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तिलोयपणती
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हावा परिवार परिगोगिन् । 'एवस्ति गमरवरे, बहुविहदेवी जुत्तो भुजबि, उपभोग-सुहाइ विजय ॥६७॥
:- इस श्रेष्ठ नगर में अपने अनेक प्रकारके परिवारसे घिरा हुया विजयदेव अपनी देवियों सहित सदा उपभोग सुखोंको भोगता है ॥८७॥
विशेवार्थ :- भोग और उपभोगके भेदसे भोग दो प्रकारके होते हैं। जो पदार्थ एक बार भोगने में आते हैं उन्हें भोग कहते हैं, जैसे भोज्य पदार्थ और जो बार-बार भोगने में आते हैं उन्हें उपभोग कहते हैं, जैसे शय्या भादि । देव पर्याय में उपभोग ही होते हैं क्योंकि उनके फवनाहार नादि नहीं होता ।
एवं अबसेसाणं, दारोबरिम-पते,
[ गाथा: ८७-१०
अन्य देवोंके नगर
रम्मानि ।
जेवरणं पुरखराणि नहम्मि जिणभषण-मुतानि ||६८ ||
: इसीप्रकार अन्य द्वारोंके ऊपरके प्रदेशमें अर्थात् ऊपर आकाशमें जिनभवनसि
युक्त श्रवशि देवोंके रमणीय उत्तम नगर है ॥८८॥
जगतीके अभ्यन्तर भाग में स्थित वनखण्डों का वर्णन - जगवीए अवसर भागे बे-कोस- वास- संजुता । भूमितले वनसंडा' वर - "तर- गियरा विराजति ॥ ६९ ॥
अर्थ :- जगतीके मभ्यन्तरभाग में पृथिवीतसपर दो कोस विस्तारसे युक्त और उत्तम वृक्षोंके समूहों से परिपूर्ण वनसमूह शोभायमान हूँ ।। ८२||
सं उज्जाणं सोपल छायं वर सुरहि-कुसुम-परिपुज्नं । दिव्यामोद-सुगंधं, सुर-सेयर-मिट्टण-मण-हरणं ॥०॥
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पर्थ :- मीतल छायासे युक्त, उत्तम सुगन्धित पुष्पोंसे परिपूर्ण और दिव्य सुगन्धसे सुगन्धित वह उद्यान देषों और विद्याधर-युगलों के मनोंको हरण करने वाला है ॥६०॥
१.ब. क.अ. य. रा. एसि । २. ब. परिभदा । ३. ब. क.व.व.उ.विजयपुरी ४. ८. ब. क.अ. उ. येथे म. पवेसो । 1. . . . . 4. T. KI 1. T. T, K, T. 7. *.प., . उगु । ८. प. उ. परिपुग्दा परिपुष्