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तिलोयर माती [ गावः : १०२५-१०२८ करि-केसरि पहबोली, 'सग - मेजारि विमरण त पुम्बाबर - संबंष, सवर्ण से माल : सरमो ति १.२५॥
। सउण-निमिरा गई।
॥ एवं निमित्त-रिकी समचा ॥ भ:-वाठ-पित्तादि दोषोंसे रहित सोया हुआ व्यक्ति पिछली रात्रिम यदि अपने मुखकमलमें प्रविष्ट होते हुए सूर्य-चन्द्र प्रापि शुभ स्वप्नोंको देने तपा घृत एवं तेल आदि की मालिश, गर्दन एवं ऊँट मादि पर सवारी और परदेश-गमनादिरूप मशुभ स्वप्न देखे तो उसके फलस्वरूप सीन कासमें होनेवाले सुख-दुःखादिकको बतलाना स्वप्न-निमित है । इसके गिल और माला पसे दो भेद है। इनमें से स्वप्नमें हाथी एवं सिंहादिकके दर्शन मात्र आदिकको पिल-स्वन्न पोर पूर्वापर सम्बन्ध रखने याले स्वप्नको माला स्वप्न कहते हैं ॥१०२२-१०२५॥
। स्वप्न-निमित्तका कथन समाप्त हुआ। ! इसप्रकार निमित्त-ऋद्धिका कथन समाप्त हुना।
प्रमा-थमण-ऋद्धिपम्वोए सुवासापरणाए बोरिवंतरायाए । उस्कस्स - सदोषसमे, उप्पम्बाइ पण - सममडी ॥१०२६॥ पखा-सपवि-धुवो, शोहस-पुम्बीसु विसय-सहमत। सव्वं हि सर्व जामवि, अकाममणो वि रिणयमेल ।।१०२७॥ भासति तस्स बुद्धी, पन्ना - समनदि सा बड-भेदा ।
पडपत्तिय - परिणामिम-बहराइको-कम्मजाभिषाणेहि ॥१०५८।।
मन:-बुप्तज्ञानावरण और बीर्यान्सरायकमका उस समोपशम होने पर प्रज्ञा-श्रमणऋदि उत्पन्न होती है । प्रज्ञा-श्रमण-ऋद्धिसे युक्त महर्षि बिना अध्ययन किए ही चौदह-पूर्वो, विषयकी मूक्ष्मता पूर्वक सम्पूर्ण श्रुसको जानता है और उसका नियम-पूर्वक निरूपण करता है। उसकी
१. प.ब.क.अ. य. उ.दसणजेवादि।