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१० पाथरती समजुती आपी. आ सात दिवसनी वाचनाओ कर्मवादनो सारो परिचय मुनिओने आप्यो. आरीते सागर समा कर्मसाहित्यमा प्रवेशमाटे उत्साहित कर्या त्यारवाद पूज्य आचार्यभगवंते कमसाहित्यन अध्ययन कराव्यु.बारमास जेटला समयमां तो छ कर्मग्रंथ, कम्मपयडी, पंचसंग्रहना निष्णात बनावी दीधा.
पूज्यश्री पासे ते विषयनुतलस्पर्शी संगीन ज्ञान हतु. मुनिओनी बुद्धि कुशाग्र हती. विनयनी पात्रता हती. अध्ययननी अपूर्व खंत हती. टुक समयमां मुनिओ विषयना अगाध उडाणमां उतरी गया विषयनी सूक्ष्मता अने गहनताने कारणे घणाओने निरस अने कंटाळा रूप लागता आ कर्मसाहित्यमां तेओए भारे रस चाख्यो. चिंतन-मनन-परस्पर पोलोचन जटिलपूर्वपक्ष अने शास्त्रसिद्ध युक्तिओ भर्या अकाट्य उत्तरपक्ष द्वारा मुनिओए पूज्य आचार्यभगवंतश्रीने आनंद विभोर, आश्चर्यमुग्ध अने परम संतुष्ट कयों. पुनामां २०११ना चोमासामां पू० गुरुदेव पंन्यासजी महाराजे १८-२० साधुओने न्यायदर्शनना प्राथमिक ग्रन्थोनो अभ्यास कराव्यो. पूज्यपाद आचार्यभगवंते अनेक मुनिवरोने आ रोते तैयार थयेला जोया अने पोताना शुभमनोरथने सक्रिय रूप आपवानी सुशक्यता देखाई. तेओश्रीए २०१४मां अमदावादमां पोतानो मनोगत मंगलमनोरथ शिष्यमंडळ आगळ जाहेर कयों, आ मनोरथ जाहेर थतांज परमगुरुभक्त शिष्योए एने अंतरथी वधावी लीधो. ओ मंगल प्रयाण हजो :
सुरेन्द्रनगरना श्रीसकलसंघनी अत्याग्रहभरी विनंतिथी पू० आचार्यदेवादि ठाणा ५४ नुवि० सं०२०१५ नुं चातुर्मास सुरेन्द्रनगरमांथयु,बारमा तीर्थपति श्रीवासुपूज्यस्वामीनी शीतल-मंगल छायामां प्राचीनसाहित्यना आधारे श्रीकर्मसाहित्यना विस्तृतसर्जन नो मंगल प्रारंभ थयो । शरुआतमां मुनिराज श्री जयघोषविजयजी, मुनिराजश्री धर्मानंदविजयजी तथा मुनिराजश्री हेमचन्द्रविजयजी आ त्रण मुनिवरो कार्यनो आरंभ कयों, पाछळथी विद्वान मुनिराजश्रो गुणरत्नविजयजी पण आ कार्यमा जोडाया तेमां सर्वप्रथम क्षपकश्रेणि अने उपशमनाकरणना पदार्थो-विषयो नुव्यवस्थित संकलन कयु, अनेक शास्त्रग्रंथोना आधारे अने गुरुभगवंतोना महानविनयथी परिकर्मित बुद्धिना सहारे करेलु आ विषयोनु पर्यालोचन अटलु तो उंडु अने विस्तृत हतु के अना मोटा बे ग्रंथो तैयार थया ।।
उपशमनाकरण अने क्षपकश्रेणिना विषयनी नोंध मारा लघु गुरुबांधव विद्वान मुनिराज श्री हेमचंद्रविजयजीओ करी हती जे गणितनी प्रक्रियाथी भरपूर हती पाछळथी मुनिराज श्री गुणरत्न विजयजी अक्षपकश्रेणिना समाविषयने प्राकृतगाथाओरची ग्रंथरूपे गुंथ्यो तेमज लगभग १८थी २० हजार श्लोकप्रमाण संस्कृतमा टीका रची. ते खवगसेढी ग्रंथरत्न पण आ साथेज प्रकाशित थई रह्यो छे।
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