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________________ गाषा : १७६६-१७७२ ] उत्पो महाहिमारो प्रर्ष:-इस क्षेत्रके महमध्यभागमें विजयवान् नामक नाभिगिरि स्थित है । यहाँ सर्व दिव्य वर्गनसे युक्त पारणदेव रहते हैं ॥१८॥ हरिकान्ता नयोका निरूपणमहपउम • बहाउ भनी, उत्तरभागेण तोरणहारे। मिसरिखूणं वश्चति, पम्वर - उरिम्मि हरिकता ॥१७६६।। अची रिकान्तारावि महालको सन्तरासानन्धी सोहाद्वारसे निकलकर पर्वतके । ऊपरसे जाती है ।।१७६६।। सा गिरि-उरि गच्छा, एक-सहस्सं पसरा छ-सया । जोयणया पंच कला, पगालिए परवि कूरम्मि ॥१७७०।। । १६०५. । म :-वह नदी एक हजार छहसो पांच पोजन और पाप कला ( १६०५पो) प्रमाण पर्वतके ऊपर जाकर नालोके द्वारा कुण्डमें गिरती है ॥१७७०।। बे-कोहिमपाश्यि, गाभि - गिरिवं पाहिन का। पश्चिम - मुहेण वन्यवि, रोहोपो बिगुम - वासावी ।।१७७१॥ प्र:-पक्ष्यात् वह (नदी) नामिगिरिसे दो कोस दूर ( इधर ही रहकर अर्थात् उसे न पाकर, उसको ( अ ) प्रदक्षिणा करके रोहित्-नदीको अपेक्षा दुगुने विस्तारादि सहित होती हुई पश्चिमकी मोर जाती है ।।१७७१।। अत्यन्ण - सहस्सेहि. परिवार • सरंगिनीहि परियरिया । वीबस्स य नगवि-बिलं, पवितिय पवितेह लवनिहिं ।।१७७२।। । ५६०००। । हरिवरिसो गये। :- इसप्रकार वह नदी अप्पन हजार परिवार नदियों सहित दीपके जगतो-दारमें ( बिल ) प्रवेश कर पनन्तर लवणसमुद्र में प्रवेश करती हैं ॥१७७२।। । हरिवर्ष-क्षेत्रका वर्णन समाप्त हुना।
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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