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________________ १०२ ] तिलोवारणसी [ गाया: ३१०-३२३ वर्ष :- भरतक्षेत्र के श्रार्यमें ये कालके विभाग हैं । यहाँ पृष्पक्-पृथक् अवसर्पिणी और उत्सपिरो रूप दोनों ही कालको पर्यायें होती हूँ ।। ३१७॥ नर-तिरियां आऊ, 'उच्छेह-विभूति-यहूदियं सम्यं । अवसप्पिणिए हायदि, उस्सप्पिनिया बडेवि ।।३१८ ॥ अर्थ :- अवसर्पिणी कालमें मनुष्य एवं तिर्यञ्चोकी आयु, शरीरकी ऊंचाई एवं विभूति आदि सब ही घटते रहते हैं तथा उत्सर्पिणी कालमें बढ़ते रहते हैं ।। ३१८१ अद्धारपल्ल - सायर उदमा बस होंति' कोfaniti | अवसपिि कालो - अर्थ:-श्रद्धापल्योंसे निर्मित दस कोठाकोड़ी सागरोपम प्रभारण अवसर्पिणी और इतना ही उत्सर्पिणी काल भी है ॥३१६॥ दोणि बि मिलिये कप्पं, सुभसुसमं व सुसमं - दुस्समसुसमं दुस्सममविदुस्समयं व तेसु पदमम्मि । अतारि सायरोवन startsier परिमाणं ॥ ३२२ ॥ मेदा होंति तस्य च । तज्जयं सुसमदुस्समयं ॥ ३२० ॥ - सुसमम्मि तिणि जलहो उनमाणं होंति कोडिकोटम्रो । बोणितवियमि तुरिमे, बाबाल सहस्स-विरहियो एक्को ॥ ३२२ ॥ इगियोस - सहस्सानि वासाणि "स्समम्म परिमाणं । अविस्म िकाले, सेलियमेत मि दिव्वं ॥ १२३॥ अर्थ :- इन दोनोंको मिलानेपर बोस कोडाकोढ़ी सागरोपम प्रभारणका एक कल्पकाल होता है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीमेंसे प्रत्येक के छह-छह भेद होते हैं सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा-सुषमा, दुष्षमा सुषमा, दुष्वमा और प्रतिदुष्यमा । इन छहों कालों से प्रथम सुषमासुषमा चार १ . उच्छेद । २८. पि. होदि .. सुमदुम | दुम्मिय पुरसम्म । Y. 4. 4. 5. T. 7.
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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