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तिलोसपणसो
[गाथा : ७७५-७७८ तानम्भंतरभामे, सालाओ पर विशाल-भाराम । सम्माझे पोवापि, एकेको' समवसरमम्मि ७५॥
मपं:-उनके अभ्यन्सर भागमें उत्तम विशाल द्वारोंसे युक्त कोट होते हैं और फिर इनके दोचमें पीठ होते हैं। ऐसी संरचना प्रत्येक समवसरगामें होती है ।।७५५॥
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समभव
संसॉरिन कणयमयं । बुइयं तस्स व उरि, तबियं बह-वष्ण-रपगमयं ॥७७६।।
मपं:-इनमेंसे पहला पीठ वैडूर्यमणिमय, उसके कपर दूसरा पीठ सुवर्णमय भार उसके भी ऊपर सोसरा पीठ बहुत वर्णके रत्नोंसे निर्मित होता है ॥७७६||
मादिम-पीदुम्यहो, वंम परनीत कम-तिय-हरिया।
उसह-निणिरे कमसो, मना कि पतं ॥७७७॥ १४।१३।२२/२१/ २२ | १६ | १८1१५/१६ | ५|||३२|१२|१||
प्रम :-भगवान ऋषभदेवके समवसरणमे प्रथम पीठको कंचाई तीनसे भाजित चौबीस धनुष प्रमाण पी। इसके आगे नेमिनाथ पर्यन्त क्रमश: उत्तरोत्तर भाज्य-राश्चिमेंसे एक-एक अंक कम होता गया है ।।७७७||
पासे पंच च्छहिवा, तिवय-हिया पोन्नि पहमान-विणे । सेप्ताण अबमाणा, प्रारिम-पोस्स उदयाओ ॥७७८॥
१.प.क. ज. स. स. एसेवक ।