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________________ तिलोपती [ गाथा : १०५६ - १०५६ अर्थ :- जिस ऋद्धिके द्वारा तपस्वी ज्योतिषी देवोंके विमानोंकी नीचे, ऊपर और तिरछे फैलनेवाली किरणोंका अवलम्बन लेकर गमन करता है, वह ज्योतिवचार-ि है ।। १०५५ ।। ३१४] मान चारण ऋद्धि नामाहि-गदि- मारुव-पवेस-पंतीसु' सि' पवखे । जं अक्खलिमा सुनियो, सा माधव चारा रिद्धी ।। १०५६ ।। कणो । भयं :- जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनि नानाप्रकारकी गतिसे युक्त वायुके प्रदेशोंकी पंक्तियों पर अस्खलित होकर पद-विक्षेप करते हैं, वह मारत चारण ऋद्धि है ।। १०५६ ।। उपसंहार REET विषाभंग भारण-रिटीए भाषिका नेवा । कहने, टॅबएसो अम्हउछिन् । १०५७।। एवं किरिमा र समता । वादी साण सस्व अर्थ :- विविध भङ्ग युक्त चारण ऋद्धिके अन्य भेद भी भासित होते हैं, परन्तु उनके स्वरूपका कपन करने वाला उपदेश हमारे लिए नए हो चुका है ।। १०५७ ।। । इसप्रकार क्रिया- ऋद्धि समाप्त हुई । तप ऋद्विके भेद-प्रभेद- उम्मतथा बितवा, तसतवा तह महातवा तुरिमा । घोरतवा पंचमिया, घोर परक्कम - - - तथा हट्टी ।।१०५६ - तब रिद्धीए कहिवं, सत्तम य अघोर बम्हचारिसं उग्गतया दो भेदा, उग्ग्रोमा अब हि-दुग्ग-तव-नामा ११०५६ ।। १. १. जज, ए. ज. सतोमु, क. सुत्तोमु । २८. दिति । २. द. ज. प मंजा । ४. ५. ज. य.
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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