुत्व आप्यु छे. आ पदार्थोंने टीकाग्रन्थमां ग्रन्थान्तरनी साक्षीओ, असत्कल्पनाओ, स्थापनाचित्रो अने यन्त्रोना आलेखन तथा शंका समाधान अने सरल विवेचन वड़े सुगम अने स्पष्ट करवामां आव्या छे अने ए रीते मूलप्रकृति स्थितिबन्धग्रन्थ समाप्त करवामां आव्यो छे, ए जिज्ञासु वाचकवर्ग स्वयं जोई शक.शे.
संस्कृतप्राकृत निबद्ध २०,००० श्लोकप्रमाण महाकायग्रन्थनो आ टूको विषय-परिचय कोई महासमुद्रना रेखा-चित्र समो ज छे. समुद्रनी ऊडाई पहोळाई वगेरे रेखाचित्रथी केटली समजावाय ? एना तल मागोमां रहेला रत्न-मौक्तिकवगेरेनी रंगीली प्रभा ए चित्रमा केटली पूराय ? छतां य संस्कृत प्राकृतना अनभिज्ञ जीवोने गुजरातीभाषा निबद्ध आ 'विषय-परिचय' कर्मबन्धविषयक यत्किञ्चित् बोध साथे ग्रन्थनी महात्ताने हृदयस्थ करावा द्वारा जैनशासनना कर्मसाहित्यउपर अने जैन शासन उपर अथाग श्रद्धा-बहुमान करावनारो बनशे,तेमज स्थितिबन्धविषयक सूक्ष्म अवबोधना अभिलाषी कर्मग्रन्थादिना अभ्यासीओने प्रस्तुत मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध ग्रन्थना अध्ययन माटे अवश्य प्रेरशे.
१३, श्रीपालनगर, आश्रमरोड वि० सं० २०२२ पोष वद १३
ता.१९ -१-१९६६ अहमदाबाद-१३.
सिद्धान्तमहोदधि आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वर अन्तेवासी पंन्यासप्रवर भानुविजयगणिवर्य शिष्य स्वर्गत पंन्यास पद्मविजयगणिवर शिष्याणु
-मुनि जगच्चन्द्रविजय
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