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तिलोयपण्णत्तो
[ गाया : ५०२-५०६ पमुषोत्तर-परण-सय-बाउन्छहो सुबष्ण-
बल-णिहो । इगि-पुरुष कोरि-आऊ, बलदेवी णाम तस्स बहू १५०२॥
। ६ ५२५ । पुरुष कोडि १ घाउ । म :-वह पाँचसो पच्चीस घनुष ऊंचा, स्वर्ण सदृशा बर्ण बाला मौर एक पूर्व कोटि प्रमाण आयुसे युक्त पा। उसके मरुदेवी मामकी पत्नी थी ।।५०२।।
तस्सि काले होषि हु, बालार्ग भाभिणाल - मादीहं ।
तस्कत्तणोवोस, कहवि मगू से पकुम्वति ॥५०३॥
प्रपं :-उस समय बासकोंका नाभिनाल अस्यन्त लम्बा होने लगा था, नाभिराय कुलकर उसे काटनेका उपदेश देते हैं और वे मनुष्य पंसा ही करते है ।।५०३।।।
Rara .. a # KARE हारा कम्पमा पगट्ठा, साहे' विविहो'सहीणि सत्साणि ।
महुर - रसाः फलाई. पेच्छंति सहापदो परिचोसु ॥५०४।।
प:-उस समय कल्पवृक्ष नष्ट हो गये और पृथिवी पर स्वभावसे हो उत्पन्न हुई प्रनक प्रकारको औषधियां, सस्य ( धान्यादि ) एवं मधुर रस युक्त फल दिखाई देने लगे ॥५०४||
कप्पता विणासे, तिम-भया भोगभूमिजा मणवा ।
सव्वे वि नाहिराज, सरणं परिसंति रस्तेत्ति ॥५-५॥
मर्ष:--कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जाने पर तोत्र भयसे युक्त सब ही भोगभूमिज मनुष्य नाभिराय कुलकरकी गरणमें पहुँचे और बोले 'रक्षा करो ॥५०५।।
करुणाए बाहिरामो, गराष उविसरि जीवसोवायं ।
सुबह बणप्पडोणं, बोचावीगं फसाइ भक्खागि ॥१०॥
प्रचं:-नाभिराय करूणा-पूर्वक उन मनुष्योंको प्राजीविकाके उपायका उपदेश देते हैं। ( वे बताते हैं कि ) भक्षण करने योग्य बोधादिक (छिलके वासी) वनस्पतियोंके फल (फेला, श्रीफल आदि ) खाओ ॥१०६।।
1. इ. स.बे, ग. क. ब. य. उ. ताहि ।
२. .. .. ज. य. उ. विविहोमहीण सामाणं ।