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तिलोमपणती
काल- महाकाल पंडू, मारणव संत्रा व परम- खहसप्पा | पिगल-खारणा एवरणा, असर-सय-पानि हि मे ।। ७४७।।
अर्थ :---काल, महाकाल, पाण्ड, माणवक, शङ्ख, पद्म, सर्प, पिंगल और नानारत्न ये नय निधियों प्रत्येक एक सौ आठ ( एक सौ आठ ) होती हैं ||७४७॥
उदु-जोग्न-दा-भायन-धन्माउ-तर-वाच- हम्माणि । कार्यदर्शनाभर - eingereifen
[ गाथा : ७४७-७५१
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आयुष, वादित्र, वस्त्र, प्रासाद, आभरण एवं सम्पूर्ण रत्न देती हैं ।। ७४८ ॥
उक्त कालादिक निखियाँ ऋतुके योग्य क्रमाः द्रव्य ( मासादिक ), भाजन, धान्य,
भाउमाए ।
गोसोस- मलय-बंदर- कालागढ पहुवि-भूद-गंधा । एक्क्के भूवलये, एक्सेक्को होदि भूम-वडो ||७४६ ॥
अर्थ :- एक-एक भूवलयके ऊपर गोलीर्ष, मत्रय-चन्दन मोर कालागर नादिक धूपोंकी गन्धसे व्याप्त एक-एक घूप घट होता है ।।७४९ ।
धूलीसाला - गोउर-बाहिरए नयर तोरण -सयानि । अभंतरमि भागे, पत्तेयं रयन -सोरण -सयानि ।।७५०।।
:- पूलिसान सम्बन्धी गोपुरोंके प्रत्येक बाह्य भागमें सैकड़ों मकर-तोरण मौर श्रभ्यन्तर मागमें सेकड़ों रत्नमय तोरण होते हैं ।।७५० ।।
गोउर-वार-मज्झे, दोसु वि पालेतु रयन - णिम्मदिया । एक्क्क-भट्ट-साला, सुरंगचा विवहा ।।७५१॥
म :- गोपुर-द्वारोंके बीच दोनों पापभागोंमें रत्नोंसे निर्मित और नृत्य करती हुई देवाङ्गनाओंके समूहसे युक्त एक-एक नाटकाला होती है ।। ७५१ ।।
१. रावी ती ज. रावी देसी . रात्री । २.क.उ.बसाए, द. प. प.