SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 45 ४६४) तिखोपपणती - [गाया : ११२४-१६२८ प:-( उस समयके ) नर-नारी दो कोस ऊच, पूर्ण सहरा मुखमाले, बहुत विनय एवं डीलसे सम्पत्र पौर पृष्ठभागकी एकसो अट्ठाईस हड़ियों सहित होते हैं ॥१६२३।। । सूधमाकासका कपन समाप्त हुपा । सुषमासुषमाकालका प्रवेश एवं उसका स्वरूप-- . सुसमसमाभिषाणो, तहे पविसेवि मो कालो । तस्स पढने पएसे, श्राऊ - पहुवीणि पुष्वं व ॥१५२४।। प्रर्ष : तदनन्तर सुषमसुषमा नामक का काल प्रविण होता है। उसके प्रथम प्रवेशमें पायु मादिके प्रमाण पूर्वके सड़म ही होते हैं ।।१६२४॥ काल-सहावमलेन, पढ़ते सार मनुब - हिरिया।। ताहे एस परिसी, उत्तमभोगावणि सि सुपसियो ।।१३२५॥ प्रबं:-काल स्वभावके प्रभावसे मनुष्य मोर तियंगोषी आयु आदिक कमश: इरिङ्गत होती जाती है । उस समय यह पृषिषी उत्तम-ओगभूमिक नामसे सुप्रसिब हो जाती है रिश तरिमम्मि गरागं, पाक पल्सत्तय - प्पमारणं ।। ___. उरएण तिगि कोसा, उज्य - विरिणामाल - सरोरा ॥१६२६॥ प्रबं :--उस कालके मम्समें मनुष्योंकी मायु तीन पल्प-प्रमाण और केंचाई तोन कोस होती है वमा मनुष्य उदित होते हुए सूमं सरल उज्ज्वल शरीर वासे होते हैं ।। १६२६|| के - सब अपनाई पड़ी होति ताग मगुवान । बहु - परिवार - बिगुम्मण - समात्य • सत्तीहि संयुत्ता ॥१६२७॥ प:-उन मनुष्योंके पृष्ठ-भागकी हरियो दोसो छप्पन होती है. सचा वे भमुख्य बहत परिवारको विक्रिया करनेमें समर्ष ऐसी शक्तियों से सहित होते हैं ।।१६२७।। पुनः अवपिगीका प्रवेश. ताहे परिसर निममा, कमेन अबसपिपिति सो कालो। . एवं भज्या - खरे, परिपट्टते - काल • पकानि ॥१६॥ प:-इसके पश्चात् पुनः नियमसे बह अवपिरणीकाल प्रवेश करता है। इसप्रकार मार्गबण्डमें उत्सपिणी पोर अवपिणो रूपी कासमक्र प्रवर्तित होता रहता है ।।१६२८॥ नोट-कालचक्रको दर्शाने वाला चित्र गाथा ३२३ के बाद अंकित है।
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy