Book Title: Tiloypannatti Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Catalog link: https://jainqq.org/explore/090505/1
JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
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* श्री वीतरागाय नमः *
श्रीपतिवृष माचार्यविरचिता
तिलोयपण्णत्ती
( त्रिलोक प्रज्ञप्तिः )
( जैन लोकज्ञान सिद्धान्तविषयक प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ ) प्राचीन कन्नड़ प्रतियों के आधार पर प्रथम बार सम्पादित
[ द्वितीय खण्ड ]
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टीकाकर्त्री :
प्रायिका १०५ श्री विशुद्धमती माताजी
க
सम्पादक :
डॉ. चेतनप्रकाश पाटनी
प्राध्यापक, हिन्दी विभाग
जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर
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प्रकाशक :
प्रकाशन विभाग, श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन
महासभा
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सम्पादकीय
तिलोयपण्णी : द्वितीयखण्ड
(चतुषं महाधिकार ) प्राचीन कशड़ प्रतियों के परसम्म श्री तिस काह कप जिसमें केवल चतुर्थ अधिकार का गद्य-पद्य भाग है— अगने पाठकों को सौंपते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है पतिवृषभाचार्य रचित तिलोपणती लोकविषयक साहित्य की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है जिसमें सगवश धर्म, संस्कृति व इतिहास पुराण से सम्बन्धित अनेक विषय सम्मिनित हो गये हैं इस अन्य का दो खण्डों में प्रथम प्रकाशन १९४६ व १९५१ में हुआ था। इसके सम्पादक वे प्रो० हीटातात जेन व प्रो० ए० एन० उपाध्ये पं० वी
ने प्राकृत गाथाओं का मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद किया पर आधार पर इसका सुन्दर सम्पादन अपनी तीयण मेाशक्ति के बाई के पात्र है।
सम्पादक प ने उस समय बल पर परिश्रमपूर्वक किया था
+
प्राचीन प्रतियों के कोटि-कोटि
प्रस्तुत संस्करण की बाधार प्रति जनबढी से प्राप्त लिप्यन्तरित ( कन्नड़ में देवनागरी) प्रति है। अन्य सभी प्रतियों के पाठभेद टिप्पण में दिये गये हैं। प्रतियों का परिचय पहले लण्ड की प्रस्तावना में माचुका है ।
परम पूज्य १०५ आपिका श्री निमती माती के पुरुषायें का ही यह मधुर परियक है। गत पनि वर्षों से पूज्य माताजी इस दुरूह ग्रन्थ को सरस बन्दाने हेतु प्रयत्नशील रही है। नापने विस्तृत हिन्दी टीका की है, विषय को मित्रों के माध्यम से स्पष्ट किया है और अनेकानेक तालिकाओं के माध्यम से विषय को एकत्र किया है। प्रस्तुत संस्करण में कुछ गद्य भाग सहित कुल ३००६ गावाऐं है (सोलापूर-संस्करण में कुल गावायें २६५१ ] ३० चित्र है और ४५ तालिकाएँ भी
सम्पादन की वही विधि अपनाई गई है जो पहले शब्द में अपनाई गई बी अर्थात् सर्व की संगति को देखते हुए शुद्ध पाठ रखना ही ध्येय रहा है फिर भी यह बढ़तापूर्वक नहीं कहा जा सकता कि व्यवस्थित पाठ हो ग्रन्थ का शुद्ध और मन्तिम रूप है ।
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चतुर्थ अधिकार - दिनोपपली प्रत्य का सबसे बड़ा अधिकार है जिसमें मनुष्यलोक का विस्तृत है। इसमें १६ अधिकार है और कुल ३००६ गाथाएँ व थोड़ा गद्य भी गाया बन्द के अतिरिक्त आचार्य श्री ने इन्द्रवज्रा दोधक, वसन्ततिलका बोर मा बिक्रीवित सत्य में भी रचना की है पर इनकी संख्या नगण्य है। अधिकार के प्रारम्भ में पद्मप्रभ भगवान को नमस्कार किया है और अन्त मे सुपार्श्वनाथ भगवान को
सोलह मन्तराधिकार इस प्रकार है- मनुष्य लोक का निर्देश, जम्बूद्वीप, नवबसमुद्र, घातकी कालरेदक समुद्र, दुष्करार्ध द्वीप-इन अवार्ड द्वीप समुद्रों में स्थित मनुष्यों के भेद, क्या अल्पबहुरन, गुणस्थानादि, धम्मक परिणाम, योनि सुख-दुःख सभ्यस्तम के कारण फोर मोक्ष जाने वाले जीवों का प्रमाण । २, ४, और ६ अन्तराधिकारों के अन्तर्गत अपने अपने १६ १६ अन्तराधिकार और भोजका १६ अन्तरा धिकारों में, विस्तार से किया गया है लगभग २४२५ गावात्रों में यह बन गया है। समानता के कारण मालकी खण्ड और पुष्कराचं द्वीप के वन को विस्तृत नहीं किया गया है। चौबीस तीर्थंकरों का वर्णन बहुत विस्तार से (५२६ गाया से १२८० गाथाओं में हुआ है । अन्तिम दस अन्नशधिकारों (७ से १६ तक ) का बन केवल
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६
५६ गापामों में ही मा मया है । विषय को विस्तृत करने और उसे पतिप्त करने को रचयिता भाचार्य श्री को कमा प्रसनीय है। प्रस्तुत बह के करणसूत्र, पाठास्तर, चित्र और तालिका सारिको सूची इसप्रकार है
करण सूत्र पारिम मझिम बाहिर
२६०२ मुणिनिय जीए इमुपावगुखिव जीवा २४०१ माहिरसई वागो
२५६५ इसुवाणं बगि
२५३५
भूमीअ मुहं सोहिम
दश इमहीण जीवाकवितरिमसा १८५ एरवशादोणं कई
२६०१ जीवामिभारणं
२१३७ बाजुराक दवणे बटुम्मि बावपट्ट
वासकही दम रिणवा बेट्टाए जीवाए
विक्वंभवरुदीजों हुमुबाछ कई क :.. आचार्य विहिसागवाहिका
२००५ प्रस्तुत संस्करण में प्रयुक्त महत्वपूर्ण संकेत - =ी १- पाल्पोपम
मं = पंगुल सा = सागरोपम सू- मूण्यंगुम
मेडी - श्वेणीबद्ध १५ - सम्पूर्ण जीवराशि प्र= प्रतसंगुत
म. प्रकीर्गक १६ = सम्पूर्ण पुदगस की ध = धनांगुस
मु - मुहूर्त परमानु राणि प - जगणी
वि- दिन १६मस = सम्पूर्ण कारन ही लोम प- लोकप्रनर
मा - माह समय राशि भू- पूपि
स = अनन्तानन्त १६R=सम्पूर्ण शाकान की को- कोस
( गापा ५७) प्रदेन राशि दं = दंड ७ = मण्यात
से = मेष - अमंलात ।
जो = योजन
= राजु
पाठाम्तर
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मावा वेलंघरवेवा द्वारोवरिमपराएं पणुरोसमोसणाई वास ट्ठि पोषणा
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मंगद घुरिया लग्ना एसियोवमवसमतो
कुमुद-कुमुदंग एगउवा केई मारिया
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एक्का जोयरण अहि तदयं
तपासाव विदि
यह जह जोग्गद्वाणे
कालप्यमुहा नाणा
अहवा वीरे सिद्ध
बोस सहसग सम
दोणि या पणवा महवा हो हो कोसा
हागार महारिह भवनो
एक्क सहस्स पणव बोषण उन्
सोलस कोसुन्के
पासो पण भव्य कोसा
गर जी महारा
एस बलम डो
सोमरसम्सय बा वसविदे बालो भू
ताणं च मे पाने पंच
सिरसा बेदी मेरि पुष्परिण
तारा सबसे य
रक्तारतोदापो सोया
एक्करस सहसानि
तस्योपरि विपत्र से
जलसिहरे विषयभो
वाद सुराण नवरी
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रिडिपए दिसाबो
मुक्का मेयिरिद
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पृष्ठ No ११२
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चित्र विवरण
खिम
पाचा सं०
पृष्ठ संख्या
विजया एवैत गंगाकुट पर स्थित जिनेन्द्र-प्रतिमा
२१२-१३३ ३२०-२२३ ३४५-१५ ७१८ ५४१-१८
२१९
७२१-
२२४ सागर जी महाराज
२४४
भोनमूमि में कल्पवृक्ष समवसरण एलिसाल कोट एवं उसका तोरल द्वार मानस्तम्भ के एक विचारमक कोट, बेदी, अमियों एवं नापसालानों का चित्रण मानस्ताविकागदर्शक:-- आदर्य स्वमुक्ष भूमि समवसरखपत बारह कोठे गन्धकुटी का चित्रण अष्ट महापातिहास भरतक्षेत्र कमल पुष्पस्थित भवनों में जिनमन्दिर हिमवान कुसाबल सुमेव पर्वत पालिसा मट मंगल दृष्य सौरमैन की समा देवकुछ, उत्तरकुक व गजवन्त
८९६-१०२ १२४-१२६ 1९४५
२७७ २८४
१६४६-१७२२ १६०1 १८४२-१८५८
५०७
१२८ ५४५
१९७५-१८५ २०३५-२- २२२० २२२५-२२४२ २२०-२१० २४१०-१५ २४४३
५१५
पूर्वापर विवहक्षेत्र विदेह का कन्या क्षेत्र समीप की अश्यिो ज्येष्ठ (उत्कृष्ट) पाताल. वकष्ट, मध्यम, जवन्य पाताल पूणिमा बौर पमावस्याको पातालों की स्थिति मवन समुद्र के दीप कुमानुष पातकी बरोप में विजयों का आकार
६५६
२४६४-२४६५ ૨ -૨૩૨ २२२४-२४३० २५३
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तालिका विचररण
विषय
'जम्बूदीप की जगती तथा उस पर स्थित बेबी एवं वेदी के पार्श्व भागों में स्थित बावड़ियों का प्रमाण लघु-व्येष्ठ पुत्रं पयषु सम
जम्बूदीप की परिधि क्षेत्रफल तथा द्वारों के अन्तरका प्रमाण क्षेत्र कुलचन्नों के विस्तार सादि का विवरण भरतक्षेत्र और विजयार्थ के व्यास जीवा, मनुम, भूमिका तथा पाकवं मुजा का प्रमाण
गंगा-सिन्नविषों से सम्बन्धित प्रणाली, कुण्ड एवं द्वीप का विस्तार
आवलि से यक्ष पर्यन्त व्यवहार काम को परिभाषाएं संख्या प्रमाण
भोगभूमि जीवों का संक्षिप्त वंभव
सुषमा- सुषमा आदि तीन कालों में बायु माहारादि करे वृद्धि हानि का प्रदर्शन
कुलकरोंके उत्सेध, ग्रायु एवं अन्तरका आदिका विवरण श्रीश्री तोरों की प्रागति, जन्म विवरण एवं वंशादि का निरूपण
चौबीस तीर्यको के बन्यान्तर, बायु कुमारकाल, उत्सेव ad राव्यकास एवं भिल निर्देश
२४ तीर्थंकरों के वैराग्य का कारण और दीमा का सम्पूर्ण विवरण
२४ तीर्थकरों का प्रस्वकाम केवलज्ञान उत्पत्ति के मास समादि तथा केवलज्ञानोत्पत्ति का अन्तरकाल समवसरणों, सोपानों, भीषियों पर वैदियों का प्रमाण
इलियास प्रासाद- प्रथम पृथिवी एवं नाट्यमाणार्थीका प्रमारा पीठों का विस्तार मावि एवं सोवियों का प्रमाण मास्तम्भों का बाहुल्य एवं ऊंचाई
प्रातिका जादि क्षेत्रों का प्रमाण
बेदी, वस्मीभूमि, कोट, कंस्य प्रासाद एवं उपवनभूमि
का प्रमाण
स्तम्भों, ध्वजदण्डों एवं ध्वजभूमियों का तथा तृतीय कोट का प्रमाण
कहगनुओं, नालाबों, स्तूपों, कोठों आदि का प्रमाण
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१४६ १५८-१५६
१७४- १७५
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२१७-२२६
१०७-२६५
गद्य भाग
३२४-२०१
३२४-४२७
४२८-५१०
५१-५५७
५६०-६१२
६१४-६१८
६५०-६७६
६०२-०११
४२४७४०
७५४-७६५
७७७-७८२
७८३-७८६
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०७-८२२
८२६-६३६
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बेवी, पीठ, परिचिय एवं मेखला का विस्तारादि
दूसरे एवं तीसरे पीठों का तथा बन्धकुटी का विस्तार आदि तीर्थंकरों का केवलकाल, गणबरों की संख्या एवं नाम ६४ ऋदियां
सात गणों का पृथक-पृथक एवं एकत्र ऋषियों का प्रमाण धार्मिकानों आदि की संख्या एवं तीरों के निर्वाण प्राप्ति निर्देश
योग नितिका, बासन एवं अनुबद्ध केवल नादिको का
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२४
समदों का परिचय
नारायणों का परिचय
मान चौबीसी के प्रसिद्ध पुरुष
पृष्ठ
का परिचय
भावी हलाकी पुरुष
पर्वत एवं क्षेत्रों के विस्तार, बारा गौवा धनुम आणि का
प्रमाण
बार के फूट
जम्बूद्वीप को नदियाँ
भातकी सड की परिधि एवं उसमें स्थित कुलालों और क्षेत्रों का विस्तार
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२६९
२७६
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३२६-३२७
३४५
३५८-५६.
३५५
प्रमाण
ऋषभादि तीर्थकरों के स्वर्ग धौर मोक्ष प्राप्त सिंध्योंकी संख्या ३६८
११०३-१२४८
मुक्तास्तर एवं तीयं प्रवर्तकाल
३७८
१२५०-१२६६
पतियों की नर्मानभियों का परिचय
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११६६-१३२७
कतियों के चौदह रत्नों का परिचय दर्शक आचार्यश्री दुर्विधानातर वतियों के वैभव का सामान्य पश्चिम
४०६
चवतियों का परिश्रम
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४२०
४२४-२५
४३०
४६०-६१
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८७-६८०
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११०१-११७६
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१३-१-१४०१
१२९२-१४२२
१४२३
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१२१८-१३०२
१४२६-१४४४
१४५६-१४८०
१५६१-१९१३
१६४६-१५०२
२३३८
२४१०-२४१५ २५६७-२६१२
आभार
तिलोयपणती प्रन्थ की प्रकाशन योजना में हमें अनेक महानुभावों का पुष्कल सहयोग बोर प्रोत्साहन संप्राप्त है। मैं उन सभी का हृदय से बाभारी हूँ ।
० पू० भाव १०८ श्री धर्मसागरजी महाराज एवं आचार्य भी ससागरजी महाराज के वचन इस ग्रन्य के प्रकाशन अनुष्ठान में हमारे प्रेरक रहे हैं। मैं आपके चरणों में सविनय सादर नमन करता हुआ आपके दीपं नीरोग जीवन की कामना करता हूँ ।
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टीकाकी पूम्य माताजी बिरामतीजी का में मतिम कताई जिन्होंने मुझ पर अनुग्रह कर सम्पादन का गुरुतर उतरमायित्व मुझे सौंपा । को कुछ बन पाई बह सब पूज्य माताजी के मान जोर बम का ही पधुर फल है। निकट रहने वाला ही शान सकता है कि माताजी ग्रन्थ लेखन में कितना परिषम करती है, स्वपि स्वास्थ्य अनुक्कम नहीं रहता और दोनों हार्थों की अनुमिवों में चर्म रोग भी प्रकट हो सका है सपापि अपने लक्ष्य से विरत नहीं होती पौर पनपरत कार्य में त्रुटी रहती है। तिलोयपण्णासी से नहाम् विशालकाय पन्ध की टीका आपकी साधना, कप्ट सहिष्णुता, वय, त्याग-सप और निष्ठा का ही परिणाम है । मैं यही कामना करता है कि पुण्य माताजी का एनत्रय कुमस रहे और स्वास्थ्य भी अनुकूल बने ताकि आप जिनानी की इसी प्रकार सम्यगा. राबना कर सके। म पूश्य माताजी के चरणों में प्रतगः पदामि निवेदन करता है।
पोयपनामा साहित्याचा सागर और प्रोसेसर मम्मीचमाती, मातुर का भी प्राभारी है जिन्होंने प्रथम सब को मांति इस सब के लिए भी कमतः पुरोवाक मोर गणित विषय मे लिखा है।
प्रस्तुत सग में पुद्रित चित्रों की रचना के लिये सरकाशमी, महामेर कोर का रमेश मेहता, रामपुर बम्पपाद के पात्र हैं। इस ग्रन्थ के पृ. ११. पर मुदित कल्पवत का चित्र, पु. २९४ का समवसरण का वित्र, पृ. २४ का सप प्रातिहार्य का चित्र और पृ० ५२८ एर मुद्रित प्रष्ट परष म्य का चित्र शचार्य १.५ की वेशभूषाजी महाराज पारा सम्पादित 'नमोकार मंत्र पंच से लिये गये है। समयसरन विषयक कुछ अन्य भित्र (पृ. २१५, २१९, २२४, २३६. २४ नेम सिवान्त कोश से लिये गये है1 एसहर्ष इम इन मामारी ।। पृष्ठ २४ के सि के शिमला प
ण एक प्रातिहार्य है किन्तु चित्र में उसके स्थान पर जय-जयकार भनि है। इसी तरह पृ. ५२८ पर भष्ट मंगस प्रमों के चित्र में बण्टा भित्रित है कि गाषा में 'कलग' का उस्लेसहा है।
पुग्म मातांजी के संघस्थ पानी, काली मारोगीमा बार में प्रम्य लेखन सम्पादन और प्रकाशन हेतु सारी म्पमस्याएं बुटा कर नमारता पूर्वक सहयोग दिया है एतपय में मापका अत्यन्त पण्डीत"
अखिल भारतीय किन महासना ग्रन्य को प्रभागक है और सेठी समय इसके प्रकामन का भार बहन कर रहा है, मैं सेठी ट्रस्ट के नियामक और महासभा के अध्यक्ष श्री मिनबारची मेठी का हार्दिक मभिनन्दन करता हूं मोर इस ब नसेश के लिए उन्हें माधुवाद देता हूँ।
पन्य के सुन्दर गोर शुब मुद्रा के लिए में अनुभटो मुद्रक कमल किमार्ग, मानस-कितनगा के कुमाल कर्मचारियों को पन्यगाब देता है। प्रेस मासिक धीर पापनातकी ने विशेष कवि और सत्परता से मे मुक्ति किया है, मैं उनका भाशरी हैं।
पुन: इन सभी श्मशील पुस्पारमानों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता शागित करता है और सम्पादन प्रकाशन में रही भूलों के लिये सविनय कमा पाहता।
बसन्त पंचमी दिसं.२०१२ श्रीपास्वंताय बन मन्दिर गायो नगर, बोषपुर
विनीत वित्तमप्रकास पाटली
सम्पादक
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तिलोयषण्णत्ती के चतुर्थाधिकार का गणित
नेशक-मोहम्मोचम जैन पूर्ण एम्पोरियम, ६७७ स राका जनमपुर (4.प्र.)
व्यास
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- व्यास से परिधि निकासने हेतु 1 का मान अथवा परिधि का मान V१० लिया गया है प्रोर दूर है--
परिधि = 11 व्यास ]kxt पुनः वृत्त का क्षेत्रफल - परिधि x पास
पानफल के लिए विदफलं शम्द का उपयोग हुमा है। इसोप्रकार, लम्ब पल रम्म का चनफल-आधार का क्षेत्रफल x (उस्सेध या बाहत्य)
गावा ४/५-५६
२
जम्बद्वीप के विष्कम्भ से उसकी परिधि निकासने हेतु ।। का मान १० लेकर विशेष मागे तक परिषि की गणना की गई है । यह ४१. का मान । (३ +१-३ + (सिया ममा है।
अर्थात /NE (+-) + x माना गया है । यहाँ । अवर्ग धनात्मक पूर्णांक है, मोर : धनारमा पूर्णाक हैं । अथवा IN E V (o - Y}=h - (vi)"
इस विधि से अंतत: अवसप्तासन्न भिन्न शेष प्राप्त होता है। यह गामा का आर. सी. गुप्ता ने की है। यहाँ इसे "चब पदसंसस्म पुढं" का गुणफार बतलाया गया है। इसका अर्थ विचारणीय है।
गापा /RE-10
इस गाया में उपरोक्त विधि से क्षेत्रफल की अंत्य महत्ता प्रापित करने हेतु उम्रभासत्र में परमाणुओं की संध्या अन्यकार ने खम्स द्वारा निरूपित की है।
* R. C. Gupta, Circumference of the Jambudvipa in Iaina Comography, 2. I. A. S., vol. I0. No. I, 1975. 38-46.
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पाषा ४७०
वृत्त में विष्काम ( पास ) को d मानकर, परिधि को मानकर, गिज्या को: मानकर, द्वीप को चतुर्राक्ष परिषि रूप धनुष की बीवा का सूत्र(वृत्त की चतुपाचा धनुष को जीवा ) -1dx२-२२
as ..
मामा अपवा(पतुपाच परिधि की जीवा 1x1-( पाश परिधि ) -[२xp:1xr=ga-1 अथवा पानास परिधि = / . . माजरूस के प्रतीकों में यह IT 1 है।
गारा ४२. - बाए पोर विलाभ दिया जाने पर जीषा निकामने हेतु सूत्र-मरण को मानकर, विष्कम्भ को ८ मानकर, गोवा निकालने का सूत्र निम्नलिखित हैजोवा (d) - 14-1}]
= [() - (-1)] यह पिथेमोरस के साध्य का उपयोग है। गाबा .
माण और विष्कम्भ दिया जाने पर धनुष का प्रमाण निकाममे हेतु सूत्र । धनुष - १२ [(d + h] - 143
यदि हो तो धनुष - V. के बराबर होता है। पापा २
जब जीवा पौर विस्कम्भ ( विस्तार दिया गया हो तो वाण निकालने के लिए सूत्र : 1-1-14 - 1 जोवा)* ]" -!- [* - ( बोदा )" उपर्युक्त सूत्रों से निम्न सम्बन्ध प्राप्त होता है।
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(धनु) + ( जीया ) जहाँ बाण है । पुनः
vs+४ ( जीया ) को ४ (अधनुष की जीवा) मिखने पर हमें निम्नलिखित सम्बन्ध प्राप्त होता है।
(धनुष ।'-h+r (अई धनुष को जीवा ) बाबा /२५-२०६:
समय, मावलि, उच्छवाउ, प्राण और स्तोक को व्यवहारकाल मिटि किया है। पुदगलपरमाणु का निकट में स्थित श्राकानप्रदेश के प्रतिक्रमण प्रमाण जो अविभागीकाल है वही समय नाम से प्रसिद्ध है । इकाइयों के बीच निम्नलिखित सम्बन्ध है। असंख्यात समय - पावलो [जघन्य युक्त असंन्यात का प्रतीक २ है जो मूल में संष्टि
रूप आपा प्रतीत होता है। संख्यात पावली श्वास महाया में कार पाथी हर यह स्पष्ट संष्टि से
- प्राण नहीं है क्योंकि सांपेय को संदृष्टि ३ होना चाहिये । । ७ वच्छवास - । स्तोक संकि पनागुल का प्रतीक है मो सावित हो सकता है संध्यास
पहा निर्यात करती हो? ७ स्तोक , - एमब ३ खब
नाली २ नाली
१ मुहूतं [ समय कम एक मुहूर्त को भिन्न मुहूर्त कहते हैं। ] २० मुहूर्त
१दिन १५ दिन
१पक्ष
१ मास २मास ३ ऋतु
१पयन २पयन
- पर्व वर्ष
इसप्रकार प्रथलारम का मान { " x (१." वर्षों के बराबर होता है। बागे पष्ट संध्यात सकले जाने का संकेत है। गावा ४३१-३१२
इन गापामों में संख्या प्रमाण का विस्तार से वर्णन है । संख्येय, वसंख्येय और अमन्त को सीमाएँ निर्धारित की गई है। इनमें कुछ मौपचारिक प्रसंस्पेय और मनन्त्र संख्याएं । यथा उत्कृष्ट
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२६ संख्येय तक श्रुत केवली का विषय होने के कारण, तदनुगामो संख्याएँ असंख्येय कही गई है जो उपचार है। मसंख्यात सोक प्रमाण स्थिति बपाध्यवसायस्थान प्रमाण संध्या का आशय स्थितिबन्ध के लिए कारणभूत मारमा के परिणामों को संख्या है । इसीप्रकार इससे भी प्रसंस्येय लोक गुणे प्रमाण पनुभागबन्धाध्यवसायस्थान प्रमाण संस्था का बामय अनुमान बन्ध के लिए कारणभूत मात्मा के परिणामों की संख्या है । इससे भी असंख्येष लोक प्रमाण गुणे, मन, वचन. काय योगों के अविशा प्रतिवेदों (कर्मों के फल देने की शक्ति के भविभागी बंशो) की संख्या का प्रमाण होता है। वीरसेनाबार्य में षटाण्डागम (पु. ४. पृ. ३३८, ३३१ ) में अदं पुदगल परिवर्तन काल के
मनन्तस्य के व्यवहार को उपचार निबन्धक बतलाया है। arket: इसोका चयाधी असल्या ताब्यात और जपन्य परीतानन्त में केवल ! का
अंतर हो जाने से ही "अनन्त" संज्ञा का उपचार हो जाता है। यहाँ भवधिज्ञानो का विषय उस्कृष्ट प्रसंस्थात तक का होता है. इसके पश्चात् का विषय केवलज्ञानी की सीमा में माजरने के कारण 'अनन्त' का उपचार हो जाता है । जब जघन्य अनन्तानन्त को तीन बार पगित संगित राशि में प्रनन्तात्मक राशियां निक्षिप्त होती है तभी उनकी पनन्त संक्षा सार्थक होती है. जैसी कि संध्याररक राशि निक्षिप्त करने पर संस्थेय राशि को पसंस्थेयता को सार्थकता प्राप्त होती है। वास्तव में व्यय के होते रहने पर भी ( सवा? ) अक्षम रइने बासी भय जीव राषि समान और भी राशिया है-गो क्षय होने वाली पुरगम परिवर्तन काल जैसी सभी राशियों के प्रतिपक्ष के समान पाई जाती है।
अन्य में इस संबंध में वगित संगित, छलाका कुडादि की प्रक्रियाएं पूर्ण रूप से वरिणत हैं।
वगित संगिस की तिलोयपणती को प्रक्रिया धवला टोका में दी गयी प्रक्रिया से भिन्न है। प्रनम्त सपा केवलशान राशि के सम्बन्ध में विवरण महत्वपूर्ण है, "इसप्रकार वर्ग करके उत्पन्न सम वर्ग राषियों का पुल केवसझान-केवलदर्शन के पमन्स भाग है, इस कारण वह भाजन है दम्य नहीं है।" गाश/१७८० मावि
समान गोल पारीर बाला में पर्वत, "समवतगुस्स मेस्स" में रंभों और वांकु सममिलाकों द्वारा निर्मित किया गया है। इन गाषाओं में मेरु परत के विभिन्न स्थानों पर परिवर्तनमोल मान, ऊंचाईयों पर म्यास, बतलाए गये है । "सूर्य पप की तियंकता की धारणा को मानो मेरु पर्वत की आकृति में लाया गया है" यह आपाय लिश्क एवं पार्मा ने अपने शोध लेख में दिया है।
* S, S, Lishk and S. D. Sharma, "Notion of Obliquity of Ecliptic Implied in the Con.
cepe of Mount Meru in Sambudyipe prijzepti." Jain Journal, Calcutta, 1978, pp. 19,
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गाथा ४/१७९३ :
यह है
शंकु के समन्निक की पारेखा का मान निकालने हेतु जिस सूत्र का उपयोग हुआ है वह
1.
पादयं सूत्रा SXID, And h
H
भूमि D, मुखd ऊँचाई H दी गयी है ।
गावा ४/१७६७ :
समसम्म चतुर्भुज को आकृति त्रिभुज संक्षेत्र के सममिक के मनीक रूप में होती है। उसीप्रकार शंकु के समच्छन्नक को उदग्रममतल द्वारा केन्द्रीय अक्ष में से होता हुआ काटा जाये तो छेद से प्राप्त प्राकृति भी समलम्ब चतुर्भुज होती है ।
यदि जूलिका के शिखर से योजन नीचे विष्कम्भ प्राप्त करना हो तो सूत्र यह है :
xev+ [ D=d]+b
H
x=D − { { H-8 ) + ( D=
D = c + h ૪
गाया ४/२०२५ :
इस गांव में जोवा C और बाम दिया जाने पर विष्कम्भ D निकालने का सूत्र दिया गया है
}]
B
Eng
गरबा ४/२३७४ :
इस गाथा में मनुष के आकार के क्षेत्र का सूक्ष्म क्षेत्रफल निकालने का सूत्र दिया हैधनुषाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल = / cix tom he 7 cix १०= 45 / १०
W
इससूत्र का उल्लेख महावीराचायें ने "गणित सार संग्रह" में किया है। गाचा ४/२५२५ :
इस गाथा से प्रतीत होता है कि अन्धकार को उनके विष्कम्भों के वर्ग अनुपात के तुल्य होता है। क्षेत्रफल A हो और बड़े द्वितीय वृत्त का विष्कम्भ D-D
D
( A
ज्ञात था कि दो बसों के क्षेत्रफलों का अनुपात मामलो छोटे प्रथम वृत्त का विष्कम्भ D तथा तथा क्षेत्रफल . हो तो
) अथवा
देखिये बम्बूद्रोपनि ४३४
देखिये "मयसार "सोनार, १९६३ ० ०/७०३ । बम्बूद्वीपप्रशति १०७
में समानुपात नियम २/११-२० में दिये हैं।
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गापा ४/२७६१ :
इस गाथा में वृत्त का क्षेत्रफल निकालने के लिए सूत्र हैवृत्त या समान गोल का क्षेत्रफल= √(D)
*1
*}**
४
जिसे आज हम के रूप में उपयोग में लाते हैं। यहाँ D विष्कम्भ है ।
गापा ४/२७६३ :
x १०
-
-
(
वलयाकृति वृत्त या वलय के प्राकार की आकृति का क्षेत्रफल निकालने का सूत्र -
मानलो प्रथम वृत का विस्तार D, और दूसरे का D हो तो वलयाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल - _√ [२] » − { DVex (B
हाल
INTO [D] जिसे ( ) लिखते हैं।
गावा ४/२९२६ :
जग में सुमंगुल के प्रथम भोर तृतीय वर्गमूल का भाग देने पर जो लब्ध माये उसमें से १ कम करने पर सामान्य मनुष्य राशि का प्रमाण
जगणी (सूच्यंगुल) पट
-१ पाता है। यह महत्वपूर्ण पोसी है, क्योंकि इसमें राशि सिद्धान्त का आधार
निहित है ।
विशेष टिप्पण :
तिलोणी चतुर्थ अधिकार में भरत क्षेत्र, हिमवान् पर्वत, इंमवत क्षेत्र महामान पर्वत, हरिवर्ष क्षेत्र, निवध क्षेत्र और विदेह क्षेत्र के सम्बन्ध में विभिन्न माप दिये गये हैं। इनके क्षेत्रफल सम्बन्धी मापों में दिये हुए सूत्र के अनुसार भरत क्षेत्र, निवन क्षेत्र एवं विदेह क्षेत्र का क्षेत्रफल गाथा २३७५, २३७६ २३७७ में दिये गये प्रमाणों के समान प्राप्त हो जाता है। किन्तु हिमवान् पर्वत, हैमवत क्षेत्र, महा हिमवान् पर्वत एवं हरिवर्ष क्षेत्र के क्षेत्रफल तिलोथप तो ( भाग १, १९४३ में नहीं दिये गये हैं। यहाँ प्रकृत में सूक्ष्म क्षेत्रफल से अभिप्राय है ।
तथापि पूज्य विशुद्धमती प्रायिका माताजी के प्रयासों से हिमवान् पर्वत, ईमवत क्षेत्र, महाहिमवान् पर्वत (त्रुटिपूर्ण) एवं इरिवर्ष क्षेत्र के सूक्ष्म क्षेत्रफल उल्सिलित करने वाली गाथाएं कन्नड़ प्रति से प्राप्त हुई हैं। इनमें से कथित सूत्रानुसार हरिवर्ष निवश एवं विदेह के क्षेत्रफलों के प्रमाण गणनानुसार पूर्णत: श्रचना लगभग मिल जाते हैं किन्तु हम पर्वत एवं हैमवत क्षेत्र के क्षेत्रफलों के मान नहीं मिल सके हैं।
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इन सभी क्षेत्रों और पर्वतों के क्षेत्रफलों की गणना हेतु मूलभूत सूत्र गाथा २३७४, स्तुप मधिकार में इसप्रकार दिया गया है : "बाण के चतुषं माग से गुरिणत जीवा का जो वर्ग हो उसको वा से गुपित कर प्राप्त गुणनफल का वर्गमूल निकासने पर धनुष के आकार वाले क्षेत्र का सूक्ष्म, क्षेत्रफल जाना औसा in E XTER
भात, धनुषाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल=Vारण xxजीवा 12xT.
I इस सूत्रानुसार सर्वप्रथम हिमवान पर्वस का क्षेत्रफल निकालने के लिए दो धनुषाकार क्षेत्रफल निकालते है जिनका अन्तर उक्त क्षेत्रफल होता है । इसप्रकार
हिमवान पर्वत का क्षेत्रफल = ( हिमवान् पर्वस का क्षेत्रफल + मरत कोत्र का क्षेत्रफल ) .... तरजीमा = ... . -(भरत का क्षेत्रफल होता है जो धनुष के
रूप में उपसम्म होते हैं। यहाँ हिमवान् पर्वत पर है, .भरत क्षेत्र गचप है। हिमवान् पर्वत के क्षेत्रफल को प्राप्त करने हेतु पूर्ण धनुषाकार क्षेत्र क ग घ घव पर विचार करते है जिसका बारा
:10 योजन प्राप्त होता है। इसमें भरत क्षेत्र का विस्तार भौर हिमवान् क्षेत्र का विस्तार सम्मिलित किया गया है।
इसप्रकार हिमवान् पर्वत का क्षेत्रफल
___exx Xxvi x०
= ३.१५२२७७१३
दसोक गणक मधीन द्वारा उक्त की गणना करने पर, जाति लिया गया है तब
क्षेत्रफल = ११२३४६६५४... २१७३७४२२२१
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यह मान २५१००४६६१३२ प्राप्त किया गया बतलाया गया है। दूसरे प्रकार से यह मान v_{_२८६५४३२५•• }*x * होता है। इस करने पर उपरोक्त गणना में वर्गमूल निकालने
_ ९०६१२६३१८१ = २५१००५३१.१२ वर्ग योजन प्राप्त हुआ है। किन्तु गाया में માં
(३६१
पर बचे दोष को छोड़ देने पर क्षेत्रफल २५१००५३५६५ प्राप्त होता है ।
1] हैमवत क्षेत्र का क्षेत्रफल -
-
00005,
क्षेत्रफल:
३१
-- X १६
* ३७६७४ १०
' ३६१४४
(Toooo x १ x ४७३७०६
६००००
X X १६ Y
×१०
Lê
आदी सुविधा भी
_३६१३४८८४०० _११२३४६६५४१*
३६१
३६१
[=७८६१०७८४.४० वर्ग योजन ।
पाकि
२६३७८४९३१७०
३६१
उपरोक्त की गणना दूसरे प्रकार से निम्न रूप में प्राप्त होती है :
( १२=४२११२६ ) x (P)
=७८६१०७८४१३३ वयोजन, जहाँ गणना में वर्गमूल निकालने के पश्चात् पचे शेव को छोड़ दिया गया है। गावा में इसका प्रमाण ७६१०६६६३ वर्ग योजन दिया गया है ।
|| महाहिमवान पर्वत का क्षेत्रफल -
= ~ ( १५००००
Xxx १०
_ * {4°×7×३७६७४२११ x१०
=
= ****£{{*** //102pro
२२६६७०८८७.५० वर्ग योजन
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दूसरे प्रकार से हल करने पर--
२२६५७ वर्ग योजन प्राप्त होता है । कन्नड़ मावा टिपूर्ण होने से यहां का नहीं दिया गया है। 1v हरिवर्ष का क्षेत्रफल- Hixx७३६०x१०
-MARix३ x ३1 - ( NA - 30. )xvid = ६१६६३६५६६.७१ या योजन प्राप्त होता है।
दूसरे प्रकार से हल करने पर ६१६६३६५६ वर्ष योजन प्राप्त होता है। v इसीप्रकार,
निषध पर्वत का क्षेत्रफल- M E
भी अधिनिसार जाँ हाराज
-PHixx७१९०१)Px. = (१) [ ११२७०४८५८ -- ४३५२८२९६ ] अथवा दूसरे प्रकार से, क्षेत्रफल= iv८५४०७६३९६१६४.........
-१५१४६२९ व र्ग पोजन प्राप्त होता है। पुनः, इसीप्रकार विदेह क्षेत्र का क्षेत्रफल- Pixxt.....jixt.
- VAPPix x ६४१५६.)x१० =od ०५००.०० - ११२७.४८५८] ३६.xx
- --- [ १७७६५१४२ ] वर्ग योवन होता है।
SEXY
itTXP
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________________
els :.. A
m
ATHE
"ry
अपवा, दूसरे प्रकार से
क्षेत्रफल - (१०) V५६६१८१२७८८००१६४ वर्ग योजन प्राप्त होता है, जिसमें कोई टि संभव है, क्योंकि उपयुक्त को हल करने पर २९६९३Yet.३ वर्ग योजन प्राप्त हुमा है विस में कुछ पटि हो सकती है, क्योंकि गायानुसार यह मान २६६३४६ पास होना पाहिये । इसे पाठकगण हस कर संशोधित फल निकालने का प्रयास करेंगे, ऐसी माना है । उपयुक गणना में श्री जम्बूकुमारजी दोगो, उदयपुर ने सहयोग दिया है जिनके इम भाभारी है।
उपयुक क्षेत्रफलों के गणना फलों से गाषाओं में दिये गये मानों के सम्बनम में मिसान विषयक संवाद प्रो. डॉ० पारसी. गुमा, यूनेस्को के भारतीय गणित इतिहास के प्रतिनिधि, मेसरा (रांची) से भी किया गया । उनके पत्रानुसार जो .. जनवरी १६५ को प्राप्त हुपा पा. उन्हें कोई प्राचीन विधि प्राप्त हुई है जिससे में हिमवान् का क्षेत्रफल २५१.०४५ बर्गयोजन निकालने में समर्थ हो सके है । वे इस समस्या को सुलझाने का भी भी प्रयास कर रहे हैं। स्मरण रहे कि इन क्षेत्रफलों में
लेने पर भी क्षेत्रफल सम्बन्धी उक्त गाषामों में दिये गये मान प्राप्त नहीं होते हैं। उपर्युक गरगनाओं से तिनोयपणती माग .. !xs की गापाऐं चतुर्व
मधिकार, मुख्यतः १६२४, १६२१. १६६८, १६९६, १७१८, ११२, १३, १४, १७५१, . १७५२, २३७६, १४५, १७७३ सपा २३७७ एवं कन्नड प्रति से प्राप्त कुछ गापाएं है।
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विचम
मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञा (१) सोल अधिकारों के
मनुष्य लोक की स्थिति एवं प्रमाण बाहूल्य एवं परिधि
क्षेत्रफल
गोलक्षेत्र की परिधि एवं क्षेत्रफल
निकालने का विधान
मनुष्यलोक का घनफल (२)
की अवस्थिति एवं प्रमाण
१. अ० डी० वर्शन के सोलह अन्तराधिकार
जगती की ऊंचाई एवं उसका आकार जगती पर स्थित वैदिका का विस्तार बेदी के दोनों पार्श्वभागों में स्थित
यत्रों में स्थित व्वन्तरदेव के नगर
० डी० के विजपादिक चार द्वार द्वारोपरिस्थ प्रासाद गोपुर द्वारस्य बिम्ब
० डी० की सूक्ष्मपरिधि का प्रमाण के क्षेत्रफल का प्रमान
"
विजयादिक द्वारों का भ्रन्तर प्रमाण
मतान्तर से विजयादि द्वारों का प्रम
विषयानुक्रम उत्यो - महाहियारो
( गापा १ - ३००६ )
गाना 'पृ० सं०
११९
રામ
દાર
७।२
માર
"P
७५।२५
से द्वारों पर स्थित प्रासादका प्रयास ७६०२५
७७/२५
७६।२६
८६२८
९२२६
25120
१०२/३१
१०३८३१
क्षेत्र एवं कुलात्रों की माकाओं का प्रमाण १०४३१
F
द्वारों के अभिपति देवों का निरूपण
जयदेव के नगर का न
जबती के अभ्यन्तर भाग में स्थित वनखण्ड
जम्बूद्वीपस्थ सात क्षेत्रों का निरूपण कुलों का निरूप क्षेत्रों का स्वरूप
भरतक्षेत्र का विस्तार
EI
웅이
११/४
રાષ
१५/४
१९५
२५८
४२१३
४६११३
५०।१४
५११४
५६।१७
६७।१६
विजय
क्षेत्र एवं कुलाषों का विस्तार
भरत क्षेत्रस्य दिपा पर्वत की अवस्थिति
एवं प्रमाण का निरूपण
दक्षिण और उत्तर भरत का विस्तार
मनुषाकार क्षेत्र में जीवा का प्रमाण निकालने का विमान
धनुष का प्रमारण निकालने का विमान
बाण का प्रभारण निकालने का विधान
बिजया की दलिए जीवा का प्रमाण दक्षिण जीवा के धनुष का प्रमा
विजया को उत्तर जीवा का प्रमाण उत्तरमीमा के धनुष का प्रमाण
IP
विजया की वृतिका का प्रमाण
परजा का प्रमाण ज्ञात करने की विधि विजया की राजा प्रमाण भरतक्षेत्र की उत्तरजोधा का प्रमाण
"
गावा/पु० सं०
twitR
י
के धनुष का प्रमाण
की भूलिका का प्राण
की पार्श्वभुजा का प्रमाण
१८३५१
१६४५१
{
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गावा/०सं० विवष
गावा/प.. सुषमा सुषमा काल का निरूपण
३२४१.४
सहदीमित राजकुमारों को संस्था ६७१ दस प्रकार कल्पवृक्ष
दीक्षा अवस्था का निर्देश
६७७१ भोगभूमि में उत्पत्ति के कारण
सीपंकरों को पारमा का काल
६७।१९२ भोमभूमि में गर्म, सम्म, मरण काल एवं
पारणा के दिन होने गले पंचारपये ६७१।१९३ /परख के कारण
तीकरों का अपस्वकाल
५२।१९ भोगभूमिन जीवों का विशेष स्वरूप २०१७ ., के केवलज्ञान की सिपि, समय, मुषमा काम का निरूपण
नमात्र और स्थान का निर्देश ६८६।१९५ सुषमा का काला मिपाचाय यासारखीवन कालम का अन्तरालमा भोगधूमिनों में मार्गणा मादिका निरूपण ४१५४१२३ केवलशानोत्पत्ति के पश्चात् पारीर का पोदह कुलकरों का निरूपण ४२८।१२५ कम्यगमन
७१३॥२०१ पालाका पुरुषों की संख्या एवं उनके नाम ५१७१४८ इम्माविकों को कंसात्यसि का परिमान २.1 रुदों के नाम
५२७.५ कुर द्वारा समवसरण की रचना १८२० सीकरों अवतरण स्थान
५२६१
सामवसरणों के निरूपप में तीस . के यम्म-स्वान, माता-पिता,
अधिकारों का निर्देश
७२०२०१ अम्मतिथि एवं बन्म-नक्षत्रों के नाम २३१५१ सामान्य भूमि
७२४॥२०६ तीकरों के पक्षों का निर्देश ५५७११९ सोपानों का वर्णन
७२/२०७ , की भक्ति का फन
समवसरणों का विम्यास
७३१५२०० तीर्थकरों के सम्मान्तराल का प्रमाण ५६०११९० जीषियों का निरूपमा
७३।३० ऋचभारि तीर्थकरों की मायु का प्रमाण ५८६१६६ अलिसालों का वर्णन
७१।२१४ का कुमारकास ५१०।१६७ त्यासाव भूपियो का निकला का उस्मेष नारपनालायें
७६४१२२१ का परीपरी ५६५।१३० मानसम्म
७६६।२२४ का राग्पकाल १९७१७० प्रथम वेदी का निरूपण
500/२३७ के बिल सातिका क्षेत्र
'२०४१२३८ का राज्यपद
पूसरी बेदी एवं बल्लीक्षेत्र का विस्तार हैराग्य का कारण १९७६ तृतीम वस्सी भूमि
८०८२४१ । बारा चिन्तित बराग्य द्वितीय कोट (मास)
१०२४२ भावना उपवन भूमि
८११२ राम्म भावना बम्तगंत नरकतिके दुःब ६१६१७७ नत्यपक्षों की ऊंचाई एवं बिनप्रतिमाएं ८१४।२४३ . तियंच .. . ६२३१७ मानस्तम्भ
१७२४५ । मनुष्य .. ॥ ६२७४१७९ नादपानालायें
२२२२४० । देवगत .. .. ६४८१Y तृतीय वेदी
२५/२४८ अपादि तौयंकरों के बीमा स्थान५५ बाभूमि
२१२४८ सीपकों की पोष्ठा तिथि, प्रहर, नक्षत्र, बन मोर
तोसरा कोट (साल)
१५॥२५॥ दीक्षा समय के उपवासों का निरूपण ६५१८५ कल्पभूमि
२५२
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________________
विषय
नायकानाएँ चतुर्थ बेदी
भवनभूमियाँ
जमानशक्ति का अतिशय प्रवेश निर्गमन का प्रमाण समवसरण में कौन नहीं जाते ?
समवसरण में दरोगादि का अभाव
ऋषभादि तीर्थकरों के यस
41
स्तूप
चतुर्थ कोट (छाल) श्रीमन्डप भूमि
समवसरण में बारह को
पांचवीं बेदी प्रथम पीठ
द्वितीय पीठ
तृतीय पीठ
मन्यकुटी
अरहन्तों की स्थिति सिहासन से ऊपर
अभ्म के इस अविजय
केवलज्ञान के ग्यारह अनिय
উथैंक বিপय अचार्य श्री टिक
९२४२६१
भ्रष्ट महाप्रातिहा समवसरणों में वन्दनारत जीवों की संख्या ६३८२८५
१३९ २०४
६४०/२६५
६४११२८५
९४२२८६
६४३२=६
२४६२६६
६५२२२६६
६७०१२९२
CUTT
10
मराबर संख्या
रस
"
क्षेत्र
गामा / १००
८४७१२५५
२४६२५६
८५०/२५६
८५३१२५७
८५७/२५८
०६१।२५६
८६५२१२
"સાર૬૪
८७४२१५
८६४।२७०
८६३।२७२
८६६२७४
२०४१ २७८
"
को यक्षिणियों
का केवली कान
बीच गणधर
के व
ऋद्धि सामान्य व बुद्धि विक्रिया के भेद एवं उनका स्वरूप क्रियाद्धि के भेद में उनका स्वरूप तप ऋद्धि के भेद व उनका स्वरूप बलम के भेद व उनका स्वरूप ओषति के भेद व उनका स्वरूप
के भेद व उनका स्वरूप
के भेद व उनका स्वरूप
३८
६०५१२७८
९०८१२७८
विषय
२७७ २६५
१०३३३३०८ १०४२।३१०
२०५८ ।११४
१००२।३१०
१०७८१३१९
१०८०३२१
१०८६०३२४
करों के ऋषियों की संख्या
के सात गए व उनकी पृथ्
AP
पृबक संख्या तीपंकरों की आकाओं का प्रमाण
कामों के नाम
प्रमुख
भावकों की संख्या
श्राविकाओं की संपर
प्रथम सीधे में कवियों तथा ग्रस्य मनुष्यों एवं तिर्यों की संख्या
मादि तीर्थंकरों के मुक्त होने की तिथि, काल, नक्षत्र और सहयुक्त जीवों की संख्या का निदेश
दुर्वममुषमाकाल का प्रवेग धर्मतो की म्युच्युति
भरताविक चक्रमतियों का निर्देश
१९२६ १५० तीर्थकरों का प्रोगनिवृतिकास १२२०/३५६ के मुक्त होने के वजन १२२१।३५६ ऋषभादिकों के सी में अनुबद्ध केवमियों
"
"
तियों की परोक्षता / प्रश्च कता भरतादिक चपतियों को ऊंचाई
को मापु
१२२३।३५७
अनुत्तर विमानों में जाने वालों की संख्या १२२६२६० मुक्ति प्राप्त पतिगणों
१२२९३६१
म मुक्ति प्राप्त शिष्यगणों का मुक्तिकाल
सौधर्माविको प्राप्त शिष्यों की संख्या भाष्यमरणों की संख्या
ऋषभनाथ और महावीर का सिद्धिकाल
करों के मुक्त होने का अन्तरकाल सौर्य प्रवर्तनकाल
11
"
मात्रा/० ०
११०३।२२८
का कुमारकाल
का मण्डलीकाल
११०१८३२१
११७७१३४६
televe
११६२३४९
११६४/१५०
"
न की उपलब्धि एवं दिग्विजय
चक्रवतियों का मन
११९५३५०
के राज्यकाल का प्रमाण
tut
१२४३३६४
१२४१०३६७
१२५० / ३६४
१२४१३६६
१२६१।३७२
१२८७/३७६
१२०६।३७२
१२६२/३५०
१२६४।३८०
१३०२३८२
१३०५/३८२
१०८१८३
१२११०३८४
२९४३६४
१३८१।३६७ १४९१/४०७
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artists... Ra
s tram # HARE
गावापृ. पालतियों का संयमकाल
Ytent की पर्यापान्तर प्राप्ति १४२२१४०६ बलदेव, नारायण एवं प्रतिनारायणों का निरूपण
.१४२४११ ग्यारह डों का निरूपए
१४५२१ नौनारवों का निरूपण
१४१४३. चौबीस कामदेव
१४४ivat १६. महापुरुषों का मोक्षपद निदेन १४८५१ दुषमा काल का प्रवेश एवं उसपे जावु माधि का प्रमाण
१४८६४ मोसमाति अनुबद्ध केवली
१४८८।४३२ अम्तिम बसी आदि का निर्देश . १४६१४३२ पोवह पूरीधारियों के नाम एवं उनके काम का प्रपारा
१४६४|४३ दसपूर्वशरी व उनका कात
१४६७४३४ प्यार अंगमारी एवं उनका काम १५००1४४ बागारांपपारी पर्ष उनका काल १५.२ar गौतम पखवर मे लोहामं तक का सम्मिलित काम प्रमाण
१५०४१४३५ अतीय नष्ट होने का समय ११००४३६ चातुर्वण्य सब का मस्तिस कान १५०६।०६ नक राजा की उत्पत्ति का समय १५०८/४३७ गुप्तों का और चतुर्पस का राग्यकाल tre पालक का राज्याभिषेक
१९७९ पालक, विजय, मुरागी तपा पुष्प मित्र का राज्यकाल
१५१८३९ पमुमित्र, अग्निमित्र, गन्धर्व, नरवाइन
मृत्यज मार मुप्तवंनियोंका स. का. १५१९४० कल्फी की माषु एवं उसका राम्यकाल १५२||४० कल्को का पट्टबन्ध
१५२४० करकी एवं उपस्कियों का समय १५२८४२ प्रतिषमा काल का निरूपण १५५६/४ उत्सरिणीकालमा प्रवेश और श्रेय काकानमान
१५७८४१२ का प्रपमकाप
१५७२
विषय
गारा/प. दुषमाकाल का निरूपण
१५८८१४५४ दुषममुषमा काल का निरूपण
२५१७१४५६ मुषमयमा काल का निरूपस १५४६२ सुषमा काल का निरूपण
१६२४३ मुषपसुचना काल का निरूपण १६२४४६४ नसपिणी-अवसर्पिणों परिवर्तन १६२८४६४ पांच म्लेश्वग्हों पर विचार श्रेणियों
में प्रमतमानकाल का निपम १६२६४६१ उस्सपिगोपाल के अतिदुषमादि तीन
कासों में जीवॉकी संख्यावरि का क्रम १६०४५ विकलेटियों का नाम कल्पमों की उत्पत्ति
२६३२।४६५ विकलेमिमय जीवों की उत्पत्ति एवं पति ११३४१४६६ हुण्डावसपिनो एवं उसके विज्ञ १ ६३७५४६७ हिमवान् पर्वत का उत्सेध, अवगाहर
विस्तार
की उत्तर जीवा १६४७१ .. .के उतार मे पनु पृष्ठ १६४८/rut . . की पूनिका
१६४६४७९ को यामुगा १६५०1७२
की देदिया, वनप्लग १६४७२ ... , के कुरा के नाम १५२४ कूटों मा विस्तार आधि
१६५४७३ प्रयम कूटस्य जिनमवन
१६५६।७३ पटों पर स्थित म्पत्तर नगर १६७२।७६ हिममान पर्वतम्ब पनाह का पनि १६८०1७७ पपदह मे स्मित कमाल का निरूपण १६RIME कमस में स्थित श्रीदेगी का
१६१४४५० रोहितास्या नदी का निर्देश १७१८४५ हैमवत क्षेत्रमा निरुपण
१७२irey पहाहिमवान् पर्वत का निस्पन १७४०|VEL हरिक्षेत्र का निरूपण
१७६४५ भिनयत का निरूपण
१७७४६ महाविह क्षेत्र का वर्णन
१७२७५०३ मन्बर महादर का निरूपए १८०३५०६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
विषम
मेरा की छह परिचिय एवं उनका प्रमाण १८२५/४१२
सातवीं परिधि में व्यारह बन
१६२७५१२
मेरु के मूल भागांत को क्यादिरूपता
१८३०५१३
मेक सम्बन्धी चार व
१८३२।४१३
मेक शिवर का विस्तार एवं परिषि
१-३३।४१४
१८४५१४
मेद शिखरस्य पाण्डुक बन पाक लिसा का दर्शन सौमनस बन का निरूपण
१६४२५१५
मदन बन का दम महान दन का वर्णन मजदन्त पर्वतों का वर्णन
וי
की नींव और वूट
PP
विद्युत्प्रभ गजदन्तों के कूट गन्धमादन पर्वत के फूट माल्यवान् पर्वत के कूट
सीतोपानी का बरन यमक पर्वतों का
यमक पर्वतों के आगे ५ द्रह
कांचनों का निरूपण मशाल वेदो
दिग्वजेट पर्वतों का व
मीतोवा नही पर जिनप्रासाद
कुमुदसेल व पलाशगिरि
भडताल बन देवी
सदानी /००
२२३९/५९८
२२४१।५९८
२२४३।६००
२२५९/६०५
१७६१९
सोता नवी का दर्शन
पनिर एवं ग्रहों का बन
सीतानदी पर जिन प्रासाद पद्मोत्तर एवं नीलमिरि देवकुल क्षेत्र की स्थिति व सम्बाई मास्मसी के स्थल आदि का वर्णन
उत्तरकृद व उसकी सम्बाई मादि अम्मू व उसके परिवार द पूर्वापर विदेहों में क्षेत्रों का विभाजन विदेहस्य बलीस क्षेत्र पूर्ण विदेहस्व गजवन्त
१९६१।५३९
२०१३।५५१
२०२६।५५३
२०३७/४४५
२०५४/५५९
२०७०/५६२
२०६२०५६५
२०८५/५६५
२०९०/५६७
२१००१४६९
२११४/५७२
२११९५७३
२१२५/५७४
४०
२१२८/५७५
२१३४/२७६
२१३०१५७०
२१३९५७७
२१४९।५७८
२१४६/५७१
२१५७/५८१
२१५९१५८१
२१६३५८२
२१७६५८४
२२७/५६३
२२२०।५९४
२२२५।५१५
२२३२/५९७
२२३६।५१७
अपर विदेहस्य गजदन्त
पूर्वागर विदेहस्व विभंग नदियाँ
बच्चादि क्षेत्रों का बिस्तार
कच्छादेन का तिरुपत
दि
शेष क्षेत्रों का संक्षिप्त वर्णन
अपर विदेह का संक्षिप्त बलेन
सीना- सीतोदा के किनारों पर ती
सोनार पर्वत
बारह विमंग नदियो
देवारभ्य पत्र का निरूपण
मृतारण्य का निरूपण
मीलगिरि का वर्णन
रम्यक क्षेत्र का मन
रुक्मिगिरि का वर्णन
रम्पत क्षेत्र का निरूपण
शिखरीबिट का निरूपण ऐरावत क्षेत्र का निरूपण
मनुवाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल निकालने का विज्ञान
भरत क्षेत्र का सूक्ष्म क्षेत्रफल हिममान् पर्वत का
हैमवत क्षेत्र कर
FI
P
हरि मंत्र का
निवध पर्वत का सूक्ष्म क्षेत्रफल
विदेह क्षेत्र का
नीलान्त ऐरावतादि का क्षेत्रफल
"
"
२४०६६३६
२४०७६३८
२४०५९२६
२४०१।११६
२४१०/६१६
कुण्डों का प्रमाण
२४१६/६४३
कुण्डों के भवनों में रहने वाले व्यतरदेव २४१७६४३
वेदियों की संख्या व उत्सेधावि
२४१६६४१
"
जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल
जम्बूदीप नदियों की सकया
२३१९/११९
२१२५६२०
२३३२।६२२
२३३४६२२
२३१९/६२५
२३४२।६१५
२३५२/६२७
२३५४।६२७
२१६२/६३९
२३६७/६३०
२३७७१६३२
२३८२२६११
२३९१६६४
जिन भवनों की संख्या
कुल संसादिकों की संख्या
२४०१।६३६
२४०२/६३६
२४० ३१६३७
२४०४।६६७
२४०४६३८
२४२२०६४४
२४२४१६४४
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________________
शिवस
(1) समसमुह
लवण समुद्र का आकार और विस्तारादि २४२८६४६
में पातालों का निरूपण
२४३८६४९
"F
के दोनों तटों पर और सिर पर स्थित नगरियों का दर्शन २४७५/६६२ पातालों के पार्श्वमागों मे स्थित पयंस २४८४६६४ समण समुद्रस्य सूर्यग्रपादिकों का निवेश २४६८१६६७ ४८ कुमानुषद्वीपों का निरूपण २५१६७० कुभोनमि में उत्पन्न मनुष्यों की आकृति २५२४३६७३ कुमानुषद्वीपों में कौन वस्थ होते हैं ? २५४०६७८ समुद्रस्य मत्स्यादिको की अवगाना लवण समुद्र को जगती
२५५६६-१
२५५४।६६२
निकालने की दिपि
सब समुद्र फे सूक्ष्म क्षेत्रफल का प्रमाण जम्बूदीप एवं जनसमुद्र के सम्मिलित
क्षेत्रफल का प्रमाण जम्बूद्वीप प्रमाण सा निकालने का विमान
समुद्र के जम्बूदीप प्रमाण का निरूपण
गाचा/१००
पर्वत तालाब आदि का प्रमाण
दोनों दीपों में विजयादिकों का सदस्य विजया एनाटिकों का विस्तार बारह कुल पर्वत और बार विजयार्थी
की स्थिति एवं प्राकार विजयादिकों के नाम, आकार कुल पर्वतों का विस्तार
याकार पर्वतों का विस्तार
२५६१/६८२
२४६३३६८३
२५६४।६८३
२५६५६८४
२५६६।६८४
(४)
दर्शन के सोलह अन्तराधिकारों के नाम २५६८ । ६६५ घातकी खादी की जगती
२४७१।६८५
इष्वाकार पर्वतों का निरूपण
२५७२।६६६
जिनभवन एवं व्यस्तरासादों का माध्य २५०० ६८७
मेरुपर्वतों का विस्पास
त्रिों का विस्तार
२५८१।६८०
२५८२२६८६
२५८४|१८०
२५६६६६६
२५८८६८६
२५६११६९०
४१
१५८६४६६१
२५६६२६६२
विचम
गावा/० ०
चाकांड में पर्वत क्षेत्र का क्षेत्रफल २६००/६६६
पादिम, मध्यम और बाल सूची निकालने का विधान
२६०१।६९३
विवक्षित सूची की परिधि प्राप्त करने या विधान
भानकी खण्ड को अभ्यस्त परिधि का
प्रमाण
२६०३६२४ घातकी संघ की मध्यम परिषि का प्रमाण २६०४१६६४ बाह्य २६०५।१६५
भरतादि सब क्षेत्रों का सम्मिलित विस्तार २६०६४६९५ धातकी खण्डस्य भरतक्षेत्र का मादि, मध्य और बाह्य विस्तार
IN
कुरुक्षेत्रों का धनुः पृष्ठ कुरुक्षेत्रों की जीवा
पोर पुण्डरीकन से नियंत नदियों का पर्वत पर पसन का प्रमाण सम्बर पर्वतों का निरूपण
गजदन्तों का वर्णन
वृत विस्तार निकालने का विधान कुरुक्षेत्रों का इस विस्तार ऋजुवार निकालने का विधान कुरुक्षेत्रों का ऋण
यत्रवाण
घातकी पुल एवं उसके परिवार वृक्ष
मेरु आदिकों के विस्तार का निकपण विजयादिकों का विस्तार निकालने का
विधान
"
२६०२।६६४
कच्छा और गन्यमालिनी देश का
चम्पा काम को परिधि
बंरुद्ध क्षेत्र का प्रमाण
विदेह क्षेत्र का आयाम
कच्छा देश को बादिम जम्बाई
अपने-अपने स्थान में जयं विवेह का विस्तार
२६०७/६८६
२६१०३६६७
२६१३॥७००
२६१५।७००
२६३१।७०४
२६२३ / ७०४
२६३४/७५
२६३५।७०५
२६३६ । ७०५
२६३७२७०६
२६३६७०६
२६६६७० ६
२६४०1७.७
२६४४७०७
२६५०/७०९
२६५८२७११
२६६०।७१२
૨૧૬પ૨
२६६२/७१२
२६६४।७१३
२६६६/०१३
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________________
viaries:
firwa
अंत्रों की वृद्धि का प्रमाण विजयादिकों की आदि मध्यम और
अमि लम्बाई जानने का उपाय कच्चादिकों की तीनों लम्बाई मंगावती आदि देशों की लम्बाई हिमवान् पर्वतका क्षेत्रफल महाहिमवान् वादि पर्वतों का क्षेत्रफल यो इष्वाकार पर्णतों का क्षेत्रफल
चीव मर्मतों का समस्त क्षेत्रफन
चातकी खम्ब का समस्त क्षेत्रफल भरतादि क्षेत्रों का क्षेत्रफल
पातकी लण्ड के जी प्रमाण म्ह भरतादि अधिकारों का निपल
rates समुद्र का क्षेत्रफल
V
भावाने श्री सुविध
००
"
Ir
२६६८१७१४
२६७२।७१५
२६७४।७१५
(५) कालो समुह
२७६२७४३
कालोड समुद्र का विस्तारादि समुद्रगत द्वीपों की अवस्थिति और संस्था २७६४४७४ इन द्वीपों में स्थित कुमानुरों का निरूपण २७७११७४५ कालोदक के माह्य भाग में स्थित कुमानुष
दीपों का निरूपण
२७०७/७२६
२७४८७३६
२७५० ७३९
२७४११७४०
२७५२|७४०
२७५३।७४०
२७५४४७४०
२७५८७४२
२७६०१७४२
के ज. हो. प्रमाण
२७८२१७४८
FI
I.
की बाह्य परिमि सरसोदक समुद्रस्य मत्स्यों की दीर्घतादि २७८४७४६ (4) मार
वर्णन के सोलह अन्तराधिकारों का निर्देन २७८९ / ७४९ मानुषीत्तर एवंस तथा उसका उत्सेधादि २७९२७५० समवृत क्षेत्र का क्षेत्रफल निकालने का
२७७९७४६
२७८१।७४७
२७८२१७४७
विधान २२०२७१३ मानुषोत्तर सहित मनुष्यलोक का क्षेत्रफल २८०६७५३ माकार क्षेत्र का क्षेत्रफल निकालने का
विधान
२८०७१७५४
मानुषोर का सूक्ष्म क्षेत्रफ
२०६७५४
मानुवोत्तर पर्वतस्य २२ कूटों का निरूपण २००९७५५
विजय
इष्वाकार पत्रों की स्थिति विजयाविकों का धाकार तथा संख्या
mango de
२८२८७५८
२०३०५७५९
बीम द्वीपों में विजयादिकों की समानता २०३३।७५९ कुमादिकों का विस्तार २०३५/७६० विजया तथा कुलालों का निरूपण २०३७२७६० दोनों मरतबा ऐरावत क्षेत्रों की स्थिति २८४०७६१
सब विजयों की स्थिति तथा वाकार
२८४१७६१
कुलाचन तथा इष्वाकार पर्वतों का विष्कम्भ
भरतादि क्षेत्रों के तीनों विष्कम्भ लाने
का विज्ञान
भरतानि सातों क्षेत्रों का बध्यन्तर
बिस्तार
२०६०।०६१
भरतायि सात क्षेत्रों का बाह्य विस्तार २८५४७६४ ग्रह तथा पारीक द्र से निकली हुई
नदियों के पर्वत पर बहने का प्रमाण २०१५/७६४ मेरुषों का निरूपण २०५७१७६५ चार गजदन्तों की बाह्याभ्यन्तर लम्बाई २८५५/७६५ कुरुक्षेत्र के धनुष बाण और जीव
1
का प्रमाख
मृत विष्कम्भ निकालने का विमान कुरुक्षेत्र का वृतविष्कम्भ तथा बवान
२०४२०७६१
कच्छा और गम्भमानिनी की सूची एवं उसकी परिधि का प्रमाण
विदेह को लम्बाई का प्रमाण कलादि की मादिन लम्बाई
२८४७७१२
२०६०।७१५
२०६३।७६६
१८६४१७६६
२८६६७६७
का प्रमाण
मद्रनाथ वन का विस्तार
taffset के पूर्वापर विस्तार का प्रमाण २०६९/०६८ मेदिकों का विस्तार निकालने का
विधान
२०७४/७६९
२८७६।७१९
२८७९७७०
२८८१७७०
विजयादिकों की विस्तार वृद्धि के प्रमाण
का निरूपण
२८८३७७१
दियों की तीनों सम्माई का प्रमाण २८९०/७७३ पथा व गमावती की सूची
२९२४७८४
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________________
मादक :--
free
पद्मादिकों की तीनों लम्बाई का प्रमाण १९२५०७६४ हिमवान् पर्वत का क्षेत्रफल
२१५९/७९६
क्षत्रफल का
श्रीवों से निश्चल
X1
आचार्य श्री सुविधा की क
रा/० सं०
पुष्करार्ध द्वीप का समस्त क्षेत्रफल पर्वत रहित पुष्करार्ध का क्षेत्रफल मरतादि क्षेत्रों का क्षेत्रफम मुस्करा के जम्बुद्वीप प्रमाण खण्ड मनुष्यों की स्थिति
मरतादिक शेष मन्तराधिकार
(५) मनुष्यों के मे
(८) पनुको
२९६०।७१६
१९६२ । ७९७
२९६३७९७
१९६४।५९०
२९६७/७९९
२९६८/७९९
२९६९/८००
१९७०/८००
२९७१५००
विदय
(९) मनुष्यों में
(१०) मनुष्यों में गुणस्थानावि
(११) मनुष्यों की त्पस्तर प्राप्ति मनुष्यायु का बद
(१२) मनुष्य योगियों का नियम
(१३-१४) मनुष्यों में सुख दुःख का निक्पन
(१५) सम्पत्व प्राप्ति से कारम
(१५) मुक्त जीवों का प्रा
अधिकारात म
गया/०
२९७६८०१
१९८०/८०२
२९८९०६०४
२९९१।८०५
२९९२१८०४
२९९९/५०६
३०००/८०७
३००३/cou
३००६६०८
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________________
38 जविवसह - आइरिम-विरहवा
तिलोयपण्णत्ती
चउत्थो महाहियारो
मङ्गलाचरण एवं प्रतिज्ञा
एवं बरि मास-लोय-सरू बन्यामि-
लोयालोय-पयासं, पउमप्यह-जिनवरं धर्मसत्ता' ।
माणूस जग-पाति, बोच्छामो आणुपुब्बीए ॥ १ ॥
इससे जग मनुष्यमीकक वह
अर्थ :- लोकालोकको प्रकाशित करनेवाले पचप्रभ जिनेन्द्रको नमस्कार कर अनुक्रममे मनुष्यलोक - प्रज्ञप्ति कहता हूँ ।। १ ।।
सोलह अधिकारोंके नाम
"का न करता
गिद्द सस्स सल्बं अंजूदीवोसि लवणजलही य थाइजो शेख, कालोव समुद्र- पोक्खरद्धा ॥ २ ॥ तेसु-द्विद-मणुवाणं, मेवा संखाय घोब बहुमतं । "गुणठान प्यहूदीनं, संकमणं विविह-मेय- जुवं ॥ ३ ॥ आऊ-बंधन-भावं, जोणि-पमानं सुहं भ वुक्तं च । सम्मा-गहन- हे निम्बुदि-गमचान परिमानं ॥ ४ ॥ एवं सोलस संखे, अहिवारे एएच बलहस्तायो । जिण-मुह-कमल-विनिग्गव-भर-जग-यन्नति-मामाए ।।५।।
१.व. मा . क. एमस्ति । २.६. ए ३. ब. एस्साम क पत्त स्म ।
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________________
तिलोत
[ गाथा : ६-८
अर्थ :---निर्देशका स्वरूप, जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकी चण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, पुष्करा - ढोप, इन द्वीपोंमें स्थित मनुष्योंकि भेद, संख्या, अल्पबहुत्व, गुणस्थानादिकका विविध भेदसि युक्त संक्रमण, आयु-बन्धनके निमित्तभूत परिणाम योनि-प्रमाण, सुख, दुःख, सम्यक्त्व-ग्रहणके कारण और मोक्ष जानेवालोंका प्रमाण । इसप्रकार जिनेन्द्र भगवान्के मुखरूपी कमलसे निकले हुए नर-जगप्रज्ञप्ति नामक इस चतुर्थ महाधिकारमें इन सोलह
122
२ ]
मनुष्यलोककी स्थिति एवं प्रमाण
तस-बाली-बहुल जित्ताअ खिदीअ उबरिमे भागे । अइबट्टो मनुज-जगो, 'जोयण-पणदाल-लक्स- 'मिक्समो ॥६॥
। जो ४५ ल ।
अर्थ :- चित्रा पृथिवीके ऊपर सनालीके बहुमध्यभागमें पैंतालीस लाख ( ४५००००० ) योजन प्रभात विस्तारवाला अतिगोल मनुष्यलोक है ।। ६ ।।
मध्यलोकका बाहय एवं परिषि
जग-मभावो उर्जार, तम्बहलं जीवणानि इगि-लक्वं । व चतु-युग - सिय-युग-डरेक्क्क कमेण तपरिही ॥७॥
| १ न । १४२३०२४९ ।
अर्थ:- -लोकके मध्यभागसे ऊपर उस मनुष्यलोकका बाहुल्य एक लाख ( १००००० ) योजन और परिधि क्रमशः नौ, चार, दो, शून्य, तीन, दो, चार और एक अंक (१४२३०२४९ योजन) प्रमाण है ।। ७ ।।
मोट :- परिषि निकासनेका नियम इसी अध्याय की गाथा में दिया गया है। मनुष्यलोकका क्षेत्रफल -
सुण-भगवण-पद्म-युग- एक्क-ख-तिय-सु-ण-हा-सुनं । टपकेश्क- जोबना त्रिय, अंक-कमे मणुब-लोय-खेतफलं ॥८॥
। १६००६०३०१२५००० ।
१. म. मोराण। २. ८. ब. क. क्विंभा ३ क च वि
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________________
भाषा :-१.]
वउत्थो महाहियारो Arijन्ध, अन्याय पारी एक शून्य, तीन, न्य, नी, शून्य, गून्य, छह और एक अंक प्रमाण अर्थात् १६००६०३०१२५००० योजन मनुष्यलोकका क्षेत्रफल है ।। ८ ।।
गोलक्षेत्रको परिधि एवं क्षेत्रफल निकालने का विधानबासमती रस-गुभिवा, करणी परिही 'ध मंडले लेते। "विश्वंभ-बउमभाग-प्पहदा सा होदि सेसफल ।। ६ ।।
वर्ष :-पासके वर्गको इससे गुणा करनेपर जो गुरणनफल प्राप्त हो उसके वर्गमूल प्रमाण गोलक्षेत्रकी परिधि होती है। इस परिधिको ग्यासके चतुशिसे गुणा करने पर प्राप्त गुणनफल प्रमाण उसका क्षेत्रफल होता है ।। ६ ।।
विशेषा:-मनुष्यलोक वृत्ताकार है; जिसका व्याम ४५ लान योजन है। इसका वर्ग ( ४५ लाख ४४५ लास)१०-२०२५००००००००००० वगं योजन होता है । इसका वर्गमूल अर्थात् परिधिका प्रमाण /२०२५०००००००००००-१४:३०२४६ वर्ग योजन है और जो अवशेष रहे वे छोड़ दिये गये हैं। परिधिxpersx००९००° श्यामका चतुर्थाश =१६.०९०३०१२५००० वर्ग योजन मनुष्यलोकका क्षेत्रफल प्राप्त होता है।
__ मनुष्यलोकका पनफलअदुवा सुन्न, पंच-इगि-गमण-ति-मह-व-सुष्णा । अंबर-मुक्केवकाई', अंक-कमे सस्त विवफलं ॥१०॥
१६.०१ ०३०१२५०००००००
लिइवेसो गदो ॥१॥ वर्ष :-आठ स्वानोंमें शून्य, पोष, दो, एफ, शून्य, तीन, शून्य, नो, शून्य, शून्य, छह और एक अंक क्रमशः रखनेपर जो राशि (१६००१०१०१२५०००००००० धन योजन ) उत्पन्न हो वह उस ( मनुष्यनोक ) का घनफल है ।। १० ।।
विशेषाव :-( मनुष्यलोकका बर्ग योजन क्षेत्रफल १६००६०३०१२५०००) ४१००००० योजन बाहल्प - १६००१०३०१२.५०००००००० घन योजन धनफल प्राप्त हुमा ।
निर्देश समाप्त हुबा ।। १॥
1.क.प्रति, ।। २... क. र. विभय । .क.उ.
कोहि । ४..... नवा ।
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________________
४ ]
तिलोयपणतो
जम्बूद्वीपकी अवस्थिति एवं प्रमाण
माणूस जग बहुमक्भे, विक्ायो होबि जंबुदीओ ति । एक-जोपण-लक्सं बिक्वंभ-जुदो
[ गाया : ११-१५
सरिस बट्टो ॥। ११ ॥
म :- मनुष्यक्षेत्र के बहुमध्य भाग में एक लाख योजन विस्तारसे युक्त, वृत्तके सदृश और विख्यात जम्बूलीप है ।। ११ ।।
जम्बूद्वीपके वर्णनमें सोलह अन्तराधिकारोंका निर्देश
mkate nikáning og-fatt asztmata ▼ A हिमगिरि-हेमवता' महहिमवं हरि-बरिस मिसी ॥१२॥ विजलो विदेह - नामो', नीलगिरी रम्म बरिस- सम्मिगिरी । हेरन्नव विजय सिहरी एराबदो सि वरितो य ॥१३३॥ एवं सोलस- मेवा, जंबूदोषम्मि अंतरहियारा । एहि तान सरूपं, दाम आणुपुबीए ।।१४।।
Y
अर्थ :- जम्बूद्वीप के वर्णनमें जगती ( वेदिका ), विन्यास, भरत क्षेत्र, उस ( भरत ] क्षेत्रमें होनेवाला कालभेद, हिमवान् पर्वत, हैमवतक्षेत्र, महाहिमवान् पर्वत, रिक्षेत्र, निषधपर्यंत, विदेहक्षेत्र, नीलपर्वत, रम्यकक्षेत्र, रुक्मिपर्वत हैरण्यवत क्षेत्र, सिरीपर्वत और ऐरावतक्षेत्र इसप्रकार सोलह अन्तराधिकार है। अब उनका स्वरूप अनुक्रमसे कहता हूँ ।। १२-१४ ।।
जगतीको ऊंचाई एवं उसका आकार -
बेदि तस्स जगवी, अट्ठ चिप जोयणाणि उत्तुंगा ।
दीयं तन्हि नियंत, सरिसं होतॄण वलय-निहा ॥ १५ ॥
जो ।
अर्थ :- उसकी जगती आठ योजन ऊंची है, जो मणिबन्धके समान उस ड्रीमको, दलय अर्थात् कड़के सहन होकर बेह्नित करती है ।। १४ ।
१. द. न. हिमवदा । २. लामे ३. प. म. भेो। ४. व म. क. अंतर्राहयारो। ५.६, ब. ६.८.व. दे. च. बेटे पि । ७. व. दोषतमियितं व क. यौन रुं मलियत ।
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________________
गाया : १६-१६ ]
चउरको महाहियारो
जगतीका विस्तार
मूले भारस-मक्के, अटु छिय जोयणाणि निट्ठिा । सिहरे तारि फुढं जनबी रुदास' परिमानं ॥ १६ ॥
भामेर :- आप भरतुर जी फागन
अर्थ: जगती विस्तारका प्रमाण स्परूपसे मूलमें बारह, मध्य में माठ और शिवरपर कार योजन कहा गया है ।। १६ ।।
जगतीकी नींव -
वो कोसा अवगाढा, तेतियमेता हवेदि वज्जमयीं । बहरमचमयी', सिहरे वेरलिय- परिपुण्या ॥१७॥ कोस २
म
अर्थ :- मध्य में बहुरत्नोंसे निर्मित जगतीकी गहराई ( नींव ) दो कोस है ।। १७ ।
[ x
और शिखश्वर मणियों से परिपूर्ण वच्चनय
जगती मूलमें स्थित गुफाओंका वर्णन
तीए मूल-बएसे, पुध्यावरदो थ सस-तस गुहा
पर- 'तोरणाहिरामा, अनावि-जिहणा विचित्तपरा ।। १६ ।।
अर्थ:-जगती मूल प्रदेशमें पूर्व-पश्चिम की ओर जो सामान गुफाएं हैं, वे उत्कृष्ट तोरणोंसे रमणीक, अनादि-निधन एवं अत्यन्त अदभुत है || १८ ||
जम्बूदीपकी जगती पर स्थित बेदिकाका विस्तार
जगवी- उपरिम-भागे, बहु-म कणय देविया दिव्या ।
बें कोसा उत्तुंगर, विस्थिष्णा पंच-सय-वंडा ||११||
को २ | दंड ५००
अर्थ : – जगतीके उपरिग भागके ठीक मध्य में दिव्य स्वर्णमय वेदिका है। यह दो कोस ऊँची और पांचसौ ( ४०० ] धनुष प्रमाण चौड़ी है ।। १६ ।।
१. मस्स । २..... मयं । १...... ब चोरला. प. तोरणा
दोरलाई
४...
Page #33
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________________
तिलोयपण्णी
[ गाया : २०-२३ जगनीका अभ्यन्तर एवं वाह्यादि विस्तारजगपी-उरिम-६'हे', बेटी-बक सोषि-अब-कदो। * सदमेक-
पाल का पहिया Reat YETEE भ:-जगतीके परिम विस्तारमेंसे वेदोके विस्तारको घटाकर, गेषको आधा करनेपर को प्राप्त होता है वह वेदीके एक पाश्र्वभागमें जगतीके विस्तारका प्रमाण है ॥२०॥
विवार :-गाथा १६ में जगतीका उपारम विस्तार ४ योजन ( ३६००० धनुष ) कहा गया है। इसमें से वेदोका विस्तार (५०० धनुष ) घटाकर शेषको आधा करनेपर (By:')१५५५० धनुष देदीके एक पारवंभागमें जगतीका विस्तार है।
पागरम-सहस्साणि, सत-सया 'षणमि पन्चासा । आमंतर-विक्वंभो, बाहिर-चासो वि सम्मेलो' ॥२१॥
दंड १७५० । प:-जगतीका अभ्यन्तर विस्तार पन्द्रह हजार सातसो पचास (१५७५०) धनुष है और उसका बाप विस्तार भी इसना ही है ॥२१॥
वेदीके दोनों पार्श्वभागों में स्थित बन-वापियोंका विस्तारादिबेबो-गो-पातुं, उपवण-संग' हवंति रमणिना।
पर-चावहिं कुत्ता, विचित्त-मणि गिपर-परिपुच्चा ॥२२॥
प्रपं:-वेदोके दोनों पाश्वभागों में श्रेष्ठ वापियोंसे युक्त और अदभुत मणियोंके खजामों से परिपूर्ण रमणोक उपवन बण्ड है ।।२२।।
बेटा दो-सव-बंग', विश्वंभ-बुबा हवेदि मम्भिमया । पणासहिय-सर्थ, 'बहण्या-पानी वि सयमेकं ॥२३॥
२०० । १५० । १०० ।
. द.... दो। ४. स. संयो.प. दुमे, ब. पंगे। ७. अ. जमण्य ।
२. द... क. प. उ. बंगारिण। १. इ. स. क.अ. ३. मुणिपार।
... प. मासोक्तिमेशा । ......ब. स. दो।
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मालिका : १ ]
तालिका : १ अमूद्वीपको जगती सपा उसपर स्थित वेगे एवं देवी के पार्षमागोंमें स्थित बावड़ियोंका प्रमाण
पापा : १५.१७, १९.२१ एवं २३-२४
जगतीका विस्तार मादि
वेदोकी
उत्कृष्ट | मध्यम बावड़ियों का गालियोंकर बायोका
ऊँचाई
भूल विस्तार
मभ्यम्तर
मध्य विस्तार
देवी के एक पायभानमें बगतीका
शिमर विस्तार
कंचा
गड़ाई
विस्तार
गहर्ण
.
विस्तार
महरा
चजत्थो महाहियारों
या
२मोस
१२ योजन
कोजम
४पोवन
२कोस
२. मनुष २० एणुन १५. अनुष
१.० अनुष
पर
मा | ७६ कोस | ७६ कोस
1.अनुव
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निलोयपण्णत्ती
[ गाथा : २४-२५
:- उत्कृष्ट बायका दो सौ (२००) धनुष, मध्यमका एकसौ पचास (१५० ) धनुष और जघन्यका एकसौ ( १०० ) धनुष प्रमाण विस्तार है ||२३||
८]
तिथिहाओ' 'वावीओ, निय-हव- बसंत मेत्तमवगाढा । कस्हार-कमल-कुवलय-'कुमुवामोदेहि परिपुन्हा ||२४||
२० १ १५४ ११० ।
अर्थ :- कैरव ( सफेद कमल ), कमन, नीलकमल एवं कुमुदोंकी सुगन्धसे परिपूर्ण ये अपने हिम-धनुष १५ धनुष और १० धनुष )
Ro.
तीनों अकारही वजियाँ
प्रमाण गहरी है || २४ ॥
बर- गोउर-वार-सोरणाई पि । तर - नवराणि - रम्माणि ॥ २५ ॥
भागे,
अर्थ :- वेदीके अभ्यन्तर भाग में प्राकार से बेष्टित एवं उत्तम गोपुरद्वारों तथा तोरणोंसे संयुक्त व्यन्तरदेवोंके रमणीक नगर है ।। २५ ।।
घर-बेवाणं तस्सि गयराणि होति रम्मानि । अभंतरम्मि भागे, महोरगानं च बेति परे ॥ १२६॥
पाठान्तरम् 1
वनों में स्थित व्यन्तर देवोंके नगर
पायार- परिताप,
अवमंतर मि
:- देवीके भभ्यन्तर भाग में बेलन्धर देवोंके और उससे मागे महोरग देवोंके रमणीक
पाठान्तर ।
नगर है ।। २६ ।।
व्यन्नर - नगरोंमें स्थित प्रासाद -
गयरेसु रमभिज्जा, पासादा होंति विविह विष्णासा |
अम्भंतर बेसरा, बिप्यंतरंग-जीबा समेत
जात्रा -बर- रयन-नियरमया ॥२७॥ विविह· धूम-धड-सुता ।
वज्रजमय वर कवाडा,
बेदी- गोउर- दुवार-संवृत्ता ॥ २६ ॥
अर्थ :--नगरोंमें अभ्यन्तर भाग में चैत्यवृत्रों सहित, घनेक उत्तमोत्तम रलसमूहोंसे निर्मित, चारों ओर प्रदोष रत्नदीपकों वाले, विविध नृपघटोंसे युक्त, वज्रमय श्रेष्ठ कपाटोंवाल, वेदी एवं गोपुरद्वारों सहित विविध रचनाओंवाले रमणीक प्रासाद है ।। २७-२८ ॥
१. क. उ. तिविहक्षে ।
५. . क. ज. परियबाद ।
२.उ बस । ....de, ■. Beige i
उ.कुमुद ।
७. . . . ज. पुरा
३ क्र.
४. व. २५ ॥
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भाषा : २४-३२ ]
उत्यो महाहिया
म प्रासादोंका विस्तारादि
पहतरि बाबानि'
सदा
उत्तुमा सय-मभूमि पीह-चुमा | जहाि
होति
| दंड ७५ | १०० | ५०
·
भादर्शक : शहरी ऊंबे, सौ (१०० ) मनुष लम्बे और पचास (५०) धनुष प्रमाण विस्तारवाले हैं ।। २९ ।।
इन प्रासादोंके द्वारोंका विस्तारादिक
1
पासाब- दुवारेसु बारस चावाणि होति उच्छे हो । पक्कं छण्णासो लगाई तन्हि पत्तारि ।।३.०॥
दंड १२ । ६ । ४ ।
पासादा ||२६
इन प्रासादोंके द्वारोंमें प्रत्येककी ऊंचाई बारह ( १२ ) धनुष, विस्तार ह
(६) धनुष और अवगाव ( मोटाई ) चार (४) धनुष प्रमाण है ।। ३० ।।
पनवीसं बोणि सया, उच्छेहो दोहं ति-सय-पर्णा विहस्स स
होदि बेटु-पासावे ।
च विक्लभं ||३१||
तान बुवारुच्छे हो* वंजा छत्तीस" होदि अट्ठारस विमलसो, बारस जियमेन
दंड २२५ । ३०० | ११० ।
अर्थ : ज्येष्ठ प्रासादों में प्रत्येककी ऊँचाई दो सौ पच्चीस ( २२५ ) धनुष, लम्बाई तीन सौ (३००) धनुष और विस्तार लम्बाईसे आधा अर्थात् एक सौ पचास (१५० ) धनुष प्रमाण है ।। ३१ ।।
प्रासादोंके द्वारोंका विस्तारादि
३.दी।
[e
पत्लेक्कं । अवगाढं ॥१३२॥
६ ३६ । १८ । १२ ।
अर्थ : ज्येषु प्रासादोंके द्वारोंमें प्रत्येक द्वारकी ऊँचाई नियमसे छत्तीस (३६) धनुष, विष्कम्भ अठारह (१८) धनुष और अनगाढ़ बारह ( १२ ) धनुष प्रमाण है ।। ३२ ।।
१. व. बाबासरिण । २.म.
४. ब. ब. बी
"
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तिलोयपम्पत्तो
[ गाथा : ३-३१ मध्यम प्रासादोंका विस्तारादिमसिम पासाबान, हवि *दिवस HEATER it gre's दोगि सथा बोहत, पोकं एकसयका ॥३३॥
दंड १५० । २०० 1 १००। प:-मध्यम प्रासादोंमें प्रत्येकको ऊँचाईडेढसो (१५० ) अनुव, लम्बाई दोसी (१००) धनुष और पौड़ाई एक सौ (१००) धनुष प्रमाण है ।। ३३ ।।
मध्यम प्रासादोंके द्वारोंका विस्तारादिचरबीसं पापानि, ताण दुपारेसु होवि रामबहो । बारस प्रट कमेन, बंश बिस्मार-अवगाढा ॥३४॥
___ दंड २४ । १२ । ८ । अपं:-इन प्रासावोंमें प्रत्येक द्वारकी ऊँचाई चौबीस धनुष, विस्तार बारह धनुष और अवगाड़ आठ घंनुप प्रभाव है।॥ ३४11
व्यन्तर नगरोंमा विशेष वर्णनसामन्म-वेत्त-पबलो, गम्भ-सबा-गार-आसण-गिहायो ।
गेहा हॉसि विदिता, बतर-पयरेस रम्मयरा ॥३५।।
पर्व: व्यन्तरनगरोंमें सामान्य गृह, सत्यपह, कदलीग्रह. गर्भगृह, मतागृह, नाटकगृह और आसनगृह, ये नानाप्रकारके रम्य ग्रह होते हैं ।। ३५ ॥
मोप-'मरण-ओलग-वण-अभिय-गबणाच पि ।
भागाविह-सालाओ पर-रयण-विमिम्मिरा होति ।।१६॥
प्रम:--(उन नगरोंमें } उसम रत्नोंसे निर्मित मैथुनवाला, मनमासा, मोलाणाला, बन्दनशाला, अभिषेकशाला और नृत्यमासा, इसप्रकार नानाप्रकारको पालाएं होती है ॥ ३६॥
१. व. मखम मोलंग, व. मंण उलन, F.. मेरल लग ।
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"}]
७५ प
१०. धनुष
१० अनुम
१२ धनुष
६ मनुष
अनुर
१०० मनुष
३०० धनुष
१५० धनुष
३६ मनुष
१८ मनुष
१२ धनुष
१५० भुष
२०० धनुष
१०० दिनुप
२४ धनुष
१२ धनुष
● न
-
ऊँचाई
लम्बाई
चोड़ाई
ऊँचाई
लम्बाई
अষपाड
ऊँचाई
सम्बाई
चोड़ाई
ऊँचाई
सम्बाई
बगड़
ऊंचाई
सवाई
चोदाई
ऊंचाई
सम्बाई
जमनाद
त्यो महादिवारो
म प्रासादों को
उनके द्वारों की
ज्येष्ठ प्रसावों की
उनके हारों को
मध्यम प्रासादों की
उनके द्वारों की
(वा २९ से ३४
लघु-क्येष्ठ एवं मध्यम प्रासाओं तथा उनके द्वारों का प्रमाण
तासिका २
मार्गदर्शक :-- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
तालिका :
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१२] तिलोयाणासी
[ गापा ३५-४१ प्रासादोंमें अवस्थित आसनकरि-हरि-सुरु-मोरानं, प्रयर-वालाणं गहर-हंसाणं ।
सारियाई तेस', रम्भे आसणाणि असे ॥१७॥
प्रपं:-उन रमणीय प्रासादोंमें हाथी, सिंहः शुक, मयूर, मगर, ग्याल, गरुड़ और हंसके सदृश ( बाकारवाले ) आसन रखे हुए हैं।। ३७ ।।
प्रासाद स्थित सल्माएंवर-रयग-बिरदवाणि, प्रषित-सयणाणि मज-पासाई ।
ऐहति मंदिरेस, वोमास-टियोषषाणामि ॥३॥
पर्व:- महलोंमें उत्तम रत्नोंसे निमित, मृदुल स्पर्शवालो और दोनों पार्श्वभागोंमें तकियोंसे युक्त विषिष शय्याएं शोभायमान हैं।॥ ३८ ||
व्यन्तर देवोंका स्वरूपवायसवा मी "सुगम-णिसासा |
बर-विविह-भूसमपरा, रवि-मंडन-सरिस मर-सिरा ॥३६।। रोग-अरा-परिणीणा, पसेकं बस-चणि उत्तुंगा।
वतर-वा तेस, सहेण कोवि मच्छवा ॥४०॥
घर्ष: स्वर्ण सहया निलेप, निसंस कान्तिको धारक, सुगन्धमय निश्वाससे युक्त, उत्तमोतम विविध आभूषाशोंको धारण करनेवाले। सूर्यमण्डलके समान श्रेष्ठ मुकुट धारण करनेवाले, रोग एवं जरासे रहित और प्रत्येक दस अनुप ऊो व्यन्तर पेष उन नगरोंमें सुखपूर्वक स्वछन्द क्रीड़ा करते है ॥३-४.॥
व्यन्तर नगर अकृत्रिम है"जिममंदिर-अत्तार, विषित-विन्यास भवच पुग्नाई।
सामर्द अट्टिमाई, पेतर-मराणि रेहति ॥४॥
प्र:-जिनमन्दिरोंसे संयुक्त बोर विभित्र रघनावाले भवनोंसे परिपूर्ण वे अकृत्रिम व्यन्तर-नगर सदवाभोभायमान रहते हैं ।।४१ ॥
२..ब. क. प्रातिरा, ब. मालमिरा ।
१. द. ब. क. प. एिकहो. च, शिवसेदो। ..... क. प्रीपेक्षा, प. बानरम 1
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गाया 1 ४२-४७ ]
चमो महाहियारो
जम्बूद्वीपके विजयाधिक चार द्वारोंका निरूपण -
अवंत- मनराजिर्वच गामेहि ।
विजयंत-वेद्यतं, छत्तारि दुबाराई,
अंबी
म:-जम्बूद्वीपकी चारों दिशाओं में विजयन्त ( विजय ), वैजयन्त, जयन्त और अपरा जित नामवाले बार द्वार हैं ।। ४२ ।।
चज-विसासु ं ।।४२।। .
पुष्प -विसाए विजयं वक्त्रिण- प्रासाए बड़जयंतम्मि । ... भवरानिवद
अबर-विसाए
केन जयंत
कान
भ्रम :- विजयद्वार पूर्व दिशामें वैजयन्त दक्षिण दिशामें जयन्त पश्चिम दिशामें और अपराजिस द्वार उत्तर दिशा में है ।। ४३ ॥
एवाणं दारागं, पोक्कं अष्टु जोयना उदओ । उच्छेद्धवं होदि प्रवेसो वि बास- समो || ४४||
८ । ४ । ४ |
अर्थ:
1:- इन द्वारोंमेंसे प्रत्येक द्वारकी ऊँचाई आयोजन, विस्तार ऊंचाई बाधा
( चार योजन) और प्रवेश भी विस्तार के सदृश चार योजन प्रमाण है ॥ ४४ ॥
[ १३
वर- वज्ज-कबाड-जुबा, नानाविह रयण-वाम- रमणिका ।
"च्छिण
रलिज्जते
अंतर-वेहि
घडवारा ||४५ ।।
अर्थ :- वज्रमय उत्तम कपाटोंसे संयुक्त और नानाप्रकारके रत्नोंकी मालाओंसे रमणीय ये चारों द्वारा व्यन्तर देखोसे सदा रक्षित रहते हैं ।। ४५ ।।
द्वारों पर स्थित प्रासादोंका निरूपण -
वारोयरिमपएसे परोक्कं होंति दार पासादा । सत्तारह-भूमि-बा *मानावरमत्तवारणवा ||४६ || दिपंत-रयन-बीचा विविध-वर-सालभंजि- "अत्यंभा । 'घुध्वंत-षय-बडाया, विविहालेक्सेहि रमणिका ॥४७॥
...जयं
उप । ३ उ. शिक्षण । 1. T. L. 6. 7. I, govja i
परान उ. जयंत मपराजयं च । २. व. व. उच्छे पट्ट. प. प. उ. YER, ET, EKLAT I 1. 4. 5. T. T. MINI, T, J. BILLI ७. म.प्र. भेदे ।
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१४]
तिलोत
कार्यक -- आवर्य श्री की काळ
'संबंत- रयण-माला, समंतयो विविह-धूम-धड-जुता 1 बैबाहि भरिया, पट्टसूत्र-पहुति कय-सोहा ||४६|| :- प्रत्येक द्वारकै उपरिम भाग सत्तरह भूमियोंसे संयुक्त, अनेकानेक उत्तम बरामद से सुशोभित, प्रदीप्त रत्नदीपकों से युक्त, नानाप्रकारकी उत्तम पुतलिकामोंसे अंकित स्तम्भोंबाले सहलहाती ध्वजापताकाचोंसे समन्वित, विविध आलेखोसे रमणीय, लटकती हुई रत्नमालानोंसे संयुक्त सब ओर विविध धूप घटोंसे युक्त, देवों एवं अप्पराओंसे परिपूर्ण और पट्टांशुक ( रेशमीवस्त्र } प्रादिसे शोभायमान द्वार प्रासाद है ।। ४६-४८ ॥
उह-बास-पदसुदारम्भवगाण बेतिया संज्ञा । तम्परिमाण परूवण-हवएसो
[ गरबा ४८-५२
:-द्वार-भवनोंकी ऊँचाई तथा विस्तार आविका जितना प्रमाण है, उस प्रमाणके प्ररूपणका उपदेश इस समय नष्ट हो चुका है ।। ४९ ।।
गोपुरद्वारों पर जिनबिम्ब
सोह्रासण- छततय-भामडल- चामरादि-रम निम्मा ।
रथनमपा विण-पडिमा गोउर-वारेषु रेहति ॥५०॥
संपि मट्ठो ॥४६॥
अर्थ :- गोपुर-द्वारोंपर सिंहासन, तीन छत्र मामल और चामरादिसे रमशीय रत्नमय जिन प्रतिमाएँ सोभायमान हैं ।। ५० ।
जम्बूद्वीपको सूक्ष्म परिधिका प्रमाण
ससि वीचे परिही, लक्ष्माणि तिम्मि सोलस-सहस्सा । जोयण-सयाणि दोणि य, सत्तावीसावि-रितानि ॥५१॥
१. नंतर माणुसता २. ड. ब. क.अ. य.
जो ३१६२२७ ।
सयं गंगा ।
पावूनं जोयमयं भट्ठावीसुतरं हिकू-हत्वो "त्मि, हवेदि एक्का बिहवी व ।। ५२ ।।
जो 1 वं १२८ ० ० । १ ।
५. द. हिदी को हिंदी
व रु. अ. वरमालासमेता व वरवासा तठायो रा..... भविया ४. प. स. घोसव. क. हवेदी एको बिहंदीई व रात्यि मेदो एकी
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चस्प महाहियारो
पावद्वाणे सुणं, अंगुलमेमकं तहां जया पंच । rest जूनो 'एक्का सिक्कं कम्मक्लिबीन धम्मासं ।। ५३ ।। जू १ लि. १ क वा ६
पा० । अं १ । ज ५
गाना : ५३-५६ ]
सुष्णं जहन्न-भोगक्त्विरिए मजिभल्ल भोगनमीए । सत्त चिचय बालग्गा, पंचतम भोग खोणीए ॥१४४॥
0 15 14 1
एक्को तह रहरेणू, तसरेणू तिष्णि णस्यि तुरे यो विपातयतिथि प
१ । ३ । ० । २ । ३ ।
परमाणू य अचंताणंता संखा हमेवि नियमेन । बोच्छामि सत्यमाणं, 'भिस्संवदि विद्विषादावो ।। ५६ ।।
।।।।
:- जम्बूद्वीपकी ( सूक्ष्म ) परिधि तीनलाब, सोलह हजार दोसौ सत्ताईस योजन, पाहून एक योजन ( तीन कोस ), एकसी अट्ठाईस धनुष किष्कु और हाथके स्थान में शून्य एक वितस्ति, पादके स्थान में शून्य, एक अंगुल, पांच जो एक यूक, एक लौख, कर्मभूमिकं यह बाल, जयन्य भोगभूमिके वालोंक स्थानमें शून्य, मध्यम भोगभूमिके सात बालाय, उत्तम भोगभूमिके पाँच बाखाग्र, एक रथरेणु, तीन त्रसरेणु, शुटरेणुके स्थान में हून्य दो सप्तासन, सोन अवसन्नासत्र और अनन्तानन्त परमाणु प्रमाण है । दृष्टिबाद अङ्गसे उसका जितना प्रमाण निकलता है, वह अब कहता हूँ ।। ५१-५६ ॥
१. रु. ब. य. उ. एक्को । सथि । X. . . . ggjar
{ **
विमोचार्थ :- जम्बूद्वीपका व्यास एक लाख योजन है । इसी अधिकारकी गापा ६ के नियमानुसार ४ १ ला X १ लाख ×१०= परिधि । अर्थात् / १००००० x १०००००x१०= १००००००००००० परिधि । इसका वर्गमूल निकालनेपर ३१६२२७ योजन प्राप्त हुए और यो अवशेष रहे। इनके कोस एवं धनुष आदि बनानेके लिए अंगामें क्रमश: कोस तथा धनुष भादिका गुणा कर हरका भाग देते जाना चाहिए। यथा - ४१००००००००००००
२. अ. ब. कही । २. . . . . य. लिंग ६.ब.क. ब. रिंगसंसिद
४. रु. अ. म. ३.
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१६]
३१६२२७ योजन |
Hd parde
०
1। ५७ ।।
तिलोत
४८४४७१ (४ कोम ) ६३२४५४
-३ कोस ।
१८९६३६४ (८ स० }. ६३२४५४
'४० ५२२ ४ (२०० ४० ) _ ६३२४५४
-२ सनासन्न और
३ अबसनासन्न प्राप्त हुए। अर्थात् जम्बूद्वीपकी परिधि २१६२२७ योजन, ३ कोस, १२८ धनुष, किष्कु ० हाथ, १ वितस्ति, ० पाद, १ अंगुल, ५ जो ११ लीख ६ कर्मभूमि के बाल, ० ज० प्रो० के बाल ७म० मोठं के बाल, ५ जलम भो० के बाल, १ रपरेणु. ३ त्रसरेणु, त्रुटरेणु, २ सनासन, ३ व्यवसनासन्न और तेच प्रमाण है। यह शेष अंश अनन्तानन्त परमाणुओंोंके
स्थानीय है।
[ गाथा ५७-५८
१२८ धनुष
२५४५६० x ( ८४ भव० ) _ ६३२४५४
तेवीस सहस्साणि, 'केन्नि समानि च तेरसं सा । हारो एक्कं सक्तं, पंच सहमति च सवाणि नवं ।। ५७॥ "आता श्री शुद्धी
नोट :- संदृष्टिका व अनन्तानन्तका सूचक है ।
उपर्युक्त अंशका गुणकार -
!.. farby
13513 १०५४०५ ख
अर्थ:-तेईस हजार दोसौ तेरह अंश और एक लाख पाँच हजार चारसो नी हार
एवस्संसस्स पुढं गुणगारी होहि तस्स परिमाणं । अनंतानंत परिभास - कमेण उपपन्नं ॥ ५८ ॥
जान
अर्थ :-- इस अंशका पृथक गुणकार होता है । उसका परिमारण परिभाषा क्रमले उत्पन्न अनन्तानन्त ( संख्या प्रमाण ) जानो ।। ५८ ॥
विशेषार्थ :- जम्बुद्वीपको सूक्ष्मपरिधिका प्रमाण योजन. कोस, घनुष आदिमें निकास लेनेके बाद ( गाया ५७ के अनुसार ) ३३३३२ अंश अवशेष बचते हैं। इनका गुणकार अनन्तानन्त है । अर्थात् इस अवशिष्ट अंशमें अनन्तानन्त परमाणुओं का गुणा करके पश्चात् परिभाषा क्रमके अनुसार योजन, कोस, धनुष, रिक्कू एवं हाथ भादि से लेकर भवसन्नासन पर्यन्त प्रमाण निकाल
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गामा : ५६-६१ ]
महाहियारो
[ १७
लेने के बाद अवशिष्ट ( स ) रावि अनन्तानन्त परमाणुओं के स्थानीय मानी गई है । यदि मूल राशि अनन्तानन्त परमाणु स्वरूप न मानी जाय तो अवसिष्ट अंग को अनन्तानन्त स्वरूप नहीं कहा जा सकता। इसीलिए गाया में " एवस्संसस एवं गुणगारा कहा गया है।
णतणत
En
अंक-कर्म
जम्बूद्वीप के क्षेत्रफलका प्रमाण
जोयणया,
- नवम-सत्तो व । irture लेतफलं ।।४५६।।
| ७६० *६६४१५० ।
अर्थ : – शून्य, पांच, एक, चार, नौ, छह, पांच शून्य, नौ और सात अंकोंको क्रमसे रखनेपर जितनी संख्या हो उतने योजन प्रमाण जम्बुद्वीपका क्षेत्रफल मिलता है ।। ५६ ।।
विशेवा :- "विक्थंभ उभागप्पा सा होदि सफल" गा० परिषिको व्यासके चतुर्थांशसे गुणा करने पर वृत्तक्षेत्रका क्षेत्रफल निकम आता है ।
१. ब. स्पेस क्र. इल्मे । उ ए
अधिकार ४ । अर्थात्
-731742
जम्बूद्वीपका व्यरस १ लाख योजन और परिधि ३१६२२७योजन प्रमाण है ! अतः गाया के अनुसार ३१६२२७३३०००=७६०५६७५००० १०० योजन अर्थात् ७९०५६६४१४०योजन जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल हुआ । इस गाथामें केवल ७६०५६९४१५० योजन दर्शाये गये हैं शेष योजनों के कोस एवं धनुष आदि आगे दर्शाये जा रहे हैं।
एक्को कोसो दंडा, सहस्समेकं वेदि पंच-सया । लेबन्नाए सहिया, कि-हस्थेस' सुन्नाहं ॥१६० ।।
को १ । ६० १५५३ | ० ॥ ० ॥
एमका होगि बित्यो, सुनं पावन अंतु एक्कं । जब एक-तिय जूवा, लिमखाओ तिमि भावव्या ॥ ६१ ॥
१।० । ११६ । ३ । ३१
२. . . क. ज. उ. य. मोदमि
1
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१८ ]
तिलोयपणती
[ गाथा : ६२-६५ कम्मं सोनीम कुरे, वासम्मा अबर-भोगभूमीए । सत्त हबते' भक्झिम भोगसिवीए वितिणि पुरं ॥३२॥
२१७ । ३ । उत्तम भोग-महोए, बालासर होति झाला FrtsrESEAREST xxx रहरे। तसरेणू, बोणि तहा तिमि तुररे ॥६३।।
सतय तमासगा, ओसण्णासन्णया तहा एपको । परमाणून 'अगंतागंता संखा इमा होवि ॥६॥
७। । पर्च:-एक कोस, एक हजार पाँचसौ तिरेपन धनुष, किष्क और हापकै स्थानमें शून्य, एक वितस्ति, पादके स्थानमें शून्य, एक अंगुल, सह जो, तीन यूक, ३ तौल, कर्मभूमिमे दो बाला, जघन्य मोगभूमिके सात बालान, मध्यम भोगभूमिके तीम बालाग, उत्तम भोगभूमिके सात वासा, पार रपरेणु, दो सरेणु, तीन टरेणु, सात सप्तासन्न, एक भवसत्रासन्न एवं अनन्तानन्त परमाणु प्रमाण, इस जम्बूदीपका क्षेत्रफल है ।।६०-६४।।
सिवान:-गापा ५९ के विशेषार्थ में ७६०५६१४१५० योजन पूर्ण और योजन अवषिष्ट, जम्मूद्वीपका क्षेत्रफल बतलाया गया है। इस अवशिष्ट रामिके कोस भादि बनाने पर (AAHREE )=१ कोस, (NRN )=१५५३ घनुष, इसीप्रकार किष्कु ., हाप ., विसस्ति १, पाद , अंगुल है, जो ६ ३, सौस ३, कर्मभूमिके बाल २, प. मोगा के बाल ७, मध्यम भोग० के ३ बाल, उत्तम भोग के ७ बाल, रयरेणु ४, प्रसरेणु २, टरेणु ३, सन्त्रासन ७ पोर अवसत्रासम्म प्राप्त हुए तपास अंश मेष रहे जो अनम्तानन्त परमाणुओके स्थानीय है।
महप्तास'-सहस्सा, पणवत्तायउत्सवा घंसा । हारोएपक सावं. पंच सहस्सानिपज सपा गवयं ॥६५॥
१. ज.प्ति । २. क.
उ. पणतोता। .क.पा. स. पलास ।
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गाया : ६६-६८ ] चउत्पो महाहियारो
[ १९ प्र:-अड़तालीस हजार चार सो पक्षपन अंश और एक लाख पाच हजार पारसी नौ हार है ॥६५॥
विवा:-अम्बुद्वीपकी परिधिको व्यास से गुरिंगत कर योजन, कोस, धनुष ........ सन्नासन और भवसमासन्न पर्यन्त क्षेत्रफल निकाल लेनेके शद स राशि अवमेष रहती है जो अनन्तानन्त परमामुओके स्थानीय है। .....
Hamara:.. Fr i HERE ARE
___ उपयुक्त अंशका गुणकारएक्स्ससस्स पुर्व, गुनगारो होरि तस्स परिमाणं ।
एस्म अणंतारणतं, परिभास-कमेण उप्पन्न ।।६६॥ मर्ष:-इस अंदाझा पृपक् गुणकार होता है । उसका परिमाण परिभाषा क्रमसे उत्पन्न यह अनन्तानन्त प्रमाण है ॥६६।।।
विवा:-जम्बूद्वीपके सूक्ष्म क्षेत्रफलका प्रमाण योजन, कोस, धनुष मादि में निकाल लेने के बाद ( गा० ६४ के अनुसार ) अंश अवशिष्ट रहते हैं। इनका गुणकार अनन्तानन्त है। ( शेष विशेषार्थ गाथा ५८ के विशेषार्थ सदृश ही है।)
विजयादिक द्वारोंका अन्तर प्रमाण
सोलस-शोषण होणे, जंबूवीवस्त परिहि-मझम्मि । शरंतर-परिमागं, बर-भणिये होषिकं ला ॥६७।।
भयं: जम्द्वीपको परिधिके प्रमाणमेसे सोलह पोजन कम करके मेष चारका भाग देनेपर जो लब्ध माये वह द्वारोके मन्तरालका प्रमाण है ।।६७॥
जगवी-बाहिर-भागे', दाराणं होषि मंतर-पमाण । उमसीमि-सहस्साणि, नावाणा जोयगाणि अदिरेगा ॥६॥
७६०५२।
१.६.व.क. स. प. उ. भागो।
२. स. मषिरोगा ।
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२०]
पिण्यास
सत सहस्ताणि धणू, पंच-सर्यााणि च होति बत्तीसं । तिष्णि-विय 'पब्वाणि, तिम्णि जबा किंचिदविरिता ॥६६॥
७५३२ । ३ । जो ३
अर्थ :- जगन के बाह्य भागमें द्वारोंके अन्तरालका प्रमाण उन्यासी हजार बावन बत्तीस ( ७५३२ )
(७६०५२) योजनले म है । ( इस
प्र
सेफ
धनुष, तीन अंगुल और कुछ अधिक तीन जो है ।।६८-६९ ।।
[ गाथा : ६९-७०
विशेषार्थ : - ( गाथा ५१ से ५६ पर्यंन्त ) जम्बूद्वीपको परिधि ३१६२२७ योजन, ३ कोस, १२८ धनुष आदि कही गई है। इसमेंसे १६ योजन [ जगती में चार द्वार हैं और प्रत्येक द्वार चार योजन घोड़ा है ( गा० ४४ ), अतः १६ ० ] घटाकर चारका भाग देने पर जगतीके वाह्य भाग में द्वारोंके अन्तरालका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा - १११ = ७९०५२ योजन, ३ योजन अवशेष
३
यो० x ( ४ को ० ) + ३ = ३ कोस, अवशेष ३ कोस । ( ३x२००० ४०
L
Y
४
१५३२ धनुष पाय, ३ अंगुल,
o
वितस्ति,
अर्थात् ३ कोस १५३२ धनुष या ७५३२ धनुष, ० रिक्कू हाय ३, २ जू २ लीक, ३ कर्मभूमिके चाल, ४ ज० म० के बाल, १ म० भ० का जाल, ७ उ० भ० के बाल, २ रेणु, २ ० ६ टरेणु, सन्नासन्न एवं ४३ अवसभासन ब्यादि द्वारोंके अन्तरालमें अधिकका प्रमाण है ।
6
६०) + १२८
१. द. पंचा ४. य. गिस्य ।
जगतीके अभ्यन्तरभाग में जम्बूद्वीपको परिधि
जगवी - अभंतरए, परिही लक्खाणि तिष्णि जोयगया ।
सोल ससस्स - मि-सय-बाणा होंति किणा ॥७०॥
३१६१५२ ।
अर्थ :- जगत के अभ्यन्तर भागमें जम्बूद्वीपको परिधि तीन लाख सोलह हजार एकस बावन (३१६१५२) योजनसे कुछ कम है ॥७०॥
विशेवार्थ:- गाथा १६ में जगतीका मूल विस्तार १२ योजन कहा गया है। जो शेनों ओरका (१२x२= } २४ योजन हुआ। इन्हें एक लाख ब्यासमेंसे घटा देनेपर ६६६७६ यो० प्राप्त हुए ।
२. उभधिरितो, म.अधिरित य प्रविरिक्षा ३. क. सौ. मोड़
7
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गाथा : ७१-७२ ]
त्यो महाहियारो
[ २t
मर्यात् यह जगत का अभ्यन्तर व्यास दुधा। इसकी सूक्ष्म परिधि निकालने पर - ३१६१५१ योजन, ३ कोस, ६७० अनुष, १ रिक्कू, १ हाथ, ० वि०, १ पाद और अंगुल प्राप्त होते हैं, इसीलिए गाथामें परिधिका प्रमाण कुछ कम ३१६१५२ योजन कहा गया है ।
का
सम्फत
जगवी - अभ्यंतरए, दाराणं होदि अंतर-वमाणं । उणसी वि-सहस्सरण, वउतील जोयमाथि किचूर्ण ॥ ॥ ७१ ॥ ।
७६०३४ ।
अर्थ :- जयसीके अभ्यन्तरभागमें द्वारोंके अन्तरालका प्रभाग उन्यासी हजार चौतीस ( ७९०३४ ] योजनसे कुछ कम हैं ||१||
और
विशेष :- जम्बूदीपकी जगतीके अभ्यन्तर भाग में परिधिका प्रमाण कुछ कम ३९६१५२ योजन अर्थात् ३१६१५१ योजन ३ कोस, ९७० ० १ रिक्कू १ हाथ ० वि०, १ पाद अंगुल कहा गया है। द्वारोंका विस्तार ४-४ योजन है, अतः अभ्यन्तर परिधिके प्रमाणसे १६ यो घटाकर चारका माग देने पर कुछ कम ७६०३४ योजन अर्थात् ७९०३३ यो०, ३ कोस, १७४२ धनुष, १ रिक्कु ० हाय १ वि० अंगुन प्रत्येक द्वारके अन्तरालका प्रमाण है ।
पद और
"
जीके वर्ग एवं धनुपके वर्गका प्रमाण
विसंभल- कवोओ, मिगुणा वट्टे दिसंतरे दीवे ।
जीवा वग्गो पन-गुण-चज भजिये होति 'षणू- करणी ||७२ ||
अर्थ :- विष्कम्भके आके वर्गका दुगना, वृत्ताकार दीपकी चतुर्थांश परिषिरूप धनुषको जौबाका वर्ग होता है। इस वर्गको पचिसे गुणाकर चारका भाग देनेपर धनुषका वर्ग होता है ।। ७२ ।।
विशेवार्थ :- जम्बूद्वीपकां जगतीको चारों दिशाओं में एक-एक द्वार है। एक द्वारसे दूसरे
द्वार तकका क्षेत्र धनुषाकार है, क्योंकि पूर्व या पश्चिम द्वारसे दक्षिण एवं उत्तर द्वार पर्यन्त जगतीका जो प्राकार है वह धनुष सहा है और मभ्यन्तर भाग में एक द्वारसे दूसरे द्वारपर्यन्तके क्षेत्रका आकार धनुषकी डोरी अर्थान् जीवा सहवा है ।
१. शुक्करणो ।
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पर्म :- आई श्री हिमपात
२२ ]
[ गाथा : ७३
जम्बूद्वीपका विष्कम्भ १००००० योजन प्रमाण है, इसके अर्थ भामके वर्गका दुगुना करने पर जो लब्ध प्राप्त होता है, वही द्वीपकी चतुर्थांश परिधिरूप जीवाके वर्गका प्रमारण है तथा इस वर्गका वर्गमूल जीवाका प्रमाण है। जीवाके वर्गको पाँचसे गुरिंगतकर चारका भाग देनेपर धनुषका वर्ग और इसका वर्गमूल धनुषका प्रमाण है ।
Sin
जीवा और धनुषका यह प्रमाण ही द्वारोंके अन्तरालका प्रमाण है जो गाथा ७३-७४ में दर्शाया जाएगा ।
जीवा के वर्गका एवं जीवाकर प्रमाण
( 190,००० = ५०००० ) x =५००००००००० जीवका वर्ग ४००००००००० ७०७१० योजन, २ कोस, १४२४ धनुष, १ रिक्कू, १ हाथ, १ वि०. १ पाद और अंगुल जीवा का प्रमाण है।
धनुषका वर्ग और धनुषका प्रमाण
५०००००००००४५=६२५००००००० धनुषके वर्गका प्रमाण ।
६२५००००००० ७९०५६ यो०, ३ फोस एवं १५३२० धनुष अथवा ७६०५६ योजन और ७५३२०४६६ धनुष, धनुषका प्रमाण है ।
मोह :-गाथा ३४ का विशेषार्थं दृष्य है ।
विजयादिक द्वारोंके सीधे अन्तरालका प्रमाण ---
सतर- सहस्स ओमण, सत-सया बस बुढो प प्रविरितो जगदी-मंतर, बाराणं शिशु-सन- विस्वासं ॥७३॥
जो ७०७१० ।
अर्थ :- जगतीके अभ्यन्तरभागमें द्वारोंका ऋजु स्वरूप अर्थात् सौधा अन्तराम सत्तर हजार सातसी दस योजनोंसे कुछ अधिक है ||७३॥
विशेषार्थ :- यहाँ ७०७१० योजनसे कुछ अधिकका प्रमाण २ कोस, १४२४ धनुष, १ रिक्कू, १ हाय १ वि० १ पाद मोरगुल है ।
1. ज. दिष्वासं ।
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गाया : ७४ ]
महाहियारो
उपसौवि-सहस्सामि, छप्पन्ना जोयमाथि दंडाई । सत-सहत्सा पद्म-सम-यतीला होंति किचूना' ॥७४॥ जो ७९०५६ । दं ७५३२ ।
[ २३
अर्थ :- विजयादि द्वारोंका अन्तराल उन्यासी हजार, छप्पन योजन और सात हजार बत्तीस धनुष है जो कुछ कम है ।। ७४ ।।
विशेषानं :- जम्बूद्वीपकी परिधि ३ भागका प्रमाण हो द्वारोंके अन्तरालका प्रमाण है । जो ७६०५६ योजन, ३ कोस १५३२४६ धनुष है। अर्थात् द्वारोंका अन्तराल ७९०५६ योजन ७५३२ धनुष, रिक्कू ० हाथ ० वि००, पाद १ अंगुल १ और जो ४
प्रमाण प्राप्त हो रहा ६०५६ यो० ७५१२ धनुषसे
है । किन्तु ग्राथ में किचणा वृद्ध कुछ अधिक प्राप्त हो रहा है। बतएव "किचूणा" शब्दसे यह बोध लिया जाये कि गाया में दिया हुआ माप यथार्थ मापसे कुछ कम है ।
[ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिये ]
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२४ ]
तिलोयपणती
[ तालिका : ३
तात्रिका :
जमूद्वीपको परिषि, क्षेत्रफल तथा द्वारोंके अन्तरका प्रमाण
जगह
L.
...
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-
बाह्मभाग
मध्यान्तर चधमा
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|•| प्रमाण (माप) विषम परिसूक्ष्म विक्रम र
1. - 14
प्रमाण प्रमाण
रचना का प्रहरामारोहा रॉका
म नभम
भागमें बन-धानमें बारों यावा | स्या
गरीका अवडीपकी परिधि गा.st | गा. ६८-६५ मा...
बा.७२-७वा.७३-७४
योजन
१२२७
७९.५६१४१५. |७१.५२ | ११४१५१
७१.
३
७.३१.
१२० | १३ | १२
.
1१७४२
बनुष रिसकू
पार अंगुम
कर्मभूके
म.केवामान
अमरेनु अटरेण सत्रास
पासधा
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महाहियारो
मतान्तरसे विजयादि द्वारोंका प्रमाण
विजयादि बारानं, पंच-समा जोय नागि बिश्थारो । पत्तेक्कं उच्छे हो, सत्त स्थानि च पचास ७५ ॥
गाया : ७५ ७७ ]
जो ५०० । ७५० ।
अर्थ :- विजयादिक द्वारोंमेंसे प्रत्येकका विस्तार पांचसी ( ५०० ) योजन और ऊंचाई सातसो पचास (७५४) योजन प्रभारी है।
सी
नोट :- इसी अधिकारकी गाथा ४४ में विजयादिक द्वारोंमेंसे प्रत्येकका विस्तार चार योजन प्रमाण और ऊँचाई ८ योजन प्रसारण कहीं गयी है ।
मतान्तरसे द्वारोंपर स्थित प्रासादोंका प्रमाण ---
बावरिम-घरामं उच्हो बारि
वो दो जोषणानि पद्मकं ।
केई
एवं
जो २ । ४ १
पति ।।७६ ॥
[ २४
पाठान्तरम् ।
अर्थ :- द्वापर स्थित प्रासादों ( घरों में से प्रत्येकका विस्तार दो योजन और ऊँचाई चार योजन प्रमाा है, ऐसा भी कितने ही आचार्य प्ररूपण करते हैं ॥३६॥
पाठान्तर ।
नोट :- इसी अधिकारकी गा० २६ से ३४ पर्यन्त प्रासादोंके विस्तार आदिका प्रमाण इससे भिन्न कहा गया है ।
द्वारोंके अधिपति देवोंका निरूपण
एवेस वाराणं, अहिव-देवा' हवंति बेतरथा ।
जं नामा ते बारा, संजामा ते दिविला ।।७७।।
१. फ. उ. प्पति, ज. प. स. चितरया । ४.
धर्म :- इन द्वारोंके अधिपति देव व्यन्तर होते हैं। जिन नामोंके वे द्वार हैं उनके अधिपति ष्यन्तरदेव भी उन्हीं नामोंसे प्रसिद्ध होते हैं ||७७।।
1
पति य. परुषंति । २.प.व.क. ज. प. व. वैषो । रा. 3. रक्खादे व जादो।
६.ब. ०
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२६]
तिलोपती
द्वाराधिपति देवोंकी आयु आदिका निर्देश
एक्क- पलिदोषभाऊ, बस-दंड-समानन्तु ग वर ' नेहा । दिव्यामल-मन-धरा, सहिदा "देवी सहस्ते हि ॥७८ ||
अर्थ :- ये देव एक पस्योपम मायुवाले दस धनुष प्रमाण उन्नत उत्तम शरीरवाले दिव्य और हजारों देवियों सहित होते है ॥७८॥
विजयदेव नगरका वर्णन
वास्स उपरि-वेसे, विजयास पुरं हबेवि 'गयर्णान्हि ।
बारस सहस्स जोयण दीई
·
रामरस्मि । चरिमद्दालय |
-
·
१२००० | ६०००
अर्थ :- द्वारके उपरिम भागवर आकाशमें बारह हजार ( १२०००) योजन लम्बा और इससे आधे ६००० योजन ) विस्तार वाला विजयदेवका नगर है ॥७९॥
सटवेदीका निरूपण
उ-गोजर संजुत्ता, "त-वेदी सरि होदि कणयमहं । 'चरियट्टासय-चारू, दारोवार जिन धरेहि "रम्परा ॥८०॥
६. व. व.क. ज. य उ घरदेहा ।
४. ६.ब.उ.बार सहस्स
७. ६... उ. रमजारो ।
[ गाया : ७६-६१
तस्सद्ध विश्वंभं ॥७६॥
-
– उस विजयपुरमें चार गोपुरोंसे संयुक्त सुवर्णमयो तटबेदी है जो मार्गों एवं बट्टानिकालोसे सुन्दर है और द्वारोंपर स्थित जिन भवनोंसे रमणीय है ॥८०॥
·
विक्रमपुरस्मि बिचित्ता, पासादा बिविह-व्यन-कणमया । अमेय संतान सोहिल्ला ॥८१॥
समचररस्सा
वीहा,
·
:- विजयपुर में जनेक प्रकारके रत्नों और स्वर्णसे निर्मित, समचौरस, विशाल तथा अनेक आकारोंमें सुशोभित ऋद्र मुत प्रासाद हैं ।। ८१३॥
१. . . . . देहि । 1. T. 4. T. Wafa, #. ५. . . अ. म.उ. तर । ६. ६० परिमामय क.च.
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भाषा : ८२-६६
कु-सं-वचला, बर- पउमराम- सरिसा,
'ओसग्य मंत्र मूसण अभिसे उप्पत्ति- मेहुणावीनं । सालाओ विसालाओ, रयण-मईओ विराजति ॥ ८३॥
त्यो महाहियारो
मरगय-या सुवण-संकासा | विवित्सदन्तरा पढरा ||२||
L
प्रयं :- वे प्रासाद कुन्दपुष्प, चन्द्रमा एवं शंख सहय धवल, मरकतमरिण जैसे (हरित ) वर्णवाले, स्वर्णके सह ( पीले है, उत्तम उपचार मणियोंके सदृश (लाल ) एवं बहुतसे अन्य विचित्र चरणों वाल हैं। उनमें अलगशाला, मन्त्रशाला, आभूषणशाला, अभिषेकशाला, उत्पत्तिशाला एवं मैथुनशाला कादिक रत्नमयी विद्याल मालाएं शोभायमान हैं ।। ८२-८३ ।।
से पासावा सब्बे, विचित- यणसंड-मंडा रम्मा । विप्यंतरयण-दीवा, वर-द-घडेहि संजुत्ता ॥८४॥ सत्तट्ट - णव-वसाविव विधित मीहि नसिया विला । "वंत-पय-वडावा, प्रकट्टिमा सुठु सोहति ॥ ८५ ॥
उज्जल
म :- वे सब अकृत्रिम भवन विचित्र वनखण्डोंसे सुशोभित, रमणीय प्रदीप्त रत्नदीपोंसे युक्त, श्रेष्ठ रपटोंसे संयुक्त; सात, भाऊ, नो और इस इत्यादि विचित्र भूमियोंसे विभूषित विचाल फहराती हुई ध्वजापताकाओं सहित विशिष्टतासे शोभायमान है ।।८४-८५॥
i
पास-रस-वण-वर झणि गंधेहि "बहुविहेहि कर-सरिता । ल-विचित्त-बहुविह- सयभासण जिवह संपुष्णा ||२६||
[ २७
-
-
अर्थ :- अनेक प्रकार के स्पर्श, रस, वर्ण, उत्तमध्वनि एवं गन्धने जिनको समान कर दिया है। अर्थात् उनकी भपेक्षा जो समान हैं ऐसे वे भवन नाना प्रकारकी उज्ज्वल एवं श्रद्भुत शय्याओं एवं आसनोंके समूहसे परिपूर्ण हैं ।। ६६ ॥
९.व. पो. ज. प. उ. पोलंग, ब. पुन्नेव । २. उप
. जुतंतर परवाया 1
.. तर परकाया, क. अ. दिसं तरमरवाया. म. दिवसरपरदोषा । ४. क. विजेहि बिहेषि प. विहि च. विवेहि । ५. क. वि. म. प. उ.विष ।
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२८ ]
तिलोयपणती
जी
हावा परिवार परिगोगिन् । 'एवस्ति गमरवरे, बहुविहदेवी जुत्तो भुजबि, उपभोग-सुहाइ विजय ॥६७॥
:- इस श्रेष्ठ नगर में अपने अनेक प्रकारके परिवारसे घिरा हुया विजयदेव अपनी देवियों सहित सदा उपभोग सुखोंको भोगता है ॥८७॥
विशेवार्थ :- भोग और उपभोगके भेदसे भोग दो प्रकारके होते हैं। जो पदार्थ एक बार भोगने में आते हैं उन्हें भोग कहते हैं, जैसे भोज्य पदार्थ और जो बार-बार भोगने में आते हैं उन्हें उपभोग कहते हैं, जैसे शय्या भादि । देव पर्याय में उपभोग ही होते हैं क्योंकि उनके फवनाहार नादि नहीं होता ।
एवं अबसेसाणं, दारोबरिम-पते,
[ गाथा: ८७-१०
अन्य देवोंके नगर
रम्मानि ।
जेवरणं पुरखराणि नहम्मि जिणभषण-मुतानि ||६८ ||
: इसीप्रकार अन्य द्वारोंके ऊपरके प्रदेशमें अर्थात् ऊपर आकाशमें जिनभवनसि
युक्त श्रवशि देवोंके रमणीय उत्तम नगर है ॥८८॥
जगतीके अभ्यन्तर भाग में स्थित वनखण्डों का वर्णन - जगवीए अवसर भागे बे-कोस- वास- संजुता । भूमितले वनसंडा' वर - "तर- गियरा विराजति ॥ ६९ ॥
अर्थ :- जगतीके मभ्यन्तरभाग में पृथिवीतसपर दो कोस विस्तारसे युक्त और उत्तम वृक्षोंके समूहों से परिपूर्ण वनसमूह शोभायमान हूँ ।। ८२||
सं उज्जाणं सोपल छायं वर सुरहि-कुसुम-परिपुज्नं । दिव्यामोद-सुगंधं, सुर-सेयर-मिट्टण-मण-हरणं ॥०॥
R
पर्थ :- मीतल छायासे युक्त, उत्तम सुगन्धित पुष्पोंसे परिपूर्ण और दिव्य सुगन्धसे सुगन्धित वह उद्यान देषों और विद्याधर-युगलों के मनोंको हरण करने वाला है ॥६०॥
१.ब. क.अ. य. रा. एसि । २. ब. परिभदा । ३. ब. क.व.व.उ.विजयपुरी ४. ८. ब. क.अ. उ. येथे म. पवेसो । 1. . . . . 4. T. KI 1. T. T, K, T. 7. *.प., . उगु । ८. प. उ. परिपुग्दा परिपुष्
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चरथो महाहियारो
वन- वैदिकाका प्रमाण --
उज्जाण वणस्स वेरिया दिव्या । कंचन बर- रयण- गियरमई ॥ ६१ ॥
| जगदो समता ॥
प्रथं :- स्वर्ण एवं उत्तमोत्तम रत्नोंके समूहसे निर्मित उद्यान वनको दिम्य वेदिका दो कोस ऊंची और पाँचौ धनुष प्रमाण चौड़ी है ||६१ ॥
जगतीका
गाचा : ६१-१५ ]
मे कोसा उम्बिया, पंच-सय-वाद- द बर,
जम्बूदीपस्थ सात क्षेत्रोंका निरूपण
सस्सि जंबूदोगे, सत्त-स्विय होंति जणपत्रा पवरा । घरकुल-सेला विरामं ॥६२॥
'एवानं
7
विन्याले
हुआ विभाग की
[ २६
म:- उस जम्बूद्वीपमें सात प्रकार के श्रेष्ठ जनपद हैं और इन जनपदोंके अन्तरालमें छह कुलाल शोभायमान है ||२||
बक्लिन-विसाए भरहो, हेमवदो हरि- विदेह-रम्माणि ।
हेरनवेरावर वरिसा कुल - पव्वतरिदा ॥३॥
वर्ष :- दक्षिण दिशासे लेकर भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत बोर ऐरावत क्षेत्र कुलपर्वतो विभक्त है ||६३ ||
कप्पतद-वल-छत्ता, वर- उबवण जामरेहि 'बावतरा । वर-कुड कुबल, विचित-हवेहि रमनिका ॥६४॥ बर-वे-कविता, बहुरमुज्जल-गिरिह मउड परा । सरि-जल-पवाह-हारा, खेल-रिवा
बिराति ॥६५॥
म :1:- कल्पवृक्ष रूपी घवल छत्र एवं उत्तम उपवनरूपी चैवरोंसे प्रत्यन्त मनोहर, अद्भुत सुन्दरतादाले श्रेष्ठ कुण्डरूपी कुण्डलोंसे रमणीय, अनेक प्रसारके रत्नोंसे उज्ज्वल कुलपर्वतरूपी मुकुट,
१. ब. क. उ. एवाणि । २. . . . उ. भरो, परा
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तिलोयपत्ती
[ गाथा : ६६-१०१ उत्तम वेदीरूपी कटिसूत्र तथा नदियोंके जलप्रवाहरूपी हारको धारण करनेवाले भरतोत्रादि राजा सुशोभित है॥२४.६५11
जम्बूद्वीपस्थ कुलाचौंका निरूपणहिमवंत-महीहमवत-जननिसिहरिगिज मूलोबरि-समवासा, पुब्बावर जसहि संलग्गा ।।६६॥ एरे हेमामसवणिज्य - वेरुलिय - रबा-हेममया । एक-दु-बर-घउ-दुग-इगि-जोयण-सय-उदय-संसदा कमसो ॥१७॥
१०० । २०० । ४००। ४०० । २०० । १०० । अपं:-हिमवान्, महाहिमवान, निषघ, नील, रुवमी और शिश्वरी कुलपर्वत मूसमें एवं ऊपर समान विस्तारसे युक्त हैं तथा पूर्वापर समुद्रोंसे संलग्न हैं । ये छहों कुल एवंत क्रमशः सुवर्म, चांदी, तपनीय, वैष्ट्रयमरिण, रजत और स्वर्गके सहक्ष वर्णवाले सपा एकयो, दोसी, चारसौ, पारसी, दोसो मोर एकसौ योजन प्रमारण केंचाई वाले हैं 1१६-१७॥
कुनाचलरूपी राजाके विशेषण'वर-सह-सिवादबत्ता, सरि-चामर-
विचमानया परियो । कप्पतर-बार' विषा, बसुमा' - सिंहासनारूपा ॥६॥ वर-वेवी-करिसुत्ता, विविशुजल-रघण-कूट-मउग्धरा । लंबिव - बिजमारहारा, चंचल - तह - कुंडलाभरमा MEER गोउर • तिरीट - रम्भा, पायार - सुगंष-कुसुम-बामणा । सुरपुर-कन्ठाभरणा, 'वण-राणि-विचित्त-चस्व-कबसोहा ॥१०॥ "तोरण-कंकण - मुत्ता, 'बम्ब-पणालो-फुरत" केकरा । जिगर - मंदिर - सिलया, मूघर - रामा विराति ।।१०१॥
- --- -- -.-.. --- - - १.५, ब, पीसदि। २. ब. स. चवदेहि। १. प. ब. उ. परवा मिरा रता । ब.ब.क. बरवा हरिश रसा। ४........ सवि। .....क... भावसिा , बनारवि। ...... ब.ब. स. पसुहमहो। ७. प. उ. पररावि। ८. ६.ब. क. प. प. उ. नारिण। ... बरफमामी, य. पणखाला। ..इ.क.. प. उ. पुरंत ।
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सस
गाथा : १०२-१०४] घउत्यो महाहियारो
[ ३१ प: उत्तम ब्रहरूपी सफेद छत्रसे विभूषित; चारों मोर नदीपी पामरोसे वीज्यमान, कल्पवृक्षरूपी सुन्दर चिह्नों सहित, पृथिवीरूपी सिंहासनपर विराजमान, उत्तम दौरूपी कटिसूत्रसे युक्त, विविध प्रकारके उज्ज्वल रलोके कटरूपी मुकुटको धारण करने वाले निररूपी लटकते हुए हारसे शोभायमान, चंचल वृक्षरूपी कुण्डलोसे भूषित, गोपुररूप किरीटसे सुन्दर, कोटरूपी सुगन्धित फूलोंको मालासे अग्रभागमें सुशोभित, मुरपुररूपी कण्ठाभरणसे अभिराम, वनपंक्तिरूप विचित्र वस्त्रोंसे शोभायमान, तोरणरूपी कंकणसे युक्त, वय-प्रणालीरूपी स्फुरायमान केयूरों सहित पार जिनालफ्रूप सिलकसे मनोहर, कुसाचलरूपी राजा पत्यन्त सुशोभित है ॥९५-१०१॥
क्षेत्रोंका स्वरूप
पुब्बावरको दोहा, सस वि खेता बणाधि-विनासा। staterfirs ... लगिरि कय अमावास्यानो क्विकृत्तरतो ।।१०२॥
प्रपं:-(भरतादि) सातों ही क्षेत्र पूर्व-पश्चिम लम्बे, अनादि-रचना युक्त (अनादि-मिघन), कुलान्चलोसे सीमित और दक्षिण-उत्तरमें विस्तीर्ण हैं ।।१२।।
भरतक्षेत्रका विस्तारगावदी-जुद-सव-भजिदे, जंबूगोषस्स बास-परिमाणे ।
जं तसं तं , भरहल्लेत्तम्मि गायब्वं ।।१०३॥
पर्ष:-जम्बूदीपके विस्तार प्रमाण में एकमो नम्बैका भाग देनेपर जो लन्ध प्राप्त हो सतना भरतक्षेत्रका विस्तार समझना चाहिए ।।१०।।
अंच एवं कुलाचलोंकी शलाकात्रोंका प्रमाणभरहम्मि होडि 'एक्का, ततो दुगुना य खुल्स-हिमयते'। एवं बुगुणा' पुना, होदि "सलाया बिरहतं ।।१०।।
।१।२।४ । ८ । १६ । ३२ । ६४ ।
१. कब. स. उ. मनायो। २. म एक्को। .... उ. हिममंतो। ४. , पुण्णावणा, न. गुणा। 1. क. उ. सभामं, अ. समोय, म. सलीम।
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३२ ]
तिलोय पणती
अस ं सु विदेहायो, 'नीले जोला वु रम्मणो होषि । एराव खेल परितं ॥ १०५ ॥
एवं
अश्रद्धाज,
-
[ गाबा : १०५-१०६
। ३२ । १६ । ६ । ४ । २ । १ ।
:--भरत क्षेत्र में एक शलाका है, सूद्रहिमवानुकी इससे दूनी हैं इसीप्रकार विदेह क्षेत्र पर्यन्त दूनी दूनी शलाकाएं हैं। विदेह से अर्धलाकाऍ नील पर्वतमें और नीलसे अशलाकाएँ रम्यक क्षेत्र में है । इसीप्रकार ऐरश्वत क्षेत्र पर्यन्त उत्तरोत्तर अर्थ- अर्ध शनाकाएं होती गई हैं ।। १०४ - १०५ ।।
बरिसावीच समाया मिलिदे णउदीए अहियमेवक- सर्व ।
एता जुत्ती' हारस्स मालिवा"
आगुपुथ्वी ॥ १०६॥
अर्थ :- क्षेत्रशुतिकोको शलाकाएं मिलाकर कुल ६४३२, १६. ८,४,२१ ) एकसो नब्वे होती हैं। इसप्रकार अनुक्रमसे यह हार ( भाजक ) की युक्ति बतलाई गई है ।। १०६ ।।
=
क्षेत्र एवं कुलालोंका विस्तार
"
t
भाग- भजिवलिद्ध पन-सय-छोस- जोयणाणि पि । "छवि कलाओ कहिँदो, भरहन्सेसम्मि विश्वंभो ॥१०७॥
| ४२६६६ |
'वारसा गुण बढी अद्दोदो गुणुनिवो परो वरियो । जव बिरेहं होवि हू, ततो वद्ध-हाणीए ॥१०८॥ १०४२ २] २१०४, है | ४२१०६ | ८४२११६ | १६०४२९ | १३६८४ |
४
१. रु. ब. उ. को २. छ, य. लुखा । ५. क. व प. उ. प्रासिदो । ..... व. परिसा दुगुसमी मादीटों
५
१६८४२११ | ८४२११६ | ४२१०६ | २१० | १०५२६ | २६६ |
॥ एवं विष्णास समत्तो ॥
प. स. रम्मको ३.ब.उ.
६. ६
भाषा, क. य.दिना ।
। . . . . . J. MINĘ I परसाद्वीप।
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तालिका ४ ]
यो महाहियारो
[ ३३
म:-- जम्बूद्वीप के विस्तार ( १००००० यो० ) में एकसी मम्बेका भाग देनेपर पांचसो एम्बीस योजन भोर ग्रह कला ( ५२६१३ मो० ) प्रमाण भरतक्षेत्रका विस्तार कहा गया है। वर्ष ( क्षेत्र ) से दूना पवंत और पर्वतसे दूना आगेका वर्ष ( क्षेत्र ) । इसप्रकार विदेहक्षेत्र पर्यन्त क्रमश: दूनी- मी वृद्धि होतो गई है। इसके पश्चात् क्रमशः क्षेत्र पर्वत और पर्वतसे आगे क्षेत्रका विस्तार - भाषा होता गया है ।११०७ १०८।। तालिका : ४
11 इसप्रकार विन्यास समाप्त हुआ ||
क्रमांक
t
२
1
४
५
1
<
१.
it
१ एम्यक
दक्मि
१२
नाम
(1
मरस
हिमवान्
ईमच
महाहिमवान्
हरि
विध
विदेह
नीस
शिकारी
ऐरावत
क्षेत्र - कुलाचलोंके विस्तार आदिका विवरण (गाव ६७ और १०४ - १०८ )
ऊँचाई
१६०
क्षेत्र / पर्यत जमाकाएँ ।
क्षेत्र
पर्वत
ཝཱ་ཎྜཱ
पत
पर्वत
क्षेत्र
ཤཱ ཟྭ
क्षेत्र
पर्वत
तंत्र
पयंत
क्षेत्र
१
२
Y
८
૪
३२
t
६
Y
वर्ण
१६
12 सपनीय
१
स्व
सनाय सुवि
X
x
XX
चाँदी
X
X
x
दबत
x
R स्वर्ण
योजन
में
x
x
१०० ४०००००
x
x
मीनों में
X
X
X
४२११८४२१०५६
=४२१ हे | ३६८४२१०
४०० १६००००० १६८४२६७३६८४२१
X
x
X
१६८४१३४७३६८४९४
४०० १६००००० १६८४२२६७३६८४२१५
४२१६८४२१०
४२१० | १६८४२१०४ ते
२०४५ | -४२१०३२३३
1०५२२३४२१०५२
X
COOROP
x ! X
१०० ४०००००
योजनों में
x
विस्तार
मीसों में
५२६८ २१०
१०५२६३ | ४२१०५२६
२१०५नौ | ८४२१०५२
५२६
२१०५२६३२
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३४ ]
तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : १०६-११२
T: १०४-११२ भरतक्षेत्रस्थ विजयापर्वतको अवस्थिति एवं प्रमाण
भरक्खिबि-बहमरझे, विनयको णाम भूषरोतुगो । रजदमओ 'प?दि है. जाणावर-रपण-रमणिजो ॥१०॥ पणुबीस-जोयमबओ, 'यसो तद्गुण-मूल-विश्वंभो। उदय-तुरिमंस-गाहो, जणिहि-पुट्ठो ति-सेति-गयो ।।११०॥
२५ । ५० । २५
प्र:- भरतक्षेत्रके बहुमध्यभागमें नानाप्रकारके उत्तम रनोंसे रमणीय रजतमय विजयार्घ नामक उन्नत पर्वत विद्यमान है । यह पर्वत पच्चीस ( २५ ) योजन ऊँचा, इससे दूने भर्थात् पचास (५०) योजन प्रमाण मूल में विस्तार युक्त, ऊँचाईके चतुर्ष भाग प्रमाण । ६. यो.) नीव सहित, पूर्वापर समुद्रको स्पर्श करने वाला और तीन श्रेणियों में विभक्त कहा गया है ।।१०९-११०॥
विषयाका अवशिष्ट वर्णनबस-जोषणाणि उरि, गंतूणं तस्स बोसु पासेतु। विमाहराण सेतो, एक्केषका जोयणाणि दस ईवा ॥११॥
१०।
प्रम:-दस योजन ऊपर जाकर उस पर्वतके दोनों शवभागों में दस योजन विस्तार वाली विद्याधरों को एक-एक ग्रेणी है 1॥११॥
विजयवायामे, हवंति विमाहराण सेटीओ।
एकेका 'तसदेदो, गाणाबिह-सोरहि कपसोहा ।।११२॥
प्रचं-विजयापके मायाम-प्रमाण विद्याधरोंकी रिगया है तथा यहाँ नानाप्रकारके तोरणोंसे पोभापमान एक-एक तट वेदिका है ।। ११२।।
-.-.-
-... १. का. उ. रे?दि।
- -. -- . .-..--- २. प. प. क.ज.प. उ. जुत्ता। ३.क.ब.प. उ. तद।
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[ ३५
गापा : ११३]
पउत्यो महाहियारो मार्गदर्शक :- आचार्य श्री शुद्धिसागर जी महाराज
वस्लिम-विस सेडीए, पणास पुराणि पुजबर-विसम्मि'। उत्तर - सेडीए तह, गयरामि सहि बेहति ॥११॥
६५.। उ६०।
भर्ष:-पूर्वसे पश्चिम दिशाको मोर दक्षिण दिद्याकी धेणीमें पचास नगर और उत्तर दिशाकी श्रेणीमें साठ नगर स्थित हैं ।।११३॥
विजयाई पर्वत ,
Memorrowome
अभियोग्य देवों की श्रेणियाँ
IA विद्याधर नगरों
T
W
.
.
'
.AR AENIMIM-..
समय
-
पान
विशेषार्थ :-यह विनयाधं पर्वत पूर्व-पश्चिम लम्बा है । इसकी कुल ऊंचाई २५ योजन है। इसके दक्षिण दिशा स्थित तट पर विद्याधरोंके ५० नगर और उत्तर दिशागत तट पर १० नगर स्पित है।
१. य. बहसम्मि, व.क., म.उ. बहसिम 1
२...ब. खपराएं।
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३६ ]
म.उ.
भुबाई ं।
तिलोयपण्णत
श्री
faanist दक्षिणी स्थित नगरियोंके नाम
तन्याला किंणामिव किंणरगीवाह तह य भरगोवं । बहुकेदुरीया,
सीह
पर्मte :
गरुद्ध सिरिष्पह सिरिषर लोहणसा' *बइरग्गल - वइरड्डा, विमोचिया जयपुरी य
-
गामेण कामपुष्कं तह संजयंत- जरी,
लेमंकर- बंदाभा, चिच महाकूडाई
7
19
-
'समुह-बहमुह- अरजक्वयाणि विरजख-नाम-विश्वावं । रहनूजर मेलाग बेमंपुरावराजिदया ।। ११६ ॥
ततो
ܕ
८
१. प. ब. क्र. ज. प.च. मोयाबल । क. चंदन. प. मह 1.4.1. 5. 9. 4. J. ŽRKIT I
5
-
यमचरी विजयचरिय सुरकपुरी | जयंत-विजय-जयं
-
सराभ पुरुतमापुराई" सुखष्णकूजो तिकूडो
[ गाथा : ११४- ११९
सेवई ।।११४ ।।
अरिजयकं । सही ।। ११४ ।।
1
तसो बसवण्णकूर सूरपुरा ।
बचित - "मेहकूडा, चंद मित्तुजोयं विमुही तह निच्चवाहिणी सुमुही ||११||
1 € | 201
अर्थ :- उन नगरियोंके नाम- - फिनामित, निरगीस, नरगीत, "बहुकेतु, पुण्डरीक, सिंहध्वज, "वेतकेतु, 'गरुड़ध्वज, बागेल,
प्रम,
श्रीवर "सोहागंस
"अरिजय
२. . . . उ. ४. कृ. वय
॥११७॥
विचार
पि ।
य ।। ११८ ।
५
सदरंदा क. बश्याम ।
१. ६... भ. प. च.
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गाथा : १२०-१२४ ] पउत्थो महाहियारो
[ ३७ "वाय, “विमोषिता, ''जयपुरी, शकटमुली, "चतुर्मुख, बहुमुख, "अरजस्का, विरजस्का, सरपनूपुर, मेखलापुर, २ क्षेमपुर, "अपराजित, "कामपुष्प, गगनचरी, विजयवरी, ''शुक्रपुरो, "संजयंत नगरी, 'जयंत, विजय, वैजयंत, "समयूर, चन्द्राभ, "सूर्याभ, "पुरोत्तम, चित्रकूट, "महाकुट, "सुवर्णकूट, त्रिकट, विचित्रकूट, मेघकूट,
श्रवणकूट, ४"सूर्यपुर, चन्द्र, नित्योपोत, विमुखी, नित्यवाहिनी और मुमुखी, ये पचास नगरिया दक्षिण घेणी में हैं ।।११४-११६।।
एवाओ परीओ, पण्णासा बक्षिणा य सेढोए । विजयड्ढायामेचं, विरचिव पंतोए णिवसति ॥१२०।।
पर्ष:-दक्षिण थेणी में ये ( उपयुक्त ) पचास नगरिया है, जो विजया को सम्बाई में पंक्तिबद्ध स्थित है ॥१२०॥
विजयार्ष की उत्तरप्रेणीगत नगरियोके नाम--- 'प्रज्जुन-अहगो-कालास'-चारचोओ य विजुपह-जामा । किलकिल-शमणिय, ससिपह-साल-पुष्कधूलाई ॥१२१॥
णामेन हंसगम्भ, बसाहक-सिबंकराय सिरिसाउ' । बमरं सिवमविर-असमक्ला-सुमई ति गामा च ।।१२२॥
सिद्धायपुरं सलुजयं च गामेण केदुमालो सि । सुरवाकतं तह पगगणरणं पुरमसोगं च ॥१२॥
सत्तो विसोकय पीवसोक - अलकाइ-तिलक - णामं । अंबरतिसकं मंबर -मुरा के च गयणवल्लभयं ।।१२४॥
२. ब. क.बा.ब. न. कइसाये।
. द.क.ब.न.
१.२.३.क. उ. मंजुत, क. य. मजुल । ४. क. र. गवर्ण ।
स
।
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३८ ]
तिलोयपष्णाती
[ गाया : १२५-१२८ दिबतिलयं । भूमी, लिलयं गंधश्चपुर बरं ततो। मुसाहर - पइमिस - गाम 'तहग्गिजात • महमाता ॥१२॥
गामेण सिरिणिकर, जयावह सिरिनिवास-मनिषन्जा। "भहस्सा - अनंजय • माहिवा विजय • जयरं ॥२६॥
तह प समषिणि-वेरखबरा-गोपशीरफेणमक्सोभा । गिरिसिहर-घरगि-यारिणिधुग्गाई बुद्धरं सुसमर्थ ॥१२७।।
रपणामर-रयमपुरा, उत्तर मेडीस सहि नयरोमो । पियवायामे, विरचित पंसीए निवसति ॥१२॥
६.।
म:- अजुनो, अरुणी, कलास, बारुणी, पवियु प्रभ, "किलकिल, "चूममणि, विक्षिप्रम, पंचाल, "पुष्पचूल, हंसगर्भ, "बलाहक, "शिवकर, श्रीसोब, पमर, शिवमन्दिर, "मुमका, “वसुमती, "सिमार्थपुर, "शत्रुञ्जय, "तुमाल, "मुरपतिकान्त, "गाननन्दन, "मशोक, "विशोक, "वीतशोक, "अलका, “तिलक, "अमरतिलक, "मन्दर,
कुमुख, "कुन्द, गगनबस्लम, दिव्यतिलक, "भूमितिलक, "गन्धर्वपुर, "मुक्ताहर, "नैमिष, अग्निम्वाल, महास्वाल, "श्रीनिकेतन, जयावह, श्रीनिवास, मणिवण, भवाव, "धनम्बय, "माहेन्द्र, “विजयनगर, "सुगन्धिनी, वजादतर, "गोक्षीरफेन,
1. ४.. क. ज. प. प. व पणि । २. . . . पर। ३. स.ब. परंतदरा.........
प. ... ,, वोरपणमंत्रोभा। . , . , , महोभा।
क.
,,
साभा।
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गाथा : १२९-१३३ ] मोवाहाहियाताई
[Part “अक्षोभ, ५ गिरिशिखर, "घरणी, "धारिणी, "दुर्ग, "दुर्ब र, भुदर्शन, "रत्नाकर और
रत्नपुर ये साठ नगरियां उत्तरश्रेणीमें हैं, जो विजयादकी लम्बाईमें पंक्तिबद्ध स्थित ई॥१२१-१२८॥
__ विद्याधर नगरांका विस्तृत वर्णनविजाहर-जयरवरा, अणाइ-बिहणा सहावणिप्पण्णा ।
णाणाविह-रयणमया, गोउर-पायार-तोरणादि-सुवा ।।१२।।
प्रपं: - अनेक प्रकारके रलोस निर्मित गोपुर, प्राकार (परकोटा) और तोरणादिसे युक्त विद्याधरोंके वे श्रेष्ठ नगर अनादिनिधन और स्वभाव सिद्ध है ।।१२।।
चम्मरम-वग-समिशा, पोक्खरणी-व-विग्घिया-सहिदा ।
धुष्यत'-अय-वज्ञापा, पासावा ते च रयणमया ॥१३०।।
मई:-रत्नमय प्रासाद वाले वे नगर उद्यान-बनोंसे संयुक्त हैं और पुष्करिणी, कूप एवं दीपिकामों तथा फहरातो हुई ध्वजा-पताकानोसे सुशोभित हैं ।।१०।।
मानाबिह-जिणगेहा, विजाहर-पुर वरेसु रमणिया ।
वर - रवण • कंचनमया, 'ठाण • हरणेसु सोहंसि ॥१३॥
मय:-उन श्रेष्ठ विद्याधर नगरों में स्थान-स्थान पर रमणीय, उत्तमरत्नमय और स्वर्णमय नानाप्रकारके जिनमन्दिर शोभायमान है ।।१३।
वरणसंड-वस्थ-सोहा, 'वेदो-कारसुत्तएहि कंतिल्ला । तोरण-कप-बुत्ता,विजाहर-राय-भषण-पउडमरा" ।।१२।। मणिगिह-कंठाभरणा, बलंत-गेल - कुंडलेहि बुदा । जिणवर - मंदिर - तिलया, जयर-परिवा विराति ॥१३३॥
..-- - - -.- .. - . १.प. ब. क. उ. शुम्स्तरमवाय, ज. स. पुष्माण्यवसाया। ३. ८. स. म. न. साण । ३. द. बेदी वति। ५. द. कंघण। १, इ.स. क. प. य. र. मोरयाए।
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तिलोयपण्णत्ती
[ गाधा १३४-१३८
धर्म :- वन खण्डपी वस्त्रसे सुशोभित, वेदिकारूप कटिसूत्रसे कान्तिमान् तोरणरूपी कणसे युक्त, विद्याधरोंके राजभवन रूप मुकुटोंको धारण करने वाले, मणिगृहरूप कंठाभरणसे विभूषित, चंचल हिटोलेरूप कुण्डलोंसे युक्त और जिनेन्द्रमन्दिररूपी तिलकसे संयुक्त विद्याधरनगररूपी राजा प्रत्यन्त शोभायमान हैं ।। १३२-१३३ ।
४]
अर्थ :- नगरके बाहरी विशाल प्रदेश प्रफुल्लित कमल वनों, वापी समूहों तथा उद्यानवनसे मंडित होते हुए शोभायमान हैं ।। १३४ ।।
marta
भाषण श्री सुविधा
कल्हार-कमल- कुवसेय कुमुदुज्जलजलाह हत्या ।
विम्ब सडाया बिजला, तेसु पुरेसु बिरायति ॥ १३५॥
'फुल्लिव-कमल-वह बायो-रिवएहि मंडिया बिउला । पुर-बाहिर भाना, उमाण - वर्णोह रेहति ।। १३४||
अर्थ :- उन नगरों में कल्हार, कमल, कुवलय और कुमुदोंसे उज्ज्वल, जलप्रवाहसे परिपूर्ण अनेक दिव्य तालाब शोभायमान है ।११३५ ॥ ।
सालि-जमनाल - तुबरी-तिल-जब गोभ मास-पट्टवीहि सतहि भरिवाह, पुराइ
सोर्हति
सुमीहि ।। १३६ ।।
अर्थ :- शालि, यवनाल ( जुवार ) तूबर, तिल, जो गेहूँ और उदय इत्यादि समस्त उत्तम धान्यों से परिपूर्ण भूमियों द्वारा वे नगर पोभाको प्राप्त होते हैं ।। १३६ ।।
י
हि पंचमराय ।
·
बहुबिब-गाम-सहिश विरुव महामट्टणेहि रमनिज्जा
कम्बोजमुहि, संवाह नवंबएहि परिपुष्णा ॥ १३७॥
-
▾
रमजान "आयरे, 'विहसिया "पउमराय पहुदीचं । विश्व-नरेहि पुष्णा, धन धन समिति रम्मे ॥ १३८ ॥
-
-
·
अर्थ:- वे विद्याधरपुर बहुतसे दिव्य ग्रामों सहित विष्य महापट्टनों से रमणीय करंट, द्रोणमुख, संवाह, मटंब और नगरोंसे परिपूर्ण; पद्मरागादिक रत्नोंकी खानोंसे विभूषित तथा घनधान्यको समृद्धिसे रमरणीय है ।।१३७-१३८ ।।
L
१. द. न. ग. ज. प. उ. पुदि २.क.ज. उ. पत्रहरणाय विद्यते । ५. क.ज. प. उ. पापाहि । ६. क.प.उ. चिसि । द.न.क. प. प. उ.
यह
४. ६.व.
७. ५. . . . प. उ.
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गाथा : १३६-१४२ J
उत्यो महाहवारी
विद्याषरोंका वर्णन
'वेवकुमार सरिच्छा, बहुविह-विजाहि संजुदा पदरा ।
बिहरा मणस्सा, पाक: सोशाय
तिसवा
छ
१६
:--उल नगरोंमें रहनेवाले उत्तम विद्याधर मनुष्य देवकुमारोंके सहा अनेक प्रकारकी विद्यायो संयुक्त होते हैं और सदा छह कर्मोंसे सहित हैं ।। १३६ ।।
विसेवार्थ:- वे विद्याधर मनुष्य देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम तप और दान इन छह कमसे युक्त होते हैं तथा अनेक विद्याओंके मधिपति होकर प्रपनो विद्याधर संज्ञाको सायंक करते हैं ।
अच्छर सरिच्छ हवा, अहिणव लावण्ण- दोसि रमणिया ।
विज्जाहर वणिसाओ, बहुविह बिज्जा समिद्धाओ ॥ १४० ॥
-
-
-
वर्ष :- विद्याधरोंकी वनिताएँ अप्सरालोके सहया रूपवती, नवीन लावण्य युक्त, दीप्तिसे रमणीय और अनेक प्रकारकी विद्याओंसे समृद्ध होती हैं ।। १४० ।।
फुल-जाई बिज्जाओ, साहिय बिज्जा अनेय-मेयामो
विज्जाहर पुरिस पुरंधियाच' बर-सोमल मनजीओ ॥ १४१ ॥
-
[ ४९
-
अर्थ :- अनेक प्रकारको कुल विद्याएँ, जाति-विद्याएं और साधित विद्याएँ विद्याधर पुरुषों एवं पुरंधियों ( विद्यार्घारियों ) को उत्तम सुख देनेवाली होती हैं ।। १४१ ।।
विद्याधरकी श्रेणियोंका एवं उनपर निवास करनेवाले देवोंकर वर्णन -
रम्मुजाहि जुदा होंति हु बिनाहराण लेडीओ । जिणभवण सूसिवाओ को समरूद वणिषु समलं ॥ १४२ ॥
प्रय:- विद्याधरोंको श्रेणियाँ रमणीय उद्यानोंसे युक्त हैं और जिन्दभवनोंसे भूषित हैं। इनका सम्पूर्ण वर्णन करनेमें कौन समर्थ हो सकता है ? ।। १४२ ।।
१. . . . च बेबकुमार सरियो ।
... . ज. पुरंबियाप पूरे विमार ।
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४२ ]
तिलोयपण्णत्ती
बस जोयणाणि तत्तो, उबर गण होसु पासेमु । अभियोगामर सेठी, वस जोयन बित्थरा' होदि ।। १४३||
- विद्याधर श्रेणियोंसे आगे दस योजन ऊपर जाकर विजया के दोनों पार्श्वभागों में
दस योजन विस्तार वाली भाभियोग्य देवोंको प्रणी है ।। १४३ ।।
-
-
वरकप- हम्ल- रम्भा, फलिदेहि उबवणेहि परिपुष्णा ।
बाबी जाग पड़रा, वर- अच्छार कीडणेहि जुबा ॥१४४॥
-
·
-
कंचन देवी सदाका
सचिता ।
मणिमय मंदिर बहुला परिवा पावार परिवरिया ।। १४५ ।।
-
T.. fazeet I
-
अर्थ :- यह श्र णौ उत्कृष्ट कल्पवृक्षोंसे रमणीय, फलित उपवनोसे परिपूर्ण, अनेक मापियों एवं तालाबों सहित उत्तम अप्सराओं की क्रीड़ाओंसे युक्त, स्वर्णमय वेदी सहित चार गोपुरोसे सुन्दर, बहुत चित्रोंसे अलंकृत और अनेक मणिमय भवनोंसे युक्त है तथा परिचर एवं प्राकारसे बेष्टित है ।। १४४ - १४५।।
[ गाथा : १४३ - १४८
सोहम्म-सुरिवस् य वाहन-देवा हवंति 'बेतरमा ।
वक्त्रण उत्तर पासेसु लिए वर-विष्य-रूवरा ।।१४६ ।।
-
अर्थ :- इस गोके दक्षिण-उत्तर पार्श्वभाग में सौधर्मेन्द्र वानदेव व्यन्सर होते हैं, जो उत्तम दिव्यरूपके धारक होते हैं ।। १४६ ।।
विजया के शिखरका वर्णन
-
अभियोग-पुराहितो, गंतूनं पंच-जोयणाणि बो।
वस - जोयण- विविणं, वेषगिरिस्स वर सिहरं ॥ १४७ ॥ तिवसिदचाव- सरिसं विसाल-बर- देवियाहि परिमरियं । बहुतोरणदार-जुदा, विचित्त- श्यमेहि' रमनिक्या ।। १४८ ।।
२८. क... चितरया, ज. मिलरया । ३. क. अ, य. उ, रम
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गाया : १४६-१५२ ] पउत्यो महाहियारो
[ ४३ घर:-अभियोगपुरेसे पाच योजन ऊपर जाकर दस योजन विस्तारवाला पंतापपर्वतका उत्तम शिखर है जो त्रिदयोन्द्रराप अर्थात् इन्द्रधनुषके सदृश है, विशाल एवं उत्तम वेविकाओंसे वेष्टित है, अनेक तोरणद्वारोंसे संयुक्त है और विचित्र रस्नोंसे रमणीय है ॥१४७-१४८।।
शिखरके ऊपर स्थित नव-कूटोंका वर्णनतस्थ-सममूमि-भागे, 'फुरंत-पर-रयण-किरण-णियरम्म ।
खेटुते णव का, कंचमीण • माhिilki.
म: वहां पर स्फुराममान उत्तम रत्नोंक किरण-समूहोसे युक्त समभूमि भागमें स्वर्ण एवं मोतियोंसे मण्डित विम्म नो कुट स्थित हैं ।।१४।।
मामेण सिडकूणे, पुल्य - विसंतो तबो भरह-री । 'संपवाय - णामो, तुरिमो तह मानिभदो ति ॥१०॥ विजयहन्तुमारो पुष्णभद्द-तिमिस्स-गुहा-बिहामा म ।
उत्तर - भरहो कूशे, पच्छिम - प्रताम्हि समगा ॥११॥
प:-पूर्व विशाके अन्समें सिद्धकूट, इसके पश्चात् भरतकूट, वण्डप्रपात, ( चतुर्ष ) माणिभद्र, विजयाकुमार, पूर्णभद्र, तिमिनगृह, उत्तर भरतकूट और पश्चिम दिशाके अन्समें वैश्रवण, नामक ये नौ कूट हैं ।।१५०-१५१॥
कूटोंके विस्तार आदिका वर्णनकूडानं उच्छहो, पुह पुह छफ्जोयणागि इगि-कोस । लेसिपमेसं णियमा, हवेवि भूम्हि मो ॥१५२।।
जो ६ को १ । जो ६ को प्रपं:-इन कूटोंकी ऊंचाई पृथक्-पृथक् छह योजन पोर एक कोस है तथा नियमसे इतना ही मूलमें विस्तार भी है ।।१५२।।
१. द.अ. य. पुरस, ब, क.. पुरंत । २. ५. क. प. य. ३. तिमिस्। ४.......... विधाए .....म..सिमंत्रा। को यो३।को।।
वण। ३. ... प. उ. ६.4.क.ब.प.च. पो४,
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४४ ]
एक कोस प्रमाण है ।
तिलोयपण्णत्तो
[ गाथा : १५३ - १५५
विशेषा:- प्रत्येक कूटको ऊंचाई ६ योजन १ कोस और मूल विस्तार भी ६ योजन
पाराकडे
अर्थ :- प्रत्येक कूटका विस्तार शिखर पर इससे अटा अर्थात् सौन योजन और आधा कोस है । मूल और शिखरके विस्तारको मिलाकर पाधा करने पर जो प्रमाण प्राप्त हो उतना उक्त प्रत्येक कूटके मध्यका विस्तार है ।।१५३।।
विषय:
तस्सद्धं बिश्थारो पक्ष एकं होदि कूट- सिहरहि' ।
मूल- सिहराग इथं मेलिय बसिवन्हि सम्झस्स ।। १५३३।
जो ३ । को। जो ४ को
ऊपर विस्तार
-प्रत्येक स्टको ऊंचाई देई पाजन और विस्तार भी ६ योजन है। शिखरके योजन है । कूटका मध्य विस्तार ( १ + १÷२ अर्थात् योजन अथवा ४ यो० और २ या ' कोस है ।
+
-x77
१.
मयाय अर्या
कूटस्थित जिनभवनका वर्णन
आदिम कूडे चेदि, विनिश् भवणं विचिस वर - कंचन रयणमयं तोरण जुल
2
ब... उ सिहराणि ।
४० क. ज. प. उ.
थमालं । विमाणं च ॥ १५४ ॥
अर्थः- प्रथम कूटपर विचित्र ध्वजा-समूहों से शोभायमान जिनेन्द्रभवन तथा उत्तम स्वर्ण और रहनोंसे निर्मित तोरणोंसे युक्त विमान स्थित हैं ।। १५४ । ।
-
"दोहतमेवक- कोसो, विसंभो होदि कोस-दस-मेत्तं" । गाउय-ति-चरण भागो, जिण निकेवल्स || १५५ ॥
उच्छे
को १ । ३ । ३ ।
अर्थ :- जिनभवनको लम्बाई एक कोस, चौड़ाई आधा कोस और ऊँचाई गव्यूतिके तीन चौथाई भाग (कोस ) प्रमाण है ।। १४५ ।।
-
--
२. प. कुछ ॥ ३. द. वि ४.प.व. क. ज. उ. ६.उ.स
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[ ४५
गावा : १५६-१६१] चउत्यों महाहियारो
कंधण - पामारतय - परियरिओ गोउरेहि संपतो। पर-बल-गील-विपदुम-मरणय- देवलिय - परिणामो ॥१५॥ 'संबंत - रयम • बामो, गामा-कुसुमोपहार-कयसोहो । गोसीस - मलयचंदन • कालागर - धूव • गंधहो ।।१५७॥ बर-मन्ज-कवाड-जदो, बहावह-शाहि सोहियो बिउली । पर • मालभ - सहितो, शिनिय - गेहो णिएबमाणो ॥१५॥
म:- स्वर्णमय तीन प्राकारोंसे वेलित, गोपुरोंसे संयुक्त, उत्तम वज, नील, विद्म, मरकत पौर बंड्य-मरिगमोसे निर्मित, सटकती हुई रस्नमालाओंसे युक्त, नाना प्रकारके फूलोंके उपहारसे शोभायमान, गोशीर्ष, मसयचन्दम, कालागर और भूपको गन्धसे ज्याप्त; उत्कृष्ट वज़कपाटोंसे संयुक्त बहुतप्रकारके द्वारोंसे सुशोभित, विशाल और उसम मानस्तम्भों सहित वह जिनेन्दभवन अनुपम है ।।१५६-१५८
भिगार - सस दप्पण-चामर घंटावडत - पहवोटिं। पूजा - दम्वेहि तदो, विचित्त - घर - यस्य - सोहिल्सो ॥१५६।। पुणाय - गाय - चंपय - असोय-बसलावि-हस्स-पुण्यहि । उम्भाहि सोहवि, विविहि जिनिय • पासाबो ॥१६॥
पर्ष-वह जिनेन्द्र-प्रासाद झारी, फलश, दर्पण, चामर, घंटा और पानपत्र (पत्र) इत्यादिसे, पूजाधव्योसे, पिचित्र एवं उत्तम वस्त्रोंसे सुशोभित तथा पुनाग, नाग, पम्पक, असोक और बकुलादिक वृक्षोसे परिपूर्ण विविध उद्यानोंसे शोभायमान है ।।१५६-१६०।।
सच्छ - जल - पूरि।हिं, 'कमलप्पलसंड - मंडलपराहि । पोक्सरणीहि रम्मो, मणिमय - सोवाग' 'मालाहि ।।१६।।
१. प. संनुसा। २...ब. प. उ. विम्युम । ३. क. उ, कंबट। . म. कामाक ......क.अ. य. पोहि, उ. बरबसेहि। .क. ३. कमल-पस । . द.क.प.प. उ. भरण परा'। . .ब.क ज म. 1, मोहाए । ९ द.क. ब. स ४ मासाई ।
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४६]
तिलोयपण्णत्ती
[ गाया: १६२-१६५
अर्थ :- वह निभवन स्वच्छ जलसे परिपूर्ण, कमल मौर नीलकमलोंके समूहसे अलंकृत भूमिभागोंसे युक्त और मणिमय सोपान पातयार्स श्राभायमान पुष्करेशियो रमणीय है ।। १६१।।
सि जिणिय परिमा, अट्ट महामंगलेहि संपुष्णा । सिहासगाबिसहिया, चामर-कर- मान-अन-मिट्टण-बुबा || १६२ ||
-
उस जिनेन्द्र मन्दिरमें अगृमहामंगलदस्यों से परिपूर्ण सिंहासनादिक सहित और
हाथमें सामरोंको लिए हुए नाग यक्षोंके युगलसे संयुक्त जिनेन्द्र प्रतिमा विराजमान है ।। १६२ ||
भिंगार - कलस - बप्पन दीयण बय-खत- चमर- सुपट्टा ।
इय बहु मंगलाह,
-
-
-
qi (kaan) :—
पक्कं लट्ठ अहियसयं ॥ १६३ ॥
:-भारी, कलश, दर्पण, व्यंजन (पंखा ), वजा, छत्र, चमर और मुत्र तिष्ठ (ठोना ), इन माठ मंगलद्रव्यों से प्रत्येक वहाँ एकसौ आठ एकसी आठ है ।। १६३ ।।
किलीए वणिज्य, जिणिद पडिमाए 'सासव- दिपीए ।
जा हर सयल दुरियं सुमरण मेलेण भम्वाणं ।। १६४ ॥
-
-
·
अर्थ :- जो स्मरण मात्रसे ही भव्य जीवोंके सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करती है, ऐसी मापद रूपसे स्थित उस जिनेन्द्र प्रतिमाका कितना वर्णन किया जाय ?
१६४ ।।
एवं हि हवं पडिमं जिनस्स, तस्य ट्ठिवं 'भसि-पसत्य-चित्ता । भायंति केई विभिनटु-कम्मा, ते मोक्ल-मानंदकर* लहते ।। १६५ ॥
:- उस जिन मन्दिर में स्थित जिनेन्द्र भगवान्की इसप्रकारको सुन्दर मूर्तिका जो भी कोई ( भव्य जीव ) प्रशस्त चित्त होकर भक्तिपूर्वक ध्यान करते हैं, वे कमको नष्ट कर आनन्दकारी मोक्षको प्राप्त करते हैं ।११६५ ।।
१. ब... सासरीए । २. ब. क. म. म. न. जो ३. ८. क. अति-पत्चित्तो, ब. उ. भहिए। ४. ६. ब... य. व. मारणं ।
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[ ४७
गाथा : १६TRA :-- AREER चा हिशो!
एसा जिनिवाडमा जणाणं, माणं कुचंतान-प्पयारं । भाषानुसारेण अनंत-सोपखं, निस्सेयसं अम्मुव च देवि ॥१६॥
धर्म:-यह जिनेन्द्र प्रतिमा अनेक प्रकारसे उसका ध्यान करनेवाले भव्य जीवोंको उनके भावोंके अनुसार प्राप्युदय एवं अनन्तसुख स्वरूप मोक्ष प्रदान करती है ।।१६६।।
कूटोंपर स्थित क्यन्तरदेवोंके प्रासादोंका वर्णन
भरहादिसु तु, अनुसु घेतर-सुराग पासादा । पर • रयत - कंचणमया, वेदी-गोररवार-कय-सोहा ।।१६७॥ उम्बाहिं असा, मणिमय - सयणासणेहि परिपुष्णा । गवंत - षय - पराया, बहुविह • वन्मा विराति ॥११॥
:-भरसादिक आठ कुटोंपर व्यन्तरमेवोंके उत्तम रत्नों और स्वर्णसे निर्मित, पेदी तथा गोपुरद्वारोंसे शोभायमान, उतानोंसे युक्त, मणिमय शय्याओं और आसनोंसे परिपूर्ण एवं नाचती हुई ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित अनेक वर्णवाले प्रासाद विराजमान है ।।११७-१६८||
महुवेव - देवि - सहिदा, बेतर - देवाण होति पासावा । जिरवर - भवन • पष्णिव - पासाद-सरिन्छ-रुवायो १६॥
को १ । को। । को
।
प्रम:-प्यन्तरदेवोंके ये प्रासाद बहुतसे देव-देवियों सहित हैं। जिन-भवनोंक वर्णनमें प्रासाओं के विस्तारादिका जो प्रमाण बतलाया जा चुका है, उसीके सदृश इनका भी विस्तारादिक जानना चाहिए । अर्थात् मे प्रासाद एक कोस लम्बे, आधा कोस घोड़े और पौन (1) कोस ऊंचे हैं ॥१६६1
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-.
-
--.-. .- t.. उ.देहि।
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४८ ]
कूटोके अनि
उनी
भरहे कूडे भरहो, 'खंडपवादम्सि नट्टमाल सुरो । "कूडम्पि माणिभद्द, अहिव-देवी अ मानभहो ति ॥ १७० ॥
वेपकुमार सुरो, बेयकुमार नाम कूडम्म अहिनाहो पुष्णभद्दम्मि ।। १७१ ॥
बेटु वि पुण्णभद्दो,
तिमिसगुहम्मिय कूडे उत्तरभरहे फूटे,
तिलोत्त
·
-
.
[ गाथा : १७०-१७४
-
·
बेचो णामेन बसवि कथमालो । अहिवड देवो मरह- नामो ।।१७२ ।।
कुमम्मिय समणे, वेसमनो नाम अहिवई देबो ।
बस बेहुछेहा", सव्ये ते एक पल्ला ।। १७३॥
ं :- भरतकूपर भरत नामक देव, खण्डप्रपात कूटपर नृत्यमाल देव और भारिणम कूटपर माणिभद्र नामक अधिपति देव है । तावचकुमार नामक कूटपर बैताकधकुमार देव और पूर्णभद्र कूटपर पूर्णभद्र नामक अधिपति देव स्थित है । तिनिग्रह कूटपर कृतमाल नामक देव और उत्तरभरत कूटपर भरत नामक अधिपति देव रहता है। वंश्रवरा कूटपर वेश्रवरण नामक अधिनायक देव है। ये सब देव दस धनुष ऊंचे मरोरके धारक हैं और एक पल्पोपम आयुवाले हैं ।। १७०-१७३।।
विजयार्थ स्थित वनखण्ड, वन-वेदी एवं व्यन्तर देवोंके नगरोंका वर्णन -
बे-गाउव विस्थिष्णा, वोसु वि पासेसु गिरि-समायामा । बेथढम्म गिरिये बलसंडा होंति भूमितले ॥ १७४॥
अर्थ :- ताय एवंतके भूमितल पर दोनों पाश्वंभागों में दो गव्यूति ( दो कोस ) विस्तीर्ण और पर्वतके बराबर लम्बे वनखण्ड है ।। १७४॥
१. . . . न. प. उ. प २. ८. ब. क. ज.ब.उ. सुरा । ३. पम्म । ४. व.क. ज. य. व. महिलामो ५ ६. ब. क. ज. य. उ. बेच्छेही ६. ब. ब. च. ह िक सकं ।
।
I
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गाषा : १७५-१७८ ]
पायो मायारोमा igiNTEERNAEE बो-कोर्स' उम्मेलो, पन - सय - 'बाबप्पमान - हो।
पण • घेवी - यारो', तोरम • दारेहि संनुता ।।१७।।
म: तोरण द्वारोंसे संयुक्त वन-वेदोका आकार वो कोस ऊंचा तथा पाँचसो धनुष प्रमाण विस्तारवाला है ।।१७।।
धरियट्टालय - थारू, णाणायिह अंत - लक्स संपन्ना । विषिह-पर-रपण सचिवा, गिरुषम • सोहाओ वेदीओ ।।१७।।
अर्थ:-विशाल भवनों और मार्गोसे सुन्दर, अनेक प्रकारके लाखों यंत्रोंसे ब्याप्त, विविधरनोंसे खचित उन वेदियोंकी शोभा अनुपम है ।।१७६।।
सव्वेसु उबवणे, वेतर - देशण होति वर-गपरा । पायार - गोउर • बुबा, जिण-भवण विमूसिया विचला १७७॥
पर्व:-इन सब उपवनोंमें प्राकार और गोमुरों युक्त तथा जिनभवनोंसे विभूषित पन्तरदेवोंके विशाल उत्कृष्ट नगर हैं ॥१७७।।
विजयाघको गुफाओंका वर्णनरजद-पगे दोहि गुहा, पन्नासा मोयणागि बीहाओ । अटुं अभिवाओ, बारस - विक्वंभ- संकुत्ता ॥१७॥
५.१८।१२।
मय:-रजत पर्वत अर्यात् विजयामें पचास पोजम सम्बी, आठ योजन ऊंची और बारह पोजन विस्तारसे युक्त दो गुफाएं हैं ।।१७८||
...रो कोम बिस्वामी। ब. म. , दोको बिस्वा । क. दो चोदि उन्हो। प, हो। कोसो निस्वारो। २. ब. ब. स. पाबा पमाणको । क. न. म. पामा पारण दामो। ३. ... ..त. पायारो होति ।
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..]
तिलीयपणतो
[ गापा : १७६-१२ अबरार' तिमिसगुहा, 'खंम्पबारा विसाए पुयाए । पर-बन-कबाड' अवा, अनादि - णिहणाम्रो सोहति ||१vel
तामनगुफा और पूर्व दिशामें खाराप्रपात गुफा है। उत्तम बसमय कपाटोसे युक्त ये दोनों अनादि-निमन गुफाएँ शोभायमान है ।।१७६ ।।
नमस-कब दिया, होलित छम्जोयनाणि दिस्यिया । अच्छेहा शेतु नि, गुहास वाराण' पत्तेमकं ।।
१०|| ६। । :-दोनों हो गुफामाम द्वारों के दिव्य युगल कपाटोमैसे प्रत्येक कपाट मह योजन विस्तीर्ण और आठ योजन ऊंचा है ॥१०॥
दक्षिण और उत्तर भरतका विस्तारपण्णास - जोपणाणि, वेयः - णगस्स मूल - बित्वारो। तं भरहायो 'सोधिय, सेसद्ध वक्लिनर' तु ॥१८॥ दुसया अहवोस, तिणि कलाओ य परिक्षणवम्मि। तस्स सरिच्छ - पमाणो, उत्तर - भरहो हि नियमेन ॥१२॥
२३८ । । पर्ष :-विजया पर्वतका विस्तार मूसमें पचास योजन है। इसे भरतक्षेत्र विस्तारसे कम करके शेषका माधा करनेपर दक्षिण ( अ ) भरतका विस्तार निकल जाता है। वह दक्षिण भरतका विस्तार दोसी अड़तीस योजन और एक योजनके उन्नीस मार्गो से तीन भाग प्रमाण है। नियमसे इसीके सदृश विस्तारवाला उत्तर भरत भी है ।।१८१-१८२॥
-
-
-.
..
.---
...... ज. स. पारधारा, अवधारा। २.१.ब.क, ज. उ. संदपाला, य. बंद पादाला। ३...... उ. कबामहि, य, कामादि। ४. प. य. व. लिहणादि। ... मपम सिटामों। नं. प्रदुम सदाभो । क. पक्यच विद्वान । ज. प्रदेशव विटाभो। ६. अपय सवायो। ५. मन मियामों। ६,...क.अ.प. उ. दारागि। ७...ब.क.अ.य. उ. सोषय 1 ....दि।
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पाषा : १८३-१५.] चजत्यो महाहियारों
[ ५५ विशेषा:-परतक्षेत्रका विस्तार ५२६ पो० है ओर विजयाधका मूलमें विस्तार ५० योजन है, अतः ( ५२६ -५०)२=२३८० योजन दक्षिण भरतका ओर २३ी योजन हो उत्तर भरतका विस्तार है।
धनुषाकार क्षेत्र में जोवाका प्रमाण निकालनेका विधानहा इम-होणं, वग्गिय अवणिका बाल-बागे ।
सेसं चरगुण - मूलं, जीवाए होनि परिमाणं ॥१३॥
प्रबं:-बाणसे रहित अर्ध-विस्तारका वर्ग करके उसे विस्तारके अर्ध मागके वर्ग से घटा देनेपर अवषिष्ट राशिको पारसे गुणा करके प्राप्त राधिका वर्गमूल निकालने पर जीयाका प्रमाण प्राप्त होता है ।।१८३॥
धनुषका प्रमाण निकालनेका विधानबाग-पुर-रद-बग्गे', य-कयो सोषिवून दुगुण करे।
जं सद्ध होवि छ, करणी वावस्स परिमार्ग ॥१८॥
म:- बाणसे युक्त व्यासक वर्ग मेंसे व्यासके वर्गको घटाकर शेषको दुगुना करनेपर जो राशि प्राप्त हो वह धनुषका वर्ग होता है और उसका वर्गमूल धनुषका प्रमाण होता है ।।१४।।
वारणका प्रमाण निकालनेका विधानजीव-की-तुरिमंसा, 'वास - कदौए सोहिंग पर ।
पम्मि बिहीणे, सब समस्त परिमाण ॥१८५।।
प:-जीवाके वर्गके चतुर्थ भागको अर्ध विस्तारके वर्ग से घटाकर भेषका वर्गमूल निकासने पर जो प्राप्त हो उसे विस्तारके अर्ष मागमेंसे कम कर देनेपर भवशिष्ट रही राशि प्रमाण ही बाणका प्रमाण होता है ।।१८।।
शिरोपा:-या-जम्मूढीपका व्यास एक लाख योजन और विजयाकी दक्षिण जीवा MP3 या ६४ योजन है ।
१.ब.क. ज.
गो। २...क... साबद्ध ।
३.३...क... पर।
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५२ ]
तिलोयपरगती
[ गापा : ११
३६१
१००००० - ४ ( १००००० ) ( १८५२२४ ) २४६) = ५००००-V ( २५०००००००० – २५७६९८२५४) = ५००००-१५ या ४६७६११२३० योजन दक्षिण-भरतका माण ।
विजयाको दक्षिण भीवाका प्रमाणसोपण-
I अदालसंधुत्ता। बारस कसाओ अहिसा, रगराषस - अक्सि' जीवा ।।१८६॥
६५४८३३ । प:-विजयाके दक्षिण में जीवा नौ हजार मातसो अड़तालीस शेजन मोर एक योजन उन्नीस भागोंमेंसे बारह भाग ( E७४: यो०) प्रमाण है ॥१६॥
विरोधा:-जम्बूद्वीपका व्याम एक लाख योजन और भरतक्षेत्रका गाण २३८ या # योजन प्रमाण है। गाथा १८३ के नियमानुसार- ( १००००० - १३२५ २८६३६२२६७५६२५ को विस्तारके मधंभागके वर्ग [ ( १०००० )२- २५०००००००० ] मेंमे ३६१
२१००००००० ६६३२२१७५६२५ घटा देनेपर ( २५०,०°00
-८४७७२२४५७८ अवशेष रहे । इस
८५७४०२४३७५.४४.३४३०८०६५५०० योजन हए । अवशिष्ट राशिको ४ से गुरिणत करने पर ८५ इसका वर्गमून निकालने पर १८५२२४ अर्थात् १७४८ १३. योजन दक्षिण विजयार्थको जीवा का प्रमाण प्राप्त हुका 1 इसमें १६७३२४ अवशेष रहे जो छोड़ दिये गये है।
१... सहस्र.
ज. प. उ. सहस्स। २.२, म. दक्विणो दोमो, ब. . १. पविणों
बीमो।
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गापाirkRE
शाहिम ___ वक्षिण जौवाके पनुषका प्रमाण-- तम्जोबाए' यावं, अब य सहस्साणि जोयना होति । सत्त- सया छाती, एक्क-कसा झिवि अधिरेगका ।१८७॥
। ६७६६२। प्रम:-उसी जोयाका धनुप नौ हजार सातसा छासठ योजन प्रोर एक योजनके उनोस माओं में से कुछ अधिक एक भाग ( १७६६मायोजन ) है ||१७||
विशेषा:-गाथा १८४ के नियमानुसारधनुषका प्रमाण = [{{ १००००० +२३८)- ( १००००० ) }x२]
-- [{( १००२३८ । – १ १००००० } } ४२ ] - [{{ ३६२७२१६४०५६२५. – ( १०००००००००० }}४२] = ( १७२१४४४५६२५ )४२]
= [३४४३०६५१२५० } = १८५५५५ या ६७६९२४ योजन विजयार्धके दक्षिण अनुपका प्रमाश है । संदृष्टि में विजयाधके दक्षिण धनुषका प्रमाण १५६६॥ यो दर्शाया गया है, किन्तु गाथा में कुछ अधिक कहा गया है । क्योंकि वर्गमूल निकाल लेने के बाद योजन अवशेष बचते हैं। इनके कोस आदि बनाने पर अधिकका प्रमाण ३ कोस मोर ३२१ धनुष प्राप्त होता है।
विजयाधको उत्तर धीवाका प्रमाणपीसत्तर-सात-सपा, बस य सहस्साणि जोयमा होति । एक्कारस -कल - अहिया, रजवाचल- उसरे श्रीवा ।।१।।
१०७२० । '
क, मधिरेको।
३. .... १७२०
१. क. प. य. न.से। १. १. प्रधिको, ३.क. १.ज. (०२011 न. २०७२।
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तिलोयपणती
[ गाथा : १८९
अर्थ-विजयार्धक उत्तरमें जीवाका प्रमाण दस हजार सातसो बीस योजन मोर एक योजनके उन्नीस भागों में से ग्यारह भाग है ॥ १८६॥
५४ ]
विशेषानिकि एका रसाए+५०
या
योजन है। इसे जम्बूद्वीप वृत्त विष्कम्भ भैंसे घटा देनेपरयोजन अवशेष रहे । इसको बाणके चीने प्रमाण (x) से गुणित करने पर ?sa&19 。。 योजन प्राप्त होते हैं । यह विजयाको जीवाकृति का प्रमाण है। इसके वर्गमूल (1) करे अपने ही भागहारका भाग देनेसे १०७२० योजन विजयार्षकी उत्तर जीवाका प्रमाण प्राप्त होता है ।
३६१
उत्तर- जीवाके धनुषका प्रमाण
Br
एटाए जीवाए, मणुपुटु दस सहस्तसत सया । सेवाल जोयणाई, परणरस- कलाओ 'अहिरे ॥ १८६॥
-
१०७४३ । १ ।
अर्थ :- इस जीवाका धनुःपृष्ठ दस हजार सातसौ तेतालीस योजन और एक योजनके उन्नीस भागों में पन्द्रह भाग अधिक है ।। १८६ |
विशेवा :- व्यास १ लाख यो० और बाण २६ या यो० ।
३
धनुःपृष्ठ = [ २१०००००+ • २८६. }" – (१०००००} } }'
१९
= [२{ { १००२८८ ) -- १०००००००००० } ]
३६३०८३४९७५६२५
= [१{
३६१
= [ २ × २०८३४६७१६२५ ]
= V४९६१९९४१२५०
=
३६१
·
१००००००००००
१८ ।
२०४१३२ अर्थात् १०७४३३३ योजन उत्तर जीवाके अर्थात् विजयार्थ के उत्तर धनुवका
*
प्रसारण प्राप्त हुआ ।
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गाथा : १६०-१६२
पत्शे नहाहियारो बलिकाका प्रमाण ज्ञात करनेको विधि
जेद्वाए जीवाए, माझे सोहम् जुहला जो Talesittir at F.5.2
सेस - पलं धूलीयो, हवेदि 'पस्से य सेले य ॥१०॥
चप:-उस्कृष्ट जीवामेसे जघन्य जोवाको घटाकर शेषका अध करने पर क्षेत्र और पर्वतमें चूलिकाका प्रमाण आत्ता है ।।१६० ।।
विजयाकी पलिकाका प्रमाणपसारि सयाणि तहा, पमुसीरी - जोयहि मुसागि । सत्तलीसड - कला, परिमाणं 'मूखियाए इमं ॥१९॥
४८५ । ३।। प्रध:-उस विजयार्षकी चूलिकाका प्रमाण पारसौ पचासी योजन और एक योजनके उनीस शगोंमेंसे संतोसके आधे अर्थात् साड़े अठारह भाग ( ४८५३४ योजन ) है ||१६||
विरोवार्य :-गाचा १६० के नियमानुसार
विजयाघकी उत्तर ( उत्कृष्ट ) जीवाका प्रमाण १०७२० अर्थात् ० योजन और दक्षिण ( जघन्य ) ओवाका प्रमाण ९७४ोया योजन है । अतः[(२०३६८१... १८५१२४ ) x2 ) = १८४६७४१ १८४६७ या ४८५१६ योजन विजयाचं की चूलिकाका प्रमाण है।
पाश्चभुजाका प्रमाण मान करनेकी विधि
अम्मि पावपुळे, सोहेला कांगड-पावपुछे पि । "सेंस - बलं पस्स - भुजा, हवेवि परिसम्मि सेले य IIEI
-
--- १.प.ब.क. अ, य. . । २, ८.प. उ. उ । *. म.को। ३. द.प.क.ब.प.स. पूनिपारिमं । ४. . . . ., क. उ. सेमरसपस भुजा । प्र. म. सहलपमस मना।
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५६]
तिलोपासी
[ गाषा : १९३-१९४
म :- उत्कृष्ट चाप - पृष्ठ मेसे लघु पाप-पृष्ठ घटाकर शेषको आधा करने पर क्षेत्र भौर पर्वतमें पाप भुजाका प्रमाण निकलता है || १९२ ॥
विजया की पायं भुजाका प्रमाण
चारि साणि तहा, अडतीजी - जोयमेहि मार्गदशीस
बताओ
विजया
(
योजनके उन्नीस भागों में तंतीस मधे यर्थात् साढ़े सोलह माग है ।।१६३ ।।
-
४८८ | है |
॥ वेमा समन्ता ॥
1
- विजयार्धके पूर्व-पश्चिम में पार्श्व मुजाका प्रमाण वारसी अठासी योजन और एक
विधा :- विजयार्ष के उत्तरका नाम २०७४३ दक्षिणका बाप २७६६६ अर्थात्
२०४१३२
१६
१८५५५५ = १८५७७ ) x
१६
१६
२
पूर्व-पश्चिम में पार्श्व मुजाका प्रमाण है।
लाणि ।
इस भुजा ।। १६३।।
-
अर्थात् २०६ योजन और ५५ योजन है। इन्हें परस्पर घटाकर अर्थ करनेपर १८५७७ अर्थात् ४८८३३ योजन विजया के ३५
ཟིང
|| विजयार्धका वर्णन समाप्त हुआ ।
भरतक्षेत्रकी उत्तरजीवाका प्रमाण
बोस सहस्स जोयण - चउस्सया एक्कससरी - कुत्ता ।
'पंच कसाओ एसा जीवा भरहस्त उत्तरे भागे ।। १६४||
। १४४७१ १ १६ ।
अर्थ :- भरतक्षेत्र के उत्तर-भागमें यह जीवा चौदह हजार चार सौ इकहत्तर योजन और एक योजनके उतीस भागोंमेंसे पांच भाग प्रमाण है ।। १६४ ।।
विशेबाचं :- जम्बूद्वीपका विस्तार १ लाल यो० । बारा ४२६६२ योजन है ।
१. . . . . म. न. पंचफलासा ऐसे । २. ८. उत्तर भए ।
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________________
गापा : १६५]
पउत्यो महाहियारों जीवा = [{ { १००००० ।- (१००००......}}]R
= [४ ( ५००००/- ( ९४०००० । मादि :- वाई श्री सुतिसागर जी महाराज
= [४/ २५००००००००_८५६००००००००
३६॥ = [४x१९६००००००००
- ७५६०००००००० = २७४५४ अर्थात १४४७१ योजन भरतक्षेत्रको उत्सर । जीवाका प्रमाण है।
भरत क्षेत्रके अनुपका प्रमाणभरहस्स बाबपुळ, पंच-सयाहिम-बउदस-सहस्सा । अश्वीस जोयखाई, हनंति एकारस फलामो ||१५||
१४५२८ । । भ:-भरतक्षेत्रका घनुपृष्ठ चौवह हमार पोच सौ अट्ठाईस शेजन और एक योजनके उन्नीस भागोंमेंसे ग्यारह भाग प्रमाण है ।।१९।।
सिया:-ल्यास १ लास यो० । वारण ५२६४६ योजन ।
धनु:पृष्ठ -[२{{१००००० + ५२६ ) - ( १०००००)]
= [२{ { १००५२६ ) - ( १००००० )२}] = [ २ { (३६१४:०० – ( १००००.} }]
...३६४८१००००००००३६१००००००००००
- [२४.३६१००००००००३
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________________
प
५८]
- ७६२००००००००
H
*
का प्रमाण है ।
-
एक्क सहस्स पारसय
भरतक्षेत्रको चूलिकाका प्रमाण
अग्रपंचहरी - जुत्ता । सेक्स कलाओ, भरह खिनी चूलिया एसा ॥ १६६ ॥
तिलोयपणती
[ गाया : १६६-१६७
अर्थात् १४५२६६२ योजन भरतक्षेत्रके धनुपृष्ठ
२७६०४३ #
१८७४ । ३ ।
श्रयं : – यह भरतक्षेत्रकी चूलिका एक हजार आठ सौ पचहत्तर योजन और एक योजन उत्नोस भागोंमेंसे तेरहके आाधे अर्थात् साढ़े छह भाग प्रमाण ( १८७५३३ मो० ) है ।। १९६ ॥
लघु जीवा } x
१....
विशेषार्थ :- [ ( भरतक्षेत्रकी उत्कृष्ट जीवा 399४ 20 २] - x १८७५ योजन भरत क्षेत्रकी पुलिकाका प्रमाण है ।
·
-
भरतक्षेत्रकी पार्श्वसुजाका प्रमाण
सया, वाणी जोयष्यामि भागा वि ।
एसा,
भरहक्वेशन्स
परस भुजा ॥१६७॥
१८६२ । १५ ।
अर्थ :--- भरतक्षेत्रकी पार्श्वभुजा एक हजार आठसो मानव योजन और एक योजनके उनोस भागोंमेंसे पन्द्रहके आधे अर्थात् साढ़े सात भाग (१८६२५५ यो० ) प्रमाण है ।। १२७ ।
घुघ० ) xt=
विशेषाथं । - ( भरतक्षेत्रका उत्कृष्ट धनुष 24x
= १२३३ योजन भरतक्षेत्रकी पारभुजाका प्रमाण है 1
-
—
[ तालिका नं० ५ अगले पृष्ठ पर देखिये ]
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वासिका !
तासिका ५
भरतक्षेत्र और विनवा मास, मीरा, धनुष, धूमिका सबा पार्श्वभूमाका प्रमाण
पानाम
| दसरबाग इथिल-गोवा उत्तर अनुष | मिरा बाप | कृतिका | मार्गदर्शक :-. आहार्य श्री अविधिसागर जी महाराज पात्र
१५५)
पडत्यो महाहिवारो
(पा.१
- 14t
4.
पा.
(47
|
| बिमा ( मा १ty!'
ve
]
"
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________________
६० ]
तिलोमपणासी
पद्म-द्रहका विस्तार
हिमवंताचल सक्के पउम वही पुष्ध पष्चिमायामो हंबो, सत्युगुणायाम संपुष्णो ॥ १६६॥
पन सय जोमरण
-
-
1. !
·
·
-
५०० १०००
:- हिमवान् पर्वतके मध्य में पूर्व-पश्चिम लम्बा पद्मसरोवर है जो पाँच सौ योजन विस्तार और इससे दुगुने आयाम से सम्पन्न है । अर्थात् ५०० योजन चौड़ा और १००० योजन लम्बा ई ।। १६८ ।।
-
बस जोणावरहो, चोकका
सस्सि पुग्छ बिसाए, निम्नच्छदि निम्मगा गंगा ॥१६६॥
B
अर्थ :- यह ग्रह दस योजन गहरा और चार तोरण एवं वेदिकाओंसे संयुक्त है । इसकी पूर्व दिशासे गंगा नदी निकलती है ||१९||
उद्गम स्थानमें गंगाका विस्तार
जोयक्क-कोसा, निग्गर-ठाणम्मि होदि 'दिपा । कोस वल मेसो ॥ २००॥
गंगा सरंगिथए, 'उच्छेतो
जो ६ । को १ को
[ गाया : १६८ - २०१
-
·
अर्थ :-- उद्गम स्थानमें गंगानदीका विस्तार यह योजन, एक कोस ( ६४ यो० ) और ऊँचाई बाधा (३) कोस प्रमाण हूं ||२०० ॥
तोरणका विस्तार
गंगा- ईए जिग्गम, ठाणे चिट्ठ वि तोरनो दिब्यो ।
जब जोयणानि सुगो, दिवड कोसाविरितो य ॥२०११
-
६।३।
१. क. . . उ. नित्यारा । २.व. क... उ तबणीए । ३.व.क., व उच्छेदो
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गामा : २०२-२०६ ] उत्यो महाहियारो
[. म:-गंगा नदीके मिर्गम स्थानमें नो योजन और डेढ़ कोस प्रोत् १. योजन ऊंचा दिव्य तोरण है ।२०१॥
तोरण-स्थित
जिला A TREERTAN ENTRE
चामर • घंटा - विकिणि-बंग-मालासएहि' कयसोहा । भिगार - कलस - बप्पण - पूजण - दव्वेहि रमणिज्जा ॥२०२॥ रमणमय-धंभ-जोनिव-विचित्त-दर-सालभंजिया' रम्मा । बग्जिवणीस - मरगय • कपकेयण • परामराय - अदा ।।२०३।। ससिकत - सरकत • यमुह -'मयूखेहि जातिय तमोधा । संबंत'- करण्यदामा', अणादि • णिहणा 'अणुबमाणा ।।२०४।। छत्त-तयादि-सहिदा, बर रयणमईयो फुरिष-किरणोघा ।
सुर-खेयर-महिवाओ, जिण-पडिमा तोरणुरि निवसति ।।२०५॥
भर्ष:-इस दोरणपर चामर, घण्टा, किंकिणी (शुद्ध घण्टिका ) मोर सैकड़ों वन्दनमालाओंसे शोभायमान; भारी, फलणा, दपंग तया पूजा-नव्योंसे रमणीय; रत्नभय स्तम्भोंपर नियोजित विचित्र मोर उत्तम पुप्तलिकाओंसे सुन्दर; वन, इन्द्रनील, मरकत, कतन एवं पपराग मणियोंसे युक्त; चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त प्रमुख मणियोंको किरणोंसे अंधकार समूहको नष्ट करनेवाली लटकती हई स्वर्णमालामोसे सुशोभित, अनादि-निधन, अनुपम, छत्र-वयादि सहित, उत्सम रत्नमय, प्रकाशमान किरणोंके समूहसे मुक्त और देवों एवं विद्याधरोंसे पूजित जिनप्रतिमाएं विराजमान है ॥२०२-२०५।।
प्रासाद एवं दिवकन्या देवियाँतम्हि सम-भूमि-भागे, पासावा विविह-रयच-कषायमया । वज - कवादेहि जुरा, बड़ - तोरण - वेरिया • जुत्ता ॥२०॥
१.प.ब.क.प. य. ३. मानासहे।। 4. उ. मसहित ४..ब.क. न . मगर। अणुषमागो।
२. ब. ब. क. ३. सातविकारम्मो।
क. प. उ. करणमामो।
३. प. ब... ... य. 3,
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६२]
TE : तिहदेवपत्ती CAREEगापा-३७-१११ :-वहाँ समभूमिभागमें विविधरस्नों एवं स्वर्णसे निर्मित वनमय कपाटों तया चार तोरण एवं वेदिकाले युक्त प्रासाद है ॥२०६।।
एथेसु मंदिरेलु, होति विसा - कलयाओ देवोमो ।
बहु - परिचारामुगवा', विश्वम - लागण - हवाप्रो ॥२०७।।
पर्व:-इन प्रासादोंमें बहुत परिवारसे युक्त मोर अनुपम लावण्य-रूपको शप्त दिक्कम्या देवियों ( रहती ) है ।।२०७।।
कमलाकार फूट प्रादिका वर्णनपरम - वहाबु दिसाए, पुवाए थोष • भूमिमम्मि ।
गंगा - गईन मरके, उभासवि पड़म - मिहो तो ॥२०॥
अपं:--पदहसे पूर्व दिशामें थोड़ोसी भूमिपर मंगा नदीके यौबमें कमप्लके सष्टमा कूट प्रभातमान है ॥२०॥
. वियसिय • कमलायारो, रम्मो देवलिय-बाल-संवृत्तो।
सस्स बला 'भाइरता, पत्तक्कं कोस • दलमेत ॥२०॥
म :-खिले हुए कमलके आकारवाला वह रमरणीय कूट वैदूर्य (मणि)की नाससे संयुक्त है। उसके पत्ते भत्यन्त लाल है। उनमेंसे प्रत्येकका विस्तार अर्ष () कोस प्रमाण है ॥२०॥
सलिला तु बरि उडओ, एक कोर्स हवेवि एक्स्स ।
वो फोसा विस्यारो, चामीयर - केसरहिं संजुत्तो ॥२१॥
पर्व:--पानौसे ऊपर इसकी ऊंचाई एक कोस तथा विस्तार दो कोस है । यह कमल स्वर्गमय परागसे संयुक्त है ॥२१०।।
इणि - कोसोवय • इंदो, रयणमई तस्स कग्गिया होदि। तोए उबार बेटुवि, पासादो मणिमओ विव्यों ॥२१॥
१.क.मदा। २.प. य... . य.. पाहतो
... ज... दिम्बा
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गापा : २१२-२१५ ]
बउत्पो महाहियारो पर्य: उस कमलाकार कूटको रत्नमय कणिका एक कोस ऊंची और इतने हो । एक कोस ) विस्तारसे युक्त है । उसके ऊपर मणिमय दिव्य भवन स्मित है ।।२१।।
तप्पासादे' गिदसहितरसेगी बत्ति विक्सावा ।
'एक - पलिमरोहमालक.... बहर हिसारे त्याना HARTA
पर्ष:-उस भवनमें बला ( इस ) नामसे प्रसिद्ध, एक पल्योपम प्रायुवाली और बहुस परिवारसे युक्त व्यन्तर देवी निवास करती है ॥२१२।।
गंगा नदीका वर्णनएवं पउम - बहावो, पंच - सया जोपणाणि गंतणं ।
गंगा-कूरमपत्ता', जोयन - अद्धण दक्खिभापलिया ॥२१॥
भर्ष :- इस प्रकार गङ्गा नदी परदहसे पांचसो योजन आगे जाकर और गंगाकूट तक न पहुंचकर उससे अधं योजन पहिले हो दक्षिण को भोर मुड़ जाती है ।।२१३।।
चुल्ल - हिमपंत - र, पहि- सोषिकूण अडकवे ।
दक्षिण - भागे पव्वर - उपरिम्मि हवेवि णइ - दोहं ॥२१४॥
पपं:-मुद्र हिमवान्के विस्तारमेंसे नदी के विस्तारको घटाकर पशिष्टको आधा करने पर दक्षिण भाग में पर्वतके ऊपर नदीको लम्बाईका प्रमाण प्राप्त होता है ॥२१॥
विशेषा-हिमयान पर्वतका विस्तार १०५२० योजन है और नदीका विस्तार ६१ योजन है। पर्वतके विस्तारमेंसे नदोका विस्तार घटाने पर (1980 - - योजन मवशेष रहे । इनको आधा करनेपर ( ५२३. पोजन हिमवान् पर्वतके ऊपर दक्षिणभापमें गंगा नदीकी लम्बाईका प्रमाण प्राप्त होता है ।
पंच - समा तेबोस, अनुदा' ऊणतीस - मागा य । पक्लिो भागन्छिप, गंगा गिरि - जिभियं पता ।।२१५।।
1 ५२३ । । । ।प.ब. क. ज. स. तपासाया। २. . ब. क. ब. उ. मासे। ३. र. एमवा । ४. द. ब. क. प. उ. मपत्तो। ... यस्ताविण। ६. प. प्रदहिया, म, क. ज. प. उ. महाविदा ।
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________________
६४
]
तिलोयपणासी
[गाथा : २१६-२१९
is ... TER Kार ? पर्व: पांचसो तेईस योजन और आठसे गुणित ( उन्नीस) सर्थात् एकसौ बावनमेंसे
उनलाल भाग १०५२१६
- ५२३,३६ योलन ) प्रमाण दक्षिणसे पाकर गङ्गा नदी पर्वतके
तटपर स्थित गिलिकाको प्राप्त होती है ।।२१।।
हिमबंत-अंत-मणिमय-पर-कूड-मुहम्मि पसह - स्वम्मि।
पविसिप णिवाइ'पारा, दस-जोयन-नित्यरा य ससि-भवला ।।२१६।।
प्राय:-हिमवान् पर्वतके अन्तमें वृषभाकार मणिमय उत्तम फूट के मुबमें प्रवेशकर गंगाकी चन्द्रमाके समान भवत और दस योजन विस्तारवाली धारा नीचे गिरती है ॥२१॥
छल्लोयमेषक - कोसा, पनालियाए हवेवि दिक्वंभो' । 'आयामो में कोसा, तेरियमेरी च बहलसं ॥२१॥
|| ६ । को १ । को २ । को २ ।। मर्ष:- उस प्रणालीका विस्तार छह योजन और एक कोस (योजन ), लम्बाई दो कोस भौर गहल्य भी इसना ( दो कोस ) ही है ॥२१॥
• "सिंग-मुहकाण-जोहा-लोयग-मूवाविएहि' गो-सरिसो।
वसहो ति तेच भन्ना, रयणमई जीहिया तत्प ॥२१८t
पर्व':- वह प्रणाली सींग, मुख, कान, जिह्वा, लोचन ( नेष) और भृकुटि मादिकसे गौके सदृश है, इसीलिए उस रस्नमय भिमकाको "वृषम" कहते हैं ॥२१॥
पणुवीस' जोपणागि, हिमवते तत्व 'अंतरेतून ।
बस - भोमन - विस्थारे, गंगा -'कुंडम्मि भिवडये गंगा ॥२१॥
म :-वहाँ पर गंगा नदी हिमवान पर्वतको पच्चीस योजन खोड़कर दम योजन विस्तार वाले गङ्गाकुण्डमें गिरती है ।।२१।।
१. क. न. ६, य. उ. रा। २.१.१. य. उ. विमा । .क.ब. म. न. पापामा । ४. ब. क.च. तत्तियमेते। .. प. म. सिंह । .. क. प. य. उ. भूधामोरदिगासारितो। .... पगमोह। ६. क.न.प. उ. अंतरेदूणा। . द...क.ब. य. २. बस्मि ।
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उत्यो महाहिकारो
पमुवीस जोवनाई धाराए' मुहम्मि होदि 'विक्लंभो । "सग्मार्याणि कशारो, एवं नियमा परमेषि ।।२२०॥
1 २५ ।
गाथा : २२०-२२२ ]
पाठान्तरं ।
अ :- धाराके मुखमें गंगा नदी का विस्तार पच्चीस योजन है । सम्मायणीके कर्ता इस ( प्रकार ) नियमसे निरूपण करते हैं ||२२० क आर्य श्री सूकी
पाठान्सर |
गंगाकुण्डका विस्तार आदि
जोवन सट्टी बं, समबद्ध अस्थि तस्य वर-कु
इस जोपन उच्छे
-
-
-
-
·
मणिमम सोबाण - सोहिल्लं ।। २२१ ॥
-
[ ६५
। ६० । १० ।
प्र:- वहाँ पर साठ योजन विस्तार वाला, समवृत ( गोल ), दस- मोजन गहरा मोर मणिमय सीढ़ियों से शोभायमान उत्तम कुण्ड है ।।२२१||
वासट्टि जोयणाई को कोसा होवि कुंड सग्गायनि कत्तारो, एवं नियमा
। ६२ । को २ ।
विचारों | निरुवेदि ।।२२२ ।।
पाठान्तरं ।
:- उस कुण्डका विस्तार बासठ योजन और दो कोस ( ६२३ यो० ) है, सम्मायणीके कर्ता इस प्रकार ) नियमसे निरूपण करते हैं ।। २२२ ॥
पाठान्तर 1
सम्बाफिला
१. क. वारा, म... दाराप । २. ज. य. उ. भिमा २. निमा । म संगावणे कत्तारो व रु. प्र. उ.माणिकताय । ४.स. ए. उ. उमेवं ।
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________________
६]
तिलोय पण्णत्ती
क :-- अर्थ अवर
राज
च-तोरन-वेदि-वो, सो कुंडो तस्स होति बहुम
C
chat रमण मिति, वड-तोरण- वेदियाहि कयसोहो ॥२२३॥
अर्थ :- वह कुण्ड चार तोरण और वेदिकासे युक्त है । उसके बहुमध्यभागमें रत्नोंसे विचित्र और चार तोरण एवं वेदिकासे शोभायमान एक द्वीप है || २२३||
२
बस-जोयण- उच्छे हो, सो जल-मम्भम्मि अटु-विस्थारो | होवि बज्जमम - सेलो' ||२२४ ॥
जल-जवार दो कोसो, सम्म
| १० | ५ | को २ |
वह द्वीप जल के मध्य में दस योजन ऊंचा और पाठ योजन विस्तार वाला तथा
-
[ गापा : २२३-२२७
जसके ऊपर दो कोस [ ऊंचा है। इसके बीज में एक वामय त स्थित है ।।२२४ ।। गंल एवं उसके ऊपर स्थित प्रासादका वर्णन
मूले मज्झे उधर, चउ-युग-एक्का कमेण वित्यिष्णो । दस जोयम-उच्छे हो, चउ-तोरण बेडियाहि कयसोहो ।।२२५ ॥
| ४ | | १ १ १
अर्थ :- उम (
) का विस्तार मूसमें चार योजन, मध्य में दो योजन और ऊपर एक योजन है । वह दस योजन ऊंचा और चार तोरण एवं वैदिकाने शोभायमान है ।।२२५|| तप्पवयस्स उपरि बहुमके होनि विरुद्ध
वर रयण मंथनमत्रो, गंगा डोलि
-
-
:- उस पर्वतके ऊपर बहुमध्यभागमें उत्तम रत्नों एवं स्वर्ण निर्मित और गंजाकूट नामसे प्रसिद्ध एक दिव्य प्रासाद है ।। २२६ ।
-
a, faforg
८. रु. अ. प. स. बस
पासादो' । नामेन ॥२२६॥
च - तोरणेहि जुत्तो वर-वेदी-परिगयो विचियरो |
बहुविह जंस - सहस्सों, सो पासाबो बिमानो ।।२२७||
१. क. ज. स. सहा २. ६. ज. उ. बिरमारा । मैं. फ. ज. य. . सेसा । ४. क. ए.ए. ५. क. ज. उ. सोहा । ६ क. ज. बाउ पालादी । ७. ८.
वय उपरि
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________________
[ ६७
गापा : २२८-२२६]
उत्यो महाडियारो भ:-वह प्रासाद बार तोरणों से युक्त, उत्तम वेदीसे घेष्टिन, मतिविचित्र, बहुत प्रकारके हजारों यंत्रों सहित और अनुपम है ।।२२७।।
मूले मामे उवार, ति-पु-'-एक सहस्स-का-विश्वारो। वोच्चि - सहस्सोसुगो, सो बोसदि कूब - संकासो ॥२२॥
।३००० । २००० । १००० । २००० ।
प्र:--वह प्रासाद मूलमें तीन ( ३०००) हजार, मध्यमें दो (२०००) हजार और ऊपर एक ( १००० ) हजार धनुष प्रमाण विस्तार युक्त है तथा दो { २००० ) हजार धनुष प्रमाण ऊँचा होता हुआ फुट सदृश दिखता है ।।२२८।।
तस्सम्भंसर - हरो', पानासम्भहिम - सत्त • सय-चंडा । चालीस - चाव - वासं, असोधि - उपर्व च तद्दार ॥२२६।।
७५० । ४०1०। वर्ष:-उसका अभ्यन्तर विस्तार सातसो पनास ( ७५०) धनुष है तथा वार पालीस ___ धनुष विस्तारवाला एवं अस्सी धनुष ऊंचा है ॥२२६॥
[ सालिका ६ प्रगने पृष्ठ पर देखिये ]
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________________
तालिका ६
कर
६३ योजन
मौक
योजन
- सिन्धु नदियोंसे सम्बन्धित प्रणाली, कुछ एवं द्वीप आदिके विस्तार मावि की तालिका
गा० २१७ २२६
के भूम में स्थित कृणों को
६०
१. को
कृष्ण के
विषय होचों की
१० मन
बिस्तार
---
अवर ऊ
१ जोबन
१- योजन
मार्गदर्शक: आचार्य श्री सुसनगर जाँ
दोपवित को
भूम में मध्य
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ऊपण
१ जन
Enf
२... गुप
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को
परम
मूग में ऊपर
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Mo...
प्रम्यवर
पॅ
७५० प्रदूष
प्राचार
हारों को
Jange
विस्तार
८. भूत
४० मनुष
s
तिलोपपणती
[ तालिका
Page #96
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________________
पारा : २३०-२२३ ]
वउत्थो महाहियारो मणि-तोरण-रमषिज, वर-वय-कबाउ-शुगल-सोहिल्लं ।
गाणाविह - रयणपहा - निचुन्जोयं विरागवे वारं ॥२०॥ liter: . पू शुक्ल : रिमालोरयों के सहय, उत्तम बलमय दो कपाटोंसे शोभायमान और भनेक प्रकारके रत्नोंको प्रभासे नित्य प्रकाशमान होता हुआ सुशोभित है ।।२३०।।
पर-दि-परिक्ति, घउ-गोउर 'मंस्तिम्मि पासावे ।
रम्मुजाणे' सस्सि', गंगादेवी सयं बसइ ।।२३१॥
मर्थ : - उत्तम वदोसे चेगित, बार गोपुरोंते मुशोभित तथा रमणीय उद्यानसे युक्त उस भवनमें स्वयं गंङ्गादेवी रहती है ।।२३।।
गंगाकुट पर स्थित जिनेन्द्र प्रनिमाका स्वरूपभषणोपरि कास्मि य, निजिर-पडिमानो' सासव-ठिवीभो ।
पेटुति किरण - मंबल - उन्नोहर - सयस - आसाओ' ।।२३२।।
प्रब:--उस भवनके ऊपर कूटएर किरण-समूहसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करनेवाली और शाश्वत स्थितिवाली अर्थात् मत्रिम जिनेन्द्र प्रतिमाएं स्पित हैं ।।२३२।।
आवि-विणपरिमाओं, तामो जाडा-मउहरिल्लाओं'।
परिमोवरिम्भि गंगा, 'अभिसित - मणा व सा पडरि ॥२३३॥
प:-आदि जिनेन्दको थे प्रतिमाएं जटा-मुकुटरूप मेखर सहित हैं। इन प्रतिमानोपर वह गंगानदी मानो मनमें अभिषेकको भावना रखती हुई (ही) गिरतो है ।।२३३।।
[रित्र अगले पृम पर देखिये ]
१.. मंदरमि। २. 5. व. म. . रम्मुण्ाणं। ३. स. ज. य. त. ताम। ४. प.प.क. त. परिमाधि। ..द.क.प.रिडीची, .. ३. सोन। .. . बसमो, का.म.उ. दिसमो। प.प. तोपोग्ब मस पासेह रिल्लायो । 4.क.प. प. उ. पोउम्बा मटर पामेड रिमानो। ६.प.क.ब.प. पमिसित्तुमरापमा, र प्रभिसामापसः ।
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________________
७.
]
तिसापपणतो
[ गावा : २४
Ir
हिमवान पर्वत
MIN
त्रि :-R
EAST का
- "EKS
FC
:
ST.--
N
ALNE
'पुष्फिर-पंकज-पीता', कमलोवर-सरिस-वाण-वर-गेहा । पढम-जिणपडिमाओ, "भजति के तागति निम्बान ।।२३४॥
.य...क.. प. २. भिव।
२. ज. प. उ. पोस।
...व, ब.सति ।
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गापा : २३५-२३८)
पजत्यो महायिारो प:-मादि जिनेन्द्रकी वे प्रतिमाएं खिने हुए कमलासनपर विराजमान हैं और कमसके उदर ( मध्यभाग) सदृश वर्णवाल उत्तम शरीरसे युक्त है। जो ( भव्य गोव) इनकी उपासना करते हैं उन्हें ये निर्वाण प्रदान करती हैं ॥२३४।।
मनानदीका अवशेग वर्णन या
कुउस्स परिखणेणं. तोरण - वारेण 'जिग्गदा गंगा ।
भूमि - विभागे 'बरका, होहण गवा य रजवागिरि ।।२३।।
प:- गंगानदी इस ( गंगा ) कुण्डके दक्षिरण तोरणद्वारमे निकलती हुई और भूमिप्रदेशमें मुस्ती हुई रजतगिरि ( विजयाधं ) को प्राप्त हुई है ।। २३५।।
रम्मानारा' गंगा, संकुसिणं पि यूरो एसा । विनयड्दगिरि-गुहाए, 'पबिसवि 'खियो - मिले भुषंगी ॥२३॥
मपं:-यह रम्याकार गङ्गानदी दूरसे ही संकुचित होती हुई विजयार्घ पर्वतकी गुफामें इसप्रकार प्रवेश करती है जैसे भूजंगी (मपिणी } मितिबिन (बांथी) में प्रवेश करती है। ॥२३६।।
गंगा • तरंगिणीए, 'उभयत्ता - वेरियाग वण - संडा।
प्रत्त - सरूवेणं, 'संपता रजद - सेलंतं ॥२३७।
मपं:-गङ्गानदीकी दोनों ही तट-वेदियों पर स्थित वन-खण्ड प्रखण्डरूपसे रजत ( विजयानं) पर्वत तक चले गये हैं ।।२३७||
वर - वज • कवाडाग, संवरण - पवेसणाइ मोत्तण ।
सेस - गुहाभतरमे, गंगा - ता - वेरि • वर्ग - संग ॥२३॥
प:-उत्तम पञ्चमय कपाटोंके संवरण और प्रवेशाभागको छोड़फर गङ्गातटवेदी सम्बन्धी शेप वन खण्ड गुफाके भीतर हैं ॥२३॥
१ य. पिग्मता। २ क. अ. य. उ. को। ३. ब. उ. रामायाय, क. ब. ए. रम्मामारा। ४. क, ज. य उ. दूरियो। ५. प. ब. क. उ. परिसदि। ६.८. ब. क.ज.पन, मेदाभिमुमनि । ७, ८, क. प. प. उ. उभपसर। ५E.ब.क. ज. न. संप, 4. संमत्त ।
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तिलोयपाणतो [ गापा : २३६-२४२ प्पगिरिस्स' गुहाए, ममण - परेसम्मि होवि विस्तारो। मंगातरंगिलोए, अनु चिय जोयवाणि पुलं ॥२६॥
म:-रूप्याचल ( विजया ) को गुफामें प्रवेश करनेके स्थानपर गङ्गानदोका विस्तार __आठ योजन प्रमाण हो जाता है ।।२३६।।
उन्मग्ना-निमग्ना नदियों का स्वरूप--
विजयरगिरि - गुहाए', संगतू जोपणाणि पोस' । पुम्बाबरायाओ', उम्मग्ग - निमग्न - "सरिमाओ ॥२४०॥
मर:-विजयार्ष पर्वतको गुफामपस भोजन काय गमावाद नदियां पूर्व-पश्चिमसे आई हुई है ॥२४०।।
निय-जलपवाह-परिवं, दव्वं 'गतवं पि मेवि उरित । अम्हा तमहा भन्नाइ, उम्मग्गा वाहिनी एसा ॥२४॥
प:- क्योंकि यह नदी अपने जलप्रवाहमें गिरे हुए भारीसे मारी द्रव्यको भी ऊपरी तटपर ले पाती है, इसलिए यह नदी 'उन्मग्ना' कही जाती है ।।२४।।
णिय-अल-भर-उरि गावं, बव्वं स पिणेवि हेतुम्मि । जैगं तेमं भष्ण, एसा सरिया णिमग ति ॥२४२।।
म:- क्योंकि यह अपने जलप्रवाहके ऊपर प्राई हुई हलकीसे हलको वस्तुको भी नीचे ते वासी है, इसीलिए यह नदी 'निमाना' कही जाती है ।।२४२॥
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१. न. प. मिरि। २. .... ज. प. सामवरणं। 1.ज.क. य. पणरोसा, च. पुपरीस । ४... पुम्बावरा दामो, क. पुम्बावराण बानो। ५.ब. स. मरिमायो । १.क. गहवं पि लोग उपरिमि । ब. न मि मेरि रिमि । प. पुरुषमि पेपि वपरमि । ३. गब पिलो नामि । ७. अ. प. पवाद-पश्चि ।
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गापा : २४३-२४ ] यतत्वो महाड़ियारो
[७३ सेल • गुहागणं, मणि - तोरणदार जिस्सरंतीयो । बना रपवनिम्मिय-कम-पाहबीम 'बिस्मिन्ना ॥२३॥ गण - वेदो - परिखिता, पतरक योनि बोयणायामा ।
पर - रयनमया गंगा - नए पमहम्मि पषिसंति ॥२४४॥
पर्व :-( ये दोनों नदियाँ ) पर्वतीय गुफा-कुण्डोंके मणिमय तोरण द्वारोंसे निकलती हुई रखई (स्थपति ) रलसे निर्मित संक्रम ( एक प्रकारके पुल ) आदिसे विभक्त, वन-वेदीले चेष्टित, प्रत्येक ( नदी ) दो मोजन प्रमाण आयाम सहित पौर उस्कट रत्नोंसे युक्त होती हुई गंगानदीके प्रवाहमें प्रवेश करती है 1१२४३.२४४।। गंगाका विजयास निकलकर समai
ke पन्नास - जोयणाई, अहियं गंगुण पव्यय - पुहाए ।
दक्खिन-दिस - गारेचं. 'खुभिवा भोगीब - पियवा गंगा ।।२४५।।
म:-गङ्गानदी पचास योजन अधिक जाकर पर्वतकी गुफाके दक्षिण विधाके द्वारसे कोधित हुए सर्पके सदृश निकलती है ।।२४५।।
निस्सरिवूनं 'एसा, दक्खिन-भरहम्मि रुप्य सेलायो । उणवीसम्माहिय • सयं, आगच्छवि जोयणा अहिया ॥२४६।।
१६ । ब:- यह नदी विजयार्ष पर्वतसे निकलकर एकसो उनीस योजनोसे कुछ मषिक पक्षिणभरतमें आती है ॥२४६॥
विवा:-भरतक्षेत्रका प्रमाण ५२ योजन है। इसमें से ५० योजन विजयाका व्यास बटा देनेपर (५२६४-५०)=४७१सयोजन अवशेष रहे। इसको भाषा करनेपर (४७६२)-२८॥ योजन दक्षिण भरतक्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है । गङ्गानदी विषयाकी गुफासे निकलकर पक्षिण भरतके मर्षमाग पर्यन्त आई है मत: { २३ २ )-११ योजन वाकर ही पूर्व दिशामें मुड़ जाती है।
... मुसिया।
... (ब), प.प. बट्टा। २. क. प. प. उ. मिलिया। ४.ब.क.अ. य. एसो। ५. इ.ब.क.प. उ.८।
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७४]
तिलोमती
आगंतून 'भियंते, पुण्य' मुहे 'मार्गहम्मि तित्यरे । चोस सहस्व सरिया परिवारा परिसमे
-
अर्थः
[ गाया : २४७-२५१
:- इस प्रकार गङ्गामदी दक्षिण
काशी
प्रमाण परिवार नदियोंसे युक्त होती हुई मन्ततः मागच तोईपर समुद्र में प्रवेश करती है ।। २४७॥
॥२४७॥
→
अच्छाइये मे लंडे ।
गंगा - महाचबीए, कुवज- सरि-परिवारा, हुति म 'अन्य-संधि ||२४८ ||
:- कुण्डोंसे उत्पन्न हुई गङ्गा महानदीको ( ये ) परिवार नदियाँ दाई लेण्डों हो हैं, मार्यखण्ड में नहीं है ।। २४८ ॥
बासट्ठि जोयणाई, दोणि य कोसामि विश्वरा गंगा | पवेसन्पदेसम्म ॥ २४६॥
पण कोसा गाडस,
उबहि
:- समुद्र प्रवेश के प्रदेशमें गङ्गाका विस्तार बासठ-योजन दो -कोस ( ६२३ यो० } और गहराई पाँच कोस हो जाती है ।। २४६ ।।
तोरणोंका सविस्तार वर्णन
गोव-जगदीअ पासे, गहू- बिल-वदजम्मि तोरणं विव्यं । बिबिह-बर- रयण-सचिवं वंभट्टिय- सालभंजिया - विहं ।।२५०॥
वर्ष :- द्वीपकी वेदीके पास नदीजिसके मुखपर अनेक प्रकारके उत्तमोत्तम रत्नोंसे बचित और बम्बोंपर स्थित पुतलिकासमूहसे युक्त दिष्य तोरण है ।। २५० ।।
संभाणं उच्छे हो, तेजवी बोयरपाणि तिथ होता । एवा अंतरानं बासट्ठी भोपरगा 'दुवे कोसा ॥२५१॥
। यो ६३ १ को ३ । ६२ । को २ |
१.व.ब. क.अ.व.उ.विंतो ।
२.व.व.क. . व. पुष्यम हो ।
३. य.
मायमम्मि ।
6. 7. 1916
5, T. 3. WE-finerie
Y. T. R 1 ५. य. जसरि | ६. क. न. म.उ. सम्मि पाद-विवाद.. रे कोसो दूरे कोसा, म. म. वुरे कोचे, ब. पूरे फोटो, उ. पूरे कोक्षा |
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गाथा : २५२-२५५ ]
उत्यो महाहियारो
[ ७५
:- स्तम्भोंकी ऊंचाई सेरान योजन और तीन कोस ( ९३३ यो० ) तथा इनका मन्तराल बासठ योजन और दो करेस ( ६२६ यो० ) है ।। २५१||
छत्ततयादि-सहिया, जिखिन पडिमा 'तोरनुवरिम्मि ।
रिया।।
:- तोरण पर तीन छत्रादि ( छष, भामण्डल और सिंहासन आदि ) सहित तथा स्मरण मात्रसे ही पापोंका हरण करनेवाली जिनेन्द्र प्रतिमाएँ शाश्वतरूपमें स्थित हैं ।। २५२ ॥
बर-तोरसास उबर, पासादा होंति रवरण करणयमया ।
चल तोरण वेरि मुदी, मज्ज-कबाबुज्जल-बुधारा ॥२५३॥
·
-
:- उत्कृष्ट तोरणके ऊपर चार तोरयों एवं वेदीसे युक्त तथा वयमय कपाटोंसे उज्ज्वल द्वार वाले रत्नमय और स्वर्णमय भवन है || २५३ ।।
एवेसु मंदिरेसु पाराविह
·
वेबोओ दिमकुमार लामाओ 1
परिवारा,
अर्थ :- इन भवनोंमें नानाप्रकार के परिवारसे युक्त दिवकुमारी नामक व्यन्तरदेवियाँ बिराजमान हैं ।। २५४ ॥
-
सिन्धु नदीका वर्णन -
पउम 'बहाव पश्चिम-चारेवं हिस्सरेदि सिधु-रावी ।
सट्टा र बास-गाड़ो, तोरण-पहषी सुरखा-सरिच्छा ।। २५५ ।।
१. द... प. उ.सहयो भायो । ५. ८.ब.उ. पोवोर । सवय.. च रावो । ८. हारिच्छा ।
तरियानी "विरावंति ।। २५४ ॥
अर्थ :- सिन्धु नदी पद्मग्रहके पश्चिम द्वारसे निकलती है. इसके स्वानके विस्तार एवं अवगाह ( गहराई ) तथा सोरण व्यादिका कथन गङ्गानदीके सहया है ।। २५५॥
२.म.न. तोरम्मि । ५.ज. प. विशति ६.५. म. पदोदरा.
. . . . . . .
प
७...
प. उ. पहूदी सुरदि -
-
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तिलोयपणती
गाश ! २५६-२९० गंतून गोवा : माहिती बिलसिय - कमलम्पारो, रम्मो बेलिय • साल • बुसे ।।२५६।।
मपं:-थोड़ी दूर चलकर सिन्धु नदीके मध्यमें विकसित कमसके आकाररूप, रमणीय और वैडूर्यमणिमम नालसे मुक्त एक उत्तम कूट ( कमल ) है ।।२५६।।
तस्स बला' भइरता', बोह-जमा होति कोस-दल-मत्त ।
"उच्छहो सलिलाहो, जसरि - पएसम्मि इगि-कोसो' ।।२५७॥
प:-अलके उपरिम भागमें इस फूटकी ऊँचाई एक कोस है। इसके पतं मत्यन्त सास है एवं प्रत्येक पत्ता अर्ष कोस प्रमाण लम्बाईसे युक्त है ॥२५७)
ने कोसा विस्मिणो, “त्तिय-मेलोबएम संपुग्णो ।
बियसंत - पउम - सुमोवमान - संठारख-सोहिस्सो' ॥॥
प्रपं:-( उपयुक्त ) कमलाकार कूट दो कोस विस्तीर्ण है एवं इतनी ही (दो कोस) ॐबाईसे परिपूर्ण यह कूट विकसित कमल-पुष्प सहन साकारसे शोभायमान है ।२५८॥
- इगि-कोसोदय"-इंदा, रयणमई "कपिया य अविरम्मा।
तोए उरि विचिसो, पासाो होवि रमणिनो ॥२५॥
प:-उस कूटकी करिणका एक कोस ऊंची, एक कोस चौड़ी तपा रमणीय एवं रत्नमयी है । उसके ऊपर अद्भुत एवं अति रमणीय प्रासाद है ॥२५६॥
पर-रयग-कंचनमो, फुरत-किरणोष-नासिय"तमोयो । सो उसंगत्तोरण - दुगार-सुबर" - सुट्ट - सोहिल्लो ॥२६॥
१. 4. भूपौ। ३. द. ब. क. ज. स. उ. तमा। ३. ब. अ. ब. स. परिवार .कप. ए.प. बुदो। ५, ..क, ज. प. उ. हा। .... कोसा। य.प. कोस। ७. क. प. य.च. विलियो। १... अ. स. सत्तिक, म. स्थिय । १.२.प. सोहिल्ला । १..द, ब, मोसंबे, ज.म.. कोरस्म । स...ब.क. उ. कम्णिया य पौरम्मा, अ.कणयाप चौरमा, 4. कल्यमया कम्पिया मीरम्मा । १२. प. पुणातिवंत, म. स. पणासिबंसमो, प. एणाभिंत । १३. घ... मुबार, .. उ. पर, ज- मुरा।
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पापा : २६१-२६६ ] चउत्थो महाहियारो
[ ७७ प:-उत्तम रलों एवं स्वर्गसे निमित, प्रकाशमान किरणोंसे मुक्त तमा अंधकार समूहको नष्ट करने वाला यह प्रासाद उन्नत तोरणद्वारोंके सौन्दयंसे मले प्रकार सोभायमान है ।।२६०।।
तस्सि णिलए णिवसर, लषगा गामेष 'तरा - देवी ।
एकक • पलिदोषमाक', गिरथम • लावण्ण • परिपुष्णा ॥२६॥
मर्थ :- उस भवनमें एक पस्मोपम मायुवालो पौर अनुपम लावण्यते परिपूर्ण सवणा नामको ध्यन्तरदेवी रहती है ॥२६१।।
परम - दहावी पणुसये - मेताई जोयणाई गंतूणं । सियू - कूटमपचा',दु - कोसमेसेण वक्खिणावलिदा' ।।२६२॥ उभम-सम्वेवि सहिदा, उबवण-संगहि सुछ सोहिल्ला ।
गंग व पाय तिथू, निम्भाशे सिंध • कूर-उरिस्मि ।।२६।।
पर्ष:-पपदहसे पाचसौ योजन प्रमाण आगे जाकर, सिन्धुकूटको प्राप्त न होती हुई और उससे दो कोस पहिले ही दक्षिणको मोर सुरतो हुई, दोनों तटोंपर स्थित वेदिका सहित तथा उपवन खण्डोंसे भले प्रकार शोभायमान सिन्धु नदी गङ्गा नदीके समान जिबिकासे सिन्धुकटके काय गिरती है ॥२६२-२६३।।
क वीवो 'सेलो, भवणं भवनस्स उबरिमं कर। तस्सि लिगपडिमामओ, सर्व पुव्वं व वत्तव्वं ॥२६४।।
:-कुण्ड, द्वीप, पर्वत, भवन, भवनके ऊपर कूट और उसके ऊपर जिनप्रतिमाएं इन उदका कपन पहिलेके समान ही करना चाहिए ॥२६४।।
णवरि बिसेसो एसो, सिकूडमिम सिंधुदेवि ति।।
बहुपरिवारहि गुदा, उपभुजदि बिबिह-सोक्शाणि' ।।२६५।।
म :-विशेषता केवल यह है कि सिन्धु टपर बहुत परिवार सहित सिन्धुदेवो विविध सुखोंका उपभोग करती है ॥२६॥
गंगामई व सिष, विजयद्र - गुहास उत्सर । दुबारे । पविसिय वेदी - बुषा, बक्खिन • वारेण मिस्सरवि ।।२६।।
१. य. ज. वितरा। २. क. प. य. स. पमिलोबमानो। ३. ३. रु. *. य. २. मपत्तो। ४. क.स. बलियो। ... डीवा। क. प. उ. पेला । ७. द.ब.क.न.प. व मोक्शाएं।
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सिलोय पणती
[ गाथा २६७-२७०
:- गङ्गा नदीके सहा सिन्धु नदी भी विजयाचंकी गुफाके उत्तर द्वारसे प्रवेशकर वेदी सहित दक्षिण द्वारसे निकलती है ।। २६६ ।।
ོད།
दक्षिण-भरहल
पाविय पश्चिम भारत-सित्वम्मि ।
बोस सहस्स सरिया, परिवारा पविसए ह ।। २६७ ।।
Boon
एवं :- पश्चात् दक्षिण भरतके अर्ध धाराको प्राप्त कर चौदह हजार परिवार-नदियों सहित पश्चिम ( विद्या स्थित ) प्रभास तीबंपर समुद्र में प्रवेश करती है ॥ २६७॥
उ. गई।
माि ।
१.
=
तोरन उहाणी' गंगाए बन्दिा जहा पुणं । बसमा मिचन हिं ॥ २६८ ॥
"तसम्बा
सिए
-
1
अर्थ :- जिस प्रकार पहले गङ्गानदीके वर्णनमें तोरणोंकी ऊँचाई भादिका विवेचन किया जा चुका है, उम्ररेप्रकार बुद्धिमानों को उन सबका कथन यहाँ भी कर लेना चाहिए || २६८ ॥
भरतक्षेत्र के खण्ड विभाग-
गंगा सिधु नहि, बेगड - कोन' भव्हतेसम्म
वनसं
संजाएं,
विभागं
-
t
४. ६
अर्थ :- गंगा एवं सिन्धु नदी भौर विजयार्थं पर्यंत भरतक्षेत्रके जो छह लण्ड हुए हैं, अब उनके विभागका प्ररूपण करता है ।। २६९ ॥
Jan-22
पवेमो ।।२६१।।
उत्तर-बक्लिम-भरहे', 'संडानि तिमि होंति पक्कं ।
क्लिन-तिय- अक्वा संयत्ति 'मल्लिो ॥ २७० ॥
I
:- उत्तर और दक्षिण भरतक्षेत्र में प्रत्येक क्षेत्रके तीन-तीन बण्ड हैं। दक्षिण-भरत के तीन खण्डों में मध्यवर्ती खण्ड आर्यन है ।।२७० ॥
ज. प. चहादी । २. ब. ब. स. प. प. उ. पस्वष्यं । . . . क. प. प. उ... म बा
३. . . . .प.
4. C. T. 5. T..
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गाथा : २७१-२७७ ]
थो महाहियारो
सेसा वि पंच अंडा, नामेनं होति 'मेन्द्र
उतर तिथलंबे
-
चक्कण मात्र मथणो, मूलोवरि मशेतु
·
१.
६. विश्वास
-
:- शेप पांचाही खण्ड खण्ड
इ नागसे, प्रसिद्ध है।, जुत्तर-सरतके तीन खण्होंने मध्यवर्ती खण्डके बहुमध्यमागमें चक्रवतियों के मानकों मर्दन करनेवाला, नाना चक्रवर्तियोंके नामोंसे अंकित ( आधारित ), मूल, मध्य एवं शिखरमें उन रत्नमय वृपमगिरि है ।। २३१-२७२ ।।
भगिरिका वर्णन—
-
जोयण सथ मुविद्धो, पणुबी जोपणाणि गाढो ।
एक्क सम मूल-ह दो, पण्णत्तरि मज्झ वित्पारो ॥ २७३॥
-
₹
सि
मक्रिम खंडस बहु-मम् ॥ २७९ ॥
मूलमें सौ (१००) योजन और मध्यमें पचहत्तर ( ७४ ) योजन विस्तारवाला है ।।२७३॥
जाजा चक्कर णाम- संयुगो । रयणमओ होनि बसहगिरी ।। २७२ ।।
। १०० । २५ । १०० १७५१
- यह पर्वत सौ ( १०० ) योजन ऊंचा, पच्चीस (२५) योजन प्रमाण नींववाला,
-
पणास जोयचा, "बित्वारो होदि तस्स सिहरम्मि ।
मूलोभरि म बेटुले
-
I
·
-
-
-
अर्थ :- वृषभरिका विस्तार शिवरपर पचास योजन प्रमाण है। इसके मूलमें, मध्यमें ओर उपर वेदियों एवं वनखण्ड स्थित हैं ॥ २७४ ॥
-
ब-तोरणं 'बुता, पोलारिणी-वामि-कूप-परिपुष्णा ।
मरगय
वज्जिद बोल कस्केयन पउमरापमया ।।२७५।। हॉसि] हु बर पासावा, विचित्त-विन्यास-ममहरायारा ।
बिष्यंत रयन बीवा, बसह गिरिवरस सिहरम्मि ॥ २७६ ॥ बर-यन-कंचनमया, जिनमवा दिविहन्तु दराधारा ।
टुति बन्नचाओ, पुष्यं पिच होंसि सम्धाओं ॥ २७७॥
-
| २. ६. न. सं
५. व. ब. क. म. म.उ. सो
वेदि बन संडा ॥ २७४॥
·
-
-
[ 192
३. ८. एकस्टम । Y. . . .
