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तिलोवारणसी
[ गाया: ३१०-३२३
वर्ष :- भरतक्षेत्र के श्रार्यमें ये कालके विभाग हैं । यहाँ पृष्पक्-पृथक् अवसर्पिणी और उत्सपिरो रूप दोनों ही कालको पर्यायें होती हूँ ।। ३१७॥
नर-तिरियां आऊ, 'उच्छेह-विभूति-यहूदियं सम्यं । अवसप्पिणिए हायदि, उस्सप्पिनिया बडेवि ।।३१८ ॥
अर्थ :- अवसर्पिणी कालमें मनुष्य एवं तिर्यञ्चोकी आयु, शरीरकी ऊंचाई एवं विभूति आदि सब ही घटते रहते हैं तथा उत्सर्पिणी कालमें बढ़ते रहते हैं ।। ३१८१
अद्धारपल्ल - सायर उदमा बस होंति' कोfaniti |
अवसपिि
कालो
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अर्थ:-श्रद्धापल्योंसे निर्मित दस कोठाकोड़ी सागरोपम प्रभारण अवसर्पिणी और इतना ही उत्सर्पिणी काल भी है ॥३१६॥
दोणि बि मिलिये कप्पं, सुभसुसमं व सुसमं
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दुस्समसुसमं दुस्सममविदुस्समयं व तेसु पदमम्मि । अतारि सायरोवन startsier परिमाणं ॥ ३२२ ॥
मेदा होंति तस्य च । तज्जयं सुसमदुस्समयं ॥ ३२० ॥
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सुसमम्मि तिणि जलहो उनमाणं होंति कोडिकोटम्रो । बोणितवियमि तुरिमे, बाबाल सहस्स-विरहियो एक्को ॥ ३२२ ॥
इगियोस - सहस्सानि वासाणि "स्समम्म परिमाणं । अविस्म िकाले, सेलियमेत मि दिव्वं ॥ १२३॥
अर्थ :- इन दोनोंको मिलानेपर बोस कोडाकोढ़ी सागरोपम प्रभारणका एक कल्पकाल होता है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीमेंसे प्रत्येक के छह-छह भेद होते हैं सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा-सुषमा, दुष्षमा सुषमा, दुष्वमा और प्रतिदुष्यमा । इन छहों कालों से प्रथम सुषमासुषमा चार
१ . उच्छेद । २८. पि. होदि .. सुमदुम | दुम्मिय पुरसम्म ।
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