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२६ संख्येय तक श्रुत केवली का विषय होने के कारण, तदनुगामो संख्याएँ असंख्येय कही गई है जो उपचार है। मसंख्यात सोक प्रमाण स्थिति बपाध्यवसायस्थान प्रमाण संध्या का आशय स्थितिबन्ध के लिए कारणभूत मारमा के परिणामों को संख्या है । इसीप्रकार इससे भी प्रसंस्येय लोक गुणे प्रमाण पनुभागबन्धाध्यवसायस्थान प्रमाण संस्था का बामय अनुमान बन्ध के लिए कारणभूत मात्मा के परिणामों की संख्या है । इससे भी असंख्येष लोक प्रमाण गुणे, मन, वचन. काय योगों के अविशा प्रतिवेदों (कर्मों के फल देने की शक्ति के भविभागी बंशो) की संख्या का प्रमाण होता है। वीरसेनाबार्य में षटाण्डागम (पु. ४. पृ. ३३८, ३३१ ) में अदं पुदगल परिवर्तन काल के
मनन्तस्य के व्यवहार को उपचार निबन्धक बतलाया है। arket: इसोका चयाधी असल्या ताब्यात और जपन्य परीतानन्त में केवल ! का
अंतर हो जाने से ही "अनन्त" संज्ञा का उपचार हो जाता है। यहाँ भवधिज्ञानो का विषय उस्कृष्ट प्रसंस्थात तक का होता है. इसके पश्चात् का विषय केवलज्ञानी की सीमा में माजरने के कारण 'अनन्त' का उपचार हो जाता है । जब जघन्य अनन्तानन्त को तीन बार पगित संगित राशि में प्रनन्तात्मक राशियां निक्षिप्त होती है तभी उनकी पनन्त संक्षा सार्थक होती है. जैसी कि संध्याररक राशि निक्षिप्त करने पर संस्थेय राशि को पसंस्थेयता को सार्थकता प्राप्त होती है। वास्तव में व्यय के होते रहने पर भी ( सवा? ) अक्षम रइने बासी भय जीव राषि समान और भी राशिया है-गो क्षय होने वाली पुरगम परिवर्तन काल जैसी सभी राशियों के प्रतिपक्ष के समान पाई जाती है।
अन्य में इस संबंध में वगित संगित, छलाका कुडादि की प्रक्रियाएं पूर्ण रूप से वरिणत हैं।
वगित संगिस की तिलोयपणती को प्रक्रिया धवला टोका में दी गयी प्रक्रिया से भिन्न है। प्रनम्त सपा केवलशान राशि के सम्बन्ध में विवरण महत्वपूर्ण है, "इसप्रकार वर्ग करके उत्पन्न सम वर्ग राषियों का पुल केवसझान-केवलदर्शन के पमन्स भाग है, इस कारण वह भाजन है दम्य नहीं है।" गाश/१७८० मावि
समान गोल पारीर बाला में पर्वत, "समवतगुस्स मेस्स" में रंभों और वांकु सममिलाकों द्वारा निर्मित किया गया है। इन गाषाओं में मेरु परत के विभिन्न स्थानों पर परिवर्तनमोल मान, ऊंचाईयों पर म्यास, बतलाए गये है । "सूर्य पप की तियंकता की धारणा को मानो मेरु पर्वत की आकृति में लाया गया है" यह आपाय लिश्क एवं पार्मा ने अपने शोध लेख में दिया है।
* S, S, Lishk and S. D. Sharma, "Notion of Obliquity of Ecliptic Implied in the Con.
cepe of Mount Meru in Sambudyipe prijzepti." Jain Journal, Calcutta, 1978, pp. 19,