________________
बंधविधान महाशास्त्रनु सर्जन :
__ खवगसेढी अने उपशमनाकरण आ वे ग्रंथोना पदार्थो संकलन तैयार थया बाद 'बंधविधान' ग्रंथनु कार्य मुनिओप्रारंभ्यु, परमपूज्य आचार्यदेवना शुभाशीर्वाद मेळवी ग्रंथनु मंगल कयु,आ ग्रंथमां बंधनकरण अने शतकादिग्रंथोना विषयनो संग्रह अने विस्तार करवानो हतो. प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध, प्रदेशबंध आ चारे प्रकारना बंधनामूल-उत्तरभेद,भूयस्कार, तेना पदनिक्षेप, वृद्धिआदि तथा स्थानादि प्ररूपणानो सत्पदादिद्वारोमां तथा गत्यादिमार्गणा
ओमां विस्तृत विचार करता आ ग्रंथनुसजेन दोढथी बे लाख श्लोकप्रमाण थाय अवु लाग्यु. अने अना लगभग १४-१५ चोपडा (बोल्युम) तैयार थाय अटलु विराट कार्य हतु, आ कार्य वे. चार व्यक्तिओथी थर्बु शक्य न हतु तेथी कर्मप्रकृत्यादिनो अभ्यास करी तैयार थयेला बीजा ८-१० मुनिवरोने पू० आचार्यभगवंते आ कार्यभारना सहयोगी बनाव्या. पदार्थ संग्राहक मुनिवरो:
पूज्यपाद करुणासिंधु आचार्यभगवतनी परमकृपाना पात्र मुनिराजश्रीजयघोषविजयजी तथा मुनिराजश्री धर्मानंदविजयजो आ वे मुनिवरो कर्मसाहित्यना नवनिर्माणना कार्यमां स्थंभभूत छे, तेमांना प्रथम मुनि, पूज्य पंन्यासप्रवरश्री भानुविजयजी गणिवर्यना शिष्यरत्न मुनिराजश्री धर्मघोष विजयजीना शिष्यरत्न छे. आगमा शास्त्री, प्रकरणग्रंथो अने खासकरीने छेदग्रंथोना तेओ विद्वान छे, बीजा मुनि, पूज्य पंन्यासप्रवरश्री भानुविजयजी गणिवयंना शिष्यरत्न छे, तेओ पग आगमो, प्रकरणोना सारा अभ्यासी छे, कर्मसाहित्यमां गणितानुयोगनो विषय सारा प्रमाणमां आवे छे ते गहन होय छे; तेने आ मुनि सुंदररीते स्पष्ट करे छे.
कर्मसाहित्यना सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषयनी गहनताने भेदवानु सौभाग्य आ वे मुनिओओ प्राप्त कयु छे. तेमनु गंभीर शास्त्रयांचन, अगाध चिंतन अने रातदिवस अनुपरिशीलन छे. विषय ना अकलेक मुद्दाने अनेक ग्रन्थो वांची अनो परस्पर समन्वय करेछे, ज्यां शंकास्पद लागे त्यां वीजा आगमग्रथो, प्रकरणग्रंथोनी सहाय लई पू० आचार्यभगवंत साथे अनी विचारणा थया बाद शांत-स्वस्थचित्ते अनुप्रेक्षा करी समाधान चोक्कस करे छे. अने यथार्थ उकेल लावे छे. ते पछी मुनिओने अनु विवरण समजावे छे त्यारबाद गाथाना आधारे मुनिओ टीकानु आलेखन करे छे. पदार्थसंग्रहकार तथा गाथाकार मुनिराजश्री वीरशेखरविजयजी :
आ मुनिराजश्री मुंबई दादर खाते पूज्यगीतार्थ गच्छ हितचिंतक पंन्यास प्रवर श्रो हेमंत विजयजी गणिवर्यना सं० २००७-२००८ ना चातुर्मासमा १३ वर्पनी वये अट्ठाई तथा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org