SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा : ८२-६६ कु-सं-वचला, बर- पउमराम- सरिसा, 'ओसग्य मंत्र मूसण अभिसे उप्पत्ति- मेहुणावीनं । सालाओ विसालाओ, रयण-मईओ विराजति ॥ ८३॥ त्यो महाहियारो मरगय-या सुवण-संकासा | विवित्सदन्तरा पढरा ||२|| L प्रयं :- वे प्रासाद कुन्दपुष्प, चन्द्रमा एवं शंख सहय धवल, मरकतमरिण जैसे (हरित ) वर्णवाले, स्वर्णके सह ( पीले है, उत्तम उपचार मणियोंके सदृश (लाल ) एवं बहुतसे अन्य विचित्र चरणों वाल हैं। उनमें अलगशाला, मन्त्रशाला, आभूषणशाला, अभिषेकशाला, उत्पत्तिशाला एवं मैथुनशाला कादिक रत्नमयी विद्याल मालाएं शोभायमान हैं ।। ८२-८३ ।। से पासावा सब्बे, विचित- यणसंड-मंडा रम्मा । विप्यंतरयण-दीवा, वर-द-घडेहि संजुत्ता ॥८४॥ सत्तट्ट - णव-वसाविव विधित मीहि नसिया विला । "वंत-पय-वडावा, प्रकट्टिमा सुठु सोहति ॥ ८५ ॥ उज्जल म :- वे सब अकृत्रिम भवन विचित्र वनखण्डोंसे सुशोभित, रमणीय प्रदीप्त रत्नदीपोंसे युक्त, श्रेष्ठ रपटोंसे संयुक्त; सात, भाऊ, नो और इस इत्यादि विचित्र भूमियोंसे विभूषित विचाल फहराती हुई ध्वजापताकाओं सहित विशिष्टतासे शोभायमान है ।।८४-८५॥ i पास-रस-वण-वर झणि गंधेहि "बहुविहेहि कर-सरिता । ल-विचित्त-बहुविह- सयभासण जिवह संपुष्णा ||२६|| [ २७ - - अर्थ :- अनेक प्रकार के स्पर्श, रस, वर्ण, उत्तमध्वनि एवं गन्धने जिनको समान कर दिया है। अर्थात् उनकी भपेक्षा जो समान हैं ऐसे वे भवन नाना प्रकारकी उज्ज्वल एवं श्रद्भुत शय्याओं एवं आसनोंके समूहसे परिपूर्ण हैं ।। ६६ ॥ ९.व. पो. ज. प. उ. पोलंग, ब. पुन्नेव । २. उप . जुतंतर परवाया 1 .. तर परकाया, क. अ. दिसं तरमरवाया. म. दिवसरपरदोषा । ४. क. विजेहि बिहेषि प. विहि च. विवेहि । ५. क. वि. म. प. उ.विष ।
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy