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गावा १०६३ १०६७ ]
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महाहियारो
नवी दि
पाकी
श्री ली मुखि- करमिलितानि रक्ताहारावियाणि होति ह । जीए महर रसाई, सचिव महयासवो रिद्धी ११०६३।। अर्थ:-जिसद्धि मुनिके हाथमें रखे गये रूखे आहारादिक क्षणभर में मधुर रससे युक्त हो जाते हैं. वह मधुसको ऋद्धि है ।। १०६३ ।।
पट्टी, जोए मुनि-बयन-सवण-मेत्तेणं ।
अहवा युक्त्व नासदि पर तिरियागं स स्विय 'महयासवी रिद्धी ।। १०६४।।
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:- ग्रथवा जिस द्धिसे मुनिके वचनोंके श्रवणमात्रसे मनुष्य-नियंत्रोंके दुःखादिक नष्ट हो जाते हैं, वह मधुस्रवी ऋद्धि है ।। १०६४।।
अमृत-ऋद्धि
मुनि-पाणि-संठियाण, साहारावियाणि जोल।
पार्वति प्रमिय भावं, एसा अमियासवी रिद्धी ।। १०६५ ॥
[ ३२३
:-जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनियोंके हाथ में स्थित रूले आहार आदिक क्षमात्रमें तपनेको प्राप्त होते हैं, वह अमृतसदी है । १०६५ ।।
अषा सुक्खावणि, महेसि वयमस्स समण-कालस्मि ।
णासंति जोए सिग्धं सा रिद्धी अमिय आसदी नामा ||१०६६।।
रिति - पाणितल - णितं पावेदि सप्पिनं
:- अपना जिस ऋषिके वचन सुननेमासे ( श्रवणकालमें ) शीघ्र ही दुःखादिक नष्ट हो जाते हैं, यह श्रमृतवी नामक ऋद्धि है ।। १०९६ ॥
सपिश्रवा ऋद्धि
तखाहारादियं पि न मेरो ।
जीए सा सप्पियासी रिद्धी ।। १०६७ ।।
अर्थ:- जिस ऋद्धिसे ऋषि के हस्ततल में निक्षिप्तखा श्राहारादिक भी क्षणमात्रमें भृतरूपताको प्राप्त करता है, वह सपत्रवीऋद्धि है ।। १०६७।।
१. ब. क. उ. रोभो । २. द. जीव ३. व. ब. क. ज. य. व. कायम ४. उ. पातिवा