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________________ विषय-परिचय तेरमा नानाजीवाश्रय अन्तरद्वारमां-ओघ आदेश बने प्रकारे विवक्षित मूळकर्मनी उत्कृष्टादि विवक्षितस्थितिना बन्धक तरीके नाना=सर्वे जीवो न होय, अर्थात् कोई पण जीवो न होय, तेवो काळ जघन्य उत्कृष्ट भेदथी बताव्यो छे. चौदमा भावद्वारमां-ओघ-आदेश बंने प्रकारे आठे कर्मना उत्कृष्टादि चारे प्रकारना स्थितिवन्धने औदयिकभावे बताव्यो छे, त्यां ते पदार्थने सिद्ध करतां औदयिकादि भावोनु स्वरूप के जे ग्रन्थान्तरोमां पूर्वना महापुरुषोए विस्तारथी बतावेलुछे ते न बतावतां मात्र प्रस्तुत बन्ध औदयिक भावे ज केम ? ए यथामति शंका-समाधानपूर्वक बताववा प्रयत्न कयों छे. बीजा अधिकारना छेल्ला अल्पबहुत्व द्वारमां-ओघ आदेश बंने रीते ते ते मूळकर्म संबंधी उत्कृष्टादि ते ते स्थितिबन्ध प्रमाण अने स्थितिवन्धकप्रमाण एम मूल बे प्रकारने आश्रयी सात अल्पबहुत्व बताववामां आव्यां छे. ते आ प्रमाणे अल्पबहुत्व स्थितिबन्धकप्रमाण स्थितिबन्धप्रमाण (१) उत्कृष्ट,अनुत्कृष्ट स्थितिना बन्धकरूप बे पदोनु. स्वस्थाने परस्थाने (२) जघन्य,अजघन्य स्थितिना बन्धकरूप वे पदोनु. (४) उत्कृष् अने जघन्य (५) उत्कृष्ठस्थितिबन्धप्रमाण. (३) उत्कृष्, जघन्य अने अजवन्यानुत्कृष् स्थितिना स्थितिबन्धप्रमाण (६) जवन्यस्थितिबन्धप्रमाण. बन्धकरूप त्रण पदोनु. रूप बे पदोनु. (७) जघन्य अने उत्कृष्ट स्थिति बन्धप्रमाणने आश्रयी. त्रीजो 'भूयस्कार' नामक अधिकार अने एनां द्वारो स्थितिवन्धना जघन्य उत्कृष्ट वगेरे भेदोनी जेम भूयस्कार,अल्पतर, अवस्थित अने अवक्तव्य ए रीते पण चार भेद पडी शके छे, तेनां लक्षण पांचमा कर्मग्रन्थमा 'एगादहिगे भूओ' इत्यादि गाथा बड़े वतायेल प्रकृतिवन्धना भूयस्कार अल्पतगदिना लक्षण जेवां छे. ते आ प्रमाणे-- (१) ज्ञानावरणादि ते ते प्रकृतिना अन्तर्मुहर्तादि (समयादिवड़े हीनाधिक नहि तेवा) चोक्कस प्रमाणवाला स्थितिबन्धने करता जीवने ते बन्धना निरन्तर उत्तरसमये प्रवर्ततो समयादिवडे अधिक स्थितिबन्ध प्रथमसमये भूयस्कार स्थितिबन्ध कहेवाय. (२) भूयस्कारस्थितिबन्ध करतां विपरीत एटले के पूर्वसमये थता कोई एक चोकसप्रमाणवाला स्थितिबन्ध करतां निरन्तरउत्तरसमये थता ते करतां ओछा स्थितिप्रमाणवाला बन्धना पहेला समये अल्पतर स्थितिबन्ध कहेवाय. (३) पूर्वसमये थयेला कोई एक नियत स्थितिप्रमाणवाला बन्धना निरन्तर उत्तरसमयमां थता तेटला ज स्थितिप्रमाणवाळा बन्धने अवस्थित स्थितिबन्ध कहेवाय, ज्यारे * परस्थाने एटले आठ मूल प्रकृतिनु भेगु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001852
Book TitleThiaibandho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuri
PublisherBharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages762
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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