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गाथा : १०६५-१०६३ ] पउत्यो महाहिया में
अर्थ:-उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप, (चतुर्ष ) महातप, (पषियो घोरतप, (छा) घोर-पराक्रमतप और ( सातवां ) अघोराह्ममारित्व, इसप्रकार तप-ऋतिक ये सात भेद कहे गये है। इनमेंसे उग्रतप-ऋद्धिके दो भेद होते है वोपतप और अवस्थित-उग्रतप ।।१०५८-१०५६।।
उप्रोग्र-तप-ऋद्धिदिवसोवासमावि, 'कावूर्ग एक्काहिएक्सपथएन ।
मामरण; महानिant
म: दीक्षोपवाससे प्रारम्भ कर मरण-पर्यन्त एक-एक अधिक उपवासको बढ़ाकर निर्वाह करना, उप्रोग्रतप-ऋद्धि है ।।१०६॥
अबस्थित-उन-तपदिक्खोपबासमावि, काबु एक्सरोव वासाणि । कुम्बाणो जिन - णिम्भर - भक्ति - पससेण बिसेन ॥१०६१॥ उप्पण्ण - कारणतर, आवे छट्ठमावि अब्बासे ।
हमजावि जीए, सा होवि अवडियोग्ग-सब-रिबी ॥१०६२।।
प्रबं:-दीक्षार्थ एक उपवास करके ( पारणा करे और पुनः ) एक-एक दिनका अन्तर देकर उपवास करता जाए । पुनः कुछ कारण पाकर ष-भक्त, पुनः प्रश्रम-भक्त ( पुन: इसम-मक्क. पुनः द्वादशम-भक्त) इत्यादि क्रमसे नीचे न गिर-कर जिनेन्द्रको भक्तिपूर्वक प्रसन्न-चित्तसे उत्तरोत्तर मरापर्यन्त उपवासोंको बढ़ाते जाना अवस्थित-उन-तप-ऋशि है ॥१०६१-१०६।।
दोन-तप-ऋद्धिबहुबिह - उपवासेहि. रविसम-बड़वंत-काय-किरनोहा । काय-मण-बयन-बलियो, जीए' सा वित्त-सब-रिसी ॥१०६३॥
:-जिस ऋद्धिके प्रभावने मन, वघम और कायसे बलिष्ट ऋषिके बहुत प्रकारके उपवासों-सारा शरीरको किरणोंका समूह सूर्य-सहमा बढ़ता हो वह दीप्त-तप-वि है 11१०६३।।
१.१.क.ब. . उ. का। २. .च. क. प. प. उ. पण । ३६.क.प. य... मोरे ।