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तिलोयपण्णसी
[ गाथा : ७०२-७०६ अर्थ:-शान्ति जिनेशको पौष शुक्ला एकाददीके दिन दिवसके पश्चिम भागमें भरो नक्षत्रके रहते वानवनमें केवलज्ञान उत्पन्न हुमा ७०१॥
चेतस्स सुखक-तरिए, किसिय रिमले सहेलुगम्मि बने ।
अवर हे उप्पण, कुंघु-विणेसस्स केवलं गाणं ॥७०२॥
प्र:-कुन्थु मिनेन्द्रको नंत्र-शुक्ला तृतीयाके दिन अपराहृमें कृत्तिका नक्षत्रके उदय रहते सहेतुत्रः वनमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।।७०२।।
कत्तिय सुरके बारसि-रेवति-रिकले सहेदुगम्मि बसे । अबरहे उप्पण, केवलगाणं सर-जिमस्स ॥७०३॥
पर्य :-प्ररनाथ जिनेन्द्रको कातिफ-शुक्ला द्वादशोके अपराह्नमें रेवती नक्षत्रके रहते सहेतुक वनमें केवलमान उत्पन्न हुा ।।७०३।।
फागुण-किण्हे बारसि, प्रस्सिणि-रिकले मणोहहकनाने।
प्रवरहे मल्सि-जिने, केदलणार्ग समुप्पग ॥७०४॥
प्र :-मस्सिनाथ जिनेन्द्रको फाल्गुन कृष्णा द्वादशीके अपराहमें अश्विनी नक्षत्रके रहते मनोहर उद्यान में केवलज्ञान उत्पन्न हया ।।७०४॥
फागुण-किल्हे छट्टी-युवल्हे सवण-मेय गोल-बगे ।
मुगिसुव्वयस्स आवं, असहाय-परकम गाणं ॥७.५॥
प्रबं:-मुनिमुवत जिनेपाको फाल्गुन कृष्णा बोके पूर्वाह्नमें श्रवण नक्षत्रके रहते नील वनमें असहाप-पराक्रमरूप केवलज्ञान उत्पन्न हुमा ॥७०५॥
वेत्तस सुरक-तदिए, अस्सिणि-रिपसे विणस पच्छिमए । चित्त-बणे संजा, अर्गत-गाण गमि-शिणस्स ॥७०६।।
म :- नमिनाथ जिनेन्द्रको चैत्र शुक्ला तृतीयाको दिनके पश्चिम भागमें अश्विनी नक्षत्रके रहते चित्र वनमें अनन्तज्ञान उत्पत्र हुा ।।७०६।।