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तिलोपपण्णत्ती
[ गाथा : १६३१ - १९३६
:- पोके ऊपर इसी प्रमारणको धारण करने वाले एक लाख चालीस हजार एकस बीस ( १४० १२० ) इसके परिवार वृक्ष है ।। १६३० ।।
विविह-पर- रयण साहा', भरगप-पशा य पउमराय-फला ।
चामोयर रजवमया कुसुम जुदा यल- कालं ते ।।१६३१||
अर्थ :- (वृक्ष) विविध प्रकारके उत्तम रत्नोंसे निर्मित शाखाबों मरकतममिम पत्तों. पद्मरागमणिमय फलों और स्वर्ण एवं चांदीसे निर्मित पुष्पोंसे सदैव संयुक्त रहते हैं ।। १६३१।। सम्बे अगाह-हिणा, पुढविनया विव्व-वेरा-वर-क्ला ।
:- अकारण मुसई एवंति ॥१६३२ ॥
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:- ये सब उत्तम दिव्य चेत्यक्ष अनादि निधन ओर पृथिदोरूप होते हुए लोगोंको उत्पत्ति और विनाशके स्वयं कारण होते हैं ।। १६३२ ।।
दमलाल -विसासू पोक्कं विविहरयन-रवाओ। जिए - सिद्धप्पडमाओ, जयंतु पचारि चचारि ।।१९३३ ।।
प्र:- ( इन वृक्षोंमें } प्रत्येक वृक्षको चारों दिशाओं में विविध प्रकारके रत्नोंसे रचित जिन (अरिहन्त ) और सिद्धों को चार-चार प्रतिमाएँ । बिराजमान हैं) । (ये प्रतिमाएं ) जयवन्त हों ।।६३३॥
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वेश तणं पुरवो बिल्वं पोडं हवेदि कमयमयं ।
उच्छे
बोहवासा, तहत व उच्छष्ण - टबएसो ।। १६३४ ।।
अर्थ :- चैत्यवृक्षोंके सामने स्वर्णमय दिव्य पोट है। इसकी ऊँचाई लम्बाई और विस्तारादिकका उपदेश नष्ट हो गया है ।। १६३४ ||
पीतस्स भर विसालु बारस वेदी
होंति मिले।
परियालय गोजर दुवार तोरण विविधाओं ॥१६३५२
:- पीके चारों पर भूमितलपर मार्गों प्रट्टालिकाओं, गोपुखारों और तोरणोंसे
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( युक्त ) अदभुत बार वेदिय है ।। १६३५।।
जोयम-उज्धेशा उपरि पीदस्त रुपय-वर संभा ।
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विहि-मनि-रया - सचिवा, वामर-घंटा-पयार-जुषा ।।११३६ ।।
१ व... ... सोहा ।