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तिलोमपणती
पवराओ वाहिणी, रो-तड-सोहंत- रयण-सोवाना' । घमय-र-शोर पुन्ना, मणिमय सिकदादि सोहति ॥ ३३४ ॥
अर्थ – [ वहाँ ) उभय तटोंपर शोभायमान रत्नमय सीढ़ियोंसे संयुक्त और अमृत सहक्ष उत्तम क्षीर (जल) से परिपूर्ण श्रेष्ठ नदियाँ मणिमय बालुका से शोभायमान होती है ॥ ३.३४|| पार्थ:
संत-पिपोसिय-मक्कुण-गोमच्छो-वंस-मसय किमिन्पो ।
वियसिविया न होंति हु, नियमेणं पड़म-कार्ताम्म ॥ ३३५ ॥
:- प्रथम (सुषम सुबमा ) कालमें नियमसे शंख, चीटी, लटमल, गोमक्षिका, डाँस, मछर और कृमि मादिक विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते ।। ३३५ ।।
स्थि असन्णी जीवो, णत्थि तहा सामि-मिज भेदो य ।
कसह महाजुद्धाबी, ईसा रोगावि न
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[ गाया : ३३४-३३८
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अर्थ :- इस कालमें अशी जीव नहीं होते, स्वामी और नृत्यका भेद भी नहीं होता, कलह एवं भीषण युद्ध आदि तथा ईर्ष्या और रोग आदि भी नहीं होते हैं ।। ३३६ ॥
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राशि दिणाणं भेवो, तिमिराबव-सोद-वेदरा-गिया ।
परदार रवी परधन चोरी या गरिव नियमेन ॥ ३३७॥
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होंति ।। ३३६ ॥ ।
:- प्रथम कालमें नियमसे रात-दिनका भेद, श्रन्धकार, गमीं एवं शोटकी वेदना, निन्दा, परस्त्री रमण और परधन हरण नहीं होता ॥ ३३७ ॥
जमलाजमल-पसूदा, वर-बॅज क्वनेहि परिपुना ।
यवर पमानाहारं, अट्टम
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भरोस भुति ३३८ ।।
अर्थ :- इस कालमें युगल युगलरूपसे उत्पन्न हुए ( स्त्री-पुरुष ) उत्तम व्यञ्जनों (तिसम मादि) और चिह्नों (शंख-पत्र आदि ) से परिपूर्ण होते हुए अष्टम भक्तमें ( चौथे दिन बेरके बराबर आहार ग्रहण करते हैं ||३३८||
1. 4. 4. 5. 4. 4. 7, migra) 1 २. अ. न. ज. म. भेदोउ दाउ । 1.2.4.4. ज. प. उ. पाछे ।