७. प. प. क्र
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८० ] तिलोयपणतो
[ गापा : २५-२६१ प:-वृषभगिरोन्द्र के शिखर पर पार तोरणों सहित. पुष्करिणियों, वावड़ियों एवं कूपोंसे परिपूर्ण; बज, इन्द्रनील, मरकत, कर्केतन और पपराग परिणविशेषोंसे निर्मित विविध रबमाओसे मनोहर आकृतिको धारण करने वाले मौर देदीप्यमान रत्न-दीपकोंसे युक्त उसम भवन है तया उत्तम रनों एवं स्वर्णसे निमित विविध सुन्दर माकारोंबाले जिनमवन स्थित है। इनका (अन्य) सर वर्णन पूर्व परिणत प्रासादों एवं जिनभवनोंके सदृश है ॥२७५-२७७।।
गिरि - उरिम - पासावे, बसही नामेण घेतरो देवो। बिबिह-परिवार-साहितो, उपसुपरि विषिह-सोसाई ॥२७॥
वृषभेनाको स्तर इस पलक परिमानों अपने विविध परिवार सहित अनेक प्रकारके सुखोंका उपभोग करता है ।।२।।
एक - पलिरोबमाक,- पस-बाव-पमागह-जयहो । पिपुल्यो' 'बीहजो, एसो सम्बंग • सोहिल्लो ॥२७६।।
। एबं गई। प:-यह देव एक पल्योएम प्रायु सहित, पस धनुष प्रमाण शरीर की ऊंचाई वाला है। विस्तृत-वक्षःस्पल और लम्बी भुजानोवाला यह देव सर्वाङ्ग सुन्दर है ।।२७६।
। छह मण्डों का वर्णन समाप्त हुमा ।
कालका स्वरूप एवं उसके भेट तस्सि मज्जा - रे, नाना - मेहि संतुदो कालो।
पट्टा तस्स सहय, बोदामो मागपुग्नीए ॥२०॥
वर्ष :-उस प्रायंचाहमें नाना भेदोंसे संयुक्त कालका प्रवर्तन होता है, उसके स्वस्पको मनुक्रमसे कहता है ॥२८०
फास-रस-गंभ-सम्मेहि' विरहितो अगुस्सा-पुन तो। बहस - लस्थान - कलियं, काल - सकर्ष मे होरि ॥२१॥
१. . रघुगंको, २. क. स. गहमंधी, प... धुनो। २, ... २.प.ब.क... सम्सोबादि ।
. प. उ. विसंबो।
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गावा : २८२-२८६ ] पजत्थो महाहिगारो
[ १ भ:-स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण रहित, अनुरुलघुगुण सहित और वर्तमालक्षण युक्त ऐसा कालका स्वरूप है ।।२८१॥
कालास वो वियप्पा, मुस्खामुपक्षा हवंति एवेतु।।
मुक्सापार • बलेनं, अमुक्स - कालो पट्टेवि ।।२८२।।
भ:-कालके मुख्य ( निश्चय ) और अमुख्य ( व्यवहार ) इस प्रकार दो भेद है। इनमेंसे मुख्य कालके आश्रयसे प्रमुख्य ( व्यवहार ) कानकी प्रवृत्ति होती है ।।२८२।।
जोबाण प्रमालाणं, हर्षति परिवटटवाइ विविवार ।
एदान" पम्चीया, बट्टत मुक्स काल आधार शिक्षा
मपं:-जीवों और पुदगलों में विविध परिवर्तन हुपा करते हैं। इनकी पर्याय मुख्य-कामके मायसे प्रवतंती है ।।२३।।
सम्माग पयत्वाणं, पियमा परिणाम - पदि-वित्तीयो।
बहिरंतरंग - हेतू' हि सध्यम्मेवेसु बटॅति ॥२८४।।
प:-सर्व पदार्थोके समस्त भेदों में नियमसे बाए भोर अभ्यन्तर निमित्तोंके वारा परिणामादिक ( परिणाम, किया, परत्वापरत्व ) वृत्तिमा प्रयतंसी हैं ।।२८४।।
बाहिर-हे "कहियो, पिण्यप-कालो ति सम्यवरितीहि ।
अभंतरं निमित्त, गिय णिय वन्वेसु ठेवि ॥२५॥
मपं:-सर्वशदेवने निश्चय कालको सर्व पदार्थोके प्रवर्तनेका दाह्य निमित्त कहा है। म्यन्तर निमित्त ( स्वयं ) अपने-अपने द्रव्योंमें स्थित है ।।२।।
कालस्सा-भिन्ना, 'अन्लोण - पवेतमेण परिहोगा।
पुह पुह सोयायासे, चेते "संचएण विणा ॥२६॥
मय:-अन्योन्य-प्रवेशसे रहित कालके भिन्न-भिन्न अणु संचयके विना लोकाकाणमें पृषक-पृथक स्थित है ॥२८६१
१. प. प. उ. हि । २.क.ब.प. उ. कहिया। ३... पण, . प्रमा, य पाला। ४. प. प. पच्चएण।
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: २०७-२६०
६२ ] तिलोपपत्तो
गामा : २८५-२६० व्यवहारकालके भेद एवं उनका स्वरूप-- समयावलि - उस्सासा, पाणा योषा य भाषिया 'मेरा ।
गबहार - कास - गामा, णिहिट्ठा बोयराएहि ॥२७॥
भ:-समय, आवलि, उच्छ्वास भाग एवं स्तोक इत्यादिक वीतराग भगवान द्वारा व्यवहार कामके नामसे निर्विष्ट किये गये हैं ।।२८७।।
परमाणुस्स णिय-टिव-गयण-परेससदिक्कमल-मेतो ।
जो कालो अविभागो, होवि पुर समय - भामो सो ॥२८॥
प:-पुदगल-परमाणुका निकटमें स्थित भाकाश-प्रदेशाके अतिक्रमण-प्रमाण चो अविभागी काल है, मही 'समय' नामसे प्रसिद्ध है ॥२८॥
होति हु मसंख-सममा, आवलि-णामो' तहेव उससासो । संखेमालि-नियहो, सो बिम' पानो शिविसादो ॥२८॥
प्रबं:-असंश्यान समयोंको शवली और संख्यात जावलियों के समूहरूप उच्छ्वास होता है। यही उम्छ्वास काल 'प्राण' नामसे प्रसिद्ध है ।।३८६।।
सन्तुस्सासो थोषो, सत्तस्योगा* समित्ति गारयो। सत्तसरि • दलिय - समा', गालो में णालिया मुहसं च ॥२toil
प्रबं:-सात उच्छ्वासोंका एक स्तोक एवं सात स्तोकौंका एक सव जानना चाहिए। सतत्तरके आधे (२८१) लकोंकी एक नामी और दो नालियोंका एक मुहूर्त होता है ।।२१०।।
७ उच्छ् । स्तोक । ७ स्तोक-१ लव । ३८ लव- नाली । २ नाली= १ मुहूर्त ।
१. द... क.अ. य.च. दो। २... विक्कमेती , क.क. प. उ. दिपकोणत्तो। ३.अ.म. रगाहो। ४...ब.क. स. उ. पिय-दरणी ति, य. बिपरणकोति। ५. इ. सत्तरोबायपावसिसि कहतत्वों मानिति, के. सतलोवोत्तमी ति, उ. मत्तत्वोगावमतिता बमो। अ.. ससरपौवा बोसि हादया। ६...ब.क. ज. स. उ, भया। ५. इ.स.क.न.:
.प.प. I:
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गाथा : २६१-२६५ }
रउत्थो महाहियारो समऊमेक • मुहत्तं, भिण्णमुहूतं मुहत्तया सीसं ।
दिवसो पगारसेहि, शिवसेहिं एक्क - पालो' ॥२६॥
पथ :-समय कम एक मुहूतंको भिन्नमुहूतं कहते हैं । तीस मुहूर्तका एक दिन और पन्द्रह दिनोंका एक पक्ष होता है ।।२६१॥
यो पाहि मासो, मास - बुगेनं उडू उत्तिवयं ।
अपर्ण अयण - युगेनं, परितो पंच - वल्रेहि जुर्ग १२६२॥
प:-दो पक्षोंका एक माम, दो मामोंकी एक ऋतु, तीन ऋतुओंका एक प्रयन, दो अयनोंका एक वर्ष और पाच वर्षाका एक युग होता है ॥२२॥
माषादी' होति उडू, सिसिर-वसंता भिवाघ-पाउसया ।
सरमो हेमंता वि य, जामाई ताण जाणिज्नं ॥२६३।।
पर्व:-माष माससे प्रारम्भ कर जो ऋतुए होती हैं उनके नाम शिशिर, वसन्त, निदाघ (ग्रीष्म ), प्रावृष ( वर्षा ), शरद् और हेमन्त, इस प्रकार जानने चाहिए ॥२३॥
'वेषिक जगा इस परिसा, ते क्स-गुणिला हवेदि वास-सदं ।
"एवस्सि बस - गुणिदे, वास - सहस्सं बियाणेहि ॥२४॥
प्रपं:-दो युगोंके दस वर्ष होते हैं। इन दस वर्षोंको इससे गुणा करने पर गत ( सो) वर्ष और पतवर्षको दससे गुणा करने पर सहस्र ( हजार ) वर्ष जानना चाहिए ।।२६४||
वस वास-सहस्साणि, बास - सहसम्मि बस-हवे होति । 'तेहि यस • पुगिहि, सावं णामेण नादम् ॥२६॥
अपं:-सहन वर्षको दससे गुणा करनेपर दस-सहावर्ष और इनको भी दसमे गुणा करने पर लक्ष ( लाख ) वर्ष जानने पाहिए ।।२६५॥ --.-. -
1. ८.ब. क. ब. म. न. पा । २. क. ४. मामादी। 4. 5. वेरिण न. य.रोपिण, पिण। 1. पदेसि, क. य. एवस्ति । ५. प. य. इव। . प. य. दिदि ।
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तिलोप्पणसी
[ तालिका : सानिका : ७
आवलीसे लला पर्यन्त व्यवहार कालाकी परिभाषाएँ १. असंख्यात समय = १ प्रावली । २. संख्यात भावसी (या सेकेन्ड )= उच्छ्वास ।
३. ७ उपवास (गा f सेकेण्ड )-१ स्तोक । मार्गदर्शक स्तोसमालो हाराज
५. ३२ लब (या २४ मिनिट )-१ नासी । ६. २ नासी (या ४८ मिनिट )- १ मुहूर्त . ५. [१ मुहूर्त-१ समय-भिन्नमुहूर्त ] ६. ३० मुहूर्त (या २४ घण्टा )= दिनरात । १. १५ दिन= ? पक्ष । १०.२ पक्ष=१ मास । ११.२ मास= ऋतु। १२.३ ऋतु=१ प्रयन ( ६ माम)। १३. २ अयन=१ वर्ष । १४, ५ वर्ष- ५ युग 1 १५. २ युग-दस वर्ष १६. १०x१० वर्ष =शत वर्ष १७. शस :१०सहन वर्ष १८. सहन x १० = इस सहन वर्ष । ११. १० सहस्त्रx१लक्ष वर्ष ।
पूर्वाङ्गसे अचलारम पर्यन्त फालांशोंका प्रमाण - चुलसीवि - हलालं, पुम्बंगं तस्स वग्ग परिमाण । पुर्व सत्तरि कोबी, लाला छम्पन्न तह सहस्सानि ॥२६॥
७०५६००००००००००।
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गया : २१७-२६६ ]
उत्थो महाहियारो
[ ८५
:--- एक लाल वर्ष को चौरासीसे गुणा करनेपर एक 'पूर्वाङ्ग' और इसका वर्ग करनेपर प्राप्त हुए ७०५६०००००००००० को 'पूर्वका' प्रमाण जानना चाहिए ।। २६६।।
विशेधार्थ :- (१) १००००० वर्ष ८४ = ८४००००० वर्षका एक पूर्व । (२) ६४ सा० * ८४ लाख=७०५६०००००००००० वर्षका एक पूर्व ।
पुव्वं चउसीदि हवं, पच्वंगं होरि तं पि गुजियां । पश्च परिमाणं ॥ २६७ ॥
चसोबी - लरखेहि,
गावच्या
-
unfavia.... आर्य श्री अि
:- पूर्वको चौरासीसे गुणा करनेपर एक पर्वाङ्ग' होता है और इस पर्वाङ्गको चौरासी लाखसे गुणा करनेपर एक 'पर्वका' प्रमाण कहा गया है ॥२७॥
(३) एक पूर्व ८४ = ५६२७०४४ १० शून्य प्रमाण वर्षका एक पर्वाङ्ग । (४) एक पर्वा × ८४ लाख ४६७८७१३६५ १५ शून्य प्रमाण वर्षका एक पर्व ।
=
पध्वं उसी िहवं, सीदी सबसे हि
4
उबंगं होषि तं पि गुणिभ्वं । उदस्स' पमानमुट्ठि ।। २६८ ।।
अर्थः- पर्वको चौरासीसे गुणा करनेवर एक 'नयुताङ्ग' होता है और इसको चौरासी लाखसे गुणा करनेपर एक 'नयुक्त' का प्रमाण कहा गया है ।। २१८ ||
विशेष :- ( ५ ) एक पर्व x ४ = ४१८२११६४२४४ १४ जून्य प्रमाण वर्ष का एक नयुता । ( ६ ) एक नयुताङ्ग ६४ लाख - ३५१२६८०३१६१६९२० शून्य प्रमाण वर्षका एक नयुत ।
जयं चउसीदि हवं, कुमुदं होवि पि गुणिवव्थं ।
उसीबिल वासेहि' कुमुदं णामं समुद्दि ||२६||
-
अ :- चौरासीसे गुणित नयुत प्रमाण एक 'कुमुदाङ्ग' होता है। इसको चौरासी लाख वर्षो से गुणा करनेपर 'कुमुद' नाम कहा गया है ।। २६६ ॥
वार्थ:- ( ७ ) एक नयुत ८४-२६५०६० ३४६५४७४४२५ शून्य प्रमाण वर्षका एक कुमुदाङ्ग । (८) एक कुमुदाङ्ग x ८४ लाख २४७८७५८६११०८२४६६४२५ मूल्य प्रमाण वर्षका एक कुमुद
१. य. वस्स । २य मूि
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2152HREE
२६ ]
तिलोयपण्णत्ती [ पाथा : ३००-३०३ कुमुवं चउसीदि हवं, पउमंग होवि पि गुणियम् ।
भजप्सीवि - सक्लवासे', परमं नाम समुहि ॥३०॥
प्रपं: - चौरासीसे गुणित कुमुद-प्रमाण एक 'पान' होता है। इसको चौरासी बाब वर्षासे गुणा करनेपर 'पन' नाम कहा गया है ।१३००।।
विदा :-(1) एक कुमुद x८४२०८२१५७४८५३०१२९६६४४२५ शून्य प्रमाण एक पगा। (१०) एक पपाङ्ग ४ लाख= १७४६०१२२८७६५६८०६१७५६४३. शुन्य प्रमाण पौका एक पथ।
परमं चउसीधि - हई, गसिनगं होवि तं पि गुणिवळ ।
बउसीदि - सक्लासे, नलिनं पार्म बियाणाहि ॥३०१॥
पर लोकली से गणित प्रश्नमाण एक मलिना होता है। इसको पौरासी लाख वर्षोंसे गुणा करनेपर 'नलिन' नाम जानना चाहिए ॥३०॥
विवार्थ:-(११) एक पxx८४- १४६६१७०३२१६३४२३६७०६१८४४३० गुन्य प्रमाण वर्षाका एक नसिनामा (१२) एक नलिना ८४ लाख १२३४१०३०७०१७२७६१३५५७१४४६४ ३५ शून्य प्रमाण वर्षोंका एफ नलिन ।
गलितं चउसोदि - गुगं, कमलंग णाम तं पि गुभिवम् ।
घउसीदो - साहि, कमल गामेण गिट्टि ।।३०२॥
प्रध:-चौरासीसे गुरिणत नलिन प्रमाण एक 'कमलाङ्ग' होता है । इसको चोरात्रीसालसे गुणा करने पर 'कमल' नामसे कहा गया है ॥३०२।।
विवा:-१३) एक नलिन४८४=१०३६६४६५७८१४५११६५३८८००२३०४४ ३५ शून्य प्रमाण वर्षाका एक फमलाज। (१४) एक कमलागर लाल-७०७५३१२६३१३२००४१२५९२१९३५३६ ४ ४० शून्य मर्षात् ६७ अंक प्रमाण वर्षाका एक कमल ।
कमलं घडीदि • गुन, तुम्बिंग होदित पि गुणिरवं। उसीवी - सक्लेहि, तुरिद गामेन गादम्वं ॥३०३।।
१.६.२. क. प. उ. बाहि
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गाथा : ३०४-३०६ ] घउत्थो महायिारो
मर्ष:-कमलसे चौरासी-गरणा त्रुदिताग होता है । इसको चौरासी-लाखसे गुणा करने
समझना चा
प्राक
विरोवार्य :-{१५) एक कमल X८४-७३१४५७८२६१०३६७६३४६५७७४४२५७०२४ x४० शून्य प्रमाण वर्षाका एक ऋटिताङ्ग। {१६) एक ऋरिता ४ लाख ६१४४२४५७३t२७०१८१३११२५०२१७५६००१६x४५ शून्य अर्यात् ७६ अंक प्रमाण वर्षाका एक त्रुटित ।
तुवि घउसोषि-हवं. 'पडलंग होरि तं पि गुरिणवच्वं ।
घउसोरी - सोहि, आई सामेण गिदि ।३०४।।
पर्ष:--चौरासीसे गुमिगत बुटित-प्रमाण एक 'प्रटटान होता है। इसके चौरासीलालसे गुणित होने पर अटट ( इस ) नामसे कहा गया है ।।३०४।।
विरोधा:-(१७) एक त्रुटित X८४ = ५१६११६६४३.१८७५४०३०१४५०४३४७७५६९३४४४४५ शून्य अनि ७६ अंक प्रमाण वर्षाका एक अटटान ।।१८) एक अट टांग४८४ सालमन ४३३५३७६७६३६२६५३३८५३२१८३६५२११५१५२८६६४५० शून्य प्रमाश वर्षोका एक पटट ।
अर बाउसोवि - गुलं अममंग होवि तं मि गुरिणबध्वं । चउसौगो - साहि, अमर्म रखामेण णिहि ॥३०॥
वर्ष:-पोरासीसे गुणित भटट-प्रमाण एक 'मममांग' होता है । इसको पौरासीलाखसे गुणा करने पर 'अमम' नामसे निविष्ट किया गया है ।।३०५।।
दिशेचा :- (१६) एक अटट ४८४-३६४१७१६०२६६४८८७६४३६७०३४२६७७७६७२८४३२१४४५० अन्य प्रमाण वर्षाका एक मममांग। (२.) एक प्रममांग ४८४ लाख ३०५६०४३६२३९४६६६०८६८३०८७८४६३२४५१८८३४१७६४५५ शून्य प्रमाण वर्षाका एक अमम।
मममं घरसोधि - गुणं, हाहंग होरि त पि गुरिणवम्बं । बरसीयो • सक्लेहि, हाहा गाम समुष्टि ॥१०॥
--- - .--..... १. न. म. पनि । २ प. य. हाँग। ३. क. र. प. उ. सामस्सर।
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८]
तिलोयपण्णत्ती
[ गाया : ३०७-३०९
अर्थ :- चौरासीसे गुरिंगत 'मम' प्रमाण एक हाहांग होता है। इसको चौरासी लाख गुणा करनेवर 'हाहा' नामसे कहा गया है ||३०६ ॥
विशेषा (२१) एक श्रमम ८४-२५६६५९६६४४२०३३६६२३२८३७६३७९३४३२५९५८२०७०७८४ x ५५ शून्य प्रमाण वर्षों का एक हाहांग (२२) एक हाहांग x ८४ लाख - २१४८४६१४३३९७०८५५३५४६६७८६७८६४८३३८०४८६३९४५८५६ ६० शून्य प्रमाण
वर्षोंका एक हाहा ।
हाहा-चडलोदि गुणं, हूगं होषि तं पि गुणं ।
उसीवी सबसेहि, हूहू
का एक हुहू ।
a
:- हाहाको चौराहेरचेपण
गुणा करने पर 'हूहू' नामक कालका प्रमाण होता है ||३०७ ||
-
विशेषा :- ( २३ ) एक हरहा ८४१८१३१०७६०४५३२५९८४६८७६१००१००६४६०३६६११०६१४५१६०४६० शून्य प्रमाण वर्षोंका एक इहांग। (२४) एक हांग x ८४ लाख १५२३०१०३८७६०६८३५५३८६५६२४७५६५४२६७३२७३३१६८१९४९६३६६५ शून्य प्रमास
4
·
हूहू चलसीवि गुणं, एक सवंग हवेदि गुणणं ।
उसीबी लक्खेहिं परिमानमिनं
-
सामस्स परिमाणं ॥३०७॥
-
होलसे
·
:- चौरासी गुणित इनका एक 'लतांग' होता है। उसको चौरासीलाखसे गुरणा करनेपर 'लता' नामक प्रमाण उत्पन्न होता है ।। ३०८ ||
-
लबा नामे ||३०६॥
:
X
विधा :- (२५) एक हूहू x ८४ - १२७९३२६७२५७६०२६१८५२७२५७६७१५४६५८४५५४६५८६ १२८४६३४६२४४ ६५ शून्य अर्थात् १ १४ अंक प्रमाण वर्षोंका एक लतांग । (२१) एक लतांग x ८४ लाख – १०७४६३६१२९६३८६१९६४६२८६६४४०२१६४१०२६१६५२३४७६०६३०८४१६४७० शून्य अर्थात् १२१ अंक प्रमाण वर्षोंका एक लता ।
चजसीवि हव लाए, "महालवंग हवेदि गुणिदव्वं ।
सीदी - बहि,
महालवा
१. ज. शामो । २. व. मत न ज य च लतामं ।
नाममुट्ठि ।।३०६ ॥
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गाथा : ३१०-३१२
उत्यो महाहियारो
[ Fe
:- चौरासी गुणित लता - प्रमाण एक 'महालतांग' होता है। इसको चौरासीला खसे गुणा करनेपर 'महालता' नाम कहा गया है ।। ३०९ ।।
बिमेवार्थ :-- (२७) एक लता x ४ = ६०२६६४३४८८९६४४०७६३२८१३० १८६६०१८६८६१९७८७१७९२४३८१६०६९४४४७० शून्य प्रमाण वर्षोंका एक महालतांग । (२८) एक महालतांग x ८४ लाख = ७५८२६३२४३०७२० १०२४११४७९७३५६६६७५६९६४०६२१८६६६८४८०८०१८३२६६४७५ शून्य प्रमाण वर्षोंका एक महालता
चउसीदि-लक्ल-गुणिवा', महालवादी हवेशि सिरिकप्पं ।
उसीदि लक्ख गुणियं त हत्यपहेलियं णाम ।। ३१० ।।
प्र:- पौरासी लाख गुणित महालता - प्रमाण एक 'श्रीकल्प' होता है इसको चौरासीलाखसे गुणा करनेपर 'हस्तप्रमा होता है राज
विशेवार्थ:- (२६) एक महालता x ८४ लाख ६३६९४११३२५८१३२८६०२४७२६६७७६८७७६५८४९५१२२३६३२१५२३८७३५३६६६६४४८० शून्य प्रमाण वर्षोंका एक श्रीकल्प होता है। (३०) एक श्रीकल्प × ८४ लाख - ५३५०३०५५१३६८३१६०२६१६१०६६१५० ६७४८५१३८४२२०१०३००८००५३७७३३३६५७६४ ८५ शून्म प्रमाण वयका एक हस्तप्रहेलित होता है । हत्यपहेलिय नामं, गुनिदं धउसी िलक्स बासेहि । अवलम्प' णामधे ओ, कालं कालानुवेषि - गिट्टि ।।३११।।
+4
-
·
प्रयं - चौरासी लाख वयंसि गुरिणत हस्तप्रहेलित प्रसारण एक 'भवसारम' नामका काल
1
पप्पा
होता है, ऐसा मालाणुओं के जानकार प्रर्थात् सर्वशदेवने निर्दिष्ट किया है ॥ १११ ॥
१.ज. प.
विशेषार्थ :- (३१) एक हस्त प्रहेलित x ८४ लाख ४४९४२५६६३१४९३८५४६१९७५२१४५६६८१८८७५१६२७५१६०६५२६७२४३१६९६०२७२३८४९० शूभ्य प्रमाण वर्षोंका एक श्रचसात्म नामका कालांश होता है ।
एक्कसीस हाणे, अन्णोश्म - हदे लक्ष
→
-
वसोवि पुह पुह हमे
अवलध्वं होवि 'भतवि-गंगं ॥३१२ ।।
६४ | ३१ | १० |
२६ सिरिकंप, अ. अ. ३. सिरकं ४ व कालाउ हवेदि, व. काणु दि 1.
। !..
you cut it.
4. 4. fofegri 1. E. Mufti
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तिलोमपम्पत्ती
[ गापा : १३ प:-पृथक-पृथक इकतीस ( ३१) स्थानों में चौरासी (८४ ) को रखकर और उनका परस्पर गुणा करके मागे नब्बे शून्य रखमेपर 'मबलात्म' का प्रमाण प्राप्त होता है ।।१२।।
शिपाय:-४५४६. शून्यम्मरलारम नामक कालापा । अपत्ति १५० अंक प्रमाण बोंका एक अवसारम होता है ।
एवं 'एसो कालो, संजो बच्छराण गणाए ।
उपस्करसं संखेच, 'जाम तापं 'पदसओ ॥३१३॥
ब:- इसप्रकार वर्षों की गणना द्वारा जहाँ तक उत्कृष्ट संन्यात प्राप्त हो वहाँ तक इस संख्यात कालको ले जाना पाहिए अर्थात् ग्रहण करना चाहिए ।।३१३ ।। वयपारदर्शक :...
ETAHATE X XX एत्व उनकस्स-संखेन्जय जाण-निमित्त जंबूदोष-वित्पारं सहस्सजोपण अश्वेष* - पमाणं च चत्तारि -सराण्या' कारण। · सलागा परिसलागा महासलागा एवं सिणि वि अष्ट्रिया'
बजत्यो "अमर्यादिदो। एदे सके पश्चाए ठविता ।
भ:-यहाँ उत्कृष्ट संक्यात बाननेके निमित्त जम्मूदीप सदृशा ( एक लास योजन ) विस्तारवाले और एक हजार योजन प्रमाण गहरे पार गड्ढे करने चाहिए। इनमें शलाका, प्रतिशलाका एवं महाशलाका ये तीन पद अवस्थित तथा पोषा गड्डा अनवस्थित है। ये सब गड्ढे बुद्धिसे स्थापित किए गए हैं।
एस्थ उत्प-सरावय-अग्भंतरे कुवे सरिसबे युवे सं जहां संखेम्जवं माद। एवं पाम-वियर्ष । तिष्णि सरिसवे 'कुर अग्रहम्पमकरस-संस्ममं । एवं सराबए" पुग्ने" एवमुरि मज्झिम-विषप्पं ।
१.व. एवं सौं। २. ...... य.च. आवतो .., पाबत . प. परतो । . ..... संखेजय। ५. 4. 1.क.ब. य. स. ॥ ६.. ब. क. ब. प. है. सरासर । ..क.क. ३. अद्वियो। ८.क. ३... भगवाददा। ९. . ब. मुरे। १०.६. क. भ. प. . धारापो। ११. द. ग. क. ब. प. ३. पुम्यो ।
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गाथा : ३१३
पउरषो महाहियारों प्रर्ष :--इनमें से चौथे ( अनवस्था नामक ) कुण्डके भीतर सरसेकि दो दाने डासनेपर वह अषन्य संख्यात होता है। संख्यासका यह प्रथम विकल्प है। सोन सरसों डालने पर प्रजपत्यानुस्कृष्ट ( मध्यम ) संध्यात होता है । इसीप्रकार एक-एक सरसों ढालने पर उस ( अनमस्या ) कुण्डके पूर्ण होने तक (यह ) तीनसे ऊपर सब मत्र्यम संख्यानके विकल्प होते हैं।
पुणो भरिव'-सरावया रेओ वा वाणओ वा हत्ये घेतग बोबे समुद्दे एक्केवक सरिसवं वेज' । सो गिट्रिदो तरकासे सलाय - अभंतरे एग-सरिसओ खो। अम्हि सलाया समता तम्हि सरावनों बहनो आयव्यो ।
प्रबं:-पुनः सरसोंसे ( पूर्ण ) भरे हुए इस कुण्डमेंसे देव अथवा दानव हाथमें ( सरसों) महणकर क्रमश: ( एक-एक ) द्वीप और समुनमें एक-एक सरसों देता जाय; इसप्रकार जब वह (अनवस्था ) कुण्ड समाप्त ( लालो ) हो जाय, तब ( उस समय कालाका कुण्डके भीतर एक सरसों डाला जाय 1 अहाँ ( जिस तोप या समुद्र ) पर प्रथम कुण्डकी शलाकाएं समाप्त हुई हो दस समुद्रको सूचीप्रमाण इस अननुस्या कण्डको सका .१९.१६ ।
तं भरिदूण हत्पे घेतरण दो समुह मिदिरम्या' । अम्हि निद्विदं सम्हि सरापयं मानायव्वं । सालाम-सराबए बोणि 'सरिसवे युद्ध ।
पः-पुन: उस { नवीन बनाये हुए अनवस्था कुण्ड ) को सरमोंमें भरकर पहलेवे हो सहश ( उन्हें ) हाथमें ग्रहण कर क्रमशः आगे ( आगे ) के डोप और ममुदमें एक-एक मरमों डालकर उन्हें पूरा कर दे । जिस द्वीप या समुद्र में इस कुण्डके मरसों पूर्ण हो जावें उसको सूनी-व्यास बराबर पुनः ( नदीम ) अनवस्थाकुण्डको बढ़ावें और शलाका कुण्डोंमें एक दूसरा सरसों डाल दें।
विशेष:- [इसीप्रकार बढ़ते हुए व्यासके साथ हजार योजन गहराईवाले उसनेशर अनवस्था कुण्ड बन जाएं, जितने कि प्रथम मानवस्था कुण्ण में सरसों थे, तब एक बार शलाका कुण्ड भरेगा । एक बार शलाका कुण्ड भरेगा तब एक सरसो प्रतिपालाका कुण्डमें डालकर शलाका कुण्ड खाली कर दिया जायगा तथा जिस द्वीप या समुद्रको सुची व्यास सदृश अनवस्था कुण्ड बने उससे मागेके डीप-समुद्रोंमें एक-एक दाना डालते हुए जहाँ सरसों पुनः समाप्त हो जाए वहाँसे लेकर जम्बू
१. ज. प. भरदि। २. व. ब. क. उ. देय, प. य. वेर। न.प. पूल, ब. पूदी। ज, म, उ. सम्मता। १.६. ब. क. ज. प. उ. सरात पदारमंतु। ६. फ. न. शिबिवम्मा। सरिसवरपदे ।
... ...ब. स.
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कार्यक
आपके भी शु
२]
तिलोपत
[ गाथा : ३१३
द्वीप पर्यन्स नवीन अनवस्था कुण्ड बनाकर भरा जाएगा तब एक दाना शलाका कुण्डमें डाला जाएगा। पुनः उस नवीन अनवस्था कुण्डके सरसों ग्रहणकर आगे-आगे द्वीप समुद्रों में एक-एक दाना डालते हुए जहाँ सरसों समाप्त हो जाय, उतने व्यास बाला अनवस्था कुण्ड जब भरा जायगा तब पालाकर कुण्ड में एक दाना और डाला जाएगा। इसप्रकार करते हुए जब पुनः नवीन नवीन ( वृद्धिंगत ) व्यासको लिए हुए प्रथम अनवस्था कुण्डको सरसों के प्रमाण बराबर नवीन अनवस्वा कुण्ड बन चुकेंगे सब शलाकाकुण्ड भरेगा और दूसरा दाना प्रतिशलाका कुण्डमें डाला जाएगा ।
हसप्रकार बढ़ते हुए क्रमसे जितने सरसों प्रथम अनवस्था कृण्डमें थे, उनके वर्गे प्रमाण जब मनवस्था कुण्ड धन चुकेंगे तब शलाकाकुण्ड उनसे ही सरसों प्रमाण बार भरेगा तब एक बार प्रतिशलाका कुण्ड भरेगा और एक दाना महाशलाका कुण्डमें दाता आएगा । इसप्रकार क्रमशः वृद्धिंगत होनेवाला अनवस्था कुण्ड जय प्रथम अनवस्याकुण्ड की सरसोंके घन प्रमाण बार बन चुकेंगे तब प्रथम मन्नवस्था कुण्डकी सरसोंके वर्ग प्रमाण बार शलाका कुण्ड भरे जायेंगे, तब प्रथम अनवस्था कुण्डको सरसों प्रमाण बार प्रतिपालाका कुण्ड भरेंगे और तब एक बार महासलाका कुण्ड भरेगा ।
मानमो । — प्रथम अनवस्थाकुण्ड सरसोंके १० दानोंसे भरा था, अतः बढ़ते हुए व्यासके साथ १० मनवस्था कुण्डोंके बन जाने पर एक बार शलाका कुष्ड भरेगा तब एक दाना प्रतिशलाकामें डाला जाएगा। इसीप्रकार वृद्धिंगत व्यासके साथ १० के वर्ग ( १०×१० ) - १०० अनवस्थाकुपड बन जानेपर १० बार शलाका कुण्ड भरेगा तब एक बार प्रतिमासाका कृष्ड भरेगा और तब एक दाना महाशलाका कुण्डमें डाला जाएगा ।
इसीप्रकार बढ़ते हुए व्यासके साथ १० के घन ( १०४१०५ १० ) - १००० अनवस्था कुण्ड बन जाने पर १० के वर्ग ( १०×१० - १०० बार शलाका कुम्ट भरेगा सब १० बार प्रतिशलाका कुण्ड भरेगा और सब एक बार महाशलाका कुष्ट भरेगा । ]
[ कुण्डों का चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ]
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गाथा : ३१३ ]
यथा
अनव
१०००
अनवस्था कुण्ड
चरस्थो महाहियारो
2287
१०० र भरेगा
Į. R. X. 5. X. 4. 3. F [सं-समुद्र-जिएकरे...
६.८. . समेस्वयं तवं ।
१० नरेगा
१ बार
भरेगा
-
[ ६३
एवं सलाय - सरावमा 'पुन्ना, परिससाय सरावया 'पुष्णा, महासलाप - सरावया पुन्ना। यह वोव-समुद्द तिष्णि सरावया पुन्ना तस्संखेन्ज-बोध- समुद्र-बित्यरेा सहस्त लोणागान' ( सराये) सरिसवं भरिये सं उपकस्स संखेज्जयं अदिशिवूপ* जहणपरितासंखेज्जयं गंतूण जहण प्रसंसेक्ानं पडिवं । तयो एगरुवमदनीचे जागमुक्कस्ससंज्जयं । जहि जम्हि संजय मग्गिक्जवि तह तह अब्रहामणुक्रुस्संखेवजयं घेत्तन्वं । तं कस विसओ ? पोल्स - बिस्स |
राज
अर्थ :- इसप्रकार शलाकाकुण्ड पूर्ण हो गये, प्रतिशलाका कुण्ड पूर्ण हो गये और महा शलाका कुष्ट पूर्ण हो गया। जिस द्वीप या समुद्र में ये तीनों कुण्ड पर जाएं उतने संख्यात द्वीपसमुद्रोंके विस्तार स्वरूप प्रोर एक हजार योजन गहरे गड्ढेको सरसोंसे भरदेने पर उत्कृष्ट संख्यातका अतिक्रमण कर जघन्यपरीतासंख्यात जाकर जघन्य प्रसंख्यात प्राप्त होता है । उसमेंसे एक रूप कम कर देनेपर उत्कृष्ट संख्याका प्रमारण होता है। जहां-जहाँ संख्यात खोजना हो वहाँ वहाँ अजघन्यानुस्कूट ( मध्यम ) संख्यात प्रण करना चाहिए। यह किसका विषय है? यह चौदह पूर्वके भारता केसीका विषय है ।
२. . . . उ. तिल सरावया पुग्यो, जह दीप-समू ३. क. ज. य. उ. नवे । Y. <. ufefug
५. क.प. रु. तवा ।
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१४ ]
तिलोयएफ्पाती
........... गापा : ३१४ उपकरस-संख-मक, इगि-समय-जूचे 'अहलयमसंखं ।
सत्तो असंल • कासो, उक्कस्म - असंस- समयंत ॥३१॥
प्रबं:-उस्कृष्ट सम्पातमें एक समय मिलानेपर जघन्य असंख्यात होता है। इसके मागे उत्कृष्ट असंख्यात प्राप्त होने तक मसंख्यात काल है ।।३१४॥
जसं असंग्जयं तं तिविह, परिसासंखेज्जपं, वृत्तासंबेज्जयं, असं जासंखेज्जयं चेवि । जं तं परितासंखेज्जतं तिनिहं, जहाण • परिसासंखज्जयं, अजहणमणुकास-परितासंकजयं, उक्कस्स-परितासंग्ज बेदि । संत कुत्तासंलमयं तं तिषि, जहण-जुत्तासंग्मयं, अजहगमनाकस्स-अत्तासंखजयं, उपकप्रस-वृत्तासंजयं चेदि । नं तं असंक्मासोश्वयं सं सिविह', जहग-असंखेज्मासंग्जायं, अजहणमगुक्कस्सअसंज्जासंखेज्जयं, उक्कस्स-असंखजासंसज्ज ।
अम:-जो यह असंख्यात है वह तीन प्रकार है--परीतासंख्यात, युक्तासंमपात और असंख्यातासंख्यात । जो यह परीतासंख्यात है वह तीन प्रकारका है-जघन्य-परीतासंख्यात, अजघन्यानुत्कृष्ट-परीतासंख्यात और उत्कृष्ट-परोतासंख्यात । जो यह युक्तासंख्यात है वह भी तीन प्रकार हैजघन्ययुक्तासंख्यात, अपघन्यानुत्कृष्ट-युक्तासंख्यात और उत्कृष्ट-युक्तासंन्यात । जो यह पसंख्यातासंख्यात है, वह भी तीन प्रकार है- जघन्य असंख्यातासख्यात, अणपन्यानुस्कृष्ट असंख्यातासंख्यात और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात ।
जं सं जहण-परिचासंखेज्जनं तं बिरलेण' एक्केकस्स बस्स बहण्म परितासंसज्जयं 'गाल अन्नोभाये कई उपकस्स-परित्तासंस्मयं 'अदिच्छद्रण बह-जुत्तासंग गंतष पडिदं । तदो एगल्वे भवनोये जा तस्करस-परितासंखज्जा ।
जम्हि जम्हि आवलिया 'एक्कम तम्हि तम्हि माहमणधुत्तसं जयं प्रेसवं ॥
1. इ. स. अप्पामच, .ब.प. उ. प. मष्णामसं। २ क, न य च. तं । ३. प. उ. विधि। ४, इ. विरमोदूदा । १. क, उ. बोरगा। ६. व.रतिमेतण। 1. च. माविमोनम, क.मधिोद्रण, च, मावनिम्मेषण। ७. . . उ. परिसला, ..पग्दित्ताहा। ...... भ. प. च. मधियाकरण
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गाथा : ३१४ ]
महाद्दियारो
[ ५
मार्शिक :शर्षाख्या है उसका विरलन कर एक-एक अंक पर ( वही ) जघन्यपरीतासंभ्रमात देय देकर परस्पर गुणा करनेसे उत्कृष्ट परीता संख्यातका उल्लंघनकर जघन्ययुक्तासंख्यात प्राप्त होता है । ( जो आवली मश है। ) अर्थात् आवलीके समय जघन्य युक्तासंख्यात प्रमाण हैं ) ।
जहाँ-जहाँ एक आवलीका अधिकार हो वहाँ वहाँ जघन्य युक्तासंख्यात ग्रहण करना
चाहिए ।
जं तंज- शुतासंज्जयं तं सयं वग्गिदो उक्करस- जुस । संखेज्जयं 'अविच्ि जहन्नम संसंज्जासंसंज्जयं गंतॄण पडिदं । तो एग-रूप-प्रबरती जायं उक्करस- जुत्तासंज्जयं ।
अर्थ: जो यह जघन्य युक्तासंख्यात है, उसका एक बार वर्ग करने पर उत्कृष्ट युक्तासंख्यातका उल्लंघनकर जघन्य असख्यानासंख्यान प्राप्त होता है। इसमेंसे एक अंक कम कर देनेसे उत्कृष्ट-मुक्तासंख्यात प्राप्त होना है।
3
तवा जनसंखेज्जासंखेवमयं दोपहि-रासि काढूण एग-सि-सलाय े मार्ग ठविष एग रासि विरसेगुण' एक्केक्कल्स' रुबस्स एग-पुंज-पमानं" बाण अष्णोष्णभत्त्वं करिय सलाम रासिदो एग-रूपं 'अवनेवध्वं । पुणो वि उप्पण्ण रासि बिरलेकूण एक्क्कल्स ऋषस्स तमेव उप्पन्तारासि वाण अन्नोनाग्भत्वं कापूण सलाय - शसिवो 'एगस्यमयव्यं । एडेन कमेन सलाम-रासी गिट्टिया ।
:- इसके बाद जघन्य असंख्यातासंख्यातको यो प्रतिधियां कर उनमेंसे एक राशिको शलाका प्रमारण स्थापित करके और एक राशिका विरलन करके एक-एक अंकके प्रति एक-एक पुष्ञ प्रमाण देकर परस्पर गुणा करके शलाका सशिमेंसे एक अंक कम कर देना चाहिए। इसप्रकार जो राशि उत्पन्न हो उसको पुनः विरचित कर एक-एक अंकके प्रति उसी उत्पन्न राशिको देय देकर और परस्पर गुणा करके शलाका राशिमेंसे एक अंक और कम कर देना चाहिए। इसी क्रम से शलाका राशि समाप्त हो गई।
१. क. उ. पचिणि ज. घधिन्छे । २ द. समाधममाण, म.उ. समाया सरणाम,
लो
बदन | ५. क. ज. य. उ. सम्मा
। ४. क. ज. प. उ एमके क.अ. उत्तप्प
5. 4.4.2AI
क्र. ज. सभापासभारण । ३.
६. क. ज. स. वणोदयं ।
७.
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१६ ] तिलोयपाती
[ गाथा : ३१४ पिद्विय सवनंतर-सि पुरिरासि कावून एय- सलामं पिय एपपुषं विरसियूमा '
एकस सम्म उप्पाच-राति पादून। अन्योन्जाम कावून सलाय रासियो एपक्व अबाव्वं । एरेण सरूपेण विडिय-सलाय- समत्त ।।
प्र:- उस राशिकी समाप्तिके अनन्तर उत्पन्न हुई राशिकी दो प्रतिराशियां करें। उनमेंसे एक पुंज शलाका रूपसे स्थापित कर मोर एक पुजका विरलन कर, एक-एक अंकके प्रति उत्पत्र ( हुई ) राशिको देय देकर परस्पर गुणा करनेके पश्चान् पालाका राशिमेंसे एक अंक कम करना चाहिए । इस प्रक्रियासे द्वितीय शलाका राशि समाप्त हो गई।
___ समत्तकाते उप्पण-रासि दुप्परि-रासि कापूस एयपुत्र सलाय रुपिय एप निधिसून एक्स्ट्रा लारण अल-हासिपमा हावूण मणोजम्मस्पं कारण ससायरासीदो 'एयरूर्व अवणेदकं । एवंण कमेण सपिय कमिद्विवं ।।
मपं:-(द्वितीय शुसाका राशिके ) समाप्ति कालमें उत्पन्न राशिको दो प्रतिराशियाँ करें। उनमेंसे एक पुज शलाका रूप स्थापित करें और एक पुश्यको विरलित कर एक-एक अंक प्रति उत्पन्न राशिको देय देकर परस्पर मुसा करने के पश्चात पालाका-राशिमेंसे एक अंक कम कर देना चाहिए । इस क्रमसे तृतीय पुंज समाप्त हो गया।
एवं कई उकास-असंखजासखेज्जयं न पावि । पम्माषम्म लोगागास एगीय परसा । बत्तारि बि लोगागास-मेता, पसँग सरीर-चावर-परिष्टिया एवं रोपि किंवून सापरोपमं विरलीग बिमंगरावून अमोनाभित्वं कई रासि-पमाणं होरि । चप्पे' असंतोजरासीमो पुबिल्ल रासिम्स उरि पक्लिदिखूण पुग्ध - सिणिवारबग्गिन-संबगिये करे उपकरस-असंखग्यासंजय ग उपजारि ।
:-ऐसा करनेपर भी उत्कृष्ट असंख्याता संख्यात प्राप्त नहीं होता। (असंख्यात प्रदेशी) (१) धर्मद्रव्य, (२) अधमंतण्य (३) लोकाकाश और (४एक जीव, इन चारोंके प्रदेश लोकाफाश प्रमाण है । तया (५) प्रत्येक शरीर ( अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति स्वरूप यह जीव राषि एक जीवके प्रदेशोंसे मसक्यात गुणी है ) और (६) नादर प्रतिष्ठित, ( प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति स्वरूप यह
-.-
- ... .--. -- १... ज. उ, एकोम्स । २. प. प. एमपस । ३. ५. 4. क... उ. को। ४. क... सोयगाता। ५. क. ज. स. पदिद्विये। ... ब. क. प. उ. पति पदे। ७.. . मसंज्जासोउजदी।
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गाषा: ३१५ ] पडत्यो महाहियारो
[ १५ भोवराशि प्रत्येक शरीर बनस्पति जीव राशिसे प्रसंख्यात गुणो है।) इन पोनों राशियोंका प्रमाण कुछ कम सागरोपम राशिका विरलनकर और उसीको देय देकर परस्पर गुखा करने पर जो राषि उत्पन्न हो उतना है (जो क्रमशः असंख्यात-लोक, पसंक्यात खरेक प्रमाण है)। इन छहों असंत्यातराधियोंको पूर्व (तीन चार वगितसंगित प्रक्रियासे ) उत्पन्न राशिमें मिलाकर पूर्वक सहा पुनः तीन बार वगित-संगित करनेपर भी उत्कृष्ट-असंख्यातासंख्यास उत्पन्न नहीं होता ।
तवा ठिदिबंध - वाणाणि, ठिविबंषज्झवसाय - ठाणाणि, कसायोवय - ठामाभि, अनुभाग-धरझवसाय हांगीण, 'नोगौविभागीण, उस्सपिणि-सिपिनीसममामि प। एगि पक्लिविण पुरुवं व गिरसंवग्गिवं करे तवा उनकस्स-असंखेज्जासंक्षेप अविच्छिवूण जाण - परिसाणतयं गंसूग पडिवं । सबो एगरूवं अभिवे आवं शकस्सअसंखेम्जासंग्त्रयं । जति जम्हि असंखेज्जासंखेजयं 'मगिजदि तम्हि तन्हि जहानमणुक्कस्स-प्रसंसासंबंजय घेत्तवं । तं कस्स विसओ? मोहिमाणिस्स ।
अ :-सब फिर उस राशिम स्थितिवावस्थान, स्थितिवन्याव्यवसायस्थान, कषायोदयस्थान, अनुभाग-बन्धाध्यवसायस्थान, योगों के अविभागप्रतिच्छेद और उत्सपिणी-अवपिणी कालके समय, इन ( छह ) राशियोंको मिलाकर पूर्व सदृश ही वगित-संगित करने पर उत्कृष्ट-असंख्यातासंख्यातका अतिक्रमण कर जघन्य-परीतानन्त प्राप्त होता है। इसमेंसे एक अंक कम कर देनेपर उस्कृष्ट-मसंध्यातासंस्पात होता है । जहाँ-जहा असंख्यातासंख्यातकी खोज करना हो बहान्बहाँ अअपन्यानुस्कृष्ट प्रसंस्थातासंख्यात को ग्रहण करना चाहिए । यह किसका विषय है ? यह भवधि-शानोका विषय है।
उम्स • असंखेबजे, अवरातो हवेरि रुव गये।
ततो पापि 'कालो, केबलगाएस्स परिपंतं ॥३१॥
मर-उत्कृष्ट मसंख्यास ( प्रसंध्यातासंख्यात ) में एक अंक मिला देनेपर जघन्य अनन्त होता है । उसके आगे केवलशान पर्यन्त काल वृद्धिंगत होता जाता है ।।३१५।। ।
जंत अणतं तं तिविहं, परिता सयं, पुसाणतयं, अबंताएंतपं देवि । जत परितार्णतयं तं तिविहं, जहण-परित्तामंतयं, अजहरूपमा कस्स-परिताणतयं, उक्कास
1.ब. जोगपसिसोदाहिए। २ प. ब. स. नगियादि । १. प. प. जुयो। ..प. य. घ. फाला। १, द. ब. क. अ. उ, जुस ।
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१८ ] निलोयपणाती
[ गाथा : ३१५ परिसातयं चेदि । जं तं जुत्ताणंतपं तं तिविहं, जहष्ण-जुत्ताणतयं, अजहबमनुष्कस्सपत्ता- कस्स तमिल
मतिविहं बाहनमर्गतातयं, अजहण्गमणुक्कस्स-प्रणंतागतयं, उपकस्स-प्रचंताणतयं देवि ।
पर्ष :-जो यह अनन्त है वह तीन प्रकार है-परीतानन्त, पुक्तानन्त और मनन्तानन्त । इनमेंसे जो परीतामन्स है यह तीन प्रकार है-जघन्य परोतामम्स, अजघन्यानुस्कृष्ट परीतानन्त और उत्कृष्ट परीतानन्त । इसीप्रकार पुक्तानन्त भी तीन प्रकार है--जधन्य युक्तानन्त, अजघन्यानुस्कृष्ट मुक्तामम्त मौर सस्कृष्ट युक्तानन्त । अनन्तानन्त भो तीन प्रकार है-अघन्य अनन्तानन्त, अजधन्यानुस्कृष्ट मनन्तानन्त और उत्कृष्ट अनन्तानन्त ।
विचा:-संख्यात, असंख्यात और मनन्तके भेद प्रभेदोकी सालिका
[ तानिका भगले पृष्ठ पर देखिये ]
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तालिका : ८]
[ ६
पउत्यो महाहियारो संख्या प्रमाण
तालिका :
संख्यात
असंख्यात
रन
षषन्य मध्यम उत्कृष्ट संख्यांत संख्यात संख्यात
परीतासंख्यात युक्तासंपात असंख्यातासंध्यात
1.
मध्यम .. उत्कृष्ट ।
जघन्य
मध्यम
उत्कृष्ट परीतासंख्यास परीतासंख्यात परीतासंभात
मार्गदर्शक :-
श्री दिगिर जी महारा
जघन्य मध्यम उत्कृष्ट युक्तासंपात युक्तासंपात युक्तासंख्यात
जघन्य असंख्यातासंक्यात
मध्यम
उस्कृष्ट असंख्यातासंख्यात असंख्यातासंख्यात
परीतानन्त
युक्तानन्त मनन्तानन्त
जधम्प मध्यम उस्कृष्ट परीतानन्त परोतानन्त परोतानन्त
अपन्य
मध्यम युक्तानन्त पुक्तानन्त
जपम्प अनन्तानन्त मध्यम पनन्यानन्त जरूर बदन्तामन्त
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१०० ]
तिलोत
[ गाथा : २११
जं तं जण परितार्णतयं तं विश्लेन एक्केक्स रूवस्स जण-परिता मंत वाचून अन्नोज्नभल्बे कबे उनकस्स - परितामंतयं अविच्छिवूण ब्रहम्ण-जुतानंतयं गंत पदि । एकवि अमध्य सिद्धिय-रासी । तवो एग-लवे अवणीचे जावं उपकरस परिताणंतयं । तदो जहा जुलानंतयं सह वग्गिदं उनकस्स - जुखानंतयं अविच्छिन अहम्णमनंतातयं गं पडिवं । तो एग-रूवे अग्रणीये जावं उक्कस्स- जुत्ताणंतमं । तवो जहण्णमअंताणंतयं पुरुषं व विनिवार वग्गिद संवगिद करे उपकल्स अनंतानंतयं ण पावर ।
:- यह जो जघन्य परीतानन्त है, उसका विरलन कर और एक-एक अंकके प्रति जघन्य परीतानन्स ( ही ) देय देकर परस्पर गुणा करनेपर उस्कृष्ट परीतानन्तका उल्लंघन कर जघन्ययुक्तानन्त प्राप्त होता है। इतनी ही अभय्यराशि है ( जघन्य युक्तानन्त की जितनी संख्या है उतनी संख्या प्रमाण ही अमस्य राशि है ) । इस जयन्य युतानन्तमेंसे एक अंक कम करने पर उत्कुष्टपरीतानन्त होता है । तत्पश्चात् जघन्ययुक्तानन्तका एक बार वर्ग करनेपर उत्कृष्टयुक्तामन्तको लांघकर जपश्य-अनन्तानन्ययुतानन्तकी प्राप्ति होती है । पश्चात् जघन्य अनन्तानन्त रूप राशि को तीन बार वर्गित संवर्गित करनेपर ( भी ) उत्कृष्टअनन्तानन्त प्राप्त नहीं होता ।
सिद्धा निगोद- जीवा, वनफदि कालो य पोष्णला चेव । "सध्दमलोगागासं, छप्पेवे नंत पत्रसेवा ।।३१६||
अर्थ :- सिद्ध ( जो सम्पूर्ण जीव राशिके अनन्त भाग प्रमाण हैं ), निगोद जीव ( जो सिद्धरासिसे अनन्तगुणी और पृथिवीकाय आदि बार स्थावर, प्रत्येक वनस्पति एवं त्रस इन तीन राशियोंसे रहित संसार राशि प्रमाण हैं ) वनस्पति ( प्रत्येक वनस्पति सहित निगोद वनस्पति ), पुद्गल ( जो जीव राशिसे अनन्तगुरणा है ), काल ( जो मुद्गलसे अनन्तगुणे हैं ऐसे कासके समय } और अलोकाकाश { जो काल द्रव्यसे अनन्तगुणं हैं ) ये छह अनन्त प्रक्षेप है ।।३१२ ।।
-
सानि पक्खिण पुष्यं व तिन्निवारे वरिगद संबग्गिदं कवे, सदो उक्करअनंतानंतयं ण पार्थावि । तो धम्मट्टियं अधम्मष्ट्ठियं अगुरुलहूगुणं अनंतानंतं पक्लिविण पुष्यं व तिणिबारे जग्गर संबग्गिदं कदे उनकस्स अनंताणंतयं ण उष्पक्जदि । सबो
-
·
-
१. . . . . 3. सबमा २८. ब. पेट क. ज. उ. पेदि ।
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गाय : ३१७ उको महमा tram ! १ केवलणाण-फेबलसणस याणंता - भागा तस्मुरि 'पक्तितो उसकस्स-अणतात उप्पण् ।
अस्थि तं भायणं गस्थि सं वयं एवं भणियो । एवं वग्गिय उपग्ण-सव्य-धागरासीनं पुजं केवसमान-केवलसमास प्रतिमभागं होदि तेण कारज मरिय तं भाजन भत्यि तं बव्वं । जम्हि जम्हि अणताणतयं मग्गिजदि तम्हि तम्हि प्रमहामनुकस्सअसागतयं घेत्तम्बं । तं कस्स बिसो ? केवलणाणिस्त ।
अर्थ:--इन छहों राशियों को मिलाकर पूर्व सदृश तीन बार वगित-संगित करनेपर उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्राप्त नहीं होता, बन: इस राशिमें, धर्म और यधर्म द्रोंमें स्थित मनन्तानन्त मगुरुलघुगुण ( के अविभागोप्रतिच्छेदों) को मिलाकर पूर्व के सहया तीन बार गित-संगिन करना पाहिए । इसके पश्चात् भी जब उत्कृष्ट अनन्नानन्त उत्पन्न नहीं होता, तब केवलशान अपवा केवलदर्शनके अनन्त बहुभागको { अर्थात् केवलशानके अविभागी प्रतिच्छेदमि से उपयुक्त महाराशि घटा देनेपर जो अवशेष रहे वह ) उसी राशि में मिला देनेपर ( केबलकानके अविभागीप्रतिच्छेदोंके प्रमाण स्वरूप ) उत्कृष्ट यनन्तानन्त प्राप्त होता है । यथा
मानसो:-उपर्युक्त सम्पूर्ण प्रक्यिासे उत्पन्न होने वाली राशि १०० है, जो मध्यम अनन्तानन्न स्वरूप है, इसे उत्कृष्ट अनन्तानन्त स्वरूप १००० में से घटा देनेपर (१०००-१००)१०. शेष रहे, इस सेफ (20) को १०० में जोड़कर 1200 +१००)=१००० स्वरूप उत्कृष्ट अनन्तानन्तका प्रमाण प्राप्त हो जाता है । उस पूर्वोक्त राशि मिलाने पर उत्कृष्ट मनन्तानन्त उत्पन्न हुप्रा ( संख्या प्रमाण में इससे बड़ा और कोई प्रमाण नहीं है)।
वह भाजन है दव्य नहीं है, इस प्रकार कहा गया है. क्योंकि इस प्रकार वर्गसे उत्पन्न सर्ववर्ग राशियोंका पुष्ज केवलज्ञान-केवलदर्शनके अनन्तवें भाग है, इसी कारणसे यह भाजन है, द्रश्य नहीं है। जहाँ जहाँ अनन्तानन्तका ग्रहण करना हो वहां-वहाँ प्रजघन्यानुत्कृष्ट-प्रानन्तानन्तका ग्रहण करना पाहिए। यह किसका विषय है ? यह केवलज्ञानीका विषय है।।
अवसपिणी एवं उत्सपिणी कालोंका स्वरूप एवं उनका प्रमाणभरहमलेसम्म इमे, अज्जा-खंडम काल-परिभागा'।
अवसपिणि -'उस्सपिणि - पग्माया वोणि होति पुढे ॥३१॥
१. प. प. क. ज. स. पवितो। २. व.क.क.ब. उ. गियदि। . द. पविमाना। ४. य, पोस्सपिरिण।
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१०२ ]
तिलोवारणसी
[ गाया: ३१०-३२३
वर्ष :- भरतक्षेत्र के श्रार्यमें ये कालके विभाग हैं । यहाँ पृष्पक्-पृथक् अवसर्पिणी और उत्सपिरो रूप दोनों ही कालको पर्यायें होती हूँ ।। ३१७॥
नर-तिरियां आऊ, 'उच्छेह-विभूति-यहूदियं सम्यं । अवसप्पिणिए हायदि, उस्सप्पिनिया बडेवि ।।३१८ ॥
अर्थ :- अवसर्पिणी कालमें मनुष्य एवं तिर्यञ्चोकी आयु, शरीरकी ऊंचाई एवं विभूति आदि सब ही घटते रहते हैं तथा उत्सर्पिणी कालमें बढ़ते रहते हैं ।। ३१८१
अद्धारपल्ल - सायर उदमा बस होंति' कोfaniti |
अवसपिि
कालो
-
अर्थ:-श्रद्धापल्योंसे निर्मित दस कोठाकोड़ी सागरोपम प्रभारण अवसर्पिणी और इतना ही उत्सर्पिणी काल भी है ॥३१६॥
दोणि बि मिलिये कप्पं, सुभसुसमं व सुसमं
-
दुस्समसुसमं दुस्सममविदुस्समयं व तेसु पदमम्मि । अतारि सायरोवन startsier परिमाणं ॥ ३२२ ॥
मेदा होंति तस्य च । तज्जयं सुसमदुस्समयं ॥ ३२० ॥
-
सुसमम्मि तिणि जलहो उनमाणं होंति कोडिकोटम्रो । बोणितवियमि तुरिमे, बाबाल सहस्स-विरहियो एक्को ॥ ३२२ ॥
इगियोस - सहस्सानि वासाणि "स्समम्म परिमाणं । अविस्म िकाले, सेलियमेत मि दिव्वं ॥ १२३॥
अर्थ :- इन दोनोंको मिलानेपर बोस कोडाकोढ़ी सागरोपम प्रभारणका एक कल्पकाल होता है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीमेंसे प्रत्येक के छह-छह भेद होते हैं सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा-सुषमा, दुष्षमा सुषमा, दुष्वमा और प्रतिदुष्यमा । इन छहों कालों से प्रथम सुषमासुषमा चार
१ . उच्छेद । २८. पि. होदि .. सुमदुम | दुम्मिय पुरसम्म ।
Y. 4. 4. 5. T. 7.
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गावा : ३२३ ]
त्यो महाव्हियारो
[ १०३
कोकोड़ी सागर प्रमाण, सुषमा तीन कोठाकोड़ो सागर प्रमाण, तीसरा दो फोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण, चौबा बयालीस हजार वर्ष कम एक कोठाकोठी सागर प्रमाण, पांचवा दुष्षमा काल इक्कीस और इक्कीस हजार ) वर्ष प्रसारण जानना
मार्गर्जर वर्ष
काल भी
चाहिए ।।३२० - ३२३॥
تی
195
र्पि णी
स
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२
सुखमा-सुखमा
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२१ हजार वर्ष
171.97
वार
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शहजापर्य
सुखमा- सुषमा मा कोठा कोठी सागर
सुखभा नको सामर
सुख दुखमा
बोडी कोडी सामन
सुरमा ए
पंच मे
संबंधी
पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी काल चक्र
अ व सर्पि जी का ल
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१०४ ]
तिलोयपणती
सुपमासुषमा कालका निरूपण
सुखम्मसमम्मि 'काले 'मुमो रज-धूम-अल-क्रिम- रहिवा
फंडिय अम्भसिला विविधयादि फीडोवसम्म परिचता ॥ ३२४॥
-
निम्मल - उप्पण - सरिसा, निबिद बच्चेहि बिरहिया तीए ।
सिरुबा हवेदि विब्वा, तशु-मण-नवमाण सुह-जली ।।२५।।
-
अर्थ :- सुषमासुपमा कालमें भूमि रज भ्रम, दाह और हिमसे रहित साफ-सुथरी, ओलावृष्टि तथा बिच्छू यादि कीड़ोंके उपसर्गसे रहित निर्मल दर्पण के समान, निन्द्यपदार्थोंसे रहित दिव्य- बालुकामय होती है जो तन-मन और नेत्रोंको सुख उत्पन्न करतो है ।।३२४-३२५ ।।
विष्फुरि-पंच-बप्पा, सहाष-मउवा य महुर-रस-बुत्ता | चउ-मंगुल परिमाणा', तुणं पि जाएवि सुरहि-गंधा ॥ ३२६॥
[ गाया : ३२४-३२८
उस पृथिवी पर पाँच प्रकारके वरणों स्फुरायमान, स्वभावसे मृदुल, मधुर रसखे
युक्त, सुगन्धसे परिपूर्ण और चार अंगुल प्रमाण ऊंचे तृण उत्पन्न होते हैं ।।३२६८
-
तीए 'गुच्छा गुम्मा, कुसुमंकुर-फल-पवास-परिपूण्णा ।
बहुओ विचित बण्णा, वक्ल समूहा समुत्तु गा ॥१३२७।।
·
+
म :- उस कालमें पृथिवी पर गुच्छा, गुरुम ( झाड़ी), पुष्प, अंकुर, फल एवं नवीन पत्तों से परिपूर्ण, विचित्र वर्णवाले और ऊंचे वृक्षोंके बहुतसे समूह होते है ।।३ २७।।
१०
करुहार-कमल- कुवलय- कुमुदुज्जल-जल-पवाह्-त्या' I पोखरणी बाबोओ, मअरादि" विवक्जिमा होंति ।। ३२८ ||
•
:- कल्हार (सफेद कमल }, कमल, कुवलय और कुमुद ( कमलपुष्पों ) एवं उज्ज्वल जल-प्रवाहसे परिपूर्ण तथा मकरादि जस-जन्तुओंसे रहित पुष्करिणी और कापिकाएं होती है ।। ३२८ ॥
१. इ. काम, उ. कालो । २. ६. ब. ४.ब.उ. सरसा । ५. . . . ज. म. उ. दम।। भरति 1 ८.क... संघट्ट . . . य. ग ११. . . . . . उ अमरादि
. . उ. भूमि 1. 4. 4. 5. 6. J. HAIR'I ६. क्र. ज. द. प. उ. परिमाणं । ७. क. प. उ.न. १०. . . . . प. उ. पदयो ।
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गापा : १२६-३३३ ] पउलो महाहियारी
[ १०५ पोक्सारनी पाहुबीन, घउ-तर-सूमीसु रपण-सोबाणा' । लेवर - पासावा', सयभासण • निवह - परिपुन्जा ३२६॥
प्रध:-( इन ) पुष्करिणी आदिकको चारों तट-भूमियों में रत्नोंको सोलियां होनी हैं। उनमें सस्या एवं प्रासनोंके समूहोंसे परिपूर्ण उत्तम भवन है ।।३२६।।
गिस्सेस-वाहि-गासम-प्रमिदोषम-विमल-सलिल-परिपुण्मा ।
ऐहति विधिमाओ, बल - कौडण - विष्व - बन्द - जुरा ॥३३॥
म :-सम्पूर्ण व्याधियोंको नष्ट करनेवाले अमृतोपम निर्मम जतसे परिपूर्ण और जनकोड़ाके निमिततूत दिव्य म्पोंसे संयुक्त दोषिकाएं ( वापिकाएं) शोभायमान होती हैं ॥३३०।।
बहमुतयाण भवना, सपणासोदिया अपसवा RTREETE 2
विविदित "भासते, णिरूपमं भोगमूमौए ।।३३१॥ वर्ष :-भोगभूमिमें ( भोगभूमियोंके ) अत्यन्त रमणीय भवन और उत्तम प्रासाद अनेक प्रकारको शय्याओं एवं अनुएम आसनोसे सुन्दर प्रतिभासित होते हैं ।।३३१॥
धरनिधरा उसगा', कंधण-चर-रयण-नियर-परिणामा ।
गाणाविह - कप्पखुम' - संपुगा विधिमादि • बुवा ।।३३२॥
प्रबं:-( वहां पर ) स्वणं एवं उत्तम रत्न समूहोंके परिणाम रूप, नाना प्रकारके फल्पवृक्षोंसे परिपूर्ण तथा दीधिकादिक (सरोवरों से संयुक्त उन्नात पर्वत हैं ।।३३२।।
परगो वि पंचवमा, तन-मन-यमान नरगं कुमाह ।
वग्निावशील-मरगय-मुत्ताहल-"पजमरायफलिह-युवा ॥३३॥ म:-पंचवर्ण वाली और होरा, इन्द्रनील, मरकत, मुक्ताफल, पपराग तथा स्फटिक मणिसे संयुक्त वहां की पृथिवी भो तन, मन, एवं नयनों को मानन्द देनी है ।।३३३।।
...क. स. सोबारशो। २...ब. क. पा. ३.पर परमाग, म.पर पासादो। ३. ...क. २. ३. मचिरावम। ४. स... भामंती,क.म.प.र. पभासती । ..... उत्तथा। ....... प. उ. अप्पमा । ७. प.ब.क.अ. उ. परमपनि।
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१०६ ।
तिलोमपणती
पवराओ वाहिणी, रो-तड-सोहंत- रयण-सोवाना' । घमय-र-शोर पुन्ना, मणिमय सिकदादि सोहति ॥ ३३४ ॥
अर्थ – [ वहाँ ) उभय तटोंपर शोभायमान रत्नमय सीढ़ियोंसे संयुक्त और अमृत सहक्ष उत्तम क्षीर (जल) से परिपूर्ण श्रेष्ठ नदियाँ मणिमय बालुका से शोभायमान होती है ॥ ३.३४|| पार्थ:
संत-पिपोसिय-मक्कुण-गोमच्छो-वंस-मसय किमिन्पो ।
वियसिविया न होंति हु, नियमेणं पड़म-कार्ताम्म ॥ ३३५ ॥
:- प्रथम (सुषम सुबमा ) कालमें नियमसे शंख, चीटी, लटमल, गोमक्षिका, डाँस, मछर और कृमि मादिक विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते ।। ३३५ ।।
स्थि असन्णी जीवो, णत्थि तहा सामि-मिज भेदो य ।
कसह महाजुद्धाबी, ईसा रोगावि न
-
[ गाया : ३३४-३३८
-
अर्थ :- इस कालमें अशी जीव नहीं होते, स्वामी और नृत्यका भेद भी नहीं होता, कलह एवं भीषण युद्ध आदि तथा ईर्ष्या और रोग आदि भी नहीं होते हैं ।। ३३६ ॥
·
राशि दिणाणं भेवो, तिमिराबव-सोद-वेदरा-गिया ।
परदार रवी परधन चोरी या गरिव नियमेन ॥ ३३७॥
·
-
-
होंति ।। ३३६ ॥ ।
:- प्रथम कालमें नियमसे रात-दिनका भेद, श्रन्धकार, गमीं एवं शोटकी वेदना, निन्दा, परस्त्री रमण और परधन हरण नहीं होता ॥ ३३७ ॥
जमलाजमल-पसूदा, वर-बॅज क्वनेहि परिपुना ।
यवर पमानाहारं, अट्टम
-
भरोस भुति ३३८ ।।
अर्थ :- इस कालमें युगल युगलरूपसे उत्पन्न हुए ( स्त्री-पुरुष ) उत्तम व्यञ्जनों (तिसम मादि) और चिह्नों (शंख-पत्र आदि ) से परिपूर्ण होते हुए अष्टम भक्तमें ( चौथे दिन बेरके बराबर आहार ग्रहण करते हैं ||३३८||
1. 4. 4. 5. 4. 4. 7, migra) 1 २. अ. न. ज. म. भेदोउ दाउ । 1.2.4.4. ज. प. उ. पाछे ।
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पाषा : ३३६-३४५ ] घउत्यो महाहियारो
[१०७ तस्सि काले छ विचय', भाव-सहस्साणि' देह-उस्सेहो ।
तिणि पलियोवमाई...माणि गराण भारोणं ॥३३६ETA
प:-इस कालमें पुरुष और स्त्रियों के शरीर को ऊंचाई छह-हजार घनुप एवं प्रायु तोन पल्य प्रमाण होती है ।।३३६।।
पुढोए होति अट्ठी, आपणा समहिया य दोष्णि सया ।
सुसमसुसमम्मि काले, गराण भारीण परोक्कं ॥३४०॥
म:-सुपमासुषमा कालमें पुरुष और स्त्रियोंमेंसे प्रत्येकके पृष्ठ भागमें दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती है ।।३४०॥
भिग्णिव-नील-फेसा, गिरवम-सामन्य-जब-परिपुष्पा ।
सुइ - सायर - मझगया, गोलुप्पल-सुरहि-गिस्सामा ॥३४१।।
प:-( इस कालमें मनुष्य ) भिन्न इन्टनीलमणि अति खणित इन्द्रनीलमणि असे सोचसे गहरी नीली (काली) होती है उसके सदृश गहरे काले केशवाने, अनुपम लावण्यरूपसे परिपूर्ण सुखसागर में निमग्न और नीलकमल सहा मुगन्धित निश्वास से युक्त होते हैं ।।३४।।
सम्भोगमूमि-जावा, गण-गाग-सहस्स-सरिस-बल-जसा । आरत - पाणि • पादा, वर्षपय - कुसम • गंधदसा ।।३४२॥ महब - प्रज्जव - जुस्सा, मंदकसाया सुसील - संपण्णा । प्राविम • संहणण - जवा, समथरस्संग - संठागा ॥३४३।।
बाल-रवी सम-तेया, कबलाहारा वि विगव-गोहारा । ते हुगल - धम्म - सुशा, परिवारा गपि तक्काले ॥३४४॥ गाम-जयरावि सध्वं, ए होते होंति दिव्य-कल्पतरू । पिय • गिय - मग - संकप्पिा-बस्थगि बति बुगलाखं ॥३४॥
१. द.म.ज.प. उ. अमिह । २. ६. प. महम्मा, प. महसलो।
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१०८ ]
तिलोपाती
[ गाथा ३४६-३४१
अर्थ :- उस भोगभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्य नौ हजार हाथियों के बलके सदृश गलसे युक्त, किंचित् साल हाथ-पैर वाले नव- चम्पकके फूलों की सुगन्धसे व्याप्त मार्दव एवं प्रार्जव ( गुणों) से सयुक्त, मन्दकषायी, सुशील (गुण से) सम्पूर्ण आदि (षष्ववृष मनाराच संहनन से युक्त, समचतुरस्रशरीर-संस्थानवाले, उदित होते हुए सूर्य सदृश तेजस्वी, कवलाहार करते हुए भी मल-मूत्रसे रहित और युगलधमं युक्त होते हैं। इस कालमें नर-नारोके अतिरिक्त अन्य परिवार नहीं होता। ग्राम एवं नगरादि नहीं होते, पर दिये वृद्ध होते हा जो युगलों को अपनी-अपनी मन इच्छित ( संकल्पित ) वस्तुएँ दिया करते हैं ।।३४२-३४५ / २
दस प्रकारके कल्पवृक्ष
पानंग' तुरियंगा, भूषण वस्त्वंग भोषनंगा
य ।
श्रालय दोषिय भायण मामा-सेजंग-आदि-रूप्पतरू ।। ३४६ ।।
-
-
अर्थ :- ( भोगभूमि में ) पानाङ्ग, सूर्याङ्ग, भूषणाङ्गवस्त्राङ्ग, भोजनाङ्ग मलयाङ्ग, दीपाङ्ग, भाजनाङ्ग, माला और तेजाज आदि कल्पवृक्ष होते हैं ।। ३४६||
+
पाणं महुर सुसादं छ- रसेहि जुवं पसत्य बत्तीस मे जुरां,
महसीवं । पानंगा देति तुद्धि पुट्टियां १२३४७॥
-
-
अर्थ :- ( इनमें से ) पानाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष (भोगभूमिजोंको) मधुर, सुस्वादु छद्द रसोंसे युक्त, प्रशस्त, प्रतिपीतल तथा तुष्टि और पुष्टिकारक बत्तीस प्रकारके पेय ( दृष्य ) दिया करते है ।। ३४७।।
तूरंगा वर वीणा, वडपडह मुइंग झल्लरी - संद
-
कुंदुभि भंभा मेरी काल-पमुहाइ देति 'वजाई ॥ ३४८ ॥
-
·
·
-
-
-
अ :- तूर्याङ्ग जातिके कल्प वृक्ष उत्तम धोरणा, पटु पदह, मृदङ्ग, झालर, शंख, दुन्दुभि, मम्मा, भेरी और काल इत्यादि भिन्न-भिन्न प्रकारके बाजे ( वादित्र ) देते हैं ।। ३४८ || तर विसगंगा, कंकण कठिसुलहार केयूरा 1
अंजोर कडमडल तिरोड मजडादियं देति ।। ३४६ ॥
A
-
:- भूषरगाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष कंकण, कटिसूत्र, हार, केयूर, मञ्जीर, कटक, कुण्डल, किरोट और मुकुट इत्यादि आभूषण प्रदान करते हैं ।। ३४६ ।।
१. क. ज. य, उ. पायगा । २. ब. प ३. . . . . . . रंगा
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चढत्यो महाहियारो
आगये श्री सुविि
वत्संगा शितं 'पढचीण- सुवर-शम-यहूदियत्यानि । प्रण- जयणाणंदकर, गाणा- बत्पादि ते वेति ।। ३५० ।।
गाथा : ३५०-३५५ ]
वर्ष :- वस्त्राङ्ग जातिके कल्पवृक्ष नित्य चीनपट ( सूती वस्त्र) एवं उत्तम क्षौम (रेशमी ) आदि वस्त्र तथा मन और नेत्रोंको आनन्दित करने वाले नाना प्रकारके अन्य वस्त्र देते हैं ।। ३५० ।।
सोलस विमाहारं सोमसमेयाणि चोट्सविह सपाई, खज्जाणि सायाणं च पयारे, तेसट्टी संजुवाणि ति सारण । रस मेदा तेसट्ठी, बेंति फुड
-
जगाणि पि । विगुणं ।। ३५१ ॥
-
-
-
भोयगंग - दुमः ॥ ३५२॥
:- भोजनाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष सोलह प्रकारका आहार सोलह प्रकारके व्यञ्जन, चौदह प्रकारके सूप ( दाल आदि ) चउबनके दुगुने ( १०८ ) प्रकारके खाद्य पदार्थ, नोनसी तिरेसठ प्रकारके स्वाद्य पदार्थ एवं तिरेसठ प्रकार के रस भेद पृथक-पृथक दिया करते हैं ।।३५१-३५२ ।।
सस्थिय
गंदावतं, पमुहा जे के वि
दिष्व पासादा । सोलस मेवा रम्मा, देति हु ते आलयंग - दुमा । १३५३ ।।
-
[ १०६
अर्थ:-मालयाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष, स्वस्तिक एवं नन्वावतं आदि सोलह प्रकारके रमणीय दिव्य भवन दिया करते हैं ।।३५३ ।।
दबंग-तुमा "साज्ञा पवाल फल - कुसुममंकुराचीहि । दोबा इव पज्जलिवा, पासावे देति उज्जीवं ।।३५४ ।।
अर्थ:-दोपाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष प्रासादोंमें शाखा, प्रवाल, फल, फूल और अंकुरादिके द्वारा जलते हुए दीमकोंके सह प्रकाश देते हैं ।। ३४४ ॥
भाषणभंगा कंचन - बहुरयण विणिम्मियाइ थालाई । भिंगार कलस गरगरि खामर पीडावियं देति ॥ ३५५॥
अ :- भाजनाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष स्वणं एवं बहुत प्रकार के रत्नोंसे निर्मित वाल, भारी, कलवा, गागर, चामर और श्रासनादिक प्रदान करते हैं ||३५५ ||
१. द. व का. य उ परियो । २. ८. सोहा ।
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११. 1
तिसोयपत्ती [ गाथा : ३५६-३५८ बल्ली-सह-गुल्छु-सदुम्भवाग' सोलस - साहस्स - मेरा।
मासंग - दुमा रेति हु, कुसुमागे विदिह - मालाओ ॥३५६।।
पर्ष:-मालाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष वल्ली, तरु, गुल्यों और सवामोंसे उत्पन्न हुए सोलह हजार भेद रूप पुष्योंकी विविधते हैं
17257!. WE ARE सेजंगा मज्झविम-दिणपर-कोडोम किरण-संकासा।
मत - चंच - सूर - प्पाहवाग कति - संहरगा' ।।३५७।।
प्रः-सेजाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष मध्यंदिनके करोड़ों सूर्योकी किरणोंके सदृश होते हुए मक्षत्र, चन्द्र और सूर्यादिकको कान्तिका संहरण करते हैं ।।३५७।।
से सम्बे कप्पमा, 'वगप्पयो गो बतरा देवा ।
"णरि प्रवि- सख्या, पुस्प - फलं रति मीषानं ||३५॥
म-वे सर्व कल्पवृक्ष न तो वनस्पति ही हैं और न कोई व्यन्तर देव हैं। किन्तु पृषियी स्प होते हुए पे वृक्ष बीवोंको उनके पुष्प ( कर्म ) का फल देते हैं ॥३५८।।
भोग भूमि में दस प्रकार के कल्प वृक्षों से भोग सामग्री ग्रहांग भाजनौ। भोजनगंग पार्माग कोंग ।
षणोंग
जाग
१. द.स, बायुम्पवए, क. प. य. छ. मदुम्मवरणा। २. 4.4.क.प. प. उ.बहरणं । ३.१.६ ब. गप्परेको समेतरा, उ. बएफहो। ४ . ब. क. प. य. उ. एवरो।
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गाया : ३५६-३६३ ]
infcafes
गोव रहेस...
झोत
जीहा विविह रखेसु, फासे
महाहियारो
अर्थ :- भोगभूमिजोंकी श्रोत्र- इन्द्रिय गीतोंकी ध्वनिमें, चक्षु रूपमें घास सुन्दर सौरभ में, जिल्ला विविध प्रकारके रसोंमें और स्पर्शन इन्द्रिय स्पर्श में रमना करती है ।।३५९ ।।
होते हैं मोर है ।। ३६३ ।।
इय अग्लोनासता, ते जुगला वर खिरंतरे भोगे । सुलभे विम सत्तिति इंडिय विसएसु पार्श्वति ॥ ३६० ॥
अर्थ:- इस प्रकार परस्पर आसक हुए वे युगल ( नर-नारी ) उत्तम भोग- सामग्रीके निरन्तर सुलभ होने पर भी इन्द्रिय-विषयों में तृप्त नहीं हो पाते ।। ३६०।1
जुगलागि श्रणंतगुणं भोगं खक्कहर - भोग- लाहादो' । भुति जाब आउं, कदलीघादेण रहिवास ।।३६१ ।।
तर
घां ।
सिवियं रमइ ३५६ ॥
अर्थ :- भोगभूमियों के वे युगल कदलीपात मरण से रहित होते हुए आयु पर्यन्न चक्रवर्तीके भोग लाभको मपेक्षा अनन्तगुणे भोग भोगते हैं । ३६१ ॥
-
कपडुमविषण, घेषण विकुल्बणाए बहुवेहे ।
P
कापूर्ण ते जुगला, अमेव भोगाई" भुंजंसि ॥३६२॥
-
-
श्र:- वे युगल, कल्पवृक्षों द्वारा दी गई वस्तुओं को ग्रहण करके मौर विक्रिया द्वारा बहुत प्रकारके शरीर बना कर अनेक भोग भोगते हैं ।। ३६२ ।।
१. अ. ब. क. ज. य. न. मा । २.
क. ज. य. ३. जास
पुरिसा वर मउड- धरा, देविदावो बि सुबरायारा ।
अभ्र सरिसा इत्यो, मणि-कुंडल-मंडिय-कोला ।। ३६३।।
[ १११
:- ( वहाँ पर ) उत्तम मुकुटको धारण करने वाले पुरुष इन्द्रसे भी अधिक सुन्दराकार मणिमय कुण्डलोंसे विभूषित कपोलों वाली स्त्रियां श्रप्सराओंके सदृश होती
४. क. भोगाय ज. भोमा । ५.
व. म. व भोगवाहादो, व भागवावादी । क.ज.प. पौडबरा ।
३. द.म.
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तिमोयपम्हाती
। गापा : ३६४-३६८
मउ कुल • हारा, मेहल - पासव • बमासुलाई।
अंगर - कम्य - प्पाहुदो, होति सहावेल भामरणा ॥३॥ प:-भोगभूमिजोंके मुकुट, कुण्डल, हार, मेखला, प्राप्लम्ब, प्रसूत्र, अंगद मौर कटक
ग्ल - मंगव' - हारा, मउ केयूर - पट्ट - करपाई। पालंब - सुत्त • मेटर • बो-मुद्दी-मेहलासि-कुरिपाओ' ॥३६॥ 'गेवेन्म कणपूरा, पुरिसानं होति सोलसाभरमा ।
चोट्स इस्योसा, छुरिया - करवाल - होचाई ॥३६६॥
म:--भोगभूमि 'कृष्णल, अङ्गद, 'हार, *मुकुट, फेयूर, 'पट्ट, (भालपट्ट), कटक, 'प्रासम्म, 'मूत्र (ब्रह्ममूत्र ), "नूपुर, "दो मुनिकार, मेखला, "असि (करवाल ), "छुरी, "देयफ और "कर्णपूर, ये सोलह प्राभरण पुरुषवर्ग के होते हैं। इनमेंसे छुरी एवं करवालसे रहित शेष चौदह पाभरण महिलावर्गके होते हैं ॥३६५-३६६।।
"कडय-कडि-सुत्त - सेटर • तिरोड पातब-सुस-मुद्दीयो । हारोडल • मउहबहार - भूगमणी वि नेविया ॥३६७।। गंगा - दुरिया खमा, पुरिसाणं होति सोलसाभरणा । पोट्स इत्योन तहा, छुरिया • सग्गेहि परिहीणा ॥१६
पाठान्तरं॥ पर्व:-'कड़ा, 'कटिसूत्र, मुपुर, "किरीट, प्राजम्ब, 'मूत्र, 'मुद्रिका, हार, 'कुण्डल, ."मुकूट, अपहार, पृष्टामणि, पंवेय, "अंगद, '"छुरी और "तलवार ये सोलह भाभरण पुरुषोंके तथा छुरो और तलवार से रहित शेष पौदह पामरण स्त्रियों के होते हैं ॥३६७-३६८।।
पाठान्तर।
२. ....... उ. सुथरियायो।
... बिना।
...ब. व. पंगसम. मंडल। ४. ... .ज. प. उ. स्य ।
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गावा नं.
३२५ ३२६
३२८ मे
प्रासाद
की
जीव
३३६ ३३७
काल
नालिका :
भोगभूमिज जीवोंका संक्षिप्त भव ____ नाम ।
बंभव भूमि | स्वच्छ, साफ, कोड़ों आदिसे रहित, निर्मल, दर्पण सहश,
पंचव तृण (पास) पांच वर्णकी मृदुल, मधुर, मुगन्धित और चार अंगुल
प्रमाण। वापिकाएँ अस मन्तु रहित और सर्व म्याधियोंको नष्ट करने वाले
अमृतोपम निर्मल जलसे मुक्त । अनेक प्रकारको मृदुल शय्याओं पोर अनुपम आसनोंसे
युक्त। पर्वस स्वर्ग एवं रत्नोंके पहिए. -तार वृमि
युक्त और उन्नत। नदिया उभय तटों पर रलमय सीढ़ियों से संयुक्त और अमृत
सदृश उत्तम जलसे साहस । विकलत्रय एवं प्रसंगी जीवोंका तथा रोग, कसह पौर ईर्धा आदिका अभाव। रात-दिन के भेद, पन्धकार गर्मी-मी को वाधा और
पापोंसे रहित। उत्पत्ति युगल उत्पत्ति होती है । अन्य परिवार एवं राम
नगरादि से रहित होते हैं। बल
एक पुरुषमें नौ हजार हाथियों के बराबर।। शरीर प्रशस्त १२ लक्षण युक्त । कवालाहार करते हुए भी
निहार से रहित। कल्पवृक्ष १० प्रकार के। पेय पदार्थ ३३ प्रकार के। वादित्र
नाना प्रकार के। आहार १६ प्रकारका । (१E) व्यजन-१७ प्रकारके । (१८)
दाल-१४ प्रकारको। खाद्य पदा १.८ प्रकार के। स्वाण पदार्थ ३६३ प्रकारके । (२१) रस-६३ प्रकार के। भवन
स्वस्तिक एवं नन्यावर्स मादि १६ प्रकारके। फूल मालाएँ १६००० प्रकार की। भोग
चकवक भोगसे अनन्तगुणे । भोग साधन विक्रिया द्वारा अनेक प्रकारके शरीर बनाते हैं। आभूषण पुरुष १६ प्रकारके और स्त्री के १४ प्रकारके। कला-गुण ६४ कलामोसे युक्त। संहनन वनवृषभनाराच । संस्थान समचतुरस शरीर ।
मरण कदली घात रहित । | भरणका कारण पुरुषका छोंक और स्त्रीके जम्माई।
३३०मोर ३४४-४५
३४.
३४६
३४८
३५२
२८
३८६ ३४३ ३४३
रह
३५१
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११४ ]
तिलोपएणसी
[ गाथा : ३६६-३७४ भोगभूमिमें उत्पत्तिके कारण भोगमहोए सवे, जायते मिग्छ • भाव - संपत्ता । मंद • कसाया मगुवा, पेमुन्नासूप • दंब - परिहोणा ॥३६॥
विजय • मंसहारा, म • मम्जोपरेहि 'परिषता । 'सच्च-शुदा मव-रहिवा, चोरिय-परवार-परिहोणा ॥३७॥ गुणधर-गुने 'रसा, जिण-पूर्व में कुगंति परवतो। अवबास - तणु - सरोरा, अज्जव - पट्सदोहि संपणा ॥३७१५ आहार-बान-गिरा, जदीतु बर-बिबिह-योग-जुत्ते। निमलसर - संबमेसु य, विमुबक - गं भत्तीए ॥३७२॥
अर्थ:-मोगभूमि में ये सब जीव उत्पन्न होते हैं जो मिथ्यास्वभावसे युक्त होते हुए भी मन्दपायी है, पशून्य, मसूर्यादि एवं वैसे रोहत है, माँसाहार त्यागी, मधु, म तयाँ दम्बर फलोंके मी त्यागी है. सस्थवादी हैं, अभिमानसे रहित हैं, चोरो एवं परस्त्रीके त्यागी हैं, गुणियोंके पुरणों में मनुरक्त है, ( भक्तिके ) प्राधीन होकर जिनपूजा करते हैं, उपवाससे शरीरको कृश करने वाले हैं, मानवादि ( मुरणों से सम्पन्न है; तपा उत्तम एवं विविध योगोसे युक्त, अत्यन्त निर्मम संयमके धारक और परिग्रहसे रहित यतियोंको भक्तिसे माहारवान देने में तत्पर रहते हैं ॥३६९-३७२।।
पुर्व बब- णराऊ, पच्छा तिस्पयर - पार • लम्मि । पाविध - खाइय - सम्मा, जायते के भोगभूमौए ।।३७३॥
:-पूर्वमें मनुष्य आयु गांधकर पश्चात तोयंकरके पादमूलमें क्षामिक सम्पमत्व प्राप्त करने वाले कितने ही सम्यग्दृष्टि पुरुष भो भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं ।।३७३।।
एवं मिच्छाविदी, णिगंधा जवीण वाणा। दादूण पुन्छ - पाके, भोगमाहो केह जायंति ॥३७॥
१.१.. परिपित्ता। २. द...ब.स. उ. सत्य। १. द....न.प.ज. रतो । ... दीपाई।
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गापा : ३७५-३७९] बउत्यो महाहियारो
प:- इसप्रकार कितने हो मिण्याइष्टि मनुष्य निग्रन्मपतियोंको दानादि देकर पुष्योदय माने पर भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं ॥३७४।। ET Ester आहोराभयमा महासह पोल्याक्मिानं ।।
पत्त • पिसेसे गावून भोगममीए मायति ।।३७५।।
प:-( कितने ही मनुष्य ) पात्र-विशेषों को माहारदान, अभयदान, विविध भौषधियाँ एवं जानके उपकरण स्वरूप शास्त्र आदिका दान देकर भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं ।।३७५॥
वाचून केह दाणं, पत्त - गिसेसेस के वि वाणानं ।
अणुमोबण तिरिया, भोगक्सियोए वि जाति ॥३७६॥
प: कोई पात्र विनेषोंको दान देकर और कोई दानोंको अनुमोरना करनेसे नियंक भी। भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं ॥३७६।।
'गहिर्म जिमलिंग, संजम-सम्मत्त-भाव-परिचता । मायापार - पपट्टा, पारितं गासमेति में 'पावा ॥३७७।। दाबूण लिंगोक, गाना - वाणाणि जे गरा मूठा ।
"सम्बेस - धरा केई, भोगमहोए हवंति ते तिरिया ॥३७१।।
पर्ष:-जो पापी बिलिंग ग्रहण कर संयम एवं सम्यक्त्वको छोड़ देते हैं मोर पश्चात मायापार में प्रवृत्त होकर चारित्र को ( मी ) न कर देते है. तथा जो कोई मूर्ब मनुष्य लिगियोंको नाना प्रकारके दाम देते है या उन (कुलिंग ) भेवाको धारण करते हैं, वे भोगभूमिमें तिपंच होते हैं ॥३७७-३७८11
भोगभूमिमें गमें, जन्म एवं भरस कान तथा मरणके कारणभोगन-पर-तिरियान, गब-भास-पमाण-आर-अबससे । तागं हसि गम्मा, ए सेस - कालम्मि का या नि ॥३७६।।
१. ५. व, गहिदूरण, क. ब. स. हिंदूण। २ क. उ. प. उ. पार्ष। 1. 4. गनिमीणं ।। ४. व... क. ज. प. उ. वेसकरा।
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११६ ]
तिलोयपण तो
'पुरुषम्म य लबमासे, सु-सयणे सोविऊण जुगलाई ।
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भार
भुगलेल : निक्कल
:- भोगभूमिज मनुष्य और तियंचोंकी नो मास श्रायु अवशेष रहने पर ही उनके गर्म रहता है, शेष कालमें किसीके भी गर्म नहीं रहता। नव-मास पूर्ण हो जाने पर युगल ( नर-नारी ) भू-शया पर सोकर गर्भसे युगलके निकलने पर तत्काल ही मरण को प्राप्त हो जाते हैं ।। ३७६- ३८०१
चिक्केण मरवि पुरिसो, जिभारंभेण कामिनी दोन्हं । सारव - मेघ जब तप्पू, आमूलायो बिसीएहि ॥३८१॥
अर्थ :- पुरुष कसे और स्त्री जंभाई थानेसे मृत्युको प्राप्त होते हैं। दोनोंके शरीर शरत्कालीन मेघ के समान आमूल विलीन हो जाते हैं ||३५१||
भोगभूमित्रों की गति -
[ गाया : ३८०-३८४
भावन बेंतर जोइस- सुरेस जयंति मिच्छु-भाव-जुदा ।
सोहम्म दुगे भोगज गर तिरिया सम्म भाष-जुदा ॥३६२॥
-
▾
-
सर्वकाल ।।३८०॥
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-
१. १. ब. रु. ज. प. उ. पुण्य मि म. च. सारमेय ४. . . . दमण
अर्थ :- ( मृत्यु दाद ) भोगभूमिज मिथ्यादृडि मनुष्य-तियंच भवनवासी, व्यन्सर और ज्योतिषी देवोंमें तथा सम्यग्दृष्टि मनुष्य-तियं सौचमं युगल पर्यन्त उत्पत्र होते हैं ।। ३८२ ॥
जन्म पश्चात् भोगभूमिज जीवों का वृद्धिक्रम -
जावान भोगनूवे, सपनोवरि बालयाण सुत्तानं ।
गिय अंगुरुय लिहणे, गच्छते तिन्मि विवसाणि ॥ ३६३॥ *इस रणन्प्ररिथर-गमणं, पिर-गमण-कला-गुणेण पक्कं । सम्मत गहण - पाउग्ग तिदिनाई ।।३८४ ।।
" तारन्गेणं
अर्थ :- भोप भूमिमें उत्पन्न हुए बालकोंके शय्यापर सोते हुए अपना अंगूठा घुसने में तीन दिन व्यतीत होते हैं, पचात् उपवेशन (बैठने ), प्रस्थिर-गमन, स्थिर-गमन, कला गुणोंकी प्राप्ति,
२. ६. प. अ. य. क्किले सम्महि । अ य ता पुखं 1
३. ब. ब. क. ज.
3. Fofawn'
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गम्या : ३८५-३८९ :... अपलो हानि : है . [ ११७ तारुण्य प्राप्ति एवं सम्यक्त्य ग्रहणकी योग्यता, इनमें से क्रमशः प्रत्येक अवस्थामें उनके तीन-तीन दिन व्यतीत होते हैं ।।३८३-३८४।।
___ सम्यक्त्व ग्रहण के कारणजादि - भरनेण केई, केई परिनोहणेण देवान।
धारणपुरण • पहुबोग, सम्मत ताप गेहति ।।३८५।।
पर्ष:-( भोगभूमिज ) कोई जीव जाति-स्मरणसे, कोई देवो प्रतिबोधसे और कोई पारणमुनि भाविकके सदुपदेशसे सम्सस्स्य ग्रहण करते हैं ॥३८५।।
__भोगभूमिज जीवोंका विशेष स्वरूपदेवी-देव-सरिया, बत्तीस-पसस्य-सम्वहि जुवा । कोमल • बेहा - मिहुणा', समचउरस्संग - संठाणा' ॥३८६।। पादुमयंगा वि तहा, छेतु भेस च ते किर' ण सक्का ।
असुचि - बिहीणसादो, मुत्त - पुरीसासबो रिष ।।३८७॥
पर्व:-भोगभूमिम नर-नारी, येव-वेवियोंके सदृश बत्तीस प्रशस्त समरणों सहित, सुकुमार, बेह-रूप-भववाले और समचतुरस्त्र-संस्थान संयुक्त होते हैं। उनका पारीर धातुमय होते हुए भी श्वेवा-भेदा नहीं जा सकता । अशुचितासे रहित होनेके कारण उनके शरीरसे मूत्र तथा विश्वाका पानव नहीं होता ॥३८६-३८४ा
ताण अगलाण वेहा, अ गुष्वट्टणं जग-बिहीणा ।
मुह-त-णयन-धोषण- पह-कट्टण-विरहिका बि रेहति ।।३।।
पर्ष :- उन युगल नर-नारियोंके शरीर, तेस-मर्दन, उबटन और अजनसे तथा मुख, दांत एवं नेत्रों षोने तथा नाखूनों के काटनेसे रहित होते हुए भी शोभायमान होते हैं ॥३८॥
अखर-मालेलेस, गणिो गक्षमा - सिप्प - "पगोस ।
हे बउट्टि - कलासु हॉति सहावेण जिउपयरा ॥३६॥
पर्ष:-वे अक्षर, चित्र, गणित, गन्धर्व पौर शिल्प इत्यादि पौंसठ-कलाओं में स्वभावसे ही अतिशय निपुण होते हैं ।।३८६।।
१... कज. प. उ. विहरणा। २. प.ब.क.ब. स.संठाएं। ..क.प. प. उ. किरण रग सरका। ४. ६. ब.क. ज. स. एम-मंदस। ५. ८. क. ज, य. न. पहरेसु।
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११८ ]
तिलोपाती
ते सब्बे पर जुगला, प्रोगुप्पण्ण
·
पेन संमूढा' ।
जम्हा लम्हा ते सावध - वय संगमो नपि ॥ ३६० ॥
-
1
अर्थ :- वे सब उत्तम युगल पारस्परिक प्रेम अत्यन्त मुग्ध रहा करते हैं, इसलिए उनके कोचित व्रत-संयम नहीं होते || ३६० ॥ 1
कोइल - महरामाया किन्नर कंठा हवंति से जुगला ।
कुल जादि भेद होना, सुहसचा खत - दारिद्दा ॥३६२॥
·
-
-
:- वे नर-नारी युगल, कोयस सदृश मधुरभाषी, किन्नर सदृश कण्ठ वाले, कुल एवं
जातिभेदसे रहित, सुखमें प्रासक्त और दारिद्रय रहित होते हैं ||३९३॥
भोगभूमिज तियंचोका वर्णन ---
-
तिरिया भोगबिबीए, जुगला जुगला हवंति वर-वण्णा । सरला मंदसाया णाभाविह जादि संजुला ॥३६२॥
पादर्शक :.
श्री सुि
सर्व :- भोगभूमिमें उत्तम वर्ण-विशिष्ट, सरल, सन्य-कषायी और नाना प्रकारको जातियों काले तियंच जीव युगल मुगल रूपसे होते हैं ।।३६२॥
·
-
-
गो-केसरि-करि-मयरा-स्वर-सारंग शेभ महिल-क्या । सिगालच्छ भल्ला य ॥ १६३॥
-
४. ब. क. य. उ. जिक, व. fears, प
[ गाया : ३६०-३६५
वायर-गयय-सरच्छा
कुक्कुड कोइल फोरा, पारावर रायहंस कारंडा ब्रेक-कोक-कच-किंजक पहूवीओ होंति अच्छे बि ।। ३६४ ॥
-
·
१. व.ब.क.ज.ज. अंगूठा य. संगण २.ब.उ.सं
अर्थ :- (भोगभूमिमें ) गाय, सिंह, हाथी, मगर, शुकर, सारङ्ग रोझ (ऋ), मेस, बुक ( भेड़िया ), जन्दर, गवय, तेंदुआ, व्याघ्र, श्रृंगाल, रीख, भालू, मुर्गा, कोयल, तोता, कबूतर, राजहंस, कारंड, बगुला, कोक ( चकवा ) क्रौंच एवं किमक तथा और भी तियंच्च होते है ।। ३६३-१६४।।
यह मनुवाणं भोगा तह तिरियानं
हवंति एवानं । निय जिय जोग्गलेणं, फल कंड लगेकुरावीनि ॥ ३६५॥
-
३. ब.उ. सिवालस्ट के सिंगाज
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गाथा : ३६६ -४०० ]
चरम महाहियारो
[ ११६
अर्थ :- वहा जिस प्रकार मनुष्योंके मोग होते हैं उसीप्रकार इन तिर्यञ्च भी अपनीअपनी योग्यतानुसार फल कन्द, तृण और अंकुरादिके भोग होते हैं ||३६| वग्धादी भूमिचरा, वायस पहूवी य खेमरा तिरिया । मंसाहारेण विणा भुमंते सुरतस्थ महूर फलं ॥१३९६ ॥
अर्थ :- वहाँ व्याघ्रादिक भूमिचर और काक आदि नभचर तिर्यच्च मांसाहारके दिना कल्पवृक्षोंके मधुर फल भोगते हैं ।। ३९६ ॥
हरिणादि तनवरा तह, भोगमहोए तणाणि विव्याणि । भुति जुस जुगला, उदय-विशेस-प्पहा सये ॥१३६७।।
:- भोगभूमिमें उदयकालीन सूर्यके सदृश प्रभा वाले समस्त हरिरणाविक तृण जीबी पशुओं के युगल दिव्य तृणोंका भोजन करते हैं ।। ३६७॥
सुपमा सुषमा काल ( के वर्णन ) का उपसंहारक भावान करे वशी कालम्मि सुसमसुसमे, व कोडाको डिउयहि उवमम्मि ।
पढमादो
-
होयते, उहाक बलद्धि - तेआई' ।। ३६८||
अर्थ :- बार कोड़ा कोड़ी सागरोपम ( प्रमाण ) सुषमासुषमा कालमें पहिले शरीरको
-
ऊँचाई, आयु, बस, ऋद्धि एवं तेज आदि होन होन होते जाते हैं ।।३६८॥
सुषमा कालका निरूपण
उच्छे पहूदि खोणे, सुसमो जामेण पविसदे कालो ।
सरस पमाणं सायर उद्यमाणं तिणि कोडिकोडीओ || ३६६॥
-
▾
फॅ. ज. प.च. खरा उच्हो ।
श्रचं :- इस प्रकार उत्सेष आदि क्षीण होनेपर सुषमा नामका द्वितीय काल प्रविष्ट होता है । उसका प्रमाण तीन कोड़ाकोड़ो सागरोपम है ।। ३६६ ॥
मनुष्यों की प्रायु, उत्सेध एवं कान्ति
सुषस्साविस्मि "णराहो दो पल्ल पमाणाऊ, संपुष्ामियंक सरिस पहा ॥४००॥
| दं ४००० | १ २ ।
-
१. ब. क. प. उ.साचारा २४. परकोटा
सहत्त चावाणि ।
1. 8. T. 4. 3. U. ŽEL
४. ६. व.
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१२० ।
तिलोयपण्णत्तो
[ गाषा : ०१-४.४ पर्व:-मुषमा कालके प्रारम्भमें मनुष्यों के शरीरका उत्सेध बार हार (४०..) अनुक, आयु दो पस्य प्रमाण मोर प्रभा (शरीरकी कान्ति ) पूर्णचन्द्र सदृश होती है 1॥४००॥
पृष्ठभागकी हड्डियोंका प्रमागअट्ठावीसत्तर • सममट्ठी पुट्ठीए होति एरान। अन्धर-सरिसा इस्वी तास-सरिया
TES प्र :-इनके पृष्ठभागमें एकसो अट्ठाईस हडिग्यो होती है। ( उस समय ) स्त्रियों अप्सराओं सवा मोर पुरुष देवों सदृश होते हैं ।।४०१।।
संस्थान एवं प्राहारतस्सि काले मणुषा, अबह-फल-सरिसममिवमाहार'।
चंति छटु • भने, समचउरस्संग - संठागा ॥४.२॥
सर्व :-उस कालमें, मनुष्य समचतुरन-संस्थानसे युक्त होते हुए पष्ठभक्त ( तीसरे दिन) अक्ष { बहेड़ा ) फन बराबर अमृतमय माहार करते हैं ।।४०२॥
. उत्पन्न होने के बाद वृद्धिकमतस्सिं संबादाम, सपनोवरि वासयान सुत्ता।
गिय - अंगुट्ठिय - लिहणे, पंच परिणागि पबति ।।४०३॥
भ:-उस कालमें उत्पन्न हुए बालकोंके शय्यापर सोते हुए अपना अंगूठा चूसनेमें पांच दिन व्यतीत होते हैं ।।४०३।।
बहसग-अस्विरभामणे, पिर-ममण-कला-गुणेज पत्ते । "तपणेगे सम्मत्त - गहण-जोग्ण अंति' रंच - विणा 11४०४।।
:-पश्चात् उपवेशन, अस्थिरगमन, स्विरगमन, कलागुण प्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्रव ग्रहणकी योग्यता, इनमें से क्रमशः प्रत्रेक अवस्थामें उन बालकोंके पांच-पार दिन जाते है ॥४०४॥
१.प. उ, सरिसा। २. ५. मविदमाहार। इ. इ. म. विनी हो । ४... विसानेर स, क. उ. दिवाणेव पहचति । प, पिणाशि परपति। ५.. तलोणं, क. के उ. साक्षणेस । १.८.२.क. ब. स. मोग-युक्ति ।
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गाथा : ४०५ ४०१ ]
प
महाहियारो
श्रवशेष कथन -
एसिया मेस विसेसं मोलूनं सेस-वन्गयपारा । सुसमसुसमम्मि काले, जे भगदा' एच बम्बा ॥४०५॥२
श्री सुनिनिष्ट जी हा
अर्थ :- उपर्युक्त इतनी मात्र विशेषताको छोड़कर शेष वर्णनके प्रकार जो सुषमसुषमा कान में कहे गये हैं, उन्हें यहाँ भी कहना चाहिए ।।४०५ ।।
दूसरे कालका प्रमाण आदि
कालम्मि सुसमणामे, लिम-कोडीकोसि उबहि-उबमम्मि । पढमावो होयंते, उच्हाऊ - बसद्धि
t.
सेवावी ।।४०६ ।।
:-तीन कोटाकोड़ी सागरोपम प्रमाण सुषमा नामक कालमें पहिले से ही उस्सेप, यू, बस, ऋद्धि और तेज भादि उत्तरोतर हीन-हीन होते जाते हैं ।।४०६ ।।
सुषमादुषमा कालका निरूपण
उच्छे-वि-लोणे, पश्चिसेवि हु सुसमदुस्समो कालो । तस्स पमाणं सायर उचमाणं वोन्हि कोडिकोज
अर्थ :- उत्घादिक क्षीण होने पर सुषमदुधमा काल प्रवेश करता है । उस कालका प्रमाण दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम है ||४०७॥
तबकालाविम्मि 'णराजुच्छे हो हो सहस्स एक्क पलिदोषमाऊ, पिबंगु
सारिच्छ
-
२२४०७॥
·
-
[ १२१
। दं २००० । १ ।
पर्थ :---उस कालके प्रारम्भमें मनुष्योंकी ऊंचाई दो हजार (२०००) धनुष, आयु एक पल्य प्रमाण और वर्ण प्रियंगु फल सट्टा होता है ।१४०८ ||
भाषाणि ।
वण-धरा ॥४०८ ॥
चचसट्ठी पुट्टीए राग खारोग होंति अट्ठी वि
I
अच्छर सरिसा रामा, अमर समानो गरो होदि ४०६ ॥
प.उ. जो महादो | २.६.
चारा हो ।
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तिलोयपण्णत्ती
[ गाया : ४१er प्रम :-उस कालमें स्त्री-पुरुषोंके पृष्टभागमें चौंसठ हड्डियां होती है, तथा नारियां अप्सराओं सहश और पुरुष देवों सदृश होते हैं ॥४०६।।
तरकाले से मणुषा, आमसक - पमानममिप - आहारं ।
भुति वितरिया, समबरसंग - संठाचा rton
RM :-उस काल में समचतुरस्रसंस्थानसे युक्त वे मनुष्य एक दिनके प्रत्तरसे अविन बरावर अमृतमय आहार ग्रहण करते हैं ।।४?ll
ससि संवावा, सयगोपरि चालयाण सुत्सा। णिय 'अंगुहय - लिहा तसा : विद्यापिठावचालित ARE AR ARTITAN
मर्च :- उस कालमें उत्पन्न हुए बालकों के शय्यापर सोते हुए अपना मंगूठा चूसनेमें सात दिन व्यतीत होते हैं ॥४१॥
बहसण-अस्थिर-गमगं, पिर-गमग-कला-गुण पत्तक ।
तरुणेशं सम्मत्त, गहनं जोगेण सत्त - विमं ॥४१२||
म :- पश्चात् उपवेशन, अस्थिरगमन, स्पिरगमन, सागुरणप्राप्ति, तारुण्य बोर सम्यक्त्व यहाएको योग्यतासे प्रत्येक प्रवस्थामें क्रमश: सात-सात दिन माते हैं ॥४१॥
एसिय - मेत्त - रिसेस, मोतू सेस-चन्गण-पपारा ।
कालम्मि सुसम - गामे, जे' भणिया एत्व वसव्वा ॥४१॥
म:--हसनी मात्र विशेषताको छोडकर मेष वर्णनके प्रकार जो सुचना नामक दूसरे कालमें कह माए हैं, वे ही यहां पर कहने चाहिए ।।४१३।।
भोगनिदोए ग होति छ, चोरारिम्पादि-विविह-बाधाओ।
प्रसि - बहुवि • च्छषकम्मा, सीवादप-बान-परिमानि ॥४॥
म :-भोगभूमिमें चोर एवं शत्रु आदि को विविध बाधाएँ, असि आदिक सह-कर्म तपा गीत, मासप, वात ( प्रचण्ड वायु ) एवं वर्षा नहीं होती Irry
१. ६. अमूहामहणे । २. ८. ब. क.अ. 4. दिगाभ। ३. १, ३. क. ज. प. . को गणियो ।
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गाषा : ४१५-४Reat -
HERE THERE [१२३ भोगभूमिषोंमें मागंसा आदिका निरूपणगुणजीरा पमती, पाणा सन्ना य मम्गना कमसो।
उबजोगो कहिबब्बा, भोगक्षिती - संभवाम जह-योग' ।।४१५॥
प:--भोगभूमिज जीवोंके पपायोग्य गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, मार्गणा और उपयोगका कपन क्रमशः करना चाहिए १४१५।।
भोगवाणं अवरे, वो गुगठाणं विम्मि चउ - संखा । मिच्छाइट्टो सासरा - सम्मा मिस्साविरद - सम्मा ॥४१६।।
मर्थ :-भोगभूमिज जीवोंके जघन्यसे अर्थात् अपर्याप्त अवस्था में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं, तथा उत्कृयतासे अर्थात पर्याप्त अवस्था मिथ्याष्टि, सासादनमम्पकरण, मिश्र और मविरतसम्यग्दृष्टि ये चार गुणस्माम होते हैं ।।४१६।।
ताग अपचल्लाणावरगोक्य - साहिब सय्य जीवानं । चिसयाणा - सुपाणं, सामायिह - राग - पउरा ॥४१७।।
सविरदादि उरि, बस - गुगठाणाग - हेकु-मूदायो । जागो विसोहियाओ, मइया ग ताओ जायते ।।४१८॥
म :-अप्रत्याख्यानावरण-कषायोदय सहित दीर्घ रागवाले वे सभी जीव विषयोंके मानन्दये युक्त होते हैं। देपाविरतसे लेकर दसवें गुणस्थान पर्यन्सको कारण भूत उत्पन्न हुई विशुधि वहां किसी भी जोरके नहीं पाई जाती है ।।४१७-४१८।।
और-समासा वोज्निय, निबत्तिय-पुष्णपक्षा-भेदेन । परमती छाभेया, तेत्तिम - मेत्ता मानती ॥१६॥
म :-इन जीवोंके नित्यपर्याप्त और पर्याप्तके भेदसे दो पीवसमास, छहों पर्याप्तियां और इसनी ही अपर्याप्सियां होती है ||४||
१.प. य. गोग।
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१५४ ]
पक्वते इबरल्स, मन बज्र कार्यक:- भाले श्री विि
:- उनके पर्याप्त अवस्थामें पांचों इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय, श्वासोच्छ्वास एवं आयु ये बस प्राण तथा इतर अर्थात् अपर्याप्त अवस्थामै मन, बचन और श्वासोच्छ्वास से रहित व सात प्राण होते हैं ।।४२० ॥
अ
तिलोगणती
'मण वच काया, उल्सासाक हर्बति वस पाया । उस्सास परिहीना ॥४२०१
प. उ. पुलग
-
चउ-सम्मा शार-तिरिया, सबला तस काय ओोग-एक्करसं । चउ-मण-उ-वयणाई, 'श्रोल व कम्म इयं ॥४२१॥
पुरिसियो वेद-जुदा, सयल कसाह संजुना खिवं । खन्नान खुदा ताई, मंदि ओहाण सुव
·
·
.
·
:
-
-
·
मदि सुद अागाई, विभंगचागं असंखदा सब्बे ।
-
लि सभा य ताई, अगस्तु अचम्लूणि ओहि-यंस
[ गाथा : ४२०-४२६
•
-
भोगपुच्ए' मिन्छे, सासण सम्मे असुह-लिए-लेस्तं । काऊ अष्ण सम्मे, मिन्छ चक्के सुह तियं पुष्णे ।।४२४ ।।
·
-
भवाभव्या मुस्सम्मा उवसमिम खड़य सम्मता । तह वेदय सम्मतं, सासन मिल्ला यमिच्छाय १४४२५॥
मानें ॥४२२ ॥
-
॥४२३॥
और तियं
-भोगभूमिज जीव आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह इन चार संज्ञाओं से मनुष्य सकल अर्थात् पंचेन्द्रिय जातिसे; त्रस कायसे चारों मन्दोयोग, चारों वचनयोग दो श्रदारिक ( सौदारिक, मौदारिक मिश्र ) तथा कार्मण इन व्यारह योगोसे पुरुषवेद और स्त्री
गति
·
सनोजीमा होति बोधि य आहारिनो अनाहारा । उवजोगा होंति नियमे ।। ४२६ ॥
सायार - अजादारा,
१. द. अणु २. व. ब. क. ज य उ. पज्जती । १. . . . उरात Y..E... ५. ६.सय
उ. पुषे ।
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मार्यक
गाया : ४२७ ]
त्यो महाहियारो
[ १२५ बेदसे; नित्य सम्पूर्ण कथायोंसे मति श्रुत, अवधि, मति अज्ञान, भूताज्ञान एवं विभंगशान, इन छह शानोंसे सर्व घसंयम; चक्षु, भचक्षु और अवधि इन तीन दर्शनोंसे संयुक्त होते हैं। अपर्याप्त मवस्थामें मिध्यात्व एवं सासादन गुणस्थानोंमें कृष्ण, नील, कापोल इन तीन अशुभ क्याओंसे और चतुरं गुणस्थान में कापोत लेश्या जधन्य अंशों से तथा पर्याप्त अवस्थामें मिध्यात्वादि चारों गुरुस्थानोंमें तीनों शुभ सेवासे युक्त मध्यत्व तथा अभव्यत्वसे औपशमिक, क्षायिक, वेदक, मिश्र, सासादन और मिथ्यात्व इन हों सम्यक्त्वोंसे संयुक्त होतं हैं। संज्ञी शाहारक और अनाहारक होते हैं तथा नियमसे साकार (ज्ञान) और निराकार (दर्शन) उपयोग वाले होते हैं ।।४२१-४२६ ।।
-
आचार्य श्री दिन
मंद कसायेन जुवा, उदयागव-सत्य-पर्याज- संजुता ।
विविह दिगोदास, भर तिरिया मोगजा होंति ।।४२७||
-
धर्म :- भोग भूमिज मनुष्य और तिथंच मन्दकषायसे युक्त, उदयमें माथी हुई पुष्प- प्रकृतियोंसे संयुक्त तथा अनेक प्रकारके विनोदोंमें आसक्त रहते हैं ॥ ४२७ ॥
[ तालिका १० मगले पृष्ठ पर देखिये ]
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तालिका : १० सुषमा-सुषमा आदि तीन कासोंमें आप, आहाराविको पवि-हानिका प्रधान विषय · सुषमामुषमा
___ मुषमा
| मुषमान्दुषमा
जघन्य भोगभूमि २ कोगकोड़ी सागर १पल्य
समय + पूर्वकोटि रोवला प्रभारण
२०..धनुष x०० वर्ष दिन बाद
प्रभाव
भूमि-रचना उत्तम भोगभूमि | मध्यम भोगभूमि काल-प्रमाण ४ कोडाकोड़ी सागर ३ कोडाकोड़ी सागर पायु-उस्कृष्ट ।
पाय
२पल्य जथल्य २पत्य
१पल्य माहार प्रमाण बेर प्रमारा
बहेड़ा प्रमाण अवगाहना उत्कृष्ट ६...मनुष ४००० धनुष जधम्य, ४००० पनुष
२००० धनुष | आहार-अन्तराल . दिन बाद
२ दिन बाद कवला है किंतु निहारका प्रभाव
भभाष उत्तानशयन अंगूठा धूस.| ३ दिन पर्यन्त ५ दिन पर्यन्त उपवेशन ( बैठना) ३ दिन पर्यन्त ५ दिन पर्यन्त
अस्थिर गमन ३ दिन पर्यन्त ५ दिन पर्यन्त ११ | स्थिर गमन ३ दिन पर्यन्त ५ दिन पर्यन्त
कला गुण प्राप्ति ३ दिन पर्यन्त ५ दिन पर्यन्त १३ / तारुण्य प्राप्ति ३ दिन गर्यम्स ५ दिन पर्यन्त १४ | सम्यस्व-योग्यता | ३ दिन पर्यन्त ५ दिन पर्यन्त १५ हरीर पृष्ठभाषकी हड्डियाँ २५६
१२८ १६ | संयम
प्रभाव १५ गुणस्थान प्राप्तिमें मिथ्यात्व-सांसादन | मिप्यास्व-सासादन
पर्याप्तमें पहले से चार तक | पहले से चार तक १८ | शरीर की कान्ति सूर्य प्रभा सहया पूर्ण चन्द्रप्रभा सरश!
मरणके बाद शरीर मेषवन विलीन भेषवन विग्रीन भरण बाद गतिमिच्यादृष्टि भवनत्रिक में |
भवनत्रिक सम्यग्दृष्टि
दुसरे स्वर्ग पर्यन्त | दूसरे स्वर्ग पर्यन्त
७ दिन पर्यन्त ७ दिन पर्यन्त ७ दिन पर्यन्त ७ दिन पर्यम्स ७ दिन पर्यन्स ७ दिन पर्यन्त्र ७ दिन पर्यन्त
अभाव
अभाव
मिथ्यारद-सासादन पहलेसे पारसक प्रियंगु फल सरपा मेषवर विसोन भवनत्रिक दूसरे स्वर्ग पर्यन्त
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गावा : ४२८-४३२ ] पडरयो महाहियारो
[ १२७ प्रतिश्रुति भामक प्रथम कुसहरका निरूपणपलियोमममंते, सविता
! ARE पठमो कुलकर-पुरिसो, उम्पज्जवि परिसुदी सुवन णिहो ॥४२॥
मयं:-तृतीय कालके कुछ कम एक पाल्योपमके पाठवें भाग प्रमाण (कास) अवशेष रहने पर सुवणं सदृश प्रभासे युक्त प्रतिभुप्ति नामक प्रथम बुनकर पुरुष उत्पन्न होता है ।।४२८||
एक सहस्सं अडसय-सहिद चापानि तस्स उन्हो । पल्सस्स बसमभागो, आऊ देषी 'समपहा खाम ॥४२६॥
दं १८०० 1 प । प्र:-उसके शरीरका उत्सेध एक हजार पाठ सौ घनुप, प्रायु पल्पके दस भाग प्रमाण भौर स्वयंप्रभा नामकी देवी यो ।।४२६।।
नम-गन-घंट-गिहान', चंबाच्चारण मंडसामि तदा । आसाठ - पुतिमाए, वह भोगमूमिज़ा सव्वे ॥३०॥ "आकस्सिकमविधोरं, उम्पार "जारमेमिनि मत्ता ।
पजाउला पकंप, पत्ता पवणेग पहब - सलो भव ॥४१॥
अर्थ :-उस समय समस्त भोगभूमिज माद मासकी पूर्णिमा प्राकाशरूपी हापौके घण्टे सण पन्द्र और मूर्यके मण्डलोंको देखकर श्याकुल होने हुए 'यह कोई आकस्मिक महा भयानक उत्पात हुमा है, ऐसा समझकर वायसे आहत वृक्षके सदृश प्रकम्मनको प्राप्त हुए ।।४३०-४११॥
'परिसुब-णामो कुलकर-पुरिलो एवाण "वेड्स अभय-गिरं । तेजंगा कालबसा, संबावर मंद - किरणरेषा ४३२॥
१. द.प.5,अम, २. सपहो। २...। । ३. स.इ.क. भ. प. इ. भाणं । ४. क.ब. स. ३, पारिवादिष्पोरं। ५. द. ब. . अ. ५. उ. बादयोदमिति। र. मरिमुधि । ७. मा. ज. प. उ. दपि । ६. अ.स. तेगार।
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१२५ ]
तिलोयणाती
तक्कारण एन्हि, ससहर- रविमंडलानि गयमम्मि । पानि स्थिम्हं एवाण बिसाए भय हे ॥४३३॥
-
वर्ष :-तब प्रतिश्रुति नामक कुलकर पुरुषने उनको निर्भय करने वाली वाणीसे बतलाया कि कालवश अब तेजांग जातिके कल्पवृक्षोंके किरण समुह मन्द पड़ गये हैं, इस कारण इस समय आकाश में उन्द्र और सूर्यके मण्डल प्रगट हुए हैं। इनकी प्रोरसे तुम लोगोंको भयका कोई कारण नहीं है ।।४३२- ४३३ ।
पिच्वं चि एवानं अवयस्थमज्ञाणि होति श्रायासे ।
पडिहद किरमाण * पुढं तेयंगकुमार ते हि ॥ ४३४ ॥
र
-
अ :- प्राकाशमें यद्यपि इनका उदय
नित्य हो होता रहा
जाति के कल्पवृक्षोंके तेजसे इनकी किरणोंके प्रतिहत होनेसे ( अब तक) वे प्रगट नहीं दिखते वे ।।४३४ ।।
-
जंबूदरी
कुवंति पवाहिणं तरणि - चंदा ।
रति विषाण विभाग, "कुणमाणा किरण सत्तीए ॥ ४३५॥
मेह
1
ale मेरुपसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं ।। ४३५ ।।
[ गाथा ४३३-४३६
अर्थ :- ये सूर्य एवं चन्द्रमा अपनी किराशक्ति से दिन-रातरूप विभाग करते हुए जम्मू
सोकण तस्स बपणं, अवंति चलन - कमले
1
·
संजाबा जिग्भया तदा सच्वे ।
-
जुनंति बद्धविह पाहि ॥४३६॥
अर्थ :- इस प्रकार उन ( प्रतिश्रुति) के वचन सुनकर ये सब नर-नारी निर्भय होकर बहुत प्रकारसे उनके चरणकमलोंको पूजा और स्तुति करते हैं ||४३६ ॥
1. t. 1. 5. X. T. v. afgi २. ब. उ. भो, क.
४.म.अ.यच. किरणाए ।
५. . . ट. कुलमा
।
प. अमवी । १. प. प. क्र.
६८. कमी
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यो महाहियारो
सन्मति नामक मनुका निरूपण
परिसूद मरमा तवा, पल्लस्सालोदिमंस - बिन्छे' । उपजदि बिडिय मणू. सम्मति नामी सुब-गिहो ।।४३७ ।।
19201
अर्थ :- प्रतिद्युति कुलकरकी मृत्युके पश्चात्पत्य अस्सीचे भागके व्यतीत हो जाने पर स्वर्ण सदृश कान्ति वाला सन्मति नामक द्वितीय मनु उत्पन्न होता है ।।४३७।।
মাা: ४३७-४४१ ]
एक सहस्वं लि.समस्तहिवं इंाणि तस्स पलिदोबम- सद- भागो, आक देवी जसस्तदी
-
१०.भी राशि
की
:--उसके शरीरकी ऊंचाई एक हजार तीनसो धनुष प्रमाण और मायु पत्योपमके सोधें भाग प्रमाण भी उसको देवीका नाम यशस्वती या १४३८
तक्काले तैयंगा, गठ्ठे पभावा हवंति से सब्बे । ततो सूरस्यमये, बठून तमाइ तारालि ॥४३६॥
उम्पावा अघोरा अदि पुरुषा वियंसिदए ।
इय भोगज-गर- सिरिया, विर-भय-भंगला जावा ||४४० ॥
•
हो ।
णामो || ४३८ ॥
अर्थ :---तस समय रोजाङ्ग जातिके सब कल्पवृक्ष प्रभाहीन हो जाते हैं, इसीलिए सूर्यके अस्तङ्गत होनेपर धधकार और तारा पंक्तियों को देखकर 'ये अयन्त भयानक अट पूर्व उत्पात प्रकट हुए यह मानकर वे भोग भूमिज मनुष्य-तियंञ्च भयसे अत्यन्त व्याकुल हुए : १४३६-४४०||
सम्मविसामो कुलकर- पुरिसो "भीवाण वेहि श्रनय-गिरं ।
तैयंगा कालवसा, णिम्ल
पणट्ट
१. जय विठो । २. ब. य. सारा ४. ५. जयमेतमा ब. क. ण य उ पला । वेदि ।
-
-
[ १२६
किरोधा ।।४४१ ।।
। ३. . . . . . . विझवि । ५. द... . . भेदा देवि नमेवाल
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..
तिलोयपणत्तो
[ गाथा : ४४२-४४६ तेण तमं वित्परिवं, तारागं मंडल पि गयमतले ।
तुम्हागगरिय किषि वि, एकाग रिसाए भय - हेडू ।।४४२॥
प्रचं:-तब मन्मति नामया कुलकर उन भयभीत हुए भोगभूमिमोंको निर्भय करने वाली वारणीसे कहते हैं कि अब कालवश तेजाङ्ग कम्पका कारण समूह सी मह स कारण भाकामा प्रदेशमें इस समय अन्धकार भोर ( साथ हो ) ताराओंका समूह भी फैल गया है। तुम लोगोंको इमकी ओरसे कुछ भी भयका कारण नहीं है ।।४४१-४४२।।
अरिप सदा अंघारं, तारालो 'मंग - तह • गहि ।
परिहब-किरणा पुवं, काल-बसेनन्ज 'पाया भावा ।।४४३।।
पर:-अन्धकार और तारागण तो सदा ही रहते हैं, किन्तु पूर्व में तेजाङ्ग जातिके कल्पवृक्षोंके समूहोंसे वे प्रतिहत-किरण थे, सो प्राज कालवश प्रगट हो गये हैं ॥४३॥
बगीचे मे, कुम्माप्ति पराहिलं गहा तारा ।
नक्सा निच्छ से, तेग - विणासा तमो होवि ॥४॥
प्र :-वे पह, तारा और नक्षत्र जम्बूद्वीपमें मेरुकी प्रदक्षिणा नित्य किया करते हैं। तेजके विमापसे हो अंधकार होता है l
सोरण तस्स क्यणं, संजादा णिम्भया तदा सम्ले। अचंति चलग - कमसे, पुति "र्शिमहि तुहि ||
तव कुलकरके ये वचन सुनकर वे सब निर्भय हो गये और उसके परग-कमलोंकी पूजा करने लगे तथा अनेक स्तोत्रोंसे स्तुति करने सगै Imti
मकर नामक कुलकरका निरूपणसम्मादि-लग - पवेसे, अन-सयाशिव-पास-
विने । खेमंकरों सि कुलयर - पुरिसो' उप्पयो सदियो ॥४॥
१. बरु. .. . नमास। २. ८. प. प. तेवळसरबतेहि क... गंगारमहि । १. म. म. पाया। ... क.. य. उ. विविहेमतिहि। .......रिपो । ६ .प. परितो।
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गावा; ms-ro } परत्यो महाहियारी
[ १३१ :-सन्मति नामक कुलकरके स्वर्ग बसे आने पर माठ सो से भाक्ति एक पल्य फालके पाचात् क्षेमकूर नामक तीसरा कुसकर पुरुष उत्पत्र हौ ।।४४६।।
'म-सम-बाव-सुगो, सहस्स - हरिरोषक-एल-परमाक । चामीयर - सम • बन्यो, तस्स सुनंदा महावेधी ।।४४७३
। ८००1११ ।
म :- इस कुलकरके शरीरको अंचाई आट सो ( ८०.) धनुष धो 1 आयु हजारसे भाजित एक पल्य प्रमाणं और वर्ग स्वर्ण सहश था । उसफो महादेवी भुनन्या पी 10४७॥
बग्वावि-तिरिय-गोबा, काल-बसा हर-भावमावण्णा ।
'तम्मपदो भोग - परा, सब्वे 'सच्चाउला जावा ।।४४॥ Artist :..
अ सु र और
पर्व:-उस समय कालवश व्याघ्रादिक सियंम जीवोंके कर-परिणामी होनेसे सर्व मोगभूमिज मनुष्य उनके भयसे प्रत्यन्त प्याकुस होगये थे ॥४४८।।
खेमंकर - गाम मजू, भीमा देदि विष - उवदेस'। कालास विकाराहो, एवं फरच पत्ता into ताहि विस्तातं, पापा मा करेज्ज काया वि। तासेवन 'कलुस - अषणा, जय भणिये जिम्भया जावा ॥४५॥
:-तब क्षेमकर नायक मनु उन भयभीत प्राणियोंको दिव्य उपदेश देते हैं कि कालके विकारसे ये विम्ब जीव क्रूरताको प्राप्त हुए हैं, इसलिए अब इन पापियोंका विश्वास कदापि मत करो; में विकतमुल प्राणी तुम्हें त्रास वे सकते हैं । उनके ऐसा कहने पर वे भोगभूमिज निर्भयता को प्राप्त हुए Imme-४५०॥
१. द... क. ब... सट्ट। २. द. ब. क. न. २. उ. दरमया । 1. द. साभारना। ....प. म. न. सामो। ...ब.क.क., उ. परमवार रेहि। .. .स. उपए। ....... पनि। ..ब.क.पा. स. उ. कामावि। ......... तुम।
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१३२ |
तिलोमपणाती
क्षेमंबर नामक मनुका निरूपण
तम्मणुचे तिविव-गर्व, अट्ट सहस्सावहरिद - पलम्पि अंतरि उपवितुरिमो सेमघरो
-
19 2000 1
अर्थ :- उस कुलकरका स्वर्गवास होनेपर माठ हजारसे भाजित पत्य- प्रमाण कालके अनार क्षेमर नामक नतुर्थ मनु उत्पन्न हुआ ||४५१ ।।
·
गिरी
।
सस्सुच्छो बंडा, सत्त सया सय कदि हिंवेषक पल्ला आत पमाणे दि एक्स्स ॥४५२ ॥
। दं ७७५ । प
अर्थ :- उसके शरीरकी ऊंचाई सात सौ पचहत्तर धनुष और आयु सौ के वर्ग (१०००० } से भाजित एक पल्य प्रमाण ची ॥१४३२ ।।
-
-
आचार्य श्री पंचहत्तरी
→
[ गाथा : ४५१ - ४५४
यम ||४५३ ।।
t
४. ८. . क. ज. प .दो ।
सो कंचन-सम-दो, देवी विमला ति तस्स विसावा |
तक्काले सीहावी, मूरमया संति मनूष साई ।। ४५३ ।।
F
:- उसका वर्ण स्वर्ण सदया था उसकी देवी 'विमका' नाम से विख्यात थी। उस समय को प्राप्त हुए सिंहादिक मनुष्योंका मांस खाने लगे ये ॥४५३ ।।
क्रूरता
अविभीषा भोगभूमिमा ताहे ।
सीहम्यमुनि भए बदिवि मणू तानं, बेदादि सुरक्स मोवाई ।।४५४॥
१. ६. ब. क. . य. उ. | २. . . . . ५.ज.ब.को 1 ६..
अर्थ :- सब सिहा विकके भय से अत्यन्त भयभीत हुए भरेमभूमिजोंको क्षेमंघर मनुनें उनसे अपनी सुरक्षा उपायभूत दण्डाविक रखने का उपदेश दिया ||४५४ ||
दो । ३. . अ. . . । म तांबे व क. ए. सावो ।
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T ARATRE
गाथा : ४५५-४५० ]
[ १३३
पउत्यो महाहियारो खोमकर नामक मनुका मिल्पन --
तम्मनवे गाक - गवे, सौबी-सहस्सामहरिव-पल्सम्मि । सदिवे' पंचममो, गम्मरि सोमंकरो पि मगू ॥४५५।।
बर:-इस कुसकरके स्वर्ग से जानेपर अस्सी हजारसे मालित पल्य प्रमाण झालके मन्तरसे पांचवें सीमपुर मनुका जन्म हुमा ।।४५५||
तस्सन्छेहो पंडा', पन्नासम्महिप - सत्त • सम - मेता । लक्वेग भणिय - पल्लं, आऊ वो सुबज्य-निहो ॥६॥
। ६ ७५० । १.१...।
प्रथ:-उसके शरीरका उत्सेष सातसौ पचास (७५० ) धनुग, भायु एक नाबसे माजित पस्म प्रमाण और वर्ष स्वर्ण सदृश्य पा ॥४५६।।
यौ तस्स पसिवा, णामेन मनोहरि ति तपकाले । कप्पतरू अप्प - फला, 'दिलोहो होदि मनुवा II
म: उसकी देवी 'मनोहरी' नामसे प्रसिद थी । इस समय कल्पवृक्ष अल्प फल देने लगे ये और मनुष्योंमें मोम मन पसा था ॥४५७||
सुरतइ - सुखा बुगला, अनोज गति संवा । सोमंकरेग सोम, कारण निवारिवा सो ४५८||
१.स. १. क. उ. पंचरिदे पंचायी, प. ते संतरिक्ष रमवी। २. .. .. प. उ. दंगे। .... प. प. पारिमोहारि। .... तया ।
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ર૪
तिमोयपास
:- आचार्य श्री सुटी
Ris
गामा ४५१-४६२
वर्ष - कल्पवृक्षों में लुग्ध हुए वे युगल परस्पर विवाद करने लगे थे। तब सीमा निर्धारित
1
करके सोमकुर द्वारा उन सबका पारस्परिक संघर्ष रोका गया ||४५० ॥
उपर्युक्त पांच कुलकरोंको दण्ड व्यमस्मा
सिगलं कुर्मति तानं परिसुति पहुवी फुलंकरा पंच सिक्ला - कम्भ - णिमितं, दंड कुवंति "हाकारं ॥ ४५६ ॥
अर्थ :- प्रतियुति आदि पाँच कुलकर उन ( मोगभूमिजों ) को शिक्षा देते हैं और इस शिक्षण कार्यके निमित्त 'हा' इस प्रकारका दण्ड ( विधान ) करते हैं ||४५६ ॥
सीमन्धर नामक कुकरका निरूपण
लम्ममुळे तिमिषगये, ग्रह- समसामहिय-पल्ल-परिते । श्रीमंबरो सि छडो उम्पन्नधि कुलकरी पुरिसो ॥ ४६० ॥
:- इस (सीमकुर ) कुलकर के स्वगं चले जानेपर पाठ साससं भावित पल्म प्रमा काल बाद सीमन्धर नामक झुठा कुलकर पुरुष उत्पन्न होता है ।।४६० ॥
१
८ स
तस्सुको 'गंडा, पचामहिय सत्त
-
-
लय मेशा। बस-नक्स भजिव पर्ल्स, भाऊ देवी जसोहरा नाम ||४६१||
·
-
-
| दंड ७२५ | १००
:- उसके शरीरका उत्संघ सातसौ पच्चीस धनुष था और मायु दस सबसे भावित पल्प प्रमाण थी। इसके 'यशोधरा' नामकी देवी वो ||४६११
तक्काले कम्पमा प्रविविरला अन्य-फल- एसा होति । भोग जरानं ते कसही उप्परनवे निच्वं ॥। ४६२ ।।
. . . . कारं । २. . . . . कुलकरा १.म.दंडो
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पाथा : ४६३-४६६] चउत्यो महायिारी
[ १३५ प्र:-इस कुलकरके समयमै कस्पयन अत्यन्त बिरल और अल्पफल एवं अल्प रस वाले हो जाते हैं, इसलिए मोमभूमिज मनुष्यों के शंच इनके विषय में नित्य ही कलह उत्पन्न होने लगता है ॥४६२।।
'सध्यपकलह - णिवारण -हेदूबो ताण कमइ सीमाओ । सर • गुलाबी बिह, तेण य सीमंघरो' भनियो ॥४६३॥
:-बह कुलकर कलह दूर करनेके निमित्त वृक्षा नया पोधों ( या फलोंके गुष्यों ) भादिको पिल्ल रूप मानकर सोमा नियत करना है पन ; वह सोमन्धर कहा गया है ।।४६३।।
विमलयाहन कुमक गका निरूपणतम्मनु सग - गवं, असीदि लक्खावहरिव-पल्लम्मि । गोलीले उप्पानो, सत्तमओ "विमलवाहणो ति मणू ।।४६४।।
Cocong' w:-सोमन्थर मनुके स्वयं चले जानेपर अस्सी लाखस भाजित पत्य प्रमाण काल वाद विमसवाहन नामक सातमा मनु उत्पन्न हुमा ।।४६४।।
सह-सव-चायतुंगो, इगि-कोडी-जिर-पास-परमाक । कंचन - सरिच्छ - बन्नो, सुमरी - गामा महादेबी ॥४६॥
दंड ७०० 141.......। पर्व :-यह मनु सातसौ धनुष-प्रमाण ऊँपा, एक करोड़से भाजित पल्पप्रमाण आयुका धारक और स्वर्ण सहशा मर्गवाला था। इसके सुमति नामको महादेवी थी ।।४६५।।
तरकाले भोग - णरा, गमणागमोहि पीदिरा संता । मारोहति करिव · बहुरि तम्सोयोस ।।४६६।।
३. प.ब.
प.म... विमममाण ।
१ .ज, य, . साकसह। २. क. र, सोमकर। ४. ...., म. सत्ता। ५. ६.क.अ. प. उ. तस्मोवरण।
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१३६ ]
तिलोयपासो
[ गाथा : ४६७-४७० पर्व:-इस समय गमनागमनसे पोहाको प्राप्त हुए मोगभूमिज मनुष्य इस मनुके उपदेश हामी मादि घर मदारी कुरने लगे थे ! !
प्रक्षुष्मान कुलकरका निरूपणससमए नाक • गो, अर-कोडी भषिर-पल्ल-विच्छेते । 'उम्पजवि अट्टममो, बबलुम्मो कणय - बन्न - बनू ।।४६७॥
। प ८०००.... । म :-सप्तम कुलकरके स्वर्गस्प होने पर पार करोड़से माणित पल्य-प्रमाण कालके ममन्तर स्वर्ण सदृश वर्ण घाले परीरसे युक्त चक्षुम्मान नामक पाठवा कुलकर उत्पन्न होता है ।।४६७॥
तस्सुम्बेहो रंग, पगवीत • बिहीण - सप्स - संय-मेसा । बस - कोटि-- भजिवमेवक, पलियोबममार - परिमाणं ॥४६॥
। ६७५ । प १०००००००० । म:-उसके शरीरकी ऊंचाई पच्चीस कम सातसो { ६७५) मनुष और प्रायु यस करोड़से भाजित एक पल्पोपम प्रमाण पी॥४६८||
देवी पारिणि • गामा, तक्काले भोममि - झुगलान ।
'संजणिवे णिप - बाल, बट्टन महाभयं होदि ॥४६९।।
म :-( इस कुलकरके ) धारिणी नामको देवी थी। इसके समयमें उत्पन्न हुए अपने शाल युगलको देखकर भोगभूमिज युगलोंको महामय उपस्थित होता है ।।४६६॥
एस मणू 'भीवाणं, ता मासेवि विधमुस ।
"तुम्हाण सुवा एरे, पेश्कर पुग्गियु - सुगरं वदरणं ।।४७०॥
प्रन:-तब यह मनु उन मयभीत युगलोंको दिव्य उपदेषा देता है कि ये तुम्हारे पुत्र-पुत्री ई. पूर्ण चन्द्र सहप इनके सुन्दर मुख देखो ||७०11
..... क. न. य, च. उत्पादि। २. प.क.ज.वस. सामरिणदे। ...ब.क.ब.प 1. मेदाम्। ४, ६. ब... ३. तुम्हेण, ज, प. तुम्हेन।
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चत्वो महाहियारों
तम्मच - उबएसावो, बालय बहनारिंग मेक्लिहून पुढं । तक्काले भाउ विहीना विलीयंति || ४७१ ॥
भोग - णरा
गाया : ४७१–४७५ ]
-
प्रयं :- इस मनुके उपदेशसे स्पष्ट रूपसे अपने बालकोंके भूल देखकर भोगभूमिज ( युगल) तत्काल ही आपसे रहित होकर विलीन हो जाते थे ॥ ४७१।।
यशस्वी मनुका निरूपण -
अदुमए नाक गये, असोदि कोडीहि भजिव-पहसम्म । जसस्सिलामो मभू बनो ।।४७२ ।।
योनीणे उप्पज्जदि,
-
। ५०००००००० |
पाडेक
श्री सुसि
म :- आठवें कुलकरके स्वर्ग-गमन पश्चात् अस्सी करोड़से भाजित पत्यके आतीत होने पर यशस्वी नामकं नवम मनु उत्पन्न हुआ ||४७२ ॥
-
-
पासाधिय इस्तय कोदंड
पमान देह
हो ।
कंचण - वण्ण सरोरो, सय कोडी - भजिद पलाऊ ॥१४७३ ॥
-
·
१. ब. क.ज. प. उ. परिवाक ।
-
1
·
| दं ६४० प १००००००००० |
अर्थ :- वह स्वर्ण सदृश वर्ग वाले शरीरसे युक्त, छह सौ पचास धनुष कंवा और सो करोड़से भाजित पल्पोपम प्रमाण आयु वाला था ।।४७३ ।।
णामेन कंबाला, हवेदि देबी इमस्स तबकाले । नामकरमुच्छवट्ट', उपदेस देवि जुगला ||४७४ ॥
[ १३७
अर्थ :- इसके कान्तमाला नामकी देवी यी । यह उस समय युगलोंको अपनी सन्तानके नामकरण - उसके लिए उपदेश देता है ।।४७४ ।।
लखनउबदेसं णामाणि कुर्यति ते बि बालागं विसिय पोर्ण कालं, 'पक्खीगाऊ
दिलीति ॥ ४७५॥
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तिमी
इस उपदेशको पार्क में युगले भी समय रह कर आयु क्षीण होने पर विलीन हो बातें हैं ||४७५ ॥
१३८]
अभिचन्द्र नामक कुलकरका निरूपण
'अब सुरलोध गदे, अडसय कोडीहि भजिद - पल्लमि । अंतरि उप्पज्जवि अहिचंबो नाम दसम मध्यू १४७६ ॥
·
अर्थ :- नवम कुलकरके स्वर्गस्थ होने पर आठ सौ करोड़से भाजित पल्यके अनन्तर अभिचन्द्र नामक दसर्या मनु उत्पन्न होता है ॥। ४७६ ।।
+
14 CoooDODGRG |
4
पणुवोसाषिय छसय कोदंड पमाण देह उनकेहो । पलिबोवममेत परमाऊ ॥ ४७७१३
कोडी सहस्त भजिदा
[ गाया : ४७६-४७६
काम नाम करते हैं रखते हैं और थोड़े
-
-
... बावनदी ।
-
L
-
दं ६२५ ।
अर्थ :- उसके शरीरकी ऊँचाई छह सौ पच्चीस धनुष और आयु एक हजार करोड़से भाजित पत्योपम प्रमारण बी ।।४७७ ।।
१
१०००००००००० |
मंत्रण- समाण वच्णो देवी नामेग सिरिमदी तस्स ।
सो वि सिसुगं रोवण वारण हेतु कहेबि उम्र ||४७८ ॥
-
अर्थ :-- उसके शरीरका वर्ण स्वर्ण सदृश था । उसके श्रीमती नामकी देवी थी। वह ( कुलकर) भी शिशुओंका रुदन रोकने हेतु उपदेश देता है ।। ४७८ ॥
रतीए ससिदिवं वरिसिय डेलावणाणि कानुनं । तान गोवर्स, सिमलावह कुनह जब मि ॥४७॥
१. ८. म. मो। २. सामाि ३ दो नमोबद
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गामा : ४८०-४५३] पजत्यो महाहियारो
[ १३६ प :- रात्रि चन्दमण्डल दिखाकर और खिलायन करके उन्हें वनोपदेश ( बोलना ) सिचामो तपा यल (पूर्वक उनका रक्षण) करो ॥४७६।।
सोऊषं उवएस, भोकशाह-कालिस र PRE
अग्थ्यि पोष-विणाई, पासीणा: गिलोयंति ॥४॥
पर्व:-यह उपदेश सुनकर भोगभूमिझ मनुष्य शिशुपोंक माम वसा हो व्यवहार करते। है। वे ( युगल ) पोडे दिन रह कर आयुके सीण होने पर विसोन हो जाते हैं IMeall
उपयुक्त पांच फुलकरोंकी दण्ड व्यवस्था'लोहेणाभिहदाणं, सोमंधर • पहुद - कुसकरा पंच ।
तानं सिक्सम-हे, हा - मा. कारं कुषति 'वडत्य ॥४८॥
मर्च :-सीमन्धरादिक पांच कुलकर मोभमे आक्रान्न उन युगलों के शिक्षण हेतु दाहके लिये हा (खेद सूचक ) और मा ( निषेध सूचक ) शब्दोंका उपयोग करते हैं ॥४ ॥
चन्द्राभ मनुका निरूपणअहिरे तिपिव-गरे, बस -'धन-हब-अट्ट-कोरि-हिए-पल्ले । अंतरि चंगहो, एककारसमो हदि मनू ॥४॥
१६... ।
प्र:-अभिवन्द्र कुलकरका स्वर्गारोहण हो जाने पर दसके पन ( १०० ) से गुणित पाठ फरोह (माठ फरोड़ १००० 1 से भाजित पत्य प्रमाण पतरालके पश्चात् पन्द्राम नामक ग्यारहवा मनु उत्पन्न होता है ।1४०२||
बासय सुम्यहो, वर-चामोयर-सरिच्छ-तनु-वण्यो । वस-कोटि - सहस्सेहि 'भाजिव - पल्ल - पमाणाक ।।४८३॥
१. द. म.क.ब.प. च. नोभेएभिपदाणं। २. १. या। * विसोकसार मा. ५९के भाधार पर मेप कुलकरोंके समय -मा-बिकशी व्यवस्था पौ। ३. १. *. . ब. न, वसपुणहर । ४. .. मेरी। २. 4. क, म. म. न. मनिदे।
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१४. ]
तिलोयपमरातो
[ गाया : ४८४-४५८ । दं ६०० । प............। प्रबं:-उसके शरीरको ऊंचाई यह सौ धनुष, गरीरका वर्ण उत्तम स्वर्ण सदृश पोर मासु दस हजार करोड़ से भाजित पल्योपम प्रमाण थी ।।४८३।।
निरुवम-लावण-सुवा, तस्स म घेवो महाबो-गामा । तरकाले अबिसोद, होवि तुसारं च पविवाऊ ॥४४॥ सीवाणिस-'फासाशे, अवदुक्खं पाविण भोगणरा । चंदायी - मोदि - गणे, सुसार - छन् ण पेच्छति ॥४५॥
भोगागि-हाणीए, बाबो कम्मरिखो "निमम ॥४६॥
पर्ष :-उस ( कुलकर ) के अनुपम लावण्य युक्त प्रभावती नामकी देवो यो । उस कालमें थीत बढ़ गई थी, तुषार पाने लगाया और अति वायु चलने लगो पो । शीतल वायुके से अत्यन्त दुःख पाकर भोगभूमिज मनुष्य तुषारसे आच्छादित चन्द्रादिक ज्योतिषगणको नहीं देख पाते थे। इस कारण अत्यन्त भयको प्राप्त उन मोगभूमिज पुरुषर्षोंको पन्द्राम कुसकर यह दिव्य उपदेश देता है कि भोगभूमिको हानि होने पर अब कर्मभूमि निकट मा गई है ।।४८४-८६||
कासस्स विकारारो, एस सहाओ पयट्टो पियमा ।
नासा तुसारमेयं, एहि मसंड - फिरोह ॥४७॥
प्रयं:-कालके विकारसे नियमतः यह स्वभाव प्रवृत्त हुया है। अब यह तुषार सूर्यको किरणोंसे नष्ट होगा ॥४८७।।
सोदूरग तस्स ययगं, से सम्बे भोगमूर्मिजा मापा ।
रवि - किरकासिब-सीरा, पुत-कसत्तहिं नीति IIvarli
पर्ष :-उस (कुलकर ) के वचन सुनकर वे सब भोगभूपिक मनुष्य सूर्यको किरणोंसे शीतको नष्ट करते हुए पुत्र-कलत्रके साथ जोषित रहने लगे ।।४८८॥ - - --- - ---. .. - - -.-.-.
१. द.प. य. पासादो। २, द. ३. क... एपदा, प, एएस, म. शाएवा। . प.ब. क. प. म. द. रविकिरमासरसीदो।
-
--
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[१४१
गाश : ४८९-४६३]
चउत्यो महाहियारो ___ मरुदेव कुलकरका निरूपण - चंदाहे सग्ग-गरे, सोवि-सहस्सेहि गुणिद-कोशि-हिये ।
पल्ले गम्मि अम्मर, मकवो पाम बारसमो IIveen कि ... A
TEETTER AFTE
५८०००००००००००।
प:-पन्द्राम कुलकरके स्वर्ग बने जानेके बाद अस्सी हजार करोड़ से भाजित पस्य व्यतीत होने पर मदेव नामक बारहवें कुलकरने जन्म लिया ॥४८६।।
पंच - सया पत्तरि - साहिबा चावाणितस्स उच्छहो। इगि-सबल-कोडि-मजिवं, पलिदोवममाज - परिमाणं ।।४६०॥
। ५७५ । प १०.........। प:- उसके शरीरकी ऊँचाई पचिसो पचहत्तर धनुष बोर भायु एक लाख करोड़ से भाषित पज्योपम प्रमाण पी ।।६।।
कंधण - णिहस्स तस्स य, सच्चा नामेण अणुवमा वेवो । तमताले गवता, मेघा परिसंति सडिवता' ||४||
:-स्वर्ण सदृश प्रभावासे उस कुलकरके 'सत्या' नामकी अनुपम देवी थी। उसके समयमें बिजली युक्त मेघ गरजते हुए बरसने लगे थे। ४११।।
कदम - पवह • णवीओ, अपिटु-पुम्बाओ 'ताव वान।
अविभीषाण गराणं काल - विभागं भनेदि' मरेको ।।४६२॥
प्रबं:-उस समय पहले कभी नहीं देखी गयी कीचड़ पुक्त जस-प्रवाहवाली नदियों को देख कर अत्यन्त भयभीत हा मनुष्योंको मरुदेव काल-विभाग प्ररूपित करता है ।।४९२॥
- --- - 1. क. प. म. न. दिवंता। २. द. ब. क. ज. प. स. साम। प. य. का. स. म. . ।
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१४२ ]
मध्यमा ।
तिलोयपण्णत्ती
कालस्स विकारादो, आपसमा होरि तुम्ह कम्म-मही 1 उतारह नूधरेसु सोबाने ॥४३॥
'मावावीहि गढीगं
कान चलह तुम्हे, सोडूरण तस्म वयणं,
।
भावहरूणच तुंग सेले
1
उतरिय वाहिणीम्रो विनिचारिव बरिसामो, पुत कलह जोति ||४९५ ॥
-
-
:- कालके विकारसे अब कर्मभूमि तुम्हारे निकट है। अब तुम लोग नदियोंको नौका आदिसे पार करो, सीढ़ियोंसे होकर पहाड़ों पर चलो ( चढ़ो ) और वर्षाकालमें छत्रादि धारण करो। उस कुलकरके वचन सुनकर वे सब भोगभूमिज मनुष्य नवियों को उतर कर, उत्तुङ्ग पहाड़ों पर चढ़कर और वर्षाका निवारण करते हुए पुत्र एवं के साथ जीत रहने लगे ।।४६३- ४६४ ।।
प्रसेनजित् कुलकरका निरूपण
देवे तिदिव-गदे, अड-कोडी-समय- भजिए-पल्लम्म । अंतरि "पसेनजिन्नाम तेरसमो
चप्पकमवि
पाउस कालम्मि बरह छाई । सच्चे ते भोगभूमि तरा ॥ ४६४||
रासके पश्चात् प्रसेनजित् नामक तेरहवाँ कुलकर उत्पन्न होता है ॥ ४६ ॥
?
प ८०००००००००००० |
-
अर्थ:-मरुदेव स्वर्गस्थ हो जाने पर आठ लाख करोड़ से भाजित पत्य- प्रमाण मन्त
[ गापा ४६३-४९७
कामीयर-सम-'बन्नो, बस-व-पावन्त्र-वाम-उच्छे हो ।
वस - कोडि सबल भाजिद पलियोबममेस - परमाऊ ||४६७॥
* 120 140............ I
10000
1.ब. गामादोरा । १. ८. न.
४. व. ४.क.ज. प. उ.रंग
1
४६६॥
ज. प. च.
५. ८.
तुम्ही । ३.३.म.क. ज. प. उ. विष्णाम | ६ व... न. र.
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गाथा : ४६८-५०१ ] चउत्यो महाहियारो
[ १४३ पर्ष:-यह कुलकर स्वर्ण सदृश वर्ण वाला, दससे गुणित पचपन अर्थात् ५५० धनुष प्रमाण कंबा मोर दस लाख करोड़ से भाजित पस्योपम प्रमाण वायु वाना पा ||४७॥
अमिदमदोली सकारले अलि-पहल रिलेला जाति युगलबाला, वेक्सिय भोदा किमेवमिति veel
भय-जुत्ताण णराणं, पसेणजिन्भदि बिव्व-उबदेस । 'पत्ति-परलापहरणं, कहिदम्मि कुणसि ते सव्वे ॥४६॥
मर्च :-उसके अमितमतो' नामक देवी थी। उस समय वसिपटल ( जरायु) से वेथित युगल शिशु जन्म लेते हैं। उन्हें देखकर माता-पिता भयभीत होते हैं और यह क्या है ? ऐसा सोचते हैं। इस प्रकार भयसे संयुक्त मनुब्रोंको प्रसेनजित् मनु वत्ति - पटल दूर करनेका दिव्य उपदेश देते है। ( उमके ) कथनानुसार वे सब मनुष्य यति - पटस दूर करने लगे ॥४६८-४६६ ।।
पेनाते गालानं, मुहागि 'वियसत्त-कमाल-सरिमाणि ।
कुव्यसि पयत्रोणं, सिसूख रखा गरा सध्ये ॥५००।
पचं :- सब मनुष्य शिशुओंके विकसित कमन सदृश मुखौंको देखने लगे और प्रमल-पूर्वक उनका रक्षरग करने लगे ।। ५.०॥
चौदहवें नाभिराम मनुका निरूपणतम्मणु-सिविध पवेसे, कोटि-हवासीदि-साख-हिब-पल्लें । 'अंतरिये संमूजो, चोइसमो नाभिराम - भगू ॥५०१।।
। पE००००००००००००० ।
म :-उस मनुके स्वर्गस्थ होने पर अस्सो लाख करोड़से भाजित पल्य प्रमाए कालके अन्तरालसे चौदहवें नाभिराय मनु उत्पन्न हुए ॥५०१॥
१. द...क.अ. क्रम परिषदा, ज. प. पद परिवेशा। २. क. ज. प. उ. बाबती। ... ४ .ब. क. प. य. ३. पसट्ट। ५. इ. स. ३. ति । ५. प.ब. ... अतरियो ।
रिति ।
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१४४ ]
तिलोयपण्णत्तो
[ गाया : ५०२-५०६ पमुषोत्तर-परण-सय-बाउन्छहो सुबष्ण-
बल-णिहो । इगि-पुरुष कोरि-आऊ, बलदेवी णाम तस्स बहू १५०२॥
। ६ ५२५ । पुरुष कोडि १ घाउ । म :-वह पाँचसो पच्चीस घनुष ऊंचा, स्वर्ण सदृशा बर्ण बाला मौर एक पूर्व कोटि प्रमाण आयुसे युक्त पा। उसके मरुदेवी मामकी पत्नी थी ।।५०२।।
तस्सि काले होषि हु, बालार्ग भाभिणाल - मादीहं ।
तस्कत्तणोवोस, कहवि मगू से पकुम्वति ॥५०३॥
प्रपं :-उस समय बासकोंका नाभिनाल अस्यन्त लम्बा होने लगा था, नाभिराय कुलकर उसे काटनेका उपदेश देते हैं और वे मनुष्य पंसा ही करते है ।।५०३।।।
Rara .. a # KARE हारा कम्पमा पगट्ठा, साहे' विविहो'सहीणि सत्साणि ।
महुर - रसाः फलाई. पेच्छंति सहापदो परिचोसु ॥५०४।।
प:-उस समय कल्पवृक्ष नष्ट हो गये और पृथिवी पर स्वभावसे हो उत्पन्न हुई प्रनक प्रकारको औषधियां, सस्य ( धान्यादि ) एवं मधुर रस युक्त फल दिखाई देने लगे ॥५०४||
कप्पता विणासे, तिम-भया भोगभूमिजा मणवा ।
सव्वे वि नाहिराज, सरणं परिसंति रस्तेत्ति ॥५-५॥
मर्ष:--कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जाने पर तोत्र भयसे युक्त सब ही भोगभूमिज मनुष्य नाभिराय कुलकरकी गरणमें पहुँचे और बोले 'रक्षा करो ॥५०५।।
करुणाए बाहिरामो, गराष उविसरि जीवसोवायं ।
सुबह बणप्पडोणं, बोचावीगं फसाइ भक्खागि ॥१०॥
प्रचं:-नाभिराय करूणा-पूर्वक उन मनुष्योंको प्राजीविकाके उपायका उपदेश देते हैं। ( वे बताते हैं कि ) भक्षण करने योग्य बोधादिक (छिलके वासी) वनस्पतियोंके फल (फेला, श्रीफल आदि ) खाओ ॥१०६।।
1. इ. स.बे, ग. क. ब. य. उ. ताहि ।
२. .. .. ज. य. उ. विविहोमहीण सामाणं ।
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त्यो महाहियारो
साहिव वल्ल - 'सुबरी - तिल-मास- प्यवि-शिविह-बनाई । बह पिमह सहा, सुरहि-पहुबोध बुद्धासि ॥ ५०७॥
गाथा : १०७-५१० ]
:- जालि जी, वल्ल, तूवर तिल और उड़द आदि विविध प्रकारके धान्य कामो और गाय श्रादिका दूध पिय ।। ५०७ ।।
अयं बहु जब तं कामं 'सुसिवा
वेदि जयालू णराण सलानं ।
अर्थ :- ( इसके अतिरिक्त) दयालु नाभिराय उन सब मनुष्योंको धन्य भो अनेक प्रकारकी शिक्षा (सी) देते हैं। तदनुसार खाचरण करके वे सब मनुष्य मनु नाभिरायके प्रसाइसे सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे ॥२०८॥
मतान्तरसे कुलकरोंकी प्रायुका निर्धारणmysites आधार्य श्री सुशिशिर जा पलियोम - बस मंसो, ऊभो योवेण पविसुविस्साऊ । अमनं अज सुनियं,
कमलं मलिगं च एउम- पउमंगा ।।५०६ ॥
जीवसे सप्पसाएन ||५०८ ||
कुरुव-कुसुरंग जलवा, सेस-मचूर्ण आऊ,
गलवंगं पथ्य-पुरुष- कोडोलो । कमसो केई 'मिरूपति ||५१०॥
पाठान्तरं ।।
:- प्रतियुति कुलकरको आयु कुछ कम पस्योपमके दसवें भाग प्रमाण बी । इसके आगे शेष तेरह कुलकरोंकी आयु क्रमश: प्रमभ, अह, त्रुटित, कमल, नलिन, पद्य, पद्मा, कुमुद, कुमुदाङ्ग, भमुख, मयुताङ्ग पर्व और पूर्व कोटि प्रमारण थी, ऐसा कोई प्राचार्य कहते है ।। ५०६ ५ १० ।
[ १४५
नोट :--४२८ से ५१० पर्यतकी गावाबोंसे सम्बन्धित मूल संदृष्टियोंके अर्थ देवियोंके नाम जोर दण्ड व्यवस्था प्रादिका निदर्शन इसप्रकार है-
१. व. ब. क.अ. भ. उ. तोबी 4. 4. T. 1. M. 4. a. gfutt 1 ६. प. गुरूति ।
महाई। ४. ज. प. उ. परिधिमाऊ ।
PHERE..
२. ८......
५.८. . . . . खजिला ।
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१४६ }
तालिका : ११
कुलकरोंके उत्सेच, आदर्श अन्तर आधिकारिक ४२८ से ५१०
देवो नाम
१ प्रतिश्रुति
र
सन्मति
૨
४
34
५
६
नाम
4
८ चक्षुष्मान्
E
यशस्वी
१० अभिचन्द्र
उत्सेध (धनुषों में)
tt
चंद्राम
१२ मरुदेव
१३ प्रसेनजित्
१४ नाभिराय
१८००
क्षेमङ्कर
क्षेमन्धर
सोमङ्कर
सोमन्धर
विमलवाहन ७००
६७५
१३००
८००
484
७५०
७२५.
६५०
६२५
६००
५.७५
५.५०
५२५
आयु-प्रमाण
पत्थ
१०
पल्य
१००
पल्य
तिलोगपती
१०००
पस्य
१००००
पत्य
१०००००
पल्य
दस लाख
पन्य
१ क०
पल्य
१० क०
पल्य
१०० क०
पस्य १००० क० पत्य
१० हजार क०
पस्य
मतान्तरसे
जन्मका
आयु प्र० | अन्तर काल
३६ कम
अमम
ਸਚ
त्रुटित
कमल
पत्य
१०
नलिन
पद्म
पद्माङ्ग
| कुमुद
फुमुदाङ्ग
नयुत
नयुताङ्ग
१ लाख ६०
पल्म
पूर्व
१० लाख कृ०
पूर्व कोटि वर्ष पूर्व कोटि
다
परुष
CO
पत्य
८००
पल्य
८०००
पस्य
६००००
पस्य
पस्य
८० लाख
पल्य
६०
पल्य
६० क०
पल्य ८००क०
पल्य
८००० क०
पत्य
८० हजार क०
पल्य लाख क
पल्य
० लाख के०
[ तालिका : ११
स्वयंप्रभा
यशस्वती
सुनन्दा
विमला
मनोहरी
यशोधरा
सत्या
दण्ड निर्धारण
ममितमती
मरुदेवी पत्नी
हा
ह
tor
ह
1515
Pho
हा
हा मा
सुमती
धारिणी
हा मा
कान्तमाला हा HI
श्रीमती
प्रभावती
मा
हा मा त्रि.सा.गा. ७६८ हा मा धिक्
In "
"
T 11 ".
"
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गाया : ५११-५१५ ] पउत्यो महाहियारो
[ १४७ कुलकरोंका विशेष निरूपण
aff .... A TRE सुमिरी एवं उम्स मधुओ, परिसुव-पहुवी माहिरापंसा ।
पुरुष-मम्मि बिहे, रायकुमारा महाकुले 'जावा ॥११॥
प्र:-प्रतितिको आदि लेकर नाभिराग-पर्यन्त ये बौदह मनु पूर्व-भवमें विदेह क्षेत्रके अन्तर्गत महाकुलमें राजकुमार थे ॥५११॥
कुससा वामावोस, संजम-तक-बात-पसाग । जिय-जोग्ग'-अगुवाणा, मदब-अज्जव-गुणेहि संधुता ॥५१२॥ मिच्छर-भाषणाए, भोगाउं पंपिऊन' से सम्झे । पच्छा साहय-सम्मं, गेहंति जिभिर बलग-मूलन्हि ।।५१३॥
वर्ष :-संयम, तप और मानसे संयुक्त पात्रोंको दानादिक देनेमें कुष्पल, अपने योग्य अनुष्ठान युक्त तपा मार्दव-आगंवादि गुणों से सम्पन्न वे सब पूर्व में मिप्यास्व-भावनासे भोगभूमिको भायु बोष कर पश्चात् जिनेन्द्र भगवानके पादमूलमें शायिक सम्यक्त्व ग्रहण करते है ।।५१२-५१३।।
निप-जोग-सुवं 'पहिवरा, लोणे आम्हि ओहिनाण-'जुरा । उप्परिजन भोगे, केई गरा ओहि-भाग ५१४॥ मादि-भरण ई. भोग-मनुस्साण जीवनोवायं ।
भासंति बेग तेनं, मनुनो भागिदा मुगिहि ॥१५॥
मर्च :-अपने योग्य श्रुतको पढ़कर ( इनमेंसे ) कितने ही राजकुमार मायु-क्षीण हो जाने पर भोगभूमिमें अवधिज्ञान सहित मनुष्य उत्पन्न होकर अवधिमानसे और कितने ही जातिस्मरणसे भोगभूमिन मनुष्योंको जीवनके उपाय बताते हैं, इसलिये ये मुनीन्द्रों द्वारा 'मनु' कहे गये है।५५४-५१५।।
ब.स. वादो। २... ब. क. ब. म. उ. मंजर। . क.क. उ. जोगा। ... बंदूण, यबंभिण। ५. द व क. ब. स. पना1 १. व... क.अ. य. स. पविदा। ... प. उ. दो। ८. प. कई।
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१४८ ]
तिलोयपणती
[ गापा : ५१६-५१९
कुल-धारमा सम्बे, कुलपर-गामेन मुषण-विषमाया ।
कुल-करणम्मि य फुसला, कुलकर-गामेन-शुपसिवा ॥१६॥
अर्थ :- सग कुलोके धारण करनेसे 'कुलघर' नामसे और कुलोंके करनेमें कुशत होनेसे 'कुलकर' नामसे भी लोकमै प्रसिद्ध है ॥५१६॥
शरसाका पुरुषोंको संख्या एवं उनके नामएत्तो ससाय 'पुरिसा, तेसही सयास-'भुवण-दिनहाया ।
जाति भरह-खेते, गरसीहा पुण्ण-पाकेग ॥१७॥
पर्प :--अब ( नाभिराय कुलकरके पश्चात् ) भरतक्षेत्र में पुण्योदयसे मनुष्यों में श्रेष्ठ और ___ सम्पूर्ण लोकमें प्रसिद्ध तिरेसठ भलाका-पुरुष उत्पन्न होने लगते हैं ।।५१७१।
तिस्पयर-घरक-बल-हरि-पडिसत्तू णाम विस्सुदा कमसो । दि-गिय - बारस - बारस - पयस्थ - गिहि-रंध-संशाए ॥५१॥
।२४।१२।६॥ It 1 म:-ये शलाका पुरुष तोयंकर, पक्वती, बलभा, नारायण और प्रतिशत (प्रतिनारायण ) नामोंसे प्रसिद्ध है । इनकी संख्या कमशः बारहको दुगुनी (पोयीस), बारह, नो (पदार्थ), नो (निधि) और नौ ( स्प्र ) है ॥५१८।।
विशेषा:-प्रत्येक उत्सर्पिणी-मवपिणी कासमें चौबीस तीर्थकर, बारह पक्रवर्ती, नौ बलमन, नो नारायण मौर नो प्रतिनारायण ये ६३ महापुरुष होते। भरतक्षेत्र के इस अवसरणी कालमें भी इतने ही हुए हैं, जिनके नाम मादि इस प्रकार है
वर्तमान कालोन चौबीस तीर्थकरोंके नाम
उसहमजियं च संभवहिगंदग-समह-शाम-धेयं च । पउपप्पहं सुपासं, परप्पाह-पुष्फर्वत-सोयत्तए ॥५१९॥ - . . .. --.--- -. -- १. . . क. प. उ. पुरिसो। २. ब. प्रबाग ।
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धर्मांक :- अचार्यका शुशिवसागर में महाराज
गाया : ५२०-५२४ ]
अपागता ।
महाहियारो
विमलानंते य धम्म-संती य । -मि-णेमी- पास बहुमाना य ॥५२० ॥
सेयंस- बासुपुज्जे, कुं· बु-अर- महिल- सुम्वयण
पनमह बडवोस- जिणे, तित्थयरे तक्ष्य भरह-सम्म । भव्वाणं भव-रुत्वं,
शिवले
अर्थ :- भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए १ ऋषभ, २ अजित, ३ सम्भव, ४ अभिनन्दन, ५ सुमति, ६ पद्मप्रभ, ७ सुपारनं ८ चन्द्रप्रभ, ९ पुष्पदन्त १० सोतल, ११ श्रेयांस १२ वासुपूज्य १३ विमल, १४ अनन्त, १५ धर्म, १६ शान्ति, १७ कुन्यू, १५ र १६ मल्लि २० ( मुनि) सुव्रत, २१ नमि २२ मि २३ पाप और २४ बद्ध मान इन चोवीस तीर्थकरोंको नमस्कार करो। ये ज्ञानरूपी फरसेसे भव्य जीवोंके संसाररूपी वृक्षको छेदते हैं ।।५१६-५२१ ।।
चक्रवतियों के नाम---
भरहो सगरो मधनो, समवकुमारी पसंति कुथु अरा
तह 'सुभोमोपमो हरिजयसेणा य बम्हदत्तो य ।। ५२२||
जाण- परहिं ।।५२१ ।।
खंड-पुढवि-मंडल- पसाहणा कित्ति मरिय 'भुषणयता । एबे बारस जावा, चक्करा भरह से सम्मि ।।५२३||
अर्थ :- भरसक्षेत्र में १ भरत २ सगर, ३ मा ४ सनत्कुमार, ५ शान्ति, ६ कुन्यु, ७ भर ८ सुभौम, पद्म, १० हरिषेण ११ जयसेन और १२ ब्रह्मदत ये बारह चक्रवर्ती छह लण्डरूप पृथिवीमंडलको सिद्ध करनेवाले घोर कोतिसे भुवनखलको भरने वाले उत्पन्न हुए हैं ।। ५२२-५२३।।
बलदेवों के नाम
सुप्पह-गामो सुबंसणो नंदी । पजमो जब होंति बलदेवा ।। ५२४ ||
विजयाचला सुधम्मो तह विनित- रामा,
.प.क.म.य. उ. सुभ
[ १४६
२. . . . . . सेलो ३. ब. ब. . . . उ.
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तिलोयपम्पत्ती
[ गाथा : ५२५-५२८ :-(भरतक्षेत्रमें ) विजय, भरल, मुधर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नन्दी, नन्दिमित्र, राम पोर पर ये नो बलदेव हुए है ।।५२४।।।
नारायणोंके नामतह म सिस्टि-पिटा. सथंभू पुरिसुत्तमो पुरिसलीहो ।
पुंडरिय'-बस-गारापणा य किन्हो हति गव विष्ट्र ॥४२५॥
प:-तचा त्रिपृष्ठ, दिपृष्ठ, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुखरीक, दत्त, नारायण ( लक्ष्मण ) बौर कृष्ण ये नो विष्णु ( नारायण ) हैं ॥५२५।
प्रनिमारायणोंके नाम
मस्सग्गोवो सब का मधुकोशातही
AATHA बलि-पहरण-रापना य, जरसंषो भव व परिसतू ।।५२६॥
:-अश्वप्रीव, तारक, मेरक, मधुकैटभ, निशुम्भ, वलि, प्रहरण, रावण मोर जरासंध, ये नो प्रतिक्षत्र (प्रतिनारायन) है ॥२६॥
रुदोंके नाम
भीमावलि-बियसत्तू, हो 'पहसाणलो यसपाटो । तह अयस पुरीमो, अजियंधर अभियनाभि-पेवासा ॥२७॥ समासने एवे. एकारस होति तिस्पयर-काले ।
बहा रसह-सम्मा, महम्म-बाबार-संलागा ॥२८॥
प:-तीर्थकर कालमें भीमावलि, जितछा, ख, विश्वानल, मुप्रतिष्ठ, प्रचन, पुण्डरीक, अजिसन्धर, अजितनाभि, पीठ और सात्यकित ये पारह रुद्र होते हैं। ये सब अधर्मपूर्ण व्यापार संलग्न होकर रौद्रकर्म किया करते हैं ॥५२७-५२८।।
२. ... क. ३. अशागतो।
.
..
, न.
१. क.अ. ... पुरीय। सुपादता ।
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पापा : ५२१-५३३ ] पजत्यो महाडियारो
[ १५१ तोर्यरोंके अवतरण-स्थानसम्पायसिद्धि-ठाना, अवाला उसह-धम्म-पहुरि-तिया । विजया पंवण-अजिया, चंदप्पह बहनयंता ॥५२६॥ अपराजियाभिहाणा, अर-मि-मल्लोमो मिणाहो य । सुमई जयंत-ठाना, मारण-चुगलाय 'सुविहि-सीयलया ।।५३०॥ पुप्फोत्तराभिहाणा, अणंत-सेयंस-
बमाण-जिणा । पाविमलो य 'सहाराज्याशा कापा प. दो पासो ॥५३१॥
हेछिम-मरिझम-उरिम-वेम्जादागदा महासता । संभव-सपास-पउमा, महसुक्का' शाहपुक्न जिलों ॥५३२॥
प:-ऋषभ और धर्मादिक ( धर्म, पान्ति, कुन्य ) तोन तीथंकर सर्वार्थ सिद्धिसे भवती हुए थे; अभिनन्दन और अजितनाथ विजयसे; पन्त्रप्रम वैजयन्तसे; भर, नमि, मल्लि भोर नेमिनाथ अपराजित नामक विमानसे; सुमतिनाथ जयन्त बिमानसे : पुष्पदन्त और शीतलनाथ क्रमशः पारण युगससे; अनन्त, श्रेयांस और वर्षमाम जिनेन्द्र पुष्पोत्तर विमानमे: विमल, सतार कल्पसे; (मुनि) सुव्रत पोर पापवंनाष कमशः मानत एवं प्राणात कल्पते; सम्भव, सुपावर्य और पनाम महापुरुष क्रमशः प्रयोवेपक, मध्यवेयक पौर अध्यनवेयकसे, तथा वासुपूज्य जिनेन्द्र महाशुक्र कल्पसे अवतीर्ण हुए थे ।।५२१-५३२।। ऋषमादि बीबीस सौर्य करोंके जन्म स्थान, माता-पिता, अन्मतिथि एवं जन्मनक्षत्रों के नाम
जादो हु मवम्झाए, उसहो मरुवेषि-साभिरामहि ।
वेत्तासिय-सवमीए, परम "उत्तरासावे ।।५३३।।
मर्थ :-ऋषभनाथ तीर्थंकर अयोध्या नगरी में, मरुदेवी माता एवं नाभिराय पितासे पत्र. कृष्णा नवमीको उत्तराषाढा नक्षत्र में उत्पन्न हुए 11५३३।।
१. 4. L. ज. प. उ. मुहर। क. ज. प. उ. महसुबके।
२. द. महारापाणप, २. सहाराएदपार, स. सदामासादपासाय । ४.द.4, 6, . लिया। ५. द... क. ब... उत्तरामाका ।
३.६.
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१५२ ]
तिखोयपण तो
[ पापा : ५६४-५३८ मापस्म तुमक-पासे, रोहिति-रिक्सम्मि रस मि-विषप्तम्मि ।
साको अनिय-जिको जारी बियसत्तवियाहि ॥५३॥
वर्ग:-प्रजित जिनेन्द्र साकेत नगरीमें, पिता विना एवं माता विजयासे, माघ शुक्ला दसमीकै दिन रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न हुए ।।५३४॥
साबढीए संमयदेवो म विरारिका' सुनाए ।
मागसिर-पुष्णिमाए, जेवा-रिमम्मि संजापो ॥५३॥
मर्ष :-सम्भवदेव श्रावस्ती नगरीमें पिता जितारि और माता सुरेणासे मगहिरको पूर्णिमाके दिन ज्येष्ठा नक्षत्रमें उत्पन्न हुए ।।५३५।।
माघल्स बारसीए, सिम्मि से पुनम्बसूरते।
संबर-सिकस्याहि सारे नंबगो जाबो ॥३६॥
मर्च :-भिनन्दनस्वामी साकेतपुरीमें पिता संवर और माता सिद्धार्यासे माष सुममा द्वादशीको पुनर्वसु नक्षत्र में उत्पन हुए ॥३६॥
'मेयम्पहेग सुमई, सासर-पुरम्मि मंगलाए य । सावण-सुक्केबारसि-विवासम्मि मघासु संबनिहो ॥५३७॥
प्रबं: मुमतिनावजी साकेतपुरीमें पिता मेधा और माता मङ्गलासे प्राबल-शुक्ला एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में उत्पन्न हुए ॥५३७॥
मस्साघुवकह से रति-विजन्मि परमपहोम मित्तात।
परगंग सुतीमाए, कोलंबी-पुरपरे पायो xn
प्र:-पप्रप्रभने कौशाम्बी पुरोमें पिता घरस मार माता सुमोमासे मासोज कृष्णा त्रयोदशीके दिन चित्रा नक्षत्रमें जन्म लिया ॥३८॥ - - . . . ....-
.. . -- १.. ऐ जिवारिला । 4 राविधारिणा । कप. य. उ. एविदारिता। २. स. स. पेपमएस, ब.क. उ. पेपरबएण।
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[ १५३
गाथा : ५३६-५४३) चउरयो महाहियारो
वाराणसिए 'पुहवी-सुपोंह सपासषो य । बेगुस्स सक्क-बारसि-विमम्मि 'जाबो बिसाहाए ।।३
अर्थ:-सुपादेव वाराणसी ( बनारस ) नगरीमें पिता मुप्रतिष्ठ और माता पपिसीसे ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशीके दिन विशालाक्षत्रम उत्पन्न
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चापहोचापुरे, जावो महसेण-सचिवमा आहिं । पुस्सस्स किन्ह-एयारसिए अणुराह-मक्खत्ते ।।५४०।।
प:-चन्नप्रभ जिनेन्द्र पन्द्रपुरी में पिता महासेन और माता लक्ष्मीमती ( लक्ष्मणा ) से पौष कृष्णा एकादशीको अनुराधा नक्षत्र में अवतीर्ण वश ।।५४०॥
रामा सांगीहि काकंबोए य पुष्फत जिनो ।
ममासिर पारिवाए, सिवाए मूलम्मि संबगिदो ॥१४॥
मर्थ :-पुष्पदन्त जिनेन्द्र काकन्दोमें पिता सुग्रीव और माता रामासे मगसिर शुक्ला प्रतिपदाको मूल नक्षत्र में उत्पन्न हुए ॥५४॥
माघस्स बारसीए, पुराताबास किन्ह-पासम्मि ।
सीपल-सामो विवरह-मंदाहिं महिले बाबो ॥५४२॥
अय:-शोतसनाप स्वामी महलपुर ( भद्रिकापुरी ) में पिता दरय मौर माता नन्दासे माषके कृष्ण पक्षकी द्वादशीको पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में उत्पन्न हुए ॥५४२।।
सिंहपुरे सेयंसो, वि-परिवेष वैकबोए ।
एक्कारसिए फरगुण-सिर-पाचे सवर-मे जागो ॥५३॥
वर्ष :-श्रेयांसनाथ सिंहपुरोमें पिता विष्णु नरेन्द्र और माता बेणुदेवासे फाल्गुन शुक्ला एकादशीको प्रवण नक्षत्र में उत्पन्न हुए ॥५४३।।
.का.म.पंदापही।
...माहि,
।.ब. क. इ. पुडाली। २. क. ब, म.उ. मा ब.क.अ. ३. पारहि, पाकि।
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१५४ ]
तिलोय ती
चंपाए 'वासुपूज्जो, बसुपुक्स मरेसरेन विजयाए । फगुण-सुक्क बसि विणम्मि जाबो बिसाहातु ॥१४४॥
प्र :- - वासुपूज्यजी चम्पापुरीमें पिता वसुपूज्यराजा और माता विजयासे फाल्गुन शुक्ला मायके दिन विज्ञापन में उत्पन२२।५४४
कंपिल्लपुरे दिमलो जम्बो कबबम्म- 'जयस्सामाह । माघ-सिव-चोदसीए, नक्से
अर्थ :- विमलनाथ कम्पिलापुरी में पिता कृतवर्मा और माता जगश्यामासे माषशुक्ला चतुर्दशीको पूर्वभाद्रपद नक्षत्रमें उत्पन्न हुए ।।५४५ ।।
काए अं
गाथा ५४४-५४८
मुम्बभद्दयते ।।४४५ ।।
जेटुस्स बारसीए, किन्हाए रेक्नोस् म मनंती । सादरे जादो, सभ्यता- सिहसेनेहि ।।५४६।।
म :- अनन्तनाम भयोध्यापुरीमें पिता सिंहसेन और माता सर्वयशासे ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशीको रेवती नक्षत्र में प्रवतीर्ण हुए ।। ५४६ ।।
रमापुरे धम्म-विनो, भानु-भरिवेज सुदवाए व माघ-सिव-तेरसीए, जावो पुस्तम्मि मम ।।५४७॥
:- धर्मनाथ तीपंकर रत्नपुर में पिता भानु नरेन्द्र र माता सुववासे मायक्ला त्रयोदशीको पुष्य नक्षत्रमें उत्पन्न हुए ।। ५४७ ।।
जे-सिव- वारसीए, भरणी-रिमलम्मि संतिणाहोय । हस्विणउम्मि जादो,
१. प. सुपुत्रो
४. ६. ज. जारा ।
अर्थ :- शान्तिनाथजी इस्तिनापुरमें पिता विश्वसेन और माता ऐरासे ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी को भरणी नक्षत्र में उत्पन्न हुए ।। ४८ ।।
अहराए बिस्ससेगेण ।। ५४८६ ।।
२.६, ३. क... ना
..... प. उ. सुख
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एस११०॥
गापा : ५४९-५५३ ] पत्थो महाहियारो
[ १५५ तत्व विषय -बिगो, सिरिमाइ-वीस सरसेभेन ।
बाइसाह-पारिवाए, सिय-परले किचिमासु संजगियो ।।५४६।।
प्रबं:-कुन्थुनाप जिनेन्द्र हस्तिनापुरमें पिता सूर्यसेन और माता श्रीमती देवीसे वैशाख शुक्ला प्रतिपदाको कृतिका नक्षत्रमें उत्पन्न हुए ॥५४६।।
मग्गसिर-चोदसोए, सिव-पश्खे रोहिनीसु अर-देखो।
गागपुरे संजलिरो, मित्ताए सुरिसणानिवेनु ।।५५०॥ प्रर्ष:-अरनायजो हस्तिनापुरमें पिता सुदर्शन राजा और माता मित्रासे मगसिर शुक्ला
भाता मिनासे मगसिर-शुक्सा चतुर्दशो को रोहिणी नक्षत्र में
प्रति 'मिहिलाए महिल-मिणो, पहवोए 'कुंभनिसरीसेहि।
मागसिर-सुका-एएकादसीए' 'प्रस्सिपोए सांजाको ॥५५१।।
मर्थ :- मल्लिनापजी मिथिलापुरोमें पिता कुम्भ और माता प्रभावतीसे मगसिर शुक्ला एकादशीको अश्विनी नक्षत्र में उत्पन्न हुए ।।५५१॥
रागिहे मुरिणसम्बय-देवो पउमा-समित राहि ।
अस्सचुव चारसीए. सिंघ-पाले सवरण में जाओ ।।५.५२॥
अचे.- मुनिमुयतदेव राजगृहमें पिता मुभित्र राणा और माता पद्मासे पासोज-शुक्ला द्वादपीको थवरण नक्षत्र में उत्पन्न हुए ॥५५२।।
मिहिला-पुरिए जायो, जिय-परिवेग बप्पिलाए य ।
अस्सिगि-रिक्ते* आसाद'-सुरक-इसमीए गमिसामी ।।५५३॥
प्रबं:-नमिनाप स्वामी मिथिलापुरीमें पिता विजयनरेन्द्र और माता वप्रिलासे भावाद शुक्ला दशमीको अश्विनी नक्षत्रमें प्रवतीर्ण हुए ॥५५३ ।। -. -.-.-..- .--... --.
..... ज. म. महिलाए। २. द... य. उ.पुमिचीहिं। .. .क, ज. स.च. एकासिए । ४. . . स्मिणो वश एसं। ब. क. प. य. पस्तिशी पुर। ए1. द. ब. क. उ. को। ६. ८. पासारे।
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सिलोयपणनी
[पापा : ५५४-५५७
सउरी-पुरम्मि 'जायो, सिवदेवीए समुविजएण । बाइसाह-तेरसीए, सिदाए चित्तासु मेमि-जिलो ५५४||
अर्थ :-नेमि चिनेन्द्र शोरीपुरमें पिता समुद्रविजय और माता शिवदेवीमे वंशाम-शुक्ला प्रयोदयोको चित्रा नक्षत्र में अवतीर्ण हुए ।।५५४।।
हपसेण-म्मिलाहिं', जाबो' पाणारसीए पास-निनो। पुस्सस्स बहल-एपकारसिए रिसले विसाहाए ।।५५५।।
वर्ष : पाश्र्वनाथ जिनेन्द्र वाराणसी नगरी में पिता अश्वसेन और माता बमिला (वामा) से पौष कृष्णा एकादशीको विशाखा नक्षत्रमें उत्पन्न हुए ॥५५५।।
उत्तरफागुनि-रिकले, चेत-सिब तेरसौए उम्पन्नों ॥५५६।।
प्र:-योर जिनेन्द्र कुण्डलपुर में पिसा सिद्धार्थ और माता प्रियकारिणी ( त्रिशसा ) से पंत्र-शुक्ला त्रयोदशीको उत्तराफाल्गुनी नक्षवमें उत्पन्न हुए ।।५५६॥
चौबीस तीथंडुरोंके वंशोंका निर्देम
इंदवरजा -
धम्मार-पू कुरुवंस-जावा, पाहोग्ग बसेसु' वि वीर-पासा । सो सुव्वदो गांवव-रस-अम्मा, मेमी अइपलाक-कलम्मि सेसा ॥५५७।।
पथ:-जमनाच, अरनाप और कुंथुनाष कुरुयंरामें उत्पन्न हुए। महावीर और पाश्वनाथ कमशः नाथ एवं उन वंश, मुनिसुव्रत और नेमिनाप यादव (हरि) वंशमें तथा शेष सब तीर्षकर इक्ष्वाकु कुसमें उत्पन्न हुए ॥५४४ा
१. . . त रामा। २. ६. ज.म. म्पिणाहि। ३. क. ज. प. . मादा। ४. स. ... धीरा, म. मोरा। . क. प. उ. मुभिजीपालो ।
- कामो।
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माया : ५५८-५५६ ] पउत्पो महाहियारो
[ १७ पौबीस तीर्थरोंकी भक्ति करनेका फल
दवज्जाएरे जिगिरे भरहम्मि सेंसे, भष्वाण पुणेहि कवावतारे।
काए ण पाचा मणसा समंता, सोफ्लाइ मोक्लाइ सहति मम्बा ॥५५॥
प्रयं:-मध्य-जीवों के पुण्योदयसे भरतक्षेत्रमै अवतीर्ण हुए इन चौबीस तोपंडूरोंको जो अन्यजीजा मत जनन-कायुमें जारस्कार करते मोक्षसुख पाते हैं ।।५५८।।
घोडक'- ( दोधक वृत्तम् ) केवलगाण - बगरफद - को,
तिस्पयरे बरबोस - जिगिरे। जो महिणंवा भत्ति - पयस्तो,
बम्झइ सस्स पुरंदर - पट्ठो ॥५५॥ प्र:--भक्ति में प्रवृत्त होकर जो कोई भी केवसमानरूप वनस्पतिके कन्द और तोके प्रवर्तक चौबीस तोवरोंका अभिनन्दन करता है उसके इन्द्रका पट्ट बंधता है ॥४५६।।
[ तालिका नं. १२ पृष्ठ १५-१५६ पर देखें ]
१. [ बोधकम् ] । २. इ. बणप्पा, ज. प. बप्पा।
शिदो।
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ताति
चौबीस तोषरोंको भागति, जन्म विवरण एवं रंग पारिका निरूपग
गांपा ११-५५७ ताका माता कापर्णक... उपचास श्री.सविधिसागर नाम | भागार अन्य नगरी
नाम | नाम | मापन | सिपि | नमन
+ art
सर्वामित प्रयोध्या नाभिराम| मरदेवी
नवमी
उतराषाहा वायो मेहमी
चाप
पनवंगु
भया
निलोनापानी
परन
कर्म
चित्रा
| दावा
दिबासा
तिननाबवित्रयमेयान पितराम बिगा
दवामी सम्भवनाथ
अघो. यास्ती जनारि । मुमना । पतर परिणमा पभिनन्दन विजए में , सात | मगर मिठा मुमतिनाब जमत __.. मेमप्रभ
शिरण
एकादशो कौशाम्बी | परण
त्रयोदशी पाटमा ग याराएमी पतिष्ट | धितो [ये पुक्ल
जयत प्रापुरी महासेन संकमीमती पार | कानो पूजन धारण माकन्दी पुषोष
| मगगिरी तिपदा मीतलाव सम्भूत करण जन्या
शादती संघासनाच पोनर
एमारतो वामुपम्प बम्पापुरी | बमुम्प विजया
चतुर्दशी वियतनाम तार कपिला
अषश्यामा] भाष
यनुरामा
रामा
गून
पूर्वाषाढ़ा
1 तामिका : १२
तवर्मा
गमापद
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________________
१४ मनस्वनाप पुष्पोत्तर भयोध्या सिहले
१४ धर्मगाव
सर्वार्थसिद्धि रजपुर भानु
१६ मान्तिगाथ
हस्तिनापुर विश्वसेन
७ कुम्पुना
१८ परनाम
१२ ममिनाथ
२० मुमिमुक्त
२१ नमिनाथ
२२ मेमिनाथ
२३ गाव
२४ महाबीर
"
PI
अपराजित
||
"
,
मिमिला
सूर्यसेन
मुदर्शन
प्रति वाराणसी पोतरकुलपुर
मार्गदर्शक :-- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महार
कुम्भ प्रभावती
मादम
राजगृह
सुमित्र
पराजित मिथिता चिय
शौरीपुर समुद्र विजय
सर्वपापेष्ठ कृष्ण शादी
प्रमोदमी
द्वादशो
प्रतिपदा
सुत्रता मान प्रुफ्ल
रेश पेष्ट
श्रीमती वैशाल
मित्रा
नमसर
44
पा
भासो
प्रि
प्राचाद
शिवदेवो मर
पश्वसेत्र परमा
पाँच
सिद्धार्थ प्रकार चंद्र
PF
"F
JI
ir
प्रद
दशमी
त्रयोद শি
कृष्ण एकादशी बिचार
"
चतुर्द
एकादलो
14
रेवण)
पुष्प
भरणी
कृतिका
रोहण
अश्वनी
श्रवण
वाकुनी
कुष् इवावलो
कुमो
फुची
इज्याकृवं को
यादवबंध
कुसी,
यादववंशी
उपबं
धुक्षती उत्तराफाल्गुनी नाणी
खालिका : १२ ]
महाहिया
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________________
E SXE
तिलोयपगत्तो
[ गाथा : ५६-५६४ चौबीस तीर्थरोंके जन्मान्तरासका प्रमाणसुसम-दुसमम्मि णामे, सेसे घउसीरि-साल-पुम्मानि। माल-सए अब-मासे. गि-पाले उमह-उप्पत्ती ॥५६॥
॥ पुष व ८४ ल । व ३, मा ८.११॥ प्रर्ष:-सुषमदुषमा नामक कालमें चौरासी लान पूर्व, तीन वर्ष, माठ माह और एक पक्ष अवशेष रहने पर भगवान् शुष्मदेवका जाम हुमा ।।५६० ।। पन्नास-कोरि-सवला, बारसहव-wireबास-मान:
R भारम्हि सहिउबमा, उसष्पत्तीए अनिय उम्पत्ती ॥५६१॥
॥ सा ५० को स । पुश्व धण १२ ल । भ:-ऋषभदेवकी उत्पत्तिके पश्चात् पचास लाख करोड़ सागरोपम और बारहमान पूर्वोके व्यतीत हो जाने पर अजितनाथ तीर्थकरका जन्म हुमा ५६१॥
आह तीस-कोटि-सम्झे, बारस-हर-पुटब-लाल-वास । मलिम्मि उबहि-सबमे, अभियुप्पत्तीए संभइम्पत्ती ॥५६२।।
सा ३० को स । षण पुग्ध १२ न ॥ प:-मजितनायकी उत्पत्तिके परपान वारह लाख वर्ष पूर्व सहित तीस लाख करोड़ सागरोपमोंके निकल जाने पर सम्भवनापकी उत्पत्ति हुई ।।५६२॥
बस-पा-ला-संशुब-सायर-स-कोरि-साल-बोल्टए । संभव - उपसोए, अहिरम - देव - उप्पची ॥५६॥
। सा १० को ल । मरण पुन्च १० ल ।। प्रपं:-सम्भव जिनेन्द्रको उत्पत्तिके पश्चात् दस-लाख पूर्व सहित दस लाख करोड़ सागरोपमों के व्यतीत हो आने पर पभिनन्दननाथका जन्म हुआ ५६३।।
दस-पुम्ब-सास-संजुब-सायर-मब-कोरि-साल-परिखिते।
गंग • उप्पत्तीए, मुमा-जिविस उम्पती ॥५६४।। ... परिवते, क. ब. स. परिवते, प, परिवतो।
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________________
चस्प महाहियारो
। सा ६ को स । धरण पुब्ध व १० ल ।
अर्थ :- अभिनन्दन स्वामीकी उत्पतिके पश्चात् दस लाख पूर्व सहित नौ लाख करोड़ सागरोपमा बीत जाने पर सुमति जिनेन्द्रको उत्पत्ति हुई ।। २६४ ।।
गाथा : ५६५ - १६८ ]
इस म्ब-ल-समय, सायर-कोडी-सहत्स-नबवीए । 'पवित् पचपहजम्मो सुमइस्स जम्मादो ॥१५६५॥
| सा ६०००० को । घर पुत्र व १० न ।
वर्ष - सुमतिनाथ तीर्थंकर के जन्मके पश्चात् दस लाख पूर्व सहित मब्बे हजार करोड़ सागरोपमोंके व्यतीत हो जानेपर पद्मश्रमका जन्म हुआ ।।५६५ ।।
दस पुग्न सक्-समय, सायर-कोबी-सहस्त-नवरुम्मि |
पोली
प्पलोये ।
सह-संदीप
| सा ९००० को । धरा पृथ्व १० ल ।
:- प्रभके जन्म के पश्चात् दस लाख पूर्व सहित नौ हजार करोड़ सागरोपमोंका श्रतिक्रमण हो जानेगर सुपार्श्वनाथका जन्म हुआ ॥। ४६६ ।।
बस-पुष्य-म-संख्य सायर-नव-कोबि-सय- विरामम्मि । पांसस्स ॥५६७॥
यह उपपत्ती,
उम्पतीबी
। सा २०० को पुष्व १० ल ।
1
[ १६१
:- सुपार्श्वनाथकी उत्पत्तिके पश्चात् दस लाख पूर्व सहित नौ सौ सागरोपमोंके गीत जाने पर चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रकी उत्पत्ति हुई ||५६७।।
ड-लस-पुष्य समहिम- सायर-कोडीन उप-बिच्छेदे चंपत्तीयो',
उपसी
पुप्फवंतस्स
+
१. फ... उ. परिवंशे २.
।
।। ५६८ ।।
1. C. 5. 6. W. 4. H. Wang
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________________
१६२ )
लिलोपपणाती
[ गापा : ५६६-५७२ 1 सा ६० को । धण पुख्य य ८ ल । म:-पप्रेमको पतिस प्रोठ लाख पूर्व सहित न करी सारीपाका विच्छेद होनेपर भगवान पृथ्वदन्नकी उत्पत्ति हुई ॥५६८॥
गि-पम्ब-सबस-समाहिय-सामर-णब-कोरिमेत-कालम्मि । गलियम्मि पुप्फतुप्पत्तीको मोपपुष्पत्ती ५६६।।
। मा को । धरण पुथ्व १ स । :- पुष्पदन्सको उत्पत्तिके अनन्तर एक लाख पूर्व सहित नौ करोड़ सागरोपमों के बीत जानेपर शीसलनायका जन्म हुआ ॥५६६।।
बगि-कोडि-पन्न सक्ला-मौस-सहस्स-पास मेताए । अप्रभाहिए जलहि -उपमसये विहीनाए ॥५७०॥ बोलोणाए सायर-कोडीए पुम्ब-सरसा-शुत्ताए ।
सोयल-संबोडो, सेयंस-जिगस्त संभूबी ॥११॥ । सा को ? । पुष व १ न । रिण सागरोपम १०० । १५०२६००० ।
:-शीतलनाषकी उत्पत्ति के पश्चात् सो सागरोपम और एक करोड़ पचास लास अनीस हजार वर्षे कम एक लाख पूर्व सहित करोड़ सागरोपमों के प्रतिकान्त हो जानेपर श्रेयांस जिनेम उत्पन्न हुए ॥५७०-५७१।।
बारस-हब-इगि-ससम्भहियाए बास-हि-मानेस । घउपनेतु गवेसु, सेयंस-भवावु बासुपुज्ज-भयो' ॥७२॥
। सा ५४ वस्स १२ ल । प:-येयांसनाथको उत्पत्तिके बाद बारह लाख वर्ष सहित पावन सागरोपमोंके व्यतीत हो जाने पर वासुपूज्य तोर्पकरका जन्म हुपा II७२||
१. स. पंचममा ।
२. ... ब. प. व. मा ।
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________________
गाथा : ५७३-५७६ ]
स्वर्ग
उस्यो महाहियारो
सार्थ श्री सुविध
तीसोबहीण विरमे वारस व वरिस-सक्स-अहियाचं । चामेश्ज वासुपूज्यतीवो' बिमल उप्पो ।।५७३॥
। सा ३० व १२ पं ।
अर्थ :- वासुपूज्यको उत्पत्तिके अनन्तर बारह लाख वर्ष अधिक तीस सागरोपमांके बीरानेपर विमलनाथकी उत्पत्ति जाननी चाहिए ।। ५७३।
४. ५. पावार 1
T
उबहि- उम्रमाण नबके तिय-हद-वह-लवल-बास-अदिरिते । विमल-जपत्तीबी अह अनंत उपकी ।। ५७४ ।।
बोलणे
सा ६ वस्स ३० ल ।
अर्थ :- विमल जिनेन्द्रको उत्पत्तिके बाद तीस साझा वर्ष अधिक नौ सागरोपमोंके व्यतीत हो जानेपर अनन्तदाच उत्पन्न हुए ।। ५७४ ।।
बीस-हब-बास-मसम्भहिए उस उबहि-उबमे
।
बिरदेसु धम्म- जम्मो, अनंत-साधिस जम्मावो ॥१५७५ ॥
। सा ४ वस्स २० ल ।
म :- अनन्तनाथ स्वामीके जन्मके पश्चात् बीस लाख वर्षे अधिक चार सागरोपमोंके बीतने पर धर्मनाथ प्रभुने जन्म लिया ||४७४ ।।
१. दो
[ १६३
बहि-बमान सिवए, बोलीणे भवय-समल-बास- मुदे ।
पादोण-पहल- रहियो, संति भयो' धम्म-भववो य १५७६ ॥
सावस्स
रिए ।
अर्थ :- धर्मनाथकी उत्पत्तिके पश्चात् पौन पल्य कम और नो लाख वर्ष सहित तीन सागरोपमोंके व्यतीत हो जाने पर शान्तिनाथ भगवान्ने जन्म लिया ।। ५७६ ।।
२. . . . . च परितो ।
५. . . . . . उभा ।
३ . जिणुपतीदा ।
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________________
१६४ ]
तिलोयपण्णत्ती
पल्स पोलीने, पण बास- सहल्समान' अविरि । जननादो संति-नाह
फुपु -जि-संगणं,
गाय ५७७-५८०
1 गधा व ५००० ॥
अर्थ :- शान्तिनाथके जन्म के पश्चात् पाँच हजार वर्ष अधिक श्राषे पत्वके बीतनेप कुन्बुनाथ जिनेन्द्र उत्पन्न हुए ।। ५७७।।
॥ ५७७।
एक करस- सहस्सू जिय-कोटि-सह-पल्ल- पादम् ।
बिसि अर-जिनियो, कुंबुत्पत्तीए उत्प५७६॥ आले की शुदिनी ज परिरण नस्स को १००० रिया वस्स ११००० |
शा
अयं
कुन्थुनाथको उत्पतिके पश्चात् ग्यारह हजार कम एक हजार करोड़ बर्षसे रहित पाय पस्यके व्यतीत हो जाने पर जर जिनेन्द्र उत्पन्न हुए ।। ५७८ ।।
उपतोस - सहस्साहिय-कोटि-सहस्सम्म वसतीबम्भि । अरबिण उप्पलोयो, उप्पली महिल- माहस्स ११५७६ ॥
। वस्स को १००० धरण व २६००० |
अथ :- अर जिनेन्द्रकी उत्पत्तिके बाद उनतीस हजार अधिक एक हजार करोड़ वर्षोंके बीत जाने पर मल्लिनाथका जन्म हुआ ।।५७६ ।।
पनुषीस - सहस्सा हि-द-ह-इल्सक्स-वासरे। महिल-जिणनूबीदो, जम्मूदी सुध्वय- जिणस्स ॥ ५८० ॥
| या ५४२५००० |
!——
- मल्लि जिनेन्द्रको उत्पत्तिके पष्चात् पच्चीस हजार अधिक मो से पुति
-
अर्थ
( जीवन ) लाख वर्षोंके बीत जाने पर मुनिसुखत जिनेन्द्रकी उत्पत्ति हुई ।। ५८० ॥
१.ब.क. उ. मास परितो ।
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गाया : ५१-५८४ ] पउत्यो महाहियारो
बीस-सहस्सम्भहिया, छल्लख-पमान-बासबोच्थेवे ।
मुम्वय-उप्पचीवो, उत्पत्ती पमि-जिणिवस्स १५८१॥ Kera : . he RTR T AFTER
वा६२०००० ।
प्रचं:-मुनिसुव्रतनाथको उत्पत्तिके पश्चात् बीस हजार अधिक छह लास वर्ष प्रमाण कान व्यतीत हो जाने पर नमि जिनेन्द्रका जन्म हुषा ।।५८१।।
पग-सबलेसु गवे, गवय-सहस्साहिएसु वासाणं । गमिणाहुप्पत्तोदो, उम्पती मि-शाहस्स ।।५८२॥
। वा ५०९०००।
प्र :-नमिनाथकी उत्पत्तिके पश्चात् नौ हजार अधिक पाच लाख वर्ष व्यतीत हो जाने पर नेमिनाथको उत्पत्ति हुई ।।५८२।।
पणासाहिय-छस्लम-अलसीरि-सहस्स-कस्म-परिवार । मि-जिगुप्पतीदो, उम्पती पास-रहस्स ॥५८३॥
। वा १६५०।
प्रपं:-नेमिनाथ नीदुरको उत्पत्तिके पश्चात् चौरासी हजार छह सौ पचास वर्षोंकि व्यतीत हो जाने पर पादनाषको उत्पत्ति हुई ॥१८३॥
अद्यार-अहिगाए, बे-सब-परिमाण-वास-अरिरित्ते। पास-
निप्पत्तीवो, उप्पत्ती बनमानस्स |॥५४॥
। मा २५८ । :--भगवान् पार्थनाषको उत्पत्तिके पश्चान् दो सौ पठत्तर वर्ष व्यतीत हो जाने पर वर्षमान तीर्थकरका जम्म हुमा ॥५८४।।
1. ब. ब. क, ब, न.परितो।
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तिलोयपणती
[ गापा : ५५५-५८५ इंदवज्जा (उपजाति) एवं जिणाणं जगतरालप्पमाणमावकरं जमस्स । कम्मापसाई' विवादित, उग्घारए मोपलपुरी-कवा ॥५॥
1॥ उम्पत्तियंतरं समत्तं ।। प्र लोगों की प्रानन्दित करने वालातीयवक अन्तरीकालेका यह प्रमाण उन (भम्पों) की कर्मरूपी अर्गलाको नष्ट करके मोक्षपुरीके कपाटको उपारित करता है ||५८५॥
॥ उत्पत्तिके अन्तरालकालका कपन समाप्त हुवा ।।
ऋषभादि ठोयंकरोंका मायु प्रमाणउसहाबि-बससु आऊ, पुलसोबो तह 'बहत्तरी सष्टी। पणास-ताल-सीसा, कोसं इस चुनागि-सक्स-मुबाई ।।५८६॥
आदिक्षिणे पुच ६४ ल । अनिय पुष्प ७२ ल । संभव पुख्ख ६० ल । अहिणंदग्ण पुम्ब ५० ल । सुमः पुग्न ४० स । परमप्पह पुम्ब ३० ल । सुपासणाह पुव्य २० ल । च दप्पद्द पुष्य १० ल ।
पुष्फयंत पुञ्च २ ल । सीयल पुष १ स । म:-वृषभादिक दस तीकरोंकी पायु क्रमशः पौरासी साख पूर्व, बहत्तर लाख पूर्व, साट मात्र पूर्व, पास सास पूर्व, नासीस लाख पूर्व, सोमनाथ पूर्व, बीस लाख पूर्ण, दस साल पूर्व, दो माघ पूर्व और एक लाख पूर्व प्रमाण ची ॥५८६॥
ततो य परिस-लम, चुलसोदी तह महतरी सट्ठी । तीस-रस-एक्कमाऊ सेवंस-पबिछाकस्स ॥॥
१. , .. प. प. उ. कम्पनिलाई। २. .. विवादित उपोर मोस, 4. क.. उ. विवामिपूरण उपाय मोमबम्स। ... व. 4. बिदरी। ... बिहतरी, .... बत्तरी, 4. इतरी।
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गाथा : ५६८-५९० ]
परमो महाहियारो
सेयंस-रिस ८४ ल । वासुपूज्ज वस्स ७२ ६ । विमल बहस ६० ल । प्रणंत यरस ३० ल । धम्म वस १० ल संति वस्स १ ल ।
अर्थ :- इसके आगे प्रेमको आदि लेकर
सीर्थकुरोंकी धायु क्रमश: चौरासी
लाख, बहुतर लाख, साठ लाख, तीस लाख, दस लाख और एक लाख वर्ष प्रमाण थी ।।४८७ ।। पर्यटक :- अभी सिर नी
तशी वरिस-सहस्सा, पणगउदी चतुरसीदि पणवणं । फुपु जिण पनि छक्क
सोस' इस एक्कमाऊ,
कुखुरशाह वरिम ६५००० । सुध्दय वरिस ३०००० |
हजार, चौरासी
अर बरिस ८४००० ।
मस्लि वरिस ५५००० ।
गमि यरिस १०००० |
भिरगाह वरिस १००
अर्थ :- इसके आगे कुन्युनाथको प्रादि लेकर यह नौकरोंकी आयु क्रमशः पंचानवे हजार, पचपन हजार तीस हजार, दस हजार और एक हजार वर्षप्रमाण यो || ५६६ ।।
||५०८ ||
are -सदमेकमाऊ, वास-ब्रिदस्स होइ नियमेन सिरिन्वद्धमाण-भाऊ, शहरि वस्स- परिभानो ।। ५८६ ॥
पास- जिणे वरस १०० वोर जिणेंदरूस बस्स ७२ ।
1 श्राळ-समता ।
:- भगवान् पार्श्वनाथको श्रायु नियमले सौ वर्ष और वर्धमान जिनेन्द्रको आयु बहत्तर वर्ष प्रसारण थी ॥ ५८ ॥
।। जिनेन्द्रोंकी आयुका कवन समाप्त हुआ ।।
वृषभादि तीर्थंकरोंका कुमारकाल—
पढमे कुमार- कालो, विण-रिसहे बोस- पुब्द-सक्त्राणि । अजियादि अर-जियते, सग-सग आजस्स पायेगो ॥५६०॥
-
[ १६७
1. A. W. 5. M. 3. fancer i
२. द.व.क. . पादोला ।
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________________
१६८ ] तिलोयपणतो
[ गाथा : ५५१ उसह पुण्य २० ल 1 अजिप पुष्व १८९। संभव पुष्य १५ स । अहिणदए पुम्ब १२५०००० । सुमइ पुन १० ल । पजमषह पुत्र ७५००००। मुपास पुष ५ ल 1 चंदप्पह पुष २५०००० | पुष्फयंत पुष २००० । सोयल पुम्न २५००० । सेमंस वस्स २१ ल । वासुसुम बस्स १८ ल । बिमल वम्स १५ ल । घणंत वस्स ७५०००० । धम्म वसा २५०००० । संति __ वस्स २५००० । कुषु वस्स २३७५० | बरणाह यस्स २५००० 1
प:-प्रथम जिनेन्टका कुमारकाल बोस लाल पूर्व और अजितनापको मादि लेकर पर जिनेन्द्र पर्यन्त अपनी-अपनी आयुके चतुर्थभाग प्रमाण कुमार-काल या EDIT
तो कुमार-कालो, एग'-समं सग-सहस्स-पंच-सया । पनुबीस-सयं ति-सर्य, तीसं तीसे , कस्स ॥५६॥ मस्लिशाह १०० मुरिणसुध्वय ७५०० । लामि २५०० । णमि ३.० ।
पामणाह ३० । वीरणाइ ३० । ।। एवं कुमार-कालो समतो॥
पर्व:-इसके मागे कहतीपंकरोंका कुमारकास कमषा: एक सो, सात हजार पाँच सो { ७५००), पच्चीस सो. तीन सौ, तौस भोर सीस वर्ष प्रमाण वा IIRAM
विचार्य:-गाथा मल्लिनामका कुमारकाल १०० वर्ष मात्र कहा गया है। इसका नई है कि उन्होंने १० वर्षकी मायुमें ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी। दीक्षाके बाद वे ६ दिन एपस्प अवस्थामें और ४१ वर्ष ११ माह २४ दिन कैवलो अवस्थामें रहे। इन सबका योग (100+ १४८६५ वर्ष ११ माइ, २४ दिन - ) ५५००० वर्षे होता है और उनकी पायु भी इतनी ही यो।
।। इस प्रकार कुमार-काल समाप्त हुा ।।
२. ६. एकमय।
.. १....।
४, ..हमता,
१. 4. 1.....। .. सम्पदा ।
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पापा । १९२-५६४]
ऋषभादि तीर्षकरोंके शरीरका उत्सेनपंचसय-व-पमागो, उसाह-बिरस होवि हो । ततो पन्नासणा, नियमेन पुप्फवंत-परते ॥५९२॥ उ ५०० । म ४५० । सं ४०० । अ ३५० । मु२०० । प २५० ।
सु२०० । र १५० । पुष्फ १००। मषं :-भगवान् ऋषभनायके शरीरको ऊंचाई पचिसो अनुप प्रमाण पी। इसके आगे पुष्पदन्त पर्यन्त बिनेन्द्रों के शरीरको उचाई नियमसे पचास-पचास धनुष कम होती गई है ॥१२॥
एसो नाप अणतं, बस-बस-कोवंड-मेत परिहोणो । सचोमि मिगतं, पण-पण-बायेहि परिणीगो ॥५३॥
सो १० । से ८० । वा ७० । वि ६० । अ५. | घ ४५ । सं४० ।
कु३५ । अर ३० । म २५ 1 मुन्द २० । । १५ । १० ।
पर्व :-इसके पागे अनन्तनाष पर्यन्त दस-दस धनुष और फिर नेमिनाय पर्यन्त पाप-पौष धनुष उत्सेष कम होखा गया है ।।५६.३।।
पप हस्पा पास-विणे', सग हत्या बद्धमान-सामम्मि । एसो लिस्पयराण, सरोरनापणं पल्मो ॥५४॥
पा है । वीर ह७।
॥ उन्हो समत्तो।। प:-भगवान् पाएवंनाचके शरीरका सत्सेध नो हार और वर्षमान स्वामीके पारीरका उत्सेष सात हाप प्रमाण था। अब तीपंकरोंके सरीरके वर्ण ( रंग ) का कपन करता REV||
॥ उत्सेधका कषन समाप्त हुमा ।।
1. प. मिला।
२. व. प. उ. सम्मत्ता, क. सम्परा, २. सम्पत्तो।
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१७०
]
तिमोग्रपणती
[ गाथा : ५६५-५८८ ऋषभादि तीर्थङ्करोंका शरीर-वर्ग'परपह-पुष्फवंता', कुदबु-तुसार-हार-संकासा । पीला-सुपास-पासा, सुख्खय-पोमो समोर-घन-बाना ॥५५॥
विद्युम-समाज-रेहा, पजमप्पह-वासुपूज्म-विषगाहा'। सेसाण जिमबरागं, काया चामोपरापारा ॥५६॥
सरीर-वष्णं गदं ।।
म:-भगवान् चन्म और पुष्पदन्त कुन्दपुष्प, पन्द्रमा, बर्फ तमा ( मुक्ता ) हार सदृश धवस वर्णके पे । सुपाश्र्वनाथ और पानाथ नीलवर्गके थे। मुनिसुक्तनाथ और नेमिनाथ जलयुक्त बादल ( मेध ) के वर्ष सदृश मात् श्याम वर्णके तथा पपप्रम एवं वासुपूज्य जिनेन्द्रके शरीर प्राप्त सदा रक्तवर्ण के थे । मेष ( सोसह) सीकरोंके गुडौल रूपं सदा अपरिज पूर्ण के रे IKEKATERII
।। शरीरके वर्णका कपन समाप्त हुआ।
ऋषभादि तोयंकरोंका राज्यकालसेसट्रि-गुम्ब-लक्खा, पढम-जिणे रज-काल-परिमागं । तेवा-पुष्प-लक्या, अनिवे पुग्मंग-संजुत्ता ॥१६॥
। पुष्व ६३ ल । अषि ५३ ल पुञ्वंग ।।। म :-प्रावि जिनेन्द्र के राज्यकालका प्रमाण तिरेसठ लाल पूर्व और अजित जिनेन्द्रके राज्यकासका प्रमाण एक पूर्वाग सहित तिरेपन लाख पूर्व था ॥५६॥
चदाल-पमाणाई, संभव-सामिस्स पुष्व-सपलाई। पर-पुल्वंग-जवाई, लिहि सव्व-परिसीहि ॥५६॥
। पुल ४ स । पूर्वाग ४।
३. द..... - य.
१.प.क. प. प. पदम। २. द...क. र. म. ३. पुष्फवंतो। ३. बिलसाहो। ४. ६... प. उ. वणसं ।
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________________
गाया : ५६६-६०२ ]
उपमहाहिमा
[ १७१
: सम्भवनाथ स्वामीके राज्यकालका प्रमाण सर्वशदेवने चार पूर्वाग सहित मनालीस साथ पूर्व प्रमाण बतलाया है ॥५६६||
छत्तीस-युग्ब-सरसा, अज-बंगेहि जुवा
। पुष ३६५०००० । पर्वाण ८ ।
- अभिनन्दन जिनेन्द्र के राज्यकालका प्रभाग आठ पूर्वाङ्ग सहित छत्तीस लाख पचास
हजार पूर्व पर ।। ५६६
पन्नास- सहस्त्र-पुरुष संजुता । अहिनंदन- 'जिनवरिवरस ॥५६६ ।।
एकोणतीस - परिमाण-पु-सरसानि बच्छराणं पि । बंगाणि भारस-सहिवण सुम- सामिल || ६०० ॥
आर्यts :- आधा
:- सुमतिनाथ स्वामीका राज्यकाल बारह पूर्वाङ्ग सहित उनतीस लाख वर्ष पूर्व प्रमाण था ।। ६०० ॥
इगिबीस-ब-ला पन्नास- सहस्स- पुण्य-संजुक्ता । सोल-पुष्यंगहिया,
पूर्व प्रमाण | ।। ६०१ ॥
उन
। पुष २१५०००० । पूर्वाग १६ ।
पद्मप्रभ जिनेन्द्रका राज्यकाल सोलह पूर्वाग सहित इक्कोस लाख पचास हजार
.. Parfur, e. fi
र एउमप्पह- जिगस्स ।। ६०१ ॥
चोट्स समस्तहस्सा पुण्यानं तह य पुण्याई । वीसवि-परिमानाई
नेपानि सुपास सामिस्स ॥ ३०२ ॥
पुष १४ ल । पूर्वा २०
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१७२ }
निलोयपण्णी
[ गाथा : ६०३ - ६०६
प्र : सुपार्श्वनाथ स्वामीका राज्यकाल बीस पूर्वाङ्ग सहित चोवह लाख पूर्व प्रमाण जानना चाहिये ।।६०२ ॥
पणास - सहस्सा हिय छल्लवखपमाण बरिसपुच्चामि ।
पुवंगा
चवीसा
हरि
। पुत्र ६५०००० | पूर्वाण २४ ।
म : चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रके राज्यकालका प्रमाण ग्रह नाख पचास हजार वर्ग पूर्व और बस पूर्वाङ्ग है ।।६०३
अस-पुण्य गम्भहियं सुविहिस्स पुस्य लक्खद्ध ं । सीमल- बेबस्स तहा, केवलयं पुष्य-समसद्ध ||६०४॥
1 पृथ्व ५०००० अंग २८ । पुरुष ५०००० ।
अर्थ:-सुविधिनाथ (पुष्पदन्त ) स्वामीका राज्यकाल बट्ठाईस पूर्वाङ्ग अधिक अधं लाल पूर्व और शीतलनाथका राज्यकाल मात्र अर्धलाख एवं प्रमाण या ।। ६०४ ||
3...
सेयंस- जिणेसल्स य, 'वाल- संखाणि वास - सनखानि । पढमं चि परिहारिया, रज्जसरी
। वस्तारि ४२ ल ।
अर्थ :- भगवान् श्रेयांसनाथका राज्यकाल व्यालीस लाख वर्ष प्रमाण था । वासुपूज्य जिनेने पहिले हो राज्यलक्ष्मी छोड़ दो षी ॥ ६०५ ।।
विमलस्स तीस - सक्ला, अनंतमाहल्स-पंच-बस - सक्ला । बासानं
लक्खा
पणष्पमाला,
वासुपुन्जेण ।।६०५।।
१. . . रु. उ. दुमान पहुचा ।
| वासारिए ३० ल 1 अस्स १५ । बस्स ५ ल ।
धम्म - सामिस्स ||६०६॥
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________________
गाया : ६०७-६१० ]
चउत्प महाहिमारो
[ १७३
वर्ष :- विमलनाथका राज्यकास तीस लाख अनन्तनाचका पमाह लाख और धर्मनाथ स्वामीका पांच लाख वर्ष प्रमाण था ।। ६०६ ॥
सक्सस्स पार-माणं संति-जिणेसस्स मंडली तसं ।
तस य weeधरतो, तत्तियमेताणि वरसाणि ।।६०७|1
१२५००० | २५००० ।
:- शान्तिनाथ जिनेन्द्रका मण्डलेशत्व काल एक लाख चतुर्माण प्रमाण मोट चकवतित्व काल भी इतने ही वर्ष प्रमाण था ।६०७१
सग-संतो
तेवीस ह कु· · जिविस तहा, 'ताई विय चक्कबट्टि ||६०८||
। २३७५३ । २३७५० ।
:- कुन् जिनेन्द्र तेईस हजार सातसी पचास वर्ष तक मण्डलेश और फिर इतने ही वर्षे प्रमारण चक्रवर्ती रहे ।। ६०८ ।।
इगिबोस सहस्सा अरणामम्मि जिनिये
की रान
यस्लाई होति मंडली -सते ।
महि र सुव्वय गमिगाहाणं,
ताई चिय चक्कबट्टिते ।।६०६ ||
| २१००० | २१००।
:- अरनाथ जिनेन्द्रके इक्कीस हजार वर्ष मण्डलेश अवस्था में और इतने हो वर्ष चक्रवतित्वमें व्यतीत हुए ।१६०६ ||
मल्लि-जिणे, पन्नारस-पण सहस्स- वरसाई ।
मितिवयस्स' न हि रक्षं । । ६१० ।।
। मल्लि० । मुसुिब्वय १५००० । रामि ५००० मि० । पाम० । वीर० ।
[ तालिका नं० १३ पृष्ठ १७४- १७५ पर देखें ]
१८. व. क. य. उ. सायं २. उ. दिवसा रु. न. प. लिए हि
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________________
१७४ ]
तालिका : १३
क्रमाक
१
२
३
Y
५
७
E
नাम
२१
२२
२३
२४
ऋषभनाथ
अजितनाथ
सम्भवनाथ
अभिनन्दन
सुमतिनाथ
भ
मुपायं नाथ
पुष्पदेन्त
शीतलनाथ
श्रेयांसनाथ
१०
11
१२ वासुपूज्य
१३
*
१५
૬
१७
१५
१६
विमलनाथ
अनन्तनाष
धर्मनाथ
शान्तिनाथ
कुन्युनाच
खरनाथ
मल्लिनाथ
भुनिसुव्रत
नमिनाथ
नेमिनाथ
पापवनाथ
महाबीर
rl
तृतीयकलिने ४ सा.पू. ५० ला० करोड़ सा० +
३०
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तिलोत्त
[ तालिका : १३
ऋषभावि चौबीस तीर्थकुरोंके जन्मान्तर श्रायु,
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९० हजार क० ६००० करोड़
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(१को.सा. १ला.पू.) - (१०० सा. १५०२६००० वर्ष )
५४ सागर + १२ लाख वर्ष
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चतुर्थकालमें ७५ वर्ष शेष रहने पर उत्पन्न हुए।
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________________
तालिका : १३]
उत्यो महाहियारो
कुमाeete, उत्लेम, वर्ग, राज्यकाल एवं चिह्न निर्देश
ि
घाटक आता कुमार काल
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राज्य - कास
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मण्डले २५००० वर्ष, एक. २५०००
२३७५० वर्ष, २३७५•
२१००० वर्ष,
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१५००० वर्ष
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+ 25,
[ १७५
गाया : ५६०-६१२
चिह्न
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●●
נו
141
कन्न
गज
अश्व
बन्दर
चकवा
कमल
नम्बावतं
प्रचन्द्र
मगर
स्वस्तिक
गैंडा
भैंसा
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यच
हरिल
छाग
मस्स्य
कलश
कूर्म
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ཝོ ཝཱ. །
Page #203
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________________
१७६ ] teria :.. He सोम
साया : ५५१-६१४ ०५:-मस्ति जिनेन्द्रने राज्य नहीं किया । मुनिसुवत भौर नभिनाषका राज्यकास कपणा पन्द्रह हजार और पांच हजार वर्ष प्रमाण था । नेमिनाथ, पावनाष भोर पोर प्रभुमें राज्य नहीं किया ।।६१०॥
ऋपनादि चोवीस तीर्थंकरोंके बिहरिसहावीणं चिण्ह, गोपदिलाय-तुरय-बागरा कोका । पउने गंदावतं. अदससि-मयर-सपिया पि ॥६११।। गई महिस-पराहा', 'साहो-बग्माणि हरिग-रागला' या तगरकुसुमा य कलसा, कुम्मुष्पल-संख-अहि-सिंहा ॥१२॥
म:-बैल, गज, पश्व, बन्दर, चकवा, कमल, नन्यावर्त, अपरन्द्र, मगर, स्वस्तिक, गेंडा, भंसा, शूकर, सेहो. यय, हरिण, बाग, तगरकुसुम । मस्य), कलश, पूर्म, उत्पल (नीलकमल), शंख, सर्प मौर सिंह ये क्रमशः ऋषमादिक चौवीस सोपंपरोंके चिह्न है॥६५१-६१२॥
मोट:-गापा ५१० से ६१२ पर्यम्तकी मूलसंदृष्टियोंक भर्य तालिका मं० १३ द्वारा स्पष्ट किये गये हैं, जो पृष्ठ १७४-१७५ पर देखें।
राज्य पद निर्देशअर-प-संक्ति-गामा, तिस्पयरा चाकट्रिनो भूरा ।
सेसा अनुगम-भुजबल-साहिय-रिपु मंडला बारा ॥१३॥
अर्थ :--अरनाप, कुन्धुनाथ और मान्तिनाप नामके तीन तीर चक्रवर्ती हुए थे। मेष सीदर अपने भनुपम बाहुबलसे रिपु वर्गको सिद्ध करनेवाले ( माण्डलिक राजा ) हुए ॥१३॥
पाँचीसों तीथंकरोंको वैराग्य उत्तिका कारण - संसि-मुग-वासुपुमा, सुमइ-बुगं 'सुमारावि-पंच-जिणा । णिव-पच्छिम-अम्मान, उपभोगा' जाप-वेरणा ॥६१४॥
१ .राहो। २. ...क..य, . सीहा। ५. द.व.क.प. उ. तबरा। ... 4.क.अ. य. उ. मष्ट्रिय।।.. रिसमसमा, .. च विपंडापा, अ.व. रिमंडमा, क. बमंजमा । १. ब. उ. सुबुक । ., क. उपरण।
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________________
कार्यक
गाया: ६१५- ६१९ /
चउरबो महाद्दियारो
[ १७७
:- शान्तिनाथ, कुनाथ वासुपूज्य, सुपतिनाथ एवं पद्मप्रभु ये पाँच ( तोयंकर ) तया सुताविक (सुनिसुव्रत, नमिनाथ, नेमिनाथ पावनाय एवं वर्धमान ) पांच, इस प्रकार कुल दस तीर्थकर अपने पूर्व ( पिछले जन्मोंके स्मरासे वैराग्यको प्राप्त हुए ।।६१४ ॥
श्री
अजिय-नि-पुप्फवंता, अणंतरेओ य धम्म-सामो-य ।
बट्टू उबकपडणं, संसार सरीर भोग- निम्बिन् ॥ ६१५ ॥
:- अजित जिम, पुष्पदन्त अनन्तदेव और धर्मनाथ स्वामी ( ये चार तीर्थकर ) उल्कापात देखकर संसार शरीर एवं भोमोंसे विरक्त हुए ।।६९५ ।।
अर-संभव- विमल- जिना, अम्भ-विणासेण नाव- देखना । सेयंस- मुपास-जिणा, वसंत- बणलासेण ।।६१६ ।।
अर्थ :- अरनाथ, सम्भवनाथ और विमल जिनेन्द्र मेघ विनाशसे; तथा भगवान् श्रेयोस मौर सुपाद जिनेन्द्र वसन्तकालीन वन-लक्ष्मीका विनाश देखकर वैराग्यको प्राप्त हुए ।। ६१६ ।।
वप्पह-मल्लि जिना, अदभुत-पट्टवीहि जाय- बेरच्या ।
सीमलओ हिम-णासे, उसहो नीलंबनाए मरणाची ।।६१७।।
अर्थ :- न्द्रप्रभ और पत्नि जिनेन्द्र अधू व (बिजली) आदिसे शीतलनाथ हिम-नाम से और ऋषभदेव नीलाञ्जनाके मरणसे वैराग्यको प्राप्त हुए ।।६१७।।
गंघव्य-नयर णासे,
वणवेषो बि जाव-रगो । इप बाहिर हेदूहि जिणा विरागेण जितंति ।।६१८ ||
:- अभिनन्दन स्वामी गन्धवं नगरका नाज़ देख विरक्त हुए। इस प्रकार इन बाह्य हेतुमसे विरक्त होकर वे तीर्थंकर चिन्तवन करते हैं ।।६१
ऋषभादि चौबीस तीर्थकरों द्वारा चिन्तन की हुई वैराग्य भावना के अन्तर्गत नरकगतिके दुःख
गिरए मिसोर, गिमेश्मे तुम्लाद्द* वारुणाई,
१. मैमि । २.व.का
पिणारयान सदा । पत्रचमानानं ।। ६१६ ॥
'वट्टले
३. द. बहुते ।
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१७८ ]
निलोयपष्णती
[ गापा ६२०-६२३
अर्थ :- नरकोंमें पचनेवाले नारकियोंको क्षणमात्र भी सुख नहीं है, वे सदेव दारुण दुःखों का अनुभव करते रहते हैं ।। ६९६ ।।
।
जं कुदि विषय- लुडो', पावं तस्सोवयम्म निरए तिब्बाओ धेयणाओं, पार्वतो विसबदि विसो ।।६२० ॥
अर्थ :- विषयोंमें लुब्ध होकर जीव जो कुछ पाप करता है उसका उदय आने पर नरकोंमें तीव्र वेदनाओं को पाकर विषण्ण ( दुःखी ) हो विलाप करता है ।।६२० ॥
शार्महविगमेत्तं दित-, असार
।
बिसहति घोर निरए, ताम समो मथि निम्बुद्धी ॥६२१ ।।
अर्थ :- जो जीव क्षणमात्र रहनेवाले विषय सुखके निमित्त असंख्यातकाल तक घोर नरकोंमें दुःख सहन करते हैं उनके सदृश निर्बुद्धि और कोई नहीं है ।।६२१ ।।
"ग्रंथो हि कूपे, बहिरो न सुगेदि साधु-उदबेसं । गिरए जं पडद से चनं ।। ६२२॥
सुमंत
अर्थ :- यदि अन्धा कुएं में गिरता है और बहरा सदुपदेश नहीं सुनता तो कोई आश्चयं नहीं किन्तु जो देखता एवं सुनता हुआ नरकमें पड़ता है, यह आचर्य है ।। ६२२ ॥
तियंचगतिके दुःख
भोत्तून णिमिसमेतं, विसय-मुहं जिसम-दुक्ख बहुलाह । तिरय गवोए पावा, भेट्ठति अनंत-कालाई ।।६२३॥
अर्थ :- पाणी जीव क्षणमात्र विषय सुखको भोगकर विषम एवं प्रचुर दुःखोंको भोगते हुए अनन्तकाल तक तियंचगतिमें रहते हैं ।। ६२३ ।।
१. . . क. उ. मुढा, ज. व नढा । २. क्र. च. तिब्बाउ 1 ३. पत्तो ४. पै.ब. प्रेष्ठा ।
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[ १७६
गापा : ६३४-६२१ ]
चउत्थो महाहियारो शर्मक ... शामा शो
है तार-तासग-बषण-जाहण-संधण-विमेवण' दमन । कामवण-मासा-विवण-मिल्संखणं' चेष ॥२४॥
छैदल-मेहन-बहणं, गिप्पीपण-गालणं क्षुषा तण्हा ।
भरलग-मदन-मनन, विकसणं सोदमुन्हं च ।।६२५।।
प:--सिमंध्यगतिमें, ताड़ना, त्रास देना. राधना, बोझा लादना, विहित (मलादिको माफारसे जलाना) करना, मारना, वमन करना. कानोंका वेदना, नाक वैधना, अण्डकोशको कुचलना (वधिया करना ), छेदन, भेदन, दहम, निष्पीडन, गालन, क्षुषा, तृषा, मक्षण, मदन, मसन, विकतन, पाौत और उष्ण ( आदि दुःख प्राप्त होते है ) ॥६२४-६२५।।
एवं अणंत-लुतो, मिन-बदुर्गाव-णिगोव-मग्झम्मि।
जम्मान-मरण रहदें, अणंत-सत्तो 'परिगहो जं ॥६२।।
प्रबं:-इस प्रकार अनन्तबार नित्य निमोद और चतुर्गति ( इतर ) निगोदके मध्य जाकर अनन्तबार जिस जन्म-मरणरूप प्ररहट ( षटीयन्त्र ) को प्राप्त किया है ( उसके विषयमें विचार करना) ॥२६॥
मनुष्यगति के दुःखों के अन्तर्गत गर्भस्प बालकका क्रमिक विकासपुष्वकर-परव-गुरुगो, मादा-पिपरस्स रत सक्कानो। माइम प वस-रत, अन्धनि "कसलस्सवेनं ॥२७॥ *कलसी-करम्मि अच्छदि, दसरा तिम्मि घिर-भूवं । परोक्तं मासं चिय, 'बुबुद-घणमूब-मांसपेसी य ।।६।।
पंच • पुलगा-अंगोषंगाई 'चम्म-रोम-महा-क्या फंवनमम-मासे, गबमे क्समे 4 निमाम
॥६२६।।
१. व. ब. क. ज. प. उ. बिहेवणं. २.... - मेनिस, ब... गन्धिम्।। .क. ज. प. परिमाज प. उ. परिणदाज। ४. व. कसमहरा । ५. प. ब... र. मा. 3, मासुसे। ५.प.,
क्ष । ७.६, ३. क. न. प. ३. सकामो। .. २, य. मएमरोमात्र, ....पणमरोगा ।
प
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तिलोयपणती
[गामा ! ६३०-५३३ प्र: पूर्वकृत महा पापके उदय जीव माताके रक्त और पिसाफे शुकसे उत्पन्न होकर दस रात्रि पर्यन्त कललरूप ( कर्दम सदृश गाढ़ी ) पर्याय में रहता है । पश्चात दस रात्रि पर्यन्त कलुषीकृत पर्यायमें और इतनी ही अर्थात् दस रात्रि पर्यन्त स्थिरीभूत ( निष्कम्प ) पर्यायमें रहता है । इसके परमात् प्रत्येक मासमें क्रमश: बुदबुद धनभुत ( ठोस ). मांसपेशी, पांच पुखक ( दो हाप, दो पर मोर एक मिर), अशोपाल और चर्म तथा रोम एवं नलोंको उत्पत्ति होती है। पुनः पाठवें मासमें स्पन्दन क्रिया और नौवें या दसवें मासमें निर्गमन चिन्म होता R E E , AK
योनिका स्वरूप एवं गर्भाशयवे दुःखअसूची अपेक्सपीयं, वुग्गंधं मुत्त-सोगिक-दुपाएं ।
वोत्तु पि लग्न-गिन, पोट्टमुहं जम्ममूमो से ॥६३०॥
प्रम :-पशुचि, प्रदर्शनीय, दुर्गन्धसे युक्त, मूत्र एवं खूनका बार सवा जिसका कपन करने में भी सजा पाती है ऐसा जो उदरका मुख ( योनि ) है वह इस मनुष्यका जन्म स्थान है ॥३०॥
आमासयस हेडा, उरि पक्कासयस गुम्मि । मम्झम्मि 'वरिय-पडले, पच्यन्णो मिक-पिज्जती ॥३१॥ प्रच्छवि गाव-वस-मासे, गरमे 'आहरदि सम्भ-मंगेस ।
प्रथरसं अहकुणिम, घोरतरं दुक्ख-संभूयं ॥६३२॥
म:-( यह प्राणी ) गर्भ समयमें आमाशयके नीचे और एक्वायके अपर ममके पौधोंबोच वस्ति-पटल (जरायु पटल ) से प्रान्छादित, वान्ति ( घमन ) को पीता हुआ नौ-दस मास गर्भमें स्थित रहता है और वहां सब बलोंमें दुःबसे उत्पन्न अत्यन्त तीव दुगंग्वसे युक्त विष्टा-रसको आहारके रूपमें ग्रहण करता है ॥६३१-६३२।।
मनुष्यपर्यायका कालोप'बासातम्मि गुरुगं, वुल्वं पत्तो अबाण-मानेन । जोग्यण-काले मजले, इस्पो-पासम्मि संसातो ॥३३॥
२. ब... पाहारदि।
३...क.प, य, उ.
.... क. . . उ. तिम। वासत्तशंपित
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य
गाथा : ६३४-६३७ ]
उषो महाहिमा
[ १८१
अर्थ :- यह जीन बालकपनमें भज्ञानकै कारण प्रचुर दुःखकी प्राप्त हुना तथा यौवनफालमें स्त्रीकेसाथ आसक्त रहा ।। ६३३ ।।
वेढेदि ं विस्य-तेव. कुलत-पाहि दुहि । 'कुम्भवी मोह-पासेसु ।।६३४ ।।
कोसेच कोसकारो,
अयं :- जिस प्रकार रेदामका कीड़ा रेशमके तन्तु जालमें अपने आपको ही वेद्रित करता है, उसी प्रकार यह दुर्मति (जीव ) विषय के निमित्त दुनिमोच स्त्रीरूप पाशोंने अपने आपको मोहजाल में फंसा लेता है ।। ६३४ ।।
कामातुरस्स गच्छवि 'पाणितल - धरिव गंडो',
स्वर्णमय संवधराणि बहुगाणि । बहुसो चिसेदि दीण-मुहों ।। ६३५।।
अर्थ :-- कामातुर जीवके बहुत से वयं एक क्षण के सदृश जीत जाते हैं। वह हस्ततलपर कपोल रखकर दोनमुख होता हुआ बहुत प्रकारसे चिना करता है ।। ६३५ ॥
काम्मलो पुरिसो, कामिज्जते जणे अलभमाणे । 'यतवि मरिदु भट्टषा, मरम्पपातावि करणेहि" ।। ६३६ ।।
१०
:- कामोन्मत्त पुरुष अभीष्ट जन ( स्त्री प्रादि ) को न प्राप्त कर बहुधा मय-प्रपातादि साधनोंसे मरने की चेष्टा करता है ।।६३६ ।।
"कामम्पुण्णो पुरिसो, तिलोक्कसारं पि जहदि सुद-लाहं । कृषि - असंजम - बहुलं, अनंत-संसार-संजणणं ॥ ६३७ ।।
२. इ.व.क. ज. प . द्र
१. द. ब. क. ३. व.उ. बेवेदि 4. 7. enth 1 2. segune) i ४.प. बारामणि | ५. ब. उ. मितम छो । ७. ८. . क. ज. य. उ. मुद्दे । ८ द... जो यया उममममाणो व जणे व प्रमाणो । करणेहि य. करण म्ह
९. ९. ब. क. ज. व. पुसद, प. पुस्तादे ११. द. कामं पुणो, ब. क.ज. प. उ.काको
१. . . .
1. T. 4. T.
जोमाने,
१०.६. ज.
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१५२ ]
तिलोयपणाती
[ गाथा : ६३८-६४२ मपं:-कामसे परिपूर्ण पुरुष तीन लोकमें श्रेष्ठ श्रुव-लाभको को छोड़ देता है और अनन्त संसारको उत्पन्न करनेवाले प्रचुर असंयमको ( ग्रहण करता है ।।६३७॥
'उच्चो घोरो पौरो, बदमामीओ वि विसय-मुख-मई।
सेवि विधं गिच्छ, सहदि हि बडग' पि अवमागं ।।६३८॥
पर्ष :- उच्च, भोर, बीर और बहुत माननीय मनुष्य भी विषयोंमें लुग्ध युधि होकर नोचसे नीचका भी सेवन करता है और अनेक प्रकारकै अपमान सहता है ।।६३८।।
तुम्खं दुम्बास-बहुलं, इह लोगे युगगरि पि परलोगे।
हिदि दूरमपारे, . संसारे बिसय-सब-मई ॥६३६।। म :..श्री विसावत्र
प्र:-विषयों में मासक्त बुद्धिवाला पुरुष इस लोकमें प्रचुर अपकीति युक्त दुःखको सका परसोकरें दुर्गतिको प्राप्त कर अपार संसारमें बहुत काल तक परिभ्रमण करता है ।।६।।
विसयामिहि 'पुष्णो, पणंत-सोलाण हेतु सम्मतं । सम्बारिश महावि, तब लज्ज च मजा ।।६४०॥
:- विषय-भोगोंसे परिपूर्ण पुरुष अनन्तसुखके कारणभूत सम्यक्स्व. सम्पमारित्र तथा लज्जा और मर्यादाको तृण सहन छोड़ देता है ।।६४० ।।
सौर उन्हं तम्हं. छुपं प गुस्सेज-भात-पंच-समं ।
सुकमालको वि कामी, सहदि वहरि भारमवि-गुरुगं ।।६४१॥
प्रमं :-सुकुमार भी फामी पुरुष छीत. उष्ण, तृषा. क्षुधा, दुष्टशय्या, सोटा पाहार पोर मार्गषमको सहता है तथा भायन्त भारी बोझ ढोता है ॥६४१।।
अपि धरयो जीवाणं, मेहुण-समाए होरि महगाणं । तिल-'णालीए 'तत्तायस-प्पवेतो म जोगाए ॥४२॥
१. प. य. स. सम्मा। २.८. क. प. म. ३. का।।... क. च, य.व, बहुवाणि । ४.स. क. व. पुषो। ५... ब. स. आरिह। ६.व.ज. य. सालोए, .. क. चकासोए। .... .प. उ. बत्तय । .....क.ब. स. न. पाणीए ।
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गाथा : ६४३-६४६ ] बजत्यो महाहियारो
[ १८३ :- तथा, मयन संज्ञामे तिलोंकी नाली में तप्त लोहेके प्रवेशाके सदृश योनिमें बहुतसे जीवोंका वध होता है ।।६४२॥
इह लोगे खि महल्लं, वो कामस्स वस-गवो पचो।
काल-गदो वि अभंत, बाखं पायेवि कामंपो ।।६४३।।
प्रबं :-कामके वशीभूत हुषा पुरुष इन लोकमें भी महान् दोषको प्राप्त होता है मौर कामान्ध होता हुआ मरकर परलोकमें भी अनन्न दुःख पाता है ।।६४३॥
सोभिय-सुपकप्पाइम-देहो दुषलाइ गम्भ-बासम्मि ।
साहिबूण बारुनाई, पिट्ठों पावाइ कुना पुणो ॥१४४।।
मपं:-शोएित और शुक्रसे उत्पन्न हुई देहसे युक्त जोद गर्मवास में महा भयानक दुःख सह कर निर्लज्ज हुमा फिरसे पाप करता है ।।६४४ ।।
बाहि-रिणहारणं" बेहो, बहु पोस-सुपोसियो वि सव-बार । अस्थी पवरण-परणोल्लिय पादप-दल-चंचल-सहाबो ॥६४५।।
:-बहुतसे पुटिकारक पदार्थों द्वारा सैकड़ों बार अच्छी तरह पोषा गया भी व्याधियों का निधानभूत यह शरीर पवनसे प्रेरित वृक्षके पत्ते सहम पंचल स्वभाव वाला है ।।६४५।
तारणं तडित्तरलं, विसया-परंस विरस-विस्थारा । अस्थो अणस्य-मूलो, अविचारियन्सुवरं सव्वं ।।६४६॥
धर्म :-विषयोंसे प्रेरित (यह ) तारुण्य बिजली सहश चंचल है और अयं इन्द्रियविषय ) नीरसता पूर्ण हैं, अनर्थ के मूल कारण है। इस प्रकार में सब ( अनके मूल ) मात्र अविचारितरम्य ही है ॥६४६।।।
...... क. न. य, व. मा। २. द. मुकंपाइय, 4. मुकंपाइय, क. य. अ. न. सुप्माश्य । ३. घ. दोहो. क. क. ज. य. उ. दाहो। ४. व. क. अ. प. विट्ठो, ब. उ. विट्ठो। ...ब. क. उ. गिगाई । ६. २. क, प. प. उ. प्रार। ५. ६.. क. प. प. उ. पशोधिय । ८. ८. ब. क. उ. प. उ. बहामा ।
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अमा
:..
