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________________ ५३४ ] तिलोपपण्णत्ती [ गाथा : १६३१ - १९३६ :- पोके ऊपर इसी प्रमारणको धारण करने वाले एक लाख चालीस हजार एकस बीस ( १४० १२० ) इसके परिवार वृक्ष है ।। १६३० ।। विविह-पर- रयण साहा', भरगप-पशा य पउमराय-फला । चामोयर रजवमया कुसुम जुदा यल- कालं ते ।।१६३१|| अर्थ :- (वृक्ष) विविध प्रकारके उत्तम रत्नोंसे निर्मित शाखाबों मरकतममिम पत्तों. पद्मरागमणिमय फलों और स्वर्ण एवं चांदीसे निर्मित पुष्पोंसे सदैव संयुक्त रहते हैं ।। १६३१।। सम्बे अगाह-हिणा, पुढविनया विव्व-वेरा-वर-क्ला । :- अकारण मुसई एवंति ॥१६३२ ॥ - :- ये सब उत्तम दिव्य चेत्यक्ष अनादि निधन ओर पृथिदोरूप होते हुए लोगोंको उत्पत्ति और विनाशके स्वयं कारण होते हैं ।। १६३२ ।। दमलाल -विसासू पोक्कं विविहरयन-रवाओ। जिए - सिद्धप्पडमाओ, जयंतु पचारि चचारि ।।१९३३ ।। प्र:- ( इन वृक्षोंमें } प्रत्येक वृक्षको चारों दिशाओं में विविध प्रकारके रत्नोंसे रचित जिन (अरिहन्त ) और सिद्धों को चार-चार प्रतिमाएँ । बिराजमान हैं) । (ये प्रतिमाएं ) जयवन्त हों ।।६३३॥ · - वेश तणं पुरवो बिल्वं पोडं हवेदि कमयमयं । उच्छे बोहवासा, तहत व उच्छष्ण - टबएसो ।। १६३४ ।। अर्थ :- चैत्यवृक्षोंके सामने स्वर्णमय दिव्य पोट है। इसकी ऊँचाई लम्बाई और विस्तारादिकका उपदेश नष्ट हो गया है ।। १६३४ || पीतस्स भर विसालु बारस वेदी होंति मिले। परियालय गोजर दुवार तोरण विविधाओं ॥१६३५२ :- पीके चारों पर भूमितलपर मार्गों प्रट्टालिकाओं, गोपुखारों और तोरणोंसे - - - ( युक्त ) अदभुत बार वेदिय है ।। १६३५।। जोयम-उज्धेशा उपरि पीदस्त रुपय-वर संभा । + विहि-मनि-रया - सचिवा, वामर-घंटा-पयार-जुषा ।।११३६ ।। १ व... ... सोहा ।
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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