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तिलोयपणती
सुपमासुषमा कालका निरूपण
सुखम्मसमम्मि 'काले 'मुमो रज-धूम-अल-क्रिम- रहिवा
फंडिय अम्भसिला विविधयादि फीडोवसम्म परिचता ॥ ३२४॥
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निम्मल - उप्पण - सरिसा, निबिद बच्चेहि बिरहिया तीए ।
सिरुबा हवेदि विब्वा, तशु-मण-नवमाण सुह-जली ।।२५।।
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अर्थ :- सुषमासुपमा कालमें भूमि रज भ्रम, दाह और हिमसे रहित साफ-सुथरी, ओलावृष्टि तथा बिच्छू यादि कीड़ोंके उपसर्गसे रहित निर्मल दर्पण के समान, निन्द्यपदार्थोंसे रहित दिव्य- बालुकामय होती है जो तन-मन और नेत्रोंको सुख उत्पन्न करतो है ।।३२४-३२५ ।।
विष्फुरि-पंच-बप्पा, सहाष-मउवा य महुर-रस-बुत्ता | चउ-मंगुल परिमाणा', तुणं पि जाएवि सुरहि-गंधा ॥ ३२६॥
[ गाया : ३२४-३२८
उस पृथिवी पर पाँच प्रकारके वरणों स्फुरायमान, स्वभावसे मृदुल, मधुर रसखे
युक्त, सुगन्धसे परिपूर्ण और चार अंगुल प्रमाण ऊंचे तृण उत्पन्न होते हैं ।।३२६८
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तीए 'गुच्छा गुम्मा, कुसुमंकुर-फल-पवास-परिपूण्णा ।
बहुओ विचित बण्णा, वक्ल समूहा समुत्तु गा ॥१३२७।।
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म :- उस कालमें पृथिवी पर गुच्छा, गुरुम ( झाड़ी), पुष्प, अंकुर, फल एवं नवीन पत्तों से परिपूर्ण, विचित्र वर्णवाले और ऊंचे वृक्षोंके बहुतसे समूह होते है ।।३ २७।।
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करुहार-कमल- कुवलय- कुमुदुज्जल-जल-पवाह्-त्या' I पोखरणी बाबोओ, मअरादि" विवक्जिमा होंति ।। ३२८ ||
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:- कल्हार (सफेद कमल }, कमल, कुवलय और कुमुद ( कमलपुष्पों ) एवं उज्ज्वल जल-प्रवाहसे परिपूर्ण तथा मकरादि जस-जन्तुओंसे रहित पुष्करिणी और कापिकाएं होती है ।। ३२८ ॥
१. इ. काम, उ. कालो । २. ६. ब. ४.ब.उ. सरसा । ५. . . . ज. म. उ. दम।। भरति 1 ८.क... संघट्ट . . . य. ग ११. . . . . . उ अमरादि
. . उ. भूमि 1. 4. 4. 5. 6. J. HAIR'I ६. क्र. ज. द. प. उ. परिमाणं । ७. क. प. उ.न. १०. . . . . प. उ. पदयो ।