ETHERE तिलायपत्ती
हाराज
या : ६४७-५५०
मावा पिदा कलस, पुत्ता बंधू य इर-माला य ।
बिद्ध-पगट्ठाइ सणे, मणस्स गुसहा सल्लाई ॥६४७॥
प:--माता, पिता, परनी. पुत्र और बन्धुपम इन्द्रलाल साहश क्षणमात्रमें देखतेदेखते नष्ट हो जाते है ये सब मनके लिये दुस्सह पाल्य हैं ।।६४७।।
देवगतिके दुःख एवं उपसंहारपप्ताए थोहि, सोमवं भाषेहि वि -'गरुबाई। दुखलाइ माखसाई वेष-गवोए अणुभवति ॥६ ॥
:-देवगतिमें किञ्चित् सुखको प्राप्त हुए ओव उस ( मुख ) के विनाशकी चिन्ता रूप भावोंसे नित्य ही महान् मानसिक युःखों का अनुभम किया करते हैं ॥६४८।।
चदूग चच-गरीभो, वारुण-दृग्वार-एक्स-साणीयो।
परमाणेद-गिहाणं, गिम्बार्ण पासु बच्चामो ।।४।।
प:-अतएव पारण पोर दुनिवार दुःखोंकी खानिभूत इन पारों गतियों को छोड़कर हम उस्कृष्ट मानन्दके निधार-स्वरूप मोक्षको शीघ्र ही प्राप्त करे |
ऋषभादि तीर्थकरोंके दीजा-स्थामतम्हा मोक्खस्स कारशारदबीएनेमी, सेसा तेबोस तेस तिस्पयरा । निय निय-जार-पुरेसु गिम्हसि जिणिव-विसाई' ॥६५॥ म:-इसीलिए मोसके निमित्त
उन पौबीस तीर्थदरों से (भगवान्) नेमिनाप द्वारापती नगरीमें और शेष तेईस तीपंकर अपने-अपने जन्म-स्थानोंमें जैनेन्द्री-दीक्षा ग्रहण करते है ।।६।।
यो।
२... ब... प. ३. दुसमा।
..
. ज. प. उ. नववाहि ।
.... ... वारसदीये।
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री
[ १८५
ऋषभादि तीर्थंकरोंकी दीक्षा तिथि, पहर ( कान ) नक्षत्र, वन और दीक्षा समय उपवासों के प्रमाणोंका निरूपण -
वार्या : ६३२
बेला- सिद-नवमीए दिए पहरस्मि उत्तरासादे । सिद्धस्मथचे उसो, उपवासे छुमम्मि निक्सो ॥ ६५१ ।।
अर्थ :- भगवान् ऋषभदेव चैत्र कृष्णा नवमीके तीसरे पहर उत्तराषाढ़ नक्षत्रमें सिद्धार्थं वनमें षष्ठ ( मासके ) उपवासके साथ दीक्षित हुए ।।६५१ ।।
माघस्स सुक्क- नवमी - अवरम्हे रोहिनी रम्मे "सहेबुगधने, अद्रुम- भर्त्ताम्म
:- अजित जिनेन्द्र माघ शुक्ला नवमरेके दिन अपराष्ट्रमें रोहिणी नक्षत्रके रहते सुन्दर सहेतुक वनमें प्रष्टुम तके माथ दीक्षित हुए ।। ६५२ ।।
शिवकता ।
प्रजिय-जिलो । निक्कतो ||६५२ ॥
भागतिर पुगिनाए तदिए पहरम्मि तदिय उबवासे ।
अट्ठाए निक्कतो. संभव-सामी सहेदुर्गास्म वने ।। ६५३ ।।
अ : सम्भवनाथ स्वामीने मगसिरकी पूर्णिमाको तृतीय पहर में ज्येष्ठा नक्षत्र के रहते सहेतुक वनमें तृतीय उपवास के साथ दीक्षा महरण की ।।६५३ ॥
सिव-बारसि पुण्यहे, माघे माझे पुणम्बस-रिक्खें । उगवणे उबवासे, सविए अभिनंदनीय मिनकं ।। ६५४ ।।
अर्थ :- अभिनन्दन भगवान्ने माघ शुक्ला द्वादशी के दिन पूर्वामें पुनर्वसु नक्षत्र के रहते उपवन में तृतीय उपवासके साथ दीक्षा धारण की ।।१६५४।।
नवमी पुरुषहे, मघासु बाइसाह-सुक्क पक्ामि । सुमई सहेदुगवणे, णिक्कतो सदिय-बवासे ।। ६५५ ।।
१. ८. ब. रु. ज. मन विकता
... सुहेबुब ।
. . . . . 3.
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तिलोषपती
[ गापा ६५६ - ६६०
भगवान् सुमतिना वैशाली व पूर्व मंत्री नक्षत्र के रहते सहेतुक जनमें तृतीय उपवासके साथ दीक्षित हुए ।। ६५५॥
१६६ ]
:- पद्मप्रभ जिनेन्द्र कार्तिक कृष्ण त्रयोदशीके अपराह्न चित्रा नक्षत्र के ( उदित ) रहते मनोहर उद्यान में तृतीय उपवास के साथ दीक्षित हुए ।। ६५६ ।।
चेतासु किन्ह-सेरसि अवर कित्तियस्स किं । पउमपही जिणियो, तहिए सबसे मनोहरज्जाके ।।६५६ ।।
अर्थ :- सुपार्श्वनाथने ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशीके पूर्वाह्न में विशाखा नक्षत्रके रहते सहेतुक बनमें तृतीय उपवासके साथ जिन दीक्षा ग्रहण की । ६५७।।
सिव-चारसि पुष्वष्हे, जेटुस्स विसाहभम्मि जिम-विष गेहेवि सनिय जवणे, सुपासदेवो सहेदुगम्मि द ||६५७ ।।
१.
म. २. जिये ।
अणुराहाए पुस्से, बहुले एमारसीए अबर 'दो घर तवं सम्बत्म-वर्णाम्म तविय-उपवासे ।।६४८ ||
सच:- चन्द्रप्रभने पौष कृष्णा एकादशीके अपरा
सके साथ सर्वाधिवन में तप धारण किया ।। ६५८ ।।
अणुराहाए वुस्से,
सिद- पसेकारसीए अगरहे ।
पुष्व तविए सबनम पुम्फयंत जिनो ।। ६४६ ॥ १
प :- पुष्पदन्त तोयंकर पौष शुक्ल एकादशों के अपराह्नमें मनुराधा नक्षत्र के रहते पुष्पनमें तृतीय उपवास के साथ प्रत्रजित ( दीक्षित ) हुए ।।६५६ ॥
अनुराधा नक्षत्रके रहते तृतीय उप
माघस्स किन्ह-बारसि अबरहे मूलभम्मि पव्वस्था । गहिया सहेदुग-वर्ण, सीयल-येवेन सदिय-उबासे ॥६६० ॥
स. ब. क्र. ज. य. न.
Y. C. W. (GÈ 1
२ ८. ब. क. ज. य. न. पवजिय ।
३. द. क. ज.
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गाथा : ६६५-६६५ ]
चजत्यो महाहियारो
[ १८७ प्रमं :- शीतलनाथ स्वार्भाने माघ कृष्णा द्वादशीके अपराहमें मूल नक्षत्र के रहते सहेतुक वनमें तृतीय उपवासके साथ प्रवज्या ग्रहण की ।।६६०॥
एक्कारसि-एम्बन्हे, फागुन-बसे मोह जागे । सबम्मि सपिप-खक, सेयंसो घरह जिम-विश्वं ।।६६१॥
पर्व :.-श्रेयांसदेवने फाल्गुम कृष्णा एकादशी के पूर्वाहमें श्रवण नक्षत्रके रहते मनोहर उपाममें तृतीय उपवास के साथ बिन दीक्षा धारण को ।।६६१।।
फग्गुण-कसण-पद्दति-अवरहे वासपुर-सव-गह। रिक्सम्मि निसाखाए, इगि-उस्मासे मनोहरज्जाणे ।।६६२२॥
म:-वासुपूज्य जिनेन्द्र ने फाल्गुन सुदशी के सहारा पहिला मनोहर उखानमें एक उपवास के साथ ना ग्रहण किया ॥६१२।।
सहनी x
भाषास सिव-बजत्यो, अपर तह साहेदम्मिपणे । उत्तरभहपवास, विमलो गितकमा सदिय-उववासे ॥६६३॥
म :--विमलनाप स्वामीने माघ शुक्ला पतुर्थीके अपराह में उत्तर भाद्रपद नक्षत्रके रहते सहेतुक वनमें तृतीय उपवास के साथ दोसा ग्रहण को ।।६६३।।
जेस्स बहुल-चारसि, अबरहे रेवदोस भवतिए । धरिया सहेदुग-यो, अपंतवेषेण तब-लग्छी ॥६६॥
ब: अनन्तनाथ स्वामीने ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशोके दिन अपराहमें रेवती नक्षबके रहते सहेतुक वनमें तृतीय उपवासके साथ तपो लक्ष्मी थारण की ॥६६॥
सिम-तेरसि-अबरोहे, भद्दपले पुस्सम्मि लवण-तिए ।
गमिकगं सिद्धाणं, सालि-वणे विक्कम धम्मो ॥६६॥
म:-धर्मनाथ तीर्थकरने भाद्रपद शुम्सा घोदशीफे मपराहमें पुष्य नक्षत्रके रहते शासि-वनमें तृतीय उपवासके साथ सिनओको नमस्कार कर जिन दीक्षा ग्रहण की ॥६६५।।
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१८८ ]
तिलोयपणतो
[ गाषा : ६६६-६७. मेस्स बहुल-'परमो-अवरो पणिम्मि चूदा।
परिवरजवि पध, संति-जिलो तविष-उदबासे ॥६६॥
प :-शान्तिनाथ जिनेन्द्रने ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्थीके अपराहमें भरणी नक्षत्रके रहते माप्रवनमें तृतीय उपवासके साप जिन दीक्षा धारण की ।।६६९।।
पाइसाह-सुब-पादिव-अबरहें कित्तियासु सण-तिए । कुंपू सहदुग-वणे, पम्नजिओ मनमिळण सिद्धार्ण १६६७।।
म: कुन्थुनाथ स्वामी देशाध शुक्ला प्रतिपदाके अपरामें कृतिका नक्षत्रके रहते सहेतुक बनमें तृतीय उपवासायह रिशकोंको फुलारीक्षिEARNITED AEETS
मगसिर-सुख-समी-अपरहे रेवदीसु अर-देवो ।
तरिप-सामम्मि गेहदि, विणिर-वं सहेंगम्मि बने ।।१६।।
प:-परनाथ तीर्थकरने मगसिर मुक्सा दसमीके अपराहृमें रेवती नक्षत्रके रहते महेतुक वनमें तृतीय उपवासके साप जिनेन्द्ररूप ग्रहण किया ।।६६८॥
'मगसिर-सुख-एक्कासिए आह मस्सिगीसु पुज्यन्हें । 'परवि सवं सालि-वर्ग, "मल्लो ग मलेन ।।६६६।।
:-मल्लि जिनेन्द्रने मसिर-शुक्सा एकादशोके पूर्वाह्यमें अश्विनी नक्षत्रके रहते शालि वनमें षष्ठ भक्तके साथ तप धारण किया ॥६ ॥
बासाह-बहल-वसमी-प्रवर सबम्मि पील-बगे। उनचासे सपियम्मि य, समारयेवो महान पर्व ।।६७०।।
मर्थ:-मुनिसुन्नतदेवने वैशास्त्र कृष्णा दसमीके अपराहमें प्रवण नक्षत्रके उदय रहते नौल-पनमें तृतीय उपवासके साप महावत धारण किये ।।६७० ।।
१.प. ब. उ. पोती, प. य. पोती। स. व. मरिन । ४. ...क... म. उ. मालि।
२. प. उ. सिवाणा ..... परिवि.क.
५. द.प.क. उ. वैवा।
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गाथा : ६७१-६७५ ]
महाहियारो
आसाद बहुल बसमी अबरव्हे अस्सिनीस 'बेल-बणे । दर्शक: उि
गोमणाहो पचज, पडिबाद सदिय-लवर्णाहि ॥ १७१ ॥
अर्थ : नमिनाथने आषाढ़ कृष्णा दसमीके अपराह्न पश्विनी नक्षत्र के रहते चैत्र-वन में तृतीय उपवासके साथ दीक्षा स्वीकार की ।1६७१ ।।
सासु-सुद्ध खट्टी- अरण्हे साबणम्भि प्रेमि-जियो । तवय-वहिषि, सहकार वज्रम्सि तब वरनं ।। ६७२ ॥
अर्थ :- नेमिनाथनं श्रावरण शुक्ला पट्टीके अपराह्नमें चित्रा नक्षत्रके रहते सहकार बनमें तृतीय उपवासके साथ तप ग्रहण किया ।। ६७२ ॥
काढणे ।
माघस्सिव एक्कासि - मुम्बव्हवे विसाहास |
पणज्जं पासजियो, मस्सत-वर्णम्म हु भन ।। ६७३ ।।
अर्थ :- पार्श्वनाथने माघ शुक्ला एकादशोके पूर्वा विताचा नक्षत्रके रहते षष्ठ भक्तके साथ अपवस्य वनमें दोक्षा ग्रहण की ।।६७३।
[ १८१
मग्गसिर- बहुल- दसमी- अवरव्हे उत्तरासु 'नाप-वर्ग
तबियतमम्मि गहिरं, महस्वदं बदमाषेण ।।६७४।
अर्थ :- वर्धमान भगवान्ने मगसिर कृष्णा वसम्टीके अपराह्न में उतरा फाल्गुनो नक्षत्रके रहते नाथवनमें तृतीय उपवास के साथ महाव्रत प्रण किये ||६७४ ||
सह- शैक्षित राजकुमारोंकी संख्या
3
'पम्य जिदो महिल-जिनो, रायकुमारेहि ति-सय-मेतहि । पास-जिम बि तह किम एक्कोक्त्रिम पमाण-जिणो ॥१६७५॥
मल्लि ३००१ पास ३०० । वीर ० ।
[ तालिका नं० १४ पृष्ठ १६०-१६१ पर देखें ]
१. व. ब. क. ज. प. उतणे ।
३. व. न.क्र. उ. पञ्चदि ।
२. य. ज. लाभरणे, बाप हायवणे, प ४. क. ज. अ. जिने ।
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११०
तामिका 1 १४ | बाबोल तोपरेकि पंराग्यका कारण घोर पोसाका सम्पूर्ण विवरण- वापर ५१४-६10 और ६५०-६७६
दीक्षा नाम
मास | पक्ष | Frte कान | नक्षत्र रन पीसोपवाय|
राधकालाप
काराग
पभसाथ नीलाऊजना प्रयोध्या
नरमौ नमपरा
उत्तरागढ़ा मिशाप सह मास | गणी सहनुक| म मक
गंधा
गांय उप
पनवंमु
तिनोपएमपतो
ध
विगाथा
अवितनाब | उल्कापात मान | माभवनाप | मेपनिमाय बारस्तो गमि पुणिमा अभिनवन गंपनगरमाकेत।
सादी मार्गदर्शक :- आमचार्य श्री सुधसागर मी म्ह १ ।मुमतिनाथ बानिस्परम ॥ गास , नवमी पपनाव कौमारी | कातिका कण
योवसीय मुपाचंनाष , पतझा | बनारम
वादोपुर | बाधक बिजमो | पन्द्रपुरी
एकात्यमो [पृथ्पयन्स उल्कापाल कान्दो पीततमाम | हिमवाण | मरनपुर श्रयानाम सिंहपुरी
एकादमी १२बामुम्पवातिरमरण पम्पापुरी
चमुवंशी Frमसनाप | अपनाश पिता पापमुक्स | पतुषों
अनुराधा | मर्मा
पष्म
वादमी
घबरा
विजया
एकम.
[ तालिका : १४
पतुषों
ठ.घास+
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१४ वनन्तमाय उल्कापात घयोध्या ज्येष्ट कृष्ण वादशी
१४ धर्मनाथ
१६ शान्तिमायातिमरण हस्तिनापुर ज्येष्ठ
१७ कुन्जीब
बेताब
मगसिर
१८ परनाथ
१४ मस्लिनाथ
२० मुनि
२१ नमिनाम
२२ नेमिनाथ
२२ पाम्नाथ
२४ महावीर
1.
r
こ
In
राजपुर भाद्रपद गुफ्स त्रयोदशी
कृष्ण चतुर्दशी
द
PI
=
সাদা
बिजली मिथिला
कतिस्मरण राजगृह वंशाख कृष्ण
मिथिला प
11
.
दमो
एकदको पूर्वां
दशमी
अपर
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बारावतोभावण गुर पो
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वाराणसी माम
कुण्डलपुर मसिर
dp
14
"
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11
H
+
נן
रेवती
पुष्प
आदरण
PI
आचार्य सागर
रेवती
रम
यावरण
भश्विनी
सहेतुक तृतीय प० १०००
शालि
ग्राम
एमी पूर्वा विषाखा
बामो
=
||
"
H
PI
१०००
१०००
मक्क
पानी नाप तृतीय उप०
कालि टमक्क
नौन तृतीय उप १०००
यंत्र
1000
महूकार J"
१०००
१०००
महाराज
200
३००
.
ग्रामिका : ९४ ]
महाहिमा
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१९२ ।
तिमोयपणती
[ गाथा : ३७६-६७८ :-मल्सिनाथ जिनेन्द्र तोन सी राजकुमारों के साथ दीक्षित भए । पावनाय भी उतने हो ( तीन सौ ) राजकुमारों के साप दीक्षित हए तपा वर्षमान जिनेन्द्र मकेले ही दीक्षित हुए ( उनके साथ किसी की भी दीक्षा नहीं हुई ) | |
पासपूनम
साहरि-भू-सिय-संधि पासपूल्बलामी य । उसहो तालसए हि, सेसा गृह-पुह सहस्स-मैतहि ।।६७६।।
बासु ६७६ । उसह ४०००। सेसा परोक्का १००० ।
म:-वासुपूज्य स्वामी छह सौ छिहत्तर ( ६७६ ). ऋषभनाय चार हजार ( ४०००) और शेष तोयंकर पृषक-पृथक् एक-एक हजार ( १०००-१०००) राजकुमारोंके साथ दीक्षित हुए ॥६७६॥
दीक्षा-अवस्था-निर्देश
मी मल्लो बोरो, कुमार-कालम्मि वासुपुबो य । पासो बि.य गहिर-सबा, सेस-जिना रन्ज-रिमम्मि ॥६७७।।
मं:-भगवान् नेमिनाथ, मल्लिनाप, महावीर, वासुपूज्य और पावनाप इन पांच तीपैकरोंने कुमारकासमें और शेष तीर्थकुरोंने राज्यके अम्तमें सप पहण किया । ७७||
प्रयम पारणाका निर्देशएक-बरिसेन उसहो, उच्छरसं कणा पारणं अबरे। गो-खोरे निप्पन्न, अन्य बियिम्मि विवसम्मि ।।६।।
म:-भगवान ऋषमदेवने एक वर्ष में इसरसकी पारणा की बी और इतर तीर्थरोंने दूसरे दिन गो-क्षीरमें निष्पन्न पन (खीर) की पारणा की पो ॥६७८॥
विरोषा:-भगवान ऋषभदेवने छह मासके उपवास सहित दीक्षा ग्रहण की थी परन्तु उनकी पारणा एक वर्ष बाद हुई थी । पोष तेईस तीपंकरोंमेंसे २० ने तीन उपवास, दो तीर्थरोंने दो उपवास और श्री वासुपूज्य स्वामीने एक उपासके साथ दीक्षा ग्रहण की पी । इन सबकी पारणा दीक्षोपवासोंके दूसरे दिन हो हो गई थी।
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गाना : ६७९-६८२
वजरथो नाहियारो
पारा के दिन होने वाले पञ्चाश्चर्य
सम्मान पारण-विणे, निवड घर-रयण-परिसमंबरयो । पण घण व बहल, जे अबरं सहस्स मागं च ।। ६७६॥
। १२५०००००० | १२१००० ।
प :- पारा के दिन ( सब दाताओंके यहां ) माकावासे उत्तम रहनोंकी वर्षा होती है, जिसमें मधिसे अधिक पांचके घन ( १२५ ) से गुणित दस लाख । १२५०००००० ) प्रमाण और कमसे कम इसके हजार भाग ( १२५००० ) प्रमाण रत्न बरसते हैं ॥ ६७९
वत्ति-विसोहि बिसेसोच्मेद- णिमित्तं सुरयच - उट्ठीए ! वार्थ श्री अजि वार्यात तु दुहाओ दया जलवाह प्रतरिया ॥६६०।।
:-दान-विशुद्धिकी विशेषता प्रकट करने के निमित देव मेयोंसे मन्तहित होते हुए रनवृष्टि पूर्वक दुन्दुभी ( बाजे ) बजाते हैं । ६८० ॥
पसरह दाणुग्घोसो, वादि सुगंधो सुसीयलो पबणो । विव्व-कुसुमेहि गमनं वरिस इम पंच-नोज्जानि ॥ ६६१||
वर्ष :-उस समय दानका उद्द्घोष ( जय-जय शब्द ) खता है. सुगन्धित एवं शीतल वायु चलती है और आकाशसे दिव्य फूलोंकी वर्षा होती है। इसप्रकार ये पाश्चर्य होते हैं ।। ६८१||
तीरोंके छद्मस्य कालका प्रमाण
सहस्स- वारस
उद्दसरसा ।
सहावसुवासा, जीत वुमस्थ - कालो, चस्त्रिय' पउमच्यहे मासा ।। ६६२ ।।
| बासा १००० | १२ | १४ | १० | २० | मा ६ ।
[ १६३
१. ध.व.क. ज प 1. T. G. E. X, 4, 7, starfa 1 रा. मुम्बइ।
. . .
४. ब. क. उ.
पुरा । २.
पट्ट, ज. य
सुगंदा, क.प्र. म. सुगंधो।
५.
. . . प. य.
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१९४ ]
[ गाथा ६८३-६८५
वर्ष
वर्ष बारह वर्ष और बीस वर्ष प्रमाण तथा पद्मप्रभका मात्र मास प्रमाण ही है ।। ६८२ ।।
तिलोय गती
अर्थ – ऋषभ किती
-
बासाणि नव सुपासे, भासा चंदप्यहम्मि सिणि तो । च-लि-दु-एक्का ति हु-द्वगि- सोलस-बब गाउको बासा ।।६८३ ।।
सुपास वास है। चंद मा ३ । पुष्फे वा ४ | सोयल वास ३ । सेयं वा २ । घासु १ । विमल ३ । अनंत २ । धम्म १ संक्षि १६ । कुयु १६ । बर १६ १
अर्थ :- सुपाश्वनाथ स्वामीका छथस्य काल नौ वर्ष, चन्द्र एका तीन मास और इसके आगे क्रमशः चार, तीन, दो, एक, तीन, दो, एक, सोसह, चारका वर्ग ( सोलह ) और फिर चारकी कृति ( सोलह ) वर्ष प्रमाण है ।।६८२ ।।
मल्लि जिणे दिवसा एक्कारस सुम्बवे जिणे मासा । जमिणाहे जब बासा, विनाणि खपन्ण भेमि जिले ।। ६८४ ।।
। मल्लि - दिशा ६ । सुव्वद मा ११ । रामि वा है । मिदि ५६ ।
अयं : – समस्थ कालमें मल्लि जिनेन्द्रके छह दिन मुनिसुव्रत जिनेन्द्रके ग्यारह मास. नमिनाबके नौ वये बोर नेमिनाथके छप्पन दिन व्यतीत हुए ॥ ६८४॥
पास जिणे मासा, बारस-वासाणि वदमाण-विणे । एलिमेले समए, केवलगाचं' म सान उप्पन्न ॥१८५॥
| पास पास ४ । वीर वासा १२ ।
प :- पावं जिनेन्द्रका चार मास और वमान जिनेन्द्रका बारह वर्ष प्रमाण अस्प काल रहा है। इतने समय (उपर्युक्त छद्मस्य काल ) तक उन तीर्थकरोंको केवलज्ञान नहीं हुआ या ।।६८।०
१. ब. क.प.उ. केवलरणारी. ज. केवलालाएं ।
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महाहियारो
चौबोसों तीरोंके केवलज्ञानको तिथि, समय नक्षत्र और स्थानका निर्देश
फग्गुण-किमारत पुग्वच्छे पुरिमताल-गयरम्मि ।
गाया : ६६६-६९१ ]
परिवारम्
॥६६६॥
:- ऋषभनाथको फाल्गुन-कृष्णा एकादशों के पूर्वाह्न उत्तरापाठा नक्षत्रके उदित रहते पुरिमताल नगरमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ||६८६॥
पुस्सस्स सुरु- चोस अवरष्हे रोहिणिम्मि क्लत्ते । अजिप-जिणे उभ्यन्णं, अनंतनागं सहेतुग्रम्मि वर्ण । ६८७ ।।
:- अजित जिनेन्द्रको पौष-शुमला चतुर्दशोके परामें रोहिणी नक्षत्र के रहते सहेतुक बनमें केवलज्ञान उत्पन्न हुमा ।।६६७ ।।
कति सुन पंचमि-अवरव्हे मिसिरम्मि रिक्लम्म । संभव-जिनस जावं, केवलभाणं सु तम्मि वर्षा ।। ६८६ ॥
अर्थ:-सम्भवनाथ जिनेन्द्रको कार्तिक शुक्ला पंचमीके अपराह्न मृगशिरा नक्षत्रके रहते सहेतुक वनमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।।६८८ ।।
पुस्सस्स पुणिमाए, रिक्तम्मि पुणम्वसुम्मि अवरहे । उष्ण-बणे
अभिगवण-जिणस्स
संजय सव्वगमं
[ १६५
॥६६६ ॥
बाइसाह- सुबक-वसमी, मघाए रिक्खे अवरहे उप्पणं समझ-जि
अर्थ :- प्रभिनन्दन जिनेन्द्रको पौष ( शुक्ला । पूर्णिमाके अपराह्न पुनर्वसु नक्षत्रके रहते उप-वनमें सर्वगत (केवलज्ञान ) उत्पन्न हुआ || ६८६ ॥
सहेदुगम्मि बणे ।
केवलं गाणं २६६०॥
ध: सुमति जिनेन्द्रको वैशाख शुक्ला दसमीके अपराद्धमें मघा नक्षत्र के रहते सहेतुक वनमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।। ६६० ।।
बसाहक्क-समी, वेता-रिश्ते मनोहरजाने अवरव्हे उप्पर्ण, पउमच्यह-जिगरदस्स ||६६१||
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१९१ ]
तिलोयपासी
[ गाथा : ६१२-६६६ म :- पमप्रभ जिनेन्द्रको वैशाख-गुबता दसमीके अपराहमें चित्रा नक्षत्रके रहते मनोहर उद्यान में केवलज्ञान उत्पन्न हुपा ।।६६१॥
फगुण-कोण संसमि, बिसाहरिबहानाम्म मा
अबरव्हे 'असतं, सपास-पाहत संजावं ॥६६॥
म :-सुपार्श्वनाथको फारगुन कृष्णा सप्तमोके अपराह्नमें विशाखा नक्षत्रके रहते सहेतुक बनउँ पसपटन ( केवलजान ) उत्पन्न हुआ था ॥६६२।।
सहिबसे अणुराहे, सम्बत्म-धणे शिणस्त पश्विमए ।
पह-जिरण-गाहे. संजा सम्वमाव-गरं ॥६ ॥
प्रपं:-चन्दप्रम जिनेन्द्रको उसी दिन ( फाल्गुन कृष्णा सप्तमीको दिनके पश्चिम भाग (पपराह ) में मनुराया नक्षत्रके रहते सर्वार्थ वनमें सम्पूर्ण पदापोंको अवगत करने वाला फेवलज्ञान उत्पन्न हुप्रा ।।६६३॥
· कत्तिप-सुरके सदिए, अवरम्हे मूल-मे य पुष्कवने।
सुविहि-निमे उम्पन्ध, तिवण-संखोभवं नागं ।।६६४॥
प्र:-मुधिधि जिनेन्द्रको कार्तिक-जुक्ला तृतीयाके पपराइमे मूल नक्षत्रके रहते पुष्पबनमें तीनों लोकोंको पारपर्यान्वित करनेवाला केवलशाम उत्पन हुआ । ६EVI
पुस्सस्स किन्ह-बोहसि-पुष्वासाः विष्णस्स पच्छिमए । सोयल-जिमस्स जावं, अणतमा सहदुगम्मि दो ॥६५॥
प्र :-शीतसनाप तोपंधरको पोष-कृष्णा चतुर्दशीको दिमके पश्चिम भागमें पूर्वाषाढ़ा नक्षत्रके रहते सहेतुक वनमें अनन्तशान उत्पन्न हुआ ।।६।।
माघस्स प अमबासे, पुण्याहे सपनम्मि सेबसे । जावं केवलणागं, सुबिसाल-मणोहरमाणे ॥६६॥
१.
...
.
य.च.बसत ।
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गापा : ६९७-७०१ ] बठत्यो महाहियारो
[१७ म :-श्रेयांस जिनेन्द्रको माधकी अमावस्या दिन पूर्वाह्नमें अषण नक्षत्रके रहते मनोहर उद्यानमें केवलज्ञान प्राप्त हुमा ।।६६६॥
माघस्स पणिमाए, विशाह-रिक्खे मनोहरजाये।
अबरण समार, कवलणाम बासु किया
म :-वासुपूज्य जिनेन्द्रको माघ { शुक्ला ) पूणिमाके अपरा में विशाखा नक्षत्रके रहते मनोहर उद्यानमें केवलबान उत्पत्र हुमा ॥६६७||
पुस्से सिक-बसमोए, अबरन्हें तह य उत्तराप्ताले ।
विमल-जिनिय' सार्व, अनंतणार्ग सहेदुर्गाम्म पणे ॥६॥
म :-विमल जिनेन्द्रको पोष-शुक्ला दसमीके अपरा में उत्तराषाढा नक्षत्रके रहते सहेतुक वनमें अनन्तज्ञान उत्पन्न हुा ।।६६८||
पेचस्स घ अमबासे, रेववि-रिसे सहेम्मि वणे ।
अवरोहे संजावं, केवलगागं अर्गत जिगे ॥६६६॥
प:--मनन्त जिनेन्द्रको मंत्रमासी प्रमावस्याके अपरा. रेवती नक्षत्रके रहते सहेतुक बनमें केवलज्ञान उत्पन्न झुमा ||६||
पुस्सस्स पुणिमाए, पुस्से रिश्ते सहेम्मि बगे। अवरहे संजा, धम्म-निविस्त' तवग ७००।।
मर्थ:-धर्मनाथ जिनेन्द्रको पौष भासको पूणिमा के दिन अपराल में पुष्य नक्षत्रके रहते सहेतुक वनमें सर्व पदार्थोको जामने वाला केवलज्ञान उत्पन्न हुपा ।।७।।
पस्से 'सुस्केयारसि भरती-रिक्ने विपस्स पच्छिमए। पन-वने संबावं, सति-जिणेसस्स केवलं गाग ०१॥
-- --
-
.
-- .. .- . -
१. ब. क. बिदे। ..... अंबादो, य. संबादा ।
२. प. विवस्स, व. जिगरस्स।
३. प. पारसि ।
४...
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maustri .. AAT KIsfersery REFER P१८ ]
तिलोयपण्णसी
[ गाथा : ७०२-७०६ अर्थ:-शान्ति जिनेशको पौष शुक्ला एकाददीके दिन दिवसके पश्चिम भागमें भरो नक्षत्रके रहते वानवनमें केवलज्ञान उत्पन्न हुमा ७०१॥
चेतस्स सुखक-तरिए, किसिय रिमले सहेलुगम्मि बने ।
अवर हे उप्पण, कुंघु-विणेसस्स केवलं गाणं ॥७०२॥
प्र:-कुन्थु मिनेन्द्रको नंत्र-शुक्ला तृतीयाके दिन अपराहृमें कृत्तिका नक्षत्रके उदय रहते सहेतुत्रः वनमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।।७०२।।
कत्तिय सुरके बारसि-रेवति-रिकले सहेदुगम्मि बसे । अबरहे उप्पण, केवलगाणं सर-जिमस्स ॥७०३॥
पर्य :-प्ररनाथ जिनेन्द्रको कातिफ-शुक्ला द्वादशोके अपराह्नमें रेवती नक्षत्रके रहते सहेतुक वनमें केवलमान उत्पन्न हुा ।।७०३।।
फागुण-किण्हे बारसि, प्रस्सिणि-रिकले मणोहहकनाने।
प्रवरहे मल्सि-जिने, केदलणार्ग समुप्पग ॥७०४॥
प्र :-मस्सिनाथ जिनेन्द्रको फाल्गुन कृष्णा द्वादशीके अपराहमें अश्विनी नक्षत्रके रहते मनोहर उद्यान में केवलज्ञान उत्पन्न हया ।।७०४॥
फागुण-किल्हे छट्टी-युवल्हे सवण-मेय गोल-बगे ।
मुगिसुव्वयस्स आवं, असहाय-परकम गाणं ॥७.५॥
प्रबं:-मुनिमुवत जिनेपाको फाल्गुन कृष्णा बोके पूर्वाह्नमें श्रवण नक्षत्रके रहते नील वनमें असहाप-पराक्रमरूप केवलज्ञान उत्पन्न हुमा ॥७०५॥
वेत्तस सुरक-तदिए, अस्सिणि-रिपसे विणस पच्छिमए । चित्त-बणे संजा, अर्गत-गाण गमि-शिणस्स ॥७०६।।
म :- नमिनाथ जिनेन्द्रको चैत्र शुक्ला तृतीयाको दिनके पश्चिम भागमें अश्विनी नक्षत्रके रहते चित्र वनमें अनन्तज्ञान उत्पत्र हुा ।।७०६।।
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गाथा : ७०७-७११ ]
अस्सजे
जिसे रिष जावं,
बंद
महाहियारो
जय नेमिस्स व
अर्थ :--- नेमिनाथको मासोज शुषला प्रतिपदाके पूर्वा चित्रा नक्षत्रके रहते ऊर्जयन्तगिरिके शिखर पर केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।।७०७॥
विसे बहुत उत्पो बिसाहू- रिक्वम्मि पास नाहस्स | केवलणाणं समुपणं ॥ ७०८ ।।
सकपुरे
पुग्वण्हे
गिरि- सिहरे ।
केवलं नाणं ॥ ७०७ ॥
E
अर्थ :- पारनाथको चैत्र कृष्णा चतुर्थी के पूर्वाह्न में विशाखा नक्षत्रके रहते शक्रपुरमें केवलज्ञान उत्पन्न हुया | २७०८||
बसाह -सुबक-दसमी, हत्ते रिक्सम्म थोरणात्स । 'रिजुकूल-नदी-तीरे, प्रवरहे केवलं जाणं ।। ७०१ ॥
१. व. ऋकून ४. म. य. उ. तित्वकत्तारं ।
अयं :-- वीरनाथ जिनेन्द्रको वंशाख शुक्ला दसमीके अपराद्धमें हस्त नक्षत्रके रहते ऋजु कूला नदीके किनारे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।। ७० ।।
तोरोंके केवलज्ञानका अन्तरकाल --
कोमार- रज्जाकुमत्थसयमानम्ति केवलणापती अंतरा
पुम्बिलाणं' कुमार - रम्नतं ।
जणणंतरेसु पुह पुह, मायकाल अवशिय 'पछिल्ल- तित्मकत्तानं * ॥ ७१० ॥ ॥
मे लिये
- सा ५० ल को । व ८३११०१२ ।
संभ = मा ३० ल को जंगारिए ३ वास २ ।
L
१६६
होदि । जिनिया ॥७११।
२. ध. न. रु. व. प
५. . . . ज य त पर्णसमान विगिदाण
1. C. 4. 5. T. v. 7. grami i
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२०० ]
तिलोयपणतो
। गापा : ७१०-७१६ अभि = सा १० सको। अं४ । दा ४ । मु = साल को। अंग४ । बा २१ । पउ = सा १०००० को । अं३ । व REEEE८० । माई। सुपा = सा १०० को अंग । वास = 1 मा । पंद = सा ६०० को । अंग ३ । बरस PLE१ मा ३' । सुविहि = सा ९० को। ४ । वा३ । मा । सोय = साहको । पु७४६६ 1 अंग ८३९९१ | वा ८३६६६६६ सेयं = सा ६६६६..।पु २४६१६ । वास ७०५५९६६१२७३६६E I वासपुरुष- सा ५४ रिण वास ३३००००१ । विमल = सा ३० । वास ३६००००। अगंत = सावास ७४१६५९ धम सा ४ । वास ४६६EEE I संति - सा३ । बा २२५०१५ शिक ...
मित्रार कुथु - प । वा १२२० । पर परिण वा EEEEEE७२५० । मलि - वास ९९९९९६६०८४ । दिए । मुरिण - ५४४७४०० । मा१. 1 दिए २४ । गामि = वास ६०५००८ १ मा ११ गंमि = वास १०१७६१- 1 दिए ५६ । पास - वास ८४३८० मा २१ दिरण ४ । वीर = पास २८९ । मा ८ ।
॥ वलणागंसरं गयं ।। बर्ष:-जन्मके अन्तरकालमेंसे पृथक्-पृथक् पूर्व-पूर्व तीर्थकरोंके कुमारकास, राज्यकाल पौर छयस्थकालको कम करके तथा पिछले तीर्थकरोके कुमार, राज्य भौर रूपस्यकासके प्रमाणको मिला देने पर जिनेन्द्रोंके केवलज्ञानको उत्पत्तिके पन्तरकालका प्रमाण होता है ॥७१०-७११॥
। केवलज्ञानका अन्तर-कास समाप्त हुमा ।।
[ तालिका सं० १५ पृष्ठ २०२-२०१ पर देखें] १. ६. बस AREL मा। २.६.१ १९५५.। .. ६. बस्स १९९९१ मा ३। ... १२७०। ५. प. ५१७६४ ।
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गाथा ७१२- ७१४ ]
'जे संसार - सरीर भोग-विसए,
विश्वेष-निम्वाहिणो ।
जे सम्मत- बिनसिया सविणया, घोरं भरंता तवं ॥
जे सम्झाय महद्धि-दब गया, भाणं च कम्मंतकं ।
तानं केवलानमुत्तम-पदं, जाए दि कि को? ॥७१२ ॥
अर्थ :- जो संसार, शरीर और भोग-विषयोंमें निर्वेद धारण करने वाले हैं. सम्यक्स्वसे विभूषित है, विनयसे संयुक्त हैं, घोर तपका धाचरण करते हैं, स्वाध्यायसे महान् ऋद्धि एवं वृद्धिको प्राप्त है और कमौका मन्त करने वाले ध्यानको भी प्राप्त हैं. उनके यदि केवलज्ञानरूप उत्तम पव उत्पन्न होता है तो इसमें क्या प्रारजये है ? ॥चार्य श्री सुविजिगर ज केवलज्ञानोत्पति पश्चात् शरीरका ऊध्यं गमन
जाये केवलगाने, परमोरास जिजाण सव्वाणं ।
गच्छति जबर चाबा, पंच-सहस्सानि बहुहाव ।।७१३।।
त्यो महाहियारो केवलज्ञानका स्वामी
( शार्दूलविक्रीडित वृत्तम् )
अर्थ :- केवलज्ञान उत्पन्न होने पर समस्त तीर्थकरोंका परमोदारिक शरीर पृथिवीसे पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है ।।७१३।।
इन्द्रादिकों को केवलोत्पत्तिका परिज्ञान
·
भुवणत्तयस्त ताहे भइसय' कोजील होति पोहो । सोहम पहुविवा शासनाइ पि कंपति ॥७१४॥
१. द. जो
:- उस समय दोनों लोकोंमें अतिशय मात्रामें प्रभाव उत्पन्न होता है और सौषर्मा - दिक इन्होंके आसन कम्पायमान होते हैं ।।७१४॥
रु. ब. प. उ. उबरे ।
क. ज. च. इदा मासं
I
।
५.
[ २०१
२. क्र. ज. उ. लिम्ब
. . .ज. प.च. साखो ।
६. क्र. प. न. सम्बन्स ।
१. ब. क. च मया ।
४. ६..
६.म.
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________________
३.२
तालिका । १३ तीबरोशा स्वकाम केवतमान सत्पतिले मास, पक्ष याविसमाबलनामोपरि पतरकरा-पापा ६२-७१]
_ _ वस्त्रान उत्पतिक बनस्थ
कंगनानोत्पत्ति पन्तराम कान , मास | पा | सिधि | समय | मक्षत्र | स्थान
नाम
। मगर
२
१२
तिलोएपणाची
विधा
सर्वनाम १००.] फागुन| हष्ण एकादशी | पूर्ग उत्तराषाढा रमहा ना. कोटि या.++३६५.१२ पपं । जितनाव पौष | शुक्ल | चतुर्दशी |पराह| रोहिणी | महेनु
- ३ गूबाग २ ।। छम्भवनाव |१४ .. हातिन रुष्ण | पो म मृगः . . +.. . . । प्रभिनादन विमल अधिक श्री नारायण जी म्हाराज + ४ . २ . सुमतिनाम
मवा सहेतुक ५. इना... + ३ पू. Out वर्ष पचप
पोहा .... | +v पूनाग पर मुपाचं नाव
विधामा पहेतुक | ६०० . +३ .Imut. पनाम
सर्वाचं ० . +v . * ., पृष्पदन्त
मुम्भबन को.सा... पू. ३६६५पूर्वाग,
CRETREL वर्ष मौसमनाप
RELL. मा०,२४६१ पूर्ण,
URL१२७३६६ देयांसनाम ।
अमावस| पूर्वाह भपएर मनोहर लापर-110000१वर्ग।
पूर्णिमा अपराह| बिशाया | . . ३९००००२ विमलनाप
सहेतुक
र ॥
पू. पा.
। लामिका : १९
दसमी
सरा
.पा.
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________________
भमा
रेवतो
१४ अनन्तनाप | १५/ नाम
.
पूरितमा
एकादमी
एतीया
द्वावनी
रेखी
१६सान्तिनाब
कुन्थुनाम | परनाम मस्सिनाव मुनिमुवत नामिनाम मभिनाम
बंगाम २४ महाबोर
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी ।
Vसागर YEEEEE वर्ष
३ सागर १२९८ १५ वर्ष – पल्म । | भरखो माप्रवना + पन्य १२५० अपं। मतिका | नहेतुक पम्प - २६६२८१७२५० वर्ष ।
THERE वर्ष दिन। भगिननी | मनोहर ५maves वर्ग १. मास २४ दिन। अक्षण मौतया| ५०५.००८ वर्ष १ माह । पश्विनी चित्रवन १७६५ वर्ष माह २६ दिन ।
जगात ४३० वर्ष ३ माज्ञ : बिन । बर २८६ वर्ष : माइ बाइ रहापोर स्वामो
बनभान हुआ। अपराध इन
13
तुतोवा
पढत्यो महाझियागे
वयत
चतुर्षों
विमाना
दसमो
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________________
२०४ ]
तिलोयवती
[ गावा ७१५७१९
तक्कपेणं इंदा, संखुग्धोसेण भवनवासि सुरा । पह-रहिवंतर सीह-निनादेन जोहसिया ॥७३५॥
घंटाए कप्पवासी, जागुत्पति जिगान मानं । पणमंत भक्ति-कुसा, गंतूनं सल वि कमाओ' ।। ७१६ ॥ प्र : - आसन कम्पित होनेसे इन्द्र के उदघोषसे भवनवासी देव, पटके सब्दोंसे म्यन्तरदेव सिंहनादसे ज्योतिषी देव और घण्टाके शब्दसे कल्पवासी देव तीर्थंकरोंके केवलज्ञानकी उनि जानकर भक्ति होते हुए जामें सात द चलकर प्रणाम करते हैं ।।७१५- ७१६ ॥
118373
अहमिदा जे देवा, आसन - न-कंपेन तं वि गाणं । गंम तेशियं चिय, तस्य ठिया से नर्मति जिणे ॥७१७॥
: जो अहमिन्द्र देव हैं वे को आसन कम्पित होनेसे केवलज्ञानको उत्पत्ति जानकर धीर उतने हो (७ कदम) आगे जाकर वहां स्थित होते हुए, जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करते हैं ।।७१७१६
कुबेर द्वारा समवसरणकी रचना -
ताहे सक्काणाए जिगाम ससाण समवसरणाणि ।
विविकरियाए घणदो, मिरएवि विचित-कहिं ॥७१८ ॥
म :- उस समय सौधर्मेन्द्रको आज्ञा से कुबेर विक्रिया द्वारा सभी तीर्थंरोके समवसरण की अद्भुत रूपमें रचना करता है ११७१८ ।।
समवसरणका निरूपण करनेकी प्रतिज्ञा–
उबभातीयं तानं को सक्क बन्निदु सयल-रूवं ।
एन्हि' लव-मेरामहं साहेमि जहाणुपुबोए ॥७१६ ॥
यं - उन समवसरणोंके सम्पूर्ण अनुपम स्वरूपका वर्शन करने में कौन समर्थ है ? अब मैं (यतिवृषभाचार्यं) आनुपूर्वी क्रमसे उनके स्वरूपका अल्प मात्र (बहुत बोड़ा) कयन करता १७१६।।
. पं.पं. क ज य उ बिनायो । २. . . . . गो २.स.
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________________
[
२०५
गाचा : ७२-७२३ ]
वउत्यो महाहियारो समवसरणोंके निरूपणमें इकतीस अधिकारोंका निवेशxrfastrs :.. असाममि परमाणु मोवागणाण, विभासो।
बीही धूतीसाला, वेत्तप्पासाद-भूमीओ ॥७२॥
णट्टयसासा पंभा, घेवी खावी य वेवि-वल्सि-सिदी । साला उबदन-बसुहा, गट्टयसाला य पेदि-पय-खोणी ॥७२॥
सालो कप्पमहीमो, पट्टयताला य वेवि-भवणमहो । महा साला सिरिमंडव' य भारस-गणाग विनासो ॥७२२॥
वेरी पठम बिनियं, सवियं पीदं गंबउजि-मान । इरि इगितीसा पुह पह, अहियारा समवसरणानं ॥७२३।।
पर्य:-१ सामान्य भूमिका प्रमाण, २ सोपानोंका प्रमाण, ३ विन्यास, ४ वोषी, ५ लि. मास, चत्यप्रासाद-भूमियाँ, ७ नृत्यवासा, मानस्तम्भ, ६ वेदो, १० सातिका, ११ वेदी, १२ लताभूमि. १३ सास, १४ उपवनभूमि, १५ नृत्यशाला १६ वेदी, १७ ध्वज-क्षोणी, १८ साल, १६ कल्पभूमि, २० नृत्यशाला, २१ वेदो, २२ भवनमहो, २३ स्तूप, २४ साल २५ श्रीमण्डप, २६ बारह सभापोंको रचना, २७ वेदी, २८ पीठ, २६ द्वितीय पीठ, ३० तृतीय पीठ और ३१ गंधकुटीका प्रमाण, इस प्रकार समवसरणके कपनमें पृषक् पृषक ये इकतीस अधिकार है ॥७२-७२३॥
- -
-
-
१.... य. सिरिमंसदियविरसगाए, ब. सिरिमंथति य हरिसिमसारण । ३. तिरिaaraगशारण, क. स्मिावि एहिरिसाशा २, क. उ. पंधनदि, द.प. य. मंत्रमदि।
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________________
२०६ ]
मामलोपपपणती वर ने लिया गया सामान्य भूमि, उसका प्रमाण एवं प्रवपिरतीकालके समवसरणोंका प्रमाण -.
रबिमंडल का बट्टा, सयला वि अखण्ड-बनोसामई। सामग्ण-लिदी वारस, जोयन-मतं मि उसहस ॥७२४।। तत्तो थे - कोसूणों, परोयं मिणाह • पन्धतं ।
उमागेण विहोला, पासास य पहमाणस्स ।।७२५॥ उ बोयण १२ । भजिय ।। सं ११ । पहिणं । सु१० । । मु.। । पु८ । सो से ७ वा. दि६। म २५ ।सं। कु४।मः । म ३ । मु: । स २ । णे है । पा ।वी १।
मपं:-मगवान ऋषमदेयके समवसरमकी सम्पूर्ण सामान्य-भूमि मूर्यमणाप्लके सदृश गोल, अखण्ड, इन्द्रनीलमणिमयी तषा बारह योजन प्रमाण विस्तारसे युक्त थी। इसके आगे नेमिनाप पर्यंत प्रत्येक तीपंगुरके ममवसरणको सामान्य भूमि दो कोस कम तथा पावनाष एवं पर्षमान तीर्थंकरको योजनके चतुर्ष भागसे (यो.) कम थी।७२४-७२५॥
उत्सपिणीकाल सम्बन्धो समवसरणका प्रमाणअवसप्पिणिए एक, भगिई उस्सप्पिनीए विवरीयं । पारस-जोयंग-मेत्ता, समल-विवेह-तिस्प-कचामं ॥२६॥ । ।२।।३।।४।31 ५ ।
। ८ ।६ ।१० ।११। १२। पर:-यह जो सामान्य भूमिका प्रमाण बसखाया गया है, वह स्वसपिणी कालका है। उस्सपिणी कालमें इससे विपरीत है। विदेह क्षेत्रके सभी तोपरोक समवसरएकी भूमि बारह योजन प्रमाण ही रहती है ।।७२१॥
मतान्तरसे समवसरणका प्रमाणइह केई आरिया, पणारस-कम्मभूमि-अस्वाणं । तिस्थयरानं गारस-जोयण-परिमाग-मिछति ।।७२७॥ ।१२।
पाठान्तरम् । साम-झूमी समता'।
१.ब.क.अ.म.उ.मम्मत्ता।
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________________
गाया : ७२८-७३० ]
रथो महाहियारो
{ २०७
अर्थ :- यहाँ कोई आषायं पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए तीर्थकरों की समवसरण - भूमिको वारक योजन प्रमाण मानते हैं
20
की
। सामान्य भूमिका वर्णन समाप्त हुआ ।
सोपानों के विस्तार भादिका निर्देश
सुर-नर- तिरियारोहन-सोबाचा चविसासु पत्तेयं । वीस-सहस्सा गयणे, कणयमया उड्द- उगृहम् ॥७२६ ।।
| सोपान २०००० । ४ ।
प्र : देवों, मनुष्यों और तिर्यञ्चोके चढ़नेके लिए माकाणमें जारों दिशाओं से प्रत्येक दिशामें ऊपर-ऊपर स्वर्णमय बीस-बीस हजार सीढ़ियाँ होती है ।।७२८ ।।
उसहादी अजबी जोपण एकूण गेमि-पक्तं । अजवी भजिदम्वा वोहं सोबरन नादवा ॥७२६॥
२४ | | २१ | २० | १६ | १५
१२
। २३।३३/३/३० १७|१६||
२४ २४ २४ २४ २४ २४ २४ २४ २४ २४ । २४ ६ २४
||
पाठान्तर
अर्थ :- ऋषभदेवके ( समवसरण में ) सोपानों की लम्बाई २४ से भाजित पौबीस योजन है । पश्चात् नेमिनाथ पर्यन्त ( भाज्य राशिमेंसे) क्रमश: एक-एक योजन कम होती गई है ।।७२६ ।।
पासन्नि पंच कोसा, चड बोरे अद्भुताल महरिया । इमिन्हत्गुच्छे से सोबाणा एक्क-हत्व वाला य ।।७३०॥
|||||
Y ४८
| सोवरणा' समत्ता ।।
१. प्र. ज. प. सोचा समाउ होसम्मता ।
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________________
२०८ ]
तिलोत
[ गाया : ७३१-७१२
अर्थ :- भगवान् पार्श्वनाथके समवसरण में सीढ़ियोंकी लम्बाई अड़तालीस माणित पांच कोस और वोरनायके मड़तालीससे भाजित चार कोस प्रमाण थी। वे सीढ़ियाँ एक हाथ ऊंची और एक ही हाथ विस्तारवालीं थीं ।।७३० ।।
1 सोपानों का कथन समाप्त हुआ ।
समवसरणका विन्यास -- धार्मवर्तक :- सपाद की शायरी चर साला वेबौलो, पंच तवंतेसु अटु नभओ । सम्बभंतरभागे, पक्कं तिनि पीडानि ॥ ७३१ ॥
| साला ४ । वेदो ५ भूमि पीढारिए ।
। विष्णासो समतो' ।
:-चार कोट, पांच वैदियों, इनके बीच माह भूमियों और सर्वत्र प्रत्येकके अन्तर भागमें तीन पीठ होते हैं ॥१७३१ ॥
| विन्यास समाप्त हुआ।
समवसरणस्य वीचियोंका तिरूपण
पलेर्क चला, कोही पढम-पीड- पन्ता । जिय-जिय-जिम-सोवालय-बीहतन सरिस - बिस्वास ॥ ७३२॥
३४||३||३०||१६|
||३||[||]
:- प्रथम पीठ पर्यन्त प्रत्येक में अपने-अपने तीर्थकुटके समवसरणभूमिस्व सोपानोंकी लम्बाईके बराबर विस्तार वाली चार वीथियाँ होती हैं ॥७३२ ॥
(. . 4. 5. 3. 1981, 4. BOWA) 1
-
४८
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________________
यो महाहियारो
एक्केक्कानं दो-दो, कोसा वीहीन यंत्र - परिमानं ।
गाया : ७३३-७३५]
amiti
32
च सदन मिय-सोवाणान दोहसणं पि ।
पाठान्तरम् ।
:- एक-एक वीथीके विस्तारका परिमाण दो-दो फोस है और और जिनेन्द्र तक यह क्रमश: होन होता गया है, ऐसा अन्य कितने ही आचार्य कहते हैं ।।७३३।।
च शब्दसे अपने-अपने सोपानों को दीघंता भी ( उसी प्रकार दो-दो कोस है और क्रमशः कम होती गई है, ऐसा जानना चाहिए ।
पंच-सया बावण्णा. कोसाचं वीहियाण वहतं । चवीस-हिया हमसो, तेवीसूजा यमि-प
२४
।।७३३ ।।
४६० १ ४३७ १ ४१४ | ३११ / ३६८ २४ २४ । २४
२४ ૪
|२|||||||| २४४|३|२९| २४|४|१|२७||
| | ४ |
२४ | २४ २४
१. ६. क्र. ज. व. दो, दो ।
।।७३४||
[ २०१
पम्भारसेहि महियं कोसाथ सयं च पासनाहम्मि । देवल्मि माणे मानवी प्रवृताल-हिदा ।।७३५।।
११५ | १२
२. ब. उ. केचि
अर्थ :- भगवान् ऋषभदेव के समवसरण में वोपियोंको लम्बाई चोवोस से माजिड पाँचसो बावन कोस प्रमाण पो और इसके भागे नेमिनाथ पर्यन्त क्रमशः भाज्यराणी (५५२ ) में से उत्तरोत्तर तेईस कम करके चौबीसका भाग देने पर जो लम्ब आवे उतनी वीथियोंकी दोघंता होती है ।।७३४ ।।
पाठान्तर
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________________
२१० ।
तिलोयपाणतो
[ गापा : ७३६-७३७ प्र;-भगवान पाश्र्वनाथम समवसरण में वोथियों को दोषता अड़तालीससे भाजित एकसो पन्द्रह कोस और वर्षमान जिनके मड़तालीससे भाजित बानव कोस प्रमाण यो ॥ र
वोहो-दो-पासेसु, णिम्मल- फलिहोबलेहि रहवाओ। दो वेदीयो चोहोबोहत-समाण-हता ।।७३३॥
२६EI २४ । २
२६०।२ ०७१ २४ [२४ । २
४
।
४
।
२४
२४२४ ।
२४
अर्थ :-वोषियों के दोनों पावं मागोंमें वीथियों को दोर्वताके सदश दीर्घतासे युक्त और निमंस स्फटिक-पाषाणसे रचित दो वेदियो होतो है ।।७३६।।
देवीण रुच दंडा, अहिवाणि' सहस्सानि । अट्ठाइज्जमएहि, मेण होणागि मेमि-
परी ॥७३७।। ६०० | ५७५० | ५५०० | ५२५०/४०°/7°/*/२५० / ४००० १ ३७५० । ३५:०१ ३२५० / ३००० | २७५० | २५०० | २२५० |
५००० १ १७५० | १५०० | १२५० १ १०००/७५० |
म :-भगवान् ऋषभदेवके समवसरणमें वेदियोंकी मोटाई छह हजार पानुष प्रमाण थी। पुनः इससे बागे भगवान् नेमिनाय पर्यन्त क्रमश: उसरोतर भड़ाई सौ प्रवाई सौ कम होते गये हैं। ये सभी राशिमा प्राठ-आठसे भाजित है ।।७३७।।
१. प, ब, य. पमिहोवदेहि।
२. द. म. रहिवाणि, य. साहयाणि ।
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________________
गापा ।७३-७४०
[ २११
पउत्थो महाहियारो कोयंज-पस्सयाई, पनवीस-सुदा अट्ट-विहताई। पासम्मि बरमाणे, पण-घन-णि बलिदाणि ॥७
॥
xe :--- TEAS
E
रक्षा
प:-भगवान पाश्र्वनायके समवसरण में वेदियोंका विस्तार आठसे भाजित छह सो पच्चीस धनुष और वर्षमान स्वामीके दो से भाजित पाचके धन (एक मो पम्बीस ) धनुष प्रमारए पा ।।७३८।।
अहाणं मूमीचं, मूले बहता हु तोरणहारा ।
सोहिम-आज-कबारा, सुर-गर-तिरिएहि संचरिया ॥२६॥
प्रबं:-माठों भूमियोंके मूलमें वनमय कपाटोंसे सुशोभित भोर देवों, मनुष्यों एवं तिर्योंके सम्बारसे युक्त बढतसे तोरणद्वार होते हैं ।।७३९।।
णिय-गिप-विमेतराणं', गेहस्सेहेण वहि मुणिवेष । चरियालम-बमान" वेदीण उस्सेहो ॥७४०।।
२००० । १८०० 1 १६०० । १४०० । १२०० । १००० । ८.० । ६.० । ४०० । ३६० । ३२० । २८० । २४० । २०० । १८० । १६ । १४० । १२० । १००। ८० । ६० । ४० । हत्यारिण" ३६ । २८ ।
। वीही समना।
प:-मार्गों एवं अट्टालिकाओंसे रमणीक वेदियोंको ऊँचाई अपने-अपने जिनेन्द्रों के शरीरके उसेघसे चोगुनी होती है 11७४०||
। वोपियोंका वर्णन समाप्त हुआ।
1. द.अ. ब. मरवीताचार, च. क. उ. प्रहला। २...ब. ब. प. उ. तोरलाबारा, क. नोरण पारा। ३६. ब, क, ३. प. उ. जिसठाण। ४... तयाणा, पेसवास, क.क.प्र..
माण। ५. ८. ब. म. प. २, पुम्मारिण। ... सम्मता।
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________________
नातिका
समक्सरनों, सोपानों, गोषियों और पेरियोका प्रमाण | अपिणी वरसपिणी| ममबापरणोंके सोपानोको | हविगोंको
रेदियोंकी काप्लके सम.कामसम- का प्रशाप का प्रमाग | नबाई चौडाई पाई समाई । मामाई मोदा ऊंचाई ...
मामा ७२'मा. पा..समझॉडकीmहायलावसामसीहारास
क्रमाक
यो योजना
४पनुप[५६यो.
२००० नुव
१४००
सिनोमपाती
..
.
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________________
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________________
तिलोषपाती
[ गाथा : ७४१-७४२
भागार मामा
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-नितार
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समवसरणका चित्र
धूलिसालोंका सम्पूर्ण वर्णनसम्वा बाहिरए, सोसाला 'विसास-समबट्टा । विष्फुरिय-पंच-बाना, मसुत्तर-पन्नाधारा ॥४१॥ परिपट्टालय-रम्मा, पयाल-परामा-कलाप-एमागमा । सिहवन-विम्हय-अनगी, बहि कुवारेहि परिवरिया ।।७४२॥
1. प. उ. विमाना।
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________________
गाथा : ७४३-७४६ ] पजत्थो महाडियारो
[ २१५ प्रम :-मनके बाहर पांच-बोसे स्फुरायमान, विशाल एवं समानगोल, मानुषोत्तर पर्वतके आकार ( सदृश ) धूलिसाल नामफ कोट होता है। जो मार्ग एवं अट्टालिकामोंसे रमणीय, पश्चल पताकाओं के समूहसे सुन्दर, तीनों लोकोंको विस्मित करने वाला और पार द्वारोंसे युक्त होता है ।।७४१-७४२।। विजयं ति 'ghort किन कार
! पश्चिम-उत्तर-वारा, जयंत-अपराधिया गामा ।।७४३॥
मपं:-इनमें पूर्व-द्वारका नाम विजय, दक्षिण द्वारका वैश्यन्त, पश्चिम द्वारका जयन्त और उत्तर-द्वारका नाम अपराजित होता है ।।७४३।।
एवे गोजर-दारा, तपगोषमया ति-भूमि भूसणया ।
सुर-पर-मिहुण-सरणाहा, सोरप-बसवंत-मणिमाला ॥uri
पर्व:-ये पारों गोपुर-द्वार सुवर्णसे निमित, तीन भूमियोंसे विभूषित, देव एवं मनुष्योंके मिथुनों ( जोड़ों) से संयुक्त तथा तोरणों पर नाचती ( लटकती ) हुई मरि-मालाओंसे शोभायमाम होते हैं |
एक्केबकनगोउराणं, बहिर-मम्मि दारयो पाते। बाउलया बिस्थिन्ना, मंगल-णिहि-व-घउ-भरिका ।।७४५॥
मर्थ:--प्रत्येक गोपुरके बाहर मौर मध्यभागमें छारके पावभागोंमें माल-द्रव्य, निधि एवं धूप-घटसे युक्त विस्तीर्ण पुतलियाँ होती हैं ॥७४५||
भिगार-कलस-चप्पा-चामर-भय-वियर-छातमुपाला। एप अट मंगलाई, अत्तर सय-जुदाणि एकमेक्कं ।।७४६॥
वर्ष :-झारी, फलफ, दर्पण, चामर, ध्वजा, व्यजन, छत्र एवं सुप्रतिष्ठ, ये आठ मङ्गलद्रष्य है। इनमें से प्रत्येक एक सौ पाठ होते हैं ॥७४६।।
---..-.-.-. .- .--.. - - १. ८..क.प.म. ३. पुस्मगारा।
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२१६]
तिलोमपणती
काल- महाकाल पंडू, मारणव संत्रा व परम- खहसप्पा | पिगल-खारणा एवरणा, असर-सय-पानि हि मे ।। ७४७।।
अर्थ :---काल, महाकाल, पाण्ड, माणवक, शङ्ख, पद्म, सर्प, पिंगल और नानारत्न ये नय निधियों प्रत्येक एक सौ आठ ( एक सौ आठ ) होती हैं ||७४७॥
उदु-जोग्न-दा-भायन-धन्माउ-तर-वाच- हम्माणि । कार्यदर्शनाभर - eingereifen
[ गाथा : ७४७-७५१
GÌ NGYEN
आयुष, वादित्र, वस्त्र, प्रासाद, आभरण एवं सम्पूर्ण रत्न देती हैं ।। ७४८ ॥
उक्त कालादिक निखियाँ ऋतुके योग्य क्रमाः द्रव्य ( मासादिक ), भाजन, धान्य,
भाउमाए ।
गोसोस- मलय-बंदर- कालागढ पहुवि-भूद-गंधा । एक्क्के भूवलये, एक्सेक्को होदि भूम-वडो ||७४६ ॥
अर्थ :- एक-एक भूवलयके ऊपर गोलीर्ष, मत्रय-चन्दन मोर कालागर नादिक धूपोंकी गन्धसे व्याप्त एक-एक घूप घट होता है ।।७४९ ।
धूलीसाला - गोउर-बाहिरए नयर तोरण -सयानि । अभंतरमि भागे, पत्तेयं रयन -सोरण -सयानि ।।७५०।।
:- पूलिसान सम्बन्धी गोपुरोंके प्रत्येक बाह्य भागमें सैकड़ों मकर-तोरण मौर श्रभ्यन्तर मागमें सेकड़ों रत्नमय तोरण होते हैं ।।७५० ।।
गोउर-वार-मज्झे, दोसु वि पालेतु रयन - णिम्मदिया । एक्क्क-भट्ट-साला, सुरंगचा विवहा ।।७५१॥
म :- गोपुर-द्वारोंके बीच दोनों पापभागोंमें रत्नोंसे निर्मित और नृत्य करती हुई देवाङ्गनाओंके समूहसे युक्त एक-एक नाटकाला होती है ।। ७५१ ।।
१. रावी ती ज. रावी देसी . रात्री । २.क.उ.बसाए, द. प. प.
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याषा:७५२-७
[ २१७
चल्यो महाहियारो पूलीसाला-गोवर-वारेतुं परसु होति पत्तक । वर-रया-पर-हत्या, मोइसिया गार रक्लनमा ||७५२॥
म:-धूलिसालके चारों गोपुरोंमें से प्रत्येकमें, हायमें उत्तम रलदण्डको लिए हुए ज्योतिष्क देव द्वार-रक्षक होते है IMEIPE :
H
TANKार
पउ-गोउर-चारेसु, बाहिर-आभंतरम्मि मास्मि । सह-सुबर-संचारा. सोवासा विधिह-रयरणमया ।।७५३।।
पर्य :-बारों गोपुरद्वारों के बाह्य मोर प्रभ्यन्तर भागमे विविध प्रकारके रहनोंसे निमित, सुख-पूर्वक सुन्दर संचार योग्य सीढ़ियां होती है ।।७५३।।
पतीसालाण पुलं, शिय-जिन-होग्य-पमाणेणं । बन-गुणिरेणं उदओ, सम्मु वि समवसरणेसु ॥७५४।।
२००० । १८००। १६०० । १४०० । १२०० । १००० | ८०० । ६.० । ४०० । ३६० १ ३२० । २८० । २४० । २०० । १८० । १६० । १४० १ १२० । १७ ।
८०। ६० । ४. 1 हत्याणि ३६ । २८ । प्रबं:-सब समयसरणोंमें धूलिसालोंको ऊँचाई अपने-मपने तीर्थकरके शरीरके उसेघ प्रमाणसे चोगुनी होती है ।।७५४।।
सोरण-उबओ अहिलओ, धूलोसालाए उपय-संसायो । ततो य सादिरेगो, भोउर-बाराख सपलाणं ॥५५
:-धूलिसालोंको ऊंचाईको संध्यामे तोरणोंकी ऊंचाई अधिक होती है और इनसे भी अधिक समस्त गोपुरोंकी ऊँचाई होती है |
बउबीसं चेय कोसा, फूलोसालाए मूल-वित्पारा । बारस-बम्गेण हिवा, ऐमि-मिगत कामेण एपररणा ॥७५६॥
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२१८ ]
तिलोयपण्णत्ती
माथा:७५७-७५८
२४ | २३ | २२ १२१ २०१६ | १८ | १० | १६ | १४|१४ | १३ | १||४|१४४१४४/ twizrelimin४|४|१४१४|
.ji:- श्री सारी
3
३
।
१४४।१
म:-मगवान् ऋषभदेवके समवसरणमें धूलिखामका मुम-विस्तार बारहके वर्ग भाजित पौबीस हो कोस प्रमाण पा। फिर इसके आगे भगवान् नेमिनाय पर्यन्त (भाग्य राशिमें से) क्रमश: एक-एक कम होता गया है ।।७५६।।
अस्सीरियोसहि, भजिया पासम्मि पंच कोसा । एक्को म माने, 'कोसो बाहतरी-हरिवो ॥७५७।।
|३६६ १७/ पर्प-गवान् पानायके समवसरणमें धूलिसालका मूल विस्तार दो सौ मलासीसे भाजित पौष कोस और वर्षमान भगवान् के समक्सरणमें उसका विस्तार बहसरसे भाजित एक कोस प्रमारा पा ७१७||
मझिम-रिम-भागे, पूलीसालाग कप-बएसो । काल-बसेन पट्टो, सरितीवम्याग-बिरयो व्य ॥७५८t
लोप्साला समसा ।
वर्ष :-धूलिसालोंके मध्य और उपरिम भागके विस्तारका उपदेशश कालबससे नदी. तौरोत्पन्न वृक्षके सहण नष्ट हो गया है ।।७५८।।
। धूलिसरसों का वर्णन समाप्त हुआ।
-
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-
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t.
ब.प. कोसा।
२. ८. न. क. १. स. परितोषप्पयाविरों म।
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गापा : ७५९-७६० ]
बउत्थो महाहियारो
[ २१६
मुलिमाटर
Hamam
धूलिसालकोट एवं उसका सोरणवार
चैत्यप्रासाद भूमियोंका निरूपणसालम्भतरभागे, चत्तप्पासार-नाम-भूमोओ । 'वेति सपल-खेत', विभपुर-पासार-सहिदानो' ॥५६॥
प्रबं:-उन धूलिसालोंके अभ्यन्तर मागमें जिनपुरसम्बन्धी प्रासादोसे युक्त पैरय-प्रासाद नामक भूमियां सकलक्षेत्रको वैश्रित करती है ।।७५६ ।।
एस्केप जिण-भवचं, पासारा पंच पंच मंतरिवा ।
विषिह-वग-संर-मंटन-परवावी-ब-रमिम्जा ॥६॥
मय:-एक-एक जिनभवनके अन्तरालसे पांच-पांच प्रासाद है, जो विविध वन-समूहोंसे मण्डित मोर उत्तम वापिकावों एवं कुपोंसे रमणीय होते हैं ।।७६०॥
--
....... प. प. बेति। २. ब. । ३. प. प. प. म. .. मरिणामो, क. सरितायो।
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२२० ।
तिलोपती
जिणपुर- पासावानं, उस्सेहो निय-निभिव-उबएन । बारस हवेण सरिसो, जट्टो चौहत-बास-सबबेसी ।।७६१ ।।
कार्यक आचार्य यो ि
६००० । ५४०० : ४८०० ४२०० | ३६०० | ३००० २४०० १ १८०० १२०० | १०८० १६६०८४०७२० । ६०० | ५४० । ४८० | ४२० ३६० । ३०० २४० १६० १२० । २७ । २१
:- जिमपुर और प्रासादोंकी ऊँचाई अपने छपने तीर्थकुरकी ऊँचाईसे बारह-गुगी होती है। इनकी लम्बाई और विस्तारके प्रमाणका उपवेश नष्ट हो गया है ।।७६१ ।।
दु-सय-वज्रसट्टि जोयणमुसहे 'एक्कारसोचमकमसो ।
चवीस वग्ग-भवियं, नेमि-जिथं जान पडम- सिडि 'वं ॥ ७६२ ॥
२६४ / २५३ | २४२ २३१ ५७६५७६ ५७६ | ५७६
[ गाथा ७६१-७६३
२२० २०९ | ११८ १६७ १७६ १६५ ११४ ५७६ | ५७६५७६५७६ १७१५७६ ४७६ ।
१४३ | १३२ १२१ ११०
१६८८ ७७ ६६ ५५. ** ३३ ५७६ ५७६ ५७६५७६ ५७६ ५७६ ५७६ | ५७६५७६ ५७६५७६
अर्थ :- भगवान् ऋषभदेवके समवसरणमें प्रथम पृथिवीका विस्तार जोके वर्ग ( ५७६ ] से भाजिस दो सौ मौसठ योजन था। फिर इससे आगे नेमिनाथ तत्सुर पर्यन्द्र भाज्य रामिमें से क्रमशः उत्तरोत्तर ग्यारह ग्यारह कम होते गये हैं ।।७६२||
पगवणासा कोसा, पास- जिणे असीदि-दु-सय-हिवा । बाबीस बाहे बारस-बोहि पविगसा ॥७६६॥
५५ | ४४
| वेदिय पासाद-भूमी सम्मत्ता ।
१. प. म. य. एक्कारखाणि मणु म क उ एक्कारो प
२. व. बोरो।
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उत्म महाहिगारो
[ २२१
अर्थ:- पार्श्वनाथ तीर्थ करके समवसरण में प्रथम पृथिवीका विस्तार दो सौ भठासोसे वर्ग (१४४) ले भाजित बाईस कोस
वाया : ७६४-७६७ ]
पिचर एजेंस
प्रभाग या ।।७६३॥
| स्व-प्रासाद-भूमिका कथन समाप्त हुआ।
नाटयशालाओंका निरूपण
आविम-लिबसु पुह-पुह, वोहोणं बोलु वो पासेसु ।
वोहो भट्टय-साला, बर-कंचण-रयण-निम्मिविया ॥ ७६४॥
। २ । २ ।
प :- प्रथम पृथिषियों में पृथक्-पृथक् दोषियों के दोनों पार्श्वभागों में उत्तम स्वर्ण एवं रत्नोंसे निर्मित दो-दो नाट्यशालायें होती हैं ।।७६४ ।।
जय- सालाण पुढं, उस्सेहो मिय- जिनिव उरएहि ।
बारस हवेह सरितो, पट्टा वीहत-वास उवएसा १२७६५ ।।
दंश ६००० | ५४०० | ४५०० | ४२०० | ३६०० । ३००० | २४०० | १८०० | १२०० । १०६०। ६६० । ८४० १७२० । ६०० | ५४० | ४८० | ४२० । ३६० । ३०० | २४० १८० मि १२० । पास २७ । र २१ ।
वर्ष :- नाटयशालाओंकी ऊंचाई बारसे गुणित अपने-अपने तोर्थंकरोंने शरीरको ऊँचाईके सहरा होती है तथा इनकी लम्बाई एवं विस्तारका उपदेश नए हो गया है ।।७६५॥
एक्केक्काए गट्टय सालाए चत्र हट्ट रंगाणि । 'एक्केन कस्सि रंगे, भावण - कण्णाउ बहीसा ॥७६६||
गायति जिणिबाणं, विजयं विविहत्य-विश्व-गीहि । अभिप्णइय अध्वनीनो, लिवंति कुसुमंजलि ताओो ।।७६७
१. . . एक्स व रु. य उ एक्केन ।
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तिलोत्त
[ गाया : ७६८
:- प्रत्येक नाटयशाला में चारसे गुणित आठ ( ३२ ) रङ्गभूमियाँ और प्रत्येक रङ्गभूमिमें बत्तीस भवनवासी-कन्यायें अभिनयपूर्वक नृत्य करती हुई मानाप्रकारके अर्थोंसे युक्त दिव्य गीतों द्वारा तीर्थसुरोंकी विजयके गीत गाती हैं और पुष्पाञ्जसियोंका परण करती है ।।७६६-७६७।।
२२२ ]
'एक्केक्काए नट्टय-सालाए वोणि दोन्धि भूब-वडाः । पसरे बासिय दिगंता ॥७६६ ।।
गाना - सुगंधि-धूवं
"
1 रायसाला समता ।
वर्ष :- प्रत्येक नाटयशालामें नानाप्रकारकी सुगन्धित धूपोंस दिल- मण्डलको सुवासिता कार्यक आर्य श्री विधिसागर जी ह करने वाले दो-दो धूप घट रहते हैं ।।७६८ ।।
नाटयशालाभों का वर्णन समाप्त हुआ ।
सालिका नं० १७ पृष्ठ २२३ पर देखें ]
1. पं. स. उ. एकेमार्ग, अ एक्केमकारिण ।
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तालिका : १७ ] पस्यो महाहियारो
। २२३ तासिका :१७
पूनिसाल-प्रासार-प्रथम-पृपित्री एवं नाटयशालाबोंका प्रमाणधूलिसालोंकी | धूलिसालोंका | जिनपुर एवं प्रथम पृषिदीका | नाटयशालाघोंकी
ऊंचाई भूल विस्तार प्रासावोंकी ऊंचाई विस्तार | ऊंचाई गाषा ७५४
गाया ७५६ गाथा ७६१ गाथा ७६२ | गाथा ७६५
नं०
६००० धनुष
२००० धनुष १८००
११
फोस
.
..
३३३३ धनुष ३१९ ॥ ३०५१ . २९१ .
४००० ४२००
४८०० ४२०० ३६००
-
१२००
--
500
. . . . rur.Un०७ ० ००० ०००
. . .
HTM
२४०० १८०० १२००
४००
-
.
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३२०
.
.
२८०
८४०
८४०
.
१८३६
७२०
२४० २०० १६०
७२० ६०० ५४०
१६८०
x.
.
१३
.
१६०
१५२७५ ॥ १३७५ ॥ १२२२२ ।।
५४० YSD ४२०
९७५
.
३६० ३०० २४० E.
२४० १८०
४०
१२०
३४
४५८ १८१ ३०
॥ , ॥
२८ हाथ
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२२४ 1
तिलोयपास
मानस्तम्भ के
एक दिवात्मक कोट, देवी, भूमियों एवं नाटयानामों भादिका चित्रण
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Film Siil
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एक दिशात्मक सामान्य भूमि
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२०००० मौठिय
मानस्तम्भोंका निरूपण --
जिय-जिय- पशुम-विवीए, बहुमसे उसु पोहि-मक्झमि । मागत्वंज- लियोए, सम-बट्टा विमिन्नन- सहाओ ||७६२॥
अर्थ :- अपनी-अपनी प्रथम पृथिवीके बहुमध्यभागमें चारों वोधियोके बीचोंबीच समान मोल और विविध वर्णन योग्य मानस्तम्भ भूमियाँ होती है ।।७६६ ।।
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गया : ७७०-७७४ ]
अवतरम्मि तरणं, णवंत-भय-बाय'
उस्योमहाहियारो
-गोवर-वार-सुंदरा साला । मणि-किरयुज्जोइय-दिगंता ।।७७० ।।
पर्व :- उनके ( मानस्तम्भ- भूमियोंके } अभ्यन्तर भागमें बार गोपुरद्वारोंसे सुन्दर, नाचती हुई स्वम-पताकाओं सहित ओर मणियों की किरणोंसे दिन- मण्डलको प्रकाशित करनेवाले कोट होते हैं ।। ७७०।
तानं पि मन्भागे, बण-संडा विहि-हिब-त-भरिया' । फल- कोकिल-कल-कलया, सुर- किन्नर-मिट्टन संघ
॥७७१ ॥
एवं
उनके भी मध्य भाग में विविध दिव्य वृक्षोंसे संयुक्त, सुन्दर कोयलोंके कल-कल शब्दोंसे मुखरित और सुर एवं किवर-युगलों संकीर्ण वन बन्द है ।।७७१।। आवरी करवीरान तम्मन्के रम्माई, पुम्बा वि-विसासु लोयपालानं । सोम-अम-बधन-धणवा, हाँसि महा-कोकण-पुराई । १७७२।
तानमंतर भागे, साला चट-गोड रावि-परियरिया | ततो बनवाओ कलिडरमाणप्प - सहालो ।।७७३ ।।
:- उनके मध्य में पूर्वादिक दिशाओंमें क्रमशः सोम, यम, वरुण और कुवेर, इन लोकपालोंके अत्यन्त रमणीय महाकोडा नगर होते हैं ११७७२ ।।
[ २२५
अनं :- उनके अभ्यन्तरभागमें चार गोपुरादिसे वेष्टित कोट और इसके धागे बन-वापिकाएं होती हैं, जो प्रफुल्लित नीलकमलों से शोभायमान होती हैं ।।७७३ ।।
पुराई ।
तायं मक्के जिय-त्रिय-विसासु विध्याणि कीड हुबहु मेरिवि-मारव-ईसागानं न लोयपालानं ।। ७७४॥
अर्थ :- उनके बीचमें लोकपालोंके अपनी-अपनी दिवामें तथा आग्नेय, नैऋत्य, और ईशान इन विदिशामों में भी दिव्य क्रीडनपुर होते हैं ।। ७७४ |
१. ८. क. अ. प. उ. पषाथा । 3.5, 1. 4. 2. fenia), «, «ferð | परिया, जबरिया । ४. ए. व. क.अ.य. उमाि
मायव्य
१. ए.
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२२६ ]
तिलोसपणसो
[गाथा : ७७५-७७८ तानम्भंतरभामे, सालाओ पर विशाल-भाराम । सम्माझे पोवापि, एकेको' समवसरमम्मि ७५॥
मपं:-उनके अभ्यन्सर भागमें उत्तम विशाल द्वारोंसे युक्त कोट होते हैं और फिर इनके दोचमें पीठ होते हैं। ऐसी संरचना प्रत्येक समवसरगामें होती है ।।७५५॥
Firek : .
समभव
संसॉरिन कणयमयं । बुइयं तस्स व उरि, तबियं बह-वष्ण-रपगमयं ॥७७६।।
मपं:-इनमेंसे पहला पीठ वैडूर्यमणिमय, उसके कपर दूसरा पीठ सुवर्णमय भार उसके भी ऊपर सोसरा पीठ बहुत वर्णके रत्नोंसे निर्मित होता है ॥७७६||
मादिम-पीदुम्यहो, वंम परनीत कम-तिय-हरिया।
उसह-निणिरे कमसो, मना कि पतं ॥७७७॥ १४।१३।२२/२१/ २२ | १६ | १८1१५/१६ | ५|||३२|१२|१||
प्रम :-भगवान ऋषभदेवके समवसरणमे प्रथम पीठको कंचाई तीनसे भाजित चौबीस धनुष प्रमाण पी। इसके आगे नेमिनाथ पर्यन्त क्रमश: उत्तरोत्तर भाज्य-राश्चिमेंसे एक-एक अंक कम होता गया है ।।७७७||
पासे पंच च्छहिवा, तिवय-हिया पोन्नि पहमान-विणे । सेप्ताण अबमाणा, प्रारिम-पोस्स उदयाओ ॥७७८॥
१.प.क. ज. स. स. एसेवक ।
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मार्य :-- आचार्य श्री कुटिन् उत्यो महाहियारो
गांषा : ७७६-७७६ ]
[ २२७
धनं :- इसके मागे पार्श्वनाथके समवसरण में प्रथम पोटकी ऊंचाई घट्टले भावित पाँच भौर वर्धमान जिनके तीन भाजित दो धनुष प्रमाण थी। मेष दो पीठोंकी ऊँचाई प्रथम पीठकी ऊँचाई भाभी थी ॥ ७७६ ।।
विदिय पीकाणं उदय-दंडा-
|२३|२३|१|१|१|१६||||||
३३
७
सदिय-पोढाणं उदय-दंडा
२४|२३|३||२१|१६१६६|||||| INRANAN
१२
पोढत्तयस्स कमसो, सोबानं बजविसासु पत्लेकं ।
अट्ट बस चड पमाणं मित्र- जानिरीह बित्यारा ॥ ७७६ ॥
अर्थ :- चारों दिशाओंोंमें से प्रत्येक दिशामें इन्द्र तोनों पीठोंकी सीढियोंका प्रमाण कमणाः
बाठ, चार और पार है । इन सीढियोंकी लम्बाई और विस्तार जिनेन्द्र ही जानते हैं। बर्थात् उसका
उपदेश नष्ट हो गया है ।।७७९ ।।
पकम-पीकाणं
५।६।८|६|६|६|६||६|६|६| ६ |६|६|६|
८।६।८१६१६||६|६||
बिदिय पीवाणं सोवाणं
४।४।४
४ | ४ | ४ | ४ YIXIYI
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________________
२२८ ]
[माथा : ७६०-७१२
तिलोयपरमातो [तदिय-पोसानं सरेकाणं ]
४।४।४।४।४।४।४।४।४|४|४|४|४|४|४|४|
४। ४ । ४ । ४१४ । ४ | |४| मोट: तीनों पीठोंकी सीरियों का प्रमाणा तालिकामें दर्शाया गया है।
पठमा मिदियाणं, विचार माणभ-पीता।
जाति जिदो ति य, उच्छिन्नो अम्ह उबएसो ॥७०।।
म: प्रम व द्वितीय भानस्तम्भ की विस्तारजिनेन्द्र हो जाता है। हमारे लिए तो इसका उपदेषा अब नष्ट हो चुका है 11७८०।।
रंश तिमि सहस्सा, तियनरिया तरिय-पोट-विरमारों। उसह-जिणिदेकमसो, पच-या-होगा यजावणेमि-वि॥७१||
३०००।२८७५/२७५०/२६२५/२५०० | २७४|२२५०।२१२५
२०३ । १८० | १७५० | १६२५ १५५० | १३ | १२५० | ११२४
१०००।१३५ / ७३० । ६२५/५६० / ३६५||
प्रपं:-ऋषभदेवके समक्सर में तृतीय पीठका विस्तार तीनसे भाजित तीन हजार पनुन प्रमाण या । इसके प्रागे मेमिजिनेन्द्र पर्यन्त क्रमशः उत्तरोत्तर पाँचका कम (१२५) जाम्पराभिसे कम होता गया है ॥७॥
पणवीसामिपन्छस्सय-णि पासम्मि खा-भजिवामि। पंचश पंच-सया, अ-हिबा वीरनाइस ७५शा
१९५५६०
प:-भगवान् पाश्वनाथके समक्सरणमें सृतीय पीठका विस्तार से भाषित छह सौ पञ्चोस धनुष भोर वीरनायके छहसे भाजित पांचसो धनुष प्रमाण पा ७५२।
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तामिका : पत्थो महाहियारो
[ २२६ तालिका : १८ पीटोंका विस्तार मारि पर्व सीहियोंका प्रमाण
गा७५-७६२ समवसरण स्थिरतीय ... तबीयप पीविडीय सोया या विटा तोय पीठका प्रथम पीठोंकी पोठोंको] पीठोंकी को सीढ़ियों की सीदियों की सीढ़ियों विस्तार ऊंचाई मा. ७७७. ऊंचाई | ऊँपाई का प्रमाणका प्रमाण का प्रमाणगा. ७८१.८२
क्रमांक
१००० घजुष
ED :
:
E७५
.
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:
:
RREC. on * Page #257
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________________
२३. ]
तिलोयपाती
[ गापा : ७८३-७८५ पीडाण उरि मागभा उसहम्मि ताण' बहसतं । दु-पम-भव-ति-युग-डा, मंक-कमे तिगुण-अ-पबिहता ॥७३॥ अड-मवि-अहिय-णय-सय ऊगा कमसोय गेमि-परिमंत। पण-की पंचूना, बड़वीस-हिवा म पासमाहम्मि ७८४॥
प:--पीठोंके पर मानस्तम्भ होते हैं । उमका वाहस्प ऋषभदेवके समवसरणमें बाठके तिमुने ( २४ ) से भाजित, अंक क्रमसे दो, पाँच, नो, सौम और दो | २३६५२ ) धनुष प्रमाण था। इसके मागे नेमिनाप तीर्थपुर पर्यन्त भाम्प राशिमेंसे क्रमशः उत्तरोरार नो सौ महान कम होते गरे है। पावनायक समवसरण में मानस्तम्भोंका नाहरूप चोरोससे भाजित पपासक वर्ग मेंसे पांच कम (19) धनुष प्रमाण या ॥७८३-७४।।
उसहादि-पास-परियंत
२३६४२ | २२६५४ १२१६४६ / २०६४१२
| PAPEX | POESशिम:' की रक्षा
६८
१४६७०/१३१७२।१२६५४|११९७६/२०६७८]
।
४
।
१९६०।२/984" | ६६८६ | १३८८ | १६४ | ३३१२ | २६६ |
पंच-सया रूकना, छक्क-हिवा पमाण-देवम्मि । णिय-णिय-बिन-उबहि, बारस-गुगियहि संभ-उन्यहो ।।७।।
६.०० १ ५४०० । ४.०० १ ४२०० । ३६०० । ३०००।२४०० । १५०० । १२०० । १०८० । ६६०1४० । ७२० । ६०० ।५४० । ४६० ।
४२० । ३६० । ३०० । २४० । १८० । १२० । २७ । २१ ।
१. ब. तामनकर, प. प. साम-महत, क. उ. माण महसत ।
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गाया : ७५६ ] बस्यो महाहियारी
[ २३१ प्रम -पर्व मान तीर्य करके समवसरण में पानस्तानका प्राज्य अहो भाजित एक कम पाप सो धनुष प्रमाण पा। इन मामस्तम्भोंकी ऊंचाई अपने-अपने तीर्थरके छरीरकी ऊँचाईसे राह-मुणी होती है ।।५।।
जोयन-अहिवं उपप, माणस्पंभाग उसह-सामिम्मि । कम-हीचं गामा : एवं इस पर्व का शुजारि ।१८ BIKRAM
पान्तरम् ३४।३३।२२।३३।३० | १४ । ३८/६५। ३६/३४ | ३१/३२/३२/३४ /
३/३/३/३४/३/२/ २४ । ३५/४६/४/ म :-ऋषभनाथ स्वामोके समवसरणमें मानस्तम्भोंकी ऊंचाई एक योवनसे अधिक दी। शेष तीरोंक मानस्तम्भोंकी ऊँचाई क्रमवाः होन होतो गई है। ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं।७५६॥
पाठान्तरम
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________________
२३२ ]
तिलोयाम्पत्तो
[ सालिका : १६
तालिका : १६ मानस्तम्भोंका पाहत्य एवं ऊँचाई
गापा ७८३-७६६
। मानस्तम्भोंका बाहल्य
| मानस्तामोंकी ऊंचाई
प्रकारान्तरसे मानस्तम्भोंकी । ऊंचाई गापा ७६
धमुष
६००० बनुष
885 ६५६
१ योजन ३१ कोस
१५
४६००
१७३
८३.
७४,
२४००
०६३
१२००
१०००
५०२१ ५४०
८४० ७२०
३७४३
१२०
२९१ २४ २०७१
३००
२५०
5
.
१२४३ १०३४ ८३॥
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________________
मामा : ७६७७६१ ]
बंभाग मूलभाषा, सार्वशः मन्झिम-भाषा
-
P
उवरिम-भागा उबल - मेवलियमया विभूसिया परयो ।
चामर घंटा किकिणि रयनादलि के पहि
·
यो महाहियारो
बजार । :
-सहस्सन्पमा प्रतेक अनिष्ट निम्मदिया ॥७८७ ||
ताणं भूले उदार, पडिविसमेल्लेक्काओ,
२००० ।
अर्थ :--- प्रत्येक मानस्तम्भका मूलभाग दो हजार ( धनुष ) प्रमाण है और बच-द्वारोसे युक्त होता है। मध्यम भाग स्फटिक मरिसे निर्मित और वृत्ताकार होता है तथा उज्ज्वल सूर्य मणिमय उपरि भाग चारों ओर बाबर, घण्टा, कि किसी रत्नहार एवं ध्वजाइत्यादिकोंसे विभूषित रहता है ।।७६७-७८८
-
अट्ट-महापाडिहेरि सुतायो । रम्माम जिनिंद-पडिमा ७८६॥
(.
५. प. म. म. माया तिम
अर्थ :- प्रत्येक मानस्तम्भ के मूल भाग में एवं उपरिभाग में प्रत्येक दिलायें आठ-आठ महाप्रतिहास युक्त एक-एक रमणीय जिन प्रतिमा होती है ॥७८६ ॥
मापुल्ला सिय-मिच्छा, विदूरवो बंसलोग गंभारतं ।
जं होंति गलिव-माणा, माणत्वं मे लि* तं भनिदं ॥१७६०॥
:- क्योंकि मानस्तम्भको दूरसे ही देख लेनेपर अभिमानी मिध्यादृष्टि लोग अभिमान
रहित हो जाते हैं मतः इन ( स्तम्भों ) को 'मानस्तम्भ' कहा गया है ।।७६० ॥
सालतय बाहिरए पक्कं चड-बिसासु होंति बहा । मोहि पछि पुज्यादि चकमेण सम्बेतु समवप्तरनेषु ॥७६१ ॥
. . . . BEZETÉSE, M. T. MEZSTE'ST 1
[ २५३
AAJA
२. प. मावी, म. व पश्या
४. उ. मं ।
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HIRAJ.. and meहिलोमपणतो. [ गाचा : ७६२-७६६
:-सब समवसरणोंमें तीनों कमेटोंके बाहर बार-विशामोंमेंसे प्रत्येक दिशामें क्रममा पूर्वादिक वौषीके प्राषित दह ( वापिकाएं ) होते हैं ॥७६१॥
गंदुत्तर-णंदाओ, नपिई विषोस-गामाओ।
पुष्पत्यमे पुग्णाविएस भागेस 'वचारो ॥७२॥
ब:-पूर्व दिशागत मानस्तम्भके पूर्वाधिक भागोंमें क्रमशः नन्दोत्तरा. नन्दा, नन्दिमती और मन्दियोषा नामक चार मह होते है ।।७६२॥
विजया य बाजयंसा, जयंत-अवराजिरा गामेहि । रक्सिण-मे पुम्बाविएस भागेसु पत्तारो ॥७३॥
पर्व:-दक्षिण दिशा स्थित मानस्तारके आश्रित पूर्वादिक भागोंमें क्रमश: विजया, बंजयन्ता, जयन्ता मोर पपराजिसा नामक पार वह होते हैं ॥७६३।।
अभिहाणे य मसोगा, सुप्पाहावा' य कुमुर-पुरिया ।
पछिम-धमे पुवादिए सु भाए सु वतारो Heru
w:-पश्चिम दिशागत मानस्तम्भके माश्रित पूर्वादिक भागोंमें क्रमान: अनोका, सुप्रतिबुढा ( सुप्रसिधा ) कुमुदा भौर पुण्डरीका नामक पार वह होते हैं ।।६।।
हिण्य-महापंरामो, सम्पासा पहंकरा गामा ।
उत्तर-यमे पुम्दाविएस भाएस चारो ७६५||
प्रबं:-उत्तर दिशावर्ती मामस्तम्भके बाश्रित पूर्वादिक भागोमें करमा दयानन्दा, महामन्दा, सुप्रतिदुता और प्रभडूरा नामक चार वह होते हैं ।।७६५।।
एवं सम-बउरस्सा, स्वर-वहा पजम-पहुदि-संकुला। टेकुस्किष्णा वेविय-बड़-तोरण-रयगमाल रमनिया ॥७६६।
।. प. य. सत्तारा।
२. १. ३. ५. पं
...ब. क. ज. स. स. सुप्पानुशाक ।
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-- -
-
पापा । ७६७-६] पउत्पी महाहियारो
[ २३५ म:-ये उपयुक्त उत्तम इह समचतुष्कोण, कमलादिकसे संयुक्त, रोलीगं और वेविका, भार तोरण एवं रस्लमालाओं से रमणीय होते हैं ॥१६॥
ARTV निशाना STATE
बल-कोयन-बोर्गोह, संपु सिमराम्यहि ॥७॥
म;-सब द्रहोंके चारों तटों से प्रत्येक तटपर जलकीयाके योग्य दिम्य द्रमोंमे परिपूर्ण परिणममी सोपान होते हैं ।।७७॥
भावम-तर-बोरस-कप्पंवासी य कोयन-पयट्ठा । गर-किन्नर-मिनानं, कुंकुम पंकज पिजरिया ||७ect
:-इन दहोंमें भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी पौर कल्पवासी देव औडामें प्रवृत्त होते है। ये वह नर एवं किधर-युगलोंके कुम-पडसे पीतवर्ग रहते है ॥७९८||
एकेक्क-कमल-संरे, मोहो गणि सिम्मल-बलाई। सुर-पर-तिरिया सेन, तो चरण-रेणूभो GEET
। मारणस्वंभा समता।
म: प्रत्येक कमलखण्ड अर्थात् बहके आषित निर्मल जलसे परिपूर्ण दो-धो कुम होते है, जिनमें देव, मनुष्य एवं तिपंच अपने पैरॉकी धूलिधोया करते हैं ॥७tell
। मानस्तम्भोंका वर्णन समाप्त हुआ।
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तिलोयपणती
गाका: ७६७-७ER
--
-
मानस्तंभ
भमि
- Aaisits.
Riteset
AMAR
2:22
AD-604
कवि
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उत्यो महाहियारो प्रथम वेदोका निरूपण
वर-रमन-के-सोरण- घंटा - जालादिएष्टि बुत्ताओ । प्राविम-सेवाओ तहा, सव्वेषु वि समवसरणे ॥८०॥ भारांक : आता श्री समर भी शामि
गापा : ८०-८०३
:- सभी समवसरणों में उत्तम रस्त्रमय ध्वजा, तोरण मोर ष्टाओंके समूहादिकसे युक्त प्रथम बेदियां भी उसीप्रकार होती हैं ८००||
गोर-बार वालपवी सव्वाण वेबियाण तहा |
ठुतर सय-मंगल-नव-निहि-व्या
२४
:- सर्व वेदियोंके गोपुरद्वार, नो निधियों, पुतलिका इत्यादि तवर एक तो आज मंगल द्रव्य पूर्वके सहल ही होते हैं ॥०१॥
नबर बिसेसो गिय-जिय-मूलीसालाण मूल- देहि । भूलोवर मागे, समान वासाओ
पुणं व ॥ ८०१ ॥
१० E ८
२३ २२ २१ મ્હ १९ १८ १७ १६ १५ १४
||||||||||
urvrY
७ ६
पं. ६.ब.क. प. म.उ. तवा ।
वेबोझो ||६०२ ।।
४. . . .ज.प.उ.र
४
१४४ १४४ |
[ २३७
३ ५
3. 4. 4. fcary
१ २६६ | ७२
| पत्रम-बेटी समला !
अर्थ :-- विशेषता मात्र यह है कि इन वेदियोंके मूल और उपरिम मागका विस्तार अपने-अपने लिसालोंके मूल विस्तार के सरत होता है ।। ५०२ ||
| प्रथम वेदोका कमन समाप्त हृषा ।
वाइय - खेसर' तो हवंति 'वर सच्छ-सलिल- पुणाई । मि- पिय-जिर- उबएहि, बल-भजिवेहि सरि-हिरारिष ।८०३ ॥
૨
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३. ए. मेलाणि ।
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२२० ।
तिलोयपष्णती
[ गाथा : ८०४-८०६
__4vivaks : १३१२२६PATTI
f
हत्वा ||
मर्म:-इसके आगे उत्तम एवं स्वच्छ जलसे परिपूर्ण और अपने-अपने जिनेनकी ऊंचाकि चतुर्थ भाग प्रमाग गहरे खातिका क्षेत्र होते हैं ।।८०३||
फुल्लत-मुस्कुवलय-समल-लामोप-भर'-सुगंपीणि ।
मणिमय-सोबाचाणि पानि पालोहि' इंस-पहवीह 1०४||
पर्ष :-ये बातिकाएं फूले हुए कुमुद, कुवलय भोर कमल धनों के प्रामोदसे सुसन्धित तपा मरिसमय सोपानों एवं इंसादि पक्षियों सहित होती हैं ॥८०४।।
निय-निय-पदम-विवीच, अत्तियमेरी खुमास-परिमा। निय-निय-विदिप-शिवीगं, तेतिपमेरी पत्ते ।।८०५॥
:-अपनी-अपनी प्रथम पृथिवीके विस्तारका जितना प्रमाण होता है, उतना ही विस्तार अपनी-अपनी प्रत्येक वितीय पृयिकीका भी हुमा करता है ।।०५||
पेचम्पासार-हिरि, ई मछति ताम' उपएसे। साइय-विवीण जोपणमुसहे सेतु कम-ही ।।०६||
1.1.क.ब.प. स. भवरणमुरंगीति।
२...ब. F..... परमेश।
...माण।
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त्यो महाहिया रो
[ २३९
कामं
चेत्य प्रासाद-भूमिको स्वीकार नहीं करते हैं। उनके उपदेशानुसार ऋषभदेवके समवसरण में लातिका भूमिका विस्तार एक योजन प्रमाण मा और शेय तीर्थकुरोंके समवसरण में क्रमश: हीन होन था |८०६ ॥
धूमोसालानं विरबारे हि खहिमवादयता कमोद जयाणि
३४
गाया : ८०-८०६ ]
:-कोई-कोई
२४१३३ ।
२२ | २१ | २० | १६ | १६ १७ | १६ | २४६२४ २४ २४२४२४
૨૪ ૨૪ ૨૨૪|
२४
:- धूलिसाल के विस्तार के साथ खातिका क्षेत्रका विस्तार क्रमशः इतने योजन रहता है। (तालिकामें देखिए )
तत्थ धूलीसानाणं कमलो मूल- विस्थारो --
r २३
૨૨ २१ २० १६ १५ १७ १६
१५.
*|2|3|2|3|*|*|~|~|~|~|| 23 202 | 2014 | 2012 | 2012 | 2014 | 2012 | 2014
૪ १३
२८८ २०८ २०० २००१ २०० २०० २६० २८८ २०८ २० २६० २०६
१० ફ્
७
६
५.
४
३ ५ ४
32-|21|38|260/200/200/280|23|220|20|205|201|
१२ २६८ २६० २६० २६० २५८ २८० २०८ २८८ २०८ २८६ ५७६ ५७६
अ :- क्रमशः धूलिसालका भूल विस्तार ( तालिकामें देखिए ) |
सग-सग धूलीसालाणं वित्वारेण विरहिदे सग-सग स्वाइय-बेतानं विस्या रो૨૬૪ ૨૨ ૨૪૨ ૨૪/૨૨૦/૨૦૨ ૧૨૬/૨૬૭ ૨૦૬ ૨૬ ૧૪| tera
२० २६० २६० २६० २६० २६० २६० २६० २६० २६० २६० २०६
⠀⠀⠀««*«*|*|*|X|X|
१३२ १२१ ११०
७७ ६६.
४४ ३३ ५५ ४४
२८६ २८० २६० २६६२६० २६० २६० २६० २०० २८०४७६५७६
। खाइयसेत्तारिए समत्ता ।
5
पाठान्तरम् ।
अपने-अपने धुलिसालोंके विस्तारसे रहित अपने-अपने वातिका क्षेत्रोंका विस्तार । ( तालिकामें देखिए )
स्वातिका क्षेत्रका वर्णेन समाप्त हुआ ।
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तिलोयपणती
[ तालिका : २०
२४. तालिका : २०
HTNE .....
सातिका
वैदियोंके मूल एवं जातिका.की दूसरी पृथिवी | धूलिसास |प्रकारान्तरले लिसास रहित नं.उपरिमनांगका| गहराईका | का विस्तार सहित बातिका धूलिसातका जातिका क्षेत्रका
विस्तार गा.६.२प्रमाण गा.. गाथा ०५ क्षे.का विस्तार मूल विस्तार विस्तार
३३३२ धनुष
१२५धनुष
कोस
१२ कोस | १४ ॥
योजन | १६६७ १०] कोम ३५३४,
१५२ ,
.
२७७१
.,
१३
,
१
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२५० २३६॥
१२५ १
। .
.
॥
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१८ १३ १९८६
२.८
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१८०१
॥
१६८०
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Y 15
२०८६
६१६३
७६
३०५३
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उत्वो महाहियारो
दूसरी वेदी एवं वल्ली क्षेत्रका विस्तार
बिबियाओ बेबीओ निय-पिय-पठमिल्ल-बेरिया हि समा । एसो नवरि विसेसो, बित्थारो दुगुण- परिमार्ग ||८०७ ||
गाथा : ८०७-८०६ 1
वित्वारं युगुल-युगुणं होषि
२।२३।३।२३।२३।७६७६||
२४ २३ | २२ | २१ | २०
१४ १३
७२ । ७२ । ७२ । ७२ । ७२ । ७२ । ७२ / ७२ ७२ । ७२ । ७२ । ७३
७२
+ 192
८
192
१७ | १६८१५
1
x
७२ २०७३/०२/०३/१४४६
।३।३।
साउनेक जय श्री सुधिया जी । बिदिय वेदों-माण सम्मतं ।
। द्वितीय वेदियों का प्रमाण समाप्त हुआ ।
म :- दूसरी वेदियों अपनी-अपनी पूर्व वेदिकाओंके सटा है। परन्तु विशेषता यह है कि इनका विस्तार दुगुने बुगुने प्रमाण है || २०७
विस्सारमा दूना होता है ( तालिकामें देखिए ) ।
पुष्णाग-गाग- कुज्जय- सयमसमुत्त' पट्ट वित्ताणि । वल्ली-खेत्ताणि सोर, कीडण- गिरि-गुरुव' -सोहाणि ॥८०८ ॥ मणि-सोपान - मनोहर-पोक्लरमो फुल्स-कमल-संडाणि । सानं वी गुणो, खाइय-ताण-वादी ८०६॥
२६४ | २५३ | २४२] २३१ | २२० | २० | १६ | १८७ | १७६ | १६४
[ २४१
१२४ / १४३ | १३२ / १२१ / ११० / ६६ | ८८ | ७७ | ६६ | ५४ ४४ | ३३ ५५ ४४ २६६२८८ २६६२६० २८८ २६६२८८२६८२६८२२८२८८१४४४४
। तदिय-वल्ली-खिदी-समता ।
म :- इसके आगे पुन्नाम, नाग, कुब्जक, सतपत्र एवं प्रतिमुक्त व्यादिसे संयुक्त, क्रीड़ापर्वत भतिशय शोभायमान और मरिणमम सोपानोंसे मनोहर, वापिकाओं के विकसित कमल
१. ब. क. उ. समवत । २. प. चकय ज सदा । 3. C. T. 4. TAI
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२४२
तिलोयपणाती
[ नापा : १०-१२ समूहों सहित वस्ली-क्षेत्र होते हैं। इनका विस्तार बातिका क्षेत्रोंके विस्तारसे दुगुना रहता है ।।८०८-०६।।
। तृतीय-बल्ली-भूमि समाप्त हुई।
तत्तो बिबिया साला, धूलोसालाण' पणणेहि समा । हुगुणो दो बारा, रजाममा बाल-सखणा गरि ॥१०॥
बिदिय-साला समत्ता।
:-इसके प्रागे दूसरा कोट है, जिसका वर्णन धूलिसालोंके सहा हो है परन्तु इतना विशेष है कि इसका विस्तार दुगुना है और इसके द्वार रक्तमय है। यह कोट यक्ष जातिके देवों द्वारा रक्षित है ।। 2011
। दिनीय कोट का वर्णन ममाप्त हुमा ।
उपवन भूमितत्तो पाउस्थ-उववण भूमीए असोप-सतपम्म वषा ।
चंपय-पप-वगाई, पुवारि-बिलातु राजति ।।११॥
प्रयं:-इसके पागे चौथी उपवन भूमि होती है, जिसमें पूर्वादि दिवामोंके क्रमसे अशोकवन, सप्तपर्गमन. चम्पकवन. और आम्रवन, पे भार वन शोभायमान होते हैं ।।८१५॥
विषिह-बणसंड-मरन-विधिह-गई-पुसिण-कोडण-गिरीहि । विविह-पर-वाविमहि, उपवण-ममीन' रम्माओ ॥८१२
१. , सासोण। २. ६. ज. य. मंदा। ३. ब. म. भूभीक, ३. भूमोना।
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गाथा : ६१३-६१५ }
पउत्थो महायिारो अर्थ :---ये उपवन भूमियां विविध प्रकारके वन-अमूहोंसे मण्डित, विविध नदियोंके पुलिन और कोड़ा पर्वतों से तपा अनेक प्रकार को उत्तम वापिकाओंसे रमणीय होती हैं ।।११२॥
एक्काए उबमान-शिथिए तरखो असोम-सत्तरता ।
चंपयवा सुपर-कचा बचारि पत्तारि ॥१३॥
मर्च :-एक-एक उपवन-भूमिमें प्रमोक, सप्तच्छद, चम्पक एवं अम्र, ये चार-चार सुन्दर रूपवाले वृक्ष होते हैं ।।१३।।
अंत्य वृक्षों की ऊंचाई एवं जिन-प्रतिमाएंपामर-परि-जवाण, देखनकम हर्षति उच्छेहा' ।
णिय-चिय-सिम-उदएहि वारस-गुणिवेहि सारिया ।।१४॥ ६००० । १४०० । ४८००। ४२० । ३६०० । ३००० । २४०० । १८०० । १२०. ItecI २६०।५४० । ७२० । ६०० | ५४० । ४८० । ४२० । २२० । ३०० । २४० १ १८० । १२० । २७ । २१ ।
घर्ष: पामरादि सहित चैत्य-पृक्षोंको अंगाई गारहसे गुपित प्रपने-अपने तौकरोंको ऊँपाईके सरश होती है ।।८१४॥
मनिमय-जिण-परिमाओ, मठ-महापारिहेर-फत्ताओ'।
एपस्सि चेतामम्मि चत्तारि पत्तारि ॥१५॥
पर्व:-एक-एक चैत्यक्षके माश्रित पाठ महाप्रातिहार्योसे संयुक्त चार-पार मणिमय जिन-प्रतिमाएं होती है ।।१५।।
२.
व.क. . य... स्मा ।
१. ब, एमभूदा सुन्दरभूमा, ब.ए. पन्चसमूदा मुहारभूवा । ३. प. ब. क. ब. म..गुत्तो।
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२४ ]
तिलोयपणती
[ गाथा : १९
uptetre :.. ARTHATANTORY जी
,
SHOW
HEALTERNE
FASTER
सात भय निरीक्षगा
उपवण-वावि-जलेहि, सित्ता पेपछति एक-भव-जाई । तस्स लिरिक्खण-मेसे. सत्त-भवातोर-मावि-मादीओ ।।१६।
पर्य :-उपवनको वापिका के जलसे अभिषिक्त जन-समूह एक भवजाति ( चन्म ) को देखते हैं, तथा उनके ( वापीके जलमें ) निरीक्षण करने पर अतीत एवं मनागत सम्बपी सात भवजातियोंको देखने हैं ।।८१६॥
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गापा : ५१७-२०] पउत्यो महाहियारो
[ २४५ विशेषा:-समवसरणकी उपवन भूमिमें स्थित नापिकासोंके जमसे स्नान करने पर वर्तमान भवके आगे-पीछेकी बात जानते हैं और वापिकाभोंके नममें देखने पर तीन अतीतके, तीन भागी और एक वर्तमान का इसप्रकार सात भव देखते हैं।
मानस्तम्भका विवेचना' सालप्सय-परिअरिया', पोड-तय-उपरि मागधंभा य ।
पत्तारो चत्तारो, एकको चेत्त-हासम्मि ॥१७॥
प:-एक-एक चस्यवृक्ष प्रावित तीन कोटोंसे देहित एवं तीन पीठोंके ऊपर पार-बार मानस्तम्भ होते हैं ।।८१७॥
सहिबा वर-वावीहि, कमलप्पल-फमुर परिमलिल्लाहि । सुर-गर-मिहन- सएप इस पहिला-
महि Kari EFFES पर्य :-ये मानस्तम्भ कमल, उत्पल एवं कुमुदोंको सुगन्धसे युक्त तथा देव और मनुष्ययुगलोंके पारोरसे निकली हुई केशरके पसे पोत बलवाप्ती उत्तम वापिकाओं सहित होते हैं ।।१८।।
करच वि हम्मा रम्मा, कोरण-सालायो कत्व वि परामो ।
कस्प वि भय-साला, गलत सुरंपादना' १९॥
म:-वहाँ पर कहीं रमणीय भवन, कहीं उतम कोड़नपाला और कहीं नृत्य करती हई देवाङ्गनामोंसे पाकीर्ण नाटयशालाएँ होती है 11८१६।।
बहनुमो-मूसणया, सो पर-विविह-रमग-गिम्मविया । एवं पंति-कमे उबवण-भूमीसु सोहंति ।।२०।।
प्र:- बहुत भूमियों ( खण्डों ) से भूषित तमा उत्तम और नानाप्रकारके रस्नोंसे निर्मित ये सब भवन पंक्ति क्रमसे उपवनभूमियोंमें प्रोभायमान होते हैं ।।८२०॥
-
-
१. ६. परिहरिमा। २. स. परिमलत्नाहि।
३. ब. मुरंगणापणा, क. स. सम्पति सुरगाणा
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तिलोयपत्ती
[गाया : २१-२२ ता हम्मायोणं, सम्वेतु' होति समवसरणे
भिम-निय-विग-उबपहि. बारस-गुणिबेहि सम-उवया ॥२१॥ ६००० । ५४०० । ........ मि १२० पास २७ 1 बीर २१ ।
प्रपं:-सर्व समवसरणोंमें इन हम्पादिकोंकी ऊँचाई रहसे गुपित प्रपने-अपने सीपंकरोंको ऊँचाईके बराबर होती है ॥२१॥
णिय-णिय-पडम-विवीण, बेतिय-मेतं हव-परिमा । xहिम निय-पुण लोक रोलियो वेशासगुनं ॥८२२।।
२६८।२६६ ३४२ /२३५ २२० २०६।३६८ | ३८५ ३०६] १६५ ३५८३८३ ३३३ १२४ । ३५० २६६ | २८ ! २८८ ६६ २५८ /
२४३३ | ४५ ४६
। तुरिम-वण-भूमी समता। पर्प:-पनी-अपनी प्रथम पृषिवीके विस्तारका जितना प्रमाण होता है, उससे दूना प्रमाण अपनी-अपनी उपवन-भूमियों के विस्तारका होता है ।।२२।।
1 चतुर्थ वन-भूमिका कपन समाप्त हुआ।
-
-
.
.
..
--
-
-
-
--
-
-
१.क... २. सम्बेसि। २. ब. स. शिवाजणजिए। 1. . परिमबए ।
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arte : .
सदा
हा
पउत्यो महाहियारो
[ २४७
तालिका : २१ ] तालिका : २१
वेवी, वल्लीभूमि, कोट, चस्याल, प्रासाद एवं उपवनसूमिका प्रमाण--
दूसरी देवीका |वल्लोभूमिका | दूसरे कोटका | पत्यवृक्षोंगी | प्रासार्दोकी | उपवनभूमिका
विस्तार | विस्तार | विस्तार ऊँचाई । ऊंचाई । विस्तार गाथा ८.७ | पापा ८०९ | गाषा ८१० गापा ८१४ | गाया २१| गाथा ८२२
व कोन
कोस
६६६ घनुष ६३ .
६६१ धनुष ६३८६ .
-
४८०० ४२००
५८३३
४२००
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१२७
३००० ३४००
-
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० . . . . . ००००००००००००००
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२७॥ २५० २२२६
१६
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ता.
२४०
.
६९..
2
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२४८ ]
तिलोयपणती
[ गापा : ८२३-८२६ बो-दोसु पासेसु, सम्ब-धण-प्पणिधि-सम्ब-चोहीम् । हो-हो पाय-साला, ताण पुढे आविमटु-सालासु ॥२३॥ भावण-सुर-कण्णाओ, गम्चते गप्पवासि-कम्मायो। अरिंगम-अर-सालासु, पुवा' सुमणणा सबा ॥२४॥
Preसालासमा सुEERPAN
प्र:-सर्व वनोंके आधित सर्व वोषियों के दोनों पाश्वभागों में दो-दो नाटयशालाएं होती हैं। इनमें से आदिको आठ नाटपक्षालामोंमें भवनवासिनी देव-कन्याएं और इससे बागेकी आठ नाट्यशासाओंमें कल्पवासिनो कन्याएँ नृत्य करती हैं। इन नाटप-शातामोंका सुन्दर वर्णन पूर्वक सदृश ही है ॥२३-६२४ ।।
।नाटपणालाओंका कथन समान हुमा ।
सवियामओ वोमो, हति णिय विवियवेनियाहि समा । गरि विसेसो एसो, अक्सिया वार-रखगया ।।२।।
। तदिया वेदी समत्ता। मय:- तीसरी धेदियां अपनी-अपनी दूसरी पैदियों के सहन होती है। केवल विनेषता यह है कि यहाँ पर यक्षेन्द्र द्वार-रक्षक हुमा करते हैं ।।८२५।।
। तृतीय वेदो समाप्त हुई। ध्वज भूमिका बर्णन
ततो घप-भूमीए, दिवा-धया होति से च दस-मेया।
सौह गय-वसह-लगवइ-सिहि-ससि-रवि-हंस-पम-धमका-प ॥२६॥
प्रचं:-रके मागे ध्वज-भूमिमें सिंह. गज, वषभ, गरुड, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पन और पक इन रिहोंसे चिह्नित दस प्रकारको दिम घ्यजाएं होती हैं ।।२६।।
...ब. उ. पुम्वासुरवणण।। क. ज. म. पुवामुववाणा ।
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उस्को महाहियारों
अट्ठत्तर - सब-सहिया, एक्केक्का तं पि अन्धहिय-सया ।
सल्लय-पय-संबुत्ता,
पत्तएक
गाया : ८२७-८३० ]
- दिसासु- फुटं ॥८२७॥
सुण्ण-लर-टूकार्यदलका सभ्य-याचं
अर्थ :- चारों दिशाओंमेंसे प्रत्येक दिशामें इन दस प्रकारकी ध्वजाओं में से एक-एक ध्वजा एक सौ आठ रहती हैं और इनमें से भी प्रत्येक ध्वजा अपनी एक सौ पाठ क्षुद्रध्वजामोसे संयुक्त होती हूँ ||८२७ ॥
चक्क कवकमेण-मिलियाणं 1 रणहि ॥६२६ ॥
[ २४e
| ४७०८५० ।
धर्म :- शून्य, पाठ, माठ, शून्य, सात एवं चार अंकोंके क्रमशः मिलाने पर जो संख्या उत्पन्न हो उतनी ध्वजाएं एक-एक समवसरण में हुआ करती हैं ।।६२८
विशेषा:- १०-१० प्रकारकी महाध्वजाएं चारों दिशाओं में है. अतः १०२४४० प्रत्येक महाध्वजा १०८, १०८ है, अतः १०८४४०४३२० कुल महास्ववाएं हुई। इनमेंसे प्रत्येक महाध्वजा १०८, १०८ क्षुद्र बजाओं सहित हैं। इसप्रकार ( ४३२० x १०८ = ४६६५६० + ४३२० = ४७०८८० कुल ध्वजाऍ एक समवसरण में होतीं हैं ।
संलग्गा सयल-धयर, कनयत्वंमेसु रयण-सचिवेसु ।
च्हो चिमणिय-जिन तलु वर्षाएहि वारस हवेह ||२६|| ६००० | ५४०० | ४८०० | ४२००३६०० । ३००० | २४०० | १८०० | १२०० १०८० ६१० | २४ । ७२० | ६०० | ५४० ४८० | ४२० । ३६० । ३०० | २४० | १५० | १२० | २७ । २१ ।
अर्थ : समस्त ध्वजाएँ रत्नोसे खचित स्वर्णमय स्तम्भों में संलग्न रहती हैं । इन स्तम्भोंकी ऊंचाई अपने-अपने तीर्थंकरोंके शरीरको ऊँचाईस बारह-गुणी हुआ करती है ॥ ८२६ ॥
स्वम्भका विस्तार
उलहम्मि बंभ- चउसकी पहिय-सु-सय-पाचाणि । तिय- भजिदानि क्रमसो, एक्करसूनाणि णेमि तं ॥ ८३०||
१. म. चरसहिए। २. ६. बिए म तदहि, म. उ. बिरा दिहि ।
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___ २५० |
तिलोयपणती
[ गारा : ८३१-८३३ पासम्मि भ-शा, पम्मा पचवल्या चा-पबिहता । पउवाला पाक-हिना, मिट्ठिा बढमाणम्मि १३१॥
२६४२
२१४, २३२ १२४२ । २३१ | २२० १२०९ | १९८१६७१७६ | १५ | १४|
म:-ऋषभदेवक समवसरणमें इन स्तम्शेका विस्तार तीनसे भाजित दो सौ पाँसठ अंगुन पा। फिर इसके आगे नेमिनाप पर्यन्त क्रमशः भाज्य राशि में ग्यारह-नयारह कम होते गये है। पारवनायके समवसरण में इन स्तम्भोंका विस्तार छह से विभक्त पचपन अंगुल और पर्षमान स्वामी के बहसे माजित चवालीस अंगुन प्रमाण कहा गया है।1८३०-३१॥
ध्वजदण्डोंका अन्तरधप-बंगाचं अंतरमुसह-नि यसपाणि चविणYANAYE K LATE पीसेहि हिवाणि, पण-कवि-होणागि जाब मि-निजं ।।६३२।।
|
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६.०/१७५ २४ । २४ ।
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२४।२४
३२५ ३० ३४४ १२५० / २२१ १२० ११७४ | ३५० | १३५ १४ | |
पणवीस-हिय-ध-सय 'अडवास-हिवं च पासणाहम्मि । बोर - जिणे एक - सयं, सेतिय - मेहि मनहरिद ॥३३॥
प्र:- ऋषभ जिनेन्द्र के समवसरणमें ध्वज-दण्डोंका अन्तर चौरीससे माषिप्त यह सो धनुष प्रमाण था । फिर इसके आग नेमि-जिनेन्द्र पन्त भाज्य राशिमसे क्रमशः उतरोत्तर परिका वर्ग अर्थात् पच्चीस-पच्चीम कम होते गये हैं। पावनाप तीपंकरके समवसरणमें इन ध्वज-दण्डोंका अन्तर अड़तालीससे भाजित एक सौ पच्चीस धनुष एवं पोर अिनेरके समवसरण में इतने मात्र ( महतालीस ) से भाजित एक सौ धनुष-प्रमाण या ।।८३२-३।।
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गाथा : १४-८३५] चतत्वो महाहियारो
[ २५१ घ्वभूमियों का विस्तारनिव-निय-परिस-शिवी, बेतिम-मेसोहवि पित्वारो। निय - णिय - पय - भूमीन, लेत्तिय • मेतो भुनेयम्बो ॥४॥
२६६।२५३ २६२ / ३३६ ३२० १३०६ ३९८ ३८०] ३६६।१६५। ३५४ | ३४२
१३२|१२१ १९०९ | EE | ७७ । ६६ | ५५ | ४४ | ३३ / ५५ । ४] २८८ २८८२८८ | २८८२८/२८८|२८८।२८८ / २८८२८८५७६/५७६|
। पंचम-धय-मूमी समसा । प:-अपनी-अपनी जता-भूमियोंका जितना विस्तार होता है उतना ही विस्तार अपनी-अपनी ध्वज भूमियों का भी जानना चाहिए II८३YI
। पंचम प्रजभूमिका वर्णन समाप्त हुमा ।
तीसरे कोटका विस्तारतबिया सासा अज्जम बना निय-लिसास-सरिसगुणा । परि म 'भुषो पासो, भारणा बार सलमया ॥३५॥
२२० । २३४ | ३२२ २३८ ३० ॥ २६ २६८ ॥ ३२ ३६६ ! २५ २६८ | ३३ / १६२ १.३६६ ३६० / २६ २८/२८ २६६२५५ 1 8
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२८८२८८२८८२८८ । २८८२
८८२
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८।२०५७
। तविय-साखा समता' ।
मर्ष :-इसके आगे चाँदीके सदृश वर्णवाला तीसरा कोट पपने धूलिसाख कोटके ही सदृश होता है। परन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि इस कोटका विस्तार दूना होता है और इसके द्वाररक्षक, भवनवासी देव होते है॥३५॥
। तीसरे कोटका वर्णन समाप्त प्रा ।
.....ज. पण। २, प.क. ब. म.न. सम्मता ।
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२५२ ]
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१३२ २८८
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2012 | 101 | 101 |
-
भूमिका विस्तार
वह मेहि संयुना ।
तुमीचं वासना-कप-मो ॥ ८३६ ॥
|
२२०
२०६ ११८ १८७ १७६ १६५ १५४ १४३ २८८ २६० २६० २६० २६० २०० २८८२५०
|
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अर्थ :- इसके आगे छठी कल्पभूमि है, जो दस प्रकार के कल्पवृक्षोंसे परिपूर्ण और अपनीअपनी ध्वज-भूमियोंके विस्तार प्रमाण विस्तार वाली होती है ।।६३६ ।।
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GC
पार्यकि:- आचार्य श्री [ तालिका २२ पृष्ठ सं० २५३ पर देखिये |
1919
१. व.ज. प. वीरिए ।
[ गाया : ८३६-६३८
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कल्यभूमियों का वर्णन -
पाणंग-सूरियंगा,
सण-वत्यंग-भोमगंगा थ
आलम बीविय' भाषण- पाला तेयंगया तस्त्रो ||६३७॥
भाजनाङ्ग, माला और तेजा ये दस प्रकारके कल्पवृक्ष होते हैं ॥ ८३७॥
-
- इस भूमिमें पानाङ्ग, तूर्यास भूषणा, वस्त्राङ्ग, भोजनाङ्ग बालपाङ्ग, दीपा
शिवरा
ते पाण सूर भूषण
यस्याहारालयप्यनीयाणि ।
भावण मासा जोदिणि बॅतो संकप्प - मेसेज ॥३८॥
मयं :–जे ( कल्पवृक्ष मनुष्यों को ) संकल्प मायसे पानक, वाद्य, आभूषण, वस्त्र, भोजन, दीपक, बर्तन, मालाएँ एवं तेजयुक्त पदार्थ देते हैं ||३८||
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नं०
तालिका : २२
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२२
२३
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स्तम्भों, स्वखण्डों एवं ध्वजभूमियोंका तथा तृतीय कोट का प्रमाण
जदण्डका ध्वजभूमियोंका तृतीय कोटका विस्तार विस्तार
अन्तर
गाया ८३२
गाया ८३४
गाया ८३४
स्तम्भोंकी ऊँचाई
गाथा ८२६
६००० धनुष ३३ हाथ
५४००
४८००
३
४२००
३६००
३०००
१८००
१२००
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२५४ ]
[ गाथा : ८३६-६४४
।
विनर बनामो ॥६३६||
कश्व बि हम्मा रकमा, फोडण-सासाओ कर कि परायो । वि पेक्खण-साला, गिअंत-निनिय-जय-चरिया ॥ ८४०॥
करच वि वर-वायोओ, कमसुम्पस-कुमुद-परिमलिला
गानक : सुत्रमिह
तिलोयपष्याती
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अर्थ :- कल्प भूमि में कहीं पर कमल, उत्पल एवं कुमुदोंकी सुगन्धसे परिपूर्ण तथा देव एवं मनुष्य युगलों के शरीरसे निकले हुए केशरके कदमसे पीत जलवाली उत्तम बापिकाऐं. कहीं पर रमणीय प्रासाद, कहीं पर उत्तम क्रीड़न-शालाएँ घोर कहींपर जिनेन्द्रदेव के विजय परित्रके गीतोंसे युक्त प्रेक्षण { नृत्य देखनेकी ) शाखाएं होती हूँ ।। ६३२ - ८४० ।।
बहु-नमो-भूसच्या सव्ये वर- विविह-रयन निम्मदिया । पंति कमेणं, कम्प भूमीसु ॥८४१॥
सोहंते
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एवं
{
वर्ष :- उत्तम नाना रत्नोंसे निर्मित और अनेक खण्डों ( मंजिलों ) से सुशोभित ये सब हम्पदिक ( प्रासाद, कोड़ा ग्रह. प्रेक्षागृह आदि ) पंक्ति क्रमसे इन कल्प भूमियोंमें शोभायमान होते हैं । ४१॥
बसारो चतारो, पुण्वाविसु' महा नमेरु-मंदारा । संतान-पारिजावा, सिद्धस्था कप्प भूमी
२
||८४३२ ॥
:- फहपभूमियों पर पूर्वादिक दिशाओं में नमेरु, मत्वार, सन्तानक और पारिजात, ये चार-चार महान् सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं ||६४२ ॥
-
सध्ये सिद्धस्व-तरू, तिप्पावारा ति मेहलसिरस्था । एक्केक्कस्स य तरुणो, मूले बसारि चारि ||६४३|| सिद्धाणं परिभाओ, विषिस-पीढाओ रमण मइयाओ ।
वंवण मेरा णिवारियरंस संसार भीडीओ ॥४४॥
-
१.प.ज.प. बाहिए । २. व सिद्ध
-
-
म :- ये सब सिद्धार्थ वृक्ष तीन कोटोंसे युक्त और लीग मेखलामोंके ऊपर स्थित होते हैं। इनमें से प्रत्येक वृक्षके मूल भागमें अद्भुत पीठोंसे संयुक्त और वन्दना करने मात्र से ही दुरन्त संसारके भ्रमको नष्ट करनेवाली ऐसी रस्नमय भार-बार प्रतिमाएं सिद्धोंकी होती है ।।६४३-६४४ ॥
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३.ज.प. विमेलमा ।
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गाया : ४-४७] पउत्यो महाहियारो
[ २५५ सालस्य-सबैक्षिय-ति-पीट-उपरम्मि मानभाओ।
बतासे पसारो, तिबल-सम्मि एकेरके १८४!
मर्थ :-एक-एक सिदार्थ वृक्षके माश्रित, तीन कोटोसे संवेष्टित पीठत्रयके ऊपर बार-बार मानस्तम्भ होते है ।।४५11
कल्पतरू सिल्वा, कोरण - सालाओ तानु 'पासावा ।
णिय-णिय-भिव-उवणेहि बारस-गुणियहि सम उदया ।।१४६।। ६.०० । ५४०० । ४८०० । ४२०० । ३६०० ॥ ३००० । २४०, । १८०० ।
१२००।102oLEEDIC४०।७२०.।' ।। ५१
.IY८..1.. म श :.. हो २६० । ३०० । २४० १५०।१२० । २७।२१।
।द्ध भूमि-समझा।
भर्ष:-कल्पभूमियों में स्थित सिवाक्ष-कल्पवृक्ष, क्रीड़नशालाएं एवं प्रासाद मारहसे मुरिणत अपने-अपने जिनेन्द्रकी ऊँचाई सदृश ऊंचाई वाले होते है ।।१४६॥
। छठी भूमिका वर्णन समाप्त हुआ ।
कल्पतरुभूमि स्थित नाट्यशालाएंकप्प-सह-भूमि-पणिषिस, पोहि परि विम्ब-रमण-पिम्मविता ।
घर पर जय-साला, णिय-धेत सहहि सरिस-उच्नेहो ॥१७॥ ६.०० । ५४०० । ४००-1४२०० । ३६०० । ३००० । २४०० । १८०० । १२०० । १०० । ९६० | ५४०1७२० । ६० । ५४०।४६० । ४२० । ३५०।
३०० । २४० । १८० । १२० । २७ । १ । म:-कल्पसर-भूमि पाश्र्वभागों में प्रत्येक धीची माषित शिव्य रत्नोंसे निमित बोर अपने स्य-वृक्षोंके सहम केंचाई वाली चार-बार नाटपमालाएं होती है ।।८४७।।
....... प. उ. पासादो।
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२५६ ]
तिलोयपणती
[ गापा:४८-८५१ परस-भूमि-भूसिलामो, वामो सीस-रंग-भूमीमो । मोहसिय - कानयाहि, पनच्चमाणाहि रम्मामो | |
। गट्टमसाला समता। अर्थ:-सर्व नाटयशालाएं पाच भूमियों ( अण्डों-मंजिलों) से विभूषित, बतीस रङ्गभूमियों सहित और नृत्य करती हुई ज्योतिषी कन्याओंसे रमणीय होतो हैं ।।४।।
1 नाटकालाओंका वर्णन समाप्त हुआ ।
चतुर्थ वेदीतपो पउत्प-वेदो, हदि णिय-पढम-वेनिया-सरिसा । परि बिसेसो मावण - देवा वाराणि रक्खंति ItE४६॥
। तुरिय-चेवी समता। भर्ष:- इसके प्रागे अपनी प्रथम वेदी सदृष्य चौथो वेदी होती है। विशेषता मात्र इतनी है कि यहाँ दारों की रक्षा भवनवासी देव करते हैं ।।४ELI
। पोमो वेदोका वर्णन समाप्त हुया ।
भवन-भूमियांसत्तो भवण-खिवीओ, भवणाई तासु रयण-रहवाई।
धुव्वत - घय -'वाई, घर - सोरण - तुग - गगराई ५०॥
मर्ष :-इससे प्रागे भवन-मूमियां होती हैं। जिनमें फहराती हुई ध्वजा-पताकापों सहित एवं उत्तम तोरण-युक्त उन्नत द्वारों वाले रत्न-निर्मित भवन होते हैं ।।६५० ।।
सुर -मिरण - गेय • नाचण-तूर-रवेहि बिणाभिसेएहि ।
मोहसे ते मवणा, एस्केके भवन - भूमीम् I८५१॥
म :- भवन भूमियोंपर स्थित वे एक-एक भवन सुर-युगलोंके गीत, नृत्य एवं राजोंके शन्दोंसे सपा जिनाभिषेकोंसे शोभायमान होते हैं ।।
1. द.ब.क.ब.प. . वार ।
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पापा : ८५२-८५५.] चउत्थो महाहियारो
[ २५७ उववरण-पहुदि सय्यं, पुष्वं विय भवन-भूमि-विक्संभो । णिय पबम-वेदि-वासे, वणिजे एकारसेहि सारिया ।.५३३५
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३३ |५७६१५२
५७१५७६५७६
। भषणखिदी समता। म :- यहाँ उपवनादिक सब पूर्व सहश ही होते हैं । उपयुक्त भवन-भूमियोंका विस्तार ग्यारह से गुरिणत अपनी प्रथम वेदीक विस्तार सदृश है ।।८५२।।
। भवनभूमिका वर्णन समाप्त हुआ।
स्तूपोंका वर्णन-- भवण-खिदिम्पनियोस, रोहि पडि होति मल-जवा चूहा ।
जिग - सिम - परिमाहित अप्परिमाहि समाइया ।।५३॥
अर्थ :-भवन भूमिके पाश्वभागोंमें प्रत्येक गोपीके मध्यमें जिन ( महन्त ) और सिदोंकी अनुपम प्रतिमानोंसे व्याप्त नौ-नौ स्तूप होते हैं ।।८।३।।
छसावि-विभव-असा, पम्वत-विचिरा-पय-वसालोला'।
मर • मंगल - परियरिया, ते सम्वे विव्व - रवणमया ॥५४॥
वर्ष :-वे सब स्तूप त्रादि वैभवसे संयुक्त. फहराती हुई नजानों के समूहसे पञ्चल, पाठ मजल द्रव्योंसे सहित और दिव्य-रस्नोंसे निर्मित होते है ॥८५४॥
एक्सपकेसि धूहे. अंतरयं मयर - तोरणाम सयं । उन्हो 'यूहान, बिय - बेत्स - वुमान उदय - समं ।।८५५।।
१. ६.प. य. वनामोगा। २. ८.०, क. भ. प. उ. पहारिण।
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२५८ 1
तिसोयपती
[ गाया: ५५६-६५६
६००० | ५४०० | ४५०० | ४२०० | ३६०० । ३००० | २४०० | १६०० | १२०० १०० ६६० १८४० | ७२० । ६०० । ५४० | ४८० | ४२० | २६० | १०० २४० | १८० । १२० । २७ । २१ ।
- एक-एक स्तूपके बोचमें मकराकार सौ तोरण होते हैं इन स्तूपों की ऊंचाई इनके
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अपने वश्यवृक्षों को
बोहत हंद मानं, हा संप "भध्वाभिसेय णवण पाहिणं
-
-
-
-
। चूहा समत्ता ।
अर्थ: इन स्पोको लम्बाई एवं विस्तारकं प्रमारण का उपदेश इस समय नष्ट हो चुका
| भव्य जीव इन स्तूपोंका अभिक, पूजन और प्रदक्षिणा करते हैं ।।६५६ ॥
| स्तुयोंका कथन समाप्त हुआ । चतुर्थ कोट
ततो वज्रस्थ साला हवे आवास- फलित-संकाला ।
मरगय मणिमय गोडर-दार चषकेण रमभिज्जा ।। ८५७।।
१८. भय्याभो
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-
-
पर
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अर्थ :- इसके आगे निर्मल-स्फटिक रत्न सहरा और मरकत - मरिणमय बार-गोपुर-द्वारोंसे रमणीय ऐसा चतुर्थ कोट होता है ॥१६५७।।
तेसु
वर - रमण बंद मंडल- भुज-वंडा कप्पवासिणो देवा ।
-
जिणपाद - कमल-भत्ता, गोवर वाराणि रक्खति ।। ८५८ ॥
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को क
उबएस
कुष्वंति ॥ ६५६ ॥
-
4
अर्थ :- जिनके भुजदण्ड उत्तम रत्नमय दण्डोंसे मण्डित हैं और जिनेन्द्र भगवान्के चरणकमलोंमें जिनकी भक्ति है ऐसे कल्पवासी देव यहाँ गोपुर द्वारोंकी रक्षा करते हैं |१८५८ ॥
साला
विक्संयो, कोर्स उधोस वसह साहि
डीदि दुसष भजिदा एक्कूगा जब केमि-जिणं ॥५६॥
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महाहियारो
[ २५६ १२
२४ | २३ | २२ | २१
१९ | १६ | १७ | १६ | १५
१४ | १३
२०६२६० २८८ २०८ २०० २८८ २०८२६० २०६ २०० २६० २८० | २८०
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२ / २ /
गाया : ८९०-२६२ ]
5
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११ १० 2 २६८ | २६० | २६० | २६८ | २६८
पर्थ :-- वृषभनाथ
मराट
चौबीस कोस प्रमाण था इसके प्रागे नेमिनाथ पर्यन्त क्रमशः एक-एक कोस कम होता गया
है ॥५६॥
पणवीसाहिय अस्सय पंडा बत्तीस 'संविहत्थाय ।
पासम्म वड्डमाने, जय हिंद पणुवीस-अहि-यं ॥ ६६०॥
-
|२१|११४]
मगुणमाणं मणो ।
-
५
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| | | | |
२८८ २८८
२८८ २०८
। तुरिम-साला समता 1
पर्थ :- भगवान् पानायके समवसरण में कोटका विस्तार लोससे विभक्त हसौ पच्चीस age और वर्धमान स्वामीके कोटका विस्तार नौसे भाजित एकसी पच्चीस धनुष प्रमाण
था ||८६०।।
·
-
| चतुर्थ कोटका वर्णन समाप्त हुआ । श्रीमण्डपभूमि
ग्रह सिरि-मंडल-भूमी, अट्टमया 'अणुबमा मनोहरा । - रमण श्रंभ भरिया, मुत्ता - बालाइ * -कय-सोहा ॥। ८६१ ।।
पर
-
:- इसके पश्चात् अनुपम मनोहर, उत्तम रत्नोंके स्तम्भों पर स्थित और मुक्ता
जालादिसे शोभायमान काठमी श्रीमन्मभूमि होती है ।। ६६१ ।।
निम्मल-पतिह- विणिम्मिय- सोलस-भितीन मंतरे कोट्टा ।
बारस तारणं उदओ, मिय-त्रिप्प-उदहि बारसह ||८६२ ।।
१.५. बतख । २.१. समुषमा, म. म. म. मलमासमणी, क. मबमती उ. ४. ब. क.ज. प. च जानाक मोहा।
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२६० ]
तिलोपभाती
[ पाया : ८६५-६ ६००० | ५४०० । ४.०० । ४२००1३६०० । ३००० । २४०० | १८००१२००1 १०८० । ६६ । ६४०। ७२० । १० । १४० । ४८० | ४२ । ३६० । ३०० ।
२४० । १८० । १२० । २७ । २१ । प्र:-निर्मल स्फटिकसे निर्मित सोसह दीवालोंके मध्य बारह कोठे होते है। इन कोठोंको ऊँचाई पपने-अपने जिनेन्द्रको ऊँचाईसे बारह-गुणी होती है ।।८६२॥
पीसाहिप - कोस • सयं, ईई कोद्वान उसह-माहम्मि । बारस - बग्गेण हिर्ष, पलही जाग गेमि • जिसं ॥३॥ पास-जिणे परवीसा, अरसीवी-अहिप-दुसय-पणिहवा । वीर-जिणि बंग, पंच-पणा रस-वाय एब-भमिका ।।८६४||
। सिरिमंडवा समसा। R:-ऋषभतीर्थकरके समवसरणमें कोठोंका विस्तार बारहके वर्ग (१४४) से भाजित एक सौ बीस कोस प्रमाण था। इसके मागे नेमिनाम पयंस क्रमसः स्तरोत्तर पांच-पांच कम होते गये है। पावं जिनेन्द्र के यह विस्तार दो सौ पठासोसे भाजित पच्चीस कोस बोर महापारणे पांच पनको इससे गुणाकर नो का भाम देनेपर जो लब्ध पाये उसने धनुष प्रमाण पा ६३-६४॥
श्रीमगपांका वर्णन समाप्त हुआ।
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५४०. .
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तामिका : २३ चउरमो महाहियारो
[ २६१ सालिका : २३
कल्पों "नाटधशालामों, स्तूपों एवं कोठों आदि का प्रमानकल्पवृक्ष क्रीन मा. नाटयशालाओं] भवन- । स्तूपोंकी चतुर्यकोट दीवानों(कोठो कोठोंका पोर प्रासापोडी की ऊंचाई | मामा गाई का विस्तार को कैचाई , विस्तार गा. . गा.८४७
/ गा. ६६३ Kuv.ग्रा.-३५RAL INSTAL SY२ ६००० घनुष २००० धनुष १ कोस घ. १६१ घ.६००० . १६६६ . ५४.०
|३४०० ४८००
४८. २५२१॥ ४२०० ४२००
|४२०० ३६००
३१ २४०० २४.. २४००,
२४.० ॥ १८००
१६. १२००
१२०० १००
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१३८६,
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२६२ ]
तिलोयपणतो
[ गाया : ०६५-६६ समयसरण गत चारह कोठोंमें बंटने वाले जीवोंका विभागबेटुति 'बारस - गणा, कोट्ठानमंतरेसु पुष्यापी ।
पुह पुह पवाहिणेनं गलाण साहेमि विष्णासा ।।६।।
मर्ष :-इन फोठोंके भीतर पूर्वादि प्रदक्षिण-कमसे पृथक-पृथक् बारहमण बैठते हैं । इन गणों के विन्यासका कपन आगे करता है ।।६।।
अक्सोग - महापालिकाधी -सीHREATENEHATT * HERE
'गनहर - देष - प्पमुहा, कोर्ट परमम्मि खेति ॥८६॥
प:-इन बारह कोठार्मेसे प्रथम कोठेमें प्रक्षीणमहानसिक ऋद्धि तथा सपिरामब, सीराखब एवं अमृतानवरूप रस-ऋद्धियोंके धारक गणधर देवप्रमुख बंठा करते हैं ।।८६६।।
विवियर्याम्म फलिह-भिची-अंतरिके कप्पवासि-वेवीओ।
तविम्मि अग्नियाओ, 'साषायामो मिनीराम ।।८६७॥
अर्थ:-स्फटिकमणिमयो दीवालोंसे ग्यपादित दूसरे कोठेमें कल्पयामिनी देवियों एवं तोसरे कोठेमें अतिशय विनम्र आपिकाएं और धाविकाएँ वैठती है 11 १७||
तुरिये जोइसिया, बेबीओ परम-भक्ति-मंतीओ।
पंचमए विपिओ, चितर - देवाण देवीमो ॥६॥
प्रम:-पतर्थ कोठे परम-भक्तिसे संयुक्त ज्योतिषी देवों की देवियों और पाचरें कोठेमें म्यन्तर देवोंकी विनीत देवियाँ मंठा करती हैं ॥१६॥
टुम्मि विणवरमान-पुसलाको भवरणमासि-देवीमो । सत्तमए जिण • भत्ता, वस - मेवा भाषणा देवा ।।८६६।।
म: छठे कोठमें जिनेन्द्रदेवके अजनमें कुशल भवनवासिनी देवियां और सातवे कोठेमें दस प्रकारके जिन पक्त भवनवासी देव बैठते हैं ।।६।।
१. क. गहाहस, ८, ज. य. हिरमणा', प. उ. रिहिंगणाई। र.....य, व, मिवाभि। शेक्सभो। ३. मगहरवेद। ४.८, ज, म, सावश्यापो मि निखिदार्श, .. साबमामा दिखियामो ।
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गापा : ८७०-८७२ ] घउत्यो महाहियारो
[ २६३ अट्ठमए अविहा, बतरदेवा य किग्गर - पलयो ।
नवमे ससि रवि-पाबी, जोइसिमा जिप-रिपबिष्टु-मणा ॥७॥
मय:-पाठवें कोठेमें किभरादिक पाठ प्रकारके व्यन्तरदेव और नवम कोठेमें जिनेन्द्रदेवमें मनको निविष्ट करने वाले चन्द्र-सूर्यादिक ज्योतिषी देव बैठते हैं ।।८७०।।
सोहम्मालो प्रार- कप्पंता - रायगो पसमे । एक्करसे चक्कहरा, मंसिया पत्पिवा मणुवा ।।७१॥
पर्य :-दसवें कोमें सोधर्मस्वर्गसे लेकर अच्युत स्वमं परन्तके देव एवं उनके इन्द्र तवा ग्यारहवें कोठमें चक्रवर्ती, माण्डमिक राजा एवं प्रम्प मनुष्य बैठते हैं ।
बारसमम्मि य तिरिया, करि केसरि-बग्घ-हरिण' पहुवायो। मोसूख पुष धेरं, सत् वि सुमित • भाव - सुवा ।।६७२॥
। गण-विण्णासा समसा। म:-बारहवें कोठेमें हाथी, सिंह. घ्याघ्र पोर हरिणादिक लियंञ्च जीव बैठते हैं। इनमें पूर्व वरको छोड़कर पत्र भी उत्तम मित्र भावसे संयुक्त होते हैं ।।८७२।।
[ समवपारण विद्य पृष्ठ २६४ पर देखें ]
। गणोंकी रचना समाप्त हुई।
1. ६. रिती।
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२६४]
तिलोयपणाती
[ गाथा : ८७३
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पांचवीं वेदोआह पंचम-वेदोओ, हिम्मल-फलिहोपलेहि सरायो। निय-णिय-उत्थ-साला-सरिन्छ - उच्नेह-यहुदीओ HE७३॥
। पंचम-चेवी समत्ता । मर्च':-इसके अनन्तर निर्मल स्फटिक पाषाणोंसें विरचित और अपने-अपने चतुर्थ कोटके सदृश विस्तारावि सहित पांचवीं वेदियां होती हैं ।।८५३।।
पांचवों वेदोका वर्णन समाप्त हुआ।
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चउस्वी महाहिंदारो
प्रवेन पीठका प्रमाण
तो पढने पीडा, बेदलिय सोहि णिम्पिया तरणं ।
जिय
माणत्वं भाविम
गाथा : ८७४-८७६ ]
२४ २३ २२
३ ३
-
१०
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***♥♥♥♥♥♥♥*♥**
9 १६ १५ १४ १२ १२ ११ ३ ३ ऐ
३
४||*+++++++++
- इसके आगे बंडूर्य-मरियों से निर्मित प्रथम पीठ है। इन पोठोंकी ऊंचाई अपनेअपने मानस्तम्भादि की ऊंचाई सहम है ।६७४।
पोहुनेहोम्ब उच्छेहा ॥६७४ ॥
३
पर्स एक कोढाणं, 'एणधीसु तह य सयल-बहीणं ।
होति हू सोलस सोलस, सोवाना पडम पीडे ॥ ६७५ ॥
दवेण पम-पीटा, कोसा बढपीस बारसेहि 'हिया । सह- जिणदे कमसो, एक्केमकूलानि मि जिगं ||८७६ ॥
म :- प्रथम पोठोंके ऊपर (उपयुक्त ) बारह कोठोंमेंसे प्रत्येक कोठेके प्रवेशद्वारमें एवं समस्त (चारों) वीथियों के सम्मुख सोलह-सोलह सोपान होते हैं ।। ८७
२४/३/२३/२३/३६/९७६६
२४ २३ | २२ १२ / १२ । १२
[ २६५
१६. १५ १४११३१२ १२ १२ १२ १२ १२
११
||||||||| ૨૨૨ ૨૨ ૨૨૨ ૨૨૨
गा
वर्ष :
• ऋषभ जिनेन्द्रके समवसरण में प्रथम पीठका विस्तार बारह भाजित चौबीस कोस था। फिर इसके आगे नैमि जिनेन्द्र पन्त क्रमः एक-एक अंक कम होता गया है || ८७६ ||
१. .....दुइ तिबेट, प. महच्छेति उहो। २. ८. पानीसप बीडीए ब. प. म. द. पावीत्तम-सवली. पक्षीसुतपचवल बोहारणं । 1. C. L. 6. T. प. . हु ।
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२६६ ]
तिलोयपणती
सार्वक आई श्री पत्र-परिमाना कोसा, उजवीत हिवा व पासणाहम्मि । एक्को aिय छक्क हिदे देवे सिरिमाणम् ||८७७ ॥
||ध
- पाव जिनेन्द्रके समवसरण में प्रथम पोठका विस्तार चौबीससे भाजित पांच कोस और वर्धमान जिनेन्द्र के समवसरण में बसे भाजिन एक कोस प्रमाण ही पा ||८७७ ||
२४ २३ २२ ४ Y
Y
२१ Y
-
पोठों की परिषियोंका प्रमाण
पीढानं परिहीम, नियणिय-विस्वार-तिगुणिय-पाता ।
वर रयन मिम्मियाओं, अणुबम रमणिक्ज-सोहाणी ||८७८ ||
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१।४ | ५ | ६ 15 | 1 1 5
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[ गाया: ८७७-८०
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१९ | १७ | १७ | १६
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:-पीठोंको परिधियोंका प्रमाण अपने-अपने विस्तारसे सिगुणा होता है। ये पीठिकाएं उसम रनोंसे निर्मित एवं अनुपम रमणीय शोभासे सम्पन्न होती हैं ॥७८॥
धर्मच*
विविहन्यन-दव्य-मंगल-सुबेसु ।
बसयोजस पीछे सिर-धरिद सम्म चक्का, चेटु से वज-बिसासु जलवा ||८७६ ॥
:- चूड़ी सदृश गोल तथा नाना प्रकारके पूजा-द्रव्य एवं मंगल द्रव्यों सहित इन पीठों पर चारों दिशाओं में धर्म को सिर पर रखे हुए यक्षेन्द्र स्थित रहते हैं | | ८७६ ॥
मेवाका विस्तार
·
।
चाबाणि वस्तहस्सा अट्ट हिबा पीव्र-मेहला दे जसह जिणे परमाहिय-दो-सप- कणाणि मेसि जि ॥१८८० ॥
4
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गया : ८६१-६६३ |
पनचोसाहिय इस्सय अदु-विहतं च पास-गाहम्मि ।
एक्क सर्व पणवीसम्महियं वीरम्मि वोहि हिदं ॥८१॥
-
क
आचार्य श्री सुनील उत्थां महाहियारो
[ २६७
६००० | श्७५० | ५५० ० | ५२५० | ५००० | ४७४० | ४५०० | ४२४० | ४००° | ३७५० |
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३१०० | ३२५० | ३००० | २७५० ३०००२७५० ० | २५०० | २२५० | २००० | १७१० | १४०० | १२५० |
5
८
५
८
८
५
८
निष्पाही ।
प्र : - ऋषभ जिनेन्द्र के समवसरण में पीठकी मेबलाका विस्तार ब्राउसे भाजित छह हजार धनुष प्रमाण पा पुनः इसके मागे नेमिनाथ पर्यन्त क्रमशः उत्तरोतर दोसौ पचास-दोसौ पचास अंक कम होते गये हैं तथा पार्श्वनाथ के यह विस्तार भाउसे भाजित छहसी पच्चीस धनुष एवं बीर प्रभुके दो से माजित एकसौ पच्चीस धनुष प्रमाण या ।।८८०-८१||
गएरादिकों द्वारा की हुई भक्ति
T
श्ररुहिणं तेसु', 'गणहर देवादि शरस- गणा से । काढून तिप्पवाहिनमति मुहं मुहं नाहं ॥२॥
१००० ५
००° | ७१० | ६२५ | १२५ |
६
८
-
योण बुद्धि सहि असंखगुगसेडि-कम्म-निरणं ।
-
कातून परावण
मना, जिय जिय कोटुसु पविसंति ||८८३॥
| पढन पीडा समता ।
-
-
अर्थ :- वे गणधर देवादिक बारह-गरण उन पीठों पर चढ़कर और तीन प्रदक्षिणा देकर बार-बार जिनेन्द्र देवकी पूजा करते हैं, तथा संकड़ों स्तुतियों द्वारा कीर्तन कर कर्मोकी प्रसंख्यातगुणरूप निर्जरा करके प्रसन्न चित्त होते हुए अपने-अपने कोठों में प्रवेश करते हैं। अर्थात् अपनेअपने कोठोंमें बैठ जाते हैं ।।६८२-६६३।०
। प्रथम पोठोंका वर्णन समाप्त हुआ ।
१. द. न. क. ज. य. न. गणनादेवादि । २. व विष्णवाही, क बिप्पीहोणं, न.प..
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________________
२१० सिलोयपणतो
। गाथा : ५३ विवाएं:-समोसरण के बारह कोठोंमें मशः कृषि (गणरादि), कल्पवासी देवियां, आयिकाएँ, प्राविकाएं, ज्योतिष देखियो, व्यन्तर देषियाँ, भवववासिनी देविया, भवनवासी देव, व्यन्तरदेव, ज्योतिषी देव, कल्पवासी देव, चक्रवर्ती मादि पुरुष तपा तिर्यचोंके बैठनेकी व्यवस्था रहती है । जिमेन्द्र भगवानको ये सब अपने-अपने कोठोंमें प्रविष्ठ होकर ही नमस्कार, वन्दना एवं स्तुति करते है। परन्तु सब कोठोंके प्रधान, प्रमुख गहा ( गणधर प्रमुख, कल्पवासी देवो प्रमुख, आर्यिका प्रमुख पादि-आदि)प्रपम पीठ पर चढ़कर तीन प्रदक्षिणा कर जिनेन्द्र भगवानकी पूजा-स्तुतिस्प कीर्तन द्वारा प्रसंगमात गुणधेरणीस्प निर्जरा करते हैं । भगवान महावीर समवसरण में यह गौरव ऋषियों में गौतमगराधरको, मापिकाओं में प्रायिका बन्वनाको, श्रावकों में राजा श्रेणिक को, पशुमोंमें सिंह को एवं मन्य-मन्य प्रमुखोंको अवस्म हो मिला है पौर गन्धकुटीको जिस प्रथम पीठ पर खड़े होकर मणघर देवादि ने स्तुति की है उसी पीठ पर मायिका, भाविका, देवियाँ बौर सिंहने भी पहुँच कर भक्ति-भाव पूर्वक स्तुति, बन्दनादि को है।
या . . Hart H i TV
[ तालिका : २४ पृष्ठ २६९ पर देखिये ]
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तालिका : २४ तालिका : २४
पउत्पो महाहियारो
[ २६६ washer :.. RTE MATHE STATE वेदी, पीठ, परिणियां एवं मेलता का विस्तार भाषि
पांघर्षी वेदी का प्रथम पीठ की | प्रथम पीठका | पीठोंकी परिधियों विस्तार ऊंचाई विस्तार
का प्रमाण गा० ७३
गा० ८७६
या ७८
पीठ को मेखलाका विस्तार
पा० ८.
२
कोस
६ कोस
७१० धनुष
१६६७ घ, १५९६, १५२१ ॥
६८७
१३८६ ..
६२५
५९
१२५
॥
: :: :: :: :: :: :
१.४
४६८ , ४३७ । ४०६. ३७५ . ३४३, ,
१८३३. १६६
३१२१ ॥
१५०० १३३३३
२८१६ ॥
२५०
४१
२१८ १८७
.
३४
P
:: :: :: : :
२७२
१२५
२०२, १५॥
१६.
६२
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________________
__२७० ]
तिलोयपष्मासी
[ गाया : ८८४-८८७
दूसरे पीठका वर्णन
पढमोदरिम्मि विरिया, पोवा घेटुति ताण उच्छेहो। चज-चंडा आदि-जिने, छामागेज' भाव मिजिणं ॥१४॥
२०१२ | २० | २ | २० | १६ | १८ | १ | १५ | १५ | १ | १ | १२ | १६ | १ |
६
६
।
६
म:-प्रथम पोठोंके ऊपर दूसरे पौठ होते हैं। ऋषभदेवके समवसरण में उनके (दूसरे) पीठको ऊंचाई पार धनुष भी। फिर इसके मागे उत्तरोत्तर क्रमसः नेमिजिनेन्द्र पर्यन्त एक वटा छएक वटा छह (1) भाग कम होता गया है ॥४॥
पास-वि पन-बंग, पारस-भगिया य वीर-णाहम्मि । एस्को स्थिय तिय-भजिदा गाजावर-रवन-"णिसय-सा IE५
n:-पाकनाथ सीपंकरके समवसरए में दूसरी पीठफी ऊंचाई बारइसे भाजित पांच वनुष और दोरनाथके तीन से भाजित एक धनुष मात्र की। ये दूसरी पीठिकाएँ नाना प्रकार उत्तम रस्नोंसे रचित भूमि-युक्त है ।1८८५॥
दूसरी पीठोंको मेखलाओंका विस्तार
जापाणि छत्सहस्सा, भट्ट - हिदा ताण मेहला - का। उसह-जिने पन्ना-हिय-को-सय-कणा यमि -परियंतं ।।१८६||
पनीसाहिय-यस्सय, अटू - विहतं च पास - सामिस्स । एक्का-सर्य पमबीसम्भाहिये औरम्मि बोहि पहिवं ॥१८॥
.
--
-
-
-
--
१. भागो बाप। २. ब. क. स. प. . विमाना। ३. द. हियो।
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गाचा ! ८८९-९०]
सउदो महाहियारो
[ २७१
६०००।५७५०|५५००।५२५०11००० [४७५०|४५००1४२५०1४०००।
३७५०/३५०० / ३२५० } २०:०४ २०५० १२५०० | २२५० / २००० / १७४ |
प:- ऋषभनाथके समवसरणमें उनकी (दूसरी पोठाको ) मेखलाओंका विस्तार माठसे मालित छह हमार धनुप था । इसके प्रागे नेमिनाप पर्यन्त क्रमशः दो सौ पचास-दो सो पचास माग कम होता गया है । पार्श्वनाम [ के समवसरण में द्वितीय पीठको मेखलाओं ] का विस्तार बाठसे भाजित सह सो पम्चीस धनुष और वीरनाए मगवानके यह विस्तार दोसे भाजित एकसी पीस धनुष प्रमाण था ।1८८६-८८७।।
सोपान एवं यजाओंका वर्णन-- तागं कमयमयाणं, पौढाणं पंच - बग्ण - रयणमया। समाहा सोवाया, बेहो चउ - बिसामु अट्टह ८८॥
।८।। अर्थ :--उन स्वर्णमय पीठोंके ऊपर पढ़नेके लिए चारों दिशामों में पांच वर्षके रलोसे निमित समान माकार वाले पाठ-आठ सोपान होते हैं ।।८८८।।
केसरि-सह-सरोह पक्कंबर-नाम-गर-हत्यि-धया। मणि - बम • संबमाणा, राते पिदिय • पीवे ॥१६॥
:-द्वितीय पोठोंके ऊपर मणिमय स्तम्भोंपर लटकती हुई सिंह, बल, फमल, क. बस्त्र, माना, गरुड़ मोर हाथो इन चिह्नोंसे बुक्त ध्वजाएं शोभायमान होती है ।।८।।
अष-धन गब-लिहिलो, मध्यन-दम्माणि 'मंगसानिमि ।
बेट्टाति बिविय - पीके, को सक्का ताण बन्दु ॥॥
प्र :-द्वितीय पीठपर जो धूपघट, नव निषियो, पूजन द्रव्य और मंगलद्रव्य स्थित रहवे है, उनका वर्णम कर सकने में कौन समपं है ? ||१०||
१. . . क. ब. म. र. धना ।
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२७२ ]
गावा : ९८१-
तिलोयपणती द्वितीय पीठका विस्तार
बोसाहिय-सयकोसा, उसह-विणे विविय-पोव-विस्तारा । पंचूमा छाउनी, भजिदा कमसो ममि - पन्नत IIEI पास • जिणे पणुषीसं. अळूचं ऐसएहि मवहरिता । पंच शिवम वीरजिन, पबिहत्ता अताहिं 1८६२।।
।विनिम-पीडा समत्ता। :-ऋषभनाथ जिनेन्द्र के समवसरणमें द्वितीय पीठका विस्तार बघामबसे भाजित एक सौ बीस कोस प्रमाण वा । पश्चात् इसके आगे नेमिनाथ पर्यन्त क्रमशः पांच-पांच माग कम होते भाये। पाय जिनेन्द्रके यह विस्तार मरठ कम दोसोसे भामित एदीस कोस तपा पीर जिनेन्द्रके अड़तासीससे भाषित पाप कोस प्रमाण या ९१-८६२|
। वितीय पीठोंका वर्णन समाप्त हुमा ।
तीसरी पौठिकानोंकी ऊंचाई एवं विस्तारतानोवार तरियाई, चोदाई विबिह-रयाण-सराई। निय-जियाब- पोचेह-समा ताम 'सन्हा IIEI
१. स. स. पोलम्वेव। ... सोश, क. उ.
दो, क. उन्हो ।
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________________
गाषा : ६४-६५ ]
पस्यो महाहियारो
[ २५३
२४ ॥ २३ २२ ॥ २१ ॥ २९ | १६ |
६१८ ६ | ६
| | १५ | १४|
|
|
|
८
.
E
w:--नितीम पोठोंक पर विविध प्रकारके रलोंसे खपित तीसरी पीठिकाएं होती है। इनकी ऊंचाई अपनी-अपनी दूसरी पीठिकाओंफी ऊंचाई सहश होती है |८६३।
रिणय-आविम-पौदारणं, विस्वार-चउत्प-भाग-सारिया। एवागं विस्थात', 'तिउग-कबे तस्थ समहिए परिही १८६४॥
८४८ [४८४८४६४८ | ४८.४८ ४९४८ [४८ [४]
२४।२३ / २२
१२ | १४ | te/ke | { ४१६/| ४ | ३ |
प्रपं:-इनका विस्तार अपनी प्रथम पीठिकाओंके विस्तारके बतुर्थ भाग प्रमाण होता है और तिगुणे विस्तारसे कुछ अधिक इनको परिधि होती है ।।१४।।
साणं विणयर - मंडल - समबट्टाणं हवंति अदृट्ट। सोवामा रपममया, परसु विसासु 'सुहम्पासा IIE५॥
। तबिय-पीवर समता । म। सूर्य मण्डल सहमा गोल वन पीठोंके चारों भोर रलमय एवं सुखकर स्पपांवाली माळ-पाठ सोवियों होती है 118
1 तृतीय पीठिकाओंका वर्णन समाप्त नुमा ।
१... , २, मित्यारो। २.३. उ. तडण। ३. इ. स. ज. पा. मुाप्पा। 5. सुहमासू, उ.दुह-उपपासू।
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________________
२७४ ]
तिलोत
गन्धकुटीका निरूपण --
एक्केका 'उडी, होदि तदो तरिय पौड-रस्मि । चामर - efensio - वर्णमाला - हारादि- रमणा ॥६॥
सी
गोसोस'- मसम चंदरण-कालागढ़-पट्टदि व-गंडा |
पजत रयण - दीवा मभ्यंत विचित पय-पंती ||८६७
-
-
●
:- इसके आगे इन तीसरी पीठिकाओं के ऊपर एक-एक गन्धकुटी होती है। यह गन्धकुटी चामर किकिरणी, वन्दनमाला एवं हारादिकसे रमणीय गोणीर मतयचन्दन और कालागरु इत्यादिक धूपोंको गन्धसे व्याप्त, प्रज्वलित रत्नदीपकोंसे युक्त तथा नाचती हुई विचित्र ध्वजाओंकी पंक्तियोंसे संयुक्त होती है ।।८६६-६७।।
-
तोए हंडायामा सय बंडापि उत्सहनाहम्मि । पण कवि परिहाणि कमलो सिरि-मि-परियंतं ॥६८॥
-
[ गाएा: ८३६-६००
पणुवीसम्महिय सयं बोहि वितं च पासणाहम्मि । विगुनिय - पशुवीसाई, तित्थवरे
मामम्मि ||६६६ ॥
६०० । ५७५ ५५० ५२५ २०० ४७५ ४० ४२५ ४०० ३७५ । ३५० । ३२५ । ३०० | २७५ | २५० | २२५ । २०० । १७५ । १५० । १२५ । १०० ।
14 ७५ १३५ । ५० ।
: - उस गन्धकुटीकी चौड़ाई और लम्बाई ऋषभनाथके समवसरण में बहसो धनुष प्रसारण थी । पश्चात् नेमिनाथ पर्यन्त क्रमश: उत्तरोतर पाँचका वर्ग अथवा २५-२५ धनुष कम होती गई है । पाश्र्वनाथको गन्धकुटी दो से विशक एक सौ पच्चीस धनुष तथा वर्षमान स्वामीकी दुगुणित पच्चीस (५०) धनुष प्रमाण थी । ८६६॥
१. ८. ब. क. ज. प. स. गंधव
चओ गंषउडीए, बंडाणं न समानि जसह जि चवीस-दिल- पभव होणाणि ॥१००॥
कमसो नेमि जिवंत
1
-
२. ब. क. उ. गोष्ोर ।
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[ २७५
गाथा : ६०-६०३
उत्यो महाहियारो पहत्तरि-जा-ति-समा, पास-मिमिम्मि परिहत्ता में ।
पचुगीसोब' च सयं, मिजपबरे पोर - णाहम्मि ॥११॥ १०० | १७२५ | १६५० | १५७५ | १५५० १९२५ / १३५० / १२७५ | १२०० | ११२५/ १०३० | ५५५ ||२५|७३० । ६७५ / ६५० | ५३५ १४५०।२५५३५ |
१०५०
२२५५३७५ ७५ |
afr: :.. Maiter :- ऋषभ जिनेन्द्र के समक्सरणमें पन्धाकुटीकी ऊपाई नौ सौ धनुष प्रमाण पी। पश्चात् क्रमशः नेमिनाथ पर्यन्त चोचीससे विभक्त मुश्च (१००:२४-३७१ ) प्रमाण हीन होतो गई है। पावं मिनेन्द्र के पारसे विभक्त तोनसो पचतर धनुष भोर वीरजिनेन्द्र के एम्चीस कम सौ धनुष प्रमारण की ॥९००-९०१।।
सिंहासनानि माझे गंषउमेणं सपाव - पोढागि ।
वर • फलिह-निम्मिवाणि' घंटा - कासावि रम्माणि ।।६०२॥
पर्व :-गन्धमूटियोंके मध्य पादपीठ सहित, उत्तम स्फटिकमणियोंसे निर्मित एवं घण्टाओं के समूहाविझसे रमणीय सिंहासन होते है ।०२।।
[ तालिका : २५ अगले पृष्ठ २७६ पर देखिये ]
रयम-सचिवाणि साणि, जिगिद-उच्छह गोग्ग-उवयाणि । इत्वं तित्यपरागं, कहिगाई समवसरमाई 11t३॥
वि समवसरमा समता । १. द. परणयोससोस।। १. ५.१.क. भ. प. उ. गंधमरीण। 1. च.णिम्यवाणि ।
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२५६ ]
सिलीयपणती xamera: .. a
[ तालिका : २५ eARRARY
तालिका : २५
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दूसरे एवं तीसरे पीठौका तथा गन्धकुटीका विस्तार आबिइसरे पीठों | दूसरे पोठोंकी | दूसरे पीठोंका तीसरे पीठो तीसरे पीठोंका | गन्ध कुटीकी | गन्ध कुटीकी नं0 की पाईमेखताबोंका विस्तार की ऊंचाई विस्तार | लम्बाई और ऊंचाई
गा. ८०वि० गा, ८८६] गा० ०६१ | पा.६३ गाथा ८१४ पो.गा. ५६५] गर० ६००
१००० पनुष
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१०० धनुष ८६२६
२५ ७८७
११६६।
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७५० ध०१२ कोस | ४ धनुष ७१५, ६८७३, ६५६ ६२५ ,
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गाषा : १०६] चडत्यो महा हिमारो
[ २७७ प्र:-रत्नोंसे खबित उन सिंहासनों की ऊँचाई तोयफरोंकी ऊँचाईके ही योग्य हुमा करती है । इस प्रकार यहां तीर्थंकरोंके समयसरणोंका कमन किया गया है ।।६०३||
। इसप्रकार समवसरणोंका वर्णन समाप्त हुमा । गम्बकुटी का चित्रण
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२७ ।
तिलोयपम्पत्ती [ गाथा : ९०४-६०० Eenata .. अरशद की रिहति हुन्छ हात्तो कार ARE 'चउरंगुलतराले, उरि सिंहासनागि मरहता।
पेटुति 'गयण - मग्गे, लोयालोय -प्पयास - मतंहा IE०४||
म:-लोक-अलोकको प्रकाशित करने के लिए सूर्य सदृश भगवान् परहन्तदेव उन सिंहासनोंके ऊपर प्राकाशमार्गमें घार अंगुलके अन्तरालसे स्थित रहते हैं ।।१०४॥
जन्म के इस अतिशयगिस्पतं हिम्मत - गसतंदुरु - पवल - कहिरत । आदिम - संहापत, समचउरस्संग - संठाणं ॥५॥
अणुपम • रूवसं एव - पय-वर सुरहि - गंध-धारित। अप्सर-पर-सक्सण-सहस्स-धरणं प्रबल - पिरियं ॥६०६॥
मि-हिव-मधुरालाओ, साभाविय-अदिस बह-मेवं । एवं तिस्पयरगं सम्मागहनापि - उम्पन IIEO||
मपं:-१ खेद-रहितता. २ निर्मल-शरीरता, ३ दूध सहशा धवल हघिर, ४ बर्षभनाराच. संहनन, ५ समचतुरन-शरीर संस्थान, ६ अनुपम रूप, ७ नवीन चम्पक की उत्तम गन्ध सहर गन्धका धारण करमा, ८ एक हजार आठ उत्तम मसणों का धारण करना, अनन्त बस-वीर्य और १० हितकारी मृदु एवं मधुर भाषण, ये स्वाभाविक प्रातिपयके दस भेद है। ये अतिशय नीपंकरोंके जन्मप्रहणसे ही उत्पन्न हो जाते हैं ।।६०५-६०७॥
केवलज्ञान के ग्यारह अतिशयजोयण-सव-मक्यावं, मुभिवसावा चउ-विसासु गिय-सागा । णहपल - गमाचहिंसा, भोयग - उबसग • परिहोणा 1800
१.स.स.क. अ. प. उ. पतरणुसंतरामो। २. प. प. पण ।
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[
२७६
गाषा: 6t-११५
पतस्पो महाडियारो सम्बाहि - मुर - द्विपसं, अच्छापतं 'अपम्हरिच। बिग्माणं सितं, सम - मह - रोमत्तगं मरोरम्मि HEDEI अट्टरस • महामासा, खुल्लय-भासा सपाइ सत्त-तला । अक्सर - मणक्सरप्पय सगी-जीवाण सयल-मासाओ ।।६१०॥ एरासि भासागं, सालब - बंतो? • कंठ - 'वाधारे । परिहरिय एक्क - काल, भव्य - लले बिम्ब-भासितं ॥११॥
Kastus:....मादल विशाल
पु रा ताण ।
हिस्सरवि पिवमानो; विसझगी जा 'जोयणर्य ||२|| अवसेस - काल - समए, गगहा - देविंद - चाकपट्टोणं । पहाणक्यमत्य विम्यामुषी सत्त · भंगोहि ॥१३॥ थाहरुव - गव - पयल्थे, पंष्टौकाय - सस - तस्यामि । णामाविह् - हेडहिं, विम्बली' भगा भवामं ॥१४॥ “धादिक्खएन जावा, एक्कारस मक्सिया महरिया । एवं तित्ययराणं, केवलणाम उप्पणे ॥१५॥
प:-अपने स्थानसे चारों दिशाओं में १ एकसौ योजन पर्यन्त सुभिखता, २ आकाचगमन, ३ महिंसा ( हिंसाका प्रभाव ).४ भोजन एवं ५ उपसर्ग का अभाव, ६ सबकी ओर मुख करके स्थित होना, ७ छाया नहीं पड़ना, ६ निनिमेष दृष्टि, ६ विद्यापोंको ईमाता, १० शरीरमें नषों एवं वालों का न रहना, पठारह महाभाषा, सातम्रो खुद-भाषा तथा मौर भी जो संशी जीवोंकी समस्त अभार-मनारात्मक भाषाएँ हैं उनमें तालु दाँत.ओष्ठ और कण्ठके व्यापारसे रहित होकर एक हो समय { एक साथ ) भव्य जनोंको दिव्य उपदेश देना ।
भगवान् जिनेन्द्रको स्वभावतः प्रस्खलित तथा अनुपम ११ दिम्प-ध्वनि तीनों सन्ध्याकालोंमें नव-मुहतों तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इसके अतिरिक्त गणपरदेव,
t. व. प. प. न. पम्हविर्त. ब, अपहरं विस। २.६. ब. क. मा. प. उ. गावारो। ३.प. उ. जोपणं । ४. द. *.क.ब. य. च. पाहारगरूपमत्वं। ५.१.प. . ज. प. पयरयो । ६.५. प. य. पताल, क. उ. स्थाणि। ७. . हिमभरिए। ८. .. . पाकिसपण य ।
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२५० ]
[ गाबा ε१६- १२३
इन्द्र एवं चक्रवर्ती प्रश्नानुरूप पर्व के निरूपणार्थ यह दिव्य ध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। महू दिव्यध्वनि भव्य जीवोंको छह-द्रष्य, नौ-पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्वोंका निरूपण नानाप्रकारके हेतुओं द्वारा करती है । इसप्रकार घातिया कर्मो के क्षयसे उत्पन्न हुए महान् भावयंअनक थे ग्यारह अलिय सीर्थंकरोंको केवलज्ञान उत्पन्न होने पर प्रगट होते हैं ।। १०६ - ६१५।।
श्री SE BY PD
तिलोयपण्णत्ती
देवकृत तेरह श्रतिशय
जोवने
वनं ।
माहत्येन जिमानं संखेनेसु च पल्लव कुसुम फली भरिदं प्रायदि अकासम्म ॥ ११६ ॥
-
कंटय- सक्कर-पहूति, अवणिता वादि सुरको बाऊ ।
मोसून पुण्य वेरं जीवा धति मेसीसु ॥१७॥
बम्पण-तल- सारिवा, रमणमई होदि तेतिया भी । गंधोबड वरिसह, मेघकुमारो पि सक्क आणाए ।।११८ ॥
·
फल-भार-णमिव-साली जवादि-सहसं सुरा बिकुवंति । समा जीवार्ण, उपनदि विमानंद ॥१६॥
बायदि विक्किरियाए वायुकुमारो हु सोपलो पवणो । तवायावीणि निम्मलसलिसेच पुण्माणि ॥१२०॥
4
-
धूमुक्कपण पहूदीहि विरहिवं होदि णिम्मलं यनं । रोगावीणं बाधा, ण होंति सक्लान जीवानं ॥२१॥
१. ब च संविधा |
जक्लिव मत्पतु, किरगुज्जर- दिग्व धम्म-वाणि ।
व संठियाई' बचारि जणस्स अरिया || १२२ ॥
1
पण चदिसासु, कंचन - कमलामि तिरथ-कताएं । एक्कं च पापीढे अच्वण-दच्चाणि शिव्य-विहिवाणि ॥२३॥
| चोलीस अइसया समता ।
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पाषा: १२४-१२७ 1 पउत्थो महाहियारो
[ २८१ म:- तीपंकरोंके माहात्म्यसे संख्यास पोजनों तक वन प्रदेश असमय में ही पत्रों, फूलों एवं फलोंसे परिपूर्ण समृद्ध हो जाता है। २ फोटों और रेती आदिको दूर करती हा सुखदायक बादु प्रवाहित होती है, ३ जौष पूर्व वेरको मोड़कर मंत्री-मावसे रहमे लगते हैं। ४ उसी भूमि चरणतल सहा स्वच्छ एवं रस्नमय हो जाती है; ५ सौधर्म इन्टको बाशासे मेषकुमार देव मुगन्धित उसकी बर्षा करता है। ६ देव विकियाते फलोंके भारसे नम्रीभूत पालि और जो आदि नस्यकी रचना करते है। ७ सब जीवोंको नित्य पानन्द उत्पन्न होता है; ८ वायुकुमार देव विक्रिमासे सोतल-पवन चलाता है। कूप भोर तालाब आदिक निर्मल जलसे परिपूर्ण हो जाते हैं; १० आकाश धुओं एवं उल्कापातादिसे रहित होकर निर्मल हो जाता है; ११ सम्पूर्ण जीव रोगपाषाओंसे रहित हो जाते है, १२ यक्षेन्द्रोंके मस्तकों पर स्थिस और किरणोंको माति उफज्वल ऐसे चार दिव्य धर्मबोको देखकर मनुष्यों को पाश्चर्य होता है तथा १३ तीर्थकरोंकी पारों दिशाओं (विदिशाओं) में सम्पन स्वर्ण-कमल, एक पादपीठ और विविध दिम्य पान-सन्य होते हैं S TTE TEENSE
चाँतीस प्रतिमयों का वर्णन समाप्त हुप्रा ।
भशोक वृक्ष प्रानिहायका निरूपण-- अॅसि साल - मूले, उप्पलं जाण केवलं जागं । उसाह - प्यादि- जिणाएं, से चिय प्रसोय-कल सि २४॥
प्रपं:-ऋषभादि तीर्थंकरोंको जिन वृक्षों के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुभा है में ही पशोकवृक्ष है ॥२४॥
गग्गोह - सत्तपणं, सालं सरलं पियंगु तन्वेष । सिरिसं भागतर वि म, प्राला पूतोपलास तवं ॥२५॥ पाइस-चंद्र पिप्पल - वहिबगो मंदि-तिलय-पूवा । पति-चंप • घडल, मेससिंग' पर्व सासं ॥२६॥ सोहति असोय - तरू, पल्लव - कुसुमागवाहि साहाहि । संबंत • मुत-बामा, घंटा • जामावि - रमपिन्ना HE२७॥
१.प.क. स. किकस्लि , म. म. कस्सि। २. मेहबरम, ... य. ३. मेजयसिंग ।
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२८२ ]
तिलोयपणती
[ गाथा : ६२८-११ भ:-१ न्यग्रोध, २ सप्तपर्ण, ३ शाल, ४ सरल, ५ प्रियंगु, ६ प्रियंगु, ७ घिरीष, ८ नागवृक्ष, मा ( बहेड़ा), १. पूलिपसाण, ११ तेंदू. १२ पाटल. १३ जम्बू, १४ पीपल, १५ दधिपणं, १६ नन्दी, १७ तिलक, १ साम्र, १६ ककेलि (अशोक), २० पम्पक, २१ बकुल, २२ मेषशृङ्ग, २३ धव और २४ शाल, ये तीर्घकरोंके प्रशोकवृक्ष है मटकती हुई मोतियों की मालाबों और पटा-समूहादिकसे रमणीक sersों एवं की
खास! सब शोक वृक्ष अत्यन्त शोभायमान होते हैं ॥९२५-९२७।।।
निय-णिय-सिंग-उबएहि, पारस-गुणियेन सरिस उपहा ।
उसह - जिन • पहुवीगं, असोय • काला विरामंसि ॥१२॥
प:-ऋषभादिक तीर्थकरोंके उपर्युक्त चौयोस अशोकवृक्ष पपने-अपने जिनमकी ऊबाईसे बारह गुरे ऊंचे शोभायमान है ॥६२८||
कि पपपणेण हमा, बढळूनमसोय • पादचे एथे। णिय - उगारण - बसु, ग रमरि चित सुरेसस्स II१२६।।
वर्ष:-बहुत वर्णनसे क्या ? इन प्रशोक वृक्षों को देखकर इन्द्रका भी वित्त पपने उखानवनोंमें नहीं रमता. है ॥२६॥
तीन छत्र प्रतिहार्यससि - मंटल - संकासं, मुत्तावाल - पयास • 'संवृत्त ।
छत्तत्तयं विरापदि सव्वाचं तित्य . 'कत्ताणे ॥३०॥
प' :--चन्द्र-मण्डल पल मोर मुक्ता समूहों के प्रकाणसे संयुक्त तीन पान सब तीर्थकरों के ( मस्तकों पर ) शोभायमान होते हैं ।।६३०।।
सिंहासन प्रातिहार्यसिंहासन मिसाल, बिसुर - फलिहावतेहि निम्मनि ।
वर-रमग-णियर-सधि, को सका परिण तागं ॥३१॥
पर्ष:-निर्मल स्फटिक-पाशारणसे निर्षित और उत्कष्ट रस्नोंके सपूइसे सथित उन तीपंकरोंका जो विशाल सिंहासन होता है, उसका वर्णन करनेमें कौन समर्प हो सकता है ॥३३॥
१. द. क, ज. प. च. रहो । २. ब. क. भ. प. ३.
कुत्ता। 1.ब. म. सत्तारं ।
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गाना ! ९३२-१३६ ] पउत्यो महाहियारो
[ २८३ भक्ति युक्त गणों द्वारा वेष्टित प्रातिहार्यजिभर-भति-पसत्ता, मंजलि-हत्या पल्ल-मूह-कमसा ।
पेटुति गणा सम्बे, एकेक वेदिकन' विगं ।।६३२॥
मर्ष : गाढ़ मक्तिमें प्रासक्त हाप जोदे हुए एवं विकसित मुख कमलसे संयुक्त सम्पूर्ण ( बाग ) गण प्रत्येक तीर्थकर को घेर कर ( बारह सभागों में ) स्थित रहते हैं ॥६३२।।
"दुन्दुभिवाद्य प्रातिहार्यविप्तम कसायाससा, 'हब-मोहा परिस जिणपटू सरक।
कहिवु या भग्वानं, गहिरं सुर - धुंदुही सरइ ।।६३३३॥
प्रर्ष :-"विषय-कषायोंमें यासक्त हे जीवों) मोहसे रहित होकर जिनेन्द्र प्रमुको शरणमें जामो," मध्य जीवोंको ऐसा कहने के लिए ही मानो देवोंफा दुन्दुभो बाना गम्भीर शम्द करता है।।९३२।।
पुष्पवृष्टि प्रासिहाम्-- झण-झन-झगत-पय-छण्णा परति मरिव-सुरमुक्का।
गिववि कुसुम - चिट्ठी, जिनिय - पय-कमल • मूले ॥३४॥
म :--मन-मन शन्द करते हुए अमरोंसे ज्याप्त एवं उत्तम भक्तिले युक्त देवों द्वारा छोड़ी इई पुष्पवृष्टि भगवान जिनेम्के वरण-कमलोंके मूलमें गिरतो है ॥९३४॥
प्रभामण्डल प्रातिहार्य - भव-सग-सण-
हे ररिसम - मेतक सयल • सोयरस । भामंश्लं जिणाणं, रवि-कोटि - समुज्जले बयइ ।।९३५॥
पर्य :--जो बर्शन-मावसे ही सब लोगोंको अपने-अपने सात भव देखने में निमित्त है और करोड़ों सूर्योके सरपा उज्ज्वल है तीर्थंकरोंका ऐसा वह प्रभामण्डल जयवन्त होता है ॥९३५।।
उमर प्रातिहायबउटि • चामरेहि, मुणाल - कुवेंदु - संस-पवलेहि । सुर •कर - पलव्यिहिं विजिग्नता जयंतु मिणा ।।६३६॥
। अट्ठ महाबिहेरा समता । १. इ. पेदिकण। २. .. उ, मोहो हद । .. क. ज. स. मोडी पाह।
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२६४ ]
तिलोषपण्णसी
[गाया : १३७ :-देवोंके हाथों से मुलाये ( कोरे ) गो मृशाम, कुन्दपुष्प, चन्द्रमा एवं शङ्ख सदृश सफेद चौसठ चामरोंसे वीज्यमान जिनेन्द्र भगवान् जयवन्त होवे ।।९३६।।
। आठ महाप्रातिहार्योका कथन समाप्त हुआ।
गोमठसमर
दुनि
सपा
-हो
नमस्कार
चउतीसतिसप - संबुद्ध'- अट्ट महापारिहेर - संजु । मोक्लयरे तिस्पयरे. तिषण - गाहे णमंसामि ॥१७॥
अर्थ:-जो चाँतीस अतिशयोंको प्राप्त है, पाठ महापातिहायोंसे संयुक्त है, मोक्षको करने वाले ( मोक्षमार्गके नेता ) मोर तीनों लोकोंके स्वामी है ऐसे तीपंकरोंको मैं नमस्कार करता हूँ 1॥१३७॥
१.व.२.क., व.र. मेरे।
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त्यो महाहियारो
समोसरणों में बग्दनारत जीवोंकी संस्था
जिन वंजणा पट्टा, पल्लासंन्नभाग - परिमाणा ।
चेट्ठति विविह जोबा, एक्केमके समवसरणेसु ं ।।६३८ ।
गाया : १३८ - १४१ ]
-
·
कसमवाय त्यति माग प्रमाण विविध प्रकारके जीव जिनदेवकी वन्दना प्रवृत्त होते हुए स्थित रहते हैं ।।६३८||
अवगाहन शक्तिकी प्रतिशयता
कोटुश्मं खेत्तादो, जोगन वेत्तम्फलं होवून अट्ठति हैं. जिण
-
-
·
असं
गुणं ।
माहव्येण से सम्बे ॥१३६॥
अर्थ :-- समवसरण के कोठोंके क्षेत्र मद्यपि जीवोंका क्षेत्रफल प्रसंख्यातगुणा है, तथापि वे सब जीव जिनेन्द्रदेव के माहात्म्यसे एक दूसरेसे पस्त रहते हैं ।।६३६ ॥
प्रवेशा- निर्गमन प्रमाण
संखेज्ज - जोयगाण, बाल प्यहुवी पवेस चिमणे । तोमुहल काले, जिण माहप्पेण
-
-
क. ज. उ. य. माइट्ठीषया ।
| २८५
गच्छति ॥। ६४० ।।
अर्थ :- जिनेन्द्र भगवान्के माहात्म्यसे बालक प्रभूति जीव समवसरण में जीव प्रवेश करने अथवा निकलने में अन्त हर्तकाल के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं ।।६४०||
समवसरण में कौन नही जाते ?
मिच्छादट्टि -अभया से असम्मी न होंति कयादि ।
तह य अणभवसाया, संविद्धा विविह विवरीया ॥ ४१ ॥
7
अर्थ :- समवसरण में मिथ्यादृष्टि भ्रमव्य और प्रसंत्री जीव कदापि नहीं होने तथा अनध्यवसाय से युक्त, सन्देहसे संयुक्त और विविध प्रकारको विपरीतताओं वाले जीव भी नहीं होते १९४९ ॥
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२०६ तिलोयपाको
[ गाषा:६४२-९४० समवसरणमें रोगादिका समावआतंक - रोग • भरणप्पत्तीलो वेर - काम - बाधाओ।
तम्हा - कुह - पोगओ, बिन • माह पेग न वि होति ॥४२॥
प्रबं:-जिन भगवान्के माहात्म्यसे आतक रोग, मरण, उत्पत्ति, वैर, कामवाघा सपा पिपासा और क्षुषाकी पीड़ाएं वहां नहीं होती हैं ।।१४२।।
ऋषभादि तीर्थकरोंके यक्षअपक्षण :... पतिले
म #मर
गोवाग • महाजपला, तिमुहो बलेसरो य तुंपुरमओ। भावंग - विजय - अजियो, जम्हो महेसरो य कोमारो ॥४३॥ छम्मुहमओ पागलो, किग्णर - किंपुरिस - गहर-गंधम्या । तह य कुरेरो एगो, 'भकुडी-पोमेम-पास-मातंगा ।।१४४॥ गुन्मको प्रावि एदे, भाखा पौस उसह - पहीहि ।
तिस्पयरगं पासे, चेटु भत्ति • संकुत्ता ॥४॥
प्रबं:-१ गोबदन, २ महायक्ष, ३ त्रिमुख. ४ यक्षेश्वर, ५ तुम्मुर, ६ मातंग, ७ विजय, अजित, ६ ब्रह्म, १० ब्रह्मोत्तर, ११ कुमार, १२ षण्पुष, १३ पाताल, १४ किन्नर, १५ किम्पुरुष, १६ गरड़, १७ गन्धर्व, १८ कुबेर, १६ वरुण. २० मृकुटि, २१ गोमेघ, २२ पापवं. २३ मातंग और २४ गुह्यक, मक्तिसे संयुक्त चौवीस यक्ष ऋषभादिक तीर्थंकरोंके पास स्थित रहते हैं ।।६४३-४५।।
___ ऋषमादि तीर्थंकरोंकी यहिरिणयोजक्लोनो घरकसरि रोहिणि-पति-
पतिललया। वज्जकुसा 4 अप्परिचाकसरि - पुरिसबत्ता' ॥४६॥ मगवेगा • कालोओ, सह बालामालिनी महाकाली । गारी - पंधारोओ, बेरोटी नामया अबमबी H९४७१
१.द... क. प. उ. मिनदी, य. मिसे। २. ब... पुण्मती ।
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गाषा: E४-६५० ] सत्यो महाहियारो
[ २८७ मानसि-महमानसिया, जया य विजपापराविनायो। बहुरूपिणि दी, परमा - सिगायिनीयो ति even
म:- १ पक्रवरी, २ रोहिणी, ३ प्राप्ति, ४ वमबला, ५ वजांकुना, ६ अप्रतिपषवरी, ७ पुरुषदता, ८ मनोगा. काली, १० ज्वालामालिनी. १ महाकाली, १२ गौरी, १३ गान्धारी, १४ बैरोटी, १५ अनन्तमती. १६ मानसी, १७ महामामसी, १८ अया. १६ विवश २० अपराजिता. २१ बहरूपिणी, २२ फूष्माण्डो. २३ पचा मोर २४ सिहायिनो ये यक्षिणियाँ श्री मनः ऋषभादिक चोदीस तीर्षकरों के समीप रहा करती हैं.४६४६६४८।।
बिनेदभक्तिका फल
बिनन्दमा
बसन्ततिमकम्पोयूस - विझर • निहं जिन -चंब • वागि,
सोळण बारस गणा 'पिय - कोहए। पि अत - अगसेवि - विद्धि - सद्धा -
शिवंति फम्म - परलं असंक्षसेमि ।।१४६।। -:-जैसे बन्दमासे अमृत भरता है, उसी प्रकार मिनेन्द्र रूपी पन्नाको वायोको अपने-अपने कोठोंमें सुनकर वे भिन्न-भिन्न जीवोंके बारह पण निस्य अनन्त-गुरवेणीरूप विशुबिसे संयुक्त बरीरको धारण करते हुए प्रसंख्यातथेगोरूप कर्म-पटसको नष्ट करते हैं ||४||
इनवना
भत्तीए आसत्त-मणा जिणिव-पायाधिवेसुनिसियस्था । पारी-कार्षण पदमारणं, जो भाषिकाल पविभावयति ॥१५॥
मर्थ :-जिनका मन भझिमें पावता-और जिन्होंने जिनेन्द्र-देको पावारविन्दोंमें आस्था (वा) रखी है के मध्य जीव मतीत, वर्तमान मोर भावी सालको भी नहीं मानते हैं । अर्थात् भक्ति वश में कौन है, कौन था और क्या होऊँगा' इस विकल्पसे रहित हो जाते हैं ।।९५०11
- ---. . -.- - ---- ---- - १..कारएन ।
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२८८ ]
तिलोयपणती
[ गाथा : ५१-१५५
इन्द्रवजा-- एवं पहावा भरहस्स लेसो घाम-पड़ती' परम विसंता।
सव्वे जिणिदा बर-भध्व-संघस्सप्पोरिषद मोर मुहार ? को हट
म :--उपर्युक्त प्रभावसे संयुक्त वे सब तोकर भरत क्षेत्रमें उत्कृष्ट धर्म-प्रवृत्तिका उपदेश ___ देते हुए उत्तम भध्य-समूहको आरमासे उत्पन्न हुप्रा मोक्ष-मुख प्रदान करें ||१५||
ऋषभादि तीर्थंकरोंका केनिकाल– पुम्बाममेक • जमलं, बासागं कणिवं सहस्सेग । उसह - जिभिवे कहिब, केलि - कालरस परिमाचं ॥५२॥
उसह पू० १ल 11 रिणवास १०००॥ प:-ऋषभ जिनेन्द्र के केवलिकासका प्रमाण एक हजार वर्ष कम एक लास पूर्ण कहा गया है ।।५।।
बारस बम्बर • समाहिय-पुम्बंग-बिहीम पुज्य-इगि-सबलं । केपलिकाल - पमान, अणिय - जिभिये पुनय 11६५३||
पणिय पू० १ ल ॥ रिण-पूर्वाग १ । व १२।
:-अजित जिनेन्द्र के केवलिकालका प्रमाण बारह वर्ष और एक पूर्वाज कम एक मास पूर्व बानना चाहिए ॥१५३||
बोहस-न्दर - सहिय-पर-युग्वंगोण-पुम्ब-इणि-सतं । संभव - निमस्स भनिन, केवलिकालस्स परिमाणं ||५४॥
संभव पू० १ मा रिण-पूर्वाग ४१ १४ वस्य । म :--सम्भव जिनेन्द्रका केलिकाल चौवह . पार पूर्वाङ्ग कम एक लाख पूर्व प्रमाण कहा गया है ||४||
अट्ठारस • बासाहिय • अर-'पुलंगोग-पुष-गि-साबलं । फेवलिकाल • पमाणे, नानगाहम्मि खिहि ॥५||
गंवरण पू० १ न ।। रिए पूर्वाग म्। वस्स १८॥ १. ज.म. प्पमति । २...ब.स. तुप्पोस्थिव । ३. ८. स. प. पुर्णमास।
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पाया । १५६-१५६ ] घउत्यो महाहियारो
[ २८९ अर्थ :--अभिनन्दन जिनेन्द्रका केवलिकाल अठारह वर्ष मोर ८ पूर्वाङ्ग कम एफ लाथ पूर्व प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ||९५५।।
बसवि - बन्छर-समाहिय - वारस-पुव्वंग-हीन-पुम्यागं । थाfess : . सामालियर सुमइमाहम्मि ॥५६॥
सुमइ पू० १ ल ॥ रिश- पुष्वंग १२ ।। वास २० ।। पर्ष : सुमति जिमेन्द्रका केवसिकाल बोस वर्ष और १२ पूर्वाङ्ग कम एक लास पूर्व प्रमाण है ।।९५६|
विगुणिय-तिमास-समाहिय-सोलस-पुमंग होल - पुष्वाण । इगि - लाल पउमरगाहे, केबलिकालत परिमानं ॥६५७||
परम पू० १ ल ॥ रिण = पुज्वंग १६ ॥ मा ६ ॥ प:-पप जिनेन्द्रका केवलिकाल ६ मास और सोलह पूर्वाङ्ग कम एक लास पूर्व प्रमाण हे ॥२७॥
एष - संबच्छर - समाहिय-बीसपिपुव्वंग-हीम-पुम्बाणं । एकं सरलं केवलिकाम - पमाणं सुपास - हिने IIE५८॥
सुपास पू. १ ल ॥ रिण= पुग्वंग २० ।। वास ६ ।। पर्व:-सुपार्व मिनेन्द्रका केवलिकाल नौ वर्ष और बोस पूरुङ्ग कम एक साह पूर्व प्रमाण है ॥५॥
मास-त्तिवयाहिय'- चडयोसवि-पुम्बंग - रहित - पुवाणं । इगि - लाल चंदप्पह • केवलिकालस संसानं HERI
चंदपा पू० १ । रिण-पूर्वाग २४ ।। मास ३ ॥ 4 :- पन्नप्रभ जिनेन्द्र के केवत्तिकासको संख्या तीन माह और मोबीस पूर्वाङ्ग कम एक खाख पूर्व है IIEI
१.न.प. ६. ३. य.च. मा तिवया विथ ।
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२६० ]
तिसोक्पाती
उबर समहिय अडवीतवि- पुज्यंग रहिन पुरुयानं ।
एक्के लक्ख केवलिकाल मार्ग च पुष्कवंत जिने ॥६६० ॥
श्र
·
गया है ।। ९६१ ।।
पुष्फ पू० १५ ॥ रि–पूथान ३
=
-
TH
वर्ष :- पुष्पदन्त जिनेन्द्रका केवलिकाल चार वर्ष और बट्टाईस-पूर्वाङ्गकम एक लाख पूर्व प्रमाण है ।। ९६० ।।
-
संबस्सर-तिव ऊणिय पणवीस सहस्तयाणि पुष्याणि ।
सीयलजिनम्मि कहिवं. केवलिकालस्स परिमाणं ।। ६६१ ॥
सीयल पुय्व० २५००० | रिलबास ३ 11
:- शोस जिनेन्द्रके केवलिकालका प्रमारम तीन वर्ष कम पच्चीस हजार पूर्व कहा
·
गिबस बस सक्खर दोहि बिहोगा चडवण-वास-लक्सं ऊनं एक्केण
-
[ गाथा: ९६०-६६४
।। सेयंस बस्स २०६६६९८ ।। वासुपूज्य वस्त ५३९१६१६ ।।
:--- श्रेयांस जिनेन्द्रका केवलिकाल दो ( वर्ष ) कम इक्कीस लाख वर्ष और वासुपूज्य जिनेन्द्रका एक कम चौवन लाख वर्ष प्रमाण है ।।१६२ ||
९. इ.ब. स. प. उ. पुरुष
।
पहूम्म सेयं बासुमुक्ा जिने ॥१६६२ ।।
पण रस-बास-लक्ला, तिवय-विहीना व विमलन हस्मि । सम-कवि-ह- पण शरिवासा दो बिरहिया अनंत जिने ॥ ६६३ ||
जिनेन्द्रका सोके बगंले गुपित पचहत्तरमेंसे दो कम है । ६६३ ।।
।। बिमस* वस्स १४६६६६७ । प्रत खास ७४९६६८ ॥
:- विमल जिनेन्द्रका केवलिकाल तीन कम पन्द्रह लाख वर्ष और अनन्तनाय
-
पंचसयार्थ दणो, ऊयो एक्केन बम्मणामि । बस-वन व पशुवीसा, सोलस होना पसंती ॥६६४३॥
.
|| धम्म वस्तु २४६६६६ । संति २४९६४ ॥
२. ब. त. विमल पुम्ब, प. म. प. विमम
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गावा: २६५-६६८
उत्यो महाहियारो
[ २६१
अर्थ :- धर्मनाथ जिनेन्द्रका केवलिकाल पचिसो वर्ग से एक कम और शान्तिनाथ जिनेन्द्रका दसके जनसे गुणित पन्चीसमें सोलह वर्ष कम है ।।६६४।।
चोवीसा हिय-सग-सम, तेवीस सहस्तयादि कुपुम्मि । खसीवो-द-व-सय- वीस-सहस्सा अरम्मि वासानं ॥६५॥
।। कुयु २३७३४ | भर २०६८४ ।।
:--- कुन्युनाथ जिनेन्द्रका केवलिकाल देईस हजार सातसो चौतीस वर्ष और धरनाथ जिनेन्द्रका बीस हजार दो सौ चौरासी वर्ष प्रमाण है । ६५ ।।
-रवि-अहिये-अड
एक्करसं प्रिय मासा,
इगि
। मल्लि वास ५४८६६ मा ११ दि २४
अर्थ :- मल्लिनाथ जिनेन्द्रका केवलिकाल चोवन हजार आठ सौ निन्यानवं वर्ष ग्यारह मास और धोबीस दिन प्रमाण है ||६६६ ॥
-
1352
Jatra
-ग्ण सहमणि वासारिख ।
उबोस विनाद मस्लिम्मि ॥९६६॥
बि-यव-सय-सत्त-सहस्सा रिंग बस्रारिंगपि ।
मालो सुम्बवए, केवलकालहस परिमाणं ॥६६७॥
। सुम्बद वा० ७४६६ मा १ ।
म :- मुनिसुव्रत जिनेन्द्रका के निकाल सात हजार चारसो निन्यानवं वर्ष और एक भास प्रमाण है || २६७॥
-
वासानि वो सहस्सा, चचारि सयाणि नमिम्मि इगिणी । एक्कोणा सश सया, बस मासा च विचाणि नेमिस्स ॥६६८ ।।
| णमि वा २४९१ । प्रेमि वा ६६२ मा० १० दि ४ ।
:- नमिनाथ जिनेन्द्रका केव विकास दो हजार चार सो एकानत्रं वर्ष पोर नेमिनाथ जिनेन्द्रका एक कम सातसौ वर्ष दस मास तथा चार दिन प्रमाण है ॥९६८॥
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तिसोयपमासी
[गाथा : ६६२-६७२ मार-मास-समहियार्म, अगत्तरि बस्सरानि पासबिने। पोरपि तीस पासा, केबलिकालस्स संघ लि IICE
• पारा वास १८ मा ८ । दोर यास ३० । स-पार्वजिनेन्द्र के केवलिकाल का प्रमाण आठ मास अधिक उनसर वर्ष और पीर जिनेन्द्रका तीस वर्ष है 1॥१६॥
प्रत्येक तोर्यकरके गणधरोंको संख्या
परमसवी से - पपरी, गणहरवा हट्ट • परियं ॥६७०॥
। उ
म ६०, सं १०५,
१०३, सु ११६. प. १११.सु ९५, पं.६३ ।
पर्य :-पाठवें तीर्थकर पर्यन्त क्रमश: चौरासी, नम्बे, एकसौ पांच, एकसो तीन, एकसो सोलह, एकसो ग्यारह पंचानबे और तेरानवे गणधर देव थे ।।१७।।
अहसीदी सगसीवी, सत्तार कक - सहिया सट्ठी । पनवण्णा पासा, तसो म अनंत - परियंतं ॥११॥
1 पु८८. सी ८७, से ७७, वासु ६६, वि ५५ अणं ५० ।
:--अमन्सनाय सीपंकर पर्यन्त क्रमप: प्रयासो, सतासी, सततर, शासठ, परसन और पचास गणपर थे ।।१।।
तेषालं छत्तोसा, पणतीता तोस अनीसा ।
अट्ठारस ससरसेककारस - कार - एककरत घ औरत ॥७२॥ घ० ४३, संति ३१. कुयु ३५, अर ३०. म. २८, मु १८, ए १५, णे ११, पा १०, वीर ११ ॥
प:-धर्मनायसे बोर जिनेन्द्र पर्यन्त क्रमशः तैतालीस, छत्तीरू पैतीस, तोस, अट्ठाईस, अठारह. सत्तरह, ग्यारह, दस और ग्यारह परधर थे ||६७२।।
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गाथा : ६७३-७६ ]
पउत्यो महाहियारो
[ २६३
ऋषभावितोयंकरोंके मार गणघरोंके नाम
'पढमो है उसहसेगो, केसरिसेगो प पावतोय । पनवमरों' प बम्जो, चमरो बसरस - वेबमा ||९७३॥ मागो कुथू धम्मो, मंदिरमामा मओ अरिहो य । सेणो सकायुहयो, सयंमू कुभो विसाखो य ।।६७४।। मल्लीणामो सोमा - वखत सयंभु • इंबभूवीओ।
सहावीणं प्राविम - गणहर णामानि एवाणि ||९७५।।
प:- ऋषभसेम, २ केशरि (सिंह) सेन, ३ पारदत्त, ४ वप्जयमर, ५ वज, चमर, ७ बमदत्त ( बलिदत्तक ), ८ वैदर्म, नाग (अनगार), १० कुन्यु. ११ धर्म, १२ मन्दिर, १३ जय, १४ बरिष्ट, १५ सेन ( अरिष्टसेन ). १६ घायुष, १७ स्वयंभू, १८ कुम्भ { कुन्यु }, १६ विशाख, २. मल्सि, २९ सोमक, २२ वरदत्त, २३ स्वयंभू और २४ इन्दभूति, ये क्रमशः ऋषभादि तीर्थक के प्रथम गसपरोके नाम है1९७३-६७५।।
[ ताक्षिका : २६ अगले पृष्ठ पर देषिये ]
ऋषियोंका स्वरूप कहनेको प्रतिज्ञा एवं उनके भेदएवं गनहर - देवा, सम्वे विहु अट्ठ-रिवि-संपुष्णा ।
तागं रिदि . सहवं, लब - मेतं सं गिस्बेमो ॥६७६॥
म:-ये सब ही गणधरदेव पाठ ऋद्धियोंमे संयुक्त होते हैं। यहां उन गणधरों को अडियोंके स्वम्पका हम लव-मात्र निरूपण करते हैं ।।६।।
-
-
-.
१. प.ब.क. ब. क. ५. पथमा। २. द. म. ज. स. 1 सम्बपरी ।
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सिलोयसमाती
[ तालिका । २६
२६४ ] तालिका : २६
सीकरोंका केसिकाल, गणघरोंको संख्या एवं नाम
नं
नाम
केबलिकाल ( गा० ६५२-६६६ )
गणारीकी
ऋषमादि सोध.के माध गराघरोंके नाम मा.९७३-७५
४
Mar-19
धर्म
ऋषभनाथ | ६९११६ पूर्व, FARRERE पूर्वाग, ८३६१००० वर्ष ।
ऋषमसेन अजितनाप| ERREE पूर्व, ३६RE८ पूर्वांग, ३६६६८८ वर्ष ।
केपरि(सिंह सेन सम्भव [REER पूर्व, ३६१९६५ पूर्वाग, २३६५६ वर्ष। १०५ बादत ममिनन्दन | RRER पूर्व, CAREE१ पूर्वाग, ८३६६६५२ वर्ष । १०३ वछचमर सुमतिनाय ६६९९९ पूर्व, २६९८७ पूर्वांग, १३६६८० वर्ष।।
११६ बम | पद्मप्रभु | REEEE पूर्व, ३६१६८३ पूर्वाग, ८३६ वर्ष ।
चमर सुपाएवंनाष| REEEE पूर्व ८३६६EGE पूर्वाग, ८३६६६६१ वर्ष । ६५ अलबत्त | चन्द्रप्रभ REEEE पूर्व, ३२६७५ पूर्वाग, ३६६EL वर्ष माह।। ५३ बैदर्भ | पुष्पदन्त | REEER पूर्व.३६१६१ पूर्व गि, ८६६६६६ वर्ष ।
नाग (अमगार) तलनाथ | २४६१८ पूर्व, ८३REEE पूर्वाग, ८३६६६६७ वर्ष ।
कुम्यु श्रेयांसनाथ २०६REE: वर्ष । १२ | वासुपूज्य ५३६६६६९ वर्ष ।
मन्दिर [विमसनाप १४६
५५ जय १४ | अनन्तनाथ ७४E
मरिष्ट १५ | धर्मनाथ २४६६६९ वर्ष ।
४३, सेनारिष्टसेन) १६ शान्तिनाप २४९
३६ चक्रायुध २३७३४ वर्ष ।
३५ स्वयंभू अरमाथ २०१८
40 मल्लिनाथ ५४६ वर्ष, ११मास, २४ दिन।
विशाख मुनिसुवत ७६ वर्म, १ मास
१८ मल्लि नमिनाष २४६१ वर्ष।
सुप्रम(सोमक) नेमिनाथ ६११ वर्ष, १० मास, ४ दिन ।
वरदत पाएकनाथ ६६ वर्ष, ८ मास ।
१० | स्वयंभू बोरनाष ३० वर्ष ।
इन्द्रभूति
| कुन्युनाव
PY.
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महाहियारो
बुद्धो - विकिरिय' - किरिया, तब बाल-ओसहि-रसविलीरियो । एवासु बुद्धि रिद्धी,
गाया : ९७७-६८१]
ओहि भगपन्नानं, केवलनाची षि बीज - बुद्धी थे । पंचमया कोटूमई, पदानुसारित
च पस्तं
संभिण्णस्सोवित', दूरस्साद राधान दूरस्वणं तह दूरवंसणं
·
-
-
१.. मक्किरि ।
बुद्धि वादिसं ॥६६०||
दस-चोट्स पुष्विस निमित्त रिद्धीए सत्य कुसलत ं । पनसमाहियाणं, कमसो पय :- १ बुद्धि, २ विक्रिया, ३ क्रिया ४ तप ५ बल, ६ औषधि, ७ रस और क्षिति ( क्षेत्र ) के भेदसे ऋद्धियां प्राठ प्रकारको हैं ।
बायको
-
-
[ २९५
इनमेंसे बुद्धिऋद्धि- १ अवधिज्ञान, २ मन:पर्ययज्ञान, ३ केवलज्ञान. ४ बीजवुद्धि, ५ को मति, ६ पदानुसारित्व ७ संभितश्रोतृत्व, दूरास्वादन. ६ दूरस्पर्श, १० दूरभाण, ११ दूरवरण, १२ दूरदर्शन, १३ दसपूदित्व, १४ चौदह-पूविश्व १३ निमित्तऋद्धि इनमें कुशलता, १६ प्रज्ञाश्रमरा, १७ प्रत्येक बुद्धित्व और १८ वादिश्व इन अठारह भेदोंसे विख्यात है ।। ६७७-१६० ।।
बुद्धि ऋद्धियोंके अन्तगंत अवधिज्ञान ऋद्धिका स्वरूप
अंतिम संवंताई परमाणु हृवि मुत्ति दव्वाइं । जं पच्चवलं जाण, तमोहिगाणं ति पावव्वं ॥ ६८९ ॥
| ओहिणानं गदं ।
ठ्ठ ६७८ ।।
च ।
चेव ।।६७६॥
म
: जो (देश) प्रत्यक्ष ज्ञान अन्तिम स्कन्ध- पर्यन्त परमाणु मादिक मूर्त int जानता है उसको अवधिज्ञान जानना चाहिए । ६८१ ॥
। षज्ञानका वर्णन पुर्ण हुआ ।
२. द. ताई, क. अ. म. उ. बताई।
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२९६ ]
तिलोयपाती
[ गापा : १२-१०५
मनःपर्ययज्ञान ऋद्धि
चितियमविलियंबा, '' चिसियमय - मेय - गयं ।
बाबईपर-सोए, विष मनपस मार्ग
|
। ममपजामागं गये। अर्थ :-मनुष्य खोकमें स्मिस अनेक भेद रूप चिन्तित, अधिन्तित अथवा अविन्तित पदापोंको सो जान जानता है बह मनःपर्य यशान है ।१६८२।।
। मनःपयशान का वर्णन पूर्ण हुमा ।।
केवलज्ञान
उपविदु-सयल-भाषं, लोयालोएस तिमिर - परिचरां । केबलमखंड - मे, केवपणानं भगति 'विमा ||३||
केवलणा गवं । बर्ष:-जो ज्ञान प्रतिपक्षीसे रहित होकर सम्पूर्ण पदापीको विषय करता है, लोक एवं अलोकके विषयमें अज्ञान-तिमिरसे रहित है, केवस ( इन्द्रियादिक की सहायतासे रहित ) है पौर प्रचण्ड है, उसे जिनेन्द्रदेव केवलज्ञान कहते है ।।१३।।
1 केवलशान का वर्णन पूर्ण हमा ।
बीजमुशिबोरविय • सबणाणावरगान बोरयंतरायाए । तिविहाणे पयोग, उसस्स - सोकसम - विवस III संखेन • सम्यागमहागं तस्य लिग - संवतं । एक चिय बीजपवं, लसूण गुरुपदेसे ॥१८॥
....... .. य. . प्रत्यनिता य। २... उ. मिणा
। ३. ब. क. म. 4. गरिय ।
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गामा : १८६-६८६ ] उत्यो महाहियार
[ २९७ सम्मि पवे माहारे, सयल • सुब चितिम्ण' गेहेरि । कस्स वि महेसिजो जा, पुरी सा गोज - बुद्धि ति ॥६॥
।बीज-बुद्धी समत्ता। प:-नोन्दियावरण, श्रुतशानावरण और वोर्यानराय इन तीन प्रकारको प्रकृतियों के उस्कृष्ट क्षयोपशमसे विशुर हुए किसी भी महषिकी जो बुद्धि संख्यात-स्वरूप शम्दोंके मध्य मेंसे लिङ्ग सहित एक ही वीयभूत पदको गुरुके उपदेशसे प्राप्त कर उस पदके पाषयसे सम्पूर्ण श्रुतको विचार कर ग्रहण करती है. वह बीज-बुद्धि है ।।६-४-१८६||
। योज-सुशिको वर्णना समाप्त हुई।
कोबुद्धिउपस • धारणाए, जुसो पुरिसो गुरुयोसेन । गागामिह • गंपेम", विस्थारे लिंग - सह - बोनाणि ।।७।। गहिऊग निय-मवाए, मिस्सेण विना परेवि मवि-कोर्ट। जो होगि तस्स बुद्धी, गिट्टिा कोट्ट - बुद्धि ति IIEEEIN
कोट-सुद्धौ' गवा। म:-उत्कृष्ट धारणासे युक्त जो कोई पुरुष ( ऋषि ) गुरुके उपदेशसे नाना प्रकारके अन्योंमेंसे विस्तार पूर्वक लिन सहित शब्दरूप बीजोंको अपनी बुद्धिसे ग्रहण कर उन्हें मिधरपके बिना बुद्धिरूपी कोठमैं धारण करता है, उसकी बुद्धि कोष्ट-बुद्धि कही गई है ॥९८७-८८||
। कोष्ठ बुद्धिको वर्णना समाप्त हुई 1 पदानुसारिणो बुद्धिके भेर एवं उनका स्वरूपपुयो बियस • गाणं, पदानुसारी हवेदि तिमियप्पा । अणुसारो पहिसारी, जहत्व - भामा उभयसारी HERE)
-
.
-.
---
-
-
१. प. प. प. . च. निसियारणं। २. ८. कित्येसु बिस्वो लिन सच बोजागि। 1.द.व. क. प. य. उ.कोमुदिई ।
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२२८ ]
azesसिलोयपष्णुची प्राथERPREE :-विशिष्ट प्रानको पदानुसारणी बुद्धि कहते है । उसके तीन भेद हैं--अनुसारणो, प्रतिसारणी और उभयसारणी ! ये तीनों बुद्धियां यमाय नाम वासी हैं। ..
आदि - अवसान - मासे, गुरुवदेसण एक-चौबन्पर्व । गेव्हिय सरिम-गंध, जा गिहदि सा मवी हु अणुसारी IIEI
. . । अनुसारो गदा ! , । यो बुद्धि मावि, मध्य एवं अन्समें गुरुके उपदेशसे एक बीज पदको ग्रहण करने . उपरिम ग्रन्थको ग्रहण करती है वह अनुसारणी बुद्धि कहलाती है HREST .. .::., : :
अनुसारणी बुद्धि को वर्णमा समाप्त हुई। मादि-अवसाण-मज्झे, गुरुपवेसेण एक - बीज - एवं । गेव्हिय हेहिम - गंप, मुरझवि डा सा +, पडिसारी ILE१॥ . .. . . . . ।पडिसारी गा। .. : कर
प्रर्ष :-गुरुके उपदेयसे आदि, मध्य अथवा अन्तएक बीज पदको ग्रहण करके जो बुद्धि मधस्तन ग्रन्थको जानती है। वह प्रतिसारणी बुद्धि कहलाती है ।।६६१॥
।प्रतिसारणी बुद्धि को वर्णना समाप्त हुई। णिपमेग मनिपमेन य, सुगवं एगस्स बोज - सइस्स । जरिम - हेडिम - गचं, जा' मा उभयसारी सा IIEE२| . ... . . . । उ मलारी गा ।
। एवं पदानुसारी गया । प्र :-जो बुद्धि नियम प्रथवा अनियमसे एक चीज-शब्दके (पहरण करने पर ) उपरिम और अधस्तन ग्रन्थको एक साथ जानती है, वह जयसारणी बुद्धि है ||१९||
। - । । समय-सारणी युक्षिका कमन समाप्त हुआ। : . .
। इसप्रकार पदानुसारगो बुद्धिका कथन समाप्त हुआ।
..-
-. ......ब.क.स य. उ.भो ।
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गाया : ६५-६६७
वउत्था महायारा
| २६ सम्मिन्नश्रोतृत्व-युद्धि-ऋद्धिसोविरिय' - सुदरखाणावरमाणं बोरियतरायाए । उपकस्म - लबोबसमे, उविरंगोवंग - णाम - कम्मम्मि ६६३|| सोदुमकरस · विवादो, बाहिं संखेन - जोयग-पएसे । संठिय - रणर- सिरियागं, बहुयिह - सद्दे समुत्पते ॥६६४|| अक्सर • मणक्सरमए, सोपूणं बस - बिसात पसे । विदि परिषपर्ग, संघिय संभिग्ग - सोवित १९५||
। संभिषण-सोविस गवं । म:-श्रोत्रेन्द्रियावरण, श्रुतमानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अलोपाङ्ग मामक्रमका उदय होनेपर श्रोत्र-इन्द्रियके सस्कृष्ट वेवसे नाहर दसों दिशाओं में संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र स्थित मनुष्य एवं तिब्दोंके प्रभारानमारात्मक बहुत प्रकारकै उठने वाले तन्दों को सुनकर जिससे प्रत्युसर दिया जाता है, वह संभित्रयोदृस्य नामक वृद्धि-द्धि कहलाती है IHREE-E1
। संभित्रोतृस्व-बुद्धि ऋद्धिका कथन समाप्त हुआ।
दूरास्वादित्व-धिविभिषिय - सुवणागाबरणाणं गीरिर्पतरायाए । उपास्स - सबोवसमै सजिग्गोवंग • गाम - कम्मम्मि IIE६६॥ जियसुबकास-सिवोदो, माहि संज-जोयन-ठियारां । विदिह - रसागं सावं, माणइ दूर - सारित ॥६७||
। दूरसावित गर्द।
मई:-जिह्वन्द्रिवावरण, श्रुतशानावरण और वीर्यान्तगयका उत्कृष्ट क्षयोपशाम तथा मङ्गोपाल नामकर्मका उदय होने पर ओ जिह्वाइन्दिरके उस्कृष्ट विषय-क्षेत्र से बाहर संध्यात योजन
१.प.अ. प. उ. सोविण ।
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३०० ]
तिलोय पण्णी
[ गाया : ९६८-१००१
प्रमाण क्षेत्रमें स्थित विविध रसकि स्वादको जानती है, उसे रास्यादित्व ऋद्धि कहते
हैं ।।६६६-६६७।।
। दूरास्वादित्व ऋद्धिका कथन समाप्त हुआ ।
दूरस्पर्शत्व ऋद्धि
अन आधा श्री सुविध फासिविय
सुबणाणावरना बोरिमंतरायाए ।
उनकस्स खवोषसमे, उदिदंगोवंग नाम - कम्मम्मि ॥६६६ ।।
-
-
.
"
फासुत्रकस्स खिडीदो, बाहिं संखे-भोपण-ठियाणं । जं जाखड़ नूर फासत IEEEW
अट्ठ बिष्फासाणि,
-
। सूर- फासं गवं ।
अर्थ :- स्पर्शनेद्रियावरण श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा भङ्गोपाङ्ग नामकर्म का उदय होने पर जो स्पर्शनेन्द्रियके उत्कृष्ट विषय क्षेत्र से बाहर संख्यात योजनोंमें स्थित माठ प्रकारके स्पोंको जानती है वह दूरस्परवऋद्धि है ।।९१८- ९६६
। दूर- स्पर्शदेव ऋद्धिका कथन समाप्त हुआ । दूर- चान्वद्धि-
-
-
घारिबिय सुवणाणावरजाणं बोरियंतरायाए । उपकस्स - सवोवसने, उनिवंगोबंग नाम कम्पनि ||१०००|| धारणुक्कस्स-मिदोदो, बाहि संबंज्ज-जोवण-गनि' । जं बहुविहगंधाणि, सं घादि दूर घागसं । १००१ ॥ । दूर-घाणसं गदं ।
श्रबं :- प्राणेन्द्रिय । दरगु श्रुतज्ञानावरण और वोर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मका उदय होने पर जो प्राणेन्द्रियके उत्कृष्ट विषय क्षेत्रसे बाहर संख्यात योजनोंमें प्राप्त हुए बहुत प्रकारके गन्धोंको सूंघती है, वह दूरमाणाव ऋद्धि है ।। १०००-१००१ ॥
। दूराणस्व ऋद्धिका कपन समाप्त हुआ ।
१.ब.क.उ. गदाएं २. ८. ब. क. ज. य. रा. गंवाएं।
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LATE
:.. ard
Raisi. ! ....
गाचा : १.०२-१००६ ] चउत्यो महाहियारो
[ ३०१ दुर-श्रवणरव-ऋद्धिसोविविय - सवगागावरगाणं बोरिवंतरायाए । चक्कस्स - साबोक्समे, उदिवंगोवंग - गाम - कम्मम्मि ॥१००२॥ सोवुक्कस्स - सिंबोयो, बाहि संखेज्ज - जोयण • पएसे । चिटुताणं माणुस - तिरियाणं बहु - वियप्पाणं ॥१००३॥ अमलर • अणखरमए, बहुषिह - सई पिसेस-संजुत्ते। उप्पो आयम्णा, अं भगिभं दूर - सवरा ॥१००४।।
। दूरसवणत्तं पदं । पर्य:-श्रोरेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और कार्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तपा मगोपाल नामकर्मका उदय होने पर जो श्रोयेन्द्रियके उत्कृष्ट विषय क्षेत्रसे बाहर संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्रमें स्पित-रहने वाले बहुत प्रकारके मनुष्यों एवं तियंग्योंकी विशेषतासे संयुक्त अनेक प्रकारके पक्षरानझरात्मक धम्दोंके उत्पन्न होने पर उनका श्रवण करती है, उसे दूरश्रवणत्व ऋद्धि कहा गया है ॥१००२-१००४।।
। दूरबवरणय-ऋद्धिका कथन समाप्त हुआ।
दूर-दशिन्य-ऋद्धिहविविय • सुषमाणावरणागं वौरियंतरापाए । उपकस्स • सोवसमें, सविदंगोवंग - गाम - कम्मम्मि ।।१००५॥ छपकस्स-खिवोदो, बाहि संखेज - जोयण - ठिदाई । अंबहुविह • बप्वाइं, वेखाइ चूरपरिसिमं पाम ।।१००६।।
। पूरपरिसिन गई। म:-चक्षुरिन्द्रियावरण, शुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट अयोपशम तथा अङ्गोपाङ्ग नामरुमका उदय होने पर जो परिन्द्रियके उत्कृष्ट विषयक्षेत्रसे बाहर संख्यात योजनोंमें स्मित बहुत प्रकारके व्योंको देखती है, वह दूरदर्शित्व-कृद्धि है ।।१००५-२००६॥
। दूरदर्शित्व-ऋद्धिका कथन समाप्त हुआ।
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३०२ | वा. आचार्य टिका १००७-१०१०
दश-पूविस्व ऋद्धि
रोहिणि पहूदीण महाविज्जागं देवबाच पंच तथा ।
अंगु बनाई, 'खुल्लय बिज्जाण सत सया ||१००७॥
पुति ।
-
एकूण पेसचाई, मग्गंते बसम युव्द पढम्म । नेच्छति संजयंता, साओ जे ते' अभिन्नवसी ॥१००८ ॥
१.८.
:
- दस पुत्रं पढ़ने में रोहिणी आदि महाविद्याओं के पांचसो और अंगुष्ठ-प्रसेनादिक ( प्रश्नादिक) शुद्र (लघु) विद्यानोंके साहसी देवता माकर आज्ञा मांगते हैं। इस समय जो महर्षि जितेन्द्रिय होनेके कारण उन विद्याओं की इच्छा नहीं करते, वे 'विद्याधर बमरा' पर्याय नामसे भुवनमें प्रसिद्ध होते हुए अभिपूर्वी कहलाते हैं। उन ऋषियोंकी बुद्धिको दस पूर्वी जानना चाहिए 11१००७-१००६ ॥
-
। दस-पूत्व ऋद्धिका कमन समाप्त हुआ ।
- पूर्ववद्धि
सपंलागम - पारमया, सुबकेवलि ग्राम सुप्पसिया ने । एवाण बुद्धि
·
सुषमेसु सुव्यसिद्धा, विजाहर-समय-गाम-पज्जामा । सायं मुमीण बुढो, बसपुम्बी नाम बोद्धव्या ॥ १०० ॥
१ दसय्बो गया ।
-
रियो चोदसपुव्विति मामेण ॥। १०१० ॥
| चोट्स-पुवित" गवं ।
अर्थ :- जो महवि सम्पूर्ण आगमके पारंगत हैं तथा तमेवली नामसे सुप्रसिद्ध हैं उनके atesपूर्वी नामक बुद्धि ऋद्धि होती है ।। १०१० ॥
। चौदह - पूर्वित्व ऋद्धिका कमन समाप्त हुआ ।
-
क. ज. य. न. विश्वास । २. ४. व. क. ज. प. उ.
. . . . . .
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सपा : १०११-१०१४] पतलो महाहियारो
[३.३ निमित्त-ऋषिके अन्तर्गत नभ, भौम आदि मिमितोंका निरूपण--: गइमितिकारिखो, एभ - भवमंग - सराह जयं ।
लक्क्षण विहं तर, अट्ट - वियहि विवरिख ॥१०११॥
परं:-नैमित्तिक ऋद्धि नभ, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण. चिल्ल ( छिन्न ? ) मोरा स्वप्न इन पाठ भेदोंसे विस्तृत है ॥१०१.
रपि-समि-गह-पाहुबीन, उपयत्यमणाविआई' बट्टणं । कालतय-बुक्ल-सुहं, आणइ तं हि नह - णिमित्त ॥१०१२।।
.
.
। मासेमामस गई ।
प:-सूर्य, चन्द्र भौर प्रहमादिके उदय एवं प्रस्त आदिकोंको देखकर जो कालत्रयके . दुख-सुख आदिका मानना है, वह नम-निमित है।१०१२।। । ... ,
। ननिमित्तका धन समाप्त हुना। . धन-सिर-णिड-साल पहुवि-गुणे भाविदूग भूमीए । मं आणइ सत्य-अदित, 'तम्मयम-कणय-रणव-पमुहाणं ।।१०१३।। दिस-विहिस-अंतरेस, चउरंग - बलं दिवं च बढ्छ । जं जाणा जपमजयं, तं भउम - निमिसमुदि ॥१०१४।।
। असम-णिमित्तं गई ।।
पर्व: पृथिवीमे धन (सान्त्रता ), सुषिर ( पोलापन ), स्निायता और रूक्षना आदि गुणोंका विचार कर धो तांबा, लोहा, स्वर्ण एवं चांदी आदि घासुओं की हानि-वृद्धिको तथा दिशाविदिशाबोंके अन्तरालोंमें स्थित चतुरंगवलको देखकर जो जय-पराजय को भी जानता है, उसे भीमनिमित्त कहा गया है ।।१०१३-१०१४॥
। भौम-निमित्तका कषन समाप्त हुआ।
१..ब. क. ज. प. उ धादि। २... ब. क. अ. प. ३, तम्या ।
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गाषा: १०१५-१०१६
१०४ ]
तिलोयपागली पातानि - पपडीओ', लहिर • पहविस्सहाव-सलाई। निम्नान' उन्णयाग, अंगोवंगाण बंसचा पासा ॥१.१५॥ पर-तिरिया र जागा बुक्स-सोक्स-मरणादि । कालराय • गिपन्य, अंग • गिमिस पति तु ॥१०१६॥
। मंग-गिमित गर्द। म :-जिससे मनुष्य और तियंञ्चोंके निम्न एवं बनत अंग-उपागों के दर्शन एवं स्पांसे वासादि तीन प्रकृतियों मोर रुधिरादि सात स्वभावों ( घातुओं ) को देखकर तोनों कालोंमें उत्पन्न होने वाले मुख-दुःख तमा मरण-आदिको जाना जाता है, वह अम-निमिन नामसे प्रसिद्ध है ।।१०१५-२०१६॥
प्रङ्ग-निमित्तका कपन समाप्त हुआ। गर-तिरिमाण दिलित. सुर मोद्धा बुमस मोनादि कासराय • गिप्प, चं जागा सर-णिमिरी ॥१०१७॥
। सरमित गदं। प:-जिसके द्वारा मनुष्यों और तिर्यस्योंके विचित शब्दोंको सुनकर कासत्रयमें होने काले दुःख-मुखको जाना जाता है, वह स्वर-निमित्त है 11१०१५॥
। स्वर-निमितका कथन समाप्त हुमा । सिर-मुह-कंठ-प्पषित, तिल-मसय-परिमाणं । नं लिय-काल-सहाई', जागह तं पंजग - गिमित ।।१०१।।
१९
.
..
जग-गिमिरी गई। भ:-सिर, मुख और कण्ठ मादि पर तिल एवं मसे आदिको देखकर सीरों फालके सुखाधिक को जानमा, सो व्यजन-निमित्त है ।।१०१८॥
। व्यञ्चन-निमित्तका कथन समाप्त हुआ।
....... म. तिहारण उहवालं। ४.८.रा
परिदोमो। २...ब.क.प. य. न. पा ..स.क. ज. प. उ. . प. उ. मा। .प.ब.क.अ.म.न.पादि ।
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गाथा : १०१६-१०२४ ]
कर-चरण तल-म्पहविसु, पंक्रम कुलिसावियाणि बठूर्ण । जं सिय-काल-सुहाई लक्सर से लक्लग - गिमितं ॥ १०१ ॥
समक्षण-निर्मित गदं ।
मोद
:- हस्ततल (हथेली) और चरणतल (पगतली ) आदि में कमल एवं वन्त्र इत्यादि चिह्नोंको देखकर कालत्रयमें होने वाले सुखादिको जानना, यह लक्षण निर्मित है ।। १०२६ ।। ardestis श्री तुकी । लक्षण निमित्तका कपन समाप्त हुआ ।
सुर-दाणव- एक्खस- गर तिरिएहि छिन्न-सत्य-स्वाणि । पासाव पयर सादियाणि चिन्हाणि वर्ण ॥। १०२० ।।
-
-
महाहियारो
+
-
कालय संभू, सुहासु मरण- विविह वयं च ।
सुक्खा लमखर, चिन्ह-निमिदर्शि तं जागइ ।। १०२१।।
| विरह-निमितं गदं ।
:- देव, दानव, राक्षस, मनुष्य और तिर्यञ्चोंके द्वारा छेदे गये शस्त्र एवं वस्त्रादि तथा प्रसाद, नगर और देशादिक चिह्नोंको देखकर त्रिकालमें उत्पन्न होने वाले शुभ-यशुभको, मरणको, विविध प्रकार के द्रव्योंको और सुख-दुःखको जानना यह चिह्न निमित्त है ।। १०२०- १०५१ ।।
·
-
-
| विनिमितका कथन समाप्त हुआ ।
वातादि दोसतो, पछिम रते मयंक - रवि-पाद ।
निय सुह-कमल-पबिट्टु, बेक्लइ सजर्णाम्म सुह - सउनं ।। १०२२॥
घड
सवभंगावी, रासह करभाविएसु आरोहं ।
परबेस गमण सम्बं जं वेबसइ असुहतं ।। १०३३॥
-
1
-
-
वं भासह दुक्ख सह तं वियस निमित
१. . . . . वद । २. व. बालवि ३. ४.
| ३०५
व्यमुहं कालसए बि संजाई ।
जिव्हा मालो' ति बो-भेदं ।।१०२४ ।।
म.न.
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३.६ ।
तिलोयर माती [ गावः : १०२५-१०२८ करि-केसरि पहबोली, 'सग - मेजारि विमरण त पुम्बाबर - संबंष, सवर्ण से माल : सरमो ति १.२५॥
। सउण-निमिरा गई।
॥ एवं निमित्त-रिकी समचा ॥ भ:-वाठ-पित्तादि दोषोंसे रहित सोया हुआ व्यक्ति पिछली रात्रिम यदि अपने मुखकमलमें प्रविष्ट होते हुए सूर्य-चन्द्र प्रापि शुभ स्वप्नोंको देने तपा घृत एवं तेल आदि की मालिश, गर्दन एवं ऊँट मादि पर सवारी और परदेश-गमनादिरूप मशुभ स्वप्न देखे तो उसके फलस्वरूप सीन कासमें होनेवाले सुख-दुःखादिकको बतलाना स्वप्न-निमित है । इसके गिल और माला पसे दो भेद है। इनमें से स्वप्नमें हाथी एवं सिंहादिकके दर्शन मात्र आदिकको पिल-स्वन्न पोर पूर्वापर सम्बन्ध रखने याले स्वप्नको माला स्वप्न कहते हैं ॥१०२२-१०२५॥
। स्वप्न-निमित्तका कथन समाप्त हुआ। ! इसप्रकार निमित्त-ऋद्धिका कथन समाप्त हुना।
प्रमा-थमण-ऋद्धिपम्वोए सुवासापरणाए बोरिवंतरायाए । उस्कस्स - सदोषसमे, उप्पम्बाइ पण - सममडी ॥१०२६॥ पखा-सपवि-धुवो, शोहस-पुम्बीसु विसय-सहमत। सव्वं हि सर्व जामवि, अकाममणो वि रिणयमेल ।।१०२७॥ भासति तस्स बुद्धी, पन्ना - समनदि सा बड-भेदा ।
पडपत्तिय - परिणामिम-बहराइको-कम्मजाभिषाणेहि ॥१०५८।।
मन:-बुप्तज्ञानावरण और बीर्यान्सरायकमका उस समोपशम होने पर प्रज्ञा-श्रमणऋदि उत्पन्न होती है । प्रज्ञा-श्रमण-ऋद्धिसे युक्त महर्षि बिना अध्ययन किए ही चौदह-पूर्वो, विषयकी मूक्ष्मता पूर्वक सम्पूर्ण श्रुसको जानता है और उसका नियम-पूर्वक निरूपण करता है। उसकी
१. प.ब.क.अ. य. उ.दसणजेवादि।
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गाया । २०२९ २०३१ ]
महाहियारो
[ ३०७
बुद्धिको प्रशा- श्रमण-द्धि कहते हैं। वह प्रोत्पत्तिको पारिणामिको वैनमिकी घोर कर्मजा धनबाद नामों वाली जाननी चाहिए ।।१०२६-१०२८
antasia :.. आचार्य की आखिर की प अउपतिको भवंतर सुर बिनएवं समुल्लतिदभावा । मिय-य-जाबि बिसेसे, उप्पन्न पारिनामिकी गामा ||१०२६॥
·
बहन की विणएवं अध्यक्जबि बारसंग-सु-बोगे । सममेसेज बिप्पा तय बिसेस लाग कम्मा रिमा || १०३०||
। पण्णा समणद्धि गया !
-
-
अर्थ : पूर्व भवमें श्रुतके प्रति की गई विनयसे उत्पन्न होने वाली मौमिकी, निज-निज जाति विशेषमें उत्पन्न हुई पारिणामिकी, द्वादशाङ्ग श्रुतके योग्य विनयसे उत्पन्न होने वाली वैनयिकी और उपदेशके बिना ही विशेष तपकी प्राप्तिसे प्राविर्भूत हुई दोषी कर्मजा प्रज्ञा श्रमण-ि समझनी चाहिए ।। १०२६ - १०३० ।।
। प्रज्ञा श्रमश ऋचिका कथन समाप्त हुआ ।
प्रत्येक-बुद्धि
कम्मान उसमे य, गुरुबदेसं विणा कि पावेदि तबप्पगमं ओए' पत्तय
सण्णान
- बुद्धी गवारे |
अर्थ :--- जिसके द्वारा गुरुके उपदेशके बिना ही कहके उपशमसे सम्यग्ज्ञान और सपके विषय में प्रगति होती है, वह प्रत्येक-बुद्धि कहलाती है ।। १०३१।।
प्रत्येक बुद्धिका कथन समाप्त हुआ ।
1. . . . W, Z. 3.
·
२. ६. ब. क. म. उ. गदं
बुद्धी सा ॥। १०३१ ॥
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गाया:१०३२-२०३४
तिलोधपमाती बादिरव-वधि
समकाबि पि विपासं, बहुवादेहिं गिरासरं कुभदि । पर - दबा' गसर, बीए पाविस : बुटीए ।।१०३२।।
पारित-रिवो-गा।
प्रम:-जिस ऋद्धि द्वारा मास्यादिक ( या शक्रादि ) विपक्षियों को भी बहुत मारो वादसे निरुप्सर कर दिया जाता है और परके द्रव्योंको गोषणा ( परीक्षा) की जाती है (या दूसरों के हित अपवा दोष दे जाते हैं) वह वादिस्य बुद्धि-ऋद्धि कहलाती है ।।१३२॥
मादिस्व-बुद्धि-खिका कपन समाप्त हुआ। ।। इसप्रकार बुदि-ऋद्धिका कपन समाप्त हुभा ॥
विक्रिया ऋद्धिके भेद एवं उनका स्वरूपअणिमा-महिमा-सपिमा-गरिमा-पत्ती य तह पाकम्मं । ईसत - मिसा', अप्परिधावतमामा य॥१०३३॥ रिद्धी । कामख्या, एवं हि विविह - मेएहि । रिडि - विकिरिया प्रामा, समणानं तव - बिसेसेणं ॥१०३४॥
प:-अणिमा, महिमा, तधिमा, गरिमा, शप्ति, प्राकाम्य, ईयत्व, वशित्व, मप्रतिपात, अन्तर्धान और कामरूप, इस प्रकारके भनेक भेदोंसे युक्त विकिया नामक ऋद्धि तपो-विशेषसे श्रमणोंके हुआ करती है ।।१०३३-१०३४।।
[पर निदा ].
२.., तर पप्पकाम । ३.३. पहा प्रपाकाम।
१.८..क.
