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गाथा : ७४३-७४६ ] पजत्थो महाडियारो
[ २१५ प्रम :-मनके बाहर पांच-बोसे स्फुरायमान, विशाल एवं समानगोल, मानुषोत्तर पर्वतके आकार ( सदृश ) धूलिसाल नामफ कोट होता है। जो मार्ग एवं अट्टालिकामोंसे रमणीय, पश्चल पताकाओं के समूहसे सुन्दर, तीनों लोकोंको विस्मित करने वाला और पार द्वारोंसे युक्त होता है ।।७४१-७४२।। विजयं ति 'ghort किन कार
! पश्चिम-उत्तर-वारा, जयंत-अपराधिया गामा ।।७४३॥
मपं:-इनमें पूर्व-द्वारका नाम विजय, दक्षिण द्वारका वैश्यन्त, पश्चिम द्वारका जयन्त और उत्तर-द्वारका नाम अपराजित होता है ।।७४३।।
एवे गोजर-दारा, तपगोषमया ति-भूमि भूसणया ।
सुर-पर-मिहुण-सरणाहा, सोरप-बसवंत-मणिमाला ॥uri
पर्व:-ये पारों गोपुर-द्वार सुवर्णसे निमित, तीन भूमियोंसे विभूषित, देव एवं मनुष्योंके मिथुनों ( जोड़ों) से संयुक्त तथा तोरणों पर नाचती ( लटकती ) हुई मरि-मालाओंसे शोभायमाम होते हैं |
एक्केबकनगोउराणं, बहिर-मम्मि दारयो पाते। बाउलया बिस्थिन्ना, मंगल-णिहि-व-घउ-भरिका ।।७४५॥
मर्थ:--प्रत्येक गोपुरके बाहर मौर मध्यभागमें छारके पावभागोंमें माल-द्रव्य, निधि एवं धूप-घटसे युक्त विस्तीर्ण पुतलियाँ होती हैं ॥७४५||
भिगार-कलस-चप्पा-चामर-भय-वियर-छातमुपाला। एप अट मंगलाई, अत्तर सय-जुदाणि एकमेक्कं ।।७४६॥
वर्ष :-झारी, फलफ, दर्पण, चामर, ध्वजा, व्यजन, छत्र एवं सुप्रतिष्ठ, ये आठ मङ्गलद्रष्य है। इनमें से प्रत्येक एक सौ पाठ होते हैं ॥७४६।।
---..-.-.-. .- .--.. - - १. ८..क.प.म. ३. पुस्मगारा।
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