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________________ गावा: १०९५-१०५८ ] घउत्पो महाहियारो [ ३२१ म :-जिस अधिक प्रमावसे दुष्कर तरसे युक्त भुनियों द्वारा स्पर्श किया हुप्रा जल एवं वायु तथा उनके रोम और नस प्रादि भी ग्याधिके हरनेवाले हो जाते हैं, वह सोषषि नामक ऋद्धि है॥१४॥ बचननिधि-द्धिसिसावि-विविह-मग, "विसजत और वियप मराज जी पावि णिविसरा', सा रिडी दयण-मिनिसा णामा ।।१०५५॥ अर्थ:-जिस ऋद्धिके प्रभावसे सिक्सादिक रस एवं विष संयुक्त विविध-प्रकारका अन्न ( भोजन ) वचनमानसे ही निविष हो जाता है, वह बचननिविष नामक ऋद्धि है ।।१०८५॥ आहवा बबाहीहि, परिमूरा झत्ति होंति जीरोगा । सोडु वयणं जोए, सा रियो वयण - णिविसा गामा ॥१०८६।। मर:-पथवा जिस डिके प्रभावसे बहुत प्याधियोंमे युक्त जीव ( ऋषियः । वचन मुनकर ही शोघ मीरोग हो जाते हैं, वह वचन-निविष नामक ऋद्धि है ।।१०८६।। दृष्टिनिविष- ऋद्धि-- रोग - विसेहि पहबा, विट्ठोए जोए झत्ति' पार्वति । गोरोग-णिम्बिसतं, सा भणिवा दिद्वि-णिखिसा रिवी ।।१०६७।। ।एषमोसाहि-रिती समता । प:-जिस ऋद्धिके प्रभावसे रोग एवं विषने युक्त जीव ( ऋषिके ) देखने मावसे शीन हो नीरोगता एवं निवियताको प्राप्त करते हैं. वह दृष्टिनिविष-अदि कही गई है ।।१०।। । इसप्रकार प्रोषि-ऋद्धिका कथन समाप्त हुना । रस-ऋषिके भेद-- छामेवा रस - रिखी, आसी-विट्ठी-विसा य वो तेसु । खीर -"मनु - अमिय - सप्पोसपिओ चचारि हाँति गमे ।।१०८८॥ १६.क.ज... सिमित। १....य, ।ि ...क... प. उ. या
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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