ब.उ.वसताई
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गाया : १०३५ - १०३८ ]
स्थो महाहिमारी
अणिमा- ऋद्धि-
अणु-स- करणं अणिमा, अनुछिरे पबितिरण तस्येव । संदावार, जिस्सेसं
विकिरदि
चक्कबट्टिस्स ।।१०३५।
:- शरीरको अणु बराबर ( छोटा ) कर लेना अणिमा ऋद्धि है। इस ऋषिके प्रभावसे महर्षि अगुके बराबर छिद्रमें प्रविष्ट होकर वहाँ हो ( विक्रिया द्वारा ) चक्रवर्ती सम्पूर्ण कटककी रचना करता है ।। १०३५ ।।
महिमा लघिमा चौर गरिमा जियाँ
कार्यक:- आई ही सुनिटी मेरुवमाण े- देहा, महिमा प्रमिलाउ लहूतरो लहिमा : माहिती गुरुवधर्म च गरिम ति अति ।। १०३६ ।।
-
अर्थ :- शरीरको मेरु बराबर ( बड़ा ) कर लेना महिमा, वायुसे भी लघुतर ( पतला ) करनेको लघिमा और वखसे भी अधिक गुरुता युक्त कर लेनेको गरिमा ऋद्धि कहते हैं ।। १०३६ ॥
प्राप्त-ऋद्धि
सूमीए चेटुसो, अंगुलि अग्गेण नर ससि पहुदि ।
-
मेव सिहरानि अपने अं पार्थानि पत्ति रिद्धीसा ॥१०३७ ॥
·
[ ३०१
·
:- भूमिपर स्थित रहकर अंगुलिके अग्रभागले सूर्य-चन्द्र बादिरुको, मेरु-शिरोंकी
तथा अन्य भी वस्तुओं को जो प्राप्त करती है वह प्राप्ति ऋद्धि कहलाती है ।। १०३७।।
प्राकाम्य ऋद्धि
सलिले दियभूमीए उम्मक-निमज्जनाणि जं कुरराबि । मोए बिय सलिसे, गच्छमि पाकम्प रिद्धी सा ॥१०३६ ||
+
:-जिसके प्रभावसे ( श्रमण ) पृथिवोपर भी जलके सहवा उन्मज्जन- निमज्जन करता है तथा जलपर भी पृथिवोके सहा गमन करता है। वह प्राकाम्य ऋद्धि है ।। १०३८
१. ८. लिए । २. ब. क. स. मेवारा। 1. 4, 4, 7. menfe a
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३१.]
तिलोपरणती [ गाथा । १०३६-१०४२
ईमत्व-वशित्व-ऋद्धिबिस्सेसाग पाहतं, अमान ईसस - जाम • रिती सा।
बसमेति तब - बसेन, संजीबोहा बसित - रियो सा ॥१०३६॥
प:-जिससे सब मनुष्यों पर प्रभुत्व होता है. वह शिव-नामक ऋद्धि है तथा जिससे तपो-वस द्वारा जीव-समूह वय में होते हैं. वह वशिरव अदि कही जाती है ।।१०३६।।
अप्रतिघात-ऋद्धिसेल-सिसा-सम्पनुहानामतर' होडून गपवं ।
जं चादि सारो . अप्पडिपावेति मा URATRNET
प:-जिस हविक बससे शंल, सिसा और वृक्षाविकके मध्य में होकर पाकाचके सदृश गमन किया जाता है. वह सापक मामवाली अप्रतिषात-ऋद्धि है ॥१४॥
वहस्यता एवं कामरूपित्त-द्धिहदि 'अदिसतं, अंतखाणाभिहाण - रिकी सा । जगवं बहुरूवाणि, प्रो विश्यवि कामरूप - रियो सा १०४१॥
विकिरिया-रिति ममता । म:-जिस दिसे प्रदृश्यता प्राप्त होती है, वह अन्तर्वान-नामक अखि मोर जिससे मुगपत् बहुतसे रुप रचे जाते हैं. यह कामरूप-ऋडि है ।।१०४१॥
।विकिया-ऋवि-समाप्त हुई। क्रिया ऋद्धिके भेद, बाझाश-गामिनी-शक्षिका लक्षण एवं पारण-टिके भेद
दुबिहा किरिया - रिसी, महपाल-गामित-बारामहि । टोमो आसीनो, काउन्सग्गेन पररेणं ।।१०।२।।
२...ब.क.अ. य. न. दिसत
१, 2.ब.क... उ. पमुहाणं मंसरतं होडम। ....क, इति। ४.८,.. उ. उसीप्री, क. उन्मीयो।
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पाषा । १.४१-१०४७ ] उत्यो महाहियारो
गब्वेवि जिए गयणे, सा रिसो गया-गामिणो मामा । पारन • रिखी बहुविह - वियप्प - संबोह • बिस्परिका १०४३॥ जल-जंघा-फल-पुल्फ, पत्तम्गि - सिंहाण धूम - मेधारणं ।
पारा मस्कर'- संतू - जोदो - मराण वारणा कमसो ॥१०॥४॥ ' वाभिमा- कभKARTE-
चारणस्त । इममेंसे जिस अनिके द्वारा कायोत्सर्ग अथवा अन्य प्रकारसे ऊम्य स्थित होकर पाठकर आकाशमें गमन किया जाता है, वह पाकास-नामिनी मामवासी ऋद्धि है। दूसरी पारण-ऋद्धि क्रमशः जन-भारण, जलाधारण, फल-पारण, पुष्प-वारण, पत्र-पारण, मग्निशिया-नारण, घूम-बारण, मेष-चारण, धारा-पारण, मकड़ी-तन्तु-पारण. ज्योतिश्चारण और महञ्चारण इत्यादि अनेक प्रकारके विकल्प-समूहोंसे विस्तारको प्राप्त है ।।१०४२-१०४४।।
जल-पारण-ऋद्धिअविराहियम्पुकाए. जीवे पद - खेवहि जं जाधि ।
पावेवि जमाहि-मम्झ सम्वे व अल - धारणा' - रिवो ॥१०४५।।
बर्ष:-जिस दिसे जीव समुद्रके माध्यमे अर्थात् जलपर पर रखता आ जाता है और दौड़ता है किन्तु जलकायिक जीवोंकी विरावना नहीं करता घह जल-चारण-अद्धि है।॥१०४५।।
जजाबारण-ऋद्धिपवरंगुल-मेस-महि, गिग गयाम्म डिल-जाणु विणा । " चं गह- जोषण - गमर्म, सा जंघाचारणा रियो ।।१०४६।।
भ:-चार-अंगुल प्रमाण पृथिवोको छोड़कर तथा घुटनों को मोले बिना जो भाकाशमें बहुत योजनों पर्यन्त गमन करता है, वह अनाचारण-ऋद्धि है ॥१०४६।।
___ फलधारण-ऋद्धिअविराहिम जीये, तस्सीले बण - फलाण विविहानं । रिम्मि जं पधापति, स विषय फल - चारणा रिखी ॥१०४७॥
1..ज, . मकर संव। २.प. म. प. मल-पासएा ।
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३१२ ]
लिलोयपणणसी [ गाथा : १०४८-१०५.१ म:-जिस ऋद्धिस विविध प्रकारके वन फलोंमें रहने वाले जीवोंकी विराधना न करते हुए उनके ऊपरसे चौता ( बसता ) है, वह फल-पारण ऋद्धि है ।।१०४७।।
पुष्पपारण-ऋद्धि
अधिराहिदून जोवे, तल्लोणे बह • बिहान पुष्फाणं । उरिन्मिजं पसम्पति, सारिती पुम्फ-वारणा नामा ॥१४॥
कि :... KARTE THEATRE TET म :-जिस ऋद्धिके प्रभावसे बहुत प्रकारके फूलों में रहने वाले जीवोंकी विराधना न करके उनके ऊपरस जाता है. वह पुष्पचारण नामक ऋद्धि है ।।१०४!
पत्रचारण-ऋद्धि
अविरहिवण जीये, तल्लीन मह - विहाण पत्ताणं ।
मा उमरि बचाव पुरणी, सा रिडी पत्त-वारणा नामा ||१०४६॥
प्र:-जिस दिका धारक मुनि बहुत-प्रकारके पत्तों में रहने वाले बीबोंकी विराधना न करके उनके ऊपरसे चला जाता है वह पत्र-पारण नामक यदि है ॥१०४।।
भग्निशिखा-पारण ऋद्धि
अविराहिण जीवे, अग्गिसिहा - संठिए विचित्तानं ।
ताण उरि गम, अग्गिसिहा - चारका रिसी ।।१०५०।। पर्ष :- अग्निनिधानों में स्थिस जोषोंको विराधमा न करके उन विचित्र अग्नि-शिवानों परसे गमन करना अग्निशिखा ऋदि कहलाती है ॥१०५०।।
धूम-धारण-ऋद्धिमाह-उल-तिरिय-पसर, पूमं 'अवलंबिका जे देति । पर - सेबे अक्क्षलिया, सा रिसी धूम - मारणा जाम ॥१०५५।।
१.८... क, प्रनिर्म बिकए ।
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गाषा । १०५२-१.५५ ] पजत्यो महाहियारो
पर्य:-जिस ऋषिके प्रभावसे मुनिजन नीचे, ऊपर और तिरछे फंसने वाले पुएंका भवसम्बन लेकर अस्मति (एकसी गति ) पावक्षेप करते हुए गमन करते हैं, वह-धूम-धारण मामक ऋद्धि है ।।१०५१॥
अविराहिण औफे, अपुकाए बहु · विहाण मेयार्ण ।
जं उरि गच्छन मुमो, सा रिवी मेघ - वारणा गाम ॥१०५२॥
प:-जिस ऋद्धिसे मुनि अप्कारिक जीवोंको पोड़ा न पहुँचाकर बहुत प्रकारके मेषों परसे गमन करते है. वह मेघ-वारण नामक ऋद्धि है ।।१०५॥
धारा-चाररण-ऋद्धि
अधिराहिय तल्लोणे, मोवे घन मुक्क-पारि-धाराणं ।
'स्वरि जं जावि मुणी, सा बारा • चारणा रिडी ॥१०५३।।
मपं:-जिसके प्रभावसे मुनि मेषोंसे छोड़ो गयो जलधाराओंमें हिंघन जीवों की विराधना न कर उनके ऊपरसे जाते हैं. वह धारा-चारण-ऋद्धि है ।।१०५३।।
मकड़ी तन्तु-चारण-ऋद्धिमकाय-संतु-पती-उरि अहिलधुओ तुरिव-पर-खेवे ।
गन्धेषि मुरिण - महेसी, सा मक्का -संतु-बारणा रिa||१०५४।।
मर्ष:-जिसके द्वारा मुनि-पहर्षि शीघ्रतासे किए गये पद-विक्षेपमें प्रत्यन्त लघु होते हुए. मकड़ीके सन्तुओंकी पंक्ति परसे गमन करता है वह मकड़ो तन्सु-चारण-ऋखि है ।।१०५४।।
ज्योतिश्चारण ऋद्धि
आह-उल-तिरिय-पसरे, किरणे अवलंबिऊन जोवीनं । गच्छेदि तवस्ती, सा रिती जोति • चारणा णाम ॥१०५५॥
१.प. च... म. य. उ. सरिम।
२.१. प. क. प्रविसमियूगा ।
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तिलोपती
[ गाथा : १०५६ - १०५६
अर्थ :- जिस ऋद्धिके द्वारा तपस्वी ज्योतिषी देवोंके विमानोंकी नीचे, ऊपर और तिरछे फैलनेवाली किरणोंका अवलम्बन लेकर गमन करता है, वह ज्योतिवचार-ि है ।। १०५५ ।।
३१४]
मान चारण ऋद्धि
नामाहि-गदि- मारुव-पवेस-पंतीसु'
सि' पवखे ।
जं अक्खलिमा सुनियो, सा माधव चारा रिद्धी ।। १०५६ ।।
कणो ।
भयं :- जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनि नानाप्रकारकी गतिसे युक्त वायुके प्रदेशोंकी पंक्तियों पर अस्खलित होकर पद-विक्षेप करते हैं, वह मारत चारण ऋद्धि है ।। १०५६ ।।
उपसंहार
REET
विषाभंग भारण-रिटीए भाषिका नेवा । कहने, टॅबएसो अम्हउछिन् । १०५७।। एवं किरिमा र समता ।
वादी साण
सस्व
अर्थ :- विविध भङ्ग युक्त चारण ऋद्धिके अन्य भेद भी भासित होते हैं, परन्तु उनके स्वरूपका कपन करने वाला उपदेश हमारे लिए नए हो चुका है ।। १०५७ ।।
। इसप्रकार क्रिया- ऋद्धि समाप्त हुई ।
तप ऋद्विके भेद-प्रभेद-
उम्मतथा बितवा, तसतवा तह महातवा तुरिमा । घोरतवा पंचमिया, घोर परक्कम
-
-
-
तथा हट्टी ।।१०५६
-
तब रिद्धीए कहिवं, सत्तम य अघोर बम्हचारिसं उग्गतया दो भेदा,
उग्ग्रोमा अब हि-दुग्ग-तव-नामा ११०५६ ।।
१. १. जज, ए. ज. सतोमु, क. सुत्तोमु । २८. दिति । २. द. ज. प मंजा ।
४. ५. ज. य.
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गाथा : १०६५-१०६३ ] पउत्यो महाहिया में
अर्थ:-उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप, (चतुर्ष ) महातप, (पषियो घोरतप, (छा) घोर-पराक्रमतप और ( सातवां ) अघोराह्ममारित्व, इसप्रकार तप-ऋतिक ये सात भेद कहे गये है। इनमेंसे उग्रतप-ऋद्धिके दो भेद होते है वोपतप और अवस्थित-उग्रतप ।।१०५८-१०५६।।
उप्रोग्र-तप-ऋद्धिदिवसोवासमावि, 'कावूर्ग एक्काहिएक्सपथएन ।
मामरण; महानिant
म: दीक्षोपवाससे प्रारम्भ कर मरण-पर्यन्त एक-एक अधिक उपवासको बढ़ाकर निर्वाह करना, उप्रोग्रतप-ऋद्धि है ।।१०६॥
अबस्थित-उन-तपदिक्खोपबासमावि, काबु एक्सरोव वासाणि । कुम्बाणो जिन - णिम्भर - भक्ति - पससेण बिसेन ॥१०६१॥ उप्पण्ण - कारणतर, आवे छट्ठमावि अब्बासे ।
हमजावि जीए, सा होवि अवडियोग्ग-सब-रिबी ॥१०६२।।
प्रबं:-दीक्षार्थ एक उपवास करके ( पारणा करे और पुनः ) एक-एक दिनका अन्तर देकर उपवास करता जाए । पुनः कुछ कारण पाकर ष-भक्त, पुनः प्रश्रम-भक्त ( पुन: इसम-मक्क. पुनः द्वादशम-भक्त) इत्यादि क्रमसे नीचे न गिर-कर जिनेन्द्रको भक्तिपूर्वक प्रसन्न-चित्तसे उत्तरोत्तर मरापर्यन्त उपवासोंको बढ़ाते जाना अवस्थित-उन-तप-ऋशि है ॥१०६१-१०६।।
दोन-तप-ऋद्धिबहुबिह - उपवासेहि. रविसम-बड़वंत-काय-किरनोहा । काय-मण-बयन-बलियो, जीए' सा वित्त-सब-रिसी ॥१०६३॥
:-जिस ऋद्धिके प्रभावने मन, वघम और कायसे बलिष्ट ऋषिके बहुत प्रकारके उपवासों-सारा शरीरको किरणोंका समूह सूर्य-सहमा बढ़ता हो वह दीप्त-तप-वि है 11१०६३।।
१.१.क.ब. . उ. का। २. .च. क. प. प. उ. पण । ३६.क.प. य... मोरे ।
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Sts :.. Tara
Patra
सिलीयपण्णती [गाया : १०६४-१०६८
तप्त-तप-ऋतितत्ते लोह - काहे, परिवंदु - क जीए भुत्तम् ।
झिम्मावि चाहिं सा, णिय - झाणाएहि सप्स - तवा ॥१०६४॥
मर्च :-जोहेको तप्त काड़ाहीमें गिरे हुए जल-कणके सदृश जिस ऋषिसे खाया हुआ अन्न धातुमों सहित क्षोण हो जाता है ( मल-मूत्रादिक्प परिणमन नहीं करता ) वह निज ध्यानसे उत्पन्न हुई तप्त-तप-ऋद्धि है ।।१०६४।।
महातप-ऋद्धिमंबरपति • पमुहे, महोववासे' करेवि सव्ये वि।
पत्र - सम्पाण - बलेणं, 'जीए मा महातवा रिखी ।।१०६५।।
प:-जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनि चार सम्यगानोंके बससे मन्दर-पंक्ति-प्रमुख सब हो महान उपवासोंको करता है, वह महातप कति है ।।१०६५।।
घोर-तप-ऋद्धिजर - सूल - प्पमुहाणं, रोगेणचंत-पीरि-नंगा' लि।
साहति दुद्धर - तवं, जीए सा घोर - तब - रिशो॥१०६६।।
पत्र :-जिस ऋविक मलसे स्वर एवं शूलादिक-रोगसे शरीरके अत्यन्त पीड़ित होने पर मी साघुजन दुद्धर-तपको सिद्ध करते हैं. वह पोर-तप-ऋद्धि है ।।१०६६।।
घोर-पराकम-तप-ऋषि . णिवषम-वड्वत-सवा, तिहबा-संहरण-करण-सत्ति-जुना । कंटय-सिग्गि-पव्यय-मुक्का-पहरि - वरिसण-समस्या ॥१०६७।। सहस सि सयल सायर-सलिलप्पोसम्स सोसण-समत्वा । नाति जीए" मुणिणो, घोर परक्कम-सब सि सा रिती ॥१०६८।।
प. उ.
१. द. , क. M. य. उ. महोपासा। २.८. च. क.अ. प. उ. गोरे। ३. स.ब.क. ४.१.व.क.ब.प. स. गोवे। ५.... क. ज. य... जिय।।
अंगो।
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गाथा : to EFFEy :- ? त्यो बहाहियारी जो ६ [३१७
म :-जिस ऋषिके प्रभावसे मुभिजन अनुपम एवं वृद्धिङ्गत तप सहित, तीनों लोकोंको संहार करनेकी शक्ति युक्त; कष्टक. पिला, अग्नि, पर्वत, घुमा सपा उस्का आदिके बरसानेमें समर्थ एवं सहसा सम्पूर्ण समुद्रके जस-समूहको सुखानेकी शक्ति भी संयुक्त होते हैं, वह घोरपराक्रम-सपऋद्धि है ॥१०५७-१०६८11
अघोर-ब्रह्मचारिस्व-ऋद्धि--- जीए म होति मुनिणो, सम्मिवि चोर-पहुवि-बाथान । कलह - महायुद्धादी', रिद्धी माधोर • बम्हसारिता ॥१०६६।।
मम' :-जिस ऋद्धिसे मुनिके क्षेत्रमें चौरादिक बाधाएँ और कलह एवं युद्धादिक नहीं होते है, वह अघोरखाचारित्व ऋद्धि है ।।१०६६।।
उस्कस्स - खोयसमे, पारिचावरण - मोह - कम्मरस ।
जा बुस्लिमणं गासइ, रिखी साघोर - बम्ह - वारिसा ११०७०॥
अ -चारित्र-निरोधक मोहकम ( पारिवमोहनीय ) का उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर जो ऋवि दुस्स्वप्नको नष्ट करती है. वह प्रपोर-सह्मवारित्न-ऋद्धि हे ।। १०७०॥
अहवा-- सम्ब - गुलेहि अघोरं, महेसिणो बम्हसह - पारितं । विप्फुरिदाए जीए, रिद्धी साघोर सम्ह • पारिसा ॥१०७१।।
। एवं तवारिधी समता। पर्व: अथवा
जिस ऋद्धिके पाविर्भूत होनेसे महषिषन मब गुणों के साथ अघोर । अदिनवर ) ब्रह्मचर्य का प्रावरण करते हैं, वह अघोर-बापारिस्व-ऋदि है ।।१०७१।।
। इसप्रकार सप-ऋद्धिका कथन समाप्त हुमा ।
१. ब. क.
प. उ. छुहाटी।
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३१८ ]
-
ज.प.उ. मनुझे ।
बल- रिद्धी ति वियप्पा, मण वयन सरीरयान भेदेरा |
सुव
णानावरणाए,
पयडीए
.
तिसोमणशी
ए
आचार्य श्री आर की बस के भेद एवं मनोबल-श्राद्ध
उक्कस्स सदोषसमे, मुहत्त मेशतरम्मि सयल-सुदं ।
चितड़ भाग जीए सा रिद्धी मण बला मामा ।।१०७३।
[ गापा : १०७९-१०७६
-
-
अर्थ :-- मन वचन और कायके भेदसे बल- ऋद्धि तीन प्रकार को है। इनमेंसे जिस ऋद्धि द्वारा खुतज्ञानावरण और बोर्यान्तराय इन दो प्रकृतियोंकः उत्कृष्ट क्षयोपसम होनेपर ( श्रमण ) मुहूर्तमात्र ( अन्तर्मुहूर्त ) काल में सम्पूर्ण धुतका चिन्तयन कर लेता है एवं उसे जान लेता है, वह मनोबल नामक ऋद्धि है ।११०७२-१०७३॥
ओरियंतरापाए ।११०७२॥
वचनबल ऋद्धि---
जिम्भिनिय मोइंदिय सुदानावरण-विरिय विग्धानं । उक्कस्स लोवसमे तरम्म सुमी 11१०७४
मुहंत
सलं पि सुबं जाण, उच्चारह जीए' विष्कुरसीए । *असमो अहोम कंठो, सा रिद्धी बयन बल - जामा ।। १०७५ ॥
उपकस्स - खवोदसमे मास-उमास पशुहे',
-
श्रयं :- जिले न्द्रियावरण, नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्मान्तरायका उत्कृष्ट
क्षयोपशम होने पर जिस के प्रगट होनेसे मुनि श्रम रहित एवं महीन कण्ठ ( कण्ठसे बोले बिना हो ) होते हुए ( अन्तर ) मुहर्तमात्र कालके भीतर सम्पूर्ण भुतको जान लेते हैं एवं उसका उच्चारण कर लेते हैं, उसे वचन-बल नामक ऋद्धि जानना चाहिए ०७४-२०७५।।
कायमल ऋद्धि
पविसेसे विरिघ विग्ध-पयडीए । काउस्समो हि सम होना ।। १०७६ ।।
ज य च जिय विष्फुर सिए २. द. व.क. र पसले, ज. व. वस
1
३.प.ब.
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गाषा : १०७७-१०८० ]
यि तेल्लोकं
भषि जीए समत्वा सा रिद्धी काय बल
-
शावक
-
-
उस्यो महाहिगारो
झति कट्टि लीए अव
श्री गिरी । एवं बल रिद्धी समता ।
वर्ष :- जिसके बलसे वीर्यान्तराय प्रकृतिके उत्कृष्ट योपशमकी विशेषता होने पर मुनि मास एवं चतुर्मासादिरूप कायोत्सर्ग करते हुए भी श्रमसे रहित होते है तथा शोधतासे तीनों arathi foष्ठ लोके ऊपर उठाकर अन्यत्र स्थापित करने में समर्थ होते हैं, वह कायबल नामक ऋद्धि है ।। १०७६- १०७७॥
। इसप्रकार बसद्धिका वर्णन समाप्त हुआ
ओषधि ऋद्धिकेभेद
ओसी पत्ता ।
आमरिस- खेल - महला- मल-विड-सच्चा मुह दिट्टि गिव्विसाओ, अट्ठ विहा ओसही रिद्धी ॥ १०७८ ||
·
-
१. व. न. म तेसो
अर्थ : श्रमशोषधि, लौषधि, जल्लोषधि, मलौषधि, विशेषषि, सदोषधि, और दृष्टि निर्विष इस प्रकार श्रीषधिकद्धि पाठ प्रकार की है ||१०७८ ॥
आमशौषधि अद्धि
जीए लासासेमश्रीमल
जीवाण रोग हरणा,
1
( रोगी ) जीव नीरोग हो जाते हैं, यह ग्रामशोषधि ऋद्धि है ।११०७६ ।।
भामा ॥१०७७
-
रिसि-कर-चरणावी, अल्लिय मेलम्म जीए पासम्म । जीवा होंति निरोगा, सा अमरीसोसही रिद्धी ।।१७६॥
-
:- जिस ऋद्धि के प्रभावसे ऋषिके हस्त एवं पादादिके स्पशंसे तथा समीप माने मात्रसे
२. ४. ब. क. ज. द. मच्छेवर
नौषधि ऋद्धि
सिंहान आविया सिन्धं । सच्चिय खेलोसही रिद्धी ॥। १०८० ॥
[ re
मुनिविष
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३२. ]
तिलोयपणती [ गामा : १०-१-१० प:--विस सिके प्रभावसे ( अधिक लार, कफ, मक्षिपस, मोर नासिकामल गोत्र ही जीवोंके रोगोंको न करते है, वह क्षेलौषधि-ऋषि है॥१०८०॥
___ जल्लोषधि छाति-- सेयजसं अंगरयं, जल्लं भांति जोए तेगापि ।
जीबाग रोग • हरणं, रिडी जल्लोसही मामा ।।१०५१॥
मर्म :-स्वेदजस ( पसीना ) के आश्रिस ( उत्पन्न होने वाला ) परीरका ( मरण) भामबल कहा जाता है। जिसका प्रभाव से उससे भी जीवोंके रोग नष्ट होते हैं, वह जल्लोवधि-ऋद्धि है ।।१०८॥
मलौषधि-ऋद्धिजोहो । बंत • पासा • सोतावि-मल पि जोए सत्तौए ।
जीवाण रोग • हरणं, मलोसही गाम सा रिखी ॥१०२॥
प्रपं:-जिस बक्तिसे जिवा, मोठ, दास, नासिका और प्रोत्रादिकका मल भी जीवोंक रोगोंको दूर करनेवाला होता है वह मनौषधि नामक ऋद्धि है ॥१०६२।।
विडऔषधि-ऋद्धिमुत्त-पुरोसो पि पुलं, बावण-बहुजीव-वाहि-संहरणा ।
नोए महामुनी, विसही नाम सा रिती ॥१०॥
प्रर्ष :-जिस ऋदिक प्रभावसे महामुनियोंका मूत्र एवं विष्ठा भी जीयोंके बहस भयामक रोगोंको नष्ट करनेघाला होता है, वह बिडौषधि नामक ऋदि है ।।१०८३॥
__गोषधि ऋद्धि - जोए पस्स-अलाणिल-रोम-महाबोणि' बाहि • हरपाणि । दुमकर • सब • सुशाणं, रिसो सम्बोसही नामा ॥१४॥
१. २. ब. क. ज. प. उ. पहादीरिए।
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गावा: १०९५-१०५८ ] घउत्पो महाहियारो
[ ३२१ म :-जिस अधिक प्रमावसे दुष्कर तरसे युक्त भुनियों द्वारा स्पर्श किया हुप्रा जल एवं वायु तथा उनके रोम और नस प्रादि भी ग्याधिके हरनेवाले हो जाते हैं, वह सोषषि नामक ऋद्धि है॥१४॥
बचननिधि-द्धिसिसावि-विविह-मग, "विसजत और वियप मराज जी
पावि णिविसरा', सा रिडी दयण-मिनिसा णामा ।।१०५५॥
अर्थ:-जिस ऋद्धिके प्रभावसे सिक्सादिक रस एवं विष संयुक्त विविध-प्रकारका अन्न ( भोजन ) वचनमानसे ही निविष हो जाता है, वह बचननिविष नामक ऋद्धि है ।।१०८५॥
आहवा बबाहीहि, परिमूरा झत्ति होंति जीरोगा । सोडु वयणं जोए, सा रियो वयण - णिविसा गामा ॥१०८६।।
मर:-पथवा जिस डिके प्रभावसे बहुत प्याधियोंमे युक्त जीव ( ऋषियः । वचन मुनकर ही शोघ मीरोग हो जाते हैं, वह वचन-निविष नामक ऋद्धि है ।।१०८६।।
दृष्टिनिविष- ऋद्धि-- रोग - विसेहि पहबा, विट्ठोए जोए झत्ति' पार्वति । गोरोग-णिम्बिसतं, सा भणिवा दिद्वि-णिखिसा रिवी ।।१०६७।।
।एषमोसाहि-रिती समता । प:-जिस ऋद्धिके प्रभावसे रोग एवं विषने युक्त जीव ( ऋषिके ) देखने मावसे शीन हो नीरोगता एवं निवियताको प्राप्त करते हैं. वह दृष्टिनिविष-अदि कही गई है ।।१०।।
। इसप्रकार प्रोषि-ऋद्धिका कथन समाप्त हुना ।
रस-ऋषिके भेद-- छामेवा रस - रिखी, आसी-विट्ठी-विसा य वो तेसु । खीर -"मनु - अमिय - सप्पोसपिओ चचारि हाँति गमे ।।१०८८॥
१६.क.ज... सिमित।
१....य,
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...क... प. उ.
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३२२ ।
तिलोयपण्यतो [गामा : १०६-१०६२ अर्म:-आशीविष और दृष्टिविष तथा क्षोरखपी, मधुनवो, अमृतस्नबी एवं सपिनवी ऐसे दो तवा बार क्रमशः रस ऋद्धिके छह भेव होते हैं ।।१०२८॥
आशीविष-ऋद्धिमर इति मणि जीवो, मरेइ सहस चि जोए सत्तीए ।
तुपकर-सव-व-मुणिमा, आसौविस-णाम-रिसी सा ॥१०८६॥
म :- जिस ऋद्धिके प्रभावसे दुष्कर-तप युक्त मुनिके द्वारा 'मर गानों' इसप्रकार फहने पर जीव सहसा मर जाता है, वह प्राशीविष नामक ऋद्धि है ||१०||
दृष्टिविप-ऋद्धिजीए जीओ विट्ठो, महेसिणों रोस - भरिय - हिएण।
हि - बट्ठो म मरिदि, दिदिविसा पाम सा रिती ॥१०६०।।
अपं:-जिस ऋदिके प्रभावसे रोष युक्त हवयवासे महर्षि वारा देखा गया जीव सर्प द्वारा काटे गयेके सहा मर जाता है वह दृष्टिविष नामक ऋद्धि है ।।१०६०।
___ क्षीरस्रवी-ऋद्धिकरपल - गिविक्षसाणि', रुक्खाहारादिपाणि समकालं ।
पावंति खोर - नावं, जीए लौरोसबी रिती ।।१०६१।।
मर्ष :-जिससे इस्तठल पर रखे हुए स्खे आहारादिक तत्काल ही दुग्ध-परिणामको प्राप्त हो जाते हैं, वह सोरस्रवी-ऋद्धि है ॥१०११॥
महवा दुस्सपाहुरी, जोए मुणि - अयण - सवण'मेतण ।
पसमावि गर - सिरियाणं, स थिय शीरासपी रियो ॥१०६२॥
वर्ष : अपवा, जिस ऋदिसे मुनियों के सपनों के श्रवणमासे ही मनुष्य-तियोंके दुःसादिक शान्त हो जाते हैं, उसे क्षीरस्रवी-ऋछि ममझना चाहिए ।।१०९२।।
१. .. 3, निविताएं। २, द. .. क. प्र. शदिवाण। 1.... ज.म.न. समय।
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गावा १०६३ १०६७ ]
·
महाहियारो
नवी दि
पाकी
श्री ली मुखि- करमिलितानि रक्ताहारावियाणि होति ह । जीए महर रसाई, सचिव महयासवो रिद्धी ११०६३।। अर्थ:-जिसद्धि मुनिके हाथमें रखे गये रूखे आहारादिक क्षणभर में मधुर रससे युक्त हो जाते हैं. वह मधुसको ऋद्धि है ।। १०६३ ।।
पट्टी, जोए मुनि-बयन-सवण-मेत्तेणं ।
अहवा युक्त्व नासदि पर तिरियागं स स्विय 'महयासवी रिद्धी ।। १०६४।।
-
:- ग्रथवा जिस द्धिसे मुनिके वचनोंके श्रवणमात्रसे मनुष्य-नियंत्रोंके दुःखादिक नष्ट हो जाते हैं, वह मधुस्रवी ऋद्धि है ।। १०६४।।
अमृत-ऋद्धि
मुनि-पाणि-संठियाण, साहारावियाणि जोल।
पार्वति प्रमिय भावं, एसा अमियासवी रिद्धी ।। १०६५ ॥
[ ३२३
:-जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनियोंके हाथ में स्थित रूले आहार आदिक क्षमात्रमें तपनेको प्राप्त होते हैं, वह अमृतसदी है । १०६५ ।।
अषा सुक्खावणि, महेसि वयमस्स समण-कालस्मि ।
णासंति जोए सिग्धं सा रिद्धी अमिय आसदी नामा ||१०६६।।
रिति - पाणितल - णितं पावेदि सप्पिनं
:- अपना जिस ऋषिके वचन सुननेमासे ( श्रवणकालमें ) शीघ्र ही दुःखादिक नष्ट हो जाते हैं, यह श्रमृतवी नामक ऋद्धि है ।। १०९६ ॥
सपिश्रवा ऋद्धि
तखाहारादियं पि न मेरो ।
जीए सा सप्पियासी रिद्धी ।। १०६७ ।।
अर्थ:- जिस ऋद्धिसे ऋषि के हस्ततल में निक्षिप्तखा श्राहारादिक भी क्षणमात्रमें भृतरूपताको प्राप्त करता है, वह सपत्रवीऋद्धि है ।। १०६७।।
१. ब. क. उ. रोभो । २. द. जीव ३. व. ब. क. ज. य. व. कायम ४. उ. पातिवा
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३२४ ]
वाहक
तिलोयपण्याती
अहवाल-प्यमुहं सर्वणेच पुष्पिद-दिग्द-वयनस्स । जबसम्मवि जीवानं, जीए सर सप्पियासबी रिद्धी ।। १०६८ ।।
। एवं रस- रिद्धी समता ।
म :- अथवा, जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनीन्द्रके दिव्य वचनोंके सुननेसे ही जीवोंके दुःखादिक शान्त हो जाते हैं, वह सत्रिवी ऋद्धि है ।। १०६८ ।।
। इसप्रकार रस ऋद्धिको वर्णना समाप्त हुई।
क्षेत्र ऋद्धिके भेद
तिहूवन विम्य· जणणा, वो मेवा होंति खेत- रिद्धीए । प्रक्लीन महानसिया, अक्लीण महालया च मामे आचार्य श्री सुवि धर्म :- त्रिभुवनको विस्मित करनेवाली क्षेत्र ऋद्धिके दो भेद हैं, भक्षीरणमहालय ||१०६९
श्रीमहानमिक ऋद्धि
लाहंतराध-कम्मक्शकोवसम-संजुवाए जोन फुई । सुणि भुत-से समन्नं वालिय- मक्कम्सि एव वि ।। ११०० ।।
सहिवसे राज्यं संधावारेण धत्रकवट्टिस्स । जिलवे दिसा, अक्लीन-महानसा रिद्धी ॥११०१ ॥
१. ब. फ. उ. मुख-मुख से पियंक दि
ज. प.
शित्तमे से म मि
व.
श्रयं :- लाभान्तरायकर्मक्षयोपशम से संयुक्त जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनिके प्राहारोप
रान्त पालीके मध्य बची हुई भोज्य सामग्रीमेंसे एक भी वस्तुको यदि उस दिन चक्रवर्तीका सम्पूर्ण कटक भी खाये तो भी वह लेवामात्र क्षीण नहीं होती है, वह मक्षी महानसिक ऋद्धि है ।।११००
११०१॥
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[ गाया : १०६६-११०१
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।।१०६६।।
लोणमहान सिंक और
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गाषा : ११०२] पउत्थो महाहियारो
[ ३२५ मशीण-महालय-ऋद्धिमार्गदर्शक :-- आचाए उ PTREATMANEम गर-तिरिया ।
मंति असंखेकजा सा, प्रक्लीक-महालया रिती ॥११०२।।
। एवं तेष-रिवी समता ।
॥ एवं प्रष्टु-रिद्धी समता ॥ म। -जिस ऋद्धिक प्रभावसे समचतुष्कोण पार घनुष-प्रमाण क्षेत्रमें मसंस्पात मनुष्यतिर्यक स्थान प्राप्त कर लेते हैं, वह अक्षीणमहालय-ऋद्धि है ।।११०२।।
। इसप्रकार क्षेत्रऋक्षिका कथम समाप्त हुआ।
। इसप्रकार पाठों ऋखियोंका वर्णन समाप्त हवा । आठों ऋद्धियोंके भेद-प्रभेदोंको तालिका इसप्रकार है
[ तालिका २७ पृष्ठ १२६ व ३२७ पर देखिये ]
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३२६ ]
निलोयपष्णाती
[ तालिका : २७
तासिका : २७ १ बुद्धि-ऋद्धि २ विक्रिया-ऋद्धि
किया-ऋषि
४वप-ऋद्धि
४ पौरब्रह्मचा
अवस्थितच्या
.
|-१ मरिणमा १ नभस्तल• २ पारणत्व १ उग्रता EEEE:
गामित्व |-२ महिमा -३ सषिमा
जंघाचारण - गरिमा ५ प्राप्ति
५ पत्र . |-६ प्राकाम्य
|-६ अग्नि . -७ ईशस्य -८ वनित्व
i-८ मेष ।
Fधारा .. -- अप्रसिधात
-१० तन्तु १. अन्तर्धान -ज्योतिषचा. -१५ कामरूप
--१२ मधारण
धूम ॥
६ पदानुसारित्व
१ अवधिज्ञान२ मनःपर्ययमान
३ केबलशान४ बोजबुद्धि ५ कोष्ठमति
७ संभिन्नश्रोतृत्व८ दूरास्वादन९ दूरस्पर्श
१० दूरघ्राण
११ दूरश्रवण
अनुसारिणीप्रतिसारिणीउभयसारिणी
१२ दूरदर्शन१३ यशपूर्विस्व१४ चौदहपूर्विल
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वालिका २७ ]
५ बल-ऋद्धि
१ मनोबल २ वचनबल ३ कार्यबल
१६ निमित्तऋद्धि
पायदा
महााि श्री सुधिसागर श्री
-१ बामनौषधि
-२ संतोषधि
६ औषधि-वृद्धि
-३ जल्लोषषि
-४ मनौषधि
-५ विडौषधि
-६ सषधि
5
-- ७ वचनमिविष
दृष्टिनिविष
१६ प्रशाश्रमरण
प्रोत्पतिको पारिणामिकी नयिको
माना
मंग भौम प्र स्वर व्यंजन लक्षण चिह्न स्वप्न
चिह्न
७ र ऋद्धि
-१ श्राशीविष
- २ दृष्टिविष
- ३ श्रीरस्रवी
-४ मधुस्रवो
-५ अमृतमवी
६ सपिसवी
कर्मजा
१७ प्रत्येकबुद्धि
क्षेत्र ऋद्धि
१ श्रक्षीणमहान सिक
१८ वादिस्वऋद्धि
२ पक्षीणमहालय
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३२८ ]
तिलोयपणतो
[ गापा : ११०३-११०६ ऋषियोंको संख्याएसो' सरि रिसि-संवा निस्सामिबउसीरि-सहस्साणि, रिसि-प्पमानं हवेदि उसाह-विणे । इगि-पु-ति-सक्खा, कमसो अभिय-सिने संभवाम्म परगए ॥११.३॥
उस ४००० । प्रजि प स । संभव २ ल । अभि ३ ल । w:-यहाँ से आगे अब ऋषियोंकी संख्या कहता हूं
अषियोंका प्रमाण ऋषभ-जिनेन्द्र के समय में चौरासी हजार तपा अजितमार, सम्भवनाय एवं अभिनन्दननाथके समय में क्रमशः एक लाख, दो लाख मौर तीन लाख था ।।११.३॥
बोस-सहस्स-शुवाई, लममा सिणि सुमा-चेम्मि । तौबा गणितमको निजिलि ३०॥
सुमइ ३२०००० । पम ३३००००। प्रबं:-सुमतिनाथके समय में ऋषियोंका प्रमाण तीन लाख, गीत हजार और पचप्रमके समयमें तीन लाख, तीस हजार था 1११०४॥
तिणि सुपासे बंदप्पाह-वे योनि अब-संजुत्ता । सुविहि-जिनियम्मि दुवे, सीयलणाहम्मि इगि-लक्वं ॥११०५॥
सुपाम ३M 1 चंद २५००० | पृष्फ : न । मीय १ ल ।
प्रचं:-षियोंको संख्याका प्रमाण मुपाश्र्वनाथस्वामोके समय में तोन लाख, चन्नप्रभदेवके अढ़ाई लाख, सुविषिजितेन्द्र के दो साख भौर शीतलनायके एक लाख पा ॥११०५॥
उसीवि - सहस्साई, सेयसे वासुपुब्न - गाहम्मि । बापतरि अडसट्टो, विमले छाष्ट्रिया अनंताम्म ।।११०६॥
से २४००० 1 वा ७२००० 1 विम ६८००० । अणं ६६००० ।
प्रष:-श्रेयांस जिनेन्द्र के समय में ऋषियोंका प्रमाण चौरामी हजार, वासुपूज्यस्वामीके बहतर हजार, विमलनायके अड़सठ हजार और प्रनन्सनायके छयासक हबार था ।।११०६॥
-- - -- - १. ब. . तो 1 २.८. क, . य. उ. बखा।
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गाना : ११०७-१९१० ] पस्यो महाहियारो
[ ३२९ धन्मम्मि संति-कुपू-अर-महली कमा सहस्सानि ।
घउसट्ठी वासट्ठी, सट्ठी पन्नास बातीता ॥११०७॥ धम्म ६४००० । सं १२००० MERATOPA सर 01- 1972RNE KETRY
पर्ष :-धर्मनाप, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ और मस्तिनाप तीपंकरके समयमें ऋषियोंकी संस्थाका प्रमाण क्रमशः चौसठहजार, सासठहजार, साठहजार, पचासहजार और चालीस हबार पा ॥१०॥
सुव्वद-मि-णेमीसु, कमसो पासम्मि पठमाणम्मि ।
तोसं वोसट्टारस, सोलस-चोड्स' - सहस्साणि ॥११०८।। मु ३०००० । २०००० । मि १८००० । पास १६००० । घोर १४००० ।
प्रपं:-मुनिसुव्रत, नमिनाथ, नेमिनाथ, पाश्वनाथ मौर वर्षमान स्वामी के समयमें ऋषियोंका प्रमाण कमशः तीस हजार, बीस हजार, अठारह हजार, सोसह हमार भोर चौदह हजार या ॥११०८॥
प्रत्येक तीर्थकरके सात गणकि नामपुम्बधर-सिकल-प्रोही-केवाल-वेबि-बिउलमधि-बादी ।
परोककं सत्त-गना, सध्यानं तिरय - कत्तानं ॥११०६॥
पत्र:-सम तीर्थंकरों में प्रत्येक ( तीर्थकर ) के पूर्वधर, शिक्षक, अवधिशानी, केवलो, बिक्रिया-ऋद्विधारी, विपुलमति एवं वादी इसप्रकार ये सात संघ होते हैं ।।११०।।
ऋपम-तीर्थकरके गणोंकी संस्थापत्तारि सहस्सा सग - सयाद - पानास पुवषर-संक्षा । सिम्लग - संतात निधय, छस्सय ऊणी कर परि ॥१११०॥
उसह पुब्ब ४७५० । सिक्ख ४१५० ।। प्रथ:-ऋषभ जिनेन्द्र के सात गरयोंमेंसे पूर्वघरोंकी संख्या चार हजार सातसो पचास थी। शिक्षकोंकी संख्या भी यही थी परन्तु इसमें से छहसो कम थे, इतनी यहाँ विशेषता है ॥१११०॥
१. प. परवस ।
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३३० ]
तिनीयपणतो [ गापा : ११११-१११५ भाव- वोस - सहस्सानि, कमेण मोहोन केवलोपं पि । बेगुम्बीण सहसा, वोषिय छस्सयमाहिया ॥११११।।
१००० ।
२००००।
२०६००।
अपं:-ऋषभजिनेन्द्र के क्रमम: प्रवधिज्ञानी नो हजार, केवनी बीस हजार और विक्रियाधारी सहसो अधिक बीस हबार ये 1११११॥
बिउसमवीचं बारस - सहस्सया सय - सयाइ पण्णासा । पानीण तत्तियं चिय, एवं उसहम्मि सत्त • गरखा ।।१११२।।
वि १२७५० । वा १२७५० |
प्रबं:-विपुलमति सरह हजार साससौ पचास थे और बादो भी इसने ही थे। इसप्रकार ऋषभदेवके ये सात गरम ये ॥१११२॥
मजिस जिनेन्द्रके सात गणों का प्रमाणति-सहस्सा सस-सया, पम्मा-अजिय-पइम्मि पुस्बपरा। इगिवीस - सहस्साणि, सिक्खकया बसपाई पि ॥१३॥
पु ३७५० । सि २१६००। बजवि-सया ओही, बोस-सहस्साणि होति केवसिणी । बेगुम्बीग सहरसा, बीस सयागि पि चत्तारि ॥१११४।।
श्रो ६४०० । के २०००० । वे २०४००। विससमयीनो बारस, सहस्सया पउ • सयार पणासा । वारीण सहस्साई, बारस पत्तारि 'च सपाणि ॥१११५।।
वि १२५५० । वा १२४००।
१.प.व.क. ब. य . बड़।
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गाया : १११६-११२० ]
त्यो महाहियारो
[ ३३१
अर्थ :- भजितप्रकेसरत गणोंमेंसे पूर्ववर दोन हजार सातसो पचास, शिक्षक इक्कीस हजार छह सौ प्रवधिज्ञानी नौ हजार चारसो, केबली बीस हजार, विक्रिया ऋद्धि धारक बीस हजार चारख, विपुलमति बारह हजार चारसौ पचास जोर वादी बारह हजार चारखी थे ।। १११३ - १११५।। सम्भवनाथ गरौंकी संख्या
पुष्यवरा पण्णाहिय-इमिवीस-सयाणि संभव-जिर्णाम्म ।
जतीस सहल्सा, इगिलवं सिखगा ति - सया ।। १११६ ॥
२१५० | सि १२३३०० ।
छवि-सा जोही, केवलियो पारस सहस्ताखि ।
P
चरबीस सहस्साई वेपुब्विय असयाणि वि ।। १११७।। - आर्य श्री सुविधा की खटा श्रो ६६०० केवल १५००० । वे ९६८००
-
होति सहस्सा बारस, पण्णाहियमिगि-सयं च विलमवी ।
क्य गुमिवाणि योनि सहस्साणि वादि गणा ।।१११८ ।।
| दि १२१५० | वादि १२००० ।
:- सम्भवजिनेन्द्रके सात गणोंमेंसे पूर्वघर दो हजार एक सौ पचास, शिक्षक एक लाख उनतीस हजार तीन सो अवधिज्ञानी तो हजार छह सी, केवल पन्द्रह हजार, विक्रियाऋद्धि धारक उन्नीस हजार आठली, विसमत वारह हजार एकसी पचास मौर वादि-गण बहते गुणित दो हजार अर्थात् बारह हजार ये ।।१११६-१११८।।
अभिनन्दननायके गणोंकी संख्या
पंचसय महियाई दोणि सहस्साइ होंति पुश्वधरा । दो सिखगलक्खाई, सोस- सहस्साइ
| पु २५०० सि २३००५० ।
सिया ओही केबलिणो विगुण-ग्रह-सहस्साणि ।
येष्वि सहस्सा
P
पण्णासा ।।१११६ ॥
बहंति एक्कून बीसाणि ।। ११२० ॥
-
। श्र ६८०० के १६००० से १६०००।
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३३२ ]
तिलोत्त
[ गाथा ११२१-११२४
बीस-सहस्सा पणाहिए छक्सयाणि विउमदी । चेय सहस्सा, बादी अभिनंदणे वेवे ।। ११२१३।
एक्क
1 वि २१६५० | वा १००० |
:- अभिनन्दन जिनेन्द्रके सात गणों में से पूर्वघर दो हजार पाँच सौ. शिक्षक दो लाख तीस हजार पचास, श्रवधिज्ञों का हजार आहे ती केवनी दुनिआ (सोलह हजार, विक्रियाऋद्धिधारक एक कम बीस ( उनोस ) हजार, विपुलमति इक्कीस हजार छहसौ पचास और वादो केवल एक हजार ही थे ।।१११६-११२१ ।।
सुमतिनाथ के गरणोंकी संख्या-
दोणि सहस्सा उ-सय, जुत्ता सुपदि व्यनुम्मि पुरुष घरा । अढाइज्जं लक्खा, सेवाल - सथाइ सिक्खगा पन्ना ॥। ११२२ ।।
पुब्ब २४०० । सि २५४३५० ।
एमकरस-वेरसाई, कमे' सहस्साणि ओहि के सिणो । रस सहरसाई, खत्तरि समाणि वेगुल्वी ॥। ११२३ ।।
ओ ११००० के १३००० | वे १८४०s
विलभदीय सहस्सा, वस संखा उसएहि संजुत्ता | पण्णास जुद-सहस्सा, दस उ-सब अहिय वादिगणा ।।११२४ ।।
। वि १०४०० । वा १०४५० ।
१. ब. फ. कमेण ।
:- सुमतिजिनेन्द्र के सात गणों में से पूर्वघर दो हजार चार सो, शिक्षक दो लाख चौबनहजार तीन सौ पचास अवधिज्ञानी ग्यारह हजार, केवली तेरह हजार, विक्रिया- ऋद्धि धारक एक लाख चौरासी हजार विपुलमति दस हजार घार सो और वादी दस हजार चार सौ पचास ये ।।११२२- ११२४।
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पापा : ११२५-११२६ } पउत्थो महाहियारो
[ १३३ पपप्रमजिनेन्द्र के सात गणोंकी संस्थाजोगि सहस्सा ति-सपा, पुश्वधरा सिक्सया बे लक्ला । अगरि सहस्सा, ओहिनामा वस-सहस्सानि ॥११२५।।
पुन्ब २३०० । सि २६६००० । ओ १०० | चउरंक'-ताडिवाई', तिम्णि सहस्साणि होति केलियो । पट्ट - सएहि जुत्ता, वेगुम्बी सोलस - सहस्सा ।।११२६।।
। के १२००० । वे १६८००। विगुणा पंच-सहस्सा, तिम्गि सपाई हम्रति विउलमयो । छाषिय • नदि - सयाई, वादी परमापहे देवे ।।११२७॥
दि १०३०. । का १६०० । प्रपं:-पप्रमभजिनेन्द्र के साप्त गणों से पूर्वधर दो हजार तीन सी, शिक्षक दो नाव उनहत्तर हजार, अधिमानी दस हजार, केवली चारसे गुरिणत तीन हजार (बारह हजार), विकियाऋषिके धारक सोलह इजार पाठ सो, विपुलमति पांच हजारके दुगुणे ( दस हजार ) तीन सौ और वादी नगे हमार छह लो ये ॥१९२५-११२७॥
सुपाश्वजिनेन्द्र के सात गणांको संख्यापुम्बपरा तोसाहिय-दोम्णि-सहस्सा हवंति सिक्ख गणा । चोपाल सहस्सानि, दो लासा जप-सया बोला ॥११२८।।
। पु २०३० । मि २४४६२० । पव य सहस्सा मोही, केवलिणो एकरस - साहस्साणि । तेवण · सयम्भहिया, बेगुन्वी बस सहस्साणि ॥११२६॥
| मो... । के ११.०० । वे १४३००।
-
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१.प.क.न.पउक।
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३३४ ]
तिलोयाणाती
[गाथा : ११३०-११३४ एक्कामपि - समापामासापा, विन समोर भट्ठ सहस्सा कस्सम - सहिया बादी सुपास - जिज ॥११३०॥
वि ६१५० । वा ८६०० । पं:-सुपाय जिनेन्द्र के सात गरगों से पूर्वधर दो हजार तीस, शिक्षकगण दो लाख बवासीस हजार नौ सौ बीस, अषिशानी नौ हजार, केवली म्यारह हजार, विक्रिया-ऋविधारक विरेपन सौ अधिक दस हजार ( पन्द्रह हजार तीन सौ), विपुलमति नौ हजार एकसौ पचास और वादी पाठ हजार हसो ।११२-११३०॥
चन्द्रप्रभके सात गोंको संख्याघसारि सहस्साई, वे यहम्मि पुम्बबरा। रो-लाख - रस - सहसा, बत्तारि सया मिक्सगा ॥११॥
।पु ४००० । सि २१०४०० । ये भट्टरस सहस्सा, छन्द सया बद्र सग सहस्सा। कमलो ओही फेवलि - घेउयो - विजलमबि बापी ११२॥
'पो २००० । के १८००० । वे ६०० । वि०.01 मा ७००० ।।
बर्ष:- चन्द्रप्रम जिनेन्द्र के सात गोंसे पूर्वघर चार हजार शिक्षाकगरण दो लास दस इजार पारसी और अवश्विशानी, केवली, विक्रियाघारी, विपुलमति तथा वादी क्रमश: दो हजार, पठारह इजार, छहसी, आठ हजार और सात हजार थे ।।११३१-११३२।।
पष्पदन्तके सात गोंकी संख्याति-गुरिणय-पंच-सयाई, पुष्वषरा सिक्खयाई इगि-लक्षा। पणवण - सहस्सा, आहियाई पररा - सएह ॥११॥३॥
पु. १५०० | सि १५५५०० । पाउसोदि-सया ओही, केसिणो सग सहस्स-पंच-सया । एह-सन्म-मान-सिप-इगि-अंक-कमेणं पि बेगुली ॥१४॥
ओ ८४०० । के ७५०० । वे १३०००।
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गाथा : १९३५-११३८ ]
त्यो महाहियारो
स-सं-सहागिता पण सहि बिजली । चाव संथा बावी, येथे सिरिपुप्फदंतम्मि ।।११३५ ।। वि ७५०० | बा ६६०० ।
पर्यटक
वर्ष :- श्री पुष्पदन्तके सात गणों में से
पूर्ववर पचतोके तिगुने (पन्द्रह ) शिक्षक एक लाख पचपन हजार पोषसो अवधिज्ञानी आठ हजार चारसो, केवली सात हजार पाँच सौ विक्रियाऋद्धिवारी क्रमशः शून्य शून्य शून्य तीन और एक अंक ( तेरह हजार ) प्रमाण विपुलमति सात हजार पाँच र वादी छह हजार छहसी थे ।।११३३-११३५।।
शीतलनाथ के सात गणोंकी संख्या
एक्क सहस्सं वज्र- संघ-संजुत्त सीयलम्म पुग्वधरा । चरणसट्ठि सहस्सा मेलि सभा सिमलगा होंसि ।।११३६ ।। पु१४०० मि ५६२०० ।
दु-सय-जुन- सग सहस्सा सत्त- सहस्सानि आहि- केवलिनो ।
चदरंक - ताढिवाणि, सिणि सहस्वाणि वेगुब्बी ।।११३७६४
ओ ७२०० । के ७०००। वे १२००० ।
सत सहस्वाणि पुढं जुतानि पासदेहि विजसमदी । संप्तादपण सिरिसीयले मम्मि ।११३८ ।
सवाई,
वादी
त्रि ७५००। वा ५७०० |
अर्थ:- श्री शीतलनाथस्वामीकं सात गोंमेंसे पूर्वधर एक हजार चारसो, शिक्षक उनसठ हजार दो सौ, बदधिशानी सात हजार दो सौ, कंवली सात हजार, विक्रियाद्विधारी बारसे गुपित तीम ( अर्थात् बारह ) हजार, विपुलमति सात हजार पाँच तो और बादी पाँच हजार सात सौ ये ।। ११३६ - ११३८ ॥
श्रेयांस- जिनेन्द्रके सात गणका प्रमाण
एक्कं चेय सहल्सा, संता तिय-सएहिं पुष्षधरा । अडवाल - सहस्साह
[ ३३५
दो-सयजुत्ताइ सिक्खगना ।। ११३६ ।।
पु१३०० । सि ४८२०० ।
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३३६ ]
तिलोयपमणसी
[ मापा : ११४०-११४ -सहस्साह ओही, केसिनो बस्सहस्स-पंच-सया । एक्कारस मेतागि, हॉति सहभागि बेगुनी ARYA जो :
____ओ ६००० 1 के ६५०० । ये ११०००। दे स्व-साडिवाई, तिणि सहस्साइ तह प विसलमवी। पण - गुणिन • सहस्साइ', वापी सेयंस - देवम्मि ॥१९४१॥
वि... । वा ५०००। म:-थेयांसजिनेन्द्र के सात गणोंमेंसे पूर्वघर एक हजार तीनसो, शिक्षक अड़तालीस हजार दो सो अवधिज्ञानी छह हजार, केवली छह हजार पायसी, विक्रिया-ऋविधारी ग्यारह हजार, विपुलमति दोस गुणित तोन ( ख ) हार तथा वादो पांच हजार ये ॥११३९-११४१।।
वासुपूज्यदेवके सात गणोंका प्रमाणएक बेष सहस्सा, संजुत्ता दो-सएहि पुष्वधरा । रणदाल-सहस्साणि, बोणि सयाणि पि सिक्लगमा ।।११४२।।
पु १२०० सि ३१२०० । पंच-सहस्सा बळ-साय-अत्ता ओही हवंति केलियो । छन्वेष महत्साणि, वेगुब्बी बस सहस्साई ।।११४३॥
ओ ५४०० के १००० 12 १००००1 धन्धेव सहस्साणि, बत्तारि सहस्सया यदु-सम-जुवा'। विजलमयी वादीओ, कमसो सिरि • वासुपुञ्ज - जिमे ।।११४॥
वि ६००० । वा ४२०० । :-श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र के सात गणों से पूर्वधर एक हजार दो सो, शिक्षकगण उनतालीस हजार दो सो, अवधिज्ञानी पाँच हजार चार सौ, केवसी १४३ हजार, विकिया-वृद्धिधारी दस हयार, विपुलमति छह हजार और वादी पार हजार दो सो ये ॥१४२-११४४।।
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गामा : ११४५-११४६ ] चउस्यो महाहियारो
[ ३३७ विमल-जिनेन्द्र के सात गणोंको संख्याएकक - सएपहिये, एषक - सहस्सं हर्षति पुस्बपरा । अनुत्तीस सहरमामा-सम-साविना साल !
। पुष्व ११०० । सि ३८५७० । अडवाल - सयं ओही, केवलिलो पण - सएग बुपाणि । पन - संस - सहस्साणि, वेगुल्यो गव सहम्साणि ॥११४६।।
मो ४८०० । के ५५०० । वि ६०००। पंच - सहस्साणि पुर्व, जुत्ताण पण-सएहि विउलमवी। तिणि सहस्सा इस्मय - साहिबा बाबी बिमलवे ॥११४७।।
__दि ५५०० 1 वा ३६००। म :-विमलनाप तीर्थकरके सात गणोंमेंसे पूर्वधर एक हजार एक सो, षिक्षकमरण भरतीस हजार पाँच सो, भवधिज्ञानी चार हजार माठसो, केवली पांच हजार पाँच सौ, वित्र्यिाऋडिके धारी नो हार, विपुसमति पार हजार पाँच सौ और बादी तीन हजार छहसो घे॥११४५-११४७॥
अनन्तनाथके सात गणोंका प्रमाणएकं व सहस्सा, पुस्वपरा सिमलगा य पंच-सया । उमदास सहस्सागि, ओही तेवाल - सय - संक्षा ११४||
पु.१००० । सि ३६५०० । यो ४३०० । पंचपन - सहस्सा, केवलि-गुरिष-विरसमरि-तिदए । तिणि सहसा के • सय आणि वादी प्रणंत - जिम ॥११४६।।
के ५...। ... । वि ५००० १ था ३२० ।
प्रबं:-अनन्तमाप जिनेमके सात गणोंमेंसे पूर्वधर एक हजार, शिक्षक उनतालीस हजार पांच सौ, अवधिमानी घार हजार तीन सौ. केक्सी पांच हजार, विक्रिया ऋरिधारी पाठ हजार, विपुलमति पांच हजार और वादी तीन हजार यो सो घे ॥११४८-११४६।
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१३८ ]
तिसोयपण्णत्ती
[गाथा : ११५०-११५३
धर्मनग्यके सात गोंका प्रमाण
नर पुष्वपर-सयाई, मास-सहस्साई सग-सया-सिला।
सास-समा
गा, पनवास. सयामि कपालमा IPYou
पु... मि ४०४०० 1 मो ३६०० के ४५०० ।
वेगुग्वि' सग-सहस्सा, पश्वास-सयानि होति बिजलमयी । अट्टाबोस - सयापि, बादी सिरिषम्म - सामिम्मि ॥११५॥
७००० । वि ४५०० । वा २८००। म :-धर्मनाय स्वामीके सात गणों से पूर्वपर नौ सौ, शिक्षक पालीस हजार सात सी, अवधिज्ञानी छत्तीस सौ, केयसी चार हजार पांच सौ, विक्रिया द्विधारी सात इनार, विपुलमति पार हजार पांच सौ तथा वादी दो हजार माठ सी थे ।।११५.-११५१॥
शान्तिनापके सात पणॉका प्रमाण
अटु-सया पुबपरा, इगिवास-सहस्स-प्रज-सया सिम्मा । तिष्णि सहस्सा ओही, बलिणो पत्र - सहस्सामि ॥११५२॥
पु.८०० । सि ४१८०० । प्रो ३००० । के १००० ।
देगुदि छासहस्सा, बत्तारि - सहस्समणि बिलमवा । पोष्णि साहस्सा पड - सप - अता संतीसरे नारी ॥११५३॥
थे ६.०० । वि४... । वा २४..।
मय:-शान्तिनाथके सात परों से पूर्वघर आठ सौ, शिक्षक इकतालीस हजार आठ सौ, भवधिशानी तीन हजार, केवली चार हजार, विश्यिा-द्विधारो छह हजार, विपुलमति चार हजार मौर बादी दो हजार चार सौ ये ॥१९५२-११५३।।
-
..
--
१. प. विगुपि ।
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गाथा : ११५४ - ११५e }
यो महाहियारो
"कुन्थुनादेके सात प्रमाण
सत समानि वेब म पुव्यधरा होंति सिक्सगा य सहा तेदाल सहस्साद, पन्नासम्भहियमेक्क
पु७०० सि ४३१५० ।
पचवीस-सया ओही, बसोस-सयाणि होति केवलयो ।
एक्क
पर्यfas: जावा
-
-
सयग्भहियाणि पंच सहस्वाणि बेबी ।।११५५ ।।
भो २५०० के ३२०० । वे ५१०० |
ति-सहस्सा तिमि सथा, पन्नगर्भाया हति बिउलमयी ।
योनि सहस्साथि पुढं, बावी सिरि कुंबुराम ।।११५६ ।।
वि ३३५० वा २००० ।
J
•
-
पर्व :- कुन्थुनाथ स्वामीके सात गणोंमेंसे पूर्वघर सातसा, शिक्षक संतालीस हजार एक सौ पचास अवधिज्ञानी दो हजार पांच सौ केवली तीन हजार दो सौ विक्रिया ऋद्धिधारी पाँच हजार एकसौ, विपुलमति तीन हजार सोन सौ पचास तथा बादो दो हजार थे ।। ११५४० ११५६ ।।
अर - जिनेन्द्र के पास गनोंका प्रमाण --
इस अस्सिमा पुष्यधरा होति सिक्खना सबभा । पणतीस सहस्ताखि, अब सय जूतानि पणती ।।११५७ ।।
-
पु६१० । वि ३५८३५
अट्ठावीस सयाणि ओहोओ तेत्तियाणि केवलियो ।
पत्तारि सहस्लानि, ति सय महियानि बेग्वी ।।११५८ ।।
। श्रो २५०० के २८०० । वे ४३०० ।
-
सर्व ।। ११५४ ।।
-
-
पण
महियाणि दशेन्गि सहस्सा होंति बिजली ।
एक्क सहस्सं घत्सव संवृत्तं भर जिणे वादी ।।११५६॥
१. द. पीस
[ ३३६
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तिलपणी
वि २०५५ । वा १६०० ।
अर्थ :- बरनाथ जिनेन्द्रके सात गणों में से पूर्वघर सहसो दस, शिक्षक-श्रम तीस हजार आठ सौ पैंतीस अवधिज्ञानी दो हजार आठ सौ इतने ही केवली विक्रियाणादिधारी चार हजार तीन सौ. विपुलमति दो हजार पचपन और वादी एक हजार छन् सो थे ।। ११५७-११४९ ।।
मल्लिजिनेन्द्र के सात गणोंका प्रमाण
पण्णासम्भहियाणि पंचसयाणि हवंति पुम्बधरा । एक्स-संतो
३४० ]
[ गाथा ११६०-११६३
सही व १६० ।।
। ५५० । सि २६००० ।
बावीस-सया ओहो, सिय-मेसा य होंति केवलणो । ब-सय-अमहियाई", बोणि सहस्वाणि वेगुव्वी ।।११६१ ॥
। ओ २२०० । के २२०० । वे २६०० ।
एक्क सहस्सा सग-सय-सहिद पन्थाम होंति विलमयी । चसय जुर्व सहस्सं वादी सिरिमल्लिणामि ।।११६२ ।।
। दि १७५० वा १४०० ।
:- श्रीमल्लिनाथके साथ गणों से पूर्व घर पांचसौ पचास, शिक्षक- श्रमण एक कम सोस अर्थात् उनतीस हजार अवधिज्ञानी दो हजार दो सौ इसने ही केवली, विक्रिया-कदिवारी दो हजार नौ सौ विपुलमति एक हजार सातस पचास और दादी एक हजार चार सौ ये ।।११६०-११६२ । ।
,,, . . . .
मुनिसुव्रतनाथ के सात गणको संख्या
पंच-सा पुनधरा, सिक्लगणा एवकवीसदि सहस्सा । ड-सर्व सहस्सं, प्रोही तं चेव केवलिगो ॥। ११६३ ॥
पु ५००। सि २१००० द्यो १८०० के १८००
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उत्थो महाहियारो
बावीस पगारस, 'बारस कमसो स्याणि बेम्बी । सुव्ययमाहम्मि जिगणा ।। ११६४।।
विलमवी
बायोग्रो,
1 | दे २२०० । वि १५०० | वा १२००
:- मुनिसुव्रत- जिनेन्द्रके सात गणोंसे पूर्वधर पांचसौ. शिक्षक इक्कीस हजार, अवधिज्ञानी एक हजार भाठ सौ केवली भी इसने ही विक्रिया- ऋद्धिघारी बाईससी. विपुलमति पन्द्रह तथा वादी वारह सौ ये ११११६३-१९६४ ।।
गाथा : १९६४- ११६७ ]
rbara
तार तथा पम्पा, पुष्वधरा सिक्सया सहस्साई । बारस छ-सय-जुबाई ओही सोलस-मयाणि णमिणा ।। ११६५ ।। ४५० | सि १२६०० । यो १६०० ।
मा
ताई चिप केवलिखो, पमगरस-सयाइ होंति देगुब्बी ।
बारस स्वाद पण्णा, विलमदो दस समा वादी ।। ११६६ ॥
के १६०० | वे १५०० वि १२५० वा १००० ।
- भिनाय के सात गणोंमेंसे पूर्वधर पारसौ पचास, शिक्षक बारह हजार छह सो अवधिज्ञानी सोलह सौ केवली भी सोलह सौ विक्रिया ऋद्विषारी पन्द्रहसी विपुलमति बारह सौ पचास और वादी एक हजार थे ।।११६५ - ११६६ ॥
१. ८. बारवकमसी ।
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नेमिनाथके सात गरणका प्रमाण
बोस-कवी पुष्धरा, एक्करस-सहस्व अब समा सिक्ला ।
पन्जरस सया ओहो, लेजिय मेला य केवलिको १११६७ ॥
पु४०० | सि ११८०० । श्रो १५०० के १५०० 1
[ १४१
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३४२ ]
तिलोयपम्हणतो
[गाषा : ११६८-११७५
इगि-सम-जु सहस्त, बेगुग्यो भव सयागि बिडलमी। मह साई पाबी, तिहबम - सामिम्मि मिम्मि ॥११६८॥
११.. । वि ९०० । वा ...।
वर्ष:-चमोल्प स्वामी श्री नेमिनापके सात गणोंमेंसे पूर्वपर बीसके वर्ग (चार सौ) प्रमाण, शिक्षक ग्यारह हजार आठ सो, अवधिशानी पाइसौ केवसी भी इतने ही, विक्रिया-कृति घारो एक हजार एक सौ.
विमल गो. पर शादी AARTIK ROYEE
पाश्व-जिनेन्द्र के सात गणों का प्रमाणतिमि सागि पञ्चा, पुबारा सिपलगा सहस्सामि । ना गर-सम-मुत्तानि, ओहि - मुगी चोइस-सयानि ॥११॥
पु ३५० । सि १०६.0 | भो १४०० । बस-यग-फेवतणाची, बेगुन्यो तेति पि वित्तम । सत्त समाणि पश्या, पास-विने इस्सया बाडी ॥११७||
के... | वे ?...। वि ७५० । वा ६०० ।
:-पाश्य-जिनेन्द्रके सात गणोंमेंसे पूर्वपर तीमसौ पचाम, शिक्षक बस हजार नौ सौ, प्रवधिमामो मुनि पौदह सौ, केवली दसके धन ( अर्थात् एक हजार ) प्रमाण, इतने ही विश्छ्यिाअविषारी, विपुनमति सातसो पदास और वादी छह सो॥११६९-११७०।
वर्धमान जिनके मात गणोंका प्रमाण
ति-सयाईपुष्परा, मल-जविसबाहॉति सिक्लगना। तेरस • सयाणि ओही, सत • सयाई पि केवनिनो ॥११७१॥
पु३०. । सि ६१.( ओ १३०० । के ७..।
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Thanks :--
हाल की
गाथा : ११७२-११७५ ] पउत्यो महाहियारो
[ २४३ इगि-सब-रहिव-सहस्संगवी पण-सयामि विउलमदी। चारि - सया मामी, गण · संसा गहमान - जिने ॥११७२।।
६.. | बि ५०० । बा ४०. । प:-वर्षमान जिनेन्द्र के सात गोंमेंसे पूर्वधर तीन सौ, शिक्षकगण नौ हजार नौ सो, भवधिनानी तेरह सौ, केवली सात सी, विक्रिया-ऋद्धि-धारी सो का एक हजार ( नौ सो), विपुल. मति पाँचसो पोर वादी पार सौ थे ।।११७१.१९७२।।
सर्व तीर्थंकरोंके सातों गरोंमेंसे प्रत्येक की कुल संख्यागभ-पज-मस-कम-तिक, पुश्यषरा सख्य-तिस्प-कला। पण-पत्र-पम-गमा मभ-गम-दुम-करकमेण सिक्खगना ॥११७३।। सम्ब-पुण्यपराक-कमेण जारिणम्बाइ ३६६४० ।
मथ सि २०५०५५५ । म :-सर्व तीकरों के शून्य, चार, चो, छ मौर तीन इनने ( ३६६४० ) अतू प्रमाण पूर्वधर तया पाच, पांच, पाच. शून्य, शून्य, शून्य मोर दो इतने (२०.०५५५) अप्रमाण शिक्षक-गए थे ॥११७३||
गयगंबर-छत्सत्त-एषका सन्धे वि ओहि-पानीओ। केवलगानी सम्, गयरबर - अट्ट - पंध - अट्ठमका ।।११५४॥
सम्ब-मोही १२७६.. । सव-के १८५८०० । सर्व:--सर्व अवविज्ञानी शुन्य, शून्य, छह, सात, दो मोर एक इतने (१२७६..) अप्रमाण; सपा सर्व केवली शुन्य, शुन्य, पाठ, पाच, आठ और एफ इसमे (१८५८०.) अनु-प्रमाण थे॥११७४1
आगास-भ-'म पम-दु-वु-प्रक-कमेष सम्व-वेगयो । पंचंबर-मजय-चक्र-पणमेशक घिय सव्व - विवलमदी ।।११७५॥
___ सम्ब-ये २२५६० । सव्व-वि १५४६०५ ।
....
पण ।
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३४४ ]
सिलीयपणत्तो
[ गाथा : ११७६ प्रबं:-सर्व विक्रिया-ऋषि-धारी अङ्क-ममें शुन्य, शून्य, मो, पांच, दो और दो (२२५६०.) अंक-प्रमाण तथा सर्व विपुलमति पांच, शून्य. नो, चार, पांच और एक (१५४१०१) महप्रमाण पे ।।११।।
पभ-मम-ति-छ-एक्केषक, अंक-कामे होंति सम्बबादि-गा। सत्तगना गम - अंबर - गयबष्ट - पसमा अय-नोति ॥११७६॥
सम्ब-वादिगणा ११५३०० । सब-गणा २०४८००० | पर्व:--सर्व वादी बर-क्रमसे झूग्य, शून्म, तीन. छह एक और एक ( १९६००) मा प्रमाण घे। इन सातों गणोंकी सम्पूर्ण संख्या शून्य, शून्य, शून्य, पाठ, पार, वाठ मोर दो इन ( २८४६०००) पडो-प्रमाण होती है ।।११७६।।
नोट :-११.३ से ११७६ अर्थात् ७३ गापात्रों की मूल-संरष्टियोंका मषं इस तासिकामें निहित है
(तालिका २८ अगले पृष्ठ पर देखिये
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तालिका : २८ ] चजस्थो महाहियारो
[ ३४५. तामिका : २८ ___ सातो गणों का पृषक् पृथक एवं एकत्रित (रविणों का) प्रमास ० ११.१-११५६ 2. पूर्वधर | शिक्षक | अवधिज्ञानी| फेवली | विक्रिया | विपुलमसि | वादी | ऋषिगण 1|४५०+ ४१५० +16...+ |२०००+२०६०० +१२७५० +१२७५० = ८४००० | २७५० २१५०० | ६४०० २०००० |२०४०० ! १२४५० १२४०० २१५० १२९३.०६.. |१५००० | १६६०० | १२:५० १२०००
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तिलोयपणाती [ गाथा : ११७७-१९८० कृषभादि तीपंकरोंकी प्रायिकाओंका प्रमाणपन्नास-साहस्साणि, साखाणि तिल उतह - बाहस्स । अजियस्स तिणि लक्खा, ओस • सहासानि बिस्दीको ।।११७७॥
३५०००० । १२०००० :-ऋषभजिनेन्द्र के तौईमें तीन लाख पचास हजार ( ३५०००.) और अजितनाप के सोपमें तीन साख वीस हजार ( ३२००००) प्रायिकाएँ श्रीं ।।११७७।।
तोस - सहस्सम्महिया, तिय सत्ता संभवास तित्वम्मि ।
विरोमो तिमि लाला, सोस-सहस्सामि कसम तुरियाम्म ॥११५८।। xmaa .. AFTENSULT 26-50 PATRE
प्रपं:-सम्भवनापके सीपमें तीन लाख तीस हजार (१२०००) एवं पार्ष अभिनन्दनमायके तीर्पमें तीन लाख तीस हजार छह सो (३०१.००) माविकाएं भी ।।११७।।
तीस-सहस्सहिया, सुमइ-निविस्स तिणि लताई। बिरवीओ पज-साखा, बीस-सहस्सानि पउमपह-माहे ॥११७६।।
३३०००० | ४२०.०
मर्थ:-सुमतिजिनेन्द्रके तीर्य में तीन लाख तीस हजार ( ३३०००० ) और पचप्रमके तीर्ष चार लाख बीस हजार { ४२.... आर्यिकाएं पौं ।।११७६।।
तोस • सहस्सा तिथि य, लक्खा सिस्ने सुपासवेवरस । चंवरहे' तिय - सन्ता, सोवि • सहस्सानि बिरखोनो ॥११०॥
३३०००० । ३६००००। :-सुपार्श्वजिनेन्द्र के सीमें तोर मात्र तीस हजार ( २०००० ) मौर चन्द्रप्रभके तोषमें तीन लाख अस्सी हजार { ३८०००० ) मार्यिकाएं पी॥१९८०!!
१.ब.प.
महे।
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गाचा : ११८१-१९५] उत्यो महाहियारो
[ ३४७ ताई विष पत्ते, विहि-निनेसम्म सीयल-निणिरे'। तीस - सहस्साहिम, लवं सेवंसदेवम्मि ॥११८१॥
३८०००० । ३८00.0 | १३००००। :--सुविधि और पीतल चिनेन्त्रमेंसे प्रत्येकके तीर्यमें उसनी ही ( सीन सास अस्सी हमार ) तथा श्रेयांस जिनेन्द्र के सोर्य में एक लाख तीस हजार ( १३.०४. मयिकाएं थीं ॥१५॥
विरवीड 'वासुपुज्ने, इगि-सवलं होति सहस्सारिण। हगि-लावं ति - सहस्सा, पिरबोओ विमल - देवस्स ॥११॥
१०६..। १०३०००। मय:-यासुपूज्य स्वामौके तीर्थ में एक लाख छह हजार ( १०६.०० ) पौर विमलदेव के तोममें एक साथ तीन हजार ( १०३००० ) आर्यिकाएं थीं ।।११८२।।
भट्ठ-सहस्सामहिमं, अगत-सामिस्स होति इमि लाल । पासष्टि - सहस्साणि', बत्तारि सयाणि धम्मगाहस्म ॥११३॥
१०.०० । ६२४००५ मर्ष:- अनन्तनाप स्वामीके तीर्थमें एक मात्र पाठ हबार ( १७६०. ) और धर्मनाथके तीधर्मे शसठ हजार चार सो { ५२४०० ) आयिकाएं थीं ।११८३१॥
सटि-सहस्सा ति-सयम्भहिया संकी-सतिस्प-विरबीयो । मष्टि - सहस्सा ति - सया, पन्नासा धोवस्त ।।११४॥
६.३०० १६०३५० । :-शान्तिनाप तोमें साठ हजार तीनसो ( ६.३७.) और कुम्युजिनेनके तीपमें साठ हजार तीन सौ पचास (६०३५०) आयिकाएं घी ॥११८४।।
अर-जिण-वरित-तिस्पे, सद्वि-सहस्सालि होति बिरबीओ। पगाल • सहस्सागि, मल्सि - जिसत्य तित्पम्मि ॥११८५॥
६०००० । ५५०००।
.... उ, निरिणाग। २. ... प. प. उ. माज्जे । ३. . मासाणं ।
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वाचार्य श्री सुतिसागर की टा
३४८ ]
तिलोयप भगती
[ गावा
११६६ - ११६८
अर्थ :- प्ररजिनेन्द्रकं तीर्थ में साठ हजार ( ६००००) मोर महिल जिनेन्द्र के तीर्थ में पचपन हजार ( ५५०००) धायिकाएं वीं ।। ११८५ ॥
पण्णास सहस्साण, विरदीओ सुध्वदस्स तिरथम्मि ।
पंख - सहस्तम्भहिया, चाल सहस्सा नाम जिनस ॥१११८६॥
·
-
५०००० | ४५००० ।
प्र:- मुनिसुव्रत के तीर्थमें पचास हजार (५०००० ) और नमि जिनेन्द्रके तीर्थ में पांच हजार अधिक चालीस ( पंतालीस हजार ( ४५००० ) आधिकाएँ थीं ।। ११८६ ॥
-
विगुणिय-बस-सहस्सा मिल्स कमेन पास वोराजं ।
अडतीस पतीसं होंति सहस्सानि विरवधो ।।११८७।।
४०००० | ३८००० | ३५००० |
नाम
अर्थ :- नेमिनाथके सीमें द्विगुण बीस ( चालीस हजार ( ४०००० ) और एवं बोर जिनेशके तीर्थ में क्रमशः बड़तीस हजार ( ३८००० ) एवं छतीस हजार ( ३६००० ) प्रायिकाएं च ।। ११८७॥
आयिकाओं की कुल संख्या
बभ-पण--ख-पंचंबर पंचक कमेन शिरकत्तानं
सवाणं विरदीओ, चंक्जल निकलंक' सीलाश्री ॥। ११८८ ॥
1. . . . . . . fyeqww
-
। ५०५६२५० ।
अर्थ :- सर्व तीर्थंकरों के तीर्थ में चन्द्र सस उज्ज्वल एवं निष्कलङ्क शीससे संयुक्त समस्त भाविकाएँ क्रमशः शून्य, पांच, दो, छह पाँच, शुन्य और पांच ( ५०५६२५० ) अंक प्रमाण off 11335511
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[ ३० प्रमुख प्रायिकाओंके नाममम्हप्पकुम' मामा, पम्मतिरी मेसेण - अयणता । तह रतिसेचा 'मीणा, पहना घोसा प रणाय ॥११८६॥ पारण - बरसेगानो, पम्मा' - सवस्ति सुब्बानो वि । हरिसेण • भावियामओ, इंधू - मधुसेण - पुष्फवंताओ ।।११६०॥ मगिाणि-अक्छि-सुलोया, बंधण-गामाओ उसह-पहीन ।
एषा पखम - गलीओ, एफेक्का सयविरदीभो ।।११६१॥
म:- ब्राह्मी, २ प्रकुन्धा ( कुमाभर्मश्री ( धर्मार्या ), ४ मेषा , ५ अनन्ता ( अनन्तमसो ), ६ रतिपणा, ७ मौना ( मीनार्या ), ८ वहाणा, ६ घोषा ( घोवा), १० घरणा, ११चारणा ( धारणा), १२ वरसेना (सेना). १३ पपा, १४ सबंत्री, १५ सुबत्ता, १६ हरिषेरणा, १७ भाविता, १८ कुन्थुसेना ( यक्षिता ), १९ मधुसेना (अन्धुसेना), २० पुषदन्ता ( पूर्वदत्ता), २१ मागिरणी ( मंगिनी ), २२ यक्षिणी ( राजमती), २३ सुलोका ( सुलोचना ) एवं २४ चन्दना नामक एक-एक प्रायिका ऋमणः ऋषभादिकके सीपमें रहने वाली प्रायिकाओं के समूहमें प्रमुख थों ।।११८६-१९९१॥
श्रावकोंको संख्यालम्सानि तिम्णि साक्य - संखा उसहारि-अह-तिस्पेसु । पत्तक्कं वो सक्ला, मुविहिप्पहुयीसु' अह - हिस्सु ॥११९२॥
।८।३००००० । २०००००। एकेक घिय समाई, कुंप-जिभिरादि-अ-तिस्थेसु । सबाग साषयान, मिलिवे अबदाल - लक्खाणि ॥११६३॥
८।१०००००। ४८०००..'।
t६.ब. क. प. प. उ. २.क.ब, म. र. णामा। ... य.क, ज. य.., पम्मा . सत्तत्मसुखमामो नि। १.१.क, न. प. उ. मचिहमानोस् । .ब.क, ज.व. एकन। . . उ.
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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा ११६४ - ११६१
:- बावकोंकी संख्या ऋषभादिक आठ तीर्थंकरोंमेंसे प्रत्येकके तीर्थ में तीन-तीन लाख और सुविधिनाथ प्रभृति पाठ तीर्थंकरों में से प्रत्येकके तीर्थमें दो-दो भाब पी। कुम्युनाबादि आठ सीकरोंमेंसे प्रत्येक तीर्थ में श्रावकोंको संख्या एक-एक लाख कही गई है। सर्व श्रावकोंकी संख्याको मिला देनेपर समस्त प्रमाण अड़तालीस लाख होता है ।। १९६२-११६३।।
श्राविकाओंकी संख्या -
३५० ]
पण चतिम लम्बाई पणमिषा पुह पुह सामणि संज्ञा, सब्जा मुन्यददि
-
| ४००००० । ४००००० ३००००० १६००००० ।
वर्ष :- आठ-आठ तीर्थकरोंमेंसे प्रत्येकके तीर्थमें श्राविकाओं को पृथक् पृथक् संख्या क्रमशः पाँच लाख, चार लाख और तीन लाख तथा ( श्राविकाओं की ) सम्पूर्ण संख्या खपानवे लाब कही गई है ।। ११९४ ||
तिथेसु । लक्चाई ।। १११४ ।।
प्रत्येक तीर्थ में देव देवियों तथा अन्य मनुष्यों एवं तियोंकी संख्यामार्यवर्त : ariel of da
देवी वेद समूह, जातीवा हवंति गर तिरिया ।
·
संलेमा एक्केबके लित्वे विहरति भक्ति जुत्ता' ११११९५ ।।
अर्थ :
तियंच जीव भक्तिसे संयुक्त होते हुए विहार किया करते हैं ।। ११६५ ।।
प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थमें संख्यात देव देवियोंके समूह एवं संक्यात मनुष्य वीर
ऋषभादि तीर्थंकरोंके मुक्त होनेकी तिथि काम, नक्षत्र और सह-मुक्त जीवोंको संख्याका निर्देश
समं
माघस्स किन्तु चोइसि पुष्यन्हे नियय-जन्म-क् अट्ठावयम्मि उसहो अजुवेण
I
गमो मोक्स* ।। ११९६५
१oroo
म :- ऋषभदेव माघ कृष्ण चतुर्दशी के पूर्वाह्न में अपने जन्म ( उत्तराषाढा ) नक्षत्र के रहते कैलासपर्वतसे दस हजार मुनिराजोंके साथ मोक्षको प्राप्त हुए ।। ११२६ ।।
२. ८. २.. उ. प. उ. परिवर २. एनको १.व.उ. जुतो, द. न. जुद, य. क. ४. २. ब. क. ज. जोमिप जम्मि
गुदा ।
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महाहियारो
ससुद्धः प्रतेि ।
सम्मेद अभियात्रियों मुसि 'एतो सहस्स समं ।। ११६७।।
गाथा १११७-१२००
१०००
वर्ष :- मजित जिनेन्द्र यंत्र शुक्ला पंचमी के पूर्वाभरणी नक्षत्रके रहते सम्मेदशिखरसे एक हजार मुनियोंके साथ मुक्तिको प्राप्त हुए ।।११६७॥
बेस्स सुक्क छुट्टी वरन् जम्म भम्मि सम्मे
संपतो प्रपवर्ग,
संभवसामी
सहस्स
-
-
१.८..
४. ब. ज. उ. जुता ।
-
१००० ।
:- सम्भवनाथ स्वामी चैत्र शुक्ला ठोके अपराह्नमें जन्म ( ज्येष्टा } नक्षत्र के रहने सम्मेदशिरसे एक हजार मुनियोंके साथ मोक्षको प्राप्त हुए हैं ।।११६८ ।
वइसाह-सुन-समि, पुम्हे अम्म मम्मि सम्मेद !
बस सय महसि सहियो भंवणवेची"
P
M
·
-
-
| १००० |
अर्थ :- अभिनन्दन देव वंशाख शुक्ला सप्तमोके पूर्वा रहते सम्मेदशिरसे एक हजार महर्षियोंके साथ मोक्षको प्राप्त हुए ।। ११६६॥
-
-
जुदी' ।। ११६८ ।।
-
वेत्तस्स सुबक वत्सभी पुथ्वहे जम्म भम्मि सम्मे ।
इस सय रिसि संजुतो", सुमई निष्वानमावली ॥१२०॥
-
१०००
गवो मोल्लं ।। ११६६ ॥
[ ३५१
प्रश्न जन्म ( पुनर्वसु ) नक्षत्र के
पर्थ : सुमतिजिनेन्द्र चैत्र शुक्ला दसमी के पूर्वाद्धमें अपने जन्म ( मधा ) नक्षत्रके रहते सम्मेदशिखरसे एक हजार ऋषियोंके साथ निर्वाणको प्राप्त हुए ।। १२०० ॥
जउ मुति पत्ता । २. ६. ब. ज. उ. जुदा......
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३५२ ]
तिलोपस
भम्मि सम्मे ।
फरतुन किन्ह-चडल्बी अबरहे जन्म चवीसाहियतिय सय सहिदों परमम्पो देवरे ।।१२०१ ।।
फागुन- बहुलछुट्टी असुराहाए पण
-
-
३२४
:- पद्मप्रमदेव फाल्गुन-कृष्णा चतुर्थी के अपरा अपने जन्म (चित्रा) नक्षत्रके रहते सम्मेदशिखर से तोनसौ चौबीस मुनियोंके साथ मुक्तिको प्राप्त हुए हैं ।। १२०१ ॥
सय
·
-
→
[ गाथा : १२०९-१२०५ :- अचार्य श्री ि
-
पुन्हे पवम्मि सम्भेवे ।
तो मुसो सुवास जिलो ।। १२०२ ॥
·
। ५०० ।
:
प्रयं सुपाश्वंजिनेन्द्र फाल्गुन-कृष्णा पष्ठी के पूर्वा अनुराधा नक्षत्रके रहते सम्मेद पर्वत चिसो मुनियों सहित मुक्तिको प्राप्त हुए हैं ॥१२=२ ।।
सिव-सतम-पुण्य, भद्दपदे भुमि सहत्य
सु सम्मे
यह जनवरी
-
-
६. ब. जे. उ. जुता । २. ४.ब.उ. दो
१००० ।
अर्थ :- चन्द्रप्रभ-जिनेन्द्र भाद्रपद शुक्ला सप्तमी पूर्वा ज्येष्ठा नक्षत्रके रहते एक हजार मुनियों सहित सम्मेदशिखरसे मुक्त हुए हैं ।। १२०३ ।।
-
संतो । सिद्धो ।। १२०३ ॥
असद- सुक्क अटुमि अकरम्हे जम्म भम्मि सम्मे ।
मणिबर सहस्त-सहियो, सिद्धि गयो पुष्कवंत जिणो ।। १२०४ ॥
-
१००० 1
अर्थ :- पुष्पदन्त जिनेन्द्र आश्विन शुक्ला अहमीके अपराह्न में अपने जन्म ( मूल ) नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखरसे एक हजार मुनियोंके साथ सिद्धिको प्राप्त हुए हैं ।।१२०४।।
कचिय सुक्के पंचभिपुष्यन्हे जन्म-भम्मिम्मे । शिष्याणं संपत्तो, सोयल वेबो
साहस्स
१००० ।
जुबों ।।१२०५।।
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गाया : १२०६-५२०६] रउत्यो महाहियारी
। ३५३ भ:-शोतसनाप जिनेन्द्र कार्तिक शुक्ला पंचमीके पूर्वाहमें अपने जन्म ( पूर्वाषाढ़ा) नपात्रके रहते सम्मेदशिखरसे एक हजार मुनियोंके साप निर्माणको प्राप्त हुए हैं ॥१२०२।।
सापचय-पुगिमाए', पुम्बन्हे मुनि - सहस्स • संगुतो।। सम्मो सेपंसो, सिदि - पो भिवातु ।।१२०६॥
। १००० । प:- भगा लामाको पनि पहिले पनि क्षत्रके रहते सम्मेदनियरसे एक हजार मुनियों के साथ सिद्धिको प्राप्त हुए हैं ॥१२०॥
फागुण - बहुले पंचमि • अबरहे प्रस्सिमौतु पाए । स्वाहिय-छ-सब-जूबो सिद्धि - गदो बासुपुत्रा-बिगो ॥१२०७।।
। ६०१ । मर्ष :--वासुपूज्य जिनेन्द्र फाल्गुन-कृष्णा पंचमीके दिन अपरामें अस्विनी नक्षत्रके रहते घासो एक मुनिपोंके साथ धम्पापुरसे सिविको प्राप्त हुए हैं ।।१२०७१
सुक्कट्ठमी - परोसे, मासा जम्म - भम्मि सम्मे। छसम • मुगि - संजुत्तो, मुनि पलो विमालसामी ।।१२०८।।
w:-विमसनाप स्वामी आषान-शुक्ला अष्टमी को प्रदोष काल (दिन और रात्रिके सम्धिकाम ) में अपने जन्म ( पूर्वभाद्रपद) नक्षरके रहते इसी मुनिपोंके साप सम्मेवशिलारसे मुक्त हुए ।।१२०८॥
तस्स किन्ह-पमिछम-विषपरोसम्म जम्म-भासते। सम्मेवम्मि मनतो, सत - सहस्सेहि संपत्तो ॥१२०६।।
१७... ।
१.4.क. उ. पुणमाए। २. प. प. जुझ ।
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तिलोत्पमाती [गाया : १२१-१२१३ प:-अनन्तमाप स्वामी चैत्रमासके कृष्पक्ष सम्बन्धी पश्चिम दिन (अमस्या) को प्रदोष-कालमें अपने जन्म ( रेवतो ) नमसमें सम्मेदशिखरसे सात हजार मुनियों के साथ मोक्षको प्राप्त हुए है ॥२०॥
अदुस्स किन्ह - चोसि - पजसे जन्म - भम्मि सम्मे। सिबो सम्म - जिभियो, स्वाहिय - प - सएहि जो ॥११॥
। ८०१ । म:-धर्मनाथ जिनेन्द्र ज्येष्ठ-कृष्णा चतुर्दषीको प्रत्यूष ( रात्रिके अन्तिम भाग-प्रभात) कालमें अपने जन्म { पुग्य )
न याठ Frमुचियोचर हिर कि हुए है।१२१०॥
अटुस्स किन्ह'-बोहसि-पदोस-समम्मि बम्प-नगमत। सम्मेरे संति - निगो, नव-स्य-भुषि-संबो' सियो ॥१२११॥
I
..।
प्र :-शान्तिमाय जिनेन्द्र ज्येष्ठ-कृष्णा-चतुर्दशी को प्रदोषकालमें अपने जन्म (भरणी ) नक्षत्र में नोसो मुनियों के साथ सम्मेदशिखरसे सिद्ध हए ।।१२।
पासाह-सत-पारिव-पारोस-समपरिह बन्न सक्खसे। सम्मेवे कुच - जिनो, सहस्स - सहिदो गरी सिद्धि ।।१२१२॥
।१०००।
मर्थ :-कन्धु जिनेन्द्र वैशाख-शुक्ला प्रतिपदाको प्रयोष-कालमें अपने जन्म (कृतिका) अक्षयके रहते एक हजार मुनिषोंके साप सम्मेदशिखरसे सिसिको प्राप्त हुए हैं ।।१२१२॥
घेत्तस्स बस-परिम, विनम्मिनिय जम्मि-मग्नि परसे । सम्मेवे अर • देनो, सहस्स - साहितो गो मोगल ।।१२१३॥
१. द... क. 1. किपदोमे । २. १. प. प. चारदा सिया। ३. ३. क.सा... लिम्म ।
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________________
fairs .. याई HAPTER RETREETE पापा ! १२१४-१२१७ । पठत्यो महाहियारो
[ ३५५ भ:-परनाक भगवान्ने मैत्र-काष्णा प्रमावस्याको प्रत्यूर-कालमें सने अन्म (रोहणी) नक्षपके रहते एक हजार मुनियों के साथ सम्मेदशिखरसे मोक्ष प्राप्त किया है ।।१२१३॥ पंचमि-पदोस-समए, फागुन-
पसम्मि भनि-मजते । सम्मेद मल्लिवितो, पंच - सय' - सामं पयो मोक्तं ॥११॥
५००
म:-मल्सिनाथ तीपंकर फाल्गुन-कृष्णा पंचमीको प्रदोष समयमें भरपी मापक रहते सम्मेदसिंबरसे पाचलो मुनियों के साथ मोक्षको प्राप्त हुए है ।।१२१४।।
सगुण-किव्हे बारसि-पहोस-सममम्मि जम्म-गरल। सम्मेरम्मि विमुको, सुखद • वो सहस्स पत्तो ॥१२१५।।
।१०००। प:-मुनिसुव्रतजिनेन्द्र फाल्गुन-कृष्णा बारसको प्रदोष समयमें अपने जन्म ( श्रवण) नक्षत्रके रहते एक हजार मुनियों के साथ सम्मेदशिखरसे सिबिको प्राप्त हुए हैं ।।१२१५॥
पइसाह-किह-बोइसि, पच्चूसे सम्म - भम्मि सम्मेदे । निस्सेयसं पबन्लो, समं सहासेन गाम - सामी ॥१२१६॥
। १०००। ब:-नमिनाथ स्वामी पाप-कृष्णा पतुर्दशीके प्रत्यूषकासमें अपने अन्म ( अश्विनी) नक्षत्रके रहते सम्मेदशिचरसे एक हजार मुनियोंके साप नि:श्रेयस-पयको प्राप्त हुए हैं ।।१२१६॥
बालदमी • परोसे, प्रासाडे आम्म - मम्मि उच्यते। छतीसाहिय - पन - संप - साहिबो नेमासरो सिको' ॥१२१७॥
म:-नेमिनाथ जिनेन्द्र भाषाक्-कृष्णा अहमीको प्रदोष कासमें अपने जन्म (चित्रा) नक्षत्रके रहते पांच सौ छारतोस मुनिराजोंके साथ ऊर्जयन्तगिरिसे सिद्धहए है ।।१२१७॥
१द... ज. . उ. समस्तमगहो । १.... निता।
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________________
३५६
तिलोयपाणती गाथा : १२१८-१२२१ सिब-सरामी-पदोसे, सावन-मासम्मि सम्म • भासते। सम्मेरे पासचिनो, छत्तीस - दो गयो मोर ॥२१॥
३६ । वर्ष : पार्श्वनाथ जिनेन्द्र श्रावण मासमें शुक्लपक्षकी सप्तमीके प्रदोष-कालमें अपने जन्म ( विशाचा ) नक्षत्रके रहते छत्तीस मुनियों सहित सम्मेदशिखरसे मोशको प्राप्त हुए है ।।१२१८॥
करािय - किहे पोति, पम्से सादि-बाम-क्यते। पावाए गयरीए, एक्को बोरेसरो सिद्धौ ॥१२१९॥
मई महाशियेश्वर अात संवा शाखासीको भूलो ताति नामक नक्षत्रके रहते पावामगरीसे प्रफले ही सिद्ध हुए हैं ।।११।।
.
[ तालिका : २६ मगले पृष्ठ ३१८-३५६ पर देखिये ]
ऋषमादिजिनेन्द्रों का योग-निवृत्ति कालउसहो चोइसि विसे, बु- दिणं वीरेसरस्स सेताम् । मासेन य विवि प्रोगावो मुक्ति - संपन्नो ॥१२२०॥
:-ऋषभनिनेन्द्रने यह दिन पूर्व. वीर जिनेन्द्रने दो दिन पूर्व पोर शेष तीर्थंकरोंने एक मास पूर्व योगसे निवृत्त होनेपर मोम प्राप्त किया है ।।१२२०
तीर्थकरोंके मुक्त होनेके आसम-- उसहो य पापुल्यो, मी पल्लंक - 'मज्ञमा सिद्धा। काउस्सग्गेच जिला, सेता मुति समावस्या ।१९२१५
1. ५. ताया।
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गाथा : १२२२-१२२४ ] चउस्मो महा हियारो
[ ३५७ म। ऋषभनाथ, वासुपूज्य एवं नेमिनाप परप-रह-आसमसे तथा गेष जिनेन्द्र कायोत्सर्ग मुद्रासे मोक्षको प्राप्त हुए हैं ॥१२२३।।
मुक्तिफल यापनाबसन्ततिलकापोरद्व-कम्म-बियरे दलिहूल लर
गिस्सेयता जिनवरा जगव - जिम्मा । प्रतिक्षित
? 'सितिपमहरि-भव-जणाण सम्बे ॥१२२२॥ प्र:-जिन्होंने घोर अट-कोके समूहको नष्ट करके निःश्रेयसपदको प्राप्त कर लिया है मौर जो जगत्के वन्दनीय है ऐसे वे सर्व जिनेन्द्र शोर हो. श्री बालचन्द्र मैदान्तिक प्रादि भव्यजनोंको मुक्ति प्रदान करें ॥१२२२।।
ऋषभादिजिनेन्द्रोंके तीर्वमें अनुबद्ध केवलियोंकी सच्यावसमते घसौदी, कमसो मणुबड - केवसी होति । बहारि चउवाल, सेयंसे वासुपुरले य ॥१२२३।।
८४ । से ७२ वा ४४ । पर्व:-त्रादिनाथसे शीतलनाष पर्यन्त (प्रत्येक के ) पौरामी तथा श्रेयांसनाप और वासुपूज्यके क्रमशः बहत्तर एवं वासोस अनुमड केपली हुए हैं ।।१२२३।।
विमल-विणे चालीसं, बस तबो बार-विवक्किया कमसो। तिमिल किवव पास जिये तिष्णि धिय वड्माणम्मि ॥१२२४।। । ४. । ३६ । ३२ । २८ । २४ । २० । १६ । १२ ।।४।३।३ ।
प:-विमस जिनेन्द्र के पालीस, इसके पश्चात् नौ तीर्थकरोंके क्रमशः उत्तरोत्तर पारपार हीन, पाश्र्वनाथ तीन और वर्धमान स्वामीके भी तीन ही अनुबद्ध कंवली हुए है।।१२३४॥
1... ज. प. उ. सिबति पविनम्वनणाण ।
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________________
मालिका : २२
१
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धार की संस्था एवं तीर्थकरों के निर्मातामा १७७-१२१० याबकी। श्राषि निर्वाण प्राप्ति
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संख्या
मात | पा तिमि | समय | नक
手控糖
प्रमुख
द्वारिकाम की संख्या धार्मिका
१६००००
ब्राह्मी
३२०००० प्रकुब्या
३३०००० धर्मश्री
३३०६०० मेगा
१३००००
अनन्ता
४२००००
१००००
15.000
१८००००
१३००००
to६०००
१०३००० :
To५०००
६२४००
विशा
मोना
वरणा
बोवा
धरणा
पारला
बरसेना
1
मार्गदर्शक
पया
सर्वश्री
मुखता
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ग 11
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पंचमी पूर्णाह ५०वा०
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पूर्णिया
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फाल्गुन कृष्णा पंचमी अपराधिय
पाद सुषमा अश्मी प्रयोग प्र०भा
मंत्र
कृष्णा अमावस
रेख
पुष्य
सह-मुरु
कृष्ण चतुर्दशी पूर्वा०पा०साथ पस१००००
शुस्मा पंचमो
भरणी
14
मैत्र
दशमी
सभा
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आचार्य श्री विधिसागर जी महाराज फाल्गुन कृष्ण चतुर्थीत्रा सम्मेर १२५
पूर्वानु
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मारपद शुक्ला स
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षष्ठी राज्ये
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[ तालिका २६
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________________
४माक
सामिका : २९]
०३.. | हरिपरखा २ मा || भाविता कमान साब
सुस्मा सिपा घुसेगा | मधुसेना
पुष्पवता INE.in .... पक्षिदर्शक- आधा
श्री सुनसरीमती (राजमती) सुसोका
थादण | गुमा । मममी | .. | वि. । सम्भवभिन्नर २४३६... बन्दना | . . | .. .. सिक कपणा बंधी पाच | स्वाति पामापुरी ! योग ५७५६२५० ..........
मागिधी.॥
| प्रस्यच माविया
।
हासंकर
पठरलो महाहिवारो
[
४५
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________________
३६० ]
तिसोयपष्णाप्ती [ गापा : १२२५-१२२८
प्रकारान्तरसेमा सत्तममेषक-सर्य, उपरि-तिय विवाद परसोयी।
सेसे पुष्य • संबा, हवंति अनुगट - केवली अहा ।।१२२५।। पत्तेयं १००।१०० १००।१००।१००।१०।१०.to It It०।
८४ | ४० । १६ । ३२ । २८ । २४ । २० । १६ । १२ । । ४ । ३।३।
प:-अपवा सातवें सुपाश्वनाष पर्यन्त एकसा, आगे तोमके नम्ब, पुनः नम्ब, चौरासी एवं शेष सीर्षकरोंके पूर्वोक्त संख्या प्रमाण हो अनुबब केवसी हुए हैं ॥१२२५।।
अभादि तोपकारों के सिव्योग पत्ता विमलों में जाने वालोंकी संख्याउसह तियान खिस्सा, बोस - साहस्सा अनुत्तरेसु गया।
कमसो पंच - बिसु, तसो बारस - सहस्सानि ॥१२२६॥ ००।२०००० । २०००० । १२००० । १२००० । १२००० । १२००० । १२...।
तत्तो पंच - जिगेसु, एकार • सहस्सपाणि परो ।
पंच सामिसु ससो, एक्केबके स - सहस्साणि ॥१२२७॥ ११००० । ११...। ११०००। ११००० । ११०००।१०... १....
11००००।१0000 + १०००० । अहासीदि : समाणि, कमेण सेसेसु निगरियेसु।
गयण-गम-बह-सग-सग-दो-अंक-कमेग सब्य-परिमाणं ॥१२२८॥ ५८. ८५.०। ८. 50. I 4... 14...। समेलिया २७५६०. ||
। अणुतरं गदं। :-ऋषभादिक तीन जिनेन्द्रोंके कमान: बीस-बीस हजार, मागे पाच तीर्थकरों के बार-बारह हजार, भागे पाच जिनेन्द्रोंमेंसे प्रत्येक ग्यारह-ग्यारह हजार, फिर पांच मिनेन्द्रमिसे एक-एकके दस-दस हजार सवा शेष छह जिनेन्द्रोंके क्रमशः मठासी-मठासी सौ शिष्य बनुत्तर विमानोंमें
......... पदो।
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________________
गाया : १२२६-१२३२ ] पस्यो महाहियारो
[ ३६१ गये है। इस विमानों में जाने वाले सम्पूर्ण
शिक्षा का प्रयासमा लाल सार मोर पो (२७७१०.) संस्थाके बराबर है । १२२६-१२२८॥
। अनुसर विमानों में जाने बालोंका कषन समाप्त हुआ।
ऋषभादिकोंके मुक्ति प्राप्त यतिमणों का प्रमाण-- साहि-सहस्सा पव-सय-सहिया सिडि गदा जवीण गणा । उसहस्स अजियन्सहमो, एक्कन्सया सलातरि - सहस्सा ।।१२२६।।
।६.१००। ७७१.० । प :-ऋषभजिनेन्द्र के साठ हजार नौ सौ भोर अजितप्राके मतसर हजार एकसो पतिगण सिद्धिको प्राप्त हुए हैं ।।१२२९।।
सार-सहस्स-इणि-सय-सत्ता संभवस इगि • लक्वं । दो साला एक्क-सवं, सीरि-सहस्सागि गंवन-निमस्स ॥१२३०॥
। १७०१०० । २८०१००। मर्ष:-सम्भवनापके एक खास सत्तर हजार एक सौ और अभिनन्दन जिनेन्टके दो लाख भस्सी हजार एक सौ यत्तिगण सिंह हुए है ।।१२३० ।।
सामाणि तिग्णि सोतस-सहि जुत्तागि सम-साभिस्त । बोहस-सहस्स-सहिदा, पउमापह-जिपबरस्स पतिय-समता ।।१२३॥
।३.१६० । १४००० । म :--मुमसिनाथ स्वामीके तीन लाख सोलह सो भौर पपप्रभ जिनेन्द्र के तीन लाख पौवह हजार मुनि सिद्ध हए ।।१२३१।।
पंचासोदि सहस्सा, वो लपला छस्सया सुपासस्स । बउतीस - सहस्स - जुगा, को लक्हा संवाह • पहनो ।।१२३२॥
।२८५६०० । २३४००० ।
१.... तिमयसमा।
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________________
निलीयपमाती
[ गापा : १२३३-१२३६ :-सुपार्श्व-जिनेन्द्र के दो लाख पचासी हजार छह मो और चन्द्रप्रमुके दो लाख बाँतीस हजार पति मुक्त हए ।।१२३२।।
उणसीवि - सहस्सानि, इगि - ल स्सयाणि सुविहिस्स । सोधि - सहस्सा' अस्सय, संजुत्ता' सीयलस्त देवस्स ।।१२३३।।
। १७९६००150400। मर्थ :-सुविधिनायके एक साल उन्यासी हजार छह सौ और शीतलवेवके पस्सी हबार छह सौ ऋषि मुक्तिको प्राप्त हुए ।।१२३३॥
पटि-सहस्साणि, सेर्यत - शिणस्त पस्सयाणि पि । परबम - सहस्साई मुच्च सया बासुपुजस्म ॥१२३४॥
। ६५६० । ५४६०० । मपं :-श्रेयांस जिनेन्टके पैसठ हजार छह वासुपूज्य बाप ह स ति मोक्षको प्राप्त हुए ॥१२३४।।
एक्कावण-सहस्सा, तिणि सयाणि पिविमल-माहस्स । तेतिष - मेत्त - सहस्सा, लिय - सय - हीमा पतस्स ॥१२३५।।
। ५१३०० । ५१...। म :-विमल जिनेन्द्र के इक्यावन हजार तीन सौ और मनन्तनापर्क तीन सौ कम इतने ही पर्वात् इक्यावन हजार यति सिझपदको प्राप्त हुए ।।१२।।
उगवन • सहस्साणि, सस - सएहि पाणि धम्मस्स । अखाल - सहस्साई, चतारि सवाणि संसिस ॥१२३६॥
:
।४६७००।४८४००।
परं:-मनाप बिनेन्द्रझे उनचास हजार सात सौ और शान्तिनायक भइसालीस हजार चार सो ऋषि सिदपदको प्राप्त हए ।।१२३६।।
.ब.प. अ. 4. उ. सहस् । २ ... क. जय... मुलाहि ।
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गापा : १२१७-१२४१ ] उत्यो महाहियारो
[ ३६३ चावाल - सहस्सानि, अट - सवाणि च माहस । सस्तीत - सहस्सा, रो-सबन्नुत्ता भर - जिभिबस्स ॥१२३७॥
।४६८०० । ३७२०० । प.-कुन्थुनापके धमालीस हजार पाठ सौ और घर-नाथ जिनेन्द्रकं संतीस हजार दो सो यति मुक्त हुए ।।१२३७।।
अहावीस - सहस्सा, भट्ट सदानि पि मल्लिगाहस । उपवीस - सहस्साणि, रोग्नि समा सुबय - जिनस ॥१२३८।।
। २८५०० । १६३००। म :-मल्लिनायके मट्ठाईस हजार पाठ मो और मुनिमुव्रत मिनेन्द्र के उन्नीस हजार दो सो यति सिट हुए ।।१२३८॥
नवय सहस्सा छस्सम-संवृत्ताममि-जिरणस्स सिस्सनाणा। मिल्स अर-हस्सा बासहि- सयानि पासस्स ।।१२।।
६६०. | ८००० । ६२०० । मर्य:- नमिनाम जिनेन्द्र के नौ हजार छह सो, नेमिनाथके पाठ हजार और पावनायके गासठ सो शिष्यगण मोक्ष गये हैं ।।१२३६।।
चरवास - सपा जीरेसरस्स सन्वाण मिलिव-परिमाणं । पउवीसषि-लक्षाणि, चउसद्वि-सहस्स-बउ-सयामिति ॥१२४०|
wer | २४६४४००। म:-बोर जिनेश्वर पवालीससो शिष्यगए मुक्तिको प्रापा हुए। इन सवं नियोका सम्मिलित प्रभाग भौबीस साब जाँसठ हजार चार सी होता है ।।१२४०॥
ऋषादिकों के मुक्ति प्राप्त शिष्यगणों का मुक्तिकासउतहावि • सोलसाणं, केवसमागप्पसूवि - विसम्मि । पढम चिय सिस्स - गणा, मिस्सेयस - संपर्य पत्ता ।।१२४१॥
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________________
तिलोय पणती
कुंषु चउनके हमसो, इगि-दु-ति-छम्मास-समय-पेरतं ।
मि पहूदि निणिदेषु इगि-हु-ति-छन्दास-संखाए ॥। १२४२ ॥
मा १ । २३३ । ६ । यास १ । २ । ३।६।
ऋषभादि
को
गण
मोक्ष-सम्पदाको प्राप्त हो गये थे । कुन्थुनाथ प्रस्नाप, मल्लिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकरोंको केवलज्ञान होने के क्रमश: एक माह दो माह तीन माह और छह माह्के समय में ही तथा नमिनाथ, नेमिनाथ पावनाय एवं वीर जिनेन्द्रको केवलज्ञान होने के क्रमशः एक वर्ष, दो वर्ष तीन वर्ष एवं ६ वर्षके मध्य में ही उन-उनके शिष्यगण क्रमशः मुक्ति-पदको प्राप्त हो चुके थे ।११२४१-१२४२ ॥
३६४ ]
·
विशेषार्थभाविकोंके शिष्यों को मुक्ति परम्पराका प्रारम्भ
ऋषभादि सोलह तीर्थंकरोंके शिष्यगण केवलज्ञान उत्पन्न होने के दिनसे ही मोक्ष-सम्पदाको प्राप्त करने लगे । कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ पोर मुनिसुव्रतनाथ तोयंकरोके शिष्यगण क्रमश: केवलकान होनेके एक माह दो माह तीन माह और इ महूके उपरान्त तथा नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और बीर जिनेन्द्रके शिष्य क्रमशः केवलज्ञान होनेके एक वर्ष, दो वर्ष तीन वर्ष एवं छह के पश्चात् मुक्ति पदको प्राप्त होने लगे ।
( सालिक ३० पृष्ठ ३६५ पर देखिये |
[ गाथा : १२४२ - १२४३
ऋषभादिकां सौधर्मादिकों को प्राप्त हुए शिष्योंकी संख्या-सोहम्माविय उबरिम वजा जाग उवगवा सन्गं । उसहायो सिस्सा, तरण मागं परमो ।।१२४३।।
-
अयं
स्वर्गको प्राप्त हुए हैं. उनके प्रमाणका रूपा करता हूँ ।। १२४३ ।।
ऋषभाविक जिनेन्द्रोंके जो मुनि ( शिष्य ) सोघमंसे लेकर ऊर्व प्रवेयक पर्यन्त
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तालिका : ३०] तालिका : ३०
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१२२० - १२४२ मुक्तिप्राप्त शिष्यों की यतिगणों की मुक्तिप्राप्ति
का प्रारम्भ
संख्या
काल
प्रथम दिन
६०६००
७७१००
१७०१००
357
२०१६००
३१४०००
२८५६००
२३४०००
१७६६००
८०६००
६५६००
५४६००
५१३००
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४६७००
४८४००
४६८००
३७२००
२५६००
18२००
६६००
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________________
३६६ ]
तिलोसपम्णसी [ गाथा : १२४४-१२४ इगि-सब तिमिन-सहस्सा, गप-सम-सम्माहिम-को-सहस्सान। गाव-भय-मयय-सहस्सा, गव-सय-संबस-सग-सहस्साणि ॥१२४४॥
।३१००। २२०० 1
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बर-सप-छ-सहस्साणि, चाल-सया को सहस्स चारि सया। बाल-सया पत्रक, चारि-सदेण' हिय राम अडसहस्सा IITH
६४०० । ४.०० | २४३ | ४००० | १४.० । ४.. | घउ-सम-सास-सहस्सा, पान-सम-अविरित-अस्सहस्साणि । सग-सय-संक्षा-समाहिय - पंच - सहस्सा पम - सहस्सा ॥१२४६॥
। ७४०.
६४०.
५७००।१०००।
तिय-सब-घउस्सहस्सा, छस्सय-संस-तिय-सहस्सामि । दो-सम-शुर-ति-सहस्सा, अटु-सपाहिम-को-सहत्सानि ॥१२४॥
४३.. ! ३६०-। ३२००।२८०० ।
पउ-सब-ब-बु सहस्सा, दुसहस्सा व सोलस-सयामि । बारस - सया सहसं. अट्ठ - सवारिस जहा कमसो ।।१२४८।।
२४०० १ २००० । १६०० । १२०० । १०००। ६०० । प:-तीन हजार एकसौ, नोसो प्रधिक दो हजार ( २९००). नौ हजार नौ सौ, सात हजार नौ सौ, छह हजार चार सौ पार हजार, दो हजार चार सौ, चार हजार, चारसौके साथ ही हबार और पारसो के साप आठ हजार ( ९४००, 0.00 }, सात हजार चारसौ, पारसो अधिक छह हजार, सातसो संस्थासे अधिक पाच हजार, पाच हजार, चार हजार तीन सौ, छइसौ सहित तीन हजार, दो सौ सहित तीन हजार, आठ सौ अधिक दो हजार चारसो युक्त दो हजार, दो हमार, सोलहसी, बारहसो, एक हजार और पाठ सो, इस प्रकार क्रमशः ऋषमादिक चौबीस तीपंकरोंके ये शिष्य मुनि सोध दिकको प्राप्त हुए ॥१२४३-१२४८॥
...च. भारिसाहाता पण सहस्सा ।
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-
--
-
गाथा : १२४९-१२४८ ] पतस्पो महाहियारो
[ ३६७ भाव-श्रमणोंकी संस्थासासं पंच-सहस्सा, मष्ट-सपाणि मि मिलिय-परिमानं । विषय-सुख-नियम - सनम • भरिवाण भाव - समजाणं ॥१२ ॥
।१०५८७० । पर्य :-विनय. श्रुत, नियम एवं संयमसे परिपूर्ण इन गर भाव मुनियों का सम्मिलित प्रमाण एक लाख, पाच हजार आठ सौ होता है ।।१२४६।।
विशेषाय :- प्रत्येक सीर्घकरके इषियोंकी जो संख्या गर• ११०३-११०८ में बताई गई है वह सात गणोंमें विभक्त है। जिसको तालिका गाया संख्या ११७६ के बाद अंकित है।
ऋषियोंकी यह संस्था सौधर्म से ऊर्ध्ववेयक, अनुत्तर और मोक्ष गमनकी अपेक्षा तीन मापोंमें विभक्त है । इनमें मोक्ष बाने वाले पौर मनुत्तर विमानोंमें उत्पत्र होने वाले सो माव-ऋषि ( श्रमण ) ही किन्तु सौधर्मसे ऊध्ययेयक तक जाने वाले ऋषि भी भाव श्रमण ही थे। यह सूचित करनेके लिए हो गाथा संख्या १२४६ में भावत्रमणाका प्रमाण पृयकर्माया गया है।
( सालिका ३१ पृष्ठ ३६८ पद पेखिये )
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३६६ }
तालिका : ३१
15
€
१०
११
१२
1 #
ex
१४
१६
१७
१५
१६
२०
२१
२२
२३
२४
नाम
ऋषभनाथ
अजितनाथ
सम्भवनाथ
अभिनन्दनजी
सुमतिनाथ
पद्मप्रभु
सुपा मा
चन्द्रप्रभु
पुष्पदन्त
शीतलनाथ
श्रेयांसनाथ
वासुपूज्य
विमलनाथ
अनन्तनाम
धर्मनाथ
शान्तिमाथ
कुन्धुनाथ
अरनाय
मल्लिनाथ
मुनिसुव्रत
नमिनाथ
नेमिनाथ
पाश्र्वनाथ
वोरनाथ
योग
कि :- अयासी
मावि तीर्थकरों के स्वयं पौर मोक्ष प्राप्त शिष्यों की संख्या
सोसेमं
अनुत्तरोत्पल सेत प्राप्त
गा. १२४४० १२४८ गा. १२२६-१२२८ मा १२२१-१२४० गा. ११०३०११०८
गुरु योग
३१००+
२६००
६६००
७६०
६४००
Yooo
२४००
४०००
EXOD
८४००
७४००
૬૪૦
५७.०
५०००
४३००
३६००
३२००
२६००
२४००
२०००
१६००
१२००
१०००
६००+
| १०४६०० +
२००००+
२००००
२००००
१२०००
१२०००
१२०००
१२०००
१२०००
११०००
११०००
ܐܐ
११०००
११०००
१००००
१००००
१००००
aa
ECOO
८८००
G500
2500
८८००
ܘ
८८०० +
२७७५००+
धिरागर तालिका : ३१
६०६००
७७१००
१७०१००=
२८०१००=
३०१६००
३१४०००=
२८५६०००
२३४०००
१७६६००
८०६००
६५६००=
५४६००=
१३००=
५१०००८
४६७००=
४८४००८
४६८००
३७२००
२६५००
१६२००
६६००=
4046=
८४०००
[*****
२०००००
२४६४४००
३०००००
३२००००
३३००००
३०००००
२५००००
२०००००
१०००००
८४०००
७२०००
६८०००
६६०००
६४०००
६२०००
६००००
५००००
४००००
३००००
२००००
१८०००
६२००= १६०००
Yoos
troso
२८४८०००
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महाहियारो
ऋषभनाथ और बीर जिनेन्द्रका सिद्धि-काल
तिम-वासा' ग्रह-मासा, पक्लं तह सहिय-काल-अबसेसे । सिद्धो उस जिनदो, बीरो तुरियस्स सेसिए सेसे ।। १२५० ।।
कार्यक
गाया : १२५०-१२५२ ]
अर्थ :- ऋषभजिनेन्द्र तृतीयकाल में और वीर जिनेन्द्र चतुर्थकालमें तीन वर्ष, आठ मास और एक एक भवशिष्ट रहनेवर सिद्ध पदको प्राप्त हुए ।। १२५०।।
बिलेवा :- गाया संख्या ११९६ में ऋषभजिनेन्द्र को मोक्ष तिथि माघ कृष्णा चतुर्दशी बताई गई है और यहाँ गा० १२५० में कहा गया है कि तृतीयकासके ३ वर्ष माह शेष रहने पर ऋषभदेव मोक्ष गये। युगका प्रारम्भ श्रावण कृष्णा प्रतिपदासे होता है और माघ कृ. चतुदशीरो श्रावण ऋ० प्रतिपदा तक ५३ माह ही होते हैं। जो गा० १२५० की प्ररूपणा बाधक है। यदि ऋषभनाथकी निर्वारण तिथि कार्तिक कृष्णा श्रमावस्या होती तो गा० १२५० का कथन पार्थ ठ सकता है। यह विषय विचारणीय है ।
ऋषभावि तीर्थकरों के मुक्त होनेका मन्तर काल
सिद्धिम् उस साथर कोडोण पन्न लक्खेसु । बोलीने अजियो, विस्सेयस संपयं पक्षो ।। १२५१ ।
। सा ५० ल को ।
:- ऋषभजिनेन्द्र मुक्त हो जाने के पचास लाख करोड़ सागर बाद अजितनाथ तीर्थंकरने निःश्रेयस सम्पदाको प्राप्त किया ।। १२५१ ।।
t. ४. ब... म
-
L
[ ३६९
॥४
कोडि-लस-पसु ।
बसु तीस बस पत्र संखे ततो कमेण संभव नंवण सुमई गवा सिद्धि ।। १२५२ ।।
। सा ३० ल को। सा १० ल को । साεल को ।
अर्थ :- इसके मागे तीस लाख करोड़, दस लाख करोड़ ओर तो लाख करोड़ सागरोंके व्यतीत हो जानेपर क्रमशः सम्भव, अभिनन्दन और सुमतिनाथ मोक्ष गये ।।१२५२॥
. . . . . . 1 3. 2, 4, 6, X. J. 9971 1.4. परे ।
छ. श्रीषु ।
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३७० ]
तिलोमपाती [ गाथा . १२५३-१२५६ उहि-उवमान परवी, गवसु सहस्सेसु कोशि-'पहरेनु । सत्तो गवेमु कमसो, सिखा परमप्पाह' - सुपासा ॥१२५३॥
सा ६.००. को । सा १००० को । भ :-इसके पश्चात् नम्ब हमार करोड़ और नौ हजार करोड़ सागरोंके म्यतीत हो जाने पर क्रमश: पद्मप्रभ एवं सुपायनाय तोयंकर सिद्ध हुए ।।१२५३।।
णव-सय-मदि-सु, कोरि हसुसमुह - उपमाणे। बाबेस तको सिद्धा, चंवमाह - सुरिहि - सोयसया ॥१५॥
सा ६०० को । सा. को। सा ६ को । :-इसके पश्चात एक करोड़से गुशित नौसो प्रति नोसौ करोर सागर, नर्म करोड सागर और मो करोड़ सागर म्यतीत हो जानेपर क्रमशः चन्द्रप्रम, सुविधिनाय पार पीतलनाम जिनेन्द्र सि२ ४IRink
: ki 5.7 सम्बोस-सहस्साहिब-ब-सा-साहिवस्स सापर-सएप । ऊणम्मि कोरि-सायर • कासे सिदो य सेमंसो ॥१२५५।।
सा । को रिए । सा १०० घण ६६२६...। अर्थ :- यासठ लाख छम्नीस हजार ( ६६२६००० वर्ष ) और सौ सागर कम एक करोड सागर प्रमाण कालके पते जानेपर भगवान् श्रेयांसनाथ सिब हुए ।।१२५५।।
चजवण्या-तीस-ब-पत्र - सायर • उनमेस तह अबोदेस । सिद्धो य वासपुग्यो, कमेण बिमलो अनंत • अम्मा' य ।।१२५६।।
। ५४ । ३. | ६ | Y|| अर्थ:-परमात् चौवन, तीस, नो और चार सागरोपोंके व्यतीत हो जाने पर क्रमशः वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाय और धर्मनाथ तीर्थकर सिद्ध हुए ॥१२५६।।
१. द.ब.क.अ. य... पडदेमु। २.... ज. प. उ. पाउसम्पहा सुपासाय।.... म. ५. स.मा | Y. ... क. प. उ. मुद्रासी।... र. पासाह, कामदि। १.. क. प. प. स.धम्मोग।
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गाया : १२५७ - १२६० ]
चउरको महाहियारो
"
तिय-सागरोपमेसु ति-वरण-पल्लोखिनेषु संति-जियो । पसियोमस्स असे तलो सिद्धि गो फुपू ।।१२५७ ।।
शकि
। सा३रिए
। कुंप
अर्थ :- इसके पश्चात् पौन पल्य कम तीन सागरोपमोंके व्यतीत हो जानेपर प्रान्तिनाम जिनेन्द्र एवं फिर अर्धपस्य बीत जानेपर कुन्यु जिनेन्द्र मुक्तिको प्राप्त हुए ।। १२१७।। पलिदोषमस्स पाये, इगि कोडि सहस्त- वस्स-परिहीणे । सहस्सम्मि वासां ।। १२५८ ।।
अरदेवो समिजो,
कोहि
अरिए वस्स १००० को मल्लि वस्स १००० को ।
आयामी
अर्थ :- पश्चात् एक हजार करोड़ वर्ष कम पाव पल्योपम व्यतीत हो जाने पर अरनाथ और एक हजार करोड़ वर्षोंके बाद महिलनाथ मोक्ष गए । १२५८।।
उबा छक्क पंचसु लक्खेषु वबगडेसु वासानं ।
कमसो सिद्धि पता', सुव्वय हामि-मेभिजिन-माहा ।।१२५६॥
। वास ५.४ ल । य ६ ल | व ५ ल ।
धर्म:- इसके पश्चात् चौवन लाख, छह लाख और पांच लाख वर्षोंके व्यतीत हो जाने पर क्रमशः मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ और मेमिनाथ जिनेन्द्र मुक्तिको प्राप्त हुए ।। १२५५ ।।
-
सेसीबि सहत्तेसु, पनापिय सग एसु ज्यारेसु ं ।
ती पासो सिद्धो, पलम्भहियम्म दो सए बीरो ।। १२६० ।।
-
-
·
१. द. प
[t
-
व ८३७५० व २५० ।
| भोक्रं गवं ।
- इसके पश्चात् तेरासी हजार सातसी पचास वर्ष व्यतीत हो जानेपर पारवनाथ
और दो सौ पचास वर्ष व्यतीत हो जानेपर वीर जिनेन्द्र मोक्ष गये ।। १२६० ।।
। मोक्षके अन्तराल कालका कथन समाप्त हुआ ।
5
म. म.उ. २. ब. क. ज. य. उ जिणलाई ।
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३७२]
तिलोयपण्णत्तो
ऋषभादिक-जिनेन्द्रका तीर्थप्रवर्तन काल --
पुम्भाणि सायर उवमान कोडि लक्झाणि । पन्यास तित्पबट्टण कालो चसहस्स सिट्टि १२६१।।
+
सा ५० स को पुष्वंग १ |
भव
पवन का
वर्ष :- भगवान् सागर- प्रमाण कहा गया है ।। १२६१ ।।
-
-
उबमान कोडि लक्खामि ।
पुरुवंग-राय-खुवाई, समुद्द ती थिए सो कालो, अजिय जिमिवस्स भावन्यो ।।१२६२॥
[ षा : १२६१-१२६४
-
१. व. म. म. न. रिट्ठा ।
अधिक पंचास लाख करोड़
सा ३० ल को पुरुषंग ३ |
अर्थ :- अजितनाथ जिनेन्द्रका तीर्थ प्रवतंनकाल तीन पूर्वाग सहित सीस साख करोड़ सागरोपम प्रमारण जानना चाहिए ।। १२६२।।
- पुब्वंग -जुबाई, समुद्र उवमान कोडि लक्खाणि ।
बस मेलाई भनियो, संभव सामिस्स सो कालो ।। १२६३॥
स १० ल को । कुवंग ४ ।
अर्थ :- सम्भवनाथ स्वामीका वह काल बार पूर्वाङ्ग सहित दस लाख करोड़ सागरोपम प्रमाण कहा गया है ।। १२६३ ॥
च-पुरुवंग जुदाई, वारिधि-उपमाण कोडि- लक्खानि
णवमेतारि कहियो, गंदा सामिस्स सो समय ।। १२६४ ।।
साल को पुष्वंग ४ ।
:- अभिनन्दन स्वामीका वह काल चार पूर्वाङ्ग सहित नौ लाख करोड़ सागरोपमप्रमाण कहा गया है ।। १२६४ ।।
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३७३
गाषा : १२६५-१२६९ यतत्वो महाहियारो
बत - पुरुवंगामहिवा, पयोहि उबमान-मदि-मेचार । कोरि-सहस्सा हि पुढं, सो समओ सुमह - सामिस्त १२५५।।
___सा ६००० को । युज्वंग ।। म :-सुमतिनाप स्वामीका वह काल नार पूर्वाङ्ग सहित नम्मे हजार करोड़ सागरोपमा प्रमाण कहा गया है ।।१२६५।।
पर-पुबंगभहिया, पीरहि-सवमा सहस्स-रणव-कोही। तित्य - पयन - कालो, परमप्पह - जिनरिवरस ॥१२॥
* सा६... को । पुस्वंग ४ । प्र:-पम जिनेन्द्रका तीर्थप्रयसनकाल चार पूर्वान अधिक नौ हजार करोड़ सागरोपम प्रमाण है ॥२६६।।
पर-पुम्बन-मामओ, गह-सम-कीरीमो अहि-उपमाणं । घन्म - पपन कालापमाणमे सुपासस्स ॥१२६७।।
सा १०० को । पुवंग ४। मर्थ :-सुपर्वमाप सोकरके धर्मप्रवर्तनकालका प्रमाण चार पूर्वाङ्ग सहित नौ सौ करोड़ सागरोपम प्रमाण है ।।१२६७।।
पर-पुब्बंग-अवामओ, रपणायर-उबम-दि-कोजीओ । हिस्सेय • पय - पयन • कालो बापह - निणस्त ॥१२६८।।
सा ६० को । पुन्वंग ४। वर्ष :-चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रका निःश्रेयस-पष-प्रवासनकाल पार पूर्वाङ्ग सहित नम्मं करोड़ सागरोपम-प्रमाण है ।।१२६८)
भावीस-पुष्वगंगाहिय • पल्ल परस्यभाग - होरखामो। मयरापर - उवमार्ग, भव - कोमोमो समहिलाओ ॥१२६६।।
सा-९ को रिण प : पुस्वंग २८ ।
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________________
३७४ ]
तिलोयपणती
[ गाथा : १२७०-१२५४ अग्रेिगल्स पमान, पुम्बाणं सक्लमेक - परिमाणं 1 मोल्लास्तेणि' - पमट्टम • कालो सिरिपुप्फतम्स ॥१२७०॥
1 घगं पुश्व इल। अर्थ:-श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्रका मोक्षमार्ग-प्रवर्तनकाल अट्ठाईस पूर्वाण अधिक पल्पके चतुर्षभागसे हीन नौ करोड़ सागरोपोंसे अधिक है। इस अधिक कासका प्रमाण एक साल पूर्व हे ॥१२६६-१२७०।।
पलियोबमब-समहिप-सोहि-उवमान एक-साथ-सौगा। रयणापरुषम - कोडी सोयलदेवस्स मदिरिता ॥१२७११॥
सा १ को रिण सा १००।१। अदिरेगरम पमान, पणुदीस - सहस्स हाँति पुग्धारिख । रोम महासायि पर परिहीया ॥१२७२॥
वर्ण पुम्वाणि २५००० । रिण व ६६२६००० । वर्ष :--गीतलनाथ जिनेन्द्रका तीर्थ-प्रवर्तनकाल अर्घ-पस्पोपम और एक सौ सागर कम एक करोड़ सागरोपम प्रमाण कालसे अतिरिक्त है। इस अतिरिक्त कालका प्रमाए। ध्यासठ माख छम्बोस हजार वर्ष कम पच्चीस हजार पूर्व है ।।१२७१-१२७२।।
इगिवीस-लबम-बम्छर-विरहिए-परूतस्स ति-भारणेला । वजयन-उहि-अवमा, सेयंस-
जिस तित्य • कत्तितं ॥१२७३॥
सा ५४ वा २१ ल । रिण प। मर्ष :-श्रेयांस जिनेन्द्रमा तीर्थ-कर्तृवकास इषकीस लाख वर्ष कम एक पस्यके तीन चतुर्पानसे रहित पौवन सागरोपम-प्रमाण है ।।१२७३॥
घडवष्ण-साल-बच्छर-णिय-पल्लेण पिरहिवा होति । तीस महम्मद - उपमा, सो कालो बामपुवस्स ।।१२७४।।
सा ३.८५४ स । रिण प ।। १. द. मोवयम्सेण:
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गाया : १२७५-१२७८ ]
मो महाहियारो
[ ३७५
म :- वासुपूज्यदेवका वह काल दौवन लाख वर्ष कम एक पल्यसे रहित तोस सागरपर प्रमाण है ।। १२७४ ।।
मार्गशभारा-सासारा
गम बारिहि उपमाणा, सो कालो विमल नाहस्स ।। १२७५।।
। सा ६ व १५ ल । रिप
अर्थ :- विमलनाथ तीर्थंकरका वह काल पन्द्रह लाख वर्ष कम पल्यके तीन चतुर्थांशसे हीनदी सागरोपम प्रमारण है ।। १२७५ ।।
·
पचास सहस्ताहिय सग- लक्वेन-पहल-दल-मे
।
विहिन चरो सायर उपभाणि भरत सामिस्स ।।१२७६ ।।
। सा ४ व ७५०००० रिा प ३ ।
- श्रनन्तनाथ स्वामीका तीर्थ प्रवसंनकाल सात लाख पचास हजार वर्ष कम अर्ध-पस्य
+
-
-
से रहित चार सागरोपम प्रमाण है ।। १२७६ ।।
पणास साहस्सा सिक्ख बासूण- पल्स-परिहीणा ।
तिमिल महम्यय-उवमा, धम्मे 'धम्मोबदेसना - कालो ।। १२७७।।
सा३ व २५०००० रिा प १ ।
अर्थ :- धर्मनाथ स्वामीके धर्मोपदेशका काल दो लाख पचास हजार वर्ष कम एक पत्यसे होन तीन सागरोपम प्रमाण है ।। १२७७ ।।
-
वारस सयाणि पाहियाणि संवन्दराणि पल्लद्ध ।
मोक्सोबस कालो, संति
B
-
१. व. ब. क. जय. उ. धम्मोपदेवी को
निंबस्स मिट्टि ।।१२७८॥
१३ व १२५० ।
म :- शान्तिनाथ जिनेन्द्रका मरेक्षोपदेशकाल अपल्य और बारहसी पचास वर्ग-प्रभात कहा गया है ।। १२७८ ।।
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________________
३७६ }
तिलोषपाती
[गाषा : १२७६-१२३ गभ-पम-ग-सग-छक्क-हाणे नव-व-पास • परिहोगा। पस्सस्स उम्मागो, सो कालो एमाहस्स ॥१२७६
:.. 3 पाUिTAEL साराल मर्य:-कुन्धनाप स्वामीका वह काल गून्य, पाच, दो, सात और छह स्थानों में नौ, इन असे निर्मित संख्या प्रमाण ( NRELEEV२५०) वसि हीन पस्यके चतुषं भाग प्रमाण है ॥१२७६
कोरि-सहस्सा एव-सम-सेतीस-सहस्स-बस्स-परिहीणा । मिमान-पय-पपट्टण - काल - पमानं वर • बिनस्स ॥१२८०॥
। ERREE६६१००। मर्च-अरमाप जिनेन्द्र के निर्वाण-पद-प्रवर्तनकालका प्रमाण तैंतीस हजार नौसौ वर्ष कम एक हजार करोड़ वर्षे है ।।१२८०।।
पवा -जल-चस्सा, बाषण-सहस्स-हस्सय-बिहीना । अपबग्ग-मना'-पक्षण • कासो सिरिमहिम • सामिस्स ॥१२५१।।
वा ४४७४०० । मय:-धोमहिलमाप स्वामीका मोक्षमार्ग-प्रवर्तन-काल बावन हजार सहसौ वर्षोंसे रहित पचपन लाख वर्ष प्रमाण है ॥१२८१॥
पंच-सहस्स-शुपाणि, छ चिय संबच्छराणि ससागि । गिस्सेय - पय - पयट्टण - कालो सुधप - निखिवस्त ॥२२॥
। वा ६०५०००। :-मुनिसुव्रतजिनेन्द्रका निःश्रेयस-पद-प्रवर्तनकाल छह लाब पांच हजार वर्ष प्रमाण है ॥१२२॥
मरसय-एषक-सहस्सम्भहिया संबचराग पन - ससा । तित्वावतार - सट्टन - काल • पमाणे पनि विदस्म ॥१२८३॥
।व ५.१८०० ।
१. द. 4. क... य.च.म
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गामा : १२८४-१२८६ ] बजत्यो महाहियारो
[ ३७ प्र:-मिनाथ जिनेन्द्रका सोवतार-वर्तन-काल पाच लाख एक हजार पाठसो पर्ष प्रमाण है ।।१२३॥
बउरासीरि-सहस्सा, तिष्णि समा हॉति विगुण-भालीसा। वर-धम्म-यय - पयाल • कालो सिरिनेमि · नाहस्स ।।१२४।।
व८४३८० । Azifa श्री के पिता विश्लेषक बनकाटकस काल चौरासी हजार तीनची मौर पालीसके दुगुने (२०) वर्ष प्रमाण है ।।१२।।
गोणि सया महत्तरिता वासाम पासणाहस्त । इगिवीस - सहस्सानि, बुदाल पोरस्त सो कालो ।।१२८५।।
वा २०० । वास २१०४२ ॥ प: पायर्वनाथस्वामीका यह तीर्थकाल दोसौ पठसर घर्ष और वीर भगरानका इकोस हजार स्यानोस वर्ष प्रमाण है ।।१२।।
तोरको'
तित्प - पयम - काल • पमान,
पनकम्म - विणास' डा। में णिसुगंति पति पूर्णते,
ते प्रपथमा - सुहाइ लहते ।।१२८६।। भ:-जो तीक्ष्ण-कोका नाश करनेवाले इस तीर्वप्रवर्तनकालके प्रमाणको मुनते हैं, पढ़ते हैं बौर स्तुति करते हैं. वे मोक्षमुखको प्राप्त करते हैं ॥१२८६।।
( तालिका : ३२ प्रमले पृष्ठ पर देखिए 1 )
१. ८. सोडिक, ब. स. उ. तोरक। २. ३. स.
प. म. ३, विपासणरास ।
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तिमोयपणती
[ सालिका : ३२
३७८ ] तालिका : ३२
महासरीका
TREE TETRY
तीर्थकरोंका निर्वाण अन्सरकाल
सोपंप्रवर्तनकास
५० लास कोटि सागर ३० ॥ ॥ ॥
+
+
&..... कोटि सागर
+
+
(a.. ६..
॥ "
॥ .
३३७१९०० सागर २४ सापर २० सागर
सागर ४ सागर ३ सागर- पल्य
पस्य पल्य-१०००००००००० वर्ष १०००००००००० वर्ष ५४००००० वर्ष ६०.०० वर्ष ५००.०० वर्ष ८२७५० वर्ष
५० लाख कोटि सागर + १ पूर्वान । ३० साल कोटि सागर + ३ पूर्वाङ्ग
१० . . . + ४ पूर्वाङ्ग ___ . . . + ४ पूर्वाङ्ग २०... . + ४ पूर्वान ६.०० ॥ ॥ + ४ पूर्वाण १०० ॥ + ४ पूर्वाङ्ग
६. . . + ४ पूर्वाङ्ग ६ को सा०-३५०+२८ पूर्वान) + १ मा पूर्व कोबा-(t००सा.+सस्म) + (२३...पूर्व-६५२६...))| (१४ सा-+२१ला. वर्ष)-पल्य (३. सा.+५४ ला० वर्ष)-पत्य (६सा.१५ ला० वर्ष )- पल्य (४ सा०+५५०००० वर्ष )- पल्प ( ३ सा०+२५०००० वर्ष )-१पल्य
पल्य+१२५० वर्ष
पस्य-RRRREE७२५० वर्ष EEEEE६६१०० वर्ष ५४४४०० वर्ष ६. ५००० वर्ष ५०१०० वर्ष १४३८० वर्ष २७ वर्ष २०४२ वर्ष
२५० वर्ष
Page #406
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________________
उस्वी महाहियारो
दुषमसुषमा कालका प्रवेश
उसह-किने निवाणे, बास तए अट्ठ मास मासखे । पोलीस पबिट्टो, डुस्समसुसमो तुरिम कालो ।।१२६७॥
"
गाथा । १२६७-१२६० ]
-
-
·
बामा दि १५ ।
अर्थ :- अयभूजिनेन्द्र मोक्ष-गमन पदात तीन वर्ष साठ मास और पन्द्रह दिन व्यतीत होनेपर दुषमसुषमा नामक चतुर्थकाल प्रविष्ट हुआ ॥ १२
श्रायु आदिका प्रमाण
तस्स य पढम पएसे, कोडि पुष्पाणि आउ-उबकस्तो ।
अडडाला पुट्ठी, पण सय पशुवीस वंडया उो ।।१२८६||
-
-
पु १ को । ४८ । उ ६ ५२५ ।
अर्थ:-उस चतुर्थकालके प्रथम प्रवेवामें उत्कृष्ट प्रायु एक पूर्वकोटि, पृष्ठ भागकी हड्डिय अड़तालीस और शरीरकी ऊंचाई पाँचसी पच्चीस धनुष प्रमाण थी ।।१२८८ ।।
१.म.वि. क. य. यस
-
धर्म-तोको व्युति
उच्छन्न सो धम्मो, सुविहि प्यमुहेतु 'सत्त-तिमेसु । सेसेसु सोलसेस, शिरंतरं
धम्म
:
सुविधिनायको आदि लेकर (धर्मनाथ पर्यन्स) सात तीर्थों में उस धर्मकी व्युच्छित्ति हुई थी और पोष सोलह तोयोंमें धर्मको परम्परा निरन्तर रही है ।। १२६६ ।।
-
·
पलल्स पादमद्ध' ति चरम पत्थं सु ति बरणं अ
,
पहलस्स पाव मेसं वोच्छेो धम्म तिस्थस्स ।।१२६० ।
-
[ ३७८
संतानं ।। १२८६ ।।
पप प प १२३ ।
वर्ष :- सात तोयोंमें क्रमशः पाव पल्प, अपस्थ, पौनपष्य, ( एक ) एल्म, पौन पल्म,
अपल्य और पाव पल्यप्रमाण धर्मशोचंका विच्छेद रहा था ।। १२६० ।।
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३८० ]
तिलोयपण्याती
हुंडाबसप्पिणिस्स म दोसेणं वेति' सोति ि विशाfमुहाभावे अस्यमियो धम्म बर- बोमो ।। १२६१॥
-
अर्थ :-- हुण्डावसर्पिणी कालके दोषसे, वक्ताओं और श्रोताओंका विच्छेद होनेके कारण तथा दीक्षाके अभिमुख होने वालोंके अभाव में धर्म रूपी उत्तम दीपक प्रस्तमित हो गया था ।। १२९१ ।।
[ गाथा १२६१ - १२९७
भक्ति में प्रासक्त भरतादिक चक्रवतियोंका निर्देश
, मरहो, सगरो मघवो, समक्कुमारो य संति, कुरो ।
कमसो सुभोम, पमो', हरि-जयसेणा, यवतोय ।। १२९२॥
ए बारस चक्की, पच्चषख परोषा बंदणासत्ता ।
r
श्रर
निम्मर भशि समग्गा, सब्वानं सिल्म कसा ॥१२६३॥ अर्थ :-- भरत, सगर, मधवा, सनत्कुम, पालि कुन्यु, माइि जयसेन और ब्रह्मदत्त क्रमशः ये बारह चक्रवर्ती सर्व तो खुरोंकी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष बन्वनामें प्रासक्त तथा अत्यन्त गाढ़ - भक्तिसे परिपूर्ण रहे हैं ।। १२६२-२२६३।।
तीर्थकरों ऋतियों की प्रत्यक्षता एवं परोक्षता-रिससरस्स भरहो, सगरो अजिएसरस्स प
मघवा सनमकुमारी, दो चक्की धम्म-संति-विन्याले ।। १२६४।। असंति-कु -अरजिण, तिथयश ते च चक्करु-पट्टि ।
एक्को सुभोम चक्की, अर महली अंतरालम्मि ।। १२५ ।।
-
·
·
अह पउम चक्कबट्टी, मल्ली मुनिसुव्वाण विरुवाले ।
सुव्वय गमीन मक्के, हरिसेयो नाम चक्क हरी ||१२६६ ॥
चक्क
जयसेण खक्कड, नमि- गेमि-विणानमंतरालस्मि । तह बम्बस लामो, गेम पासा ।।१२६७॥ अर्थ :- भरत चक्रवर्ती ऋषभेश्वर के समक्ष, सगर चक्रवर्ती अजितपय के समक्ष तथा मधदा और सनत्कुमार ये दो चक्रवर्ती धर्मनाथ एवं शान्तिनाथके अन्तरालमें हुए हैं। शान्तिनाथ,
१. द. . . . . . २.. ब... उ. ३.
प
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गाषा : १२९८-१३०२ ] चढत्यो महाहियारो
[ ३५ कुन्पुनाप और मरनाथ, ये तीनों चक्रवती तीर्थकर भी थे। सुभौम चक्रवर्ती अरनाप बोर मल्लिनाथ भगवानके अन्तरालमें, पप पक्रवर्ती मल्लि और मुनिसुव्रतके अन्तरालमें, हरिलेस नामक पकवर मुनिसुव्रत और नमिनायके मध्यकालमें, जयसेन प्रक्रर्ती नमिनाम और नेमिनाथ जिनके अन्तरालमें तथा बादत नामक पक्रवर्ती नेमिनाथ पोर पार्श्वनाथ तीर्थकरके अन्तरालमें हुए हैं ॥१२९४-१२६७।। तीर्थकर एवं चक्रवत्तियों के प्रत्यक्ष एवं परोक्षताको प्रदर्शित करनेवालो संदृष्टिका स्वरूप
खोसीसाण कोट्टा, कारख्या सिरिय - व - एतौए । उखेल के कोट्टा, कापूर्ण पदम • कोई सु॥१२९८॥ पच्यरसेसु मिनिया, निरंतरं बोस सुनया तसो । सिपिन जिला हो सूचना गि जिण यो मुण्ण एकक जिणों ।।१२६६।। वो सुम्मा एक्क जियो, पगि सुष्णो इगि जिनो य इगि सुन्यो । बोणि विमा 'दि कोडा, बिहिवा तित्व - कत्तान" ॥१३००।। हो को चक्की, सुनं तेरसस पिकणो छक्के । सुग्न तिय चक्कि सुम्प, दक्को वो सुन पक्कि 'सुनो ॥१३०१।। चमको दो सुन्ना, छपर-बईण चकवट्टी। एवे कोडा कमसो, संविट्ठी एक - दो अंका ||१३०२॥
27HAS-RE
....... अ.व. १. सुमा। २...ब. क. 4, य. २. मिसा। बब.क.ज.प., सुम्यो । ४. ब.क. ..rn। ५. य. कसोएं। ६. द.प.क.प.व . मुरा। ७... स्रो मासन-कोष्ठेमु समेघ २ माने । इति पाठ:1
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३५२ ]
तिलोयपणतो [गाया : १३०३-१३०५ प:-तिरछी पंक्तिक रूपमें चौतीस कोठे धौर ऊर्वरूपसे दो कोटे बनाकर इनमें से अमरके प्रथम पनाह कोठोंमें निरन्तर तीर्थकर इसके आगे दो कोठोंमें सून्य, तीन कोठोंमें तीर्थकर, पोमें अन्य, एक तीर्षकर, दोमें शुम्म, एकमें तीर्षकर, दोमें पून्य, एकमें लीकर, एक शून्य, एक तीर्थकर, एक शुम्प प्रोर दो तीकर, शोक में किया कोठोंमेंसे दो में चक्रवर्ती, सेरहमें शून्य, छहमें पक्रवर्ती, फिर तीन शून्य, पक्रवर्ती, गुम्य, रश्वती, दो शून्य, रवी, शून्य, चक्रवर्ती और फिर दो शून्य, कमाः ये कह सामों के प्रतिपति पतियों के कोठे हैं। जिनमें संरभिके लिए क्रममाः एक और दो के बड महण किये गये है तपा प्रन्य अन्तरास का सूषक है ।।१२६-१३०२।।
( संदृष्टि मूलमें देखिए।
भरतादिक बक्रवतियों के शरीरको ऊंचाईपंचसया पन्जाहिम - उत्सया सु-हरिष-पनसीपी। दु-बिहित्ता परसीपी, बार्स पणतीस तीसं - ॥२०॥
इंड ५७० १ ४५० । ।। ४० 1 १५ । ३० । महाबीस बुगीस, बीसं पन्गरस सस य कमसो । बंग वपकहराम, भरह • प्ममुहारण उस्लेहो ।।१३०४॥
२८ । २२ । २० । १५ । ७ । प:--भरतादिक चक्रवतियों की ऊँचाई मन: पचिसो, पचास प्रधिक पारसी (५०), दोसे माजित पवासी [११), दोसे भाजित पोरासी (४२), चालीस, पंसीस, तीम, अट्ठाईस, बाईस, बोस, पन्द्रह पोर सात घनुष प्रमाण पी ।।१३०३-१३०४।।
पक्रातियोंकी वायु मादिका प्रमारा कहने की प्रतिमा--- आक कुमार-मंडलि-परिजय-राजाच 'संजम-टिसीए । बाकीज काल • मार्ग, बोज्छामि जहाणपुष्षोए ॥१३०५॥
१. ८. ... ... पजमषिोए ।
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गाया : १३०६-१३१० ]
चउत्पो महाहिगारो
| ३८३
अर्थ :- अब मैं ( श्री यतिवृषभाचार्य ) अनुक्रम से चक्रवर्तियों की आयु कुमारकास sesोककाल, विग्विजय काल, राज्य काल और संयमकाका प्रमारण कहता हूँ ।। १३०५ ॥ चक्रवासियों की भावु
चरम्भहिया सीवी, बाहतरि पुष्पवाचि लक्खाणि । पंच तिय एक ईन्डर लास पालमा ०६
सट्टी तीसं दस तिम, बास-सहस्वाणि सत्तय सवण । कमसो भरहावोनं, चक्की श्राउ परिमाणं ।। १३०७ it
आउ पुव्व ८४ ल । पुष ७२ ल । बरिस ५ ल । ३ । १ ल । ६५००० ६४००० । १०००० | ३००० | ७०० |
६०००० | ३००००
|| आऊ परिमाणं गदं ॥
म :- भरतादिक ऋतियों की प्राबुका प्रमाण क्रमशः चौरासी लाख पूर्व, बहत्तर लाख पूर्व, पांच लाख वर्ष तीन लाख वर्ष, एक लाख वर्ष पंचानवं हजार चौरासी हजार, साठ हजार, तीस हजार, बस हजार, तीन हजार और सातसौ वर्ष है ।। १३०६-१३०७॥
| आयु प्रमाण कालका कथन पूर्ण हुआ ।
कुमार-कालका प्रमाण
सततरि सबलारिए, पन्नास सहस्सयाणि पुरुवाणं ।
पणुवीस सहस्ता वासानं ताद विगुणाई ।। १३०८ ।।
-
पबोस सहस्ताई, तेवीस इगिवीस सहस्सानि, पंच
4
पुद ७७ स पु ५०००० । यस्स २५००० | ५०००० |
}
-
+
-
.
-
-
·
सहस-सत सय पष्णा ।
सहस्सामि पंच सा ।। १३०९ ॥
-
२५००० | २३७५० १ २१००० | ५००० | ५०० |
पणुवीसाहिय-ति-सया, ति-सयाई अटुवीस इय कमलो
भर हादिषु पनको
३२५ । २०० । २६ ।
| कुमार-कालं गदं ।
+
कुमार कालहस परिमारणं ।। १३१० ॥
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___३ )
firets ... तिलोसपण ka ¥keणा १११३१४
:-परतादिक पतियोंका कुमार-काल क्रमशः सततर साय पूर्व, पत्रास हाय पूर्व, पच्चीस हजार वर्ष, पचास हजार वर्ष, पच्चीस हजार वर्ष, तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष, इक्कीस हजार वर्ष, पाच हजार वर्ष, पाचसो वर्ष, तीन सौ पच्चीस वर्ष, तीनसौ वर्ष योर मट्ठाईस वर्ष प्रमाण या ॥१३०८-१३१०॥
।कुमार-कालका कपन समाप्त हुवा।
मपलीक-कालका प्रमाणएषक बास - सहस्सं, पन्चास - सहस्सयाणि पुनानि । पबीस • सहस्साणि, पणास • सहस्सानि वासानं ॥११॥
व १०००। पु ५०००० । व २५०.० ।५००००। पनवोस - सहस्साहि, तेरोस-सहस्स-सत्त-सय-पगा। गिवीस - सहस्साणि, पंच • सहस्सारिण पंच - सपा ।।१३१२॥
___२५.०० । २३७५० । २१००० । ५०००० । ५.. पानीसाहिय-ति-सया, ति-सया मान्य इम-कमेन पुढं। मंडलि - काल - पमाणं, भरह - प्पमूहान बाकीचं ॥१३१३॥
२२५ । ३.० । ५६ ।
। मंडलिक-कालं गदं । अर्थ :-परतादिक चक्रवतियोंके मण्डलीक कालका पृथक्-पृथक् प्रमाण कमशः एक हजार वर्ष, पचास हजार पूर्व, पच्चीस हजार वर्ष, पचास हजार वर्ष, पच्चीस हजार वर्ष, तेईस हजार सातसौ पचास वर्ष, इक्कीस हजार वर्ष, पाच हजार वर्ष, पारसौ वर्ष, तीनमी पच्चीस वर्ष, तीन सौ वर्ष मोर ५६ वर्ष है ।।१३११-१३१३॥
। मण्डलीक-काल समाप्त हुमा । चक्ररत्नकी उपलरिष एवं दिग्विजय प्रस्पान
अह भरह-यमुहानं, आयुष सातासु भुवम - बिम्हमरा । गद - जम्मंतर • कम - सब - बलेज सम्पन्न पार्क ।।१३१४।।
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गाणा : १३१५-१३१६] पठत्थो महाहियारो
[ ३८५ प्र:-पूर्वजन्ममें किये गये तपके बससे भरतादि चक्रवतियोंकी आयुषाशालाओंमें सोकको आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला चकरल उत्पन्न होता है ।।१३१४॥
चक्कुप्पत्ति · पहिता, पूर्ण काम मिणरियानं ।
पन्छा विवप • पयारणं, ते पुम्ब - रिसाए हुवति ॥१३१५॥
प्र:-पक्रकी उत्पसिसे अतिभय हर्षको प्राप्त हुए वे चकवर्ती जिनेन्द्रोंकी पूजा करके पश्चात् विषयके निमित्त पूर्व-दिशामें प्रपारण करते हैं ।।१३१५॥
सुरलिए तीर, परितनं अति पुष - विभाए ।
मरुदेव - णाम • मन्ने, गो कासावो जावमुद्धजलहिं ।।१३१६।।
भई :- ( चक्रवती ) गङ्गानदीके तटका सहारा लेकर पूर्वदिशाम जाकर और वहाँ महदेव नामक देवको साथकर ( वामें करके ) कुछ काल, उपसमुह-पर्यन्त जाते हैं ।।१३१६॥
गंगा सम्बन्धी विम्यवनमें पठात्रअपरिसिजण गंगा - उबवण - बेधोए तोरणारे । उत्तर - मुहेण परिसिय, घरंग • बलेग संजचा ।।१३१७॥ गंतु पुम्वाहिमहं वीमोनवणस्स वेदियाबारे ।
सोबाणे चरिकर्ष, गंगा • वारम्मि' गमछति ॥१३॥
म -इसके आगे गङ्गानदी सम्बन्धी उपवन-वेदोमें प्रवेश न करके चतुरङ्गवालसे संयुक्त होते हुए वे पक्रवर्ती उत्तरदारसे तोरणद्वारमें प्रवेश करके पूर्व की ओर जानेके लिए जम्बूद्वीप-सम्बन्धी उपवनवेदिकाके द्वारवाला सीड़ियों पर बढ़कर गङ्गाद्वारमें होकर जाते हैं ।।१३१७-१३१८॥
गतगं लोलाए, तलिम्मा - रम्म - बिना - ब-मण्झे ।
पुख्खाबर - आपामे, घरंग - बलानि भन्छति ।।१३१६॥
मर्थ:-इसप्रकार लीलामापसे जाकर पूर्व पश्चिम पर्यन्त लम्बे नदी-सम्बन्धी रमणीय एवं दिष्य वनमें चतुरङ्गसेना सहित उहर जाते है ।।१३१६।।
...ब. क.
य. न. सासि |
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३८६ )
तिलोयपणती [ गाथा : ११२०-१३२४ अलस्तम्भिमी विद्याकी सिथि एवं समुद्र प्रवेशमंतीनं उपरोहे. जलभं साहयति चाकहरा। बस-घर - तुरंग - परिवें', अजिवंजय - गामधेय - रहे ॥१३२०॥ आरहिऊर्ग गंगा बारे परिसिग सबहिं',
पारस - बोयण - मेतं, सम्बे गच्छति गो परयो ।।१२।।
ममं :-वापर चक्रवर्ती मन्धियोंके आग्रहसे समस्तम्भ ( बसस्तम्भिनी ) विणा सिब करते हैं। पुन: इस उत्तम घोड़ोंसे धारण किए गये अजितजय नामक रथ पर पढ़कर और पकाद्वारसे प्रवेशकर ये सब "पवणसभुन लेटानुसार और योनिमा माता, आगे नहीं ॥१३२०-१३२१॥
मागधदेवको वश करनाभागहदेवस्स तवो, ओसगसालाए रयन-वर-कलसं । विति समाकिद - बाणेण अमोघ - णामेण ।।१३२२॥
प्रबं:--फिर वहाँसे अपने नामसे अङ्कित भमोष नामक गाण-द्वारा मागधदेवकी प्रोसगछालाके रस्नमय उसप कलशको भेदते हैं ।।१३२२।।
सोदूण सर - निणार्य, 'मागहवेवो वि कोहमुन्वा ।
ताहे' तस्स य मंती, वारते महुर • सईण ।।१३२३॥
म:- बाणके पाब्दको मुनकर मागधदेव भी कोध धारण करता है किन्तु उस समय उसके मन्त्री जसे मधुर-शब्दों द्वारा ( ऐसा करनेसे ) रोकते हैं ॥१३२३।।
रयनमय • पडतिहाए, का घेत रण कुजलादि।
बता मागहयेवो', पणमइ बाकीण पयमूले ।।१३२४।।
म:-तब वह मागधदेव रत्नमय पलिका (पिटारी) में उस बाण मोर कुण्डलाविकको लेकर चक्रवर्तीको देता है और उनके वरणोंमें प्रणाम करता है ॥१३२४।।
१.क. अ. प. उ. परिक्ष, २. द. १. ब. भरनुपहि, , माउहि । उ. परावहि । इ. स. प. क.अ.प.. मापदेया। ४.६.ब. क. प. य. . जाद। ५ ग....कर .प.ब.क.अ. म... भागदेवा।
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महाहिया
से तस्स अभय बघणं, वाचून व भागो सह सव्वे । पविसिम संधावारं, विजय
गाया : १३२५ - १३२१ ]
पयानानि कुब्बति ॥१३२५।।
अर्थ :- वे उसे अभय वचन देकर और ( उमी ) मागघदेवके साथ वे सब कटकमें प्रवेशकर विजयके लिए प्रस्थान करते हैं ।। १३२५ ॥ ०
चरतनु एवं प्रभावदेवको वश करना
पोतो वालि से जंति । जंषोवत्स पुढं, दक्बिर बहजयंत बारं ।।१३२६॥
-
अर्थ :- फिर वे वहाँसे उपवनके बीच में होकर द्वीप प्रदक्षिणरूपसे जम्बूद्वीपके वैजयन्तनामक उत्तम दक्षिणद्वारके समीप तक जाते हैं ।। १३२६ ।।
दारम्मि जयंते, पवितिय सबरहिस्मि नकहरा ।
पुषं व कुणंति बर्स, वरतणु णामक्रिय - सरेगं ।।१३२७॥
-
-
अर्थ :- वे चक्रवर्ती वैजयन्त द्वारसे लवण समुद्र प्रवेश कर पूर्वके सदृश ही अपने नामांकित माणसे वरतनु नामक देवको इसमें करते हैं ।। १३२७ ।।
तो आगंतूनं संभावारम्मि पबिसिक नं ।
stateur ध्यहेणं गच्छते सिषु वय वेबि ।।१३२८ ।।
-
[ ३८७
-
अर्थ :–पुनः वहसि बाकर और कटक में प्रवेश कर ढोपोवनके मार्ग से सिन्धु नदी सम्बन्धी वन-वेदिका की ओर जाते हैं ।। १३२८ ।।
पविसिय
पुरुषं व लवन - जलरासि ।
तीए 'तोरण दारं सिंधु जीए दाएं पविसिय साहति ते प्रभासतुरं ।। १३२९ ।।
भीतर जाकर वे चक्रवर्ती प्रभासदेवको सिद्ध करते है ।। १३२९ ।
:- उसके तोरण द्वार में प्रवेशकर और सिन्धु नदीके द्वारसे लवरण समुद्र की जलराशि में
१.ब. क.अ... संघावर २. सम्म ३ व ब. क. म. म. स. ठोरा।
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३८८]
तिलोयपत्ती
वैताच वेग एवं विद्याधरों पर विजय
सत्तो गुम्बाहिमुहा पीबोववगस्स बार सोकानं ।
चडिगं वण मज्ने, वसंत उनसहि सीमं ।। १३३० ।।
-
:- - वहाँसे पूर्वाभिमुख होकर ट्रोपोपवनके द्वारकी सीढ़ियोंपर चढ़कर उनके मध्य मेंसे उपसमुद्री सीमा तक जाते हैं ।। १३३० ।।
तप्पणिधिदेवि-दारे, पंसंग-बलानि तानि निस्सरिया । सरितीरेण चलंते, वेपतगिरिस जाव वरण- वेबि १११३३१॥
:- समुद्र के समीप
बेदिका तक नदी किनारे-किनारे जाते हैं ।। १३३३ ।।
ततो सम्म देवि जनिं बंति पुष्य विभाए । गिरिमझिम- कूट-यनिधिम्मि
·
[ गाथा १३३० - १३३५
-
-
म :- फिर इसके आगे उस बन वेदीका आश्रय करके पूर्व दिशाने उस पर्वतके मध्यमकटके समीप बेदी द्वारपर्यन्त जाते हैं ।। १३३२ ।।
तहारेवं पविलिय, वन पक्के बंति उत्तराहिमुहा ।
रजवाचलय, पाविय सीए वि भेटूति ॥१३१३।।
-
हैं और विजयार्धके तरकी वे पाकर वहीं पर ठहर जाते हैं ।। १३३३ ।।
बेदि-वार-परियं ।। १३३२ ।।
प :- पश्चात् उस बेदी द्वारसे प्रविष्ट होकर वनके मध्यमेसे उत्तरकी बोर गमन करते
-
गिरिको वन
-
तारे' लग्गिरिमझिम कूडे पेय
बॅतरो नाम ।
प्रागंग भय बियलो, पर्णामय चक्कीण पइसरइ ।। १३३४ ।।
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अर्थ :- उस समय विजयागिरिके मध्यम कूटपर रहने वाला वैताच नामक व्यन्तरदेव पागन्तुक मयसे विकल होता हुआ प्रणाम करके कतियोंकी सेवा करता है ।। १३३४६| गरिबक्णि भागे, संख्यि-पन्नास-नयर-सपरगणा । सहय आगच्छंते, पुब्विल्लय तोरन द्वारा ।। १३३५।।
१. द. व.क. न. प. उ.
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गापा : १३१६-११४० ] पस्यो महाहियारी
[ ३९ प्र :-उस पर्वतके दक्षिणभापमें स्थित पचास नगरोंके विवापर-समूहोंको सिद्ध करके पूर्वोक्त तोरण-द्वारसे वापिस पाते हैं ।।१३३२॥
कृतमालको वश करनासत्तो सम्बन • बेषि, परिपूर्ण एदि पश्चिमाहिमुहा । सिंधम-वेवि-पासे, पदिसते तरिगरिस्स विश्व - वगं ।।१३३६॥
प :-इसके प्रागे उस वन-वेदोका आश्रय करके पश्चिमझी बोर जाते हैं और सिन्धुवनवेदीके पासमें उस पर्वतके दिव्य षनमें प्रवेश करते हैं ॥१३३६॥ ।
साहे समिरि - बासी, मालो नाम सरो यो ।
प्रागंद्रनं पागिरि - बार कवार - फेडणोपायं ॥१३३७॥
भ:-तब उस पर्वत पर रहनेवासा कृतमाल नामक व्यन्तरदेव आ-करके विजमाय. पर्वतके द्वार-कपाट बोलमेंका उपाप [गतसाता है ] ||१३३७।।
तिमिसगुफा द्वार उद्घाटन सस्तुबवेस • बसेकं, सेप्पबई तुरग - रयण - माहिय । गहिकमड- रयन, पिस्सरवि' सांग - बल - जुसो ।।१३३८॥
:-इसके उपदेशसे सेनापति तुरग रत्नपर चटकर और दण्ड-रत्नको ग्रहणकर पातबल सहित निकलता है ।।१३३८॥
सिपु-गन-रि-बार, परिसिय गिरि-रि-तोरमबारे । गच्छिम तिमिसगुहाए. सोपाने पनि बल - गुतो ॥१३३६॥
:--वह सिन्धुवन-वेदीके द्वारमें प्रवेशकर पर्नसीप वेदीके तोरणद्वारमें होकर सैन्यसहित तिमिमगुफाकी सीढ़ियोंपर चढ़ता है ।।१३३६॥
अवराहिमुहे पक्छिय, सोशण - सएहि बक्सिन-सुहेग । उत्सारिय' सयस-बल पनि सरि - बणस्स मजमेण ॥११४०।।
१. प. विम्भरदि। १.१.१.क. प. य. उ. बाधि। ३.६, ब...यहै. उत्सोदिय ।
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३९. ]
तिलोयपाती
[गाषा : १३४१-१३४५ . . . . ' प्रर्ष:-सी मीदियोंसे पकिंधमकी ओर जाकर, फिर दक्षिण की ओरसे सब संन्यको उतारकर मह सेनापति नदीवरके मध्य में होकर जाता है ।।१३४०॥
तसो सेनाहिवा, करपल - परिवेश र - रवणेण । पहनरि कबाब - अग, भाभाए परकबाडी ॥१४॥
:-तदनन्तर सेनाधिपति चक्रवर्तीको बानासे हस्ततलमें धारण किये हुए दण्डरत्नसे दोनों कपाटोंपर प्रहार हा ।।१३४ Tere To
उग्धश्यि - कपाट - जुगसम्भंतर-पसरत-उमा-भीबीए ।
पारस • जोपण - मेतं. तुरंग • रयण संप्रति ॥१४२|
म:-(पश्चात् वह सेनापति) कपाट-युगलको उद्घाटिठकर भीतर फली हा उष्पलताके भयसे तुरङ्ग ( मोडा ) रन द्वारा मारह योजन-प्रमाण क्षेत्रको लापता है । १३४२।।
म्लेच्छु-खण्डपर विजयगंतूप पक्सिमुहो, सग-'पदबासिब-वलम्मि पविसरि । पच्या पश्चिमवयनो, सेणावई गिरिष एवि ॥१३४३।।
:-वह ( सेनापति ) दक्षिणको पोर पाकर अपने प्रतिवासित सैन्यमें (पलव) प्रवेश करता है। पश्चात् वह सेनापत्ति पपिषमाभिमुख होकर पर्वतीय-वनको जाता है ।।१४
बक्मिणमुहेण सतो, गिरि - बम - बेबीए सोरनहारे ।
निस्सरिय मेच्छाव, साहेवि' य बाहिणी गुत्तो ।।१३४४।।
पर्ष:-पश्चात् दक्षिणमुख होकर पर्वतीय वन-वेदीके तोरणद्वारमेसे निकलकर सेन्यसे संयुक्त होता हुआ वह म्लेच्छमण्डको सिद्ध करता है ।।१३४४।।
सम्बे घमासेहि. मेच्छ - मरिया बसम्म कारम् । एवि पुष्य • पहेण, बेयगृहाए सर - परियत ॥१३४५॥
१. .. पढ़िवासिन, २. क. ब. य. उ. पनगासिर । २... क. न. सामादि पदाहिणं, ६. प. य. नामोदि पवाहिणं । ३. इ.स. . . . . एदे।
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गाथा : १३४६-१३५० ] चउत्थो महाहियारो
[ ३६५ प :-छह महिनोंमें सर्व म्लेच्छ राजामोंको वनमें करके सेनापनि पूर्व-मार्ग द्वारा बंतावच-गुफाके वार-पर्यन्त्र जाता है ।।१३४५।।
कावूग वार-रावं, वेव - बसं मेछराय - परियरिओ। "पविसिय वषावाद, 'पमिय वरकोप पय - कमले ॥१३४६।।
प :-वहाँ पर देव-सेनाको द्वारका रक्षक ( नियुक्त ) कर म्लेच्छ-दाजाघोंसे परिचारित वह सेनापति अपने पड़ाबमें प्रविष्ट होकर चक्रवर्तीके चरा-कमलोंमें नमस्कार करता है ॥१३४६।।
तिमिसगुफाके लिए प्रस्थान, उसमें प्रवेश एवं उसके उत्तर-पारसे निष्काम
इय बक्सिम्मि भरहे, खर - दुभं साहिबूण सोलाए ।
पविसति । पकहरा, सिंधुणईए वणं विउल ॥१३४७।।
पर्ष:-इसप्रकार दक्षिणभरतमें दो खण्डोंको अनायास ही सिद्ध करके चक्रवती सिन्धुनपीके विशाल वनमें प्रवेश करते हैं ॥१३४७।।
गिरि-ता-वेदी-नारे, पविसिय गिरि-वार-रयण-सोवागे ।
पाहिजूरणं बच्चवि, सपल - बलं 'तणईअ दो - तोरे ।।१३४८।।
प्र:-पुन: गिरितट सम्बन्धी दीके द्वारमें प्रवेश करफ और गिरिद्वारको रत्नमय सीढ़ियों पर पड़कर सम्पूर्ण सेना उस नवीके दोनों किनारों परसे जाती है ।।१३४६।।
बो-तीर-पीड़ि- बोमोसोमण-पमाणमेक्केका ।
तेसु महजयारे, ए साकडे तं बलं गंसु॥१३४६॥
प:-दोनों तीरोंको बोथियों में से प्रत्येकका विस्तार दो-वो योजन-प्रमाण है। उनमें घोर अन्धकार होनेसे चक्रवर्तीकी वह सेमा आगे बढ़ने में समर्थ नहीं होती है ।।१३४६॥
उबरेसन सुराग, काकिषि - रमणेक दुरिरमालिहियं । सतहर' - रवि - विबारिण, सेल-गुहा-उभय-मित्तीतु ।।१३५०।।
....... . प्र. . पणम्मि । २. र, क . य. न. समकोय । ३ ..ब.क. भ. प. स. सम्गाई। ४. ... ... पमाणमयक। १.१.ब. सामं प्रनित्तीसु । १.१.म. क. ज. प. ममिकर
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३९ :. १६४ई ? सुशिलारसी' [ गावा : १३५१-१३५५
म:-तब देवोंके उपदेशसे ( विजया ) पर्वतीय गुफाको दोनों दीवालों पर काकिणीरत्नसे शीघ्र ही पन और सूर्य-मण्डलोंके नालेख-चित्र बनाए गये ॥१३५०॥
एकेक - जोषनंतर - लिहिदाणं ताण बिति उवमोवे ।
बच्चेवि सरंग - बलं, उम्मग्ण - जिमग • परिपंत ॥१३५१॥
पर :-एक-एक योजनके मन्तरालसे लिखित अर्थात् अंकित उन रिम्पोंके प्रकाश देनेपर पडङ्ग-वस ( सेना ) उन्मग्न-मिमग्न मदियों तक जाता है ।।१३५१॥
ताण सरियाण गहिर, जलप्पयाहं सबर - वित्विगं ।
उत्सरिसु पि स सस्कइ, समल - बलं वाकट्टी ॥१३५२।।
म :-उन नदियोंके दूर तक विस्तोणं और गहरे जलप्रवाहको ( पार ) उतरनेमें समवर्तीको सारी सेना समर्थ नहीं होती ।।१३५२॥
सर-तवरेस-बसेणं, वाटायमेण रयर - संकमणे । भावहदि सरंग • बसं, सानो सरियामओ उत्तरहि ॥१३५३॥
मंच':-सब देवके उपदेशसे बढ़ई-रल द्वारा पुलकी रचना करने पर पहलाल ( सेना) पुल पर पड़ता है और उन नदियोंको पार करता है ।।१३५३।।
सेल - गुहाए उत्तर - गरे विस्मरेवि बल - सहियो ।
मह-ब-वेदि-वारे, गंतु गिरिजवपस्स मरझम्मि ॥१३५४॥
प्रबं: इसप्रकार आगे गमन करते हुए नदीके पूर्व-वेदीद्वारसे पर्वत-वनके मध्यमें पहुँचने के लिए चक्रवर्ती सैन्य-सहित विजयाधको गुफाके उत्तर द्वार से निकलता है ।।१३४॥
म्लेच्छ-खण्डोंपर विजय प्राप्त करते हुए सिन्धुदेवीको वल करनातत्प प पसाप-सोहे, णानातरु • संब- मंडले' बिउले । पितहरे चाकहरा, संषावारं निवसति ।।११५५।।
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.....क. ब. य. अ. संगे।
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गापा : १३५६-१३६ ] पउत्पो महाहियारों
[ ३६३ प्रपं:--वहाँ चक्रवर्ती प्रशस्त गोमाको प्राप्त, विस्तृत एवं नाना वृक्षों के समूहसे मण्डित बममें सेनाको ठहराते हैं ।।१३५५।।
आचाए चस्कोन, सेरणबाई अबरभाग - मेन्छ - महि ।
सायि समाहि. संघाचारं समल्लिया ।।१३५६।।
भ: पून: पक्रवर्तीको आमासे सेनापति पश्चिम भागके म्लेच्छ खण्डको वश कर छह मासमें पड़ावमें सम्मिलित हो जाता है ॥१३५६।।
निगमछते चस्को, गिरि - वन - बेबीए बार - मग्गेण ।
मज्झम्मि मेरखातर - पसाहगढ़ बसेण जुमा ।।१३५७।।
प्रपं:-पश्चात् मध्यम म्लेच्यखण्डको सिट करनेके लिए चक्रवर्ती सेना सहित पर्वतीय वन-वेदोके द्वार-मार्गसे निकलते है ।।१३५७।।
कुलदेवता - बले, बुझ कुरति घोरयरं ।।१३५८ ।।
पर्य :- उस समय म्लेच्छ-महीकी ओर प्रस्थित हुए उनके साथ सब म्लेंच्छ राजा अपने कुलदेवतापोंके बलसे प्रचण्ड युद्ध करते हैं ।।१३५८1
बेतूल मेम्पराए, ततो सिंधूए तौर • मडगेण ।
गंतण उत्तरमुहा, सिंघवेषों पुर्णति पसं ॥१३५६।।
म :-अनन्तर पक्रवर्ती म्लेच्छ राजामोंको जीतकर सिन्धुनदी के तटवर्ती मार्गसे उत्तरको ओर आकर सिन्धुदेवीको वयमें करते हैं ॥१३५६॥
हिमवान् देवको दश करना-- पुम्बाहिमुहा ततो, हिमवत • बस देवि - मगोण । हिमवंत - पूर - पणिही • परियतं जाब गंपूर्ण ॥१३६०।। निय-मामकिसनसणा, चकहरा विपिन साहति । हिमवंत-पूर • संठिय - बसर • हिमवंत - गाम • सुरं ॥१३६१।।
१.स.स.क, ज. प.
पहिरेहि ।
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३६४ ]
तिलोयपण्णाप्ती [ गाथा : १३६२-१३६६ पर्ष:-इसके पश्चात् पूर्वाभिमुख होते हुए हिमवान् पर्वत-सम्बन्धी वनके मेवी-मार्गसे हिमवान कूटके समीप तक अपकर हे वर्ती भएदे नामसे संसिल नापाक हरा देव दिवान फूटपर स्थित हिमवान नामक ध्यन्सर देवको सिद्ध करते हैं 1११३६०-१३६१॥
वृषभगिरिपर प्रशस्ति लिखकर गङ्गादेवीको वश करना-- अह दक्षिण - भाएणं, बसहगिरि जार ताव वमसि ।
तरिगार - तोरषदारं, पविसते गियराम • सिहरा ॥१३६२।।
म :-अनम्तर चक्रवर्ती दक्षिणभागसे वषगिरि-पर्यन्त जापार अपना नाम जिसने के लिए उस पवंसके तोरणद्वारमें प्रवेश करते हैं ।।१३६२।।
बह - विजय - पसस्थीहि, गय-पाको मिरंतरं भरिद ।
पसह • गिरिरो सम्ने, पवाहिएं 'बिलोवति ॥१३६३॥
प्रर्ष:-वहां जाकर वे गत चऋतियोंकी बहुतसी ( अनेकों विजय-प्रशस्तियोंसे निरन्तर भरे हुए धगिरिको प्रदक्षिणा देते हुए देखते हैं ॥१३६३||
णिय-गाम लिहणाण', सिल - मे पम्बए' अपाता।
गसिव - विजयाभिमागा, चम्की चिताए छति ॥१३६४।।
अर्ष:-अपना नाम लिखने के लिए पर्वत पर तिल-मात्र भो स्थान न पाकर चक्रवर्ती विजयामिमानसे रहित होकर चिन्तायुक्त छड़े रह जाते हैं ।।१३६॥
मंतीचं अमरावं, उबरोष - वसेज पुल - पक्कीगं । नामानि एक • ठाने, निम्णानिय स - स्यगंग ।।१३६क्षा लिहिवनं जिय - गाम, ततो गंतूण उत्तर - मुहेण ।
पाविय गंगा • कूड, गंगादेवी कुगंति बसं ।।१३६६।।
वर्ष :--तन मन्त्रियों मौर देवतामोंके आग्रहवश एक स्थानपर पूर्व चक्रवतियों के नाम दण्डरस्मसे न करके और वपना नाम लिखकर वह से उसरफी ओर जासे हुए गङ्गाफटको पाफर गङ्गादेवीको वशमें करते हैं ।।१३६५-१३६६।।
----..- -- - - . . ... ब. क. प. उ. पुरोति । २ २.. क. ब. स. उ. मिहलाएं। ३ व. प. म. ज.प. न.
पुमएं।
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गापा : १३६७-१३७२ ] पजत्यो महाहियारो
[ ३६५ खपहप्रपातगुफाका उदघाटन एवं उत्तरभरतपर विनयअह बक्षिण - भाएरणं, गंगा - सरियाए तोर - मोग।
गंतुणं बेहते, घेयड्ड - वणमि चमकहरा ।।१३६७।। प्रभ :- - Rar-
resiaमासे इति की ओर जाकर विजयाध-पर्वतके वनमें ठहर आते हैं ।।१३६७।।
आमाए धपकोणं, संधानहाए कबार - अगलं पि। उग्धाडिय सेयबई, पुष्वं पिच मेच्या पि ॥१३६८।। साहिय ततो पविसिय, संपाबारं पसण्य - भत्त • मणा ।
चमकोण घरण - कमले, पर्णामय चे? वि सेनबाई ॥१३६६॥
प्रबं:-पुनः चक्रवर्तीको आशासे सेनापति खण्डप्रपातगुफाके दोनों कपाट बोलकर और पूर्व म्लेच्छ सण्डको मौ वश करके वहाँसे कदकमें प्रवेश करता है तया प्रसन्नमन एवं भक्तिमान होकर पक्रवर्तीके चरण-कमलोंमें प्रणाम करके ठहर जाता है ।।१३६८-१३६६ ।।
बेय - उत्तर - दिसा-ठिय-जयराण खपररामा' य ।
पाकोरण वलण - कमले, पनमंति फुर्णति दास ॥१३७०।।
म :-विजयाको उत्तरदिशामें स्थित नगरोंके विद्याधर राजा भी चक्रवर्ती बरणाकमलोंमें नमस्कार करते हैं मोर उमका दासत्व स्वीकार कर लेते हैं ।। १३७०।।
ज्य उत्तरम्मि भरहे, मूबर - खचरावि साहिय समागं ।
वसति बलेन अवा, गंगाए जाव वण - वेवि ॥१५७१॥
अ :--इसप्रकार चक्रवर्ती उत्तर भरतमें सम्पूर्ण भूमिगोधरी (राजामों) और विद्याघरोंको बसमें करके सैन्य सहित गङ्गाको दन वेदो तक जाते हैं ॥१३७१।।
झण्डप्रपातगुफाके दक्षिणहारसे निकाशनहन्दीए गरे, सीए उपक्षण • खिोम लोलाए । पविसिय बलं समग्गं, णिक्कामादि सक्सिण - मुहेण ॥१३७२।।
१... रायाए ।
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तिलोपपत्ती
[ गाथा : १३७२-१३७७
- उस वेदोके द्वारसे उसकी उपवन भूमियोंमें लीला मात्रसे प्रवेश करके समस्त संध्य दक्षिणामुखसे निकलता है ।। १३७२ ।।
३१६]
गिरि-तड-बेबी-वारं गपि गुह-वार- रमण सोवानं ।
प्रायि सवंग बलं, याविन उभय तीरे ॥१३७३॥ आर्यदर्शक अपने श्री सुि
-
अर्थ :---तत्पश्चात् पर्वतकी तट-वेदीके द्वार तक जाकर और फिर गुफाहारके रनसोपानों पर चढ़कर वह पडस बल (सेना ) नदीके दोनों तीरों परसे जाता है ।। १३७३ ।।
तगिरि-वारं पवित्रिय, दो तीरेषु चईए उभयन्तरे ।
-
वत्वविदो हो जोयण मेले 'क्त तीर बोहीणं ॥ १३७४ ।।
- उस पर्वतके द्वारमेंसे प्रवेश कर वह सैन्य तवीके दोनों ओर वो वीरोंपर दो-दो योजन विस्तारवाली तट-वोथियों परसे जाता है ॥१३७४ ॥
पुष्यं व गुहा मक्के, गंतुमं निक्कलि संग बसं गंगा व
-
-
→
वक्तिणेन वारेन । मक्झमाणावि ।। १३७५॥
अर्थ :- पूर्वके सदृश ही ( खण्डप्रपात ) गुफा के बीचसे बाहर और दक्षिण-द्वारमे निकलकर वह घडङ्ग कल गङ्गावनके मध्य में आ पहुँचता है ।।१३७५ ।।
अन्तिम लेख पर विजय एवं नगर प्रवेश
-
इ-वण- देवी दारे, गंतूर्ण गिरि वणस्स मम्मि । चेते
चक्करा, अंधावारेग परिवरिया || १३७६ ॥
अर्थ :- इसके पश्चात् संन्यरो परिवारित चक्रवर्ती नदीको वन-वेदीके द्वारमेंसे जाकर पर्वत सम्बन्धी बनके मध्य में ठहर जाते हैं ।। १३७६ ।।
अन्नाए चक्की, सेणवई पुरुष गुम्मासह साहित्य
संघावारं
[स] २.५. प. क्र. ज. य. न. पंतावरण ।
-
पि ।
समस्लियवि ।। १३७७।।
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गाचा । १३७८-१५८१ ] उरवो महाहियारो
[ ३६७ म:-पुन: सेनापति चक्रवर्तीको आशा छ मासमें पूर्व म्लेग्मबाडको भी वध करके स्कन्धावारमें मा मिलता है ।।१३७७।।
सम्मिरि-यण-बीए, तोरण - दारेण पक्लिग - बहेन ।
निक्कलिय चाकरही, णिम - लिय - गयरेस परिसंति ॥१३७।।
प्रबं:-अनन्तर चक्रवर्ती उस पर्वतको वन-वेदीक दक्षिणमुख तोरण-द्वारसे निकलकर अपने-अपने मगरोंमें प्रवेषा करते हैं ।।१३७८।।
चकवतियों का दिग्विजय काससट्रितीसं वस बस, वास - सहस्सा सलक्कुमार।
पर छप्पण पड़ ति - सया, कमेण ततो य पठमंतं ।।१३७६ ।। ६०००० । ३००००।१०००.1 १०००० । ८०० । ६०० । ५०० 1 100 1 ३०० ।
पणभाहय समय हरिसेन - प्पमुहाणं, परिमाणं विजय - कालस्म ॥१८॥
१५०।१०।१६। । एवं चकहराणं विजय-कालो 'समची।
प:-(भरत चक्रवर्सीस ) सनत्कुमार पर्यन्त विजय-कालका प्रमाण क्रमश: साठ हजार, सीस हजार, दस हजार, दस हजार, सपा पप चकरा पर्यन्त क्रमश: आठ सो, छह सौ पांच स्रो, पारसौभौर तीनसौ वर्ष है। पुनः हरिषेणादिक पतियोंमेंसे प्रत्येकका ममाः एक मो पचास, एक सौ और सोलह वर्ष ही है ॥१३७६-१३८०॥
। इसप्रकार चक्रधरोंके विजयकासका वर्णन समाप्त हुना।
चक्रवतियोंके वैभवका निर्देशसह णिय-जिय-जयरेसु, पक्षीय रमंतयाग सोलाए । विभवस्त य लब - मेस, बोच्छामि जहागपुवीए ॥
११॥
...ब.क. ज. य. व. काम समता। २.१.प.क. न. म. न. बीभत्स ।।
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हिसोयपगत्तो
[ गापा : १३८२-१३८५ :-अब अपने-अपने नगरों में लोसासे रमण करते हुए उन चक्रवतियोंके वैभवफा यहाँ अनुक्रमसे किंचित् मात्र कपन करता हूं ।।१३।।
आदिम संहरमनवा, सचे तबगिज-यम-वरमहा । सयत - सुलालच - भरिया', 'समचरमसंग-संठाणा ॥१३८२।।
प:-सर्व पक्रवर्ती भादिके बजवृषभनाराच संहनन सहित, सुवर्ण सदश वर्ण बासे, उत्तम शरीरके धारक, सम्पूर्ण सुलक्षणोंसे समन्वित पोर समचतुरस्त्रस्प सरीर-संस्थानसे संयुक्त होते हैं ॥ १२॥
सवानो मग : हरायो, अहिलव-लावण-रूप-रेहाओ। अनादि • सहस्साई, पत्तो होति अगदीनी ॥१३८३॥
१६...
प्रपं:-प्रत्येक चक्रवर्तक, मनको हरण करने पासी और अभिनव लावण्य-रूप रेखाबाली कुम समानव हजार मुथतियाँ ( स्त्रियाँ ) होती हैं ।।१३८३।।
तास प्रजाख, बत्तीस - सहस्स - रामकाजाओ। लेबरराज - सुवानो, तेत्तिय • मेत्ताओ मेच्छ-पूबानो ॥१२५४॥
। ३२००० । ३२... । ३२० । पर्व:-उनमेंसे बत्तीस हजार राजकन्याएं प्रार्यकरसकी इतनी ( ३२००० हो सताएं विद्याधर राजरानोंकी पौर तनी ( ३२००.) ही म्लेच्छ-कन्याएं होती हैं ।।१३८४॥
एकेक - जुबइ • रयम, एककेक्काम होवि वालोणं । भुति र तेहि सम, संकप्प • वसंगई सोम ॥१३८५।।
.
म :- प्रत्येक चक्रवर्तीके एक-एक पुवति-रत्न होता है। वे उसके साथ संकल्पित (इन्छित ) सुखोंको भोगते हैं ।।१३८५।।
-... -- ...-.-- -- 1.क.प. म. उमरियं । २. प. ब. क. ज. प. प. समारंगरम ।
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गाथा : १३०६-१३९. ] चस्पो महाहियारो
[ ३६६ संकजा - सहस्साई, पुता पुत्तीपो हॉति वकीनं । गणनववेज - गामा, पत्तीस - सहस्स साग तहरपला ॥१३८६।।
Ster :. ATAR T ANTRE 2 REE
म :-प्रत्येक चक्रवर्तीके संस्थात हजार पुत्र-पुत्रियां होती है और बातीस हजार गणवद नामक देव उनके अङ्गरमक होते है ॥१३०६।।
सन्देज्म'-महाररासिया, कमलो ति-सपाइ सहि-श्रुत्ताई। खोट्स-पर-रयणाई, बोबाचीवम - मेर-हु-विहाई ॥१३८७।।
। ३६० । ३६० । १४। प्रपं:-प्रत्येक पकवीके चिकित्सक ( वंच) तीमसो साठ. महानसिक ( रसोइये ) तौनसो साठ मोर उत्तमरत्न चौवह होते हैं। ये रल जीव और अनोवके भेदसे दो प्रकारके होते हैं ॥१३८७॥
ते तुरय-हरिव-बड़लाइ, मिहवा - सेणावह सि रपणाई। अबइ-पुरोहिब-रयणा, सच जीवाणि ताम अभिहाणा ॥१३॥ पवमंजप-विजयनिरो, 'भहनुहो तह य कामही य ।
होति नरम् सुभहा, बुद्धिसमुद्दो चि पर में ॥१३८६।।
पर्व:-उनमेंसे अश्व. हाथी, सई, गृहपति, सेनापति, युवती और पुरोहित ये सात जीवरत्न है । इमके माम क्रमशः पवनम्जय, विजयगिरि, मनमुब, कामवृष्टि, अयोध्य, सुभद्रा और बुद्धिसमुद्र हैं ॥१५०८-१३८६।।
तुरग-नभ-हस्थि-रयना, विजयवाणिरिस्मि होंति पत्तारि ।
अपसेस - जीव - रपणा, लिप-शिप-णयरेसु अम्मति ।।१३६०॥
प्रबं:-इन सात रत्नोंमेंसे सुरग. हाथों और स्त्री ये तीन रन बिजया पर्वतपर तपा प्रवशिष्ट चार जीव-रत्न अपने-अपने नगरमें उत्पन्न होते हैं ॥१३६०11
१४. र. ६. च. तमुत्तक, कप, तवं च । २. ५. क. प. य... नहा ।
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तिलोयपम्पत्तो [ गाषा : १३६१-१३९५ छत्सासि-पंच-परका, काफिणि-वितामणि ति स्यनाई।
पम्म - रय व सराम, जय शिम्मीवाणि रयपाणि ।।१३६१॥
पर्य :-छत्र, असि, दण्ड, चक्र, काकिणी, चिन्तामणि भौर चर्म, ये सात रन निर्जीव होते है ।।१३ मा .... आमा !
EX
आदिम-रयरण-घउपकं, आपुह-साला जाय तो । तिमि वि रयणा पुलं, सिरिगिहे ताण जाम मे ॥१३२॥
म:-इनमेंसे भादिके पार ररन वायुधशालामें और शेष तीन रन थीगृहमें उत्पन्न होते हैं. उन सातों रत्नों के नाम इसप्रकार है ।।१३६२।।
सूरम्पह • मूवमुही, परवेगा सुपरिसणो तरिमो। पिताजणगो गमणि मग्मामओ सि पते ॥१३९३।।
म :-सूर्यप्रभ ( छत्र ), भूतमुख ( मसि ), प्रचणवेग (द ), सुदर्शन ( ब ), चिन्ताबननी ( काकिणी दोपिका ), एडामणि ( चिन्तामणि ) भौर मउममय (धर्मरत्न ) ये कमशः (नाम ) कहे गये हैं ।।१३९३॥
बह बह जोगवाणे, उप्पाला भोइसार रयमाई । विकेई प्रायरिया, मियम - समग ममति ॥१३६४||
[पाठान्तरम् ] :-ये पौदह रत्न यपायोग्य स्थानमें उत्पन्न होते हैं। इसप्रकार कोई-कोई आचार्य इनके नियम रूपको नहीं भी मानते हैं ।।१३९४||
(पाठान्तर) चपकोख चामरागि, नाला बत्तीस विपिसबंति तहा । आउट्टा कोसीओ, परोपक बंधु • कुल - मानं ।।१३६५।।
।३२ ! ३५००००००।
.
... त, उपदे, ज.य, पोतो , . दे तत्तो।
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गादा : -१३६६ पउत्पो महाहियारो
[ ४०१ प्र:-चक्रवतियोंने बालरोंको बत्तीस पक्ष दुराया करते है। सपा प्रत्येक ( यक्ष) के बन्धुकुमका प्रमाए साडे तीन करोड होता है ।।१३६५।।
काल-महकालपंडू, माशय-संसा य परम - गइसप्पा । पिंगल - पाचारयना, ना - मिहिको सिरिपुरे बाग ।। १३९६॥
प्रबं:- काल, महाकाल, पाण्ड, मानव, शक, पत्र, नसर्प, पिङ्गस और नानारल, ये नौ निधियां श्रीपुरमें उत्पन्न हुआ करती है ।।१३९६।।
काल-पमुहा गाना - रयणता से गई - गृहे मिहिनो। उप्पज्जवि इदि केई, पुवाइरिया पहवेति ॥१३६७।।
[पाठान्तरम् ] मय:-कालनिधिको बादि लेकर नानारत्न-पर्यन्त वे निषिया नमी मुख में उत्पन्न होती है, इसप्रकार भी कितने ही पूर्वाचार्य निरूपण करते है ।१३६७।।
(पाठान्तर)
उद्धोग्ग-बब-भायण-घषणाउह-पूर-वस्थ - हम्माणि ।
आभरण-रयन गियरा, स्व - लिहिलो नति' परोयं ॥१३९।।
wi:-इन नौ निधियों से प्रत्येक निधि क्रमश: ऋतुके योग्य प्रव्य, भाजन, धान्य, मायुध, वाक्षित्र, वस्त्र, हम्यं, पाभरण और रत्नसमूहोंको दिया करती है ।।१३६८।।
शक्विन मुह आवत्ता, पउदीस हवंति अवस-पर-संखा । एके - पकोडी लालो, हलागि पुढची बिया ॥१३९६।।
।सं २४ 1 हल को १ न ।६।
प:-चक्रवतियोंके ( अधिकारमें ) चौबीस दशियमुखापतं धवल एवं उसम शल एक साल करोड (१०००००००००००० ) हल पोर छह समस्प पृथिवी होती है ।।१३६६॥
१.
प. य. दिति । २. य. उ. चित्प।
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सिलोयपणती [ गापा । १४००-१४०४ मेरी पम्हा रम्मा, पारस पृह - पह हवंति चाकोगं । पारस जोयण • मेस, देसे मुम्बरा-बर - सहा' ।।१४००। ___er
Exxa प:-पतियोंके रमणीय भेरी और पट पृथक्-पृषक चारह-बारह होते हैं, जिनका उत्तम सम्म देशमैं बारह योजन प्रमाण सुना जाता है ।।१४००॥
कोश - तियं गो-संखा, पालीमो एक-कोडि-मेत्ताओ। अलसीवी समक्षा, परोपकं भह - वारण - हाणि ॥१४०१॥
को ३ । को है।४ ल । ८४ ल । मर्म :-उनकी गौओंकी संख्या तीन करोड़, पालियो एक करोड़ ता भनहाथी एवं रघों से प्रत्येक दोरासी-चौरासी नाच प्रमाण होते हैं ।११४.१॥
अट्ठारत कोडोओ, तुरया चुलसीवि-कोशि-पर-बीरा । नपरा बह कोडोलो, असीरि-सहस्स-मेन्छ गरमाहा १४०२॥
को १८ ! को ८४ । । ८८०.० । प्र:-उनके मठारह करोड़ घोडे, पौरासी करोड़ उत्तम वीर, कई करोर विद्याधर और पठासी हार म्लेच्छ राजा होते हैं ।। १४०२।।
सम्याम मनबा , बत्तीस सहस्सयाणि पत्तेपर। तेतिय - मेता पट्टयसासा संगीर • मालामो ।।१४०३।।
__३२००० । ३२००० । ३२००० । w:-सब चक्रवतियोंमेंसे प्रत्येक के बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा, इतनी ( ३२...) हो नाटयशालाएँ मौर इतनी ( ३२००० ) हो सङ्गीत-शालाएं भी होती है ।।१४०३।।
होति परामाणीया, दु-गुनिय-पडवोस-कोरि-परिमागा । बत्तीस - सहस्सालि, देसा सक्कोण पसेयं ।।१४०४॥
को ४८ । ३२००० ।
१६.
ज. प. उ. प६ । २. ५. व. उ. वहारिण।।
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गापा : १४०५-१४०८ ] चश्त्यो महाहियारो
[ ४१ :-प्रत्येक परिवर्ताक पदानीक ( पवाति ) पहलासीस करोड़ पौर देश बत्तीस हजार होते है ॥१०॥
छन्ननदि - कोरि गामा, पयरा पंचहतरि - सहस्सा । अर-हर-दु- सहस्सालि, लेग सम्बार पत्रकं ।।१४०५॥
को १६ । ७५००० । १६...। प्रचं:-सर्व चकवतियों में से प्रस्पेकके अयानरं करोड़ प्राम, पचहत्तर हजार नगर और पाठसे गुरिणत दो । सोलह ) हजार हे (खेट ) होते हैं ॥१४०५।।
बउबीस • सहस्सागि, कमर-भामा मरंव-गामा य । चतारि सहस्साई, अहवाल - सास - पटनाई पि १४०६॥
२४०.०।४००० । ४८०००।
वर्ष :--कट बीबीस हजार, मटव चार हजार और पट्टन अड़तालीस हजार होते हैं ।।१४.६॥
णव - गर्षि - सहस्साई', संसा दोगामुहाण चाकीसु । संबाहनानि चउदस - सहस्स • मेता य परोष ॥१४०७॥
86.0.1 १४००० अर्थ:-प्रत्येक पक्रवर्ती निन्यानव हजार ग्रोणमुख और चौदह हजार-प्रमाण संवाहम इवा करते है ।।१४.७।।
छप्पणंतर रोश, कुरिस-गिवासा हर्षति सस - सया । मावीस - सहस्साई, दुग्गास्वीयाणि सम्बेस ।।१४०।।
५६ १७०० । २८०००। पर्ष:- सर्व पकवतियोंके छप्पन अन्सर्दीप, सात सो कुक्षि निवास मौर यट्ठाईस हजार दुर्ग एवं वन मावि होते है ॥१४०८।।
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४.४ ।
सिनोयपणासी [ गापा ! १४०६, सालिका : ३३ दिपुरं रमन-महि, 'चमु-मायन-मोवना समानं च ।
आसग - वाहन - गट्टण, प्रसंग - भोपा इमे तागं ।।१४०६॥
अर्थ:-उन चक्रवतियोंके दिम्पपुर, २ रस्न, ३ मिधि, ४ सैन्य, ५ भाजन, ६ भोजन, ७ शय्या, ८ मासम, माइन जोर १० माटय, ये दशान भोम होते हैं 11१४०६।।
सालिका : ३३
चक्रवतियों को नव-निधियों का परिचय
नाम
वधा प्रदान करती है?
प्रकारान्तरसे । उत्पत्तिस्थान
उत्पत्ति स्थान श्रीपुर | नदीपुष
काल
महाकास
पाण्ड
मानव
ऋके अनुसार द्रव्य { फल, पुष्प आदि)। भाजन ( बर्तन एवं धातुएँ । धान्य ( जनाब एवं षट्स )। मायुध { अनेक शस्त्र )। पादिम ( बाजे। वस्त्र ( कपड़े ) हH { महल एवं प्रासाद आदि)। पारण ( गहने)। रलसमूह ( अनेक प्रकारके रन)।
नसर्प पिङ्गल
नानारल
१.६.... ज. य. उ. अमुइमायण ।
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nige
s t TRA
TETTE
चतस्थो महाहियारो
[
४.५
सालिका । ३४] सालिका । ३४
जातियोंके मोरह रहनों का परिचय
पमा गापाजीव या उत्पत्ति
क्या है
कार्य
१३८९ एवं | १३६३ / पजीव | स्थान
अश्व
थोड़ा
| भद्रमुख |
| सुभद्रा
पवनजय| जीव विजयाधर गुफा द्वार खुल जानेपर तुरंगरल द्वारा
बारह यो क्षेत्रको सांधना। गज हापी विजयगिरि . | वारी करना। गृहपति भण्डारी
स्व नगर में भण्डार आदि की सम्हाल करना । स्पपति | बड़ई कामवृष्टि | ॥ ॥ उमग्ना-निमग्ना नदियोंपर पुम बनाना । सेनापति | सेनाध्यक्ष | अयोध्य
॥ गुपभोंके द्वार खोलमा एवं सेना संचालन। पुरोहित [पमंप्रेरक | | बुसिसमुद्र | , , वार्मिक अनुष्ठान कराना। युवती | पटरानी | "विजयाधएर उपभोमषा साधन । आयुध अजीय वायुनञ्चामा छह बच विजयका प्रेरक साधन । सूर्यप्रभ
वर्षासे कटककी रक्षा करना । असि प्रायुध भूतमुख ___ मसंहार। प्रस्त्र प्रचण्डवेग
गुफाओंके कपाट बोलमा एवं वृषभाचल
पर प्रति लिखना। १२ काकिणी पिरतापनगी
दोनों गुफाओं में प्रकाश करना। १३ चिन्तामणि रत्न मामणि
मनोवाञ्छित कार्य सिद्धि करना। १४ चर्मरत मममय
बादि मरियों के मामले कटककी रक्षा करना ।
पक्र
छतरी
११] दा
श्रीपह
तम्बू
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सिलोपपणाती
[ तासिका: ३५ म :.. REE KREYARE सी 05 तातिका : ३५
पाकिमका सामान्य परिचय- १८ से १४०६ तक
वैभव नाम
विशेषता एवं प्रमाण
वैभव नाम
| विशेषता एवं प्रमाण
मरीर संहनन |वजवृषभनारापहनन |२४| शरीर-वणं
स्वर्ण-सहख रीराकार समचतुरम-संस्थान रानियाँ पटरानी पुत्र-पृत्रियों
संश्यात हजार गणबद्ध नामक ३२-00 अंगरक्षक देव
वीर ( योमा) विद्याधर म्लेच्छराजा मुकुटपदराणा नाटयशालाएँ मंगीतशालाएं पदातिक
२४ करोड अनेक करोष 46... ३२००० ३२... ३२००० ४८ करोड
२०
बंध
ग्राम
१६ करोड़
रसोइया
नगर
१६...
उत्तम रल चामर होस्नेयामे यव १२ | प्रत्येक अन्घु-कुल
निषियो
३५०००.००
४.०० ४८०००
२४
एक लाख करोड़
छह खण्ड
कर्वट मटन पट्टन होणमुख संवाहन अन्तर्वीय कुक्षिनिवास दुर्ग एवं वनादि दिव्य मोग
पृषिवी
भेरी
१२
पटह गा पालियो माहाथी
२८००० १०प्रकार
३ करोड़ १ करोड मलाप ६४ लाश १८ करोड़
रथ
पोहे
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उल्मो महाहिया
ग्राम नग रादिकोंके लक्षण
।
वह परिवेडो गामो, नपरं चउगोडरेहि रमणि गिरि-सरिकव-परिवेद, खेडं गिरि-बेडिय थ कव्व ।। १४१० ।।
गाया : १४१०- १४ts ]
·
:- सेवेत ग्राम, चार गोपुरो रमणीय नगर, पर्वत एवं नदीसे घिरा हुआ बेट और पवंससेवेष्टित कवंट कहलाता है ॥१४१०।।
पण सय
पर
पमाण- गामव्हाणसूदं
रयमाणं जोभी,
-
मदंब-णामं तु ।
पडून जासं विनिट्ठि ।। १४११ ।।
जो पांच
ग्रा.सें
योनि ( खान ) होता है, उसका नाम पट्टन कहा गया है ।। १४९१।।
-
·
-
वेलाए 'वेडियं जाण ।
वोगामुहा हिहाणं, सरिबह संवाहणं ति बहु बिहरण महासेल सिहरत्वं ।। १४१२ ॥
[ । एवं विभवो सरतो । ]
अर्थ :- समुद्रको बेलासे वेष्टित द्रोणमुख और बहुत प्रकारके अरण्योंसे युक्त महापर्वतके शिखर पर स्थित संवाहून जानना चाहिए । १४९२ :
। इस प्रकार विभवकर वर्णन समाप्त हुआ ।
चक्रवर्तियोंके राज्य कालका प्रमाण
भर
छ-लव-पुल्या इग्रिसट्ठि सहस्स- वास-परिहोगा ।
सीस सहस्णाणि सत्तरि लक्खानि पुष्य सगरम् ।।१४१३ ॥
क. मेदिदं य, वेदवं । ४. ४. ब. क. स. प. उ. बेदिपं ।
-
[ ४०७
नाम मय और जो उत्तम रत्नों की
। पु६ ल । रिण वरिस ६१००० | सगर पुब्ब ७० ल । रिए ३०००० |
वर्ष :- भरत चक्रवर्ती के [ राज्य-कालका प्रमाण ] इकसठ हजार वर्ष कम छह लाख पूर्व और सगर चक्रवर्ती राज्य-कालका प्रमाण तीस हजार वर्ष कम सत्तर लाख पूर्व प्रमाण
Battan
१. ६. ब. क. ज. य. ज. एरिकेदो। २. ४. ब. ब. स. म. स. परि.
देव
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४०८ ] .... आमा तिमी AREM गाथा : १४१४-१४१८
जडवि-सहस्स-जान सल्लारिण तिणि मघव-सामम्मि । परि · सहस्सा पासं, समाकुमारम्मि चक्काहरे ।।१४१४॥
३१.00018... | :-मधषा नामक पक्रवर्तीका राज्यकाल तीन लाख नरब हजार वर्ष और सनत्कुमार पकवर्सीका राज्यकाल नम्ब हजार वर्ष प्रमाण हे ।।१४१४||
बउवीस - सहस्सागि, पासागि हो - समाणि संसिम्मि । तेवीस - सहस्साई, पगि - सय - पणाहिपाइ पम्मि ॥१४१५॥
२४२०० । २३१५० । प:-शान्तिनाथ चक्रवर्तीके राज्यकालका प्रमाण भौबीस हजार दोसौ वर्ष और कुन्पुनापके राज्यकालका प्रमाण तेईस हजार एक सौ पचास वर्ष है ।।१४१५।।
वीस - सहस्सा पस्ता, छस्सय-जसा प्ररम्मि बाहरे । उगवण - सहस्साई', पण - सप - सुसा सुभउमम्मि ॥१४१६॥
। २०६००1४६५०० । म :-अरनाय चक्रधरका राज्यकाल वीस हजार छहसो वर्ष और सुभौम चक्रवर्तीका राज्यकाल उनचास हजार पाँचसी वर्ष प्रमाण है ।।१४६६।।
भदरस • सहस्साणि, सत्त - सएहि समं तहा परमो । म? • सहस्सा घर - सय. पायाभहिया व हरिसेने ॥१४१७॥
।१८७०० १८८५ । म:-पय चक्रवर्तीक राज्यकासका प्रमाण अठारह हजार सातसो वर्ष और हरिषेण चक्रवर्तीके राज्यकालका प्रमाण पाठसो पचास अधिक माठ हजार वर्ष है ।।१४५७॥
उनोस - सया वस्सा, अयमेणे बम्हरस - णामम्मि । अषकहरे छ - सयाणि, परिमाण रज्जकासस्स ।।१४१८।।
१९०० । ६..।
।एवं रक्जकालो समतो । --- -- - ---
- १. सहस्सा ।
.. - --
-
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गाया : १४१६-१४२२ ]
यो महाहियारो
I roe
प्रचं :- जयसेन चक्रवर्तकि राज्यकालका प्रमाण उनोससी वर्ष मोर ब्रह्मदत्त नाएक चक्रधरके राज्यकालका प्रमाण छसौ वर्ष है ।। १४१८
। इसप्रकार राज्यकालका कथन समाप्त हुआ ।
चक्रवर्तियों का संयम-काल
एक्केमक-लक्ख-पुरुवा, पष्णास सहस्त वच्छरा लक्सं । पणवीस
कार्यक
सहस्वाणि तेवीस - सहस्स- सत्त-सम-पम्मा ॥११४॥
२५००० | २३७१० |
इगिवीस सहस्सा, तसो सुन्नं च दस सहस्साइं । पण्णाहिय-तिब्दि-सया बलारि स्याणि सुयं ।। १४२० ।।
| २१००० || १०००० | ३५० | ४०० । सु ।
.
कमसो भरहावीणं, रज्ज विरताण चक्कवट्टोणं । निव्वाण - लाह - कारण -संजय कालस्मा परिमाणं ।। १४२१ ।।
-
अर्थ :- राज्यसे विरक्त भरतादिक चक्रवतियोंके निर्वाण-लाभके कारणभूत संघ - कालका पच्चीस हजार वर्षे,
तमसौ पचास वर्ष,
प्रमाण क्रमशः एक लाख पूर्व, एक लाख पूर्व, पचास हजार वर्ष एक लाख वर्ष तेईस हजार सातसौ पचास वर्षे, इक्कीस हजार वर्ष फिर शून्य, दस हजार वर्ष चारसौ वर्ष घोर शून्य है ।। १४१६-१४२१ ।
भी
भरतादिक चवतियां की पर्यायान्तर प्राप्ति-
अब गया मोक्लं, बम्ह सुभडमा य सत्तमं पुढव । मघको सलक्कुमारो सणक्कुमारं गओ
एवं चमकहराणं परुणा समता ।
१. द. व. उ. कारणं... जय च सुममी ।
कप्पं ॥ १४२२ ।।
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क्रमांक
माश
11से"
हानिका
पतिर्योका परिवपपतियों परीक्षा 1 आयु
कुमार काल | मन्डलीक | दमयम | राज्यमान गाया| नगमकाम पर्यायान्तर के नाम | उस्सेष
काम । कास
गापा
ति गावा । गापा गावा
गापा गाश | गांश १२९२- १३०३
१९०६. 16-111१1१-१३७१.६०
711-२४२ गाया
पायकिअपचार्य-श्री-समिसमास पहाराज माल १०. प्र. ..... पूर्व | ७५0000-100 पं .. ..... पूर्व Red पूरे मोक्ष ।
१०.. वन रागर ५.० २...00 ५.... पू ....पूर्व ३..... 50000: पूर्व....पू .
... । मधधा
२५००० बर्ष २५... .....[३९.... ..... मानत्तुभार| १२ सनत्कुमा . ०००००
|१०००० वर्ष वानरकुमार मन्ति १०.०० २५..
... २५.... .२५
..| २४३ वर्ष | २३७५० -२
..| २३१९०२ ३५१.
२०१० वर्ष . .
| V१५०० वर्ष
सप्तम नरक पन
10...वर्षोश १.हरियण
.. . | जमेन
विग
...
निपोषपातो
मार
..lt
...
..
...
.....
३. :
[ तालिका : ३६
पहास
मनमनाम
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गाथा : १४२३-१४२५ ] पजत्यो महाहियारो
[ ४११ प्र :-इन बारह पक्रवतियोंमेंसे माठ चक्रवर्ती मोक्षको, बह्मदत्त मोर सुमोम सातवीं पृथिवीको तथा मषवा एवं सनत्कुमार चक्रवर्ती समस्कुमार नामक तीसरे कल्पको प्राप्त हुए हैं ।।१४२२॥
।। इसप्रकार चक्रवतियोंको प्ररूपणा समाप्त हुई ।।
बलदेव, नारायण एवं प्रतिनारायणोंके नामबिजओ अचसो धम्मो, 'सप्पहणामो सुरंसगो की । मंदिमितो य रामो, 'परमो गव होति बसवेवा ॥१४२३।।
पर्व:-विजय, अपल, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नन्दो, नन्दिमित्र, राम और पन ये नो . बलदेव हुए हैं ।।१४२३।।
होति तिविठ्ठ-मुषिद्वा, सबभ-पुरिसुसमा य परिससिहो । पुरिसवर • पुरीओ', बत्तो शारामनों किण्हो ॥१४२४।।
अ:-त्रिपृष्ठ, हिपृष्ठ, स्वयम्भू. पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषपुण्डरीक, पुरुष-दप्त, नारायण (सक्मए) मोर कृष्ण ये नौ नारायण हुए हैं ॥१२॥
मस्सगोषो तारग - भेरग • मधुकीदमा णिसुभो य । पति - पहरणो म रावन - जरसंघा' गाव य परिसत ॥१४२५।।
प्र :-अश्वनीद, तारक, मेरक, मधुकैटभ, निशुम्भ, बलि, प्रहरण, रामण और जरासंघ ये नो प्रतिशत ( प्रतिनारायण ) हुए है ।।१४२५।।
१.प. उ. मुराप्पाणामो। २. द. २. क. ज. प. स. पाउमो एरे पर बजदेवा य दिया । ।.... . ज. य. न. पुरीया । :, ... मधुकोटगा । . . . . . म रु. नरसिंघ ।
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तिलोयपमाती" [ गामा : १४२६-१४२९ पलोम-वासुदेवप्पडिसत्रणं नागाव मविलीपंच निगवे रति, सबा पंच आहुपुग्गीए । सेयंससामि - पहवि, सिविट्ठ - पमुहा म पत्ते का ॥१४२६॥ ____ बलदेव. वासुदेव एवं प्रतिशत्रुभोंको जाननेके लिए संधि
मय:-विष्ठ आदिक पाच नारायणोंमेंसे प्रत्येक नारायण क्रमशः प्रेयांसस्थामो आदिक पांच तीथंकरोंकी बन्दना करते हैं (प्रारम्पके पांच नारायण क्रमशः श्रेयांसनाव आदि पांच तीर्थकरों के कासमें ही हुए हैं ) ॥१४२६॥
अर • मल्लि • अंतराले, गाववो डरीय-वामो' सो ।
मस्लि - मुरिगसुब्बयाणं, विच्चाले बत- पामोसो ॥१४२७॥
प्रचं:-अर और मल्लिनाथ तीर्थकरके अन्तरालमें वह पुण्डरीक तपा मरिल मोर मुनिसुव्रतके अन्तराख में दत्त नामक नारायण जानना चाहिए ।।१४३७।।
सम्बय • जाम • सामीणं, मन्ने णारायणो समुप्पणी।
गेमि - समम्मि किमगो, एचे गव वासुरेवा य ॥१४२८||
प्र:-मुनिसुव्रतनाथ और नमिनाप स्वामोके मध्यकालमें नारायण (लक्ष्मण) मा नेमिनाथ स्वामौके समयमें कृष्ण नामक नारायण उत्पय सए थे। ये नो वासुदेव भी कहलाते हैं ॥१४३५॥
बस सुग्ण पंच केसर, छस्समा केसि सुन्ग केसीमो । तिय-सुन्णमेक-केसी, वो सणं एक केसि तिय सुगं ॥१४२६11
| मंदृष्टि अगले पृष्ठ पर देखिये ]
१.द...ब.प.च, पामार। २.द.......
मम
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पापा : १४३.]
पउत्थो महाहियारो
[ ४१३
म:-क्रमशः दस शून्य, पांच नारायण, छह शून्य, नारायण, शून्य, नारायण, तीन शून्य, एक नारायण, दो शून्य, एक नारायण और यन्तमें तीन शून्य हैं । (इस प्रकार नौ नारायणोंको संदृष्टिका क्रम जानना चाहिए । संरष्टि में बैंक ! तीर्थकर का, अंक २ चक्रवर्तीका, अंक ३ नारायण का और शून्य अन्तरालका सूचक है ) ॥१४२९।।
नारायणादि तीनोंके शरीरका उत्सेधसौदी ससरि सही, पण्णा पवाल ऊपतीसाणि । पापीस - सोल - रस-वणु, केस्सीतिरयम्मि' उच्छेहो ।।१४३०॥
८० । ७० । ६० ॥ ५० ॥ १५ ॥ २६ । २२ । १६ । ।
। इदि उस्सेहो । प्रचं :--केशवत्रितय-नारायण, प्रतिनारायण एवं बलदेवोंके शरीरकी ऊंचाई क्रमशः अस्सी, ससर, साठ, पचास, पैतालीस. उनतीस, बाईस, सोलह और इस धनुष प्रमाण पो ॥१४ ॥ । इसप्रकार उस्सेघका कबन समाप्त हुआ।
- - ...----- १. द... क. . . . सिताम
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४१४ ]
तिसोयपणाती [गापा : १४३१-१४५
नारायणादि सीनोंकी आयुसगसोमो सत्तत्तरि सग • मष्टो सत्तत्तीस सत्त - बसा । पस्ता समसाम - हवा, आक पिण्यारिपंचन्हं ॥१४॥
। ल । ७७ स । ६७ म । ३७ स । १७ ल । सगसट्ठी सगतीसं, सत्तरस - सहस्स बारस - मयाणि । कमसो बार- पमाणे, नरि-प्पमुहा - चउपकम्मि ॥१४३२॥
बर्ष:-विजयादिक पांच बलदेवोंकी प्रायु क्रमशः सतासी-साख, सततर सास, सड़सठ साह, संतीस लाब और सप्तरह लाख वर्ष प्रमाण पो तथा नन्दि-प्रमुख चार बलदेवोंको वायु क्रमशः सड़सठ हजार, संतीस हजार, सत्तरह हजार मोर वारड्सौ वर्ष-प्रमाण थी ॥१४६१-१४३२।।
बुलप्सीबी गाहसरि, सही सीसं बसं च सामि । पणसद्धि - सहस्साषि, तिविटु - छलके कमे माऊ ॥१४॥
८४ ल । ७२ ल । ६० ल । ३. ल । १० ले । ६५००० । बसीस • बारसेवक, सहस्समाकणि रत - पहरोग। परिसस्त-आउ-मान', पिय-मिय-भारायणार-समा॥१४३४॥
३२००० । १२.००।१००० । मर्ष:-त्रिपृष्टादिक छह नारायणोंको भायु क्रमशः चौरासो लाख, बहत्तर लाख, साठ सामा, तीस लाख, यस लाख और पैंसठ हजार प्रमाण पी सपा वस-प्रभृति शेष तीन नारायणों को आयु क्रमशः बत्तीस हजार, बारह हजार और एक हजार वर्षे प्रमाण थी । प्रतिशमोंकी प्रायुका प्रमाण अपने-अपने नारायणोंकी भायुके सहया है ।।१४३३-१४३४॥
प्रतिनारायणोंकी पर्यायान्तर-प्राप्तिएवं नव परिसत . गबान हथेहि वासुदेवारणं । गिय - सबकेहि रणे, समाना बंति गिरय - शिवि ॥१४३५॥
१. ....क. प. प. इ. नाणं । २. स.ब.. ज. स. २. उपसमं ।
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गाया : १४३६- १४३६ ]
थो महाहियारो
[ ४९५
:- ये नौ प्रतिश युद्धमें क्रमशः नो वासुदेवोंके हाथोसे अपने ही चोके द्वारा मृत्युको प्राप्त होकर नरकभूमिमें जाते हैं ।। १४६५ ।।
नारायणोंका कुमार काल, मण्डलीक कालू, विजयकाल और राज्यकाल - आि
पणवीस सहस्ताई, वासा कोमार मंडलिताई । पचम- हरिस्त मेनं वास सहस्सं विजय काल ९११४३६१०
-
तेसीदि सक्वारिंग, परिसादि रज्जकालो,
। २५००० | २५००० | १००० |
अर्थ :- प्रथम ( विपृष्ठ ) नारायणका - कुमार काल पच्चीस हजार वर्ष, मण्डली-काल पौस हजार वर्ष और विजयकाल एक हजार वर्ष प्रमाण है ।। १४३६ ॥
-
चणदन् सहल्स संजुदाई पि ।
-
निहिडो पदम किस्स ।। १४३७ ।।
| ६३४६००० |
अर्थ :- प्रथम नारायणका राज्य काल तेरासी लाख उनचास हजार वर्ष प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ।। १४३७ ।।
कोमार-मंडलिये, ते विय बिदिए जयो वि वास सदं ।
इगिरि सक्लाई, उगवण-सहस्य णव-सया रज्नं ।। १४३८ ।।
1 २५००० । २५००० | १०० । ७१४६६०० ।
अर्थ :- द्वितीय नारायणका कुमार और मण्डलीक - काल उतना हो ( प्रथम नारायणके सदृश पच्चीस-पच्चीस हजार वर्षे, जयकाल सो ववं ) और राज्यकाल इत्तर लाख उनचास हजार नौ सौ वर्ष प्रमाण कहा गया है || १४३८||
-
बिदिया" अाई सर्वभुकोमार मंगलान
जिओ गठबी रम्यं तिय-काल-विहीन सहि- लम्बाई ।। १४३३।।
। १२५०० । १२५०० | १० | ५६७४६१० ।
१. मंडल सब्जिय। २. ६. ब. क. ज. . . तिदिया।
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४१६ ]
तिलोयपण्याप्ती
[ गाथा : १mo-१४४२ 1-स्वयम्भूनारायणका कुमारकाल मौर मण्डलीक-कान द्वितीय मारायणसे आधा (बारह हजार पाँचसौ वर्ष), विजयकाल नम्वेवर्ष और राज्यकाम इन तीनों (कुमारकाम १२...+ म.का.१२९..+विजय० ।-२५.१० वर्ष ) कालोंसे रहित साठ सास (१०००..२५०१०-१९७४११.) वर्ष कहा गया है ।।१४३६॥
तुरिमल मच तेरस, सयापि कोमार-मालित्तागि । विनमओ सोबी , लिय-काल-विहीन-सीस-सामाई ॥१४४०ll
। ७०० । १३००। ८ । २६९७९२० । पर्ष :-पतुर्षे नारायणका कुमार मौर मण्डलीककास क्रमयाः सात-सौ और रहसो वर्ष, विजयकाल अस्सी वर्ष सदा राज्यकाल इन तीनों (कु. ७००+मं. १३०० +वि०८०-२०५०) कालोसे रहित तीस साख (३000080-२0 -२९.६.५२ वर्ष MA R ATraimate SHR२० ) वर्ष प्रमाण कहा गया
कोमारो तिरिनसया, बारस-सय-पण्म मंडलीपत। . पंचम विजयो सत्चरि, रज् तिय-काल-होन-बह-लम्ला ।।१४४१॥
1 ३.० । १२५ । ५० IEE८३८ । प्रयं:-पांचवें नारायणका कुमारकाल तीनसो वर्ष, मण्डलीक-फाल बारहसौ पचास वर्ष, विजय-काल सत्तर वर्ष और राज्य-कास इन तीनों ( कु. ३..+म० १२५०+ वि०७०-१२.) कालोंसे रहित दस लाख (१०००००० - १६२२-१९८३८.) वर्ष प्रभारए कहा गया
कोमार - मंडलिसे, कमसो छ? सपाग-नोनि-सया । विजयो सट्ठो रमा, पट्ठि-सहस्स-परसया तास ॥१४॥
। २५० १ २५० । ६० । ६४४४० । -:-छठे पुण्डरीक नारायणका कुमार भोर मण्डलीककास क्रमशः दो सौ पचास वर्ष, विजयकाल साठ वर्ष और राज्यकाल पासठ हजार चारसी पवातीस वर्ष प्रमाण है ॥१४४२॥
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गाना : १४४३-१४४६ ] जस्तो महाहियारो
[ ४१७ कोमारो बोणि सपा, रासा पण्णास मंसीपत ।. . ते विजयो पन्ना, इगितीस-सहस्स-साग-सबा र १४४३।।
वर्ष:-दत्त नारायणका कुमारकाल दोसौ वर्ष, मण्डलीककाल पचास वर्ष, विजयकाल पचास वर्ष और राज्यकाल इकतीस हजार सातसो वर्ष प्रमाण कहा गया है ||१४४३॥
अमए पगि - ति • सया, कमेग कोमार-मंडलीयत्त । विजयं चाल र, एक्करस-सहस्स-पन-सपा सही ।।१४४४।।
। १०० 1 ३००। ४० १ ११५६० । गई:-पाठ नारायणका कुमार और मण्डसोककाल क्रमशः एकसो और तोनसो वर्ष, विजय-काल पालीस वर्ष और राज्यकाल ग्यारह हजार पाँचसो साठ वर्ष प्रमाग है ।।१४।४।।
सोलस प्रपया कमे, बासा कोमार - मंडलीयत । किरहस्स बटु विनमओ, वीसाहिय - णक - सया • नं ॥१४॥
१६ । ५६ । ८ । ६२० । :-कृष्ण नारायणका कुमार-काल पोर मण्डलीककाल क्रमश: मोलह और मापन वर्ष, विजयकाल आठ वर्ष तथा राज्यकाल मोसो योस अर्थ प्रमाण है ||१४४५॥
नारायण एवं बलदेवोंके रत्नोंका निर्देश
सती-कोबर-नारा, पाक - किवानानि संस - बंगगि । इस सस महारपणा, सोहत प्रसपरकी ॥१४॥
।।७। म:-शक्ति, धनुष, गदा, चक, कृपारण. शह एवं दण्ड ये सात महारत्न अर्थ-चक्रवतियों के पास शोभायमान रहते हैं ||१४६|
1.प...क.ब. में, है,
लीपत्ता।
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४१९
तिसोयपणसी [गाथा : १४४७-१४५० सुसमाइ संगसाई, गाइ रयणाबसीमो बसारि । रपनाई राणते, बलदेवा नवा पि१७
:-मूसल, सांगल (हल), गदा और रनावली ( हार ), ये भार रत्न सभी (नो) बलदेवों के यहां शोभायमान रहते है ॥१४४७।।
बसदेव प्रादि तीनोंकी पर्यायान्तर-प्राप्तिअभियान - गवा सम्मे, बलदेवा फेसबा गिवाण-गया । जलंगामी सम्बे, बलदेश फेसवा अधोगामी ॥१४॥
पर्व:-सब मलदेव निदान रहित और सत्र नारायण निदान सहित होते हैं। इसीप्रकार सब बलदेव ऊर्ध्वगामी ( स्वर्ग और मोक्षगामी ) तथा पर नारायण अधोगामी (नरक लाने वाले) होते है|
मिस्सेयसमट गया, 'हलिगो परिमो दुबम्हकप्प-नायो।
ततो कालेख मरो, सिकार किस्स तित्वम्मि mmen
म:-पाठ बलदेव मोका और प्रन्तिम बलदेव ब्रह्मस्वर्गको प्राप्त हुए है । अन्तिम यसदेव स्वर्गसे च्युत होकर कृष्णके तोप में (कृष्ण इसी भरतक्षेत्रमें पामामी चौबीसीके सोमहवें तीर्थकर होंगे) सिरूपदको प्राप्त होगा ॥१४४६।।
पढम - हरी सत्तमए, पंच मझुम्मि पंचमी एको।।
एकको तुरिमे परिमो, तदिए णिरए तहेव परिसत ॥१४५०॥
पर्य :-प्रथम नारायण सास नरकमें, पांच नारायण छ नरकमें, एक पांचवें भरकमें, एक ( सक्ष्मण ) चौथे नरक और अन्तिम नारायण (कृष्ण) तीसरे नरकमें गया है। इसीप्रकार प्रतिक्षों को भी गति जाननी चाहिए ।।१४५०।।
(सालिका ३७ अगले पृष्ठ ४१६ पर देखिये )
...अ, य, हरिण।
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सालिका : ३७
चउरथो महाड़ियारो
[४
तालिका : ३७
बलमोंका परिचय
नाम
उत्सेप
आयु
___ रत्न
पर्यायान्तर प्राप्ति
विजय
अचल
धर्म सुप्रभ सुदर्शन नन्दी
मूसल, हस, गदा मोर रलावली हार सब
बनदेवोंके पास रहते है।
नन्दिमित्र
राम
१५०००
पप
१२००
पांच ब्रह्म-स्वर्ग
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________________
नासिका ३८
क्र०
त्रिपृ
२ घिउ
३
स्वम
४
보
नाम
6
मुद्दतम
पुष्प सि
मार्गदर्शक :- आदार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
पुरुषदत
नारायण (मसा
कृष्ण
13.
६०
८००४ वा वर्ष २१००० वर्ष
७२ गावः २५००० वर्ष
१२५००,
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आयु
६०
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नारापनोंका परिचय
कुमारकास मी कान बजना राज्यकाल
पुण्डरोक २९.६५०००.,
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14 22.
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रत्न
व्यक्ति, धमुच गया और
सब नारायांकि पाश्चर ।
पर्यायावर प्राप्ति
खाखनिरक
11
"
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PI
चिय
चौमा
वोसरा
"
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PI
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▾
11
PI
४२० ]
दिम
ताि
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गावा: १४५१-१४५५ ] घउत्पो महाहिगारो
[ ४२१ ___रुद्रोंके नाम एवं उनके तीथं निर्देशभीमावलि · निवसत रहो पासागालो य सुपाडो। प्रचलो य पुंडरीओ, अजितंबर - अखियणाभी म ||१५|| पोको सम्बापुतो, अंगधरा सिस्यकत्ति • समाएत । रिसहम्मि पढम-रहो', जिदसत होदि अजिपसामिम्मि ॥१४५२॥ सविहि - पनहेस हा, सत्तस साप्त • कमेण संबादा ।
संति-जिरिगवे क्समो, समयाभुतो य जोर - सिरपम्मि ॥१४५३।।
म :-भीमावलि, जितान, ६, वैश्वानर ( विषवानल ), मुप्रतिष्ठ, भषस, पुण्डरीक, अजितन्धर, प्रजितनाभि, पीठ और सास्यकिपुत्र ये ग्यारह बद्र प्रतापर होते हुए, तीपंकर्तामोंके काम में गए हैं। इनमेंसे प्रथम गद्र ऋषभदेवके कालमें मौर जितपात्र अजितमाच स्वामौके कालमें हुआ है। इसके मागे सात रुद्र मचः सुविधिमापको अादि लेकर सात तीर्थकरोकि समसमें हुए हैं। इसको इन . पान्तिनाप तीर्थकरके समय में और सास्मोक पुत्र वॉर जिनेन्द्र के तीपमें हुया है।
" रुद्रोंके नरक जानेका कारणसम्मे दसमे पुवे, हा भट्टा तबाउ विसया ।
सम्मत - रयण - रहिवा, सुखा घोरेस गिरए ॥१४५४॥
प:-सब एन दसर्वे पूर्वका अध्ययन करते समय विषयों के निमित तपसे प्रष्ट होकर सम्यक्त्वरूपी रलसे रहित होते हुए धोर नरकोंमें डूब गये ।।१४५४॥
कनोंका तोषं निर्देश-- यो चद्द सुनका , सग रहा तह य रोग्णि सुन्नाई। षदो पवारसाई, सुण्णं रह - परिमम्मि ।।१४५५।।
23EAM
(संरणि प्रगले पृष्ठ ४२२ पर देधिमे )
-
- २. द.व.क. ज. प. उ. विसपत्त।
-
१.८.म. क... व्हा ।
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________________
४२२ ]
तिलोयपणत्तो
[ गाथा : १४५६-१४५७
छायपी
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.१
-
-
II.LILLECIALILLELLI..............
100४४४४
प्र:-कमान: दो रुन, छह प्रन्य, सास रुद, दो शून्य, वन, पन्द्रह अन्य और मन्तिम कोटमें एक रुद्र है । (इसप्रकार छद्रोंकी संधि है संदृष्टिमें अंक १ तोपकर, अंक २ चक्रवर्तीका, अंक 1 नारायण का अंक ४ ह का और शून्य मंतरालका सूचक है।) १४५५)
मोट :-वर्तमान चोयीसीके तीर्घकालीन प्रसिद्ध पुरुषों [ गा० १२६५ से १२.२, १४२९ मौर १४५५ को मूल संदृष्टियों ] का विवरण इस तालिका ३६ में निहित है
{ तालिका ३९ पृष्ठ ४२४-४२५ पर देखिये )
रुद्रोंके शरीरका उत्सेघपंच-सया पानाहिय-बउस्सया इणि • मयं च परदी य । सीवी सत्तरि सट्ठो, पणासा अनुषीस पि ॥१४५६।। पडवीस - च्चिय रंग, भौमावलि-पहुवि-का-पसकस्स 1
उन्हो मिहिहो, सग हत्या सन्चाइमस ॥१४५७॥ ५०.१४५० । १..10 1 2 | ७०। ६० । ३० । २८ । २४ । ३७।
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४२३
गाषा : १४५८-१४६१ ] उत्यो महाहियारो
म:-भीमावलि प्रादि दस हदोंके परोरको ऊँचाई क्रमपा: बिसी, चारसौ पचास, एकसो, नम्मे. अस्सी, सत्तर, माठ, पचास, अट्ठाईस पोर चौबीस धनुष तपा मारयफिसुतकी ऊंचाई सात हाप प्रमाण कही गई है ॥१४५६-१४५७।।
रुदोंको आयुका प्रमाणातेसोदी इगिहतरि, शेधि एक्कं च पुख्य • सक्लाणि । चुलसौदि सहि पन्ना, 'चालिस - वस्साणि सम्माणि ॥१५॥ बीस बस पेक साता, वासा एक्जून - सप्तरो कमसो ।
एक्कारस - महामं, पमाणमाउस्स पिसि ॥१५॥ पु८३ ल 1 पु ल । पु २ ल । पु १ म । व ४ ल । व ६. ल । व ५० ल।
४० त । व २०ल । ब१०ल । ६६ । अर्थ :-तेरासी लाल पूर्व, इकहत्तर लाख पूर्व, दो लाख पूर्व, एक साल पूर्व, रोरासी सात वर्ष, साठ लाख वर्ष, पपास तास वर्ष, चालीस लाख बर्ष, बीस लाख वर्ष, दस लाख वर्ष और एक फम सत्तर वर्ष, यह क्रमा: ग्यारह इनों की प्रायुका प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ||१४२-१४५६
रुद्रोंके कुमार-कास, संयमकाल और सयमभङ्ग कालका निर्देशसवावीसा लाला, छावष्टि - सहस्सपाणि पप तया । पाबटी पुष्वाणि, कुमार • कालो पहिल्लस्म ॥१४६०॥
___ 1 पु २७६६६६६ । म:--प्रथम भीमावलि ) भद्रका कुमारकाल सत्ताईस लाख छपासठ हजार छहसो छयासठ पूर्व-प्रमाण है ।।१४६०॥
सत्तावोसं लक्खा, छावट्टि - सहस्सयाणि छज्य सपा । असही पुण्यानि, भीमावलि - संजमे कालो ।।१४६१॥
। पुष्व २७६६६६८ ।
१. द, ब, 4. वामीम बाप्तारिण, प. उ. चामोसं वसाग, क, पालरेस बाप्तापि । २. ब. र. भीमायति ।
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________________
४२४ ।
बालिका:११
बसमान नौवीसीले प्रसिद्ध पृश्य नौकर | पवर्ती | बमदेव | नापण | प्रतिमाराम्या | रात
अम गार्गदर्शकवण. आचार्य श्री सुविधिसागर जी महादाज । श्रीमावात २ अजित २ सगर
२ जितमधु
पाची
बमदेव
वा.
, मम्मम
तिलोपपत्ती
४ पमिदन * मुमति । पद्मप्रभ ७ मुपाव
पन्द्रप्रय १ पुम्मरन्त १० पीतन्न ११ पांस . १२ वासुपूज्य १३ विपम
वानर
निजष निष्ट 1 अवबौद मुपवित २ अगम
कारक
प्रपन्न धर्म
३ मेरक
७ पुरी " पुरुषोतम | ४ पपुटम अनिवापर ५. सुमन 1 * पुरुषसि । ५ निशुम्भ । जिलामि
[ तालिका : ५
। प्रम
१४ पनन्त
धर्ष
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________________
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१७
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१६
२०
२१
२२
२३
२४
२८
२५
२७
२८
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६०
३२
१२
१३
३४
१६ शान्तिनाम
१७ कुमा
१८ भरनाथ
+
१९ मस्मिनाच
7.
