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________________ विषय-परिचय नवमा नानाजीवाश्रय परिमाण द्वारमां-पूर्ववत् बन्ने रीते ते ते कर्मनी ते ते स्थितिना बन्धकोर्नु परिमाण (संख्याता छे, असंख्याता छे के पछी अनंता छे ते रूप) बताव्यु छ. अर्थात् ते ते बन्धकोनी वधारेमां वधारे संख्या केटली होई शके ते जणाववामां आव्यु छे. अहीं मूळग्रन्थमां के टीकाग्रन्थमां ते परिमाण संख्यात वगेरे त्रणभेदे ज बताव्यु होई तने विशेषरूपे जाणवा माटे, तथा कोई कोई स्थळे ते परिमाण मार्गणागत सर्वजीवसंख्याने अधीन होवाथी, तमज आगळ वीजा वगेरे अधिकारमांतो कोई कोई स्थळे ते परिमाणने मार्गणागत जीवसंख्याने भळाव्यु होवायी के मार्गणागत जीवसंख्या द्वारा साधवान का होवाथी मार्गणागत जीवपरिमाण जाणवु आवश्यक बने छे, अने तेथी परिशिष्ट त्रीजामा १७० मार्गणामां प्राप्त थता जीवोनु परिमाण प्रदर्शित करतु ११ गाथान द्रव्यग्रमाणप्रकरण मूकवामां आव्यु छे. के जे आगळ पाछळना ग्रन्थमां विशेषरूपे बन्धक परिमाणादि जाणवामां आधारभूत छे. दशमा नानाजीवाश्रय क्षेत्रद्वारमां-टीकाग्रन्थमां सर्वप्रथम समस्त बन्धविधान ग्रन्थमां क्षेत्रवारमां कहेवातु क्षेत्र अने पर्शनाद्वारमा कहेवाती स्पर्शना ए बन्ने बच्चे शु तफावत छे ते जीवसमासग्रन्थानुसारे वर्तमान अने अतीत एम वे प्रकारना काळभेदथो बताव्यो छे. अर्थात क्षेत्र एकसमयवर्ती बन्धको संबंधो, अने स्पर्शना नाना-अनेक समयवर्ती बन्धको संबंधी अहीं अधिकृत छे तेम स्पष्ट करायुं छे. अने त्यार बाद मूळ ग्रन्थमां कहेलु ते ते स्थितिना बन्धकोनु सर्वलोक, लोकअसंख्यभाग वगेरे क्षेत्र मार्गणागत सर्वजीवोनु क्षेत्र बताववा पूर्वक सिद्ध करवामां आव्यु छे. __अगियारमा नानाजीवाश्रय स्पर्शना द्वारमां-उपरोक्त स्वरूपवाळी स्पर्शनानु प्रमाण ओघ आदेश बन्ने रीते पूर्ववत् ते ते स्थितिने आश्रयी बताव्यु छे अने तेने टीकाग्रन्थमां युक्ति वगेरेथी सिद्ध कयु छे. अहींयां मूळ ग्रन्थमां कहेल ते ते वन्धकोनी १३ भाग १२ भाग वगेरे स्पर्शनाना विषय तरीके धनीकृत लोकना १३ भागादि याने तेटला घन राजलोक न लेतां त्रसनाडी अन्तर्गत क्षेत्रना ज १३ भागादि लेवा एज युक्तियुक्त छे ते पण सिद्ध करवामां आव्यु छे. धारमा नानाजीवाश्रय कालद्वारमां-पूर्ववत् ओघ आदेश बंने रीते ते ते स्थितिना बन्धको निरन्तरपणे जघन्यथी अने उत्कृटथी केटलो काळ मळे ते रूप बे प्रकारनो काळ बतायवामां आव्यो छे. नानाजीवाश्रयकाळ एटले 'ओघमां के मार्गणाओमां जे कामना प्रत्येक समये नाना अनेक (एक करतां वधारे) जीवो विवक्षितस्थितिना बन्धक तरीके मळता होय ते काळ', एवो अर्थ न करवो पण 'ओपथी के मार्गणागत नाना-समस्त जीवोमांथी निरन्तरपणे एक या अनेक जीवो ते विवक्षित स्थितिना बन्धक तरीके जे काळे मळता होय ते काल नानाजीवाश्रयकाळ कहेवाय,' एवो करवो आवश्यक छे. अन्यथा दोष छे. एम टीकाग्रन्थमा आक्षेप-परिहार साथे सिद्ध करी मूलोक्त काळ ने सिद्ध करवामां आव्यो छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001852
Book TitleThiaibandho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuri
PublisherBharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages762
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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