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गाथा : १५७२- १५७७ ]
उपो महाहिमा
कुवृष्टियोंके पश्चात् बायंखण्डका स्वरूप
एवं कमेण भरहे, अब्जा शम्म जोवर्ण एकं । बिताए उवरि ठिबा दक्झ बढि गया भूमी ।। १५७२ ।।
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:--इसप्रकार क्रमशः भरसक्षेत्रके मध्य कार्य
वृद्धिङ्गत एक योजनकी भूमि जलकर नष्ट हो जाती है ।।१५७२ ।। बज्ञ-महणि-बसे प्रजा संस्स वया भूमी । रूबं मोसूचं जानि लोयं ।। १५७३ ॥
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४. क. दुस्समार
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पुल्लि
संध
वर्ष-वत्र और महा अग्नि बलसे श्रार्यखण्डकी बड़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्कन्ध स्वरूपको छोड़कर लोकान्त पर्यन्त पहुँच आती है, श्री आर की ट ताहे अज्जा संयं बप्पमतल - तुलिय- कंति-सम-पुटु ।
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गय धूलि पंक कसं, होदि समं सेस मुमीहि ।। १५७४ ।।
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में चित्रा विवके ऊपर स्थित
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अर्थ :- उस समय आर्यचण्ड शेष भूमियों के समान ददातलके सदृश कान्तिसे युक्त, पुढ
और भूमि एवं कीचड़ आदिकी कलुषतासे रहित हो जाता है ।। १५७४ ।।
उपस्थित मनुष्योंका उत्सेध आदि
१.ब.क. प. य. उ. हिमा । २.
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तत्युत्थिय - नराणं, 'हत्वं उपम्रो य सोलसं वस्सा ।
महा पण्णरसाऊ, विरियादी तख्वा य ।। १५७५ ॥
:- ( उस समय ) बड़ाँ उपस्थित मनुष्योंकी ऊंचाई एक हाथ, माधु सोलह वर्ष अथव पाहू वर्ष प्रमाण तथा शक्ति प्रावि भी तदनुसार ही होती हूँ ।। १५७५१
उत्सर्पिणी कालका प्रदेश और उसके भेद
ततो विवि रम्मी कालो उस्सपिरिण शि
पढमो असमी, बुद्दन्जलो इम्ब्रयो दुस्समानामा ।। १५७६ ।। दुस्समसुतमो दियो, चरत्वमो सुसमस्त पो नामा | पंचमओ सह सुसमो, जस्पपिओ सुसमसमभो
।। १५७७।।
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