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२१ नभिनाम
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२२ नेमिनाथ
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२३ पार्श्वनाथ
२४ महत्वोर
३ मना
४ समकुमार
५ शान्तिनाच
६ कुना
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१० हरिपे
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१० पोठ
११ सात्यकिपुत्र
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३१
महाहवारी
[ ४२५
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________________
४२६ ]
तिलोयपणतो [ गाथा : १४६२-१४६६ :-मोमावलि रुद्रका संयमसाल सत्ताईस लाख छयासठ हजार बहसौ अड़सठ पूर्वप्रमान है ।।१४६१॥
सत्तावोसं लक्षा, खाबदिठ-सहस्स-छस्स-प्राहिया । चावट्ठी पुष्वागि, भीमावलि • भंग - तव - कालो ॥१४६२॥
मर्ष:- भीमावलि हाका मङ्ग-तप काल सत्ताईस लाख छपासठ हजार सहसो खपासठ पूर्व-प्रमाण है ॥१४६२॥
तेवीस पुष - सक्ला, साद्वि-सहस्स-ससय छावट्ठी । विवसत्तू - कोमारो, तेत्तिय - मेतोय भंग-सब-कालो ।।१४६३।।
1 पुत्र २३६६६६६ । २३६६६६६ । मार:-जितशत्रु रुखका तेईस पास छयासठ हमार छहसो पासठ पूर्व प्रमाण कुमारकाल और इतना हो भङ्ग-तप काल है ।।१४६३।।
तेवीस पुष - लम्ला, छापाद्व-सहस्स-छसय-पडसट्ठी । संगम • काल - पमागं, एवं शिवसत - इट्स्स ॥१४६४॥
__ 1 पृ २३६६६६८ । प्र :- जितमा साके संयमकालका प्रमाण तेईस लास पासठ हजार छाहसी बासठ पूर्व है ॥१४६४1
छावट्ठी - सहस्साई', छायटमहिय - छत्सयाई पि । पुष्वान कोमारो, विण • कालो य रहस्स | |
।पु६६६६६ । ६६६६६।। म :--तृतीय कद नामक हाका कुमारकाल और विनय-संयम कास पासठ हजार ग्रह सौ छमासठ पूर्व प्रमाण है ॥१४६५।।
छावटि • सहस्साई, पुवामं अस्तपागि अडसहो । संजम - कास • पमाणं, सहम · रहस्स णिद्दिष्ट ।।१४६६।।
१ पु ६६६६८।
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गाथा : १४६७-१४७१ ] पउत्पो महाहियारो
[ ४२५ प्र :- तृतीय रुद्रके संयम कासका प्रमाण भासठ हजार छहसी पड़सठ पूर्व कहा गया है ।।१४६६।।
तेतीस • सहस्सागि, पुवाणि तिय - सपानि तेत्तीसं । यासागरस्स कहियो, कोमारो भंग - तब • कालो ।।१४६७॥
।पु३३३३३ । ३३३३३ । अयं :-वश्वानर ( विश्वानल ) का कुमार कान मौर भङ्ग-तप-कास संतोस हजार तौनसो तेतीस पूर्व-प्रमाण कहा गया है ।।१४६७॥
तेवीस-सहस्सारिण, पुण्याणि तिय - सयाणि उतीसं' । संपम - समप - पमाणं, वासाणल - भामयस्स ॥१४६॥
। पु३३३३४ ।। पा:- वैश्वाना ( विषवान नामक लड़के संगम समयका प्रमाण तेतीस हजार तीनसो चौतीस पूर्द कहा गया है ।।१४६८।।
अट्ठावीतं लक्या वासानं मुष्पइट्ठ · कोमारो । तेत्रिय - मेको संजम - कालो - तव - भट्ठ - समयस्स ॥१४६६।।
२८०००० । २८००.०० । २८००००० |
:-भुप्रतिष्ठका कुमारकास अट्ठाईस लाख वर्ष है, संयमकाल भी इतना ( २८ लाख वर्ष ) ही है और तप-भ्रष्ट काल भी इतना ( २८ नास्त्र वर्ष ) ही कहा गया है ।।१४६९।।
बासाओ बीस-लषया, कुमार-कालो म प्रचस-णामस्त । तेचिय - मेचो' संजम - कालो तव · भट्ट - कालो म ||१४७०।।
।५०००००० । २२००००० । २०००००० । मर्ष :-अचन नामक रुका कुमारकास बोस लाख वर्ष, इतना ( २० लाच वर्ष ) ही संघमकाल पोर तप-भ्रष्ट-काल भी इतना ही है ।।१४७०।।
वासा सोलस - सक्खा, छापटि-सहस्स-च-सब-छावट्ठी । कोमार · भंग • कालो, पत्तेयं पुरीयस्स ||१७९॥
१. ८. ज. स. परीसं। २. स. स. ३३१३८ । ।. द. ब. क. ज. प. उ. मेता।
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४२ ]
तिलोयपम्एसी
गाथा ! १४७२-१४७६ म:-पुण्डरीक रुद्रका कुमारकास और भङ्ग-संयमकाल प्रत्येक सोलह लाख छयासठ हजार छहसी छपासठ वर्ष-प्रमाण है ।।१४७११॥
वासा सोसस - लक्षा, छावद्वि-सहस्स--सप-अब्सट्टी। बिणविश्व - समए - काल • स्पमाणयं पुढरीपस्स ॥१४७२।।
६६६६६८। प्रपं:-पुण्डरीक रुद्र के जिनदीक्षा गमन अर्थात् संयम कालका प्रमाण सोलह लाब छपासठ हजार छहसौ अड़सठ वर्ष कहा गया है ।।१४७२।।
तेरस - सक्सा पासा, तेतीस साहस-ति-सय-सेतीसा।
अजयंधर - कोमारो, जिगविरक्षा - भंग - कालो म ॥१४७३॥ start :- MAH ARAS३३३ १३३३३३ ।
मपं :-अजितन्धर रुद्रका कुमार और जिनदोशा-भङ्गकात प्रत्येक तेरह लाख तेंतीस हजार तीनसो तेंसीस वर्ष-प्रमाण कहा गया है ।।१४७३।।
पासा तेरस • सखा, तेवोस-सहस्स-ति-सप-चोत्तीसा । अजिपंधरस्स एसो, जिणिव - विक्लरगहण - कालो ॥१४७४।।
। १३३३३३४। म :-तेरह लाख तेंतीस हजार तीनसौ चौसीस वर्ष, यह अजितन्वर रुद्रका जिनदीक्षा ग्रहण काल हे ॥१४७४।।
पासारणं साखा छह, 'छासहि-तहस-छ-सय-छावट्ठी। कोमार - भंग - कालो, पत्तेयं अजय - गाभिस्स ।।१४७५।।
। ६६६६६६६६६६६६६ । प्रय :--अजितनामिका कुमार काल और भङ्ग-संयमकाल प्रत्येक छह लाच घासक हजार छहसो छयासठ वर्ष प्रमाण है ।।१४७५।।
छल्लाला पासाणं, छायटिसहम्स- - सय - अक्सट्ठी। विणलव • घरिय - करसो, परिमाणो अजियनाभिस्स ॥१४७६।।
----- - -
--
१... चाबट्टि, ब. क. उ. बामहि ।
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गाथा : १४७७-१४८० ] पउत्यो महाहियारो
[१२६ म :-प्रजितनाभिका लिनुहोला घासालाना साबासह हजार छनमो. असाल वर्ष प्रमाण है ||१४७६॥
परिसाणि तिष्णि साखा, तीस-सहस्स-ति-सयसेतीसा। कोमार - भट्ठ • समया, कमप्तो पोवाल - बहस |१४७७॥
। ३३३३३३३३३३३३ । प्रम:-पीठाल (पीठ ) रुखका कुमार काल और तप-म काल क्रमपा: तीन लाख संतीस हजार तीनसौ तेतीस वर्ष प्रमाण है ।।१४७७॥
तिय-सबखाणि वासा, तेसोस-सहस्स-ति-सय बोत्तोसा । संजय - काल - पमाणं, गिट्टि बसम - रहस्स ।।१४७८।।
। ३३३३३४ । प्रपं:-दसवें (पीठ ) रुद्रके संयम-कासफा प्रमाण तीन नाल तोम हजार तीनसो चांतीस वर्ष निर्दिष्ट किया गया है ।।१४७८।।
सग - वासं कोमारो, संजम - कालो हवेवि घोत्तोस । अस्वीस भंग - कालो, एपारसमस्स हस ||१४७६ ।।
।। ३४ ॥ २८ ॥ प्रय:-ग्यारहवं { सात्यकिपुत्र ) रुद्रका कुमार काल सात वर्ष. संयम काल चौतीस वर्ष भौर संयम-मन-कास प्राईस वर्ष प्रमाण है ।।१४७९।।
होकी पर्यायान्तर प्राप्तिहो रहा सत्तए, पंच म छकुम्मि पंचमे एस्को । दोष्णि चतस्ये परिवा, एक्करसो तबिय - णिरमम्मि ॥१४८०।।
1 सद्दा-गा। अर्थ :- इन ग्यारह रुदोंमेंसे दो रुद्र सातवें नरकमें, पांच छठेमें, एक पाप में, दो पोयेमें और पन्तिम ( प्यारहवा ) रुर तीसरे नरक में गया है ॥१४८०॥
। इसप्रकार रुद्रोंका कपन समाप्त हुआ ।
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सिलोयपणतो [सालिका : ४., गाथा : १४८५-१४८२
४३. तालिका 1.
रुद्रोंका परिचय-गा० १४५६-१४८०
संयम-काल |
उत्सेध नाम
संस्प | पर्यायान्तर आयु कुमारकाल
माई का १. मोमावलि | ५०० धनुष | ८३ लाख पूर्व २७६६६६६. २७६६६६८ २५६६६६६. सातवा नरक २. जिसशत्रु | ४५० ७१ साल पूर्व २३६६६६६. | २३६६६६८,२३६६६६६..
२ लाख पूर्व |६६६६६ पूर्व | ६६६६८ पूर्व |६६६६६ पूर्व | अठा ४. श्वानस
१ लाख पूर्व ३३३३३ पूर्व १३३३४ पूर्व ३३३३३ ....
|४ , वर्ष २८ मास वर्ष | २८ लाख वर्ष २८ लास वई , अचल
६० लाख .. २० लाख घर्ष | २७ लाख वर्ष२० . . | ७. | पुजारीक | ५० लाख व १६६६६६६६६६६६६८ , १६६६६६६ .... ८. अजितन्वर ५.. | ४० लास्त्र .. १३३३३३३ , ९३३३३३४ . १३३३३३३. .. अजितनाभि २८ .. | २० लाख .. ६५६६६६ वर्ष ६६६६६८ वर्ष ६६६६६६ ., चौथा
१० लाख .. २३३३३३ ३३३३३४ .. ३३३३३३ . , ., पात्यकिपुत्र ७ हाप ६६ वर्ष । ७ .३४ . २८ . तीसरा ॥
| सुप्रतिष्ठ
नारदोंका निर्देशभौम-महभीम-कहा, महण्हो बोलि काल - महकाला ।
तुम्मुह - गिरयमुहायोमुह - गामा भय य नारा ||१४८१॥
पर्ष :--मीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल, दुख, नरकमुत और अधोमुख ये नौ मारद हुए हैं ॥१४८१॥
रुदा इस अइबद्दा, पाव - गिहागा हवंति सब्जे है। कसह - महाजम्झ - पिया, प्रबोगया वामुरेष व्य ।।१४१२॥
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________________
उत्थो महाहियारी
[ ४३१
--
:-रुद्रों के सहरा अतिरोद्र ये सब नारद पापकै निधान होते हैं कलहप्रिय एवं युद्ध-प्रिय
गाथा । १४८३-१४८६ ]
होनेसे वासुदेवोंके समान ही ये भी नरकको प्राप्त हुए हैं ।। १४६२ ।।
उस्सेह आउ सिस्यक्रखेव पश्ब्रक्स - भाब-पणीसु ।
एवान
गारव
उबएस
। गारवा गया ।
भ्रमं :- छन नारदोंको ऊँचाई, धातु और नोकर देवोंके ( प्रति ) प्रत्यक्ष - भावादिकके विषय में हमारे लिए उपदेश नष्ट हो चुका है ।।१४८३॥
| नारदका कथन ममाप्त हुआ ।
कामदेवोंका निर्देश -
काले जिणवरानं चडवीसाणं हवंति घडवीसा | से बाहुबल
-
-
-
अर्थ :- चोबीस तीर्थकरों के काल में अनुपम आकृतिके धारक वे बाहुबलि प्रमुख चौबीस कामदेव होते है ।। १४८४ ॥
-
॥ कामदेवोंका कथन समाप्त हुआ ||
१६० महापुरुषका मोक्षपद निर्देश—
सुहा, कंदप्पा जिरुवमायारा |११४६४॥ | कामदेवं गदं ।
तिस्वयरा लग्गुरो, चक्की-ल केसि
मारहा
अंगज कुलयर पुरिसा, भव्षा सिज्ांति नियमे २१४८५।।
-
-
शिध्वाणे वीर जिणे, वास इस पंचमलो, दुस्लम
286005
बलदेव ( ६ ),
: - तीर्थकर (२४) उनके गुरुजन ( माता-पिता २४ + २४ ) वर्ती ( १२ ). नारायण ), रुद्र (११), नारद (E), कामदेव (२४) और कुलकर (१४) ये सब ( १६० ) भव्य पुरुष नियमसे सिद्ध होते हैं । २१४८५ ।।
दुखमा कालका प्रवेश एवं उसमें घायु धादिका प्रमाल
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▾
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लिये अटु-मास-पन्डे ।
कालो समल्लियवि ।। १४८६॥
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तिलोयपणसी
[ गाँवा : १४५७ - १४६१
अर्थ:-बीर जिनेन्द्रका निर्वाण होनेके पश्चात् सीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष व्यतीत हो जाने पर दुःधमाकाल प्रवेश करता है ।। १४८६ ॥
४३२]
तप्पम - 'पवेसम्म य, बीसाहिए- इगिन्सर्व पि परमाऊ ।
संग
-
हत्यो उस्सेहो, जराण चरबीस पुट्टी ॥। १४८७॥
था १२० । ७ १२४ ।
- इस दुःपमाकालके प्रथम प्रवेशमें मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु एक सौ बीस वर्ष, ऊँचाई सात हाथ और पृष्ठ भागको इंडिया तिहत
गीतमादि अनुबद्ध केवलियों का निर्देश -
मुम्मसामी
जादो सिद्धो वोरो, तदिवसे गोवभो परम - णाली । जादो तस्स सिद्धे तम्मि कब सम्म मासे, बंबूसामि ति तत्म वि सिद्धि पवन्मे, केबलिनो गरिब अनुबद्धा ।।१४६६ ॥
तो जादो ॥१४८८ ।। केवली जाो ।
-
वयं :- जिस दिन भगवान् महावीर सिद्ध हुए उसी दिन गोतम गणधर केवलज्ञानको प्राप्त हुए। पुनः गौतमके सिद्ध होने पर सुधर्मस्वामी केवली हुए । सुधर्मस्वामीके कर्मनाश करने ( मुक्त होने ) पर जम्बूस्वामी केवली हुए। जम्बूस्वामी के सिद्ध होनेके पश्चात् फिर कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुआ ।। १४८६- १४८६।।
गोसमादि अनुबद्ध केवलियोंका धर्म-प्रवर्तकाल -
बासी वासामि गोवम
無
पयकूण
काले
-
-
·
पहुवीण नामवंताखं ।
परिमार्ज पिट - स्वेनं ।। १४९० ॥
। च ६२ ।
अर्थ :- गौतमादिक (गौतम गणधर सूधर्मस्वामी और जम्बूस्वामी ) केवलियोंके धर्मप्रवर्तन-कालका प्रमाण पिण्डरूपसे बासठ वर्ष प्रमाण है ।। १४९०।
अन्तिम केवलो, चारण ऋद्धिचारी प्रशाश्रमण और अवधिमानी आदिका निरूपण
कु' बलगिरिम्स परियो, केवलनाणोस सिरिधरो सिद्धो । चारपरिसीसु
चरिमो
सुपादाभिहान
१. व.ब.क. ज. प देसि मवियप परे सोम्यथ । "
च ।। १४९१ ।।
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म
ए भार मवधिमानिया,
गाथा : १४६२-४१६ ] पत्यो महाहियारो
[ ४३३ ':. केवलशानियों में अन्तिम केवली श्रीधर कुणालगिरिसे सिद्ध हुए मोर चारणऋषियोंमें सुपावचन्द्र नामक ऋषि अन्तिम हुए।।१४६१॥
पण सपनेसु चरिमो, बहरजसो नाम ओहि-माणीतु' । परिमो सिरि - गामो सुर-पिरणय-सुसोलावि-संपम्पो IIYE२||
ज्ञानमगोमें यम सुशीलादिसे सम्पन्न श्री नामक ऋषि अन्तमें हुए हैं ॥१४६२।।
मडा-परेसुपरिमो, जिमविक परवि वगुत्तोप।
तो मउवषरा 'दु - पम्प गरे गेन्हति ॥१४ ॥
प':-मुकुटधरोंमें अन्तिम जिमदीक्षा चन्द्रगुप्सने धारण की। इसके पश्चात् किसी मुकुटधारीने प्रवज्या ग्रहण नहीं को ॥१४९३।।
चौदहपूर्व-धारियोंके नाम एवं उनके कालका प्रमाणाएवी य रणविमिती, विवियो "अपराजिसे तइजो य । गोषणो बउलो, पंचममो भहबाहु ति ॥१४॥ पंच हमे पुरिसबरा, घोडसपुम्बी जामि विक्सावा ।
से पारस - गवरा, तिर सिरिवाहमागस्स ।।१४६५॥
प:-प्रपम नन्दी, द्वितीय नन्दिमित्र, तृतीय अपराजित. पतुषं गोवर्षन और पम्पम भववाह, इसप्रकार ये पोच पुरुषोत्तम जगमें 'चौदह पूर्वी" इस नामसे बिल्यात हुए। बारह बंगों के घारक ये पांचों श्रुतकेवलो श्रीवर्षमान स्वामीके तीर्घमें हुए है ११४१४-१४६५।।
पंचा मिलिवाणं, काल - पमाणं होवि वास-सबं । पीम्मि' 4 पंचमए, भरहे सबकेवलो परिव १६॥
। १००। ।चोदसपुष्धी गवा ।
१. २. ब.क. ज.म.उ. वापिसा । २. ..परिवि। ...... प. य. . दो। ४. ... न, मवराजिता माई, क. प्रवराजि सई जावा, प. बरावि तहलाया। ५. ६.ब. क. ज.. स. वीराम ।
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४३४
तिलोयपष्णती [ गाथा : १४६७-१५.. :-इन पाषों श्रुतफेवासियोंका सम्पूर्ण काम मिन्ना देभेपर सौ वर्ष होता है। पापों श्रुतवमीके पश्चात् भरतक्षेत्रमें फिर कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ ॥१४६६॥
! कोदह पूर्वधारियोंका कवन समाप्त हुना।
__ दसपूर्वभारी एवं उनका कासपामो विशाहलामो, पोल्लिो तिमो नमो खागो । सिद्धत्यो बिरिसेगो, विनायो पुडिल्ल - गंगवा य ।।१४६४॥ एकरसोय सुषम्मो, रसपुम्बारा इमे सुविताया। पारंपरिओबगो', सेतीवि सयंक ताण वासामि ॥१४॥
म:-(प्रथम ) विकास, प्रोष्टिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, भूतिपेण, विषय, बुदिल, गङ्गदेव और सुधर्म, ये ग्यारह पाषायं स पूर्णधारो विस्शत हुए है। परम्परासे प्राप्त इन सबका कास एकसौ तेरासो वर्ष प्रमाण है ।।१४६७-१४६।।
सम्वेस वि काल - वसा, तेसु पस भरह - खेसम्मि । बियसंत-अब-कमला', ण सति सपष्वि - विषसयरा ॥१४६६।।
। रसपुम्दी गा। म :-काशके वश उन सब श्रुतकेवलियों के प्रतीत हो जाने पर भरतक्षेत्र में भम्यरूपी कमलोंको विकसित करने वाले दस पूर्वपररूप सूर्य फिर नहीं ( उदित ) रहे ||१४६९l
। दसपूर्थियोंका कथन समाप्त हुआ ।
ग्यारह-प्रङ्गधारी एवं उनफा फालतरलतो जपपालो, पंडप'- अपसेच • कंस- आइरिया ।
एक्कारसंगधारी, पंग इमे वीर - तित्यम्मि ॥१५००।।
प:-लसत्र, अयपाल, पाण्ड, ध्र बसेन और कंस, ये पांच मार्य वीर जिनेन्द्र तोध में ग्यारह अङ्ग पारो हुए है ।।१५००॥
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१. ब.क.प. य. . पारपरिमोवामयो। २. ... कामाणि ।। ६. परमघुसेग, ब.उ, परसोरण, क, ज. य. पं रघुगण ।
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[ ४३५
पोलिसया बीस-धुवा, बासा तान पिस - परिमा। सेतु प्रबीदे परिप मरहे एक्कारसंगधरा ॥१५०१॥
। २२० ।
। एक्कारसंग गई। प:-इनके कालका प्रमाण पिहरूपसे दो सौ बीस वर्ष है। इनके स्वर्गस्थ होनेपर फिर भरसक्षेत्रमें कोई बारह बंगोंका धारक भी नहीं रहा ॥१५.१॥
। ग्यारह बंगोंके धारकोंका कमन समाप्त हमा ।
भागाराङ्गधारी एवं उनका कास-- पढमो सुभद्दरणामो, जसमहो तह य होदि जसबाहू ।
सुरिमो 4 'लोह - णामो, एवं आयार - अंगधरा ॥१५०२।।
मर्य:-प्रथम मुभद्र फिर यशोमा, यशोयाहु और पतुर्व लोहार्य, ये पार भाचार्य आचारा पारक हुए है ।।१५०२।।
सेसेस्करसंगाणं', चोहस . पल्याणमेकसघरा । एकसयं प्रहारस - बास • पूर्व तान परिमाणं ।।१५०३॥
। ११८
।माचारंग गवं । मर्ष:-उक्त पारों भाषार्थ आचाराडके अतिरिक्त पोष ग्यारह प्रजों और पौदह पूर्पोके एकदेशके धारक थे । इनके कालका प्रमाण एकसी प्रकारह वर्ष है ।।१५०३॥
। शचारान-पारियोंका वर्णन समाप्त हुआ । गौतम गणधरसे लोहायं पयंन्तका सम्मिलित कास प्रमाणतेल अवीवेस तरा, प्राचारपरा ग होति अरहम्मि । गोबम - मुनि - पहुबीन, पासानं अस्सयाणि सोयी १५०४॥
...क., लो। २.द.व.क. स. प. उ. संगारिए।
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कार्यदर्शक :- आचार्य की सुविधताकर बी वाराण
४५६]
तिलोय पणती
[ गाया : १५०५-१५०७
कानके धारक नहीं हुए
अर्थ :- इनके स्वर्गस्थ होनेपर भरत क्षेत्रमें फिर कोई भाषा हैं। गौतम मुनिको वादि लेकर ( माचायं लोहार्य पर्यन्तमे ) सम्पूर्ण कालका प्रमाण छह सौ तेरासी वर्ष होता है ।। १५०४
वीस-सहस् ति धम्मं पयट्टण
श्रुततीके नष्ट होनेका समय
सदा, सत्तारह बच्छराणि सुब- तिक्ष्णं । वोच्छित्सवि काल होसेन ।।१५०५।।
हेतु,
१ २०३१७ ।
प्र :- काल दोवसे धर्मं प्रवर्तन के कारण भूत श्रुततीर्षका बीस हजार तीनसौ सतरह वर्षों बाद म्युच्छेद हो जावेगा ।। १५०५ ।।
विशेवार्थ:- दुःषमा नामक पंचमकाल २१००० वर्षका है, जिसमें ६८३ वर्ष पर्यन्त श्राचाराङ्गादि श्रुतकी धारा क्रमशः क्षीण होती हुई प्रवाहित होती रही। पस्चात् ( २१००० - ६६३ = ) २०३१७ वर्ष पर्यन्त श्रुततोयंका प्रवाह हीयमान रूपसे प्रवाहित होता रहेगा, तत्पश्चात् धर्मप्रवर्तन करने वाले इस श्रुततीयंका सर्वथा म्युच्छेद हो जावेगा ।
चातुर्वर्ण्य संघका अस्तित्व काल -
तेति मेसे काले, जम्मिल्सवि चारण संघादी ।
'प्रविलीयो तुम्मेधो', 'असूयको सह य पाए । १५०६ ।।
सत्त-सम-प्रथम, संजुशो' सल्लगारव' तहिं ।
कलह पियो रागिट्ठो, कूरो कोहालुओं" लोभी ।। १५०७ ।। । सुवितित्य-कणं समत्तं ।
:--- इतने मात्र समय पर्यन्त चातुर्वण्यं सङ्घ जन्म लेता रहेगा । किन्तु लोक प्रायः विनीत, दुद्धि, असूयक ( ईर्ष्यालु ), सात भयों, लाड़ नदों, तीन पाल्यों एवं तीन गावों सहित, कलहप्रिय, रागिष्ठ, क्रूर एवं क्रोधी होगा ।।१५०६- १५०७।।
। धुततीर्थका कथन समाप्त हुआ ।
-
१.८. . . . . .म्मेवा
ब. क.स. क.सरे एहि । ४. व. उ. गट्टो ...जसो।
-
२.८. . क. ज. य. उ. मंजुषा । ..एहि, ४. ६. ब. रु. उ को जय कोहादियों६...
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मापा : १५०-११
पजत्यो महाहियारो
[ ४३७ मक राजाकी उत्पत्तिका समयबोर-मिणे सिद्धि-वे, घन-सम-गिसहि-स-परिमाने। कालम्मि अविष्कते', उप्पलो एल्म सक - रामो १५०६।।
वर्ष :-वोर जिनेन्द्र के मुक्ति प्राप्त होने के बारमो इकसठ वर्ष प्रमाण कानके अयतीत होनेपर यहाँ पाक राजा उत्पन्न दुपा ॥१५.८॥
पहला पोरे सिर, सहस्त - गम्मि सग-सपाहिए । पणसीविम्मि यतीवे, पणमासे पक • णिमो 'पारो ॥१५०६।। १७८५ मास ५
पाठान्तरम् । म:-अथवा, वीरभगवान्के सिद्ध होने के नो हजार सातसी पूचासी वर्ष और पांच मास व्यतीत हो जानेपर शक नृप उत्पन्न हा ॥१५०९॥"
S
:-
PATREENYAरमात्र
पाठान्तर।
घोहस-सहस्स-सग-सम-से गबनी-बास - काल - विच्छेवे। . पोरेसर - सिद्धीबो, उप्पणो सग - निओ अहवा ॥१५१०॥ । १४७६३ ।
पाठान्तरम् । प: अपवा, वीर भगवान्को मुक्तिके चौदह हजार सातसो तेरान वर्ष व्यतीत हो जानेपर हक नृप उत्पन्न हुप्रा ||१५१०।।
ज
जागा रिका तिन चोर पर माना
पाठान्तर 1
विम्याचे बीरजिने, सम्वास - सबस, पंच - बरिसे। पन - मासेतु गरेस, संजादो सग - मिमो अहण ।।१५११॥ १६०५ मा ५ ।
पाठान्तरम् ।
४. . .. क.
... म. म. उ. जिरणे । २.६. प. उ. परिमालो। ... भदितो । अ. ब. सानिमाया । । प.क. पोरेसरस्स 1
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तिलोयपम्पती
[पाषा: १५१२-१५१४ प:-उपबा, वीर भगवान के निर्वाण जानेके छहसा पांच वर्ष और पांच मास व्यतीत हो जानेपर सक नप उत्पम हुआ ।।१११||
' वारि ... R
EATER पाठान्तर । भापुको क्षय-द्धि एवं शक नृपके समयको उत्कृष्ट-आयु निकालनेका विधान
पीसुत्तर - बास - सो, वोसपि वासानि सोहिकण तो। गिबोस • सहस्सेहिभगिरे बाण सय - गढी ॥१५१२||
म:-एकसौ बीस वषो से योस वर्ष घटा देनेपर जो शेष रहे, उसमें इसकीस हजारका भाग वेनेपर प्रायुको क्षय-वृद्धिका प्रमाण पाता है ॥१५१२१॥
पचा:-( १२० -२.)२१००० वर्षमा वर्ष हानि-वृद्धिका प्रमाण । अर्थात् पाबुका प्रतिदिन की हानि-द्धि का प्रमाण ६ मिनट ५२ सेकेण्ड है।
सक-निव-वास-वाण, चच-सब-पिसहि-वास-पापीर्न । बस-गुण-दो-सय-भनिवे, लई मोहेज विगुण - महीए ॥११॥ तस्सि' अबसेसं, तोष पमनाम • अट्ठाक ।
पाठतरेषु' एसा, कुत्ती सम्वेस पत्ते ॥१५१४॥
प्रध:-शक नृपके वर्षों सहित चारसौ इकसठ माविमर्शको दोसो दससे भावित करे, जो लन प्राप्त हो उसे एकसौ बीसमेंसे कम करने पर जो अभिष्ट रहे उतना उसके समयमें प्रवर्तमान उत्कृष्ट मायुका प्रमाण पा । यह युक्ति एतत् सम्बन्धी पाठान्तोंमेंसे प्रस्पेकके समयमें भी जानना पाहिए ॥१५१५-१९१४॥
विसवावं :--प्रकारान्तरोंसे शक नए बीर-निर्वाणके ६१ वर्ष, वा ६७८५1 वर्ष, या १७९३ वर्ष मा ६१ वर्ष पश्चात् उतन्त्र हुया और उस (सकों) का राज्य २४२ वर्ष पर्यन्त रहा भात: प्रत्येक पक राज्यके अन्त में उत्कृष्ट प्रायुका प्रमाए इसप्रकार जानना चाहिए
{१) १२० - { (४६१ + २४२) २१.} - १९६१ वर्ष इस शक राज्य के अन्तमें
उत्कृष्टायु ।
१. ६. २१.ब. क. य. य. 3, २१...। २.१.... तिम्सम्य। ३.प. ब. क. प. प. उ.
पारंतरे।
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गाथा : १५१५-१५१८] परयो महाहियारों
[ ४३६ (२) १२० – { ( ६५+२४२ ) २१०-७२ वर्ष उस्कुरटायु । (३) १२. -1(१४७६३+२४२) : २१०}=४ वर्ष उत्कृष्टायु । (४) १२० -{(६.५३+२४२) २१.}-११५ वर्ष उत्कृष्टायु ।
शकराजाको उत्पत्ति एवं उसके वंशका राज्यकालजिम्यान - गदै सरे, पर-समागसहि साबित ही हा जागो म सग - परियो, रज बंसल्स' 'धु-सय-बादाला ॥१५१५॥
। ४६।२४२1 पर्व:- वीर जिनेन्द्र के मिर्याणके बारसी इकसठ वर्ष बीत जाने पर मक नरेन्द्र उन्न हुआ । इस वंगके राज्यकालका प्रमाण दोसी बयालीस वर्ष है 11१५१५।।
गुप्तोंका और बसुमुखका राज्यकासबोश्मि सवा पनवण्णा, गुत्ता' बचमुहम्स बादास । सवं होदि सहस्स, केई एवं पति ॥१५१३॥
।२५५ । ४२। प:-गुप्तोंके राज्यकासका प्रमाण दो सौ पचपन वर्ष और चतुर्मुखके राज्यका प्रमाण बयालीस वर्ष है. इन सरको मिलाने पर ( ४६१+२४२+ २४५+ ४२%) १०..( एक हजार) वर्ष होवे, कितने ही मानार्य ऐसा भी निरूपण करते हैं ११५१६।।
पालक नामक मन्तिसुतका राज्याभिषेकमकाले' शेरजिगो, पिस्सेयस - संपर्य समावच्यो।
तत्काले अभिसितो, पालय - पामो अवंतिमुवो ॥१५१७॥
पर्य। जिस कालमें दीर जिनेन्द्रने निःश्रेयस-सम्पदाको प्राप्त किया था, उसी समय पालक नामक अवन्तिसुतका राज्याभिषेक हुआ ।।५५१७||
पालक, विजय एवं मुरण्डवंशी सपा पुष्यमित्रका राज्यकालपालकजं सद्रों, इगि-सब-पणज्य बिजय-सभवा । बाल मुर'' - सा, तीसं बस्सानि पुस्तमित निम ||१५१८।।
६०1१५५ । ४० । ३० ।
१, इ.स. क. प. प. उ. बस्सस । २. व. दुस। ।.. बुप्ताण। ४. ब. ब. ज. प.स.ज कारे, क. जं काले । ५. द. गुरुर, म. य. दुरुपय ।
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तिलोयपम्पत्ती
[ मापा : १५१६-१५२२ at:--(भवन्ति पुत्र ) पालकका राज्य साठ वर्ष, किंजप वशियों का एकसौ पचपन वर्ष, पुरुष-वधियोंका चालीस वर्ष और पुष्यमित्रका राज्य तीस वर्ष पर्यन्त रहा ॥१५॥
वसुमित्र अग्निमित्र, गन्धर्व, नरवाहन, भृत्या पोर गुप्तमिरोंका राज्यकास
बसुमित - अग्गिमितो, सट्ठी गंमनपा नि सममेक। परवाहनो व बालं, तसो भयाणा बाबा sten
१०।१०।४। ब:-इसके पश्चात् वसुमित्र-अम्निमित्र साठ वर्ष, गन्धर्व सौ वर्ष भोर नरवाहन पासीस वर्ष पर्यन्त राज्य करते रहे । पश्चात् भृत्यवंशकी उत्पत्ति हुई ॥१५१९॥
मस्पटुनाम कालो, रोम्णि समाई हति बाबाला ।
सचो गृत्ता तान, रम्ने बोगिय सवाणि' इपिसोसा ॥१५२०॥ हायक:3Anti
रासाल प:-इन मृत्य (कुषाम) वंशियोंका काल दोसो बयालीस वर्ष है, इसके पश्चात फिर गुप्तवंशी हए जिनके राज्यकालका प्रमाण दोसौ इकतीस वर्ष पर्यन्त रहा है॥५२॥
___कल्कीकी आयु एवं उसका राज्यकालतसोकको जाबो इंपुरे तस्स चजमुहो- पामो । · सत्तरि परिसा प्राम, विषय - इगियीस-
र च ॥१५२।
।७।४२. :-फिर इसके पपचात् इन्द्रपुरमें बल्की उत्पन्न हया। इसका नाम पतुर्मुख, मायु सत्तर वर्ष एवं राज्यकाल बयालीस वर्ष प्रमाण रहा ॥१५२१॥
विचा:-पासकका राज्य ६. वर्ष, विजय का १५५ वर्ष, गुमण्ड ०४० वर्ष, पुष्य का ३० वर्ष, वसुमित्र + अग्नि का ६० वर्ष, गन्धर्वका १०० वर्ष. गरवाहम ४०, मृत्य० २४२, गुप्त. २३१ वर्ष पौर चतुर्मुख का ४२ वर्ष अर्थात् ६०+१५५-४० +३+६+१ +४.+२४२+ २३१+४२-१००० वर्ष ।।
कस्कोको पट्टवन्धपायारंग • बराबरो, पणहतरि - जुस दु-मय - बास। बोलीस बढो, पट्टो कषिकस्स गर - पालो ॥१५२२।।
। २७५ । १. ब. समामि, द.क. ज. य. म. सामि। २. ब.ब. क. न. र. रखवतो, य, रस्मृता।
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TAR५२३- Hit हो: माहिर
[ ४४॥ प: आचारानधरोंके परमात् दोसौ पचत्तर वर्षों के व्यसोत हो जाने पर नरपतिको पट्टराधा गया पा ।।१५२२।।
। ६८३+२७५+४२१.०० वर्ष । दिगम्बर मुनिराजों पर शुल्क ( टेक्स ) एवं उन्हें भवधिज्ञानबह साहिऊण कपको, णिय - जोगे' जनपये पयत्तेण ।
सुरकं 'जाधषि सुखो, पिरणं' भाष सममानो ॥१५२३॥
मई:-तदनन्सर वह फल्की प्रयल-पूर्वक अपने योग्य जनपदोंको सिद्ध करके लोभको प्राप्त होता हुमा मुनिराओंके माहारमेंसे भी मन-पिण्ड ( प्रथम ग्रास) को शुल्क (कर) स्वरूप भागने लगा ॥१५२३॥
वाणं पिंडरगं, समगा का प्रतरामं पि ।
गमयति प्रोहिणाणं, उप्पज्जपि तेसु एकस्मि ॥१५२४।।
अर्थ:-तब श्रमण ( भुनि ) अग्रपिण्ड देकर मोर अन्तराय करके [ निराहार ] चले जाते है। उप्त समय उनमेंसे किसी एक बमरण को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है ।।१५२४।।
कल्कीकी मृत्यु एवं उसके पुत्रको गज्य पदआह को वि असुरवेषो', प्रोहीयो मुणि-गणाण उपसा ।
नापूर्ण तं कषिक, मारि हु पम्मोहि सि ।।१५२५॥
पर्व:-इसके पश्चात् कोई अमुरदेव अबभिशामसे मुनिगणों के उपसर्वको जानकर एवं उस कल्कीको धर्म-द्रोही मानकर मार डालता है ।१५२५॥
कश्कि-सुबो 'अजिवंजय बामो रमन ति एमबितन्दर।
तं रस्सदि असुरोमो, धम्मे ररुषं करेका ति ५२६॥
प्र :--तब अजितजय नामक सस कल्कीका पुत्र रक्षा करो' इस प्रकार कहकर उस देवके चरणों में नमस्कार करता है और वह देश 'धर्म पूर्वक राज्य करो' इस प्रकार कहकर उसकी रक्षा करता है ॥१५२६॥
....क.अ. य. उ. जोगा। २. र. 4, क. अ... आदि।...... क. प. प. उ. पिण ४.. ब. क.ज.य. उ. एककपि । ५. ६. ...... पसुरवेश। . 4. ब. क. प.व, .मचिपसामो।
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४२ ]
तिसोयपासो [ गाथा : १५२५-१५३१
___धर्भ प्रवृत्ति हानि-- तत्तो थोवे बासे', समउम्मो पपट्ट िनमाणं ।
कमसो दिवसे विषसे, काल • महम्पेण हाएवे ।।१५२७॥
एवं :--इसके पश्चात् कुछ वर्षों तक लोगोंमें समीयोन घमंकी प्रवृत्ति रहती है। फिर क्रमशः कालके माहारम्पसे वह प्रतिदिन हीन होतो जाती है ।।१५२७।।।।
कल्को एवं उपस्कियोंका समय एवं प्रमाणएवं वस्स - सहस्से, पुह - पुह काकी हवेदि एकेको ।
पंच - सम - बच्चरेस, 'एस्केलको तह म उमरको ॥१५२८।।
पर्व:-इसप्रकार एक-एक हजार वर्षोंके पश्चात् पृथक्-पृथक् एक-एक कल्की सपा पांचपषिसो वर्षोंके पश्चात् एक-एक उपकल्की होता
ह
ट
starrer in पश्यम कासके दुष्प्रभावोंका संक्षिप्त निर्देश प्रत्येक कल्कोके समय साधुको पवधिनान एवं
चातुर्वर्ण्य संघका प्रमाणकक्कि पडि एपके स्के, गुस्सम - साहुस्स ओहिनाणं पि । संघा य चावण्या, थोडा जायंति तत्काले ॥१५२६॥
:-प्रत्येक कल्को प्रति पुषमाकालवी एक-एक साधुको मनिप्लान होता है और उसके समयमें चातुर्वर्ण्य संघ भी अस्प हो जाते है ।।१५२६।।
नाना प्रकारके उपसर्गबुसमम्मी प्रोसहियो, जायते पोरसामो सम्बायो।
बह • वाओ पोर-रावल अरि - मारी घोर - उपसग्गा ॥१३॥
भर्ष:-दुःपम काल ( के प्रारम्भ ) में सभी मौषधियाँ ( वनस्पतियां ) नीरस हो जाती है सबा गोर, राजकुल, शत्र, भारी आदि अनेक प्रकारके छोर उपसर्ग होने लगते हैं ।।११३०॥
दुःख प्राप्तिका कारण
इज्वप्वा
सोलेग सम्मेण बलेग बोहम्मत्तीए एप कुलपमेणं ।
बिमाषीहि गुणेहि मुक्का, सेवंति मिच्न सुहं महते ॥१५३१।। १. प. ब. क. र. य. २. बासी। २, 4. उ. को।
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गावा । १२-१५३६ ] पउत्थो महाहियारो
[ we :-स कालमें मनुष्य कुल कमागत शोस, सत्य, बल, तेज तथा पपाषं ज्ञान प्रादि गुणों से हीन पुरुषों की सेवा करते हैं प्रतः सुख प्राप्त नहीं करते ।।१५३१||
उच्चकुलको भी दूषित करनामिच्छत-मोहे बिसम्मिततो,मायाए भीपीए गरा प णारी।
मम्मान-सम्मादि म ते गणते, गोता तुंगार विसर्यते ॥१५३२॥
म:-इस वियम कालमें मिथ्याव मोर मोहमें ग्रस्त नर-नारी माया एवं भयके कारण मर्यादा और लम्जा को भी नहीं गिनते हैं मोर इसी कारणसे वे मपने उच्चगोत्र को भी दूषित करते है ॥१५३२॥
असहिष्णूताको मूतिरागेन मेग मोबपेग, संजुक्त - चिता बिनयेण होगा।
कोहेन लोहेन किमिसमागा, कोवानवा होति मसूय-काया ॥१५३३॥
भ:-इस कालमें विनयसे होन एवं घिन्तासे युक्त मनुष्य राग, दम्भ, मद, कोष एवं सोमसे सेक्षित होते हुए निर्दयता एवं पूर्व को ही मूति हो१२ टिल
चारित्रका परित्यागसंगेण पाषाविह - संकिलेसु, देगेण धोरेण परिग्रहेणं ।
असत-मोहेण व मन्जमाणा, परिस-मुग्झति मवेत्र केई ।।१५३४।।
प:-परिग्रहको तोष मासक्तिसे तथा अत्यन्त मोहसे एवं भदके वेगसे अनेक प्रकारके संक्लेजोंमें दूबते हए कितने ही जीव चारित्रको छोड़ देते हैं ।।१५३१।
___ उस्सेघ एवं आयु सादिकी हीनताउन्हमाल-पाल-चोरियावि, समपि हाएवि कमेग ताम्।
पापेग जोति विवेक-होगा, सेयं णसेमं ण विचारपंति ॥१५३४॥
च:-इस पुषमाकासमें मनुष्योंका उस्सेघ, मायु, बस एवं वीर्य प्रादि सभी क्रमशः हीनहोग होते जाते हैं तथा विवेकहीन प्राणी श्रेय-प्रयका विचार नहीं करते हैं मोर पापसे ही जीते है । अर्थात् पापाचरण करते हुए ही जीवन यापन करते हैं । १५३५॥
कुल होन राजाअणाग-वृत्ताकुल-हीन-राजा, पालंति भूमि परवार-रता । सष्येण धम्मेण विमुषमाणा, कालस्स बोसेस य समस्त ।।१५३६॥
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m ]
तिलोयपातो [ गाथा : १५३७-१५४१ :-दुषमा कालके दोषसे सभी धमोंका परित्याग करते हए पत्रान युक्त, परदारासत मोर कुल-हीन राजा प्रजाका पालन करते हैं ।।१५३६।।
देवादिकोंके आनेका निधअत्तो धारण - मुगिणो, देवा विम्बाहरा पनायेति ।
संबम • गुमाहियाणं, मयान बिराम योसेन ।।१५३७।।
मपं :-इस दुःश्माकाल में संयम-गुणसे विशिष्ट मनुष्यों के विराम दोष ( उनके अभाव ) के.कारण बारादिधारी मुनि, देव और विद्याधर भी नहीं गाते हैं ॥१५३७॥
जनपदमें उत्पन्न होने वाली बाधाएँआविष्टि - अनाबिहि, तमसर-परस-ससम-पहुकोहि । सम्मान समपवान, माथा चप्पाजो बिसमा ॥१५३८।।
म :-( इस दुषमा-कालमें ) पतिवृष्टि, अनावृष्टि, पोर, परचक्र ( श) एवं (सेतमें हानि पहुंचाने वाले) कौडों प्रादिसे सभी जनपदोंके लिए विषम बाधा उत्पन्न होती जाती है ।।१५॥
पापी-प्रभृति मनुष्योंको बहुलताशाल-सबर यात्रा, पुलिद-माहल-चिला' - पीलो । वीसति गरा बहबा, पुन्य • णिव हि पाहि ।।१५३६॥ बोनागाहा कूरा, गानाविह - बाहि - यणा - वृत्ता। सम्पर • करंक - हत्या, संतर • गमेण संतता ॥१५४०।।
:-उस समय पूर्वमें बांधे हुए पापोंके उदयसे रण्डाल, शवर, वपत्र, पुनिन्द, साहस (म्लेच्छ विशेष ) और किरात लादि; दोम, ममाप, क्रूर पौर नामा प्रकारको ध्याषि एवं वेदनासे मुक्त; हापोंमें खप्पर 6षा भिक्षापात्र लिए हुए मोर पेशाम्सर-गमनसे सम्तप्त बहुतसे मनुष्य दिखते हैं ॥१५३-१४०||
अन्तिम कल्की एवं प्रग्निम पासिंघसंघका निर्देशएवं दुस्सम - कासे, होमते धाम • पार - उस्याती। प्रते विसम - सहाओ, उप्पामगि एकवीसमो कस्की ।।१५४६||
१.. पिसारा, ब. क. प. उ, बिमाण, प. विन।
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गाषा : १५४२-१५४६ ] पउत्यो महाहियारो
प्र:-इसप्रकार दुवमा कानमें धर्म, आयु सौर ऊँचाई मादि कम होती जाती है. पश्चात् (कालके ) बन्तमें विषम स्वभाववाला ( जनमन्पन नामक ) इक्कीसवां काकी उत्पन्न होता है ।।१५४१॥
बोरंगजाभिषामो,' ताकाले मुणिवरो भवे एपको ।
सम्बसिरी तह विरवी, साषय-जग-मग्गिलोति' पंगुसिरी ॥१५४२।।
धर्म:--उस कल्कीके समयमें वीराङ्गा नामक एक मुनि, सर्वश्री मामको प्रायिका तथा अग्निल और पंगुनी नामक धावक युगस (श्रावक-श्राविका ) होते हैं ।।१५४२।।
कल्को राजा एक मन्त्री की पार्ताआमाए कक्किलिओ, रिणय-मोग्गे साहिऊण जनपवए ।
सो कोई गरिव मनुओ, बो मम एवं बस सि 'मंतिवरे ॥१५४३॥
मर्ष:-वह कल्की माज्ञासे अपने योग्य जनपर्दोको सिंच (जीस ) कर कहता है कि हे मन्निवर ! ऐसा कोई पुरुष सरे तारिलेको मेरे को सामील - RINEETTES
ग्रह विमबिति मती, सामिय एक्को भुनी वसो गरिय । तत्तो भणेवि काकी, कहह रिसी करिसायारो ॥१५४४|| सचिवा' बंति सामिय, सयल-पहिसावदाण आधारो। संतो विमोक्क - संगो, 'सणुद्वाण - कारणेण पुनी ३१५४५।। पर • घर'- दुबारएम, ममहे काय वरिसर्ण किच्चा।।
पासुयमसन' भुजवि, पाणिपुरे विग्ध" - परिहोणं ॥१५४६॥
म: तय मन्त्री निवेदन करते है कि हे स्वामिन् ! एक मुनि मापके बशमें नहीं है। तब कल्को कहता है कि कहो उस ऋषिका कंम्रा स्वरूप है ? तब सचिव (मन्त्री) कहते है कि हे स्वामिन ! सकल-अहिंसावतोंका आधारभूत वह मुनि परिग्रहसे रहित होता हमा शरीरको स्थिति ( माहार ) निमित्त दूसरोंके घर-द्वारों पर शरीरको दिखाकर माध्याल्लु-कालमें मपने हस्तपुट में विन-रहित प्रामुक बाहार ग्रहण करता है ।।१५४४-१५४६।।
....... उ. मिवारण।। २. द. 4, मम्बिदत्ति, क. . 4. ३, मग्मिपाति । 1- . प्रतिपुरणे, ..क.प, य. ३, मंतिपुरे । ... .ज. य, सामय । १. व.., य, विमामा.क.उ.बिएणीमायो। ६.ब.प.म.न. . उ. सपियो। ५...... . तनवासा | ८.१.प.क.. य.उ.पर। ..... य. मसएं बि .क. र. ममएहि । ....... प. प. उ. विष्षु ।
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m. ]
तिलोयपगाती
[ गापा: १४४-१५५१ कल्को द्वारा मुनिराजसे शुल्क प्रहण, उन्हें पवधिनामकी प्राप्ति एवं
संघको कासावसानका संकेत-- सोबूण मंति - पयन, भणेवि काको अहिंसबरधारी । कहि' सो बर्वाद पायो, अप्पं मोहनदि सम्बभंगीहि ॥१५४७।। सं तस्स मग्ग • मिर, समकं गेहेह भाप - धाविस्त । यह बाचिम्हि पिडे, गाणं मुणियरो तुरि ॥१४॥ कारणमंतराय, गच्छद पावेवि मोहिणाणं पि । हरकारिप अग्गिलपं, पंसिरी - विरवि - सम्बसिरी' ||१५४६।। भासा पसन्न-हिबमो, गुस्सम • कालस्स बारमबसाणं । तुम्हम्ह ति - विषमाक, एसो प्रबसाग - कपको हु॥१५५०।।
:-इस प्रकार मन्त्रीके वचन सुनकर वह कस्की कहता है कि-सब प्रकारसे जो अपनी बामाका बात करता है ऐसा वह महिंसाइतषारी पापी कहा जाता है ? मोकहो मोर उस पारमपाती मुनिका प्रथम पिण्ड शुल्क रूपमें ग्रहण करो । तत्पश्चात् ( कस्कीकी बाजानुसार ) प्रथम पिण्ड ( पास ) मांगे जानेपर मुनीन्द्र तुरन्त प्रास देकर एवं अन्तराय करकं पापिस चले जाते है तथा प्रवधिजान भी प्राप्त कर लेते है । उस समय वे मुनीन्द्र अग्निल श्रावक, पंगुली धाविका और सर्वत्रों सायिकाको दुलाकर प्रसन्नचित्त होते हुए कहते है कि अब दुःषमाकालका अन्त आचुका है. हमारी और तुम्हारी प्रायु मात्र तीन दिनको अवरोष है और यह अन्तिम काकी है ।।१५४-१५५०।।
अन्तिम चतुर्विध संघका सन्यास ग्रहण एवं समाधिमरणसाहे पत्तारि बणा, बउबिह • माहार - संग - पहबोनं ।
जावली इंग्यि, सन्मासं करंति' भत्तीए ।।१५५१।।
मर्ष:-तब वे पारों ( मुनि, प्रायिका, श्रावक, भाविका ) जन पारों प्रकारके माहार भोर परिग्रहादिको जीवन भर के लिए छोड़कर संन्यास ग्रहण कर लेते हैं ॥१५११
१.व. ब. य. कह सो नागरि, स. उ. का मो मदि। २... ब. स. पावणवि ....... ज. प. उ.मेच्छेन । ४. ८.म.क. ज. प. उ. मम्मसिटीहि । ... समाधि। .....क. ब, इ.स. करताए।
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उषो महाहियारो
धर्म-व्यवस्थाका विनाश
कलिय बहुलस्ते, सादीसु विजयरम्मि उभिए । सणासा' सन्बे, पार्श्वति समाहिमदभाई ॥। १५५२ ।।
किय
गामा : १५५२ - १५५५ ]
-
अर्थ :- वे सद कार्तिक मास के कृष्णपक्षके अन्तमें ( अमावस्या के दिन ) सूर्यके स्वाति नक्षत्र के ऊपर उदित रहते संन्यास पूर्वक समाधिमरण प्राप्त करते हैं ।। १५५२ ।।
पर्यायान्तर-प्राप्ति-
उबहिबभाउ सो, सोहम्मे मुनिवरों तयो जायो । सम्मिय से तिन्गि जया, साहिय-पलियोमा उजुरा ।। १५५३ ।।
आवारों का
अर्थ:-समाधिमरण के पश्चात् वीराङ्गद मुनिराज एक सागरोपम मासे युक्त होते हुए स्वगमें उत्पन्न होते हैं और वे तीनों जन भी एक पस्योपमसे कुछ अधिक प्रायु लेकर वहीं पर ( सौधर्म स्वर्ग में ) उत्पन्न होते हैं ।। १५५३ ।।
राज्य (राजा) एवं समाज ( अग्नि ) व्यवस्थाका विनाश
तद्दिवसे मज्झव्हे, कय कोहो को वि असुर-वर-देवो ।
मारेदि कविरायं श्रम्मी खासेरि विणयरत्वमये ।११५५४ |
t
-
४७.
- उसी दिन मध्याह्नमें असुरकुमार जातिका कोई कुछ हुआ उत्तम देव उस कल्की राजाको मारता है और सूर्यास्त समयमें प्रग्नि नष्ट हो जाती है ।। १५५४१
सर्व कल्की एवं उपस्फियोंकी पर्यायान्तर प्राप्ति
एवमिगिवीस कक्को, उवकपको तेतिया य घनाए । जम्मति धम्म दोहा, जसणिहि उबमाण १७ वा ।।१५५५।।
·
अर्थ :- इस प्रकार इक्कीस कल्को और इतने हो उपकल्की धर्मका विद्रोह करने के कारण एक सागरोपम श्रासे युक्त होकर धर्मा पृथिवो पहले नरक ) में जन्म लेते हैं ।। १५४५५ ।।
१. व. ब. क.ज. प. उ. साहो । २. ६. ब. क. ब. व. पुता । ... 6. 4. 4. 7. ४. इ. स.ज. जु
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४४५ ]
तिलोपपम्णत्ती
[ गापा : १५५६-१५६२ पतिदुःषमा कालका प्रवेश और उसके उस्सेष आदिका प्रमाणबास-ए पह- मासे, पाले गलिम्सि पवितो तत्तो । सो अबिदुस्सम • जामो, छट्टो कालो महाबिसमो ।।१५५६॥
।वा ३. मा ८.दि १५ । पर्व :-इसके पश्चात् तीन वर्ष, आठ मास मोर एक पक्ष के बीत जाने पर महाविषम वह
मात
मा.नाम
छठाकाखा
H५५६॥
तस्स पढम - पवेसे 'ति-हत्य - बेहो आटु - हस्थो । तह बारह पुट्ठो, परमाऊ वीस पासानि ॥१५५७।।
:-उसके प्रथम प्रवेसमें शरीरको कैचाई तीन हाय अथवा साढे तीन हाप, पृष्ठभागकी हड्डियां बारह मोर उस्कृष्ट आयु बीस वर्ष प्रमाण होतो है ॥१५५७।।
इस कानके मनुष्योंका आहार एवं उनका स्वरूप चित्रण-- मूलप्स • मच्चाबी, सम्बा माणुसाग आहारो। ताहेपासा पल्ला, गेह - प्पाहुनी परा बीसति ॥१५॥ ततो बग्गा सो, भवन - बिहीणा व हिवंता । सव्वंग - मूम - बच्चा', गो धम्म - परामगा पूरा ।।१५५६॥ बहिरा अंधा कामा, मूका वारिह - कूट - परिपुग्णा। बीमा वागर • स्या, मामेवा हुंग्संठाना ॥१५६०॥ कुज्या वामन-सगुणो', गानारिय-नाहि-देयना-पियसा'। यह - कोह - लोह - मोहा, परराहारा सहाव-पाविट्ठा ।।१५६१॥ संबव-सजन-भव-धम-पुष-कलत - मित्त - परिहीमा । फर्निग - फरिख - केसा, सूपा लिपलाहि संघका ॥१५६२।।
१. प. न. 4 बुहत्ववेदनो, म. न. तिहत्पदामो। २. ६. प. मा. पाणे, क. प. ए. पाई। .... कन, य. स. बम्यो । . द. न. 5. प. य. उ. हमेशा । ५.६.क. . म.ग. सगुणा। ६..क. च. बिठला।
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गाया। १५६३ - १५६६ ]
त्यो महाहिम दो
[ ४४२
: उस कालमें सभी मनुष्योंका बाहार मूल, फल और मस्स्यादि होते हैं। उस समयके मनुष्योंको वस्त्र वृक्ष और मकान मादि दिखाई नहीं देखे, इसलिए सब मनुष्य न और मानव रहित होते हुए वनोंमें घूमते हैं। वे मनुष्य सर्वाङ्ग पुत्रवणं ( काले रंगके ). गोधर्मपरायण (पशुओं सह माचरण करने वाले), क्रूर, बहरे, अन्धे, काणे, गूंगे दरिद्रता एवं कुटिलता से परिपूर्ण, दीन बन्दर सा रूपवाले, अतिम्लेच्छ हुण्डकसंस्थान युक्त कुबडे, बौने शरीरवाले, नानाशकारकी ध्यानियों एवं येल्लासःमिल, अनमोल युद्ध नः लानेवाले, स्वभावसे हो पापिष्ट सम्बन्धी, स्वजन, बान्धव, घन, पुत्र, कलत्र और मित्रोंसे विहीन जू एवं लोस प्रादिसे आच्छल दुर्गन्ध युक्त शरोर एवं दूषित केशोंवाले होते हैं ।। १५५६ - १५६२ ॥
गति - आपति
नारय- तिरिय गीयो, भांगर जोबा हु एल्प सम्मति । मरिचून य अघोरे, निरए तिरियमिम जायते ।। १५६३ ।।
:- इस कालमें नरक और तिर्यञ्च गतिसे बाये हुए जीव ही यहाँ जन्म लेते हैं तथा महांसे भरकर वे अत्यन्त घोर नरक एवं तिर्यक गतिमें उत्पन्न होते हैं ।। १५६३ ।।
·
उच्छे-भाव-बिरिया, दिवसे दिवसम्म ताब होयते । इस्लाम तान कहिंदु को सबक
- उन जीवोंकी ऊँचाई, बायु और वीयं (शक्ति) दिन-प्रतिदिन होन होते जाते हैं। उनके दुःखको एक जिल्ह्वासे कहने में मना कौन समयं हो सकता है ? ( अर्थात् कोई नहीं ) ।। १४६४ ।।
प्रलय प्रवृत्तिका समय
-
एक जीहाए ।। १५६४ ।।
उजवण्ण-दिवस- बिरहिन इगिबीस-सहस्त्र वस्त-विश्वा' ।
जंतु भयंकर हालो, पलयो लि पयडूबे पोरों ।। १५६५ ॥
-
अर्थ :- उनणास दिन कम इक्कीस हजार वर्षोंके बीत जानैपर जन्तुओं ( प्राणियों ) को भयोत्पादक घोर प्रलयकाल प्रवृत्त होता है ।। १५६५ ।।
संवर्तक वायुका प्रभाव एवं उसकी प्रक्रिया
ताहे गएव गभीरो, पसरवि पवनो रउद्द-संबट्टी' । सद- गिरि-सिल-पहुबीनं, कुजेबि बुभ्णाद सत्त बिषे ।। १५६६ ।।
१.व.व.क. व.प.व. २. द. म. मोरे २.५...... बट्टा
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४५० ]
तिलोरपणाती
[ वाया : १५६७-१५७१ पर्व :-उस समय महागम्भीर एवं भोपण संवर्तक वायु पलती है, जो सात दिन तक वृक्ष, पर्वत और शिला आदिकको चूर्ण कर देती है ।।१५६६ ।
तरु-गिरि-भंगेहि गरा, तिरिया य सहति गुरुव-मुक्खाई।
इच्छति 'सरम - ठाणे, दिलवंति बप्पयारेनं ।।१५६७।।
पर्व:-पक्षों और पर्वतोंके टूटनेसे मनुष्य एवं तिथच महादुःख प्राप्त करते है तपा। शरण योग्य स्थानको अभिलाषा करते हुए बहुत प्रकार विलाप करते है KREENATiwari
पंगा - सिन्धु - पीचं, वेयर - वगंतरम्मि पविसति ।
पुह - पुह संखेमा, पाहतरि सयल - जुयलाई ॥१५६८।।
म:-इस समय पृथक्-पृषक संन्याप्त एवं सम्पूर्ण बहत्तर युगल गङ्गा-सिन्धु नदियोंकी पेदी पोर विषयाध-वनके मध्य प्रवेश करते है ।।१५६८।।
देवा विज्याहरमा, कारण - परा जराण सिरियाएं ।
संलेखन - जीव • रासि. शिति तेसु पएसेतु ।।१५।।
प:- देव और विद्याधर दयाई होकर मनुष्य और निमंचों से संख्यात जीव रातिको उन प्रदेशों में ले जाकर रखते है ||१५६६11
उनचास दिन पर्यन्त कुवृष्टिताहे गभीर - गल्ली, 'मेषा मुंपति हिम-शार जसं ।
विस - सलिल पसेप, पत्तक्कं सत्त दिवसाणि ।।१५७०॥
म:-उस समय नम्भोर गर्जना सहित मेप सीतल एवं क्षार जल तथा विष-जलमेंसे प्रत्येकको सात-सात दिन पर्यन्त बरसाते है ॥१७॥
धमो धूलो पज्य, जालंत • जाला कला व 'दुष्पेन्छे ।
बरिसति बलब - गिबहा, एकेक सत्त रिवसाणि ।।१५७१।।
प्रबं:--इसके अतिरिक्त मेघोंके वे समूह धूम, धूलि, बस एवं जलते हुए दुओम ज्वाला समूह, इनसे प्रस्बैकको सात-सात दिन पर्यन्त बरसाते हैं ।।१५७१॥
..... सटाण। २. स. ब. क. प्र. म. न. देशेन व... मी, क. भ. प. दुपेन्यो।
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गाथा : १५७२- १५७७ ]
उपो महाहिमा
कुवृष्टियोंके पश्चात् बायंखण्डका स्वरूप
एवं कमेण भरहे, अब्जा शम्म जोवर्ण एकं । बिताए उवरि ठिबा दक्झ बढि गया भूमी ।। १५७२ ।।
7
-
:--इसप्रकार क्रमशः भरसक्षेत्रके मध्य कार्य
वृद्धिङ्गत एक योजनकी भूमि जलकर नष्ट हो जाती है ।।१५७२ ।। बज्ञ-महणि-बसे प्रजा संस्स वया भूमी । रूबं मोसूचं जानि लोयं ।। १५७३ ॥
-
-
.
४. क. दुस्समार
-
·
पुल्लि
संध
वर्ष-वत्र और महा अग्नि बलसे श्रार्यखण्डकी बड़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्कन्ध स्वरूपको छोड़कर लोकान्त पर्यन्त पहुँच आती है, श्री आर की ट ताहे अज्जा संयं बप्पमतल - तुलिय- कंति-सम-पुटु ।
114 1.
गय धूलि पंक कसं, होदि समं सेस मुमीहि ।। १५७४ ।।
·
-
में चित्रा विवके ऊपर स्थित
•
अर्थ :- उस समय आर्यचण्ड शेष भूमियों के समान ददातलके सदृश कान्तिसे युक्त, पुढ
और भूमि एवं कीचड़ आदिकी कलुषतासे रहित हो जाता है ।। १५७४ ।।
उपस्थित मनुष्योंका उत्सेध आदि
१.ब.क. प. य. उ. हिमा । २.
[ ४५१
तत्युत्थिय - नराणं, 'हत्वं उपम्रो य सोलसं वस्सा ।
महा पण्णरसाऊ, विरियादी तख्वा य ।। १५७५ ॥
:- ( उस समय ) बड़ाँ उपस्थित मनुष्योंकी ऊंचाई एक हाथ, माधु सोलह वर्ष अथव पाहू वर्ष प्रमाण तथा शक्ति प्रावि भी तदनुसार ही होती हूँ ।। १५७५१
उत्सर्पिणी कालका प्रदेश और उसके भेद
ततो विवि रम्मी कालो उस्सपिरिण शि
पढमो असमी, बुद्दन्जलो इम्ब्रयो दुस्समानामा ।। १५७६ ।। दुस्समसुतमो दियो, चरत्वमो सुसमस्त पो नामा | पंचमओ सह सुसमो, जस्पपिओ सुसमसमभो
।। १५७७।।
2. 3. DÈ | 1, 1, K. 3. BE'L
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४५२ ]
तिलोयपणती [ गापा : १५७८-१५८० म:-इसके पापार उत्सपिणो ( इस ) नामसे विख्यात रमाय काल प्रवेम करवा है। इसके भेदों से प्रथम अविबुपमा, दितीय दुषमा, तृतीय पुषमसुषमा, चतुर्ष सुषमदुषमा, पाचवा सुषमा और छठा जोंको प्रिय सुषमसुषमा है ।।१५७६-१५७७।।
उत्सपिणी कातका काममानएवाग कालमान, अवसपिणि काल - मान-सारिकं । उच्चए - आ3 - पाहुबो, रिबसे दिवसम्मि बसें ॥१५७Et]
प्रश्दुस्समकाम वास २१००० । दुबास २१०००।
दुसममुसम सा १ को को रिणा वास ४२००० । REETससमदुसम हो
स र को कर मुसु सा ४ को को। ब :-इनका काल प्रमाण अवपिणी कासके प्रमाएसहन ही होता है। उत्सपिणी कालमें ( गरीरकी ) पाई और प्राय माथिक दिन-प्रतिदिन पकतो ही जाती है ॥१५७।।
विरोषा:-अयसपिणीकाम सा उत्सपिणीकालके अतिदुःपमाकासका · प्रमाण २१००० वर्ष, दुःखभाकालका २१००० वर्षे, दुःषमासुषमा कालका प्रमाण ४२००० यवं कम एक फोडाकोड़ी सागर, सुषमादुःषमाझा दो कोढ़ाफोड़ी सागर, सुषमाकालका तीन कोदाकोड़ी सागर और सुषमासुषमाकालका प्रमाण पार कोडाकोडी सागर है।।
सुवृष्टि निर्देषापुरसर मेघा ससिस, परिसंति विगाणिसव सह-जन।
वरमणिणाए ढा, भूमो सपला बि सीयलो होरि ।।१५७६।।
भ:-उत्सपिणी कासके प्रारम्भमें पुष्कर-मेष सात दिन पर्यन्त सुखोत्पादक जल परसाते हैं, जिससे वजाम्निसे जली हुई सम्पूर्ण पृथियो शोतल हो जाती है ।।१५०९।।
परिसंक्ति मोर-मेघा, खोर - असं तिमानि दिवसानि ।
खोर - लेह भरिया, सम्धामा होषि सा भूमी ॥१५८०॥
म:-क्षीर-मेघ उसने ( सात ) ही दिन पर्यन्त क्षीरजलको वर्षा करते हैं। इसप्रकार फोरजलसे भरी हुई यह पृथिको उत्तम कान्ति युक्त हो जाती है ॥१५६०।।
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गाषा: १५८१-१९८५ ] पउत्यो महाहियारो
[ ४५३ तत्तो पमिर-पयोग, ममिर परिसंति सस विवसानि ।
पमिदेणं' सित्ताए, महिए जाति 'पस्सि - गुम्माये ॥१५८१।।
अ :-इसके पश्चात् सात दिन पर्यन्त अमृतमेघ अमृतको वर्षा करते हैं। इसप्रकार अमृतसे अभिषिक्त भूमि पर मता एवं गुस्म आदि जगने लगते हैं 1.85 WEEEEEE
ताहे रस • जलवाहा, बिम्ब-रसं परिसंति सत्त-विधे।
दिबरसेगाउपणा, रसबंता होति ते सव्ने ।११५८२।।
प:-उस समय रम-मेघ सात दिन पर्मन्त दिव्य-रसको वर्षा करते है । इस दिव्य-रससे परिपूर्ण वे सब ( लता-मुल्म आदि ) रमवाले हो जाते हैं ।।१५५२॥
सष्टि रचनाका प्रारम्भ-- विविड रसोसहि-मरिया, समी सरसार-परिणवा होवि । ततो खोयल-गंध, गाविता णिस्तरंसि पर - तिरिया ।।१५८३॥
प:-विविध रसपूर्ण औषधियोंसे परो हुई भूमि मुस्वाद रूप परिणत हो जाती है। पश्चात् शीतल गन्धको महणकर वे मनुष्य मौर तिर्यम्ब गुफापोंसे बाहर निकल पाते हैं ।।१५८३।।
उस कासका रहन-सहन एवं आहारफल-मुस-वल-पहावि, हिरा हादति मत्त - पहावीणं ।
गगा गो - धम्मपरा, गर - सिरिया मन - पएसेसु ।।१५।।
अब उस समय स्त्री, मनुष्य मोर तिपंच नग्न रहकर पशुषों जैसा पावरया करते हुए बुषित होकर बन-प्रदेशों में मप्त ( धतूरे ) अादि वृक्षोंके फल, मूल एवं पत्त आदि खाते हैं ।।१५८४||
आयु आदिकका प्रमाण एवं उनकी वृद्धितकाल-पाम - भागे, आऊ पणरस सोलस समा बा।
उन्हो इगि - हस्पं, वसते मार • पदोरिण ॥१५८५।।
म।उस कालके प्रथम भागमें आयु पन्द्रह अथका सोलह-वर्ष पौर ऊंचाई एक हाथ प्रमाण होती है । इसके आगे मायु प्रादि बढ़ती ही जाती है ।।१५८५।।
उ. वसि।
३......... गावित।
......
.
...य. अमिदोणं । २. प.न, मिदं ।
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था:१५६६-१५८६
४५४ ]
तिलोयपग्णाली आक तेजो बुद्धी, बाहुबलं तह म बेह • उन्हहो ।
सति • विवि - प्पडमीमओ, काल • सहारेण बर्वति ।।१५८६।।
प:-मायु, तेज, डि, बाह ( भुजा ) बल, देहकी ऊंचाई समा एवं वृत्ति (पर्य) पादिक सम काल-स्वभावसे उत्तरोत्तर बढ़ते जाते है ।।१५८६॥
पतिदुषमा कातकी परिसमाप्तिएवं बोलीमेनु, इगियोस • बहस - संस - बासेतु। पूरेषि भरहोते, मातो अविगुस्समो नाम ॥१५॥
। अविएस्सम-काल समत। :--इसप्रकार इक्कीस हजार संख्या प्रमाण वर्ष म्पतीत हो जानेपर भरतक्षेत्रमें भतिदुःषमा नामक काल पूर्ण होता है ।।१५८७।।
. । अविदुषमाकास समाप्त हुआ । . दुषमाकासका प्रवेश और पाहारताहे दुस्सम-कालो, पविसपि तस्मि व मणव-तिरिमाएं। पाहारो पुध चिय, बीस - सहस्साहि पाच ॥१५॥
ब:-तब दुःषमा कामका प्रवेश होता है । इस कालमें मनुष्य-
सियोंको माहार बीस इमार वर्ष पर्यन्त पहलेके ही सहा रहता है ॥१५०८।।
आयु श्रादिका प्रमाणतस्स य पढम - परसे, बीस बासाणि होवि परमाक' । उपओ व तिलि हत्या, आउठ'- हत्या पति परे ॥१५८६।।
। २० । ३। । :-इस कालके प्रथम प्रवेशमें उत्कृष्ट श्रायु बीस वर्ष भौर ऊँचाई तीन हाप प्रमाण होती है। दूसरे भाचार्य ऊंचाई साडे सीम हाथ प्रमाए कहते है ।।१५।।
१.न.प.अप. उ. पुम्बयि , क. बम्बिय। २.प्र.ग. परमानो। ३. ५.ब.क. ज. प. च. पाहापा।
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त्यो महाहियारो
कुसकरोंकी उत्पत्तिका निर्देश
बास सहस्से सेसे, उप्पली कुलकराम महम्मि ।
अश चोइसा
गावा: १६६० - १x६४ ]
·
ताणं, कमेण नामानि बोच्छामि ।। १५६० ।।
फालके एक
वर्ष
११ उत्पत्ति होने लगती है। अज ( मैं ) उन कुलकरोंके नाम क्रमशा: कहता हूँ ।। १५९० ।।
चोद कुलकरोंके नाम एवं उनका उत्सेध
कमच कव्ययव्यह-कणराय कणयद्वजा को 'गलियों गलिनम्पह-जलिमराय ' - ज्ञमिद्धजा गरिन तो ।। १५६१ ।।
पउमप - पउमराजा, पउमलुज- परमपुस-यामा य ।
आदिम कुलकर उदग्रो, वड- हरयो अंतिमस्स सचदेव ।। १५६२॥
-
+
सेसानं उस्सेहे', संपति अम्हाण णतिय उदबेलो । कुलकर पहूदी जामा, एराणं हों
| ४ । ७ ।
अर्थ :- कनक. कनकप्रभ कनकराज, कनकध्वज, कनकपुंख ( कनकपुङ्गव ), नलिन, नलिनप्रभ नलिनराज, नलिनध्वत्र, नलिनपुंड ( नलिन पुजय ) पद्मप्रभ, पद्मराज, पद्मध्वज और पपुंख (पद्मपुङ्गव) क्रमाः ये उन चौदह कुलकरोंके नाम है। इनमें से प्रथम कुलकरके वारी की ऊंचाई चार हाथ और मन्तिम कुलकरकी ऊँचाई सात हाथ प्रमाण होती है ।। १४६१-१५६२ ।।
:- शेय कुलकरोंकी ऊंचाईके विषय में हमारे पास
जो कुलकर आदि नाम हैं. वे गुण ( सार्थक ) नाम हैं ।। १५१३ ।।
कुलकरों का उपदेश -
चीदह कुलकरों की
[ YIX
१. द. व.क. ज. य उ बोलीसो
।
पर उसने ४. ६. . . . . . वय
गुजमाना ।।१५६३ ।।
ताहे बहुविह-ओसहि-बुबाए' पुढवोए पाबको पस्थि ।
सह कुलकश मरा", उपदेसं वेति' विनयानं ।। १५६४।।
इस समय उपदेश नहीं है । इनके
२.८. . क. ब. उ. एप्पिएराव
१. प.व. क्र. ज.
५. . . . . . ठाणं । ६. द. वि. दाँत
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तिलोयपणती
[ गाथा : १५६५-१५६८ :- उस समय विविध प्रकारको प्रौषधियोंके रहते हुए भी पृपियो पर अग्नि नहीं रहतो, तब कुलकर विनयसे युक्त मनुष्यों को उपदेश देते हैं ॥१५६४||
मणिपूरण कुलह अग्गिं, पचेह अन्चाणि मुंजा बाहिन्छ ।
'परह विवाह बंधव - परिहारेण सोनं ॥१५६५।।
म :-मरकर भाग उत्पन्न करो मोर अन्न ( भोजन ] पकाओ । विवाह करो और बान्धवादिकके निमित्तसे इण्यानुसार मुखोंका उपभोग करो ॥१५॥
गरि विवाह - बिहीयो, बसे पडम लामो ॥१५॥
समकालो समयो । प:-जिन्हें कुलकर इसप्रकारको शिक्षा देते हैं, वे पुरुष प्रत्यन्त म्लेच्छ होते हैं । विशेष यह है कि परख कुलकरके समयसे विवाह-विधियां प्रचलित हो जाती हैं ।।१५६६।।
। इसप्रकार दुःपमाकालका वर्णन समाप्त हुमा । दुःषमसुषम कालका प्रवेश, उत्सेध भादिका प्रमाण एवं मनुष्योंका स्वरूपतातो दुस्समसुसमो, कालो पबिसेषि तस्स एवमम्मि । सग - हत्या उस्सेहो, वोसम्भहि सर्व आक १५६७॥
I७ । १२०1 प:-इसके पश्चात् दुःषमसुषमाकालका प्रवेश होता है। इसके प्रारम्भमें ऊंचाई सात हाप पोर मायु एकसौ बीस वर्ष प्रमाण होती है ।।१५६७१।
पुडी पडवीस, मनुवा तह पंच - वन - वह - गुग। मन्त्राप - विगय - लामा, 'संतुहा होवि संपन्ना ।।१५६८।।
प्र:-इस समय पृष्ठभागको हडियो बीबीस होती है तथा मनुष्य पांच वर्षवाले शारीरसे युक्त; मर्यादा, विनय एवं लज्जा सहित; सन्तुष्ट और सम्पन्न होते हैं ||१ ||
१.प.स.क.अ.पन. सरण। २...ब.क.काला तम्मता, प. काम सम्मता।.... .... .चा 1
क.
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गापा : १५६५-१६०३ ] परलो महाहियारो
__विदेह सदृत्त वृत्तिका निर्देशतबकाले तिस्पयरा, परपीस हर्षति तांब पदम-जिलों ।
मंतिल - कुलकर - सुबो, विदेहयती सणे होरि ॥१५६६॥
मर्थ :-- इस कासमें भी तीर्थकर चौबीप्त होते हैं। उनमेंसे प्रथम तीर्थकर पन्तिम कुसकर का पुत्र झेलर हैउस सरकार का निदेशाला चि हो सस्पटले है ।।१५५६।।
चौबीस तीर्यकरों के नाम निर्देशमहपउमो सुरांनो, सुपास - जामो सयपहो तह य । सध्यपहो देवसुबो, कुलसुन • उवका या पोद्विसाम्रो ॥१६००।
जयकिसी मुनिसुब्बप-अरब-अपापा म णिक्कसायाम्रो । दिउसो निम्मल - णामा, अवित्तगुत्तो समाहिगुप्तो म ॥१०॥
।६। उगवीसमो सयंभ, अगिमडी जपो य विमल पामो य । तह देवपाल - गामा, अनंतपिरिमोघ होवि पउबीसो ॥१६०२।।
प:- महापप, २ सुरदेव, ३ मुपाय, ४ स्वयंप्रभ, ५ सर्वप्रथर सारमधूत), देवमुत, कुलसुत, ६ उवा ( उद), ६ प्रोनिल, १ जयकीति, ११ मुनिसुबत, १२ पर, १३ मपाप, १४ मिपाय, १ विपुल, ११ मिल, १७ चित्रगुप्ता, १८ समाधिगुप्त, १५ स्वरमा १. अभिवृत्ति (पनियतक), २१ जय, २२ विमल, २३ देवपाल और २४ अनन्तबोयं ये चौबीस तीर्थकर होते हैं ॥१५०-१६०२॥
इन तीर्थकरोंकी ऊंचाई, माय भोर तोपकर प्रकृति बंधके लव सम्बन्धी नाम
प्राविम-बिन-उपास, सग - हत्या सोलमुत्तरं च सई । परिमस्स पुम्बाकोगे, माऊ पग-सय - अनूमि उस्सेहो ।।१६०३॥
।७।११६ पु को । । ५०० ।
१.प.क.क.स. गिण।
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४५८ ]
तिलोयपत्ती
[ गाया : १६०४-१६०८
:--इनमेंसे प्रथम तोर्थंकरके शरीरकी ऊंचाई सात हाथ और बायु एकसो सोलह वर्ष तथा अन्तिम तीर्थंकरकी आयु एक पूर्वकोटि और ऊंचाई बसी धनुष प्रमाण होती है ।। १६०३॥
उन्हाऊ पहुबिसु, सेवाएं हि एमियर जिना, तरिय सबै तिभुवणस्स
अम्म्ह
·
·
तिरवयर नामकस्म, संघते ताग से इसे लेगि सुपासणीमा 'उदक पोहिल
। ५ ।
चिम- पाबिस-संखा, य मंद सुगंगा ससंक सेवगया । "पेमगतोरण-रेवद- किन्हा सिरौ भगलि-विगलि-मामा ।। १६०६ ।।
-
तो ।
लोहकरं ।। १६०४ ।।
→
। १४ ।
दोबावण - माणवका, नारद णामा सुत्वरती य ।
-
सच्च पुलो परिमो, नरिंग सम्मि ते जावा ।।१६०७।। आर्य श्री सुधारीत
। ५ ।
-
तिस्पवरा भरहो अ
नामा | वसूया ।। १६०५।।
भ्रम :- शेत्र सो करोंकी ऊंचाई और भायु इत्यादि विषयमें हमारे पास उपदेश नहीं है। ये तीर्थकर जिनेन्द्र तृतीय भवमें तोनों लोकोंको वाश्चर्य उत्पन्न करनेवाले तीर्थंकर नामकर्मको
1
बांधते हैं। उनके उस समयके ये नाम ये हैं
१. . . .
ब. पाम बदकाय मेघ
१ श्रेणिक २ सुपावनं ३
४ प्रोसि ५ कृतसूर्य (कट), ६ त्रिम, ७ पाविल ( ) ६ नन्द, १० सुनन्द, १९ पापा. १२ सेवक, १६ प्रेमक, १४ मतोरण, १५ रेक्स, १६ कृष्ण, १७ खीरी ( बलराम ), १८ भगति १६ विगलि २० ग्रीपायन, २१ मा २२ नारद. २३ सुपर और अन्तिम २४ सात्यकिपुत्र । ये सब राजवंश में उत्पन्न हुए में ।। १६०४-१६०७ ।।
भविष्यत् कालीन मवतियोंके नाम
काले, चमकहरा होंति ताण नामाई । धितो, मुततो य गूढ
।।१६०६ ।।
२. ८. उ. भिय न संमियम क्र. उपेगरी साम मका, शाम बदकिन्छ ।
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मार्च: आचार्य श्री वि
गाथा : १६०१-६६१३ ]
यो महाहियारो
सिरिसेयो सिरिमूबी सिरिकतो परमनाभ महपउभा । तह विवाह विमलवाहको रिठ्ठसेन जामा म ।।१६०६ ।।
:- ( उपर्युक्त ) तीर्थंकरों के समयमें जो चक्रवर्ती होते हैं, उनके नाम ये हैं- भरत, दोदन्त, मुक्तवन्त, गुरुदन्त, श्रीषेण श्रीभूति, श्रीकान्त, पद्मनाभ महापद्म चित्रवाहन. विमलवाहन भोर प्ररिसेन ॥१६०८ - १६०६१।
भविष्यत् कालीन वनदेव नारायण और प्रतिनारायणों के नाम
चंदो' म महाचंदरे, चंदयरो चंदसिंह "वरदा । हरियो सिरियंबो, सुपुष्ण धंचो सुचंवों य ।।१६१० ।।
पुष्ण पाहि ।
पुरुवभवे अणिक्षणा, एबे जायति अबुजा कमसो जंवो तह गंवि मिस सेवा ।। १६११ ।।
-
रिमो य बिभूवी, बल-महबल अदिबला तिथिय ।
जयमो विविदु नामो, ताणं जायंति जबम पडिस । ११६१२३
सिरि-हरि-गीलंकंठा, अस्सकंठा सुरु सिखिकंठा
सागीय हृयाणीव, "मउरगीवा य परिसर || १६१३॥
-
I
-
-
[ ४५e
८
अर्थ :- १ पन्द्र २ महाचन्द्र ३ चन्द्रधर (चक्रघर ) ४ चन्द्रसिंह, ५ वरच, ६ हरिचन्द्र ७ श्रीचन्द्र पूर्णचन्द्र और १ सुचन्द्र ( शुभचन्द्र ) ये नव बलदेव पृष्यके उदयसे होते हैं क्योंकि ये पूर्वभव में निदानयंध नहीं करते। १ नन्दी २ नन्दिमित्र ३ नन्दिसा, ४ जविभूति, ५. स. ६ महाबल ७ अतिवस, त्रिपृष्ठ और द्विपृष्ठ. ये नव नारायण रूमः उन वलदेवोंके अनुज होते हैं। इन नौ नारायणोंके प्रतिशत्रु क्रमशः १ श्रीकण्ठ र हरिकण्ठ ३ नीलकण्ठ ४ प्रकण्ठ, ५ सुकण्ठ, ६ शिखिकण्ठ, ७ अवीव हयग्रीव और ६ मयूरीब है ।। १६१०-१६१३ ।।
६. ६. ब. क. ज. यदा । २. द. व. म. ज. य. बंदी य पद्ममादिवम तिमिच्छा । ४. ४. ब. लोकठाएकाकंठ . सुकंठा, ज. सिरिहरणीनंकं कंद्राय वर्कशप कंठ य सिरिहरिरि
कंठा साठा ५.क.ज. प. व मदोषा ।
५. द. न. इ. ज. प. उ.
एक कंठाय सकंठाय सुबह व. मिि
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तिलोयषपाती
[ तालिका : ४१
४६. ] तासिका :४१
भावी शलाका
कुलकर
लोर्थकर
|
पूर्वले तीसरे भत्रके
नाम मा० १५६१-६२
नाम गा० १६००-१६.२ | क्र.
नाम गा० १६.५-१६.७
कनक
महापत्र
यरिएक सुपाव
कनकप्रम
सुरदेव
कनकध्वज कमक पुष (पुगव) |
नलिन नलिनप्रम नलिनराज
नलिनध्वज नलिनपुंछ ( पुगव) |.
पचप्रभ पूपराज
पंपध्वज एपपुस ( पुगव)
प्रोष्टिल कृतसूर्य ( कटयू)
क्षत्रिय पाविस (अंडी)
शक्ष नन्द
REEEEE:
स्वयंप्रम सर्वप्रम (सर्वारमभूत)
देवसुत कुलसुत उदफ (उदय)
प्रोष्ठिल जयकोति मुनिसुक्त
भर प्रपाप निकषाय विपुल निर्मल चित्रगुप्त समाषिगुत्र
स्वयम्भू अनिवृत्ति (अनिवर्तक) |
जय विमल देवपाल अनन्तवोयं
सुनन्द
मक्षाङ्क सेवक प्रेमक अतोरह रवत
कृष्ण सोरी (बलराम)
मलि विगलि द्वीपायन मारणवक
नारद मुरूपदत सात्यकिपुत्र
F
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तानिका : ४१ ]
पडत्यो महाहियारो
[
४६१
पुरुष
बलभद्र
नारायस
प्रतिमा
चक्रवती |
नाम गा.१६०८-१६०६
भरत
क.
नाम गा.१६१०
|
नाम
| नाम । गा. १६११-१२।
नन्दी
मन्दिषे नन्दिभूति
मुक्तदन्त गूढदन्त श्रीपेण थीभूति श्रोकान्त पपनाभ महापण चित्रवाहन विमलवाहन मरियसेन
चन्द्रपर (चक्रपर)
पन्द्रसिंह वस्वन्द्र हरिचन्द्र श्रीचन्द्र
पूर्णचन्द्र सुचन्द (शुभचन्द्र
श्रीकण्ठ हरिकण्ठ नीलकण्ठ अश्वकण्ठ
मुकण्ठ शितिकण्ठ अश्वग्रीय हयग्रीव मयूरीव
महाबल अतिबल त्रिपृष्ठ हिपृष्ठ
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४६२ ]
तिलोयगणाती
[ गाथा : १६१४-१६१८ शलाका पुरुषोंकी उत्पत्तिका समयएरे तेसहि - गरा, सलाग - पुरिसा ताण-कालनि । उम्पनलिकमसो, एकोहि - उवम-कोडकोडीमो ॥१६१४॥
सा १ को को। पर्य :-ये तिरेसठ (२४ तीर्थ+१२ चक्र०-k+t + E) शलाका पुरुष एक कोडाकोड़ो सागर-प्रमाण इस तृतीयकालमें क्रमपा: उत्पन्न होते हैं ।।१६१४।।
इस कालके अलमें आयु धादिका प्रमाणएक्को नवरि विसेसो, बाबाल-सहस्स-बास-परिहीणो' । तरिमम्मि गरा, प्राक इगि धुम्बकोरि-परिमाणं ॥१९१५॥ पणवीसामहिपाणि', पंच सयालि घभूणि अच्छहो । पाउसट्ठी पुढाही. गर • गारो देव - अच्छर - सरिन्छा ॥१६१६॥ ।स्सममुसमो समयो ।
डाकासासागरापम कालमस बयालास हजार वर्षे हीन होता है। इस कालके अन्समें मनुष्यों को प्रायु एक पूर्वकोटि प्रमाण कंपाई पाचसो पच्चीस धमुष और पृष्ठ मागकी हडियो पोसठ होती है । इस समय नर-नारी देवों एवं अप्सराओंके सदृश्य होते है ॥१६१५-१६१६॥
। दुःषमसुषमा कालका वर्णन समाप्त हुआ । चतुर्पकामका प्रवेश पोर प्रवेश कालमें प्रायु नादिका प्रमाणसत्तो पवितदि सुरिमो, गामेभ मुसमबुस्समो कालो । तप्पडमम्मि पराणं, प्राऊ पासान पुचकोडोमो ।। १६१७॥ ताहे ताणं ववया, पणवीसाभाहिय पंचसय चाया।
कमसो प्राऊ · उदया, काल - बलेणं 'पवति ।।१६१८॥
प:-इसके पश्चात् सुषमदुःषमा नामक चतुर्थकाल प्रविष्ट होता है। इसके प्रारम्भमें अनुष्योंकी घायु एक पूर्वकोटि प्रमाण और ऊंचाई पचिनो पच्चीस धनुष प्रमाण होती है। पश्चाद कालके प्रभावसे प्रायु और ऊँचाई प्रत्येक उत्तरोत्तर क्रमस: बढ़ती ही जाती है ।१६१५-१६१८।।
•
-...
....
-
१. द... क. ज. य. व. परिहोगा। २. द. ब. क. ज. प. उ. दियाएं। ३. ब. पर्वते, क. प. पत, म. उ. पबढते ।
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गाथा : १९१६-१६२३ ] बजत्यो महाहियारो
[ ४६३ अषम्य रोगभूमिका प्रवेश एवं मनुष्योंकी आयु प्रादिका प्रमाणताहे एसा' यमुहा, बनिया अबर - भोगभूमि सि ।
सम्वरिमम्मि परानं, एक्कं पल्लं हरे आक ||१६१६ माम उस समय साथिको अन्य मोगभूषि कही जाती है । इस कालके अन्तमें मनुष्योंकी आयु एक पल्य प्रमाण होती है ।।१६१६।।
उबएण एक - कोसं, सब - जरा ते पियंगु-चण्ण-सुवा ।
सत्तो पविसवि कालो, पंचमओ सुसम - जामे ।।१६२०।।
म:-उस समय वे सब मनुष्य एक कोस ऊँचे और प्रियंगु मे वर्णसे मुक्त होते हैं। इसके पश्चात् पापा सुषमा नामक कान प्रविष्ट होता है ।।१६२०।।
सुषमा नामक मध्यमभोगभूमिके मनुष्योंकी आयु आदि-- तस्स पहम-पवेसे, आउ - हयोगि होति पुष्वं वा।
काल - सहावेण तहा, बड्को मधुव - सिरियानं ॥१६२१॥
प्रबं:--उस कालके प्रथम प्रवेसमें मनुष्य-तियंम्वोंकी अन्य प्राधि पूर्वके ही समान होती है, परन्तु काल-स्वभावमे बह उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है ।।१६।।
ताहे एसा भोगी, मनिमम - भोगावनिति विसावा ।
तम्बारिमम्मि परान, पाऊ वो - पहल परिमाणं ।।१६२२॥
मई-उस समय यह पपिवी मध्यम-भोगभूमिके मामले प्रसिद्ध हो जाती है। इस कान के अन्तमें मनुष्योंको आयु पो पल्य प्रमाण होती है ।।१६२२।।
पो कोसा उलेहो, गारि गरा पुगमिड-सरिस-मुहा । बहुविषय • सीलबंता, विनिय - चाउट्टि - ही ।।१६२३।।
। सुसमो समतो'।
१. घ. २. क. ग. 4. घ. नावे हेमा । २, ८, क. ज. प. उ. पुम्मन्ह । ३. प. प. . सुलमपुस्मार
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45
४६४)
तिखोपपणती - [गाया : ११२४-१६२८ प:-( उस समयके ) नर-नारी दो कोस ऊच, पूर्ण सहरा मुखमाले, बहुत विनय एवं डीलसे सम्पत्र पौर पृष्ठभागकी एकसो अट्ठाईस हड़ियों सहित होते हैं ॥१६२३।।
। सूधमाकासका कपन समाप्त हुपा ।
सुषमासुषमाकालका प्रवेश एवं उसका स्वरूप-- . सुसमसमाभिषाणो, तहे पविसेवि मो कालो ।
तस्स पढने पएसे, श्राऊ - पहुवीणि पुष्वं व ॥१५२४।।
प्रर्ष : तदनन्तर सुषमसुषमा नामक का काल प्रविण होता है। उसके प्रथम प्रवेशमें पायु मादिके प्रमाण पूर्वके सड़म ही होते हैं ।।१६२४॥
काल-सहावमलेन, पढ़ते सार मनुब - हिरिया।।
ताहे एस परिसी, उत्तमभोगावणि सि सुपसियो ।।१३२५॥
प्रबं:-काल स्वभावके प्रभावसे मनुष्य मोर तियंगोषी आयु आदिक कमश: इरिङ्गत होती जाती है । उस समय यह पृषिषी उत्तम-ओगभूमिक नामसे सुप्रसिब हो जाती है रिश
तरिमम्मि गरागं, पाक पल्सत्तय - प्पमारणं ।। ___. उरएण तिगि कोसा, उज्य - विरिणामाल - सरोरा ॥१६२६॥
प्रबं :--उस कालके मम्समें मनुष्योंकी मायु तीन पल्प-प्रमाण और केंचाई तोन कोस होती है वमा मनुष्य उदित होते हुए सूमं सरल उज्ज्वल शरीर वासे होते हैं ।। १६२६||
के - सब अपनाई पड़ी होति ताग मगुवान ।
बहु - परिवार - बिगुम्मण - समात्य • सत्तीहि संयुत्ता ॥१६२७॥
प:-उन मनुष्योंके पृष्ठ-भागकी हरियो दोसो छप्पन होती है. सचा वे भमुख्य बहत परिवारको विक्रिया करनेमें समर्ष ऐसी शक्तियों से सहित होते हैं ।।१६२७।।
पुनः अवपिगीका प्रवेश. ताहे परिसर निममा, कमेन अबसपिपिति सो कालो। .
एवं भज्या - खरे, परिपट्टते - काल • पकानि ॥१६॥
प:-इसके पश्चात् पुनः नियमसे बह अवपिरणीकाल प्रवेश करता है। इसप्रकार मार्गबण्डमें उत्सपिणी पोर अवपिणो रूपी कासमक्र प्रवर्तित होता रहता है ।।१६२८॥
नोट-कालचक्रको दर्शाने वाला चित्र गाथा ३२३ के बाद अंकित है।
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गावा: १६२६-१६३३ ] पस्यो महाहिमारी
पाच म्लेच्छखण्ड और विद्याधर श्रेणियों में वर्तमान कालका नियमपन-मेच्छ-सयरसेक्षित, प्रवासप्पस्सपिणोए तुरिमम्मि ।
तदियाए हाणि - अयं, फमसो पदमा चरिमो ति ॥१६२६॥
प्रचं:-पाच म्लेच्छ खण्डों और विद्याधर-श्रेणियों में प्रवसपिणी एवं उत्मपिणीकाप्लमें क्रमशः चतुर्य और तृतीय कासके प्रारम्भसे अन्त-पर्यन्त हानि एवं वृद्धि होती रहती है । (अर्थात् इन स्थानोंमें मवसपिणीकालमें चतुर्पकालके प्रारम्भसे मन्त-पर्यन्त हानि मोर उत्सपिाणी में तृतीय कालक प्रारम्भसे वन्त तक वृद्धि होती रहती है । यहाँ अन्य कालोंको प्रवृत्ति नहीं होती ) ॥१६२६।।
उत्सपिएसके प्रतिदुषमा मादि तोन कालोंमे जीवों को संख्यावृद्धिका क्रम
उस्सपिचोए प्रमाखरे अदिगुस्समस पदम - सगे।
होति हरगर - तिरियाणि, जीया सम्माणि योबाणि ॥१६३०।।
पर्व :-आर्यखण्डमें उत्सर्पिणीकालके अतिदुःषमाकालके प्रपम भणमें मनुष्यों और तिर्यों में सब जीव अल्प होते हैं ।।१६३० ।।
ततो कमसो बहवा, मणुवा तेरिन्छ-सयल-प्रियतमा ।
सप्पजति ४ जाप य, दुस्समसुसमस्स बरिमो सि ।।१६।१।।
म :-इसके पश्चात् पुनः कमशः दुषमसुषमाकालके अन्त पर्यन्त बहुतसे मनुष्य तथा सकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय तियन जीव उत्पत्र होते हैं ।।१६२१॥
एक समयमें विकलेभियोंका नाशा एवं कल्पवृक्षों की उत्पत्तिणासंति एक्क-समए, वियतना-मंगि-णिवह-कुल-मेया।
तरिमस्स पहम - समए, कल्पतरुणं पि उम्पती ।।१६३२।।
अर्थ :- तत्पश्चात् एक समयमें विकन्दिर प्राणियों के समूह एवं कुलभेद नष्ट हो जाते है तथा चतुर्षकालके प्रथम समय में कल्पवृक्षोंकी भी उत्पत्ति हो जाती है ।।१६३२।।
पवितति मणव-तिरिया, जेत्तिय-मेला अहल्ग-भोगणिति । लेखिय - मेता होति , घरकाले भरह - एरवे ।।१६३३।। .-..- .. - . .. -- १. द... क. प. य. उ. गिर।
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४६६ ] तिलोयपष्णाती
[ गापा : १६३४ पर्य :-जितने भनुष्य पौर तिर्यस्य (चतुर्पकास स्वरूप ) अषन्य मोगभूमिमें प्रवेश करते हैं उतने ही जीव सह काखोंके भीतर परत ऐरावत क्षेत्रोंमें होते हैं ।।१९३३।।।
निवार्य :- अवपिणीके प्रतिदुःषमाकालके अन्तिम ४ दिनों में पशुप्त वर्षा होती है। उस समय विद्याधर मोर देन मनुस्य एवं तिचोंके सुख सगालोको विजयाई और मुंगा-सिन्धुको पेदी स्थित गुफाओं में रख देते है ( गा० १५६६ ) । उत्सपिरणोके अतिदुःषम कालके प्रारम्भमें सुवृष्टि होमेके बाद वे जीव वहासे बाहर निकलते है ( मा० १५८३), जो संख्यामें पति-अल्प होते है, इसी कारण उस समय भरलनोरावत क्षेत्रों के प्रार्यस्खण्डोंमें मनुष्यों मार तिर्योंकी संम्पा भति-अल्प होती है (गा० १६३०)। उसके बाद अतिदुःषमा, दुःवमा और दुःषमसुषमा अर्थात् पहले, दूसरे और तीसरे कालके मन्त-पर्यन्त मनुष्यों तथा सकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवोंका यह प्रमाण बढ़ता जाता है। प्रति दुःवममुषमाके अन्त तक इनको उत्पत्ति होती रहती है ( गा. १६३१)। इसके पश्चात् मुषमःषमा नामक पर्ष कालके प्रथम समयमें ही विकलेन्द्रिय प्राणियों का विनाश हो जाता है और कल्पवृक्षोंकी उत्पत्ति हो जाती है ( 41० १६३२) क्योंकि उस समय कर्मभूमिका तिरोभाव और भोगभूमिका प्रादुर्भाव हो जाता है।
मरस-ऐरावत क्षेत्रों के मार्यचण्डोंमें बतुषंकाल स्वरूप इस जघन्य भोगभूमिमें जितनी संख्या प्रमाण मनुश्य और तिर्यच प्रवेश करते हैं, उतने ही जोव उत्सपिणो सम्बन्यो । सुषमदुःषमा, २ सुषमा और ३ मुषमसुषमा सवा भवसपिरणो सम्बन्धी ४ सुषमसुषमा, ५ सुषमा और । सुवमदुःषमा इन छह कालों में रहते हैं । गा. १६३३ ) । इन छह कालोंने अपान १ कोजाकोड़ी सागर पर्यन्त इन जीवोंको संख्या हानि-द्धि नहीं होती है कारण कि उस समय मनुष्य और तिमंच युगक्ष रूपमें ही अम्म लेते हैं और युगलपमें ही मरते हैं ।
विकतेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति एवं वृद्धि-- अबसप्पिणीए दुस्समसुसम - पवेसस्स पहम समम्मि । विलिनिय - उप्पची, बढी जोशण घोष • कासम्मि ॥१६३१
मई :-अवसपिणी कालमें दुःषमसुषमा ( चतुर्य ) कालके प्रारम्भिक प्रपम समयमें हो विकलेन्द्रिय जीवोंको उत्पत्ति तथा थोडे ही समयके भीतर उनको पनि होने लगती है ।।१६३४॥
विरोरा:-भोगभूमि सम्बन्धी उपयुक्त तीन-तीन वर्षात् छह काल व्यतीत हो पानेके बाद दुषमसुषम ( चतुपं) काल के प्रारम्भिक समयमें ही विकलेग्गिय औयों की उत्पत्ति हो जाती है।
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चउत्यो महाहवारी
कमसो बति हु सिय-काले मनुव-तिरिमाणमवि' संखा । तो उस्सप्पिणिए, तदिए वङ्गति पुण्यं वा ।। १६३५ ।।
गावा : १६३५ - १६३६ ]
अर्थ :- इस प्रकार तीन कालोंमें मनुष्य और तिथेच जीवोंको संख्या क्रमशः बढ़ती ही रहती है। फिर उसके पश्चात् उत्सपिणीके तीन अर्थात् प्रतिदुःषमा, दुःषमा भौर दु:षमसुषमा कालों में भी पहले सदृश ही वे जीव वर्तमान रहते हैं ।। १६३५ ।।
श्रवसर्पिणी- उत्सारणीकामोंका प्रमाण
अवसपिणि उस्सप्पिणि-काल-विम रहट घटियाए ।
होलि भरताना भरने रावर लिस्म पुर्व १११.६३६५
आप की अर्थ :- भरत और ऐरावत क्षेत्रमें रैहद घटिका न्यायसे भवसपियो मौर उस्सपिटी काल अनन्तानन्त होते हैं । ( अर्थात् से रहटको घड़ियां यत् घूमती हुई बार-बार ऊपर एवं नोचे प्राती-जाती है, उसोप्रकार अवसर्पिणीके बाद उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणीके बाद अवसर्पिणी इस क्रमसे सदा न कालका परिवर्तन होता ही रहता है ) || १६३६ ।।
gurrafort कालका निर्देश एवं उसके चिह्न -
सपिरि उस्सपिरिंग-काल-सलाया गढ़े असंलागि । डासपिणी "सा, एक्का आएवि तस्स विमिमं ॥। १६३७ ।।
वर्ष :- असंख्यात अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी कालकी शलाकाएं बीत जानेपर प्रसिद्ध एक हुकावसपिरी आती है; उसके चिह्न ये हैं ।। १६३७।।
"सस्सि पि सुसमदुस्सम कालस्स *ठिविम्मि बोध-अवसेसे ।
fafe पाउस पडो विर्यालविय जीव उप्पती ॥१६३८ ।।
[ ४६७
·
वर्ष :- इस हुण्डावसपशो कालमें सुषमदुःषम (तृतीय) कालको स्थितिमें कुछ कालके अवशिष्ट रहने पर भी वर्षा श्रादिक पड़ने लगती है और विकलेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति होने
लगती है ।।१६३८ ।
बाबाशे होदि कम्मभूमीए ।
कप्तान विरामो सक्काले जायंते, पदम बिरयो पदम - चक्की य ।।१६३६॥
-
1. «. 4. faflugfa, «. «. v. lakusfe) 3, 1, 4, 5, 1, 4. 3. ÀÌí य. उ. तर ४... स. प. उ.मिविग्मि ।
१.व.व. क्र. प.
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४६८ ]
तिलोपती
मा
अपने श्री
अर्थ :- इसी कालमें कल्पवृक्षोंका अन्य और कर्मभूमिका व्यापार प्रारम्भ हो जाता है तथा प्रथम तोथंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं ।।१६३९ ।।
फिल्स विजय भंगो, लिम्बु गमनं च बोव-जीवानं । चक्कधराज' विज्ञानं, हवेदि वंसस्स उप्पत्ती ॥१६४०॥
[ गाथा १६४० - १६४२
अर्थ :- चक्रवर्तीकर विजय भङ्ग पोर (तृतीय कालमें ही ) थोडेसे जीवोंका मोक्ष नमन होता है, तथा चक्रवर्ती द्वारा द्विजोंके वंश ( ब्राह्मण वर्ण ) की उत्पत्ति भी होती है ।। १६४० ।। दुस्समसमे काले सट्टामा सलाय पुरिसा व नवमाबि - सोलसंते, सचसु तिस्सु धम्म वोच्छेदो ।। १६४१ ।। अर्थ :- दुःषमासुषमा कालमें अट्ठावन ही खलाका पुरुष होते हैं और नोसे सोलहवें तीर्थंकर पर्यन्त सात सीपोंमें धर्मकी युति होती है ।। १६४१ ।।
-
विशेवार्थ :- प्रत्येक उत्सपिरो अवसर्पिणी कालमें ६३ जीव तीर्थंकर चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण और प्रतिनारायण पदको धारण करनेवाले शलाका पुरुष होते हैं।
* वर्तमान हुण्डावरूपिणी कालके चतुर्थकास में शाका पुरुषोंकी संख्या ५८ है । भगवान् भादिनाथ तीसरे कालमें ही मोक्ष चले गए थे और शान्तिनाथ, कुन्युनाथ तथा अरनायके जीव एक ही समय में तीर्थंकर भी में भोर चक्रवर्ती भी थे तथा प्रथम नारायण त्रिपृष्ठका जीव हो अन्तिम तीर्थंकर महावीर हुआ । इसप्रकार अलाका जोवोंकी संख्या ५८ हुई ।
* वर्तमान हुवावरूपिणीकालमें तीन तीर्थंकर एक ही समय में दो पदधारी हुए वा भगवान् महावीरका जीव नारायण मौर तोयंकर इन दो पदोंका धारक हुआ । इसप्रकार इस कालमें चार जीव दो पदोंके धारक होनेसे शलाका जीवों की संख्या ३९ हुई।
·
* यदि प्रादिनाथ भगवान्के तीसरे कालमें मोक्ष यमनकी विवक्षा न की जाय और भगवान् महावीर के पूर्वभव ( त्रिपृष्ठ नारायण ) की विवक्षा भी न की जाय तो इस हुण्डावसर्पिणीकाममें केवल सोम तीर्थंकर दो पदधारी होनेसे शलाका पुरुषोंकी संख्या ६* हुई ?
एक्करस होंति दद्दा, कलह-पिया गारवा व लव-संज्ञा ।
सक्षम
बोतिम तित्वमराणं च बग्गो ।। १६४२ ।। :–प्यारह रुद्र भौर कलह-प्रिय नौ नारद होते हैं तथा सातवें, तेईसवें और भक्तिम तीर्थंकर पर उपसर्ग भी होता है ।।१६४२ ।
१.क.उ.राम्रो विवा ।
7
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गाथा । १६४३-१६४५ ] पउत्थो महाहियारो
[ ४ER सदिय - बा - पंचमेस, कालेस परम-धम्म-मासयरा । विविह - कुश - कुलिंगी, दीसत छ - पापिट्ठा ।।१६४३॥ चंडाल-सबर-पाणा, पलिव-बाल-चिलाय' पनि कुला। बुस्समकाले करती, उबकाको होति बाराला ॥४॥
म:-तृतीय, चतुषं एवं पंचम कालमें उत्तम धर्मको न करने गाले विविध प्रकारले दुष्ट, पापिष्ठ, कुदेव और कुलिङ्गी भी दिखने लगते हैं, पान्डाल, शबर, पारण ( स्वपम), पुलिन्द्र, साइल और किरात भादि जातियां उत्पन्न होती है, तथा दु:षमा कालमें बयालीस कल्को एवं उपकल्को होते हैं ।।१६४३-१६४
:.. Aarti atar Tre आह - मनावट्ठो, मुबाढी बका-प्रमिा-पमूहा य । बह नानादिह - दोसा, विचित - मेवर हर्षति पुढे ॥१६४५॥
। एवं काल-विभागो समतो।
।। एवं भरहवेत पल्मन' समत्त । k:-प्रतिवृष्टि, बनावृष्टि, भूपदि पोर वचाम्नि प्रादिका गिरना, इत्यादि विचित्र भेदों सहित नानाप्रकारके दोष इस झुम्हावरूपिणी-कालमें हुआ करते हैं ॥१६॥
। इसप्रकार काल विभागका कथम समाप्त हमा।
[ भरतक्षेत्र का चित्र पृष्ठ ४७० पर देखिये ]
। इसप्रकार भरतक्षेत्रका प्ररूपण समाप्त हुआ ।
१. व........ व. र. मस्सए।
। २.२.क.उ. विलास, ह.ब.प. मिला। .......
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[ गापा : १६४५
भरत क्षेत्र
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त्यो महा हियारो
हिमवान् पर्वतका उत्सेध, अवगाह एवं विस्तार
समुच्छे हिमवं लुल्लो पनुबीस जोयम्बेहो' । विषमेण सहस्तं वावण्णा बारसेहि भागेहि ॥। १६४६ ॥
P
। १०० । २५ । १०५२३ ।
:- शुद्र हिमवान् पर्वतकी ऊँचाई सौ योजन अबगाह पच्चीस पोजन और विस्तार एक हजार बावन योजन तथा एक योजनके उत्तोम भागों से बारह भाग अधिक है ।। १६४६ ।। हिमवान् पर्वतकी उत्तर- जीवाका प्रमाण
गाया : १६४६-१६४९ ]
तस्य उत्तरजीवा, बउवीस साहस्य- नव-सवाई पि बोर्स एक्क
कला, समय समासेन पिडिडा ।।१६४७॥ आवड लु
। २४१३२१ ।
ad' :
उरा हिमवान् पर्वतकी उत्तरजोया सब मिलाकर पोबोस हजार मोसो बत्तीस योजन भर योजनके उन्नीस भागोंमेंसे एक भाग प्रमाण है ।।१६४७ ।।
हिमवानके उत्तर में धनुष पृष्ठका प्रमाण
३.५. ।
-
-
-
-
[ ४७१
खुल्ल हिमवंत सेले, उत्तरभागस्मि होरि धभूपट्ट
पीस सहस्ताई, सिया सीस बज-कलम्भहिया ॥ १६४८ ।।
। २५२३०४ ।
वर्ष :- क्षुद्र हिमवान् पर्वतका धनुषपृष्ठ उत्तरभाग में पच्चीस हजार दोस्रो तीस योजन और एक योजनके उन्नीस-भागोंमेंसे चार भाग अधिक है ।। १६४८ ।
हिमवान् पर्वतकी चूलिकाका प्रमाण
तरस य लिम-मार्ग, पंच सहस्साथि जोयणानिपि ।
ती साहिय-सिया, सत्त • कला प्रद अविरिता ||१६४६ ॥
| ५२३०१८ |
4
अर्थ :- उस पर्वतकी चूलिकाका प्रमाण पाँच हजार दोसी तीस योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से साढ़े सात भाग अधिक है ।। १६४६||
१. द. ब. क. . . जोयोवेो य नामयो । २. . . . . . . भागो म
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४७२ J
तिलोत
हिमवान् पर्वतकी पाध भुजाका प्रमाण-
दा
पंच सहसा तिसया, पन्नासा जोवनानि पन्नारस य कसाओ, एस्सभुमा खुल्ल हिमवंते ॥१६५० ॥
| ५३५०३२ ।
:- शुद्र हिमवान् पर्वतको पार्श्वभुजाका प्रमाण पांच हजार तीन सौ पचास योजन और एक योजनके उन्नीस भागों में साढ़े पन्द्रह - भाग अधिक है ।। १६५० ।
पर्वतको तट वेदिय एवं उनका प्रमाण
हिमवेत सरिस-बी हाँ, त-देवदहति भूमि
बे कोसा उत्तुंगा, पंच-यजुस्सव-पमान - वित्विष्णा ।।१९४१ ।।
। को २ । ६५०० 1
[ गाथा ।१६५०-१६५३
अर्थ - भूमितलपर हिमवान् एवंतके सदृश लम्बी उसको दो तर वेदियों हैं। ये वेदियों दो कोस मी धीर पांचसौ धनुष प्रमाण विस्तार वाली है ।। १६५ ।।
पर्वतके पार्श्वभागों में वनखण्ड एवं वेदी
जोपण-वल-विषखंभो जभए पासेसु होदि पण संडी
बहु-तोरण-वार-खुश, देवी पुव्विल्ल- वे विएहि समा ।। १६५२ ।।
| बरण नो ।
:- पर्यंत दोनों पार भागों में भयं योजन-प्रमाण विस्तारसे युक्त वनखण्ड हैं तथा
-
पूर्वोक्त वेदियों के समान बहुत तोरणद्वारोंसे संयुक्त एक बेदी है ।। १६५२ ।।
-
-
खुल्ला हिमवंत सिहरे, समंतयों पउम देविया दिव्या । पण धनदेवी सव्वं पुणं पिव
एरम वसव्वं ॥१६५३॥
अर्थ: जुद्र हिमवान् पर्वतके शिखर पर चारों ओर पद्मरागमणियम दिव्य वैदिका है । वन और बनवेदी आदि सबका कथन, पूर्वके सहत यहाँ पर भी करना चाहिए ।। १६५३ ।।
.व.व. क्र. ज. प. स. २.. ज य भूमि १. ब. क.स.म.रा.समो
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गाथा : १९५५-१६५८ 1 उत्यो महाहियारो
[ ४७३ ___2132 हिमवान् पर्वतस्पटी सE at FFERE सिद्ध-हिमवंत-कूग, भरह-इसा-गंगकर - सिरिणामा' । रोहीवासा सिष, सुर - हेमवं च समर्थ ।।१६५४॥
:-हिमवान् पर्वतके ऊपर सिर हिमवान्, भरत, इला, गङ्गा, श्री. रोहितास्या, सिन्धु, सुरा, हेमवत और वंश्रवण ये ग्यारह कूट है ।।१६५४।।
कूटोंका विस्तार श्रादिनवयं मू-मूह-पास, माझ पणुबोस तत्ति बलिय। मुह - भूमि - खुबस्स, पत्तषकं जोयाणि कुडाणं ॥१६५५॥
।२४ । २५ । २५ । १ ।। प्र:- इनमें से प्रत्येक कूटको ऊँचाई पच्चीस योजन, भू-विस्तार भी गम्चीस योजन, मुख विस्तार साढ़े बारह योजन और मध्यविस्तार भूमि एवं मुबका अधं ( F+= अति १५मो.) भाग प्रमाण है ।।१५।।
प्रथम कूट पर अवस्थित जिन-भवनका निरूपणएपकारस पुष्वापी, सम - बट्टा देखिएहि रमणिया ।
वैतर - पासाद - हुरा, पुल्चे कुम्मि लिण - भवर्ण ।।१६५६।।
म:-पूर्वादि दिशामों में क्रमशः स्थित ये ग्यारह कूट समान गोल है, वेदियोंसे रमणीय है मोर व्यन्तर देवोंके भवनोंसे संयुक्त हैं। इनमेंसे पूर्व टपर जिन-प्रवन है ।।१६५६||
मायामो पणासं, वित्थारो तहलं प गोपगया । पमहत्तरिमल-मुरमो, सि-हार पुरस्स बिप-निकेवरस ।।१६५७।।
५०१२५। ।३।। पर्य:-तीन तारों वाले इस जिन-प्रथमको लम्बाई पचास योजन, विस्तार पन्चीस योजन पौर लंबाई साढ़े सैंतीस योजन है ॥१६५७॥
पुम्ब - मुह - वार - उपमओ, पोषणया अट्ट तहलं हई। र - समं तु पवेस, तामवं रमित नुत्तर - मुगारे ।।१६५८॥
1८।४।४।४।२।२।
१. स. सिरियामा
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४७४ ]
तिलोयपण्णती [ गापा : १६५९-१९५४ प्र:-( उपयुक्त तीन धारोंसे ) पूर्वमुख धारकी ऊंचाई बाठ योजन, विस्तार पार मोबन और विस्तारके सह प्रवेश भी भार योजन प्रमाण है। मेष पक्षिण और उसर द्वारकी लम्बाई प्रादि पूर्व-द्वारसे माघी है ।।१६५८।।
___ अ य वोहत, बोहल्याउभाग - तस्य - वित्थाएं। मसार:- जोगवा
लिया : लिइसे ।।१६५६॥ प्रपं:-जिन भवनमें माठ योजन सम्बा, लम्बाईक पतुर्ष माग ( दो योजन) प्रमाण चौड़ा और धार योजन ऊँचा देवच्छन्य है ।।१६५६।।
सिंहासणावि-सहिया, पामर-कर-गाग-बाल-मिहुग-युवा । पुरु - जिण • तुगा - परिमा, अशर-सय-पमाखायो ।।१६६०॥ सिरियेवो मुददेवी, सम्बाण - समाकुमार - प्रसाण ।
क्याणि अट्ट • मंगल - देवमम्मि टुति ॥१५॥
प्रपं:-सिंहासनादि सहित, हायमें चमर सिए हुए नाग-यम-युगलसे संयुक्त, षम जिनेन्द्र सहम उतना एकसौ आठ संख्या प्रमाण जिन प्रतिभाएं तथा श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सहिदेव और सनत्कुमार यशों की मूर्तिया एवं बाठ मङ्गलद्रव्य देवच्छन्दकपर स्थित हैं ।। १६६०-१६६१॥
संबंत - कुसम - रामा, पाराक्य-मोर-कठरिसहयगया ।
मरगय • पवाल • बन्ना, विराण - लिवहा विराति ||१६६२॥
प्रबं :-वहाँपर सटकती हुई पुष्पमालाओं सहित कबूतर एवं मयूरके नम्ठ तथा मरका और मूंगा सट्टम वर्ण वाले दोशोंके समूह शोमायमान है ।।१६६२।।
भंभा-मुरंग महल-जयघंटा-कंसताल • तिवलि - बुदा । पशुपरह - संस - काहल - सुरतुंगुहि - सह - गंभीरा ॥१६६३॥ निणपुर - पुगार • पुररो, पोषक परनमंडवा विध्या । पणवीस - नोयगाई, वासो बिना मायामो ॥१६॥
।२५। ५० । मर्ग:-प्रत्येक जिमपुर-वारके बागे मम्मा ( भेरी), मृदङ्ग, मईस. जयघण्टा, कास्वताल और सिवसीसे संयुक्त तथा पटुपटह, शह काहल और देवदुन्दुमि आदिबाजोंके वादोंसे गम्भीर ऐसे
...... ज. प. उ. पोरा। २. द. 4. क. व. ग. इ. मसा।
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गाषा : १६६५-१६६६ 1 पउत्यो महाहियारो
[ ४१५ दिम्य मुख-मण्डप है। इन मण्डपोंका विस्तार पन्चोस योजन और लम्बाई पचास पोजन प्रमाण है ॥१५-१५१४॥
अट्ट चिय जोयणपा, अधिरिता होदि सान उच्छहो ।
अभिसेय-पौध-अवतोयणाग वर • मंडवा य तप्परो ।।१६६।।
म :--इन ममपोंकी ऊंचाई आठ योजनसे अधिक है । इनके आगे अभिषेक, गीत पौर अवलोकनके उत्तम मण्डप हैं ॥१६६५।।
बडगोउराणि सालतिवयं वीही माशभा ।
ब-थूहा तह 'बण-पय-विसरलोणीओ जिन-निवासेस ॥१६६६।।
अर्थ :-जिम भवनोंमें चार गोपुर, तीन प्राधार, वोषियोंमें मानस्तम्भ, नौ स्तूप, बनभूमि, ध्वज-भूमि भोर चस्यभूमि होती हैं ।।१६६६ क ...ant RTER & AT
सवे गोतर - बारा, रमनिया पंच-वन-रयममया ।
बोउल • तोरण • बुरा, गानाविह • मलबारणया ।।१५६७।।
प्र:-पाच वर्गके रत्नोसे निर्मित सब गोपुरवार, पुतली-युक्त तोरणों सहित प्रौर नानाप्रकारके मतवारणों ( टोडियों ) से रमणोप है ।।१६६७।।
बहु-सालभंगियाहि, सर-कोकिल-बरिहिनादि-पानीहि ।
महुर • रहि सहिवा, नन्ताणेम - अय'. पसायाहि ॥१६६८॥
मर्ष :-( ये गोपुरद्वार ) बहुतसो बालमंषिकाओं ( पुतलियों ) एवं मधुर शब्द करनेवासे सुरकोकिल और मयूर आदि पक्षियों सहित तथा नाचती हुई बनेक ध्वजा-पताकामों सहित है॥१५ ॥
एला-समाल-लवली-लहंग-कंकोल • 'कबलि • पानीहि ।।
नावातर - रमहि, उमाण - पना निराति ॥१६६६॥
प: वहकि उद्यानवन इलायची, तमाल, लवली, सोंग, कंकोल शीतल चीमीका वक्ष ) भोर केसा मादि नाना उत्तम वृक्षोंसे शोभायमान है ।।१६६६11
. .ब.प.
१प. . क. प. म. द. शब । २. 4.4... पहावा, प. प. बमबहाणा। कमि, क.कति ।
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तिलोपप गती
1:१९७०-१६७५ कल्हार-कमल-बल-गोलप्पल-कुमुव-कुसुम - संपन्या ।
जिण-उम्साग-बणेस, पोपसरणी • वापि - बाबा ।।१६७०।
वर्ष :-जिनगृहके उचान-वनोंमें कल्हार, कमल-फन्दल, नीलकमल और कुमुदके फूलोंसे व्याप्त पुष्करिणी. वापी और उत्तम फूप हैं ॥१६७०।।
गंवादीप्रति-महल, ति-पीट-पुवाणि घाम-परकाणि ।
बत-ए-मझ - गयाणि, चेविय - महानि सोहति ।।१६७१॥
पर्ष :-बारों वनोंके मध्य में तीन मेमसा-युक्त नन्दादिक वापिकाएँ, तीन पीठों वाले धर्मचक्र मौर चरयवृष्ट मोप्रायमान हैं ।।१६७१।।
शेष फूटोंपर स्थित व्यन्तर-नगरोंका निरूपणसेसेसु कूडेसु, तर - रेवाण होंति पासारा।
घउ-तोरण-वेदि-बुवा, नानाविह - रयण - गिम्मविया ॥१६७२।।
प्राय कटोपर गर तोरण-बदिव सहित और नानाप्रकारके रनोंसे निर्मित व्यन्तर देवकि भवन है॥१९७२
हेमवद - भरह - हिमवंत - वेसवन - णामषेय-फुरसु । निय -कूट - माम - देवा, सेसे णिग्र-कम-नाम-पीओ ॥१६७३॥
पाय:-हैमवत, भरत, हिमवान् और वैववरण नामक कूटोंपर अपने-अपने कूटोंके माम धारक देव तथा गेष फूटोंपर अपने-अपने कूटोंके नामको देवियों रहती है ॥१३॥
बहु - परिवारहि हुवा, ते तेतु देव - वेजीओ।
वस-घणु-उच्छेह-सपू, सोहम्मिवस्स ते प परिपारा ।।१६७४।।
म:-इन कूटों पर बहस परिवार सहित और दस-सानुष प्रमाण ऊँचे सरीरसे युक्त जो देव-देदिया स्थित है, वे सोधर्मइन्द्र के परिवार स्वरूप हैं ।।१६७४।।
ताणं वर • पासावा, सकोस • इगितौस बोषमा-या। हो - कोस - सष्टि - जोयण • उदया सोहति रयनममा १६७॥
१.व. र. क. ब. व. २. कृण । २. द... ब. य...
।
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गाथा : १६७६-१६८० 1 घजत्यो महा हियारो
[४७७. वर्ष :-हन व्यन्सर देव-वेषियों के ररममय मवन विस्तारमें इकतीप्त योजन एक कोस और ऊँचाईमें बासठ योजन दो कोस प्रमाण होते हुए गोभायमान हैं ।।१६।।
पायार-वलाहि-गोउर-पवलामल - पियाहि परियरिया ।
देवाण होति पयरा, बसप्पमाले कूर - सिहरेसु ॥१६७६।।
म :-दस कूटोंके शिखरों पर प्रकार. बलमी (छाजा ) गोपुर और पवन-निर्मल पेदिकामोंसे व्याप्त देवोंके नगर हैं ।।१६७६॥
मुख्यत-धय-बडाया, गोउर - हारेहि सोहिया विउला ।
घर-बम्ज-कवाड-अवा, वण-पोषखरगि-नाबि-रमाणिज्जा ।।१६७७॥
वर्ष:-देवोंके ये नगर बढ़ती हुई उवा-पताकापों सहित गोपुरखारसि शोभित ; विशाल, उत्तम वज़मय कपाटोसे युक्त और उपवन, पुष्करिणी एवं वापिकाओंसे रमणीय है ।। १६७४।।
कमलोपर-बणा-णिहा, तुसार-ससिकिरप-हार-संकासा ।
समाना: -पय
RAEESSETTE
-मण
मार्च:-(हन नगरों से कितने ही नगर ) कमलोदर सहश, { कितने ही ) तुषार, चन्द्रकिरण एवं हार सहश, ( कितने ही विकसित चम्पक और (कितने ही) नील सपा रक्त कमल खद्दश वर्णवाले ॥१६७८॥
परिणखील - भरगय - कायन-पतमराय-संपुष्मा । जिम - भपहि सनाहा, को साकार पनि सयलं ॥१६७६ ।।
प्र :- नगर वप्रमरिण (हीरा ), इन्द्रनीलमणि, मरकामणि, कर्केतन और पपराग मरिणयोंसे परिपूर्ण है तथा बिन-भवमों सहित है । इनका सम्पूर्ण वर्णन करने में कौन समपं हो सकता है? ॥१६ ॥
हिमवान् पर्वतस्थ पादहका वर्णनहिमवतयस मझे, पुलावरमापसे प पड़मबहो । पल-सय - जोयन - दो', तगुणापाम - सोहिल्लो ॥१६॥
। ५.० । १...।
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1. व. ब.क.ब.प. उ. पत। २...ब.... 'दा ।
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४७८ ]
तिलोयपणती [ गापा : १६८५-१६५६ प:-हिमवान् पर्वतके मध्य में पूर्व-पश्चिम सम्हायमान, पायौ योजन विस्तृत और एक हजार योजन प्रमाण लम्बाईसे शोभायमान पप नामक मह है ॥१५८०॥
इस-ओमभागि गहिरो, घर-तोरण-दि-जयप-बहि ।
सोवाह सहिदो, सह • संघर • रपन - रविहिं ॥१६८१॥
प्रर्ष :-यह पपाह दस योजन गहरा तथा चार तोरणों, वेदियों, नन्दनवनों भोर मच्छी तरहसे गमन करने योग्य, उत्तम रलोंसे विरषित सोपानों सहित है ॥१६८१॥
बेसबम - रणाम - फुगे, साने होवि 'पंकय • बहस । सिरिगिचय-गाम-गो, सिहि विस-भागम्हि णिहिट्ठो ।।१६८२॥
अर्थ :-इस पनाहके ईशानकोणमें वेश्रवण नामक कूट और आग्नेयमें श्रीनिचय नामक फूट कहा गया है ।।६।।
मुल्ल-हिमवंत-फूटो, गारिदि-भागम्भ तस णिदिहो ।
पब्लिम • उत्तर - भागे, कूडो एसक्दो नाम ॥१६८३॥
प:-उसके नैत्य भाग में खुहिमवान् कूट और पश्चिमोत्तर भागमें ऐरापत नामक कूट कहा गया है ॥१६॥
सिरिसंचय - कूमे सहा भाए पजम • दहस्त उत्तरए ।
एवेहि डेहि, हिमबंतो पंच - सिहरि - नाम - गुदो ॥१६८४॥
म:-पदहके उत्तरभागमें श्रीसञ्चय नामक कूट स्मिस है । इन पाँच कूटोंसे हिमवान् पर्वत 'पंचशिबरी' नामवाला है ॥१६॥
उपवन-देसी-जुत्ता, तर • पयरेहि होति रमगिजा ।
सम्बे कूडा एवे, गावाविह - रयण - निम्मविया ॥१६॥
w:-नाना प्रकारके रत्नोंसे निर्मित ये सब फूट उपवन-वेदियों सहित, प्यन्तरों के नगरोंसे रमणीय है ।।१६।।
उत्तरविसा-मागे, मलम्मि परम - दहस्स जिन-यो। सिरिषियं बेलियं, अंकमपं अंबरोय - बचगं ॥
१६॥
__.. ब. क. स. स. समयपहाय, य. कम्पमस्त ।
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गापा : FREE..] axard tोला डिपोशी RES [ Yut
सिहरी-वप्पल कूग, पवाहिसा होति तरस सलिसम्मि ।
तर'-वण - पेरोहि बुगा, तर - ममरेहि' सोहिल्सा ।।१६८७।।
मर्ष:-पप्राहफे जलमें उत्तरदिगाफो ओरसे प्रदक्षिणरूपमें जिनफूट, श्रोनिचय, वंडूर्य, भड्मय, अम्बरीक, रुचक, शिखरी और उत्पलकूद, ये फूट उसके जामें सट-वैदियों और वन-वेदियों सहित व्यन्तर नगरोंसे खोभायमान हैं ।।१६८१-१६८७।।
उवयं मू - मुहवासं, माझं पणवीस तत्तियं बलिवं । मुह • भूमि - जुबस्स, पसेकक जोयवाणि कडाणं ॥१६८८।।
। २५ । २५ । १ । । भ:-उन कूटों से प्रत्येक कूटकी ऊँचाई पच्चीस योजन, भूविस्तार भी पच्चीस योजन, मुख-विस्तार साडे बारह योजन और मध्य विस्तार भूमि एवं मुखके जोरका अर्घभाग [{(२५+ (२१):=} मर्थात् १५१ योजन] प्रमाण है ॥१६८८।।
पप हमें स्थित कमलका निरूपणयह - माझे प्ररनिंजय • गालं बादास - कोसभुम्सि । इगि - कोसं पाहल्लं, तस्स मुणाल ति रमममयं ।।१६८६॥
को ४२ । वा को । मर्म: सरोवर के मध्यमें बयालीस कोस ऊँचा और एक कोस मोटा कमल-नाल है। इसका मृणाल रजतमय और सीम कोस विस्तृत है ।।१६८६।।
कंगो' अरिष्ट-रवर्ग, गालो मेरुतिपरपन-निम्मषियो। तस्सधार पर वियसिय - पउमं घर-कोसमुम्बिई ॥१६६०॥
।फो । मर्ग :-उस कमलका कन्द भरिथरत्नसे और नाम वयं मरिणमे निर्मित है। इसके ऊपर पार कोस ऊँचा एक किषित् विकसित पप है ।।१६९॥
चज-कोस-हंस माझ मते दो-कोस-महब बन • कोसा । पतक इगिकोर्स, उस्लेहायाम - कलिया तस्स Item
।को ४ । को २ । को । हो।।
...
-...
-
-
-
-
-
१.ब.प.क. ज. प. उ. तब। २...
एवरेसु । १. ८.ब.क. न. प. उ.मा ।
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तिलोयपष्णलो
मर्च । —उसके मध्य में धार कोस और अन्तमें दो afrers ऊँचाई एक कोस और उसका आयाम भी एक कोस
YEO]
पत संता ।
·
अहवा दो-दो कोसा, एक्कार सहस्स तक्कब्ज़ काय उर्जार, वेरुलिय कबाड संता ।। १६६२।।
। को २ । को २ प ११०००
कुडागार - महारिह भवनो वर-फलिह-रयण गिम्मिथिओ | श्रायाम-वास-तुरंगा, कोति
[ गाया: १६६२ - १६१६
या चार कोस विस्तार है। उसकी प्रमान है ।। १६२१ ।।
+
चिह
। को १।३।३।
as: प्रथवा, कारणकाकी ऊँचाई दो फोस और लम्बाई दो कोस प्रमाण है। यह कमल काका म्यारह हजार पत्तोंसे संयुक्त है । इस करिकाके ऊपर वैदूर्यमणिमय कपाटोंसे संयुक्त और उत्तम स्फटिकमणिसे निर्मित कूटागारोंमें श्रेष्ठ भवन है। इस भवनकी सम्बाई एक कोस, विस्तार अकोस भोर ऊंचाई एक कोसके चार भागोंमेंसे तीन भाग ( को ) प्रमाण है ।। १६६२-१९६३॥ कमलमें स्थित श्रीदेवीका निरूपण
१. .प.उ. सिरिया । बिहिब । ७ . व पाणाय ।
तम्मि' ठिया सिरिवेदी, भवणे पलिदोवमम्पमानाऊ ।
इस
चबाणि तुपा, सोम्सस्स सा देवी ।।१६९४ ।।
·
अर्थ : - इस भवन में स्थित श्री नामक देवी पत्योपम प्रमाण मायुको धारक और दस धनुष ऊँची है । वहु सौधर्म इन्द्रको देवी ( प्राशाकारिणी ) है ।। १६६४ ।।
सिरियेबीए होंति हु, बेवा सामानिया य समुरता ।
परिससिदयानीमा पहन अभियोग किम्बिसिया ॥१६६५ ॥
M
B
▾
वर्ष :- श्रीदेवी के सामानिक, तनुरक्षक, तीनों प्रकारके पारिषद, वनीक, प्रकीर्णक, बाfभयोग्य और किल्बिविक जातिके देव होते हैं ।। १६६५।।
से सामाभिध देवा, 'बिबिज्जल-भूसणेहि कयसोहा ।
सुपसस्थ बिचल काया, "बस्सहस्सा मारणाथ ।। १६९६ ।।
| ४००० ।
. . उ. किमा ४. व. न. जस देवा । १.६. टसर दिया पमाखाय क.
२८ वडामा रामहरिह मालिम र ६
पा
३. पं.ब. क.
बिषय च
य म य च परस्साह बिया
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गाषा : १५१७-१७०.] चजत्यो महाहियारो
[ ४८१ भ:-पनेक प्रकारके उमादल आभूषणोंसे शोभायमान तथा सुप्रशस्त एवं विशाल कायबाले वे सामानिक देव चार हजार प्रमाण है।।१६६६।।
ईसाग'-सोम-मातर-दिसायनि-भागेसु पउभ-उरिम्मि । सामालियान भवणा, होति सहस्साणि चत्तारि ॥१६६७।।
।४...। प्रबं:-ईशान, सोम ( उत्तर ) मोर वायव्य विशात्रों के भागों में पोंके असर उन सामानिक देवोंके गार हजार भवन है ।।१६६७II
सिरिवेवी - तनराला, देवा सोलस • सहस्सया तारणं । पुष्वापिस परोपकं घसारि - सहस्स • भवनाणि ॥१६॥
कदवसालहजारहै। प्रबादिक दिगवामम प्रत्यक दिशाम
इनके बार-चार हजार भवन है ।।१६६८।।
अग्नंतर - परिसाए', माइन्यो गाम सुर-वरो होदि ।
बसीस - सहस्साणं, देवानं अहिबई धीरो ॥१६६६।।
प्रचं: अभ्यन्तर परिषद में मत्तीस हजार देवोंका अधिपति आदिस्य नाम धैर्यशाली उत्तम देव है ।।१६६६।।
पउमाह - परमोवार, मग्गि - विसाए हर्षति भवनाई। बचीस - सहस्साई तागं घर - पन - बाई ॥१७००।।
। ३२०.०।। म:-पपदहके कमलोंके पर माग्नेय दिशामें उन देयोंके सत्तम रनोंसे रचित बत्तीस हजार भवन है ।।१७.०॥
परमम्मि चंद-णामो, मसिम - परिसाए अहिया भो। चालीस - सहस्सा, सुराण बह - सत्व-हत्वाचं ॥१७०१॥
। ....। बाल ...... इस। २. र. य. परिपता। ...क.ब.प... पाना । ... ज... महास्था । ....गाला, 5, क. रहमाण प्रत्यार्ण ।
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४२ ]
सिलोयपम्पती
[भाषा : १७.२-१५.. -पद्रह पर मध्यम परिषदमें बालापनीय हाबों वाले चालीस हजार देवोंका मधिपति पम्द्र नामक देव है ।।१७०१॥
बासीस सहस्सागि, पासाका ताण विम्ब-मणि-वरिया । वपिला - पिसाए बालगय - डिय - सत्त-सरोब-ाम्नेसु ।।१७०२॥
:-दिव्य-मणियों ( रत्नों ) से घड़े गये अर्थात् बनाए गए उन ( देवों ) के चालीस हजार प्रासाद है. जो सात जलगत कमसोंके मध्य दक्षिण दिशामें स्थित हैं ।।१७०२।।
अस्वात-सहस्सारणं', सुरान सामी समुग्गय - पपाओ । बाहिर - परिसाए जदु', लामो सेवेषि सिरिषि १७०३।।
। ... १ प्रचं:-बाह्य परिषद के महानोर बार देहीका सवानिक गुलाबजाम देवा श्रीदेवी की सेवा करता है ।।१७०३।।
खरिदविसावता मालसहस्त-संस-पासावा । परमहह - मरमम्मि य, सुग-सोरण-नुवार-रमणिन्ना ।।१७०४॥
।४८... | वर्ष:-मंऋत्य-दिवा में उन देवोंके उन्नत तोरणद्वारोंसे रमणीय महसासोस हबार भवन पपदहके मध्य में स्थित हैं ॥१७०४।।
कुंजर - तुरय • महारह , गोवा-गंधय-मह-मासान ।
सस मनीया सत्तहि, कल्याहि सस्य संजुत्ता ।।१७०५॥
म:--कुवर, तुरत महारषबेल, गन्धर्ष, मतंक और दास इनकी सात सेनाएँ हैं। हममेंसे प्रत्येक सेना सात-सात कक्षाओं सहित है ।।१७.५।।
परभाषीय - पमान, सरिसं मामालियान सेले। विगुणा - विगुणा संक्षा, सम्म प्रणीएस पत्ते ॥१७०६॥
१ प.प.क.क. म... सहमालि । २. 1. गाडलायो, ... ग. R. .. मसुरणपो । ३. ६.क.ब. २. ३. पेडो। .६.ब.क. प. य. स.साए।
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गापा : १७०७-१७११ ] पजत्थो महाहियारो
[ प्रर्ष :-प्रथम अनोकका प्रमाण सामामिक देवों के साहव है। शेष मा सेनामों मैसे प्रापैक सेनाका प्रमाण उत्तरोत्तर दूना-दूना है ।।१७०६॥
कुबर-पदि-तहि, देवा विकरति विमल-सचि-जुरा ।
माया - लोह - बिहीणा, गिन्छ सेति सिरिख ॥१७०७॥
पर्य :- निर्मल शक्तिसे संयुक्त देव, हादी आदिक रीरोंको पिक्रिया करते हैं मोर माया एवं लोभसे रहित होकर नित्य ही श्रोदेवोकी सेवा करते है ।।१७०७।।
सत्तागीयान परा', पउमाह • पन्धिम' - पएसम्मि ।
कमल-कुसुमाग उरि, सत्त विषय कमय • हिम्मषिवा ।।१७०८॥
प :-मात मनोक देवोंके सात घर पचहके पविरम-प्रवेषामें कमल-कुसुमों के ऊपर सीमित
ferr भट्टत्तर - सय - मेश, परिहारा मसिनो पना यं ।
बहुविह-दर-परिवारा, उचम का विषय-जुसाई ।।१७०६॥
पर:-उत्सम रूप एवं विनयसे संयुक्त और बहुत प्रकारके उत्तमोत्तम परिवार सहित ऐसे एकसौ आठ प्रतीहार, मन्त्री एवं दूत हैं ।।१७०६॥
अठ्तर - सय - संला, पासाबा ताण पबम - गम्मेसु ।
पित-विविस-विभाग-धिया, बह-मन मे महिय-रममिन्मा ॥१७१०॥
मर्थ :-उनके प्रतिशय रमणीय एक सौ आठ भवन दहके मध्यमें कमलों पर विशा और विदिशाके विभागोंमें स्थित हैं ।। १७१०॥
होति पाणय-पहुबो, ताणं अवर्ष दि परम-पुस्मसु"।
उक्लियों' काल - वसा, तेलु परिमाप - उपएसो ॥१७११॥
प्रपं:-पत्र पुष्पों पर स्थित जो प्रकीर्णक मादिक देव हैं उनके भवनोंके प्रमाणका उपदेश कालषश्च ना हो गया है ।।१७११।।
...क.ग. प. घ. देखो। २... क. ग. य. न. मुरा। ३. ए. स. पत्रिमंपादि । ४.१...... खिा। ...... पठणार्षि, .. बनणा वि। ......ब.प. उ. पुणे। प, सम्यो ।
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तिलोयपासी
[ गावा: १७१२-१५१५
मदरा यहागल
कमलामाकदम 'वाईतिnिts
ग एक
- सब सालस
१२
1 १४०११६ । म :- के सव अकृत्रिम, पृथिवीमय मुम्बर कमल एक लाख चालीस हजार एकसौ सोलह है॥१७१२॥
एवं महा • पुरान, परिमाण साग होवि कमसेसु।
खुल्लम - पुर • संखामं, को सरकइ कामखिलानं ॥१७१३।।
प्र:-इसप्रकार कमलों के ऊपर स्थित उन महानगरोंका प्रमाण ( एक लाख चामीस हजार एकसौ सोलह ) है । ( इनके प्रतिरिक) क्षुद्र { लघु ) पुरोंकी पूर्ण-रूपेरण गणना करनेमें कौन समपं हो सकता है ।।१७१३॥
परम - बहे पुध्वमुहा, उसम - गेहा हवंति सम्वे कि।
तामाभिमुहा' सेसा, खुलप • गेहा जहाजोगणं ॥१७१४॥
प्रम :--पप्राहमें (वे १४०११६) सर्व ही उत्तम एह पूर्वाभिमुख हैं और शेष क्षुद्र-गृह यथायोभ्य उनके सम्मुख स्थित है ।।१७१४ ।
KAR
RASHTRA
कमल पुष्पस्थित भवनों में जिनमन्दिरकमल • कुसुमेसु तेनु पासादा जेलिया समुदिता । तेत्तिय-भत्ता हाँति हु, जिण - गेहा चिवित - रयणमया ॥१७१५॥
1. 4. . फ. प. प. . तामिमहाभिमा ।
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गाथा : १७१६-१७२० ]
उस्को माहियारो
[ ४८१
:--उम कमल-पुष्पोंपर जितने भवन कहे गये हैं, यहाँ विविध प्रकार के रत्नोंसे निर्मित जिनगृह भी उतने ही होते हैं ।। १७१५ ।।
भिंगार कलस बध्परा सुम्बुब घंटा-धमावि संपुष्णा ।
जिनवर पासावा' ले भागाविह तोरण बारा ।। १७१६।।
अर्थ :- वे जिनेन्द्र प्रासाद नाना प्रकारके तोरणद्वारों सहित और भारी, कलश, दर्पण,
-
बुदबुद घण्टा एवं ध्वजा आदिकसे परिपूर्ण हैं ।। १७१६।।
anfuetas:
-
-
बर-चामर मामंडल छत्तत्तप कुसुम-परिस-पहुदीहि ।
जिनबर
I
संजुताम्रो तेसुं म:-उन जिन भवनों में उत्तम बमर, भामण्डल, सोन छत्र और पुष्पवृष्टि मादिसे संयुक्त सिने- प्रतिमाएं होभायमान हैं ।। १७१७ ॥
रोहितास्या नदीका निर्देश
म
-
-
-
भागेोहिदास णाम-गयी ।
उम्गच्छद छातार जोयन यु समाह अदिति ॥ १७१६||
-
-
। २७६१६ ।
अ :- पद्मद्रहके उत्तर- भागसे रोहितास्या नामक उत्तम नदी निकलकर दो सौ छिहतर योजनसे कुछ अधिक दूर तक ( पर्वतके ऊपर ) जाती है ।।१७१८||
'बाबाढ सोन अंतर कूप्पणालिया-ठामा ।
धारा- ददा कुडीबाचल सूड दंव पहुवीम्रो ।।१७१६ ।।
-
4
.
-
"
पडिमा राज ।। १७१७।।
तस्य य तोरण वारे, तोरन गंधा अतीए सरिवाए ।
संग नईए सरिसा, पचर भासाविएहि ते विगुणा ।।१७२० ।।
। मतं यं ।
ग्र
:- इस नदीका विस्वार, गहराई, सोरणोंका अन्तर कूट प्रणालिका स्थान, धाराका विस्तार, कुण्ड, द्वीप, अचल और कूटका विस्तार प्रावि तथा वहाँ पर तोरणद्वार में तोरण-स्तम्भ आदि सबका वर्णन गङ्गा नदीके सदृष्ट ही जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ पर इन सबका बिस्तार गङ्गा नदीकी अपेक्षा दूना दूना है ।।१७१९ - १७२० ॥
|| हिमकान पर्वतका कचन समाप्त हुआ ।।
1.अ. ब. क.अ. प. उ. प. उ. परम उत्तर १. वारा या कुडं ४ . . . . . ए. कुंड
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orm its RFT मेन्यू
haru) Ram
कि: आदर्य प्रसुविा सा
हिमवान्
कालाचल
तारोयपगतो
..
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|
आर्य
= अण्ड
। गापा : १७२.
प्रात
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गाचा : १७२१-१७२४ ]
[ YU
पउत्थो महादियारो हेमवत क्षेत्रका निम्पण
.
हमपरस्त य.उवा, चाल
.
।
तस्स य उचर •बानों', भरह - सलामा सत्त-गुणो ३१७२१॥
:-हेमवत क्षेत्रका विस्तार उन्नीससे भामिन गालीस हार योजन और उसका उत्तर-बाण भरतक्षेत्रको पालाकासे मात गुणा है अर्थात् १६४ योजन है ।।१७२१॥
सत्ततीस • सहस्सा, बच सया सत्तरी य बज-अहिया । किचून • सोलस - काला हेमवदे उत्तरे जीना ॥१७२२॥
। ३७६७४ । प्राय:-हेमवतक्षेत्र के उत्तर-भागमें जोश सतीस हजार छहसा धौहत्तर योजन और कुछ कम सोलह कला प्रमाण है अर्थात ३७६७४योजन है ।।१७२२।।
अनुतीस' - सहस्सा, सत्त - सया जोयपाणि चालीतं । दसय - कसा लिहिहः हेमबदस्सुसरं ना ॥१७२३।।
। ३८४४०५५। पर्ष :-हेमपत क्षेत्रका उत्तर-धनुप प्रगतीस हजार सातसौ चालीस योपन पोर इस कसा मात्र निर्दिष्ट किया गया है अर्यात् ३८७४. मोजन है ।।१७२६॥
इमिहलरि - सति - सयाई जोयनानं वि। सच - कसा रल - माहिया, हेममा चूलिया एसा ॥१२॥
। यो ६०१ का :-हमन्त क्षेवकी भूलिकाका प्रमाश तिरेसठसी कहतर योषन और साढ़े सात कला ( ६३७१ योजन ) हो मिर्दिष्ट किया गया है ॥१७२४॥
१. . क. ग. हीणो । २. .. य. भातीमा !, 4. ग. ह. भ. प. मुत्तरा पाया।
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Y55
तिलोयपणती
[गामा : १५२५-१५२९ आपल्स-मास हा मार्ग पि । सत्त- सया पणवायरहिया तिमि बिय कलामो ॥१७२५॥
। १७५५ । । अ :-उसकी पाव-मुखा छह हजार सातसो पचपन योजन और सीन कला ( ६७५५१ योजन ) प्रमाण है ।।१७२५।।
मवसेस • बमलगाओ, सरिसायो सुसमवुस्समेन पि ।
गरि 'अहिद • स्वं, परिहीषं हारिण - मोहिं ।।१७२६।।
म :-- इस क्षेत्रका भेष वर्णन सुधमदुःषमा कालके सहश है । विशेषता केवल यह है कि वह क्षेत्र हानि वृद्धिसे रहित होता इबा एक सट्टा ( अवस्थित } रहता है ।। १७२६।।
हैमयत क्षेत्रस्य शब्दबान् नामिगिरिका प्ररूपणतपोते गहुमो, चेटुदि सहावपि तिनाभिगिरी। जोपण • सहस्स - उपमो, लेत्तिर-चासो सरिस - यो ।।१७२७।।
।१०.०१०००। प्रर्ष:-इस क्षेत्रके बहमध्यभाममें एक हजार योजन ऊंचा और इतने ( १... पो.) ही विस्तार-बाबा, सहश-गोल श्रद्धावान् ( शम्यवान् ) नामक नाभिगिरि स्थित है ।।१७२।
सम्बत्य सस्स परिही, गितोस - सयाह तह य शसवी ।
सो पल्स-सरिस-ठाणो, करपयममओ' 'घट्ट - विजयहो ।।१७२८।।
प्रर्भ :--उस सम्पूर्ण पर्वतकी परिधि इकतीससी बासठ योजन प्रमाण है तथा वह रह विजयाचं पल्पके सदृश माकारवाला है और करकमय है ।।१७२८||
एक- सहस्सं पव-सयमेक-सहसंच सग-सया पन्चा । सबबो मह" - • मझिम - रिपारा तस्स अवसरस ॥१७२६॥
।१०००। ५०० । १२०० । ७५.
पाठान्तरम्
... परिषद । २. द. 4.5.. म. मवी। 14. वह । ४. प. प.ब.पा. अपर।
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गापा : १५३०-१७३४ ] बज्यो महाहियारो
[ YE पर्म: उस धवल पर्वतकी ऊंचाई मुख-विस्तार, भूविस्तार और मध्यविस्तार क्रमणा एक हजार, पाचसो, एक हजार और सातसौ पचास योजन प्रमाण है ॥१७२६।।
मूलोबरि - भाएस, सो सेलो बेदि - उबवहि - जुबो ।
वेवो - परमाण दाहिमवंत - गण बणावम्बा ॥१७३०।।
म :-वह पर्वस मूल और उपरिम भागों में वैदियों एवं उपवनों सहित है। वेदी और वनों का विस्तार हिममान पूर्वतके, सहम हो जानना चाहिए !
बह-सोरणवार-पा, सध्या - वेदो बिचित्त - रयणमई ।
परियट्टालिय • बिउला, 'णवंतालेय-वय-वराला वा ॥१७३१॥
प्र:-जस पर्वतको बन-बेदी बहुत तोरणद्वारोंसे संयुक्त. विचित्र रत्नमयो, मार्गों एवं अट्टालिकाओं से प्रचुर तथा नाचती हुई भनेक ध्वजा-पताकामोरो युक्त है ।।१५३१।।
तगिरि-उपरिमभागे, बहु-मग्ने होदि विष्व जिग-भवन ।
बड - तोरग - बेदि • , परिमाहिं सुरराहि संजु ॥१७३२॥
पर्म :-उस पर्वतके ऊपर बहु-मध्यभागमें चार तोरणों एवं वेदियोंसे युक्त तथा मुन्दर प्रतिमामों सहित दिव्य जिनभवन है ।।१७३२।।
उम्मेह - पहबीत, संपहि अम्हाग भरिप उबडेसो । तस्स प घडहिसासु', पासारा होति रयणमया ॥१७३३॥
-इस मिनभवनकी ऊँचाई आदिके विषयमें इससमय हमारे पास उपदेश नहीं है। जिन-भवदके चारों मोर रस्लमय प्रासाव है ॥१७३३।।
सत्तट्ट - पहबीहिं. भूमीहि मूसिया विवित्ताहि ।
धुवंत • अय' • बसाया, माणाविह - रपगकप-सोहा ॥१७॥४॥
म:-ये प्रासाद सात-आठ भादि विचित्र भूमियोंसे विभूषित, फहराती हुई वषा पताकाबोंसे संयुक्त मोर नाना-प्रकारके रत्नोंसे शोभायमान है ।।१७३४॥
१.ब. सएमवाणेरमपबरामीया। २. १...पपदामोपा, क. म. रमनवामोगा।
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११. ]
तिलोयपम्हणतो [ गापा : १७३५-१५५५ मह-परिवारहि यो', माली • नामेण तरी वेको ।
बस • धनु - तुगो केषि, पहलमिवाळ महातमो' ॥१७३।।
म:-वहाँपर दस-धनुष ऊँचा, एक पल्प प्रमाण आयुवाला और महान् तेजस्वी 'शाली' नामक व्यन्तरदेव बहुत परियारसे युक्त होकर रहता है ।।१७३५।।
हैमवतक्षेत्र में प्रवाहित रोहितास्या नदोका वर्णनपठम'-दहाम्रो उत्तर - भागेस मोहिदास णाम भयो।
दो - कोसेहि भाषिय, गाभिगिरि पच्छिमें बस ॥११॥
प:--रोहितास्या नामक नदी पपदहके उत्तरभागसे निकलकर (शब्दवान) नाभिगिरि पहुँचनेसे दो कोस पूर्व ही पश्चिमकी और मुड़ जाती है ।।१७३६।।
ने कोहि अपाविय, 'याडं वलय - पच्छिमाहिमुहा । उत्सर-मुहेण ततो, कुडिल सम्वण एसी सरिया Gi गिरि-बहु-माझ-पोस, णिय-मरा - प्रदेसपं च कापूर्ण । पश्चिम - मुहेण गच्छद, परिवार - गीहि परियरिया ।।१३।।
:-यह नदी दो कोससे पर्वतको न पाकर अर्थात् दो कोस पूर्व ही रहकर पश्चिमाभिमुख हो जाती है । इसके पश्चात् फिर उत्तराभिमुस होकर कुटिल-रूपसे पामे गाती है और पर्वतके
हमध्य प्रदेशको अपना मध्यप्रदेश करके परिवार-नदियोसे युक्त होती हुई पश्चिमको कोर खली जाती है।।१७३७-१७३८
अदाबोस - सहस्सा, परिवार - णबीण होरि परिमाण । बस्स प जगरि-निलं, पपिसिए पबिसेविलवन-वारिणिहि १७२६॥
। २८००० ।
। हेमबदो पहो। मर्ग:-इसको परिवार नदियोंका प्रमाण मट्ठाईस हजार है । इसप्रकार यह नवी जम्मूदीपकी जगतीके बिल में होकर लरणसमुद्र में प्रवेषा करती है ।।१७३॥
। हैमवत क्षेत्रका वर्णन समाप्त हुआ।
....,
१.... पुरा। २.३...म. पंतग ।।... महादेयो। ४. परमवहाउतार। भगवं वेदनय, जय. प्रवचन । ६. प. प. वि. हरिया, प.क.प. सत्ति स तरिया।
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गाथा: १७४०-१७४३ पंजस्यो महाहियारी
[ ४६१ महाहिमवान् कुलाचलका निरूपण-- भयहागि • हायो, मड-गुण-हंगो प सप उच्छेहो । होवि महाहिमपातो, हिमवंत - वियं 'बहि कपसोहा ।।१७४०॥
मर्म :-महाहिमवान् पर्वतका विस्तार भरतक्षेवसे पाठ गुणा ( ४२१०२४ यो० ) है पौर ऊंचाई दोसो ( २०० ) योजन प्रमाण है । वह हिमवत्तके समान ही बनोसे गोभायमान है ॥१७४०॥
पम्गसय सहस्सागि, उनपीस-हिनामि जोयनामि पि । भरहार उत्तरत, तगिरि · बागस्स परिमार्ग ॥१७४१॥
वर्ष :-भरतलेचसे उत्तर सक इस पर्वतके वारणका प्रमाण उनीससे भाषित एकसौ पचास हजार ( UREx) योजन है ।।१४।।
तेवण्ण - साहस्सानि, गब ५ सया एक्कातीस - संग्रता । परिवार कलामो जीवा, बरार - भागम्मि सगिरिभो ॥१७४२।।
:- उस पर्दसके उत्तर भागमें जीवाका प्रमाण तिरेपन इजार नौसो इकतीस योजन और छ कला ( ५३६३१. योजन ) है ॥१७४२।।
सत्तापल- सहस्सा, दुसया तेजविस मलामोय । : तस्य महाहिमवते, बीबाए होरि म ॥१४॥
। ५७२६३११ । प्रबं:-महाहिमवान् पर्वतकी जीवाका अनुपृष्ठ सत्तावन हगार दोसो तेरान पोजन मौर इस कला मात्र ( ५७२६३ यो) है।। 1
।... ब. क. प. य. स्वरि। २. प. प. भ. प. 4, पक्षम। . द.प. प. पाणि,
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४१२ ]
तिलोयपणती
[ गाथा : १७४४-१ve गव य सहस्सा उसया, छाहसरि गोयनाणि भंगा य । प्रडसीस' - हिवणवीसा, महहिमवंतम्मि पस्सभुवा ॥१४॥
। ९२७६ । प :-महाहिमहानुः पशाली पारवटना को हार को भी खिरनर भोजन और महतोससे भाजित उन्नीस कला प्रमाण (६२७ यो०) है ॥१७४४
जोयण अटु - सहस्सा, एकसयं अपीस - संजर्स। पंच - बताओ एवं, लगिरिको भूलिया • मानो ॥१४॥
। ८१२८ । मर्म :- उस पर्वतको चूलिकाका प्रमाए आठ हजार एकसो मट्ठाईस योजन और पांच कला ( १२८० योजन ) है ॥१७४५१।
महहिमवते बोस, पासेस उबवणागि रम्माणि ।
गिरि - सम - दोहतानि, वासावीण च हिमवगिरि ।।१७४६॥
मर्ग : महाहिमवान् पर्वतके दोनों पाएवं भायोंमें रमणीय उपधन हैं । इनकी लम्बाई इसी पर्वतको लम्बाईके बराबर पोर विस्तारादिफ हिमवान् पर्वतके सदृष्य है ॥१७४९)
सिद्ध' - महाहिमवंता, हेमबदो रोहिदो य हरि-णामो।
हरिकतो 'हरिवरिसो, पेलियो मा इमे कूसा ॥१७४७॥
मर्ग :-इस पर्वतके ऊपर सिद्ध, महाहिमवान्, हममत, रोहित, हरि, इरिकान्त, हरिवर्ष पौर वैडूर्य इस प्रकार ये आठ कूट है।।१७४७।।
हिमबंत-पम्बासय, महादो चाय • वास । पगि ।
एका कुगनं, पुगुष • समाणि सम्मासि ॥१७४८॥
भ:-हिमवान् पर्वतके फूटोंसे इन कूटोंकी ऊंचाई और विस्तार मादि सब दुगुने-दुगुने है।।१७४८।।
जं पामा ते कुग, तं गामा अतरा सुरा होति । अनुपम - सब - सरीरा, बहुषिह - परिवार - संजता ||।।
१६.ब. ब. मगोस । २... ब. एहं । 1. द. सम्म । ४. द. हर।
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गाथा : १७५०-१७५ ] चउत्यो महाहियारो
[ ४६३ म:-जिन नामों के वे कुट है, उन्हों नामबाले म्यन्तरदेव उन कूटोंपर रहते है। ये देव मनुमम रूप मुक्त भरीरके धारक और बहुत प्रकारके परिवारले संयुक्त हैं ।। १७Yell
महापद्रह, कमल एवं ह्रीदेवी आदिका निरूपएपदम-दहाउ बुगुणो, 'पासायामेहि गहिर - भावणं । होदि महाहिमवंसे', महपसमो णाम विश्व - बहो ॥१७५०।।
। वा १००० । जा २००० ! पा २ । पत्र:-महाहिमवान् पर्वत पर स्थित महापर नामक ब्रह पदहकी बसेक्षा दुगुने विस्तार, लम्बाई एवं गहराई वाला है । अर्थात् १००० योजन विस्तार, २००० यो. प्राराम मोर २० योजन गहराई वाला है ।।१७४०॥ xesy sena... दिले
हरियो। बहुपरिवारहि जुगा, सिरियादेवि व परिणय-गुगोया ॥१७५१॥
मर्ग :-उस तालावमें कमलके ऊपर स्थित प्रासादमें बहुतसे परिवारसे संयुक्त तथा श्रीदेवीके सदृश्य परिणत गुण-समूहसे परिपूर्ण हो देवी रहती है ।।१७५१।।
नवरि विसेसो एसो, दाना परिवार-परम-परिसंखा ।
जेसिम - मेसा - परमा', जिमभवषा तेलिया' रम्मा ॥१७५२॥
पर्व: यहाँ विशेषता केवल यह है कि ह्री देवी के परिवार और पोंकी संभ्या श्रीदेवीकी अपेक्षा दूनी है । इस तासाबमें जितने पम है, उतने ही रमणरेय जिन-भवन भी है ॥१७५२॥
बह सम्बन्धी कूटोंका निवा--- ईसाप - विसा - भागे, बेसमभो गाम सुरो फूगे। रक्सिण-विसा-विमागे, मे सिरिणिचय पामो य॥१७५३।। नारिरि-भागे फुगे, महिमवतो विचित्त-रयजमओ। पच्छिम • उत्तरभागे, जूडो एराबवो जाम ॥१७५४।। सिरिसंवमो ति फूो. उत्तर - भागे पहस बटुवि ।
एहि हि महहिमवतो य पंचसिहरो ति ॥१५॥
१.स. ४. क. प. य. पामोहि । २. १. प. म. ज. प. महाहिमवती। ३... पसा, *.. पोसा। ४. इ. स. क. ज. स. सति । ....... संवदं । ... संरचं ।
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ver]
तिलोयपण्णत्ती
[ गाया : १७५१-१७५६
:- इस तालाब के ईशान दिशा-भागमें सुन्दर वैश्रवण नामक कूट, दक्षिण दिशा भागमें श्रीनिचय नामक कूट, नैऋत्य दिशामें विचित्र रश्नोंसे निर्मित महाहिममान् कूट, पश्चिमोत्तर भागमें ऐरावत नामक कूट घोर उत्तरमागमें श्रीसंचय नामक कूट स्थित है। इन कूटोंसे महमिवान् पर्वत 'पंच शिखर' कहलाता है ।।१७५३ - १७५५ ।।
एबे सब्बे कूडा, बेंतर उवबन-देवी- सुदा, उत्तर
.
-
जयरेहि परम -
रमजा ।
पासे जलम्म जिन को ।। १७५६ ।।
पर्व :
:– ये सब कूट व्यन्तर नगरोंसे परम रमणीय और उपवन वेदियोस संयुक्त है।
तालाब के उत्तरपापभागमें जलमें जिनेन्द्र कूट है ।। १७५६ ।।
-
सिरिणिचयं
रुलियं अंकमयं अंबरीय बजगाई ।
उप्पल सिहरी सूबा, सलिलम्मि पवाहिना होति ।। १७५७॥
-
वर्ष :- श्रीनिचय, यंभूयं, अङ्कमय, अम्बरीक, रुचक, उत्पल और शिखरी, फूट ( महापद्मके )जसमें प्रदक्षिणस्पत स्थित है ।। १३५७॥
उसक
रोहित महानदी
———.
-
- बारे रोहि-नयी हिस्सरेबि बिस जला । मिलन-सुहेम बवि, पद्म-हद- इगिदीस-ति-सयमविरित ।। १७५८ ।।
रोहीए व वादी, सारिन्छो होबि नाहि दाहिनेनं हेमबरे आदि
1.3. Arghie, 4. Rybkie i
। १६०५,, ।
:- प्रचुर जल-संयुक्त रोहित नदी इस तालाब के दक्षिणद्वार से निकलती है और पर्वत पर पांचसे गुरिणत तमसो इनको योजनसे अधिक ( १२१४५ - १६० योजन) दक्षिण की ओर जाती है ।। १७५८ ॥
रोहिबासाए ।
अर्थ :-- रोहित नदीका विस्तार आदि रोहितास्या के सदृश है। यह नदी हैमवत क्षेत्रमें नामिगिरिको प्रदक्षिणा करतो हुई पूर्वाभिमुख होकर भागे जाती है ।। १७५२।१
पुष्बमुहा ॥१७५९ ।।
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पापा : १७६०-१७६३ ] पजत्यो महाहियारों
[ ४५ तक्टिविन-मरण, 'गलियारोवस्स अगदि-बिन-नारे। पविसरि सकण-अलाह, अलवीस-सहस्स-वाहिणी-सहिया ॥१६॥
। २८०००।
। महहिमवतो गरो । घर्ष :-इसप्रकार यह नदो उस हैमवत क्षेत्रके हमध्यभागसे दीपकी वेदीके बिलकारमें जाकर मट्ठाईस हमार नदियों सहित सवरण समुद्र में प्रवेश करती है ।।१७६०।।
। महाहिमवान् पर्वतका वर्णन समाप्त हुआ।
हरिक्षेत्रका निरूपण
हरिबरिसस्त घ वाणं, तं उहि - वाघु'भावम् ।।१७६१॥
|
|
म :-भरतक्षेत्र के गाएको इकतीससे गुणा करने पर जो गुणनफल (H1-४३१% १४) शप्त हो उसना समुद्र तटसे हरिवई क्षेत्रका बाण (१६३१५॥ यो०) जानना चाहिए ||१७६१॥
एक जोयण - लक्वं, सद्वि-सहस्साणि भागहारो । उणवोहि एसो, हरिगरिस - सिए चित्पारो ।।१७६२१॥
पर्म :-हरियर्ष क्षेत्रका विस्तार उनीससे भाजित एक साल साठ हजार (२१) योजन प्रमाण हे ॥१७६२॥
सेहत्तरी - सहस्सा, एक्कोत्तर-पव-सयापि जोयनमा । ससारस य कलाप्रो, हरिवरिसस्सुत्तरे जीवा ॥१७६३॥
।७३१०१। ।
1... वनय । २.६.२.क. ज. E. माहिमवंत । ३...ब.क. २.प. गो। ४. प... तगयो, क. ज. प. सदादो। ... पक्कि।
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तिलोयपणती [ गाया ।१७६४-१७६० धर्म : हरिवध क्षेत्रको उसर जीवा तिहत्तर हजार नौसी एक योजन भौर सत्तरह कसा ( ७३६.१ मो०) प्रमाण है ।।१७६३।।
कुलसीवि-साहस्सानि, तह सोलह - जोयमाणि बरंता । एपस्सि' जीवाए, अनुपुद्ध होरि हरिवरिसे ॥१७६४।।
। ४०१६ ।
सोवाहा पाठ चौरासी जार कोसार योषन पौरपार माय ( ८४०१६ यो• ) प्रमाण है ॥१७६४॥
मोयन-नव-पशि-सया, पगसीयो हॉति अनुतीम-हिमा । एकरस • कला - अहिया, हरिवरिसे पूलियामानं ।।१७५५।।
1 REET भ:-हरिवपं क्षेत्रको लिकाका प्रभाग नौ हजार नौ सौ पचासी योजन और बातीस से भाजित ग्यारह कलापोंसे अधिक (६९८५१ यो० ) है ११७६५||
तेरस सहस्समावि, सिग्जि सया बोयनाइ गिट्ठी । महतीस-हरियन्सेरस-कलाभो हरिपारिस - पास - भुवा ।।१७६६।।
। १३५६१ ।। प:-हरिवर्ष क्षेत्रको पावर्वभुजा तेरह हजार तीन सौ इकसठ योजन और मदतीससे भाजित तेरह कला ( १३३६१ यो ) प्रमाण है ॥१७६६।।
अबसेस बनाओ, सुसमस्स व होति 'सस्त खेरास्त ।
नपरि अवष्ठुिर • का, परिहीणं हानि - वीहिं ।।१७६७॥
मचं :-उस क्षेत्रका अबरोष वर्गन सुषमाकालके सदृश है। विशेष यह है कि यह क्षेत्र हारि-डिसे रहित होता हुआ संस्थित स्म अर्थात् एकसा ही रहता है ।।१७६७॥
तोते बहुमन, पेटुपि विजयावरिति नाभिगिरी । सम्म • बिष्य बनन· पत्ता बहहिर चारमा रेषा ।।१७१८।।
- -..- - १. द... एबस, इ. स. एदेव । २. ब, क, वस्नु ।
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गाषा : १७६६-१७७२ ] उत्पो महाहिमारो
प्रर्ष:-इस क्षेत्रके महमध्यभागमें विजयवान् नामक नाभिगिरि स्थित है । यहाँ सर्व दिव्य वर्गनसे युक्त पारणदेव रहते हैं ॥१८॥
हरिकान्ता नयोका निरूपणमहपउम • बहाउ भनी, उत्तरभागेण तोरणहारे। मिसरिखूणं वश्चति, पम्वर - उरिम्मि हरिकता ॥१७६६।।
अची रिकान्तारावि महालको सन्तरासानन्धी सोहाद्वारसे निकलकर पर्वतके । ऊपरसे जाती है ।।१७६६।।
सा गिरि-उरि गच्छा, एक-सहस्सं पसरा छ-सया । जोयणया पंच कला, पगालिए परवि कूरम्मि ॥१७७०।।
। १६०५. । म :-वह नदी एक हजार छहसो पांच पोजन और पाप कला ( १६०५पो) प्रमाण पर्वतके ऊपर जाकर नालोके द्वारा कुण्डमें गिरती है ॥१७७०।।
बे-कोहिमपाश्यि, गाभि - गिरिवं पाहिन का।
पश्चिम - मुहेण वन्यवि, रोहोपो बिगुम - वासावी ।।१७७१॥
प्र:-पक्ष्यात् वह (नदी) नामिगिरिसे दो कोस दूर ( इधर ही रहकर अर्थात् उसे न पाकर, उसको ( अ ) प्रदक्षिणा करके रोहित्-नदीको अपेक्षा दुगुने विस्तारादि सहित होती हुई पश्चिमकी मोर जाती है ।।१७७१।।
अत्यन्ण - सहस्सेहि. परिवार • सरंगिनीहि परियरिया । वीबस्स य नगवि-बिलं, पवितिय पवितेह लवनिहिं ।।१७७२।।
। ५६०००।
। हरिवरिसो गये। :- इसप्रकार वह नदी अप्पन हजार परिवार नदियों सहित दीपके जगतो-दारमें ( बिल ) प्रवेश कर पनन्तर लवणसमुद्र में प्रवेश करती हैं ॥१७७२।।
। हरिवर्ष-क्षेत्रका वर्णन समाप्त हुना।
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YES ]
तिलोगपाली
निषपर्वतका मिरुपएड़
+
सोलस-सहस्स-अ-सय-भावाला दो कला जिसह ददं ।
उणवीस हिदाय इसू. 'तीस महत्तानि अल्पवयं ॥१७७३ ॥
4
। १६६४२,६ | ६३००००
13
:- निपधपर्वतका विस्तार सोलह हजार प्राठसो बयालीस योजन भोर दो कला भाजित छह लाख तीस हजार (३३१५७१) योजन
( १६८४२१२ योजन ) तथा बासा, उन्हात प्रमाण है ।। १७७३ ।।
अवा गिरि-रिसार्ण, विगुनियवासम्म भरह- इसु-माणे । अबनीने जं सेसं नियणिय बाणान संमानं ||१७७४॥
| गाथा १७७३-१७७७
-
:-पव पर्वत और क्षेत्रके दूने विस्तारमेंस भरतक्षेत्र सम्बन्धी वारण-प्रमाणके कम कर देनेपर जितना शेष रहे उतना अपने-अपने बाणोंका प्रमारण होता है ।। १७७४ ।। 1500×7-100= =1208??<=3} {uot; farmer art!
·
च-उवि -सहस्साथि, जोन प्पन्न-अहि-एक्क-सया ।
योगि फलाओ अहिया, जिसह गिरिस्चरे बोबा ।। १७७५ ।।
-
| ६४१५६३ ।
अर्थ :- निषद्यपसको उत्तरजीवाका प्रमाण चौरानबे हजार एकसौ छप्पन योजन और दो कला अधिक है ।।१७७५।।
एक्कं जोय-लक् चरबीस-सहस्स-शि-सय-छावाला ।
पव आगा अविरिया, जिस जीबाए षणपुट्टे ॥ १७७६ ।।
। १२४३४६६ ।
:- निषधपर्वतकी जोवाके धनुपृष्ठका प्रमाण एक लाख चौबीस हजार तीनसो घालीस योजन मोर दोभाग अधिक (१२४३४६६६ मो० ) है ।। १७७६ ।।
-
साबीसम्महियं एक्क एवं बस सहस्त जोयणया ।
योनि कमाओ जिसहे चिट्टि भूमिमा मागं ।। १.७७७ ।।
। जो १०१२७ ।
९. व. ज. बीस २. ब. परिमाणं प. स. सह
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गाया : १७७८-१७५२] परयो महाहियारो
म :-निषधपर्वतकी चूलिकाका प्रमाण दस हजार एक सौ सत्ताईस योशन और दो . फला (१.१२.यो.) कहा गया है ॥१७७७)
बोयण बोस • सहस्सं, एक्क • समं पंच-सहिया सड्डी । मसाइल - कलामो, परस • भुवा निसह • सेलस III
। २०१६५: । मई:-निषष पर्वतकी पाइवं भुजा बीस हजार एक सौ पैभव योजन मोर दाई कला (२०१६५ यो०)प्रमाण है ।।१७७८।।
उपचन-खण्डोंका वर्णनलगिरि-दो-पासम उवाम - संडाणि होति रमपिज्जा । MEHT ... बहाव पर सानि, सुक-कोकिल-मोर-मुसाणि ॥१७७६।।
o:-इस पर्वतके दोनों पार्श्वभागोंमें बहुत प्रकारके उतार वृक्षों और तोता, कोरल एवं मयूर पक्षियोंसे युक्त रमणीय उपवन-खण्ड हैं ।।१७७९)
उपवण - संडा सम्वे, पम्बर - बोहरा-सरिस-चोहता।
बर - बाबी - कृष - बुवा, पुर्व चिय बना सध्या ।।१७८०॥ . .
म :-वे सब उपवम-खण्ड पर्वतकी सम्माई सदृश लम्बे और उत्तम वापियों एवं कूषोंसे संयुक्त है । इनका सब वर्णन पूर्वके ही सदृश है ।११५६० ।।
निषघपर्वतस्य कूटकूणे 'सिदो गिसहो, हरिवस्सो सह विदेह-हरि-विजया । सोदोबपरविरहा, 'राजगो य हवेवि निसाह - उरिस्मि ॥
११॥ म:-मिषधपर्वतक ऊपर सिद्ध, निषत्र, हरिण, विदेह, हरि, विजय, सीतोपा, अपरविदेह और पक, ये नो कूट स्थित हैं ।।१७।
तानं उपय - पदो, सच्चे हिमवंत - सेल - पूनायो। पारगुणिया मरिमे, कोवरि जिलपुरा सरिसा ।।१५८२॥
- - -.-- १. ६. म. म. हिमहे । २. क. 4. 4. दागा। 1. प. बिलावरा ।
.-..--
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news ::
सोगमा ती [ गाथा : १७८३-१७८९ पर्व:-इन झूटोंको ऊंचाई आदि सम हिमवान-पर्वतके कूटोंसे चौगुनी है । विशेषता केवल यह है कि कूटोंपर स्विस ये जिमपुर हिमवान्-पर्वत सम्बन्धी जिनपुरोंके सहमा है ॥१७५२।।
गामा ते कूस, सं मामा तरा सुरा ते । बहू - परिवारेहि मुझ पल्लाऊ इस • पात्तगा ।।१७९३३
पर्व:-ये फूट जिस नामवाले हैं, उसो नामवासे व्यन्तरदेव उन टोपर निवास करते हैं। बहुत परिवारोंसे युक्त ये देव एक पस्य प्रमाण मायु वाले और दस धनुप ऊँचे हैं ।।१७४३॥
पउमदहात घट • गुण-कापरी हवेदि विश्व - बहो। तिगियो' विक्लायो, बहु - माझे जिसह • सेलस्स ॥१७८४॥
वा २००० । आ४००० । मा ४. 1 प संया ५५०४६४ । २३४दा ४ 1 उ ४२ । । । वा १ ।पा ४ को । वा २ को उ३ को ।
अर्थ :--निषधपर्वतके वहमध्यभागमें पर-द्रहकी अपेक्षा चौगुने विस्तारादि सहित और तिगिम्छ-नामसे प्रसिद्ध एक दिव्य तालाब है।९७४।।
तालाबका ध्यास २००० योजन, आयाम ४००० यो पौर अवगाह ४० योजन प्रमाण है। सम्पूर्ण कमलोंका प्रमाण ५६०४६४ है । कमलका उस्लेघ ४ योजन भौर व्यास भी ४ योग है। कमल-नाल की ऊंचाई ४२ योजन है । ( जलमग्न ४० योजन और जमके ऊपर ३ यो है।) कमलकारणका का उस्सेप १ मोजन और ध्यास । योजन है । कमस-करिरका पर स्थित प्रत्येक भवन की लम्बाई ४ कोस, चौड़ाई २ कोस मोर ऊँचाई ३ कोस है।
धृतिदेवी निर्देशतहह - परमात्सोवरि, 'पासाये घट्ट य विविवेबी।
बहू • परिवारहि जुबा, पिवम - लावण • संपुष्णा ॥१५॥
प्रपं:-उस वह सम्बन्धी कमलके अपर स्थित भवन में बहुत परिबारसे संयुक्त और अनुपम लावग्यसे परिपूर्ण धृतिदेवो निवास करती है ॥१५॥
इगि • पल्ल - पमानाऊ, गागाशि-रमण-भूसिय-सरोरा। अहरम्मा संतरिया, सोहामिस्स सा देवी ॥१७५६॥
१. ५. तीनिध्ये, स, तिगिन्थे । २. ५.. वा २, मंगा २, ३,५४, कि । ..... क...पसारा।
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गाथा : १७६७-१७६९ ]
त्यो महाहियारो
[ ५०१
धर्म :- एक पल्प आयुकी धारक और नाना प्रकारके रत्नोंसे विभूषित गरेर वाली अतिरमणीय वह व्यन्तरिरणी सौधर्मेन्द्रको देवकुमारी (आनाकारिणो ) है १७६६ ।।
यि निशि ।
अयि मेला भव्वाणादपरा', सुरकिष्णरमिण संकिष्णा ।।१७८७।।
"
हमें जिन भवन एवं फूट
अर्थ :- उस तालाब में जिसने पद्मगृह हैं, भव्यजनोंको ब्रानन्दित करने वाले किनर देवोंके युगलों से संकीर्ण जिनेन्द्रपुर भी उतने ही हैं ।।१७८७॥१
-
ईसान विसा भागे, वेसमनो नाम मणहरो कूडो ।
दक्लिन दिसा विभागे कूडो सिरिरिचय णामो य ।।१७८८ ||
-
=
इरदि- दिसाविभागे जिसहो णामेण सुंदरी फूडो । अइराबादो' शि] कूडो, तिमिन्धि पछिसर विभागं ॥। १७८६ ॥
उतर- दिसा विभाग, कूडो सिरिसंचयो ति जामेण ।
एवहि कूठेह, जिसहगिरी पंच सिरि ति १७६०॥
-
वर्ष :--- तिगिच्छ तालाबको ईशान दिशामें वैधकरण नामक मनोहर कूट है दक्षिण दिशाभागमें श्रीनिमय नामक कूट, नैऋत्य दिशामें निषध नामक सुन्दर कूट, पश्चिमोत्तर कोण में ऐरावत कूट और उत्तर दिशा भागमें श्रीसञ्चय नामक कूट है। इन कूटोंके कारण निषेध-पर्वत 'पंचशिखरी' नामसे भी प्रसिद्ध है ।। १७८८-१७९०३
-
बर-बेदियाहि बुता, बेंतर-राय रेहि परम रमणिका ।
एवे कूब उत्तर पासे सलिलम्मि जिण जो ॥१७९१ ।।
-
:-ये कूट उत्तम वेदिकाओं सहित हैं और व्यन्तर नगरोंसे असितय रमणीय हैं। इन कूटोंके उत्तर पार्श्वभाग में जल में जिनेन्द्र कूट है ।।१७६१
१. ८. ब. क. ज. य. भरणा दवरा । २. ६. ब... य. वडा ३. ब ज म तिमिल गुर ४. व. ब. क. ब. म फूड़ा |
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५०२
विलोपत
सिरिमित्रयं वेदलियं
अंकमयं
अंबरीय हदगाई ।
J
सिहरी उप्पल कूडो, तिगिन्छ बहस्स समिलमि ॥। १७९२ ।।
-
और उत्पस कूट है १७२ ॥
-
थं :--सिंगिङछ तालाब के जलमें श्रीनित्रय, वैर्य, श्रम, अम्बरीक, पचक, शिवरी
[ गाथा : १७६२-१७९६
हरित् नदीका निर्देश ---
तिगिछाको दमनबारे हरि-गावी विश्कता । सहा-सहस्सं ब्रज-सप-दगिवीसा इगि-कलाय गिरि उबार ।।१७९३॥
। ७४२१ । । ।
ग्रामन्दिय हरिकुमे पनि हरि-गयी विणिस्सरदि* । माहि वाहिणेन, "हरिवस्ति आदि "पुब्बा
७४
:- हरित् नदी तिगिन्छ ग्रह के दक्षिणद्वारसे निकलकर सात हजार चारसो इक्कीस योजना एवं एक कला ( ७४२११५ यो० ) प्रमाण पर्वतके ऊपर माकर भोर हरित् कुण्डमें गिरकर धसि निकलती है तथा हरिवर्ष क्षेत्र में नामिगिरिको प्रदक्षिणा- रूपले पूर्वको मोर जाती है ।। १७६१ - १७९४९
-
छप्पन्न - सहस्सह, परिवार भिमनगाह संबुता । बोधस्स य जगदि बिलं पविसिय पविसेदि सवन विहि ।।१७६५ ।।
। ५६००० ।
वह नदी अप्पन हजार (५६००० ) परिवार नदियोंसे संयुक्त होकर द्वीपको
जगती जिल में प्रवेश करती हुई लवणसमुद्र में प्रवेश करती है ।। १७६५
हरिकता सारिच्छा हरि-गामा बास-गाह-पहुदोओ। मोगवनीण भीओ सर पहूदी जसपर बिहीमा ।।१७९६ ॥
.
। जिसो गदो ।
-
१. महसमिसम्म २ मिनिट ३.६.४६. सिर । ५. व. व.क. प. प. ६. . . . य. ब. हि । ७. ६. न. सिह
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गाथा : १७१७-१८०० पउस्लो महहियारो
[ ५०३ पर्ष :-हरिस् नदोका विस्तार एवं गहराई आदि हरिकान्ला नदीके सरग है। मोगभूमियोंकी नदियाँ एवं तासान आदिक जलपर जीसे रहित होते हैं ।।१७६६॥
। निकष-पर्वतका वर्णन समाप्त हुआ ।
महादिदेह-अवका वर्णनणिसहस्सुत्तर - भागे, दक्खिण - भागम्मि भीलवतम्स ।
वरिसो महाविदेहो, मंबर - सेलेण पविहतो ।।१७६७॥
ग:-मिषधपर्वतके उत्तरभागमें और नील पर्वतके दक्षिण-भागमें मन्दरमेरुमे विभक्त महाविदेह क्षेत्र है ।।१७६७॥
तेतीस-सहस्साई, छसया उसौविमा य प - अंसा । तो महविरेह - रई, जोयन - लक्लं मझगव - जोश ॥१७॥
प्रचं :-उस महाविदेह-क्षेत्रका विस्तार तीस हजार छह सौ चौरासी योजन और पार भाग ( ३३५८४ यो ) प्रमाल, सपा मध्यगत जीवा एक लाख योजन प्रमाण है ।।१७६८।।
भरहस्स इसु-पमा', पंचानसरोहिं तारिदम्मि पुढं ।
रयगायर - सोरायो', गिवेह - प्रद्धो ति सो वापो ॥१७॥
प्रबं:-भरतक्षेत्रके वारणको पंचानवेसे गुणा करने पर बो (भरतका बाण x २५-12-५०००० योजन ) गुणनफल प्राप्त हो उतना समुदके तीरसे अर्ष विदेह-क्षेत्रके कारणका प्रमाण है ।।१७६६।।
अट्ठावन्न - सहस्सा, इगि - लक्खा तेरसुत्तरं । स। सग • कोसा प. महाविहस्स पपई ॥१०॥
प्र:-महाविदेहका धनुपछ एक लाख भट्ठावन हजार एकसो सेरह योजन पोर साढ़े तीन कोस ( १५८११३ यो ३३ कोस ) प्रमाण है ॥१८॥
१...... य, पमाशो। २. ५.
क. २. प. सोकरो।
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पार्म :- आई श्री सुविधा
तिलोयपत्ती
५०४ ]
जोमय उनतीस सया, इगिवीसं अट्ठरस तहा भागा।
एवं महाविदेहे
मिट्टि
भूलिया
अर्थ :- महाविदेह क्षेत्रकी भाग (२६२१० ) है ।। १८०१ ॥
-
-
१.पं. पलनीस
-
▾
[ गाया : १००१-१८०२
सोलस - सहस्सयाग, भट्ट लपा जोवरगाणि सेसीबी । अग्राहिय अट्ठ कला महाविवेोहस्स पस्स भुजा ॥ १८०२ ॥
मारणं ।। १८०१ ॥
। २९२११६ ।
चूलिकाका प्रमाण उमसीससौ इक्कीस योजन तथा अठारह
| १६८८३१२ |
:-महाविदेहकी पास्वं भुजा सोलह हजार पाठसी तेरासी भोजन और साढ़े भाठ कला ( १६६६३२ यो० } प्रमाण है ।। १८०२ ।।
[ तालिका ४२ पृष्ठ ५०५ पर देखिये ]
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
नामा : १८०२]
१०१२॥
सामिका:
पसंत एवं क्षेत्रों के विस्तार, गाय, गोरा, रमुख माविका प्रमात्र पापोर । क्षेत्रों के नाम
है | उल्लेख | बिस्तार | बाण उतर गोवा | धनुष | सिकः | पावं मुना
योजन | यांजन | मोजन | योगा । यांगन | योजन योजन निमकाम
|१५ |२३२५२३० | ५२१.3 | . भिमाक्षेत्र २१.५ | ३१८४ ४ %
21.00 2 | kurth ३ महाहिमवान...|
| Exa | ५३९३१. २९३ | १९८३ ] १२३ हरिदोत्र
८४२१ | १६१५५१२/ ७३१०१० १५ ११३६१ निमय
१६ | ३३१५७ १४:५१ र १२४३४११०१२७ । दक्षिाविदह। १९ .
| १५८१% | २९१ | ८३ উপংবিই
| १०.३०
|१५८१३३ | २९२१ | Nat
परयो महाडिया
too000
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१०६ ]
तिसोमपाती
[ गाथा : 1001 मन्दर महामेरुका निरूपणपरिसे महाविहे. बहुमो मंडरो महासेतो। जम्माभिसेय . पीवो, सब्वाचं तिस्प • कतागं ।।१८०३॥
"४६४
४०
४१४
२५०००
३६.००
५.०
११.०० ।
४७०००
११ Eat.
११...
११
१०४५०
१००६018 म:-महाविदेहक्षेत्रके बहु-मध्यभागमें सब सोबकरोंके जन्माभिषेकका मासनरूप मन्दर ( सुदर्शन ) नामक महापर्वत हे ॥१८०३।।
नोट- १८०३ को मूस मष्टिका भाव 'सुमेरु' के चित्रसे स्पष्ट हो रहा है।
( सुमेरु पर्वत का चित्र गले पृष्ठ पर देखिये )
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गाथा : १८०४ ]
पडत्यो महाहियारो
[ १.०
मार
मवायरल RELA
१
FEnी TH
सोयण-सहस्सालो, रणव-पषि-सहस्स-मेत बन्नेहो । बदपिहरण-संपतो नामावर • रयम - रमणियो ॥
१४॥ ।१... । ... । म: यह महापवंत एक हजार { १००० ) मोबन गहरा (नींव ), निम्बानये (8E...) हजार योजन ऊँचा, बहुत प्रकारके वन-बयोंसे युक्त और अनेक उत्तम रोंसे रमणीय है ॥१५.४॥
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________________
१८]
मार्शल दिस य सहस्सा गउवी, पायाल तले चं
.
-
तिलोयपण्णत्ती
-
I tooεo 12; 1
धर्म :- इस समान गोस शरीरवाले मेरु-पर्वतका विस्तार पाताल-तलमें दस हजार नम्ब योजन और एक योजनके ग्यारह भागोंमेंसे दस भाग [ १००१०२१ को ० ) प्रमाण है ।। १५०५ ।।
कम हानीए उपार, धरणी पट्टस्मि जोषण सहस्यमेवकं
विस्वारो
अभागा ।
या इस समपट्ट तनुस्त मेहल्स || १८०५ ॥
·
•
| १०००० | १००० |
अर्थ :- फिर क्रमयः हानिरूप होनेसे उसका विस्तार पृथिवोके ऊपर यस हजार (१००००) योजन और शिखर-भूमि पर एक हजार ( १००० ) योजन प्रमाण है ।। १५०६ ।।
-
-
सरसमय- जलद- 'रिग्गव- बिनयर जिव सोहए मे ।
विवि-बर-रमन-मंत्रिय बसुम
.
बस सहस्तानि ।
सिहर भूमीए ॥११८०६ ॥
[ गाथा : १८०५-१८०९
-
मठो उत्तुंग ।। १८०७॥
धणं :- वह उन्नत मेरुपर्वत शरश्कालीन बादलोंमेंसे निकलते हुए सूर्यमालके सहत और विविध उत्तम रहनोंसे मण्डित पृथिवीके मुकुट सह शोभायमान होता है ।१८७।।
ब्रम्माभिसेय-सुर-रद-दुदुही' मेरि-तूर - शिग्घोसो । मित्र-महिम-जमिन विक्कम सरब संगोह रमनि
॥१६०६ ॥
:- वह मेद पर्वत जन्माभिषेकके समय देवोसे रखे गये दुंदुभि, मेरी एवं सूर्यके निर्घोष सहित और जिन माहात्म्यसे उत्पन्न हुए पररक्रमवाले
सुरेन्द्र समूहोंसे रमरणीय होता
है ||१०|
A
·
.
सति-हार हंस-भवसुच्छलंत - खोरं- रासि सलिलोघो । सुर किन्नर मित्रानं नामाविह
-
फोडनेहि चुरो ।। १४०९ ।।
अर्थ :---चन्द्रमा, हार एवं हंस सदृश धवल तथा उचलते हुए क्षीरसागरके जल-समूह युक्त वह मैल पर्बत किन्नर-जातिके देव-युगलोंकी नाना प्रकारकी श्रीदामों से सुशोभित होता है ।। १८०२ ।।
१. व. ब. क्र. स. म. हि । २. ब. क. प. रहब. क.प.मेरो । . दिग्घिोषो । ४. ५.. . वसि
ज. प.
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गाथा : १८१८-१८५४) चउरयो महाहियारो
पषयर' कम्म-महासिस-संचूरम-बिनवि-भवनोयो ।
बिबिह-सर-कुसुम-पल्लव-फल-शिबह-सुगंध - भू - भागो ॥१५१०॥
पचं :- अतिसषन कर्मरूपी महाशिमाओंको पूर्ण करनेवाले जिनेन्द्र-भवनसमूहसे युक्त बह मेरुपर्वत अनेक प्रकारके वृक्ष-फूल-पल्लब और फलों के समूहसे पृथिवी-मण्डलको सुगन्धित करने पाला है ॥११॥
भेरू पर्वत के विस्तारमें होनाधिकताभूमो नया में ही गिरि
सहाणे संकुसियो, पंच - सया सो गिरी अगवं ।।१८११।।
प:-वह मेरुपर्वत क्रमशः हामिरूप होता हुमा पपिवीसे पापसी योजन ऊपर जाकर उस स्थानमें युगपत् पाँचसो पोजन प्रमाण संकुचित हो गया है ।।१८।१।।
सम-हित्वारो उार, एककरस-सहस्स-शोषण - पमाणं । ततो कम - हागीए, इंगिवाण-सहस्स-पण-सपा गंतु ॥१८१२॥
। ११...। ५१५०० । जुगवं 'समंतवो सो, संकुलियो बोयणामि पंच - सपा । सम - उरि - तले', एक्करस - साहस-परिमाण ॥१८१३॥
। ५००।११०००। अर्थ :-पश्चात् इससे ऊपर ग्यारह बजार ( 12... ) योजन पर्यन्म समान विस्तार है । यहाँसे पुनः क्रमश: हानि-ल्प होकर इक्यावन हजार पाच-सौ ( ५१५००) योजन प्रमाण ऊपर जाने पर यह पर्वत सब पोरसे युगपन् पाप-सौ योजन फिर संकुचित हो गया है। इसके मागे ऊपर ग्यारह हजार (११.०० योजन पर्यन्त उसका विस्तार समान है ।।१५१२-०१३।।
उई कम - हाणोए, पनवोस • सहस्स - गोयगा गंतु । जुग संकुत्तिदो सो, पसारि समाइ बा - परखी ।।१८१४॥
मर्ष :-फिर ऊपर क्रमशः हानिरूप होकर पचीस हजार । २५...) योजन आनेपर यह पर्वत युगपत् पारसौ बोरान मोचन प्रमाण संकुचित हो गया है ।। १८१४॥
१. ६. प. क. ज. प. बजार । २.
..सठ। १.१. समो।
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५१० ]
पर्मate :--
पवन
एहुस्स |
एवं जोवन लमर्स, उहो समस मिलयस्स सुर बरानं प्रवाइ मिहनत्स मेदस्स ।। १८१५॥
पर्व :- इस प्रकार सम्पूर्ण पर्वतों के प्रभु तुल्य और उत्तम देवोंके झालय-स्वरूप उस अनादिनिचन मेरु पर्वतको ऊंचाई एक लाख योजन प्रमाण है ।। १५३५शा
१०००+५००+ ११०००+४१५००+११००० + २५००० = १००००० योजन ऊंचाई ।
मुह-भूमि सेसमखिय, 'वग्ग कबं उदय वग्गसंत्तं ।
जं तस्स बग्ग मूलं, पम्बररायस्स तस्स पस्समुजा ।।१८१६ ।।
१०००
·
-
√(
2 ) 2 + ( 28000
२
१६१०२ योजन मेरु पर्वतको पार्श्वभुजाका प्रमान ।
-
4
४. व. न... सबसे
-
:- भूमिमेंसे मुख घटाकर तथा उसका माधा कर ( उस प-भागका ) वर्ष करना चाहिए और इसमें (पर्वतकी ) ऊंचाईका वर्ग मिला देनेपर उसका जो वर्गमूल हो वही पर्वतराजकी पावं भुजाका प्रमाण है ।। १८१६ ।।
यथा
f
पत
-
·
-
१. प. प. म. मानदे
-दि-सहस्सानि एक्क-सयं योनि जोयचाणि सहा । सविसेसाई* एसा मंदर सेलस पस्स
मुल विस्तार चार योजन है ।। १८१८।।
-
-
चालीस बारह तब्बू बासं, बार हमे सुह
Ex
२०२५००००+ ६८० १०००००*
। ६६१०२ ।
मन्दर पर्वतकी पारवं भुजाका प्रमाण निन्यानबे हजार एक सौ दो योजन
( २६१०२४] योजन या ६११०२१ योजन ) से कुछ अधिक है ।। १८१७।।
गार्थी १४१-१०१०
·
जोनाई, मेदमिरियस भूलिमा मागं ।
·
सुवा ।।१८१७।।
-
| ४० | १२ | ४ |
अर्थ :- मेरु पर्वती बुलिकाका प्रमाण चालीस योजन, भू-विस्तार बारह योजन और
बासं ।। १८१८ ।।
२. . . . भग्गमूल । २. द. व... य. रु. महत्तमस् । ज य सबिसोस
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त्यो महाहियारो
मुह-भूमीण बिसेसे, उच्छे हिम्मत।
हाणि चयं गिट्टि सस्स पमानं ह 'पंचसो ।। १८१९ ॥
गांबा : १८१६-१८२२ ]
-
Katiharti
आपार्थ श्री
जि
:- भूमिमेंसे मुखका प्रमाण घटाकर उत्सेधका भाग देनेवर जो तब्ध प्राप्त हो वह भूमिको धपेक्षा हानि और मुखकी अपेक्षा वृद्धिका प्रमाण कहा गया है। वह हानि वृद्धिका प्रमाण योजनका पांचवां भाग ( है यो० ) है ।। १८१६ ।।
(भू० वि० १२ यो० देहानि - वृद्धिका प्रमाण ।
-
४ यो० मुल वि०÷४० पो० उत्सेध) - ( १२ -Y)÷Y+=
जत्पिच्छसि विषमं भूलिय-सिंहराज समबधि
पंचेहि बितं
}
।
जुनं सहय तव्वासं ॥१८२० ।।
च
धर्म :- भूमिका शिखरसे नीचे उतरते हुए जितने योजनपर विष्कम्भ जानने की इच्छा हो उतने योजनोंको पाँचसे विभक्त करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें चार अ और जोड़ देनेपर बहकर विस्तार निकलता है ।। १८२०।।
उबाहूरल : – चूलिका-शिखरसे मीचे २० योजन पर विष्कम्भका प्रमाण जानना हो तो २० ÷ ४+४= योजम विष्कम्भ होगा ।
तं मूले सगतीसं महके पलुबीत ओमनानं पि । उडे वारस अहिया, परिही पेरसिय
[ ५१९
-
मझ्याए । १६२१॥
| ३७ | २५ | १२ |
अर्थ :- बैडूर्यमणिमय उस शिखरको परिधि मूलमें संतीस योजन, मध्य में पचीस योजन मौर ऊपर बारह योजनसे अधिक है ।।१८२१ ॥
अमिच्छसि विन्संगं, मंबर - सिहराउ
समवविष्णानं ।
सं एक्कारस-भवियं सहस्त सहिदं च तस्य विवारं ।।१८२२ ।।
प्र : सुमेवपर्वत शिखरसे नीचे उतरते हुए जितने योजनपर उसका विष्कम्भ जानने की इन्द्रा हो उतने योजनों में ग्यारहका मांग देनेपर जो लब्ध आवे उसमें एक हजार योजन और मिला देनेपर यहाँका विस्तार छा जाता है ।। १६२२ ।।
९. . . . . . . पं . त्य
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रहा ... arret सु र ज TEE ___ तिलरेयपम्पती
[ गापा :१८२३-२०२७ माहरण-यूलिकाके शिखरसे नीचे ३३०० योजनोंपर विष्वम्मका प्रमाण३३.००१+१०००=४००० योजन ।
जसि इप्ति वासं, उार मूलाउ तेतिय • पवे ।
एकारसेहि भनि, 5 • वासे सोहिदम्मि तम्यासं ॥१२३॥
पर्थ:-मूलसे ऊपर जिस स्थानपर मेरुका विस्तार जानने की इच्छा हो, उतने प्रदेश में ग्यारहका भाग देनेपर जो लब्ध पावे जसे भूमिके विस्तार से घटा देनपर शेष वहाँका विस्तार होता है ।।१२३॥
एक्कारसे पवेसे, एक - परेसा भूसको हानी ।
एवं पाव - करंगुल • कोस - पहुबीहि खास ॥१५२४॥
प्रपं:-मैरुके विस्तारमें मूलसे ऊपर ग्यारह प्रदेशोंपर एक प्रदेशको हानि हुई है। इसी प्रकार पाद, हस्त, अंगुस और कोस पादिककी ऊचाई पर भी स्वयं जानना चाहिए ।।१८२४।।
मेहकी छह परिपियां एवं उनका प्रमाणहरिबालमई परिही, देवलिय-मनी य रपम-बम्बई । उम्मि य पउमई, ततो उवरिम्मि परमरापमई ।।१८२५।।
प्रर्ष :-इस पर्वतकी परिधि नीचेसे क्रममा: हरितालमयी, वडूमरिणमी, रान (सर्वरत्न) मयी, वजमयी, इसके ऊपर पपमयो पोर इससे भी ऊपर पथरागमयी है ।।१२।।
तोलस - सहस्सयानि, पंच • सधा बोयणाणि परो। ताशं छप्परिहोणं, मदर • सेलस्स परिमाणं ॥१८२६॥
। १६५०० । :-मन्दर-पर्वतकी इन छह परिधियों में से प्रत्येक परिषिका प्रमाण सोलह हजार पाँचसो योजन है ॥१८२६।।
___ सातवीं परिधिमें ग्यारह वनसरामया' तपरिही, जाणाविह-सह-गहि परियरिया'।
एक्कारस • भेष - दुरा. नाहिरको भणमि तम्मे ।।१२७।।
१... क. न. प . पूरा। ३. ६... रियासमटी। ...... प. इ. सतया । ४.६.३.प.परिय । ५..प.क. ज. .. यो। ।
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गापा : १५२८.१८३२ ] उत्थो महाहियारो
[ ५१५ म:-उस पर्वतको साती परिधि नाना प्रकारके वृक्ष-समूहोंसे व्याप्त है और बाहरसे ग्यारह प्रकारको है । मैं उन भेदोंको कहता हूँ ॥१८२७॥
णामेण भहसाल, महासत्तर - देव - दाग - रमनाई।
मूवारमर पंचम - मेवाई' भहसाल - बणे ॥१८२८॥
पर्व :- भद्रणालवनमें नामसे प्रवास । मानुषोत्तुर, इंनड्मरण, नाराहमण और भूतामापासा, ये पांच वन है ।।१८२८॥
जंदण - पहदीएस, वणवर्णवर्ग' - सोमणसं ।
उपसोमनसं पंक "उवपंछ । पाणि दो - हो ॥१८२६।।
अर्थ :-नन्दनादिक बनोंमें नन्दन और उपनन्दन, सौमनस भोर उपसौमनस तथा पाण्डक पोर उपपापक इसप्रकार दो-दो बन हैं ॥१२॥
__ मेरुके मूलभागादिकको वयादि-रूपतासो मूमे बन्नमामो, एकक - सहस्सं च जोयण-पमागो। माझे पर - रमनमओ, इगिट्टि - साहस्स - परिमाणो ॥१८३०॥
।१००० | ११००० । उपरिम्मि कंचनममो, अबतोस-सहस्स-गोयगानं पि । मंवर - सेलस्स - सिरे', पंज • धर्म णाम रमपिज्वं ॥१३॥
। ३८०७ | पर्व:--वह सुमेहपवंत मूलमें एक हजार ( १०.० ) योजन प्रमाण वनमय, मध्यमें इकसठ हजार ( ६१००० ) योजन प्रमाण उत्तम रलमय और ऊपर असतीस हजार ( ३८०००) योजन - प्रमाण स्वर्णमय है। इस मन्दर - पर्वतके शीश पर रमणीय पातु नामक वन है ॥१८३.-१८३१॥
येरु सम्बन्धो चार वन--- सोमणसं नाम वणं सामुपदेसेस एंवरणं तह य । तस्य परत्यं अवि, मूमीए भइसाल • नं ॥१३॥
--
--
-
-
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-
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--
.-
.---
1. प. म. दरमहराया। .. क. ह. सपा । ३.ब.ब.क. स. प. उ. मरस होना।
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५१४ ]
तिलोयपणतो [ गाथा : १८५३-१८१७ :-सोमनस तथा नन्दमयन मेह-पर्वतके सानुप्रदेशों में और पौषा भाशालघन भूमि पर स्थित है ।।१३।।
मेष-शिखरका बिस्तार एवं परिधिलोषण - सहस्समेकं, मेरुमिरियस सिहर - विरधार। एकत्तीस - सयाणि, बासट्ठी समहिया य तपरिही ॥१८३३॥
। १०७. | ३१६२ । म :- मेरु महापर्वतके शिखरका विस्तार एक हजार { १०००) योजन और उसको परिधि तीन हजार एकसो बासठ योजनसे मुश्व मधिक ( ३१२१0 योजन ) प्रमाण है ।।१५३३॥
मेशिखरस्थ पाण्डक वनका वर्णनपंड - वणे प्रहरम्मा, समंतो होवि दिन - तर - वेदी ।
चरिमालय'-बिउला, गाणाविह-षय-बडेहि' संवृत्ता ।।१८३४॥ प्रय pigarनर्ग चाय को हालिम औिर नाना प्रकारको ध्वजा-पताकाओंसे संयुक्त अतिरमणीय दिव्य तट-वेदी है ।।१८३४॥
तीर तोरणवारे, जमस - कदाग हति वजमया ।
विविहार-रयण सचिवा, प्रकट्टिमा विश्वमायारा ॥१३॥
मय:--उस वेदीके तोरण-दारपर नाना प्रकार के उत्तम रहनोंसे जटित. अनुपम माकारवाले वप्तमयी अकृत्रिम युगल-कपाट ( किवाड़ ) हैं ।।१८३५।।
घुवंत - घय • बड़ाया, रयणमपा गोजराण पासावा । सुर-किरणर-मिट्टण-बुगा, बरिहिन' पहबोहि विविह वण-संग॥१८३६॥
:-(पाण्डुक वनमें ) फहराती हुई वजा-पताकायोंसे युक्त गोपुरोंके रलमय प्रासाद सुर-किन्नर युगलोंसे युक्त है तथा मयूरादि पक्षियों सहित अनेक वन-खण्ड है ॥१८३६।।
जन्यहो वे कोसा. बेबीए पण - सयानि दंडा। वित्मारो भुवमत्तय - विम्हय - संभाव' - जगगाए ॥१८३७॥
को २ 1दं ५०० ।
हि । ... पिरिहल, क. प. य. 8. परिहिए ।
१. द. य.क. ज. य. परिण्टामम । २. . ४.क.सुताप, र. ग. 4, 6, सत्ताय ।
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पापा: १८३७-१८४२ ] पउत्यो महाहियारो
[ ५१५ पर्ष :-भुवन त्रयको विस्मित मौर सुम्य करने वाली इस वेदोकी ऊंचाई दो कोस और विस्तार पाँचसो ( ५०० ) धनुष प्रमाण है ।।१८३७॥
तोए' मरिझमभागे, पंडू गामेण विव्व • बन • संयो।
सेलस्स चूलियाए, समंतवो दिन - परिवेटो ।।१३।।
पर्ष :--उस बेदीके मध्यभागमें पर्वतकी चूलिकाको चारों प्रोरसे घेरा डाले हुए पाण्डु नामक खण्ड
A TERFALENTINES कप्पुर-कान-पउरा, तमाल-हिताल-ताल-कलि-जा। लबली' - लवंग - सलिया-वाग्मि-मनसेहि' संघमा ||१८३६।। सयवति - मल्लि - साला - पय-भारंग-माहुलिगेहि । पुण्याय - जाप • कुमजए - भसोय-परीहि रमभिजा ॥१८४०। कोइल-कसयस-भरिदा, मोराणं विविह-कोरणेहि "भवा ।
सुकरब - सहा - हणा, खेचर-सर-मिहम-कोरपरा ॥१८४१॥
मचं :-( ये पाण्ड नामक वनसग ) प्रचुर कपूर वृक्षोंसे संयुक्त, तमाल, हिसास, ताल पोर कदली वृक्षोंसे युक्त, सबलो एवं लवझसे मुशोभित, दाडिम तथा पनसमोसे आच्छादिन, सप्तपत्री ( सप्तन्द ), मल्लि, पाल, पम्पक, नारङ्ग. मातुलिङ्ग पृलाग, नाग, कुन्जक और अशोक प्रादि वृक्षोंसे रमणीय, कोयमोंके कलकल शब्दसे भरे हुए मयूरोंको विविध क्रीष्ठायोंमे युक्त, तोतोंके शब्दोंसे पादायमान पोर विधाघर एवं देवयुगलोंकी क्रीडाकै स्थल हैं ।।१८३९-१८४||
पाण्डुक शिलाका वर्णनपंदु-वणभंतरए, ईसाण - दिसाए होरि पसिला ।
त'-इन - बेदी - जुत्ता, अदु - सरिन्छ - संठाणा ॥१८४२।।
पई-पाण्डवनके भीतर ( वनबाडको ) ईशान दिशामें तट वनवेदीसे मंयुक्त और प्रधबन्द्र सापाकारवाली पाण्डुकक्षिता है ॥१८४२॥
१.क. ज. प. सौमए। २. ६. ब. क. प. प. उ. पणती। .. ब. अ. प. पसहि, क. छ. फसोहि । ४. . प. उ. संबणो, क, संयम्यो । ५. क. बा. य. उ. चुरो1 ... ब. क. ३. सुरकारवर सराणा । ७... उ. पारण, क. परगणं होरि पंसिमा, ज. स. षणं परवरणेबाहेण पासिका। ८. द... ३. होरे। १. काय. उ. तर ।
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तिलोयपासी
[ गाथा ! १८४३-1010 पुष्वावरेसु बोयण • सब - दोहा परिखातरंसेस।
पण्णासा बहमाझे, कम • हाची सोए उभय • पासेस ॥१३॥
म:-( यह पाण्डक विमा ) पूर्व-पश्चिममें सो योजन सम्बो वौर दक्षिणोतर दिशा गत बहु-मध्यभागमें पचास योजन विस्तार सहित है । ( अर्धचन्द्राकार होनेसे ) यह अपने मध्य भागसे दोनों पायोकी ओर क्रमश: हानि को प्राप्त हुई है 11१८४३।।
जोयण - अछुच्छेहो', सम्मत्वं होवि' कनयमहया ता ।
सम-बट्टा उरिस्मि य, बग-बेगी • पहुदि • संयुत्ता ।।१८४१॥
प :-सर्वत्र स्वर्गमयी वह पाण्डुक चिला पाठ योजन ऊंची, ऊपर समवृत्ताकार और वाम-पेदी आदिसे संयुक्त है ।।१४।।
चउ-जोपण-उच्छेह, पर्ण - संय-वाह सबर - विस्थाएं। सम्गायणि - आइरिया, एवं मासंति पंसिल ॥१८४५।।
४।५००।२५० ।
पाठान्तरम् । प्रबं:-मह पाण्डुकगिला चार योजन ऊंची, पाँचसो ( ५०० ) योषन लारी और इससे अध ( २५.) योजन प्रमाण विस्तार युक्त है। इसप्रकार सगापणी भाचार्य निरूपरस करते है ॥१४॥
पाठान्तर ।
तौए 'बहुमरम-वेसे, "तुगं सोहास विषिह - सोहं।
सरसमम - तरुण • मंडल - संकास - फुरंत-किरणोघं ॥१८४६॥
मई :- पाण्डुक शिलाके बहुमध्य स्थानमें शरत्कालीन सूर्य-मण्डलके समान फैलती हुई। किरणों के समूह पद्भुत शोभायमान सिंहासन है 1॥१४६॥
सिंहासणस बोसु, पासेस विश्व : रयण - रहराई। भदासणाई जिम्मर - फुरंत - घर • किरण-णिवहागि ॥१९४७।।
प.
१. . व पाये , म उलेहो। २.१.स. 8. होहि। ३. ४. सीर। ४. ... बहमले। 1. द. ब. क. ज. स. तुगा ।
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गाषा : १८४८-१८५२ ] पात्यो महाहियारो
पर्व :-सिंहासन के दोनों पाश्व-भागोंमें प्रत्यन्त प्रकायामान उत्तम किरण-समूहसे संयुक्त एवं दिव्य रत्नोंसे रचे गये भाासन नियमान हैं॥१८४७।।
पुह पुह पोह-सयस्स य, उच्यहा पण - सपाणि कोवंडा । तेत्तिय • मेसो मूलो, वासो सिहरे अ सस्सर ॥१८४८||
।५०० । ५० । २५० । अर्थ :-सोनापोटीशी पृथक पृषक गई कार में धनुष हैं। मूल विस्तार भी इसने ही ( ५०० ) धनुष है तपा शिखर पर पीठोंका विस्तार इससे पाधा (२५. धनुष ) है ॥१८४८।।
यवसाववत - जुसा, ते पोढा पायपीठ - लोहिल्ला ।
मंगल - एम्बेहि जुवा, घामर - घंटा • पवारहि ।।१८४६॥
वर्ष :- पादपोठोंसे शोभायमान वे पीठ धवल-छत्र एवं चामर घटा आदि अनेक प्रकारके मङ्गम-दव्यों से संयुक्त हैं ॥१६॥
सम्बे पुश्वाहिमुहा, पोट • बरा तिहुवनस्स विम्हयरा।
एक्क-मुह - एकक - ओहो, को सरकार परिगणा ताणि ११८५०।।
अम: पूर्वाभिमुख स्थित वे सब उत्तम पीठ तीनों लोकोंको विस्मित करनेवाले हैं। इन पीठोंका वर्णन करने में एक मुख पोर एक जिवावाला कौन समर्थ हो सकता है ? ||१६५०॥
वाल-तोयंकरका जन्माभिरेकभरहक्लेस जावं, तित्यपर - कुमारकं गहेन' ।
सपकापडी इंसगैति विमूवीए विविहाए ।। १८५१॥
म :-सौधर्मादिक इन्द्र भरतक्षेत्र में उत्पन हुए तीर्थकर कुमारको महणकर विविध प्रकारकी विभूतिके साथ ( मेव पर्वतपर ) ले जाते हैं ॥१८५१।।
मेरु - पदाहिणे, गछिय पंडू - सिलाए उपरिम्मि ।
मझिय - सिंहासपए, बइसाविय भक्ति - राएम ॥१८५२।।
म :-( वे इन्द्र ) मेरु की प्रदक्षिणा करते हुए पाण्डुक चिलापर जाकर वीचके सिंहासन पर भक्तिराग पूर्वक ( उन्हें ) बंधाते हैं ।।१-५२।।
१. प. प. व. गहिवरणा।
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___५१८ ] anteras :... पहिलोपोke sat गाया : १८५३-१८५८
परिक्षण - पोडे सस्को, ईसानिदो वि उत्तरा • पौडे।
बहसिय अभिसेयाई, कुब्बति महाविसोहीए ॥५३॥
प्र :- सौधर्मेन्द्र दक्षिरण पीठ पर प्रोर ईशानेन्द्र समम पीठ पर मंठकर महतो विशुबिसे अभिषेक करते हैं ।१८५३।।
पंरकंबल गामा, रजबई सिह-दिसा-महमि सिसा ।
उत्तर - दक्षिण - दोहा, पुष्वाधर - भाय • विरिपना ।।१८५४।।
अपं :- प्राग्नेय दिशामें उत्तर-दक्षिण दीर्ष ( प्लम्बी ) और पूर्व-पश्चिम भागमें विस्तीर्ण (चौगे ) रजतमयो पाण्डुकम्बला नामक शिला स्थित है ।।१८५४।।
उच्छह - वास - पहो, पंसिलाए नहा सहा सोए ।
अवर - विवेह - जिणाणं, अभिसेयं सरय कुष्यति ।।१८५५!
अपं:-चाई एवं विस्तारादिक जिस प्रकार पाहुकषिलाका है उसीप्रकार उस (पाण्डकम्बला) शिलाका भी है । इस शिलाके ऊपर इन्द्र प्रपर (पश्चिम) विदेहके तीर्थकरोंका अभिषेक करते है ।।१८५५1
महरिवि-दिसा-विभागे, रससिला णाम होरि करण्यमई ।
पुष्वावरेसु रोहं, वित्यारो वपिखणुतरे तोए ॥१५॥
म:-नैऋत्य-दिशाभागमें रक्तशिला नामक स्वर्गमयी शिला है. वो पूर्व-पश्चिम दीर्घ और उत्तर दक्षिण विस्तृत है ॥१८५६।।
पंसिला - सारिच्छा, तोए विस्थार - उदय - पहगोमो।
एरावत्य • जिणाणं, अभिसेयं सत्य कुम्बंति ॥१८५७।।
अर्थ :--इसका विस्तार एवं ऊंचाई प्रावि पाण्डकशिलाके सहपा है। यहां पर इन्द्र ऐरावत क्षेत्रमें उत्पन्न हुए तीर्थंकरोंका पभिशेक करते हैं ।।१८५७||
पवण • विसाए होवि हु, बहिरमई रसकम्बला गाम ।
उसर - दक्सिर-दोहा, पुल्वावर - भाग - पिस्थिता ॥१५॥
अर्थ :-- बायव्य दिशामें उत्तर-दक्षिण दीर्घ गौर पूर्व-पश्चिम भागमें विस्तीर्ण ताकाबला नामक रुधिरमयी ( लालमणिमयी ) शिला है ।।१८५८11
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गावा : १८५६-१८६१ पठत्यो महाहियारो
[ ५१६ पंडसिलान समाया बिबाबा काश्मिा REETTE TEETA
पुग्ध - विवेह - जिजाणं, अभिसेयं तत्प कुर्वति ॥१८५६)
पर्य :--इसका विस्तार और ऊँचाई मादिक पाक-शिलाके मरा है। महा पर इन्द्र पूर्वविदेहमें उत्पन्न हुए तीर्थंकरोंका अभिषेक करते हैं ।।१८५६।।
पाण्डुकवनस्थ प्रामादों प्रादिका वर्मनपुम्ब-रिसाए धूलिय • पासे पंडा - बम्मि पासा। सोहित - नामो बट्ठो, बास - पुगो' तीत-कोसारिण ॥१८१०॥
। ३० । म:-पादुक-वनमें चूलिकाफे पास पूर्व-दिवा में तीन कोस प्रमाण विस्तारवाला लोहित नामक वृत्ताकार प्रामाद है ।।१८६०।।
पणास कोस-उदओ, तपरिहो पति-को-परिमाणा। विविह - बर - रयम-सचिदो, खाणापिह-धूप-गंषड्तो ।।१८६१।।
-- .- -. . . - १. ६. क.म. प. स. झुगा । १. व.प..प. य.. कोलाएँ।... ब. य. पुण्यारे ।
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५२० ]
तिलोय पणती
[ गाया : १६६२-१६६६
अयं विविध उत्तम रत्नोंसे खचित और नाना प्रकार के धूपोंके ग्रन्यसे क्याप्स यह पूर्व - मुख प्रासाद पचास कोस ऊँचा है तथा उसकी परिधि नव्ये ( ६० ) फोस प्रमाण है ।। १८६१ ।। कार्यक आचार्य श्री टि सयणाणि आसणाणि, अमलानि गीरजानि उमाणि । चेट्ठति ।।१६६२ ॥
दर पास संदाणि
पराणि तस्व
-
अर्थ :- उस प्रासादमें ) उत्तम पार्श्वभागों से युक्त, स्वच्छ, रज-विहीन एवं मृदुल सय्यायें तथा आसन प्रचुर परिमाण में है ।। १८६२ ।।
सम्मं विर-महुमके, कीडण सेसी विचिच-यज्ञमओ । समस्त लोपालो, सोमो की मेदि पुण्द दिस-नाहो ।।१८६३॥
अ :- उस भवनके बहुमध्य भागमें अद्भुत रस्नमय एक कोवापस है। इस पर्व उपर पूर्व दिशाका स्वामी सौधर्म इन्द्रका सोम नामक लोकपाल क्रीड़ा करता है ।। १८६३ ।। आडू कोडियाहि, कम्पज-इस्पोहि परिउदो सोमो |
प्रयि पण पलाऊ, रमवि सयंपह
विमान पहू ।। १६६४ ॥
-
·
। ६५०००००० । पत्न
अर्थ :- अड़ाई त्यप्रमाण आयुवाला, स्वयम्प्रभ विमानका स्वामी, सोम नामक लोकपाल साढ़े तीन करोड़ प्रमारण कल्पवासिनी स्त्रियोंसे परिवृत होता हुआ यहां रमण करता है ।। १८६४ ।।
छल्लक्खा चासो, सहस्सया कस्सपाइ छासट्ठी । सोमस्स बिमारगाई, सर्वपट्टे होंति
| ६६६६६६
अर्थ :- स्वयम्प्रभ विमानमें सोग लोकपाल के विमानोंका परिवार वह लाख छपासठ हजारो घासठ संख्या प्रमारण है ।। १८६५
परिवारा ।। १८६५॥
बाण-वस्याभरणा, कुसुमा गंधा विमाण - तयणा ।
सोमस समग्गा हवंति अविरत
t
.
बाणि ॥१६६६ ॥
१. माणिकपणा, जम पारिश। २. ५. ब. प. प. च सा । ३. द. कोकिल... प. उ. को४ि व व व हसि प्रविरिश क.अ. म. इति प्रि
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गाया : १८६७-१८७१ ]
यो महाहियारो
[ ५२१
अर्थ :- सोम लोकपालके वाहन, वस्त्र, भाभरण, कुसुम, गन्धचूर्ण, विमान और शयनादिक सब रयत ( गहरे ) रक्तवर्णके होते है ।। १८६६ ।।
पंडुग-वचस्स मक्के, चूलियन्यासम्मि बक्सिन-विभागे । अंजण णामो भवनों, बासम्पहुवीहि पुष्यं व ।। १८६७॥
म :- पाण्डुवनके मध्य में चूलिकाके पास दक्षिण दिशाकी भोर भजन नामक भवन है । इसका विस्तारादिक पूर्वोक्त भवनके ही सदृश है ||१८६७ ।।
है ।।१६६६ ।।
जम-नाम-सोयपासो', अंगण भवणस्स चेट्टबे मर
किम्बर-दि-खुदो, अरिठ - शामे
अर्थ :- अन्जन भवन के मध्य में अरिष्ट नामक विमानका प्रभु यम नामक लोकपाल फाले रंगको वस्त्रादिक सामग्री सहित रहता है ।।१६६८ ।।
पाऊसो ।
बल्लक्ला छासट्ठी, बिमाने,
तस्थारि
सहस्सया जस्सपाइ घासट्टी ।
हाँसि विमानाणि परिवारा ॥१८६६ ॥
। ६६६६६६ ।
:- वहाँ मरिष्ट विमान के परिवार विमान छह लाख छयासठ हजार बहसी घासठ
·
आउट्ठ-कोटि-संखा, कप्पन इस्पोओ णिरुवमायारा ।
होति अमस्स पिवाक्ष, अडिय-पन पहल आरस्स ।। १८७०।।
पंगवर भलिम हारिदो पासाद वास
-
-
३५००००००प
:- साढ़े तीन करोड़ ( ३५०००००० ) संख्या प्रमाण अनुपम आकृतिबाली कल्पवासिती देवियां यम नामक लोकपाल की प्रियायें है। इस लोकपालको भायु प्रति पाँच ( अढ़ाई )
पस्य प्रभाश होती है ।। १८७० ॥
१. द.म. क. म. म. ब. नोवपासा ।
पुत्र विमाणात । विमार्णास्मि || १६६६ ।।
▾
-
पासम्म पफिम दिलाए ।
यहि पृथ्यं वा ।। १८७१ ।।
२८. . . . . उ. जुदा । ३. द. व. क.अ. य.च.
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५२२ ]
तिलोयपणती [गाया ! १८७२-१८७६ प:-पाण्डकवनके मध्यमें चूलिकाके पास पविषम-दिशामें पूर्वोस भवनके सदृश ध्यासादि सहित हारिट नामक प्रासाद है ।।१८७॥
वरुणो त्ति लोयपालो, पासावे तत्व चेवे मिच्छ । starter किंचुण सिपाह काम पानिमाम्नि ।।१८७२।।
मपं :-उम्र प्रासादमें सब कुछ कम सोन पल्य प्रमाण आयुका धारक जसप्रम नामक विमानका प्रभु वरुण नामक लोकपाल रहता है ।।१८७२।।
छल्लामा बापट्ठी, सहस्सया बसवानि चासट्ठी। परिवार - बिमाशाई होति जलप्पट - बिमानस्स ॥१८७३॥
६६६६६६ । म :- जलप्रम विमानके परिवार-विमान छह लाख छयासठ हजार छहसौ छपासठ ___ संस्था प्रमाण हैं ।।१८७३॥
वाहण-वस्थ-विमसन-कुसुम-प्पहीन हेम - वाणानि । वरजस्स हॉति कप्पा - पियाउ आउट - कोडोयो ||१७||
। ३२०००००० । धर्म:-वरुण लोकपालके वाहन, वस्त्र, भूषण मोर कुसुमादिक सभी पदार्थ स्वर्ण (सुनहले ) वर्णवाले होते हैं। इसके साढे तीन करोड १३१०००...) कल्पवासिनी प्रियायें होती हैं ॥१८५४॥
तश्वन - भरझे धूलिय - पासम्मिय उपरे विमायन्मि।
पंडग - नामो मिसनो, वास - पहुचीहि पुव्वं वा॥१८७५।।
म:--उस पाण्डुक बनके मध्यमें पूलिकाके पास उत्तर-विभागमें पूर्वोक्त भवनके सहम विस्तारादियाला पाक नामक प्रासाव है ।।१७।।
सस्सि कुबेर • मामा, पासाद - 'वरम्मि केवे देवो । किचूण - ति - पस्माक, सामो हरगुप्पहे विमाचस्मि ||१८७६॥
म:-उस उत्तम प्रासादमें कुछ कम तीन पल्पप्रमाण आयुका शरक एवं वल्गुनम विमानका प्रमु कुबेर नामक देव रहता है ।।१७।।
-
.
-
-
-
-
१. 4...क... य. च, बम्मि ।
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गाषा : १५७-१८८१ ] चउत्यो महाहियारो
[ ५२३ छल्लाला छाट्ठी, सहस्सया छत्सयाइ छासही। परिवार - विमाणाई, पापहे वर - विमाणम्मि १८७७॥
। ६६६६६६ । म:-बल्गुप्रभ नामक उत्तम विमानके परिवार-विमान छह लास पासठ हजार छह सो पासठ संख्या प्रमाण है ।।१८७७)
वाहम-बम-पहवी, लरहि RETTE CERTE # K ल कप्पन - वर - इस्पोमो, पियाओ आउनु - कोजीओ ।।१८७८11
।३५००००००। म:-उत्तर दिशाके स्वामी उस कुबेरके वाहन-वस्वाधिक पावस होते हैं और साढ़े तीन करोड़ ( ३४००००.०) कल्पज उत्तम स्त्रिर्मा टमकी प्रियायें होती हैं ।।१८७८
पाण्डुक वनस्प जिनेन्द्र-प्रासाद वर्णनतम्बक • माझे धूलिय - पुन्ध-विसाए जिणिद-पासादो । उत्तर - पक्विान-शोहो, कोस - समं पंचाहत्तरी उदलो ।।१८७६।
। कोस ...।७५ । म:-उस धन के मध्य चलिकासे पूर्वको ओर सो कोस-प्रमाण उत्तर-दक्षिण-दोष भोर पपहत्तर कोस-प्रमाण ऊँचा जिनेन्द्र-प्रासाद है ॥१८७६।।
पुष्यावर - भागेस, कोसा पचास तस्य वित्मारो । कोसई अवगाहो, द्विमो मिहण - परिहीमो ॥१८॥
। को ५ । मा। मर्ष :-पपासकोस विस्तृत पौर अर्धकोस प्रगाह वाले ये वकृषिम एवं अविनाशी (मनादिनिधन ) जिनेन्द्र प्रासाद पूर्व पश्चिम भागोंमे है ।।१८८०।।
एसो पुष्वाहिमूहो, पर • जोपण गेट-पार-उन्हो । बो जोयन तयासो, वास • समाजो पबेसो १EE|
।४।२ ॥२ ।
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५२४ ]
तिलोमप
[ गाया १८८२ - १८६६
अर्थ : यह जिन-भवन पूर्वाभिमुख है। इसके ज्येष्ठ द्वारकी कॅमाई चार योजन, विस्तार दो योजन और प्रवेश भी विस्तारके ही योजना की काल
उत्तर - दक्षिण भागे, खुल्लय- वाराणि बोच्चि पोति । तद्दल परिमाणाणि वर तोरण पंभ नि ।। १६६२॥
-
। २ । १ । १ ।
- उत्तर-दक्षिण भाग में दो भुड ( लघु ) द्वार स्थित है, जो ज्येष्ठ द्वारकी अपेक्षा
श्रयं भाग-प्रमाण ऊंचाई आदि सहित और उत्तम तोरण-स्तम्भोंसे युक्त है ॥१८२॥
1
पहिप पनि
संकु व भक्लो, मयि किरन-कल-पणा सिय-समोघो । किनवट-पासाव- वरो, तिलवन तिलओ ति लामेनं ॥ १६८३ ॥
अर्थ :- शर्मा, चन्द्रमा एवं कुन्दपुष्पके सहय घवल और मणियोंके किरा-कलापसे अन्धकार समूहको नष्ट करनेवाला यह उत्तम जिनेन्द्र- प्रासाद 'त्रिभुवन- तिलक' नामसे विस्मात है ।।१८८३३॥
-
दार- सरिच्छुस्सेहा, बज्ज कनाडा विचित् विस्थिन्ना ।
जमला तेसु समुज्वल मरगय रुक्मणानि जुवा ।। १८८४ ॥
-
-
-
अर्थ :- इन द्वारोंमें द्वारोंके सहत ऊंचाई वाले, विचित्र एवं विस्तीर्ण सर्व युगल वष्यकपाट प्रति उज्ज्वल मरकत तथा कर्केतनादि मणियोंसे संयुक्त है ।। ६४ ।।
P
-
बिहकर ख्वाहि', णाणामिह सालभंजिया हि बुवा ।
पण क्षण रवणरहवा, पंभा तस्सि विराजति ।। १८८५ ॥
4
-
-
और विस्मय जनक चित्रोंसे युक्त हैं ||१८८६ ॥
:--उस जिनेन्द्रप्रासादमें विस्मयजनक रूपवाली नानाप्रकारकी मासभब्जिकासि
युक्त और पाँच वर्णके रत्नोंसे रचे गये स्तम्भ विराजमान हैं ।। १८६५ ।।
भिसीओ विविहाओ, निम्मल वर-फलिह रयण रद्दबाधो । चिसेहि बिधिसहि, विन्हय जन्म हि जुत्ताल ॥१८८६ ॥
-निर्मल एवं उत्तम स्फटिक रहनोंसे रची गई विविध प्रकारकी भिसियाँ विचित्र
१. ८. ब. क्र. ज. उ. हवाई य. माये । २. ६ तरि, ब. क. न. प. उ. रिके ४. बजट से ह
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गांधी : १६-१८९२ ]
उत्यो महाहियारो
पंभाग मञ्झ सूमो समंतदो पंच क्षण रयणमई ।
तबु मच गमनानंद संबणणो निम्मला विरजा ।। १८८७ ।।
·
अर्थ :- खम्भोंकी मध्यभूमि चारों ओर पांच वर्षोंके रत्नोंसे निर्मित करो, भन एवं नैत्रोंको आनन्ददायक, निर्मल और त्रुनिसे रहित है ।। १८८७।।
बहुविह विजानएहि, मुलाहल दाम चामर जुदेह ।
पर रयण सहि, संतो सो जिवि पासावी ॥१६८८ ॥
.
4
-
-
-
मार्गदर्शक:
जिप्रासाद मोतियोंकी मासार्थी तथा नामोंसे युक्त है एवं उत्तम ररानोंसे विभूषित बहुत प्रकारके विज्ञान से संयुक्त है ।। १८८८ ||
गर्भगृहमें स्थित देवका वर्णन -
वो
बसहीए गर्भागिहे जोहो । इगि जोयण बियारो, उ जोयावीह संशुत्तो ।।१८८९||
-
-
-
सोलस कोसुन्हं समचउरस्वं तव
लोयविि
देवद
। जो २ १ १ । ४ ।
अ :- वसतिकामे गर्भगृह के भीतर यो योजन ऊँचा. एक योजन विस्तारवाला और बार योजन प्रमाण लम्बाईसे संयुक्त देवस्य है ।। १८६६ ॥
-
-
-
-
7
-
But,
। को १६ । ८ १
-
पाठान्तरम् ।
धर्म :- लोकविनिश्चयके कर्ता देवको समचतुष्कोण, सोलह कोम ऊँचा थोर इससे ८ कोस ) विस्तारसे संयुक्त बताते हैं ।। १८६० ॥
बाषे
-
संवंत कुसुम दामो, पारावय- मोर-कंठ-वा-जिहो ।
मरणय पवालथण्णो, कक्केयण - इंदनीलमग्री ।। १६६१३
·
चोस कमल मालो, बामर घंटा-पवार रमनिको । गोसीर मलय चंबल कालागद धूव गंध
·
-
-
विश्ारं । पहने ।।१८६०।
[ ५२५
पाठान्सर ।
१. व. न..य... २. ब. ब. क. ज. उ. प
.
।।१६१२।०
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५९६ 1
भिंगार-कलस-बप्पण-गाणाविह-पय-वज्रेहि सोहिल्लो । देवदोरम्मो, जलंत वर रवा दोष नुवो ॥११८९३ ॥
•
-
तिलोमी
-
:- लटकती हुई पुष्पमालाओं सहित, कबूतर एवं मोटके कण्ठगत व सहमा, मरकत एवं प्रवास जसे वर्णसे संयुक्त कर्केतन एवं इन्द्रनील मणियोंसे निर्मित, बोसट कमस - मालाि शोभायमान नानाप्रकारके सेंवर एवं घण्टाओंसे रमणोय. शेशीर, मलयचन्दन एवं कालागर धूपके गन्धसे व्याप्त, झारी, कलश, दर्पण तथा नाना प्रकारको ध्वजापताकाओंोंसे सुशोभित और वेदोप्यमान उत्तम नदीपोंसे युक्त रमणीय देवच्छन्द है ।। १८६१-१८६३ ॥
सिहासन, मिनेन्द्र प्रतिमाचोंका माप प्रमाण एवं स्वरूप
असा विनय-परभागि सिंहासनाणि तुरंगा, सपायपीडा य 'फलिमया ॥१८६४॥
प्र :- जिनेन्द्र प्रासादों के मध्यभागमें पाद-पोठों सहित स्फटिकमलिमय एकसो आठ उत सिहासन हैं ।। १८६४ ।।
सिहासणान उबरि, जिन-पडिमा
तरस खा, पण सय
:- सिहासनों के ऊपर चिसो धनुष
जिन प्रतिमाएँ विराजमान है || १८६५ ||
-
-
·
-
·
-
[ गाया १८६३-१८१८
-
सिणि भीतममिमय कुंतल भूवग्गविन सोहाम्रो । फलिहिंद - गोल गिम्मिय-धवलासियत जुवानो ।। १८६६ ।।
"
अाइ-विणाम्रो ।
बाबा तुंगा ।। १६९५ ।।
प्रमाण ऊँची एकसरे भाऊ अनादि-निधन
जयवंतपंती पहाओ पल्लब सरिन्छ- अधराओ ।
-
हीरमय वर महाओ, परमादन - पाणि चराम्रो ।। १८९७ ।।
-
अनुमहिय सहस्स प्यमारण- बंजा-समूह-सहियाओ
बत्तीस लक्खर्गोह, बुलाओ मिनेस पडिमा || १८६८ ॥
-
वर्ग:- ये जिनेन्द्र प्रतिमाएं विभिन्न इन्द्रनीलमणिमय कुस्तल तथा घ कुटियों के अग्रभागसे शोभाको प्रदान करने वालो स्फटिकरिए एवं इन्द्रनीलमणिसे निर्मित बबल और कृष्ण नेत्र-युगल
1. X. 1. 5. 4. 4. J. 5, Àlg | 7. 8. .......... 7. 5. ४. वा. न. प. . . सिहासात ४. प. प. व प्रतिहिवली, ठ उ पनि।
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गाथा : १८६९-१६०४ ] उत्यो महाहियारो
[ ५२७ सहित, वनमम इन्तपक्तिको प्रभासे संयुक्त, पल्लव सदृश अधरोहसे सुशोभित, होरे सदृश उत्तम नवांस विभूषित, कमल सहा लाल हाम-पैरोंसे विषिष्ट एक हजार आठ यजन-समूहों और वत्तीस लक्षणोसे युक्त है ।।१८६६-१८६८॥
जोहा-सहस्स - जग-जुव-धरगिव-सहस्स-कोडि-कोडोलो । ताप पाणणेस, सक्कामो मानुसाच का सती ॥१८॥
मर्थ:-जब सहस्र युगलोसे युक्त घरगेन्द्रों की महलों, कोडाकोड़ो जिहाएँ भी उन प्रतिमामौका मार करने में समर्थ नहीं हो सकती तस मनुष्यों की तो साक्ति ही क्या है ॥१८६६)
पत्तक्कं सम्वानं, पाउसट्टी वेष - मिहण - परिमानो ।
कर - चामर - हस्पामो, सोहति जिरिणय - पडिमाणं ॥१६००॥
पर्भ :-सब जिनेन्द्र-निमाओं से प्रत्येक प्रतिमाके समीप, हायमें उतम चंवरोंको लिए हुए चाँसठ देवयुगोंकी प्रतिमाएं शोभायमान है ।।१९७०।।
पत्ततयारि - जुत्ता, पहियकासग - समणिवा गिज्य ।
समबाउरस्साधारा, अपंतु जिनगाह • परिमायो ||१९०१॥
मर्ग :--तीन छत्रादि सहित, पल्यङ्कासन समन्वित और समतुरन माकारणाली । जिननाय प्रतिमाएं निस्य जयपन्न है ।।१०।।
लेयर - सुरराहि, भत्तीए मिय - चरण-जुगलाओ ।
बहुषिह - विभूसिबाओ, जिप • पजिमायो णमस्मामि ॥१६०२।।
मर्ष :-जिनके चरण-यगमोंको विद्याधर एवं देवेन्द्र भी भक्तिसे नमस्कार करते हैं. बहुत प्रकारसे विभूषित उम जिन-प्रतिमाओंको मैं नमस्कार करता है ।।११०२।।
से सम्बे तवयरना, घंटा - पदोश्रो सह य दिवाशि।
मंगल - वाणि पुढं, जिणिव - पासेस रेहति ।।११०३३॥
पर्व :-घण्टा आदि वे सब उपकरण तपा दिव्य मङ्गल-द्रष्य पृषक-पृथक् जिनेन्द्र-प्रतिमा के पास में सुशोभित होते हैं ॥१०॥
मय मगन हम्पभिगार-कलस-पप्पन-चामर-घय-वियण-छत्त - सपाटा । अठ्तर - सय - संखा, पतक मंगला तेसु ॥१९०४।।
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तिलोत
[ गाया: १६०५ - १६०६
:---भूङ्गार, कलश, दर्पण, चंवर, ध्वजा, बोजना, छत्र और सुप्रतिष्ठ ( ठोना ) वे आठ मत द्रव्य हैं। इनमेंसे वहाँ प्रत्येक एकसी श्राउ- एकसो प्राठ होते हैं ।११२०४ ॥
५२५ ]
फारी
घमर
अष्ट मगल द्रव्य
क्षत्र
SAT
ਚੰ धार्मक कार्य
白
dpress
-
सांधिया
यक्षादिसे युक्त जिनेन्द्रप्रतिमाएँ
5
सिरिसुद-देवीण तहा', 'सव्वान् सनक्कुमार-जक्सानं । स्वाणि एच एक पडिमा वर रयण रहवाणि ।।१६०५ ।। प्रत्येक प्रतिमा उत्तम रस्नादिकोंसे रचित है तथा श्रीदेवी. श्रुतदेवी तथा सर्वा एवं समस्कुमार यक्षोंकी मूर्तियोंसे युक्त है || १६०२ ||
देवछन्द एवं ज्येष्टद्वार माविकी शोभा सामग्री-
दसपुरी गागाविह रयण कुसुम-मालाओ । फरिवरिकरण बताओ शिरायते ॥१६०६ ॥
फलानो,
-
YAR
-
-
1. C. . . . 2. 3. HET I २..... न. म.उ. सच्चारण । ३. . . . लोक. रारि ४८. जय पुरिवक्रित बसीओ क पुरिकर किसानो, उठ. पुरियकिरण काम्रो । ५. . . . ज. व उरु धम्मंता
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गाषा : १६०७-१६१० ] उस्मो महाहियारो
[ ५२६ वर्ग :-देवचन्दके सम्मुख नाना प्रकारके गस्नों और पुष्पोंकी मालायें प्रकाशमान किरणसमूह सहित लटकती हुई विराजमान हैं ॥१९०६।।
बचौस-सहस्सागि, कंचन-रजवेहि णिम्मिा विठला । सोहति पुल-कलसा, सचिरा पर - रपए - नियहि ॥१९०७॥
ब: वर्ण एवं धांदीसे निर्मित और उत्तम रत्नसमूहोंसे पाचिन बत्तोरा हजार (३२०.. प्रमाण विशाल एवं पवित्र कला सुशोभित है ।।१६०७||
पउवीस-सहस्सानि, पूष-धन सणय-रणव-निम्मिषिता। कम्मरापुर - चंबन - पहुवि - समुदत - धूब पंपड़ा ।।
१८।। | २४००० । प :-कर, मगुरु और गन्दनदिकसे उत्पन्न हुई यूपको गन्धमे बाप्त चौर स्वर्ण एवं चावोसे निर्मित मोजोस हजार ( २४... धूप-यट है 1॥१८
भिगार-रयम-प्पण-भुमुब' पर चमर-पाक-कम-मोह।
घंटा • पाय - पवर, जमिन - भवणं "निरूपमागं RECell
पर्व-भारी, रालदपण, मुद मुद. उत्तम मर और पक्रसे शोभायमान तथा प्रचुर घण्टा और पताकामोसे युक्त वह जिनेन्द्र भवन अनुपम है ।।१६९ll
विण: पासादास पुरो, बेटा - वारस पोसु पासेसु। पृह पसारि - सहस्सा, खंबते' रयण - मालाओ ।।१९१०॥
-बिन-प्रासादके सम्मुख ज्येष्ठ वारके दोनों पाश्र्वभागोंमें एपक्-पृथक् चार हजार (४... ) रस्ममालाएं तटकती है १९१०॥
१.प. य. म. रोहि... ह. स. सोहि । २.८. पनि। ३.प.बय। ४, प..... प. मोहो। .....कम. प. स. B. fary E...क.प.ब.उ. 3. निस्मारणामो। ७.....क, ज. प.... पाते।
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सिलोयपण्णसी [ पापा : १६११-१६१५ तान पि अंतरेस, अकट्टिमाओ 'फुरंत - किरणामो। बारस - सहस्स - संखा, संबते' फणय - मालामो ॥११॥
। १२०.० । मपं:- इनके भी बीच में प्रकाशमान किरणों सहित बारह-हजार भकृत्रिम स्वर्णमालाएँ लटकसी हैं ॥१९११।।
प्रह - सहस्सागि, पूष - घडा बार • अग्गरमीस। प्रष्ट - सहस्साओ, ताग पुरे कगय - मालामो ॥१६१२॥
। घू.००1८००० मा ६०.. ...। मर्थ :-मारको अन-पूमियोंमें प्रार-माठ हजार धूप-घट और सन धूप-षट के बागे आठआठ हजार स्वर्ण-मालाएं हैं ॥११॥
पुह सुल्मय - दारेसु', ताणलं होंति एयण-मालाप्रो।
उंच • मालाम्रो तह, खूब - बडा कषय - मालामो ।। १९१३॥
वर्ष :-स-दारोंमें पृपक्-पृथक् इससे पाधी रत्नमासाएं, कन्चन-मालाएं, धूप-पट तथा स्वर्ग-मालाएं हैं ॥१९१३।।
पच्चीस-सहस्सागि, किरापुर-पुत्रीए कनाप - मालाम्रो ।
तागं च अंतरेसु, प्रष्ट - सहस्साणि रमरण - मालाओ ।। १६१४॥
मर्थ:-जिनपुरके पृष्ठ भाग में चौबीस हजार कनक ( स्वर्ण ) मालाएं और इनके बीच में भाव हजार रलमालाएं हैं ॥१९१४॥
मुस-मण्डपका वर्णनमुह-मंगलोय रम्मो, जिनवर-मवणस्स प्रमग-भागम्मि । सोलस • कोसुन्नेहो, सयं च पन्नास - बोह - भासाणि १९१५॥
...क... य. 3. उ.
