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गाथा : १३४६-१३५० ] चउत्थो महाहियारो
[ ३६५ प :-छह महिनोंमें सर्व म्लेच्छ राजामोंको वनमें करके सेनापनि पूर्व-मार्ग द्वारा बंतावच-गुफाके वार-पर्यन्त्र जाता है ।।१३४५।।
कावूग वार-रावं, वेव - बसं मेछराय - परियरिओ। "पविसिय वषावाद, 'पमिय वरकोप पय - कमले ॥१३४६।।
प :-वहाँ पर देव-सेनाको द्वारका रक्षक ( नियुक्त ) कर म्लेच्छ-दाजाघोंसे परिचारित वह सेनापति अपने पड़ाबमें प्रविष्ट होकर चक्रवर्तीके चरा-कमलोंमें नमस्कार करता है ॥१३४६।।
तिमिसगुफाके लिए प्रस्थान, उसमें प्रवेश एवं उसके उत्तर-पारसे निष्काम
इय बक्सिम्मि भरहे, खर - दुभं साहिबूण सोलाए ।
पविसति । पकहरा, सिंधुणईए वणं विउल ॥१३४७।।
पर्ष:-इसप्रकार दक्षिणभरतमें दो खण्डोंको अनायास ही सिद्ध करके चक्रवती सिन्धुनपीके विशाल वनमें प्रवेश करते हैं ॥१३४७।।
गिरि-ता-वेदी-नारे, पविसिय गिरि-वार-रयण-सोवागे ।
पाहिजूरणं बच्चवि, सपल - बलं 'तणईअ दो - तोरे ।।१३४८।।
प्र:-पुन: गिरितट सम्बन्धी दीके द्वारमें प्रवेश करफ और गिरिद्वारको रत्नमय सीढ़ियों पर पड़कर सम्पूर्ण सेना उस नवीके दोनों किनारों परसे जाती है ।।१३४६।।
बो-तीर-पीड़ि- बोमोसोमण-पमाणमेक्केका ।
तेसु महजयारे, ए साकडे तं बलं गंसु॥१३४६॥
प:-दोनों तीरोंको बोथियों में से प्रत्येकका विस्तार दो-वो योजन-प्रमाण है। उनमें घोर अन्धकार होनेसे चक्रवर्तीकी वह सेमा आगे बढ़ने में समर्थ नहीं होती है ।।१३४६॥
उबरेसन सुराग, काकिषि - रमणेक दुरिरमालिहियं । सतहर' - रवि - विबारिण, सेल-गुहा-उभय-मित्तीतु ।।१३५०।।
....... . प्र. . पणम्मि । २. र, क . य. न. समकोय । ३ ..ब.क. भ. प. स. सम्गाई। ४. ... ... पमाणमयक। १.१.ब. सामं प्रनित्तीसु । १.१.म. क. ज. प. ममिकर