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__तिलोयपगतो [ माषा : २२०४-२२१३ पर्ष :-तोरण-वेदियोंसे युक्त, पादपीठों सहित, उत्तम-रत्न-सचित पासामोसे संयुक्त मकृत्रिम आधारवाले वे सब शाल्मली वृक्ष विशेष सुशोभित हैं ॥२२०८।।
वम्जिव - बोल - मरगय - रविकंत-मयंककत्त-पहपीहि ।
गिण्णासि.अधयार, सुप्पह- रुपक्षास्त भााद बल ॥२२०६।।
प्रचं:--सुप्रभवृक्षका स्पल रन, इन्द्रनील, मरकत, सूर्यकान्त और चन्द्रकान्त प्रादिक मणिविशेषोंसे अन्धकारको नष्ट करता हुमा मुशोभित होता है ।।२२०६॥
सुबह-थलस्स विउसा, समतदो तिष्णि होति मन-संगा।
रिबिह-फल-कुसूम-पल्लव-सोहिल्ल-विचित्त-तह - चला ॥२२१०।।
म :--सुप्रभवृक्षके स्थलके चारों मोर विविध प्रकारके फल, फूल और पत्तोंसे सुशोभित नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त विस्तृत तीन वन खण्ड हैं ॥२२१०।।
प्रासाद, पुष्करिणी एवं कुटोंका वर्णनतेसु पढमम्मि पणे, चत्तारो घउ - विलास पासादा । बउ-हिन-ति-कोस-उवा, कोसायामा सयज्ञ-वित्यारा ॥२२१॥
प्रम:-उनमें से प्रथम वनके भीतर चारों दिशार्योमें पौन ( कोस ऊबे, एक कोस लम्बे और प्राधा { 3 ) कोस विस्तारवाले चार प्रासाद है ।।२२११।।
भषणाणं विविसास, पतपक होति विम्ब - स्वागं ।
पर चळ पोखरणोमो, बस • जोयण-मेस-पाढामो ॥२२१२॥
म :-दिव्यरूप वाले इन भवनों से प्रत्येककी विदिशामोंमें इस योजन प्रमाण गहरी । चार-चार पुष्करिरिगया है ।।२२१२।।
पणवीस . जोयणाई, ई पल्मास ताप रोहत । बिबिह-अल-णिवा' मंजिय-कमलप्पल - कुभुव - संछन् ।।२२१३॥
२५ । ५० । १. द. ३, क. स. प. उ. त। २. ५. सुम्पइमारत, ब. क. स. मुम्पबमम्स । ३. 1. क..२.
उ, विविह।