१.... ज. स. स. ८. पुर। २. ब. स. क. प. य. न. 3. ममत। प्रहमाहि।
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गापा : १६१६- १९२०
चउत्पी महाहियारो कोसको अवगालो', गाणा-पर-रयाण-विपर-निम्मवियो।
अम्बत - षय - गमो, किं पहला सो डिमानो ॥१६१६॥
म :-जिनेन्द्र भवनके अयभागमें मोलह कोस ऊंगा, सो कोम लगा और पपास कोमप्रमाए विस्तार मुक्त रमणीय मुखमण्डप है, जो आधा कोस भवगाहसे युक्त, नाना प्रकारके उसम रहन-समूहोंसे निर्मित और फहराती हुई ध्वजा-पताकामों सहित है । बहुत वर्णनसे मया, वह मण्डप निरुपम है ॥१६१५-१९१६॥
अवलोकनादिमंडप एवं सभापुरादिका प्रमाण
मुह-मंडवस पुरखो, अवलोषण - मम्मो परम-रामो। Weir .. साहित्याः सजा को डरलो समय • सवं वोह' ।।१९१७॥
पर्म :-मुख-मण्डपके पागे सोलह कोलसे पधिक ऊँचा, सो कोस विस्तृत पोर सो कोरा लम्बा परम रमणीय अबसोकन-मश्य है ।।१९१७॥
निय - गोग्गुबह - जुगो, तापुरको बेटुवे अहिट्ठाणों ।। कोसासीयो पासो, तेत्तिय - मेत्तम हित १६८||
। । ए:-उसके आगे अपने योग्य ऊँचाईमें युक्त अधिष्ठान स्थित है। इसका विस्तार अस्सी कोस है और लम्बाई भी इतनो (८० कोस ) ही है ।।१९१८||
तस्स बह - मम्झ-देसे, सभापुरं दिव्य-रयण-बर-रा। महिया सोलस उसमो, कोसा उताष्ट्रि वोह - पासानि ॥१९१६॥
।१६। ६४ | ३४ ॥ प:-उसके बामध्यभागमें उत्तम दिव्य रलोंसे रखा गया मभापुर है, जिसकी ऊंचाई सोलह कोससे अधिक पौर नम्बाई एवं विस्तार चौसठ कोस प्रमाण है ।।१३१६
पीठका वर्णनसौहासण महासमवेत्तासग-पहदि - विदिह • पीकानि । पर - रमण - णिम्मिवानि, सभापुरे परम - रम्मानि॥१९२०॥
....... प. य. उ. 5. बगाढो। २. ज. प. गिह । ३. स. स. क. प. म. उ. 8. *सा। मोहि । ५. . . क. ज. प. ३. उ. पविट्ठागो।
४.क.
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तिलोपपण्णत्ती
[ गाय
१६२१-१६२५
म
:- सभापुर में उत्तम रत्नोंसे निर्मित परम रमणीय सिहासन, भद्रासन भोर नेत्रासन आदि नाना प्रकारके पीठ हैं ।। १६२० ।।
३२ ]
पाकशाने श्री अनिल क
होति सभापुर पुरवो, पोटो जालोस-कोस-उच्छहो लानाहि रयणमनो, उच्छन्नो तस्स बास बसी ।।१६२१।।
-
·
। ४० को ।
अर्थ :- सभापुर के भागे नाना प्रकार के रत्नोंसे निर्मित घालीस (४०) कोस ऊँचा एक पोट है। इसके विस्तारका उपदेश नष्ट हो गया है ।। ११२१ ।।
पोस्स उ दिसासु बारस वेदोभो होंति मिले।
w
वर - गोउराम्रो सेवियमेताओ पी
1
उम्मि १११६२२॥
अर्थ :- पीठके चारों ओर उत्तम गोपुरोंसे युक्त बारह वैदियाँ पृथिवीतलपर बोर इतनी हौ ( वेदियाँ } पीठके ऊपर है ।। १६२२ ।।
स्तूपों का वर्णन
पोडोर बहुए, समबद्धो घेटुवे रथन furere. कमसी कोसाणि
-
| को ६४ । ६४ ।
अर्थ :- पीठके ऊपर बहुमध्य भागमें एक समवृत्त रश्नस्तूप स्थित है, जो क्रमशः पाँसठ ( ६४ ) कोस विस्तृत और गोसठ (६४) कोस ही ऊंचा है ।। १६२३ ।।
M
चूहो । उसट्ठी ।। १६२३।।
छता-सावि-सहियो कनवभयो पजवंत-मनि-किरणो ।
चूहो अगाध लिहणारे, जिल-सिद्ध-पश्मि-परिपुणो ।। १६२४ ।।
अर्थ :- छत्रके ऊपर छत्र संयुक्त, देदीप्यमान मरिण किरणोंसे विभूषित और जिन ( अरिहन्त ) एवं सिद्ध प्रतिमाओं से परिपूर्ण अनादिनिधन स्वर्णमय स्तूप है ।। १६२४ ।। तस्य पुरवो पुरवो अब चूहा तस्सरिन्छ बासावी तानं प्रमे दिव्यं पीठं
श्रेष्ठ वि कणवमयं ।। १६२५।।
-
अर्थ :- इसके आगे-आगे सदृश विस्तारादि सहित आठ स्तूप हैं। इन स्तूपोंके आगे स्वर्णमय दिव्य आठ पोठ स्थित हैं ।। ११२५ ॥
1. K. 7, zug), 4. a, a, gýt i
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1
वा
'
गाथा ! १९२१-१६३. ] पउत्थो महाहियारो
[ ५३३ संवायामेहि', बोणि सपा कोयलारिण पगासा । पोढस्स 'उज्यमाणे, उबएसो अम्ह उभालो ॥१६२६॥
1 २५० । २५० । । प:--इस पोठका विस्तार एवं लम्बाई दो सो पचास ( २५० ) योजन है। इसकी संचाईके प्रमाणका उपदेश हमारे लिए नष्ट हो गया है ।१९२६।।
वर • गोउराम्रो तेत्तिय - मेतिम्रो पोढ - उम्मि ।।१९२७॥
4 :--पीठके चारों ओर उनम गोपुरोंसे युक्त बारह वैदियो भूमिसमपर और इतनी ही (पेरिया) पौठके ऊपर है 11९९२७॥
त्यवृक्षका वर्णनपोउस्सरिम - भागे, सोलस- गद्धिमत्त - उम्छहो । सिद्ध तो गामेणं, घेत - दुमो विष्व - कर - तेरो ।।१६२८॥
1 को १६ । वर्ष:-पोठक उपरिम भागपर सोसह कोस प्रमाण ऊँचा दिष्प उत्तम तेजको धारण करने वाला सिद्धार्थ नामक चत्यवृक्ष है ।।१६२८॥
संधुच्छेहो' कोसो, चसारो बहुलमेक - 'गम्बूगी । बारस • कोसा साहा • पोहत' चेष विचासं ॥१९२९।।
को४।१।१२।१२। प्र:-पस्यवृक्षके स्कन्धकी ऊँचाई पार कोस, बाहस्य एक कोस और शाबानोंको लम्बाई बारह कोस तथा उनका परस्पर अन्तराल भी बारह कोस प्रमाण है ।।१६२६॥
बगि - सासं बालोर्स, सहस्सया इगि-सयं च पोस-जुवं । तस्स परिवार - क्ला, पोटोवरि सप्पमाग - घरा ॥१६३०॥
।१४०१२० ।
१.इ.क.प. य.. इंश पाहि. स. वा साहि। २. ... ज. प. उ. ४. उध्यमाणो । ३. ६.ब.क. प. उ. 6 पोहोरिम। ४. ५. ., क. अ. . . . नामादि। ५१. क, न. प. उ.स. मदुम्यो । १ द... क. ज. प. स. गम्मारी। . . . . . . उ.क, परो ।
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५३४ ]
तिलोपपण्णत्ती
[ गाथा : १६३१ - १९३६
:- पोके ऊपर इसी प्रमारणको धारण करने वाले एक लाख चालीस हजार एकस बीस ( १४० १२० ) इसके परिवार वृक्ष है ।। १६३० ।।
विविह-पर- रयण साहा', भरगप-पशा य पउमराय-फला ।
चामोयर रजवमया कुसुम जुदा यल- कालं ते ।।१६३१||
अर्थ :- (वृक्ष) विविध प्रकारके उत्तम रत्नोंसे निर्मित शाखाबों मरकतममिम पत्तों. पद्मरागमणिमय फलों और स्वर्ण एवं चांदीसे निर्मित पुष्पोंसे सदैव संयुक्त रहते हैं ।। १६३१।। सम्बे अगाह-हिणा, पुढविनया विव्व-वेरा-वर-क्ला ।
:- अकारण मुसई एवंति ॥१६३२ ॥
-
:- ये सब उत्तम दिव्य चेत्यक्ष अनादि निधन ओर पृथिदोरूप होते हुए लोगोंको उत्पत्ति और विनाशके स्वयं कारण होते हैं ।। १६३२ ।।
दमलाल -विसासू पोक्कं विविहरयन-रवाओ। जिए - सिद्धप्पडमाओ, जयंतु पचारि चचारि ।।१९३३ ।।
प्र:- ( इन वृक्षोंमें } प्रत्येक वृक्षको चारों दिशाओं में विविध प्रकारके रत्नोंसे रचित जिन (अरिहन्त ) और सिद्धों को चार-चार प्रतिमाएँ । बिराजमान हैं) । (ये प्रतिमाएं ) जयवन्त हों ।।६३३॥
·
-
वेश तणं पुरवो बिल्वं पोडं हवेदि कमयमयं ।
उच्छे
बोहवासा, तहत व उच्छष्ण - टबएसो ।। १६३४ ।।
अर्थ :- चैत्यवृक्षोंके सामने स्वर्णमय दिव्य पोट है। इसकी ऊँचाई लम्बाई और विस्तारादिकका उपदेश नष्ट हो गया है ।। १६३४ ||
पीतस्स भर विसालु बारस वेदी
होंति मिले।
परियालय गोजर दुवार तोरण विविधाओं ॥१६३५२
:- पीके चारों पर भूमितलपर मार्गों प्रट्टालिकाओं, गोपुखारों और तोरणोंसे
-
-
-
( युक्त ) अदभुत बार वेदिय है ।। १६३५।।
जोयम-उज्धेशा उपरि पीदस्त रुपय-वर संभा ।
+
विहि-मनि-रया - सचिवा, वामर-घंटा-पयार-जुषा ।।११३६ ।।
१ व... ... सोहा ।
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सानिमा...
दिसामा र गाषा : १९३७-१९४१ ] चउत्थो महाहियारो
:-पोठके ऊपर विविध प्रकारके मणियों एवं रत्नोंसे राषित घोर अनेक प्रकारके पारों एवं धष्टानोसे युक्त चार योजन ऊँचे स्वर्णमय खम्भे हैं ।।१६३६॥
सम्वेत पभेस, महाषया विविद - वच्या • रमनिम्ना ।
नामेण महिवधया, असराय - सिहर - सोहिल्ला ॥१९३७।।
म :-- सब छम्भोंके ऊपर अनेक प्रकारके वोंसे रमणीय और शिवाररूप तीन छबोंमे सुखोमित महेन्द्र नामकी महावनाएं हैं ।।१९३७॥
पुरखो' महायपारणं, मयर - ममुहेहि मुस्क-मलिलामो ।
बतारो पावोरो, कमसुप्पल - कुमुन - छम्माओ ॥१९३८।।
पर्व:-महाध्वजापोंके सम्मुख मगर मावि जल-जन्तुओंसे रहित, मल-मुक्त और कमल, उत्पल एवं कुमुदोंसे व्याप्त चार वापिकाएं हैं ।।१९३८।।
पगास - कोस - बासा, पत्तेयं होति गुण - दिग्छता । बस कोसा अबगाढा, पामोओ वेबियादि - जुत्तायो ।।१९३६॥
।को ५० । १०० । गा १० । म:-वे विकादि सहित प्रत्येक यापिका पचास कोस बिस्तृत. सौ(1) कोम सम्यो और इस कोस गहरी है ॥१६३६||
जिनेन्द्र भवन, कोड़ा भवन एवं प्रासादों का वर्णनपापी बहुमाझे दुर्षि एक्को जिनिव - पासायो । विपरिव-रमण · हिरगो, कि बहुसो सो गितवमानो ॥१९४०॥
प: पापियोंके बहुमध्यभागमें प्रकाशमान रत्नकिरणोंवाला एक जिनेन्द्र-प्रासाद स्थित है 1 बहुत कएनमें क्या? वह जिनेन्द्र-प्रासाद निरूपम है ।।१६४०॥
तसो वहाउ परदो, पुष्तर - दक्षिणेसु भागेसु।
पासावा रयणमया, देवागं कौरमा हॉसि ॥१९४१।।
मर्म:-पश्चात् वापिकानों के आगे पूर्व, उत्तर और दक्षिण मागोंमें देवोंके रत्नमय कौड़ा-भवन है ।।१६४१।।
१. ब. क. उ. उ. पाटो महारहाणं, इ. स. अ. पुण्या महामार्ण ।
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१३६ ]
-
शादर्शक :- आर्य श्री विडि
तिलोमतो
पचास कोस- उदया, कमलो पणुवीस दद दीहता ।
खूब छह शुचा से लिया विवि जन्म घरा ।।१६४२ ।।
t
। को ५० । २५ । २५ ।
•
-
or :- विविध वको धारण करने वाले के भवन पचास कोस ऊंचे हैं, पच्चीस कोस
विस्तृत है पोर परीस ही कोस लम्बे है तथा धूप घटोंसे संयुक्त हैं ।। १६४२ ।।
-
[ गाथा : १९४२-१६४९
-
वर वेवियाहि रम्मा, वर-कंचन- तोरणेहि परियरिया ।
·
वर बकज णील मरगय-विदिभिचीहि सोहते ।।१६४३॥
एवं पचाम कोस चौडे अदभुत सुन्दर प्रासाद है ।। १६४५ ।।
अर्थ :- उसम वैदिकामोसे रमणीय और उत्तम स्वर्णमय सोरोंसे युक्त मे भवन उत्कृष्ट वज्र, नीलमणि और मरकतमणियोंसे निर्मित भित्तियां शोभायमान है ।। १६४३ ।। तान भवणाण पुरवो, तेलिय-मारणेण दोणि पावा ।
भुवंत धय बढाया, फुरंत घर रयण-किरणोहा ।। १६४४ ।।
-
▾
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। ५० । २५ । २५ ।
1
धर्म –उन भवनोंके श्रागे इतने ही ( ५० कोस ऊंचे, २५ कोस पौठे और २५ फोस अम्बे) मा संयुक्त, फहराती हुई ध्वजापताकाओं सहित और प्रकाशमान उत्तम रत्नोंके किरणसमूहसे सुसोभितं दो प्रासाद हैं ।। १६४४ ।।
तशी विचित्त-वा, पातारा दिव्य रथण विम्मिविदा | कोस-सय-मेल- उदया कमेण पन्नास-डीह-विस्मिता ।।१६४५ ।। को १०० । ५० । ५० ।
धर्म :- इसके आगे दिव्य रत्नोंसे निर्मित सौ कोस ऊँचे और क्रमशः पचास कोस सम्बे
-
जे जेड-दार-पुरको विश्वमहा मंडवाविया
कहिदा ।
,
ते खुल्लय - दारेसु हर्बति पद्ध मागेहिं ।। १६४६ । धर्म :- ज्येष्ठ द्वारके मागे जो दिव्य मुख-मण्याविक कहे जा चुके हैं, उनसे अक्षं प्रमाण वाले ( मुख-पादिक ) लघु-द्वारोंमें भी हैं ।। ९४६॥
१. ८. मुदविकहिया में वह देवाधिका ये क.. चाहतेय. हरा कहिदा से।
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गाया : १९४७- १६४१ ]
ततो पुरदो बैनी चेट्टदि चरियट्टालय -
त्यो महाड़िया रो
एवम वेठिवून' सम्वनि गोउर दारेहि कनयमई | १६४७।।
वर्ग:- इसके आगे मार्गों, अट्टालिकाओं मोर गोपुर-द्वारों सहित स्वर्णमयी वेदी न सबको वेलित करके स्थित है || १६४७ ।।
तीए पुरवो वरिया, तुहि कथय रयण पंहि ।
बेदुति षड-बिसासु, बस पयारा धया मिरुवमाणा ॥१६४८ ॥
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-
वर्ग : - इस वेदोके आगे बारों दिशाओं में स्वर्ण एवं रत्नमन उन्नत बम्भों सहित यस प्रकारकी श्रेष्ठ अनुपम ध्वजाएँ स्थित है || १६४८
हरि-रि-वस जगाहिय-सिसिसि-रवि-हंस-कमल- वक्रु-धया । अट्ठुसर सय संभार, तेलिया खुल्ला ||१६४६ ॥
प
·
-
[ ५३७
:- सिंह, हाथी, बैल, गरुड, मोर, चन्द्र, सूर्य, हंस, कमल पौड़ कविता युक्त ध्वजाओंमेंसे प्रत्येक एकसो आठ-एकसो बाठ और इतनी ही लघु-ध्वजाएं भी है॥१४६॥ चामीयर पर बेदी, एवाणि वेटिन' बेट्टे दि
+
विष्फुरिव रयन किरथा, चल- मोर दार रमणिक्या ।। १५० ।।
:--प्रकाशमान रटनकिरणोंसे संयुक्त और चार गोपुरद्वारोंसे रमणीय स्वर्णमय उत्तम [eat] इनको पेटिस करके स्थित है ।।१६५० 11
·
-
से कोसाथि तुरंगा, वित्पारे घणूणि यंत्र सया । विष्फुरिव धय-बडाया', फलिमयाजेय बर
। को २ । ६५०० |
दो कोची, चिसो धनुष पौड़ी, फहराती हुई ध्वजापताकाओं सहित यह वेदी स्फटिक मणिमय अनेक उत्तम मित्तियोंसे संयुक्त है ।।१९५१ ।।
भिती ।।११५१ ।।
........ दि
१.व....प, जं. ४. ६. म. म. बस महाया क बद दावा, व.जब ब
२.व.उ.दिल जय भेटिए ।
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१३८ ]
तिनोणती
कल्पवृक्ष, मानस्तम्भ एवं जिन भवन आदिका वन
तोए पुरदो रसविह कप्पतरू ते समंतदो होंति ।
विण भवनेषु तिहूवन विम्य अहहह ।।१६५२ ।।
:
- इसके आगे जिन भवनों में चारों ओर तीनों लोकोंको भारच उत्पन्न करनेवाले
स्वरूपसे संयुक्त के इस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं ।। १९५२ ।।
गोमेदयमय खंभा, कंचरमय - कुसुम-जियर रमणिया ।
मरगयमय-पस धरा, विदुम-वेलिय-पम राय-फला ।। १६५३ ।।
+
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सम् अमाइमा
मूलेसु घउ दिसासु वारि निणिद पडिमा ।। १९५४ ।।
-
-
अर्थ :- सभी कल्पवृक्ष गोमेदमणिमय स्कन्धसे युक्त, स्वर्णमय कुसुम- समूह से रमणीय, मरकतमणिमय पत्तोंको धारण करनेवाले, मूंगा, नीलमरिण एवं पद्मरागमणिमय फलोंसे संयुक्त अकृत्रिम और अनादि निधन हैं। इनके मूल में चारों ओर चार-चार जिनेन्द्र प्रतिमाएँ हैं ।। १६५३ - १६४४ ॥
[ गाया । १९५२ - १६५७
तरफ लिए वो हि मक्के, वेवलियमयाणि माणभाणि ।
वीहि पछि पत्तेयं, विविश स्वाणि रेहति ।। १६५५ ।। धर्म: :- उन स्फटिकमणिमय वीथियों के मध्य मेंसे प्रत्येक वौषीके प्रति मदभुत रूपवाले वैदूर्यमणिमय मानस्तम्भ सुशोभित है ।।१६५५ ।।
चामर-घंटा किंकिणि केतन पहदीहि उवरि संता । सोहति भाखत्रा, जर वेडी बार तोरचेहि बुदा ।। १२५६ ।। अर्थ :- चार वेदीद्वारों और तोरणोंसे मुक्त ये मामस्तम्भ ऊपर वैवर, घण्टा किंकिणो और षणा इत्यादि संयुक्त होते हुए गोभायमान होते हैं ।। १६५६ ।।
-
-
-
-
-
ताणं मुझे उदरि, निर्भिद पडिमा चउदिशं तेसु ।
वर - रयन निम्निवाओ, जयंतु अय-बुजिद-वाओं ॥१६६५७॥
अर्थ :- इन मानस्तम्भों के नीचे और ऊपर चारों दिशाओं में विराजमान उत्तम रस्नोसे निर्मित और जनसे कीर्तित चरित्रसे संयुक्त जिनेन्द्र प्रतिमाएँ जयवन्त हों ।। १६७
१. ६. प. पापण पहारा, करु. व. बाजार
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गाचा:१६५८-११६
घउपो महाहियारो
कप्पमहि परिबेतिय, सालापर-रयाण-गियर-गिम्मविता' ।
अखि परियडालय पाणावह - पप - बानो वा ।।१९५८।।
अर्थ:-मागों एवं अट्टालिकामोंसे युक्त, नाना प्रकारको ध्वजा-पताकाओंके पाटोपसे मुगोभित और श्रेष्ठ रलसमूहसे निर्मित कोट इस कल्पमन्त्रीको प्रेष्टित करके स्पित है ।।१६५८॥
चूलिय-दपिलान-भागे, पश्लिम-भार्याम्म उत्सर-विभागे ।
एक्पर जिन - भवर्ग, पुम्हि व बणहि जुर्व १९५६
म :-चूलिका दक्षिण पश्चिम और उत्तर-मागमें भी पूर्व-दिशावर्ती बिनभवन के सहा वर्णनोंने संयुक्त एक-एक जिन भवन है ।। १६५६||
एवं संवेग, पंग · वण - बम्पमाप्रो' भणिनाओ।
विस्थार - वणणेतु', साको वि , सक्को तस्स ||१६६०॥
प:-इसप्रकार महा संक्षेपसे पाठक वनका वर्णन किया है। उसका विस्तारसे वर्णन करनेके लिए तो इन्द्र भी समर्थ नहीं हो सकता है ।।१९६०।।
सोमनस-वनका निरूपणपंड्ग • वणस हेतु छत्तीस • सहस्स - जोयणा गंतु । सोमणसं नाम वर्ष, मेहं परिवविण चे? ।।१६६१।।
।३६०००। प्र:-पाण्डकपनके नौवे घतोस हमार ( ३६० योजन जाकर सौमनस नामक बम मेहको गित करके स्थित है ||१६|
पन-सय-जोयग - 5, पामोपर-वैरियाहि परियरियं ।
पत्र - पोर - संवृत्त, खम्लय - हारेहि रमणि १९६२॥
पर्य: यह सौमनस पन पांचसो योजन-प्रमाण विस्तार महित, स्वर्णमय देविकाओं मेसित पार गोपुरोंसे संयुक्त और पशु-बारसे रमणीय है ।।१९६२॥
१...ब. अ. उ. उ. लिम्पषियो। २. प. .. .. य..णणाणि ।
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५४० ]
तिलोत
चारि सहस्साणि, बाहर्त्तार शुरु हु-सय-सोयमया ।
एकरस 'हिब कला, क्लिंभो बाहिरो तस्स ।।१६६३ ।।
बाद कला ४२७२
→
तेरस सहस्स एक्करसहि हि
| ४२७२ 1 ६ 1
:- उसका बाह्य विस्तार चार हजार दोस्रो बहत्तर योजन भर प्यारहने भाजित योजन ) प्रमाण है ।। १६६३।।
-
-
-
-
-
कुत्ता, पंच सया जोवनानि एक्करसं ।
सा सोमणसे परिरय पमानं ।। १२६४ ।।
| १३५११
:- सौमनस-वनकी परिधिका प्रमाण तेरह हजार पांचसौ ग्यारह योजन श्रीर
म्यारहसे भाजित छह अंश ( १३५११५५ योजन ) प्रमाण है ।। १६६४ ।
·
•
date :- आचार्य श्री सुविधा भी यह
सोमरसं करिकेसर - समाल-हिताल-कल-अकुले हि ।
लवली - लवंग चंपय मनस प्रीहि संछन् ।। १६६५ ।।
-
[ गाथा १९६३-१६६७
-
·
सुक - कोशिल- महुर-र, मोरादि विहंगमेहि रमणि ।
शेयर सुरमिणेहि, संकिरणं विविह वावि कुवं ।। १६६६ ।।
-
-
:- यह सौमनस बन नागकेसर, तमाल, हितास कदली, वकुल, लवली, सबङ्ग, चम्पक और कटहल आदि वृक्षोंसे व्याप्त है; तोतों एवं कोयलों के मधुर शब्दोंसे मुखरित है. मोर प्रादि पक्षियोंसे रमणीय है। विद्याधर युगलों एवं देवयुगलोंसे संकीर्ण है और अनेक वापियोंसे युक्त है ।1६६५ - १६६६ ॥
-
तस्मि पणे पुरुषारिसु, मंदर व व पहले, सुवण म : - इस वन में मन्दर ( सुमेरु ) के पास पूर्वादिक दिशाओं में (क्रमश:) वण, व प्रभ, स्वर्ण और स्वर्णप्रभ नामक चार पुर हैं ।। १६६७ ।।
पाले पुराइ जसरि ।
नामं सुदपण - पहुं ॥ १९६७ ॥
१. बहर
२. य. एकदो इस्टर व उ उ एक्करहिया ३. क. जपा ४८.सं जमव सुध्वराणाम म. म. जे जप सुखमारणार्थ क.व.व जहसुम्दराम ब. उ. बजट
पहुचयं
म
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गया : १६६८-१९७२ ]
माहवारी
श्री
पंडुमरा पुराहितो एवाणि बास-पबिखानि ।
-
बर रयण विरवाई, कालागढ़ भूब सुरणि ।। १६६८ ।।
-
-
-
अर्थ : पुर पाटुकनकं पुरोंकी अपेक्षा दुगुने विस्तारादि सहित उत्तम रत्नोंसे विरचित और कासारु-धूपको सुगन्धसे व्याप्त हैं ।। १६६८।।
तेच्येय सोमपाला, तेलिय मेशाहि बरोहि जुदा । एदाणं मज्सु विबिह - विनोग कोईति ।। १६६६ ।
■
►
- इन पुरोंके मध्य में वे ही (पूर्वोक्त ) लोकपाल उतनी हो सुन्दरियोंसे युक्त होकर नाना विनोद पूर्वक क्रीड़ा करते हैं ।। १६६६ ।।
उम्पलगुम्मा गलिगा, उप्पल-णामा य जम्पसुज्ञ्जलया ।
तबण अग्गि बिसाए, पोक्खररगीओ हवंति चचारि ।। १६७० ॥
पण
-
-
धर्म :- उस बनकी माग्नेय दिशामें उत्पन्नगुरुमा नविना उत्पला और उत्पलोज्ज्वला नामकी पार वामिकायें है ।। ११७० ।।
-
पणवीसत्रिय वा रुदावो बुगुण- जोवणायामा ।
7
-
.
जोयणावगाडा', पक्कं ताओ सोहति ॥१६७१।।
| १६ | २५ । ५ ।
धर्म :- उनमें से प्रत्येक वापिका पच्चीसके आये १२३ ) योजन प्रमाण विस्तार महत, विस्तारको अपेक्षा दुगुनी लम्बाई ( २५ यो० ) और पांच योजन प्रमाण गहराईस संयुक्त होती हुई शोभायमान होती है ।। १८७१ ।।
अलयर-स- अलोहा, वर बेदी- सोरहि परिवरिया |
•
कदम रहिया ताओ होणाओ हाणि बस्ती ।।१९७२ ।।
अर्थ :--वे पुष्करिणियाँ जलचर जीवोसे रहित जनसमूहको धारण करनेवाली हैं. उत्तम देवी एवं तोरणों बेटिस हैं, कोचसे रहित हैं और हानि-बुद्धिसे हीन हैं । १९७२ ॥
१. लोपालो । २. द. व. क. ल. य. छ. उ. जपान हो ।
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सिलोसपणसी
[गाया : १९७३-१९७७
पोपहरणी माझे, सबकस्स हये बिहार-पासायो । एजस पर दो
विमानो ॥१५॥
। १२५ । । प:-पुष्करिणियोंके शेषमें एकसौ पच्चीस (१२) कोस अंचा पौर बससे पाये (२कोस) विस्तारवाला सोधर्मइन्द्रका अनुपम बिहार-प्राप्ताव है ।।१९७३।।
एक कोसं गाडो, सो गिलमो पिरिह-दु-रमणियो।
तस्सायाम - पमाणे", उवएसो गरिष अम्हानं ।।१६७४||
धर्ष:-वह प्रासाद एक कोस गहरा और विविध प्रकारको ध्वजाओंसे रमणीय है उसकी लम्बाईके प्रमाणका उपदेश हमारे पास नहीं है ॥१९७४।।
सौधर्मइन्द्रका सिंहासन और उनके परिवार देवोंक भासनसोहाप्सनमहरम्म, सोहम्मिवस भवन भरमम्मि ।
तस्स पउसु बिसास', पम्पोला मोयपासाणं ॥१६॥
प्र: उस भवनके मध्यमें सौधर्म इन्द्रका अविरमणीप सिंहासन है और इसके पारों ओर लोकपालोंके भार सिंहासन है ॥१९७५।।
सोहम्मिवासणयो', पिलम-मायम्मि कनव-निम्मिवि।
सिहास विरायदि, मणि - गह। - सचिवं पवियस्स ॥१६॥
पर्ष :- भौधर्म इन्द्र के प्रासनके दक्षिण भागमें स्वर्णमे निमित पौर मरिण-समूहसे बक्ति प्रतीन्द्रका सिंहासन विराजमान है ॥१६॥
सिंहासखस्स पुरो, भट्टाएं होति अग्ण - माहितीगं 1 बत्तीस - सहस्साजि, शियाण पबरा पीठमा ।।१९७७।।
। । ३२... । :-सिंहासनके आगे पाठ अनमहिषियोंके (आठ) सिंहासन होते हैं । इसके अतिरिक्त बत्तीस हजार प्रवर पीठ जानना चाहिए ॥११७७।।
..-- -.--. -- -.
.....क. ज. य... कोमुत्त ना बना । २. ... ब. क. प. प. प. ४. पमाएं । ..... मोहस्मिाता ।
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गापा : १९५५-१६८२ ] चतत्यो महाहियारो
[ ५४३ पवनीसाण - विसाप्त पासे सिंहासणस इससोयी । सत्साणि वर • पीकर, हर्षति सामानय - सुराणं ॥१६॥
भ:-सिंहासनके पास वायव्य और ईशान दिशा में सामानिक देवोंके चौरासी लाप ( ८४०००००) उत्तम मासन हैं ||१६||
तस्सम्गि-दिसा-भागे, पारस - समसागि पाहम-परिसाए । पोडाणि होति कंचल - मराणि रपण - चियामि ॥१६७६॥
। १२००००० । म :- उस सिंहासनको माग्नेय दिशामें स्वर्ण निर्मित भोर इरन-बचिन शरह साथ ( १२.०... ) प्रासन प्रथम ( अम्यन्तर ) पारिषद देश है ।।१३७६।।
रक्सिन-दिसा-विभागे, परिझम-परिसामराण पोडागि। रमाई रापते, हस - लाल · प्पमानाणि ॥१९ ॥
।१४००००० । प्रर्ष :--दक्षिणादिश्चा-भागमें मध्यम पारिषद देवोंके स्वर्ण एव स्नमय चौदह साल (१४०.000) प्रमाण आसन है ।।१९८७।।
मारिवि-विसा-विभागे, बाहिर परिसामराग पोढाणि । कंचण - रपण - मपानि, सोलस - लबबाणि बेटुति ।।१६८१|
भ:-नस्य दिशा-विभागमें बाध याचियः देवोरे स्वर्ग एवं रत्नमय मोरह लाख (१६०००००) प्रमाण पासन स्थित है ॥१६
तत्य व विसा - विभागे, तेतोस-सुराण होति सेप्तीसा । वर - पोवारिष निरंतर-फुरंत-मनि-किरण-लिपराणि ।१९८२।।
मर्म :-उसी (नस्य ) दिशा-विभागमें बाधिदेषोंक निरन्तर प्रकापमान मणिकिरण-समूहमे सहित तेतीस उत्तम मासन है ।।१९८२।।
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५४४ }
तिलोयपण्णी
सिहासनस्स पश्चिम भागे चेति सत पीक
नर्क
महत्तरानं
उहाँले
महत्तराए
।७।
:- सिहासन के पश्चिम भाग में महत्तरोंके छह और महत्तरीका एक प्रकार सात भासन स्थित हैं ।। १६८३ ।।
-
सिंहासनस्त बसु विदिसासु बेति परक्ला ।
रासीदि सहस्सा पीडारि विश्वितानि ।।१६८४।।
T
[ गाया : १६५३-१६८७
।
भाई श्री ब ११५८३॥
| १४००० ।
अर्थ :- सिंहासन के चारों ओर मङ्गरक्षक देवोंके भदभुत सौन्दर्यताले चौरासी हजार ८४००० ) पासन स्थित है ।। १६६४||
(+
सिहासचम्मि तल्सि, पुष्बभुहे बहसिन सोहम्मो ।
विविह बिजोग जुडो, पेड सेवागद्दे मेवे ।। १६८५ ।।
ו
अर्थ:-सौधर्म इन्द्र उस पूर्वाभिमुख सिंहासन पर बैठकर विविध प्रकारके विनोदसे युक्त होता हुआ सेवायं आये हुए देवोंकी मोर देखता है ।। १९८५ ।।
।।१९८६ ।।
भिंग भिंगनिहा, कजलना कज्जलप्पहा तरच इरिविविसा विभागे पुग्द पमाणाओ बावी दिशामें पूजा भृङ्गनिमा, कज्जला और प्रभारगादि सहित हैं ।। १६८६ ।।
-
:- सौमनस वनके भीतर ) नंऋऋत्य
कज्जलप्रभा ये चार यापिकाएँ पूर्व वापिकाओं के स बाम पूरे सोहम्मो भक्ति उबगये देवे पेन्द्र अस्था-गिरमे, चामर छतादि परियरिओ ।। १६८७॥
4
-
१. व. ब. क. प. उ...
ब. क. य. 3. 8. पुसे । ४.८. . क. म. प. उ.रु. लिरिक्षा ।
-
:-इन चार वापिकाओं के मध्य में स्थित पुर ( भवन ) में सेंवर छत्रादिसे वेष्टित सोमं भक्तिसे समीप आये हुए एवं भावरमें निरत देवोंको देखता हूँ ।।१९८७ ।।
२. स. ब. य. भिवामि रिसहिता १.ब.प.
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गाथा : १६६७ ]
दक्षिण
४००० अधिक ऐसे १४०9600
I offence For केल *** sk
By
५० योजन पश्चिम
अंग्ररल में के
उस्को महायारो
परिषदेने के
३००००* असर
मेनानायक
वरूण
सौन्द्र
का आसन
पीपा किनारा क
सीम
And No X
ی
अदायको के
Troop आमन
कायम्य
सौधर्मेन्द्र की सभा
ओसक
अ है ६ ८०००
साथी रेके के
३२०००००
उत्तर
[ ४५
१०० योजन
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५४६ ]
तितीयपम्पनी
[ गाया : १९८२-१९६३ ईतानेन्द्र के प्रासाद आदिसिरिभहा सिरिकता, सिरिमहिला मर-बिसाए सिरिनिलया ।
पुक्खरगोओ होति , मम्मि 'पासावो ।।१६।।
पर्ग :-वायव्य दिवामें श्रीमद्रा, श्रीकान्ता, श्रीमहित! और श्रीनिखमा, ये पार पुष्करिरिगया है। उनके पध्पमें एक प्रासाद है ।।१८।।
ससिस पाप्ताव - घरे, ईसानियो सुहानि भुवि ।
वह • अप - चमर • जुत्तो, विविन-विणोवेहि कोडतो १९६|
अपं:-उस उत्कृष्ट भवनमें बहुत छत्रों एवं देवरों से युक्त ईशानेन्द्र विविध विनोद पूर्वक कीड़ा करता हुमा मुखौंको भोगता है ॥१९५६॥ मा .. पालिश माल कुशुमा दा चि चापीयो।
साग - दिसा • भागे, तेसु भवझम्मि पासायो ||१६६०||
w:-ईशान-दिशा-भागमें मलिना, नलिनगुल्मा, कुमुदा और कुमुदप्रमा, ये पार वापियाँ हैं। उनके मध्य में एक प्रासाद है II?REVI
ससि पासाव - बरे, सानियो सुहेल कीगेवि ।
गाना - बिनोव - सतो, रजालंकार सोहिल्लो ॥१६॥
म :--इस उत्तम भयनमें नानाप्रकारले आनन्टमे युक्त मुन्दर आभूषणोंसे सुशोभिप्त ईशानेन्द्र सुखसे कोड़ा करता है ||१६||
सोमणसम्भतरए, उसु दिसासु हति पत्तारो। जिरण - पासावा पंडग - जिग-भवान-सरिन्छ-वावया ॥१६॥ पंग-भवणाहि तो, वास • पहुरीणि तानि गणागि ।
पुण्यं व सबल - वगण - विस्पारो तेसु पाइयो ||१६६३
प्रपं:-सोमनस बनके भीतर पूर्वादिक चारों दिशाओं में चार जिन-मन्दिर है। इनका मम्पूर्ण वर्णन पाण्ड़क बन स्थित जिन-भवनोंके सहम जानना चाहिए। इसनी हो विशेषता है कि पाण्डकवन स्थित मदमोंसे इनका म्यास प्रादि दुगुना है । शेष सम्पूर्ण वर्णका विस्तार पूर्ववत् हो जानना चाहिए ।।१६१२-१६५३।।
१.ब.प. क... य, . पालाका । २. ..ब. क. ब. 4. . ज, रामिणपुष ।
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गाषा : १९६४. १९६९ ] यजत्यो महाहियारो
[ ५० पत्ते मिनमंदिर बाहरी ६६६. ! २८६.१५. रो पासेस दो-दो, कुडा गामा वि ताण इमे १६६४ गंग-णामा मंवर-गिलह-हिमा रजद-जग-गामा ।
सायरबित्तो बम्जो, प्रवादि - कमेग पर' - कूडा ।।१९६५॥
पर्य :-प्रत्येक जिनमन्दिर सम्बन्धी कोट के बाहर दोनों पार्षभरगों में जो दो-दो कूट स्थित उनके नाम नन्दन मन्दर, निषध, हिमवान् रजत, रुचक, सागरचित्र मौर वन है। ये बाठ फट पूर्वादि-कमसे कहे गये हैं IITEEx-१९१५।
पनवोसम्भहिय-स, बासो' सिहरम्मि दुनियो मूले। मूल - समो उसेहो, पत्त साग फराणं "१६६६॥
। १२५ । २५० । २५० ।। पत्र: उन कुटों में से प्रत्येकका विस्तार शिखरपर एकसौ पचीस ( १२५ ) योजन और मूलमें इससे दुगुना ( २५० पोजन ) है । मूल विस्तारके सहमा ही ऊंचाई भी दोसौ पवाम ( २५०) योजन प्रमाण है IIRE१६॥
मानं मूलोपरि • मासु बियाप्रो दिवाओ । वर - रयम - विवाओ, पुवं पिव वन्यप-रामो ॥१६॥
प:-कूटॉक भूसमें एवं उपरिम भागों में उत्तम रहनोंसे रचित और पूर्वके सदृश वर्णन पहित दिव्य पदिया है १६ ॥
कूराम उरि - भागे, पर-बी-तोरमेहि रमणिम्मा ।
मामागिह - पासावा, असे निषमायारा १eech
प्रबं:- कुटोंके परिम भागमें चार बेदी-तोरणोंसे रमणीय अनुपम आकार वाले नाना प्रकारके प्रासाद स्थित है ||१६|
पारस-सपा रंडा, उसपो हो पि कोस-च-भागे। ततुमचं बोहत्त, प्रह - पूह सम्बाण भवना IEEELI
.
.उ.. पाना ।
२.
..
..
म.
. बाला।
1.4.प.क.ब.प.3.3.
पशिदे।
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५४६ ]
तिसीयपम्णतो
[ गाथा : २०००-२००३ । १५०० । को । म :-सब भवनोंकी ऊंचाई पृषक्ष क् पन्द्रहसौ ( १५०.) धनुष है, विस्तार एक कोसका चतुर्षमाग ( ३ कोस ) है मौर दीर्धता इससे दुगुनी (कोस ) प्रमाण है ॥१९॥
रासो पन-घन-कोसा, तलुगुपो 'मंविराम उल्लेहो । लोपविनिन्छप - कत्ता, एवं मागे जिस्वेवि ।।२०००॥
१२४ । २५० ॥ xneha . AFi sirf MEETIT
(पाठान्सरम) पर्य :-मन्दिरोंफा विस्तार पपिके घन ( १२५ कोस ) प्रमाण और ऊँचाई इससे दुगुनी ( २५० कोस ) है । लोकविनिश्चयके कर्ता इनके प्रमाणका निरूपण इस प्रकार करते हैं ॥२०००।।
(पागन्तर) कुसु वेवीमो, कष्ण • कुमारीओ दिग्य - कवायो । मेषकर - मेघवी, सुमेघया मेघमालिनी तुरिमा ।।२००३।। तोयंषरा विधिता, पुष्पमाला' प्राणिदिवा परिमा ।
पृथ्वादिस फूडेसु, कमेण घटुंति एवाओ ।।२००२॥
प्रबं:-पूर्वादिक कूटोंपर क्रमश: मेघरा, मेघवतो, सुनेघा, मेघमालिनी, तोयम्परा, विचित्रा. पुष्पमाला और अनिन्दिता, इसप्रकार दिव्य रूपवानों ये (पाठ) कन्याकुमारी देवियां स्पित है ॥२००१-२००२।।
बलभद्रकटका विवेचनबलभाह - गाम - कटो, ईसाण - विसाए सम्व होदि । ओयण - सथ - मुत्तुगो, मूलम्मि । तेत्तिमो पासो १२००३॥
। १०० । १..। प्रबं:-सोमनस-बनके भीतर ईशान दिशामें एकसौ योजन-प्रमाण ऊंचा पोर मुलमें इतने ही ( १०. यो. ) विस्तारवाला वनभा नामक कट है ॥२००३॥
...
5. . . . . यंदराला 1 २. द.प. भ.ज. प. उ. ठ. पुरयमानी।
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महाहियारो
पन्यास जोयणाई, सिहरे अस्स होनि बिस्थारो ।
मुह भूमी मिलिबद्ध मक्किम वित्चार' परिमाणं ।।२००४ ।।
। जो ५० । ७५ ।
अर्थ :- उस कुटका विस्तार शिखर पर पचास ५० ) योजन और मध्य में, मुख एवं भूमिके (१०० + ५० = १५० ) सम्मिलित विस्तार प्रमाणसे भाषा ( १५०÷२०७५ यो० ) है || २००४ ||
media :
गावर : २००४-२००७ ]
-
-
साउहो ।
तेसिय सब पमाणो, विनयर बिजं व समबट्टो ||२००५ ।।
.
| १००० | १००० ।
·
(पाठान्तरम् )
- यह वमकूट हजार (१०००) योजन प्रमाण ऊंचा और इसने (१००० योजन) हो विस्तार प्रमाण सहित सूर्यमण्डलके सहया समवृत (गोल) है || २००५ ||
सोमणसस्त व वासं, जिससे वभिङ्गण सो सेलो सप जोयचाई तो हमेवि आयासं
पंच
·
-
-
अर्थ :- वह शैल मोमनसे- बनके सम्पूर्ण विस्तारको रोककर पुनः पाँचसो पोजन - प्रमाण आकाशको रोकता है ।।२००६ ।।
( पाठान्तर )
इस विवं नू बासो, पंच-सया जोवनानि मुह-वासो
-
एवं
लोमविच्छि
सग्मायजिएस
| १००० | ५००
[ ५४e
(पाठान्तर)
।
॥। २००६ ॥
( पाठान्तरम् )
बौसंह ।।२००७।।
१.व.व ज. प . ऊ. विश्व २... स . . ।
( पाठान्तरम् }
स
अर्थ: उसका विस्तार दसके घनरूप ( १००० योजन) प्रोर मुख-विस्तार ( ५०० ) योजन प्रमाण है। इसप्रकार लोकविनिश्चय एवं सग्गायणीमें दर्शाया गया है || २००७ ||
( पाठान्तर )
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५५०
तिलोयएम्पती
[ गापा : २०१५-२०१२ मूमोपरि सो गो, परवेदी - सोरहि संबुत्तो।।
उपरिम • भागे सस्स प, पासामा बिबिह- रयणमया ॥२.०।।
वर्ष :-यह कूट मूलमें एवं असर पार वेदो-तोरणोंसे संयुक्त है । उसके उपरिम मागपर नानाप्रकारके रस्लमय प्रासाद हैं ॥२००६॥
मंदिर - सेलाहिवा', बसमो णाम सरो रेगे।
अच्छवि' तेस पुरेस, बहु - परिवारहि संवतो ॥२००६।।
मर्ष :--उन पुरोंमें बहुत परिवारसे संयुक्त मन्दिर पौर शैलका विपति बलभन्न नामक अन्तर देव रहता है ।।२००६ ।।
सौमनस-वनका विस्तार प्रादितिमिल सहस्सा -सपा, महरि जोयणाणि अट्ट-कला । एकरस , हिदा बासो सोमणसम्भतरे होवि ॥२०१०।।
प्र -सोमनसघनके मम्मम्तर भागमें तीन हजार दोसी बहत्तर योजन पोर पारइसे मानित आठ कला प्रमाण ( ३२७२० योजन ) विस्तार है ।।२०१०॥
दस साहस्सा ति-सया, उमाना जोयणाणि अंसा । एक्करस' - हिदा परिहो, सोमबसम्मंतरे भागे ॥२०११॥
१०३४६ । । मर्ष:-सोमनस-बनके अभ्यन्तर भागमें परिधिका प्रमाण इस हजार तीनसो उनवास योजन और प्यारहसे भाजित दो माग (१०३४६ पोजन ) प्रमाण है ॥२०११॥
एवं संवेणं, सोमगसं वर - वर्ण मए भनिन ।
विस्पार पन्नणासु', तस्स ग सकेरि सक्को' वि ॥२०१२॥
प्र :-इसप्रकार सौमनस नामक उत्सम वनका वर्णन मने संक्षेपमें किया है । उसका विस्तार पूर्वक वर्णन करनेमें तो इन्द्र भी समर्थ नहीं है ।।२०१२॥
....... प. प. ३,ठ, बिहि। २.प.व.क.च, य... मच्चदि। १..ब.क. ज. य. घ.. पासा। ४..ब.क.ज. उ. इ. एमकारतहि । ५.......बापो, ... सयाळ ।
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पापा २०१६-२०१६] पउत्थो महाहियारो
[ ५५१ नन्दन-वनका निर्देशstav पंच साई बुत्ता, शिशा सहसायला गंतु । सोमनसायो हे, होदि वर्म प्रवर्ण जाम ॥२०१३।।
। ६२५०० । पर्ष :- सौमनरा बनसे पासठ हजार पाचसो ( ६२५०० ) योनन प्रमाण नीचे जाकर नन्दन नामक वन है ।।२०१३।।
पण-सय-जोयरण-कब, कामीयर - वेरियाहि परियरिय' । चउ - तोरण • पार - जुवं, खुल्लय-धारेहि गंवणं रम्मं ॥२०१४॥
। ५०० । म: बह रमणीक नन्दन वन पांचमी (५०.) योजन विस्तृत है; स्वर्णमय वेदिकामोंमे वेष्टित हे सपा लघु-बारों के साथ भार तोरणद्वारोंमे संयुक्त है ॥२०१४।।
एव य सहस्सा पब-सय-बनवाना जोयनाणि छम्भागा । एक्सरसेहि हिला वं. गंवण-बाहिरए होवि विसाम्भो ॥२०१५॥
पर्य :-नन्दन बनके वाह्य भागमें नौ हजार नौसी चौवन पोजन पौर, ग्यारहसे मार्जिन छह भाग { ९६ योजन ) प्रमाण विस्तार है ।।२०१५॥
एक्कत्तोस - सहस्सा, परस्सया नोगलागि उणसोबो। दमानस्स परिणी, बाहिर - भागम्मि अपिरिता ।।२०१६॥
1 ३१४७६ | :-नन्दन वनके पास भागमें परिधिका प्रमाण इकतीस हजार पारसो उन्यासी ( ३१४७६ ) योजनसे अधिक है ॥२.१६॥
१.
ब. क. प. य. स. ह. परिरिया। २. व.स.क.ब.प... एककरहिया।
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५५२ ]
तिलोमपण्णत्तो
[ गापा : २०१७-२०२०
प्रह- सहस्साग-सब-अरबमा जोयनानि अभागा ।
। ९५४|
|
म :- नादमवाम रहित मेरुका विस्तार माठ हजार नौसो पोवन योजन और ग्यारहसे भाजित मह भाग ( ८९५४१ योजन ) प्रमाण है ॥२०१७।।
पदाबीस-सहस्सा, ति-सया सोलस-जुग य भट्ट कसा। एकरम'. हिवा परिहो, गंदनवन-विरहिका महिया ।।२०१८॥
। २८३१६ ।
।
म :-सदन बनसे रहित मेकी परिधि भट्ठाईस हमार तीनसो सोलइ योजन और पारड्से भाजित माठ कला अधिक ( २८३१६६योजन ) है ॥२१॥
नन्दमदनस्प प्रवन
माणमा - बारणला, गिलवर गंधव-चित्त-गामा म । नवन - बगम्मि भंदर • पासे बचारि पुग्बादी ॥२०१६॥
म:-जम्मनबनके भीतर सुमेषके पास समय: पूर्वाविक दिवाओंमें मानास, पारणाश, गन्ध और चित्र नामक भार भवन भी हैं ।।२०१६।।
विभागार्मोह, गंदण - भवनाणि हॉलि युगमामि। सोमणस • पुराहिलो, पुस पिच पन्नग - अवापि ।।२०२०॥
4:--पूर्वोक्त वर्णनसे संयुक्त ये नन्दन-भवन विस्तार एवं सम्बामि सोमनस-बनके भवनोंसे दुगुने हैं ।२०२०।।
1........... एकारसहित । ..... प... एमाहारस ।
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उत्पो महाहियारा
गाथा:२०२१-२
[ ५५३ सकस्स लोयपाला', सोम - पापो बसंति एसु ।
तेतिय • देवीहि पुरा, गहुविह कौगर कुणमाला' ॥२०२१॥
प:-इन भवनों में उतनी ही वेवियोंसे संयुक्त होकर विविध प्रकारको कोराओंको करनेवाले सौधर्म इन्द्र के सोमादिक लोकपास निवास करते है ।।२०२१॥
नन्दन-वनस्थ बनमा फूटबसभइ-जाम-को, ईसान - बिसाए पदण - पम्मि ।
तस्सुज्नेह • पहुरी, सरिसा सोमणस - फरेण ॥२०२२॥
मर्ग : नन्दनवनके मोतर ईशान-दिशामें बना नामक कट है। इस फूटकी ऊंचाई आदि सोमनस-समन्धी ( बलभद्र ) कूटके सदृश हो है ।।२०१२।।
जिगमंदिर - का, बापो - पासार - देवावं । गामा विष्णासो, सोहम्मोसान - दिस - विभागो य ॥२०२३॥ इय-पहुवि रावण-बने, सोमनस-बणं व होरि हिस्से ।
गरि विसेसो एपको, पास - पहाणि दुगुणाणि ॥२०२४॥
पर्व :-नन्दनवनमें जिनमन्दिर, फूट, वापी, प्रासाद एवं देवतामोंके नाम, विन्यास और सौधर्म एवं ईशानेन्द्रको दिशामॉका विभाग इत्यादिक सर सौमनस-बनके हो महश है। विशेषता केवल यह है कि उनके विस्तार मादिके प्रमाण दुगुनेन्दुगुने है ।।२०२३-२०२४।।
एवं संवेग, नंबर - नाम वर्ष मए भनि ।
एक्स-मुह - एका - जीहो, को सका विस्परं भणिदु ॥२०२५॥
म:-इसप्रकार संक्षेपसे मने नन्दन नामक वकका वर्णन किया है । एक मुख और एक ही बिहावाला कौमसा मनुष्य उसका विस्तारसे वर्णन करने में समर्थ है? { अर्थात् कोई नाही ) २०२५
मदशाल-वनमा वर्णनवंदन - वनाउ हेतु, पंच - सधा जोयखाणि गंतुषं । महासीदि - विषम्य, बेहुवि सिरिभाहसाल - वर्ष ॥२०२६॥
। ५०० ।
...ब.क. म. म... ह. मोगपामो। १.१.ब.क.प. य. ना. स. खमाएो।
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५५४ ]
तिलोयपगत्ती [ गाथा ! २०२७-२०३१ :-नन्दनबरसे पाचसो ( ५०० ) योजन प्रमाण नीचे जाकर पठासी विकल्पों महिस धीभद्रवालवन स्थित है ।।२०२६।।
विशेषावं :-सुमेरु सम्बन्धी भरयाणवनको पूर्व-पश्चिम चौडाई २२००० योजन है, इसको ८ में विभक्त करने पर दक्षिणोत्तर चौपाई प्राप्त होती है । बायद इसीलिए गाथामें मद्रमालबनको प्रवासी विकल्पोंसे युक्त कहा गया है ।
वावीस - सहस्सानि, कमसो पुन्नावरेस विस्थारो। तह बलिणत्तरेसु, ७ - सया पम्णास तम्मि बने ।।२०२७॥
। २२००७ । २२००० । २५० । २५० । प: उस बनका विस्तार पूर्व में ( २२००० पो.) पहिषाममें गाईस हजार (२२...) योजन तथा दक्षिण ( २५० यो) और उत्तरमें दोसौ पचास ( २५० ) योजन प्रमाण है ।।२०२७॥
मेरु-महोघर-पाते, पुष्य - रिसे एक्लिपवर - उत्तरए। Use --- काजिनामा दिन मसाल - बगं ॥२०२८।।
प:-प्रशाल-वनमें मेरुपर्ववके पार्वमें पूर्व, दक्षिण, पवित्रम और उत्तर दिशामें एक___एक बिन-भवन है ।।२०२८।।
पंह-वण-पुराहिलो, बउगुण - बासस्स उदय • पहलीमो । जिनवर - पासावा, पूर्व पिव दण्णण सव्व ॥२०२६॥
:-जून जिन भवनोंका विस्तार एवं ऊंचाई आदि पाण्डक-नके जिन-भवनोंको अपेक्षा पौगुना है। शेष सम्पूर्ण वर्णन पूर्वके हो सदृश है ।।२०२६॥
तम्मि बजे वर-तोरण-सोहिर-घर-बार-णिबह-रमणिग्जा।
अट्टालयापि - साहिया, समतदो कमयमय · वेदो ॥२०३०॥
म :--उस वनके चारों ओर उसम तोरणोंसे शोभित, घोष्ठ द्वार-समूहसे रमणीय एवं अट्टालिकादि सहित स्वर्णमय वेटी है ॥२०३०॥
अयोए उन्हो , जोयनमेकं समतयो होवि। कोयंडाग - सहस्स. वित्यारो महसालम्मि ॥२०३१॥
।जो १ । र १.००
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गाया: २०३२ २०३७ ]
महाहियारो
[ ५५५
प्रचं :- मशालवनमें चारों ओर वेदीकी ऊंचाई एक योजन मौर विस्तार एक हजार ( १००० ) धनुष प्रमाण है || २०३१।।
सिरिखंड -मगर - केसर-सोय-कप्पूर-तिलय कलीहि । प्रयुक्त
पोक्रभी रमनिज्, सर-बर- पासाद- निवह' -सोहिल्लं । देह मिनपुरेहिं विराज भाइसाल वनं ।।२०३३।।
मासाहसिद्दीहि महारा
अर्थ :- श्रीखण्ड, अगय, केशर, अशोक, कर्पूर, तिलक, कदली, अतिमुक्त, मालती और हारिद्र बादि वृक्षोंसे व्याप्तः पुष्करियोंसे रमणीय तथा उत्तम सरोवर एवं भवनोंके समूह शोभायमान यह भद्रशासन कूटों और जिनपुरोसे शोभायमान है ।।२ ३२ - २०३३।।
मोर सुक कोकिलानं, सारस-हंसान महुर-सद्द
→
विवि फल- कुसुम-मरियं सुरम्मियं भसास वनं ॥२०३४ ॥
4
-
पर्व :- यह सुरम्य भद्रतालवन मोर, शुक, कोयल सारस और हंस धादिके मधुर शब्दों व्याप्त है तथा विविध प्रकार के फल-फूलोंसे परिपूर्ण है । २०३४ ||
वादीस सहस्सानि असीदि - हिंदाणि वासमेक्षके । पुण्याबर भागे, वन. म्म सिरिभहस | लस्त || २०३५॥१ अर्थ :- पूर्व-पश्चिम भागोंमेंसे प्रत्येक भाग में श्रीभद्र चालवनका विस्तार अठासी से विभाज्य बाईस हजार (२२००० ) योजन प्रमाण है || २०३५ ।।
-
-
दोन्नि सया पण्णासा, अट्ठासीबी
विहराया था ।
मिलन- उदर मार्ग, एक्केक्के वास्स भडुतासम्म २०३६ ॥
-
पर्व :- दक्षिण-उत्तर भागों में से प्रत्येक भाग में भद्रलालवनका विस्तार मठासोसे विभक्त
-
( बाईस हजार योजन अर्थात् ) दोस्रो पचास ( २५० ] योजन प्रमाए है ।।२०३६ ॥
गजदन्त - पर्वतों का वर्णन -
-
r
वारण- दंत-सरिच्छा सेला चार मै बिवितासु । बक्सार चि पसिद्धो, अनाद निहरणा महारम्यो । २०३७॥
1. C. C. 5. T. 4. 3. 3. færre 3. T. 1. F. J. T. 3, 3. Toit)
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१५६ ]
तिलोत
| पाषा: २०३८- २०४३
म :- मेरुपर्व की विदिशाओंमें हाथीदांतके ( माकाद) सहया, धनादिनिधन मौर महारमनीय 'वक्षार' ( गजदन्त ) नामसे प्रसिद्ध चार पर्वत है ||२०३७॥
भीलद्द जिसह एम्बद मंत्रर-संसाण होंति संलग्गा ।
है ।।२०३८||
·
अतिररूपसे भा
-
सायामा ते बत्तारो महासेसा ॥२०३८ || भनि ससे संलग्न
उत्तर - क्विण-भागे, पसेणं,
एक्केन
अर्थ: उनमें से प्रत्येक पर्वत
प्रदेशसे ( उससे ) संलग्न है ।।२०३६ ।।
-
-
मंदर सेलस्स मम सम्मि
लम्ांसि ।।२०३१॥
एक्केन सेज उत्तर-दक्षिण भागमें मन्दर-पर्वतके मध्य देश में एक-एक
मंदर-अल-बिसानो, सोमरसो प्यान विज्जुपह-नामो । कमसो महागिरी रणं, गंणमारणो मालवंती च ॥२०४० ॥
म :- मन्दर-पर्वतको आग्नेय दिशा से लेकर क्रमशः सौमनस, विद्यत्प्रभ गन्धमादन और माल्यवान् नामक भार महावंस है ।। २०४
•
·
ताभं रुप्पय तर्वारणय-कमयं वेलुरिय सरिसवाणं ।
उचयन
-
देवि पट्टयो, सम्बं पुण्योवियं होषि ।।२०४१ ॥
- क्रमश: चांदी, तपनीष, कनक और वैर्यमसिके सह वर्णवाले उन पर्वतोंकी उपवन वेदी आदि सब पूर्वोक्त हो है ।। २०४९ ।।
-
पंच सय जोपणाणि, बिस्थारो ताण दंत - सेलाणं ।
सम्बत्व होदि
१.ब.ज... 5. महासे 1
सुंदर कच्यतदण्पण सोहानं ।। २०४२ ।।
:- सुन्दर कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुई शोभासे संयुक्त उन दन्तलोंका विस्तार सर्वत्र पांचसौ योजन प्रमाण है ।। २०४२ ।।
-
गोल- सिद्दि-पासे, चचारि प्रयाणि तो पबेस बड्डी, पलेक्स
-
जोयणा
मेच
-
होदि ।
सेतं ।। २०४३ ।।
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यो महाहियारो
पासम्म मेद- गिरियो, पंचसया दोघाणि उच्केहो । विवम रूप घराणं सारण वक्वार- सेल्स
·
गाया : २०४४ - २०४७ ]
।।२०४४ ।।
धर्म:-नोस और निवेश-पर्वतके पासमें इन ( गजदन्तों को ऊँचाई पारसो योजनप्रमाण है । इसके आगे मेपर्यंत पर्यन्त प्रत्येक (इसको प्रदेश- वृद्धि के होनेपर अनुपम रूपको धारण करनेवाले उन वक्षार पर्वतोंको ऊंचाई मेरुपर्वतके समीप पांचसौ योजन प्रमाण हो गई है ।। २०४३ - २०४४ ।।
गजदन्तोंको जीवा एवं बाण आविका प्रमाए
·
बुगुसम्म भट्टसाले, मोद गिरिवरल विसु विषतं । बो-सेल-म-जीवा, सेवा-सहस्स जोयरेरणा होंति ।। २०४५ ।।
-
। ५३००० ।
मालवन के विस्तारको दुगुना करके उसमें मेद-पर्वतके विस्तारको मिला देनेपर दोनों पर्वतोंके मध्य में जीवाका प्रमाण तिरेपन हजार
अर्थ :- [बझार ( गजदन्त ) के विस्तारसे रहित ]
( *** } योजन भरता है ।। २०४३।। ( २२००० -५०० ) x २ + १०००० ११००० ।
अयि विबेहद
पंच सहस्वाणि तत्य अवधि
वो बनसार गिरीनं जीवा बागस्त परिमाणं । २०४६ ॥
•
[ ५५७
अर्थ :- विदेहके विस्तारको प्राधाकर उसमें पचि हजार कम कर देनेपर वो बारपर्वतोंकी जीवा वायका प्रमाण प्राप्त होता है ।। २०४६ ।।
यथा - ४१००० : २–५०००-१५० ।
पणवीस सहस्तेहि, अमहिया जोमाणि दो लमला । उनवौसेहि विहता, मानस पमान
| २२१००• |
▾
मुद्दि ।। २०४७ ।।
वर्ग: उपर्युक्त वाका प्रमाण उनीससे माजित दो लाख पचीस हजार (235000 या ११०४२) योजन कहा गया है ।। २०४७ ।।
....... चिरबिर
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________________
५५६ ]
तिलोयपणती [ गापा : २०४६-२.५१ जोपण - सहि - सहस्सा, बत्तारि सया य अनुरस-वृत्ता । उनबीस-हरित-बारस - सामो बसार - म - ॥२०४८।।
०४१०१२।
मर्म :-वक्षार ( मजदन्तों ) पवंतोंका घनुपृष्ठ साठ हमार चारसी अठारह योरन और उन्नीससे भाजित गरह कसा ( .४१ योजन ) प्रमाग है ।।२०४८॥
गोयन-सीस-सहस्सा, 'णब-उत्तर से सपा पसभागा । उमगोसेहि बिहता, तानं सरिसायपारण' बीह ॥२०४६।।
| ३०२०६६ :-उन सदषा पायत क्षार-पांतोंकी लम्बाई तीस हजार दोसो मो योजन और उन्नीससे विभक्त छह भाग ( ३०२०६२ यो०) प्रमाण है ॥२०४६।।
मोबाए बर्ग, परन • बाप - प्पमाण - परिहतं । इसु - संजुत्त साग, मम्मतर - पट्ट - विक्संभो ॥२०५०।। एकातर सहस्सा, इगि-सोपाल - बोपना य कला । नव-गुणिबुषबीस - हिया, सग - तोमा - विक्खंभे ॥२०५१॥
प्रर्म : जीवाके वर्ग में चौगुणे दाणका भाग देकर लम्सरामिमें वाणक प्रमाणको मिला वेनेपर उनके अन्सत क्षेत्रका विष्कम्भ निकलता है। यह वृत्त-विष्कम्भ इकहत्तर हजार एकसौ तेतालीस योजन और नौसे गुणित उन्नीस (११) से भाजित मैंतीस कला (११४३.यो.) प्रमाण है ॥२०५०-२०५१।।
यषा-५३... {324x4 ) + me=११४३ योजन ।
मुविसावा ।
..... एकत्ता, क. ब. म. द. पाता। २..... म. उ. १.प.क... य. क विसभा ।
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पापा । २०५२ - २०५६ ]
शो-स-पास तसो परेस
·
। २५० 1
तानं च मे पासे, पंच तथा जोबनाणि विस्मारो।
लोयविच्छि
-
-
चत्वो महाहिया
·
+
-
सोया
वड्ढो, पतंग मेद सेलतं ।। २०५२ ।।
-
(MARKĄ)
वर्ग:नीस और निषध पर्वत के पास धन ( गजदन्त ) पर्वतका विस्तार दोसो पचास ( २५० ) योजन प्रमाण है। इसके भागे मेरु पर्वत पर्यन्त प्रत्येक प्रदेश वृद्धि होनेसे मेरुके पास उनका विस्तार पांचो योजन-प्रमाण हो गया है। लोकविनिश्चयके कर्ता नियमसे इसप्रकार निरूपण करते है ।। २०५२ - २०५३।।
सिरिमद्दसाल बेदी, वार गिरीण अंतर-माणं'
पंच सय जोमाणि
सम्यायनियमि
बिट्ठि
-
कक्षा एवं जिम्मा सिरुवेदि ।। २०५३ ॥
J
| ५००
-
-
| ५०० ।
( पाठान्तरम् )
1
सर्ग: श्री मशाल वेदी और वक्षार-गिरियों का अन्तर पाँचौ (५०० ] योजन प्रमाण सामणीमें कहा गया है ।। २०५४ ।।
गजदन्तों की नींव एवं उनके कूटोंका निरूपण --
गाणं गाढा, गिय-निय उदय प्पमाच-प-भागा । सोमणस गिरिवर बेट्टते सत सिद्धो सोमणसक्खो, बेदकुरु मंगलो कंचण दसिद्ध कूडा, सिहंला
१.६. रु. ज. प. च. ठ समाए ।
( पाठान्तर )
।
।।२०५४ |
-
दिमल भामो
मंदर
| पालान्तर )
[ ५2e
कुडाणि ॥२०५५ ॥
श्री ।। २०५६।।
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तिलोपपपणती
[ गाषा: २०५७-२०६०
समे:-गजदन्ठों को गहराई अपनी-अपनी ऊँचाईक पतुशि प्रमाण है। सोमनस गजवन्तके ऊपर सिव, सौमनस, देवकुरु, मङ्गस, विमल, काञ्चन और मशिष्या ये सात कूट मेसे लेकर निषष पर्वत पर्यन्त स्थित है ॥२०५५-२०५६।।।
सोमनस-सेल-उबए', पर - भजिये होति कुरा उबपाणि ।
वित्यारावामेसु, गण गरिम जबएसो ।।२०५७॥
अर्थ :-सौमनस गजवन्तकी ऊंचाईमें पारका भाग देतेपर जो सम्म प्राप्त हो उतनी इन कूटोंको ऊँचाई है। इन कटोंके विस्तार और सम्बाईने विषयमें उपदेश नहीं है ।।२०५७।।
भूमिए मुहं सोहिय, अपहिवं म मुहाव-गाय-वडी । मुह-सम पण-अण भूमी, उबो इगि'-होग-फूर-परिसंसा ॥२०५८।।
।१०० । १२५ १६ । प्रचं:- भूमिमेंसे मुख कम करके उदयका भाग देनेपर जो मध माप्त हो उतना भूमिकी अपेक्षा हानि और मुखकी अपेक्षा वृद्धिका प्रमाण होता है । यहाँ मुखका प्रमाणा सौ(100) योजन, भूमिका पारके घन (१२५) योजन मौर उदय एक. कम फूट-संख्या (७ - १-६) प्रमाण है।।२०५५।
सय बढीण पमा, पमुषोसं जोयनागि छम्मजिवं। भूमि - मुहेसु होगाहियम्मि कुरान उन्हो ॥२०५६॥
प:-यह क्षय-विका प्रमाण सहसे भाजित एसीस योजन है । इसको भूमिमेंसे कम करने मौर मुडमें जोड़ने पर कुटोंकी ऊँचाईका प्रमाण प्राप्त होता है ।।२०५६॥
अहबारच्छा-णिवा-सय बढी लिवि-विसुब मुहमुत्ता। कूमाग हो उपओ, तेसु पदमम्स पण - वि ॥२०६०।।
। १२५ ।
3
१.स. क... 8. रमो, उ, उपक । २. ब. क.. म, 3. न. गृहम्मि मोविए । . मई मोरिप। 1.... प. समायब, सम्माण, क. व. 8. बामाण ।
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गाषा : २०६१-२.६४] जत्यो महाहियारो
मर्ण:-अथवा या राखिसे गुणित क्षय-विको भूमिसे कम करने और मुबमें मिला देने पर कूटोंकी ऊंचाई प्राप्त हो आती है। इनमेंसे प्रथम कूटकी केवाई पाचके घन ( १२५ योजन) प्रमाण है ।।२०६०॥
विविपस्स बीस • अतं, सममेक' अम्विहत-पंच-कला । सोलस-साहिरं च सयं, गोणि कला तिय-हिदा तइजस्स ।।२०६॥
।१२।।।।१९।। म:-द्वितीय फुट की ऊंचाई एकमो वास योजन और छहसे विभक्त पाच कला ( १२० योजन ) प्रमाण तथा तृतीय कूटकी ऊंचाई एको मोलह पोजन और तोनसे भाजित दो कला (११९३ यो• ) प्रमाण है ।।
R EN :-- AAYE मारस-अम्भहिय-सर्प, गोयनमद' च तुरिम - रस्स । जोयग-ति-भाग-जुत्त, पंचम - पूजस अट्ट - महिब-स ।।२०६२।।
।१२।। ।१०।। पर्य :- चतुर्थ कूटकी ऊंचाई एकसौ साढ़े बारह (१९२९) योजन और पांचवें कूट की केवाई एकसौ पाठ ( १०८९ ) पोजन तथा एक योजनके तीसरे मागमे अधिक है ।।२०६२।।
पउ-वृत्त-बोयण-सवं, छबित्ता इगि-कला व छुस्स । एक्क - सय - भोयणाई, सत्तम - बस्स हो ।।२०६३॥
। १०४।।१० म :-के कुटकी ऊँचाई एकसो गार योजन और छहसे भाजित एक कला (१०४ यो ) प्रमाण तथा सावर्वे कूटकी ऊंचाई एकसो (१०० ) योजन प्रमाण है ॥२.१३॥
सोमनात-बाम-गिरिलो, आयाने सग-हिबम्मि जला।
कुणमंतराखं, तं पिप बाएवि पत्तेवक ।।२०६४॥
मर्य:-सौमनस नामक पर्वतकी लम्बाई में सातका भाग देनेपर जो लम्ब आये उतमा प्रत्येक कूटके मन्स रासका प्रमाण होता है ।२०६४।।
१. स. अयमेत।
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५६२ ]
तिलोत्त
बतारि सहस्साई तिष्णि सपा कोयरणाणि पञ्चरता 1 तेतीसहिय सएनं भाजिद वासोवि कला ॥२०६५।।
| ४३१५ |
-
पर्थ
नारा
बयासी कला ( ४३१५१ योजन ) प्रमाए है ।२०६५।।
-
आदिम कूडोवरिमे, जिल-भवणं तस्स वास-उच्छे हो ।
बोहंच ओपंग वण जिगपुर सरिछ । २०६६।।
·
अर्थ:- प्रथम कूट के ऊपर एक जिन-भवन है। उसके विस्तार, ऊँचाई पर लम्बाई बादिका वर्णन पाण्डुकबन-सम्बन्धी जिनपुर के सदृश है ।।२०६६ ।।
-
-
सेहेसु कूशंसु, बेंतर देवान होंति पासादा ।
-
वेदो-तोर जुत्ता, कणयमया रयण वर - खच्चिदा ॥२०६७॥ अर्थ:-शेष टोंपर वेदी एवं तोरण सहित एवं उत्तम रश्नोंसे खचित ऐसे व्यन्तर देवों स्वर्णमय प्रासाद है || २०६७।।
-
[ गाथा २०६५- २०७०
कंण कूडे शिवस, सुबन्छ देवि सिरिवच्छ मितवेवी, कूडवरे मान पर एक पस्यप्रमाण पायुसे युक्त सुवत्सादेवी ( सुमित्रा देवी ) पोर विमल नामक श्रेष्ठ कूटपर बीवरसमित्रा देवो निवास करती है ।।२०६६ ॥
1
तंत्रास माजित
सि एक्क- पहलाऊ ।
विमल सामम्मि ॥२०६८६ ॥
-
श्रवसेसे चउस कूडे वाप चतरा देवा' । गिय-कूद सरिस लामा, विवि विनोदेहि कोयंति ।।२०६१।।
-
-
:- शेष चार कूटों पर अपने-अपने कूट सा नामदाले भ्यन्तरदेव विविध प्रकारके विनोद पूर्वक कोड़ा करते हैं ।।२०६६ ।।
विद्यप्रभगजदन्नों के कूटोंका वर्जन
विपस्स उर्वार, राव कूडा होति दिवमायारा
सिद्धो बिज्जुपक्यो, देवकुरू-पक्ष्म-सवन-सरिपकया ।।२०७०।।
ख. क. उ. देशी म. देवे । २.६ ब देवो ।
-
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गाषा : २०७१-२०७५ ] बरस्थो महाहियारो
[ ५६३ सयउबल-सीतोदा, हरि ति सामेहिं भमण-विस्तारा।
एदानं उन्हो , णिय - मेनुच्छेह - खउ • भागो ॥२०७१॥
पर्व :-वियत्प्रभ पर्वतके ऊपर सिड, विद्या प्रभ, देवकुम, पच, तपन, स्वस्तिक, पातोयल ( मसज्वाल), सौखोदा और हरि, इन नामोंसे त्रैलोक्य में विख्यात तपा अनुपम प्राकारबाले नौ कूट है । इन फूटोंकी पाई अपने पर्वतको बाईके रतुर्थ भाग प्रमाण है ॥२०७४-२०७१।।
गोहसे विस्यारे', उषएसो तारण संपइ पणटो। माविम • बेहो', पणवोल-जवं व प्रोयगान सर्व ।।२०७२॥ एक्कं चिय होवि सर्व, प्रसिमरा उदार जो
उभय - विसेसे '-हिव-पंचकवी हाणि - बढीओ ॥२०७३॥
पर्ष :-उन कूटोंको सम्बाई एवं विस्तार-विषयक उपदेश इस समय नष्ट हो चुका है। इनमेंसे प्रथम कूटको ऊचाई एकसौ पच्चीस (१२) योजन है घोर अन्तिम कुटकी ऊँचाईका प्रमाण एकसो (१००) योजन है । प्रश्म कुटकी ऊंचाई से अन्तिम फूटकी ऊंचाई पटाकर पोष पापके वर्ग ( १२५ -१०-२५) में माठका भाग देनेसे हानि-वृद्धिका प्रमाण ( या , पो.) निकलता है ।।२०७२-२०७३।।
बछाए गुमिवानो", हामि-वड्ढोपो शिवि-विसुगमत्रो।
मुह - मृत्तानो मतो, कूडाणं होविं उन्हो ॥२०७४।।
पर्व: इन्चासे गुणित हानि-वृद्धिक प्रमाणको भूमिमे कम करने अथवा मुखमें ओर देने पर क्रमशः कुटौंकी ऊंचाई प्राप्त होती है ॥२०७४।।
पणवोसम्भहिय - सयं, पमाणमुवओ पहिल्लए सेसे ।
उपगुप्पो , पणुवीसं समवणेषज प्रष्ट - हिवं ॥२०७॥ । १२५ । १२१ । । । ११८ । ३ । ११५ ११२ । । १०६।३।१०।।
१०३।१।१०।
१.ब.स.क. . व, मिमिमा, ग. जिवावे । २ .... या. पूनरागिबहीब.क. ४. च. वाणुदपो । 1.म.. महिना म.क. स. . पहिय। ४१, बुणियविभ-परकोपो महाविनामो। . ब. पुरिएका पोपी शिरि-माबिसुदामो। . गरिएषाविस बहसोपो चिदि-मागसुवायो। प.णि पापिय बालोमो शिवि-महावदामो।
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तिलीयपम्पसी
[ पाषा: २०७६-२०७१ प:--प्रपम फूटकी ऊंचाई एकसौ पच्चीस (१२५) योजन प्रमाण है। शेष कटौंकी ॐाई जानने के लिए उत्तरोत्तर उत्पन्न प्रमाण से आठसे भाजित पम्पोस (३१) योजन कम करते जाना पाहिए ।।२०७५॥
यवा-प्र० कूटको १२५ शे०, दि० १२१६ यो.. १. ११८ यो. च. १९५६ यो०, पं. १६२ यो०. प. १०१ यो, स. १०६३ यो०, अ० १३. यो और नवम फूर को १० योजन
विरपुपह-शाम-गिरिपो, आयामे गव-हिबम्मि जं सद।
गणमंतरालं, सं पिय जाएदि पस ।।२०७६॥
वर्ष :-विच प्रम नामक पर्वतको लम्बाईमें नो (१) का भाग देनेपर जो सब बाये उतना प्रत्येक कूटके मन्दायाँ लाए हवाम ४२१७६१.दि ११११५. Wities
तिमि सहस्सा हि-सया, पन्ना सोयना कला वि । एकत्तरि' - अहिषसए, अपहित - एक्कोतर • सवाई ॥२०७४।।
पर्व:-यह अन्तराल-प्रमाण तीन हजार तीन सौ झुप्पन योजन और एकसौ इकहत्तरमे भाजित एकसी एक कला ( ३३५६१ यो० ) प्रमाण है ।।२०७७॥
निम - भवन - पनवोनं, सोमणसे पचव एवस्ति ।
णवरि पिसेसो एसो, बेबी प्रल • नामानि ।।२०।।
धर्म:-इस पर्वतपर जिन-भवनाविक सौमनस-पर्वतके हो सहन है । विशेष केवल पह है कि यहाँ देवियोंके नाम अन्य है ।।२०।।
सोत्तिक - कूडे बरि, सरवेषो बाल सि गामेणं ।
कूडम्मि सफा - गामे, देवी पर • रिसेग चि ॥२०७६।।
अर्थ :-स्वस्तिक कूटपर बला नामक व्यन्तरदेवो एवं सपनकूटपर शारिषणा नाएक उतम देवी रहती है ।।२०७६॥
-- - -. .- - - - - १... 4. एकत्सर ।
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गापा : BRANA८५ Feat सु विधा .in [ ५६५
मंदर-गिरियो गछिय, बोयराम गिरिमि मिनरहे ।
बेरि गुहा' राम्मा, पन्नर - बासो प्रायामा ॥२०८०॥
w:-मन्दर पर्वतसे माषा योजन माकर विष प्रभपर्वतमें पर्वतके विस्तार महश एक लम्बो रमणीय गुफा है ॥२०६०।।
तौए वो - पासंसू, दारा गिय-जोग्ग-जय-विस्पारा' । होति अकिट्टिम - स्वा, भानावर-रयण - रमणिला ।।२०८१।।
:-इसके दोनों पाश्र्वभागोंमें अपने योग्य ऊँचाई एवं विस्तार सहित तमा अनेक उत्तम रनोंसे रमणीय अकृत्रिमरुप द्वार हैं ।।२०८१।।
गन्धमादन पर्वतके क्रूटो प्रादिका वर्णन - कूागि गंधपारण - गिरिस्स उरिस्मि सच चेटुति । सिदाल - गंधमारण - वेबकुरू - गंपवास - लोहिया ।।२०५२॥ फलिहारा' ताण, सत्ताचि इमानि होति मामागि।
एवार्य अवयावी, सोमनात • नगं व गावया ॥२०१३॥
वर्ग :-गन्धमादनपर्वतके ऊपर सात कट स्थित है । सिद्ध, गन्धमायन, देवकुरु, गन्धव्यास ( गन्धमालिनी ? ) लोहित, स्फटिक पोर मानन्द वे उन सात कूटों के नाम हैं। इन फोको अंगाई मादिक सोमनस मर्मतके सहन हो जाननी चाहिए ॥२०८२-२०५३।।
गरि विससो एसो, लोहिद • टूरे परि भोगवयो।
भोगकरा' य देवी, कूरे फसिहाभिधारसम्मि ।।२०५४।।
पर्ण:-विशेष यह है कि सोहित कटपर भोपवतो एवं स्फटिक नामक फूटपर भोगारादेवी निवास करतो है ॥२०६४।।
माल्यवान् पर्वतके कूटो आदिका वर्णनरणव कूग खेट्टते, उपरिमि गिरिम्स पालवंतस्म । सिल्क - मालमुरकुर कच्छा सागरं हि रजवासा ।।२०६५॥
१.... भ. प. म. स. इ. पुरणारा। २.प. ब. क. ब. प. अ... मागे । ३... क. प. य. उ. ठ, पनियाका राएं। ४...क.. य. . ३. भोककहि । ५, ६. ब. क. प, , उ. . मंतर । ... .... 8. सागरमि ।
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TREET
१६६ }
तिसायपणतो
गाषा : २००१-२०८६ तह पुम्णमा - सोबा. हरिसह - भामा इमान कूडानं ।
विचारोदय - पहरी, विरुष्पह - कूप - सारिया ।।२०८६।।
प्रर्ग :-माल्यवान् पर्वतके ऊपर नौ कूट स्थित है। सिट, माल्यवान्, उत्तरकुरु, कन्य, सागर, रजत, पूर्णभद्र, सीता और हरिसह, ये इन कूटोंके माम है। इनका विस्तार एवं पाई आदिक विछ त्यस पर्वतके कूटोंके सरम की समाहिए:१२७- TREE
एक्को गरि विसेसो, सागर-कूडेसु भोगदि गामा ।
रिणवसेवि रजब - गे, गामेवं भोगमामिणो यो ॥२०६७।।
पचं :-विशेषता केवल यह है कि सागर कूटपर भोगवती एवं रजतकर पर मोगमामिनी नामक देवी निवास करती है ।।२०६५।।
मंबर-गिरिको गछिय, जोयनमय' गिरिम्मिएपस्सि ।
सोहेदि 'गुहा पक्य - विस्तार - सरिच्छ - बोहवा ।।२०६६॥
w:-मन्दर पर्वतसे माधा मोजन आगे जाकर इस पर्वतके पर पर्वतीय विस्तारके सहम लम्बी गुफा कही जाती है ।।२०।।
तीए बो - पासेतु, वारा णिय-जोग-वय-बिमारा ।
फरिर-पर-यम-किरणा, प्रसिद्विमा ते लिहवामा ॥२०॥
म:-उसके दोनों पावभागोंमें पपके योग्य लक्ष्य एवं विस्तार सहित तमा प्रकापामान उत्तम रलकिरणोंसे संयुक्त वे अकृत्रिम एवं अनुपम द्वार ॥२००६।।
[ चित्र प्रगले पृष्ठ पर देखिये ]
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गापा : २१.
चडायो महाशियारो
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सीतोदा नदोका विस्तार वर्गननिसह-पराहर-उरिम-तिगिछ-रहस्स उत्तर - दुवारे । लिगण्यवि विम्ब - गदी, सीदोबा भवण - विक्सावा ।।२०६०।।
म:-निषष-पर्वतके ऊपर ( स्थित तिगि-बहके उत्तर-दारसे लोक विस्मात दिव्य सीसोदा महानदी निकलती है ।।२०६०॥
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१६]
तिलोयपष्णती
चोपन सत सहस्से, उत्सवे एक्कबीस प्रविधि । मिसहस्सोवरिवरि सोबोवा उत्तर
.
क. कुंडा ।
१७४२१INI
अर्थ :- यह सीतोवा नदी उत्तरमुख होकर सात हजार चारसी इनकोस योजनसे कुछ मधिक ( ७४२१२१ योजन) निपधपवंतके ऊपर जाती है ।। २०६१।।
विलुप्पहस्त गिरिणो, गुहाए बच्देवि भहसाले', बंकस
आगंतून तो सा, पडिसीदोदणाम कुं
-
परिपूर्ण गिग्गच्छबि, तस्सुतर तर तुमारे २०१२ ।। गिग्णयि सा गच्छदि उरार-मग्गे जाव मेद-गिरि ।
टो कोसेोहमपानिय विसवे पि मुहे ।।२०६३॥
घ : चातु वह नदी पवंत परसे श्राकर और प्रतिसीतोद नामक कुण्डमें गिरकर उसके उत्तरतोरणद्वार से निकलती हुई उत्तर-मासे मेरु पर्वत पर्यन्त जाती है। पुनः दो कोसते मेरु पर्वतको में प्राप्त करें] अर्थात् दी कोर्स दूर है को और मुड़ जाती हैं । २०६२ - २०६३ ।।
-
·
·
-
[ माया । २०२१-२०१६
-
मुहे ।।२०।।।
उत्तर मुहेण पविशेति । वेग लेलि अंतरि ॥२०६४।।
-
वर्ष :---अनन्तर वह नदी उसने ( वो कोस ) प्रमाख अन्तर सहित कुटिल विद्युत्प्रभ पर्वतकी गुफा उत्तरमुखमें प्रवेशकर मद्रमान वनमें जाती है ।।२०१४ |
-
मेरु- बहु-मन-मार्ग, नियमम्भप्पणिषियं पि कानू ।
पच्छिम मुहेन मच्छषि, विबेह विजयस्य बहु-मक् ।।२०६५।।
I SYORD L
मेरुके बहुमध्य भागको घपना मध्य - प्रणिधि करके वह नदी पश्चिम मुझसे विदेहक्षेत्रके बहुमध्यमें होकर जाती है ।।२०६५)
बेवकुद खेल जारा, नवी सहस्सा हवंति चुलसीबी । सीसोदा परितीरं पविसंति सहस्त
बाबा ।।२०६६।
....... पणिसेवि२. बसलो.......
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पापा : २०१७-२१.१ ] परयो महाडियारो
[ ५६९ म: देवकुन-क्षेत्रमें तस्पन हई चौरासी हजार ( २४०.0) नदिया है। इनमेंसे बयालीस हजार जति गीतोहाके बोरों को इसे सरकार को प्रदेश स्कूली २०६६।।
अबर-विह-समुम्भव-गयो समाया हयक्ति चर - लक्बर । मडवालं च सहस्सा, प्रस्तोता परिसंति सोवोदं ॥२०६७॥
। ४४०३८ ।
पर्व :-प्रपर विदेहक्षेत्रमें उत्पन्न हुई कुस नदियाँ चार तास अड़तासीप्त हजार बड़तीस (४४.३८) है, जो स्रोतोदामें प्रवेश करती है ।।२०६७।।
बंदोबस्त तवो, नगवी - बिल · रारएण संचरितं । पविस स मिहि, परिवार • पईहि जुत्ता सा ॥२०१६॥
:-पक्ष्याम् जम्बूद्वीपकी जगतोके बिलन्दारमेंसे जाकर वह नदी परिवार-मदियोंमे युक्त होती हुई लवण समुद्र में प्रवेश करती है ॥२०६८।।
वादगार - पहरी, हरिकताडो हति योगनिदा । तौए • तर - वेदो - उबवण - संडादि - रम्माए ॥२०१६॥
म:-दो तट-वैदियों और उपवन-वाण्डोसे रमणीय उस सीलोदा नदीका विस्तार एवं गहराई आदि रिकान्ता नदीसे दूना है ॥२०९६।।
यमक पर्वतॊका वर्णन सोयच - सहरूस मेक्क, जिसह - पिरिवास उत्तरे गर्नु ।
बेळंति जमग • सेला, सौगोदा - इभम - पुलिणे ॥२१ ॥
पर्व:-निषष-पर्वतके उत्तरमें एक हजार योजन जाकर सोतोदा-नदीके दोनों किनारों पर यमक शंन स्थित है ।।२१०॥
पामेण अमग - कूडो, पुम्बन्मि में गबीए बेदि ।
प्रवरे मेघ फूगे, फुरंत - घर - रमन - किरणोहो ॥२१०१।।
प्र:-प्रकाशमान उत्तम रत्तोंके किरण-समूह सहित यमक कर सीतोवा नदीके पूर्व सट पर है और मेषकूट पश्चिम तटपर है ॥२१०।।
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तिलोयपणती
माया २१.१-२१०१ पोह पि संतराल, पंच - सपा बोयमारिण सेसाल। " बोलि सहस्सा जोषण - तुंगा मूले सहान्त - मित्यारो ॥११०२॥'' '
।५०० । २... | १ ० | ' :-इन दोनों पर्वतोंका अन्तराल पावसौ( ५००) योजन प्रमाण है। प्रत्येक पर्वतको ऊंचाई दो हजार (२०००) पोजन तपा मूल विस्तार एक हजार (१०००) योजन प्रमाण है ।।२१०२॥
सात - सया पण्णासा, पत्तेवर ताण माझ विस्यारो।
पंच • सय • जोपणानि, सिहर - सले र - परिमाणं ।।२१०३॥ या - AT
THE LATEST प्रर्ष :-- उनमें से प्रत्येक पर्वतका मध्य-विस्तार प्रातसो पचास [७५०) पोजन है और शिखरतसमें विस्तारका प्रमाण पावसो { ५०० ) योजन है ।।२१०३॥
एवाण परिहीओ, विधारे ति - गणिम्मि अतिरित्तो।
अबगाढो नमगाणं, णिप - लिय - उच्छह - चसभागो ।।२१०४॥
म:-इन (पर्वतों) की परिधियां तिगुने विस्तारसे अधिक है । यमक-पर्वतोंकी गहराई अपनी-अपनी कैबाईक चतुपंमाग प्रमास है ॥२१ ॥
यमक पर्वतोपर स्थित प्रासादजमगोपरि बहु - मझ, पत्ता हाँति 'विव्य-पासावा । पण - घण - कोसायामा, समाह - संपन्ना ॥२१.०५॥
। १२५ । २५० । म:-प्रत्येक यमक-पसके ऊपर बहमध्यभागमें एकसौ पच्चीस (१२५) कोस सम्म पौर इससे दूनो ( २५० कोस ) ऊंचाईसे सम्पन्न दिव्य धाताव है ।।२१०५॥
उप-मड - बासा, सष्ये तबनिया-रबब-रयणमया । अम्बत - घय - पवाया, पर - तोरनवार - रमणिमा २१०६॥
।१२५ ।
---. - -- - - - - - - t... उ.३. बन्न।
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गावा : २१०७-२१११] पर महलहगारो ?
कार w:-स्वर्ण, पांदी एवं रत्नोंसे निर्मित, फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे संयुक्त और उत्तम तोरण-दारोंसे रमणीय ये सब प्रासाद अपनी-अपनी ऊँचाई पर्षभाग { १२५ कोस) प्रमाण विस्तारवाले है ।।२१०६।।
जमग - गिरीषं उवार, मबारे विहति विश्व-पासावा ।
उच्छेह - बास - पहुविसु, उनिट्रानो ताण उवएसो ॥२१०७॥
प्र:-पम-पर्वतोंके अपर पोर भी (अन्य ) दिव्य प्रासाद है। उनकी ऊंचाई एवं विस्तारादिका उपवेवा नष्ट हो गया है ॥२१०७।।
पण - सोहि अवा, पोक्सरणी-कूब-वावि-आरम्मा । करिब - वर - रयण - बोला, ते पासादा विरायते ॥२१०॥
प:-उपवन-क्षणों सहित; पुष्करिणी, कप एवं वापिकाओंसे रमणीय मोर प्रकाशमान उसम रत्नदीपकोंसे संयुक्त में प्रासाद शोभायमान है ।।२१०८।।
पञ्चद - सरिच्छ - मामा, पैतरवा वसंति एवं ।
बस - कोरडत्त पा, पत्रक एकक - पल्सामा ॥२१०६।।
पर्व:-इम प्रासादों में पर्वतोंके सदृश माममाले ज्यन्तरदेश निवास करते हैं। इनमेंसे प्रत्येक देव दम धनुष ऊँचा और एक पस्यामारा आमुवाला है ।।२। ।
सामाणिय-तरक्सा, सचापीयाणि परिस - तवियं च ।
किम्मिसिन्धभियोगा तह, पानातान होलि परोपकं ॥२१॥
मपं:- उनमेंसे प्रत्येकके सामानिक, सनुरक्ष. सप्तानीक, तीनों पारिषद, किरियषिक, माभियोग्य और प्रकोगंक देव होते हैं ॥२११०॥
सामाभियपनोणं, पासादा काय-रजद-रवषमया ।
तई वीर्ण भवमा, सोहंति तु विषमायारा ॥२१११।।
म :-स्वणं, पौदी एवं रलोंसे निर्मित सामानिक प्रादि देवोंके प्रासाद मोर उनकी देवियों के पनुपम भाकारवाले भवन शोभायमान है ।।२१११॥
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are:
४७२ ] .
तिलोपरमात्ती [गाथा : २११२-२१११
जिनभवन एवं प्रह)का वर्णनजमर्ग मेमसुरान, 'भवहितो रिसाए 'पुवाए । एकेक शिणगेहा, पंहुग - जिनगेह • सारिश ॥२११२॥
: यमक और मेष देयोंके भवनों से पूर्वदिशामें पाप्मुक-कनके जिनमन्दिर सदृश एकएक जिन भवन है ।।२११२॥
पंडग-मिण - गेहाण, महाशादि समस्या क्षमता WEETE
मा पुरिस भगिदा, सा जिन- भवनाग एराण ॥२११३३॥
प-पाण्डकवन में स्थित जिन भवनों के मुखमप आदिका जो सम्पूर्ण वर्गम पूर्वमें किया है, वही वर्णन इन बिन-भवनोंका भी है ॥२११५।।
समग मेघ - गिरीको, पंच - सपा जोममाणि गंतूणं । पंच - बहा' परोक, सहस्स - दल - जोपर्वतरिता ॥२११४॥
। ५..1 मर्म :- यमक और मेगिरिसे पांचसी योजन प्रागे जाकर पाच इह है, जिनमें प्रत्येक बोष मधंसहस्र ( ५०० ) योजनका अन्तराप्त है ।।२१।४।।
उत्तर - वक्तिग - पोहा, सहस्समेकं हर्षति परोक्क । पंच - सय - जोयनाई, इंदा दस - जोपणवगाळा ॥२११५॥
। १.० ५.०1१। प: प्रत्येक रह एक हजार प्रमाण उत्तर-दक्षिण लम्बा, पाँचसो पोजन पौड़ा मोर दस मोजन गहरा है ॥२११५||
निसह-कुछ-सूर-सुलसा, विक्कू - णामेहि होसि से पंस । पंचार्ण बहुमग्झे, सीबोका सा गया' सरिया ॥२११६॥
१.अ. भवहिते। २. द. क... 1. 1. पुम्बाम । ... पंचमहो, क.न. म. न. 8. पंचहो । .. य... ...... .... ।।
४.क...
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गामा । २११७-२१२० ]
स्पो मद्दाहियारो
[ ५७३
अर्थ :- निषष, कुरु ( देवकुरु ), सूर, सुलह और विद्यतु ये उन पांच द्रहो नाम हैं। इन पांचों ग्रहोंके बहुमध्य भाग में से सीढोदा नदी गई है ।२११६ ।।
होंति वहाणं मक्के, मंजुल कुसुमाण दिग्व भव ।
यि गियरहणामार्ग', नागकुमाराए देवीओ* ॥२११७१
·
देव एवं देवियोंके निवास है ।। २११७ ।।
अर्थ :- द्रहों के मध्य में कमल पुष्पों के दिव्य भवनों में अपने-अपने के नामवाले नागकुमार
-
यस यन्मणाओ, जाओ' पउम दहनि भणिदाओ ।
ताम्रो विजय एवं
J
+
यवं मूलम्मि सदं पणासा सिहर
2
O
-
T
अर्थ :- अवशेष वर्णनाएं जो पद्मद्रके विषयमें कही गई हैं. वे ही इन उत्तम ब्रहों के विषयमें भी जाननी चाहिए ।।२११० ।।
कांचन मेलोंका वर्णन -
एक्केकस्स वहस्त य, पुष्य दिसाए य प्रवर विभागे । वह वह कंखग-सेला, जोयन सब मेस
मोदी
-
1.
-
-
फ्रेश' ।।२११६॥
। १०० ।
:- प्रत्येक के पूर्व एवं पश्चिम दिग्भाग में सो-सो योजन ने दस-दस काञ्चनकनक पर्वत ) हैं ।। २११६||
पतरि जयनाणि मज्झमि ।
तले, पक्कं कणय - सेलानं ।। २१२०॥
। १०० । ७५ । ५० ।
अर्थ :--- प्रत्येक कनक-पर्वतका विस्तार मूलमें सौ (१००) पोजन, मध्य में पचहतर ( ७५ ) योजन और बिखरतल में पचास (५०) योजन प्रमाण है || २१२० ॥
९. य. ब. क. जप सामाग्री व 5 णामाच । २. ब. खामा, द. क. ज. प . उ. गामा | १६. ब.उ. जाट ४ . . . . . . . . .
वा
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तिलोयपणतो [ गावा । २१२२-२१२५ पणवोत - बोयणाई, अषणावा से फरत-मणि-किरणा। ति-णिव-गिम विस्थारा, अतिरित्ता ताण परिशीपो ।।२१२१॥
प्रपं:-प्रकाशमान मणि-किरणों सहित वे पर्वत पचीस योजन गहरे हैं । इनकी परिधियोंका प्रमाण पते-अपने विस्वाइसे अब अमित तिगुना है ! FARPUR
घर तोरण-बोहि, मूले उरिम्मि उपवण • बगेहि ।
पोक्सरणीहि रमा, कगयगिरौं मगहरा सव्वे ।।२१२२॥
अप:-ये सब मनोहर कनकगिरि मूलमें एवं ऊपर चार तोरण-वेदियों, पन-उपवनों और पुष्करिषियोंसे रमणीक है ॥२१२२॥
कणय-गिरोग' उरि, शसादा कणय रजवारयणमया ।
गच्चंत - षय - पापा, कालाग - व - गंबता ॥२१२३॥
प्रय:-कनकगिरियों पर स्वर्ग चांदी एवं रहनोसे निमित नापती हुई ध्वजा-पताकामों सहित और, कालागर धूपकी गवसे व्याप्त प्रासाद हैं ।।२१२३॥
जमग मेधगिरी ब, कंत्रण - सेलाण बनणं सेसं ।
गरि बिसेसो कंचन - नाम' - उतराम बासरे ॥२१२४।।
म :-काम्बम लोंका शेष वर्मन यमक और मेघगिरिके सहा है। विशेषता केवल इतनी है कि ये पर्वत काम्चन नामक म्यन्सर देवोंके निवास है ॥२१२४॥
हिम्प-वेदोबु-सहस्स-जोयनामि, पानी रो कला पविलत्ता । उजवीरोह गन्छिप, "विण्यु - पहारो व उत्तरे भागे ॥२१२५।।
1 २०१२ । क..
..... य. एममारणं, प.क.उ.सममाए। २...ब. सामातरं RS... सामा बिर, इ. न. पामा तर मि। ३, ८. .. क. प. प. उ. ल. उम्पहायो।
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भाषा : २१२६-२१२९ ] पासो महाडियारो ली kinesi
चढवि विजयी, जोपण-कोसा • उषय - विरधारा । पुणावर - भागेसु, संलम्मा गयवंत • सेलानं ॥२१२६।।
। जो ! । को। प्र:-विध तहसे उत्तरकी पोर दो हमार गानय योजन मोर उभीससे विभक्त दो कला ( २०९२ योजन) प्रमाण आकर एक योजन ऊँची, आषा (1) कोस चौड़ी और पूर्वपपिचम भागों में गजदन्त-पर्वतोंसे जुड़ी हुई दिम्प वेदो स्थित है ॥२१२२-२१२६।।
परियाद्वालय - विउमा', बहु-तोरण-वार-संजुषा रम्मा । वारोवरिम • तसेस, सा जिण - भवणेहि संपुन्या ।।२१२७॥
पर्व:-बह वेदो विपुल मागों एवं पट्टालयों सहित, बहुत तोरण-द्वारोसे संयुक्त और द्वारोंके उपरिय-भागों में स्थित जिन-मपनोंसे परिपूर्ण है ॥२१२७।।
दिग्गजेन्द्र पर्वतोंका वर्णनपुण्यावर - भागे, सीवोद - पोए भहसाल - बजे ।
सत्मिक - अंजण - सला, गामेण "दिग्गवित्ति ।।२१२८॥
पर्व :-मनगालबमके भीतर सीतोवा नदी के पूर्व पश्चिम भागमें स्वस्तिक पोर मम्मान नामक दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं ।।२१२८।।
जोयग - यमुस्तुगा, लेसिय-परिमाण-मूल-बित्पारा । । इच्छेह - तुरिम - गाढा, पन्गासा सिंहर - विक्संभो ।।२१२६॥
।१०।१०।२५। ५. । पर्य: ये पर्वत एक सौ (१०.) योजन ऊंचे. मूलमें इतने ( १०. यो. ही प्रमाण विस्तारखे पुक्त और ऊँचाईके बसुर्व भाग ( २५ मो०) प्रमाण नीयता पक्षाप्त ५०) योजन प्रमाण शिखर-विस्तार सहित हैं ।।११२६।।
....ब.प. 7 गिरणा । २. . 4. सिबरिविति।
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15.
तिलोयपम्पत्ती 1 गाथा : २१६०-२१३४ पुव पिव वग - संग पूले उपरिम्म विगजापि ।
पर हो - बार • जुवा, समंतको सुबरा होति ॥२१३०॥
मर्थ:-इन दिग्गज-पर्वतोंके ऊपर एवं मूसमें पूर्व वर्णन के ही सहा उत्तम बन-वेदीद्वारोंसे संयुक्त मोर चारों ओर से सुन्दर पुन-चण्ड ॥२१३ सु ESEAREST
एवामं परिहोमओ, वासलं ति - गिर्वण महियाको ।
ताब उपरिस्मि विश्वा, पासामा कणय - रयनमा ॥२१३१॥
प्रबं:-इनकी परिधिया सिगुणे विस्तारसे कुछ मधिक हैं। उन पर्वतों के ऊपर स्वर्ग और रत्नमय दिव्य प्राप्ताद हैं ॥२१३१।।
पण-घण-कोसायामा, सहल - वासा हवंति पसेकं । सन्चे सरिसुचहा, बासेग विवड - मुभिदेण ॥२१३२||
।१२५ । ... । मर्म :-इन सबमें प्रत्येक प्रासाद पाप पन ( १२५ कोस ) प्रमाण लम्बा, इससे भाषे (सकोस ) प्रमाण घोडा और हेड-गुणा ( ६३ कोस ) केचा है ॥२१३२॥
एरेस भवणेस, कीडेवि बमो ति वाणो देखो।
साकस्स बिकुम्वतो, एरामद • हल्पि - स्वेन ॥२११३।।
म:-इन भवनों में सौधर्म इन्द्रका यम नायक वाइन देन कोठा किया करता है। यह देव ऐरावत हामी के रूपसे विक्रिया करता है ।।२१३३।।
जिनेन्द्र-प्रासादततो सौदोराए, पच्छिम - तोरे शिरिणय - पासादो',
मंघर • बस्लिग - भागे, तिहुदण • चूगमनी नामो ॥२११४॥
पर्व:-इसके प्रागे मन्दर-पर्वतके दक्षिण भागमे सीसोदा नदीके परिचम किमारे पर त्रिभुवन चूडामणि नामक जिनेन्द्र-प्रासाद है ॥२१३४।।
...ब. क. प. य. स. उ. निम्मवाण । ..... . . . . पासाया ।
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मा .... मामा नि
REET पाषा : २१३५-२१३६J उरषो महाहियारो
[ ५७७ उच्छेन - वास - पहदि, पग-बिगनाह'- मंरिराहितो।।
मुहमंडवाहिला - पायोओ घर • गुगो तस्स ॥२१॥
अर्थ :-उस जिनेन्टप्रासादको ऊंचाई एवं विस्तार मादि तथा मुखमण्डप एवं अधिष्ठान आदिक पाठकवनके जिनेन्द्रग्दिरों से चौगुणे विस्तारवास है ।।२१३५।।
मंबर • पच्छिमभागे, सोदोद - वोए उत्तरे तोरे ।
धेवि जिणिव' - भवर्ग, पुर्व पिव वणणेहि जुर्व ।।२१३६।।
पर्ष :-मन्दर-पर्वतके पश्चिम-भागमें सीतोदा नदोके उत्तर किनारेपर पूर्व कथित वनौसे युक्त जिनेन्द्र भवन स्थित है ।।२१३।।
भैलोबा वर्णनसोदोर-बाहिणीए, बक्सिण • तोमि भइसास • वणे ।
बेतु वि कुमुव • सेलं, उत्तर • तोरे पलासगिरी ॥२१३७।।
मर्ष :-मपालचनमें सोतोदा नदीके दक्षिण किनारे पर कुमुद-शैल मोर उत्तर किमारेपर पनाश-पिरि स्थित है ।।२१३७।।
एवाओ वणगानो, सयलाओ बिगाईच - सरिसायो ।
गरि विसेसो तेसु, बरुणसुरो उचरिंगस ॥२१३८॥
मर्ष :-ये सम्पूर्ण वर्णनाएं दिग्गजेन्द्र पर्वतोंके सहा है। विशेष केवल यह है कि यहाँ उत्तरेन्द्र के वरुण नामक लोकपालका निवास है ॥२१३८।।
भद्रशालको बेदी एवं उसका प्रमाणतसो पछिम - भागे, गयमया मसाल-पाण-यो ।
पोस - णिसाहायलाएं, उबवण बेदीए संलगगा ।।२१३९॥
म :-इसके मागे पश्चिम भागमें नीस एवं निषध पर्वतको उपवन देवीसे संतान स्वर्ण मय मदतानवन-वेदी है ॥२१३।।
... क. ज. स. ४. न. बिएणाम। ३... आ. हमनमदिवा महदि । १. मुहमखएमरिवार पहदि । म. महमग्यमहिमाप्त पति। 1... विसांव। ४.ब. बीपी।
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५५ ]
तिनोयपश्यत्ती
[ गापा : २१४०-२१ तेवीस - सहस्साई, गोषणा छस्समा चुससीवो। सनवीस • हिरामो पर - फलामो बेबीए गोहतं ॥२१४०।।
। ३३६८४ । । मर्म:-वेदीकी लम्बाई संतीस हजार छह सो चौरासी योजन पोर उनीससे भाबित चार कला ( ३३६८४ योजन ) प्रमाण है ॥२१४०॥
सौना नदीका वर्णनउपरिम्मि गोस-गिरिणो, विवाहो केसरि सि विक्खायो।
तस्स य क्लिन - वारे, णिगाच्याइ परमई सौवा ॥२१४१॥ HIRTE : -
प्र वलनात नसे दिव्य दह है । उसके दक्षिण-द्वारसे सीता नामक उत्तम नदो निकलती है ॥२१४१।।
सौगोषये सरिच्छा, पडिकणं सौर - कुं' - उरि मि । तपिलम • दारेख, शिक्कामगि वरिखए - मुहेणं ।।२१४२।।
मचं :-सोतोदाके सदृश हो सीतानदी सीतः कुण्ड में गिरकर दक्षिण-मुख होती हुई उसके दक्षिण द्वारसे निकलती है ॥२१४२॥
किमिदूर्ण पाचवि, दक्षिण-मामेण जाव मेरुगिरि ।
दो-कोसेहिमपाविय, पुवमूही बालवि तत्ति - अंतरिका ।।२१४३।।
पर्व:-वह नदी कुण्डसे निकलकर मेह पवंस तक दक्षिणकी ओरसे जातो हुई दो कोससे उस मेरु-पर्वतको न पाकर उसने मात्र ( २ कोस ) अन्तर सहित पूर्वको मोर मुड़ जाती है ।।२१४३।।
सेलम्मि' मालबते, गुहाए पक्षिण • मुहाए पविसेदि ।
गिस्तरिदूगं गज्याद, 'मुग्लिा मेस्स ममतं ।।२१४४॥
मर्ग: बह सौता नदो मास्यवंत पर्वतकी दक्षिणमुखवासी गुफामें प्रवेश करती है। पश्चात् उस गुफासे निकलकर कुटिलरूपसे मेह-पर्वतके मध्यभाग तक जाती है । २१४४।।
नोरकर। २. प.ब. क. ज. प. चा, 3, सोनम । ३ .....
...ब.क.ब.प... . टिसापा।
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धार्मवर्तक :
चरणो महाहियारो
तगिरि-सभा-पदे, नियमभः पवेस-पनिषियं कादु" ।
पुन्ध सुहेनं मच्छद्द, पुव्ब विदेहस्स बहुमसे ॥। २१४५ ॥
गावा: २१४५ - २१४९ ]
-
ठीक मध्य मेंसे पूर्वको ओर जाती है ।।२१४४|
3.3. I
म :- उस पर्वतके मध्य भागको अपना मध्यप्रदेश - प्ररधि करके वह मीतानदी पूर्व विदेहके
-
जंबूदीवस सदो, जगदी बिल द्वारएण संचरियं ।
परिवार नवीहि जुबा, पविसर्वि सवाष्णवं सीवा ।। २१४६ । ।
-
ral का स
वर्ण:- अनन्तर जम्बूद्वीपको जगतीके मिल-द्वारमेंसे निकलकर वह सीता नदी परिवारनदियोंसे युक्त होती हुई लवगसमुद्र में प्रवेश करती है ।। २१४६ ।।
-
-
रुदावगाव पहूनि तड देवी उबवणाविक सव्यं । सीदोदा सारिफ, सीब बीए वि जावव्वं ॥ २१४७।।
P
-
वर्ष :- सीता नदीका विस्तार एवं गहराई मादि तथा उसके तट एवं वेदो और उपवनाविक सब सीतोदा के सहज ही जानने चाहिए ॥ २१४७।।
गिरि एवं द्रोंका वर्णन
गोलाचल दक्खिणरो, एक्कं गंग ओवण सहस्तं । सोदावो चोणि जमकगिरी ।।२१४६ ।।
पासेसु श्रेटु से
[ ५७६
-
1 १००० |
अर्थ :- नील पर्वतके दक्षिणमें एक हजार योजन जाकर सीताके दोनों पार्श्वभागों में दो यमगिरि स्थित हैं ।। २१४८॥
पुम्वसि चितनगो, पच्छिम भाए विचिचकूटो" य ।
जमयं मेघगिरिया सव्वं थिय वण्णणं सानं ।।२१४६ ।।
अर्थ :- सीतानदी के पूर्व भाग चित्रण और पश्चिम भागमें विचित्रकूट है। इनका सब वर्णन यमक [गिरीन्द्र और मेघगरीन्दके सदृश ही समझना चाहिए ॥ २१४६॥
. . . . . . . कूडो २. ८. ब. क. ज. प . . पेरणी इ. द.....
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५८०
तिलोयपष्णती
1: १५०-२१५४
जमगणिरिवाहितो, पंच - सया जोपणारिण मंचूर्ण । पंच बहा पत्तकं, सहस्स - बल • जोमर्मतरिया ॥२१५०।।
म :-यमक-पर्वतों आगे पाचसो {५०.) पोजन जाकर पांच दइ है, जिनमेंसे प्रत्येक इइ प्रधंसहस्र ( ५०० ) योजन प्रमाण दूरी पर है ॥२३१०॥
पौल - कुरु' - चंद • एरावया य पामेहि मालवंसो म ।
ते दिव्व' - दहा निसहरहावि - घर-बगहि जुदा ॥२१५१॥
पर्ष :--नील, मुर ( उत्तर कुरु), चन्द, ऐरावत और माल्यवन्त, ये जन दिम्म ब्रहोंके नाम है। ये दिव्य दह निषध दहादिकके उत्तम वर्णनसि युक्त हैं ॥२१५१।।
दु • सहस्सा बापरवी-मओयण-दोमाग-कनकोस-हिरा। रिम-वहादो पालिय-भागे प्रमाण होलिपूर होती११२
।२०९२० । मर्ग :-अम्तिम द्रहसे दो हजार गान योजन भार उनीससे माजित यो भाग ( २०१२0 योजन ) प्रमाण जाकर दक्षिण मागमें उत्तम पेयी है ।।२१५२।।
पुग्वायर • भाएस, सा गपदंताचसान संलग्गा । इगि कोयममुक्त गा, पोयम • अट्टस' - विरपारा ।।२१५३॥
। सो १।१२०० म: पूर्व-पश्चिम-भागोंमें गमवन्त-पर्वतोंसे संतान यह वेदी एक योजन ऊंची और एक योजनके माठवें भाग ( १००० दण्ट ) प्रमाए विस्तार सहित है ।।२१५३।।
चरियालय-परा, सा देसी विबिह-पय-बहि जुरा। रोवरिम - ठिदेहि, जिरिंगब - भवहि रमनिम्जा ।।२१५४।।
इ.स. क. 4. 4. ज. 3. कुष्रएमाला। २......... हिम प. द.. क. ब..... मागा। ४.प. प.क. 3. 3. प'। ... ... ... ... ... परिवार । - ब. ब., दारोबरिपरिरहि, क. दारोबरिमसहि, बा. स. भारोपरमतमेहि ।
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गाथा २१५५-२१५९ ]
महाहियारो
[ ५८१
अर्थ :- प्रचुर मार्गों एवं अट्टालिकाओं सहित और नाना प्रकारको ध्वजापताकाधोंसे संयुक्त वह वेदी द्वारक उपरिभागों में स्थित जिनेन्द्र भवनोंसे रमणीय है ।।२११४ ।।
गावक
SERCITUM,zaugaògnûmują - fint ( रोचरणवतंस' कुशे, सत्मिय गिरि वणणेहि जुवा ॥४२१५५ ।।
वर्ष :- उत्तम भद्रशासके मध्य में सीतानदी के दोनों किनारों पर स्वस्तिक [ एवं प्रजन] गिरिके समान वर्णनोंसे युक्त रोचन एवं प्रवतंसकूट नामक दिग्गजेन्द्र गिरि है ।।२११५ ।।
raft विसेसो एक्को, ईसाणिवस्स "वाहगो देवो ।
पामेणं
वसमत्रो, तेसु
लीलाए
धर्म :- विशेषता केवल एक ) यही है कि उन भवनों ईशानेन्द्रका श्रवण नामक वाहनदेव लीला पूर्वक निवास करता है ।। २१५६ ।।
जिन भवन निर्देश -
-
-
सोवा तरंगिणीए, पुम्मि त जिमित मंदर
उत्तर
पासे,
-
-
-
-
-
अर्थ :- गजदन्तके अभ्यन्तरमागमें सीतानदीकै पूर्व सटपर और मन्दरपर्वतके उत्तरपाश्र्वंभाग में जिनेन्द्र प्रसाद स्थित है ।।२१५७।।
पूर्वोक्त विवरण युक्त जिनवन है ।। २१५८ ।१
-
सीवाए रखिए, जिन-भवणं भद्दताल वन मक्के मंदर दिसा अर्थ :- भद्रावनके मध्यमें सीतानदीको दक्षिण दिशामें पौर मन्दरको पूर्व दिशामें
पुण्योविद वन्जना जुस ।।२१५६ ।।
पसावो । गयतभंतरे होबि ।। २१५७१।
चेटु दि ।।२१५६ ।।
"
योत्तर एवं नीलगिरि
-
-
सीवा गनिए तर, उत्तर तीरम्मि पनि तीरे ।
पुन्यवि-कम-कुला पटमोर णील दिग्गहंबा य ।।२१५६ ।।
१. द. व. क.ज. प. व. रामास मेमगिरि । २.१. . . . व.उ.बाहुला १.८.. क. . . . गुवा ।
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२८२ ]
तिलोयपण्णप्ती [ गाथा : २१६०-२१६४ धर्म :-इसके आगे सोतामदीके उत्तर और दक्षिण किनारोंपर पूर्वोक्त क्रमसे युक्त पपोत्तर मोर नौल नामक दिग्गजेन्द्र पर्वत स्थित है ।।२१५९॥
परि विसेसो एक्को, सोमो जामेण घेटुवे तेसु । सोहम्मिवस्स तहा, वाहगवेओ अमो णाम ।।२१६०।।
अर्थ :- यहाँ एक विशेषता यह है कि उन पर्वतोपर सौधर्म इन्द्र के सोम और यम नामक __ वाहनदेव रहते हैं॥२१६०॥
मतान्तरसे पाच होंका निर्देशगिरि-पष्ट • बक्षिण - पच्छिमए उत्तरम्मि पोषक सोवा - सोदोबाए, पंच बहा केह ज्यति ॥२१६१॥
[ पाठान्तरं] प:-किताचा पू परिपकार सर, इनमें से प्रत्येक __ दिशामें सीता तथा सीतोदा नदीके पास होंको स्वीकार करते हैं ॥२१६१॥ [ पाठान्तर ]
काश्चन शंलताणं उववेसेन य, एक्केषक - बहस वोसु तोरेनु । परण - पस पंचगसेला, परोक्कं होति गियमे ॥२१६२॥
[पाठान्तरं] म:-उनके उपदेशसे एक-एक बहके दोनों किनारोंमेंसे प्रत्येक किनारेपर नियमसे पांचपाच काश्मन शेल है ॥२११२॥ ( पाठान्तर)
देवकुछ क्षेत्रको स्थिति एवं लम्बाई मादिमंदरगिरिप-मिलन - विभागगव - मसाल - वेदी । पक्खिन - भापम्मि पुर्व, गिलहस य उसरे भागे ॥२१॥ विम्युप्पह • पुस्सि, सोमगसागो प पल्टिमे भागे । पुष्वावर • तोरे, सोवोदे होरि देवगुरू ॥२१ ॥
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गावा । २१६५-२१६८ ] चउत्पो महाहियारों
[ ५८३ मयं:-मन्दरपर्वतके दक्षिणभागमें स्थित भत्रशालवेदोके दक्षिण निषधके उत्तर, विद्य प्रभके पूर्व और सौमनसगजवन्तके पपिकमभागमें सीतोदाके पूर्व-पश्चिम किनारोंपर देवकुरु ( उत्तम भोगभूमि ) है ॥२१६३-२१६४।।
णिसह - वणवेवि • पासे, सस्स य पुठवावरेस बोहत । तेवण्ण - सहन्साणि, जोयण - माणं विणिदिष्ट ॥२१६५।।
म :-निषपर्वतकी वनवेदोके पाश्व में उस ( देवकुरु } की पूर्व-पश्चिम सम्बाई तिरेपन हजार ( ५३०००) योजन प्रमाण बतलाई गई है ॥२१६५।। प ष्ट • सहस्सा पाउ-सय-उतीसा मेरु-शिखण-विसाए। सिरिभहसाल - पदिय - पासे तक्तेश - दोहरी ॥२१६६॥
। ८४३४ । अर्ष:-मेरुको दक्षिणदिशामें श्री भदशासवेदीके पास उस क्षेत्रको लम्बाई आठ हजार __ वारसो चौतीस ( ८४३४ } योजनप्रमाण है ।।२१६६।।
एक्करस-सहस्साणि, पंच • सया जोयणाणि बाण जी । उगवोस - हिवा • कला, तस्सत्तर-दपिलगे दो ॥२१६७॥
___ ११५६२ । । । मर्च :-ससर-दक्षिण में उसका विस्तार ग्यारह हजार पाँचसो बान योजन और उनीससे ___ भाजित दो कलाप्रमाण अर्थात् ११५६२०१५ योजन प्रमाण है ॥२१६७।।
पणुवोस-सहस्सारिण, गव-सय-इगिसोषि-जोषणा दो। दो • गयवंत - समोवे, बंक - सहवेग गिहि ॥२१६८॥
२५६।। पर्य :-दोनों गजदन्तोंके समीप उसका विस्तार वक्ररूपसे पच्चीस हजार नौसी इक्यासी । २५१५१) योजन प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ।।२१६८।।
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५८४ ]
तिलोयपपरपत्ती
[ गापा : २१६६-२१७३ जिसह वणवेदि-धारण-वंताचल-पास-कुर -गिस्सरिका । परसोरि . सहस्साणि, गाउ पविसति साधाद ।
८४००० । पर्व:-निपधपर्वतको वनवेदी और गजदन्त-पर्वतोंके पाव में स्थित कुण्डोंसे निकली हुई चौरासी हनार ( ८४००० ) नदियां सीतोदा नदी में प्रवेश करती हैं । २१६६11
सुसमसुसमम्मि काले, जा भरिषदा वण्णणा विचित्तयरा ।
सा हाणीए विहीणा, 'एक्सि णिसह - सेले य ॥२१७०।।
पर्य :--सुषमसुषमा-कालके विषय में जो अद्भुत वर्णन किया गया है, वही वर्णन बिना किसी प्रकारको कमीके इस निषध शैससे परे देवकुरुके सम्बन्धमें भी समझना माहिए ॥२१७०।।
शाल्मली वृक्षके स्थल मादिकोंका निर्देशगिसहस्सार-पासे, पकाए दिसाए विज्नुपह-गिरिणो । .सोवोद - वाहिरणोए, पछिल्ल - दिसाए भागम्मि ॥२१७१। मंदर-गिरिद-गाइरिवि-भागे खेतम्मि देवकुरु - गामे ।
सम्मलि' - रुक्माण पलं, रजवमयं बेट्टये रम्म ॥२१७२।।
प्रपं: देवकुरुक्षेत्रके भीतर निषधपर्वतके उत्तर-पार्वभागमें, विद्य तप्रभ पर्वतको पूर्व दिशामें, सोतोदा नदीकी पश्चिमदिशामें मोर मन्वरगिरिके नैऋत्यभागमें शाल्मली वृक्षोंका रजतमय रमणीय स्थल स्थित है ।।२१७१-२१७२।।
पंच • सय - जोयणाणि, हेद्वतले तस्स होधि विस्थारो। पारस - सया परिही, एक्कासीदी नवा महिना ॥२१७३।।
। ५०० । १५८१ । म:-उस स्थलका विस्तार नीचे पाचमी ( ५०.) योजन है और उसकी परिधि पन्द्रहसौ इक्यासी ( १५८१) योजनसे अधिक है ॥२१७३।।
१.द.व. उ, पविसत, क. ज. पविसति । २.६.क.क. ज. प. उ. एवासि। ...जमि।
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पापा : २१७४-२१५८ ] उत्यो महाहियारो
[ ५५ मझिम-उदय-पमात्र, अर्द्ध चिय बोयणाणि एस्स | सम्बतेसु उपरो, रो • दो' कोसं पुर होवि ॥२१७४।।
८।२। म :-इस स्यसको मध्यम ऊँचाईका प्रमाण आठ योजन और सबके मन्समें पृषक-पक् दो-दो कोस प्रमाण है ।।२१७४।।
सम्मलि-हाखान पलं, तिम्णि बरसा वेदिडूण चेटुति ।
विविह-पर-हमान-सम्मा, देवासुर - मिडम - संकिण्मा ॥२१७४।।
पर्ण :-विविध उत्तम वृक्षोंसे युक्त और मुरासुर-युगलोंसे सङ्कीर्ण तीन वन शाल्मलीवृक्षोंके स्थलको वेष्टित किए हुए हैं ॥२१७५॥
उरि अलस्स बेहुवि, समतदो वेविमा सुवष्यमई । Xxkswkxt :-. बारिमाराशिवणेहि संपुण्णा ।।२१७६॥
पर्ष :-उस स्थलपर चारों ओर द्वारोंके उपरिममागमें स्थित जिनेन्द्रभवनोंसे परिपूर्ण स्वर्णमय वेदिका स्थित है ।।२१७६।।
अड-ओयण उत्सगो, पारस-बउ-मूल-उड-विस्थारो । समवट्टो रजतमयो, पीठो देवीए मझम्मि ॥२१७७॥
। १२ । । म:-इस वेदोके मध्यभागमें आठ योजन ऊँचा, मूलमें बारह योजन तथा अपर चार योजनप्रमाग विस्तारवाला समवृत्त ( वृत्ताकार ) रजतमय पीठ है ।।२१७७।।
शाल्मली वृक्षका वर्णनतास बह-मम्मोसे, सपाव - पोतो य सम्मली-रुक्यो ।
सुप्पह - गामो बहुविह - घर • रपणजोय - सोहिल्लो ॥२१७८॥
म:-उस पीठके बहुमध्यभागमें पादपीठ-सहित और बहुत प्रकारके उस्कृष्ट रलोंके उद्योतसे सुशोभित सुप्रभ नामक साल्मलीवृक्ष स्थित है ॥२१५८।।
....अ.य. दो-हो। २. द. क.अ. 4. ब. क्या ।
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५८६ ]
तिलोयपास
3
उच्छे जोयणेनं अट्ठ चिथ जोपणाणि उत्तुंगो | सस्सावगाढ भागो, वज्जमओ वो कोसाणि ॥ २१७६ ॥
६ । २ ।
प: वह वृक्ष उत्सेध योजनसे प्राय योजन ऊँचा है। उसका वमय प्रवगाढ़भाग दो कोस प्रमाण है ।।२१७६ ।।
सोहेदि तस्स इगि कोस
-
'खंधों, कुरंत वर-किरण- पुस्रागमओ ।
"
पहल तो जोन-जग-मेत उच गो ।। २१६० ।।
को १ । २ ।
अर्थ :-- उस वृक्षका स्कन्छ एक कोस बाहुल्यसे युक्त, दो योजन ऊँचा, पुष्यगनय ( पुखराजमय ) और प्रकाशमान उत्तम किरणोंसे शोभायमान है ।। २१८०३
-
4
जेट्टाओ साहाओ, चत्तारि हवति चउदिसा भागे ।
जो दीहाओ, सेलिय मेसंतराज पोर्क ।। २१८१ ॥
६।६ ।
- इस वृक्ष की चारों दिशाओं में चार महाशाखाएँ हैं । इनमेंसे प्रत्येक शाखा ह योजन लम्बी और इसने ही अन्तराल सहित है ।। २१८१ ।।
-
[ गाया : २१७९-२१८३
-
साहासु पाणि, मरगय वेरुलिय मोलईदार । विविहाई कehaण थामीयर
-
-
-
अर्थ :- शाखानों में मरकत वैडूर्य, इन्द्रनील, कर्केतन, स्वर्ण और गेसे निर्मित विविध प्रकार के पत्ते हैं ।।२१८२॥
.
विद्दुममयाणि ।। २१८२ ॥
सम्मसि तरी अंकुर-कुसुम-फलाणि विविध रयण ।
परावण सोहिवाणि गिरवम रूवारिंग रेहति ।। २१८३॥
वर्ष :- शाल्मली वृक्ष के अंकुर, फूल एवं फल पाँच वर्णोंसे शोभित हैं, अनुपम रूपवाले हैं तथा मदभुत रहनस्वरूपसे शोभायमान है ।।२१८३॥
१. . . . . . संदा ।
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fairs - II
ARTHERE ARE HERE
गापा । २१८४-२१८८ ] परयों महाहियारो
[ ५६७ जोउत्पत्ति-सयागं, कारण - मूदो अपाइरिगहणो' सो।
सम्मलि - एक्सों' चामर-किमिरिण-'घंटावि-कय-सोहो ॥२१८४।।
स:-( पृथ्वीकायिक ) जीवोंको उत्पत्ति एवं नाशका कारण होते हुए भी स्वयं मनादिनिधन रहकर वह शाल्मली वृक्ष पामर, किंकिणी और घण्टाविसे सुशोभित है ।।२१४॥
जिनभवन एवं प्रासादसद्दविखरण-साहाए, जिरिंगद-भवणं विचित - रयणमयं । पज-हिद-सि-कोस-उदयं, कोसापामं सबस - विस्तार ।।२१८५॥
को १ ।। प:-उस वृक्षकी दक्षिण शाखापर चारसे भाजित तीन (2) कोस प्रमाण ऊँचा, एक कोस सम्बा और आधे (B) कोस विस्तारवाला पदभुत-रत्नमय जिनभवन है ॥२१॥
जपंग - जिराभवाने, भणिमं पिस्सेस-पग्णनं कि पि ।
एपस्सि बाहय, सुर - दुहि - सह - गहिरपरे ॥२१८६॥
प्र:-पाण्डकवन में स्थित जिनभवनके विषय में जो कुछ भी वर्णन किया गया है वही सम्पूर्ण वर्णन देवदुन्दुभियोंके शब्दोंसे मतिशय गम्भीर इस जिनेन्द्रभवनके विषयमें भी जानना पाहिए ॥२१८६॥
सेसासु साहासु', कोसायामा सवड - विक्लभा'। पादोण - कोस · तुंगा, हवंति एक्केषक - पातारा २१८७॥
को १ ।। *:-अवशिष्ट शाखाओंपर एक कोस लम्बे, आधाकोस चौडे सौर पौन कोस ऊँचे एक-एक प्रासाव है ।।२१७।।
पउ-तोरण-वि-सुवा, रयगमया विविह-विश्व-घूव-घसा। पजसंत - रयण - धोवा, ते सच्चे अय - बनाइन्ना ।।२१।।
१.प. २. सिहसा। २. ६... पला । ३. .. . किकिणिमादिकप सोहा । ४.८... एसि । १...ब.क. गहिरबरो। १.द... क. ब. २. उ. विक्वंभी।
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:
____ ५८८ ]
तिलोयपणती [गापा : २१६-२१९३ भ:-सब रत्नमय प्रासाद बार सोरण-वेदियों सहित है, विविध प्रकारके दिव्य घूपघटोसे संयुक्त है, जलते हुए रत्नदीपफोंसे प्रकाशमान है और ध्वजा पतीकामा व्यापार
सयणासग-पमुहाणि, भवणेसु गिम्मलागि विरमागि ।
पकिवि-मउवाणि तणु - मग : गयणाचरण-सहवागि ॥२१८६॥
मर्ग :- इन भवनोंमें पूलिसे रहित, शरीर, मन एवं नयनोंको प्रानन्ददायक और स्वभावसे मृदुल निर्मल शय्या एवं प्रासनादिक स्थित है ॥२१८६)
___भवनों में निवास करनेवाले देवोंका वर्णनचेदि सेस परेसु', वेणू णामेण वेतरो पेनो।
बहुदिह - परिवार • जुबो, धुइजओ वेणुषारि दि २१६॥
प्रर्ण:-उन पुरोंमें बहुत प्रकारके परिवार से युक्त वेणु एवं वेणुधारी नामके व्यन्तर देव रहते हैं ।।२१६०
• सम्महसग - सुदा, सम्माइट्ठीण बच्छसा दोणि ।
ते बस • चाउलगा, पत्तेमकं एक - पस्लाऊ ।।२१६१।।
म:-सम्यग्दर्शनसे शुद्ध और सम्यग्दृष्टियोंसे प्रेम करनेवाले उन दोनों देवों से प्रत्येक दस धनुष ऊँचा एवं एक पल्य प्रमाण आयुवाला है ॥२१६१॥
वेदियोंका निरूपणसम्मलि-मस्स बारस, समतदो हॉति विज - वेदीमो ।
बज-गोजर - जुत्तामो, फुरंत • वर • रपण - सोहाप्रो ।।२१६२।।
म :-शाल्मली वृक्षके चारों ओर चार गोपुरोसे युक्त और प्रकाशमान उत्तम रनोंसे सुशोभित बारह दिव्य वेदिया है ।।२१६२।।
उस्सेध' - गाउदेमं, ये - गावमेत - उस्सिवा सामो। पंच - सया चावाणि, हवेणं होति बेरोमो ॥२१ ॥
१.इ. क.अ. प. उस्सेए माउवेणं । ब. स. होप गाउदोणं ।
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उत्थो महाहियारो
[ ५८६
भ्रषं :- वे वेदिय उत्सेधकोससे दो कोस प्रमाण ऊंची और पांचसौ धनुष प्रमाण विस्तार
गाथा : २१६४-२१६६ ]
वाली हैं ।।२११३॥
कुलगिरि सरिया मंदर-कुंड-तुदीण विन्ध- देवीओ ।
उच्छे यहुवीहि, सम्मति तल वैदि सरिसा ।। २१६४ ।।
-
श्रीमद
अर्थ :
आज आपणही - कुलाचल, सरिता, मन्दर, कुण्ड प्रादि की ( स्थित ) दिव्य वैदियोंका उत्सेधादि शामली वृक्षकी तल- वेदोके सदृश समझना चाहिए ।।२१६४।।
·
पढमाए भूमीए, सुष्वह णामस्स सम्मलि वुमस्स ।
चेवि जववण संडो प्रणेण खु सम्मसि मस्स ।।२१२५॥
-
म :- सुप्रभ-नामक बाल्मली वृक्षको प्रथम भूमिमें अन्य शाल्मली वृक्षोंसे युक्त उपवनखण्ड हैं ।।२१६५ ।।
तसो बिदिया सूमो उववण संडेहि विविह-कुसुमेहि ।
पोपलररणो वायोहि सारस पहुबीहि रमणिका ।।२१६६ ।
-
.
.
-
अर्थ :- इसके आगे द्वितीय भूमि विविध प्रकारके फूलोंवाले उपवन खण्डों, पुष्करिशियों, वापियों एवं सारस आदिकों (पक्षियों ) से रमरणीय है ।। २१६६।
-
·
मिदियं व तदिधभूमी, जवरि बिसेसो विवि-रयणमया ।
अठ्ठत्तर सय सम्मति दक्खा तीए समंतेणं ॥ २१९७॥
+
-
-
अर्थ :- दूसरी भूमिके सदृश तीसरी भूमि भी है। किन्तु विशेषता केवल यह है कि दोसरी
भूमिमें चारों मोर विचित्र रत्नोंसे निर्मित एकसी पाठ शामली वृक्ष है ।।२१२७।।
श्रद्धा पमाणेहिं से सख्खे होंति सुम्पाहसी । बेणपाणं
चेहते,
·
एस
अर्थ :वे सब वृक्ष सुप्रभवृक्ष ( प्रमाणसे ) आये प्रमाणवाले हैं। इनके ऊपर वेणु पौर वेणुवारी ( नामके दो ) महामान्य देव निवास करते हैं ।।२१६६ ।।
तवियं व सुरिम-भूमी, बत्तारो नवरि सम्मली - दमखा ।
पुष्ष विसाए तेसु च
महामन्णा' ।।२११८ ॥
देवोश्रो य वेणु गुगलस्स ॥२१६६||
-
४ । २ । २ ।
१६. ब .ज. प. उ. पण्णेस २.६. ब. क्र. ज. प उ महारा।
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Kẹo ]
तिलोय पणती
[ गाभा २२००-२२०३
अ :- तीसरी भूमि सदृश ही चौथी भूमि है। विशेषता यह है कि इसकी पूर्व दिशा में चार शाल्मलीवृक्ष हैं। जिनपर वेणु एवं वेणुधारो देवोंको चार देवियाँ रहती हैं ।। २१६९ ।। mitate वैर्य श्री gunी हटा
तुरिव पचम-मही, नवरि बिसेसो न सम्मली-रुत्ता' । तत्य हवेति विचित्ता, वाबीओ विविहरुबाझो ||२२००॥
-
चौथी भूमिके सदृश पनियों भूमि भी है। विशेषता केवल यह है कि इस भूमिमें मारमलोवृक्ष नहीं हैं, परन्तु विविध रूपवाली अद्भुत पापिया है || २२०० ।।
-
→
छडीए वग संयो, सक्षम सोलस - सहस्स क्खा, वे जुगस्संग
-
मोए चड दिसाभागे ।
-
▾
.
८००० | ५००० |
अर्थ :- छठी भूमिमें वनखण्ड है और सातवीं भूमिके भीतर चारों दिशाओंोंमें श्रेणु एवं वेणुधारी देवोंके अङ्गरक्षक देवोंके सोलह हजार अर्थात् पाठ-आठ हजार ( ८०००-२०००) वृक्ष हैं ||२२०१ ॥
सामाजिय- देवागं चत्तारो होंति सम्मलि पवणेसारख दिसासु, उत्तर भागम्मि बेग
A
+
क्लाणं ।। २२०१ ॥
-
२००० | २०००t
धर्म :- [ आठवीं भूमिमें | वायव्य, ईशान और उत्तर दिशा भागमें वेणु एवं वेणुधारीके सामानिक देवोंके चार हजार अर्थात् एक-एक देवके दो-दो हजार (२०००-२०००) शाल्मली वृक्ष हूँ ।।२२०२ ।।
-
सहस्सा ।
श्रृंगलस्स ॥ २२०२॥
बत्तीस-सहस्साणि, सम्मति-दक्ाणि अगल- विम्भाए । भूमीए णवमीए
अनंतर
बेय परिसा ॥२२०३॥
| १६००० | १६००० ।
:- भूमिके भीतर भाग्नेय दिशामें बम्यन्तर पारिषद देवोंके बत्तीस हजार (१६००० १६०००) शाल्मलीवृक्ष हैं ।। २२०३ ॥
१. द.म. क.ज.म.रा. पंचमंहिष २५...... लंद था।
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गापा । २२०४-२२०८ ] पउत्यो महाहियारो
[ ५६१ पुह पुह बीत-सहस्सा, सम्मलि-रुक्खाच वक्तिणे भागे । बसम-खिवीए मनिझम • परित - सुराणं च बेणु - जुगे ।।२२०४॥
२०००० । २००००। मर्च :-दसवीं पृपिवीके दक्षिणभागमें वेणु एवं वेणुधारो सम्बन्धी मध्यम पारिषद देवोंके पृषक-पृथक बीस-बीस हजार ( २००००-२००००) शाल्मलोवृक्ष हैं ॥२२०४।।
पुह चडवोस-सहस्सा, सम्मलि-रुक्खाग गरिवि-विभागे । एक्कारसम - महोए, बाहिर • परिसामराव बोपण पि ॥२२.५॥
२४००० । २४०००। म: - मारहवीं भूमिके करम दिग्विभागमें उक्त दोनों देखो के बाद पारिषद देवोके पृथक्-पृथक् चौबीस-चौबीस हजार ( २४०२०-२४००० ) शाल्मलीवृक्ष हैं ।।२२०५।।
ससु य अपिएसु, अहिवार - देवाण सम्मली • एक्ला । बारसमाए माहोए, सत्त - बिय परिछम - विसाए ॥२२०६॥
७।७। प्रबं:-बारहवीं भूमिको पश्चिमदिशामें सात मनीकोंके अधिपति देवोंके सात ही। शाल्मली वृक्ष हैं ।।२२०६१
लक्कं चाल - सहस्सा, बोसुत्तर-सय-जुवा य ते सध्धे । एम्मा अणाइणिहणा, संमिलिया' सम्मली - सा ॥२२०७।।
१४०१२० । अर्थ:-रमणीय और अनादि-नियन के शाल्मली वृक्ष सब मिलकर एक लाख चालीस हजार एफसी वीस ( १४०१२० ) हैं ।।२२०७।।
तोरण - वेदी • जुत्ता, सपार - पोखा अकिहिमामारा। घर-पग चिद-साहा, सम्मलि • एपला विराति ।।२२०८।।
--
-
-
१.६.३.क.ब.प.स समेलिया ।
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५६२ ]
__तिलोयपगतो [ माषा : २२०४-२२१३ पर्ष :-तोरण-वेदियोंसे युक्त, पादपीठों सहित, उत्तम-रत्न-सचित पासामोसे संयुक्त मकृत्रिम आधारवाले वे सब शाल्मली वृक्ष विशेष सुशोभित हैं ॥२२०८।।
वम्जिव - बोल - मरगय - रविकंत-मयंककत्त-पहपीहि ।
गिण्णासि.अधयार, सुप्पह- रुपक्षास्त भााद बल ॥२२०६।।
प्रचं:--सुप्रभवृक्षका स्पल रन, इन्द्रनील, मरकत, सूर्यकान्त और चन्द्रकान्त प्रादिक मणिविशेषोंसे अन्धकारको नष्ट करता हुमा मुशोभित होता है ।।२२०६॥
सुबह-थलस्स विउसा, समतदो तिष्णि होति मन-संगा।
रिबिह-फल-कुसूम-पल्लव-सोहिल्ल-विचित्त-तह - चला ॥२२१०।।
म :--सुप्रभवृक्षके स्थलके चारों मोर विविध प्रकारके फल, फूल और पत्तोंसे सुशोभित नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त विस्तृत तीन वन खण्ड हैं ॥२२१०।।
प्रासाद, पुष्करिणी एवं कुटोंका वर्णनतेसु पढमम्मि पणे, चत्तारो घउ - विलास पासादा । बउ-हिन-ति-कोस-उवा, कोसायामा सयज्ञ-वित्यारा ॥२२१॥
प्रम:-उनमें से प्रथम वनके भीतर चारों दिशार्योमें पौन ( कोस ऊबे, एक कोस लम्बे और प्राधा { 3 ) कोस विस्तारवाले चार प्रासाद है ।।२२११।।
भषणाणं विविसास, पतपक होति विम्ब - स्वागं ।
पर चळ पोखरणोमो, बस • जोयण-मेस-पाढामो ॥२२१२॥
म :-दिव्यरूप वाले इन भवनों से प्रत्येककी विदिशामोंमें इस योजन प्रमाण गहरी । चार-चार पुष्करिरिगया है ।।२२१२।।
पणवीस . जोयणाई, ई पल्मास ताप रोहत । बिबिह-अल-णिवा' मंजिय-कमलप्पल - कुभुव - संछन् ।।२२१३॥
२५ । ५० । १. द. ३, क. स. प. उ. त। २. ५. सुम्पइमारत, ब. क. स. मुम्पबमम्स । ३. 1. क..२.
उ, विविह।
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गाया : २२१४ - २२१६ ]
त्यो महाद्विचारो
[ ५९३
अर्थ :- जल समूहसे मति, विविध प्रकारके कमल, उत्पल और कुमुदोंसे व्याप्त उन पुष्करिशियोंका विस्तार पच्चीस (२५) योजन एवं लम्बाई पचास योजन प्रमाण है ।। २२१३।। मणिमय-सोबाचाओ', बलयर-चन्ताओ' ताओ सोर्हति । अमर-मिबाण कुंकुम पंकेचं पिंजर जलामो ॥ २२१४॥
अर्थ :--- जलचर जीवोंसे रहित ने पुष्करिणिय परिणमय सोपानोंसे शोभित हैं और देवयुगलों के कुंकुम पसे पोत जलवाली हैं ।। २२१४।।
-
·
पुह पुह पोखरणीनं समंतवो होति श्रट्ट फूडानि ।
एवाण उदम पहुबिसु, उबएसो संपड़ पट्टो ||२२१५||
·
-
अर्थ :- पुष्करिणियोंके चारों ओर पृथक् पृथक् प्रकुट हैं। इन कूटोंकी ऊंचाई नाविका उपदेश इस समय नष्ट हो चुका है ।क:- आचार्य श्री लुटियो हाट
गण-पासाद-समारला पासादा होंति ताण उबरिम्मि ।
एबे
उन कूटोंके ऊपर वन-प्रासादोंके सदृश प्रासाद है। इनमें वेणु एवं वेणुधारी देवों के परिवार रहते हैं ।।२२१६।।
बेटू से, परिवारा दे - जुगलस्स ।।२२१६।।
·
उत्तरकुरुका निर्देश—
-
मंदर - उसर भागे, दक्षिण भागध्म णीस - सेलस्स । सीबाए वो जेसु पन्छिम भागम्मि मालवंतस्स ।।२२१७।। पुध्वाए गंधमायण सेलस्स बिसाए होवि रमभिज्जा । णामेण बिक्लादो भोगभूमि ति ।। २२१८ ।।
उत्तरकुरु,
-
मन्दरपर्वत के उत्तर नीलोलके दक्षिण, माध्यबन्तके पश्चिम धौर गन्धमादनशैलके पूर्व विग्विभागमें सीतानदी के दोनों किनारोंपर 'भोगभूमि' के रूपमें दिक्यात रमणीय उत्तरकुरु नामक क्षेत्र है ।।२२१७-२२१५॥
१. व. म. रु. ज. प व सोहाणायो । २. प. म. रु. ब. प. सादि ।
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५६४ ]
तिलोपपण्णत्ती [ गापा : २२१६-२२२४ देगकुर - वगणाहि, सरिसाणे गणणामो एस्स ।
गरि बिसेसो सम्मलि-तर - वरणफशे तस्य व हति ।।२२१६॥
म :-इसका सम्पूर्ण वर्णन देवकुरुके वर्णनके ही सहर्ष है । विशेषता केवल यह है कि यहा शाल्मलीक्षके परिवार ( यनस्पति ) नहीं हैं ॥२२१६।।।
जम्बूवृक्षमंबर - ईसाणविसाभागे गोलस्स परिवणे पासे । सोशए पूथ • तर पच्छिम - भागम्मि नालवंतस्म ॥२२२०॥ अंबू - रक्खस्स 'पलं, कणयमय होदि पीठ - वर-कुत्तं । विविह-वर-स्यए-बधिरा, अंजू - सखा हवंति एरस्सि ।।२२२१॥
म :-मन्दरपर्वतके ईशानदिशाभागमें, नीलगिरिक दक्षिणपार्वभागमें और माल्यबन्तके पश्चिमभागमें सीतानदीके पूर्व तटपर उत्तम पोठ मुक्त जम्बूवृक्षका स्वर्णमय स्थल है। इस स्थल पर विविध प्रकार के उत्कृष्ट रत्नोंसे खचित जम्बूवृक्ष है ।।२२२०-२२२१॥
सम्पलि-हक्स-सरिन्छ, चंद्र- उमाप पखाणं सयलं ।
गरि विसेसा वेतरदेवा चेति प्राणपणा ।।२२२२॥
म :-जम्बूलक्षोंका सम्पूर्ण वर्णन शाल्मली वृक्षोंके ही सहश है। विशेषता केवल इतनी है कि यहाँ अन्य-अन्य व्यन्तरदेव रहते हैं ।।२२२२।।
तेसु पहाण - कक्खे, जिणिव - पासाद - भूसिदे रम्मे ।
आवर - अनावरला, विसते तरा देवा ॥२२२३॥
प:-उनमें रमणीय जिनेन्द्रप्रासादसे विभूषित प्रधान जम्बूवृक्षपर आदर एवं अनादर नामक व्यन्तरदेव निवास करते हैं ॥२२२३।।
सम्मईसण - सुद्धा, सम्माट्ठीण बस्छला योनि ।
सयस जंबूवीवं, भुजते एक • यत्ती ॥२२२४॥
प्रबं:- सम्यग्दर्शनसे शुद्ध और सम्यग्दृष्टियों के प्रेमी के दोनों देव सम्पूर्ण जम्बूढोपको एक छत्र सम्राटके सहन भोगते हैं ।।२२२४।।
...ब.क.अ. य.
सम ।
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पापा : २२२५ ]
वउत्यो महाहियारो
[ ५६५
AAS
REU
प्र
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WAM
.
IG
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:.
1.
IN
POST
पूर्वापर विदेहोंमें क्षेत्रोंका विभाजनपुण्यावर • भागेस, मंवर - सेलस्स सोल - सोय' । विजयापि' पुष्यावर - विरेह • गामानि वेति ।।२२१५॥
.
--.
-
-
--
१६... कप. प. उ. मोय । २.१... विख्याएं ।
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५९६ ]
वाईक आचार्य भी सुविध
तिसोयपष्णली
[ गाया । २२२६-२२३१
वर्ग:- मन्दरपर्वत के पूर्व-पश्चिम भागों में पूर्व भपर- विदेह नामक सोलह क्षेत्र स्थित
:—
है ।। २२२५।।
सीबाए उमएस पासेसु भट्ट अट्ठ कय सीमा ।
चंद्र-वज्र-वक्लारेहि, विजया तिहि-तिहि विभंग-सरिया हि ।। २२२६ ।।
अर्थ :- सीतानदी के दोनों पाश्यंभागों में बार-बार वक्षार पर्वत और तीन-तीन विमंगनदियोंसे सीमित पाठ माठ क्षेत्र हैं ।। २२२६ ।।
पुव्व सोदाए दो
-
विदेहस्संसे, जंबूदीवस्त जगदि पासम्मि ।
तडे
J
:- पूर्व विदेहके अन्तमें जम्बूद्वीपको जगतीके पाश्व में सोतानदी के दोनों किनारोंपर रमणीय देवारण्य स्थित हैं ।। २२२७ ।।
-
"
सोबोवाए वो पासेस मठ्ठ घट्ट कय - सोमा ।
+
उ-उ-वक्ताहि, विजया तिहि-तिहि विभंग - सरिया हि ।। २२२८ ।।
:- सीतोदके दोनों पार्श्वभागों में चार-चार वक्षारपर्वत और तीन-तीन विमंग
J
नबियोंसे सीमित बाठ काठ क्षेत्र है ।।२२२८१
सोदोवास
अवर बिदेहस्ते जंबूदोवल्स जगदि
सुदारणं
-
पर तारण्य भी स्थित है ।।२२२६ ।।
वेवारणं वियं रम्मं ।। २२२७।।
1
-
अर्थ :- अपर विदेहके अन्तमें जम्बूद्वीपको जगती के पार में सोतोदा नदीके दोनों किनारों
,
पासम्म ।
पि चे वि ।।२२२६॥
-
दो पि विदेहेसु वक्तारविशे विभंत सिधूमो । चेते
एक्क्कं
-
अंतरिवृणं सहावेगं ।। २२३० ।।
अर्थ :-- दोनों ही विदेद्दों में स्वभावसे एक-एकको व्यवहित करके वक्षारगिरि और विभंग नदियाँ स्थित है ।। २२३० ॥
सोवाए उत्तर सढे पुबसि भद्दताल देवीयो । गोलस्स दक्लि ते, पदाहिणं हवंति से विजया ।।२२३१।।
-
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गाया ; २२३२-२२३८ 1 घनत्थो महाहियारो
[ ५६५ प्रबं:-के क्षेत्र सोतानदी के उत्तर किनारेसे भदशालवेदोके पूर्व और भीलपर्वतके दक्षिणान्त प्रदक्षिणरूपसे स्थित है ॥२२३१।।
विदेहस्थ बत्तीस क्षेत्रोंके नामकन्या सुकन्छा महाकम्छा तुरिमा कन्धकावदी । आवत्ता संगलावता पोपडला पोखसावची ॥२२३२॥
वयास
9.
37
27."
रम्मा सरम्भगा बि य, रमणिज्जा मंगलाबदी ॥२२३३॥ पम्मा सुपम्मा महापम्मा तुरिमा पम्मकावदी । संखा एलिजा गामा, समुवा सरिदा सहा ॥२२३॥ वप्पा सुबपा महावप्पा तुरिमा बप्पकावयो ।
गंधा सुगंध • लामा, य पंधिता गंषमालिमी ।।२२३।।
प :- कच्छा, २ सुकच्या. ३ महाकच्छा, ४ कलावतो त्रावा, ६ लांगलावर्ता, ७ पुष्कला, ८ पुष्फलायती; १ वरसा, २ सुवासा, महायता, ४ वत्सकाक्ती, ५ रम्पा, ६ सुरम्पका, ७ रमणीया, ८ मंगलावती; १ पषा, २ सुपपा, २ महापा, ४ पनाकावती, मला, ६ नलिना, ७ कुमुदा, ८ सरित्; १ वा, २ सुवमा, ३ महावना, ४ पत्रकावतो, ५ गन्धा, ६ सुगन्धा, ७ गन्धिसा पौर ८ गन्धमालिनी; इस प्रकार क्रमश: ये उन पाठ-आठ क्षेत्रोंके नाम हैं ।।२२३२-२२३५।।
पूर्व विदेहस्थ आठ गजदन्तोंके नामगामेण चित्तको, पढमो विदिओ हवे अलिनकगे। तविमो वि पउमडो, परमप्लो एक्क • सेलो य ॥२२२६॥ पंचमओ वि तिमो, बहरे बेसमन - फर - पामो य । सत्तमनो तह अंजरपसेलो आवंजण' ति अनुमओ ॥२२३७॥ एवं गयवंतगिरी पुष्यविवेहम्मि अट्ट बसे । सव्वे पाहिजे, उबवण - पोक्खरणि - रमणिमा ।।२२३८॥
1...क.ब. य. र प्रायस्सए ।
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४६ ]
तिलोयपाती
[ गापा : २२३९-२२४२ प:-नामसे प्रथम चित्रकूट, द्वितीय नलिनकूट, तृतीय पत्रकूट, चतुर्थ एकशेल, पाचर्चा त्रिकूट, छठा वषवरणकूट, सात अजनशल तथा भाठवां प्रामाजन, इस प्रकार उपवन एवं वापिकापोंसे रमणीय ये सब आठ गजदन्तपर्वत पूर्व विदेहमें प्रदक्षिणरूपसे स्थित हैं ।।२२३६-२२३८।।
अपर विदेहस्थ पाठ गजदन्तसहादि-बिजगदि प्रासीषिसया सुहाबही सुरिमो ।
वंदगिरि - सूर - पव्वर - जागगिरी वेषमालो ति॥२२३६॥ ए कर.... अनिये, अशा हिसाब
सब्वे पदाहिणेनं, उववच - पेरी • पहुषि - वृत्ता ।।२२४०१॥
पर्व:-श्रद्धावान्, बिजटावान, बाशीविषक, सुखावह, चन्द्रगिरि सूर्यपर्वत मागिरि एवं देवमाल, इसप्रकार उपवन-वेदी-आदिसे संयुक्त ये सब आठ गजदन्तपर्वत प्रदक्षिण रूपसे अपरविदेहमें स्थित हैं ॥२२३६-२२४०।।
- पूर्वापर विदेहस्थ विभंगनदियों के नामवह - गह - पंकवादीयो, तत्तजला पंचमी व मत्तजता ।
उम्मत्तजला की, पुरुषविदेहे विभंगमई ॥२२४१।।
मर्ष:-हवती, पाहवती, पवती, सप्तजला, मत्तमला और सम्मतबला, ये छह विभंगनदिया पूर्व विदेहमें हैं ।।२२४१।।
खोरोबो सीरोवा, ओसहवाहिरिण • गभीरमालिभिया । फेम्मिमालिगोओ अपर - बिहे विभंग - सरिया ॥२२४२॥
भ:-क्षीरोदा, सीतोदा, औषषवाहिनी (स्रोतवाहिनी ), गभीरमासिमी, फेनमालिनी मौर कमिमासिनी ये छह विमंगनदियाँ पपरविदेहमें स्थित है ॥२२४२।।
[ चित्र भगले पृष्ठ पर देखिये ]
... फ. स. उ. मंगपति विजापति।
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गाया : २२४२ ]
चस्पो महाहियारो
[ ५६
काय
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मुर.
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PER F-पासा ... 10 HR किपातमा 11- मरम्न
मु ना .: J..
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माकर माया "सम्मानमानी
ष
सीता
लि
पानमानी । तर FULWILL समासः 14
एजा
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६००
Jorts
आचार्य श्री
'तिमीमात
कच्छादि क्षेत्रोंका विस्तार-
योनि सहस्सा बु-सया, बारसन्तास पुष्वावरेन से
एमकेश्के
होवि
२२१२।१।
प :- प्रत्येक क्षेत्रका पूर्वापर पूर्व से पश्चिम तकका ) विस्तार दो हजार दोसौ बारह योजन और पाठ भाजित सात अंश ( २२१२६ योजन ) प्रमाण है ।।२२४३ ॥
वक्षार पवंत और विभंगा नदियोंका विस्तार -
·
पंच-सय-जोगागि, पुह पुत्र वक्वार-मेल- विश्वंभो ।
दिय जिय कुष्पत्ती, ठाणे कोलागि पन्जासा ।। २२४४।
५०० । को ५० ।
·
·
[ गाषा : २२४३-२२४९
वासो विभंग - कल्लोलिनीन' सव्वान होनि पक्कं ।
सोवा सीगोद नई पवेस बेसम्मि पंच-सय- कोसा ।।२२४५॥
·
५०० ।
पर्थ :- वक्षारशंलोंका पृथक-पृथक विस्तार पाँचसी ( ५०० ) योजन बोर सब विरंगनदियोसे प्रत्येकका विस्तार अपने-अपने कुण्डके पास उत्पत्तिस्थानमें पचास (५०) कोस तथा सीता-सोसोदा नदियों के पास प्रदेश स्थानमें पचिस ( ५०० ) कोस प्रमाण है ।।२२४४-२२४५ ॥
वनका विस्ताद -
झट्ट हिवा
विजयम्मि ।। २२४३ ॥
-
( २६२२ ) योजन प्रमाण है ।।२२४६ ।।
पुण्याबरेम मोच, उतीस सयामि तह य बाबीसं ।
दो
बारणे,
मूवारणे
२१२२ ।
म :- देवारथ्य और तारण्यमेंसे प्रत्येकका पूर्वापर विस्तार दो हजार नौ श्री बाईस
口
शेषर्क ॥ २२४६॥
१.प.अ.ज. उ. एमकेको २. द. तो लिमी ब. क.प.उ. तो एवी
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गाया : २२४७-२२४९ ]
ariate :- अ
चरणो महायारों
"निकालने के नियम
विजय-गयवंत-सरिया, वेबारण्णाणि भहसाल - वनं ।
यि णिय फलेहि गुणिदा, कावस्या मेरु फल-जुत्ता ।। २२४७।।
-
एवाणं रचिणं पिफलं जोयक
लक्खमि ।
सोहिय णियंक भजिबे, जं लम्भइ तस्स सो चासो ।। २२४६ ||
-
-
-
[ ६०१
अर्थ :- विजय ( क्षेत्र ), गजदन्त, नदी, देवारण्य और भट्टणाल, इनको अपने-अपने फलोंसे ( क्रमश: १६,८६,२, २ से गुणा करके मे फलमें जोड़ें, पश्चात् इनको जोड़नेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसको एक लाख योजनमें से घटाकर अपने-अपने अंकोंका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उत्तना उस क्षेत्रका विस्तार होता है ।। २२४७ - २२४८ ।।
--
विशेवार्थ - जिस मेरु, क्षेत्र, गजदन्त, विभंगा नदी, देवारण्यवन एवं भद्रशाल ग्रादिका पूर्व-पश्चिम व्यास प्राप्त करना हो उसे छोड़कर अन्य सभीके अपने-अपने व्यासोंको प्रपने-अपने गुरणकार ( क्षेत्र व्यास २२१२ यो० x १६ कार व्यास ५०० यो०४८. विभंगा व्यास १२५ मो० ४१, देवार २६२२ यो० २ और मशालका व्यास २२००० यो० २ ) से गुणाकर मेरुव्यास १०००० योजन में जोड़ें और योगफलको जम्बूद्वीप के व्यास मेंसे घटानेपर जो अवशेष रहे उसे विवक्षित क्षेत्र श्रादिकं प्रमाणसे भाजित करनेपर इष्ट क्षेत्र प्रादिका व्यास प्राप्त हो जाता है।
አ
क्षेत्र विस्तार
चच-गण-पण-चच-छक्का सोहिय अंकक्कमेण वासारो ।
सेस सोलस भजिवं, विजयानं जाण
बिक्लंभो ||२२४६
६४५१४ । २२१२२ ।
अर्थ:-बार नो पाँच, चार और वह इस अकु क्रमसे उत्पन्न हुई ( ६४५६४ ) संस्थाको जम्बूद्वीप के विस्तारमें से कम करके जो शेष रहे उसमें सोलहका भाग बेनेपर जो प्राप्त हो उसे क्षेत्रोंके विस्तारका ( २२१२३ यो० ) प्रमाण जानना चाहिए || २२४९ ॥
विशेषार्थ :- इस गाथामें विदेहस्थ सोलह क्षेत्रों में से एक क्षेत्रका विस्तार निकालनेकी प्रक्रिया दर्शाई गयी है । यथा-
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६०२ ]
तितोयपणाती [ गाथा : २२५०-२२५१ ।। [( वक्षार व्यास ५०० ४ ८ स्व संख्या
दिगो व्यास = ७५० + [ ( ३० व्या० २९२२४२)=५८४४ ] +{(भ० व्या ० २२०००४२)-४४००० 1 +मेरु व्यास १०.०० यो०---६४५६४ यो०) [ (जम्बूद्वीपका व्यास १०.०० यो०-६४५६४ यो०) १६-२२१२६ योजन प्रत्येक क्षेत्रका व्यास |
वक्षारविस्तारछष्णउदि - सहस्सागि, वासावो जोयणाणि अणिज्ज । सेसं अट्ठ • पिहो, वखारगिरीण विक्वंभो ॥२२५०॥
१६.००। ५०.। पर्ण :-- जम्बूद्वीपके विस्तारमेंसे छपान हजार (१६०००) योजन कम करके शेषको आठसे विभक्त करनेपर ( ५०० योजन ) क्षार पर्वतोंका विस्तार निकलता है ।।२२५०॥
विवार्थ:-[ (२२१२२४१)+ (१२५ x ६) + (२६२२४२)+ (२२०.०४२)+ १०००.] -९१००० योजन । = १०००००-- ६६००० =५०० योजन विस्तार प्रत्येक वक्षार पर्वतका प्राप्त हुआ।
विभंग-विस्तारनवगवि-सहस्साणि, विवक्षभादो' य -सय पण्णासा। सोहिम विभंग - सरिया - बासो सस्त छम्भागे ॥२२५१॥
६६२५०।१२५ प्रपं: जम्यूवोपके विस्तारमेंसे निन्यानबे हजार दोसौ पचास ( Et२५. यो.) कम करके शेषके छह भाग करने पर विभंगनदियोंका विस्तार– १२५ यो ) प्रमाण जाना जाता है ॥२२५१॥
विशेषा:--[ ( २२१२६४१६) + (२००४८ ) + (२६२२४२) + (२२...४२) +१.... JEE२५० योजन ।
- १००००० - १९२५० - १२५ योजन व्यास ।
१. प, विक्संभोइये. प. ५. विखं मोदाये ।
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गाया : २२५२-२२५४ ]
देवाय विस्तार
चरण अवि-सहस्सा णि, सोहिय वासा छपन्न एक्क-सयं । देवारण्णाण विभो ।।२२५२॥
सेसस्स
श्रद्धमेत
४१५६ | २६२२ ।
अयं :- जम्बूद्वीप के विस्तार में से चौरानवें हजार एकसी छप्पन (६४१५६ यो० ) घटाकर शेष घर्षभाग प्रमाण देवाश्थ्यों का विस्तार है ।। २२५२१।।
उत्यो महाहियारो
विशेष :- [ ( २२१२६१६- ३५४०६ ) + ( ५००X८ = ४००० ) + ( १२x६ - ७५० ) +२२०००x२=४४००० } + १०००० ] ६४१५६ योजन
tooooo
-
—
२
__१४१५६. = २६२२ योजना व्यास |
वाचक आचार्य से दर्दिक nareer fवस्तार---
छप्पन्न - सहस्त्राणि, सोहिय वासाओ जोयमाणं च । से दोहि बिहलं, क्लिंभो
५६००० | २२००० ।
:- जम्बूद्वीप के विस्तार मेंसे छप्पन हजार ( ५६००० ) योजन कम करके शेषको दोसे विभक्त करने पर जो प्राप्त हो उसे भद्रतालवन के विस्तारका ( २२००० मो० ) प्रमाण जानना चाहिए ।। २२५३ ।।
अर्थ :-- [ ( २२१२१६-३५४०६ ) + ( ५०० x == ४००० ) + ( १२५× ६ = ७४० } + ( २१२२x२=५६४४ } + १०००० ] =५६००० योजन
१०००००
५६००० = २२००० योजन व्यास ।
सुदर्शनने का मूल विस्तार-
विभादो सोहियः खजदि अबसेसं जं लख सो
"
-
[ ६०३
भसालस्स ।। २२५३ ।।
सहस्तानि जायना च । मंदर मूल विक्लंभो ॥२२५४३१
-
·
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६०४ ]
तिलोयपगती
। गापा : २२५३-२२५७ प:-अमूढीपके विस्तार से नम्ब हजार (50.00 ) योजन कम कर देने पर जो शेष रहे उतना मासिका मूलमें:
मिरमान ५४४६५६ विशेषार्थ :-{ २२१२६४१६)+(५०.४८)+ (१२५४६)-( २६२२४२) + ( २२००.४२)=१००० योजन । =१००००० - ६...-१०००० योजन मुमेरुका मूल व्यास ।
पूर्वापर विदेहका विस्तारउवण - साहस्साणि, सोहिय बोबस्स' बास-मम्मि । सेसर पुग्दावर - विवेह • मा ५ पतग ।।२२५५।।
५४००० । २३०००। प्रबं;-अम्बूद्वीपके विस्तारमेंसे चौकन हजार (५४००० } घटाकर शेषको प्राधा करनेपर पूर्वापर विदेहमें से प्रत्येकका प्रमाण ( २३००० यो०) निकलता है ।।२२५५।।
विरोधा:- भद्रशालका विस्तार ( २२००.४२)=४४०..+ १०.०० मेकका मूल विस्तार-५४००० योजन।
१००.००-५४०००
11०९-२३०० योजन पूर्व अथवा अपर विवहका विस्तार ।
क्षेत्र, वक्षार और विभंगाकी लम्बाईका प्रमाणसीता - 5 सोहिय, विरह - रुदम्मि सेस - इलमेतो। मायामो विजयाणं, वखार - विभंग - सरियारणं ॥२२५६।। सोलस-सहस्सयाणि, बारगउदी समाहिया य पंच - सया । यो भागा पक, विजय - पहुवीण बोहत ॥२२५७।।
१६५६२ ।क ।
१६.प.क. प. य. छ. दिबस्त |
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गाषा : २२५८-२२६० ] बउत्यो महाहियारो
[ ६०५ प्रर्ष:-विदेहके विस्तारमेंसे सीतानदीका विस्तार घटा देनेपर गेषके अभाग प्रमाण क्षेत्र, वक्षार पर्वत पौर विमंगा नदियोंकी सम्बाईका प्रमाण होता है। इन क्षेत्रादिकमेंसे प्रत्येफको लम्बाई सोलह हजार पाचसो वान योजन और एक योजनके उनीस भागों में से दो भाग अधिक है ।।२२५६-२२५७।।
विशेषार्थ :-पूर्वापर विदेहक्षेत्रोंका पृथक्-पृथक विस्तार (दक्षिणोतर गोगाई) ३३६८४ायोजन है। इन क्षेत्रों में सीता-सीतोदा नामकी दो प्रमुख नदियाँ बहती हैं। बहके समीप निर्गमस्थान पर इनको चौड़ाई ५० योजन और समुद्र प्रवेशकी चौड़ाई ५०० योजन है। विदेह विस्तारमेंसे नदी विस्तार घटाकर शेषको आधा करनेपर = २२५६ १०० = १६५६२ योजन प्राप्त होते हैं, जो विदेह स्थित वार, १३ दया भाराव्य मादि वनोंको लम्बाई है। अर्थात् इन क्षेत्रादिकमेंसे प्रत्येकको लम्बाईवा प्रमाण १६५६२४ योजन है।
विभंग नदीको परिवार नदियो
अट्ठावोस - साहस्सा, एकेकाए विभंग - सिधूए । परिवार - वाहिनीबो, विचित्त - स्वामओ रेहति ।।२२५८।।
२८०००। वर्ष:-एक-एफ विभंगनीको विचित्ररूपबाली भट्ठाईस हजार ( २८०..) परिसर नदियां शोभायमान हैं ।।२२५८५१
कन्या देशका निरूपणसोवाय उत्तर - तो, पुषसे महसाल - देवोवो । गोलाचल - विखणदो, पब्लिमदो चित • कूडम्स ।।२२५६।। चेवि कच्छ-शामो, 'विजयो वण-गाम-एयरहि । कम्मर - म - पट्टण - कोणामुह - पहु सिहि हो ॥२२६०।।
१६... ब. य. न. विजपा। २. द. २. क. ज. प. उ. जुदा ।
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तिलोयपणाती
[ गापा : २२९१-२२१४
बुग्गाबीहि जत्तो, मंतरतीहि कुक्तिवाहि ।
सेवासमंत - रम्मो, सो रयणायर - मंरियो विनम्रो ।।२२६१॥
प्राय:- मशालवेदीके पूर्व, नीलपर्वतके दक्षिण पोर चित्रकूटके पश्चिममें स्थित सीतामदोके उत्तर तटपर कच्छा नामक देवा स्थित है । यह रमणीय कम्पादेश, वन, ग्राम, नगर, खेट, कवंट, मटंब, पत्तन एवं द्रोणमुखादिसे युक्त, दुर्गाटवियों, अन्तरद्रोपों एवं कुक्षिवासों सहित समन्ततः रमणीय और रनाकसि प्रलंकृत है ॥२२५६-२२६१॥
गामागं छमाउदी • कोगेओ रपम-भवरण-भरिवार्य । परियो 'कुमकुद - संघण - पमाण - विक्षपाल-ममीनं ।।२२६२।।
६.00000.
म :-उसके चारों प्रोर रत्नमय भवनोंसे परिपूर्ण और कुक्कुटके उड़ने प्रमाण मन्तरालभूमियोंसे युक्त छपान करोड़ ( १६००००००० ) ग्राम है ।।२२६२।।
जयराणि पंचाहत्तरि-सहस्त-मैतानि विविह-भवरणारिण। खेडाणि सहस्साणि, सोलस रमणिय - गिलयानि ॥२२६।।
७५००० । १६०००। पर्न: प्रत्येक क्षेत्रमें विविध भवनोंसे युक्त पचत्तर हजार (५५... ) नगर पौर रमणीय बालयोंसे विभूषित सोलह हजार ( १६०००) खेट होते हैं ।।२२६३।।
चउतोस - सहस्सारिण, कवण्या हॉति तह मांगा । चसारि सहस्सानि, प्रवाल - सहस्स पहनया ।।२२६४।।
३४...। ४०००।४८०.। प:-इसके अतिरिक्त चौतीस हजार (३४०००) कट, चार हजार { ४... ) मटंब और अड़तालीस हजार ( ४८०० ) पत्तन होते हैं ।।२२६४१॥
१.र.ब.. बुग्गीहि । २. ३. बक.अ. न... कौशलं पृण ।
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________________
रो
गाथा : २२६५-२२६९ Irreeti : चलो मा महाधि णवणउनि सहस्सारिण, हवंति दोणामुहा सुहावासा । चोदस सहस्रस मेला, संवाहणया परम
रम्मी ||२२६५ ॥
६६००० | १४००
अर्थ:-सुख के स्थानभूत निन्यानबे हजार (६६००० ) द्रौणमुख भोर चौदह हजार ( १४००० ) प्रमाण परम रमणीय संवाहन होते हैं ।। २२६५ ।।
अट्ठावीस सहसा हवंति दुग्णाबोओ छपणं ।
अंतरदोवा सत य, सयानि कुक्खी शिवासार्थ ।।२२६६ ॥
-
•
२८००० | ५६ । ७०० ॥
म :- मट्ठाईस हजार ( २८००० ) दुर्गादिवियाँ, छप्पन (५६) अन्तरद्वीप और साल सी (७००) कुक्षि निवास होते हैं ।।२२६६ ।।
छवोस सहस्सारिंग, हवंति रथमायरा विवित्तहि ।
परिपुण्णा रयणेहि फुरंस वर किरण जाहि २२६७॥
-
२६००० ।
अर्थ :- देदीप्यमान उतम किरणोंके समूह से संयुक्त तथा विचित्र रहनों से परिपूर्ण छबीस हजार ( २६००० ) रत्नाकर होते हैं ।।२२६७ ॥
सोदा-तरंगिणी जल-संभव तुल्लंघुरासि शौरम्मि ।
विप्त करणय रयणा, पट्टण दोणामुहा होंति ।।२२६६ ।।
होते हैं ||२२६६॥
-
•
:- सीसानदी के जलसे उत्पन्न हुए क्षुद्र समुद्र के किनारे पर देदीप्यमान सुवर्ण तथा रत्नोंवाले पत्तन और द्रोणमुख होते हैं ।। २२६८ ॥
[ ६०७
-
सोदा तरंगिनीए, उत्तर तीरम्मि उवसमुद्दम्म ।
छप्पनंतर दोवा, समंत वेदी पहुदि जुत्ता ||२२६९ ।।
:- सोतामवो के उत्तरतटपर उपसमुद्रमें चारों ओर वेदी आदि सहित छप्पन अन्तरद्वीप
P
-
·
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६०८ ]
तिलोयपात्ती
[गाषा : २२७०-२२७४ नाना-पम-विििम्मद-जिणिव-पासाव-भूमिरा रम्मा ।
मिच्छर' - भवण - होणा, गाम - पहुरी विरायते ॥२२७०।।
अर्थ :- अनायतनोंसे रहित दे रमणीय ग्रामादिक नाना प्रकार के रत्नोंसे निमित जिनेन्द्रप्रासादोंसे विभूषित हुए शोभायमान होते हैं ।।२२७०।।
करछा देश स्थित श्रामादिकोंकी विशेषताएंगोषूम-कलम-तिस-नव-घणकनपट्टदोहि 'षण-संपुण्णा ।
बुभिक्ख - मारि - मुक्का, लिच्चुच्छव-वर-गोव-र वा ॥२२७१॥
अर्थ :-ये ग्रामादिक गेहू, पॉवस, तिल, जो पौर बना इत्यादि धान्योंसे परिपूर्ण है; दुभिक्ष एवं मारी प्रादि रोगोंसे रहित हैं तथा नित्य उत्सवमें बजने वाले तूर्य और गाए जाने वाले गीतोंके नादा , १४२२७११३४२
EYE TIPS कन्छ-विजयर्याम्म विविहा, घसंसा मंडिदा विचितहि ।
रुक्षेहि कुसुम - पल्लव - फल • भर - सोहंस-'साहहि ॥२२७२१॥
पर्ण :- काहा क्षेत्रमें फूल, पत्र एवं फलों के गारसे शोभायमान शाखाओं वाले नाना वृक्षोंसे सुशोभित विविष वन-खण्ड हैं ।।२२७२।।
पोक्खरणी - वायोहि, विपिस • सोवाम-राव-वाराहि ।
सोहेवि कच्छ - विजमो, कमलप्पल • पप • सुगंधाहि ।।२२७३॥
मर्थ :--यह कच्छा-देश विचित्र सोपानों से रचित द्वारोंवाली और कमप्त एवं उत्पलवनौको सुगन्ध युक्त पुष्करिणियों तथा वापिकाओंसे शोभायमान है ॥२२७३।।
वर्षाका वर्णनकन्चम्मि महामेघा, भमरजण - सामला महाकाया । .
सच परिसंति वासा • गत्तेसु सस सस बिनसा ॥२२७४।।
म :-कच्छा-देशमें प्रमर और पम्जन सर काले सात प्रकारके महाकाय महामेष वर्षाकाल । १२० दिनों) में सात-सात दिनके बाद सात-सात दिन तक बरसते है ॥२२०४।।
१. ६. ब. क. ज. प. उ. मिचमणाणहीणा। २. ६. ब. क. ब. म. उ, वाण। ३.८. ह.ब. 4. स, सोहि ।
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गाया : २२७५-२२७६ ] पउत्यो महाहियारो
परिसंति दोन - मेषा, बारस देंदु - सुबरायारा।
मौसुत्तरमेक • सयं, सरिवलणं तत्व जाति ॥२२७५॥
म :-कुन्दपुष्प और चन्द्रमा सदृश सुन्दर फारवाले वारह द्रोणमेघमी बरसते है।। वहाँ एकसो बीस गदियों के प्रपात उत्पन्न होते हैं ।।२२७५।। tat Ki
Tara
झि व्यवस्था
बहुषिह-विषम्प-शुषा, लचिप-गइसाण तह य सुक्षामं ।
संसा हवंति कन्च, तिपिण पिचय लस्प हमणे ॥२२७६।।
w:-कच्छा-देशमें बहुत प्रकारके भेदोंसे युक्त क्षत्रिय, वैश्य भौर शुद्ध ये तीन ही वंश हैं, अन्य का यहां नहीं हैं ।।२२७६।।
काल व्यवस्था
परचम-भीदि-रहियो, अण्णाय - पयाणेहि परिहोबो ।
पाहि - अणावतो.- परिचचो सव्य - कालेसु ॥२२७७॥
पर्ष:-यह देवा सम कातोंमें परचक्रको भौति तथा अन्याय-प्रवृत्तिसे विहीन रहता है और अतिवृष्टि-अनावृष्टिसे परित्यक्त है । अर्थात् वहाँ प्रति वृष्टि-अनावृषिको बाधा नहीं होती और न मकाल ही पड़ता है ॥२२७७॥
धर्माभासका अभावअपरफल - सरिसा, पम्माभासा न तस्य 'सुब्बति ।
सिव-बम्ह-विष्णु-मंडी-रषि-ससि - सुवाष म पुरारिख ।।२२७८॥
पचं :-उदुम्बर फलोंके सच धर्माभास वहाँ सुने नहीं जाते । शिव, ब्रह्मा, विष्णु, पण्डी, रवि, शाहि एवं युद्धके नगर { स्थान.) वहाँ नहीं है ॥२२७८।।
पासंग - समय पत्तो, सम्माइट्ठी - जोघ - संचलो। गरि बिसेसो केसि, पपट्टचे भाव • मिच्छत ।।२२७६॥
१.८...... य.. मुरति ।
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६१. ]
तिलोयपणती
[गाचा : २२८०-२२८३ मर्ष:-बह देश पाखण्ड सम्प्रदायोंसे रहित है और सम्यग्दृष्टि जनों के समूहसे व्याप्त है । विशेष इतना है कि यहाँ विहीं शिक्षी जीवों के शामिनाया निशानाहाका है ।
उपसमुद्रका वर्णनमागध-वरतगवेहि य, पभास - दोवेहि कल्य-विजयस्स ।
सोहेवि उपसमुद्दो, वेदो - घर - तोरणेहि शुवो ॥२२८०।।
प्रर्ष :-वेदो और पार तोरणों से युक्त कम्छादेशका उपसमुद्र मागध, परतनु एवं प्रभास द्वीपोंसे शोमायमान है ।।२२८०॥
कच्छादेशागत मनुष्योंको आयु और उत्सेधादिमंसोमुहसमवरं, कोडी पुष्वाण होदि उपकस्स । आउस्स य परिमारणं, गराग रणारीग कन्यम्मि ।।२२८१।।
पुष १००..... *:-कन्यादेशमें नर-नारियों की आयुका प्रमाण अधन्यरूपसे अन्त मुहूर्त और उस्कृष्ट ___ रूपसे पूर्वकोटि { १००००००० ) है ॥२२८।।
उन्हो बारिण, पंच • सया विविह - बण्णमावन् । परसट्ठी हट्टी, मंगेतु पराग पारीनं ॥२२६२॥
५०० । ६४ । प्रध:--वहाँपर विविध वसे युक्त नर-नारियोंके शरीरकी ऊंचाई पपिसी (५..) धनुष भोर पृभागकी हडियो चौसठ (६४) होती है ॥२२५२॥
कच्छादेशगत विजयार्घका वर्णनकाछस य बहुमण्झे, सेलो नामेण पोह-'विजयपढ़ो। जोयग - सय - बासो, सम • बोहो बेस - वासे ।।२२८३।।
५० । २२१२ 121
१.६... क. च.न. य. विजयादो।
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गाथा : २२-४-२२८८ ]
उत्यो महाडिया
[ ६११
वर्ष :- कच्छादेश बहुमध्य भाग में पचास (५०) योजन विस्तारवाला और देश - विस्तार २२१२ पोजन | लम्बा दीर्घविजयाष नामक पर्वत है ।। २२८३ ॥
'समाने'
सभ्वाओं वण्णणाम्रो भणिया बर-भरहले बिजय । वरि विसेसं किमि ॥२२८४ ॥
एस्सि नावबा
पर्व :-- उत्तम भरतक्षेत्र सम्बन्धी विजयार्धके विषय में जैसा विवरण कहा गया है, वैसा ही सम्पूर्ण विवरण इस विजयाधंका भी समझना चाहिए । उक्त पर्वतको अपेक्षा यहाँ जो कुछ विशेषता है उसका निरूपण करता हूँ ।। २२८४ ॥
विज्जाहराण तस्ति पत्तेक्कं वो तसु णयराणि ।
•
पंचाचण्या होंति
कूडाण
- इस पर्यंत दोनों तटों मेंसे प्रत्येक तटपर विद्याधरोंके पचपन नगर हैं। यहाँ कूटोंके नाम भरतक्षेत्रके विजयार्थ के कूटोंसे भिन्न है ।।२२८५।।
सिद्धस्य-भद्र खंडा, पुन्ना- विजयह-मामि- तिमिसगुहा । कच्छी समणो जय गामा एक्स्स कूडा ।। २२८६ ॥
1
अर्थ :- सिद्ध, इच्छा, खण्डप्रपात, पूर्णभद्र, विजया माणिभद्र, तिमिसगुह, कच्छा प्रोर भवरण ये क्रमश: इस विजया के ऊपर स्थित नो कूटोंक नाम है ।। २२६६ ।।
सम्वेस
चेति
सु
प्रकु
1
अण्णामारिं ।। २२८५ ।।
मणिमय पासाव सहमाणे ।
ईसानियस्स
-
-
-
-
वाहणा
अर्थ :- मरियमय प्रासादोंसे शोभायमान इन सब कूटोंमेंसे माठ कूटोंपर ईसानेन्द्रके वाहन देव रहते हैं ।।२२८७ ॥
कच्छादेश में छह खण्डों का विभाजन
नीलाचल दक्षिणबरे, उबवण देवीए' बक्स पासे । कुडाणि योन्जि बेबो सोरा जसाणि बेटू सि ॥२२८८॥
देवा ||२२६७॥
t..... big | 2. 4. 7. 5. 3. 4. 7. FITT 1
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________________
तिलोय. आज
२३
वर्ग:- नीलपर्वतसे दक्षिणको घोर उपवनवेदीके दक्षिण- पाववंभाग में बेदी-तोरणयुक्त दो कुण्ड स्थित हैं ।। २२८६॥
६१२]
ताणं दक्लिण- तोरण दारेणं खिग्गा दुवे सरिया ।
रता एसीवक्लर, पुह पुह गंगाध सारिच्छा ||२२८६ ॥
·
अर्थ :- उन कुण्डोंक दक्षिण तोरणद्वार गंगानदीके सदृश पृथक्-पृथक् रक्ता और रक्तोदा नामकी दो नदियाँ निकली हैं ।। २२८६ ।।
रता रतोवाहिं, वेयमूढ णगेण कच्छ विजयमि ।
सम्बन्ध समाणाओ,
एमखंडा
-
·
:- रस्ता रक्तोदा नदियों और विजयापवंतसे कच्छादेश में सर्वत्र समान छन् खण्ड निर्मित हुए हैं ।। २२६०॥
रा-रक्तोदाकी परिवार नदियाँ -
रता रथोदाम, जुवाओ चोदस सहस्रसमेताहि ।
परिवार वाहिणोहि णिच्वं पविसंति सीदोषं ॥ २२६१ ॥
प्राखण्ड है ।। २२६२ सा
सीवाए उत्तरवो, बिजय रता रतोदानं,
4
-
-
१४००० ।
:- चौदह हजार (१४००० ) प्रमाण परिवार नदियोंसे युक्त ये रक्ता- रक्तोदा नदि नित्य सीतानदीमें प्रवेश करती है ।।२२९१।।
·
-
-
णिम्मिया एवे ॥२२६॥
-
अर्थ :- सीतानदी के उत्तर और विजयार्षगिरिके दक्षिणभाग में रक्ता रक्तोदा के मध्य
-
कच्छादेशगत आयं खण्ड
-
गामा जगवंद णिचिदो, प्रहारस-पेस-भास-संजुतो ।
कुंजर तुरगावि मुरो, नर नारी मंडिवो रम्मी ।।२२९३ ॥
गिरिस्स दक्षिणे भागे ।
अजाखं भवेदि विरुवाले ।। २२६२।।
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गाथा । २२९४-२२१७ ]
पउत्यो महाहियारो प्र:- अनेक जनपदों सहित. अठारह देशभाषाओंसे संयुक्त, हाय एवं अश्वादिकोंसे युक्त धौर नर-नारियोंसे पण्डित यह प्रायखण्ड रमणीय है ॥२२९३।।
क्षेमा-नगरी
सेमा - गामा लपरो, अमावस्स होवि मग्झम्मि ।
एसा प्रणाद-मिहणा, पर • रयणा खचिर - रमपिता ॥२२६४।।
मर्ग :-मार्यश्चण्डके मध्य में क्षेपा नामक नगरी है। यह अनादि-निधन है और उसम ___ रत्नोंसे अपित रमणीय है ॥२२१४।।
कणयमानो पायारो, समंसदो तीए होवि रमणियों। परिपालय - चारु, विविह - पवाया कलप्प - अवो' ॥२२६५॥
मर्ष :-इसके चारों पोर मार्गो एवं अट्टालयोंसे सुन्दर पौर विविध पताकापोंके समूहसे ___ संयुक्त रमणीय सुवर्णमय प्राकार है ।।२२६५।।
कमल • पण - मंडिगाए, संजसो मावियाहि बिडलाए । कुसुम - फल - सोहिदेहि, सोहिल्लं रविह • वहि ॥२२९६।।
मर्म:-यह प्राकार कमल-वनोंसे मण्डित विस्तृत बाईसे संयुक्त है और फूल तथा कलोंसे पोभित बहुत प्रकारके वनोंसे शोभायमान है ।।२२६६।।
सीए पमाण - गोयण, भबमस्ते वर - पुरीम विस्यारो । पारस - जोयण - मतं, दोहरी पक्खिणुतर विसासु ॥२२९७॥
अपं:-उस उत्तम पुरीका विस्तार प्रमाण योजनसे नौ योजन प्रमान और दक्षिण-उत्तर दिशामोंमें लम्बाई बारह योबन प्रमाण है ।।२२६७।।
१. ६.प.क.प. ग, उ. रमणिया। २......... ना।
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तिलोयपत्ती
एक्षक-विसा-भागे, बबसंडा विविह-कुसुम-फल-पुष्णा । सहि-द-ति-सम-फिर पुरी कर ४ि२२३
३६० ।
:--उस नगरी प्रत्येक दिशा-भागमें विविध प्रकार के फल-फूलोंसे परिपूर्ण मोर क्रीड़ा करते हुए उत्तम (स्त्री-पुरुषोंके ) युगलों सहित तीन सौ साठ (३६०) संख्या प्रमाण वनसमूह स्थित हैं ||२२९८ ||
६१४ ]
एक्क सहस्सं गोडर वाराणं चक्कवट्टि परीए ।
दर
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·
44
रयण गिम्मिदानं, खुल्लय बाराण पंत्र-सया ।। २२६९॥
M
-
१००० । १०० ।
अर्थ :- चक्रवर्तीको ( उस क्षेमा ) नगरीमें उत्कृष्ट रत्नोंसे निर्मित एक हजार ( १००० ) गोपुरद्वार और पाँचसो ( ५०० ) लघु द्वार है ||२२११॥
+
मेथा, वीहीओ पर पुरी रेहति ।
बारस सहस्त एक्क सहस्स पमाणा, चढ हड्डा सुहब संवारा ।।२३००।
-
·
-
[ माया : २२६८ - २३०२
फलिहवाल मरगय- चामोयर पउमराय वर तोरणेहि रम्मा, पासावा तस्य
-
१२००० ११०००1
:- उस उत्कृष्ट पुरोमें सुख पूर्वक गमन करने योग्य बारह हजार (१२०००) प्रमाण वोथियों और एक हजार ( १००० ) प्रमाण चतुष्पथ है ।।२३००।
O
·
अर्थ:-हूपर स्फटिक, प्रवाल, मरकत, सुवर्ण एवं पद्मरागादिसे निर्मित और उत्तम सोरोंसे रमणीय विस्तीर्ण प्रासाद है || २३०१ ॥
पहूमिमा । विरिणा ॥२३०१ ॥
पोखरनी बावीहि कमलुप्पल कुमुद-गंध-सुरही सा ।
संयुक्ता जयरी णं णवंत विवि षय
१. ब. ज. य. जुतीला . . उ. सोप।
-
माला ।।२३०२।
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गामा : २३०३-२३०४ ] उत्यो महाहियारो
। ६१५ अपं:- नृत्य करती हुई विचित्र ध्वजामोंके समूहसे युक्त वह नगरी निश्चय ही कमल, उत्पल और कुमुदोंकी गन्धसे सुगन्धित पुष्करिणियों तथा वापिकाओंसे परिपूर्ण है ।।२३०२१)
पंडगवण-जिग-मंदिर-मणिमा तीए होति जिग-भवणा।
सन्ह - बास - पहविस, उच्छणा ताम उबएसो ।।२३०३।।
म :-( जस नगरीके ) जिन-भवन पाण्डकवनके जिन-मन्दिरोंके सदश रमणीय हैं। उनके उसेष-विस्तार मादिका उपदेशा विभिनन्न हो गया है ।।२३.३॥
घर - पारी - णिवहेहि, वियागेहि विचित्त - स्वहि ।
पर - रयण - भूसणेहि, विबहेहि सोहिया गयरी ।।२३०४।।
पर्ष :--यह नगरी मदभुत सौन्दर्य सम्पन्न है और सप्तम रस्माभूषणोंसे भूषित अनेक __ प्रकार विचमण नर-नारियोंके समूहोंसे सुशोभित है ।।२३.४।।
[ चित्र पगले पृष्ट पर देखिए ]
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६१६ ]
on
सोच्द्ध खण्ड
विभिन्न की
पर्वत
11.
धनुष
सिन्धु
यो
कलेच्छ खण्ड
विदेह का कच्छा क्षेत्र
ল
गुरु
तिलोयपणती
पं
वृषद्म
गिरि
दिनपार्थ
८०१३
im.] आर्य खण्ड
ऐसा
नगरी
C/2
समा
HAY
aught
मार
कुछ
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+
ि
[ गाया २३०४
कलेच्झ खण्ड
महेन्द्र प्रयात गुफा
पर्वत
J
दग
स्लेच्ख खण्ड
They
Riey
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गापा : २३०५-२३१. ] पउत्यो महाहियारों
[ ६१७ क्षेमा नगरी स्थित चक्रवर्तीएयरोए वकवट्टी, तीए बे?वि बिबिह-गुस-सानी । प्राविम • सहलग - जुवो, समचाउरस्संग - संगणो' ॥२३०५।। कुंजर-कर-पोर-'भुवो, दर-सेए पर संग : *
वो बिब मागाए, सोहम्मेण च मयगो' व्य ।।२३०६॥ घगदो' विष पाजं, धीरेण मारो र सोहति ।
जलहो विव प्रक्लोमो, पुह-पुह-विकिरिय-सत्ति-जबो' ॥२३०७॥
मर्ग :-उस नगरीमें अनेक गुणोंकी निस्वरूप चक्रवर्ती निवास करता है । वह मादिके वर्षभनाराच-संहनन सहित, समचतुरस्रस्प शरीर-संस्पानसे संयुक्त, हापोंके शुण्डादण्ड सदृश स्यूल भुजाओंसे शोभित, सूर्य सहमा उस्कृष्ट तेजके विस्तारसे परिपूर्ण. आशामें इन्द्र तुल्य, सुभगता, मानों कामदेव, दाममें कुवेर सहम, धर्य गुरगमें सुभेपर्वतके समान, समुद्रके सवरा अक्षोभ्य और पृषक-पृथक विक्रियाशक्तिसे युक्त पोभित होता है ।।२३०५-२३०७॥
पंच-सय - खाव • गो, सो बक्की पुण्य-कोरि-संखाक ।
दस • हि - भोगेहि जुबो, सम्माही विसास - मई ।।२३०८।।
म:-बह पक्रवर्ती पाचसो धनुष ऊँचा, पूर्वकोटि प्रमाण प्रायुवाला, इस प्रकारके भोगोंसे युक्त, सम्यग्दृष्टि और विकास (उदार) बुद्धि सम्पन्न होता है ।।२३०८॥
तीर्थकरप्रजाखंडम्मि छिदा, तिस्थयरा पारिहेर - संजुत्ता । पंच • महाकल्लाणा, चोत्तीसानिमय - संपण्णा ॥२३०६॥ सपल-सुरासर-महिया, भागाविह - सालणेहि संपुण्णा । बल्कहर - गमिव - चलणा, तिलोक - माहा पसीचंतु ।।२३१०।।
१.व. ब... ज. प. उ. ठाणा । २.१.... प. उ. मुग। ३.ब.स.क. प. य... रहिपर..............संपुष्पा । ५. ६.ब.क.प. उ. मयएम क. मय । १.....क.प. य..पणा पिंप। . . . . . . जुगा।
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तिलोयपनाती
[ गाथा : २३११-२३१४ वर्ष :-आर्यखण्डमें स्थित, प्रातिहार्योसे संयुक्त, पाच महाकल्याणक सहित, चौंतीस अतिशयोंसे सम्पन्न, सम्पूर्ण सुरासुरोंसे पूनित, नाना प्रकारके अक्षणों से परिपूर्ण, पतियोंसे नमस्कट परणवाले पोर तीनों लोकोंके अधिपति तीर्थकर परमदेव प्रसन्न हो ॥२३०६-२३१०॥
गणपरदेव एवं चातुर्वण्य संघअमर-पर-णमिव-वलगा, भन्य-प्रणावणा पसब-मणा ।
प्रट्ठ - विह - रिडि - जुता, गणहरदेवा ठिरा तस्ति ॥२३११॥
भ -जिनके चरणों में देव भोर मनुष्य नमस्कार करते है तथा जो प्रष्यजनोंको आनन्ददायक हैं और पाठ प्रकारको ऋबियोंसे युक्त है, ऐसे प्रसन्नचित्त गणघरदेव उस प्रार्यखममें स्पित रहते हैं ।।२३११॥
et : - RATई gratis औाल अमगार-बलि-मुली'-वरबि-सरकवली तवा तस्ति ।
बेदि चाउम्वणो, तस्सि संघो गुण - गणतो ॥२३१२॥
प:--उस पायंबण्डमें बनगार, केदली, मुनि, परमविप्राप्त-कृषि और श्रुतकेयसी तथा गुणसमूहसे मुक्त चासुदेण्यं संघ स्थित रहता है ।।२३१२।।
बलदेव, मधंचक्रो एवं राजा प्रादिबलदेव - वासुदेवा, परिसन सत्य होति से सधे। मसोमण - ब • मच्छर • पट्ट - घोरयर - संगामा ॥२३१३।।
:-वहाँपर बलदेव, वासुदेव पौर प्रतिमन ( प्रतितासुदेव ) होते हैं। ये सब परस्पर बाँधे हुए मत्सरभावसे चोरलर संग्राममें प्रवृत्त रहते है ॥२३१३॥
रायाषिराम - बलहा, तत्प विराति से महाराया। पत्त - चमरेहि वृत्ता, प्रय' महा - सबल - मंगलिया ॥२३१४।।
। मन्जर-परूपमा समत्ता ।
...बक.अ.म.न. मुरिणवरा। २....क.. २. पढ़।
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[ ६१९
गाषा : २३१५-२३१६
पउत्पो महाहियारो प:-दहा श्रेष्ठ राजा, अधिराज, महाराज भोर सूत्र-चमरोंसे युक्त प्रर्षमण्डलीक, महामण्डलीक एवं सकलमण्डलोक विराजमान रहते है ।।२३१४।।
। पार्यखण्डको प्ररूपणा समाप्त हुई।
म्लेम्डखण्ड एवं उनमें रहने वाले जोव -
णामेण मल्छखंडा, प्रबसेसा हॉसि पंच खंग है। upts ... बिह: अमर प्रोग्रामियागुणा ते ॥२३१५।।
पर्ष :-पोष पांच बण्ड नामसे म्लेच्छपण्ड हैं । उनमें स्थित जोव मिभ्यागुणोंसे युक्त होते हैं और बहुत प्रकारके भाव-कलङ्कसे ( पाप-परिणामों ) सहित होते हैं ।।२३१५।।
गाहल - पुलिय • बहर-किराय-पडवीन सिंघलादो।
मेच्छारण कुलेहि जुवा, भणिवा हे मेखलंग ति ॥२३१६॥
मर्म :-ये म्लेच्छाकाण्ड नाहल, पुलिद, चर्बर, किरात तथा सिंहलादिक म्लेच्छोंके कुलोंसे युक्त कहे गए है ॥२३१६।।
वृषभगिरिपोलावल-वक्मिणयो, 'बामगिरिबस्स पुष्य - दिमागे । रत्ता • रत्तोबाण, मम्झम्मि म मेच्छर - बहुमा ।।२३१७॥ चाकहर-माण-मयको, जाणा-सस्कोरण नाम - संचयो ।
अस्पि बसह ति सेलो, भरहनिवि • पसह-सारिन्यो ।।२३१८।।
म:-नीलाचलके दक्षिण भौर वक्षार पर्वतके पूर्व-दिग्भागमें रक्ता-रक्तोदाके मध्य सम्लेच्छावण्डके बहुमध्यभागमें चक्रधरोंके मानका मर्दन करनेवासा और नाना पक्रवतियों के नामोंसे व्याप्त भरतक्षेत्र सम्बन्धी वृषभगिरिके सदृश वृषभ नामक पर्वत है ।।२३१७-२३१८॥
शेष मंत्रोंका संक्षिप्त वर्णनएवं कच्छा • विजमो, बास-समासेहि पन्नियो एस्म । सेता विजयानं पलयमेवंविहं बाप ॥२३५९॥
१.प. ब, क, ज. प. ४. प्रागिरिदस्त । २.६... क. प. उ. लिया।
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६२० ]
तिलोयपम्णतो . [ पापा : २३२०-२३२५ प:- इसप्रकार यहां संक्षेपमें कम्छादेशके निस्तारादिका वर्णन किया गया है । शेष क्षेत्रोंका वर्णन मो इसीप्रकार जानना चाहिए ।।२३१६॥
मरि विसेसो एक्को, ताणं रणयरीण अच्च - जामा य । खेमपुरी रिद्वक्ला, रिठ्ठपुरो सग • मंजसा वोण्णि ॥२३२०॥ ओसहणयरी तह पुण्डरोकिको एवमेत्य सामाणि ।
ससाणं पयरोणं, सुकच्छ - पमहाग विनमाणं ॥२३२१॥
प: पहाँ एक विशेषता यह है कि उन क्षेत्रोंकी नगरियोंके नाम भिन्न है-क्षेमपुरी, रिष्टा, परिष्टपुरी, खड्गा, मञ्जूषा, मौषधनगरी पौर पुण्डरीकिशो, इसप्रकार ये यहाँ सुकच्या आदि सात देशोंको सात नगरियो के नाम हैं ।। २३२१३२ ३३१MARE जी का
अट्ठाण एक्क - समो, बच्छ - पमुहाग होवि विजयाणं ।
वरि बिसेसो सरिया • गयरोग अन्ग - नामाणि ।।२३२२॥
अपं:-बस्सा आदि पाठ देशों में समानता है । परन्तु विशेष यही है कि यहाँ नदियों मोर नगरियोंके नाम भिन्न है ॥२३२२॥
गंगा-सिन्धू-गामा, परि - बिजयं पाहिणीए चिटुति ।
भरहोस - पगिद - गंगा - सिहि सरिसाओ ।।२३२३॥
पर्ग :-यह! प्रत्येक क्षेत्रमें भरतक्षेत्रमें फहो गई गंगा-सिन्धुके सदृश गंगा और सिन्धु नामरू नदिया स्थित हैं 11२३२३।।
रपयरीमो मुलीम - ग्लानो प्रवराजिदा • पहकरया ।
मंका परमवीया, ताग सभा रयणसंचया रुमसो ॥२३२४॥
मर्य:-सुसीमा, कुण्डला, अपराजिता, प्रभंकरा, का, पद्मावती, शुभा मौर रलसंचया ये क्रमश: उन देशोंकी नरियों के नाम है ॥२३२४॥
अपर ( पश्विम ) विदेहका संक्षिप्त वर्णनपुग्ध - विवेहं ३ कमो, अवर - विवेहे बि एस 'बम्वो।
गरि विसेसो एक्को, गयरोग अण्ण - गामाणि ॥२३२५॥ -.. - -.-- -- १ . क.बप. ३. दामो।
.
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गाथा : २३२६-२३३१ } चउत्यो महाहियारो
[ ६२१ मर्थ :-पूर्व विदेहके सदृश हो अपर-विदेहमें भी ऐसा ही क्रम जानना चाहिए। एक विशेषता यह है कि यहाँ भी नगरियों के नाम भिन्न है ।।२३२५।।
अस्सपुरी सिंहपुरी, महापुरी सह य होदि विजयपुरी ।
परजा 'विरजासोकाउ, योवसोत त्ति पाउम - पहुदी ।।२३२६॥
पर्ष :-अश्वपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका और वीतत्तोका, इसप्रकार ये पप्रादिक देशोंकी प्रधान नगरियों के नाम हैं ॥२३२६।।
विजया ५ वाजयंता, पुरी जयंतावराजिताओ कि । चक्कपुरी सागपुरी, अउम्झणामा 'अवम्झ चि ॥२३२७।। कमसो पापायीगं, विजयाणं अउ - पुरोग णामागि।
एक्कत्तीस - पुरीनं, खेमा - सरिसा पसंसाओ ॥२३२८॥
प्रथ:-विजया, वैजयन्ता, जयन्ता, अपराजिता, पऋपुरी, खड़गपुरी, अयोध्या और अवध्या, इसप्रकार येक्रमवाः वनादिकाप्री । देशीको आठ नगरियोके नाम है। उक्त इकतीस नगरियोंकी प्रशंसा ओमापुरीके सदृश हो जाननी चाहिए ।।२३२७-२३२८।।
इगिगि'-विजय-मझात्य दोहा-विजय - गवस कूडेस। वरिखण - पव्वं विदियो, णिय-णिय-विजयक्तमुवाहा ॥२३२६।। उरार-पृथ्वं तुचरिम • कूडो तं घेय परइ सेसा य ।
सग - कूल गार्मोह, हवंति कच्चम्मि भणियहि ।।२३३०।।
प:-प्रत्येक देशके मध्य में स्थित लम्बे विजया पर्वतके ऊपर जो नो नो कूट हैं, उनमें से दक्षिण-पूर्वका द्वितीय कूट अपने-अपने देशके नामको और उत्तर-पूर्वका द्विपरम कुट भी उसी देशके नामको धारण करता है। शेष सात कूट कच्छादेशमें कहे गये नामोंसे युक्त हैं ॥२३२६-२३३०।।
रत्ता - रत्तोदाओ, सीवा • सोदोक्याण यक्षिणए । भार्ग तह उत्तरए, गंगा - सिंधू ३ के वि भासंति ।।२३३१॥
पाठान्तरम् ।
१... 5 . प. उ. विरजासोकोट । २.८.ब.क.ज.प. . प.म। ........ पक्षि। ४. इ. स. इगिविजयमम्झरय दोहा ।
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तिलोमपी
[ गाया : २३३२-२३३६
:--कितने ही प्राचार्य सीता-सौतोवाके दक्षिण भागमें रक्ता-रक्तोदा घोर उम्रीप्रकार उत्तर- भाग में गंगा-सिन्धु-नदियों का भी निरूपण करते हैं ।। २३३१ ।।
६२२ ]
पक्कं पुव्यावर सीवोदाणं तु तबे
सोवा
-
सोता सीतोदके किनारोंपर तीर्थस्थान
धर्वाः सन्जाओ
4
विदेह दिवस अखंडन्मि ।
चेटू 'ति सिणि लिष्णि य, पण मिथला तियंस- विहेहि ।
-
जिंगिए पडिमा ॥ २३३२ ॥
-
हालाजि : मिलिवाओ ।।२३३३॥
·
पाठान्तर ।
:- पूर्वापर विदेहक्षेत्रोंमेंसे प्रत्येक क्षेत्रके प्रायं
सीता सीतोदके दोनों किनारों पर देवोंके समूह द्वारा नमस्करणीय चरणोंवाली तीन-तीन जिनेन्द्र- प्रतिमाएँ स्थित हैं। ये सर्व तीर्थस्थान मिलकर किया है ।।२३३२-२३३३ ।।
सोलह पक्षार पर्वतका वर्णन
वक्तारगिरी सोलस, सोबा सोबोबयान सीरे | पण-सय-खोयण बया, कुलगिरि पासेसु एक्क-सम-हीमा ११२३३४।।
५०० | ४०० ।
अर्थ :- सोलह वक्षारपर्यंत सीता-प्रीतोदा के किनारोंपर पौचसो ( ५०० ) योजन और कुलाचलोंके पार्श्वभागों में एकसौ योजन कम अर्थात् चार सौ ( ४०० ) योजन है ।। २३३४ ॥
वक्लारागं दो पासेस होंति दिव्य वनसंज्ञा । पुह पुह गिरि-सम-बीहा, जोयण दलमे
-
·
विस्थारा ॥ २३३५ ॥
धर्म :- बक्षार-पर्वतोंके दोनों पार्श्व भागों में पृथक् पृथक् पर्वत समान सम्बे और अर्ध योजन प्रमाण विस्तार वाले दिव्य वनखण्ड हैं ।। २३३५ ।।
सव्वे वक्तारगिरी, तुरंग संघेण होति सारिच्छा ।
उवरिम्मि ताम कूडा पारि हर्बति पक्कं ॥ २३३६ ॥
अर्थ :- सब वक्षार पर्वत घोड़े के स्कन्ध सह प्राकारके होते हैं। इनमें से प्रत्येक पर्वतपर चार फूट है ।।२३३६ ॥
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गामा : २३३५-२३३८ ] उत्यो महाहियारो
[ ६२३ सियो' पखाबढायोगद - विजय - जाम - कूग य ।
ते सव्वे रयनमया, पम्बय - उमाग - उच्छदा' ॥२॥३॥
प:-इन से प्रथम सिद्धकट, दुसरा यक्षारके सदृश नामवाला और शेष दो कट वक्षारों के उपरिम प्रौर मघस्तन क्षेत्रों के नामोंसे युक्त हैं । वे सब रस्लमय कूट अपने पर्वतकी ऊँचाईके चतुर्षभाग प्रमाण ऊरे हैं ॥२३॥
सौदा-सीदोवाणं, पासे एसको जिणिव • भषण - जुबो ।
सेता य तिणि कूग, चतर • गपरेहि रमणिना ॥२३३८।।
अर्थ:-सीता-सोतोकानागमें एक मिनभवन युक्त है और शेष तीन कूट ध्यंतर-नगरोंसे रमणीय है ।।२३३८।।
विरोधा:-वक्षार पर्वत १६ हैं और प्रत्येक वक्षार पर बार-चार कूट है। इनमेंसे सीता-सीतोदा महानदियों की ओर स्थित प्रथम कूटोंपर जिनमन्दिर हैं और मेष तोन-तीन फूटोंपर प्यन्तर बों के नगर है। इन ६४ फूटोके नाम इस प्रकार है
[ तालिका : ४३ अगले पृष्ठ पर देखिए )
........... शिवा महारगोश्वरिषभो एग बाम
ग। ....ब.क. प. य.
सीहो।
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तामिका:४३
क्षार
कुटोके नाम
| प्रसार
पूटोके नाम पर
टोक नाम
वक्षार
कुटों के नाम
१. मिडकर २. सिट
१. मिड २. पिर ३. बस्या 1. सुबस्था
पदाचा
२. बद्धावान
११. पारि
१. सिस २. बग्दगिरि ३.पत्रा ४. सुमना
४. सुप्पा
बढावान्
२. नलिनपिरि
१. सि २, ममिन
महाकमा ४. कनकायसी
१. सिव १. सिन
१. सिड २. बेघबरा २.बिजटामा
२ मुगिरि यमवर्शक महामाची सुविर आ. क्षारा महावा .सकावतो . पकायती
४. प्रकापसी
सूर्यगिरि
तालोयपाएर ती
१.विड
१. सिब २. पात्रोविच
१. खिडकूट २. पण 1. बाबा ४, मांगला
२ मानगिरि
1. रम्या ४. सुरम्या
| ११.मामीरित
३. मंबा
| t..भावविरि
.. ननिमा
४. सुमन्य।
१. सिख २. एकचौन
४ एकवास
८. पास्मान
१. सिड २.बामांचन 1. रमानीया ४. ममलबती
१६.देवमान
२. देवमास
१. गन्धिसा ४. गन्धमालिनी
गाय : २:३८
४. पुजाहामो
४. परिदकर
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गावा : २३३६-२३४४ ] पढत्यो महाहियारो
[ ६२५ बारह दिसा-नदियों का वर्णनाव EART ATTE रोहोए सम बारस-विभंग-सरियामओ वास - पादोहिं । परिवार - गईमो तह, दोसु बिबेहेस पत्तेकं ॥२३३६।।
२८०००। अम:-दोनों विदेहोंमें रोहित के सदृश विस्तारादिवासी बारह विभंग-नदिया है । इनमेंसे प्रत्येक नदीको परिवार नदियां रोहितके ही सदृश अट्ठाईस हजार ( २००० ) प्रमाण हैं ॥२३३६॥
कंबण-सोवाणाओ, सुगंध-बह-विमल-सलिल भरिदामो । उववरण - वेदी - तोरण - जराम्रो गवंत - उम्मीओ ॥२३४०।। तोरण-वारा उरिम-ठाण-द्विव-जिग-गिकद-गिविवायो।
सोहंति गिरुवमागा, सपलामो विभंग - सरियामओ ॥२४॥
पर्ष:-( सम्पूर्ण विभंग नदियां ) सुवर्णमय सोपानों महित, सुगन्धित निर्मल जलसे परिपूर्ण, उपवन, वेदी एवं तोरणोंसे संयुक्त, नृत्य करती हुई सहरों सहित, तोरण द्वारोंके उपरिम प्रदेशमें स्थित जिनभवोंसे युक्त भौर उपमासे रहित होतो हुई शोभायमान होती हैं ॥२३४०-२३४१॥
देवारण्य-वनका निरूपणसौताए उत्तरदो, दोमोववरणल्स वेहि - परिछमदो । जोलाबल • वस्तिनदो, पुष्यते पोक्तालावी - विसए ॥२३४२।। बेदुम देवार, गागा • तए - संग • मंदिवं रम् । पोखरणी • बाबीहि कमसुम्पल - परिमलिल्लाहि ।।२३४३॥
अर्थ:-सीसानदीके उत्तर, द्वोपोपवन सम्बन्धी वेदोके पश्विम, नीलपर्वतके दक्षिण और पुष्कलावती देवाके पूर्वान्तमें नाना वृक्षों के समूहोंसे मण्ठित तथा कमलों एवं उत्पलोंकी मुगन्धसे संयुक्त ऐसौ पुष्करिणी पौर वापिकामोंसे रमणीक देवारण्य नामक वन स्थित है ॥२३४२-२३४३।।
तस्सि देबारणे, पासावा कणय - रयण - रसवमया । बेहो - तोरण - षय - वड - पहुदोहि मंदिरा बिउला ॥२३ ॥
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६२६ ]
तिलोपपाती
[ गाया २३४५ - २३४९
प्र : उस देवारण्य में सुवर्ण रत्न एवं छाँदीसे निर्मित तथा वेदी, तोरण और ध्वजपटादिकोंसे मण्डित विसाल प्रासाद हैं ।। २३४४॥ ग्राधिक
उपपत्ति मंदिरा', अहिंसेमपुरा य मेहूण' गिहाई
कोडा - सासाओ सभा सालाओ जिस रिकेषु ।। २३४५ ।।
-
हैं ||२३४८||
अर्थ :- इन प्रासादों में उत्पत्ति, अभिषेकपुर, मैयुनग्रह, कौटन-शासा, समाशाला और जिन भवन स्थित हैं ।।२३४५ ।।
.
-
avard signoreER
च
विदिसासु नेहा, ईसारिएबस्स अंग खाणं । विष्यंत श्यण दोवा, बहुविह-घुम्यंत भय
-
·
-
-
अर्थ :- चारों विदिशाओं में ईशानेन्द्र के अंगरक्षक देवोंके प्रदीप्त रत्नदीपकों वाले और बहुत प्रकारको फहराती हुई ध्वजाओं के समूहोंसे सुशोभित गृह हैं ।। २३४६ ।।
विखण-विसा-विभागे, तिप्परिमाणं पुराणि विबिहारिंग ताणमणीयाणं * पासादा परिम
बिसाए ।।२३४७ ।। :-दक्षिण दिशा-भागमें तीनों पारिषददेवोंके विविध भवन और पश्चिम दिशामें सात अनीक देवोंके प्रासाद है ।।२३४७ ।।
-
एवं सब्वे देवा, तेसु कोति बहु रम्मेसु मंदिरेसु ईसाजिदस्स
किब्बिस अभियोगाचं, सम्मोह-सुराण तत्भ विभागे ।
कंजप्पा
अर्थ :--उसी दिशा में किल्विष, अभियोग्य, संमोहसुर और कन्दर्य देवोंके प्रभुत भवन
·
१.ज. प. उदा
च. पुरा विविहाणं । ४. व. म. रु. ज. य उ सत्ता माय
माला ||२३४६ ॥
सुरागं होंसि विवित्तानि भवरलाल ।।२३४६ ।।
बोदेहि |
परिवारा || २३४६ ॥
ए:
- ईसानेन्द्र के परिवार स्वरूप ये सब देव उन रमणीक भवनोंमें बहुत प्रकारके विनोदोंसे कीड़ा करते हैं ।। २३४९ ।।
२... जय. उ. मिमिक. म. प.
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गाया : २३५०-२३५४ ] उत्थो महाहियारो
[ ६२७ सौरान दक्खिन-सडे, दोवोवणस्त बेदि - पश्चिमयो । गिसहाचाल - उत्तरवो, पुवाय दिसाए बच्चस्स ॥२३५०।। देवारणं अण्णं, चेदि पुवस्स सरिस - बन्न ।
गरि बिसेसो वेवा, सोहम्मदस्स परिवारा ।।२३५१।।
म:- द्वीपोपवन-सम्बन्धी वेदोके पश्चिम, निषधाचलके उत्तर प्रौर वत्सादेवाकी पूर्वदिशामें सीता नदीके दक्षिण तटपर पूर्वोक्त देवारण्यके सदृश वर्णनवाला दूसरा देवारण्य भी स्थित है। विशेष केवल इतना है कि इस वनमें सौधर्म-इन्द्र के परिवार देव कोग करते है ।।२३५०-२६५।
भूतानमा शानिरूपणE F RAATE सोदोदा - दु - तडेसु, बोवोववणस्स वेदि • पुल्याए । भोल - णिसहहि-माझे, प्रवर-विवेहस्स अपर-विम्माए ।।२३५२।। बहु - तक - रमणीयाई, भूदारणा बोनि सोहति । देवारमण - समाणं, सब चिय बज्यणं ताएं ॥२३५।।
। एवं विवेह-विजय-अण्णणा समचा । वर्ग:-कीपोपवन-सम्बन्धी वेदोके पूर्व मोर अपर-विदेहके पश्चिम दिग्भागमें नील-निषषपर्वतके मध्य सोतोदाके दोनों तटोंपर बहुतसे वृक्षोंसे रमणीय भूतारण्य-नामक दो वन शोभित है। इनका समस्त वर्णन देवारण्योंके ही सदृश है ।।२३५२-२३५३।।
। इसप्रकार विदेह क्षेत्रका कषन समाप्त हुआ ।
नीलगिरिका वर्णननोलगिरो सिहो पिब, उत्तर • पासम्मि दो-बिहागं । णबरि बिसेसो' अण्णे, कूडाणं देव-वेषि-दानामा ।।२३५४॥
प :-दोनों विदेहोंके उत्तर पाश्चमागमें निषधके ही सहश नीसगिरी भी स्थित है। विशेष इसना है कि इस पर्वतपर स्थित फूटों, देव-देवियों और होंके नाम जन्य हो है ॥२३५४॥ -- . -- - - . .. -- - -.-.. --
१.ब.प. विदेशो एसो प्राणे ।
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६२६ }
कर्मांक :- अभिसार २३५५-२३६०
नीलगिरि स्थित कूटोंका वर्णन
सिद्धक्लो नीलक्खो, पुष्ष विदेहो सिसोद-वित्तोश्रो ।
णारी प्रवर- विदेहो, रम्मक सामाववंसनो कूडो || २३५५ ।।
प्र:- सिद्धाख्य, नौलाख्य, पूर्व विदेह सोता, कीर्ति, नारी, पर- विदेह, रम्यक और पदर्शन, इसप्रकार इस पर्वतपर ये तो कूट स्थित हैं ।। २३५४ ।।
एस पढम कूडे जिंभिद भवनं विचित्त- रयणमयं ।
उच्छेह - पहुवीहि सोमणसि जिरणालय प्रमाणं ।।२३५६||
-
सेसेसु कूडे जयसु
-
-
:
- इनमें से प्रथम कूटपर सोमनसस्थ जिनालय के प्रमाण सहण ऊंचाई आदि वाले रत्नमय अद्भुत जिनेन्द्र भवन स्थित हैं ।। २३५६।।
तर विचित
"
पासावा,
-
-
-
4
-
अर्थ :- शेष कूटोंगर व्यन्तर- देवोंकी नगरिया हैं और उन नगरियोंमें विधिक रूपवाले अनुपम प्रासाद हैं ।। २३५७ ।।
देवाण होंति गयरीओ |
तर देवा सध्ये णिय नि कुडाभिधान-संजुता ।
·
+
बहु परिवारा बस छष्णु तुंगा पहल
हवा जित्वमाणा ।।२३५७।।
-
-
माणा ।।२३५८ ॥
अर्थ :- सब व्यन्तरदेव अपने-अपने कूटोंके नाम वाले हैं, बहुत परिवारों सहित है, दस धनुष ऊँचे हैं और एक पत्त्य प्रमाण भायुकाले हैं ।।२३५८ ||
कीतिदेवीका वर्णन
उरिम्मि गोल- गिरिलो, केसरिणामे वहम्मि विव्वम्मि ।
दि कमल - भवणे, देवी किति हि दिखावा ।।२३५६ ।।
:- नीलगिरिपर स्थित केसरी नामक दिव्य के मध्य में रहनेवाले कमल - भवनपर की ति नामसे विस्पात देवी स्थित है ।। २३५६।
विवि देवीय समाथो, तोए सोहेब सब्द परिवारो । दस चावाणि तुंगा, णिश्वम
लावण्य
-
संपुष्ना ११२३६०॥
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गाया : २३६१-२३६५ ] Tad चउत्यो अहिरो FARMEET * SATER [ ६२६
अपं:-उस देवीका सब परिवार पतिदेवीके सदृश ही शोभित है। यह देवी दस धनुष __ केवी और पनुपम सावण्यसे परिपूर्ण है ।।२३६०।।
आविम-संठाग-गुवा, पर-रयण-विमूसणेहि विधिहहि । सोहिंद - सुपर • मुत्तो', सागिबस्स सा देवी ॥२३६१॥
। गोलगिरि-चम्गणा समता । मपं:-मादिम अर्थात् समचतुरम संस्थानवाली, विविध प्रकारके उत्तम रत्नोंके मृषणोंसे मुशोभित सौम्य-भूति वह ( कोतिदेवी ) ईशानेन्द्रकी देवी है ।।२३११॥
। इमप्रकार नीलगिरिका वर्णन समाप्त हुआ ।
रम्यक क्षेत्रका वर्णनरम्मक-विजओ' रम्मो, हरि-वरिसो 'वर-वाणा-कुत्तो।
एपरि विसेसो एक्को, णाभि - जगे अण्ण - सामाणि ।।२३६२॥
wr:-रमणीय रम्यक-विजय (क्षेत्र) भी हरिवर्ष क्षेत्र के सदृश उत्तम वर्गनासे युक्त है। विशेषता केवल यही है कि यहाँ नाभिपर्वतका नाम दूसरा है । २३१२॥
रम्मक-भोग-खिदोए, बहु - माझे होवि पउम - गरमेण ।
पाभिगिरी रमणिकशो, णिय • रणाम • जहि वेवेहि ॥२३६३॥
प्रर्ष :-रम्यफ भोगभूमिके वहु-मध्यभाममें पपने नामवाले देयोंसे युक्त रमणीय पर नामक नाभिगिरि स्थित है ॥२३६३।।
केसरि - वहस्स उत्तर - तोरण-दारेण णिवा विष्वा । परकंसा णाम पदी, सा गछिय उचर • मुहेण ॥२३६४।। परकंत-कु-मजो, जिवडिय हिस्सरवि उत्तर-बिसाए। सत्तो णाभि - गिरि, फादूण पदाहिन मि पुष ६ ॥२३६५॥ ..
... १. प. प. मूही, ब. क. प. उ. मूही। २. प. विजट्ठी, क. ज. स. विजयी, क. विरो। ई ... क... वि। . द. म. म. शिवलिन ।
....
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पा
ग
.
१३० ]
तिलोयपण्णत्तो
[ गापा : २३६६-२३७० गंतूणं सा मझ, रम्मक - विमएस्स पच्छिम - मुहेण ।
संमत्ता ।।२३६६॥ । रम्मक-विजयस्स पावणा समत्ता । प्रय:-केसरी द्रहके उत्तर तोरणदारसे निकली हुई दिव्य नरकान्ता नामक प्रसिद्ध नदी उत्तरको ओर गमन करती हुई नरकान्त-कुडमें गिरकर उत्तरकी ओरसे निकलती है। एमात् वह नदी पहले ही सदृश नाभिपर्वतको प्रदक्षिणा करके रम्यक संत्रके मध्यस जाती हुई पहिधम मुख होकर परिवार-नदियों के साथ लवरण समुद्र में प्रवेश करतो है ॥२३६४-२३६६॥
। रम्पकक्षेत्रका वर्णन समाप्त हुमा ।
रुक्मिगिरिका वर्णनरम्मक • भोगविदोए, उत्तर-भागम्मि होवि रुम्मिगिरी ।
महहिमवंत • सरिन्छ, सपलं विष मणं तस्स ।।२३६७।।
अपं:-रम्यक-मोगभूमिके उत्तरभागमें सक्मि-पर्वत है। उसका सम्पूर्ण-वर्णन महाहिमवानके सहषा समझना चाहिए ।।२३६७।।।
पवार य ताणं' फूड-बह-सुर-देवीण अण्ण - जामाणि । सिद्धो सम्मी - रम्पक • भरता - बुद्धि - इप्पो पि ॥२३६८।। हेरमवयो मनिकंचण : कूगे' एम्मियाग तहा ।
बाण इमा गामा, तेलु जिण मंदिरं पढम - कूरे ॥२३६९॥ सेसेस कूस, चतर - येवाण होति जयरीमो ।
दिक्खादा ते देवा, लिय - णिय • कूगण जोह ।।२३७०॥
मई:--विशेष इतना है कि यहां उन कूट, ब्रह, देव और देवियों के नाम भिन्न है । सिड, हमिम, रम्पक, नरकान्ता, बुद्धि, रूप्याला, हैरण्यवत और मणिकाञ्चन, ये परिमपर्वतपर स्थित उन पाठ कटोंके नाम है। इनमेंसे प्रथम कूटपर जिन-मन्दिर ओर शेष मूटोंपर व्यन्तरदेवोंको नगरिया है। वे देव अपने-अपने कुटोंके नामोसे विख्यात है ॥२३६८-२३७०।
...
क. ज २. उ. रणाम । २. प. प. क. ज. य. वा. अशा प्पिया तहा बन्न ।
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___ गाथा : २३७१-२३७६ ] चउत्यो महाहियारो
रुम्मि - गिरिवस्सोवरि, बहुमको होरि पुरोप-बहो ।
फुल्लंत - कमल - परो, तिगिछ - हास्स परिमाणो ॥२३७१।।
मर्म :-रुक्मि-पर्वतपर बहु-मध्यभागमें फूले हुए प्रचुर कमलों से युक्त तिगिञ्छके सदृश्य प्रमाणवाला पुण्हरोक दह है ।।२३७१।।
तहह - कमल - पिकरे, वेदी निवसरि सुद्धि • गामेणं । तीए हवेदि प्रद्धो, परिवारो कित्ति • देवीवो ॥२३७२॥
प:-उस द्रह-सम्बन्धी कमल-भवनमें बुद्धि नामक देवो निवास करती है। इसका परिवार कौतिदेवीको अपेक्षा प्राधा है ।।२३७२।।
गिदवम-लावण्ण-तणू, वर-रयणविमूसणेहि रमणिज्जा ।
विविह - विणोदा - कीदि, ईसाणिवस सा वेगी ॥२३७३॥
मर्ष :- अनुपम लावण्यमय भरोरसे संयुक्त मोर उत्तम रत्नोंके भूषणोंसे रमणीक ईथानेन्द्रकी वह देवी विविध विनोद पूर्वक क्रीड़ा करती है ।।२३७३।।
सदह - दक्षिण - तोरण - बारेणं णिग्गवा नई गारी । सारी · नामे है, जिववि गंसूण 'पोष - मही ।।२३७४।। तहस्लिरण - बारेणं, णिस्तरिणं च दक्षिण मुही सा । तत्तो नाभिगिरिद, कादूण पाहिलं हरिगई प ॥२३७५।। रम्मक-भोगक्षिबीए, बहु - मरझणं पयागि पुष्प - मुही । पविसरि लवण • असाह, परिवार • तरंगिणीह जया ॥२३७६३॥
। रुम्मिगिरि-वारसा समता । पर्य :-उस दहके दक्षिण-तोरणद्वारसे निकली हुई नारी नदी अल्प-विस्तार होकर नारी. नामक कुण्डमें गिरती है । पश्चात् वह (कुण्डके ) दक्षिण-द्वारसे निकलकर दक्षिणमुख होती हुई
१. ६. ब. क. ज. य. र. मोगमुहो।
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६३२
तिलोय पण्णी
[ गाथा २३७७-२३८१
हरित् नदीके सदृश हो नाभिगिरिको प्रदक्षिणा करके रम्यक- भोगभूमिके बहुमध्यभागमेंसे पूर्व की ओर जाती हुई परिवार नदियोंसे युक्त होकर लवणसमुदमें प्रवेश करती है ।। २३७४-२३७६।। ॥ रुक्मिपर्वतका वर्णन समाप्त हुआ ।।
हैरण्यवत क्षेत्रका निरूपण -
जिओ हेरन्गवदो, हेमवदो व प्पवण्णा जुहो' 1 वरि एक्को, परी
प्र:- हैरण्यवत क्षेत्र हैमवतक्षेत्र के सदृश वर्णनसे युक्त है। एक विशेषता केवल यही है कि यहाँ नामिगिरि और नदियोंके नाम भिन्न हैं ।।२३७७१।
होदि संतो
तरस बहू - मज्झ भागे, विजय तस्सोबरिम पिके, पभास चामो ठिवो देवो ॥२३७८ ॥
·
-
अर्थ :- उस क्षेत्रके बहुमध्य भागमें गन्धवान् नामक विजयार्थ ( नाभिगिरि ) है । उसपर स्थित भवनमें प्रभास नामक देव रहता है ।। २३७८ ।।
पुंडरिव वहतो, उत्तर हारेण रुम्पकूल - नई
निस्सरिपूर्ण
-
-
-
-
-
तस्सुत्तर दारेगं णिस्सरिपूर्ण च उत्तर जाभिगिरि काढूणं, पदाहिणं रोहि
11239011
-
निवडब, कुडे सर रूप्पलम् ॥ २३७६ ॥
·
पच्छिम मुहेग गच्छिय, परिवार तरंगिणीहि संवृत्ता ।
वीद जयदी बिलेणं, पवितदि कल्लोलिनी
मुही सा ।
सरिय व्व ॥ २३८० ।।
नाहं ॥। २३८१॥
। हेरण्णवद-विजय वमना समचा ।
वर्ष :- रूप्यकूलानदी पुण्डरोक दहके उत्तर-द्वारसे निकलकर रूप्यकूल नामक कुण्हमें गिरती है । तत्पश्चात् वह नदी उस कुण्डके उत्तर-द्वारसे निकलकर उत्तरकी ओर गमन करती हुई
...क.म.प.उ. दुसा २, द बेभीए ब. क. प. देवभीए । उ. कस्मोhिf ग्राम ।
३. . . . व. य.
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गाषा : २३८२-२३८६ ] पस्थो महाहियारो होहित नदीके सदृण नामिगिरिको प्रदक्षिणा करके पश्चिमको और जाती है। पुनः परिवार नदियोंसे संयुक्त होकर वह नदी जम्बूद्वीपको जागतीके बिलमें होकर लवणसमुद्र में प्रवेश करती है॥२३७१-२३८१।।
। हरण्यवतक्षेत्रका वर्णन समाप्त तथा ।
शिखरोगिरिका निरूपणतग्विज-उत्तर-भागे, सिहरी - गामेण चरम - कुलसेलो। हिमवतस्स सरिज्छ, समलं चिय बनर्ग तस्स ॥२३०२॥
:- इस क्षेत्रके उत्तर भागमें शिखरी-नामक अन्तिम कुल-पर्वत स्थित है। इस पर्वतका सम्पूर्ण वर्षन हिमवान् पर्वतके सहण है ॥२३८२।।
सरि बिसेसो फूडहाण' वाण देखिल सरियाषATE : अन्नाई पामाई तत्ति सिमो पढम - फूडो ॥२३८३॥ सिहरो हेरण्पवयो, रसदेवी - रत्त • लच्छि-कंधगया । रत्तवदो गंषवदी, रेवव · मणिकंच कूळ ॥२३५४॥ एपकारस - काणं, पाह मुह पणुवीस मोयथा उबयो । तेसु पढमे करें, जिणित - भवण परम • रम्मं ॥२३८५।। सेसेस करेस, गिय - णिय - कुरान गाम - संजुत्ता ।
बेतर • देवा मणिमय • पासावखु विराति ॥२३८।।
म :-विशेष यह है कि यहां कूट, द्रह, देव, देयो और नदियोंक नाम भिन्न हैं । उस (शिखरी) पर्वतपर प्रथम सिद्ध कूट, शिखरो, हैरप्पवत, रसदेवी, रक्ता, लक्ष्मी, कामन, रक्तवती. गन्धवती, रेवत ( ऐरावत ) पौर मरिणकाश्मनकूट, इसप्रकार रे ग्यारह कूट स्थित हैं। इन ग्यारह कूटोंकी ऊंचाई पृथक्-पृषक पच्चोस योजन प्रमाण है । इनमेंसे प्रथम कूटपर परम-रमणीय जिनेन्द्रभवन और पोष कूटोंपर स्थित मणिमय प्रासादोंमें अपने-अपने कूटोंके नामोंसे संयुक्त व्यन्तर देव विराजमान है ॥२३५३-२३८६।।
१. प. प. क. न. कहामि, व. म. काहादि । २. य. ब. क. य... करो।
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पामा
६३४ ]
तिलोमपणासी
[ गाथा । २३८७-२३९२ दर्शक :: NAMRATARRA-सहरम्मि।
पउमद्दह • सारिन्छो, बेवो - पहहिं कय - सोहो ॥२३८७॥
मर्म :-इस शिखरी शेलके शिखरपर पपके सहश वेदो आदिसे शोभायमान महापुण्डरीक नामक दिव्य द्रह है ।।२३८७।।
तस्स 'सयवस-भवणे, ललिप - णामेण शिवसने देखी।
सिरियेवीए सरिसा, ईसाणिवस्स सा यी ॥२३८॥
म :-उस तालाब के कमल-भवन में श्रीदेवीके सदृश जो लक्ष्मी नामक देवी निवास करती है, वह ईशानेन्द्रकी देवो है ।।२३८८1।
तहह-पिसण-तोरग-दारेण सुषणफूल - गाम - गवी । णिस्तरिय बक्षिण-मुही, गिषडेवि सुवणकूल-कैडम्मि ।।२३८६॥ तद्दग्लिम - दारेणं, पिस्सरिवून प दक्षिण-मुही सा। पाभिरि कादण', पराहिण रोहि • सरिय च ।।२३६०।। हेरण्णवदरभंतर • भागे गन्छिय हिसारण पुवाए। बोय - जगदी - बिले, पबिसेंदि तरंगिणी • रवाहं ॥२३६॥
। एवं सिहरिगिरि-वष्णणा समता' । ए' :-उस द्रहके दक्षिण-तोरणद्वारसे निकलकर मुवर्णकूला नामक नदी दक्षिणमुखी होकर सुवर्णकूल-कुण्डमें गिरती है । तत्पश्चात् उस कुण्डके दक्षिण-दारसे निकलकर वह नदी दक्षिणमुखी होकर रोहित नदीके सदृश नाभिगिरिको प्रदक्षिणा करती हुई हरण्यक्तक्षेत्रके सम्पन्तर भागमेंसे पूर्व दिशाकी ओर जाकर जम्बूद्वीप - सम्बन्धी जगतीके बिलमेंसे समुनमें प्रवेश करती है ॥२३८६-२३६१॥
। इसप्रकार शिखरीपर्वतका वर्णन समाप्त हुआ ।
ऐरावतक्षेत्रका निरूपणसिहरिस्सचर - भागे, अंबूदीवस जगवि - वापिसनदो। एरावयो ति बरिसो, बेदि भरहस्स सारिन्छो ।।२३९२॥
१.ब. क. उ. पक्तानुभवणे, ज. प. पवक्तसु भवणे, इ. यवत्ताषणे । २..... य. स, सम्मा ।
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गाया । २३१३-२३१८ ]
उषो महाहियारो
[ ६३५
:-शिखरीपर्यंत उत्तर और जम्बुद्वीपकी जगतीके दक्षिणभागमें भरत क्षेत्र के सदृश ऐरावतक्षेत्र स्थित है ॥२३१२१
वरि विसेसो तस्स', सलाग परिसा हवंति जे केई । ताणं नाम
-
अर्थ :- विशेष यह कि उस क्षेत्र में जो कोई शलाका-पुरुष होते हैं उनका नामादि विषयक उपदेश इस समय नष्ट हो चुका है || २३६५॥
अण्णा एसि, नामा विजय कूड-सरिया
सियो' रेवद लंडो, मारणी बिजय
पुष्णा
पहुविसु, उबदेसी संपइ पराट्ठी ॥ २३६३॥
•
A
·
तिमिसगुहो रेवड- तेण नामागि होति गुजाण सिहरि-गिरिदोवरि महपुरिय दहस्स पुत्र बारे ॥ २३६५॥ रसा शामेण नदी, निस्तरिय पडेवि रस-कु डस्मि । गंगाजा सारिच्छा, पविसद्द सवर्ण
शसिम्मि ।।२३६६ ॥
-
वर्ग:- इस क्षेत्र में विजयाषं पर्वत पर स्थित कूटों पोर नदियोंके नाम भिन्न हैं। सिद्ध ऐरावत, खण्डप्रपात, माणिभद्र, विजयावं, पूर्णभद्र तिमिस्रगुह, ऐरावत मोर श्रवणये नो कूट यहाँ विजया पर्वतपर है। शिखरी पवंतपर स्थित महापुण्डरीक द्रहके पूर्व द्वारसे निकलकर रक्ता नामक नवी रक्तकुण्डमें गिरती है । पुनः यह गङ्गानदी के सदृश सवगसमुद्र में प्रवेश करती है ।। २३९४ - २३१६ ।।
-
-
सद्दह पच्छिम तोरा बारेण जिस्मरेवि रसोदा ।
सिंधु
पईए सरिसा, शिवकवि
·
-
3
रतोव कुंडल्मि ||२३६७।। प्रणेयसरि सहिया ।
परम- मुहे तत्तो, णिस्सरिण श्री जगदी बिलेग, लवण समुहम्मि पनिसेवि ॥ २३६८ ||
|
।। २३६४॥
·
·
धर्म :- उसी के पश्चिम तोरण द्वार से रक्तोदानदी निकलती है और सिन्धुनदीके सहम रक्तोदकुण्ड में गिरती है । पश्चात् वह उस कुण्डसे निकलकर पश्चिममुख होसी हुई अनेक नदियोंके साथ जम्बूद्वीपको जगतोके बिलसे लवणसमुद्रमें प्रवेश करती है ।।२३६७-२३९८ ।।
९. प. म. व उ. स्मि । २. व. ब. क. द. एवेति । १. द. व .नं. सरिशलं । ४. ६.ब.ज. प. च सिद्धा.ब.रु. व. रतो ।
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१६ ]
तिलोयपणती [ गाया : २३६६-२४०२ गंपा - रोहो - हरिया, सोना - पारी-सवण्ण-कूमायो ।
रत्त सि सस सरिया, पुवाए रिसाए पति ॥२३६६।।
अर्थ :-गडा. रोहित, हरित, सीता, नारी, सुवर्णकला मोर रता ये सात नदियां पूर्वदिवा नाती है ॥२३६६॥
पन्छिम-दिसाए गच्छर, सिंधुई रोहिदास हरिकता । सोवोदा गरता, एप्पतरा सचमी म रसोबा ॥२४००॥
। एवं एरावर-खेत्तस्स पणना समचा। मय:--सिन्धुनदी, रहितास्या. हरिकान्ता, सीतोदा, नरकान्ता, स्प्यकूला और सातवी रफोदा ये साढदिया पश्चिम-दिशाम जाती NMF E *
1। इसप्रकार ऐरावतक्षेत्रका वर्णन समाप्त हुबा ॥
धनुषाकार क्षेत्रके क्षेत्रफल निकालनेका विधान-- इस-पार-गुनिव-जीवा, गुगिरव्या रस - पण मं वगं ।
मूलं बाबायारे, क्षेत्र होवि मुहुम - फल ।।२४०१॥
अर्थ :-नाणके चतुर्ष भागस गुरिणत जोराका जो वर्ग हो उसको दससे गुणाकर प्राप्त गुणनफलका मर्गमूल निकालनेपर धनुष प्राकार क्षेत्रका सूक्ष्म क्षेत्रफल जाना जाता है ॥२४०१॥
भरतक्षेत्रका सूक्ष्म क्षेत्रफलपंच-ति-ति-पा-सुग-गभ-सका काकर्मण गोयनया । एक-ए-ति-हरिद-बज-गम-दुग-भागा भरहखेत • फलं । २४०२॥
६०२१३३५ । पर्ग :-पोष, तीन, तीन, एक, दो, शून्य पौर छह, इस अंक क्रमसे जो संस्था निर्मित हो बतने योजन और तीनसौ इकसठसे भाजित दोसो चौरानब ( ) भाग प्रमाण भरतक्षेत्रका सूक्ष्म क्षेत्रफल है ॥२४०२।।
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गाथा : २४०३-२४०४] पउत्यो महाहियारो
। ६३७ विशेषा:-भरतक्षेत्रका बाए ५२६१ प्रपया 8 योजन और जीवा (गा. १६) mutt योजन है । प्रतएव गापा २४.१ के नियमानुसार भरतक्षेत्रका सूक्ष्मक्षेत्रफल
/
७२४६५१३५२२५०००००००
-६०२१३३४ योजन । मोट:-वर्गमूल निकालते समय जो अबशेष बचे थे वे छोड़ दिए गए है।
हिमवान् पर्वतका सूक्ष्म क्षेत्रफलणव-छयाउ-पम-गयणं, एक पण-दोणि जोयनाभागा । पंचावण - एमक- सया, हिमवंत - गिरिम्मि खेसफलं ॥२४०३१॥
२५१००४६६ | ३६१ प्र -नौ छह, पार, शून्य, शून्य, एक, पांच और दो, इस अंक कमसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन और तीनसौ इकसठसे भाजित एफसी पचपन भाग ( २५१००४६६* योजन) प्रमाण हिमवान् पर्वतका सूक्ष्मक्षेत्रफल है ॥२४०३॥
हैमवतक्षेत्रका सूक्मक्षेत्रफलछन्णव-छग्णभ-एककं, छम-अट्ठ-सतं कमेण भागा य । दु-रहिक-तिम्णि-सयाई, हिमवर • लिविम्मि खेचफलं ॥२४०४॥
७८६१०९६६ |35
प:-छह, नौ, छह, शून्य, एक, छह, माठ और सात, इस अंक कमसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन और तीनसौ इकसठसे भाजित दोसौ पट्टान भाग ( ७८६१०६६ यो.) प्रमाण हैमवत-क्षेत्रका सूक्ष्म क्षेत्रफल है ।।२४०४।।
मोट :-महाहिमवान् पर्वतके सूक्ष्म-क्षेत्रफलको दर्शनेवासी गाथा कोड़ों द्वारा बाई जा ___ पुकी है।
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१३८ ]
तिलोयपणती
[ गापा : २४०५-२४०७ हरिवर्ष क्षेत्रका सूक्ष्म-क्षेत्रफल-- पकं छापण-यव-तिय, अन्य-इगि-सबकं कमेण भागा य । बाहतरि-बोगिय-सया, हरि-बरिस - शिविम्मि सफल ।।२४०५॥
६१६६३६४६६ | २४२॥
धर्म:-छह अह. पाच, नो, तीन, छह, यह एक और छह इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन और एक योजनके तीन सौ इकसठ भागों से दो सौ बहत्तर भाग ( ६१६६३६५६६३ यो० ) प्रमाण त्रिवर्षक्षेत्रका सूक्ष्म क्षेत्रफल है ॥२४॥५॥
निषषपर्वतका सूक्ष्म-क्षेत्रफलतिय-एकंबर-गव-ग-गव-ब-गि-पंच-एक-सा य । तिमि • सय - बारसाई, क्षेतफल णिसह - सेलस्म ॥२४०६॥
१५१४६२६० ११ १३१२/ प्र :-तीन, एक, शून्य, नौ, दो, नौ, धार, एफ, पांच और एक इस अंक कमसे जो संख्या मिमित हो उतने योजन मोर एक योजनके सीनसौ इकसठ भागोंमेंसे तीन सौ मारह भाग (१५१४१२६०१३ यो०) प्रमाण निषध-पर्वतका सूक्ष्म-क्षेत्रफल है ॥२४०६।।
विदेहक्षेत्रका सूक्ष्म-क्षेत्रफल---
तु-ब-णव-रणव-पउ-तिय-पव-छन्णम युग-जोयणेकक-पत्तोए । भागा तिम्णि सया इगि छत्तिय-हरिया विरह - खेतफल ।।२४.७॥
२६६९३४६६०२ १३६६
धर्म:-दो, शून्य, नौ, मो, चार, तीन, नो, सह, नो और दो इस अंक क्रमको एक पंक्तिमें रमनेसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन मोर सोनसो इकसठसे भाजित तीनसो भाग (२९६६३४६३०२ यो ) प्रमाण विदेहका क्षेत्रफल है ॥२४०७॥
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पापा : २४०८-२४११ ] पउत्यो महाहियारो
[ ६३६ नौलान्त ऐरावतक्षेत्रादिका क्षेत्रफलभरहावो सिहंता, जेसियमेता हवंति खेतफलं ।
सं सवं वसव्वं, एसवय • पहुवि । णोलंसं ॥२४०८।।
वर्ष :-भरतक्षेत्रसे लेकर निवधपर्वत तक जितना क्षेत्रफल है, वह सब ऐरावतक्षेत्रसे लेकर नीलपर्वत पर्यन्त भी कहना चाहिए
R TE ARTS जम्बूद्वीपका क्षेत्रफलअंबर-पण एकक-यक-गव-छप्पण्ण-सुग्ण-णवय सरी । अंक - को परिमाणं, अंगशेषस्स लेतफलं ॥२४०६।।
७६०५६१४१५० । प्रपं:-शून्य. पांच, एक, चार, नो, छह, पाच, शून्य, नौ और सात इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो, उतने योजन प्रमाण जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल है ॥२४०६॥
टप:-इसी अधिकारकी गाया के नियमानुसार जम्बूद्वीपका सूक्मक्षेत्रफल गाया १६ से १५ पर्यन्त दर्शाया गया है।
जम्बूद्वीपस्थ नदियों की संख्याअठ्ठावीस - सहस्सा, भरहस्स तरंगिणीमो दुग-सहिवा । से दुगुणा 'डुग - रहिदा, हेमा - खेत - सरिया णं ॥२४१०॥
२८००२ । ५६००२। मर्म: भरतक्षेत्रकी नदियां अट्ठाईस हजार दो (२००२) और हेमवतक्षेत्रकी नदियाँ दो कम इससे दूनो अर्थान् छप्पन हमार दो ( ५६००२ ) हैं ।। २४१०।।
हेमवर - वाहिणोणे, दुगुणिय • संखा य दुग-विहीवा । हरिरिसम्मि पमाणं, तरंगिणीण व 'गावग्यं ।।२४१॥
११२००२ ।
१. १. गणाहिदा । २, ३. क. ज. उ. सामा।
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तिलोपपत्ती
| गाथा : २४१२-२४१५
:- हरिवर्ष क्षेत्र में भी नदियोंका प्रमाण हैमवतक्षेत्रकी नदियोंसे दो कम दुगुनी संस्था रूप मर्यात् एक लाख बारह हजार दो ( ११२००२ ) जानना चाहिए ।। २४११ ॥
६४० ]
एवान ति
ताणं, सरियाषो मेलिट्टण गुण कवा ।
जयंति बारसोत्तर बागजवि सहस्स तिय- लक्सा ||२४१२ ॥
३६२०१२ |
अर्थ :- इन तीन क्षेत्रों की नदियों को मिलाकर दुना करनेसे तीन लाख बानवं हजार बारह ( ३६२०१२ ) होता है ।। २४१२।।
विशेषार्थ :- भरत क्षेत्रको २८००२ + ५६००२ हैमवत क्षेत्रकी + ११२००२ नदियाँ हरिवर्ष की १९६००६ नदियाँ हुई उण्यवत क्षेत्र यही है
हो
अतः १६६००६x२= ३६२०१२ नदियाँ यह क्षेत्रोंकी हुई ।
-
भट्टासट्ठि सहस्तम्भहियं' एक्कं तरंगिणी - लक्सं । बेवकुम्मि म खेते, नाव उत्तरकुरुमि ॥२४१३ ॥
१६८००० ।
अर्थ :- देवकुरु और उत्तरकुरुमें इन नदिशेंको संख्या एक लाख अड़सठ हजार ( १६८००० ) प्रमाण जाननी चाहिए ।। २४१३।।
दुसरि संजुशा, जोस - लक्खाणि हॉति दिव्वाश्रो
सन्याओ पुष्वावर
B
विदेह विजयान सरियाको ।। २४१४ ।।
१४०००७८ ।
- पूर्व और पश्विम विदेक्षेत्रोंकी सब दिव्य नदियों चौदह लाख अठहत्तर ( १४०००७८ ) है ॥२४१४ ॥
सशरस-सथसहस्ता, बाणउदि सहस्सया व गउदि-हुदा । वाहिणीश्रो, जंतूकीवम्मि
सव्याघ्रो
१७६२०६० ।
१६ ब. क.अ. यच सहस्य बहियं ।
मिलिवाओ || २४१५ ।।
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गापा : २४१५ ] घउस्पो महाहियारो
[ ६४१ सदो-
सिम सपनालीको लागि १२सोतासीतोबापरिवार १६८०००.क्षे. न. प. ९६०००, पि. परि. ३३६०००, एकत्र १४०००७८ । मसावि ३९२०१२ । १७६२०६०।
पर्ष:-इसप्रकार सब मिलकर जम्बूद्वीपमें सत्तरह लाख बान हजार नम्ब (१७९२०६०) नदियाँ हैं ।।२४।।
[ तासिका ४४ अगले पृष्ठ पर देखिये ]
गम्यूनोपमें परिवार नदिया १७१२००. हैं पोर प्रमुख नदियाँ ९० है। इन ६० प्रमुख नदियोंका चित्रण निम्नप्रकार है
माग
kal
JME
-
-
--
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६४२ ]
तिलोयपणात्ती
[गाया ! २४१४
तालिका । ४४
म्यान
जम्बूद्वीपस्थ सम्पूर्ण नदियोंको तालिका
वामदयोकी NRITTEN
नाम प्रमाण | गंगा-सिन्धु २ १४०००x२-२८००० रोहित-रोहितास्या
२८०.०४२=५००० हरित-हरिकान्ता
५६०.०४२-११२०००
सीता
४०००
4४०००
सीतोदा विभंगा नदियो
भरतक्षेत्र में हैमवतक्षेत्र में हरिक्षेत्र में विदेहक्षेत्र में देवकुरु जसरकुरु पूर्व-विदेह पश्चिम-विदेह कस्यादि - देशोंकी वारसादि ८ देशोंको पयादि ८ देशोंकी वादि देशोंकी रम्यकक्षेत्रमें हरण्यवत क्षेत्रमें ऐरावत क्षेत्रमें
विभंगा नदियां रक्ता रक्तोदा गंगा-सिन्धु
गंगा-सिन्धु
रक्ता-रक्तोदा नारो-नरकान्ता " सुवर्णकला-रूप्यकूला रक्ता-रक्तोदा
२८००.४६-१६८००० २८०००४६=१६८००० १४००० x १६-२२४०.. १४०.०४१६=२२४... १४...४१६-२२४००० १४००० ४१६-२२४००० ५६०००४२११२००० २८०००४२-५६०००
१४...x२-२८००० परिवार नदियां = १७६२००० प्रमुख नदिया= +t. कुल योग - १७६२०१०
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गाया : २४१६-२४२० ] पजस्मो महाहियारो
[ ६४३ ME .-- ARE i t प्रमाण
सरियामो मेसियाओ, बेटूसे सेसियाणि शारिख ।
विक्साराओ तामो, णिय - गिम - कुंगण' पाहि ॥२४॥६॥
अर्थ:-जितनी नदिया है उतने ही कुण्ड भी स्थित है। नदियां मपने-अपने कुण्डोंके नामोसे विख्यात है।॥२४१६।।
विरोधार्य :- गंगा-सिन्धु मादि चौदह महानदियाँ कुलाचस पर्वतोंसे जहाँ नीचे गिरती है, वहाँ कुण्ड है । उनको संख्या १४ है । बारह विभंगा नदियोंके उत्पत्ति-कुण्डों की संख्या १२१ बत्तीस विवह देशों से प्रत्येक देषामें दो-दो नदियाँ कुण्डोंसे निकलकर बहती हैं मत: महाक कुण्डोंका प्रमाण ६४ है, इसप्रकार ( to नदियों के ) ये सब { १४+ १२+ ६४= ६० कुण्ड होते हैं।
कुणोंके भवनों में रहनेवासे व्यन्तरदेवबतरवा बहुमो, जिय-णिय-गाण गाम-विदिवानो ।
पल्लाउ-पमाणाप्रो, 'पिवसंती साण विम्ब-गिरि-भवने ॥२४१७॥
प:-अपने कुण्डों के नामोंसे विदित एक पल्यप्रमाण मागुवाले बहुतसे व्यन्तरदेव उन । कुण्डों के दिम्य गिरि-भवनों में निवास करते हैं ॥२४१७।।
वैदियोंको संख्या एवं उस्सेधादिजेरिय कुंडा जेसिय, सरियामो सियाओ बरपसंता । बेतिय सुर • मयरोओ, बेरािय जिषणाह - भवमागि ॥२४१८॥ रिय दिवाहर - सेजियाओ'सियाओ पुरियाओ। प्रमावरे सिय, पपरीमो बत्तियहि - वहा ॥२४१६॥
दोनो तेसियामो, निम-निय-प्रोगाम्रो ताण पोषक । जोयम - बलमुन्छहो, म चावाणि पंच - सया ॥२४२०॥
जो । दंठ ५०० ।
१.ब.प.क.. . . कुमारिण। २. स. प. र. ३. सितारण, म सबसति साग, अ. वि. प्रतीण साए । १.४.ब.क.अ. प. उ. महिमायो ताणं प।
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६४ ]
तिलोयपरणती
[ गापा : २४२१-२४२४ जितने काह, जितनी नदियों, जितने वन-समूह, जिसनी देव-नगरियां, जितने जिनेन्द्र-भवन, जितनी विधाघर श्रेणियो, जितने नगर, प्राय खण्हों की जितनी नारया. जितने पर्वत बौर जितने मह है, उनमें से प्रत्येक के अपने-अपने योग्य उतनी ही वेदिया है। इन वेदियोंकी ऊंचाई पाषा योजन और विस्तार पांचसौ धनुष प्रमाण है ।।२४१८-२४२० ।।।
गरि बिसेसो एसो, कारणस्स मूबरण्यस्त ।
मोयगमेक्कं 'उबनो, दंड - सहस्सं च विस्थारो ।।२४२१।।
पर्व :--विशेष यह है कि देवारण्य और मूतारण्यको वेदियोंकी ऊंचाई एक योजन तषा विस्तार एक हजार धनुष प्रमाश है ।।२४२१।।
जिनमवनोंको संख्याकुं-पणसंर - सरिया - सुरणयरी- सेल-तोरणहारा । विगाहर - पर - सेदो - गपरन्मामंड - गयरीनो ।।२४२२।। वह • पंचय - पुण्यावर - विह-गामावि-सम्मली-कसा ।
बेतियमेशा जंडू - रुक्माई सेतिया हिण - गिफया ॥२४२३।।
पर्व:-कुण, वनसमूह, नदियां, देवनगरिया, पर्वत, तोरणवार, विद्याधर श्रेणियोंके उत्तम मगर, मायंबणोंकी नगरिया, द्रह पंचक ( पांच-पांच दह, पूर्वापर-विदेहों के ग्रामादिक, शाल्मलीक्ष और जम्बूदक जितने हैं उतने ही मिन-भवन भी हैं ।।२५२२-२४२३॥
कुस-शैलादिकोंकी संख्याछाकुल-सेला सम्बे, विजयटा होति तोस बउ - जसा । सोलस वालारगिरी, वारणवंता य पत्तारो ॥२४२४॥
६। ३४ । १६ । ४। प्रर्ष:-जम्बूद्वीपमें सब कुलपर्वत छह, विजयाचं चौतीस वक्षारगिरि सोलह और गजवन्त पर्वत चार है ॥२४२४१॥
.व.ज.रेश्यो
।
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गाषा : २४२५-२४२७ ] चउरमो महाहियारो
[ ६४५ सह अट्ट बिग्गांचा, गाभिगिरिंगा हति बत्तारि । सोतीस वसह - मेला, पंचग - सेला समाग दुवे ॥२४२५॥
। ४ । ३४ । ३००। भ:-दिग्गजेन्द्र पर्वत पाठ (८), नाभिगिरीन्द्र चार ( ४ ). वृषभशल भौंतीस (३४) तमा काञ्चनशेल दोसो (२००) है ।।२४२४।।
एपको य मेरु कूडा', पंच - सपा अटुष्टि - अम्भाहिया । सरा विषय महविजया, घोसीस हकति कम्मभूमीओ ॥२४२६।।
१। ५६८ । ७ । ३४ । मर्ग:-एक मेरु, पाँचसो अनसठ (५६८) कूट, सात महाक्षेत्र भोर भौंतीस ( ३ ) कर्म. भूमिया है।॥२४२६॥
सत्तरि आहिय-सक, मेन्छखिदी छन्द भोगमूमोशे । प्रशारि जमल • सेला, अंदीवे समुट्ठिा ॥२४२७।।
एवं जंबूवीव-वल्गना समता ॥२॥ मर्ग :-जम्बूद्वीपमें एकसौ सत्तर म्लेच्छखण्ड, छह भोग-मियाँ और चार यमक-शैल कहे गए है ॥२४२७।।
विशेषार्थ :-जम्बूद्वीपमें सुदर्शन मेरु १, कुलाचल ६, विषयार्थ ३४, वक्षारगिरि १६, गजदन्त ४. दिग्गजेन्द्र , नाभिगिरि ४, वृषभाचल ३४. काञ्चनशैल २०० घोर यमगिरि ४ है। इन समका योग करनेपर ( +६+४+१६+४+ ++४+४+२..+४)=३११ पर्वत होते हैं। फूट ५६८, महाक्षेत्र ७, कर्मभूमियो ३४, म्लेच्याखण १७० और भोगभूमियाँ हैं।
इसप्रकार जम्बूद्वीपका वर्णन समाप्त हुभा ॥२॥
१.ह.ब.क. ज. प. उ. पुषो। २. ५. को। ३. घ... क. ज. पा. स. पमपाऊ। . क... प. उ. समुदिद।
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६४६ ]
आर्गक लवसमुह
चायायारो |
अस्थि लवणंबुरासी, जंबूदीवस्स समबट्टो सो जोग बेलल प्रमाण - बिचारो ॥ २४२८||
तिलोयपती
-: लवण समुद्र :
२००००० ।
अर्थ :- लवण समुद्र जम्बूद्वीपको खाईके आकार गोल है। इसका विस्तार दो लाख ( २००००० ) योजन प्रमाण है ।। २४२८६ ।।
-
गावाए उवरि णावा, श्रहो महीं जह दिया तह समुहो । गयणे समंतदो सो, बेटु बि
ह
चक्कवाले
अर्थ :- एक नाव के ऊपर अधोमुखी दूसरी नावके प्रकार वह समुद्र चारों ओर प्राकाशमें मण्डलाकारसे स्थित है ।। २४२६ ।।
1
-
९. ब ४. यट्टे ।
[ गावा २४२५ - २४३१
चित्तोबरिम तलादो कूडायारेण उवरि वारिणी । गम्मि बेट्टे हि ।। २४३० ॥
तस सय लोयणाई, ए
T
C
७०० 1
॥२४२६||
रखनेसे जैसा आकार होता है, उसी
प्र : वह समुद्र चित्रा - पृथिवीके उपरिम-तलसे ऊपर बूटके आकार से भाकाशमे सातसी ( ७०० ) योजन ऊंचा स्थित है ।। २४३० ॥
उड़ते भवेदिहवं, जलमिहिनों जोमणा बस-सहस्सा । पणिहीए, विनशंभो दोणि लगवाणि ।। २४३१॥
चितावणि
१०००० | २००००० ।
अर्थ :- उस समुद्रका विस्तार ऊपर दस हजार ( १०००० ) योजन और चित्रापृथिवीकी प्रणिधिमें दो लाख ( २००००० ) योजन प्रमाण है ।। २४३१ ।।
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गाथा : २४३२-२४३४ ] उस्यो महाहियारो
[ ६४७ पत्तक्क वु-तो, मनिसिय पणादि योग का EXPER गाडे तम्हि सहस्सा, सलवासो इस सहस्साणि ॥२४३२॥
६५०००1१५००० । १०००० । अर्थ:-दोनों तटोंमेंसे प्रत्येक तटसे पवान हजार ( २५.००, ६५.०० ) योजन प्रवेश करनेपर उसकी एक हजार पोजन गहराईपर तल-विस्तार दस हजार (१००००) योजन प्रमाण है ।।२४३२॥
हानि-वृद्धि एवं भूयास मोर मुख-प्यासका प्रमाणभूमीअ मुहं लोहिय, उदय • हिदं भू-महाउ-हाणि-चया । मुहमजुर्व में लाला, भूमी जोयन - सहस्समुस्सेहो ।। २४३३॥
१०००० । २०.०००। १००० । म :-भूमिमेंसे मुखको कम करके ऊंचाईका भाग देनेपर भूमिको मोरसे हानि पौर मुखकी ओरसे वृद्धिका प्रमाण पाता है। यहाँ मुखका प्रमाण मयुत अर्थात् दस हजार ( १००० ) योजन, भूमि-का प्रभाग दो लाख योजन और अलकी गहराईका प्रमाण एक हजार (१...) पोजन है ।।२४३३।।
विस्तारका प्रमाण ज्ञात करनेको विधिरहम-बढ़ीण पमाण, एमक-समं बोयणाणि गावि-सुदं । इन्का-हा-हाणि-चया, खिदि • होणा मह - जुदा हो ॥२४३४॥
१६. । पर्ष :-उस क्षय-वृद्धिका प्रमाण एफसो मन्ये (१६०) योजन है । इच्छासे गुरिणत हानिवृद्धि प्रमाणको भूमिमेंसे कम अपवा मुख में मिला देमेपर विवक्षित स्थानके विस्तारका प्रमाए बाला नाता है ।।२४३४॥
{ २००००० - १०...) १००-१६० हानि-वृद्धिका प्रमाण ।
२. द... क. ज. प. उ. सहस्सो ।
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६४८ ]
तिलोयपणती [ गापा : २४३५-२१३७
अपरिम जसको क्षय-वृद्धिका प्रमाणउरिम-जलस्त जोयण, उगबोस-सयागि सत्त-हारिवाणि । लय - पड्डोग पमा, नार लग - अलहिम्मि ॥२४॥
प:--लवणसमुद्र में उपरिम ( तटोंसे मध्यकी और और मध्यसे सटोंकी परेर ) जलको मय-कृषिका प्रमाण सातसे माषित बन्नीससी योजन है । प्रात् समतल भूमिसे जसकी हानि-वृद्धिका प्रमाण २७१० योजन है ।।२४३५१1 समुद्रतटसे ६५००० यो० भीतर प्रवेश करने पर वहां जलको गहराई और पाईका प्रमाण
पत्ते -सगो, परिसिय पनगरि-बोयग-सहसा । पाठा सस्त सहस्स, एवं सोधिमा मंगलागी ।।२४३६।।
Ex.00 । १००० । वर्ग:-दोनों तटोंमेंसे प्रत्येक किनारेसे पंचानवे हजार १६५००.) योजन प्रवेश करनेपर उसकी गहराई एक हजार ( १००० ) योजन प्रमाण है । इसीप्रकार अंपुलादिक श्रोध सेना चाहिए ॥२४३६॥
विरा-लवणसमुद्रके प्रत्येक तटसे ६५००० योजन प्रवेस करने पर वहाँ जसको गहराई १००० योजन प्राप्त होती है । तब एक योजन प्रवेश करनेपर कितनी गहराई प्राप्त होगी? इसप्रकार राक्षिक करनेपर ४ धनुष, १ वितस्ति, १ पाद और २ अंगुल प्राप्त होते हैं । अर्थात् समुद्र में एक योजन प्रवेश करनेपर वहाँ जलकी गहराई मा योषन अपवि ८४ धनुष, • रिक्कू, • हाग, १ वि०, पाद पोर २अंगुल प्राप्त होगी।
पुतमायो जस-मम्झ, पविसिय पनगरि-बोयण साहला । सत्त - सयाई उबमओ, एवं सोहेब' अंगुलावी ॥२४३७।।
६५००० । ७.०।६।'
---
-
-
...ब. ५। २. ब. साहेप, क. प. य. 3. मोहाय । ..... उ. 2001
.
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गाषा : २४३८-२४४१ ]
महाहियारो
[ ६४६
- दोनों तटोंसे जलके मध्य में पंचानबे हजार ६५००० ) योजन-प्रमाण प्रवेश करनेपर सातसौ योजन ऊंचाई प्राप्त होती है । इसी प्रकार भंगुलादिकों को शोध लेना चाहिए ।। २४३७ ।। विशेषार्थ -दोनों तटोंसे जल के मध्य १५००० योजन प्रवेश करनेपर वहां जलकी ऊँचाई ७०० योजन प्राप्त होती है। सब एक योजन प्रवेश करनेपर कितनी ऊंचाई प्राप्त होगी ? इस प्रकार राशिक करने पर योजन अर्थात् ५८ धनुष, १ रिक्कू. १ हाथ १ वितस्ति १ पाव, अंगुल और ७ जो प्रमाण ऊंचाई प्राप्त होगी ।
Y
==
क
D
लवणसमुद्र में पातालों का निरूपण
लवगोवहि-बहु-मक्भे, पादाला ते समलबो होंति ।
अट्ठत्तरं सहस्सं, जेट्ठा मज्झा जहरलाय ॥२४३६॥
१००८ ।
:- गोदधिके बहु-मध्य भागमें चारों और उत्कृष्ट, मध्यम और जधन्य एक हजार महप) काराकी
बता पायाला, बेट्टा मज्भिल्लभा वि चतारो । होवि जहण सहस्से से सच्चे रंजणायारा ||२४३६||
४ । ४ । १०००
प :- पाताल चार, मध्यम चार और जगन्य एक हजार ( १००० ) हैं । ये सब पाताल राञ्जन अर्थात् धड़के आकार सहा है ।। २४३६ ।।
ज्येष्ठ पातालोंका निरूपण --
feng पायाला, पुग्वादि विसासु बलहि-मम्भम्मि । पायाल कदंबक्खा, वडवामुह ओषकेसरिणो ।। २४४० ॥
-
-
4
प :- पूर्वादिक दिशाओं में समुद्रके मध्य में (१) पाताल, (२) कदम्बक, (३) बड़वामुख
और (४) यूपकेशरी नामक चार उत्कृष्ट पाताल हैं ।। २४४० ।।
पुहपुर -सहतो पविसिय पणणउदि जोयन सहस्ता । लवणजले जेट्ठा चेट्ठति
चचारो,
६५००० । ६५००० ।
पायाला ||२४४१ ।।
१. . . . म.उ. वा या य । १.ब.क. ज. प. उ.
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६५. ]
तिलोयपणासी गापा : २४४२-२४४३ :- दोनों किनारोंसे लवणसमुसके जल में पंचानब हमार { ९५००० ) योजन प्रमाए प्रवेश करनेपर पृषक पृथक ये चार पाताल स्थित हैं ।।२४४६।।
पुह - पुह मूलम्मि मुहे. पिरमारो जोयणा वस-सहस्सा । उदनो वि एक - लपलं, मझिम • ६ वि सम्मेतं ।।२।४२।।
००००००००1१स।
।
प:-( इन ) पातालोंका पृषक-पृथक् मूल विस्तार दस-हजार ( १०...) योजन, मुख विस्तार दस हजार १०००.) योजन, ऊंचाई एक लाख योजन और मध्यम विस्तार भी एक लाख योबन प्रभारण हो है २४४२।।
जेडा ते संसगा, सीमंत - बिलस्स उरिमे भागे । पण - सय - सोयण - बहला, करना एगण बजमया ।।२४४३॥
:-वे ज्येष्ठ पाताल सीमन्त बिलके उपरिम भागसे संलग्न हैं। इनकी वजमय मित्तियां पारसौ (५०. ) योजन प्रमाण मोटी हैं ॥२४४३||
विशेषार्थ :-रत्नप्रभा नामकी अपम पृथिवी एक लाख अस्सी हजार { १८०००) योजन मोटी है। इसके सर, पौर प्रमहल नाम वाले सोन भाग है जो क्रमशः १६...,८४००० और ..... योजन बाहल्यवाले हैं । लवणसमुद्रकी मध्यम-परिभिपर जो चार ज्येष्ठ पाताल है मन्महुल भागपर स्थित सीमन्तक बिलके उपरिम मापसे संलग्न हैं और इनसे चित्रा पृथिवी पर्यन्तनी ऊँचाई ( पंकभाग ५४००० यो+सरभाग १६००० यो ) एक साथ योजन है। इसीलिए ज्मेष्ठ पातालोंकी ऊंचाई एक-एक लाख योजन कही गई है। इन पातालोंकी वषमय भितिया ५००-५०० योजन मोटो है।
[ चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ]
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गाथा : २४४४-२४५
घजस्पो महाहियारो
[ ६५१
, उत्कृष्ट पाताल
चित्रा प्रथिवी १०.पो.--
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पवन भण .
J...0.01
परनभण ।
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१००० मो. PRIHIT /मीसमाक बिल का उपरिम भग।
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अब्बहल
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मध्यम-नातालोंका निरूपणअट्ठार्ग विस्थाले, विविसासु मधिभमा दु पादाला । ता सं . पाहुवि, उपिकट्ठाण वसंसेगं ॥२४४४॥
१००० । १०००। १००००।१०००० १५० । मर्ष :-इन ज्येष्ठ पातातोंके बीच विदिशामोंमें मध्यम पाताल स्थित है मोर उनका विस्तारादिक उत्कृष्ट पातालोंकी अपेक्षा दसवें भाग प्रमाण है । २४४४।।
विचार:-मध्यम पातालोंका मूल विस्तार .... पोजन मुख विस्तार १००० योजन, ऊँचाई १०००० योजन, मध्य विस्तार १०००० योजन और इनकी बधामय भित्तियोंको मोटाई ५० योजन प्रमाण है।
गवगडदि-सहल्साणि, पंच-सया जोयपापि तु - तडेस। पुह पुह पबिसिय सलिले, पायाला मम्भिमा होति ।।२४४५।।
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६५२ ]
तिलोयपग्णत्ती
[ गाया : २४४६-२४४७ पर्ष :--पृषक-पृथक दोनों किनारोंसे निन्यानबे हजार पाच-सी (२६५००) योजन प्रमाण जसमें प्रवेश करनेपर मध्यम पाताल हैं ||२४||
जघन्य पातालोंका निरूपणजहाग - मनिझमाणं, विज्चालेसु जहण - पायाला । पह पृह पण-धन-माणा, मम्भिम-बस-भाग-बावी ।।२४४६।।
१००। १००।१००० । १०००।५। मर्ष :-उस्कृष्ट और मध्यम पातालोंके रीच-बीच में अपन्य पातान स्थित है। प्रत्येक अन्तरालमें इनका पृथक्-पृथक् प्रमाण १२५-१२५ है। इनका विस्तारादिक मध्यम पातालोंकी अपेक्षा दसवें भाग प्रमाण है ।।२४४६॥
विशेषाय :-उस्कृत पाताल ४ हैं और मध्यम पाताल भी ४ है। इनके बीच-बीच में - अन्तराल हैं। प्रत्येक मन्तरालमें १२५-१२५ जघन्य ( १२५४५-१००० ) पाताल स्थित हैं । इनका मूल विस्तार १०० योजन, मुख विस्तार १०० योजन, ऊँचाई १... योजन, मध्य विस्तार १००० योजन और मोटाई ५ योजन प्रमाण है।
वणउदि-सहस्साणि, गव-सम-पण्णास-बोयणाणि सहा । पह पुह - ताहितो, पर्विसिय बेटुति भवरे वि ॥२४४७॥
tterol मर्ष:-पृथक्-पृथक् दोनों किनारों से निन्याननै हजार नौ सौ पचास ( EEE५. ) योजन प्रमाण (जसमें) प्रवेश करनेपर जघन्य पाताल स्थित है ॥२४४७॥
नोट :-तीनों प्रकारके पातालोंको स्पष्ट स्पिति लवणस मुझके निम्नास्ति चित्रण द्वारा मातम्य है
[ चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ]
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पापा : २४४८ ]
पउत्थो महाझिारो
[ ६५३
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नोट :-इन पातालोंकी स्थिति समुद्र में नीचेकी पोर इस प्रकार की है। उनके स्वरूप और उनको प्रस्थितिसे अवगत करानेके लिए चिकमें उन्हें इसप्रकार दिखाया गया है ।
ज्येष्ठ और मध्यम पातालोंका अन्तराल प्राप्त करने को विधिजेवाणं मुह-क, जलपिहिमग्मिल्ल-परिहि-मरझम्मि । सोहिय • चन - पविहत, हवि एक्ककक - विच्चालं ॥२४४६॥
:-लवणसमुद्रको मध्यम परिधिमेंसे ज्येष्ठ पातालोंका मुखव्यास ( १०००.४४= ४०००० यो.) और मध्यम पातालोंका मुख-व्यास (१०.०x४००० यो०) घटाकर शेष में चारका भाग देनेपर जो-जो लब्ध प्राप्त हो वही एक-एक पातालके अन्तरालका प्रमाण है ॥२४४६।।
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६५४ ]
तिलोमपाती [ गापा : २४४६-२४५१ लवण समुद्रकी मध्यम परिधिका प्रमाण - णव-सक्ख • जोयगाई, अग्वाल सहस्स-छस्सया पि । तेसोबी प्रषिपाई, सायर-मनिमन्त-परिहि परिमार्ण ॥२४॥
१४८६५३ । :-लवणसमुद्रको मध्यम परिघि नौ लाख अड़तालीस हजार छहसो तेरासी (१४६८३ ) योजन प्रमाण है ॥२४४६।।
विरोवार्ष:- सवरणसमुद्रका मध्यम सूची व्यास ३ लाख योजम प्रमाण है । गामा के नियमानुसार परिधि का प्रमाण
NX १०८६४८९८३ पो. परिधि । म यो अवशेष वषे बो। छोड़ दिए गये।
म्येष्ठ पातालोंका मन्तरालसत्तावीस - सहस्सा, सरि - जुत्तं सवंबे - समसा । .. जोयण - ति • उम्भागा, मेवाण होरि विश्वास ॥२४५०॥
२२५१७ ।। अर्थ:-ज्येष्ठ पासालोंके बीच-बीचका अन्तराल दो लाख सत्ताईस हजार एकसी सत्तर और एक योजनके चार भागोंमेंसे तीन भाग ( २२७१७० योजन ) प्रमारा है ॥२४५०।।
विशेचा :-लवणसमुद्रकी मध्यम परिधि [ १४८६८५-(१०.००x४) ]:-४= २२७१७० योजन एक ज्येष्ठ पातालसे दूसरे ज्येष्ठ पासालके नुसके अन्तरका प्रमाण है।
मध्यम पातालोंका अन्तरालछत्तीस - सहस्साणि, सत्तरि - संसय दुबे लपला । जोपण - ति • धरम्मागा, मरिझमया - विमासं ॥२४५१॥
२३६१७०1। पर:-मध्यम पातालोंका अन्तराल दो लास छत्तीस हजार एफसी सत्तर और एक योजनके पार भागोंमेंसे तीनभाग ( २३६१७०३ पो०) प्रमाण है ।।३४५१॥
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गाया : २४५२-२४
आत्मा
कॉट
[ ६५५
विशेषाचं :- [ ६४८६६३ - ( १०००x४ ) ] + ४ = २३६१७०१ योजन एक मध्यम पातालसे दूसरे मध्यम पातालके मुखके अन्तरका प्रमाण है ।
ज्येषु पातालोंसे मध्यम पातालोंके मुझोंका असर
जेनंतर संखावो, एक्क सहस्वम्मि समवनोदस्मि । ममिया च विचा ||२४५२ ॥
अक्ष कवे अट्ठार्ण,
·
-
जोयण लक्वं तेरस सहस्सया पंचसीवि - संजुता ।
तं विचाल - पमार्ग, दिवss - कोसेप अविरितं ॥ २४५३ ||
११३०८५ | को ३ ।
वर्ग:- ज्येष्ठ पाताखोंके अन्तराल - प्रमाण में से एक हजार (१०००) कम करके आधा करनेपर ज्येषु और मध्यम पातालोंका अन्तराल - प्रमाण निकलता है जो एक लाल तेरह हजार पचासी योजन मोर डेठ फोस अधिक है ॥१६४५२-२४५३ ।।
-
-
-
विशेवार्थ :--- पूर्व, दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशागत ज्येष्ठ पातालोंके मुखसे मुखका अन्तर २२७१७०१ योजन है। इसमें विदिशागत मध्यम पातालका मुख व्यास १००० योजन घटाकर भाषा करनेपर दिशागत ज्येष्ठ पाताल और विदिशागत मध्यम पातालों के मुखसे मुखका अन्तर प्राप्त होता है। यथा
-
( २२७१७०३ यो० १००० यो० ÷२ = ११३०६५ योजन और १३ कोस ।
जवन्य पासालसे जघन्य पातालके मुखका मन्तर
जाम मक्झिमाण', 'मिम्मि जहल्लयाण मुह-बासं ।
फेडिय' सेसं विगुणिय तेसट्टीए कम विभागे ।। २४५४ ॥
M
-
जं लक्ष अवराणं, पायालाग तमंतरं होदि ।
सं मा सत
सया, प्राणउदो थ सविसेसा ।। २४५५ ।।
७६८ ।।
१. म. विपि। २.१. बाज. उ. पेसिन व मैलिय ।
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६५६ ]
तिलोयपगती
[ गाया : २४५६-२४५७ म :- ज्येष्ठ और मध्यम पातालोंके अन्तराल-प्रमाणसे जघन्य पातालोंके मुख-विस्तार
तिरसठयथात एकसारब्बासका भाग मधन्य पातालोंका अन्तराल होता है। उसका प्रमाण सातसो अट्ठानवे योजनोंसे अधिक है ॥२४५४-२४५५।।
काकम करक
विरोषाचं :-उपर्युक्त गापामें ज्येष्ठ मौर मध्यम पातालका अन्तराल ११३.८५ योजन प्रौर कोस कहा गया है । ज्येष्ठ और मध्यम पातालोंके प्रत्येक अन्तरालमें १२५-१२५ जपन्य पासाल है। इनका मुख व्यास १०० योजन प्रमाण है अतः १२५ x १००-१२५०० पोषन मुख विस्तारको ११३०६५ यो०. है कोस मेंसे घटाकर ( ११३०८५ यो० - १२५००=१००५ यो ) सम्मको १२६ ( ज्येष्ठ पाताल + म०पाताल १ + ज. पातास १२५ = १२७ पातालोंके अन्तराल १२६ ही होते हैं ) से भाजित करने पर जघन्य पातालोंके अन्तरालका प्रमाण ७६ itयो. पर्यास् ७६८ योजन और २३७३ मनुष प्राप्त होता है।
प्रत्येक पातालके विभाग एवं उनमें स्थित पायु तथा बलादिका प्रमाण
पत्तक्क पायाला, ति - वियप्पा से हवंति कमदोगं । हेद्वाहितो बाई, जलवावं सलिलमासेम् ॥२४५६।।
भ:-प्रत्येक पाताल क्रमश: जल, जल प्रोर मासु तथा नीचे वायुफा प्राश्रम सेकर तीन प्रकारसे विद्यमान है ।।२४५६।।
सेसीस-सहस्साणि, ति - सया तीस जोयग-ति-भागो। पत्तेक द्वाण पमाणमेचं तिसस्स ॥२४५७॥
¥ } }
पर्ष:-ज्येष्ठ पातालोंमेंसे प्रत्येक पातालके तीसरे भागफा प्रमाण संतीस हजार तीनसी तैंतीस योजन और एक योजनका तीसरा भाग ( ३३३३३६ योजन ) है ॥२४५७।।
बिशेवा:-सवरणसमुदकी चारों दिशामोंमें एक लाश योजन ऊंचाई वाले पार ज्येष्ठ पाताल हैं। ऊंचाईकी अपेक्षा इनके तीन भाग करनेपर ( 222942 ) ३३३३३१ योजनमें वायु, ३३३३३३ योजनमें वायु एवं जत मोर ३३३३३३ योजनमें मात्र जल विद्यमान है।
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infecte उत्पो महाहियारो
मध्यम और जघन्य पातालों में जनादिकका विभाग
तिणि सहस्सा तिसया, तेतीस जुवाणि जोयण-ति- भागो । परोषकं णाव, मज्झिमय तियंस परिमाणं ।। २४५८६ ।।
गाया : २४५८ - २४६१ ]
आचार्य श्री विपि
अर्थ :- मध्यम पातालोंमेंसे प्रत्येकके तीसरे भागका प्रमाण 9०० - ३३३३३ यो० ) तीन हजार तीनसो तेतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमेंसे एक भाग ( ३३३३३ योजन ) जानना चाहिए ।। २४५८।।
तेत्तीस भहियाणं, तिणि सयाणं च जयन-ति-भागो । पचषकं वटुम्बं तियंस मार्ण
-
-
अण्णा ।२४५६।।
३३३५ ।
अर्थ :- जघन्य पातालोंमेंसे प्रत्येकके तीसरे भागका प्रमाण तीनसौ तेतीस योजन और एक योजनके तृतीयभाग ( ०३३३३ यो० ) जानना चाहिए ।।२४५६ ।।
लवणसमुद्रके जल में हानि-वृद्धि होनेका कारण -
हेडिल्लम्म तिन्भागे, बसुमद्द दिवराण केवलो बाटो । मक्किल्ले जलवादी, चबरिल्ले सलिल पम्भारो ॥२४६० ॥
पवणेण पुवियं तं चलाचलं मक्क्रिमं सलिल जाएं ।
सवार चेट्ठषि सलिलं पवणाभावेण केवलं
जी
[ ६५७
तेसु ॥२४६१ । ।
:- पृथिवी विवर ( गड्ढे ) स्वरूप इन पातालों के कपरके विभागमें केवल जल, मध्यम भागमें जल तथा वायु और नीचे के भागमें मात्र वायु विद्यमान है। उन पातालोंके तीन भागों में से मध्यका जल-वायुवाला त्रिभाग पहले भाग ( नीचे ) के पवनसे ( प्रेरित हुबा ) चलाचल होता है । ऊपरके भाग में पवनका प्रभाव होनेसे केवल जल रहता है ।। २४६०-२४६१ ।।
विशेवावं :- शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष में सवरणसमुद्र के जलकी वृद्धि हानिमें मध्यम भागनें स्थित जल और वायुका चंचलपना ही कारण है ।
१.द.म.क.ज. प. उ. मम । २. प. व. क. ज. म. न. मायाणं ।
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६५८ ]
तिलोयपपणत्ती [ गाथा : २४६२-२४६५ पाबालागं 'महवा, पले सोवम्मि बरति य ।
होयंति किल्ल - पासे, सहावदो सव • कालेसु२४६२॥
भवं :-पातालोंके पवन सर्वकाल स्वभावसे हो छुक्लपक्षमें बढ़ते हैं और कृष्णपक्षमें पटते है।॥२४६२।।
ज्येष्ठ पातालोंमें पवनको वृद्धिका प्रमाणबढी बावीस - सया, बावीसा जोयणाणि अदिरेगा। वो सिद पुहिना मुशिानं. मात्र ॥२४६३॥
२२२२ । । अर्थ:-शुक्लपक्षमें पूणिमा तक प्रतिदिन दो हजार दो सौ बाईस योजनोंसे भी अधिक पवनको वृद्धि हुअा करती है ।।२४१३॥
वार्थ:-ज्येष्ठ पातालके मध्यम भागमें पूरणमा पर्यन्त वायु-वृद्धिका प्रमाण ३३३३३३ योजन है ! यया-जनकि १५ दिनोंमें ( वायु ) वृद्धिषयका प्रमाण ३३३३३३ यो० है तब एक दिन में वृद्धिचयका क्या प्रमाण होगा? इसप्रकार राशिक करनेपर ( PRA -)२२२२॥ यो मध्यम भागमें पवनको वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है । इसी प्रकार कृष्णपक्षमें अमावस्या पर्यन्त वायुका हानिधय और जसका वृद्धि घय समझना चाहिए।
पूर्णिमा और अमावस्याको पातालोंकी स्थितिपुणिमए हेडादो, णिय - णिय - दु-ति-भागमेत्त-पावाल ।
चेटुषि वाऊ उवरिम - तिय • भागे केवल सलिलं ॥२४६४।।
अर्थ :-पूणिमाको पातालोंके अपने-अपने तीन भागों में से नीचे के दो भागोंमें षायु पौर __ अपरके तृतीयभागमें केवल जस विद्यमान रहता है ॥२४६||
अमवसे उवरीयो, णिय-णिय-दु-ति-भागमेत परिमागे । कमसो सलिलं हेडिम • तिय - भागे फेवलं बाई ।।२४६५।।
१.क.ब. क. न. य. न. परिधा। २. १. २. स. प. य. स. मरिरेगो। ३. द. ब. क. ब. प. उ.
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गाषा । २४६६-२४६७ ] पउत्थो महायिारो
[ ६५६ प:-अमावस्याको अपने-अपने तीन भागों से क्रमशः परके दो भागों में जल रहता है और नीके तीसरे भागमें केवल वायु रहती है 11२४६५।।
५.. मोरयल का निम नल और भाषATre. ---
वास्तजल - - - ---
--------
चित्रापुर
ܐܬܝ ܕ݁ܪܺܝܫܒܢܠܠܓܠܠܠܓܝܢ
मता
भाग)
लवण समुद्र
समुग्रजसकी हानि-वृद्धिका प्रमाणपेलिज्जतो उवही, पवणेहि तहेव सीमंते । बाढदि हावि गयणे, बंड - सहस्सानि प्रतारि ॥२४६६।। दिवस परि भटु-सायं, सि-हिया बंगणि सुक्कि-किल्हाए'। ज्य - बड़ी पुवृत्तयाटुद - वेलाए उबरि जलहिजसं ॥२४६७॥
पर्व:-सोमम्त जिलपर ( स्थित उस्कृष्ट पातालोंको ) वायु द्वारा समुहका जल प्राकाशमें फेंका जाता है जो चार हजार ( ४०००) धनुष बढ़ता है और इतना ही घटता है। इसीलिए पूर्वोक्त (७०० योजन ऊपर प्रवस्थित ) जल में शुक्लपक्ष में प्रतिदिन तीनसे माजित पाठसौ(8) अनुप अर्षात् २६६ धनुष, २ हाथ पोर १९ मंगुल वृद्धि पौर कृष्णपक्षमें उतनी ही हानि हुआ करती है ॥२४६६-२४६७।। .. - -.-- - - -
-- - ----- - ....क.अ. य. ., सम्मः। २. य... ३. किवी।।
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६६]
तिलोमपणतो
[ गाथा : २४६८-२७१ दिसोपार्ष:-शुक्लपक्ष पूर्णिमा पर्यन्त समुद्रका जल भपनी सीमासे (७०० यो० से) ४.०० धनुष पर्यन्त बढ़ जाता है और कृष्णपक्षमें अमावस्या पर्यन्त इतना ही घट जाता है। जबकि १५ किम इलाय क किलोकितना घटेगा या बढ़ेगा? इसप्रकार
राशिक करनेपर हानि-वृद्धि पयका प्रमाण " धनुष या अर्थात् २६६३ धनुष प्राप्त होता है।
लोगाइणी ग्रन्थका भी यही मत हैपुह-मुह दुतवाहितो, पविसिय पगगउदि-जोयण-सहस्सा।
सरणजले में कोसा, उदयो सेसेतु हाणि • चयं ।।२४६८।।
मर्ष :-पर-पृषक दोनों किनारोंसे पंचाननै हजार योजन प्रमाण प्रवेश करने पर। लवरणसमुद्रके जलमें दो कोस ऊंचाई एवं शेषमें हानि-वृद्धि है ॥२४६८।।
समयस्साए उवही, 'सरिसो ममीए होवि सिद • पक्थे ।
कमेण वोदि नहे, कोसारिण वोणि 'पुणिमए ॥२४६६।।
मय:-लवणसमुद्र प्रमावस्याके दिन भूमि सहमा ( समतल ) होता है । पुनः शुक्लपक्षमें माकाशको ओर क्रमशः बढ़ता हुआ पूर्णिमाको दो कोस प्रमाण बढ़ जाता है ॥२४६६।।
हाएदि हिण्ह - पक्खे, तेग कमेण च आय परिवगर ।
एवं लोगाइणिए, गंपप्पवरम्मि गिदि ।।२४७०॥
म : वह समुद्र ( शुक्लपक्षमें ) जितना वृद्धिंगत हुमा शश कृष्ण पक्ष में उसी क्रमसे उतना-उतना ही घटता जाता है । इसप्रकार श्रेष्ठ अन्य सोगाइसी में बतलाया गया है ।।२०।।
अन्य आचार्यके मतानुसार समुद्रके जलकी हानि-वृद्धिएक्करस-सहस्साणि, जलपिहिणो जोषणागि गयणम्मि । भूमीले उच्छहो, होरि अवडिव - सही ॥२४७१॥ ११०००।
[ पाठान्तरं
१, ६. ब. क. प. प. उ. सरिसे । २. द. कममात हे. ब. अ. भ. प. उ. कमबहार पहेण । ३.६. ब. क. उ. युगामिए ।
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गाषा । २४७२-२४७४ ३ पउत्थो महाहियारो
[ ६६१ मर्ष:-भूमिसे आकाशमें समुद्रको उचाई मवस्थितरूपसे ग्यारह हजार ( ११०००) __ योजन प्रमाण है ॥२४७१॥
[ पाठान्तर तस्सोपरि सिब - पक्ले, पंच-सहरूमाणि जोयणा कमसो। बददि जलरिएहि - जलं, 'पहले हाएदि तम्मेत्तं ॥२४७२।।
[ पाठान्सरं स:-शुक्लपक्षमें इसके ऊपर समुद्रका जल क्रमशः पाँच हजार योजन प्रमाण बढ़ता है मौर कृष्णपक्षमें इतना ही हानिको प्राप्त होता है ।।२४७२।।
[पाठान्तर पातालमुलोंके पाश्र्वभागोंमें जलकरणों के विस्तारका प्रमाणपायातून शिर - गिय सह विमोफिल लेडिज गिय-णिय-परिवषीसु गहे, सलिल • कमा जति सम्मेचा ॥२४७३।।
५००००। ५००० ।५०.। प:-पातालों के अन्तमें अपने-अपने मुख-विस्तारको पांचसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो, तत्त्रमाण आकाशमें अपने-अपने पाश्वंभागोंमें जलकरण जाते हैं ॥२४७३।।
विशेषा:-ज्येष्ठादि पातालोंका मुख-विस्तार क्रमशः १०००० यो०, १००० यो• और १०. पोजन है । शुक्लपक्षमें जन जल-वृद्धिंगत होता हया बढ़ता है तब ज्येष्ठ पातालोंके पापभागों में ५०००० योजन पर्यन्त, मध्यम पातालोंमें ५००० योजन और पाघन्य पातालोंके पावभागोंमें ५०. योजन पर्यन्त जलकरण उछलते हैं।
'लोगाइणो' और लोकविभागके मतानुसार जलशिधारका विस्तार--- जल-सिहरे विक्वंभो, मलणिहिणो जोयना वस-सहस्सा । एवं संगाइगिए, लोयविभाए हि णिद्धि ।।२४७४।।
पाठान्तरम् ।
---- -- - - --- ...ब.क.ज.म. ज. बहुवे गाएदि ।
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तिलोयपम्पती
[पाया । २४७४-२४७८ :-जनशिखरपर समुद्रका विस्तार दस हजार (१०००). योजन है। इसप्रकार संमाइणो में और लोकविभागमें कहा गया है ।।२४७४।।
पाठान्सर।
लवणसमुद्र के दोनों तटोंपर ओर शिवरपर स्थित नरियोंका वर्जन-- तु- तडाए सिहरम्मि य, बलयायारेण बिम्ब-जयरीओ। जलनिहिलो पट्टते, बाबाल - सहस्स-एक-लक्खारिग ॥२४७५॥
१४२०० । .मई :- समुद्र के दोनों किनारोंपर तथा शिवरपर वलयके ग्राकारसे एक लाख बयालीस हजार [ १४२०००) दिव्य नगरियों स्थित है॥२४७2017"
प्रमंतर - वेदोवो, सत्त - सर्व बोयणाणि बहिम्मि । पविसिय 'प्रायासेसु, बावाल - सहस्स - परीओ ॥२४७६।।
७०० खे । ४३०.०। प्रपं:-अभ्यन्तर वेदीसे सातसो योजन ऊपर जाकर आकाशमें समुद्रपर बयालीस हजार (४२... ) नरिया है ॥२४७६।।
बाहिर - बेबीहिसो, सत्त - सया बोयपाणि उरिम्मि । पविसिय आयासेसु, पयरोप्रो बिहत्तरि सहस्सा ॥२४७७।।
७.01७२००.. मचं : बाह्य-वेदीसे सातसो योजन ऊपर जाकर प्रामाणमें समुद्रपर बहत्तर हजार (७२००० ) नगरियाँ हैं ॥२४७७॥
लवरपोवहि-बाहु-मग्झे, सत-सया मोयनानि दो कोसा। गंदून हॉति गयणे, 'प्रग्वीस - सहस्स - एयरोप्रो ।।२४७।।
जो ७.० । को २१ २८०००।
१. 4...क.. य च. सीमासेमु । २. ब. क. उ. में, ... य. का।
१.५, पढाबोस ।
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गाथा । २४७६-२४८३ } चउत्यो महाहियारो
[ ६६३ मर्ग:-लवणसमुद्रके बह-मध्य-मागमें सातसो योजन पौर दो कोस ( ७०० योजन ) प्रमाण ऊपर जाकर प्राकाषामें मट्ठाईस हजार ( २८००० ) नरियां हैं ॥२४७८।।
णयरोग ता' बहु-विहार-रपणमया हवंति समझा। एवान पत्तक, विखंभो जोयण - यस - सहस्सा ।।२४७६॥
म:- नगरियोंके तट बहुत प्रकारके उत्तम रत्नोंसे निर्मित समान-गोल हैं। इनमेंसे आजका विस्तारासाहला(KAREET ||२४७६ ।।
पत्ते एयरीणं, 'तर - बेदीओ हति विवधाओ।
धुल्यंत - घय - बाओ, बर - तोरण • पट्टवि-जताओ ।।२४८०॥
प्रबं:-प्रत्येक नगरी को फहराती हुई ध्वजा-पताफानो भौर उत्तम तोरणादिकसे संयुक्त दिव्य तट-बेदिया है ।।२४००।।
ताणं घर-पासावा', पुरीण वर-रयण-गियर-रमधिमा ।
टुति देवाणं, वेलबर • भुजग - णामारणं ॥२४८१॥
वर्ग :-उन नगरियों में उत्कृष्ट रत्नोंके समूहोंसे रमणीय वेलन्धर और भुजग नामक ( नागकुमार } देवोंके प्रासाद स्थित हैं ।।२४८५।।
गिण-मन्दिर-रम्मायो, पोक्खरणी उनवणेहि जुत्तायो ।
को दणि समस्यो, प्रगाइजिहमाओ पपरोभो ॥२४८२॥
म :-जिनमन्दिरोंसे रमणीय पौर वापिकाओं तथा उपवनोंसे संयुक्त इन अनादिनिम्नम नरियों का वर्णन करनेमें कौन समर्थ हो सकता है ? ।।२४८२॥
पच्चिा-सुराच गयरी-पणिपोए जलहिता -सिहरेसु । वाज • पुढवीए उरि, तेतिय पयराणि के वि भासति ।।२४६३॥
पाठान्तरम् ।
............ सदा । २. ५. ब. क.अ. य. न. तब । १. व.ब.क. प. म. *. विमाए । ४.ब..क.प. य. उ. पासादो।
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६६४ ]
तिलोयपण्णत्तो
[ गाथा २४८४ - २४९६
अर्थ :-- समुद्रके दोनों किनारोंपर और शिखरपर बतलाई गई देवोंकी नगरियोंके पावभाग वमय पृथिवीके ऊपर भी इतनी ही नगरियां हैं, ऐसा कितने ही आचार्य वर्णन करते हैं ।। २४८३||
पातालोंके पार्श्वभागों में स्थित पाठ पर्वतोंका निरूपण
-
बावाल- सहस्सारण, जयममा जलहि दो - ताहिती | पविसिय विदि विवरागं' पासेस होंति घट्ठगिरी || २४८४ ॥
.
अर्थ :- समुद्रके दोनों के करके पातालोंके पार्श्वभागों में पाठ पर्वत हैं ।। २४८६४ ॥
सोलस सहस्त अहियं, जोयण-सबखं च सिरिय-विश्लभ ।
पक्काणं जगदी गिरोगि मिसिन वो लक्खा ।। २४८५ ।।
-
-
४२००० ।
बाजार योजनेप्रमा प्रवेश
▾
११६००० ८४००० | २००००० ।
अर्थ :- प्रत्येक पर्वतका तिरछा विस्तार एक लाख सोलह हजार (११६००० ) योजन प्रमाण हैं । इसप्रकार जगतीसे पर्वतों तकका अन्तराल ( ४२०००+४२०००-८४००० ) तबा पर्वतों का विस्तार मिलाकर कुल ( १९६००० + ६४०००-२००००० ] दो लाख योजन होता है २४६५||
पाठान्तर ३
ते कुंभद्ध सरिच्छा, सेला
जोयण सहस्सनुतरंगा
एवाणं 'खामाई, ठा विभागं च भासेमि ।। २४८६ ॥
३. द. व. क्र. म. म. च. ग्रामाए ।
.
▾
-
१००० ।
:- अर्धघटके सदृश वे पर्वत एक हजार ( १००० ) योजन उसे हैं। इनके नाम मोर स्थान- विभाग कहते हैं ॥१२४८६ ।।
१. य. ज. य. खिदिराए २द. क. जय मिशिदोरण वो लक्स व उ. मिमिदोलखा ।
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उत्यो महाहियारो
पादालस्स विसाए, पच्छिमए कोतूभो 'वसवि सेलो ।
पुष्षाए 'कोटथुभासो, दोणि वि ते वज्जमय मुला ॥२४८७ ॥
गाया : २४८७ - २४६२ ]
धर्म: पातालको पश्चिमदिशा में कौस्तुभ और पूर्व दिशा में कौस्तुभास पर्वत स्थित है । ये दोनों पर्यंत वचपय मूलभाग से संयुक्त हैं ।।२४८७।।
मम्मि - रजद - रचिया, प्रग्येलु विधिह-दिव्य - रयणमया ।
चरि अहालय चारू, तड केवी तोरणेहि जुदा ॥२४८६ ॥
·
-
ता तेसु वर
: पर्वत मध्यभाग में रजत ( चाँदी ) से और अग्रभागों में विविध प्रकारके विव्य
रत्नोंसे निर्मित है, तथा सुन्दर मार्गों अट्टालयों, तट-वेदियों एवं वोरोंसे युक्त हैं ।। २४८६ ॥
कार्यक
हेडिम मज्झिम-उवरिम-वासानि संपड़पट्टा । पासावा, विषिस वा विरायंति || २४८६ ॥
-
-
-
धर्ष :- इन पर्वतों नोचे का, मध्यका और ऊपरका जो कुछ विस्तार है, उसका प्रमाण इससमय नष्ट हो गया है। इन पर्वतोंपर विचित्र रूपवाले उत्तम प्रासाद विराजमान है ।। २४६ ॥
·
वेलंधर बेतरया, पचव
णामेहि संजुवा सु ।
कोति मंदिरेस विजयो भ्ध विधाउ पहूदि जुबा ॥ २४६०॥
+
[ ६६५
-
अर्थ :- इन प्रासादों में विजयदेवके सह प्रपनी श्रायु आदिसे युक्त भौर पर्वतों के नामोंसे संयुक्त वेलन्धर व्यन्तरदेव क्रीड़ा करते हैं ।। २४६० ।।
-
उनको गामेण गिरी, होति कर्ववस्त उत्तर दिसाए ।
वाभास afteरण विसाए से नीलमणि - वण्णा ।। २४९१ ॥
-
अर्थ
नामक पर्वत स्थित हैं। ये दोनों पवंत नोलम रिंग जैसे वर्णवाले हैं । २४६ १ ॥
- कदम्बपासालकी उत्तर दिशामें उदक नामक पर्वत और दक्षिण दिशामें उदकामास
--
सिव-रणामा सिवदेओ कमेण उवरिम्भिताच सेलाएं ।
कोल्पुभदेव
,
सरिन्छ, भाउ प्यहुबीहि चेति ।।२४६२ ॥
"
१. ८. ब. क. व. य.च.मबि २. द.क.म. य. कुबुभाटी व कुत्वभावो व कुपभासरे, ....उ. पट्टी
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तिलोयपहातो
[ गाचा : २४६३-२४६७ प्र:-उन पर्वतोंके ऊपर क्रमशः शिव और पिवदेव नामक देव निवास करते हैं । इनकी मायु-आदि कौस्तुभदेवके सदृश है ।।२४६२।।
वडवामुह • पुष्वाए, विसाए संक्ष ति पव्वदो होवि ।
पच्छिमए 'महसंखो, 'विसाए से संख- सम - वण्णा ।।२४६३।।
प्रम:-वड़वामुख पातालको पूर्व-दिसामें शङ्ख और पश्चिम-दिशामें महापाल नामक पर्वत हैं। ये दोनों ही पर्वत श सदृश वर्णवाले हैं ।।२४४३॥
उदगो उदगाभासो, कमसो उरिम्मि ताण चेट्टति ।
देवा आउ • पहुविस, सवगावल • देव - सारिग्छा ॥२४६४॥
म :-इन पर्वतोंपर क्रमशः उदक और उदकाभास नानक देव स्थित है। ये दोनों देव आयु-आदिमें उदक-पर्वतपर स्पिस देव सहस है 11२४६४।। afणामा होवि गिरी, बावलण-मामाम्म कसरिणो ।
रकबातो उत्तरए, भाए वेरलिप - मणिमया दोणि ॥२५६५॥
वर्ष :-यूपकेशरीके दक्षिण-मागमें दक नामक पर्यत पोर उसर भागमें दकयास नामक पर्वत स्थित हैं । ये दोनों ही पर्वत बसूर्यमणिमय हैं ।।२४६५॥
उपरिम्मि ताण कमसो, लोहिर-णामो य लोहियकक्लो ।
उदय - गिरिस्स सरिया, भाउ - प्पहरीस होलि सुरा ।।२४६६॥
मर्ष :--उन पर्वतोपर क्रमशः लोहित और लोहिता नामक देव निवास करते हैं। ये देव मायु-मादिमें उदक पर्वत पर रहनेषाले देव सहा ॥२४६५।।
एखाणं देवाण, गयरोमो प्रबर . अंबदीपम्मि ।
होति' निय-णिय-दिसाए, अपराजिव-रणयर-मारिच्छा ।।२veum
मर्ष :-इन देवोंको मगरियो अपर जम्बूद्वीपमें अपनी-अपनी दिशामें अपराजित नगरके सहम है ।।२४६७॥
१.व.ज.म. महालि, क. महसले । २... स. दिसु एसे। ३.५.क.ब... उ. सिय।
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गापा : २४१८-२५०२ ] उत्यो महाहियारो
[ ६६७ लवणसमुद्रस्य सूर्यदीपादिकोंका निर्देशबावाल • सहस्साई, जोपरगया जंबुवीय - जगदीयो । गंतूण अह वीवा, पामेर्ण 'सूरबीलो सि ||२४||
४२०००। अपं:-- जम्बूद्वीपकी जगतोसे वशालीस हजार ( १२... 1 मोबन जाकर 'सूर्यद्वीप' । नामसे प्रसिद्ध पाठ द्वीप हैं ।।२४६८।।
पुम्ब-पपग्निव-कोस्मह पहरोनं हवंति बोस पासेस।
एरे रीवा मणिमय, निरिणव - पासाद - रमणिमा ||२४||
मर्ग :- मणिमय जिनेन्द्र-प्रासादोंसे रमनीय ये द्वीप पूर्वमें बतलाए हुए कौस्तुभादिक पर्वतोंके दोनों पावभागोंमें स्थित है ।।२४६६।।
सम्बे समयट्टा, बाबाल - सहस्त - बोपण - पमाणा । परिपालय • चाक, ता - बेदी सोरहि सुदा ॥२५००॥
४२०००। मर्ग :-ये सब तोप गोल है । चयालीस हजार ( ४२०००) योजन प्रमाण विस्तार पुक्त हैं तथा सुन्दर मार्गो, मट्टालयों, तट-वैदियों एवं तोरणों से युक्त हैं ।।२५००।।
खेसंबर - देवावं, अहिवइ - देवा वसति एस।
बहु - परिवारा वस - षण • तुगा पल्स पमागाक ॥२५०१॥
मर्ग:-दस धनुष ऊँचे और एक पल्य प्रमाण प्रायुवाले वेलन्धर नामक अधिपति देव बहुत परिपारसे संयुक्त होकर इन वीपों में रहते हैं ।।२५० ।।
सवनंबुहि - जगवीरो, पविलिय बाबाल-गोपग-सहस्सा । बउ - गिरियो पासेलु, सूर - होवो न परवीवा ॥२५०२॥
१, . सुरखी।
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६६८ ]
तिलोयपाती
[ गाथा : २५०३-२५०८ मर्ग :--लकरणसमुद्रकी जगतीसे बयालीस हजार ( ४२००० ) योजन प्रमाण प्रवेश करके चारों पर्वतोंके पार्वमार्गोमें सूर्य द्वीपोंकी पोति चन्द्र-द्रीप है ॥२५०२॥
बारस - सहस्समेत्ता, जोयणया जंतुदीव - जगवीवो ।
गंपूर्णाणल • रिसाए, होदि समुद्दम्मि रवि - दीयो ।।२५०३।।
वर्ष : - लवणसमुद्र में जम्बूदीपको जगतीसे बारह हजार (१२०.० योजन प्रमाण जाकर बायण दिपा 'रवि' नामक द्वीप है ।।२५०३।।
मिलोवरियों , सारस- या ।
उत्तुंगो समयको, तेतिय - रंग य गोदमो गाम ॥२५०४॥
प्रपं:-चित्रापृथिदीके उमरिम तससे ऊपर बारह हजार ( १२.०० ) योजन प्रमाए ऊपा, गोल और बारह हजार योजन विस्तारवाला गौतम नामक द्वोप है ॥२५०४॥
विख्यो न्य वण्पण - दो, तरसेगा वि गोदमो गाम । 'सस्सि बीमाहिबई, पेटुति पल्लं पमाचाऊ ॥२५०५।।
प:-उम्र द्वीपका अधिपति गौतम नामक ग्रन्तरदेव एफ पस्य प्रमाण आयुवाला है और विजयदेवके समान वर्णनसे युक्त है ॥२५०५॥
भरहाभंतर - वष्णिव, गंगा - पभिषोए लवणतोपम्मि ।
संज्ज - जोयणाणि, गंपूर्ण होवि मागको दोस्रो ॥२५०६॥
वर्ष : पूर्व कथित प्ररतक्षेत्रको गंगानदीके पापवसे पवरणसमुद्र में संन्यात योजन आनेपर मागघद्वीप है ॥२५०६॥
उन्छेह-वास-पाविस, उपएसो तस्स संपइ - पट्टो।
चित्त पर - वण - चाह बिगिद-भवहि रमणिलो ।।२५०७॥
सपं :-( वह मागधद्वीप )चित्तको प्रिय रंगोंसे सुन्दर एवं जिनेन्द्र भवनोंसे रमणीय है। इस समय उस द्वीपके उत्सेन और विस्तारादिक विषयमे उपदेश नम हो गया है ।।२५०७।।
तस्ति रोवाहिवई, मागध - पामेग बतरो वेवो । बह - परिवारा कोडवि, विविह - विगोवेण सम्मि पल्लाऊ ।।२५०८।।
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गाषा : २५०६-२५१४ ] उत्यो महाहियारो
[ ६५६ भयं :- उस द्वीपका अधिपति मागध नामक व्यस्तर देव एक पत्यको मायुवाला है और उस दीपमें बहुत परिवार युक्त अनेक प्रकारके विनोद पूर्वक क्रीमा करता है ॥२५०८।।
पगिषीए नंबुबीच, खिवि - बणिय वइजयंत वारेस । संखेजड · गोपणागि, गंतूनं लवणसलिलम्मि ॥२५०६।। परतण • गामो वीओ, जिणिव-पासाव भूसियो रम्मो । इंदादित उपवेसो, कास - चसा तस्स उग्छष्णो ॥२५१०।।
प:-जम्बूद्वीपके पार्श्वभागके क्षेत्रमें (पूर्व) वणित वैजयन्त द्वारसे लवणसमुद्रके जल में संख्यात योषन जाकर जिनेन्द्र भवनों से विभूषित अत्यन्त रमणीय वरतनु नामक दीप है। जिसके विस्तार आदिका उपदेश काल-वश नष्ट हो गया है ॥२५०९-२५१०॥
तस्सि बोवाहियाई बरतणु • गामण तरी देवो।
बहू - विह - परिवार - अबो, कौरवि लोलाए पल्लाऊ ।।२५११।।
w:-उस द्वीपका अधिपति बरतनु-नामक व्यन्तरदेव एक पल्यको आयुषाला है पोर बहुत प्रकारके परिवारसे युक्त होकर लोसा-पूर्वक क्रीडा करता है ।।२५११।।
भरहक्लेस - पग्गिय, सिंधु-पणिषीए लवजलाहिम्मि ।
संखेज्म - जोयणाणि, गछिय बीमो पभासति ।।२५१२।।
पर्भ :-पूर्व वणित भरतक्षेत्रको सिन्धुनदी के पाश्वभागसे लवगसमुद्रके जलमें संभ्यास ___योजन जाकर प्रभास नामक द्वीप है ।।२५१२।।
मायषडीव • समारणं, सव्वं पिय वणणं पभासस्स । बेदि परियार - मुदो, पभास - पामो सुरो तस्सि ॥२५१३॥
।-प्रभासद्वीपका सम्पूर्ण वर्णन मागधद्वीपके सहा है । इस द्वीपमें परिवारसे युक्त ___ होकर प्रभास नामक देव रहता है ।।२५१३।।
एरावर - विजनोविद - रपोरा • पाहिगीए पगियोए । मागणदीव - सरिच्छो, होवि समुद्दम्मि मागषो बोलो ।।२५१४॥
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७.
तिलोयपण्णत्ती [ गापा : २५१५-२५१६ प:-ऐरावत-क्षेत्रमें कही हुई रक्तोदा नबोके पावभाग, मागयद्वीपके सहन (लवरण) समुद्र में मागपदीए है ।।२५।४।। १० प्रबरराजित-गरम्य पनि होलि पणजलहिम्मि ।
बरसनु - गामो वीमो, बरतम् - दोबोवमो भन्यो ।।२५१५।।
:-प्रपराजितद्वारके पार्श्वभागमें वरतनुद्वीपके सहश्च मन्य करतनु नामक दीप लवणसमुद्र में स्थित है ॥२५१५।।
एरावर-शिवि-जिग्गव-रता पणिपीए लवजहिम्मि ।
प्रयो पभास - बोसो, पभास - बोलो बि ।।२५१६॥
प:-सवणसमुबमें ऐरावतक्षेत्रमेंसे निकली हुई रक्तानदीके पार्वभागमें प्रभासढीएक सहा मन्य प्रभासदीप स्थित है ॥२५॥
ने अम्मंतरभागे, सबणसमुहस्स पम्बा बोबा ।
से सने बेट्टतेगियमेवं वाहिरे भागे ।।२५१७।।
पर्य:-लवणसमुद्रके अभ्यन्तरभागमें जो पर्वत पोर ढोप हैं, वे सब नियमसे उसके बाह्यभागमें भी स्थित है ॥२५१७॥
४८ कुमानुष-दीपोका निरूपणसेवा लवणसमुई। अबदाल कुमानुसाण चरबीसं । साभतरम्गि भागे, तेत्तियमेवाए बाहिरए ॥२५१८॥
४८ । २४ । २४ वर्ष :-लवणसमुहमें पड़तालीस (४८) कुमानुष-दोष है । इनमें से चौबीस ( २४ ) द्रोप तो अम्पतर भागमें मोर इतने ( २४ ) ही बाल-भागमें हैं ।।२५१t
चत्तारि चउ-विसास', पर - विवितासहति पत्तारि । अंतर - विसास अट्ट य, अटु य गिरि-पमिषि-लागेल ॥२५१६॥
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गाथा : २५२०-२५२२ ] उत्यो महाहियारो
। ६७१ पर्थ:-चोवीस होपोंमेंसे चारों दिशाओं में चार, पारों विदिशाओं में मार, अन्तर-दिशाओं में माठ और पर्वतोंके पार्श्वभागों में आठ (४+४+६+६=२४) जीप हैं ॥२५.६।।
पंच • सय • जोवणाणि, गणं जंबुवीय - जगदीदो। वत्तारि होति दोवा, विसास विविसास तमोत्तं ॥२४२९t RTE
५०० ।५००। भ:-जम्बूद्वीपकी जगतोसे पाचसो ( ५०० योजन जाकर चार दीप चारों दिशापोंमें और इतने ( ५००) ही योजन जाकर चार दोप चारों विदिशाओं में भी हैं ॥२५२०।।
पषणाहिय - पंच - सया, गंतूर्ण हॉति अंतरा रोगा। छस्सप • जोगणमेस, गछिय गिरि-पनिधि-गव-दीवा ॥२५२१।।
५५ । पर्य :- अन्तर दिशाओं में स्थित द्वीप जम्बूद्वीपको जगतोसे पाचसो पचास (५५०) योजन ___ और पर्वतोंके पावभागोंमें स्थित होप छहसो योजन प्रमाण जाकर है ।।२५२१॥
एक्क-सयं परावना, पणा पणुवीस जोयगा कमसो। वित्यार • अवा ताणं, एपकवक होवि ता • वेदी ।।२५२२।।
१०० । ५५ । ५० । २५ ।
अ :-ये तोप कमशः एफसी, पचपन, पचास और पच्चीस योजन-प्रमाण विस्तार सहित है । इनमेंसे प्रत्येक द्वीप एक-एक तट-वेदी युक्त है ।।२५२२॥
दिशीवार्य :-( गा० २५१८ से २५२२ तक का ) लबरण समुद्र के प्रभ्यन्तर तटसे हरकी ओर और बाह्यतटसे मौतरको प्रोर दिशा सम्बन्धी १००-१०० योजन विस्तार वाले चार ढोप ... योजन दूर (असकी ओर ) जाकर हैं। विदिशा सम्बन्धी ५५-१५ योजन बिस्तार वाले चार दोप ५.० योजन दूर है । मन्तर दिशा सम्बन्धी ५०-10 योजन विस्तारवाले माठ द्वीप ५५० योजन दूर हैं और पर्वतोंके निकटवर्ती २५-२५ योजन विस्तारवाले पाठ द्वीप ६०० योजन दूर जाकर स्थित है। लवरणसमुद्रगत ४८ कुमानुष द्वीप अर्थात् कुभोग-धूमियोंका चित्रण निम्न प्रकार है
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१५२ )
तिलोयपणसी
[ गापा : २५२३
b)
जेम्थ-हीप
तेसो वर - बीषा, ब - संहि रहेहि रमनिम्मा ।
फल हुसुम-भार-भरिया, रसेहि महरेहि सनिलेहि ॥२५२३॥
मर्थ :-वे सब उत्तम द्वीप मधुर रस वाले फल-फूसोंके भारसे युक्त बन-खण्डों पौर अलसे परिपूस तालाबोंसे रमणीय है ॥२५२३॥
१. ८. ३. क. ३. भविस।
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गाथा : २५२४-२५२८ ] पजत्यो महाहियारों
[ ६३ कुभोगभूमिमें उत्पन्न मनुष्योंकी प्राकृतिका निरूपणएस्कोरक - लंगुलिका', पैसणकाभासका म गामहि । पुब्वाविस विसास, बउ - दीवाणं कुमागुसा हॉति ॥२५२४॥
:-पूर्वादिक दिशाओं में स्थित चार द्वीपोंके कुमानुष क्रमशः एक अंधाराले, पूछवाले, भीपवाले और प्रभाषक अर्थात् गूगे होते हुए इन्हीं नामों से युक्त हैं ।।२५२४।।
सबकुलिकच्चा कम्णप्पावरचा लंबकण्ण - ससकाया । अग्गि - दिसाविस कमसो, चउ - शेव-कुभागसा एवं ॥२५२५॥
-प्राग्नेय-आदिक विदिशाओंमें स्पिस चार टोपोंके ये कुमानुष क्रमशः शष्कुलीकणं, कर्णप्रावरण, लम्बकणं और शशकणं होते हैं ॥२५२५॥
सिंहस्स - साण-महिस'-बरहा-सप्पूल-चूक-कपि-वबणा ।
समलि - कन्जेकोरुग - पाहुदीगं अंतरेस से कमसो ॥२५२६॥
वर्ग :-भाष्कुलोकर्ण और एकोरुक आदिकोंके बोचमें अर्थात् अन्तर-दिशामोंमें स्थित माठ धोपोंके पे कुमानुष क्रमशः सिंह, अश्व, श्वान, महिए, वराह. पाल, घूक और बन्दरके मुत सहा मुखवाले होते हैं ।।२५२६।।
मच्छ-मुहा काल-मुहा, हिमगिरि-पणिषोए पुष्व-पच्छिमयो।
मेस - मुह • गो - मुहम्खा, दक्षिण-वेयरड-परिणबीए ॥२५२७।।
प्रर्ष :--हिमवान पर्वतके प्रणिधिभागमें पूर्व-पश्चिम दिशामों में क्रमश: मत्स्यमुख एवं कालमुख तथा दक्षिण-विजया के प्रणिधिभागमें मेषमुख एवं गोमुख कुमानुष रहते हैं ॥२५२७।।
पुष्वापरेण सिहरि - प्पणिपीए मेघ-विज्यु-मुह-शामा । आईसण - हरिव - मुहा, उत्तर - वेयस - पचिपीए ॥२५२६॥
१... क. प. य. र, रंगुलिका । २. . . . पाणपहरिपोबरहा । इ. स. प. सारखबहरित
___
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starts ... Nikk
sath xxx. १६ ६७४ ]
तिलोयपष्णात्ती [ गाथा : २५२६-२५३० धर्म:-शिखरीपर्वत के पूर्व-पश्चिम प्रणिधिभागमें क्रमश: मेघमुख एवं विद्य न्मुख तथा ___ उत्तर-विजयार्षके प्रणिधिभागमें प्रादर्श ( दर्पण ) मुख एवं हस्तिमुख कुमानुष होते हैं ।।२५२८।।
एबकोरुगा गुहासु, वसंति भुजति मट्टियं मिझें ।
सेसा तर - तल - वासा, पुप्फेहि फलेहि जीपंसि ।।२५२६॥
प्रथं :- इन सबमें से एकोरुक कुमानुष गुफाओं में रहते हैं और मोठो मिट्टी खाते हैं। शेष सब कुमानुष वृक्षोंके नीचे रहकर फल-फूलोंसे जीवन व्यतीत करते हैं ॥२५२६।।
पाइसंग - विसास, तेलियमेता वि मंतरा दोवा ।
तेसु तेसियमेसा, कुमाणसा होति सपणामा ॥२५३०॥
प:-धातकोखण्डद्वीपको दिशाओंमें भी इसने ( ४८ ) हो अन्तरदीप और उनमें रहने वाले पूर्वोक्त नामोंसे युक्त उतने ही कुमानुष है ॥२५३०।।
विरोधार्य :--सरणसमुद्रकी पूर्व दिशागत द्वीपोंमें एकोएक-एक जंघावाले, दक्षिण में लांगलिका-पुछवाले, पश्चिममें वैषारिणक-सींगवाले भोर उत्तर दिशामें अमाषक-गूगे कुमनुष्य रहवे है। आग्नेयमें शकुलिकर्ण, नैऋत्य कर्णप्रावरण-जिनके कर्ण वस्त्रोंके सदृश शरीरका प्राच्छादन करते हैं, वायम्पमें सम्बकर्ण और ईशानमें पाशकर्ण कुमनुष्य रहते है । दिशा एवं विदिशामोंके पाठ अन्तरालोंमें क्रमशः सिंहमुस, अश्वमुख, स्वानमुख, महिष ( मैसा ) मुख, वराह (सूकर) मुख, शार्दून (म्याघ्र ) मुख, घूक ( घुग्घू । मुख मोर नन्दरमुख कुमनुष्य रहते है। हिमवान् कुलापलके समीप पूर्वदिशामें मीनमुख मोर पश्चिममें कालमुख, दक्षिण-विजया के समीप पूर्व में मेषमुख और पश्चिममें गोमुख, शिखरोकुलाचलके पूर्व में मेषमुक्ष और पश्चिममें विद्य मुख तथा उत्तर-वित्रपाके पूर्व में दर्पणमुख और पश्चिममें हाथीमुख कुमनुष्य रहते हैं।
[ चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये }
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गाथा : २५३१ ]
पजत्यो महाहियारो इनका चित्रण निम्न प्रकार है
---स
प्रा
.
...
.
.
प
यमुभ ,
"आमचा
विनयाई श '-- कमिसन पर्वत -- --
सम्प-दीप
अतिक
करमाका
।
।
।
।
JIII.:
LI
Mos.
पिनमा
पर्वत-
म fecare
'
garam
HARDunt
नन । मामा
.
।
.
मतान्तरसे उन द्वीपोंकी स्थिति एवं कुमानुपके नाम भिन्नरूपसे दक्षति है
लोयविभागाइरिया, वीषाण कुमाणुतेहि सुतारणं ।
अण्ण - सहवेभ हिर, भासते तं पायमो ॥२५३१॥
मषं : लोकविभागाचार्य कुमानुषोंसे युक्त उन द्वीपोंकी स्पित्ति मिलापसे बतलाते हैं। (अब उसके अनुसार ) उसका निरूपण करते हैं ।।२५३११॥
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६७६ ]
तिलोयपण्णत्ती
पणाधिय पंच सया, गंतूगं जीयगारिण विदितासु ।
-
जीवा दिसासु अंतर दिसासु पष्गास परिहीचा ||२५३२ ॥
·
५५० । ५०० । ५०० ।
अर्थ :- ये द्वीप जम्बूरोपकी जगतीसे पाँचसो पचास (५५० ) योजन जाकर विदिशाथों में और इससे पचास योजन कम अर्थात् केवल ( ५०० ) योजन प्रमाण जाकर दिशाओंमें एवं (५०० यो० ही ) अन्तर- दिशाओंमें स्थित है ।। २५३२ ।।
-
[ गाथा : २५३२-२५३५
आचार्य श्री शुक्र की
ओपन-सव-विषखंभा, अंतर दीवा तहा दिसाचीवा पण यंदा विदिसा-चोदा पचबोस सेल-पविधि-गया ।। २५३३ ॥
१०० । १०० । ५० । २५ ।
अर्थ:-अन्तर- दिशा तथा दिशागत द्वीपोंका विस्तार एकसो (१००) योजन, विदिशामें स्थित द्वीपोंका विस्तार पचास (५०) योजन और पर्वतोंके परिधिभागों में स्थित द्वीपोंका विस्तार पच्चीस (२५) योजन प्रमाण है ।। २५३३ ।।
पुम्बं व गिरि-पणिविनया छत्तय जोयणानि बेदु ति-
अयं :- पर्वत - प्रणिषिगत द्वीप पूर्वके सदृश हो जम्बूद्वीपकी जगतीसे सी (६०० ) योजन जाकर स्थित हैं।
एक्कोदक- वेसचिका, संगुलिका तह अभासपा तुरिमा ।
पुरुवाबिसु विदिसास, चउ-वीवागं कुमामुसा कमसो ।। २५३४ ।।
अर्थ :- पूर्वादिक दिशाओं में स्थित चार द्वीपोंके कुमानुष क्रमशः एक जंधावाले, सींगवाले, खवाले और गूगे होते हैं ।। २५३४ ।।
-
प्रलाविस बिदिसास, ससकना ताण उभय-पासेसु ।
मट्ठ व अंतर - बीबा, पुन्वग्मि विसावि गणा ।।२५३५ ।।
-
अर्थ :- आग्नेय आदिक विदिशा शोंके चार द्वीपों में कर्ण कुमानुष होते हैं। उनके दोनों पादभागों में मार अन्तरद्वीप हैं, जो पूर्व-आग्नेय दिशा दिके क्रमसे जानना चाहिए ।। २५३५॥
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गावा : २५३६-२५३६ ] घउत्यो नहाहियारों
[ १७७ पुष्प-विसदिव्य एकोहकाण, पम्गि - सिदिव्य सस - कणाणं, विच्चाला विसु कमेण अरोच-विकास-बोमणा माल
:-पूर्व दिशामें स्थित एकोस्क पोर बाग्नेय दिशामे स्थित शासकर्ण कुमानुषों के अन्तराल आदिक अन्तरालोंमें क्रमशः आठ अन्तर-द्वीपों में स्थित कुमानुषों के नामोंको गिनना चाहिए
केसरि महामणुस्सा, चलि कम्पास चक्कुली - कण्णा । साण-महा कपि-पदण, पाकुलिकण्णा अपक्कली-कण्णा ॥२५३६।। ह्य • कण्णाई कमसो, कमाणसा तेस' होति दीवेस । धूल-मुहा काल-मुहा, हिमवंत-गिरिम्स पुष्व-पछिमरी ॥२५३७॥
प्रचं:-इन अन्तरद्वीपोंमें क्रमशः केशरीमुख, पाबुलीकणं, शकुलिकर्ण, श्वानमुख, कानरमुख, शकुलिकर्ण, शकुलिकर्ण और प्रश्वकर्ण कुमानुच होते हैं । हिमवान् पर्वतके पूर्व-पश्चिमभागोंमें कमश: कुमानुष घूक ( जल्ल ) मुस और कालमुख होते हैं ।।२५३६-२५३७।।
गो-मूह-मेष-मुहकक्षा, दक्षिण वेयड-पणिषि-बीवेत" ।
मेष-मुहा विश्व-महा, सिहरि-गिरिदस्त पुग्ध-पच्छिमदो ॥२५३८।।
सर्ग :-( वे कुमानुष ) दक्षिण-विजयात्र के प्रसिधिभागस्थ द्वीपों में गोमुख और येवमुख तपा शिखरी-पर्वतके पूर्व-पश्चिम द्वीपोंमें मेघमुख और विद्यान्मुख होते हैं ।।२५३८।।
बप्पण-गप-सरिस-नहा, उसमयड्व-पनिविभाग-पक्ष । प्रारभतरम्मि भागे पाहिए होंति सम्मेत्ता ॥२५३६॥
:-उत्तर-विजयार्षक प्रणिधिभागोंको प्राप्त हुए वे कुमानुष क्रमशः दर्पण पोर हापी सद्दश मुखवाले हैं। जितने (२४) कुमानुष अभ्यन्तर भागमें हैं, उतने ( २४ ) ही माझमागमें है ॥२५३६॥
---
-
-
-
-..
१. इ.स..प.प. उ. दोमु ।
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१७८ ]
तिलोपपण्णत्ती
कुमानुष द्वोषोंमें कौन उत्पन्न होते हैं ? उसका निरूपण
f
मिच्छत्त- तिमिर छण्बर, मंग कसाया पियंधवा कुडिला । मिच्छा देवेस भतिपरा ।। २५४०॥
धम्मफलं
मग्नता
सुद्धोवण-सलिलोदण- कंजिय-असरावि-कट्ठ-सुकिलिट्ठा । किलेस जयंता ||२५४१ ।।
पंचरिंग तवं जिसमें, फाय
·
सम्मत- रमरण- हीणा, कुमानुसा लवणजलहि दोबेस । उपपति अण्णा, अण्णाण जलम्मि मता ।।२४४२ ॥
-
जे मायाचार इरिस
a
ए:- मिथ्यात्वरूपी अन्धकार से प्रास्छन्न मन्द- कषायी, प्रिय बोलनेवाले, कुटिल (परिणाम), धर्म-फलको खोजनेवाले, मिथ्यादेवोंकी भक्ति में तत्परः सुद्ध श्रोदन, जल और प्रोदन एवं कांजी खाने कसे संक्लेशको प्राप्त विषम पञ्चाग्नितप तथा कायक्लेश करनेवाले और स्वरूपी रतनसे रहित अज्ञानरूपी जलमें गूबते हुए मधन्य ( पुष्यहीन या प्रकृतार्थ या बशानी ) जीव लवणसमुद्र के द्वीपोंमें कुमानुष उत्पन्न होते हैं ।। २५४० - २५४२ ।।
अवि-मारण- गवा जे. साहून कुषंति किंचि 'प्रवमाणं ।
संजय लव कुत्ता, जे निबंधान सभा बेंति ।। २५४३ ।।
·
-
·
-
w
पारव
पूल सहमादिवाएं, जे सम्झाय - वंदनाओ, में मेडिय सुनि संघ, जे कोण य कलहं
रवा, संगम-सब-योग-बज्जिदा पाया ।
साव
[ गाथा २५४० - २५४६
-
→
-
गढ़वा जे मोहमाबन्या ।।२५४४ ।।
पालोचंति गुब-जन-समीये ।
पुरु सहिया या कुम्बति ।। २५४५ ।।
वसंत एकाकिनो दुराचारा । "सव्र्व्वहितो
पकुव्वंति ।। २५४६ ।।
१. प. म. म. उ. तिमिरता। २. बचाव.क. म. प. उ. प्रमाणा ४.ब.क. ज. प उ सम्पत ६ ६ ३ . . प. उ
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गाथा : २५४७ - २५५१ ]
आहार - सण परिमाणं जिन
-
उत्यो महाद्दियारो
सत्ता, लोह-कसएण जणित-मोहा जे 1
लिगं, पावं कुवंति में घोरं ।। २५४७।।
-
·
ओ कृव्वंति न भक्ति, अरहंताणं तहेव साहूणं ।
शे वच्छल्ल बिहोणा, चाउल्याणम्स संघम्मि ।। २५४८ ।।
-
जे गेहंसि सुष्ण-वि जिण-लिंग-धारिणो हिट्ठा । कृष्णा - विवाह संग लुका
जे भुजंति विहीणा, मोर्णणं घोर पाव संलग्गा अणअण्णवजयादो, सम्मत" जे
ते काल यसं पता, फलेण पावाण विसम उप्पकति कुरुवा, कुमालुसा जलहि
·
f. 4. 4. 5. 3. 4. a. fegti
विशासति ।। २५५० ।।
[ ६७६
-
-
पाकाणं ।
दीवसू ।। २५५१।।
:- जो (जीव ) तीव्र प्रभिमान से गवित होकर, सम्यक्त्व और तपसे युक्त साधुओंका किञ्चित् भी अपमान करते हैं। जो दिगम्बर साधुओंको निन्दा करते हैं. जो पापी, संयम-तप एवं प्रतिमायोगसे रहित होकर मध्याचार में रत रहते हैं, जो ऋद्धि, रस और सात इन तीन गारोसे महान होते हुए मोहको प्राप्त हैं, जो स्थूल और सूक्ष्म दोषोंको भालोचना गुरुजनोंके समीप नहीं करते हैं, जो गुरुके साथ स्वाध्याय एवं वन्वनाकर्म नहीं करते हैं जो दुराचारी मुनि संघ छोड़कर एकाकी रहते हैं, जो क्रोध के वशीभूत हुए सबसे कलह करते हैं, जो आहार संज्ञा में प्रासक्त और लोमकषायसे मोहको प्राप्त होते हैं जो जिन-लिंग धारण करते हुए (भी) घोर पाप करते हैं, जो अरहन्तों ( भाचार्य - उपाध्याय ) तथा साधुओं की भक्ति नहीं करते हैं जो चातुर्वण्यं संघके विषयमें वात्सल्यभावसे विहीन होते हैं; जो जिनलिके घारी होकर सुवर्णादिकको हर्ष से ग्रहण करते हैं, जो संयमीके वेषसे कन्या विवाहादिक करते हैं. जो मौनके बिना भोजन करते हैं, जो घोर पापमें संलग्न रहते हैं, जो अनन्तानुयन्धिचतुष्टयमसे किसी एक के उदित होनेसे अपना सम्यक्त्व नष्ट करते हैं, वे मृत्युको प्राप्त होकर विषम परिपाककाले पाप कर्मों के फलसे ( लवण और कासोदक ) समुद्रोंके इन द्वीपोंमें कुत्सितरूपसे युक्त कुमानुष उत्पन्न होते हैं ।।२५४३ - २५५१ ।।
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तिलोयपणती
[ गापा : २५५२-२५५३ इसो विषयका प्रतिपादन त्रिलोकसार गाथा १२२-४२४ में निम्नप्रकारसे किया
__ गया है
जिण-सिगे मापावी, बोरस-सोवनीक पण-कक्षा। मा-गरब-सरण-गुवा, करति जे पर - विवाहं पि ॥१॥ सण - विराहपा मे, रोसं पासोचति सागा। पंचाग्गि - मा मिण्या, मोरणं परिहरिय मुसि ॥२॥ बुम्मा प्रति पूषण • पुष्पा -वाइ-संकराचीहि । काय बागा वि कुवत, जीवा कुणरेसु ब्रायंते ॥३॥
पर्य :-जो जौन जिनसिंग धारणकर मायाचारी करते हैं, ज्योतिष एवं मायापि विधामों द्वारा आजीविका करते हैं. घनके पछफ है, तीन गारव एवं चार संज्ञामोंसे युक्त हैं. गृहस्पोके विवाह मादि कराते हैं. सम्यग्दर्शनके विराषफ है. अपने दोवोंकी पालोचना नहीं करते, दूसरोंको दोष लगाते हैं, जो मिसाइल पञ्चालितप तप । मौन बोरकर माहार करते हैं तथा जो दुर्भावना, अपवित्रता, सूतक प्रादिसे एवं पुष्पवती स्त्रीके स्पर्शसे युक्त तया ( 'विपरीत कुलोंका मिलना है लक्षण जिसका ऐसे ) जातिसकर आदि दोषों सहित होते हुए भी दान देसे हैं और ओ कपात्रोंको दान देते हैं, वे सब जीव मरकर मनुष्यों में उत्पन होते है। मोट :-जम्बूद्वीप पणती सर्ग १० गाया ५E-GE में भी यही विषय दृष्टव्य है।
कुमानुषोंका वर्णनगम्भावो ते मणुवा, युगलं बुगला सुहेन लिसरिया ।
तिरिमा समुच्चिदेहि, विणेहि पाति तारमा ॥२५५२।।
मर्ष:- मनुष्य और सियंच युगस-युगसरूपमें गर्नसे सुखपूर्वक निकसकर पात् जन्म लेकर समुचित दिनों में योवन धारण करते हैं ।।२५५२।।
बे-धणु-सहस्स-तुंगा, मंद-कसाया पियंग - सामलया । सम्बे ते पल्लाऊ, कुभोग - मूमीए बेळंति ॥२५५३।।
'-धणु-सहस्सन्तुमा
१. निमोसार हिन्दी, पं. टोग्रपमगी पृ. ॥२। २. प. प. म. ज. प. उ. अणुसहस्स ।
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गाया । २५५४-२५५६ ]
चत्वो महाद्दियारो
[ ६८१
|
- वे सब कुमानुष दो हजार (२०००) धनुष ऊंचे होते हैं, मन्दकषायी, प्रियंगु सहपा श्यामल और एक पस्यप्रमाण आयुसे युक्त होकर कुभोगभूमिमें स्थित रहते हैं ।। २५५३ ।।
तम्भूमि जोग- भोगं, भोरणं आउसास प्रवसा । कासवसं संपत्ता, जायंते भवन तिक्यम्मि ।। २५५४ ॥
:- उस भूमिके योग्य भोगोंको भोगकर वे आयुके अन्तमें मरणको प्राप्त हो भवनत्रिदेवोंमें उत्पन्न होते हैं ।। २५५४ ।।
-
सम्म सखरपणे आहि हिरवा विहेषु, सोहम्मदुर्गामि जायते ।। २५५५ ।।
बीवेसु च
अयं :--इन चार ( प्रकारके ) द्वीपोंमें जिन मनुष्यों एवं तियंत्रोंने सम्यग्दर्शनरूप रत्न ग्रहण कर लिया है वे सोघमंयुगल में उत्पन्न होते हैं ।। २५५५ ।।
सवरणसमुद्रस्य मत्स्यादिकों को अवगाहना
अ. य. उ. प्रो
-
-
णव ओयण सोहता, तवद्ध वासा तवज्रा ।
तेसु गई मुह मच्छा पक्कं होंति पउपरा' ।। २५५६ ।।
-
-
-
ε।।।।
अर्थ :-- लवण समुद्र में नदी-मुखके समीप रहनेवाले मत्स्योंमें प्रत्येककी लम्बाई नो ( ६ ) योजन, विस्तार साढ़े चार ( ४३ ) योजन और मोटाई सवा दो ( २३ ) योजन प्रमाण है ।। २५५६ ।।
लवनोवहि-बहू- मन्छे, मच्छानं वीह वास-बलाणि ।
सरि मुह मच्छाहितो, हर्बति गुणप्पमानामि ।। २५५७ ।।
W
#
अयं :- लवणसमुद्रके बहु-मध्य भागमें मस्स्योंकी लम्बाई, विस्तार और बाल्य नदीमुख-मरस्योंकी प्रपेक्षा दुगुने प्रमाणसे संयुक्त है । श्रर्थात् लम्बाई १८ योजन, विस्तार ६ योजन और मोटाई ४ योजन प्रमाण है ।। २५५७।।
M
·
सेसेषु ठाणे बहु विह-जग्गा जन्मिदा मच्छा । मयर सिसुमार कब मंडूक पहुविरोध
-
॥२५५८ ॥
१. य. ब. क. प. प. उ. परत | २. ब. ग्म । १.... वय उ. मगरमं । ४.ब. क.
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६८२ ]
तिलोयपण्णाती
[ गाया ! २५५६-२५६१ :–ोष स्थानोंमें बहुत प्रकारको अवगाहनासे अन्वित मत्स्य, मकर, शिशुमार, कछवा __ और मेंढक आदि अन्य जल-जन्तु होते हैं ।।२५५८।।
लवणसमुद्रको जगतो एवं उसको बाह्य-परिधिके प्रमाणका निरूपणNEPAL ... मलविस्स
दीव-जगवीए । अग्भंतर सिलवई, बाहिर - भागम्मि होधि वनं ।।२४५६।।
भू १२ । म ८ ।मु ४। ८। पर्य :-लवणसमुद्रको जगती जम्बूद्वीपकी जगसीके तद्दश है । अर्थात् जम्बूद्वीपकी जगतीके सदृश इस जगतीका भूमि विस्तार १२ योजन, मध्य विस्तार ८ योजन, शिखर ( मुख) विस्तार ४ योजन और ऊंचाई आठ योजन प्रमाण है। इस जगतोके अभ्यन्तरमागमें शिलापट्ट और बाह्यभागमें वन हैं ।।२५५९॥
पण्णारस - लखाई, इगिसोदि-सहस्स-जोमणाणि सहा । उपवाल-जुदेवक-सयं, बाहिर-परिषी समुद् - अगवीए ।।२५६०॥
१५८११३८ । लय :-इस समुद्र-जगतोकी बाल परिधिका प्रमाण पन्द्रहलाख इक्यासो हजार एक सो उनतालीस { १५८११३९ ) योजन है ।।२५६० ।।
_ विवाएं :--लवणसमुद्रका बाह्य सूची व्यास ५००००० योजन प्रमाण है । गापा के नियमानुसार इसकी परिधिका प्रमाण परिघि=Vला०४५ला.x१०=१५८११३८ योजन प्राप्त होते हैं और योजन मवशेष बनते हैं जो प्रायसे अधिक है मत: उसका एक अंक ग्रहण कर ३८ के स्थान पर ३६ कहे गए हैं।
वलयाकार क्षेत्रका सूक्ष्म क्षेत्रफल निकालनेकी विधिगणि-च्चिय सूचीए, इन्धिय-चलयारण' बुगुण-वासाणि । सोषिय प्रवसेस - कवि, पासक - कोहि पुषिणं ॥२५६१॥
१. इ. ब. क. प. य. उ. बलयाणि ।
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गया : २५६२-२५६४ ]
महाहिया से
गुणिडून बसेहि तबो इच्छिय वलया होदि करनि-फलं ।
7
नं ताण बरमूलं सुटुमफलं तं चि णावव्वं ।। २५६२ ।।
:- दुगुनी सूची मेंसे इच्छित गोलक्षेत्रोंके दुगुने विस्तारको घटाकर जो शेष रहे उसके वर्गको अर्ध-विस्तार के वर्गसे गुणा करके उसे पुनः इससे गुणा करनेपर जो राशि प्राप्त हो वह इ गोलक्षेत्रका वर्गफस प्राप्त होता है मीर उस वर्ग - राशिका वर्गमूल निकालनेपर जो लब्ध प्राप्त हो सरप्रमाण इच्छित वलयाकार क्षेत्रका सूक्ष्म-क्षेत्रफल जानना चाहिए ।।२४६१-२५६२ ।।
कार्यक:-भावाने श्री
त्रफलका प्रेमास
यवक-छ-णव-पंच-छ-छ-तिय-सस- नवय अट्टक्का । जोयनया क कमे, बेचफलं लवणजलहिस्स ।। २५६३ ।।
·
-
[ ६८३
१८६७३६६५१६१०१ 1
अर्थ :- सून्य, एक, छह, नो, पाँच, यह छह, तीन, सात, नो, आठ और एक इस अंकक्रमसे जो (१८६७३६६५९६१०) संख्या निर्मित हो उतने योजन प्रमाण वरणसमुद्रका सूक्ष्मक्षेत्रफल है ।। २५६३॥
विशेषार्थ :- लवण समुहकी माह्य सूखी ५ लाख योजन भर व्यास २ साख योजन है. श्रतः उपयुक्त नियमानुसार उसका सूक्ष्म क्षेत्रफल इसप्रकार होगा
[VI { Loooo* x २ ) - ( २०००००x२ ) | × (199094 } 1 x १०= १८६७३६६५६१० योजन सूक्ष्मक्षेत्रफल प्राप्त हुआ तथा १५४५ योजन अवशेष रहे जो छोड़ दिए गए हैं।
जम्बूद्वीप एवं लवणसमुद्रके सम्मिलित क्षेत्रफलका प्रमाण
---पण-सि-दु-उ- अस्सल- नवय-एक्काई ।
खेत्तफलं मिलिवाणं, जंबूदोवस्स लवणजल हिस्स ।। २५६४।।
१६७६४२३५३७६०
२. प. उ. परंतप । २.व.उ. १०६७३१६५६१०
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६८४ ]
तिलोयपगणती [ गापा ! २५६५-२५६६ म:-शून्य, छह, सात, सोन, पांच,सोन, दो, चार, छहसात, नौ और एक इस अंकक्रमसे जो संख्या निर्मित हो उतने ( १९७६४२३४३७६० ) मोजन प्रमाण जम्बूद्वीप एवं लवणसमुदका सम्मिलित क्षेत्रफल है ।।२५६४॥
विशेषार्ष:-इसी अधिकारमें गाथा ५६ से १६ पर्यन्त जम्बूद्वीपका जो क्षेत्रफल कहा गया है उसमेंसे मात्र ७६०५६१४१५० यो हिसकर उसमें सागरी पुन्हा सामान मिला ने दोनोंके सम्मिलित क्षेत्रफलका प्रमाण ( ७६.५६६४१५०+१८९७१६६५६६१०) - १९७६४२३५३७६० योजन प्राप्त होता है।
जम्बूद्वीप प्रमाण खण्डोंके निकालनेका विधानमाहिर • सई • वग्गो, आभंतर - सूप-बाग-परिहोलो । लक्सस्स 'कोहि हिवो, अंगोब - पमाणया संग ॥२५६५॥
पं:-बाह्य सूचौके वर्ग से अभ्यन्तर सूचीके बर्गको कम करनेपर जो शेष रहे, उसमें एफ लाखके वर्गका भाग देनेपर लग्ध संख्याप्रमाण जम्बूदोपके समान सण होते हैं ॥२५५६।।
लवणसमुद्रके अम्बूद्वीप प्रमाण खण्डोंका निरूपण'बउवोस जलहि • खंग, जदूरीष - पमाणको होति । एवं लवनसमुदो, वास • समासेग मिनिट्ठो ।।२५६६॥
एवं लवणसमुहं गवं ॥३॥ म: जम्बूद्वीपके प्रमाण लवरासमुद्रके चोयीस बम होते हैं। इसप्रकार संक्षेपमें लवणसमुहका विस्तार यहाँ बतलाया गया है ।।२५६६।।
विरोवा:-सवरणसमुद्रको बाह्यसूची ५ लाख योजन मौर अभ्यन्तर सूची १ लाख योजन है। गापा २५१५ के नियमानुसार उसके जम्बूढावधमाण खण्ड इस प्रकार होंगे{ १००.००-१००००.२) १००.००'२४ खण्ड । अर्थात् लवणसमुद्रके जम्बूद्वीप सदृश २२ टुकड़े हो सकते हैं।
इसप्रकार लवणसमुद्रका वर्णन समाप्त हुमा ॥३॥
१. द.म.स. . प. उ. दिम्हि ।
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गाया । २५६७-२५७१ ]
* घातकीखण्ड
धावदसंडो दोवो, परिवेढदि' लवणजलनिहि सयलं । जोयणाई, विस्थिनो weeवालेणं ।। २५६७ ।।
चल
·
-
-
metrof
द्वीप चार लाख (४००००० ) योजन प्रमाण विस्तार युक्त है ।। २५६७ ॥
सोलह अन्तराधिकारों के नाम
जगदी विज्ञासाई, भरहखियो तम्मि कालमेवं च । हिमगिरि हेमबदा महमिवं हरिवरिस जिसही ।। २५६८ ॥
त्यो महाहियारो
·
→
४००००० |
विजयो विबेहणामी, गोलगिरी रम्मपरिस- हम्मिगिरी | हेरन्यवदो बिजओ, सिहरी एरावदो सि वरिसोय ।। २५६६॥ एवं सोलस एहि ताण
पूर्ण वेष्टित करता है । मण्डलाकार स्थित यह
मेदा, बावइसंबस्स अंतरहिमारा | वोच्छामो
सरुगं,
M
1
अयं जगती, विन्यास, भरतक्षेत्र, उसमें कालभेद, हिमवान् पर्वत, हैमवत क्षेत्र, महाहिमवान् पर्वत, हरिवर्षक्षेत्र, निषषपवंत, विदेहक्षेत्र, नीलपर्यंत, रम्यकक्षेत्र, रुक्मिपर्वत हैरण्यवतक्षेत्र, खरीपर्यंत ऐरावतक्षेत्र, इसप्रकार धातकीखण्डद्वीप के वर्णनमें ये सोलह भेदरूप अन्तराधिकार हैं। अब अनुक्रमसे इनके स्वरूपका कथन करते हैं ।। २५६८- २५७० ।।
प्रातकीखण्ड डीएकी जगती
J
तद्दीवं परिवेणि समंतयो बिव्ब रयणमय जगवी । जंबीय पवष्वि जगए सरिस
जगवी समत्ता
आणुपुवदोए ।। २५७० ॥
·
[ ६८१
-
वणमया ॥२५७१ ।।
...... परिवेदि २. द. म. क.अ. उ. एन्. . . . य. उ. दीव |
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६८६ ]
तिलोयपण्णती
! गाथा : २५७२-२५७५ अ :-उस घातकोखण्हडीपको चारों शोरसे दिव्य रस्नमय जगती वेष्टित करती है । इस जगतीका वर्णन जम्बूद्वीपमें वर्णित जगतीके ही समान है ।।२५७१।।
हष्वाकार पर्वतोंका निरूपण-- दक्षिण - उत्तरमागे, सुगारा दविज्ञणुसरायामा । एस्केको होदि गिरी, पाइसं 'पविमवतो ॥२५७२।।
वर्ष :-घातकीखण्डद्वीपके दक्षिण और उत्तरभागमें इस द्वीपको विभाजित करता हुमा दक्षिण-उत्तर लम्बा एक-एक इष्वाकार पवंत है ॥२५७२।।
निसह - समान्छेहा', संसग्गा लवण-काल-जलही !
अभंतरम्मिमा मुहापुरष सोणा ॥२५७
पर्य :-लवण और कालोद समुद्रोंसे संलग्न वे दोनों पर्वत निवध पर्वतके अमान तथा अम्पन्तरमागमें अंकमुख एवं बाह्यभागमें खुरपा (क्षुरप्र) के माकारवाले हैं ॥२५७३।।
जोयण - सहस्समेलक, वा सम्बत्य ताण पत्तेपर्क । जोयण - सयमबगाहा, कणयमया ते पिराजति ॥२५७४॥
म :-उन पर्वतों से प्रत्येकका विस्तार सर्वत्र एक हजार योजनप्रमाण है। एकसौ योजन प्रमाण अवगाह मुक्त वे स्वर्गमय पर्वत अत्यन्त शोभावाले हैं ।।२५७४।।
एक्केका तह-वेदी, सुचवि दोसु पासेसु। पंच-सष-परवासा, मुम्बसन्धया - कोस सच्चा ॥२५७५।।
म :-उन पर्वतोंके दोनों पाश्र्वभागोंमें पांच सौ धनुव प्रमाण विस्तार सहित, दो कोस ऊंची और फहराती हुई व्यजामोंसे संयुक्त एक-एक तटवेदो है ।।२५७५।।
१.इ.ब.क. स. परिपत्र । न. प. पविभाति । २.प. प. उ. मागुम्बेहो, क. माणुनहो । मुहा, ब. अ. अंकमुहा: ४... कोस ।
1. प. प.
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उत्थी महाहियारो
ताणं वो पासेसु वणसंडा बेवि तोरणेहि जुबा
I
-
1
करणी
गावा : २५७६- २५०० ]
- उन वेदियोंके दोनों पार्श्व भागों में बेदी, तोरण, पुष्करिणी एवं वापिकाओंसे युक्त और जिनेन्द्र प्रासादोंसे रमरणीय बनखण्ड हैं ।। २५७६ ।।
वनसंजेस दिव्या, पासावा विविह सुर-पर-मिट्टण समाहा सड
विसा- मरिका ।। २५७६ ॥
शेष कूटोंपर व्यन्तरोंके पुर हैं ।। २५७६ ।।
·
रयण नियरमया ।
वेदी तोरणेहि जुवा ||२५७७ ।।
पर्थ :- इन अनखण्डों में देव एवं मनुष्यों के युगलों सहित, तटवेदी एवं तोरणोंसे युक्त और विविध प्रकारके रत्न समूहोंने निमित दिव्य प्रासाद है ।।२५७७॥
उर इसुगाराणं समंसदो हवदि विम्ब-तड- देवी । वणवणवेदी पुरुष', पयार वित्वार परिपुष्मा ||२५७८ ॥
चसारो चचारों, पसक्कं होंति जिन भवरणमात्र कूजे, सेसेसु
.
-
-
अर्थ :- इष्वाकार पर्वतोंके ऊपर चारों ओर पूर्वोक्त प्रकार विस्तारसे परिपूर्ण दिव्य तटवेदी, वन और वन-वेदी स्थित है | २५७८६८ ।।
१. ८. ब. क्र. ज. प. उ. पुष्वापार ।
-
-
·
-
सर्ग: उनमें से प्रत्येक पर्वतपर चार-चार उत्तम कूट है। प्रथम कूटपर जिनभवन है और
ताण वर कूडा ।
-
वेंतर
घातकखण्डस्य जिनभवन एवं व्यभ्वरप्रासादोंका सादृश्य
[ ६८७
-
देवाण दिव्य पासावा |
तद्दीने जिरण भवणं, पॅतर सिह्-पवण्णिव-जिम-भवन वेतरावास सारिच्छा ।। २५८० ।।
-
पुराणि ॥ २५७६।।
-
अर्थ :- उस द्वीपमें जिनभवन और ध्यन्तरदेवोंके दिव्य प्रासाद निषधएसके वर्णनमें निर्दिष्ट जिन भवनों और व्यन्तरावासोंके सदृश हैं ।। २५८० ।।
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६८५ ]
तिलोपती
धातकीखण्ड में मेरु पर्वतों का विन्यास
दोन्हं इसुगाराणं विच्वाले होंति ते दुषे विजया । गिभाद्वारा एक्केक्का ते रात छ -- ओवा की
चक्कद्ध
·
अर्थ :- दोनों इष्वाकार एवंतोंके मध्य में वे दो क्षेत्र हैं । प्रचक्र प्राकार सदृश उन दोनों क्षेत्रों में एक-एक मेरु पर्वत है ।। २४८१॥
पर्वत तालाब श्रादिका प्रमाण
खण्ड में हैं ।। २५६२ ॥
सेस - सरोवर-सरिया, विजया कुंडा य जेतिया होति । तेचिय डुगुण
जंबूदरी
-
मेवगिरी ॥२५६१ ॥
-
:- जम्बूद्वीपमें जितने पर्यंत, तालाब, नदियां, क्षेत्र और कुण्ड हैं उनसे पूने घातकी -
[ गामा : २५०१-२५६५
वे सब पर्वतादि धातकीखण्डमें हैं ।। २५८३ ॥
प्रसुगार
गिरिवार्ण, विध्याले हवंति ते सम्बे ।
गान विचित वण्णा, सालिरगो बादईसके ।। २५८३ ॥
कवा धावडे ।। २५८२ ।
अर्थ :- इष्वाकार पर्वतों के अन्तराल में नानाप्रकार के विश्चित्र वर्णवाले एवं घोमासे युक्त
·
दोनों दीपों में विजयादिकोंका साहस
-
बिजया विजयाथ तहा, विजयद्वाणं हवंति विजया ।
मेवगिरीनं मेरु, कुल गिरिषो कुल गिरोणं च ॥ २५६४ ॥
णाभिगिरीणं' णाभी, सरिया परियाण दोस् दोबेस
पनिधिगदा अबगाडुच्छेह - सरिच्छा' बिणा मेद ।। २५८५ ।।
म :- दोनों द्वीपोंमें प्ररिभिगत क्षेत्र क्षेत्रोंके सदृश, विजयार्ध विजयाकि सहस, मेरु
पर्वत मेरुपर्वतोंके सदृश, कुलपर्वत कुलपर्वतोंके सहय, नामिगिरि नाभि गिरियोंके सदृश और नदियाँ नदियोंके सदृश हैं। इनमेंसे मेरु-पर्वतके अतिरिक्त शेष सबका अवगाह एवं ऊंचाई सदृश है ।। २१८४-२५८५ ॥
१.व.क. ख. प. उ. पामगिरी सामगिरी सरल सरिवासया । २. ब सारिन्छ ।
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गाया : २५६६-२५८६ ]
अंबूदीय पण्णिव पत्वकं वेडं, पहुवि
-
उत्थो महाहियारो
विजयार्धं पतादिकों का विस्तार
-
दाहितोय गुण यंदा से
- विजयार्थ आदिक पर्वतों में मेरुपर्वतके अतिरिक्त शेष प्रत्येक जम्बूद्वीप में बतलाये
हुए विस्तारकी अपेक्षा दुगुने विस्तारवाले हैं ।। २५८६ ॥
मतान्तरले तोंडीपों को
А
·
M
णगा कुंड पहूदि जीय-बुधे ।
मोसू मेहरि, सव्व प्रगाढ वास पहूदी, केई इच्छति सारिच्छा ||२५=७।।
१. दो ।
नगाणं विला मेहं ।। २५८६ ।।
4
[ ६८९
पाठान्तरम् ।
श्रयं :- मेरुपर्वतके प्रतिरिक्त शेष सब पर्वत और कुण्ड भादि तथा उनके अवगाह एवं विस्तारादि दोनों द्वीपोंमें समान है, ऐसा कितने ही वाचायोंका प्रभिप्राय है ।। २५६७ ।।
बारह कुलपर्वत और चार विजयाद्योकी स्थिति एवं आकार
मूलम्मि उवरिभागे, बारस-कुल- पध्वया सरिस वा । भयंतेहि लग्गा वणवहि
-
-
पाठान्तर
फालजलहीणं ॥ २५८८ ।।
अर्थ :- मूल एवं उपरिमभाग में समान विस्तार वाले बारह कुलपवंत अपने दोनों अन्तिम भागोंसे लवणोदधि और कालोदधिसे संलग्न हैं ।। २५८८ ।।
वो दो भरहेरावद-वसुम-बहु-भ-वोह' बिजयहूदा ।
दो पासेसु लग्या, सवरणोर्वाह - कालजलहीणं २२५८६ ।।
अर्थ :- भरत एवं ऐरावत क्षेत्रोंके बभ्रुमध्यभागमें स्थित दो-दो दीर्घं विजयापर्यंत दोनों पार्श्वभागों में लवणोदधि और कालोदधिसे संलग्न है ।। २५६६ ।।
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६९० ]
तिलोयपणती
[ गाया २५९० - २५६४ प्राविक आवर्य श्री विपिता जी का ते वारस कुलसेला, बत्तारो ते य बौह-विजयदा । अभंतरस्मि बाहि अंकमुहा सुरम्य
ठाणा ॥२५६०|l
मभ्यन्तर एवं बाह्यभागमें क्रमश:
अर्थ:- बार कुलपर्वत और चारों ही दीर्घ विजया अंकमुख मौर खुरपा ( क्षुरप्र ) जैसे माकारवाले हैं ।। २५६० ।। विजयादिकोंके नाम-
विजयादोणं णामा, मंबूवीवम्मि वष्णिा वज्जिय' अंबू - सम्मलि सामाई एस्थ
-
प्र :- जम्बू और शाल्मली वृक्षके नामोंको छोड़कर शेष जो क्षेत्रादिकों के विविध प्रकारके नाम जम्बूद्वीपमें बतलाये गये हैं, उन्हें ही यहाँ भी कहना चाहिए ।। २५६१ ।।
दोनों भरत और दोनों ऐरावत क्षेत्रों की स्थिति -
दो पासेसु दक्खि-सुगार-गिरिस्त वो भरलेता ।
-
उत्तर- इसुगारहरू य हवंति एराबवा दोनि ॥२५६२॥
-
अर्थ :- दक्षिण इष्वाकार पर्वतके दोनों पार्श्वभागों में दो भरतक्षेत्र और उत्तर इष्वाकारपर्वतके दोनों भागों में दो रावतक्षेत्र है ।। २५९२ ।।
विषयोंका आकार -
atoj इसुगारणं, बारस कुलपव्वयाण विज्वालें । विवह सरिच्छा, विजया सब्बे वि भाई || २५६३॥
कार
विविहा ।
वता ॥२५६१ ॥
-
-
अर्थ :- धातकीखण्डद्वोपमें दोनों इष्वाकार और बारह कुलपर्वतों के अन्तराल में स्थित सब क्षेत्र र विवर प्रर्थात् पहिएके भरोके मध्य में रहनेवाले छेदोंके सहण हैं ।। २५९३ ।।
कायारा विजया, भागे अभंतरम्मि ते सख्ये ।
सत्ति मुहं पिव वाहि सपद्धि समाय पस्सना ||२५६४||
1
:- वे सब क्षेत्र अभ्यन्तरमागमें अंकाकार और वाह्य शक्तिमुख है। इनकी पाश्वंभुजाएँ गाड़ोको उद्धि ( गाड़ी के पहिये ) के समान है ।। २५६४ ।।
१ . उ. वज्जिहाज्जय । २. ८. ब. उ. एरायदी । . य. मरदिपजेहि ब. पमर बिवरेहि ।
-
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पापा । २५९५-२५६६ ]
उत्यो महाहियारो
[ ६५
thankar
त
-
'
-
-
सपा
अम्मतरम्मि भागे, मझिम - भागम्मि बाहिरे भागे। विषयाएं विखंभ, बाइस लिस्बेमो ॥२५६५॥
अर्थ:-घातकोखण्डद्वीप स्थित क्षेत्रोंके अभ्यन्तर मध्यम एवं बाह्यभागोंमें विद्यमान (पर्वतोंके ) विक्रम्मका निस्पण करता है ॥२५६५।।
कुल-पर्वतोंका विस्तारबु - सहस्स - जोयणाणि, पंसर-सव-वाणि पंचसा । उपवीस - हिबा दा, हिमवंत • गिरिस्त भाव ॥२५६६।।
२१.५। ।
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६६२ ]
तिलोयपगुती
[ गाया २५१७-२५६१
अर्थ :- दो हजार एकसौ पांच योजन और उन्नीससे भाजित पाँच भाग (२१०५ योजन) प्रमाण हिमवान् पर्वतका विस्तार समझना चाहिए ।। २५२६।।
महाहिमवंतं यचं, उ' हब हिमवंत-दब- परिमाणं ।
-
"
जिसहस्त होदि वासो, महहिमवंतस्स बउगुणो वासो ॥ २५७॥
८४२१३३६८४ । ४ ।
अर्थ :- महाहिमवान् पर्वतका विस्तार प्रमाण हिमवान् पर्वतके विस्तारसे चोगुना अर्थात् ४२१ योजन है और निषधपर्वतका विस्तार महाहिमवान्पर्वतके विस्तारसे चौगुना अर्थात् ३३६८४ योजन है ।। २५६७ ।।
एवाणं सेलाणं, विक्लंभो मेलिकण चढ गुणियो । सव्वाण कुलगिरी/पुणे
अर्थ :- इन तीनों पर्वतोंके विस्तारको मिलाकर श्रोगुना करनेपर [ ( २१०+ ४२१+ ३३६८४६६ ) x ४ = १७६६४२२ योजन] सर कुलपर्वतोंके विस्तारका संकलन होता है ||२५||
इष्वाकार पर्वतों का विस्तार एवं पर्वतरुद्ध क्षेत्रका प्रमाण
दोनं इसुगारागं, विवसंभो होषि दो सहस्वाणि । तस्सि मिलिने भावडे गिरि
▼
२००० ।
१. . . . .
-
लिविना ।। २५६६ ।।
:- दोनों इष्वाकार पर्वतों का विस्तार दो हजार (२०००) योजन प्रमाण है । कुलपर्वतोंके पूर्वकथित विस्तारप्रमारगमें इसको मिला देनेपर घातकीखण्डद्धोपमें सम्पूर्ण पर्वरुद्ध क्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है ।। २५६६।।
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गाया : २६००-२६०१ ।
त्यो महाहियारो
धातकीखण्ड में पर्वतरुद्ध क्षेत्रका क्षेत्रफल
-
क
पाकि कमे ।
बुग सह सर्व उणवीस हिवा दु कला, माणं गिरिव वसुहाए ॥ २६०० ॥
-
१७८८४२ । ३ ।
म :- दो, चार, आठ आठ, सात और एक, इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन और उससे भाजित दो भाग अधिक ( १७६८४२२२ + २०००
१७८८४२१५योजन )
धातकीखण्ड में पर्वतरुद्ध क्षेत्रका प्रमाण है ।। २६०० ।।
आदिम, मध्यम भोर वाह्य सूची निकालनेका विधान --
लवयादीगं हवं, बुग-तिग-उ-संगुणं ति लक्खूर्ण कमसो प्राविममभिम बाहिर सूई हवे तार्थ ।।२६०१ ।।
-
-
-
[ ६६३
अर्थ :- लवणसमुद्धादिकके विस्तारको दो, तीन और चार गुणाकर प्राप्त गुणनफल में से तीन लाख कम करनेपर क्रमशः उनकी आदि, मध्य भीर मन्तिम सूचीका प्रमाण प्राप्त होता है ।। २६०१ ।।
विशेषार्थ :- लवणसमुद्रादिकमेंसे जिस द्वीप या समुद्रका सूचीव्यास ज्ञात करना हो उसके विस्तार ( वलय व्यास या इन्द्रव्यास ) को दो से गुणितकर लब्धराशिमेंसे तीन लाख घटा देनेपर अभ्यन्तर सूत्रीव्यासका प्रमाण प्राप्त होता है । विस्तार प्रमाणको सीनसे गुणितकर, तीन लाख वटा देनेवर मध्यम सूचो व्यासका प्रमाण प्राप्त होता है और विस्तारको चारसे गुणितकर तीन लाख घटा देनेपर बाह्य सूचीष्यासका प्रमाण प्राप्त होता है। स्था-
चार लाख विस्तारवाले घालकीण्डके तीनों सूची व्यासोंका प्रमाण
( ४ लाख × २ - ८ लाख ) – ३ लाख = ५ लाख घातकीखण्डका अभ्य० सूची व्यास ।
( ४ लाख ४३ - १२ लाख ) - ३ लाख = ६ लाख धातकी खण्डका मध्यम सूची व्यास । ( ४ लाख ४४ - १६ लाख ) – ३ लाख = १३ लाख घातकी खण्डका बाह्य सूची व्यास ।
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६९४ ]
तिलोयपण्णत्ती
विवक्षित सूचीकी परिधि प्राप्त करनेका विधान -
शार्थे ir आचार्य श्री
सागर की
प्रादिम-मज्झिम- बाहिर-सूई वग्गा वसेहि संगुणिवा । तस्स य मूला इच्छि सूईए होदि सा परिही ॥२६०२॥
:-मादि, मध्य और बाह्य-सूचीके वर्मको दससे गुणा करके उसका वर्गमूल निकालनेपर इच्छित सूचीको परिधिका प्रमाण आता है ।। २६०२ ।।
धातकीखण्डकी अभ्यन्तर परिधिका प्रमाण
पारस लक्खाई, इगिसीबि सहस्स ओयक्का सयं ।
उणवाल बुवा धावदसंडे अभंतरे परिही ॥२६०३ ॥
-
-
१४८११३६ ।
अर्थ :- धातकीखण्डद्वयको अभ्यन्तर परिधिका प्रमाण पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक
सौ उनतालीस ( १५८११३९ ) योजन है ।। २६०३॥
[ गाया : २६०२-२६०४
√ [ ५ लाख ) " × १०
विशेवार्थ :- मभ्यन्तर परिधिका वास्तविक प्रमाण १४८११३८ योजन, ३ कोस, ६४० धनुष, १ रिक्कू, १ वितस्त मोर कुछ कम ५ अंगुल प्राप्त होता है । किन्तु गाथा में यह प्रमाण मात्र १५८११३६ योजन कहा है ।
मध्यम परिधिका प्रमाण
-
अट्ठावीसं लक्खा, छावाल सहस्स जोयणा पन्जा' ।
किचूना णावव्या मक्किम परिही य धावई ।। २६०४ ॥
१.व.म.पा सं
--
·
२८४६०५० ।
अ :- घातकी लण्ड द्वीपको मध्यम परिक्षिका प्रमारण बट्टाईस लाब छपालीस हजार पचास ( २८४६०५० ) योजनसे कुछ कम जानना चाहिए ।। २६०४ ।
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गाथा : २६०५-२६०६] पउत्वो महाहियारो
[ ६५ विका :-मध्यम परिधिका वास्तविक प्रमाण लाब)-१०-८४६०४६ योजन, ३ कोस, ११५३ धनुष एवं साधिक २० अंगुल है। इसलिए गापामें किञ्चित् कम कहा गया है।
बाय परिविका प्रमाणएक्क-छ-णव-गभ-एक्का, एक्क-चउमका कमेण अंकागि । जोयणया किंजूषा, सद्दीवे बाहिरो परिही ॥२६.५॥
४११०६६। प्रयं-घातको खण्डद्वीपको बाह्म-परिधिका प्रमाण एक, छह, नौ, शून्य, एक, एक और पार इस अंक क्रमसे जो संख्या बनती है उतने (४११०९५१ ) योजनसे कुछ कम है ॥२६०५॥
विशेषापं :-बाह्य परिधिका बास्तविक प्रमाण = 1( १३००००० x १०४११०६६० योजन, ३ कोस. १६६५ धनुष और हाथ है लिगाके छ कम पहा ] गया है।
भरतादि सब क्षेत्रोंका सम्मिलित विस्तारआदिम-मरिझम बाहिर-परिहि पमाणेसु सेल-रस-खिदि । सोहिय संसं वास • समासो सम्वाण विमया ॥२६०६॥
१४०२२६६ । । । २६६७२०७। । ३६३२११८१।
पर्व:-आदि, मध्य मौर बाह्य परिधिक प्रमाण से पर्वतरुद्ध ( भूमि ) क्षेत्र कम कर देनेपर शेष प्रमाण सब क्षेत्रोंके सम्मिलित विस्तारका है ।।२६०६।।
विषा:-गाथा २६०. में धातको खण्डद्वीपके पर्वतद्ध क्षेत्रका प्रमाण १७६८४२११ योजन कहा गया है । इसे धातकी खण्डको अभ्यन्तर, मध्य और बाह्य परिधियोंमेसे घटा देनेपर दोनों मेरु सम्बन्धी भरत मादि चौदह क्षेत्रोंसे मवरुद्ध क्षेत्र प्राप्त होता है । यथा
अम्य० परिधि-१५८११३६ यो० - १७८८४२२ - १४०२२६६यो । मध्य परिधि -२८४६०५० यो०-१७८८४२.५८२६६७२०७४यो । बाघ परिधि -४११०६६१ यो० - १८:४२,२ =३६३२११७यो।
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तिलोयपणती
[ गापा : २६०७-२९.८ घातकीखण्डस्य भरतक्षेत्रका आदि, मध्य पोर बाय विस्तारएक्क-बर-सोल-संसा, अउ-गुणिदा अनुवीस-पुत्त-सया । मेलिय तिविह - समासं, हरिवे तिहाग-भरह-दिक्खभा १२६०७।।
२१२। मर्ग :-एक, चार और सोलह, इनकी चोगुनी संख्या बोड़में एक सौ अट्ठाईस मिसा देनेपर जो संस्था उत्पन्न हो उसका पर्वत-रुद्ध क्षेत्रसे रहित उपर्युक्त तीन प्रकारके परिधि प्रमाणमें भाग देनेपर क्रमश: तीनों स्थानों में भरतक्षेत्रका विस्तार प्रमाण निकलता है ॥२६०७।।
विशेषार्ष :-भरतक्षेत्रसे और ऐरावतकेवसे विदेह पर्यन्त क्षेत्रोंका विस्तार गोगुना है मतः भरसको शलाका १, हैमवतको । और हरिक्षेपको १६ मलाकाएं हैं। जिनका योग (1+४+१६-) २१ है। (इसीप्रकार विदेहको ६४, रभ्यककी १६, हैरण्यवतको ४ और ऐरावतक्षेत्रको । शलाका है।)
घातकोखण्डमें दो मेक है मतः प्रत्येक मेहके दोनों भागोंका ग्रहण करने के लिए इन्हें (सको) ४ से गुणित करनेको कहा गया है । यथा-२१४४ - ८४ हुए। इनमें दो मेक सम्बन्धी दो विदेह क्षेत्रोंकी ( ६४४२) १२८ शलाकाएं जोड़ देनेसे ( ८४+१२५-) २१२ शलाकाएं पर्वत रहित परिधिका भागहार है।
भरतक्षेत्रका अभ्यन्तर विस्तार१४०२२६११-२१२६६१४१ योजन । मध्यविस्तार–२६६७२.७:२१२=१२५८९यो । बाह्म विस्तार-३६३२१११२१२-१८५४७११ योजन ।
भरतादिकों के विस्तारमें हानि-वृद्धिका प्रमाणभरहादी - विजयागं, बाहिर'-इंम्मि आदिम हई।
सोहिय चउ-लक्ख'-हिये, सय · बढी हच्छिद - पवेसे ॥२१०६।।
पर्ष :-भरतादिक क्षेत्रोंके बाह्य-विस्तारमेंसे प्रादिके विस्तारको कम कर शेषमें चार लाखका माग देनेपर इच्छित स्थानमें हामि-वृद्धिका प्रमाण पाता है ॥२६०11
१.८. स. य, बाहिरसम्म, र बाहिकुमिमा । २.८.न.क. ब प, 3. लवाइरिहे।
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गाया : २६०६ - २६११ ]
त्यो महाहियारो
[ ६६७
विशेवार्थ :- धातकीखण्डद्वीपका विस्तार ४००००० योजन है । इसमें स्थित भरत क्षेत्र के बाह्य विस्तार से अभ्यन्सर विस्तार घटाकर अवशेष में विस्तारका भाग देनेपर हानि-वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है। यथा
(१८५४७३ ६६१४१ ) ÷ ४००००० =
भरत क्षेत्रका अभ्यन्तर विस्तार
-
समः
छाछ सयण, जोस जुलाणि जोयणाणि कला । उणतोस उत्तर भरसभंतरे वासी ।। २६०६ ।।
1911612 DTO I
६६१४ | ३३३ ।
अर्थ :- भरत क्षेत्रका अभ्यन्तर विस्तार छयासठसो चौदह योजन और एक योजनके दोसी बारह को कम प्रभारु ६.६४६०९।।
हैमवतादिक क्षेत्रोंका विस्तार
हेमवदं पशुवीर्ण, पक्कं खरगुणो हमें
वासो । जाव य विवेहवत्सो, तम्परदो चडगुणा हाणी ।। २६१० ॥
२१३
२६४५६ | | ०५८३३ | २३ | ४२३३३४ | ३१३ | १०५८३३ । २१६ | २६४४८ । । ६६१४ । १३३ ।
अर्थ :-- विदेहक्षेत्र तक क्रमश: हैमवताविक क्षेत्रोंमेंमें प्रत्येकका विस्तार उत्तरोत्तर इससे ना है। इससे आगे क्रमश: चौगुनी हानि होती गई है ।। २६१० ।।
भरतादि क्षेत्रका मध्यम विस्तार
बारस- सहस्स-पणसय- इगिसोदी जोयना य छवीसा । भागा भरह खिस्ति य, मक्झिम- विचार परिमाणं ।।२६११।।
-
१२४८१ । । ५०३२४ । २ । २०१२६८ | १३ | ८०५१६४ || २०१२६८ । १३ । ५०३२४ । १३३ । १२५०१ । ।
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६६८ ] तिलोयपात्ती
[ गाया : २६१२ म:-मरतक्षेत्रके माध्यम विस्तारका प्रमाण बारह हजार पाचसो इक्यासो योजन पौर बत्तीस पाग प्रषिक है ।१२६१५॥
मरतादि क्षेत्रका बाह्य विस्तार
अद्वारसा सहस्सा, पंच - सपा ओयमा य सगदाला।
भागा पणवण्ण सयं, वासो भरहस्स बाहिरए ॥२६१२॥ १८५४७N
N २६१७६३ 01 ११८७०५४ 1388 २२६७६३ । । ७४१६० । ।१८५४७ । ११५ म:-भरतक्षेत्रका बाह्य-विस्तार प्रसारह हजार पाँचसो सैतालीस योगन और एकसौ पचपन मागप्रमाण है ।।२६१२।।.
[ तालिका ४५ अगले पृष्ठ पर देखिए]
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गापा : २६१२ ]
तालिका : र
धातकोषपको परिधि एवं उसमें स्मित कुता वर्मा और क्षेत्रोंका विस्तार
पातको समरए अमापनोका बिरता
माम
| मोरन
मन्द
।
| हिमपान । २१०१ महाहिमः | ८४२११
३१६६४
रोजम
घातकीसमाप संत्रों का विस्तार : योजनों में , परिचि
.' नाम । पश्यन्तर थि. | मध्य विस्तार, बाह्म वि. | | | 1 : परत | |१२५८१ १८५४ मार्गदर्शकमभन अवासी सूविविवागर जी महाराज
३ हरि १५८५११२ | २.१२९१५ : २९६७६३
' विवह ! ४२३३३४ | ०५EIR | ११.५४३ ५ रम्पक
| १०५६३ , २०१५ , २६६७६१ । हेरपवत २५ | ५०३३
ऐरावत . ६६in '१६५८५५ १५५४७३
रउत्यो महिपारो
Eषध
मील
कुम्म कर PAEL
कुल कम ११०९६१ यछन
कुमकम २८४६०५.योवन
समि निरिन् ।
२१०५४
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तिलोयपणती
[ गाया : २६१३-२६१७ पदह और पुण्डरोकद्रहसे निर्गत नदियोंका पर्वतके ऊपर गमनका प्रभारण
धावरस बोके, खल्लय-हिमवंत-सिहरि-माझ गया ।
पउमवह पुरोए, पुष्ववर - दिसाए एक एक गई ॥२६१३।।
मय:-पातकोखण्ड दोपमें क्षुद्रहिमवान् और शिखरीपर्वतके मध्यगत पनद्रह पौर पुण्डरीकद्रहको पूर्व एवं पश्चिम दिगासे एक-एक नदी निकली है ।।२६१३॥
उणवीस सहस्साणि तिणि सया णवय-सहिय-जोयणया । गंतूण गिरिदुर, दक्षिण - उसर - विसे बलइ ॥२६१४॥
:--प्रत्येक नदी उन्नीस हजार तीनसो नो (१९३०) योजन पर्वतके ऊपर जाकर __ यथायोग्य दक्षिण एवं उत्तर दिशाको और मुड़ जाती है ।।२६१४॥
__ . "मदर मतोंको शरीरमा मंबर - खामो सेसो, हवेवि तस्सि बिवह - परिसम्मि ।
किंचि विसेसो पेटुषि, तस्स सरुवं पल्वेमो ॥२६१५॥
पर्ष :- उस द्वीपके विदेहक्षेत्रमें किञ्चित् विशेषता लिए इए जो मन्दर नामक पर्वत स्थित __ है उसका स्वरूप कहता हूँ ॥२६१५॥
‘तद्दीवे पुश्वायर - विवेह • बस्साण होवि बहुमम्झे ।
पुरुष' - पष्मिद - हबो, एमकेक्को मंदरो' सेतो ॥२६१६।।
बम':-उस द्वीपमें पूर्व और अपर विवहक्षेत्रोंके बहुमध्यभागमें पूर्वोक्त स्वरूपसे संयुक्त एक-एक मन्दर पर्वत स्थित है ।।२६१६॥
मेवपर्वतोंका अरगाह एवं केवाईजोपन • सहस्स - गाढा, चुलसौदि-सहस्स-गोयणच्छेहा । है सेला पसेका बर - रयण - विमप्प - परिणामा ॥२६१७।।
१..। २४०००। १.प. अ. क, व . उ. पुष्वं परिणव। २. .. . क. प. ३, मंदिरा
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गापा ! २६१८-२६२० ] उस्मो महाहियारो
[ ७.१ प:-नानाप्रकारके उत्तम रनोंके परिणामस्वरूप वह प्रत्येक पर्वत एक हजार (१.०० योजन प्रमाण अवगाड (नींव } सहित पोरासी हजार ( २४...) योजन ऊंचा है ॥२६१७)
मेहका विस्तारmins मेह-सुबहस
य स प. सहस्साशि लोडमरणा होति । घउ • गउदि - सयाई पि य, परगीपट्टम्मिए रुदा ॥२६१८।।
१०... | Exc.। प्रचं!-मेरका विस्तार तलभागमें दस हजार ( १०००० ) योजन और पृथियोपृष्ठपर नी हजार चार सी (४०० ) योजन प्रमाण है ॥२६१८||
जोयण-सहस्समेषक, विक्शंभो होदि तस्म सिहरम्मि । भूमोघ मुहं सोहिय, उदय - हिने महानु हाणि च ॥२६१६॥
:-उस मेरुका विस्तार शिखरसर एक हजार योजन प्रमाण है । भूमिसे मुछ घटा फर शेषमें ऊंचाईका भाग देनेपर भूमिको अपेक्षा हानि और मुखकी अपेक्षा वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है ॥२६१६॥
बिशेवा:-नीवमें - (भूमि १०००.--१४०० मुल ):.१००० यो अवगाह=1 योजन हानि-पय ।
भूमिसे ऊपर-(भूमि-१४०० – १००० मुख) : ६०. ॐ = । योजन हानि-पय ।
तक्खय-वसि-पमारणं, छइस भागं सहस्स • गामि । भूमीवो उवार पि य, एक्कं बस - स्यमवहरिवं ॥२६२०॥
प:-वह भय वृद्धिका प्रमाण एक हजार पोजन प्रमाण प्रबगाहमें योगनके दस । भागों मेंसे छह भाग अर्थात् छह बटे दस () भाग पोर पृथिवीके पर दस रूपोंसे भाजित एक भाग ( यो) प्रमाण है ॥२६२०1।
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७०२ ]
तितोषपण्णत्ती [ पाषा : २६२१-२६२४ मेर • तलस्स य ईव, पंच-सया णव-सहस्स जोयरपया । सत्पं खय • घडी, वसमंसं के इच्छति ॥२६२१॥ ६५०० । ।
पाठासरम्। पर्व :-कितने ही प्राचार्य भेरुके तल-विस्तारको नौ हजार पावसौ ( ६५०० ) योजन प्रमाण मानकर सर्वत्र क्षय-वद्धिका प्रमाण दसवां भाग (1) मानते हैं ।।२६२९। [६५००-१०००:५०. ० योजन ।
पाठान्तर । जस्पिासि विक्खंभ, खुल्लम - मेकण 'समविष्णा ।
बस • भजिये 5 लवं, एक-सहस्सेण संमिलियं ॥२६२२॥
पएं:-जितने योजन नीचे जाकर क्षुद्रमेष्यों के विस्तारको जानना हो, उतने योजनों में दसका भाग देनेपर जो सम्म प्रापे उसमें एक हजार जोर देनेपर अभीष्ट स्थानमें मेरुषोंके विस्तारका प्रमाण जाना जाता है ॥२६२२।।
विशेषार्थ:-शिखरसे २१००० योजन नीचे नेरुका विस्तार (२१०००१०) + १... = ३१०० योजन प्राप्त होता है।
चलिकाएंजंबूबीव-पवग्णिव - मंदरगिरि - बलियाए' सरिसाम्रो ।
योग्य' पि चूलियानो, मंदर • सेलाण एस्सि ।।२६२३॥
म :-इस द्वीपमें दोनों मन्दर-पर्वतोंको चूलिकाएँ जम्बूद्वीपके वर्णनमें कही हुई मन्दरपर्वतकी चूलिका सदृश है ।।२६२३॥
चार वनोंका विवेचनपंडग - सोमणमाणि, वणारिण एवणय - भहसालाणि । जंबुदीव - पण्णिव • मेह - समाणाणि मेस ॥२६२४।।
--- - - - - - १. इ.च. ज, य. न. समझदमणावं। २ प.ब.क.अ. य. उ. प्रसिप । ..ब.क. स.दोब्धि । ४... भ.ज.. उ. एपि ।
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___ पापा : २६२५-२६२८ ] उत्यो महाहियारों
। ७०३ प्र:-जम्बूदीपमें कहे हुए मेरुपर्वतके सइन इन मेरूमों के भी पाण्डुक, सौमनस, नन्दन और भतशाल नामक चार वन है ॥२६२४॥ Relator - श्रव
ण जोयगे हेवा । अडवोस - सहस्सामि, सोमरस गाम वनमत्पं ॥२६२५॥
माया गया था, तो
२८००० ।
अर्थ :-यही विशेषता यह है कि पाण्डुकवनसे पटाईम हजार ( २८००० } योजन प्रमाण नीचे जाकर सौमनस नामक वन स्थित है ॥२२॥
सोमणसावो हेतु', पणवण-सहस्स - पण - सयाणि पि । गंतूण जोयगाई, होवि वरणं गंवणं एवं ॥२६२६।।
५५५०० । अभं : - इसी प्रकार सौमनसक्नके नीचे पथपन हजार पाँचसो ( ५५५०० ) योजन प्रमाण जानेपर नन्दन-वन है ॥२६२६।।
पंच - सय - जोपरणारिण, गंपूर्ण चंदणाओ हेम्मि । पाइसंडे बोबे होवि परणं महसालं ति ॥२६२७।।
५०० । म:-धातकीखण्डद्वीपमें नन्दनयनसे पांचसो ( ५०० ) योजन प्रमाण नीचे जानेपर भवशालवन है ।।२६२७॥
एवं जोषण - लासं, सत्त-सहालागि अवसयामिपि। उणसीदी परोपक, पुम्बापर - बोहमेवानं ॥२॥२६॥
१०७८७१। म:-इनमें से प्रत्येक मशालबनको पूर्वापर लम्बाई एक लाख सात हजार पाठसौ उन्यासी ( १.७७९योजन प्रमाण है ॥२६२८॥
१. ब... क.क. द. न. बरणमेस ।
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७०४ । का सिलपिणती ?
या : ३३ मंबरगिरिव - उत्तर - बक्सिम - भागेसु भइसालाणं ।
जं विक्वंभ - पमाणं, जबएसो तस्त उछिन्यो ।।२६२६।।
प्रबं:-मन्दरपर्वतोंके उत्तर-दक्षिण भागोंमें भद्रशालवनोंका जितना विस्तार है, उसके प्रमाणका उपदेश नष्ट हो गया है ।।२६२६।। ।
बारस-सय • पावोस, अद्वाप्तीदो - बिहत्त - उपसोडी । जोयणया विक्खंभो एस्केरके भहसाल - वणे ।।२६३०।।
१२२५ । । प्रपं:-प्रत्येक भद्रशालकनका विस्तार बारहसौ पच्चीस योजन मोर मठासीसे विभक्त उन्यासी भाग ( १२२५१ योजन ) प्रमाण है ॥२६३० ।।
गमदन्तोंका वर्णनसत्त-दु-दु-चक पंचत्तिय - प्रकारणं कमेण जोयगया । अन्भंतरभाष्ट्रिय - गयरतावं 'मउन्हावं ॥२६३१॥
पर्ष :-सभ्यन्सरमागमें स्पिप्त चारों गजवन्तोंकी लम्बाई सात, दो, दो, ग्रह, पाच मोर तीन इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने ( ३५६२२७) पोजन प्रमाण है ॥२६३१।।
नव-पम-पो गव-चप्पण, ओयणया उभय-मेलाहिरए । पर - गपरत - जगावं, बीहत होवि पतकं ॥२६३२॥
५६६२५६ । वर्ष :- उभय मेकओंके बाह्यमागमें चारों गजदन्त पर्वतों से प्रत्येक (गजवन्त) की लम्बाई नो, पांच, दो, नो, छह और पांच, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने ( ५६९२५९) योजन प्रमाश है।॥२१३२।।
कुरुक्षेत्रोंका धनु:मव-जोयम-लक्खानि, पणवीस-सहस्स-चउ-सयाणि पि। छासोयो भणपुर, दो - कुरवे पापसिं ॥२६३३॥
२५४०६।
t... , पउम्पारणं ।
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जः :..
EिET ? गावा । २६३४-२६३६ ] चउत्यो महाहियारो
[ ७.५ म:-घातकीखण्डपमें दोनों ( उत्तर एवं देव ) कुरुषोंका धनुःपृष्ठ नौ लाख पच्चीस हजार पारसी छपासो ( ६२५४८६ ) योजन प्रमाण है ।।२६३३।।
कुरुकंवोंको जीवावो जोयण-सम्माणि, सेवोस - सहस्सयाणि एक-सयं । अट्ठावमणा जीवा, कुरखे तह पावईसंडे ॥२६॥
२२३१५८ । प्र :-घातकीखण्डद्वीपमें दोनों { उत्तर एवं देव ) कुरुओं की जीवा दो लाख तेईस हजार एकसौ भट्ठावन ( २२३१५८ ) योजन प्रमाण है ।।२६३४॥
वृत्तविस्तार निकालनेका विधानइस-चाणं घउ-गुभिवं, गोवा-वगम्मि पनिखबेक्न सको।
पउगणिवनसु - विहतं', लब' बट्ट - वासो सो ॥२६३५॥
प्रपं:-बाणके वर्गको चौगुना करके उसमें जीवाका वर्ग मिला दें। पश्चात् उसमें चौगुने माणका भाग देनेपर जो लम्ध प्रावे उतना वृत्त ( गोल ) क्षेत्रका विस्तार होता है ।।२६३।।
मया:-1 {६६६८० x ४ + (२२३१५८ )"+ ३६६६८० x ४)] = ४.०६३२ अर्थात् कुछ कम ४०.६३३ योजन ।
कुरुक्षेत्रोंका वृत्त विस्तारउन्जोयण लावाणि, छस्सय • अत्ताणि होसि तेतीसं । दो - उत्तर - कुरवाणं, पत्तेमकं बट्ट - पिरलंभो ॥२६३६॥
मर्ग :-दो उत्तर ( एवं दो देव ) कुरुओंमेंसे प्रत्येकका वृत्त-विस्तार चार लाब छहसी संतीस ( ४००६३३ ) योजन प्रमाण है ॥२६३६।।
...ब.प. उ. विहित ।
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___७०६ ]
तिलोयएमगतो
[ गाषा : २६३५-२६३९ अजुबारा निकालनेका विष्पहाई ! ARE जीवा - विवखंभावं, बग्ग - विसेसस्स होवि वं मूलं । विश्वंभ - जई अद्धिय', रिजु • बानो बाईसरे ॥२६३७।।
:-ओवाके वर्गको वृत-विस्तारके वर्गमेंसे घटाकर जो शेष रहे उसका वर्गमूल निकालें, पश्चात् उसमें वृत्त-विस्तारका प्रमाण मिलाकर आषा करनेपर धातकीखण्डदीपमें ऋजुबागका प्रमाण प्राप्त होता है ।।२६३७॥
यथा :-- ४००६३३२ -- २२३१५८* + ४०० ६३३ = ३६६६८० यो ।
कुरुक्षेत्रोंका ऋजुवाणतिय • लक्खा छासट्ठी, सहस्सया छत्सयाणि सोवी य । जोयणया रिज़ - बागो, पादयो तम्मि दोषाम्मि ॥२६३८।।
३९६६८० । प:-उस दीपमें तीन लाख छपासठ हजार छड्सो प्रस्सी ( ३६६६८० ) योजन प्रमाण कुमक्षेत्रोंका ऋजुबाण मानना चाहिए ।।२६३।।
मोर:-यहाँ प्रसंगानुसार गाथा २६३५ गाथा २६३८ के स्थानपर और गाथा २६३८ गाथा २६३५ के स्थानपर लिखी गई है।
कुरुक्षेत्रोंके वक्रबारणका प्रमाणसत-गव-अट्ठ-सग-णव-तियानि पंसाणि होति बाणउदी । बसुनो' पमान, पाइसंम्मि बोधम्मि ॥२६३६।।
___३६७८९ । मर्य:-घातकीखपडद्वीपमें कुरुक्षेत्रके वक्रवारणका प्रमाण सात, नौ, माठ, सात, नौ और तौल इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो, उतने योजन पोर बानवे भाग अधिक (३९७ योजन) है ।।२६३६।।
१.प. उ. प. चधिय । २. ३.
गोरमारणं, र. ३. मरणोपमाछ, क ब. य. एकोणो.
पमारवं
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पाया : २६४०-२६४४ ] चउत्यो महाहियारो
[ ७.५ घातकी-वृक्ष एवं उनके परिवार वृक्षोंका निरूपणउत्तर - - कुरुसु, खेतेसु तस्य पावई - कक्षा । चिटुते गुणणामो, तेण पुढं पाईसंहो' ॥२६४०॥
प्र :-धातकोखण्डद्वीपके उत्तरकुरु और देवकुरु क्षेत्रोंमें पातकी (पापलेके ) वृक्ष स्थित हैं. इसी कारण इस द्वीपका 'धातकोखण्ड' यह सार्थक नाम है ।।२६४०11
घावर - तरूण ताणं, परिवार - दुमा हति एसि । वोम्मि पंच-सरखा, सद्धि - सहस्साणि घर-सयासी ॥२६४१॥
५६०५००। प-इस द्वीपमें उन पातकी-वझोंके पांच लाख साठ हजार चारसो प्रस्सी { ५६०४६० ) परिवार वृक्ष हैं ।।२६४१।।
पियवसणो 'पहासो, अहिबइदेवा, पसंति तम इमेज SES
सम्मत - रयण - जुत्ता, वर • मूसा - मूसिवायारा ॥२६४२॥
मर्थ :-उन वोपर सम्यमस्वरूपी रत्नसे संयुक्त और उत्तम भूषणोंसे भूषित रुपको धारण करनेवाले प्रियदर्शन और प्रभास नामफ दो अधिपति देव निवास करते हैं ।।२६४२।।
पावर - अणावराणं, परिवाराबो हवंति एवागं ।
वुगुणा परिवार • सुरा, पुष्बोदिद - पण्णणेहि सुदा ४२६४३॥
पर्ष :-इन दोनों देवोंके परिवार-देव, आदर और अनादर देवोंके परिवार देदोंकी अपेक्षा दुगुने हैं, जो पूर्वोक्त वर्णनसे संयुक्त हैं ।।२६४३।।
मेरु आदिकों के विस्तारका निरूपणगिरि-महसाल-विजया, बक्सार-विमंगलरि-सुरारण्णा' ।
पुष्वायर - वित्यारा, वत्तव्या पावईसं ॥२६४४॥
पर्ष :-( अब ) घातकीखण्डमें गिरि ( मेरुपर्वत , भदशालवन, विजय (क्षेत्र), वक्षारपर्वत, बिभंगानवी मौर देवारण्य इनका पूर्वापर विस्तार कहना चाहिए ॥२६४४।।
१. द. ३. क. अ. य. 3
। २.६, म. य. प्रभा । ३...म. सुरोपण्णा।
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तिलोयपणाती
[ गापा : २६४५-२६४६ एवेसु पत्तक, मंदरसेसाण घरणि - पट्टम्मि । बाउ-गाउदि - सय - पमाणा, जोयणया होदि विषसंभो ॥२६४५।।
१४०० 1 म:-इनमें से प्रत्येक मेरुका विस्तार पृषिवीके पृष्ठ-मागएर चौरान सो ( ६४०० ) ___योजन प्रमाण है ॥२६४५॥ iri:.. a sta
एक जोय - लक्वं, सल-सहस्सा य प्रह-सय-बुचा । एषहत्तरिया भणिदा, विश्वंभो भहसालस्स ॥२६४६॥
१०७८७६ । धर्म:-भद्रशालका विस्तार एक लाख सात हजार माहसो उन्यासो (१०७८७१) ___ योजन प्रमाण कहा गया है ॥२६४६॥
छन्गववि-जोयण-सया, ति'-उत्सरा-अडहिया यति-फलानो। . सब्वाणं 'विजयावं, पत्तेक होवि विभो ॥२६४७॥
६६.३ ।।। म :-सब विजयों ( क्षेत्रों में से प्रत्येक क्षेत्रका विस्तार रुपानदंसौ तीन योजन और पाठसे माजित तीन भाग ( १६०३३ ) प्रमाण है ॥२६४७॥
.. जोयण-सहस्समेरक, वक्खार - गिरीण होवि वित्यारो। अबढाइज्ज - सयाणि, विभंग - सरियाण' विखंभो ॥२६४८॥
१००० । २५० 1 मर्ग :-वक्षारपर्वतोंका विस्तार एक हजार योजन प्रमाण है और विभेगनदियोंका विस्तार ___ अकाईसौ ( २५० ) योजन प्रमाण है ।।२६४८॥
अढाषण - सवाचि, चउवाल - जुदाणि जोयणा रुवं । कहिदं देवारपणे, मूवार वि पत्तकं ॥२६४६॥
५८४४ ।
१.द.व. य. तिउत्तराया हिदा। २.८.. जय. उ. समबास।
.प.सरिया,
क.अ.५.
घ. सरिया
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महानुिया
[ ७०९
:- देवारम्य और भूतारण्य मेंसे प्रत्येकका विस्तार श्रावनसी चचालीस ( ५८४४ )
गाया : २६५०-२६५३ )
योजन प्रमाण कहा गया है ।। २६
श्री सुविधाट जी हा विजयादिकों का विस्तार निकालने का विधान -
विजया दक्खाराणं, विभंगाई देवरण- भट्टसालवणं । यि गिय-फलेन गुणिया कादव्वा मेरु-फल-मुता ।। २६५० ॥ तच्चेय दोब' वासे, सोहिय एवम्मि होदि मं सेसं । णिय-जिय-संखा हरिवं, नियगिय वासाणि जायते ।। २६५१||
6
वर्ग:- विजय वक्षार, विभंगनदी, देवास्थ्य और भद्रशालवनको [ इसे होन ] अपनेअपने फलसे गुणा करके भेरुके फल से युक्त करनेपर जो संख्या उत्पन्न हो उसे इस द्वीपके विस्तारमेंसे कम करके शेषमें अपनी-अपनी संख्याका भाग देनेवर अपना-अपना विस्तार प्रमाण प्रकट होता है ।। २६५०-२६५१ ॥
-
सोसु विस्थारावो,
उ-तिय-छक्क बाउ-दु-पंक-कमे ।
संसं सोलस भजिदं विजयं परि होइ विस्मारं ।। २६५२ ।।
२४६३४६ ।
अर्थ:-बह, चार, तीन छह चार और दो इस अंक क्रमसे उत्पन्न हुई संख्याको धातकी खण्ड के विस्तारमेंसे कम करके शेष में सोलहका भाग देनेपर प्रत्येक विजय (क्षेत्र) का विस्तार जात
होता है ।। २६५२ ।।
विजय विस्तार
यथा : - क्षार यो० ८००० + विभंग १५०० देवारम्य ११६८८ + भदशाल २१५७५८ + मेरु ६४०० यो० २४६३४६ यो० । ( ४००००० – २४६३४६ | ÷ १६८६६०३३ प्रो० ।
-
बक्षार विस्तार
विरथारावो सोह, मंबर- नम-गय-वोणि- नवय-तियं । हिदे, वक्चार णगाण विस्थारो ।। २६५३ ॥
अवसे
३६२००० ।
१. क. ज. स. उ, दोषं वासो ।
-
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७१० ]
तिलोयपणाती
[ गाथा । २६५४-२६५९ :-न्य, शून्य, शून्य, दो, नौ और तीन, इस अंक क्रमसे उत्पन्न हुई संस्थाको पातकीपण्डके विस्तारमेंसे कम करके शेषमें पाठका भाग देनेपर रक्षार-पर्वतोंका विस्तार ज्ञात होता RAMNI... आमा सिम हार
पया :-(४०००००-(११३६५४+ १५००+११६५०+२१५५५८+६४००) -१००० योजन ।
विभंग विस्तारबउ - लक्खाको सोहसु, अंबर-भ-पंच-पटु-णवय-तियं । सेसं छक्क • विहत्त, विभंग • सरियाण विश्यारं ॥२६५४।।
३६८५०० । मर्ष:-शून्य, शून्य, पाच, आठ, नो और तीन, इस अंक क्रमसे उत्पन्न हुई संख्याको धातकीखण्डने विस्तारमेंसे कम करके शेष में छड़का भाग देनेपर विभंगदियोंका ( ६६४१ यो०) विस्तार प्राप्त होता है ।।२६५४॥
एषा :-- [ ४०००००-(८००+१५३६५४ + २१५७५८+ १९६८८+६४..)६०६६४१६, यो प्रत्येक विमंगका विस्तार है।
देवारण्यका विस्तारसोहसु चउ-लक्खादो, तु-एषक-तिय-पटु-पट-तियमाणं । सेसं दु - हिरे होवि हु, वेधारमान वित्यारं ॥२६५५।।
३८६३१२ । अपं:- दो, एक, तीन. माठ, आठ और तीन, इस अंक ऋमसे उत्पन्न हुई । ३८८३१२) संख्याको पातकीखण्ड के विस्तार चार लाख मेंसे घटाकर शेष में दो का भाग देभेपर देवारम्य वनोंका विस्तार प्राप्त होता है 11२६५५।।
अषा:-{ ४००००० -( १५३६५४+ १५०० + २१५७५८ + ६४०० + ८०००+२ -१९४१५६ योजन प्रत्येक देवारण्यका विस्तार ।
___ भद्रशालवनका विस्तारअवय चज-लपखादो, दो-चाउ-दु-च-अट्ट-एक-यंककमे । जोयनया अबसेसं, दो भजिये भहसाल - वनं ॥२६५६।।
१८४२४२ ।
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गापा : २६५७-२६५६ ] उत्यो महाहियारी
[ ७११ प्रर्य :-दो, चार, दो, पार, आठ और एक, इस अंक क्रमसे उत्पन्न हुई ( १८४२४२ ) संस्थाको पातकीखण्डके (चार लाख) विस्तारमेंसे घटाकर शेषमें दो का भाग देने पर भद्रकालवनोंका विस्तार ( १२१२१ यो०) प्राप्त होता है ॥२६५६।।
वषा:-{ ४००००० - (१५३६५४ -१११८+१५००+६४००००००)}:२ -१२१२९योजन प्रत्येक मशालवनको त
मेर विस्तारघउ-लक्खादो सोहसु, 'अंबर-भ-छपक-गपण-णवय-तियं । अंककमे अग्रसेस, महगिरिदस्स परिमागं ॥२६५७।।
३६०६०० । भई:-गून्य, शून्य, छह, शून्य, नो प्रोर तीन इस अंक क्रमसे उत्पन्न हुई ( ३९०६..) संख्याको पार लाल से कम करनेपर जो शेष रहे चतने । ९४.० योजन प्रमाण मेरुका विस्तार है ।।२६५७॥
यथा:-४००००० -- ( १५३६५४+000 + १५०० + १९६८+ + २१५७५८ ) = १४०० योजन मेरु विस्तार 1
कच्छा और गन्धमालिनी देवाका सूची व्यास - दुगुणम्मि भइसाले, भंवरसेलम्स खिवसु विखभं ।
मझिम-सूई - सहिद, सा सूई काछ - गंषमालिभिए ।।२६५८॥
म :-दुगुने भदशालवनके विस्तारमें मन्दरपर्वतका विस्तार मिलाकर उसमें मध्यम सूची ग्यास मिला देनेपर कच्छा और गन्धमालिनो देशको सूचीका प्रमाण आता है ॥२६५८॥
एक्कारस-लखाणि, पणवीस - सहस्स इगि-सयाणि पि । अडान जोयगाणि, कन्याए' सा हो नई ॥२६५६।।
११२५१५८ । प्रचं:-कच्छादेशको सूची ग्यारह लाख पच्चीस हजार एकसो अट्ठावन ( ११२५१५ ) योजन प्रमाण है ॥२६॥
----
२. व
क. प. म. न. ३९१०..।
१..... क. स. न. अंबरण भगएणदोम्गिणबतिव। ..... न. प. उ. कन्या ।
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१२ ]
तिलोयपष्णसी
[ गाश : २६६.-२६६३ पपा:-प्रशालका वि.(१७८७६ x २) + १४०० मेरु वि. + १०... पो. मध्यम सूची-११२९१५८ यो फच्छादेशको सूची।
कच्छा देशको परिधिविक्तंभस्म य बग्गो, वस-गणियो करणि बट्टए परिही । -छ-नम-प्रज-पण-पग-तिम अंक - कमे सीए परिमानं ॥२६६०॥
३५५८०६२। मानविङ्गतारके या इससे गुपिता लड का कमाल निकालने पर परिधिका प्रमाण होता है । यहाँ कम्छादेश सम्बन्धी सूचीकी परिधिका प्रमाण अंक-कमसे दो, छह, शून्य, बाठ, पांच पांच और तीन { ३५५८०६२ ) योजन है ।।२६६०।। पक्षा:- ११२५१५८ x १०= कुछ अधिक ३५५८०६२ यो• परिधि ।
पर्वतरुद्ध क्षेत्रका प्रमाणप्राचार सहस्सा, बाबाल • जमा म जोयगड - सया। एक्कं लक्वं घोड्स - गिरि - रुखमखेत - परिमारणं ॥२६६१।।
१७८६४२। मर्ष :-घातकीसह स्थित दोनों मेरु सम्बन्धी (कुलाचल एवं इष्वाकर इन ) पौवह पर्वतोंसे रोके हुए क्षेत्रका प्रमाण एक लाख अठत्तर हजार पाइसौ बयालीस ( १७८८४२ ) योजन (से कुछ अधिक है ॥२६॥
विदेह क्षेत्रका प्रायामसेल - बिसुद्धा परिही, खउसकीय गुगिन' भवसेसं । यो - सम - पारस • भनिने, जंल त विदेह बोहत ॥२६६२॥ गस-बोयन-सस्लानि, बिस-सहस्सं सयं पि इगियालं'। असीवि - जुर • सयंसा, विदेह - बोहत • परिमाणे ॥२६६३॥
१.२०१४
१. ४. ब. उ. गुरिणम्मु । २. द. ... ज. प. ३. सिसहस्ससय कि होदि विधान।
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गाथा : २६६४-२६६७ ] उत्यो महाठ्यिारो
[ ७१३ भ:-(कच्छादेशकी) परिधिप्रमाण से पर्वतरुख क्षेत्र कम कर देनेपर जो शेष रहे उसको चौंसठसे गुणा करके प्राप्त गुणनफलमें दोसो वारहका भाग देनेपर जो लन्स प्राप्त हो उतनी विदेहक्षेत्रको लम्बाई है। विदेहकी इस लम्बाईका प्रमाए दस साल बीसहजार एकसो इकतालोस योजन और एक योजनके दोसो बारह भागों से एकसौ प्रयासी भाग (१०२-१४१॥ योजन) प्रमाण है ॥२६६२-२६६३।। यथा :-( ३५५८०६२-१७८४२४६४२२१२-१०२०१४ योजन ।
करुछादेशको आदिम लम्बाईसोवा-ईए 'पास, सहस्समेकं च तम्मि 'अवणिज । अवसेसव · पमाचं, बोहत कच्छ - विजयस ॥२६६४॥
प्र: पविदहको उस लम्बाइसे एक हजार योजन प्रमाण सीतानदीका विस्तार कम कर देनेपर ओ शेष रहे उसके अर्घभाग प्रमारा कच्छादेशकी (आदिम ) लम्बाई है ॥२६६४।।
सपा :-( १०२०१४११ - १०००) २=५०६५७०३० योजन ।
पण-जोषण-लक्खारिण, पण-गउवि-सयाणि 'ससरि-सुवाणि । दु • सय - कलाओ हवा, पंक · सस्वेष कस ।।२६६५।।
प्र:-पाच लाख नौ हजार पाचसो सत्तर योजन और दोसो माग अधिक। ( ५०९५७०११ योजन ) कच्छादेशके तियंगविस्तार ( आदिम लम्बाई ) का प्रमाण है ॥२६६।।
अपने-अपने स्थानमें अविदेहका विस्तार-- विजयावि-बास-जग्गो, बालार - विभंग - वरणावं । बस-गुणिवो जं मूल", पुह पुह बत्तीस - गमिदं सं ॥२६६६॥ बारस-ब-दु-सएहि भनिपूर्ण कन्छ - 12 - मेलिपि । तस्पणिय-णिय - ठाणे, विवेह - मस्स विखंभो ॥२६६७।।
१......यस. बास मेष पम्मि । २..क.. प. उ. पवणेजे। 1.., क. म. य. र. सत्तरिस्साये। ४. द मं वसा, ब.क.ब. 1. 1. मूलं मा।।.८. तनु, ब, क. प. म. ए. तहा।
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१४ ]
तिलोरपणती [गाया : २६९८-९६७० मई:--म्यादि विजय, वक्षार, विभंगनदी भौर देवारण्य, इनके विस्तारके वर्गको दससे गुणित कर वर्गमूल निकालना, अपने-अपने उस वर्गमूसको पृथक्-पएक बसीससे गुणा करके प्राप्त लब्धमें दोसौ बारहका माग देनेपर जो प्राप्त हो उसे समादेशके विस्तारमें मिला देनेपर उत्पन्न राशि प्रमाण अपने-अपने स्थानमें अर्घविदेहका विस्तार होता है ॥२६६६-२६६॥
Arters - क्षेत्रीको चाकमा RAHATE चचारि सहस्साणि, पण-सय-धउसोदि गोयवाणं पि । परिपती' विजयाचं गावबा पादसिरे ॥२६६८।।
४५८४ ।
:-घातकीखण्डमें क्षेत्रोंकी वृद्धि चार हजार पाँचसो पौरासी (४५८४ ) पोजम प्रमाण जाननी चाहिए ॥२६६८॥
पा:-[{ ६.)'x}४३२२१२=५४ यो० क्षेत्रोंमें वृद्धिका
प्रमाग।
वक्षारपर्वतोंका वृद्धिका प्रमाणपत्तारि जोपणानं, सयामि सत्ततरीय असाणि । सदिठ कलाओ तस्मि, क्षार - गिरीण परिवही ।।२६६६।।
४ १२। प्र:-इस द्वीपमें वक्षार-पर्वतोंकी वृद्धिका प्रमाण पारसी सतत्तर योजन और साठ फला अधिक ( ) ॥२६६ll यपा:-[11(1000)x१. }x३२ ] + २१२=४७७.यो. व. वृद्धि प्रमाण ।
विभंग नदियोंमें वृद्धिका प्रमाणएकोन - वोस सहिब, एक्क-सर्प खोयगाणि भागा य । बावणा झग, विभा - सरिपाण परिवही ॥२६७०।।
११६।।
.....क.अ. न. परिमार।
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गाथा : २६७१-२६७४ ]
महाहियारो
[ ७१५
:- विमंगनदियों के स्थानोंमें बुद्धिका प्रमाण एकसौ उन्नीस योजन और बावन भाग ( ११६६६ योजन } प्रमाण है ।। २६७० ।
यथा :- [ { /(२५० } * १० } ३२ ] + २१२ = ११२३४ योजन वृद्धिका
प्रमाण
देवारण्यके स्थानों में वृद्धिका श्माल
सत्तावीस सयाणं, उनजवी जोमन्नाणि भागा य । बाणउबी
-
पायच्या,
शा
देवणिस्स परिय ॥२६७१।।.. आदर्ष की बुटि भी G २७८६६ ।
अर्थ :-- देवारण्यको बृद्धिका प्रमाण दो हजार सातसो नवासी योजन भोर बानवे भाग (२७८९२ मो० ) है ।। २६७९ ।।
[{ vf xer | '१० ] x ३२ ] ÷ २१२ - २७८६३३६ योजन । विजयादिकोंकी आदि, मध्यम और अन्तिम लम्बाई जाननेका उपाय
विजयावीनं श्रबिम दोहे वो विवेज्ज सो होदि । मझिम बोहो महिम, दोहे तं शिवसु मंत-दोहो सो ।। २६७२ ।।
अर्थ :- क्षेत्रादिकोंकी आदिम लम्बाई में वृद्धिका प्रमाण मिला देनेपर मध्यम लम्बाई होती
है और मध्यम लम्बाई में वृद्धि प्रमाण मिला देनेपर उनकी घन्तिम लम्बाई प्राप्त होती है ।।२६७२ ॥
बेसावीण अंतिम वोह पमानं च होदि नं जत्थं । तं जि पमानं
श्रग्गिम
·
-
-
वखारावीसु भादिल्लं ॥ २६७३॥
अर्थ :- क्षेत्रादिकों की अन्तिम लम्बाईका प्रमाण जहाँ जो हो, वही उससे आागेके वारादिककी घादिम लम्बाईका प्रभाग होता है ।। २६७३॥
कच्छा मौर गन्धमालिनीको आदिम और मध्यम लम्बाई
भ-सग-पण-णब-गभ-पत्र अंक-कर्म -सय भाग ह कच्छाए गंधमालिनि आबोए परिहि रूपेण ॥२६७४ ||
५०९५७० | १३
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xn ... REAT
THE YE ७१६ ]
तिलोषपणती [गाषा : २५७५-२१७७ :-शून्य, सात, पाय, नो, पाच, सात और तूम्य, इस अंक क्रमसे उत्पन्न हुई संख्या और दोसो माग बधिक वर्षात ५०१५७०११ योजन कछार एवं मन्त्रमालिनी देसको परिदिपमे बादिम सम्माई है ॥२६७४।।
चर-पंच-एक-पर-गि पंचय मंसा तहेय परोक्कं । पुब्बाबर - मेहगं, पुवावर - विजय - माझ • बोहत ॥२६७५।।
५१४१५४ 11 म:--पूर्व दिशागत ( विजय ) मेदसे सम्बन्धित पूर्ण विशागत कन्या पोर पश्चिम दिशागत (अपल) मेरसे सम्बन्धित पश्चिम दिशागत गन्धमालिनी देशों से प्रत्येक देशको मध्यम लम्बाई ५१४१५४९९१ योजन-प्रमाण है ॥२७॥
५०९५७०५:: + ४५८४५१४१५ पोजन है।
कच्छादि देशोंकी मन्तिम पौर दो वजारोंको मादिन लम्बाईभर-तिय-सग-मर-गि-पण दु-सब-कला कम्य-गंधमालिभिए । अंतहो बालारप, गिरीग माविल्ल बीहत ॥२६७६।।
११८७३ II में :--पाठ, तीन, सात, आठ, एक और पाच, इस अंक कमसे उत्पन्न हुई संम्या प्रमाण योषन और दोसौ भाग अधिक कला एवं गन्धमालिनीको अन्तिम तमा (चित्रकूट और सुरमाल इन) दो पक्षार पर्वतोंकी वादिम लम्बाई ( ५१८७१८३:१ यो.)है ॥२३७६॥ ५१४१५४११३+४५८४= ५१५४३८. योजन ।
दोनों वक्षारोंको मध्यम लम्बाईछक्केवक बोरिण गव इगि-पण भाग-अश्वास-पित-रम्मि । सह रेव - पञ्चम्मि य, पोषक माझ • वोहतं ॥२६७७॥
५५९२१६ । । पर्व:-चित्रकूट और देव ( सुर ) मास पर्वतों में प्रत्येक पर्वतको मध्यम लम्बाई बहन एक, दो. नी, एक और पांच, इस अंक क्रमसे उत्पन्न संख्या प्रमाण और पड़तालीस भाग प्रधिक {५१९२१६३४ पोजन है।।२६७७।।
५१८७३ +४७७११९२१६ योजन ।
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गाया । २९७८-२६८.] बजायो महाहियारो
दोनों वदारोंको अन्तिम और मुकच्छादि दो देशोंकी आदिम लम्बाईतिय-मय-चन्णवदगि-पच सा बरवा--
हाहा । को बस्तार - गिरीनं, प्रतिममायो सुकच्छ -विलए ॥२६७।।
४१९६६३ । । प:- उपर्युक्त) दोनों रसार पर्वतोंकी अन्तिम और सुकच्या एवं गंधिसा देशकी प्राविम लम्बाई तीन, नो, छह, मो, एक भोर पाच, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे एकसो पाठ भाग अधिक ( ५१६६३१६ योजन ) है ॥२६७।। ५१९२१६ +४७७.५-५१६६६३० योजन ।
दोनों क्षेत्रों की मध्यम लम्बाईसत्त-सग-योग्नि-पर-युग-पण भागा अट्ठ-प्रहिय-सयमेत्ता। मग्झिरलय • बोहरा, विजयाए सुकन्छ - गदिलए ॥२६७६॥
५२४२७७ ।।१६। :-सुकन्छा भोर गन्धिला नामक दोनों क्षेत्रोंकी मध्यम लम्बाई सात, सात, दो, सार, दो मोर पांच, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे एकसी माठ भाग अधिक (५२४२७७११६ योजन प्रमाए) है ॥२६७६।।
५१६६ +४५८४-५२४२७७३१६ योजन ।
दोनों क्षेत्रोंको अन्तिम पोर दो विभंग नदियों की प्रादिम लम्बाईएक्क-छ-अनुहु-शु-पण असा तं य सुकन्छ - गदिलए । बहपदो चम्मिमासिणि, मतं पारित - बोहत ॥२६८०।।
५२८८९१ | अ:--उन सुकच्छा प्रौर गन्धिला देशोंको अन्तिम तथा द्रहवती और अमिमालिनी विमंग मदियोंकी भादिम लम्बाई एक, छह, आठ, बाउ, दो और पाँच इस अंक क्रमसे जो संस्था प्रसन्न हो उससे एफसी गाठ माग अधिक ( ५२८८९१ योजन प्रमाण ) है ॥२९॥
२२४२७७११६+४५८४४२८८६१३१६ योजन।
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७१८
तिलीयपम्पत्ती
[ गाया : २९८१-२९८३
ध्यम लम्बा
अंबर-माटु-गया-व-पंच य अंक - कमेण मंसा य । विनिय सीबी दोग, भीग मझिाल • रोहतं ॥२६८१॥
५२६६८० । । पर्य :- द्रहवती मौर ऊमिमामिनी विभंग नदियोंकी मध्यम लम्बाई शून्य, भाउ, नो, आठ, दो और पाप इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे एकसौ साठ भाग अधिक (५२८१८. यो.) है ।।२६८१॥
५२८.६१+११९१४५२८१० योजन ।
दोनों नदियोंको मन्तिम और दो देशोंकी आदिम लम्बाईलं-म-गि-गव-पग-पण बोलि नहि पत्तेपर। महकच्छ - सुबग्गाए, अंतं प्राविल्स • बोहतं ॥२६८२॥
५२६१००। प:- दोनों विभंगा नदियोंको अन्तिम तयाः महाकल्ला मोर सुवल्गु ( सुगन्धा ) नामक धोनों देशों में से प्रत्येक देवकी बादिम समाई शून्य, शून्य, एक, नो, यो पोर पांच इस क्रमसे जो संख्या उसन्न हो उसने (५२६१००) योजन प्रमाण है ॥२२॥ ५२८६०+१९०५२९१०० योजन ।
दोनों देशोंकी मध्यम लम्बाईघर-पटु-छकक-तिय-तिय-पख पंक-कमेण गोयनागि पर्व । महरुन्छ - सुवाए, वोही मग्झिम - पएसे ।।२६८३॥
५३३६८४ । अर्थ :--महाकक्ष्या और सुवल्गु (सुगन्धा) देशोंकी मध्यम लम्बाई चार, आठ, छह, तीन, तीन और पांच इस अंक कमसे जो संख्या निर्मित हो उतने (५३३५८योजन प्रमाण है ॥२६८३॥
५२६१..+४५८४-५३३६४ योजन ।
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गापा । २६८४-२६६७ ] पतस्यो महाहियारो
[ ७१६ दोनों देशोंको अन्तिम मोर दोनों पर्वतोंकी आदिम लम्बाईप्र-छ-कु-टु-तिय-पण वोहं विजयाण पदम - कबस्स । तह सूर • पदाए, अंतं पारिल्ल - दोहा ॥२६४।।
५३५२६८। पर्य :- उमाशों देशोंको तिtar Xट गहरा पूर्व पर्वतको आदिम लम्बाई आठ, छह. दो, आठ, तीन पोर पांच इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उसने ( ५३८२६८) योजन प्रमाण है ॥२६८४।। १३३६५४+४५८४ =५३५२६८ योजन ।
दोनों वक्षार पर्वतोंको मध्यम लम्बाईपण-उ-सगढ़-तिय - पण • भागा सट्ठी होवि पत्तक । वर - परम - कूड सह सूर - पग्वए माझ • बोहत ॥२६८५॥
५३७४५।१५। प:-उत्तम पप्रकूट और सूर्यपर्वतकी मध्यम लम्बाई पांच, चार, सात, आठ, तीन मोर पांष इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उससे साठ भाग मधिक (५३८यो ) है ॥२६ ॥
५३५२६+४७७१५३८५४५१११ योजन।
दोनों पर्वतीको मन्तिम और दोनों ऐसों की प्रादिम लम्बाईरोहोरो-पक-तिष - पण अंसा बीसुतरं सयं रोह। अंतयातु गिरीनु, आरो वगए कम्छकाबपिए ॥२६८६॥
५३६२२२ । ११ । म:-उपयुक्त दोनों पर्वतोंको मन्तिम और वस्तु ( गन्धा ) एवं कमछुकावती देशोंकी पादिम सम्बाई दो, दो, दो, नो तीन और पांच इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे एकसौ पौस भाग अधिक ( ५३६२२२६॥ योजन प्रमाण ) है ॥२६०६।। ५३८७४+४ =५३९२२२६ योजन।
दोनों देशोंकी मध्यम लम्बाईछन्मम-मर-तिय-घर-पन मक-कमे बोयसारिण पुम्वृत्ता। अशा मनिमम बोहं. बगए कन्कापषिए ॥२६८७।।
५४३८०६ । ।
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७२० ]
तिलोंमपास
[ गाया : २६६८- २६६०
अर्थ : वस्तु ( गधा ) और कच्छकावती देशकी मध्यम लम्बाई सह, शून्य, माठ, सोन, चार और पांच इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और पूर्वोक्त एकसौ बीस माग व्यधिक ( ५४३८०६६१ योजन प्रमाण ) है ।।२६८७११
योजन ।
दोनों देशों की अन्तिम घोर दोनों नदियोंको आदिम लम्बाई
५३९२२२३३३+४५८४५४३८०६३
भ-पव-तिय-अड-च-पण पुलवतंसान बो बिजएस गहवदिए फेशमालिणि, अतिम- प्रादिल्स बोहरा
आप आ
·
५४८३६० | १३३ ॥
अर्थ :- वल्गु (गन्धा) मोर कच्छकावतो देशोंको अन्तिम तथा ग्रहवती एवं फेनमालिनी नामक विर्भगदियों को आदिम लम्बाई शून्य, नौ सीन, माठ, चार और पांच इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और पूर्वोक्त एकसी बोस भाग अधिक ( ५४५३१०२३१ योजन प्रमाण ) है ॥२६६८।।
५४३८०६३ + ४५८४ = ५४ = ३९०३२ योजन |
दोनों नदियोंको मध्यम लम्बाई-.
नव-भ-पल-ज-घउ पण भागा वातरोसिवं रोहं ।
मक्लि गहबबीए, तह छेब म फेणमालिभिए । २६६६ ।।
-
-
५४८५०६ । ३३ ।
वर्ष :- मस्ती और फेनमालिनी नदियोंकी मध्यम लम्बाई नौ शून्य, पाँच, आठ, चार मौर पाँच इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन और एकसी बहत्तर भाग अधिक योजन प्रमाण ) है || २६८१ ।
(५४८९०६
५४८३६०३३३+११६२ = ५४८५०९११३ योजन |
दोनों नदियोंकी अन्तिम तथा दोनों देशोंको पादिम लम्बाई
नव-वो-छ-म-प-पण असा वारस विभंग-सरिया | अतिल्लय
-
बोहल, प्रादी प्रावत कन्पकावविए ॥२६६०॥
५४८६२६ | |
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भाषा : २६९१-९६६३ ]
त्यो महाहियारो
[ ७२१
धर्म :- उपर्युक्त दोनों विभंगनदियोंकी मन्तिम पौर श्रावर्ता तथा वप्रकावतो देशोंकी पामि लम्बाई गो, दो, वह आठ चार और पांच इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन और बारह भाग अधिक ( ५४८१२६६१ योजन प्रमाण ) है २६ नो
५४८५०१३३+११
= ४४८६२६ योजन
दोनों देशोंको मध्यम लम्बाई
सिय-इगि -दु-लि-पण-पणयं, अंक-कमे जोयणाभि अंसा य । बारसमे मक्सि वोहं प्रावत
-
·
५४३२१३ |
१२
317
अर्थ :- भवर्ता और पप्रकाषसी देशोंकी मध्यम लम्बाई तीन एक, दो, तीन, पाँच, और पांच इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उसने योजन और बारह भाग अधिक ( ५४३२१३३३२ योजन प्रमाण ) है ।। २६६१।।
५४८६२६३+४५८४-५४३२१३३३० योजन |
दोनों देशों को अन्तिम और दो वक्षार-पत्रोंकी आदिम लम्बाईसग-नव-सग-सग-पण-पण, अंसा ता' एव पोसु विजयाणं ।
तिल्लय बोहतं, आदिहलं सलिल पाग - बरे ॥२६६२ ॥
दम्पकावविए ॥२६६१ ॥
५५३२१३१३+४५८४=*५७७९७३२५ योजन ।
-
५५७७६७ । २१३
अर्थ:-सात नी सात, सात, पाँच और पाँच इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उसने योजन और बारह भाग अधिक अर्थात् ५५७७२७.१३ योजन उपर्युक्त दोनों देशोंको अन्तिम लम्बाई तथा इतनी ( ५५७७६७३ योजन) हो नलिन एवं नागपर्वतकी आदिम लम्बाई है ।। २६६२ ।।
दोनों वक्षार पर्वतोंकी मध्यम लम्बाई
च-सत्त-योगि-अद्वय-परण-पद्म-अंकनकमेख साई ।
बाबसरि दीहां, मक्झिल्लं* णसिण- कूट-यागवरे ।।२६६३।। ५५८२७४ । २ ।
१. ६. एव । २.६.ब.क. म. प. उ. पाल र
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-
७२२ ]
तिलोएपमाती [ गाथा : २६६४-२६९६ पर्ष :--नलिम भोर नाग पर्वतकी मध्यम लम्बाई चार, साता. दो, पाठ, पाँच मौर पांच, इस अंक क्रमसे जो संस्था उत्पन्न हो उतने योजन और बहसर माग अधिक ( ५५५२७४. योजन प्रमाण) है ।।२६६३।। ५२७७९७३३+४७७.१५५८२७ योजन ।
दोनों वक्षारोंको अन्तिम और दो देशोंकी प्रादिम लम्बाईइगि-पण-सग-अड-पण-पण भागा बसोस-महिय-सय दोहं। बोस गिरोस प्रतिस्लाविल्लं रोस विजयानं ।।२६६।।
५५८७५१ । १३ प्रपं: उपयुक्त दोनों वक्षार पर्वतोंको अन्तिम तपा लांगलावर्ता और महावना देशोंकी प्रादिम लम्बाई एक, पांच, सात, माठ, पाच मोर पौष इस अंक क्रमसे निर्मित संख्या प्रमाण तथा एकसी रसौस भाग अधिक (५५८७५११३ योजन प्रमाण) FEE TARANTEET ५५८२७४:३+४७७१-५५८७५१३१३ योजन ।
दोनों देशोंको मध्यम लम्बाईपण-ति-ति - तिय - छप्पणयं अंसा ता एव संगलावते । तह महबप्पे' विजए, परोपक' मा • दोहरा ॥२६ ॥
५६३३३५ । ३१ मर्थ:-पौष, तीन, तीन. तोन, छह और पाच इस अंक मसे जो संख्या निर्मिस हो उतने योजन मोर पूर्वोक्त एकसौ वत्तीस भाग मधिक ( ५६३३३५३१३ योजन प्रमाण ) लांगलावर्ता एवं महावना देशों में से प्रत्येकको मध्यम लम्बाई है ॥२६६५।।
५५.८७५१३१३+४५८४=५६३३३५३१॥ योजन ।
दोनों देषोंकी अन्तिम और दो विमंगनदियोंकी आदिम लम्बाईगव-इगि-नव-सम-छप्पन भागा ता एव बोसु विमयान । अंतिल्लय - दोहरा, मारिस्त हो - विभंग - 'सरिपानं ।।२६६६।।
___५६७६१६ । ।
१.प.अ. य. तहमपे । २, ५, ब. क. प. प. उ.पत्तेक मग्रिडत। 1... सरीणं । ब. न. सरीर, क. सरीरंग ।
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आषा : २६१७-२६९९ ] पत्थो महाहियारो
। ७२३ म :-दोनों देशोंको अन्तिम और गम्भीरमालिनी एवं पंकवती नामक दो विमंग नदियोंकी प्रादिम सम्बाई नौ, एक, नो, सात. यह और पांच इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने पोजन और पूर्वोक्त एकसौ वतीस भाग अधिक (५६७११९२१३ योजन प्रमाण) है ॥२६९।। ५६३३३५३१३+४५८४-५६७६ १९३३३ योजन ।
__दोनों विभंग नदियोंकी मध्यम लम्बाईअतिव-गभ-पर-छपण अंसा परसीरि-अहिय-सयमेश । गंभीरमालिणाए। मरिझल्ल पंकलिंगाए ॥२६६७।।
५६८०३८ । । प्र:-गम्भीरमालिनी मोर पंकवती नदियोंकी मध्यम सम्बाई पाठ, तीन, शून्य, आठ, छह पोर पाप इस अंक क्रमसे उत्पन्न हुई संख्याने एकसौ पौरासी भाग अधिक (५६८०३८ योजन प्रमाण वाया
? ५६७६१६३३ + ११९५६८०३ योजन ।
दोनों नदियोंको अन्तिम मौर दो देशों की प्रादिम लम्बाईअस्पन-गि-प्र-छप्पर मेसा चवीसमेत-रोहत। गोवं पदोग प्रतं, प्रादिल्लं रोसु विजयाणं ॥२६६८।।
५६८१५८ । । अर्थ :- उपयुक्त दोनों नदियोंको अन्तिम तथा पुष्कला एवं सुवप्रा देवमेंसे प्रस्पेककी पादिम लम्बाई बाठ, पांच, एक, आठ, ग्रह मोर पार इस बंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन पार पौबीस भाग अधिक ( ५६८१५८स योजन प्रमाण ) है ॥२६॥८॥ ५१८०३८ +११६१२-१६८१५८ यो ।
दोनों देशोंकी मध्यम लम्बाई..हु-बाउ-सग-शोणि-सग-पण अंक-कमे मसमेव पुख्त'। मझिालय - दोहरा, पोक्खल - विजए सुबप्पाए ॥२६॥
५७२७४२ । ।
१. द. ग. य. पुष्यंता, ब. क. . पुष्यत्ता ।
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७२४ ]
तिलोयपणाती
[गाचा । २७००-२७०२ प: पुष्कर माशुवधा मनमा सामान बरो, सास और पांच इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन मोर पूर्वोक्त बौनीस भाग अधिक ( ५७२४RY योजन प्रमाए) है ॥२६६६।।
५६८१५८४+४५८४=५७२७४२ योजन ।
दोनों क्षेत्रों की अन्तिम मौर दो बक्षार पर्वतोंकी आदिम लम्बाईछ-दो-सिय-सग-सग-पग, अंसा ता एक मत-दोहच। कमसो दो - विजयाणं, माबिन्लं एक्कसेल-मंदवने ॥२७००॥
५७७३२६ । । *:-कमश: दोनों क्षेत्रोंको अन्तिम तथा एकशेस धनग नामक वक्षार पर्वतकी पादिम लम्बाई छह, दो तीन, सात, सात और पाप इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने पोर बीबीस भाग हो भधिक (५७७३२६:१४ योजन प्रमाण ) है ॥२७.०॥ ५७२७४२ +४५०४-५७७३२१११ योजन ।
दोनों वक्षार पर्वतोंको मध्यम लम्बाईतिय-णभ-अड-संग-मग-पण, भाणा ससोदिमत्त पोल। मपिझालय - दोहत, होवि पुई एपकसेल - इंदनगे ॥२०१॥
५७७८०३ । । :- एक शैल और पदमग नामक वक्षार-पर्वतमेंसे प्रत्येकको मध्यम लम्बाई तीन, शून्य, माठ, सात, सात बोर पांच इस अंक क्रमसे निर्मित जो संख्या है उतने पोजन मौर चौरासी भाग अधिक ( ५७७०० योजन प्रमाण ) है ।२७.१।।
५७७३२६.४४+४७ -५७७८० योजन ।
दोनों पर्वतोंको अन्तिम तथा दो देशोंको आदिम लम्बाईपभ-प्रबन्दु-मट्ठ-सग-पन,मसाबारस-कवी प्रसाणे । दोह' बोसु गिरीचं, आवो बप्पाए पोक्ललावपिए ॥२७०२॥
५७८२८०
...ब.क. उ. दोहरमोन्।
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गावाः । २७०३-२७०५ ] चउत्पो महाहियारो
[ ७२५ म:-दोनों यक्षार-पर्वतोंको अन्तिम और वना एवं पुष्कलामती क्षेत्रको बादिम सम्बाई शून्य, माठ, दो, माठ, सात भोर पांच इस अंक क्रमसे जो संस्था उत्पन्न हो उसने योजन भोर बारहके वर्ग पर्यात् एकसौ चवालीस भाग अधिक ( ५७६२८०१ योजन प्रमाण ) है ।।२७०२।। ५७७८०३ +rawst=१७५२८०० योजन । दोनों देशों को मार लम्बाई
Lasir चउ-छमाह- • प्रसं, पंच ५ असा सहेच परोपकं । मग्भिलं बीहत, बप्पाए पोक्खालावविए ॥२७०३॥
५८१८६४४। बर्ष:-वत्रा और पुरकलावती क्षेत्रमेंसे प्रत्येककी मध्यम लम्बाई चार, छह, आठ, दो, पाठ मोर पार इस मंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन एवं एकसौ पवालीस पाग पधिक (५१२०६४ योजन प्रमाण ) है ।।२७-३।।
५७८२८०४+४५८४५८२८४सायोजन ।
दोनों देशोंको अन्तिम मोर भूतारण्य-देवारण्यकी माविम लम्बाईप्रा-बान-बर-सार-पत्र, मंसा से व पोसलादबिए। बप्पाए मंस - बोह, माविरुवं भूद • देवरणासं ॥२७०४।।
५८७४४ । । म:-पुकसावती और वप्रा क्षेत्रको अन्तिम तया भूतारण्य एवं देवारम्पकी आदिम सम्बाई पाठ, पार, चार, सात, आठ मोर पांच इस मंक कमसे निर्मित संख्यासे एक सौ पवालीस भाग अधिक (५८५४ायोजन प्रमाण ) है ॥२७०४॥ ५८२६४ +४५८४-२८७४ पोजन ।
दोनों वनोंको मध्यम लम्बाईअटु-तिय-बोणि-अंबर-पव-पन-क-कमेग पीसा । भागा मरिझम • वीह, पत्तेवक देव - भूबरगाणं ॥२७०५॥
५६०२३८ । ।
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स्
तिलोपण्णत्तो
७२६ ]
वर्ग : - देवारव्य और भूतारण्य में से प्रत्येक बमकी मध्यम लम्बाई आठ, तीन दो, शून्य, नौ और पांच इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और चौबीस भाग अधिक (५६०२३८२६ योजन प्रमारण } है ।।२७०५ ॥
१८७४४८३+२७८६
t
·
५६०२१८६ योजन
दोनों वनों की अन्तिम लम्बाई-
आकाले श्री सुवि
सत-दु-अंबर-तिय-व-पंच यसाय सोल-साहिब सपं । पत्तं वकं मंतिल्लं दोहच" चेव नवरण्यानं ॥ २७०६ ॥
५६३०२७ । १६३
:-देवारण्य घोर भूतारण्यको अन्तिम लम्बाई सात, दो, शून्य तीन, नौ और पांच, इस अंक क्रमसे जो संध्या उत्पन्न हो उतने योजन मोर एकसो सोलह भाग अधिक ( ५९३०२७३ योजन प्रमाण ) है ॥२७०६ ॥
[ गाया । २७०६-२७०८
५६०२३८३+२७८१३१-४११०२७३११ योजन ।
मंगलावती आदि देशों के प्रमाणकी सूचना -
कच्छाविप्पमुहानं तिविह वियप्पं चिकविदं सभ्यं । बिजयाए मंगलाबवि
पनहाए कमेण
व ।।२७०७॥
अर्थ :- ( इस प्रकार ) सब कच्छादिक देशोंकी लम्बाई तीन प्रकारसे कहो गई है। अब क्रमशः मंगलावतो आदि देशोंकी लम्बाई कही जाती है ।। २७०७।।
इच्छित क्षेत्रोंकी लम्बाईका प्रमाण
-
कच्छादिसु विजया, आदिम-मज्मिल्ल वरिम-वीहत |
विजयद्ध ददमणिय, पढ को तस्स वहतं ॥२७०॥
·
:- कच्छादिक क्षेत्रोंकी शादिम, मध्यम और अन्तिम लम्बाई मेंसे विजयाघंके बिस्तारको घटाकर शेषको आधा करने पर ( इच्छित क्षेत्रों ) उनकी लम्बाईका प्रमाण प्राप्त होता है ।। २७०८ ।।
१. ब. उ. दोहसुरकरश
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पापा : २७०१-२७१२ ] पउत्थो महाहियारो
[ ७२७ पचासे मंगलावतो वेश तकको सूचोया प्रमाण प्राप्त करने की विधिसोहसु महिम - सूई, मेवगिरि दुगुण-भद्दसास-वणं ।
सा' सर्व पम्मादो • परियंतं मंगलावदिए ॥२७.६।।
मर्ग:-शातकी खण्डकी मध्यसूची मेंसे मेरुपर्वत और दुगुने भद्रशाल-वनके विस्तारको घटा देनेपर जो शेष बचे वह एपासे मंगलावती देश तकको सूची होतो है ॥२७०६॥ १००००० - {80. + ( १०७८७६x२ } }=६७४८४२: योजन मूवी ।
सूची एवं परिधिका प्रमाणदो-घड-अर-घर-सग • छज्जोयणपाणि कमेन तं वागं । बस-गुण-मूल परिही, अड-
तिराम चज-ति-पाय Hari -
सूई १७४८४२ 1 परि २.३४०३८ । म:-दो, पार, पाठ, पार, सात और यह, इस अंक कमसे जो संम्पा उत्पन्न हो उतने (६७४८४२) योजन सूची है । इस सूची-प्रमाणका वर्ग करके उसको इससे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसका वर्गमूल निकालने पर घातकोखण्डको उपयुक्त मध्यमा सूचीको परिधिका प्रमाण होता है, जो क्रमश: पाठ, तीन, शून्य, पार. तोन एक और दो अंक रूप (२१३४०३८ यो०) है ।।२७१।। १६७४८४२' x १०=(कुछ कम ) २१३४०३८ पोजन परिधि ।
विदेह क्षेत्रको लम्बाईसेल - पिसुद्धो परिहो, परसटोहिं गुरोध प्रवसेसं । बारस - ओ - सम • भविदे, जलबतं विवेह-नोहतं ।।२७११॥
:-इस परिधिप्रमाणमेंसे पवंसरुव क्षेत्र कम करनेपर जो शेष रहे उसे बांसठसे गणित कर दोसो मारहका भाग देनेपर जो लम्ध आवे उतनी विदेहक्षेत्रको लम्बाई है ।।२७११।।
सग-बड-वो-म-गव-पण, भागा वो-गुणिव-गडदि बोहत । पुबषर • विहागं, सामीचे भहसाल - वर्ग ॥२७१२॥
५६०२४७ । ।
१.द. सो।
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[ गाया । २७१३-२७१५
मालकांनी वसई सात बार दो, शून्य, नौ और इस अंक क्रमसे जो संस्था उत्पन्न हो उतने योजन मोर एकसो इस्सो भाग अधिक ( ४१०२४७६६१ योजन प्रमाण ) है ।।२७१२ ।।
७२८ ]
( २१३४०३८ - १७८८४२४६४÷२१२ = ५६०२४७२१९ यो० । पद्मा और मंगलवती देशोंको उत्कृष्ट लम्बाई
तिलोयपाती
·
तम्मि सहस्सं सोहिय अद्ध कवे बिलीनदीह उक्कस् पम्माए, तह देवय मंगलादिए || २७१३।।
धर्म :- विदेह क्षेत्रकी ( उस ) लम्बाईमें से एक हजार योजन ( सीतोदाकर विस्तार ) कम करके पोषको आधा करनेपर पद्मा तथा मंगलायती देशकी उत्कृष्ट लम्बाईका प्रमाण ज्ञात होता है ।।२७१३॥
तिय-वोच्च-नव-युग अंक' - रुमे जोधपालि भागानि ।
चीन सय पीहं, आविल्लं पचम मंगलाबदिए || २७१४ ||
-
२९४६२३ | १६
वर्ष:- पपा और मंगलावती देवोंकी (उपयुक्त उत्कृष्ट अर्थात् ) मादिम लम्बाई तीन, दो, छह, वार, नौ और दो इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन हो उतने योजत और चार कम दोसी अर्थात् एकसौ दधानवं भाग अधिक ( २६४६२३३३३ योजन प्रमाण ) है ।।२७१४।।
२०२९४६२३३१६ योजना |
( १९०२४७१६३ - १०००)
.
-
दोनों देशोंकी मध्यम लम्बाई
नव-तिय-भ-सं- नव-युग-अंक-कमे भाग दु-सय चत्र- रहिषं । मल्लिय दोहसं, पम्माए मंगला दिए || २७१५ ।।
२६००३९ ॥ ३६
अर्थ :- पद्मा और मंगलावती देशको मध्यम लम्बाई नो, तीन, शून्य शून्य, नौ और दो इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उसने योजन और एकसौ छपानी भाग अधिक ( २९००३२३२२
योजन प्रमाण ) है ।।२७१५५
२१४६२३३
1. अंकवकमेण ।
४५८४-२६००३६२३३ योजन ।
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पाषा : २७१६-२७१८ ] - उत्थो महाहियारो
[ ७२९ दोनों देशोंको मन्तिम और दो वक्षार पर्वतोंको आदिम सम्बाईपरण-पम-बस-पम-अर-युग, घसा ता एव बोसु विजयासु। मंतिल्लय • दोहच, बक्सार • युगम्मि माविल्लं ।।२७१६॥
२८५४५५ । । मर्म:-उपयुक्त दोनों देशोंको अन्तिम और श्रद्धावान् एवं पारमाम्जन नामक दो वक्षार पर्वतोंकी आदिम लम्बाई पांच, पांच, चार, पांच, आठ और दो इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे एकसौ छपान भाग अधिक ( २८५४५५६५ यो०) है ।।२७१६।।
२६. ०३
TE A दोनों पक्षारोंको मध्यम लम्बाईप्रा-सग-गव-बउ-अर-युग भागा छत्तीस-पहिय-सयमेशक । सरवावणमायंजण : पिरिम्मि मणिमल्ल • यौह ॥२७१७॥
२८४९७८ । । पर्य:-श्रद्धावान और पारमान पर्वतोंकी मध्यम लम्बाई बाठ, सात, नौ, पार, पाठ और दो, इस अंक-क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उससे एकसो छत्तीस भाग अधिक ( २६४९७ योजन प्रमाण ) है ।।२७१७॥
२८५४५५११ - ४७७.६२८४६८१५ योजन ।
दोनों वक्षारोंको अन्तिम पौर दो देशों को आदिम लम्बाईरगि-गभ-पण-चउ-पर-दुग, भागा छाहत्तरी य तिल्लं । बोहं दोसु गिरीसु', प्रादीनो दोषण - विजयाणं ॥२७१८॥
२८४४०१ । :-उपयुक्त दोनों वक्षार पर्वतोंको अन्तिम मौर सुपपा तमा रमणीया नामक क्षेत्रोंमेंसे प्रत्येककी मध्यम लम्बाई एक, यून्य, पांच, चार, भाठ मोर दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उससे खपत्तर भाग अधिक अर्थात् २०४५० योजन प्रमाण है ।।२७१८॥
२८४९७८ - wwm-२८४५० योजन ।
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७३० }
तिलोमती
दोनों देशोंकी मध्यम लम्बाई
सम-मि-व-व-सग-युग, भागा ता एवं मझ-वोहसं ।
पसेवक सुषम्माए, रमणिज्जा
विजपासु
[ गाथा : २७१६-२७२२
-
२७६६१७ |
- सुपधा और रमणीया नामक क्षेत्रों में से प्रत्येककी मध्यम लम्बाई सात, एक, नो, नी, सात और दो इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे उत्तर भाग अधिक अर्थात् २७६११७१६ योजन प्रमाण है ।। २७१६ ॥
दोनों क्षेत्रोंकी अन्तिम तथा दो विभंग नदियोंकी आदिम लम्बाई
अयं नदियोंमेंसे प्रत्येक उत्पन्न हो उससे पूर्वोक्त
नाम विजयाए ।।२७१६ ॥
तिथ-तिषिण- तिष्णि-पण सग दोणि य अंसा तहेब बोहरा । वो विजयानं असं आविल्लं वो विभंग - सरिमाणं ॥ २७२० ।।
२७५३३३ । ।
उपर्युक्त दोनों क्षेत्रोंकी मन्लिम तथा क्षीरोदा एवं उन्मतजसा नामक दो विभंगमादिम लम्बाई तीन तीन पचि, सात और दो इस अंक क्रमसे जो संख्या तर भाग अधिक अर्थात् २७५३३३३६ योजन प्रमाण है ।।२७२० ।। दोनों विभंग नदियोंको मध्यम लम्बाई---
-
- इगि बुग-पण सग दुग भागा बद्धकोसमेत बोहत । मल्लिं
क्षीरोदे, उम्मत णदिम्मि पत्त कं ॥ २७२१ ।।
२७५२१४६
अर्थ :- क्षीरोदा और उन्मतजला मेंसे प्रत्येकको मध्यम लम्बाई चार, एक, दो, पांच, सात श्रीर दो, इस अंक क्रमसे निर्मित संख्यासे चोवीस भाग अधिक अर्थात् २७५२९४३६३ योजन प्रमाण है ।। २७२१ ॥
दोनों नदियोंकी अन्तिम और दो देशोंको प्रादिम लम्बाई
उ-रब- अंबर- पण सग-दो भागा चचरसीवि-हिय सयं ।
दणं वीण अंतिम-बीहं आविल्स दोसु बिजयासु ।।२७२२॥
२७५०६४ । ६६ ।
१. ड. . . उ. खारी २.द. ब. क. ज. उ. श्रीपाद २.उ.विजय...
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पापा : २७२३-२७२५ 1 वजस्थो महाहियारो
[ ७३१ पर्व:-उपयुक्त दोनों नदियोंकी अन्तिम सम्बाई तथा महापप और सुरम्या नामक यो देशोंमेंसे प्रत्येककी आदिम लम्बाई चार, नो, शून्य, पाच, सात और दो, हम अंक-क्रमसे उत्पन्न संस्पासे एका पौरासी भाग अधिक अर्थात् २७५०६४ योजन प्रमाण है ।।२७२२।। २७५२१४३४ - ११६५३९ =२७५०६४ योजन !
दोनों देशों की मध्यम लम्बाईणभ-इपि-पण-णभ-सग-ग-मंक-कमे भागमेव पुटिवल्लं ।
- वित्यार, महपम्म - सुरम्मर विजयाणं ।।२७२३॥
__२७०५१० I I म :-महापमा और सुरम्या नामक देशोंको मध्यम लम्बाई शून्य, एक, पौष, शून्य, सात और दो, इस अंक क्रमसे जो संस्या निर्मित हो उससे एकसौ चौरासी भाग अधिक अर्थात २७०५१० योजन प्रमाण है ।।२७२३।।
२७५०६४१ - ४५०४२७०५१० योजन ।
दोनों देशों की अन्तिम और दो वक्षार पर्वतों की आदिम लम्बाईछ-हो-णव-पण-अधुग, भागा ता एव अत - बोहत । वो - विजयाणं प्रजम - वियडावबियाए आहिस्तं ॥२७२४।।
२६५६२६ ।।। मर्म:-उपयुक्त दोनों देशों को अन्तिम तथा अञ्जन और विजटावान् पर्वतकी आदिम लम्बाई छन्, दो, मो, पाप, छह और दो इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे एकसौ पौरासी भाग भक्षिक भर्थात् २६५६२६३६ योजन प्रमाण है ॥२५२४।। २७०५१०१ – ४५८४=२६५९२६11 योजन ।
दोनों वक्षारोंकी मध्यम सम्बाईरणब-घर-पउ-पर-छ-दो, अंक-कमे ओपणारिण भागा य । बासष्टि दु - हर बीहं', मझिल्लं बोलु बक्यारे ॥२७२।।
___ २६५४४९ । । ।
१...ब.क.उ. सुषम्म
१..म.क. ज. उ. पोहा।
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___७३२ ]
सिलोयपाती
[ गाथा : २७२६-२७२६ मर्ग:-पञ्चन और विजटावान् इन दोनों वजार-पर्वतोंको मध्यम लम्बाई नौ, पार, चार, पाच, छह और दो, इस अंक क्रममे जो संख्या उत्पन्न हो उससे एकसो चौबीस भाग अधिक अर्थात् २६५४४६ योजन प्रमाण है ।।२७२५॥ २६५९२६11 - ४७७%8=२:५४४योजन । .
दोनों वक्षारोंको अन्तिम और दो देशोंकी आदिम लम्बाईदो सग-णब-पर-छ-दो भागा चउसद्धि प्रत - बीहत । दो - वक्षार - गिरीणं, पारीयं दोसु विजए ॥२७२६॥
२६४६७२ 148 मर्ष :-दोनों वक्षार-पर्वतोंकी अन्तिम तथा रम्मा एवं पप्रकावतो देशको मादिम सम्बाई दो, सात, नो, चार, छह और दो, इस प्रक-क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे चौसठ माग अधिक अर्यात् २६४६७२ योजन प्रमाण है ॥२५२६।। itvRNA NEHTAPUोजन ।
दोनों देशोंकी महयम सम्बाईप्रादुर-तिय-भ-छ-छो भागा चउसटि मण्म - बोहत । रम्माए पम्मकाववि - विधवाए होदि पत्तेमकं ॥२७२७।।
२६०३८८ । । म:-रम्या भौर पनकावती देशमेंसे प्रत्येककी मध्यम लम्बाई पाठ, माठ, तीन, शून्य. छह और दो, इस अंक क्रमसे ओ संख्या उत्पन्न हो उससे चौसठ माग अधिक कर्यात २१०३८ योजन प्रमाण है ॥२७२७॥
२६४६७२४-४५८४२६०३८ पोजन ।
दोनों क्षेत्रोंकी मन्तिम तथा दो विभंग नदियोंकी प्रादिम लम्बाईचउ-भ-अर-पण-पण-चुग भागा ता एव वोग्सि विजया। अतिरूलय - वीहस, प्रादिल्लं बो- विमंग - सरिया ॥२७२८॥
२५५८०४ 11.1 :-उपर्युक्त दोनों क्षेत्रोंको अन्तिम तथा मतजला और सोतीवा नामक दोनों नदियों की आदिम लम्बाई चार, शून्य, पाठ, पांच, पाच और दो. इस अंक-कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे भौंसठ भाग अधिक अति २५५८०४१ योजन प्रमाण है ।२७२८।।
२६०३८६५ - ४५८४=२५५८०४ योजन ।
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चश्मो महाया
दोनों विभंग नदियोंकी मध्यम लम्बाई
पण प्रत्र-छप्पण-पण-धुग, प्रक· कमे बारसानि अंसा य । मरुजले सीवरे, पतंब
वी
गामा : २७२१-२७३१ |
-
—
२५५६८५ । १२२ ।
पार्म
आई श्री
अर्थ :- मजला और सीतोदामे से प्रत्येकको मध्यम लम्बाई पाँच, आठ, यह पाँच, पाँच और दो. इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे बारह भाग अधिक अर्थात् २५५६०५ प्रमाण है ।। २७२६ ।
योजन
२५५८०४
११६१३२५५६८५२ योजन |
दोनों नदियोंकी अन्तिम और दो देशों की प्रादिम लम्बाई
पण छुप्पण-पण पंचप-वो दिय माहवारीहि बहिय-सपं । भागा - इबु दिजए, अतिल्लाविल्ल बोहत ॥२७३०॥
॥२७२६॥
-
[ ७३३
२५५५६५ | २१३
म :- उपर्युक्त दोनों नदियोंकी अन्तिम और शङ्खा तथा वत्सकावती नामक दो विजयों ( क्षेत्रों ) की मादिम लम्बाई पाँच, छह पथि पाँच, पाँच और दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न
हो उससे एकसी बहत्तर भाग अधिक अर्थात् २५५५६५३१३ योजन प्रमाण है ।।२७३०।।
२५५६८५३३
• ११६ - २५५४६५३१३ योजन |
=
दोनों देशोंकी मध्यम लम्बाई
इणि अणव-भ-परण-युग भागा ता एव मम्भ-वीहतं ।
संखाए 'वच्छकावर्ष बिजए पोक्क परिमाणं ।। २७३१।।
४५८४-२५०१०१३३ योजन
१. वि. बमकरवदि, क. पा. पम्पकादि ।
२५०६८१ । ३३
शङ्खा एवं इत्सकावती क्षेत्रमेंसे प्रत्येकको मध्यम लम्बाई एक. आठ, नौ, शुन्य, पle और दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उससे एकसी बहत्तर भागसे अधिक मर्यात्
एवं
२५०१०११३ योजन है ।। २७३१।।
२५५५६५३३
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___३४ | पाक ... असिमापार : २७१२-२७३४
पोनों देशोंको अन्तिम और वो वक्षार पर्वतोंको प्रादिम लम्बाईसग-जय-तिय-छाउग, भागा ते चेव चोणि-विजयागं । दो • वाखार - गिरोणं, असिम - प्राविल्ल • दोहतं ॥२७३२।।
२४६३६७ । १३ । :-उपर्युक्त दोनों देशोंकी अन्तिम तथा पाविष और बनवणकूट नामक दो वक्षार-पवंतोंको मादिम लम्बाईका प्रमाण सात, नौ, तीन, यह, रार और दो, इस अंक-क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे एकसौ बहत्तर भाग अधिक पात् २४६३६७१ योजान है ॥२७३२।। २५०६८११२३ – ४५८४-२४६३६७१ योजन ।
दोनों वक्षार पर्वतोंको मध्यम लम्बाईगभ-को-गव-पम-बाउ-युग, पंसा तह वारसहिय-सममेक्कं । मम्मि होवि वोह, आसीविस - वेसमण - पूरे ॥२५३३॥
२४५९२० 135 प:-माशीविष तया वैश्रवणकूटकी मध्यम लामाई शून्य, दो, नौ, पाप, चार और दो, इस घंक-क्रमसे जो संख्या उत्पन्न होतो है उससे एकसौ बारह भाग अधिक अर्थात् २४५९२०१७ योजन प्रमाण है ।।२७३३।। २४६३१७ - ४७७४६ २४५६२० योजन ।
दोनों पर्वतोंको अन्तिम और दो देशोंकी प्रादिम लम्बाईतिय-बच-बड़-परण-पर-दुग, अंसा बापन्न बोगिन-वक्खारे। दो - विजए मंतिल्ल, कमसो माहिल - बौहत्त ।।२७३४॥
२४५४४३
I I अर्थ :-दो वक्षार-पर्वतोंको मन्तिम भोर महामस्सा तपा नलिना नामक दो देशोंकी प्रादिम लम्बाई सोन, पार, बार, पौष, चार प्रोर दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे बावन-भाग अधिक अर्थात् २४५४४३५ योजन प्रमाण है ।।२७३४॥
२४५९२० - ४७७४१-२४५४४३ योजन ।
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गाया : २७३५-२७३७ ]
कार्यक्रर्तक
उत्यो महाहियारो
दोनों देशोंकी मध्यम लम्बाई
नव- पण अणभ- चउ-दु-अंक-कमे प्रसमेव मणिमए
२४०८५६ ६
अर्थ :-- महावत्सा और नमिना देशोंमेंसे प्रत्येकको मध्यम लम्बाई नो, पाँच, पाठ, शून्य, चार और दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे घावन भाग पचिक अर्थात् २४०५ योजन प्रमाण है २७३५।।
२४५४४३६१२
४५८४ - २४०८४६
योजन |
दोनों देशों की अन्तिम और दो विभंग नदियोंकी आदिम लम्बाई
पण सग-दो-तिय-युग, भागा बावण वोणि-विजयानं ।
जे बेभंग' लवीनं अंतिम आदिल्लीहतं ॥२७३६॥
-
—
छप्पर वोहल
एताए ।
A
वण्णं ।
- विजयम्मि ।।२७३५ ।।
·
२३६२७५ | २६ ।
वर्ष:-दोनों देशों की प्रतिम और सप्तजला एवं बोधवाहिनी नामक दो विभंग मदियों से प्रत्येककी आदिम लम्बाई पाँच, सात, दो, छह, तीन और दो इस अंक क्रम से जो संख्या उत्पन्न हो उससे बावन भाग अधिक ( २३६२७योजन ) है || २७३६||
२४०८५६६१३ – ४५८४ = २३६२७५६५३ योजन |
दोनों विभंग नदियोंको मध्यम लम्बाई
- छत्तिय युग-पंक-कर्म घोषणाणि मज्झिमए । तचखले, "ओसहवाहीए पत्तेक्कं
२३६२७५३ - ११ = २३६१५६ योजन ।
R
[ ७३५
।।२७३७॥
२३६१५६ ।
वर्ष :- तप्तजला और बोषषवाहिनी मेंसे प्रत्येकको मध्यम लम्बाई छह, पाँच, एक, छह. तीन और दो, इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने ( २३६१५६ ) योजन प्रमाण है ।। २७३७।।
१. ब. उ. महषध्याए, व. क. ज. मध्य ए 1 3. 4. 5. a. fqvi ( 3. X. 7. 5. E, J.
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________________
७३६ ]
तिलोयपणाती
दोनों नदियोंकी अन्तिम और दो देशोंकी प्रादिम लम्बाईप्रतिय-भय- बुग, भागा सट्ठीहि श्रहिय-सय बी । शे वेभंग णवीरणं, अंतं आवी हु दोसु विजसु ।।२७३८ ।।
२३६०३६
अर्थ :- उपर्युक्त दोनों विभंग नदियोंकी अन्तिम तथा कुमुदा एवं सुवस्सा नामक दो देशों मेसे प्रत्येककी आदिम लम्बाई, सह, तीन, शूग्य, यह सोम और दो इस अंक कमसे जो संस्था उत्पन्न हो उससे एकसौ साठ भाग अधिक अर्थात् २३६०३६६६६ योजन प्रमाण है ।। २७३८ ।। ११९-२३६०३६६।१ योजन ।
२३६१५६
-
दोनों वंशोंकी मध्यम लम्बाई
बो-पण-उ-ग-तिय-युग, भागा सट्टीहि श्रहिप-सयमेतं ।
मझिम पएस दोहं कुमुदाए सुवच्छ विजयम्म ।।२७३६ ॥
श्री सु
-
[ गाथा २७३८-२७४०
-
-
मार्गर्शक :
धर्म :- कुमुदा तथा सुवस्सा देशमेंसे प्रत्येकको मध्यम लम्बाई दो, पांच, चार, एक, तीन और दो इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे एकसौ साठ भाग अधिक अर्थात् २३१४५२३१३ योजन प्रमाण है ।। २७३६ ।।
२३६०३६३१ -- ४५८४ = २११४४२
योजन दोनों देशोंको अन्तिम तथा दो वक्षार-पर्वतोंकी बादिम लम्बाई
-व-भय--दो-दो स्विय सठ्ठीहि महिय-सय-भागं । विजयानं वखारे, प्रतिल्लाबिल्ल बोहत ॥२७४०||
२२६८६८ । ३३ ।
पर्व :- दोनों देशोंकी अन्तिम और सुखावह मौर त्रिकूट नामक दो वक्षार पर्वतोंकी श्रादिम लम्बाई भाऊ, छह, बाठ, छह दो और दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे एकसी साठ भाग अधिक अर्थात् २२६८६८३१३ योजन प्रसारण है ।। २७४०
२२१४५२३१ - ४५८४ २२६८६८१
योजन ।
१. उपरि-लिखिताद माषा र प्रतो मरपि निखिताः ।
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गाया : २७४१ - २७४३ ]
जत्थो महाहियारो
दोनों वक्षार पर्वतों की मध्यम लम्बाई
इगिणव-तिय-खद्दो- वो, अंक-कमे जोयनानि सय-भागं । मल्लिय बीहत सुहाबहे सह तिकूडे व ।। २७४१॥
*
२२६३११ । १ ।
प्र :- सुबाव और त्रिकूट पर्वतकी मध्यम लम्बाई एक, नौ, दोन, छह, दो और दो इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे एकसौ भाग मुषिक वर्षात २२६३६११६ डेल एम है ।। २७४१ ।।
P
२२६८६८६११ - ४७७६= २२६३१६९९ योजन ।
दोनों वक्षारोंकी अन्तिम और दो देशोंकी आदिम लम्बाईच' इगि-व-पण-यो-यो प्रंसा वालोसमेत पक्कं ।
यो वरसार - विजए, मंतिल्लाविरुल बोहत ॥२७४२॥
·
-
-
२२५६१४ ।।
अर्थ :- दो वक्षार पर्वतों की अन्तिम लम्बाई और सरिता एवं वरसा देशोंमेंसे प्रत्येककी अन्तिम लम्बाई चार, एक नो पांच दो और दो इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे पालोस माग अधिक अर्थात् २२५११४योजन प्रमाण है ।। २७४२ ।।
२२६३९१२१३ – ४७७२१ - २२५६१४३६ योजन |
दोनों देशोंकी मध्यम लम्बाई
भ-तिय-तिय-मि-दो-दो अंक कमे हु-हव-बीस भागा य ।
सरिवाए वच्छ विजए, परोषकं मझ दीह ।। २७४३ ।।
२२१३३० । ४३ ।
TO 12
[ ७३७
-
अर्थ :- सरिता और दस्सा देवामेंसे प्रत्येककी मध्यम लम्बाई शून्य, सीन, तीन एक, दो और दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे चालीस भाग अधिक अर्थात् २२१३३०२ योजन प्रमाण है || २७४३ ॥
२२५१४६
४४६४-२२१३३०६ योजन ।
१. विष तिवखहोषो २. व. म. . . . लिए बप्प
I
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७३८ ]
तिसोयपणाती
[पापा ! २७४४-२७४४ दोनों चोंको अन्तिम और दोनों वनोंकी आदिम लम्राईछनचर - सग - छक्कमक - तु अंसा चालीसमेत दोहरू । बो - विजए आविभए, वेवारणम्मि मूहरणाए ॥२७४४।।
२१६७४६। । अर्थ:-उपयुक्त दोनों देशोंकी [मन्तिम] और देवारण्य तपा भूतारण्यको आदिम लम्बाई छह, बार, सात, छह एक मोर दो, इस बंक-क्रमसे जो संस्था उत्पन हो उससे पालोस भाग अधिक
अर्थात् २१६७४६१२ योजन प्रमाण है ।।२७४४॥ rafa - २३R TAKEN चोजन ।
दोनों वनोंको मध्यम लम्बाईछप्पण-पव-तिय-इगि-दुग, भागा मट्ठीहि पहिय-सयमेतं । भूवावेबारणे होवि मणिमल्ल - बोहरी ॥२०४५।।
२१३९५६ 18 अर्थ:-भूतारय मोर देवारम्य वनमेंसे प्रत्येकको मध्यम लम्बाई छह, पाच, नौ, तीन, एक और दो, इस अंक-क्रमसे ओ संस्था उत्पन्न हो उससे एकसौ साठ भाग सपिक अर्थात २१३९५६11 योजन प्रमाण है ॥२७४५।।
. दोनों वनोंको अन्तिम लम्बाईसग-छक्केविकागि'-गि-बुग, भामा मट्टि वेवरचम्मि । तह चैव भूवरम्णे, पसेक अंत • बोहत ॥२७४६॥
२१११६७ । । प्र :-देवारण्य और भूतारण्यमेंसे प्रत्येकको मन्तिम सम्बाई सात, छह एक एक, एक और दो, इस वेक-क्रमसे जो संस्था उत्पन्न हो उससे प्रासठ भाग अधिक पर्यात् २१११६७४ योजन प्रमाण है ।।२७४६।। २१३९५६११-२७ -२२११६७ योजन।
इच्छित क्षेत्रोंकी लम्बाई का प्रमाणकन्यादी - विजयावं, माधिम-मझिाल-परम-मोहम्मि ।
विजपढ़ • दमवणिय, प्रब - कदे तस्स बीहत ॥२७४७॥
पर्ष:-कच्छादिक देशोंकी आदिम, मध्यम और अन्तिम लम्बाईमेंसे विजयाके विस्तार को घटाकर शेषको आधा करनेपर उसकी लम्बाई का प्रमाण प्राप्त होता है ॥२७४७।।
१. द... क... प्रयोगावि।
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गाथा : २७४८-२७५० ] __ उत्थो महाहियारो
[ ७३६ सुहिमवान् पर्वतका क्षेत्रफल-- हिमवंतस्स यथे, पाय संग्स्स संघमाणम्मि । संगुणिवे जं सस, तं तस्स हवेदि खेसफल ।।२७४६॥ पउसीदी - कोडीनों, लसावि जोगाणि हॉगवोस । गावण - सय तिखट्ठी, ति • कलाओ सस्स परिमानं ॥२७४६॥
___ हिमयन्तस्म क्षेत्रफलम्-८४२१०५२६३ । । मर्ग :-धातकोखण्डके विस्तारको हिमवान् पर्वतके विस्तारसे गुणा करनेपर जो संख्या प्राप्त हो उतना हिमवान् पर्वतका क्षेत्रफल होता है। जिसका प्रमाण चौरामो करोड़ इक्कीस लाख बावनसा तिरेसठ योजन और सीन कला है ।।२७४८-२७४६॥ हिमवान् पर्वतका क्षेत्रफल-1000.0 -- २१०५५/-८४२१०५२६३१ यो ।
महाहिमवान् प्रादि पर्वतोंका क्षेत्रफलएवं घिय पर - गुणिलं, महहिमवंतस्स होवि खेत्तफलं । शिसाहस्स तच्चाउगुण, चउ - गुण - हारगी परं तत्तो ।।२७५०॥ महाहिमवंत ३३६८४२१०५२ । ३३ । णिसह १३४७३६८४२१०। । खील १३४७३६८४२१. 18 रुम्मि ३५६८४२१०५२।३।
सिखरी ८४२१०५२६३ ।। एदाणि मेसिपूर्ण दुगुणं कादव्यं तल्चेदं–७०७३५८४२१०५ । ।
अर्थ:-हिमवान् के क्षेत्रफलको चारसे गुणा करनेपर, महाहिमवानका क्षेत्रफल मोर महा. हिमवान्के क्षेत्रफलको भी पारसे गुणा करनेपर निधष पर्वतका क्षेत्रफस होता है। इसके मागे फिर पोमुनी हामि है ॥२७५०॥
क्षेत्रफल-महाहिमवान् ३३६८४२१०५२ योजन। निषभ १३४७३६८४२१." योजन । भौल १३४७३६८४२१. मो० । रुक्मि १३६८४२१०५२११ योजन और शिखरी ८४२१.५२६३ योजन । धातको बाड़में दो मेरु पर्वत सम्बन्धी बारह कुलाचल पर्वत है अत: इन छाह पर्वतोंके क्षेत्रफलको मिलाकर दुगुना करनेपर । ५५३६८४२१०१२ x २) = ७०५३६८४२१०५१ योजन प्राप्त होते हैं।
-- -
-- --- -- - - -- प... क. ज... मेखिदूस काय चपेवं ।
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तिलोयपणसी
[ गापा ! २५५१-२७५४ दोनों इक्वाकार पर्वतोंका क्षेत्रफलहो उतुगारामं, अतीवि - कोडोओ होति क्षेतफल । एवं पुष्व विमिस्स, घोड्स - सेलाण पिंडफर्स ।।२७५१।।
८००००००००। प:-दोनों इष्वाकार पर्वतोंका क्षेत्रफल मस्सी करोड ( 200.0000) योजन है। इसको उपयुक्त कुसाचलोंके क्षेत्रफसमें मिला देनेपर चौदह-पर्वतोंका क्षेत्रफल होता है ॥२७५५ ।
बौदह-पर्वतोंका सम्मिमित क्षेत्रफलपंच-गया -दुग-उ-टु-छ-तिय-पंच-एक - ससारसं । अंक-कमे पंचसा, चोहस - गिरि · गनिद - फलमाएं ॥१७५२॥
__७१५३६८४२१०५ भर्ष:-पौदह पर्वतोंके क्षेत्रफसका प्रमाण पत्र, शून्य, एक. दो, चार, पाठ, मह, दीन: पांच, एक मोर सात, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और पांच भाग मात्र पर्षात १३६८४२१०५१योजन है ।।२७५२१॥ ७०७३६८४२१०५ + .000000000१५३६८४२१०५.यो।
घातकी सएका क्षेत्रफल- एक-छ-छ' सत्तापरण-नव-मदेरणा घाउ-अ-तिबय-एकोषका । अंक - कमे जोयरगया, थावा - संग्स्स पिरफलं ॥२७५॥
११३८४११६५७६६.। पर्व:-सम्पूर्ण शतकीखण्डका क्षेत्रफल एक, यह छह, सात, पाप, नौ, नो, एक, बार, पाठ, तीन, एक और एक, इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने ( ११३८४१५९५७५६१) योजन प्रमाण है ।।२७१३॥
घातकीखण्ड स्थित भरतक्षेत्रका क्षेत्रफलबोइस' - गिरीग , देतफले सोह सव्व - सेत्तफले ।
बारस • सुब • दु - सरहि, भजिवे तं भरह - बोचफलं ॥२७५४।।
1... भ. प. ३. मनसतएपण । २. प. क.अ. उ. परक । .... क. प. उ. गोमपरिण।
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माया : २७५५-२७५७ ]
जय महाहियारो
[ ७४१
अर्थ :- ( घातकी खण्डके ) सम्पूर्ण क्षेत्रफलमे से चोदह पर्वतों से रुद्ध क्षेत्रफलको घटाओ । जो शेष रहे उसमें दोसो चारका पर जो उतना भरतक्षेत्रका क्षेत्रफल होता
30
है ।।२७५४।।
छुवक-युग-पंच-सतं, अंक-कमे जोयना, चढवाल कलाओ भरह
( ११३८४१६६७६६१ योजन भरत क्षेत्रका क्षेत्रफल ।
भरहु ५०३२४६७५२६ । ।
प्र : भरत क्षेत्रका क्षेत्रफल खह दो, पांच, सात, छह, चार दो, सीन, शून्य और पोष इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उससे चवालीस कला अधिक ( ५०३२४६७५२६३३६ योजन प्रमाण ) है ।।२७५५३
७१५३६८४२१० } - २१२ = ५०३२४६७५२६६१
एवं चिय च तं वेयं च
हैमवत और हरिवर्ष क्षेत्रोंका क्षेत्रफल
'खच्चर - युग-तिथि- सुण्ण-पंचाणं ।
·
-
·
लिने, सफल होदि हमनद लेते।
गुणियं हरिवरिस विदोए खेत फलं ॥। २७५६ ॥
'
चौगुना करनेपर हरिवर्ष क्षेत्रका क्षेत्रफल प्राप्त होता है ।। २७५६ ।।
शेष क्षेत्रोंका क्षेत्रफल -
:- भरत के क्षेत्रफलको तुना करनेपर हैमवत क्षेत्रका क्षेत्रफल ओर इसको भी
·
हरियरिसक्खेचफलं चक्क गुणिवं विदेह खेत्तफलं ।
सेस वरिले कमसो, चउगुण हानीम गरिणबलं ॥। २७५७॥
-
है २०१२६८७० १०४ ।
वि ३२२०७७६२१६७७ । २
२
फलं ।। २७५५ ।।
... . . . सछ ।
-
-
। हरि ८०५१६४८०४६ |
।
८०५१६४८०४१६
हद २०१२८७०१०४ । ३ । प्रइराब्द ५०३२४६७५२६ । 1
:- हरिवर्ष के क्षेत्रफलको बारसे गुणा करनेपर विवेहका क्षेत्रफल प्राप्त होता है। इसके
भागे फिर क्रमश: शेष क्षेत्रोंके क्षेत्रफलमें चौगुनी हानि होती गई है ।।२७५७।।
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७४२ ]
तिलोयपण्णी
[ गाया : २७४५ - २७६०
क्षेत्रफल :- वर्गयोजनों में हैमवत क्षेत्रका २०१२१८७० १०४ । हरिवर्षका १६४८०४१२५ | विदेहक्षेत्रका ३२२०७७९२ १६७७२३ । रम्यकक्षेत्रका ८०५१९४८४१यक्षेत्रका २० १२१८७०१०४३१३ और ऐरावत क्षेत्रका ५०३२४६७५२६.१३ वर्ग योजन क्षेत्रफल है ।
जंबूदीव
फलप्यमानेन भाडे |
क्षेतफलं फिक्स, बारस कवि सम सलागाओ ।।२७५८।।
घातकीखण्डके जम्बूद्वीप प्रमाण खण्ड
खिवीए,
-
▾
-
१४४ ।
अर्थ :- जम्बूद्वीप के फलप्रमाणसे घातकीखण्डका क्षेत्रफल करनेपर यह बारह के वर्गरूप अर्थात् एकसौ चवालीस-शलाका प्रमाण होता है २७१६
-
विशेवार्थ : - धातको स्वण्डके बाह्यसूत्रों व्यास १३ लाख) के वर्ग मेंसे उसीके अभ्यन्तर सूजी व्यास ( ५ लाख ) के वर्गको घटाकर जम्बूद्वीप के व्यासके वर्गका भाग देनेपर एकसी चवालीस शलाका प्राप्त होती हैं । अर्थात् घातकी मडके जम्बूद्वीप बराबर एकसो बदालीस धड होते हैं। यथा -- ( १३००००० - ५००००० ) + १००००० = १४४ । विजयादिकोंका शेष वर्णन
·
अबसेस वन्मणाचो, सव्वाणं विजय सेल-सरियाणं ।
कुंड
-
दहावीगं वि व जंबूदीवस्स सारिन्छो १२७५६।।
एवं विष्णासो लमतो ।
:- सम्पूर्ण क्षेत्र, पर्वत, नदी, कुण्ड और द्रहादिकोंका शेष वर्णन जम्बूद्वीप के सदृश ही समझना चाहिए ।। २७५६ ॥
इसप्रकार दिन्यास समाप्त हुआ । भरतादि अधिकारोंका निरूपण
भर- बसु धर-पहुवि, जाव य एराबवो ति अहिवारा । जंबूदीचे उ
सं सव्वं एष वयं ।।२७६० ॥
अर्थ :- भरतक्षेत्र से ऐरावतक्षेत्र पर्यन्त जितने अधिकार जम्बूद्वीपके वर्णन में कहे गये हैं। ये सब यहाँ भी कहने चाहिए ।। २७६०१ ।
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गापा : २७६१-२७६४ } उत्यो महाहियारो
एवं संवेगं, पावासो पपणियो विम्यो । वित्पार - वणमासु, का सती म्हारि - सुमई ॥२७६१॥
एवं धाइसंबस्स वगणा समसा ॥४॥ पर्व':-इसप्रकार संप में यहां दिव्य पातकोखण्डका वर्णन किया गया है। हमारी जसी बुद्धिवाले मनुष्योंकी मला विस्तारसे वर्णन करनेको शक्ति हो क्या है ? ।।२७६।।
सप्रकार घातकीख पडद्वीपका वर्णन समाप्त हुआ ।।४।।
कालोद समुद्रका विस्तारपरिवेषि' समुद्दो, कालोबो नाम पाई।
अस - साल - जोषणारिण, वित्थियो परकवालेणं ।।२७६२॥
म:-इस पातकोखण्डको पाठ साब योजनप्रमाण विस्तारवाला कालोद नामक समुद्र मण्डसाकार वेष्टित किये हुए है. २॥ १-३९
six si ki समुद्रको गहराई मादिटंकुनिकण्णायारो', सम्पत्य सहस्स - जोयणवगाहो । चिसोवरि - तल - सरिसो, पायाल - विक्मियो एसो ।।२७६३।।
पर्व:-टांकीसे उकेरे हुएके सदृश आकारवाला यह समुद्र सर्वत्र एक हमार योगन गहरा, पित्राषिवीके उपरिम तमभागके सदृशा अर्थात् समतल पोर पातालोंसे रहित है ॥२७॥३॥
समुद्रगत द्वीपोंको अवस्थिति बौर संन्यापटुताला दीवा, रिसामु बिदिसामु अंतरेसु ।
पउबोसम्भंतरए, बाहिरए सेतिया तस्स ॥२७६४॥
at:- इस समुद्रके भीतर दिशामों, विदिशाओं भोर मन्तर दिशाओं में पड़तालीस द्वीप हैं। इनमेंसे चौबीस द्वीप समुद्रके प्रम्यन्तरभागमें और चौबीस ही शहभागमें है ।।२७६४॥
-. . . . . . .१.... 8 परियडेवि । २. 1. उ. कुस्किरहाधारी ।
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७४४ ]
सिलो पणती
अभंतरस्म्मि दोबा, पसारि 'विसासु तह य विदितासु । अंतरवसा अट्टू य, अट्ठ य गिरि परिधि भागेषु ।।२७६५ ॥
-
-
[ गाथा : २७६५-२७६८
४ | ४ | ६ | ६
अर्थ :- उसके अभ्यन्तरभागमें दिशाओं में चार, विदिशाओं में चार अन्तरदिशानों में भाठ और पर्वतों पावं मागों में भी मठ ही द्वीप हैं ।। २७६५ ।।
तटोंसे दोषोंकी दूरी एवं उनका विस्तारsufoche: are at
·
जोयल-पंच-समाण, पन्नम्भहियारिग दो सडाहिती |
-
पविसिय विसासू बीना पत्तेक्कं तु सय विश्वंभो ॥२७६६ ॥
५५० । २०० ।
अर्थ :- इन मेंसे दिशाओं के द्वीप दोनों तटोंसे पचिसो पचास (५५० ) योजन प्रमाण समुद्रमें प्रवेश करके स्थित हैं। इनमें से प्रत्येक द्वीपका विस्तार दोसी ( २०० ) योजन प्रमाण है ।।२७६६।।
जोयणम इस्सयाग, कालोबजलम्बि वो
-
तो। पविसिय विदिसा दीवा, परोवई एक्क सय ।।२७६७॥
·
६०० । १०० ।
अयं :-- दोनों तटोंसे हो ( ६०० ) योजन प्रमाण कालोदधि समुद्र में प्रवेश करनेपर विदिशामों में द्वीप स्थित है। इनमें से प्रत्येक द्वीपका विस्तार एकसो (१००) योजन प्रमाण
१२७६७१
जयन पंचसयाई, पण्चहियाणि मेाहिती | पथिसिय अंतर - दीवा, पन्चादाय पक्कं ।। २७६८ ।
५५० | ५० ।
-दोनों तटोंसे पचिसो पचास (५५० ) योजन प्रवेश करके अन्तरद्वीप स्थित हैं। इनमें से प्रत्येकका विस्तार पचास (५० ) योजन प्रमाण है ।।२७६८।०
१. ब. व विदिसामु । २.८. . . संदी
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गापा । २७५६-२७७४ ] धनस्पो महाहियारो
[ ७५ ब्धिय सयाणि पण्णा-दुतागि बोयणाणि असावो । पमितिम गिरि - पणिवीस, वीषा पास-विखंभा' ॥२७६६॥
६५० | ५०। म :-दोनों तटोंसे छहसी पपास (६५० योजन प्रवेश करके पर्वतोंके प्रणिधिभागोंमें अन्तरद्वीप स्थित है। उनमें से प्रत्येकका विस्तार पचास ( ५० ) योजन प्रमाण है ॥२७६९।।
पतंको बौवा, तर - बेदी - तोरणेहि रमणिमा ।
पोरसरणी - बायोहि', कप्प • बुहिं पि संपुष्णा ॥२७७०॥ ११.४५ गार्ड:-शोर कीप स्ट: लेडी अबड पोरन स्थान और पुष्करिणी, वापिकाओं एवं । कल्पवृक्षोंसे परिपूर्ण है ।।२७४०॥
इन द्वीपोंमें स्थित कुमानुषोंका निरूपणमल्ह ' मस्सकन्ना, पक्सिमुहा तेसु हस्पिकपणा य ।
पुष्बावीस दिसेलु, दि चिटुति कुमाखुसा कमसो ॥२७॥
वर्ष :-उनमें से पूर्वादिक विशाओं में स्थित द्वीपोंमें क्रमश: परस्यमुख, अश्वकर्ण, पक्षिमुख मोर हस्तकर्ण कुमानुष स्थित है ।।२७७१।।
अगिलबिमानु" सूपर-कच्या पोवेमु ताण विपिसासु" । अट्ठतर • दीवेस, पुष्पग्गि - बिसावि - गणिना ॥२७७२।। बेहुति 'राकन्ना, भाजारमुहा पुणो वि तज्जीवा । करणप्पावरमा गणवणाय मज्जार - वपणा य ॥२७७३॥ मजार - मुहा य तहा, गो - कन्ला एवमट्ट पत्तेपर्क । पुब्बा-पवाग्मित-बहुविह-पाव-फोहि 'कुमणुसानि जापति ।।२७७४।।
-. - -- .१. क.अ.है. पिसभो। २. प.ब.क.ब. उ. पापीमो। १... उ, पण महा । ४... ज. उ. पेटुति। ५. प. ब. क. म. .. पशिविसासु। .. ... .ज. न. विसासु । ....... सकम्पा । ८. ६. न. सरणा मागमा, १ क, न, धागण।। १. स. प. प. उ. कुमणुसगोमाणि, क. कुमासगीवाणि ।
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४६ ]
तिलोयषण्णत्ती
[ गाथा : २७७५-२७७६ अपं :--उनको वायष्यादिक विविज्ञापोंमें स्थित द्वीपोंमें रहनेवाले कुमानुष शूकरकर्ण गते हैं। इसके अतिरिक्त पूर्वाग्निदिशादिकमें क्रमपाः गणनीय माउ पन्त रखीपोंमें कुभानुष इसप्रकार स्पत हैं । उष्ट्रकर्ण, मारिमुख, पुनः मार्जारमुख, कर्णशावरण, गजमुख, मार्जारमुख, पुनः मार्जारहुख और गोकर्ण, इन पाठोंमेंसे प्रत्येक पूर्वमें बतलाये हुए बहत प्रकारके पापोंके फलसे कुमानुष जीव सन्न होते हैं ॥२७७२-२७७४।।
पृश्वापर-परिणषोए, सिसुमार-मुहा तहा य मयरमुहा ।
पेटुसि रुप्य • गिरिभो, कुमानुसा काल - जनहिम्मि ॥२७७५॥
प:-काससमुद्रके भीतर विजयाके पूर्वापर पाश्वभागोंमें जो कुमानुष रहते हैं पे क्रमशः शुभारमुख मोर मकरमुख होते हैं ।।२७७५।
वयमुह' बग्धमुहक्खा, हिमवंत-णगस्स पुष्व-पश्चिमयो। पणिधोए बहुते, इमानुसा पाव : पारि ॥२.81914
:-हिमवान-पर्वतके पूर्व-पश्चिम पार्षमागोंमें रहनेवाले कुमानुष पापको उदयसे मशः वृकमुख और व्याप्रमुख होते हैं ॥२७७६।।
सिहरिस्स 'सरधनुहा, सिपाल-क्यमा कुमाणुसा हॉति ।
पुख्वाबर - पणिधीए, जम्मतर - दुरिय - कम्महि ॥२७७७॥
पर्ष :-शिखरीपर्वतके पूर्व-पश्चिम पाश्वंभागोंमें रहनेवाले कुमानुष पूर्व जन्ममें किये हुए एकर्मोसे तरक्षमुख ( अक्षमुख ) और शृगालमुल होते हैं ॥२७७७।।
गोपिक - भिगारमुहा, कुमामुसा होलि प - सेलस्स ।
पुष्वावर - पभिधोए, कालोदय - मलाहि - दीवम्मि ॥२७७६।। मचं :-विजयाधपर्वतके पूर्वापर प्रणिधिनागमें कासोदक-ममुद्रस्य द्वीपों में क्रमश: दीपिकपौर भृङ्गारमुख कुमानुष होते हैं ॥२७७८||
कालोदकके बाह्यभागमें स्थित कुमानुष टोपोंका निरूपणतस्सि शाहिर - भागे, तेत्तियमेचा कुमालसा दीवा । पोखरणी • बाबीहि, कप्प • बुमेह पि संपुण्णा ॥२७७६।। १. ६. ब. २. बहमुहम्ममुहमको, ग. क. अपमुहवं मुखो। २. स. प. क. ब.उ. परमरहा। .
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गाया : २७८०-२७८२ ]
चल्यो महा हियारो
[ ७४७
:- पुष्करिशियों वापियों और कल्पवृक्षोंसे परिपूर्ण जतने हो कुमानुषद्वीप उस कासोद-समुद्र के बाह्य भागमें भी स्थित हैं ।। २७७२ ॥
एवाको वन्णनाम्रो सवगसमुह व एत्य तया । कालोदय लवाणं छण्णउवि कुभोग भूमी
·
:- यह सब वर्णन लवणसमुद्रके स
और लवण समुद्र सम्बन्धी कुभोग भूमियां पानी है ।। २७८० ॥
-
युग-प्र-गण-गवयं, इन्च-छ-यु-लक्क दुगिगि-तिय-पंच |
अंक कमे जोयणया, करलोदें होरि गणिद
यथा - / २१०००००x१०
११२६२६४६१०८२ योजन ।
॥२७८० ॥
यहाँ भी कहना चाहिए । इसप्रकार कालोदक
कालोदक- समुद्रका क्षेत्रफल -
WET
{ २१०००००२
जम्बूद्वीप बराबरके ये ६७२
*३१२६२६४६६०६२ ।
अर्थ :- कासोदक-समुद्रका क्षेत्रफल दो, आठ, सूम्प, नौ, छह, बार, छह, दो, छह. दो, एक, तीन और पांच इस अंक कमसे जो संख्या निर्मित हो उतने ( ५३१२६२६४६१०८२) योजन प्रमाण है ।।२७६१।।
"
-
·
—
कालोदक समुद्रके जम्बुद्वीप प्रमाण खण्ड
जंबूरी महीए, फलम्पमानेव काल जवहिस्मि' । शेतफल फित, दस्तय
-
-
४१३००००० x १o x 3gp
१३०००००* ) : १०००००१ होते हैं।
1. 4. 4. 5. M. 7. afgia | 3. e. a. 4. 4. T. THỊTỞI
पर की
फलं ।।२७८१॥
बाहत्तरी होदि ॥२७८२॥
६७२ ।
म :- जम्बूद्वीप सम्बन्धी क्षेत्रफल के प्रसारणसे कालोदधि समुद्रका सम्पूर्ण क्षेत्रफल कश्मेपर वह उससे छहसी बहत्तर गुणा होता है ।।२७८२ ॥
-
प
६७२ खण्ड । कालोदधिसमुद्र के
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७४८ ]
तिलोत्त
कालोदकको बाह्य परिधि
इगिनउदि लक्खाणि सदर सहस्साणि छत्यागिपि । पंचुत्तरो य परिहो, बाहिरमा तरल लिंचूजा ॥२७८३॥
६१७०६०५ ।
अर्थ आप
प
अर्थ :--उस ( कालोद समुद्र ) की बाह्य परिषि इक्यानबं लाख सत्तर हजार छसो पाँच
योजनसे किञ्चित् कम है ।। २७८३ ।।
यथा - /२६००००० x १० = ९१७०६०५ योजनोंसे कुछ अधिक है ।
नोट :- गाथा में बाह्य परिधिका प्रमाण ६१७०६०५ योजन से कुछ कम कहा गया है जबकि गणित की विधि से कुछ अधिक आ रहा है ।
कालोदसमुद्रस्य महस्योंकी दीर्थतादि
भट्टरस जोवनानि दोहा वीस वास संपुग्ला । वासद्ध बहुल सहिदा, गई
मुहे
१६।३।३।
-
·
4
[ गाया । २७८३ - २७०६
अर्थ :- इस समुद्र के भीतर नदीप्रवेष्ट स्थानमें रहनेवाले जलधर जोनों की लम्बाई अठारह (१८) योजन (१४४ मीस) चौड़ाई नो (१) योजन ( ७२ मोस ) और ऊँचाई साढ़े चार ( ४३ ) योजन (३६ मील ) प्रमाण है ।।२७६४।।
·
-
कालोवह बहुमन्ते, मच्छाणं दीह वास बहलाणि ।
इसीसद्वारस
"
जब जमरणमेताणि रूमसो व १२७८५ ॥
·
३६ । १८ । । ।
वर्ष :- कालोदसमुद्रकै बहुमध्य में स्थित मस्स्योंकी लम्बाई ३६ योजन ( २६८ मील ), चौड़ाई १८ योजन ( १४४ मील ) और ऊंचाई १ योजन प्रमाण है ।। २७८ ॥
-
जलचरा होति ।। २७८४||
•
शेष जलचरोंकी अवगाहना
भबसेस ठाण म, बहुबिह-ओगाहणेण संयुक्ता ।
मयर सिसुमार कृच्छ कप्पहृषिमा
होति ॥२७८६ ॥
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गाषा : २७६७-२५६१ ] पत्थो महाहियारो
[ ७४४ प :-शेष स्थानोंमें मगर, शिशुमार, कछुआ और मैकक मादि जमकर जीव बहुत प्रकारको अवगाहनासे संयुक्त होते है ।।२७८६।।
एवं हालसमुद्दो, संवेगं पवमिवो एत्य । सत्स' हरि - संस - जोहो विस्थार 'वणि सरह ।।२७६७।।
। एवं कासोरक-समुदस्स बण्णणा समता ॥५॥
पं:-इसप्रकार यहां संक्षेपमें कालसमुद्रका वर्णन किया गया है । उसके विस्तारका वर्णन करने में संस्मशत-जिह्वा-वाला हरि ही समपं है ।।२७८७।।
इसप्रकार कालोदसमुद्रका वर्णन समाप्त हुआ।
पुष्करवर दोपका व्यासपोक्लरवरोति बीवो, परिवेददि कालजलाणहि सयलं । जोयण - लाता सोलस, - जुबो पाकालेणं ॥२७॥
१५०००००। पर्ष:-इस सम्पूर्ण कामसमुद्रको सोलह लाल [ १६००००० ) योजन प्रमाण विस्तारसे संयुक्त पुष्करवरद्वीप मण्डलाकार वेष्टित किये हुए है ।।२७८८।।
पुष्करपरीपके वर्णनमें सोलह मन्सराधिकारोंका निर्देशमणुसोत्तर - घरमियरं, विलासं भरह-वसुमई सम्मि । काल - विभाग हिमगिरि, हेममयो तह महाहिमवं ॥२७६६।। हरि-रिसो पिसहयो, बिह-पीलगिरि-रम्म-वरिसाई। इम्मि'-गिरी हेरग्णव-सिहरी एरावको ति परिसो' य ।।२७९०। एवं सोसस - संक्षा, पोपहर- बोधम्मि. अंतरहियारा। एहं ताण सम्प, 'गोयामो प्रामपुवीए ॥२७९१॥
.ब.क... परिवार।
... क. प. न. सरस। २. ..ब. क. . . पग्लियरे। ४... सम्म । ....बरिसा । ...न, क. ब...बोमामि ।
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७५० ]
तिलोसपण्णात्ती [ पा ; २७१२-२७१४ :-इस पुष्करतोपके कपनमें १ मानुषोत्तरपदंत, २ विम्पास, । भरतक्षेत्र, उसमें ४ कासविभाग, ५ हिमवान-पर्यत, ६ हेमवत क्षेत्र, ७ महाहिमवान्पयंत, हरिव, निषतपर्वत, १. विदेह. ११ नीलगिरि, १२ रम्यकवर्ष, १३ कश्मिपर्वत १४ हरण्यवतक्षेत्र, १५ शिखरीपर्वत मोर १६ ऐरावतक्षेप इसप्रकार ये सोलह मन्तराधिकार है। अब अमुक्रमसे यही उनका स्वरूप कहूंगा ।।२७८६-२७६१।।
मानुषोत्तर पर्वत तथा उसका उत्सेधादिकालोक्य - जगवीदो', समंतदो अटु-लाख-बोयनया । गंपूर्ण तपरियो, 'परिवेदि 'माणुसरो सेखो ॥२७५२॥
०००००। प्रर्ष :-कालोदकसमुद्रको जगतीसे पारों मोर पाठ लाख ( ८००... ) योजन प्रमाण जाकर मानुषोसर नामक पर्वत उस दीपको सब मोर वेष्टित किये हुए है । २७६२।।
सगिरियो उन्हो , मत्सरस - सयाणि एकवीसं च । तोसहियं जोमन - चस्सया गाडमिगि • कोसं ॥२७६।।
१७२१ । ४३०को। मर्ग :-इस पर्वतकी ऊंचाई सत्तरहसी हक्कीस । १७२१) योजन और अवगाह ( नोव) । पारसी तीस { ४३०) योजन तथा एक कोस प्रमाण है ।१२७९३॥
जोषण - सहस्तमेप, बाबीसं सग - सयाणि सेवोतं । बर-सय-चवीसाई, कम-हंवा मूल-'मम-सिहरेसु॥२७६४।।
१०२२ । ७२३ । ४२४ । वर्ग:-इस पर्वतका विस्तार मूल, मध्य और शिवरपर क्रमशः एक हजार नाईस (१०२२) योजन सातसो तेईस (७२३) और पारसो चौबीस (४२४} योजन प्रमाण है ॥२७६४॥
१. द...क.ब. स. पमरीयो। २. ...... परिसरवि । , 4. मामुमुत्तरा, ब.क. ३. मानुसुत्सर। ४ इ. एस्कतो। ...१७३१ । ...... मपरिक ब. मरिमभूम।
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गापा-: २७६५-२७१५ ] चस्थो महाहिगारों
[ ५५१ अभंतरम्मि मागे, टंकुभिकरणो बहिम्मि कम होगी।
सुर-खेपर-मण-हरणो, अणाइलिहलो सुबग्ग - णिहो ॥२७६५।।
म:-- देवों तथा विद्याधरोंके मनको हरनेवाला, अनादिनिधन मौर सुवर्गक सदृश यह मानुषोतर पवंत अन्यन्तरभागमें टंकोरकीर्ण और बाह्यभागमें क्रमशः हीन है ।१२७६५॥
___गुफाओंका वर्णनखोइस गुहायो सस्सि, समतदो होति विग्व-रयगमई'।
विजयाणं बहुमण्झे, पणिहीसु फरत - किरणाओ ।।२७६६।।
अर्थ :-- उस ( मामुषोत्तर ) पर्वतमें चारों ओर क्षेत्रों के बहमध्यभागमें उनके पाश्र्वभागों में प्रकाशमान किरणोंसे संयुक्त दिव्यररनमय चौदह गुफाएं हैं ।।२७९६।। af गुहान
समिम असार एसो। काल - असेल पणट्ठो, 'सरिकूले जाप - विरो भय ॥२७६७॥
प्रर्ग।- उन गुफामों के विस्तार, ऊपाई पर बाहस्यका अपदेश फालबध हमारे लिए नदीतटपर उत्पन्न हुए वृक्ष के सदृश न हो गया है ।।२१।।
तट-वेदी तथा बनखण्डआभतर • बाहिरए, समंतको होवि दिव्य • तर-बेरी। जोयम - बलमुच्छहो, पण - सय - चावारिण विपारो ॥२७६८॥
। ५००। प्र:-इस पर्वतके मभ्यन्तर तथा नाममागमें चारों और दिव्य तट-बेती है; जिसका। ___ उत्सेष आधा ( ३ ) योजन और विस्तार पापसी ( ५०० ) धनुष प्रमाण है ११२७६८।।
मोयण-दल-वास-जगो, भाभतर - बाहिरम्मि बसंहो। पुखिल्ल - बेरिएहि, समाण - बेदीहि परियरिभो ॥२७६६।।
१. स.ब. क. प. स. रमणापमो। २. व. ब.क.ब.स. मरिको जाविलोम ।
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७५२ ]
तिलोयपणात्ती
[ गापा : २८००-२८०३ अभयोजन प्रमाण विस्तारयाला बनवण्ड है।
अभ्यन्तर त्या बाबभागमें पूर्वो वेदियों के समा वेदियोसे व्याप्त और उमरो वि 'माखुसोत्तर, समतदो दोणि होति तड-।
अग्नंतरम्मि भागे, वसंडो वेदि • तोरनेहि दो ॥२८००॥
प्रर्ग:-मानुषोतरपर्वतके ऊपर भी चारों ओर दो सटवेदियाँ हैं। इनके अभ्यन्तर भागमें वेदी तथा तोरणोंसे संयुक्त वनमा स्थित है ।।२०।।
मानुषोत्तरका बाह्य सूची ब्यास तथा परिषिविजणम्मि सेल-वासे, जोयन-लक्क्षाणि जिवलु पनदालं । तपरिमाणं सर्प, बाहिर - भागे गिरिवस्स ॥२८०१॥
४५०२०४। धर्म :-इस पर्वतके दुगुने विस्तारमें पैंतालीस लास योजन भिसा देनेपर उसकी माहसूचीका प्रमाण प्राप्त होता है ।।२०।।
१०२२४२+४५०.००=४५०२०४४ यो राह्य मास ।
एक्को जोयण - कोरी, लाला बाबाल तीस-च-सहस्सा । तेरस-चर-सत्त-सया, परिहीए पाहिएम्मि 'मदिरेशो ॥२८०२॥
१४२३६७१३ । भर्ग :-इस पर्वतको बाह्य-परिषि एक करोड़ बयालीस लाख छत्तीस हजार सातसो तेरह (१४२३६७१३) पोजनसे अधिक है ॥२८०२॥
अविरेयस्स' पमाणं, सहस्समेव व तोस अहियं । ति - समं पन इणि - हामो, यहंगुलाई अबा पंत्र ॥२०॥
दं १३३० । ह ।। १० । ज ५। प:-यह गाह्म-परिषि १४२३६७१ योजन प्रमाणसे जितनी अधिक है, उस अधिकताका प्रमाण एक हजार तीनसो तीस (१३.) षनुष, एक हाथ, इस बंगुल पोर पाच जो है ।।२८०३॥
......क. स. स. माणेसुत्ता। २. . . . . . परिमो।...क... उ. पवि. रेपस्म । ४. ६. अ. पहिय ।
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गामा : २०४-२८०६ ] पउत्थो महाहियारो
[ ४५३ विरोधार्य :-मामुषोत्तर पर्वतका सासमन्त्री ग्यास MAYA योजनामको परिधि /४५०२०४१४१०-१४२३६७१३ योजन, १३३० धनुष, १ झाप, १० अंगुल, ५ो, . , २ लीक, कर्मभूमिके नाल ४ जपन्य मो के बाल, ५ मध्यम भो के बाल पौर उत्तम भो• के बाल प्रमाण है।
मानुषोतर पर्वतके प्रभ्यन्तर सूची ध्यास और परिधिका प्रमाणपरवाल-लक्ष-संखा, सर्व अग्भंतरम्मि भागम्मि । खपवर-पु-ब-सिय-दो-चल-इगि-अंक-कमेणेग परिहि-जोयगया ॥२९०४।।
४५००००० । १४२३०२४६ । :-मभ्यन्तरभागमें इस पर्वतको सूची पंतालीस लाख (४५००००.) योजन है पौर परिधि मौ बार, यो, शून्य, तीन, दो, चार और एक, इस अंक-क्रमसे जो संस्था उत्पन्न हो उतने योजन प्रमाण है ।।२८०४॥
V४५०००००' x १०-१४२३०२४६ योजन परिधि है और १३३९७६६५ वर्ग योजन अवशेष रहे जो छोड़ दिए गये हैं।
समवृत्त क्षेत्रका क्षेत्रफल निकालनेका विधानसूचीए कबिए कपि, बस-गुण-मूलं चलख घउ-भगि। सम - पट्ट - वसुमईए, हवेवि सं सुहम - संतफलं ॥२८०५।।
अपं:-सूचीके वर्गके वर्गको उससे गुणा करके उसके वर्गमूलमें चारका भाग देनेफर जो लब्ध प्राप्त हो उतना समान गोल क्षेत्रका सूक्ष्म क्षेत्रफल होता है ।।२८०५॥
मानुषोत्तर पतिके क्षेत्रफल सहित मनुष्य सोकका सूक्ष्म क्षेत्रफलकम-एपमा-पंच-बुग-सग-युग-सग-सग-पंच-ति-दु-न-कावका । अंक - कमे खेतफलं, मणस - जगे सेल - फल - परी ॥२८०६।।
१६.२३५५७२७२५१२ । मर्थ :-मानुपोत्तर पर्नसके क्षेत्रफल सहित मनुष्यालोकका क्षेत्रफल शून्य, एक, पाप, दो, सात, दो, सास, सात, पांच, तीन, वो, शून्य, कह पोर एक, इस अंक-कमसे को संख्या उत्पन्न हो उतने (१९०२३५७७२७२५१.) पोजन प्रमाण है ॥२८०11 ,
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Fert : . IN THE औ साल ७५४ ]
तिलोयपम्पत्ती
[गाया । २८०७-२८०० विवा.-1(४५०२०ixto- ४१०८०८०४५ ०७६४६१. २१००६६]:-१५७२३५७७२७२५१० योजन ।
यपार्षमें यहाँपर वर्गमूसका प्रमाण ११०२३५७७२७२५०१ योजन हो है पोर १०४७८०४०३१७१४२९ शेष बचते हैं । जो मागहारके अभागसे अधिक है प्रतः ९ अंको स्थानपर १ प्रहण किए गये है।
वलयाकार क्षेत्रका क्षेत्रफल निकालने का विधानहुगुणाए सूचीए, बोसु चासो विसोहिल्स करो। सोम्झस्स बउम्भागं, रम्गिय गुणिर्य व वस - गुर्ण मूलं ॥२०॥
धर्म :-दुगुणित वापसूची व्यासमेंसे दोनों ओरके व्यासको पटाकर जो शेष रहे उसके वर्गको शोध्य राधिके पतुपं भागके वर्गसे गुणित करके पुनः दससे गुणाकर वयंमूल निकामनेपर [ पलपाकार क्षेत्रका क्षेत्रफल आता है ।।२८०७।।
मानुषोत्तर पर्वतका सूक्ष्म क्षेत्रफलसच-सा-नव-सरोका, छक-पटक-पंच-पर-एक्कं । मां-बमे बोपनया, पलिय - पलं मागत्तर-गिरिस ।।२८०८॥
Tri४६६१९०७।
म :- मानुषोत्तर-पर्वतका क्षेत्रफल सात, शूम्य, नौ, साप्त, एक, सह, छह, पार, पाच, चार और एक, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन हो उतने (१४५४६६१९०७) योजन प्रमाण है।३२८०६)
५.२०४४२)-(१०२२४२)x{ RAr fixt-पर्थात् १८१०३६७६६१७७६३६ ४२६११२१४१०= पर्थात्
२१११०४०१२५४४४१२६२५६० = ४६६३७९.७ योन्जन, २ कोस, २७१ अनुष, ३ हार, गुन, नो,.६५ और RATARN नोक प्रमाण मानुषोत्तर पर्वतका क्षेत्रफल है।
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वजस्यो महाहियारो
मानुषोत्तर पर्वतस्य बाईस कूटोंका निरूपणउवरिमिमानुसुतर- गिरिमो' बाबीस विष्व-ढानि । पुण्वानासामु पाले की लिपि णि
ग्रामा २००१ - २०१३ ]
२६०॥
अर्थ :- इस मानुषोत्तर पर्वत पर बाईस दिव्य कूट हैं। इनमें पूर्वादिक चारों दिशाओंों में से प्रत्येकमें तीन-तीन कूट हैं ११२८०६ ॥
बेलिय-ममगभा, सजगंधी तिष्णि पुध्व विभाए । जण गामा दविखण विभागम्मि ।।२८१०॥
राजगो लोहिय
-
-
-
पश्मन
अर्थ :- इनमेंसे वैडूयं और सौगन्धी, ये तीन कूट पूर्व दिशा में तथा हवक, लोहित और अंजन नामक तीन कूट दक्षिण दिशा मागमें स्थित हैं ।। २८१०॥
अंजन- मूलं कणयं, रजई णामेहि पच्छिम दिसाए । फरु* पवालाई डाई उत्तर
·
-
मथं :-अजनमूल, कनक और रजत नामक तीन कूट पश्चिम दिशामें तथा स्फटिक, अक्कु धौर प्रवाल नामक तीन कूट उत्तर दिशामें स्थित हैं ।। २६११।।
तवनिका- रयण-नामा, कूडाइ दोणि विवासन-विसाए ।
ईसारण विसाभागे, पहुंचजो वज
-
[ ७५५
-
विसाए ।।२८११।।
खामोति ॥ २६१२ ॥
- तपनीय दौर रहन नामक दो कूट मग्नि-दिशा में तथा प्रभञ्जन मौर वज्र नामक दो कूट ईशान दिशाभागमें स्थित है ।। २६१२ ।।
एक्को विचय मेलंबो, कूढो चेट्टवि मादय-विसाए ।
हरिविदिसा विभागे, मामेवं सन्दश्मनो सि ।। २८१३।।
अर्थ :- वायम्य-दिशा में केवल एक वेलम्वकूट भौर नेऋत्य दिमार भागमें सर्वेरन नामक कूट स्थित है ॥। २०१३ ॥
1
१. ए. ब मिरिया २.व.व बेलुरिय . . . अंजल हो रजमा मेहि ब. मंज कृष्णेयाहि क. अमले कण्णेय रथवरामैयम अंजाम
कब्जे
४६.....
+ ५. . . . . . कुडाए
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1। २०१४-२८१%
तिलोमपणती पुच्चावि-पउ-विसासु वस्थिर - कूमान प्राण - मूमोसु ।
एकेक सिख - मा, होति वि मनसुतरे सेले ॥२८१४॥
पर्ग :–मानुषोत्तर मलबाएर सर्वादिक नारों दिशाओं में सहलागे दर कौंको झग-अमियों में एफ-एक सिद्ध-कूट भी है ।।२८१४॥
कूटोंकी ऊँचाई सपा विस्तारादिकगिरि-उवय-बसाभागो, उदयो कमाण होवि पत्तक । तेत्तियमेतो' दो, मुले सिहरे तबद्धं च ॥१५॥
४३० । को १ । ४३० को १ । २१५ ।।। प्रबं:-इन कूटोंमेंसे प्रत्येक कूटकी ऊँचाई, पर्वतकी ऊंचाईके चतुर्ष माग {{ १७२१ यो. ४)-४३० यो०१ कोस } प्रमाण तथा मूलमें इतना { ४३ यो ) ही उनका विस्तार है। शिखर पर इससे आधा ( ४३०१ यो+२=२१५ यो० कोस ) विस्तार है ॥२८१५॥
मूल-सिहराए संव, मेलिय बलिदम्भ होषि जला। पसेक कहाण, मज्झिम • विसंभ - परिमाणं ॥२१॥
३२२ । को २ ।। अर्थ :-मूल पौर शिखर-विस्तारको मिलाकर आधा करनेएर जो प्राप्त हो उतना (४३+२१५, मो०२३२२यो अर्थात् ३२२ योजन, २ कोस ) प्रत्येक कूटके मध्यम विस्तारका प्रमाण है ॥२८१६।।
कूटोंपर वनवड, जिनमन्दिर तथा प्रासादोंकी अवस्थितिमूसम्मि य सिहरम्मि म, पूजाणं होति रिव्य-बमसंडा ।
मनिमम - मंदिर - रम्मा, मेरी - पाबीहिं मोहिल्ला ॥२०१७॥
प :-कूटोंके मूल तपा शिखरपर मगिमप भन्दिरोंसे रमणीय मोर पेदिकरमोंसे सुशोभित दिव्य वनखण्ड है ।।२८१७॥
चेति मानसुत्तर - सेलस्स य बउसु सिक - रेसु।। पत्तारि जिग - णिकेदा, रिगसह-जिणभवण-सारिया ॥२८१८॥
१.स... क. अ. ३. बेतिय मेता थे।
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,
गाया : २८१९-२८२४ ] उत्यो महाहिया)
[ ५७ भर्ष :--मानुषोत्तर-पर्वतके चारों सिद्ध-कूटोंपर निपक्षपर्वत स्थित जिमपरमोंके सदृश चार जिनमन्दिर स्थित है ।।२१।।
सेसेसु करे, सर : बेदाग विश्व - पासाका ।
पर - रमण • बलमया, पुब्बोदिव • बग्गगेहि नुा ।।२६१६॥
पर्व:-गेष कूटोपर पूर्वोक्त वर्णनाभोंसे संयुक्त व्यन्तरदेवोंके उत्तम रत्नमय एवं स्वर्णमय दिव्य प्रासाद हैं ।२८१६।।
कूटोंके अधिपति देवपुम्ब - हिसाए बसस्सवि-जाना समोधरा ति हो
कमसो भहिवाइ - बेवा, बहुपरिवारहि बेति ॥२८२०॥
अर्थ :- मानुषोत्तर-शैलके पूर्व-दिशा-सम्बन्धी सीन कूटोंपर क्रमश: यशस्वान्, यस्कान्त और यशोषर नामक तीन प्रधिपति देव बहुत परिवार के साथ निवास करते हैं ॥२६२०॥
पवित्रण - बिसाए अंदरो, सांदुधर-असलियोस-गामा म ।
फूर - लिवर्याम्म घेतर - वेवा निवसति सोलाहि ॥२८२१॥
भ:-इसीप्रकार दक्षिण दिशा के तीन कूटौंपर नन्द ( नन्दन }, नन्दोत्तर और बानिपोष नामक तीन व्यन्तरदेव सोला-पूर्वक निवास करते हैं ।।२५२१।।
सिखत्यो वेसवणो, माणुसवेप्रो ति पश्चिम - विसाए ।
गिवति ति • कसु, तगिरिगो बतराहिबई ॥२८२२।।
अर्थ :- उस पवंसके पश्चिम-दिशा-सम्बन्धी तीन कटॉपर सिद्धार्थ वैश्रवण और नुसदेव, । ये तीन ध्यन्तराधिपति निवाप्त करते हैं ॥२८२२।। ।
उत्तर - दिसाए वेमो, सुरसणो मेध • सुष्पबुडखा ।
फूर - तिवम्नि कमसो, होति हुमणसुत्तर - गिरिस्स ।।२६२३॥
म :-मानुषोत्तरपर्षतके उत्तरदिशा सम्बन्धी तोन कूटोंपर क्रमशः सुदर्शन, मेष ( अमोघ ) पौर सुप्रबुद्ध नामक तीन देव स्थित हैं ।।२८२।।
अग्गि - दिसाए साओ तबारिणब्ज - नाम • कूडम्मि । बहुति रपण - करे, भनिदो रेगु - जामेणे ॥२२४॥
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७५८ ]
तिलोयपणती [ गाथा : २८२५-२८२८ :-अग्निदिशाके तपनीय नामक कूटपर स्वातिष और रलकूटपर वेणु नामक भवनेन्द्र स्थित है ॥२८२४॥
5 ... हरदार पिता कुरो गणो जनमामि-बम्मि ।
बसवि 'पमंचन - करे, भवणिको जुधारि ति ॥२८२५॥
w:-ईशान-दिशाके वचनाभि-कूटपर हनुमान नामक वेव बौर प्रभजनकूटपर वेणुधारी ( प्रभजन ) श्वनेन्द्र रहता है ॥२८२५॥
पतंज - जाम • करे लंगो नाम मारुख - विसाए ।
सम्बयनम्मि गरिवि - बिसाए सो पेलपारि सि ॥२८२६॥
म;-वायव्यदिशाके वेलम्ब नामक कूटपर वेमम्ब नामक और मैऋत्य-विक्षाके सवरलकूटपर मेणुधारी ( वेणुनीत ) भवनेन्द्र रहता है ॥२८२६॥
पारिवि-पवरण-विसाओ, वस्थिय अहसु विसासु पस कर्क। तिय तिय मूग सेस', पुम्यं वा को यति ॥२८२७॥
माणुमुत्तरगिरि-धन्न समत। :-आठ दिशाओं में से नैऋत्य और वायम्य दिशामों के अतिरिक्त शेष दिशामोंमेंसे प्रत्येकमें तोन-तीन कूट है। शेष वर्णन पूर्वके ही सहश है, ऐसा कितने ही प्राचार्य स्वीकार करते है ॥२०२७॥
इसप्रकार मानुषोसर पर्वतका वर्णन समाप्त हवा ।
पुष्करायमें इभ्वाकार पर्वोंकी स्थितिछवियून - मानमुत्तर - सेलं कालोबय व सुगारा ।
उत्तर - बक्सिक - भागे, नहीले बोलि चिट्ठति ॥२८२८॥
w:- उस पुष्कराद्वीपके उत्तर और दक्षिणमाग में मानुशोत्तर तथा कालोवक समुद्रको स्पर्श करते हुए दो इष्वाकार पवंत स्पित है ॥२८२८।।
१.व......गुणाको। १......... समंबए।
...ब.सेसु।
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पार । २०२६-२८३४ ] उत्लो महाहियारो
[ve पावइसंज-पग्नि-
मगार-गिरिव - सरित - वण्णणया । आयामेनं युगुणं, बीम्मि य पोसारम्मि ॥२८२६॥
:-पुष्कराठीपमें स्थित वे दोनों पर्वत धातकोखठमें परिणत इख्याकार पर्वतोंके सहश्च वर्णनवाले हैं, किन्तु पायाममें दुगुने हैं ॥२८२६।।
दोनों इष्वाकारों के अन्तरालमें स्थित विजयादिकोंका प्राकार तथा संख्याबोकाराएं जिसे कोनि कि विनर
चक्कर • समायारा, एस्केका सातु मेवगिरी ॥२५३०॥
:-इन दोनों इव्वाकार पर्वतोंके बीष चरन् के सदृश प्राकारवाले दो उत्तम ( विदेह ) क्षेत्र है और उनमें एक-एक मेरु पर्वत है ॥२८३०॥
धावसंरे पौधे, अत्तिय - कुगनि मेसिया विजया ।
चिय - सरबर' जेत्तिय - सेलवरा जेत्तिय - गईओ ।।२०३१॥ पोखरदोबस, खेतियमेसाणि वाणि घेटुति ।
बोएं इसुगाराणं, गिरीण विचाल • भाएन ।।२८३२।।
पर्थ :-धातकोखण्डद्वीपमें जितने कुण्ड, जितने क्षेत्र. जितने सरोवर, जिसने श्रेष्ठ पर्वत मौर जितनी नदियाँ हैं, उतने ही सब पुष्कराचंद्वीपमें भी दोनों इष्वाकार-पर्वतोंके अन्तराल-मागामें स्थित हैं२५३१-२८३२।।
तीन द्वीपोंमें विजयादिकों को समानता-- विजया विजयाण तहा, देयम्मा हवंति परम । देवगिरीनं मेल, दुल - सेला कुलपिरीर्थ र ॥२८३३॥ सरिया सरियाओ, गाभिगिरिवाण णाभि - सेलानि ।
परिणधिगदा तिय - बोये, असेह - सम विहा' मेरु ॥२८३४॥
प:-तीनों द्वीपों में प्रणिधिगत विजयोंके सहन विजय, विजया|के सर विषयार्ष, मेरुपर्वतोंके सहन मेह पर्वत, कुलगिरियोंके सहया फुलगिरि, नदियों के सदृश नदियों तथा नागिरियों के सहश नाभि-पर्वत हैं। इनमें से मेह-पर्वतके अतिरिक्त शेष सबकी ऊंचाई कहा है॥२३२-२८१४॥
....ब.क.
प.प.क. ....सरोषण। ३.......... परिणतिकमा-तिस्वी । ..हा मेरा
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७१० ]
तिलोयपण्याप्ती [ गापा ! २८३५-२५३६
कुल-पर्वतादिकोंका विस्तारएदानं चवारिण, अंदीबम्मि भनिय • हसायो ।
एस्प बउग्गुणिवाई, याई बेण 'एडम • विगा ॥२८३५॥
प:-समें प्रथम कहे हुए विषयों ( क्षेत्रों को छोड़ इनका विस्तार यहाँ जम्बूद्वीपमें पतलाये हुए विस्तारसे चौगुना जानना चाहिए ।।२८३५।।
मुक्का मेलगिरि, कुलगिरि - परीणि सोब-तिवस्मि । विस्थारोह • समो, कई एवं पवेति ॥२३॥
पाठान्तरं। भर्ष :-मेरुपर्वतके अतिरिक्त शेष कुलाचाल जातिकोंका विस्तार तथा ऊँचाई तीनों द्वीपोंमें समान है, ऐसा कितने ही आचार्य निरूपण करते है ॥२३॥ ...
पाठान्तरम् । पुष्करार्ध-स्थित विजया तथा कुलाचलोंका निरूपणअविण माणुसहर • सेलं कालोपगं . ति । बसारो विजयादा, बोबो बारस कुलद्दी ॥२८३७।।
:--राद्वीपमें बार विजया तथा बारह कुल-पर्वत मानुषोतर पर्वत और कालोदक समुनको छूकर स्थित है ॥२८३७॥
वीमि पोजर, कुल सेसारी तहय दोह-विजयड्दा ।
भाभतरम्मि नाहि, महमुहा ते 'खुरप्प - संदाना ॥१८३८।।
म:--पुष्करावीपमें स्थित वे कुलपर्वताविक तथा दीर्घ-विजया अभ्यन्तर तथा नापभाग क्रमाः अंकमुख और क्षुरप्रके सहा प्राकारवाले हैं ॥२८३८।।
विजयादिकोंके नामपश्मिय -सामलि-मामा बिगप-सर-गिरि-प्पहार । बंटीय : समाभ, गामानि एत्व पतम्या' १२८३९॥
१.स.स.क.अ. त, पढण।
२. प. उ. कुरुप्प ।
....क. ज. स ब मो ।
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मापा : २४०-२४४ ]
पत्थो महाहिशारो w:-यहाँ जम्बू और शामली कृक्ष के नाम घोड़कर शेष क्षेत्र, तासास और पर्वतारिकके नाम माबूदीपके समान ही लडूने पाहिए. {१२६३६ i e 2:१६.३.१०.५
दोनों परत तथा ऐरावत क्षेत्रोंको स्थिति-- बो-पासेस य वक्लिन-सुगार-गिरिस्म दो भरह - सेत्ता ।
उत्तर - सुगारस्स य, हबंति एरावरा रोणि ॥२८४० ।
पर्ष :-दक्षिण इष्वाकार पर्वतके दोनों पार्श्वभागों में दो परतक्षेत्र और उत्तर इष्वरकार पर्वतके ( दोनों पार्श्वभागोंमें दो ऐरावत क्षेत्र है ॥२८४०॥
सब विजयोंकी स्मिति नया आकार--- वोहं सुगाराचं, बारस - कुल - पम्पयाण विश्वाले।
पेटुति सयल · विजया, पर-विवर-सरिच्छ-संठामा ॥२४॥
म :-दोनों इण्याकार पौर बारह कल-पर्वतोंके अन्तरालमें चक्र ( पहिए ) के भरों के __ छेदोंके सच भाकारवाले सब विजय स्थित है ॥२४॥
अंकायारा विनया, हर्षति आभतरम्मि भापम्मि । सत्तिमुहे' पिच बाहिं, 'सपबुद्धि-समा वि पल्स - भुना ॥
२२॥ :- सब क्षेत्र बभ्यंतरभागमें अंकाकार और बाहमागमें शक्तिमुव हैं। इनकी पापर्व भुजाय गाडीको उधिक सरस ।।२८४२॥
कुलाचस तथा इष्वाकार-पर्वतोंका विष्कम्भबचारि सहस्सानि, पु-सया पस-बोयणाणि रस-भागा । विसंभो हिमवते, सिहंत बाउको कमसो ॥२४॥
__ ४२१.। १६४२ । ३।६७३५ । ।
प।- हिमवान्-रक्तका विस्तार चार हजार दोसो दस योजन पोर एक पोषनके उन्नीस मागोंमेंसे दस-माग अधिक ( ४२१. यो प्रमाण है। इसके प्रागे निषध-पर्वत पर्यन्त क्रमशः उत्तरोतर पौगुना (पर्षात् १६८४२१० योजन और ५५३६॥ योजन) विस्तार है ।।२८४३||
एवारा ति - एगाणं, विलंभ मेलिथण बज - गरिण।
सव्वा गारव्य, हर - समागं कुल • गिरीनं ॥२४॥ ... ज. समुई। २. ..ब.क. ज... माहितो।।
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तिलोमती
[ गाया । २०४५ - २८४१
म :- इन तीनों पर्वतोंके विस्तारको मिलाकर चौगुना करनेपर जो प्राप्त हो उतने [ ( ४२१०६+१६८४२ + ६७३६८९ } x ४ = ३५३६८४ ] योजन- प्रमारण सब कुल पर्वतों का समस्त विस्तार जानना चाहिए ॥२८४४
७१२]
इसुगाराणं विश्वंभं मे सहस्स जोयगया ।
-
दो
.
तं पुन्यम्मि बिमिस्सं बोबड सेल कद्ध सिवो ॥२६४५॥
२०००
अर्थ :-दोनों इष्यकार पर्वतों का विस्तार दो हजार योजन प्रमाण है। इसको पूर्वोक्त कुल पर्वतोंके समस्त विस्तार में मिला देनेवर पुष्कराराद्वीप पर्वतरुद्ध क्षेत्रका प्रमाण ( २००० + ३४३६८४८ - ३५५६४ योजन ) प्राप्त हfo
जोयण-सक्त-तिवयं, पगन्ज सहस्त इत्पाणिपि ।
सीबि भाषा गिरि-कद्ध विवीए परिमाणं ।।२८४६ ||
३५५६८४ । ६ ।
अर्थ :- पर्वत-रुद्ध क्षेत्रका प्रमाण तीन लाख पचपन हजार छहसो चौरासी योजन श्रीर चार भाग अधिक (३४५६८४६६ योजन ) है ।।२८४६ ॥
भरतादि क्षेत्रोंके आदिम, मध्यम और अन्तिम विष्कम्म लानेका विधान
प्राविम-परिहि-यहुवी चरितं इच्छिवान परिही ।
गिरि-रुद्ध - लिटि सोहिय, बारस खुद मे सहि भनिन ।। २८४७ ॥ सग-सग-सलाय - गुणिवं होवि पुढं भरह-यहूदि-विजयानं ।
इव पबेल दवा, तहि सहि तिविध नियमे ।। २६४६ ॥
·
·
-
: -- पुष्कराद्वीप की घादिम परिषिसे लेकर मन्तिमान्त इच्छित परिधियोंमेंसे पर्वतरुद्ध क्षेत्र कम करके शेषमें दोसौ बारहका भाग देनेपर जो सध भावे उसको अपनी-अपनी कलाकासे गुणा करनेपर नियमसे भरतादिक क्षेत्रोंका वहाँ-वहाँ इच्छित स्थान ( आदि, मध्य और मन्त ) में तीनों प्रकारका विस्तारप्रमाण प्राप्त होता है ।।२८४७ - २८४८
९१७०६०५ - ३५५६०४ - २१२२१ = ४१४७६२ ० ० का मादि वि० ।
-
ग्रहवा
भरहाविषु विजयार्ग, माहिर बम्मि भविमं च ।
सोहिय अत्र लक्ख हिवे, अपनी इच्छव पवेसे ॥२८४६॥
-
——
-
-
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गाथा : २८५० - २६४२
]
महाहियारो
[ ७६३
पर्व :- भरतादिक क्षेत्रोंके बाह्य विस्तार मेंसे प्रादिम विस्तार घटाकर जो शेष रहे उसमें आठ लाखका भाग वेनेपर इस्थित स्थान में अय-वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है ।।२८४६ ।। 80X12 पो०
(६५४४६str ४१५७९२३ - ६०००००
PETITY
हानि - वृद्धिका
प्रमाण ।
भरतादि सातों क्षेत्रों
तथा
एक्कसाल सहस्सा, पंच-सथा जोमणाणि उपसीवी । तेहतरि उत्तर सद- कलाओ अभ्यंतरे भरह- रुवं ।। २६५० ।।
—
·
-
४१५७६ । ३ ।
:- भरतक्षेत्रका अभ्यन्तर विस्तार इकतालीस हजार पांचसौ उन्यासी योजन और एकसो तितर भाग अधिक (४१५७९३१ योजन प्रमाण ) है ॥२८५०।।
भरहुस्स मूल हवं च गुनिये होदि 'हेमवबए । अन्तरम् दवं तं हरिवरिसस्स चउ गुणियं ।। २८५१ ।।
·
-
१६६३१९ ।। ६६५२७७
:- भरतक्षेत्रके मूल विस्तारको चारसे गुणा करनेपर हैमवतक्षेत्रका अभ्यन्तर विस्तार
और इसको भी बारसे गुणा करनेपर हरिवर्षका अभ्यन्तर विस्तार प्राप्त होता है ।।२६५१ ॥
१६६३१६६६ यो० हैमवतका और ६६५२७७१ यो० हरिक्षेत्रका विस्तार है।
हरि घरिलो चउ-गुनियो, ददो प्रभंतरे विदेहस्स । पतंबकं चउगुणा हाणी ।। २६४२ ।। २६६११०८ । ६ । ६६४२७७ । २ । १६६३१६ ३ | ४१५७६३३
सेस
वरिलाम
वं
:- हरिवर्ष क्षेत्रके विस्तारको चारसे गुणा करनेपर विदेहका अभ्यन्तर विस्तार ( २६६११००६ यो० ) ज्ञात होता है । फिर इसके आगे शेष क्षेत्रोंके विस्तार में कमम: चौगुनी हामि होती गई है ।। २६५२ ।।
६६२७७३१३ यो० रम्यक का, १६६३१९३१ यो हैरभ्यवतका तथा ४१५७६३२३ मो० ऐरावत क्षेत्रका विस्तार है ।
१. द. व. उ. व भूयै ।
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७६४ ]
तिलोयपग्णत्ती [ गापा : २८५५-२०१६ एवं सग - सग - विनया आदिम - हंह - पदीओ।
गाहिर' - परिम - परेसे, इंदतिम ति पतव्यं ॥२८५३॥
अर्थ :-इस प्रकार अपने-अपने क्षेत्रका मादिम बिस्तारादि है। अब माह चरम-प्रदेशपर इनका अन्तिम विस्तार कहा जाता है ।।२८५३।।
भरतक्षेत्रका बाह्य विस्तारपनसटुिर - सहस्सागि, बस्सया जोमणाणि घासलं । तेरस कलामो भणिक, भरहरिसपि । बाहिरेक ।।२८५४॥
६५४४ III प्रर्ष:-परतक्षेत्रके बाह्य-मागका विस्तार पंसठ हजार चारसौ सपानीस योजन और तेरह कला अधिकार या प्रमाण हो गया हैरा (१४२३०२४१-३५५६८४१)+२१२५१-६५४४६ यो ।
अन्य क्षेत्रोंका राज्य विस्तारएस्प वि पु गेर
पर्ष :-पहिसके सरमा यहाँपर भी हैमवतारिक-क्षेत्रोंका विस्तार चौगुनी दक्षि एवं हानिस्प जानना चाहिए।
विवाफ:-हेमवत क्षेत्रका माह्म विस्तार २११७४ीयोजन इत्रिका १०४७१३ यो , विदेहका ४१८६४ यो,रम्पकका १०७१३६३६ई यो, हेरव्यवतका २६१७८४ायो. मौर ऐरावतक्षेत्रका ६umtitm योजन प्रमाण है।
पप्रादह तथा पुण्डरीक दहसे निकली हुई नदियोंके पर्वतपर बनेका प्रमाण---
पुरतारबरत - वीवे, खुल्लय-हिमवंत-सिहरि-परिझरले । पउमबह - गरीए, पुष्कर वितम्मि निगम-पदीयो ॥२८५५॥ पटेक-छ-पद-तियं, अंकलमे जोयणानि गिरि-उरि । गंपूर्ण परोक्क, क्लिप - उत्तर - विसम्मि बलि कमे ॥२५५६।।
३८६१८। १....... जाहिरएपरिमपसे तिपत्ति । २.१. पा.....क.प.च, पुष गेवावं । ४. द. ब. क. इ. इ. पहम सह ।
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वार्मर ८५७
को नह
[ ७६५
अर्थ :- पुष्करा द्वीप में शुद्ध हिमवान् और शिरी पर स्थित पद्मदेह तथा पुण्डरीकके पूर्व और पश्चिम दिशासे निकली हुई नदियाँ घाट, एक छह पाठ पौर तीन इस अंक क्रमसे मो संख्या उत्पन्न उतने प्रमाण अर्थात् अड़तीस हजार सौ अठारह ( ३०६१८ ) योजन पर्वतपर जाकर क्रमश: प्रत्येक दक्षिण तथा उत्तर दिशाको बोर जाती हैं ।। २८५५-२६५६ ।।
पुष्करार्धद्वीप में स्थित मेरुम्रोंका निरूपण -
घावसंड - पवष्टि दोन्नं मेरुण सम्बवण्णणयं । एस्थेव य बच गयवंत' भद्दताल कुद - रहिवं ||२८५७||
अर्थ :- पातकीखण्ड में वरित दोनों मेघओंका समस्त विवरण गजदन्त, भरशाल मोर
कुरुक्षेत्रोंको छोड़कर यहाँ भी कहना चाहिए ।। २८५७।।
चारों गजदन्तोंको बाह्याभ्यन्तर लम्बाई
छक्क्क एक्क छग छपक्क जोयणाणि मेणं । भम्भंतर
भागट्टिय
( २०४२२१९ )
है ।। २६५६ ।।
-
गमवंताणं
१६२६११६ ।
:- वह एक एक, छह, दो. छह और एक इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने (१६२६११६) योजन प्रमाण मेषओंके अध्यन्तरभागमें स्थित चारों गजदन्तोको लम्बाई है । २६५८
उन्हानं ।। २८५८ ॥
नव-इमि-दो- दो-उ-भ-दो अंक कमेन जोवना दीहं ।
मेरु बाहिर गयवंतानं
चरम्हाने ।।२८४६
२०४२२१६ ।
-
,
एक, दो, दो चार शून्य और वो इस अंक क्रमसे जो संख्या प्राप्त हो उतने योजन प्रमाण दोनों मेरुझोंके बाह्यभाग में स्थित चारों गजदन्तोंकी लम्बाई
-
कुरुक्षेत्र के धनुष, ऋजुगारण और जीवाका प्रमाण
छतीसं लक्कारिण, घडसट्टि सहस्स-ति-सय-पणलीसा
जोवलयाणि पोश्वर
वीवर्स होदि कुछ चावं ।।२८६० ।।
११६८१३२ ।
१.व.व. क.अ.ज.गवंत समारुरहिया २.८. . . . . अंक मेराणि ।
·
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७६६ ]
तिलोयपणती
[ गापा : २८६१-२८६४ प:- पुष्कराशीपमें क्षेत्रका धनुष अत्तीस लाख अमह हमार वीनसो, पैतीस ( ३६५३३५ ) योजन प्रमाण है ।।२८६०॥
चोड्स-जोयग-सबखा, छासीवि-सहस्स-भव-सया इगितीसा । उत्तर - देव - कुहए, परोक्कं हो। रिनु - बाणो ||२६६१।।
१४६६६३१ । अर्थ :-उत्तर और देवकुरुमेंसे प्रत्येकका हजुगाण चौदह लाख छयासी हजार नौ सो इकतीस ( १४८१९३१ ) योजन प्रमाण है ।।२८६१॥
घउ-ओषण-सम्माणि, बत्तीस-सहस्स णव • सयाई पि । सोलस • जुबारिण 'पुरके, जीवाए होरि परिमाण ॥२८६२।।
४३६६१६ । म :-कुरुक्षेत्रकी जीवाका प्रमाण पार लाख प्रतीस हजार नौसौ सोलह (१९१६) योजन प्रमाण है ॥२६।।
वृन-विष्कम्भ निकालनेका विषागइंसुनवागं वजनगुरिगवं, सीधा-सागम्मिलिया सम्हि तबो ।
पउ - गण - भाग - विहरो, ल पट्टस्स विखंभो ।।२८६।।
पर्ष:-बाणके बर्गको चौगुनाकर ससे जीवाके वर्ग में मिला दे। फिर उसमें चौगुने बाणका भाग देनेपर जो सब्द आवे उतना गोलक्षेत्रका विस्तार होता है ।२८६३।।
(१४६६१६x४ + ४३६८१६) + (१४८६६३१४४) १५१६०२६ योजन __ और कुछ अधिक कप्ता।
कुरुक्षेत्रका वृत्तविकाभ तथा वक्रवाणका प्रमाणपगारस - लालागि, उगवीस सहस्सयाणि पीसा । इगिवीस - ब - सर्वसा, पोक्सर - कुर-मंगल' सेतं ॥२०६४।।
१५११०२६।१३
१.व. का। २.६, पम्बोस। ३.द.. मम ।
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गाथा : २८६५-२८६८ ] पस्यो महाहियारो
[ ७६७ पमं:-पुष्करवरद्वीप सम्बन्धो कुरुओंका मण्डलाकार (गोन ) क्षेत्रका प्रमाण पन्द्रह___ लाच उनीस हजार सब्बीस योजन पौर एकसौ इक्कीस भाग अधिक प्रर्शन् १५१९०२६५ यो. है ।।२८६४॥
सत्तारस - समसागि, बोहस • जब-ससहचरि-सयाणि । महु-कसानो पोक्खर - कुरु - बंसए होवि अंक - इसू ।।२८६५॥
१७०७७१४ । । मपं:-पुष्करवरदीप सम्बन्धी कुरुक्षेत्रका कारण सत्तरह लाख सतहत्तरसौ पौदह योजन पोर माठ कला (१७०७७१४ यो० } प्रमाण है ॥२८६५।। भाHars ... AARAासन
RATE ये सरला पणारस - सहस्स - सस - सय-अनु-वण्णाओ। पुष्वावरेण बोहं बीवडे भहसाल • वर्ण ॥२६॥
२१५७५८ । म :--पुष्करार्धद्वीपमें भाशालयनको पूर्वापर लम्बाई दोलाख पन्द्रह हजार सातसो ___ अट्ठावन ( २१५७५८ ) योजन प्रमाण है ॥२८६६।।
भहसाल-इंदा-२४५१ । १ । अ :- मद्रपालवनका उसर-दसिरा विस्तार ( २१५७१८ यो० लम्राई )२४.५:योजन प्रमाण है।
उचर-सपिलग-भाग-द्विवाण जो होवि भहसाल - वर्ग। ।
पिरमो काल - बसा, सच्छिन्गो तस्स उबएसो ||२८६७॥
पर्य :-उत्तर-दक्षिण भागमें स्थित मशालवनका जो कुछ विस्तार है, उसका उपदेश कालवश नष्ट हो गया है ॥२८६७॥
विरोवा:-अपर जो २४५१:१ यो• विस्तार कहा है वह उत्तर-दक्षिरणका ही है। किन्तु गाथामें उसके उपदेशको नष्ट होना कहा गया है ।
गिरि-भासाल-विजया, वनार · विभंग - सरारम्णा । पुण्यावर - विस्थारा, पोक्सर - बी बिहार्ग ॥२६॥
-
-
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८ ]
तिलोयपणती [ गापा : २८६६-२८७३ :-पुकरवरदीपमें विदेहोंके विनि, भइशान, विजय, भार, विमंगनदियां मोर देवारण्य पूर्व-पश्चिम सक विस्तृत है ११२८६८॥ ५४ : गादियों के लिए मिल रही गायक
एकाणं परोक्क, मंदर - सेलाण घरगि • पद्धम्मि । जोयग - पउगवधि - सया, विक्वंभो पोतरमि ॥२८६६
प:-पुष्कराचंद्वीपमें इन मन्दर-पर्वतोमेसे प्रत्येकका विस्तार पिवी-पृष्ठपर नौ हजार पारसी (६४.0 ) योजन प्रमाण है ।।२८६६।।
दो साला पग्णरसा, सहस्स-सत्य-सबटु-वणामओ 1 जोयच्या पुण्यावर वो एकेक - महसाला ॥२७॥
२१५७५८1 :-प्रत्येक भद्रवालका पूर्वापर विस्तार दो लाख पन्द्रह हजार सातसौ भट्ठावन (२१५७५८ ) योजन प्रमाण है ।।२८७०॥
उगवीस-सहस्सागि, सरा-सया जोयनागि पसगाउयो । घउ - भागो परोक्का का परसादि - विजयाणे ॥२८७१।।
१९७९४ ।। प्र:-चौसठ विजयोंमेंसे प्रत्येकका विस्तार उनीस हजार सातसौ चौरानबे और चतुर्षभागसे अधिक अर्थात् १६७१४३ यो• है ॥२०७१।।
• सहस्स - जोषणागि, बासा मसारयाण पक। पंच-सम-बोयगानि, विमंग - सरियाम स्मिो ॥२८७२॥
२००० । । at:-प्रत्येक वक्षारका विस्तार दो हजार ( २००० योजन और प्रत्येक विभमनदीका विस्तार पचिसौ { ५०० ) योजन प्रमाण है ॥२७॥
एपारस - सहस्साणि, पोषणया छस्सयागि प्रसीदी। परोपक पित्वारो, वारणाग दोहं पि ॥२६७३।।
११६८८ ।
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गाया : २८७४ - २८७७ ]
उत्थी महामारो
[ ७६६
अर्थ :- दोनों वारण्यों में से प्रत्येकका विस्तार ग्यारह हजार छसोमठासो (११६०८ ) योजन प्रमाण है ॥२८७३ ॥
मेर्यादिकोंके विस्तार निकालने का विधान -
मंदरगिरि पहुदी, पिय-गिय-संलाए ताजिये ददे । किस किस
हम
-
-
सोहिये से * ।
इट्ठूण संस पिंडे, असु सक्थे जिथ संखाए भजिये, गिय-निय वासा हवंसि परो ।। २८७५ ।।
को विफलं ॥ २८७४ ।।
म :- इटरहित मन्दर पर्वतादिकोंके सपने-अपने विस्तारको अपनी-अपनी संख्यासे गुरिणत करनेपर जो प्राप्त हो वह अपने-अपने द्वारा रुद्ध विस्तार होता है। इन विस्तारोंका जो पिष्टफल हो उस पिष्टफलको आठ लाखमेंसे घटाकर शेषको अपनी संख्यासे भाजित करनेपर प्रत्येकका अपना-अपना विस्तार होता है ।।२८७४-२६७५ ।।
कच्छा और गन्धमालिनीकी सूची एवं उसको परिधिका प्रमाण
,
युगुलम्म भइसाले, मंबर सेसल्स विवस विश्वंभं । मज्झिम- सूई जुत्तं सा सूची कच्छ 'गंधमालिनिए ॥ २६७६ ॥ सहस्स रगब - सया सोलं । भइसालान शंसो सि ।।२८७७ ।।
एक्कसास लक्खा, खालीस वो मेहणं बाहिर
·
-
४१४०६१६ ।
वर्ग:- भालके दुगुने विस्तार में मन्दर पर्वतका विस्तार मिलाकर जो प्राप्त हो उसे मध्य सूची में मिला देनेपर (वह) कच्छा और गन्धमालिनी की सूची प्राप्त होती है। जिसका प्रमाण दोनों मेरु पर्वतोंके बाहर दोनों भद्रशालवनोंके भन्त तक हकतालीस लाख भालीस हजार नोसों सोलह ( ४१४०६१६ ) योजन है ।। २६७६-२६७७।।
विशेषाचं :- भद्रशासनका विस्तार २१५७५८० मन्दरपर्वतका १४०० योजन और मध्यम सूची का प्रमाण ३७ लाख यो० है । अतः ( २१५७५८२ ) + ४०० + १७००००० ४१४०६१६ यो० कच्छा और गन्धमा सिनीकी सूचीका प्रमाण है ।
1
१.व.व. क. ज. उ. २..... उ. सपिय सुमनले सोधिरे सम्यदेवेस । ३. द. क. ज. उ. पंचमासोए ।
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७७. ]
तिलोप्पण्णसी [ गाथा : २८५८-२८८ तस्मबीए परिही, एक्कं कोडी य तोस-सालागि । पज-पउदि-सहस्साणि, सत - सया जोयभागि छन्वोस ॥२८७८॥
१३०६४७२६ । अर्थ । इस सूचीको परिधि एक करोड़ तीस लाख पौरान हजार सातसौ फवीस योजन प्रमाण है ।।२८७०।।
विषा) :–परिधि - ४१४०६१६४१०-१३.६४७२६ योजन | HERE पोजन अवशेष बचे जो छोड़ दिए गये है।
...
PREE विदेहकी लम्बाई निकालनेका विधान और उस तम्बाईका प्रमाणपम्बर विसुद्ध-परिही - सेसं उसद्धि - स्व - संगिध ।
गारस - पुर - वु - सए हिं, भनिम्हि विरोह - दोहत ॥२७॥
मर्थ:-इस परिधिर्भसे पर्वत-रूस क्षेत्र घटाकर शेषको चौंसठसे गुणा कर दोसौ बारहका भाग देनेपर विदेहकी लम्बाईका प्रमाण माता है ।।२८७६॥
पटु-पर-सत्त-पण-चउ-मटु-ति-अंक-पकमेण जोयगया । बारस - अहिय - सर्वसा, तहान बिवह • दोहतं ॥२८॥
३८४५७४ । । अर्थ:-पाठ, पार, सात, पाच चार, आठ और तीन इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और एकसौ बारह भाग अधिक ( कच्छा और गन्धमालिनीके पास ) विदेहको सम्माई है ॥२८८०॥
बिरोबा :-गाथा २८४६ में पर्वतबद्ध क्षेत्रका प्रमाण ३५५६८४० योजन कहा गया है मत :-- [( १३०६४७२६ - ३५५६८४0 x६४]:२१२३४५७४८17 योजन विवह की सम्बाई है।
कमला और पन्धमालिनीकी प्रादिम लम्बाईका निरूपणसीवा - सोपवणं, वासं दु• सहस्स तम्मि प्रमिल। सवसेस बोह, कणिट्टयं कच्छ - गंधमालिणिए ॥२८॥
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गाया : २८८२-२८८५ ] चतत्वो महाहियारो
[ ७७१ मई:-इस (विवेहकी लम्बाई) मेंसे सीता सीतोदा मदिपोंका दो हजार योजन प्रमाण विस्तार घटा देनेपर जो शेष रहे उसके अचंभाग-प्रमाण कच्छा और पम्पमालिनी देशकी कनिष्ठ (पादिम ) लम्बाई है ॥२८॥
घर'-सत्तेनुक-गं, गव-एक्कक - कमेण जोयगया। छावण - कला बोह, भाभिक कालछलांसमलिभिAR, ११.१५
१९२१८७४। । पर्य :-पार, सात, बाठ, एक, दो, नो भोर एक इस मंक-क्रमसे को संख्या निर्मित हो उतने शेषन मोर छप्पन कसा अधिक कच्छा और पन्धमालिनीकी मादिम लम्बाई है ।।२८५२।।
विरोधार्य :-(१८४५७४८१ - २...)२ - १९२१८७४१६४ योजन प्रमाण पादिम लम्बाई है।
विजयादिकोंको विस्तार-वृद्धिके प्रमाणका निरूपणविषयावीणं पासं, तभागं इस • पुगिम्म तन्मूलं । गिन्हह तसो पुह पुह, बत्तीस - गुपं च कादूर्ण ॥२३॥ बारस-सुव--सएहि. भनिचूर्ण कन्छ' - ६ - मेलषितं ।
गिय - पिय - ठाणे बासो, अब - सरुवं पिरोहस्स ॥२४॥
प :-विजयादिकोंका को विस्तार हो, उसके वर्गको दससे गुणा करके उसका वर्गमूस ग्रहण करे । पश्चात् उसे पृथक-पृएक रसीससे गुणा करके प्राप्त गुणनफलमें दोसौ बारहका माग देनेपर जो सम्म आवे उसे कल्ला-देशके विस्तारमें मिसानेसे उत्पन्न राशि प्रमाण अपने-अपने स्थानपर वर्ष मिदेहका विस्तार होता है ।।२८०
क्षेत्रोंकी वृद्धिका प्रमाणगव - जोपरणस्सहस्सा, पत्तारि सयागि भद्वतासं पि । अपन - कलाओ तह विषयागं होदि परिषढी ।।२८८५।।
१४४८ | म :-विजयों ( क्षेत्रों ) की वृद्धिका प्रमाण नौ हजार चारसौ अस्तालोस योजन और छप्पन-काला अधिक है ॥२८५५।।
१. ६, सातपट्ठ। २. स. ....... पिहे।। १. प. प. प. सम्यगुण ।
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७७२ ।
तिलोयपणती [ गापा ! २०१५-२८८८ विशेवा ।-गापा २८७१ में प्रत्येक क्षेत्रका विस्तार १९९४ यो. हा गया है। गापा २८६३ - २०४ के नियमानुसार-1 ( १९७६ ) x १० x ३२ ] : २१२ - Emer योजन क्षेत्रोंको वृद्धिका प्रमाण है।
वक्षार पर्वतों की वृद्धिका प्रमाणचवन्नम्माहियारिण', सयाणि राव जोमगाणिसह भागा । बोसुत्तर - सयमेत्ता, पसार • गिरोण परिपक्षो ॥२८९६॥
. १५४ | 81 पर्ष:-नौसौ चौवन पोजन पोर एकसौ बौस भाग प्रमाण वक्षार-पवंतोंकी वृद्धिका प्रमाण है ॥२८९६॥
मिमा गापा २६४ में प्रत्येक समाजका विस्तार २१६-१. योजन कहा गया है, पता . [( २.००x१०४३२] २१२=KANERE यो वक्षार वृद्धिका प्रमाण है।
विभंग नदियोंकी वृद्धिका प्रमाणजोयन - सयारिण दोषिण, अनुत्तीसाहियानि तह भाषा । छत्तीस - उत्तर - सयं, विभंग - सरियाग परिवाही ।।२५६७।।
२३८ । बर्ष।-पोसी अड़सोस पोजन और एकसौ खत्तीस माग मषिक विभग-नदियोंको वृद्धिका प्रमाए है ।।२०६७।।
विवा:-गाथा २०७२ में प्रत्येक विभंग नदीका विस्तार .. योजन कहा गया है, मत: [(५००}"xtox१२२१२-२३८३१॥ यो ।
देवारण्यके स्थानोंमें वृद्धिका प्रमाणपंच - सहस्सा गोयल, पंच - समा अट्ठहत्तरी - बुचा । बउसीदि-बुर - सर्वसा, वारणाग परिबढी ।।२।।
५५७
१. प. ब. महिनाएं।
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________________
गांया : २८०१-२०११ ]
उत्पी महाहिश
[ ७७
यं :- पाँच हजार पांचसी ठतर योजन और एकसो चौरासी भाग प्रमाण देवारयोंकी वृद्धिका प्रमाण है ।।२८८६ ॥
विशेषाय : मा0 में प्रत्येक
[ ( ११६
अतःप्रमाण है ।
को कहा गया है, x १० × ३२] : २१२ = ५५७८३६योजन देवारण्यको वृद्धिका
विजयादिकों को आदि, मध्य और अन्तिम लम्बाई निकालने का विधानखिवेज्ज तं होदि ।
हे
विजयादोनं आदिम मझिम-बीहं मभिम दोहे' तं शिवम् भंत बीसं ॥ २८६॥
•
अर्थ :- विजयादिकों की मादिम लम्बाई में उपर्युक्त वृद्धि प्रमाण मिला देनेवर उनकी मध्यम लम्बाईका प्रमाण धौर मध्यम लम्बाईमें वह वृद्धि प्रमाण मिला देनेसे उनकी मन्तिम लम्बाई का प्रमाण प्राप्त होता है ।। २८६६॥
कन्छा और गन्यमालिनी देशोंकी मध्यम सम्बाई-
वो दो-तिय-इ-तिय-नय-एक अंक साय । बालर एक सयं मझिल्लं कच्छ गंधमा लिरिए ।। २८६० ।।
कमेन
अर्थ:-दो, दो, तीन, एक, योजन पोर एकसो बारह भाग
11354011
-
-
१९३१३२२ । ११३
तीन, नो मोर एक इस अंक क्रमसे जो संवधा उत्पन्न हो उतने अधिक कच्छा और गन्धमालिनी देशोंशी मध्यम लम्बाई
१६. २. द. ट्टि प ब ज भट्टसहि
I
गाथा २८८२ में श्रादिम लम्बाई १२२१८७४५१६ योजन प्रमाण कही गई है म :-- १६२१८७४२३६ + २४४५३-१६३१३२२३३ योजन मध्यम लम्बाई ।
दोनों क्षेत्रोंकी मन्तिम और चित्रकूट एवं देवमाल वक्षारों की मार्दिन लम्बाईका प्रमाणनभ-सस-स-भ-ब-कमेण श्रंसा य ।
- सद्वि समं विजय-यु- वस्लार-णगानमंतमावित्वं ।। २८६१ ॥
१६४०७७० | ३६
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ww४ ]
तिलोयपणती [ गाणा : २४५२-२०१४ प्र :--शून्य, सात, सात, शून्य, चार, नी और एक. इस अंक कमसे जो संम्मा मिर्मित हो उतने योजन और एफसी पइसठ भाग अधिक उपयुक्त दोनों क्षेत्रों तथा ( चित्रकूट और देवमाल नामक ) दो वक्षार-पर्वतोंको क्रममा अन्तिम और पाविम लम्बाई है ॥२८॥ १९३१३२२६१ + १४४ १९४०७७.१० योजन ।
दोनों वक्षारोंकी मध्यम लम्बाईपण-वो-सग-इगि-बउरो, भोक जोयन हसरी अंसा । मरिमाल विचकू, होरि तहा देवपाए दोहं ॥२२॥
१९४१७२५ । । प:-पाव, दो, सात, एक, पार, नौ और एक, इस मंक ऋमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और छपत्तर भाग प्रमाण अधिक चित्रकूट एवं देवमाल पर्वतकी मध्यम लम्बाई (१६४१७२५१ योजन) है ॥२८६२।।
१९४०७७-18+ ६५४३-१९४१७२५ र यो ।
दोनों वक्षारोंको मन्तिम और दो देशोंकी प्रादिम लम्बाईपष-सम-छ-हों पर-पव-गि कलछानवि-हिय-सयमेक्स। हो - बक्सार - गिरीणं, प्रतिम आदी सुका - षिलए ॥२६॥
१९४२ ६७ । । म :-नौ, सात, सह, दो, चार, नौ पौर एक, इस अंक क्रमसे ओ संख्या निर्मित हो उतने योजन और एकसौ सधान भाग अधिक दोनों रक्षार-पर्वतोंकी अन्तिम तया सुकच्छा और गन्धिला देशकी आदिम सम्बाई ( १९४२६७६४ योजन ) है ॥२५॥ १९४१७२xRr+ १५४१-११४२९७९ यो० है ।
वोनों देशोंकी मध्यम लम्बाईअटु - डुरोप दो - पग - नवेक मंसा म तालमेताणि । मग्मिल्लय • बोहत, बिजयाए सुकन्छ - गंधिलए ।।२८६४॥
१६५२१२८ । १
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गाया : २८१५-२०१७ ]
उल्मो महाहियारो
[ ७७५
आठ, दो एक, दो, पाँच, नौ ओर एक, इस अंक क्रमसे जो संख्या निमित हो उतने योजन और चालीस भाव प्रमाण अधिक सुकच्छा और गन्धिमा test मध्यम लम्बाई ( १९५२१२-१२ यो ) है ||२८६४||
१६४२६७६६३+४४८
= १९५२१२०६९ यो० है ।
यूँ श्री रविवारी दोनों देशोंको अन्तिम और दो विसंगा नदियोंकी आदिम लम्बाई
छल्सग पण हगि छण्णव एक्कं झंसा य होंति छनउबी ।
वो विजयाणं अंतं, आदिल्लं दोमि सरिमाणं ||२८६५॥
·
१६९१५७६ |
अर्थ:-छह साल पाँच, एक, छह नौ और एक, इस अंक क्रमसे जो संस्था उत्पन्न हो उतने योजन और छ्यानवं भाग अधिक (१६६१५७६३६ मो०) दोनों देशोंकी अन्तिम तथा दवती मौर, ऊर्मिमालिनी नामक दो नदियोंको आदिम लम्बाई है || २६९५ ।।
१६४२१२३+४४८३१३ = १६६१५७६२ योजन
13
दोनों विभंगा नदियोंकी मध्यम लम्बाई
पण - इगि अडिग छन्णव-एक्क अंसा य वोसमेतानि ।
दहवधी उम्मिमासिसि प्रक्भिमयं होनि वीहरु' ॥२८६६ ॥
१६६१८१४ । ६ ।
अर्थ :- पांच, एक, ग्राऊ, एक छहू, नौ खोर एक, इस अंक क्रम से जो संख्या उत्पन्न हो उसने योजन और वीस मार्ग प्रमाण अधिक ( १९६१८१५३६६ यो० ) द्रवतो और ऊर्मिमालिनी नदियोंकी मध्यम लम्बाई है ।।२८६६ ।।
-
-
·
१. ब. ब. क. ज. उ. दोहस्स ।
१६६१४७६+२३८३ - १९६१८१५३योजन |
दोनों नदियोंकी अन्तिम और दो क्षेत्रोंकी श्रादिम लम्बाईतिय-पण-सं-युग--एव छप्पन्न-सहिय-सय-शंसा । दोन्हितं, महकन्छ - सुवग्गुए प्रावो ॥। २८६७॥
१९६२०५३ |
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तिखोयपम्पत्ती
[ गापा : २८१८-२६.. भ:-तीन, पांच, शून्य, दो, छह, नौ पार एक, इस कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और एकसो छप्पन भाम अधिक दोनों नदियों की प्रन्तिम तपा महाकम्छा और सुवल्गु ( भुगन्धा ) नामक दो क्षेत्रोंकी आदिम लम्बाई ( १९६२०५३. यो. है ।।२०६७।। १९६१८१५:१३+२३५३१११६६२०५३ योजन ।
दोनों केत्रोंकी मध्यम लम्बाईदु-स-पंच-एक्क-सग-अब-एवकं मंक - कमेण नोयगया । महकन्छ' - सुबग्गूए, बोहतं मरिझम - परसे ॥२६
१९७१५.२ । :-दो, शून्प, पाच, एक, साप्त, नौ और एक, इस संक क्रमने जो संख्या उत्पन्न हो उसने ( १९७१५०२) योजन प्रमाण महाकन्या और सुबरा (सुगन्धा ) क्षेत्रोंके मध्यम प्रदेश में सम्बाई है ॥२६॥
१९६२०५३ + LYNEEN - १९७१५०२ यो० ।
दोनों क्षेत्रोंकी अन्तिम और दो वक्षार-पर्वतोंकी आदिम लम्शाईखभ-पक-ब-बम-अर-गर-एक अंसा य होति छपन्न रोह बिजयारतं, दोहं पि गिरीषमारिल्ल ॥२६॥
१८९५ II प्र:-शृंग्य, पाँच, नो, शून्य, पाठ, नो पोर एक, इस अंक क्रमसे मो संम्पा उत्पन्न हो उतने योजन और छप्पन भाग अधिक दोनों क्षेत्रोंकी अन्तिम तपा पकूट और सूर्य नामक दो पर्वतोंकी पादिम लम्बाई ( १९८०६५०१ यो. ) है ॥२८॥ १९७१५०२+ १४४ =१९७१५.२ यो है।
दोनों पक्षार-पर्वतोंको मध्यम सम्माईघन-मन-गन-गि-प्रह-पव-एक अंसा सयं महत्तरियं । पर परम - कूर तह सूर • सम्बए मान - बोहत ॥२६००।
१९८१९०४ । ।
१... क. ब. र. धनुषाए। २. ३. बोम्हं पि विषयाशंसं दो पि गिरोणमामि ।
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गादा : २९०१-२९.३] पालो महाहियारो
[ ४७७ प्र:-बार, शून्य, नो एक, आठ, नौ और एक, इस अंक क्रमसे जो संम्या उत्पन्न हो उतने योजन और एकसौ पपतर माग अधिक उत्तम पत्रकूट तथा सूर्य पर्वतकी मध्यम लम्बाईका प्रमाण (१२०१९०४३सयो.) है ।।२२००। १९८०९५०+ at-१९८१९०४यो ।
दोनों पर्वतोंको अन्तिम और दो देशोंकी आदिम लम्बाईणव-पन-अनुग-पर-गब-एवं मंसा प हॉखि चुलसीरी। मंत सोम गिली माती... हासपासकाबविए ।।२९०१॥
१९८२२५ पर्च-नी, पाच, माठ, दो, पाठ, नौ और एक, इस अंक क्रम से जो संख्या उत्पन्न हो उत्तने योजन मोर पौरासी भाग अधिक दोनों पर्वतोंकी अन्तिम तया वल्गु (गन्धा ) और कच्छकावती देशको प्रादिम लम्बाई (१९८२ER पो.) है ॥२०॥ १९८१९०४१६४११-१९५२६५६, यो।
दोनों देशोंसी मध्यम लम्बाईसम-बम-तिम-ग-मन-मन-एक अंसा व गास माहिय-सायं । मरिमालय पोह', वागूए कालावदिए ॥२६०२॥
१९६२३०७ । । मर्ग:सात, शून्य, तीन, दो, नो, नौ और एक, इस अक कारसे जो संस्था उत्पन्न हो उतने योजन और एकसो रालीस भाग अधिक बल्गु ( गन्धा ) एवं कच्छकावतीको मध्यम लम्बाईका प्रमाण ( १६१२३०५१ यो० ) है ।।२६०२।।
१६२५६A: +६४०१५-१६२३०१ यो ।
दोनों देशोंकी अन्तिम मौर दो रिभंगा मषियोंकी पादिम सम्बाईपग-पच सग-नागि-सं-सभ-मोत्रिय प्रसासरि -महिव-सवं । कोई विषयानंत, माविल्ले दोसु सरिपानं ॥१९०३।।
२०.१७५५ । । बर्ष:-पांच, पाच, सात, एक. न्य, अन्य पौर दो इस अंक कमसे यो संख्या उत्पन हो उतने योजन और एकसो छधान भाग अधिक दोनों देशोंकी मन्तिम नामा प्रावली पर फेनमालिनी नामक दो विमंग-नादियोंकी बादिमसम्बाईका प्रमाण (२०.१७५६१ योजन है। ११.३॥
१९९२३.1+En.t२००१७५५६योजन है।
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७७८ ]
तिलोपएण्णासो : [ गाथा : २५०४-२
दोनों नदियोंकी मध्यम लम्बाई-- . पार-गव-जब-मि--गम-सचिन सामवीस-हिय-स। मग्भिल्ल - गहवदीए, बीहत फेणमालिनिए ॥२६० -
२०.१६६४ ' पर्ष:-बार, नो, नौ, एक, शून्य, शून्य और दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन मोर एकसौ बीस मान प्रषिक अहवती और फेममासिनी नदीको मध्यम लम्बाईका प्रमाण ( २०.१६६४१ योजन) है ।।२६०४।।
२००१७५५३+२३८११-२०१६ योजन है ।
दोनों नदियोंकी अन्तिम तथा दो क्षेत्रोंको प्राविम सम्बाईतिय-सिय-दो-दो-खण्ममपोस्चिय संसा तहेब घरवास ।
अंत को - सरिया, आरो :आवत्त .. बप्पकावविए ॥२६०५॥ kexi ... BTEE १३०३.२४
वर्ष:-तीन, तीन, हो, यो पून्य, रम्प और परे इस अंक असे को संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और पवालोस भाग अधिक दोनों मदियोंको अन्तिम तपा मावर्ता एवं वप्रकावती क्षेत्रको धादिम लम्बाई (२००२२३३४ पो.) है ॥२०॥ २.०१६६ +२३ -२००२२३३यो ।
दोनों क्षेत्रोंकी मध्यम लम्बाईएक्काट-छ-एपकेस्क, - दुग अंसा सहेर एकक - समं । .. मझिल्लय - बोहतं, आणता - बप्पकावदिए १२६०६॥
२०११६८१२ . . . मर्म:-एक, माठ, एक, एक सून्य मौर दो इस अंक क्रमसे :मो संख्या उत्पल हो उतने योजन और एकसो माग अपिक आवर्मा तथा वप्रकावती क्षेत्रोंकी मध्यम सम्बाई ( २०११६८१ मो० ) है ॥२९.६।।
२००२२३१m+ ext-२०१११यो ।
१. व. प. उ. पम्मकालिए।
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गाषा : २१०७-२६.६ ] पउत्यो महाहियारो
। ७७९ दोनों क्षेत्रोंकी मन्तिम तथा दो वक्षार पर्वतोंको प्रादिम लम्बाईपष-मुगिगि-दोन्हि-संयुग, मंसा पाय-महिप-एकसयं। दो - विजयान मंतं, आषिस पलिग - पाप - मगे ॥२६०७॥
२०२११२६ । । पर्ष :--नौ, दो, एक, एक, दो, शून्य और दो, इस अंक क्रमसे जो संस्था उत्पन्न हो उतने योजन और एकसौ छप्पन भाग अधिक दोनों क्षेत्रों की प्रन्तिम तथा नमिन एवं नाग पर्वतकी आदिम सम्बाई ( २०२११२६३ योजन ) है ॥२६०७|| २०११६८१५१०+६४४८ २०२११२६ यो ।
दोनों वक्षार पर्वतोंकी मध्यम लम्बाईपउ-अब-युग-बु-स-चो, 'ग्रंक जोगणपति सा xsx sx 2%E परसट्ठी मकिमल्ले, णाग • नगे नलिन - फूडम्मि ॥२६०६॥
२०२२०८४। पर्व:--पार, आठ. शून्म, दो, दो, शून्य और दो. इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो । उतने योजन पौर चौसठ भाग अधिक नाग-नगको और नलिन कूटको मध्यम सम्बाईका प्रमाण ( २०२२०८४ यो) है ।।२९०८।।
२०२११२९ + Exxass=२०२२०८४४ यो ।
दोनों पर्वतोंकी मन्तिम और वो क्षेत्रों की प्रापिम लम्बाईप्रारतिय-गम-तिय युग-यम-दो ग्णिय अंसा सय व चुलसीबी । दोसु गिरीनं प्रत, पाविस्वं दोसु विषमा २०६॥
२०२३०३८ । अर्थ:-माठ, तीन, शून्य, तीन, दो. ग्रून्य और दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और एकसो चौरासी भाग अधिक दोनों पर्वतोंको मन्तिम तया लांगलाया एवं महावना देशको आदिम लम्बाई ( २०२३०३० यो• ) है ।।२६०६ ।।
२०२२०८४ +१५४१-२०२३०३८१ यो ।
१.... क.अ, ब, कमें।
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७८० ]
तिलोयपष्मणतो
[ गाण । २६५०-२६१२ दोनों क्षेत्रोंको मध्यम लम्बाईसग-मड-बस-दुग-तिष-गभ-गो विष-अंसा सहेवपुलसीवी। ममित्लय . वोहत, महवप्पे लगताबसे ।।२६१०॥
२०३२४८७ । ३ । प्रबं: सात, पाठ, पार, दो, तीन, शून्य और दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उत्तने योजन और अट्ठाईसमाग अधिक महावमा एवं सांगलावर्ताको मध्यम सम्बाईका प्रमाण ( २०३२४८७३६. यो.) है ॥२६१०॥
२०२३०३ +twit२-२०३२४८७६ यो ।
दोनों क्षेत्रोंको अन्तिम और दो विभंगा नदियोंको आदिम नम्बाईपग-तिय-भव-गि-बज-गम-वोग्णि य अंसा तहेव पुलसीवी। वो - विजयावं मंशाहिल्लं. कोलु मयि | THEYE
२०४१९३५। । प:-पाच. तीन, नौ, एक. पार, शून्य पौर दो, इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उसने योजन मौर चौरासी भाप अधिक दोनों विजोंकी अन्तिम तथा गम्भौरमालिनी एवं पंकवती मामक दो नदियों की प्रादिम सम्बाई ( २०४१९३५ योजन ) है ॥२६११।। २०३२४८७१+१४४६ -२०४१६३५. यो ।
दोनों मबियोंकी मध्यम लम्बाईचन-सत्त-एक्का-दुग-उ-भ- अंसा कमेण अटु'। गंभीरमालिपीए, मणिमल्ल पंकलिंगाए ॥२९१२॥
२०४२१७४। । मर्ग:-पार, सात, एक, दो, पार, शून्य और दो, इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और पाठ भाग पधिक गम्भीरमालिनी एवं पंकवती नदियोंकी मध्यम लम्बाई { २०४२१७४.६ योजन ) है ॥२६१२!!
२०४१६३५११+ २३८१५-२०४२१७४. पो०।
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चउरको महाहियारो
दोनों नदियोंकी अन्तिम और दो देशों को आदिम सम्बाई
युग-एक्क-च---भ-दो मिसा सर्व च चउदा । दोन नवोरणं अंतं, माथिल्लं बोसु विजयानं ।। २६१३ ॥
गाथा : २६१३-२६१६ 1
२०४२४१२ । १५५
-दो एक, चार, दो, चार शूग्य और दो इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उसने योजन और एक सौ बवालोस माग अधिक दोनों नदियोंको अन्तिम और पुष्कला तथा सुखप्रा नामक दो क्षेत्रों की मादिम लम्बाई । २०४२४१२ यो० ) है | २६१३।।
२०४२१७४,६२+२३८३३३= २०४२४१२३६३ यो० ।
दोनों क्षेत्रोंकी मध्यम लम्बाई
भ-छ- पिन-णभ-दो किचय प्रसानि दोन्नि-सयमेतं । महिल = श्रीस पोल "जिए भुवाए ।२६१४ ।।
२०५१६० । ३९९
प्र :- शून्य, छह आठ, एक, पाँच, शून्य और दो, इस अंक क्रम से जो संख्या निर्मित हो उसने योजन और दो सौ भाग प्रमाण अधिक पुष्कला एवं सुबप्रा विजयको मध्यम लम्बाई (२०५१८६०३२ यो० ) है ||२९१४।।
२०४२४१२३३ + ६४४८१ = २०५१८६०३२ यो० ।
दोनों क्षेत्रों को अन्तिम और दो वक्षार पवंतोंकी प्रायिम लम्बाईनव-गभ-तिय- इगि छन्णभ-वो स्विय साय होंति उबाल वो विजया
-
[ ཅt
प्रतं विल्लं एक्कसेल चंद नगे ॥२६९५ ।।
-
२०५१८६०३२+६४४८३२०६१३०१३
-
·
२०६११०६ । १
-
नो, म्प, तीन, एक छह, मूल्य और दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उसने योजन और चवालीस भाग अधिक दोनों विजयोंकी अन्तिम तथा एकल मौर चन्द्रनगकी
प्रादिभ लम्बाई ( २०६१३०१३ योजन ) है ।। २१५।
यो० ।
दोनों वक्षार-पर्वतोंकी मध्यम लम्बाई
तिय-छ- दो- दो-खम-वो चिय शंसा सयं वचसी । मल्लिय दोह होदि पुढं एक्कसेल चंदनगे ॥ १११६॥
२०६२२६३ | ३३३
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७५२ ]
तिलोयपरणती - [पापा : २६१५-२९१६ मपं:-तीन, बह, दो, दो, छह. शूम्प मोर दो, इस मंक क्रमसे जो संस्मा उत्पन्न हो उतने योजन पोर एकसो घाँस: भाग अधिक एकशंस एवं चन्द्रनगको मध्यम लम्बाई (२०६२२६३६यो.)
२०६१३० +५४१३-२०६२२९३1यो ।
होनों पूर्वतोंको मनिस मरेर दो तेशोंकी आदिम लम्बाईपट्टिगि-युग-लिंग-कम-वो रिभय मंसा' बुरासरी प्रतं । वोहं दोसु गिरोग, मावो बप्पाए पोसलारिए ||२९१७॥
२०६३२१८ । । मय: भाठ एक, दो, तीन, सह, शून्य पोर दो, इस अंक क्रमसे जो संस्था उत्पन्न हो उतने पौषन मोर बहत्तर भाग अधिक दोनों पर्वतोंको अन्तिम तपा वा एवं पुष्कलापती देणकी माविम लम्बाई ( २०६१२१८ पो.) २६१७॥ २०६२२६३31+tv91-२०६३२१८ र यो।
दोनों देशोंको मध्यम लम्बाईछच्छक छक-युग-सग-गभ-दुग असा सयं व अउदोस । मरिझल्लय • बीहरी, बप्पाए पोक्सलापविए ॥२६॥
२०७२६६६ । । प्र:-छह छह, बह, दो, सात, शून्य और वो इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन और एकसौ मट्ठाईस भाग मधिक वा एवं पुस्कलावती देशको मध्यम लाम्बाईका प्रमाण (२०७२६५६ यो ) है ।।२६१८॥
२०६३२१-0+YE २०७२६६६ यो । दोनों देशोंकी प्रन्सिम और वेवारण्य एवं मूलारम्पको आदिम लम्बाईबार-एक-एक्का-दुग-म-णभ-वो बसा सयंप चुलसीदो। बप्पाए प्रत - वीहं, मादिरूल देव - मगरम्नाचं ॥२९१६॥
२००२११४। । प्र:-चार, एफ, एक, दो, पाठ, गून्य और दो, इस अंक क्रमसे जो संन्या उत्पन्न हो उतने पोजन और एकसौ पौरासी माग अधिक देना (और पुष्कलावती) देशको पन्तिम तपा देवारण्य एवं भूतारण्यकी मादिम लम्बाई ( २०८२१ योजन) २८१६॥
२०७२६५९+art-२०२११४यो ।
१.प... क. अ.र, असा ।
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मामा : २६२०-२९२५ ] उत्पो महाहियारो
[ ४३ .देवारण्य-भूतारण्यको माम्पम लम्बाई- . . तिय-गव-बसग-पर-अमनो चिय मंसा समयम। भंगिमल्लय - बहिरा, परोपका वेष • 'मूबरन्गागं ।।२६२०॥ २०६७६६३ ।
। :-तीन, नौ,'छह, सात, पाठ, शून्य और दो, इस अंक कमसे जी संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और एकसौ छप्पन भाग अधिक देगारण्य एवं भूतारण्यर्मेसे प्रत्येकको मध्यम लम्बाई (२.८७६६३१ यो० ) है ।।२६२०॥ २०६२११४१४+ ५५७८३-२४८७६६३ यो ।
देवारण्य-भूतारण्यको अन्तिम लाई सुसि PAN बो-सग युग-सिग-णव-गभ-धो विषय सा सयंच अग्योस। परोक तिल्लं. दोहन रेव - भूबरला,२६२१॥
२०१३२७२ । । प्र:-दो. सास, दो, तीन, नो, शून्य और दो इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन पोर एकसो अट्ठाईस भाग मधिक देवारभ्य एवं भूतारम्प में से प्रत्येक पन्तिम लम्बाईका प्रमाण ( २०९३२५२ योजन ] है ।।२९२१।।
२०६७६६३३१५५७ -२०६३२७२१ यो ।
अन्य क्षेत्रादिकोंको लम्बाईका प्रमाण ज्ञात करनेकी विधिकच्छादि - पमुहाचं तिविह - वियप्पं निषिवं सम् ।
विषयाए मंगलापति - पमुहाए तं च बत्तव्यं ।।२९२२॥
पर्व :-कम्मादिकोंकी तीन प्रकारकी लम्बाईका सम्पूर्ण कथन किया जा चुका है । पर मंगलावती-प्रमुख क्षेत्रादिकोंको लम्बाईका प्रमाण पतलाया जाता है ।।२९२२॥
. बाविसु विषयाम माविम-मस्मिल्ल-परिम-चोहतां । विजयड़क - हंसमरिणय, अब-कदे इच्छिाहरूस वीहतं ।।२९२३॥
-.. - -.१.क.क.उ. रलाए । २ प..क. रस्याए।
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७८४ ]
तितोवपत्ती
[ गाया : २९२४-२६२४ वर्ग:-कम्बादिक क्षेत्रों की बाधिम, मध्यम और पन्तिम सम्बाईसे विजयाके विस्तार को घटाकर शेषको मात्रा करनेपर इच्छित क्षेत्रों की लम्बाईका प्रमाण प्राप्त होता है ।।२१२३॥
पमा देशसे मंगलावती देश पर्यन्तको सूचीका प्रमाण प्राप्त करने की विधि
सोहसु मजिना - सूबर, मेहगिरि पण शालाल-वर्ष !: re:
सा बर्ष पम्माषी, परियंस मंगसाबविए ।।२६२४॥
भ:-पुष्कराधको माध्यम सूची से मेरु-पर्वत और दुगुने भनमालवनके निस्तारको घटा नेपर जो शेष रहे उतना मंगलवतीसे पपादि देश पर्यन्त सूचीका प्रमाण है ।।२६२४।।
बिवा :-उपयुक्त मानानुसार सूची व्यास इसप्रकार है-पुकरा दीपका मध्यम सूची न्यास ३७ लाख योजन. मेरु विस्तार ६०० योजन तथा भवशालका दुगुना विस्तार (२१५७१८४२) -४३१५१६ योजन है अतः ३७.०००० - (६४०० + ४३१५१६)१२४६०४ योजन है।
कि सूची शासके इस प्रमाग को, इसकी परिधिक प्रभाएको, विह क्षेत्रको सम्बाई प्राप्त करने की रिषि एवं विषह क्षेत्रको लम्बाईक प्रमाणको प्रदचित करनेवाली ४ गाथाएँ सूटी हुई झात होती है। जिनका गणित निम्न प्रकार है
महासे मंगमावती पर्यन्तकी सूचीका प्रभाग-३५. यो है। इसकी परिधिका प्रमाण-३२५६०८४१x१=१०३०६१२९ पोजन है। विदेह क्षेत्रको लम्बाई .. ( परिमि – पर्वतरुट क्षेत्र ) x ६४
- (१०३०६१२६ – ३५५६६४ ) ४४ __(Rumiixv=10018यो ।
२१२ पपा एवं मंगलायती क्षेत्रकी आदिम लम्बाई तिवय-पण नव-स-भ-पम-एक्कासापरतरंगु-सपं । क-कामे दोह', प्राविल्स - प्परम • मंगतावपिए ॥२९२५॥
१५०० । ।
२१२
1.4..... fifeel १......स. राबवणमपएसकता।
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. गारा : २९२६-२९२७] पत्यो महाहियारो
[ ७५ :--तीन, पाच, गो, शून्य, वान्य, पांच भोर एक, इस बंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने पोजन और बोसो पार भाग अधिक पमा तथा मंगलाबतीक्षेनकी बादिम सम्माईका (१५०७६५३ योजन ) प्रमाण है ।।२६२।। विशेषावं :-पमा और मंगलावती देशोंको सम्बाई
...विदेहकी लम्बाई - सीतोदाका विस्तार
- ३०० ३६08# - २००० यो... ३०.१६०७१
=१५.०९५३३१० योजन है।
दोनों क्षेत्रोंकी मध्यम अभ्याईपण-पम-पण-हगि-नव-चउ-एक्कं संसा सयं च प्रवास । मरिमालय - दोहर, पम्माए मंगलावविए ॥२९२६।।
१४९१५०५ । । प्र:-पांच, गून्य, पौष, एक, नी, चार और एक, इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उसने योजन और एकसौ पड़तालीस भाग अधिक पमा एवं मंगलावती क्षेत्रको मध्यम सम्बाई ( १४६१५.५३ यो• ) है ॥२६२६।।
१५००६५N -- twitt= १४९१५०५१ योजन ।
दोनों क्षेत्रोंको अन्तिम मौर दो वक्षार-पर्वतोंकी आदिम लम्बाईसग-पम-पम-युग-अर-घउ-एक सा कमेण माणउनी । दो - विजयाचं प्रत, 'वहार - गपाण माविल्लं ।।२९२७॥
१४५२०५७ । । वर्ष:- सात, पाच, शून्य, दो, पाठ, पार और एक, इस अंक क्रमसे जो संभ्या उत्पन्न हो उसने योजन और मानवे भाग मधिक दोनों क्षेत्रोंको अन्तिम एवं श्रद्धावान् मोर मामाचनमक्षारपर्वतोंकी आदिम सम्बाई (१४८२०५७१यो) है ||२६२७॥
१४६१५1 -mark=१४२०५७१ यो। १. ब. सारण।
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RETAIL रक्षा
७०६ ]
तिसोयपणती [ गाया : २६२८-२९३. दोनों वक्षार-पवंतोंको मध्यम लम्बाईहुग-बम-एपिकांग-अब-बस-एवं सा समं च पलसोयो। सावधिमायंजण' - गिरिम्मि मझिल्ल - दोहत ॥२९२८॥
४११०२ । । प्रबं-दो शून्य, एक, एक पाठ, पार और एक, इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और एकसी चौरासी भाग अधिक श्रद्धावान और बारमांजन पर्वतको मध्यम लम्बाई (१४८११०२% यो ) है ।।२९२८॥ १४८२०५७४ - १५४३१३-१४८११०२ यो.1
दोनों पर्वतोंकी मन्तिम तथा दो क्षेत्रोंकी प्रादिम लम्बाईपष्टु-बान-एषक-यम-अर-घउ-एकसा कमेण उसनी । हो गिरीजं प्रस, प्रादौओ बोणि - विनयानं ॥२६२६।।
१४८०१४८ । म:-आठ, पार. एक, शून्य, माठ, वार और एक, इस अंक ऋमसे जो संख्या उत्पन हो उतने योजन और चौसठ भाग अधिक दोनों पर्वतोंकी-अन्तिम और सूचना एवं रमणीया नामक दो देशोंकी आदिम लम्बाईका प्रमाण ( १४८०१४८ योजन) है ॥२९२६।। १४८१५०२१ -६५४३३१४१४ योजन।
दोनों क्षेत्रोंकी मध्यम लम्बाईखंगभ-सग-पम-सग-पास-गि-संसा मट्ट'मन्झ-वीहत । पत्तेक सुपम्माए, 'रमणिमा - पाम • विजयाए ॥२६३०॥
१४७०४०० । प:-शून्य, शून्य, सात, शून्य, सात, चार और एक, इस अंक क्रमसे जरे संख्या उत्पन्न -हो उतने योजन और पाठ माग प्रमाण अधिक सुपपा तथा रमणीया नामक दो देशोंमेंसे प्रत्येककी मध्यम समाई (१४७०७.० पो०) है ॥२६ ॥
४८.१४ -१४ १४७०७.. यो ।
... .. २. सादि । २. .... म. उ. पट्टा
.. . रमणिलाम ।
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गया : २२३१-२६३३ ]
त्यो महाहियारो
दोनों क्षेत्रों की अन्तिम और दो विभंग नदियोंकी आदिम लम्बाईइगि- पण दो----एमके असा सर्वच उसी ।
दो- विजया सं, आविल्लं वो विभंग - सरियाशं ॥ २६३१॥
w
१४६१२५१ | K
:- एक पांच, दो, एक छह बार और एक इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन और एकसी चौंसठभाग अधिक दोनों क्षेत्रोंकी अन्तिम तथा क्षीरोदा एवं उन्मत्त जला नामक दो विभायोको प्रादिन ल Sit
४६१३५१३१६ ० ) २६३१॥ १४७०७०००६ - २४४८६३३६- १४६१२४१३३६ मो० । दोनों विभंग नदियों को मध्यम लम्बाईतिय-इति-भ-गि--- एक असा लहेब बी । मभिरलं खोरोवे', उम्मत्त मम्मि
H
[ ७८७
१४६१०९३ । १६ ।
तीन एक शून्य. एक, छह बार और एक इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उसने योजन और मट्ठाईस भाग अधिक क्षीरोदा एवं उन्मत्तजला नदियोंमेंसे प्रत्येककी मध्यम लम्बाई ( १४६१०१३३३६ यो० ) है ।। २६३२ ।।
-
पक्के ॥२३२॥
१४६१२५१३३ |२३८६३३= १४६१०१३३६६ यो ।
、
दोनों नदियोंकी अन्तिम और दो देशोंको मादिमसम्बाई'चच-सग-सग-भ-छक्क, चल एक्सा सयं च चउरहियं ।
दो मंतिम बोहं भाविल्ल दो विलवाणं ॥ २६३३॥
१४६०७७४ | ३३३
धर्म :- चार, सात, सात, शून्य, छह बार और एक. इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उसने योजन और एकसौ चार भाग अधिक दोनों नदियोंको अन्तिम तथा महापद्मा एवं सुरम्या नामक दो देशोंकी बादिम लम्बाई ( १४६०७७४२३३ यो० ) है ।।२६३३॥
१४६१०१६ + २३८१० (४६०७७४१ यो० ।
1. T. 5. 4. 2. mržè 1. 2. 3. 4. 6. T. J. MINÌRI
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७८८]
तिलोयपत्ती
दोनों देशोंकी मध्यम लम्बाई
- दो-तिय-इगि-प-ब-एक्कं मंसा सहेब प्रश्वा । महिलय विस्थाएं महपम्म सुरम्म विक्या ।। २९३४ ।।
-
दो
P
१४५१३२६ ।।
अर्थ :- छह, दो, तीन, एक, पाँच, चार और एक, इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन मोर बड़तालीस भाग अधिक महापद्मा और सुरम्या नामक देशका मध्यम विश्वा ( लम्बाई १४५१३२६६२ ० ) है ।।२६३४ ।।
+४४
६० ।
दोनों देशों को मन्तिम और दो वक्षार पर्वतोंकी प्रादिम लम्बाईसग-सगड-गि-चर-वस-एक्कं प्रसा यदु-सब-रहिये । बिजमार्ग असं आविल्लं बोसु वक्तारे ।।२९३५॥
[ गापा २९३४ - २१३६
१४४१८७७ । ३१३
:- सात, सात, आठ, एक, चार, चार और एक, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और दोसी चार भाग अधिक दोनों देशों की अन्तिम तथा भजन एवं विजटावान् इन दो वक्षार-पवंसों की माविम सम्बाई ( १४४१८७७११३ योजन ) है ।। २२३५॥
१४५१३२६ - ६४४८ = १४४१८७७३२ यो० ।
दोनों वक्षार पर्वतों की मध्यम लम्बाई
तिम-दो-गय-भ-च-चज एकं प्रसाय होंति चुलसीबी । अजग- बिजडारिए, होरि - मक्झिल्ल बीस
१. ८. व.क. . . मपम्मएसुषम्मए ।
-
२६३६ ॥
१४४०६२३ | H
अर्थ:-तीन दो, नो, शून्य, चार, चार और एक, इस अंक क्रमसे जो संस्था उत्पन्न हो उतने योजन धौर घोरासो भाग अधिक अञ्जन और विजटावान् पर्वतकी मध्यम लम्बाई पो० ) है ।। २६३६॥
( १४४००२३
१४४१८७७३÷३ – १४- १४४०२३६% वो० ।
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उस्को मद्दाहियारो
दोनों वक्षार पर्वतोंको अन्तिम मोर दो देशों की बादिम लम्बाई
माया : २६३७-२१३६ ]
प्रटु-छ-नव-वश्व-तिय-चतु
दो बक्सार गिरीगं, असं आवो णि विजयानं ।। २६३७॥
+
-
१४३१९६८ |
वर्ग:भाठ, सह, नी, नौ, तीन, चार और एक इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और एकसौ छपत्तर भाग अधिक दो बार पर्वतों की अन्तिम तथा रम्या एवं पद्मकावती नामक दो देशोंकी मादिम लम्बाईका प्रभारण ( १४३९६६-३३ यो० ) है ।। २९३७ ।।
१४४०२३६ - ६x४३ - १४३६६६८३३ य० ।
दोनों देशों की मध्यम लम्बाई
नभ-यो- पण नभतिमचज एक्कं असा सयं च वीसहियं । मक्लिय दोहरी, रम्माए पम्मकार्यादए
१४३०५२० । ३१
-
[ use
-
॥ २६३८।।
:- शून्य दो परं शून्य, तीन, चार और एक, इस अंक कम से जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और एक्सो बीस भाग अधिक रम्या एवं पद्मकावती देशकी मध्यम लम्बाई ( १४३०५२०३३३ यो० ) है ||२६||
१४३६-३२- ४४८५१ - १४३०५२०३३१ मो० ।
दोनों देशों की अन्तिम और दो विभंग-नदियोंको भादिम लम्बाई
"
यो सग नभ-एक्क-दुर्ग व एक्कंसा तहेव चउडी । पो-विजयानं असं आविल्लं दो विभंग - सरिया ।। २६३६ ॥
-
१४२१०७२ |
अर्थ :- दो, सात, शून्य, एक, दो, चार और एक इस अंक कम से जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन भीर चौंसठ भाग अधिक दोनों देशोंकी अन्तिम तथा मत्तजला एवं सीतोदा नामक दो विभंग नदियोंकी आदिम लम्बाई (१४२१०७२
यो० ) है ।। २६३९॥
१४३०५२०१३३ - ६४४८३१५१४२१०७२
य० ।
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७६.]
तिलोयपमा सो
[ गापा । २६४०-२६४ दोनों मदियोंकी मध्यम सम्बाईतिय-तिय-प्रज-णभ-वो-चब-एक्कं मसा सरंच चालहियं । मात्तजले सीबोदे, पतकं मन्झ - दोहत ॥२६४०॥
१४२०५३३ । । " : तीन, तीन, यात शून्य, दो, चोर पोर एक. इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन और एकसो चालीस भाग अधिक मतलला पौर सीतोदा से प्रत्येकको मध्यम लम्बाई १४२०८३३३ यो० ) है ॥२६४०॥ १४२१०७२१ - २३८३-१४२०८३३सर ।
दोनों नदियोको अन्तिम और दो देशोंकी प्रादिम लम्बाईपण-णव-पव-गाम-बो-बर-एक्साय होलि चत्तारि । यो • सरियाणं मतं, आपिल्लं बोषु विजयाणं ॥२६४१||
१४२.१६५ । । प:-पाच, नो, पांच, पान्य, दो, चार और एक, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उत्तने योजन पौर बार भाग अधिक दोनों नदियोंको अन्तिम तथा पांबा एवं वप्रकावती नामक दो देशोंको प्रादिम लम्बाईका प्रमाण ( १४२०५६५ र यो० } है ॥२९४१।। १४२०६३३ - २३८११४२०९६५ यो।
दोनों देशोंकी मध्यम समाईछ-स्पाउ-गि-एक्कमक, धउरेमकंसा सयं च सद्वि-खुदं । मज्झिल्लय - वोहत्त, संसाए दप्पकावविए ॥२६४२।।
१४१११४६ । । वर्ष:-छह बार, एक, एक, एक, घार और एक, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और एकसौ साठ भाग अधिक शाला एवं वकायती देशको मध्यम लम्बाई ( १११४६१ यो है ।।२१४२।
१४२०५६५.. - ९४४ -१४६११४६९यो।
दोनों देशोंकी पन्तिम पौर दो रक्षार-पवंतोंको भाविम लामाईअड-पर-शुपक्का गर्भ, पउ-एक्सा समं बरहियं । हो - विजयाणं असं, प्राविल्स पोमु वपसारे ॥२६४३॥
१४.१६९= IRAT
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गाया । २९४४-२६४६ ] वजत्यो महाहियारो
[ ७६१ प:-आठ, मो, छह, एक, शुन्य, पार और एक, इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और एकसो चार भाग अधिक दोनों देशोंकी अन्तिम एवं प्रासोविष सपा वैषवरणकूट नामक दो वक्षार पर्वतोंको आदिम लम्बाई (१४६६REIN यो २६४।। १४१११४५11-- ६४४८.1= १४०१६६८९ यो ।
दोनों बार-पवंतोंकी मध्यम लम्बाईतिय-पर-सग-पभ-मायणं, बउरेषकसं सपं व छपउदी । मझिमए वीहसं, आसीवित - बेसमण • पूरे ॥२४॥
१४.०७४३।३। अर्थ :--तीन, पार, सात, पान्य, पान्य, चार और एक, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने पोजन तमा एक सौ छपानवे भाग अधिक माती विष और वैधवरणकूटकी मध्यम लम्बाई (१४००७४३यो ) है ।।२९४४|| १४० १६६८RY - ४३१ = १४.०४४३५ यो ।
दोनों पर्वतोंकी अन्तिम पौर दो देशोंको आदिम लम्बाईणव--सग-अब-एक-तिय-एक्कं असा छहतरी होति । यो • बक्सार मत माविरुसं बोसु विजपा ॥२४॥
१३६६७८१। । प्रम:-नो, पाठ, सात, नौ, नौ, तीन और एक, इस अंक क्रमसे जो संख्या निमित हो। उत्तने योजन और चिहत्तर भाग अधिक दोनों वक्षार-पर्वतोंकी अन्तिम तवा महापप्रा एवं मलिन देशको आदिम लम्बाई ( १३६९५८ यो०) है ।।२६४।। १४.७४३12-१५ -२७.यो
दोनों देशोंकी मध्यम लम्बाईइगि-पर-तिय-पम-पव-सिय एक मंसा कमेण वोर्स छ। मनिसमए रोहत, महवप्पा - एलिग - विजयम्मि ।।२९४६।।
१३६०३४१ । ।
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___७९२ ]
तिलोरपणती
[ गापा । २१-२६४६ अर्थ :-एक, बार, तीन, शून्य, मो, तीन और एक. इस अंक कमसे ओ संस्था उत्पन्न हो उतने योजन और बीस माग अधिक महापना एवं नलिन क्षेत्रको मध्यम लम्बाई (१३९.३४१R यो.) है ।।२४
१३६९७०९:१ - ४ - १३६०३४१. यो० ।
दोनों देशोंकी मन्तिम और दो विभंगा-वियोंको आदिम लम्बाईबो-पव-प्रह-नभ-अ-लि-एक्कं असा छात्सरहिय - सयं । बो - विनमा अतं, आबिल्लं वो विभंग - सरियाणे ॥२९४७॥
१२६०८९२७ मर्थ :-दो, नी, माठ, शून्प, पाठ, तोन मोर एक, इस अंक क्रमसे जो संस्था उत्पन्न हो उतने योजन और एकसो घपत्तर माग अधिक दोनों क्षेत्रोंको अन्तिम तपा सप्तजला एवं मौषध वाहिनी नामक दो विभंगा नदियोंकी मादिम लम्बाई । १३८०८६ यो० ॥२४७।। १३९०३४१७.-१४ -१३८०८९२११ पौ. ।
दोन विभंगा-नदियोंकी मध्यम सम्बाईपउ-पर-छलभ-पव-तिय'एक्कं मला व बाल-मझिमए । वोहतं तसजले, पोसहवाहीए पते ।।२९४८
१३०६४१ प्रपं:-बार, पाच, सह, शून्य, पाठ, तीन और एक, इस अंक क्रमसे को संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और चालीस माग अधिक तप्तजला एवं पोषधवाहिनी में से प्रत्येककी मध्यम लम्बाईका प्रमाण ( १३८०६५४६ यो०) है ॥२६४६।। १३८८२ - २३८ -१०६५४: योजन।
दोनों नदियोंकी अन्तिम और दो देशोंकी भादिम लम्बाईपण-मि-बाउ-पम-प्रारतिय-एक्का मसाय सोलसहिय-सवं । पो -मंग - नईगं, पं आबिल्ल बोसु विजया ॥२६४६॥
१३८०४१५ । ।
१. व... म. न. प्रतिएका
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गाषा : २९५०-२६५२ ] परस्थो महाहियारो
[ ॥ प्र:-पांच, एक, पार, शुन्य, पाठ, तीन और एक, इस क्रमसे डो संख्या निर्मित हो उतने योजन और एकसौ सोलह माग अधिक दोनों विर्भग-नदियोंको अन्तिम भोर कुमुदा एवं सुवप्रा नामक दो देशोंकी आदिम लम्बाई (१३८०४ यो०) है ॥२९४९।। १३८०६५४६- २३८२ -१३८०४१५११५ यो ।
दोनों देशोंको मध्यम लम्बाईसग-ष्णव-भ-सग-तिय-एक्कं मंसा य सहि परिमार्ग। मझिम - पवेस - बोहं. कुमुगए सुबप्प - बिजम्मि ।।२९५०॥
१३७०६६७ । । मर्ष:-सास, छह, नौ, शन्य, सात तीन मोर एक, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन मोर साठ भाग प्रमाए कुमुदा एवं सुवप्रा क्षेत्रके मध्य-प्रदेशकी लम्बाई (१५७०९६७३.यो.) है ।।२६५०।। १३८७४१
३ २ को दोषों क्षेत्रोंको अन्तिम और दो वक्षार-पर्वतोंकी भादिम लम्बाईणव-एक-पंच-एक, छतिय - एक्का तहेब पाउ-सा। हो • विजय -दु-मजारे, मंतिम्लाविल्ल • वीहत २६५१॥
१३६१५१६ 11 प्रबं:-नो, एक, पांच, एक, ग्रह, तीन पोर एक, इस अंक कमसे जो संस्था निर्मित हो। उत्तने योजन और पार भाग अधिक दोनों क्षेत्रों तथा सुखावह एवं त्रिकूट नामक दो वक्षार-पतोंकी क्रमस: अन्तिम प्रौर प्रादिम सम्बाईका प्रमाण (१३५१५१रयो. ) है ॥२६॥ १३७०९६७१- t ६१५१६ यो ।
दोनों वार-पर्वतोंकी मध्यम सम्बाईपर-छपक-पंच-पम-त्तिय-एसकसा तहेब बसपी । मग्झिरलय - दोहरी, सुहाहे तह तिरे य ॥२६१२॥
१३६६ ।
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७१४ ]
तिलोयपणासी
[ गापा : २६५३-२९५५ :-बार, सह, पाच, शून्य, वह सोन मोर एक, इस अंक कमसे जो संध्या उत्पन्न हो उतने योजन मोर मानव-माग पुषिक मुखाबा-पत्रिकटनम लामक मार-पर्वतकी मम्मम सम्बाई (१९०५६४ पो) है ॥२२॥ ( १३६१५१९ - १५४88-१३६.५६४. यो ।
दोनों पर्वतोंको अन्तिम और दो देशोंको साविम सम्बाईरणव-पभ-अण्णव-पप-तिय-एमका साहसीमि-हिय-सर्व । बो- बाजार - कु- पिजए, तिल्लादिल्ल. बीहरी ।।२६५३॥
१३५१६०१६। ई:-नो, शून्य. छड, नी, पांच, तीन और एक, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन मौर एफसी मठासी माग प्रषिक दोनों वक्षारों तथा सरिता एवं सत्रा नामक दो देशोंकी क्रमशः अन्तिम और भादिम लम्बाईका प्रमाए ( १३५६६. यो) है ॥२९५३॥ १३६.६ - ४१-१३५९६० यो० ।
दोनों देशों की मध्यम लम्बाई-- इगि-छा-मामा-रणाम-पन-तिय-एकता सयं च बत्तीसं । सरिसाए' बप्प • बिए पोषक मामा - बोहत ॥२६५४।।
१३५०१११ । । वर्ष:-एक, बहा एक, शून्य, पांच, तीन, और एक इस अंक क्रमसे सो संस्था उत्पन्न हो सनाने योजनमोर एकसो नसीस माग अधिक सरिता एवं वप्रा देशों में से प्रत्येक को मध्यम लम्बाई ( ०१६ यो०) है ।२६५४॥
१३५६६ - mark=१३५० १६१६१५ यो ।
दोनों देशोंको अन्तिम पौर वारण्य-भूतारण्यको प्राविम लम्बाईतिय-दगि-सम-बम-बान-तिम्-एक्सा बहसरी होति । गो - बिजए तिल, गाविस वेव - भूगरम्बार्ग' ॥२६५५॥
१२४.७१३ I I
१. प... क. ब. उ. सजिमाए । २. व. . क. ब. स. रस्याए।
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गारा : २९५६-२६५८ ] पजत्यो महाडियारो
[ ७५ प:-तीन, एक, सात, शून्य, पार. सोन भौर एक, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और छिहत्तर भाग पधिक दोनों क्षेत्रोंकी अन्तिम तया देवारण्य एवं भूतारण्यकी मादिम लम्बाई (१३४०७१३. यो. ) है ॥२६॥ १३५० १६१३३३ - ४ १ ३४०४१३६१३ यो।
देवारम्य-भूतारण्यको मध्यम लम्बाईपउ-तिय-दगि पण-ति-तिब, एक सा सपं च चत-पहिय ।
भूगा • वेवारजे, हवेदि मम्झिरल · बोहरा ॥२६५६|| mastri .. Avar LATERTI ARTIN KER
पर्य।-बार, तीन, एक, पांच, ग्रीन, तीन और एक, इस लंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उसने योवन और एकसौ पार भाग अधिक देवारम्य एवं भूतारण्यको मध्यम लम्बाई ( ३१ यो• ) है ॥२६५६।। १३४०७१३ - १५७ -१३३५१३४१ यो ।
दोनों बनोंकी अन्तिम लम्बाईपण-पंच-पंच-नव-युग-तिम-एक्कासा तयं च बत्तीस । भूया . देवारो परोक्कं अंत - होहल ।।२९५७॥
१३२६५५५ । १३ । प्र :-पाव, पाच, पांच, नो, यो, तीन पोर एक, इस अंक कमसे जो संस्था उत्पन्न हो पचने योजन और एकसो बलीस भाग अधिक भूतारम एवं देवारम्पको अन्तिम लम्बाई { १३२६५५५ यो०) है ॥२९५७।। १३३५१३४ - ५५७11-१३२६३५सयो ।
इच्छित क्षेत्रोंको लम्बाईका प्रमाणकम्छावितु विजयान, आविम-मपिमहल-परिम-वोहले'। विजया - बमवणिय, प्र-कवे तस्स बोहरा ॥२५॥
*:-कादिक देशोंकी वादिम, मध्यम मौर अन्तिम लम्बाईसे विखयाके विस्तारको घटाकर शेषको पाषा करनेपर उसकी लम्बाई होती है ॥२९५८॥
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७६५ ]
तिमोयपणती
[ गाया : २६५६-२९१ हिमवान् पर्वतका क्षेत्रफलगो-पंचवर-लगि-युग-पर-मस-यतिग्णि-तिपय मंसा य । बारस उणवीस - हिवा, हिमवंत • गिरिस्स राफल ॥२६५६
३३६८४२१०५२ । । म:-दो, पाप, यून्य, एक, दो, चार, पाठ, छह, तीन और तीन, इस अंक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन बोर उश्रीससे भामित बारह भाग प्रमाए हिमवान पर्वतका क्षेत्रफल { ३३६८४२१०५२ यो० } है ॥२६५६॥
दिशा:-पुकरवरद्वीपमें स्थित हिमवान् पर्वतको लम्बाई, दीप सहरा बर्षांत ८ लाख योजन है और विस्तार ४२१00 यो (मा. २८४३ में ) कहा गया है। प्रतः-८०००००x ४२१०- ३३६८४२१:५२११ यो० क्षेत्रफल है। ........
चौदह पर्वतोंसे रुट क्षेत्रफलका निरूपणएवं बरसीवि • हये, पारस -कुम - पम्बयाण पिरफलं । होवि सुगार-दे, धोहस : गिरि - ख - क्षेत्रफलं ॥२६६०।।
म:-हिमवान् पर्वतके क्षेत्रफलको चौरासी ( ४ ) से गुणा करनेपर बारह कुलपर्वतोंका एकत्रित क्षेत्रफल होता है। इसमें इवाकार पर्वतोंका क्षेत्रफल भी मिला देनेपर पौवह पर्वतोंसे रुख क्षेत्रफलका प्रमाण होता है ।।२६६०॥
विषार्प :-जम्बूद्वीप सम्बन्धी पर्वतोंको शलाकाएं क्रममाः दो. आठ, बत्तीस, बत्तीस, पाठ भोर दो है। जिनका योग (२+:+३२+३२+++२)-४ होता है, इसीलिए गायामें ८४ से गुणा करनेको कहा गया है । यथा-३३३८४२१०५२x६४२८२९४७३६८४२१M योजन ।
इगि-युग-पर-अर-करिय-सग-पर-पग-परम--बो कमसो। जोयणया एक्कसो, बोड्स - गिरि - रुड - परिमार्ग ॥२६॥
२८४५४७३६८४२१।
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गया : २९६२-२१६३] घनस्यो महाहियारो
पर्ण:-एक, दो, चार, आठ, छह, तीन, सात. पार, पाप, पार, पाठ, और दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और एक भाग मधिक ( २८४५४७३९८४२१ यो) बौदह पर्वतोसे रुद्ध क्षेत्रका दोरमल है ॥२९६१।।
विशेषार्ष:-२६२९४७३६८४२१॥ यो०+ १६०००००००० योजन इष्वाफार पर्वतों का क्षेत्रफल = २०४५४७३५१ यो पर्वतय क्षेत्रफल है।
पुष्कराषद्वीपका समस्त क्षेत्रफस
पद-ब-ब-बउपका, सरायका प उ तिनायगाई। खतिष - णवाय मंक, कमेग पोक्सारवरस - सेत्तफलं ॥२६॥२॥
१३६०३४१६५४०९८ । प्रपं:-पाठ, नौ, शून्य, चार, सात, माठ, एक, पार, तीन, शून्य, इ, सीम और नो, इस अंक कमसे जो संख्या उत्पन्न हो उसने ( १३६०३४१८७४०६८ ) योजन प्रमाण मई-पुष्करवर डीपका क्षेत्रफल है ।।२९६२।।
विषा:-गापा २५६१-२५६२ के नियमानुसार-पुरकरा, होपकी सूची ४५ लाख यो० और व्यास ८ लाख यो० है । उसका सूक्ष्म क्षेत्रफला इसप्रकार होगा
11( १५००.००४ २) - ( ८००.०४२}] x (१०० x १० % १९६०३४१८५४०६८ योजन । यहाँ जो मेष बचे हैं ने छोड़ दिए गये हैं।
पर्वत रहित पुष्कराका क्षेत्रफलसग-सग छप्पण-भ-पम-बाउ-पव-सग-पंच-सच-पम-गवयं । पंक - कमे बोयणया, होदि फलं तल गिरि - रहि ॥२६६३॥
२०७५७६४५०५६७७। w:-सात, सात, छह. पांच, शून्य, पांच, बार, नौ, सात, पांच, सात, शून्य और नौ, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने ( १०७५७६४५०५६७७ ) योजन प्रमाण पुष्कराचंद्वीपके पर्वत-रहित क्षेत्रका क्षेत्रफल है ॥२१३||
६३६०३४१८७४०१८ – २८४५४७३६८४२१ । यहाँक से छोड़ दिए गये हैं)२०७५७६४५०५६७७ योजन ।
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VE ]
तिमोयपन्नती
। गापा : २९६४-२९६६ Pres ... ताजा RTERED एस्सि' खेत्तफले, बारस - जुत्तेहिं दो - सहि छ ।
पबिहरो वं ल, तं भरहलिदीए सफल २६६४॥
पर्ष :-इस (पर्वत रहित ) क्षेत्रफलमें दोसौ बारहका भाग देनेपर जो लम्ध प्राप्त हो उतना भरतक्षेत्रका क्षेत्रफल होता है ॥२९६४॥
एक्क-पटकक-पक्ष क पंच-तिय-यण-एक-अहु'बुगा । बसारि म जोषणया, पनसोदि • सय • कलामो तम्मा ॥२९६५॥
४२८१०३५१४४१३ पर्व :-एकपार, बार, एक, पाँच, तीन, शून्य, एक, आठ, दो पौर पार, इस अंक कमसे जो संध्या उत्पन्न हो उसने ( ४२८१.३५१ ) योजन और एकसो पचासी भाग मक्षिक उस क्षेत्रफलका प्रमाण है ॥२६॥
विशेषा:-२०७५७५vt.५६७७-२१२-२०१०३५१ वर्ग योजन मरतक्षेत्रका क्षेत्रफल है।
चम्बूढीपस्थ मरतादि क्षेत्रोंकी शलाकाएँ क्रमशः एक, पार, सोमह, चौंसठ, सोलह, पार मोर एक हैं। इन सबका योग (१+४+१६+ ५४+१६+४+१=१.६ प्राप्त एमा। पुष्करपरदीपके दो मे सम्बन्धी दोनों भागोंका ग्रहण करनेके लिए इन्हें दूना करनेपर (१०६x२)=२१२ होते हैं, इसीलिए गापामें २१२ का भाग देनेको कहा गया है।
शेष क्षेत्रोंका क्षेत्रफल-- भरह - खिदीए गणिष, पतंक बटगुण विवहतं ।
ततो कमेष घनमुन • हापो' एराव बाद ॥२९ ॥
प:-भरतक्षेत्रका जो क्षेत्रफल है उससे विदेह-पर्यन्त प्रत्येक क्षेत्रका क्षेत्रफम उत्तरोतर चौगुना है । फिर इसके बागे ऐरावतक्षेत्र पर्यन्त क्रमश: चौगुनी हानि होती गई है ॥२५॥ .
१.१....ब.स.शेसि। २. . पर।
.....ब.उ.हारिण।
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गाथा : २९६७-२६६८ ] घउत्थो महाहिगारो
[ GEE सिंगोवा :-पुरुकरबरद्वीप स्थित प्रत्येक क्षेत्रों का क्षेत्रफल
१. परतोष-४२८५०३५१४१ वर्ग योजना क्षेत्रफल । २. हेमवतक्षेत्र-१५१२४१४.५७६७१ , ३. हरिक्षेत्र-१८४६६५६२३०६६ ॥ ॥ , ४, विदेहकेव-२७३६६६२४६२२UE , , ५. रम्पककेत्र-६८४६६५६२३०६६ ॥ ॥ ॥ । ६. हैरण्यवत-७१२४१४०५७६७१४ , ७. ऐरावतक्षेत्र-४२८१०३५१४ ॥
पुष्कराके जाम्बूढीप प्रमाण खण्डभार मंदाकिनाका योकारवर । तफलं किण्वंतं, एकरस • सयापि मसीही ।।२९१७॥
१९८४ प :--जम्बूद्वीप सम्बन्धी क्षेत्रफलके प्रमाणसे पुष्करार्षद्वीपका क्षेत्रफल करनेपर ग्यारहसौ पौरासी ( १९८४ ) खण्ड प्रमाण होते हैं ।।२०६७।।
शिवा :-पुष्करवरद्वीप के बाह्य सूची व्यास ( ४५ लाख ) के वर्ग से उसीके अभ्यन्तर सूची ग्यास ( २६ साल) के वर्गको घटाकर अम्बूढीपके व्यासके वर्गका भाग देनेपर ११५४ साताकाएं प्राप्त होती हैं। अर्थात् पुष्करवर दोपफे जम्बूद्वीप पराबर ११८४ बण्ड होते हैं। यपा(४००००.२-२१.०००). १०००००२११४ खण्ड।
मनुष्योंकी स्थितिका निरूपण-- पेलि मासुत्तर - परिपंतं तस्स संघण - बिहोला । मनुवा मामुसोच के - अब्बाइन्म - सह - पोयेसु ॥२९६८।।
एवं विष्णासो समतो। प्र :-दो समुद्रों और अकाद्वीपोंके भीतर मानुशेसर पर्वत पर्यन्त मनुष्यक्षेपमें ही मनुष्य रहते है। इसके मागे वे ( उम्र ) मानुषोतर पर्वतका उल्लंघन नहीं करते ।।२९६८।।
इसप्रकार विन्यास समाप्त हुआ।
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८०० 1
तितोपपणती
[ गापा : २९६९-२९७२ मरतादिक व अन्तराधिकारमरह-पसुपर पहदि, जाव य एराबवो ति अहियारा । बंदोषे उत्त, सर्व तं एत्य पतम् ॥२९६९॥
एवं गोबरबीन साल तर अधिकार समता ॥६॥
प :-जम्बूद्वीपमें भरतकोत्रसे लेकर ऐरावतक्षेत्र पर्यन्त जितने अधिकार कहे गये हैं, के ___सर यही पर भी कहे जाने चाहिए ।।२९६६ इसप्रकार पुष्करवर दीपके सब मन्तराधिकार समाप्त हुए ॥६।।
मनुष्योंके भेदपर-राती साम, पन्नता भसिनी अपजसा । दय पबिह • भेद - दो, उपन्यादि मानुसे बसे ।।२९७०॥
॥ एवं मेषो समतो ॥७॥ भई:-सामान्य मनुभ्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यिणी पौर पपर्याप्त मनुष्य, इन पार मेदोंसे युक्त मनुष्य राशि मानुषलोकमें उत्पन्न होती है ।।२६७०।।
इसप्रकार भेदका कथन समाप्त हवा ।।७।।
भनुष्योंको संख्याका प्रमाणरूवेगगा सेठी, समिंगुल • पहिल्स - तषिएहि । मूलेहि पविहत्तो, होवि सामण - घर - रासी ॥२६७१॥
प:-जगच्छणीमें पुण्यंगुलके प्रथम और तृतीय वर्गपूलका भाग देनेपर जो सम्व प्राप्त हो उसमें से एक कम कर देनेपर सामान्य मनुष्य-राक्षिका प्रमाण जात होता है ॥२९७१।।
बाउ-म-पंच-सतह-नवय-पंचट्ट - सिक्य - म - नवा । ति-बजरक-महार, छ-क-
पं ग:--बजका ॥२६७२॥
१. प.
उ. सम्म एमत्त पनामा क.
प्रज्वं पयस तवं ।
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रहार
afely :... Fat REATE गाषा : २९७३-२६५६ ]
पस्यो महाहियारो
मभ-सत्त-गमन -गव-एक पाजत रासि-परिमा। हो-पन-सन-ग-छन्नव-सग-पम-गि-पंच - - एपकं ॥२९७३||
१९८०७०४.६२८५६६.८४३६८३८५९८७५८४ । सिय-पन-दुग-अब-णवयं, छ-प्पण-प्रहा-एक-दुगमेक्कं । इगि-दुग-घउ-जब-पंचय, मसिणि - रासिम्स परिमाणं ॥२९७४॥
५९४२११२१८८५६६८२५३११५१५७६६२७५२ । व:-चार. पाठ, पांच, सात, माठ, नौ, पाच, आठ तोन आठ, नो, तीन, चार, पाठ, शून्य, छह, छह, पाँच, माठ, दो, छह, शून्य, पार, शून्य. सात, शून्य, आठ नौ और एक, इतने (१६८०७०४०६२६५६६०८४३६८३८५१८७५८४ ) अंक प्रमाण पर्याप्त मनुष्य राशि तथा दो, पांच, सात. दो, छ, नो, सात, पांच, एक, पाँच, नो, एक, तीन, पाच, दो, पाठ, नौ, छह, पौष, प्राठ. आठ, एक, दो, एक, एक, दो, भार, नौ पोर पांच, इसने (५६४२११२१९८५१६८२५३१९५१५७१६२७५२) अंक प्रमाण मनुष्यणीराशिका प्रमाण है ।१२६७२-२६७४॥
सामग्ण-रासि-मामे, पजतं 'मसिनो पि सोहेन । प्रवसेसं परिमारखं, होरि अपग्जत • रासिस्स ॥२६७५॥
एवं संखा समत्ता ।।। भर्ष:- सामान्यराशि से पर्याप्त मनुष्यका और मनुष्पिनीका प्रमाण घटा देनेपर जो शेष । ___ रहे, उतना अपर्याप्त मनुष्य राशिका प्रमाण होता है ।।२९७५।।
विशेषाप':- अपर्याप्त राशि=सामान्य राशि – ( पर्याप्त राशि+ मनुष्यिमी ) अपर्याप्त राशि-07--1)- (१९८०७०४०६२८५६६०१४३९८३८५६८७५८४+
५९४२११२१८८५६६०२५३१९५१५७६६२७५२) नोट :---गाथा २९७५ को संदृष्टि स्पष्ट नहीं हो सकी है।
इसप्रकार संख्याका कथन समाप्त हुआ ।।८।।
मनुष्यों में अल्पबहुत्वका निरूपणअंतरवीव - मणुस्सा, पोवा ते कुरासु बससु संजेला।
ततो संजेज • गुना, हति हरि • रम्मगेसु परिसेसु ॥२९७६।। १६... क. प. उ. मगुसिरिण।
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२०२ }
तिलोयपम्पत्ती [ गापा : २६७७-२६८१ मर्च :-मन्तीपज मनुष्य बोड़े हैं । इनसे संपातगुणे मनुष्य दस कुछ क्षेत्रोंमें और इनसे भी संख्यातगुणे हरिवर्ष एवं रम्यक क्षेत्रों में हैं ।।२९५६॥
वरिसे संखेग्मगुणा, हेरनवम्मि हेमवय • बरिसे।
भरहेरावर - बरिसे, संम्मगुणा विहे य ॥२६७७।।
प: हरिवर्ष एवं रम्यकक्षेत्रस्थ मनुष्यों में संस्पातगुणे मनुष्य हरण्यवत पोर हैमवतक्षेत्रमें है तथा इनसे, संख्यातगुगो परत एवं ऐरावत क्षेत्रमें और इनसे भी संख्यातगुणे विवेह क्षेत्रमें । है ।।२९७७॥
हॉति असंखेनगुणा, लदिमणुस्सारिण से च सम्मुन्या ।
ततो बिसेस - महिम, माणस • सामग्य - रासी य ।।२६७८।।
प्रर्ण :-विदेह क्षेत्रस्व मनुष्योंसे लळ्यपर्याप्त मनुष्य प्रसंस्थात गुणे हैं । ३ ( लम्ध्यपर्याप्त) सम्मूच्छन होते हैं । लध्यपर्याप्त मनुष्योंसे विशेष प्रषिक सामान्य मनुष्यरापि है ॥२६७८॥
पजसा गिबत्तियपन्यता लबिमा अपजसा । सत्सरि' • जुत्त • सबस्या - संग मेरेसु लविणरा ॥२७॥
अप्पबहुगं समतं ।।। पर्व :--पर्याप्त, नित्यपर्याप्त और सभ्यपर्याप्तके भेदसे मनुष्य तीन प्रकारके होते हैं। एकप्तो सत्तर मायंसण्ठोंमें ये तीनों प्रकारके मनुष्य होते है 1 अन्य (म्लेच्छादि) खण्डों में मध्यपर्याप्तक मनुष्य नहीं होते ।।२६५६
अल्पबहुत्वका कथन समाप्त हुमा ।।
मनुष्योंमें गुणस्थानादिकोंका निरूपणपण-परण-प्रजाखंगे, भरहेराववम्मि मिच्छ - गुमठाणं ।
प्रवरे वरम्मि घोड्स - परियंत कमाइ शेसति ।।२६८०॥
म :-भरत एवं ऐरावत क्षेत्रके भीतर पाच-पांच आर्यखण्डों में जमन्यरूपसे मिथ्यात्य ___ गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे कदाचित् चोदह गुणस्थान तक पाये जाते हैं ॥२६८०॥
पंच-विदेो सहि- समस्जिद - सर - अन्जखंडए सबरे ।
छागणठाणे तत्तो, चोड्स - परिवंत बोसति ।।२९८॥
प्र:-पांच विदेह क्षेत्रोंके भीतर एकसौ साठ प्रार्यसाडोंमें अपन्य-रूपसे छह गुणस्थान मोर उस्कृष्ट रूपसे पोदह गुणस्पान तक पाये जाते है ॥२६ ॥
--- --- -- १.६. गुरुम्मि । २. प. सप्तरिग्जत ।
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गावा : २२५२-२६६ ] पजत्यो महाहियारो
[ ८.३ विवा :-विदेहमें यह गुणस्पान-पहला. चौथा, पाचशे, छठा, सातवा और तेरहवा निरन्तर पाए जाते हैं । गेष गुणस्थान सानतर हैं। प्रतः अपन्यतः ये छह गुणस्थान ही हमेषा पाए जायेंगे।
सम्मेसु भोगवे, दो पुनारणागि सम्म - कालम्मि । माहीमति घड डिपाम, मुख्या: सिनिमहमिम सिन्धारा २९८२।।
मर्ष-सब भोगभूमिों में सदा दो गुणस्थान ( मिथ्यात्व और असंयतसम्यग्दृष्टि ) तथा ( उत्कृष्ट रूपसे ) चार गुणस्थान रहते हैं। सब म्लेच्छपण्डोंमें एक मिप्यास्व गुणस्यान ही रहता है ।।२६८२।।
विज्जाहर - सेटीए, ति गुणट्ठामाणि सन्म - कालम्मि ।
पण - गुणठामा दोसर ग्वि - विक्माण चोद्दस ठाणं ॥२६६३॥
प्रबं:-विद्याधर श्रेणियोंमें सर्वदा तीन गुणस्थान ( मिथ्यात्व असंयत मौर देशसंयत ) तथा ( उत्कृष्ट रूपसे ) पाच गुणस्थान होते हैं। विद्याएँ छोड़ देनेपर वहाँ चोदइ गुणस्थान मो होते हैं ॥२६८३॥
पज्जताएम्जत्ता, जीवसमासा हति ते बोगि।
पक्षजति' - अपज्जती, छम्मेवा सम्ब - मनुवाणं ।।२९८४||
प्रव:- सब मनुष्योंके पर्याप्त एवं अपर्याप्त दोनों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां और मुठों अपर्याप्तियां भी होती है ।।२९८४।।
बस-पाण-सत्त-पाणा, घर-सज्जा मणुस-गविह पंचिदी ।
गदि-विय तस-काया, सेरस-जोगा विकुप-चुम-रहिया ॥२६॥
प:-सब मनुष्यों के पर्याप्त अवस्थामें दस प्रारण और अपर्याप्त अवस्थामें सात प्राण होते हैं। संज्ञाएं चारों हो होती हैं । चौदह मार्गणाओंमेंसे कमणः पतिकी अपेक्षा मनुष्यगसि, इन्द्रियको अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय, स-काय और पन्द्रह योगोंमेंसे वैक्रियिक एवं वैकियिक मिश्रको छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं ॥२९८५।।
से वेदसप - सुत्ता, अवगा - घेवा वि का रोसंति ।
सयल - इसाएहि जुरा, अकसाया हॉसि केइ गरा ॥२९८६।।
अ। वे मनुष्य तीनों वेदोंसे युक्त होते हैं। परन्तु कोई मनुष्य ( पनिवृत्तिकरणके प्रमेहभागसे लेकर ) वेदसे रहित भी होते हैं । कषायकी अपेक्षा वे सम्पूर्ण कषायोंसे युक्त होते हैं। परन्तु कोई ग्यारहवें गुणस्थानसे ) कषाय रहित भी होते हैं
१... क. ज, उ. परबत्तियमययतो।
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or ]
तिलोपली
सयलेहि लाह, संजम हंसनेह सेस्सलेस्तेहि । भवामन्यत्तेहि यखमिह
सम्मत
एवं अनाहारक
·
-
अर्ष से मनुष्य सम्पूर्ण ज्ञानों, संयमों, दर्शनों, लेदयाम्रों, अनेश्यस्व मध्यस्व अथव्यत्व और छह प्रकारके सम्यक्ष सहित होते है ।। २६८७ |
1
·
सफ्फी हवंति सम्बे, ते श्रहारा तहा अलाहारा ।
गाजोवजोग बंसन - उबजोग बुबा वि ते सध्वे ।। २९८८ ।।
गुणानादी समचा |
अर्थ :- सब मनुष्य संज्ञामागंणाकी बपेक्षा संशी चौर भरहारमार्गणाकी अपेक्षा बाहारक है। वे सब रोहित हैं ||२८||
गुणस्थानाविकोंका बन समाप्त हुआ ।
मनुष्योंकी स्यन्तराप्ति
·
संचेकजाचमाणा मनुया भर तिरिय देव बिरसु जायंते, 'सिद्ध गोमो वि पार्वति ।। २६८६ ॥
·
[ गाया : २६९७ - २६६०
१. व. क. सिद्धि २. म.उ. का
संयुता ।।२१८७।।
ते संसाबीबाल, जायंते फेड बाब
-
सब्दे
अर्थ :- संकपात वर्ष आयु प्रमाणवाले मनुष्य, देव, मनुष्य, तिर्यञ्च मौर नारकियों मेंसे सबमें उत्पन्न होते हैं तथा सिद्ध-गति भी प्राप्त करते हैं ।। २६६६ ।।
ईसाणं ।
होंति सलाम - रा, जम्मम्मि अांतरे केई ।। २६६०।।
संकमणं गवं ।॥१०॥
पचं : असंख्यातायुष्कवाले कितने ही मनुष्य ईशान स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं । किन्तु अनन्तर जन्ममें इनमें से कोई भी शलाका-पुरुष नहीं होते हैं ।। २६१०ll
संक्रमणका कथन समाप्त हुआ ।।१०।।
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गावा : २६६१-२६६४ ] पतलो महाहियारों
[ १.५ मनुष्यायुका बन्धकोहादि - अउस्कागं, धूलो - राईए तह य कहुँ । गोमुस' • सनुमसेहि, छल्लेस्सा मभिमसेहि ॥२६॥ से जुत्ता गर-तिरिया, सग-सग-गोग्गेहि लेस्स-संजुत्ता। गारम-शा को
॥२६६२।। माउस संघर्ष गई ॥११॥ प्रबं:-जो मनुष्य एवं तियंञ्च क्रोधादिक पार कषायोंके क्रमशः धूलिरेखा, काठ, गोमूत्र तथा शरीरमलरूप भेषों सहित छह लेश्यामों के माध्यम अंशोंसे युक्त हैं वे, तथा अपने-अपने योग्य छह श्याओंसे संयुक्त कितने ही नारकी पौर देव भी अपने-अपने योग्य मनुष्य अायुको बापत्ते [RET-२६१२।।
पायुबन्धका कपन समाप्त हुबा ॥११॥
मनुष्यों में योनियोंका निरूपणउप्पत्ती मनाने, गमन - सम्मुन्धि रो- मेवा' ।
गाभुम्भव • जीवाज, मिस्सं सचित - जोगोओ ||२||
पर्ष:-मनुष्योंका बन्म गर्भ एवं सम्ममइनके भेदसे दो प्रकारका है। इनमेंसे गर्भजग्मी । उत्पन्न जीवोंके सचित्तादि तीन योनियोंमेंसे मिश्र ( सपिसापित ) योनि होती है ।।२६६३||
सौर उहं मिस्सं, जोवे होति गम्भ · पदेषु । तागं हांसि 'संवर • जोचीए मिस्स - बोखी म ||REET
':-गर्मसे उत्पन्न जीवोंके शीत, उष्ण मोर मित्र ( पे ) तीनों ही मोनियां होती है। सपा इन्हीं गर्भज जीवोंके संवृतादिक तीन योनियोंमेंसे मित्र ( संवृतविवत ) योनि होती है ॥२९EVII
१.६.२. कप, स. गोमुत्ता। २. ६. ब... प. . पासनेसा ।। 4. ब. ... हिए. बोबार पर्व। ... स. अयो। १.क.ब. क. ब. उ, मिस सचितो। ६. द. सका, ...ब.उ. समा। ...ब. क... गोणीए ।
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८०६ गौर्मतॉम :- आप कीर्तन
सीदुन्ह-मिस्स जोगी, सच्चिसाचित- मिस्स विजया' य । सम्मुस्लिम मनार्थ, 'सतविजय होंति नोणीच ।। २६९५||
जो
तेलु
-
:- सम्मूर्च्छन मनुष्योंके उपर्युक्त सचित्तादिक नौ गुण-योनियोंयेंसे जीत, उष्ण, मिश्र ( शीतोष्ण ), सचित, अचित्त मिश्र ( सविता चित) और विवृत ये सात योनियाँ होती हैं ||२९६५ ॥ संसावता, कुम्मुन्गव वंसपस पामाओ ।
संज्ञायचा, गरमेण विवज्जिया' होदि ॥२६९६ ॥
·
अर्थ :- शंखावतं. कूर्मोन्नन और वंशपत्र नामक तीन आकार-योनियों होती हैं। इनमेंसे शंखावयोनि गर्भ रहित होती है ।। २६६६ ॥
[ गाया २६६५-२१६६
-
कुम्मुण्णव - ओबीए, तित्पथरा जनकवट्टिनो दुबिहा । बलदेवा जायंते, सेस अरणा बसवताए ।२६६७॥
श्रयं :- कूर्मोन्नत-योनिसे तीर्थंकर दो प्रकार के चक्रवर्ती (सकलवकी और अची ) मोर बलदेव तथा वंशपत्र- योनिसे शेष साधारण मनुष्य उत्पन्न होते हैं ।। २६६७।।
·
एवं सामन्जेस होंति मनुस्साण अट्ठ जोगीयो ।
7
एवाण विसेसाण, चोइस समखाणि भजिदानि ॥२६६८ ॥
जोणि पमाणं गवं ॥१२॥
-
अयं :- इसीप्रकार मनुष्यों की ( सामान्य योनियोंमेंसे) पाठ पोत्रियों, औौर ( इनके विशेष भेदोंसे ) चौदह लाख योनियाँ होती हैं ।। २६६८||
-
योनिप्रभाका निरुपण समाप्त हुआ ।। १२ ।। मनुष्योंके सुख-दुःखका निरूपण -
छबीस जुवेक्क-सयं, पमान भोगक्षिीण सुहनेक्कं ।
कम्म शिदीसु चराणं, शबेवि सोक्स च तं च ॥२६६२॥
सुख-मुक्त्वं गवं ।।१३-१४।।
१. व.क. . . बिना। २.८. . . . उ सलिय १. ब. उ. डिदि । V. X. T. §. 1. 7, gtą i
५. द. ज. सुक्या
६. द. . . . व. दुषख ।
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त्यो महाहियारो
वही
पाया : ३०००-३००३ ]
[ ८०७
अर्थ :- मनुष्यों को एकसो एम्बीस भोगभूमियों ( ३० भोगभूमियोंमें मोर ६६ कुभोगभूमियों) में केवल सुख और कर्मभूमियोंमें सुख एवं दुःख दोनों ही होते हैं ।२६६६॥
सुख-दुःखका वर्णन समाप्त हुआ ।।१३-१४।। सम्यस्व प्राप्ति कारण
के परिबोहणं, केद्र सहावेण तासु बहू
जावि भरणेण केई, केद्र जिपिदस्स महिम - सणदो । जिबिंब दंसणेणं, उवसम पहूवोरिंग के
-
भूमी
सुहव केंद्र मदुस्सा बहू 'पयारं ॥। ३०००||
-
·
-
रोहंति ।। ३००१ ||
सम्मतं गवं ।। १५ ।
किसने ही स्वभावसे, कितने ही कितने ही जिनेन्द्रभगवान की
पर्व :-उन भूमियों में कितने ही मनुष्य प्रतियोधनसे, बहुतप्रकारके सुख-दुःखको देखकर उत्पन्न हुए शातिस्मरण कल्याणकादिरूप महिमा के दर्शनसे और कितने ही जिनबिम्बके दर्शनसे अपशमादिक सम्यग्दर्शनको ग्रहण करते हैं ।। ३००१ ॥
सम्यक्त्वका कथन समाप्त हुआ ।।१५।।
मुक्तिगमनका अन्तर
एक्क-समर्थ जहणं, दु-ति' समय-यहूबि जाव छम्मासं ।
बर-बिरहं भर जगे, उर्जार सिम्भंति अड समए । ३००२॥
·
म :- मनुष्यलोक में मुक्ति-गमनका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उस्कृष्ट भ्रन्तर दोसीम समयादिसे लेकर छह मास पर्यन्त है। इसके पश्चात् बाठ समयों में जीव सिद्धिको प्राप्त करते ही हैं ॥३००२ स
-
मुक्त जीवोंका प्रमाण
पक्कं असम, बलीसडवाल सहि
यसवारे चुलसीवी मज चरिमम्मि घट्ट अहिय सयं ।। ३००३ ||
१६.... प्यारा २. प.निति । ३. ६. दुनियस । ४. द. ब. क. ज. उ. बुपे ।
-
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६०८ ]
तिलोयपणती
[ गाथा : ३००४-२००६ सिम्झति एक्क - समए. उपकस्से अवरपम्मि एक्केव।
मझिम - परिषदीए, बउहरि सम्म - समए॥३००४।।
पर्य :- इन आठ समयों में से प्रत्येकमें क्रमशः उत्कृष्टरूपसे बत्तीस, पड़तालोस, साठ, बहत्तर, बौरासो, पानवे और अन्तिम दो समयों में एकसौपाठ - एकसौसाठ • जीव तथा जघन्यरूपसे एक-एक सिद्ध होते हैं। मध्यम प्रतिपसिसे सब समयोंमें । ५९२- ७४) चौहत्तर-चौहत्तर जीव सिद्ध होत है ।। ३००
तीद - समपाण सम्ब, पग-सप-बारपउदि-रूप-संगुगिय । अर'- समयाहिय - छम्मासय • भजिदं गिरावदा सम्वे ॥३००५॥
म। ५६२ । मा ६ ॥ स - 1 एवं मिनि-गमम-परिमाण समरी ॥१६॥ प –प्रतीतकाल के सर्व समयोंको ( ५६२) पांचसो पानवे रूपोंसे गुणित करके उसमें माठ समय मधिक छह मासोंका भाग देनेपर लब्ध राशि प्रमाण संब निवृत्त अर्थात् मुक्त जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है ॥३००४॥
(अतीतकालके समय ४ ५९२) ६ मास ८ समय = मुक्त जोर । इसप्रकार सिद्धतिको प्राप्त होने वालोंके प्रमाणका कथन समाप्त हुआ ।।१६।।
अधिकारान्त मङ्गलसंसारणव'-महणं, सिलवण-भवाण "पेम्म-पुह-चलन। संवरिसिय सयलहुँ, सुपासमाहं णमंसामि ॥३००६॥ एवंमाइरिप-परंपरागय -तिलोयपन्नतीए मगु - जग'-सस्व-
णिवण-पणती नाम बत्यो महाहियारो समतो ॥४॥
प्र:-तीनों लोकोंके भव्यजनोंके स्नेह युक्त परणोंवाले समस्त पदापोंके दर्शक और संसार-समुद्रके मथन-कर्ता सुपाश्वनाथ स्वामीको मैं नमन करता हूँ ।।३००६॥ इसप्रकार माचार्य परम्परागत त्रिलोकप्रप्तिमें मनुष्यलोक स्वरूप निरूपण
करने वाला चतुष-महाधिकार समाप्त हुआ ।
१. इ..क.ब. ३ प्रारमयाबिय प्रभासयम्भि भजि विम्मदा। २. स. ब. क. समत्ता। ......... संसारमगपाहणं । ४. व. ब. क. अ... पेम्मदहजमणा । ५... क. . . परंपरायम्य । 1... ह. अ. उ. पवाणिती बलसंपणती।
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* गाथानुक्रमणिका New
पापा
गाथा
गामासं
अदामोससहस्सर
२०१४ २६६१
२३६१ २४१०
अनुत्तरिता मसरि महस्सा मट्टसास सहस्सा पटुत्तामा वा प्रत्तोस सहरमा
महाराष्टं सरा
१७२३
पट्टानीसुतरखन
४०१
२२७
CU
४२.
२५२४
पाइमुसशण नवगा पामेन्या से पुरिसा माविट्टि पक्षाविष्टि पाट्टिपणानही महदुंबरफल सरिसा भवपत्तिकी मसर मापार रामसारमए प्रबार भएकरपर मस्कार माजेले पाडा मणवाया मरखोपमहालिया पदिसाए सादो प्रमादि एक-दसमासे मच्छरसरियस्था परियजिण पुष्पचंता महापंम्पिटिदा पन्छण मणीकामास पाएकाएपमा घट्टच ठसप्तपणन पट्टम्पियनोएण्या पाचपटुपपदो पहलवणबतिपाउ प्राबधुप्रतियपण पट्ठसहसारिण पदागे सुष्णं पट्टातियणमहो पट्टणमणका प्रतियोगिए कंबर भतार महियाए
२३०९
१२१ २९२९ २८.
प्रदरहियसहस्त्र पट्ठमए पहिला मटुपए इपितिमया पट्ठमए पाकनवे परसबोयरगारिए महरस महामासा मटरसमहस्सारण पद्मवचावतुगो
दुसया पुष्पपरा पटुसहरसम्महिनं पट्टमहस्सा बदेसम अट्टाहस्सा रस रहाण एकममी पटारा अमोणं महारस कोरोमो भट्ठारस मासाहिब मट्ठारसा असा मद्रावणमयारिए महापससहस्सा पदावोस पीस भट्ठामोठसयाणि महाबोसतहम्सा
१९% पट्टासोहि सयाहि १२२५
मट्टिबिवतिगवण २६१७ १४४४ प्रत्तरसयमेत
१७०६ पतरसवमहिमा २७८४ पतरसप।
10१४ १४१५ पट्ठस्फवष्टुतिये
२०५१ पटून बघा मोषक १४२२ भट्ट य दोहन पाचपासम पारण २५.४
मरबोयण सुगो २१७७ २०१४ मारमोदिगुण २१२२ मण्डविपहियणपसब ४
मालविलया भोगी ११२. १४०२ भनयमाकेयकल २९४३
मडसिपणम भाषण २९९७ २११३ प्रतियणतिय पलभ २१.१
भारतिय समनमामिपरा २६७६ १८०० पलास प्रोही
माध्यामसहस्साणं
मरपणागि पन्चप्पए १९१२१- परमाससमाहिपाए
मालामपुच समर्माहय
मौसममंगाहिय १२६९ २२५८ । मडवासपुण्यप्रंग
२७४० २६.
१९१२
२०२७ २११२ २५.५ ICY
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________________
___८१० ]
पामा -
२५६५
पातरम्मिदोरा पातरमि माने
२४७६
२३१६
गा।
भाषा सं. पहिराणि गोये माबिरा दिन तल्ली विसहियापुकार प्रमुबी भाजणी अस्सनमुक्कावर ७०७ मास्सग्वीवो तार " तारम
५२६ यस मुगन्हिसि 15 पासपुर मुक्काम १२.४
सपुरो मिहपुरी २३२६ मह रद तिरिए पसरं प्राइमद तिरिय पसरे मह को मिमुरदेवो १२२५ मह रिणशियणपरेस महतोसकोसिस मह वस्थिरएभाएग
२४५५
मन्मतारखेदोदो मभिहाणे म सोमा माभियोगपुरीहितो पममं पासीदिमुख अमरारमिरथम मा अमवस्तार नाही पपया सक्रीसो पमिदमों तदेवो भरविणामा परजिसरिदातर परमल्लिांतराने परसंमबिमाविणा पवणय घडलममायो मकर विवहसमुम्भव प्रवरविरहस्मते मबराए तिमिसगुहा प्रबरासाराम भवरा हिमुहे मानिस मथसपिरिण उस्मपिरिण
गाथा मासपणयबाउनहग २०१७ मस्सयमकसह १२॥ प्रासादियोसहि प्ररसोदी मगसोदो भारतिमुशी २३१२ मरणमादि बिदिसा २५३५ महागजुत्ताकुलहीण राजा१५५६ परिशदाएपदा सम्वे ime प्रणिपाहिमामधिमा १.५ मणिमतिमासू सवर २७७२ प्रणुतणुकाणे परिणमा मदाहाए पुस्मे
५५ अणुबमस्वस एव प्रणा एवस्सि मम पस्कोणं अण्णं बह गये माणे बिबिहा भमा प्रत्तो पारण मुखियो १५३७ परिव सवरणमुरासो १४३८ परिय सभा अंधारं माविमोवाण माणं परिमाराईटबदा वे मदिरेगल पमाणे
१२७२ प्रदिरेयस्म पमाएं पर बिहादो १०४ मदासम्म सायर पशिषविदेह प्रसंग पमाणेहि अपराजियापिहाणा प्रविमो जीवाण मध्यविसिकरण गंगा सम्भतरपरिमाए प्रमंतरवाहिर मम्मनमार्ण
१८५ २७
२६५६ २०१७ २२२९
२५१४
Y८६
४६
કરે,
२८.1
घबसयिणीएए पवतप्पिणीए दुस्सम प्रवसेस काम सपए पबसे सवारगमरमें अबसवणलामो
२५८६ १७१६
मह पमपाकट्ठी १२११ महमवेदोमो पाह मरहस्यमुहाग पाहमिरा देवा ७१७ पाइया इच्या गुरिदा २०१० महमा गिरि रिसाणं १७७४ पाहमा दुमपमुई भहना दुपएप्पी
1080 , दुक्याटीणि महवा हो हो कोमा महमा ममाहीहिं १० पहवा दोरे सिंह मह विषयविति मतो महबतिय परविण मह साहिए की माह सिरिमायमूपी पहिच तिषियनर ४८२ सकायारा बिजपा
भबसे सेस' चउनु अविराहिए और मधुकाए १०५२ बिराहिश जीने
१.४० १.४१
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________________
१९
।
गायानुक्रमणिका
[ ११ पाषा बाबा सं.
वाचा अंकायारा विजया २८४२ प्राविममरिझमवाहिर २६.२ पगिवोससबभार १२७३ अंगवरिया गाणा
मिनीसवस्मतामा मंजणमूसं कराए २८११ पादिमत्यवहाक
धविधीसमइसाई अंतरदीपमणुस्मा २९७६ माविमसंतागजुवा मंतिपदेसाई मादिमावजुक्ष
१४२. मंतोमुत्तमबर २२५१ प्रामरिसखेल यस्ता
हगियो समस्थाणि अंघो शिवार व पामासयस हेवा
दगिसपनु सहम मंबर महणबद्ध
२६८१ माधामो पणा
गिसय तिष्णिसहस्सा १२४ मंहरबस्तत्ततिप...
सातप... २५६४
HTTER: मा इ मंगाएगा
निभावरविवसहस्स मायालरभरापंपरा
इगिहतारिखता
१०२४ मंबरचेक्काक माह कए गंगा
इम्साए गुणिवामी २०७४ माहिप नभु
८८२ इण सेस पिर मा सत्तममेक्कस
रमणोषणासत्ता पादुकोषिमाहि
पासाउबहुलदसपी
६७.
इम सत्तरम्भिमरहे मारटुकोरिसंवा १७. पाहारवारिणश्या
इन पश्चिम भरहे १३४ शक कुमारन पाहारसम्भगमता
इस पहदि गणपणे पाक हेवो मुसी
२.२४ १५६५ माहारामया
मुबारपिरिदास २५३ पाऊ बापाय
सुपारगुणियजीवा मासिकमविभोर पागन्धिय इरिकन
समार पहागि २६३५ १७१४ इति पावणपणतुम २७६१
२०६३ पारण शियते
इनिकोपिणRANT५७. हक पारिया पासूरातको सा दगिकोसोवयवो
वह मोगे वि महरूम ६४३ मासार कारिणम्रो मागाएकी १३५९ इमिलिविजयमकस्प २३२९
इमिषतिपणमगपत्तिय २६४ ईसाणदिसाय सुरो २८२५ मात करोपमरणम्पत्तोपो ९४२ इमिसकएस्कणभरण २६५४ | माणदिसाभाने १७५३ चादरपणावराएं इमिणषि सक्क्षाणि २७८३
१७६८ मावि भवसाणमम्मे १९. विमपणपत्रमबदुष २७१८ . माणसोममाड्द
इगिणवसिषषहो २०४१ भारि जिएपशिमाभो
इगित भरतिय २६६१ प्राक्सिरे वेदि इगिपणांगनत २९३१ उपहासधारणाए
९५७ पाधिमकटोबरिम २०५५ गिपणहगपरपणपण माधिम बिसु पुख- ७४ बगिपल्लपपाणाऊ
उसस्सोषसमे मानिमिणमा
गिलासमाहर मावियारिहिप्पडयो २४७ इगिखं नालोस
१०७६ मानिमपीछे हो इगियोसपुम्पलाना
साकस्सअप
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________________
८१२ ।
तिलोयपणती
गामा.
माया जस्किना पायाला समाता वित्तसबा उग्पडियाचारगम उच्चदिव्य सेस्तोग उदो धीरो बोरो उन्मुमो सो पम्मों वेश पत्याला छह पाविरिया उच्च जोयणेएं सन्देहपरिक्षीणे
१.७७
६३८ १२८९
२१७६
३९९
गाचा
भाषा सं. चारो बिमाणुशोत्तर २८.. उबयमपाहवि सम्ब नवसावाविर चबमबेदीजुत्ता १६८५ उबवणसं युवा २१. सरहि जबमा उबुतो १५५३ उहि उबमाण एटयो १२५३
बहि उवमा मणके उबाहि जवभागठिाए ५७६ उही तीस वस एव १२५२ उसहरियो रिणवाये १२८७ उसहतियारणं सिस्था १२२९ हमयिक ARE उसम्मि पसंद ८३. उसहामि दम पाऊ उनहापिसोलमा ससहावी बउवीस उम्रहाटी पासा उसहोमोसदियो उसहो प बासुपुष्यो १२२१ उस्सपिशीए पवारे १५ उम्सेवाग्दे उम्सेछ भारतिस्पयर १४३
१६५५ २१०७
७२०
माथा
गाथा इतरदक्जिरलडोहा
२१५ उत्तरदहिएभरहे सासरदारवरणमा
२८१७ असरदक्षिणमा उत्सरविसाए देखो २५ मराखिसा विभाने
१७९० उत्तरदेवकुम्म उत्सम रिम शरिय बाहिरणीयो उपयोपवीए चवएण एकको स अवको वामेए गिरी २४९१ सापो बगाभासो २४९४ वयं भूमुहवास
१६८० नपवस संश मझे १७६० उपनिट्ट सपत्रमा उप्पजण कारखंतर सम्पत्ति मंदिरा २३४५ सप्पशी मवाणं उप्पात गुम्मा लिया उप्पादा मानोरा उभयतरयेदिमाहिदा उवदेवेण सुराप स्वमातीदं सारण बरिमजमस्त गोवण २४३५ उमरिममाना उअमल ཅང उरिम्भिकंचममनो ११ उपरिग्मिणोपिरिणो २१४१
२३४६ उपरिस्मि ताराकम सो २४६ उपरिम्मि प्राणुमुत्तर २८.९ उरि सुगाराणं २१७८ सरि पमस पट्टलि २९७६
उम्पपी
च्हमाझ बस सहवामपदिनु सम्मेहबासपवि
त्वासपहदो सम्मोहवासपरिसू उन्हाऊदिसु उमेडी दहारण सन्ही के कोटा पचाराबरणसमिक्षा उखाणेहिं मुशा उद्योगमभायण
६८२
२२८२
७४
२६.
गढ़ कारहाणी २०१४
र सवि उरणातीस सहमहाहिम सणवण्यादिवविरहिव १५६५
एवम्यासहस्साणि सपीसमो सयंभू उणवीसमा बस्सा १४१० जगबीम सहस्साणि
२८७१ उगसीदि छहस्सारिए
एकपउपक २६५५ एकपउसोसमा २६.७ एमक व पट्ट पण एक्कम छससपगमय २५५३ एक झावसमएका २६०५ एकहपएल्के एक्फत्तरि सहस्सा एकत्तानसहम्मा २८५० एकताल ससा २७७ एमकतीसहाणे एकभीमसहस्सा २०१६
उत्सम भोग महोए
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________________
गापानुक्रमणिका
[ ८१३
६६
१३६५
. पाया बाबा सं. । गापा गापा सं. गावा
गापा ६० एक्कासि वोरमा
एकावण्णसहस्सा १२३५ . एक्स्स स्स पुर्व २७६ एक्काहोशिषिहत्पी
। एपितफले एकरसतेसाई ११२३ एस्केकाममा ७६१ | एकशीस पायरवरे एकरस सहस्सामि २१६७ एस्केकगोउरावं ५४५ । एवं परसोदित
२६६० एस्केरकजुगारपर्ण
एवं विपनवणिवं २७५० २०७३ एक्जोयणंतर १३५१ एवं पिस पाउगुणिये २७५९ एस्करत सहरसूणिय
एकविसामाने २२९८ । एवं जिगाणं गणतया २५ एफएम होति बद्ध १६४२ । एक्केपसमा १४११ । एकाए बोलाए, एक्करसोय सुधामो १४९८ एक्के काम पाहस्स . २११९.. एडापो एपरीमो
१२. एकपरिण नही : -
Ri
एदायो अणणामो एक सएणपहियं | एक जिणमबरणं
२७E0 एकसमयं जहणं
एकाए उवयम १३ एमाण काममाएं १५७८ एकत्रयं पावना २५२२ एक्साए पट्टम
एवारा सिस्वेतारणे २४१२ एक्कसहस्सनुसया
७६० एवाएं सिणवा २८४४ एक्कसहसं मास
एमका पो ८६६ एका पाराणं एक्कमहस्सं गोजर २२९६ एक्स्कार को दो
एका गाएं एक्कसहास पाउसप एकमेक्का तो २५७५ एवाय पत्तएक
२०६६ एक्कमहासं तिलय
एककेसि गृहे
८२५
एषाणं परिहोमो २१०४ एक्कसाइस्स पणसय एकको कोसो दंगा
२१३१ एक्कसहस्मा सगरप ११६२ एककोरिचय देगे २८३ एवारा रचियूणं २२४ एक्के को बातो १९५४ एकको बोयणकोही २८०२ एकाएं मणि
२०३५ एक पिक होरि पर्य २०७३ एकहोगतीसपनिमाग
एवाए सेनाएं
२५६८ एक पेष सहस्सा एक परिबिसेसो
एवामि मासाएं एक सहस्सा ११४२
२०६७ एदे बसविहे २२४० ११४८ एसकोणवीससहिद २६७० एदै बगवरदेवा
E७६ एक जोयणलाई एपको पइ रहरेण
एवं पपदंतनिरी २२३० एक्को र मेक कूम २४२६ । एवे बोररवारा
एक्कोकमगुमिका २५२४ एवे उपस मगुपो
२६४६ एमकोकोसणिका २५३४ । एदे विगिदे परहम्मि देते एक बाससहम
एस्कोकणा गृहामु २५२९ एदे व परिसस्त १४३५ एक्कापडरिसमा ११३. एत्तियमेतवित Y०५ एवे तेसट्रिगरा एक्कारसा
एवं पारसचाकी १२९३ एमकारम पुमारी एकूण पेखरगाई
एदे सामपानरस्सा एकसारससवाणि एतो जाव पणतं
एवे साये कहा एस्कारसिपुरबहे एतो समायपुरिता
एवं सच्चे देवा
२३४९ एबहारसे पदे १८२४ एसंसास पुट
५८ । एदेसि दाराणं
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________________
८१४ ]
तिलोमपाती
गाथा गाचा सं० । गाया बाबा सं०
मापा एदेमु पदमपूरे एस मश भीवाणं
कहमपबहणीभो एवं मंदिरेम
एसा जिनिवपडिमा बमाणं ११६ कपाठवलक्षता
एसो पुम्बाहमुहो१८१ कपमताभूमिपणधिम एदेमुपसेवक
कम्पतरूण पिणा, ५०५
मो एसेसु भवणे'
पप्पक रूण विरामो १६३९ एवं हेमापुणतबगिन मोसम्मत भूसम
कपातक सिमस्या ६४६ হিলিশ।
मोसहणपरी तह २३२१ कम्पपुर्माणवर एराबविबमोरिव २५१४ घोहिमणपश्यवाण
कप्पदामा पणा एमासमानणवत्ती
इप्पाह परिवेरिय १९५८ एक मिगिवीस को
हप्पूर वापरा एवं पररातखुत्तो ६२६ ककिको मानवंबर १५२६ कमलकुसुमेसु तेनु एवं भवसेसारणं
कषिक परि एक्केको १५२९ कमतवणमंशिवार एवं एसोकामो
३१३ कमम्मि महामेधा २२४४ कम घउसी दिगुणं एवं कन्वर वियो २३१६ कविजमिम विविध २२७२ श्रममा पकिट्टिमा १७१२ एवं कमेण मरहे १५७२ कच्चाप्त य बहुमको २२८३ कमोरर मणविहा
१६७८ एवं कामसमुद्दो २७०५ महासमुहाए
को अकाली १४२१ एवं गोममम १५१५ कच्छादिष्पमूहारा २९२२ फरसो बाइक तिह एक समकामे
कच्यादिमु विजयारणं २७२८ कमसी पप्पादौरा २३२० एवं परमबहादो
२१२३ कहाणीए चरि १८०६ एवं पहावा परह से ।
२९५८ कम्म पौगोम दुवे एवं महापुराण
कच्यादोषियमारणं २७४७ कम्माण उवम्मेणय एवं मिस्सास्ट्ठिी ३७४ मा मुसा महाकन्या २२३२ करपरणतनपरिम एवं शासनहस्से १५२८ कठ्यकशिपुतणेवर
एपस्विस गि एवं पोमीणे १५७ कामो कणपप्पाह
करिवरिपहाण १०२५ एवं समसगविजया २८५३ कामगिरीएं सरि
करिहरिमुकमोराग एवं संवेणं
१९६० कणएमयो पायारों २२९५ करुणाप पाहिरामो २०१२ प्रणयब जिरवलेवा
कलुसीमाम्म मन्दषि ६२८ २०२५ कसिकिरहे मोहसि १२१९ कहारकमावस
२७६१ कसिय बहुमसते १५५२ काहारकमलकुयमय एवं वामांगेसु
कत्तिपसुक्के लगिए एवं सोलसभेवा
कत्तिपम पनि
६८८
कंबणको गिवसह
१२०५ कंपणिहम्स तस्स प ४९१ एवं सोनस संसा कत्तिपसुक्के पार
चमपाधार तय एवं मोसम मरे करम वि वर बावीमो
कंबणवेदी सहिया
१४५ एवं हिसर्व पाहम पिणास १६१ करम वि हम्मा हम्मा
कंबणाममणो ४७८ एक बात महफूटी २००५ ।
EY.
करनसोवाणामो २३४०
FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
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________________
गायानुक्रमणिका
[ १५
पामा
गापा
गावा कंटकरपहर कंदो प्ररिस्परा कपिलपुरे विमलो
गापा सं० । पापा
गाथा सं. । कुंजरतुरवमहारह १७०५
परपहदितर्हि १५०७ हिमगिरिम्मि परिमो १४९१
ममेमबहारा खणसंसरिया २४२२ उस क्विणणं कुर पीजो हेलो
१६०६
सणमेसे विसपमुहे मातिय नाविनसंसा पायवाढीणपमारणं अथवाढीणपमारणं मंणमिणवदुषण
२०५६ २४३४ २६८२
काण दार सर्व काणमंतरावं कामप्पुण्णो पुरिसो कामातुरस गदि कामुम्मत्तो पुरिसो कामसयस भूवं कामप्पमुहा गाणा काममहकाम
१२४२
८०३ २२४२ १६-३
७४७
१९९८ १५२
कामम्मि मुसमणा कामम्मि सुसमसुसमे कामसहायरमेणं कामस्स वियम्या बामस्म हिकारादों
१६४२६७३
संधुन्यहो कोसा पाइयरवेत्ताणि तदो लोरीया सोनोवा खुल्लाहिमवंतकूलो खुल्म हिमवासिहरे सुरुमहिमबरसेमे बेताची प्रतिम मेमंकरचदाभा बेरकरणाम मण खेमाणामा गरी खेचरमुररावे हि
१६२५
२८२
२०५२ १७८१
४.६ २२६४
४५७ ४६३ २८६ १४०४ २७१२
कुप पाउनके कममौ
संसदमा करम्मि य वेसमणे कूडागारमहारिह कवाण स्वरिमागे
गयां उन्हो कहाणं मूलोरि कूठाणि गंधमादण को सिको णिमहो केइ परियोहणे
केवमणाणवणफसवे | सरिवड्यात उतार केसरिमुहा मगुस्सा
सरिषसह भरोकह कोहलकायलमरिया कोहलपहरामावा कोठाएं खेताको कोहितिय गोवा कोहिमामा पक्ष कोदंडयासमाई कोमारपंसित
२३६४ २५३६
२७०५ |
२५१२
२३४८
१८४१ ३११
२५६३
कालस्साणु पिण्णा कामे विणारा कासोदामीको कालोबहिबहुमो हिनिलभियोगाणं कितीए गणिया किवणणे पणा कुक्ककोइसकीरा कुमावामएवषाणो . मुषकुमुदंगराउदा मुदं परसीविहवं अम्पुष्पदयोजीए कुसमिरिरिया प्रार कुलजाईबिग्गामो कुलशारणादु सम्छे कुसलादाणादीसु सकरपोरभूयो
१२९
१५६१
१२८०
गच्छेदि बिगपण गम्भादो के मा गयबरषस्सत्ता गपणेबामणवपंचम गवताय गाडा गारव्यं सिरिट गहिऊण गिय मरीए गहिंदूर्ण मिलिन गंवागईग पिग्मय मागई। सिंधू मंबातरंगिणीए मंगामहाणीत वहारोहीहरिमा नंगासिघुगई हिं मासिधुणवोर्ग
१४३८
२०१
२३७
२१९४ कोमाररममदुप्रस्थ
कोमागे शिणिमया कोमारो दोणितमा
कोमडी भवनातो २३०६ ] कोहास्विकारणं
२६६१
२६९ १५६८
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________________
विलोयपणाती
गाया
गामा सं०
जापा० । गाया २३२३
पापा
पापा से जागरणगागिसंग २९०४ बजरगषपणबउसका २२४६ पतिया निरतियं २९५६ चउत्तौसमइस्सानि २२६४ पाउती सतिसय सजुम १३७ परतोरणापियुषा २१८८
पडतेहलासंगादि पणरकम्पम हासित १५१० बसिरगिलुवा १०१३ घंटाए कमवासी धारिणरिम मुदणाणा घाणेक्स्सायंरोपी पादिवसाएग जादा ६१५ थोराणिपरे १२२२
तोरणाबेदीयुको
चंगासिषगामा गंमहिसराहा मंतु पुस्यादिमुहं गंतण वोवभूमि गंतूमयममुही गंतूरणं सोलार गंतुणं सा मझ गंधामणवरणासे बामणदिसम्म पामारणं छपण उबी गायंति पिणिवाएं मिरिसक्यघउम्भागो मिरिजरिमपासा गिरितच्योहार गिरितहदीवारे गिरिवहमपदेस गिरिमसाप्तविजया
1००१
२१२२ २७५ २२७ ५६५
२२६२
उतोरणदीहि पउतोरणेहि जुत्ता पउतोरोहितो पनवालपमापाई बदामसयाबीरेस पउपाण्यामपहरिय पउपंचएक्काजगि पउपुराजुदाई
२०१५
२६YE २६७५
१३७३
१७३०
कनपुष्यंगथुदामो
२०६८
पउपुम्मालाहिया
१२६४ १२६७ १२६८ १२६५ १२५६ ११२९
पाइपूण पउगरोयो ६४२ पउपमयकतिपतियपण २६८३ परबपञ्चमत्त २९७२ उमरखोदुगदुखणे बामिणरपणोदो २७४२ पउहनियुगपरणसगाम २५२१ चर एक्कएक्कन प्रदाणम २६१६ चचकोसदमा बजगोउरवारेसु
७५३ पउगोतरसंचुसा
. उगोउराणिसाल उनकदमपंप य २७७३ पाउमाकपंचरणमछ २६५२
उजुत्तमोपणसएं परमोगराउण्वई १८४१ चजजोयएउहा रउजोयामाणि
४१५
नौकरनेसु सोरी . गुनझामो इदि एदे गुमशीवा पज्जती गुणारगुणेमु पत्ता मुनिपूण दहितको मेबस कन्नर बोउरतिरोटरम्मा गौरबारमग्में गोसर दुबाराम गोरेरिकारिमयरा गोधूमलमतिलजव गोमुहयेसमुहक्का गोमेवपमयवंश
३७१ २५६२
추목독
पउरंक सारिका परहिया सोपी चाउ रंगुनंतगने परंलमेतमाह पाउरासीदिलबम्सा पड़ समसादी सोहसु
१०४६ १२४ २६५४ २६५७
१२५१
२०१६
२५८
पउगादिसया प्रोही पाउदिसहरसारिण
घबरस पहिया रउवम्णासवकपंचम पउवा तौमणवर चवपणम्माहियारिंग बजयएमवयम्छर चउवण्णसहस्सागि परमानीमापुरे
विदिशाम हा पीस जनहिखंडा
२२५२
२२५५
गोवदमहावाखा गोसौसममयर्थदण
७४६
परभण्डपरणपण्गुण बउराभणबगिरण पउनयबरपरामग
२६००
3
૨૦૨૨
२५६५
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________________
गावानुक्रमणिका
[ ८१७
गाषा.
बापा पठीससहस्सारिण
गाया सं. |
१४०६
गाथा पत्तारि सहस्सा सब
॥ सहस्साई
२.६५
१९१४
पत्तारि सहस्साखि
२६६२८४३
३४
गाणा
जापा दुलमोदि सहस्सारिण पुषसोगिहा मा २९६ चुलसीदो बाहतार १४३३ चुत्न हिमशारे २१४ प्रमियक्तिबाए १६५९ बेवि सेसु परेमु २१९. नेवि बारणे बेट्टति उपदकाना २७७३ अट्ठति तिमि तिम्ण म २३३३ पेठति बारसपणा ८६५ पेटति मामुत्तर २०१८
२९६८ छेदि कन्यामी २२६० ठेवि दिसतो २१२६ सतमणं पुरदो १९३४
२५७१ २४३२
२१५४
२१२७
पसारोत्तारो २९३३
पसारो पायासा ४०१ | दुहबहुमुहमरस ४२१ परियट्टामयचास २६१२ परियट्टानपपठरा २८२ परिपट्टामयरामा २६९३ । चरियट्टामायविरमा १२४८ पंडामतबरवाणा १२४५ | समापारी :-- १२४६ पहपुप्फर्यता
पंदपहो वपुरे १७. अप्पह पस्मिविणा
बंगाहे सम्पगदे
भयो म यहादी ११०६ पाए वामपुरखो
पायरषंटाकिकिगि
८.६
पउवोस चेय कोसा पकोई वाकारण पउवीस विषय पंचा पउमगसगणमा परमद्विषामरेहि घटसट्टो पूढोए परसम्णा जातिरिया पउसतएकदुपार उस टक्कदुर्ग उसकोपिट्ठ प परसबषुषसाहसमा पसपमसहस्सागि उसपसबसहस्सा उसासावीमो घउसीवि परि पसौविसमगुणिदा चासीदिसा ग्रोही परसोनिसहम्लाई पउसी दिसहस्साणि उसीदिहदलवाए उसोही कोहीमो चमहरमाणमयो पक्किम विजयभंगो बरीण चापराणि पाकीण माणमपरणो पाको दो सुनाई कम्पतिपहिता पत्तारि पबिधासु' चत्तारि जोषणाएं पत्तारि सयाणितहा
१२०९
पेसस किहपश्चिम पेत रहुलपरिये रेतरस व समासे
सस्स मुस्फब्रहो देतस्स सुस्पतपिए
४६
७.२
२०२
१२००
१५.
२७४६ | सामरपाहुविसुराणं २३१८ पामीयाबरवेदी १६४० बEVRAuो १३९५ | बारणवरोगायो
२७२ पालीस जोपणा १३०२ चालीस सहस्साणि १३१५ पाकारिण सहस्सा
६७२ १३९८
१८१८
चेतम्म सुस्कदममी घेत्तस्स मुखपंचमि अत्तासिवरणबमोए
तासु किव्हरति बेसासु सुबष्टी पोतीमायणं कोट्ठा मोत्तोसापिसगाप मोहमगिरीण कर पोरसग्रहापो तम्सि घोरसबोपगला बोमरममहिए बोइम मयस्सहाता पोइससहस्सोय। पोहमसहस्ससममम
८९०
२७९६ २०६१
E६६
चित्ते रहतपरयो वितोवरिमामागे
६०२
२४३० २५०४
१६३
पतारिया पणा
१९६५
चितिपरिवं
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--------------------------------------------------------------------------
________________
८१८ ]
तिलोयपण्याती
मावा
माया
२९३४
२४२४
१२
२५६८
१८२२ २६२२
२१०७ २११४ २१२४
माचा गावा.
माषा - पोमटुकमनमासो १८९२ छटोतियागिपरणबद्ध
मनीमम्भतरम भदौतियनगमगपण २७००
अप्पणइपिछत्तिबग २७३७ जीवरिममाये घारापंचमतं २७४५ बापशवहिसासु ६२३ बनदोरगरिमा पासोमा सचे
छप्पणएवतियाविन २७४५ जगदीए मम्मतर सस्केक्कएबमादुग २८५८ सम्पासहस्सागि २२५३ जगीवाहिरमागे पायकवोग्निणयागिपए २६७४ छाम्पसहस्सेवि १७७२ जगविण्यासा चमक छप्पर गवाहिम २४०५
१७१५ यास्पुतविमग्न ५२३ घमण्तरदोश १४० गमक्झायो वरि छनउदयिएक्केवर २१४२ खम्भेया रस
जगणंतरेसुपुह पूह समयसमयमा २७४४ वामुइयो पादालो
बतिएमष्टसि विपक्ष धषिप प्रयापि पणा २०६९ घरलमा छापट्ठो अन्य सहासागि ११४४
१८७७ छम्मकछाकमा २६१८ यसमा छासही
बनगगिरिवाहिती मोयणेक्ककोसा २००
जमगिरी बरि २१७ | ब्रममा वासारएं
बनविरोधी छमि निबरचण ६६९ हल पानी में सडीएपणसंगे
२८३७ मग मेषमूराएं लम्सादिकोरियामा १४०५ समीउजुवेबकसय २६११ जमनीवरि गयो पाणउदिसया प्रोही १११७ शाकोसहस्सामि २२५५ जमणामलोपालो सम्पदिसहस्साणि २२५. अग्नीसमहासाहिम १२५५ जमसकया दिव्या मागम मातिय उपरण २६७ छसहस्सा पोही
मामलाजमनपा अस्पद खण्णम एक
वस्तगणमियम २८९५ बमालिसेयसुराहर छण्णवरिजोवणमया २६४७ घस्सयबहुम्ही
४३ गकिलो गुणिमुपाय छत्तवयारिजुला मावलमहम्साणि
अपमेणबाट पत्ततयादिसहिदा छापतिहरूलाई
परमूनापहारण
जनयंमाफमपुप्फ पताश्वतादि सहिमो साट्रि समाणि
बनयानसजलोहा सादिभिवजुत्ता छावतरिजुदास
बमतिहरे विक्समो सतासिका १३६१ छिपकेण परवि पुरिसो
जमि इममि बाई छतियणभछत्तियदुग २७३ धेरणभेवणवहणं
जहब जोगाएं बत्तीसपुथलमा ५९६
अंकुवि सिद्धी
ज मतोम सहस्मारिंग
बंगामा ते का अत्तोसं वाणि २०६० जसकाने वीरविको समयपरत्वे
जस्विमस्या १२२ पंढरणभरणे घहोणवपणा २७२४ | बक्सोमो चक्केसरि
अंडूदीवविदोए
२१०५ १८६८
.
२४०४
१८०५
१२९७
१८२३ १३६४
PUNE १७८३ २१६ २७५८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
गायानुक्रमणिका
[
१०
गाथा संग
गाषा सं०
मंदीपतिबीए जबूरोपरनिद
२५८६
१९५ २८३
मंडूवीवमहोए वंदीरम्स तदो जीवे मे
२७८२ २०१८
१८६९
४३५
बीमार पं बम्म बीवकवीतुरिमा जीवाल पुगताएं जोवाहित्वंसारणं बोहासहस्सगजुद जीहोवंतरणासर जुगलाण मांतनुणं बुगवं समेतको सो जे मम्भटरमागे जे कुति ण भति जेनेति एवण बेटिय मुशि जेजुता परतिरिया जे जेवार पुरयो
२२२१ १०२४
४५५
अयूबम्स पर माम दुपबामुई मपपराएं जइदिदिसतं बादाण मोपचे बारिभरण की
२५४८ २५४४ २५४६
६०५ १४
२७६०
२७६६
मापा. जे संसारसरीरभोगविलए १२ जेसि तस्स मूमे चोलीमायत्ता बोवन प्रसहस्सा १७४५ जोपर पहुण्डो १८४४ अोषण माहियं उदय ७८६ जोगण उपायोससया १८०१ जोवण रावणविल्या १५६५ जोयण तीससइस्सा २०४६ घोषणलपासषुयो जोपरणरविवर्षमो १६५२ जोयणपंचमवार जोयणपत्रसमणि जोपणछ-सपाणि गोषणसमयमहस्सा औषणसत्तिा २०४६ बोपणनावं तेरठ २४५३ जोयराबोससहस्सं १७७८ जोपणासद्विसहस्सा २०४८ जोपणासठ्ठीर
૨૨. पोयणातलाम्मे २०११ जोमसदमस्या
8.5 जोपसत्रयमुत्तमा २१२६ जोपणसपमुम्पिको जोमसमविषयमा गोपणपयापि दोषण २८८७ बोपणसहागाढ़ा जोपरणसहस्तवारी १८.४ जोपरगमहरसमेत
१६३३
सारे बक्षणाणे
प्रेमिदवारमोए ५४८ पारो सिहो पोरी १४८
जेठस्स किडनोहसि १२१. जाणे पाप
१२११ बिणसास पुरी
बेस्म बहम पायो बिणपुरदुगारपुरको
जेस बमबारसि जियपुरपासादारणं ७६१
बैद्वस्त पारसीए बिजमाणमहोए
पेढ्तरसंक्षाको विगमंदिपकूदा
बहार मोबाए विरणमंदिरजुत्ता
४१ पेलामो साहापो मिणदिएम्मामो २४०२ जेवाण मझिमाएं รุ* अिणदणापयट्टा १३८
२४५४ जिम्मिषिवणोदिय
बेदशाएं मुह बंद म४िve जिमिंदियसुवणारा
अाणं विमाने जिसपियोको ERO जेठा ते संबम्बर बोउत्तिनपाएं २१६४ जेठा दौमाग बौर परमाणे ११०२ जेतिया बेतिय बीए बीयो बिटो
त्तियमेता सस्मि १७८७ जीए ण होति मुणिमो १०६६ त्तियदिज्माहरसेवि मीर पस्वजनासित १०८४ अतुण मेमराए १३५६ बोए मामा मच्छो १८८० के मुजति बिहोगा २५५० पीबसमासा बोषिण य ४१६ | जेमामाचारदा २५४४
२३
२१
२५४४
२६४
.२७९४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१२० ]
तिलोयपाती
ण
पापा
पापा खबरामाशयाइविक्षणम २९१५ पत्रएमपरू प्रापउपख २६८९ एबतियणमबंगची २०१५ गपपिगियोपिणदुस २९०७
पोश्रममता र दाः गपगपाणभवनाग २७३५ णापामगाणव २९०१ सधपण रोग पण २६३२ एवमपरनयाई परमौए पुआहे
बने मुरमोयगदे णव प सहासा मोही ण पहाता अस्सय १२३२ गप य रहस्सा जइसप २०१५ खम महम्सा दुसवा सावरियताएं कुल २०६८ पवार विमेस्रो एमको २१५६
पापा गाचा सं० । नाश
गापासंग क
गमपणासपचंबर ११ मारा मण भणंगप्पय
णमसगपणणयमपण २०७४ नमसत्तगणवरण २१७३
जासत्तसत्तणमस २८५१ स्कृमिकण्यापारो २०६३ जयराणि पंचारिक
गयरोए राकट्टो २३.५
पथरीया तडा गरिह २४३९ समितिका य रिती
गयरोमोसुसीमसामी २३३५ नाररिमाविमाने
एपरेनु रमणिया
परामसे २३६५
१९ परशारीरिणबहेहि महरिविषयविसापी २८२७ पारतिरियाण शिवित्तं मारिदिमागेको १७५४
परतिरिसाए पाक पहरिरिसाम ताल
परसिरियाणे बढ़ पारनवेबारे
पररासी सामान्य २०७० नउबमोहि
एसिणं बरसोनिमुणं सरिसाइन्ट आणि
सिरणा म रामिणगुम्मा १६५ परदोरमपविरे
एबमासमणपतिय २९४५ गायत्तो वपालो
रामहगिणपसगछपरा २९९५ जग्गोहसतपय
१२१ समषिपोहोचरणम २-५९ । भट्टयमामान पुन
७६५
एवएपंचएमक २६५१ एट्टयनासा पंमा
७२१ एब फूछा छो २०६५ गरिब प्रसरणी जीवो
गम पाणबदो રકર गमपन्दुषलगपणा २००२ गर बबउ पर पप २४०३ नमगिपणनमसमदुरी २७२३ । एव बोपररावीइता २५४६ नभएपक चतुगमग २८.१ शरबीयपमहस्सा २८८५ पागजपणिहावं
रणवजोपएनक्यारिण २६३३ नावडणवक्षति १९७३ रणवरण सविनाहियभरसय गमछाकामगिपणणम २६४ एरण विहिरवचमए नमसपए केवळ
लपराउरिसहस्साई १४०७ पभगवतियमबापण २६८८ एमरण व विसहस्सारिए १८१७ गतियलियागियोद्दों २७३
२२५१ गमरोगणपणबसग
२२६५ नपोषणतियप नभपवणवणभाडणव २८९९ ममपादुनमगध १२७९ । परसा मछष्पापरण सिम १९५३
२३२०
राबरि विसेसो "सो
२०६४ २४२१ २३५३
२३९३
२६२५ २४४९
सरि बिमसो का परि विमो नियणिय
बार विसेसो सस्सि गरि बिसेसो पंडग जबलमा भीषणाई शवबीमसहस्साणि गवसगमहोबाउणव गवसयणाउटिंगयेसु' एषसमन्छरसहिय जब इस्पा पासजिणे ए हिरवं मस्तिमिणे एदिलणामामंदर परमपदीएम
२८९३ १२५४ १५५९४
२७३३
१९६५ १८२६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथानुकमरिएका
[
८२१
७१५
गामा । गापा
गापा. एंदगबणाउहे?
नियलामलिहणठा १३६४ मेषो मस्सो बोरो ६७७ गदादी म तिमेहन १६७१ सियशामकिसमुणा १३९१ | सोधिय सुरगाणा एकोप विपितो १४९४ । रिएपरिणयजिएनएहि १२५ एंदुसरवंदामो ___७९२ शिशिमिरा ४० णामोवू धम्मो . १७४ लियरिणयपत्रमविदोए. ७६८ | हमपेरणं जाणाधणमिचियो शिरिणयपढमतिक्षाह
काणERE जाणारयमिणिम्पिद २२७०
२२ तमकापड भागे १५८५ गागाबिहदिमा
शिपरिणयासिगि ३४ तम्डाहादिम्मिश णाणानि जिल्हा
रिणयमेण परिणयमेव मा १९२ सरकारी कम्पदुपा ४२ शामिगिरीए पापी २१८५ शिरएमु गरिय सोय ६१८ तककामे तिस्पपग PLES पामे तमामा
हिस्समतावरणजुदा ४४ सक्काने से मामा पामेण कामपुष्क
शिवमलावण्यास २३७३ तबकामे पंगा णामेण चिसो २२३६ शिवराया
सम्मासे मोबणारा गामेण अमगको रिणयबाणम वोरे
समसापमाणं २६२० गामेण माहसावं १८२८ णियाणे पोरविणे
साडेतहमसे १७२७. पामेण मेक्लमंदा
क्विादिबहुमशेणं गामेण सिरिसकेन १२६ शिमहकुबसूरसमसा
सक्वेरी बहुमको १७६० पामेण हंसगन्म गिसहपराहरवरिम
सागरिवरिमागे पामेश सिडको
शिसहवएवेषियाने २१६५ समिरिण उपोहो २७१३ परियतिरिय गयोदो
पिसहमणवेदिवारण २१६९ समिरिसमिधाभाए एगावाए र णाचा २४२६ रिणसहसमाणुन्हा
तगिशिारं पविनिव १३७४ पासहि षकसमए
बिसहम्सुतरपासे २१७१ तशिस्टिोपासेस शाहल पुलिपबार शिसहस्सुत्तर भागे
तगिरिमरमरवेसं २१४५ पिकमिपूरणं यापति २१४३ हिस्सरिदूणं एमा
तरिमरिगणनेदार १३७८ लिग्मन्छसे बाकी हिस्सेवत्तं पिम्पन
हरिमम्मिएरावं गिनिय सा गन्थ्दि २०१३ रिपस्सेयतमट्ठ मश १४४ सम्वेदीयवासे
२६५१ विवि एदाणे ४३४ लिस्सेमवाहियासमा
तज्जीवाए जा
१८७ गिरास्त्र सम्म
पिसाग परतं १.१५ तवेरम महारासिया शिम्मरमसिषसत्ता सोलकुरुचंएराबा
तगामा किशामिद ११४ लिम्पसनप्पणसरिता ३२५ खीमगिरी शिमहो पिर २६५४ वो मोह एम्ममपतिहमिशिमिय
णोमणिमहदिपामे २.४३ ससो मरिश्पयो १५०१ रियपादिपोहाणे ERY
२०५२ तत्तो प्रागंतूरणं जिम्मपवाहित
पीतहिरिशमहपव्व २०३८ ततो उसबमरने निपजसभर रिमा
२४२
रणीलाचनक्षिणतो २१४६ ततो हम्को बायो १५२१ रिखपमोनुछेदयुदो
२२८८ तत्तो कमी बहवा ___ पिपयोगसुव पडिका १४ |
२३१७ सो कुमारकामो
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--------------------------------------------------------------------------
________________
-२२ ]
माया
ततो यश्वय बण
ततो भवत्यदेवी
उत्तो उत्साश्रा
तसो बड़ी भूमो ततो जग्गा सध्ये
राती तब्यकि
Pr
"
तो यो वा
तत्तो दाउ पुरो
ततो दुस्समो ततो वय भूमीए
ततो एमि ततो पढने पीडा
तो पुरबेदी
तो पविसद सुरिमं
तो पविसदि रम्मो
तो मंत्र जिसु
तसो पृष्वाहमुहा
तली बिदिया भूमी
तसो विडिया साला
ततो करे
यतो भवमो
सत्ती य वरिसम
तो बरसहस्
ततो विचित्तस्वा
ततो विलोकयं दोष
हत्ती सोचए
तो मेगा हिव
सरप
लक्ष्य य तोरणवारे
तस्य यदि विभागे
सत्य व सत्यसो है
सममा
तस्युत्थिदण
कुबुजिन
पंचमे दियं व रिमभूमी
गा
८११
८४९
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१५५९
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२१३९
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१६ १७
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८१०
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८५
१८७
१८८
१९४५
१२४
२१३४
१३४८
५४९
१७२०
१९५२
१३५५
१४९
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१६४३
२१९६
गावा
तिलोय पण्णत्ती
मायदेवीयो
सदिया पाला बजुण
तद् विखणदारे
"
"
तर मिसाइए
तरूममणि दे
"
८२५
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२३७५
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दारे आयो
१७५१
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२३९७
१३३३
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१९५४
२५७१
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१४८५
किणतोरण
तमोर
11
तोरण तापनिसिय
महे
तसे
दिवसे म सद्दो परिवेदि
सद्दीने निभवणं
सोने पुष्यावर
सम्पवेसम्म य
तप्पणिधियेदिदारे
सम्पम्यवत्स वरि
सप्पासाहे जिस दि
सम्म हवीमि
भूगो
जादा
सम्म रम्माद
सम्म परसादी
सम्पति बपवेसे
माक
सम्म तिदिवगदे
11
F
सम्म समयदे
गाया सं
तमंदिर बहुम
सम्म
मला से सम्मिठिया सिरिदेवी
१३३१
२२६
२१२
१९५५
***
१४२
כ150
माया
उम्म पये माहारे सम्भवणे दुम्बादिसु
शमिवणे बरोररण
४७१
५०१
४५१
४५१
४६०
४६४
१८६३
१४८६
१६६४
सहस् सोहिय सिमभूमिभागे
मोविसमा
तरुनिरिमंदिरा
सबश्वराणामा
दलिय
++
सभ
बेदी दारे
रणाली बहु सदाभा
शस्स देना मदरसा
तरस
विश्वारो
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#4
"
बहुपक्
"
"
यस बहुमभागे तस्तरको
तस्य उत्तरजीवा
तरस जूलियमाणं
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लस एप से
तस्य पुग्दो खो
लम्स सयवत्तमंत्रण
तस्मि
तपा तस्सिकाले चिय तहि कामे मणुषा
कामे होदि
शस्प्रिं कुबेरनामा
हिमं जंबूद्री
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१६२५
२३८८
२८०
३३८
४.२
२०३
१२७६
१५१४
१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
गाणानुक्रमणिका
[ २२३
पापा हस्सिं चिणिदपरिमा तस्ति णिसए शिवस तस्सि दीवाहिबई
तस्मिदी पारही तस्सिं देवारगे तस्विं पासावकरे
तस्मिंपि सुसमदुस्सम तस्सिं बाहिरमागे पस्सिं संवादाएं
उस्मुलेहो देश
पापा - गाश. पापा
गावात. ताणम्भसरभागे
वाहे बालिहोमहि १५९४ २९१
७७॥ साई रसजलवाहा १५८२ २५६ ताण भवणाण पुरयो
ताई सबकागाप
७१८ २१११ साग सरिपाण महिरं
लिग्गिनायो दक्विण १७६) ५१ माणं उदयप्पही
तिगुणिम पंचसया २६४ जाणं उबदेसेण य २११२ तिमि तयाणि पन्ना ताई शायमाणं
लिमित इस्मा तिसया २.७७ ताएं गुहाण - २७९७
२४५८ ताएंव मेवयासे
२०१० सार्ण पवित्रणतोरण २२८१ सिणि सुपामे पंदप्पा तारिणयरमंडम
सिसादिविविद्यमानं .६५ तागं हो पास
तिस्परपट्टणकाम एमाण १२५ Y५२ ताण पि प्रत
विस्पंपरबाबमहरि तापि मरममागे
तिस्पररणायकम्म ४६१ तार्ण ममो णियमिय
सित्परागं काले ताण मूने सरि ७८९ तिरवयरा तागुरमो १४५ सार्थ मूमे सवार
सिसिदारिस सार्ग रुपपतवाणि २०४१ तिक्ष्यपणणगान २०७० जाणं बरपासादा
तिमिमगृहप यकी १७२ २४७२
तिमिममूहो रेवद २ २४२५ सा हम्माचीर्ण
२१ । सिएमिनमागिलप २९३३ साण हैट्रिमझिम २४८६ नियमिपुतिपणा २१५१ ५२५ ताणोवरितवियाई
तियाविसमभषातिय २९५५ ताण तहितरम
तिवरमकबरणन २४.६ तासु पयारे
विपषउपउपण पाग १५४ ताहे प्रवासी १२७४ लियतमामणपणे २१४४
४५१ ताहे एसा कोणो १६२२ तियछद्दोदोलायम २९१६ १०२१ माहे एमा वमुहा
तिषगम पसलगपण १९२९ । माहे गमीरगम्यो
तिषणमयाब इमिपण ११५५ ताहे गावमधीरो
तियपाबचमग मापन २९२० १९८१ डाई पत्तारि जणा
तियतिपिपतिष्णिपणसग २७२० पाहे सगिरिमरिझम
तिवतिय भरणभदोउ पाहे सिगिरिगामी
नियतिपकोहोखंणम २९०५ ताहे ताण उवमा
लियोमुग्धउणव
२७१४ वाहे दुस्समकामो १५८५
तियदोगवण पाउचर २९३६ ३२ ताहे पनिदि णियमा ११२८ । जियपणदुग अण्णा २८९७
२९२५
तस्सुपारखारेशं स्सुक्देशमसे हस्सूचीर परिहो तस्सोहरि सिदएर वह मह दिग्गइंका ता पुण्णमासीवा तह य शिविटविट्ठा तह म सुगविरिणकेरब त उवाणं सोपस सं तम प्रगपिर संमणुवे तिविका तं मूसे मगहीसं तं वदायामेहि तर यि केलियो तापिय परोपर्क ता एहि रिस्सा तारणसासमबंधण ताण प्रपन्चमवाणा ताण जुपलाणदेहा ताण दुवारुण्यहो
२४८१
Page #851
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४ ]
तिलोयपम्पती
गाषा सं.
२६७४
१४५
नापासं० [ माषा २५११ देसीवी गिरि २४८६ तेमु प्रवीवेसु तदा
तेसु ठिकम पाणं तेपदमम्मि वर्ग
प्रेम पहाणार ११२५ तेइतरीसहस्सा
सोपंधरा मिषित्ता १५०६ तोरणसम्हावी २४५९ तोरणउदयो महिमो १५९८ तोरणककणबुता
२२११ २२ १७१३ २००२ २६८
१०१
तोरणवीजुता
२२०८
१४६८
१८८७
८१८
गापा गाषा सं.
गाथा तियपणदुगमाइणवयं
ते कालसं पत्ता सिपममा घासट्ठी
हेमवसरिया तिममाणि बामा
सेन्वेष नोयपासा तियवासा भडमामा १२५० तेजा परमश्णि लियसयपदुस्मइस्सा
तेण तम स्त्विरिदं लियसागरोपमेमू
ते वस्स प्रश्वयम् तिरिया भोगविवाए
ते तुरप इरिपबदाइ विविहामो बावीमो
तेत्तियमेत कामे तिसपाइ पुमधरा
तेत्तीमाभहियाई ति सहस्सा सिण्णिमया ११५६ तेत्तीससहममा तिसहस्सा सरासया
महमजणणा १८ सेतोसमासाणि तौए गुच्छा गुम्बा ३२७ तीए तोरणदार वीर तोरणवारे
सेदासं अत्तीसा सोए दोपासनु' २०८१ ते पाणतूर सण
२०६६ के पासास मरे तोए पषाणजोपण २२६७ ते बारस कुलखा तीए परवी सविह १९५२ मेरसमस्या वासा तोए पुरोरिया ।
रमसहस्सजुत्ता सोए बहुमरमदेसे
तेरससहस्सयाणि तीए महिमभाने १.३५ यण्णमहसमाणि सीए मूमपएसे
तेकीसपुम्बलमा तोए दायामा
८९० तोरसपयाण
बोससहस्सा ठोससहस्सा लिया
तेवोससहस्साणि
ते बेपत्तयजुत्ता तीमसहसमा सिनिय
सेसटिपुथ्वसमा तोमोबहीण विरमे
ते सबै उखवरणा बुम्यिं पडसीहिद ०४ से मवे कम्पदुमा सुरगाभारिपरपणा
हे मब्वे बरखुपमा तुरमस्म सस मेरम १४४० से मध्ये वबौवा तुरिमंप पम्पममही
से संबादाज रिये बोसिपाण
ते सामाणियोषा दुरिमोय संदिदि १६१२ : मौदिसहस्सेस् । तूरंया वरवीगा ३४८ | तमीवि सम्मामि
चमारण माझमो संभाए मूलभागा पमान उन्हो धूममुद्दपारितारं पोव्रण पुदिसएहि
२५१ २५४५
५३
२५६५
१७४२
१४६४
एकगामा होहि गिरी रजिसणसत्तरभागे दक्षिणदिसौदीए वक्षिणदिसाए गयो पक्मिणविसाए भरहो दपिकविता विषाये
२८२१
७
२९८६
२७३
१६८० २३४७ १८५३
२९७ १३२९
१५८
२५२१
दक्खिनपौने सक्को दविलकमरहस्सा दक्षिणमुहमायता पक्षिणमुझेण तशी दतिविमोझिविसेसो दप्पणगवारसमुहा दमणतपसारिया दसपाहिय प्रसपार
२५६
१४३७ ।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
गाया
दसपण केवमणाणी
सोस
बसोमण उच्छेदो
दस जो एक्वाि
बाणि उर
सोयाणि गहिरो सजणाणि ततो दोहो
यसप। णपाणा
दस पुम्बसम्म हिम
"
दस संद
11
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TP
"
נו
मंदि
स प सहस्सा उदो
यस
सस्सा दिलवा
दसमाससहस्सा सवयंभूवासी
सुण पंच केस
दहन कमदोस्रो
पंचयावर
हम
परविषय
दंडा विणि सहस्सा धारण कुलिमीण दादूण केाणं
दापूर्ण
दारग्मि बजयेते
दारवदीए गंभी
दारसरि ज्युस्सेहा
वारस्य उपरि
J
वारिमपसे
दारो रिमच राण
समादि
14
दिप्तरदा
वादक: गणलुक निकाविजि
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४७
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गावा
दिवंतरया दीवा दिवस दुसर्य
दिव्यसि च भूमी
दिवपुर ि
विसमिति सु
दीपावा कुरा
दोविकभिगार सुहा
जगदीप पा
वीमि परेषधर
माहा
दबंग दीयमाणवका
दौना भवनसमुद्दे बोहराको
दोहरा दमा
दोहरो विस्वारे
दुस
दुब्रणकन बचउनियनम
दुखपंच एक कंसगलब
गजव
घुमक्कच दूषउपभ
पुनच मठ्ठाई
पण एक ठि
मुम्म भसासे
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.
"
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गुणाए सुकोए
गृय सूजीए
दुग्गाढवी हितो
दुचउसग दोणि समपरण
दुनडाए सिहरम य
तवादी जस मरते दुरि दुसम्म पोसद्दिप्रो
दुसरा
दुसमदस सहसा दुसरा प्रयुतोषं
१०१४
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२७७६
२५०
२८३०
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२५१८
१५४
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सहस्सा बामउदौ
दुस्समम दुस्सम
दुखामनुसमे काले
दुस्समो त
देवकुमारस
वजाबा
कृष्णह
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देवदस पुणे
देवा रमणं प्रच्णं
देवा विजयाया
11
देवसमूहा
देवीसरिछा
देवी
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देश विरदादि सर
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गोको उच्
दोहोer] भवगाढा
दोहोसा उच्छेड़ो
शेषउपज टसमस
दोजीला
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जोबध बटुल
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होणं सुगारा
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________________
-२६ ]
गाया
सिप परि
दोणि सया पण्णासा
दोणि सपा बीसजुदा यो सहसा उसम
दोणि सहस्सा विसय
यो सहस्सा दुसया योरवोदि
दोटो भर दोदोतियगिति यणय दोहोरि
वो पाऐ
दो मास
दीपचसि दुग नंगिवुग दोष वरण दोपादविखर
वसुधा
दोषदा सत्तपर
दोला पण रसा
टोक्कदुगं
दोमवद दोसदुराम दो सुगा एक्क
दोपि विदे
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श्रम्यम्पसंतिकुं पू मारकुकुवंसजादा
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परणिउत्सु गा चरणविणा
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भादात कणसारण वारसा
संपाद
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गाया
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बादसंडे योगे
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छामगंगा वि तहा बिदिदेोधसमाभो
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मुध्वंसगडाया
मुक्क पदोहि
धूम धूलो व
धूमसालागोउर
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सूलीलण पुढं भूपमा मनिलो
उमा दिसा
महाप
पञ्चमदहादो पशुमय
पचपद हे पुत्रमुहा
पउम
पत्र पोरि
पाउचउगुल
महाबुगुणो
हाम्रो उत्तर
महाड उत्तर
पपपलमा
पउम चंद्रणामो
पचमं घसीहिवं
भगदोए मृदा
पक्षी परियो
गाथा सं०
२६१३
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दिसा गि
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पमितसो पता शिवसिय
पता पज्जतः
पहरी मतद
पढाए भूमी मुप्प
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मोहमेरो परिणाम कुलकर
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पणपणमंत्र पणजीचस्वाणि
पेणचपणड निमवश्व
पणरण वणण भदोचउ
परतितितिषणयं
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परणरणच उपाश्रयुग
पणपणमणिभ
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२१२१
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________________
गाधानुकरएिका
[ १२७
एगीसकोमपाई परोसठिया पनदीसम्माहियसयं
७
पणवीसम्महिपाणिः . परवोसम पणी पोपिएममा पणवीसाहियवस्सम
पणवीसाधिपस्सर पसायोतियान पणदिसहस्साणि पागसबजोगवा
अगसबपयाणमाम
पापा सं. गाया भाषा सं. पापा
गाया. २२१॥ पम्गरवासहरसा ९६३ पसंप मागे २४३२ पथरहसमा वंशा
२४३६ पणरमसहस्माणि
पसेक पायाला २४५९ पणसेसु विणिया १२९६ परोपकं पुम्मापर २३२ २०७४ पणसमसुधारमो १४१२ होमक साम्पारणं १९००
पाणसयसहस्साणि ..... .
पम्मा महाएम्मा २२३४ पण
परंपरसुवारएसु पण्णारसमक्का
परपककपीविरहियो २२७७ ८९०
परमाणुस्म गियडिव २E ८८t पम्पारसलाबाणि २०१४ परमागृप पणता བས पण्णारहि पहिर्म
परिवडेवि समुद्दों पम्बासकोरिसमा
पतियोवमदुमसे
४२८ २७३६ पन्नासकोसतवमो
पमिदोबमासमंसी २८५४ पाणासकोपउदया
पसिदोषमतसहिय १२७१ १९६२ पभ्याइयोसवासा
रसियमस्स पाये
१२५ २.१४ एग्णासजीयणाचं
२४३
पस्मोलोगे पणासबोयपाणि
परमस्स पादमब १२९० २९ " गोषणा
पवणविसाए होदि १८५८ २५०९
२००४ पबर्षमविजयनिरी पण्णासम्महियाणि १११० पदणीसाणदिसासू १६ पन्नासवर्णावजुणे १०२७ परणेग पुभिर्य । २४६१ पम्पासमहस्साणि ११७७ पारामो पाहिणोमो
१९८६ पविति मतिरिया ११५ पन्नासमहस्साहिप
पम्पको मस्सिविणो १७५ १२७५ पम्बनिसुवपरिही २८७६
१२७७ १३१२
पव्यवसरिणामा २१०१ पम्नासाहियवस्सय
पसरा पाग्योसो ५८०
पस्सभुजा तस्व हो १७२५ ४७७
पष्णाहिय पंचसया २५२१ पंच इमे पुरिसरा १४१५ पसाएपोवेहि
१४ ! पंग
पंचगवणेदुगपठ २७१२ এক ম্য ३००३ पंधिषिके पति १४२६ ५०२ पतंक कोद्वाणं
पंचटुपमसहस्सा । पत्तक पसंहा ५३२ पंचतिसिएकदुगणन २४.२
पते विमबर १९९४ पंपपुमगाउगो- ६२९ १३. | पत्तेक गयरोग २४८० पंचममो वि तिलो २२२७ १२७५ पत्तेक से दोगा २७७० पंचमिपदोसमाए १२१४
पाहतरिकावारिण परिणबीए बुबीवं पनुपीवनियवासप एणुरीसनीयता पणवीसगोमनारिंग पणुगोसबोरगुपनो पणुवीससपा मोही पबीतसहस्साई
२२०
११०
पपीसतहस्सानि
४७३
पनुवामहस्साहिय पYमौसापियवासय पशुवीसाहियसिमबा
८७५
पणुवीसुसरपए न पणहरिजुपतिसया पद्विसहस्साणि पण्णमयिं व समं पम्मरममावरमार
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________________
५२८ ]
तिलोयपासी
पंक्देिहे सहि पंजसएहि जुत्ता पंचसपचायतुगों पंचपोषणाणि
१५९६
२२४४
पंचसयमणुपमाणों पंचसयामहिमाई पंचया बग्नो पंचसपा तेवीस परसमा पन्जतरि परमया पणा हिय
गापा
गाथा - पीढो सम्बइपुत्तो पुरमा मेपास लिस पुषसरकारीवे २०१५ पुठ्ठी परवीन पुढोए होति बढी पुष्यामि य रणवमासे . पुण्णागरणायपुग्जय CE पुप ETE : पुपियनए हेलायो २४६४ पुरिफादपंकजपीका पुष्कोतराभिहाणा पुरको महापा ११० रिसा वरपरधरा पुरिमिरपोजुदा ४१२ पुममवपायगुरगों पुनरिसाए पूणिय १८६० पुषदिमाए प्रसस्सपि २८२० पुवादिसाए विजय पुम्बधार सिक्यमोहो पुखधरा तोसापिय ११२८ पुबारा पण्णाहिम पुम्बपणियकोस्पुर पुरुषमवे पलिबागा पुम्वदार उरमो ११४८ पुखविदेहस्सते
२२२७ पुमविदहन को पुमति चित्तागो २१४६ पुम्वंतपणा १२६२ पुरव माहियानि पुणे सीटिहवं २६७
U
-
गाषा सं । गाथा
बाबा २९८१ पसिनापसमागा १८५९
पंडुमिमाप्तारिया ११७ २३०० पंदूकंवतणामा २०४२ पाकमजबू पिम्पल पाईबसूरियंमा
८३७ २५२० पाए महरमुसावं २६२७ पारहाणे मुण्छ :..
पासासम्म दिनार २४८७ ११११ पाबालाएं मदा पादणं सोपण
२२ पापारपरि उताई पायारहिमोटर १६७४ पायालते शिपशिम २४७३ पालकर सष्ट्रि १५१%
पासजिणे बड़मासा २४ पासविणे पपरहा
पाविषे परणीमा E६४ १२६२ पातथि पगुबोस
१२ पासम्मि का २८८ पासम्म पंचकोसा
पासम्मि मेपिरितो २.४ पामग्मग्णवरमणि
पाचंहसमापतो २२७६ १२३२ पामाववासु २११३ पासे पंचायदा
७७६ १९८३ पियसा पपासो २६४२
पीयूपिरमरमिह बिग १८१७ पोढतयम्स कममो १८७१ पारम्स दिसामु १९६१
१६२७ २५२४ १९६८ पोहरमुरिममा १२२५ २.२८ | पीडाम सरि माणत्यंपा ७५३ १८२ पीदाणं तरिहीमो
१४ पौधोपरि बहुमझ १९२३
चसया पुगपर पंचसया वाबगा पंचसया कममा बचतहसपुराणि . पचासहस्सा बसंय पंपसहरूमा जोवण अंगसहस्सा रिण पुन पंचसहामा तिमया पंचामनिवाएं पंचासीदिमाहस्सा पंडुर्गाजणवे हाणं पंटुनमारणात तो पग जिणार पंडुगणER माने
२३२५
पंहुगवरणस्स हे पंडबसोमएसारिण पडुबणपुराहिती
पुन पिक वाणा पुष्पं बड़णराऊ पुग र गुहायाने पुमाए गंधमादन पुम्बार मेक्कन
१३७५
२२१८
पंहुबरणामसरए पंडुरो परम्मा
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[
२६
गाणानुक्रमणिका पापा
पापा सं.
गाषा सं० [
गापा
माथा -
पुवाविषउदिसामु पुलावरदो दोबा पुलावरणिधीर पुजापरमाने
२७७५ १९.
कामुकतरणपउमि फामुणकसिंगे सप्तमि फागुरिय उत्पी मगदुएकिण्हेयारसि
॥ ॥ छुट्टी कम्पुकम्हे वारति
२१५३ २२२५
૨૨૭૬
पुवाबरमाये पुम्वावरेण जोयग पुच्चापरेग सिहरी पुम्बावरेस बोयण पुम्बाहमुझ ततो पुस्सस्स फिनोसि पुससम्म पुणिमाए
१९६ ५०४
पुस्सस्स सुनोति पुस्से विससमीप पुस्से सुस्केयारसि पुरा शुल्लयबारे पुरा पोससहस्सा पुह पुह दुतमाहियो
६२ | बहुपरिवारहि दो
१७३५ हमीभूस गया
२० बहुमूमोभूमणरा ८४१ बहुममोपदोसे बहुविजयपसत्पीति १५५५
निहलाहिं १२१५
बनुविबिदागएहि १EE १२०२ बहुबिषयमजुत्ता १२७ बहुसाममंजियाहि
बाणयुवाम्गे बाबामसहस्साई ૨૪ળક
बाबालसहस्सरणि ૨૪૬૪ २००३
बारसम्महियसर्म २८१ पारसजुसहि TER नगरसजुददुसरहि २८५४
बारसम्म व सिरिया ७२ बारमसमवरसमहिम पारससयपावोस बारससवारण पण्णा १२७६ बारमसहस्सपणसय २६११ बगरससहस्समेता २३०.
बारमसहस्समेत्ता २५०० १४३४ बारमहानिसब ५७२
बाबतम्मि पुरुन २२०३ बालरबीसमतेचा
बापीमसया बोहो २३१३ बाबोस पगारस
पासष्टि गोषणाई २४९ २०२२ बाभट्टी वासारिए १०७२ माहिरोहितो २४७७
बाहिरसूनिगो २०४३ बाहिरहेदू कहिटो २८५
चिउपम्मि सेम बसे २८०१ मिदिमि करिहमित्ती २६७ मिदिमाम बोसजुरी २०६१
१४
२५२८
फागुमबहुलाही
फगृणबहले पंचम १५४३
फलशरम पिसानो पसमूमवाप्पडाँच कमिहम्पवामपराय फलिहादा तारणं
फासरसगंधषपणेहि १८. कासिविर सुरुमापा
कासुस्कम्स विदोदो फुल्मतकुमुश्कुबमाए
कृमिकम यहि २२.५
सण प्रस्विरगमण २४६८ २०४८ २२१५ बत्तीसवारसेवक २४४२ बसीससहस्साणि २२०५
बम्पकृग्यगामा बलदेवासुदेवा
बममणामको १२७
१२९ बारिशी तिषिमा २०३३ पहिरा बंधा काणा १२७ बहुतकरमणीया २१०२ बहुधोरणदार जुदा
"दिगमामसहिदा २५८. | महदेवबिसहिया
पुह पुह पीढतपस्स पुह पूह पोस्सरनोग पुइ पुह मूमम्मि मुहे पुह पुE बोससहस्सा पुरिय साहितों पेमंत बासारण पेलियत नही पोखरणोणं मग्ने पोखरणी पहुवाणं पोखरगो रमणि पोस्सरणी बाबीहिं
पोपहरदोषवसु पोमबारबरोति दीयो
Page #857
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________________
८३० ]
पाया
विदिवसी दिवेदी
बिदियारे भाई
बीससस्स जुधाइ
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बोसहवास सक्स बुद्धीविकिरिया बुद्धीवा
भट्ट
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महस्सा
बे कोसा 'गा
कोसा मो
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जे को हमा
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जुग दस बरसा
सहगा
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जेलंधरदेवारणं
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भरमंतर वजन
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पिहोति एक्का भरवसुधरयहूदि भरत घरपि भरत सुषमाण
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तिलोयपत्ती
रस्समव
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महादिसु विजया
महादी सिहंवा
भरदायी विजमारणं
राव दादो
भरावनी डा
रहे भरो
रहेग
मरो सगरो मो
भरो सग मध
भवविधिरथी सु
कषणा विदितासु
कोवरि कुडम्पि प
भवदंसणहेतु
अम्बामा छम्मम्म
गंधादंगमद्दल मि
भायगा कंच
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माण असुरकरो
मास सहिदको भातिवृद्धी मिना मिगमिवा
भिंगारण्डन सदप्यण
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भिंगार रयदप्पण
मणि रोम के सा
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तिम्रो विविहायो
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भुषणस्मत हे
सुपसिद्धा
भूमि मुहं विसोधिय
भूमीए दुतो
मुहं सोहिय
भूमीयो पंचा
मेरी डा रम्मा
भोग खिडीए पण लिहू
भौमजणरतिरियां
भोगमुवाणं मनरे
भोगम
भोगापुरणए मि भोखिमसमेत
रेसु चरिमो
कुलहारा पसंती
यस बोदसीए
मम्बसिरणिपा
मसिर बङ्गसम
सिर एक्कासिए
मारिदसमी
मरि सुमोमा
समुह एस्सा
मच्छमूहा कालमुहा
मारमुहाय त
मिरजय रविदा मम्मि उदयप्रमाणं
कम उपरिभागे
३४१
मसिदा
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मणवेगा कालीमो
१८६६ | वणिगिटार
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१३
९४७
१३३
२३०
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________________
१९६
२२८
থানুময়িকা
{ ८३१ पाया माषा सं० । भाषा ६० |
गाथा सं. मणिमर्याजणरिमामो १४ मापस किण्वारमि
भूमसिहराण र २८१६ मणिपप सौवाणामी २२१४ मापस पुष्णिपाए ९९७ मूमोवरिभाएम' १७३० मणिसोयाममोहर
मावस्स बारसोए
३६ मूसोबरि सोमो २००८ मणुसोत्तरघरनियर २७८९
मूसे पारस पप मदिसुदमपणाणार मावस्त्र य ममबासे
मूझे मी वरि २२५ मामध्यवघुता पाबस्स सिर चस्पी
मम मम सर मचिपूण कुणह मामि १५९५ मावस्स मुक्कमममी ५५२ । मेषमहेण सुपर मरवि परिशदे औसो १.८६ मावस्स मुकपरले KTY ! मेवमहि पहियहि मक्य तिरिवगरे ४९६ मास्मिदएक्कासि
मेकगिरिमविवरण २१११ मस्तिजिणे सदिवसा ६४ माघादी होति तर २६३ मेहतलस्स पद २६१८ मालीणामो सोमा ९७५ | मासस्या बारमाला २०१६ : मेक्सल स य 14 २६२१ पापउमबहार णवी
१८९२ - महातमो सुरखयों ] माणुल्लासपमिच्या
हमरमा महरीरणामा २३८७ पाणुसजगबहमनसे
देवमहोपरपामे महहिपर्वतं कई २५६५ मारापिदाकरतं
मेरमाणदेहा महहिमबहे दोसु मासत्तिदयर हिमपात
मेहुणहए बोला मंतीणं ममराण माइप्पेण बिमाणे
मोसूणं मेoनिरि २५७ मतौर्ण उवहे १३२० मितभावणाए
मोर मुककोकिलाणं २०३४ मंदकमायेए खुदा ४२७ मितमोहेविनमम्मितत्तो १५३२ मंदरमणमदिमादो २०४० मिछत्ततिमिरवण्णा २४. मंडरसादिमा २२२० मिचाइटिममा १४१ रजदागे दोणि हा १५८ मंदरसतरमाने २२१७ मिहिमधुरामा ९.७ रसागामेण णदी २३१६ मंदरमिरितो गनिमय २०८० पिहिमाए पस्तिषिणो ५५१ रत्तारतोवायो
२२९१ २०५८ पिहिमापुरिए गायो
रसारतोदापो मंदरनिरिपदीयं २०७४ मुषका मेकनिरिक्ष
रतारतवाहि मंदरगिरि उत्तर
मुणिकरणिविकताणि १०६५ । रतिविणारणं पो मंदरपिरिवणरिक्ष २१७२ । मुणिपाणिसदिशणि
रतीए विरि मंवरगिरिक दक्षिण २१५३ मुतपुरीसो कि पुर्व १०८३ सम्मकभोगबिगीए मपरणामो सेतो मुसता गमाई
म्भकमोगखिदीर २३६७ मंदरयिम भागे २१३६ मुहभूमियाडम
रम्मकोगसिदए मंदरपंतिप्पमुहे
मुहभूमग विससे १०१९ सम्पषिजमो रम्पो २०६२ मंदिरमेनाहिबई मुहमस्वस्स पुरदो
रम्मापारा मंगा . मागधीरसमाएं
मुहमखमो. रम्पो १९६५ रम्मुज्माणेहि जुरा १४२ मागहदेवस्स तदो
भूशष्फसमझासी
१५५ रमणमनिवाणि काणि माधवरतणुवेहि य २२८० मूखम्मि चरिमाये २५८८ ग्यणपुरे परमजियो मापस किणपोहसि ११९१ | मम्मियनिहामि २०१७ रयापप वमजोविद
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________________
विलोयपणती
गाचा पाषा सं. गापा
गाथा सं० रमममयपहमियाए १५२४ मात पंचनामा १२४९ रपमान मापरेहि
सम्माणि तिमिण सावा ११२ पशायररयापुरा १२८ लपवारिण तिणि सोमम १२३१ रविडस भवट्टा ७२४ लमण समस रविससिगइपहबोरा १०१२ मवणस पिस्स अगदी २५५९ रागेण न मोरोग १५३३ महिनमदोदो पवितिपर५०२ रामामुमोवेहि
लबगावी व २६०१ रामगिरे गाणिसम्बय ERATARATHE LEAR
२४३: रामाधिरायसहा २३१४
२४७ रियो काम
मबमोहिबहुममें २५४७ रिसदादाएं बिह
मंतकुसुमवामा १६६२ रिसहे सरल अरहो १२१४ अंतरामदामो
१८२ रिकिकरपरगावीए १०७१ संबंतश्यगरामो १५७ रिसिपाणितसािवित १०९७ मंचतरपया माणा
Ys साधारण परिसामु १९३३ माईतरायकम्म महाक माण्डा १४८२ सिहिपूर्ण गियरणाम १३६६ सप्पशिरिस्स गुहाए
सोपरिभागारिया सम्मिगिरिस्मोपरि २७ मोयालोमपयास इंसुहीणं .
मोहेगाभिहवाएं ४८१ र मुमम्मि सद २१२.
दाबगावतोरण रक्षाबमादपवि २१४७ यापितमेहता
रावणापही २०६६ पारण इको गिरण हदेग परमपीरा
७ बइपरिडोयामो उमरियो 16.६ ससाइकिव्हनोहसि कविरिसमुदणाणा
दासाहहमदसमी मेगणा सेटी २९७१ बाइसाहसुक्कपाणि १२१२ रोपजरापरिहाणा
यामाहसमकमातमि रोगबिसेहि पहा १०८७ पामाइमकमी हरो रोहिणिपदोस्त महा १००७ बासाहमुम्भसमीमचाए ११० रोहीए दादी
बासाहमुम्भवतमो चेता ६११ रोहोए बमबारस २३३६ बासाहसुबपारिब
पाखारगिरी सोनम २१३४
महाराएं बोस २१३५ मसास पादमाएं १०७ सम्पादितिरिक्षयोवा
४८ मनसं वामसहस्सा २२०७ । पयारी भूमिका
गाथा
काषा सं. बच्चाममा महारया २२११ बम्बप्रयवंतती १८६७ बम्बमहरमबजेणं बजिरममाहारा पजियसालि २८१६ बमितपणीममरणप पत्रिणीसमरगय ૨૨૨ बदामुहपुम्बाए २४६३ बढो बायोसममा पण पादहमाणा २२१६ रगमेवीपरिमिता पणसंपत्य सोहा वण दे दिमा
२५७७ पणिदसुराण एवरी २४५ बर्षया रिणतं पापौष ५० पप्पा वृषप्पा महापप्पा २२१५ क्यमुहमाक्सा २७७१ बरकम्पपक्खरम्मा परपामरभामंडल १७१७ परराषु णामोरीमो २५१० बरतोरणसमरि २५१ बाद सिवाययता बरभरसासमन्में परश्यणकवरणमभो पररयमरण मया वरस्यगकेसोरण परमवशेस 415 बरपबिहागि
बज्यवारजुदा रमाबुदो बरवग्जकबाडारण पवेदियाहि नुसा १७९१ परवेण्यिाहि रम्मा १९४३ बखेरी कविता परेदी कविता बरवेदोपरिनिचे
२७७ ८००
४५
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________________
जापानुक्रमारिएका
[
३३
मापा गाचा सं. पापा गाषा सं.
भाषा सं. वरिति लीरमेषा
बाहणवस्पषिभूसम्म १८७४ विमयो र वग्णण बुदो २५०५ गरिमति दोणभेषा बहमनस्वाभरणा .
विवाहमपरवरा बरिसागि सिणि मस्सा १४७ बाहिणिहा हो
विशाहरसेडीए २९५ परिसादोग नसाया
विनममदीमो बारस १११५ विवाहराग सरिस २२ गरिसाधु नुण बसी
विउम्मदीयं बारस १११२ विग्नुपहनामयिरिणो बरिसे महावि १ ५.. । विचममदो म सहम्सा ११२४ विम्युम्पहस्म उरि परित संज्जा २९७७ विश्वभवकदीमो
निग्नुपहपुग्वस्ति वरुणो ति भोपरामो xix ! -- FREE
विधुहस गिरियो । यमपोवपपीहेम् ८९ विभादो सोहिंय २२५४ दित्याराको सोहम २९५३ वल्लोभासा- ३५६ चिक्बमायाहि २०२० विदुमममाणहा बसहीए यामहे १८९
विगुणा पंचसहस्सा १२७ विफरिदपंचवण्या पसुमित परिणमिती
विगुणिपतिमास तमहिय ९५७ विमलजिये धामी १२२४ वातादिवोसवतो १.२२ रिणियवाससहस्सा ११५ विम्हा करस्वाह 1402 पाराविषयीयो १०५ विस्मो विवहाणामो
विमलस्स तौसममा मावि विनिवरिपाए १२०
विपसिएकमनापारो २०९ भारतमरित्र २०३७
विजयो हेरपणपदो २७७ बिरसोत वासुपुले विजश्मयतसश्विा
२२४० वाराणसी मुहको
विवहरसोतहिरिपा २४ विमाकुमासे पुग्न बापी बहुममो
लिहि मगसामग १९४०
१२ विगिरि गुहाए
रिबिहमा रमणसाला पावीस सहस्साणि २०२७ । विमामेणं
विसपकमायाता विपम्मि निविता
विसमापिहि पल्लो पासकदी पसबुणिदा
विमवंत जयंत
४२ बोरवि सिदिगदे वाहटी जोगमाई
विजयन्ति पुष्षदार ७५३ वीरवजामियामो बागाए परमाणे विजयाचमा सुधम्मो
बीसदी पुरा बापरमेस्कमाऊ ५८९ विवादि दुवाराणं
कोरम पेव मया वाससहम्से से १४. पियावि बासकम्मो
पीतादिवग्यारसहित पासाम्रो पीसनदया विषयावोरणं पादिम
समहत्वं विसपा रामाणि दो सबस्सा
२०६१ समाहरूमा वासा बासाएं ममा बा
विजयादी जामा २५. सोसाहियकोसम बासाणि णम मुपासे ६८३ विजयादीएं बास २८८ कोसरियसपको पासा रस सल्ला विजपा परमयंता
गोमुत्तरवायत मासा सोमससा
बोसुतरसतसया विभावयताराणं २६५० कहीदोपासु सो पगरणकोसा २.०० | विजया विजयाण ना
पेम्मि बस्सहरमा वासो लिभंग कमोतिमीण २२४५
२८१ बेगुमि नगसहस्सा ११५१ पाहणवस्यमापी । १८७८ | विमो परमो धम्मो १२३ । बेमि तस्सवगी
२४.
१२४
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________________
तिलोयपणती
पापा गाषा सं० गाया गावा. गावा
गाथा - बेदि रिसबहेतु
३४ । समसबसमारगुणिवं २०४८ सत्तागोमाग परा १७०० देवीए हो
सगट्टी सस्तीमं १४३२ सत्तारसनाचा देवीमो सेतियामो २२० । समसंखसहासामि ११५ सत्तावष्णसहस्सा बेवीण व वंश ७३७ । समम्रीको मजरि १४३१ सत्तावीसम्मान बेहोहोसिसु
___ २२ । मचिका पति साभिम १९५५ सलामीस समारं २६७१ बंदी पवर्म विधिर्म ७२३ । सम्पासुबो य एवं १२८ सत्तावीस सहस्सा २४५. यावत्तरदिसा १३७० सम्मबल पूरियहि १५१ सप्तापानं मम्सा यापारमुरी १७१ । सदिसहस्सा गवसष १२२६ बेबलियम्सुमनभा २८१. । सटुिसहस्सा हिसय
सत्तावीसा सवा सिलियम पTAVE .७७५१ छिद्रोबस:
सती कोरंगा देसंबरदेवारणं
२५.१ | मट्टीतीस व तिय १३०७ . तत्तुम्सासो पोको २९. देसंबरवेंतरया
२४९० सहबावविविधड़ाव २२३६ सतंसु य मथिए मंबनामको २०२५ सम्णी बीमा होति ४२१ सारिच मागवायत्त देसवन मामलो
सणी हवेविस २१८८ सबमुल्य हिंसक ११४६ तरचा बहुमो २४१७ सत्तबावसका २९०८ समाळणेकरात २९१ बसरमा समे २१५ सतहमवसायि
उमयामसितम्सामा २७ शेतीलाए सावर मत्तमहदीहिं
समविचारी गरि १९१२ सत्तषण्टुसपणव
२६११
सम्मरमरणहीणा २२४२ मत्सरिनम्बाणि
सम्परिणामो मकर सारीपुम्मि बाहो ५५४
सत्तातोप्ससहस्सा १७२२ सरिसमापदे सकशिवदासपुपारण
सत्तदुर सिमराम २००५ सम्मानसावरा सबकस्स मोपासा २०२१
तामाकवि
२६१ मम्मसणवा २११ सक्कादी मि विनं
सत्तभयरमदेहि १४.०७
२२२४ सबकृषिकन्या कण- २५२५ सत्तमए गायो
सम्मनितनो कुर २१८॥ सरपणावतिषणम २९१. सत्तमया सपरिही १८२७ सम्माभिमस्स बारस सगापिणवणबसवुन २७१६ यस प सम्लासम्णा
मम्मजिस्मा सरिन्छ २२२२ संगचाउदोण प्रणवपन २७१२ सत्तरससयसहस्सा २४१५ सम्मलिसाणधर्म २१७५ समर के रोगिगिदुम २७४४ सतरि पाठियसय २५२५ सपउवमसीदोश २०७१ सगणवणमसगतिम
सत्सरिसइसाविस १२३. सपणा पासनाणि १८६२ सपणष्ठियदुगणवणव २१.२ सरिसहस्सोयाण
सयमानणपमुगनि २१८६ सपमसियमवउदुग २७५२ सत्तसग बोमिण पर दुग २६७६ सामनमुरासुरमहिना २३१० सवणवसबसपणपण २१९२ सत्तसपनावतु गो
सायर पि मुबारा १.७५ समपनणगपरपउ सत्तसपालि
सामनागमपापा सपा कोमारो Yisk सत्तसया पाणासा
तयहि पाहि २१८७ मनसाइगिधाड २११५ सत्तसहसणि पण
सबत्तिरस्सिसाता १४० समगप्पणणपण २१६ । सससहस्सा
मरसमक्यावरणमा १०७
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________________
गापानुक्रमणिका
[ ८३५
. वापर माथा पापा गावा. पाना
माया.सं. सरिपाप्रोग्रेसियामो २४१६ मंसियवामपुरमा
सिधमत्तम पुमव्हे धरियार सरियापो २८४ संवेयजोयगाणि १४. सिबसतमोपदो में समिसावपरो उरो २१० संक्षेलासवाणं १० सिसक्लो गोलम्बो २३५५ ससिमे विप भूभीए
संसासहस्सा १३८६ सिबत्व कम्यवंश २२८६ सम्मकलहणिवारण ४१३ संसेक्षा अवमाणा २६8 सिखस्यपूर्व सतु जय १२॥ सम्वगुणेहि समोर
संपवलो १८६३ सिंजरपरापपियकारिणीहि १५६ सम्परममिनिटाणा ५२९ ' मनेण शाणाविह
सिबायो मेसपणो २०२२ सबदहाणं मणिमय ७९५ बरसनबंध १५.२ सिबमाहिमवता समारप तस्व परिही १७२८ संमिग्ण सोवितं दूरस्सावं ६९ सिडिमरता सम्बापो मणहरायो ससम्म प्रयास पर नाणं परियानो
SYY सम्पानोपण्णणामों २२८४ परमरतिष गिपस मिका गिगोषबीया सत्राण पयत्याएं २४ संसारमहरा
मिति गम्मि उस १२५ सम्बाप पारणविणे १७९ सा गिरि उबरि गया १५४. सियो समचारुङ्गा २३३७ सवारण प्रयदा १४०३ मामण चेतकरी
सिसो सोमासको सम्माणं बाहिरए
७४१ सरमण्णभूमिमारणं
सिरमुइकंठप्पदिस सम्वाहमुट्ठियस
सामप्यारासिभो २९७५ सिरियाककेसर मम्बे पणाणिहमा सामाणियतशुरुमा
सिरिनियम वेमिय १७५७ सामागियदेवाएं २२०२
१७१२
सिदेिवीए होति । मध्ये मोटरदारा सामाणियपहोणं २१११
सिरिववीतपुरमा एवे धम्माहि
साया र श्यारे ३५२ सिरिदेवी हुददेखी सन्चे से समयट्टा
२५.०
सामतयपरिरिया १७ सिरिपरसामवी २०५४ मचे दसमे पुम्बे
सामयदेविय
४५ सिरिमा सिरिक १९८८ सम्व पुश्वाहिमहा सासत्तषबाहिरए
सिरिसंचपकूडो वह १६८४ सम्बे वाखारनिरी सासम्मंतरभागे
सिरिसंचनो तिजो १७५५ सचे सियत्पत सामाणं विश्वंभो
सिरिमुददेवीण तहा १९०५ सोसुसू २२८७ सानिजमणास तुबरी
सिरिमेणो सिरिमूवी सम्वेषु विपरणेसु सासिमपालतुरि
सिरिरिया कंठा सम्वेस वि कावासा १४९९ सानो कप्पमाहीमो
शिवगामा मिबधी २४९२ सम्बेसु बसु' १९१७ सावणियपुणिमाए
सिरिस्म तरसमुहा सम्वेसु भोममुवे २९८२ साभट्टीए संभवदेवो
सिहरिस्सुत्तरमागे मुसिकंतसूरकंतं
२१८२ सहामु पत्ताणि । २.४
सिहरीरप्पमा विधिसिय
१९८७ ससिमलकास
२३४ सिम्यं कृति ताएं
सिहती हेरभावको ससिहारहवघबन्नु सिमनि एक्कसमए ३.0Y
मिंगमुहकपणजिहा सहसत्ति सममसार १०१८ सिदतेरसि अवरहे
मिथुषणवे विदार सहिदा वरवावीहि ८१८ सिवबारमि पुवाहे
सिहपुरे यसो संखपिपीमियमकुण
७ । सिंहस्ससाण माहिस २५२
२७३७ २३९२
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________________
८३६ ]
14
सिहासम्म सस्सि
सिंहासरस सुवि
सिदो
सिहासनस्य पच्छिम
सिहासम्म दुरदो सिहासरणं विसर
सिहामरणारण उबरि
सिंहखाणि मझे
सिसलादि हिमा
सोई राष्ट्रं सर्व्हे
मोद उन्हें मिक्स
सीए सर श्रीचाए उत्तरवो
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सोचाए उमएसु ं
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सीवाईए
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सोडा रंगिलीए
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सोवातरंगिनी बन
सीक्षण उत्तरत सीवामित सोदा सोचिय
सोडामा
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सीवी सरि पट्टी होचो
सीबीए
सीगोवा वो
सोदोबा
सोयोध्ये सरिष्
सीले एज्जेन बजे
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५०
तिलोभात्ती
गावा
सोहासणभद्दा सरण श्रीहासम् सुरुकोकिल पर
सु
सुष्णभट्टजसव
सुभगम राम बदुग
सुब्रहृष्णोम सुद्धोवा समिलोदरण
सुप्पहृयमस्य मिला
सुरजबएम बने
सुरगर सिरियारोहण
सुरतमुखा जुनला
सुरयाणवरयासगर
रमणचण
सुस हुए पी
सुमुसु हा सुम्मणमिणेमीसु सुवर्णामसामी
सुसमदुसमन्ययाये
"
सुभ तिथि बड़ी
सुसम सुसम
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14
सुखमसुसमाभिधा सुसमसादिम्मिए pate कदिए कहि सूरम्पमूदमूहो
सेयजल अंगरयं
जिसम
सजा सुपुण्जे
बेलहार उत्तर
लगुहाकुडा
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विद्या परि
मेलविसुद्ध परि
वाचा सं०
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१९७५
मसरोवरसरिया
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धोति पेटुि सोदिवियद भाशा
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सोद्रण सरखिणार्थ
सोमभसरणाम गिरिलो
सोमणसम्भं तर
सोभरणसमेल
सोमणस् ए बासे
सोमएस करिकेहरि
सोमवं णामवरणं
सोमासा वो हे
२४३
२१४४
२६६२
२७११
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१०४० । खोल विज्ञमाहारे
शो से वज्जमध सोलस को
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१५१
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________________
गापानुक्रमणिका
[ ५३७
I
fe
पापा सोलसमहसमठसय सोमवहस्सपहिय सोलससहस्सपाणि
११२ ३४६.
१६५५
सोहम्मसूरिवलय सोहम्पादिपचारम मोहम्मादी बन्नु सोहम्पिंवासपको सोहमु चमकमायो सोहसु परिझमसुइए सोहमु मस्मिमसूई सोहमु विरपाराको सोहति प्रसोपतक सोहेवि तस्स संभो
गाबा. । गापा
गापास
गाथा हरिकरिबस हानि
हर सीदिगुर्ण २४१५ हरिकतासारिया
हेद्विम मझिम उरिम १८.२ हरिणादितगारा ५९७ हेष्टित्मम्मि विमाने १८२६
हावालबई परिदी १५२९ हेमवदं पदोग २२५७
हरिवरिसमवेतफर्म २७५७ हेमबदमारह हिमवंत
इरिवरिलो पगिदी २०५२ १२॥
हेम्यवाहितार्ण हरिरिसो णिसहद्दी २७९ हेमवदस्म य इंदा ७१
हाएदि किपको ૨૫૦ हेरएवरम्मतर
पाहा मीदिगुणं 1०७ १६५५
हेरमानदो मकिन हिण्यमहाररावामो २९२४
होति समापुरपुरखो हिपबंवववस्सय
१७४० २७०९
हॉति प्रसंगमा हिपतमहाहिम
हॉति तिवि-सुचिट्ठा २६५२
हिमवंतपस्सममले १६८० होति दहारण माने २१. हिमपंतमंतमणिमम
होति पाइन्वपहरी हिमतपरिसबीहा
होति परामागीया हिमवंतस य करे
होति छहसा पारस २५१५ हिमवंताबमामलो
१.५ होति ह पसंखसममा __५५५ । हसबसपणिस्स मा १२६१ । तिहबरपासाबा
१९२१ २९७८
२०१७
१४.४
हत्यपहेलिया दमकणाई कमसो इयणम्मिमाहि
२८६ ૨૭૬
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________________
० ०
rr
१४
*
१६
२२
२४
२४
२४
४२
५१
ऐ
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१००
१०१
१०६
११२
१५१
२५७
२७१
२७५
२८५
२५६
३३२
१४५
पंकिया
वासिका २
६
१३
तालिका ३/१३
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२१
१९
२०
संदृष्टि पंक्ति ९
तासिका १६ कॉलम ५ / १३
१७
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१६
१४
१४
२०
तालिका २०jमिति १८
शुद्धि पत्र
भसुख
यासाचार्य श्री निधि
अप्सरा से
भागल
४०५२२४ (२०० व.) ६३२८५४
खो का वयं
ज० के वामा
म० के बाणास
उ० के बास
मसू
विजयास
सजुत्ता
त
নি
११२
य भान
( चौथे दिन
प
पूर्व
वीर्यकरों के
देवीक
समय
तुम्बुल
एक लाख चौरासी हजार
२०५०
सप्सरा से
मामण्डल
४०५२२४ (२००० प्र. ) ६३२४५४
जीवा का वर्ग
सिविई
३१६
मयं
सुख
० भोमभूमि के बालाव
म० भोषभूमि के मा
उ० भोग भूमिकेला
मंत्रण
विजया के व्यास
संजुत्ता
पर्य
—
- वह भाजन है...
(बाँये दिन }
सीहाराज
कूटों के
बेदी के
सीमथट्टा
अतिशय के
के
जोब समवसरण में प्रवेश जीव समवसरण में प्रवेभ
2
तुम्बूस्व
मठारह हजार चार सो
२०५५
Page #866
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________________ सुदिपत्र [ 36 पंक्ति संख्या : . एक 381 प्रतिम पंक्ति बवासीक बामोर 121 मंगल पतंग 528 साक (चित्र) 537 मगन पत्तवक परेम पवमुत प्रभुत घय 117 पर 627 नहीलगिरी 573 टीपों 604 12 70, मंतिम पंक्ति 720 मीमावरी दोपों 2146 ( यो) मंबसवती संम्या उत्पन्न उतने पाण 1971502 मंगलाती 14..... नाय देवाकई . ( यो. अंगमावती संम्पा सपना हो उतने प्रमाण 15065 भंगावती 14444. हर पारपरेना के वियोग परायचंति C. C07